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मेरी दोस्त बहुत कंजूस है, अक्सर वो मुझसे पैसे मांगती है और वापस भी नहीं करती, बताएं कि मैं क्या करूं ?

सवाल

मैं और मेरी सहेली एकसाथ कालेज में पढ़ते थे. कई वर्ष बीत गए हैं. हम दोनों सहेलियां कालेज के बाद कुछ खास मिलीं नहीं. वह बहुत कंजूस किस्म की लड़की थी और बहुत ज्यादा उधारी रखने वाली भी. सभी से उधार लेले कर उस ने अच्छाखासा कर्ज अपने सिर पर चढ़ा रखा था.

मुझ से भी 7-8 हजार रुपए तो उस ने ले ही रखे थे. अभी एक हफ्ता पहले ही वह मुझे एक फंक्शन में मिली. वह बिहार से 2 महीने पहले ही दिल्ली आई है और यहां उसे अच्छा किराए का घर भी नहीं मिल रहा. मेरा यहां खुद का 4 मंजिला घर है और बातोंबातों में मैं ने उस से यह कह दिया कि एक मंजिल किराए के लिए खाली पड़ी है. यह जान कर उस ने झट से कह दिया कि वह अगले हफ्ते ही मेरे घर में किराए पर रहने के लिए शिफ्ट कर जाएगी. मुझे पता है कि वह किराया तो देगी नहीं और कर्ज अलग लेती रहेगी, जो कभी लौटाएगी भी नहीं. आखिर, मैं उसे मना करूं तो कैसे करूं?

जवाब

आप को अपनी सहेली की आदत पता है और यह भी पता है कि वह आप का पैसा नहीं देगी तो फिर यह तो तय है कि आप को किसी भी तरह उसे अपने घर में शिफ्ट करने से रोकना ही होगा. अब रोकने के लिए आप को झूठ का सहारा भी लेना पड़े तो ले लीजिए. आप यह कर सकती हैं कि अपनी सहेली को फोन करें और यह कहें कि आप ने अपने पति से इस बारे में बात की जिस के बाद उन्होंने साफ कह दिया कि वे उस मंजिल को किराए पर देने के लिए तैयार नहीं हैं.

आप अपनी सहेली से यह कह दें कि आप के खुद के बच्चे उस ऊपरी मंजिल को सेपरेट रूम की तरह इस्तेमाल करना चाह रहे हैं और किराए पर देने का विचार आप त्याग चुकी हैं.

इन सब के बाद तो आप की दोस्त शायद समझ ही जाएगी कि आप घर किराए पर देने के मूड में नहीं हैं. इस बात का ध्यान जरूर रखें कि भावनाओं में बह कर या दोस्ती के नाम पर आप ने अपनी दोस्त को रूम किराए पर दे दिया तो उस के दूरगामी परिणाम बुरे भी हो सकते हैं. आप के निजी जीवन में तो वह टांग अड़ाएगी ही, साथ ही आप के घरपरिवार को आर्थिक रूप से भी प्रभावित करेगी. इसलिए कड़े मन से फैसला करें और उसे घर किराए पर न दें.

पाकिस्तान में आत्मघाती हमले में 23 जवानों की मौत

पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा प्रांत के डेरा इस्माइल खान जिले के दरबान इलाके में 12 दिसंबर की सुबह हुए आत्मघाती हमले में सुरक्षाबलों के 23 जवानों की मौत हो गई. जिस थाने पर हमला हुआ उस के अगले हिस्से में पुलिस तैनात रहती है जबकि पीछे के कमरों में सुरक्षा बल के जवान रहते हैं.

पिछले कुछ महीनों से थाने में सेना के जवानों की तैनाती थी. आतंकवादियों ने चौकी में घुसने के लिए विस्फोटकों से भरी गाड़ी को इमारत की दीवार से टकरा दिया. इस भयानक धमाके से इमारत ढह गई और चौकी में मौजूद जवानों में से 23 जवानों की मौत हो गई, जबकि जवाबी कार्रवाई में सभी 6 आतंकवादी भी मारे गए. जिस पुलिस स्टेशन पर हमला किया गया है, वह अफगानिस्तान की सीमा से सटा हुआ है.

इस हमले की जिम्मेदारी पाकिस्तानी तालिबान ग्रुप के तहरीक-ए-जिहाद ने ली है. जो कुछ समय पहले ही अस्तित्व में आया है. कहा जा रहा है कि तहरीक-ए-जिहाद आतंकवादियों के मुख्य समूह तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) से जुड़ा हुआ है.

बीते सालों में इस आतंकी संगठन ने कई हमलों को अंजाम दिया है. इस से पहले इसी संगठन ने पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत के मुस्लिम बाग इलाके में एफसी कैंप पर हमले की जिम्मेदारी ली थी. पाकिस्तान में अब तक 6 ऐसे हमले हो चुके हैं जिन की जिम्मेदारी इस संगठन ने ली है.

जिस वक्त ये हमला हुआ उस वक्त लोग सो रहे थे. तेज गोलीबारी की आवाजों से स्थानीय लोग दहशत में आ गए. किसी की समझ में नहीं आया कि अचानक क्या हुआ. गोलीबारी का सिलसिला सूरज उगने तक जारी रहा.

सुरक्षा बल के जवानों पर यह पहला आतंकी हमला नहीं है. साल 2015 में भी इसी थाने से सटी गवर्नमेंट डिग्री कौलेज दरबान की बिल्डिंग पर आत्मघाती हमला हुआ था, जिस के बाद कौलेज की बिल्डिंग जर्जर हालत में पहुंच गई. कौलेज का एडमिन ब्लौक भी पूरी तरह से नष्ट हो गया. दराबान के पास तहसील कलाची में पिछले कुछ समय में पुलिस स्टेशनों और सुरक्षाकर्मियों पर कई हमले हुए हैं, जिस के बाद वहां तलाशी अभियान भी चलाया गया. लेकिन उस का कोई फायदा नहीं हुआ और हाल के दिनों में कई चरमपंथी हमले इस इलाके में हुए हैं.

गौरतलब है कि पाकिस्तान समेत जितने भी मुल्क धर्म के आधार पर बने हैं लगभग सभी इसी तरह की आतंकी गतिविधियों और जंग से जूझ रहे हैं. वहां आम नागरिक और मासूम बच्चे लगातार दहशत में जी रहे हैं. उन की औरतें कैदियों सा जीवन बिता रही हैं. ऐसे मुल्कों में न शिक्षा को कोई अहमियत दी जाती है, न नागरिकों को रोजगार और देश के विकास की कोई योजनाएं बनती हैं. सिर्फ धर्म का परचम उठाए कंधे पर बंदूकें लिए खूंखार चेहरे चारों तरफ नजर आते हैं.

इस में कोई दोराय नहीं कि धर्म इंसानी दिमाग को कुंद कर देता है. मेरे धर्म से बड़ा कोई धर्म नहीं, ऐसी सोच हावी हो जाती है और इस सोच को सब पर जबरन थोपने की चाह सिर्फ खूनखराबा ही कराती है.

वर्तमान समय में लगभग सारी दुनिया में धर्म अपने विकृत रूप में है. खासतौर पर पाकिस्तान, अफगानिस्तान बुरी तरह इस की चपेट में हैं. आज दुनियाभर में सारे बुरे कार्य धर्म के नाम पर हो रहे हैं. पाकिस्तान में आतंकी हमलों से ले कर इजराईल-गाजा युद्ध धर्म की देन है. भारत जैसे देश में राजनेताओं के लिए धर्म वोट पाने का जरिया है. फर्जी बाबाओं के लिए धर्म सैक्स, संपत्ति और सुख पाने का जरिया है.

कट्टरपंथियों के लिए अपनी संकीर्ण सोच को दूसरे व्यक्ति पर जबरन थोपने का नाम धर्म है. पंडितों-मौलवियों के लिए धर्म भरपूर आय का साधन है. और जिस तरह से धर्म की खेती भारत में लहलहा रही है, तो आश्चर्य नहीं नहीं कि पाकिस्तान जैसे हालात यहां भी पैदा हो जाए.

आज लगभग पूरे एशियाई क्षेत्र और अफ्रीका में धार्मिक उन्माद की काली ताकतें अपनी जड़ें मजबूत करती जा रही है. अरब जगत में कट्टर धार्मिक आवाजों का शोर बढ़ रहा है और पश्चिम के धर्मनिरपेक्ष राज्यों में भी तार्किकता और सहिष्णुता सुरक्षित नहीं है.

इतिहास गवाह है कि जो राष्ट्र धार्मिक कट्टरता की नीव पर खड़े हुए वो या तो तबाह हो गए, या तबाह होने की राह पर हैं. धर्म की दकियानूसी मान्यताओं-प्रथाओं ने ऐसे राष्ट्रों की कभी तरक्की नहीं होने दी. पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बलूचिस्तान, अल्जीरिया, बेलारूस, उज्बेकिस्तान, तुर्की, म्यांमार, श्रीलंका जैसे अनेक देश आज बदहाली की कगार पर हैं, यहां आएदिन बम धमाके होते हैं, निर्दोष लोग अपनी जानें गंवाते हैं क्योंकि इन देशों पर धर्म-जाति-भाषा-सम्प्रदाय जैसी चीजें हावी हैं.

प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर होने के बावजूद सदियों से अधिकांश मुसलिम देशों में सिर्फ लड़ाइयां ही हो रही हैं. इंसानों का खून बह रहा है. औरतों पर जुल्म ढाए जा रहे हैं. बच्चों के कत्ल हो रहे हैं या उन्हें धार्मिक लड़ाकू, जिहादी या आतंकी बनने की ट्रेनिंग मिल रही है. उन के अंदर धार्मिक कट्टरता पैदा की जा रही है. जिन देशों में धर्म लोगों पर हावी है वहां धर्म ने पुरुषों के दिमाग कुंद कर दिए हैं. इंसान का खून बहाने में उन्हें जैसे आनंद की अनुभूति होती है. पाकिस्तान जैसे देश जो धर्म को पोसते रहे आज उस का परिणाम भुगत रहे हैं. हम समय रहते चेत जाएं तो बेहतर है.

प्यार में क्या कोई किसी को आत्महत्या के लिए उकसा सकता है

छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव के युवक अभिषेक नरेडी ने बीती 23 जनवरी को आत्महत्या कर ली थी. जांच के दौरान पुलिस को उस के पास से सुसाइड नोट मिला था जिस में उस ने अपने प्रेम प्रसंग और 2 युवकों का जिक्र किया था जो उसे प्रताड़ित कर रहे थे. पुलिस ने इसी सुसाइड नोट की बिना पर युवती व दोनों युवकों को गिरफ्तार कर लिया था. युवती से अभिषेक का प्रेम प्रसंग लगभग 6 साल साल चला था, इस के बाद ब्रेकअप हो गया था.

इन्वेस्टिगेशन के बाद पुलिस ने आईपीसी की धारा 306 के तहत मामला दर्ज करते एडिशनल सेशन जज राजनांदगांव की अदालत में चालान पेश किया. अदालत ने युवती और दोनों युवकों के खिलाफ आरोप तय किए. आरोपियों ने निचली अदालत के फैसले के खिलाफ बिलासपुर हाईकोर्ट में क्रिमिनल रिवीजन पेश किया. अपने फैसले में हाईकोर्ट की सिंगल बेंच के जस्टिस पार्थ प्रीतम साहू ने आरोपियों को आत्महत्या करने के लिए उकसाने के आरोप से मुक्त करते उन्हें बरी कर दिया.

हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि कमजोर मानसिकता में लिए फैसले को आत्महत्या करने के लिए दुष्प्रेरण नहीं माना जा सकता. यदि कोई मानसिक दुर्बलता के चलते ऐसा यानी आत्महत्या करने जैसा कदम उठाता है तो इस के लिए किसी और को दोषी नहीं ठहराया जा सकता. भले ही उस ने सुसाइड नोट में नाम ही क्यों न लिखा हो.

सुनवाई के दौरान अभियुक्तों के वकील की इस दलील से अदालत ने इत्तफाक रखा कि मृतक ने सुसाइड नोट में धमकी देने की बात कही है लेकिन इस की शिकायत उस ने पुलिस में नहीं की थी. हालांकि अदालत ने माना कि प्रेम संबंध खत्म करने और शादी करने से इनकार करने की वजह से ही युवक ने आत्महत्या की थी.

नई बात क्या ?

प्यार में असफलता और ब्रेकअप के चलते खुदकुशी कर लेना कोई नई या हैरानी की बात नहीं है. नई बात है धारा 306 के तहत मामले का हाईकोर्ट तक पहुंचना और उस का यह फैसला कि यह मानसिक दुर्बलता है. यानी, प्यार में इनकार के सदमे को बरदाश्त न कर पाना. कोर्ट ने यह भी माना है कि शादी के लिए हां या न करना निहायत ही व्यक्तिगत बात है. इस के लिए किसी को दोषी नहीं माना जा सकता.

रही बात तीसरों के दखल और धौंसधपट की, तो वह भी नई बात नहीं. लेकिन मृतक ने चूंकि इस की रिपोर्ट पुलिस में नहीं लिखाई थी इसलिए इस के कोई कानूनी माने नहीं. केवल सुसाइड नोट में नाम भर लिख देने से किसी को दोषी नहीं माना जा सकता.

प्यार कोई भी कभी कर सकता है लेकिन उस में असफलता से अकसर किशोर और युवा ही ज्यादा हताश होते हैं और आत्मघाती कदम उठाते हैं. यह एक बड़ी समस्या हो चली है जिस का कोई सटीक हल नहीं लेकिन पारिवारिक और सामाजिक तौर पर हम क्या कर सकते हैं, इस पर गौर किया जाना जरूरी है. बात जहां तक आत्महत्या की है तो यह तय है कि कोई किसी को इस के लिए उकसा नहीं सकता. इस के लिए बिलासपुर हाईकोर्ट के इस फैसले को ही बिन्दुवार देखें तो कुछ बातें स्पष्ट होती हैं, मसलन-

– प्यार में असफलता का सामना न कर पाना एक बड़ी कमजोरी है जिस के लिए किसी एक को या किसी को भी जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता. इस कथन से जुड़ा दूसरा अहम पहलू यह है कि क्या वाकई प्यार खासतौर से युवाओं को इतना कमजोर बना देता है कि उन्हें जिंदगी खुदकुशी कर लेने की हद तक बेकार और बेगार लगने लगती है.

बिलाशक प्यार एक कैमिकल लोचा है जिसे सौ फीसदी समझनेसमझाने में साहित्यकार, समाजशास्त्री, दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक सफल नहीं रहे हैं. लेकिन इस की जरूरत से भी कोई इनकार नहीं कर पाया. प्यार में पड़े युवाओं की हालत देखें तो वे दीनदुनिया से कटे एक खास किस्म की मानसिकता में जी रहे होते हैं. वे दुनिया में रहते हुए भी दुनिया में नहीं होते. ऐसे युवाओं की पहचान हर कोई आसानी से कर लेता है. यहां अहम सवाल यह है कि जब दुनिया एक आदमी में सिमट जाए तो कोई और क्या कर लेगा. यानी, प्यार अपनी रिस्क पर किया जाता है.

– हाईकोर्ट के फैसले से लगता है कि शादी प्यार की मंजिल हो, यह भी जरूरी नहीं. आजकल के प्यार को महज शारीरिक आकर्षण ठहराए जाने की साजिशाना कोशिश पिछले 2 दशकों से हो रही है. और ऐसा हर दौर में होता है कि नई पीढ़ी के प्यार को वासना करार दे कर उसे सामाजिक तौर पर हतोत्साहित करने की कोशिश की जाती रही है.

कहने को तो आसानी से कहा जा सकता है कि आजकल धड़ल्ले से लव मैरिज हो रही हैं. नौर्थ के युवा साउथ में प्यार और शादी कर रहे हैं. उन पर कोई बंदिश नहीं है, उलटे, खुद पेरैंट्स आगे आ कर उन की शादी करवा रहे हैं.

यह अधूरा सच है. यह आंकड़ा या दावा बहुत बड़ा नहीं है लेकिन दिखता ज्यादा है. बात उन लोगों की कोई नहीं करता और न ही इस संबंध में सर्वे होते कि जो युवा आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होते हुए भी पारिवारिक या सामाजिक दबाबों के चलते प्यार को शादी की मंजिल तक नहीं पहुंचा पाते उन की संख्या कितनी है और ऐसा न कर पाने के पीछे दोष किसे दिया जाना चाहिए. वे चूंकि आत्महत्या नहीं करते और सामान्य जिंदगी जीते समाज का हिस्सा बन जाते हैं, इसलिए उन की घुटन कोई देखता ही नहीं.

अदालत की इस बात से इत्तफाक रखा जा सकता है कि प्यार में शादी के लिए ‘हां’ कोई बाध्यता नहीं, यानी, अपराध भी नहीं. यह बात उन युवाओं को कौन और कैसे समझाए कि शादी न हो पाने पर खुदकुशी कर लेना कोई बुद्धिमानी की बात नहीं. उन्हें जिंदा रहना चाहिए और जिंदा रहने के नए मकसद ढूंढना चाहिए. मनपसंद से शादी न हो पाना कोई गिल्ट फील होने की बात नहीं, न ही यह नाकामी है और न ही हार है.

– प्यार में कोई तीसरा या तीसरे आएं तो इस से घबराना नहीं चाहिए. वे समझाएं, धमकियां दें या किसी और मकसद से आएं या जानबूझ कर लाए गए हों, उन का सामना करना चाहिए. अगर वे धमकाते हैं तो इस की पुलिस में रिपोर्ट लिखाई जानी चाहिए. अदालत ने इसे भी खामी ही माना है. पुलिस में न भी जा पाएं तो दोस्तों, शुभचिंतकों या पेरैंट्स की मदद ऐसी हालत में जरूर लेनी चाहिए. प्राइवेसी तो एक न एक दिन खत्म होना तय रहती है, फिर छिपाना क्या.

दिक्कत तो यह है कि प्यार करने वाले ही अपनेआप में आश्वस्त नहीं होते कि वे सही कर रहे हैं या गलत. इसलिए युवा तनाव, परेशानी और दूसरी कई दुश्वारियों सहित आत्मघाती मानसिकता के शिकार होने लगते हैं, जो डिप्रैशन का पहला चरण है.

इस से खुद को बचा लिया तो कुछ मुश्किल नहीं रह पाती. बेहतर तो यह भी रहता है कि प्यार को एक तरह के अनुबंध के तौर पर लिया और जिया जाए, जिस में कोई भी पक्ष खत्म करने को स्वतंत्र हो. इस अनुबंध का एक बिंदु यह भी हो कि न केवल खुद से बल्कि पार्टनर से भी ज्यादा उम्मीदें नहीं रखी जाएंगी.

मामूली विवादों में बरबाद होती जिंदगी : मात्र 3 हजार रुपए के लिए कर दी हत्या

महज 3 हजार रुपए के विवाद में 12 दिसंबर, 2024 को बुलंदशहर के खुर्जा टाउन में एक शख्स ने 22 साल के समीर की इतनी बेदर्दी से हत्या कर दी कि देखने वालों की आंखें फटी रह गईं. समीर टैक्सी चला कर परिवार का भरणपोषण करता था. कुछ दिनों पहले उस ने नवाब से 3 हजार रुपए उधार लिए थे. जिसे उस ने वापस भी कर दिया था. जबकि नवाब उस से और 3 हजार रुपए मांग रहा था. इसी पर विवाद के बाद नवाब ने कुछ दिनों पहले समीर की पिटाई भी की थी.

12 दिसंबर, दिन सोमवार को दोपहर में समीर अपने घर के बाहर गली में खड़ा था. तभी आरोपी नवाब चाकू ले कर आया और समीर के साथ गालीगलौज शुरू कर दी. विरोध करने पर उस ने समीर की गरदन और पेट पर ताबड़तोड़ कई वार कर दिए, जिस से उस की गरदन का अगला भाग पूरी तरह से कट गया. हमला इतना खौफनाक था कि समीर की आंतें तक उस के पेट से बाहर निकल आईं. समीर लहूलुहान हो कर गिर पड़ा. भीड़ इकट्ठी होती देख आरोपी चाकू लहराता हुआ भाग निकला. समीर को अस्पताल पहुंचाया गया जहां उसे मृत घोषित कर दिया गया.

ऐसी ही कुछ और घटनाओं पर विचार करें

मुजफ्फरनगर में 10 दिसंबर को 68 वर्षीया एक महिला से जब उस के बेटे ने कुछ रुपए उधार मांगे तो महिला ने पैसे देने से इनकार कर दिया. गुस्से में बौखलाए लड़के ने अपनी ही मां की फावड़े से हत्या कर दी.

इस से 2 दिनों पहले यानी 8 दिसंबर को 22 वर्षीय एक व्यक्ति ने नवी मुंबई के सानपाड़ा में तड़के एक चौकीदार की माचिस की तीली देने से इनकार करने पर हत्या कर दी. चौकीदार ने माचिस उधार देने से इनकार किया तो 22 वर्षीय लड़के शेख ने एक बड़ा पत्थर उठाया और पीड़ित के सिर पर दे मारा.

इसी तरह की पिछले साल की एक घटना है जब बिजनौर में उधार नहीं देने पर एक युवक ने दुकानदार यशपाल की पीटपीट कर हत्या कर दी. यशपाल सिंह की एक छोटी सी परचून की दुकान थी. इसी गांव का जितेंद्र दुकान से सामान खरीदने के लिए पहुंचा. जितेंद्र ने दुकानदार यशपाल से उधार सामान मांगा तो यशपाल ने मना कर दिया. फिर यशपाल ने जितेंद्र से उधार के 30 रुपए वापस देने को भी कहा. इसी बात पर यशपाल और जितेंद्र में झगड़ा हो गया. गुस्साए जितेंद्र ने अपने परिवार के लोगों के साथ मिल कर दुकानदार को पीटपीट कर मौत के घाट उतार दिया. बीचबचाव करने आई दुकानदार की पत्नी को भी गंभीर रूप से घायल कर दिया.

आएदिन हो रही ऐसी घटनाएं साबित करती हैं कि आज के समय में लोगों की सहनशक्ति इतनी कम हो गई है और वे गुस्से में इतने बौखला जाते हैं कि आगेपीछे सोचे बिना मामूली सी मामूली बात पर जिंदगी लेनेदेने को तैयार हो जाते हैं. उन्हें लगता है कि सामने वाले ने बात नहीं मानी तो उसे जान से मार दो. खासकर, अगर सामने वाला कोई कमजोर शख्स हो तो उस पर जानलेवा हमला करने में वे तनिक भी नहीं हिचकते.

खौफनाक अंजाम

मगर सोचिए, इस का अंजाम क्या होता है? एक इंसान अपनी जिंदगी से हाथ धो बैठता है. उस का पूरा परिवार भी टूट जाता है. ऐसी खौफनाक घटना को अंजाम देने वाला यानी आरोपी भी नहीं बचता. वह जिंदगीभर कोर्टकचहरी के चक्कर लगाने या जेल की हवा खाने को विवश हो जाता है. कुछ लोग जिंदगीभर पुलिस और लोगों से बचते फिरते हैं. उन के जीवन का सुकून छिन जाता है और वे एक मुजरिम की तरह लिज्जतभरी जिंदगी जीते हैं. इस से हासिल क्या होता है?

गुस्से पर रखें काबू

क्या यह बेहतर नहीं कि इंसान अपने गुस्से पर काबू रखना सीखे. ज़राज़रा सी बातों को तूल देने और अपना आपा खोने के बजाय सामने वाले की परेशानी को समझे. बेवजह की बहसबाजी या विवादों में न पड़े. जिंदगी खूबसूरत है, इसे अपने हाथों बरबाद न करे. साथ ही, पैसों के मामले में लेनदेन करने से बचें. न किसी को उधार दें, न किसी से उधार लें क्योंकि पैसे रिश्तों को तोड़ने व जिंदगी तबाह करने का अकसर बड़ा कारण साबित होते हैं.

ट्यूशन क्लास से कौर्पोरेट में बदला कोचिंग कारोबार, घुसे बड़े प्लेयर

लखनऊ के चारबाग रेलवे स्टेशन से 3 किलोमीटर आगे बढ़ते ही बर्लिंग्टन चौराहे पर दृष्टि कोचिंग सैंटर का बड़ा सा बोर्ड दिख जाएगा. करीब 10 हजार स्क्वायर फुट में यह कोचिंग सैंटर कौर्पोरेट औफिस का लुक देता है. पहले यह इमारत सुनसान और उपेक्षित सी पड़ी थी. दृष्टि कोचिंग के आते ही इमारत की रौनक बढ़ गई. इस के बाद से ही लखनऊ में बड़े शहरों की नामीगिरामी कोचिंगों के फैंचाइजी खुलने लगीं. एलन कोटा ने भी अपने 2 कोचिंग केंद्र यहां खोल दिए हैं. इस के अलावा आकाश, ध्येय और तमाम अलगअलग नामों से कोचिंगें खुल गई हैं.

केवल लखनऊ ही नहीं, उत्तर प्रदेश के 17 शहरों में कोचिंग कारोबार तेजी से बढ़ा है. ये 17 वो शहर हैं जिन को नगर निगम का दर्जा हासिल है. लखनऊ के साथ कानपुर, बरेली, प्रयागराज, वाराणसी, आगरा, गोरखपुर और नोएडा जैसे शहरों में खुलने वाले कोचिंग संस्थानों ने शहर का नकशा ही बदल दिया है.

लखनऊ में पहले लीला सिनेमा और आसपास कोचिंग संस्थान खुले थे. अब अलीगंज, कपूरथला, आलमबाग और गोमतीनगर में इन की संख्या बढ़ गई है. पहले कोचिंग का समय 6 बजे तक होता था. अब रात के 10 बजे तक इन का समय हो गया है.

कोचिंग पढ़ने वालों में बड़ी संख्या में लड़कियां भी आती हैं. इन में से कुछ अपने घरों में रहती हैं तो कुछ किराए के होस्टल या कमरे ले कर रहती हैं. देरशाम इन के बाहर निकलने पर छेड़छाड़ और दूसरे किस्म के अपराधों को रोकने के लिए यूपी सरकार ने कोचिंग संस्थानों के लिए आदेश जारी किया कि वे अपनी कोचिंग शाम 7 बजे तक ही खोलें. छोटेछोटे शहरों के युवा अपने सपनों को पूरा करने यहां आते हैं. पहले जहां विद्यार्थी दिल्ली और कोटा जाते थे, अब फैंचाइजी कोचिंग यहां खुलने लगी हैं, तो वे यहीं पढ़ने लगे हैं.

कौर्पोरेट लुक में खुल रहे इन कोचिंग संस्थानों की हालत अजीब सी है. यहां सामान्य टीचर ही पढ़ाते हैं. पहले टीचर के नाम से कोचिंग चलती थी, क्योंकि वे अच्छा पढ़ाते थे. जैसे लखनऊ में रघुवंशी क्लासेस में बायोलौजी पढ़ने बच्चे ज्यादा आते थे क्योकि कोचिंग के संचालक अशोक सिंह रघुवंशी बायोलौजी अच्छी पढ़ाते थे. टीचर और पेरैंट्स उन के सीधे संपर्क में रहते थे. पटना के खान सर इसी तरह से बच्चों को पढ़ाते हैं. कौर्पोरेट कोंचिग में केवल कोचिंग के नाम पर बच्चे पढ़ने जाते हैं. ब्रैंड के नाम पर बच्चों और उन के पेरैंट्स के सपनों का दोहन किया जाता है.

इस में मीडिया का बड़ा रोल होता है. पहले कोचिंग संस्थान बड़ेबड़े विज्ञापन नहीं देते थे. कौर्पोरेट कोचिंग आने के बाद मीडिया को विज्ञापन मिलने लगे, जिन में यह दिखाया जाता है कि कोचिंग में पढ़ने वाले कितने बच्चे कंपीटिशन पास करने में सफल हुए. विज्ञापनों में केवल सफल बच्चों को दिखाया जाता है. असफल होने वाले बच्चों की संख्या का जिक्र नहीं होता. कई बार तो इस का भ्रामक प्रचार भी किया जाता है.

अखबारों में विज्ञापनों को देख कर बच्चे और पेरैंटस उन के झांसे में आ जाते हैं. कोचिंग संस्थानों के विज्ञापन छोटेमोटे नहीं, बल्कि पूरेपूरे पेज में छपते हैं. महंगी जगहों पर कोचिंग, बड़ेबड़े विज्ञापन, होर्डिग, चमचमाता औफिस देख कर अनुमान लगाना सरल है कि कोचिंग से कितनी कमाई हो रही है. छोटेछोटे कोचिंग संस्थान बड़े संस्थानों में कोचिंग पढ़ने वाले बच्चों को कमीशन पर भेजने का काम भी करते हैं. अब कई स्कूलों ने भी कमीशन ले कर कोचिंग संस्थानों में अपने यहां पढ़ने वाले बच्चों को भेजना शुरू कर दिया है.

देखतेदेखते कोचिंग करोबार बढ़ा

80 के दशक में पढ़ाई में कमजोर बच्चों को ट्यूशन पढ़ने के लिए ट्यूशन क्लास भेजा जाता था. ट्यूशन पढ़ने वाले बच्चों को अच्छा नहीं माना जाता था. धीरेधीरे हालात बदले, अब कोचिंग क्लासेस कौर्पोरेट बिजनैस की तरह हो गए हैं. फ्रैंचाइजी मौडल बन गए हैं.

कोटा और दिल्ली के मशहूर कोचिंग संस्थान छोटेछोटे शहरों तक पहुंच चुके हैं. इन की फीस पैकेज लाखों रुपयों में होती है. पेरैंट्स इस को अपने स्टेटस सिंबल से जोड़ कर देखने लगे हैं. बच्चों की पढ़ाई पर लाखों रुपए खर्च होने लगे हैं. इस का दबाव बच्चों पर पड़ने लगा है, जिस से वे डिप्रैशन की गिरफ्त में चले जाते हैं और फिर आत्महत्या जैसे हालात में फंस जाते हैं. कोचिंग के लिए मशहूर कोटा जैसे शहर में आत्महत्या करने वाले बच्चों की संख्या एक साल में 33 तक पहुंच गई है.

इस का सब से बड़ा कारण शिक्षा का बाजारीकरण है. स्कूलों में महंगी शिक्षा होने के बाद पढ़ाई इस तरह की नहीं हो रही है कि बच्चे प्रतियोगी परीक्षाओं को पास कर सकें. ऐसे में स्कूल में पढ़ते हुए ही कुछ बच्चे कोचिंग जौइन कर लेते हैं. कई कोचिंग वाले तो स्कूल में भी परीक्षा दिलाने का काम करते हैं. इस के लिए वे अलग फीस लेते हैं. इस को ऐसे समझें कि अब कोचिंग महत्त्वपूर्ण हो गई है, स्कूल केवल मार्कशीट देने का काम करते हैं.

मोदी सरकार की नई शिक्षा नीति में भी इस परेशानी का हल नहीं है. वह बच्चों को संस्कारी बनाने पर ही जोर देती है. पहले यह सोचा गया था कि नई शिक्षा नीति आने से बच्चों पर कोचिंग का दबाव कम हो सकेगा. इस बारे में नई शिक्षा नीति में कोई उपाय नहीं किया गया. इस के उलट, अब विश्वविद्यालय में नेशनल लैवल पर आयोजित होने वाली क्यूट परीक्षा की तैयारी भी कोचिंग संस्थान कराने लगे हैं. नई शिक्षा नीति से कोचिंग कारोबार और मजबूत हो गया है.

हर कंपीटिशन के लिए कोचिंग

जिस समय कोचिंग कारोबार शुरू हुआ था, इस का दायरा सीमित था. ज्यादातर बच्चे यूपीएससी परीक्षाओं के अलावा इंजीनियरिंग और मैडिकल की पढ़ाई के लिए कोचिंग करते थे. अब दारोगा, टीचर और क्लर्क बनाने की तैयारी भी कोचिंग कराने लगी है. शहरों का दायरा बढ़ गया है. लोगों के पास खर्च करने के लिए पैसे आ गए हैं. इस से कोचिंग का ढांचा बदल गया है. एक कंपीटिशन के लिए कोचिंग करने की फीस 80 हजार से 2 लाख रुपए तक पहुंच गई है. इस के अलावा बच्चे का रहना, खाना, आनाजाना अलग से खर्च करना पड़ता है.

इतना खर्च करने के बाद अगर बच्चे का सेलैक्शन कहीं नहीं होता तो वह डिप्रैशन की गिरफ्त में फंस कर आत्महत्या करने जैसे कदम उठा लेता है. बच्चों पर दबाव डालने वाले पेरैंट्स को तब अपनी गलती का एहसास होता है. इस के पहले तो उस की सोच यह होती है कि हम ने मुहंमागी फीस दी है.

अब भी बच्चा कंपीटिशन निकाल न पाए तो उस की जिम्मेदारी है. इस दबाव में ही बच्चे खतरनाक कदम उठाने लगे हैं. जब तक कंपीटिशन की जरूरत को खत्म नहीं किया जाएगा और कंपीटिशन का आधार स्कूली शिक्षा को नहीं बनाया जाएगा तब तक कोचिंग कारोबार और बच्चों पर बढ़ते दबाव को कम नहीं किया जा सकता.

चीफ जस्टिस का कुबूलनामा

मंच से कहने और वास्तव में करने में बहुत फर्क होता है. मुख्य न्यायाधीश ने डाक्टर भीमराव अंबेडकर की न्यायालय में पहली पेशी की 100वीं वर्षगांठ पर राष्ट्रपति की मौजूदगी में कहा कि न केवल न्यायपालिका में वास्तविक जीवन में औरतों और वंचितों को अभी भी न्याय नहीं मिल रहा है और वे 70 साल या यों कहिए 100 साल पहले की सी स्थिति में हैं.

न्यायपालिका में जज अधिकांशता ऊंची जातियों के पुरुष हैं, इसे स्वीकारते हुए उन्होंने सफाई दी कि उन्हें उच्च अदालतों के जज तो उपलब्ध मंजे हुए निचली अदालतों के जजों से ही चुनने होते हैं जहां ऊंची जातियों के पुरुषों की संख्या बहुत ज्यादा है. उन्होंने यह जरूर कहा कि अब एकदम निचले स्तर पर ज्यूडिशियल सर्विस एग्जाम के कारण 70 प्रतिशत लड़कियां नियुक्त हो रही हैं और कुछ दिनों में वे ऊंची अदालतों में दिखने लगेंगी.

लेकिन समाज में बदलाव क्यों नहीं आ रहा इस पर वे भी बोलने से कतरा गए. असल में समाज में बदलाव इसलिए नहीं आ रहा कि धर्म अपनी बिक्री बड़े जोरशोर से कर रहा है. सरकार तो धर्म प्रचारकों की है ही, धर्म की दुकानें भी हर रोज हर कोने में खुल रही हैं, नईनई, चमकदार. देश का न जाने कितना पैसा चारधामों, मंदिरों तक  पहुंचने की सड़कों, रेलों, हवाईअड्डों पर खर्चा जा रहा है. लोगों को बारबार एहसास दिलाया जा रहा है कि सब कष्टों को दूर करने के लिए न्याय पाने के लिए न्यायपालिका जाने की क्या जरूरत जब एक मंदिर पास ही है. उस मंदिर से बात न बने तो बड़े मंदिर में जाइए, उस से बड़े मंदिर में जाइए.

न्यायापालिका ने भीमराव अंबेडकर के उन विचारों को कोई महत्त्व नहीं दिया जो धर्मों की पोल खोलते रहते हैं. उलटे जिन लोगों ने जनता को बचाने के लिए धर्म की साजिशों को जाहिर करने की कोशिश की है उन्हें महीनों सालों अगर जेलों में बंद रखा गया तो उच्चतम न्यायालय ने दखल नहीं दिया है.

जनहित में धर्म की पोल खोलने वालों जो औरतों और वंचितों के असली हितरक्षक हैं, को अगर जेलों में बंद नहीं किया गया तो उन पर मुकदमों की बाढ़ लगा दी और पहली अदालतों ने खुलेआम नौन बेलेबल वारंट जारी कर दिए. सर्वोच्च न्यायालय ने शायद ही कभी उस मजिस्ट्रेट को फटकारा हो जिस ने औरतों, अल्पसंख्यकों और अन्यायी के जुल्मों के मारे कमजोरों की बात करने वालों को जेल में बंद करने का आदेश दे दिया हो.

भीमराव अंबडेकर की प्रैक्टिस शुरू करने के 100वें साल पर कुछ कहना तो ठीक है पर तब जब कुछ किया भी जाए.

सर्दी में रखें खाना गरम और ताजा

सर्दी में खाने का मजा दोगुना हो जाता है जब वह ताजा और गरमागरम हो लेकिन सर्दी में खाना जल्दी ही ठंडा हो जाता है. घर पर हैं तो गरम कर लेते हैं लेकिन खाना पैक कर के ले जाए तो ठंडा खाना खा तो लेते हैं लेकिन स्वाद में वह बात नहीं रह जाती.

इस समस्या का हल है हमारे पास. आइए जानें सर्दी में खाने को ताजा और गरम खाने के लिए किस तरह के कंटेनर का उपयोग कर सकते हैं ताकि आप के खाने का स्वाद सदैव सुरक्षित और स्वादिष्ठ रहे.

थर्मल इंसुलेटेड डिब्बा : थर्मल इंसुलेटेड डिब्बे खाने को गरम रखने के लिए उपयोगी होते हैं. इस में खाने की गरमी को बनाए रखने के लिए थर्मल इंसुलेशन होता है.

वुडन बौक्स : ये डिब्बे गरमी को दिनभर बनाए रखते हैं और इस कारण खाना गरम रहता है.

एल्यूमिनियम फौयल बौक्स :एल्यूमिनियम फौयल डिब्बा भी अच्छा औप्शन है, खासकर जब आप खाने को बाहर ले जा रहे होते हैं. इस के बारे में एक चीज ध्यान देने की है कि इसे अच्छी तरह से सील करें ताकि गरमी बनी रहे और खाने की ताजगी बनी रहे.

इलैक्ट्रिक थर्मस : इलैक्ट्रिक थर्मस खाने को लंबे समय तक गरम रखने के लिए उपयोगी हो सकते हैं. इन में खाने को गरमी दी जा सकती है और वे खाने की ताजगी बनाए रखते हैं.

प्लास्टिक थर्मोस बौक्स : इन्हें विशेष तरीके से डिजाइन किया जाता है, जिस से खाना गरम रहता है. ये डिब्बे आसानी से साफ किए जा सकते हैं और प्रयोग में भी सुरक्षित होते हैं.

इंसुलेटेड बौक्स : इन बौक्स में खाद्य को ताजगी और गरमी में बनाए रखने के लिए इंसुलेशन लीनिंग होती है जिस से खाना गरम और ताजा रहता है.

डबल लेयर स्टेनलैस स्टील बौक्स : डबल लेयर की वजह से इस में खाना गरम और ताजा रखा जा सकता है.

थर्मस फ्लास्क : यह उपकरण गरम पानी, चाय और खाने को गरम रखने के लिए बहुत ही अच्छा होता है. यह खाद्य को तापमान के साथ रखने का काम करता है ताकि आप बाहरी तापमान के बदलाव के बिना खाने का आनंद ले सकें.

इंसुलेटेड थर्मल पाउच : ये पाउच खाद्य को गरम रखने के लिए डिजाइन किए गए हैं और इन्हें आसानी से बहुत लंबे समय तक गरम रख सकते हैं.

वैक्यूम इंसुलेटेड कंटेनर्स : ये कंटेनर्स खाद्य को बिना तापमान के बदले गरम और ताजगी में बनाए रखने के लिए वैक्यूम तकनीक का उपयोग करते हैं.

इंडक्शन वार्मर्स : इंडक्शन वार्मर्स खाद्य को गरम रखने के लिए इंडक्शन कुकटौप की मदद से काम करते हैं, जिस से खाने का जलने का खतरा कम होता है.

स्मार्ट खाद्य कंटेनर्स : कुछ खास खाद्य कंटेनर्स आप को खाद्य के तापमान को नियंत्रित करने और सैट करने की सुविधा प्रदान करते हैं जिस से आप खाद्य को बरतन में ही गरम और ताजगी को बनाए रख सकते हैं.

इलैक्ट्रिक हौट प्लेट्स : इन प्लेट्स का उपयोग खाद्य को गरम रखने के लिए किया जा सकता है.

आप इन औप्शंस में से किसी का भी चयन कर के अपने खाने को गरम और स्वादिष्ठ बना कर रख सकते हैं और सर्दी में अपने पसंदीदा खाने का आनंद ले सकते हैं. याद रखें कि खाने को गरम रखते समय पैकिंग का भी महत्त्वपूर्ण रोल होता है.

डिब्बे और बरतन को ध्यानपूर्वक बंद करें ताकि गरमी बनी रहे. आप डिब्बों, बरतनों और थर्मस को पूर्व गरम कर के खाने को गरम रख सकते हैं. आप का डिब्बे और बरतनों को साफ और सुरक्षित रखने के लिए उपयोग से पहले उन्हें अच्छी तरह से साफ करना महत्त्वपूर्ण है.

कुछ प्रमुख ब्रैंड

इस प्रकार के उत्पादों के संबंध में बाजार में कुछ प्रमुख ब्रैंड हैं :

मिल्टन : यह एक प्रसिद्ध ब्रैंड है जो थर्मस फ्लास्क और वैक्यूम इंसुलेटेड खाद्य जौर्म्स के लिए जाना जाता है.

सेलो : थर्मल कंटेनर्स के लिए जाना जाता है.

स्टैनली : यह ब्रैंड अपने ड्यूरेबल थर्मस कंटेनर्स के लिए जाना जाता है जो सर्दी के सूप, स्ट्यू और अन्य गरम भोजन को गरम रखने के लिए उपयुक्त होते हैं.

बोरोसिल : ये एयर टाइट ग्लास कंटेनर के लिए प्रसिद्ध हैं.

रोटी गरम रखने के लिए

बाजार में रोटी को गरम और ताजगी में बनाए रखने के लिए कई प्रकार के उत्पाद और कंटेनर उपलब्ध हैं :

रोटी बौक्स : ये खास डिजाइन किए कंटेनर होते हैं जिन में थर्मल इंसुलेशन होता है.

रोटी वार्मर : ये इलैक्ट्रिक वार्मर्स होते हैं जो रोटी को गरम रखने के लिए उपयोगी होते हैं. आप इन्हें रोटी बौक्स के अंदर रख सकते हैं ताकि वे गरम बनी रहें.

रोटी कवर : ये एक प्रकार का छावन होता है जिस के अंदर रख कर रोटी गरम और ताजा बनी रहती है.

रोटी बौक्स कौंबो : कुछ ब्रैंड्स रोटी को गरम रखने के लिए रोटी बौक्स कम्बो प्रदान करते हैं जिन में रोटी बौक्स के साथ एक इलैक्ट्रिक वार्मर भी शामिल होता है.

रोटी वार्मर बैग : बाजार में ये वार्मर बैग भी उपलब्ध हैं जिन में रोटी रख सकते हैं ताकि उन की ताजगी बनी रहे.

मुझे अपना जीवन निरर्थक लगने लगा है, बताएं कि मैं क्या करूं ?

सवाल

मैं कालेज में पढ़ने वाला युवा हूं. लगता है कि घर से कालेज जाना ही मेरे जीवन में रह गया है. वैसे घर में कोई परेशानी नहीं है. लेकिन कुछ है जो मुझे अंदर ही अंदर कचोट रहा है और जीवन उदासीनता की तरफ बढ़ रहा है.

मातापिता को जैसे मेरे जीवन में कोई रुचि नहीं है. भाईबहन अपने दोस्तों में व्यस्त रहते हैं. दोस्तों को ट्रैंड फौलो करने से फुरसत नहीं, जो मेरा हाल पूछें. अकेलापन मुझे अवसादग्रस्त कर रहा है. मुझे अपना जीवन निरर्थक लगने लगा है. मेरी बातें सुनने वाला कोई है ही नहीं. क्या मुझे सभी से बात करनी चाहिए, क्या कोई मेरी बात समझेगा?

जवाब 

बदलते समय के साथ रिश्ते बदल चुके हैं, इस में दोराय नहीं है. मातापिता हों या भाईबहन, वे आप को निजी कारणों से समय नहीं देते, जो कि गलत भी है. आप को अपने मातापिता से बात करनी ही चाहिए. हो सकता है कि उन्हें लग रहा हो कि वे आप को स्पेस दे रहे हैं और इसीलिए आप के अकेलेपन को समझ न पा रहे हों. वे बातें कर रहे हों तो आप भी उन के साथ बैठ कर बातें कीजिए, अपना समय भी उन्हें दीजिए.

अकसर भाईबहन एकदूसरे से लड़ते झगड़ते रहते हैं, आप उन की मनपसंद चीजों में रुचि लें तो आप के बीच सौहार्द की और दोस्ती की नई शुरुआत हो सकती है. और रही बात दोस्तों की, तो आप उन्हें अपने डिप्रैशन के विषय में बताइए, वे अवश्य ही आप को समय देना, टैं्रड फौलो करने से ज्यादा जरूरी समझेंगे. यदि वे ऐसा नहीं करते तो आप खुद ही समझदार हैं कि आप को किन दोस्तों की जरूरत है और किन की नहीं.

सोने का पिंजरा : पिंजरे में कैद एक औरत की कहानी

बालकनी से कमरे में आ कर मैं धम्म से बिस्तर पर बैठ गई और सुबकसुबक कर रोने लगी. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि बालकनी में खड़ी हो अपने गीले बाल सुखाने में मैं ने कौन सा अपराध कर दिया जिस से दाता हुक्म (ससुरजी) इतना गुस्सा हो उठे. मुझे अपना बचपन याद आने लगा. जब होस्टल से मैं घर आती थी तो हिरण की तरह खेतों में कुलाचें भरती रहती थी. सहेलियों का झुंड हमेशा मुझे घेरे रहता था. गांव की लड़की शहर के होस्टल में रह कर पढ़ाई कर रही है तो शहर की कई बातें होंगी और यही सहेलियों के कौतुहल का कारण था.

मेरे भैयाभाभी भी कितने प्यारे हैं और कितना प्यार करती हैं भाभी मुझे. कभी भाभी ने मां की कमी महसूस नहीं होने दी. यहां आ कर मुझे क्या मिला? न घर, न किसी का स्नेह और न ही आजादी का एक लम्हा. हां, अगर सोनेचांदी के ढेर को स्नेह कहते हैं तो वह यहां बहुत है, लेकिन क्या इन बेजार चीजों से मन का सुख पाया जा सकता है? अगर हां, तो मैं बहुत सुखी हूं. सोने के पिंजरे में पंछी की तरह पंख फड़फड़ा कर अपनी बेबसी पर आंसू बहाने से ज्यादा मैं कुछ नहीं कर सकती.

पति नाम का जीव जो मुझे ब्याह कर लाया, उस के दर्शन आधी रात के बाद होते हैं तो दूसरों को मैं क्या कहूं. पता नहीं किस बुरी घड़ी में महेंद्र की नजर मुझ पर पड़ गई और वह मुझे सोने के पिंजरे में बंद कर लाया.

महेंद्र का रिश्ता जब पापा के पास आया था तो सब यह जान कर हतप्रभ रह गए थे. इतने बड़े जमींदार के घर की बहू बनना बहुत भाग्य की बात है. पता नहीं सहेलियों के साथ खेतों में कुलाचें भरते कब महेंद्र ने मुझे देखा और मैं उन की आंखों में बस गई. तुरतफुरत महेंद्र के घर से रिश्ता आया और पापा ने हां करने में एक पल भी नहीं लगाया.

बड़े धूमधड़ाके से शादी संपन्न हुई और मैं जमींदार घराने की बहू बन गई. जिस धूमधाम से मेरी शादी हुई उसे देख कर मैं अपनी किस्मत पर नाज करती रही. महेंद्र को देख कर तो मेरे अरमानों को पंख लग गए. जितना सुंदर और ऊंचे कद का महेंद्र है उस से तो मेरी सखियां भी ईर्ष्या करने लगीं. ससुराल की देहरी तक पहुंची तो दोनों ओर कतार में खड़े दासदासियों के सिर हमारी अगवानी में झुक गए. उन्हें सिर झुकाए देख कर मुझे एहसास होने लगा मानो मैं कहीं की महारानी हूं.

सासूमां ने आरती उतार कर मुझे सीने से लगा लिया. मुझे लगा मुझे मेरी मां मिल गई. सुहाग सेज तक पहुंचने से पहले कई रस्में हुईं. मुंह दिखाई में मेरी झोली में सुंदरसुंदर सोने के गहनों का ढेर लग गया.

तमाम तरह की रस्मों के बाद मुझे सुहाग सेज पर बैठा दिया गया. कमरा देख कर मेरी आंखें फटी की फटी रह गईं. कमरा बहुत बड़ा और बहुत सुंदर सजाया गया था. चारों ओर फूलों की महक मदहोश किए दे रही थी. मेरी जेठानी मुझे कमरे में छोड़ कर चली गईं. एकांत पाते ही मैं ने कमरा बंद किया और घूंघट हटा कर आराम से सहज होने की कोशिश करने लगी. दिन भर के क्रियाकलापों से ढक कर मैं थोड़ा आराम करना चाह रही थी. थकान से कब मुझे नींद ने घेर लिया पता ही नहीं चला.

दरवाजे की कुंडी खड़की तब मेरी नींद खुली. घड़ी रात के  साढ़े 3 बजा रही थी. ओह, कितनी देर से मैं सो रही हूं सोचते हुए सिर पर पल्लू ले कर दरवाजा खोला. शराब का भभका मेरे नथुने से टकराया तो मैं ने घबरा कर आगंतुक को देखा. सामने लाल आंखें लिए महेंद्र खड़े थे. मैं हतप्रभ महेंद्र का यह रूप देखती ही रह गई.

अंदर आ कर महेंद्र ने दरवाजा बंद कर लिया और मुझ से बोले, ‘सौरी निशी, शादी की खुशी में दोस्तों ने पिला दी. बुरा मत मानना.’

नशे में होने के बावजूद महेंद्र ने एक अच्छे इनसान का परिचय दिया. मैं ने भी उन्हें कुछ नहीं कहा, लेकिन यह एकदो दिन की बात नहीं थी. हवेली में मुजरे होते और महेंद्र अकसर देर रात ही कमरे में आते. हां, महेंद्र मुझे दिलोजान से प्यार करते हैं लेकिन उस के बदले मुझे कितनी तपस्या करनी पड़ती है यह बात उन्हें समझ में नहीं आती. मैं शिकायत करती तो वह कहते, ‘यह तो हमारी परंपरा है. जमींदारों के यहां मुजरे नहीं हों तो लोग क्या कहेंगे.’

‘‘अरे, छोटी कहां हो भाई. आओ, सुनारजी आए हैं,’’ यह आवाज सुन कर मैं वर्तमान में लौट आई. मेरी जेठानी मुझे बुला रही थीं. मेरा जाने को मन नहीं था लेकिन मना भी तो नहीं कर सकती थी. बाहर बारहदरी में सुनारजी कांटाबाट लिए बैठे थे. भाभी ने मुझे देखा और पूछा, ‘‘क्या हुआ छोटी, क्या तुम रो रही थीं जो तुम्हारी आंखें लाल हो रही हैं? क्या तुम्हें मायके की याद आ रही है?’’

मैं ने कहा, ‘‘नहीं, भाभी सा, वैसे ही नींद लग गई थी इसीलिए.’’

‘‘छोटी तुझे कुछ गहने बनवाने हों तो बनवा ले. देख मैं तो यह सतलड़ा हार तुड़वा कर दूसरा बनवा रही हूं.’’

‘‘पर भाभी सा, यह तो बहुत सुंदर है और नया भी, आप इसे क्यों तुड़वा रही हैं?’’

‘‘अरे, छोटी, इसे मैं ने अपने भाई की शादी में पहन लिया और तुम्हारी शादी में भी पहना है. बस, अब पुराना हो गया है. मैं तो अब नया ही बनवाऊंगी.’’

मैं क्या कहती चुप रहना ही ठीक समझा. भाभी सा ने कहा, ‘‘तू भी कुछ न कुछ बनवा ही ले. अगर कुछ तुड़वाना नहीं चाहती तो मांजी से सोना ले कर बनवा ले. यहां सोने की कोई कमी नहीं है.’’

निशी सोचने लगी कि वह तो मैं देख ही रही हूं, तब ही तो हमारे लिए यहां सोने के पिंजरे बनवाए गए हैं. इस चारदीवारी में कैद हम गहने तुड़वाएं और गहने बनवाएं बस इन्हीं गहनों से दिल बहलाएं.

सुनारजी चले गए तो मैं ने पूछा, ‘‘भाभी सा, आप 7 बरस से यहां रह रही हैं. जेठ साहब भी आधी रात से पहले घर में नहीं आते. फिर आप किस तरह अपने को बहला लेती हैं? मेरा तो 4 महीने में ही दम घुटने लगा है.’’

‘‘देख छोटी, इन जमींदारों की यही रीत है. मेरे मायके में भी यही सबकुछ होता है. हम कुछ बोलें भी तो यहां के मर्द यही कहेंगे कि मर्दों की दुनिया में तुम लोग दखल मत दो. तुम्हारा काम है सजधज कर रहना और मन बहलाने के लिए जब चाहो सुनार को बुलवा लो और गहने तुड़वाओ तथा नए बनवाओ.’’

मैं आखें फाड़े भाभी सा को देखती ही रह गई. कितनी सहजता से उन्होंने अपनी स्वतंत्रता को गिरवी रख दिया. कितनी आसानी से इस जिंदगी से समझौता कर लिया, लेकिन मैं क्या करूं? मैं ने तो पढ़लिख कर सारी शिक्षा भाड़ में झोंक दी. मैं कहां से रास्ता खोजूं आजादी का.

कमरे में आते ही फिर रुलाई फूट पड़ी. हाय, मैं कहां फंस गई. मेरे पापा ने यह क्यों नहीं सोचा कि हर चमकने वाली चीज सोना नहीं होती. क्यों भूल गए कि उन की बेटी पढ़ीलिखी है. उस की छाती में भी दिल धड़कता है. क्या महज पैसे वाले होने से सारी खुशियां खरीद सकते हैं? क्यों भूल गए कि उन की बेटी के भी कुछ अरमान हैं. पापा यह क्यों भूल गए कि पिंजरा तो पिंजरा ही होता है चाहे वह सोने का हो या लोहे का.

आधी रात को महेंद्र आए तो मैं जाग रही थी. मैं महेंद्र से कुछ सवाल करना चाहती थी लेकिन वह बहुत थके हुए लग रहे थे. मेरे माथे पर एक चुंबन की मुहर लगाई और बिस्तर पर लेटते ही खर्राटे भरने लगे. मैं मन मार कर रह गई. सोचने लगी, कभी महेंद्र मुझे वक्त दें तो मैं इस पिंजरे से आजाद होने की भूमिका बनाऊं, लेकिन यह मुजरा और मुजरेवालियां वक्त दें तब न.

वैसे महेंद्र से मुझे और कोई शिकायत नहीं थी. वह मुझे बेइंतहा प्यार करते हैं. बस, अपनी खानदानी परंपराओं में बंधे मुझे वक्त ही नहीं दे पाते. मैं ने एकदो बार दबी जबान में उन्हें मुजरे में जाने से रोकने की कोशिश भी की, तो उन्होंने कहा, ‘‘क्या तुम मुझे जोरू का गुलाम कहलवाना चाहती हो? घर के सभी मर्द देर रात तक मुजरे में बैठे रहते हैं, तो भला मैं अकेला कैसे उठ सकता हूं? तुम मेरी मजबूरी समझती क्यों नहीं.’’

दिन ब दिन मैं घुटती रही. भाभी सा और सासू मां को इसी हाल में खुश देख कर भी मैं इस जिंदगी से तालमेल नहीं बैठा पा रही थी. यह दोष किस का है? पता नहीं मेरा या मेरे पापा का है या फिर मेरे इस सौंदर्य का जिस की वजह से मैं कैद कर ली गई.

सुबह बेमतलब ससुरजी नाराज हो गए. जो मर्द दूसरी औरतों के अश्लील नाचगाने पर बिछे जाते हैं, पैसा लुटाते हैं, उन्हें घर की बहू बालकनी में खड़ी हो कर बाल भी सुखा ले तो गुस्सा क्यों आता है? यह दोगली नीति जमींदारों के खानदान की रीत ही है. नाचने वालियां भी तो औरतें ही हैं. क्या उन में कभी अपनी मांबहन का चेहरा उन्हें नजर नहीं आता है?

शादी को 8 महीने हो गए, लेकिन एक दिन भी आजादी की सांस नहीं ली. खूब खानापीना और सुंदर कपड़े, गहने पहनना ही हमारी नियति थी. हम अपने लिए नहीं इस खानदान की परंपराओं के लिए जी रही थीं और इस हवेली के मर्दों के लिए ही हमारी सांसें चल रही थीं.

सासू मां और भाभी सा बिना किसी प्रतिकार के सहजता से रह रहे थे. पता नहीं उन के दिल में इस परंपरा के खिलाफ बगावत करने का विचार क्यों नहीं आता? दोनों ही मुझे बहुत स्नेह करते थे, लेकिन मेरा मन यहां नहीं रम पा रहा था. मुझे तो कुछ कर दिखाने की ललक थी. आसमान में पंख फैला कर उड़ने का अरमान था.

मेरी तकदीर ही कहिए कि इतने दिनों बाद महेंद्र से लंबी मुलाकात का अवसर मिला. हुआ यों कि सासू मां, ससुर, जेठ और भाभी सा किसी रिश्तेदारी में शादी के सिलसिले में बाहर गए हुए थे. महेंद्र के जिम्मे वहां की जमींदारी का काम छोड़ गए थे. मुझे सासू मां साथ ले जाना चाहती थीं, लेकिन मेरी तबीयत ठीक नहीं थी, अत: मुझे घर पर ही छोड़ गए.

मैं बड़ी बेसब्री से महेंद्र का इंतजार कर रही थी. महेंद्र बाहर बैठक में किसी से लेनदेन कर रहे थे. मैं बेचैनी से बैठक के दरवाजे पर चक्कर काट रही थी. जब महेंद्र नहीं आए तो मुझ से और सब्र नहीं हो पाया और मैं बैठक में चली गई. वहां बैठे लोगों ने सिर झुका कर मेरा अभिवादन किया. एक बार फिर खुद के खास होने का एहसास मुझ पर हावी होने लगा, लेकिन महेंद्र ने इतना वक्त ही नहीं दिया. बोले, ‘‘तुम यहां बैठक में क्यों आ गई, अंदर जाओ, मैं अभी आता हूं.’’

मैं अपमानित सी लौट आई. महेंद्र भी तो इसी खानदान का खून है. भला वह कैसे बीवी को खुलेआम दूसरों के सामने आने देगा. मैं बेचैनी से पूरे घर में चहलकदमी करने लगी. महेंद्र का इंतजार मुझे हर पल बरसों सा लग रहा था लेकिन कोई चारा नहीं था.

आखिर महेंद्र घंटे भर बाद अंदर आए और मैं उन्हें लगभग धकेलती हुई अपने कमरे में ले गई. घर में मौजूद दासदासियों ने आश्चर्य से मुझे देखा और गरदन झुका लीं. इस वक्त उन की झुकी हुई गरदनें मुझे गर्व का एहसास नहीं करा पाईं.

महेंद्र ने कहा, ‘‘यह क्या पागलपन है निशी, मैं कहीं भागा थोड़े ही जा रहा हूं.’’

‘‘महेंद्र, मुझे तुम से जरूरी बात करनी है. तुम कुछ वक्त मुझे दो, तुम से कुछ कहना चाहती हूं.’’

‘‘हां, कहो,’’ महेंद्र आराम से पलंग पर बैठ गए.

‘‘महेंद्र, बुरा मत मानना, मैं चाहती हूं कि तुम मुझे तलाक दे दो.’’

महेंद्र चौंक उठे, ‘‘यह क्या कह रही हो? तुम्हारा दिमाग तो ठीक है? क्या तुम नहीं जानतीं कि मैं तुम्हें कितना प्यार करता हूं? पहले दिन तुम्हें जब मैं ने खेतों में दौड़ते देखा तो मेरा दिल धड़क उठा और उसी क्षण मैं ने फैसला कर लिया था कि तुम्हें ही अपना जीवनसाथी बनाऊंगा.’’

‘‘वह तो ठीक है, महेंद्र, मुझे तुम्हारे प्यार से इनकार नहीं है लेकिन जरा सोचो कि एक आजाद पंछी को तुम सोने के पिंजरे में कैद कर लोगे तो क्या वह खुश रह सकता है? क्या तुम चाहते हो कि मेरी शिक्षा इस पिंजरे की भेंट चढ़ जाए या फिर मैं घुटघुट कर इस कैद में जान दे दूं. न मुझे सोनाचांदी चाहिए न धनदौलत. मुझे मेरी जिंदगी चाहिए जिसे मैं अपने तरीके से जी सकूं.’’

महेंद्र चुप, क्या कहे, क्या न कहे. लंबी चुप्पी के बाद उन्होंने कहा, ‘‘अच्छा निशी मुझे सोचने के लिए वक्त दो.’’

महेंद्र ने बहुत सोचा और एक तरकीब निकाल ली. ‘‘ऐसा करो, तुम जितना धन ले जा सकती हो अपने सूटकेस में भर लो और अपनी पैकिंग कर लो. मैं तुम्हें तुम्हारे मायके छोड़ आऊंगा और कभी लेने नहीं आऊंगा. तलाक की बात पर घर में बवाल मच जाएगा. तुम इन जमींदारों को जानती नहीं हो. खूनखराब हो जाएगा. मेरी तरफ से तुम आजाद हो. मैं तुम्हें बेहद प्यार करता हूं इसलिए चाहता हूं कि तुम्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचे. मायके के बहाने तुम यहां से निकल जाओगी. बाद में जो होगा मैं संभाल लूंगा. दोबारा शादी भी नहीं करूंगा. जब तुम्हें मेरी जरूरत हो, मुझे याद करना मैं आ जाऊंगा. वहां तुम आजाद हो. इतना पैसा साथ ले जाना कि तुम्हें आर्थिक परेशानी से न गुजरना पड़े. मेरी दुआ है, तुम जहां भी रहो खुश रहो.’’

अब परीक्षा की घड़ी मेरी थी. मैं समझ नहीं पा रही थी कि क्या करूं. महेंद्र के प्यार में रत्ती भर भी खोट नहीं है, लेकिन मेरे सपने मेरे अरमानों का क्या होगा. सोचा था पढ़लिख कर कुछ बन कर दिखाऊंगी, लेकिन यहां तो पढ़ाई पूरी होते ही पांव में बेडि़यां पड़ गईं. लेकिन महेंद्र का क्या होगा? कब तक वह घर वालों को भरमा पाएंगे? और उन की जिंदगी बेवजह ही नरक बन जाएगी. क्या मुझे ले कर महेंद्र के कुछ सपने नहीं हैं?

नहीं, नहीं, मैं महेंद्र को छोड़ कर नहीं जा सकती. रात भर इसी ऊहापोह में करवटें बदलती रही. सुबह महेंद्र ने मुझे प्रश्नसूचक नजरों से देखा तो मैं ने नजरें झुका लीं और दौड़ कर महेंद्र से लिपट गई.

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