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उतरन – भाग 1 : पुनर्विवाह के बाद क्या हुआ रूपा के साथ?

लेखिका- कात्यायनी सिंह

रहरहकर उस का दिल धड़क रहा था. मन में उठते कई सवाल उस के सिर पर हथौड़े की तरह चोट कर रहे थे. यह क्या हो गया? भूल किस से हुई? या भूल हुई भी तो क्यों हुई? मन में उभरते इन सवालों का दंश झेल पाना मुश्किल हो रहा था. अभी बेटी के होस्टल में पहुंचने में तकरीबन 3 घंटे का समय था. बस का झेलाऊ सफर और उस पर होस्टल से किया गया फोन कि आप की बेटी ने आत्महत्या करने की कोशिश की है…

अपने अंदर झांकने की हिम्मत नहीं हुई. स्मृति पटल पर जमी कई परतें, परत दर परत सामने आने और ओझल होने लगीं. दिल बैठा जा रहा था. अवसाद गहरा होता जा रहा था. तन का बोझ भी सहना मुश्किल और आंखों से बहती अविरल धारा…

वह खिड़की के सहारे आंखें मूंदे, दिल

और दिमाग को शांत करने की कोशिश करने लगी. पर एकएक स्मृति आंखों में चहलकदमी करती हुई सजीव होने लगी. वह घबरा कर खिड़की से बाहर देखने लगी. आंखों की कोरों पर बांधा गया बांध एकाएक टूट कर प्रचंड धारा बन गया. यों तो जिंदगी करवट लेती है, पर इस तरह की उस का पूरा वजूद दूसरी शादी के नाम पर स्वाह हो जाए. क्योंकि उस ने दूसरी शादी? क्या मिला उसे? स्वतंत्र वजूद की चाहत भी तो अस्तित्वहीन हो गई?

पर समाज का तो एक अलग ही नजरिया होता है. तलाकशुदा स्त्री को देख लोगों की

आंखों में हिकारत का कांटा चुभ सा जाता है. और उस कांटे को निकालने के लिए ही तो रूपा ने दूसरी शादी की.

पहली शादी और तलाक को याद कर मन कसैला नहीं करना चाहती

अब. पर न चाहने से क्या होता है. तलाक के 10 साल पहले ही बेटी उस की गोद में आ चुकी थी. शादी के 2 दिन बाद ही सपने बिखरने की आहट सुनाई देने लगी थी. सुनहरे दिन और सपनों में नहाई रात, सब इतनी भयावह कैसे हो गई? वह आज तक समझ नहीं पाई.

हर रोज की मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना उसे जिंदगी से बेजार करने लगी थी और उस के नीचे कराहता उमंगों भरा मन. पहलेपहल भरपूर विरोध किया रूपा ने. पर दिन, महीने और 7 साल बीतते चले गए और उस का धैर्य क्षीण होता रहा. पर एक दिन… उसी विरोध के महीन परतों के नीचे ज्वालामुखी के असंख्य कण फूट पड़े. और अंतत: उसे तलाक की पहल भी करनी पड़ गई…

2 साल लगे इस अनचाही पीड़ादायी परिस्थिति से नजात पाने में. तलाक के बाद बेटी को साथ ले कर वो एक अनजान सफर पर निकल गई. मंजिल उस को पता नहीं थी. इस असमंजस की स्थिति के बावजूद वह तनावमुक्त महसूस कर रही थी खुद को. आखिर

2 सालों के संघर्ष ने नारकीय जीवन से मुक्ति जो दिलाई थी. कुदरत ने मेहरबानी दिखाई और 1 हफ्ते में ही रेडियो स्टेशन में नौकरी लग जाने के कारण

उसे कोई आर्थिक तंगी का एहसास नहीं हुआ. और फिर मायके का सहारा भी संबल बना.

उगते सूरज की लालिमा उस के गालों पर उतरने लगती थी, जब रेडियो स्टेशन में उसे एक पुरुष प्यार से देखता था. अच्छा लगता था उसे यों किसी का देखना. 2 वर्ष का अकेलापन ही था, जो अनजान पुरुष को देख कर पिघलने लगा.

पिछली यादों में तड़पता उस का मन कहता कि मुझे इस सुख की आशा नहीं करनी चाहिए अब. मेरे हिस्से में कहां है सुख… और अजीब सी उदासी मन को उद्वेलित करने लगती.

उफ्फ, यह अचानक आज मुझे क्या हो रहा है? 2 सालों के अकेलेपन में कभी भी इस तरह का खयाल नहीं आया. अकेलापन, उदासी, सबकुछ अपनी बेटी की मुसकान तले दब चुकी थी. फिर आज क्यों? जबकि उस ने तलाक के बाद किसी भी पुरुष को अपने दायरे के बाहर ही रखा. अंदर आने की इजाजत नहीं दी किसी को. पर आज इस पुरुष को देख कर क्यों तपते रेगिस्तान में बारिश की बूंदों जैसा महसूस हो रहा है.

‘क्या ये कोई स्वप्न है या फिर पिछले जन्म का साथ. क्यों मेरी नजरें बारबार उस की ओर उठ रही हैं? क्यों वह उसे अनदेखा नहीं कर पा रही है? मन में एक सवाल- क्या कुदरत को कुछ और खेल खेलना है? इसी उधेड़बुन में शाम हो गई,’ उस ने अपने बैग को कंधे पर लटकाया और बाहर निकल आई.

पूस की सर्दी में भी उस के माथे पर पसीने की बूंदें झिलमिला रही थीं. चेहरे पर शर्म भरी मुसकराहट खिल उठी. तो क्या उसे प्यार हो गया है? एकाएक उस की मुद्रा ने गंभीरता का आवरण ओढ़ लिया. सोचने लगी, ‘उस का मकसद तो सिर्फ और सिर्फ अपनी बेटी का भविष्य बनाना है. नहींनहीं, वह इन फालतू के बातों में नहीं पड़ेगी.’

तभी उसे एक आवाज ने चौंका दिया, ‘‘चलिए मैं आप को घर छोड़ देता हूं. कब तक यहां खड़ी रह कर रिकशे का इंतजार करेंगी. अंधेरा भी तो गहरा रहा है.’’

पलट कर देखा तो वही पुरुष था, जो उस के दिलोदिमाग पर छाया हुआ था. वैसे अंधेरे की आशंका तो उस के मन में भी थी. वह बिना कुछ जवाब दिए उस की कार में बैठ गई. मध्यम स्वर में गाना बज रहा था-

धीरेधीरे से मेरी जिंदगी में आना

धीरेधीरे से दिल को चुराना…

वह चुपचाप बैठ बाहर के अंधेरे में झांकने की असफल कोशिश रही थी. तभी उस ने हंस कर पूछा, ‘‘अंधेरे से लड़ रही हैं या मुझे अनदेखा कर रही हैं?’’

वह भी मुसकरा दी, ‘‘अपने वजूद को तलाश रही हूं. आप घुसपैठिए की तरह

जबरदस्ती घुस आए हैं, इसी समस्या के निवारण में जुटी हूं.’’

खिलखिला कर हंस पड़ा वह. लगा जैसे चारों तरफ हरियाली बिखर गई हो. इन्हीं बातों के दरमियान घर आ गया और वह बिना कुछ कहे गाड़ी से उतर कर जाने लगी. तभी उस ने विनती भरे स्वर में उस का मोबाइल नंबर मांगा. पहले तो वह झिझकी, लेकिन फिर कुछ सोच कर नंबर दे दिया.

दिन बीतने के साथ बातों का और फिर मिलने का सिलसिला शुरू हो गया. वह नहीं चाहती थी कि रचित हर शाम उस से मिलने आए. क्योंकि एक तो बदनामी का डर और दूसरी तरफ बेटी जिस की नजरों का सामना करना मुश्किल होता. मन की आशंकाएं उसे परेशान करती कि उस के जानने के बाद, क्या वह बेझिझक उस के सामने जा पाएगी? पर दफ्तर के बाद का खाली समय उसे काटने दौड़ता. झिझक और असमंजस के बीच वह मिलने का समय होते ही उस के आने की राह भी देखती.

मन मंदिर के दीप : भाग 3

लेखिका-डा. क्षमा चतुर्वेदी

‘‘मुझे लगता है कि घनश्याम कुछ छिपा रहा है, अब चंडीगढ़ पहुंच कर उस से बात करनी पड़ेगी. विशाल ने फिर परी को भी तैयार किया, अकेले उसे इस हाल में तो छोड़ा भी नहीं जा सकता था.

‘‘अब तू कुछ दिनों की छुट्टी ले कर घर चल…’’ वीणा के आग्रह को फिर परी टाल नहीं पाई थी. पर, घनश्याम ने जो कहा, उसे सुन कर तो वीणा और विशाल अवाक ही रह गए.‘‘हम ने तो यही सोचा था कि परी से शादी कर के प्रमेश अपनी लंदन की गर्लफ्रेंड को भूल जाएगा, पर क्या करें… परी बांध नहीं पाई उसे और वह सबकुछ छोड़ कर वापस लंदन चला गया…’’

घनश्याम और सुनीता ने सबकुछ इतनी सहजता से कहा, मानो कुछ हुआ ही न हो.

‘‘आप को हमारी भोलीभाली बेटी ही मिली थी बलि चढ़ाने को…’’वीणा अपना गुस्सा रोक नहीं पा रही थी, उधर विशाल का ब्लड प्रेशर और बढ़ने लगा था. ‘‘घनश्याम, तू ने आज अपने दोस्त की पीठ पर छुरा घोंपा  है. इस का अंजाम अच्छा नहीं होगा. तू ने आज मेरी बेटी की जिंदगी बरबाद कर दी. ब्याहशादी क्या गुड्डेगुड़ियों का खेल समझा था तू ने.’’

पर घनश्याम और उस की पत्नी पर जैसे कोई असर ही नहीं हो रहा था. किसी प्रकार विशाल को संभालते हुए वीणा घर आई. ‘‘अब आप अपनेआप को संभालिए, अभी हमें बेटी को भी संभालना है…’’ उधर विशाल कहे जा रहा था.‘‘गलती हमारी ही थी, हमें शादी की जल्दी करनी ही नहीं थी. पहले प्रमेश के बारे में पता करना था, पर क्या पता था कि दोस्त हो कर…’’

वीणा ने किसी तरह उसे शांत किया. उसे पता था कि परी बहुसंवेदनशील है, और उसे इस नाजुक परिस्थिति से बाहर निकालना बहुत मुश्किल है. उस ने तो अपनेआप को एक कमरे में जैसे कैद ही कर लिया था. न किसी से बोलना, न मिलना, बड़ी मुश्किल से वीणा उसे कुछ खिलापिला पाती थी.

‘‘तू ऐसे रहेगी तो मर जाएगी एक दिन…’’ वीणा की तो रुलाई फूट पड़ी थी.‘‘हां तो, मर जाने दो न मुझे, जी कर अब मुझे करना क्या है? अब इस नौकरी से भी इस्तीफा दे रही हूं.”यह सुन कर वीणा चौंकी.

‘‘हां मां, अब मैं उस फ्लैट में अकेली नहीं रहना चाहती. कितनी यादें जुड़ी हैं प्रमेश की. मैं ने तो प्रमेश को इतना प्यार किया, फिर क्यों छोड़ गए मुझे…’’ कहते हुए वह फिर रो पड़ी थी.अब वीणा ने अपनेआप को संभाला.

‘‘नहीं बेटा, मैं तुझे इतनी कमजोर नहीं होने दूंगी. प्रमेश चला गया तो क्या, वह धोखेबाज निकला, पर उस के किए की सजा तू अपनेआप को क्यों दे रही है? तेरे साथ तेरी मां है, तेरा मजबूत सहारा मैं रहूंगी तेरे साथ, जहां तू रहेगी वहां तेरा प्रमोशन ड्यू है न. तू अपना ट्रांसफर कंपनी की दूसरी शाखा में ले ले. दूसरे शहर में… हां मैं, तेरे पापा सब साथ रहेेंगे.

हालांकि परी को सबकुछ समझाना अब भी इतना आसान नहीं था, पर धीरेधीरे मां, पिता के सहारे उस ने जीने का प्रयास किया. मुम्बई में उसे नई जौब मिल गई. कंपनी का ही फ्लैट भी था.

विशाल तो बीचबीच में चंडीगढ़ आ जाते थे अपना कारोबार संभालने, पर वीणा साथ रही. यहां तक कि परी के नए जौब की, कंपनी की सब की जानकारी लेती रहती थी. साथ ही, परी के खानेपीने का ध्यान रखा. पता था कि बेटी इस बारे में बहुत लापरवाह है.

धीरेधीरे परी सामान्य होने लगी थी, कई बार तो वह हंस कर कहती, ‘‘आप को अधिक जानकारी है मेरे औफिस के बारे में…’’ ‘‘हां, तेरी मां जो हूं…”

परी के काम से कंपनी वाले काफी संतुष्ट थे. 2 साल में ही वह बिजनेस हैड हो गई थी  फिर अब वार्षिक समारोह में तय किया जा रहा था कि उसे सम्मानित किया जाए, क्योंकि कंपनी की पूरी सफलता का मुख्य श्रेय परी को ही जाता था.

समारोह के दिन पूरा हाल खचाखच भरा था. स्टेज पर परी को पुकारा गया. उस के नाम का अवार्ड घोषित हो रहा था. जब उसे कुछ बोलने को कहा गया, तो उस ने कहा कि वह अपनी मां को बुलाना चाहती है स्टेज पर…

मां… सब लोग चौंके थे, फिर वीणा के नाम का एनाउंस हुआ.आगे की पंक्ति में बैठी वीणा तो जैसे कुछ समझ ही नहीं पा रही थी, तभी फिर परी की आवाज आई, ‘‘मां, आ जाओ न…’’

‘‘आप आइए, आप को स्टेज पर बुलाया जा रहा है,’’ पास बैठे व्यक्ति ने कहा था. तब तक स्टेज से 2 आदमी वीणा को लेने नीचे आ गए थे, उधर परी सधे स्वर में कह रही थी, ‘‘मैं अपने इस अवार्ड का पूरा श्रेय अपनी मां को देना चाहूंगी. मेरी मां जो अधिक पढ़ीलिखी नहीं हैं, जो ऐसे रूढ़िवादी परिवार से है, जहां बेटी का जन्म ही अभिशाप समझा जाता हो, वहां मेरी मां ने न सिर्फ मेरी पढ़ाई पर ध्यान दिया, मुझे संवारा, वरन मेरी जिंदगी में एक ऐसा दौर भी आया, जहां मैं ने सोचा कि अब मृत्यु ही मेरी नियति है, उस कठिन दौर से मुझे निकालने वाली यह मेरी मां ही थीं. वे न केवल मेरा सहारा बनी, बल्कि पथ प्रदर्शक भी… आज उन्हीं के प्रयासों से मैं यह अवाई ले पाई हूं, और इस की हकदार भी वे ही हैं,” कहते हुए परी ने शील्ड वीणा को पकड़ा दी थी.

पूरा हाल तालियों से गूंज रहा था और वीणा देख रही थी अपनी बेटी का तेज चमकता चेहरा, बेटी मां के कदमों में झुकना चाह रही थी कि वीणा ने उसे गले से लगा लिया… पूरा हाल रोशनी से जगमगा रहा था, पर वीणा को लग रहा था कि आज उस के मन का तमस भी जैसे छंटने लगा है. छंट गए हैं पुरानी रूढ़ियों के घेरे और जगमग दीप मन के मंदिर में भी जगमगा उठे हैं.

लाख दुखों की एक दवा हंसी

अकसर देखी होंगी आप ने ऐसी दुकानें जिन के मालिक मुसकराते हुए ग्राहकों का स्वागत करते हैं या सेल्समैन जो बड़े प्यार से हंसतेमुसकराते ग्राहकों को उन की जरूरत की चीजें दिखा रहे होते हैं. ऐसी दुकानों में हमेशा ही ग्राहकों का हुजूम लगा रहता है. कहा भी गया है, जिन के होंठों पर मुसकान नहीं उन्हें दुकान नहीं खोलनी चाहिए. दुकानदारी का यह उसूल जिंदगी की हकीकत है. जीवन में हंसतेमुसकराते आप दूसरों से हर काम करवा सकते हैं. मुंह बना कर रहेंगे तो दोस्त भी पास आने से कतराने लगेंगे. जिंदगी वैसे ही काफी दुरूह और गंभीर है. हर मोड़ पर जिंदगी ऐसे सवाल खड़े करती है कि जवाब खोजतेखोजते दिमाग का फलूदा बन जाता है. हर कोई परेशान है, तो जाहिर है, सब को जरूरत है ऐसे की जो उन्हें हंसा सके, जी हलका कर सके.

क्रोध, चिंता, डर आदि तो इंसान के साथ तब से हैं जब से वह पैदा हुआ मगर हास्य का जीवन में प्रवेश यकीनन भाषा के परिपक्व होने के बाद ही हुआ. एक इंसान ही है, जिसे कुदरत ने हंसने की शक्ति दी है. मगर यह देख कर तकलीफ होती है कि जानेअनजाने हम हंसना भूलते जा रहे हैं. हास्य हमें समस्याओं में घुलते रहने से दूर करता है. यह इंसान की गहरी, दबी भावनाओं को बाहर आने को प्रेरित करता है. कुदरत ने सिर्फ इंसानों को हंसने की क्षमता दी है. इंसान के बच्चे जन्म के बाद पहले सप्ताह में ही मुसकराना शुरू कर देते हैं, और 1 महीना होतेहोते यह मुसकराहट हंसी में तबदील हो जाती है.

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आइए देखें कि हमारी जिंदगी में हास्य कमजोर क्यों होता जा रहा है. लोग एकदूसरे से इतने अजनबी और दूर क्यों हो गए हैं :

अकेलापन : सब से पहली वजह है इंसान का अकेला हो जाना. आज संयुक्त परिवार की प्रथा समाप्त हो चुकी है और लोग एकल परिवारों में रह रहे हैं. घर में 2-3 सदस्य होते हैं. ऐसे में मुश्किल से थोड़ी देर उन की आपस में बातचीत होती है वरना लोग तनहा ही रहते हैं. हंसने के लिए भरापूरा परिवार चाहिए जैसा कि संयुक्त परिवारों के दौर में होता था. घर के सभी लोग खाने की मेज पर जुटते थे और घंटों छोटीबड़ी दिनभर की घटनाओं पर हंसीमजाक हुआ करता था. इंसान आज हंसने के लिए भी अपने मोबाइल और लैपटौप पर निर्भर हो गया लगता है. वाट्सऐप पर सैकड़ों हंसनेहंसाने के मैसेज आते रहते हैं. व्यक्ति उन को पढ़ता है और आगे बढ़ जाता है या फिर फौरवर्ड कर काम में लग जाता है. इस के विपरीत पहले बिना बात के भी बात बना कर लोग खुल कर हंसतेमुसकराते थे.

आज आलम यह है कि औफिस, स्कूल या कालेज जाने वाले तो फिर भी दोस्तों के बीच हंस लेते हैं मगर मैट्रो सिटीज में ऊंचीऊंची बिल्ंिडगों में तनहा रहने वाले लोग, जो पड़ोसियों से भी काफी कट चुके हैं, मिल के हंसने के लिए तरसते हैं. उन के लिए मैसेज हास्य का बेहतर स्रोत है क्योंकि इसे आप अपने पास रखते हैं और किसी के साथ शेयर कर कभी भी पढ़ कर हास्य का आनंद ले सकते हैं, मगर मोबाइल, लैपटौप जैसी चीजों ने हंसी को टैक्निकल बना दिया है. जो बात कहने, अपने हावभावों के साथ प्रदर्शित करने में है वह अपनेआप जोक पढ़ने में नहीं है.

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जिंदगी में बढ़ता तनाव : आज हमारी जिंदगी में तनाव बहुत ज्यादा बढ़ गया है. हर कोई परेशान है. बड़े से ले कर बच्चे, कोई भी तनावमुक्त नहीं. बढ़ती जनसंख्या और तकनीकी विकास ने प्रतियोगिता के स्तर को बहुत बढ़ा दिया है. पढ़ाई हो या जौब, बेहतर काम करने वालों को ही मौका मिलता है और जो कमजोर हैं उन्हें पिछड़ना पड़ता है. ऐसे में बेहतर बनने की कोशिश में लोग स्वयं से ही दूर होते जा रहे हैं और हंसना भूल रहे हैं. हंसी के बदले तनाव उन का साथी बन रहा है.

हम ज्यादा टची हो गए हैं : अकेले रहतेरहते और इन तनावों को सहतेसहते हालत यह हो गई है कि हम छोटीछोटी बातों का बुरा मान जाते हैं, भावनात्मक रूप से जल्दी टूट जाते हैं और हंसनेहंसाने से ज्यादा वास्ता नहीं रखते.

हास्य को बनाएं जीवन का हिस्सा :  मुसकराहट हंसी का पहला कदम है. आप बिना किसी खास वजह के भी मुसकराना शुरू करें. धीरेधीरे यह आप की आदत बन जाएगी और आप छोटीबड़ी बातों पर खिलखिलाना शुरू कर देंगे.

सकारात्मक सोच रखें : यह मत देखिए कि आप के पास क्या नहीं है, बल्कि यह देखें कि कुदरत ने आप को क्या दिया है. जब आप इस दिशा में सोचने लगेंगे तो खुद ही उस नकारात्मक सोच से दूर हो जाएंगे जो आप की हंसी की दुश्मन है.

हंसी की तरफ आकर्षित हों

हंसने के लिए बहाने तलाशें, कहीं लोगों को हंसते हुए देखें तो उधर जाने और उन की हंसी में शामिल होने से स्वयं को रोकें नहीं.

ऐसे लोगों के साथ ज्यादा समय बिताएं जो हंसमुख हैं या बातों को हलकेफुलके रूप में लेते हैं. ऐसे ग्रुप में रह कर आप भी वैसे ही बनेंगे.

बातचीत में ह्यूमर पैदा करें. लोगों से इस तरह की बातें करें जिन में आप को और उन को हंसने का मौका मिले.

हंसने के लिए सब से ज्यादा जरूरी है कि आप स्वयं को बहुत सीरियसली न लें. जिंदगी चार दिनों की है, क्या मिला क्या नहीं मिला, इस हिसाबकिताब में तो जिंदगी ही गुजर जाएगी. बेहतर है कि जो मिला और जो अच्छा दिख रहा है, उसे जी भर कर एंजौय करें और मुसकराएं.

हंसने के मौके खोजें. खुद पर हंसें. उन क्षणों को शेयर करें जब आप को स्वयं पर हंसी आई थी. बुरे या कठिन समय में भी हंसी की वजह ढूंढ़ें.  

आखिरी खत- भाग 3 : राहुल तनु को इशारे में क्या कहना चाह रहा था

कस्तूरी की गंध में बौराया तनु का प्रौढ़ मन उस चौखट पर जा कर खड़ा हो जाता है, जब राहुल से उस की पहली भेंट हुई थी.

ढोलक की थाप पर विवाहगीतों के रस से सराबोर ‘मेहंदी’ की रात के शोरगुल को चीरती हुई एक बुलंद आवाज, चित्त को आकर्षित करने वाला वह व्यक्तित्व… शुभा ने परस्पर परिचय करवाया,

‘ये हैं राहुल भैया. इलैक्ट्रोनिक्स इंजीनियर, यूएसए से एमबीए कर के कंपनी में डीजीएम हैं और यह है, हमारी प्रिय सहेली तनुश्री, आर्क्योलौजी में एमए, फ्रैंच और स्पैनिश में डिप्लोमा, संगीतविशारद और शहर की एक बेहतरीन ट्रैवल एजेंसी में टूरिस्ट गाइड है.’

सबकुछ तनु के मस्तिष्क में तैरता रहा.

महीनेभर बाद ही तिरुअनंतपुरम के टूरिस्ट होटल में तनु की राहुल से दूसरी भेंट हुई. समुद्रतट पर बैठ कर दोनों ने एकदूसरे के बारे में जाना. मित्रता का सिलसिला यों शुरू हुआ. फिर जब भी राहुल दिल्ली आता, तनु से जरूर मिलता. जब भी वे मिलते, खूब बातें होतीं, आफिस की, मित्रों की, किताबों की. वे पल अत्यंत रोचक, अर्थपूर्ण और गंभीर होते.

अनजाने में ही उन्हीं क्षणों में वास्तविकता के ठोस धरातल पर परिपक्व प्रेम का अंकुर पौधे के रूप में विकसित हो गया था.

यों ही 11 माह सरक गए और एक दिन राहुल के साथ पुणे से अम्माजी, बाबूजी और प्रभा दीदी आए और गोद भर कर शादी की तारीख तय कर गए थे. खुशहाल परिवार में अगले ही वर्ष नीतू के जन्म का जश्न मनाया गया था. 12 बरस बीत गए, पर अब भी राहुल के आत्मीय स्पर्श से दौड़ जाने वाली सिहरनें वैसे ही रही हैं जैसे देह का प्रथम परिचय था.

क्या राहुल भी उन्हीं पुरुषों में से है जो औरत के समर्पण को लौटा नहीं पाते हैं? शकुन से क्या कभी देह संबंध रहा होगा… जिस का परिणाम उस की बच्ची है? भावना की दरार से निकली लंबी आवाज… ‘नहीं’ एक बार फिर तनु के मन की कगारों को छू कर लौट आई.

दीवारघड़ी ने 5 बजाए तो प्रभा दीदी जाग गईं. वे उठ कर तनु के पास आईं और बोलीं, ‘‘दूध गरम कर के दे दूं?’’

जाने कैसेकैसे भावों के बहाव में आ कर तनु अपनी दीदी की गोद में मुंह छिपा कर रो पड़ी थी.

दीदी दुलारभरे हाथों से उस की पीठ सहलाती रहीं, फिर बोलीं, ‘‘तुम्हारी पीड़ा, निराशा और द्वेष का बो झ वह टैलीग्राम ही है न?’’

यह सुन कर तो तनु  झटके से उठ बैठी. उस की छटपटाहट देख कर दीदी ने दूध गरम करतेकरते कहा, ‘‘थका शरीर और उल झा हुआ मन ले कर तुम कुछ नहीं सोच पाओगी. वैसे, राहुल तुम्हें अपनी जिंदगी की बेहतरीन तलाश सम झता है. एक विश्वासभरा मन किसी आवेग में बह तो नहीं सकता, पर किन्हीं दुर्बल क्षणों में हुई दुर्घटना का परिणाम मान भी लें… जैसे सुमेधा ने शक का बीज तुम्हारे मन में उपजाया है, तो हमारे मन में यह सवाल जरूर उठेगा कि ऐसी परिस्थिति में अगर स्त्री होती तो पुरुष की क्या प्रतिक्रिया होगी?’’

प्रभा दीदी यहां थोड़ी देर के लिए चुप हुईं तो तनु की दृष्टि उन के चेहरे पर स्थिर हो गई कि यही सवाल तो उस के सामने विराट रूप धर कर उसे परेशान कर रहा था. जैसे ही दीदी ने कहा, ‘‘राहुल के आने के बाद ही सही निर्णय हो पाएगा,’’ तो तनु सोचने लगी कि अगर राहुल से ‘हां’ में जवाब मिला तो क्या होगा? अकेले में फिर तनु सवालजवाबों के अंतहीन सिलसिले में कैद हो गई.

2 दिनों बाद राहुल का दफ्तर से फोन आया तो बाबूजी बोले, ‘‘तनु की तबीयत ठीक नहीं है, तुम घर आ जाओ.’’

बस, उस के बाद राहुल तुरंत ही घर पहुंच गया. आते ही बोला, ‘‘क्या हुआ तनु को? परसों मैं ने फोन किया तो घंटी बजती रही, पर किसी ने उठाया नहीं.’’

राहुल की आवाज में सिमटती वह अकुलाहट, फिर प्रभा दीदी का कहना कि 2 दिन से फोन ठीक नहीं था, शायद शाम को ही ठीक हुआ होगा जब बाबूजी ने फोन किया था. गीजर का स्विच खराब था, गीले हाथ से छुआ तो करंट लग गया था, सबकुछ सुनती हुई तनु, निढाल सी पड़ी रही.

कमरे में दाखिल होते ही पलंग पर, तनु के करीब बैठ कर राहुल उस की हथेली को अपने हाथों में दबा कर बोला, ‘‘तनु, तुम्हें और इस कमरे के बिखराव को देख कर ही मु झे अंदाजा हो रहा है कि तुम्हें जबरदस्त धक्का पहुंचा है. तुम तो किसी भी बात में लापरवाही नहीं बरततीं, फिर कैसे हो गया यह सब?’’

उस की हथेली में कैद तनु के हाथ ठंडे होते से लगे तो राहुल घबरा कर फिर बोला, ‘‘कुछ कहो न तनु? क्या हुआ?’’

‘‘क्या कहूं, मैं, कुछ ऐसी बातें हो जाती हैं जिन की हम कल्पना भी नहीं कर पाते हैं,’’ तनु बोली.

उस की इस बात से राहुल भी सहमत होता हुआ बोला, ‘‘तुम ठीक कहती हो, तनु,’’ और जब तनु ने टैलीग्राम का यह कागज उसे थमाया तो उसे पढ़ कर राहुल गंभीर विचारों में खो गया. उस के चेहरे पर आतेजाते भावों की सूक्ष्मता को पहचानने का प्रयास करती हुई तनु को खामोशी का एकएक पल भारी लग रहा था.

विचारों की उथलपुथल से उबरने का प्रयास करता हुआ राहुल बोला, ‘‘पीलिया सम झ कर वहां के किसी डाक्टर से इलाज करवाती रही और अंदर कैंसर पनपता रहा.’’

उस की इस बात से तनु को यह तो सम झ आ गई कि शकुन से राहुल की मुलाकात होती रही है. मन में व्याप्त शक का वह अंकुर और उसी नजरिए से देखा तो बात बहुत गहरी लगी. वह बोली, ‘‘आप की अमानत… वह बच्ची… उस का क्या होगा?’’

तनु के इस सवाल के जवाब में जब राहुल ने बिलकुल सहज स्वर में कहा, ‘‘शकुन की बेटी एक तरह से हमारी अमानत है, इस में शक की कोई गुंजाइश नहीं है, और मैं उस बच्ची को उस का हक दिलवाने में तुम्हारी? मदद चाहता हूं, मु झ से गलती हो गई. सबकुछ पहले ही तुम से कह देता तो इस वक्त इतनी परेशानी न होती.’’

तनु को लगा कि उस के विचारों का संतुलन खत्म होता जा रहा है. मस्तिष्क में सन्नाटा सा छाने लगा तो विवेक ढक गया और तीव्र प्रतिक्रिया का स्वर इतना तीखा था कि राहुल बिना प्रतिकार किए कमरे से उठ कर चला गया.

राहुल के जाने के बाद तनु फिर सवालों के अंतहीन सिलसिले में कैद हो गई, ‘गलती हो गई’ वह बारबार यही दोहराती रही, ‘कितनी आसानी से कह दिया…’ शकुन का आखिरी खत, जो मिला ही नहीं, उस में भी यही सबकुछ लिखा होगा.

रातभर तनु भावनाओं के कोलाहल में घिरी छटपटाती रही. फिर न जाने कब उसे नींद आ गई.

सुबह जब 5 बजे उस की नींद खुली तो देख कर उस का मन न जाने कैसाकैसा हो गया. खुली खिड़की के सामने वह कुछ क्षणों के लिए खड़ी रही. सुबह की ताजी हवा के स्पर्श से वह सचेत सी हो गई. फिर कमरे में बेतरतीब बिखरी हुई चीजें समेटने लगी.

खुले सूटकेस से राहुल के कपड़े छांटते वक्त धानी रंग की तांत की साड़ी देख कर तनु की आंखें छलक आईं.

धुंध के पार: पुष्पा अपने अंदर कौन सा गम छिपाए बैठी थी

लेखिका- डॉ क्षमा चतुर्वेदी

पुष्पा की सारी दलीलें 1-1 कर के व्यर्थ हो गई थीं. सुरेशजी अडिग थे कि उन्हें तो आश्रम जाना ही है, चाहे कुछ भी क्यों न हो जाए.

‘‘अगर ऐसा ही है और तुम्हारा जाने का मन नहीं है तो मैं अकेला ही चला जाऊंगा,” अपना अंतिम हथियार फेंकते हुए उन्होंने कह ही दिया था.

पुष्पा फिर चुप रह गई. पति का स्वास्थ ठीक रहता नहीं है फिर अब उम्र भी ऐसी नहीं ही कि अकेले यात्रा कर सकें, तो फिर उन्हें अकेला कैसे भेज दें, वहां कुछ हो गया तो कौन संभालेगा इन्हें? आखिरकार, जब कुछ कहते नहीं बना तो उस ने साथ जाने की हामी भर ही दी थी.

‘‘ठीक है, अब तैयारी करो। मैं तो अपना सामान पहले ही जमा चुका हूं,’’ सुरेशजी ने फिर बात खत्म कर दी थी.

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पुष्पा की सारी दलीलें 1-1 कर के व्यर्थ हो गई थीं. सुरेशजी अडिग थे कि उन्हें तो आश्रम जाना ही है, चाहे कुछ भी क्यों न हो जाए.

‘‘अगर ऐसा ही है और तुम्हारा जाने का मन नहीं है तो मैं अकेला ही चला जाऊंगा,” अपना अंतिम हथियार फेंकते हुए उन्होंने कह ही दिया था.

पुष्पा फिर चुप रह गई. पति का स्वास्थ ठीक रहता नहीं है फिर अब उम्र भी ऐसी नहीं ही कि अकेले यात्रा कर सकें, तो फिर उन्हें अकेला कैसे भेज दें, वहां कुछ हो गया तो कौन संभालेगा इन्हें? आखिरकार, जब कुछ कहते नहीं बना तो उस ने साथ जाने की हामी भर ही दी थी.

‘‘ठीक है, अब तैयारी करो। मैं तो अपना सामान पहले ही जमा चुका हूं,’’ सुरेशजी ने फिर बात खत्म कर दी थी.

ये भी पढ़ें- उतरन – भाग 2 : पुनर्विवाह के बाद क्या हुआ रूपा के साथ?

ऐसा नहीं था कि पुष्पा पहली बार ही आश्रम में जा रही थी. वहां तो वे लोग पिछले कई सालों से जा रहे थे, पर इस बार सुरेशजी ने तय किया कि अब वहीं रहना है. आश्रम की आजन्म सदस्यता लेंगे वे और इस बात को कई बार कह भी चुके थे.

‘‘देखो, हम लोगों का गृहस्थाश्रम का समय अब पूरा हो गया. भगवान की कृपा से सारी जिम्मेदारियां भी पूरी हो गईं। बेटे अपने सैट हो गए, शादीब्याह कर दी, बेटी भी ब्याह दी, अब हमें…’’सुरेशजी वाक्य पूरा करते पर बेटी शब्द के बाद उन्होंने क्या कहा, पुष्पा के कान मानों सुन्न हो कर रह जाते, एक ही शब्द दिलोदिमाग तक ठकठक करता रहता…

बेटी…बेटी… हां, बेटी ही तो है नंदिता। नंदी… जिसे अब सब लोग नंदी के ही नाम से पुकारते हैं और बेटी का करुण, दयनीय चेहरा फिर आंखों के सामने घूमने लगता। देर तक वह उसे ओझल नहीं कर पाती। नंदी उन की बेटी, नाजो पली. दोनों बेटों के काफी समय बाद हुई थी तो वह अब तक नन्ही गुड़िया सी ही लगती थी. हां, अभी कम उम्र की ही तो थी, पर यहां भी सुरेशजी की ही जिद थी कि नौकरी से रिटायर्ड होने से पहले बेटी को ब्याह देना है. मुश्किल से तब हाईस्कूल ही तो पास कर पाई थी। पढ़ने में इतनी कुशाग्र, कितना मन था उस का आगे पढ़ने का. पिता के सामने तो उस की बोलती बंद हो जाती थी। बस, मां से ही जिद करती,”मां, बाबूजी से कहो न, मेरे ब्याह की इतनी जल्दी न करें। इतनी जल्दी तो तुम ने भैया लोगों के भी ब्याह नहीं किए. मुझे पढ़ने दो न…’’

कितना कहा था पुष्पा ने तब सुरेशजी से, पर वे उलटे उसी पर बिगड़ पङे थे,”तुम ने ही तो बेटी को सिर पर चढ़ा रखा है। अरे, इतनी बार कह चुका हूं कि नहीं है हैसियत मेरी लड़की को आगे पढ़ाने की और फिर 4 जमातें आगे पढ़ भी गई तो कौन सा तीर मार लेगी. आखिरकार, उसे ब्याह कर ससुराल ही तो जाना है फिर… अभी तो लड़के वालों के यहां से रिश्ते भी आ रहे हैं, फिर कहां मैं सब के दरवाजे हाथ जोड़ता जाऊंगा. आखिर मेरा भी तो कुछ खयाल करो कि गृहस्थी के जंजाल से मुक्त हो कर 2 घड़ी भगवान का नाम ले सकूं।”

गृहस्थी… जंजाल…बंधन… सुरेशजी के ये शब्द नए नहीं थे पुष्पा के लिए. अब तो खैर नौकरी से मुक्त हो चुके हैं, पर वह तो प्रारंभ से ही ऐसे शब्द उन के मुंह से सुनती आ रही थी और इस आश्रम की सदस्यता लेने का भी उन का निर्णय काफी समय पहले हो चुका था। खैर आननफानन में बिटिया ब्याह दी। वह तो बाद में पता चला था दामाद मयंक की बीमारी का.

‘‘अरे पीलिया ही तो है, कुछ भी कह लो, हेपेटाइसबी सही, पर ऐसी बीमारी कोई गंभीर रोग नहीं है…’’

पता नहीं कोई और गंभीर रोग था या नहीं, पर शादी के 6 महीने बाद ही बेटी विधवा हो गई. नंदी… पुष्पा का कलेजा फिर से मुंह को आने लगता. खबर सुनी थी तो उसी समय उसे गश आ गया था. बदहवास सी फिर बेटी की ससुराल भी गई. सफेद, विधवा और खुले केश में पथराई आंखों से उसे देखती नंदी उस के तो मानों आंसू भी सूख चुके थे. क्या यही उस की गुड़िया थी, नाजों में पली?

‘‘मां…’’

उस के गले से लग कर नंदी का वह चीत्कार भरा स्वर अभी भी दिल दहला जाता है. पता नहीं कैसे रहेगी बिटिया यहां, पर उस की सास ने तो दोटूक निर्णय उसी समय सुना दिया था,”अब यह इस घर की बहू है, जैसे भी हो, रहना तो यहीं है इसे…’’

2 महीने फिर रातदिन गिनगिन कर काटे थे पुष्पा ने. एक बार दबे स्वर में फोन किया था समधिन को,”न हो तो नंदिता को कुछ दिनों के लिए यहां भेद दें, थोड़ा चेंज हो जाएगा…’’ तो फिर समधिनजी फोन पर ही बिगड़ी थीं.

‘‘आप तो एक पारंपरिक परिवार से हैं। सारे रीतिरिवाज जानने वाली. सालभर से पहले तो नंदिता घर से बाहर जा ही नहीं सकती है। आप को पता होना चाहिए, फिर अब यह हमारी जिम्मेदारी है, आप परेशान न हों.’’

नंदी से तो फोन पर ढंग से बात भी नहीं हो पाती थी। मन ही नहीं माना तो पुष्पा ही एक दिन वहां पहुंच गई थी. 2-3 महीने में ही बेटी एकदम भटक गई थी. सफेद साड़ी में लिपटी, दिनभर घर के काम में उलझी। सास, जेठानी सब हुक्म चलाती रहतीं उस पर. बड़ी मुश्किल से दोपहर को थोड़ा सा समय निकाल कर मां से एकांत में मिल पाई थी.

‘‘मां, मुझे घर ले चलो…’’ सिसकियों के बीच इतना ही बोल पाई थी कि तभी टोह लेती हुई छोटी ननद वहां पहुंच गई. लौटते समय पूरे रास्ते आंसू बहते रहे थे पुष्पा के। सुरेशजी से कहा तो और बिगड़े ही थे उसी पर.

‘‘तुम्हें क्या आवश्यकता थी वहां जाने की… हम ने अब कन्यादान कर दिया है, बेटी ब्याह दी है, अब उस का सुखदुख उसी घर से बंधा है, समझी.’’

पुष्पा की आंखें और पथरा गई थीं,’कैसे बाप हैं? वहां बेटी तिलतिल कर मर रही है और इन्हें कोई दुख नहीं. बेटी ब्याह दी तो क्या सारे संबंध ही टूट गए उस से? ठीक है, वे लोग समर्थ हैं, अच्छा कमाखा रहे हैं, दूर भी हैं तो क्या उन की चिंता नहीं है हमें, बेटी भी सुख से रहती तो और बात थी पर यहां तो पहाड़ जैसा दुख टूट पड़ा है उस पर। अब हम उसे सहारा नहीं देंगे तो कौन देगा, फिर इन सब जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ कर हम आश्रम में कौन से भगवान को खोजने जाएंगे?’

“हां, सुबह 6 बजे की ही ट्रेन है। सोचा तो यही है कि अब लंबे समय तक वही रहा जाए, तैयारियां हो ही चुकी हैं,” सुरेशजी शायद फोन पर किसी से बात कर रहे थे. पुष्पा को याद आया कि तैयारी तो उसे भी करनी है. बेमन से कुछ कपड़े बैग में इकट्ठे किए. सुरेशजी तो अपनी आध्यात्मिक पुस्तकें साथ रखते थे, बस गाड़ी चली तो सामान निकाल लिया. पुष्पा चुपचाप खिड़की से बाहर देख रही थी. पहाड़, पेड़, नदी सब के बीच उसे नंदी का करुण चेहरा ही दिखाई दे रहा था. जैसे बेटी चीखचीख कर कह रही हो,’मां, मुझे अपने पास बुला लो। मां कहां दूर भाग रही हो मुझ से, तुम ने तो जन्म दिया है मुझेे… फिर क्यों मेरा दुख तुम्हें छूता नहीं…’ घबरा कर आंखें मूंद ली उस ने.

‘‘इस प्रकार पीठ फेर लेने से जिम्मेदारियां थोड़े ही कम हो जाती हैं बहिनजी…’’ यही तो कहा था नंदी के स्कूल की हैड मिस्ट्रैस ने.

नंदी उन की प्रिय छात्रा रही थी। फिर उसे जल्दी ही ब्याह देने के निर्णय पर भी वे काफी नाराज हुई थीं. और इस दुखभरी घटना की खबर जब उन्हें मिली तो एक बार स्वयं जा कर भी नंदी से मिल आई थीं और तभी पुष्पा के पास आई थीं.

‘‘देखिए पुष्पाजी, आप अपने दायित्व से मुंह नहीं मोड़ सकती हैं। नंदिता एक मेधावी छात्रा रही है। उसे यहां बुलाएं, मैं उस के आगे की पढ़ाई का प्रबंध करूंगी. उसे अपने पैरों पर खड़ा होने दीजिए। आप स्वयं सोचिए कि किस दुर्दशा में जी रही है वह…’’

उस दिन खुल कर पुष्पा ने सुरेशजी से कहा भी था,”आप के दोस्त हैं निर्मलजी, उन की बेटी की ससुराल में नहीं बनी तो यहां बुला लिया है। अब पढ़ालिखा रहे हैं पर हमारी नंदी तो… नीलिमाजी कह रही थी…’’

‘‘नीलिमाजी… नीलिमाजी, आखिर तुम्हें हो क्या गया है? हमारे यहां के रीतिरिवाज सब भूल गईं तुम…दूसरों की बात और है, पर हमारे यहां जब बेटी ससुराल जाती है तो फिर ताउम्र वहीं की होकर रहती है, समझीं तुम… अगर तुम भूल गई हो तो मैं याद दिलाऊं…’’ क्रोध में सुरेशजी की आवाज कांप रही थी. पुष्पा अपने आंसू पी कर रह गई.

इस आश्रम में तो पिछले वर्ष भी आई थी वह… तब सबकुछ कितना सुहावना लगा था. मंदिर में देवी की मूर्ति के सामने बैठी वह घंटों पूजा करती, पर आज तो देवी की मूर्ति देख कर उसे चिढ़ हो रही थी। वह सोचने लगी थी कि अगर देवी या भगवान होते तो क्या इतना पूजापाठ करने के बाद यही हश्र होता? यह सब एक अंधविश्वास ही तो है। उसे नंदी का करुण चेहरा दिख रहा था.

‘‘मां…’’

नंदी का आंसू भरा कांपता स्वर…
कुछ घबरा कर वह बाहर आ गई थी. आज मन पता नहीं क्याक्या हो रहा था. सुरेशजी तो शायद अपना आजन्म आश्रम की सदस्यता का फौर्म जमा करने गए होंगे. धीरेधीरे चल कर वह उस पिछवाड़े में बने छोटे से बगीचे की पत्थर की बैंच पर बैठ गई थी… आंखें सुदूर में पता नहीं क्या ताक रही थी.

‘‘पुष्पा…’’ तभी पीछे से सुरेशजी का स्वर सुनाई दिया। थकाहारा उदास सा।

‘‘क्या हुआ?”

सुरेशजी तब पास ही बैंच पर आ कर बैठ गए. इतने चुप तो कभी नहीं थे.

‘‘क्या हुआ…’’ पुष्पा ने फिर पूछा था.

‘‘कुछ नहीं, अभी जीजी का फोन आया था, मेरे मोबाइल पर। रामदादा की बेटी शिखा नहीं रही…’’

‘‘शिखा… रामदादा की बेटी…’’ एकदम से चौंक गई थी पुष्पा।

“हां, रात को नींद की गोलियां खा लीं उस ने. शायद आत्महत्या का मामला, जीजी कह रही थी कि हमें फौरन जबलपुर जाना होगा.

‘‘पर…’’

पुष्पा को याद आया कि शिखा अपने किसी सहपाठी से विवाह की इच्छुक थी पर रामदादा का और पूरे परिवार का जबरदस्त विरोध था. शायद…शायद सुरेशजी भी अब यही सोच रहे थे। बहुत देर बाद उन का धीमा स्वर सुनाई दिया पुष्पा को,”अब हम अपनी नंदी को भी अपने पास बुला लेंगे। आगे पढ़ाएंगे ताकि उस का भविष्य बन सके… मैं ने अपने आश्रम की सदस्यता का फौर्म वापस ले लिया है… पूजापाठ में भी भरोसा नहीं रहा। यह सब एक छलावा है…”

अब चकित हो कर पुष्पा सुरेशजी की तरफ देख रही थी. दूर घनी बदली के पीछे शायद आशा की कोई किरण चमक उठी थी.

ऐसा नहीं था कि पुष्पा पहली बार ही आश्रम में जा रही थी. वहां तो वे लोग पिछले कई सालों से जा रहे थे, पर इस बार सुरेशजी ने तय किया कि अब वहीं रहना है. आश्रम की आजन्म सदस्यता लेंगे वे और इस बात को कई बार कह भी चुके थे.

‘‘देखो, हम लोगों का गृहस्थाश्रम का समय अब पूरा हो गया. भगवान की कृपा से सारी जिम्मेदारियां भी पूरी हो गईं। बेटे अपने सैट हो गए, शादीब्याह कर दी, बेटी भी ब्याह दी, अब हमें…’’सुरेशजी वाक्य पूरा करते पर बेटी शब्द के बाद उन्होंने क्या कहा, पुष्पा के कान मानों सुन्न हो कर रह जाते, एक ही शब्द दिलोदिमाग तक ठकठक करता रहता…

बेटी…बेटी… हां, बेटी ही तो है नंदिता। नंदी… जिसे अब सब लोग नंदी के ही नाम से पुकारते हैं और बेटी का करुण, दयनीय चेहरा फिर आंखों के सामने घूमने लगता। देर तक वह उसे ओझल नहीं कर पाती। नंदी उन की बेटी, नाजो पली. दोनों बेटों के काफी समय बाद हुई थी तो वह अब तक नन्ही गुड़िया सी ही लगती थी. हां, अभी कम उम्र की ही तो थी, पर यहां भी सुरेशजी की ही जिद थी कि नौकरी से रिटायर्ड होने से पहले बेटी को ब्याह देना है. मुश्किल से तब हाईस्कूल ही तो पास कर पाई थी। पढ़ने में इतनी कुशाग्र, कितना मन था उस का आगे पढ़ने का. पिता के सामने तो उस की बोलती बंद हो जाती थी। बस, मां से ही जिद करती,”मां, बाबूजी से कहो न, मेरे ब्याह की इतनी जल्दी न करें। इतनी जल्दी तो तुम ने भैया लोगों के भी ब्याह नहीं किए. मुझे पढ़ने दो न…’’

कितना कहा था पुष्पा ने तब सुरेशजी से, पर वे उलटे उसी पर बिगड़ पङे थे,”तुम ने ही तो बेटी को सिर पर चढ़ा रखा है। अरे, इतनी बार कह चुका हूं कि नहीं है हैसियत मेरी लड़की को आगे पढ़ाने की और फिर 4 जमातें आगे पढ़ भी गई तो कौन सा तीर मार लेगी. आखिरकार, उसे ब्याह कर ससुराल ही तो जाना है फिर… अभी तो लड़के वालों के यहां से रिश्ते भी आ रहे हैं, फिर कहां मैं सब के दरवाजे हाथ जोड़ता जाऊंगा. आखिर मेरा भी तो कुछ खयाल करो कि गृहस्थी के जंजाल से मुक्त हो कर 2 घड़ी भगवान का नाम ले सकूं।”

गृहस्थी… जंजाल…बंधन… सुरेशजी के ये शब्द नए नहीं थे पुष्पा के लिए. अब तो खैर नौकरी से मुक्त हो चुके हैं, पर वह तो प्रारंभ से ही ऐसे शब्द उन के मुंह से सुनती आ रही थी और इस आश्रम की सदस्यता लेने का भी उन का निर्णय काफी समय पहले हो चुका था। खैर आननफानन में बिटिया ब्याह दी। वह तो बाद में पता चला था दामाद मयंक की बीमारी का.

‘‘अरे पीलिया ही तो है, कुछ भी कह लो, हेपेटाइसबी सही, पर ऐसी बीमारी कोई गंभीर रोग नहीं है…’’

पता नहीं कोई और गंभीर रोग था या नहीं, पर शादी के 6 महीने बाद ही बेटी विधवा हो गई. नंदी… पुष्पा का कलेजा फिर से मुंह को आने लगता. खबर सुनी थी तो उसी समय उसे गश आ गया था. बदहवास सी फिर बेटी की ससुराल भी गई. सफेद, विधवा और खुले केश में पथराई आंखों से उसे देखती नंदी उस के तो मानों आंसू भी सूख चुके थे. क्या यही उस की गुड़िया थी, नाजों में पली?

‘‘मां…’’

उस के गले से लग कर नंदी का वह चीत्कार भरा स्वर अभी भी दिल दहला जाता है. पता नहीं कैसे रहेगी बिटिया यहां, पर उस की सास ने तो दोटूक निर्णय उसी समय सुना दिया था,”अब यह इस घर की बहू है, जैसे भी हो, रहना तो यहीं है इसे…’’

2 महीने फिर रातदिन गिनगिन कर काटे थे पुष्पा ने. एक बार दबे स्वर में फोन किया था समधिन को,”न हो तो नंदिता को कुछ दिनों के लिए यहां भेद दें, थोड़ा चेंज हो जाएगा…’’ तो फिर समधिनजी फोन पर ही बिगड़ी थीं.

‘‘आप तो एक पारंपरिक परिवार से हैं। सारे रीतिरिवाज जानने वाली. सालभर से पहले तो नंदिता घर से बाहर जा ही नहीं सकती है। आप को पता होना चाहिए, फिर अब यह हमारी जिम्मेदारी है, आप परेशान न हों.’’

नंदी से तो फोन पर ढंग से बात भी नहीं हो पाती थी। मन ही नहीं माना तो पुष्पा ही एक दिन वहां पहुंच गई थी. 2-3 महीने में ही बेटी एकदम भटक गई थी. सफेद साड़ी में लिपटी, दिनभर घर के काम में उलझी। सास, जेठानी सब हुक्म चलाती रहतीं उस पर. बड़ी मुश्किल से दोपहर को थोड़ा सा समय निकाल कर मां से एकांत में मिल पाई थी.

‘‘मां, मुझे घर ले चलो…’’ सिसकियों के बीच इतना ही बोल पाई थी कि तभी टोह लेती हुई छोटी ननद वहां पहुंच गई. लौटते समय पूरे रास्ते आंसू बहते रहे थे पुष्पा के। सुरेशजी से कहा तो और बिगड़े ही थे उसी पर.

‘‘तुम्हें क्या आवश्यकता थी वहां जाने की… हम ने अब कन्यादान कर दिया है, बेटी ब्याह दी है, अब उस का सुखदुख उसी घर से बंधा है, समझी.’’

पुष्पा की आंखें और पथरा गई थीं,’कैसे बाप हैं? वहां बेटी तिलतिल कर मर रही है और इन्हें कोई दुख नहीं. बेटी ब्याह दी तो क्या सारे संबंध ही टूट गए उस से? ठीक है, वे लोग समर्थ हैं, अच्छा कमाखा रहे हैं, दूर भी हैं तो क्या उन की चिंता नहीं है हमें, बेटी भी सुख से रहती तो और बात थी पर यहां तो पहाड़ जैसा दुख टूट पड़ा है उस पर। अब हम उसे सहारा नहीं देंगे तो कौन देगा, फिर इन सब जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ कर हम आश्रम में कौन से भगवान को खोजने जाएंगे?’

“हां, सुबह 6 बजे की ही ट्रेन है। सोचा तो यही है कि अब लंबे समय तक वही रहा जाए, तैयारियां हो ही चुकी हैं,” सुरेशजी शायद फोन पर किसी से बात कर रहे थे. पुष्पा को याद आया कि तैयारी तो उसे भी करनी है. बेमन से कुछ कपड़े बैग में इकट्ठे किए. सुरेशजी तो अपनी आध्यात्मिक पुस्तकें साथ रखते थे, बस गाड़ी चली तो सामान निकाल लिया. पुष्पा चुपचाप खिड़की से बाहर देख रही थी. पहाड़, पेड़, नदी सब के बीच उसे नंदी का करुण चेहरा ही दिखाई दे रहा था. जैसे बेटी चीखचीख कर कह रही हो,’मां, मुझे अपने पास बुला लो। मां कहां दूर भाग रही हो मुझ से, तुम ने तो जन्म दिया है मुझेे… फिर क्यों मेरा दुख तुम्हें छूता नहीं…’ घबरा कर आंखें मूंद ली उस ने.

‘‘इस प्रकार पीठ फेर लेने से जिम्मेदारियां थोड़े ही कम हो जाती हैं बहिनजी…’’ यही तो कहा था नंदी के स्कूल की हैड मिस्ट्रैस ने.

नंदी उन की प्रिय छात्रा रही थी। फिर उसे जल्दी ही ब्याह देने के निर्णय पर भी वे काफी नाराज हुई थीं. और इस दुखभरी घटना की खबर जब उन्हें मिली तो एक बार स्वयं जा कर भी नंदी से मिल आई थीं और तभी पुष्पा के पास आई थीं.

‘‘देखिए पुष्पाजी, आप अपने दायित्व से मुंह नहीं मोड़ सकती हैं। नंदिता एक मेधावी छात्रा रही है। उसे यहां बुलाएं, मैं उस के आगे की पढ़ाई का प्रबंध करूंगी. उसे अपने पैरों पर खड़ा होने दीजिए। आप स्वयं सोचिए कि किस दुर्दशा में जी रही है वह…’’

उस दिन खुल कर पुष्पा ने सुरेशजी से कहा भी था,”आप के दोस्त हैं निर्मलजी, उन की बेटी की ससुराल में नहीं बनी तो यहां बुला लिया है। अब पढ़ालिखा रहे हैं पर हमारी नंदी तो… नीलिमाजी कह रही थी…’’

‘‘नीलिमाजी… नीलिमाजी, आखिर तुम्हें हो क्या गया है? हमारे यहां के रीतिरिवाज सब भूल गईं तुम…दूसरों की बात और है, पर हमारे यहां जब बेटी ससुराल जाती है तो फिर ताउम्र वहीं की होकर रहती है, समझीं तुम… अगर तुम भूल गई हो तो मैं याद दिलाऊं…’’ क्रोध में सुरेशजी की आवाज कांप रही थी. पुष्पा अपने आंसू पी कर रह गई.

इस आश्रम में तो पिछले वर्ष भी आई थी वह… तब सबकुछ कितना सुहावना लगा था. मंदिर में देवी की मूर्ति के सामने बैठी वह घंटों पूजा करती, पर आज तो देवी की मूर्ति देख कर उसे चिढ़ हो रही थी। वह सोचने लगी थी कि अगर देवी या भगवान होते तो क्या इतना पूजापाठ करने के बाद यही हश्र होता? यह सब एक अंधविश्वास ही तो है। उसे नंदी का करुण चेहरा दिख रहा था.

‘‘मां…’’

नंदी का आंसू भरा कांपता स्वर…
कुछ घबरा कर वह बाहर आ गई थी. आज मन पता नहीं क्याक्या हो रहा था. सुरेशजी तो शायद अपना आजन्म आश्रम की सदस्यता का फौर्म जमा करने गए होंगे. धीरेधीरे चल कर वह उस पिछवाड़े में बने छोटे से बगीचे की पत्थर की बैंच पर बैठ गई थी… आंखें सुदूर में पता नहीं क्या ताक रही थी.

‘‘पुष्पा…’’ तभी पीछे से सुरेशजी का स्वर सुनाई दिया। थकाहारा उदास सा।

‘‘क्या हुआ?”

सुरेशजी तब पास ही बैंच पर आ कर बैठ गए. इतने चुप तो कभी नहीं थे.

‘‘क्या हुआ…’’ पुष्पा ने फिर पूछा था.

‘‘कुछ नहीं, अभी जीजी का फोन आया था, मेरे मोबाइल पर। रामदादा की बेटी शिखा नहीं रही…’’

‘‘शिखा… रामदादा की बेटी…’’ एकदम से चौंक गई थी पुष्पा।

“हां, रात को नींद की गोलियां खा लीं उस ने. शायद आत्महत्या का मामला, जीजी कह रही थी कि हमें फौरन जबलपुर जाना होगा.

‘‘पर…’’

पुष्पा को याद आया कि शिखा अपने किसी सहपाठी से विवाह की इच्छुक थी पर रामदादा का और पूरे परिवार का जबरदस्त विरोध था. शायद…शायद सुरेशजी भी अब यही सोच रहे थे। बहुत देर बाद उन का धीमा स्वर सुनाई दिया पुष्पा को,”अब हम अपनी नंदी को भी अपने पास बुला लेंगे। आगे पढ़ाएंगे ताकि उस का भविष्य बन सके… मैं ने अपने आश्रम की सदस्यता का फौर्म वापस ले लिया है… पूजापाठ में भी भरोसा नहीं रहा। यह सब एक छलावा है…”

अब चकित हो कर पुष्पा सुरेशजी की तरफ देख रही थी. दूर घनी बदली के पीछे शायद आशा की कोई किरण चमक उठी थी.

Sidharth Shukla की मौत के बाद ट्विटर पर फिर ट्रेंड हुआ #Sidnaaz , फैंस को हो रही शहनाज गिल की फिक्र

सिडनाज की जोड़ी अब टूट चुकी है औऱ अब यह हमेशा अधूरी ही रहेगी, सिद्धार्थ शुक्ला के अचानक मौत से पूरा देश हिल गया है. अभी भी इस पर विश्वास करना मुश्किल लग रहा है.

आज भी ट्विटर पर सिडनाज ट्रेंड हो रहा है. पहले भी सिद्धार्थ शुक्ला और शहनाज गिल की जोड़ी ट्विटर पर ट्रेंड करती थी, लेकिन इस बार बात कुछ अलग है, गुरूवार की सुबह सिद्धार्थ शुक्ला की मौत हार्ट अटैक से हो गया .

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कुछ समय तक तो लोगों को इस पर विश्वास करना भी मुश्किल हो रहा था कि सिद्धार्थ अब हमारे बीच नहीं रहें. 40 साल की उम्र में सिद्धार्थ शुक्ला ऐसे अपने परिवार और फैंस को छोड़कर जाएंगे किसी ने कभी सोचा नहीं था, इस बारे में.

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सोशल मीडिया पर उन्हें यादकर लोग काफी ज्यादा भावुक हो रहे हैं. शुक्रवार को लोग #Sidnaz लिखकर उनके पुराने वीडियो सोशल मीडिया पर शेयर कर रहे हैं. जिसे फैंस लाइक औऱ शेयर कर रहे हैं.

वहीं कुछ फैंस का यह भी कहना है कि सिद्धार्थ के बिना शहनाज का बहुत बुरा हाल होने वाला है. इस बारे में शहनाज के पिता संतोक सुख ने कहा है कि शहनाज गिल अभी बहुत बुरी दौर से गुजर रही हैं. उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहे हैं ये सब अचानक कैसे हो गया.

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सिद्धार्थ शुक्ला के जाने के गम में वह ठीक से बोल भी नहीं पा रही हैं. ट्विटर पर लगातर वायरल हो रहे सिद्धार्थ शुक्ला और शहनाज के वीडियो को देखकर लोग काफी ज्यादा भावुक हो रहे हैं. फैंस को शहनाज गिल की काफी ज्यादा चिंता सता रही है.

खस की खेती से खुशहाली

लेखक-डा. आरएस सेंगर

खस यानी पतौरे जैसी दिखने वाली वह ?ाड़ीनुमा फसल, जिस की जड़ों से निकलने वाला तेल काफी महंगा बिकता है. इंगलिश में इसे वेटिवर कहते हैं. खस एक ऐसी फसल है, जिस का प्रत्येक भाग (जड़पुआल) फूल आर्थिक रूप से उपयोगी होता है. खस के तेल का उपयोग महंगे इत्र, सुगंधीय पदार्थ, सौंदर्य प्रसाधनों व दवाओं में होता है. तेल के अतिरिक्त खस की जड़ें हस्तशिल्प समेत कई तरह से काम आती हैं. साल में 60-65 हजार रुपए की लागत से प्रति एकड़ डेढ़ लाख रुपए तक की खस से कमाई हो सकती है. यह एक ऐसी फसल है, जो काफी कम लागत और मेहनत में किसानों को मोटा मुनाफा देती है.

खस की खेती को किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए केंद्र सरकार के द्वारा शुरू किए गए ‘एरोमा मिशन’ के तहत पूरे देश में कराया जा रहा है, इस की खेती उन इलाकों में भी हो सकती है जहां पानी की किल्लत है और उन स्थानों में भी, जहां वर्षा के दिनों में कुछ समय के लिए पानी इकट्ठा हो जाता है यानी खस की खेती हर तरह की जमीन, मिट्टी और जलवायु में हो सकती है. भारत और बाकी देशों में खस के तेल की मांग को देखते हुए इस की खेती का दायरा भी तेजी से बढ़ा है. गुजरात में भुज और कच्छ से ले कर तमिलनाडु, कर्नाटक, बिहार और उत्तर प्रदेश तक में इस की खेती बड़े पैमाने पर हो रही है. खस की खेती को बढ़ावा देने, नई किस्मों के विकसित करने के साथ ही सीमैप ने पेराई की गुणवत्तायुक्त तकनीक भी विकसित की है,

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जिस से अच्छा और ज्यादा तेल हासिल किया जा सकता है. खस की कई उन्नत किस्में सीमैप द्वारा विकसित खस यानी वेटिवर की उन्नत किस्मों जैसे केएस-1, केएस -2, धारिणी, केसरी, गुलाबी, सिमवृद्धि, सीमैप खस-15, सीमैप खस-22, सीमैप खुसनालिका और सीमैप समृद्धि हैं. खस की 6 महीने में तैयार होने वाली किस्म भी शामिल है. 18 महीने में तैयार होने वाली फसल से एक एकड़ में 10 लिटर तेल निकलता है, तो एक साल वाली फसल में 8 से 10 लिटर वहीं 6 महीने की किस्म भी 5-6 लिटर तेल देती है. अगर किसान इस के साथ सहफसली खेती करते हैं, तो मुनाफा और भी बढ़ जाता है. खस के तेल से महंगे इत्र, सौंदर्य प्रसाधन और दवाएं बनती हैं, तो जड़ों का प्रयोग कूलर की घास और हस्तशिल्प में होता है.

खस की जड़ों की रोपाई फरवरी से अक्तूबर महीने तक किसी भी समय की जा सकती है, लेकिन सब से सही समय फरवरी और जुलाई का महीना होता है. खस की खुदाई तकरीबन 6,12,14 व 18 महीने बाद (प्रजाति के अनुसार) इन की जड़ों को खोद कर उन की पेराई की जाती है. एक एकड़ खस की खेती से तकरीबन 6 से 10 लिटर तेल मिल जाता है यानी एक हेक्टेयर में 15-25 लिटर तक तेल मिल सकता है. एक मोटे अनुमान के मुताबिक दुनिया में हर साल तकरीबन 250-300 टन तेल की मांग है, जबकि भारत में महज 100-125 टन का उत्पादन हो रहा है. इस का सीधा सा मतलब है कि आगे बहुत ज्यादा संभावनाएं हैं. उपयुक्त जलवायु खस गरम और तर जलवायु में अच्छी पनपती है.

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पहाड़ी इलाकों को छोड़ कर अन्य सभी भागों में यह उपजाया जा सकता है. छायादार स्थानों में जड़ों की वृद्धि अधिक नहीं होती है. भूमि का चयन इस की खेती विभिन्न प्रकार की मिट्टी जैसे ऊसर भूमि, जलमग्न भूमि, क्षारीय मिट्टी, ऊबड़खाबड़, गड्ढेयुक्त क्षेत्र और बलुई भूमि में आसानी से उगाया जा सकता है, लेकिन भारी और मध्यम श्रेणी की मिट्टी, जिस में पोषक तत्त्वों की प्रचुर मात्रा हो और जलस्तर ऊंचा हो, वहां खस की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है. मध्यम विन्यास वाली मिट्टी में जड़ों की अच्छी वृद्धि होती है, किंतु चिकनी मिट्टी में जड़ों की खुदाई कठिन काम है. बलुई और बलुई दोमट मिट्टी में जड़ों की खुदाई पर अपेक्षाकृत कम खर्च आता है व जड़ें लंबी गहराई तक जाती हैं. खेत की तैयारी खस का पौधा कठोर प्रवृत्ति का होने के कारण मामूली देखभाल और मिट्टी की तैयारी कर के लगाया जा सकता है.

भूमि में मौसमी खरपतवारों का प्रकोप नहीं हो. खरपतवारों और जड़ों के अवशेषों को हटाने के जिउ 2 से 3 गहरी जुताई की जरूरत होती है. प्रसारण तकनीक उत्तर भारत में खस का प्रसारण 6 से 12 माह के मूढ़ों से किया जाना चाहिए. इन मूढ़ों को 30 से 40 सैंटीमीटर ऊपर से काट लिया जाता है. बनाई गई कलमों या स्लिप में 2 से 3 कलमें होनी चाहिए. कलमों को बनाने के बाद छाया में रखना चाहिए और सूखी पत्तियों को हटा देने से बीमारी फैलने की संभावना नहीं रहती है. नई प्रजातियां विकसित करने के लिए बीज से पौधे तैयार किए जाते हैं. रोपण करना सिंचाई की व्यवस्था रहने पर खस की रोपाई अधिक सर्दी को छोड़ कर कभी भी की जा सकती है. उत्तरी भारत में जाड़ों में तापमान काफी गिर जाने के कारण पौधे या कलम सही ढंग से स्थापित नहीं हो पाते हैं. जिन स्थानों में सिंचाई की सही व्यवस्था नहीं है, खस की रोपाई वर्षा ऋतु में की जाती है. अच्छी गुणों से युक्त मिट्टी में कलमें 60×60 सैंटीमीटर की दूरी पर लगाएं और बेकार पड़ी और कमजोर मिट्टी में रोपाई 60×30 सैंटीमीटर पर करना उचित होता है.

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खाद और उर्वरक मध्यम और उच्च उर्वरायुक्त मिट्टी में आमतौर पर खस बिना खाद और उर्वरक के उगाया जाता है. कम उर्वरायुक्त जमीन में नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश का 60:25:25 की दर से व्यवहार करने से जड़ों की अच्छी उपज होती है. नाइट्रोजन का उपयोग खंडित कर करें. खस स्थापन के पहले साल में नाइट्रोजन का उपयोग दो बराबर भागों में करें. खरपतवार पर नियंत्रण खस तीव्र गति से बढ़ने वाला पौधा है, इसलिए खरपतवार को बढ़ने का मौका कम मिलता है. किंतु ऐसे क्षेत्र, जहां पर खरपतवारों की सघनता है, वहां पर फावड़े या वीडर का प्रयोग किया जा सकता है. सिंचाई प्रबंधन खस की रोपाई के तत्काल बाद बेहतर पौध स्थापना के लिए सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है. पौधे एक माह में पूरी तरह स्थापित हो जाते हैं, तब ये पौधे आमतौर मरते नहीं हैं. जड़ों की बेहतर बढ़वार के लिए शुष्क मौसम में सिंचाई देना फायदेमंद होता है.

तनों की कटाई आमतौर पर सिमवृद्धि को छोड़ कर अन्य प्रभेद 18 से 20 माह में खुदाई योग्य हो जाती है. सिमवृद्धि 12 माह में खुदाई योग्य हो सकती है. रोपाई के पहले साल में तनों की 30 से 40 सैंटीमीटर ऊपर से पहली कटाई और खुदाई से पहले एक कटाई अवश्य की जानी चाहिए. काटे गए ऊपरी भाग को चारे, ईंधन या ?ोंपडि़यां बनाने के काम में लाया जाता है. जड़ों की खुदाई पूरी तरह विकसित जड़ों की सर्दी के मौसम दिसंबर से जनवरी माह में खुदाई की जानी चाहिए. खुदाई के समय जमीन में हलकी नमी रहना आवश्यक है. खुदाई के बाद जड़ों से मिट्टी अलग होने के लिए खेत में 2 से 3 दिन सूखने देना चाहिए. पूरी तरह परिपक्व जड़ों से अच्छी गुणवत्ता का तेल मिलता है. इस का विशिष्ट घनत्त्व और औप्टिकल रोटेशन ज्यादा होता है.

आजकल जड़ों की खुदाई पर खर्च कम करने के लिए 2 फारा कल्टीवेटर का उपयोग हो रहा है. विशिष्ट गुणवत्ता के लिए खुदाई यंत्र सीमैप बाजार में उपलब्ध हैं. तेल का उत्पादन जड़ों से तेल निकालने में लगने वाला समय क्षेत्र के हिसाब से लगता है. इस के आसवन के लिए क्लीभेजर उपकरण के सिद्धांत पर कोहोबेसन आसवन संयंत्र विकसित किया गया है, जिस के द्वारा खस की अच्छी प्रजाति के आधार पर 1 से 2 फीसदी तक एसेन्सियल तेल निकाला गया है. स्टेनलेस स्टील से बने आसवन संयंत्र द्वारा उच्च गुणवत्ता का तेल मिलता है.

प्रश्नचिह्न

बच्चों की मजबूरी अकेले रहने की

हिमानी जब स्कूल से घर लौटती है, उस के अंदर घर आने की कोई उमंग नहीं होती. उस की फ्रैंड्स उस से पूछती हैं कि क्या उस की मम्मी उसे बस स्टौप पर लेने आती हैं? तो वह मायूस हो कर कोई जवाब नहीं देती है. उसे पता होता है कि वह अकेले ही बस स्टौप से घर जाएगी. घर के दरवाजे पर लगा ताला मुंह चिढ़ाता मिलेगा. वह रोज स्कूल से घर आ कर दरवाजे पर लगा ताला खोलती है. कपड़े बदल कर माइक्रोवेव में रखे खाने को खुद ही गरम कर के खाती है और शाम होने का इंतजार करती है, जब उस के मम्मीपापा औफिस से घर वापस आएंगे.

ऐसा सिर्फ हिमानी के साथ ही नहीं होता है, प्रतिदिन हजारों बच्चों के साथ होता है जब वे स्कूल से लौटते हैं. खाली घर उन का स्वागत करता है. उस घर में उन से बोलने वाला कोई नहीं होता. घर में बच्चों को विपरीत परिस्थितियों में भी अकेले रहना पड़ता है. जो मांएं नौकरी नहीं करतीं वे भी किसी काम से कहीं जाने पर बच्चों को घर में अकेला छोड़ देती हैं. कई अभिभावक बच्चों को घर पर अकेले छोड़ कर बाजार से खरीदारी या अपने छोटेबड़े काम करने या किसी समारोह आदि में चले जाते हैं. एक अनुमान के अनुसार, लगभग 40 प्रतिशत बच्चों को किसी न किसी समय अकेले रहना पड़ता है. इन बच्चों को ‘लैच की’ बच्चे कहा जाता है. ऐसा घर के बाहर या उन के गले में लटकी चाबी की वजह से कहा जाता है.

मशहूर अंगरेजी फिल्म ‘होम अलोन’ में यही दर्शाया गया है कि कैसे एक बच्चा अकेले घर में रह कर अनेक परिस्थितियों का सामना करता है, पर फिल्म में इसे बहुत ही मनोरंजक ढंग से दिखाया गया था. जबकि घर में अकेला रहने वाला बच्चा बहुत ही अलग ढंग से परिस्थितियों का सामना करता है. आस्ट्रेलिया में हुए एक अध्ययन के अनुसार, 402 बच्चों से जब स्कूल से घर पहुंचने के बाद उन की गतिविधियों के बारे में पूछा गया तो पाया कि 14 प्रतिशत बच्चे खाली घर में लौटते हैं. एकचौथाई परिवारों में घर में बच्चों को केवल अपने बड़े भाईबहन ही मिलते हैं, मांबाप नहीं.

अमेरिका के 5 से 13 वर्ष की उम्र के 2 करोड़ बच्चे घर में अपना खयाल स्वयं रखते हैं या 14 वर्ष तक की आयु के अपने भाईबहन की निगरानी में रहते हैं.

बिगड़ने की संभावना अधिक

मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि घर में अकेले रहने की वजह से बच्चे अवसाद, असुरक्षा, नशे की आदत के शिकार तो होते ही हैं, साथ ही ये बच्चे नाखुश, सहमे हुए या तिरस्कृत भी अनुभव करते हैं. जैसेजैसे वे बड़े होते जाते हैं, अभिभावकों के साथ उन का आपसी संवाद कम होता जाता है, जिस से बच्चे भावनात्मक रूप से उन से दूर होने लगते हैं. दिन में काफी लंबे समय घर में अकेले रहने के कारण उन में परिपक्वता जल्दी आ जाती है क्योंकि उन्हें यह पता होता है कि विकट स्थिति का सामना उन्हें स्वयं ही करना होगा. इस से बालसुलभ शरारतें अपनेआप ही उन के भीतर कम होने लगती हैं और अपनी बुद्धि का इस्तेमाल वे समस्याओं का निराकरण करने में लगा देते हैं.

मनोवैज्ञानिक यह भी मानते हैं कि चूंकि घर में अकेले बच्चों को देखने वाला, उन की गतिविधियों पर रोकटोक करने वाला कोई नहीं होता है इसलिए इन के बिगड़ने की संभावना अधिक होती है.

10 वर्षीय अनुज अपने मातापिता की इकलौती संतान है. मातापिता दोनों कामकाजी हैं इसीलिए वह दिनभर घर में अकेला ही रहता है. स्कूल से आने पर अपने बैग में रखी चाबी से वह घर का ताला खोलता है, फिर कपड़े बदलता है. जो उस की मम्मी सुबह उस के लिए बना कर रख जाती हैं उसी को माइक्रोवेव में गरम कर के खाता है. वह कहता है कि अब तो उसे खाना गैस पर गरम करने से भी डर नहीं लगता. यही नहीं, वह सैंडविच, कोल्ड कौफी या लस्सी जैसी चीजें भी बनाना जानता है. वह कहता है, ‘‘शुरूशुरू में मुझे बहुत बुरा लगता था और डर भी लेकिन अब आदत होती जा रही है. मम्मी कहती हैं कि होमवर्क कर लेना या पढ़ लेना तो मैं अकेले में कुछ नहीं करता. बस, टीवी देखता हूं. टीवी चलता है तो डर नहीं लगता.’’

एकल परिवारों का परिणाम

एकल परिवारों में जहां मातापिता दोनों कामकाजी हैं, अधिकांश ‘लैच की’ बच्चे देखने को मिलते हैं. ऐसे बच्चे अकेले रहने के कारण आत्मकेंद्रित हो जाते हैं और बाहर की दुनिया से कटे रहने के कारण वे स्वार्थी, दब्बू और चिड़चिड़े हो जाते हैं. ऐसे बच्चों में खानपान, सेहत व विकास संबंधी समस्याएं भी देखने को मिलती हैं. अकेले रहने के कारण ऐसे बच्चे डिप्रैशन का शिकार भी हो जाते हैं. उन की रोजमर्रा की जिंदगी अस्तव्यस्त हो जाती है. ऐसे बच्चे दूसरों को नुकसान भी पहुंचा सकते हैं. कई बार समय न होने की कमी के चलते अभिभावक बच्चों की हर जिद पूरी करते हैं जो उन्हें स्वार्थी बना देती है और वे अपनी हर जरूरी व गैरजरूरी जिद, हर मांग पूरी करवाने लगते हैं.

इंटरनैट की लत

जहां मातापिता दोनों कामकाजी होते हैं वहां बच्चे को लंबे समय तक अकेले रहना पड़ता है और समय बिताने के लिए वे इंटरनैट का सहारा लेते हैं. एक अध्ययन के अनुसार महानगरों में रहने वाले 7 से 11 साल तक की उम्र के लाखों बच्चे प्रतिदिन औसतन 5 घंटे से अधिक समय इंटरनैट पर बिताते हैं. देश के 4 महानगरों में एसोचैम द्वारा कराए गए हालिया सर्वे में इंटरनैट की लत के बारे में नए तथ्य सामने आए हैं. लगातार इंटरनैट के इस्तेमाल से ऐसे बच्चों में नजर की कमजोरी व

पीठदर्द की समस्याएं देखने को मिलती हैं. डाक्टरों के अनुसार कम उम्र की ये तकलीफें आगे जा कर बड़ा रूप ले सकती हैं. चिकित्सकों ने अभिभावकों को आगाह किया है कि वे बच्चों को समय दें व उन का मार्गदर्शन करें. अभिभावक बच्चों की दैनिक क्रियाओं में भाग लें, उन के साथ समय बिताएं.?

निरीक्षण की जरूरत

बच्चों को हमेशा बड़ों के निरीक्षण की जरूरत होती है. उन्हें घर आने पर किसी व्यक्ति की जरूरत होती है जो उन से पूछे कि उन का दिन कैसे बीता, स्कूल या पढ़ाई से संबंधित उन की समस्याओं की जानकारी ले सके और उन का समाधान सुझा सके.

अधिकतर ‘लैच की’ बच्चे बड़े होने पर घर पर रहना पसंद नहीं करते क्योंकि उन के लिए घर का मतलब अकेलापन होता है. यही नहीं, ऐसे बच्चे चीजों को शेयर करना भी नहीं सीख पाते हैं और अपने वक्त को भी शेयर करना पसंद नहीं करते. चूंकि बच्चे की भावनात्मक आवश्यकता को समझने के लिए अभिभावक मौजूद नहीं होते हैं इसलिए बच्चे के इस पहलू का विकास बहुत धीरेधीरे होता है. वहीं, समाजशास्त्री मानते हैं कि बहुत से ऐसे बच्चे ज्यादा आत्मनिर्भर हो जाते हैं और बेहतर ढंग से अपना ध्यान रखने के काबिल भी.

ऐसे में इस आधुनिक दौर में मांबाप और अभिभावकों को बच्चों के प्रति बहुत सतर्क रहने की जरूरत है.

प्रश्नचिह्न – भाग 3 : क्या थी यश के बदले व्यवहार की वजह?

‘‘मुझे लगा था कि इस समस्या से मैं स्वयं निबट लूंगा पर मैं जितना इसे सुलझाने का प्रयत्न करता उतना ही उलझता जाता. अब यह नाराजगी छोड़ो और सोचो कि आगे क्या करना है,’’ यश याचनाभरे स्वर में बोला.

‘‘मैं रतन भैया को फोन कर के बुलाती हूं. रतन भैया और अंजलि भाभी कल आए थे. हम सब साथ गए थे आयुष का जन्मदिन मनाने. मैं ने उन्हें सब बता दिया था.’’

रतनराज तुरंत चले आए थे. सारी बातें विस्तार से सुन कर उन के आश्चर्य की सीमा नहीं रही. यश ऐसी मुसीबत में फंस सकता है, यह उन की समझ से परे था. अंबिका ने हर्षिता को भी बुला लिया था. वे सब मिल कर हर्षिता के चाचाजी से मिलने गए.

‘‘यह तो सीधासादा ब्लैकमेल का चक्कर है. हमारे पास तो हरदिन ऐसी सैकड़ों शिकायतें आती हैं. आप मेरी मानें तो पुलिस में रपट कर दें. इन लोगों का साहस इतना बढ़ गया है कि अब ये बड़े मुरगों को फंसाने की ताक में रहते हैं,’’ हर्षिता के अंकल ने सलाह देते हुए कहा.

रतनराज और यशराज जैसे रसूख वाले परिवार के साथ ऐसा हो सकता है, यह सोच कर सभी हैरान थे.

रतन की सलाह से यश अपने परिवार के साथ विएना चला गया.

‘‘मैं यहां सब संभाल लूंगा. तुम वहां के कार्यालय की जिम्मेदारी संभालो. वैसे भी मैं तुम्हें कुछ समय के लिए विएना भेजने की सोच रहा था,’’ रतनराज ने कहा.

हवाई जहाज में बैठने के बाद यश ने चैन की सांस ली थी. आज उसे एहसास हुआ कि अपनी परेशानियों को परिवारजनों से न बांट कर न केव?ल उस ने भूल की थी बल्कि उन पर अन्याय भी किया था. अब उसे लग रहा था कि यह तो अक्षम्य अपराध था जिस ने उसे बरबादी के कगार पर ला कर खड़ा कर दिया था.

 

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