वक्त के साथ समाज बदल गया है. इंसान की सोच में फर्क आया. लोगों ने परंपराओं के नाम पर रूढि़वादी सोच को निकाल फेंकने का साहस भी जुटा लिया. हम ने बेशक इस में कामयाबी क्यों न हासिल कर ली हो पर यहीं से शुरू हो जाता है रिश्तों के टूटने का सिलसिला. आधुनिकता का प्रभाव हमारे दम तोड़ते रिश्तों में नजर आने लगा है.

अकसर अखबारों और टैलीविजन चैनलों में सुर्खियां बनती हैं कि पत्नी ने प्रेमी के साथ मिल कर पति की हत्या कर दी. एक पिता ने अपनी ही औलाद को गला घोंट कर मार दिया. बेटे ने अपने ही चाचा के लड़के का अपहरण कर फिरौती की मांग की और फिरौती नहीं मिलने पर भतीजे को मार डाला वगैरहवगैरह.

जिस तेजी से अपराध बढ़ रहे हैं वह बदलते परिवेश का एक हिस्सा ही हैं. हत्या की वारदातों में बेहिसाब इजाफा हुआ है. भारत दुनिया के ऐसे देशों में शामिल हो चुका है जहां ज्यादा हत्याएं हो रही हैं. नैशनल क्राइम रिकौर्ड्स ब्यूरो यानी एनसीआरबी के अनुसार हर 18 से 20 मिनट में भारत में एक हत्या होती है. हर 23 मिनट में एक अपहरण और हर 28 मिनट में एक बलात्कार होता है.

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देश का कोई ऐसा हिस्सा नहीं बचा है जहां महिलाओं की अस्मत न लूटी जा रही हो. यह अलग बात है कि कुछ मामलों में बात सामने आ जाती है और बाकी मामले दब कर दफन हो जाते हैं. इन में तो बहुत से मामले ऐसे भी होते हैं जो रिश्तों को तारतार कर देने वाले होते हैं. जानीमानी मनोवैज्ञानिक डा. नीना गुप्ता का मानना है, ‘‘जब हम अपने ही वजूद से बेईमानी करने लगे हैं तो इस का असर हमारे रिश्तों पर पड़ेगा ही.’’

सामाजिक परिवर्तन

समाज में जो बदलाव सब से बड़ा आया है वह है महिलाओं का समाज में योगदान. एक तरह से समाज की तरक्की के लिए यह जरूरी भी है. घर की दहलीज तक सीमित रहने वाली स्त्री आज समाज में ऐसी भूमिकाएं निभाने लगी है जिस पर अभी तक पुरुष अपना वर्चस्व जमाए बैठे थे. शिक्षा के क्षेत्र में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा कर महिलाओं ने दिखा दिया है कि चूल्हेचौके में ही वे दक्ष नहीं, बल्कि वैज्ञानिक सोच रखते हुए टैक्नोलौजी में भी वे अपनी महारत हासिल कर सकती हैं.

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विवाह जैसी सामाजिक प्रथा अब व्यक्तिगत होती नजर आने लगी है. परिवार वालों की रजामंदी से थोपे गए रिश्ते अब नकारे जाने लगे हैं. व्यक्ति अपनी खुशी के पैमाने पर रिश्ते जोड़ने लगा है. परिवार, रिश्तेदारी का दायरा उन के लिए उतना माने नहीं रखता जितनी स्वयं की व्यक्तिगत अभिरुचि  व पसंद.

लिव इन रिलेशनशिप खुल कर सामने आने लगी है. व्यक्ति को यह कहते कोई संकोच नहीं रहा है कि वह रिश्तों को केवल समाज की परवा करते हुए क्यों ढोए. रिश्ते इतने खुले होने चाहिए कि जब चाहे उन्हें उतार फेंक दिया जाए. पाश्चात्य शैली व ग्लोबलाइजेशन का दावा करती नई पीढ़ी के साथसाथ पुरानी पीढ़ी भी रिश्तों को नया रूप देने में लग गई है.

सैक्स एक ढकाछिपा शब्द अब आम हो गया है. जिंदगी का एक अहम हिस्सा मानते हुए सैक्स के प्रति भ्रांतियों को दूर करने के पक्ष में प्रशासन भी अब पीछे नहीं है. स्कूलों में यौन शिक्षा के हिमायती अब कम नहीं हैं. शायद यही कारण है कि अब विवाहेतर संबंधों को लोग खुलेआम स्वीकार करने लगे हैं. व्यक्ति के लिए रिश्तेनाते, सामाजिकता, परिवारवाद सब बाद में, पहले स्वयं का सुख माने रखने लगा है. कामयाबी, परंपरा, संस्कार सभी भौतिकवादिता में बदल गए हैं.

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संबंधों पर असर

लेकिन इन सब परिवर्तनों का कहीं न कहीं असर पड़ रहा है हमारे आपसी रिश्तों पर. हाथ से छूटते, दरकते ये रिश्ते कहानी बता रहे हैं इन्हीं परिवर्तनों की. इन्हीं का असर है कि आपसी संबंध बिखरने लगे हैं. समझौता जैसा शब्द रिश्तों के बीच गायब हो चुका है.

आर्थिक सबलता ने हर किसी की सहनशक्ति को कम कर दिया है. प्रैक्टिकल सोच के आगे भावनाएं महत्त्वहीन होती जा रही हैं. आपस में कम्युनिकेशन गैप बढ़ा है. पैसा और भौतिक सुविधाएं ही महत्त्वपूर्ण बन गई हैं. भाईबहन, पतिपत्नी, बच्चों, पेरैंट्स के बीच औपचारिकताएं न रह कर दोस्ताना रिश्ते बन गए हैं जिन्होंने इन के बीच का सम्मान खत्म कर दिया है. इसी का नतीजा है अधिकतर बच्चे पेरैंट्स की सुनते नहीं हैं. पेरैंट्स और बच्चों के बीच दूरियां और टकराव भी बढ़ रहे हैं. बच्चों की मनमानी रोकने पर मातापिता आउटडेटेड मान लिए जाते हैं. पतिपत्नी की बनती नहीं है. वे अपनीअपनी जिंदगी में व्यस्त हैं. वे अपनी सहूलियत के अनुसार एकदूसरे को वक्त देते हैं. भाईबहन के रिश्तों में अब वह लगाव नहीं है. टीनएज प्रैग्नैंसी बढ़ती जा रही है. सैक्सुअल बीमारियां आम होती जा रही हैं. फ्रीसैक्स आधुनिकता का सिंबल बन गया है.

इन हालात को देखते हुए क्या तरक्की के माने ये हैं कि व्यक्ति केवल अपने तक सीमित रह कर रिश्तों की अहमियत को भूल जाए और संकुचित सोच के दायरे में रह कर जिसे वह अपना सुख मानता है, जीने लगे? नहीं, यह सुख, सुख नहीं स्वार्थ है. व्यक्ति के रिश्ते उतने ही अहमियत रखते हैं जितना कि खाने में नमक. इस में कोई दोराय नहीं कि रिश्ते गले की फांस नहीं, गले का हार बनने चाहिए. इसलिए आपसी संबंधों को बचाए रखना भी जरूरी है.

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