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जब भाई दूसरे धर्म, जाति, देश, रंग की पत्नी लाए

बिहार का अम्बुज अफ्रीका के इथियोपिया जौब के लिए गया. वहां उस की मुलाकात ईसाई धर्म की पढ़ीलिखी इंजीनियर लड़की सोनिया से हुई. सोनिया शांत स्वभाव की होने की वजह से अम्बुज को भा गई और उन दोनों ने शादी का मन बनाया. परिवार में मातापिता को कोई एतराज न था, लेकिन रिश्तेदारों और उस के बड़े भाई ने उस रिश्ते को मानने से मना किया. इस पर अम्बुज ने अपने रिश्तेदारों और भाई को समझाने की बहुत कोशिश की, लेकिन वे नहीं माने.

अम्बुज ने अपने पेरैंट्स का आशीर्वाद ले कर सोनिया से इथियोपिया में ही कोर्ट मैरिज कर ली और अफ्रीका में ही रहने लगा. दोनों को एक बेटा हुआ और जब वे तीनों बिहार में अपने घर आए, तो भाईभाभी ने पहले तो बात नहीं की, बाद में सोनिया के व्यवहार से इतने खुश हुए कि दोनों ने उन्हें स्वीकार कर लिया. आज किसी को भी उस के किसी गैरधर्म या जाति या अलग देश की होने का मलाल नहीं.

सोनिया को भारत में रहना और यहां की लाइफस्टाइल बहुत पसंद है. वह यहां अपने तरीके से ही जी पा रही है, जहां उस का पति और ससुराल पक्ष उस के अलग खानपान को भी मानने लगे हैं. आज सोनिया खुश है और भारत में ही जौब भी कर रही है.

यह सही है कि भारत में इंटरकास्ट मैरिज को आज भी लोग नहीं मान पाते और ऐसी सोच तक़रीबन हर घर में है, जिस से निकलना आज भी मुश्किल है. यह एक सामाजिक टैबू है, जिस के दोषी परिवार, समाज और धर्म सभी हैं जो इस की दुहाई देते हुए प्रेमियों को अलग करने की कोशिश लगातार करते रहते हैं. जबकि, एक सर्वे में यह पाया भी गया है कि इंटरकास्ट मैरिज का असर परिवार और समाज पर हमेशा सकारात्मक होता है.

एकजैसी भावना

यहां यह कहना गलत न होगा कि देश चाहे कोई भी हो, भावनाएं सब की एक ही होती हैं. ऐसे में परिवार अगर थोड़ा साथ दे, तो शादी का रिश्ता अच्छा बन सकता है. दूसरी जाति और दूसरे धर्म में शादी करने को कुछ लोग गलत मानते हैं और कई जगहों पर यह वर्जित भी समझा जाता है. किसी दूसरे धर्म को मानने वाले से प्यार करने या ऐसे किसी शख्स से शादी करने की कोशिश पर कई बार गलत वारदातें हुई हैं, जो किसी से छिपी नहीं हैं जब परिवार वालों ने प्रेमी जोड़े पर हमला किया या उन की हत्या कर दी, जो कि गलत है.

संस्कार होते हैं गलत

मनोवैज्ञानिक राशिदा कपाडिया कहती हैं कि इंटरकास्ट मैरिज हमेशा ही अच्छा होता है क्योंकि इस से उन के बच्चे अलग परिवेश, उन के खानपान, रहनसहन और तौरतरीकों को जान पाते है, उन्हें सैलिब्रेट कर पाते हैं. जब कोई दूसरे देश या प्रदेश से पत्नी लाता हो, फिर चाहे वह भाई हो या बेटा, तो परिवार के सभी का रवैया उस लड़की के प्रति सही नहीं होता. दरअसल, बचपन से मां, दादी और नानी ने अपने बेटों का ऐसे पालनपोषण करती हैं कि वे किसी दूसरी जाति या धर्म की पत्नी घर में न लाएं, क्योंकि वह यहां एडजस्ट नहीं कर सकती. ऐसी उन की सोच होती है.

न बने जजमैंटल

मनोवैज्ञानिक राशिदा कहती आगे हैं, “मेरी मां मुंबई में सालों से रहते हुए मुझे हमेशा सतर्क करती रहती हैं कि मेरा कोई भी बेटा कैथोलिक बहू घर न ले कर आए क्योंकि उन्हें खाना बनाना नहीं आता और वे बाहर से खाना मंगा कर खाते हैं. यह एक छोटी सी बात है, लेकिन उन्हें समझाना मुश्किल होता है और धीरेधीरे यही बातें बड़ा रूप ले लेती हैं और फिर घर में कलह शुरु हो जाती है. यह एक तरह की मानसिकता और सोच हो जाती है कि अलग धर्म, जाति से आने वाली के संस्कार या मूल्य अच्छे नहीं होंगे. वह अच्छी बहू साबित नहीं होगी. वह पेरैंट्स का सम्मान नहीं करेगी और स्वाधीन खयाल की होगी. हमारे परिवार के लोग जजमैंटल बन जाते हैं और वे बिना सोचे ही कुछ भी कहने लगते हैं, ऐसी सोच की वजह से किसी दूसरे जाति, रंग या धर्म की लड़की को स्वीकारना मुश्किल होता है.

इस के लिए टौलरैंस का स्वभाव में लाना जरूरी है. पहले से किसी बात को जज नहीं करना चाहिए.”

अपने अनुभव के बारे में राशिदा कहती हैं कि उस के घर की ही एक लड़की को जैन लड़के से प्यार हुआ और यह पिछले 30 साल पहले की बात है. तब किसी परिवार को भी यह मानना संभव नहीं था कि एक बोरी मुसलिम लड़की, जैन परिवार में जाए. लड़के वाले भी इसे मान नहीं रहे थे कि उन के घर में एक मुसलिम लड़की ब्याह कर आए. लेकिन तब लव बहुत स्ट्रौंग था. दोनों ने कह दिया था कि उन्हें शादी करनी है, नहीं तो वे कहीं दूसरी जगह शादी नहीं करेंगे. अंत में परिवारों को मानना पड़ा. दोनों रीतिरिवाजों को मानते हुए शादी हुई. आज लड़की भी उस माहौल में रम गई है और 2 बेटो की मां है.

व्यक्तित्व बदलने की न करें कोशिश

राशिदा आगे कहती हैं कि इस में यह जरूरी होता है कि जो लड़की जैसी है, उसे उसी रूप में स्वीकार करें, उसे बदलने की कोशिश परिवार वाले कभी न करें, क्योंकि किसी की आइडैंटिटी को बदलना ठीक नहीं है और इस की कोशिश में दोनों परिवार के रिश्ते और पतिपत्नी के रिश्तों में खटास आती है. हर इंसान का व्यक्तित्व अच्छा होता है, उस की अच्छाइयों का परिवार को सम्मान करना जरूरी है. देखा जाए तो कोई भी लड़की शादी के बाद सब अपना छोड़ कर किसी के घर आती है, जो अकेली होती है. इसलिए उसे जितना भी अच्छा माहौल मिलेगा, सामंजस्य उतना ही अच्छा होगा. किसी भी नए परिवेश में आने वाली लड़की अपनी सुरक्षा, सम्मान और आज़ादी की हकदार होती है. अगर उसे वह न मिले, तो रिश्ते बिगड़ जाते हैं. आज की हर लड़की पढ़ीलिखी और स्वावलंबी है, जिसे किसी गलत माहौल में रहना पसंद नहीं होता. यही वजह है कि आज डिवोर्स के मामले बढ़े हैं. लडकियां आज शादी करने से घबराती हैं, वे शादी करना नहीं चाहतीं. जरूरी है लड़की के तौरतरीके को अपनाया जाए और उस से कुछ नई चीजे सीखें. इस में मज़ा भी आता है और इस में किसी प्रकार की कोई गलती भी नहीं होती. इसे सभी परिवार और समाज को अपनाने की जरूरत है.

इंटरकास्ट मैरिज के फायदे

• दोनों के थौट्स और प्रोसैस लिमिट नहीं होते. दोनों अपने उद्देश्य को पूरा करने या संस्कृति को बनाए रखने में एकदूसरे का साथ देते हैं.
• नई चीजों को सीखने का एकदूसरे में लगातार प्रयास रहता है, जिस से उन का भविष्य अच्छा बन जाता है.
• एक सर्वे के अनुसार इंटरकास्ट मैरिज से उत्पन्न हुए बच्चे स्मार्ट और तंदुरुस्त होते है, क्योंकि उन के जींस अलग होते हैं.
• पेरैंटिंग अच्छे तरीके से होती है, क्योंकि अलग समुदाय के होने की वजह से उन की सोच और मानसिकता आधुनिक होती है, जिस से उन्हें अपने अनुसार भविष्य को चुनने की आज़ादी होती है.
• अलग कास्ट या धर्म होने की वजह से सामंजस्यता बैठने की इच्छा दोनों पक्षों में होती है.

सीवेज समस्या बढ़ाती है बाढ़ का खतरा

इंग्लैंड के बर्कशायर में स्थित टौप पब्लिक स्कूल ‘ईटोन कालेज’, जिसे वर्ष 1440 में स्थापित किया गया था, को ओवरलोडेड सीवेज के होने और पास के एरिया में बाढ़ आ जाने की वजह से बंद कर देना चौंकाने वाली बात थी, क्योंकि यह लंदन का एक प्रैस्टीजियस स्कूल माना जाता है. यहां से काफी प्रसिद्ध लोगों ने पढ़ाई की है. यूनाइटेड किंगडम के प्रथम प्रधानमंत्री सर रोबर्ट वाल्पोले, बोरिस जौनसन, डेविड कैमरून, प्रिंस विलियम, प्रिंस हैरी आदि जैसी महान हस्तियों ने इसी कालेज से पढ़ाई की है. यहां पर किसी छात्र का पढ़ना अपनेआप में सम्मानित बात होती है. लेकिन इस साल कालेज में सीवेज की व्यवस्था सही न होने और पास के एरिया में अधिक बारिश व थेम्स नदी के पानी में उफान आने की वजह से बाढ़ आ जाने से इसे बंद करना पड़ा है.

बाढ़ से करीब 2,000 प्रौपर्टीज के जलमग्न होने की वजह इंजीनियर्स सीवेज को मानते हैं. यह सही है कि बढ़ती जनसंख्या और काफी अधिक लोगों के एक जगह पर निवास करने से सीवेज की समस्या उत्पन्न होने व बाढ़ आने की आशंका बन जाती है. इस ओर विश्व ही नहीं, भारत को भी ध्यान देने की जरुरत है. पुरानी पद्धति के सीवेज और उन के आकार को आज की नई तकनीकों के जरिए बदलने की जरूरत है. ऐसा न करने से जान, माल और सरकारी संपत्ति की क्षति होने से कोई देश बच नहीं सकता.

परेशान मुंबईकर

मुंबई से इस का एक उदाहरण लिया जा सकता है, जहां हर साल मानसून की तेज बारिश से पूरी मुंबई ठप हो जाती है, जिस का हल आज तक किसी के पास मिलता नजर नहीं आता. मुंबई के लोग सब से अधिक टैक्स भरते हैं, लेकिन मानसून में उन्हें जलभराव से कोई राहत नहीं मिलती. क्या मुंबई का सीवेज इस का मुख्य कारण है, क्या मुंबई की आबादी के आकार के आधार पर जलनिकासी की व्यवस्था में कमी है? ऐसी कई बातों को आज समझने की आवश्यकता है.

सीवरेज प्रणाली की विफलता

ऐसा माना जाता है कि सीवरेज प्रणाली की विफलता ही सब से अधिक बाढ़ का कारण बनती है. जलनिकासी पाइपों में रुकावट या जब सीवरेज सिस्टम में प्रवेश करने वाले सीवेज में पानी की मात्रा को वहन करने की तुलना में पाइप छोटा हो, तो भी जलनिकासी में बाधा आती है. वर्ष 1950 में मुंबई की जनसंख्या 30,88,811 थी. पिछले वर्ष मुंबई में 3,35,044 की वृद्धि हुई है, जो 1.6 फीसदी वार्षिक परिवर्तन का प्रतिनिधित्व करता है. यहां की सीवेज और सीवरेज की व्यवस्था सालों पुरानी है, जिस में शहर के गंदे पानी को ट्रीट कर समुद्र में पाइपलाइन के सहारे छोड़ा जाता है.

सीवेज और सीवरेज में अंतर है क्या ?

यह जानना जरूरी है कि सीवेज और सीवेरेज में अंतर क्या है. सीवेज वह मानव अपशिष्ट है जो आप के घर से निकल कर सीवरों में बह जाता है. इस के विपरीत, सीवरेज या सीवर वह संरचना है जिस के माध्यम से अपशिष्ट बहता है. इस में आमतौर पर वे पाइप और नालियां शामिल होती हैं जिन में सीवेज बहता है, कसबों और शहरों में रास्ते के नीचे सीवर व्यवस्था बनाई जाती है जो मुख्य सीवर से जुड़ती है, जो फिर कचरे को बहा देती है.

बढ़ती आबादी है समस्या

मुंबई की 12 मिलियन आबादी के साथ प्रतिदिन 2,700-3,000 मिलियन लिटर सीवेज उत्पन्न होता है, जिस के लिए सामूहिक रूप से 8 सीवेज उपचार यंत्र यानी एसटीपी निजी परिसरों और हाउसिंग सोसाइटीज में केंद्रित हैं जहां इसे ट्रीट कर उपचारित सीवेज को निकटवर्ती जलाशय या अरब सागर में छोड़ दिया जाता है. आज की बढ़ती जनसंख्या के मद्देनजर इन की संख्या काफी कम है. ये एसटीपी शुष्क मौसम में 1,226 एमएलडी सीवेज का उपचार करते हैं, जबकि मानसून में बढ़ कर इन की मात्रा 2,584 हो जाती है, जो अधिक वर्षा के जल के सीवेज में मिश्रित होने की वजह से होता है. ऐसे में बाढ़ का आना स्वाभाविक हो जाता है.

अधिक पानी बढ़ाता है मुश्किलें

मुंबई हर साल मानसून में बाढ़ के पानी से लबालब हो जाती है. 6 घंटे की मूसलाधार बारिश से मुंबई का जनजीवन अस्तव्यस्त हो जाता है. ऐसे में अगर हाई टाइड की संभावना हो, तो जलनिकासी की संभावना और भी कम हो जाती है. बाढ़ को रोकने के लिए मुंबई की बीएमसी पंपों का उपयोग कर के अतिरिक्त वर्षाजल को पाइपलाइन नैटवर्क के माध्यम से संग्रह क्षेत्र से टैंकों तक ले जाती है, लेकिन हाई टाइड के समय इस से यह करना मुश्किल होता है. संग्रहीत पानी को वापस पाइपलाइन में पंप कर तूफानी जल को नालियों के माध्यम से समुद्र में छोड़ दिया जाता है. लेकिन बढ़ती आबादी और बढ़ते वाहनों की वजह से हर साल बाढ़ की मात्रा में बढ़ोतरी होती जा रही है, जो चिंता का विषय है.

नई तकनीकों का इस्तेमाल जरूरी

मुंबई में मानसूनी बारिश के वक्त बाढ़ का खतरा केवल जलवायु परिवर्तन कि वजह से नहीं, बल्कि सही तरीके से जलनिकासी के न होने के चलते बना रहता है. विश्व बैंक के अनुसार, मुंबई में बारबार आने वाली बाढ़ का एक प्रमुख कारण अनियोजित जलनिकासी व्यवस्था और अनौपचारिक रूप से लोगों का जहांतहां बस जाना भी है. इसे आधुनिक तकनीकों का प्रयोग कर कम करने की आवश्यकता है. मुंबई 7 प्रायद्वीपों को जोड़ कर बनाया हुआ शहर है. पिछले कुछ दशकों में इस नगर में जनसंख्या में तेजी से वृद्धि हुई, लेकिन अपशिष्ट प्रबंधन और जलनिकासी की व्यवस्था ठीक नहीं की गई. इन क्षेत्रों से वर्षा का पानी भारी मात्रा में निचले शहरी क्षेत्रों की ओर बहता है, जिन में कुछ मलिन बस्तियां और ऊंची इमारतें शामिल हैं.

परिणामस्वरूप, झुग्गियां या तो पानी में बह जाती हैं, या ढह जाती हैं, जिस से भारी क्षति होती है, और बाढ़ के बाद जलजमाव लंबे समय तक रहता है, जिस से रेलवे लाइनों में रुकावट आती है, यातायात जाम हो जाता है, बाढ़ आ जाती है. मुंबई में बाढ़ को कम करने की प्रक्रिया में महाराष्ट्र सरकार ने बाढ़ शमन योजना अपनाई, जिस के अनुसार जलनिकासी व्यवस्था का पुनर्गठन, मीठी नदी का जीर्णोद्धार और अनौपचारिक बस्तियों की पुनर्स्थापना किया जाना है, हालांकि इन पर किए गए काम फिलहाल नगण्य हैं.

डूबेंगे तटीय क्षेत्र

उधर, ‘नैविगेटिंग द फ्यूचर औफ एशियन कोस्टल सिटीज’ के विशेषज्ञों ने समुद्र के बढ़ते स्तर से निबटने के लिए मुंबई जैसे तटीय शहरों को पर्याप्त कदम उठाने की आवश्यकता के बारे में बात की है और कहा है कि क्लाइमेट चेंज की वजह से आर्कटिक क्षेत्र में बर्फ का पिघलना जारी है, जिस से समुद्र का जलस्तर लगातार बढ़ता जा रहा है. ऐसे में कोई ठोस कदम न उठाने पर मुंबई के अधिकांश तटीय क्षेत्र डूब सकते हैं, साथ ही, मानसून में बाढ़ की समस्या अधिक बढ़ सकती है.

एसडीएम पत्नी की हत्या : कहीं मुश्किल तलाक प्रक्रिया तो जिम्मेदार नहीं

हत्या करने की मंशा और तरीका दोनों पर 80-90 के दशक के जासूसी उपन्यासों की छाप साफ़साफ़ दिख रही है. मनीष शर्मा अपनी पत्नी निशा नापित को ले कर अस्पताल पहुंचा था और डाक्टरों को उस ने बताया यह था कि निशा का पिछले दिन शनिवार का व्रत था. उन्होंने अमरूद खाया था जिस से उन की तबीयत बिगड़ गई. उन्होंने सीने में दर्द उठने की शिकायत की थी. उन्हें उलटियां भी हुई थीं और नाक से खून भी निकला था.

डाक्टरों ने शक होने पर पुलिस को खबर दे कर निशा का इलाज शुरू किया. लेकिन निशा तो कोई 4-5 घंटे पहले ही मर चुकी थी. यह वाकेआ 28 जनवरी का मध्यप्रदेश के आदिवासी जिले डिंडोरी की शहपुरा तहसील का है. पिछले साल ही तहसीलदार पद से प्रमोट हुई निशा एसडीएम बनी थीं, इसलिए कसबे में उन्हें हरकोई जानता था. पुलिस आई और उस ने मनीष से पूछताछ की तो वह एक ही कहानी दोहराता रहा. मामला चूंकि संदिग्ध था, इसलिए निशा के शव का पोस्टमार्टम किया गया तो जल्द ही अंधे कत्ल के तथाकथित रहस्य से परदा उठ गया.

छत्तीसगढ़ के अंबिकापुर की रहने वाली निशा और ग्वालियर के रहने वाले मनीष शर्मा ने लव मैरिज की थी जो कुछ अलग हट कर इन मानों में थी कि निशा नाई जाति की थीं और मनीष ब्राह्मण जाति का था. दोनों की मुलाकात एक मैट्रोमोनियल साइट शादी डौट कौम के जरिए हुई थी. तब मनीष जायदाद की खरीदफरोख्त का काम करता था यानी प्रौपर्टी ब्रोकर था. इस के पहले वह बस कंडक्टरी कर चुका था. और तो और, उस की एक शादी 2018 में हो चुकी थी लेकिन 6 महीने बाद तलाक भी हो गया था.

निशा की जानकारी में मनीष का यह अतीत था या नहीं, इस का खुलासा जब होगा तब होगा लेकिन दोनों ने एकदूसरे को पसंद कर लिया और अक्तूबर 2020 में मंडला के गायत्री मंदिर में शादी कर ली. शादी लगभग गुपचुप हुई थी क्योंकि निशा ने अपने घर वालों को अपनी जिंदगी के इस अहम फैसले के बारे में नहीं बताया था. तय है इसलिए कि वे राजी न होते और विरोध करते.

मनीष बेरोजगार था, इस से पुलिस का शक और बढ़ा. इसलिए जब उस ने सख्ती की तो मनीष ने अपना गुनाह स्वीकार कर लिया कि उस ने ही निशा की हत्या की थी. उस की वजह यह थी कि बारबार कहने के बाद भी निशा सरकारी दस्तावेजों, मसलन सर्विस बुक, बैंक अकाउंट्स और इंश्योरैंस वगैरह में उसे अपना नौमिनी नहीं बना रही थी. इस बात पर दोनों में आएदिन कहासुनी और झगड़ा भी हुआ करता था जो 28 जनवरी को भी हुआ तो मनीष ने तकिए से मुंह दबा कर पत्नी का नामोनिशान मिटा दिया.

हत्या के बाद सुबूत मिटाने की गरज से उस ने निशा के खून से सने कपड़े वाशिंग मशीन में धोए और अपने बचाव के लिए जो कहानी गढ़ी उस के चिथड़े भी जासूसी उपन्यासों की तरह उड़ गए. बाद में निशा की बड़ी बहन नीलिमा नापित ने पुलिस को बताया कि शादी के तीसरे दिन से ही मनीष निशा को पैसों के लिए प्रताड़ित करने लगा था. उस के कई दूसरी महिलाओं से भी अफेयर थे. पति की इन हरकतों से हैरानपरेशान निशा ने नीलिमा के बेटे स्वप्निल को सरकारी दस्तावेजों में अपना नौमिनी बना दिया था. इस से मनीष झल्लाया रहता था क्योंकि आमतौर पर तमाम रिकौर्डों में जीवनसाथी ही नौमिनी बनाया जाता है.

क्या है लोचा ?

शादी के चंद दिनों बाद ही निशा को समझ आ गया था कि अकसर घर से गायब रहने वाले मनीष ने उस के रुतबेदार ओहदे, पगार और पैसों से शादी की है. आएदिन वह निशा से पैसे मांगता रहता था. एक बार तो धंधे-रोजगार के लिए निशा ने बैंक लोन ले कर भी उसे 5 लाख रुपए दिए थे. मनीष शराब भी पीता था और आवारा, मनचले भंवरों की तरह तितलियों पर मंडराना भी उस की फितरत थी. जाहिर है, प्यार का भूत निशा के सिर से उतर चुका था. जाहिर यह भी है कि वह जल्दबाजी में लिए अपने इस यानी शादी के फैसले पर पछताई भी होगी. लेकिन उस की हालत पर अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत वाली कहावत भी लागू हो रही थी.

मनीष जैसे अर्धबेरोजगार युवकों की समाज में कमी नहीं जो कमाऊ लड़की ढूंढ़ते हैं, जिस से मुफ्त में ऐशोआराम की जिंदगी जी जाए. दूसरी तरफ निशा जैसी युवतियों की भी भरमार है जो प्रतिभावाशाली होती हैं और महत्त्वाकांक्षी भी लेकिन बात जब जीवनसाथी चुनने की आती है तो मनीष जैसे युवकों के झांसे में आ कर बहुत दूर तक कि नहीं सोच पातीं और छली जाती हैं. 50 की उम्र पार कर चुकी निशा ने शादी 46 की होने के बाद की थी.

अपने होने वाले पति में जो जो खूबियां निशा जैसी महिलाएं चाहती हैं वे मैनर्स (attitude) मनीषों में उन्हें दिखते हैं, मसलन बनसंवर कर रहना, लच्छेदार बातें करना और ऐसे पेश आना मानो वे औरतों की बहुत इज्जत करते हैं. ऐसे लोगों को प्लेबौय और वीमेनाइजर के बीच की किस्म का माना जा सकता है. खुद को मजनू, रांझा और महिवाल साबित करने में ये पीछे नहीं रहते जिस से लड़कियां कुछ ऐसे इंप्रैस होती हैं कि उन्हें फिर आगापीछा कुछ नहीं दिखता.

कैंसर की बीमारी जैसा तलाक

जब हकीकत दिखना शरू होती है तो निशा जैसी महिलाएं तलाक लेने में कतराती हैं. मुमकिन है इसलिए कि वे शादी के अपने फैसले को सही साबित करना चाहती हैं. हालांकि, हर पत्नी की कोशिश यह रहती है कि तलाक की नौबत न आए. निशा अहम पद पर थीं, इसलिए भी तलाक लेने में उन्हें झिझक लग रही होगी. पर जब घर, परिवार और समाज की परवा न करते हुए उन्होंने शादी का फैसला लिया था तो इसी तर्ज पर तलाक का भी ले सकती थीं. एक एसडीएम अगर इतनी हिम्मत न जुटा पाए तो आम महिलाओं से क्या खा कर यह उम्मीद की जा सकती है. एक आवारा, ऐयाश और निकम्मे शख्स से वे बंधी रहीं तो इस की एक वजह तलाक की लंबी क़ानूनी प्रक्रिया भी है जिस की तुलना कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी की पहली स्टेज से की जा सकती है.

कैंसर के इलाज में देरी की तुलना तलाक में देरी से करना इसलिए अहम है कि दोनों में ही हालत बिगड़ती जाती है. पहले मामले में मौत और दूसरे में मौत जैसी जिंदगी ही मिलती है. पहली स्टेज पर ही अगर निदान और इलाज हो जाए तो जिंदगी हाथ में रखी जा सकती है. तलाक के मामले में हर कोई जानता है कि मुकदमा सालोंसाल भी चल सकता है जो बेहद तकलीफदेह हर लिहाज से होता है. तलाक के कानून और उस की प्रक्रिया उबाऊ, जटिल और लंबी होती है.

पतिपत्नी इस से बचने के लिए तनाव और कलहभरी जिंदगी ढोते रहते हैं. उन्हें यह बेहतर इसलिए भी लगता है कि तलाक में सरकारी दखल भी जरूरत से ज्यादा है जबकि जरूरत इस बात की है कि इसे रत्तीभर भी नहीं होना चाहिए. जब पतिपत्नी तलाक के लिए अदालत जाते हैं तो पहली सलाह ही उन्हें काउंसलिंग की दी जाती है जिस के लिए कुटुंब न्यायालय, परिवार परामर्श केंद्र, वन स्टौप सौल्यूशन जैसी ढेरों सरकारी और गैरसरकारी एजेंसियां दुकानों की शक्ल में खुली पड़ी हैं. इन का दखल सुलह कम कराता है, पतिपत्नी की कलह को और बढ़ाने वाला ज्यादा होता है.

सोचा जाना बेहद जरूरी है कि अगर सुलह की कोई गुंजाइश होती या बचती तो पतिपत्नी तलाक के लिए अदालत जाते ही क्यों. वैसे भी, आजकल के पतिपत्नी कोई दूध पीते नासमझ बच्चे नहीं होते जिन्हें सलाह के लिए किसी ज्ञानी-ध्यानी की जरूरत महसूस होती हो. अधिकतर कपल्स आखिरी स्टेज पर ही तलाक की पहल करते हैं.

फिर उन्हें साथ रहने का या वैवाहिक जीवन को बनाए रखने का मशवरा क्यों दिया जाता है. यह बात समझ से परे नहीं रही. वजह, अदालतों से ले कर तमाम एजेंसियां और धर्म व समाज के ठेकेदार भी यही चाहते हैं कि तलाक कम से कम हों जिस से उन की दुकानें चमकती रहें और कोई भी धर्म व संस्कृति पर उंगली न उठाए. हम पश्चिम को कोसते इसी आधार पर हैं कि वहां तलाक ज्यादा होते हैं. ये लोग कितने क्रूर और स्वार्थी हैं जिन्हें इस बात से कोई सरोकार नहीं रहता कि लाखों कपल्स घुटघुट कर जी रहे हैं.

और जो साथ नहीं रह रहे, वे भी अलगअलग मौत रोज मरते हैं. इस की वजह वे खुद कम, तलाक में क़ानूनी खामियां और सरकारी दखल ज्यादा है. यदि शादी की तर्ज पर तलाक भी झट से होने लग जाए तो लाखों लोगों को नई जिंदगी मिलेगी. पतिपत्नी दोनों आजादी से और सुकून से जी सकेंगे. और सब से अहम बात, निशा जैसी कई पत्नियां बेवक्त मरने से बच जाएंगी. निशा ने ऐसा नहीं की कोशिश न की हो, वह परेशानी के दौर में मंडला के एसपी से मिली थी लेकिन उन्होंने भी उसे समझाबुझा कर भेज दिया कि कोशिश करो कि इस की नौबत न आए, तलाक तो आखिरी विकल्प है ही. हम में से हर किसी को शादी को सात जन्मों का बंधन नहीं बल्कि एक ऐसा अनुबंध जिसे दोनों में से कोई भी पक्ष कभी भी तोड़ने का अधिकार रखता है, यह मानने की समझ विकसित करनी होगी.

जबकि, तलाक कलह, अनबन, घुटन वगैरह की स्थिति में पहला विकल्प होना चाहिए.

काश, आप ने ऐसा न किया होता: भाग 1

‘‘भैया, वह आप के साथ इतनी बदतमीजी से बात कर रहा था…क्या आप को बुरा नहीं लगा? आप इतना सब सह कैसे जाते हैं. औकात क्या है उस की? न पढ़ाईलिखाई न हाथ में कोई काम करने का हुनर. मांबाप की बिगड़ी औलाद…और क्या है वह?’’

‘‘तुम मानते हो न कि वह कुछ नहीं है.’’

भैया के प्रश्न पर चुप हो गया मैं. भैया उस की गाड़ी के नीचे आतेआते बड़ी मुश्किल से बचे थे. क्षमा मांगना तो दूर की बात बाहर निकल कर इतनी बकवास कर गया था. न उस ने भैया की उम्र का खयाल किया था और न ही यह सोचा था कि उस की वजह से भैया को कोई चोट आ जाती.

‘‘ऐसा इनसान जो किसी लायक ही नहीं है वह जो पहले से ही बेचारा है. अपने परिवार के अनुचित लाड़प्यार का मारा, ओछे और गंदे संस्कारों का मारा, जिस का भविष्य अंधे कुएं के सिवा कुछ नहीं, उस बदनसीब पर मैं क्यों अपना गुस्सा अपनी कीमती ऊर्जा जाया करूं? अपने व्यवहार से उस ने अपने चरित्र का ही प्रदर्शन किया है, जाने दो न उसे.’’

अपनी किताबें संभालतेसंभालते सहसा रुक गए भैया, ‘‘लगता है ऐनक टूट गई है. आज इसे भी ठीक कराना पड़ेगा.’’

‘‘चलो, अच्छा हुआ, सस्ते में छूट गया मैं,’’ सोम भैया बोले, ‘‘मेरी ही टांग टूट जाती तो 3 हफ्ते बिस्तर पर लेटना पड़ता. मु?ा पर आई मुसीबत मेरी ऐनक ने अपने सिर पर ले ली.’’

‘‘मैं जा कर उस के पिता से बात करूंगा.’’

‘‘कोई जरूरत नहीं किसी से कुछ भी बात करने की. बौबी की जो चाल है वही उस की सब से बड़ी सजा बन जाने वाली है. जो लोग जीवन में बहुत तेज चलना चाहते हैं वे हर जगह जल्दी ही पहुंचते हैं…उस पार भी.’’

कैसे विचित्र हैं सोम भैया. जबजब इन से मिलता हूं, लगता है किसी नए ही इनसान से मिल रहा हूं. सोचने का कोई और तरीका भी हो सकता है यह सोच मैं हैरान हो जाता हूं.

‘‘अपना मानसम्मान क्या कोई माने नहीं रखता, भैया?’’

‘‘रखता है, क्यों नहीं रखता लेकिन सोचना यह है कि अपने मानसम्मान को हम इतना सस्ता भी क्यों मान लें कि वह हर आम आदमी के पैर की जूती के नीचे आने लगे. मैं उस की गाड़ी के नीचे आ जाता, आया तो नहीं न. जो नहीं हुआ उस का उपकार मान क्या हम प्रकृति का धन्यवाद न करें?’’

भैया मेरा कंधा थपक कर चले गए और पीछे छोड़ गए ढेर सारा धुआं जिस में मेरा दम घुटने लगा. एक तरह से सच ही तो कह रहे हैं भैया. आखिर मु?ा में ही इतनी दिलचस्पी लेने का क्या कारण हो सकता है.

दोपहर लंच में वह सदा की तरह चहचहाती हुई ही मु?ो मिली. बड़े स्नेह, बड़े अपनत्व से.

‘‘आप भैया से पहली बार कब मिली थीं? सिर्फ सहयोगी ही थे आप या कंपनी का ही माध्यम था?’’

मुसकान लुप्त हो गई थी उस की.

‘‘नहीं, हम सहयोगी कभी नहीं रहे. बस, कंपनी के काम की ही वजह से मिलनाजुलना होता था. क्यों? तुम यह सब क्यों पूछ रहे हो?’’

‘‘नहीं, आप मेरा इतना खयाल जो रखती हैं और फिर भैया का नाम सुनते ही आप की दिलचस्पी मु?ा में बढ़ गई. इसीलिए मैं ने सोचा शायद भैया से आप की गहरी जानपहचान हो. भैया के पास समय ही नहीं होता वरना उन से ही पूछ लेता.’’

‘‘अपनी भाभी को ले कर कभी आओ न हमारे घर. बहुत अच्छा लगेगा मु?ो. तुम्हारी भाभी कैसी हैं? क्या वह भी काम करती हैं?’’

तनिक चौंका मैं. भैया से ज्यादा गहरा रिश्ता भी नहीं है और उन की पत्नी में भी दिलचस्पी. क्या वह यह नहीं जानतीं, भैया ने तो शादी ही नहीं की अब तक.

‘‘भाभी बहुत अच्छी हैं. मेरी मां जैसी हैं. बहुत प्यार करती हैं मु?ा से.’’

‘‘खूबसूरत हैं, तुम्हारे भैया तो बहुत खूबसूरत हैं,’’ मुसकराने लगी वह.

‘‘आप के घर आने के लिए मैं भाभी से बात करूंगा. आप अपना पता दे दीजिए.’’

उस ने अपना कार्ड मु?ो थमा दिया. रात वही कार्ड मैं ने भैया के सामने रख दिया. सारी बातें जो सच नहीं थीं और मैं ने उस महिला से कहीं वह भी बता दीं.

‘‘कहां है तुम्हारी भाभी जिस के साथ उस के घर जाने वाले हो?’’

भाभी के नाम पर पहली बार मैं भैया के होंठों पर वह पीड़ा देख पाया जो उस से पहले कभी नहीं देखी थी.

‘‘वह आप में इतनी दिलचस्पी क्यों लेती है भैया? उस ने तो नहीं बताया, आप ही बताइए.’’

‘‘तो चलो, कल मैं ही चलता हूं तुम्हारे साथ…सबकुछ उसी के मुंह से सुन लेना. पता चल जाएगा सब.’’

अगले दिन हम दोनों उस पते पर जा पहुंचे जहां का श्रीमती गोयल ने पता दिया था. भैया को सामने देख उस का सफेद पड़ता चेहरा मु?ो साफसाफ सम?ा गया कि जरूर कहीं कुछ गहरा था बीते हुए कल में.

‘‘कैसी हो शोभा? गिरीश कैसा है? बालबच्चे कैसे हैं?’’

पहली बार उन का नाम जान पाया था. आफिस में तो सब श्रीमती गोयल ही पुकारते हैं. पानी सजा लाई वह टे्र में जिसे पीने से भैया ने मना कर दिया.

‘‘क्या तुम पर मु?ो इतना विश्वास करना चाहिए कि तुम्हारे हाथ का लाया पानी पी सकूं?

‘‘अब क्या मेरे भाई पर भी नजर डाल कुछ और प्रमाणित करना चाहती हो. मेरा खून है यह. अगर मैं ने किसी का बुरा नहीं किया तो मेरा भी बुरा कभी नहीं हो सकता. बस मैं यही पूछने आया हूं कि इस बार मेरे भाई को सलाखों के पीछे पहुंचा कर किसे मदद करने वाली हो?’’

हेयरस्टाइल बनाते समय बालों में बाउंस लाने के लिए क्या करूं ?

सवाल

मेरे सिर पर बहुत कम बाल हैं जो पतले, सौफ्ट व तैलीय हैं. स्वीमिंग के बाद बाल बेजान और रूखे हो जाते हैं. उन्हें स्वस्थ रखने के लिए मुझे क्या करना चाहिए? कृपया यह भी बताएं कि हेयरस्टाइल बनाते समय मुझे बालों में बाउंस लाने के लिए क्या करना चाहिए?

जवाब

स्वीमिंग पूल में पानी को क्लीन रखने के लिए क्लोरीन का इस्तेमाल किया जाता है. इसी कारण बाल रूखे व बेजान हो जाते हैं. ऐसे में जब भी बालों को शैंपू करें, उस के बाद लैंथ पर कंडीशनर जरूर अप्लाई करें. यदि बाल बचपन से ही पतले हैं, तो कुछ कर पाना मुश्किल है.

वैसे चाहें तो ये घरेलू उपाय आजमा कर देख सकती हैं. दही में मेथी पाउडर, बालछड़, आंवला व शिकाकाई को भिगो दें. अब इस मिक्सचर में जितना पानी है, उतना तेल डाल कर उबाल लें. जब यह लिक्विड आधा रह जाए तब इसे छान कर इस से बालों की मसाज करें. साथ ही प्रोटीनयुक्त आहार लें. इस के अलावा हेयरस्टाइल बनाने से पहले बालों में जैल या मूज अप्लाई करें और फिर सारे बालों को आगे ला कर फ्लैट ब्रश से कौंब करें. फिर पीछे की ओर झटक दें. ऐसा करने से बालों में बाउंस आ जाएगा. स्कैल्प से ऊपर की तरफ उंगलियां फिराने से भी बाल बाउंसी नजर आते हैं.

रहना चाहते हैं स्वस्थ, तो इन 11 काली चीजों को बनाएं अपनी डाइट का हिस्सा

अकसर काले रंग की चीजों को हिकारत से देखा जाता है. इस रंग को गम का प्रतीक भी माना जाता है. किसी लड़की की आबरू लुट जाए तो कहा जाता है कि उस का तो मुंह काला हो गया. काली गाडि़यों में चलने वालों की छवि गुंडेबदमाशों की मानी जाती है. हराम के या दो नंबर के पैसों को काला धन कहा जाता है. लेकिन ऐसा भी नहीं है कि काला रंग महज बुराई या खराबी का ही प्रतीक होता है. यह रंग खूबियों से भी भरपूर होता है. काली पोशाक में सजी गोरी हसीनाएं बिजलियां गिराती नजर आती हैं.

बहरहाल, यहां काले रंग की चीजों का मामला खानेपीने से जुड़ा है. कुदरत के खजाने में मौजूद कई काले रंग की खानेपीने की चीजें लाजवाब खूबियों से भरपूर होती हैं. ये तमाम काले खानेपीने के सामान न सिर्फ खाने  जायका बढ़ाते हैं, बल्कि सेहत के लिहाज से भी बेमिसाल होते हैं. कई बीमारियां दूर करने में भी काली चीजें कमाल की साबित होती हैं.

पेश हैं कुछ ऐसी ही काली चीजों की दास्तां, जो हमारी सेहत के लिए मुफीद हैं :

काले अंगूर

यों तो साधारण हरा अंगूर भी सेहत के लिए मुफीद होता है, मगर काले अंगूर कुछ ज्यादा ही खासीयतों से भरपूर होते हैं. इसी वजह से ये हरे अंगूरों के मुकाबले महंगे भी मिलते हैं. काले अंगूर दिल की बीमारियों के लिहाज से उम्दा होते हैं. ये फेफड़े के कैंसर में भी फायदा पहुंचाते हैं. काला अंगूर अल्जाइमर यानी यादाश्त गड़बड़ होने की बीमारी में भी फायदा पहुंचाता है. इन के सेवन से कोलेस्ट्राल भी सही रहता है. और जहां तक जायके की बात है तो काले अंगूर बेहद स्वादिष्ठ होते हैं.

काले जामुन

ऊंचे पेड़ों में लगने वाला काला जामुन बेहद फायदेमंद फल होता है. इस का खास जायका सभी को पसंद आता है. इस की गुठली बेर की सख्त गुठली के मुकाबले बेहद नरम होती है और अकसर दांतों से कट जाती है. पेट के मरीजों के लिए जामुन बेहद फायदेमंद साबित होता है. जामुन खाने वाले का हाजमा एकदम दुरुस्त हो जाता है. जामुन का सिरका भी बहुत कारगर होता है. स्वाद से भरपूर जामुन काफी महंगे मिलते हैं.

ब्लैकबेरी

यह भी काफी स्वादिष्ठ और महंगा फल होता है. इस में मौजूद विटामिन सी, ए, ई, के और फाइबर शरीर में मेटाबालिज्म का स्तर दुरुस्त रखते हैं. ये विटामिन और फाइबर शरीर का वजन भी काबू में रखते हैं. ब्लैकबेरी टाइप टू डायबिटीज और दिल की बीमारियों से बचाने में मददगार है. इसे खाने से स्तन कैंसर और सर्वाइकल कैंसर का खतरा कम हो जाता है. कुल मिला कर काले रंग की ब्लैकबेरी कमाल की होती है.

कालीमिर्च

काले रंग की गोलगोल नजर आने वाली कालीमिर्च को आकार की वजह से गोलमिर्च भी कहा जाता है. हरी व लाल मिर्ची से एकदम अलग नस्ल की कालीमिर्च गरममसालों की बिरादरी में शामिल होती है. यह खाने का जायका बढ़ाने में कारगर रहती है. यह मैग्नीशियम, विटामिन सी, के और फाइबर वगैरह से भरपूर होती है. इस के इस्तेमाल से गैस, कब्ज, डायरिया, खून की कमी व सांस के रोगों में आराम मिलता है. रोजमर्रा की सब्जियों में इसे नियमित मसाले के तौर पर शामिल किया जाता है. उबले अंडों के साथ भी इस का इस्तेमाल किया जाता है.

काले तिल

यों तो सफेद तिलों का नियमित तौर पर ज्यादा इस्तेमाल होता है. रेवड़ी व गजक जैसी चीजों में आमतौर पर सफेद तिल ही इस्तेमाल किए जाते हैं, मगर काले तिलों की अहमियत बहुत ज्यादा होती है. दिल की बीमारियों, सांस की बीमारियों, कालोन कैंसर, माइगे्रन का दर्द व जलन वगैरह में काले तिलों के इस्तेमाल से बहुत फायदा होता है. तमाम घरों में काले तिल के लड्डू भी बनाए जाते हैं.

काली सेम

बेशक हरी सेम ज्यादा तादाद में बाजार में नजर आती है, मगर उस के मुकाबले काली सेम ज्यादा कारगर होती है. काली सेम में तमाम किस्म के प्रोटीन मौजूद होते हैं और ये प्रोटीन डायबिटीज की तकलीफ से बचाते हैं. काली सेम के इस्तेमाल से धमनियां भी दुरुस्त रहती हैं और दिल के रोगों का भी खतरा कम हो जाता है. इस में मौजूद फाइबर सेहत के लिए मुफीद होता है.

काले चावल

बिरयानी या जर्दा खाने के शौकीन बेशक सफेद और लंबे चावलों के कायल होते हैं, पर उम्दा से उम्दा बासमती चावल से भी कहीं ज्यादा गुणी होते हैं काले चावल. काले चावल विटामिन (ई, बी), कैल्शियम और आयरन से भरपूर होते हैं और तमाम बीमारियों से नजात दिलाने में कारगर साबित होते हैं. खासतौर पर कैंसर, अल्जाइमर व डायबिटीज की तकलीफों में काला चावल बेहद फायदेमंद साबित होता है.

काली चाकलेट

चाकलेट आमतौर पर ब्राउन कलर की होती है और गजब की जायकेदार होती है. सफेद चाकलेट का भी अपना निराला जायका होता है. मगर इन दोनों के मुकाबले काली चाकलेट बेहद कमाल की होती है. काली चाकलेट में मौजूद अमीनो एसिड केशों यानी सिर के बालों को चमकीला बनाता है और चेहरे पर झुर्रियां नहीं पड़ने देता. इसे खाने से ब्लड प्रेशर व वजन भी काबू में रहता है.

काली चाय

दूध वाली सफेद या गुलाबी सी चाय तो सभी पीते हैं, मगर काली चाय के गुण बेमिसाल होते हैं. काली चाय में संक्रमण से लड़ने वाले पालीफेनल्स मौजूद होते हैं, जो धमनियों की दीवारों को नुकसान से महफूज रखते हैं. काली चाय का सेवन खून के थक्के बनने से रोकता है. इस के इस्तेमाल से पेट व स्तन के कैंसर में आराम मिलता है.

काला सिरका

काला सिरका ज्वार, गेहूं व भूरे चावलों को मिला कर तैयार किया जाता है. यह आमतौर पर प्रचलित सिरके के मुकाबले बहुत ज्यादा कारगर होता है. इस के इस्तेमाल से कोलेस्ट्राल व हाइपरटेंशन काबू में रहता है. काले सिरके के इस्तेमाल से शरीर में खून का संचार भी ठीक रहता है.

काला जैतून

यह भी बेहद कारगर होता है. पुराने चीन में काले जैतून का इस्तेमाल खांसी के इलाज के लिए किया जाता था. अभी भी दुनिया भर में इस का औषधीय इस्तेमाल किया जाता है. यह कोलेस्ट्राल सही रखता है और दिल के रोगों में कारगर साबित होता है. इस का इस्तेमाल कांटीनेंटल पकवानों में भी किया जाता है. यह काफी महंगा होता है.

स्वाद में कड़वा लेकिन गुणों की खान है करेला, जानें इसे खाने के ढेरों फायदे

अकसर घरों में माएं-दादियां करेले के गुणों का बखान करती मिलती हैं. कई बुजुर्गों को आपने करेले का जूस मजे से पीते देखा होगा मगर करेले का नाम सुनते ही युवाओं के मुंह का जायका बिगड़ जाता है. बच्चे तो उसके नाम से ही नाक-भौं चढ़ा लेते हैं. करेले की कड़ुवाहट झेलना सबके बस की बात नहीं है. करेला भले ही एक कड़ुवी सब्जी हो, लेकिन इसमें कई गुण होते हैं. यह खून तो साफ करता ही है, साथ ही डायबीटीज के रोगियों के लिए यह बेहद फायदेमंद है. करेला डायबीटीज में अमृत की तरह काम करता है. इससे खून में शुगर लेवल कंट्रोल में रहता है. दमा और पेट के रोगियों के लिए भी यह लाभदायक है. इसमें फौस्फोरस पर्याप्त मात्रा में होता है जो कफ की शिकायत को दूर करता है.

करेले का इस्तेमाल एक नेचरल स्टेरौयड के रूप में किया जाता है क्योंकि इसमें केरेटिन नामक रसायन होता है. जो खून में शुगर का स्तर नियंत्रित रखता है. करेले में मौजूद ओलिओनिक ऐसिड ग्लूकोसाइड, शुगर को खून में न घुलने देने की क्षमता रखता है.

करेला जितना शुगर के स्तर को संतुलित करता है, शरीर को उतने ही पोषक तत्व मिलते हैं. इसके अलावा करेले में तांबा, विटमिन बी, अनसैचुरेटेड फैटी ऐसिड जैसे तत्व हैं. इनसे खून साफ रहता है और किडनी व लिवर भी स्वस्थ रहता है.

करेला खाने के फायदे

– कफ के मरीजों के लिए करेला बहुत फायदेमंद होता है.

– दमा होने पर बिना मसाले की सब्जी लाभदायक होती है.

– पेट में गैस की समस्या या अपच होने पर करेला राहत देता है.

– लकवे के मरीजों को कच्चा करेला खाने से फायदा होता है.

– उल्दी, दस्त या हैजा होने पर करेले के रस में पानी और काला नमक डालकर सेवन करने पर तुरंत फायदा होता है.

– पीलिया के रोग में भी करेला लाभकारी है. रोगियों को इसका रस पीना चाहिए.

– करेले के रस का लेप लगाने से सिरदर्द दूर होता है.

– गठिया रोगियों के लिए करेला फायदेमंद होता है.

– मुंह में छाले पड़ने पर करेले के रस का कुल्ला करने से राहत मिलती है.

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जिंदगी न मिलेगी दोबारा: भाग 2

एक दिन अनुज के एक मित्र ने अनाथाश्रम से बच्चा गोद लेने की बात कही जो हम दोनों को भी बहुत जंची पर जब हम ने मांजी के सामने इस बात की चर्चा की तो वे बिफर पड़ीं, “किस का बच्चा, कहां का बच्चा, किस का पाप होगा अनाथाश्रम का बच्चा… मेरे जीतेजी तो यह मुमकिन नहीं. पोते की चाह में तेरे पापा तो पहले ही चल बसे और अब मुझे यह किसी का पाप अपने घर में लाना कतई मंजूर नहीं…” कहतेकहते मांजी ने रोनापीटना शुरू कर दिया था.

कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें क्योंकि मेरा और अनुज का मानना था कि भले ही आज सेरोगेसी और आईवीएफ जैसे विकल्प बच्चे के जन्म के लिए मौजूद हैं पर किसी भी बेघर और बिना मातापिता के बच्चे को घर और मातापिता मिलना भी उस का बुनियादी हक है और जब हम यह काम करने में सक्षम हैं तो क्यों न करें.

इसी बीच एक दिन अनुज की बड़ी बहन ख्याति का आना हुआ. ख्याति दीदी और उन के पति एक कालेज में प्रोफैसर थे. दोनों ही बेहद सुलझे विचारधारा के हैं. उन के सुलझे व्यक्तित्व के कारण ही मेरी उन से बहुत पटती थी. मैं फोन पर भी उन से ऐडोप्शन के बारे में चर्चा कर चुकी थी और मां को मनाने का दायित्व भी उन्हें सौंप दिया था. दीदी और जीजा की लाख कोशिशों के बाद मांजी बच्चा गोद लेने को तैयार तो हो गईं पर शर्त थी कि अनाथाश्रम से गोद बेटा ही लेना होगा ताकि वंश चलता रहे.

एक दिन औपचारिक खानापूर्ति के बाद हम एक अनाथाश्रम से 1 माह के शोभित को घर ले आए थे. शोभित का आना मानों घर में खुशियों की सौगात आने जैसा था. मांजी के ताने अब हंसी के ठहाके और शोभित की प्यारीप्यारी हरकतों की नकल उतारने में बदल गए थे. ससुरजी के जाने के बाद अनेक बीमारियों से घिरी रहने वाली मम्मीजी की सारी बीमारियां अब उड़नछू हो गई थीं.

जीवन अपनी गति से चल रहा था और 12वीं के बाद शोभित का सिलैक्शन आईआईटी, कानपुर में हो गया और वहीं से उस का बैंगलुरु की एक मल्टीनैशनल कंपनी में प्लैसमेंट हो गया. हमारी तो खुशी का कोई ठिकाना ही नहीं था.

ऐसा लग रहा था मानों कुदरत ने हमें संसार का सारा सुख ही उपहार में दे दिया हो. अब हम तीनों ने शोभित की शादी के सपने देखने शुरू कर दिए थे पर वे तो सच होने से पहले ही टूट गए. हमारा जीवन, हमारा सबकुछ, हमारे बुढ़ापे का सहारा शोभित हमें बीच में ही छोड़ कर चला गया था. पर कहते हैं, किसी के जाने से क्या जीवन की गति रुकती है इसलिए हमारी जिंदगी भी बस चल ही रही थी… यह सब सोचतेसोचते कब सुबह हो गई पता ही नहीं चला. अनुज चाय बना कर ले आए थे. दैनिक जीवन के कार्य निबटा कर हम दोनों ही अपने कर्तव्यस्थल की तरफ रवाना हो गए थे.

स्कूल पहुंची तो काम में ऐसे उलझी कि शाम का ही पता नहीं चला. रात को डिनर के समय अनुज ने अगले दिन अपनी मौसीजी के आने की सूचना दी. अनुज की एक ही मौसी हैं जो इतने वर्षों बाद हमारे यहां आ रही थीं इसलिए हमें भी बड़ा उत्साह था. मौसी के आने से मां को कंपनी मिल गई थी और वे बड़ी खुश भी थीं. आज संडे था इसलिए मैं ने मौसीजी की पसंद की आलू की कचौरियां बनाई थीं.

ब्रेकफास्ट करते समय डाइनिंग टेबल पर मौसीजी अपने इकलौते बेटे विनय के बारे में चर्चा करते हुए अनुज से बोलीं,”अनु, देख रूपएपैसे की तो तुझे कोई कमी है नहीं. रिटायरमैंट पर भी तुम दोनों को काफी धनराशी मिलेगी ही. तुम तो 2 ही जने हो. खर्चे ही क्या हैं. तू तो जानता ही है तेरा भाई विनय कब से अपना धंधा शुरू करना चाह रहा है पर हमेशा पैसों की कमी पड़ जाती है. इस बार मैं आ रही थी तो उस ने तुम से बात करने को कहा था. देख लो बेटा, हो सके तो अपने भाई की कुछ मदद कर देना.”

अनुज ऐसे अवसरों पर आमतौर पर चुप ही रहते हैं ताकि बड़ों का मान बना रहे. हमारी चुप्पी से शायद मौसीजी समझ गई थीं कि हम कोई मदद नहीं कर पाएंगे. हां, दूसरे दिन एकांत पाते ही मांजी जरूर बोलीं,
‘’देख लो तुम लोग… हो सके तो कुछ कर दो. अपना तो कोई है नहीं आगेपीछे, हारीबीमारी, आफत मुसीबत में ये ही लोग काम आएंगे.”

‘’नहीं मां, यह संभव नहीं है. अपनी खूनपसीने की कमाई हम यों ही जाया नहीं करेंगे. हम ने भी मेहनत की है, वह भी मेहनत करे…आज की दुनिया में मेहनत से क्या संभव नहीं है. आगेपीछे कोई नहीं है का क्या मतलब है? हम 2 तो हैं और बुढ़ापे में किसी पर आश्रित भी नहीं रहना चाहते. बुढ़ापे में इंसान के 2 ही सहारे होते हैं उत्तम स्वास्थ्य और उस का अपना पैसा,” स्पष्टवादी अनुज चाह कर भी इस बार खुद को नहीं रोक पाए थे.

बिहार में पावर ट्रांसफर तो हो गया लेकिन वोट ट्रांसफर भी होगा क्या

बिहार तो बिहार, बिहार के बाहर के लोग भी, जो वहां की सियासत का मिजाज नहीं समझते, हैरान हैं कि आखिर यह ड्रामा है क्या और इस से नीतीश कुमार व भाजपा को हासिल क्या होगा. राजनीतिक पंडित जरूर नीतीश कुमार की पाला बदलने की लत में अब इंडिया गठबंधन का फायदा देखने लगे हैं क्योंकि इस बार की पलटी से नीतीश कुमार की इमेज जनता के बीच एक ऐसे नेता की बन चुकी है जो उस के वोट और समर्थन यानी जनादेश का बेजा इस्तेमाल करने में कोई लिहाज नहीं करता बल्कि सिर्फ अपनी खुदगर्जी देखता है.

सत्ता हस्तांतरित करना संवैधानिक तौर पर कितना आसान होता है, यह 28 जनवरी को देशभर के लोगों ने बिहार में देखा जिस का जिम्मेदार लोग नीतीश कुमार को ही ज्यादा मान रहे हैं, जिन की इमेज कल तक एक धीरगंभीर और वजनदार नेता की हुआ करती थी और जिन्हें वाकई लोहिया और जेपी की विचारधारा के उत्तराधिकारियों में से एक माना जाता था. भले ही उन की विचारधारा पूरी तरह अमल में न लाई जाए लेकिन उसूल, बातों और भाषणों में ही वह विचारधारा हो तो जनता नेता से बहुत ज्यादा नाराज नहीं होती. मगर इस बार कितने हलके में नीतीश कुमार को लिया जा रहा है उस की बानगी सोशल मीडिया पर उन की खिल्ली उड़ाती वायरल होती पोस्टों में से एक यह है-

यह मामला तीन तलाक का ज्यादा लग रहा है. भाजपा हर बार नीतीश को तीन तलाक देती है तो वे हलाला कराने लालू के पास चले जाते हैं और हलाला करा कर वापस भाजपा के पास लौट जाते हैं. एक और पोस्ट में कहा गया है, चच्चा इंजीनियर हैं और इंजीनियर हमेशा पैकेज देखता है.

ऐसी पोस्टों के अपने अलग माने होते हैं जिन में गुस्सा, भड़ास, कुंठा और खिल्ली सब होते हैं. इसे महज व्यंग्य या हासपरिहास कहते नजरअंज नहीं किया जा सकता. अब देखें नीतीश के व्यक्तित्व और राजनीति का दूसरा पहलू जिस के तहत चंद महीनों पहले ही वे भाजपा को केंद्रीय सत्ता से हटाने के लिए तमाम उन विपक्षी दलों को एक छत के नीचे लाने का गंभीर प्रयास कर रहे थे जो भगवा गैंग के हिंदुत्व से इत्तफाक नहीं रखते और उसे देश की एकता व अखंडता के लिए खतरा मानते हैं. अब उसी गठबंधन को टाटा कहते नीतीश भगवा गैंग से फिर जा मिले हैं. उन की हैसियत इस में क्या होगी, सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि यहां भी उन्हें प्रधानमंत्री बनाने को कोई तैयार नहीं. यह सीट तो नरेंद्र मोदी के नाम रिजर्व है. गठबंधन में तो फिर भी उन की संभावनाएं ममता बनर्जी या मल्लिकार्जुन खड़गे से कम न थीं.

वोटों का बहीखाता

ऐसा मान लिया गया है कि नीतीश कुमार अपना वोटबैंक शिफ्ट कराने में माहिर हैं. लेकिन वे भी अकेले अपने दम पर बहुमत और सत्ता हासिल नहीं कर पाते. इसलिए कभी महागठबंधन का आंचल पकड़ लेते हैं तो कभी भाजपा का दामन थाम लेते हैं और इस के लिए उन की कोई हद नहीं है. अब तक 6 बार वे पाला बदल चुके हैं. इसीलिए लोग उन्हें पलटूराम वगैरह के ख़िताब से नवाजने लगे हैं. वोटों का बहीखाता खोलने से पहले यह दोहरा लेना जरूरी है कि 15 दिनों पहले तक ही भाजपा नीतीश को और नीतीश भाजपा को पानी पीपी कर कोस रहे थे. अब राजद नीतीश को कोस रहा है और नीतीश राजद यानी लालू यादव पर परिवारवाद का आरोप लगा रहे हैं. यानी, बिहार में मौका देख दोस्ती और दुश्मनी की जाती है. इस में जनता का कितना और कैसा नुकसान होता है, यह कोई नहीं देखता .

इस बार की पलटी में सिर पर खड़े लोकसभा चुनाव बड़ा फैक्टर माने जा रहे हैं. 2014 के चुनाव में भाजपा, जद यू और राजद अलग अलग लड़े थे. जद यू ने 40 में से 38 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे जिन में से महज 2 ही जीत पाए थे. भाजपा को मोदी लहर का फायदा मिला था और उस ने 22 सीटें जीती थीं. राजद 4 सीटों पर सिमट कर रह गई थी. कांग्रेस को 2, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी को 3 सीटें मिली थीं. एक सीट एनसीपी के खाते में गई थी. हैरतअंगेज तरीके से रामविलास पासवान की लोजपा 6 सीटों पर जीती थी. यानी, सभी को कुछ न कुछ मिला था. वोट शेयर के हिसाब से देखें तो भाजपा को 29.40, राजद को 20.10, जद यू को 15.80, कांग्रेस को 8.40 फीसदी वोट मिले थे. 6.40 फीसदी वोट लोजपा को और रालोसपा को 3 फीसदी वोट हासिल हुए थे.

2019 के लोकसभा चुनाव में नीतीश ने भाजपा से हाथ मिला लिया था. उस बार वे अकेले दम पर लड़ने की हिम्मत नहीं कर पाए थे. एनडीए का हिस्सा बनने पर उन्हें जबरदस्त फायदा हुआ भी था क्योंकि उस बार जद यू को 16 सीटें, 21.81 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं जबकि भाजपा का वोट शेयर 23.58 फीसदी रह गया था और उसे लगभग 6 फीसदी वोटों और 5 सीटों का नुकसान हुआ था. लोजपा का प्रदर्शन पहले जैसा ही रहा था जिस ने 6 सीटें 7.86 फीसदी वोटों के साथ हासिल कर ली थीं. महागठबंधन ने इस चुनाव में मुंह की खाई थी जिस के हिस्से में कांग्रेस के जरिए सिर्फ एक सीट किशनगंज की आई थी. राजद का तो खाता भी इस चुनाव में नहीं खुल पाया था और उसे कोई 5 फीसदी वोटों का नुकसान भी हुआ था.

2020 के विधानसभा चुनाव में राजद ने शानदार वापसी की जिस के 75 उम्मीदवार 23.11 फीसदी वोटों के साथ जीते थे. कांग्रेस को 19 सीटें 9.48 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं. वामदलों की वापसी हुई जिन्होंने 243 सीटों वाले बिहार में 16 सीटें जीती थीं. एनडीए को 125 सीटों पर सिमटना पड़ा था जो बहुमत से महज 3 ज्यादा थीं. भाजपा को 74 सीटें 19.46 फीसदी वोटों और जद यू को 43 सीटें 19.46 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं. जीतनराम मांझी की हम को 7 और मुकेश साहनी विकासशील इंसान पार्टी को 11 सीटें मिली थीं.

यह था डर

जातिवादी राजनीति के लिए कुख्यात बिहार में इस बार नीतीश का डर यह था कि जद यू का वोट शेयर और सीटें दोनों चुनाव दर चुनाव कम हो रहे थे. उलट इस के, तेजस्वी की धाक राज्य में बढ़ रही थी. नीतीश बूढ़े भी हो चले हैं, लिहाजा, डेढ़ साल पहले उन्होंने फिर लालू यादव से हाथ मिला लिया और तेजस्वी को उपमुख्यमंत्री बनाते उन्हें बिहार का अगला मुख्यमंत्री भी पेश कर दिया था.

22 जनवरी को अयोध्या का जलसा बिहार में दूसरे हिंदीभाषी राज्यों सरीखा चमकीला नहीं था. यह भाजपा के लिए चिंता की बात थी. इधर इंडिया गठबंधन भी नीतीश की हैसियत और घटते जनाधार के चलते उन्हें बतौर प्रधानमंत्री पेश करने का जोखिम नहीं उठा पा रहा था. यह नीतीश के अहं और अहंकार को बरदाश्त न हुआ. सो, एक बार फिर उन्होंने पाला बदल लिया. अब वे और भाजपा अब की बार 40 की 40 का नारा जरूर लगा रहे हैं पर जनता उन पर भरोसा करेगी, ऐसा कहने की कोई वजह नहीं. जिस विकास की बातें की जा रही हैं वह दरअसल पैसे वालों का है, मसलन चमचमती सड़कें, रेलवे स्टेशन और हवाई अड्डे वगैरह. फिर मंदिरों की तो बात करना ही बेकार है.

बिहार की 85 फीसदी आबादी दलित, पिछड़ों, मुसलमानों की है. लालू यादव हिंदुत्व की राजनीति के धुरविरोधी रहे हैं लेकिन नीतीश नहीं रहे. बिहार में दूसरे हिंदीभाषी राज्यों की तरह रामचरितमानस का प्रभाव भी कम है. पिछड़े, दलित और महादलित, जो जद यू, हम और लोजपा सहित किसी भी धर्मनिरपेक्षता के नाम पर बने मोरचे को वोट करते थे, का असमंजस अब दूर हो सकता है क्योंकि लड़ाई अब भाजपा और जदयू बनाम कांग्रेस और राजद है.

इंडिया गठबंधन की बड़ी आस 20 फीसदी मुसलिम और 15 फीसदी यादव वोट हैं. उलट इस के, एनडीए की इकलौती आस 15 फीसदी सवर्ण और 2.85 फीसदी कुर्मी हैं. बाकी 45 फीसदी बराबर बंटे भी तो एनडीए को ज्यादा फायदा इस नई शादी से नहीं होने वाला. पिछले साल जारी जातिगत जनगणना के आंकड़ों से यादव समुदाय आक्रोश में है क्योंकि सरकारी नौकरियों में उस की भागीदारी 1.55 फीसदी ही है जबकि 3.11 फीसदी कुर्मी सरकारी नौकरियों में हैं. समुदायों के लिहाज से देखें तो भी हालात दलित, पिछड़ों और मुसलमानों के हक में भी नहीं हैं. 20 फीसदी दलितों की सरकारी नौकरियों में हिस्सेदारी केवल 1.13 फीसदी ही है. उलट इस के, सामान्य वर्ग के 3.19 फीसदी लोग सरकारी नौकरियों में हैं जबकि उन की आबादी 15 फीसदी ही है. पिछड़े वर्ग की आबादी 27 फीसदी होते हुए भी उस के पास महज 1.75 फीसदी सरकारी नौकरियां हैं.

ऐसे में भाजपा अगर बिहार में जरूरत से ज्यादा राम नाम जपेगी तो बजाय फायदे के, उसे नुकसान ही होगा क्योंकि सामाजिक न्याय के मामले में बिहार के लोग कहीं ज्यादा जागरूक हैं और इस का जिम्मेदार वे भाजपा और धर्म को मानते हैं. जीतनराम मांझी भले ही सियासी तौर पर भाजपा के साथ खड़े हों लेकिन हिंदुत्व के हिमायती या पैरोकार कभी नहीं रहे वे जो खुद को गर्व से बौद्ध कहते हैं. वे रामचरितमानस के बारे में पिछले साल 23 अप्रैल को कह चुके हैं कि इस में कचरा भरा है, इसे मत मानो. इस के एक महीने पहले ही उन्होंने रावण को राम से ज्यादा महान बताया था. बहुत ज्यादा नहीं, 5 दिनों पहले ही उन्होंने एक आयोजन में राम को काल्पनिक बताते याद दिलाया था कि मेरे एक जगजीवन मंदिर में जाने के बाद उसे धुलवाया गया था.

ऐसी बातें बिहार में आएदिन होती रहती हैं फिर चाहे मुंह राजद विधायक और मंत्री रहे चंद्रशेखर यादव का हो या किसी छोटेमोटे दलित नेता का हो . नीतीश कुमार इस पिक्चर में कहीं फिट नहीं बैठते. वे भले ही रामविरोधी न हों लेकिन उस हिंदुत्व के वकील कभी नहीं रहे जिस का विरोध बिहार का वंचित तबका करता रहता है. हालांकि हैरानी नहीं होगी अगर कल को वे भी भाजपा के सुर में सुर मिलाते नजर आएं क्योंकि जिस समाजवादी सिद्धांत और दर्शन की वे, कहने को ही सही, राजनीति करते रहते थे उस का श्राद्ध उन्होंने 28 जनवरी को कर दिया है. तय है, इसलिए पीके यानी प्रशांत किशोर यह कहने लगे हैं कि 2025 के विधानसभा चुनाव में जद यू व भाजपा का गठबंधन नहीं चल पाएगा. जद यू 20 सीटें भी नहीं ले जा पाएगा. इस से भाजपा को नुकसान होगा.लेकिन नीतीश कुमार किसी की परवा नहीं कर रहे हैं जबकि उन के पैरों के नीचे से वोटों की जमीन खिसकती जा रही है. वैसे तो हर कोई उन के बारे में कुछ न कुछ कह ही रहा है लेकिन कांग्रेसी नेता शशि थरूर ने उन के लिए ‘स्नोलीगोस्टर’ शब्द का इस्तेमाल किया है जिस का मतलब होता है, धूर्त, चतुर और सिद्धांतहीन राजनीतिज्ञ.

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