हत्या करने की मंशा और तरीका दोनों पर 80-90 के दशक के जासूसी उपन्यासों की छाप साफ़साफ़ दिख रही है. मनीष शर्मा अपनी पत्नी निशा नापित को ले कर अस्पताल पहुंचा था और डाक्टरों को उस ने बताया यह था कि निशा का पिछले दिन शनिवार का व्रत था. उन्होंने अमरूद खाया था जिस से उन की तबीयत बिगड़ गई. उन्होंने सीने में दर्द उठने की शिकायत की थी. उन्हें उलटियां भी हुई थीं और नाक से खून भी निकला था.
डाक्टरों ने शक होने पर पुलिस को खबर दे कर निशा का इलाज शुरू किया. लेकिन निशा तो कोई 4-5 घंटे पहले ही मर चुकी थी. यह वाकेआ 28 जनवरी का मध्यप्रदेश के आदिवासी जिले डिंडोरी की शहपुरा तहसील का है. पिछले साल ही तहसीलदार पद से प्रमोट हुई निशा एसडीएम बनी थीं, इसलिए कसबे में उन्हें हरकोई जानता था. पुलिस आई और उस ने मनीष से पूछताछ की तो वह एक ही कहानी दोहराता रहा. मामला चूंकि संदिग्ध था, इसलिए निशा के शव का पोस्टमार्टम किया गया तो जल्द ही अंधे कत्ल के तथाकथित रहस्य से परदा उठ गया.
छत्तीसगढ़ के अंबिकापुर की रहने वाली निशा और ग्वालियर के रहने वाले मनीष शर्मा ने लव मैरिज की थी जो कुछ अलग हट कर इन मानों में थी कि निशा नाई जाति की थीं और मनीष ब्राह्मण जाति का था. दोनों की मुलाकात एक मैट्रोमोनियल साइट शादी डौट कौम के जरिए हुई थी. तब मनीष जायदाद की खरीदफरोख्त का काम करता था यानी प्रौपर्टी ब्रोकर था. इस के पहले वह बस कंडक्टरी कर चुका था. और तो और, उस की एक शादी 2018 में हो चुकी थी लेकिन 6 महीने बाद तलाक भी हो गया था.
निशा की जानकारी में मनीष का यह अतीत था या नहीं, इस का खुलासा जब होगा तब होगा लेकिन दोनों ने एकदूसरे को पसंद कर लिया और अक्तूबर 2020 में मंडला के गायत्री मंदिर में शादी कर ली. शादी लगभग गुपचुप हुई थी क्योंकि निशा ने अपने घर वालों को अपनी जिंदगी के इस अहम फैसले के बारे में नहीं बताया था. तय है इसलिए कि वे राजी न होते और विरोध करते.
मनीष बेरोजगार था, इस से पुलिस का शक और बढ़ा. इसलिए जब उस ने सख्ती की तो मनीष ने अपना गुनाह स्वीकार कर लिया कि उस ने ही निशा की हत्या की थी. उस की वजह यह थी कि बारबार कहने के बाद भी निशा सरकारी दस्तावेजों, मसलन सर्विस बुक, बैंक अकाउंट्स और इंश्योरैंस वगैरह में उसे अपना नौमिनी नहीं बना रही थी. इस बात पर दोनों में आएदिन कहासुनी और झगड़ा भी हुआ करता था जो 28 जनवरी को भी हुआ तो मनीष ने तकिए से मुंह दबा कर पत्नी का नामोनिशान मिटा दिया.
हत्या के बाद सुबूत मिटाने की गरज से उस ने निशा के खून से सने कपड़े वाशिंग मशीन में धोए और अपने बचाव के लिए जो कहानी गढ़ी उस के चिथड़े भी जासूसी उपन्यासों की तरह उड़ गए. बाद में निशा की बड़ी बहन नीलिमा नापित ने पुलिस को बताया कि शादी के तीसरे दिन से ही मनीष निशा को पैसों के लिए प्रताड़ित करने लगा था. उस के कई दूसरी महिलाओं से भी अफेयर थे. पति की इन हरकतों से हैरानपरेशान निशा ने नीलिमा के बेटे स्वप्निल को सरकारी दस्तावेजों में अपना नौमिनी बना दिया था. इस से मनीष झल्लाया रहता था क्योंकि आमतौर पर तमाम रिकौर्डों में जीवनसाथी ही नौमिनी बनाया जाता है.
क्या है लोचा ?
शादी के चंद दिनों बाद ही निशा को समझ आ गया था कि अकसर घर से गायब रहने वाले मनीष ने उस के रुतबेदार ओहदे, पगार और पैसों से शादी की है. आएदिन वह निशा से पैसे मांगता रहता था. एक बार तो धंधे-रोजगार के लिए निशा ने बैंक लोन ले कर भी उसे 5 लाख रुपए दिए थे. मनीष शराब भी पीता था और आवारा, मनचले भंवरों की तरह तितलियों पर मंडराना भी उस की फितरत थी. जाहिर है, प्यार का भूत निशा के सिर से उतर चुका था. जाहिर यह भी है कि वह जल्दबाजी में लिए अपने इस यानी शादी के फैसले पर पछताई भी होगी. लेकिन उस की हालत पर अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत वाली कहावत भी लागू हो रही थी.
मनीष जैसे अर्धबेरोजगार युवकों की समाज में कमी नहीं जो कमाऊ लड़की ढूंढ़ते हैं, जिस से मुफ्त में ऐशोआराम की जिंदगी जी जाए. दूसरी तरफ निशा जैसी युवतियों की भी भरमार है जो प्रतिभावाशाली होती हैं और महत्त्वाकांक्षी भी लेकिन बात जब जीवनसाथी चुनने की आती है तो मनीष जैसे युवकों के झांसे में आ कर बहुत दूर तक कि नहीं सोच पातीं और छली जाती हैं. 50 की उम्र पार कर चुकी निशा ने शादी 46 की होने के बाद की थी.
अपने होने वाले पति में जो जो खूबियां निशा जैसी महिलाएं चाहती हैं वे मैनर्स (attitude) मनीषों में उन्हें दिखते हैं, मसलन बनसंवर कर रहना, लच्छेदार बातें करना और ऐसे पेश आना मानो वे औरतों की बहुत इज्जत करते हैं. ऐसे लोगों को प्लेबौय और वीमेनाइजर के बीच की किस्म का माना जा सकता है. खुद को मजनू, रांझा और महिवाल साबित करने में ये पीछे नहीं रहते जिस से लड़कियां कुछ ऐसे इंप्रैस होती हैं कि उन्हें फिर आगापीछा कुछ नहीं दिखता.
कैंसर की बीमारी जैसा तलाक
जब हकीकत दिखना शरू होती है तो निशा जैसी महिलाएं तलाक लेने में कतराती हैं. मुमकिन है इसलिए कि वे शादी के अपने फैसले को सही साबित करना चाहती हैं. हालांकि, हर पत्नी की कोशिश यह रहती है कि तलाक की नौबत न आए. निशा अहम पद पर थीं, इसलिए भी तलाक लेने में उन्हें झिझक लग रही होगी. पर जब घर, परिवार और समाज की परवा न करते हुए उन्होंने शादी का फैसला लिया था तो इसी तर्ज पर तलाक का भी ले सकती थीं. एक एसडीएम अगर इतनी हिम्मत न जुटा पाए तो आम महिलाओं से क्या खा कर यह उम्मीद की जा सकती है. एक आवारा, ऐयाश और निकम्मे शख्स से वे बंधी रहीं तो इस की एक वजह तलाक की लंबी क़ानूनी प्रक्रिया भी है जिस की तुलना कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी की पहली स्टेज से की जा सकती है.
कैंसर के इलाज में देरी की तुलना तलाक में देरी से करना इसलिए अहम है कि दोनों में ही हालत बिगड़ती जाती है. पहले मामले में मौत और दूसरे में मौत जैसी जिंदगी ही मिलती है. पहली स्टेज पर ही अगर निदान और इलाज हो जाए तो जिंदगी हाथ में रखी जा सकती है. तलाक के मामले में हर कोई जानता है कि मुकदमा सालोंसाल भी चल सकता है जो बेहद तकलीफदेह हर लिहाज से होता है. तलाक के कानून और उस की प्रक्रिया उबाऊ, जटिल और लंबी होती है.
पतिपत्नी इस से बचने के लिए तनाव और कलहभरी जिंदगी ढोते रहते हैं. उन्हें यह बेहतर इसलिए भी लगता है कि तलाक में सरकारी दखल भी जरूरत से ज्यादा है जबकि जरूरत इस बात की है कि इसे रत्तीभर भी नहीं होना चाहिए. जब पतिपत्नी तलाक के लिए अदालत जाते हैं तो पहली सलाह ही उन्हें काउंसलिंग की दी जाती है जिस के लिए कुटुंब न्यायालय, परिवार परामर्श केंद्र, वन स्टौप सौल्यूशन जैसी ढेरों सरकारी और गैरसरकारी एजेंसियां दुकानों की शक्ल में खुली पड़ी हैं. इन का दखल सुलह कम कराता है, पतिपत्नी की कलह को और बढ़ाने वाला ज्यादा होता है.
सोचा जाना बेहद जरूरी है कि अगर सुलह की कोई गुंजाइश होती या बचती तो पतिपत्नी तलाक के लिए अदालत जाते ही क्यों. वैसे भी, आजकल के पतिपत्नी कोई दूध पीते नासमझ बच्चे नहीं होते जिन्हें सलाह के लिए किसी ज्ञानी-ध्यानी की जरूरत महसूस होती हो. अधिकतर कपल्स आखिरी स्टेज पर ही तलाक की पहल करते हैं.
फिर उन्हें साथ रहने का या वैवाहिक जीवन को बनाए रखने का मशवरा क्यों दिया जाता है. यह बात समझ से परे नहीं रही. वजह, अदालतों से ले कर तमाम एजेंसियां और धर्म व समाज के ठेकेदार भी यही चाहते हैं कि तलाक कम से कम हों जिस से उन की दुकानें चमकती रहें और कोई भी धर्म व संस्कृति पर उंगली न उठाए. हम पश्चिम को कोसते इसी आधार पर हैं कि वहां तलाक ज्यादा होते हैं. ये लोग कितने क्रूर और स्वार्थी हैं जिन्हें इस बात से कोई सरोकार नहीं रहता कि लाखों कपल्स घुटघुट कर जी रहे हैं.
और जो साथ नहीं रह रहे, वे भी अलगअलग मौत रोज मरते हैं. इस की वजह वे खुद कम, तलाक में क़ानूनी खामियां और सरकारी दखल ज्यादा है. यदि शादी की तर्ज पर तलाक भी झट से होने लग जाए तो लाखों लोगों को नई जिंदगी मिलेगी. पतिपत्नी दोनों आजादी से और सुकून से जी सकेंगे. और सब से अहम बात, निशा जैसी कई पत्नियां बेवक्त मरने से बच जाएंगी. निशा ने ऐसा नहीं की कोशिश न की हो, वह परेशानी के दौर में मंडला के एसपी से मिली थी लेकिन उन्होंने भी उसे समझाबुझा कर भेज दिया कि कोशिश करो कि इस की नौबत न आए, तलाक तो आखिरी विकल्प है ही. हम में से हर किसी को शादी को सात जन्मों का बंधन नहीं बल्कि एक ऐसा अनुबंध जिसे दोनों में से कोई भी पक्ष कभी भी तोड़ने का अधिकार रखता है, यह मानने की समझ विकसित करनी होगी.
जबकि, तलाक कलह, अनबन, घुटन वगैरह की स्थिति में पहला विकल्प होना चाहिए.