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खुसरो दरिया प्रेम का : भाग 3

अभिमन्यु से बात कर के जब माद्री चहकते हुए आईपुष्कर ने गौर से उसे देखाआज वह बहुत ज्यादा खुश थीजन्मदिन भी थाबोली, “चलो।कार में बैठ कर बोली, “पूना में जहां अभिमन्यु रहता हैवहीं पास ही में मेरी मौसी की बेटी गीता भी रहती है। उस के बेटे रजत की अगले महीने शादी हैवह मुझे भी बुलाने वाली हैतुम्हें बताया था न?”

पर तुम ने कहा था कि तुम्हारा इस शादी में जाने का मन नहीं है।”“हांपर अब मैं जाना चाहती हूं।पुष्कर चुप रहे। वे जानते थे कि अब माद्री अभिमन्यु से मिलना चाहती है। बोले, “जाने से पहले अच्छी तरह से सोच लेनामाद्री।”“हांसोच लिया हैअभिमन्यु को बोल दिया है कि मैं आ रही हूं।पुष्कर ने फिर इस विषय पर बात नहीं की।

डिनर करते हुए माद्री के मन में बस अभिमन्यु से हुई बातें घूम रही थीं। उस की आवाज जैसे अभी तक माद्री के कानों में गूंज रही थी। इस आवाज का उस ने सारी जिंदगी इंतजार किया था। यह सच था कि वह उसे कभी नहीं भूली थी। जबजब वह किसी के प्रेम की बात सुनतीअभिमन्यु उस की आंखों के आगे आ खड़ा होता था। पूना में माद्री से बात करने के बाद अभिमन्यु भी खुश थाउस का स्वभाव कुछकुछ पुष्कर से मिलता था। वह भी गंभीर स्वभाव का इंसान था। उस से मिलने के लिए माद्री की पूना आने की बेचैनी देख समझ गया था कि माद्री में धैर्य आज भी नहीं।

उस ने कहा था, “अगर तुम पूना आ भी गईं तो मिलना आसान नहीं होगामेरा भी परिवार साथ होगामैं ज्यादा बात भी नहीं कर पाऊंगा। बसफोन पर ही कभीकभार एकदूसरे के हालचाल ले लिया करेंगे तो उतना ही ठीक रहेगा। अब हमारे अपने संसार हैंहमें वहीं रहना है। अब ऐसी उम्र भी नहीं कि बेचैन हो कर भागा फिरा जाए। पर माद्री ने कब किस की सुनी थीकहा था, “बड़ी मुश्किल से मिले होएक बार तो देखने आ ही जाउंगी कि कैसे लगते हो अब। देख लूं तो एक बार दिल को सुकून आ जाए।

अभिमन्यु को इस बात की उम्मीद इतनी नहीं थी कि माद्री उस से मिलने के लिए एकदम बेचैन हो जाएगी। उस उम्र का अधूरा प्यार आज फिर ऐसे सामने आ कर सब के जीवन में कितनी उठापठक कर देगाकौन जानता था।रजत की शादी में चलने के लिए माद्री ने पुष्कर को भी तैयार कर ही लिया। वे हमेशा की तरह माद्री की बात मान गए। माद्री की बेचैनी देखने वाली थीकब क्या पहनूंगीपुष्कर के साथ काश कुछ पल अकेले मिल जाएं तो कितना अच्छा हो। उस के बाद से अभिमन्यु से माद्री की फोन पर बातें होती रही थीं। अभिमन्यु ने माद्री को साफसाफ कह दिया था, “माद्रीअपने पर कंट्रोल रखना। इस उम्र में कोई गलती न हो। हम एकदूसरे को देख लेंबात भी न हो तो कोई बात नहीं।

तुम्हारा मन नहीं करता कि मेरे साथ बैठ कर खूब सारी बातें करो?”“करता है तभी तो तुम्हें ढूंढ़ा। पर समय के साथसाथ बहुत कुछ बदल जाता है।”“मुझे नहीं पतामेरा दिल कुछ समझने के लिए तैयार नहीं हैबस मुझे अब तुम से बातें करनी है। तुम्हारे साथ बैठना हैतुम्हें देखना है।

मुझे नहीं लगता कि हम साथ बैठ पाएंगेमेरे साथ मेरा पूरा परिवार होगा और तुम्हारे साथ तुम्हारे पति भी होंगे। आओ पर एक लिमिट में रहना।एक होटल में बाहर से आने वाले मेहमानों के रुकने की व्यवस्था की गई थी। अभिमन्यु तो लोकल ही थाजब माद्री के व्हाट्सऐप मैसेज से उसे पता चला कि माद्री होटल पहुंच गई है तो वह शादी के फंक्शन से थोड़ा पहले ही होटल पहुंच गया। वहां सब पुराने रिश्तेदार एकदूसरे से मिल रहे थे। माद्री की आंखें लगातार दरवाजे की तरफ लगी हुई थीं। अभिमन्यु अपनी पत्नी के साथ अंदर आयामाद्री के लिए वक्त जैसे वहीं ठहर गया।

इतने सालों के अंतराल के बाद भी दोनों ने एकदूसरे को देखते ही पहचान लिया। अभिमन्यु ने आ कर पुष्कर से हाथ मिलायामाद्री और पुष्कर से अपनी पत्नी का परिचय करवाया। नीता को इस प्रेम संबंध की भनक थीवह उतना सहज हो कर नहीं मिल पाईपुष्कर और माद्री ने नीता को बैठने के लिए कहा पर नीता, ‘औरों से भी मिल लेते हैं,’कह कर वहां से हट गई। अभिमन्यु भी उस के साथ वहां से हट गया। माद्री को अभिमन्यु पर बहुत तेज गुस्सा आया। पुष्कर ने माद्री के चेहरे पर झुंझलाहट के भाव महसूस किएकहा, “किस बात पर मूड खराब कर रही होमाद्रीक्या हुआ है?”

कुछ नहींयह तो जोरू का गुलाम हो गया हैरुका ही नहींउस के पीछे चला गया।”“कैसी बात कर रही होउस की पत्नी है वह।माद्री के स्वभाव में जो उतावलापन थापुष्कर अच्छी तरह जानते थे कि माद्री अब सिर्फ अभिमन्यु के साथ ही टाइम बिताना चाहेगी जो संभव नहीं था। अगर वे माद्री का साथ दे भी दें तो जरूरी नहीं कि नीता को माद्री की उपस्थिति अच्छी लग रही हो।    

विवाह की रस्में होती रहींमाद्री को सिर्फ अभिमन्यु के इर्दगिर्द रहने में रूचि थी। पुष्कर ने जब नीता के चेहरे पर अप्रिय भाव देखेउन्होंने एकांत में माद्री से कहा, “माद्रीमैं तुम्हारी भावनाएं समझता हूं पर अब बहुत समय बीत चुका है। कुछ भी ऐसा नहीं होना चाहिए कि किसी का भी दिल दुखे। मुझे लग रहा है कि हमें अब कल सुबह ही निकल जाना चाहिए। मैं सुबह की बस का टिकट बुक कर रहा हूं। हमें यहां से चलना चाहिए,” थोड़ा सख्त स्वर में कह कर पुष्कर वहां से हट गए तो माद्री जैसे होश में आई। क्या कर रही है वहजब से आई है अभिमन्यु के आसपास रहने के लिए क्याक्या जुगत लगा रही है। ओहनीता और पुष्कर क्या सोच रहे होंगे…अभिमन्यु भी तो उलझा सा दिख रहा था। क्या नीता ने उस से कुछ कहा होगावह क्यों इतनी अधीर है?’

रात को जब सब अपने रूम में चले गएमाद्री को अभिमन्यु का मैसेज मिला, ‘स्विमिंगपूल के पास आना।’ वह हैरान हुईबहुत खुश भी हुईपुष्कर से कहा, “जरा 1-2 लोगों को बाय बोल कर आती हूंसुबह तो सब सो ही रहे होंगे,” पुष्कर लेट चुके थेकुछ बोले नहीं।

माद्री ने स्विमिंगपूल के पास जा कर देखाअभिमन्यु एक कोने में खड़ा हैवह उधर ही लपकीअभिमन्यु ने कहा, “सुबह ही जा रही हो?”“हांमुझे लगा तुम भी अपने घर चले गए।”“चला गया थाफिर सब को घर छोड़ कर आया हूं,” और कहतेकहते माद्री को एक गुलाब का फूल दिया और कहा, “यह तुम्हारे लिए। तुम्हें गुलाब पसंद हैं न?”

तुम्हें याद है?”“बताया तो था कि तुम्हें भूला ही कब था और तुम जरा अपनी फीलिंग्स पर काबू रखा करोतुम्हारे हसबैंड क्या सोचते होंगेबहुत जैंटलमैन हैं जो तुम्हें यहां लेकर आए।”“हांसो तो हैमेरी खुशी का बहुत ध्यान रखते हैं। अब कब मिलोगे?”“अब बस फोन पर बातें किया करेंगेमैं ने देख लिया है कि तुम्हें अपने पर बिलकुल कंट्रोल नहीं है।

माद्री ने जैसे अभिमन्यु को अपनी निगाहों में उतार लियालगातार उसे देखती रही। “बाय,” कह कर अभिमन्यु वहां से  चला गया। माद्री भी अपनी सोचों में गुम रूम में पहुंची तो पुष्कर ने कुछ नहीं पूछामाद्री की जैसी आदत थीबता दिया, “अभिमन्यु मिला थाउसे भी बाय बोल आई।

मुंबई वापस आकर माद्री और बेचैन रहने लगी। हर समय मन करता कि अभिमन्यु से बातें करेपर अभिमन्यु ने अपने पर काबू पा लिया थाउस ने माद्री की अधीरता देख ली थी। वह पुष्कर के साथ होते हुए भी उसी के पीछेपीछे घूम रही थी जो नीता को भी नागवार गुजरा था। माद्री का असंतुलित व्यवहार अभिमन्यु को समझा गया था कि अब ज्यादा जुड़े रहना ठीक नहीं। इस उम्र में घरगृहस्थी में इन बातों से टकराव किसी के लिए भी अच्छा नहीं होगा।अभिमन्यु ने अतीत को पीछे छोड़ कर आगे बढ़ने का फैसला कर लियावर्तमान को नकारा नहीं जा सकता था।

उस ने माद्री को मैसेज करना बंद कर दिया। उस के फोन उठाने भी बंद कर दिए। माद्री रातदिन अभिमन्यु की इस उपेक्षा को महसूस कर बीमार होने लगी। वह डिप्रैशन की शिकार हो गई। हैरान थी कि जब ऐसे दूर होना था तो जुड़ने का फायदा ही क्या था।

2 महीने ऐसे ही बीत गए। वह बारबार अभिमन्यु को मैसेज करती, “क्या हुआ हैमुझे बताओ तोफिर दूर ही होना था तो मुझे ढूंढ़ क्यों निकाला?” वगैरहवगैरह…फिर एक दिन माद्री की बेचैनी समझ अभिमन्यु ने उसे फोन कर ही दिया। माद्री भरी बैठी थीखूब लड़ी। अभिमन्यु ने पहले ठंडे दिमाग से आराम से उस की सारी शिकायतें सुनींफिर कहा, “पूना में मैं ने तुम्हारा जैसा व्यवहार देखामुझे समझ आया  कि तुम बहुत ही अशांत चित्त वाली हो। तुम्हें जरा भी अपनी भावनाओं पर कंट्रोल नहींसोचोनीता और पुष्कर को कैसा लगा होगा जब तुम मेरे ही आगेपीछे घूमती रहीं। तुम अब भी अतीत में जी रही होजो होना थाहो गयाजो नहीं हुआउसे अब किया नहीं जा सकता। अपने साथ जुड़े हुए लोगों को मानसिक कष्ट देने का हमें कोई हक नहीं। जिन के साथ उम्र बिता दीजिन्होंने हमारे साथ जीवन का इतना लंबा सफर तय कियाउन्हें अब दुख देंइस उम्र मेंअगर हमारे दिल में एकदूसरे के लिए प्यार आज भी है तो उसके साथ भी बिना किसी को दुख दिए चुपचाप जिया जा सकता है जैसे हम आज तक जी ही रहे थे। प्यार में पा लेना ही तो सब कुछ नहीं है,”अभिमन्यु की धीरगंभीर आवाज से जैसे माद्री होश में आई।

यह क्या कर रही थी वह। ऐसे दीवानेपन से मिली है अभिमन्यु से कि उसे दूर रहना ठीक लगा। इतने दिनों बाद जो छूटा प्यार सामने आयाउसे अपनी ही मूर्खता से गंवाने चली थी। उस ने एक ठंडी सांस लीकहा, “सौरीअभि। अब तुम्हें कभी शिकायत नहीं होगी। बसजब भी तुम्हारा मन होजब भी ठीक समझोकभीकभी बात कर लिया करो। मेरे लिए अब उतना ही काफी होगा। इस से ज्यादा की उम्मीद नहीं रहेगी।

ठीक हैफिर करता हूं बात,”कह कर अभिमन्यु ने फोन रख दिया था। माद्री ने चुपचाप लेट कर अपनी आंखें बंद कर लीं। आंखों की कोरों से कुछ आंसू ढलक ही गए। नहींवह अपने इस प्यार को अब खोना नहीं चाहतीवह कभीकभी बात करता रहेबस। अपने पर काबू रखना बहुत जरूरी हैअब वह अकेली नहीं हैउस के साथ कोई और भी जुड़ा हैजिस के बारे में सोचना उस का फर्ज है।

इतने में उस के फोन पर एक मैसेज आयाअभिमन्यु ने लिखा था, “खुसरो दरिया प्रेम कावाकी उलटी धारजो उतरा सो डूब गयाजो डूबा सो पार…कुछ आंसू माद्री की आंखों से फिर बह चले।

मैं अहम हूं : शशि को क्यों कमतरी का अहसास होने लगा ?

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शुक्रिया श्वेता दी : भाग 3

‘अब तक तुम्हें समझ में आ गया होगा कि हमारे ऊपर पहरा है. इसलिए सब से छिपा कर किसी तरह लिख रही हूं. जितना लिखूं, उस से ज्यादा समझना. तुम ने गलत लडक़े से शादी कर ली. यहां हर आदमी दो चेहरे रखता है जो बहुत बाद में समझ में आता है. मेरी शादी धोखे से हुई. इन लोगों का सारा खर्च और ठाटबाट मेरे पापा के पैसों से चलता है. ये लोग हमेशा मारपीट कर के मुझ से पैसे मंगवाते हैं. मैं कब तक पापा से पैसे मांगूंगी और वे कब तक दे पाएंगे. तुम्हें फंसाने के लिए दीपेन ने शराफत का ढोंग रचा. अब धीरेधीरे उस का रंगरूप देखना. तुम्हारे साथ भी यही सब होगा. जल्दी ही वह यहां आ जाएगा. यह घर भी इन लोगों का अपना नहीं है, किराए का है. मैं इस नर्क में फंस गई हूं लेकिन अभी तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ा है, तुम यहां से निकल जाओ. अपने हिस्से का नर्क मुझे भोगना ही है, तुम अपने हिस्से का स्वर्ग बचा लो.

‘-श्वेता दी.’

अंकिता के पांवतले की जमीन खिसकने लगी. दीपेन अपनी शराफत का नकाब धीरेधीरे उतार रहा था, इस का  एहसास उसे होने लगा था’ प्यार का भूत उस के सिर से जाने कब उतर गया था. पता नहीं कब उस का बचपन चला गया और वह मैच्योर हो गई. अब उसे एहसास होने लगा, क्यों श्वेता दी से बात करने से उसे हमेशा रोका जाता, क्यों उस पर साए की तरह नजर रखी जाती? जितना सोचती उतना दर्द होता. पापा, भैया सब ने कितना समझाया था उसे लेकिन…

मौका मिलते ही उसने मम्मी को फोन किया, ‘मम्मी, कोई सवाल मत करना अभी. बस, किसी बहाने मुझे यहां से बुला लो. वहां आ कर ही बातें होंगी.’

मांपापा समझ गए, बेटी बड़ी मुसीबत में है. उसी दिन पापा ने समधी को फोन किया, ‘अंकिता की मम्मी की तबीयत अचानक खराब हो गर्ई है. वह हास्पिटल में है, उसे ले कर आइए, प्लीज.’

सासससुर सोच भी नहीं पाए कि उन की करतूतों की भनक किसी को लग सकती है.  नई बहू को अकेले कैसे भेजते. सास ने कहा, ‘अंकिता को वहां पहुंचा दीजिए. विपिन आएगा तो उसे ले आएगा.’

दूसरे दिन  अंकिता ने कुछ कपड़े बैग में डाले, जेवर सास के पास थे. उन्होंने यह कह कर रखा था कि अभी तुम नहीं संभाल पाओगी, बाद में लौकर में डाल देना. ऐसे मौके पर वह मांग भी नहीं सकती थी.  वैसे, उस का मकसद किसी तरह वहां से निकलना था. जाते समय वह श्वेता दी के गले लग कर खूब रोई. रास्तेभर उन की सूनीसूनी डबडबाई आंखें उस का पीछा करती रहीं. उसे लगा वे उस की जेठानी नहीं, उस की बड़ी बहन हैं, कोई मसीहा हैं उस के लिए.

मां अपने कमरे में बीमार की मुद्रा में लेटी थी. भले ही उन्होंने बीमारी का नाटक किया था लेकिन बेटी की चिंता ने एक दिन में ही उन्हें सचमुच बीमार बना दिया था. वह गहरी मानसिक वेदना से गुजर रही थीं. अभीअभी बेटी की शादी से इतनी खुश थीं. 2 महीने भी नहीं गुजरे थे, अभी शादी की खुमारी भी नहीं उतरी थी और…

अंकिता के ससुर उसे पहुंचा कर लौट गए, कह गए कि दीपेन आने वाला है, वह तुम्हें आ कर ले जाएगा. मां ने कहा, ‘समधी जी, अभी इसे यहीं रहने दीजिए, मेरा सहारा हो जाएगा.’

अब? सारी बातें सुनसमझ कर मांपापा की चिंता बढ़ गई. दूसरे दिन छुट्टी ले कर भैयाभाभी आ गए. दीदीजीजाजी ने फोन पर मैंटली सपोर्ट किया. सब ने तय किया कि अंकिता वहां नहीं जाएगी. भैया ने इलाहाबाद जा कर दोतीन दिनों तक खाक छानी. पता लगा कि श्वेता दी ने जो कुछ कहा, सब सही था. जीजाजी ने बेंगलुरु के अपने कुछ दोस्तों से दीपेन के बारे में पता लगाने को कहा. चौंकाने वाली असलियत सामने आई. दीपेन वहां किसी और के साथ रिलेशनशिप में था. उस ने औफिस में यह कहा कि अंकिता से उस की शादी नहीं हुई. उस के पिता और भाई तैयार नहीं हुए. वह शराबसिगरेट का भी शौकीन निकला.

आह, अंकिता का दिल तारतार हो गया. उस के दोहरे चरित्र का कैसे उसे पता नहीं चला. क्या उस ने सब सोचीसमझी साजिश के तहत किया था? उस ने ठंडे दिमाग से सोचा, यदि शादी के पहले उस के घर के लोग उस के बारे में पता लगाते, तब भी वह शायद ही उन पर यकीन कर पाती. वह सोचती, दीपेन दूसरी जाति का है, इसलिए ऐसा कह रहे हैं. सच है प्यार में विवेक नहीं खोना चाहिए. घर के सभी लोगों ने उस के जख्मों को भरने की पूरी कोशिश की. अभी किसी ने ताना नहीं दिया, किसी ने कुछ नहीं कहा. उसे परिवार के संबल ने टूटने नहीं दिया. उसे बारबार श्वेता दी याद आतीं. उन से कोई रिश्ता ठीक से जुड़ा भी नहीं था. जेठानी हो कर, खुद लाख गम खा कर, उन्होंने उस के लिए जो कुछ किया, कौन करता है भला.

आजकल दीपेन के फोन कुछ ज्यादा आते. अब वह उस से कम बात करती. उस के सामने यह जाहिर न करती कि उसे सब पता चल गया है. वह कुछ ऐसा नहीं करना चाहती थी जिस से श्वेता दी पर कोई आंच आए. काश, वह श्वेता दी के लिए कुछ कर पाती.

मम्मी के इलाज के बहाने वे लोग अचानक बेंगलुरु पहुंच गए. एकाएक सब को वहां देख दीपेन सकपका गया. उस की गर्लफ्रैंड भी वहां मौजूद थी. बहुत बड़ा तमाशा क्रियेट हुआ. दीपेन ने सफाई देने की खूब कोशिश की. बारबार माफी मांगने लगा. उस के मम्मीपापा से भी फोन पर बात हुई. वे लोग बेटे की गलती पर परदा डालने लगे. एक बार माफ कर देने की गुजारिश भी की लेकिन सारी असलियत जान कर आंख मूंदने का वक्त नहीं था. फैसला पहले ही हो चुका था. खुद अंकिता भी उस नर्क में  दोबारा नहीं जाना चाहती थी. आते समय उस ने बड़ी दृढ़ता से कहा, ‘हम अंतिम बार कोर्ट में मिलेंगे तलाक के पेपर पर हस्ताक्षर करने के लिए.’

गाड़ी के हौर्न की आवाज से उस की तंद्रा टूटी. मम्मीपापा आ गए थे शायद. बारिश  रुक गर्ई थी. वह बुदबुदाई, ‘शुक्रिया श्वेता दी…’ और दरवाजा खोलने के लिए उठ गई.

कैसा विश्वगुरुडम

विश्वगुरु की उपाधि आजकल मीडिया ने नरेंद्र मोदी पर चिपका दी है. बारीबारी से मिलने वाली जी-20 की अध्यक्षता पिछले साल नरेंद्र मोदी को इंडोनेशिया से जब से मिली थी, सरकार और सरकार व धर्म समर्थक मीडिया भारत के विश्वगुरु होने का ढोल बजा रहा है. हालांकि, 11 सितंबर को यह अध्यक्षता अब ब्राजील के लूला डी सिल्वा के हाथ चली गई.

नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले भी देश कट्टरपंथी दशकों से कहते रहे हैं कि भारत तो हमेशा ही विश्वगुरु रहा है क्योंकि वेदों का ज्ञान तो भारत में ही हुआ था और इसी पर सारी दुनिया की सोच टिकी है. इन वेदपुराणों में अपनी प्रशंसा बारबार की गई है. उन के पढऩे वाले उस ‘ज्ञान’ को अद्भुत मानते ‘न भूतो न भविष्यति’ की अवधारणा के शिकार रहे हैं और उन्होंने अपनी वाकपटुता का इस्तेमाल इन ग्रंथों को मानव जाति के रहस्य का मूल मानते हुए खूब ढोल पीटा जिस से विश्व अभिभूत हुआ हो या नहीं, बहुसंख्य भारतीय तो हुए ही.

यह जानते हुए भी कि भारत दुनिया के सब से गरीब देशों में से है, सब से खराब सामाजिक भेदभाव वाला है, सब से ज्यादा अंधविश्वासी है, फिर भी भारतीय विचारक विदेश जा कर भारत के विश्वगुरु होने का ढिंढोरा पीटते रहते थे. चीनी, जापानी इस काम में पीछे रह गए क्योंकि उन्हें अपना ढोल बजाना नहीं आता. इसलामी देशों ने फिजिक्स, कैमिस्ट्री और ज्योग्राफी को बहुतकुछ दिया पर उन्हें ढोल बजाना नहीं, तलवारें चलाना आईं. उन तलवारों वालों से चिढ़े पश्चिमी देशों ने इसलामी स्कौलर्स की अवहेलना की.

हिंदू ज्ञानी हमेशा हानिरहित रहे हैं. विवेकानंद और गांधी जैसे हिंदू प्रचारक सिवा शांति और वसुधैव कुटुंबकम के और कुछ कह नहीं सकते थे क्योंकि वे न तो जापानियों की तरह घुन्ने पर तेज थे और न चीनियों की तरह सौबर पर कम बोलने वाले.

विश्वगुरु तो पश्चिमी देशों में मार्टिन लूथर के बाद हुए जब वर्ष 1517 में उस ने रोम के कैथोलिक पोप को चुनौती देते हुए बाईबिल के अंतर्गत रहते हुए ही एक नई सोच को जन्म दिया. मार्टिन लूथर की वजह से ईसाई धर्म की एक सुधरी शाखा प्रोटेस्टैंट सामने आई पर उस से ज्यादा उस ने लोगों को पढऩे को उत्साहित किया और नए विचारों को ईशनिंदा न मान कर सोचने लायक माना.

उसी समय कैक्सटन और गुटेनबर्ग ने मूवेबल टाइप प्रैसों में मुद्रण कला को विकसित कर दिया और छपी सामग्री सस्ते में हाथोंहाथ बिकने लगी. पुस्तकें लिखी, छापी, पढ़ी जाने लगीं और वे सीमाएं पार करने लगीं. भारत में ऐसा कुछ नहीं हुआ. मुगल राजाओं, जो अधिकांश खुद लगभग अनपढ़ थे, ने हिंदू धर्मग्रंथों के अनुवाद करवाने का बाकायदा एक विभाग खोला जिस में संस्कृत और फारसी के विद्वानों ने एकएक उपलब्ध ग्रंथ का अनुवाद किया. इन अनुवादों को यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद किया गया और यही साबित हो पाया कि भारत अनपढ़ों का देश नहीं है, यहां बहुतकुछ ऐसा कहा गया है जो बोल कर, याद कर पीढ़ीदरपीढ़ी सुरक्षित रखा गया.

विश्वगुरु वह होता है जिस की खोजों या जिस के ज्ञान से दुनिया आगे बढ़ी हो. और यह तो यूरोप व अमेरिका में जहां स्टीम इंजन, इलैक्ट्रिसिटी, टैलीग्राम, टैलीफोन, औटोमोबाइल ईजाद किए गए. विश्वगुरु देश तो अपनी रक्षा के लिए तोप, बंदूक तक न बना सका.

ऐसी स्थिति में आज मात्र जी-20 की अध्यक्षता के कारण देश को विश्वगुरु कहना गलत है. दिक्कत यह है कि जब भी इस सत्य का परदाफाश करो, धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के मुकदमे लेखकों-विचारकों पर थोप दिए जाते हैं ताकि वे आगे मुंह न खोल सकें. यह काम पहले ईसाई भी करते थे. मार्टिन लूथर के बाद कम हो गया. हमारे यहां जी-20 के बाद यह ज्यादा मुखर हो गया है.

दुनिया के हर पैमाने पर हम गरीब हैं सिवा जनसंख्या के. हमारे देश की प्रति व्यक्ति आय निम्नतम देशों में आती है. हमारे यहां के 12वीं पास बच्चे 4 लाइनें लिख नहीं सकते, साधारण जमागुणा नहीं कर सकते. ऐसे में हम कहां से विश्वगुरु हो गए.

विश्वगुरु होते, तो हमारे यहां ज्ञान लेने के लिए दुनियाभर के छात्र-युवा आते. यहां तो हर साल 20 लाख युवा बाहर जाने की तैयारी करते रहते हैं. हर साल 10 से 12 लाख चले भी जाते हैं. बहुत से युवा नौकरियों के लिए रेगिस्तानों, जंगलों, पहाडिय़ों समुद्र के रास्ते अवैध ढंग से दूसरे देशों में घुसने की कोशिश कर रहे हैं. देशभर के लाखों मांबाप अपनी जमापूंजी, मकान-जमीन गिरवी रख या बेच कर बच्चों को विश्वगुरु वाले देशों में भेजते हैं जहां से वे ऐसा ज्ञान प्राप्त कर सकें कि जो उन के लिए खाना, कपड़ा, मकान का जरिया बन सके.

सदियों से यह देश अपने लोगों के लिए ये बेसिक सुविधाएं भी उस ज्ञान के सहारे नहीं जुटा पाया जिस का ढोल वह सदियों से पीटता रहा है. आजकल तो हाल यह हो गया है कि जो देश को विश्वगुरु या नरेंद्र मोदी को विश्वगुरु न माने उस को ढोल पीटने वाले डंडे से, तुलसीदास के जैसे आदेश से, पीटना शुरू कर देते हैं. आईआईटी दिल्ली के ह्यूमैनिटीज व सोशल साइंसेज विभाग ने इस का परदाफाश करते हुए कह डाला कि आज का ‘हिंदुत्व विश्वगुरुडम’ पिछले युगों का है जिन में जाति और पाखंड का बोलबाला था. कल शायद यह जातिव्यवस्था और यह हिंदूवाद न बचे क्योंकि सताई हुई  90 प्रतिशत जनता अब ऊंची पोस्टों पर पहुंचने के लिए कमर कसने लगी है.

उस की इस साफगोई से हिंदू संस्थाएं बौखला गई हैं और उन्होंने एक्स (x) पर उस के खिलाफ जहर उगलना शुरू कर दिया है. ऐसे में क्या समझा जाए, क्या यही विश्वगुरु होने की निशानी है.

हेल्दी डाइट से क्यों दूर हो रहे हैं युवा ?

आज युवाओं में फास्टफूड की आदत तेजी से पनप रही है. इस से उन की सेहत को कितना नुकसान हो रहा है, इस बात का अंदाजा उन्हें तब लगता है जब उन का शरीर इस छोटी सी आयु में ही रोगग्रस्त होने लगता है. संतुलित भोजन के अभाव में शरीर कईर् तरह की बीमारियों से घिरने लगता है. इन बीमारियों में मुख्यरूप से मोटापा, मधुमेह, उच्च रक्तचाप असमय आंखों में चश्मा लगना और बालों का सफेद होना शमिल है :

कैसे जिएं स्वस्थ जीवन

युवाओं को चाहिए कि वे युवावस्था से ही ताउम्र स्वस्थ जीवन जीने के लिए अपने स्वास्थ्य के प्रति सजग रहें.

–  सुबह साढ़े 5 से 6 बजे के बीच नियमित उठने की आदत डालें.

– उठते ही रोज 2-3 गिलास कुनकुना पानी पिएं. इस से पेट साफ रहेगा और पूरे दिन शरीर में ताजगी बनी रहेगी.

– नियमित रूप से दांत साफ करें और चेहरा अच्छी तरह धोएं. इस से रात को चेहरे पर आई मृत चमड़ी के साफ होने से चेहरे के रोमकूप खुल जाते हैं और चेहरा चमकने लगता है.

– हर रोज सुबह व्यायाम करें.

–  व्यायाम के बाद थोड़ा आराम कर स्नान अवश्य करें, इस से शरीर के रोमकूप साफ हो कर खुलते हैं और दिनभर पसीने के रूप में शरीर की गंदगी के लिए बाहर निकलने का रास्ता बनता है. इस तरह त्वचा में ताजगी बनी रहती है.

– जब भी समय मिले, 1-2 घंटे मैदान में जा कर खूब खेलें और पसीना बहाएं.

– हमेशा संतुलित भोजन ही करें.

भोजन हमें स्वाद के लिए नहीं करना चाहिए बल्कि स्वस्थ रहने के लिए करना चाहिए, इसलिए बिना भूख के खाना न खाएं. मनुष्य यह आदत जानवरों से भी सीख सकता है. जानवरों का पेट भरा होने के बाद आप चाहे उन के सामने कितना ही अच्छा चारा क्यों न डालें, वे नहीं खाते. यही कारण है कि जानवर कभी मोटापे का शिकार नहीं होते.

भोजन के समय को हम 3 भागों में बांट सकते हैं:

1. सुबह का नाश्ता, 2. दोपहर का भोजन, 3. रात्रि का भोजन.

नाश्ता : नाश्ते में दूध, अंडा, मक्खन, पनीर, अंकुरित अनाज, कच्चा सलाद, दलिया, उपमा, चपाती, हरी सब्जियां, सूखे मेवे, फल इत्यादि हर रोज अपनी इच्छानुसार बदलबदल कर ले सकते हैं. इन में से मनपसंद चीजें रोटी में डाल कर रोल बना कर खाया जा सकता है. इस तरह का पौष्टिक नाश्ता शरीर को स्वस्थ और तरोताजा रखता है.

कुछ लोग नाश्ता करना आवश्यक नहीं समझते जोकि सरासर गलत है. चूंकि हम रातभर लंबे समय तक बिना कुछ खाए रहते हैं इसलिए अगले दिन शरीर में ऊर्जा और स्फूर्ति बनाए रखने के लिए सुबह का नाश्ता अनिवार्य है. यदि हम अधिक शारीरिक परिश्रम करते हैं और भूख लगती है तो  दोपहर के भोजन से 2 घंटे पहले और शाम को जूस या अन्य हलका भोजन भी ले सकते हैं.

दोपहर का भोजन :  दोपहर का भोजन आवश्यकतानुसार भरपेट खाएं. इस समय हमारा भोजन कार्बोहाइड्रेट्स, प्रोटीन, वसा, खनिज लवण विटामिनयुक्त संतुलित भोजन होना चाहिए.

रात्रि भोजन :  रात्रि का भोजन सोने से 2-3 घंटे पहले अवश्य कर लेना चाहिए. भोजन करने के तुरंत बाद सोने से भोजन ठीक से पचता नहीं है. रात्रि का भोजन संतुलित होने के साथसाथ दोपहर के भोजन से हलका और सुपाच्य होना चाहिए, क्योंकि इस समय हमारे शरीर को केवल आराम ही करना होता है.

संतुलित भोजन के स्रोत

कार्बोहाइड्रेट्स : यह शरीर को शक्ति देता है. शारीरिक परिश्रम करने वालों को इस की अधिक आवश्यकता होती है. यह हमें स्टार्च वाले खा- पदार्थों जैसे चावल, आटा, मैदा, आलू विभिन्न प्रकार के अनाजों, दालों आदि से प्राप्त होता है. यह मीठे फलों खजूर, गन्ना, शलजम, चुकंदर, मेवा, चीनी, गुड़, शक्कर, शहद इत्यादि से प्राप्त होता है. इस की कमी से शरीर में निर्बलता आती है और भोजन भी ठीक से पचता नहीं है.

प्रोटीन : शारीरिक शक्ति प्रदान करने, कोशिकाओं की टूटफूट में सुधार करने, नई कोशिकाएं बनाने, मानसिक शक्ति बढ़ाने, रोग निवारणशक्ति उत्पन्न करने और शारीरिक वृद्धि के लिए भोजन में प्रोटीन का सेवन बहुत आवश्यक है. प्रोटीन में नाइट्रोजन की मात्रा बहुत अधिक होती है जो शारीरिक वृद्धि के लिए बहुत जरूरी है. नाइट्रोजन प्रतिदिन मूत्र के साथ काफी मात्रा में हमारे शरीर से बाहर निकलता रहता है. इसलिए इस कमी को पूरा करने के लिए हमें प्रतिदिन प्रोटीन का सेवन अवश्य करना चाहिए.

यह हमें 2 प्रकार से प्राप्त होता है :

1. वनस्पति प्रोटीन, 2. पशु प्रोटीन.

वनस्पति प्रोटीन हमें मटर, मूंग, अरहर, चना, अंकुरित अनाजों और हरी सब्जियों से प्राप्त होता है जबकि पशु प्रोटीन हमें दूध, मक्खन, पनीर, मांस, अंडे, मछली आदि से प्राप्त होता है जो उच्चकोटि का प्रोटीन माना जाता है.

इस की कमी से शारीरिक विकास रुक जाता है, त्वचा पर झाइयां पड़ जाती हैं, बाल झड़ जाते हैं, लिवर बढ़ जाता है. और बच्चों को सूखा रोग हो जाता है. इस की अधिकता से शरीर को कोई नुकसान नहीं होता.

वसा : भोजन में पोषक तत्त्वों में वसा का महत्त्वपूर्ण स्थान है. इस के प्रयोग से शरीर में गरमी और शक्ति उत्पन्न होती है. यह शरीर के ऊतकों की क्षय हुई चरबी को पूरा करती है, त्वचा में चमक बनी रहती है और कार्बोहाइड्रेट्स को पचाने में सहायता मिलती है.

यह हमें 2 प्रकार से प्राप्त होती है :

1. वनस्पति वसा,  2. प्राणीजन्य वसा.

वनस्पति वसा हमें विभिन्न प्रकार के   खा- तेलों, बादाम, अखरोट, सोयाबीन, नारियल, काजू, पिस्ता, मूंगफली इत्यादि से प्राप्त होती है जबकि प्राणीजन्य वसा हमें घी, दूध, मक्खन, क्रीम, मछली के तेल आदि से प्राप्त होती है.

इस की कमी से त्वचा शुष्क हो जाती है और अधिकता से शरीर मोटा होने लगता है, पाचनक्रिया ठीक नहीं रहती, शरीर में बहुत अधिक मात्रा में वसा के एकत्रित होने से पित्ताशय में पथरी का डर रहता है.

खनिज लवण : हमारे शरीर में कैल्शियम, पोटैशियम, सोडियम, मैगनीशियम, फास्फोरस, लोहा, आयोडीन, क्लोरीन, सिलोकौन, सल्फर आदि अनेक क्षारीय पदार्थ पाए जाते हैं जो शरीर को रोग और निर्बलता से बचाते हैं. ये हमें विभिन्न प्रकार के खा- पदार्थों, हरी पत्तेदार सब्जियों में पालक, चौलाई, सरसों का साग, मूली के पत्ते आदि से प्राप्त होता है. दूध से हमें कैल्शियम और फास्फोरस नामक खनिज लवण मिलते हैं.

कैल्शियम तथा फास्फोरस हड्डियों और दांतों का निर्माण व उन्हें मजबूत बनाते हैं. सोडियम, पोटैशियम, क्लोरीन और फास्फोरस घुलनशील लवण हैं जो शरीर को तरल द्रव पहुंचाते हैं.

इन की कमी से स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता. कैल्शियम की कमी से दांत और हड्डियां कमजोर होती हैं. बच्चों की वृद्धि रुक जाती है. लोहे की कमी से शरीर पीला पड़ जाता है जबकि आयोडीन की कमी से गलगंड नामक रोग हो जाता है. फास्फोरस की कमी से हड्डियों में विकार आ जाता है और मांसपेशियां दिखाई देने लगती हैं. पोटैशियम की कमी से हृदय की मांसपेशियां कमजोर हो जाती हैं और घबराहट होने लगती है.

विटामिन :  फल, दूध, कच्चे अंडे और हरी सब्जियों में अधिकता से पाए जाते हैं. ये ताप सहन नहीं कर सकते, इसलिए खा- पदार्थों को उबालने, तलने, गलने और सूखने से विटामिन नष्ट हो जाते हैं. विटामिन कई प्रकार के होते हैं :

विटामिन ‘ए’ :  यह ताजा घी, मांसाहारी पदार्थों, बंदगोभी, गाजर, मेथी के साग आदि में पाया जाता है. इस की कमी से रात को कम दिखाई देता है, लिवर में पथरी बनने लगती है, शरीर दुर्बल हो जाता है, दांतों में पायरिया नामक रोग हो जाता है.

विटामिन ‘बी’ :  यह ताजे फलों, सब्जियों, दूध, अनाज के ऊपरी छिलकों में पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है. इस की कमी से बेरीबेरी नामक रोग होता है जबकि विटामिन ’बी 12‘ की कमी से एनीमिया हो जाता है.

विटामिन ‘सी’ :  यह आंवला, नीबू, संतरे, मौसमी, टमाटर, अंकुरित अनाज आदि में पाया जाता है. इस की कमी से स्कर्बी नामक रोग होता है.

विटामिन ‘डी’ :   यह सूर्य के प्रकाश से मानव शरीर में बनता है. इस के अतिरिक्त यह दूध, अंडे, मक्खन, पनीर, हरी पत्तेदार सब्जियों, मछली के तेल आदि में भी मिलता है. इस की कमी से रिकेट्स नामक रोग होता है जिस में हड्डियां विकृत और कमजोर हो जाती हैं.

आप भी तो नहीं आए थे : भाग 2

भैया का दूसरा बेटा कनाडा में साइंटिस्ट है. उस का नाम चिन्मय है.

मैं ने पूछा, ‘‘चिन्मय को सूचना दे दी?’’

‘‘हां… उसे भी फोन कर दिया है,’’ भैया बोले, ‘‘जानते हो क्या बोला?

‘‘ ‘ओह, वैरी सैड…मौम चली गईं, खैर, बीमार तो थीं ही, उम्र भी हो चली थी. एक दिन जाना तो था ही, कुछ बाद में चली जातीं तो आप को थोड़ा और साथ मिल जाता उन का. पर अभी चली गईं. डैड, एक दिन जाना तो सब को ही है. धैर्य रखिए, हिम्मत रखिए. आप तो पढ़ेलिखे हैं, बहुत बड़े डाक्टर हैं. मृत्यु से जबतब दोचार होते ही रहते हैं. टेक इट ईजी.’

‘‘मैं सिसक पड़ा तो बोला, ‘ओह नो, रोइए मत, डैड.’

‘‘मेरे मुंह से निकल पड़ा, ‘जल्दी आ जाओ बेटा.’

‘‘ ‘ओह नो, डैड. मेरे लिए यह संभव नहीं है. मैं आ तो नहीं सकूंगा, जाने वाली तो चली गईं. मेरे आने से जीवित तो हो नहीं जाएंगी.’

‘‘ ‘कम से कम आ कर अंतिम बार मां का चेहरा तो देख लो.’

‘‘ ‘यह एक मूर्खता भरी भावुकता है. मैं मन की आंखों से उन की डेड बाडी देख रहा हूं. आनेजाने में मेरा बहुत पैसा व्यर्थ में खर्च हो जाएगा. अंतिम संस्कार के लिए आप लोग तो हैं ही, कहें तो कुछ रुपए भेज दूं. हालांकि उस की कोई कमी तो आप को होगी नहीं, यू आर अरनिंग ए वैरी हैंडसम अमाउंट.’

‘‘यह कह कर वह धीरे से हंसा.

‘‘मैं ने फोन रख दिया.’’

भैया फिर रोने लगे. बोले, ‘‘चिन्मय जब छोटा था हर समय मां से चिपका रहता था. पहली बार जब स्कूल जाने को हुआ तो खूब रोया. बोला, ‘मैं मां को छोड़ कर स्कूल नहीं जाऊंगा, मां तुम भी चलो?’ कितना पुचकार कर, दुलार कर स्कूल भेजा था उसे. जब बड़ा हुआ, पढ़ने के लिए विदेश जाने लगा तो भी यह कह कर रोया था कि मां, मैं तुम्हारे बिना कैसे रहूंगा. अब बाहर गया है तो बाहर का ही हो कर रह गया. मां के साथ सदा चिपके  रहने वाले ने एकदम ही मां का साथ छोड़ दिया. मां को एकदम से मन से बाहर कर दिया. मां गुजर गई तो अंतिम संस्कार में भी आने को तैयार नहीं. वाह रे, लड़के.’’

‘ऐसे ही लड़के तो आप भी हैं,’ मैं फिर बुदबुदा उठा.

धीरेधीरे समय सरकता गया. इंतजार हो रहा था कि शायद तन्मय आ जाए. वह आ जाए तो शवयात्रा शुरू की जाए, पर वह न आया.

जब 1 बज गया तो गोपाल बाबू बोल उठे, ‘‘भाई सुकांत, अब बेटे की व्यर्थ प्रतीक्षा छोड़ो और घाट चलने की तैयारी करो. उस को आना होता तो अब तक आ चुका होता. जब श्रीकांत 10 बजे तक आ गए तो वह भी 10-11 तक आ सकता था. लखनऊ यहां से है ही कितनी दूर. फिर उस के पास तो कार है. उस से तो और भी जल्दी आया जा सकता है.’’

प्रतीक्षा छोड़ कर शवयात्रा की तैयारी शुरू कर दी गई और 2 बजे के लगभग शवयात्रा शुरू हो गई. शवदाह से जुड़ी क्रियाएं निबटा कर लौटतेलौटते शाम के 6 बज गए.

तब तक कुछ अन्य रिश्तेदार भी आ चुके थे. सब यही कह रहे थे कि तन्मय क्यों नहीं आया? चिन्मय तो खैर विदेश में है, उस का न आना क्षम्य है, लेकिन तन्मय तो लखनऊ में ही है, उस को तो आना ही चाहिए था, उस की मां मरी है. उस की जन्मदात्री, कितनी गलत बात है.

किसी तरह रात कटी, भोर होते ही सब उठ बैठे.

मेरी बहन पूरे दिन घर पर रहती है और कोई काम भी नहीं करती, बताएं मैं क्या करूं ?

सवाल

मेरी एक छोटी बहन है जो 23 वर्षीया है. वह घर के किसी काम में हाथ नहीं बंटाती है और न ही नौकरी करने जाती है. मैं नौकरी करती हूं और मेरी उम्र 27 वर्ष है. मुझे यह देख कर सब से ज्यादा अटपटा लगता है कि घर की लाड़ली होने के नाते उसे सभी ने सिर पर चढ़ा रखा है और मेरे साथ इस तरह का व्यवहार होता है. मैं औफिस से आती हूं और घर के काम में मम्मी का हाथ भी बंटाने लगती हूं जिस से मैं हद से ज्यादा थक जाती हूं. मैं सोच रही हूं कि औफिस के पास ही किराए पर रहना शुरू कर दूं. पर समझ  नहीं आ रहा कि सबकुछ कैसे हैंडल करूंगी और मम्मीपापा को कैसे मनाऊंगी. कृपया कुछ हल बताइए.

जवाब

आप समझदार, पढ़ीलिखी युवती हैं और आप को पूरा अधिकार है कि आप अपने फैसले खुद ले सकें. आप को बाहर आनेजाने की आदत भी है, कमाऊ भी हैं और घर के काम भी खुद कर सकती हैं तो टैंशन कैसी. आप अपने बलबूते पर अकेली रह सकती हैं.

हां, शुरुआती दिनों में थोड़ी परेशानी हो सकती है लेकिन धीरेधीरे आप को सभी चीजों को हैंडल करना आ जाएगा. रही बात मम्मीपापा को सम झाने की, तो उन्हें सम झाइए कि आप के अपने काम पर फोकस करने के लिए आप का अलग रहना जरूरी है. और फिर आजकल लड़कियां खुद अपने पैरों पर खड़ी हैं तो फिर अकेले रहने में हर्ज कैसा. वैसे भी आप के घर में आप की बहन तो है ही, तो ऐसा भी नहीं है कि मम्मी को काम करने में परेशानी होगी. हो सकता है आप के न होने पर वह कुछ काम करना शुरू कर दे.

ऐनी तुम कहां हो : भाग 2

वह मेरी जिंदगीभर की नौलेज को बेरहमी से काट कर बोली, ‘सर, जिंदगी नहीं, शरीर का बारे में…’

‘अच्छा मजाक छोड़ो, मेरे सवाल का उत्तर दो.’

उस ने शायद पहली बार स्पीड ब्रेकर का इस्तेमाल किया, सोची, फिर बोली, ‘सर, जिंदगी…ज़िंदगी के बारे में…मैं तो सर बाईक के बारे में सोचती हूं जिसे मैं चलाना चाहती हूं. पर…पर वह मेरे पास है नहीं. मैं ब्लैक जींस और टौप के बारे में सोचती हूं जो मुझे पसंद है पर मां पहनने नहीं देती. अपने छोटे भाई को होने वाली हर कमी के बारे में सोचती हूं कि उसे कभी कोई तकलीफ़ न हो. अपने पापा के बारे में सोचती हूं जिन की कमी मुझे हमेशाहमेशा महसूस होता है. काश, आज पापा होते… हर उस कमी के बारे में सोचती हूं जो जीवन की खुशी और खूबसूरती को कम कर देती है.’ फिर वह थोड़ा रुक कर बोली, ‘लेकिन सर, जिंदगी के बारे में तो मैं ने कभी सोचा ही नहीं. वह तो मेरे पास भरपूर थी, भरपूर है. कभी ऐसा लगा ही नहीं कि मेरे पास जिंदगी जैसा चीज़ की कोई कमी हो और मुझे उस के बारे में सोचना पड़े.’ बोलतेबोलते ही अचानक उस ने सवाल किया, ‘लेकिन सर, आप जिंदगी के बारे में क्यों सोचते हैं, आप को क्या  कमी…’ मैं उस का पूरा सवाल सुने बिना ही कुहरे की अदृष्य चादर में लिपट कर खो गया था. पीछे जवाब छोड़ गया था. ‘हां ऐनी, मेरी जिंदगी में… कुछ तो कमी है.’

इस के बाद ऐनी के सामनें मैं हर अर्थ में पराजित ही रहा क्योंकि मैं विजयी नहीं था. धीरेधीरे मेरा मन हीनभावना को आमंत्रित करने लगा था. क्लास में ऐनी की उपस्थिति मुझे हतोत्साहित करती थी. जबकि वह मुझे सहज भाव से देखती रहती. मैं क्या पढ़ा रहा हूं, कहां से शुरू कर कहां खत्म कर रहा हूं, मुझे पता नहीं चलता था. जल्दी ही मुझे इस बात का एहसास हो चुका था कि मैं अपनेआप पर अपना नियंत्रण खो चुका हूं. अब ऐनी मेरी कंट्रोलर थी.

एक दिन अचानक वह मेरे पास आई और बोली, ‘सर, मैं बुद्ध हूं या बुद्धू? शाह सर हमें बुद्ध कहता है जबकि लड़के बुद्धू.’ मैं एक बार फिर संकट में था. मैं ने संभल कर कहा, ‘देखो ऐनी, लड़कियों के बारे में निर्णय करना थोड़ा कठिन होता है. वैसे भी एक ‘उ’ की मात्रा का ही फर्क है.’ वह पहली बार अड़ी थी- ‘सर, आप किस ग्राउंड पर ऐसा कहता है?’ मैं ने संभल कर कहा, ‘एनी, लड़कियां सामान्यतौर पर उथली श्वांस लेती हैं जिस के कारण मस्तिष्क की कोशिकाओं में औक्सीजन का प्रवाह शिथिल हो जाता है. इस से तंतु पर्याप्त रूप से सक्रिय नहीं हो पाते न ही कोशिकाएं त्वरित रूप से चैतन्य रह पाती हैं. परिणामस्वरूप प्रजेन्स औफ़ माइंड (प्रत्युन्नमति)  की कमी कुछ लड़कियों में स्पष्ट दिखती है.’ मैं ने एनी को समझाया था थोड़ा निर्णायक स्वर में भी ताकि आगे सवाल न उठे. लेकिन ऐनी उस दिन मानने वाली नहीं थी. वह लड़कियों पर मेरे कमैंट से कुछ ज्यादा ही चैतन्य हो चुकी थी. बोली, ‘सर, लड़कियां गहरा श्वांस क्यों नहीं लेती हैं?’ अचानक उठे सवाल पर जानें कैसे मैं कह उठा, ‘देखो ऐनी, यह एक वैज्ञानिक तथ्य है जिस का संबंध स्त्री के वक्षस्थल की प्रोजैक्टेड ब्यूटी से है, उस की सुंदरता से है.’ अबोध ऐनी तपाक से पूछ बैठी, ‘सर, यह वक्ष क्या होता है?’ जानें क्यों मैं अंदर तक सिहर उठा था. मेरा हाथ कब प्यार से उस के कंधे पर रखा गया, खुद मुझे भी पता न चला. मैं उसे एक गहरी श्वांस के साथ स्टाफरूम के बाहर छोड़ आया था.

ऐनी को देख कर लगता जैसे वह दुनिया का सब से बेखबर, बेसुध जीव है जो सिर्फ मजे से जीना जानता हो. बाकी हम स्साले…जीवन का आनंद भी टेबलेट की तरह नाप कर लेते थे. हमें यह खुशफ़हमी थी जैसे जिंदगी हमारी ब्याहता है जो हमारे ही हिसाब से चलेगी. सच कहूं तो हम सारे प्रोफैसर एकदूसरे से डरे हुए थे. कहीं कोई हमें ज्यादा सुखी या ज्यादा दुखी न देख ले.

ऐनी हर मामले में सपाट थी. वह खुश होने के लिए कारण नहीं खोजती थी. जिंदगी उस की निर्दोष गोदी में किलकारियां मारती थी. उसे देखदेख कर खुशी, आनंद, उत्सव, उमंग की व्याख्या एक ही शब्द में करने में सारे प्रोफैसर समर्थ हो गए थे और वह एकमात्र शब्द था- ‘एनी.’ यार जियो तो ऐनी की तरह. मैं फिर भी चुप ही रहता था. क्योंकि मेरे पास एक शब्द और था जिस की व्याख्या भी ‘ऐनी’ से ही पूर्ण होती थी. वह शब्द था- ‘प्यार.’ …मेरा प्यार ऐनी, जिस से सब बेखबर थे, शायद ऐनी भी.

फिर एक दिन, इस कहानी के अंत का भी समय आ गया. प्रो. शर्मा ने सब को खबर दी कि ‘किलकारी 3 माह की छुट्टी पर दिल्ली जा रही है.’

स्टाफरूम में कोलाहलभरा समवेत स्वर उभरा था- ‘क्या हुआ ऐनी को?’

प्रतिवचन : भाग 2

मेरे दुख को मेरी छोटी ननद जया और देवर समय समझते थे, परंतु जब आप खुद के लिए खड़े नहीं हो सकते तो किसी और से क्या उम्मीद कर सकते हैं. सुमित ने तो बहुत पहले ही अपना फैसला मुझे सुना दिया था.

जब भी बाबूजी मेरी ससुराल से अपमानित हो कर जाते, मेरे अंदर कुछ टूट जाता और कानों में विवाह के दूसरे वचन की ध्वनि सुनाई पड़ती थी. ‘जिस प्रकार आप अपने मातापिता का आदर करते हो उसी प्रकार मेरे मातापिता का आदर करो.’

जब सुमित का तबादला नोएडा हुआ तब पहली बार मेरे ससुर अपनी पत्नी के खिलाफ बोले थे, ‘सरला, जाने दो माधुरी को सुमित के साथ. अपनी गृहस्थी संभालेगी और तुम्हें सुमित के खानेपीने की चिंता भी नहीं रहेगी.’ ‘अरे वाह, मां, पापा को तो भाभी की बड़ी चिंता है,’ विमला ने व्यंग्य कसा था.

‘जिसे जहां जाना है जाए. मुझे तो सारी उम्र रोटियां ही बेलनी हैं,’ सासूजी बड़बड़ाती रहीं. मेरे आज्ञाकारी पति कैसे पीछे रह जाते, ‘नहीं मां, माधुरी यहां रहेगी आप के पास. मैं ने वहां एक कुक का इंतजाम कर लिया है. वैसे भी, रमेश के साथ रहूंगा तो पैसे कम खर्च होंगे.’

‘मेरा राजा बेटा, यह जानता है कि इस पर अपने छोटे भाईबहनों की जिम्मेदारी है.’ ‘तुम तो ऐसे कह रही हो जैसे मैं निठल्ला बैठा हूं…घर जैसे इस की कमाई से चलता है,’ ससुरजी ने एक कोशिश और की.

‘चुप होगे अब. हर शनिवार को तो घर आ ही जाएगा,’ सासूजी ने यह कह कर पति की बोलती बंद कर दी. सुमित नोएडा चले गए थे. अपनी छोटीछोटी जरूरतों के लिए भी मैं अपनी सास पर मुहताज थी. कई बार सुमित से कहा भी कि मुझे कुछ पैसे भेज दिया करो.

‘तुम्हें क्या जरूरत है पैसों की? जब कभी जरूरत हो तो मां से मांग लिया करो. मां ने कभी मना किया है क्या?’ उन्होंने कभी किसी वस्तु के लिए मना नहीं किया. परंतु उस वस्तु की उपयोगिता बताने के क्रम में जो कुछ भी मुझे सहना पड़ता था, वह मैं सुमित को नहीं समझा सकती थी.

मैं कपड़ों की जगह सैनिटरी नैपकिन इस्तेमाल करना चाहती थी. हिम्मत बटोर कर यह बात जब मैं ने अपनी सास को बताई थी, उन की प्रतिक्रिया आज भी मेरे रोंगटे खड़े कर देती है-

‘अरे, सुनते हो…समय…जया…’ घर के सभी लोग, नौकर तक, बरामदे में आ गए थे.

‘मांजी गलती हो गई, माफ कर दीजिए, प्लीज चुप हो जाइए.’ ‘तू होती कौन है मुझे चुप कराने वाली…’

‘अरे, बताओगी भी हुआ क्या?’ ससुरजी की आवाज थी. ‘आप की बहू को अपना मैल उतारने के लिए पैसे चाहिए.’

‘मांजी, प्लीज चुप हो जाइए,’ रो पड़ी थी मैं. ‘तेरे बाप ने भी देखा है कभी पैड, बेटी को पैड चाहिए.’

सारा माजरा समझते ही मेरे ससुर और देवर सिर झुका कर अंदर चले गए थे और मेरे बगल में खड़ी जया मेरे आंसू पोंछती रही थी. कई घंटे तक वे लगातार मुझे अपमानित करती रही थीं.

इस घटना के बाद मैं ने अपनी सारी अभिलाषाओं तथा जरूरतों को एक संदूक में बंद कर के दफन कर दिया था. मेरे बेटे के जन्म ने मुझे मां बनने का गौरव तो प्रदान किया परंतु जब उस की छोटीछोटी जरूरतों के लिए भी मुझे हाथ फैलाना पड़ता, तब मेरा हृदय चीत्कार कर उठता था.

विवाह का तीसरा वचन भी मेरे कानों के पास आ कर दबी आवाज में चीखा करता था. ‘आप अपनी युवावस्था से ले कर वृद्धावस्था तक कुटुंब का पालन करोगे.’

मेरी एक पुरानी सहेली रम्या मुझे एक दिन बाजार में घूमते हुए मिल गई. औपचारिकतावश मैं ने उसे घर आने को कह दिया था. परंतु मैं उस समय अवाक रह गई जब शनिवार को वह अपने पति व बच्चों के साथ अचानक आ गई. मेरा आधुनिक वस्त्र पहनना न तो सुमित को पसंद था और न ही उन की मां को. बिना बांहों का ब्लाउज पहनना भी उन के परिवार में मना था. रम्या को जींस और स्लीवलैस टौप में देख कर मैं समझ गई कि आज पति और सास दोनों की ही बातें सुननी पड़ेंगी.

परंतु उस दिन मैं ने सुमित का अलग ही रूप देखा था. जितने वक्त रम्या रही, सुमित मेरे कमरे में ही मौजूद रहे. दिन के समय सुमित हमारे कमरे में बहुत कम आते थे, इसलिए यह मेरे लिए सुखद आश्चर्य था. रम्या की तारीफ करते नहीं थक रहे थे वे. और तो और, अगले दिन बाहर घूमने का प्लान भी बना लिया उन्होंने.

रात में मैं ने सुमित से पूछा भी था, ‘बिना मां से पूछे कल घूमने का प्लान कैसे बना लिया तुम ने?’ ‘ उस की चिंता तुम छोड़ो. क्या औरत हैं रम्याजी, कितना मेंटेन किया है. उन की फिगर को देख कर कौन कहेगा कि 2 बच्चों की मां हैं.’

‘सौरभजी भी तो कितने अच्छे हैं.’ ‘क्या अच्छा लगा तुम्हें सौरभजी में?’

‘नहीं, बस रम्या से पूछ कर निर्णय…’ ‘जोरू का गुलाम है. और तुम्हें शर्म नहीं आती अपने पति के सामने किसी और मर्द की तारीफ करती हो. सो जाओ चुपचाप.’

अगले दिन पिकनिक में बातोंबातों के दौरान रम्या ने सुमित को मेरे बारे में बताया कि मैं अपने कालेज की मेधावी छात्राओं में आती थी. इतना सुनना था कि सुमित जोरजोर से हंसने लगे. ‘रम्याजी, क्या आप के कालेज में सभी गधे थे? माधुरी और मेधावी में सिर्फ अक्षर की समानता है. रसोई में खाने में नमक तो सही से डाल नहीं पाती. न चलने का ढंग, न कपड़े पहनने की तमीज. शरीर पर चरबी देखिए, कितनी चढ़ा रखी है,’ इतना कह कर वे अपनी बात पर खुद ही हंस पड़े थे. मेरा चेहरा शर्म और अपमान से काला पड़ गया था.

‘चलिए, बातें बहुत हो गईं, अब बैडमिंटन खेलते हैं,’ सौरभजी ने बात बदलते हुए कहा. खेल के दौरान सुमित ने फिर एक ऐसी हरकत कर दी जिस की उम्मीद मुझे भी नहीं थी. स्त्री के चरित्र का आकलन आज भी उस के पहने गए कपड़ों से किया जाता है. सुमित ने भी रम्या को ले कर गलत विचारधारा बना ली थी. खेल के दौरान सुमित ने कई बार रम्या को छूने की कोशिश की थी, यह बात मुझ से भी छिपी नहीं रह पाई थी.

इसलिए जब रम्या सुमित को किनारे पर ले जा कर दबे परंतु कड़े शब्दों में कुछ समझा रही थी, मैं समझ गई थी कि वह क्या कह रही है.

घर लौटते ही सुमित की मां रम्या की चर्चा ले कर बैठ गईं. सुमित जैसे इंतजार ही कर रहे थे. ?‘अरे मां, बड़ी तेज औरत है. उस से तो दूर रहना ही ठीक होगा.’

‘मैं न कहती थी. अरी ओ माधुरी, तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि तुम्हें चरित्रवान पति मिला है.’ दिल कर रहा था कि चरित्रवान बेटे की झाड़ खाने की बात मां को बता दूं. परंतु कह नहीं पाई. विवाह के वचन फिर कानों के पास आ कर चुगली करने लगे.

‘मैं अपनी सखियों के साथ या अन्य स्त्रियों के साथ बैठी हूं, आप मेरा अपमान न करें. आप दूसरी स्त्री को मां समान समझें और मुझ पर क्रोध न करें.’ सप्तक को मैं ने सदा प्रश्न करना सिखाया था. सुमित अकसर उस के सवालों से चिढ़ जाया करते थे, परंतु मैं सदा उसे प्रश्न पूछने के लिए प्रोत्साहित करती थी. मेरे और सप्तक के प्रश्नोत्तर के खेल में ही मुझे मेरे जीवन के सब से बड़े सवाल का जवाब मिल गया था.

छोटे रिश्ते बड़े काम : भाग 2

इरा ने कल ही तो उन से पूछा था, ‘‘बाबाजीवहां अकेले आप को डर नहीं लगता.’’सुनते ही वह हंस दिए थे, ‘‘डर… नहीं तो,’’ कहतेकहते उन्हें चैतू और कृष्णा की याद आ गई थी. ये दोनों उन के पुराने शिष्य हैं. उसी कसबे में इन का ब्याह हुआ हैघरबार है. जब से पद्मा नहीं रहीकृष्णा उन का पिता समान ध्यान रखती है और चैतू बाजार से सामान आदि ला दिया करता है. जब भी जी घबराता हैवह कृष्णा या चैतू के घर चले जाते हैं. दोनों कैसेकैसे भाग कर उन का सत्कार करते हैं. कृष्णा गिलास में चाय भर लाती है और तस्तरी में मिठाई या फल. ब्राह्मïण हैंअत: कप में चाय नहीं पीते. अपने हाथ से उठाउठा कर आग्रहपूर्वक देती है. तब भी उन्हें पद्मा बहुत याद आती है. उस की मृत्यु के बाद उतने आग्रहपूर्वक खिलाने वाली बस कृष्णा ही तो बची है. वह हमेशा से जातिपांति के खिलाफ थे और उसे गांव के बहुत से ऊंची जाति के लोग उन की पीठ पीछे उन्हें बुराभला भी कहते थे. पर चूंकि उन की संगीत पर पकड़ थीकोई मुंह पर कुछ न कह पाता था.

राकेश आ कर दूसरी कुरसी पर बैठ गया था. बहू भी मोबाइल हाथ में लिए आ बैठी. थोड़ी देर वह राकेश से वकालत की पूछताछ करते रहेफिर हंस कर बोले, ‘‘अच्छाराकेशतुम्हें अब संगीत का अभ्यास तो रहा नहीं होगाइन बच्चों को सिखा देते.’’

राकेश ने पत्नी की ओर देखा और सगर्व बोला, ‘‘अपने काम से छुट्टी कहां मिलती हैबाबूजी. वैसेइरा गिटार सीख रही हैएक म्यूजिक टीचर आते हैं सिखाने.’’

उन्होंने एक आह सी भर ली. शहर की बात है. भले ही वह संगीतज्ञ हैंपर गिटार बजाना तो उन्हें भी नहीं आता. वायलिन बजा लेते थे. तबलासितारहारमोनियम भी बजा लेते थेपर गिटार… पद्मा को कितना शौक था कि वह अधिक से अधिक वाद्य बजाना सीखेंकहती थी, ‘‘जब बूढ़े हो जाओगे और गाना नहीं गा सकोगेतब बजाना ही काम आएगा.’’

एक बार पद्मा ने उन्हें इन नए इंस्ट्रूमेंट्स के सीखने के लिए उकसाया थापर वह हंस कर बोल उठे थे, ‘‘पद्माइस कसबे में ड्रम सीखने वाले बच्चे भी नहीं हैं जितने मुझे आते हैंये नए इंस्ट्रूमैंट तो बहुत महंगे हैंजो यहां किसी के काम के नहीं हैं.’’‘‘अपने लिए सीखोअपने बच्चों के लिए सीखोसब दूसरों के लिए थोड़े ही सीखा जाता है. पैसे चाहिए तो बताओ. मैं गहने बेच कर दे दूंगी. अब कोई और जिम्मेदारी तो है नहीं.’’

सोचतेसोचते उन की आंखें गीली होने लगींतो चुपके से उन्हें पोंछ डाला. ‘‘सुनोराकेश,’’ एक दिन उन्होंने बैठेबैठे राकेश से कहा, ‘‘मेरे होते हुए बच्चों को बाहर का अध्यापक आ कर कुछ सिखाएयह अच्छा नहीं लगता.’’राकेश कचहरी जाने को तैयार हो रहा थाबोला, ‘‘पर बाबूजीआप गिटार और केसियो नहीं सिखा सकेंगे.’’‘‘कोई बात नहींबेटाइरा सितार सीखेगीवायलिन सीखेगी. लड़कियां ये दोनों वाद्य बजाती हुई बहुत अच्छी लगती हैं.’’

‘‘अरे नहीं बाबूजी,’’ राकेश ने लापरवाही से टाई का नाट’ ठीक करते हुए कहा, ‘‘वे पुराने फैशन के वाद्य हैं… अब तो गिटार पर पोप’ संगीत ही आधुनिक घरानों में चलता है. और उन के सारे इंस्ट्रूमैंट विदेशी हैं.’’राकेश बिना उन के चेहरे को देखे ही चला गया. उन्हें लगाजैसे बेटे ने उन के मुंह पर तमाचा मारा है. जिन की विद्या पर सारा कसबा गर्व करता हैउन्हें ही निरर्थक बता कर वह चला गया है. अभी आने से पहले कृष्णा उन से कह रही थी, ‘‘गुरुजीआप जा रहे हैंमेरी रत्ना को कौन संगीत सिखाएगा.’’

वह हंस कर बोले थे, ‘‘रत्ना की मां को सबकुछ मैं ने सिखा दियाअब गुरुपद तुम्हीं संभालो.’’कृष्णा की दृष्टि झुक गर्ई थी. ‘‘आप के होते हुए मैं गुरुपद कैसे संभाल सकती हूं.’’इस पल वह सब याद आयातो मन भर आया. अभी इरा और लव दौड़ते हुए आएबोले, ‘‘बाबाजीकल मेरा जन्मदिन है.’’

‘‘अच्छा…’’ वह अपनी कसक बच्चों की हंसी में मिटाने लगे.‘‘इत्तेसारे लोग आएंगे. वह शची आंटी हैं नबड़ा अच्छा गाती हैं. आप भी सुनेंगे न?’’वह सिर हिला कर मुसकरा दिए. इरा निकट आ कर उन की गरदन से लटक गई. ‘‘बाबाजीआप भी तो गाना गाते हैं न?’’

उन्होंने धीरे से कहा, ‘‘गाता थाबेटीअब नहीं गाता.’’‘‘अब क्यों नहीं गाते?’’‘‘अब बूढ़ा हो गया हूंमुझ से अच्छी तरह गाया नहीं जाता.’’इरा नासमझ सी उन्हें देखती रही.

वह पूरी रात उन्होंने आंखों में काट दी. कल इरा की वर्षगांठ है और उन्हें पता भी नहीं. कसबे में जीवन के पूरे 65 वर्ष व्यतीत किए हैं. कौन नहीं जानता पंडित मधुकरनाथ को. आठ वर्ष के थे वहतब से ही गायन विद्या में निपुण हो चले थे. पिता शास्त्रीय संगीत के ही विद्वान थेपर उन्होंने बड़े हो कर पद्मा की प्रेरणा के बाद ही वाद्य संगीत में निपुणता प्राप्त की. छोटे से कसबे का एक छोटा सा व्यक्ति अपनी कला व परिश्रम से बहुत बड़ा दिखाई देने लगा. जबतब नौकरी में रहेतब भी पूरे कसबे के एकमात्र लोकप्रिय गायक वही रहेऔर उन से पहले के उन के पिता.

जब वह सेवानिवृत्त हुएतब भी कसबे के छोटेछोटे दिलों में धड़कते रहे. ट्यूशन तब भी मिलती रही. स्कूल के नए संगीत अध्यापक पर किसी ने उतना ध्यान नहीं दियाजितना स्नेह उन के हिस्से में आया. कई बार वह कृष्णा या चैतू से पूछ बैठते, ‘‘अब तो नए जमाने के अध्यापक आ गए हैं. मुझ पंडित को फिर भी लोग अपने बच्चों की ट्यूशन के लिए क्यों चिरौरी करते हैं?’’

उन्हें चैतू की भी याद थी. वह एक डोम का बेटा था और संगीत सीखना चाहता थापर उन्हें उस घर में घुसने की इजाजत वे कैसे दे देते. पूरा समाज उन्हें जाति से बाहर निकाल देता.उन्होंने चैतू के बहुत पांव पकड़ने और रोनेधोने के बाद डरडर कर खेतों में जा कर उसे संगीत की थोड़ीबहुत शिक्षा दी. उन्हें नहीं मालूम था कि चैतू इतनी जल्दी हर चीज समझ जाएगा. फिर उस का बाप उसे दूसरे शहर ले गया. जातेजाते चैतू उन की ड्योढ़ी पर बहुत सोचता था. जो शास्त्रीय गायन नहीं जानते. आप को कैसे कोई भुलाएगा. सब से बढ़ कर है आप का विनम्र स्वभाव.’’

कृष्णा कहती, ‘‘सच्ची गुरुजी. यह तो आप की महानता थी कि हमारे इतने परदादार मांबाप भी हमें संगीत सिखाने पर तैयार हो गए. हरेक को थोड़े ही मांबाप अपनी बेटियों का अध्यापक रख सकते हैं.’’पूरी रात उन्हें कृष्णा और चैतू के साथ उन तमाम छात्रछात्राओं की याद आईजो एकदो वर्ष उन के संपर्क में रहे या पूरी पढ़ाई वहां कर के किसी बड़े कालेज में पढ़ने के लिए कसबा छोड़ गए या किसी के मातापिता का स्थानांतरण ही बाहर हो गया. पर जातेजाते कैसे हरेक उन के पैर छू कर कहता था, ‘‘गुरुजीपता नहींवहां आप जैसा अध्यापक कोई मिलेगा या नहीं?’’

वह हंस कर आशीर्वाद देते, ‘‘देखोबड़े आदमी बन कर इस छोटे से गुरु को भूल मत जाना.’’सब की आंखें भरभर आतीं, ‘‘आप ने तो हमें पितातुल्य प्यार दिया हैआप को भला कैसे भूल सकते हैं.’’यह अलग बात हैउन में से फिर किसी को वह  देख नहीं सके.

अंधेरे में देर तक वह उन तमाम चेहरों को याद करते रहे. फिर पलट कर राकेश का चेहरा उन के सामने आ खड़ा हुआ. कितना कष्ट सह कर भी उसे इतना बड़ा आदमी बना दिया. संगीतज्ञ बनाना चाहते हुए भी वकील बना दियापद्मा के सपनों को पूरा देखने के लिए. पर क्या सपना पूरा हुआपद्मा कब चाहती थी कि उस का बेटा धनी वकील बन कर अपने पिता के ज्ञान की अवहेलना करने लगे. उसे भी तो संगीत की शिक्षा दी थीपर वह संगीत के महात्म्य को भी आधुनिकता के कलेवर से लपेट रहा हैअपने पिता की सब से अमूल्य संपत्ति संगीत’ की अवहेलना कर रहा है. बड़ी कठिनाई से उन्होंने उमड़ते हुए उद्गारों को आंखों से टपकने से रोका था.

पूरा घर शोर से भरता जा रहा था. बड़े हाल में खूब गुब्बारे सजाए गए थे और वहीं अल्पाहार का प्रबंध भी था.सुबह ही राकेश ने दबे स्वर में उन से पूछा था, ‘‘मेरे कमरे में ही कलई के गिलास में चाय भिजवा देना. मैं करूंगा भी क्या वहां.’’राकेश अति सकुचाया सा बोला था, ‘‘वास्तव में मैं ने अपने नए उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश महोदय को भी बुलाया है. अभी एक माह पहले ही स्थानांतरित हो कर यहां आए हैं.’’

‘‘कोई बात नहींराकेश. तुम लोग राजीखुशी अपना कार्यक्रम करो. मैं देहाती आदमी बीच में कुछ गड़बड़ करने नहीं आऊंगा.’’राकेश ने लाज से उन के हाथ दबा दिए थे.बड़ी बैठक के बराबर में ही उन को कमरा मिला था. बीच के दरवाजे के किवाड़ पहले ही भिड़ा दिए गए. दरवाजे के आगे साटन का परदा झूल रहा थाअत: वे निश्चिंत थे. कानों में हर आवाज निरंतर पहुंच रही थी. ढेर सी हंसी लड़केलड़कियों कीये लोग शायद इरा के साथी थे. फिर ठहाकेदार स्त्रीपुरुषों की आवाजेंआलोचनाओं व अफवाहों से भरी हुईशायद इन्हीं कहकहों के मध्य राकेश के नए न्यायाधीश महोदय भी होंगेउन्होंने सोचा.

बहू अपने हाथ से उन के लिए एक मेज पर कलई की तस्तरियों से नाश्ते का सामान चाय के साथ परोस गई थी. उन्होंने आंखें मूंद कर सोचा था, ‘शायदयह भी सुख का अच्छा सा रूप होगाविनम्रता की स्नेहिल मुसकान के साथ उन्हें यह एकाकी आदरसत्कार मिला.

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