जम्मू-कश्मीर में आर्टिकल 370 को हटे दो साल पूरे हो चुके हैं. मोदी सरकार ने 5 अगस्त 2019 को राज्य के विशेष दर्जे को समाप्त कर इसे ना सिर्फ दो भागों – जम्मू एवं कश्मीर और लद्दाख के तहत दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांट दिया था, बल्कि धारा 370 और 35ए के तहत राज्य को मिलने वाले विशेष प्रावधान को खत्म कर पूरी दुनिया को चौंका दिया था.उस वक़्त मोदी सरकार ने दावा किया कि  इस फैसले से राज्य में विकास का बयार बहेगी और वर्षों से प्रताड़ित कश्मीरी पंडितों के फिर से राज्य में लौटने का रास्ता साफ होगा. दूसरे राज्यों के लोगों को भी वहां रहने और काम करने का मौक़ा मिलेगा.

लेकिन मोदी सरकार के फैसले के दो साल बाद राज्य में आतंकवाद ने फिर सिर उठाना शुरू कर दिया है. साफ़ है कि संवैधानिक ढाँचे में बदलाव से जम्मू कश्मीर की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है, बल्कि हालात और विकट होते जा रहे हैं.

गौरतलब है कि पहले जहां आतंकियों के निशाने पर सेना-सुरक्षाबलों के जवान हुआ करते थे, वहीं अब उनके निशाने पर गरीब और मजदूर प्रवासी हैं, जिनमें दहशत पैदा करके उनको ना सिर्फ वहाँ से भगाने की कवायत हो रही है बल्कि ऐसा करके मोदी सरकार को यह संदेश भी दिया जा रहा है कि जम्मू-कश्मीर के दरवाजे सबके लिए नहीं खुलेंगे.

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दो साल पहले घाटी में संवैधानिक बदलाव के वक़्त किसी तरह की कोई हिंसा और विरोध प्रदर्शन न हो, इसलिए मोदी सरकार ने राज्य के प्रमुख राजनेताओं को नजरबंद कर दिया था. जो साल भर से ज़्यादा कैद में रहे. नजरबंद होने वाले नेताओं में नेशनल कांफ्रेंस के फारूक अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला, पीडीपी की महबूबा मुफ्ती जैसे प्रमुख नेता शामिल थे. उनके साथ ही हजारों अन्य लोगों को भी जेल भेज दिया गया था, जिनमें से कई अभी तक सलाखों के पीछे ही हैं. मोदी सरकार का दावा था कि ऐसा करना राज्य के लिए बेहद जरूरी था. सरकार को डर था कि अगर यह नेता बाहर रहे तो विरोध प्रदर्शन, हिंसा और आतंकी घटनाएं राज्य में होंगी. मगर इस कवायत का कोई फायदा नहीं हुआ, बल्कि अब आतंकी आम गरीब को अपना निशाना बना कर सरकार को चुनौती दे रहा है.

सॉफ्ट टारगेट किलिंग

सॉफ्ट टारगेट किलिंग घाटी में आतंकवाद का नया चैप्टर है, जिसके तहत अब तक ग्यारह मजदूर और नौ जवान आतंकियों की गोली का शिकार हो चुके हैं, कई घायल हैं और तमाम  प्रवासी मजदूर जान जाने के डर से घाटी छोड़ कर भाग रहे हैं. सरकार उन्हें रोक पाने और उनकी सुरक्षा की गारंटी देने में नाकाम है. पता नहीं कब, कहाँ, कौन आतंकी की गोली का शिकार हो जाए यह डर हर तरफ पसरा हुआ है.

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निशाने पर आम नागरिक

2 अक्टूबर : श्रीनगर के कर्णनगर में माजिद अहमद गोजरी और मुहम्मद शफी डार की आतंकियों हत्या कर दी. 5 अक्टूबर : कश्मीरी हिंदू दवा विक्रेता माखन लाल बिंदरू, रेहड़ी लगाने वाले बिहार के वीरेंद्र पासवान और सूमो ड्राइवर्स एसोसिएशन के प्रधान मोहम्मद शफी लोन की हत्या कर दी गई.

7 अक्टूबर : दो शिक्षकों दीपक चंद और प्रिंसिपल सतिंदर कौर की श्रीनगर के सरकारी स्कूल में उनके आइकार्ड देख कर हत्या की गयी.

11 अक्टूबर : आतंकियों ने पुंछ के सुरनकोट वन में सेना के एक गश्ती दल पर हमला किया, जिसमें एक जेसीओ समेत सेना के पांच जवान शहीद हो गए थे. इसके बाद तलाशी अभियान चलाया गया जिसमें अब तक नौ जवान शहीद हो चुके हैं.

16 अक्टूबर : बिहार के रहने वाले अरविंद कुमार साह और उत्तर प्रदेश के सगीर अहमद की हत्या हुई. 17 अक्टूबर – बिहार के मजदूर राजा ऋषि देव और जोगिंदर ऋषि देव को गोली मार दी गयी.

टारगेट किलिंग से खौफ

डर पैदा करने के लिए टारगेट किलिंग एक आसान तरीका है. इसके लिए बड़े हथियारों और बड़े ग्रुपों की ज़रूरत नहीं है. जम्मू कश्मीर में छोटे हथियारों व छोटे ग्रुप से निहत्थे लोगों को आसानी से निशाना बना कर खौफ पैदा किया जा रहा है. आतंकियों द्वारा बकायदा रेकी करके लोगों को मौत के घाट उतारा जा रहा है.

5 अक्टूबर को कश्मीरी पंडित और श्रीनगर के जाने-माने दवा कारोबारी माखन लाल बिंदरू की उनके व्यावसायिक परिसर में गोली मारकर हत्या कर दी गयी. बिंदरू उन कुछ लोगों में शामिल थे जिन्होंने 1990 के दशक में जम्मू कश्मीर में आतंकवाद शुरू होने के बाद पलायन नहीं किया. वह अपनी पत्नी के साथ वहां रहे और लगातार अपनी फार्मेसी ‘बिंदरू मेडिकेट’ को चलाते रहे.

बिंदरू की हत्या के एक घंटे बाद ही आतंकवादियों ने हवाल क्षेत्र में एक गैर-स्थानीय रेहड़ी-पटरी विक्रेता वीरेंद्र की हत्या कर दी. बिहार का रहने वाला वीरेंद्र वहां गोल-गप्पे और भेलपूरी बेच कर अपनी आजीविका कमाता था. वह कई सालों से घाटी में रह रहा था.

7 अक्टूबर को श्रीनगर के एक स्कूल में आतंकी घुस गए. उन्होंने सभी टीचर्स और अन्य स्टाफ  के परिचय पत्र देखे और उसके बाद वहां की सिख महिला प्रिंसिपल सतिंदर कौर और एक हिंदू शिक्षक दीपक चंद को बाकियों से अलग करके सबके सामने गोली मार दी.

गौरतलब है कि दीपक चंद का परिवार मूल रूप से कश्मीर का रहने वाला था. लेकिन 1990 के दशक में जब घाटी में हालात बिगड़ने शुरू हुए तो उनका परिवार भी विस्थापित हो कर जम्मू आ गया था. पढ़ाई पूरी करने के बाद दीपक ने कुछ समय जम्मू में ही नौकरी की, लेकिन 2019 में उनकी नियुक्ति केंद्र सरकार के पीएम पैकेज के तहत कश्मीर घाटी में हुई थी.

गौरतलब है कि पीएम पैकेज योजना के अंतर्गत कश्मीर घाटी के विभिन्न इलाकों में कार्यरत कश्मीरी पंडित सरकारी कर्मचारी बड़ी संख्या में जम्मू वापिस लौटे हैं, मगर अब जिस तरह आतंकी घटनाएं घाटी में बढ़ी हैं उससे उनमें जान का खौफ समाया हुआ है क्योंकि उनकी सुरक्षा की कोई गारंटी सरकार ने नहीं दी है.

16 अक्टूबर के देर शाम श्रीनगर और पुलवामा में दो गैर-कश्मीरी मजदूरों की गोली मार कर हत्या कर दी गई. मारे गए मजदूरों की पहचान उत्तर प्रदेश के सहारनपुर के सगीर अहमद और बिहार के बांका इलाके के अरविन्द कुमार के रूप में हुई है.

तीस वर्ष के अरविन्द कुमार श्रीनगर के ईदगाह इलाके में गोलगप्पे बेचते थे. घटना वाली शाम बेहद नज़दीक से उनके सिर में गोली मारी गई, उन्हें इलाज के लिए एक नज़दीकी अस्पताल ले जाया गया जहाँ उन्हें मृत घोषित कर दिया गया. इसके एक घंटे बाद ही दक्षिणी कश्मीर के पुलवामा में सगीर अहमद नाम के कारपेंटर की गोली मार कर हत्या कर दी गयी.

17 अक्टूबर को खबर लिखे जाने तक बिहार के दो और मजदूरों राजा  ऋषि देव और जोगिंदर ऋषि देव के मारे जाने की खबर आ गयी. बीते एक हफ्ते में घाटी में टारगेट किलिंग में अचानक बढ़ोत्तरी हुई है. इन सभी टारगेट किलिंग की जांच में यह बात सामने आई है कि हमलावरों ने पहले रेकी कर अपने टारगेट की पूरी जानकारी जुटायी.

कम नहीं है प्रवासी मजदूरों की संख्या

घाटी में एक के बाद एक टारगेट किलिंग की घटनाओं से प्रवासी मजदूरों में दहशत का माहौल है. गौरतलब है कि बिहार, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश व ओडिशा से घाटी में हज़ारों मजदूर रोजीरोटी की तलाश में आते हैं. कई तो फलों के सीजन में यहाँ दशकों से आ रहे हैं. अनंतनाग जिले का वानपोह, जो मिनी बिहार के नाम से भी जाना जाता है, यहां काफी संख्या में प्रवासी मजदूर रहते हैं. जम्मू-श्रीनगर हाईवे पर वानपोह के लगभग सभी घरों में किराए पर मजदूर सपरिवार रहते हैं. यह खेतों में मजदूरी के साथ ही विभिन्न निर्माण कार्यों, पेटिंग, कारपेंटर, ड्राई फ्रूट और सेब के बगीचे में काम करते हैं.

काफी संख्या में यह प्रवासी मजदूरी के साथ-साथ छोटी मोटी रेहड़ी लगाकर भी कुछ पैसा कमा लेते हैं. यह उत्तरी कश्मीर से लेकर मध्य और दक्षिणी कश्मीर तक फैले हुए हैं. घाटी में जिस तरह आतंकवाद सिर उठा रहा है उससे इन मजदूरों और रेहड़ी फड़ी वालों में दहशत फ़ैल गयी है. इनमें से ज़्यादातर ने अपने घरों का रुख करना शुरू कर दिया है. हालांकि, दिवाली तथा छठ पर्व के दौरान वैसे भी बिहार व उत्तर प्रदेश के मजदूर घर लौटते हैं, लेकिन ताजा वारदातों के कारण समय से पहले ही प्रवासी मजदूर लौटने शुरू हो गए हैं. रेलवे स्टेशनों, बस स्टैंड और जगह-जगह पर मजदूर ग्रुप बनाकर अपने गृह राज्य के लिए रवाना हो रहे हैं. राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, मध्य प्रदेश समेत दूसरे राज्यों के लोगों की भीड़ लगातार पलायन करती नजर आ रही है. बसें, ट्रेनें और प्राइवेट गाड़ियों में भर-भर कर लोग भाग रहे हैं.

सेना की कार्रवाई

आतंकी घटनाओं के बाद सेना ने पुंछ से क़रीब सौ किलोमीटर दूर सुरनकोट के एक गांव में चरमपंथियों के खिलाफ अपना तलाशी अभियान शुरू किया था. लेकिन इस अभियान के पहले ही दिन आतंकियों ने सेना के पांच जवानों को मार डाला, जिनमें एक जूनियर कमीशंड अफसर (जेसीओ) भी थे. चरमपंथियों के खिलाफ जारी अभियान में दो दिनों के बाद फिर से गोलीबारी हुई जिसमें सेना के दो और जवान मारे गए. सात दिनों की मुठभेड़ में अबतक सेना के दो जूनियर कमीशंड अफसर (जेसीओ) और सात जवान मारे जा चुके हैं. चरमपंथियों के खिलाफ ये ऑपरेशन पुंछ-राजौरी के घने जंगलों में अब भी जारी है. सेना ने अब तक 13 चरमपंथियों को मार गिराने का दावा किया है.

सरकारी कवायद

घाटी में एक ओर जहां चरमपंथियों और सेना के बीच एनकाउंटर चल रहा है वहीं दूसरी तरफ जम्मू-कश्मीर में देश विरोधी गतिविधियों में शामिल होने का दोष लगा कर सरकारी कर्मचारियों को नौकरी से बर्खास्त करने का अभियान भी जारी है. 16 अक्टूबर को जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने अलगाववादी नेता सईद अली शाह गिलानी के पोते अनीस उल इस्लाम और एक अन्य शिक्षक को नौकरी से बर्खास्त कर दिया.

प्रशासन ने अपने आदेश में कहा कि राज्य की सुरक्षा के हित में ये ज़रूरी नहीं है कि इस्लाम के मामले में जांच बिठायी जाए. अनीस उल इस्लाम शेर-ए-कश्मीर इंटरनेशनल कन्वेंशन सेंटर (एसकेएसीसी) में रिसर्च ऑफिसर के पद पर तैनात था.

स्पेशल ऑपरेशन के लिए भेजी गयी टीम

आतंकी घटनाओ के बढ़ने के कारण केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने स्पेशल ऑपरेशन के लिए एक टीम कश्मीर भेजी है, जो वहां सेना और पुलिस की कार्रवाई में मदद के साथ तलाशी अभियान में तेज़ी लाएगी.

सवाल यह है कि घाटी का संवैधानिक ढांचा बदलने से क्या हासिल हुआ? क्या राज्य के हालात फिर से 90 के दशक जैसे नहीं हो रहे हैं? क्या घाटी से कश्मीरी पंडितों, अल्पसंख्यकों और मजदूरों का पलायन फिर शुरू नहीं हो गया? क्या सरकार इनको सुरक्षा और रोजगार मुहैया करा सकी? क्या डर ख़त्म कर सकी? क्या विकास की बयार बही? नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ.

सरकार की लचर व्यवस्था और हिंसा की वजहें  

90 के दशक में कश्मीरी पंडितों के खिलाफ जब बड़े पैमाने पर हिंसा और हत्याएं शुरू हुई थीं तो वे जान बचाने के लिए घर छोड़कर परिवारों के साथ घाटी से निकल गए थे. कई सालों तक वे देश के अलग-अलग हिस्सों में बतौर शरणार्थी रहे. पलायन करने वाले लोगों ने पीछे जो घर और जमीनें छोड़ीं, उन पर स्थानीय लोगों ने क़ब्ज़ा कर लिया या फिर उसे औने-पौने दाम में ख़रीद लिया.

साल 1997 में राज्य सरकार ने क़ानून बनाकर विपत्ति में अचल संपत्ति बेचने और ख़रीदने के ख़िलाफ़ क़ानून बनाया. लेकिन क़ानून के बावजूद औने-पौने दाम में सम्पत्तियाँ बिकती रहीं.

मोदी सरकार ने धारा 370 हटा कर कश्मीरी पंडितों की क़ब्ज़ा की गई अचल संपत्तियों पर उन्हें दोबारा अधिकार देने की कवायद शुरू की. जम्मू और कश्मीर सरकार ने एक पोर्टल भी शुरू किया जिसके ज़रिये घाटी से पलायन कर गए कश्मीरी पंडितों को उनकी संपत्ति वापस दिलाने की प्रक्रिया ‘ऑनलाइन’ शुरू की गयी. इस पोर्टल का विज्ञापन के ज़रिए काफी प्रचार-प्रसार हुआ.

पोर्टल का जिस दिन जम्मू और कश्मीर के उप-राज्यपाल मनोज सिन्हा ने औपचारिक उद्घाटन किया. इस पोर्टल पर 44 हज़ार परिवारों ने राज्य के राहत और पुनर्वास आयुक्त के समक्ष अपना पंजीकरण कराया. इन 44 हज़ार परिवारों में 40,142 परिवार हिंदू, जबकि 1,730 सिख और 2,684 मुसलमान परिवार शामिल हैं. अब तक ऐसे लगभग 1,000 मामलों का निपटारा करते हुए संपत्ति को वापस उनके असली मालिक के हवाले किया गया है.

कश्मीरी पंडितों की अचल संपत्ति को क़ब्ज़े से छुड़ाने की प्रक्रिया शुरू तो कर दी गयी लेकिन इसकी कोई ठोस कार्ययोजना सरकार ने नहीं बनायी. सरकार की ओर से ये भी स्पष्ट नहीं किया गया कि किस रेट पर ज़मीन वापस दिलाई जाएगी. क्या वापसी उस समय की क़ीमत के हिसाब से होगी या फिर अभी के बाज़ार भाव के हिसाब से. दूसरा यह कि संपत्ति वापस लेने वालों को सरकार ने कोई सुरक्षा भी उपलब्ध नहीं करवाई.

सरकार पर लापरवाही का आरोप

कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के अध्यक्ष संजय टिक्कू कहते हैं, ‘बड़गाम, अनंतनाग और पुलवामा से 500 से भी ज्यादा लोगों का पलायन हो चुका है. इनमें कई सारे गैर-कश्मीरी पंडित परिवार भी हैं जो घाटी छोड़ रहे हैं. ये 1990 की वापसी की तरह है.’ टिक्कू का कहना है कि पिछले एक साल उन्होंने समय-समय पर जम्मू और कश्मीर के उप-राज्यपाल मनोज सिन्हा को कई पत्र और मेल लिखे, जिसमें घाटी में रह रहे कश्मीरी पंडितों के बीच व्याप्त भय को लेकर उनका ध्यान खींचा गया, लेकिन उप-राज्यपाल के कार्यालय से उनके पत्रों का कोई संज्ञान नहीं लिया गया.

अक्टूबर माह में जब हिंसा की वारदात बढ़ी तो टिक्कू ने फिर उप-राज्यपाल को लिखा कि घाटी में अचानक तेज़ हुए हमलों के बाद कश्मीरी पंडितों के बीच भय का माहौल पैदा हो गया है. सभी अपनी और अपने परिवारों की सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं. फिर भी उपराज्यपाल की ओर से कोई संज्ञान नहीं लिया गया.

उधर गुपकर गठबंधन के संयोजक और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता युसूफ़ तारीगामी का कहना कि अनुच्छेद 370 के हटाए जाने के बाद कहा गया था कि जम्मू-कश्मीर में हिंसा की घटनाओं में कमी आएगी, लेकिन जम्मू कश्मीर के प्रशासन के कई ऐसे फ़ैसले हैं, जिनके चलते समुदायों के बीच गलतफहमियां और दूरियां बढ़ने लगीं हैं. अनुच्छेद 370 हटाने के बाद यहाँ के कट्टरपंथियों में बड़ी बेचैनी थी. उनके अंदर ग़ुस्सा पनप रहा था, सरकार इसे देखने-समझने में नाकाम रही, जिसने अचानक से हिंसा की शक्ल ले ली है.

पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की अध्यक्ष और पूर्व मुख्‍यमंत्री महबूबा मुफ्ती घाटी में बढ़ती हिंसा के लिए सीधे तौर पर मोदी सरकार को जिम्मेदार ठहराती हैं. उनका कहना है, ‘हालात दिन-ब-दिन बिगड़ते जा रहे हैं और इसके लिए भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार जिम्मेदार है. सरकार द्वारा पांच अगस्त 2019 को अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के बाद से और उससे पहले उठाए गए गलत कदम कश्मीर में तेजी से बिगड़ते हालात के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार हैं.’

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