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Family Story in Hindi : प्यार का मूल्य – भाग 1

लेखिका- छाया श्रीवास्तव

धंधा न करने की जिद पर गीता इतनी मार सह चुकी थी कि उस का पोरपोर हर क्षण टीसता रहता था. कई दिनों से उसे भरपेट अन्न नहीं मिला था, सिर्फ इतना मिलता कि वह मर न सके, तो भी धंधे में ?ांकी जाती रही. अधमरी सी.

बीच सड़क पर बदहवास सी एक युवती स्कूटर सवार से टकरातेटकराते बची और पीछे से कुछ लोग उसे पकड़ने के लिए दौड़े आ रहे थे. वह उन्हें देख कर दमभर चिल्लाई, ‘‘भैया, मु?ो इन गुंडों से बचा लो. ये मु?ा से ‘धंधा’ करवाते हैं. मु?ो पुलिस स्टेशन ले चलो, भैया. तुम्हारा यह उपकार मैं कभी नहीं भूलूंगी.’’

इतना कह कर वह जबरन उस के स्कूटर पर बैठ गई. तभी उन गुंडों में से एक उस की बांह पकड़ कर खींचते हुए बोला, ‘‘उतर, कमीनी, नहीं तो जान  से मार दूंगा,’’ फिर वह उस स्कूटर सवार से बोला, ‘‘यह पागल है, इसे उतार दो.’’ ‘‘भैया, स्कूटर दौड़ा लो. न मैं पागल हूं, न बीमार. ये लोग मु?ा से जबरन धंधा करवाते हैं,’’ युवती गुंडों की ओर संकेत करती बोली.

वह घबराहट में रोती हुई चिल्लाए जा रही थी और वे गुंडे उसे घेरने को आतुर थे. तभी स्कूटर सवार युवक ने उस युवती को पकड़ कर खींचने वाले गुंडे को भरपूर लात मारी, जिस से वह लड़खड़ा कर दूर जा गिरा. जब तक वह गुंडा संभलता और उस के साथी उस स्कूटर सवार पर ?ापटते, स्कूटर सवार स्कूटर की स्पीड बढ़ा कर आगे बढ़ गया. जब तक वह दिखता रहा, गुंडे उस का पीछा करते रहे. फिर स्कूटर सवार कहां गुम हो गया वे जान न सके और हाथ मलते, गाली बकते लौट गए.

इधर, संकरी गलियां पार करता वह युवक सीधा कोतवाली पहुंच कर ही रुका. फिर मुड़ कर बोला, ‘‘लो लड़की, कोतवाली आ गई. दाईं ओर औफिस में थानेदार साहब बैठे हैं. मैं तो ?ां?ाट में फंसना नहीं चाहता. मेरी पत्नी बीमार है, उसी की दवा ले कर लौट रहा था,’’ वह दवा दिखाते हुए आगे बोला, ‘‘यह देखो, ये रखी हैं. घर पर छोटेछोटे 2 बच्चे अकेले हैं. औफिस से लौट कर और जाते समय उन्हें देखना पड़ता है. बस, पुलिस को तुम यह बता देना कि मुंहबोला एक भाई उन दुष्टों से बचा कर यहां छोड़ गया है. अच्छा, मैं चलता हूं,’’ और वह स्कूटर की स्पीड बढ़ा कर चलता बना.

वह युवती अपनी गीली आंखें पोंछती अंदर चल दी जहां कुछ बड़े अधिकारी कुरसियों पर बैठे थे. यद्यपि उस का मन कह रहा था कि वह पुलिस के ?ामेले से भाग छूटे. पता नहीं वे कमबख्त उसे पागल करार दे कर फिर न हथियाने की चेष्टा करें, मगर वह इतने बड़े नगर में कहां सुरक्षा ढूंढ़े? वह खड़ीखड़ी सोच ही रही थी कि तभी एक सिपाही की दृष्टि उस पर पड़ गई.

‘‘लड़की, कौन हो तुम? किस  से मिलना है?’’ सिपाही उसे हड़काते  हुए बोला. ‘‘जी, मैं थानेदार साहब से मिलना चाहती हूं. एक मुसीबतजदा हूं. कहां  हैं वे?’’‘‘वह क्या सामने बैठे हैं,’’ वह इशारा कर बोला और उसे ले कर थानेदार के सामने जा खड़ा हुआ, ‘‘साहब, यह लड़की आप से मिलना चाहती है.’’

‘‘क्यों? क्या बात है? घर से भाग कर आई है क्या?’’ कहते हुए थानेदार ने नजर उठा कर उसे भरपूर दृष्टि से देखा, फिर सिपाही से बोला, ‘‘कौन  है यह?’’‘‘यह तो मैं भी नहीं जानता, पर आप से मिलना चाहती थी, सो मैं ले आया.’’ ‘‘कौन हो तुम? क्या नाम है तुम्हारा? क्या बात है?’’ थानेदार ने युवती से पूछा.

‘‘साहब, मैं गीता हूं और गुंडों के चंगुल से भाग कर आई हूं. वहां मु?ा जैसी ही 8-10 लड़कियां और भी हैं जो बदमाशों द्वारा धंधा करने को मजबूर की जा रही हैं और तैयार न होने पर उन पर कहर बरपाया जाता है. मु?ो और उन भोलीभाली लड़कियों को बचा लो साहब. मेरे वहां से भागते ही वे लोग उन सब को तहखानों में धकेल देंगे या कहीं और भेज देंगे.’’

फिर उस ने अपने यहां तक आने की पूरी दास्तान थानेदार को सुना डाली, साथ ही उस स्कूटर सवार युवक की जो पुलिस के ?ामेले में न पड़ने के चक्कर में उसे यहां पहुंचा कर अपना नामपता बताए बिना चलता बना था. ‘‘तुम्हें वह जगह पता है जहां से तुम भागी थीं? कितने दिन हुए तुम्हें आए? कहां से आईर् हो और कैसे इन दुष्टों के चंगुल में फंस गईं?’’

‘‘साहब, पहले आप उन लड़कियों की सोचिए. वे भी मेरी तरह ही भागने को आतुर हैं. उस गंदगी में भला कौन रहना चाहेगा?’’‘‘सड़क के उस पार पंजाब शाकाहारी नाम से एक बड़ा होटल है. वह कहने को शाकाहारी है पर वहां जिंदा लाशों का मांस परोसा जाता है. मु?ो आए तो अभी कुल 5 दिन ही हुए हैं, परंतु मैं ने साथ की लड़कियों से सारा भेद जान लिया है. मैं यहां बैठी हूं और आप जब तक लौट कर न आएंगे, मैं यहीं बैठी रहूंगी.’’

इंस्पैक्टर फौरन दबिश देने की सोच रहा था. उस ने आननफानन सशस्त्र जवानों को जीप में सवार किया और बताए ठिकाने की ओर चल दिया. कई दिनों की मार, प्रताड़ना और गंदगी से निकल कर गीता मुक्ति की सांस ले रही थी. चायनाश्ते ने उस के मृत जैसे तन में जान डाल दी. अब आगे वह कहां जाएगी, कहां रहेगी? यह सब सोचने लगी.

वह तो भला हो उस थानेदार का जिस ने उसे चायनाश्ता करा दिया था, जिस से उसे क्षणक्षण आते चक्करों से कुछ तो राहत मिली थी परंतु भूख से कुलबुलाती आंतें उसे चैन नहीं लेने दे रही थीं. वह दोनों घुटने पेट में दबा कर वहीं जमीन पर लेट गई. फिर कब आंख लग गई, जान न सकी.

आधी रात बाद अचानक शोर सुन कर गीता की नींद खुली. देखा तो उस के आसपास वही लड़कियां खड़ी नजर आईं. बाहर धंधा कराने वाले कई मर्द और औरत भी खड़े थे जो पुलिस के डंडों से कुटपिट रहे थे. साथ ही वह क्रूर, बेदर्द औरत शकीला भी थी जो मासूम लड़कियों से धंधा कराती थी और न मारने पर शिकारी कुत्ते जैसे अपने खूंखार गुंडे छोड़ देती थी.

‘‘गीता देख, हम सब छूट आईं  उस गंदगी से,’’ उन लड़कियों में से  एक बोली.‘‘सब आ गईं या कुछ रह गईं?’’ कहती गीता उठ कर बैठ गई.‘‘सब आ गईं गीता, यह तेरी हिम्मत और चतुराई के कारण हो पाया. अगर पुलिस थोड़ी भी देर करती तो वे लोग हमें जबरन इधरउधर धकेल देते. वे तो सोच ही नहीं पा रहे थे कि पुलिस इतनी जल्दी आ धमकेगी. तेरा यह एहसान हम जिंदगीभर नहीं भूलेंगे.’’

‘‘मैं तो 5 वर्ष में 5 बार इन के चंगुल से भागने की कोशिश कर चुकी और पकड़े जाने पर हाथपांव तुड़वा चुकी,’’ पुष्पा जैसे खुद पर हुए जुल्मों को याद कर सिहर उठी.‘‘कोशिश तो हम ने भी की, परंतु कामयाब नहीं हो पाए, पर हम  जाएंगे कहां? और अब होगा क्या?’’ शांति बोली. ‘‘नारी संरक्षण गृह भेजेगी पुलिस. सरकार ऐसी औरतों को ऐसी ही जगह भेजती है,’’ गोली बोली.

आधी रात बीत चुकी थी, लिहाजा, सब को एक ही कमरे में बैठा दिया गया.

 

Family Story in Hindi : प्यार का मूल्य

Family Story in Hindi : ब्रदरहुड

लेखक- यदु जोशी

‘गढ़देशी’ संपत्ति के चक्कर में कितने ही परिवार आपस में लड़ झगड़ कर बिखर गए और दोष समय को देते रहे. ऐसे ही प्रवीण और नवीन थे तो सगे भाई लेकिन रिश्ता ऐसा कि दुश्मन भी शरमा जाए, रार ऐसी कि एकदूसरे को फूटी आंख न सुहाएं. फिर एक दिन… कहते हैं समय राजा को रंक, रंक को राजा बना देता है. कभी यह अधूरा सच लगता है, जब हम गलतियां करते हैं तब करनी को समय से जोड़ देते हैं. इस कहानी के किरदारों के साथ कुछ ऐसा ही हुआ. 2 सगे भाई एकदूसरे के दुश्मन बन गए. जब तक मांबाप थे, रैस्टोरैंट अन्नपूर्णा का शहर में बड़ा नाम था. रैस्टोरैंट खुलने से देररात तक ग्राहकों का तांता लगा रहता. फुरसत ही न मिलती. पैसों की ऐसी बरसात मानो एक ही जगह बादल फट रहे हों.

समय हमेशा एक सा नहीं रहता. करवटें बदलने लगा. बाप का साया सिर से क्या उठा, भाइयों में प्रौपर्टी को ले कर विवाद शुरू हो गया. किसी तरह जमापूंजी का बंटवारा हो गया लेकिन पेंच रैस्टोरैंट को ले कर फंस गया. आपस में खींचतान चलती रही. घर में स्त्रियां झगड़ती रहीं, बाहर दोनों भाई. एक कहता, मैं लूंगा, दूसरा कहता मैं. खबर को पंख लगे. उधर रिश्ते के मामा नेमीचंद के कान खड़े हो गए. बिना विलंब किए वह अपनी पत्नी और बड़े बेटे को ले कर उन के घर पहुंच गया. बड़ी चतुराई से उस ने ज्ञानी व्यक्ति की तरह दोनों भाइयों, उन की पत्नियों को घंटों आध्यात्म की बातें सुनाईं. सुखदुख पर लंबा प्रवचन दिया. जब देखा कि सभी उस की बातों में रुचि ले रहे हैं, तब वह मतलब की बात पर आया, ‘‘आपस में प्रेमभाव बनाए रखो. जिंदगी की यही सब से बड़ी पूंजी है. रैस्टोरैंट तो बाद की चीज है.’’ नवीन ने चिंता जताई,

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‘‘हमारी समस्या यह है कि इसे बेचेंगे, तो लोग थूथू करेंगे.’’ ‘‘थूथू पहले ही क्या कम हो रही है,’’ नेमीचंद सम झाते हुए बोला, ‘‘रैस्टोरैंट ही सारे फसाद की जड़ है. यदि इसे किसी बाहरी को बेचोगे तो बिरादरी के बीच रहीसही नाक भी कट जाएगी.’’ सभी सोच में पड़ गए. ‘‘रैस्टोरैंट एक है. हक दोनों का है. पहले तो मिल कर चलाओ. नहीं चलाना चाहते तो मैं खरीदने की कोशिश कर सकता हूं. समाज यही कहेगा कि रिश्तेदारी में रैस्टोरैंट बिका है…’’ नेमीचंद का शातिर दिमाग चालें चल रहा था. उसे पता था कि सुलह तो होगी नहीं. रैस्टोरैंट दोनों ही रखना चाहते हैं, यही उन की समस्या है. रैस्टोरैंट बेचना इन की मजबूरी है और उसे सोने के अंडे देने वाली मुरगी को हाथ से जाने नहीं देना चाहिए. आखिरकार, उस की कूटनीति सफल हुई. दोनों भाई रैस्टोरैंट उसे बेचने को राजी हो गए. नेमीचंद ने सप्ताहभर में ही जमाजमाया रैस्टोरैंट 2 करोड़ रुपए में खरीद लिया. बड़े भाई प्रवीण और छोटे भाई नवीन के बीच मसला हल हो गया,

किंतु मन में कड़वाहट बढ़ गई. नेमीचंद ने ‘रैस्टोरैंट अन्नपूर्णा’ के बोर्ड के नीचे पुराना नाम बदल कर प्रो. नेमीचंद एंड संस लिखवा दिया. रैस्टोरैंट के पुराने स्टाफ से ले कर फर्नीचर, काउंटर कुछ नहीं बदला. एकमात्र मालिकाना हक बदल गया था. दोनों भाई जब भी रैस्टोरैंट के पास से गुजरते, खुद को ठगा महसूस करते. अब दोनों पश्चात्ताप की आग में जलने लगे. दोनों के परिवार पुश्तैनी मकानों में अलगअलग रहा करते थे. दोनों के प्रवेशद्वार अगलबगल थे. बरामदे जुड़े हुए थे, लेकिन बीच में ऊंची दीवार खड़ी थी. दोनों भाइयों की पत्नियां एकदूसरे को फूटी आंख न देखतीं. बच्चे सम झदार थे, मगर मजबूर. भाइयों के बीच कटुता इतनी थी कि एक बाहर निकलता तो दूसरा उस के दूर जाने का इंतजार करता. सभी एकदूसरे की शक्ल देखना पसंद न करते.

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रैस्टोरैंट खरीदने के बाद नेमीचंद के दर्शन दुर्लभ हो गए. पहले कुशलक्षेम पूछ लिया करता था. धीरेधीरे नेमीचंद उन की कहानी से गायब ही हो गया. लेदे कर एक बुजुर्ग थे गोकुल प्रसाद. उन के पारिवारिक मित्र थे. जब उन्हें इस घटना की जानकारी हुई तो बड़े दुखी हुए. उसी दिन वे दोनों से मिलने उन के घर चले आए. पहुंचते ही उन्होंने दोनों को एकांत में बुला कर अपनी नाराजगी जताई. फिर बैठ कर सम झाया, ‘‘इस झगड़े में कितना नुकसान हुआ, तुम लोग अच्छी तरह जानते हो. नेमीचंद ने चालाकी की है लेकिन इस में सारा दोष तुम लोगों का है.’’ ‘‘गलती हो गई दादा, रैस्टोरैंट हमारे भविष्य में न था, सो चला गया,’’ प्रवीण पीडि़त स्वर में बोला और दोनों हथेलियों से चेहरा ढक लिया. ‘‘मूर्खता करते हो, दोष भविष्य और समय पर डालते हो,’’ गोकुल प्रसाद ने निराश हो कर लंबी सांस ली, ‘‘सारे शहर में कितनी साख थी रैस्टोरैंट की. खूनपसीने से सींचा था उसे तुम्हारे बापदादा ने.’’ नवीन बेचैन हो गया,

‘‘छोडि़ए, अब जी जलता है मेरा.’’ ‘‘रुपया है तुम्हारे पास. अब सम झदारी दिखाओ. दोनों भाई अलगअलग रैस्टोरैंट खोलो. इस की सम झ तुम लोग रखते हो क्योंकि यह धंधा तुम्हारा पुश्तैनी है.’’ प्रवीण को बात जम गई, ‘‘सब ठीक है. पर एक ही इलाके में पहले से ही एक रैस्टोरैंट है?’’ ‘‘खानदान का नाम भी कुछ माने रखता है,’’ गोकुल प्रसाद ने कहा, ‘‘मैं तुम्हारे पिता का दोस्त हूं, गलत नहीं कहूंगा. खूब चलेगा.’’ ‘‘मैं आप की बात मान लेता हूं,’’ प्रवीण ने कहा, ‘‘इस से भी पूछ लो. इसे रैस्टोरैंट खोलना है या नहीं.’’ नवीन भड़क उठा, ‘‘क्या सम झते हो, तुम खोलो और मैं हाथ पे हाथ धरे बैठा रहूं? ठीक तुम्हारे ही सामने खोलूंगा, देखना.’’ ‘‘क्या हो गया दोनों को? भाई हो कि क्या हो? इतना तो दुश्मन भी नहीं लड़ते,’’ गोकुल प्रसाद झल्लाए और उठने लगे. ‘‘रुकिए दादा. भोजन कर के जाना,’’ प्रवीण ने आग्रह किया. ‘‘आज नहीं. जब दोनों के मन मिलेंगे तब भोजन जरूर करूंगा.’’ गोकुल प्रसाद ने अपनी छड़ी उठाई और अपने घर के लिए चल दिए. दोनों को आइडिया सही लगा.

घर में पत्नियों की राय ली गई और जल्दी ही किराए की जगह पर रैस्टोरैंट खोल दिए. संयोग ऐसा बना कि दोनों को रैस्टोरैंट के लिए जगह आमनेसामने ही मिली. दोनों रैस्टोरैंट चल पड़े. कमाई पहले जैसी तो नहीं थी, तो कम भी न थी. रुपया आने लगा. लेकिन कटुता नहीं गई. दोनों में प्रतिस्पर्धा भी जम कर होने लगी. तू डालडाल, मैं पातपात वाली बात हो गई. दोनों भाइयों में बड़े का रैस्टोरैंट ज्यादा ग्राहक खींच रहा था. इस बात को ले कर नवीन को खासी परेशानी थी. आखिरकार उस ने एक बोर्ड टांग दिया- ‘लंच और डिनर- 100 रुपए मात्र.’ प्रवीण ने भी देखादेखी रेट गिरा दिया, ‘लंच और डिनर- 80 रुपए मात्र.’ ग्राहक को यही सब चाहिए. शहर के लोग लड़ाई का मजा ले रहे थे. मालिकों में तकरार बनी रहे और अपना फायदा होता रहे. नवीन भी चुप नहीं बैठा रहा. कुछ महीनों बाद ही उस ने फिर रेट 75 रुपए कर दिया.

मजबूरन प्रवीण को 60 रुपए पर आना पड़ा. इस तनातनी में 6-7 महीने गुजर गए और आखिर में दोनों रैस्टोरैंट के शटर गिए गए. प्रवीण से सदमा बरदाश्त न हो पाया, उसे एक दिन पक्षाघात हो गया. पासपड़ोसी समय रहते उसे अस्पताल ले गए. आईसीयू में एक सप्ताह बीता, फिर हालत में सुधार दिखा. मोटी रकम इलाज में खर्च हो गई. घर आया, शरीर में जान आने लगी लेकिन आर्थिक तंगी ने उसे मानसिक रूप से बीमार कर दिया. घर की माली हालत अब पहले जैसी न थी. पहले ही झगड़े में काफी नुकसान हो गया था. नवीन की एक बेटी थी मनु. जब भी उसे अकेला पाती, मिलने चली आती. कई दिनों के बाद बरसात आज थम गई थी. आसमान साफ था. प्रवीण स्टिक के सहारे लौन में टहल रहा था. मनु ने उसे देखा तो गेट खोल कर भीतर आ गई. उस ने स्नेह से मनु को देखा और बड़ी उम्मीद से कहा, ‘‘बेटी, पापा से कहना कि ताऊजी एक जरूरी काम से मिलना चाहते हैं.’’ मनु ने हां में सिर हिलाया और पैर छू कर गेट पर खड़ी स्कूटी को फुरती से स्टार्ट किया और कालेज के लिए निकल गई. धूप ढलने लगी, तब मनु कालेज से लौटी. नवीन तब ड्राइंगरूम में बैठा चाय की चुस्कियां ले रहा था. मनु ने किताबें रैक पर रखीं और पापा के सामने वाले सोफे पर जा बैठी. ‘‘पापा, आप कल दिनभर कहां थे?’’ उस ने पूछा.

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’ ‘‘ऐसे ही पूछ रही हूं,’’ मनु ने सोफे पर बैठे हुए आगे की ओर शरीर झुकाते हुए कहा. ‘‘महल्ले में एक बुजुर्ग की डैथ हो गई थी, इसलिए जाना पड़ा,’’ नवीन ने बताया. ‘‘आप को वहां जाने की जरूरत क्या थी? उन के पासपड़ोसी, रिलेटिव्स तो रहे ही होंगे,’’ मनु ने प्रश्न किया. ‘‘कैसी बेवकूफों वाली बातें कर रही हो. समाज में जीना है तो सब के सुखदुख में शामिल होना चाहिए,’’ नवीन ने सम झाया. ‘‘दैट्स करैक्ट. यही सुनना चाहती थी मैं. जब ताऊजी बीमार पड़े तब यह बात आप की सम झ में क्यों नहीं आई?’’ नवीन को काटो तो खून नहीं. भौंचक्का सा मनु को देखता ही रह गया वह. ‘‘आप और मम्मी ताऊजी को देखने नहीं गए. मैं गई थी सीधे कालेज से, लगातार 3 दिन. मनु कहती रही, ‘‘रौकी भैया भी अस्पताल में थे. मैं ने उन्हें घर चलने को कहा तो बोले, ‘यहां से सीधे होस्टल जाऊंगा.

घर अब रहने लायक नहीं रहा.’’’ ‘‘यह सब मु झे क्यों सुना रही हो?’’ नवीन ने प्रश्न किया. ‘‘इसलिए कि ताऊजी कोई पराए नहीं हैं. आज उन्हें आप की जरूरत है. मिलना चाहते हैं आप से.’’ नवीन ठगा सा रह गया. इस उम्र तक वह जो सम झ न सका, वह छोटी सी उम्र में उसे सिखा रही है. मनु उठी और पापा के गले से लग कर बोली, ‘‘समाज के लिए नहीं, रिश्ते निभाने के लिए ताऊजी से मिलिए. आज और अभी.’’ उधर प्रवीण, नवीन से मिलने को बेचैन था. वह बारबार कलाई घड़ी की सुइयों पर नजरें टिका देता. कभी बरामदे से नीचे मेन गेट की ओर देखने लगता. अंधेरा बढ़ने लगा. रोशनी में कीटपतंगे सिर के ऊपर मंडराने लगे. थक कर वह उठने को हुआ, तभी नवीन आते हुए दिखा. उस ने इशारे से सामने की चेयर पर बैठने को कहा. नवीन कुछ देर असहज खड़ा रहा. मस्तिष्क में मनु की बातें रहरह कर दिमाग में आ रही थीं. वह आगे बढ़ा और चेयर को खींच कर अनमना सा बैठ गया. दोनों बहुत देर तक खामोश रहे.

आखिरकार नवीन ने औपचारिकतावश पूछा, ‘‘तबीयत ठीक है अब?’’ उस ने ‘हां’ कहते हुए असल मुद्दे की बात शुरू कर दी, ‘‘मु झे पैसों की सख्त जरूरत है. मैं ने सोचा है कि मेरे हिस्से का मकान कोई और खरीदे, उस से अच्छा, तु झे बेच दूं. जितना भी देगा, मैं ले लूंगा.’’ नवीन खामोश बैठा रहा. ‘‘सुन रहा है मैं क्या कह रहा हूं?’’ उस ने जोर दे कर कहा. ‘‘सुन रहा हूं, सोच भी रहा हूं. किस बात का झगड़ा था जो हम पर ऐसी नौबत आई. हमारा खून तो एक था, फिर क्यों दूसरों के बहकावे में आए.’’ ‘‘अब पछता कर क्या फायदा? खेत तो चिडि़या कब की चुग गई. मैं ऐसी हालत में न जाने कब तक जिऊंगा. तु झ से दुश्मनी ले कर जाना नहीं चाहता,’’ प्रवीण ने उदास हो कर बरामदे की छत को ताकते हुए कहा. ‘‘तुम तो बड़े थे, बड़े का फर्ज नहीं निभा पाए. मैं तो छोटा था,’’ नवीन ने उखड़े स्वर में कहा, फिर चश्मा उतार कर रूमाल से नम आंखें साफ करने लगा. ‘‘बड़ा हूं, तो क्या हुआ. छोटे का कोई फर्ज नहीं बनता? खैर छोड़, जो हुआ सो हुआ. अब बता, मेरा हिस्सा खरीदेगा?’’ ‘‘नहीं,’’ नवीन ने सपाट सा जवाब दिया.

‘‘क्यों, क्या हुआ? रैस्टोरैंट बेच कर हम से गलती हो चुकी है. अब मेरी मजबूरी सम झ. भले ही रुपए किस्तों में देना. मैं अब किसी और को बचाखुचा जमीर बेचना नहीं चाहता,’’ प्रवीण ने फिर दुखी हो कर वजह बताई, ‘‘रौकी की इंजीनियरिंग पूरी हो जाए. यह मेरी अंतिम ख्वाहिश है. शरीर ने साथ दिया तो कहीं किराए पर घर ले कर छोटामोटा धंधा शुरू कर लूंगा.’’ ‘‘हम ने आपस में जंग लड़ी. तुम भी हारे, मैं भी हारा. नुकसान दोनों का हुआ, तो भरपाई भी दोनों को ही करनी है.’’ ‘‘तेरी मंशा क्या है, मैं नहीं जानता. मु झे इतना पता है कि मु झ में अब लड़ने की ताकत नहीं है और लड़ना भी नहीं चाहता,’’ प्रवीण ने टूटे स्वर में कहा. ‘‘मैं लड़ने की नहीं, जोड़ने की बात कह रहा हूं,’’ नवीन ने कुछ देर सोचते हुए जोर दे कर अपनी बात रखी, ‘‘हम लोग मिल कर फिर से रैस्टोरैंट खोलेंगे. अब हम बेचेंगे नहीं, खरीदेंगे.’’ नवीन उठते हुए बोला, ‘‘आज मनु मेरी आंखें न खोलती तो पुरखों की एक और निशानी हाथ से निकल जाती.

’’ प्रवीण आश्चर्य से नवीन को देखता रह गया. उस की आंखें एकाएक बरसने लगीं. गिलेशिकवे खरपतवार की तरह दूर बहते चले गए. ‘‘मकान बेचने की कोई जरूरत नहीं है. सब ठीक हो जाएगा. बिजनैस के लायक पैसा है मेरे पास,’’ जातेजाते नवीन कहता गया. इस बात को लगभग 4 मास हो गए. रैस्टोरैंट के शुभारंभ की तैयारियां शुरू हो गई थीं. इश्तिहार बांटे जा चुके थे. दशहरा का दिन था. रैस्टोरैंट रंगीन फूलों से बेहद करीने से सजा था. शहर के व्यस्ततम इलाके में इस से व्यवस्थित और आकर्षक रैस्टोरैंट दूसरा न था. परिचित लोग दोनों भाइयों को बधाई दे रहे थे. घर की बहुएं वयोवृद्ध गोकुल प्रसाद से उद्घाटन की रस्म निभाने के लिए निवेदन कर रही थीं. गोकुल प्रसाद कोई सगेसंबंधी न थे. पारिवारिक मित्र थे. एक मित्र के नाते उन के स्नेह और समर्पण पर सभी गौरवान्वित हो रहे थे. मनु सितारों जड़े आसमानी लहंगे में सजीधजी आगंतुकों का स्वागत कर रही थी. रौकी, प्रवीण और नवीन के बीच खड़ा तसवीरें खिंचवा रहा था. सड़क पर गुजरते हुए लोग रैस्टोरैंट के बाहर चमचमाते सुनहरे बोर्ड की ओर मुड़मुड़ कर देख रहे थे, जिस पर लिखा था- ‘रैस्टोरैंट अन्नपूर्णा ब्रदरहुड.’’

दस्तक – भाग 3 : नेहा किस बात को लेकर गहरी सोच में डूबी थी

“शिवम, कल मम्मी का फोन आया था,” औफिस में लंचटाइम में नेहा ने शिवम से कहा. “अच्छा.””मैं, अब शादी को और नहीं टाल सकती.” “तो प्रौब्लम क्या है? बता दो.”

 

“तुम्हें लगता है कि कोई प्रौब्लम नहीं है?”हां, नहीं है. अंकल-आंटी, दोनों मुझे पसंद करते है,” खाना खाते हुए सहजता से शिवम बोला. खाने का शौकीन शिवम अपनी प्लेट में झुका हुआ खाने का भरपूर मजा ले रहा था. वह बोलना चाहती थी कि ‘तुम नहीं समझोगे.’ लेकिन ऐसा बोल कर वह शिवम के खाने के आनंद को खत्म नहीं करना चाहती थी, इसलिये वह चुप हो गई.

 

“तुम उन्हें बता दो. अगर कुछ होगा, तो मैं संभाल लूंगा,” नेहा की हथेलियों को अपने हाथों में ले शिवम ने गम्भीर स्वर में कहा. शिवम सब समझ रहा था. लेकिन शादी के बारे में सोचतेसोचते नेहा की आंखें नम हो गईं.    वह दिन नेहा कैसे भूल सकती है जब घर पहुंचते ही छुटकी ने चुगली कर दी कि एक परिवार नेहा को देखने दिल्ली से आ रहा है.

 

‘मम्मी, यह क्या?’ नेहा जरा गुस्से से बोली. ‘चिंता मत कर, तुझे कोई नौकरी नहीं छोड़नी पड़ेगी. लड़का हैदराबाद में ही जौब करता है. वे लोग प्रगतिवादी विचारों हैं,” मम्मी लड़के वालों का गुणगान करती हुई बोली. ‘मैं ने कब कहा कि परिवार या लड़के में कोई कमी है, लेकिन…’ कसमसाती हुई नेहा बोली.

 

‘लेकिन?’ एक प्रश्वाचक दृष्टि रमा ने नेहा पर डाली. ‘मम्मी, मैं एक लड़के को पसंद करती हूं,’ नेहा के मुंह से निकल गया. ‘कौन?’ ‘शिवम.’

 

‘कौन शिवम?’ रमा ने चौंकते हुए पूछा. ‘मनोज अंकल का बेटा,’ धीमी आवाज में नेहा ने कहा. ‘क्या…तेरा दिमाग तो नहीं खराब हो गया?’ बौखलाई सी रमा बोली. रमा को नेहा का बारबार विवाह के लिए मना करने का कारण समझ में आने लगा. रमा अपना आपा खोते हुए आक्रोशित स्वर में गुर्राई, ‘बेवकूफ़ लड़की, इसीलिए शादी न करने के बहाने बना रही थी. पता भी है वह कौन सी जाति का है?’

 

दोनों बहनें और पापा, उन की तीखी बहस सुन चकराए से, अपना काम छोड़ तेजी से लिविंगरूम में पहुंच गए थे. ‘देखा, आप की बेटी क्या गुल खिला रही है?’ पति को देख रमा ने तेज आवाज में कहा .  सारी बातें सुन देवेंद्र सिंह की मुखमुद्रा कठोर होने लगी, शरीर क्रोध से कंपकंपाने लगा.

‘यह लड़का आस्तीन का साँप निकला. इतना भरोसा किया था उस पर, और वह हमें ही डसने चला. अपनी औकात भी भूल गया. सड़क में घसीट देता उस को अगर उस का बाप मेरा बिजनैस पार्टनर न होता,’ मुट्ठियां भींचते हुए देवेंद्र सिंह ने इतने ऊंचे स्वर में कहा कि घर की दीवारें तक थरथरा गईं. पलभर के लिए सभी हतप्रभ से हो कर रह गए.

 

‘ऐ लड़की, कान खोल के सुन,’ पापा की गरजती आवाज से नेहा का पूरा शरीर हिल गया, चेहरे का रंग उड़ गया. ‘जी,’ थरथराते स्वर में नेहा बोली.‘कल लड़के वाले आ रहे हैं. तेरी शादी वहीं होगी जहां हम चाहेंगे,’ देवेंद्र सिंह का निर्णायक स्वर कमरे में गूंजा और उस के बाद सहमी हुई सी निस्तब्ध्ता सब जगह पसर गई. कहीं कोई गुंजाइश शेष नहीं रह गई थी.

 

‘मैं तो पहले ही कहती थी कि इतना न पढ़ाओ. पढ़लिख कर ये बच्चे अपनी जातबिरादरी ही भूल गए. देखा, आज हमारी नाक काटने पर लगी है,’ रमा की ओर तीखी नजरों से देखते हुए दादी ने तल्खी से कहा.‘दादी, शिवम बहुत अच्छा लड़का है. आप सब तो कितनी तारीफ करते थे उस की,’ दादी की लाड़ली नेहा उन से लिपटती हुई बोली.

 

‘लेकिन है तो छोटी जात का,’ दादी ने उसे दूर झटकते हुए कहा.   नेहा अचकचा गई. उसे इस बात का पूर्वानुमान था कि उस का परिवार सहजता से शिवम को स्वीकार नहीं करेगा, लेकिन प्रतिक्रिया इतनी तीक्ष्ण होगी, इस का अनुमान न था.  उस का मन कर रहा था कि भाग कर शिवम के पास चली जाए, लेकिन पापा का रौद्र रूप, मम्मी और दादी की समाज की दुहाई ने उस के कदमों को सामाजिक मूल्यों, मान्यताओं और परंपराओं की बेड़ियों में जकड़ दिया. दुनिया से लड़ना जितना आसान, उस से कहीं ज्यादा मुश्किल है अपनों से लड़ना.

 

शिवम से क्या कहेगी, कैसे उस का सामना करेगी?’ यह सोचतेसोचते उस के माथे पर पसीना चुहचुहाने लगा.  दूसरे दिन लड़के वाले आए. एक बोझिल वातावरण में सब मुखौटा ओढ़े उन का स्वागतसत्कार करने लगे. सुदर्शन व्यक्तित्व का अंशुमन, रमा और देवेंद्र सिंह को एक नजर में भा गया. लड़के वाले भी नेहा की सुंदरता व योग्यता से बहुत प्रभावित हुए. अंशुमन ने नेहा के नपेतले उत्तरों को उस का संकोच समझा.

 

सभी बातों से गदगद लड़के की मां बोली, ‘हमें तो आप की बेटी बहुत पसंद आई. बाकी ये दोनों समझ लें आपस में, आखिर रहना तो साथ में इन दोनों को है.’ लड़के की मां की बात सुन सब के चेहरे खिल उठे. एकाएक अंशुमन की नजर नेहा के गंभीर चेहरे पर पड़ी और उसे कुछ खटक गया.

हैदराबाद पहुंच कर भी नेहा की कशमकश कम होने के स्थान पर बढ़ती जा रही थी. जब भी शिवम को देखती, उस की बेचैनी बढ़ जाती. एक अजीब सी चुप्पी उस ने ओढ़ ली थी. औफिस में लंच के समय वह शिवम से कतराने लगी थी. फोन पर भी बात, बस, हां-हूं तक सीमित हो गई थी.

एक दिन औफिस में लंच करने के बाद दोनों पार्क के चक्कर लगाने लगे, जैसे वे लगाया करते थे. नेहा की खामोशी, माथे पर चिंता की लकीरें, श्रीहीन चेहरा बहुतकुछ बयां कर रहा था. घर से आने के बाद नेहा का बदला यह रूप शिवम को उद्विग्न करने लगा, ऊपर से उस की चुप्पी.

 

‘क्या बात? घर से आने के बाद तुम बहुत बदली हुई सी लग रही हो,’ टहलने के बाद एक बैंच पर बैठते ही शिवम ने पूछा. ‘कुछ नहीं,’ नजरें चुराती हुई नेहा ने कहा.‘कुछ तो है. बताओ, अगर अपना समझती हो मुझे,’ शिवम के इन शब्दों ने नेहा के सब्र का बांध तोड़ दिया.‘शिवम, हम पर हमारी जातियां हावी हो गईं.”

मैं तुम्हारे बगैर जी नहीं पाऊंगा – भाग 3 : विजय जी व इंदु के रिश्ते में क्या दिक्कत थी

लेखक – नरेंद्र कौर छाबड़ा

आखिर एजेंसी से संपर्क कर पूरे दिनरात के लिए अटेंडेंट (सहायक) लगवा दी गई. वह दिनरात इंदु

के साथ ही रहती थी.

महीनेभर बाद इंदु वाकर का सहारा ले कर चलने लगी, लेकिन कमजोरी बहुत आ गई थी और वह घर के कोई काम नहीं कर पा रही थी. घर के कामों, खाना बनाने के लिए भी एक महरी को रखना पड़ा. घर की व्यवस्था चरमरा रही थी, जिस से नीता भी तनाव में आ गई. औफिस की ड्यूटी कर के घर आती तो बीमार सास, लाचार ससुर और अव्यवस्थित घर देख कर वह चिढ़ जाती.

अब इंदु को डाक्टर ने छड़ी के सहारे चलने का निर्देश दिया. वह खुश थी कि अब सबकुछ सहज हो जाएगा. सहायक की निगरानी में ही धीरेधीरे छड़ी के सहारे चलने लगी थी. मुश्किल से 15 दिन बीते होंगे, अचानक एक दिन उन का संतुलन बिगड़ गया और वह औंधे मुंह गिर पड़ी. चेहरे पर काफी चोट लगी. 2 दांत भी टूट गए. यह देख विजयजी तो डर गए. फौरन सुभाष को फोन कर दिया. वह किसी जरूरी मीटिंग में था. किसी तरह मीटिंग रद्द कर के घर लौटा. मां की हालत देख कर वह भी काफी तनाव में आ गया. डाक्टर को ही घर बुला कर दिखाया गया. इंदु से तो चला ही नहीं जा रहा था.

डाक्टर ने उन्हें पूरी तरह आराम करने की सलाह देते हुए कहा कि अभी कुछ दिन चलनाफिरना बंद ही रखें.हमेशा सक्रिय रहने वाली इंदु पूरी तरह बिस्तर से लग गई, तो धीरेधीरे अवसाद और तनाव में घिरने लगी. विजयजी भी एकदम चुप लगा गए थे. घर का माहौल ही बदल गया था. निराशा,

तनाव, उदासी फैल गई थी. तनाव के इन्हीं क्षणों में एक रात इंदु को जबरदस्त दिल का दौरा पड़ा और अस्पताल ले जाने से पहले ही उस ने इस संसार से विदा ले ली.विजयजी तो पत्थर के बुत से बन गए थे. फिर काफी देर बाद उठे. इंदु के पार्थिव शरीर को संबोधित करने लगे, “तुम ने वादाखिलाफी की है. कहती थी कि आप को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी…”

“तुम नहीं जा सकती… मैं ने तुम से कहा था ना, मैं तुम्हारे बगैर नहीं जी सकता…”बेटा, बहू, बच्चे सभी उन्हें संभालने लगे, पर वह तो रहरह कर एक ही वाक्य दोहरा रहे थे, “ इंदु, मैं तुम्हारे बगैर नहीं जी सकता…”

आजादी के बाद गांधीजी कुछ साल और जीते तो आज का भारत कैसा होता ?

गांधी जी की दिली ख्वाहिश थी कि वह सवा सौ साल तक जीयें.एक ऐसे दौर में जब पुरुषों की औसत आयु महज 40 साल थी,यह काफी बड़ी महत्वाकांक्षा समझी जा सकती थी.लेकिन इसे शेखचिल्ली की चाहत तो कतई नहीं कहा जा सकता था ; क्योंकि अस्वाभाविक मौत मरने के बाद भी वह औसत से लगभग दो गुना जीये. जनवरी 1948 में जब उनकी हत्या हुई वह 78 साल 3 महीने के थे.इसलिए अगर वह स्वाभाविक मौत करते तो यह कहना कतई अतिश्योक्ति नहीं होगा कि वह कम से कम 10 साल तो और जीते ही.क्योंकि जब उनकी हत्या हुई उन दिनों वह भावनात्मक रूप से जरूर काफी आहत थे,इस कारण कमजोर भी काफी दिखते थे,लेकिन उन दिनों भी वह 5-5 दिनों का उपवास कर लेते थे,हर दिन 10-10 लोगों को चिट्ठियां लिखवा लेते थे.दिन में दर्जनों लोगों से बातें करते थे (शाम-सुबह की अपनी नियमित प्रार्थनाओं के बावजूद). इस सबसे पता चलता है कि गांधी उन दिनों शारीरिक और मानसिक, दोनों ही तरह से पूर्ण स्वस्थ थे.

लेकिन अगर एक मिनट को मान लें कि गांधी अपनी इच्छानुसार 125 साल तक जीते तो वह आजाद भारत में करीब 47 साल तक रहते.इस तरह वह नेहरू से लेकर नरसिंह राव तक की सरकारें देखते.वह आजाद भारत के 7 प्रधानमंत्रियों को देखते. मगर ऐसा हो न सका.आजाद भारत में वह 47 साल क्या 47 महीने भी न जी सके.वह आजाद भारत में महज 168 दिन तक ही जिंदा रहे. सवाल है अगर 47 साल न सही,आजाद भारत में गांधी महज 10 साल और जीते तो क्या आज का हिन्दुस्तान ऐसा ही होता जैसा की यह है ? न …बिलकुल ऐसा नहीं होता. सवाल है तब आज का भारत कैसा होता ? यानी वह मौजूदा हिन्दुस्तान से कैसे और कितना भिन्न होता ? इस अनुमान को अगर महज दो शब्दों में कहें तो तब आज का भारत ज्यादा और वास्तविक लोकतंत्र होता.तब हम सम्पन्न इतने भले न हुए होते लेकिन हमारी नागरिक चेतना बहुत सम्पन्न होती. अगर गांधीजी महज 1957-58 तक ही जी जाते तो आज जो तमाम समस्याएं भारत के लिए नासूर बनी हुई हैं, तब शायद इनमें से कई या कोई भी नहीं होती.

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आजादी के सात दशकों बाद भारत आज जिन समस्याओं से घिरा है वे हैं-गरीबी, भ्रष्टाचार, उजड़ते गांव,कश्मीर और ढीठ पाकिस्तान. गांधीजी ने अगस्त 1947 में ही घोषणा कर दी थी कि वह लाहौर जायेंगे, रावलपिंडी जायेंगे. क्योंकि 1946 में ही बंगाल, बिहार, पंजाब और सिंध भयानक साम्प्रदायिक हिंसा में डूब गए थे. इस कारण उनका जनवरी 1946 से लेकर जनवरी 1948 तक का ज्यादातर समय इस आग को बुझाने में ही खर्च हुआ. कभी नोआखाली, कभी कलकत्ता, कभी भागलपुर और कभी दिल्ली में वह साम्प्रदायिक आग ही बुझाते रहे.इसके अगले पड़ाव अमृतसर, लाहौर और रावलपिंडी थे.लेकिन दिल्ली ने उन्हें आगे नहीं जाने दिया.

गांधीजी सितम्बर 1947 में ही लाहौर जाना चाहते थे.लेकिन पहले बंगाल और बाद में दिल्ली की आग बुझाते हुए 1947 का पूरा साल गुजर गया. इसलिए उन्होंने 16 जनवरी 1948 के बाद पाकिस्तान जाना तय किया था.उन्होंने इस सम्बन्ध में जिन्ना को खत भी लिख दिया था और जिन्ना उनका इंतजार भी कर रहे थे.सवाल है उनके पाकिस्तान जाने से होता क्या ? ..और यह भी कि गांधीजी आखिर पाकिस्तान जाना ही क्यों चाहते थे ? दरअसल वह नहीं चाहते थे कि लोगों का इस किस्म से विस्थापन हो जिस तरह से भारत और पाकिस्तान से हो रहा था. गांधीजी भारत आये लाखों हिन्दुओं को अपने साथ लेकर पाकिस्तान जाना चाहते थे और उधर से वापसी में अपने साथ उन लाखों मुसलामानों को लेकर आना चाहते थे,जो हिंदुस्तान छोड़कर गए थे.वह इन अपनी अपनी जगह से उजड़े लोगों को फिर से उनकी जमीन में ही बसाना चाहते थे.उनके घर, उनकी जायदाद, वापस दिलवाना चाहते थे.

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पता नहीं यह होता या नहीं होता,लेकिन गांधी जी जिस तरह हर असंभव को संभव कर डालते थे,उससे अगर मान लें कि ऐसा हो जाता तो यह दुनिया के विस्थापन इतिहास की एक नई घटना होती. यह असंभव इसलिए नहीं था क्योंकि हम तमाम ऐतिहासिक बयानों और दस्तावेजों में देख सकते हैं कि गांधीजी का पाकिस्तान में सम्मान था.उन्होंने भारत से पाकिस्तान के हिस्से के 55 करोड़ रूपये दिलवाने के लिए आमरण अनशन किया था.खुद की जिंदगी को दांव में लगाकर पाकिस्तान को यह रकम दिलवाई थी.इसलिए भी न केवल पाकिस्तान में बल्कि पूरी इस्लामिक दुनिया में गांधीजी का कद बहुत बड़ा हो गया था.इस कद की पृष्ठभूमि में लगता है पाकिस्तान उनकी बात मान लेता.अगर शरणार्थियों की अपने-अपने देश वापसी हो जाती तो बंटवारा लगभग बेमतलब हो जाता.क्योंकि तब दोनों ही देशों में दोनों समुदाय के लोग होते.तब पाकिस्तान आज की तरह न तो कट्टर इस्लामिक देश बनता और न ही भारत में हिंदुओं के ध्रुवीकरण की कोशिश होती.

यह असंभव इसलिए नहीं लगता क्योंकि आखिरकार उन्होंने इस असम्भव से लगने वाले फार्मूले को नोआखाली में प्रयोग किया था.वहां मुसलमानों ने तमाम हिन्दुओं के जलाए गए मकान और पूजास्थल अपने हाथों से बनाये थे,इसी तरह हिन्दुओं ने भी तमाम मस्जिदों को अपने श्रम और पैसे से बनवाया था. इसलिए अगर गांधीजी आजादी के कुछ सालों बाद तक जिंदा रहते तो भारत-पाकिस्तान दो दुश्मन देशों के रूप में उभर ही नहीं सकते थे. उनके रहते पाकिस्तान और भारत दो देश होते हुए भी एक ढीले ढाले संघ में बदल जाते और वह दोनों देशों में बारी बारी से रहते.क्योंकि उन्होंने कभी भी भारत को अपना और पाकिस्तान को पराया देश नहीं माना था. वह हमेशा दोनों देशों को अपनी दो आंखों जैसा समझते थे.

अगर गांधीजी 1957-58 तक भी जिंदा रहते तो गांवों की वह दुर्दशा नहीं होती जो आज दिख रही है. गांधीजी का समूचा आर्थिक दर्शन गांवों को आत्मनिर्भर ईकाई के रूप में विकसित करना था,जबकि आजादी के बाद जो योजना आयोग बना वह महानगरीय ढांचे वाले औद्योगिक विकास के सपने को समर्पित था. वास्तव में यह नेहरू जी के सपनों के भारत की रूपरेखा को मूर्त रूप देने के लिए था.जाहिर है उसमें नगर केन्द्रित यूरोपीय मॉडल को ज्यादा तरजीह दी गयी थी. लेकिन जिद्दी बुड्ढा गांधी जिंदा होता तो गांवों से इस तरह अनाथों वाला सलूक नहीं होने पाता. तब हमारा औद्योगिक सपना कुटीर और हाथ उद्योग से खाद पानी हासिल करता. नतीजे में आज खुशहाल गांवों वाला भारत होता.इस तरह अगर आजादी के बाद एक दशक तक गांधी जीते तो यह संभव था कि आज देश में उतने करोड़पति नहीं होते जितने हैं. लेकिन तब निश्चित रूप से देश में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले इतने लोग भी नहीं होते जितने आज हैं. भारत में अमीरी और गरीबी में इतना अंतर नहीं होता.

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आजाद भारत में कम से कम 10 साल गांधी और रहते तो हम नैतिक रूप से एक मजबूत समाज होते. भ्रष्टाचार को तब हम बेशर्म होकर गले नहीं लगा रहे होते जैसा कि इन दिनों कर रहे हैं. ऐसा इसलिए होता क्योंकि तब सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार की इतनी खातिर नहीं हुई होती.गांधीजी ने भारत के आजाद होने के बाद कांग्रेस के भंग किये जाने की वकालत की थी,यह बात तो बहुत लोग जानते हैं.लेकिन शायद बहुत लोग उनके यह कहने की पृष्ठभूमि न जानते हों. दरअसल इसकी तात्कालिक वजह यह थी कि उन्हें तमिलनाडु के एक व्यक्ति कोंडी वेंकटप्पैय्या ने पत्र लिखा था, जिसमें कहा गया था कि वहां कांग्रेस का स्थानीय विधायक न्याय के साथ बेईमानी कर रहा है और इससे कमाई कर रहा है.

इस सूचना से गांधीजी के कान खड़े हुए थे और उन्होंने तुरंत सरदार पटेल तथा नेहरू को बकायदा बुलाकर कांग्रेस को भंग किये जाने का मशवरा दिया था, जो सरदार पटेल को बुरा भी लगा था.लेकिन अगर गांधीजी जिंदा रहते तो कांग्रेस को भंग होना ही पड़ता क्योंकि कोई और नहीं करता तो वह खुद ही इसकी सार्वजनिक घोषणा कर देते.ऐसे में नेहरू पटेल जैसे नेता उनके साथ आ जाते और मोरारजी देसाई व श्यामाप्रसाद मुखर्जी जैसे कांग्रेसी दूसरा खेमा बना लेते.इससे कांग्रेस इतनी मजबूत नहीं रह पाती कि आजादी के बाद कई दशकों तक लगातार शासन में रहती याकि देश में इमरजेंसी लगा सकती. सिर्फ देश के स्तर पर ही नहीं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी गांधीजी के जिंदा होने से बहुत फर्क पड़ता.सन 1950-51 में कोरिया को जिस तरह अमरीका की दादागीरी झेलनी पडी,वैसा नहीं होता.हैरी एस ट्रूमैन गांधीजी की इज्जत करते थे,गांधीजी उन्हें पत्र लिखते और कोरिया को युद्ध की विभीषिका नहीं झेलनी पड़ती. गांधीजी के जिंदा रहने से यूरोपीय युवा विश्वयुद्ध के बाद साठ के दशक में उतने अवसाद से नहीं गुजरते जितने अवसाद से वे गुजरे. क्योंकि तब नैतिकता, अहिंसा और शान्ति की जिंदा मिसाल के रूप में दुनिया में गांधी मौजूद होते. …और सबसे बड़ी बात यह होती कि हम आत्मविश्वास से भरे भारतीय होते जिसके कारण हमारा नागरिक बोध, हमारी नागरिक चेतना और हमारी नागरिक आजादी बहुत मजबूत होती.

श्रीदेवी की फिल्म ‘इंग्लिश विंग्लिश’ से है प्रेरित सीरियल ‘‘तेरा मेरा साथ रहे’’का प्रोमो

हमारे देश में सिनेमा जगत हो या टीवी जगत.हर किसी को मौलिकता की बजाय नकल करने में और फिर उसका ढिंढोरा पीटने में कुछ ज्यादा ही मजा आता है.अब 16 अगस्त से ‘‘स्टार भारत’’पर हर सोवार से शुक्रवार रात साढ़े आठ बजे एक नए सीरियल ‘‘तेरा मेरा साथ रहे’’का प्रसारण शुरू होने वाला है.जिसके लिए चैनल की तरफ से धुंआधर प्रचार किया जा रहा है.इसका प्रोमो दर्शक काफी पसंद कर रहे हैं.यह सीरियल गोपिका (जिया माणिक )की कहानी है.जहाँ  वह अपनी  जीवन  यात्रा के माध्यम से अपने गुरु को किस तरह से ढूंढती है.यही बात प्रोमो से उजागर होती है.

मगर सीरियल‘‘तेरा मेरा साथ रहे’’ का प्रोमो तैयार करने में इसके निर्माताओं ने मौलिक काम नहीं किया,बल्कि सीरियल का प्रोमो और पोस्टर दिवंगत आइकॉनिक बौलीवुड सुपर स्टार श्रीदेवी और उनकी सफलतम फिल्म ‘इंग्लिश विंग्लिश’ से प्रेरणा लेकर या यों

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कहें कि नकल कर  के ही बनाया गया है.सीरियल का प्रोमो अपनी नाटकीयता के आधार पर दर्शकों को कई संकेत भी देता है.फिल्म‘‘इंग्लिश विंग्लिश ’में श्रीदेवी द्वारा निभाया गया किरदार शशि गोडबोले अपने परिवार के समर्थन के बिना विदेश में खुद का अस्तित्व स्थापित करते हुए खुद को साबित करती हैं.
सीरियल ‘‘तेरा मेरा साथ रहे’’ में गोपिका(जिया माणिक )की भी यात्रा लगभग फिल्म‘इंग्लिश विंग्लिश’की शशिगोडबोले’की ही तरह नजर आने वाली है.लेकिन उनकी इस यात्रा में उनके साथ उनकी गुरु यानी उनकी होने वाली सास मिथिला(रूपल पटेल )भी जुड़ी हैं.

जब श्री देवी द्वारा अभिनीत फिल्म ‘इंग्लिश विंग्लिश‘ से प्रेरित प्रोमो को लेकर रूपल पटेल से बात की गयी,तो रूपल पटेल ने कहा- ‘‘बात नकल की नही है.देखिए,कोई भी शख्स इस बात से इंकार नहीं कर सकता कि श्रीदेवी भारतीय सिनेमा की सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्रियों में से एक थीं.

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उनकी कुछ फिल्में हम सभी कलाकारों को प्रेरित करती हैं और अच्छे विचार,उसके पीछे की अच्छी सोच के साथ ही उससे जुड़े विश्वास से सही प्रेरणा लेने में कोई बुराई नहीं है. हमारे सीरियल‘तेरा मेरा साथ रहे’ का प्रोमो बताता है कि अंग्रेजी सिर्फ एक भाषा है न कि किसी की बुद्धिमत्ता या क्षमता नापने का कोई पैमाना.यह प्रोमो सभी के चेहरे पर न सिर्फ मुस्कान लाता ,बल्कि उन मानवीय भावनाओं को सामने लाता है,

जिनसे हर भारतीय अपनी पहचान बना सकता है और इंसान के दिमाग में कई अनुत्तरित प्रश्न छोड़ देता है.एक बहुत अच्छा विचार है कि भाषा और मानसिकता एक बाधा हो सकती है, लेकिन यह सब कुछ नहीं है.‘‘

Barrister Babu : बोंदिता को किडनैप करेगा अनिरुद्ध, हवेली में होगा हंगामा

कलर्स टीवी के जाने माने सीरियल बैरिस्टर बाबू में इन दिनों नया मोड़ आ गया है, जबसे लोगों को बोंदिता कि सच्चाई का पता चला है.  बोंदिता ने अनिरुद्ध की जिंदगी में दूबारा कदम रखा है कुछ न कुछ अनहोनी हो रही है.

अभी तक के एपिसोड में आपने देखा होगा कि पंचायत में बोंदिता इस बात को मान लेती है कि वह एक जासूस है. जिसके बाद पंचायत यह सजा सुनाता है कि बोंदिता को संन्यास लेकर काशी जाना होगा. बोंदिता जाने के लिए जैसे ही घर से बाहर निकलती है लोग उसके ऊपर कांच के टुकड़े फेंकने शुरू कर देते हैं.

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बोंदिता का दर्द देखकर अनिरुद्ध को रहा नहीं जाता है, वह उसकी मदद करने की कोशिश करता है. वहीं बोंदिता को बचाने के चक्कर में अनिरुद्ध के हाथ में घाव लग जाता है. जिसके बाद से अनिरुद्ध बोंदिता को इन सभी चीजों से बचाने के लिए एक प्लानिंग करता है.

वहीं तभी अनिरुद्ध को पता चलता है कि राय ठाकुर बोंदिता का मुंह बंद करना चाहता है इसलिए ये सब प्लान कर रहा है. राय ठाकुर अपनी नौकरानी को आदेश देगा कि वह बोंदिता का जबान जला दे.

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अनिरुद्ध ठाकुर की चोरी पकड़ लेगा और बिहारी के साथ मिलकर एक प्लान बनाएगा कि  बोंदिता के खीर में नशे की गोली डाल दें, जिसके बाद बोंदिता को वह किडनैप करके लेकर भाग जाएगा.

जैसे ही अनिरुद्ध रास्ते में बोंदिता के बारे में सोचते हुए उसे बंधे हुए दुुप्पटे से हटाने की कोशिश करेगा, जैसे ही वह दुपट्टा हटाएगा उसे सदमा लगेगा. अब आगे कि कहानी में देखेंगे कि  आखिर अनिरुद्ध के साथ क्या होगा.

Sasural Simar ka 2 : गगन को मारने की धमकी देंगी माता जी , जानें क्या होगा सिमर का रिएक्शन

कलर्स टीवी के जाने माने सीरियल ससुराल सिमर का 2 में अब एक और नया ड्रामा देखने को मिल रहा है जिससे सिमर की मुसीबत बढ़ती नजर आ रही है. जिसमें उसे अपने पति आरव का साथ मिलता है.

दरअसल, सिमर का भाई गगन और सिमर की ननद आदिति एक दूसरे को पसंद करते हैं, ऐसे में गगन सिमर को लेकर भाग जाता है. जिसके बाद जब पूरे घर में आदिति मिलती नहीं हैं तो माता जी को शक गगन पर जाता है.

माता जी सिमर के सामने कहती हैं कि अगर गगन सामने मिल गया तो उसे जान से मार देंगी, ऐसे में सिमर अपने भाई को लेकर काफी ज्यादा डर जाती है. वहीं दूसरी तरफ पति आरव कहता है कि गगन को कुछ नहीं होने देगा, ये उसका वादा है.

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जिसके बाद आरव और सिमर गगन और आदिति के तलाश में निकल जाते हैं, तो माता जी यामिनी देवी से मिलने पहुंच जाती हैं. वहीं पहुंचकर माता जी यामिनी देवी को दूर से ही सलाह देती हैं. तभी माता जी को पता चलता है कि गगन और आदिति किसी मंदिर में शादी करने वाले हैं.

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माता जी का आदमी उन्हें मंदिर में देख लेता है और इसकी जानकारी माता जी को दे देता है. जैसे ही इस बात की जानकारी माता जी को लगती है उनका खून खौलने लगता है. वह परेशान हो जाती है कि और आने वाले एपिसोड में आप देखेंगे कि माता की गजेंद्र को फरमान सुनाएंगी कि वह उन्हें जहां भी देखा है वहीं खत्म कर दें.

वहीं आरव और सिमर दोनों की तलाश में निकल चुके हैं , जहां रास्ते में वह तेज बारिश में फंस जाएंगे, और उन्हें अपनी रात एक झोपड़ी में बितानी पड़ेगी.

अब देखना यह है कि कैसे सिमर अपने भाई की जान बचाएंगी.

तो ये है शर्मीलेपन का रहस्य

बाडाइन कौलेज या विशिष्ट भारतीय उच्चारण में ‘बाउडिन कालेज’ का हो सकता है, बहुत से भारतीयों ने नाम न सुना हो.क्योंकि शायद अमेरिका के इस विशिष्ट कौलेज में आज तक एक भी भारतीय पढ़ने नहीं गया. बहरहाल यह अमेरिका के मैसाचुसेट्स प्रांत [ब्रंसविक,मेन में] में स्थित एक निजी उदार कला महाविद्यालय है. इस मायने में यह दुनिया भर में विशिष्ट कौलेज माना जाता है ; क्योंकि इसमें कला, विज्ञान और मानविकी जैसे विषयों को एक साथ पढ़ाया जाता है. सबसे ख़ास बात यह कि 1794 से मौजूद और 2017 में अमेरिका के 1201 निजी आर्ट्स कोलेजों में, अव्वल रहने वाले इस कौलेज में बेहद अलग किस्म के अनुसंधान होते हैं. कुछ सालों पहले इसी कालेज ने अपने लंबे और बेहद खास अनुसंधान से यह उजागर किया है कि आखिर शर्मोहया का विज्ञान और मनोविज्ञान क्या होता है.

दरअसल शर्मीलेपन की बुनियाद अपरिचितों से भी झिझकने और किसी भी किस्म की उपस्थिति से छिपने या बचने की कोशिश में परिलक्षित होती है.वैज्ञानिकों के मुताबिक शर्मीलेपन के रहस्य का बीज यही है.शर्मीलेपन लोग भीड़ में दूसरों से अलग दिखते हैं.

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  • उन्हें किसी से भी आंखे मिलाने में दिक्कत होती है.
  • उनके कंधे झुके हुए होते हैं.
  • उनका पूरा शरीर सिकुड़ा-सिकुड़ा सा होता है.
  • वे बैठने के लिए पीछे की कुर्सी या कोई अँधेरा कोना तलाशते हैं.
  • वे आपकी कोई भी बात मान सकते हैं ताकि बहस से बचा जा सके.
  • शर्मीले लोगों को पहचानना किसी के लिए भी मुश्किल नहीं होता.

वास्तव में शर्मीलापन एक ऐसी अवस्था है जो देखने वाले के लिए तो कष्टदायी होती ही है,इसका अनुभव और भी ज्यादा कष्टदायी होता है. इससे भी बढ़कर उत्तरजीविता की दृष्टि से इसका स्पष्टीकरण बमुश्किल ही संभव है. कुल मिलाकर शर्मीले लोग या शर्मीलापन आपको यह सोचने को प्रेरित करता है कि भूल जाइये कि ‘मैं हूं भी’ बनिस्बत इसके कि वह यह जतायें कि ‘मैं हूं न’. द पेंग्विन डिक्शनरी ऑफ़ साइकोलौजी के मुताबिक ‘शर्मीलापन, दूसरों की उपस्थिति में असहज महसूस करना है जो तीव्र स्व-बोध से पैदा होता है.’ ऐसा सकारात्मक एवं नकारात्मक स्व-बोध के एक साथ पैदा होने से होता है.

कुछ वैज्ञानिक भले ही इसे सामान्य मानें परंतु अपने इस व्यवहार के प्रति बेहद चिंतित लोग इसके कारण परेशान ही रहते हैं. यह शोधकर्ताओं हेतु इस परिघटना की पड़ताल के पीछे एक कारण भी बनता है. सवाल है-

  • कई बहुत छोटे बच्चों में से आगे चलकर कौन शर्मीला बनेगा और कौन नहीं,आखिर इसका निर्धारण कैसे किया जा सकता है?
  • इस समस्या यानी शर्मीलेपन से मुक्ति पाने का आखिर विकल्प क्या है ?
  • वैसे क्या शर्मीलापन वास्तव में कोई समस्या है, जिस पर माथापच्ची की जाए?
  • …और यह भी कि क्या बहिर्मुखी लोगों के मुकाबले ये शर्मीले अंतमुर्खियों को क्या इसका कुछ लाभ भी मिलता है ?

इन तमाम सवालों के जवाब बाउडिन कालेज के शोध वैज्ञानिकों ने खोजे हैं. उनके निष्कर्ष सबसे पहले तो यह बात कहते हैं कि यह समझ लेना बेहतर होगा कि शर्मीलापन मात्र साधारण अंतर्मुखी होना नहीं है, जैसे कि छुट्टी से पहले की शाम-रात को पार्टीबाजी करने के बजाए कोई छात्र घर पर रहकर पढ़ना चाहता है. अगर ऐसा है तो जरूरी नहीं कि उसे शर्मीला माना जाए. मगर हां, यदि वह अजनबियों के साथ होने की संभावना से ही तनावग्रस्त हो जाता है और पार्टी में नहीं जाता है तो यह सामान्य से अधिक है. ऐसा मानना है हार्वर्ड विश्वविद्यालय के जेरोग कागान का.

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शर्मीलेपन को लेकर बाउडिन शोध के निष्कर्ष कुछ इस प्रकार हैं-

  • लगभग सभी शर्मीले अंतर्मुखी होते हैं परंतु जरूरी नहीं कि सभी अंतर्मुखी शर्मीले भी हों. इस सबके बावजूद शर्मीलों की संख्या कम नहीं है.
  • दुनिया के लगभग 30 प्रतिशत लोग शर्मीले हैं या इनमें किसी स्तर का शर्मीलापन होता है.
  • शोध के मुताबिक़ चूंकि अधिकतर लोग अपनी इस अवस्था में स्पष्ट नहीं होते हैं इसलिए वह खुद को शर्मीला मानने को राजी नहीं होते हैं.इसे यूँ भी कह सकते हैं कि शायद उन्हें पता ही नहीं होता है.सवाल है क्या ऐसे बच्चों के माँ-बाप को उन पर इससे छुटकारा पाने का दबाव डालना चाहिए ?
  • बाउडिन शोध के मुखिया पुरमान के मुताबिक शर्मीले बच्चे अपनी भावनाओं को अंतःकरण में समेटे रहते हैं, जिससे उनके आगे चलकर अवसाद एवं चिंता से ग्रस्त होने के आसार बढ़ जाते हैं.
  • यही नहीं, शर्मीले बच्चों को तरह तरह के सामाजिक भय (फोबिया) से पीड़ित होने की आशंका अधिक होती है.

एक और शोध अध्ययन के मुताबिक गैरशर्मीले एचआईवी पाजिटिव लोग विषाणु भार के बावजूद शर्मीलों के मुकाबले आठ गुना अधिक जीए. इस अध्ययन यानी यूसीएलए की डॉ. पैली रैगीना की माता-पिता को सलाह है कि वह बच्चों के चिंतातुर होने को बुरा बताने से गुरेज करें. क्योंकि अभी तक शर्मीलेपन के शोध के जो निष्कर्ष सामने आये हैं उसके मुताबिक, शर्मीलापन और कुछ नहीं सिर्फ एक मानवीय फर्क है.यह एक ऐसी भिन्नता है जो अलग प्रकार की समृद्धि का द्योतक हो सकता है.

एक बड़े काम की बात

महावीर, बुद्ध, नानक, कबीर, अब्राहम लिंकन, महात्मा गांधी और नेल्सन मंडेला तथा टी एस इलियट सभी बचपन में असाधारण रूप से खुद तक सीमित रहते थे या शर्मीले थे.यदि वह ऐसे नहीं होते तो शायद आज वह, वह नहीं होते जिनके रूप में वह आज जाने जाते हैं.

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