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पश्चात्ताप : पछतावा करते पति के उथलपुथल मन की मार्मिक कहानी

अनंत ने बस इतना ही तो कहा था फोन पर कि आज रात तक पहुंच जाऊंगा, फिर क्यों इतने बेचैन हो उठे थे अखिलेश भैया.

अनंत आ रहा है शिमला से. आते ही न जाने कितने प्रश्न पूछेगा कि मेरा कमरा गंदा क्यों है. यूनिफौर्म ठीक से क्यों नहीं धुली. इस घर में इतना शोर क्यों है. आजकल उस का हर सवाल इतना अजीब होता है कि भैया को सम?ा नहीं आता कि वे क्या जवाब दें. कुछ कहने की कोशिश करते भी हैं तो पूरा घर ज्वालामुखी के मुहाने पर जा बैठता है.

कब से आराम कुरसी पर निश्चेष्ट से पड़े थे भैया. कहने को सामने अखबार खुला पड़ा था, पर एक भी पंक्ति नहीं पढ़ी गई थी उन से. शाम घिर आई थी, थकेमांदे पक्षी अपनेअपने नीड़ को लौट चुके थे.

हर बार यही होता. जब भी भैया परेशान होते हैं, इसी तरह वीराने में आ कर बौखलाए से चक्कर लगाते रहते हैं या फिर अखबार खोल कर एकांत में बैठ जाते हैं. तब मैं ही आ कर उन्हें इस संकट से उबारता हूं और वे नन्हे, अबोध बालक की तरह चुपचाप मेरे पीछेपीछे चले आते हैं.

लेकिन आज ऐसा नहीं हुआ. सुबह से वे यहीं बैठेबैठे न जाने कितनी बार, टेपरिकौर्डर में ‘यों हसरतों के दाग मोहब्बत में धो लिए, खुद दिल से दिल की बात कही और रो दिए…’ गीत रिवाइंड कर के सुन चुके थे. जैसे, घर के अंदर जाने का मन नहीं कर रहा था उन का. सिर्फ अनंत के कमरे की बत्ती जल रही थी. घर की एक चाबी अब उस के पास भी रहती है. खुद ही दरवाजा खोल कर चला आता है. वैसे भी, अब उमा भाभी तो रही नहीं जो उन की प्रतीक्षा में भूखीप्यासी बैठी रहें.

‘‘कब से पड़े हैं आरामकुरसी पर, ठंडी हवाओं ने कहीं हड्डियों में छेद कर दिया तो लकवा मार जाएगा. पड़े रहेंगे फिर बिस्तर पर,’’ अनंत ने घर में घुसते ही कमर पर हाथ रख कर पुलिसिया अंदाज में कहा तो भैया ने मुंह दूसरी ओर फेर लिया.

‘‘क्यों ऐसे कड़वे शब्द मुंह से निकाल रहा है. तुझे तो मालूम है आज भाभी की पुण्यतिथि है.’’

‘‘हुंह, जब तक जिंदा थीं तब तक तो चोंच लड़ाने की फुरसत नहीं थी, मरने के बाद अब मगरमच्छ के आंसू बहा रहे हैं,’’ अनंत ने टेपरिकौर्डर पर लगा कैसेट निकाल कर भजन का कैसेट लगा दिया तो भैया की आंखों से नि?र्ार अश्रुधारा बह निकली.

‘‘यह क्या किया तू ने. मां की पसंद की गजल को कुछ देर सुन लेता तो तेरा कद क्या छोटा हो जाता?’’

‘‘सुननी ही थी तो मां जब गाती थीं तब सुनते. घडि़याली आंसू बहा कर दुनिया को क्या दिखाना चाह रहे हैं. भजन सुनिए, मां की आत्मा को शांति तो मिलेगी.’’

‘‘जरा धीरे बोल, अनंत. भैया को बुरा लगेगा. वैसे ही उन का मन छोटा हो रहा होगा.’’

‘‘जैसा बोलेंगे वैसा ही तो सुनेंगे,’’ बेटे के मुंह से निकले व्यंग्यबाणों से भैया का अंतर्मन तक बुरी तरह घायल हो गया. वे रोंआसे हो उठे.

‘‘इसे इन सब बातों से कोई सरोकार नहीं, कोई मरे या जिए. इस समय उमा होती तो गरम दोशाला कंधों पर डाल कर जबरन घर के अंदर ले जाती,’’ भैया बोल पड़े.

‘‘अगर होती तब न. अब तो वे नहीं हैं इस दुनिया में,’’  अनंत भी रोंआसा सा हो उठा.

मैं सोच रही थी, इंसान मरने के बाद क्या इतना महान हो जाता है. जीतेजी पत्नी में दोष निकालने वाले भैया को देख कर लगता, इन्हें पत्नी कभी सुहाई ही नहीं. प्यार, ममता, सामंजस्य, सहानुभूति, समर्पण की प्रतिमूर्ति, गौरवर्णा भाभी पति के सिवा परिवार के हर सदस्य की चहेती थीं पर भैया के हृदय की कभी साम्राज्ञी नहीं बन पाईं. (1)

भैया स्वभाव से ही अहंकारी थे. स्वयं को सुपरमैन समझाना उन की आदत में शुमार था. इसीलिए वे उन के हरेक काम में मीनमेख निकालते थे.

भैया की इसी आदत से परेशान हो कर एक दिन मां ने उन्हें सम?ाया था, ‘तेरे ऐसे व्यवहार से बहू का दिल टूट जाएगा, अखिल. कितना मानसम्मान देती है वह हम सब को. तेरे मुंह से प्यार के दो शब्द कभी नहीं निकलते, फिर भी हम सब को हंसाती रहती है. खुद भी हंसती रहती है. घृणा, मनमुटाव जैसे विचार तो कभी हावी होते ही नहीं उस पर.’

भैया को उपदेश सुनने की आदत नहीं थी. बाबूजी मां को हमेशा सम?ाते, पत्थर पर सिर पटकोगे तो चोट खुद को ही लगेगी पर मां न जाने किस मृगतृष्णा में जीती थी.

भैया को भाभी के मायके वालों का अनादर करते देख बाबूजी ने आगाह किया था, ‘अगर उस के घर वालों का अनादर करोगे तो उसे भी हम सब का अनादर करते देर नहीं लगेगी.’ पर भैया तो अहंकार के मद में झमते थे.(2)

जब भैया का विवाह हुआ था तब मैं बहुत छोटी थी, फिर भी कुछ घटनाएं ऐसी हैं जो मेरे मानसपटल पर जस की तस अंकित हैं.

भैया के विवाह की पहली वर्षगांठ थी. भाभी यह दिन बड़ी धूमधाम से मनाना चाह रही थीं. भैया को घूमनेफिरने, सभासोसाइटियों में जाने का शौक नहीं था. स्वभाव चिड़चिड़ा था, इसीलिए मित्रों व परिचितों का दायरा भी सीमित था. भाभी सुबह से ही रोमांचित और उत्साहित थीं. भैया के कठोर स्वभाव को देख कर मां हमेशा भाभी की हर छोटीबड़ी खुशियों का ध्यान जरूर रखती थीं. आननफानन फोन पर ही मित्रों व परिजनों को निमंत्रण भेज दिया गया. भाभी ने तरहतरह के व्यंजन खुद तैयार किए. उस के बाद दौड़तीभागती, पसीना पोंछती वे घर को नए सिरे से सजाने में जुट गईं. मैं भी अपने नन्हेनन्हे और भोलीभाली सम?ा से, उन का हाथ बंटाती रही.

शाम को भैया दफ्तर से लौटे तो उन का मुंह फूल कर कुप्पा हो गया. मां कुरेदती रहीं, भाभी पूछती रहीं लेकिन उन के मुंह से एक भी शब्द न निकला था.

कुछ ही देर में पूरा घर मेहमानों से भर गया. भाभी सभी के आकर्षण का केंद्र बनी हुई थीं. तभी एक धमाका हुआ.

भाभी के कालेज के दिनों के एक मित्र ने भैया को घेर लिया, जो भैया के भी मित्र थे.

‘आज तो हम उमा से गजल सुनेंगे. अरे भई, बहुत कशिश है उन की आवाज में,’ भाभी के सहपाठी ने बड़े उत्साह से बताया तो भैया आश्चर्य से केवल उस का चेहरा भर देखते रह गए, ‘क्या कह रहे हो!’

‘सही कह रहा हूं, बहुत बार सुनी है.’

‘अरे, नहीं भाई, कोई और होगी,’ भैया बोले, मगर मित्र की आवाज से आश्चर्य की परिसीमा और एक अतिरिक्त आवेग ?ालक रहा था, जो वास्तव में भैया को नहीं सुहाया था. बस, कुछ ही देर में, ‘यों हसरतों के दाग…’ गजल भाभी ने गाई तो सभी ने मुक्तकंठ से उन की तारीफ की.

सुवीरा भी उस पार्टी में आई थी. भैया के औफिस में ही तो काम करती थी, बोली, ‘आप बहुत खुशहाल हैं अखिलेश साहब, आप की पत्नी जितनी सुंदर हैं उतनी ही सुशील और गुणवान भी हैं.’

सभी से तारीफ बटोरने और मेहमानों से विदा लेने के बाद भाभी कमरे में पहुंची ही थीं कि भैया के चीखने का स्वर उभरा. वे बारबार भाभी का रिश्ता उन के उस सहपाठी से जोड़ रहे थे जिस ने पार्टी में गजल सुनने की उन से फरमाइश की थी.

भाभी जब सुबह उठीं तो उन की आंखें सूजी हुईर् थीं, चेहरा बु?ा हुआ था. किसी से शिकायत भी तो नहीं करती थीं, लेकिन उस दिन मां ने दुलारा तो वे छलक उठीं थीं. भैया को इस बात से चिढ़ थी कि उन की इजाजत बिना पार्टी का आयोजन क्यों किया गया. भाभी ने सार्वजनिक रूप से गजल क्यों गाई. भाभी का उस दिन भैया के शंकालु स्वभाव से पहली बार सामना हुआ था.

अगले दिन रविवार था. भैया बहुत अच्छे मूड में थे. कोई सुंदर सी धुन गुनगुना रहे थे. काफी देर तक उन के कमरे से हंसीठट्ठा की आवाज सुनाई देती रही. अम्माबाबूजी के चेहरे पर संतोष की चिलमन छाई हुई थी.

कुछ ही समय में हम सब भैयाभाभी के कमरे में पहुंच गए. मां ने भैया को मीठी सी ?िड़की दी, ‘खुद गीत गुनगुना रहा है, बहू ने गाया तो चिढ़ गया.’

‘तो, सुन लो अपनी बहू से गाना,’ भैया ने चहक कर कहा तो भाभी ने दूसरा गीत गाया, ‘रहते थे कभी जिन के दिल में हम जान से भी प्यारों की तरह…’ हम सब भावविभोर हो कर गीत सुन रहे थे. अचानक भैया को क्रोध आ गया और वे तेजी से भुनभुनाते हुए सीढि़यां उतर गए, ‘जब गाएगी दुखभरा गीत ही गाएगी.’ उस समय भाभी की सिसकियां रसमय वातावरण को गमगीन बना गई थीं. उस दिन तो अम्मा के मन में अपनी बहू के प्रति ऐसी संवेदना उपजी कि वे फूटफूट कर रो पड़ी थीं, लेकिन उस के बाद भाभी ने हमेशाहमेशा के लिए सुरताल से नाता तोड़ लिया.

‘इस घर में उमा को अनादर, अपमान, अवहेलना के अलावा कभी कुछ नहीं मिलेगा. मैं तो हीरा चुन कर लाई थी पर अखिलेश ने पत्थर समझ कर रौंद डाला मेरी बहू को,’ मां ने अफसोस जताया.

‘धीरज रखो, सुमन. एक बच्चा होगा तो सब ठीक हो जाएगा,’ बाबूजी बोल पड़े थे.

‘इसी बात की तो चिंता है. उमा मां बनने वाली है. ऐसे वातावरण में बच्चों को क्या संस्कार मिलेंगे.’

गर्भवती भाभी की सेवाटहल करतीं मां अब उन्हें पहले से दोगुना प्यार देने लगी थीं. मां ने भैया को भी सम?ाया कि अपनी पत्नी के साथ नम्रता से पेश आए लेकिन भैया न डरे न झोंपे बल्कि ऊंची आवाज में चिंघाड़े, ‘बहुत सिर चढ़ा रखा है तुम ने अपनी बहू को, अम्मा. इसे समझ दो, रहना है तो मेरे तरीके से रहे.’ (3)

‘क्या मतलब?’

‘इस घर में मेरी मरजी चलेगी. मेरी पसंद का भोजन पकेगा. मेरी पसंद से घूमनाफिरना, पहननाओढ़ना होगा.’

‘क्यों?’

मां, भैया का इशारा साफ सम?ा

गई थीं.

‘क्योंकि मैं मर्द हूं. उमा मेरी पत्नी है.’

उस दिन तो बेटे की आंखों के लाल डोरे देख मां का भी स्वर कांप उठा था, ‘वही तो करती है बहू.’

‘हां, उस के बाद ‘यों हसरतों के दाग…’ गा कर सब के सामने आंसू भी तो बहाती है,’ भैया ने मुंह बिचका कर कहा तो मां सर्पणी की तरह फुंफकार उठी थीं, ‘जब समझाता ही है तो दुख क्यों देता है बेचारी को.’

‘हुंह, बेचारी, दुख मैं नहीं तुम सब देते हो मुझे.’

7 महीने का अंतराल चुपचाप दरक गया आहिस्ता से. प्रसव पीड़ा ?ोलती भाभी ने भैया से अस्पताल साथ चलने की अनुनय की तो जीवन की हर सचाई को सूक्ष्मता से निरखनेपरखने की शक्ति रखने वाली मां अच्छी तरह सम?ा पा रही थीं. ऐसे समय में जीवनमृत्य के बीच उल?ा औरत हर अच्छेबुरे परिणाम के लिए तैयार रहती है, इसलिए अपने सिरहाने पति का चेहरा ही देखना पसंद करती है, लेकिन संवेदनहीन भैया को भला ऐसी बातें कैसे सम?ा आतीं. एक बार उन्होंने ठान ली नहीं जाने की तो नहीं ही गए.

कठोर व्यवस्था के बोझ तले दबती चली गईं भाभी. सालदरसाल इसी ऊहापोह में बीतते रहे- मेरा ब्याह हुआ, अनंत का सरकना, घुटनों चलना, तुतला कर बोलना चलनाफिरना. मां को पूरा विश्वास था कि अनंत अपनी नटखट अदाओं से मातापिता के बीच गहराती खाई को पाट देगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं. उस का किंडरगार्टन से ले कर 8वीं कक्षा तक का लंबा सफर भाभी ने अपने ही बलबूते पर काटा. भैया तो उन्हें अपने हुक्मों के चक्रवात में ही उलझाए रखते.

ऐसा वे पितृत्व की भावना के तहत करते थे पुरुषदंभ के वशीभूत हो कर. इतना तो भाभी नहीं सम?ा पाती थीं लेकिन मातृत्वबोध की भावना से भी वंचित नहीं थीं वे. कभी दबी जबान से प्रतिकार किया भी तो भैया को सहन नहीं हुआ. जब भी मौका मिलता वे पत्नी पर बीस होने का प्रयास ही करते.

अकेली पड़ती चली गईं भाभी. पिता के रौद्र रूप से पुत्र को बचाने के लिए वे अनंत को दादादादी के पास या स्वयं से चिपका कर रखती तो थीं पर इतना जानती थीं कि व्यावहारिकता के धरातल पर अपने पिता से दूर रह कर अनंत का सर्वांगीण विकास रुक जाएगा.

बेटे की शैक्षणिक प्रतिभा और व्यक्तित्व निर्माण के प्रति पूरी तरह से सजग भाभी, जब दूसरे बच्चे को अपने पिता के साथ हंसतेखेलते देखतीं तो उन के सीने में कसक सी उठती. खुद को समझ कर बेटे को दुलारपुचकार कर पति के पास पहुंचतीं भी तो उन का उग्र स्वभाव और कठोर रुख उन्हें पलभर के लिए भी ठहरने नहीं देता था.

एक ही साल के अंतराल में मांबाबूजी दोनों का देहांत हो गया. जिस कंधे पर सिर रख कर प्यार, दुलार, अपनत्व की उम्मीद करती आई थीं भाभी वही छिन गया तो मानसिक अवसाद से घिरती चली गई थीं. न ढंग से खातीं न ही किसी से बातें करतीं.(4)

उन का अब पूरा ध्यान अनंत पर ही केंद्रित रहता था. भैया औफिस से लौटते तो सुवीरा भी कई बार साथ चली आती थी. थोड़ाबहुत समय उस के साथ अच्छा बीत जाता था उन का. सुवीरा के साथ, भैया भी घंटों हंसते, चुटकुले सुनाते तो भाभी हैरान रह जाती थीं तो इस का मतलब, अखिलेश हंस भी सकते हैं. अपने मन की बात दूसरे से कह सकते हैं और दूसरे की सुन भी सकते हैं. तो क्या उन का पूरा पौरुष, पूरा अहंकार पत्नी के लिए ही है.

आत्मबल, आत्मचेतना रहित भाभी के सुप्त मनोबल को उठाने का प्रयास किया था मैं ने एक दिन, ‘कब तक घुटती रहेंगी भाभी आप. घरगृहस्थी निभातेनिभाते आप ने अपनी प्रतिभा तक को रौंद डाला.’

‘प्रतिभा, कौन सी प्रतिभा.’

‘गायन प्रतिभा, लेखन प्रतिभा. पति ने वर्जनाएं लगाईं तो गाना बंद कर दिया.’

‘मेरी मां गाती हैं?’ अनंत ने आंखें फैला कर पूछा. मेरी बात पर जैसे विश्वास ही नहीं हो रहा था उसे.

‘हां, सरस्वती का वास है इन के कंठ में. तुम्हारे पापा को बुरा लगता है, इसलिए नहीं गातीं.’

‘सुम्मी, अनंत को ऐसी शिक्षा मत दो. उसे सभ्य और सुसंस्कृत बनाने में मैं ने अपने जीवन का अहम हिस्सा लगा दिया है. एक बार इस के मन में नफरत की जड़ें पैठ गईं तो पित्रापुत्र के बीच ऐसी दूरी पैदा होगी जो मिटाए नहीं मिटेगी,’ भाभी ने सम?ाया था.

जिन हाथों में अपमानित होती रहीं, उसी के सुख की कामना करती भाभी को देख मैं सोच रही थी, क्या भाभी का मन कभी दुखी नहीं होता होगा. अंतरात्मा कभी चीत्कार नहीं करती होगी. सिर्फ यही देखदेख कर खुश होती रहती थीं कि उन का बेटा तो उन की भावनाओं, संवेदनाओं को सम?ाता है.

घंटों मांबेटे को एकसाथ बोलतेबतियाते देख ईर्ष्यालु भैया ऐसा रौद्र रूप धारण कर लेते कि वे दोनों बुरी तरह सहम जाते, लेकिन अपने स्वभाववश ही तो स्वयं को पत्नी और पुत्र से अलग कर के भैया ने उन्हें अपना बनाने का मौलिक अधिकार खोया था.

एक दिन इस असहनीय परिस्थिति से स्वयं को बचाने के लिए भाभी ने लिखना शुरू कर दिया. बहुत खुश हुई थी उस दिन मैं कि कम से कम उस घुटनभरे माहौल से मुक्ति तो मिलेगी भाभी को. धीरेधीरे डायरी के पन्नों पर मोती से अक्षर टंकते गए. इंद्रधनुष के सात रंग भाभी की कविता में सिमटते गए.

अब तो भाभी कहानियां भी लिखने लगी थीं. उन की प्रकाशित कृतियों से घर भर गया. लोग पढ़ते, प्रशंसा पत्र भेजते.

एक दिन 11 हजार रुपए का पुरस्कार भी मिला था उन्हें, ‘आरोही’ पत्रिका की ओर से. मैं दौड़ी चली गई थी. भैया घर पर ही थे. सुवीरा भी पास बैठी थी. आजकल वह अकसर यहीं बैठी रहती थी. मैं ने उन्हें सारी बात बताई.

‘ इतना मानसम्मान मिल रहा है आप की पत्नी को और आप यों गुमसुम बैठे हैं. मिठाई खिलाइए. इन्हें प्रथम पुरस्कार मिला है,’ सुवीरा बोली.

भैया ऐसे चौंके जैसे न जाने किस की बात हो रही थी. फिर बोले, ‘क्या कविता कहानी लिखने से पेट भरता है?’

कब से आस लगाए बैठी थीं भाभी कि शायद तारीफ के दो शब्द पति से भी मिल सकें लेकिन भैया ने तो बिना कुछ पढ़े ही अपना अहं शांत कर लिया. आलू को प्याज की टोकरी में डाल कर, लहसुन को अदरक से अलग कर के, पत्नी के कपड़े अपनी अलमारी में ठूंस कर, अपने धुले कपड़े बाथरूम में पटक कर, ऐसे मौकों पर अपनी मर्दानगी का सुबूत देने से कब चूकते हैं वे. (5)

कहते हैं, मनुष्य स्वभाव के वश में नहीं होता. भाभी स्वभाव से ही सहिष्णु थीं. किसी का अपमान करना तो दूर, किसी का दिल भी दुखाना नहीं आता था उन्हें. अपने स्वभाव का यह आकस्मिक परिवर्तन वे स्वयं ही बरदाश्त नहीं कर पाईं और कई तरह के रोगों से घिरती चली गईं. ऊपरी तौर पर चाहे प्रतिकार न करतीं हों, मन में खुद को कोसती रहती थीं.

भैया ने भाभी की बीमारियों को कभी गंभीरता से नहीं लिया. वैसे भी, वे भाभी में दिलचस्पी लेते ही कब थे. वे तो अपनी ही जिंदगी से दुखी थे. पत्नी की कमियों का बखान सुवीरा से कर के इस तरह सहानुभूति बटोरते कि मासूम अनंत, कभी मां के चेहरे पर उभर आई आड़ीतिरछी रेखाओं को देखता तो कभी सुवीरा के चेहरे पर आए संतुष्टि के भाव देख चिड़चिड़ाता.

एक दिन पलंग पर लेटेलेटे ही भाभी ने दम तोड़ दिया. यह सब अप्रत्याशित भी तो नहीं था. भाभी की शांत देह, टिकठी पर रखी थी. भैया की आंखों से नि?र्ार अश्रुधारा बह निकली. लोगों की भीड़ जमा थी. अचानक अनंत जोरजोर से रोने लगा, ‘बूआ, इन से कहो, मां की रस्सियां खोल दें. कितना कस कर बांधा है. दर्द हो रहा होगा इन्हें.’ पिता के प्रति उस की दृष्टि में घृणा की परछाइयां तैरने लगी थीं, ‘इन्होंने मारा मेरी मां को, इन्होंने.’

मां की आंखें मुंदते ही पिता पराए हो गए अनंत के लिए. खुद को घर के अंधियारे कोने में कैद कर लिया था उस ने. न कुछ कहता न किसी से मिलता. तिमाही परीक्षा में ही उसे 50 प्रतिशत अंक मिले थे. स्कूल के प्रिंसिपल ने विशेष रूप से भैया को बुलवा भेजा था और कहा था, ‘कितना कमजोर हो गया आप का बेटा पढ़ाई में. आप की पत्नी के रहते हर क्षेत्र में अव्वल रहता था अनंत. थोड़ा ध्यान दीजिए. अगर छमाही का परीक्षा फल ऐसा रहा तो स्कूल से निकलवाना पड़ेगा.’

अपना अपमान सह सकें, ऐसा तो स्वभाव ही नहीं था भैया का, लगे सुवीरा पर चिल्लाने, ‘नियमित रूप से आती हो अब. कितना ध्यान रखा तुम ने अनंत का.’

‘जैसा बीज बोया वैसा ही तो फल मिलेगा. इस की जड़ें ही कमजोर हैं,’ सुवीरा ने भैया की तेजी से अपनी तेजी एक डिगरी बढ़ा कर रखी तो वे सहम गए थे.

अनंत ने मां की तारीफ सुनी तो भला लगा था उसे, परंतु पिता के मुख से छिछली टिप्पणियां सुन कर क्रोध में कांपने लगा था. काश, मां ने भी इसी तरह पलट कर जवाब दिया होता. पढ़ातेपढ़ाते मां के माथे पर पसीने की बूंदें छलछला जाती थीं, काली घुंघराली लटें बिखर जाती थीं पर तब तो पापा ने कभी मां से धीमी आवाज में बात नहीं की.

भैया का घर बिखर गया था. न ढंग से खाना पकता, न ही कोई खाता. अकेली भाभी कितने सुचारु रूप से घर की व्यवस्था बनाए रखती थीं. मैं अकसर भैया के पास आ जाती थी. अपने घर से कुछ भी पका कर लाती और दोनों को खिलाती, लेकिन ऐसे कोई कब तक अपनी गृहस्थी छोड़ कर दूसरे का घर व्यवस्थित कर सकता है.

‘इसे होस्टल में डाल दें.’ हैरानपरेशान से भैया ने अपने अव्यवस्थित हो गए घर को सुव्यवस्थित करने के लिए सुवीरा को अपनी पत्नी बना कर घर लाने के लिए भूमिका बनाई थी या सच में वे बेटे के भविष्य के प्रति चिंतित थे, यह तो वे ही जानें लेकिन सुवीरा के सूखे कपोलों की आभा और भैया की उम्र देख कर मैं इतना तो अच्छी तरह समझ गई थी कि 40 वर्ष की उम्र में पेट की भूख के साथ ही शारीरिक क्षुधा शांत करने का एकमात्र उपाय पुनर्विवाह ही तो है और भैया के हृदय के किसी कोने में यह कामना, लालसा अब भी शेष थी.

कुछ दिनों तक तो सब ठीक चलता रहा लेकिन भैया अपने पुरातन स्वरूप में जल्दी ही लौट आए थे. सुवीरा के सामने प्रणय निवेदन करतेकरते वैसा ही रोब जताने लगे जैसा उमा भाभी पर जताते थे. कभी नमक कम, कभी सब्जी में तेल ज्यादा. पका कर लाती तो सुवीरा अपने घर से ही थी और प्रेम से परोसती भी थी, लेकिन भैया का अनर्गल संभाषण सुन कर उमा भाभी की तरह पत्ते की तरह कांपने के बजाय ईंट का जवाब पत्थर से देने से भी नहीं चूकती थी. तब भैया का चेहरा उतर जाता. मगर वे प्यार करते थे सुवीरा से, अर्धांगिनी बनाने की कसम ली थी, इसलिए चुप थे लेकिन ऐसा महसूस होने लगा था कि मन ही मन वे अपने इस निर्णय पर पछता भी रहे थे.

मन बहलाने के लिए भैया दूध वाले से मोलभाव करते, दुकानदार से ढंग से सामान तुलवाते, समय बिताने के लिए अलमारी खोल कर उमा भाभी का अलबम देखते. उन के साथ अपने फोटो देख कर मंदमंद मुसकराते.

एक दिन अचानक सुवीरा न जाने कहां से आ टपकी, ‘अजीब किस्म के इंसान हो तुम, अखिलेश. जब तक पत्नी जीवित थी, जोंक की तरह खून चूसते रहे. पैरों की जूती सम?ाते रहे. अब मरने के बाद आंसू बहा रहे हो. हो सकता है ब्याह के बाद मेरे साथ भी ऐसा ही व्यवहार करो, फिर तो मेरे संकल्प रेत की दीवार की तरह बिखर जाएंगे न.’

सुवीरा का रौद्र रूप ऐसा लग रहा था जैसे अंधी सुरंग के बीच अग्निशिखा दमक उठी हो.

कितना समझाती थीं भाभी लेकिन अहंकार के मद में चूर अपने सामने दूसरे को कुछ न समझाने की भैया की आदत ने उन्हें बराबरी का दरजा देना तो दूर, पायदान से ज्यादा कुछ न सम?ा.

2 महीने बाद ही सुवीरा के विवाह का कार्ड भैया के हाथ में फड़फड़ा रहा था. हर दिन की तरह अपने घर का काम निबटा कर मैं अनंत को अपने साथ ले कर भैया के घर चली आई थी. भावनात्मक रूप से जुड़ी थी मैं इस परिवार से. भैया का उदास चेहरा देख कर मुझे उन पर तरस आने लगा था. आत्मग्लानि से अभिभूत उन का चित्त शोकविह्लल हो गया. पश्चात्ताप ने उन्हें अर्धविक्षिप्तता जैसी स्थिति में पहुंचा दिया था.

रसोई में जा कर मैं ने वही पकाया जो हमेशा उमा भाभी पका कर भैया को खिलाती थीं. उन की पुण्यतिथि के अवसर पर इस से बड़ी श्रद्धांजलि क्या होती मेरे लिए. टेप रिकौर्डर पर चल रही गजल का एकएक शब्द सुन कर रोते जा रहे थे भैया, मानो कह रहे हों, ‘काश, मैं ने उमा के साथ वैसा बरताव न किया होता.’

मैं उन बुझती, बेजान आंखों में पहचान की कोमल कौंध देख रही थी. दर्द के उस दरिया में मोहममता की एक झलक भी नहीं मिली. मैं ने सांत्वना के लिए उन के सिर पर हाथ रखा तो मानो संयम के सारे तटबंध ही टूट गए. रोतेबिलखते बोले, ‘‘मन नहीं लग रहा, सुम्मी. उमा के पास जाना है.’’

यह सुन कर हैरान रह गई. सोचने लगी कि इंसान अपने सोच के दायरे में जब तक कैद रहता है उसे अपना दुख ही बड़ा लगता हैं, किंतु जब वह अपनी सोच की दिशा बदल देता है तब उसे समझ में आता है कि दूसरे का दुख उस से कहीं ज्यादा है.

काश, भैया ने जीतेजी उमा भाभी की भावनाओं को सम?ा होता तो यों भीड़ में अकेले न होते कभी भी. पश्चात्ताप की अग्नि में जलते भैया को सांत्वना देने के लिए मेरे सारे शब्द ही चुक गए थे. टेपरिकौर्डर पर उमा भाभी की पसंद की गजल अब भी बज रही थी.

सबक : आखिरकार राधेश्याम ने किस बात का बीड़ा उठाया

तकरीबन 60 साल के इंजीनियर राधेश्याम शांत मन से बैठे थे. उन के मन से ऊहापोह के बादल छंट चुके थे. तभी टीवी में एक बाबा के द्वारा तरहतरह के रोगों के उपचार और भूतप्रेत को उतारने का समाचार आने लगा. उस खबर को सुन कर राधेश्याम के मन में खुद की एक कहानी जीवंत हो उठी.

उन्हें बंद आंखों से खुद की फिल्म दिखाई देने लगी थी… जब वे सोनोग्राफी की रिपोर्ट के लिए बड़ी चिंता में बैठे थे उन की रिपोर्ट में किडनी में 2 पथरी थी. उन्होंने डाक्टर को दिखाया था, मगर डाक्टर का कहना था कि आप की ओपन हार्ट बाईपास सर्जरी हो चुकी है. जब तक आप को यह पथरी तंग न करे, आप इन्हें मत छेड़िए. अभी औपरेशन की आवश्यकता नहीं है.”

राधेश्याम को कुछ राहत मिली थी, लेकिन वे पथरी के तेज दर्द से वाकिफ थे. बचपन के दिनों एक बार लाख कोशिश करने पर भी पेशाब नहीं हुआ था, बहुत दर्द हुआ था. तब उन की समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि आखिर हो क्या रहा है. तब तो गूगल बाबा भी नहीं थे कि गूगल सर्च कर के कुछ कारण ढूंढ़ लें. राधेश्याम रुआंसे हो गए थे. पिताजी को बताने की हिम्मत नहीं हो रही थी.

फिर बड़ी हिम्मत कर के उन्होंने अपनी माताजी को अपनी तकलीफ बताई. माताजी ने पिताजी से कहा, “सुनोजी, पता नहीं क्यों राधेश्याम को बहुत दर्द हो रहा है और पेशाब नहीं हो रहा. खाने में तो उस ने कुछ ऐसा खाया नहीं है…”

पिताजी को स्थिति कुछकुछ समझ आ रही थी. वे राधेश्याम को डांटते हुए बोले, “रात से तकलीफ में हो तो बताया क्यों नहीं? चलो तुरंत डाक्टर के पास.” दर्द के मारे परेशान राधेश्याम तुरंत पिता के साथ चल दिए.

जब डाक्टर के पास पहुंचे तो डाक्टर ने परीक्षण किया और बताया, “ब्लैडर में एक स्टोन फंस गया है तुरंत औपरेशन करना होगा. डाक्टर ने उन्हें एक नली की सहायता से पेशाब करवाया. राधेश्याम ने राहत की गहरी सांस ली जैसे एक बड़ा संकट टल गया हो. उस के बाद औपरेशन किया गया और पथरी निकाल दी गई. फिर कभी पथरी नहीं हुई, पर अब जीवन की संध्या में फिर पता नहीं कैसे किडनी में पथरी बन गई.

राधेश्याम अपने स्वास्थ्य के लिए बड़े चिंतित रहते. उन्होंने पथरी को निकालने के लिए होम्योपैथिक, आयुर्वेदिक, ऐलोपैथिक सभी तरह की दवाइयां लीं, पर वे दोनों पथरियां टस से मस नहीं हुईं.

वे यूट्यूब पर तरहतरह के उपचार सुनतेदेखते. क्या खाएं क्या न खाएं की लिस्ट तैयार करते. पत्नी को खास निर्देश देते, “मेरे खाने में टमाटर मत डालना, पालक मत डालना. टमाटर के बीजों से पथरी बनती है.” सभी सावधानियां बरती जातीं. कभी थोड़ा भी पेट में दर्द होता तो उपचार की गति और भी तेज हो जाती. सभी रिश्तेदारों से भी उपचार पूछे जाते. राधेश्याम हर साल सोनोग्राफी करवाते, पर वे पथरियां यथावत ही मिलतीं. राधेश्याम को उन पथरियों ने मानो चुनौती दे दी थी पर राधेश्याम भी कहां हार मानने वाले थे.

वे थे इंजीनियर, समस्या को समूल नष्ट करने में चतुर. वे भी किसी न किसी तरह उन को मिटा देना चाहते थे. आखिर कोई तो इलाज होगा. कोई सी पैथी, कोई बाबा, पीरफकीर…

वे सोच ही रहे थे कि उन के भतीजे विपुल का फोन आया, “अंकल,  आप की पथरी का मैं ने सौ टका इलाज ढूंढ़ लिया है. हमारे पड़ौसी  अभी उज्जैन के पास मंदिर में एक महिला के पास गए थे. उस महिला को बहुत बड़ी सिद्धि प्राप्त है. उस ने लोगों की बड़ी से बड़ी पथरी निकाली है, वह भी बिना कोई चीरफाड़ के.

अंकल, आप की पथरी तो बहुत छोटी सी है, आप चिंता न करें सब ठीक हो जाएगा. बस, आप एक बार उस के पास चले जाओ.”

राधेश्याम की इंजीनियर बुद्धि कह रही थी कि यह सब झूठी बातें हैं पर बचपन से सुनी चमत्कारों की कहानियां कह रही थीं कि शायद सच हो. राधेश्याम के मन में ऊहापोह चलती रही थी कि आखिर क्या करें

क्या न करें. एक तरफ पथरी निकलने का लालच मन में था, दूसरी ओर वैज्ञानिक मस्तिष्क ऐसी ऊलजलूल  बातों को मानने को तैयार न था. उन्होंने अपनी पत्नी प्रियंका से पूछा, “क्या करना चाहिए ?”

प्रियंका पढ़ीलिखी महिला थी. कहने लगी,”आप भी क्या बात करते हो, यह भी कोई  विचारणीय बात है.

ऐसे ढकोसलों में पड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है.”

राधेश्याम बोले, “सुनो, अपने विपुल के पड़ोसी बिलकुल ठीक हो गए हैं. मुझे तो लग रहा है कि कोई चमत्कारी औरत है. वह चूस कर पेट से पथरी निकाल लेती है. निकाल कर पथरी दिखाती भी है.”

प्रियंका ने कहा, “बहुत से लोग जादू भी दिखाते हैं न, पर इस का मतलब यह तो नहीं कि वह सच होता है. मुझे ऐसी किसी बात पर विश्वास नहीं है.”

राधेश्याम बोले, “चलो ठीक है तुम कहती हो तो नहीं जाते.”

प्रियंका चाय बना कर ले आई. चाय के साथ गरमगरम पकौड़े लाजवाब लग रहे थे. राधेश्याम ने प्रियंका की तारीफ करते हुए कहा, “तुम तो साक्षात अन्नपूर्णा हो. क्या स्वाद है तुम्हारे हाथों में.”

चाय खत्म भी नहीं हुई थी कि मोबाइल बज उठा. फोन विपुल का ही था. वह कहने लगा,”अंकल, आज एक और सज्जन पत्थर वाली माई के यहां हो कर आए हैं. वे दर्द से तड़प रहे थे. उस माई ने पता नहीं क्या किया कि उन का दर्द अब बिलकुल  गायब हो गया है. आप कहें तो मैं आप के लिए समय ले लूं? वैसे उन का दरबार रोज सजता है.”

जो बात खत्म सी हो गई थी, विपुल के फोन से उसे फिर से हवा मिल गई थी. फिर मन में उथलपुथल होने लगी थी. प्रियंका का बिलकुल भी मन नहीं था, पर राधेश्यामजी का मन डगमगाने लगा था. वे कहने लगे, “प्रियंका, हम बचपन से सुनते आ रहे हैं कि कई लोगों को सिद्धियां प्राप्त होती हैं. वे असाधारण काम करने में सक्षम होते हैं. मुझे लगता है कि एक बार जा कर तो देखें कि वहां क्या हो रहा है? आखिर कुछ लोग तो ठीक हो ही रहे हैं. शायद ईश्वर ने चाहा तो अपना संकट भी टल जाए…”

प्रियंका का मन नहीं था, उसे लग रहा था कि लोग क्या कहेंगे. पढ़ेलिखे उच्चपद पर आसीन लोग भी ऐसी मूर्खता करेंगे, तो फिर बिना पढ़ेलिखे लोगों को क्या दोष देना? ये ढोंगी बाबा और तरहतरह की माई तो अपना धंधा चला कर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं.

घर में बहुत बहस हुई पर निर्णय जाने का ही हुआ. प्रियंका ने अपनी बात तरहतरह से रखी पर पुरुष की इच्छा को ही प्रधानता मिली. राधेश्याम बोले, “प्रियंका, उज्जैन में मेरे प्रिय मित्र नरेश रहते हैं. मैं उन से अभी बात करता हूं और पूछता हूं कि उन के घर से यह मंदिर कितनी दूर है? रास्ता कैसा है, उन की क्या राय है?”

प्रियंका यह सब सुन कर झुंझलाने लगी थी. उस ने गुस्से से कहा, “आप करोगे तो वही, जो आप ने सोच लिया है. ठीक है जो करना है करो.”

“अरे, गुस्सा क्यों होती हो, इस बहाने उज्जैन में महाकाल के दर्शन कर आएंगे,” राधेश्याम ने प्यार जताते हुए कहा.

राधेश्याम ने नरेश से बात की. उन्होंने कहा, “मैं ने सुना तो है कि कुछ लोग ठीक हो रहे हैं. तुम आ जाओ फिर चलते हैं,” जाने का कार्यक्रम सुनिश्चित हो गया.

उज्जैन पहुंच कर राधेश्याम और प्रियंका, नरेश व उन की पत्नी नीरा के साथ महाकाल दर्शन के लिए गए. उज्जैन घूमे. वहां के स्वादिष्ठ व्यंजनों का लुत्फ उठाया. दूसरे दिन सुबह के कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार की जाने लगी. प्रियंका ने नीरा से कहा, “कल आप भी हमारे साथ चलना. आप के साथ अच्छी कंपनी रहेगी.”

नीरा ने कहा, “आप लोग हो कर आइए. मैं आप के लिए खाना तैयार कर के रखूंगी. वैसे भी मुझे इन बातों पर विश्वास नहीं है.”

प्रियंका बोली, “विश्वास तो शायद पूरी तरह किसी को भी नहीं है. फिर भी दुख में मनुष्य कुछ आशा बना लेता है.”

नीरा ने कहा, “विश्वास और अंधविश्वास की सीमा तय करना भी बहुत मुश्किल हो जाता है. खैर, जब आप लोग यहां तक आए हैं, तो सहीगलत को भी अपनी आंखों से देख लें.”

दूसरे दिन सुबह 7 बजे नरेश राधेश्याम और प्रियंका को अपनी कार से उस स्थान पर ले गए, जहां वह औरत यह करिश्मा करती थी. रास्ता ऊबड़खाबड़ था. खेतों का सौंदर्य मनमोह रहा था, पर बरसात के कारण जगहजगह कीचड़ हो गई थी.

जब राधेश्याम, प्रियंका और नरेश उस स्थान पर पहुंचे, तब उन्होंने देखा कि उस ग्रामीण परिवेश में छोटी

सी जगह में 40-50 लोग बैठे थे. वहां एक छोटा सा मंदिर भी था. कुछ लोग कीर्तन में मगन थे. कुछ मन ही मन भगवान को मना रहे थे, “हे भगवान, यदि मेरी पथरी निकल जाएगी तो आप को ₹501 का प्रसाद चढ़ाऊंगा…”

कुछ देर बाद कानाफूसी शुरू हो गई, “माई आने वाली हैं, माई आने वाली हैं,” घंटे और शंख की ध्वनि से वातावरण गुंजायमान हो उठा. लगभग 50 साल की आयु की एक महिला नाटकीय अंदाज में आई. भक्तों ने जयकारा लगाया. दोनों हाथ उठा कर उस ने भक्तों को आशीर्वाद दिया.

एक भक्त बोला,”अब माई आ गई हैं, सब के कष्ट दूर हो जाएंगे.” माई ने कुछ विविध प्रकार की मुद्राएं बनाईं फिर अपने सिंहासन पर बैठ गईं. अपना मुंह खोल कर सब को दिखाया. मुंह में कुछ नहीं था. माई ने 2-3 व्यक्तियों की पथरी निकालने के बाद राधेश्याम को उपचार के लिए बुलाया. माई के साथी ने राधेश्याम

को जमीन पर ही एक ओर लिटा दिया और पूछा, “कहां दर्द है? पथरी कहां हैं? कितनी पथरी हैं? राधेश्याम के मुख पर चिंता और जिज्ञासा के भाव थे. उन्होंने पेट पर हाथ रख कर बताया,”2 पथरी किडनी में हैं.”

माई का साथी बोला,“आप चिंता मत करो. अब आप माई के कुशल हाथों में हैं. आप अपने कपड़े ऊपर कर लीजिए और बाईं करवट लेट जाइए.”

राधेश्याम ने अपनी शर्ट व बानियान ऊपर की और लेट गए. माई राधेश्याम के किडनी वाले भाग पर झुकीं और चूस कर पथरी निकालने लगीं. लगभग 1 मिनट यह प्रक्रिया चली. चूसने वाला स्थान एकदम लाल

हो गया था. उस ने मुंह से एक छोटा सा पत्थर का टुकड़ा निकाला और राधेश्याम के हाथ पर रख दिया. बोली, “बच्चा, अभी एक ही पथरी निकली है. आप को एक बार और आना होगा. चिंता मत करो.”

राधेश्याम ने उत्सुकता से पूछा, “कोई दवा लेनी होगी क्या?” वे बोलीं,”नहीं, कोई आवश्यकता नहीं है.”

माई का दूसरा साथी राधेश्याम, प्रियंका और नरेश को मंदिर ले गया. तिलक लगाया फिर कहने लगा, “माई

की इच्छा है कि यहां भव्य मंदिर और आश्रम बने. सब भक्त आराम से रह सकें. आप अपनी श्रद्धा से ₹5-10 हजार दान कर दीजिए. राधेश्याम प्रियंका और नरेश एकदूसरे का मुंह देख रहे थे. कहां फंस गए. राधेश्याम ने 1,000 निकाले और दे दिए. एक व्यक्ति उन्हें छोड़ने बाहर तक आया.

हजारों प्रश्न लिए वे वहां से निकल  गए. राधेश्याम के मन में उथलपुथल मची हुई थी. एक ओर यह सब उन्हें ढोंग लग रहा था क्योंकि आजकल तो ढोंगी बाबाओं और इन औरतों ने धर्म की आड़ में कई धंधे चला रखे हैं. जंत्र, मंत्र, तंत्र को बिना जाने ही ढोंग कर के कहीं किसी का भूत उतार रहे हैं, तो कहीं बीमारियां ठीक कर रहे हैं. उजले कार्यों के पीछे न जाने कितने काले कारनामों को बढ़ावा दे रहे हैं. साधुसंतों के पावन देश भारत में इन ढोंगियों के कारण सीधेसादे करोड़ों मनुष्य मूर्ख बन रहे हैं. दूसरी ओर राधेश्याम को चमत्कार की बातें भी प्रभावित कर रही थीं. वे अपने मन को शांत करना चाहते थे अतः

अपने प्रिय मित्र नरेश से बोले, “नरेश, मैं दोबारा सोनोग्राफी कराना चाहता हूं. क्या पास में कोई अस्पताल है?”

नरेश ने कहा,“तुम्हारे सामने ही तो एक स्टोन निकाला है, खैर पास में ही एक अस्पताल है. चलो वहां चलते हैं.”

राधेश्याम ने डाक्टर से सोनोग्राफी कराई. जब रिपोर्ट आई तब सब असलियत से वाकिफ हो सोच में पड़ गए. दोनों पथरियां अपनी जगह पर शांत बैठी थीं. रत्तीभर भी अंतर नहीं था. उन्हें जिस चमत्कार की आशा थी, वहां केवल ढोंग, दिखावा और छल ही मिला था. राधेश्याम बारबार यही सोच रहे थे जब हम पढ़ेलिखे, सम्पन्न लोग ऐसे ढोंगियों के चक्कर में फंस सकते हैं तो बिना पढ़ेलिखे, गरीब, दुखी लोगों को फंसाना तो सहज ही संभव है. इन ढोंगी बाबाओं और माइयों की करतूत जब प्याज की परतों की तरह खुलती हैं तब इन की सारी असलियत भी सामने आ जाती हैं.

उस दिन राधेश्याम को अपनी मूर्खता पर बहुत शर्मिंदगी हुई थी, लेकिन उस दिन से उन्होंने यह बीड़ा उठाने की कसम खाई थी कि वे इन ढोंगियों से गरीब जनता को बचाएंगे. वे उन्हें इन की वास्तविकता से परिचित कराएंगे.

उन्होंने गांव में शहर में जा कर अंधविश्वास एवं कुरीतियों की जड़ों को काटना आरंभ कर दिया था. वे जनजन में सजगता लाने की की राह पर चल पड़े थे. वे लोगों से यह भी कहते कि मंदिर जाने से कष्ट दूर नहीं किया जा सकता, मेहनत और कर्म से पैसा कमाया जा सकता है. इसलिए उज्जैन का मंदिर हो या कहीं का, न भगवान कुछ कर सकते हैं न ही पीरफकीर.

अचानक एक बिल्ली आई और उस ने दूध का कटोरा गिरा दिया. खन्न से आवाज हुई. उन के विचारों की लड़ी टूट गई थी. राधेश्याम ने बिल्ली को भगाया और फिर सामाजिक जागरूकता की राह पर चल पड़े.

गिफ्ट में बराबरी का खयाल रखें

उपहार प्रेम को प्रकट करने का एक जरिया है. ऐसा जरिया जो याद के रूप में हमारे साथ रहता है. जिस तरह से किसी अखबार के अलगअलग कोनों को ग्लू की मदद से चिपकाने के बाद वह एक लिफाफे की शक्ल ले लेता है, गिफ्ट भी ठीक वैसे ही काम करता है. यह परिवार के अलगअलग लोगों को आपस में जोड़ता है. तीजत्योहार व बर्थडे जैसे उत्सवों पर एकदूसरे को गिफ्ट देने से अपनत्व बना रहता है.

बच्चे हों या बूढ़े गिफ्ट्स सभी को भाते हैं. बच्चे भी अपने उन्हीं मामा को ज्यादा प्यार करते हैं जो उन के लिए गिफ्ट्स ले कर आते हैं. ऐसे ही कुछ बच्चे अपनी उन्हीं बूआ की ज्यादा बातें मानते हैं जो उन्हें उपहार में पैसे देती हैं या उन के लिए कुछ ले कर आती हैं. इस से यह पता चलता है कि गिफ्ट्स आपस में लोगों को जोड़ने के साथसाथ प्रेम बढ़ाने का भी काम करते हैं.

अगर आप भी चाहते हैं कि आप अपने दोस्तोंरिश्तेदारों के फेवरिट बनें तो यही वह समय है जब आप अपनेआप को उन का चहेता बना सकते हैं.

फैस्टिव सीजन आ गया है. अब यही वह समय है जब आप अपने भाईबहनों, चाचाताया, फूफाजीजा, नानानानी को गिफ्ट देंगे. वहीं रिश्ते में छोटे लोग इन्हीं लोगों से गिफ्ट प्राप्त करेंगे. लेकिन गिफ्ट देते समय कई बातों का ध्यान रखना चाहिए जैसे उन की उम्र, उन की जरूरत, उन की पसंदनापसंद आदि. इसी तरह अपना बजट भी देखना बहुत जरूरी है.

लेकिन समस्या यह भी है कि किस को क्या गिफ्ट दिया जाए. हमारी राय है कि गिफ्ट ऐसा हो जो उन के काम आए. इसी प्रौब्लम को तो सौल्व करना है. शगुन में रुपएपैसे देना अब बोरिंग हो गया है. इसलिए बदलते समय के साथ हमें अपने गिफ्ट के चयन को भी बदलना होगा.

हम आप को नए दौर के गिफ्ट से रूबरू करा रहे हैं जिन्हें दे कर आप कूल डैड, कूल भाभी या कूल सासुमां कहलाएंगी :

एफडी का दें गिफ्ट

लिफाफे में दिए जाने वाले शगुन की जगह उन्हीं पैसों की एफडी करा दी जाए. एफडी करना एक बेहतर विकल्प इसलिए है क्योंकि इसे एक निश्चित समयसीमा के लिए कराया जाता है. साथ ही, इस में ब्याज भी अच्छा मिलता है.

अगर आप का बच्चा या पोतापोती बहुत छोटे हैं और आप उन्हें साइकिल से अलग कुछ गिफ्ट देना चाहते हैं तो आप उन के लिए एफडी करा सकते हैं.

अगर वह शिशु है तो उस के 18 वर्ष होने पर उस की एफडी मैच्योर हो जाएगी. फिर वह इस का इस्तेमाल अपनी जरूरत के अनुसार कर सकता है. इस के लिए अलगअलग बैंकों की अलगअलग एफडी पौलिसीज हैं, जैसे 5 साल, 10 साल की एफडी. अलगअलग बैंकों की अलगअलग ब्याज दर होती हैं. इन्हें आप अपनी समझ के अनुसार चुन सकते हैं.

गिफ्ट वाउचर

अगर आप भी इस बार त्योहार के मौके पर अपने दोस्तों, घर वालों को गिफ्ट देने की सोच रहे हैं लेकिन आप को कुछ सम?ा नहीं आ रहा तो आप उन्हें डिजिटल गिफ्ट वाउचर दे सकते हैं. जी हां, यह डिजिटल इंडिया का दौर है. गिफ्ट कार्ड डिजिटल इंडिया की ही देन हैं. किसी को गिफ्ट के तौर पर गिफ्ट कार्ड देना बैस्ट औप्शन है.

गिफ्ट कार्ड एक तरह का औनलाइन गिफ्ट या औफलाइन वाउचर है. कई लोग इसे प्रीपेमैंट कार्ड या वाउचर भी कहते हैं क्योंकि इसे इस्तेमाल करने से पहले पैसे जमा किए जाते हैं जैसे कि अगर आप के पास 2,000 का गिफ्ट कार्ड है तो आप इस कार्ड से 2,000 रुपए की औनलाइन शौपिंग कर सकते हैं. इस के लिए बस आप को 16 अंकों का नंबर डालना होगा.

ये कार्ड आईसीआईसीआई बैंक, एचडीएफसी बैंक, एसबीआई, सैंट्रल बैंक औफ इंडिया, ऐक्सिस बैंक और आईडीबीआई बैंक जैसे कई बैंक औफर करते हैं. इसे आसानी से काउंटर पर जा कर खरीदा जा सकता है. इस का एक फायदा यह है कि इसे खरीदने के लिए बैंक में अकांउट होना जरूरी नहीं है.

इतना ही नहीं, ये गिफ्ट औनलाइन शौपिंग साइट से भी खरीदे जा सकते हैं, जैसे तनिष्क, गीतांजलि, जिवा, मिंत्रा, अमेजन, फ्लिपकार्ट, अजियो, नायका, शुगर पोप, मम्मासअर्थ आदि. अगर आप अपने लेडीज ग्रुप को कुछ हट कर गिफ्ट करना चाहती हैं तो आप उन्हें इन के गिफ्ट वाउचर दे सकती हैं.

एजुकेशन ऐप है बेहतरीन गिफ्ट औप्शन

इस के अलावा अगर आप चाहते हैं कि आप के पोतापीती पढ़ाई में अच्छे बने रहें तो आप उन के लिए किसी एजुकेशनल ऐप का सब्सक्रिप्शन ले सकते हैं. यह उन के लिए बहुत अच्छा गिफ्ट रहेगा. इस से बेहतर फ्यूचर की ओर अग्रसर होंगे.

ई-पाठशाला, टौपर, ब्रेनली, अनऐकेडमी लर्नर और डाउट नट कुछ अच्छे ऐजुकेशनल ऐप हैं.

स्मार्ट गैजेट

अगर आप चाहते हैं कि आप का बच्चा हैल्दी और ऐक्टिव रहे तो आप उसे एक स्मार्ट वौच गिफ्ट कर सकते हैं. यह उस की रोजाना की ऐक्टिविटीज बताएगी जैसे वह कितना चला है, कितनी देर उस ने साइक्ंिलग की है. मार्केट में ऐसी बहुत सी घडि़यां हैं जो हार्टबीट के बारे में भी बताती हैं.

कार्ड डिवाइस टौय, राइटिंग टेबलेट, कलर बोर्ड छोटे बच्चों के कुछ गैजेट्स हैं. इन्हें भी गिफ्ट के रूप में पा कर बच्चे खुश हो जाएंगे.

एडिशनल ऐक्टिविटीज

बदलते दौर में पढ़ाई के साथसाथ बच्चों का एडिशनल ऐक्टिविटीज में बने रहना भी बहुत जरूरी है. आप उन्हें लिफाफे में शगुन देने की जगह किसी एडिशनल ऐक्टिविटीज की क्लास जौइन करा दें. यह उन के लिए फायदेमंद होगा.

बड़ेबुजुर्गों के लिए गिफ्ट

वहीं अगर आप अपने बुजुर्ग मम्मीपापा को कुछ ऐसा गिफ्ट देना चाहते हैं जो उन के लिए यूजफुल हो, जिस की वजह से वे अपनेआप को आप के साथ हमेशा जुड़ाव महसूस कर सकें, तो आप उन के कमरे या हौल की रंगत बदल सकते हैं. जैसे, आप उन के कमरे या हौल या घर में वौलपेपर लगवा सकते हैं. आप चाहे तो पेंट भी करवा सकते हैं. यकीनन, यह उन को बेहद पसंद आएगा.

लेडीज के लिए गिफ्ट्स

अगर आप किसी की भाभी, ननद, देवरानी, जेठानी या बहू हैं तो आप उन्हें पर्सनल केयर का गिफ्ट दे सकती हैं. आप उन्हें स्पा, बौडी मसाज जैसी सर्विस का वाउचर गिफ्ट कर सकती हैं जिस में वे अपनी जरूरत के अनुसार सर्विस ले सकती है. आप उन्हें नायका, शुगर पोप, मम्मासअर्थ, लैक्मे, वाओ, आयुर्वेदा, लोरियल, वीएलसीसी, बायोटैक, ओले, लोटस, एवौन, नीविया, हिमालयास आदि के वाउचर गिफ्ट कर सकती हैं.

गिफ्ट्स हमारे बीच ग्लू का काम करते हैं. हमें इस ग्लू को गिफ्ट के जरिए बनाए रखना चाहिए. कोशिश करनी चाहिए कि यह ग्लू न सूखे ताकि सूखे ग्लू की तरह हमारे रिश्ते भी न सूख जाएं.

इसलिए इस सीजन में आप अपनों को एक ऐसा गिफ्ट दें जो उन्हें सालोसाल याद रहे. याद रखें, गिफ्ट्स परिवार के सभी रिश्तों को आपस में जोड़ कर रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. इसलिए परिवार के बीच गिफ्ट की परंपरा जारी रखें.

गिफ्ट जरूरी या पैकिंग

किसी खास अवसर पर गिफ्ट देना व्यक्ति की भावनाओं का प्रदर्शन करना होता है और त्योहार आने पर बच्चों से ले कर वयस्क सभी गिफ्ट लेने वाले को भी यह समझ में आता है कि आप के मन में उन के लिए बहुत प्यार है.

दीवाली का त्योहार किसी को खुश करने या किसी को कुछ गिफ्ट करने का सही मौका होता है. गिफ्ट की जब बात आती है तो ज्यादातर लोगों को समझ नहीं आता कि क्या गिफ्ट खरीदें या क्या गिफ्ट दें, उस की पैकिंग कैसे करें और जो गिफ्ट लेने वाले की जरूरत को पूरा करने के साथसाथ खुशियां भी दे. इस के अलावा आजकल सभी स्वास्थ्य को ले कर जागरूक हो चुके हैं. ऐसे में गिफ्ट में मिठाइयों को देने का प्रचलन कम हुआ है. अब गिफ्ट हैंपर, गिफ्ट वाउचर, सरप्राइज गिफ्ट आदि देने का अधिक प्रचलन है.

असल में गिफ्ट के साथ उस की पैकिंग को भी जरूरी समझ जाता है जिस से व्यक्ति उस से आकर्षित होता है. औनलाइन कई संस्थाएं हैं जो गिफ्ट पैकिंग का काम करती हैं. लेकिन कई बार देखा गया है कि एक आकर्षक पैकिंग के पीछे एक अच्छा गिफ्ट नहीं होता या फिर उस गिफ्ट की उन के जीवन में आवश्यकता नहीं होती.

गिफ्ट के अनुसार हो पैकिंग

हैंडीक्राफ्ट के जरिए गिफ्ट बनाने वाली भाग्यश्री कहती हैं कि यह सही है कि दीवाली पर बाजार में अच्छीअच्छी पैकिंग वाले गिफ्ट मिलते हैं जो देखने में सुंदर होते हैं और व्यक्ति उन्हें खरीद कर अपनों को भेंटस्वरूप देते हैं. इतना ही नहीं, दीवाली से पहले दुकानों पर गिफ्ट पैकिंग करने वालों की भरमार होती है, जिसे बड़ीबड़ी कंपनियां महीनों पहले से और्डर देती हैं. ऐसे में गिफ्ट किसे और क्या देना है, उस के अनुसार पैकिंग भी की जाती है. गिफ्ट पैकिंग भी कई प्रकार की होती हैं, मसलन अगर किसी कौर्पोरेट को गिफ्ट देना है तो उस की पैकिंग अच्छी होनी चाहिए क्योंकि इस से आप की इमेज बनती है, जबकि परिवार और दोस्तों में पैकिंग की अपेक्षा गिफ्ट अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं. बच्चों को पैकिंग आकर्षित करती है, इसलिए उन्हें कलरफुल गिफ्ट पैक कर देना जरूरी होता है.

दिखती है क्रिएटिविटी

गिफ्ट पैकिंग करने वाली तनिष्ठा दूबे कहती हैं, ‘‘आजकल ट्रैंड कुछ अलग तरह की पैकिंग का है, जिस में अधिक चमकीली या भड़कीली पैकिंग से अधिक सुंदर, साधारण और त्योहारों से संबंधित पैकिंग होनी चाहिए. बिना पैकिंग के गिफ्ट देना कभी सही नहीं होता. हालांकि कुछ लोग इसे ‘वेस्ट औफ मनी’ मानते हैं लेकिन इस से गिफ्ट देने वाले के भाव की गहराई का पता चलता है, साथ ही, गिफ्ट लेने वाले के मन में उस की पैकिंग को खोलने की एक उत्सुकता बढ़ जाती है, जो अच्छी बात होती है. यह उत्सुकता उस उपहार की इमोशन और वैल्यू को बढ़ाने में कारगर होती है.

‘‘इस के अलावा पैकिंग करते वक्त इस बात का ध्यान हमेशा रखना पड़ता है कि गिफ्ट से कम दाम उस की पैकिंग पर खर्च हो. मसलन, अगर मैं ने कुछ और्गेनिक प्रोडक्ट को पैक किया है तो पैकिंग मैटीरियल और्गेनिक हो, इस का ध्यान रखती हूं. इस में रस्सियां, ब्राउन रीसाइकल्ड पेपर का प्रयोग करती हूं. अगर कुछ फंकी आइटम दे रही हूं, जैसे गेम या टौयज तो उस की रैपिंग भी ब्राइट होनी चाहिए ताकि गिफ्ट लेने वाले को अंदर के गिफ्ट का कुछ एहसास हो सके.

‘‘दीवाली पर मैं दीए, लाइट्स, ट्रेडिशनल लुक वाली पैकिंग करती हूं ताकि वे दीवाली के गिफ्ट का प्रतिनिधित्व करें. इस के लिए मैं अधिकतर घर पर पड़ी रीसाइकल्ड वस्तुओं का इस्तेमाल पैकिंग में करती हूं, जिस में रिबन, आर्टिफिशियल फ्लौवर, ब्राउन पेपर आदि होते हैं. इस में गिफ्ट देने वाले की क्रिएटिविटी ही सामने आती है.

असल में दीवाली पर हर साल तरहतरह के गिफ्ट दिए जाते हैं जिन में कुछ खाने के, कुछ सजावट या जरूरतों के सामान देने की कोशिश की जाती है और गिफ्ट आइटम को देने के लिए बाजार में कई प्रकार की गिफ्ट पैकिंग की व्यवस्था होती है, जो देखने में सुंदर और आकर्षक होने के अलावा काफी महंगी भी होती हैं. इसलिए गिफ्ट पैकिंग को अगर व्यक्ति घर पर खुद करता है तो क्रिएटिविटी के साथसाथ काफी कम दाम में एक अच्छी पैकिंग हो सकती है. कुछ सुझाव निम्न हैं-

गिफ्ट को सुंदर बनाने के लिए कलरफुल रिबन का इस्तेमाल किया जा सकता है, जिस से या तो गिफ्ट को रैप करें या फिर उस से एक सुंदर फ्लौवर बना कर चिपका दें.

नैट के कपड़े के प्रयोग से गिफ्ट को अच्छा सजाया जा सकता है. यह ड्राई फ्रूट्स प्लेट्स या मिठाई के डब्बे को सजाने के काम आता है.

कई आर्टिफिशियल फूल मार्केट में मिलते हैं, इन से गिफ्ट पैक की अच्छी सजावट की जा सकती है. रंगबिरंगे फूलों से इसे सजाएं.

इस के अलावा बांस या प्लास्टिक की बनी टोकरियां और कांच के कंटेनर भी गिफ्ट पैकिंग के अच्छे औप्शन हैं.

लुभावने औफर्स के झांसे में न आएं

अक्तूबर के महीने की शुरुआत से ही त्योहारों की धूम शुरू हो जाती है. नवरात्र, दशहरा के बाद धनतेरस, दीवाली, भाईदूज और छठ का त्योहार आ जाता है. इसे फैस्टिवल सीजन कहते हैं. दीवाली के पहले ही दीवाली औफर्स का प्रचार होने लगता है. पहले भी छूट और डिस्काउंट सेल के नाम से इस काम को किया जाता था, अब इस का दायरा बढ़ने लगा है.

अब बड़ीबड़ी कंपनियां अपने प्रोडक्ट्स से अधिक औफर्स का प्रचार करती हैं. औनलाइन सेल करने वाली कंपनियां तो कुछ घंटों के लिए फ्री में शौपिंग का फंडा ले कर आती हैं. इस में हजारों ग्राहक उन की वैबसाइट पर विजिट करते हैं. इन में से एकदो को फ्री में शौपिंग करने को मिल भी जाती है, बाकी खाली हाथ रह जाते हैं.

इस से कंपनी का फ्री में प्रचार होता है. इस तरह से एकदो लोगों को चुनी गई चीजों पर फ्री की शौपिंग करा कर हजारों लोगों को अपने तक लाने में कंपनी को सफलता मिलती है. इस तरह के औफर्स प्रचार का जरिया होते हैं. कंपनी को जो खर्च प्रचार पर करना होता है उस से कम में फ्री शौपिंग करा कर उस से अच्छा प्रचार मिल जाता है. फ्री की इस शौपिंग के लिए लोग रातरात जागने के साथ ही साथ यह जानने के लिए कंपनी की वैबसाइट पर इसलिए जाते हैं कि जिस से औफर्स का सब से पहले लाभ उन को मिल सके.

दीवाली में औफर्स की भरमार होती है. दीवाली के औफर्स लाभकारी होते हैं. यह सीजन ऐसा होता है कि जब विंटर सीजन की शुरुआत हो रही होती है. दीवाली में औफर्स के जरिए विंटर का पुराना स्टौक सेल और औफर्स के जरिए बेच दिया जाता है. इस के बाद फ्रैश स्टौक बेचा जाता है. जब विंटर खत्म हो रहा होता है, उस समय होली की सेल लगा कर विंटर स्टौक क्लियर किया जाता है. जो बचता है, उसे दीवाली में क्लियर किया जाता है. इसी तरह से यह क्रम चलता रहता है.

संभल कर करें खरीदारी

कस्टमर को लुभाने के लिए औनलाइन सैल्स, एक्स्ट्रा डिस्काउंट और बंपर औफर जैसे तमाम नाम से स्कीमें चलाई जाती हैं. इस के बाद भी मुनाफा कमाया जा रहा होता है. कोई भी प्रोडक्ट कम में या नुकसान पर नहीं बेचा जाता. कई लोग इस तरह के औफर्स का इंतजार कर रहे होते हैं. ज्यादातर औफर्स स्मार्टफोन, कपड़ों, घरेलू जरूरत के सामान और गाडि़यों पर आते हैं. कुछ लोग इस तरह की शौपिंग का इंतजार सालभर करते हैं. वे पहले से ही लिस्ट बना कर रख लेते हैं कि क्याक्या शौपिंग करनी है. कई बार इस तरह की शौपिंग में धोखा भी हो जाता है.

रीता सिंह ने होली की औफर्स सेल में विंटर का एक जैकेट लिया, जिस की कीमत 4 हजार रुपए थी. 50 फीसदी छूट के बाद वह 2 हजार रुपए का था. होली में विंटर की विदाई हो रही होती है. उस ने यह सोचा कि डिस्काउंट में खरीद लेते हैं, अगले विंटर में काम आएगा. अगले विंटर में जब उस को निकाला तो उस में लगा लैदर खराब हो चुका था. जैकेट को खरीदने में लगे 2 हजार रुपए पानी में डूब चुके थे. असल में सेल क्लियर करने के चक्कर में वह मैटीरियल निकाला जाता है जो रखने पर खराब होने वाला हो. जिन कपड़ों का डिजाइन बदलने वाला होता है उन को भी सेल किया जाता है.

कुछ लोग औफर्स का लाभ लेने में सम?ादारी दिखा सकते हैं. जब आप अगले सीजन के हिसाब से औफर्स में शौपिंग कर रहे हैं तो वे चीजें खरीदें जो अगले सीजन में ठीक से प्रयोग में लाई जा सकें, खराब होने वाली चीजें न लें. दीवाली सीजन में कुछ लोग ऐसे सामान ले लेते हैं जिन का प्रयोग वे होली के बाद समर सीजन में कर सकें. इन पर डिस्काउंट अधिक होता है. खरीदते समय क्वालिटी और एक्सपायरी का ध्यान जरूर रखें.

मैंबरशिप प्लान के भी औफर्स

दीवाली में केवल कपड़ों या घर में इस्तेमाल की जाने वाली जरूरी वस्तुओं के ही औफर्स नहीं होते, मैंबरशिप पर भी औफर्स होते हैं. फैस्टिव डील्स का ज्यादा से ज्यादा फायदा उठाने के लिए मैंबरशिप प्लान भी बेचे जा रहे हैं. अमेजन और फ्लिपकार्ट जैसे औनलाइन प्लेटफौर्म अपना मैंबरशिप प्लान भी बेचते हैं. अगर सेल में खासी खरीदारी करने वाले हैं तो मैंबरशिप प्लान आप के लिए काम की चीज हो सकती है. यह मैंबरशिप सालाना होती है. इस के अनेक फायदे बताए जाते हैं. उन में कुछ प्रतिशत की एक्स्ट्रा छूट, सेल का अर्ली एक्सेस, फास्ट डिलीवरी जैसी चीजें शामिल होती हैं. डिलीवरी चार्ज भी नहीं लिया जाता. इस तरह की मैंबरशिप लेते समय सावधान रहिए. सीधे तौर पर यह सम?िए कि ये औफर्स केवल उन के लाभ के लिए होते हैं ग्राहक की जेब से पैसा निकालने में.

फैस्टिवल के दौरान जो बड़ी सेल चल रही होती हैं उन में कई बार एक्सचेंज औफर में भी एक्स्ट्रा डिस्काउंट होता है. जैसे पहले आप का कबाड़ फ्रिज, मशीन एक हजार रुपए का जा रहा था, एक्सचेंज औफर में यह 2 हजार रुपए में बिक जाता है. ऐसे में आप नए के बदले पुराना सामान दे कर भी एक्स्ट्रा पैसे बचा सकते हैं. कुछ औफर्स का लाभ लेने के लिए अपने दोस्तों या कलीग्स के साथ मिल कर शौपिंग कर सकते है. ऐसे में सेल का ज्यादा से ज्यादा फायदा उठा पाएंगे. कुछ औनलाइन शौपिंग प्लेटफौर्म कस्टमर को हर खरीदारी पर लौयल्टी पौइंट्स देते हैं. इन पौइंट्स का इस्तेमाल कर के हम अगली खरीदारी में कुछ एक्स्ट्रा पैसे बचा सकते हैं.

फैस्टिव सेल के दौरान कई बार इन पौइंट्स की वैल्यू भी बढ़ा दी जाती है. पहले आप 100 पौइंट्स के बदले 100 रुपए डिस्काउंट पाते थे, सेल में हो सकता है आप को 100 पौइंट्स के बदले 150 रुपए का डिस्काउंट मिल जाए. सेल के दौरान शौपिंग करते वक्त लौयल्टी पौइंट का इस्तेमाल जरूर करना है.

औनलाइन शौपिंग में औफर्स की भरमार

दीवाली में फ्लिपकार्ट, अमेजन, मिंत्रा और जियोमार्ट जैसे औनलाइन प्लेटफौर्म भी औफर्स ले कर आए हैं. फ्लिपकार्ट के दीवाली सेल में मोबाइल फोन, टीवी, फ्रिज, वाशिंग मशीन और होम एप्लायंसेस पर जबरदस्त डिस्काउंट देने की बात कही जाती है. स्टेट बैंक औफ इंडिया के क्रैडिट और डैबिट कार्ड होल्डर को अलग से डिस्काउंट दिया जाता है. कोटक महिंद्रा बैंक के ग्राहकों को भी अलग से डिस्काउंट मिल जाता है. फ्लिपकार्ट एक्सिस बैंक के यूजर्स को कैशबैक का लाभ देता है. वहीं पेटीएम यूजर्स को भी कैशबैक का लाभ मिल जाता है.

अमेजन भी दीवाली सेल ले कर आता है. 2022 में अमेजन ने दीवाली के मौके पर एक महीने का ग्रेट इंडियन फैस्टिवल सेल लगाया था. उस सेल में ग्राहकों को अलगअलग कैटेगरीज पर भारी डिस्काउंट औफर मिला था. अलगअलग कैटेगरीज में ग्राहकों को अलगअलग औफर थे. इस में सिले कपड़े, स्मार्टफोन, लैपटौप आदि पर भारी डिस्काउंट दिया गया था. इसी तरह से मिंत्रा दीवाली सेल और जियोमार्ट दीवाली सेल भी लगी थीं. दीवाली में सेल और औफर्स की भरमार दिखेगी. खरीदने के पहले सम?ाना जरूरी है, जिस से औफर्स के ?ांसे में आने से बचा जा सके.

औफर्स की जानकारी जरूरी

औफर्स की जानकारी पूरी रखनी चाहिए. उस की पूरी रिसर्च करें. तभी औफर्स के ?ांसे से बच सकेंगे. इसलिए बैस्ट प्राइस में बैस्ट डील पाने के लिए प्रौपर रिसर्च की जरूरत होती है, जैसे स्पेसिफिकेशन, रिव्यू, दूसरे ऐप पर उस प्रोडक्ट का प्राइस आदि. सम?ादार लोग ढंग से मार्केट रिसर्च कर के ही कोई प्रोडक्ट खरीदने का फैसला करते हैं. इस से आप के पैसों की बचत होती है और आप ठगे जाने से भी बच जाते हैं.

फायदे के चक्कर में नुकसान न उठाएं

औफर्स के चक्कर में ओवर स्टौकिंग से बचें. औफर के चक्कर में गैरजरूरी चीजें न खरीदें. औफर्स के ?ांसे में आ कर इतना न खरीद लें कि आप का बजट ही बिगड़ जाए. क्रैडिट कार्ड का प्रयोग करने से पैसा जेब से जाते हुए दिखता नहीं, इसलिए खर्च अधिक हो जाता है. इस से बचने के लिए आप पहले ही जरूरी सामान की लिस्ट बना लें. जरूरत के सामान ही खरीदें.

मैं जिस लड़की से प्यार करता था अब उसकी शादी कहीं और हो गई है, बताएं मैं क्या करूं ?

सवाल

मैं 23 वर्षीय अविवाहित युवक हूं, उस लड़की से बेहद प्यार करता था. शादी से पहले वह मुझ से कहती थी कि हम भाग कर कोर्ट मैरिज कर लें लेकिन मुझे पता था, एक बार घर से बाहर कदम रखा नहीं कि दोबारा हमारा समाज हमें स्वीकार नहीं करेगा. वहीं, मैं अपने मातापिता की उन उम्मीदों को भी तोड़ना नहीं चाहता था. चूंकि उस की शादी इसी कसबे में हुई है इसलिए वह मुझे और भी याद आती है. एक अजीब तरह की बेचैनी है, क्या करूं?

जवाब

किसी के बिना नहीं रह पाना, बेचैनी, घबराहट आदि उम्र के प्रेम के लक्षण हैं जो अमूमन हर युवा में पाए जाते हैं. आप के साथ भी यही हो रहा है. इसे सहज ही लीजिए. चूंकि अब उस का दूसरी जगह विवाह हो चुका है इसलिए उसे भूल जाना ही बेहतर है. हो सकता है, कल आप को कोई दूसरा और ज्यादा अच्छा लगने लगे. यह तो मन की बात है जैसे भी बांटो, बंट जाएगा. एक दृढ़ निश्चय लेने की आवश्यकता है. आप यह मत भूलें कि अतीत को भूलना कई बार वर्तमान के लिए बेहतर साबित होता है.

बढ़ती उम्र एक खूबसूरत अहसास

जापान में एक  अनोखी परंपरा है. यहां के लोग जब भी मिट्टी के टूटे बरतनों की मरम्मत करते हैं तो इन में थोड़ा सोना रख देते हैं. इस के पीछे मान्यता है कि पुरानी चीजों का अपना ऐतिहासिक महत्त्व होता है और भले ही इन में कुछ क्षति नजर आए, उन की एक अलग खूबसूरती होती है. जापान की इस कला ‘किंतसुगी’ से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं.

फिटनेस और ब्यूटी एक्सपर्ट ( VLCC की फाउंडर ) वंदना लूथरा कहती हैं कि सब से महत्त्वपूर्ण है, बढ़ती उम्र यानि एजिंग को ले कर हमारा नजरिया सकारात्मक होना चाहिए. हमें कभी यह नहीं सोचना चाहिए कि उम्र बढ़ना या प्रौढ़ होना एक समस्या है. यह तो नए सिरे से जिंदगी की शुरुआत है. दोबारा तनमन को संवारने की उम्र है. आमतौर पर 40-50 की उम्र तक हम जीवन के अधिकांश लक्ष्यों को पूरा कर चुके होते हैं. हमारे बच्चे बड़े हो चुके होते  हैं. जाहिर है, इस उम्र में हमें अपने लिए अधिक वक्त मिल पाता है.

अफसोस की बात यह है कि हम चाहे जितने भी आजाद खयाल के हों, इस उम्र में आ कर लोग खासकर महिलाएं यह सोचने लगते हैं कि अब उन की कोई अहमियत नहीं रही.

‘प्यू रिसर्च सेंटर’ के अनुसार अधिक उम्र के लोगों की बढ़ती आबादी जापान, द. कोरिया जर्मनी और स्पेन के लिए बड़ी सरदर्दी बन गई है.

इस के विपरीत कुछ ऐसे लोग भी हैं, जिन्होंने 50-60 के बाद अपनी उम्र की नई पारी खेली. मारुति से रिटायर होने के बाद 67 साल के जगदीश खट्टर ने यह निर्णय लिया कि वे गोल्फ खेल कर समय नहीं काटेंगे और उन्होंने खुद का कारोबार ‘कारनेशन औटो’, शुरू कर दिया. रेणुका रामनाथन ने आईसीआईसीआई वेंचर्स से रिटायरमेंट ले कर ‘मल्टीपल अल्टरनेट ऐसेट मैनजर्स’ की शुरुआत की. यह एक प्राइवेट एसेट मैनेजमेंट फर्म है. स्व. कैप्टन सीपी कृष्णनन नायर ने जब ‘लीला ग्रुप औफ होटल्स’ की शुरुआत की तो उन की उम्र 65 साल थी इसी इसी तरह डा. प्रताप सी रेड्डी ने 50 की उम्र में ‘अपोलो हौस्पीटल्स’ की शुरुआत की. इंडियन स्कूल औफ बिजनेस, हैदराबाद में सीनियर एक्जक्यूटिव के लिए मैनेजमैंट में पहले पोस्ट ग्रैजुएट प्रोग्राम का सब से अधिक उम्र का विद्यार्थी 55 साल का था.

वंदना लूथरा कहती हैं कि एजिंग एक खूबसूरत अहसास है. अंदर अच्छी अनुभूति होने से बाहर भी खूबसूरती निखर उठती है. ऐसे में बुढ़ापे को बीमारी क्यों मान लें. बेहतर होगा कि आप अपनी सेहत, लाइफस्टाइल और भावनाओं पर अधिक ध्यान दें ताकि आप की जिंदगी पहले से बेहतर हो जाए.

स्वास्थ्य का रखें ध्यान

बुद्धिमानी यह है कि हम सेहत का खास खयाल रखें ताकि स्वास्थ्य समस्या सिर नहीं उठाए और लंबी उम्र तक स्वस्थ, प्रसन्न रहें. जांच और परीक्षण कराते रहें. उम्र बढ़ने से शरीर की मेटाबौलिक गतिविधि भी धीमी पड़ जाती है. इस के लिए पहले से मानसिक रूप से तैयार रहें. आहार में शाकसब्जी, हलके प्रोटीन, साबुत अन्न की अधिकता रखें, जबकि प्रोसैस्ड फूड और मीठी चीजें कम लें. नियमित व्यायाम करें ताकि दिल की सेहत अच्छी रहे और आप अधिक एक्टिव रहें.

मन रखें प्रसन्न

वंदना लूथरा कहती हैं कि इस उम्र में मानसिक स्वास्थ्य का ध्यान रखना भी जरूरी है. इस के लिए पुरानी कुंठाओं से छुटकारा पाएं, जो आप के तनमन को निचोड़े जा रहे हैं. नकारात्मक सोच के लोगों, स्थानों व चीजों से दूर रहें. जीवन के सकारात्मक पहलुओं पर ज्यादा ध्यान दें.

तनाव न केवल कई स्वास्थ्य समस्याओं जैसे अनिद्रा, डिप्रेशन व दिल की बीमारी की जड़ है, बल्कि तनाव में आप उम्र से 10 साल अधिक दिखते हैं, क्योंकि आप के टेलोमीयर छोटे हो जाते हैं और यह बात कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, सैनफ्रांसिस्को के एक अध्ययन से प्रमाणित है. इसलिए जम कर छुट्टियां मनाइए. डिप्रेशन दूर करने का इस से सही तरीका कोई नहीं. किसी खेल में दिलचस्पी लीजिए. कुछ नया काम शुरू कीजिए.

कैसा हो अधिक उम्र में मेकअप

उम्र हो गई इस का मतलब यह नहीं कि आप खूबसूरत दिखना या मेकअप करना छोड़ दें. उलटे आप को तो और भी संभल कर मेकअप करना चाहिए ताकि आप बढ़ती उम्र के निशानों को धत्ता बताते हुए पहले की तरह खूबसूरत और जिंदादिल नजर आएं. बढ़ती उम्र में कैसा हो आप का मेकअप, इस के टिप्स दिए हैं ‘एल्पस ब्यूटी क्लीनिक एंड एकेडमी’ की डायरेक्टर, भारती तनेजा ने.

फेस मेकअप

मेकअप की परफेक्ट शुरूआत के लिए सब से पहले फेस पर प्राइमर का इस्तेमाल करें. इस के अंदर सिलिकान होता है जो चेहरे की फाइन लाइंस व रिंकल्स वाली जगह को भर देता है.

डी.डी. यानी डैमेज डिफाइंग क्रीम से चेहरे को स्मूद टेक्सचर दें. इस क्रीम में शामिल विटामिन और मिनरल्स आप की स्किन को रिंकल्स से बचाते हैं. चेहरे पर अगर कोई मार्क्स या स्कार्स है तो उसे लिक्विड कंसीलर की मदद से कवर करें और अगर आंखों के नीचे गड्ढे हैं तो उस जगह पर लाइट डिफयूजर पेन का इस्तेमाल करें.

उम्र के इस पड़ाव तक आतेआते चेहरा पहले से पतला हो जाता है, ऐसे में अपने फेस के फीचर्स को हाइड नहीं बल्कि हाइलाइट करें. इस के लिए चीकबोंस के ऊपर, आईब्रोज के नीचे और ब्रिज आफ द नोज पर हाईलाइटर का इस्तेमाल करें और चीकबोंस पर क्रीम बेस्ड ब्लशआन ही लगाएं.

आई मेकअप

एक उम्र के बाद आईब्रोज नीचे की तरफ झुकने और हलकी होने लग जाती हैं, ऐसी आंखों को उठाने के लिए आप आईपेंसिल की मदद से आर्क बना लें और अगर आर्क बना हुआ है तो उसे पेंसिल से डार्क कर लें. इस से आंखें उठी हुई और बड़ी नजर आएंगी.

आई मेकअप के लिए शिमर, ग्लिटर्स और बहुत ज्यादा लाउड शेड्स का इस्तेमाल न करें क्योंकि इन से रिंकल्स और भी ज्यादा रिफ्लैक्ट होते हैं. आईशैडो के लिए आप साफ्ट पेस्टल शेड्स का इस्तेमाल कर सकती हैं. इस के साथ ही आईज के आउटर कार्नर पर डार्क ब्राउन शेड से कान्टोरिंग जरूर करें, इस से आंखें डीपसेट और यंग नजर आएंगी.

इस ऐज तक आतेआते लगभग सभी की आंखें छोटी होने लग जाती हैं, इसलिए वाटरलाइन पर वाइट पेंसिल लगाएं क्योंकि इस से आंखें बड़ी नजर आती हैं. हां चाहें तो लोअरलिड पर ब्लैक लाइनर लगा सकती हैं.

फेस मेकअप

होठों पर ब्राइट शेड की लिपस्टिक लगा कर आप ज्यादा यंग दिख सकती हैं.

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दीवाली में टैक्नोलौजी की खाताबही को समझें

अगर 10-12 साल पहले की बात करें तो हर औफिस में एक जगह ऐसी होती थी जहां पर मुनीम बैठता था. आज के ज्यादातर लोग मुनीम के नाम से शायद ही परिचित हों. धीरेधीरे मुनीम की जगह अकाउंटैंट ने ले ली. इस के बाद भी कामकाज करने का तरीका वही पुराना खाताबही वाला था. कंप्यूटर का युग आया तो कागज पर लिखीं खाताबही दरकिनार कर दी गईं. अब कंप्यूटर पर ही खाते बनने लगे. कंप्यूटर ने खाताबही को दरकिनार ही नहीं किया, उस के कामकाज को सरल भी कर दिया. अब इस की बहुत सारी जिम्मेदारी चार्टर्ड अकाउंटैंट ने संभाल ली.

मुनीम का काम कर्मचारियों को वेतन देने का भी था. अब वेतन सीधे बैंक खाते में जाने लगा. बैंक खाते में पैसा जाने से ले कर खर्च होने तक का बहुत सारा काम टैक्नोलौजी ने संभाल लिया है. ऐसे में हाथ में पैसा आने का सुख खत्म हो गया. मुनीम के साथ एक पर्सनल रिलेशन बन जाता था. वह कर्मचारी के सुखदुख से वाकिफ होता था. वेतन कटने का दर्द और बोनस मिलने की खुशी आमनेसामने दिख जाती थी. टैक्नोलौजी ने इन संवेदनाओं को खत्म कर दिया है. ऐसे में दीवाली में टैक्नोलौजी की खाताबही को समझिए.

यह बदलाव केवल आम लोगों या बिजनैसमैनों में ही नहीं दिख रहा है. पहले जब केंद्र या प्रदेश सरकार बजट पेश करती थी तो वित्त मंत्री लाल रंग की एक फाइल, जिस के ऊपर एक फीता बांधा गया होता था, ले कर आते थे. अब यह फाइल नहीं दिखती. उस की जगह ब्रीफकेस आ गया है, जिसे ले कर वित्त मंत्री बजट पेश करती हैं. दीवाली में खाताबही को छोडि़ए, टैक्नोलौजी को समझिए और अपने वित्त का बजट बनाएं. आज के समय में कई ऐसे सौफ्टवेयर आ गए हैं जिन के जरिए लाखों का हिसाबकिताब सैकंडों में हो जाता है. छोटेबड़े सभी तरह के बिजनैसमैन इस का प्रयोग कर रहे हैं. अब खाताबही की जगह कंप्यूटर और मोबाइल ने ले ली है.

‘पेमैंट सौफ्टवेयर’ हो गए भरोसेमंद

इस का एक लाभ यह हुआ है कि एक ही क्लिक में सारी जानकारी स्क्रीन पर दिख जाती है. इस को औफिस से बाहर कहीं बैठा व्यक्ति भी आसानी से देख सकता है. पैसों का लेनदेन जैसे ही होता है, अकाउंट में वह दिखने लगता है. पैसों के औनलाइन लेनदेन का चलन बढ़ गया है. कुछ समय पहले तक पढ़ेलिखे और जानकार लोग तक इस पर भरोसा नहीं करते थे. आज मूंगफली बेचने वाला भी मूंगफली के पैसे पेटीएम में लेने से हिचक नहीं रहा है.

लखनऊ के तेलीबाग इलाके में सुरेश कुमार की मूंगफली की डलिया के बीच ‘बार कोड’ लगी पेटीएम शीट रखी होती है. जो नकद नहीं देना चाहता या जिस के पास टूटे पैसे नहीं होते वह फोन से पीटीएम कर देता है. सुरेश का कहना है, ‘टूटे पैसों के न होने की परेशानी लोगों के साथ होती है. सो, वे पेटीएम कर देते हैं. पैसा हमारे बैंक में पहुंच जाता है. जो एक तरह से बचत हो जाती है. नकद पैसों से हम खर्च चलाते हैं. कई बार हमें पैसा देना हो तो हम भी फोन से पैसा भुगतान कर देते हैं.’ इस तरह से देखें तो उधार की परेशानी भी काफी हद तक ठीक हो गई है.

कई ऐसे सौफ्टवेयर हैं जो न केवल पैसे का हिसाबकिताब रखते हैं, बाकायदा ईमेल भी भेज सकते हैं, जिस से अलग से याद रखने की जरूरत खत्म हो जाती है. हिसाबकिताब की टैक्नोलौजी में तमाम ऐसे बदलाव हो रहे हैं जो खाताबही को सरल बनाते जा रहे हैं. ऐसे में अब दीवाली में जरूरत इस बात की है कि टैक्नोलौजी की खाताबही को ठीक से सम?ों. टैक्नोलौजी की खाताबही में मोबाइल फोन सब से महत्त्वपूर्ण होता है. हर खाते की सुरक्षा का ध्यान रखने के लिए ओटीपी सिस्टम रखा जाता है. ओटीपी के बाद ही खाते का संचालन होता है. इसलिए अपने फोन को सही से समझे और उस को सुरक्षित रखें क्योंकि औनलाइन फ्रौड भी तेजी से बढ़ रहे हैं. इन से बचने के लिए मोबाइल को सुरक्षित रखना जरूरी है.

बड़ा बदलाव लाने वाली है ब्लौकचेन टैक्नोलौजी

अकाउंटिंग में आ रहे तकनीकी बदलाव की अगली कड़ी को ब्लौकचेन के रूप में देखा जा रहा है. यह एक ऐसी टैक्नोलौजी है जिस से बिटकौइन नामक करैंसी का हिसाबकिताब रखा जाता है. यह एक डिजिटल ‘सार्वजनिक बहीखाता’ है, जिस में प्रत्येक लेनदेन अथवा ट्रांजैक्शन का रिकौर्ड दर्ज किया जाता है. ब्लौकचेन में एक बार किसी भी लेनदेन को दर्ज करने पर इसे न तो वहां से हटाया जा सकता है और न ही इस में संशोधन किया जा सकता है.

ब्लौकचेन के कारण लेनदेन के लिए अब बैंक जैसी तीसरी पार्टी की आवश्यकता नहीं पड़ती है. इस से बैंकों में ग्राहकों और पैसा देने वालों से सीधे जुड़ कर ही लेनदेन किया जाता है. इस के अंतर्गत नैटवर्क से जुड़े उपकरणों मुख्यतया कंप्यूटर द्वारा सत्यापित होने के बाद प्रत्येक लेनदेन के विवरण को खाताबही में रिकौर्ड किया जाता है. जैसे, हम 1990 में इंटरनैट के बारे में जानते थे, फिलहाल सिर्फ उतना ही इस समय ब्लौकचेन के बारे में जानते हैं.

पिछले 2 दशकों में इंटरनैट ने हमारे समाज को बदल कर रख दिया है. अब ब्लौकचेन भी इसी तरह का बदलाव लाने वाली है. बिटकौइन टैक्नोलौजी का उपयोग कई बिजनैस में होने जा रहा है. बैंकिंग और बीमा क्षेत्र में इस के प्रति बहुत आकर्षण देखने को मिल रहा है. भारत में ‘बैंकचैन’ नामक एक संघ है जिस में भारत के लगभग 27 बैंक शामिल हैं. भारतीय रिजर्व बैंक की शाखा ‘इंस्टिट्यूट फौर डैवलपमैंट एंड रिसर्च इन बैंकिंग टैक्नोलौजी’ ब्लौकचेन टैक्नोलौजी के लिए एक आधुनिक प्लेटफौर्म का विकास कर रही है.

ब्लौकचेन के लाभ सभी लेनदेनों के लिए भिन्नभिन्न होंगे. डेलौइट और एसोचैम के अनुसार, ब्लौकचेन उस समय अधिक लाभकारी सिद्ध होगी जब आंकड़े अधिक हों और उन्हें अनेक लोगों के बीच सा?ा करना हो तथा उन लोगों के मध्य विश्वास की भावना न हो. इस टैक्नोलौजी से सब से अधिक लाभ वित्तीय निवेशकों को होगा. विश्वभर में 90 से अधिक केंद्रीय बैंक ब्लौकचेन चर्चा में शामिल हैं. इस के अतिरिक्त, पिछले 3 वर्षों में इस के लिए 2,500 पेटेंट दर्ज किए गए हैं.

गैरबैंकिंग क्षेत्रों, जैसे रिटेल, यात्रा, स्वास्थ्य देखभाल, टैलीकम्युनिकेशन और सार्वजनिक क्षेत्र  उद्योग में भी ब्लौकचेन का प्रयोग हो रहा है. भारत में क्रिप्टोकरैंसी पर भले ही विचार चल रहा हो पर ब्लौकचेन टैक्नोलौजी के उपयोग को बढ़ावा देने की मंशा है. ब्लौकचेन टैक्नोलौजी बिचैलियों को हटा कर किसी भी प्रकार के लेनदेन की दक्षता में सुधार लाएगी. इस से सभी लेनदेनों की लागत में भी कमी आएगी. इस से पारदर्शिता में भी वृद्धि होगी तथा फर्जी लेनदेनों से मुक्ति मिलेगी क्योंकि इस के अंतर्गत प्रत्येक लेनदेन एक सार्वजनिक बहीखाते में रिकौर्ड होगा.

औनलाइन फ्रौड से बचें

औनलाइन बैंकिंग के चलन बढ़ने के साथ ही साथ औनलाइन बैंक फ्रौड बढ़ते जा रहे हैं.

हर रोज ऐसी कई घटनाएं सुनने को मिलती हैं जिन में लोगों की जरा सी असावधानी के कारण बड़ा नुकसान हो जाता है. इस तरह के फ्रौड को ज्यादातर औनलाइन ही अंजाम दिया जाता है.  इसलिए अपराधी तक पहुंचना काफी चुनौतीभरा होता है. जिन लोगों के साथ इस तरह की घटनाएं हुई हैं उन में से ज्यादातर लोगों ने खुद ही कोई न कोई गलती या लापरवाही की होती है. जब तक आप की निजी डिटेल्स किसी के पास नहीं पहुंचती, तब तक फ्रौड को अंजाम देना मुश्किल होता है. औनलाइन फ्रौड से बचने के लिए सावधानी रखनी चाहिए.

किसी की पर्सनल जानकारी के बिना बैंकिंग फ्रौड को अंजाम देना बहुत मुश्किल होता है. ऐसे में अपनी पर्सनल जानकारी, जैसे क्रैडिट कार्ड नंबर, यूपीआई पिन आदि को गोपनीय रखना चाहिए. इस तरह की जानकारी किसी को न दें. बैंक या वित्तीय कंपनियां आप से ये जानकारियां कभी नहीं मांगतीं, न ही यूजरनेम, पासवर्ड या अन्य बैंक डिटेल मांगी जाती है.

किसी भी लिंक या अटैचमैंट को ओपन करने से पहले चैक करें. अगर कोई ईमेल संदिग्ध लगे तो उसे ओपन न करें और न ही उस का रिप्लाई करें. मेल या मैसेज में किसी भी अनजाने सोर्स से मिले किसी अटैचमैंट को ओपन न करें और इस तरह के मैसेज को तुरंत डिलीट कर दें. कंपनियों द्वारा औनलाइन फ्रौड को रोकने के लिए जारी किए जाने वाले दिशानिर्देशों को ध्यान से पढ़ें और उन पर अमल करें.

पब्लिक वाईफाई नैटवर्क का इस्तेमाल जहां तक संभव हो, करने से बचें. अपने पासवर्ड सावधानी से बनाएं. ऐप में लौगिन और ट्रांजैक्शन पिन व पासवर्ड बनाते समय कई बातों को ध्यान रखना चाहिए. ध्यान रखें कि पासवर्ड हमेशा ऐसा हो जिसे कोई अंदाजा न लगा सके. अगर आप का पासवर्ड आसान हुआ तो आप के अकाउंट में कोई भी सेंध लगा सकता है. पासवर्ड में हमेशा अपर और लोअर कैरेक्टर के साथ नंबर और स्पैशल कैरेक्टर्स का भी इस्तेमाल करें. इस के साथ एक बात का ध्यान जरूर रखें कि किसी भी ऐसी ऐप को इंसटौल न करें जो गूगल प्ले स्टोर पर उपलब्ध न हो. अपने फोन से बिना काम की ऐप को अनइंसटौल कर दें.

बेचारी : कामना का मुंह बंद किसने और क्यों किया था ?

‘बेचारी कामना’, जैसे ही कामना वाशबेसिन की ओर गई, मधु बनावटी दुख भरे स्वर में बोली. दोपहर के भोजन के लिए समीर, विनय, अरुण, राधा आदि भी वहीं बैठे थे.

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’ समीर, विनय या अरुण में से किस ने प्रश्न किया, कामना यह अंदाजा नहीं लगा पाई. मधु सोच रही थी कि उस का स्वर कामना तक नहीं पहुंच रहा था या यह जानबूझ कर ही उसे सुनाना चाहती थी.

‘‘आज फिर वर पक्ष वाले उसे देखने आ रहे हैं,’’ मधु ने बताया.

‘‘तो इस में ‘बेचारी’ वाली क्या बात है?’’ प्रश्न फिर पूछा गया.

‘‘तुम नहीं समझोगे. 2 छोटे भाई और 2 छोटी बहनें और हैं. कामना के पिता पिछले 4 वर्षों से बिस्तर पर हैं…यही अकेली कमाने वाली है.’’

‘‘फिर यह वर पक्ष का झंझट क्यों?’’

‘‘मित्र और संबंधी कटाक्ष करते हैं तो इस की मां को बुरा लगता है. उन का मुंह बंद करने के लिए यह तामझाम किया जाता है.

‘‘इन की तमाम शर्तों के बावजूद यदि लड़के वाले ‘हां’ कर दें तो?’’

‘‘तो ये लोग मना कर देंगे कि लड़की को लड़का पसंद नहीं है,’’ मधु उपहास भरे स्वर में बोली.

‘‘उफ्फ बेचारी,’’ एक स्वर उभरा.

‘‘ऐसे मातापिता भी होते हैं?’’ दूसरा स्वर सुनाई दिया.

कामना और अधिक न सुन सकी. आंखों में भर आए आंसू पोंछने के लिए मुंह धोया. तरोताजा हुई और पुन: उसी कक्ष में जा बैठी. उसे देखते ही उस की चर्चा को पूर्णविराम लग गया.

कामना सोचने लगी कि इन सब को अपने संबंध में चर्चा करने का अवसर भी तो उस ने ही दिया था. यदि उस के मन की कटुता मधु के सामने बह न निकली होती तो उसे कैसे पता चलता. मधु को दोष देने से भी क्या लाभ? जब वह स्वयं बात अपने तक सीमित न रख सकी तो मधु से ही ऐसी आशा क्यों?

भोजन का समय समाप्त होते ही कामना अपने स्थान पर जा बैठी. पर कार्य निबटाते हुए भी मन का अनमना भाव वैसे  ही बना रहा.

कामना बस की प्रतीक्षा कर रही थी कि अचानक परिचित स्वर सुनाई दिया, ‘‘आज आप के बारे में जान कर दुख हुआ.’’

चौंक कर वह पलटी तो देखा, अरुण खड़ा था.

‘‘जी?’’ कामना ने क्रोध भरी नजरों से अरुण की ओर देखा.

‘‘मधु बता रही थी कि आप के पिताजी बहुत बीमार हैं, इसलिए घर का सारा भार आप के ही कंधों पर है,’’ अरुण बोला.

‘‘जी, हां,’’ कामना ने नजरें झुका लीं.

‘‘क्या बीमारी है आप के पिताजी को?’’

‘‘पक्षाघात.’’

‘‘अरे…’’ अरुण ने सहानुभूति दिखाई तो कामना का मन हुआ कि धरती फट जाए और वह उस में समा जाए.

‘‘क्या कहा डाक्टर ने?’’ कामना अपने ही विचारों में खोई थी कि अरुण ने फिर पूछा.

‘‘जी…यही कि अपना दुखड़ा कभी किसी के सामने नहीं रोना चाहिए, नहीं तो व्यक्ति उपहास का पात्र बन जाता है,’’ कामना गुस्से से बोली.

‘‘शायद आप को बुरा लगा… विश्वास कीजिए, आप को चोट पहुंचाने का मेरा कोई इरादा नहीं था. कभीकभी दुख बांट लेने से मन हलका हो जाता है,’’ कहता हुआ अरुण अपनी बस को आते देख कर उस ओर बढ़ गया.

कामना घर पहुंची तो पड़ोस की रम्मो चाची बैठी हुई थीं.

‘‘अब तुम से क्या छिपाना, रम्मो. कामना की बात कहीं बन जाए तो हम भी बेफिक्र हो जाएं. फिर रचना का भी तो सोचना है,’’ कामना की मां उसे और रम्मो चाची को चाय का प्याला पकड़ाते हुए बोलीं.

‘‘समय आने पर सब ठीक हो जाएगा. यों व्यर्थ ही परेशान नहीं होते, सुमन,’’ रम्मो चाची बोलीं.

‘‘घबराऊं नहीं तो क्या करूं? न जाने क्यों, कहीं बात ही नहीं बनती. लोग कहते हैं कि हम कमाऊ बेटी का विवाह नहीं करना चाहते.’’

‘‘क्या कह रही हो, सुमन. कौन कह रहा था? हम क्या जानते नहीं कि तुम कामना के लिए कितनी परेशान रहती हो…आखिर उस की मां हो,’’ रम्मो चाची बोलीं.

‘‘वही नुक्कड़ वाली सरोज सब से कहती घूमती है कि हम कामना का विवाह इसलिए नहीं करना चाहते कि उस के विवाह के बाद हमारे घर का खर्च कैसे चलेगा और लोग भी तरहतरह की बातें बनाते हैं. इस बार कामना का विवाह तय हो जाए तो बातें बनाने वालों को भी मुंहतोड़ जवाब मिल जाए.’’

कहने को तो सुमन कह गईं, किंतु बात की सचाई से उन का स्वर स्वयं ही कांप गया.

‘‘यों जी छोटा नहीं करते, सुमन. सब ठीक हो जाएगा.’’

तभी कामना का छोटा भाई आ गया और रम्मो चाची उठ कर चली गईं.

सुमन कुछ देर तक तो पुत्र द्वारा लाई गई मिठाई, नमकीन आदि संभालती रहीं कि तभी उन का ध्यान गुमसुम कामना की ओर गया, ‘‘क्या है, कामना? स्वप्न देख रही हो क्या? सामने रखी चाय भी ठंडी हो गई.’’

‘‘स्वप्न नहीं, यथार्थ देख रही हूं, मां. वह कड़वा यथार्थ जो न चाहने पर भी बारबार मेरे सम्मुख आ खड़ा होता है,’’ कामना दार्शनिक अंदाज में बोली.

‘‘पहेलियां तो बुझाओ मत. क्या बात है, यह बताओ. बैंक में किसी से झगड़ा कर के आई हो क्या?’’

‘‘लो और सुनो. मैं और झगड़ा? घर में अपने विरुद्ध हो रहे अत्याचार सहन करते हुए भी जब मेरे मुंह से आवाज नहीं निकलती तो भला मैं घर से बाहर झगड़ा करूंगी? कैसी हास्यास्पद बात है यह,’’ कामना का चेहरा तमतमा गया.

‘‘क्या कह रही हो? कौन अत्याचार करता है तुम पर? तुम स्वयं कमाने वाली, तुम ही खर्च करने वाली,’’ सुमन भी क्रोधित हो उठीं.

‘‘क्या कह रही हो मां. मैं तो पूरा वेतन ला कर तुम्हारे हाथ पर रख देती हूं. इस पर भी इतना बड़ा आरोप.’’

‘‘तो कौन सा एहसान करती हो, पालपोस कर बड़ा नहीं किया क्या? हम नहीं पढ़ातेलिखाते तो कहीं 100 रुपए की नौकरी नहीं मिलती. इसे तुम अत्याचार कह रही हो? यही तो अंतर होता है बेटे और बेटी में. बेटा परिवार की सहायता करता है तो अपना कर्तव्य समझ कर, भार समझ कर नहीं.’’

‘‘आप बेकार में बिगड़ रही हैं…मैं तो उस तमाशे की बात कर रही थी जिस की व्यवस्था हर तीसरे दिन आप कर लेती हैं,’’ कामना ने मां की ओर देखा.

‘‘कौन सा तमाशा?’’

‘‘यही तथाकथित वर पक्ष को बुला कर मेरी प्रदर्शनी लगाने का.’’

‘‘प्रदर्शनी लगाने का? शर्म नहीं आती…हम तो इतना प्रयत्न कर रहे हैं कि तुम्हारे हाथ पीले हो जाएं और तुम्हारे दूसरे भाईबहनों की बारी आए,’’ सुमन गुस्से से बोलीं.

‘‘मां, रहने दो…दिखावा करने की आवश्यकता नहीं है. मैं क्या नहीं जानती कि मेरे बिना मेरे छोटे भाईबहनों की देखभाल कौन करेगा?’’

‘‘हाय, हम पर इतना बड़ा आरोप? जब हमारी बेटी ही ऐसा कह रही है तो मित्र व संबंधी क्यों चुप रहेंगे,’’ सुमन रोंआसी हो उठीं.

‘‘मित्रों और संबंधियों के डर से इतना तामझाम? यह जीवन हमारा है या उन का…हम इसे अपनी सुविधानुसार जिएंगे. वे कौन होते हैं बीच में बोलने वाले? मैं तुम्हारा कष्ट समझती हूं, मां. जब तुम वर पक्ष के समक्ष ऐसी असंभव शर्तें रख देती हो, जिन्हें हमारा पुरुष समाज शायद ही कभी स्वीकार कर पाए तो क्या तुम्हारे चेहरे पर आई पीड़ा की रेखाएं मैं नहीं देख पाती,’’ मां के रिसते घावों पर अपने शब्दों का मरहम लगाती कामना ने पास आ कर उन के कंधे पर हाथ रख दिया.

‘‘तेरे पिताजी बीमार न होते तो ये दिन क्यों देखने पड़ते कामना. पर मेरा विश्वास कर बेटी, अपने स्वार्थ के लिए मैं तेरा भविष्य दांव पर नहीं लगने दूंगी.’’

‘‘नहीं मां. तुम सब को इस हाल में छोड़ कर मैं विवाह कर के क्या स्वयं को कभी माफ कर पाऊंगी? फिर पिताजी की बीमारी का दुख अकेले आप का नहीं, हम सब का है. इस संकट का सामना भी हम मिलजुल कर ही करेंगे.’’

‘‘सुनो कामना, कल जो लोग तुम्हें देखने आ रहे हैं, तुम्हारी रोमा बूआ के संबंधी हैं. हम ने मना किया तो नाराज हो जाएंगे. साथ ही तुम्हारी बूआ भी आ रही हैं, वे भी नाराज हो जाएंगी.’’

‘‘किंतु मना तो करना ही होगा, मां. रोमा बूआ नाराज हों या कोई और. मैं इस समय विवाह की बात सोच भी नहीं सकती,’’ कामना ने अपना निर्णय सुना दिया.

‘‘मैं अभी जीवित हूं. माना कि बिस्तर से लगा हूं, पर इस का तात्पर्य यह तो नहीं कि सब अपनी मनमानी करने लगें.’’

कामना के पिता बिस्तर पर ही चीखने लगे तो पूरा परिवार उन के पास एकत्र हो गया.

‘‘रोमा ने बहुत नाराजगी के साथ पत्र लिखा है कि सभी संबंधी यही ताने दे रहे हैं कि कामना की कमाई के लालच में हम इस का विवाह नहीं कर रहे और मैं सोचता हूं कि अपनी संतान के भविष्य के संबंध में निर्णय लेने का हक मुझे भी है,’’ कामना के पिता ने अपना पक्ष स्पष्ट किया.

‘‘मैं केवल एक स्पष्टीकरण चाहती हूं, पिताजी. मेरे विवाह के बाद घर कैसे चलेगा? क्या आप की चिकित्सा बंद हो जाएगी? संदीप, प्रदीप, मोना, रचना क्या पढ़ाई छोड़ कर घर बैठ जाएंगे?’’ कामना ने तीखे स्वर में प्रश्न किया.

‘‘मेरे स्वस्थ होने की आशा नहीं के बराबर है, अत: मेरी चिकित्सा के भारी खर्चे को बंद करना ही पड़ेगा. सच पूछो तो हमारी दुर्दशा बीमारी पर अनापशनाप खर्च करने से ही हुई है. संदीप 1 वर्ष में स्नातक हो जाएगा. फिर उसे कहीं न कहीं नौकरी मिल ही जाएगी. प्रदीप की पढ़ाई भी किसी प्रकार चलती रहेगी. मोना, रचना का देखा जाएगा,’’ कामना के पिता ने भविष्य का पूरा खाका खींच दिया.

‘‘यह संभव नहीं है, पिताजी. आप ने मुझे पढ़ायालिखाया, कदमकदम पर सहारा दिया, क्या इसीलिए कि आवश्यकता पड़ने पर मैं आप सब को बेसहारा छोड़ दूं?’’ कामना ने पुन: प्रश्न किया.

‘‘तुम बहुत बोलने लगी हो, कामना. तुम ही तो अब इस परिवार की कमाऊ सदस्य हो. मैं भला कौन होता हूं तुम्हें आज्ञा देने वाला.’’

कामना, पिता का दयनीय स्वर सुन कर स्तब्ध रह गई.

सुमन भी फूटफूट कर रोने लगी थीं.

‘‘बंद करो यह रोनाधोना और मुझे अकेला छोड़ दो,’’ कामना के पिता अपना संयम खो बैठे.

सभी उन्हें अकेला छोड़ कर चले गए पर कामना वहीं खड़ी रही.

‘‘अब क्या चाहती हो तुम?’’ पिता ने प्रश्न किया.

‘‘पिताजी, आप को क्या होता जा रहा है? किस ने कह दिया कि आप ठीक नहीं हो सकते. ऐसी बात कर के तो आप पूरे परिवार का मनोबल तोड़ देते हैं. डाक्टर कह रहे थे कि आप को ठीक होने के लिए दवा से अधिक आत्मबल की आवश्यकता है.’’

‘‘तुम्हारा तात्पर्य है कि मैं ठीक होना ही नहीं चाहता.’’

‘‘नहीं. पर आप के मन में दृढ़- विश्वास होना चाहिए कि आप एक दिन पूरी तरह स्वस्थ हो जाएंगे,’’ कामना बोली.

‘‘अभी हमारे सामने मुख्य समस्या कल आने वाले अतिथियों की है. मैं नहीं चाहता कि तुम उन के सामने कोई तमाशा करो,’’ पिता बोले.

‘‘इस के बारे में कल सोचेंगे. अभी आप आराम कीजिए,’’ कामना बात को वहीं समाप्त कर बाहर निकल गई.

दूसरे दिन सुबह ही रोमा बूआ आते ही सुमन से बोलीं, ‘‘क्या कह रही हो भाभी, कितना अच्छा घरवर है, फिर 3-3 बेटियां हैं तुम्हारी और भैया बीमार हैं… कब तक इन्हें घर बिठाए रखोगी,’’ वे तो सुमन से यह सुनते ही भड़क गईं कि कामना विवाह के लिए तैयार नहीं है.

‘‘बूआ, आप परिस्थिति की गंभीरता को समझने का यत्न क्यों नहीं करतीं. मैं विवाह कर के घर बसा लूं और यहां सब को भूल जाऊं, यह संभव नहीं है,’’ उत्तर सुमन ने नहीं, कामना ने दिया.

‘‘तुम लोग तो मुझे नीचा दिखाने में ही लगे हो…मैं तो अपना समझ कर सहायता करना चाहती थी. पर तुम लोग मुझे ही भलाबुरा कहने लगे.’’

‘‘नाराज मत हो दीदी, कामना को दुनियादारी की समझ कहां है. अब तो सब कुछ आप के ही हाथ में है,’’ सुमन बोलीं.

कुछ देर चुप्पी छाई रही.

‘‘एक बात कहूं, भाभी,’’ रोमा बोलीं.

‘‘क्या?’’

‘‘क्यों न कामना के स्थान पर रचना का विवाह कर दिया जाए. उन लोगों को तो रचना ही अधिक पसंद है. लड़के ने किसी विवाह में उसे देखा था.’’

‘‘क्या कह रही हो दीदी, छोटी का विवाह हो गया तो कामना तो जीवन भर अविवाहित रह जाएगी.’’

सुमन की बात पूरी भी नहीं हो पाई थी कि रचना बीच में बोल उठी, ‘‘मुझे क्या आप लोगों ने गुडि़या समझ लिया है कि जब चाहें जिस के साथ विवाह कर दें? दीदी 5 वर्ष से नौकरी कर रही हैं…मुझ से बड़ी हैं. उन्हें छोड़ कर मेरा विवाह करने की बात आप के मन में आई कैसे…’’

‘‘अधिक बढ़चढ़ कर बात करने की आवश्यकता नहीं है,’’ रोमा ने झिड़का, ‘‘बोलती तो ऐसे हो मानो लड़के वाले तैयार हैं और केवल तुम्हारी स्वीकृति की आवश्यकता है. इतना अच्छा घरवर है… बड़ी मुश्किल से तो उन्हें कामना को देखने के लिए मनाया था. मैं ने सोचा था कि कामना की अच्छी नौकरी देख कर शायद तैयार हो जाएं पर यहां तो दूसरा ही तमाशा हो रहा है. लेनदेन की बात तो छोड़ो, स्तर का विवाह करने में कुछ न कुछ खर्च तो होगा ही,’’ रोमा बूआ क्रोधित स्वर में बोलीं.

‘‘आप लोग क्यों इतने चिंतित हैं? माना कि पिताजी अस्वस्थ हैं पर अब हम लोग कोई छोटे बच्चे तो रहे नहीं. मेरा एम.ए. का अंतिम वर्ष है. मैं ने तो एक स्थान पर नौकरी की बात भी कर ली है. बैंक की परीक्षा का परिणाम भी आना है. शायद उस में सफलता मिल जाए,’’ रचना बोली.

‘‘मैं रचना से पूरी तरह सहमत हूं. इतने वर्षों से दीदी हमें सहारा दे रही हैं. मैं भी कहीं काम कर सकता हूं. पढ़ाई करते हुए भी घर के खर्च में कुछ योगदान दे सकता हूं,’’ संदीप बोला.

‘‘कहनेसुनने में ये आदर्शवादी बातें बहुत अच्छी लगती हैं पर वास्तविकता का सामना होने पर सारा उत्साह कपूर की तरह उड़ जाएगा,’’ सुमन बोलीं.

‘‘वह सब तो ठीक है भाभी पर कब तक कामना को घर बिठाए रखोगी? 2 वर्ष बाद पूरे 30 की हो जाएगी. फिर कहां ढूंढ़ोगी उस के लिए वर,’’ रोमा बोलीं.

‘‘यदि वर पक्ष वाले तैयार हों तो चाहे हमें कितनी भी परेशानियों का सामना क्यों न करना पड़े, कामना का विवाह कर देंगे,’’ कामना के पिता बोले.

किंतु पिता और रोमा के समस्त प्रयासों के बावजूद वर पक्ष वाले नहीं माने. पता नहीं कामना के पिता की बीमारी ने उन्हें हतोत्साहित किया या परिवार की जर्जर आर्थिक स्थिति और कामना की बढ़ती आयु ने, पर उन के जाने के बाद पूरा परिवार दुख के सागर में डूब गया.

‘‘इस में भला इतना परेशान होने की क्या बात है? अपनी कामना के लिए क्या लड़कों की कमी है? मैं जल्दी ही आप को सूचित करूंगी,’’ जातेजाते रोमा ने वातावरण को हलका बनाने का प्रयत्न किया था. किंतु उदासी की चादर का साया वह परिवार के ऊपर से हटाने में सफल न हो सकीं.

एक दिन कामना बस की प्रतीक्षा कर रही थी कि अरुण ने उसे चौंका दिया, ‘‘कहिए कामनाजी, क्या हालचाल हैं? बड़ी थकीथकी लग रही हैं. मुझे आप से बड़ी सहानुभूति है. छोटी सी आयु में परिवार का सारा बोझ किस साहस से आप अपने कंधों पर उठा रही हैं.’’

‘‘मैं पूरी तरह से संतुष्ट हूं, अपने जीवन से और मुझे आप की सहानुभूति या सहायता की आवश्यकता नहीं है. आशा है, आप ‘बेचारी’ कहने का लोभ संवरण कर पाएंगे,’’ कामना का इतने दिनों से दबा क्रोध एकाएक फूट पड़ा.

‘‘आप गलत समझीं कामनाजी, मैं तो आप का सब से बड़ा प्रशंसक हूं. कितने लोग हैं जो परिवार के हित को अपने हित से बड़ा समझते हैं. चलिए, एकएक शीतल पेय हो जाए,’’ अरुण ने मुसकराते हुए सामने के रेस्तरां की ओर इशारा किया.

‘‘आज नहीं, फिर कभी,’’ कामना ने टालने के लिए कहा और सामने से आती बस में चढ़ गई.

तीसरे ही दिन फिर अरुण बस स्टाप पर कामना के पास खड़ा था, ‘‘आशा है, आज तो मेरा निमंत्रण अवश्य स्वीकार करेंगी.’’

‘‘आप तो मोटरसाइकिल पर बैंक आते हैं, फिर यहां क्या कर रहे हैं?’’ कामना के अप्रत्याशित प्रश्न पर वह चौंक गया.

‘‘चलिए, आप को भी मोटर- साइकिल पर ले चलता हूं. खूब घूमेंगे- फिरेंगे,’’ अरुण ने तुरंत ही स्वयं को संभाल लिया.

‘‘देखिए, मैं ऐसीवैसी लड़की नहीं हूं. शायद आप को गलतफहमी हुई है. आप मेरा पीछा क्यों नहीं छोड़ देते,’’ कामना दयनीय स्वर में बोली.

‘‘मैं क्या आप को ऐसावैसा लगता हूं? जिन परिस्थितियों से आप गुजर रही हैं उन्हीं से कभी हमारा परिवार भी गुजरा था. आप की आंखों की बेबसी कभी मैं ने अपनी बड़ी बहन की आंखों में देखी थी.’’

‘‘मैं किसी बेबसी का शिकार नहीं हूं. मैं अपने जीवन से पूरी तरह संतुष्ट हूं. मेरी दशा पर तरस खाने की आप को कोई आवश्यकता नहीं है,’’ कामना तीखे स्वर में बोली.

‘‘ठीक है, पर इस में इतना क्रोधित होने की क्या बात है? चलो, शीतल पेय पीते हैं. तेज गरमी में दिमाग को कुछ तो ठंडक मिलेगी,’’ अरुण शांत स्वर में बोला तो अपने उग्र स्वभाव पर मन ही मन लज्जित होती कामना उस के साथ चल पड़ी.

इस घटना को एक सप्ताह भी नहीं बीता था कि एक शाम कामना के घर के द्वार की घंटी बजी.

‘‘कहिए?’’ कामना के छोटे भाई ने द्वार खोलते ही प्रश्न किया.

‘‘मैं अरुण हूं. कामनाजी का सहयोगी और यह मेरी बड़ी बहन, स्थानीय कालेज में व्याख्याता हैं,’’ आगंतुकों में से एक ने अपना परिचय दिया.

संदीप उन्हें अंदर ले आया. फिर कामना के पास जा कर बोला, ‘‘दीदी, आप के किसी सहयोगी का नाम अरुण है क्या?’’

‘‘क्यों, क्या बात है?’’ अरुण का नाम सुनते ही कामना घबरा गई.

‘‘पता नहीं, वे अपनी बहन के साथ आए हैं. पर आप इस तरह घबरा क्यों गईं.’’

‘‘घबराई नहीं. मैं डर गई थी. मां को इस तरह किसी का आनाजाना पसंद नहीं है न, इसीलिए. तुम चलो, मैं आती हूं.’’

‘‘मैं किन शब्दों में आप को धन्यवाद दूं, आप ने मुझे कितनी बड़ी चिंता से मुक्ति दिलवा दी है,’’ कामना बैठक में पहुंची तो उस के पिता अरुण व उस की बहन से कह रहे थे.

‘‘विवाह के बाद भी कामना अपने परिवार की सहायता कर सकती है. हमें इस में कोई आपत्ति नहीं होगी,’’ अरुण की बहन बोलीं.

‘‘क्यों शर्मिंदा करती हैं आप. अब कामना के छोटे भाईबहनों की पढ़ाई भी समाप्त होने वाली है, सब ठीक हो जाएगा,’’ सुमन बोलीं.

‘‘अरे, कामना, आओ बेटी…देखो, अरुण और उन की बहन तुम्हारा हाथ मांगने आए हैं. मैं ने तो स्वीकृति भी दे दी है,’’ कामना को देखते ही उस के पिता मुसकराते हुए बोले.

कामना की निगाहें क्षणांश के लिए अरुण से मिलीं तो पहली बार उसे लगा कि नयनों की भी अपनी कोई भाषा होती है, उस ने निगाहें झुका लीं. विवाह की तिथि पक्की करने के लिए फिर मिलने का आश्वासन दे कर अरुण और उस की बहन ने विदा ली.

उन के जाते ही कामना पिता से बोली, ‘‘यह आप ने क्या किया? विवाह के पहले तो सभी मीठी बातें करते हैं किंतु विवाह के बाद उन्होंने मेरे वेतन को ले कर आपत्ति की तो मैं बड़ी कठिनाई में फंस जाऊंगी.’’

‘‘तुम भी निरी मूर्ख हो. इतना अच्छा वर, वह भी बिना दहेज के हमें कहां मिलेगा? फिर क्या तुम नहीं चाहतीं कि मैं ठीक हो जाऊं? तुम्हारे विवाह की बात सुनते ही मेरी आधी बीमारी जाती रही. देखो, कितनी देर से कुरसी पर बैठा हूं, फिर भी कमजोरी नहीं लग रही,’’ पिता ने समझाया.

‘‘तुम चिंता मत करो कामना. घर के पिछले 2 कमरे किराए पर उठा देंगे. फिर रचना भी तो नौकरी करने लगेगी. बस, तुम सदा सुखी रहो, यही हम सब चाहते हैं,’’ सुमन बोलीं. उन की आंखों में प्रसन्नता के आंसू झिलमिला रहे थे.

एक दिन का सुलतान : पुरस्कार पाकर शिक्षक क्यों परेशान हो गए थे ?

मुझे उन्होंने राष्ट्रपति पुरस्कार दे दिया. उन की मरजी, वे जानें कि क्यों दिया? कैसे दिया? मैं तो नहीं कहता कि मैं कोई बहुत बढि़या अध्यापक हूं. हां, यह तो कह सकता हूं कि मुझे पढ़ने और पढ़ाने का शौक है और बच्चे मुझे अच्छे लगते हैं. यदि पुरस्कार देने का यही आधार है, तो कुछ अनुचित नहीं किया उन्होंने, यह भी कह सकता हूं.

जिस दिन मुझे पुरस्कार के बाबत सूचना मिली तरहतरह के मुखौटे सामने आए. कुछ को असली खुशी हुई, कुछ को हुई ही नहीं और कुछ को जलन भी हुई. अब यह तो दुनिया है. सब रंग हैं यहां, हम किसे दोष दें? क्या हक है हम को किसी को दोष देने का? मनुष्य अपना दृष्टिकोण बनाने को स्वतंत्र है. जरमन दार्शनिक शापनहोवर ने भी तो यही कहा था, ‘‘गौड भाग्य विधाता नहीं है, वह तो मनुष्य को अपनी स्वतंत्र बुद्धि का प्रयोग करने की पूरी छूट देता है. उसे जंचे सेब खाए तो खाए, न खाए तो न खाए. अब बहकावट में आदमी ने यदि सेब खा लिया और मुसीबत सारी मानव जाति के लिए पैदा कर दी तो इस में ऊपर वाले का क्या दोष.’’

हां, तो पुरस्कार के दोचार दिन बाद ही मुझे गौर से देखने के बाद एक सज्जन बोले, ‘‘हम ने तो आप की चालढाल में कोई परिवर्तन ही नहीं पाया. आप के बोलनेचालने से, आप के हावभाव से ऐसा लगता ही नहीं कि आप को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है.’’

मैं सुन कर चुप रह गया. क्या कहता? खुशी तो मुझे हुई थी लेकिन मेरी चालढाल में परिवर्तन नहीं आया तो इस का मैं क्या करूं? जबरदस्ती नाटक करना मुझे आता नहीं. मेरी पत्नी को तो यही शिकायत रहती है कि यदि आप पहले जैसा प्यार नहीं कर सकते तो प्यार का नाटक ही कर दिया करो, हमारा गुजारा तो उस से ही हो जाएगा. हम हंस कर कह दिया करते हैं कि पुणे के फिल्म इंस्टिट्यूट जाएंगे ट्रेनिंग लेने और वह खीझ कर रह जाती है.

पुरस्कार मिलने के बारे में कई शंकाएंआशंकाएं व प्रतिक्रियाएं सामने आईं. उन्हीं दिनों मैं स्टेशन पर टिकट लेने लंबी लाइन में खड़ा था. मेरा एक छात्र, जो था तो 21वीं सदी का पर श्रद्धा रखता?था महाभारतकाल के शिष्य जैसी, पूछ बैठा :

‘‘सर, आप तो राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त शिक्षक हैं. क्या आप को भी इस प्रकार लाइन में खड़ा होना पड़ता है? आप को तो फ्री पास मिलना चाहिए था, संसद के सदस्यों की तरह.’’

उसे क्या पता, कहां हम और कहां संसद सदस्य. वे हम को तो खुश करने की खातिर राष्ट्रनिर्माता कहते?हैं पर वे तो भाग्यविधाता हैं. उन का हमारा क्या मुकाबला. छात्र गहरी श्रद्धा रखता?था सो उसे यह बात समझ में नहीं आई. उस ने तुरंत ही दूसरा सवाल कर डाला.

‘‘सर, आप को पुरस्कार में कितने हजार रुपए मिले? नौकरी में क्या तरक्की मिली? कितने स्कूटर, कितनी बीघा जमीन वगैरह?’’

यह सब सुन कर मैं चौंक गया और पूछा, ‘‘बेटे, यह तुम ने कैसे सोच लिया कि मास्टरजी को यह सब मिलना चाहिए?’’

उस ने कहा, ‘‘सर, क्रिकेट खिलाडि़यों को तो कितना पैसा, कितनी कारें, मानसम्मान, सबकुछ मिलता है, आप को क्यों नहीं? आप तो राष्ट्रनिर्माता हैं.’’

मुझे उस के इस प्रश्न का जवाब समझ में नहीं आया तो प्लेटफार्म पर आ रही गाड़ी की तरफ मैं लपका.

उन्हीं दिनों एक शादी में मेरा जाना हुआ. वहां मेरे एक कद्रदान रिश्तेदार ने समीप बैठे कुछ लोगों से कहा, ‘‘इन्हें राष्ट्रपति पुरस्कार मिला है. तपाक से एक सज्जन बोले, ‘‘मान गए उस्ताद आप को, बड़ी पहुंच है आप की, खूब तिकड़म लगाई. कुछ खर्चावर्चा भी हुआ?’’

मैं उन की बातें सुन कर सकते में आ गया. उन्होंने मेरी उपलब्धि अथवा अन्य कार्यों के संबंध में न पूछ कर सीधे ही टिप्पणी दे डाली. पुरस्कार के पीछे उन की इस अवधारणा ने मुझे झकझोर दिया. और पुरस्कार के प्रति एक वितृष्णा सी हो उठी. क्यों लोगों में इस के प्रति आस्था नहीं है? कई प्रश्न मेरे सामने एकएक कर आते गए जिन का उत्तर मैं खोजता आ रहा हूं.

एक दिन अचानक एक अध्यापक बंधु मिले. उन की ग्रेडफिक्सेशन आदि की कुछ समस्या थी. वे मुझ से बोले, ‘‘भाई साहब, आप तो राष्ट्रीय पुरस्कारप्राप्त शिक्षक हैं. आप की बात का तो वजन विभाग में होगा ही, कुछ मेरी भी सहायता कीजिए.’’

मैं ने उन को बताया कि मेरे खुद के मामले ही अनिर्णीत पड़े हैं, कौन जानता है मुझे विभाग में. कौन सुनता है मेरी. मैं ने उन्हें यह भी बताया कि एक बार जिला शिक्षा अधिकारी से मिलने गया था. मैं ने अपनी परची में अपने नाम के आगे ‘राष्ट्रीय पुरस्कारप्राप्त’ भी लिख दिया था. मुझे पदवी लिखने का शौक नहीं है पर किसी ने सुझा दिया था. मैं ने भी सोचा कि देखें कितना प्रभाव है इस लेबल का. सो, आधा घंटे तक तो बुलाया ही नहीं. बाद में डेढ़ बजे बाहर निकलते हुए मेरे पूछने पर कहा, ‘‘आप साढ़े 3 बजे मिलिएगा.’’ और फिर उस दिन वे लंच के बाद आए ही नहीं और हम अपने पुरस्कार को याद करते हुए लौट आए.

मुझे अफसोस है कि मुझे पुरस्कार तो दिया गया पर पूछा क्यों नहीं जाता है, पहचाना क्यों नहीं जाता है, सुना क्यों नहीं जाता है? क्यों यह मात्र एक औपचारिकता ही है कि 5 सितंबर को एक जलसे में कुछ कर दिया जाता है और बस कहानी खत्म.

एक बार मैं ऐसे ही पुरस्कार समारोह के अवसर पर बैठा था. मेरी बगल में बैठे शिक्षक मित्र ने पूछा, ‘‘आप तो पुरस्कृत शिक्षक हैं, आप को तो आगे बैठना चाहिए. आप का तो विशेष स्थान सुरक्षित होगा?  आप को तो हर वर्ष बुलाते होंगे?’’

मैं ने कहा, ‘‘भाई मेरे, मुझे ही शौक है लोगों से मिलने का सो चला आता हूं. निमंत्रण तो इन 10 वर्षों में केवल 2 बार ही पहुंच पाया है और वह भी इसलिए कि निमंत्रणपत्र भेजने वाले मेरे परिचित एवं मित्र थे.

समारोह में कुछ व्यवस्थापक सदस्य आए और कुछ लोगों को परचियां दे गए, और कहा, ‘‘आप लोग समारोह के बाद पुरस्कृत शिक्षकों के साथ अल्पाहार लेंगे.’’ मेरे पड़ोसी ने फिर पूछा, ‘‘आप तो पुरस्कृत शिक्षक?हैं, आप को क्यों नहीं दे रहे हैं यह परची?’’ मैं ने एक लंबी सांस ली और कहा, ‘‘अरे, भाई साहब, यह पुरस्कार तो एक औपचारिकता है, पहचान थोड़े ही है. एक महान पुरुष ने चालू कर दिया सो चालू हो गया. अब चलता रहेगा जब तक कोई दूसरा महापुरुष बंद नहीं कर देगा.’’

बगल वाले सज्जन ने पूछा, ‘‘तो क्या ऐसे महापुरुष भी हैं जो बंद कर देंगे.’’

‘‘अरे, साहब, क्या कमी है इस वीरभूमि में ऐसे बहादुरों की. देखिए न, पुरस्कार प्राप्त शिक्षकों को 3 वर्षों की सेवावृद्धि स्वीकृत थी पर बंद कर दी न किसी महापुरुष ने.’’

‘‘अच्छा, यह तो बताइए कि लोग क्या देते हैं आप को? क्या केवल 1 से 5 हजार रुपए ही?’’

‘‘जी हां, यह क्या कम है? सच पूछो तो वे क्या देते हैं हम को, देते तो हम हैं उन्हें.’’

‘‘ वह क्या?’’

‘‘अजी, हम धन्यवाद देते हैं कि वे भले ही एक दिन ही सही, हमारा अभिनंदन तो करते हैं और हम भिश्ती को एक दिन का सुलतान बनाए जाने की बात याद कर लेते हैं.’’

‘‘लेकिन उस को तो फुल पावर मिली थी और उस ने चला दिया था चमड़े का सिक्का.’’

‘‘इतनी पावर तो हमें मिलने का प्रश्न ही नहीं. पर हां, उस दिन तो डायरेक्टर, कमिश्नर, मिनिस्टर सभी हाथ मिलाते हैं हम से, हमारे साथ चाय पी लेते हैं, हम से बात कर लेते हैं, यह क्या कम है?’’ इसी बीच राज्यपाल महोदय आ गए और सब खड़े हो गए. बाद में सब बैठे भी, लेकिन कम्बख्त सवाल हैं कि तब से खड़े ही हैं.

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