धर्म और आस्था के नाम पर हम नेताओं के उकसावे में आकर मंदिर-मस्जिद, श्मशान-कब्रिस्तान के लिए लड़ते-मरते रहे. हमने इन्हीं खोखली बातों के लिए उन्हें वोट देकर अपने सिर पर बिठाया. आज मंदिर-मस्जिद क्या किसी के काम आ रहे हैं? पंडित-मौलाना-पादरी क्या किसी का दर्द दूर कर रहे हैं? जिनको आपने अपने बहुमूल्य वोट से शहंशाह बना दिया वो सारे के सारे कहीं किसी अँधेरे कोने में खुद दुबके पड़े हैं. इस आपदाकाल में देश का गृहमंत्री तक कहीं नज़र नहीं आ रहा है.

गंगा-यमुना में लाशों के झुण्ड के झुण्ड बह रहे हैं. गंगा के पाटों पर जहाँ तक नज़र जाए बालू में दबी लाशें ही लाशें दिख रही हैं, जो बारिश के पानी से धुल कर बाहर निकल आयी हैं. वो जो कभी तुम्हारे पिता थे, माता थी, भाई, बहन, चाचा, मामा, ताऊ, बेटी, बेटा, पोता-पोती थे, जिन्हें तुम्हारी चुनी हुई सरकार ने महामारी से जूझने के लिए अकेले-बेसहारा छोड़ दिया, जिन्हें एक एक साँस के लिए तड़पा दिया, जो जीवित बच सकते थे अगर अस्पताल में जगह मिल जाती, ऑक्सीजन से चंद साँसे मिल जातीं, मगर खोखली सरकार उनके लिए इतना भी ना कर पायी. आज वे गंगा की रेत पर पड़े गिद्ध, कौवे, सियार और कुत्तों का निवाला बन रहे हैं. तुम्हारी चुनी हुई सरकार तुम्हारे परिजनों को एक सम्मानजनक अंतिम विदाई भी नहीं दे पायी. ना उन्हें चार कंधे नसीब हुए, ना धार्मिक मान्यताओं के अनुसार उनकी अंतिम क्रिया हुई. सारी धार्मिक क्रियाएं चिन्दी चिन्दी हो गंगा की रेत पर पड़ी हैं. किसी हिंदू ने कभी सपने में नहीं सोचा होगा कि बेबसी का वो दौर भी आयेगा, जब सम्मानजनक अग्नि संस्कार की जगह उनके शव को गंगा की रेत में दफना दिया जाएगा. वो भी उस राज में जिसके नेता सुबह से शाम तक हिंदू जाप ही करते हों.

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तुम्हारी चुनी हुई सरकार की विफलताओं के बीच कोरोना ने श्मशान-कब्रिस्तान का भेद ही ख़त्म कर दिया है. गंगा के पाट हिन्दुओं का कब्रिस्तान बन चुके हैं और शवदाहगृह मुसलामानों के श्मशान बन गए हैं, जहाँ कोरोनाग्रस्त मुस्लिम लाशें भी अग्नि के सुपुर्द की जा रही हैं. इस सरकार ने सारे धर्मों-संस्कारों को गडमड कर दिया. गंगा के किनारे से पत्रकार दिलीप सिंह लिखते हैं –   मैं गंगा किनारे ही पैदा हुआ हूं. यहीं बड़ा हुआ हूं, लेकिन मैंने अपनी पूरी जिंदगी में आज तक ऐसा दर्दनाक नजारा पहले कभी नहीं देखा. मैं उत्तर प्रदेश के उन्नाव स्थित उस गंगा घाट के किनारे हूं, जहां एक साथ 500 से ज्यादा लाशें दफन हैं. ज्यादा भी हो सकती हैं. आंकड़े छिपाये जा रहे हैं. ये लाशें हिंदुओं की हों या मुसलमानों की… कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि हैं तो इंसानों की ही. सदियों से गंगा बह रही है, लेकिन आज तक गंगा के किनारे बसे गांव वालों ने इंसानियत को तार-तार करने वाला ऐसा मंजर कभी नहीं देखा. मैंने जो देखा…मेरी रूह कांप उठी. रात में हुई बारिश के चलते गंगा का जलस्तर क्या बढ़ा, कई लाशें बाहर आ गईं. एक-दो नहीं बल्कि पचासों कुत्ते उन पर टूट पड़े थे. हर तरफ लाशों का अंबार और क्षत-विक्षत मानव अंग. कुछ देर होते ही प्रशासनिक अफसर भी पहुंच गए. देखते ही देखते लाशों के ऊपर से कफन हटवाया जाने लगा. मैं कुछ समझ पाता, तब तक उन लाशों पर बालू भी डलवा दी गई. कफन को हटाने का मकसद शायद ये था कि दूर से कोई लाशों की पहचान और गिनती न कर सके.

कोरोना ने हमें बता दिया कि हमारी सारी ऊर्जा, सारा ज्ञान, सारी मेहनत, सारा धन वास्तव में जिन कामों के लिए लगना चाहिए था, वहां लगा ही नहीं. सब फिजूल के कामों में खप गया. हम नेताओं के हाथों छले गए. उन्होंने हमसे मंदिर के नाम पर वोट लिया. मंदिर बनाया, पर हमें ज़रूरत तो अस्पतालों की थी. सोशल मीडिया का उपयोग धार्मिक उन्माद फैलाने के लिए होता रहा, मॉब लिंचिंग और दंगे भड़काने के लिए होता रहा, पर ज़रुरत तो इस बात की थी कि गाँव-कसबे तक इंटरनेट का फैलाव होता तो आज गाँव-देहात का बच्चा भी ऑनलाइन शिक्षा से जुड़ा रह सकता था. कोरोना काल में गरीब तबके के लाखों बच्चे जिनका नाता स्कूल और पढ़ाई से टूट चुका है, जिन्होंने बीते डेढ़ साल में ऑनलाइन शिक्षा भी नहीं पायी, क्या वे फिर कभी वापस स्कूल जा पाएंगे? शायद अब कभी नहीं. इस सरकार ने हज़ारों बच्चों को अनाथ कर दिया और लाखों को शिक्षा से हमेशा के लिए दूर कर दिया.

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देश का स्वास्थ्य और शिक्षा का ढांचा कितना जर्जर था, ये कोरोना ने पलक झपकते दिखा दिया. कोरोना ने नेताओं की असलियत खोल कर तुम्हारे सामने रख दी है. दुनिया के सामने इस सरकार को नंगा कर दिया है. वे विश्वगुरु बनने चले थे, कोरोना ने हाथ में कटोरा थमा दिया कि अपने नागरिकों की जान बचानी है तो दुनिया भर से दवा, इंजेक्शन, वैक्सीन और मेडिकल उपकरण मांगो. क्या अब भी तुम्हारी चुनी हुई सरकार को और तुमको शर्म नहीं आती? क्या अपनों को पलक झपकते लाशों में तब्दील होते देखने के बाद भी इस बात का अफ़सोस नहीं होता कि किन नरपिशाचों के हाथ तुमने सत्ता सौंप दी?

तुम्हारी चुनी हुई सरकार जो पिछले सात साल से ‘विकास’ का ढोल पीट रही है मगर आज तक ‘विकास’ की प्राथमिकताएं तक तय नहीं कर पायी. मोदी सरकार का यह ‘न्यू इंडिया’ है कि एक महिला जो अपने कोरोना से तड़पते पति को इलाज के लिए किसी तरह अस्पताल में दाखिल करवा पायी थी, रात को मेडिकल स्टाफ का आदमी उसके सीने पर हाथ मार कर उसका दुपट्टा खींच लेता है, उसके अंगों को छूने की नापाक कोशिश करता है और उसकी इस घिनौनी हरकत पर कोई कुछ नहीं बोल पाता. ऑक्सीजन के अभाव में एक-एक सांस के लिए छटपटाता पति अपनी पत्नी के साथ ऐसी घिनौनी हरकत होते देख पसीने से लथपथ हो जाता है और वहां खड़े डॉक्टर अपने कर्मचारी की हरकत पर खींसे निपोरते रहते हैं. ये है मोदी का ‘न्यू इंडिया’? ये है मोदी का स्किल इंडिया, जहाँ मुर्दे को कंधा देने के लिए लोग मजबूर परिजनों की जेब से आखिरी सिक्का तक झड़वा ले रहे हैं. स्किल इंडिया जहाँ श्मशानों-कब्रिस्तानों से कफन चोरी हो रहे हैं. ये है मोदी का ‘आत्मनिर्भर भारत’ जब एक 45 साल के बेटे को 75 साल के कोरोना से मरे बाप को श्मशान तक ले जाने के लिए अस्पताल वाले कोई वाहन नहीं देते और वह बाप की लाश को कंधे पर उठा कर दस किलोमीटर पैदल चला जाता है.

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दुनिया के इतिहास में वर्ष 2021का भारत एक काले पन्ने के रूप में याद किया जाएगा. एक ऐसी सरकार जिसने साल 2014 में ‘अच्छे दिन’ लाने का वादा किया था उसने सात साल में भारत का वो हश्र कर दिया कि अस्पतालों में ऑक्सीजन और दवाओं के अभाव में लाखों लोग मर गए. एक ऐसी सरकार जो मरने के बाद अपने नागरिक का उसके धर्म के अनुसार उचित क्रियाकर्म तक ना करवा सकी. एम्बुलेंस में भर भर कर लाशों को गंगा की रेत पर डलवा दिया ताकि कौवे, चील, कुत्ते और सियार नोचते रहें.

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