महिलाओं को नौकरियों में आरक्षण से ज्यादा जरूरत धार्मिक जकड़न से आजादी की है. धार्मिक भेदभाव ने उन्हें शुरू से पीछे रखा है. जब महिलाएं इस से बाहर आने लगती हैं तो उन्हें कोई नया कर्मकांडी टोटका पकड़ा दिया जाता है जिस की मंशा उन्हें दबाए रखने की होती है. सुप्रीम कोर्ट की महिला वकीलों द्वारा दिल्ली में 26 सितंबर को आयोजित एक सम्मान समारोह में देश के मुख्य न्यायाधीश एन वी रमण ने यों तो लंबाचौड़ा भाषण दिया लेकिन उस में कई बातें महत्त्वपूर्ण से ज्यादा अर्थपूर्ण थीं, मसलन- द्य न्यायपालिका में 50 फीसदी आरक्षण के लिए महिला अधिवक्ता की तरफ से जोरदार तरीके से मांग उठी.

इस पर न्यायाधीश बोले, ‘मैं नहीं चाहता कि वे रोएं, बल्कि गुस्से से चिल्लाना शुरू करें.’ द्य यह हजारों साल के दमन का विषय है.

आरक्षण अधिकार का विषय है,

दया का नहीं. दुर्भाग्य है कि कुछ चीजें बहुत देरी से आकार लेती हैं. द्य लोग बड़ी आसानी से कह देते हैं कि 50 फीसदी आरक्षण मुश्किल है क्योंकि महिलाओं को अनेक समस्याएं होती हैं. लेकिन, यह सही नहीं है. इस के अलावा एक और बात आज के माहौल के लिहाज से उन्होंने ऐसी कही जिसे सुनने से ज्यादा सम?ाना जरूरी है. हालांकि सम?ाने वाले सम?ा गए थे लेकिन उन की तादाद न के बराबर है.

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यह वाक्य था, ‘दुनिया की महिलाओ, एकजुट हो जाओ. तुम्हारे पास खोने के लिए अपनी जंजीरों के अलावा कुछ नहीं है.’ गौरतलब है कि यह नारा मशहूर कम्युनिस्ट और समाजवादी दार्शनिक काल मार्क्स का है कि ‘दुनिया के मजदूरो एक हो जाओ, तुम्हारे पास खोने के लिए अपनी जंजीरों के अलावा कुछ नहीं है.’ इस नारे ने जो हाहाकारी क्रांति मचाई थी वह किसी सुबूत की मुहताज नहीं है. हालांकि अभी देश में काल मार्क्स का नाम और हवाला देना पूरी तरह गुनाह नहीं है लेकिन कुछ तो है जो सनातनधर्मी और देश के मौजूदा हुक्मरान इस नाम से चिढ़ते भी हैं और खौफ भी खाते हैं. आमतौर पर काल मार्क्स के मानने वालों को ?ाट से वामपंथी व विधर्मी करार दे दिया जाता है.

अब तो इस शब्द को गाली का भी पर्याय बना दिया गया है क्योंकि यही काल मार्क्स धर्म को अफीम का नशा बताते थे. बिना किसी लागलपेट के कहा और सम?ा जाए तो भारतीय महिलाओं को न केवल न्यायपालिका में आरक्षण बल्कि अपने दीगर हितों के लिए भी इस नशे का त्याग तो करना पड़ेगा वरना उन की बदहाली ज्यों की त्यों रहेगी. और एक हद तक इस की जिम्मेदार वे खुद भी होंगी क्योंकि हजारों साल का दमन धार्मिक सिद्धांतों और रीतिरिवाजों की वजह से है. चीफ जस्टिस महोदय ने जानेअनजाने में एक ऐसी सचबयानी कर दी है जिस का तोड़ शायद उन के पास भी न होगा. लेकिन बात जिस मंच से और जिस ढंग से कही गई है वह मंच बुद्धिजीवियों और तर्क करने वाली महिलाओं का है जो पेशे से वकील हैं.

लिहाजा, उन्हें बात खुद भी सम?ानी चाहिए और समाज को सम?ानी भी चाहिए कि क्यों महिलाएं हजारों सालों से दमन और भेदभाव का शिकार होते पिछड़ी हुई हैं और वह दमन आखिर क्यों है और कैसा है. बराबरी की आड़ में शोषण नए बने जजों के इस सम्मान समारोह के दिन देशभर में श्राद्ध पक्ष मन रहा था. लोग अपने पितरों का अर्पणतर्पण कर रहे थे लेकिन इस बार एक नई खबर यह आई कि अब महिलाओं को भी पिंडदान का अधिकार मिल गया है और वे अपने पूर्वजों का श्राद्ध तर्पण आदि कर सकती हैं. देखते ही देखते देशभर से खबरें आने भी लगीं कि महिलाएं भी अब पुरुषों की तरह यह पाखंड नदियों और तालाबों के किनारे कर रही हैं.

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मेरठ के एक पंडित भारत ज्ञान भूषण ने जैसे ही एक पौराणिक कथा का प्रचार किया कि महिलाओं को भी अर्पणतर्पण का अधिकार है तो देशभर में महिलाएं श्राद्ध करने को टूट पड़ीं. मेरठ में ही 3 बेटियों ने अपने पिता का पिंडदान किया जिन की मौत कोरोना के चलते हो गई थी. मेरठ की ही पेशे से एक शिक्षिका ने कोरोना में ही मृत अपने पति व ससुर का श्राद्ध किया. नागपुर की डा. दिव्या आसुदानी ने अपने पिता का पिंडदान करते गर्व से मीडिया को बताया कि उन्होंने बेटा होने का फर्ज निभाया है. भोपाल में भी तालाब किनारे दर्जनों महिलाओं ने श्राद्ध कर्म किया और मीडिया ने यहां भी उन्हें हाथोंहाथ लिया. फिर श्राद्ध के लिए मशहूर शहरों- गया, हरिद्वार, प्रयागराज, काशी और उज्जैन जैसे धार्मिक शहरों में तो महिलाओं के हुजूम इस अधिकार के लिए टूटे पड़ रहे थे जिस से पंडेपुजारी अपनी बढ़ती ग्राहकी देख कर खुश हो रहे थे. देश का ऐसा कोई शहर न होगा जहां धर्म के दुकानदारों ने सीता द्वारा अपने ससुर दशरथ के श्राद्ध की कहानी सुना कर महिलाओं को इस के लिए उकसाया न हो.

इस कथा के मुताबिक वनवास के दौरान जब राम और लक्ष्मण सीता के साथ पितृपक्ष के वक्त गया पहुंचे तो पंडित द्वारा बताई गई सामग्री लेने शहर की तरफ चले गए. इधर श्राद्ध का मुहूर्त निकला जा रहा था तभी दशरथ ने सीता को दर्शन दे कर उन से श्राद्ध करने को कहा. सीता ने फाल्गु नदी के किनारे गाय, केतकी के फूल और वट वृक्ष को साक्षी मान कर ससुर का श्राद्ध कर दिया. इस से दशरथ की आत्मा को मुक्ति मिल गई. कर्मकांड में बिना मांग के, बिना चिल्लाए, बिना गुस्सा दिखाए और बिना किसी धरनेप्रदर्शन या हड़ताल के मिले इस आरक्षण में महिलाओं ने बढ़चढ़ कर हिस्सेदारी निभाई और इतनी खुश हुईं जितनी कि ज्युडिशियरी में 50 फीसदी आरक्षण मिल जाने पर भी न होतीं.

यह दरअसल, पुरुष प्रधान समाज के पंडेपुजारियों की साजिश है क्योंकि अब घरों में पुरुष सदस्य कम हो रहे हैं तो उन्होंने श्राद्ध कर्म का अधिकार महिलाओं को भी दे दिया जिस से उन की मुफ्त की मलाई, हलवापूरी और दानदक्षिणा का अंतिम संस्कार न हो जाए. सदियों से महिलाओं को शूद्रों की तरह धर्मकर्म से दूर रखा गया, इसलिए वे इस नए आरक्षण से खुद को गौरवान्वित महसूस करते तबीयत से अर्पणतर्पण के नाम पर पैसा लुटा रही हैं और धर्मभीरू बन रही हैं सो अलग. शायद ही वे इस साजिश को सम?ा पाएं कि इस पाखंड से उन्हें कोई बराबरी का अधिकार नहीं मिल गया है बल्कि थोड़ी अफीम और चटा दी गई है जिस के नशे में वे ?ाम रही हैं. इस प्रतिनिधि ने भोपाल के 3 पंडितों से पूछा कि क्या कोई महिला, जो मासिकधर्म से हो श्राद्धकर्म की अधिकारी होगी और अगर नहीं तो ऐसा कहां लिखा है,

कृपया बताएं? जवाब के नाम पर तीनों पंडित बगलें ?ांकते नजर आए. एक ने जरूर कहा कि कहां क्या लिखा है, यह तो हमें नहीं पता लेकिन आजकल की स्त्रियां 3 दिनों में ही शुद्ध हो जाती हैं और श्राद्धपक्ष 15 दिन तक चलता है, इसलिए वे बाद में कर लें जब यह पूछा गया कि श्राद्धपक्ष में तो तिथि का बड़ा महत्त्व होता है. यदि किसी महिला के पति के श्राद्ध की तिथि ग्यारस को पड़ती है और वह उस दिन अशुद्ध यानी मासिकधर्म से है तो उसे पाप तो नहीं लगेगा? इस पर वह पंडित गुस्से में बोला, ‘कर ले जब श्राद्ध करना है. हम कौन औरतों के पेटीकोट में ?ांक कर देखते हैं.’ सहज सम?ा जा सकता है कि धार्मिक नियम, कायदे, कानून कैसे दुकानदारी के लिए बनाए व मिटाए जाते हैं.

यह सोचना भी बेमानी है कि आजकल की शिक्षित महिलाएं मासिकधर्म संबंधी वर्जनाओं को नहीं मानतीं. इतना फर्क जरूर कुछ महिलाओं में देखने में आया है कि वे रसोईघर में जा कर खाना बना लेती हैं लेकिन भूले से भी उन की हिम्मत पूजाघर में जा कर दिया जलाने की नहीं होती. यह डर सदियों से उन के दिमाग में भरा हुआ है. ?ाम बराबर ?ाम अफीम की हकीकत क्या है, इस के लिए धर्मग्रंथों में ?ांकें, तो स्पष्ट होता है कि महिला पुरुष की गुलाम, पांव की जूती, पापिन, अछूत और दोयम दर्जे की बताई गई है. यही वह हजारों साल का दमन है जिस के तरीके वक्त के मुताबिक बदले भी जाते रहते हैं. जब भी महिला तरक्की करने लगती है, पुरुषों की बराबरी पर आने लगती है तो उसे उल?ाए और पिछड़ा रखने को श्राद्ध जैसा कोई ?ान?ाना पकड़ा दिया जाता है, जिस से उस का वक्त और ऊर्जा पढ़ाईलिखाई में न लग कर बेकार के पाखंडों में जाया होती रहे.

कुछ सालों से महिलाएं मुखाग्नि देने लगी हैं, इस पर सनातनधर्मी कोई एतराज नहीं जताते क्योंकि मामला चढ़ावे का है वरना एक वक्त में महिलाओं का श्मशान जाना भी वर्जित था. सनातनियों के संविधान मनुस्मृति में साफ लिखा है कि, ‘स्त्री बचपन में पिता के, यौवनावस्था में पति के और वृद्धावस्था में पुत्र के संरक्षण में रहे.’ मनुस्मृति के विचार लगते ही ऐसे हैं कि यह शूद्रों और महिलाओं को नीचा दिखाने के लिए ही रची गई है. यह सोचना बेमानी है कि आज इस का कोई प्रभाव नहीं रह गया है बल्कि नएनए तरीकों से प्रकट होता रहता है. इस धर्मग्रंथ का कभीकभार विरोध होता रहता है (विरोध करने वाले सवर्ण नहीं होते), पर कोई उन जड़ों में नहीं जाता जिन से असमानता, अत्याचार और भेदभाव का पौधा वृक्ष बन गया. वे जड़ हैं-

वेद, पुराण, स्मृतियां, संहिताएं, श्रीमद्भगवगीता और रामायण जिन के दिशानिर्देशों पर सनातन समाज चलता है. औरत शिक्षित और जागरूक हो जाए तो मर्दों की सत्ता डगमगाने लगती है, इसलिए हजारों साल पहले ही आगाह कर दिया गया था कि- इन्द्रश्चिदा तद्वरीत स्त्रियां आशास्य्म मन उतो अहं क्रतुं रघुम (ऋग्वेद,8 : 33 : 17) अर्थात, स्वयं इंद्र ने कहा है कि स्त्री के मन को शिक्षित नहीं किया जा सकता. उस की बुद्धि तुच्छ होती है. कितनी अजीब बात है कि औरत को इतना दीनहीन और बेचारी साबित व प्रचारित कर दो कि वह खुद ही शिक्षित होने से कतराने लगे. लेकिन आजादी के बाद लोकतंत्र की स्थापना हुई और बराबरी का हक देने वाला संविधान वजूद में आया तो औरतें पढ़नेलिखने लगीं. वे नौकरियों में भी आने लगीं और राजनीति में भी प्रभाव दिखाने लगीं.

आज खासतौर से लगभग हर शहरी पढ़ीलिखी लड़की आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर है लेकिन यह सोचना बेमानी है कि इस से उसे बराबरी का अधिकार मिल गया है. यह हक तो उसे हिंदू कोड बिल के लागू होने के बाद मिला जिस में उसे वोट देने का हक मिला, संपत्ति में भी हिस्सा मिलने लगा और पहली बार तलाक व दूसरी शादी करने का भी अधिकार मिला. इस कानून का कट्टर हिंदूवादियों ने जम कर विरोध किया था और हुड़दंग भी मचाया था जो औरत को आजादी देने के खिलाफ हमेशा से ही रहे हैं. अभी भी यह पर्याप्त और आधी आबादी के मुताबिक नहीं है. मिसाल ज्युडिशियरी की ही लें तो आंकड़े बताते हैं कि हालिया नई नियुक्तियों के बाद सुप्रीम कोर्ट में महिला जजों की संख्या बहुत कम है.

जस्टिस एन वी रमण के पहले के मुख्य न्यायाधीश रहे शरद बोबड़े ने भी एक याचिका की सुनवाई के दौरान कहा था कि अब समय आ गया है कि भारत में कोई महिला मुख्य न्यायाधीश बने. इधर हाल तो यह है कि देश के हाईकोर्टों में पुरुष जजों के 567 के मुकाबले महिला जजों की संख्या बेहद कम केवल 77 है. निचली अदालतों में भी हाल अच्छे नहीं हैं. बात वकीलों की करें तो देश में कुल 17 लाख वकील हैं, इन में महिलाओं की संख्या लगभग ढाई लाख ही है इन की भी अपनी अलग समस्याएं हैं. यह कहना बड़ा आसान है कि ‘तो फिर महिलाएं आएं आगे, रोका किस ने है,’ लेकिन क्या सबकुछ महिलाओं के अनुकूल है? इस सवाल का जवाब भी साफ है कि नहीं है. महिलाओं की तरक्की और तालीम के रास्ते में सब से बड़ा रोड़ा धर्म और उस के रीतिरिवाज हैं. कभीकभी यह सुनना भी सुकून देता है कि महिलाएं मल्टीटास्कर होती हैं.

लेकिन गौर से देखें तो महिलाएं नए तरीके से गुलाम बनाई जा रही हैं. वे आर्थिक रूप से तो आत्मनिर्भर हैं लेकिन पारिवारिक, सामाजिक और भावनात्मक तौर पर पुरुष पर निर्भर हैं. कुछेक अपवाद हैं जिन की कोई खास अहमियत नहीं. औरत पहले बच्चा पैदा करने की मशीन बना दी गई थी तो अब पैसा कमाने वाली मशीन बना दी गई है. अब यह और बात है कि धर्म उसे ही पुरुषों की संपत्ति करार देता है. मनु महाराज ने तो साफसाफ कहा है कि स्त्री को संपत्ति रखने का अधिकार नहीं है. स्त्री की संपत्ति का स्वामी उस का पति, पुत्र या पिता है. (मनु स्मृति अध्याय 9, श्लोक 416) एक महिला जिंदगीभर पुरुषों के लिए खटती रहती है. वह पति की लंबी उम्र के लिए करवाचौथ का व्रत रखती है, संतान की खुशहाली के लिए संतान सप्तमी का व्रत रखती है और भाई के लिए रक्षाबंधन और साल में पड़ने वाले 3 भाईदूज पर उस की खैर के लिए खुद को भूखाप्यासा रखती है.

धर्म ने उस के दिमाग में तरहतरह से यह बात कूटकूट कर भर रखी है कि तुम्हारा अस्तित्व ही पुरुष से है. इसलिए बेचारी सालभर में 50 तरह के उपवास रखती है, तीजत्योहारों पर पकवान बनाती रहती है और पूजापाठ के वक्त थकीहारी शोपीस बन कर आरती उतारती रहती है. इस की वजह है, पुरुषों की नजर में महिला की इमेज जो धर्म ने गढ़ी है कि वह यौनेच्छा की पूर्ति के लिए बनी है, और संतान पैदा करना उस की जिम्मेदारी है. लगता ऐसा भी है कि औरत एक खिलौना है जिस से मर्द जैसे चाहे जब चाहे खेले. उसे विरोध करने का तो दूर की बात है, बोलने का भी हक नहीं है. अथर्ववेद कहता है, इवं नारी पतिलोकं वृणाना नि पद्धत उपत्वा मर्त्यं प्रेतम धर्मपुराणमनुष्यपालयन्ती तस्ये द्रविणं चेह धेहि (अथर्ववेद 18 : 3 : 1) अर्थात, हे मृतपुरुष, प्राचीन धर्म का पालन करती हुई और पतिलोक की कामना करती हुई यह स्त्री तेरे पास आती है. तुम इसे परलोक में इसी प्रकार संतान वाली बनाना और धन देना. बदलाव का खोखला ढिंढोरा इन दिनों हर कोई यह कहता नजर आता है कि अब कहां महिलाएं गैरबराबरी की शिकार हैं, अब तो बराबरी का जमाना है जिस में महिला पुरुष के कंधे से कंधा मिला कर चल रही है, रेल, हवाई जहाज उड़ा रही है, मरजी से शादी कर रही है, पैसे खर्च कर रही है वगैरहवगैरह.

अब उस पर पहले जैसी बंदिशें नहीं रहीं. इस दुष्प्रचार की तुलना इस दुष्प्रचार से भी की जा सकती है कि अब कहां जातिगत छुआछूत रही, अब तो छोटीबड़ी जाति के लोग साथ उठतेबैठते, खातेपीते हैं. कोई शक नहीं कि महिलाएं दफ्तरों में दिख रही हैं, खुद कमा रहीं हैं, रेल, बस और लोकल ट्रांसपोर्ट उन से भरे हैं, उन्हें घूमनेफिरने की आजादी मिली हुई है लेकिन यह सब ढकोसला है क्योंकि महिलाओं ने जो भी हासिल किया है वह शिक्षा, अपनी लगन और मेहनत से किया है. उस में धर्म का कोई योगदान नहीं है. आज उन की जिस बेहतर स्थिति को बराबरी का बताया जाता है, वह दरअसल, विज्ञान की देन है जिस के तहत उन्हें चूल्हे के धुएं से मुक्ति मिल गई है. किचन में ओवन और फ्रिज जैसे सहूलियत वाले आइटम रखे हैं. ये और ऐसी कई बातें हैं जो महिला की परंपरागत इमेज को तोड़ती हैं.

सोचा और पूछा तो यह जाना चाहिए कि क्या महिला का व्रतउपवास रखना छुड़वा दिया गया? क्या मासिकधर्म के दिनों में उस पर थोपी गई बंदिशें दूर या खत्म हो गईं? क्या विधवा विवाह होने लगे? नहीं, ऐसा कुछ नहीं हुआ है. उलटे, उस पर होने वाले अत्याचार और बलात्कार बढ़ रहे हैं. उस के प्रति बेतहाशा अपराध भी बढ़ रहे हैं. जिस माहौल की दुहाई दे कर सभी को बरगलाने की कोशिश की जाती है उस के दायरे में 5 फीसदी महिलाएं भी पूरी तरह नहीं आतीं. इसी का ढिंढोरा पीट कर और उस की आड़ ले कर जताया जाता है कि देखो, जमाना बदल गया है. इसी ?ाठ को ले कर चीफ जस्टिस एन वी रमण को टिप्पणी करनी पड़ी कि ‘दुर्भाग्य से बहुत सी चीजें देर से आकार लेती हैं.

’ बात अकेले सनातन धर्म की नहीं है बल्कि इसलाम और ईसाई धर्म भी महिलाओं से भेदभाव व असमानता करने में उन्नीस नहीं हैं. उन के धर्मग्रंथों और दुकानदारों की भाषा अलग है लेकिन भाव एक से हैं कि औरत को शिक्षा का अधिकार नहीं और वह पुरुष की दासी है और ऐसा वे नहीं कहते बल्कि ऊपर वाले का आदेश है. ये तीनों और दूसरे सभी धर्म स्त्री की योनि की पवित्रता को ले कर भी एकमत हैं. मकसद यह है कि औरत अपने फैसले खुद न लेने लगे, इसलिए उस पर नैतिकता, आदर्श और उसूल इतनी तादाद में थोप दो कि वह अपने बारे में इस से ज्यादा कुछ सोच ही न पाए. इसलिए आरक्षण की बाबत एक पुरुष को उसे सोचने और पहल करने को कहना पड़ा, चूंकि वह पुरुष धर्मगुरु नहीं है, इसलिए उस की बात सिमट कर रह गई है. माहौल खास कुछ नहीं बदला है. खासतौर से महिलाओं के प्रति धर्म और पुरुषों का नजरिया, जो आया धार्मिक मान्यताओं के चलते है.

यह कितनी साजिशभरी बात है कि किसी ने चीफ जस्टिस के वक्तव्य पर गौर नहीं किया सिवा सुप्रीम कोर्ट की इनीगिनी महिला वकीलों के. उस से भी बड़ी साजिशभरी बात है, महिलाओं को मिले अर्पणतर्पण के अधिकार का राग अलापना जिस से किसी को कुछ हासिल नहीं होना. हां, महिलाओं का पिछड़ापन यथावत रहेगा, यह जरूर सम?ा आ गया. अब अगर महिलाओं को न केवल न्यायपालिका में बल्कि हर जगह बराबरी का अधिकार चाहिए तो उन्हें धार्मिक पाखंड, रूढि़यां और बेडि़यां तोड़ते वाकई गुस्से में चिल्लाना पड़ेगा. द्य इन की नजर में तो फरेब है औरत दुनिया के सारे धर्म पितृसत्तात्मक और पुरुषप्रधान हैं जिस का प्रभाव समाज में आज भी दिखता है. सारे धर्मग्रंथ भी चूंकि कथित ईश्वर के कथित आदेश पर पुरुषों ने रचे हैं, इसलिए उन्होंने खुद को श्रेष्ठ और महिलाओं को दीनहीन बताने में खूब दरियादिली दिखाई है. धर्म पूरी तरह स्त्रीविरोधी न दिखे, इस के लिए कुछ जगह उसे देवी, पुरुष की पूरक और जननी कहना तत्कालीन रचनाकारों की मजबूरी हो गई थी, नहीं तो उन्हें पानी पीपी कर कोसा गया है.

आज जब अधिकतर क्षेत्रों में महिलाएं अपने दम पर पुरुषों को पछाड़ रही हैं तो उन्हें बराबरी का आरक्षण देने की वकालत भी एक दफा किसी साजिश के तहत की गई बात लगती है और इस बात में कोई हैरानी किसी को नहीं होनी चाहिए. मनुस्मृति और दूसरे धर्मग्रंथों में स्त्री को बारबार अपवित्र और असत्य यानी फरेब भी कहा गया है. आइए कुछ उदाहरण देखें- असत्य जिस तरह अपवित्र है उसी भांति स्त्रियां भी अपवित्र हैं. पढ़नेपढ़ाने, वेद मंत्र बोलने या उपनयन का स्त्रियों को अधिकार नहीं है. (मनुस्मृतिर् अध्याय-2, श्लोक-66 और अध्याय-9, श्लोक-18) महिला आरक्षण देने की पहल बेशक अच्छी है पर क्या इस शर्त पर यह संभव है कि उसे पढ़नेपढ़ाने का हक ही न दिया जाए.

यहां यह तर्क स्वभाविक रूप से कोई भी कर सकता है कि ‘अब क्या दिक्कत है अब तो महिलाएं पढ़लिख कर नौकरियों में भी खूब आ रही हैं. ये तो गुजरे कल की बातें हैं, जिन का आज कोई औचित्य नहीं.’ यदि ये गुजरे कल की बातें हैं तो रामायण और गीता सहित तमाम धर्मग्रंथ भी गुजरे कल की बात हैं, फिर क्यों हम इन में वर्णित देवीदेवताओं का पूजापाठ करते उन्हें आदर्श कह कर प्रचारित व जीवन में उतारने की बात किया करते हैं. उन का भी तो आज कोई औचित्य नहीं होना चाहिए. यह भी शायद ही कोई सज्जन बता पाएं कि आज अगर कुछ महिलाएं पढ़लिख कर आगे आ गई हैं तो उस में धर्म, शंकराचार्यों, मठाधीशों और धर्मगुरुओं का क्या योगदान है? हां, यह जरूर स्वयंसिद्ध बात है कि दक्षिणा ?ाटकने और पिछड़ा रखने के लिए महिलाओं को अंतिम संस्कार व श्राद्ध जैसे कर्मकांडों में उल?ा दिया गया है. यह तो हुई आज की बात. द्वापर युग में तो धर्म के ठेकेदारों ने औरत को खालिस फरेब बताया है. अमृता स्त्रिय इत्येवं वेदेष्व्पी हि पठ्यते 7 धर्मोयं पूर्विका संज्ञा उपचार: क्रियाविधि: 77 अर्थात, वेदों में भी यह बात पढ़ी गई है कि स्त्रियां असत्यभाषिणी होती हैं.

ऐसी दशा में उन का वह असत्य भी सहधर्म के अंतर्गत आ सकता है किंतु असत्य कभी धर्म नहीं हो सकता. सो, दांपत्य धर्म को जो सहधर्म कहा गया है, यह उस की गौण संज्ञा है. पतिपत्नी साथ रह कर जो भी कार्य करते हैं उसी को उपचारत: धर्म नाम दे दिया गया है. (महाभारत- अनुशासन पर्व-7) और अमृत: स्त्रियइत्येवं सूत्रकारो व्यवस्यति 7 यदानृत: स्त्रियस्तात सहधर्म: कुत: स्मृत: 77 अर्थात, धर्म सूत्रकार यह निश्चित रूप से कहते हैं कि स्त्रियां असत्यपरायण होती हैं. तब जब स्त्रियां असत्यवादिनी ही हैं तब उन्हें साथ रख कर सहधर्म का अनुष्ठान कैसे किया जा सकता है.

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