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मैं एक लड़की से बहुत प्यार करता हूं, हम शादी करना चाहते हैं, पर लड़की के घरवाले राजी नहीं हैं, मैं क्या करूं?

सवाल
मैं 21 वर्षीय युवक हूं. एक लड़की से बहुत प्यार करता हूं. वह भी मुझ से बेइंतहा प्रेम करती है. हम दोनों शादी करना चाहते हैं. मगर जब लड़की ने मेरे बारे में अपने घर में बात की तो उन के घर में बवाल मच गया. लड़की के घर वालों ने लड़की को मारापीटा, उस से उस का मोबाइल भी छीन लिया. इतना ही नहीं उस का घर से बाहर आनाजाना भी बंद कर दिया. लड़की को धमकाया गया कि यदि उस ने मुझ से संबंध न तोड़ा तो वे मुझे किसी झूठे केस में फंसा कर जेल भिजवा देंगे या फिर जान से मार देंगे. लड़की इस बात से बहुत डरी हुई है. उस ने खानापीना छोड़ दिया है. हर समय रोती रहती है. वह नहीं चाहती कि उस की वजह से मुझे कोई हानि पहुंचे.

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हम दोनों एकदूसरे के बिना नहीं जी सकते. हम ने लड़की के घर वालों को शादी के लिए मनाने की हर संभव कोशिश की, पर वे टस से मस नहीं हो रहे. शादी से इनकार की वजह मात्र यह है कि लड़की की दादी की जाति (गोत्र) और हमारी जाति एक है. इस वजह से रिश्ते में हम दोनों भाईबहन लगते हैं.

मेरे घर वालों का इस तर्क पर बिलकुल विश्वास नहीं है. उन की शादी के लिए पूरी सहमति है. पर लड़की वाले नहीं मान रहे. वे लड़की पर कहीं और शादी करने के लिए दबाव बना रहे हैं. मगर लड़की अड़ी हुई है कि शादी करेगी तो सिर्फ मुझ से. किसी और से शादी करने से बेहतर वह मर जाना चाहेगी. क्या करें कुछ समझ में नहीं आ रहा.

मैं ने लड़की की मां व बड़ी बहन से मिल कर बात की. उन्हें समझाने की कोशिश की कि हम दोनों एकदूसरे को ले कर बहुत गंभीर हैं. हम दोनों एकसाथ बहुत खुश रहेंगे. इसलिए वे हमारी शादी के लिए सहमति दे दें. पर उन का कहना है कि वे मजबूर हैं. समाज हमारे विवाह के लिए कभी राजी नहीं होगा और उन्हें इसी समाज में रहना है. वे अपने समाज के विरुद्ध नहीं जा सकते. बेहतर होगा कि मैं उन की लड़की का पीछा छोड़ दूं, वरना अच्छा नहीं होगा. घर वालों के विरुद्ध जा कर हम शादी नहीं करना चाहते. बताएं हम क्या करें?

जवाब
हम 21वीं सदी में जी रहे हैं. पढ़ेलिखे होने और स्वयं को प्रगतिशील मानने के बावजूद अभी भी जाति, गोत्र और जन्मकुंडलियों के फेर में पड़े हैं. जब भी अंतर्जातीय संबंध की बात आती है विवाद उठ खड़ा होता है. माना जाता है कि जन्मपत्री में यदि वर, वधू के गुण मिलें तो विवाह संबंध सफल होते हैं. हकीकत में देखा गया है कि विवाह संबंधों की सफलताअसफलता में इन बातों का कोई योगदान नहीं होता. इन दकियानूसी बातों के मोहजाल में फंसा कर पंडेपुजारी अपनी दुकानें चलाते हैं. अधिकांश लोग सचाई को जानते हैं, पर समाज के ठेकेदारों की दादागिरी के कारण विरोध करने से डरते हैं.

अभी आप सिर्फ 21 साल के हैं, इसलिए शादी के लिए इंतजार कर सकते हैं. हो सकता है आप लोगों की जिद के आगे लड़की वाले देरसवेर झुक जाएं और विवाह के लिए सहमति दे दें. यदि किसी भी सूरत में राजी नहीं होते तो आपकोर्ट मैरिज भी कर सकते हैं. एक बार शादी हो जाने के बाद घर वाले थोड़ी नाराजगी के बाद आप को अपना लेंगे.

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Diwali 2021 : राजस्थानी घेवर

खानपान में मिठाईयों का कारोबार तेजी से आगे बढ़ा है. इसकी वजह से एक प्रदेश में बिकने वाली मिठाई देश के दूसरे हिस्से में भी खूब बिकने लगी है. ऐसी मिठाईयों में बड़ा नाम राजस्थानी घेवर का लिया जा सकता है. मैदा से बनने वाली यह मिठाई देखने में मधुमक्खी के छत्ते सी दिखती है राजस्थान, दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बरसात के मौसम में घेवर हर मिठाई शॉप पर मिलने लगती है.

नवाबों के शहर लखनऊ तक में घेवर ने अपनी पहुंच बना ली है .लखनऊ की पुराने अमीनाबाद बाजार और नये गोमतीनगर में मधुरिमा स्वीट्स ने घेवर की नई-नई वैराइटी बना ली है. मधुरिमा में सादा घेवर के अलावा पनीर घेवर, केसरिया घेवर, मलाई घेवर बनने लगा है. मधुरिमा के हर्षल गुप्ता कहतें है ‘घेवर का स्पंजी, क्रिस्प और मिठास भरा स्वाद नवाबी शहर के लोगों को लुभाने लगा है जुलाई अगस्त माह में लोग अपने नातेरिश्तेदारों को घेवर उपहार में देने लगे है.’

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बरसात के दिनों में जब पानी की फुहारे तनमन को भिगोने लगती है तो कुछ अलग स्वाद लेने का मन करता है. ऐसे में घेवर से अच्छा कुछ और हो ही नहीं सकता. राजस्थान में घेवर बहुत मशहूर है जब भी कोई अपने रिश्तेदार के यहां जाता ह तो घेवर ले जाता है. दूसरी मिठाईयों के मुकाबले घेवर सस्ता होता है और यह ज्यादा दिनों तक चल जाता है.

लखनऊ और हिन्दीभाषी क्षेत्रों में घेवर के बढ़ते प्रयोग पर हर्षल गुप्ता कहतें है ‘पिछले कुछ समय से टीवी सीरियलों में गांव और छोटे कस्बो की कहानियां दिखाई जाने लगी है. इसमें राजस्थानी कल्चर को सही तरह से उभारा गया है राजस्थानी कल्चर कुछ ज्यादा कलरफुल होता है इस कारण इसको दिखाना अच्छा होता है.

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ऐसे में घेवर को भी पहचान मिली. दूसरे अब राजस्थान के लोग भी दूसरे शहरो में बसने लगे हैं. दूसरी जगहों के लोग राजस्थान जाने लगे हैं. ऐसे में हमारे पास जब घेवर मांगने वाले आने लगे तो हमने घेवर बनाने का काम शुरू किया.’

लोहांडे से बने लाजवाब घेवर

ट्रेडिशनल मिठाईयों के बनाने में खास चीजों का प्रयोग किया जाता है जिससे वह स्वादिष्ट बनती है. घेवर को बनाने के लिये कोयले की भट्ठी और लोहांडे का प्रयोग किया जाता है.

लोहांडे घेवर बनाने की एक विशेष प्रकार की कढ़ाई होती है. इसमें बहुत ही मध्यम आंच पर घेवर तैयार होता है.

घेवर बनाने के लिये मुख्यरूप से मैदा, चीनी, दूध और देशी घी का उपयोग किया जाता है.

इसके अलावा  पनीर घेवर, केसरिया घेवर, मलाई घेवर को तैयार करने के लिये पनीर और मलाई का उपयोग किया जाता है.

घेवर को उपहार रूप में देने के लिये उसकी खास पैकिंग गोलगोल डिब्बों में की जाती है. घेवर के लिये खास डिब्बे तैयार किये जाते है.

सादा घेवर 15 दिन तक चल जाता है. इसलिये कोरियर से इसको ही भेजा जा सकता है. पनीर और मलाई घेवर को 24 घंटे के अंदर प्रयोग कर लेना चाहिये इसलिये इसको कोरियर से भेजना मुश्किल हो जाता है.

घेवर की कीमत उसके साइज और वजन पर निर्भर करती है. ताजा घेवर नरम होता है तब कुछ समय हो जाता है तो यह सख्त हो जाता है.

घेवर बनाने की सामाग्री

सादा घेवर बनाने के लिये मैदा, घी और चीनी का उपयोग किया जाता है.

घेवर बनाने की सामाग्री के रूप में 3 कप मैदा, 1 कप घी, ठंडेपानी के लिये 3-4 आइस क्यूब, आधा कप दूध, 1 किलो घी ले.

घेवर में डालने के लिये सीरप बनाने के लिये आधा कप चीनी और 1 कप पानी का प्रयोग होगा.

घेवर को सजाने के लिये 1 चम्मच इलायची पाउडर, 100 ग्राम कटे बादाम और  4 पिस्ता 1 चम्मच दूध आधा चम्मच दूध में भिगा हुआ केसर और घेवर सजाने के लिये सिल्वर फ्वाइल ले.

घेवर बनाने की विधी

  • चीनी और पानी मिला कर उसका सीरप  तैयार कर लें. इसको अलग रख दें.
  • एक बडे कटोरे में मैदा लें. अब इसमें थोड़ा सा घी, दूध और आइसक्यूब डालकर स्मूथ सा घोल बना ले.
  • ठंडा पानी लेने से मैदा विशेष प्रकार से तैयार होता है जो घेवर को खास बनाता है.
  • घेवर बनाने के लिये एक विशेष आकार के बरतन की जरूरत होती है यह लोहे या स्टील का हो सकता है इस बरतन का आकार सिलेंडर जैसा होता है यह लगभग 12 इंच ऊंचा और 5 इंच मोटा होता है.
  • इस बरतन के आधे हिस्से तक घी डाले और उसको गरम करे जब घी गरम हो जाये तो उसमें करीब 50 मिलीलीटर मैदा वाला तैयार घोल डाले इसके बीच में होल बना ले घोल डालने के बाद थोडा समय लगता है इसके बाद यह नीचे बैठ जाता है फिर से गिलास भर कर घोल डालें. इसे पकने दें मध्यम आंच में पकते समय यह भूरा दिखने लगेगा.
  • अब लोहे की कलछुल को घेवर के बीच वाले हिस्से में डालकर बाहर निकाल ले बचा हुआ घी बाहर निकल जाने दें.
  • अब इसमें चीनी का सीरप डाल दें.
  • बचा हुआ सीरप निकल जायेगा घेवर के ठंडा होने पर केसर वाला दूध इसमें कटे हुये बादाम और पिस्ता , इलायची का पाउडर डालकर सजायें उपर से सिल्वर फ्वाइल लगा दें,
  • अब यह खाने के लिये तैयार है.

बिना कुछ कहे – भाग 1

दिसंबर की वह शायद सब से सर्द रात थी, लेकिन कुछ था जो मुझे अंदर तक जला रहा था और उस तपस के आगे यह सर्द मौसम भी जीत नहीं पा रहा था.

मैं इतना गुस्सा आज से पहले स्नेहा पर कभी नहीं हुआ था, लेकिन उस के ये शब्द, ‘पुनीत, हमारे रास्ते अलगअलग हैं, जो कभी एक नहीं हो सकते,’ अभी भी मेरे कानों में गूंज रहे थे. इन शब्दों की ध्वनि अब भी मेरे कानों में बारबार गूंज रही थी, जो मुझे अंदर तक झिंझोड़ रही थी.

जो कुछ भी हुआ और जो कुछ हो रहा था, अगर इन सब में से मैं कुछ बदल सकता तो सब से पहले उस शाम को बदल देता, जिस शाम आरती का वह फोन आया था.

आरती मेरा पहला प्यार थी. मेरी कालेज लाइफ का प्यार. कोई अलग कहानी नहीं थी, मेरी और उस की. हम दोनों कालेज की फ्रैशर पार्टी में मिले और ऐसे मिले कि परफैक्ट कपल के रूप में कालेज में मशहूर हो गए.

मैं आरती को बहुत प्यार करता था. हमारे प्यार को पूरे 5 साल हो चुके थे, लेकिन अब कुछ ऐसा था, जो मुझे आरती से दूर कर रहा था. मेरी और आरती की नौकरी लग चुकी थी, लेकिन अलगअलग जगह हम दोनों जल्दी ही शादी करने के लिए भी तैयार हो चुके थे. आरती के पापा के दोस्त का बेटा विहान भी आरती की कंपनी में ही काम करता था. वह हाल ही में कनाडा से यहां आया था. मैं उसे बिलकुल पसंद नहीं करता था और उस की नजरें भी साफ बताती थीं कि कुछ ऐसी ही सोच उस की भी मेरे प्रति है.

‘‘देखो आरती, मुझे तुम्हारे पापा के दोस्त का बेटा विहान अच्छा नहीं लगता,‘‘ मैं ने एक दिन आरती को साफसाफ कह दिया.

‘‘तुम्हें वह पसंद क्यों नहीं है?‘‘ आरती ने मुझ से पूछा.

‘‘उस में पसंद करने लायक भी तो कुछ खास नहीं है आरती,‘‘ मैं ने सीधीसपाट बात कह दी.

‘तो तुम्हें उसे पसंद कर के क्या करना है,‘‘ यह कह कर आरती हंस दी.

मेरे मना करने का उस पर खास फर्क नहीं पड़ा, तभी तो एक दिन वह मुझे बिना बताए विहान के साथ फिल्म देखने चली गई और यह बात मुझे उस की बहन से पता चली.

मुझे छोटीछोटी बातों पर बहुत जल्दी गुस्सा आ जाता है, शायद इसीलिए उस ने यह बात मुझ से छिपाई. उस दिन मेरी और उस की बहुत लड़ाई हुई थी और मैं ने गुस्से में आ कर उस को साफसाफ कह दिया था कि तुम्हें मेरे और अपने उस दोस्त में से किसी एक को चुनना होगा.

‘‘पुनीत, अभी तो हमारी शादी भी नहीं हुई है और तुम ने अभी से मुझ पर अपना हुक्म चलाना शुरू कर दिया है. मैं कोई पुराने जमाने की लड़की नहीं हूं, कि तुम कुछ भी कहोगे और मैं मान लूंगी. मेरी भी खुद की अपनी लाइफ है और खुद के अपने दोस्त, जिन्हें मैं तुम्हारी मरजी से नहीं बदलूंगी.‘‘

सीधे तौर पर न सही, लेकिन कहीं न कहीं उस ने मेरे और विहान में से विहान की तरफदारी कर मुझे एहसास करा दिया कि वह उस से अपनी दोस्ती बनाए रखेगी.

आरती और मैं हमउम्र थे. उस का और मेरा व्यवहार भी बिलकुल एकजैसा था. मुझे लगा कि अगले दिन आरती खुद फोन कर के माफी मांगेगी और जो हुआ उस को भूल जाने को कहेगी, लेकिन मैं गलत था, आरती की उस दिन के बाद से विहान से नजदीकियां और बढ़ गईं.

मैं ने भी अपनी ईगो को आगे रखते हुए कभी उस से बात करने की कोशिश ही नहीं की और उस ने भी बिलकुल ऐसा ही किया. उस को लगता था कि मैं टिपिकल मर्दों की तरह उस पर अपना फैसला थोप रहा हूं, लेकिन मैं उस के लिए अच्छा सोचता था और मैं नहीं चाहता था कि जो लोग अच्छे नहीं हैं, वे उस के साथ रहें. एक दिन उस की सहेली ने बताया कि उस ने साफ कह दिया है कि जो इंसान उस को समझ नहीं सकता, उस की भावनाओं की कद्र नहीं कर सकता, वह उस के साथ अपना जीवन नहीं बिता सकती.

आरती और मेरे रास्ते अब अलगअलग हो चुके थे. मैं उसे कुछ समझाना नहीं चाहता था और वह भी कुछ समझना नहीं चाहती थी.

मुझे बस हमेशा यह उम्मीद रहती थी कि अब उस का फोन आएगा और एक माफी से सबकुछ पहले जैसा हो जाएगा, लेकिन शायद कुछ चीजें बनने के लिए बिगड़ती हैं और कुछ बिगड़ने के लिए बनती हैं.

हमारी कहानी तो शायद बिगड़ने के लिए ही बनी थी. 5 साल का प्यार और साथ सबकुछ खत्म सा हो गया था.

मेरे घर में अब मेरे रिश्ते की बात चलने लगी थी, लेकिन किसी और लड़की से. मां मुझे रोज नएनए रिश्तों के बारे में बताती थीं, लेकिन मैं हर बार कोई न कोई बहाना या कमी निकाल कर मना कर देता था.मुझे भीड़ में भी अकेलापन महसूस होता था. सब से ज्यादा तकलीफ जीवन के वे पल देते हैं, जो एक समय सब से ज्यादा खूबसूरत होते हैं. वे जितने मीठे पल होते हैं, उन की यादें भी उतनी ही कड़वी होती हैं.

धीरेधीरे वक्त बीतता गया. मेरे साथ आज भी बस, आरती की यादें थीं. मुझे क्या पता था आज मैं किसी से मिलने वाला हूं. आज मैं स्नेहा से मिला. हम दोनों की मुलाकात मेरे दोस्त की शादी में हुई थी.

Bigg Boss 15 : अकासा सिंह के घर से बाहर आते ही प्रतीक सहजपाल का हुआ बुरा हाल

सलमान खान का रियलिटी शो बिग बॉस 15 आए दिन चर्चा में बना हुआ है, कुछ दिनों पहले ही इस शो से अकासा सिंह कि विदाई हुई है, इसके बाद से वह लगातार चर्चा में बनी हुुई हैं.

अब घर के अंदर से खबर ये आ रही है कि अकासा सिंह के घर से बाहर होने के बाद से प्रतीक सेहजपाल का बुरा हाल हो गया है. वीकेंड के वार में अकासा सिंह को सबसे कम वोट मिले थें, जिसके बाद से उन्हें घर से बाहर जाना पड़ा. , जानें इसके पीछे की वजह

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घर से बेघर होने के बाद से अकासा सिंह काफी ज्यादा इमोशनल नजर आईं, अकासा सिंह के एविकेशन ने सभी की आंखे नम कर दी है. बिग बॉस 15 से बेदखल होने के बाद उन्होंने अपना अनुभव साझा किया है, उन्होंने ट्विट करते हुए लिखा पछतावा और गलतियां कई सारी यादें हैं.

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उन्होंने कहा कि हैरान हूं इतना कम समय ही लोगों के साथ बीता पाई और पछतावा इस बात का है कि कुछ लोगों को अपने साथ नहीं लेकर वापस आ पाई.

उन्होंने ट्विट में ये भी लिखा था कि मैं अपने ट्विट में कई सारे लोगों के बारे में खुलासा करने वाली हूं. घर में टॉस्क के दौरान कई सारे लोगों के साथ अकासा सिंह बहस करती नजर आई थी. वह अपने दोस्तों का साथ लेकिन खुलकर देती नजर आईं थी.

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वहीं घर के अंदर प्रतीक सहजपाल लगातार अकासा सिंह को मिस कर रहे हैं, वह अपनी हर बात में अकासा सिंह का जिक्र करना नहीं भूलते हैं.

कमर्शिल गैस के बढते दाम : ढाबे और मजदूरों पर मंहगाई की मार                           

2014 के लोकसभा चुनावों में प्रचार के समय सबसे अधिक लोग प्रिय नारा था ‘बहुत हुई मंहगाई की मार, अबकि बार मोदी सरकार’. भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी अपनी हर सभा में जनता से पूछते थे ‘दोस्तो मंहगाई कम होनी चाहिये कि नहीं ?’ जनता ने सोंचा था कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद मंहगाई कम हो जायेगी. डीजल पेट्रोल की कीमत कम हो जायेगी. सही मायनों में जो जनता ने सोंचा था उसके विपरीत काम हुआ. मंहगाई कम होने की जगह बढती ही जा रही है. डीजल पेट्रोल की कीमतें दोगुनी हो गई है. केन्द्र सरकार अब भी मंहगाई लिये पुरानी कांग्रेस सरकार को जिम्मेदार बता रही है. 2014 के लोकसभा चुनाव में मंहगाई और बेरोजगारी को लेकर डाक्टर मनमोहन सरकार से सवाल करने वाले नरेन्द्र मोदी अब इन मुददो पर खामोश  है.
मार्च 2014 में गैस का सिलेंडर 410 रुपए का था गैस सिलेंडर, अब 819 का हो गया है. तेल बेच कर 2013 में आते थे 52,537 करोड़ और अब तीन लाख करोड़ सरकार को मिलने लगे है. रसोई गैस की बात हो या बाजार में बिकने वाले कमर्शिल  गैस सिलेंडर की 7 सालोे में कीमत दोगुना से भी ज्यादा हो चुकी है. 19 किलो के कमर्शियल गैस सिलेंडर की कीमत 8 सौ रूपये के आसपास थी 2021 में 2 हजार रूपये प्रति सिलेंडर हो चुकी है. देश में पेट्रोल-डीजल और एलपीजी के बढ़ते दामों को लेकर विपक्ष लगातार केंद्र सरकार पर निशाना साध रहा है. इसके बाद भी सत्ता पक्ष पर किसी तरह का कोई दबाव नहीं बन पा रहा.
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मोदी राज में दोगुने हो गये पेट्रोलियम पदाथों के दाम: केन्द्र सरकार के मंत्री गैस के बढते दामांे और मंहगाई को लेकर उल्टेसीधे जवाब देने लगते है. केन्द्र सरकार में मंत्री और उत्तर प्रदेश में चुनावी प्रभारी धर्मेन्द्र प्रधान कहते है ‘कोरोना संकट के कारण विश्व  की अर्थ नीति ठप्प हो गई थी. देश  के अंदर हमारे सीमित उत्पादन है. इस कारण पेट्रोलियम पदाथों का बाहर से लाना पडता है. पिछले 2 सालों में पेट्रोलियम क्षेत्र मे जो निवेश होना था वह नहीं हुआ. जिसके कारण कच्चे तेल के दामांे में उछाल आई है. इसलिये पेट्रोलियम के दाम बढे हुये है. केन्द्र सरकार ने गरीबों की किसी योजना में कटौती नहीं की है. बल्कि उसे बढाया ही है. किसी गरीब को भूखे नहीं रहने दिया गया है. खर्च बढने से अस्थाई मंहगाई बढी है.’
पेट्रोलियम पदाथों के दाम और मंहगाई कोरोना संकट के पहले से ही बढने लगे थे. कोरोना ने सरकार को बच निकलने का मौका दे दिया है. ईधन पर यह बढ़ोतरी सिर्फ पिछले कुछ साल और महीनों की बात नहीं है. भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए के सत्ता में आने के बाद से ही एलपीजी के दाम लगातार बढ़े हैं. पिछले सात सालों में गैस सिलेंडर की कीमतें दोगुनी हो गई हैं. दूसरी तरफ एलपीजी की बढ़ती कीमतों से सब्सिडी लगभग न के बराबर पहुंच गई है. लोकसभा में तेल और एलपीजी के दामों में हुई बढ़ोतरी को लेकर पूछे गए सवालों पर केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने लिखित जवाब में बताया कि 1 मार्च 2014 को एक एलपीजी सिलेंडर की कीमत 410.50 रुपए थी. पिछले सात सालों में एलपीजी की कीमतें दोगुनी हो गई हैं.
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सरकार की कमाई का जरीया है पेट्रोलियम पदार्थ:पेट्रोल-डीजल के दामों में हुई इस बढ़ोतरी को लेकर धर्मेंद्र प्रधान ने कहा कि जहां पेट्रोल को 26 जून 2010 से ही सरकारी नियंत्रण से बाहर कर दिया गया, वहीं डीजल से भी 19 अक्टूबर 2014 को सरकारी नियंत्रण हटा लिया गया. ऐसे में रिटेलर्स अंतरराष्ट्रीय कीमतों, रुपए के एक्सचेंज रेट, टैक्स स्ट्रक्चर और अन्य आधारों पर हर दिन तेल के दाम निर्धारित करते हैं. पेट्रोल-डीजल पर केंद्र और राज्य सरकार की ओर से भारी टैक्स लगाए गये हैं. इसका असर यह है कि जहां 2013 में इससे 52,537 करोड़ का राजस्व जुटा था, वहीं 2019-20 में इससे 2.13 लाख करोड़ रुपए का राजस्व इकट्ठा हुआ. इतना ही नहीं 2020-21 के 11 महीनों में तो तेल के बढ़े दामों से राजस्व 2.94 लाख करोड़ तक पहुंच चुका है.

पेट्रोलियम पदाथों पर एक्साइज ड्यूटी से केन्द्र की कमाई बढ़ी है. पेट्रोल पर फिलहाल 32.90 रुपए और डीजल पर 31.80 रुपए प्रति लीटर की दर से एक्साइज ड्यूटी लगाई जा रही है. 2013 में यह एक्साइज ड्यूटी पेट्रोल पर 17.98 रुपए और डीजल पर 13.83 रुपए थी। केंद्रीय मंत्री के मुताबिक, पेट्रोल, डीजल, जेट फ्यूल, प्राकृतिक गैसों और कच्चे तेल से सरकार का कुल एक्साइज कलेक्शन 2016-17 के 2.37 लाख करोड़ से बढ़कर अप्रैल-जनवरी 2020-21 में 3 लाख करोड़ रुपए तक पहुंच गया.
देखा जाये तो सरकार पेट्रोलियम पदाथों के रेट बढने की बात का बहाना बनाती है. सही बात यह है कि केन्द्र और प्रदेष सरकार दोनो ही अलग अलग टैक्स लेते है. अखिल भारतीय उद्योग व्यापार मंडल के राष्ट्रीय अध्यक्ष संदीप बंसल कहते है ‘हम लंबे समय से मांग कर रहे है कि पेट्रोलियम पदाथों पर जीएसटी लागू कर दी जाय. जिससे इन पर मनमाने टैक्स का भार नहीं पडेगा. जनता को कम कीमत में डीजल पेट्रोल मिलेगा. सरकार इस बात को लगातार अनसुना कर रही है. क्योकि वह पेट्रोलियम पदाथों पर तरह तरह के टैक्स लगाकर अपनी जेब भर रही है. कमर्षियल सिलेंडर के मंहगे होने से ढाबे वाले और गरीब लोग सबसे अधिक परेषान हो रहे है.
’ढाबे पर मजदूर और गरीब लोगो के लिए बिकने वाली खाने पिने की चीजे महगी हो गई. चाय पहले 5 रुपये की बिकती थी अब इसकी कीमत 10 रुपये से अधिक हो गई है. समोसा 5 रुपये का था अब 10 रुपये का हो गया है, ढाबे पर पहले 20 से 25 रुपये की भोजन की थाली में गरीब का पेट भर जाता था. अब इसके लिए 50  से 70 रुपये खरच करने पड़ते है. इस बड़ी  कीमत का लाभ ढाबा चलने वाले की भी जेब में नहीं जा रहा. महंगी चीजों को  खरीद के वह भी परेशान हो चूका है. ढाबा चलाने वाले विजय अरोरा कहते है हम महंगी चीजे खरीद कर ढाबा चला रहे है. उसके अनुसार कीमत नहीं बढ़ा सकते क्योकि उतनी कीमत बढ़ने से  खाने वाले नहीं आएंगे. महंगाई को बोझ जनता के कंधो पर पद भले रहा है पर यह सरकार की जेब में जा रहा है.

मंहगाई पर चिंता क्यो नही ?

मंहगाई, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी के एजेंडे पर चुनाव जीतने वाली भाजपा सरकार अब अपने एजेंडे के विकास पर लग गई है. मोदी सरकार ने मंहगाई, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी को काबू में करने की बात भूल कर तीन तलाक, गौ हत्या बिल, धारा 370, राममंदिर और नागरिकता कानून जैसे अपनी पार्टी के एजेंडे को पूरा करने में लग गये. इन मुददों के सहारे ही वह चुनाव जीतना चाहते है. पश्चिम  बंगाल के चुनाव में वहां की जनता ने भाजपा के धार्मिक मुददों को नकार चुकी है. पश्चिम  बंगाल में ममता बनर्जी को हराने के लिये भाजपा ने नागरिकता कानून के बहाने यह प्रचार किया कि बंगलादेषियों को बाहर किया जायेगा. ममता बनर्जी को हिन्दू धर्म के खिलाफ काम करने वाला साबित करने का प्रयास हुआ. इस सबके बाद भी भाजपा को जीत नहीं हासिल हुई.
2022 के विधानसभा चुनावों मे सबसे अहम लडाई उत्तर प्रदेश  में है. यहां मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ‘अब्बाजान’ जैसे शब्दो का प्रयोग करके हिन्दुओं को डराना चाहते है. भाजपा की सोशल मीडिया टीम इस बात को लेकर आईटी सेल को लगा चुकी है कि वह सोषल मीडिया पर चुनावों में हिन्दू मुसलिम एजेंडे का उठाकर जनता को यह बताते रहे कि भाजपा नहीं आई तो प्रदेश खतरे में पड जायेगा. इन एजेंडों की आड में मंहगाई, डीजल पेट्रोल के बढते दामों, बेरोजगारी और दूसरे मुददों को पीछे ढकेला जा रहा है जिससे इनपर बात न होकर केवल हिन्दू मुस्लिम होता रहे. पश्चिम  बंगाल चुनाव की हार के बाद भी भाजपा सबक लेने को तैयार नहीं है.
हिन्दू मुस्लिम के मुद्दे सोशल मीडिया पर दिखते है. वहां खाली बैठे बेरोजगार युवा इसमें अपना समय गुजार रहे है. नारे लगाने वालो में भी वह दिख सकते है. पश्चिम  बंगाल चुनाव में प्रचार और सोशल मीडिया पर भाजपा चुनाव जीत गई थी लेकिन जब ईवीएम मशीन से चुनाव परिणाम बाहर निकले तो भाजपा चुनाव हार गई. उत्तर प्रदेश के चुनाव में धरातल पर मंहगाई, डीजल पेट्रोल के बढते दामों, बेरोजगारी और दूसरे मुददों छाये हुये है. यह अभी भले ही असर ना दिखा पा रहे हो पर चुनाव परिणामों पर इसका असर होगा.

शिल्पा शेट्टी के पति राज कुंद्रा ने सोशल मीडिया से बनाई दूरी, जानें इसके पीछे की वजह

बीते कुछ महीने राज कुंद्रा के लिए काफी ज्यादा मुश्किल भरे थें, राज कुंद्रा पॉर्नोग्राफी केस में फंसे हुए थें, उन्हें काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा. इस बीच  राज कुंद्रा ने अपना ट्विटर और इंस्टाग्राम अकाउंट डिलीट कर दिया है.

इससे पहले वो इंस्टाग्राम पर काफी ज्यादा एक्टिव रहते थें, इसी साल जुलाई महीने में राज कुंद्रा को पोर्नोग्राफी मामले में आरेस्ट किया गया था, जिसके बाद से फिल्म इंडस्ट्री में काफी ज्यादा हंगामा हुआ था.

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करीब 2 महीना जेल में रहने के बाद वह घर वापस आएं थें, इस मामले में राज को जमकर ट्रोल किया गया था. जबसे राजकुंद्रा का नाम इस मामले में सामने आया है तबसे वह सार्वजनिक जगह पर कम दिखते हैं.

वह अकेले में जीवन जीने लगे हैं, इस केस में राज कुंद्रा को 50 हजार केस पर जुर्माना देकर बेल मिला है. कोर्ट से बाहर आने के वक्त राजकुंद्रा ने कहा था कि मुझे बलि का बकरा बनाया जा रहा है.

आपको बता दें कि राज और उनकी कंपनी पोर्नोंग्राफी फिल्में मिलकर बना रही थी, जिसकी खबर पुलिस को लगी फिर उन्होंने राज को हिरासत में ले लिया. इसका असर शिल्पा शेट्टी के कैरियर पर भी पड़ा था, उसी समय उनकी फिल्म हंगामा 2 रिलीज हो रही थी. इसके बाद से उन्होंने कई सारे रियलिटी शो में हिस्सा लेने से मना भी कर दिया था.

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खैर एक बुरे दौर के बाद से राज कुंद्रा अब वापस घर अपने परिवार के पास आ गए हैं. और वह अपनी दीवाली फैमली के साथ ही मनाएंगे.

सुंदरता

सुंदरता- भाग 3 : ट्रेन में क्या घटना हुई थी

अब उन की समझ में आया कि वह अनाम सा आकर्षण क्या था? अब वह समझे कि अपरिचय के बावजूद उन्हें कौन सा आकर्षण उस महिला की ओर खींच रहा था. यह आकर्षण सुंदरता का ही था. परंतु यह सुंदरता देह की नहीं, हृदय की सुंदरता थी, जो देह के माध्यम से ही फूट रही थी. वह इस आकर्षण को महसूस तो कर रहे थे, परंतु समझ नहीं पा रहे थे. अब जब समझ पाए हैं तो उन के मनमस्तिष्क की सारी धूल अपनेआप झड़ गई है. उन्हें लगा कि शीतलमंद सुगंधित पवन उन्हें छू कर बहने लगी है.

महिला ने आगे बताया,’मेरा नाम प्रमिला है. मैं मिडिल स्कूल में हैडमास्टर हूं. मेरे पति प्राइवेट कंपनी में दूसरे शहर में जौब करते हैं. बच्चों के साथ मैं पिताजी के पास ही रहती हूं. मेरे 2 बच्चे हैं, एक बेटा और एक बेटी.’उस ने आगे यह भी बताया”बेटा और बेटी अब काफी समझदार हो गए हैं और उम्र में छोटे होने के बावजूद अपनी देखभाल खुद करने के साथ ही घर के कामों में मेरी मदद भी करने लगे हैं. परंतु पिताजी अब असहाय हो गए हैं, क्योंकि वे कुछ दिनों पहले लकवाग्रस्त हो गए हैं. वे बोल नहीं पाते हैं और ना ही चलफिर सकते हैं. माताजी एक साल पहले ही हमारे बीच नहीं रहीं. अब मैं ही उन की देखभाल करती हूं. उन के दोनों पांव और उन का बायां हाथ पूरी तरह अपंग हो गए हैं. दाहिना हाथ बिलकुल दुरूस्त है. आंखें भी ठीक हैं, और दिलदिमाग भी चुस्त है. तो अब वे खूब पढ़ते हैं और खूब कविताएं लिखते हैं. उन्हें अपनी पसंद के कवियों और लेखकों की कविता और कहानियां बारबार पढ़ने में आनंद आता है.

‘मैं जब भी उन्हें उदास पाती हूं, तो उन की पसंद के कवियों व लेखकों की कविता और कहानियां उन्हें पढ़ कर सुनाती हूं. वे प्रसन्न हो जाते हैं. उन की प्रसन्नता के लिए मैं कवितावाचक और कथावाचक भी हो गई हूं.’सुशील चंद्र मंत्रमुग्ध हो कर प्रमिला की कहानी सुन रहे थे. प्रमिला ने आगे बताया, ‘पिताजी आप के बहुत बड़े फैन हैं. वे अकसर अपनी भावनाओं को कागज पर लिख कर मुझे बताते हैं कि ‘काश, मैं कभी सुशील चंद्रजी से मिल पाता.’

‘अगर वे चलफिर सकते, तो मैं उन्हें आप के पास आप के घर जरूर ले कर आती. परंतु वे तो अपंग हैं. कैसे लाऊं उन्हें आप के पास?’आप की कविताएं, कहानियां और लेख पढ़ कर अथवा सुन कर उन्हें ऐसा लगता है जैसे उन की आप से मुलाकात हो जाती है. मैं ने अनेक बार आप के लेख, कविताएं, कहानियां उन्हें पढ़ कर सुनाई है. इस तरह मैं भी आप की पाठक और फैन हो गई हूं. आप की रचनाएं बहुत ही उत्कृष्ट होती हैं. मैं तो पढ़तेपढ़ते मुग्ध हो जाती हूं.’’

अब सुशील चंद्र को भी लगने लगा कि प्रमिला से उन का परिचय बहुत गहरा है. प्रमिला की सहजता, सरलता, सादगी के साथ संवेदनशीलता के प्रवाह में अब वे स्वयं भी प्रमिला से भावनात्मक रूप से जुड़ते जा रहे थे.

पिताजी की अभिलाषा, उन की अपंगता और अपनी असहायता बतातेबताते प्रमिला भावुक हो उठी. उस ने अपना आंचल फैला कर मानो भीख मांगते हुए कहा, ‘क्या आप मेरा यह आंचल खुशी से भर पाएंगे? क्या आप मेरे पिताजी की अभिलाषा पूरी कर पाएंगे?’उत्तर में सुशील चंद्र की आंखों से गंगायमुना बहने लगी. यह देख प्रेमिला भी द्रवित हो गई. उस ने पूछा, ‘सर, आप की आंखों में आंसू…?’

‘हां, आंसू ही हैं,’ वे बोले, ‘परंतु, ये आंसू दुख के नहीं, खुशी के हैं. आज मुझे मेरी बेटी भी याद आ रही है और पत्नी भी. अगर उन दोनों में से कोई भी आज होती तो वह भी मेरे लिए और मेरी छोटीछोटी खुुशी के लिए ऐसी ही ललक रखती.’

अब आंखें छलछला आने की बारी प्रमिला की थी. सुशील चंद्र ने अपनी आंखों से आंसू पोंछे और संयत हो कर बोले, ‘हालांकि मेरी बहू भी मेरी बेटी जैसी ही है.”बेटी जैसी…’ अचानक प्रमिला की भाव मुद्रा कठोर और तनावग्रस्त हो गई. उस ने इतनी कठोरता से यह प्रश्न किया कि वे सहम से गए.

प्रमिला बोली, ‘आप को अपनी बहू, बेटी जैसी क्यों लगती है?… बेटी ही क्यों नहीं लगती है.’कवि या कथाकार होने के नाते सुशील चंद्र शब्द की महत्ता को समझते थे, परंतु आज उन्हें यह अहसास पहली बार हुआ कि एक छोटा सा शब्द किसी को कितना गहरा आघात पहुंचा सकता है.

एक छोटे से शब्द के पीछे शायद किसी के जीवन की बहुत दर्दभरी कहानी छुपी हो सकती है. वह कुछ नहीं बोल पाए. फटीफटी आंखों से बस प्रमिला को देखते भर रह गए. प्रमिला की आंखें डबडबा रही थीं. वह रुंधे हुए कंठ से बोलती है, ‘मेरे जन्म के तुरंत बाद ही मेरे पिता का निधन हो गया था. कुछ दिन बाद मां का भी निधन हो गया. मुझे मेेेरे नानानानी ने पाला. शादी के बाद सासससुर को पा कर मुझे लगा था कि मुझे मेरे मातापिता मिल गए हैं. मेरी हमेशा यही कोशिश रही कि मेरे ससुर मेरे पिताजी और मेरी सास मेरी मां बनें… और मैं उन की बेटी बन जाऊं. यह टीस मुझे दिनरात कचोटती है कि मैं बेटी जैसी तो बन गई, मगर मैं पूरी तरह से बेटी नहीं बन पाई.’

इस के आगे प्रमिला कुछ न बोल पाई, क्योंकि उस का गला भर आया था.सुशील चंद्र बोले, ‘प्रमिला, मुझे अपना मोबाइल नंबर दो और अपने घर का पता भी दो. मैं इसी रविवार को आ रहा हूं तुम्हारे घर पर… तुम्हारे पिताजी से मिलने.”इतना सुनते ही प्रमिला जैसे नींद से जागी. स्टेशन भी आ गया था. सभी यात्री उतरने लगे थे. प्रमिला ने झट से कागज के एक टुकड़े पर फोन नंबर व घर का पता लिखा और सुशील चंद्र को देते हुए बोली, ‘बड़ी मेहरबानी होगी आप की. मैं प्रतीक्षा करूंगी.’

रविवार को जब सुशील चंद्र प्रमिला के घर पहुंचे तो देखा कि उन के पिताजी का बिस्तर बैठक कक्ष में ही लगा हुआ था. लगभग 85 वर्ष की उम्र के कृशकाय देह वाले प्रमिला के पिता पलंग पर लेटे हुए थे. सुशील चंद्र ने अभिवादन में अपने हाथ जोड़ दिए. पिताजी अस्पष्ट सी आवाज में फुसफुसाए, ‘मां…’प्रमिला बोली, ‘पिता जान गए हैं कि आप आ गए हैं. वे खुशी से बावले हुए जा रहे हैं.’

सुशील चंद्र अभिवादन की मुद्रा में ही पलंग के नजदीक पहुंचे तो पिताजी ने भी सम्मान में अपना दाहिना हाथ उठा कर अभिवादन किया.सुशील चंद्र ने देखा कि प्रमिला के पिताजी की आंखें खुशी से चमक उठी हैं. पिताजी फिर फुसफुसाए, ‘मां…’

प्रमिला ने सुशील चंद्रजी को बैठने के लिए कुरसी दी. फिर झट से उस कृशकाय देह को अपने अंक में कुछ ऐसे भर कर जैसे मां अपने नन्हे शिशु को अपने अंक में समेट कर उठाती है, उठाया. उठा कर पलंग की पाटी से लगे गाढ़ी के बने तकिया के सहारे उन्हें बिठाया. अगलबगल भी तकिए लगा कर उन्हें सहारा दिया. फिर वह बताने लगी, ‘यह पलंग से सटी विशेष मेज है, जिस पर कागज बिछा कर पिताजी कविताएं लिखते हैं. यह उन की पसंद की साहित्यिक पत्रिकाएं हैं, जिन्हें वे पढ़ते हैं. और यह रही आप की प्रकाशित कविताकहानियों की किताबें, जिन्हें देख कर और पढ़ कर वे पुलकित होते रहते हैं.’

सुशील चंद्र ने महसूस किया कि उन के आने से वे सचमुच पुलकित हो रहे हैं. कृतज्ञता से भर गए हैं. पिताजी एक बार फिर फुसफुसाए, ‘मां.’प्रमिला बोली, ‘बस, अब एक यही शब्द ‘‘मां” ही उन के मुंह से निकल पाता है. परंतु इसी एक शब्द के आरोहअवरोह और चेहरे की भावभंगिमा से मैं समझ लेती हूं कि वे क्या कह रहे हैं. अभी वे कह रहे हैं कि आप अतिथि हैं हमारे… जलपान कराऊं मैं आप को…’

फिर सुशील चंद्रजी के हाथ में डायरी देते हुए वह बोली, ‘इस में पिताजी की कुछ कविताएं हैं. आप इन्हें देखिएगा, तब तक मैं आप के लिए चायनाश्ता तैयार कर के लाती हूं.’उन्होंने डायरी हाथ में ली और कविताएं पढ़ने लगे. परंतु डायरी की कविताओं से ज्यादा उन का ध्यान प्रमिला के व्यक्तित्व को पढ़ने में डूबा हुआ था. प्रमिला जिन्हें जीवनभर अपना पिता मानती रही और आज भी पिताजी ही संबोधित करती है, वह तो नन्हा सा मासूम सा शिशु बन चुका है. 85 वर्ष का एक ऐसा शिशु, जो अपनी हर बात के लिए अपनी मां पर निर्भर है. और प्रमिला जीवनभर जिन की बेटी बन पाने के लिए आतुर रही, आज उन्हीं की मां बन गई है. हां, मां ही तो है, जो अपने शिशु की मौन भाषा को समझ पाती है. बिना शब्द, बिना भाषा मां ही तो संवाद कर पाती है अपने शिशु से. और यह कोई इत्तेफाक नहीं है कि अब वे एक ही शब्द फुसफुसा पाते है- ‘मां’. दरअसल, वे जिसे जीवनभर बेटी जैसा तो मानते रहे, पर पूरी तरह बेटी नहीं मान पाए, उन की वही बहू अब उन की ‘मां’ बन चुकी है. और निर्मल हृदय बालक की तरह उन्हें अपनी इस मां की गोद में सुकून मिलने लगा है.

सुशील चंद्र सोच रहे थे कि मां से बढ़ कर सुंदर इस दुनिया में कोई हो नहीं सकता. अब उन्हें समझ आया कि ट्रेन में पहली बार ही देखने पर भी प्रमिला की जिस सुंदरता ने उन को आकर्षित किया था, वह एक मां के हृदय की सुंदरता थी. मां के हृदय की यह सुंदरता ही प्रमिला के रोएंरोएं से प्रगट हो रही थी.लज्जा नारी का आभूषण होता है. मगर मातृत्व तो वह हीरा है, जिस से नारी का एकएक अंग दमक उठता है. सुंदर नारी और भी सुंदर लगने लगती है, जब उस के हृदय में ममता का संचार होता है. जब उस की भावनाओं में करुणा का श्रृंगार होता है. विचारों में पवित्रता का संस्कार होता है.

फिर उन्होंने मृत्युशैय्या पर लेटे 85 वर्षीय वृद्ध शिशु की डायरी से कविताएं पढ़ी. खूब बातें कीं और जब विदा हुए तो प्रमिला से बोले, ‘आज मैं तुम्हारी भावनाओं से अभिभूत हूं. तुम इस घर में बहू बन कर आई. बेटी बन कर रही. और मां बन कर तुम ने इस पूरे घर को मंदिर बना दिया.’और सुनो, आज प्ररेणा बन कर इस सोए हुए कवि के लेखक की चेतना को भी तुम ने जगा दिया है. कुछ दिनों से मेरे आस्था और विश्वास की जमीन डांवांडोल हो रही थी. जीवन की ऊष्मा कम होती जा रही थी. आज तुम्हारी भावनाओं से जुड़ कर मेरे हृदय में फिर से स्फूर्ति का संचार हो रहा है.’

प्रमिला बोली, ‘मैं तो स्वयं आप से मिल कर अपनी चेतना में स्फूर्ति का अनुभव कर रही हूं.’सुशील चंद्र बोले, ‘अगर सचमुच ऐसा है तो और भी अच्छा है. मेरा मन तुम्हारे साथ एक ऐसा रिश्ता जोड़ने का हो रहा है, जो बहन, बेटी, मां और पत्नी के रिश्ते से भी एक कदम आगे बढ़ कर है. मैं तुम्हें अपना मित्र बनाना चाहता हूं. मुझे पूरा भरोसा है कि तुम स्त्रीपुरुष की पवित्र मित्रता को भी एक नया आयाम दे सकोगी.’

प्रमिला बोली, ‘सर, मित्रता तो बराबरी वालों में होती है. मैं न तो उम्र में आप के बराबर हूं, न ही पद और कद में आप के बराबर हूं.’’सुशील चंद्र बोले, “उम्र में भले ही तुम मुझ से छोटी हो, परंतु विचार, भावनाओं और संवेदनशीलता में मुझ से बड़ी हो. इसी से सोचता हूं कि तुम्हारी भावनाओं को अपनी भावनाओं के साथ जोड़ कर मैं अनुभव के उस आकाश तक पहुंच सकूंगा, जहां से मेरे साहित्य सृजन न जाने कितने चांद और सितारे उतर आएंगे.”

प्रमिला कुछ नहीं बोली, पर उस की आंखों ने बहुतकुछ बोल दिया, जो सुशील चंद्र ने आंखों ही आंखों में बांच लिया.सुशील चंद्र और प्रमिला की मित्रता धीरेधीरे बढ़ती गई. वे दोनों एकदूसरे के साथ ऐसे घुलमिल गए, जैसे दूध में मिश्री घुलमिल गई हो. अपने पिता ससुर के निधन के बाद तो प्रमिला को लगता सुशीलचंद्रजी… होती गई.शीघ्र ही सुशील चंद्र का ‘‘सुंदरता’’ शीर्षक नाम का नया उपन्यास प्रकाशित हुआ. उपन्यास प्रमिला को समर्पित करते हुए उन्होंने लिखा,

समर्पित अपनी अंतरंग मित प्रमिला के अध्यात्मिक सौंदर्य को,जिस ने मुझे फिर से कलम उठाने को

प्रेरित किया. सुशील चंद्र उपन्यास प्रकाशित होने के बाद ये बात भी तेजी से सार्वजनिक हो गई कि उपन्यास की नायिका के रूप में ‘‘बूढ़े बच्चे की मां के’’ जिस किरदार के अलौकिक सौंदर्य पर उपन्यास का तानाबाना बुना गया है, वह किरदार वास्तव में प्रमिला का किरदार ही है. कुछ लोग उन दोनों की अंतरंगता को ले कर कटाक्ष भी करने लगे थे. दोनों के रिश्तों पर संदेह करती हुई कुछ अफवाहें कानाफूंसी के कंधों पर सवार हो कर प्रमिला के पति विनय के कानों तक भी पहुंच गईं. मगर विनय सुलझा हुआ इनसान था. उस की दृष्टि पैनी और पारदर्शी थी.

प्रमिला ने जब अपने पति विनय का पहली बार सुशील चंद्र से परिचय कराया तो कहा, ‘ये हैं सुशील चंद्रजी… मेरे अंतरंग मित्र.’प्रमिला के पति विनय ने कहा, ‘आप की मित्रता की सुंदरता और पवित्रता को मैं महसूस कर रहा हूं. अगर यह मित्रता न होती तो उपन्यास ‘सुंदरता’ की नायिका की अलौकिक छवि को आप इतनी खूबसूरती से चित्रित नहीं कर पाते.’

प्रमिला ने आश्चर्य के साथ अपने पति की ओर देखा.विनय ने कहा, ‘हां, मैं ने यह उपन्यास पढ़ा है. इस के एकएक शब्द ने मुझे आल्हादित किया है. मुझे गर्व है कि सुशील चंद्रजी जैसे बड़े लेखक मेरी पत्नी को अपना अंतरंग मित्र मानते हैं. मित्रता आप दोनों को मुबारक हो.’फिर विनय ने सुशील चंद्रजी की ओर मुड़ कर कहा, ‘मेरे लिए तो आप बहुत बड़े लेखक और कवि हैं. और मैं सदा आप को प्रणाम ही करता रहूंगा.’

इतना कहते हुए विनय ने जब सुशील चंद्रजी के पैर छुए तो उन्होंने आशीर्वाद देते हुए विनय को अपने गले से लगा लिया.

सुंदरता- भाग 2 : ट्रेन में क्या घटना हुई थी

सुशील चंद्र साहित्य प्रेमी भी हैं. कवि और कहानीकार के रूप में उन की ख्याति देशभर में है. उन्होंने पहली बार तब कलम उठाई थी, जब उन्होंने अपनी पत्नी को खो दिया था. उन का कवि उन के दर्द, उन की पीड़ा, उन के अवसाद से जन्मा था. परंतु फिर भी उन की रचनाएं कभी भी हताशा का नहीं, अपितु उत्साह व ऊर्जा का संचार करती रही हैं. दर्द की जमीन पर उगी उन की कविता और कहानी के पेड़, औषधि के पेड़ की फूलपत्तियों सा लहलहाते हैं.

पत्नी के निधन पर वे शायद उतना नहीं टूटे थे, जितना उन की बेटीदामाद की सड़क दुर्घटना में मौत ने उन्हें तोड़ दिया था. और इस के बाद तो उन की रचनाओं में करुणा का विस्फोट ही होने लगा था. उन के दग्ध हृदय को राहत तब मिल पाई, जब उन्हें लगा कि बहू के रूप में उन्होंने फिर अपनी खोई हुई बेटी को पा लिया है.

अब ट्रेन में अपडाउन के दौरान उन के हृदय में एक अनजानी स्त्री के सौंदर्य को ले कर जो हलचल मची है, उस ने उन के मनमस्तिष्क में आंधीतूफान जैसे हालात पैदा कर दिए हैं. वह महिला उन के गंतव्य स्टेशन से एक स्टेशन पहले उतर जाती है. उस के उतर जाने के बाद भी उन का सफर अगले पड़ाव तक जारी रहता है. और वह महिला उन के ध्यान में फिर भी सफर करती रहती है. वापस लौटते समय भी वे आतुर और उत्सुक हो कर उस स्टेशन के आते ही जहां से वह महिला ट्रेन पकड़ती है, दरवाजे की तरफ देखने लगते हैं. वह आती है और जैसे महकती हुई खुशबू से पूरा डब्बा ही महक उठता है. फिर वे उस के रूपसौंदर्य से ऐसे बंध जाते हैं कि बंधे ही रह जाते हैं.

एक छोटे स्टेशन पर ट्रेन रुकी. सुशील चंद्र के सामने बैठा एक यात्री उतर गया. जैसे ही जगह खाली हुई, वह आकर्षक महिला अपनी सहयात्री महिलाओं को छोड़ कर सुशील चंद्र के ठीक सामने आ कर बैठ गई. बैठने से पहले उस ने उन्हें आदरपूर्वक कहा, ‘सर नमस्कार.’

ऐसा लगा, जैसे वह उन्हें वर्षों से जानती हो. सुशील चंद्र ने उस की तरफ किंचित प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा तो वह बोली, ‘सर, आप मुझे नहीं जानते, पर मैं आप को जानती हूं.’उन्हें घोर आश्चर्य हुआ. वे बोले, ‘आप मुझे जानती हैं. पर, आप मुझे कैसे जानती हैं?’

‘सर, आप को कौन नहीं जानता. पूरा शहर जानता है कि आप कितने बड़े कवि हैं. कितने बड़े साहित्यकार हैं. धन्य भाग्य हमारे, जो नौकरी के लिए होने वाले इस अपडाउन की वजह से हमें आप से परिचय का अवसर मिला.’

ट्रेन की गति धीमी हो गई थी. उस महिला का स्टेशन आ गया था. वह उठी और जातेजाते बोली, ‘सर, मैं जो कहना चाहती थी, वह असली बात तो कह ही नहीं पाई. लौटते समय जरूर मिलती हूं आप से, तब फिर बात करूंगी.’

वह आदरसहित अभिवादन में सिर झुका कर चली गई.  उन्हें लगा कि उन के दिलोदिमाग से कई क्विंटल का बोझ उतर गया है. उन्हें लगा कि वह महिला भी कवयित्री या लेखिका है. और शायद यह कि वह उन का मार्गदर्शन और सपोर्ट पाना चाहती है. तो क्या वह जिसे उस की दैहिक सुंदरता समझ रहे थे, वह दैहिक सुंदरता नहीं, अपितु उस अनजान महिला की प्रतिभा के पंख थे. और यह कि शायद उन की पारखी नजर ने प्रतिभा के इन पंखों को पहचान लिया था. इसीलिए वह उन की नजर के आकर्षण का केंद्र बन गई थी. तरहतरह के अनुमान उन के मन में उमड़तेघुमड़ते रहे.

लौटते समय जब वह अपने स्टेशन से ट्रेन में चढ़ी तो सीधे उन के पास आई. उस ने सामने बैठे मुसाफिर से थोड़ा खिसकने का अनुरोध करते हुए उन के ठीक सामने ही बैठ गई. बात की शुरूआत उन्होंने ही की,‘तो आप को भी कविता और साहित्य में रुचि है?’‘जी हां,’ उस ने कहा.

‘आप कविता लिखती हैं या कहानियां लिखती हैं? या फिर…’‘जी नहीं, मैं ना तो कविता लिखती हूं, ना कहानियां लिखती हूं. हां, मेरे पिताजी लिखते हैं.’यह सुन कर सुशील चंद्र के सारे अनुमान ध्वस्त हो गए थे और वह महिला उन के लिए फिर से एक रहस्य बन गर्ई थी. वह महिला आगे बोली, ‘पिताजी पहले कहानी और लेख भी लिखते थे, अब वे सिर्फ कविताएं लिखते हैं. हर रोज लिखते हैं. और इन दिनों तो मैं ही उन की श्रोता हूं, और मैं ही उन की पाठक हूं. हर रोज उन की कविताओं का आनंद लेती हूं.’

सुशील चंद्र थोड़ा अचकचाए. वे थोड़ा विचार में भी पड़ गए. हर दिन उन की कविताओं का आनंद लेती है.’मतलब…?’ उन्होंने पूछा, ‘मेरा मतलब है कि क्या आप के पिताजी आप के साथ ही रहते हैं?”‘जी नहीं,’ उस ने सादगी, मगर दृढ़ता के साथ कहा, ‘पिताजी मेरे साथ नहीं, मैं उन के साथ रहती हूं.’

यह सुन सहसा उन्हें धक्का सा लगा. सुशील चंद्र ने आश्चर्य से उस महिला की तरफ देखा. उस के ललाट पर सुहाग की बिंदी को देखा. 34-35 साल की उम्र और पिताजी के साथ रहती है. क्या मजबूरी हो सकती है? अगर विधवा होती तो  माथे पर सुहाग की यह बिंदी न होती… तो क्या परित्यक्ता है?

उत्सुक्तावश उन्होंने पूछ ही लिया, ‘और आप का परिवार?महिला के चेहरे पर मुसकराहट आ गई. इस मुसकराहट में रहस्य की कर्ई परतें लिपटी हुई थीं. फिर उस ने खुद ही रहस्य की परतों को हटाते हुए कहा, ‘पिताजी हमारे परिवार के मुखिया हैं… ससुर हैं मेरे.’ओह…’ इस अप्रत्याशित जवाब से सुशील चंद्र चकित रह गए. उन्हें लगा कि उन की सोच कितनी बौनी है और उस महिला के विचार कितने ऊंचे हैं. संस्कार कितने पवित्र हैं…

राजनीति में युवा न दिशा न सोच

आज के युवा नेता शौर्टकट से सफलता पाना चाहते हैं. देश और समाज को ले कर उन की स्पष्ट सोच नहीं है. ये नेता देश के भविष्य के बेहतर होने की जगह अपना लाभ देखते हैं. इस वजह से देश और समाज को युवाशक्ति का लाभ नहीं मिल पा रहा. व्लादिमीर इलीइच उल्यानोव, जिन को लेनिन कहा जाता है, ने कहा था, ‘मु?ो केवल एक पीढ़ी के युवा दे दो, मैं पूरी दुनिया को बदल दूंगा.’ लेनिन मार्क्सवादी विचारधारा के थे. उन के राजनीतिक सिद्धांत लेनिनवाद के नाम से पूरी दुनिया में जाने जाते हैं.

अगर दुनिया के इतिहास को देखें तो पता चलता है कि आंदोलन और बदलाव में युवाओं की भूमिका कितनी अहम होती है. कार्ल मार्क्स के राजनीतिक सिद्धांतों में भी युवाओं के विषय में कहा गया है, ‘युवा अपनी जिंदगी के मालिक खुद बनें. दूसरे की सोच के आधार पर अपना भविष्य तय न करें.’ आज के दौर में भारत के युवा नेताओं में भविष्य की सोच का अभाव दिखता है. वह आज भी हजारों साल पुरानी पौराणिक कथाओं की तरफ देख कर अपना भविष्य तय करने की कोशिश कर रहा है. इस वजह से वह ही नहीं पूरा देश पिछड़ता जा रहा है. आज के युवा नेताओं से बेहतर सोच 2 पीढ़ी पहले के युवा रखते थे. महात्मा गांधी ने भारत को आजाद कराया.

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उन्होंने भारत में अंगरेजों के खिलाफ जो आंदोलन किया, उस की नींव दक्षिण अफ्रीका में रखी थी. महात्मा गांधी ट्रेन के उस डब्बे में चढ़ गए थे जो अंगरेजों के लिए रिजर्व था. उस में से उन को उतार दिया गया. देखें तो यह सामान्य सी बात थी. आज भारत आजाद है, उस के बाद भी किसी न किसी नियमकानून के तहत भेदभाव होता है. लेकिन इस व्यवस्था के खिलाफ युवा अपनी आवाज उठाने की जगह सम?ाता कर लेते हैं. कई युवा तो भारत में व्यवस्था के खिलाफ लड़ने की जगह विदेशों में पलायन कर वहां बस जाते हैं. महात्मा गांधी की उम्र उस समय केवल 24 साल थी. उन को सम?ा आ गया कि दक्षिण अफ्रीका की इस रंगभेद नीति के खिलाफ आवाज उठानी जरूरी है. महात्मा गांधी ने वहां पर ‘नेटल इंडियन कांग्रेस’ की स्थापना की. इस के बाद दक्षिण अफ्रीका की रंगभेद नीति के खिलाफ लड़ाई छेड़ दी. इस से बहुत सारे लोगों को लगा कि कोई उन के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ रहा है.

अफ्रीका की अपनी उसी सोच के कारण आगे चल कर वे भारत की आजादी की लड़ाई लड़ सके और देश को आजाद कराने में सफल हुए. गांधी जानते थे कि आंदोलन के जरिए ही बदलाव हो सकता है. इस के लिए युवाशक्ति की जरूरत होती है. ऐसे में आजादी की लड़ाई में उन्होंने युवाओं को ज्यादा से ज्यादा आगे लाने का प्रयास किया. युवाओं ने लड़ी आजादी की लड़ाई चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, खुदीराम बोस, जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस जैसे बहुत से लोगों ने युवावस्था में ही आंदोलन किए. बहुत सारे युवाओं की तरह वे भी सुविधाभोगी जीवन जी सकते थे. उसी दौर में बहुत सारे युवा ऐसे भी थे जो सुविधापूर्वक अपने घरों में रह रहे थे. देश आज उन को याद नहीं करता. आज देश उन युवाओं को ही याद रखता है जो देश के भविष्य के लिए देश पर अपनी जान न्योछावर कर गए.

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आज राष्ट्रवाद के नाम पर बड़ेबड़े भाषण देने वालों को याद भी नहीं होगा कि देश के नाम पर शहीद होने वालों की उम्र बेहद कम थी. चंद्रशेखर आजाद 25 साल की उम्र में अंगरेजों से लड़ते मारे गए थे. 1919 में हुए अमृतसर के जलियांवाला बाग नरसंहार का सब से बड़ा विरोध युवाओं ने ही किया था. चंद्रशेखर उस समय पढ़ाई कर रहे थे. तमाम अन्य छात्रों की तरह चंद्रशेखर भी सड़कों पर उतर आए. अपने विद्यालय के छात्रों के जत्थे के साथ इस आंदोलन में भाग लेने पर जब पहली बार वे गिरफ्तार हुए तो उन को 15 बेंतों की सजा मिली. उन को नंगा किया गया और बेंत की टिकटी से बांध दिया गया. इस के बाद जैसेजैसे बेंत उन पर पड़ते थे, उन की चमड़ी उधड़ जाती थी. वे दर्द सहन करते थे. जब तक वे बेहोश न हो गए, यह क्रम चलता रहा. इस के बाद भी चंद्रशेखर डरे नहीं. वे उत्तर भारत के क्रांतिकारी कार्यों के दल के बड़े नेता के रूप में उभरे. 25 साल की उम्र में अंगरेजों की गोलियों के शिकार हो गए.

आजादी की लड़ाई में जिन लोगों का नाम प्रमुखता से लिया जाता है उन में भगत सिंह और सुखदेव 25 साल और राजगुरु 24 साल की उम्र में ही शहीद हुए थे. सुभाष चंद्र बोस भी युवा उम्र में ही आजादी की लड़ाई में कूद गए थे. इन युवाओं की आंखों में आज के युवाओं की तरह 4-5 साल के सुखसुविधाओं के खुद अपने स्वार्थ के लिए सपने नहीं थे. वे यह सोचते थे कि उन का बलिदान आने वाली पीढि़यों के काम आएगा. आजादी के बाद जब कई साल बीत गए और सामाजिक न्याय के लिए जयप्रकाश नारायण ने आंदोलन किया तो उन के निशाने पर भी युवा ही थे. जो आगे चल कर जनाधार वाले नेता बने, मंत्री और मुख्यमंत्री जैसे बड़े पदों तक पहुंचे. गणेश परिक्रमा में बदल रहा राष्ट्रवाद जेपी आंदोलन के बाद राममंदिर के नाम पर धर्म का आंदोलन चला.

राष्ट्रवाद का नारा लगाने वाले जिन राम के नाम के सहारे चुनाव में उतरते हैं, जिन के जीवन से प्रेरणा लेने के लिए सभी को कहते हैं, वे खुद राम के जीवन से कुछ सीखते नहीं हैं. राक्षसों से परेशान हो कर विश्वामित्र ने राजा दशरथ से सहायता नहीं मांगी. विश्वामित्र ने राम व लक्ष्मण को मांगा, वे किशोरावस्था में थे. विश्वामित्र को राजाओं की ताकत से अधिक किशोरावस्था के राम व लक्ष्मण पर भरोसा था. महाभारत में अभिमन्यु को पता था कि वह चक्रव्यूह से बाहर जिंदा नहीं निकल पाएगा. इस के बाद भी एक दिन की लड़ाई से अभिमन्यु ने पूरी लड़ाई का रुख ही बदल दिया. रामायण और महाभारत का नाम लेने वाले आज के युवा भूल गए कि युवाओं में समाज और देश के भविष्य को बनाने और बिगाड़ने की ताकत होती है. पौराणिक सोच युवाओं की ताकत, विचार और भविष्य की सोच को प्रभावित कर रही है.

आज युवा देश और समाज के विकास को ले कर आगे के 20-30 साल की नहीं सोच रहा. जब वह अपना ओजस्वी भाषण दे रहा होता है तो वह रामायण और महाभारत के उदाहरण देता है. उस समय वह आगे के 30-40 साल के बारे में अपनी सोच नहीं रख पाता है. प्रयागराज में संत बना आंनद गिरि अपने गुरु महंत नरेंद्र गिरि को ब्लैकमेल करने लगा क्योकि उसे पैट्रोल पंप लगाने के लिए जगह देने से मना कर दिया था. आनंद गिरि युवा है पर उस की सोच बड़ी नहीं है. इस का कारण यह है कि धार्मिक आंदोलन के सहारे जो युवा आगे आ रहे हैं वे ‘अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम, दास मलूक कह गए सब के दाता राम.’ अगर इसी कहावत को सामने रख कर आजादी के समय युवा सोचते तो क्या वे आजादी की लड़ाई लड़ते? यही सोच पर सेना के सिपाही बौर्डर पर जाते तो दुश्मनों से लड़ पाते? भारत ही नहीं, दुनियाभर में जहां भी क्रांति और बदलाव हुआ है वहां आगे युवा ही आए हैं.

भारत की राजनीति में आए युवाओं को यह सवाल खुद से करना चाहिए. राजनीति में आए आज के युवा मंत्री बनने और लाभदायक ओहदा लेने के चक्कर में रहते हैं. ऐसी सोच से देश और समाज को नहीं बदला जा सकता. दिशाहीन युवा हैं बड़ी परेशानी 1920 में युवाओं ने आजाद भारत की कल्पना को ले कर आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया था. 1960 में तकनीक से चांदसितारों तक पहुंचने की तमन्ना थी. आज के युवा दिशाहीन होने के कारण मोबाइल गेम्स, ड्रग्स और बिना मेहनत के सबकुछ पा लेने की दौड़ का हिस्सा बन रहे हैं. आज के दौर में देश को ऐसे युवा नेताओं की जरूरत है जो देश और समाज के लिए भविष्य की सोच रखते हों. समस्या यह है कि आज के युवा नेताओं में यह सोच कम ही दिखाई दे रही है. युवा नेताओं को चाहिए कि वे रामायणमहाभारत की हजारों साल पुरानी कहानियों से बाहर आएं और आने वाले सालों के बारे में सोचें. युवा देश की राजनीति में बेहद जरूरी हैं क्योंकि देश और समाज का भला वे ही कर सकते हैं. युवाओं की सोच भविष्य को ले कर होती है. 60-70 के दशक में नेताओं की सोच केवल अपनी ख्याति या संपत्ति बचाने की चिंता होती थी. जबकि युवा नेता 10-20 साल ही नहीं, 50 साल आगे की सोच कर राजनीति करते हैं.

राजीव गांधी देश के सब से युवा प्रधानमंत्री थे. उन की सोच भविष्य की थी. 21वीं सदी का भारत का नारा दे कर देश में कंप्यूटर क्रांति शुरू की थी. उस समय उन को नासम?ा बता कर कंप्यूटर सिस्टम का मखौल उड़ाया गया था. आज उसी कंप्यूटर के बल पर देश तरक्की कर रहा है. आज जिस डिजिटल क्रांति की बात हो रही है उस की नींव 36 वर्षों पहले राजीव गांधी ने रखी थी. अगर वे भी केवल एकदो चुनाव जीतने की सोच रख कर काम करते तो देश में आज भी कंप्यूटर न आया होता. इंदिरा गांधी को जब कांग्रेस के लोगों ने प्रधानमंत्री बनाया तो उन को ‘गूंगी गुडि़या’ सम?ा था. इंदिरा गांधी ने अपनी सोच से देश को आधुनिक तरक्की की राह दिखाई. ‘श्वेत क्रांति’ और ‘हरित क्रांति’ की मुहिम चला कर देश को दूध और अनाज के मामले में आत्मनिर्भर बनाया. आज देश अनाज और दूध को ले कर आत्मनिर्भर बना है, उस की नींव 50 वर्षों पहले इंदिरा गांधी ने रखी थी. बैंकों को ले कर जो फैसला किया वह आर्थिक मजबूती का आधार बना. चाहे बाद में नौकरशाही के कारण वह करप्ट हो गया. 1966 से उस ने अकेले सत्ता के लिए संघर्ष किया और कांग्रेस ओल्ड व बूढ़े नेताओं को ध्वस्त किया.

विदेश मामलों में पाकिस्तान से अलग कर 1971 भारतपाक युद्ध में बंगलादेश अलग कराया. तब ‘गूंगी गुडि़या’ को ‘आयरन लेडी’ कहा जाने लगा. अधिकार नहीं, भीख मांग रहे युवा आजादी के बाद से 1990 तक के राजनीतिक दौर में अधिकतर नेताओं ने चुनाव लड़ने के पहले ही अपनी जमीन मजबूत कर ली थी. उस दौर में युवाओं ने अधिकारपूर्वक राजनीति में अपनी जगह ली. आज के युवा नेताओं की तरह भीख की तरह पद लेने के लिए जुगाड़ नहीं लगाया. इन में जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल, मोहम्मद अली जिन्ना, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, चंद्रशेखर, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान, शरद यादव, नीतीश कुमार और एम करुणानिधि जैसे तमाम नेताओं की एक लंबी लिस्ट है. 1990 के बाद की राजनीति को देखें तो युवा नेताओं की संख्या बेहद कम हो जाती है जो अपने संघर्ष के बल पर जनाधार तैयार करने के बाद राजनीति में आए. कुछ नाम जो सामने आते हैं उन में प्रफुल्ल कुमार महंत, मायावती, ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, कन्हैया कुमार, हार्दिक पटेल और जिग्नेश मेवाणी जैसे नेता ही दिखते हैं. चुनाव सुधार के लिए आंदोलन करने वाले राष्ट्रीय राष्ट्रवादी पार्टी के अध्यक्ष प्रताप चंद्रा कहते हैं,

‘‘जब देश आजाद हुआ तो देश का एक संविधान बना, जिस के तहत देश को चलना था. जो राजनीतिक दल चुनाव लड़ रहे थे उन का भी एक संविधान था, जिस के अनुसार उन को अपने दल को चलाना था. राजनीतिक दलों ने कुछ ही सालों में अपने संविधान को दरकिनार करना शुरू कर दिया. इस का प्रभाव यह पड़ा कि राजनीतिक दल में बने युवा प्रकोष्ठों पर उन का कब्जा होने लगा जो किसी नेता के कृपापात्र थे. कोई भी व्यक्ति नेता 2 तरह से बनता है या तो वह किसी आंदोलन से उभर कर आया हो या उसे किसी की सिफारिश या परिवारवाद का सहारा मिला हो.’’ ‘‘जो राजनीतिक दल अपने संविधान को नहीं मान रहे, उन से देश के संविधान को मानने की अपेक्षा रखना व्यर्थ है. गुजरात में भाजपा ने मुख्यमंत्री बदला तो वहां विधायकों से कोई राय नहीं ली गई. पार्टी संविधान कहता है, मुख्यमंत्री के नाम का चयन विधायक दल की बैठक में लिया जाएगा. ‘‘पंजाब में भी यही हुआ. पार्टी के अध्यक्ष का चुनाव संगठन के चुनाव से नहीं होता. ऐसे में देश में राजनीतिक दलों की जगह पार्टी हाईकमान का राज चलता है. आज भले ही युवा नेताओं की फौज मंचों पर दिखती हो पर ये युवा नेता केवल ‘गणेश परिक्रमा’ करने वाले दिखते हैं.

यही वजह है कि युवाओं के तमाम मुद्दे रोजगार, शिक्षा और अधिकार को ले कर संघर्ष कहीं नहीं दिख रहा. युवा बड़े नेताओं के सामने भीख की तरह पद मांगने में लगे रहते हैं. अधिकार मांगने की ताकत और हिम्मत उन में नहीं दिखती है.’’ पार्टी संगठन में हों चुनाव अगर राजनीतिक दलों में संगठन के चुनाव होने लगें, मनोनीत हो कर नेता बनना बंद हो जाएं तो जमीन से जुड़े नेताओं को मौका मिल सकेगा. जिस दौर में राजनीतिक दलों में संगठन के चुनाव होने बंद हो गए उसी दौर में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अपनी पार्टी और उस के संगठनों में चुनावी प्रक्रिया शुरू कराई. यह डूब चुकी राजनीतिक विचाराधारा के खिलाफ एक बड़ी लड़ाई थी. राहुल गांधी के दबाव में कांग्रेस में इस की शुरुआत तो हुई लेकिन यह लड़ाई अंजाम तक नहीं पहुंच पाई. इस की वजह यह थी कि कांग्रेस में लोग बड़े नेताओं के सहारे नेता बनते थे. उन को दिक्कत होने लगी. जिस समय कांग्रेस की अगुआई वाली डाक्टर मनमोहन सिंह सरकार केंद्र में थी, राहुल गांधी ने युवा नेताओं को आगे बढ़ाने का काम किया है.

राहुल गांधी के साथ ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट, जितिन प्रसाद, मिलिंद देवड़ा, आरपीएन सिंह जैसे नेताओं को उन की यूथ ब्रिगेड कहा जाता था. इन का अलग महत्त्व दिया जाना पुराने कांग्रेसियों को रास नहीं आ रहा था. 2014 में जैसे ही कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई, पुराने नेताओं को मौका मिल गया और वे राहुल गांधी को ले कर आलोचना करने लगे. कांग्रेस में युवा और पुराने नेताओं के बीच संघर्ष चलने लगा. 2018 में कांग्रेस ने मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनाव जीत लिए. राहुल गांधी के लिए यह बड़ी सफलता थी. यह सफलता पुराने कांग्रेसियों को रास न आई. इन प्रदेशों में मुख्यमंत्री बनाने में राहुल की राय नहीं चली. फलस्वरूप कमलनाथ, अशोक गहलोत और भूपेश बघेल को मुख्यमंत्री बनाना पड़ा. यहां पर युवा नेताओं की उपेक्षा की गई. प्रताप चंद्रा बताते हैं, ‘‘इंदिरा गांधी के दौर से कांग्रेस में हाईकमान की परंपरा चल निकली थी. राहुल गांधी उस के विपरीत संगठन की राय के हिसाब से चलने वाले नेता हैं. संगठन में पुराने नेताओं का कब्जा था. वे नहीं चाहते थे कि राहुल गांधी सफल हों. ऐसे में उन लोगों ने ऐसे लोगों को मुख्यमंत्री बनवा दिया ताकि जिन के कारण वहां असंतोष बना रहे.

इस असंतोष में मध्य प्रदेश कांग्रेस के हाथ से निकल गया और राजस्थान, छत्तीसगढ़ में असंतोष बना हुआ है. कांग्रेस के पुराने नेता राहुल गांधी को सफल नहीं होने देना चाहते.’’ 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की हार की जिम्मेदारी लेते कांग्रेस के अध्यक्ष पद से राहुल गांधी ने इस्तीफा दे दिया. वे हारने वाले नेताओं में ऐसा काम करने वाले पहले नेता थे. राहुल गांधी ने साफ कह दिया कि कांग्रेस का अध्यक्ष गांधी परिवार से अलग भी किसी को पार्टी चुन सकती है. कांग्रेस वर्किंग कमेटी में काबिज पुराने नेताओं ने यह काम भी नहीं किया. कांग्रेस अध्यक्ष की कुरसी खाली चल रही है. कार्यवाहक के रूप में सोनिया गांधी अध्यक्ष हैं. राहुल गांधी के खिलाफ ‘जी-23’ का ग्रुप कांग्रेस में बन गया. राहुल गांधी ने इस बात को सम?ाते हुए भी संघर्ष जारी रखा. युवाओं को आगे बढ़ाने की अपनी सोच को विस्तार देते उन्होंने कन्हैया कुमार, जिग्नेश मेवाणी और हार्दिक पटेल जैसे गैरकांग्रेसी युवाओं को पार्टी में शामिल करने का फैसला लिया. राहुल गांधी कांग्रेस की राजनीति को वापस पटरी पर लाना चाहते हैं.

कांग्रेस की विचारधारा सांप्रदायिकता के खिलाफ थी. इस कारण ही कांग्रेस आरएसएस और उस की विचारधारा का विरोध करती थी. धीरेधीरे यह विरोध खत्म हो गया था. कांग्रेस केवल सत्ता की पार्टी बन कर रह गई थी. राहुल गांधी ने खुलेआम कहा, ‘‘जो लोग आएसएस से डरते हैं, वे हमारे साथ न आएं. जो आरएसएस की नीतियों का विरोध करते हैं, उन का स्वागत है. भले ही वे किसी भी दल के नेता हों.’’ इस अपील के बाद कन्हैया कुमार और जिग्नेश मेवाणी का कांग्रेस में आना बताता है कि राहुल गांधी आरएसएस के खिलाफ एक राजनीतिक लड़ाई शुरू कर रहे हैं. इस आंदोलन से युवा नेता बाहर निकलेंगे. युवाओं ने लड़ी सामाजिक न्याय की लड़ाई जिस तरह की वैचारिक लड़ाई आज राहुल गांधी आरएसएस के खिलाफ लड़ रहे हैं, सामाजिक न्याय के लिए 70 के दशक में जयप्रकाश नारायण ने भी ऐसा ही आंदोलन खड़ा किया था. उस समय उन की सब से बड़ी ताकत युवा थे.

युवा ऐसे थे जो हिंदी स्कूलों में पढ़ कर कालेज और विश्वविद्यालय तक पहुंचे थे. जमीन से जुड़े युवा समाज के ढांचे को पूरी तरह सम?ाते थे. जयप्रकाश नारायण के आंदोलन को ‘जेपी आंदोलन’ कहा जाता है. जिस के बाद सामाजिक न्याय की लड़ाई ने जोर पकड़ा और 1990 में मंडल कमीशन लागू करना पड़ा. नतीजतन, पिछड़ी जातियों को सामाजिक न्याय मिल सका. जेपी आंदोलन से निकले कई नेताओं ने देश और प्रदेश के स्तर पर राजनीति में अपनी पहचान बनाई. केंद्र सरकार में मंत्री और प्रदेशों में मुख्यमंत्री बने. 2021 में ऐसे युवा नेताओं का पूरी तरह से अभाव दिखाई पड़ रहा है. आज के इंग्लिश माध्यम स्कूलों में पढ़े नेताओं का देश की तरक्की में योगदान केवल सैंसेक्स के उतारचढ़ाव से ही सम?ा आता है. इन को अनाज की मिलने वाली कीमत एमएसपी यानी मिनिमम सपोर्ट प्राइस का पता ही नहीं होता है. यही वजह है कि आज के नेताओं को अफसर और सलाहकार जो भी सम?ा देते हैं, वे वह ही सही मान लेते हैं. केंद्र सरकार द्वारा जो कृषि कानून बनाए गए वे अगर किसी जमीन और खेती से जुड़े नेता या मंत्री की सलाह से बनते तो वे किसानहित में होते.

कृषि कानून उद्योगपतियों की सलाह पर उन के हित में बने, इस कारण इन का किसान विरोध कर रहे हैं. यही हालत नोटबंदी, जीएसटी और तालाबंदी को ले कर लिए गए सरकारी फैसलों के साथ हुई. ये भी जनता के हित में नहीं हैं. किसान आंदोलन के 10 माह होने के बाद भी ‘मोदी सरकार’ उन से बात करने को तैयार नहीं है. उत्तर प्रदेश के लखीमपुर जिले में केंद्रीय राज्यमंत्री अजय मिश्रा के पुत्र सहित और लोगों ने किसानों को कार से कुचलने का काम किया. अगर ऐसे नेता जाति की जगह पर योग्यता के बल पर मंत्री बने होते तो किसानों को धमकाने का काम न करते और यह घटना न घटती. जनाधार वाले युवाओं का अभाव देश की आजादी की लड़ाई के समय के नेताओं को देखें तो सभी ऐसे नेता थे जिन्होंने 40 साल की उम्र में आतेआते अपनी जड़ें जमा ली थीं. आजादी के बाद से 1990 तक ऐसे नेताओं ने राजनीति में बदलाव भी किया. जो युवा थे.

बड़ी संख्या ऐसे नेताओं की थी जिन के परिवार के लोग राजनीति में नहीं थे. जिन युवाओं ने बिना किसी परिवार के सहयोग के राजनीति शुरू की और अपनी पहचान बनाई उन में बड़ी संख्या ऐसे युवा नेताओं की रही जिन्होंने सामाजिक न्याय की लड़ाई के आंदोलन में अपना योगदान दिया था. उन में जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल, मुहम्मद अली जिन्ना, इंदिरा गांधी, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान, शरद यादव, नीतीश कुमार, प्रफुल्ल कुमार महंत, नवीन पटनायक, के चंद्रशेखर राव और एम करुणानिधि जैसे तमाम नाम सामने आ जाते हैं. 1990 के बाद ऐसे नेताओं में ममता बनर्जी, मायावती और अरविंद केजरीवाल जैसे नेता आए जिन्होंने अपनी राजनीतिक पहचान बना ली थी. ये सभी नेता आंदोलनकारी होने के नाते अपनी जगह बना पाए.

मायावती ने दलित राजनीति शुरू की. दलितों में राजनीतिक चेतना जगाने का काम किया. ममता बनर्जी कांग्रेस की नेता थीं. भाजपा की सहयोगी भी रहीं. उन की असल पहचान पश्चिम बंगाल में तब बनी जब उन्होंने वामपंथी सरकार द्वारा सिंगूर में किसानों की जमीन पर नैनो कार बनाने के प्रस्तावित प्लांट का विरोध किया था. उस के बाद वहां वे लगातार 3 बार मुख्यमंत्री बन सकीं. भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना आंदोलन में हिस्सेदारी करने के बाद अरविंद केजरीवाल ने खुद की पहचान बनाई. दिल्ली विधानसभा चुनाव 2 बार जीत कर मुख्यमंत्री बने. कन्हैया कुमार जैसे नेता मोदी की नीतियों का खुल कर विरोध करने के बाद ही अपनी पहचान बना पाए. ऐसे ही नेताओं में हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी, चंद्रशेखर रावण और तृणमूल कांग्रेस की नेता महुआ मोइत्रा जैसे नाम भी शामिल हैं.

ये आंदोलन से पैदा हुए नेता हैं जिन्होंने अपने बल पर अपनी पहचान बनाई है. 2000 के बाद दलों और सरकार में दिखाई दे रहे ज्यादातर युवा नेता अपनी जमीन बना कर नहीं आए हैं. वे किसी न किसी सहारे से ही राजनीति में आए हैं. इन में उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव, बिहार के राजद नेता तेजस्वी यादव और लोक जनशक्ति पार्टी के नेता चिराग पासवान जैसे युवा शामिल हैं. ये अपनी विरासत के कारण राजनीति में आए. जनाधार वाले युवा राजनीति में कम दिख रहे हैं. इस की वजह बताते हुए राजनीतिक चिंतक और समाचारपत्रों में कौलम लेखक अरविंद जयतिलक कहते हैं, ‘‘इस की 2 प्रमुख वजहें हैं. नेता हमेशा आंदोलन से बनते हैं. आजादी की लड़ाई में जिन युवाओं ने हिस्सा लिया, आगे चल कर वे देश के बड़े नेता बने. इस के बाद सामाजिक न्याय के लिए जेपी आंदोलन शुरू हुआ. वहां से निकल कर नेता आगे बड़े पदों पर गए. ‘‘भाजपा में जो नेता सामने दिखते हैं, वे मंदिर आंदोलन से ही निकले. दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल भ्रष्टाचार के खिलाफ ‘अन्ना आंदोलन’ की देन हैं. अभी किसान आंदोलन चल रहे हैं. इस की कमान संभाल कर आगे चल रहे चौधरी राकेश टिकैत किसान नेता बन चुके हैं.

युवाओं के राजनीति में जाने के 2 ही रास्ते हैं. उन में पहला आंदोलन की राह है. ‘‘दूसरी राह यह है कि राजनीति में उन का कोई घरपरिवार का हो, जो उन की मदद करे. ऐेसे युवाओं की संख्या अधिक है. आंदोलन से नेता बनने वालों की संख्या कम है. इस कारण ही युवाओं की तादाद कम दिख रही है. राजनीति में एक बड़ा बदलाव हुआ है जिस के तहत चुनाव लड़ने में बड़ी पूंजी लगने लगी है. युवाओं को पार्टियां आसानी से टिकट नहीं देती हैं. उन युवाओं को टिकट मिलता है जिन के परिवार के लोग पार्टी में सक्षम हालत में होते हैं. टिकटों के बिकने और चुनाव के महंगे होने से युवा पूंजी के अभाव में चुनाव नहीं लड़ पाते. जो लड़ते भी हैं वे हार जाते हैं क्योंकि उन के पास चुनाव प्रबंध के लायक पूंजी का अभाव होता है.’’ भाजपा में परिवार के युवा नेता भारतीय जनता पार्टी की सब से बड़ी दिक्कत यही है कि वहां जमीन से जुड़े युवा राजनीति करने नहीं आ रहे हैं. ऐसे में भाजपा को दूसरे दलों के नेताओं को तोड़ना पड़ रहा है.

कांग्रेस से भाजपा में गए ज्योतिरादित्य सिंधिया और जितिन प्रसाद इस के उदाहरण हैं. कन्हैया कुमार, हार्दिक पटेल और जिग्नेश मेवाणी जैसे चर्चित युवा भाजपा की अपेक्षा कांग्रेस को बेहतर मानते हैं. वे राजनीति करने के लिए कांग्रेस को चुनते हैं. भाजपा में युवा नेताओं को देखें तो केवल वही नेता दिखते हैं जिन के घरपरिवार के लोग भाजपा में हैं. भारतीय जनता पार्टी में भाजपा युवा मोरचा नाम का एक संगठन है. इस का काम यह है कि युवाओं को पार्टी से जोड़ना. छात्र संगठन के रूप में इस की मदद अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद करता है. अब इन संगठनों के प्रमुख पद पर सामान्य नेताओं को जगह नहीं दी जाती है. भाजपा युवा मोरचा के अध्यक्ष हैं तेजस्वी सूर्या. सूर्या पेशे से वकील हैं. वे बेंगलुरु के रहने वाले हैं. तेजस्वी सूर्या को लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए टिकट दिया गया.

इस के बाद उन को युवा मोरचा का अध्यक्ष भी बना दिया गया. इस की वजह यह थी कि वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) में रहे हैं. सूर्या के चाचा रवि सुब्रमान्या बासावानागुड़ी सीट से विधायक हैं. सूर्या को दूसरे नेताओं से अधिक महत्त्व दिया गया. भाजपा में ऐसे युवा नेताओं को टिकट दिया गया जिन के परिवार के लोग भाजपा में बड़े पदों पर रहे हैं. भाजपा नेता राजनाथ सिंह के दोनों बेटे पंकज सिंह और नीरज सिंह राजनीति में सक्रिय हैं. पंकज सिंह विधायक हैं. वे नोएडा से विधायक हैं. नीरज सिंह लखनऊ में अपनी राजनीति शुरू करने की कोशिश में हैं. पूनम महाजन, अनुराग ठाकुर जैसे अनेक नाम हैं. जय शाह को क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड का सचिव इस कारण बनाया गया क्योंकि उन के पिता अमित शाह केंद्र सरकार में मंत्री हैं.

भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री और राज्यपाल रहे कल्याण सिंह के नाती संदीप सिंह भी राजनीति में हैं. वे 2017 के विधानसभा चुनाव में विधायक बने और उसी साल वे उत्तर प्रदेश सरकार में राज्यमंत्री भी बन गए. युवाओं को परिवार के नाम पर मौके दिए जा रहे हैं, जिस से प्रतिभावान युवा आगे नहीं आ पा रहे हैं. जनाधार वाले नेताओं को मिले मौके राजनीतिक लेखक और पत्रकार विमल पाठक कहते हैं, ‘‘बड़े नेताओं के बेटेबेटियों को यह मालूम होता है कि वे अपने मातापिता के जोरदबाव से टिकट पा ही जाएंगे. ऐसे में वे पहले अपना बिजनैस करते हैं. फिर पार्टी में पद और चुनाव लड़ने के लिए टिकट भी पा जाते हैं. आम कार्यकर्ता इन नेता के बच्चों के लिए कुरसी, फूल और माइक का प्रबंध ही करता रह जाता है. ‘‘2000 के पहले राजनीति में ऐसे लोग आते थे जो इंग्लिश स्कूलों में पढ़ कर नहीं आते थे. वे हिंदी स्कूलों में पढ़ कर आते थे और समाज की दिक्कतों को सम?ाते थे.

इंग्लिश वाले स्कूलों से पढ़ कर आने वाले बच्चों को इस की जानकारी नहीं होती. इसी कारण से इन के सारे फैसले आर्थिक हालत को देख कर लिए जा रहे हैं. आज के दौर के नेताओं को सामाजिक बराबरी का कुछ पता नहीं है.’’ वरिष्ठ पत्रकार योगेश श्रीवास्तव कहते हैं, ‘‘राजनीति में जिन युवा नेताओं की बात होती है उन में से ज्यादातर देश और समाज को ले कर कोई बड़ी और दूरगामी सोच नहीं रखते हैं. ये नेता केवल चुनाव जीतने, मंत्री बनने और भौकाल बनाने की सोच कर चलते हैं. कमोबेश ये नेता 40 से 45 साल उम्र के हैं. इन में अब भी वह सोच नहीं बन पाई है जो आजादी की लड़ाई लड़ने वाले 20 से 25 साल के युवाओं की बन गई थी. ‘‘40 से 45 साल की उम्र वाले ये नेता अभी अपने ही वजूद की लड़ाई लड़ रहे हैं. यह सच है कि इन को आजादी की लड़ाई नहीं लड़नी जहां जान जाने का खतरा हो पर इन को देश और समाज को बदलना है जिस से देश दुनिया के दूसरे देशों के बराबर कंधे से कंधा मिला कर चल सके. युवा हमारे देश की ताकत हैं, इन का सही उपयोग करना इन युवा नेताओं के ही भरोसे है. सवाल यह है कि इन युवा नेताओं की अपनी खुद की सम?ा कितनी है? आज वे देश को नहीं, केवल अपना ही भविष्य देख रहे हैं. ऐसे नेताओं से बदलाव की उम्मीद करना बेमानी है.

कैसे हैं युवा नेता देश में बूढ़़े नेताओं के मुकाबले युवा नेताओं की संख्या तो काफी ज्यादा है लेकिन वे मैदान में नहीं, बल्कि स्टेडियम में बैठे हैं. इनेगिने युवा ही हैं जो राजनीति की पिच पर जमे हैं. इन्हीं चुनिंदा नेताओं में से किसी को देश की बागडोर संभालनी है. द्य राहुल गांधी, जन्म 19 जून, 1970 : शुरुआती शिक्षा दिल्ली के सैंट कोलंबस स्कूल और बाद में उत्तराखंड के दून विद्यालय में. 1981-83 तक सुरक्षा कारणों के कारण राहुल गांधी को अपनी पढ़ाई घर से ही करनी पड़ी. राहुल ने हार्वर्ड विश्वविद्यालय के रोलिंस कालेज, फ्लोरिडा से 1994 में कला स्नातक की उपाधि, 1995 में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के ट्रिनिटी कालेज से एमफिल की उपाधि हासिल की. राहुल गांधी ने मैनेजमैंट गुरु माइकल पोर्टर की कंपनी मौनिटर ग्रुप के साथ 3 साल तक काम किया. 2002 के अंत में वे मुंबई स्थित इनफौर्मेशन और टैक्नोलौजी से संबंधित कंपनी- आउटसोर्सिंग कंपनी बैकअप्स सर्विसेस प्राइवेट लिमिटेड के निदेशक मंडल के सदस्य बने. राहुल गांधी का राजनीतिक कैरियर 2003 में शुरू हुआ.

मई 2004 में राहुल गांधी ने चुनाव लड़ने की घोषणा की. उत्तर प्रदेश की अमेठी लोकसभा सीट से चुनाव मैदान में उतरे और जीते. 24 सितंबर, 2007 को राहुल गांधी को कांग्रेस में महासचिव नियुक्त किया गया. 2009 के लोकसभा चुनावों में राहुल गांधी ने अमेठी से फिर चुनाव जीता. कांग्रेस को इन चुनावों में उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से 21 मिलीं. इस का श्रेय भी राहुल गांधी को ही दिया गया. 2017 में राहुल गांधी कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने. उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव के साथ चुनावी तालमेल किया. 2019 के लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी को अमेठी संसदीय सीट पर हार का सामना करना पड़ा. जिस को राहुल गांधी की सब से बड़ी हार मानी गई पर राहुल गांधी केरल के वाडनाड से भी लड़े और वे इस सीट से सांसद हैं. राहुल गांधी में भविष्य की योजना बना कर राजनीति करने की क्षमता है. राहुल गांधी को भाजपा सब से बड़ा दुश्मन मानती है. भाजपा की ट्रौल आर्मी के टारगेट पर वे ही हर समय रहते हैं. द्य अखिलेश यादव, जन्म 1 जुलाई, 1973 : अखिलेश समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव की पहली पत्नी मालती देवी के बेटे हैं. उन की शादी डिंपल यादव के साथ 24 नवंबर, 1999 को हुई, वे 3 बच्चों के पिता हैं. अखिलेश ने राजस्थान मिलिट्री स्कूल, धौलपुर से शिक्षा प्राप्त की. इस के बाद मैसूर के एस जे कालेज औफ इंजीनियरिंग से स्नातक की डिग्री ली और सिडनी विश्वविद्यालय से पर्यावरण इंजीनियरिंग में पोस्टग्रेजुएट किया.

अखिलेश मई 2009 के लोकसभा उपचुनाव में फिरोजाबाद सीट से जीत कर सांसद बने. 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती की पार्टी को हरा कर अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के सब से युवा मुख्यमंत्री बने. अखिलेश यादव को कम उम्र में ही राजनीति की पूरी सम?ा हासिल हो गई पर 2017 का विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव में अखिलेश यादव अपनी पार्टी को जिता नहीं पाए. अखिलेश की हार में समाजवादी पार्टी के विभाजन का बड़ा हाथ है. द्य तेजस्वी यादव, जन्म 8 नवंबर, 1989 : तेजस्वी बिहार की राघोपुर विधानसभा से विधायक और बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष हैं. तेजस्वी यादव राष्ट्रीय जनता दल के सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव एवं राबड़ी देवी के पुत्र हैं. राजनेता के साथ ही साथ वे क्रिकेटर भी हैं. दिल्ली डेयरडेविल्स के लिए तेजस्वी यादव ने आईपीएल मैच भी खेला है.

नीतीश कुमार की अगुआई वाले महागठबंधन सरकार में तेजस्वी कुछ समय बिहार के डिप्टी सीएम भी रहे हैं. 2020 के विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल को तेजस्वी ने अपनी रणनीति से मुख्य मुकाबले में खड़ा कर दिया. भाजपा और नीतीश की मिलीजुली ताकत का मुकाबला तेजस्वी यादव ने किया. तेजस्वी यादव बिहार के उन युवा नेताओं में हैं जिन के पास बिहार की जनता के लिए एक सोच है. 2020 के विधानसभा चुनावों में रोजगार को मुद्दा बना कर उन्होंने बड़ा चुनावी माहौल तैयार किया, जिस की वजह से उन की पार्टी बिहार में सब से बड़ी पार्टी के रूप में उभर कर सामने आई पर बहुमत नहीं पा पाई. द्य चंद्रशेखर रावण, जन्म 3 दिसंबर, 1986 : भीम आर्मी के अध्यक्ष चंद्रशेखर उर्फ रावण ने दलित राजनीति में अपना प्रभाव स्थापित कर लिया है. साल 2017 में उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार के दौर में सहारनपुर के शब्बीरपुर गांव में दलितों और सवर्णों के बीच हिंसा के दौरान ‘भीम आर्मी’ नाम का संगठन उभर कर सामने आया.

भीम आर्मी दलित युवाओं का एक पसंदीदा संगठन बन गया है. बड़ी संख्या में लोग इस से जुड़े हुए हैं. इस संगठन में दलित युवकों के साथसाथ पंजाब और हरियाणा के सिख युवा भी जुड़े हैं. लंबे समय तक एक न एक बहाने से इन्हें जेल में रखा गया है. उत्तर प्रदेश के 2022 में होने वाले विधानसभा चुनावों में चंद्रशेखर रावण की भूमिका खास होने वाली है. द्य चिराग पासवान, जन्म 31 अक्तूबर, 1982 : चिराग पासवान लोजपा प्रमुख रामविलास पासवान के पुत्र हैं. ये रामविलास की पहली पत्नी राजकुमारी देवी के पुत्र हैं. वे लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष हैं हालांकि पार्टी में विघटन हो चुका है. लोजपा 2 धड़ों में बंट चुकी है. चिराग पासवान अपने पिता की विरासत को संभाल नहीं पाए हैं. रामविलास पासवान ने बहुत ही विपरीत हालात में राजनीति शुरू की थी. पिता की सोच के विपरीत चिराग पासवान को पहले राजनीति में कोई रुचि न थी. वे अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद फिल्मों में अपना कैरियर बनाने की सोच रहे थे.

चिराग ने कई फिल्में की थीं. बाद में पिता के कहने पर वे राजनीति में आए और जमुई से सांसद बन गए थे. बिहार चुनाव के दौरान वे खुद को प्रधानमंत्री मोदी का हनुमान कहते थे. चिराग बिहार की चुनावी राजनीति को सम?ाने में असफल रहे, जिस के कारण विधानसभा चुनाव में उन की हार हुईर् और बाद में उन की पार्टी का विभाजन भी हो गया. द्य जयंत चौधरी, जन्म 27 दिसंबर, 1978 : जयंत के पिता चौधरी अजित सिंह राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष हैं. पिता की चाहत के कारण ही जयंत राजनीति में आए. जयंत चौधरी उत्तर प्रदेश के मथुरा लोकसभा क्षेत्र से सांसद रहे हैं. उन के दादा चौधरी चरण सिंह देश के बड़े किसान नेता और प्रधानमंत्री भी रहे हैं. जयंत चौधरी ने लंदन स्कूल औफ इकोनौमिक्स से पढ़ाई की. युवा नेताओं में जयंत को सब से सम?ादार और सुल?ा हुआ माना जाता है. मथुरा से लोकसभा चुनाव हारने के बाद भी वे सक्रिय रहते हैं. किसान आंदोलन में वे किसानों के साथ हैं.

समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव के साथ उन के अच्छे रिश्ते हैं. इस के अलावा कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के साथ भी उन के बेहतर संबंध है. जयंत चौधरी की राजनीति किसान और पश्चिम उत्तर प्रदेश को केंद्र में रख कर होती है. उन को उत्तर प्रदेश के भविष्य के रूप में देखा जाता है. द्य पुष्कर धामी, जन्म 16 सितंबर, 1975 : उत्तराखंड के 11वें मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी हैं. 45 साल के धामी का नाम चर्चा में तब आया जब उत्तराखंड में होने वाले फेरबदल में उन को मुख्यमंत्री बनाया गया. पुष्कर सिंह धामी का जन्म कनालीछीना जिला पिथौरागढ़ में हुआ था. उन के पिता शेर सिंह धामी पूर्व सैनिक हैं. पुष्कर सिंह धामी की शिक्षा लखनऊ में हुई. पुष्कर बचपन से ही आरएसएस की शाखा में जाने लगे थे. उत्तराखंड में जब नेता आपस में उठापटक कर रहे थे, तब भाजपा ने उन के नाम का चुनाव उत्तराखंड के मुख्यमंत्री के रूप में किया. द्य योगी आदित्यनाथ, जन्म 5 जून, 1972 : योगी आदित्यनाथ का नाम अजय सिंह बिष्ट है. उन का जन्म उत्तराखंड में हुआ. इस के बाद गोरखपुर के गोरखनाथ मंदिर के साथ उन का जुड़ाव हुआ. नाथ संप्रदाय की दीक्षा लेने के बाद उन का योगी आदित्यनाथ नाम पड़ा. 2017 में उन को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया. वे उत्तर प्रदेश के 21वें मुख्यमंत्री बने.

1998 से 2017 तक भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर गोरखपुर लोकसभा क्षेत्र से वे सांसद बनते रहे हैं. 26 साल की उम्र में वे 12वीं लोकसभा 1998-99 के सब से युवा सांसद थे. आदित्यनाथ फायर ब्रैंड हिंदूवादी नेता हैं. योगी पौड़ी गढ़वाल जिले की यमकेश्वर तहसील के पंचुर गांव के गढ़वाली परिवार में पैदा हुए थे. पिता आनंद सिंह बिष्ट फौरेस्ट रेंजर थे. योगी अपने मातापिता की 7 संतानों में बड़ी बहनों व एक बड़े भाई के बाद 5वें हैं. योगी ने टिहरी क्षेत्र के गजा के स्थानीय स्कूल में पढ़ाई शुरू की. ग्रेजुएशन की पढ़ाई के समय अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े. श्रीनगर के हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय से उन्होंने गणित में बीएससी की परीक्षा पास की. द्य ज्योतिरादित्य सिंधिया, जन्म 1 जनवरी, 1971 : ये डाक्टर मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल में वाणिज्य एवं उद्योग राज्यमंत्री रह चुके हैं. ज्योतिरादित्य सिंघिया मध्य प्रदेश की गुना लोकसभा संसदीय सीट से लोकसभा का चुनाव लड़ते हैं. कांग्रेस में रहते हुए उन की गिनती राहुल गांधी के खास लोगों में होती थी.

मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में सिंघिया ने काफी मेहनत की थी. इस के बाद जब कमलनाथ को मुख्यमंत्री बनाया गया तो उन का कांग्रेस से मोहभंग हुआ और वे भाजपा में चले गए. ज्योतिरादित्य सिंधिया मोदी सरकार में मंत्री हैं. सिंधिया के पिता ग्वालियर के पूर्व शासक माधवराव सिंधिया थे. उन की पढ़ाई कैंपियन स्कूल और दून स्कूल देहरादून में हुई. 1993 में उन्होंने हार्वर्ड कालेज से स्नातक, उदार कला कालेज से अर्थशास्त्र में बीए की डिग्री के साथ स्नातक किया. 2001 में उन्होंने स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में ग्रेजुएट स्कूल औफ बिजनैस से एमबीए पास किया. कांग्रेस से भाजपा में पहुंच कर उन को मंत्री पद भले ही मिल गया हो पर उन की साख पर सवाल उठ रहे हैं. द्य सचिन पायलट, जन्म 7 सितंबर, 1977 : ये राजस्थान सरकार में उपमुख्यमंत्री रहे हैं. डाक्टर मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल में संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री रहे हैं. राजस्थान के टोंक विधानसभा क्षेत्र से विधायक हैं. 2014 से 14 जुलाई, 2020 तक राजस्थान प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष भी रहे. सचिन पायलट की गिनती भी राहुल गांधी की युवा टीम में होती है. सचिन पायलट के पिता राजेश पायलट कांग्रेस में थे. सचिन की शिक्षा नई दिल्ली के एयरफोर्स बाल भारती स्कूल में हुई. स्नातक की डिग्री दिल्ली विश्वविद्यालय के सैंट स्टीफेंस कालेज से हासिल की. इस के बाद उन्होंने अमेरिका स्थित पेंसिलवानिया विश्वविद्यालय के व्हार्टन स्कूल से एमबीए की डिग्री भी हासिल की. नेता होने के साथसाथ उन को एक मोटिवेशनल स्पीकर भी माना जाता है. सचिन का विवाह सारा अब्दुल्लाह से 2004 में हुआ जो कश्मीरी नेता फारूक अब्दुल्ला की पुत्री हैं. द्य दुष्यंत चौटाला, जन्म 3 अप्रैल, 1988 : अजय चौटाला और नैना सिंह चौटाला के बड़े बेटे दुष्यंत चौटाला का जन्म हरियाणा के हिसार में हुआ था. पिता अजय चौटाला और दादा ओम प्रकाश चौटाला के जेल जाने के बाद अपने चाचा अभय चौटाला से सियासी लड़ाई का ही नतीजा थी उन की जननायक जनता पार्टी. हरियाणा का उपमुख्यमंत्री बनने से पहले दुष्यंत चोटाला भारत के सब से कम उम्र के सांसद भी बने थे. 26 साल की उम्र में हिसार लोकसभा सीट जीत कर उन्होंने साल 2014 में यह कारनामा किया था. 33 साल के दुष्यंत चौटाला भारत में युवा नेताओं की जमात में आगे खड़े दिखाईर् देते हैं. उन्हें हरियाणा की राजनीतिक सम?ा तो है ही, साथ ही वे इंगलिश और हिंदी भाषा पर भी अच्छी कमांड रखते हैं.

दीपेंद्र सिंह हुड्डा, जन्म 4 जनवरी, 1978 : सौम्य और शांत नेता दीपेंद्र सिंह हुड्डा ने सियासी पैतरेबाजी अपने पिता भूपेंद्र सिंह हुड्डा से सीखी है, जो मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं. दीपेंद्र सिंह हुड्डा लोकसभा चुनावों में 3 बार हरियाणा के रोहतक से सांसद चुने जा चुके हैं. दीपेंद्र सिंह हुड्डा ने रोहतक में एमडी यूनिवर्सिटी से तकनीकी में स्नातक डिग्री हासिल की है और स्नातकोत्तर की डिग्री अमेरिका से प्रबंधन क्षेत्र में हासिल की है. एक युवा नेता के रूप में दीपेंद्र सिंह हुड्डा ने अपनी राजनीति को चमकाने में बहुत ज्यादा मेहनत की है और हरियाणा की सभी बिरादरियों पर उन की अच्छी पकड़ है. द्य तेजस्वी सूर्या, जन्म 16 नवंबर, 1990 : तेजस्वी सूर्या भारतीय जनता पार्टी के तेजतर्रार और कट्टरवादी युवा नेता माने जाते हैं. वे वर्तमान में बेंगलुरु दक्षिण से सांसद हैं. वे राजनीति में बहुत सक्रिय रहते हैं और बढि़या वक्ता भी माने जाते हैं. तेजस्वी सूर्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में रहे हैं, इसलिए उन संस्थाओं का असर उन पर खूब दिखता है. 2018 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव मेंउन्होंने भाजपा का जम कर प्रचार किया था. ब्राह्मण परिवार से संबंधित तेजस्वी सूर्या भाजपा के ऐसे फायर ब्रैंड नेता माने जाते हैं जो भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के पक्षधर भी हैं. द्य नुसरत जहां, जन्म 8 जनवरी, 1990 : नुसरत जहां एक प्रमुख बंगाली अभिनेत्री हैं. उन के पिता शाहजहां और माता सुषमा खातून बंगाल से ताल्लुक रखते हैं. नुसरत ने अप्रैल 2019 में टीएमसी के प्रति अपनी निष्ठा दिखाते हुए सक्रिय राजनीति में कदम रखा. नुसरत जहां ने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के टिकट पर बशीरहाट लोकसभा चुनाव लड़ा और भारतीय जनता पार्टी के शायंतन बसु और कांग्रेस के काजी अब्दुल रहीम को बड़े अंतर से मात देते हुए करीब 3.5 लाख वोटों से जीत दर्ज की. नुसरत बंगाली फिल्म इंडस्ट्री में सब से खूबसूरत अभिनेत्रियों में से एक हैं.

नुसरत महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए काफी सक्रिय रहती हैं और ममता बनर्जी की खास करीबी मानी जाती हैं. द्य हार्दिक पटेल, जन्म 20 जुलाई, 1993 : हार्दिक पटेल ओबीसी दर्जे की मांग को ले कर किए जा रहे आरक्षण आंदोलन के युवा नेता हैं. हार्दिक ओबीसी दर्जे में पटेल समुदाय के लिए सरकारी नौकरी और शिक्षा में आरक्षण चाहते हैं. हार्दिक ने 2017 में कांग्रेस के अभियान के लिए काम किया, बाद में 2019 में उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता ले ली. हार्दिक पटेल ऐसे युवा चेहरा हैं जिन की राजनीति गुजरात की नई पीढ़ी में उम्मीद जगाती है द्य जिग्नेश मेवाणी, जन्म 11 दिसंबर, 1990 : दलित परिवार से होने के कारण मेवाणी को दलित अधिकारों का नेता माना जाता है. जिग्नेश मेवाणी 2009 में सुरेंद्रनगर में उस समय दलितों का चेहरा बने थे जब उन्होंने गुजरात की भाजपा सरकार पर भूमिहीन दलितों पर गुजरात कृषि भूमि सीलिंग अधिनियम के तहत भूमि आवंटित नहीं करने का आरोप लगाया था. जिग्नेश ने हाल ही में कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण की है. गुजरात में ऐसा कोई दलित नेता नहीं है जिस का राज्यव्यापी दलित वोटबैंक पर प्रभाव हो. जबकि मेवाणी गिर-सोमनाथ, सुरेंद्रनगर, मेहसाणा, बनासकांठा, पाटण, नवसारी और अन्य क्षेत्रों में दलितों के अधिकारों के लिए लड़ते रहे हैं. द्य गौतम गंभीर, जन्म 14 अक्तूबर, 1981 : गौतम गंभीर प्रख्यात भारतीय क्रिकेटर हैं. गंभीर ने 2018 में क्रिकेट से संन्यास ले लिया और 22 मार्च, 2019 को भाजपा में शामिल हो गए और दिल्ली की एक सीट से चुनाव जीत कर सांसद बने. गौतम गंभीर ने आप प्रत्याशी आतिशी मार्लेन के खिलाफ 6,95,109 मतों से चुनाव जीता था.

हालांकि वे आतिशी से ओपन डिबेट करने से मुकर गए थे. गौतम गंभीर को मार्च 2019 में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद द्वारा पद्मश्री अवार्ड से भी नवाजा जा चुका है. भाजपा में उन्हें युवा नेता के तौर पर जगह मिली है. द्य राघव चड्ढा, जन्म 11 नवंबर, 1988 : पेशे से चार्टर्ड अकाउंटैंट रह चुके आप नेता राघव चड्ढा युवा नेता के तौर पर एक नई उम्मीद की किरण बन कर उभरे हैं. ये आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं और पार्टी ने इन में काबिलीयत को देखते हुए उन्हें पंजाब इकाई का सह प्रभारी भी बना दिया है. वे दिल्ली जल बोर्ड के वाइस प्रैसिडैंट भी हैं. जहां बाकी राजनीतिक पार्टियों के ज्यादातर नेता भ्रष्टाचार, जाति आधारित राजनीति व हिंसा के साथ धर्म की चाशनी में डूब कर अपनी सियासी मिठाई पका रहे हैैं. गौरतलब है कि राघव चड्ढा लंदन स्कूल औफ इकोनौमिक्स से चार्टर्ड अकाउंटैंट की बड़ी और कमाऊ डिग्री ले चुके थे और लंदन में ही वैल्थ मैनेजमैंट कंपनी शुरू करना चाहते थे. द्य अनुराग ठाकुर, जन्म 24 अक्तूबर, 1974 : भारत सरकार में केंद्रीय मंत्री और युवा नेता अनुराग ठाकुर ने अपने काम से अपनी पहचान बनाई है. वे भारतीय जनता पार्टी से संबंध रखते हैं और कई बार अपनी राजनीतिक सू?ाबू?ा व कुशलता का परिचय दे चुके हैं. बीसीसीआई के अध्यक्ष अनुराग ठाकुर का जन्म 24 अक्तूबर, 1974 को हुआ था. हिमाचल प्रदेश के हमीरपुर में जन्मे अनुराग एक संपन्न परिवार से आते हैं.

अनुराग ठाकुर ने यहां से बीए की डिग्री हासिल की है. अनुराग ठाकुर के पिता का नाम प्रेम कुमार धूमल है. प्रेम कुमार हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री रह चुके हैं. वे भारत के ऐसे युवा नेता हैं जो राजनेता होने के साथसाथ बीसीसीआई प्रैसिडैंट और आर्मी औफिसर हैं. द्य प्रियंका गांधी, जन्म 12 जनवरी 1972 : प्रियंका गांधी वाड्रा एक युवा महिला नेता हैं. वे कांग्रेस की वर्तमान में उत्तर प्रदेश प्रभारी की जिम्मेदारी उठा रही हैं. गांधीनेहरू परिवार से ताल्लुक रखने वाली प्रियंका, इंदिरा गांधी की पोती और राजीव व सोनिया गांधी की दूसरी संतान हैं. प्रियंका की तुलना अकसर उन की दादी इंदिरा गांधी से होती रही है. प्रियंका के हेयरस्टाइल, कपड़ों के चयन और बात करने के सलीके में इंदिरा गांधी की छाप साफ नजर आती है. प्रियंका ने दिल्ली विश्वविद्यालय से मनोविज्ञान विषय में स्नातक किया हुआ है. उन्होंने अपनी मां और भाई के निर्वाचन क्षेत्रों- रायबरेली और अमेठी में नियमितरूप से दौरा किया और लोगों से सीधा संवाद स्थापित किया. वे हमेशा ही निर्वाचन क्षेत्रों में एक लोकप्रिय व्यक्तित्व बन कर उभरीं. लोग उन को एक नजर देखने के लिए पागल हो उठते हैं. अमेठी में प्रत्येक चुनाव के समय एक लोकप्रिय नारा रहा है, ‘अमेठी का डंका, बिटिया प्रियंका.’ दरअसल, लोग युवा प्रियंका में अपनी बेटी तलाशते हैं और यही इन के चुंबकीय व्यक्तित्व का राज है. प्रियंका 47 साल की उम्र में राजनीति में पूर्णरूप से सक्रिय हुई हैं.

2019 के लोकसभा चुनाव से पहले प्रियंका को कांग्रेस महासचिव नियुक्त किया गया और उन्हें पूर्वी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को जिताने की जिम्मेदारी दी गई. प्रियंका की खासीयत है कि वे लोगों से जल्दी जुड़ जाती हैं. रायबरेली में प्रियंका गांधी कभी भी अचानक ही बीच सड़क पर रुक कर किसी भी कार्यकर्ता को नाम से पुकार लेती हैं. लखीमपुर खीरी में योगी को घुटने में लाने वाली प्रियंका रहीं. द्य सुष्मिता देव, जन्म 25 सितंबर, 1972 : 42 वर्षीया सुष्मिता देव को राजनीति विरासत में मिली है. उन के दादा, पिता और मां भी सक्रिय राजनीति से जुड़े रहे थे. सिलचर नगरनिगम से राजनीति की शुरुआत करने वाली सुष्मिता पूर्वोत्तर की राजनीति में खासा दखल रखती हैं. सादा लेकिन आकर्षक दिखने वाली यह युवती जब कांग्रेस छोड़ कर टीएमसी में शामिल हुई थी तो हर कोई चौंका था कि उन्होंने अपनी खानदानी पार्टी कांग्रेस क्यों छोड़ी. बिलाशक वे भी दूसरे युवाओं जैसी महत्त्वाकांक्षी हैं लेकिन उन का यह बयान काफी अहम था कि अब पूर्वोत्तर में कांग्रेस भाजपा को नहीं पछाड़ सकती, यह काम केवल ममता बनर्जी ही कर सकती हैं. ममता बनर्जी ने भी उन्हें राज्यसभा भेज कर मैसेज दे दिया है कि अब टीएमसी बंगाल के बाहर भी भाजपा को चुनौती देगी और सुष्मिता देव इस के लिए एक आक्रामक और बेहतर चेहरा हैं. पेशे से वकील सुष्मिता के पास देशविदेश के शिक्षण संस्थानों से डिग्रियों की भरमार है.

वे ममता बनर्जी की ही तरह भाजपा की धर्मआधारित राजनीति की घोर विरोधी हैं और इसे देश के लिए नुकसानदेह मानती हैं. संभावनाओं से भरपूर सुष्मिता कांग्रेस से लोकसभा में रहते काफी मुखर रही थीं लेकिन शायद वहां उन्हें बहुत ज्यादा स्कोप नजर नहीं आ रहे थे. द्य अभिषेक बनर्जी, जन्म 7 नवंबर, 1987 : ममता बनर्जी का भतीजा होने की पहचान मात्र कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है, इस का एहसास 34 वर्षीय सांसद अभिषेक बनर्जी को है. लिहाजा, इन दिनों वे गोवा चुनाव के मद्देनजर कोलकाता से गोवा अपडाउन कर रहे हैं. भले ही अभी घोषिततौर पर वे ममता के राजनीतिक उत्तराधिकारी न हों लेकिन हर कोई जानता व सम?ाता है कि टीएमसी में अभिषेक की हैसियत नंबर 2 की है. पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में मोदीशाह की जोड़ी ने उन्हें ले कर ममता पर परिवारवाद की राजनीति करने को मुद्दा बनाने की कोशिश की थी लेकिन उन का यह दांव भी उलटा पड़ा था जब वहां की जनता ने यह जता दिया था कि वह अभिषेक को भी उतना ही चाहती है जितना कि ममता बनर्जी को. ममता बनर्जी के भाई अमित और भाभी लता बनर्जी के बेटे अभिषेक इन दिनों ईडी की पूछताछ का भी सामना कोयला तस्करी के एक मामले में कर रहे हैं. इस मामले में उन की पत्नी रुजीरा बनर्जी भी अदालत के चक्कर काट रही हैं. बचपन से ही बूआ की राजनीतिक शैली देख रहे अभिषेक पोस्टग्रेजुएट हैं और टीएमसी का लगभग सारा काम देखते हैं. भाजपा से तो उन्हें चिढ़ बूआ की तरह है ही लेकिन कांग्रेस के प्रति उन का सौफ्ट कौर्नर भविष्य के कई समीकरणों व अटकलों को जन्म देता है. एक सामाजिक कार्यकर्ता की भी पहचान रखने वाले और सांप्रदायिक सद्भाव की राजनीति करने वाले अभिषेक की नजरें दिल्ली पर भी हैं और वे आश्वस्त हैं कि 2024 के चुनावी नतीजों के बाद सभी गैरभाजपाई दल बूआ ममता के नाम पर एकजुट होंगे क्योंकि उन के पास कोई दूसरा सर्वसम्मत चेहरा नहीं होगा. द्य अपर्णा यादव, जन्म 1 जनवरी, 1990 : अपर्णा बिष्ट यादव की मुलायम सिंह यादव के बेटे प्रतीक यादव से शादी हुई. उन्होंने लखनऊ कैंट से 2017 विधानसभा चुनाव में चुनाव लड़ा. वे बी-अवेयर के नाम से एक संगठन चलाती हैं. वे विशेषरूप से महिलाओं के अधिकारों और सशक्तीकरण के प्रति काम कर रही हैं. अर्पणा ने मैनचेस्टर विश्वविद्यालय से मास्टर डिग्री ली थी. द्य जयवर्धन सिंह, जन्म 9 जुलाई, 1986 :

मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और दिग्गज कांग्रेसी दिग्विजय सिंह के 35 वर्षीय बेटे जयवर्धन सिंह के लिए उन के पिता कुछ भी करने को तैयार रहते हैं. जो चाहते यह हैं कि जल्द ही जयवर्धन मध्य प्रदेश की राजनीति में कांग्रेस का पर्याय बन जाएं, ठीक वैसे ही जैसे कभी वे खुद हुआ करते थे. कमलनाथ सरकार में 15 महीने मंत्री रह चुके इस शांत दिखने वाले युवा को मालूम है कि पिता के जरिए जितना मिल सकता था, मिल चुका है. अब आगे की लड़ाई उन्हें खुद लड़नी है. जयवर्धन की एक बड़ी कमजोरी यह है कि वे राजनीति में उतने सक्रिय नहीं रहते जितना कि उन जैसी राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले युवा को रहना चाहिए. इस की एक वजह यह भी है कि दिग्विजय सिंह जिंदगीभर गुटबाजी में उल?ो रहे और चापलूसों से घिरे रहे. द्य मिमी चक्रवर्ती, जन्म 11 फरवरी, 1989 : पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी में जन्म हुआ पर अपना बचपन उन्होंने अरुणाचल प्रदेश में तिरप जिले के शहर देवमाली में बिताया. मिमी ने अपनी पढ़ाई जलपाईगुड़ी से ही की थी और ग्रेजुएशन के लिए कोलकाता आ गईं. मिमी चक्रवर्ती ने अपने कैरियर की शुरुआत मौडलिंग से की थी, जिस के बाद उन्होंने अपने ऐक्ंिटग कैरियर की शुरुआत की. उन्होंने फेमिना मिस इंडिया में हिस्सा लिया था. उन्होंने ऐक्ंिटग की शुरुआत ‘चैंपियन’ नाम की बांगला फिल्म के साथ की. वे 24 बांगला फिल्मों और 5 टीवी सीरियल्स में काम कर चुकी हैं. मिमी चक्रवर्ती ने अपने पौलिटिकल कैरियर की शुरुआत साल 2019 में ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस के साथ जुड़ कर की. उन्होंने साल 2019 के 17वीं लोकसभा चुनावों में जादवपुर, पश्चिम बंगाल से तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा और भारी बहुमत से जीत हासिल की. द्य कन्हैया कुमार, जन्म 2 जनवरी, 1987 : बिहार के बेगूसराय जिले के बिहट गांव के कन्हैया कुमार ने इंटर की पढ़ाई बरौनी में आरकेसी हाईस्कूल में की. पटना कालेज से भूगोल से ग्रेजुएशन किया और नालंदा ओपन विश्वविद्यालय से समाजशास्त्र से पोस्टग्रेजुएशन कर आगे की पढ़ाई के लिए सीधे दिल्ली आ गए. 2011 में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में अफ्रीकन स्टडीज में रिसर्च के लिए पीएचडी में दाखिला लिया. कन्हैया की पौलिटिकल जर्नी स्कूल के दिनों से ही शुरू हो गई थी और स्कूल के दिनों के दौरान कन्हैया ने इप्टा (इंडियन पीपल्स थिएटर एसोसिएशन) द्वारा आयोजित कई नाटकों में भाग लिया जोकि एक वामपंथी सांस्कृतिक समूह है. पटना कालेज में वे एआईएसएफ छात्र संगठन में शामिल हो गए थे. लेकिन उन्हें असली ख्याति जेएनयू से मिली. सितंबर 2015 में कन्हैया एआईएसएफ का प्रतिनिधित्व करते हुए जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष बने. कन्हैया ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था, ‘‘पहली बार जिस ने मु?ो राजनीति में शामिल होने के लिए प्रेरित किया, वह थे भगत सिंह, फिर अंबेडकर, गांधी, कार्ल मार्क्स, बिरसा मुंडा और ज्योतिराव फुले. इन सभी के पदचिह्नों पर चलने की मु?ो प्रेरणा मिली.’’ दलित छात्र रोहित वेमुला की संस्थागत हत्या के बाद देशभर में छात्र आंदोलन होने लगे थे, जिस के विरोध को लीड करने में कन्हैया की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी. ‘

आजादी’ का नारा बच्चेबच्चे के मुंह पर रट गया था. उसी दौरान जेएनयू में एक प्रोग्राम के दौरान लगाए गए कथित नारों की वजह से सरकार द्वारा कन्हैया समेत कई अन्य छात्र नेताओं पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया गया. साल 2019 के आम चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर कन्हैया कुमार ने बेगूसराय से चुनाव लड़ा. पर हाल ही में कन्हैया ने कांग्रेस पार्टी जौइन की. द्य आदित्य ठाकरे, जन्म 13 जून, 1990 : साउथ मुंबई के वर्ली एरिया में एक खूबसूरत युवक को साल 2019 को अपनी पार्टी के लिए प्रचार करते देख बहुत अजीब लगा. मुंबई की सड़कों पर वे पसीना पोंछते हुए एक रैली के आगेआगे चल रहे थे. पूछने पर पता चला कि वे रश्मि और उद्धव ठाकरे के बेटे आदित्य ठाकरे हैं. पढ़ाई पूरी कर 30 वर्षीय आदित्य ठाकरे किसी भी अवसर पर अधिकतर अपने पिता मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के साथ दिखते हैं और राजनीति की बारीकियों को सीख रहे हैं. आदित्य वर्ष 2019 में वर्ली चुनाव क्षेत्र से जीते और टूरिज्म व पर्यावरण मंत्री बनाए गए. वे मुंबई को प्लास्टिकरहित बनाने की दिशा में लगातार काम कर रहे हैं. साथ ही, मुंबई के ट्रैफिक को बेहतर बनाने के लिए शुरू किए गए सारे प्रोजैक्ट जो कोविड-19 की वजह से रुके हुए थे, उन को पूरा करवाने में लगे हैं. द्य पूनम महाजन, जन्म 9 दिसंबर, 1980 : दिवंगत नेता प्रमोद महाजन और रेखा महाजन की 40 वर्षीया बेटी पूनम महाजन बहुत ही स्पष्टभाषी व निडर हैं. उन्होंने महिलाओं की समस्या को ले कर खूब बयान दिए हैं. पिता प्रमोद महाजन की मृत्यु के बाद वे भाजपा में शामिल हुईं और कुछ साल तक पार्टी संगठन में काम करने के बाद उन्होंने मुंबई नौर्थ सैंट्रल लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा और जीत हासिल की.

पूनम बहुत कम समय में सब की चहेती बनीं. उन्होंने ब्राइटन स्कूल औफ बिजनैस एंड मैनेजमैंट से बीटैक और टैक्सास, यूएस के एयर मिस्ट्रल फ्लाइंग स्कूल से पायलट का लाइसैंस हासिल किया है, जिस के लिए उन्हें 300 घंटे फ्लाइंग करनी पड़ी थी. द्य डा. प्रीतम गोपीनाथ मुंडे, जन्म 17 फरवरी, 1983 : महाराष्ट्र के बीड क्षेत्र की सांसद डा. प्रीतम मुंडे शिक्षित महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं. वे उच्चशिक्षित नेता और पेशे से डाक्टर हैं और राज्य में सब से अधिक वोटों से चुनाव जीतने का खिताब भी उन के पास है. गोपीनाथ मुंडे की अचानक सड़क हादसे में मृत्यु हो जाने के बाद प्रीतम राजनीति में आईं और उपचुनाव में जीत हासिल की. हालांकि गोपीनाथ मुंडे महाराष्ट्र के जननेता के रूप में प्रचलित थे, उन की साख महाराष्ट्र से ले कर दिल्ली तक थी, ऐसे में उन की जगह ले कर जीत हासिल करना प्रीतम मुंडे के लिए आसान न था. पिछले दिनों केंद्र में हुए मंत्रिमंडल के विस्तार में युवा नेता के रूप में जगह न मिलने के चलते वे नाराज हुईं और अपने क्षेत्र में परिवहन सेवा को सुचारु करने के लिए काफी जोर दे रही हैं. द्य सुप्रिया सुले, जन्म 30 जून, 1979 : बारामती लोकसभा से सांसद सुप्रिया सुले पिता शरद पवार की राजनीतिक विरासत को आगे ले जा रही हैं.

सैंट कोलंबिया स्कूल से स्कूली शिक्षा प्राप्त कर उन्होंने मुंबई के कालेज से माइक्रोबायोलौजी से स्नातक की डिग्री हासिल की है. उन का विवाह सदानंद बालचंद सुले से हुआ. शादी के बाद वे कुछ समय कैलिफोर्निया, इंडोनेशिया और सिंगापुर में रहने के बाद वापस मुंबई आ कर रहने लगीं. सुप्रिया मानती हैं कि आज राजनीति में यूथ के साथ अनुभवी नेता की जरूरत है और उन्होंने हमेशा अपने पिता की गाइडलाइंस में ही काम किया है. सभी यूथ नेताओं को सहनशीलता और धैर्य के साथ मिल कर काम करने की आवश्यकता होती है.

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