हिमानी जब स्कूल से घर लौटती है, उस के अंदर घर आने की कोई उमंग नहीं होती. उस की फ्रैंड्स उस से पूछती हैं कि क्या उस की मम्मी उसे बस स्टौप पर लेने आती हैं? तो वह मायूस हो कर कोई जवाब नहीं देती है. उसे पता होता है कि वह अकेले ही बस स्टौप से घर जाएगी. घर के दरवाजे पर लगा ताला मुंह चिढ़ाता मिलेगा. वह रोज स्कूल से घर आ कर दरवाजे पर लगा ताला खोलती है. कपड़े बदल कर माइक्रोवेव में रखे खाने को खुद ही गरम कर के खाती है और शाम होने का इंतजार करती है, जब उस के मम्मीपापा औफिस से घर वापस आएंगे.

ऐसा सिर्फ हिमानी के साथ ही नहीं होता है, प्रतिदिन हजारों बच्चों के साथ होता है जब वे स्कूल से लौटते हैं. खाली घर उन का स्वागत करता है. उस घर में उन से बोलने वाला कोई नहीं होता. घर में बच्चों को विपरीत परिस्थितियों में भी अकेले रहना पड़ता है. जो मांएं नौकरी नहीं करतीं वे भी किसी काम से कहीं जाने पर बच्चों को घर में अकेला छोड़ देती हैं. कई अभिभावक बच्चों को घर पर अकेले छोड़ कर बाजार से खरीदारी या अपने छोटेबड़े काम करने या किसी समारोह आदि में चले जाते हैं. एक अनुमान के अनुसार, लगभग 40 प्रतिशत बच्चों को किसी न किसी समय अकेले रहना पड़ता है. इन बच्चों को ‘लैच की’ बच्चे कहा जाता है. ऐसा घर के बाहर या उन के गले में लटकी चाबी की वजह से कहा जाता है.

मशहूर अंगरेजी फिल्म ‘होम अलोन’ में यही दर्शाया गया है कि कैसे एक बच्चा अकेले घर में रह कर अनेक परिस्थितियों का सामना करता है, पर फिल्म में इसे बहुत ही मनोरंजक ढंग से दिखाया गया था. जबकि घर में अकेला रहने वाला बच्चा बहुत ही अलग ढंग से परिस्थितियों का सामना करता है. आस्ट्रेलिया में हुए एक अध्ययन के अनुसार, 402 बच्चों से जब स्कूल से घर पहुंचने के बाद उन की गतिविधियों के बारे में पूछा गया तो पाया कि 14 प्रतिशत बच्चे खाली घर में लौटते हैं. एकचौथाई परिवारों में घर में बच्चों को केवल अपने बड़े भाईबहन ही मिलते हैं, मांबाप नहीं.

अमेरिका के 5 से 13 वर्ष की उम्र के 2 करोड़ बच्चे घर में अपना खयाल स्वयं रखते हैं या 14 वर्ष तक की आयु के अपने भाईबहन की निगरानी में रहते हैं.

बिगड़ने की संभावना अधिक

मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि घर में अकेले रहने की वजह से बच्चे अवसाद, असुरक्षा, नशे की आदत के शिकार तो होते ही हैं, साथ ही ये बच्चे नाखुश, सहमे हुए या तिरस्कृत भी अनुभव करते हैं. जैसेजैसे वे बड़े होते जाते हैं, अभिभावकों के साथ उन का आपसी संवाद कम होता जाता है, जिस से बच्चे भावनात्मक रूप से उन से दूर होने लगते हैं. दिन में काफी लंबे समय घर में अकेले रहने के कारण उन में परिपक्वता जल्दी आ जाती है क्योंकि उन्हें यह पता होता है कि विकट स्थिति का सामना उन्हें स्वयं ही करना होगा. इस से बालसुलभ शरारतें अपनेआप ही उन के भीतर कम होने लगती हैं और अपनी बुद्धि का इस्तेमाल वे समस्याओं का निराकरण करने में लगा देते हैं.

मनोवैज्ञानिक यह भी मानते हैं कि चूंकि घर में अकेले बच्चों को देखने वाला, उन की गतिविधियों पर रोकटोक करने वाला कोई नहीं होता है इसलिए इन के बिगड़ने की संभावना अधिक होती है.

10 वर्षीय अनुज अपने मातापिता की इकलौती संतान है. मातापिता दोनों कामकाजी हैं इसीलिए वह दिनभर घर में अकेला ही रहता है. स्कूल से आने पर अपने बैग में रखी चाबी से वह घर का ताला खोलता है, फिर कपड़े बदलता है. जो उस की मम्मी सुबह उस के लिए बना कर रख जाती हैं उसी को माइक्रोवेव में गरम कर के खाता है. वह कहता है कि अब तो उसे खाना गैस पर गरम करने से भी डर नहीं लगता. यही नहीं, वह सैंडविच, कोल्ड कौफी या लस्सी जैसी चीजें भी बनाना जानता है. वह कहता है, ‘‘शुरूशुरू में मुझे बहुत बुरा लगता था और डर भी लेकिन अब आदत होती जा रही है. मम्मी कहती हैं कि होमवर्क कर लेना या पढ़ लेना तो मैं अकेले में कुछ नहीं करता. बस, टीवी देखता हूं. टीवी चलता है तो डर नहीं लगता.’’

एकल परिवारों का परिणाम

एकल परिवारों में जहां मातापिता दोनों कामकाजी हैं, अधिकांश ‘लैच की’ बच्चे देखने को मिलते हैं. ऐसे बच्चे अकेले रहने के कारण आत्मकेंद्रित हो जाते हैं और बाहर की दुनिया से कटे रहने के कारण वे स्वार्थी, दब्बू और चिड़चिड़े हो जाते हैं. ऐसे बच्चों में खानपान, सेहत व विकास संबंधी समस्याएं भी देखने को मिलती हैं. अकेले रहने के कारण ऐसे बच्चे डिप्रैशन का शिकार भी हो जाते हैं. उन की रोजमर्रा की जिंदगी अस्तव्यस्त हो जाती है. ऐसे बच्चे दूसरों को नुकसान भी पहुंचा सकते हैं. कई बार समय न होने की कमी के चलते अभिभावक बच्चों की हर जिद पूरी करते हैं जो उन्हें स्वार्थी बना देती है और वे अपनी हर जरूरी व गैरजरूरी जिद, हर मांग पूरी करवाने लगते हैं.

इंटरनैट की लत

जहां मातापिता दोनों कामकाजी होते हैं वहां बच्चे को लंबे समय तक अकेले रहना पड़ता है और समय बिताने के लिए वे इंटरनैट का सहारा लेते हैं. एक अध्ययन के अनुसार महानगरों में रहने वाले 7 से 11 साल तक की उम्र के लाखों बच्चे प्रतिदिन औसतन 5 घंटे से अधिक समय इंटरनैट पर बिताते हैं. देश के 4 महानगरों में एसोचैम द्वारा कराए गए हालिया सर्वे में इंटरनैट की लत के बारे में नए तथ्य सामने आए हैं. लगातार इंटरनैट के इस्तेमाल से ऐसे बच्चों में नजर की कमजोरी व

पीठदर्द की समस्याएं देखने को मिलती हैं. डाक्टरों के अनुसार कम उम्र की ये तकलीफें आगे जा कर बड़ा रूप ले सकती हैं. चिकित्सकों ने अभिभावकों को आगाह किया है कि वे बच्चों को समय दें व उन का मार्गदर्शन करें. अभिभावक बच्चों की दैनिक क्रियाओं में भाग लें, उन के साथ समय बिताएं.?

निरीक्षण की जरूरत

बच्चों को हमेशा बड़ों के निरीक्षण की जरूरत होती है. उन्हें घर आने पर किसी व्यक्ति की जरूरत होती है जो उन से पूछे कि उन का दिन कैसे बीता, स्कूल या पढ़ाई से संबंधित उन की समस्याओं की जानकारी ले सके और उन का समाधान सुझा सके.

अधिकतर ‘लैच की’ बच्चे बड़े होने पर घर पर रहना पसंद नहीं करते क्योंकि उन के लिए घर का मतलब अकेलापन होता है. यही नहीं, ऐसे बच्चे चीजों को शेयर करना भी नहीं सीख पाते हैं और अपने वक्त को भी शेयर करना पसंद नहीं करते. चूंकि बच्चे की भावनात्मक आवश्यकता को समझने के लिए अभिभावक मौजूद नहीं होते हैं इसलिए बच्चे के इस पहलू का विकास बहुत धीरेधीरे होता है. वहीं, समाजशास्त्री मानते हैं कि बहुत से ऐसे बच्चे ज्यादा आत्मनिर्भर हो जाते हैं और बेहतर ढंग से अपना ध्यान रखने के काबिल भी.

ऐसे में इस आधुनिक दौर में मांबाप और अभिभावकों को बच्चों के प्रति बहुत सतर्क रहने की जरूरत है.

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