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जिंदगी धूप, तुम घना साया : भाग 3

आखिरकार रिश्ते ने दम तोड़ दिया. किसी भी औरत को दूसरी औरत से रिश्ता कभी नहीं सुहाता है. तलाक तक बात पहुंची और हो भी गया. लव मैरिज का यह हश्र कई सारे बीज बो गया. अपनी बेटी को ले कर अनुराधा स्कूल के पास की कालोनी में रहने लगी. बलवंत महल्ले को छोड़ पास ही लगे पुश्तैनी गांव में चले गए और वहीं से अपडाउन प्रारंभ कर दिया. यह सब एक यौवन के शिखर पर पहुंचे पेड़ के कट जाने सा था.

पेड़ कट गया, ठूंठ बचा रह गया. जिंदगी धूप थी, घना साया दोनों के लिए हट गया था. यह सब तब महसूस होता है जब साया वास्तव में हटता है. जब तक दुख का एहसास ही न हो, सुख का कोई मूल्य नहीं जाना जा सकता. इसलिए सुख को ही कई बार दुख मानने की भारी भूल हो जाती है. साए में ही धूप महसूस करने वालों को समय परखता है और एक धोबीपछाड़ में ही नानी याद आ जाती है.

बिखराव के बाद अहं मन को संभालने लगता है और एहसास कराता रहता है सामने वाले की बुराई और समझाता है, अच्छा हुआ जो भी हुआ. रोजरोज की चिकचिक से तो बेहतर है. कोई भी काम करते हैं तो उस की कमियां सामने आती हैं और अहं और पुष्ट हो जाता है. अनुराधा और बलंवत के साथ यही कुछ हो रहा था. लगभग 2 साल साथ गुजारे और 4 वर्ष का कालेज का साथ, कुल मिला कर एक व्यकित के अंदर दूसरे के समा जाने का पूरा समय. अभी ऐसे समय में सिर्फ सामने वाले की कमियां, बुराइयां ही दिखाई देती हैं जैसा कि प्रेम के प्रारंभिक वर्षों में सामने वाले की सिर्फ अच्छाइयां दिखाई देती थीं. साथ रहने से कितनाकुछ बदल गया.

दोनों का स्कूल एक ही था, तो गाहेबगाहे नजरें टकरा जातीं और तुरंत एक ने दूसरे को नहीं देखा का आभास कराते. सहकर्मी भी अकसर उन से कहते कि “छोड़ो भई, यह इगो. तुम जोड़े में ही अच्छे लगते हो.” लेकिन दोनों टाल कर रह जाते. अनुराधा की खास सहेली कृष्णा ने उसे उदास देख कर कहा था, “अनु, तुम दोनों की वजह से तो प्यार जिंदा था इस शहर में. तुम ही अलग हो गए, तो प्यार ही बदनाम हो गया. कोई मांबाप अब तो इस के लिए कतई हामी नहीं भरेंगे.” उस ने आगे बोलना जारी रखा जैसे दिल के अरमान निकाल रही हो, “वैसे भी, कई लड़कियों ने हिम्मत ही नहीं की और जहां उन्हे बांध दिया वहां बंध गईं. चाहे उस में किसी के लिए अरमान हों तुम ने हिम्मत की और कईयों के लिए प्रेरणा बन गईं. लेकिन अब जैसे ही यह सब हुआ, तो… हमारे मांबाप वाली पीढ़ी बहुत खुश है. उन सब को कहने को हो गया.” अनुराधा ने उस समय कृष्णा की बात को हलके से लिया और अपनी कक्षा में चली गई. शाम को बेटी के साथ खेलतेखेलते उसे अचानक कृष्णा की बात याद आई और उस की बातें उसे किसी सयाने की सीख जैसी लगीं. वह सोचने लगी कि उस ने कभी इस तरह से सोचा ही नहीं, मैं, मेरा तक ही रही. कृष्णा ने उस की सोच को परिपक्व किया जबकि वह अविवाहित और उम्र में 4 साल छोटी थी. जिंदगी की कड़ी धूप हमें दुख तो देती है लेकिन सिखाती भी है. घना साया हमें सुख तो देता है लेकिन परिपक्व नहीं बनाता है.

बलवंत भी उतना ही अनमना था जितना अनुराधा. बलवंत के अंदर भी संवेदनशीलता थी और कुछ समय अकेले गुजारने के बाद उसे बेटी की याद सताती तो कभी किसी काम को करते हुए अनुराधा याद आ जाती. कभी किसी जोड़े को जाते हुए देखता तो उस के मन में भी कसक उठती, पेट में अजीब सा महसूस होता, तमाम पुरानी बातों को त्याग कर उसे अनुराधा का मासूम चेहरा याद आ जाता और ढ़ेर सारे अच्छे, रूमानी पल.

दोनों तरफ से अहं पिघलना शुरू हो चुका था और मन अब स्वतंत्र होने लगा था. यह शुरुआत थी. शुरुआत में अहं अपना पूरा जोर लगाता और फिर मन पर काबिज हो जाता है. लेकिन आखिरकार समय जख्मों को सिलता जाता है और उन्हें धुंधला करता जाता है. बलवंत, अनुराधा इसी दौर में थे जब उन के अहं पिघल रहे थे. उस दिन अनुराधा घरबाहर के काम और बेटी की देखरेख के कारण अतिकार्य की वजह से स्कूल में जाते हुए गिर पड़ी और बेहोश हो गई. साथियों द्वारा पास के अस्पताल ले जाया गया. बलवंत उस दिन देरी से आया था और जैसे ही पता चला, अस्पताल पहुंचा. तब तक अनुराधा होश में थी. दोनों की नजरें टकराईं और अनायास दोनों के मुंह से एकसाथ निकला, “सौरी.” आसपास खड़े सहकर्मियों के चेहरों पर मुसकान थी. पास ही खड़ी कृष्णा ने धीरे से गुनगुनाया, ‘जिंदगी धूप, तुम घना साया…’  बलवंत के हाथ में अनुराधा का हाथ था. कृष्णा के स्वर और सुरीले लग रहे थे.

कटा हुआ पेड़ का ठूंठ बरसात के बाद फिर से फूट पड़ा, किसलय थे शाखों पर. फिर से छाया देने के लिए तैयार हो रहा था पेड़. लेकिन इस बार गहरी और परिपक्व जड़ें उस की संगी थीं. आसपास उग रही खरपतवार को स्वीकार करते हुए उस ने ठाना था कि आगे बढ़ना ही जिंदगी है.

अचानक अनुराधा यादों से सजग हो उठी, उस के सामने से याद के रूप में उतारचढ़ाव गुजर गए. गोद में खेल रहे पोते को देखती जा रही थी, उस में बलवंत की छाया दिखाई दे रही थी.

मेरी खातिर : भाग 3

आज अनिका स्कूल गई थी. उस ने अपने सारे कागजात निकलवा कर उन की फोटोकौपी बनवानी थी. वहां जा कर उसे ध्यान आया वह अपनी 10वीं और 11वीं कक्षा की मार्कशीट्स घर पर ही भूल गई है. उस ने तुरंत मम्मी को फोन लगाया, ‘‘मम्मा, मेरी अलमारी में दाहिनी तरफ की दराज में आप को लाल रंग की एक फाइल दिखेगी, उस में से प्लीज मेरी 10वीं और 11वीं की मार्कशीट्स के फोटो भेज दो.’’

फोटो भेजने के बाद उस फाइल के नीचे दबी एक गुलाबी डायरी पर लिखे सुंदर शब्दों ने मम्मी का ध्यान अपनी ओर खींचा-

‘‘की थी कोशिश, पलभर में काफूर उन लमहों को पकड़ लेने की जो पलभर पहले हमारे घर के आंगन में बिखरे पड़े थे.’’

शायद मेरे चले जाने के बाद उन दोनों का अकेलापन उन्हें एकदूसरे के करीब ले आए. इसीलिए तो अपने दिल पर पत्थर रख उसे इतना कठोर फैसला लेना पड़ा था. पेज पर तारीख 15 जून अंकित थी यानी अनिका का जन्मदिन.

मम्मी के मस्तिष्क में उस रात हुई कलह के चित्र सजीव हो गए. एक मां हो कर मैं अपनी बच्ची की तकलीफ को नहीं समझ पाई. अपने अहम की तुष्टि के लिए वक्तबेवक्त वाक्युद्ध पर उतर जाते थे बिना यह सोचे कि उस बच्ची के दिल पर क्या गुजरती होगी.

उन की नजर एक अन्य पेज पर गई, ‘‘मुझे आज रात रोतेरोते नींद लग गई और मैं सोने से पहले बाथरूम जाना भूल गई और मेरा बिस्तर गीला हो गया. अब मैं मम्मा को क्या जवाब दूंगी.’’

पढ़कर निकिता अवाक रह गई थी. जगहजगह पर उस के आंसुओं ने शब्दों की स्याही को फैला दिया था, जो उस के कोमल मन की पीड़ा के गवाह थे. जिस उम्र में बच्चे नर्सरी राइम्ज पढ़ते हैं उस उम्र में उन की बच्ची की ये संवेदनशीलता और जिस किशोरवय में लड़कियां रोमांटिक काव्य में रुचि रखती हैं उस उम्र में यह गंभीरता. आज अगर यह डायरी उन के हाथ नहीं लगी होती तो वे तो अपनी बेटी के फैसले के पीछे का कठोर सच कभी जान ही नहीं पातीं.

‘‘आप आज अनिका के घर पहुंचने से पहले घर आ जाना, मुझे आप से बहुत जरूरी बात करनी है,’’ मम्मी ने तुरंत पापा को फोन मिलाया.

‘‘निक्की, मुझे ध्यान है नया फ्रिज खरीदना है पर मेरे पास अभी उस से भी महत्त्वपूर्ण काम है… और फिलहाल सब से जरूरी है अनिका का कालेज में एडमिशन.’’

‘‘और मैं कहूं बात उस के बारे में ही है.’’

‘‘मम्मी के इस संयमित लहजे के पापा आदी नहीं थे. अत: उन की अधीरता जायज थी,’’

‘‘सब ठीक तो है न?’’

‘‘आप घर आ जाइए, फिर शांति से बैठ कर बात करते हैं.’’

‘‘पहेलियां मत बुझाओ, साफसाफ क्यों नहीं कहती हो, जब बात अनिका से जुड़ी थी तो पापा कोई ढील नहीं छोड़ना चाहते थे. अत: काम छोड़ तुरंत घर के लिए निकल गए.’’

‘‘देखिए यह अनिका की डायरी.’’

पापा जैसेजैसे पन्ने पलटते गए, अनिका के दिल में घुटी भावनाएं परतदरपरत खुलने लगीं और पापा की आंखें अविरल बहने लगीं. मम्मी भी पहली बार पत्थर को पिघलते देख रही थी.

‘‘कितना गलत सोच रहे थे हम अपनी बेटी के बारे में इस तरह दुखी कर के तो हम उसे घर से हरगिज नहीं जाने दे सकते,’’ उन्होंने अपना फोन निकाल अनिका को मैसेज भेज दिया.

‘‘कोशिश को तेरी जाया न होने देंगे, उस कली को मुरझाने न देंगे,

जो 17 साल पहले हमारे आंगन में खिली थी.’’

‘‘शैतान का नाम लिया और शैतान हाजिर… वाह पापा आप का यह कवि रूप तो पहली बार दिखा,’’ कहती हुई अनिका घर में घुसी और मम्मीपापा को गले लगा लिया.

‘‘हमें माफ कर दे बेटा.’’

‘‘अरे, माफी तो आप लोगों से मुझे मांगनी चाहिए, मैं ने आप लोगों को बुद्धू जो बनाया.’’

‘‘मतलब?’’ मम्मीपापा आश्चर्य के साथ बोले.

‘‘मतलब यह कि घी जब सीधी उंगली से नहीं निकलता है तो उंगली टेढ़ी करनी पड़ती है. इतनी आसानी से आप लोगों का पीछा थोड़े छोड़ने वाली हूं. हां, बस यह अफसोस है कि

मुझे अपनी डायरी आप लोगों से शेयर करनी पड़ी. पर कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है न?’’

‘‘अच्छा तो यह बाहर जा कर पढ़ने का फैसला सिर्फ नाटक था…’’

‘‘सौरी मम्मीपापा आप लोगों को करीब लाने का मुझे बस यही तरीका सूझा,’’ अनिका अपने कान पकड़ते हुए बोली.

‘‘नहीं बेटे, कान तुम्हें नहीं, हमें पकड़ने चाहिए.’’

‘‘हां, और मुझे इस ऐतिहासिक पल को कैमरे में कैद कर लेना चाहिए,’’ कह वह तीनों की सैल्फी लेने लगी.

मुक्तिद्वार : भाग 3

उधर, माधुरी के बेटेबहू को बेहद आश्चर्य हुआ जब न तो माधुरी का फ़ोन आया और न ही वह आई. वहीं, कुमुद के भतीजे भी बूआ को याद कर रहे थे. बूआ हर छुट्टी में उन का घूमने का ट्रिप तो कम से कम स्पौंसर करा देती थीं. इंद्रवेश और जयति के घरवाले भी समझ नहीं पा रहे थे कि वे आए क्यों नहीं हैं?

बहुत ही सोचविचार के साथ धनौल्टी में एक मकान फाइनल कर दिया गया था. पेशगी के तौर पर विजय ने 2 लाख रुपए दे दिए थे. मकान की सब से खास बात यह थी कि उस में कुल मिला कर 6 कमरे थे और अगर चाहें तो हर कमरे में छोटी सा किचन और बाथरूम बना सकते हैं. कुल मिला कर हर सदस्य को 11 लाख रुपए का इंतज़ाम करना था. विजय और विनोद के लिए यह मुश्किल न था पर बाकी सदस्यों के लिए यह थोड़ा मुश्किल था. इंद्रवेश और जयति की समस्या होम लोन के कारण हल हो गई थी. जयति बेहद खुश थी क्योंकि अब वह फ़ालतू में पैसे नहीं उड़ाएगी. इंद्रवेश को भी लगा कि शायद अब उसे भी निक्कमे, नकारापन से मुक्ति मिल जाए.

मगर माधुरी और कुमुद की समस्या का कोई हल नहीं दिख रहा था. एक तो उन की उम्र के कारण लोन नहीं मिल पा रहा था और दूसरा, उन के पास कोई ऐसी मोटी बचत भी न थी. कुमुद और माधुरी की समस्या प्रौविडैंट फंड ने सुलझा दी थी. दोनों ने ही प्रौविडैंट फंड से एडवांस ले लिया था. एक बार विनोद ने कहा भी कि प्रौविडैंट फंड का पैसा हमारे बुढापे की लाठी होता है. कुमुद ने कहा, “विनोद सर, तभी तो अपने लिए इस लाठी से एक छोटे से घर का इंतज़ाम कर रही हूं.” माधुरी के कहा, “पहली बार अपनी मुक्ति के लिए कुछ कर रही हूं, थोड़ा रिस्क तो लेना ही पड़ेगा.”

अब पूरे ग्रुप को अपने काम से दुगना प्यार हो गया था. ये ही काम तो हैं जिन के कारण आज वे यह हासिल कर पाएंगे. प्रिंसिपल या किसी और की बात पर अब उन लोगों को कुछ फ़र्क नहीं पड़ता था. उन सब को पता था कि उन की मुक्ति नजदीक ही है. सितंबर माह तक वकील ने ऐसी रूपरेखा तैयार करी कि मकान के मालिकाना हक में सब के नाम पर हर कमरे की रजिस्टरी अलग होगी, मतलब एक ही मकान में 6 अलग छोटेछोटे घर होंगे. रजिस्टरी के बाद शुरू हो गई थी हर कमरे को आशियाना बनाने की प्रक्रिया. ख़र्च जितना सोचा था उस से कुछ अधिक हो गया था, लेकिन फिर भी सबकुछ मैनेज हो गया था. इस बार की दीवाली की छुट्टियां पूरे ग्रुप के लिए नई रोशनी बन कर आई थीं. पहले दीवाली की छुट्टियों में कुमुद बेहद निराश हो जाती थी. घर पर जाना मजबूरी होती थी लेकिन दीवाली पर कुमुद की इच्छा का कुछ भी नहीं हो पाता था. पकवान भाइयों की पसंद के, सजावट भाभी की पसंद की और आतिशबाजी बच्चों की पसंद की. यही हाल माधुरी का भी था. बेटे के घर में वह, बस, बाहरी मेहमान की तरह बनी रहती थी. इंद्रवेश को पूरे घर में लाइट लगाने का काम मिलता था. उस के परिवार के हिसाब से कम से कम इंद्रवेश इसी काम मे उन की मदद करता है. जयति और विजय तो दीवाली की छुट्टियों में भी होस्टल में ही बने रहते थे. विनोद का तो घर जा कर भी एकांतवास ही बना रहता था.

विनोद ने दीवाली से पहले ही कह दिया था कि सब के लिए इस बार दीवाली पर नए कपड़े मैं ही खरीदूंगा. जयति ने रंगोली की ज़िम्मेदारी ली तो इंद्रवेश ने पूरे घर की लाइटिंग की कमान संभाल ली थी. कुमुद और माधुरी ने पकवान बनाने की ज़िम्मेदारी ले ली थी. विजय ने 2 दिन पहले जा कर सब के कमरों में जरूरत का समान जुटा दिया था. प्रिंसिपल महोदय हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी सोच रहे थे कि जो दोचार होस्टलर्स बचे हैं उन्हें जयति और विनोद संभाल लेंगे. मगर जब उन्होंने देखा कि जयति और विनोद का भी सामान बंध गया है तो मजबूरन उन्हें रुकना पड़ा. जब टैक्सी से माधुरी उतरी तो अपने आशियाने पर लगी नेमप्लेट देख कर उस के चेहरे पर मुसकराहट आ गई. नेमप्लेट पर लिखा हुआ था ‘मुक्तिद्वार’.

कुमुद विजय से बोली, “विजय, तुम ने बड़ी समझदारी के साथ इस घर का नाम चुना है.” जयति बोली, “हां, आप सही कह रही हैं कुमुद मेम. यह घर ही तो हमारा मुक्तिद्वार है, हमारे अकेलेपन से, इस समाज से.” विनोद बोले, “न जयति, अब कभी मत कहना कि हम लोग अकेले हैं. इस घर में हम एक परिवार की तरह ही तो हैं. हां, सब की प्राइवेसी को देखते हुए मैं ने और विजय ने हर कमरे को एक छोटे से आशियाने का रूप भी दे दिया है.”

आज दीवाली पर पूरा मुक्तिद्वार सकारात्मकता की रोशनी से जगमगा रहा था. पूरे घर में पकवानों की मीठी महक आ रही थी. आतिशबाजियों के साथसाथ मुक्तिद्वार का हर कोना आज हंसी से गुलज़ार था.

मैं एक लड़के से प्यार करती हूं लेकिन वो नहीं करता, आप ही बताएं मैं कैसे उसका दिल जीतू ?

सवाल

मैं 16 वर्ष की युवती एक युवक से प्यार करती हूं. वह 19 वर्ष का है. मुझ से पहले वह किसी अन्य युवती से प्यार करता था, जिस की अब शादी हो गई है लेकिन वह अब भी उसे प्यार करता है. मैं उस से बहुत प्यार करती हूं पर वह मुझ से प्यार नहीं करता. प्लीज, मुझे बताएं कि मुझे क्या करना चाहिए ?

जवाब

कमाल की बात है कि आप ऐसे युवक से प्यार करती हैं जो आप से प्यार नहीं करता बल्कि किसी और से प्यार करता है. भले ही उस युवती की शादी हो चुकी है पर उस का रुझान तो उसी तरफ है.

आप के केस में आप का उस के प्रति प्यार एकतरफा है, दूसरी ओर उस युवक का भी एक शादीशुदा से प्यार करना ठीक नहीं. इस से जहां वह अपना जीवन नीरस बना रहा है वहीं उस की शादीशुदा जिंदगी में जहर घोल रहा है. इस से उन दोनों के घर समस्या पैदा होगी, तिस पर आप उसे चाहती हैं तो आप भी परेशान रहेंगी.

अगर आप उस से सच्चा प्यार करती हैं तो पहले अपने एकतरफा प्यार को दोतरफा कर लें यानी उस के मन में अपने प्रति प्यार जगाएं. जब वह भी आप से प्रेम करने लगेगा तो आप धीरेधीरे उसे उस की पुरानी यादों व प्रेम से निकालें, जिस का अब उस लड़की की शादी हो जाने के बाद कोई अर्थ भी नहीं रह गया है.

जब वह आप से प्यार करने लगेगा, उस  शादीशुदा से ध्यान हटाएगा, तो वह शादीशुदा युवती भी अपने पति व परिवार की ओर ध्यान दे पाएगी. इस तरह न केवल आप का प्यार परवान चढ़ेगा बल्कि तीनों परिवारों की परेशानी भी हल हो जाएगी.

आप भी तो नहीं आए थे : भाग 3

भैया मेरे पास आ कर बैठे तो बहुत दुखी, उदास, टूटेटूटे और निराश लग रहे थे. वह बोले, ‘‘एकदो दिन में सब चले जाएंगे. फिर मैं रह जाऊंगा और मकान में फैला मरघट सा सन्नाटा. प्रेम से बसाया नीड़ उजड़ गया. सब फुर्र हो गए. अब कैसे कटेगी मेरी तनहा जिंदगी…’’ और इतना कहतेकहते वह फफक पड़े.

थोड़ी देर बाद मुझ से फिर बोले, ‘‘क्यों श्रीकांत? कभी तुम्हारी भेंट तन्मय से होती है?’’

‘‘कभीकभार सड़कबाजार में मिल जाता है या घूमने के दर्शनीय स्थलों पर टकरा जाता है अचानक. बस.’’

‘‘कभी तुम्हारे पास आताजाता नहीं?’’

‘‘नहीं.’’

भैया, फिर रोने लगे.

मैं लौन में जा कर टहलने लगा, कुछ देर बाद भैया मेरे पास आए और बोले, ‘‘अब कभी तन्मय तुम्हें मिले तो पूछना कि मां की मृत्यु पर क्यों नहीं आया. मां को एकदम ही क्यों भुला दिया?’’

तन्मय के इस बेगाने व रूखे व्यवहार की पीड़ा उन्हें बहुत कसक दे रही थी.

उन की इस करुण व्यथा के प्रति, उस बेकली के प्रति, मेरे मन में दया नहीं उपजी… क्रोध फुफकारने लगा, मन में क्षोभ उभरने लगा. मन में गूंजने लगा कि अपनी मां की मृत्यु पर तुम भी तो नहीं आए थे, तुम्हारे मन में भी तो मां के प्रति कोई ममता, कोई पे्रम भावना नहीं रह गई थी. यदि तुम्हारा बेटा अपनी मां की मृत्यु पर नहीं आया तो इतनी विकलता क्यों? क्या तुम्हारी मां तुम्हारे लिए मां नहीं थी, तन्मय की मां ही मां है. तन्मय की मां के पास तो धन का विपुल भंडार था, उसे तन्मय को पालतेपोसते वक्त धनार्जन हेतु खटना नहीं पड़ा था, पर तुम्हारी मां तो एक गरीब, कमजोर, बेबस विधवा थी. लोगों के कपड़े सींसीं कर, घरघर काम कर के उस ने तुम्हें पालापोसा, पढ़ाया, लिखाया था. जब तन्मय की मां अपने राजाप्रासाद में सुखातिरेक से खिल- खिलाती विचरण करती थी तब तुहारी मां दुख, निसहायता, अभाव से परेशान हो कर गलीगली पीड़ा के अतिरेक से बिलबिलाती घूमती थी. उसी विवश पर ममतामयी मां को भी तुम ने भुला दिया… भुलाया था या नहीं.

तेरहवीं बाद सब विदा होने लगे.

विदा होने के समय भैया मुझ से लिपट कर रोने लगे. बोले, ‘‘पूछोगे न भैया तन्मय से?’’

मेरे मुंह से निकल पड़ा, ‘‘यह पूछना निरर्थक है.’’

‘‘क्यों? निरर्थक क्यों है?’’

‘‘क्योंकि आप जानते हैं कि वह क्यों नहीं आया?’’

‘‘मैं जानता हूं कि वह क्यों नहीं आया,’’ यंत्रचलित से वह दोहरा उठे.

‘‘हां, आप जानते हैं…’’ मैं किंचित कठोर हो उठा, ‘‘जरा अपने दिल को टटोलिए. जरा अपने अतीत में झांक कर देखिए…आप को जवाब मिल जाएगा. याद कीजिए, जब आप अपनी मां के बेटे थे, अपनी मां के लाडले थे तो आप को अपनी बीमार मां का, आप के वियोग की व्यथा से जरूर दुखी मां का, आंसुओं से भीगा निस्तेज चेहरा दिखलाई देगा यही शिकायत करता हुआ जो आप को अपने बेटे तन्मय से है.

‘‘वह पूछ रही होगी, ‘बेटा, तू मुझे बीमारी में भी देखने कभी नहीं आया. तू ने बाहर जा कर धीरेधीरे मेरे पास आना ही छोड़ दिया, वह मैं ने सह लिया…मैं ने सोच लिया तू अपने परिवार के साथ खुश है. मेरे पास नहीं आता, मुझे याद नहीं करता, न सही. पर मैं लंबे समय तक रोग शैया पर लेटी बीमारी की यंत्रणा झेलती रही, तब भी तुझे मेरे पास आने की, बीमारी में मुझे सांत्वना देने की इच्छा नहीं हुई. तू इतना निर्दयी, इतना भावनाशून्य, क्योंकर हो गया बेटा, तू अपनी जन्मदात्री को, अपनी पालनपोषणकर्ता मां को ही भुला बैठा, तू मेरी मृत्यु पर मुझे कंधा देने भी नहीं आया, मैं ने ऐसा क्या कर दिया तेरे साथ जो तू ने मुझे एकदम ही त्याग दिया.

‘‘ ‘ऐसा क्यों किया बेटा तू ने? क्या मैं ने तुझे प्यार नहीं किया? अपना स्नेह तुझे नहीं दिया. मैं तुझे हर समय हर क्षण याद करती रही, मां को ऐसे छोड़ देता है कोई. बतला मेरे बेटे, मेरे लाल. मेरे किस कसूर की ऐसी निर्मम सजा तू ने मुझे दी. तुझे एक बार देखने की, एक बार कलेजे से लगाने की इच्छा लिए मैं चली गई. मुझे तेरा धन नहीं तेरा मन चाहिए था बेटा, तेरा प्यार चाहिए था.’ ’’

कह कर मैं थोड़ा रुका, मेरा गला भर आया था.

मैं आगे फिर कहने लगा, ‘‘आप अपने परिवार, अपनी पत्नी और संतान में इतने रम गए कि आप की मां, आप की जन्मदात्री, आप के अपने भाईबहन, सब आप की स्मृति से निकल गए, सब विस्मृति की वीरान वादियों में गुम हो गए. सब को नेपथ्य में भेज दिया आप ने. उन्हीं विस्मृति की वीरान वादियों में…उसी नेपथ्य में आप के बेटे तन्मय ने आप सब को भेज दिया, जो आप ने किया वही उस ने किया. सिर्फ इतिहास की पुनरावृत्ति ही तो हुई है, फिर शिकवाशिकायत क्यों? रोनाबिसूरना क्यों? वह भी अपने प्रेममय एकल परिवार में लिप्त है और आप लोगों से निर्लिप्त है, आप लोगों को याद नहीं करता. बस, आप को अपने बच्चोंं की मां दिखलाई दी पर अपनी मां कभी नजर नहीं आईं, उस को भी अपनी मां नजर नहीं आ रहीं.’’

कह कर मैं फिर थोड़ा रुका, ठीक से बोल नहीं पा रहा था. गला अवरुद्ध सा हुआ जा रहा था. कुछ क्षण के विराम के बाद फिर बोला, ‘‘लगता यह है कि जब धन का अंबार लगने लगता है, जीवन में सुखसुकून का, तृप्ति का, आनंद का, पारावार ठाठें मारने लगता है, तो व्यक्ति केवल निज से ही संपृक्त हो कर रह जाता है. बाकी सब से असंपृक्त हो जाता है. उस के मनमस्तिष्क से अपने मातापिता, भाईबहन वाला परिवार बिसरने लगता है, भूलने लगता है और अपनी संतान वाला परिवार ही मन की गलियों, कोनों में पसरने लगता है. सुखतृप्ति का यह संसार शायद ऐसा सम्मोहन डाल देता है कि व्यक्ति को अपना निजी परिवार ही यथार्थ लगने लगता है और अपने मातापिता वाला परिवार कल्पना लगने लगता है और यथार्थ तो यथार्थ होता है और कल्पना मात्र कल्पना.

‘‘आप को अपनी पत्नी की अपने पुत्र को देखने की ललक दिखलाई पड़ी. अपनी मां की अपने पुत्र को देखने की तड़प दिखलाई नहीं पड़ी. अपनी बीमार पत्नी की बेटे के प्रति चाह भरी आहेंकराहें सुनाई पड़ीं पर अपनी बीमार मां की, आप को देखने की दुख भरी रुलाई नहीं सुनाई पड़ी.

‘‘क्यों सुनाई पड़ती? क्योंकि आप भूल गए थे कि कोई आप की भी मां है, जैसे आप की पत्नी ने रुग्ण अवस्था में दुख भोगा था आप की मां ने भी भोगा था. जैसे आप की पत्नी ने अपने पुत्र के आगमन की रोरो कर प्रतीक्षा की थी वैसे ही दुख भरी प्रतीक्षा आप की मां ने आप की भी की थी. पर आप न आए. न आप पलपल मृत्यु की ओर अग्रसर होती मां को देखने आए और न ही उस के अंतिम संस्कार में शामिल हुए.

‘‘वही अब आप के पुत्र ने भी किया. यह निरासक्ति की, बेगानेपन की फसल, आप ने ही तो बोई थी. तो आप ही काटिए.’’

भैया कुछ न बोले…बस,

प्रतिवचन : भाग 3

‘मां, आप गाती क्यों नहीं?’ ‘वो बेटा, कभीकभी जीवन में कुछ फैसले मानने पड़ते हैं.’

‘मम्मा, आप कोई भी बात ऐसे ही मान लेती हो. ऐसा होता आया है, इसलिए हम बात क्यों मानें? हमें पहले यह जानना चाहिए की जो हो रहा है वह क्यों हो रहा है.’ ‘पापा और दादी मुझे होस्टल भेजना चाहते हैं, पर मैं नहीं चाहता, उन्हें मेरा नाम भी पसंद नहीं है. वह भी बदल देंगे शायद. मम्मा, आप दादी से बात करोगी?’

सुमित ने मुझे इस विषय में कुछ नहीं बताया था. शादी के वचन आज कानों में तेज चिल्ला रहे थे, ‘आप अपने हर निर्णय में मुझे शामिल अवश्य करें.’ परंतु मैं फिर भी जाग नहीं पाई.

‘बेटा, दादी जो कहती हैं…’ ‘मैं जानता था आप से नहीं होगा. मैं दादी से बात खुद कर लूंगा.’

फिर मुंह फेर कर सप्तक तो सो गया था, परंतु 13 साल से सोई अपनी मां को जगा दिया था उस ने. मेरा 10 साल का बेटा इतना बड़ा कब हो गया, मैं जान ही न पाई. शादी के जो वचन मेरे कानों में आ कर फुसफुसाते थे, आज वे पूरी तरह से आ कर सामने खड़े हो गए थे. कितने पुरुष निभाते हैं ये सारे वचन? शायद एक भी नहीं, उन से तो निभाने की उम्मीद तक नहीं की जाती. मेरे अब तक के जीवन में समझौता केवल मैं ने किया है, वचन केवल मैं ने निभाए हैं. सुमित को तो शायद याद भी नहीं कि उन्होंने कोई वचन भी दिया था.

वह इसलिए क्योंकि पुरुष बड़ी चतुराई से इन वचनों को भूल जाता है परंतु स्त्री को ये वचन भूलने ही नहीं दिए जाते. अपने सासससुर की सेवा न करने पर क्या किसी दामाद को कभी कठघरे में खड़ा करता है यह समाज? उस की लाख बुराइयों को भी छिपा लिया जाता है. परंतु एक बहू जब ऐसा करती है तो बिना कारण जाने उसे अनगिनत गलत संबोधनों से नवाजा जाता है. तानेउलाहने सुन कर भी जो चुप रहे उसी स्त्री को अच्छी बहू का मैडल मिलता है. कभीकभी तो वह भी नहीं मिलता. उस दिन समझ पाई थी मैं, शादी के इन वचनों को बनाया ही इसलिए गया था ताकि स्त्रियों को पुरुषों के ऊपर निर्भर रखा जा सके. यह पूरी प्रथा ही पितृसत्तात्मक सोच के अहं को संतुष्ट करने के लिए बनाई गई थी. स्त्री को अपने सुखों के लिए किसी पर निर्भर क्यों रहना पड़ता है?

पंडितों ने अपनी तथा पुरुष संप्रभुता को बनाए रखने के लिए ये सारे नियमकानून बनाए थे.

मैं अपने बेटे को पुरुष होने का दंभ भरते हुए नहीं देख सकती थी. मैं उसे इस सोच के साथ बड़ा होता नहीं देख सकती कि हर स्त्री को अपनी रक्षा अथवा अपने फैसले लेने के लिए पुरुष की आवश्यकता होती है. अपने लिए तो फैसला अब मैं खुद लूंगी. अगले दिन सुबह ही मैं ने सुमित को बता दिया था कि मैं ने नोएडा में रहने का निर्णय लिया है. घर में तूफान आ गया था. सबकुछ बहुत कठिन था, परंतु मेरे ससुर, देवर और छोटी ननद इस बार चट्टान की तरह मेरे साथ खड़े थे. अगर वे साथ न भी होते तो भी मैं पीछे हटने वाली नहीं थी.

मेरी सास ने मुझे इस के लिए कभी भी माफ नहीं किया था. परंतु पिछले 15 सालों से भी तो वे मुझे अकारण ही सजा दे रही थीं. जया की शादी के अगले ही दिन हम नोएडा आ गए थे. सुमित का असहयोग आंदोलन यहां आ कर भी जारी था. मांबेटे की जुगलबंदी मुझे परेशान करने के तरीके निकालती रहती थी.

मैं ने कुछ दिनों बाद ही एक स्कूल में संगीत की शिक्षा देनी शुरू कर दी थी. धीरेधीरे सुमित भी समझने लगे थे कि अब मेरा पीछे लौटना नामुमकिन था. समय अपनी रफ्तार से बढ़ता रहा. सप्तक जब फैशन डिजाइनिंग का कोर्स करने कनाडा गया, तो उसी दौरान मैं ने अपने संगीत स्कूल की नींव डाली थी.

सप्तक ने जब अलीना से विवाह का निर्णय लिया तब भी सारे परिवार के विरुद्ध खड़े हो कर मैं ने अपने बेटे के सही कदम का साथ दिया था. अलीना एक ईसाई परिवार की लड़की थी परंतु मेरे लिए यह बात कोई माने नहीं रखती थी. धर्मजाति पर पता नहीं क्यों लोग इतना घमंड करते हैं. आप कहां पैदा होंगे, इस पर आप का क्या अधिकार? इसलिए कोई उच्च और कोई नीच कैसे हो सकता है?

सप्तक ने कोर्टमैरिज करने का निर्णय लिया था. इन झूठे कर्मकांडों और व्यर्थ के आडंबरों से मेरा भरोसा भी उठ चुका था. सुमित को भी सप्तक ने अपनी दलीलों से चुप करा दिया था. शादी के बाद हम ने एक छोटी सी पार्टी दे दी थी.

जब सारी उम्र मैं ने सप्तक को सही का साथ देना सिखाया, फिर आज जब वह अलीना का साथ दे रहा है तो मुझे बुरा क्यों लगा? हर प्रश्न का सही प्रतिवचन दिया था उस ने. मैं भी जानती थी कि अलीना और सप्तक सही हैं. क्या अपने बेटे को मुझे अलीना के साथ बांटना असहनीय लग रहा है? क्या मुझे उस का अलीना को सही और मुझे गलत कहना तकलीफ दे रहा है?

नहीं, शायद अपनी कल्पना को यथार्थरूप में देख कर मैं अभिभूत हो गई हूं. सप्तक मेरी कल्पना का ही तो मूर्तरूप है. ‘‘मम्मा, अंदर आ सकता हूं.’’

सप्तक की आवाज मुझे वर्तमान में खींच लाई थी. ‘‘हां बेटा, आ जाओ, अंदर आ जाओ.’’

‘‘आप मुझ से नाराज हैं न मां?’’ ‘‘क्यों, क्या तुम ने कुछ गलत किया है?’’

‘‘नहीं, पर वो आज…’’ ‘‘जो सत्य है वह अप्रिय हो सकता है परंतु वह गलत नहीं हो सकता. यदि आप किसी से प्रेम करते हैं तो उस के गलत को भी सही कहने के लिए बाध्य नहीं हैं. इसलिए मैं तुम से नाराज

नहीं हूं बल्कि आज मुझे तुम पर गर्व हो रहा है. ‘‘मैं जैसे पुरुष की कल्पना किया करती थी, तुम ने उसे साकार कर के मेरे सामने खड़ा कर दिया है. मेरा बेटा एक ऐसा पुरुष है जो अपने पुरुष होने को मैडल की तरह नहीं पहनता.

‘‘जिस प्रकार वह सिर झुका कर अपनी मां का आदर करता है उसी प्रकार अपनी मां द्वारा लिए गए गलत निर्णय का विरोध भी करता है.’’ ‘‘यह सब क्या कह रही हो तुम, मधु? क्या तुम्हें सप्तक की बात बिलकुल बुरी नहीं लगी?’’

‘‘सुमित, इस में बुरा लगने जैसा क्या है? मेरा बेटा किसी भी प्रश्न का प्रतिवचन देने से न स्वयं डरता है और न अपनी साथी, अपनी पत्नी को रोकता है.’’ ‘‘हां, सही कह रही हो,’’ इतना कह कर सुमित चुप हो गए थे.

‘‘तो इस का मतलब है मैं ट्रेकिंग पर जा रही हूं,’’ अलीना भी मेरे कमरे में आ गई थी. ‘‘ट्रेकिंग पर बाद में जाना है, अभी तुम दोनों सोने जाओ. मुझे भी नींद आ रही है.’’

‘‘मम्मापापा, चलिए पहले आइसक्रीम पार्टी करते हैं,’’ सप्तक ने हंसते हुए कहा, ‘‘चलो, सब चलते हैं.’’ ‘‘मैं फ्रिज से आइसक्रीम निकालती हूं, सप्तक तुम कोई अच्छी सी मूवी लगा लो,’’ यह कह कर अलीना चली गई.

हम सब भी उस के पीछे कमरे से निकल ही रहे थे कि अचानक सुमित मेरी तरफ मुड़ कर बोले, ‘‘वैसे तुम लिख क्या रही थी, मधु?’’ ‘‘कुछ नहीं, एक समाज की कल्पना कर रही थी.’’

‘‘कैसे समाज की, मम्मा?’’ ‘मैं तो बस, एक ऐसे समाज की कल्पना करती हूं जहां-

‘‘पुत्रजन्म पर अभिमान न हो ‘‘पुत्री का कहीं दान न हो

‘‘मानवता के धर्म का हो नमन ‘‘सत्यकथन पर न लगे ग्रहण

‘‘रिश्ते निभें बिना लिए वचन ‘‘हर प्रश्न को मिले प्रतिवचन.’’

छोटे रिश्ते बड़े काम : भाग 3

उन्होंने सोचा. एक पल तो लगा कि सब उन्हें एक अजूबे जैसी दृष्टि से निहार रहे हैं कि भला यह देहाती सा आदमी क्या गायक हो सकता है. इरा की इस हरकत का प्रभाव यह हुआ था कि राकेश को भी अपने साथियों सहित उस कमरे में आना पड़ा था और कहना पड़ा था, ‘‘यह हमारे बाबूजी हैं. अभी कुछ दिन पहले ही यहां आए हैं. पैर में कुछ तकलीफ है. इसी से यहीं बैठे रह गए.’’

सब उन को अभिवादन कर रहे थे. राकेश ने न्यायाधीश महोदय को भी उन से बड़ी ही विनम्रता से परिचित करवाया. उन्होंने चश्मे से आंख उठा कर देखालगायह चेहरा कहीं देखा है-कहां?

न्यायाधीश उन्हें ध्यान से देखते रहेफिर पता नहीं क्या हुआइतनी भीड़ के बीच में भी शायद अपनी हैसियत भूल और लपक कर उन के चरणों में झुक गए, ‘‘आप ने पहचाना नहींगुरुजी?’’

उन का कंठ गदगद हो उठा, ‘‘बसएक ही आवाज में पहचान लियाबेटा. तू तो निहाल डोम का बेटा चैतू है न?’’ कहतेकहते उन की आंखें डबडबा आईं. जिन से बचाने के लिए राकेश ने उन्हें कमरे में अलग बैठाया थावही सब के सामने उन के चरणों पर झुक गए थे. न्यायाधीश महोदय उन के पास ही पलंग पर पांयते बैठ गए और हाथ थाम कर बोले, ‘‘गुरुजीपलट कर कभी आप के दर्शन करने न जा सका. लेकिन भूला नहीं कभी. जब भी किसी संगीत सभा में गयाआप को सब से पहले याद किया. मैं ने संगीत की शिक्षा भी ली और कानून की. आप का पढ़ाने का ढंग ऐसा था कि शहर आ कर जो किताब उठाता वह दिल में बैठ जाती.’’

राकेश के साथी अधिकांश वकील ही थे. न्यायाधीश महोदय उन के पिता के पास यों वात्सल्यभरा प्यार लूटने बैठ जाएयह उन सब के लिए चमत्कारिक भी था और एक शुभ संयोग भी. शायद पिता का कम और मुख्य न्यायाधीश महोदय का अधिक ध्यान थातभी वे  सब एक स्वर में चीखे, ‘‘पिताजीबाबूजीहम तो आप का गायन अवश्य सुनेंगे. इस के बिना तो इरा की पार्टी अधूरी रह जाएगी.’’

न्यायाधीश महोदय ने भी कहा, ‘‘हां गुरुजीकितने वर्षों से आप का मधुर स्वर नहीं सुनाआज तो मैं जाऊंगा नहींआप का संगीत रस पिए बिना. उम्मीद है कि अब मेरी जाति इस घर को परेशान नहीं करेगी. आप ने तो उस समय प्यार दियाजब गांव में मेरे पिता के साए को भी दूर रखा जाता था.’’

उन्होंने सिर उठा कर देखाराकेश और बहू दृष्टि चुराए खड़े थे. हंसते हुए वह सामान्य हो उठे. उन्हें लगासारा मन का क्लेश इन छोटेछोटे रिश्तों के प्यार ने धोपोंछ दिया है. वह बोले, ‘‘परएक शर्त पर गाऊंगा.’’ सब ने चौंक कर देखातो वह राकेश से बोले, ‘‘देख राकेशमेरे दो शागिर्द यहां उपस्थित हैंएक चैतू और दूसरे तुम. पहले तुम दोनों गाओगेफिर मैं.’’

उन की बात पर प्रभात कुमारमुख्य न्यायाधीश महोदय मंदमंद मुसकरा उठेपर राकेश सकपका कर बोला, ‘‘मुझे अब कहां याद है कुछ?’’वह उठते हुए बोले, ‘‘एक ही लाइन गानाबाकी मैं संभाल लूंगा.’’ और न्यायाधीश महोदय को कंधे पकड़ कर उन्होंने उठा दियाकहा, ‘‘चलोप्रभातपहले तुम्हारी ही परीक्षा ले लें. कितना खोयाकितना पाया इतने वर्षों में?’’न्यायाधीश महोदय फिर झुके और घुटने छू कर बोले, ‘‘आप को देख कर अब खोया हुआ भी लौट आएगागुरुजी.’’

ऐनी तुम कहां हो : भाग 3

‘ऐनी को कुछ नहीं हुआ, उस की बड़ी बहन गंभीर रूप से बीमार है.‘

‘तो उस में ऐनी क्या करेगी!’ यह रोष से भरा चीखता हुआ स्वर मेरा था. ऐनी पर होने वाली नियमित बातचीत में यह मेरी पहली भागीदारी थी.

‘चिल्लाते क्यों हो यार, मैं तो खबर दे रहा हूं. दिल्ली जाने का निर्णय भी ऐनी का ही है. कोई क्या कर सकता है,’ प्रो. शर्मा ने नाराजगी से कहा.

मैं थोड़ा संयत हुआ; पूछा, ‘हुआ क्या है?’

प्रो. शर्मा बोले, ‘ऐनी की बहन की दोनों किडनी फेल हो गई हैं, 2 छोटे बच्चे हैं. ऐनी ने किडनी देने का निर्णय  लिया है. मैचिंग हो गई है. 2 दिनों बाद औपरेशन हो जाएगा.’ मैं अवाक रह गया. अचानक ही मैं कांपते कदमों से उठ कर बाहर की तरफ जाने लगा. चर्चा जारी थी- कोई कह रहा था कि किडनी देने की क्या जरूरत है. किसी ने कहा कि आजकल तो ट्रांसप्लांट बड़ा आसान है तो किसी ने कहा, ‘ग्रेट ऐनी.’ कोई बोला कि कभीकभी रिश्ते भी मजबूरी में डाल देते हैं. ऐनी की उम्र ही क्या है. प्रो. शर्मा बोले, ‘बुद्धिमान तो मूर्खता से बच जाते है, अबोध नहीं. जहां तक ऐनी की बात है, शी इज़ परफैक्ट पीस औफ़ फुलिशनैस.   दरवाजे से निकलतेनिकलते मैं बुदबुदाया था, ‘मैं जानता हूं ऐनी को, वह ऐसी ही है अनकैलकुलेटेड.’

दो दिन कपूर की तरह धुआं हो गए. खबर आई, ऐनी का औपरेशन सक्सैस नहीं रहा. वह गंभीर है. उसे वैंटिलेटर पर रखा गया है. अगले ही घंटे मैं ट्रेन में था. पहली बार मैं आंखें बंद कर किसी को देख रहा था. निश्चित ही ऐनी को. उस की तसवीर खुली आंखों से कहीं ज्यादा साफ थी. मैं उस के उन सवालों को याद कर रहा था जो उसे हंसी का पात्र बना देते थे. कालेज के पिछले 4 साल ऐनी के भोलेभाले सवालों पर सवार हो कर उड़ गए थे. उस की छोटीछोटी बातों को याद कर मैं मुसकरा रहा था. अचानक ही मेरी आंखें भीग आईं…‘ऐनी को कुछ होगा तो नहीं?’ ऐनी मेरे लिए फिर एक सवाल थी जिस का मेरे पास कोई भी जवाब न था.

सुबहसुबह मैं स्टेशन से सीधे अस्पताल पहुंचा. 11 बजे डाक्टर ने बताया, ऐनी की स्थिति में कोई सुधार नहीं है. हां, 5 मिनट के लिए हम चाहें तो उस से मिल सकते हैं. कुछ लोगों के मिल कर आने के बाद मैं आईसीयू में ऐनी के पास पहुंच गया था. वह स्थिर आंखों से मुझे देख रही थी. औक्सीजन मास्क उस के चेहरे पर था. मैं गरदन झुकाए बुत की तरह बैठा रहा. दुख के वे पल सदियों में बदल गए. ऐसा लगा जैसे  सारे ब्रह्मांड का सन्नाटा उस कमरे में समा गया हो. पता नहीं कैसे अचानक उस का हाथ पकड़ कर मैं बोल उठा, ‘ऐनी, तुम ने यह क्या किया. मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं.’

वह बोलने में असमर्थ थी. उस ने आंखों से इशारा किया और एक हाथ कान के पास ले गई. मैं समझ गया वह मोबाइल मांग रही थी. मैं ने उस के सिरहाने रखा उस का मोबाइल उस के हाथ में दे दिया. उस की आंखें आंसूओं पर नियंत्रण खो चुकी थीं. मैं स्वयं भावनाओं के बढ़ते तूफान से हार चुका था. वह जगह मुझे ऐसी खौफनाक सुरंग की तरह लग रही थी जिस में पलदोपल में ही सारी दुनिया समा जाने वाली हो.

मैं उठा और तेजी से बाहर की तरफ भागा. वेटिंगरूम तक पहुंचतेपहुंचते मैं पूरी तरह आंसुओं में बदल चुका था.

अचानक ही मेरे मोबाइल पर एसएमएस की रिंग आई. न्यू मैसेज था. नादान ऐनी. ऐनी का नंबर मेरे मोबाइल में इसी नाम से सेव था. ऐनी का ही मैसेज था. इनबौक्स में गया, देखा, लिखा था- ‘मैं जानती थी, आप मुझे प्यार करते हैं.’ ऐसा लगा, ऐनी के चंद शब्दों को मैं ने एक ही पल में लाखों बार पढ़ डाला हो. मैं पढ़तेपढ़ते रो रहा था. रोतेरोते ही पढ़ रहा था.

अचानक एसएमएस की दोबारा रिंग आई, देखा, नादान ऐनी. तुरंत इनबौक्स में गया. लिखा था- ’लेकिन आप नहीं जान पाए.’

हिमालय में सदियों से जमे हुए सारे ग्लेशियर पिघलपिघल कर बह चले थे, सारी दुनिया डूब चुकी थी, मैं अकेला जीवन से लड़ रहा था. शायद, ऐनी एक बार फिर कुछ अबोध बात कहे… मजाक करे… शायद, फिर कोई नादान सवाल करे…

मोबाइल एक बार फिर बज उठा. देखा, नादान एनी. तुरंत इनबौक्स में गया, लिखा था- ‘योअर ऐनी इज नो मोर.’ मैं उठा और बदहवास सा आईसीयू की तरफ लपका. गार्ड ने पकड़ कर मुझे एकतरफ कर दिया. मैं बेज़ान खड़ा रहा…देखा, एक डैड बौडी चादर में लपेट कर बाहर लाई जा रही है. ‘यह ऐनी थी!’

’तुम्हारी ऐनी नहीं रही.’

यह नादान ऐनी की तरफ से पूरे होशोहवास में आया हुआ पहला सवाल था.

इस सवाल के जवाब में आज मेरे पास भी एक सवाल है- “ऐनी, ऐनी तुम कहां हो?”

सुलझते रिश्ते : भाग 3

“अखिल… अखिल, सुनो मेरी बात, अगर तुम ही इस तरह से हिम्मत हार जाओगे, तो उन्हें कौन संभालेगा?” हर्षदा उसे समझाते हुए बोली, “मैं आ जाती वहां, पर तुम्हें तो पता है कि काम पूरा करे बगैर नहीं आ सकती. इसलिए कह रही हूं कि अपने मन को कड़ा करो, क्योंकि अब तुम्हें ही सबकुछ संभालना है.

“समझ रहे हो न मेरी बात…? तो प्लीज, रोओ मत… क्योंकि तुम्हें रोते देख वे लोग भी टूट जाएंगे.“

“हां, ठीक है. तुम अपना ध्यान रखना,” कह कर अखिल ने फोन रख दिया.

बेटे निखिल के गम में अखिल के मम्मीपापा बेसुध पड़े थे. न वे ठीक से खापी रहे थे और न सो पा रहे थे, और जिस का असर सीधे उन की सेहत पर पड़ रहा था. इधर निकिता को भी अपने पति के जाने का ऐसा सदमा लगा था कि वह न तो रो रही थी और न कुछ बोल रही थी. डाक्टर का कहना था कि निकिता को कैसे भी कर के रुलाना ही पड़ेगा, वरना इस का असर उस के होने वाले बच्चे पर पड़ सकता है.

हां, निकिता 2 महीने की प्रेगनेंट थी. यह बात जब निखिल को मालूम पड़ी, तो वह खुशी से बौखला गया था. मगर उसे क्या पता था कि अपने बच्चे का मुंह देखे बगैर ही वह इस दुनिया को छोड़ कर चला जाएगा.

एक रोज अखिल के बहुत कोशिश करने पर अपने पति को याद कर निकिता खूब रोई और रोतेरोते बेहोश हो गई. अब जो हो चुका था उसे बदला तो नहीं जा सकता था. लेकिन अब निकिता के सासससुर को उस के और उस के होने वाले बच्चे के भविष्य की चिंता सताने लगी कि उन के बाद इन दोनों का क्या होगा क्योंकि पूरी जिंदगी वे उन के साथ तो नहीं रह सकते न. एक उम्र के बाद सब को यह दुनिया छोड़ कर जाना ही पड़ता है. इसलिए उन्होंने विचार किया कि निकिता की दूसरी शादी करा दी जाए. लेकिन क्या पता कि सामने वाला निकिता के बच्चे को न अपनाए तो…?

वैसे, बच्चे को दादादादी या नानानानी भी पाल सकते थे, मगर एक मां से उस के बच्चे को छीनना पाप ही होगा न. इसलिए उन्हें अब एक ही रास्ता सूझा कि अखिल से निकिता की शादी करा दी जाए, तो सब ठीक हो जाएगा.

“मां, ये आप क्या कह रही हैं? मैं भाभी के साथ शादी…” अपनी मां के मुंह से निकिता से शादी की बात सुन कर अखिल चैंक गया.

“नहींनहीं मां, म… मैं ऐसा नहीं कर सकता. मैं ने कभी भाभी को उस नजर से नहीं देखा. और, मैं तो…“

“मैं तो क्या…? बता न? तू क्या चाहता है? तेरे भाई की आखिरी निशानी, उस का बच्चा अनाथ बन कर जिए? उसे बाप का सुख न मिले? देख बेटा, अब एक तू ही है, जो इस घर की खुशियां लौटा सकता है, वरना तो आह…” कह कर अखिल की मां ने अपनी छाती पकड़ ली और वह गिरने ही वाली थी कि अखिल ने दौड़ कर उन्हें थाम लिया.

“मां…. आ… आप ठीक तो हैं? आज बीपी की दवा नहीं ली क्या?”

“नहीं बेटा, दवा तो सुबह ही ले ली थी, लेकिन अब जीने का मन नहीं करता. जिस मांबाप का जवान बेटा उन के सामने चला जाए, उस मांबाप को जीने का कैसे मन करेगा. बता न…? निकिता बहू का सोच कर कलेजा मुंह को हो आता है. सोचती हूं कि हमारे बाद उस का क्या होगा? अब तो बस तुझ से ही उम्मीद है बेटा,” अखिल का हाथ पकड़ कर वे सिसक पड़ीं. देखा अखिल ने, उस के पापा भी कैसे औंधे मुंह सोफे पर पड़े थे. और उधर निकिता भी अपने कमरे में उदास पड़ी थी.

‘ये क्या हो गया एकदम से घर में,’ अपने मन में ही बोल अखिल रो पड़ा. लेकिन उस ने भी सोच लिया कि अब उसे क्या करना है.

एकदम सादा ढंग से अखिल और निकिता के मातापिता और उन के रिश्तेदारों के बीच अखिल ने निकिता की मांग में सिंदूर भर दिया और निकिता उस की दुलहन बन गई. लेकिन इस शादी से न तो अखिल खुश था और न ही निकिता.

खैर, अब जो होना था सो तो हो ही गया. निकिता और अखिल अब दुनिया की नजर में पतिपत्नी थे और इस बात को झुठलाया नहीं जा सकता था.

लेकिन अखिल यह सोच कर कांप उठता कि अब वह हर्षदा से नजरें कैसे मिलाएगा? क्या जवाब देगा उसे, जब वह सवाल करेगी कि उस ने उसे धोखा क्यों दिया? क्या समझ पाएगी वह कि यह शादी उस ने मजबूरी में की है.

अब जब भी हर्षदा का फोन आता, वह फोन न उठा कर बस एक मैसेज छोड़ देता ‘मैं बिजी हूं, कुछ देर बाद फोन करता हूं.’ ऐसा करते वह दिल से कितना रोता था, वही जानता है.

याद है उसे, जब वह हर्षदा को एयरपोर्ट पर छोड़ने गया था, तब उस की आंखों से आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे. वह पीछे मुड़मुड़ कर बारबार अखिल को देखे जा रही थी. अखिल की आंखें भी तो आंसुओं से तरबतर थीं, पर वह उसे दिखा नहीं रहा था, वरना तुरंत वह उस की खिंचाई कर देती कि मर्द हो कर रोते हो. लेकिन आंसुओं को क्या पता कि रोने वाला मर्द है या औरत, वह तो किसी की भी आंखों से निकल सकता है न.

अखिल को तो लग रहा था कि कैसे जाती हुई हर्षदा को वह दौड़ कर रोक ले और कहे, मत जाओ हर्षदा, मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकूंगा.

वहां पहुंच कर दोनों में रोज बातें होतीं. वीडियो पर भी दोनों घंटों बिताते थे. और इस तरह से 6 महीने कैसे निकल गए, पता ही नहीं चला.

लेकिन, आज वही अखिल हर्षदा से नजरें चुराने लगा था. उस से न बात करने के बहाने ढूंढ़ने लगा था. अखिल को बारबार यही दुख सता रहा था कि उस ने हर्षदा के साथ धोखा किया.

उस दिन जब अखिल नाश्ता कर रहा था, उसी समय हर्षदा का फोन आ गया और उस ने बिना देखे ही फोन उठा लिया.

“क्या है अखिल, कितने दिनों से न कोई फोन, न कुछ. कहां हो तुम? और ये तुम्हें क्या हो गया है? जब भी फोन लगाती हूं, एक मैसेज छोड़ देते हो, ‘मैं बिजी हूं, थोड़ी देर बाद फोन करता हूं’ अरे, एक तुम्हीं बिजी हो क्या? मैं नहीं हूं?” गुस्से से झुंझलाती हुई हर्षदा बोली.

“हां, मैं… सच में बिजी…” अखिल के मुंह से ठीक से शब्द भी नहीं निकल पा रहे थे और हर्षदा थी कि बोले ही जा रही थी.

“अच्छा, यह बताओ कि घर में सब कैसे हैं? अंकलआंटी की तबीयत वगैरह अच्छी है न?” हर्षदा ने पूछा.

“हां… स… स… सब ठीक है. तुम बताओ?” अखिल बोला.

“ मैं तो ठीक हूं. बस, अब जल्दी से आ कर तुम्हारे सीने से लग जाना चाहती हूं,” हर्षदा चहकी. बोलो, तुम्हें भी मेरा इंतजार है न?” लेकिन, अखिल ‘हैलो… हैलो… हैलो’ कर के फोन रख दिया.

‘ओह, शायद, अखिल के फोन में नैटवर्क नहीं आ रहा होगा,’ अपने मन में ही बोल हर्षदा ने फिर कई बार फोन लगाया, लेकिन अखिल का फोन बिजी बता रहा था.

हर्षदा ने उस रोज फोन कर के जब अखिल से कहा कि यहां पेरिस का सारा काम अच्छे से हो गया है और अगले महीने वह इंडिया आ रही है, तो अखिल का दिल जोर से धक्क कर गया.

इन सब झमेलों में उसे याद ही कहां रहा कि हर्षदा के वापस आने के दिन नजदीक आ चुके हैं.

“अखिल… कहां खो गए तुम? सुनो, एयरपोर्ट पर मुझे लेने आना. मैं तुम्हारा इंतजार करूंगी,” लेकिन, अखिल ने सिर्फ ‘हां’ कह कर फोन रख दिया.

अपनी मां से जब अखिल ने पूछा कि निकिता कहां है? क्योंकि उसे उस से निखिल के कुछ कागज वगैरह के बारे में पूछना था. तो वे बोलीं कि वह किसी से मिलने गई है. अखिल को पता था कि आज शाम की फ्लाइट से हर्षदा आने वाली है, लेकिन फिर भी वह उसे लेने नहीं गया.

हर्षदा जब एयरपोर्ट से बाहर निकली तो देखा कि उस के भैया खड़े हैं. “अरे, भैया आप… अखिल नहीं आया मुझे लेने?” बोल कर वह इधरउधर अखिल को ढूंढने लगी, तभी उस के भैया के शब्द उस के कानों में सूई की तरह चुभे.

“अखिल ने शादी कर ली हर्षदा,“ अपने भैया की बात पर पहले तो वह चौंकी, फिर हंस कर बोली, “अच्छा मजाक कर लेते हो भैया? रुको, अभी मैं अखिल को फोन लगा कर आप की शिकायत करती हूं.“

लेकिन उस के भैया कहने लगे कि वह सच कह रहा है. अखिल ने वाकई शादी कर ली है. उस ने धोखा दिया है उस ने.

“भैया, अब तो ज्यादा हो रहा है. प्लीज, मजाक मत करो. कहो कि आप झूठ बोल रहे हो?” लेकिन जब उस के भैया ने अखिल और निकिता की शादी के फोटो उसे दिखाए, तो हर्षदा के पैरों तले की जमीन खिसक गई. हर्षदा को ऐसा लगा जैसे उस की आंखों के आगे अंधेरा छा गया हो.

उस का लगेज हाथ से छूटने ही वाला था कि उस के भैया ने पकड़ लिया और उसे गाड़ी में ले जा कर बिठाया. बेजान सी वह गाड़ी में जा कर बैठ गई. पूरे रास्ते उस के भैया क्याक्या बोले जा रहे थे, उसे कुछ सुनाई नहीं दिया. वह बस चुपचाप सड़क को देखे जा रही थी.

हर्षदा को ऐसा सदमा लगा कि उस की तबीयत बिगड़ गई. डाक्टर का कहना था कि वैसे, तकलीफ तो कुछ नहीं है, पर दिमागी तनाव है.
जब अखिल ने सुना कि हर्षदा की तबीयत खराब है, तो उस ने उसे फोन किया. लेकिन हर्षदा के भैया ने उस के फोन से अखिल का नंबर ब्लौक कर दिया था.

जब अखिल हर्षदा से मिलने उस के घर गया, तो उस के भैया ने उसे बेइज्जत कर बैरंग लौटा दिया और कहा कि अब अगर वह यहां आया तो जान से जाएगा. लेकिन फिर भी वह उस के दरवाजे पर जा कर खड़ा हो जाता कि शायद, एक बार हर्षदा उस से बात कर ले. सुन ले उसे. लेकिन ऐसा नहीं हो पा रहा था.

जब अखिल को यह बात पता चली कि हर्षदा, अब यहां इंडिया में नहीं रहना चाहती. वह हमेशा के लिए पेरिस चली जाना चाहती है और इस के लिए उस ने एप्लीकेशन भी दे दिए थे अपने औफिस में, तो वह पागलों की तरह उस से मिलने उस के घर पहुंच गया. मगर उस के भाई ने घर के नौकर से उस की धुनाई करवा कर बाहर फिंकवा दिया.

अखिल की हालत न घर का न घाट का वाली हो चुकी थी. लेकिन किस से कहे वह अपना दुख. मन तो करता कि वह औफिस से घर ही न जाए. इसलिए आज वह घर न जा कर सीधे ‘बार’ चला गया. रात के तकरीबन 12 बजे जब वह लड़खड़ाता हुआ अपने घर पहुंचा, तो निकिता दरवाजे पर ही उस का इंतजार कर रही थी. वह उसे सहारा दे कर कमरे में ले आई. उस के जूतेमोजे उतारे और उसे बेड पर लिटा कर जाने के लिए मुड़ी ही थी कि अखिल ने उस का हाथ कस कर पकड़ लिया और कहने लगा, “हर्षु, सुनो न, मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं सच में. और ये शादी तो मैं ने मजबूरी में की है. मेरी मरजी से नहीं हुई. हां, तुम्हारी कसम. और तुम जानती हो न कि मैं तुम्हारी झूठी कसम कभी नहीं खाता.”

निकिता जब अपना हाथ छुड़ा कर जाने लगी, तो अखिल फिर कहने लगा, “नहीं हर्षु, मैं अब तुम्हें नहीं जाने दूंगा. तुम मुझे छोड़ कर पेरिस नहीं जाओगी न? नहीं तो देखो, मैं मर जाऊंगा…”

नशे की हालत में आज अखिल ने निकिता के सामने ही सब बक दिया कि यह शादी उस ने मजबूरी में की है, जबकि उस का प्यार तो हर्षदा है.

निकिता पूरी रात यह सोच कर रोती रही कि उस ने भी कैसी किस्मत पाई है. जो उस का प्यार था, उस की वह हो नहीं पाई. जिस से उस की शादी हुई, वह भी उसे छोड़ कर चला गया और अब जिस ने उस का हाथ थामा, वह भी किसी और का प्यार है.

सुबह के 3 बजे निकिता के कराहने की आवाज से अखिल की आंखें खुलीं. उस ने दौड़ कर अपनी मां को जगाया. तुरंत एंबुलेंस को फोन किया गया और निकिता को अस्पताल में भरती कराया गया.

निकिता ने 7 महीने में ही एक बेटे को जन्म दिया. लेकिन बच्चा बहुत कमजोर था, इसलिए उसे आईसीयू में रखा गया. कुछ दिन और अस्पताल में रह कर निकिता अपने बच्चे के साथ घर आ गई.

बच्चे के आने से घर में खुशियां लौट आईं. अखिल के मातापिता को लगा, जैसे निखिल वापस आ गया हो. लेकिन निकिता की जिंदगी तो वैसे ही उदास ही थी.

एक रोज जब अखिल अपने कमरे में बैठा कोई किताब पढ़ रहा था, तभी निकिता उस के करीब जा कर बैठ गई और बोली, “मुझे आप से कुछ बात करनी है.“

“हां, कहिए न,” अखिल बोला.

“मुझे आप तलाक दे दीजिए और हर्षदा से शादी कर लीजिए,” निकिता की बात पर अखिल चैंक पड़ा कि उसे यह सब कैसे पता. निकिता कहने लगी कि उस रात शराब के नशे में उस ने सब बता दिया कि यह शादी उस ने मजबूरी में की है और उस का प्यार हर्षदा है.

निकिता की बात पर अखिल की नजरें झुक गईं.

“नहीं, आप को शर्मिंदा होने की कोई जरूरत नहीं है और न ही मैं आप पर कोई एहसान कर रही हूं, बल्कि मैं नहीं चाहती कि मेरी तरह हर्षदा का प्यार भी अधूरा रह जाए. दिल टूटने का दर्द आखिर मुझ से बेहतर कौन समझ सकता है,” कह कर निकिता एकदम से चुप हो गई.

“क्या कहा आप ने? दिल टूटने का दर्द? मतलब, आप ने भी कभी किसी से प्यार किया था? और निखिल भैया से आप की शादी आप की मरजी के खिलाफ हुई थी?”

अखिल की बात पर निकिता ने ‘हां’ में सिर हिलाया और बताने लगी कि वह और जैक एक ही कालेज में पढ़ते थे. दोनों में दोस्ती हुई और फिर प्यार. दोनों ने शादी के सपने भी देखे, पर अधूरे रह गए.

“पर, क्यों…?” अखिल ने पूछा.

“क्योंकि, जैक दूसरे धर्म से था. मेरे मम्मीपापा इस शादी के खिलाफ थे. मजबूरन मुझे निखिल से शादी करनी पड़ी.“

“तो फिर आप ने मुझ से शादी क्यों की? आप ने मना क्यों नहीं किया इस शादी के लिए?” अखिल ने पूछा, तो वह कहने लगी कि वह अपने बच्चे की खातिर चुप रह गई. लेकिन जब उसे पता चला कि अखिल ने भी यह शादी मजबूरी में की है और असल में वह हर्षदा से प्यार करता है, तो आज उस से चुप नहीं रहा गया.

“तो जैक अभी कहां है? और क्या उस ने शादी कर ली?” अखिल के पूछने पर निकिता कहने लगी, ‘नहीं, आज भी वह सिंगल है. प्यार करता है वह अब भी उस से. कहता है कि आखिरी सांस तक वह उस से ही प्यार करता रहेगा.

“जैक मुंबई की एक बड़ी कंपनी में काम करता है और काम के सिलसिले में दिल्ली आताजाता रहता है, तो निकिता से उस की मुलाकात होती रहती है.

निखिल की मौत का जैक को भी गहरा झटका लगा था. लेकिन जब उसे पता चला कि उस के ससुराल वाले दोबारा उस की शादी उस के देवर अखिल से करवा रहे हैं, तो उस ने कहा था कि अगर निकिता उस की जिंदगी में आना चाहे तो वह उसे और उस के बच्चे को खुशीखुशी अपनी जिंदगी में शामिल कर अपने को खुशकिस्मत वाला समझेगा.

‘ओह, फिर तो सारा मामला ही सुलट गया,’ अपने मन में सोच अखिल मुसकरा उठा. लेकिन हर्षदा को कैसे बताए वह यह सब, क्योंकि वह तो उस की कोई बात सुनना ही नहीं चाहती है.

विलेन बना उस का भाई वैसे ही पहरेदार बना बैठा है, तो वह उस के घर भी नहीं जा सकता है. क्या करे फिर. लेकिन, फिर उस के दिमाग में एक आइडिया आया और यह बात उस ने निकिता को बताई, तो वह मान गई.

निकिता जब हर्षदा के घर मिलने गई, तो घर के नौकरों ने उसे बाहर ही रोक दिया और पूछने लगा कि वह कौन है और किस से मिलना है?

निकिता बोली कि वह हर्षदा के कालेज की दोस्त है. जब निकिता ने हर्षदा के सामने अपना परिचय दिया, तो पहले तो वह उस से बात करने से मना करने लगी. लेकिन जब निकिता ने उसे पूरी बात बताई और कहा कि अगर वह साथ देगी, तो चार जिंदगियां सुलझ सकती हैं. तो हर्षदा मान गई और अखिल से मिलने उसी पार्क में पहुंच गई.

हर्षदा को देख अखिल ने उसे सीने से लगा लिया. दोनों की आंखों से आंसू बह रहे थे और इन आंसुओं मे सारे गिलेशिकवे बहे जा रहे थे. अखिल ने हर्षदा से कान पकड़ कर सौरी कहा.

हर्षदा भी समझ गई कि जो हुआ उस में किसी की गलती नहीं थी. वह कहते हैं न, अंत भला तो सब भला.

निकिता, जैक, अखिल और हर्षदा, इन चारों की उलझती जिंदगियां अब सुलझ चुकी थीं.

हेल्दी बॉडी और हेल्दी माइंड के लिए बड़े काम के हैं ये टिप्स

हम में से प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह किसी भी आयुवर्ग का हो को शरीर के प्रति सजग होना चाहिए. बचपन से ही हमें शारीरिक व्यायाम, सैर करना, टहलना, आउटडोर गेम खेलना, पैदल चलना, अपने काम स्वयं करना जैसी आदतें जीवनशैली का हिस्सा बनानी चाहिए. यदि जीवन के आरंभिक काल से ही शरीर के स्वास्थ्य का ध्यान रखा जाए तो स्वास्थ्य बेहतर बन सकता है.

हैल्दी फूड

शारीरिक स्वास्थ्य का दूसरा मुख्य पहलू है हमारा भोजन क्योंकि शरीर को ऊर्जा प्रदान करना इसी का कार्य है. संतुलित भोजन खाने की आदत भी बचपन से ही डाली जानी चाहिए. हमें अपनी थाली में सभी रंगों को शामिल करना चाहिए. उदाहरण के लिए एक पौष्टिक थाली में हरा, सफेद, लाल, पीला सभी रंग होने चाहिए. हरे रंग का मतलब सलाद, हरी सब्जियां, सफेद यानी दही, चावल, चपाती, लाल यानी टमाटर, गाजर, पीला यानी दालें.

इस प्रकार का भोजन हमारे शरीर को वसा, कार्बोज, विटामिन, प्रोटीन और मिनरल सभी संतुलित मात्रा में प्रदान करता है.

आजकल की जीवनशैली में समय की कमी होने के कारण हम लंच में एक बर्गर और कोल्डड्रिंक ले लेते हैं. इस से हमारा पेट तो भर जाता है पर धीरेधीरे शरीर को पोषक तत्त्व मिलने बंद हो जाते हैं और हम मोटापे, शुगर, ब्लडप्रैशर जैसी बीमारियों के शिकार हो जाते हैं.

शरीर को पोषक तत्त्व मिलें, इस के लिए हमें सजग रहने की आवश्यकता है. हम कितने भी व्यस्त क्यों न हों, कुछ हैल्दी आदतों को अपने जीवन में शामिल करें. उदाहरण के लिए किसी भी आयुवर्ग के लोग बिना मेहनत के केला तथा सेब जैसे फल आसानी से बिना काटे खा सकते हैं. अधिक से अधिक पानी पिएं. कोल्डड्रिंक के बजाए नारियल पानी पिएं.

आजकल बाजार में अनेक प्रकार की लस्सी, छाछ फ्लेवर्ड मिल्क जैसे पेय पदार्थ भी उपलब्ध हैं.

यदि कोल्डड्रिंक्स के स्थान पर इन्हें पिया जाए तो निश्चित रूप से शारीरिक ऊर्जा अधिक महसूस होगी. खीरा, गाजर आदि सलाद भी आसानी से औफिस या काम करने के स्थान पर ले जाए जा सकते हैं. शरीर में आयरन के लिए यदि हरी सब्जियां नहीं खा सकते तो एक छोटी डब्बी में भुने चने तथा गुड़ साथ रख सकते हैं.

सकारात्मक सोच

केवल हैल्दी फूड ही खाना काफी नहीं, खाना खाते समय मन भी शांत रखना बहुत अवश्यक है. खाने को जल्दबाजी में न खा कर चबाचबा कर खाना चाहिए. ये सब उपाय हमें शारीरिक स्वास्थ्य प्रदान करते हैं. एक अच्छी नींद लेना भी बहुत जरूरी है. अधिक से अधिक सकारात्मक सोच भी स्वस्थ जीवन की ओर एक अच्छा कदम है.

शारीरिक स्वास्थ्य के लिए एक आवश्यक बात यह भी है कि यदि आप लगातार थकान महसूस करते हैं तो डाक्टर से जांच अवश्य करा लेनी चाहिए. यदि किसी बीमारी से ग्रस्त हैं तो जीवनशैली तथा खानपान में संयम अवश्य अपनाएं ताकि जीवन को भरपूर जी सकें. किसी भी प्रकार का नशा न करें.

हैल्दी माइंड

अब बात करते हैं हैल्दी माइंड की. यदि शरीर स्वस्थ होगा तो मन भी प्रसन्न रहेगा और मन अधिक से अधिक क्रिएटिव कार्य कर सकेगा. हमें याद रखना चाहिए कि मनुष्य का व्यक्तित्व उस के विचारों का प्रतिबिंब है. मस्तिष्क ही पूरे शरीर को संचालित करता है. यदि मानसिक रूप से कोई स्वस्थ नहीं, तो उस व्यक्ति को जीवन में कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता.

अत्यधिक इंटरनैट, स्मार्टफोन, टीवी आदि का इस्तेमाल निष्क्रिय कर देता है. इन से निकलने वाली हानिकारक तरंगे हमारे सोचने की कोशिकाओं पर बुरा असर डालती हैं. इन का इस्तेमाल अवश्य करें पर अनावश्यक नहीं.

प्रत्येक व्यक्ति अपनी एक हौबी आवश्यक विकसित करे. यह अपनी रुचि के अनुरूप कुछ भी हो सकती है. उदाहरण के लिए सिंगिंग, डांसिंग, कुकिंग, स्टिचिंग, ड्राइंग, पेंटिंग, इंडोर आउटडोर गेम, समाजसेवा का कार्य आदि. सभी उम्र तथा सामाजिक वर्ग के लोग इन में से कुछ न कुछ अवश्य कर सकते हैं. ये सभी कार्य हमें मैंटली हैल्दी बनाते हैं. इन्हें करने से हमें जो संतुष्टि मिलती है वह हमारे ब्रेन को ऊर्जावान बनाती है.

अच्छा सोचने की आदत विकसित करें. जब भी आप खाली बैठें, अपने विचारों का मंथन करें. नकारात्मक विचार आते ही स्वयं को सकारात्मक सोचने की ओर प्रेरित करें. बहुत अधिक भविष्य के विषयों में सोचना भी हमें वर्तमान में जीवन का आनंद नहीं लेने देता.

जीवन में सकारात्मक चिंतन तथा खुश रहने की कला सीखें. ऐसा करने से हमारे मित्रों की संख्या बढ़ेगी. हमें मानसिक खुशी मिलेगी. हैल्दी माइंड से हैल्दी बौडी और हैल्दी बौडी से हैल्दी माइंड मिलता है.

हैल्दी बौडी के 10 टिप्स

अपनी डाइट में फलों व सब्जियों को शामिल करें.

स्टै्रस से दूर रहने के लिए रैगुलर ऐक्सरसाइज.

7-8 घंटे की भरपूर नींद लें.

पूरे दिन में 6-8 गिलास पानी पीएं.

फास्टफूड खाने की आदत छोड़ें.

ब्रेकफास्ट स्किप करने की भूल न करें.

सुबह सैर करें.

आउटडोर ऐक्टिविटीज से खुद को रखें  तरोताजा.

बाहर से आ कर हाथ जरूर धोएं.

गैजेट्स की लत न पालें.

हैल्दी माइंड के 10 टिप्स

बातों में मन में दबाने से अच्छा अपने करीबियों से डिसकस करें.

मौर्निंग वाक से माइंड रखें तरोताजा.

अच्छा सोचने के लिए सोएं जरूर.

पौष्टिक खाने से ही अच्छा सोचेंगे.

न्यू चैलेंज ऐक्सैप्ट करने से माइंड रहेगा ऐक्टिव.

बातबात पर नर्वस न हों.

भविष्य की चिंता में अपना आज खराब न करें.

पढ़ने की आदत डालें.

गेम्स जैसे क्रौस वर्ड से रखें माइंड को हैल्दी.

नैगेटिव लोगों से दूर रहें.

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