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Film Review : ‘मेरे हसबैंड की बीवी’, लेखक व निर्देशक मुदस्सर अजीज का रचनात्मक दिवालियापन

Film Review : रेटिंग – एक स्टार

15 अगस्त 2024 को मुदस्सर अजीज निर्देशित तथा तापसी पन्नू, वाणी कपूर, अक्षय कुमार सहित कई सितारों से सजी फिल्म ‘खेलखेल में’ रिलीज हुई थी, जिसे बौक्स औफिस पर सफलता नसीब नहीं हुई थी. उस वक्त फिल्म के निर्देशक ने कहा था, ‘‘रिश्तों के बारे में एक निश्चित मानसिक बुद्धिमत्ता और जागरूकता है जो खेलखेल में जैसी फिल्म को समझने के लिए आवश्यक शर्तें हैं.’’ खेलखेल में फिल्म एक रीमेक फिल्म थी.

इस बार वही मुदस्सर अजीज बतौर लेखक व निर्देशक 20 से 30 वर्ष की उम्र के दर्शकों को ध्यान में रख कर मौलिक कहानी पर रोमकोम कौमेडी फिल्म ‘मेरे हसबैंड की बीवी’ ले कर आए हैं, जो कि बेसिर पैर की कहानी से युक्त अति बेतुकी फिल्म है.

कहानी

फिल्म ‘मेरे हसबैंड की बीवी’ की कहानी अंकुर (अर्जुन कपूर) की है, जिस का अपनी पत्नी प्रभलीन कौर (भूमि पेडनेकर) से तलाक हो चुका है. इस के बावजूद उस पर अपनी पूर्व पत्नी का हैंगओवर है. उसे जबजब अपनी बीवी के डरावने सपने आते हैं, तबतब सपने में उस की पत्नी उसे प्रताड़ित करती रहती है. यही वजह है कि वह दोबारा प्यार में पड़ने या शादी करने की सोचना तक नहीं चाहता. उस का दोस्त रेहान (हर्ष गुजराल) उसे लगातार किसी दूसरी लड़की से दिल लगाने को प्रेरित करता रहता है, मगर अंकुर अपनी पूर्व पत्नी प्रभलीन के बुरे ख्यालों के चलते यह हिम्मत नहीं कर पाता.

अंकुर अपने पारिवारिक बिजनेस के सिलसिले में ऋषिकेश आता है. वहां कालेज के दिनों में आकर्षण का केंद्र रहीं अंतरा खन्ना (रकुल प्रीत सिंह) से उस की मुलाकात होती है. अंतरा एक हैंगग्लाइडिंग ट्रेनर है. वह मिलते हैं और अंकुर अंतरा के साथ घूमने की हिम्मत भी करता है. वह हैंगग्लाइडिंग की सवारी भी करता है. लेकिन उतरने पर, एक्रोफोबिक अंकुर को मिचली महसूस होती है, जबकि अंतरा मुसकराती है.

रेहान के कहने पर अंकुर अंतरा के सामने शादी का प्रस्ताव रखता है, जिसे वह ठुकरा देती है. रेहान की सलाह पर अंकुर उसे प्रभावित करने के लिए एक अजीब तरीका अपनाता है. वह एक आलीशान मौल में अंतरा और उस के सख्त, असभ्य भाई, रिकी (डिनो मोरिया) के ठीक सामने पहुंचता है. कुछ नाटकीय संवादों के बाद अंतरा और उस का भाई प्रभावित होता है. बात बन जाती है.

इधर अंतरा, अंकुर के साथ स्कौटलैंड में एक भव्य समारोह और रिसैप्शन के साथ शादी करने की योजना बनाती है. तभी प्रभलीन उन की जिंदगी में लौट आती है. दरअसल, एक्सीडैंट के कारण प्रभलीन रेट्रोग्रेड एम्नेसिया जैसी बीमारी की शिकार हो चुकी है.

इस में उसे अपनी शादी याद है लेकिन अलगाव नहीं. डाक्टरों की सलाह के कारण अंकुर अपने अतीत की दुखद सच्चाई प्रभलीन को बता नहीं पाता. मगर यहां अंतरा और अंकुर अपने भविष्य के सपने बुन चुके हैं. ऐसे हालात में प्रभलीन और अंतरा के बीच अंकुर को पाने की एक होड़ मच जाती है, जिस के तहत वह दोनों किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं. सभी स्कौटलैंड पहुंच जाते हैं. उस के बाद क्या होता है, यह बताने की जरुरत नहीं.

असहनीय और थकाऊ है फिल्म की पटकथा

निर्देशक मुदस्सर अजीज ने इस फिल्म को पूरी तरह से बरबाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. फिल्म की पटकथा के साथ ही संवाद भी असहनीय, थकाऊ और शुद्ध यातनापूर्ण हैं. पिछले 20 वर्षों में उन की एकमात्र सफल फिल्म ‘हैप्पी भाग जाएगी’ थी. हीरो को पाने के लिए दो हीरोइनें जितनी चालें चलती हैं, वह सब हम ‘पतिपत्नी और वो’, ‘साजन चले ससुराल’, ‘जुदाई’, ‘सैंडविच’, ‘गोविंदा नाम मेरा’ ही नहीं लेखक व निर्देशक मुदस्सर अजीज की 2019 में कार्तिक आर्यन, भूमि पेडनेकर और अनन्या पांडे को ले कर आई फिल्म ‘पतिपत्नी और वो’ में देख चुके हैं.

लेखक व निर्देशक मुदस्सर अजीज की समझदारी की मिसाल यह है कि फिल्म के अंदर एक बैचलर पार्टी है, जिस में लड़कों के पिता भी शामिल हैं, शायद निर्देशक व लेखक मुदस्सर के अनुसार युवा लड़कों के पिता भी बैचलर होते होंगे. ‘मेरे हसबैंड की बीवी’ की कहानी में बिखराव ही बिखराव है.

लगता है कि लेखक व निर्देशक ने लोकेशन के अनुसार कुछ दृश्य फिल्माए और फिल्म के रूप में परोस दिया. उन्हें यही नहीं पता कि वह बताना क्या चाहते हैं. इंटरवल से पहले अचानक बैचलर पार्टी और मारपीट के दृश्य जबरन ठूंस कर फिल्म को खींचा गया है. तो वहीं फिल्म में जबरन एक दृश्य में मस्जिद और कबूतर उड़ते हुए दिखाया गया, जबकि वहां पर फिल्म से जुड़ा कोई किरदार मौजूद नही है. पर निर्देशक ने सोचा कम से कम इस तरह फिल्म की लंबाई में 5 से 10 मिनट की बढ़ोत्तरी हो जाएगी.

भूमि पेडनेकर के किरदार द्वारा अंकुर को डराने का उन का विचार हास्यास्पद रूप से बुरा है. अंतरा लंदन व दिल्ली के बीच रहती है, पर वह रिषिकेश में पेरा ग्लाइडिंग क्यों सिखा रही है, पता नहीं. हौट, खूबसूरत और सैक्सी अंतरा खन्ना लंदन में रहती है. डाक्टर है, पर वह सेकंड हैंड यानी कि तलाकशुदा इंसान अंकुर से शादी करने को तैयार हो जाती है, यह बात कम हास्यास्पद नहीं है?

इतना ही नहीं क्या आपने कभी किसी डाक्टर को अपने क्लिनिक में मिनीशौर्ट्स में मरीजों का इलाज करते देखा है? इस फिल्म की बेहूदगी मुदस्सर अजीज के रचनात्मक दिवालियापन का सबूत है. अंकुर व प्रभलीन के बीच तलाक की वजह साफ नहीं है. जब अंकुर, अंतरा के साथ शादी करने वाला होता है, तो प्रभलीन को अचानक अंकुर चाहिए होता है, जबकि उस के साथ उस का बौयफ्रैंड राजवीर (आदित्य सील) है. उस की वजह स्पष्ट नहीं है. अंत में प्रभलीन अचानक से क्यों अपनी गलती मान लेती है? सब कुछ बहुत ही बेसिर पैर की बाते भरी गई है. फिल्म का संगीत भी कर्णप्रिय नहीं है.

लंबे समय से हो रही है अर्जुन कपूर के अभिनय की आलोचना

पिछले लंबे समय से अर्जुन कपूर के अभिनय की आलोचना हो रही है, पर अर्जुन है कि अपने अभिनय को सुधारना ही नहीं चाहते. बामुश्किल कुछ भावनात्मक दृश्यों में उन का अभिनय ठीकठाक है. रोमांस करते हुए वह बिलकुल नही जंचते. प्रभलीन के किरदार में भूमि पेडनेकर हैं, इस फिल्म में वह ओवरएक्टिंग ही कर रही हैं. सर्जरी करा कर वह अपना चेहरा व लुक पहले ही खराब कर चुकी हैं.

मुदस्सर ने क्या सोच कर ‘मेरे हसबैंड की बीबी’ में अर्जुन कपूर व भूमि पेडणेकर को लिया. इन दोनों की आखिरी फिल्म, द लेडी किलर, 45 करोड़ के बजट पर बनी थी और अपने जीवनकाल में केवल 60 हजार की कमाई की थी. सिर्फ ‘लेडी किलर’ ही नहीं भूमि पेडनेकर अब तक रक्षाबंधन, गोविंदा नाम मेरा, भिड, अफवाह, थैंक यू फौर कमिंग सहित कई असफल फिल्में दे चुकी हैं.

फिल्म में अंतरा के किरदार में रकुल प्रीत सिंह अपना प्रभाव छोड़ने में असफल रहती हैं. 15 साल में वह अय्यारी, रनवे 34, डाक्टर जी, कठपुतली, थैंक गौड, छत्रीवाली, इंडियन 2 सहित कई असफल फिल्मों का वह हिस्सा रही हैं. फिल्म ‘मेरे हसबैंड की बीवी’ का निर्माण तो रकूल प्रीत सिंह के पति जैकी भगनानी ने किया है, ऐसे में वह क्यों भला मेहनत करती! रकूल प्रीत सिंह सिर्फ सुंदर हैं, अभिनय के मामले में वह जीरो हैं.

स्टैंडअप कमेडियन हर्ष गुजराल ने पहली बार एक्टिंग में रखा कदम

अंकुर के दोस्त रेहान के किरदार में स्टैंडअप कमेडियन और इंफ्लुएंसर हर्ष गुजराल ने पहली बार एक्टिंग में कदम रखा है. जबकि वह इस फिल्म की कमजोर कड़ी साबित होते हैं. हर्ष गुजराल को अभी काफी मेहनत करने की जरूरत है. आदित्य सील का किरदार जबरन ठूंसा हुआ लगता है. शक्ति कपूर की तीसरी या चौथी पारी जो भी हो फिल्म ‘एनिमल’ के बाद जमने लगी है. बस ये ‘आऊ’ वाला बैकग्राउंड म्यूजिक अब उन पर सूट नहीं करता. अनीता राज, टीकू टलसानिया आदि ठीकठाक हैं.

Hindi Kahani : मुझे जवाब दो – हर कुसूर की माफी नहीं होती

Hindi Kahani : ‘‘प्रिय अग्रज, ‘‘माफ करना, ‘भाई’ संबोधन का मन नहीं किया. खून का रिश्ता तो जरूर है हम दोनों में, जो समाज के नियमों के तहत निभाना भी पड़ेगा. लेकिन प्यार का रिश्ता तो उस दिन ही टूट गया था जिस दिन तुम ने और तुम्हारे परिवार ने बीमार, लाचार पिता और अपनी मां को मत्तैर यानी सौतेला कह, बांह पकड़ कर घर से बाहर निकाल दिया था. पैसे का इतना अहंकार कि सगे मातापिता को ठीकरा पकड़ा कर तुम भिखारी बना रहे थे.

‘‘लेकिन तुम सबकुछ नहीं. अगर तुम ने घर से बाहर निकाला तो उन की बांहें पकड़ सहारा देने वाली तुम्हारी बहन के हाथ मौजूद थे. जिन से नाता रखने वाले तुम्हारे मातापिता ने तुम्हारी नजर में अक्षम्य अपराध किया था और यह उसी का दंड तुम ने न्यायाधीश बन दिया था.

‘‘तुम्हीं वह भाई थे जिस ने कभी अपनी इसी बहन को फोन कर मांपिता को भेजने के लिए मिन्नतें की थीं, फरियाद की थी. बस, एक साल भी नहीं रख पाए, तुम्हारे चौकीदार जो नहीं बने वो.

‘‘तुम से तो मैं ने जिंदगी के कितने सही विचार सीखे. कभी सपने में भी नहीं सोच सकती थी कि तुम बुरी संगत में पड़, ऐशोआराम की जिंदगी जीने के लिए अपने खून के रिश्तों की जड़ें काटने पर तुल जाओगे.

‘‘एक ही शहर में, दो कदम की दूरी पर रहने वाले तुम, आज पत्र लिख अपने मन की शांति के लिए मेरे घर आना चाहते हो. क्यों, क्या अब तुम्हारे परिवार को एतराज नहीं होगा?

‘‘अब समझ आया न. पैसा नहीं, रिश्ते, अपनापन व प्यार अहम होते हैं. क्या पैसा अब तुम्हें मन की शांति नहीं दे सकता? अब खरीद लो मांबाप क्योंकि अपनों को तो तुम ने सौतेला बना दिया था.

‘‘तुम्हीं ने छोटे भाईभावज को लालच दिया था अपने बिजनैस में साझेदारी कराने का लेकिन इस शर्त पर कि मातापिता को बहन के घर से बुला अपने पास रखो, घर अपने नाम करवाओ और इतना तंग किया करो कि वे घर छोड़ कर भाग जाएं. तुम ने उन से यह भी कहा था कि वे बहन से नाता तोड़ लें. इतनी शर्तों के साथ करोड़ों के बिजनैस में छोटे भाई को साझेदारी मिल जाएगी, लेकिन साझेदारी दी क्या?

‘‘हमें क्या फर्क पड़ा. अगर पड़ा तो तुम दोनों नकारे व सफेद खून रखने वाले पुत्रों को पड़ा. पुलिस व समाज में जितनी थूथू और जितना मुंह काला छोटे भाईभावज का हुआ उतना ही तुम्हारा भी क्योंकि तुम भी उतने ही गुनाहगार थे. मत भूलो कि झूठ के पैर नहीं होते और साजिश का कभी न कभी तो परदाफाश होता है.

‘‘ठीक है, तुम कहते हो कि इतना सब होने के बाद भी मांपिताजी ने तुम्हें व छोटे को माफ कर दिया था. सो, अब हम भी कर दें, यह चाहते हो? वो तो मांबाप थे ‘नौहां तो मांस अलग नईं कर सकदे सी’, (नाखूनों से मांस अलग नहीं कर सकते थे.) पर, हम तुम्हें माफ क्यों करें?

‘‘क्या तुम अपने बीवीबच्चों को घर से बाहर निकाल सकते हो? नहीं न. क्या मांबाप लौटा सकते हो?

‘‘अब तुम भी बुढ़ापे की सीढ़ी पर पैर जमा चुके हो. इतिहास खुद को दोहराता है, यह मत भूलना. अब चूंकि तुम्हारा बेटा बिजनैस संभालने लगा है तो तुम्हारी स्थिति भी कुछकुछ मांपिताजी जैसी होने लगी है. अगर बबूल बोओगे तो आम नहीं लगेंगे. सो, अपने बुरे कृत्यों का दंश व दंड तो तुम्हें सहना ही पड़ेगा. क्षमा करना, मेरे पास तुम्हारे लिए जगह व समय नहीं है.

‘‘बेरहम नहीं हूं मैं. तुम मुझे मेरे मातापिता लौटा दो, मैं तुम्हें बहन का रिश्ता दे दूंगी, तुम्हें भाई कहूंगी. मुझे पता है उन के आखिरी दिन कैसे कटे. आज भी याद करती हूं तो मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं. वो दशरथ की तरह पुत्रवियोग में बिलखतेविलापते, पर तुम राम न बन सके. निर्मोही, निष्ठुर यहां तक कि सौतेला पुत्र भी ऐसा व्यवहार नहीं करता होगा जैसा तुम ने किया.

‘‘तुम लिखते हो, ‘बेहद अकेले हो.’ फोन पर भी तो ये बातें कर सकते थे पर शायद इतिहास खुद को दोहराता… तुम उन के फोन की बैटरी निकाल देते थे. खैर, जले पर क्या नमक छिड़कना. जरा बताओ तो, तुम्हें अकेला किस ने बनाया? तुम्हें तो बड़ा शौक था रिश्ते तोड़ने का. अरे, ये तो मांपिताजी के चलते चल रहे थे. तुम तो रिश्ते हमेशा पैसों पर तोलते रहे. बहन, बूआ, बेटी, ननद इन सभी रिश्तों की छीछालेदर करने वाले तुम और तुम्हारी पत्नी व बेटी अब किस बात के लिए शिकायत करती फिर रही हैं. जो रिश्तेनाते अपनापन जैसे शब्द व इन की अहमियत तुम्हारी जिंदगी की किताब में कभी जगह नहीं रखते थे, उन के बारे में अब इतना क्यों तड़पना. अब इन रिश्तों को जोड़ तो नहीं सकते. उस के लिए अब नए समीकरण बनाने होंगे व नई किताब लिखनी होगी. क्या कर पाओगे ये सब?

‘‘ओह, तो तुम्हें अब शिकायत है अपने बेटेबहू से कि वे तुम्हें व तुम्हारी पत्नी को बूढ़ेबुढि़या कह कर बुलाते हैं. ये शब्द तुम ही लाए थे होस्टल से सौगात में. चलो, कम से कम पीढ़ीदरपीढ़ी यह सम्मानजनक संबोधन तुम्हारे परिवार में चलता रहेगा. बधाई हो, नई शुरुआत के लिए और रिश्तों को छीजने के लिए.

‘‘खैर, छोड़ो इन कड़वी बातों को. मीठा तो तुरंत मुंह में घुल जाता है पर कड़वा स्वाद काफी देर तक रहता है और फिर कुछ खाने का मन भी नहीं करता. सो, अब रोना काहे का. कहां गई तुम्हारी वह मित्रमंडली जिस के सामने तुम मांपिता को लताड़ते थे. क्यों, क्या वे तुम्हारे अकेलेपन के साथी नहीं या फिर आजकल महफिलें नहीं जमा पाते. बेटे को पसंद नहीं होगा यह सब?

‘‘छोड़ो वह राखीवाखी, टीकेवीके की दुहाई देना, वास्ता देना. सब लेनदेन बराबर था. शुक्र है, कुछ बकाया नहीं रहा वरना उसी का हिसाबकिताब मांग बैठते तुम.

‘‘अपने रिश्ते तो कच्चे धागे से जुड़े थे जो कच्चे ही रह गए. खुदगर्जी व लालच ही नहीं, बल्कि तुम्हारे अहंकार व दंभ ने सारे परिवार को तहसनहस कर डाला.

‘‘अब जुड़ाव मत ढूंढ़ो. दरार भरने से भी कच्चापन रह जाता है. वह मजबूती नहीं आ पाएगी अब. इस जुड़ाव में तिरस्कार की बू ताजा हो जाती है. वैसे, याद रखना, गुजरा वक्त कभी लौट कर नहीं आता.

‘‘वक्त और रिश्ते बहुत नाजुक व रेत की तरह होते हैं. जरा सी मुट्ठी खोली नहीं कि वे बिखर जाते हैं. इन्हें तो कस कर स्नेह व खुद्दारी की डोर में बांध कर रखना होता है.

‘‘कभी वक्त मिले तो इस पत्र को ध्यान से पढ़ना व सारे सवालों का जवाब ढूंढ़ना. अगर जवाब ढूंढ़ पाए तो जरूर सूचना देना. तब वक्त निकाल कर मिलने की कोशिश करूंगी. अभी तो बहुतकुछ बाकी है भा…न न…भाई नहीं कहूंगी.

‘‘मुझ बहन के घर में तो नहीं, पर हमारे द्वारा संचालित वृद्धाश्रम के दरवाजे तुम्हारे जैसे ठोकर खाए लोगों के लिए सदैव खुले हैं.

‘‘यह पनाहघर तुम्हारी जैसी संतानों द्वारा फेंके गए बूढ़े व लाचार मातापिता के लिए है. सो, अब तुम भी पनाह ले सकते हो. कभी भी आ कर रजिस्ट्रेशन करवा लेना.

‘‘तुम्हारी सिर्फ चिंतक

शोभा.’’

Best Hindi Story : विरासत – क्या वक्त वाकई में खुद को दोहरा रहा था

Best Hindi Story : प्रीति ने चश्मा साफ कर के दोबारा बालकनी से नीचे झांका और सोचने लगी, ‘नहीं, यह सपना नहीं है. रेणु सयानी हो गई है. अब वह दुनियादारी समझने लगी है. रोनित भी तो अच्छा लड़का है. इस में गलत भी क्या है, दोनों एक ही दफ्तर में हैं, साथसाथ तरक्की करते जाएंगे, बिना किसी कोशिश के ही मेरी इतनी बड़ी चिंता खत्म हो गई.’

रात को खाने के बाद प्रीति दूध देने के बहाने रेणु के कमरे में जा कर बैठ गई और बात शुरू की, ‘‘बेटी, रोनित के बारे में तुम्हारा क्या खयाल है?’’

रेणु ने चौंक कर मां की तरफ देखा तो प्रीति शरारतभरी मुसकान बिखेर कर बोली, ‘‘भई, हमें तो रोनित बहुत पसंद है. हां, तुम्हारी राय जानना चाहते हैं.’’

‘‘राय, लेकिन किस बारे में, मां?’’ रेणु ने हैरानी से पूछा.

‘‘वह तुम्हारा दोस्त है. अच्छा, योग्य लड़का है. तुम ने उस के बारे में कुछ सोचा नहीं?’’

‘‘मां, ऐसी भी कोई खास बात नहीं है उस में,’’ रेणु अपने नाखूनों पर उंगलियां फेरती हुई बोली, फिर वह चुपचाप दूध के घूंट भरने लगी.

लेकिन रेणु के इन शब्दों ने जैसे प्रीति को आसमान से जमीन पर ला पटका था, वह सोचने लगी, ‘क्या वक्त अपनेआप को सदा दोहराता रहता है? यही शब्द तो मैं ने भी अपनी मां से कहे थे. विजय मुझे कितना चाहता था, लेकिन तब हम दोनों क्लर्क थे…’

प्रीति तेज रफ्तार जिंदगी के साथ दौड़ना चाहती थी. विजय से ज्यादा उसे अपने बौस चंदन के पास बैठना अच्छा लगता था. वह सोचती थी कि अगर चंदन साहब खुश हो गए तो उस की पदोन्नति हो जाएगी.

फिर चंदन साहब खुश भी हो गए और प्रीति को पदोन्नति मिल गई.

लेकिन चंदन के तबादले के बाद जो नए राघव साहब आए, वे अजीब आदमी थे. लड़कियों में उन की जरा भी दिलचस्पी नहीं थी.

ऐसे में प्रीति बहुत परेशान रहने लगी थी, क्योंकि उस की तरक्की के तो जैसे सारे रास्ते ही बंद हो गए थे. लेकिन नहीं, ढूंढ़ने वालों को रास्ते मिल ही जाते हैं. राघव साहब के पास कई बड़ेबड़े अफसर आते थे. उन्हीं में से एक थे, जैकब साहब. प्रीति की तरफ से प्रोत्साहन पा कर वे उस की तरफ खिंचते चले गए. जैकब साहब के जरिए प्रीति को एक अच्छा क्वार्टर मिल गया.

धीरेधीरे प्रीति तरक्की की कई सीढि़यां चढ़ती चली गई और जीवन की सब जरूरतें आसानी से पूरी होने लगीं. कर्ज मिल गया तो उस ने कार भी ले ली. जमीन मिल गई तो उस का अपना मकान भी बन गया. उस के कई पुरुषमित्र थे, जिन में बड़ेबड़े अफसर व व्यापारी वगैरा सम्मिलित थे. जितने दोस्त, उतने तोहफे. हर शाम मस्त थी और हर मित्र मेहरबान.

उन दिनों वह सोचती थी कि जिंदगी कितनी हसीन है. परेशानियों से जूझती लड़कियों को देख कर वह यह भी सोचती कि ये सब अक्ल से काम क्यों नहीं लेतीं?

एक दिन प्रीति को पता चला कि उस के पहले प्रेमी विजय ने अपने दफ्तर में काम करने वाली एक क्लर्क युवती से शादी कर ली है. क्षणभर के लिए उसे उदासी ने आ घेरा, लेकिन उस ने खुद को समझा लिया और फिर अपनी दुनिया में खो गई.

समय अपनी रफ्तार से दौड़ रहा था. अच्छे समय को तो जैसे पंख ही लग जाते हैं. वक्त के साथसाथ हरेभरे वृक्ष को भी पतझड़ का सामना करना ही पड़ता है. लेकिन ऐसे पेड़ तो सिर्फ माली को ही अच्छे लगते हैं, जो उन्हें हर मौसम में संभालता, सजाता रहता है. आतेजाते राहगीर तो सिर्फ घने, फलों से लदे पेड़ ही देखना चाहते हैं.

बात पेड़ों की हो तो पतझड़ के बाद फिर बहार आ जाती है, लेकिन मानव जीवन में बहार एक ही बार आती है और बहार के बाद पतझड़ स्वाभाविक है.

प्रीति तेज रफ्तार से दौड़ती रही. यौवन का चढ़ता सूरज कब ढलने लगा, वह शायद इसे महसूस ही नहीं करना चाहती थी. लेकिन एक दिन पतझड़ की आहट उसे सुनाई दे ही गई…

वह एक सुहावनी शाम थी. प्रीति मदन का इंतजार कर रही थी. उस शाम उस ने पीले रंग की साड़ी पहनी हुई थी, जिस का बौर्डर हरा था. सजसंवर कर वह बहुत देर तक पत्रिकाओं के पन्ने पलटती रही. मदन से उस की दोस्ती काफी पुरानी थी. हर सप्ताह उस की 2-3 शामें प्रीति के संग ही व्यतीत होती थीं. लेकिन उस शाम वह इंतजार ही करती रही, मदन न आया.

प्रीति उलझीउलझी सी सोने चली गई. उलझन से ज्यादा गुस्सा था या गुस्से से ज्यादा उलझन, वह समझ नहीं पा रही थी. कई बार फोन की तरफ हाथ बढ़ाया, लेकिन फिर सोचा कि घर पर क्या फोन करना? क्या पूछेगी और किस से पूछेगी?

दूसरे दिन उस ने मदन के दफ्तर फोन किया तो वह बोला, ‘माफ करना, कहीं फंस गया था, लेकिन आज शाम जरूर आऊंगा.’

उस शाम प्रीति ने फिर वही साड़ी पहनी, जो कि मदन को बहुत पसंद थी. शाम ढलने लगी, देखते ही देखते साढ़े

8 बज गए. गुस्से में उस ने बगैर कुछ सोचे रिसीवर उठा ही लिया और मदन के घर का नंबर घुमाया, ‘हैलो, मदनजी हैं?’

‘साहबजी तो नहीं हैं,’ उस के नौकर ने जवाब दिया.

‘कुछ मालूम है, कहां गए हैं?’

‘हां जी, कल छोटी बेबी का जन्मदिन है न, इसलिए मेम साहब के साथ कुछ खरीदारी करने बाजार गए हैं.’

रिसीवर पटक कर प्रीति बुदबुदा उठी, ‘ओह, तो यह बात है. मगर उस ने यह सब बताया क्यों नहीं? शायद याद न रहा हो, मगर ऐसा तो कभी नहीं हुआ. शायद उस ने बताना जरूरी ही न समझा हो.’

वह सोचने लगी कि उस के पास आने वाले हर मर्द का अपना घरबार है, अपनी जिंदगी है, लेकिन उस की जिंदगी?

उसे लगता था कि वह अपने तमाम दोस्तों की पत्नियों से ज्यादा सुंदर है, ज्यादा आकर्षक है, तभी तो वे अपनी बीवियों को छोड़ कर उस के घर के चक्कर काटते रहते हैं. पर उस क्षण उसे एहसास हो रहा था कि कहीं न कहीं वह उन की बीवियों से कमतर है, जिन की जरूरतों के आगे, किसी दोस्त को उस की याद तक नहीं रहती.

प्रीति ने सोफे की पीठ से सिर टिका दिया. उस की सांसें तेज चल रही थीं. यह गुस्सा था, पछतावा था, क्या था, कुछ पता ही नहीं चल रहा था. पर एक घुटन थी, जो उस के दिलोदिमाग को जकड़ती जा रही थी. उस ने आंखें बंद कर लीं लेकिन चंद आंसू छलक ही आए.

उस के बाद उस ने मदन लाल को फोन नहीं किया और न ही फिर वह उस से मिलने आया.

दूसरी बार पतझड़ का एहसास उस को तब हुआ था जब उस का एक और परम मित्र, विनोद एक रात 9 बजे अचानक आ गया.

‘आओ, विनोद,’ उस की आंखों में अजीब सी रोशनी थी. विनोद के साथ बिताई बहुत सी रातें उसे याद आने लगीं.

‘अरे प्रीति, मैं एक जरूरी काम से आया हूं.’

‘तुम्हारा काम मैं जानती हूं,’ प्रीति अदा से मुसकराई.

‘नहीं, वह बात नहीं है. असल में मुझे एक गैस कनैक्शन चाहिए.’

‘अपने लिए नहीं, और किसी के लिए,’ विनोद ने हौले से कहा, ‘तुम्हारी तो बहुत जानपहचान है. तुम यह काम आसानी से करवा सकती हो.’

‘किस के लिए चाहिए?’ प्रीति के माथे पर बल पड़ गए.

‘एक साथी है दफ्तर में, अचला, क्या मैं उसे कल तुम्हारे पास भेज दूं?’

प्रीति का सिर चकरा गया कि उस ने खुद भी तो कभी गैस कनैक्शन लिया था…और अब अचला? लेकिन उस ने खुद को संभाला, ‘नहीं, भेजने की जरूरत नहीं. उस से कहना मुझे फोन कर ले.’

‘धन्यवाद,’ कह कर विनोद तेजी से बाहर निकल गया.

उस दिन कमरे का माहौल कितना बोझिल सा हो गया था. विनोद ने उस के हुस्न और जवानी का मजाक ही तो उड़ाया था, क्योंकि उस की जगह अब अचला ने ले ली थी.

फिर उसे राज की याद आई. एक दिन उस ने देखा, राज किसी सुंदरी से बातें कर रहा है. वह तेजी से उस के पास पहुंची, ‘हैलो राज, आजकल बहुत व्यस्त रहने लगे हो. अब तो इधर देखने की फुरसत भी नहीं.’

‘अब इधर देखूं या आप की तरफ?’ राज ने उस सुंदरी की ओर देखते हुए मुसकरा कर कहा.

खिलती उम्र की गुलाबी सुबह पर इतनी जल्दी शाम का धुंधलका छाने लगेगा, प्रीति ने सोचा भी न था. दोस्तों के लिए उस का साथ ऐसा ही रहा, जैसे कोट पर सजी गुलाब की कली, जो जरा सी मुरझाई नहीं कि बदल दी जाती है. अब उस की शामें सूनी हो चली थीं. न कोठी की घंटी बजती और न फोन ही आते.

प्रीति का नशा उतरने लगा तो ज्ञात हुआ कि उस के सभी सहयोगी पदोन्नति पा चुके हैं. विजय के पास भी अपना घर था और उस ने एक कार भी खरीद ली थी.

आखिर एक दिन प्रीति ने हालात से समझौता कर लिया और श्रीमती देवराज बन गई. विधुर देवराज को भी अकेलेपन में सहारा चाहिए था. लेकिन रेणु के जन्म के कुछ वर्षों बाद ही देवराज चल बसा. अपना रुपयापैसा वह अपनी पहली, दिवंगत पत्नी के बच्चों के नाम कर चुका था. सो, प्रीति को उस से मिली सिर्फ रेणु. लेकिन यह सहारा भी कम न था.

रेणु को पालतेपोसते प्रीति ने जीवन के काफी वर्ष काट दिए. रेणु भी उसी की तरह सुंदर थी. वह सुंदरता उसे विरासत में मिली थी. लेकिन अभी जो शब्द उस ने कहे थे, वे भी तो विरासत में मिले थे. प्रीति तड़प उठी. रेणु ने दूध का खाली गिलास मेज पर रखा तो प्रीति चौंकी, एक लंबी सांस ली और बोली, ‘‘बेटी, अगर रोनित तुम्हें पसंद है तो और कुछ न सोचो. तुम दोनों धीरेधीरे तरक्की कर लोगे. अभी उम्र ही क्या है.’’

रेणु उदास सी मां को देखती रही. प्रीति ने और कुछ न कहा, गिलास उठाया और कमरे से बाहर निकल गई.

रात के 11 बज चुके थे, लेकिन प्रीति की आंखों से नींद बहुत दूर थी. एक खयाल उस के इर्दगिर्द मंडरा रहा था कि काश, विजय उस के पास होता. यह कोठी, यह दौलत और यह कार न होती. साफसुथरी जिंदगी होती, विजय होता और रेणु होती.

दूसरे दिन रेणु ने धीरे से कमरे का परदा हटाया तो प्रीति बोली, ‘‘आओ, बेटी.’’

‘‘मां…,’’ रेणु पलंग पर बैठ गई, ‘‘मां…,’’ वह कहते हुए हिचकिचा सी रही थी.

‘‘बोलो बेटी,’’ प्रीति ने प्यार से कहा.

‘‘आप के आने से पहले ही रोनित का फोन आया था.’’

‘‘क्या, शादी के बारे में?’’

‘‘जी.’’

‘‘फिर तू ने क्या कहा?’’

‘‘मैं सोचती थी, रोनित एक मामूली क्लर्क है. आप अपनी शान के आगे कभी भी क्लर्क दामाद को बरदाश्त नहीं करेंगी. इसीलिए…’’

‘‘इसीलिए क्या?’’

‘‘इसीलिए मैं ने उसे मना कर दिया.’’

‘‘यह तू ने क्या किया, बेटी. रोनित जो कुछ तुम्हारे लिए कर सकेगा, वह और कोई नहीं कर सकेगा…’’

प्रीति शून्य में घूर रही थी, लेकिन हर ओर उसे विजय का भोलाभाला चेहरा दिखाई दे रहा था. जब वह बड़ेबड़े अफसरों के साथ घूमती थी, तब विजय की उदास आंखें उसे हसरत से देखा करती थीं. उन आंखों का दुख, उदासी उस दिल की तड़प उसे रहरह कर याद आ रही थी.

उस ने रेणु की तरफ देखा, वह भी खामोश बैठी थी. थोड़ी देर बाद उस ने कहा, ‘‘बेटी, एक बात पूछूं, अपनी सहेली समझ कर सचसच बताना.’’

रेणु ने सवालिया नजरों से मां को देखा.

‘‘तू रोनित को पसंद तो करती है न?’’

‘‘हां, मां,’’ रेणु ने धीरे से कहा और नजरें झुका लीं.

‘‘अब क्या होगा? मेरी बच्ची, तू ने मुझ से पूछा तो होता. क्या वह फिर आएगा?’’

‘‘पता नहीं,’’ रेणु ने भर्राई आवाज में कहा और उठ कर चली गई.

सुबह प्रीति उठी तो सिर बहुत भारी था. शायद 10 बज रहे थे. रविवार को वैसे भी वह देर से उठती थी. उस ने परदे सरकाए और बालकनी में जा कर खड़ी हो गई. अचानक नजर नीचे पड़ी, रोनित और रेणु नीम के पेड़ की आड़ में खड़े थे. वह धीरेधीरे पीछे हो गई और अपने कमरे में लौट आई. आरामकुरसी पर बैठ कर उस ने अपना सिर पीछे टिका दिया.

देर तक प्रीति इसी मुद्रा में बैठी रही. फिर किसी के आने की आहट हुई तो उस ने भीगी पलकें उठाईं, सामने रेणु खड़ी थी.

‘‘मां, वह आया था, फिर वही कहने.’’

प्रीति टकटकी बांधे उस के अगले शब्दों का इंतजार करने लगी.

‘‘मां, मैं ने…मैं ने…’’

‘‘तू ने क्या कहा?’’ वह लगभग चीख पड़ी.

‘‘मैं ने ‘हां’ कह दी.’’

‘‘मेरी बच्ची,’’ प्रीति ने खींच कर रेणु को सीने से लिपटा लिया और बुदबुदाई, ‘शुक्र है, तू ने मां की हर चीज विरासत में नहीं पाई.’

‘‘क्या मां, कुछ कहा?’’ रेणु ने अलग हो कर उस के शब्दों को समझना चाहा.

‘‘कुछ नहीं बेटी, हमेशा सुखी रहो,’’ और उस ने रेणु का माथा चूम कर उसे अपने सीने से लगा लिया.

Romantic Story : सजा – क्या सुमित के साथ अंकिता ने खत्म किया अपना रिश्ता

Romantic Story : वेटर को कौफी लाने का और्डर देने के बाद सुमित ने अंकिता से अचानक पूछा, ‘‘मेरे साथ 3-4 दिन के लिए मनाली घूमने चलोगी?’’ ‘‘तुम पहले कभी मनाली गए हो?’’

‘‘नहीं.’’ ‘‘तो उस खूबसूरत जगह पहली बार अपनी पत्नी के साथ जाना.’’

‘‘तब तो तुम ही मेरी पत्नी बनने को राजी हो जाओ, क्योंकि मैं वहां तुम्हारे साथ ही जाना चाहता हूं.’’ ‘‘यार, एकदम से जज्बाती हो कर शादी करने का फैसला किसी को नहीं करना चाहिए.’’

सुमित उस का हाथ पकड़ कर उत्साहित लहजे में बोला, ‘‘देखो, तुम्हारा साथ मुझे इतनी खुशी देता है कि वक्त के गुजरने का पता ही नहीं चलता. यह गारंटी मेरी रही कि हम शादी कर के बहुत खुश रहेेंगे.’’ उस के उत्साह से प्रभावित हुए बिना अंकिता संजीदा लहजे में बोली, ‘‘शादी के लिए ‘हां’ या ‘न’ करने से पहले मैं तुम्हें आज अपनी पर्सनल लाइफ के बारे में कुछ बातें बताना चाहती हूं, सुमित.’’

सुमित आत्मविश्वास से भरी आवाज में बोला, ‘‘तुम जो बताओगी, उस से मेरे फैसले पर कोई असर पड़ने वाला नहीं है.’’ ‘‘फिर भी तुम मेरी बात सुनो. जब मैं 15 साल की थी, तब मेरे मम्मीपापा के बीच तलाक हो गया था. दोनों के स्वभाव में जमीनआसमान का अंतर होने के कारण उन के बीच रातदिन झगड़े होते थे.

‘‘तलाक के 2 साल बाद पापा ने दूसरी शादी कर ली. ढेर सारी दौलत कमाने की इच्छुक मेरी मां ने अपना ब्यूटी पार्लर खोल लिया. आज वे इतनी अमीर हो गई हैं कि समाज की परवा किए बिना हर 2-3 साल बाद अपना प्रेमी बदल लेती हैं. हमारे जानकार लोग उन दोनों को इज्जत की नजरों से नहीं देखते हैं.’’ अंकिता उस की प्रतिक्रिया जानने के लिए रुकी हुई है, यह देख कर सुमित ने गंभीर लहजे में जवाब दिया, ‘‘मैं मानता हूं कि हर इंसान को अपने हिसाब से अपनी जिंदगी के फैसले करने का अधिकार होना ही चाहिए. तलाक लेने के बजाय रातदिन लड़ कर अपनीअपनी जिंदगी बरबाद करने का भी तो उन दोनों के लिए कोई औचित्य नहीं था. खुश रहने के लिए उन्होंने जो रास्ता चुना, वह सब को स्वीकार करना चाहिए.’’

‘‘क्या तुम सचमुच ऐसी सोच रखते हो या मुझे खुश करने के लिए ऐसा बोल रहे हो?’’ ‘‘झूठ बोलना मेरी आदत नहीं है, अंकिता.’’

‘‘गुड, तो फिर शादी की बात आगे बढ़ाते हुए कौफी पीने के बाद मैं तुम्हें अपनी मम्मी से मिलाने ले चलती हूं.’’ ‘‘मैं उन्हें इंटरव्यू देने के लिए बिलकुल तैयार हूं,’’ सुमित बोला तो उस की आंखों में उभरे प्रसन्नता के भाव पढ़ कर अंकिता खुद को मुसकराने से नहीं रोक पाई.

आधे घंटे बाद अंकिता सुमित को ले कर अपनी मां सीमा के ब्यूटी पार्लर में पहुंच गई.

आकर्षक व्यक्तित्व वाली सीमा सुमित से गले लग कर मिली और पूछा, ‘‘क्या तुम इस बात से हैरान नजर आ रहे हो कि हम मांबेटी की शक्लें आपस में बहुत मिलती हैं?’’ ‘‘आप ने मेरी हैरानी का बिलकुल ठीक कारण ढूंढ़ा है,’’ सुमित ने मुसकराते हुए जवाब दिया.

‘‘हम दोनों की अक्ल भी एक ही ढंग से काम करती है.’’ ‘‘वह कैसे?’’

‘‘हम दोनों ही ‘जीओ और जीने दो’ के सिद्धांत में विश्वास रखती हैं. उन लोगों से संबंध रखना हमें बिलकुल पसंद नहीं जो हमारी जिंदगी में टैंशन पैदा करने की फिराक में रहते हों.’’ ‘‘मम्मी, अब सुमित से भी इस के बारे में कुछ पूछ लो, क्योंकि यह मुझ से शादी करना चाहता है,’’ अंकिता ने अपनी बातूनी मां को टोकना उचित समझा था.

‘‘रियली, दिस इज गुड न्यूज,’’ सीमा ने एक बार फिर सुमित को गले से लगा कर खुश रहने का आशीर्वाद दिया और फिर अपनी बेटी से पूछा, ‘‘क्या तुम ने सुमित को अपने पापा से मिलवाया है?’’ ‘‘अभी नहीं.’’

सीमा मुड़ कर फौरन सुमित को समझाने लगी, ‘‘जब तुम इस के पापा से मिलो, तो उन के बेढंगे सवालों का बुरा मत मानना. उन्हें करीबी लोगों की जिंदगी में अनावश्यक हस्तक्षेप करने की गंदी आदत है, क्योंकि वे समझते हैं कि उन से ज्यादा समझदार कोई और हो ही नहीं सकता.’’ ‘‘मौम, सुमित यहां आप की शिकायतें सुनने नहीं आया है. आप उस के बारे में कोई सवाल क्यों नहीं पूछ रही हैं?’’ अंकिता ने एक बार फिर अपनी मां को विषय परिवर्तन करने की सलाह दी.

‘‘ओकेओके माई डियर सुमित, मुझे तो तुम से एक ही सवाल पूछना है. क्या तुम अंकिता के लिए अच्छे और विश्वसनीय जीवनसाथी साबित होंगे?’’ ‘‘मुझे पूरा विश्वास है कि शादी के बाद हम बहुत खुश रहेंगे,’’ सुमित ने बेझिझक जवाब दिया.

‘‘मैं नहीं चाहती कि अंकिता मेरी तरह जीवनसाथी का चुनाव करने में गलती करे. मेरी सलाह तो यही है कि तुम दोनों शादी करने का फैसला जल्दबाजी में मत करना. एकदूसरे को अच्छी तरह से समझने के बाद अगर तुम दोनों शादी करने का फैसला करते हो, तो सुखी विवाहित जीवन के लिए मेरा आशीर्वाद तुम दोनों को जरूर मिलेगा.’’

‘‘थैंक यू, आंटी. मैं तो बस, अंकिता की ‘हां’ का इंतजार कर रहा हूं.’’ ‘‘गुड, प्लीज डोंट माइंड, पर इस वक्त मैं जरा जल्दी में हूं. मैं ने एक खास क्लाइंट को उस का ब्राइडल मेकअप करने के लिए अपौइंटमैंट दे रखा है. तुम दोनों से फुरसत से मिलने का कार्यक्रम मैं जल्दी बनाती हूं,’’ सीमा ने बारीबारी दोनों को प्यार से गले लगाया और फिर तेज चाल से चलती हुई पार्लर के अंदरूनी हिस्से में चली गई.

बाहर आ कर सुमित सीमा से हुई मुलाकात के बारे में चर्चा करना चाहता था, पर अंकिता ने उसे रोकते हुए कहा, ‘‘मैं लगे हाथ अपने पापा को भी तुम्हारे बारे में बताने जा रही हूं. मेरे फोन का स्पीकर औन है. हमारे बीच कैसे संबंध हैं, यह समझने के लिए तुम हमारी बातें ध्यान से सुनो, प्लीज.’’ अंकिता ने अपने पापा को सुमित का परिचय देने के बाद जब उस के साथ शादी करने की इच्छा के बारे में बताया, तो उन्होंने गंभीर लहजे में कहा, ‘‘तुम सुमित को कल शाम घर ले आओ.’’

‘‘जरा सोचसमझ कर हमें घर आने का न्योता दो, पापा. आप मेरी जिंदगी में दिलचस्पी ले रहे हैं, यह देख कर आप की दूसरी वाइफ नाराज तो नहीं होंगी न?’’ अंकिता के व्यंग्य से तिलमिलाए उस के पापा ने भी तीखे लहजे में कहा, ‘‘तुम बिलकुल अपनी मां जैसी बददिमाग हो गई हो और उसी के जैसे वाहियात लहजे में बातें भी करती हो. पिता होने के नाते मैं तुम से दूर नहीं हो सकता, वरना तुम्हारा बात करने का ढंग मुझे बिलकुल पसंद नहीं है.’’

‘‘आप दूर जाने की बात मत करिए, क्योंकि आप की सैकंड वाइफ ने आप को मुझ से पहले ही बहुत दूर कर दिया है.’’ ‘‘देखो, यह चेतावनी मैं तुम्हें अभी दे रहा हूं कि कल शाम तुम उस के साथ तमीज से पेश…’’

‘‘मैं कल आप के घर नहीं आ रही हूं. सुमित को किसी और दिन आप के औफिस ले आऊंगी.’’ ‘‘तुम बहुत ज्यादा जिद्दी और बददिमाग होती जा रही हो.’’

‘‘थैंक यू एेंड बाय पापा,’’ चिढ़े अंदाज में ऐसा कह कर अंकिता ने फोन काट दिया था.

अपने मूड को ठीक करने के लिए अंकिता ने पहले कुछ गहरी सांसें लीं और फिर सुमित से पूछा, ‘‘अब बताओ कि तुम्हें मेरे मातापिता कैसे लगे? क्या राय बनाई है तुम ने उन दोनों के बारे में?’’ ‘‘अंकिता, मुझे उन दोनों के बारे में कोई भी राय बनाने की जरूरत महसूस नहीं हो रही है. तुम्हें उन से जुड़ कर रहना ही है और मैं उन के साथ हमेशा इज्जत से पेश आता रहूंगा,’’ सुमित ने उसे अपनी राय बता दी.

उस का जवाब सुन अंकिता खुश हो कर बोली, ‘‘तुम तो शायद दुनिया के सब से ज्यादा समझदार इंसान निकलोगे. मुझे विश्वास होने लगा है कि हम शादी कर के खुश रह सकेंगे, पर…’’ ‘‘पर क्या?’’

‘‘पर फिर भी मैं चाहूंगी कि तुम अपना फाइनल जवाब मुझे कल दो.’’ ‘‘ओके, कल कब और कहां मिलोगी?’’

‘‘करने को बहुत सी बातें होंगी, इसलिए नेहरू पार्क में मिलते हैं.’’ ‘‘ओके.’’

अगले दिन रविवार को दोनों नेहरू पार्क में मिले. सुमित की आंखों में तनाव के भाव पढ़ कर अंकिता ने मजाकिया लहजे में कहा, ‘‘यार, इतनी ज्यादा टैंशन लेने की जरूरत नहीं है. तुम मुझ से शादी नहीं कर सकते हो, अपना यह फैसला बताने से तुम घबराओ मत.’’ उस के मजाक को नजरअंदाज करते हुए सुमित गंभीर लहजे में बोला, ‘‘कल रात को किसी लड़की ने मुझे फोन कर राजीव के बारे में बताया है.’’

‘‘यह तो उस ने अच्छा काम किया, नहीं तो आज मैं खुद ही तुम्हें उस के बारे में बताने वाली थी,’’ अंकिता ने बिना विचलित हुए जवाब दिया. ‘‘क्या तुम उस के बहुत ज्यादा करीब थी?’’

‘‘हां.’’ ‘‘तुम दोनों एकदूसरे से दूर क्यों हो गए?’’

‘‘उस का दिल मुझ से भर गया… उस के जीवन में दूसरी लड़की आ गई थी.’’ ‘‘क्या तुम उस के साथ शिमला घूमने गई थी?’’

‘‘हां.’’ ‘‘क्या तुम वहां उस के साथ एक ही कमरे में रुकी थी?’’

उस की आंखों में देखते हुए अंकिता ने दृढ़ लहजे में जवाब दिया, ‘‘रुके तो हम अलगअलग कमरों में थे, पर मैं ने 2 रातें उस के कमरे में ही गुजारी थीं.’’ उस का जवाब सुन कर सुमित को एकदम झटका लगा. अपने आंतरिक तनाव से परेशान हो वह दोनों हाथों से अपनी कनपटियां मसलने लगा.

‘‘मैं तुम से इस वक्त झूठ नहीं बोलूंगी सुमित, क्योंकि तुम से… अपने भावी जीवनसाथी से अपने अतीत को छिपा कर रखना बहुत गलत होगा.’’ ‘‘मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि मैं क्या कहूं. मैं तुम्हें बहुत चाहता हूं. तुम से शादी करना चाहता हूं, पर…पर…’’

‘‘मैं अच्छी तरह से समझ सकती हूं कि तुम्हारे मन में इस वक्त क्या चल रहा है, सुमित. अच्छा यही रहेगा कि इस मामले में तुम पहले मेरी बात ध्यान से सुनो. मैं खुद नहीं चाहती हूं कि तुम जल्दबाजी में मुझ से शादी करने का फैसला करो.’’ बहुत दुखी और परेशान नजर आ रहे सुमित ने अपना सारा ध्यान अंकिता पर केंद्रित कर दिया.

अंकिता ने उस की आंखों में देखते हुए गंभीर लहजे में बोलना शुरू किया, ‘‘राजीव मुझ से बहुत प्रेम करने का दम भरता था और मैं उस के ऊपर आंख मूंद कर विश्वास करती थी. इसीलिए जब उस ने जोर डाला तो मैं न उस के साथ शिमला जाने से इनकार कर सकी और न ही कमरे में रात गुजारने से. ‘‘मैं ने फैसला कर रखा है कि उस धोखेबाज इंसान को न पहचान पाने की अपनी गलती के लिए घुटघुट कर जीने की सजा खुद को बिलकुल नहीं दूंगी. अब तुम ही बताओ कि मुझे क्या करना चाहिए?

‘‘क्या मैं आजीवन अपराधबोध का शिकार बन कर जीऊं? तुम्हारे प्रेम का जवाब प्रेम से न दूं? तुम से शादी हो जाए, तो हमेशा डरतीकांपती रहूं कि कहीं से राजीव और मेरे अतीत के नजदीकी रिश्तों के बारे में तुम्हें पता न लग जाए? ‘‘मैं चाहती हूं कि तुम भावुक हो कर शादी के लिए ‘हां’ मत कहो. तुम्हें राजीव के बारे में पता है… मेरे मातापिता के तलाक, उन की जीवनशैली और उन के मेरे तनाव भरे रिश्तों की जानकारी अब तुम्हें है.

इन सब बातों को जान कर तुम्हारे मन में मेरी इज्जत कम हो गई हो या मेरी छवि बिगड़ गई हो, तो मेरे साथ सात फेरे लेने का फैसला बदल दो.’’ अंकिता की सारी बातें सुन कर सुमित जब खामोश बैठा रहा, तो अंकिता उठ कर खड़ी हो गई और बुझे स्वर में बोली, ‘‘तुम अपना फाइनल फैसला मुझे बाद में फोन कर के बता देना. अभी मैं चलती हूं.’’

पार्क के गेट की तरफ बढ़ रही अंकिता को जब सुमित ने पीछे से आवाज दे कर नहीं रोका, तो उस के तनमन में अजीब सी उदासी और मायूसी भरती चली गई थी. आंखों से बह रही अविरल अश्रुधारा को रोकने की नाकामयाब कोशिश करते हुए जब वह आटोरिकशा में बैठने जा रही थी, तभी सुमित ने पीछे से आ कर उस का हाथ पकड़ लिया. उस की फूली सांसें बता रही थीं कि वह दौड़ते हुए वहां

पहुंचा था. ‘‘तुम्हें मैं इतनी आसानी से जिंदगी से दूर नहीं होने दूंगा, मैडम,’’ सुमित ने उस का हाथ थाम कर भावुक लहजे में अपने दिल की बात कही.

‘‘मेरे अतीत के कारण तुम हमारी शादी होने के बाद दुखी रहो, यह मेरे लिए असहनीय बात होगी. सुमित, अच्छा यही रहेगा कि हम दोस्त…’’ उस के मुंह पर हाथ रख कर सुमित ने उसे आगे बोलने से रोका और कहा, ‘‘जब तुम चलतेचलते मेरी नजरों से ओझल हो गई, तो मेरा मन एकाएक गहरी उदासी से भर गया था…वह मेरे लिए एक महत्त्वपूर्ण फैसला करने की घड़ी थी…और मैं ने फैसला कर लिया है.

‘‘मेरा फैसला है कि मुझे अपनी बाकी की जिंदगी तुम्हारे ही साथ गुजारनी है.’’ ‘‘सुमित, भावुक हो कर जल्दबाजी में…’’

उस के कहे पर ध्यान दिए बिना बहुत खुश नजर आ रहा सुमित बोले जा रहा था, ‘‘मेरा यह अहम फैसला दिल से आया है, स्वीटहार्ट. अतीत में किसी और के साथ बने सैक्स संबंध को हमारे आज के प्यार से ज्यादा महत्त्व देने की मूढ़ता मैं नहीं दिखाऊंगा. विल यू मैरी मी?’’ ‘‘पर…’’

‘‘अब ज्यादा भाव मत खाओ और फटाफट ‘हां’ कर दो, माई लव,’’ सुमित ने अपनी बांहें फैला दीं. ‘‘हां, माई लव,’’ खुशी से कांप रही आवाज में अपनी रजामंदी प्रकट करने के बाद अंकिता सुमित की बांहों के मजबूत घेरे में कैद हो गई.

Love Story : कायर – श्रेया ने श्रवण को छोड़ राजीव से विवाह क्यों कर लिया

Love Story : श्रेया के आगे खड़ी महिला जैसे ही अपना बोर्डिंग पास ले कर मुड़ी श्रेया चौंक पड़ी. बोली, ‘‘अरे तन्वी तू…तो तू भी दिल्ली जा रही है… मैं अभी बोर्डिंग पास ले कर आती हूं.’’

उन की बातें सुन कर काउंटर पर खड़ी लड़की मुसकराई, ‘‘आप दोनों को साथ की सीटें दे दी हैं. हैव ए नाइस टाइम.’’ धन्यवाद कह श्रेया इंतजार करती तन्वी के पास आई.

‘‘चल आराम से बैठ कर बातें करते हैं,’’ तन्वी ने कहा.

हौल में बहुत भीड़ थी. कहींकहीं एक कुरसी खाली थी. उन दोनों को असहाय से एकसाथ 2 खाली कुरसियां ढूंढ़ते देख कर खाली कुरसी के बराबर बैठा एक भद्र पुरुष उठ खड़ा हुआ. बोला, ‘‘बैठिए.’’

‘‘हाऊ शिवैलरस,’’ तन्वी बैठते हुए बोली, ‘‘लगता है शिवैलरी अभी लुप्त नहीं हुई है.’’

‘‘यह तो तुझे ही मालूम होगा श्रेया…तू ही हमेशा शिवैलरी के कसीदे पढ़ा करती थी,’’ तन्वी हंसी, ‘‘खैर, छोड़ ये सब, यह बता तू यहां कैसे?’’

‘‘क्योंकि मेरा घर यानी आशियाना यहीं है, दिल्ली तो एक शादी में जा रही हूं.’’

‘‘अजब इत्तफाक है. मैं एक शादी में यहां आई थी और अब अपने आशियाने में वापस दिल्ली जा रही हूं.’’

‘‘मगर जीजू तो सिंगापुर में सैटल्ड थे?’’

‘‘हां, सर्विस कौंट्रैक्ट खत्म होने पर वापस दिल्ली आ गए. नौकरी के लिए भले ही कहीं भी चले जाएं, दिल्ली वाले सैटल कहीं और नहीं हो सकते.’’

‘‘वैसे हूं तो मैं भी दिल्ली की, मगर अब भोपाल छेड़ कर कहीं और नहीं रह सकती.’’

‘‘लेकिन मेरी शादी के समय तो तेरा भी दिल्ली में सैटल होना पक्का ही था,’’ श्रेया ने उसांस भरी.

‘‘हां, था तो पक्का ही, मगर मैं ने ही पूरा नहीं होने दिया और उस का मुझे कोई अफसोस भी नहीं है. अफसोस है तो बस इतना कि मैं ने दिल्ली में सैटल होने का मूर्खतापूर्ण फैसला कैसे कर लिया था.’’

‘‘माना कि कई खामियां हैं दिल्ली में, लेकिन भई इतनी बुरी भी नहीं है हमारी दिल्ली कि वहां रहने की सोचने तक को बेवकूफी माना जाए,’’ तन्वी आहत स्वर में बोली.

‘‘मुझे दिल्ली से कोई शिकायत नहीं है तन्वी,’’ श्रेया खिसिया कर बोली, ‘‘दिल्ली तो मेरी भी उतनी ही है जितनी तेरी. मेरा मायका है. अत: अकसर जाती रहती हूं वहां. अफसोस है तो अपनी उस पसंद पर जिस के साथ दिल्ली में बसने जा रही थी.’’

तन्वी ने चौंक कर उस की ओर देखा. फिर कुछ हिचकते हुए बोली, ‘‘तू कहीं श्रवण की बात तो नहीं कर रही?’’

श्रेया ने उस की ओर उदास नजरों से देखा. फिर पूछा, ‘‘तुझे याद है उस का नाम?’’

‘‘नाम ही नहीं उस से जुड़े सब अफसाने भी जो तू सुनाया करती थी. उन से तो यह पक्का था कि श्रवण वाज ए जैंटलमैन, ए थौरो जैंटलमैन टु बी ऐग्जैक्ट. फिर उस ने ऐसा क्या कर दिया कि तुझे उस से प्यार करने का अफसोस हो रहा है? वैसे जितना मैं श्रवण को जानती हूं उस से मुझे यकीन है कि श्रवण ने कोई गलत काम नहीं किया होगा जैसे किसी और से प्यार या तेरे से जोरजबरदस्ती?’’

श्रेया ने मुंह बिचकाया, ‘‘अरे नहीं, ऐसा सोचने की तो उस में हिम्मत ही नहीं थी.’’

‘‘तो फिर क्या दहेज की मांग करी थी उस ने?’’

‘‘वहां तक तो बात ही नहीं पहुंची. उस से पहले ही उस का असली चेहरा दिख गया और मैं ने उस से किनारा कर लिया,’’ श्रेया ने फिर गहरी सांस खींची, ‘‘कुछ और उलटीसीधी अटकल लगाने से पहले पूरी बात सुनना चाहेगी?’’

‘‘जरूर, बशर्ते कोई ऐसी व्यक्तिगत बात न हो जिसे बताने में तुझे कोई संकोच हो.’’

‘‘संकोच वाली तो खैर कोई बात ही नहीं है, समझने की बात है जो तू ही समझ सकती है, क्योंकि तूने अभीअभी कहा कि मैं शिवैलरी के कसीदे पढ़ा करती थी…’’ इसी बीच फ्लाइट के आधा घंटा लेट होने की घोषणा हुई.

‘‘अब टुकड़ों में बात करने के बजाय श्रेया पूरी कहानी ही सुना दे.’’

‘‘मेरा श्रवण की तरफ झुकाव उस के शालीन व्यवहार से प्रभावित हो कर हुआ था. अकसर लाइबेरी में वह ऊंची शैल्फ से मेरी किताबें निकालने और रखने में बगैर कहे मदद करता था. प्यार कब और कैसे हो गया पता ही नहीं चला. चूंकि हम एक ही बिरादरी और स्तर के थे, इसलिए श्रवण का कहना था कि सही समय पर सही तरीके से घर वालों को बताएंगे तो शादी में कोई रुकावट नहीं आएगी. मगर किसी और ने चुगली कर दी तो मुश्किल होगी. हम संभल कर रहेंगे.

प्यार के जज्बे को दिल में समेटे रखना तो आसान नहीं होता. अत: मैं तुझे सब बताया करती थी. फाइनल परीक्षा के बाद श्रवण के कहने पर मैं ने उस के साथ फर्नीचर डिजाइनिंग का कोर्स जौइन किया था. साउथ इंस्टिट्यूट मेरे घर से ज्यादा दूर नहीं था.

श्रवण पहले मुझे पैदल मेरे घर छोड़ने आता था. फिर वापस जा कर अपनी बाइक ले कर अपने घर जाता था. मुझे छोड़ने घर से गाड़ी आती थी. लेने भी आ सकती थी लेकिन वन वे की वजह से उसे लंबा चक्कर लगाना पड़ता. अत: मैं ने कह दिया  था कि नजदीक रहने वाले सहपाठी के साथ पैदल आ जाती हूं. यह तो बस मुझे ही पता था कि बेचारा सहपाठी मेरी वजह से डबल पैदल चलता था. मगर बाइक पर वह मुझे मेरी बदनामी के डर से नहीं बैठाता था. मैं उस की इन्हीं बातों पर मुग्ध थी.

वैसे और सब भी अनुकूल ही था. हम दोनों ने ही इंटीरियर डैकोरेशन का कोर्स किया. श्रवण के पिता फरनिशिंग का बड़ा शोरूम खोलने वाले थे, जिसे हम दोनों को संभालना था. श्रवण का कहना था कि रिजल्ट निकलने के तुरंत बाद वह अपनी भाभी से मुझे मिलवाएगा और फिर भाभी मेरे घर वालों से मिल कर कैसे क्या करना है तय कर लेंगी.

लेकिन उस से पहले ही मेरी मामी मेरे लिए अपने भानजे राजीव का रिश्ता ले कर आ गईं. राजीव आर्किटैक्ट था और ऐसी लड़की चाहता था, जो उस के व्यवसाय में हाथ बंटा सके. मामी द्वारा दिया गया मेरा विवरण राजीव को बहुत पसंद आया और उस ने मामी से तुरंत रिश्ता करवाने को कहा.

‘‘मामी का कहना था कि नवाबों के शहर भोपाल में श्रेया को अपनी कला के पारखी मिलेंगे और वह खूब तरक्की करेगी. मामी के जाने के बाद मैं ने मां से कहा कि दिल्ली जितने कलापारखी और दिलवाले कहीं और नहीं मिलेंगे. अत: मेरे लिए तो दिल्ली में रहना ही ठीक होगा. मां बोलीं कि वह स्वयं भी मुझे दिल्ली में ही ब्याहना चाहेंगी, लेकिन दिल्ली में राजीव जैसा उपयुक्त वर भी तो मिलना चाहिए. तब मैं ने उन्हें श्रवण के बारे में सब बताया. मां ने कहा कि मैं श्रवण को उन से मिलवा दूं. अगर उन्हें लड़का जंचा तो वे पापा से बात करेंगी.

‘‘दोपहर में पड़ोस में एक फंक्शन था. वहां जाने से पहले मां ने मेरे गले में सोने की चेन पहना दी थी. मुझे भी पहननी अच्छी लगी और इंस्टिट्यूट जाते हुए मैं ने चेन उतारी नहीं. शाम को जब श्रवण रोज की तरह मुझे छोड़ने आ रहा था तो मैं ने उसे सारी बात बताई और अगले दिन अपने घर आने को कहा.

‘‘कल क्यों, अभी क्यों नहीं? अगर तुम्हारी मम्मी कहेंगी तो तुम्हारे पापा से मिलने के लिए भी रुक जाऊंगा,’’ श्रवण ने उतावली से कहा.

‘‘तुम्हारी बाइक तो डिजाइनिंग इंस्टिट्यूट में खड़ी है.’’

‘‘खड़ी रहने दो, तुम्हारे घर वालों से मिलने के बाद जा कर उठा लूंगा.’’

‘‘तब तक अगर कोई और ले गया तो? अभी जा कर ले आओ न.’’

‘‘ले जाने दो, अभी तो मेरे लिए तुम्हारे मम्मीपापा से मिलना ज्यादा जरूरी है.’’

सुन कर मैं भावविभोर हो गई और मैं ने देखा नहीं कि बिलकुल करीब 2 गुंडे चल रहे थे, जिन्होंने मौका लगते ही मेरे गले से चेन खींच ली. इस छीनाझपटी में मैं चिल्लाई और नीचे गिर गई. लेकिन मेरे साथ चलते श्रवण ने मुझे बचाने की कोई कोशिश नहीं करी. मेरा चिल्लाना सुन कर जब लोग इकट्ठे हुए और किसी ने मुझे सहारा दे कर उठाया तब भी वह मूकदर्शक बना देखता रहा और जब लोगों ने पूछा कि क्या मैं अकेली हूं तो मैं ने बड़ी आस से श्रवण की ओर देखा, लेकिन उस के चेहरे पर पहचान का कोई भाव नहीं था.

एक प्रौढ दंपती के कहने पर कि चलो हम तुम्हें तुम्हारे घर पहुंचा दें, श्रवण तुरंत वहां से चलता बना. अब तू ही बता, एक कायर को शिवैलरस हीरो समझ कर उस की शिवैलरी के कसीदे पढ़ने के लिए मैं भला खुद को कैसे माफ कर सकती हूं? राजीव के साथ मैं बहुत खुश हूं. पूर्णतया संतुष्ट पर जबतब खासकर जब राजीव मेरी दूरदर्शिता और बुद्धिमता की तारीफ करते हैं, तो मुझे बहुत ग्लानि होती है और यह मूर्खता मुझे बुरी तरह कचोटती है.’’

‘‘इस हादसे के बाद श्रवण ने तुझ से संपर्क नहीं किया?’’

‘‘कैसे करता क्योंकि अगले दिन से मैं ने डिजाइनिंग इंस्टिट्यूट जाना ही छोड़ दिया. उस जमाने में मोबाइल तो थे नहीं और घर का नंबर उस ने कभी लिया ही नहीं था. मां के पूछने पर कि मैं अपनी पसंद के लड़के से उन्हें कब मिलवाऊंगी, मैं ने कहा कि मैं तो मजाक कर रही थी. मां ने आश्वस्त हो कर पापा को राजीव से रिश्ता पक्का करने को कह दिया. राजीव के घर वालों को शादी की बहुत जल्दी थी. अत: रिजल्ट आने से पहले ही हमारी शादी भी हो गई. आज तुझ से बात कर के दिल से एक बोझ सा हट गया तन्वी. लगता है अब आगे की जिंदगी इतमीनान से जी सकूंगी वरना सब कुछ होते हुए भी, अपनी मूर्खता की फांस हमेशा कचोटती रहती थी.’’

तभी यात्रियों को सुरक्षा जांच के लिए बुला लिया गया. प्लेन में बैठ कर श्रेया ने कहा, ‘‘मेरा तो पूरा कच्चा चिट्ठा सुन लिया पर अपने बारे में तो तूने कुछ बताया ही नहीं.’’

‘‘दिल्ली से एक अखबार निकलता है दैनिक सुप्रभात…’’

‘‘दैनिक सुप्रभात तो दशकों से हमारे घर में आता है,’’ श्रेया बीच में ही बोली, ‘‘अभी भी दिल्ली जाने पर बड़े शौक से पढ़ती हूं खासकर ‘हस्तियां’ वाला पन्ना.’’

‘‘अच्छा. सुप्रभात मेरे दादा ससुर ने आरंभ किया था. अब मैं अपने पति के साथ उसे चलाती हूं. ‘हस्तियां’ स्तंभ मेरा ही विभाग है.’’

‘‘हस्तियों की तसवीर क्यों नहीं छापते आप लोग?’’

‘‘यह तो पापा को ही मालूम होगा जिन्होंने यह स्तंभ शुरू किया था. यह बता मेरे घर कब आएगी, तुझे हस्तियों के पुराने संकलन भी दे दूंगी.’’

‘‘शादी के बाद अगर फुरसत मिली तो जरूर आऊंगी वरना अगली बार तो पक्का… मेरा भोपाल का पता ले ले. संकलन वहां भेज देना.’’

‘‘मुझे तेरा यहां का घर मालूम है, तेरे जाने से पहले वहीं भिजवा दूंगी.’’

दिल्ली आ कर श्रेया बड़ी बहन के बेटे की शादी में व्यस्त हो गई. जिस शाम को उसे वापस जाना था, उस रोज सुबह उसे तन्वी का भेजा पैकेट मिला. तभी उस का छोटा भाई भी आ गया और बोला, ‘‘हम सभी दिल्ली में हैं, आप ही भोपाल जा बसी हैं. कितना अच्छा होता दीदी अगर पापा आप के लिए भी कोई दिल्ली वाला लड़का ही देखते या आप ने ही कोई पसंद कर लिया होता. आप तो सहशिक्षा में पढ़ी थीं.’’

सुनते ही श्रेया का मुंह कसैला सा हो गया. तन्वी से बात करने के बाद दूर हुआ अवसाद जैसे फिर लौट आया. उस ने ध्यान बंटाने के लिए तन्वी का भेजा लिफाफा खोला ‘हस्तियां’ वाले पहले पृष्ठ पर ही उस की नजर अटक गई, ‘श्रवण कुमार अपने शहर के जानेमाने सफल व्यवसायी और समाजसेवी हैं. जरूरतमंदों की सहायता करना इन का कर्तव्य है. अपनी आयु और जान की परवाह किए बगैर इन्होंने जवान मनचलों से एक युवती की रक्षा की जिस में गंभीर रूप से घायल होने पर अस्पताल में भी रहना पड़ा. लेकिन अहं और अभिमान से यह सर्वथा अछूते हैं.’

हमारे प्रतिनिधि के पूछने पर कि उन्होंने अपनी जान जोखिम में क्यों डाली, उन की एक आवाज पर मंदिर के पुजारी व अन्य लोग लड़नेमरने को तैयार हो जाते तो उन्होंने बड़ी सादगी से कहा, ‘‘इतना सोचने का समय ही कहां था और सच बताऊं तो यह करने के बाद मुझे बहुत शांति मिली है. कई दशक पहले एक ऐसा हादसा मेरी मित्र और सहपाठिन के साथ हुआ था. चाहते हुए भी मैं उस की मदद नहीं कर सका था. एक अनजान मूकदर्शक की तरह सब देखता रहा था. मैं नहीं चाहता था कि किसी को पता चले कि वह मेरे साथ थी और उस का नाम मेरे से जुडे़ और बेकार में उस की बदनामी हो.

‘‘मुझे चुपचाप वहां से खिसकते देख कर उस ने जिस तरह से होंठ सिकोड़े थे मैं समझ गया था कि वह कह रही थी कायर. तब मैं खुद की नजरों में ही गिर गया और सोचने लगा कि क्या मैं उसे बदनामी से बचाने के लिए चुप रहा या सच में ही मैं कायर हूं? जाहिर है उस के बाद उस ने मुझ से कभी संपर्क नहीं किया. मैं यह जानता हूं कि वह जीवन में बहुत सुखी और सफल है. सफल और संपन्न तो मैं भी हूं बस अपनी कायरता के बारे में सोच कर ही दुखी रहता था पर आज इस अनजान युवती को बचाने के बाद लग रहा है कि मैं कायर नहीं हूं…’’

श्रेया और नहीं पढ़ सकी. एक अजीब सी संतुष्टि की अनुभूति में वह यह भी भूल गई कि उसे सुकून देने को ही तन्वी ने ‘हस्तियां’ कालम के संकलन भेजे थे और एक मनगढ़ंत कहानी छापना तन्वी के लिए मुश्किल नहीं था.

Emotional Story : कितनी गलत थी मैं – पढ़ी लिखी होने के बावजूद भी वह बेवकूफ क्यों थी?

Emotional Story : एक लंबे प्रवास के बाद मैं वापस अपने घर जा रही थी। रास्तेभर मेरा मन 8 माह से छोड़े हुए अव्यवस्थित घर को व्यवस्थित करने में उलझा हुआ था। घर पहुंचने से पहले ही मैं ने कामवाली से संपर्क साधने का प्रयास किया पर नहीं हो सका। घर पहुंच कर झाड़ूपोंछा करने वाली राधिका तो मिल गई, पर बरतन साफ करने वाली रानी न मिल पाई। उस की जगह मीना काम पर लग गई।

तभी एक दिन रानी मिलने आ गई।आते ही बोली, “आंटीजी, अंकलजी अब ठीक हैं न? यहां से तो अंकल ठीकठाक गए थे, फिर वहां जा कर क्या हो गया कि औपरेशन तक करवाना पड़ा?” उस ने बड़ी सहानुभूति से पूछा।

“तुम्हें अंकलजी के बारे में किस ने बताया है?” मैं ने उत्सुकतावश पूछा।

“सामने वाली आंटी कल बाजार में मिली थीं। मैं तो बस उन्हीं का हालचाल जानने आई हूं,” उस ने बड़ी आत्मीयता से कहा।

उस के मुंह से सहानुभूतिपूर्ण, आत्मीय शब्द सुन कर आश्चर्य भी हुआ और अच्छा भी लगा। अपनी व्यस्त दिनचर्या में से समय निकाल कर मात्र कुशलक्षेम जानने के लिए आना उस के आंतरिक लगाव का प्रतीक था, नहीं तो आजकल व्यस्तताएं इतनी बढ़ गई हैं कि सगेसंबंधी तक औपचारिकताएं निभाने से कतराने लगे हैं। मन अंदर तक भीग गया।

“काम करोगी?” मैं ने पूछा।

“आंटीजी, मेरे पास काम बहुत है। काम खत्म कर के घर वापस जातेजाते दोपहर के 3 बज जाते हैं।तब तक बच्चे भी स्कूल से वापस आ जाते हैं। वैसे, आप ने करवाना क्या है?” उस ने जानना चाहा।

“बरतन, साफसफाई और कपड़े आदि के सब कामों का इंतजाम हो गया है। मैं चाहती हूं कि सुबह रसोई में तुम घंटा भर मेरी मदद कर दिया करो। सुबह नाश्ता तुम यहीं कर लिया करो।”

कुछ देर सोचने के बाद वह बोली, “सुबह थोड़ा जल्दी उठने की कोशिश करती हूं,” इतना कह कर वह चली गई।

3-4 दिन बाद वह हाजिर थी। आते ही रसोई में मदद करने के अलावा घर को व्यवस्थित करने, डस्टिंग, कपड़े संभालने जैसे छोटेछोटे काम भी करने लगी। फिर एक दिन आते ही बोली,”आंटीजी, कल से मैं आधा घंटा देर से आऊंगी।”

कारण पूछने पर बोली,” स्कूल से मेरे छोटे बेटे की शिकायत आई है कि वह स्कूल देर से पहुंचता है। कल से मैं उसे तैयार कर के खुद स्कूल छोड़ कर फिर काम पर आऊंगी। उस के पापा के बस का कुछ भी नहीं है।”

शिक्षा के प्रति उस की ललक देख कर मन खुश था। अब मैं अकसर कौपी, पैंसिल, पैन जैसी छोटीछोटी चीजें उस के बच्चों के लिए दे कर अपने देने के सुख, अपने अहम को संतुष्ट कर लेती थी।

एक दिन मैं ने उस के बच्चों के लिए कुछ खाने को दी तो वह बोलने लगी कि इस को खाते कैसे हैं। मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि ये लोग भी इसी दुनिया के वासी हैं। फिर एक बार वह 3-4 दिनों तक लगातार नदारद थी। कारण पूछने पर बोली, “बच्चे बीमार थे। उन की दवा, देखभाल सब मुझे ही करना पड़ता है। इन के पापा से तो कोई उम्मीद नहीं है।”

“फोन तो कर सकती थीं?” मैं ने कहा

“आंटीजी, मुझे नंबर मिलाना नहीं आता है,” उस ने सहजता से कहा।

मैं ने अपना नंबर स्पीड डायल पर डाल दिया,”बस, यह नंबर दबा दिया कर और फोन बंद न किया कर। तेरा फोन बंद था। मैं ने कितनी बार फोन किया था,” मैं ने खीज कर कहा।

“आंटीजी, क्या करूं? बच्चों की बीमारी में फोन चार्ज करना ही भूल गई थी,” वह दुखी हो कर बोली।

वाह री मां की ममता…अब जब भी वह देर से आती तो मुझे फोन कर देती थी। कारण वही बताती कि बच्चों की फीस भरनी है, यूनिफौर्म लेनी है या फिर स्कूल टीचर ने बुलाया है…फिर एक दिन उस ने रोते हुए फोन पर कहा, “मैं काम पर नहीं आ सकती हूं।”

कारण पूछने पर बोली, “मेरा बेटा कहीं भाग गया है।”

2 दिन बाद आ पहुंची। बेटे के विषय में पूछने पर बोली, “मैं यहां काम पर थी। घर पर मेरे पति ने शराब के नशे में बेटे को इतना पीटा कि वह घर से भाग गया। वह तो संयोग था कि उस के किसी दोस्त ने उसे स्टेशन पर देख लिया और हम उसे घर ले आए।”

“क्या नशे में वह तुम पर भी हाथ उठाता है?” मैं ने जानना चाहा

इतना सुनते ही गुस्से से उस का चेहरा तमतमाने लगा। उस का यह रौद्र रूप देख कर मैं हैरान थी।

“शुरू में उस ने 1-2 बार ऐसा किया जरूर, पर एक दिन मैं ने उस का हाथ पकड़ लिया और ऐसा धक्का मारा कि दूर जा गिरा। फिर उस की दोबारा हिम्मत नहीं हुई,” उस ने कहा।

फिर बात को आगे बढ़ाते हुए बोली, “नशा तो इन लोगों के लिए एक बहाना है। क्या नशे में कभी किसी पुरुष ने अपनी मां या बहन पर हाथ उठाया है? नहीं न? अपनी मांबहन, बेटीबहू के प्रति अति संवेदनशील होने वाले पुरुष भी अपनी पत्नी के लिए संवेदनहीन हो जाते हैं। शायद ये पुरुष लोग स्त्री जाति पर हाथ उठा कर ही अपना वर्चस्व स्थापित करने की दुस्साहस करते हैं और अपने अहम की संतुष्टि करते हैं।”

उस की बेबाक बात सुन कर मैं उस का मुंह देखती रह गई। न कोई शिकवाशिकायत, न किसी से सहारे की याचना, न समाजसेवी संस्थाओं का बीचबचाव, न पंचायत का हस्तक्षेप, न रिश्तेदारों की दखलअंदाजी, न कोर्टकचहरी के चक्कर… बस, अपने ही बलबूते पर अपने अस्तित्व, अपनी गरिमा, अपनी अस्मिता को बचाए रखने का वह एक उदाहरण लगी।

सब से बड़ी बात, हमारा मध्यवर्ग, अभिजात्यवर्ग या तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग की महिलाएं जिस मानसिक, शारीरिक उत्पीड़न को सह कर भी लोकलाज के भय से बड़ी सफाई से छिपा जाती हैं या नकार जाती हैं, उस ने बिना किसी लागलपेट के सब बता दिय। इस प्रकार वह मुझे नारी सशक्तिकरण का साक्षात रूप दिखाई दी।

सच में कितनी गलत थी मैं। मैं उसे आज तक अबला, लाचार ही समझाती रही, पर उस ने मुझे समझा दिया कि जीवन, जीवटता से जीने में है। यह संसार वैसे नहीं चलता जैसे हम चलाना चाहते हैं। यह बात बिलकुल सच है, पर अपने जीवन पर तो हमें पूरा अधिकार है। कोई भी रिश्ता जीवन से बड़ा नहीं होता है। इसलिए किसी भी रिश्ते को जीवित रखने के लिए स्वयं को खत्म कर देना समझदारी नहीं है। समझौता तभी तक करना चाहिए, जब तक अस्तित्व पर चोट नहीं आए। शायद यही नारी की सच्ची आजादी है।

Wild Animals : शहरों में हिंसक जानवरों का बढ़ता खतरा

Wild Animals : बीते ढाई महीने से लखनऊ के रहमानखेड़ा इलाके में एक बाघ घूम रहा है. पूरा वन महकमा उस बाघ को पकड़ने के लिए ढाई महीने से मशक्कत कर रहा है. मगर बाघ झलक दिखला कर चंपत हो जाता है. वन विभाग ने उसे रिझानेललचाने के तमाम इंतजाम किए. कभी पिंजड़े में बकरी बांधी, कभी पड़वा बांधा. बाघ आता, ट्रैंक्विलाइज करने के लिए बंदूकें तान कर बैठे वन अधिकारियों की नाक के नीचे से कब अपना शिकार खींच ले जाता, सूरमाओं को पता तक नहीं चलता. बीते ढाई महीने से बाघ सरकारी मेहमान बन कर नरमगरम गोश्त की दावत पर दावत उड़ा रहा है, मगर हत्थे नहीं चढ़ रहा.

एक दिन सुबहसुबह एक किसान ने इलाके में घूमते बाघ को सामने से देखा और अपना लोटा पानी छोड़ कर भागा. एक दिन वह एक वन अधिकारी की जीप के सामने आ गया और उस की जीप पलटतेपलटते बची. बाघ सामने से चैलेंज दे रहा है मगर किसी में ताकत नहीं कि उसे पिंजरे में कैद कर सके.

13 फरवरी को लखनऊ में ही बुद्धेश्वर एमएम लौन में हो रहे एक विवाह समारोह में तेंदुआ घुस आया. रात लगभग 8 बजे एक तेंदुए की घुस जाने की खबर से लोग दहशत में आ गए और अपनी जान बचाने के लिए सड़कों पर भाग खड़े हुए. दूल्हादुल्हन को एक कार में बंद किया गया. वे 5 घंटे उस कार में बंद रहे. रात के 3 बजे जब वन कर्मियों ने तेंदुए को बेहोश कर पकड़ने में कामयाबी पाई उस के बाद कहीं जा कर फेरे पड़े और वह भी मेहमानों की अनुपस्थिति में क्योंकि अधिकतर लोग भय के मारे भाग चुके थे. आपाधापी में एक शख्स तो छत से ही कूद गया और बुरी तरह से घायल हो गया. एक वन कर्मी के हाथ तेंदुए के पंजा मरने से घायल हो गए. काफी जद्दोजहद के बाद तेंदुए को पकड़ा जा सका. लेकिन इस रैस्क्यू से पहले जो कुछ हुआ वह रोंगटे खड़े कर देने वाला था.

इस तरह बाघ तेंदुए का शहर में बढ़ता दखल खतरे का संकेत दे रहा है. वन्यजीवों का दखल जिस तरह से आबादी में बढ़ रहा है वह कभी भी मानव वन्यजीव संघर्ष का कारण बन सकता है. 4 साल पहले इंदिरा नगर के तकरोही में तेंदुए का कहर इस कदर था कि लोगों को घर से लाठीडंडे ले कर निकलना पड़ता था. वहीं 2012 में रहमानखेड़ा में आए बाघ ने 35 पशुओं का शिकार किया था. उसे 105 दिन बाद पकड़ा जा सका था.

जिस तरह पशुपक्षियों के निवासस्थलों यानी जंगलों की बेतहाशा कटाई चालू है और उन के घूमने और शिकार करने के स्थान तंग होते जा रहे हैं, वह दिन दूर नहीं जब इन का खतरा मानवजाति के लिए बहुत बड़ा होगा. जंगलों की कटाई वन्यजंतुओं को आक्रामक बना रही है.

यूटिलिटी बिडर द्वारा जारी रिपोर्ट के मुताबिक भारत ने पिछले 30 वर्षों के दौरान जंगलों के होते सफाए के मामले में सब से ज्यादा वृद्धि देखी है. इस में 2015 से 2020 के बीच उल्लेखनीय बढ़ोतरी हुई. आंकड़ों की मानें तो इन पांच सालों के दौरान भारत में 668,400 हेक्टेयर क्षेत्र में फैले वन क्षेत्र को काट दिया गया. देखा जाए तो यह आंकड़ा ब्राजील के बाद सब से ज्यादा है.

मार्च 2023 में जारी एक रिपोर्ट में डेटा एग्रीगेटर साइट अवर वर्ल्ड इन डेटा द्वारा 1990 से 2000 और 2015 से 2020 के लिए जारी आंकड़ों का विश्लेषण किया गया है. इन आंकड़ों में पिछले 30 वर्षों के दौरान 98 देशों में काटे गए जंगलों का ब्यौरा प्रस्तुत किया गया है.

रिपोर्ट के अनुसार जहां भारत ने 1990 से 2000 के बीच अपने 384,000 हेक्टेयर में फैले जंगलों को खो दिया, वहीं 2015 से 2020 के बीच यह आंकड़ा बढ़ कर 668,400 हेक्टेयर हो गया. मतलब की इन दो समयावधियों के दौरान भारत में वन विनाश में 284,400 हेक्टेयर की वृद्धि देखी जो दुनिया में सब से ज्यादा थी.

इस के लिए एक तरफ देश में बढ़ती आबादी जिम्मेदार है जिस की लगातार बढ़ती जरूरतों के लिए तेजी से जंगल काटे जा रहे हैं तो दूसरी तरफ वे सरकारी योजनाएं जिन का बहुत बड़ा फायदा बड़ेबड़े उद्योगपति उठा रहे हैं, और अपनी धनपिपासा को शांत करने के लिए जंगलों, नदियों और पहाड़ों को तबाह और बरबाद करने में दिनरात जुटे हैं.

Lifestyle Updates : फ्लैट कल्चर और आप की प्राइवेसी

Lifestyle Updates : बढ़ती जनसंख्या ने जगह तंग कर दी है. अब लोग आगेपीछे, दाएंबाएं फैलने की जगह ऊपर की तरफ बढ़ रहे हैं. कहने का अर्थ यह कि अब रहने के लिए घर नहीं बल्कि फ्लैट अधिक बन रहे हैं. ऊंचीऊंची बिल्डिंगों में कबूतरखाने, जहां प्राइवेसी का नामोनिशान नहीं है.

”सोनू अपनी बहू से बोला जरा धीरे बोला करे, यह फ्लैट है, उस के घर का आंगन नहीं कि चिल्लाचिल्ला कर एकदूसरे को बुलाएं. चिल्लाचिल्ला कर बात करें.” बूआ सास ने रानी के पति और अपने भतीजे सोनू को तीखे अंदाज में हिदायत दी.

सोनू पहले ही कई बार अपनी पत्नी रानी से धीरे बात करने की कह चुका है. वह जब से इस घर में ब्याह कर आई है सोनू उस का वौल्यूम ही कम करने में लगा है, मगर रानी की जुबान तो ठीक वौल्यूम पर सेट ही नहीं हो रही है. आखिरकार आज उस की बूआ सास ने भी टोक दिया.

दरअसल रानी पहले जिस मकान में रहती थी वह बड़ा और फैला हुआ पुराने जमाने का मकान था, जिस में बीचोंबीच बड़ा सा आंगन और चारों तरफ रहने के लिए कमरे बने थे. दोमंजिला बने इस मकान में नीचे रानी का परिवार और ऊपर ताऊजी की फैमिली रहती थी. दोनों परिवारों में कुलमिला कर 9 भाईबहन थे.

पूरे घर में धमाचौकड़ी मची रहती थी. सब बच्चे खानेखेलने के लिए आंगन में खड़े हो कर एकदूसरे को चिल्लाचिल्ला कर बुलाते थे. रानी की यही आदत अब उस के ससुराल में उस के लिए मुसीबत बनी हुई थी. क्योंकि यह सेकंड फ्लोर पर एक थ्री बीएचके फ्लैट था. बिल्डिंग के हर फ्लोर पर 4 फ्लैट थे. दीवारें आपस में जुड़ी हुई थीं, बालकनी में खड़े हो जाओ तो ऊपर वाले फ्लोर और नीचे वाले फ्लोर के लोगों से आसानी से बात हो सकती थी. शाफ्ट में सब के किचन की खिड़कियां खुलती थीं. इस की वजह से एक घर की आवाज दूसरे घर में आसानी से सुनी जा सकती थी.

रानी के सामने वाला फ्लैट बूआ सास का था. जिन्होंने सुबहसुबह अपने भतीजे सोनू को हिदायत दी. पता नहीं रानी की कौन सी बात उन के कान में पड़ गई थी. रानी को ब्याह कर के आए अभी महीना ही हुआ था. वह देख रही थी कि उस के ससुराल में सब बड़ी धीमी आवाज में बात करते थे. यहां तक कि लड़ाईझगड़ा भी धीमे स्वर में होता था. समझ नहीं आता था कि लड़ रहे हैं या बात कर रहे हैं.

रानी को बड़ा अटपटा लगता था. सोचती कि यह कैसा घर है, जहां न खुल कर हंस सको, न रो सको, न लड़ सको. बस गूंगे बन कर बैठे रहो या फुसफुसाफुसफुसा कर बात करो. जरा सी आवाज बढ़ते ही टोक पड़ती है.

शहरों में बढ़ते फ्लैट कल्चर की यह सब से बड़ी परेशानी है कि आप की कोई प्राइवेसी नहीं रह गई है. गेट के वौचमैन से ले कर ऊपरनीचे, अगलबगल के फ्लैट वाले जानते हैं कि आप के घर में क्या चल रहा है, क्या पक रहा है, कौन आया है, कौन गया है, अंदर क्या बातें चल रही हैं. आदिआदि.

जसविंदर सिंह कितने समय तक यही बताते रहे कि उन का दामाद चूंकि सालभर के लिए कनाडा गया है, इसलिए उन की बेटी यहां उन के पास रहने आ गई है. जब कि जिस दिन उन की बेटी ऋचा अपना सूटकेस ले कर आई थी उसी दिन बगल के फ्लैट में रहने वाली मालिनी कुकरेजा को पता चल गया था कि वह पति से तलाक ले कर हमेशा के लिए मांबाप के घर आ गई है.

दरअसल उस रात ऋचा जब अपने मांबाप को रोरो कर अपने ससुराल वालों की और अपने पति की बुराइयां मांबाप से कर रही थी, कई कान उस के फ्लैट की दीवार से लगे हुए थे. कुकरेजा का फ्लैट बगल में था, लिहाजा उन्होंने सारी बातें साफसाफ सुनी थीं. उन के लिए तो उन की अगली किट्टी पार्टी के लिए यह सब से मसालेदार न्यूज थी. बेचारे जसविंदर सिंह सोचते थे कि किसी को सच्चाई नहीं मालूम, मगर सब जानते थे उन की बेटी के साथ क्या हुआ.

हिना खान अपने फ्लैट को बेच कर किसी छोटे शहर में एक घर खरीदना चाहती हैं. वजह यह कि वह अपने फ्लैट में किसी तरह की प्राइवेसी महसूस नहीं करती हैं. उन के ऊपरी फ्लैट में रहने वाले सिन्हा साहब जब देखो तब उस के दरवाजे पर मुंह पर मुसकान चिपकाए खड़े रहते हैं. कहते हैं- ‘बेटा बड़ी अच्छी खुशबू आ रही थी, मैं तो अपनेआप को रोक नहीं पाया.’

सिन्हा साहब खाने के बड़े शौकीन हैं. उन की पत्नी बीपी और शुगर की मरीज है तो उन के वहां न तो खाने में ज्यादा मिर्चमसाला पड़ता है और न नौनवेज ज्यादा बनता है. उबलाउबला खाना सिन्हा साहब के गले से बमुश्किल ही उतरता है.

कई बार तो वे बाहर से चाटपकौड़े खा आते हैं और बीवी से भूख न होने का बहाना बना देते हैं. मगर जब से हिना और उस के पति रिजवान अपने दो बच्चों के साथ उन के नीचे वाले फ्लैट में आए हैं, तब से सिन्हा साहब हफ्ते में एक दो बार तो उन के घर का मसालेदार खाना खाने आ ही जाते हैं. नौनवेज के शौकीन सिन्हा साहब को जब भी हिना के किचन से बिरयानी या कोरमे की खुशबू आती है वे अपने आप को रोक नहीं पाते और भागेभागे चले आते हैं.

अब ऐसा नहीं है कि हिना अगर कुछ खाना उन को खिला देगी तो गरीब हो जाएगी, मगर कभीकभी वह हिसाब से बस अपने परिवार के लिए ही बनाती है, ऐसे में एक बड़ा हिस्सा निकाल कर किसी बाहर वाले को देने में कोफ्त तो होती है. फिर वे पड़ोसी हैं, उम्रदराज हैं, इसलिए सबकुछ ठीक से देना पड़ता है. कभीकभी सिन्हा साहब नहीं चाहते कि उन की पत्नी को पता चले तो वह हिना की डाइनिंग टेबल पर ही खा कर ऊपर जाते हैं. ऐसे में एक बिन बुलाए मेहमान की खातिरदारी हिना को अखरने लगती है. जब तक वे बैठे रहते हैं हिना को अपना सारा काम भी रोकना पड़ता है.

अब तो रिजवान जब भी हिना से कुछ नौनवेज बनाने को कहते हैं तो वह बाजार से और्डर कर देती है. यह सोच कर कि न वो किचन में बनाएगी और न उस की खुशबू सिन्हा साहब की नाक तक पहुंचेगी.

गुप्ताजी वास्तु को बहुत मानते हैं और वास्तु के पंडित के कहने पर आएदिन अपने फ्लैट में कुछ न कुछ रद्दोबदल करवाते रहते हैं. गुप्ताजी की बेटी की शादी तय नहीं हो रही थी. काफी भागदौड़ कर थक चुके थे. पंडित से पूछा तो उस ने वास्तु दोष बताया. पंडित ने घर का वास्तु ठीक करने के लिए उन से बाथरूम की जगह किचन और किचन की जगह बाथरूम बनवाने की बात कही तो गुप्ताजी से ज्यादा परेशानी उन के पड़ोसियों को हुई. गुप्ताजी ने तो काम शुरू करवा दिया. पर दिनभर दीवारों को तोड़ने के लिए जो ठकठक मची रहती थी और सीढ़ियों पर सीमेंट मौरंग की जो गंदगी होती थी, उस ने ऊपरनीचे और बगल वाले फ्लैट में तीन परिवार की महिलाओं का ब्लडप्रैशर बढ़ा दिया.

एक दिन गुप्ताजी के परिवार से तीनों परिवारों की जम कर लड़ाई हुई. खैर उन के घर का काम तो किसी तरह पूरा हुआ मगर उन के परिवार से अन्य तीनों परिवारों की बातचीत फिलहाल बंद है.

बढ़ती जनसंख्या ने जगह तंग कर दी है. अब लोग आगेपीछे, दाएंबाएं फैलने की जगह ऊपर की तरफ बढ़ रहे हैं. कहने का अर्थ यह कि अब रहने के लिए घर नहीं बल्कि फ्लैट अधिक बन रहे हैं. ऊंचीऊंची बिल्डिंगों में कबूतर घर बनाने में जितना पैसा लगता है उस से दो फ्लैट खरीदे जा सकते हैं.

लोग यह सोच कर फ्लैट ले लेते हैं कि उस में वे ज्यादा सुरक्षित रहेंगे. बिल्डिंग में गार्ड होंगे. मैंटिनैंस की जिम्मेदारी बिल्डर की होगी. बिजलीपानी की बेहतर सुविधा होगी. साफसफाई का पूरा ध्यान रखा जाता होगा. पर जब वे उस में रहने लगते हैं तब समझ में आता है कि यहां प्राइवैसी जैसी कोई बात नहीं है.

इंसान इन में खुल कर जी नहीं सकता. न छत अपनी, न जमीन अपनी, बस बीच में त्रिशंकु की तरह लटके हैं. एनिवर्सरी या बर्थडे पार्टी में तेज आवाज में गाने नहीं बजा सकते. गेस्ट आएं तो हल्लागुल्ला नहीं कर सकते, किया तो बगल वाला पुलिस बुला कर खड़ा कर देगा. अपने वहां कोई बीमार है, या कोई सोने की कोशिश कर रहा है और ऊपरी माले पर भजनकीर्तन हो रहा हो तो दिमाग भन्ना जाता है.

आज प्राइवेसी को ले कर सब परेशान हैं. हम कहीं भी अकेले नहीं हैं. हमारा कुछ भी सिर्फ हमारा नहीं है. उस पर सब की नजर है. सब के कान लगे हैं. हमारा मोबाइल फोन तो प्राइवेसी का सब से बड़ा दुश्मन है. हम कहां जा रहे हैं, किस्से मिल रहे हैं, किस से बात कर रहे हैं, हमारे पास कितना पैसा है, किसकिस बैंक में है, सारी जानकारी उन लोगों तक पहुंच रही है, जिन्हें हम जानते तक नहीं हैं. सरकार और बाजार ने हमारी प्राइवेसी पर कब्जा जमा रखा है. इन के साथ बिल्डर भी आ जुड़े हैं. जिन्होंने कबूतरखाने जैसे घर बना कर खुल कर सांस लेना भी मुश्किल कर दिया है.

Private Hospitals : धन के मोह में फर्ज से दूर हो रहा चिकित्सा जगत

Private Hospitals : आज कुकुरमुत्तों की तरह जगहजगह उग रहे निजी अस्पताल पैसा बनाने की फैक्टरी बन गए हैं, जो छोटी सी बीमारी में भी तमाम तरह के टैस्ट करवाते हैं और वह भी अपने कहे हुए पैथलैब्स में.

बात जनवरी 2019 की है. लखनऊ के रहने वाले मोहम्मद हाफिज की बेटी उमराव को अचानक रात में पेटदर्द और उलटी की शिकायत हुई. पतिपत्नी बेटी को ले कर पास बने एक नए अस्पताल की इमरजैंसी विभाग में पहुंचे. वहां उस को एक इंजैक्शन लगाया गया. रात की ड्यूटी पर तैनात जूनियर डाक्टर ने कहा कि इस से दर्द में आराम आ जाएगा. मगर कुछ देर बाद उमराव के हाथपैर सूजने लगे.

हाथों व गरदन की त्वचा के नीचे खून जमा होने लगा. जिस के चलते वे हिस्से लाल हो गए. यह हालत देख जूनियर डाक्टर के हाथपैर फूल गए. उस ने मोहम्मद हाफिज से कहा कि अपने मरीज को तुरंत किसी बड़े अस्पताल या पीजीआई ले जाओ. देर न करो क्योंकि उस की नब्ज नहीं मिल रही.

मोहम्मद हाफिज घबरा गए. बेटी की जान बचानी थी तो बिना सवालजवाब किए तुरंत एम्बुलैंस में ले कर शहर के मशहूर अपोलो मैडिक्स हौस्पिटल पहुंचे. वहां उमराव को आईसीयू में भरती किया गया.

दूसरे दिन सुबह अन्य रिश्तेदार भी अस्पताल पहुंच गए. आईसीयू में दिन में सिर्फ एक बार परिवार के किसी एक व्यक्ति को मरीज को देखने की अनुमति थी. मां उसे देख कर आई. उस समय उमराव बात कर रही थी. शाम को डाक्टर ने कहा कि उमराव को सांस लेने में दिक्कत है, इसलिए उस को वैंटिलेटर पर रखा जा रहा है. परिजन इस से इनकार नहीं कर पाए. जो भी पैसे लगें पर बच्ची की जान बचनी जरूरी थी. शाम को मां देखने गई तब भी वह सांस ले रही थी. आंख खोल कर देख रही थी.

तीसरे दिन दोपहर में डाक्टर ने उमराव के पिता को केबिन में बुलाया और कहा कि उमराव की किडनी काम नहीं कर रही है. उस को डायलिसिस की जरूरत है. आप फौर्म पर साइन कर दीजिए. मोहम्मद हाफिज को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि उन की बेटी को क्या हो गया है. उस को तो बस पेटदर्द और उलटी की शिकायत हुई थी. डाक्टर भी साफसाफ नहीं बता रहे थे कि आखिर अचानक उस को क्या बीमारी हो गई.

मोहम्मद हाफिज डायलिसिस के लिए राजी हो गए और फौर्म पर साइन भी कर दिए. तभी उन की पत्नी ने उन को बाहर बुलाया, बोली, “मैं उमराव को देख कर आई हूं. वैंटिलेटर पर उस की सांस चलती दिख रही है पर डाक्टर ने उस की दोनों आंखों पर छोटे टेप चिपकाए हुए हैं. कह रहा है, कोमा में है. मुझे तो लगता है वह ख़त्म हो चुकी है.”

मोहम्मद हाफिज ने अपने एक मित्र को फोन किया जो पुलिस में थे. वे कृष्णानगर थाने के इंस्पैक्टर को ले कर जब पहुंचे और थानेदार ने जब डाक्टर से मरीज का हाल पूछा तो डाक्टर बोला, “उस को तो अभी कार्डियक अटैक पड़ा है. उस की डैथ हो चुकी है. हम पेपर्स बना रहे हैं.”

मोहम्मद हाफिज ने डाक्टर का कौलर पकड़ लिया, बोले, “अभी तो तू मेरी बच्ची को डायलिसिस के लिए ले जा रहा था? अभी तूने मुझ से फौर्म पर साइन करवाए. बता, मेरी बच्ची कब मरी? थानेदार ने भी जब केस दर्ज करने की धमकी दी तब पता चला कि उमराव की डैथ पिछली रात ही हो गई थी.”

हौस्पिटल का संचालक डाक्टर एक मृत शरीर को वैंटिलेटर पर रख कर परिजनों से और पैसा वसूलने के चक्कर में था. वह जीवित है और कोमा में है, यह दिखाने के लिए उस को वैंटिलेटर पर रखा हुआ था जहां मशीन के जरिए हवा उस के फेफड़ों में भर रही थी और निकल रही थी. ऐसा मालूम पड़ रहा था कि वह सांस ले रही है.

मोहम्मद हाफिज उमराव को पहले जिस हास्पिटल में ले कर गए थे वहां इमरजैंसी वार्ड में तैनात जूनियर डाक्टर ने बिना एलर्जी टैस्ट के उस को जो इंजैक्शन दर्द दूर करने के लिए दिया था, दरअसल उस का रिएक्शन हो गया और उमराव पर सेप्टिसीमिया का अटैक पड़ा जिस में शरीर के खून की नाड़ियां फटने लगीं.

बाद में अपोलो मैडिक्स हौस्पिटल में भी उस को उचित इलाज नहीं मिला और दूसरे दिन रात में उस की मृत्यु हो गई. मगर इस की जानकारी परिजनों को देने के बजाय उमराव के मृत शरीर से भी धनउगाही की तैयारी इस हौस्पिटल ने कर डाली थी. अगर मोहम्मद हाफिज अपने पुलिस मित्र की मदद न लेते तो उमराव को कोमा में कह कर न जाने कितने दिन तक मोहम्मद हाफिज से यह हौस्पिटल धनउगाही करता. मात्र दो दिन वैंटिलेटर पर रखने के लिए ही उस ने मोहम्मद हाफिज से डेढ़ लाख रुपए चार्ज किया था.

शहर के इस बड़े प्राइवेट हौस्पिटल के बारे में पहले भी इस तरह की खबरें अखबारों में छपती रही हैं. मगर कोई कार्रवाई नहीं होती. इस की कई वजहें हैं. मरीज के मरने के बाद परिजन गहरे दुख की अवस्था में होते हैं. वे कहते हैं अस्पताल के खिलाफ शिकायत करने से हमारा मरीज तो अब जिंदा नहीं हो सकता. पुलिस में रिपोर्ट करवाने पर मृतक का पोस्टमार्टम सरकारी अस्पताल में होगा. उस के शरीर की छीछालेदर होगी. डेड बौडी दोतीन दिनों बाद मिलेगी.

अस्पताल के खिलाफ एफआईआर करेंगे तो हमें भी तो कोर्टकचहरी के चक्कर लगाने पड़ेंगे. हमारे पास न पैसा है न समय और ये प्राइवेट अस्पताल जो करोड़ोंअरबों में खेल रहे हैं, इन का कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता. ये पुलिसकचहरी सब को खरीदने का माद्दा रखते हैं.

आएदिन अखबारों में इस तरह की खबरें छपती हैं कि मरीज की मौत के बाद परिजनों ने लापरवाही का इलजाम लगाते हुए हंगामा किया या डाक्टरों से मारपीट की या हौस्पिटल में तोड़फोड़ की. बस, बात यहीं तक आ कर ख़त्म हो जाती है. आगे कोई एफआईआर या जांच नहीं होती.

ऐसा नहीं है कि इन अस्पतालों में अच्छे डाक्टर नहीं हैं या यहां सब के साथ इस तरह का व्यवहार होता है. इन्हीं अस्पतालों से मरीज ठीक हो कर भी जाते हैं. मगर जिन मरीजों के परिजन बहुत सचेत और जागरूक नहीं होते उन से ये अस्पताल अधिक धन वसूलने के लिए कई तरह के करतब करते हैं. जैसे उन मरीजों को भी आईसीयू वार्ड और वैंटिलेटर पर ले जाते हैं जिन को उस की जरूरत नहीं. वे दवाएं अपने बताए कैमिस्ट से ही खरीदने का दबाव भी बनाते हैं.

मरीज के पास आईसीयू में परिजनों को जाने की मनाही होती है तो उन्हें यह भी पता नहीं चलता कि जो महंगीमहंगी दवाएं और इंजैक्शंस मंगाए जा रहे हैं वे उन के मरीज को चढ़ भी रहे हैं या नहीं.

21 जनवरी, 2025 को रांची सदर अस्पताल में मरीज की मौत के बाद परिजनों ने हंगामा किया और डाक्टरों पर इलाज में लापरवाही का आरोप लगाया. इस के बाद सदर अस्पताल प्रबंधक को पुलिस बुलानी पड़ी.

दरअसल, एनआईटी के छात्र अमन को 18 जनवरी को मैडिकल अस्पताल से सदर अस्पताल लाया गया था, जहां उस की मौत हो गई. मृतक के चाचा कौशल मिश्रा कहते हैं कि राज्य का एकमात्र हेमेटोलौजिस्ट सदर अस्पताल में है, इसलिए वे अपने भतीजे को मेडिका से सदर अस्पताल ले कर आए. सदर अस्पताल में करीब सवा लाख रुपए की दवा बाहर से मंगवाई गई और 58 हजार रुपए की जांच कराई गई. जब औक्सीजन की जरूरत पड़ी तो यहां औक्सीजन न मिली.

अमन प्लास्टिक एनीमिया (कैंसर) नामक एक गंभीर बीमारी से पीड़ित था. सदर हौस्पिटल के हेमेटोलौजिस्ट डा. अभिषेक रंजन उस का इलाज कर रहे थे. उन का कहना है कि उस मरीज का ब्लड और प्लेटलेट्स बहुत कम थीं. प्लास्टिक एनीमिया में बोनमैरो सूख जाता है, खून और प्लेटलेट्स में अचानक कमी आ जाती है, जिस से स्थिति गंभीर हो जाती है. गंभीर बीमारी और इलाज के दौरान होने वाले जोखिम के बारे में सारी जानकारी परिजनों को दे दी गई थी. इलाज में किसी भी तरह की लापरवाही के आरोप बेबुनियाद हैं.

लखनऊ में चौक के एक निजी अस्पताल यूनाइटेड हौस्पिटल में भी पिछले दिनों एक मरीज की मौत के बाद वैंटिलेटर पर रख कर धनवसूली करने पर परिजनों ने खूब हंगामा मचाया. मोहनलालगंज के रिटायर शिक्षक नरेश गुप्ता (74) के बेटे गोविंद के मुताबिक, 26 दिसंबर को उन्होंने पिता को इलाके के सिग्मा ट्रामा सैंटर में कूल्हे के औपरेशन के लिए भरती कराया था.

वहां आयुष्मान योजना से औपरेशन के बाद छुट्टी कर दी गई. कुछ दिनों बाद उन की सांस फूलने के साथ टांके पकने लगे. दर्द भी असहनीय हो गया. फिर गोविंद अपने पिता को आशियाना स्थित क्रिटी केयर अस्पताल में ले गए. वहां इलाज में करीब ढाई लाख रुपए खर्च हो गए, फिर भी सुधार नहीं हुआ.

यहां से डाक्टरों ने बड़े अस्पताल के लिए रैफर कर दिया. गोविंद जब पिता को ले कर केजीएमयू पहुंचे तो वहां उन्हें बेड ही नहीं मिला. मगर वहां गोविंद को एक दलाल मिल गया, जिस ने झांसा दे कर चौक के निजी अस्पताल यूनाइटेड हौस्पिटल में नरेश को भरती करवा दिया. अस्पताल के संचालक ने आश्वासन दिया था कि 3 दिनों में मरीज स्वस्थ हो जाएगा.

गोविंद का कहना है कि पिता के भरती होने के बाद उन्हें देखने के लिए कोई डाक्टर नहीं आया. क्योंकि अस्पताल में कोई कुशल डाक्टर था ही नहीं. 3 दिन उस के पिता को भरती रखा गया. वहां डाक्टर से फोन पर बात कर के कर्मचारियों के जरिए पिता का इलाज किया जा रहा था. गोविंद के मुताबिक पिता की मौत होने के बाद भी संचालक ने शव को वैंटिलेटर पर रखा और उन से पैसे वसूले. इस के अलावा वे अपने कहे हुए कैमिस्ट से लगातार दवाएं और इंजैक्शन मंगवाते रहे.

चिकित्सा जगत से जुड़ी इस तरह की खबरें आएदिन अखबारों की सुर्खिया बनती हैं. कई मामले तो ऐसे भी हुए जब गुस्साए परिजनों ने डाक्टरों के साथ इतनी बदसुलूकी की कि उन्हें शासन से अपनी सुरक्षा की गुहार लगनी पड़ी. हड़ताल पर जाना पड़ा. लेकिन इस में गलती लापरवाह और धनलोलुप डाक्टरों की है, जिन की वजह से मरीज ठीक होने के बजाय मौत के मुंह में चले जाते हैं.

दरअसल, सतर्कता और नियमित जांचों के अभाव में कुछ अस्पताल धनउगाही में ज्यादा लगे हुए हैं. धनलोलुप दवा विक्रेताओं, कैमिस्टों, डाक्टरों, पैथलैब्स और निजी अस्पताल संचालकों का एक कौकस बना हुआ है. मरीज अगर ऐसे किसी चंगुल में फंस गया तो उस का बच निकलना मुश्किल ही होता है.

आज कुकुरमुत्तों की तरह उग रहे निजी अस्पताल पैसा बनाने की फैक्टरी बन गए हैं, जो छोटी सी बीमारी में मरीज को आईसीयू में रख लेते हैं. इलाज शुरू करने से पहले तमाम तरह के टैस्ट करवाते हैं और वह भी अपने कहे हुए पैथलैब्स में.

अब गलीमहल्लों में एक या दो कमरों की क्लीनिक में बैठने वाले डाक्टर्स बहुत कम हो गए हैं जो साधारण सर्दीजुकाम से ले कर टीबी तक का इलाज कुछ सस्ती गोलियों से कर देते थे. वे नाड़ी पकड़ कर रोगी के शरीर का पूरा हाल जान लेते थे. वे दुनियाभर के टैस्ट नहीं करवाते थे. उन का अनुभव ज्यादा था और फीस बहुत कम. एक बार परचा बनवा लिया तो उसी पर बारबार दवा लिखा ली जाती थी.

ये डाक्टर्स फैमिली डाक्टर भी होते थे. रातबिरात किसी की तबीयत बिगड़े तो डब्बा ले कर घर तक मरीज को देखने चले आते थे. बहुत गंभीर स्थिति होने पर ही मरीज को अस्पताल में भरती होने की सलाह देते थे, वह भी किसी सरकारी अस्पताल में. इन में सेवाभाव तो था ही, महल्ले में अपनी इज्जत बनी रहे, इस की भी चिंता थी क्योंकि लोगबाग इन को भगवान के रूप में देखते थे.

आज भी कुछ महल्लों में ऐसे डाक्टर्स हैं जो डाक्टरी के पवित्र पेशे की इज्जत संभाले हुए हैं. दिल्ली के कीर्तिनगर में 75 वर्षीय डाक्टर अजमानी अपनी क्लिनिक पर आने वाले पहले 3 मरीजों से कोई चिकित्सा शुल्क नहीं लेते और कोई गरीब आदमी इलाज करवाने पहुंच जाए तो मुफ्त परचा लिख देते हैं. कई बार दवाएं भी अपने पास से दे देते हैं.

गाजियाबाद के होम्योपैथिक डाक्टर एस के गुप्ता फोन पर ही मरीज का पूरा हाल जान कर व्हाट्सऐप पर दवा लिख कर भेज देते हैं, फिर चाहे औनलाइन उन की फीस पहुंचे या न. लखनऊ के हजरतगंज में डाक्टर भाटिया के क्लीनिक पर सुबहशाम मरीजों की लंबी कतार देखी जाती थी. डाक्टर भाटिया जीवनभर अपनी छोटी सी क्लीनिक पर बैठ कर मरीजों का इलाज करते रहे. उन की 2 दिनों की दवा में गजब का जादू था कि उस के बाद रोगी बिलकुल ठीक हो जाता था. वे भी पहले आने वाले 10 मरीजों से कोई फीस नहीं लेते थे. पिछले वर्ष 80 वर्ष की उम्र में उन का देहांत हो गया. आज भी उन के अनुभव, दयाभाव और दरियादिली की तारीफ करते लोग थकते नहीं हैं.

New Education Policy : बच्चों की अच्छी सेहत राष्ट्र की जरूरत है

New Education Policy : सरकार की नई शिक्षा नीति में खेलकूद का कोई स्थान ही नहीं है. तीसरी कक्षा से आठवीं कक्षा के बच्चों के बैग पर नजर डालिए, उन से ज्यादा वजनी तो उन के स्कूल बैग मालूम पड़ते हैं. जिन्हें सारा दिन पीठ पर ढोने में उन की रीढ़ झुकी जा रही है.

उत्तराखंड के नैशनल गेम्स की ओपनिंग सेरेमनी के दौरान अपने भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बच्चों में बढ़ते मोटापे पर चिंता जाहिर करते हुए इस से बचाव के लिए खेलकूद को अपनाने की सलाह दी. उन्होंने खाने में तेल के इस्तेमाल पर भी लोगों से सावधानी बरतने की अपील की. मोटापे से लड़ाई को मोदी एक अभियान के रूप में शुरू करना चाहते हैं. उन के इस अभियान में कई फिल्मी हस्तियां भी कूद पड़ी हैं, जिन में सब से आगे हैं अक्षय कुमार.

अक्षय ने मोदी के भाषण वाले वीडियो को एक्स पर साझा कर मोटापे से लड़ाई के हथियारों पर अपनी बात रखी. एक्स पर उन्होंने लिखा, “पर्याप्त नींद, साफ हवा, सूर्य की भरपूर रौशनी, खेलकूद, व्यायाम और स्वास्थवर्धक भोजन जिस में तेल कम हो, वह अच्छे स्वास्थ्य के लिए जरूरी है.”

प्रधानमंत्री मोदी या उन के समर्थक अक्षय कुमार जिन बातों का जिक्र कर रहे हैं, वह बातें कौन नहीं जानता? खेलकूद और व्यायाम की कमी के चलते आज बड़े ही नहीं बल्कि छोटेछोटे बच्चे भी हार्ट के मरीज हो रहे हैं. बच्चों में सांस फूलना, थकान, कमजोरी, चिड़चिड़ापन, अस्थमा जैसे रोग मुख्यतः इसी कारण बढ़ रहे हैं क्योंकि एक तरफ वे खेलकूद से दूर हो गए हैं, और दूसरी तरफ पौष्टिक और सुपाच्य भोजन की जगह फास्ट फूड पर ज्यादा निर्भर हो गए हैं.

दो दशक पहले तक स्कूलों में पीटी, योग और खेलकूद के लिए अलग से एक पीरियड होता था. लंच ब्रेक में भी बच्चे खेलते थे और बहुत सारे बच्चे तो स्कूल खत्म होने के बाद भी स्कूल के प्लेग्राउंड में काफी देर तक खेलते रहते थे. स्कूल से लौटने के बाद भी बच्चे दोस्तों के साथ खेलने निकल जाते थे और देर शाम तक पार्क या मैदान में खेलते रहते थे. क्रिकेट, गिल्ली डंडा, कंचे, पतंग उड़ाना, फुटबौल, बैडमिंटन, खोखो, कबड्डी जैसे न जाने कितने तरह के खेल वे खेलते थे. क्या अब ऐसे दृश्य देखने को मिलते हैं?

सरकार की नई शिक्षा पौलिसी में खेलकूद का कोई स्थान ही नहीं है. तीसरी कक्षा से आठवीं कक्षा के बच्चों के बैग पर नजर डालिए, उन से ज्यादा वजनी तो उन के स्कूल बैग मालूम पड़ते हैं. जिन्हें सारा दिन पीठ पर ढोने में उन की रीढ़ झुकी जा रही है. बच्चों पर पढ़ाई का इतना बोझ है कि 8 पीरियड स्कूल में पढ़ कर आने के बाद वे ट्यूशन भी पढ़ने जाते हैं. वहां से लौटे तो स्कूल और ट्यूशन दोनों जगह का होमवर्क पूरा करने में उन का दिन खतम हो जाता है. वे खेलने कब जाएं?

इंटरनेट और स्मार्टफोन ने बच्चों की आदतें और सेहत दोनों बिगाड़ रखी हैं. अगर थोड़ा सा वक्त उन को पढ़ाई से मिलता भी है तो वह समय फोन पर कार्टून देखने, रील्स देखने या चैट करने में वे बिताते हैं. वे खेलते कब हैं?

किशोरों के माइंड हैल्थ कोशेंट पर आधारित अध्ययन से पता चलता है कि स्मार्टफोन के शुरुआती उपयोग और किशोरों के बीच मानसिक स्वास्थ्य में गिरावट के बीच एक महत्त्वपूर्ण संबंध है, जिस में आक्रामकता, क्रोध, चिड़चिड़ापन और मतिभ्रम जैसे लक्षणों में वृद्धि हो रही है.

जो किशोर छोटी उम्र में स्मार्टफोन का उपयोग करना शुरू करते हैं, उन में मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं अधिक गंभीर होती हैं. अवसाद और चिंता के अलावा, अंतरविरोधी विचार और वास्तविकता से अलगाव जैसे नए लक्षण भी देखे जा रहे हैं, जो एक गंभीर मानसिक स्वास्थ्य संकट का संकेत देते हैं.

स्मार्टफोन तक कम उम्र में पहुंच से किशोर अनुपयुक्त सामग्री के संपर्क में आ जाते हैं, नींद में व्यवधान पड़ता है, तथा वैयक्तिक संपर्क में कमी आती है, जो सामाजिक कौशल विकसित करने और संघर्षों से निपटने के लिए महत्वपूर्ण है. ऐसे बच्चे जो फोन में अधिक खोए रहते हैं, परिवार से अलगथलग होने लगते हैं. अकेले रहने में उन को ज्यादा सुकून महसूस होता है. वे किसी से ज्यादा घुलमिल नहीं पाते. अपने विचार घरवालों या दोस्तों से शेयर नहीं करते. अपनी परेशानियां तक नहीं बता पाते. धीरेधीरे वे असामाजिक होते जाते हैं.

फील्ड में जा कर अन्य बच्चों के साथ खेलने में जो आनंद है, उस से आज के बच्चे अनभिज्ञ से हैं. दूसरों के साथ मिल कर खेलने से सामाजिकता और सामंजस्य की भावना विकसित होती है. भाईचारा बढ़ता है, विचारों और भावनाओं का आदानप्रदान होता है, हारनेजीतने की अनुभूति होती है, हारने पर भी उत्साह बना रहता है, अवसाद जैसे रोगों से बच्चा दूर रहता है.

घर के बाहर निकल कर कोई भी खेल खेलने से शरीर में चुस्तीस्फूर्ति बढ़ती है. हड्डियों के विकास के लिए विटामिन डी की भरपूर मात्रा धूप से मिलती है. फेफड़ों को खुली हवा मिलती है. शरीर के एक एक अंग का व्यायाम हो जाता है. नतीजा भूख बढ़ती है और शरीर तंदरुस्त होता है. जो बच्चे खेलतेकूदते रहते हैं वे बीमार भी बहुत कम पड़ते हैं. उन का इम्यून सिस्टम स्ट्रांग होता है.

प्रधानमंत्री बच्चों के बढ़ते मोटापे से चिंतित हैं मगर उन्हें इस बात की भी चिंता करनी चाहिए कि फास्ट फूड बेचने वाली विदेशी कंपनियों ने कैसे बाजारों और शिक्षण संस्थाओं में अपनी मजबूत पकड़ बना ली है. फास्ट फूड जिस में मैदा, मक्खन, चीज, मेयोनीज, अजीनोमोटो जैसे स्वास्थ्य को खराब करने वाले पदार्थ भरे होते हैं, आज उन का इतना विज्ञापन हो रहा है कि बच्चे उन को खाने की जिद में जिद्दी होते जा रहे हैं.

घरघर में टीवी पर बच्चे पिज्जा, बर्गर, चिप्स, कोला, मोमोज के विज्ञापन देख रहे हैं. यहां तक कि बच्चों के लिए आने वाले कार्यक्रमों में भी किसी न किसी रूप में इन चीजों के विज्ञापनों ने अपनी जगह बना रखी है. बच्चे मातापिता से इन्हीं चीजों की फरमाइश करते हैं. पहले घरों में नमकीन बनता था. डोनट, शक्करपारे, नमकपारे, गुझिया, दालमोठ, लैयाचना मुरमुरा आदि, जो स्वादिष्ट होने के साथसाथ हेल्दी भी था.

बाजार में बनने वाली चीजें कैसे तेल में बन रही हैं यह हमें नहीं मालूम, पर घर में तो हम अच्छा तेल या घी ही इस्तेमाल करते हैं. फास्ट फूड में इस्तेमाल होने वाली मेयोनीज में मैदा और क्रीम ही भरी होती है जो सेहत के लिए नुकसानदेह है. चीज, पनीर, फ्राइड चिकेन आदि मोटापा ही बढ़ाता है. मगर इन चीजों का इतना क्रेज है कि अब ठेले वाले भी फास्ट फूड बनाने और बेचने लगे हैं. उन को इस में ज्यादा मुनाफा प्राप्त होता है, भले लोगों की सेहत खराब होती रहे.

पहले छोटे वैंडर्स फ्रूट चाट बेचते थे, लैयामुरमुरा, भुनी शकरकंदी बेचते थे. यह चीजें भारतीय लोगों की सेहत के लिए अच्छी थीं. बेल का शरबत, गन्ने का शरबत पेट को ठंडा रखता था. यह चीजें मोटापा नहीं बढ़ातीं. मगर आज ठेलों पर मोमोज बिक रहे हैं. मैदे की रोटी में लिपटे चिकन रोल बिक रहे हैं. पीजा भी अब ठेलों पर बनने लगा है. आप सोचिए कि पिज्जा हट या डोमिनोज जैसी अंतर्राष्ट्रीय कंपनियां पिज्जा बनाने के लिए जिस तरह की महंगी ब्रेड और चीज का इस्तेमाल करती हैं, क्या गलीगली खड़े ठेलों पर उतनी महंगी ब्रेड और चीज इस्तेमाल होती होगी? कतई नहीं.

ये लोग बहुत सस्ता पनीर (सोयाबीन का बना पनीर), घटिया तेल, सस्ता चीज, घटिया क्वालिटी की मेयोनीज, सड़ेगले टमाटरों का सौस इस्तेमाल करते हैं, तभी इन के पिज्जा के दाम भी काफी कम होते हैं. मगर बच्चों की जुबान को चूंकि इन चीजों का चस्का लग गया है तो वे इन्हें खरीदते और खाते हैं. अब तो स्कूलकालेज की कैंटीनों में भी सस्ते फास्ट फूड ने अपना वर्चस्व कायम कर लिया है.

प्रधानमंत्री एक तरफ बच्चों के बढ़ते मोटापे और बीमारियों की चिंता करें और दूसरी तरफ फास्ट फूड बनाने वाली कंपनियों को भी बढ़ावा दें, स्कूलकालेजों में क्या खाना परोसा जा रहा है, कैंटीनों में क्या बिक रहा है, उस पर उन की संस्थाएं कोई नजर न रखें तो ऐसी चिंता का क्या मतलब है?

आज गलीगली में कुकुरमुत्तों की तरह स्कूल खुल रहे हैं. खासतौर पर प्ले स्कूल, जहां प्रीनर्सरी से प्रेप तक बच्चे अपने जीवन के चार साल बिताते हैं. जिन के पास भी चार कमरे का खाली मकान है, वह ऐसे स्कूल खोल कर बैठा है. जिस में खेलकूद और व्यायाम के लिए तो स्पेस ही नहीं है. सुबह की असैंबली के लिए भी इतनी जगह नहीं होती कि बच्चे एक लाइन में खड़े हो सकें. स्कूल खोलने के तमाम मानक ताक पर धरे हैं. जिन सरकारी संस्थाओं को इन मानकों के अनुरूप स्कूल होने की जांच करनी होती है, उन के अधिकारी कुछ लाख रुपए में बिक जाते हैं और बिना जांचपड़ताल के एनओसी से देते हैं.

बच्चों की शारीरिक एक्टिविटी के नाम पर ऐसे स्कूलों में कुछ खिलौने या छोटेछोटे झूले होते हैं. इन स्कूलों में न धूप है न साफ हवा. बच्चों की सेहत कैसे ठीक रहे? इन से ज्यादा सेहतमंद तो वे बच्चे होते हैं जो गांवदेहातों में पेड़ के नीचे टाटपट्टी पर बैठ कर पढ़ते हैं और खेतों मैदानों की मिट्टी में खेलते हैं. उन के शरीर को धूप और हवा तो मिलती है. उन का इम्यून सिस्टम कहीं ज्यादा मजबूत होता है.

शहर के स्कूलों में अब पीटी, एनसीसी, योगा आदि के क्लास भी बहुत कम देखने को मिलते हैं. पहले एक पीरियड इन एक्टिविटीज के लिए हुआ करता था. साल में एक या दो बार स्कूल से बाहर बच्चों के कैंप लगते थे. स्पोर्ट्स डे होते थे. इंटरस्कूल कम्पीटीशंस होते थे. पर अब ये एक्टिविटीज बहुत कम स्कूलों में होती है. शहरों के स्टेडियम में भी अब बच्चों की संख्या बहुत कम दिखती है. पहले स्टेडियम में बच्चे तैराकी सीखने, क्रिकेट सीखने, बैडमिंटन आदि खेल सीखने आते थे.

खुद मातापिता अपने बच्चों का नाम स्टेडियम में लिखवाने आते थे. अब नहीं आते क्योंकि न उन के पास टाइम है और न बच्चों के पास. बच्चों पर पढ़ाई का बोझ इतना है, कि सुबह से शाम तक किताबों से सिर नहीं निकाल पाते. बच्चों से मातापिता की एक्सपैक्टेशंस इतनी बढ़ चुकी हैं कि हर पेरैंट चाहता है कि उस का बच्चा ही क्लास में अव्वल हो. अगर बच्चा कुछ कम मार्क्स ले आए तो फिर उस की डांटफटकार, लानतमलामत शुरू हो जाती है.

मांबाप की चाहतों का नाजायज बोझ आज हर बच्चा उठा रहा है. बच्चे मानसिक दबाव में हैं. लिहाजा खायापिया भी उन के तन को नहीं लगता. तनाव की स्थिति अनेक रोगों को जन्म देती है. जिस में अवसाद, डायबिटीज और हृदय रोग मुख्य हैं. शहरी बच्चों में यह तीन बीमारियां बड़ी तेजी से बढ़ रही हैं.

बच्चे देश का भविष्य हैं. वे सेहतमंद होंगे, बीमारीमुक्त होंगे, ताकतवर होंगे तभी देश के विकास में उन की अच्छी भागीदारी हो पाएगी. हमारे बच्चे तंदरुस्त होने इस के लिए पूरे सिस्टम को एकजुट होना होगा. सिर्फ चिंताभर कर देने से काम नहीं चलेगा. एक्शन भी चाहिए. ऐसे स्कूल बंद होने चाहिए जहां खेल के मैदान नहीं हैं. सभी स्कूलों को यह निर्देश दिया जाना चाहिए कि वे छात्रों के लिए व्यायाम और खेलकूद को नियमित करें. बच्चों की कैंटीनों में खाने का क्या सामान बिक रहा है, कैसे तेल में बन रहा है, इस की निगरानी सरकारी एजेंसियों की तरफ से होनी चाहिए.

माना कि आज इंटरनेट, कंप्यूटर और मोबाइल फोन जीवन के जरूरी अंग बन गए हैं. बच्चों को भी इन की पूरी जानकारी आवश्यक है. परंतु इन चीजों में जरूरत से ज्यादा समय लगाना न बच्चों की मानसिक सेहत के लिए ठीक है और न शारीरिक सेहत के लिए.

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