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मदर्स डे स्पेशल : बेटे की तेरहवीं – भाग 1

तपन आज दुकान पर ही जाना चाहता था. अब बच्चों के स्कूल खुल गए थे और उसे विश्वास था कि इस वक्त उन की दुकान में इतनी बिक्री होगी कि 2 महीने का बैंक लोन वह आसानी से चुकता कर सकेगा. बैंक वालों ने कई बार तकाजा तो किया ही था, साथ ही इस बार चेतावनी भी दी थी कि अगर किस्त समय पर नहीं भरी तो वे दुकान पर ताला लगा देंगे. कुमार की पत्नी विभा तो इस बात से डर गई थीं, क्योंकि यह दुकान ही उन के भरणपोषण का एकमात्र जरिया थी, इसलिए तो वे दुकान को तीसरा बेटा मानती थीं.

तपन ने वकीलों की तरह जिरह करना शुरू कर दिया था कि मां ने लोन की किस्त भरने के लिए बैंक जाने को क्यों कहा, ‘‘लेकिन मां, ये पैसे तो दुकान का सामान लाने के लिए रखे थे न, अगर सामान नहीं आया तो हम बेचेंगे क्या?’’ ‘‘बेटा, यदि दुकान ही नहीं रही तो हम सामान का क्या करेंगे. अभी जो सामान दुकान में है उस की बिक्री से घर का खर्च चल जाएगा और दुकान में सामान भी आ जाएगा,’’ तपन को किसी तरह समझाबुझा कर मां ने लोन की किस्त भरने उसे बैंक भेज दिया और खुद किचन में चली गई. किचन का काम जल्दीजल्दी निबटा कर उन्हें दुकान पर भी जाना था. इधर कुमार साहब की तबीयत भी ठीक नहीं है. कई दिन से खांसी हो रही है, नहीं तो दोचार घंटे वे भी दुकान पर बैठ जाते.

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तपन की वकालत की पढ़ाई के 6 महीने ही बाकी हैं. एक बार वह अच्छे नंबरों से पास हो गया और किसी कौरपोरेट औफिस में लग गया तो उन के सारे दुखदर्द हमेशा के लिए खत्म हो जाएंगे. बड़े बेटे से तो कोई आशा थी नहीं. विवाह के बाद से वह घर से अलग ही रहता था. सारी आशा उन की तपन पर ही टिकी थी. इसलिए उन्होंने सोच रखा था कि तपन जब अपने पांव पर खड़ा हो जाएगा, तभी वे उस की शादी करेंगी. कोई पूछता भी कि आप के कितने बेटे हैं तो विभा बडे़ अजीबोगरीब ढंग से कहतीं कि एक तो यह तपन है और दूसरी यह दुकान है जो हमें कमा कर खिला रही है. यदि कोई भूलेभटके बड़े बेटे के बारे में पूछता तो वे तीखी नजरों से सामने वाले को भेदती हुई कहतीं कि जले पर नमक छिड़कना तो कोई आप से सीखे. आप को सब मालूम ही है, फिर उस से ही जा कर क्यों नहीं पूछते?

कुमार की पत्नी विभा ने बड़े बेटे की तसवीर तक उठा कर अटैची में रख दी थी. उस से अब कोई नाता ही नहीं था. किचन से बाहर आ कर तौलिए से हाथ पोंछती हुई विभा सोच रही थीं कि यह दिमाग भी हर समय चलता ही रहता है. अगर इंसान भी बिना पैसे लगाए दिमाग की तरह घूमघाम आता तो कितना अच्छा होता. रातदिन की झिकझिक से छुटकारा मिल जाता. फिर वे खुद पर हंसीं. कलाई घड़ी में देखा तो 10 बजने को थे. उन्हें देर हो रही थी. तपन भी बैंक से सीधे दुकान पर ही पहुंचेगा. उन्हें निकलना चाहिए. वे चप्पल पहन कर दुकान पर जाने के लिए निकल ही रही थीं कि अचानक मोबाइल की घंटी बज उठी. किस का फोन हो सकता है, इस समय. क्या तपन ने बैंक में किसी से कोई मारपीट तो नहीं कर ली. यह लड़का भी न अजीब है, सोचता कुछ है और करता कुछ है. आज भी तपन के घर से निकलने से पहले उन्होंने कहा था, ‘‘तपन, खाली पेट घर से नहीं जाते, कुछ खा कर जाओ,’’ वह कितने दिन से कह रहा था, ‘मां, मछली बनाओ,’ लेकिन  पैसे की कमी से वे बना नहीं पा रही थीं. आज किसी तरह महीने के खर्चे में से पैसे बचा कर मछली बनाई थी तो बिना खाए ही चला गया.

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खाली पेट दिमाग भी गरम होता है. तपन ने मां से कहा था, ‘‘मैं आप को बैंक की रसीद दे कर घर वापस आऊंगा तो फिर खा लूंगा.’’ तपन ने कुछ खायापीया नहीं है, बैंक वाले से तूतूमैंमैं हो गई होगी. यह लड़का भी न. अभी वे घर से निकलना ही चाहती थीं कि फिर से मोबाइल की घंटी बज उठी.

बिना कुछ पूछे उन्होंने झुंझला कर फोन पर कहा, ‘‘अब क्या हुआ तपन?’’

दूसरी तरफ से मर्दानी आवाज थी, ‘‘विभा… विभा…’’

‘‘हां, मैं विभा ही बोल रही हूं, क्या बात है?’’

उस की बात सुने ही उन्होंने पूछ लिया, ‘‘विभाजी, आप का बेटा…’’

‘‘क्या हुआ, तपन ने पैसे तो जमा कर दिए न, अगले महीने हम अगली किस्त दे देंगे.’’

सामने से फिर आवाज आई, ‘‘मैडम, मैं इंस्पैक्टर रवि बोल रहा हूं.’’

‘इंस्पैक्टर रवि,’ वे खुद से बुदबुदाईं. तपन तो मारधाड़ करने वाला लड़का नहीं है, फिर यह इंस्पैक्टर क्यों?

‘‘मैडम, आप सुन रही हैं न, आप फौरन यहां हाईवे पर आ जाइए. आप के बेटे तपन का ऐक्सिडैंट हो गया है.’’

‘‘क्या,’’ उन्हें जैसे करंट सा लगा. यह कैसे हो सकता है. जिस सिरे को पकड़ कर वह इतना बड़ा तानाबाना बुन रही हैं, वह अचानक उन के हाथ से छूट कैसे सकता है?

वे घबराहट में बोलीं, ‘‘ऐसा कैसे हो सकता है? आप को जरूर कोई गलतफहमी हुई है. मेरा बेटा तो बैंक गया है.’’

‘‘मैडम, आप को जो भी सवाल पूछना है, वह यहां आ कर पूछिए, हमें और भी फौर्मेलिटीज पूरी करनी हैं,’’ कह कर इंस्पैक्टर ने फोन रख दिया.

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उन्होंने 2-3 बार फिर फोन ट्राई किया, लेकिन कोई जवाब न मिलने से तपन के बाबा को ले कर वे किसी तरह दुर्घटनास्थल पर पहुंचीं. वहां 2-3 पुलिस वाले और कुछ लोग मौजूद थे. खून के कुछ धब्बे सड़क पर सूख गए थे. पुलिस के पास जा कर उन्होंने पूछताछ की तो पुलिस वालों ने बैंक की रसीद, कुछ कागजात, उस का आईडी कार्ड निकाल कर उन्हें देते हुए बताया कि तपन को सरकारी अस्पताल में भरती कराया गया है.

 

Dance Deewane 3 के सेट पर सरोज खान को यादकर इमोशनल हुईं माधुरी दीक्षित

डांसिग रियलिटी शो डांस दीवाने 3 के अगले एपिसोड़ में दिखाया जाएगा कि माधुरी दीक्षित दिवंगत कोरियोग्राफर  सरोज खान को याद करके इमोशनल हो जाएंगी.  इस बात का सबूत डांस दीवाने 3 का प्रोमो है. जिसमें दिखाया गया है .

बता दें कि माधुरी दीक्षित और सरोज खान एक-दूसरे से बहुत ज्यादा क्लोज थें, लेकिन इस शो में माधुरी दीक्षित बताएंगी कि कैसे जब वह डांस के स्टेप को अच्छे से नहीं कर पाती थी तो सरोज खान नाराज होकर उन्हें जोर से डांट लगाती थीं. ऐसे में कई बार ऐसा भी होता था कि सरोज खान कि डांट खाकर माधुरी दीक्षित उसी समय रोने लगती थीं.

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लेकिन बाद में सरोज खान उन्हें समझाने भी आती थी कि मजबूत बनो परिस्थिति का सामना करना सिखो, उन्होंने ही माधुरी दीक्षित को डांस में आगे बढ़ाया था. माधुरी दीक्षित आज भी उन्हें इतना ही इज्जत देती  हैं जितना पहले देती थीं.

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बता दें कि सरोज खान कई सारे फिल्मों को कोरियोग्राफ किया था, इनकी काम की जिंदगी जितनी दिलचस्प थी उससे कहीं ज्यादा उनके पर्सनल लाइफ को लेकर चर्चा में वह रहती थीं, बता दें कि सरोज खान की एक बेटी हैं. पति से बहुत पहले वह अलग हो गई थी.

आज सरोज खान हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके काम काम को लेकर हमेशा उन्हें याद किया जाएगा . सरोजा खान ने कई सारे स्टार्स को डांस करना सिखाया है. जिससे वह हमेशा सरोजा खान के संपर्क में बने रहते थें और उनकी बहुत ज्यादा रिस्पेक्ट भी करते थें.

सोशल मीडिया पर उड़ी परेश रावल की मौत की अफवाह तो दिया ये Majedaar जवाब

कोरोना वायरस के दूसरी लहर के  बीच लगातार बुरी खबरें आ रही हैं, ऐसे में हमने कई फिल्म जगत के सितारों को भी खो दिया. लेकिन इसी बीच कुछ लोग सोशल मीडिया पर अफवाह उड़ाने में पीछे नहीं रह रहे हैं.

कुछ वक्त पहले अनुपम खेर कि पत्नी और एक्ट्रेस किरण खेर की मौत का अफवाह उड़ाया गया था, इसके बाद से अब परेश रावल की मौत की झूठी खबर को सोशल मीडिया पर खूब वायरल किया जा रहा था. जिसमें लिखा गया था कि आज सुबह 7 बजे उनकी मौत हुई है.

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इसी बीच इस बात की जानकारी जब परेश रावल को मिली तो उन्होंने रीट्वीट करते हुए लिखा कि मैं अभी जिंदा हूं और सुबह 7 बजे सोने आया हूं कृप्या इस अफवाह पर ध्यान न दें, इस मजेदार रीट्वीट को लोग खूब पसंद भी कर रहे हैं तो वहीं कुछ उनके फैंस इस खबर पर नाराजगी भी जता रहे हैं कि ये क्या हो गया.

एक यूजर ने अपना गुस्सा दिखाते हुए लिखा कि इसपर तुरंत एक्शन लिया जाएगा. बता दें कि मार्च के महीने में परेश रावल ने कोरोना कि वैक्सीन ली थी, उसके बाद भी वह दो हफ्ते पहले कोरोना के शिकार हो गए थें.  उनहोंने इस बारे में ट्विट कर खुद ही जानकारी दी थी कि उन्हें कोरोना वायरस हो गया है.

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बता दें कि फिल्म अभिनेता परेश रावल अपनी फिल्में हेरा फेरी, हंगामा को लेकर आएं दिन चर्चा में बने रहते हैं. इन दिनों भी वह हंगामा 2 की शूटिंग में व्यस्त हैं जिसमें उनके साथ शिल्पा शेट्टी और मिजान जाफरी के साथ नजर आने वाले हैं.

कोरोना के साथ ब्लैक फंगस का कहर 

कोरोना से जूझ रही देश की जनता अब नई बीमारी म्यूकर माइकोसिस यानी ब्लैक फंगस की चपेट में है. यह दुर्लभ किस्म की बीमारी कोरोना से उबरे उन मरीजों में तेजी से पनप रही है, जिनके इलाज में स्टेरॉइड्स का इस्तेमाल हुआ है. कोरोना से रिकवर हो चुके कई लोगों के लिए यह दुर्लभ संक्रमण जानलेवा साबित हो रहा है. ओडिशा में इसका पहला केस मिला था. इसके बाद गुजरात और राजस्थान में सामने आने के बाद पूरे देश से ब्लैक फंगल इन्फेक्शन के केस सुनायी देने लगे हैं. मध्य प्रदेश के जबलपुर से महाराष्ट्र के ठाणे तक में इस वजह से लोगों की जानें जा रही हैं. सबसे ज़्यादा उत्तर भारत में इसका प्रकोप है. उत्तर प्रदेश में तो ब्लैक फंगस कहर बनने की राह पर है. यहाँ इस बीमारी के 73 मरीज मिले हैं. कानपुर में ब्लैक फंगल इन्फेक्शन से पीड़ित दो मरीजों की मौत हो चुकी है. मथुरा में दो और लखनऊ में एक मरीज की आंखों की रोशनी पूरी तरह जा चुकी है. लखनऊ केजीएमयू नेत्र रोग विभाग के डॉ. संजीव कुमार गुप्ता के मुताबिक ब्लैक फंगस की चपेट में आए आठ मरीज केजीएमयू में भर्ती हैं. इनकी आंखों की रोशनी पर असर आ चुका है. जरूरी दवाएं दी जा रही हैं. इनमें तीन मरीजों की रोशनी काफी हद तक प्रभावित है. सर्वाधिक 20 मरीज वाराणसी में सामने आए हैं. हैवी स्टेरॉयड लेने वाले कोरोना मरीज इस वक़्त हाई रिस्क पर हैं.

ब्लैक फंगल इनफेक्शन या विज्ञान की भाषा में म्यूकर माइकोसिस कोई रहस्यमय बीमारी नहीं है, लेकिन ये अभी तक दुर्लभ बीमारियों की श्रेणी में गिनी जाती थी. भारतीय चिकित्सा विज्ञान परिषद के मुताबिक म्यूकर माइकोसिस ऐसा दुर्लभ फंगल इंफेक्शन है जो शरीर में बहुत तेजी से फैलता है. इस बीमारी से साइनस, दिमाग, आंख और फेफड़ों पर बुरा असर पड़ता है. यह संक्रमण मस्तिष्क और त्वचा पर काफी बुरा असर डालते हैं. इसमें त्वचा काली पड़ जाती है, वहीँ कई मरीजों की आंखों की रौशनी चली जाती है. संक्रमण की रोकथाम समय पर ना हो पाए तो मरीजों के जबड़े और नाक की हड्डी गल जाती है. समय रहते इलाज न मिले तो मरीज की मौत भी हो सकती है.

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यूएस सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रीवेंशन की मानें तो यह फंगस हमारे चारों ओर मुक्त रूप में मौजूद होता है लेकिन किसी के शरीर के अंदर इन्फेक्शन को संभव बनाने के लिए इसे एक विशेष इन्वायरमेंट की जरूरत होती है. यह उन लोगों पर हमला करता है जिनकी रोगप्रतिरोधक क्षमता बहुत कमजोर हो चुकी है. दूसरे इसको पनपने के लिए नमी चाहिए, लिहाज़ा यह समान्यतः नाक ,साइनस ,आंखों में या दिमाग में पाया जाता है और अनुकूल परिस्थितियां मिलने पर तेज़ी से फैलता है. अगर एक बार यह फंगस दिमाग में फैल गया तो इसका इलाज बहुत कठिन है. यह जानलेवा इंफेक्शन है, इसके फैलने की गति काफी तीव्र होती है और इसमें मृत्यु दर काफी ऊंची है. म्यूकर से संक्रमित लोगों में मृत्यु दर लगभग 50 से 70% तक होती है. यह कैंसर की तरह व्यवहार करता है, लेकिन कैंसर को जानलेवा प्रभाव पैदा करने में कम से कम कुछ महीने तो लगते हैं जबकि इससे कुछ दिनों या कुछ घंटों में ही मरीज की जान जा सकती है.

इतना खतरनाक होने के बावजूद अभी हाल तक म्यूकर माइकोसिस यानी ब्लैक फंगस को इतना भयानक नहीं माना जाता था. यह एक दुर्लभ रोग था. किसी व्यस्त सेंटर पर भी तीन-चार साल में कभी एकाध मामले ही आते थे. अत्यधिक कम इम्यून वाले मरीजों, जैसे कैंसर पीड़ित, जिनको अनियंत्रित डायबिटीज है या जिनको सर्जरी करके नया अंग लगाया गया हो और वह इम्यूनो सप्रेसेंट यानी प्रतिरक्षादमनकारी थेरेपी पर हो, ऐसे मरीज़ों में इस फंगस के फैलने का डर अधिक होता था. लेकिन अब कोविड के कारण इसके मामले बहुत बढ़ रहे हैं. इसकी मुख्य वजह है हमारे इम्यून सिस्टम का बहुत कमजोर हो जाना.

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शुरुआत में यह फंगल इन्फेक्शन उन कोविड मरीजों तक सीमित था जो गंभीर डायबिटीज या कैंसर के मरीज थे अथवा जो किसी दूसरी बीमारी के लिए इम्यूनो सप्रेसेंट थेरेपी पर थे. लेकिन हाल में सामान्य मरीजों में इसके तीव्र प्रसार का कारण है कोरोना के इलाज के दौरान स्टेरॉयड का विवेकहीन प्रयोग. लम्बे समय तक स्टेरॉयड का हाई डोज ब्लैक फंगस को पनपने का मुख्य कारण है. ऐसा इसलिए है, क्योंकि स्टेरॉयड हमारी इम्यूनिटी को कम करता है और इसमें ब्लड शुगर लेवल बढ़ाने की प्रवृत्ति होती है. लिहाजा जिनको डायबिटीज नहीं है उनमें भी स्टेरॉयड ब्लैक फंगल इंफेक्शन को फैलने के लिए अनुकूल इन्वायरमेंट बना देता है.

एम्स के डायरेक्टर डॉ. रणदीप गुलेरिया ने कोविड के शुरुआती चरणों में ही स्टेरॉयड लेने से संबंधित नुकसान के बारे में आगाह किया था. मगर उनकी बातों को गंभीरता से नहीं लिया गया. आज ज़्यादातर अस्पतालों में कोरोना मरीजों का इलाज स्टेरॉयड के द्वारा ही हो रहा है. यहाँ तक कि घर में आइसोलेट कोरोना के कम लक्षणों वाले मरीजों को भी स्टेरॉइड्स दिये जा रहे हैं. इसने ब्लैक फंगल इन्फेक्शन को बढ़ने के खतरे को कई गुना बढ़ा दिया है.

अभी डेक्सामेथासोन और मिथाइलप्रेड्नीसोलोन नामक सिस्टमिक स्टेरॉयड का कोविड उपचार में प्रयोग हो रहा है, ये ड्रग्स मॉडरेट कोविड के उपचार के लिए जारी सरकारी गाइडलाइन का हिस्सा हैं और ऑक्सीजन के अलावा कोविड का प्रभावी उपचार माने जाते हैं. रिकवरी ट्रायल में कोविड के कारण हॉस्पिटलाइज्ड मरीजों में तथा रेस्पिरेट्री फैल्योर के कारण जिनको बाहरी ऑक्सीजन या मेकेनिकल वेंटिलेटर की जरूरत है, उनमें इन्हें बहुत प्रभावी पाया गया है. अभी तक कोविड का कोई भी इलाज नहीं है और ऐसा कोई ड्रग भी नहीं है जो कोविड वायरस को मार सके. इस बीच कई स्टेरॉयड ‘सेवियर ड्रग’ के रूप में सामने आए हैं जिनमें गंभीर मामलों में बीमारी को नियंत्रित करने की क्षमता है और इसका बड़े स्तर पर प्रयोग भी हो रहा है. लेकिन अगर इनका गलत प्रयोग हुआ तो यह म्यूकर माइकोसिस का कारण बन सकते हैं. विशेषज्ञों ने बार-बार यह सलाह दी है कि स्टेरॉयड का प्रयोग केवल मॉडरेट मामलों में किया जाए. रिकवरी ट्रायल के नतीजों से भी पता चलता है कि डेक्सामेथासोन का उन हॉस्पिटलाइज्ड मरीजों में प्रयोग, जो बाहर से ऑक्सीजन नहीं ले रहे थे, से उनके मृत्यु दर में वृद्धि हुई है.

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दिल्ली बहल क्लिनिक की डॉ. नीना बहल कहती हैं – स्टेरॉयड केवल डॉक्टर की देखरेख में लेना चाहिए. कोई भी मरीज अपनी मर्जी से स्टेरॉयड ना ले. स्टेरॉयड ऐसी दवाई नहीं है जो बिना डॉक्टर के सलाह के ली जाए. स्टेरॉयड की टाइमिंग और ड्यूरेशन बहुत महत्वपूर्ण है, विशेषकर कोविड के मामलों में. शुरुआती 5-7 दिनों में स्टेरॉयड नहीं लेना चाहिए. उसके बाद भी मरीज की हालत देखकर स्टेरॉयड देने का फैसला डॉक्टर को लेना चाहिए. उपचार में स्टेरॉयड का इस्तेमाल बहुत सोच समझ कर किया जाना चाहिए क्योंकि इससे शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता घटती है. जो फंगस को फैलने का मौक़ा देती है. होम आइसोलेशन में रहने वाले ऐसे मरीज जो बगैर दवाओं के ठीक हुए हैं उन्हें डरने की जरूरत नहीं है. अगर स्टेरॉयड की कम डोज ली है तो भी घबराने की जरूरत नहीं है. यह बीमारी आमतौर पर उन मरीजों को हो रही है जिनकी इम्युनिटी बहुत कम हो गई है और जिन्हें स्टेरॉयड की हैवी डोज दी गई है.

डॉक्टरों की मानें तो कोविड से रिकवर हो चुके मरीजों में अगर चेहरे पर सूजन, खासकर आंखों और गालों के आसपास नज़र आये तो सचेत हो जाना चाहिए. ये फंगल इन्फेक्शन के लक्षण हैं. इसके साथ नाक बहना, नाक बंद रहना और सरदर्द इसके अन्य लक्षण हैं. अगर किसी को यह शुरुआती लक्षण नजर आ रहे हैं तो उसे तुरंत ओपीडी में बायोप्सी कराना चाहिए तथा जितनी जल्दी हो सके एंटीफंगल थेरेपी शुरू करना चाहिए. ब्लैक फंगस इन्फेक्शन का इलाज संभव है लेकिन सफलता की दर और उपचार का प्रकार कुछ बातों पर निर्भर करता है. पहला यह कि इन्फेक्शन किस स्टेज पर है. यह तय करेगा कि मरीज को बचाया जा सकता है या नहीं. उपचार कैसे होगा वह इस बात पर भी निर्भर करता है कि किस अंग में इंफेक्शन है. घाव को ठीक करने के लिए बड़ी सर्जरी की जरूरत भी पड़ सकती है. फंगस के भयावह प्रभाव का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि वाराणसी के बीएचयू अस्पताल में पिछले दिनों दो मरीजों के ऑपरेशन के बाद ब्लैक फंगस से पीड़ित एक कोरोना संक्रमित महिला का ऑपरेशन हुआ. इस महिला में ब्लैक फंगस का असर बहुत ज्यादा हो रहा था. फंगस की वजह से उसका चेहरा काला पड़ गया था. उसकी एक आँख निकालने के साथ ही एक तरफ का जबड़ा और उसके नीचे की हड्डियां भी निकालनी पड़ी हैं.

कोरोना मरीजों में म्यूकोर माइकोसिस के बढ़ते खतरे के बीच डॉक्टरों का कहना है कि हैवी डोज स्टेरॉयड लेने वालों या वह मरीज जो हफ्तेभर आईसीयू में इलाज करा के घर लौटे हैं उन्हें ज्यादा सतर्क रहने की जरूरत है. इन मरीजों की नाक में दिक्कत और सांस फूलने की शिकायत पर ईएनटी विशेषज्ञ या चेस्ट रोग विशेषज्ञ से सलाह लें. ब्लैक फंगस खून के जरिए आंख, दिल, गुर्दे और लिवर पैंक्रियाज तक हमला बोलता है. इससे अहम अंगों पर असर पड़ सकता है. आंखों में तेज जलन और पुतलियों में परेशानी होने पर तुरंत नेत्र रोग विशेषज्ञ से संपर्क करें नहीं तो रोशनी जा सकती है. ब्लैक फंगस पर अभी तक देश के स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से कोई गाइड लाइन जारी नहीं हुई है और ना ही इसके इलाज से सम्बंधित दवाएं और इंजेक्शन पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं. जिस तरह इस फंगल डिज़ीज़ को फैलते देखा जा रहा है इसकी दवाओं और इंजेक्शन की कालाबाज़ारी की आशंका भी बढ़ती जा रही है. अगर समय रहते केंद्र और राज्य सरकारें उपयुक्त कदम नहीं उठाती हैं तो रेमडिसीवीर की तरह ब्लैक फंगस को ख़त्म करने वाले इंजेक्शंस का भी बाजार में अकाल पड़ जाएगा और जनता निकृष्ट सरकार और कालाबाज़ारी गिरोहों के हाथों मारी जाएगी.

सूरन की खेती लाभप्रद

लेखक-प्रो. रवि प्रकाश

सूरन न केवल सब्जी, बल्कि अचार के लिए भी जाना जाता है. सूरन में अनेक प्रकार के औषधीय तत्त्व मौजूद होते हैं. सूरन को ओल व जिमीकंद के नाम से भी जाना जाता है. यह एक औषधीय महत्त्व की सब्जी है.

गुण

यह रक्तविकार, कब्जनाशक, बवासीर, खुजली, उदर संबंधी बीमारियों के अलावा अस्थमा व पेचिश में भी काफी लाभदायक है.

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भूमि

सूरन की खेती के लिए बलुई दोमट मिट्टी सब से अधिक उपयुक्त होती है.

रोपाई का समय

रोपाई करने का सर्वोत्तम समय अप्रैल से जून महीने तक है.

प्रमुख प्रजातियां

सूरन की प्रजातियां एनडीए-5 , एनडीए-8 और गजेंद्रा -1 प्रमुख हैं. ये प्रजातियां पूरी तरह से कड़वापन से मुक्त हैं.

बीज व उन का उपचार

कंद की मात्रा कंद के आकार पर निर्भर करती है. आधा किलोग्राम से कम का कंद न रोपें. एक बिस्वा/कट्ठा (125 वर्गमीटर) क्षेत्रफल के लिए एक क्विंटल कंद बीज की आवश्यकता होती है. बीज के उपचार के लिए 5 ग्राम ट्राइकोडर्मा प्रति लिटर पानी में घोल दें और 20 से 25 मिनट तक उस घोल में कंद को डाल दें. इस के बाद इन्हें निकाल कर

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10-15 मिनट तक छाया में सुखा कर रोपाई करें.

खाद, उर्वरक और रोपाई की विधि

रोपाई के लिए आधाआधा मीटर की दूरी पर एकएक फुट के आकार का गड्ढा खोद कर प्रति गड्ढे की दर से 3 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद, 20 ग्राम अमोनियम सल्फेट या 10 ग्राम यूरिया, 37.5 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट व 16 ग्राम म्यूरेट औफ पोटाश डाल कर मिलाने के बाद कंद की रोपाई करें. रोपाई के 85 से 90 दिन बाद दूसरी सिंचाईनिराई करें. उस के बाद 10 ग्राम यूरिया प्रति पौधे में डालें.

सिंचाई

नमी की कमी रहने पर हलकी सिंचाई करें. पानी एक जगह इकट्ठा न होने दें.

सूरन के साथ सहफसली खेती

सूरन के साथ लोबिया या भिंडी की सहफसली खेती कर सकते हैं. आम, अमरूद वगैरह के बगीचे में सूरन लगा कर अच्छी आमदनी हासिल कर सकते हैं.

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ऐसे करें उत्पादन

बोआई में प्रयुक्त कंदों के आकार, बोआई के समय व देखभाल के आधार पर प्रति बिस्वा 6-12 क्विंटल तक उपज 9-10 महीने में मिल जाती है.

थाली बजाई, दिया जलाया, अब ‘यज्ञ’ भी

कोरोना की दूसरी लहरसे देश में हाहाकार मचा हुआ है, हर दिन सैकड़ों मोतें सरकारी पन्नों में दर्ज हो रही हैं तो कई हजारोंअनामअसमय शमशान घाटों में जलाई जा रही हैंऔर जिन्हें यहां जगह नहीं मिली उन्हें ‘मां’ गंगा में बहाया जा रहा है. तभी तो उत्तर प्रदेश से गंगा में बहते 71 से ऊपर लाशें सीधे बिहार जा पहुंची और देश के “सिस्टम” का दरवाजा खटखटा कर पूछ बैठी कि ‘क्या अभी भी सब चंगा सी?’

मां गंगा सब की है, हालाकि सब मां गंगा के नहीं हैं, यहां प्रधानमंत्री भी आते हैं बड़ेबड़े शो होते हैं और वे उन शो में बजने वाले गानों पर थिरकते भी हैं,यहां लाखों भक्त भी आते हैं और कुंभ में डुबकियां मारते हैं, जिन भक्तों का पाप का घड़ा भर जाता है वे यहां अपने पाप बड़ी आसानी से धो जाते हैं, मरने पर तो उन की राख को मांगंगा के सुपुर्द कर दिया जाता है ताकि आत्मा को शांति पहुंच सके. कितना आसान तरीका है न अपराध से मुक्ति का?किन्तु जब सेफिजा बदली, सरकार बदली, हिंदुत्व प्रचंड हुआ तो भक्तों की राख की जगह अब सीधे शोर्टकट तरीके से भक्तों की लाशें ही बहाई जा रही हैं. चलो यह भी ठीक है,शरीर को तो एक न एक दिन दिन मिट्टी होना ही है मरने के बाद किसे पता क्या हुआ, लाश जला दफना या बहा.मेरा दुख बस यह है कि मोदीजी अपने कामों का पूरा श्रेय नहीं लेते हैं, नोटबंदी के समय गंगा में बहने वाले नोंटों का श्रेय तो उन्होंने ले लिया लेकिन मांगंगा मेंबहती लाशों का श्रेय नहीं ले पाए,देश को उन के खिलाफयह नाइंसाफी कतई नहीं सहनी चाहिए. इसलिए इस का कुछ श्रेय तो उन के सुपुर्द किया ही जाना चाहिए.

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यह भी ठीक है, मौत के बाद के कर्मकांड वैसे ही गरीबों की जेब पर भारी पड़ते थे सो मोदीजी का यह शोर्टकट तरीका भी देरसवेर भक्तों को पसंद आ ही जाएगा.धर्म से बनी सरकार, धर्म के इर्दगिर्द ही सोचती है और मेरा खयाल है उन का सोचना जायज भी है क्योंकि वह येनकेन प्रकारेण धर्म की पीठ पर सवार हो कर ही तो बनी है और देश की “समझदार” जनता ने इन्हें जिताया ही धर्म पर है तो वह इस तरीके को भी हाथोंहाथ ले ही लेगी. मेरा मानना है कि उन्हें इन बहती लाशों से हैरानी तो बिलकुल भी नहीं होनी चाहिए क्योंकि हम जनता ने ही तो ऐसे प्रकांड धर्मांध नेता चुने हैं जिन का विश्वास विज्ञान, डाक्टरों और दवाइयों पर कम, धर्मकर्म, कर्मकांड, अंधविश्वास पर ज्यादा है.

कोरोना की दूसरी लहर जैसे ही तेज होती जा रही है, नेताओं के धार्मिक प्रपंच भी तेज होते जा रहे हैं. यह एक तरह से मान कर चल सकते हैं की ‘हर एक्शन का रिएक्शन’ जैसा है. ऐसे ही मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के कार्यकाल में पर्यटन एवं संस्कृति मंत्री उषा ठाकुर ने कोरोना की तीसरी लहर को हराने के लिए अजीबोंगरीब समाधान दे दिया है.उषा ठाकुर एमपी के मऊ से 2018 में विधानसभा का चुनाव जीती थी.

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उषा ठाकुर ने पत्रकारों के साथ बातचीत के दौरान ‘यज्ञ में आहुति देने’को कोरोना के खिलाफ लड़ने में कारगर समाधान बताया. उन्होंने कहा,“तीसरी लहर के लिए हम जागृत हैं. तीसरी लहर बच्चों पर असर डालेगी, उसके लिए हम ने तैयारियां शुरू कर दी हैं. मुझे भरोसा है कि इस तीसरीलहर से भी हम निपट लेंगे. आप सब से प्रार्थना करती हूं कि पर्यावरण की शुद्धि के लिए सब एक साथ आहुतियां डालें क्योंकि महामारी के नाशमें अनादि काल से यज्ञ परंपरा को अपनाया गया है. यह यज्ञ चिकित्सा है, धर्मांधता नहीं है. हम सब दोदो आहुतियां डालें और अपने हिस्से का पर्यावरण शुद्ध करें. तीसरी लहर हिंदुस्तान को छू नहीं पाएगी.”

चलो इस बयान से यह तो साबित हुआ कि मध्यप्रदेश सरकार कोरोना से लड़ने की तैयारियां कर रही हैं भले उन का हथियार यज्ञ ही सही. देश में उषा ठाकुर जैसे महान विद्वानों की कमी नहीं है, ऐसे प्रकांड और तेजस्वी विद्वान जो वेद पुराणों और धार्मिक ग्रंथों से देश चलाने का हुनर रखते हैं. वे संकराचार्य और मनुओं के घोर भक्त हैं इसलिए उन के विचारों को तहेदिल से फौलो भी करते हैं. यह उन धार्मिक ग्रन्थ में पूरी निष्ठा से रखते हैं जिन में महिलाओं और पिछड़ों का शोषण करने की रीतिनीति लिखी हैं, इसलिए यह तो माना जा ही सकता है कि इन के शासन करने का तरीका बांटने का है जोड़ने का नहीं.

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चलो बढ़िया भी है उन्होंने ऐसा कहा वरना देश तो कब से वैक्सीन के आस में बैठा था कि अब लगेगी तब लगेगी, बेचारे लोग क्या जानते थे कि उन की वाट लगेगी. ध्यान रहे इस बयान के बाद अब कोई वैक्सीन की लाइन में नहीं लगेगा, अब सब यज्ञ में आहुति देने का विचार बनाएंगे, कोई अपने मांबाप की आहुति देगा, कोई अपने पति की, कोई पत्नी की तो कोई अपने बच्चों की. वैसे भी इन भले नेताओं के चलते लोग आहुतियां लम्बे समय दे ही रहे हैं, कभी नोटबंदी के नाम पर, कभी जैलबंदी के नाम पर तो कभी देशबंदी के नाम पर.

ऐसा नहीं है कि विद्वान उषा ठाकुर का यह पहलाबयान है, इस से पहले भी इन्होने अपनी तरकश से ऐसे तीर कई बार छोड़े हैं. ताजाताजाहालिया मामला तब बना जब उन्होंने कहा था किगोबर से बने कंडों पर घीं लगा कर किएहवन से घर 12 घंटे तक सैनिटाईज रहता है. वाह…. क्या बात है….जब माता उषा ने ऐसा दावा किया तो सैनिटाईजर बनाने वाली कंपनियां सकते में आ गईं. भई आएं भी क्यों न,अब बनाबनाया मार्किट जाने का खतरा तो बना ही रहता है न? और मेरा तो खयाल है कि कुछ समय बाद एकआध कंपनी सेनिटाईजर की जगह गोबर के कंडे बनाने चालू कर भी देगी.

ऐसे ही थोड़ी उषा ठाकुर नवरात्रों और जगरातों में भजन गाया करती थीं, वहां से मिली ‘स्त्री धर्म’ की शिक्षा वह बखूबी जानती हैं, इसीलिए तो हाल ही में उषा ठाकुर ने महिलाओं को सलीके से रहने का फरमान दे दिया.उत्तराखंड के मुख्यमंत्री तीरथ सिंह ने जैसे ही महिलाओं की जींस को ले कर औछि बात कही तो तीरथ साहब धरा गए और चहूं दिशाओं से खूब फजीहतकटी. लेकिन तब उषा ठाकुर प्रकट हुईं और सीएम के समर्थन में कहने लगी की ‘महिलाओं का रिप्ड जींस पहनना ‘अपशकुन’ है और महिलाओं को मर्यादा में रहना चाहिए.’ अपशकुन का तो पता नहीं लेकिन विवाद इतना बढ़ गया कि जनाब तीरथ सिंह रावततो मौका देख कर यूटर्न मार लिए क्योंकि साहब खुद आरएसएस की शाखा में हाफ निक्कर पहन टहला करते थे लेकिन बेचारी उषा जी को फंसा गए. अच्छा तीरथ सिंह भी कम तेजस्वी नहीं हैं, जानकारों का मानना है कि कोरोना की दूसरी वेव के जिम्मेदार जितने बंगाल में राम के नारे लगाने वाले हैंउतना ही यह महाशय भी हैं. सुना है जनाब हरिद्वार कुंभ में देश को कोरोना प्रसाद बंटवाने में खासा मदद कर रहे थे.

ऐसा नहीं कि उषा ठाकुर ऐसा माहौल बनाने वाली कोई नई खिलाड़ी हो, वह तो पहुंची हुई खिलाड़ी है, लगता है भाजपा-आरएसएस से पूरा प्रशिक्षण ले कर ही वह ऐसा कहती हैं.पिछले साल अक्टूबर महीने में इन्होने बिना तथ्यों के मदरसों को देश में ‘आतंक का अड्डा’ बता डाला. उस से एक महीने पहले सितंबर में इन्होने मध्यप्रदेश में आदिवासियों के हित में लड़ने वाली पार्टी ‘जयस’ को देशद्रोही बता डाला. यह वहीँ नेता हैं जिन्होंने मुस्लिमों को नवरात्रे में गरबा खेलने की पाबन्दी की मांग की थी.ठहरो, उन की लीला यहीं खत्म नहीं होती, ये पक्की खिलाड़ी हैं इसलिए जानती हैं कि लोगों को उन के इन बयानों से मजा आता है, तभी उन्हें जिताते भी हैं.वह इतनी आत्मविश्वासी हैं कि देश को अंग्रेजों की गुलामी से आजादी दिलाने वाले महापुरुष महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को सच्चा देशभक्त तक बता डाला है. अच्छा, एक बात यह कि उषा ठाकुर और प्रज्ञा ठाकुर कौन किस का गुरु है यह कहना मुश्किल है लेकिन बातव्यवहार और सोचविचार दोनों के लगभग बराबर ही हैं. ठीक गोडसे के सम्बन्ध में यही बात प्रज्ञा ठाकुर भी कह चुकी हैं, अरे वही प्रज्ञा जिन के कैंसर का इलाज वैसे तो एम्स में चला पर बकौल प्रज्ञा गाय के यूरिन पी कर वह ठेक हुई हैं. खैर मूल यह कि, यह बातें कहतेकहते कैसे एक राज्य की संस्कृति मंत्री के पद तक पहुंच गईं हैं, और एक संसद बन गईं,अब इसे भाजपा आरएसएस का इनाम ही समझो.

उषा ठाकुर से पहले भी देश के कई दूसरे नेता कोरोना को हराने के अपने नुस्खे बता चुके हैं. और उम्मीद है कि ऐसे प्रकांड धर्मांध आगे भी ऐसे ही नुस्खे जारी रखेंगे, लिहाजा कोई मंत्री ‘भाभीजी पापड़’बेच रहा है, कोई डार्क चौकोलेट खाने की बात कह रहा है, कोई गायत्री मन्त्र के ऊपर रिसर्च करवा रहा है, कोई नारे लगा कर भगा रहा है, कोई योग कहकह कर अपना माल बेच रहा है तोकोई गोबर का लेप लगाने की बात कर रहा है. गुजरात में तो दोचार खाकी निक्करधारी नमूने… माफ कीजिएगा, मेरा मतलब महानुभावतो इतने सीरियस हो गए कि वे कोरोना से बचने के लिए गायभेंस के गोबर और पेशाब में लौटपौट ही हो लिए. ऐसा कहीं और हो सकता है भला?ऐसे ही थोड़े देश में हम बढ़ते कोरोना मामले और गिरती अर्थव्यवस्था में नंबर 1 बन चले हैं. यह चमत्कार सिर्फ भारत में ही हो सकता है जहां विज्ञान को मात ऐसे महानुभाव देते हैं जो ठीक से अपनी डिग्री तक नहीं दिखा पाते हैं. क्यों? क्योंकि हम “समझदार” लोगों ने ऐसे तेजस्वी नेता जो चुने हैं.

ऐसा नहीं है यह नेता अपने ज्ञान का पिटारा यूंही खोलते हैं, बल्कि ये पूरे तरीके से सोचविचार कर ऐसा कहते हैं, क्योंकि इन्हें भरोसा है कि यह ऐसे ही तो कहबोल कर चुनाव जीते हैं.इस बात को क्या हमारे देश के प्रधानमंत्री नहीं जानते? बखूभी जानते हैं तभी तो पिछले सालउन्होंने पूरे देश से पहले थालियां बजवाईं और फिर दियाटोर्च जलावाया.लगे हाथ भक्ति में हम ने भी तो घरों के कनस्तर फोड़ डाले, हवनयज्ञ, गौमूत्र और मल को कोरोना का इलाज मान कर प्रधानमंत्री की तरह कोरोना को रामभरोसे छोड़ दिया.

मेरा मानना है कि आज के इस ऐतिहासिक हालत के जिम्मेदार नेता नहीं, जनता ही है. जनता ही है जिसे अस्पताल की नहीं बल्कि मंदिर चाहिए था, जनता ही थी जिसे सुनने वाली सरकार नहीं अड़ियल सरकार चाहिए थी,जनता ही है जिसे खाना नहीं भूख चाहिए था, जनता ही है जिसे समाज में प्यार नहीं एकदूसरे से नफरत चाहिए था, जनता ही है जिसे विकास नहीं विनाश चाहिए था. अब जो जनता को चाहिए था वही नेता बखूबी चाहता था.बबूल का पेड़ बोया है तो आम तो मिलेंगे नहीं, हम ही हैं जिन्होंने ऐसे धर्मभीरुओं को देश संभालने को दिया है तो इस के हिस्से के कांटे भी अब हमें ही नसीब होने हैं इसलिए अब अस्पताल, बेड, औक्सीजन इलाज, नौकरी की चिंता छोड़ महायज्ञ की तैयारी कर लो क्योंकि हम यही डिजर्ब करते हैं.

 

मदर्स डे स्पेशल : बेटे की तेरहवीं -भाग 3

‘हां भई, तुम्हारा ही है,’ कुमार साहब हंसते हुए कहते, ‘पर मुझे कंधा तो वही देगा न, बाप हूं मैं उस का. एक ने तो पहले ही किनारा कर लिया, अब इस का ही आसरा है.’

सोचतेसोचते विभा की नजर अचानक कुमार साहब की तरफ गई जो अरथी को रस्सी बांध रहे थे. वे सोचने लगीं, ‘कहां तो ये बेटे के कंधे का सहारा ले कर जाने वाले थे और कहां आज बेटे को कंधा देना पड़ रहा है.’

विभा की नजर आकाश की तरफ उठ गई. ‘कहां हो बेटा, तुम तो विदेश जाने वाले थे, यह कहां चले गए. विदेश रहते तो कभीकभार बात भी कर लेती. अब मैं कहां देखूंगी तुम्हारा चेहरा.’ जिस शरीर को बचपन में रूई के गद्दे पर सुलाया करती थी कि कहीं उस के नाजुक शरीर पर उंगलियों के निशान न पड़ जाएं, उसे डाक्टर ने आज जाने कहांकहां नहीं चीराफाड़ा होगा. क्यों करते हैं लोग पोस्टमार्टम. क्या आत्मीय जनों की आत्मा का पोस्टमार्टम कम होता है, जो सरकार डेडबौडी का पोस्टमार्टम करवाने लगती है. अरे, एक बार रिश्तेदारों से पूछ तो लो कि उन्हें पोस्टमार्टम करवाना भी है या नहीं. कितनी चीरफाड़ करोगे हमारी जिंदगी की. विभा की आंखें आंसुओं से भर गईं.

अचानक हंगामा सा मच गया, ‘‘बौडी आ गई, बौडी…’’

आज सुबह ही तो तपन जीताजागता गया था और अब अचानक ही एक बौडी बन गया. दहाड़ें मार कर रो पड़ीं विभा, जैसे घर की दीवारों और छतों से पूछ रही हों कि कहां है मेरा तपन? वह बौडी कैसे बन सकता है? मैं जो उस में जीती हूं. धीरेधीरे भीड़ छंटने लगी थी. अरथी के साथ ही अधिकतर लोग चले गए थे. बड़ा बेटाबहू रात को आने का वादा कर के खिसक गए थे कि कहीं क्रियाकर्म में पैसा न खर्च करना पड़े. आज वर्षों बाद वे कुमार साहब के पास बैठीं बीती बातें कुरेद रही थीं. जब बच्चे बड़े होने लगे थे तब से उन की जिंदगी उन के ही इर्दगिर्द मंडराने लगी थी. आज तपन की एकएक चीज, उस के स्कूल के कपड़े, उस के फोटो, उस के जीते हुए कप, जूतेमोजे को सहेजसहेज कर रखते हुए उन्होंने रात बिता दी थी. सुबह थोड़ी सी उन की आंख लगी, तो लगा जैसे तपन कह रहा हो, ‘मां, तुम्हें मालूम है न, कितने लोगों के पैसे देने हैं.’ वे उठ कर बैठ गईं और सोचने लगीं, ‘दुकान बंद रहेगी तो रोज का खर्च कैसे चलेगा.’

रोज की तरह ही उन्होंने घर का काम निबटाया, कुमार साहब को समय पर दवा लेने के लिए कहा और कौंप्लैक्स के लोगों ने देखा कि 10 बजे जेरौक्स की दुकान खुली हुई थी. लोगों की आपस में खुसुरफुसुर चालू हो गई कि कैसी औरत है, धर्मकर्म से कोई वास्ता ही नहीं है. लगता है कि बेटे के मरने के दिन गिन रही थी, तभी तो एक दिन भी नहीं बीता कि दुकान पर आ कर बैठ गई. तेरहवीं भी नहीं की. बेटे की आत्मा को शांति कैसे मिलेगी. ऐसे ही नास्तिक लोगों के कारण दुनिया रसातल में जा रही है. एक बुजुर्ग महिला ने विभा से पूछ ही लिया, ‘‘बहनजी पूछना तो नहीं चाहिए, सब की अपनीअपनी सोच है, पर आप लोग तेरहवीं नहीं करते क्या? आखिर मरने वाले की आत्मा को शांति कैसे मिलेगी?’’ विभा ने जेरौक्स मशीन में कागज लगाते हुए कहा, ‘‘हम जैसे लोगों का मरना क्या और जीना क्या? हम तो रोज मरते हैं, रोज जीते हैं और हमारी तेरहवीं भी रोज होती है.’’

अब तक दुकान पर जेरौक्स निकलवाने, कौपीपैंसिल खरीदने वालों की लंबी लाइन लग गई थी. वे सारा काम फुरती से निबटाते हुए सोच रही थीं, ‘अगर ऐसी ही भीड़ रही तो वे जल्दी ही लोन चुकता कर किसी को दुकान पर काम करने के लिए रख लेंगी.’ फिर आकाश की ओर देख कर आंखें मूंद कर मन ही मन उन्होंने कहा, ‘यही तेरी तेरहवीं है बेटा. मैं ने दुकान बंद नहीं की. यह तीसरा बेटा है न मेरा.’

मदर्स डे स्पेशल : बेटे की तेरहवीं -भाग 2

अस्पताल पहुंचने से पहले ही उन्होंने बड़े बेटे को फोन किया और पूरी घटना की जानकारी दी. अस्पताल पहुंच कर बड़ी मुश्किल से वे तपन को देख पाए. उस के सिर में चोट लगी थी, जिस के कारण उसे आईसीयू में रखा गया था. अस्पताल में बैंच पर बैठी वे डाक्टर का इंतजार करती रहीं. विभा मन ही मन कुढ़ रही थीं कि यह सब उन्हीं की गलती है. न वे उसे बैंक भेजतीं न उस का ऐक्सिडैंट होता. वह तो दुकान पर ही जाना चाहता था. उस ने तो कुछ भी नहीं खाया. कैसी मां हूं मैं. खुद ही बेटे को मौत के मुंह में धकेल दिया. पर उन्होंने ऐसा कहां सोचा था कि तपन के साथ ऐसी दुर्घटना होगी. पास खड़े कौंस्टेबल ने भी बड़ी आत्मीयता से कहा, ‘‘बाई, घबराओ नहीं, सब ठीक हो जाएगा.’’ एक घंटा ऐसे ही बीत गया, तब तक बड़ा बेटा भी वहां आ गया था. उन्होंने रुकरुक कर उसे सारी बातें बताईं. उस ने दिलासा देते हुए कहा कि वह डाक्टर से मिल कर आता है. थोड़ी ही देर में बड़ा बेटा निराश सा चेहरा लिए बाहर आ गया.

‘‘मां, तुम बाबा को ले कर घर जाओ.’’

‘‘लेकिन तपन कैसा है? यह तो बताओ. रात को रुकना पड़ेगा तो मैं घर का काम खत्म कर के आती हूं.’’

‘‘मां, तपन अब कभी नहीं आएगा, मैं अस्पताल की सारी कार्यवाही पूरी कर के आता हूं. पुलिस वालों को भी जवाब देना है. सिर में गहरी चोट लगने से उस की मृत्यु हो गई है.’’ उन्होंने एक बार कौंस्टेबल की ओर देखा और धम से बैंच पर बैठ गईं. किसी तरह बड़े बेटे ने दोनों को रिकशे में बैठा कर घर भेज दिया. पूरे कौंप्लैक्स में यह खबर आग की तरह फैल गई थी. कारण यह भी था कि पूरे कौंप्लैक्स में यह एक अकेली जेरौक्स और स्टेशनरी की दुकान थी. नए फ्लैट खरीदने या किराए पर लेने हेतु एग्रीमैंट बनवाने के लिए इसी दुकान पर जाना पड़ता था. सब अपनीअपनी अटकलें लगा रहे थे, पर सब की एकमत राय यही थी कि अब यह दुकान तेरहवीं के बाद ही खुलेगी. बिना तेरहवीं के कोई मांबाप कैसे दुकान खोल सकते हैं. वह भी जब जवान बेटा मरा हो. भला उस की आत्मा को शांति कैसे मिलेगी?

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कई लोगों ने शाम को उस के घर जा कर सांत्वना प्रकट करने की पूरी तैयारी भी कर ली. वहां पर क्या बोलना है मन ही मन उन्होंने इस की प्रैक्टिस भी कर ली. कुछ लोग पोस्टमार्टम के बाद डेडबौडी घर आने की प्रतीक्षा कर रहे थे. आसपड़ोस के लोगों और नातेरिश्तेदारों से उन का घर भरा हुआ था. कुछ महिलाओं ने अपने अनुभवों का खजाना खोलते हुए एकदूसरे को इशारे से देखते हुए कहा, ‘‘रो नहीं रही हैं. रोना तो जरूरी है, नहीं तो हार्ट अटैक हो सकता है.’’ एक पुरुष जो दिन में ही दारू चढ़ा लेता था और आंखों पर काला चश्मा चढ़ाए हुए बड़े संवेदनशील स्वर में बोले जा रहा था, ‘‘अब होनी को कौन टाल सकता है, विभाजी, जब राम और कृष्ण इसे नहीं टाल सके तो इंसान की क्या बिसात. तुलसीदासजी तो एक ही लाइन में जीवन का सार समझा गए, ‘हानिलाभ, जीवनमरण, यशअपयश, विधि हाथ.’ ये सब तो उन के ही हाथ में है. हम इंसानों की क्या बिसात है. ‘‘मैं कालोनी वालों की तरफ से आप को आश्वासन दिलाता हूं कि तेरहवीं तक सब आप के आने का इंतजार करेंगे. तब तक कोई भी कहीं से जेरौक्स नहीं करवाएगा.’’

उस के इस जुमले से कई लोग आगबबूला हो गए, बड़ा नेता बनता है. एक रुपए के जेरौक्स में 75 पैसे ही देगा, बाकी पैसा मार लेगा और खुद कौंप्लैक्स वालों का ठेका ले कर घूम रहा है. अरे, किसी को इमरजैंसी होगी तो क्या 13 दिन तक वह इंतजार करता रहेगा. कई लोगों की तनी भृकुटी देख कर वह अपना काला चश्मा चढ़ा कर वहां से खिसक गया. विभा इस सारी बातचीत से उदासीन अपने खयालों में गुम थीं. कैसे तपन उन के पतलेदुबले शरीर को अपनी मजबूत बांहों में उठा कर घुमाते हुए कहता था, ‘मां, थोड़ा खापी कर तंदुरुस्त बनो, अन्यथा सास बनने का बोझ कैसे उठाओगी. तुम्हारी बहू तो तुम से डरेगी भी नहीं. इसीलिए तो भाभी तुम्हें छोड़ कर चली गईं. तुम हुक्म चलाने लायक मजबूत थी ही नहीं.’

‘हां, और तेरी बहू भी बात नहीं मानेगी न,’ वे हंसते हुए कहतीं.

‘कैसे नहीं मानेगी,’ उन्हें सोफे पर बैठाते हुए तपन कहता, ‘कुछ दिन की बात है मां, मेरी पढ़ाई पूरी होने दो. मैं ने विदेश में स्कौलरशिप के लिए अप्लाई कर दिया है. उम्मीद है, मिल ही जाएगी. उस के बाद अच्छी नौकरी मिल जाएगी, तब तुम्हें खिलापिला कर तंदुरुस्त बना दूंगा, फिर तुम दोनों जगह राज करना?’

‘दोनों जगह मतलब.’

‘दोनों जगह यानी दुकान पर और घर में, दुकान में एक आदमी रख लेना और घर में बहू रहेगी.’

‘फिर मैं दुकान क्यों जाऊंगी. उसे बंद कर दूंगी, रोजरोज की झिकझिक बंद…’

अचानक ही उस का चेहरा गंभीर हो जाता, ‘नहीं मां, इसे बंद मत करना, यह तुम्हारा तीसरा बेटा है. मैं विदेश जा कर अगर मेम ले आया या वहीं बस गया तो यह तुम्हारा तीसरा बेटा ही तो तुम्हारे काम आएगा.’

विभा उदास हो जातीं, ‘क्या तू भी भैया की तरह मुझे छोड़ कर चला जाएगा?’

‘नहीं मां,’ तपन हंसते हुए कहता, ‘तुम्हें लगता है मैं छोड़ कर चला जाऊंगा. बहुत दुख देखे हैं तुम ने. पापा की बीमारी, हमारी परवरिश, दुकान का रखरखाव सब के लिए तुम ने अपनी कभी परवा नहीं की. अब मैं तुम्हें देशविदेश घुमाऊंगा. तुम शहर से कभी बाहर नहीं गईं, मैं तुम्हें कोलकाता ले जाऊंगा. दुकान पर तब तक जिस आदमी को रखेंगे वह संभालेगा. तुम केवल महारानी की तरह उस से हिसाबकिताब मांगना और बहू के साथ शौपिंग करना.’

‘अच्छा, बहू की तरफदारी करता है. वह काम नहीं करेगी, केवल शौपिंग करेगी.’

कुमार साहब, मांबेटे की चुहल देखते हुए कहते, ‘क्या खुसुरफुसुर हो रही है मांबेटे के बीच.’

‘हां, आप की शिकायत हो रही है. बेटा तो मेरा है न.’

 

लाशों पर लड़ी सत्ता और धर्म की लड़ाई

देश और सरकार उपदेशों व प्रवचनों के बजाय वैज्ञानिक व तकनीकी राह अपनाते तो कोरोना के हालात भयावह न होते. कुंभ और रैलियों ने कोरोना का कहर इतना बढ़ा दिया कि जगहजगह लाशों के अंबार लग गए जैसे महाभारत के युद्ध के बाद लगे थे. लड़ाई तब भी सत्ता की थी और आज भी है. महाभारत इकलौता धर्मग्रंथ है जिसे हिंदू घर में नहीं रखते. माना यह जाता है कि जिस घर में महाभारत की किताब रखी होगी उस में कलह जरूर होगी. यह पूरी किताब ही सब से बड़े राजनीतिक युद्ध की वजह से ही वेद व्यास ने लिखी जिस के कर्णधार, सूत्रधार और नायक कृष्ण हैं.

उस में कलह ही कलह है जिस से लोग डरते हैं कि यह हमारे यहां न हो. इस महाकाव्य को घरों में न रखने की सलाह देना एक और धार्मिक चालाकी है कि लोग अगर इसे पढ़ व सम झ लेंगे तो उन्हें यह भी सम झ आ जाएगा कि कैसेकैसे छलकपट, झूठफरेब, व्यभिचार और धूर्तता हिंदुओं के वे आदर्श बिना किसी लिहाज के करते थे जिन्हें भगवान बना कर घरघर में पूजा जाता है. यह सच ढका रहे, इसलिए कलह का डर लोगों, खासतौर से औरतों को दिखाया गया और उन्हें श्रीमद्भगवतगीता पढ़ने को कहा गया जो इसी किताब का बहुत छोटा सा हिस्सा है. धर्म के ठेकेदारों का एक बड़ा डर यह भी है कि लोग कहीं यह न पूछने लगें कि जब इतना विनाश होना ही था जितना कि युद्ध के बाद हुआ, तो क्या युद्ध जरूरी था? क्या इसे टरकाया नहीं जा सकता था?

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परिवारों के मामूली विवाद को कैसे कृष्ण एक भीषण नरसंहार तक ले गए और इस से उन्हें क्या हासिल हुआ? ऐसे कई सवाल लोगों के जेहन में आते तो फिर वे कृष्ण की हकीकत जान शायद उन्हें भगवान मानने से ही इनकार कर सकते थे. महाभारत के युद्ध की तरह 5 राज्यों, खासतौर से पश्चिम बंगाल की चुनावी लड़ाई बिलाशक सत्ता की थी जो कोरोना के कहर के चलते लाखों लाशों के ढेर पर खड़ी है. हर कोई जानता है कि संभावित नतीजे देख पांडव कौरवों से लड़ना नहीं चाहते थे खासतौर से अर्जुन, जो पांचों भाइयों में सब से बहादुर व बुद्धिमान था. लेकिन कृष्ण ने उसे गीता का उपदेश दे कर युद्ध के लिए उकसाया, डराया, बरगलाया और धर्म की दुहाई दी. इसीलिए इसे धर्मयुद्ध भी कहा जाता है. युद्ध के मैदान में अपने नजदीकी रिश्तेदारों को देख अर्जुन ने अपना तर्क कृष्ण के सामने रखा जिसे पंडितों ने मोह और डर कह कर मुद्दे की जो बात ढक ली वह यह थी-

एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतो: किं नु महीकृते।।1.35।। (श्रीमद्भगवतगीता, अध्याय 1, श्लोक 35) हे मधुसूदन, इन के मु झे मारने पर अथवा त्रैलोक्य के राज्य के लिए भी मैं इन को मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिए कहना ही क्या है. गुरूनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके। हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान्।।2.5।। (श्रीमद्भगवतगीता, अध्याय 2, श्लोक 5) महानुभाव गुरुजनों को न मार कर इस लोक में भिक्षा का अन्न खाना भी श्रेष्ठ सम झता हूं क्योंकि गुरुजनों को मार कर यहां रक्त से सने हुए तथा धन की कामना की मुख्यता वाले भोगों को ही तो भोगूंगा. अर्जुन के इस रवैए पर कृष्ण लड़खड़ा गए. इस स्टेज पर आ कर अगर पांडव मैदान छोड़ जाते तो कौरव पांडवों से भी पहले कृष्ण का गिरेहबान पकड़ते, लिहाजा उन्होंने अर्जुन को युद्ध के लिए तैयार किया और इस के लिए जो उपदेश दिए वे श्रीमद्भगवतगीता के नाम से मशहूर हुए, जिस को घर में रखने से और पढ़ने से कलह नहीं होती.

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उलटे, आदमी पुण्य और मोक्ष का हकदार हो जाता है. यह और बात है कि हकीकत में हर घर में कलह है. अब युद्ध कृष्ण के लिए ज्यादा अहम व जरूरी हो गया था. लिहाजा उन्होंने विरक्त, निराश और हताश अर्जुन को फुसलाते हुए कहा, ‘तू युद्ध कर क्योंकि धर्म यही कहता है, तू कर्म कर फल की चिंता मत कर और तेरा यहां कुछ नहीं, तू क्या ले कर आया था और क्या ले कर जाएगा. मनुष्य का शरीर मरता है, आत्मा नहीं, जैसी सैकड़ों बातें कृष्ण ने कहीं, साथ ही यह भी सम झाया कि अगर तू ने कौरवों को नहीं मारा तो वे तु झे मार डालेंगे. लंबेचौड़े उपदेश के बाद आखिरकर अर्जुन युद्ध के लिए तैयार हो गया क्योंकि कृष्ण उसे युद्ध की अनिवार्यता से सहमत करते जीत का मतलब सम झाने में कामयाब रहे थे कि जीता तो भोगविलास करेगा व स्वर्ग भोगेगा, राज करेगा और यही लोक कल्याण का रास्ता है.

इसी लोक कल्याण के लिए मौजूदा दौर में 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव हुए जिन में पश्चिम बंगाल वाकई कुरुक्षेत्र बन गया था. यह लड़ाई भी किसी महाभारत से कम दिलचस्प और रोमांचकारी नहीं थी जिस में भगवा गैंग ने खुद को पूरी तरह झोंक दिया था. लेकिन 2 मई को जब नतीजे आए तो कौरवनुमा टीएमसी बाजी मार ले गई. कुरुक्षेत्र बना बंगाल यह चुनाव कोरोना के साए में हुआ जिस की दूसरी लहर में आम तो आम, खास लोग भी औक्सीजन व इलाज के अभाव में जल बिन मछली की तरह सड़कों पर छटपटाते दम तोड़ रहे थे, और आज भी दम तोड़ रहे हैं. किस तरह की अफरातफरी मची हुई थी, यह हर किसी ने देखा. क्या लाखों लाशों की शर्त पर इस चुनाव का होना जरूरी था यह सवाल नतीजों के बाद ज्यादा पूछा जाना बताता है कि हम और हमारे मौजूदा शासक कतई अर्जुन की तरह दूरदर्शी व संवेदनशील नहीं हैं. धर्म ने हमें क्रूर और स्वार्थी बना दिया है.

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हम युद्ध की अनिवार्यता और प्रासंगिकता पर कुछ नहीं बोलते, बल्कि लोकतांत्रिक युद्ध यानी चुनाव में भी मनोरंजन व रोमांच ढूंढ़ते हैं. बिलाशक कोरोना की दूसरी बड़ी तबाही के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उन की सरकार ही जिम्मेदार है. बंगाल के नतीजे सम झने के पहले यह सम झना जरूरी है कि इस चुनावी मनोरंजन का पार्ट वन पिछले साल 2020 में मार्च में देखने में आया था जब भाजपा ने मध्य प्रदेश में सरकार बनाने के लिए लौकडाउन घोषित करने में कोताही बरती थी जबकि कोरोना देशभर में फैल चुका था. तब हुआ सिर्फ इतना था कि ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने 22 समर्थक विधायकों के साथ कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल हो गए थे. तब मोदी सरकार ने कोरोना की आहट को किनारे रख दिया और 23 मार्च को राज्य में सरकार बना ली. फिर दूसरे दिन लौकडाउन घोषित किया गया.

तब तक दुनियाभर की एजेंसियां, वैज्ञानिक और डाक्टर कोरोना की भयावहता बता चुके थे. देश मार्च 2020 में थम गया था. दिल्ली और मुंबई सहित देश के अधिकांश राज्यों में दहशत फैल चुकी थी. बाजार सूने होने लगे थे. स्कूलकालेज और सार्वजनिक स्थल बंद किए जाने लगे थे. भगदड़ मचने लगी थी. लेकिन भाजपा को मध्य प्रदेश में सरकार बनाने की पड़ी थी, लिहाजा उस ने जानमाल के नुकसान की कोई परवा न की. मार्च 2021 आतेआते हालात थोड़े सुधरते दिखे थे लेकिन कोविड-19 का खतरा पूरी तरह तो क्या, थोड़ा भी टला नहीं था. 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों का एलान हुआ तो भाजपा और उस की सरकार का ध्यान इन राज्यों, खासतौर से पश्चिम बंगाल में सिमट कर रह गया.

यह उस की दूसरी बड़ी गलती थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह, भाजपा अध्यक्ष जे पी नड्डा सहित उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, रक्षामंत्री राजनाथ सिंह समेत तमाम छोटेबड़े भाजपाई नेताओं ने पश्चिम बंगाल में अपडाउन शुरू कर दिया. कोलकाता को हस्तिनापुर बना डाला. देश के शासकों को न अस्पतालों की चिंता थी, न वैंटिलेटरों की, न औक्सीजन सिलैंडरों की और न ही नर्सों की. चिंता थी उन 1,00,000 संघ के कार्यकर्ताओं की जो 5 वर्षों से पश्चिम बंगाल में भाजपा की जीत के लिए धर्म की चरस बो रहे थे. इन्हें हवस थी तो उस सत्ता की जिसे ये हर कीमत पर भोगना चाहते थे, चाहे देश में लाशों का अंबार क्यों न लग जाए. इतिहास गवाह रहेगा कि जिस समय देश में कोरोना के चलते त्राहित्राहि मची हुई थी, लाशें सड़कों के किनारे जलाई जा रही थीं, कब्रिस्तान में जगहें कम पड़ने लगी थीं, अस्पतालों में बिन इलाज लोग तड़पतड़प कर मर रहे थे,

औक्सीजन की किल्लत चल रही थी, परिवार के परिवार घर के भीतर एकसाथ ही उजड़ रहे थे, उस समय लाखों धर्मांधों की भीड़ चुनावी रैलियों से ले कर कुंभ में डुबकियां मार रही थी और इसे रोकने की जगह मुख्य जिम्मेदार लोग इस के मदमस्त नशे में झूम रहे थे. क्या यही महाभारत था कि सैकड़ों बेगुनाह सिर्फ भाजपा की चुनावी हवस मिटाने के लिए असमय मर जाएं? क्या यही है सत्ता की भूख? और इसी से हो कर देश में रामराज्य आएगा? आज इस भयावहता का सारा ठीकरा कोरोना महामारी के मत्थे फोड़ा जा रहा है, लेकिन क्या कभी यह आत्ममंथन का विषय बनेगा कि एक साल से भी अधिक समय मिलने के बावजूद केंद्र सरकार ने कोई व्यवस्था नहीं की, स्वास्थ्य व्यवस्था पर कोई काम नहीं किया, कोरोना को मजाक में लिया, लोगों को मौत के हवनकुंड में झोंक दिया. आखिर ऐसी कौन सी आफत आन पड़ी थी कि इस दौरान राज्यों में चुनाव न होते या हार भी जाते तो प्रलय आ जाती क्या? इन लोगों ने बड़ीबड़ी रैलियां कीं, जिन में लाखों लोग जुटाए गए.

इस की जिम्मेदारी पश्चिम बंगाल के भाजपा प्रभारी कैलाश विजयवर्गीय को सौंपी गई जिन का चेहरा 2 मई को लटका हुआ था. उन्हें भी इस बात का कोई मलाल नहीं था कि अब तक लाखों लोग कोरोना और इलाज के अभाव में बेमौत मर चुके हैं और दुनियाभर के लोग भारत सरकार को कोस रहे हैं. उन्हें दुख इस बात का था कि लाख कोशिशों के बाद भी पश्चिम बंगाल में भाजपा औंधेमुंह लुढ़क गई. धर्मावलंबी सरकार की बड़ी गलती हरिद्वार कुंभ का भव्य आयोजन होने देना था जिस में लाखों लोग देशभर से डुबकी लगाने आए और पुण्य की गठरी की जगह कोरोना वायरस का संक्रमण अपने साथ ले जा कर फैलाया. यह फैसला देशभर को काफी महंगा पड़ा जिस ने संक्रमण इस तरह फैलाया कि सरकार ने हाथ खड़े कर दिए कि अब हम कुछ नहीं कर सकते, जो पूछना है वह ऊपर जा कर भगवान से पूछना.

यह बेशर्मी, जिद, लापरवाही और मनमानी की हद थी जिस की मिसाल शायद ही ढूंढे़ से कहीं मिले. अंधविश्वासी जनता हर जगह होती है जो आस्था में बह कर काम करती है. शासक का काम नियंत्रित करना होता है. कुंभ में पहले लोग बिछुड़ते थे, भगदड़ होती थी, आज नहीं होती क्योंकि अब भक्त नहीं, सरकार जागरूक हुई. अब इस मौके पर सब भुला दिया गया. चुनावी युद्ध सरिता के मार्च (द्वितीय) अंक में भाजपा की मंशा पर लेख ‘5 राज्यों के चुनाव, राम वाम या काम’ में बहुत सधे ढंग और सलीके से उजागर किया था व यह स्पष्ट भी किया था कि धर्म और राम नाम का कार्ड वहां नहीं चलने वाला. उक्त रिपोर्ट के कुछ अंश यहां प्रस्तुत हैं. इस बाबत पहले स्पष्ट कर देना जरूरी है कि ‘सरिता’ भविष्यवाणियों और अटकलों में यकीन नहीं करती लेकिन निष्पक्ष जमीनी लेखन इसे औरों से भिन्न व पाठकों की पसंद बनाए रखे हुए है, खासतौर से उस दौर में जब पूरा मीडिया और न्यूज चैनल्स अपने सर्वेक्षणों में भाजपा को जीता हुआ बता कर लोगों को गुमराह करते हैं, जिस से न केवल उन की बल्कि समूचे मीडिया की विश्वसनीयता कठघरे में खड़ी नजर आती है.

आइए देखें कुछ वे अंश : पांचों राज्यों में मुसलमानों, ईसाइयों सहित दलितों व आदिवासियों के खासे वोट हैं. लड़ाई इसी बात की है कि एक यानी भाजपा की तरफ हो गए सवर्णों को अगर दलितों, आदिवासियों के 20-25 फीसदी वोट भी मिल जाएं तो भगवा गैंग का हिंदू राष्ट्र का सपना पूरी तरह साकार हो सकता है और वर्णव्यवस्था थोपने को ले कर अभी निराशहताश होने की जरूरत नहीं. 2 मई को आने वाले नतीजे यह नहीं बताएंगे कि कौन जीता कौन हारा, बल्कि यह बताएंगे कि चुनावी जनगणना में तादाद किस की ज्यादा निकली और जनता ने किसे मठाधीश चुना. सीधेतौर पर कहा जाए तो यह चुनावी घमासान यह बताएगा कि राम और नई शक्ल लेते वाम में से कौन चला. बीती 9 व 10 मार्च को ममता बनर्जी जब नंदीग्राम, जहां से वे चुनाव लड़ रही हैं, पहुंचीं और एकाएक ही यह बोलीं कि ‘मेरे साथ हिंदू कार्ड मत खेलो, मैं भी हिंदू हूं और घर से चंडी पाठ कर के निकलती हूं.’

खुद को हिंदू बताने के लिए उन्होंने मंच से दुर्गा मंत्र का भी पाठ कर डाला और शिव मंदिर जा कर पूजाअर्चना भी की. यह उन की गलती है क्योंकि फिलहाल हिंदू होने का सर्टिफिकेट केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मारफत मिल सकता है. बंगाल में अपना नया हिंदुत्व गढ़ कर ममता ने भाजपा को दिक्कत में डालने में जरूर कामयाबी पा ली है. जहर से जहर काटने का यह टोटका भगवा खेमे में खलबली मचाने के लिए काफी था. पश्चिम बंगाल के लोगों की भी धार्मिक भावनाएं ममता के धार्मिक पाखंडों के चलते उम्मीद के मुताबिक नहीं भड़कीं क्योंकि देवीदेवताओं के नाम पर वहां विष्णु और उस के अवतार राम, कृष्ण कम बल्कि दुर्गा और काली पूजी जाती हैं.

अब यह देखना वाकई दिलचस्प होगा कि जनता किसे चुनती है – राम को, जो सिर्फ ऊंची जाति वालों के लिए हैं या नए तरीके से आकार लेते वाम को, जिस में सभी के लिए बराबरी, जगह और सम्मान है. शायद उन्हें (असुदुद्दीन ओवैसी) सम झ आ रहा है कि बंगाल का मुसलमान उन्हें बिहार जैसा भाव नहीं देगा क्योंकि ममता को ही चुनना उस की मजबूरी हो गई है और उन की पार्टी कोई गुल नहीं खिला पाएगी. नतीजे साफतौर पर बताते हैं कि लोगों ने धर्म के सहारे सत्ता हासिल करने का भाजपा का सपना खाक कर दिया जिसे पश्चिम बंगाल में 292 में से केवल 77 सीटें मिलीं जबकि उस का दावा 200 सीटें पार करने का था. उस का वोट फीसदी भी 2019 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले 3 फीसदी घटा है और बढ़त भी 124 से कम हो गई है. उलट इस के, टीएमसी ने अपनी सीटें और वोट फीसदी दोनों बढ़ा कर यह जता दिया है कि नारा बराबरी वाला ही चलेगा.

टीएमसी को अनुमानों से परे 213 सीटें मिली हैं हालांकि ममता बनर्जी नंदीग्राम सीट से भाजपा के सुवेंदु अधिकारी से हार गई हैं पर यह ठीक वैसा ही है कि क्रिकेट के खेल में कोई कैप्टन बल्लेबाज कम स्कोर पर आउट हो जाए लेकिन टीम को धमाकेदार जीत दिला ले जाए. दुर्गति का शिकार कांग्रेस और कम्युनिस्ट हुए हैं जो खाता भी नहीं खोल पाए. महिलाओं ने भी ममता पर भरोसा जताया कि वही उन की हिफाजत कर सकती हैं. भाजपा का स्त्री विरोधी चेहरा तो तभी उजागर हो गया था जब नरेंद्र मोदी ने ममता बनर्जी का मजाक उड़ाने के लहजे में एक खास लेकिन घटिया अंदाज में ‘दीदी…ओ…दीदी…’ कहा था. भाजपा जाहिर है, टीएमसी से कुछ नहीं छीन पाई है. उसे जो भी मिला वह एक तरह से कम्युनिस्टों और कांग्रेस के हिस्से का मिला. भाजपा पूरे चुनाव प्रचार में राम के सहारे रही और ममता को कोसती रही कि वे मुसलिम तुष्टिकरण की राजनीति करती हैं, उन्हें श्रीराम की जय बोलने से चिढ़ होती है, वे कलमा पढ़ती हैं और हिंदुत्व व विकास की दुश्मन हैं.

यानी हिंदू तुष्टिकरण की राजनीति ही धर्म है. ममता क्या हैं और कैसे व क्यों भाजपाई क्षत्रपों पर अकेले भारी पड़ीं, यह नतीजों के बाद साफ हो गया है कि उन्हें मुसलमानों से ज्यादा हिंदुओं के वोट मिले. बंगाल में मुसलमानों ने संभल कर एकतरफा टीएमसी को वोट किया. खुद को वैष्णव मानने वाले जिस मतुआ समुदाय के दम पर भाजपा बड़ीबड़ी डींगें हांक रही थी उस ने भी पूरी तरह उस का साथ नहीं निभाया. भाजपाई होहल्ला मतदाता को ज्यादा प्रभावित नहीं कर पाया और नरेंद्र मोदी अपना प्रभाव खो रहे हैं जो कोरोना से मृत लाखों लोगों की लाशों पर जीत का ख्वाव देख रहे थे. बंगालियों को भावनात्मक तौर पर लुभाने के लिए उन्होंने रवींद्रनाथ टैगोर कट दाढ़ी भी रख ली थी.

सोनार बांगला का उन का नारा नहीं चला तो साफ यह भी हुआ कि भाजपा के झूठ और फरेब की गठरी की गठान बंगाल से खुल गई है. दुखी अमित शाह के व्यापारी और पूंजीपति मित्र भी होंगे जिन्हें बंगाल में अपना कारोबार और मुनाफा दिख रहा था. यहां नक्सली अहम और उल्लेखनीय हो जाते हैं जिन की वजह से कम्युनिस्टों ने 34 साल बंगाल पर राज किया लेकिन जैसे ही 2009 से तत्कालीन मुख्यमंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्य ने पूंजीपतियों से पींगें बढ़ाईं तो वोटरों ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखाते 2011 के चुनाव में ममता बनर्जी पर भरोसा जताया और अब अगले 5 साल के लिए उस का नवीनीकरण भी कर दिया. असल में पश्चिम बंगाल के लोग प्रचार शुरू होते ही भगवा गैंग के पाखंडी संस्कारों को भांप गए थे कि ये लोग अगर सत्ता में आए तो कामधाम तो कुछ करेंगे नहीं, बस, रामराम करते रहने की आड़ में पूंजीपतियों को प्रदेश सौंप देंगे. इस के एवज में धर्मकर्म फलेगाफूलेगा, ब्राह्मणबनिया गठजोड़ की पुनर्स्थापना होगी और पुरोहितवाद पनपेगा जिस से बंगाल पिछड़ेगा और इस से भी ज्यादा चिंता की बात आएदिन सांप्रदायिक हिंसा होगी जिस से राज्य का अमनचैन छिन जाएगा.

नए तरह का वाम उन्हें ममता में दिखा जो कर्मकांड नहीं करतीं, नदियों में हरहर गंगे बोल कर डुबकी नहीं लगातीं, दलितों, मुसलमानों और आदिवासियों से नफरत नहीं करतीं, पुजारियोंपंडों के पैर छू कर उन्हें दानदक्षिणा नहीं देतीं लेकिन चुनाव जीतने के लिए उन्हें भी खुद को हिंदू ब्राह्मण कहने और अपना गोत्र बताने से कोई गुरेजपरहेज नहीं होता. इस पर उन का परंपरागत मुसलिम वोटबैंक एतराज भी नहीं जताता क्योंकि उसे सिर्फ सम्मान और सुरक्षा चाहिए. तेजी से पनपती यह अस्थाई अर्धधार्मिक राजनीति भाजपा को सांसत में डाले हुए है जिसे दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी करते हैं और झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी करते हैं और यहां तक कि ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक भी इस टोटके का अपवाद नहीं. लेकिन अच्छी बात यह है कि ये और ऐसे लोग धर्म से ऊपर जनता का काम और हित रखते हैं. कोरोना को मैनेज करने में अरविंद केजरीवाल पीछे नहीं रहे जबकि केंद्र सरकार दिल्ली के साथ भेदभाव करती रही. जनता चाहती यह है कि संकट के इन दिनों में हालात कैसे भी हों, उन का मुख्यमंत्री दिल से उन के साथ खड़ा रहे जो कि केजरीवाल, नवीन पटनायक और हेमंत सोरेन ने किया जबकि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान इस उम्मीद पर खरे नहीं उतरे. दोनों कोरोना के कहर के वक्त पश्चिम बंगाल व दूसरे राज्यों में चुनावप्रचार करते दिखे.

तमिलनाडु में भी डूबे तमिलनाडु में भाजपा तो उम्मीद के मुताबिक डूबी ही, साथ ही अपनी सहयोगी सत्तारूढ़ एआईएडीएमके को भी ले डूबी. दक्षिण भारत के इस राज्य में धर्मकर्म की राजनीति इस बार भी नहीं चली क्योंकि सत्ताविरोधी लहर इतनी जबरदस्त थी कि बदलाव के अलावा कोई और मुद्दा जोर ही नहीं पकड़ पाया. भाजपा और एआईएडीएमके के गठजोड़ को 234 में से केवल 78 सीटें मिलीं. इन में से 4 भाजपा के हिस्से में आईं और एआईएडीएमके महज 66 सीटों पर सिमट कर रह गई. साल 2016 के चुनाव में एआईएडीएमके को जयललिता की अगुआई में 136 सीटें मिली थीं. उलट इस के, डीएमके-कांग्रेस गठबंधन को 156 सीटें मिलीं जिन में कांग्रेस की भागीदारी 18 सीटों की रही. डीएमके प्रमुख एम के स्टालिन को मुख्यमंत्री पलानीस्वामी की गिरती इमेज का पूरा फायदा मिला जो हर मोरचे पर नाकाम साबित हुए.

जयललिता की मौत के बाद से ही वे भीतर और बाहर की दुश्वारियों से जू झ रहे थे. एम के स्टालिन तमिलनाडु के जानेमाने नेता हैं जिन्हें अपने पिता करुणानिधि के नाम का फायदा मिला. भाजपा के तमाम दिग्गज नेताओं ने तमिलनाडु में भी रैलियां की थीं जो तमाशा साबित हुईं और वोटरों ने उन्हें भाव नहीं दिया. भाजपा लाख कोशिशों के बाद भी इस राज्य में अपनी जड़ें नहीं जमा पा रही है, तो उस की अपनी वजहें भी हैं. इन में सब से पहली तो यह है कि केरल और बंगाल की तरह यहां के लोग राम नाम पर तवज्जुह नहीं देते और उसे हिंदी पट्टी की पार्टी मानते हैं. यहां बंगाल की तरह उतने हिंदीभाषी भी नहीं हैं जो थोड़ीबहुत सीटें उसे दिला दें. कांग्रेस भी यहां कुछ खास नहीं कर पाती लेकिन भाजपा से बेहतर प्रदर्शन वह हर बार करती है जिस की वजह उस के स्थानीय नेता हैं.

अब बारी एम के स्टालिन को खुद को साबित करने की है कि वे काम करें वरना जनता उन्हें भी उखाड़ फेंकने से परहेज नहीं करेगी. केरल में विजयन चमके भाजपा को इस बार वामपंथियों के गढ़ केरल से बड़ी उम्मीदें थीं कि वह सत्तारूढ़ एलडीएफ और यूडीएफ की लड़ाई में अपने लिए निर्णायक जगह बना लेगी. इस बाबत नरेंद्र मोदी, अमित शाह और योगी आदित्यनाथ ने केरल के अपने दौरों में धर्मांतरण को मुद्दा बनाने की पूरी कोशिश की थी लेकिन दूसरे राज्यों की तरह धर्म का कार्ड यहां भी नहीं चला. सो, भाजपा को चाहिए कि वह मुद्दों की राजनीति करे वरना हिंदीभाषी राज्यों में भी उस की स्थिति खराब हो सकती है. जहां इन नतीजों को ले कर खासी हलचल है उन राज्यों में भाजपा ने सत्ता राममंदिर और धर्म के नाम पर हासिल की हुई है.

इस चुनाव में भाजपा ने 88 वर्षीय श्रीधरन, जो मैट्रोमैन के नाम से मशहूर हैं, को पार्टी में ले कर हलचल मचाने की कोशिश की थी लेकिन उस का खाता भी यहां नहीं खुल पाया और खुद श्रीधरन भी हार गए. 2016 के चुनाव में एक सीट मिलने भर से भाजपा ने बगैर किसी जमीन के केरल से हिंदुत्व के सहारे जरूरत से ज्यादा उम्मीदें पाल ली थीं. मिला कांग्रेस को भी कुछ नहीं है जबकि राहुल, प्रियंका गांधी ने केरल में जम कर प्रचार किया था. उस के गठबंधन यूडीएफ को 140 में से केवल 41 सीटें मिलीं जबकि एलडीएफ के खाते में 93 सीटें गईं. कांग्रेस को हालांकि सीटों और वोट फीसदी का ज्यादा नुकसान नहीं हुआ लेकिन उस की सहयोगी पार्टियां पिछड़ गईं और मुख्यमंत्री पी विजयन की इमेज ने उन्हें दोबारा मुख्यमंत्री बनवा दिया. केरल का नतीजा वैचारिक रूप से उल्लेखनीय है कि वामपंथ अभी जिंदा है.

इस का दूसरा पहलू यह है कि दक्षिणपंथियों को अभी और मशक्कत करनी पड़ेगी और इस के बाद भी कोई गारंटी नहीं कि केरल जैसे राज्य हिंदू राष्ट्र के हवनकुंड में वोटों की आहुति डालेंगे. असम से राहत धर्मकर्म की बातों से परहेज करते हुए असम में भाजपा विकास को मुद्दा बना कर ही नैया पार लगा पाई क्योंकि यहां उस की सरकार थी. पूर्वोत्तर के सब से बड़े इस राज्य में भी कांग्रेस को मायूसी हाथ लगी. भाजपा यहां शुरू से ही सतर्क थी और सीएए कानून के मुद्दे को उस ने मैनेज कर लिया. इस के अलावा, एहतियात बरतते उस ने मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल को बतौर सीएम पेश नहीं किया था जिस का फायदा उसे मिला और सत्ताविरोधी लहर नहीं चल पाई.

बहुसंख्यक वोटों को साधने को भाजपा द्वारा हेमंत विस्वा सरमा को भी आगे करना उस की जीत की अहम वजह बना. कांग्रेस यह आंकने में असफल रही कि अपर असम में वोटों का ध्रुवीकरण भाजपा के हक में जा रहा है. हिंदीभाषी इलाकों में वोट थोक में भाजपा के पक्ष में गए और अल्पसंख्यक वोट एकमुश्त उसे न मिल कर छोटी पार्टियों के हिस्से में भी चले गए. नतीजतन, कांग्रेस-एआईयूडीएफ गठबंधन 50 सीटों पर सिमट कर रह गया और भाजपा गठबंधन 74 सीटें जीत गया. एआईयूडीएफ के मुखिया बदरुद्दीन अजमल मुसलिम वोटों को सहेज कर रखने में नाकाम रहे. असम की हार जता गई कि कांग्रेस के पास रणनीतिकारों का टोटा हो चला है. उस के पास दूसरी पंक्ति के नेता भी इनेगिने बचे हैं. हर जगह राहुल गांधी के दर्शन करा कर वह चुनाव नहीं जीत सकती.

पुदुचेरी में कमल असम जैसी गलती कांग्रेस ने पुदुचेरी में भी दोहराई और सत्ता थाल में परोस कर भाजपा व एआईएनआर कांग्रेस को सौंप दी. जो भाजपा यहां खाता खोलने को भी तरस रही थी, उस ने 6 और एआईएनआर कांग्रेस ने 10 सीटें जीत कर सब को चौंका दिया. कांग्रेस को 30 में से केवल 2 और डीएमके को 6 सीटों से तसल्ली करनी पड़ी. दूसरी छोटी पार्टियां 6 सीटें ले गईं. चुनाव के ठीक पहले ही कांग्रेस के 4 विधायकों के इस्तीफे से यहां कांग्रेस अल्पमत में आ गई थी. उस के 2 विधायकों को भाजपा ने फोड़ लिया था जिस का फायदा उसे मिला. सभी हैं गुनाहगार इन चुनावी आंकड़ों और विश्लेषण पर कोरोना से लाशों का ढेर भारी पड़ रहा है. सोचा जाना स्वभाविक है कि इस चुनावी युद्ध से किसे क्या मिला. ममता बनर्जी कामयाब जरूर रहीं, लेकिन रैलियां करने के मामले में वे भाजपाइयों से कम गुनाहगार नहीं. लगता नहीं कि वे अपनी पार्टी की जीत से खुश होंगी. अर्जुन को तो कृष्ण ने बहलाफुसला लिया था लेकिन युद्ध के बाद का नजारा उतना ही दिल दहला देने वाला था जितना कि आज है.

अंतर सिर्फ लोगों के मारे जाने के तरीके और वजह का है. मौजूदा दौर में कोरोना से मृत लोगों का सटीक आंकड़ा शायद ही मिले पर जिस तेजी से संक्रमित लोग बढ़ और मर रहे हैं उसे देख लगता है कि महाभारत में वर्णित काल्पनिक आंकड़ों की संख्या देश पार कर लेगा. काल्पनिक महाभारत युद्ध में पुरुष ज्यादा मारे गए थे. नतीजतन, विधवाओं और अनाथ बच्चों की तादाद बढ़ गई थी. अब भी हालत वही है. महिलाएं भी कोरोना का शिकार हो कर मर रही हैं जिस से विधुर और विधवाओं के सामने छोटे बच्चों की परवरिश का और खुद की सहज जिंदगी गुजारने का संकट मुंहबाए खड़ा है. कोरोनाकाल में अंतिम संस्कार के लाले पड़े हुए हैं श्मशान घाटों तक पर लाइनें लगी हैं, लकडि़यों का टोटा है, जगह कम है और अंतिम संस्कार करने वाले डोम तक शिफ्टों में भी लाशों को जला नहीं पा रहे.

अंतिम संस्कार पर भी पैसा कमाने वाले पंडे कोरोना के डर से घरों में दुबके पड़े हैं. अपने प्रियजनों की मौत का दुख और मातम भी लोग सलीके से नहीं मना पा रहे हैं जो एक सहज मानवीय संवेदना है. देशभर में पसरी असंवेदना के जिम्मेदार लोगों के लिए धिक्कारने वाली बात और स्थिति है जो चुनाव के दौरान लाखों लोगों की रैलियां करते रहे और सब से बड़े धार्मिक इवैंट कुंभ में लोगों को डुबकी लगवा कर मोक्ष का वायरस फैलाते रहे. इन के लिए चुनाव जरूरी था. यह खेल सब ने खूब खेला, जिस के नतीजे में देश में लाशों का मेला लग गया. अगर चुनाव कराने ही थे तो बिना रैली के भी हो सकते थे. आखिर दोनों पक्षों की कौन सी बात ऐसी थी जो जनता नहीं जानती थी. जब जनता को मालूम था कि कोरोना का काला साया सिर पर है तो रैलियों में भक्तों और समर्थकों में शामिल होने की जरूरत न थी.

पर शासकों ने सत्ता और धर्म की दुकानदारी को पुराने ढंग से ही चलाने के लिए पश्चिम बंगाल में ही नहीं, पांचों राज्यों में चुनाव कराने के साथ जम कर रैलियां कीं. नरेंद्र मोदी को यह गुमान हो चुका है कि उन का चेहरा देखते ही वोटर का दिमाग बदल जाता है. पश्चिम बंगाल में 8 चरणों में वोट डलवाए गए ताकि नरेंद्र मोदी को अपना चेहरा दिखाने के अवसर ज्यादा मिलें. उन्होंने लगभग 15 से ज्यादा रैलियां पश्चिम बंगाल में कीं. कुंभ के बिना भी काम चल सकता था पर धर्म का धंधा चालू रहे, इस के लिए नरेंद्र मोदी की हिम्मत नहीं हुई कि उसे टलवाने का आदेश दें. उन्हीं लोगों की मेहरबानी से तो सिंहासन पर बैठे हैं वे. कुंभ के कारण किस तरह कोरोना फैला होगा, इस का अंदाजा ही लगाया जा सकता है. पर जो सरकार 2 गज की दूरी और मास्क को जरूरत पर (चुनावी रैलियों और कुंभ मेले के दौरान) नजरअंदाज कर रही हो वह कैसे पूरे देश को ही नहीं, पूरी दुनिया को फिर कोरोना महामारी की चपेट में ला सकती है.

धर्म और सत्ता के नशे ने शासकों की तार्किक बुद्धि को बिलकुल कुंद कर दिया और अब लाखों परिवार इस का खमियाजा 20-30 साल भुगतेंगे क्योंकि उन के एकदो या ज्यादा प्रियजन असमय चले गए. अर्जुन की आशंका बेमानी नहीं थी लेकिन कृष्ण के जवाब क्रूरता और अमानवीयता की मिसाल थे जिन पर धर्म का रैपर लपेट दिया गया. हो आज भी वही रहा है, बस, नाम युद्ध की जगह चुनाव हो गया है. मोदीभक्त अपने भगवान की गलती स्वीकारेंगे, यह उम्मीद उन से करना बेमानी है क्योंकि ये धर्मजीवी तो मानते हैं कि शरीर नश्वर और धर्म व सत्ता ही सबकुछ है. कृष्ण ने अर्जुन से कहा भी है कि  अव्यक्तोऽन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते। तस्मादेवं विदित्चैनं नानुशोचितुमर्हसि।।2.25।।

(श्रीमद्भगवतगीता, अध्याय 2, श्लोक 25) इस आत्मा को अव्यक्त, अचिन्त्य और अविकारी कहा जाता है, इसलिए इस को इस प्रकार जान कर तुम को शोक करना उचित नहीं है. जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च। तस्मभदपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमहैसि।2.27।। (श्रीमद्भगवतगीता, अध्याय 2, श्लोक 27) जन्म लेने वाले की मृत्यु निश्चित है और मरने वाले का जन्म निश्चित है. इसलिए, जो अटल है, अपरिहार्य है उस के विषय में तुम को शोक नहीं करना चाहिए.

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