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गैंगस्टर संजीव जीवा हत्याकांड: जज के सामने अपराधी की हत्या या संविधान की?

कोर्टरूम में गैंगस्टर को गोलियों से भूनने वालों की लिस्ट तो जैसे अब खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही. कहीं पुलिस की सिक्योरिटी में हत्या, तो कहीं कोर्टरूम के बाहर हत्या. इतना ही नहीं, पुलिस स्टेशन के अंदर भी हत्या. ना जाने ये लिस्ट अब कितनी लंबी होने वाली है. लेकिन यहां सब से बड़ा सवाल ये है कि जज के सामने अपराधियों की हत्या हो रही है या संविधान की? आप की राय क्या है, जरूर बताएं. उस से पहले जान लें कुछ जानकारीपरक तथ्य…

उत्तर प्रदेश का माफिया अतीक अहमद और अशरफ अहमद की हत्या तो आप सब को याद ही होगी. इस घटना को अभी ज्यादा दिन नहीं हुए, जब मैडिकल के लिए ले जाने पर पुलिस की कस्टडी में बड़ी आसानी से दोनों ही गैंगस्टर्स को गोलियों से भून दिया गया. अपराधी गिरफ्तार जरूर हुए, लेकिन ये सोचने वाली बात है कि भला उत्तर प्रदेश पुलिस की सिक्योरिटी इतनी कमजोर थी कि उन के होते हुए आंखों के सामने 2 कुख्यात माफियाओं की शूटरों ने गोली मार कर हत्या कर दी. क्या ये पुलिस की सिक्योरिटी पर सवाल नहीं खड़े करता? क्या ये कानून का उल्लंघन नहीं था? क्या ये संविधान की हत्या नहीं? हालांकि लोग आज खुश भी हैं कि 2 माफियाओं का अंत हो गया, लेकिन सवाल वहीं कानून का क्या?

अब बात करते हैं अगले मामले की… लखनऊ सिविल कोर्ट में 8 जून को दिनदहाड़े एक बड़े गैंगस्टर संजीव उर्फ ‘जीवा’ को गोलियों से छलनी कर दिया गया. इस मामले में एक बड़ा खुलासा हुआ है. पुलिस को शुरुआती जांच में पता चला है कि जीवा को मौत के घाट उतारने के लिए एक बड़ी साजिश को अंजाम दिया गया है और इस गहरी साजिश में शूटर विजय यादव एक मोहरा भर था और कुछ नहीं. पुलिस की पूछताछ में उस ने कबूल किया कि उस ने जीवा की हत्या के लिए सुपारी ली थी.

अब जरा सोचिए, यहां तो जज के सामने ही संविधान, कानून सब की हत्या हो गई. जबकि सुनवाई अभी चल रही थी. अगर ऐसे ही हत्याएं होती रहीं तो संविधान का क्या औचित्य?

अब बात करते हैं एक और गैंगस्टर की, जिस की हत्या जेल के अंदर ही कर दी गई, वो भी पुलिस वालों के सामने. गैंगस्टर टिल्लू ताजपुरिया की हत्या तो सब को याद ही होगी. दिल्ली के तिहाड़ जेल में मौका मिलते ही गोगी गैंग के गुर्गों ने गैंगस्टर टिल्लू की हत्या कर दी. सब से बड़ी बात तो ये है कि तिहाड़ की हाई सिक्योरिटी सेल में चाकू से ताबड़तोड़ वार कर मौत के घाट उतारा था.

इस घटना का वीडियो भी सोशल मीडिया पर वायरल हुआ था. वीडियो में साफ देखा गया कि कैसे सब टिल्लू गैंगस्टर पर टूट पड़े. वैसे तो तिहाड़ जेल में सिक्योरिटी कड़ी होनी चाहिए, लेकिन वीडियो में साफ देखा गया कि हत्या के वक्त आसपास कोई सिक्योरिटी नहीं थी और ना ही कोई पुलिस वाला मौजूद था. सीसीटीवी फुटेज को भी छुपाने की कोशिश की गई थी.

हद तो तब हो गई, जब पुलिस के सामने भी कई वार किए गए, लेकिन पुलिस कुछ नहीं कर पाई. कहने को तो पुलिस के पास हथियार होते हैं, सरकार उन को लाइसेंस देती है, लेकिन फिर भी इस हत्याकांड को कोई नहीं रोक पाया.

अब सवाल फिर खड़ा होता है कि पुलिस क्या डर गई थी, जो उन की आंखों के सामने कानून की धज्जियां उड़ीं, संविधान की धज्जियां उड़ीं, लेकिन वो खड़ेखड़े देखते रह गए.

सहारा- भाग 1 : रुद्रदत्त को अपने बेटों से क्यों थी नफरत ?

पत्नी की असमय मौत के बाद जब गिरिजा रुद्रदत्त के जीवन में आई तो उस की सुंदरता देख रुद्रदत्त उस पर मोहित हो गए। तभी एक रात गिरिजा ने उस का हाथ अपने हाथों में ले लिया और फिर…

रुद्रदत्त शहर के जानेमाने व्यापारी थे. उन्होंने अपने दोनों बेटों को खूब पढ़ाया। वे नहीं चाहते थे कि उन के बेटे भी उन्हीं की तरह दुकान की गद्दी पर बैठ कर सुबह से रात तक खुद को घिसते रहें. वे चाहते थे कि उन के बेटे बड़े अफसर बनें, लोग उन्हें सम्मान दें, दूरदूर तक उन का नाम हो…उन का बस यही सपना था. उन के दोनों बेटे उच्च शिक्षित हो कर बड़े आदमी बन भी गए.

बड़ा बेटा डाक्टर बन कर स्पैशलाइजेशन करने आस्ट्रेलिया गया तो वहीं का हो कर रह गया. उस ने वहीं एक लड़की से शादी भी कर ली। अब वह वापस आना नहीं चाहता था. बेटे के गम में रुद्रदत्त की पत्नी अंदर ही अंदर टूट गईं और बीमार रह कर उन की मौत हो गई। किसी भी डाक्टर को उन की बीमारी समझ में नहीं आई थी. रुद्रदत्त ने कई बार बेटे को फोन पर उस की मां के बारे में बताया लेकिन वह बस बहाने बनाता रहा और न बीमारी पर और न ही मरने पर अपनी मां को देखने आया.

1 साल बाद उन का दूसरा बेटा भी कंप्यूटर साइंस से बीटेक करने के बाद मास्टर डिग्री के नाम पर अमेरिका चला गया और फिर उस ने भी वहीं एक लड़की पसंद कर के शादी कर ली. रुद्रदत्त ने उसे भी कई बार फोन कर के वापस आने को कहा लेकिन उस ने साफ जवाब दे दिया, “डैड, मुझे यहां 1 मिनट की भी फुरसत नहीं है. यदि आप चाहें तो हमारे साथ आ कर रह सकते हैं. ऐसे भी हमारे पास किसी चीज की कमी नहीं है, आप इंडिया से सब बेच कर हमारे पास आ जाइए या फिर भाई के पास चले जाइए. ऐसे भी अकेले आप वहां क्या करेंगे?”

रुद्रदत्त ने अपनी मिट्टी छोड़ने से यह कह कर मना कर दिया कि मेरे पुरखों की मिट्टी जिस मिट्टी में मिली है मैं उसे छोड़ कर नहीं आ सकता, मैं चाहता हूं कि मेरी मिट्टी भी मेरे मरने के बाद इसी भूमि में मिले.”

उस के बाद रुद्रदत्त ने कभी अपने बेटों से संपर्क नहीं किया था. वे अभी भी अपनी दुकान चलाते थे और हर सुबह जल्दी जाग जाते थे और सुबह 5 बजे तक पार्क का एक चक्कर लगाकर 2-3 किलोमीटर दौड़ चुके होते थे. इसीलिए वे 55-56 साल की उम्र में भी 40 से अधिक नहीं लगते थे. ऊंचे कद और गठीले बदन के मालिक, गोरे रंग पर जब नीली या काली शर्ट पहन कर निकलते थे तो सैकड़ों की भीड़ में भी दूर से ही दिख जाते थे.

उस दिन भी 2 चक्कर दौड़ने के बाद रुद्रदत्त पार्क में पेड़ों के नीचे बनी सीमैंट की बैंच पर बैठे हुए थे. आज उन्होंने ब्लैक कलर की हाफ टीशर्ट और ग्रे कलर का लोअर पहना हुआ था. दौड़ने के बाद पसीने की कुछ बूंदें उन के माथे पर आ गई थीं जो सूरज की पहली किरण पड़ने पर उन के गोरे माथे पर सिंदूरी सोने जैसी चमक रही थीं.

अभी रुद्रदत्त ने बोतल से 2 घूंट पानी पी कर उसे नीचे रखा ही था और बोतल रख कर जैसे ही उन्होंने सिर उठाया, एक महिला ट्रैकसूट पहने सामने खड़ी थी. उस की सांसें तेजतेज चल रही थीं मानो वह बहुत दूर से दौड़ती चली आ रही थी. रुद्रदत्त ने गौर से उसे देखा, उस की उम्र कोई 40 साल के आसपास थी। गोरा रंग, 5 फुट 4 इंच के लगभग हाइट, कसा हुआ चुस्त जिस्म और आकर्षक शारीरिक कटाव उसे बहुत आकर्षक बना रहे थे. उस की पर्सनैलिटी ऐसी थी कि कोई भी उसे देखे तो कुछ देर उसे बस देखता ही रहे.

“क्या मैं यहां बैठ सकती हूं मिस्टर…?” अभी रुद्रदत्त उस के भूगोल को देख ही रहे थे कि उन के कानों में उस का मधुर स्वर पड़ा.

“ज…जी…जी बिलकुल,” रुद्रदत्त हड़बड़ाते हुए बोले और खिसक कर बैंच के एक कोने पर हो गए.

“अरे, यहां तो ऐसे ही बहुत जगह थी, आप को और जगह बनाने की कोई जरूरत नहीं थी,” वह महिला रुद्रदत्त की हालत देख कर मुसकराते हुए बोली और फिर उन के पास ही बैठ गई. अब रुद्रदत्त को उस से झेंप हो रही थी और वे उस की ओर आंखे नहीं उठा रहे थे.

“मेरा नाम गिरिजा है और आप…?” कुछ देर ऐसे ही बैठ कर रुद्रदत्त की ओर देखने के बाद उस महिला ने मुसकराते हुए कहा और अपना हाथ बढ़ा दिया.

“ज…जी मैं रुद्र… रुद्रदत्त, मैं एक व्यापारी हूं. मेन मार्केट में मेरी किराने और ड्राई फ्रूट्स की छोटी सी दुकान है,” महिला के पहल करने पर रुद्रदत्त ने हाथ बढ़ते हुए अपना पूरा परिचय उसे दे दिया.

“जी मैं शिक्षिका हूं, इंटर कालेज में बायोलौजी पढ़ाती हूं. अभी कुछ दिन पहले ही यहां ट्रांसफर हुआ है, अभी यह शहर मेरे लिए अजनबी है,” गिरिजा ने भी आगे अपना परिचय देते हुए कहा.

अब इन दोनों के बीच सामान्य बातें होने लगीं और कोई आधे घंटे बाद दोनों वहां से चले गए.

अब यह रोज का नियम बन गया था। रुद्रदत्त और गिरिजा पार्क में मिलते और साथसाथ दौड़ते। उस के बाद कुछ देर बैंच पर बैठ कर बातें करते. ये दोनों अब एकदूसरे के बारे में सबकुछ जान चुके थे. गिरिजा उत्तराखंड के चमोली जिले से आती थीं. शहर के कालेज में शिक्षिका थीं. गिरिजा को उन के प्रेमी ने धोखा दिया था तब से उस ने कभी शादी न करने और मर्दों से दूर रहने लगी थी. गिरिजा की उम्र 48 साल की थी लेकिन रोज ऐक्सरसाइज करने और फिटनैस पर ध्यान देने के चलते वह 40 से अधिक की नहीं लगती थी.

तेरे जाने के बाद : भाग 1

कमल के प्यार में पागल माया की आंखों पर ग्लैमर, दौलत, उन्मुकता का सुरूर छाया था. इन सब के आगे पति, बच्चा, गृहस्थी सब बौने थे. लेकिन उन्माद का यह नशा जब उतरा, तब तक बहुत देर हो चुकी थी.

मैं  अकेली हूं पर मोहित की यादें अकसर ही मु?ा से बातें करने आ जाया करती हैं. लगता जैसे मोहित आते ही मु?ो चिढ़ाने लगते हैं. वास्तव में तुम्हारी हिम्मत न होती थी हकीकत की जमीन पर मु?ो चिढ़ाने की, लेकिन खयालों में तुम कोई मौका न छोड़ते.

मैं खयालों में ही रह जाती हूं, जवाब नहीं दे पाती तुम्हें. पता नहीं पिछले कुछ दिनों से जाने क्यों मु?ो रहरह कर कमल की भी याद आ रही है. मै जानती हूं वह कभी नहीं आएगा. अगर आया तो भी उस के लिए मेरी जिंदगी में कोई जगह नहीं है. आखिर मैं ने ही तो छोड़ा था उसे, फिर क्यों याद कर रही हूं मैं उस को. मैं खुश हूं अपनी जिंदगी में. क्या फर्क पड़ता है किसी के जाने से? कौन सी मैं ने मोहब्बत ही की थी उस से. छल… हां, छल ही तो किया था उस ने मु?ा से और खुद से. फिर क्यों याद बन कर सता रहा है मु?ो. शायद असीम और अभिलाषा के एकदूसरे के प्रति लगन के कारण कमल का स्मरण हो आया है. मु?ो अच्छी तरह से याद है. मैं ही उस के प्रति आकर्षित हुई थी पहले. कमल गोरा, लंबा आकर्षक पुरुष था. वह शादीशुदा नहीं था. मेरे पति मोहित पहले दिन ही कमल से मिलवाते हुए बता चुके थे. मु?ो काफी दिलकश इंसान लगा था. खूबी होगी कुछ उस में.

तभी दरवाजे की घंटी बजी. मैं खोलने चली गई. सामने असीम खड़ा था.

‘‘अरे असीम, आ जाओ. तुम्हें ही याद कर रही थी.’’

‘‘मु?ो, पर क्यों भाभी?’’

असीम भाभी ही कहता हैं मु?ो. वैसे तो हम रिश्तेदार बनने वाले हैं. उस की शादी मेरी छोटी बहन अभिलाषा से होने वाली है. लेकिन देवरभाभी का रिश्ता कमल का दिया हुआ था. असीम कमल को बड़ा भाई मानता था.

‘‘जस्ट जोकिंग डियर. अच्छा, तैयारी कैसी चल रही है शादी की?’’

‘‘हा हा हा, तैयारी करने के लिए जब आपलोग हैं ही, फिर मु?ो क्या चिंता?’’

‘‘हींहींहीं मत कर. घोड़ी चढ़ कर भी क्या हम लोग ही आ जाएंगे.’’

‘‘हा हा हा, लड़की आप की है, फिर आप घोड़ी चढ़ें या गदही चढ़ें, मेरी तरफ से सब मुबारका.’’

‘‘मस्ती सू?ा रही दूल्हे मियां को.’’

‘‘सोचता हूं कि कर ही लूं, फिर मौका मिले या न मिले’’, दांत निपोरते हुए असीम फिर बोला, ‘‘क्या बात है भाभी, मैं तब से आप को हंसाने की कोशिश कर रहा हूं पर आप का ध्यान कहीं और ही है?’’

‘‘नहींनहीं, कुछ खास नही. बस, आज तुम्हारे मित्र कमल का ध्यान हो आया.’’ थोड़ी देर रुक कर मैं फिर बोली, ‘‘तुम्हारी तो बातचीत होती होगी. कहां है आजकल? क्या कर रहा है?’’

गंभीर भाव मुख पर लाते हुए असीम बोला, ‘‘जी, कभीकभी बातचीत पहले हो जाया करती थी. इधर काफी दिनों से कोई संपर्क नहीं हो पा रहा है. लेकिन आज अचानक कमल क्यों?’’

अचानक असीम के सवाल से मैं सहम सी गई. ‘‘क्योंक्या?’’ मैं ?ोंपते हुए बोली, बस, यों ही’’.

असीम का मोबाइल बजने लगा और वह बीच में ही ‘अच्छा भाभी, मैं चलता हूं’, कहते हुए बाहर चला गया.

मैं फिर से यादों से बातें करने लगी. मेरे जीवन में कमल और मोहित की यादें ही तो रह गई है सिर्फ, अन्यथा बचा ही क्या है. मैं मोहित का फोटो ले कर बैठ जाती हूं. मेरे जीवन के 2 पलड़े हैं और दोनों ही मु?ा से टूट कर अलग हो गए. रह गई मेरे हाथों में केवल डंडी. आज मैं मोहित से बातें करना चाहती हूं. वे बातें जो उस के साथ रहते हुए भी कभी नहीं कर पाई थी. आज करूंगी वे बातें, वे सभी बातें तो कभी भी मैं मोहित को बताना नहीं चाहती थी. वे बातें जो मैं ने पूरी दुनिया से छिपा रखी हैं. वे बातें जो मैं ने खुद से भी छिपा रखी हैं. पता नहीं मैं किस दुनिया में पहुंच रही हूं. मैं फोटो से बात कर रही हूं या खुद से, सम?ा नहीं पा रही.

‘मोहित, तुम्हें क्या लगा कि मैं गलत थी. अरे एक बार पूछ कर तो देख लेते. पर तुम पूछते कैसे? मर्द जो ठहरे तुम. मैं नहीं जानती तुम ने ऐसा क्यों किया पर मैं अब सम?ा सकती हूं कि तुम्हें कैसा लगता होगा जब मैं कमल से हंसहंस कर बातें करती थी. मु?ो परवा न थी दुनिया की. मैं तो सिर्फ अपनेआप में मस्त रहती थी. कभी तुम्हारे बारे में सोचा ही नहीं मैं ने. तुम मेरे पति थे और आज भी हो, लेकिन हम साथसाथ नहीं हैं. हम दोनों एकदूसरे के लिए परित्यक्त हैं. तलाकशुदा नहीं हैं हम. तुम चाहो तो मैं तुम्हारे पास वापस आने को तैयार हूं. पर तुम ऐसा क्यों चाहोगे? मैं ने कौन से पत्नीधर्म निभाए हैं.’

फिर से खयालों में खोती चली जाती हूं.

‘मैं भूल गई थी कि तुम मेरे पति हो. पर तुम कभी नहीं भूले. मोहित, तुम ने हमेशा मेरा साथ निभाया. खुदगर्जी मेरी ही थी. मैं जान ही नहीं पाईर् थी तुम्हारे समर्पण को. मेरे लिए तुम सिर्फ और सिर्फ मेरे पति थे. पर तुम्हारे लिए मैं जिम्मेदार थी. मेरी जिंदगी में भले ही तुम्हारे लिए जगह न थी लेकिन तुम्हारे लिए मैं हमेशा ही तुम्हारे सपनों की रानी रही.’

‘मैं जब अकेले में खुद से बातें करते हुए थकने लगती हूं तब तुम आ जाते हो मेरे खयालों में, बातें करने मु?ा से. मु?ो अच्छा लगने लगता है. मैं तुम से बातें करने लगती हूं. तुम कहने लगते हो,

‘जब तुम मु?ा से खुश न थी तो फिर संग क्यों थीं? तुम्हें चले जाना चाहिए था कमल के साथ. मैं कभी नहीं रोकता तुम्हें.’ तुम मेरे अंदर से बोल पड़ते हो.

‘मैं तुम्हें जवाब देने लगती हूं.’

‘तुम्हारे साथ मैं केवल तुम्हारे पैसों के लिए थी. अन्यथा तुम तो मु?ो कभी पसंद ही नहीं थे. तुम्हारा काला रंग, निकली हुई तोंद, भारीभरकम देह, मु?ा से न ?ोला जाता था. मैं कमल के साथ जाना चाहती थी मगर उस की लापरवाही मु?ो खलती थी. कमल खुद में स्थिर नहीं था. अन्य औरतों की भांति मैं भी एक औरत के रूप मेें ठहरावपूर्ण जिंदगी चाहती थी जो कि तुम्हारे पास थी.’

‘तो फिर कमल ही क्यों? किसी अन्य पुरुष को भी तुम अपना सकती थी,’ मेरे मन का मोहित बोला.

‘हां, अपना सकती थी. लेकिन कमल सब से सुरक्षित औप्शन था. किसी को शक नहीं होता उस पर. और फिर संपर्क में भी तो कमल के अलावा मेरे पास अन्य पुरुष का विकल्प न था. और जो 2 पुरुष तुम्हारे अलावा मेरे संपर्क में थे उन में कमल मु?ो कहीं अधिक आकर्षित करता था.’

‘और असीम?’

‘असीम के प्रति मेरे मन में कभी वह भाव नहीं आया. कभी आया भी होगा तो मैं यह सोच कर रुक जाती कि वह मेरी छोटी बहन का आशिक है और उम्र में भी तो बहुत छोटा था. 10 साल, हां, 10 साल छोटा है असीम.’

‘मेरी एक चिंता दूर करोगी क्या?’

‘हां, बोलो, कोशिश करूंगी.’

‘कमल मेें ऐसा क्या था जो मु?ा में

नहीं था?’

‘यह तुम्हारा प्रश्न ही गलत है.’

‘क्या मतलब?’

‘तुम में वह सबकुछ था जो कमल में भी नहीं था. कमी तो मु?ा में थी. मैं ही खयालों की दुनिया से बाहर नहीं आना चाहती थी. मु?ो वाहवाही की लत जो लगी हुईर् थी. तुम कूल डूड थे और कमल एकदम हौट. तुम्हें मर्यादा में रहना पसंद था और मु?ो बंधनमुक्त जीना पसंद था. तुम्हें समाज के साथ चलना पसंद था और मु?ो पूरी दुनिया को अपने ठुमकों पर नचाना था.’

चालबाजी- भाग 1 : कृष्ण कुमार की अद्भुत लीला

‘कितने पैसे हुए’ मैं ने पांव से चप्पल निकालते हुए पालिश किए हुए चमकदार जूतों में पैर डालते हुए पूछा.

‘दस रुपए दे दीजिए सर.’ उस ने दूसरे जूते पर फायनली ब्रश मार कर जूता सामने रख दिया.

‘दस रुपए क्यों भाई?’ मैं ने जूते पहल लिए. ‘बाकी सब तो पांच रुपए ही लेते हैं.’

मैं ने जूते पहन लिए व अपना दाहिना पांव उस के सामने रखे बहुत छोटे से फूट स्टैंड पर रख दिया.

‘क्रीम पालिश की है सर.’ उस ने जूते पर एक कपड़े से घिस कर चमकाया. मैं ने दूसरा पांव भी स्टैंड पर रख दिया. ‘आप जो चाहे दे दीजिए.’

‘जो चाहे वो क्यों.’ मैं ने कायदे से पांवों को जूते में सेट किया. ‘तुम्हारा भी तो माल लगता है, मेहनत लगती है.’

‘माल की क्या कीमत है सर.’ अब उसने नजर उठा कर मेरी तरफ देखा. ‘मुश्किल से दो रुपए की क्रीम व पालिश लगती है. और मेहनत का भी क्या है. कौन सी ग्राहकों की भीड़ लगी है.’

‘तुम कहां के हो.’ मैं ने उसे दस रुपए दिए. क्रीम पालिश का सभी जगह दस रुपया ही लेते थे . ‘क्या यही के हो.’

‘नहीं सर. मैं यहां का नहीं हूं.’ उस ने जेब से पर्स निकाल दस रुपए उस में रख लिया. ‘यहां तो मैं काम करने आता हूं.’

मैं ने घड़ी पर निगाह डाली. साढ़े नौ बज रहे थे. दफ्तर का टाइम हो रहा था. मैं बस स्टैंड की तरफ चल दिया.

यह जूता पालिश करने वाला सामान्य जूता पालिश वालों से जरा अलग लगता था. उस का रंग साफ था. उस के बाल कायदे से संवरे रहते थे. जोकि वह पुरानी सी जींस व टीशर्ट ही पहने रहता था पर कपड़े साफ रहते थे. वह बस स्टैंड से थोड़ा पहले सडक़ से थोड़ा पीछे एक मध्यम आकार के नीम के पेड़ के नीचे बैठता था. उस के सामने कोई बोरा नहीं बिछा होता था वरन मेज पर बिछाई जाने वाली प्लास्टिक की सीट को दोहरा कर के बैठाया होता था. इस प्लास्टिक की शीट पर भूरी काली पालिश की तमाम डिब्बियां व क्रीम की कई शीशियां रखी होती थीं. वह जमीन पर नहीं बैठता था बल्कि बैठने के लिए एक प्लास्टिक का नीचा स्टूल रहता था. वह सिर्फ जूता पालिश ही करता था, मरम्मत का काम नहीं  करता था. मैं करीब एक महीने से उसे वहां बैठते देख रहा था. वैसे तो मैं जूतों पर पालिश घर पर खुद ही कर लिया करता था पर दो तीन बार के बाद जूतों की चमक कम हो जाती थी. तब एकाध बार बाहर से पालिश करा लिया करता था. इधर तीन बार से हर दूसरे दिन उस से ही पालिश करा रहा था.

उस ने आज बताया था कि वह वहां का नहीं था. हो सकता है कहीं आसपास के गांव का हो. मैं भी तो यहां का नहीं था. मैं तो यहां से काफी दूर के एक शहर का था. यहां तो नौकरी करने आया था. नौकरी कोई बड़ी नहीं थी. दूर के एक शहर में मेरे रिटायर्र्ड पिता, मां, भाई व भाभी रहते थे.

‘तुम्हारा नाम क्या है.’ अगली बार जब मैं पालिश कराने उस के पास गया तो जूते उतारते हुए पूछा.

‘अनुपम.’ उस ने रबर की दो चप्पलें मेरे सामने रख दीं.

‘बड़ा अच्छा नाम है.’ मैं ने प्रशंसा के स्वर में कहा, ‘अनुपम के आगे क्या है. पूरा नाम बताओ.’

‘अनुपम बस.’ उस ने नजरें झुका कर एक जूता उठा लिया व ब्रश से धूल झाडऩे लगा.

‘अनुपम के आगे कुछ है नहीं या बताना नहीं चाहते.’ मुझे लगा कि वह जानबूछ कर अपनी वास्तविकता छुपा रहा है.

‘है तो…पर जाने दीजिए. बस अनुपम ही मेरा नाम है.’

‘तुम्हारा नाम भी अनुपम ही है या अपना नाम भी सही नहीं बता रहे हो.’

‘नहीं सर. मेरा नाम अनुपम ही है. मेरी सॢटफिकेट पर भी यही नाम लिखा है.’ उस ने एक जूते पर काली पालिश निकाल ली थी व अब शीशी से ढ़ेर सारी क्रीम निकाल कर दोनों को अपनी उंगलियों से अच्छी तरह से मिला रहा था.

‘सॢटफिकेट.’ मैं चौंका, ‘कौन सी सॢटफिकेट. क्या जाति प्रमाणपत्र.’

‘नहीं सर.’ वह नजरें झुकाए काम में लगा रहा, ‘सभी सॢटफिकेट पर. हाई स्कूल की सॢटफिकेट पर.’

‘क्या.’ मैं फिर चौका, ‘क्या तुम हाईस्कूल पास हो.’

उस ने जवाब नहीं दिया व ब्रश से पालिश क्रीम जूते पर फैलाता रहा. फिर दूसरा जूता उठा कर उस पर भी क्रीम पालिश लगाने लगा.

‘क्या तुम अंग्रेजी समझ सकते हो.’

‘यस सर.’ उस के हाथ रुक गए. उस ने निगाहें उठा कर मेरी तरफ देखा.

‘क्या बोल भी सकते हो.’

‘नो सर.’ अब वह जूते पर जोरजोर से ब्रश कर रहा था, ‘मेरी अंग्रेजी कमजोर है.’

आज मुझे जल्दी नहीं थी. मेरा लैब इंचार्ज छुट्टी पर था. उस के पास भी कोई अन्य ग्राहक नहीं था. सामान्यत: जूता पालिश करने वाले लडक़े हाई स्कूल पास नहीं होते. उस की आंखें देख कर ही उस के  आभिजात्य का आभास होता था.

‘तो तुम ये काम क्यों करते हो.’ मेरे मुंह से निकला.

उस ने कुछ कहा नहीं पर ब्रश चलाते हुए एक बार मुझे देखा.

‘मेरा मतलब. कोई नौकरी क्यों नहीं करते.’

‘नौकरी.’ पहली बार अनुपम के चेहरे पर मुस्कराहट आई. ‘नौकरी कौन देगा सर.’

‘क्यों. इतनी वैकेंसी आती है. फिर तुम्हें तो आरक्षण भी मिलेगा.’

‘आरक्षण.’ उस का मुंह टेढ़ा हो गया. पालिश का काम समाप्त हो चुका था. अब वह ब्रश से हल्के हाथ से जूते चमका रहा था.

‘और क्या. तुम्हें रिजर्वेशन मिलेगा. शायद तुम्हें मालूम नहीं है. सरकार ने सारी नौकरियों में आधी सीटें तुम्हीं लोगों के लिए आरक्षित कर दी हैं. मालूम है तुम्हें.’

‘सब मालूम है सर.’ उस ने एक जूता तैयार कर के सामने रख दिया, ‘कुछ नहीं होता है. इस सब से कुछ नहीं होता है. लाइए सर.’ उसने फूट स्टैंड मेरे सामने कर दिया.

‘मैं वो सामने वाले मकान में नीचे वाले कमीे में रहता हूं.’ मैं ने जूते पहन कर दायां पांव स्टैंड पर रख दिया.

मुखौटा, भाग 1 : ड्राइवर को क्यों हो रही थी बेचैनी?

हम पाल पहुंचे तो शाम के 5 बज रहे थे. हमारी योजना जल्दी घर लौट कर रात का खाना घर पर ही खाने की थी. बस का ड्राइवर जल्दी मचा रहा था क्योंकि उस के घर पर कुछ मेहमान आए हुए थे, अत: उसे घर जा कर उन्हीं के साथ भोजन करना था. मैं ने भी अपने घर बता दिया था कि रात तक अमलनेर पहुंच जाऊंगा.

पाल में हम सब ने काफी मौजमस्ती की. वहां के पार्क में हिरणों के साथ फोटो भी खिंचवाए. एक लैक्चरर साथी ने अलगअलग तरह की वनस्पतियों की जानकारी दी. वहां के फूलों का नजारा देखने के बाद जल्दी से घर लौटने के लिए सब लोग बस में बैठ गए.

ड्राइवर को भी घर पहुंचने की जल्दी थी. अत: उस ने पूरी तेजी के साथ बस दौड़ाई. करीब साढ़े 6 बजे हम सावदा पहुंचे. हमारे कुछ साथी वहां चाय पीना चाहते थे. उन्होंने इस के लिए ड्राइवर से आधे घंटे का समय मांगा. कुछ लोग चाय पीने के लिए निकल पड़े. हम भी ड्राइवर को ले कर चाय पीने लगे.

चाय पीते 1 घंटा बीत चुका था. घड़ी की ओर देखते हुए ड्राइवर मु?ा से बोला, ‘‘मैं ने पहले ही कहा था कि खानेपीने के शौकीन लोग एक बार बैठ गए तो फिर हिलने का नाम नहीं लेंगे. उन्हें दूसरों के समय की फिक्र ही नहीं है.’’

ड्राइवर बेचैन हो रहा था. हमारी ट्रिप शानदार रही थी, लेकिन खानेपीने वालों की वजह से अब 2 घंटे की देरी हो गई थी.

रात के 9 बजे हम यावल पहुंचे. सब को घर जाने की जल्दी थी अत: वे खामोश बैठे थे.

उसी समय बस के इंजन से काफी मात्रा में धुआं निकलने लगा. ड्राइवर ने बस रोक दी. सब लोग बस से नीचे उतर पड़े.

‘‘क्या हुआ?’’ सब की जबान पर एक ही सवाल था.

‘‘इंजन में कुछ खराबी है,’’ ड्राइवर गुस्से से बोला.

ड्राइवर की बात सुन कर दूसरी गाड़ी ढूंढ़ने के लिए मैं ने बस में से अपना सामान निकाल लिया और दूसरी गाड़ी ढूंढ़ने लगा. मु?ो देख कर कुछ साथी हंसीमजाक करने लगे तो कुछ लोग मैकेनिक ढूंढ़ने में ड्राइवर की सहायता करने लगे.

रास्ते पर काफी आवाजाही थी. मु?ो अमलनेर पहुंचना था, इसलिए हर जाने वाली गाड़ी को हाथ दिखा कर रोकने का प्रयास कर रहा था. केलों से लदा एक ट्रक कुछ आगे जा कर रुक गया. मैं बड़ी आशा के साथ उस तरफ बढ़ गया. उस ट्रक में पहले से 15-20 मजदूर बैठे थे. उन में से 2 लोग वहां उतर गए. ड्राइवर ने मेरी ओर देख कर पूछा, ‘‘कहां जाना है?’’

‘‘अमलनेर,’’ मैं ने कहा.

‘‘ठीक है, गाड़ी अमलनेर हो कर अहमदाबाद जाएगी. इधर कैसे फंस गए?’’

‘‘भाई साहब, हमारी गाड़ी का इंजन फेल हो गया है. उस में हमारे कुछ और साथी भी थे,’’ मैं अपनी बात पूरी कर ड्राइवर के कैबिन में घुस गया.

पलभर में ही ट्रक पूरी तेजी के साथ सड़क पर दौड़ने लगा. मु?ो इस उम्मीद से खुशी हुई कि 11 बजे तक अमलनेर अपने घर पहुंच जाऊंगा. मेरे नजदीक सब मजदूर एकदूसरे से चिपक कर बैठे थे. ड्राइवर ने टेप रिकौर्डर शुरू कर दिया.

ड्राइवर ने अभी बातचीत शुरू की ही थी कि सामने टौर्च का उजाला आया. ड्राइवर ने ट्रक की रफ्तार धीमी कर दी.

‘‘इसे भी अभी ही आना था. किसी के पास 5 रुपए हैं क्या?’’ ड्राइवर ने कैबिन में बैठे यात्रियों से पूछा.

मैं ने अपनी जेब से 5 का नोट निकाल कर उसे दे दिया. ड्राइवर ने अपने बगल की खिड़की से हाथ निकाल कर 5 का नोट हवलदार के हाथ में दिया और ट्रक की स्पीड बढ़ा दी.

‘‘अब देखो साहब, अगले पौइंट पर मैं सिर्फ 2 रुपए का सिक्का दूंगा. ये सब भिखारी लोग हैं. खाकी वरदी वाले डाकू हैं. साहब, असली डाकू तो यही हैं. चोरडाकू तो कभीकभी डाका डालते हैं, लेकिन ये लोग तो हर दिन जनता को लूटते हैं.’’

ड्राइवर मेरी ओर देख कर बोल रहा था. ट्रक में लगे टेप रिकौर्डर पर गाना चालू था. तभी सामने 2 हवलदार खड़े दिखाई दिए. ट्रक एक तरफ रोक कर ड्राइवर नीचे उतरा और एक पुलिस वाले के सामने जा कर खड़ा हो गया.

‘‘क्या साहब, हमारा रोज का आनाजाना है.’’

‘‘तो दादा, हम कहां ज्यादा मांगते हैं,’’ पुलिस वालों का स्वर धीमा और लाचारी से भरा था.

ड्राइवर ने धीरे से जेब से 2 रुपए का सिक्का निकाल कर उस के हाथ में टिकाया और पल भर में ट्रक चला दिया.

आगे चौक पर ट्रक रुका तो कई मजदूर फटाफट छलांग लगा कर उतर गए.

‘‘उस्मान, सब से भाड़ा बराबर लेना. आगे भी पुलिस वालों की जेबें गरम करनी पड़ेंगी,’’ ड्राइवर ने हिदायत दी, ‘‘और उस्मान, ट्रक का अगलापिछला टायर ठीक से देख लेना.’’

गहरी साजिश, भाग 1 : नक्सली दंपती ने पुलिस से क्या कहा ?

डी कुंजाम और बी मरकाम दंपती नक्सलगढ़ के ग्राम जगरगुंडा के निवासी थे. दोनों हमउम्र और हमशक्ल सरीखे दिखते थे. वे कालेकलूटे थे और उन की कदकाठी भी एक सी थी. दोनों तकरीबन 5 फुट 5 इंच के थे. अंतर सिर्फ इतना था कि डी कुंजाम की हलकी मूंछ व बकरादाढ़ी उग आई थी, तो बी मरकाम के बाल बकरी की पूंछ जैसे थे. अभी उन की उम्र 20-21 साल की रही होगी.

जंगल में रहरह कर दोनों के गाल, नाक, कान, ठोड़ी, माथा, हाथपैर और बाल रूखेरूखे व बिखरेबिखरे थे, गोया दिनों से न नहाए हों व तेलक्रीम लगाए हों. कुल मिला कर यही कि दोनों के चेहरे काले, लंबे, छोटे व बदरंग थे. उन के नक्सली पोशाक मटमैले दिख रहे थे, मानो एक ही यूनिफौर्म को कईकई दिनों से पहन कर सोएबैठे हों. हालांकि उन में चपलता व साहसिकता कूटकूट कर भरी हुई थी लेकिन अभी वे निराशा व हताशा के गर्त में डूबे हुए दिख रहे थे.

थाने के थानेदार चूंकि दौरे पर निकले थे, इसलिए उन्हें वेटिंगरूम में रखी बैंच पर बैठ कर उन का इंतजार करने के लिए मुंशी ने उन से कहा.

वे दोनों एके-47 बगल में दबाए बैंच पर लुटेपिटे से बैठ गए और अगलबगल देखने लगे. कराहते हुए बैठतेबैठते बी मरकाम सोचने लगी, गर्भपात कर जहां उस के तनबदन को शक्तिहीना और उस को संतानहीना कर दिया गया है, वहीं डी कुंजाम की नस को काट कर उन्हें सदासदा के लिए बेऔलाद करने की गहरी साजिशें रची गईं. ऐसा कुकृत्य इंसान नहीं, शैतान ही कर सकता है, जिसे मानवता से कोई सरोकार न हो.

लिहाजा, मन में चलनेवाले उथलपुथल से बी मरकाम बेहद चिंतित थी और हद से ज्यादा थकावट महसूस कर रही थी. थाने की बैंच पर बैठने भर की जगह थी, इसीलिए वह कमजोरी के मारे उठ कर जमीन पर दोनों पैर सिकोड़ और हाथ का तकिया बना कर लेट गई.

उसे जमीन पर लेटता हुआ डी कुंजाम ने देखा, तो उस को आराम देने के लिए वह भी नीचे बैठ गया. फिर अपनी जांघ पर तकिए की तरह सिर रख कर आराम करने के लिए उस को कहने लगा.

बी मरकाम, डी कुंजाम की जांघ पर सिर रख कर जरा सी लेटी थी कि उस को सुख की अनुभूति हुई और मारे थकान के नींद आने लगी. नींदिया रानी के बांहपाश में फंसतेफंसते वह अतीत की आगोश में समाने लगी.

उस के दिलदिमाग में बालपन व सयानपन के वे दिन गुजरने लगे जिन के वशीभूत वह नक्सली संगठन की महिला विंग में शरीक हो गई थी. वह 5वीं बोर्ड पढ़ने के बाद आगे 6ठी इसलिए नहीं पढ़ सकी क्योंकि मिडिल स्कूल उस के गांव से कई कोस दूर था. उस के पिता लतखोर थे. उन के पास इतना पैसा नहीं बचता था कि वे उस के लिए साइकिल खरीद सकें और कपड़ेलत्ते, किताबकौपी व जूतेचप्पल का इंतजाम कर सकें.

वह सोच रही थी कि उस के पिता शराब के आदी न होते, तो उस की मां सुकमा के लाइनमैन के साथ न भागती. मां के घर में रहने पर उस को सही से शिक्षा मिल जाती, तो वह भी कुछ बन जाती.

उसे लगने लगा कि उस के नक्सली बनने के पीछे उस के पिता कुसूरवार हैं. ऐसा सोचतेसोचते उस का मुखमंडल कसैला हो गया, जो पिता के प्रति नफरत को और बढ़ा गया.

इन्हीं मुफलिसीभरे विकट माहौल में एक रात उस के गांव में नकाबपोश माओवादियों का आगमन हुआ. वे गांव के किशोरकिशोरियों, युवकयुवतियों और उन के पालकों की मीटिंग कर उन से कहने लगे, ‘इन्हें हमारे संगठन में भेज दो. हमें इन की जरूरत है. हम इन्हें रखेंगे, कपड़ा देंगे, खिलाएंगेपिलाएंगे और इन के लिए वेतन के रूप में धन का माकूल इंतजाम भी करेंगे.’

अतिगरीब मांबापों, जिन के घरों में खाने के लाले पड़े हों और जो अपने बच्चों के लिए कुछ खास नहीं कर पा रहे हों, ने खाना, कपड़ा व रुपयापैसा के लालच में हम किशोरकिशोरियों को नक्सलियों के सुपुर्द कर दिया और खुद चैन की बंशी बजाने लगे.

तब उस की उम्र 16 बरस की रही होगी, तो डी कुंजाम की 17 बरस. वे दोनों एक ही गांव के थे और जवानी की दहलीज पर कदम रख चुके थे.

एक दिन पुलिस-नक्सली मुठभेड़ में बी मरकाम को गोली लग गई, तो डी कुंजाम ने जान पर खेल कर जहां उस की जान बचाई, वहीं उसे पुलिस के हत्थे चढ़ने से भी बचा लिया.

जिंदगी फिर मुस्कुराएगी- भाग 1

रात के 3 बजे थे. इमरजैंसी में एक नया केस आया था. इमरजैंसी में तैनात डाक्टरों और नर्सों ने मुस्तैदी से बच्चे की जांच की. बिना देरी किए उसे पीडियाट्रिक आई.सी.यू. में ऐडमिट कराने के लिए स्ट्रेचर पर लिटा कर नर्स व वार्ड- बौय तेजी से चल पड़े.

पीछेपीछे बच्चे के मातापिता बदहवास से चल रहे थे.पीडियाट्रिक आई.सी.यू. में भी अफरातफरी मच गई. बच्चे को बैड पर लिटा कर 4-5 डाक्टरों की टीम उस की चिकित्सा में लग गई.‘‘टैल मी द हिस्ट्री,’’ डा. सिद्धार्थ ने कहा.‘‘बच्चा 3 साल का है. यूरिनरी इन्फैक्शन हुआ था. डायग्नोसिस में बहुत देर हो गई. बच्चे को बहुत तेज बुखार की शिकायत है. इन्फैक्शन पूरे शरीर में फैल गया है पर इस से महत्त्वपूर्ण यह है कि 8 दिन पहले गिरने के कारण बच्चे को सिर में गहरी चोट लगी थी. ब्लड सर्कुलेशन के साथ इन्फैक्शन दिमाग में चला गया है. कल सुबह इन्फैक्शन के कारण ब्रेन हैमरेज भी हो गया,’’ पीडियाट्रिक्स इमरजैंसी के डा. शांतनु ने संक्षेप में बताया.‘‘माई गुडनैस,’’

डा. सिद्धार्थ ने कहा, ‘‘मु?ो सीटी स्कैन दिखाओ.’’एक नर्स बच्चे के मातापिता के पास सीटी स्कैन लेने दौड़ी. बच्चे के पिता ने तुरंत सीटी स्कैन और रिपोर्ट नर्स को दे दी और पूछा, ‘‘बच्चा कैसा है सिस्टर. क्या कर रहे हैं अंदर. हम उसे देख सकते हैं क्या?’’‘‘डाक्टर जांच कर रहे हैं. इलाज चल रहा है. एक बार बच्चे की हालत स्थिर हो जाए फिर आप को बुला लेंगे,’’ कह कर नर्स अंदर चली गई.बच्चे के मातापिता बेबस से बाहर खड़े रह गए. बच्चे की मां मीनल के तो आंसू नहीं थम रहे थे. बच्चे की चोट वाली जगह से खून की एक लकीर पीछे तक गई थी.

‘‘सर, बच्चे के हाथ में लगा कैनूला ब्लौक हो गया है,’’ नर्स बोली, ‘‘चेंज करना पड़ेगा.’’‘‘चेंज करो और फौरन आई.वी. ऐंटीबायोटिक और सलाइन शुरू करो. बच्चे का टैंपरेचर अभी कितना है?’’ डा. सिद्धार्थ ने पूछा.नर्स ने तुरंत थर्मामीटर लगा कर बच्चे का बुखार देखा और कांपते स्वर में बोली, ‘‘सर, 106 से ऊपर है.’’‘‘दिमाग के इन्फैक्शन में तो यह होना ही था. बच्चे को तुरंत कोल्ड वाटर स्पंज दो. हथेलियों, बगल में, पैर के तलवों और घुटनों के नीचे कोल्ड गौज या कौटन रखो और लगातार उन्हें बदलती रहना. ए.सी. के अलावा एक और पंखा ला कर बच्चे की ओर लगाओ ताकि बुखार आगे न जाने पाए,’’ डा. सिद्धार्थ ने हिदायत दी. डेढ़ घंटे की जद्दोजहद के बाद कहीं बच्चे का बुखार 103 डिगरी तक आया, तब डा. सिद्धार्थ ने चैन की सांस ली.

2 नर्सों को बच्चों के पास छोड़ कर और इलाज के बारे में सम?ा कर डा. सिद्धार्थ ने बच्चे के मातापिता को बुला लाने को कहा. पीडियाट्रिक आई.सी.यू. के डाक्टर और नर्सें वापस अपनीअपनी ड्यूटी पर चले गए.प्रशांत और मीनल दौड़ेदौड़े अंदर आए तो डा. सिद्धार्थ ने कहा, ‘‘हम ने बच्चे का इलाज शुरू कर दिया है. बुखार भी अब कम हो गया है. लेकिन बच्चे के दिमाग में जो इन्फैक्शन हो गया है उस के लिए न्यूरोलौजिस्ट को बुला कर चैकअप करवाना पड़ेगा.’’‘‘हमारा बच्चा ठीक तो हो जाएगा न?’’ मीनल ने कांपते स्वर में पूछा.‘‘हम अपनी ओर से पूरी कोशिश करेंगे. कल सुबह डा. बनर्जी दिमाग का उपचार शुरू कर देंगे तो उम्मीद है बुखार कंट्रोल में आ जाएगा.

और हां, आप दोनों में से कोई एक ही आई.सी.यू. में बच्चे के पास बैठ सकता है.’’ मीनल ने बच्चे की ओर देख कर उसे पुकारा. थोड़ी देर बाद सोनू ने कमजोर स्वर में ‘हूं’ कहा. बुखार से सोनू बेदम हो रहा था. बीचबीच में अचानक कांप उठता और अजीब से स्वर में कराहने लगता. मीनल बच्चे की यह दशा देख कर रोने लगी.प्रशांत ने पत्नी के कंधे पर हाथ रख कर उसे तसल्ली दी और अपने आंसू पोंछ कर बोला, ‘‘अपनेआप को संभालो मीनल. हमें उस का पूरा ध्यान रखना है.

उसे ठीक करना है. अगर तुम ही टूट जाओगी तो सोनू की देखभाल कौन करेगा?’’मीनल ने हामी भरते हुए अपने आंसू पोंछे और सोनू का हाथ थाम लिया. सोनू की कमजोर उंगलियों ने मीनल की उंगलियां थाम लीं तो मीनल का दिल भर आया. मस्तिष्क में संक्रमण से सोनू खुल कर रो नहीं पा रहा था और बोल भी नहीं पा रहा था. बस, रहरह कर उस का शरीर कांपता और वह घुटेघुटे स्वर में कराहने लगता.सोनू का हाथ सहलाते हुए मीनल के सामने बेटे के जन्म से ले कर अब तक की घटनाएं चलचित्र की भांति घूमने लगीं. कितनी खुश थी वह मां बन कर.

सोनू के जन्म के बाद उस के पालनपोषण में कब दिन गुजर जाता पता ही नहीं चलता. प्रकृति ने सारे जहां की खुशियां मीनल की ?ोली में डाल दी थीं. जीवन में खुशियां ही खुशियां थीं. सोनू था भी बहुत प्यारा बच्चा. सारा दिन ‘मांमां’ कहता मीनल का आंचल थामे उस के आगेपीछे घूमता रहता. पर अचानक उन के सुखी संसार में न जाने कहां से दुख के बादल घिर आए.6 महीने पहले सोनू को बुखार आना शुरू हुआ. प्रशांत उसे डाक्टर के पास ले गया.

दवाइयों से 5 दिनों में सोनू ठीक हो गया. मीनल और प्रशांत निश्चिंत हो गए. पर 15 दिन बाद ही सोनू को फिर बुखार आया तो उन्हें चिंता हुई और डाक्टर ने दवा दे कर कहा कि चिंता की कोई बात नहीं है, सभी बच्चों को बदलते मौसम से यह परेशानी हो रही है.इसी तरह 5 महीने गुजर गए. सोनू को महीने भर तक जब लगातार बुखार के साथ पेट में दर्द, पेशाब में जलन की शिकायत होने लगी तब कसबे के डाक्टर ने उसे बड़े शहर में जा कर चाइल्ड स्पैशलिस्ट को दिखाने को कहा.

मीनल और प्रशांत तुरंत सोनू को शहर ले आए. वहां चाइल्ड स्पैशलिस्ट ने सोनू की खून और यूरिन की सभी जरूरी जांच करवाईं और कल्चर करवाया. कल्चर ड्रग सैंसेटिविटी जांच से पता चला कि अब तक जो ऐंटीबायोटिक सोनू को दी जा रही थीं उन दवाइयों ने सोनू पर कुछ असर ही नहीं किया था और संक्रमण बढ़तेबढ़ते गुर्दों तक फैल गया.

मेरी पत्नी मेरे छोटे भाई में ज्यादा ही रुचि लेने लगी है, मुझे क्या करना चाहिए?

सवाल
मैं 40 वर्षीय शादीशुदा पुरुष हूं. शादी के कुछ समय बाद ही मेरा ट्रांसफर दूसरे शहर में हो गया. घर में बुजुर्ग मातापिता की देखभाल करने के चलते मैं पत्नी को अपने साथ ले कर नहीं आया. अपने छोटे भाई, पत्नी और बुजुर्ग मातापिता को छोड़ कर मैं अकेला किराए का मकान ले कर रहता था.

इस बीच पत्नी ने कई दफा मेरे साथ आने की जिद की, पर मैं टालता रहा. इधर कुछ दिनों से मैं ने महसूस किया है कि मेरी पत्नी मेरे छोटे भाई में ज्यादा ही रुचि लेने लगी है. मैं ने इस बारे में कई बार पत्नी से बात करनी चाही पर कर नहीं पाया. मुझे क्या करना चाहिए?

जवाब
यहां गलती कहीं न कहीं आप की ही है. आप ने अपनी पत्नी को अकेला छोड़ा, तो जाहिर है अपनी शारीरिक व मानसिक जरूरतों के लिए वह स्वाभाविक रूप से आप के छोटे भाई की तरफ आकृष्ट हो गई. लेकिन आप को अपनी पत्नी से इस बारे में खुल कर बात करनी चाहिए. हो सकता है बात करने से और प्यार से समझाने से वह समझ जाए.

आप की कोशिश यही होनी चाहिए कि जल्द से जल्द पत्नी को अपने साथ ले आएं. पत्नी के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताएं. पुरानी बातों को भूल कर गृहस्थी को प्यार और विश्वास के साथ चलाएं.

फादर्स डे स्पेशल: पिता और बेटे के बीच दोस्ती का रिश्ता

‘‘हाय डैड, क्या हो रहा है? यू आर एंजौइंग लाइफ, गुड. एनीवे डैड, आज मैं फ्रैंड्स के साथ पार्टी कर रहा हूं. रात को देर हो जाएगी. आई होप आप मौम को कन्विंस कर लेंगे,’’ हाथ हिलाता सन्नी घर से निकल गया.

‘‘डौंट वरी सन, आई विल मैनेज ऐवरीथिंग, यू हैव फन,’’ पीछे से डैड ने बेटे से कहा.

आज पितापुत्र के रिश्ते के बीच कुछ ऐसा ही खुलापन आ गया है. किसी जमाने में उन के बीच डर की जो अभेद दीवार होती थी वह समय के साथ गिर गई है और उस की जगह ले ली है एक सहजता ने, दोस्ताना व्यवहार ने. पहले मां अकसर पितापुत्र के बीच की कड़ी होती थीं और उन की बातें एकदूसरे तक पहुंचाती थीं, पर अब उन दोनों के बीच संवाद बहुत स्वाभाविक हो गया है. देखा जाए तो वे दोनों अब एक फ्रैंडली रिलेशनशिप मैंटेन करने लगे हैं.

3-4 दशकों पहले नजर डालें तो पता चलता है कि पिता की भूमिका किसी तानाशाह से कम नहीं होती थी. पीढि़यों से ऐसा ही होता चला आ रहा था. तब पिता का हर शब्द सर्वोपरि होता था और उस की बात टालने की हिम्मत किसी में नहीं थी. वह अपने पुत्र की इच्छाअनिच्छा से बेखबर अपनी उम्मीदें और सपने उस को धरोहर की तरह सौंपता था. पिता का सामंतवादी एटीट्यूड कभी बेटे को उस के नजदीक आने ही नहीं देता था. एक डरासहमा सा बचपन जीने के बाद जब बेटा बड़ा होता था तो विद्रोही तेवर अपना लेता था और उस की बगावत मुखर हो जाती थी.

असल में पिता सदा एक हौवा बन बेटे के अधिकारों को छीनता रहा. प्रतिक्रिया करने का उफान मन में उबलने के बावजूद पुत्र अंदर ही अंदर घुटता रहा. जब समय ने करवट बदली और उस की प्रतिक्रिया विरोध के रूप में सामने आई तो पिता सजग हुआ कि कहीं बागडोर और सत्ता बनाए रखने का लालच उन के रिश्ते के बीच ऐसी खाई न बना दे जिसे पाटना ही मुश्किल हो जाए. लेकिन बदलते समय के साथ नींव पड़ी एक ऐसे नए रिश्ते की जिस में भय नहीं था, थी तो केवल स्वीकृति. इस तरह पितापुत्र के बीच दूरियों की दीवारें ढह गईं और अब आपसी संबंधों से एक सोंधी सी महक उठने लगी है, जिस ने उन के रिश्ते को दोस्ती में बदल दिया है.

पितापुत्र संबंधों में एक व्यापक परिवर्तन आया है और यह उचित व स्वस्थ है. पिता के व्यक्तित्व से सामंतवाद थोड़ा कम हुआ है. थोड़ा इसलिए क्योंकि अगर हम गांवों और कसबों में देखें तो वहां आज भी स्थितियों में ज्यादा परिवर्तन नहीं आया है. बस, दमन उतना नहीं रहा है जितना पहले था. आज पिता की हिस्सेदारी है और दोतरफा बातचीत भी होती है जो उपयोगी है. मीडिया ने रिश्तों को जोड़ने में अहम भूमिका निभाई है. टैलीविजन पर प्रदर्शित विज्ञापनों ने पितापुत्री और पितापुत्र दोनों के बीच निकटता का इजाफा किया है.

समाजशास्त्री श्यामा सिंह का कहना है कि आज अगर पितापुत्र में विचारों में भेद हैं तो वे सांस्कृतिक भेद हैं. अब मतभेद बहुत तीव्र गति से होते हैं. पहले पीढि़यों का परिवर्तन 20 साल का होता था पर अब वह परिवर्तन 5 साल में हो जाता है. आज के बच्चे समय से पहले मैच्योर हो जाते हैं और अपने निर्णय लेने लगते हैं. जहां पिता इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं वहां दिक्कतें आ रही हैं. पितापुत्र के रिश्ते में जो पारदर्शिता होनी चाहिए वह अब दिखने लगी है. नतीजतन बेटा अपने पिता के साथ अपनी बातें शेयर करने लगा है.

खत्म हो गई संवादहीनता

आज पितापुत्र संबंधों में जो खुलापन आया है उस से यह रिश्ता मजबूत हुआ है. मनोवैज्ञानिक समीर मल्होत्रा के अनुसार, अगर पिता अपने पुत्र के साथ एक निश्चित दूरी बना कर चलता है तो संवादहीनता उन के बीच सब से पहले कायम होती है. पहले जौइंट फैमिली होती थी और शर्म पिता से पुत्र को दूर रखती थी. बच्चे को जो भी कहना होता था, वह मां के माध्यम से पिता तक पहुंचाता था. लेकिन आज बातचीत का जो पुल उन के बीच बन गया है, उस ने इतना खुलापन भर दिया है कि पितापुत्र साथ बैठ कर डिं्रक्स भी लेने लगे हैं. आज बेटा अपनी गर्लफ्रैंड के बारे में बात करते हुए सकुचाता नहीं है.

करने लगा सपने साकार

महान रूसी उपन्यासकार तुरगेनेव की बैस्ट सेलर किताब ‘फादर ऐंड सन’ पीढि़यों के संघर्ष की महागाथा है. वे लिखते हैं कि पिता हमेशा चाहता है कि पुत्र उस की परछाईं हो, उस के सपनों को पूरा करे. जाहिर है, इस उम्मीद की पूर्ति होने की चाह कभी पुत्र को आजादी नहीं देगी. पिता चाहता है कि उस के आदेशों का पालन हो और उस का पुत्र उस की छाया हो. टकराहट तभी होती है जब पिता अपने सपनों को पुत्र पर लादने की कोशिश करता है. पर आज पिता, पुत्र के सपनों को साकार करने में जुट गया है.

प्रख्यात कुच्चिपुड़ी नर्तक जयराम राव कहते हैं कि जमाना बहुत बदल गया है. बच्चों की खुशी किस में है और वे क्या चाहते हैं, इस बात का बहुत ध्यान रखना पड़ता है. यही वजह है कि मैं अपने बेटे की हर बात मानता हूं. मैं अपने पिता से बहुत डरता था, पर आज समय बदल गया है. कोई बात पसंद न आने पर मेरे पिता मुझे मारते थे पर मैं अपने बेटे को मारने की बात सोच भी नहीं सकता. आज वह अपनी दिशा चुनने के लिए स्वतंत्र है. मैं उस के सपने साकार करने में उस का पूरा साथ दूंगा.

बहरहाल, अब पितापुत्र के सपने, संघर्ष और सोच अलग नहीं रही है. यह मात्र भ्रम है कि आजादी पुत्र को बिगाड़ देती है. सच तो ?यह है कि यह आजादी उसे संबंधों से और मजबूती से जुड़ने और मजबूती से पिता के विश्वास को थामे रहने के काबिल बनाती है.

फादर्स डे स्पेशल: स्मिता- बेटी के पैदा होने के बाद सारा और राजीव क्यों परेशान थे

सारा और राजीव ने अपनी होने वाली बेटी का नाम रखा था स्मिता, यानी मुसकराहट. लेकिन जब उन की नन्ही सी बेटी इस दुनिया में आई तो वह एक ऐसी बीमारी से पीडि़त थी जिस ने उस की मुसकराहट ही छीन ली थी. क्या कोई सर्जन उस के नाम को सार्थक कर पाने में सफल हो सका?

‘‘यह कितनी कौंप्लिकेटेड प्रेग्नैंसी है,’’ राजीव ने तनाव भरे स्वर में कहा.

सारा ने प्रतिक्रिया में कुछ नहीं कहा. उस ने कौफी का मग कंप्यूटर के कीबोर्ड के पास रखा. राजीव इंटरनेट पर सर्फिंग कर रहा था. सारा ने एक बार उस की तरफ देखा, फिर उस ने मौनिटर पर निगाह डाली और वहां खडे़खडे़ राजीव के कंधे पर अपनी ठुड्डी रखी तो उस की घनी जुल्फें पति के सीने पर बिखर गईं.

नेट पर राजीव ने जो वेबसाइट खोल रखी थी वह हिंदी की वेबसाइट थी और नाम था : मातृशक्ति.

साइट का नाम देखने पर सारा उसे पढ़ने के लिए आतुर हो उठी. लिखा था, ‘प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक सिगमंड फ्रायड ने भी माना है कि आदमी को जीवन में सब से ज्यादा प्रेरणा मां से मिलती है. फिर दूसरी तरह की प्रेरणाओं की बारी आती है. महान चित्रकार लियोनार्डो दि विंची ने अपनी मां की धुंधली याद को ही मोनालिसा के रूप में चित्र में उकेरा था. इसलिए आज भी वह एक उत्कृष्ट कृति है. नेपोलियन ने अपने शासन के दौरान उसे अपने शयनकक्ष में लगा रखा था.’

वेबसाइट पढ़ने के बाद कुछ पल के लिए सारा का दिमाग शून्य हो गया. पहली बार वह मां बन रही थी इसीलिए भावुकता की रौ में बह कर वह बोली, ‘‘दैट्स फाइनल, राजीव, जो भी हो मेरा बच्चा दुनिया में आएगा. चाहे उस को दुनिया में लाने वाला चला जाए. आजकल के डाक्टर तो बस, यही चाहते हैं कि वे गर्भपात करकर के  अच्छाखासा धन बटोरें ताकि उन का क्लीनिक नर्सिंग होम बन सके. सारे के सारे डाक्टर भौतिकवादी होते हैं. उन के लिए एक मां की भावनाएं कोई माने नहीं रखतीं. चंद्रा आंटी को गर्भ ठहरने पर एक महिला डाक्टर ने कहा था कि यह प्रेग्नैंसी कौंप्लिकेटेड होगी या तो जच्चा बचेगा या बच्चा. देख लो, दोनों का बाल भी बांका नहीं हुआ.’’

‘‘यह जरूरी तो नहीं कि तुम्हारा केस भी चंद्रा आंटी जैसा हो. देखो, मैं अपनी इकलौती पत्नी को खोना नहीं चाहता. मैं संतान के बगैर तो काम चला लूंगा लेकिन पत्नी के बिना नहीं,’’ कहते हुए राजीव ने प्यार से अपना बायां हाथ सारा के सिर पर रख दिया.

‘‘राजीव, मुझे नर्वस न करो,’’ सारा बोली, ‘‘कल सुबह मुझे नियोनो- टोलाजिस्ट से मिलने जाना है. दोपहर को मैं एक जेनेटिसिस्ट से मिलूंगी. मैं तुम्हारी कार ले जाऊंगी क्योंकि मेरी कार की बेल्ट अब छोटी पड़ रही है. और हां, पापा को ईमेल कर दिया?’’

‘‘पापा बडे़ खुश हैं. उन को भी तुम्हारी तरह यकीन है कि पोती होगी. उन्होंने साढे़ 8 महीने पहले उस का नाम भी रख दिया, स्मिता. कह रहे थे कि स्मिता की स्मित यानी मुसकराहट दुनिया में सब से सुंदर होगी,’’ राजीव ने बताया तो सारा के गालों का रंग और भी सुर्ख हो गया.

‘‘मिस्टर राजीव बधाई हो, आप की पहली संतान लड़की हुई है,’’ नर्स ने बधाई देते हुए कहा.

पुलकित मन से राजीव ने नर्स का हाथ स्नेह से दबाया और बोला, ‘‘थैंक्स.’’

राजीव अपनी बेचैनी को दबा नहीं पा रहा था. वह सारा को देखने के लिए प्रसूति वार्ड की ओर चल दिया.

सारा आंखें मूंदे लेटी हुई थी. किसी के आने की आहट से सारा ने आंखें खोल दीं, फिर अपनी नवजात बेटी की तरफ देखा और मुसकरा दी.

‘‘मुझे पता नहीं था कि बेटियां इतनी सुंदर और प्यारी होती हैं,’’ यह कहते हुए राजीव ने बेटी को हाथों में लेने का जतन किया.

तभी बच्ची को जोर की हिचकी आई. फिर वह जोरजोर से सांसें लेने लगी. यह देख कर पतिपत्नी की सांस फूल गई. राजीव जोर से चिल्लाया, ‘‘डाक्टर…’’

आधे मिनट में लेडी डाक्टर वंदना जैन आ गईं. उन्होंने बच्ची को देख कर नर्स से कहा, ‘‘जल्दी से आक्सीजन मास्क लगाओ.’’

अगले 10 मिनट बाद राजीव और सारा की नवजात बेटी को अस्पताल के नियोनोटल इंटेसिव केयर यूनिट में भरती किया गया. उस बच्ची के मातापिता कांच के बाहर से बड़ी हसरत से अपनी बच्ची को देख रहे थे. तभी नर्स ने आ कर सारा से कहा कि उसे जच्चा वार्ड के अपने बेड पर जा कर आराम करना चाहिए.

सारा को उस के कमरे में छोड़ राजीव सीधा डा. अतुल जैन के चैंबर में पहुंचा, जो उस की बेटी का केस देख रहे थे.

‘‘मिस्टर राजीव, अब आप की बेटी को सांस लेने में कोई दिक्कत नहीं आएगी. लेकिन वह कुछ चूस नहीं सकेगी. मां का स्तनपान नहीं कर पाएगी. उस का जबड़ा छोटा है, होंठों एवं गालों की मांसपेशियां काफी सख्त हैं. बाकी उस के जिनेटिक, ब्रेन टेस्ट इत्यादि सब सामान्य हैं,’’ डा. अतुल जैन ने बताया.

‘‘आखिर मेरी बेटी के साथ समस्या क्या है?’’

‘‘अभी आप की बेटी सिर्फ 5 दिन की है. अभी उस के बारे में कुछ भी नहीं कह सकते. हो सकता है कि कल कुछ न हो. चिकित्सा के क्षेत्र में कभीकभी ऐसे केस आते हैं जिन के बारे में पहले से कुछ कहा नहीं जा सकता. वैसे आज आप की बेटी को हम डिस्चार्ज कर देंगे,’’ डा. अतुल ने कहा.

राजीव वार्ड में सारा का सामान समेट रहा था. स्मिता को नियोनोटल इंटेसिव केयर में सिर्फ 2 दिन रखा गया था. अब वह आराम से सांस ले रही थी.

‘‘आप ने बिल दे दिया?’’ नर्स ने पूछा.

‘‘हां, दे दिया,’’ सारा ने जवाब दिया.

नर्स ने नन्ही स्मिता के होंठों पर उंगली रखी और बोली, ‘‘मैडम, आप को इसे ट्यूब से दूध पिलाना पडे़गा. बोतल से काम नहीं चलेगा. यह बच्ची मानसिक रूप से कमजोर पैदा हुई है.’’

राजीव और सारा ने कुछ नहीं कहा. नर्स को धन्यवाद बोल कर पतिपत्नी कमरे से बाहर निकल गए.

घर आ कर सारा ने स्मिता के छोटे से मुखडे़ को गौर से देखा. फिर वह सोचने लगी, ‘आखिर इस के होंठों और गालों में कैसी सख्ती है?’

राजीव ने सारा को एकटक स्मिता को ताकते हुए देखा तो पूछा, ‘‘इतना गौर से क्या देख रही हो?’’

सारा कुछ नहीं बोली और स्मिता में खोई रही.

2 दिन बाद डा. अतुल जैन ने फोन कर राजीव व सारा को अपने नर्सिंग होम में बुलाया.

‘‘आप की बेटी की समस्या का पता चल गया. इसे ‘मोबियस सिंड्रोम’ कहते हैं,’’ डा. अतुल जैन ने राजीव और सारा को बताया.

‘‘यह क्या होता है?’’ सारा ने झट से पूछा.

‘‘इस में बच्चे का चेहरा एक स्थिर भाव वाले मुखौटे की तरह लगता है. इस सिंड्रोम में छठी व 7वीं के्रनिकल नर्व की कमी होती है या ये नर्व अविकसित रह जाती हैं. छठी क्रेनिकल नर्व जहां आंखों की गति को नियंत्रित करती है वहीं 7वीं नर्व चेहरे के भावों को सक्रिय करती है,’’ अतुल जैन ने विस्तार से स्मिता के सिंड्रोम के बारे में जानकारी दी.

‘‘इस से मेरी बेटी के साथ क्या होगा?’’ सारा ने बेचैनी से पूछा.

‘‘आप की स्मिता कभी मुसकरा नहीं सकेगी.’’

‘‘क्या?’’  दोनों के मुंह से एकसाथ निकला. हैरत से राजीव और सारा के मुंह खुले के खुले रह गए. किसी तरह हिम्मत बटोर कर सारा ने कहा, ‘‘क्या एक लड़की बगैर मुसकराए जिंदा रह सकती है?’’

डा. जैन ने कोई जवाब नहीं दिया. राजीव भी निरुत्तर हो गया था. वह सारा की गोद में लेटी स्मिता के नन्हे से होंठों को अपनी उंगलियों से छूने लगा. उस की बाईं आंख से एक बूंद आंसू का निकला. इस से पहले कि सारा उस की बेबसी को देखती, राजीव ने आंसू आधे में ही पोंछ लिया.

16 माह की स्मिता सिर्फ 2 शब्द बोलती थी. वह पापा को ‘काका’ और ‘मम्मी’ को ‘बबी’ उच्चारित करती. उस ने ‘प’ का विकल्प ‘क’ कर दिया और ‘म’ का विकल्प ‘ब’ को बना दिया. फिर भी राजीव और सारा हर समय अपनी नौकरी से फुरसत मिलते ही अपनी स्मिता के मुंह से काका और बबी सुनने को बेताब रहते थे.

6 साल की स्मिता अब स्कूल में पढ़ रही थी. लेकिन कक्षा में वह पीछे बैठती थी और हर समय सिर झुकाए रहती थी. उस की पलकों में हर समय आंसू भरे रहते थे. एक छोटी सी बच्ची, जो मन से मुसकराना जानती थी लेकिन  उस के होंठ शक्ल नहीं ले पाते थे. उस पर सितम यह कि उस के सहपाठी दबे मुंह उसे अंगरेजी में ‘स्माइललैस गर्ल’ कहते थे.

इस दौरान राजीव और सारा मुंबई विश्वविद्यालय छोड़ कर अपनी बेटी स्मिता को ले कर जोधपुर आ गए और विश्वविद्यालय परिसर में बने लेक्चरर कांप्लेक्स में रहने लगे. राजीव मूलत: नागपुर के अकोला शहर से थे और पहली बार राजस्थान आए थे.

स्मिता का दाखिला विश्वविद्यालय के करीब ही एक स्कूल में करा दिया गया. वह मानसिक रूप से एक औसत छात्रा थी.

उस दिन बड़ी तीज थी. विश्व- विद्यालय परिसर में तीज का उत्साह नजर आया. परिसर के लंबेचौडे़ लान में एक झूला लगाया गया. परिसर में रहने वालों की छोटीबड़ी सभी लड़कियां सावन के गीत गाते हुए एकदूसरे को झुलाने लगीं. स्मिता भी अपने पड़ोस की हमउम्र लड़कियों के साथ झूला झूलने पहुंची. लेकिन आधे घंटे बाद वह रोती हुई सारा के पास पहुंची.

‘‘क्या हुआ?’’ सारा ने पूछा.

‘‘मम्मी, पूजा कहती है कि मैं बदसूरत हूं क्योंकि मैं मुसकरा नहीं सकती,’’ स्मिता ने रोते हुए बताया.

‘‘किस ने कहा? मेरी बेटी की मुसकान दुनिया में सब से खूबसूरत होगी?’’

‘‘कब?’’

‘‘पहले तू रोना बंद कर, फिर बताऊंगी.’’

‘‘मम्मी, पूजा ने मेरे साथ चीटिंग भी की. पहले झूलने की उस की बारी थी, मैं ने उसे 20 मिनट तक झुलाया. जब मेरी बारी आई तो पूजा ने मना कर दिया और ऊपर से कहने लगी कि तू बदसूरत है इसलिए मैं तुझे झूला नहीं झुलाऊंगी,’’ स्मिता ने एक ही सांस में कह दिया और बड़ी हसरत से मम्मी की ओर देखने लगी.

बेटी के भावहीन चेहरे को देख कर सारा को समझ में नहीं आया कि वह हंसे या रोए. उस के मन में अचानक सवाल जागा कि क्या मेरी स्मिता का चेहरा हंसी की भाषा कभी नहीं बोल पाएगा. नहीं, ऐसा नहीं होगा. एक दिन जरूर आएगा और वह दिन जल्दी ही आएगा, क्योंकि एक पिता ऐसा चाहता है…एक मां ऐसा चाहती है और एक भाई भी ऐसा ही चाहता है.

एक दिन सुबह नहाते वक्त स्मिता की नजर बाथरूम में लगे शीशे पर पड़ी. शीशा थोड़ा ऊपर था. वह टब में बैठ कर या खड़े हो कर उसे नहीं देख सकती थी. सारा जब उसे नहलाती थी तब पूरी कोशिश करती थी कि स्मिता आईना न देखे. लेकिन आज सारा जैसे ही बेटी को नहलाने बैठी तो फोन आ गया. स्मिता को टब के पास छोड़ कर सारा फोन अटेंड करने चली गई.

स्मिता के मन में एक विचार आया. वह टब पर धीरे से चढ़ी. अब वह शीशे में साफ देख सकती थी. लेकिन अपना सपाट और भावहीन चेहरा शीशे में देख कर स्मिता भय से चिल्ला उठी, ‘‘मम्मी…’’

सारा बेटी की चीख सुन कर दौड़ी आई, बाथरूम में आ कर उस ने देखा तो शीशा टूटा हुआ था. स्मिता टब में सहमी बैठी हुई थी. उस ने गुस्से में नहाने के शावर को आईने पर दे मारा था.

‘‘मम्मी, मैं मुसकराना चाहती हूं. नहीं तो मैं मर जाऊंगी,’’ सारा को देखते ही स्मिता उस से लिपट कर रोने लगी. सारा भी अपने आंसू नहीं रोक पाई.

‘‘मेरी बेटी बहुत बहादुर है. वह एक दिन क्या थोडे़ दिनों में मुसकराएगी,’’ सारा ने उसे चुप कराने के लिए दिलासा दी.

स्मिता चुप हो गई. फिर बोली, ‘‘मम्मी, मैं आप की तरह मुसकराना चाहती हूं क्योंकि आप की मुसकराहट से खूबसूरत दुनिया में किसी की मुसकराहट नहीं है.’’

राजीव शिमला से वापस आए तो सारा ने पूछा, ‘‘हमारी बचत कितनी होगी, राजीव?’’

‘‘क्या तुम प्लास्टिक सर्जरी के बारे में सोच रही हो,’’ राजीव ने बात को भांप कर कहा.

‘‘हां.’’

‘‘चिंता मत करो. कल हम स्मिता को सर्जन के पास ले जाएंगे,’’ राजीव ने कहा.

‘‘सिस्टर, तुम देखना मेरी मुसकराहट मम्मी जैसी होगी. जो मेरे लिए दुनिया में सब से खूबसूरत मुसकराहट है,’’ एनेस्थिसिया देने वाली नर्स से आपरेशन से पहले स्मिता ने कहा.

स्मिता का आपरेशन शुरू हो गया. सारा की सांस अटक गई. उस ने डरते हुए राजीव से पूछा, ‘‘सुनो, उसे आपरेशन के बाद होश आ जाएगा न? कभीकभी मरीज कोमा में चला जाता है.’’

‘‘चिंता मत करो. सब ठीक होगा,’’ राजीव ने मुसकराते हुए जवाब दिया ताकि सारा का मन हलका हो जाए.

डा. अतुल जैन ने स्मिता की जांघों की ‘5वीं नर्व’ की शाखा से त्वचा ली क्योंकि वही त्वचा प्रत्यारोपण के बाद सक्रिय रहती है. इस से ही काटने और चबाने की क्रिया संभव होती है. राजीव और सारा का बेटी के प्रति प्यार रंग लाया. आपरेशन के 1 घंटे बाद स्मिता को होश आ गया. लेकिन अभी एक हफ्ते तक वे अपनी बेटी का चेहरा नहीं देख सकते थे.

काफी दिनों तक राजीव पढ़ाने नहीं जा पाया था. आज सुबह 10 बजे वह पूरे 2 महीने बाद लाइफ साइंस के अपने विभाग गया था. आज ही सुबह 11 बजे स्मिता को अस्पताल से छुट्टी मिली. रास्ते में उस ने सारा से कहा, ‘‘मम्मी, मुझे कुछ अच्छा सा महसूस हो रहा है.’’

यह सुन कर सारा ने स्मिता के चेहरे को गौर से देखा तो उस के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा. स्मिता जब बोल रही थी तब उस के होंठों ने एक आकार लिया. सारा ने आवेश में स्मिता का चेहरा चूम लिया. उस ने तुरंत राजीव को मोबाइल पर फोन किया.

फोन लगते ही सारा चिल्लाई, ‘‘राजीव, स्मिता मुसकराई…तुम जल्दी आओ. आते वक्त हैंडीकैम लेते आना. हम उस की पहली मुसकान को कैमरे में कैद कर यादों के खजाने में सुरक्षित रखेंगे.’’

उधर राजीव इस बात की कल्पना में खो गया कि जब वह अपनी बेटी को स्मिता कह कर बुलाएगा तब वह किस तरह मुसकराएगी.

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