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Prime Minister : मोदी क्यों जपते रहते हैं नेहरू का नाम

Prime Minister : जब भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कामकाज पर विपक्ष आक्रामक हुई उन्होंने सफाई देने की जगह नेहरू पर आरोप लगाए हैं. उन के अकसर अपने वक्तव्य में नेहरू का जिक्र किसी न किसी बहाने करते हैं. आखिर इस की वजह क्या है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मानसून सत्र में लोकसभा में दिए गए अपने भाषण में 14 बार भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का जिक्र किया. वो अपने अधिकांश भाषणों में नेहरू का जिक्र कर उन की ‘गलतियां’ गिनाते हैं. लोकसभा में 102 मिनट तक नरेंद्र मोदी कांग्रेस के संदर्भ पर बोलते रहे. इस के केंद्र में जवाहर लाल नेहरू रहे. वैसे देखे तो नरेंद्र मोदी ने नेहरू को न तो देखा होगा न ही उन के समयकाल में वह राजनीतिक सामाजिक मुद्दों की समझ रखते रहे होंगे.

मई 1964 में जब नेहरू का निधन हुआ होगा तब नरेंद्र मोदी 14 साल के रहे होंगे. देश में तमाम प्रधानमंत्री इस के बाद हुए, इन में से कई कांग्रेसी और कई गैर कांग्रेसी भी थे. भारत में 13 अलगअलग प्रधानमंत्री हुए हैं. इस के बाद भी नरेंद्र मोदी हमेशा जवाहरलाल नेहरू के नाम की ही माला जपते रहते हैं. देखा जाए तो नरेंद्र मोदी की पहली राजनीतिक लड़ाई इंदिरा गांधी से होनी चाहिए. उन के लगाई इमरजैंसी में उन्हें और सैकड़ों आरएसएस स्वयंसेवकों को गिरफ्तार किया था.

इस के पीछे विचारधारा की लड़ाई है. जवाहरलाल नेहरू महिला अधिकारों के पुरजोर समर्थक थे और उन का मानना था कि कानूनों और परंपराओं के कारण महिलाओं का दमन होता है. जिस से उन्हें संपत्ति, कानूनी अनुबंध, और पारिवारिक कानून में समान अधिकार मिलना चाहिए. हिंदू कोड बिल द्वारा लाने का उन का उद्देश्य भी यही था.

मोदी को अखरता है नेहरू का धर्म निरपेक्ष होना

यही नहीं संसदीय चुनावों में महिलाओं के पर्याप्त प्रतिनिधित्व पर भी उन का जोर रहता था. उस समय महिलाएं राजनीतिक रूप से इतनी जागृत नहीं थीं. वह इस बात का समर्थन करते थे कि राजनीति में ज्यादा से ज्यादा महिलाएं आगे आए. अपने दौर में कई महिलाओं को आगे लाने का काम भी किया था. देश के पहले चुनाव के नतीजों के बाद 18 मई, 1952 को जवाहरलाल नेहरू ने देश के मुख्यमंत्रियों को लिखा ‘मुझे बड़े अफसोस के साथ यह कहना पड़ रहा है कि महिलाएं कितनी कम संख्या में निर्वाचित हुई हैं और मुझे लगता है कि राज्य विधानसभाओं और परिषदों में भी ऐसा ही हुआ होगा. इस का मतलब किसी के प्रति नर्म पक्ष दिखाना या किसी अन्याय की ओर इशारा करना नहीं है, बल्कि यह देश के भविष्य के विकास के लिए अच्छा नहीं है. मेरा दृढ़ विश्वास है कि हमारी वास्तविक प्रगति तभी होगी जब महिलाओं को सार्वजनिक जीवन में अपनी भूमिका निभाने का पूरा अवसर मिलेगा.”

पंडित जवाहरलाल नेहरू धर्मनिरपेक्ष विचारधारा के थे. उन की पूरी कोशिश थी कि भारत कभी ‘हिंदू राष्ट्र’ न बने. वो हमेशा ही हिंदुत्ववादी ताकतों से उलझते रहते थे. उन्हें हाशिए पर डालने, यहां तक कि उन्हें बहिष्कृत करने की हर संभव कोशिश करते थे. नाथूराम गोडसे के महात्मा गांधी की हत्या ने हिंदू सांप्रदायिकता को हर मोड़ पर चुनौती देने के उन के संकल्प को और मजबूत कर दिया. उस समय आरएसएस के लिए नेहरू सब से बड़े ‘शत्रु’ थे. जिन से वे वैचारिक और राजनीतिक स्तर पर बेहद नफरत करते थे.

1940 से 1973 तक आरएसएस के सरसंघचालक के रूप में अपने लंबे कार्यकाल के दौरान, गोलवलकर नेहरू को अपना प्रमुख विरोधी मानते थे. वो उन्हें एक ऐसा व्यक्ति मानते थे जो हिंदुत्व को लोगों के बीच स्वीकार्यता हासिल करने से रोक रहे थे. उसी विचारधारा में पलेबढ़े नरेंद्र मोदी भी इसी कारण से नेहरू विरोध का राग अलापते रहते हैं. 2014 में वह जब से प्रधानमंत्री बने हैं लगातार नेहरू का विरोध करने का काम करते हुए उन के कद को छोटा करना चाहते हैं. इस में आरएसएस उन के साथ है. चाहे वह योजना आयोग को भंग करना हो, सिंधु जल संधि को निलंबित करना हो, नेहरू के मुकाबले पटेल या सुभाष चंद्र बोस के कद को बढ़ाना हो, उन को बड़ा उद्देश्य स्पष्ट है.

नेहरू की खामियों को उजागर कर के और उन की कई उपलब्धियों को नकार कर उन का कद छोटा करना. मोदी लगातार प्रधानमंत्री बने रहने का नेहरू का रिकौर्ड तोड़ना चाहते हैं. इसलिए 2029 का लोकसभा चुनाव उन के लिए बेहद चुनौती भरा है. इसी लिए 11 साल प्रधानमंत्री बने रहने और तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद जब भी लोकसभा में भाषण देने का मौका मिलता है मोदी 102 मिनट 14 बार जवाहरलाल नेहरू का नाम लेते रहते हैं. नेहरू ने हिंदू कोड बिल और हिंदू विवाह और उत्तराधिकार कानून में जिस तरह से महिलाओं को अधिकार दिया उस से दक्षिणपंथी लोगों के मन में नेहरू के प्रति नफरत भरी है.

हिंदू कोड बिल की पहली फांस

1951-52 में भारत में पहले आम चुनाव हुए. नेहरू ने हिंदू कोड बिल को अपना मुख्य चुनावी एजेंडा बनाया था. उन का कहना था कि ‘अगर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जीतती है तो वे इसे संसद से पारित कराने में सफल होंगे. कांग्रेस को भारी जीत मिली और नेहरू फिर से प्रधानमंत्री बने और उन्होंने एक ऐसा विधेयक तैयार करने के लिए व्यापक प्रयास शुरू किया जिसे पारित किया जा सके. नेहरू ने कोड बिल को चार अलगअलग विधेयकों में विभाजित किया. जिन में हिंदू विवाह अधिनियम, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, हिंदू अल्पसंख्यक और संरक्षकता अधिनियम और हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण पोषण अधिनियम शामिल थे. 1952 और 1956 के बीच प्रत्येक विधेयक को संसद में प्रभावी ढंग से पेश किया गया और उन को पारित भी करा लिया गया.

हिंदू कोड बिल लागू करने में नेहरू का सब से बड़ा उद्देश्य हिंदू महिलाओं को कानूनी हक दिलाने का था. वह कानूनी समानता से हिंदू समुदाय के भीतर के भेदभावों को मिटाना, हिंदू सामाजिक एकता का निर्माण करना और महिलाओं को बराबर का हक देने का था. नेहरू यह मानते थे कि चूंकि वह हिंदू थे इसलिए मुसलिम या यहूदी कानून के विपरीत विशेष रूप से हिंदू कानून को संहिताबद्ध करना उन का विशेषाधिकार था.

हिंदू कोड बिल पर बहस के दौरान हिंदू आबादी के बड़े हिस्से ने विरोध किया और बिलों के खिलाफ रैलियां कीं. बिलों की हार की पैरवी करने के लिए कई संगठन बनाए गए और हिंदू आबादी में भारी मात्रा में साहित्य वितरित किया गया. इस तरह के मुखर विरोध के सामने नेहरू को हिंदू कोड बिलों के पारित होने को उचित ठहराना पड़ा.

जब यह स्पष्ट हो गया कि हिंदुओं का विशाल बहुमत बिलों का समर्थन नहीं करता है. इस कानून के समर्थकों में संसद के भीतर और बाहर विभिन्न राजनीतिक दलों से जुड़े पुरुष और महिलाएं दोनों शामिल थे. हिंदू वादियों के दबाव में नेहरू को इस बिल में शास्त्रीय हिंदू सामाजिक व्यवस्था को शामिल करना पड़ा. जिस के तहत यह माना गया कि हिंदू के लिए विवाह एक पवित्र संस्कार है. विवाह कानून में इस को मानना पड़ा.

इस के बाद भी नेहरू ने महिलाओं को संपत्ति का अधिकार देने की बात में कोई बदलाव नहीं किया. 2005 में इस में संशोधन कर के महिलाओं को संपत्ति में समान अधिकार दे दिया गया. नरेंद्र मोदी इस कारण से ही नेहरू और सोनिया गाधी का सब से अधिक विरोध करने का काम करते हैं. संपत्ति में महिलाओं को हक देने का अधिकार नेहरू के कार्यकाल में हुआ और उन को समान अधिकार 2005 में दिया गया. जब डाक्टर मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी यूपीए की प्रमुख थी. विपक्षी उन को सुपर पीएम कहते थे.

नेहरू नहीं उन की विचारधारा से दिक्कत

नेहरू के बाद गांधी परिवार से दो प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और राजीव गांधी थे. राजीव गांधी की अपनी राजनीतिक समझ न के बराबर थी. वह विदेश में पढ़ेलिखे थे. प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने केवल देश का आधुनिक बनाने की दिश में काम किया. मारूती और कंप्यूटर उन की पहचान बनी. इंदिरा गांधी ने लंबे समय तक देश में राज किया. वह विचारधारा के मामले में आरएसएस के साथ लंबाचौड़ा विवाद करने से बचती रही. उन के राजनीतिक संबंध कई धार्मिक नेताओं के साथ रहे. कई धर्मगुरू उन के साथ रहते थे. सामाजिक अधिकारों को ले कर कोई बड़ा काम नहीं किया. राजीव गांधी भी इसी तरह की राजनीति का शिकार हो गए थे. ऐसे में नरेंद्र मोदी और आरएसएस का पूरा विरोध नेहरू तक ही सीमित हो गया है.

दक्षिणापंथी लोगों को यह पता है कि अगर महिलाओं में धर्म के प्रति आस्था खत्म हो गई तो हिंदू राष्ट्र का सपना कभी पूरा नहीं होगा. ऐसे में वह महिलाओं को मानसिक रूप से गुलाम बना कर रखना चाहते हैं. नरेंद्र मोदी जब प्रधानमंत्री बने तो उन्होने मुसलिम महिलाओं के लिए तो तीन तलाक कानून में सुधार का काम किया लेकिन हिंदू महिलाओं को जल्द तलाक मिल सके इस पर कानून विचार बनाने का विचार नहीं किया. क्या वह हिंदू महिलाओं को तलाक के लिये कोर्ट में भटकते देखना चाहते हैं.

एक तरफ नेहरू थे जो हिंदू महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई लड़ते रहे दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी है जिन के लिए हिंदू महिलाओं से अधिक तीन तलाक कानून बनाने की जल्दी थी. उन को हिंदू महिलाओं के बारे में सोचने का समय नहीं है. विचारधारा का यही संकट दोनों के बीच अंतर को दिखाता है. इसी कारण मोदी लगातार नेहरू और सानिया गांधी का विरोध करते हैं. राजीव और इंदिरा से उन को खास दिक्कत नहीं होती है. Prime Minister

Father Son Relationship : एक तरफ पिता एक तरफ बेटा, न्यूट्रल रहती है मां

Father Son Relationship : अकसर मां पति और बेटे के बीच नैतिक पशोपेश में तब फंसती है जब दोनों के फैसलों में से किसी एक का चुनाव करना होता है. पति जिस के साथ जीवन जी रही है और बेटा जो मां का प्यारा होता है. ऐसे में क्या करे मां?

देश में जब भी आजादी की बात होती है 15 अगस्त को बड़ी घूमधाम से मनाया जाता है. असल में 15 अगस्त को देश अंगरेजों से आजाद हुआ था. देश के अंदर तमाम रीति रिवाज, कुरीतियां, ऊंचनीच और भेदभाव आजादी के बाद आज तक कायम है. जिस आजादी का जश्न हम बड़ी धूमधाम से मनाते हैं, क्या हम अपने घरों में उसी तरह से आजाद हैं? आज हमारे घरों में भी विचारों की और अपनी बात कहने की आजादी नहीं है. घरों में मातापिता और बच्चों के बीच यह सवाल बारबार उठता है.

सोशल मीडिया पर एक रील वायरल है. जिस में बेटा अपने पिता को बता रहा होता है कि आज मैं ने मां से पूछा कि ‘मां मैं इतना बड़ा कब हो जाऊंगा कि मैं बिना आप से पूछे घर से बाहर जा सकूं, जो मन हो वह कर सकूं, अपने मन का खा संकू.’ पिता पूछता है ‘तो फिर मां ने क्या कहा ?’ बेटा बोला ‘मां ने जो कहा वह सुन कर मै हैरान हूं. वह बोली इतना बड़ा तो तेरा बाप नहीं हुआ.’

घरों की आजादी का कुछ यही हाल है. आज भी मातापिता ही ज्यादातर मामलों में बच्चों के कैरियर, शादी विवाह और उन के घर आनेजाने के समय को तय करते हैं. थोड़ा बहुत मातापिता बच्चों की बात सुनने लगे हैं पर अभी भी पूरी आजादी नहीं है. ज्यादातर मामलों में पिता पुत्र के बीच टकराव हो जाता है. जैसे लोकसभा और विधानसभाओं में सत्ता पक्ष और विपक्ष होते हैं. अब इन की बहस को रोकने के लिए वहां स्पीकर होता है घर में यह काम मां का होता है. पिता पुत्र के विवाद में वह न्यूट्रल होती है.

पिता बनाम पुत्र में मां ‘न्यूट्रल’

पिता पुत्र के बीच मतभेद या विवाद की हालत में मां की भूमिका ‘न्यूट्रल’ होती है. पिता और पुत्र के बीच झगड़ा होने पर मां को मध्यस्थता करनी चाहिए. दोनों ही पक्ष उस की बात को सुनते हैं. मां ही दोनों को शांत कर सकती है. इस के लिए माता को पहले पिता और पुत्र दोनों की बातें सुननी चाहिए. यह समझने की कोशिश करनी चाहिए कि विवाद है क्या ? कौन गलत है कौन सही है ? मां ही वह है जिस को दोनों ही सम्मान देते हैं. मां दोनों को ही शांत कर सकती है. उन को आपस में मिला भी सकती है. उन के बीच के मतभेद को खत्म कर सकती है.

पिता पुत्र के बीच झगड़ा एक आम बात है, खासकर जब पुत्र युवावस्था में हो. यह झगड़े कम मतभेद ज्यादा होते हैं. इन के बीच टकराव का कारण विचारों का आपस में न मिलना होता है. दोनों के बीच एक जनरेशन गैप होता है. पिता हर बात में इस बात का उदाहरण देता है कि उस के दौर में क्या था ? कैसे वह अपने मांबाप की बात मानता था. आज की पीढ़ी आजाद हो गई है मातापिता की बात नहीं मानती है. बेटा तर्क देता है कि जमाना बदल गया है वह आजाद है पर उस को आजादी मिल नहीं रही है. आजादी मिले तो वह बहुत कुछ कर सकता है.

जनरेशन गैप क्या है ?

पिता और पुत्र के बीच पीढ़ी गत अंतर को जरनेशन गैप कहा जाता है. इस के कारण ही अकसर दोनों के बीच विवाद होते हैं. यह अंतर विचारों, मूल्यों, और जीवनशैली में भिन्नता के कारण पैदा होता है. जिस से दोनों पक्षों में गलतफहमी और टकराव हो सकता है. पिता और पुत्र दोनों अपनेअपने समय के सामाजिक परिवेश और अनुभवों के आधार पर सोचते हैं. इस से उन के विचारों में अंतर आ जाता है. खासकर आधुनिकता और पारंपरिकता के मुद्दों पर यह विचार एकदम विपरीत होते हैं. पिता अकसर ‘हमारे समय में’ और ‘आज के समय में’ जैसे शब्दों का प्रयोग करते हैं. यही पीढ़ीगत अंतर यानि जनरेशन गैप को दिखाता है.

पिता और पुत्र दोनों को एकदूसरे की बात ध्यान से सुननी चाहिए. अपनी बात स्पष्ट रूप से कहनी चाहिए. दोनों के बीच बातचीत कम से कम होती है. पुत्र जिस तरह से मां के साथ खुल कर बात कर लेता है उस तरह से पिता के सामने बात नहीं करता है. बिना कहे दोनों ही मां को बोलते हैं जिस से पिता और पुत्र दोनों को समझ आ जाए कि वह क्या चाहते हैं. पिता को लगता है कि वह अपने अनुभव के आधार पर कह रहा है. पुत्र को यह लगता है कि पिता उस के उपर नियत्रंण करना चाहते हैं. इस के साथ ही साथ पिता और पुत्र के बीच पारिवारिक जिम्मेदारियों को ले कर भी मतभेद हो सकते हैं.

पिता और पुत्र दोनों को एकदूसरे से खुल कर बात करनी चाहिए. एकदूसरे की बात सुननी चाहिए. पिता को बेटे की मानसिकता को समझने की कोशिश करनी चाहिए और बेटे को भी पिता के अनुभव और सलाह का सम्मान करना चाहिए. दोनों पक्षों को एकदूसरे का सम्मान करना चाहिए और एकदूसरे की भावनाओं का ध्यान रखना चाहिए. एकदूसरे के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखते हुए समस्याओं का समाधान खोजने की कोशिश करनी चाहिए. एकदूसरे के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताना चाहिए. साथ में समय बिताने से भी रिश्ते मजबूत होते हैं. जरूरत पड़ने पर किसी मित्र, डाक्टर या सलाहकार की मदद लेने में संकोच नहीं करना चाहिए.

मां की भूमिका होती है खास

पिता और पुत्र के बीच किसी भी किस्म के विवाद को सुलझाने में मां की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है. वह अकसर दोनों के बीच न्यूट्रल रहती है. अपनी इस भूमिका में रहते हुए उसे दोनों पक्षों को शांत करने की कोशिश करनी चाहिए. कई बार यह देखा गया है कि मां ही जिस बात के लिए बेटे को डांट रही होती है उस में जैसी ही पिता की इंट्री होती है मां बेटे की तरफ खड़ी हो जाती है. ऐसे में पिता को कई बार समझ ही नहीं आता की मां चाहती क्या है ? असल में मां के दिल में बेटे के प्रति अधिक प्यार होता है. वह पिता को भी यह समझा ले जाती है कि उस की कितनी चिंता और फिक्र है उसे. इस के चलते ही पिता और पुत्र दोनों ही उस की बात का पूरा सम्मान करते हैं.

जब पिता और पुत्र के बीच विवाद हो रहा हो तो मां को दोनों की बात को सुनना चाहिए. मां को यह समझने की कोशिश करनी चाहिए कि झगड़े का कारण क्या है ? इस को ले कर पिता पुत्र दोनों की भावनाएं क्या हैं? यहां सब से जरूरी यह है कि वह खुद बेहद शांत और धैर्य बना कर रहे. उस को गुस्से में या उत्तेजित हो कर कोई भी बात नहीं कहनी चाहिए. दोनों पक्षों की बात को समझते हुए उस को समझौते की तलाश करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए. एक सकारात्मक महौल में हंसीमजाक और प्यारदुलार के साथ मामले को सुलझाना चाहिए. मां को पिता और पुत्र दोनों को यह याद दिलाना चाहिए कि परिवार कितना महत्वपूर्ण है और उन के बीच का झगड़ा परिवार के लिए कितना हानिकारक हो सकता है.

मां को कभी एक पक्ष का समर्थन नहीं करना चाहिए. उस को निष्पक्ष यानि न्यूट्रल रहना चाहिए. दोनों पक्षों को समान रूप से सुनना चाहिए. केवल बात को सुनने मात्र से ही कई बार आधी परेशानी खत्म हो जाती है. मां अगर गुस्से में या उत्तेजित हो कर कोई भी प्रतिक्रिया देगी तो झगड़ा खत्म होने की जगह पर बढ़ सकता है. मां को किसी को भी दोषी नहीं ठहराना चाहिए. इस से झगड़ा और बढ़ सकता है. मां को बातचीत से बचने की कोशिश नहीं करनी चाहिए. उन्हें दोनों पक्षों को एकदूसरे से बात करने और अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए.

अहम है पिता पुत्र का रिश्ता

पिता पुत्र का रिश्ता बेहद अहम है. पुत्र ही पिता का कानूनी वारिस होता है. अगर दूसरी शादी या बिना शादी के भी पिता से पुत्र है तो उसे मां से अधिक कानूनी अधिकार प्राप्त है. आदमी भले ही दूसरी औरत के प्रति बिना शादी के जवाबदेह न हो पर उस से पैदा पुत्र को अपना उत्तराधिकारी मानने से इंकार नहीं कर सकता है. जब पतिपत्नी के बीच तलाक हो जाता है उस के बाद भी पुत्र या पुत्री के भरणपोषण की जिम्मेदारी से वह मुकर नहीं सकता है. पिता चाह कर भी अपनी जायदाद से पुत्र को बेदखल नहीं कर सकता है.

पुत्र का पिता की पैतृक संपत्ति में जन्मसिद्ध अधिकार होता है. पिता पुत्र इस से बेदखल नहीं कर सकता है. यह बात और है कि पिता अपने द्वारा बनाई गई संपत्ति का मालिक होता है. उसे अपनी मर्जी से किसी को भी दे सकता है. चाहे वह पुत्र हो या कोई और. 2005 के हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के संशोधन के बाद पुत्रियों को भी पैतृक संपत्ति में समान अधिकार प्राप्त हैं.

अगर पतिपत्नी में तलाक होता है तो पिता को बच्चे की संयुक्त कस्टडी के लिए आवेदन करने का अधिकार है. जिस में वह बच्चे के साथ समय बिताने और उसके निर्णयों में भाग लेने का हकदार होगा.

पिता को बच्चे की एकल कस्टडी के लिए भी आवेदन करने का अधिकार भी है. जिस में उसे बच्चे की देखभाल और पालन पोषण की जिम्मेदारी मिलेगी. पिता को बच्चे के साथ मिलने जुलने का अधिकार है. जिसे पेरेंटिंग टाइम कहा जाता है. पिता को अपने बच्चे के भरण पोषण के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करने की जिम्मेदारी है. पिता अपने बच्चे का कानूनी प्रतिनिधि होता है. वह 21 वर्ष की आयु तक उसके भरण पोषण के लिए जिम्मेदार होता.

इस तरह से देखें तो चाहे कानूनी पहलू हो या सामाजिक पिता और पुत्र का रिश्ता बेहद अहम होता है. एक पिता ही अकेला ऐसा आदमी होता है जो अपने पुत्र को खुद से आगे देखने का काम कर सकता है. यह बात और है कि पिता और पुत्र दोनों ही जीवन भर इस रिश्ते और अपनेपन का इजहार नहीं करते हैं. जिस तरह से पुत्र मां से अपने प्यार का इजहार करता है उस तरह से पिता के साथ नहीं कर पाता है. दो नदी के किनारे जैसे होते हैं जो साथसाथ तो चलते हैं पर मिल नहीं पाते. मां दोनों के बीच पुल का काम करती है. इसी लिए वह इन के विवादों में न्यूट्रल रहते हुए पुल का काम करती है. Father Son Relationship 

Rural girls of Bihar : सारी सीमाएं तोड़तीं बिहारी लड़कियां – संघर्ष, सामर्थ्य और सशक्तीकरण की दास्तां

Rural girls of Bihar : बिहार में लड़कियों को भले आगे बढ़ने को मौके सीमित मिले पर उन्होंने विपरीत परिस्थितियों में भी खुद को न सिर्फ निखारा बल्कि हर क्षेत्र में वे आगे बढ़ीं. आज भी वे लगातार संघर्षरत हैं.

आजकल मेनस्ट्रीम मीडिया महिलाओं को विलेन साबित करने में जुटा हुआ है. उस का यह मकसद है कि महिलाओं को कानूनी रूप से जो अधिकार दिए गए हैं उन्हें कैसे उन से छीन लिया जाए. इसलिए आजकल ऐसे मामलों को मेनस्ट्रीम मीडिया ज्यादा जोर दे कर दिखा रहा है ताकि जल्दी से जल्दी कानून में संशोधन हो और एक बार फिर महिलाओं को गुलामी के जंजीर में जकड़ा जा सके.

विडंबना देखिए जिन मामलों में लड़कियों को विलेन बना कर दिखाया जा रहा है वे मामले टीवी न्यूज चैनल पर खुद महिला एंकर न्यूज प्रस्तुत करती हैं और इन मामलों पर डिबेट वे पुरुषों से करवाती हैं. डिबेट में ऐसे पुरुष बैठे होते हैं जिन पर खुद कभी न कभी यौनशोषण के केस दर्ज हुए हैं.

कई महानुभाव तो डिबेट में यह तक कहते दिखे कि रेप के आंकड़े दरअसल तथाकथित हैं और अत्यधिक मामले झूठे हैं. लेकिन इन महानुभावों और कोटसूट पहने टीवी एंकर्स को रेप पीड़िता की कहानी नहीं पता. उन्हें नहीं पता कि उस पीड़िता के लिए समाज एक कैदखाना बन चुका है. वहीं अगर आज के जमाने में कोई लड़की हिम्मत कर के अपने पांव पर खड़े होने की कोशिश करती है तो पूरा समाज उसे ताने मारना शुरू कर देता है.

लड़कियां या तो समाज के ताने को सहन कर आगे बढ़ने की कसम खा लेती हैं या फिर टूट जाती हैं और घर की दीवारों को ही दुनिया मान लेती हैं. लेकिन बिहार की लड़कियां ठीक इस के विपरीत हैं, ऐसा इसलिए क्योंकि बिहार की लड़कियों का जज्बा और जनून देख कर तो यही लगता है कि वे धारा के विपरीत बहने का काम कर रही हैं.

बिहार की लड़कियों की कहानी सिर्फ बिहार की नहीं बल्कि यह भारत के शैक्षणिक, सामाजिक और सांस्कृतिक ढांचे के भीतर पल रही क्रांति की कहानी भी है. यह क्रांति बंद कमरे से झांकती नहीं हैं बल्कि उस के दरवाजे तोड़ कर पूरी दुनिया से अपने हक और अधिकार के लिए लड़ती है, और साथ ही, अपने दम पर अपने सपनों को पूरा करने की कोशिश करती है.

बिहार की लड़कियां जितनी तेजी से चूल्हेचौके का काम निबटाती हैं उतनी ही फुरती से खेतों का काम भी निबटाती हैं. बिहार की लड़कियां आज सामाजिक, आर्थिक और पारंपरिक सीमाओं की सोच को तोड़ रही हैं.

शिक्षा में पिछड़ कर भी जीवन की पाठशाला में अव्वल

देश के सब से कम साक्षर राज्यों में बिहार का नाम आता है. साल 2021-22 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे के आकंड़ों पर नजर डालें तो बिहार महिला साक्षरता दर 61.1 प्रतिशत है. वहीं केरल में महिला साक्षरता दर 92.2 प्रतिशत और महाराष्ट्र में 83.9 प्रतिशत है. उपरोक्त आंकड़ा सिर्फ शिक्षा तक ही सीमित नहीं है. यह आंकड़ा सामाजिक व्यवस्था को भी दर्शाता है, जो लड़कियों को किताब से पहले रसोई और खेत की राह दिखाता है. लेकिन सीमित संसाधनों और अवसरों के बावजूद बिहार की लड़कियां जीवन की आत्मनिर्भरता, जिम्मेदारी और संघर्षशीलता के पाठशाला में पास हो रही हैं.

दिनभर बिहार की लड़कियां खेतों में काम करती हैं. धूल, मिट्टी और पानी के बीच जिंदगी से जूझती हैं और शाम होते ही मां और दादी के साथ चूल्हे में हाथ बंटाती है. यह जीवनशैली उन्हें शारीरिक रूप से बहुत मजबूत बनाती है.

शहर की लड़कियां जहां डाइटिंग और जिम के माध्यम से फिटनैस की तलाश में रहती हैं, वहीं बिहार की सामान्य लड़की के पास अद्भुत सहनशक्ति और ताकत होती है.

बिहार की लड़कियों को पढ़ाई के मौके लड़कों के मुकाबले कम ही मिलते हैं, लेकिन अगर किसी बिहारी लड़की को जब अपने सपने सामने दिखते तो वह हर बाधा को पार कर बिहार में शिक्षक, पुलिस और प्रशासनिक सेवाओं के लिए अपना पूरा जोर लगा देती है. इस के बाद जब परिणाम सामने आता है तो अपने सेवा में रहते हुए समाज में बदलाव लाने की कोशिश करती है और कड़े निर्णय ले कर दिखाती है कि वे लड़कों से कंधे से कंधा मिला कर चलने की क्षमता बिहार की लड़की में है.

वहीं अगर परिणाम विपरीत आते हैं तो भी वह हार नहीं मानती बल्कि इस से अपने इस अनुभव से सीख ले कर आगे बढ़ती है और मेहनत दोगुनी करती है.

बिहार के किशोरियों में औसतन 9 से 12 घंटे का शारीरिक श्रम सामान्य बात है, जो कि शहरी क्षेत्रों की तुलना में 60 प्रतिशत अधिक है. इस का प्रभाव उन की सहनशक्ति और कार्यक्षमता में दिखता है. इन आंकड़ों को अगर ठीक से समझने की कोशिश करें तो ये यह दर्शाते हैं कि बिहारी लड़कियां किसी ओलिंपिक खिलाड़ी से कम मेहनत नहीं करती हैं.

इस के साथ ही, बिहार में बाल विवाह की स्थिति अभी भी चिंताजनक है. नैशनल हैल्थ फैमली सर्वे – 5 के अनुसार राज्य में 40 प्रतिशत लड़कियों की शादी 18 साल से पहले ही हो जाती है. यह आंकड़ा देश के औसत 23.3 प्रतिशत से काफी अधिक है.

इस का सीधा असर लड़कियों की शिक्षा, स्वास्थ्य और मानसिक विकास पर पड़ता है. लड़कियों को उन के परिवार द्वारा उन के अधिकारों से वंचित करना, पढ़ाई न करवाना और कम उम्र में शादी करवाने से मानसिक रूप से वे खुद को कमजोर महसूस करने लगती हैं क्योंकि उन के भीतर कई सपने सांसें ले रही होते हैं, जो उन के परिवार के गलत फैसले की वजह से दफन होने को मजबूर हो जाते हैं. लेकिन यही लड़कियां जब विद्रोह पर उतर जाती है तो अपनी शादी की उम्र भी खुद तय करती हैं और अपने सपनों को पूरा भी करती हैं. इस के लिए चाहे समाज ताने मारे या उन का बहिष्कार कर दे, वे मजबूती से इन का डट कर सामना करती हैं.

बीते सालों में शहरी बिहार में 18 से 24 वर्ष की अधिकतर लड़कियों ने अपनी शादी का विरोध किया और उसे टालने की भपूर कोशिश भी की. इस से यह साफ़ होता है कि बिहार की लड़कियां समाजिक रूप से परिवर्तन चाहती है, लेकिन रूढ़िवादी सामाजिक सोच उन्हें आजाद नहीं देखना चाहता है.

बिहार की लड़कियों को भले ही पढ़ाई के मौके कम मिले लेकिन इस के बावजूद वे अपनी जीवनरक्षा में अव्वल हैं. दिल्ली, मुंबई, पुणे, बेंगलुरु से जैसे बड़े शहरों में घरेलू सहायिकाएं बन कर, फैक्ट्रियों में मजदूरी कर के, ब्यूटीशियन, नर्स, टैक्नीशियन, कौर्पोरेट सहायक और यहां तक कि सेक्सवर्कर तक का काम बिहार की लड़कियां कर रही हैं.

मुंबई, दिल्ली जैसे बड़े शहरों में घरेलू सहायिकाओं के रूप में काम करने वाली ज्यादातर लड़कियां बिहार से हैं. इस के साथ ही इन में से कई तो 14 से 15 साल की उम्र में घर छोड़ कर आई होती हैं. ये लड़कियां बहुत ही निम्नवर्ग से बड़े शहरों में आती हैं और अपना काम ईमानदारी व मेहनत से करती हैं.

निम्नवर्ग और नीची जाति होने की वजह से इन का संघर्ष सिर्फ खुद के लिए नहीं होता है, बल्कि अपने परिवार के लिए होता है. ये अपने परिवार की कमाई का जरिया बनती हैं, जिस से पूरा परिवार दो वक्त की रोटी खा पाता है. पढ़ाई और बाकी चीजों में भले ही ये लड़कियां पीछे रह गईं लेकिन जिंदगी की पाठशाला में इन के लिए गोल्ड मैडल भी कम हैं.

देश में मानव तस्करी के मामलों में बिहार अग्रणी राज्यों में हैं. बिहार से बड़ी संख्या लड़कियों को दिल्ली, मुंबई या अन्य बड़े शहरों में नौकरी, शादी और मौडलिंग के नाम पर लाया जाता है और फिर इन लड़कियों को वेश्यावृति के दलदल में धकेल दिया जाता है.

वहीं कई बिहारी लड़कियों ने हाल के वर्षों में आईटी, टैलीकाम, बीपीओ और बैंकिंग सैक्टर में अपनी अगल पहचान बनाई है. बीते 5 वर्षों के दौरान बिहार की ग्रामीण लड़कियों की संख्या कौर्पोरेट क्षेत्र में जबरदस्त बढ़ी है. राज्य की सीमा और समाज के तानेबाने से ऊपर उठ कर बिहार की लड़कियां अब खुद को बड़ी कंपनियों में बड़े पदों पर भी स्थापित कर चुकी हैं.

सिर्फ शारीरिक रूप से ही नहीं, बिहार की बेटियां मानसिक रूप से भी अब मजबूत होती जा रही हैं. बचपन में घरेलु हिंसा, तंगहाली और यौनहिंसा के शिकार होने की वजह से बिहारी लड़कियां मानसिक रूप से बहुत ज्यादा मजबूत हो जाती हैं. ये घटनाएं उन्हें समय से पहले बड़ा बना देती हैं. लेकिन अब वे इन सब का प्रतिकार करना जानती हैं.

बिहार की अर्धशहरी और ग्रामीण लड़कियों में सैक्स के प्रति हिचक शहरी भारत की तुलना में कम है. इस का एक बड़ा कारण यह है कि आज भी अधिकतर लड़कियों की शादी किशोरावस्था शुरू होते ही करवा दी जाती है. 14 साल की उम्र में विवाह और मातृत्व जैसी जिम्मेदारियों का अनुभव उन्हें सैक्स और शरीर के मुद्दों पर अधिक परिपक्व बनाता है.

आज भी बिहार के कई गांवों में बिजली उपलब्धता बहुत ही सिमित है, या यों समझ लीजिए कि आज भी सुदूर देहात में बिजली नाममात्र के लिए दी जाती है. कई गांवों में औसतन 12 से 14 घंटे ही बिजली की आपूर्ति होती है. वहीं कई गांवों में 9 घंटे से भी कम बिजली की आपूर्ति होती है.

इस के साथ ही तकनीकी कारणों की वजह से जब बिजली बाधित होती है तो इसे दुरुस्त करने में हफ्तेभर का समय आराम से लग जाता है. साफ पीने का पानी के लिए लड़कियों को 1 से 2 किलोमीटर तक पैदल जाना पड़ता है.

बिहार में नल जल योजना जमीनी स्तर पर पानी कम और हवा ज्यादा देती है. लेकिन इन सब के बीच अगर बिहार की मिट्टी में कुछ हो रहा है तो वह इन लड़कियों की जिद की वजह से, लड़कियां लालटेन की रोशनी में, ढिबरी जला कर पढ़ाई कर रही और मंजिल तक पहुंचने के लिए एड़ीचोटी का जोर लगा रही हैं.

साल 2023 में बिहार बोर्ड की मैट्रिक परीक्षा में टौप 5 में 4 लड़कियों में अपनी जगह बनाई थी, जो यह साबित करता है कि कम साधनों में भी बड़ी से बड़ी सफलता हासिल की जा सकती है.

बिहार की बेटियां चाहे जिस भी वर्ग से आती हों, आज वे अपने हक के लिए आगे बढ़ कर लड़ रही हैं. किशनगंज, सहरसा, मधेपुरा जैसे जिलों की लड़कियां अब बुर्के से निकल कर सिविल सेवा की तैयारी कर रही हैं. दलित लड़कियां पंचायत चुनाव लड़ और जीत रही हैं. ओबीसी, सवर्ण, मुसलिम, यादव या भूमिहार परिवार की लड़कियां यूपीएससी की परीक्षा पास कर अफसर बन रही हैं. आज बिहार की लड़कियां बिहार के चुनावों में उम्मीदवारी के साथसाथ प्रत्याशियों की हारजीत भी तय कर रही हैं. सीमांचल में कई पंचायत इलाके ऐसे हैं जहां बिहार की बेटियों के वोट प्रत्याशियों के लिए बहुत माने रखते हैं.

बिहार अब सामाजिक रूप से बदलाव के मोड़ पर है. बिहार के रूढ़िवादी समाज को बिहार की बेटियां अपने कौशल और हिम्मत से बदल रही हैं. आने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में बिहार की लड़कियां बिहार के लिए राजनीतिक रूप से एक नई पटकथा लिखने जा रही है, जो एक इतिहास होगा.

इस बार बिहार की बेटियां विधानसभा चुनाव में जाति या परिवारवाद को अपना सारथी नहीं चुनने वाली, क्योंकि ये उन के आत्मबल पर पाबंदियां लगाते हैं, इन के सपनों के पंख को काट देते हैं. इस बार बिहार की बेटियां खेत, खलिहान, किचन को सस्ता और बिहार में कौर्पोरेट के रास्ते बनाने के लिए और अपनी पहचान के लिए वोट करेंगी. Rural girls of Bihar

Fake Friends : मेरी दोस्त दूसरों से मेरी बातें शेयर कर मजाक बनाती है

Fake Friends : मैं कालेज का छात्र हूं. मेरी एक बहुत अच्छी दोस्त है जिस से मैं अपने हर राज शेयर करता हूं. लेकिन अब वह हर बात को दूसरों को बताने लगी है और मेरी निजी बातें तक मजाक का विषय बन गई हैं. मुझे समझ नहीं आ रहा कि क्या मैं उस से दोस्ती खत्म कर दूं?

जवाब : दोस्ती भरोसे की नींव पर टिकी होती है. अगर कोई बारबार आप के विश्वास को तोड़ता है तो यह स्पष्ट संकेत है कि वह व्यक्ति सच्चा मित्र नहीं है. सब से पहले एक बार खुल कर उस से बात करें और उसे बताएं कि उस के इस व्यवहार से आप कैसा महसूस कर रहे हैं.

अगर वह माफी मांगती है और सुधार लाने की कोशिश करती है तो मौका देना उचित हो सकता है. लेकिन यदि वह आप की भावनाओं को महत्त्व नहीं देती तो खुद को ऐसे रिश्ते से दूर कर लेना ही बेहतर है. आत्मसम्मान की रक्षा सब से पहले होनी चाहिए. Fake Friends

अपनी समस्‍याओं को इस नंबर पर 8588843415 लिख कर भेजें, हम उसे सुलझाने की कोशिश करेंगे.

Working Women : नौकरी और परिवार के बीच संतुलन नहीं बन पा रहा है

Working Women : मैं एक बैंक में मैनेजर के पद पर हूं, मेरे 2 छोटे बच्चे हैं (6 और 9 वर्ष के). औफिस का प्रैशर, बच्चों की पढ़ाई और घर की जिम्मेदारी मुझे मानसिक रूप से थका देती है. न मुझे खुद के लिए समय मिलता है और न ही मैं बच्चों को पूरा समय दे पाती हूं. मुझे लगता है, मैं हर जगह अधूरी हूं. मां के रूप में भी और प्रोफैशनल के रूप में भी.

जवाब : यह संघर्ष आज की हर कामकाजी मां का है. सब से पहले आप खुद को दोष देना बंद करें. ‘परफैक्ट’ बनने की कोशिश में हम अकसर खुद की सेहत और मानसिक संतुलन को भूल जाते हैं. आप मां हैं, एक प्रोफैशनल हैं और इंसान भी हैं.

हर भूमिका में सौ फीसदी देना संभव नहीं है. यह समझना ही मानसिक शांति का पहला कदम है.

एक व्यावहारिक तरीका अपनाएं, घर के कामों को बांटना सीखें. आप के पास समय सीमित है तो सोचना होगा कि किस काम को कम किया जाए, किसे बांटा जाए और किसे छोड़ा जा सकता है. हर हफ्ते एक ‘प्लानर’ बनाएं, उस में औफिस, बच्चों और खुद के लिए समय बांटें.

हर जिम्मेदारी सिर्फ आप के कंधों पर क्यों हो? थोड़ा बोझ बांटना सीखिए. पति से और बच्चों से छोटी जिम्मेदारियां लें. बच्चों को भी थोड़ी जिम्मेदारी दें, जैसे स्कूलबैग तैयार करना, खुद खाना लेना. उन्हें यह आत्मनिर्भर बनाएगा और आप को हलका.

कोशिश करें कि औफिस का काम औफिस तक ही सीमित रहे. औफिस में भी जहां संभव हो, कुछ जिम्म्मेदारियां डेडीगेट करें. आप मैनेजर हैं, सब खुद करने की जरूरत नहीं.

हर दिन कम से कम 30 मिनट खुद के लिए निकालें. चाहे वह वाक हो, ऐक्सरसाइज हो या किताब पढ़ना. एक खुश मां ही एक खुश परिवार बना सकती है. याद रखें, संतुलन बनाने का मतलब है हर चीज को थोड़ाथोड़ा देना, सबकुछ पूरी तरह नहीं. Working Women

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Relationship Problems : हम पतिपत्नी एकसाथ रहते हुए भी अजनबी से हो गए हैं

Relationship Problems : मैं 38 वर्ष का हूं. एक निजी कंपनी में काम करता हूं मेरी पत्नी एक स्कूल में अध्यापिका हैं. पिछले 2 वर्षों से हमारे बीच बातचीत लगभग न के बराबर रह गई है. मेरी व्यस्तता और उन की पारिवारिक जिम्मेदारियां हमें एकदूसरे से दूर करती जा रही हैं. अब स्थिति यह हो गई है कि हम एक ही छत के नीचे रहते हुए भी अजनबी बन चुके हैं. न तो साथ में खाना होता है, न कोई भावनात्मक जुड़ाव. मैं चाहता हूं कि पहले जैसा रिश्ता फिर से बन जाए, पर कैसे?

जवाब : सब से पहले, यह समझना जरूरी है कि किसी भी रिश्ते को जीवित रखने के लिए संवाद और समय सब से जरूरी होते हैं. आप दोनों को एकदूसरे के साथ क्वालिटी टाइम बिताने की आवश्यकता है बिना किसी फोन या काम के बीच में आने के. सप्ताह में एक दिन ‘सिर्फ हम’ के नाम रखें, चाहे वह साथ में टहलना हो या घर पर ही चाय के साथ बातें करना.

इस के साथ ही एक खुली बातचीत की शुरुआत करें बिना दोषारोपण के. पत्नी से पूछें कि वह क्या महसूस करती है और आप भी अपने मन की बात रखें. तो किसी मैरिज काउंसलर की मदद लें. Relationship problems

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Toxic workplace : अब औफिस का माहौल मेरे लिए जहरीला सा हो गया है

Toxic workplace : मैं 33 वर्ष का हूं. एक प्राइवेट फर्म में पिछले 6 वर्षों से काम कर रहा हूं. हाल ही में मुझे प्रमोशन मिला है, लेकिन इस के बाद से मेरे सहकर्मी मुझ से कटने लगे हैं. वे मेरे काम में गलतियां ढूंढ़ने की कोशिश करते हैं और बौस के सामने मेरी बुराई करते हैं. अब समझ नहीं आता कि मैं खुश रहूं या सावधान?

जवाब : किसी की सफलता देखने के बाद ईर्ष्या होना एक आम मानवीय व्यवहार है. आप को खुद को इस से प्रभावित नहीं होने देना चाहिए. सब से पहले, अपने काम पर ध्यान केंद्रित रखें और यह सुनिश्चित करें कि आप की परफौर्मेंस में कोई कमी न हो. साथ ही, टीम के साथ छोटेछोटे संवाद बनाए रखें. चाय पर आमंत्रित करें, मदद की पेशकश करें. इस से गलतफहमियां कम हो सकती हैं.

अगर फिर भी कोई व्यक्ति बारबार आप को नीचा दिखाने की कोशिश करता है तो उस के व्यवहार को ले कर अपने सीनियर से बात करें. याद रखें, चुप रहना हमेशा समाधान नहीं होताToxic workplace 

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Social Story : एक रात का सफर – क्या हुआ अक्षरा के साथ?

Social Story : बस के हौर्न देते ही सभी यात्री जल्दीजल्दी अपनीअपनी सीटों पर बैठने लगे. अक्षरा ने बंद खिड़की से ही हाथ हिला कर चाचाचाची को बाय किया. उधर से चाचाजी भी हाथ हिलाते हुए जोर से बोले, ‘‘मैं ने कंडक्टर को कह दिया है कि बगल वाली सीट पर किसी महिला को ही बैठाए और पहुंचते ही फोन कर देना.’’

बस चल दी. अक्षरा खिड़की का शीशा खोलने की कोशिश करने लगी ताकि ठंडी हवा के झोंकों से उसे उलटी का एहसास न हो, मगर शीशा टस से मस नहीं हुआ तो उस ने कंडक्टर से शीशा खोल देने को कहा. कंडक्टर ने पूरा शीशा खोल दिया.

अक्षरा की बगल वाली सीट अभी भी खाली थी. उधर कंडक्टर एक दंपती से कह रहा था, ‘‘भाई साहब, प्लीज आप आगे वाली सीट पर बैठ जाएं तो आप की मैडम के साथ एक लड़की को बैठा दूं, देखिए न रातभर का सफर है, कैसे बेचारी पुरुष के साथ बैठेगी?’’

अक्षरा ने मुड़ कर देखा, कंडक्टर पीछे वाली सीट पर बैठे युवा जोड़े से कह रहा था. आदमी तो आगे आने के लिए मान गया पर औरत की खीज को भांप अक्षरा बोली, ‘‘मुझे उलटी होती है, उन से कहिए न मुझे खिड़की की तरफ वाली सीट दे दें.’’

‘‘वह सब आप खुद देख लीजिए,’’ कंडक्टर ने दो टूक लहजे में कहा तो अक्षरा झल्ला कर बोली, ‘‘तो फिर मुझे नहीं जाना, मैं अपनी सीट पर ही ठीक हूं.’’

कंडक्टर भी अव्वल दर्जे का जिद्दी था. वह तुनक कर बोला, ‘‘अब आप की बगल में कोई पुरुष आ कर बैठेगा तो मुझे कुछ मत बोलिएगा, आप के पेरैंट्स ने कहा था इसलिए मैं ने आप के लिए महिला के साथ की सीट अरेंज की.’’

तभी झटके से बस रुकी और एक दादानुमा लड़का बस में चढ़ा और लपक कर ड्राइवर का कौलर पकड़ कर बोला, ‘‘क्यों बे, मुझे छोड़ कर भागा जा रहा था, मेरे पहुंचे बिना बस कैसे चला दी तू ने?’’

ड्राइवर डर गया. मौका   देख कर कंडक्टर ने हाथ जोड़ते हुए बात खत्म करनी चाही, ‘‘आइए बैठिए, देखिए न बारिश का मौसम है इसीलिए, नहीं तो आप के बगैर….’’ उस ने लड़के को अक्षरा की बगल वाली सीट पर ही बैठा दिया.

अक्षरा समझ गई कि कंडक्टर बात न मानने का बदला ले रहा था. उस ने खिड़की की तरफ मुंह कर लिया.

बारिश शुरू हो चुकी थी और बस अपनी रफ्तार पकड़ने लगी थी. टेढ़ेमेढ़े घुमावदार पहाड़ी रास्तों पर अपने गंतव्य की ओर बढ़ती बस के शीशों से बारिश का पानी रिसरिस कर अंदर आने लगा. सभी अपनीअपनी खिड़कियां बंद किए हुए थे. अक्षरा ने भी अपनी खिड़की बंद करनी चाही, लेकिन शीशा अपनी जगह से टस से मस नहीं हुआ. उस ने इधरउधर देखा, कंडक्टर आगे जा कर बैठ गया था. पानी रिसते हुए अक्षरा को भिगा रहा था.

तभी बगल वाले लड़के ने पूछा, ‘‘खिड़की बंद करनी है तो मैं कर देता हूं.’’

अक्षरा ने कोई उत्तर नहीं दिया. फिर भी उस ने उठ कर पूरी ताकत लगा कर खिड़की बंद कर दी. पानी का रिसना बंद हो गया, बाहर बारिश भी तेज हो गई थी.

अक्षरा खिड़की बंद होते ही अकुलाने लगी. उमस और बस के धुएं की गंध से उस का जी मिचलाने लगा था. बाहर बारिश काफी तेज थी लेकिन उस की परवाह न करते हुए उस ने शीशे को सरकाना चाहा तो लड़के ने उठ कर फुरती से खिड़की खोल दी.

अक्षरा उलटी करने लगी. थोड़ी देर तक उलटी करने के बाद वह शांत हुई मगर तब तक उस के बाल और कपड़े काफी भीग चुके थे.

बगल में बैठे लड़के ने आत्मीयता से पूछा, ‘‘आप की तबीयत तो ठीक है, मैं पानी दूं, कुल्ला कर लीजिए.’’

अक्षरा अनमने भाव से बोली, ‘‘मेरे पास पानी है.’’

वह फिर बोला, ‘‘आप अकेली ही जा रही हैं, आप के साथ और कोई नहीं है?’’

अक्षरा इस सवाल से असहज हो उठी, ‘‘क्यों मेरे अकेले जाने से आप को क्या लेना?’’

‘‘जी, मैं तो यों ही पूछ रहा था,’’ लड़के को भी लगा कि शायद वह गलत सवाल पूछ बैठा है, लिहाजा वह दूसरी तरफ देखने लगा.

थोड़ी देर तक बस में शांति छाई रही. बस के अंदर की बत्ती भी बंद हो चुकी थी. तभी ड्राइवर ने टेपरिकौर्डर चला दिया. कोई अंगरेजी गाना था, बोल तो स्पष्ट नहीं थे पर कानफोड़ू संगीत गूंज उठा.

तभी पीछे से कोई चिल्लाया, ‘‘अरे, ओ ड्राइवरजी, बंद कीजिए इसे. अंगरेजी समझ में नहीं आती हमें. कुछ हिंदी में बजाइए.’’

कुछ देर बाद एक पुरानी हिंदी फिल्म का गाना बजने लगा.

रात काफी बीत चुकी थी, बारिश कभी कम तो कभी तेज हो रही थी. बस पहाड़ी रास्ते की सर्पीली ढलान पर आगे बढ़ रही थी. सड़क के दोनों तरफ उगी जंगली झाडि़यां अंधेरे में तरहतरह की आकृतियों का आभास करवा रही थीं. बारिश फिर तेज हो उठी. अक्षरा ने बगल वाले लड़के को देखा, वह शायद सो चुका था. वह चुपचाप बैठी रही.

पानी का तेज झोंका जब अक्षरा को भिगोते हुए आगे बढ़ कर लड़के को भी गिरफ्त में लेने लगा तो वह जाग गया, ‘‘अरे, इतनी तेज बारिश है आप ने उठाया भी नहीं,‘‘ कहते हुए उस ने खिड़की बंद कर दी.

थोड़ी देर बाद बारिश थमी तो खुद ही उठ कर खिड़की खोल भी दी और बोला, ‘‘फिर बंद करनी हो तो बोलिएगा,’’ और आंखें बंद कर लीं.

अक्षरा ने घड़ी पर नजर डाली, सुबह के 3 बज रहे थे, नींद से उस की आंखें बोझिल हो रही थीं. उस ने खिड़की पर सिर टेक कर सोना चाहा, तभी उसे लगा कि लड़के का पैर उस के सामने की जगह पर फैला हुआ है. उस ने डांटने के लिए जैसे ही लड़के की तरफ सिर घुमाया तो देखा कि उस ने अपना सिर दूसरी तरफ झुका रखा था और नींद की वजह से तिरछा हो गया था और उस का पैर अपनी सीट के बजाय अक्षरा की सीट के सामने फैल गया था. अक्षरा उस की शराफत पर पहली बार मुसकराई.

सुबह के 6 बजे बस गंतव्य पर पहुंची. वह लड़का उठा और धड़धड़ाते हुए कंडक्टर के पास पहुंचा, ‘‘उस लड़की का सामान उतार दे और जिधर जाना हो उधर के आटो पर बैठा देना. एक बात और सुन ले जानबूझ कर तू ने मुझे वहां बैठाया था, आगे से किसी भी लड़की के साथ मेरे जैसों को बैठाया तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा. फिर वह उतर कर तेज कदमों से चला गया.’’

अक्षरा के मस्तिष्क में कई सवाल एकसाथ कौंध गए. उसे जहां उस लड़के की सहायता के बदले धन्यवाद न कहने का मलाल था, वहीं इस जमाने में भी इंसानियत और भलाई की मौजूदगी का एहसास. Social Story

Family Story In Hindi : मेरा फूड जिहाद

Family Story In Hindi : औफिस से घर जाते हुए मैं ने लखनऊ की मशहूर दुकान ‘छप्पनभोग’ से जीत की मनपसंद मिठाई, रसमलाई ली. आज उस की 7वीं क्लास का रिजल्ट घोषित हुआ है. मैथ्स में उस के 100 में से 90 नंबर आए हैं. पिछले साल मैथ्स में उस के नंबर इतने कम थे कि मैं ने रिजल्ट उस के मुंह पर मारा था. वह फेल होतेहोते बचा था.

घर जाने के पूरे रास्ते मैं बहुत खुश था. कल अनाथालय भी जाऊंगा, अनाथ बच्चों को उपहार दूंगा. आखिर सब प्रकृति की ही तो कृपा है जो जीत मैथ्स में अपनी मां पर नहीं गया. वैसे, मैथ्स के नाम से तो बुखार मुझे भी चढ़ता रहा है.

मैं जैसे ही अपनी सोसाइटी के अंदर घुसा, वौचमैन असलम ने मुझे सलाम किया. मेरा मूड खराब हो गया. पता नहीं, सिक्योरिटी वाले को कोई और नहीं मिला क्या, हमारी पूरी बिल्डिंग में सब हिंदू हैं, बस, यही असलम मेरा दिमाग खराब करता है. बाकी की बिल्डिंग्स में इक्कादुक्का मुसलिम हैं. अपनी बिल्डिंग से मैं इसी बात पर खुश होता हूं कि यहां एक भी मुसलिम फैमिली नहीं. बस, इस असलम की जगह कोई और आ जाए तो अच्छा रहेगा.

मेरा बस चले, तो पूरी सोसाइटी में एक भी मुसलिम फैमिली को रहने न दूं. अपने फ्लैट की डोरबैल बजाई तो पत्नी रीना ने दरवाजा खोला. उसके पीछे से जीत ने झांका और चिल्लाया, “पापा, देखो, मेरा रिजल्ट, कितने अच्छे नंबर हैं.” उस के पीछे से जीत की बड़ी बहन मेघा ने भी उत्साह से कहा, “पापा, जीत ने इस बार कमाल कर दिया. हमारे यहां तो मैथ्स में कभी किसी के इतने अच्छे नंबर नहीं आए.”

घर खिलखिला रहा था. मैं ने अपना बैग एक तरफ रख जीत के हाथ में मिठाई देते हुए उसे खूब प्यार किया, “शाबाश, सच बेटा, मजा आ गया.”

रीना ने कहा, “चलो, आप फ्रैश हो जाओ, मैं सब का खाना लगाती हूं. आज सब जीत की पसंद का बना है. जीत, कल एक काम करना, अपनी शाहीन मैडम के लिए भी मिठाई ले जाना.”

पत्नी की यह बात सुन कर मैं वौशरूम जाता हुआ रुक गया, पलटा, “कौन शाहीन?”

“अरे, जीत की मैथ्स टीचर.”

“क्या बकवास कर रही हो, यह किसी मुसलमान टीचर से पढ़ता है?”

“आप को बताया तो था, भूल गए क्या?”

“झूठ मत बोलो, मुझे किसी ने बताया ही नहीं. मैं कभी अपने बच्चे को किसी मुसलिम टीचर से ट्यूशन पढ़ने नहीं भेज सकता.”

अब मेघा ने कुछ नाराज़गी से कहा, “पापा, आप की बात सुनने में ही शर्म आ रही है. आजकल ऐसी बातें कौन सोचता है?”

“कोई सोचता नहीं, तभी देश का यह हाल हो रहा है. मैं अभी जा कर उस टीचर से खुद कह कर आता हूं कि जीत अब कभी नहीं आएगा.”

जीत रोने को हो आया, “पापा, प्लीज, मेरी टीचर बहुत अच्छी हैं, सब बच्चों को बहुत प्यार से पढ़ाती हैं, मुझे सब समझ आता है. मैं उन्हीं से पढूंगा.”

“टीचर की कोई कमी है क्या जो उसी से पढ़ोगे? जिसे पैसे देंगे, वही पढ़ा देगा.”

रीना को गुस्सा आ गया, “किसी को जाने बिना बस हिंदूमुसलिम करते रहा करो, आप को पता भी है कि वह सोसाइटी की मैथ्स की बेस्ट टीचर है. कितने मन से बच्चों को समझाती है, मैं ने खुद देखा है.”

“मुझे कुछ नहीं पता, मेरा बेटा उस से नहीं पढ़ेगा. मैं अभी उस का हिसाब कर के आता हूं.” और मैं गुस्से में पैर पटकते हुए बाहर निकलने लगा. मेरा पूरा परिवार मेरे गुस्से से वाकिफ था, सब मुझे रोकते रह गए. मैं न रुका.

मैं आताजाता असलम को देख कर खून जलाता हूं, और मेरा बेटा रोज़ एक मुसलिम के घर कम से कम 2 घंटे तो बिता कर आता है, हद हो गई. पता नहीं वहां कुछ खातापीता भी हो…ब्राह्मण हो कर क्या अधर्म हो गया मुझ से?

मैं अपनी बिल्डिंग से बाहर निकल तो आया पर फिर याद आया कि मुझे तो पता ही नहीं कि यह टीचर कौन सी बिल्डिंग में रहती है. एक तो औफिस के कामों में इतना व्यस्त रहने लगा हूं कि कुछ होश ही नहीं रहता. इसलिए हो सकता है कि रीना ने कभी इस शाहीन टीचर के बारे में बताया भी हो तो मैं ने अपनी धुन में सुना न हो.

मैं वापस असलम की तरफ आया. वह फौरन अपनी चेयर से उठ कर खड़ा हो गया. मैं ने चिढ़ते हुए पूछा, “तुम्हें पता है कि यह शाहीन टीचर कौन सी बिल्डिंग में रहती है?”

“जी, साब. 7वीं बिल्डिंग में.”

हम एक नंबर में रहते हैं. मैं ने 7वीं बिल्डिंग में जा कर बोर्ड पर नज़र डाली, हां, दूसरी फ्लोर पर 202. यही कोई आदम खान का नाम लिखा है, यही होगा. दूसरी फ्लोर के लिए क्या लिफ्ट लेनी, मैं गुस्से में सीढ़ियों से चढ़ गया. पहली फ्लोर पर ही पहुंचा था कि जैसे किसी खुशबू ने पैर रोक लिए, कहां से आ रही है इतने लज़ीज़ खाने की खुशबू, ऐसा लग रहा है जैसे कोई ‘टुंडे का कबाब’ खा रहा हो. मेरे कदम कुछ सुस्त हो गए. अब गुस्से से ध्यान हट कर खाने की खुशबू में अटक गया था.

मैं ने 202 नंबर फ्लैट की घंटी बजाई. घर का मेन दरवाजा खूब सजा हुआ था. दरवाजे के बाहर ही सुंदर पौधे रखे हुए थे. पता नहीं अंदर से कैसी खुशबू आ रही थी. दरवाज़ा खुला तो करीब 40 साल की एक लड़की, नहीं, लड़की क्या कहूं, पर लड़की जैसी ही. घुटनों तक की एक ब्लैक ड्रैस पहने, कंधे तक कटे बाल, बेहद खूबसूरत, स्मार्ट महिला ने मुसकराते हुए कहा, “यस? किस से मिलना है?”

मैं जैसे होश में आया, मैं ने कहा, “शाहीन टीचर से. मैं जीत का पिता.”

“अरे, आइए, आइए, वैलकम.” फिर वह अंदर आने का इशारा करते हुए पीछे हुई. सामने ही एक पैसेज था. एक तरफ शू रैक थी. उस के ऊपर बहुत से छोटेछोटे गमले थे जिन में बहुत से पौधे थे. समझ आ गया कि मैडम फूलों की शौक़ीन हैं.

“बैठिए, मैं आप के लिए पानी लाती हूं.”

“नहीं, नहीं, पानी नहीं चाहिए.” वह फिर भी किचन में चली गई. मैं ने लिविंगरूम में नज़र दौड़ाई, चमकता हुआ फर्श, बढ़िया सोफे, एक तरफ करीने से सजी डाइनिंग टेबल, खूबसूरत से स्टाइलिश परदे, पूरा घर जैसे रहने वालों के व्यक्तित्व का परिचय दे रहा था. लिविंगरूम के साथ की बालकनी में भी खूब हरियाली थी. सामने ही साफ़ सुथरी किचन से आती खुशबू. ओह्ह, यही खुशबू तो पहली मंजिल तक पहुंच रही थी. क्या बना है आज.

टीचर एक सुंदर सी ट्रे में नीले रंग के कांच के गिलास में पानी लाई. मैं तो गिलास ही देखता रह गया. मैं सब भूल गया और गटागट पानी पी गया. इतने में टीचर सामने वाले सोफे पर बैठ गई और खुशदिली से कहने लगी, “मुबारक हो, जीत बहुत अच्छे नंबरों से पास हुआ है.” फिर एक कोने में रखे बहुत सारे गिफ्ट्स के पैकेट दिखाती हुई बोली, “कल मैं अपने सब स्टूडैंट्स को गिफ्ट दूंगी. सब के बहुत अच्छे नंबर आए हैं. अभी अपने पति आदम से ये गिफ्ट्स मंगाए हैं. वे नहाने गए हैं.”

मेरी बोलती टीचर के आगे बंद थी. शायद ही जीवन में मैं ऐसी स्थिति में रहा होऊं जिस में मेरी बोलती बंद हुई हो. तभी टीचर के पति भी लिविंगरूम में आए तो टीचर ने परिचय करवाया, “आदम, ये जीत के पिता, सुधीर शर्मा जी हैं, मिलने आए हैं.” टीचर को मेरा नाम भी याद था. कमाल है, इस का मतलब सचमुच तेज़ दिमाग है.

आदम ने मुझ से बहुत अपनेपन से हाथ मिलाया और कहा, “शाहीन आज बहुत खुश है, उस के स्टूडैंट्स के नंबर हमेशा की तरह अच्छे आए हैं. मैं उस के बच्चों के लिए हर साल की तरह कुछ गिफ्ट्स ले कर अभी ही लौटा था. चलो शाहीन, भाईसाहब का भी खाना लगा लो. “भाईसाहब, आज ख़ुशी का दिन है, आज आप हमारे साथ ही डिनर कीजिए, प्लीज.”

“नहींनहीं, बिलकुल नहीं. फिर कभी आऊंगा.”

“एक्सक्यूज़ मी,” कह कर शाहीन अंदर चली गई, जल्दी ही वापस आ गई, फिर किचन में जा कर कुछ व्यस्त सी हो गई. आदम मुझ से बातें करने लगा, हम अपनेअपने औफिस की बातें करते रहे. वह किसी फार्मा कंपनी में था, बता रहा था, “मैं अकसर टूर पर रहता हूं. शाहीन अपनेआप को ट्यूशंस में बिजी रखती है. मैथ्स में तो इस की बहुत ही रुचि रही है. टौपर रही है.”

शाहीन डाइनिंग टेबल पर चुपचाप खाना रख रही थी और उस खाने की खुशबू में मेरा ईमान डोलने पर तुला था. मैं आदम की बातों से ज़्यादा खाने के बारे में सोच रहा था, पक्का, कुछ अच्छा नौनवेज बना है. मैं नौनवेज खा तो लेता हूं पर एक मुसल्म के घर तो नहीं खा सकता न. इतने में डोरबैल हुई. मेघा जितनी उम्र की प्यारी सी लड़की अंदर आई. आते ही मुझे ‘हेलो’ बोला और चहकती हुई बोली, “अंकल, आप मेघा और जीत के पापा हैं न?”

मैं ने मुसकराते हुए ‘हां’ में सिर हिला दिया, पूछा, “मुझे जानती हो?”

“हां अंकल. आप को कई बार उन के साथ आतेजाते देखा है,” फिर बोली, “मम्मी, बहुत तेज़ भूख लगी है, खाना तौयार है न? अभी मुझे अपने प्रोजैक्ट की तैयारी करनी है.”

“हां, जल्दी हाथ धो कर आ जाओ, सब तैयार है.” इतने में फिर डोरबैल हुई. टीचर ने किसी से कोई पार्सल लिया और ‘थैंक यू’ कहा. फिर वह पार्सल मुझे दिखा कर टेबल पर रखती हुई हंस कर बोली, “यह आप के लिए वेज खाना और्डर कर दिया था, हमारे यहां तो आज बिरयानी और कबाब बने हैं.”

मेरे दिल से एक आह निकल गई, ओह्ह, मेरे इसी मनपसंद खाने की खुशबू मुझे इतनी देर से परेशान कर रही थी. आदम बोले, “आइए, भाईसाहब, आज हमारा साथ दीजिए.”

हम चारों डाइनिंग टेबल पर बैठ गए. मेरे मन में जैसे एक फ़ूड जिहाद छिड़ा हुआ था, मुझे बाहर का पार्सल नहीं खाना था, लेकिन एक मुसलिम के घर का भी तो नहीं खाना चाहिए, मैं ब्राह्मण हूं, मेरा धर्म भ्रष्ट नहीं होना चाहिए. छीछी, सुधीर शर्मा एक मुसलमान के घर खाना खाएगा… नहीं, कभी नहीं.

बिरयानी के डोंगे से और कबाब की प्लेट से जो खुशबू मेरी नाक में गई, मैं सब भूल गया. टीचर जब मेरे लिए होम डिलीवरी वाला पार्सल खोलने लगी तो मैं ने तुरंत कहा, “अरे नहीं, मैं तो आप के हाथ से बना खाना ही खाऊंगा.”

टीचर खुश हो गई और मैं उस खाने पर टूट पड़ा. एक चम्मच बिरयानी खाते ही मेरे मुंह से ‘वाह वाह’ निकल गया और कबाब तो क्या ही कहूं. मैं हर हफ्ते टुंडे के कबाब खाता हूं. रीना से कबाब इतने अच्छे नहीं बनते. बिरयानी तो उसे बनानी ही नहीं आती. हम ये दोनों चीज़ें बाहर ही खाते हैं और यहां तो मेरे सामने जैसे लज़ीज़ खाने की प्लेट नहीं, कोई अनमोल खजाने जैसा कुछ मेरे हाथ लगा था. मैं ज़बरदस्त फूडी हूं और यहां अब मैं फ़ूड जिहाद पर उतर आया था.

बेहद महंगी क्रौकरी में मनपसंद खाने ने जैसे आज की शाम बेहद खुशनुमा बना दी थी. मैं बिलकुल भूल चुका था कि मैं यहां क्यों आया था. मैं ने जम कर खाया, खूब तारीफ़ की. मेरे लिए आया पार्सल खुला ही नहीं. खाने के बाद शाहीन एक छोटी सी प्लेट में सेवईं ले कर आई.

मैं ने जैसे ही एक चम्मच सेवईं अपने मुंह में डाली, लगा जैसे मुंह में कोई मावा सा घुल गया हो. ड्राईफ्रूट्स से भरी सेवईं ने जैसे मुझे दूसरी दुनिया में पहुंचा दिया. ओफ्फो, क्या खाना बनाती है यह. हर चीज़ में होशियार लग रही है. पूरा परिवार ही सभ्य है. शाहीन कह रही थी, ‘आज अपने स्टूडैंट्स के लिए सेवईं बनाई है. कल सब बच्चों को खिलाऊंगी.’

मैं सब खापी कर उठ खड़ा हुआ, हाथ जोड़ते हुए बोला, “मैं तो आप को थैंक्स बोलने आया था, आप की वजह से जीत के आज इतने अच्छे नंबर आए हैं. मेरी तो यहां पार्टी हो गई.”

सब ने मुझे खुशदिली से विदा किया. तृप्त पेट से मैं घर की तरफ झूमता सा चला. टीचर के घर जा कर मेरी सारी मूर्खता, सारी धर्मांधता ने जैसे एक कुएं में कूद कर आत्महत्या कर ली थी. मैं कितना खुश था. अपनी बिल्डिंग में पहुंच कर मैं ने मुसकराते हुए असलम को आज पहली बार सौ रुपए का नोट दिया, कहा, “आज जीत बहुत अच्छे नंबरों से पास हुआ है, तुम भी कुछ मिठाई खा लेना.”

“थैंक यू, साब,” कह कर असलम ने हाथ जोड़ दिए थे.

मैं घर पहुंचा. परेशान से सब मेरा खाने पर इंतज़ार कर रहे थे. रीना ने गुस्से से कहा, “इतनी देर लगा दी? लड़ आए?”

मैं ज़ोर से हंसा, कहा, “नहीं भाई, इतना बुरा नहीं हूं. टीचर की फैमिली के साथ डिनर कर के आया हूं. तुम लोग खा लो, अपन तो बहुत शानदार खाना खा कर आए हैं.”

“क्या मतलब?” सब ने एकसाथ पूछा,

मैं ने कहा, “तुम लोग खाना शुरू करो, मैं बताता हूं.”

वे सब खाना खाते रहे और मेरी बातें सुन कर हंसते रहे. Family Story In Hindi

Romantic Story in Hindi : वाइट पैंट – जब 3 सहेलियों के बीच प्यार ने दी दस्तक

Romantic Story in Hindi : इस बार जब मायके आई तो घूमते हुए कालेज के आगे से गुजरना हुआ. तभी अनायास ही वह सफेद पैंट पहना हुआ शख्स आंखों के आगे लहरा गया जिस का नाम ही हम लोगों ने वाइट पैंट रखा हुआ था. और सोचते हुए कालेज के दिन चलचित्र जैसे आंखों के आगे नाचने लगे.

बात तब की है जब हम ने कालेज में नयानया ऐडमिशन लिया था. उस जमाने में कालेज जाना ही बहुत बड़ी बात होती थी. हर कोई स्कूल के बाद कालेज तक नहीं पहुंच पाता था. तो हम खुद को बहुत खुशनसीब समझते थे जो कालेज की चौखट तक पहुंचे थे. इंटर कालेज के कठोर अनुशासन के बाद कालेज का खुलापन और रंगबिरंगे परिधान एक अलग ही दुनिया की सैर कराते थे.

हमारे लिए हर दिन नया दिन होता था. कालेज हमें कभी बोर नहीं करता था. हम 3 सहेलियां थीं सरिता, सुमित्रा और सुदेश. हम हमेशा साथसाथ रहती थीं, इसीलिए सभी लोग हमें त्रिमूर्ति भी कहते थे.

हम तीनों अकसर क्लास खत्म होने के बाद खुले मैदान में बैठ कर घंटों गपें लड़ाती थीं. इसी क्रम में हम तीनों ने महसूस किया कि कोई हमारे आसपास खड़ा हो कर हम पर नजर रखता है और इस बात को हम तीनों ने ही नोट किया. हम ने देखा मध्यम कदकाठी का एक लड़का, जो बहुत खूबसूरत नहीं था, उस के गेहुएं रंग में सिल्की बाल अच्छे ही लग रहे थे. शर्ट जैसी भी पहने था. लेकिन पैंट वह हमेशा सफेद ही पहनता था. रोजरोज उसे सफेद पैंट में देखने के कारण हम ने उस का नाम ही वाइट पैंट रख दिया था जिस से हमें उस के बारे में बात करने में आसानी रहती थी.

हमारा काम था क्लास के बाद मैदान में बैठ कर टाइम पास करना और उस का काम एक निश्चित दूरी से हम को देखते रहना. जब यह क्रम काफी दिनों तक चलता रहा तो हमें भी कुतूहल हुआ कि आखिर यह हम तीनों में से किसे पसंद करता है. सो, हम तीनों ने सोचा क्यों न इस बात का पता लगाया जाए. तो इत्तफाक से एक दिन सुदेश नहीं आई लेकिन हम ने देखा कि वाइट पैंट फिर भी हमारे आसपास उपस्थित है. तो इतना तो पक्का हो गया कि सुदेश वह लड़की नहीं है जिस के लिए वह हमारा ग्रुप ताकता है. कुछ समय बाद सुमित्रा उपस्थित न रही. फिर भी उस का हमें ताकना बदस्तूर जारी रहा. अब सुमित्रा भी इस शक के घेरे से बाहर थी. अब रह गई थी एकमात्र मैं और फिर किसी कारणवश मैं ने भी छुट्टी ली तो अगले दिन कालेज जाने पर पता चला कि मेरे न होने पर भी उस का ताकना जारी था.

अब तो हम तीनों को गुस्सा आने लगा. लेकिन कर भी क्या सकते थे. हम कहीं भी जा कर बैठते, उसे अपने आसपास ही पाते. हम ने कई बार अपने बैठने की जगह भी बदली, मगर उसे अपने ग्रुप के आसपास ही पाया. तीनों में मैं थोड़ी साहसी और निडर थी. हम रोज उसे देख कर यही सोचते कि इसे कैसे मजा चखाया जाए. लेकिन हमारे पास कोई आइडिया नहीं था और वैसे भी, इतने महीनों तक न उस ने कुछ बात की और न ही कभी कोई गलत हरकत. इसलिए भी हम कुछ नहीं कर सके. लेकिन उस का हमेशा हमारे ही ग्रुप को ताकना हमें किसी बोझ से कम नहीं लगता था. एक दिन हमारे बैठते ही जब वह भी आ गया तो मैं ने कहा चलो, आज इसे मजा चखाते हैं. तो दोनों बोलीं, ‘कैसे?’

?मैं ने कहा, ‘यह रोज हमारा पीछा करता है न, तो चलो आज हम इस का पीछा करते हैं.’ वे दोनों बोलीं, ‘कैसे?’ मैं ने कहा, ‘तुम दोनों सिर्फ मेरा साथ दो. जैसा मैं कहती हूं, बस, मेरे साथसाथ वैसे ही चलना.’ उन दोनों ने हामी भर दी. फिर हम वहीं बैठे रहे. हम ने देखा लगभग एक घंटे बाद वह लाइब्रेरी की तरफ गया तो मैं ने दोनों से कहा कि चलो अब मेरे साथ इस के पीछे. आज हम इस का पीछा करेंगे और इसे सताएंगे. मेरी बात सुन कर वे दोनों खुश हो गईं. और हम तीनों उस के पीछेपीछे लाइब्रेरी पहुंच गए. जितनी दूरी पर वह खड़ा होता था, लगभग उतनी ही दूरी बना कर हम तीनों खड़े हो गए. जब उस की नजर हम पर पड़ी तो वह हमें देख कर चौंक गया और हलके से मुसकरा कर अपने काम में लग गया.

उस के बाद वह पानी पीने वाटरकूलर के पास गया तो हम भी उस के पीछेपीछे वहीं पहुंच गए. अब तक वह हम से परेशान हो चुका था. फिर वो नीचे आया और मैदान के दूसरे छोर पर बने विज्ञान विभाग की तरफ चल दिया. हम भी उस के पीछेपीछे चल दिए. वह विज्ञान विभाग के अंदर गया और काफी देर तक बाहर नहीं आया. हम बाहर ही मैदान में बैठ कर उस के बाहर आने का इंतजार करने लगे.

लगभग 35 मिनट के बाद वह चोरों की तरह झांकता हुआ बाहर निकला, तो उस ने हम तीनों को उस के इंतजार में बैठे पाया. 10 बजे से इस चूहेबिल्ली के खेल में 2 बज चुके थे. वह हम से भागतेभागते बुरी तरह थक चुका था. वह कालेज से बाहर निकला और ऋषिकेश की तरफ पैदल चलने लगा. हम भी उस के पीछे हो लिए. वह मुड़मुड़ कर हमें देखता और आगे चलता जाता. जब थकहार कर उसे हम किसी भी तरह टलते नहीं दिखे तो आखिर में वह हरिद्वार जाने वाली बस में चढ़ गया और हमारे सामने से हमें टाटा करते हुए मुसकराते हुए निकल गया. हम तीनों अपनी इस जीत पर पेट पकड़ कर हंसती रहीं और फिर उस दिन के बाद कभी दोबारा हम ने वाइट पैंट को अपने आसपास नहीं देखा. Romantic Story in Hindi 

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