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अपनी खुशी के लिए : भाग 1

‘‘नंदिनी अच्छा हुआ कि तुम आ गईं. तुम बिलकुल सही समय पर आई हो,’’ नंदिनी को देखते ही तरंग की बांछें खिल गईं.

‘‘हम तो हमेशा सही समय पर ही आते हैं जीजाजी. पर यह तो बताइए कि अचानक ऐसा क्या काम आन पड़ा?’’

‘‘कल खुशी के स्कूल में बच्चों के मातापिता को आमंत्रित किया गया है. मैं तो जा नहीं सकता. कल मुख्यालय से पूरी टीम आ रही है निरीक्षण करने. अपनी दीदी नम्रता को तो तुम जानती ही हो. 2-4 लोगों को देखते ही घिग्घी बंध जाती है. यदि कल तुम खुशी के स्कूल चली जाओ तो बड़ी कृपा होगी,’’ तरंग ने बड़े ही नाटकीय स्वर में कहा.

‘‘आप की इच्छा हमारे लिए आदेश है. पर बदले में आप को भी मेरी एक बात माननी पड़ेगी.’’

‘‘कहो न, ऐसी क्या बात है?’’

‘‘कल टिवोली में नई फिल्म लगी है. आप को मेरा साथ देना ही पड़ेगा,’’ नंदिनी ने तुरंत ही हिसाबकिताब बराबर करने का प्रयत्न किया.

‘‘यह कौन सी बड़ी बात है. मैं तो स्वयं यह फिल्म देखना चाह रहा था और इतना मनमोहक साथ मिल जाए तो कहना ही क्या,’’ तरंग बड़ी अदा से मुसकराया.

‘‘चलो, खुशी की समस्या तो सुलझ गई. क्यों खुशी, अब तो खुश हो?’’ तरंग ने अपनी बेटी की सहमति चाही.

‘‘नहीं, मैं खुश नहीं हूं, मैं तो बहुत दुखी हूं. मेरे स्कूल में जब मेरे सभी साथियों के साथ उन के मम्मीपापा आएंगे तब मैं अपनी नंदिनी मौसी के साथ पहुंचूंगी,’’ खुशी रोंआसी हो उठी.

‘‘चिंता मत करो खुशी बेटी. मैं तुम्हारे स्कूल में ऐसा समां बाधूंगी कि तुम्हारे सब गिलेशिकवे दूर हो जाएंगे,’’ नंदिनी ने खुशी को गोद में लेने का यत्न करते हुए कहा.

‘‘मुझे नहीं चाहिए आप का समांवमां. अगर मेरे मम्मीपापा मेरे साथ नहीं जा सकते तो मैं कल स्कूल ही नहीं जाऊंगी,’’ खुशी पैर पटकती हुई अपने कमरे में चली गई.

‘‘तुम ने बहुत सिर चढ़ा लिया है अपनी लाडली को. घर आए मेहमान से कैसे व्यवहार करना चाहिए, यह तक नहीं सिखाया उसे,’’ तरंग नम्रता पर बरस पड़ा.

‘‘उस पर क्यों बरसते हो. तुम भी तो पापा हो खुशी के. तुम ने कुछ क्यों नहीं सिखायापढ़ाया?’’ तरंग की मां पूर्णा देवी जो अब तक तटस्थ भाव से सारा प्रकरण देख रही थीं अब स्वयं को रोक न सकीं.

‘‘मैं उसे ऐसा सबक सिखाऊंगा कि वह जीवन भर याद रखेगी,’’ तरंग तेजी से अंदर की ओर लपका तो नम्रता को जैसे होश आया. उस ने दौड़ कर खुशी को गोद में छिपा लिया.

‘‘आज से इस का खानापीना बंद. 2 दिन भूखी रहेगी तो अक्ल ठिकाने आ जाएगी,’’ तरंग लौट कर सोफे पर पसरते हुए बोला.

‘‘क्यों इतना क्रोध करते हो जीजाजी? खुशी तो 5 वर्ष की नन्ही सी बच्ची है. वह क्या समझे तुम्हारी दुनियादारी. जो मन में आया बोल दिया. चलो अब मुसकरा भी दो जीजाजी. क्रोध में तुम जरा भी अच्छे नहीं लगते,’’ नंदिनी बड़े लाड़ से बोली तो नम्रता भड़क उठी.

‘‘नंदिनी, मैं तुम्हारे हाथ जोड़ती हूं. इस समय तुम जाओ. हमें अपनी व्यक्तिगत समस्याओं को स्वयं सुलझाने दो,’’ वह बोली.

‘‘दीदी तुम भी… मैं तो तुम्हारे लिए ही चली आती हूं. आज भी औफिस से सीधी यहां चली आई. तुम तो जब भी मिलती हो यही रोना रोती हो कि तरंग तुम से दुर्व्यवहार करते हैं. तुम्हारा खयाल नहीं रखते. मुझे लगा मेरे आने से तुम्हें राहत मिलेगी. नहीं तो मुझे क्या पड़ी है यहां आ कर अपना अपमान करवाने की?’’ नंदिनी ने पलटवार किया.

‘‘नम्रता, नंदिनी से क्षमा मांगो. घर आए मेहमान से क्या इसी तरह व्यवहार किया जाता है?’’ नम्रता कुछ बोल पाती उस से पहले ही तरंग ने फरमान सुना दिया.

नम्रता तरंग की बात सुन कर प्रस्तर मूर्ति की भांति खड़ी रही. न उस ने तरंग की बात का उत्तर दिया न ही माफी मांगी.

‘‘तुम ने सुना नहीं? नंदिनी से क्षमा मांगने को कहा था मैं ने,’’ तरंग चीखा.

‘‘मेरे लिए यह संभव नहीं है तरंग,’’ नम्रता ने उत्तर दिया और खुशी को गोद में उठा कर अंदर चली गई.

‘‘छोड़ो भी जीजाजी, क्यों बात का बतंगड़ बनाते हो. मैं अब चलूंगी,’’ नंदिनी उठ खड़ी हुई.

‘‘इस तरह बिना खाएपिए? रुको मैं कोई ठंडा पेय ले कर आता हूं.’’

‘‘नहीं, मुझे कुछ नहीं चाहिए,’’ नंदिनी ने अपना बैग उठा लिया.

‘‘ठीक है, चलो मैं तुम्हें घर तक छोड़ कर आता हूं.’’

‘‘मैं अपनी कार से आई हूं.’’

‘‘अपनी कार में जाना भी अकेली युवती के लिए सुरक्षित नहीं है,’’ तरंग तुरंत साथ चलने के लिए तैयार हो गया और क्षणभर में ही दोनों एकदूसरे के हाथ में हाथ डाले मुख्य द्वार से बाहर हो गए.

द्वार बंद कर जब नम्रता पलटी तो खुशी और पूर्णा देवी दोनों उसे आग्नेय दृष्टि से घूर रही थीं जैसे उस ने कोई अक्षम्य अपराध कर डाला हो.

बौलीवुड स्टारपुत्र : काम न आया पिता का नाम

चर्चा फिल्म ‘एनिमल’ के बराबर ही रणबीर कपूर की ऐक्टिंग की भी हो रही है. यह कोई पहला मौका नहीं है जब रणबीर कपूर तारीफ हासिल कर रहे हों बल्कि इस से पहले भी उन की ऐक्टिंग ‘ये जवानी है दीवानी,’ ‘संजू,’ ‘बर्फी’ और ‘राजनीति’ जैसी फिल्मों के चलते चर्चाओं में रही है.

निश्चित रूप से भारत से लगभग 2000 किलोमीटर दूर मालदीव में बैठे कुमार गौरव तक भी फिल्म ‘एनिमल’ और रणबीर कपूर की धमक पहुंची होगी और निश्चित रूप से उन्हें साल 1982 में प्रदर्शित अपनी पहली फिल्म ‘लव स्टोरी’ की याद आई होगी जिस के सामने फिल्म ‘एनिमल’ की सफलता कुछ भी नहीं.

पहले हिट बाद में फ्लौप

इस रोमांटिक फिल्म ने बौक्स औफिस पर हाहाकार मचा दिया था. फिल्म ‘लव स्टोरी’ में नया कुछ नहीं था. यह उस दौर के प्रेमियों की दुश्वारियां बयां करती फिल्म थी जिस के तहत प्यार करने वालों के पहले दुश्मन उन के अपने पेरैंट्स ही होते हैं. प्रेमी जुदाई बरदाश्त नहीं कर पाते थे तो घर से भाग जाते थे. इस के बाद शुरू होता था परेशानियों का सिलसिला जो फिल्म के अंत में मांबाप की सहमती पर जा कर खत्म होती थी.

फिल्म ‘लव स्टोरी’ में कुमार गौरव के अपोजिट विजेयता पंडित थीं, जो उन्हीं की तरह बेहद ताजे चेहरे वाली मासूम और नाजुक करैक्टर की मांग के लिहाज से थीं. कुमार गौरव और वे रातोरात युवाओं के दिलोदिमाग पर कुछ इस तरह छा गए थे कि लगता था अब इन के सिवाय फिल्म इंडस्ट्री में कोई और चलेगा ही नहीं. कोई 150 सप्ताह यह फिल्म थिएटरों में चली थी और कुमार गौरव असीमित संभावनाओं वाले हीरो फिल्मी पंडितों को लगने लगे थे क्योंकि वे राजेंद्र कुमार के बेटे थे.

पहली ही फिल्म से सुपर स्टार करार दे दिए गए कुमार गौरव अपने दौर के मशहूर ऐक्टर राजेंद्र कुमार के बेटे थे, जिन्हें जुबली कुमार के खिताब से नवाज दिया गया था.

काम न आया नाम

60 से ले कर 80 के दशक तक राजेंद्र कुमार ने एक के बाद एक हिट फिल्में दी थीं जिन में से अधिकांश सिल्वर जुबली मनाती थी और जो उस वक्त बौक्स औफिस पर बड़े कलैक्शन की गारंटी होती थी.

फिल्म ‘धूल का फूल,’ ‘गूंज उठी शहनाई,’ ‘आस का पंछी,’ ‘ससुराल,’ ‘घराना,’ दिल एक मंदिर’, ‘मेरे महबूब’, ‘आई मिलन की बेला,’ ‘संगम’ और ‘आरजू’ से ले कर ‘सूरज’ तक दर्जनों फिल्मे हैं जिन्हें दर्शकों ने हफ्तों तक सर पर उठाए और बैठाए रखा था.

राजेंद्र कुमार के खाते में ‘मदर इंडिया’ जैसी कालजयी फिल्म होने का श्रेय भी है. इस नाते कुमार गौरव से सभी को उम्मीदें थीं कि वे भी पिता की तरह लंबी और हिट पारी खेलेंगे. लेकिन फिल्म ‘लव स्टोरी’ के बाद जो ऐक्टिंग उन्होंने फिल्म ‘तेरी कसम’ और ‘फूल और कांटे’ जैसी फिल्मो में की उस का जिक्र अब शायद वे भी करना पसंद न करें.

इस तरह कुमार गौरव की दौड़ फिल्म ‘लव स्टोरी’ से शुरू हो कर इसी पर ही खत्म हो जाती है. कमोबेश यही हाल फिल्म ‘लव स्टोरी’ की पिंकी यानी विजयेता पंडित का हुआ जिन का अब कहीं अतापता नहीं और हों भी तो उस के कोई माने नहीं.

फिल्म छोङ बिजनैस

63 के हो चुके कुमार गौरव जरूर मालदीव में अपना ट्रैवल और कंस्ट्रक्शन का कारोबार देखते हैं. जिंदगी में क्या उल्लेखनीय किया इस सवाल के जवाव में वे फिल्म ‘लव स्टोरी’ के बाद नाम फिल्म का नाम जरूर ले सकते हैं जो महेश भट्ट ने एक खास मकसद से संजय दत्त के डूबते कैरियर को बचाने में बनाई थी. नाम चली थी लेकिन इस का क्रैडिट संजय दत्त को गया था.

फिल्म ‘लव स्टोरी’ के निर्माता खुद राजेंद्र कुमार थे जिन्होंने डाइरैक्शन की जिम्मेदारी राहुल रवैल जैसे सधे डायरैक्टर को दी थी. फिल्म में राजेंद्र कुमार के साथ विद्या सिन्हा और डैनी भी थे. फिल्म चली तो आस राजेंद्र कुमार को बंधी थी कि अब बेटा गोल्डन जुबली कुमार कहलाएगा लेकिन अफसोसजनक तरीके से कुमार गौरव ‘फ्लौप कुमार’ साबित हुए लेकिन बुद्धिमानी उन्होंने यह की कि धीरेधीरे फिल्में में काम करना बंद कर दिया और बिजनैस करने लगे.

ऐक्टिंग से कैटरिंग में आए कुणाल

राजेंद्र कुमार के ही दौर के और उन्हीं के जैसे कामयाब एक और हीरो थे मनोज कुमार जो एक कामयाब प्रोड्यूसर भी थे. मनोज कुमार देशभक्ति वाली फिल्में बनाने के लिए ज्यादा जाने जाते थे, इसलिए इंडस्ट्री में उन का नाम भारत कुमार दिया गया था यह और बात यह भी कि देशभक्ति के साथसाथ वे सनातन धर्म का भी प्रचार करते रहते थे. फिल्म ‘उपकार’ और ‘पूरब पश्चिम’ के बाद मनोज कुमार ने चलताऊ और मसाला फिल्मों से ज्यादा नाम और दाम कमाया. फिल्म ‘दस नंबरी,’ ‘सन्यासी,’ ‘अमानत,’ ‘रोटी कपड़ा और मकान,’ ‘शोर,’ बेईमान,’ ‘नीलकमल,’ ‘पत्थर के सनम’ और ‘वो कौन थी’ से ले कर ‘अपना बना के देखो’ कुछ ऐसी ही फिल्मे थीं.

कुणाल गोस्वामी भी नहीं चले

मनोज कुमार के बेटे कुणाल गोस्वामी का हश्र तो कुमार गौरव से भी गयागुजरा हुआ. उन की फिल्में ‘रिंकी,’ ‘जयहिंद’ और ‘पाप की कमाई’ ने तो बौक्स औफिस पर पानी भी नही मांगा जबकि कुणाल भी चौकलेटी चेहरे के मालिक थे, ऐक्टिंग उन के खून में भी थी लेकिन उन के अंजाम से साबित हो गया कि यह जरूरी नहीं कि स्टार का बेटा स्टार ही हो.

हालांकि 1983 में प्रदर्शित फिल्म कलाकार में जरूर उन्होंने जबरिया ऐक्टिंग करने की कोशिश की थी लेकिन कामयाब नहीं रहे थे. इस फिल्म में उन के अपोजिट श्रीदेवी जैसी नामचीन ऐक्ट्रैस थीं जो उन की कोई मदद नही कर पाईं. इस फिल्म का एक गाना ‘नीलेनीले अअंबर पर चांद जब…’ आज भी गुनगुनाया जाता है. ठीक वैसे ही जैसे फिल्म ‘लव स्टोरी’ का यह गाना गुनगुनाया जाता है, ‘देखो मैं ने देखा है ये एक सपना, फूलों के शहर में हो घर अपना…’

अब कुणाल दिल्ली में कैटरिंग का बिजनैस संभालते हैं जिस से उन्हें खासी कमाई हो जाती है लेकिन तय है फिल्म ‘एनिमल को देख उन्हें भी कसक तो हुई होगी कि कैटरिंग के कारोबार में तो सिर्फ पैसा है लेकिन ऐक्टिंग में तो शोहरत भी बेशुमार है वहां चल जाते तो बात कुछ और होती.

पुरु ने डुबोया नाम

पिता के नाम को डुबोया पुरु ने फिल्मों और फिल्म इंडस्ट्री में कम से कम दिलचस्पी रखने वाला भी राजकुमार के नाम से वाकिफ जरूर रहता है. फिल्म ‘मदर इंडिया,’ ‘दिल एक मंदिर है,’ ‘लाल पत्थर’ और ‘पाकीजा’ जैसी कला फिल्मों से अपनी ऐक्टिंग के झंडे गाड़ने वाले राजकुमार ने फिल्म ‘बुलंदी,’ ‘मरते दम तक,’ ‘तिरंगा’ और ‘गलियों का बादशाह’ जैसी सी ग्रेड की फिल्में करने के पहले वक्त फिल्म ‘हमराज,’ ‘सौदागर’ और ‘कुदरत’ जैसी व्यसायिक फिल्मों में प्रभावी अभिनय कर अपनी अलग छाप छोड़ी है.

अपनी दमदार डायलौग के अलावा अक्खड़ और उजड्ड मिजाज के राजकुमार अपने आगे किसी को कुछ समझते नहीं थे और हमेशा ‘जानी’ संबोधन का इस्तेमाल करते थे.उन के अक्खड़पन के किस्से आज भी टीवी शोज की जान और शान होते हैं. इन्हीं राजकुमार का बेटा पुरु राजकुमार पिता के नाम के मुताबिक कामयाब नहीं हो पाया जिस पर फिल्म इंडस्ट्री में हर किसी को हैरत होती है. पुरु की फिल्मों के नाम भी दर्शकों की जबान तक नहीं चढ़े. इस से सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि वे कितनी घटिया और फ्लौप होंगी जबकि राजकुमार की फिल्म आते ही दर्शक थिएटर की तरफ दौड़ पड़ते थे. जिन्हें इस बात से मतलब नहीं रहता था कि फिल्म कैसी होगी, वे सिर्फ यह देखने जाते थे कि राजकुमार ने कौनकौन से धांसू डायलौग बोले होंगे.

राजकुमार ने कई फ्लौप फिल्में भी दीं लेकिन हर फिल्म के बाद वे अपनी फीस एक लाख रुपए बढ़ा देते थे और इस बाबत पूछने पर कहते थे कि जानी, फिल्म फ्लौप हुई है हम नहीं.

पुरु में अपने पिता सी न तो अभिनय क्षमता है न वैसी संवाद अदायगी और न ही वस तेवर जिन के चलते लोग राजकुमार को राजकुमार मानते थे. पुरु की पहली फिल्म ‘बाल ब्रह्मचारी’ 1996 में आई थी जो थोड़ीबहुत इसलिए चल गई थी कि वह राजकुमार के बेटे हैं. इस के बाद तो लोगों ने उन की फिल्मों की तरफ पीठ भी नहीं की. फिल्म ‘हमारा दिल आप के पास है,’ ‘मिशन कश्मीर,’ ‘खतरों के खिलाड़ी’ और ‘उलझन’ से ले कर 2007 में आई फिल्म ‘दोष’ और 2010 में प्रदर्शित फिल्म ‘वीर’ सभी लाइन से बौक्स औफिस पर औंधे मुंह गिरी.

नशे में कैरियर खत्म

एक कामयाब पिता के इस बिगङैल बेटे ने साल 1993 में शराब के नशे में मुंबई के बांद्रा में फुटपाथ पर सो रहे 8 लोगों पर अपनी कार चढ़ा दी थी जिन में से 3 की मौत हो गई थी. हालांकि यह मामला अदालत के बाहर ही सुलझ गया था लेकिन इस के लिए राजकुमार को भारी जुरमाना बेटे को बचाने के लिए देना पड़ा था.
ये 2 ही नहीं बल्कि स्टार पुत्रों की लंबी फेहरिस्त है जो विरासत में मिले नाम और काम को संभाल नहीं पाए. ऐसे में कपूर खानदान के ऋषि कपूर के बेटे रणबीर कपूर जैसे इनेगिने नाम ही बचे हैं जो ऐक्टिंग के जरिए साबित कर रहे हैं कि मौके को भुनाया कैसे जाता है. मिसाल कपूरों की ही लें तो शशि कपूर के बेटे करण और कुणाल भी इंडस्ट्री में चल नहीं पाए और राजीव कपूर भी फ्लौप ही रहे. जितेंद्र का बेटा तुषार चर्चित जरूर रहता है पर सफल नहीं कहा जा सकता. बाबी देओल और सन्नी देओल ने जरूर धर्मेंद्र का नाम आगे बढ़ाया लेकिन इन की तीसरी पीढ़ी इतनी कामयाब हो पाएगी इस में शक है.

राज छिपाना कोई नीरा से सीखे : भाग 1

तुम टैंशन मत लो, उसे शक नहीं होगा,” नीरा ने अपने पति सुनील के दोस्त केशव को उन की नजरों से छिप कर झटपट मैसेज भेज तुरंत उसे डिलीट कर दिया.

वह तुम्हारे घर के लिए निकल रही है, काफी गुस्से में है. संभाल लेना,” केशव ने नीरा को वापस मैसेज भेज कर उसे डिलीट कर दिया.

आप चाय लोगे?” नीरा ने अखबार के साथसाथ न्यूज देखते हुए सुनील से पूछा.

हां, बनाओ,” चाय पीने के लिए हर पल आतुर सुनील ने जैसा अनुमानित था वैसा उत्तर दिया.

नीरा किचन में पहुंची और चायपत्ती का खाली डब्बा खंगालने लगी और कहा,”अरे, आप को सुबह कहा था न कि चायपत्ती खत्म हो गई है. जाइए न नीचे की दुकान से ले आइए,” नीरा सुनील को कुसुम के आने से पहले रफादफा करना चाहती थी कि कहीं उन के सामने कोई तमाशा न हो जाए और वे भी उन दोनों पर शक करना न चालू कर दें.

क्या तुम भी छुट्टी के दिन तंगगाती हो,” सुनील जैसे ही सोफे से उठ कर अपनी चप्पलें पहन दरवाजे पर पहुचने लगे नीरा ने प्रेमपूर्वक कहा,”अच्छा, अब जा ही रहे हैं तो 1 किलोग्राम टमाटर और आधा किलोग्राम पनीर लेते आइएगा,”

यह दुकान दूसरी तरफ है, आनेजाने में बहुत समय लग जाएगा.”

अच्छा ही है न, आप की थोड़ी वौक भी हो जाएगी. उन के यहां पनीर सब से ताजा मिलता है, वहीं से लाना,” नीरा चाहती थी कि सुनील देर से देर घर वापस लौटें ताकि सब बातें इत्मीनान से हो सके और उन्हें कानोंकान खबर न हो.

जैसे ही वे गए, बाहर से सामान्य और भीतर से घबराई हुई नीरा अपने सूखे गले को 2 गिलास ठंडा पानी पिला कर शांत कर, कुछ गहरी सांसें ले अपनेआप को कुसुम का सामना करने के लिए मजबूत करने लगी.

कुसुम और केशव उन्हीं के अपार्टमैंट के आखिरी विंग में रहते हैं. कुसुम अपनी डिलिवरी के समय मायके अपने 7वें महीने से गई हुई थी और कुछ दिनों पहले ही वापस आई. 15 दिन घर पर 15 दिन खदान पर सेवा देने वाले इंजीनियर सुनील कई बार अपनी मौजदूगी में केशव को खाने पर आमंत्रित करते रहते थे. तभी घंटी बजी, जैसा वह जानती थी यह कुसुम ही होगी.

अरे, कुसुम तुम, कैसी हो? आओ अंदर आओ,” कुसुम अपने 3 महीने के बेटे के साथ तिलमिलाए दरवाजे के बाहर खड़ी दिखी.

भाभीजी, मैं यहां बैठने नहीं आई हूं, बस, यह पूछने आई हूं कि आप दोनों के बीच क्या खिचड़ी पक रही है?”
शुरू से ही बातबात पर केशव पर शक करने वाली कुसुम आज कुछ सुनने के मूड में नहीं थी.

केशव इसी वजह से उसे अपने से जुड़ी कोई भी बातें साझा करने से कतराता था कि पता नहीं कब क्या बखेड़ा खड़ा कर दे.

अंदर तो आओ. किन दोनों की बात कर रही हो?” अपनेआप को नीरा बिलकुल अनजान सी प्रस्तुत करने लगी.

मैं आप की और केशव की बात कर रही हूं. मुझे पता है कि आप दोनों का चक्कर चल रहा है.”

क्या… क्या कहा फिर से कहना. रुको, सुनील आते ही होंगे यह सब उन से भी कहना प्लीज,” और नीरा अपना पेट पकड़ कर जोरों से हंसने लगी.

नीरा के ऐसे हावभाव देख कर कुसुम दुविधा में पड़ गई कि कहीं वह जो सोच रही है उस की गलतफहमी तो नहीं?

शक्की कुसुम ने जब मायके से अपनी कामवाली को बीचबीच में फोन लगाया तो पता चला कि केशव रोज शाम को खाना बनाने से मना कर देते हैं. ऊपर से उन का मूड बहुत खुशनुमा रहता है. हर पल रोमांटिक गाने सुनते रहते हैं या गुनगुनाते रहते हैं.

बाई के प्रेमी सत्या चौकीदार के सनसनी खबर देने के बाद कि केशव भैया रात को नीरा भाभीजी के यहां अकसर जाते हैं और घंटों बाद लौटते हैं और कई बार नीरा भी उन के यहां जातीआती रहती है, यह सब सुन कुसुम के पैरों तले जमीन खिसक गई और वह बच्चे को लिए, बिना केशव बताए घर आ पहुंची.

मुन्ने को मुझे दो, बड़ा प्यारा है,” नीरा ने ₹2 हजार का नोट मुन्ने के कपड़ों में दबा दिए.

इस की जरूरत नहीं है.”

अपनी कमाई दे रही हूं, इस में क्या?”

अच्छा, आप की कब नौकरी लग गई, मैं भी तो सुनूं?”

अरे, आजकल 4 टिफिन दे रही हूं, केशव मेरे पहले ग्राहक हैं,” नीरा ने गौरव से मुसकराते हुए आगे कहा.

तुम थीं, नहीं तो यह रात के खाने पर केशव भाई साहब को अकसर बुला लेते थे. भाई साहब को आप की बाई के हाथ का खाना बिलकुल पसंद नहीं आता था. कहते थे कि एक टाइम से ज्यादा नहीं निगल सकता. सुनीलजी की गैरमौजदूगी में मैं शाम का टिफिन दे आती थी. बस, यहीं से शुरुवात हो गई. वैसे तुम्हें ऐसे बेतुके खयाल कैसे उपज जाते हैं, बताओगी? जरा मैं भी सुनूं…”

नीरा पर इतना बड़ा दोष लगाने पर वह समान्य जैसा बरताव करने लगी. नीरा के हावभाव से उसे कहीं से भी घबराती न देख कुसुम का गुस्सा ठंडा पड़ने लगा.

क्या करूं, भाभीजी, अपने शक्की स्वभाव के कारण कितनों से रिश्ते खराब कर लिए मैं ने. यह सब आप मुझे बता रही हैं, मुझे इस की कोई भी जानकारी केशव ने आज तक नहीं दी.”

बिना सोचेसमझे इतने शर्मसार करने वाले बेबुनियाद इलजाम लगा कर कुसुम शर्मिंदा होने लगी.

तुम बेवजह भाईसाहब पर शक करोगी इसलिए ही तुम्हें कुछ बताने से बचते होंगे. तुम ने बहुत पीड़ा देने वाला इलजाम हम दोनों पर लगाया है, कुसुम. बिना किसी सुबूत के किसी पर भी ऐसे कीचड़ उछालना कोई बरदाश्त नहीं करता,” कुसुम को अपने गलत होने का एहसास होते देख नीरा ने अपना अगला पासा फेंका,”मुझे छोटी बहन समझ कर माफ कर दो, भाभीजी. मैं अपने किए पर बहुत शर्मिंदा हूं.”

मैं तो बाहरी हूं, माफी तुम्हें भाईसाहब से ज्यादा मांगनी चाहिए. अब इन सब बातों को अपने दिमाग से निकाल दो.”

तीन सखियां : नई सोच के साथ नई शुरुआत करती सहेलियों की दिलचस्प कहानी

अपनी नई नई गृहस्थी सजासंवार कर गंगा, दामिनी और कृष्णा सोफे पर ही पसर गईं. गंगा ने कहा, ‘‘चलो, भई, अब शुरू करते हैं नया जीवन, बैस्ट औफ लक.’’

‘‘हां, सेम टू यू,’’ दामिनी ने कहा तो कृष्णा कहने लगी, ‘‘शुरुआत कुछ शानदार होनी चाहिए, डिनर करने बाहर चलें? 2 दिन से अब फुरसत मिली है.’’

गंगा ने कहा, ‘‘हां, ठीक है, 7 बज रहे हैं. दामिनी, कल तुम्हें औफिस भी जाना है. चलो फिर, जल्दी डिनर कर के आते हैं. टाइम से आ कर आराम कर लेना. श्यामा भी कल से ही काम पर आएगी. बोलो, कहां चलना है?’’

दामिनी ने कहा, ‘‘शिवसागर चलते हैं.’’

कृष्णा ने कहा, ‘‘नहीं, फ्यूजन ढाबा चलते हैं.’’

गंगा ने कहा, ‘‘नजदीक ही बार्बेक्यू नेशन चलते हैं.’’

दामिनी ने फटकारा, ‘‘दिमाग खराब हो गया है, गंगा? रात में इतना हैवी डिनर करोगी वहां?’’

गंगा ने भी तेज आवाज में कहा, ‘‘तुम्हारा दिमाग होगा खराब, एक रात हैवी खाने से क्या हो जाएगा? अरे, नए जीवन की पार्टी तो बनती है न.’’

कृष्णा ने टोका, ‘‘बस, फ्यूजन ढाबा चलेंगे, तुम दोनों तो किसी भी बात पर शुरू हो जाती हो.’’

तीनों की आवाजें धीरेधीरे तेज होने लगीं, अभी 2 दिन पहले ही इस ‘तुलसीधाम सोसायटी’ में तीनों ने फोर बैडरूम का फ्लैट किराए पर लिया था और अभी घर का सामान संभाल कर फ्री हुई थीं.

तीनों की आवाजें तेज होते ही फ्लैट की डोरबैल बजी. तीनों चुप हो गईं. एकदूसरे को देखा. कृष्णा ने कहा, ‘‘यह कोई सीरियल नहीं है, डोरबैल बजते ही एकदूसरे की तरफ देखने के बजाय दरवाजा खोलो. अच्छा, मैं ही देखती हूं.’’

कृष्णा ने दरवाजा खोला. एक महिला खड़ी थी. गंभीर स्वर में बोली, ‘‘मैं आप के बराबर वाले फ्लैट में रहती हूं. कुछ शोर सा हो रहा था. आप लोग नई आई हैं, कुछ प्रौब्लम है क्या? मैं कुछ हैल्प करूं?’’

इतने में दामिनी और गंगा भी दरवाजे के पास आ कर खड़ी हो गईं. गंगा ने हाथ जोड़ते हुए कहा, ‘‘बहुतबहुत धन्यवाद. हमारे यहां तो अकसर यह शोर होता रहेगा. आप चिंता न करें. हम लोग मजे में हैं.’’

महिला चुपचाप चली गई. दरवाजा बंद कर तीनों खिलखिला कर हंस पड़ीं, दामिनी ने कहा, ‘‘यह बेचारी पड़ोसिन तो हमारे चक्कर में पड़ कर पागल हो जाएगी.’’ इस बात पर तीनों खूब हंसीं.

दामिनी ने कहा, ‘‘चलो, फटाफट तैयार हो जाओ. अब निकलना चाहिए.’’ तीनों अपनेअपने बैडरूम में तैयार होने लगीं. दामिनी ने तैयार हो कर फिर पूछा, ‘‘कहां कर रहे हैं डिनर?’’

कृष्णा ने अपनी शरारती मुसकराहट बिखेरते हुए कहा, ‘‘किसी नई जगह.’’

तीनों तैयार हो कर बाहर निकलीं तो पड़ोसिन महिला से फिर सामना हो गया. वह तीनों को स्टाइलिश कपड़ों में, बढि़या परफ्यूम की खुशबू बिखेरते, हंसीमजाक करते हुए जाते देख हैरान होती रही. क्या औरतें हैं, अभी तो लड़ रही थीं. तीनों ने एक शानदार होटल में डिनर किया. हमेशा की तरह आइसक्रीम खाई और कुछ जरूरी सामान खरीद कर अपने नए संसार में लौट आईं. घर आ कर कपड़े बदले, अपनेअपने बैडरूम में लगा टीवी औन किया. थोड़ी देर अपनी पसंद के प्रोग्राम देखते हुए सुस्ताईं, फिर ड्राइंगरूम में बैठ कर घरगृहस्थी के कामों व सामान पर चर्चा कर के सोने चली गईं. तीनों बहुत थकी हुई थीं. नए घर में आज तीनों की पहली रात थी. कल तक तो दिनभर सामान लगा कर सोने के लिए रात को अपनेअपने पुराने घर में चली जाती थीं, अब तो यही घर उन का सबकुछ था.

पिछले हफ्ते ही तीनों ने इस मिडिलक्लास सोसायटी में तीसरे फ्लोर पर यह 4 बैडरूम  फ्लैट किराए पर लिया था. उन का हर परिचित, रिश्तेदार उन के इस फैसले पर हैरान रह गया था. तीनों अपनेअपने बैड पर सोने लगीं तो तीनों की आंखों के आगे अपना पिछला समय चलचित्र की भांति चलने लगा.

पिछले हफ्ते तक जीवन एक पौश सोसायटी में बिताया था, पर बिल्डिंग अलगअलग थीं. तीनों सोसायटी की ही एक किटी पार्टी की सदस्य भी थीं जिस में 25 साल से ले कर उन की उम्र तक की 15 सदस्य थीं. किटी में ही तीनों का ध्यान एकदूसरे की तरफ गया था. तीनों के विचार, तौरतरीके, स्वभाव, व्यवहार एकदूसरे से खूब मेल खाते थे. तीनों हाउजी खूब उत्साह से खेलती थीं. हर गेम जीतने की कोशिश करती थीं. तीनों बहुत हंसमुख थीं. किटी की अन्य सदस्य जीवन के प्रति उन के सकारात्मक दृष्टिकोण की खुले दिल से तारीफ करती थीं. सब के दिल में उन के लिए प्यार और सम्मान था.

तीनों ही जीवन के 5वें दशक में थीं. फिर भी तीनों सैर पर भी एकसाथ जाने लगी थीं. तीनों का आपसी संबंध दिनपरदिन मजबूत होता गया था. अब तीनों अपनी व्यक्तिगत बातें, अपने सुखदुख एकदूसरे के साथ बांटना चाहती थीं. एक रविवार कृष्णा ने दोनों को फोन कर अपने घर लंच पर बुलाया था. गंगा और दामिनी 12 बजे कृष्णा के घर पहुंच गई थीं. कृष्णा ने बहुत दिल से दोनों की आवभगत की. गंगा और दामिनी ने कृष्णा के बनाए खाने की भरपूर प्रशंसा की. तीनों ने भरपेट खाया. उस के बाद कृष्णा कौफी बना कर ले आई. तीनों आराम से सोफे पर ही पसर गई थीं. कृष्णा ने कहना शुरू किया, ‘जब से हम तीनों मिले हैं, जी उठी हूं मैं, वरना यही सूना घर, वही बोरिंग रुटीन था. पर बाहर तुम लोगों से मिल कर जब घर वापस आती हूं तो घर काटने को दौड़ता है. अकेलापन सहा नहीं जाता.  घर में घड़ी की सूइयां भी ठहरी हुई सी लगती हैं.’

दामिनी ने गंभीर स्वर में पूछा, ‘कितने साल हो गए आप के पति का स्वर्गवास हुए?’ 15 साल हो गए, 1 ही बेटी है जो आस्ट्रेलिया में पति और बच्चों के साथ रहती है. साल दो साल में कभी वह आ जाती है. कभी मैं चक्कर लगा आती हूं, बस.’

गंगा ने भी अपने बारे में बताया, ‘मेरा भी जीवन ऐसा ही है. आलोक से तलाक के बाद अकेली ही हूं.’

दामिनी ने पूछा, ‘तलाक क्यों हो गया था? कितने साल हो गए?’

‘आलोक से विवाह के 2 साल बाद ही तलाक हो गया था. उस का अपनी किसी सहकर्मी से अफेयर था. मैं ने आपत्ति की तो वह मुझे छोड़ने के लिए तैयार हो गया जिस के बदले में उस ने मुझे इतनी भारी रकम दी कि आज तक मुझे किसी चीज की कमी नहीं है. वह बड़ा बिजनैसमैन था. मेरे नाम मोटा बैंकबैलेंस, गहने, यह फ्लैट, सबकुछ है. एक बेवफा पति से चिपके रहने के बजाय मुझे यह जीवन ही ठीक लगा. मैं भी अब पूरी आजादी से जी रही हूं पर मेरा धीरेधीरे सभी रिश्तेदारों से भी मन खराब होता गया. न मैं उन के ताने सुनना चाहती थी न हमदर्दीभरी बातें इसलिए मैं ने सब को अपने से दूर कर दिया. अकेलापन अब बहुत खलता है पर क्या कर सकते हैं. तुम बताओ दामिनी, तुम ने शादी क्यों नहीं की?’

दामिनी ने एक ठंडी सांस ले कर बताना शुरू किया, ‘पिता नहीं रहे तो चाहेअनचाहे घर की सारी जिम्मेदारी मेरे ऊपर आती गई. मैं बड़ी थी. मैं ने खुद पढ़नेलिखने में बहुत मेहनत की, दोनों छोटे भाइयों को पढ़ायालिखाया, मां की देखभाल की. मां और भाइयों को संभालने में काफी उम्र निकल गई. वे भी मेरे विवाह के टौपिक से बचते रहे. एक बार उम्र निकल गई तो विवाह का खयाल मैं ने भी छोड़ दिया. अब मां तो रहीं नहीं, दोनों भाई अपनेअपने परिवार के साथ विदेश में बस गए हैं. मैं एक मल्टीनैशनल कंपनी में ऊंचे पद पर हूं. रुपएपैसे की कमी तो नहीं है पर अकेलापन खलने लगा है. इसी साल मैं 50 की हो रही हूं पर जीवन को मैं रोतेरोते नहीं जीना चाहती. जीवनभर मेहनत की है. जीवन के हर पल का आनंद उठाना चाहती हूं.’

कृष्णा ने कहा, ‘और क्या, हम तीनों ही खुशमिजाज, आर्थिक रूप से मजबूत और नए विचारों वाली महिलाएं हैं. हम क्यों अपना जीवन रोपीट कर बिताएं. जो मिलना था, मिल गया, जो नहीं मिला, बस नहीं मिला. पढ़ा है या सुना है तुम लोगों ने, एक लेखक ने भी कहा है, ‘मन का हो तो अच्छा, न हो तो ज्यादा अच्छा’.’

दामिनी ने खुश हो कर पूछा, ‘अरे, तुम भी यह सब पढ़ती हो क्या?’

‘और क्या, किताबें तो मेरी अब तक सब से अच्छी साथी रही हैं. आओ, तुम्हें अपनी छोटी सी लाइब्रेरी दिखाऊं,’ कह कर कृष्णा उन्हें अपने बैडरूम में ले गई थी.

गंगा भी चहक उठी, ‘अरे वाह, मुझे भी शौक है. मैं भी पढ़ूंगी ये सब.’

उस के बाद तीनों थोड़ी देर बातें करती रही थीं, फिर अपनेअपने घर लौट आईं. तीनों का मन साथ समय बिता कर काफी हलका था. दामिनी की शनिवार, रविवार छुट्टी होती थी. वह अब ये तीनों दिन कृष्णा और गंगा के साथ ही बिताती थी. तीनों के घर काम करने वाली मेड भी एक ही थी अब, श्यामा. कालेज जाने वाली छात्राओं की तरह तीनों सखियां अब किसी एक के घर इकट्ठी होतीं, हंसीमजाक करतीं, कभी मूवी देखने जातीं, कभी शौपिंग जातीं. तीनों को अब किसी अन्य की जरूरत महसूस नहीं होती. ऐसे ही एकदूसरे के सुखदुख को बांटते तीनों की दोस्ती को 2 साल बीत रहे थे.

एक दिन दामिनी ने कृष्णा और गंगा को अपने घर बुलाया हुआ था. तीनों खापी कर उस के बैडरूम में ही लेट गईं. दामिनी को कुछ सोचते हुए देख कर कृष्णा ने पूछा, ‘क्या सोच रही हो, दामिनी?’

‘बहुत कुछ, कुछ नई सी बात.’

‘क्या, बताओ?’

‘समझ नहीं पा रही हूं कि क्या ठीक सोच रही हूं मैं.’

गंगा ने कहा, ‘जल्दी बताओ अब.’

‘अभी दिमाग में आया, हम तीनों ही अकेली हैं, तीनों एकदूसरे के साथ खुश हैं, हम तीनों हमेशा भी तो साथ रह सकती हैं और वैसे भी हमें अपना जीवन जीने के लिए किसी पुरुष के साथ की जरूरत तो है नहीं. हम चाहें तो हमेशा साथ रह कर जीवन की सांध्यवेला में एकदूसरे का सहारा बन सकती हैं. हम तीनों का वन बैडरूम फ्लैट है. ऐसा कर सकते हैं कि आसपास किसी सोसायटी में बड़ा फ्लैट किराए पर ले कर साथ रह कर भी अपनी मरजी से जिएं. सब की प्राइवेसी भी रहे और साथ भी मिलता रहे. अपने फ्लैट किराए पर दे देंगे. सब खर्चे शेयर कर लेंगे. कम से कम घर लौटने पर किसी अपने का चेहरा तो दिखेगा. घर की खाली दीवारें अकेले होने का एहसास तो नहीं कराएंगी.’

गंगा और कृष्णा के मुंह से उत्साहपूर्वक निकला, ‘वाह, दामिनी, क्या बढि़या बात सोची है. यह बहुत अच्छा रहेगा.’

गंगा ने कहा, ‘बहुत मजा आएगा. भविष्य की बेतुकी चिंता में वर्तमान की कुछ बेहतरीन चीजें, कुछ बेहतरीन पल तो हमें इस जीवन में दोबारा नहीं मिलेंगे. फिर इन को खो कर क्यों जिएं. जीवन की राह में बस यों चलते जाना कि सांस जब तक चले, जीना ही पड़ेगा, यह सोच कर क्यों जिएं.’

दामिनी ने कहा, ‘और आजकल तो मैं कई बार सोचती हूं कि मेरे लिए अंदर से दरवाजा खोलने वाला कोई है ही नहीं. हो सकता है कभी मेरे फ्लैट का ताला तोड़ मेरा गला हुआ शव बाहर निकाला जाए. और तब मेरे परिचित मेरी संपत्ति पर हक जताने चले आएंगे.’

कृष्णा कहने लगी, ‘तुम लोग सीरियस मत हो. हमारा अब दोस्ती का सच्चा रिश्ता है जो किसी मांग पर आधारित नहीं है, द्वेष और ईर्ष्या से रहित है, स्वार्थ से परे है.’

तीनों की आंखें भर आई थीं. तीनों एकदूसरे के गले लग गई थीं. तीनों का दिल फूल सा हलका हो गया तो तीनों फिर मस्ती के मूड में आ गईं. अपने अंदर एक नया उत्साह, नई ऊर्जा महसूस की उस दिन तीनों ने. उस के बाद तो भविष्य की योजनाएं बनने लगी थीं. और फिर कई दिन कई घरों को देखने के बाद यह घर फाइनल किया था तीनों ने.  जिस ने भी सुना, हैरान रह गया था. मुंबई की इस सोसायटी में रहने वालों के लिए यह एकदम नया, अद्भुत विचार था. प्रबुद्धजन कह रहे थे, ‘किसी वृद्धाश्रम में जा कर रहने से अच्छा ही है यह आइडिया. समाज के लिए नया उदाहरण पेश कर रही हैं तीनों सखियां.’ उन की किटी पार्टी की सदस्याएं इस नए, उत्साहपूर्ण कदम में उन के साथ थीं. सब ने उन की पूरी सहायता की थी. समाज के लिए एक नई मिसाल कायम कर के तीनों ही अतीतवर्तमान में गोते लगाती हुई बेफिक्री की नींद में डूब चुकी थीं.

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संसद पर हमला : दोष किस के सिर मढ़ेगी भाजपा

जिस दिन देशभर में संसद पर 22 साल पहले हुए हमले की चर्चा थी, ठीक उसी दिन एक बार फिर कुछ नौजवानों ने संसद में दाखिल हो कर जो किया उस से हर कोई सकते में है. जिस तरीके से वारदात को अंजाम दिया गया वह निहायत ही पुरानी हिंदी फिल्मों सरीखा था जिन में विलेन और उस के गिरोह के सदस्य सुरक्षा को धता बताते इमारत में घुसते हैं और बाहर पुलिस वाले सीटियां बजाते इधर से उधर दौड़ते एकदूसरे से क्या हुआ, क्या हुआ पूछते रह जाते हैं.

नीलम, सागर, मनोरंजन और अमोल न तो विदेशी एजेंट हैं न रूरल नक्सली या अर्बन नक्सली हैं, न किसी अलगाववादी आतंकवादी संगठन से जुड़े हैं. वे मुसलमान भी नहीं हैं और न ही खालिस्तानी हैं. वे, और तो और, वामपंथी भी नहीं हैं, वे शुद्ध भारतीय हैं और बहुत स्पष्ट शब्दों में बता भी रहे हैं जिस का सार यह है कि वे बेरोजगार हैं, छात्र हैं, किसी संगठन से जुड़े नहीं हैं.

उन के मातापिता छोटेमोटे काम करते हैं. सरकार हर जगह उन जैसे लोगों की आवाज दबाने की कोशिश करती हैं फिर उन के अंदर की भड़ास जबान पर यह नारा लगाते आती है कि तानाशाही नहीं चलेगी, नहीं चलेगी.

सकते में है भाजपा

इस सुनियोजित हमले को ले कर भाजपा सकते में है कि अब ठीकरा किस के सिर फोड़ अपनी नाकामी को ढका जाए. संसद पर 2001 का हमला तो खालिस आतंकवादी हमला था जिस में सुरक्षाकर्मियों सहित 9 लोग मारे गए थे. तब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी. आरोपी पकड़े गए थे. इन में से अफजल गुरु को 9 फरवरी, 2013 को फांसी पर लटका भी दिया गया था.

अब देश में कहीं भी आतंकी घटना होती है और न भी हो तो भी मोदी सरकार की आलोचना करने वाले को झट से टुकड़ेटुकड़े गैंग का हिस्सा बता कर यह जताने की कोशिश की जाती है कि न केवल आज बल्कि सदियों से देश पर हमले बाहरी लोग करते रहे हैं और कुछ देशवासी भी इन का साथ देते हैं. इन्ही जयचंदों की वजह से देश खतरे में रहता है और लुटतापिटता रहा है.

जब मौजूदा मुद्दों और हालात से जनता का ध्यान भटकाना होता है तब भाजपाई बेमौसम यह राग अलापने से नहीं चूकते कि सोमनाथ का मंदिर महमूद गजनवी ने लूटा था. यह इतिहास की बात है लेकिन भाजपाई यह नहीं बता पाते कि आखिर न केवल मुगलों बल्कि अंगरेजों सहित दूसरे विदेशियों की हिम्मत कैसे पड़ी थी देश पर आंख उठाने की. हिंदुओं की जातिगत टूटफूट की चर्चा ये लोग कभी नहीं करते. न ही इस सवाल का कोई तार्किक जवाब दे पाते हैं कि जब मंदिर लुटते थे तब इन में विराजे शक्तिशाली देवीदेवता क्यों लुटरों को भस्म नहीं कर देते थे.

आज जिस राम मंदिर के भव्य निर्माण और लौंचिंग के चर्चे देशभर में हैं और 22 जनवरी को ले कर भारी उत्साह पैदा किया जा रहा उस अयोध्या पर बाबर का हमला और लूटपाट किस कमजोरी की देन था, मानवीय या दैवीय. या हम इतने कमजोर थे कि खामोशी से खुद को लुटते देखते रहते थे जिस से आने वाले वक्त में दोष देने में सहूलियत रहे कि देखो, वह मुगल हमारे आराधना स्थल को तहसनहस कर के चला गया, हमारी आस्था को छिन्नभिन्न कर गया और हम गुबार देखते रहे. हमारे देवीदेवताओं ने भी कुछ नहीं किया जबकि कुछ भी कर सकने की ताकत उन्हें मिली हुई है.

ताजेताजे पुलवामा के हमले को ले कर भी भाजपा के पास दोष देने को जैश ए मोहम्मद नाम का इसलामिक आतंकी संगठन है. 14 फरवरी, 2019 को इस भीषण आतंकी हमले में हमारे 40 जवान शहीद हो गए थे. इसी आतंकी संगठन ने जनवरी 2016 में पठानकोट पर हमला किया था. इस के पहले भी देश में हुए कई हमलों की जिम्मेदारी यह संगठन ले चुका है.

कोई पंजाब में अलग खालिस्तान की मांग करता है तो भाजपाई झट से उसे खालिस्तानी करार देते देशद्रोही भी ठहरा देते हैं. इस से भी जी नहीं भरता, तो आंदोलन करते किसानों को भी खालिस्तानी कहने में भगवा गैंग को हार्दिक सुख मिलता है.

लेकिन आज…

आज संसद के हमलावर अपने वाले ही हैं. उन का किसी धर्म या संप्रदाय या फिर आतंकी संगठन से कोई लेनादेना नहीं है, तब भाजपा की खामोशी बेचारगी ज्यादा लगती है क्योंकि इन देसी हमलावरों ने सरकार के प्रति पनपते असंतोष को उजागर कर दिया है. अतीत में जो हुआ उस की जिम्मेदारी आज कोई नहीं ले सकता लेकिन आज जो हुआ वह सरकार की नाकामी, बेरोजगारी और भड़ास की वजह से हुआ. क्या सरकार इस की जिम्मेदारी लेने को तैयार है.

इस हमले के मद्देनजर अफसोस तो इस बात का है कि सरकार अपनी गलतियां मानने को तैयार नहीं. उस के अपने हिंदुत्व के एजेंडे में आम जनता की बात सुनने को कोई स्पेस ही नहीं है. हां, इतना जरूर हो रहा है कि संसद की सुरक्षा व्यवस्था की खामियों को ठीक किया जा रहा है जिस से दोबारा ऐसा हादसा न हो.

जबकि जरूरत इस बात की है कि सरकार अपना पौराणिक चालचलन और मनमाना रवैया छोड़ नीलम, मनोरंजन, सागर और अनमोल जैसी मानसिकता वाले युवा पैदा न हों, इस बाबत कोशिश करे और यह काम मंदिरों और देवीदेवताओं के भरोसे तो होने से रहा.

इन युवाओं ने सरकार का ध्यान खींचने के लिए जो रास्ता चुना उसे आखिरी रास्ता नहीं कहा जा सकता. युवाओं को चाहिए कि वे लोकतांत्रिक तरीके से अपना पक्ष रखें. यह ठीक है कि ऐसे तरीकों से किसी के कान पर जूं नहीं रेंगती लेकिन इस का यह मतलब नहीं कि वे हिंसक रास्ते पर चल पड़ें.

गांधी, जेपी या अन्ना हजारे वाला रास्ता अभी पूरी तरह बंद नहीं हुआ है. वह मुश्किल और कठिन जरूर है लेकिन निजाम भी उसी ने बदले हैं. हिंसा से तो देश का और खुद का नुकसान ही होता है. नरेंद्र मोदी सरकार अनियंत्रित हो चुकी है, संसद पर हमले का संदेश तो यही है लेकिन दिक्कत यह है कि इस का ठीकरा भाजपा किस के सिर फोड़े, खुद के सिर तो लेने की उस से उम्मीद करना फुजूल है.

सड़क हादसे : रफ्तार का जनून जान न ले ले

रफ्तार का जनून और लोगों की लापरवाही का आलम दिल्ली में सड़क दुर्घटनाओं के कहर के रूप में सामने आ रहा है. दिल्ली में सड़क दुर्घटनाओं में मरने वाले सब से ज्यादा 43 फीसदी पैदल यात्री होते हैं. जरूरत है थोड़ी सी सावधानी और नियमकानूनों के पालन की.

दिल्ली पुलिस आयुक्त संजय अरोड़ा द्वारा 13 दिसंबर को जारी की गई दिल्ली सड़क दुर्घटना रिपोर्ट-2022 के आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2023 में 30 नवंबर तक सड़क हादसों में जान गंवाने वालों की संख्या 1,300 रही. वर्ष 2022 में यहां सड़क हादसों में 1,461 लोगों की जानें गईं.

इन मामलों में पैदल यात्री व दोपहिया वाहन सब से ज्यादा असुरक्षित हैं. 2022 में सड़क दुर्घटनाओं में मारे गए कुल व्यक्तियों का क्रमशः 43 प्रतिशत पैदल यात्री और 38 प्रतिशत दोपहिया वाहन का है. दिल्ली की 10 खतरनाक रोड में सब से प्रमुख रिंग रोड, जी टी करनाल रोड और एनएच 24 हैं.

रफ्तार भारत की सड़कों पर होने वाली हर 10 में से 7 मौत की वजह बनती है. 2018 से 2022 के बीच तेज रफ्तार से मौतों का प्रतिशत 64 फीसदी से बढ़ कर 71 फीसदी हो गया. 2022 के आंकड़े बताते हैं कि सड़क हादसों में रिकौर्ड 1,68,491 मौतें हुईं. इन में करीब 44 फीसदी बाइक सवार शामिल थे. सड़क हादसों में मौतों के मामले में भारत दुनिया में नंबर वन है. पिछले साल 4.4 लाख लोग घायल हुए जिन में करीब 2 लाख को गंभीर चोटें आईं.

रोड ट्रांसपोर्ट एंड हाईवे मिनिस्ट्री का डेटा बताता है कि दिल्ली देश की ‘रोड-डैथ कैपिटल’ बनी हुई है. 2022 में दिल्ली के भीतर सड़क हादसों में करीब डेढ़ हजार लोग मारे गए. यह संख्या 2021 के मुकाबले 18 फीसदी ज्यादा रही. सड़क हादसों में मौतों के मामले में बेंगलुरु (772 मौतें) दूसरे नंबर पर रहा. 10 साल से ज्यादा आबादी वाले शहरों में सड़क हादसों में मौतों के मामले में दिल्ली नंबर वन रही. मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार, दिल्ली में 2021 में 4,720 सड़क हादसे हुए.

शाम 6 बजे से रात 9 बजे का टाइम बड़ा खतरनाक

रिपोर्ट में सड़क की स्थिति, मानवीय भूल और वाहन की स्थिति को दुर्घटनाओं का कारण बताया गया. मानवीय भूल का मतलब है तेज गति से गाड़ी चलाना, नशे में गाड़ी चलाना, लालबत्ती पार करना और गाड़ी चलाते समय मोबाइल फोन का इस्तेमाल करना आदि. दिल्ली में ज्यादातर दुर्घटनाएं शाम 6 बजे से रात 9 बजे के बीच होती हैं.

लापरवाही का ताजा उदाहरण

13 दिसंबर को दिल्ली के सिग्नेचर ब्रिज पर रिकौर्ड किए गए एक वीडियो में युवक लापरवाही से औटो पर स्टंट करता नजर आ रहा है. औटो से बाहर खड़े हो कर हवा में हाथों को लहराता हुआ आगेपीछे मुड़ता नजर आता है. उस युवक की लापरवाही का आलम यह था कि वह इस दौरान उस के आगे चल रहे साइकिल सवार से टकरा गया. जिस कारण वह साइकिल सवार जमीन पर गिर कर चोटिल हो गया.

गनीमत यह रही कि पीछे से कोई तेज रफ्तार गाड़ी नहीं आ रही थी वरना उस साइकिल सवार की जान भी जा सकती थी. पीछे से आ रहे वाहन चालकों ने तुरंत ही ब्रेक लगा कर अपनी गाड़ियों को रोका. वहीं अगर वह युवक साइकिल सवार की जगह किसी गाड़ी से टकराता तो उस के खुद के लिए भी यह प्राणघातक हो सकता था.

यह महज एक उदाहरण है. ऐसा अकसर होता रहता है. लोग हवा में बातें करते हैं. स्टंटबाजी करते हैं. गलत तरीके से ड्राइव कर लालबत्ती जंप करते हैं. इन सब का नतीजा पैदल यात्रियों या बाइक सवारों को भुगतना पड़ता है. हमें जिंदगी की कीमत का एहसास होना चाहिए. आप की अपनी जिंदगी भी खतरे में पड़ सकती है. आप की जल्दबाजी, रफ्तार या गलतियों का नतीजा आप का परिवार या कोई और न भुगते. इस के लिए बस थोड़ी सी सावधानी और नियमकानूनों का पालन ही तो जरूरी है.

बोरियत : अनजान शहर में अकेली रह रही एक लड़की की कहानी

सीमा ने कामवाली के जाने के बाद जैसे ही घर का दरवाजा बंद करने की कोशिश की, दरवाजा ठीक से बंद नहीं हुआ. शायद कहीं अटक रहा था. सीमा के चेहरे पर मुसकान आ गई. उस ने ड्राइंगरूम में रखी एक डायरी उठाई, अपने मोबाइल से फोन मिलाया, उधर से “हैलो…” सुनते ही सीमा ने कहा,”रमेश…”

”हां, मैडम…”

”फौरन आओ.”

”क्या हुआ मैडम?”

”घर का दरवाजा ठीक से बंद नहीं हो रहा है. बिलकुल सेफ नहीं है. फौरन आ कर देखो क्या हुआ है.”

”10 मिनट में पहुंच जाऊंगा, मैडम.”

”ठीक है, आओ.”

11 बज रहे थे. सीमा ड्राइंगरूम में ही बैठ कर गृहशोभा पढ़ रही थी. इतने में रमेश आ गया. सीमा उसे देखते ही बोली,”देखो भाई, क्या हुआ है. सालभर भी नहीं हुआ. अभी से अटकने लगा.”

”देखता हूं, मैडम.‘’

फिर थोड़ी देर बाद बोला,”कुछ खास नहीं हुआ. बस, एक हाथ घिसूंगा नीचे से बराबर हो जाएगा.”

”पर हुआ क्यों?”

”मैडम, बरसात का मौसम है, लकड़ी हो जाती है कभीकभी…”

”फिर भी, लकङी इतनी जल्दी तो खराब नहीं होनी चाहिए थी.”

”हां, मैडम सही बोलीं आप.”

”अच्छा, चाय पीओगे?”

”नहीं, मैडम कहीं पास में ही काम कर रहा हूं, आप का फोन आते ही छोड़ कर भागा आया हूं, जल्दी जाना है. मेरे हटते ही कारीगर सुस्ताने लगते हैं. आप को तो पता ही है, सालभर काम किया है आप के यहां.”

”अरे, चाय पी कर जाना.”

”ठीक है, मैडम.”

दरवाजा तो सचमुच जल्दी ही ठीक हो गया पर अब सीमा रमेश के साथ बैठ कर चाय पी रही थी, बोली,”और परिवार में सब ठीक हैं?”

”हां, मैडम.‘’

”कोरोनाकाल में तो काम का बड़ा नुकसान हुआ होगा?‘’

”हां, मैडम सब जमापूंजी खत्म हो गई.‘’

”ओह, कुछ हैल्प चाहिए तो बताना.‘’

”जी, मैडम.”

”गांव में तुम्हारे पिताजी ठीक हैं?”

”जी…’’

”बेटाबहू?”

”बस, वे तो वैसे ही हैं जैसे आप के बेटाबहू हैं, मैडम. बेटाबहू तो सारी दुनिया के एकजैसे ही हैं आजकल.”

सीमा ने ठंडी सांस ली तो रमेश ने उसे ध्यान से देखा, पूछा,”क्या हुआ मैडम?”

”तुम ने तो देखा ही है घर में काम करते हुए, किसी को कोई मतलब नहीं. सब अपने में व्यस्त. खैर, अब तो दूसरी जगह शिफ्ट हो गए हैं तो ठीक हैं, वे वहां खुश मैं यहां.”

थोड़ी देर में रमेश चला गया. सीमा ने बैडरूम में जा कर लेटते हुए गृहशोभा पत्रिका उठा ली और उस में व्यस्त हो गई. आधा घंटा पढ़ती रही, फिर आंखें बंद कर के लेट गई.

बोरीवली के इस फ्लैट में रहते हुए उसे 25 साल हो गए हैं. यह 4 कमरों का फ्लैट भी बेटेबहू को छोटा लग रहा था. वे कुछ साल पहले अंधेरी में शिफ्ट हो गए हैं. पति सुधीर बिजनैसमैन हैं, खूब व्यस्त रहते हैं. टूर पर आनाजाना लगा रहता है, जैसेकि महानगरों की एक आदत होती है, अपने में सिमटे हुए लोग.

सीमा बिहार के एक छोटे शहर की पलीबङी हुई लड़की, जब मुंबई आई तो काफी सालों तक तो उस का मन ही नहीं लगा. वह हैरान होती कि कैसे एक ही फ्लोर पर ही रहने वाले लोग कभी एकदूसरे से मिलते नहीं, बातें नहीं करते, एकदूसरे के सुखदुख से मतलब नहीं. उसे बड़ी कोफ्त होती. फिर बेटा मयंक हुआ तो कुछ साल भागते चले गए. अब कुछ सालों से जीवन में वही बोरियत है जो मुंबई आते ही महसूस हुई थी. मन नहीं लगता. कामवाली आती है तो लगता है कि कुछ देर घर में उस से कोई बात करने वाला है.

सुधीर भी कम बोलने वाला, उस का कितना मन होता कि सुधीर उस से गप्पें मारें, कुछ कहें. वह अपनी बोरियत के बारे में बताती तो बस इतना ही कहते कि टीवी देखो, बुक्स पढ़ लो,‘’ इतनी सलाह दे कर उस की बोरियत से पल्ला झाड़ लेते.

मयंक से कहती कि बोर हो रही हूं तो कहता,”आजकल तो ओटीटी है, इतनी मूवीज हैं, इतने शोज हैं, आप उन की आदत डालो, मां. हम भी थक कर औफिस से आते हैं. बात करने की हिम्मत नहीं बचती. आजकल तो कोई बोर नहीं होता मां, जिस के पास ये सब है, वह बोर हो ही नहीं सकता.”

”पर मेरा मन तो बातें करने का करता है.”

”सौरी मां, जितना आप का मन करता है, उतना तो बहुत मुश्किल है.”

”पर अपने दोस्तों से तो इतनी बातें करते हो…”

”ओह, मां वे दोस्त हैं, सैकड़ों टौपिक्स रहते हैं. आप से क्या बात करूं, आप ही बोलो?”

सीमा चुप रह जाती. उस का यह भी मन न होता कि फोन पर बारबार रिश्तेदारों से बातें करे. सीमा का परिवार अपने बाकी रिश्तेदारों से समृद्ध था. उन की बातों में जलन की बू आती तो उस का मन व्यथित हो जाता वह उन से खास मौकों पर ही बात करती है. कामवाली रमा से वह खुश रहती है. जितनी देर रमा काम करती है, लगातार बोलती रहती है.उसे अच्छा लगता है कि वह यही तो चाहती है कि कोई उस से खूब बातें करे. आज रमेश से भी बात कर के उसे अच्छा लगा.

अब तो बोरियत इस हद तक हो गई है कि कोई भी मिल जाए, कोई भी बात करे, इतना बहुत है. कोई भी हो. काफी समय वह पत्रिकाएं भी पढ़ती है पर कितना पढ़ेगी, बात भी तो करने का दिल करता है. देर रात सुधीर लौटे तो उस ने बताया कि आज दरवाजा अटक गया था. रमेश को बुला कर ठीक करवाया.

”अच्छा किया, नहीं तो परेशानी हो जाती,” इतना कह कर सुधीर फ्रैश हो कर जल्दी ही आराम करने लेट गए.

कुछ दिन बहुत बोरियत भरे बीते. सीमा का वही रूटीन चलता रहा. उस की बिल्डिंग में या तो कई फ्लैट्स खाली पड़े थे या काफी फ्लैट्स में कुछ यंग जोड़े थे जो सुबहसुबह काम पर निकल जाते. कभी छुट्टी के दिन लिफ्ट में आतेजाते मिल जाते. मशीनी स्माइल देते. पड़ोस के नाम पर भी कुछ नहीं था सीमा के पास. अब तो कुछ सालों से उसे जो भी मिलता, वह बातें करने का कोई मौका न छोड़ती. कोई भी कहीं मिल जाए, बस.

एक रात अचानक सोतेसोते सुधीर और सीमा चौंक कर उठे. लाइट कभी आ रही थी, कभी जा रही थी. सुधीर ने कहा ,”ओह, अब यह क्या मुसीबत है. मैं सुबह टूर पर जा रहा हूं और चैन से सो नहीं पा रहा. तुम किसी इलैक्ट्रीशियन को बुला कर दिखा लेना कि क्या हुआ है. मुझे फोन पर बताती रहना.‘’

”हां…‘’

सुधीर अगले 3 दिनों के लिए दिल्ली चले गए. मयंक दिन में एक बार फोन पर हाजिरी दे देता. सीमा ने सोहन को बुलाया. सोसाइटी में सालों से काम कर रहा था. वह आया, देख कर बोला,”मैडम, पुरानी वायरिंग है, बदलनी पड़ेगी. नहीं तो किसी भी दिन आग पकड़ लेगी.‘’

”अच्छा, कितना टाइम लगेगा?”

”2-3 दिन. पूरे घर की बदलनी पड़ेगी.”

”हां, ठीक है, कोई दिक्कत नहीं. सामान ले आओ.”

सोहन ने काम शुरू कर दिया. सीमा को लगा जैसे घर में एक रौनक सी हो गई. कभी सोहन काम करता, कभी फोन पर बात करता, घर में कुछ आवाजें सुनाई दीं. सीमा को अच्छा लगा. वह सोहन के आसपास मंडराती रहती. उस के पास ही कुरसी रख लेती. घरपरिवार, सोसाइटी के लोगों की बातें करतेकरते सीमा का खूब अच्छा टाइमपास होता. वह खुश थी.

एक दिन सीमा पूछने लगी,”सोहन, तुम्हे यहां अच्छा लगता है या अपना गांव?”

”मैडम, गांव याद तो आता है पर अब यहीं काम है तो ठीक है. मन न भी लगे तो क्या कर सकते हैं, पेट का सवाल है.”

”हां, सही कहते हो, भाई. अच्छा, यह बताओ कि सब से ज्यादा क्या याद करते हो?”

सोहन हंसा,” मां हमेशा गरमगरम खाना बना कर खिलाती हैं. चाहे कितनी भी देर से लौटूं. एक दिन अपनी पत्नी से यह बात बताई तो उस ने ऐसे घूरा कि सोच कर ही हंसी आ जाती है.”

सीमा भी हंस पड़ी. बोली,”भाई, पत्नी और मां एकजैसी थोड़ी हो सकती हैं. मैं ने जितने नखरे मयंक के उठाए उस की पत्नी ने तो उसे सीधा कर दिया. सारे नखरे भूल गया है.”

सीमा को लगा कि ऐसी बातें तो वह किसी और से कर ही नहीं पाती जैसे इन लोगों से कर लेती है. अगर पति से यह सवाल पूछ ले तो वे फौरन कहेंगे कि क्या बेकार की सोचती रहती हो तुम, सीमा.

जितने दिन सोहन काम करता रहा, सीमा का मन खूब लगा रहा. वह नरम दिल स्त्री थी. कोई भी काम करने आता तो उसे खिलातीपिलाती रहती. वे ₹20 मांगते, तो सीमा दुलार से ₹30 देती. इसीलिए उस के एक बार बुलाने पर सब काम करने फौरन आते.

लाइट का काम हो गया. सोहन चला गया. सुधीर आ गए. उन का औफिस का रूटीन शुरू हो गया. अब सीमा फिर बोर होने लगी. कामवाली के जाने के बाद से बिना किसी से बातें किए उस का मुंह सूखने लगता. 1-2 फोन मिला लेती, लेकिन फिर वही बोरियत.

एक दिन एक सैल्समैन आया, वैक्यूम क्लीनर के बारे में समझाने लगा. सीमा के पास तो कब से वैक्यूम क्लीनर था, फिर भी वह चुपचाप ऐसे समझती रही कि जैसे इस के बारे में पहली बार सुन रही हो. वह जब समझा चुका, तो थोड़ीबहुत बातें की उस से, फिर कभी आने के लिए कहा. उस के जाने के बाद खुद की शरारत पर ही हंसने लगी कि बोरियत की क्या हद है. सैल्समैन की बातें भी अच्छी लगती हैं. सुधीर को यह पसंद नहीं था कि वह बाहर काम करे. पत्नी का घर संभालना ही उन्हें पसंद था.

वैसे, सीमा को भी घर से बाहर निकलने का बहुत ज्यादा शौक नहीं था. उस की 1-2 दोस्त बनी थीं पर अब वे सब विदेश में अपने बच्चों के पास थीं. वह खुद को व्यस्त रखने की पूरी कोशिश करती. ऐक्सरसाइज करती, शारीरिक रूप से फिट रहती. शाम को अच्छी तरह तैयार हो कर घर का कुछ न कुछ सामान या सब्जी लेने जरूर जाती. आतेजाते लोगों से थोड़ी हायहैलो करने की कोशिश करती. सब्जी वाले से थोड़ी देर बातें करती. कई बार तो अपनी बोरियत दूर करने के लिए अनजान लोगों से ही सब्जी लेती बतिया लेती.

काम तो वह सब कर ही लेती है पर उस के पास बात करने के लिए जब कोई नहीं होता, तो वह दुखी हो जाती. कोई समझ क्यों नहीं पा रहा है कि बातें करना जरूरी है. क्यों सब अपनेआप में ही डूबते जा रहे हैं?
बहू कभीकभी फोन करती पर बहुत जल्दी फोन रख देती. उस का मन होता कि बहू से खूब बातें करे, पर वह अपनी नौकरी में इतनी व्यस्त रहती कि हमेशा ही जल्दी में दिखती.

1 महीना और बोरियतभरा बीता. उस ने सारी मूवीज देख लीं. मयंक ने जो शोज बताए वे भी देख लिए. लेकिन अब…

बात करने को तरसते हुए कुछ दिन और बीते ही थे कि एक दिन सुधीर के लिए मैंगो शेक बनाते हुए मिक्सी खराब हो गई. सुधीर झुंझलाए पर सीमा खुश थी कि कोई तो आएगा मिक्सी बनाने.

बिना जड़ का पेड़ : अपनों के बीच अपनी पहचान बनाते पुरुष की जद्दोजद की कहानी

“मैं आज से कोई 5-6 साल पहले अपना घर व व्यवसाय छोड़ कर पाकिस्तान से हिंदुस्तान आया था. खुद को अपने सहधर्मी व्यक्तिओं के बीच सुरक्षित रखने के लिए,” यह वे हमेशा अपने से मिलने वाले लोगों को बोला करते.

कृष्णराय हमारे बंगले के पास अभी रहने आए थे. मैं ने उन के मुख से कई बार यहां भारत के अनुभव व पाकिस्तान में उन की सुखद आर्थिक स्थिती के बारे में सुनता रहता था.

एक दिन मैं ने उन को यों ही मजाक में कहा, “कृष्णरायजी, आप हमेशा अपने बारे में किश्तों में बताते रहते हैं, कभी किसी के साथ बैठ कर अपनी पूरी कहानी सुनाइए,” मगर उन के चेहरे के भावों को देख कर मैं ने जल्दी क्षमा मांगी.

उन्होंने गहरी सांस ली और बोले,”चांडक साहब, इस में क्षमा की बात नहीं है. आप ठीक कहते हैं, मुझे हर किसी को अपनी बात नहीं कहनी चाहिए. लेकिन क्या करूं, मन में रख नहीं रख पाता हूं, अंदर घुटन महसूस करता हूं. सच कहूं, मैं अपनी पूरी कहानी किसी को सुनाना चाहता हूं ताकि जी हलका हो सके,” उन्होंने उदासी से कहा.

“आज मैं अपने काम से फारिग हूं, आप को ऐतराज नहीं हो तो मैं आप की कहानी सुनना चाहता हूं. विश्वास कीजिए, मैं आप की कहानी का मजाक नहीं बनाऊंगा,” मैं ने संजीदगी से कहा.

उन्होंने मेरी ओर गंभीर नजरों से देखा, शायद सोचा हो कि कहूं या नहीं? लेकिन फिर उन्होंने अपनी कहानी शुरू की, अपने पाकिस्तान में जन्म से ले कर व भारत में स्थायी होने तक…

मेरा जन्म पाकिस्तान में एक रईस व जमींदार हिंदू परिवार में हुआ था. मैं ने बचपन से ले कर जवानी तक कभी भी किसी की चीज की कमी महसूस नहीं की, जो चाहा वह मिला. घर पर नौकरों की फौज थी. मेरे बाबा हमारे गांव के सब से बड़े जमींदार थे. गांव में वही होता था जो हमारे बाबा चाहते थे. यह सब आजादी के पहले की नहीं, आजादी के बाद की बात थी.
हमारा वहां बहुत बड़ा संयुक्त परिवार था. हम ने कभी भी अपनेआप को अकेला महसूस नहीं किया. 2 साल पढ़ने के लिए मैं कराची गया. लेकिन पढ़ाई बीच में छोड़ कर मैं जल्दी जमींदारी में लग गया.

कुछ समय बाद हम ने शहर में भी अपना व्यवसाय खोल दिया. हम हिंदू थे पर पूरा गांव मुसलमान था. हमारे नौकर व ग्राहक भी मुसलिम थे.

मैं ने कभी जाना भी नहीं कि हिंदू व मुसलिमों में फर्क भी होता है. न ही कभी गांव के मुसलिमों ने हमें यह महसूस होने दिया. 1965 व 1971 में जब हमारे रिश्तेदारों ने, जो पाकिस्तान छोड़ कर हिंदुस्तान जा रहे थे, हमारे दादा से भी हिंदुस्तान चलने का आग्रह किया था. लेकिन दादा अपनी जन्मभूमी छोड़ कर जाने को तैयार ही नहीं थे. वे हठीले जमींदार थे, दूसरा उन्होंने कभी खतरा महसूस नहीं किया.

हम लोग वहां सुख व आनंद के साथ जी रहे थे. मेरे बड़े भाई स्थानीय समर्थकों की सहायता से वहां की नगरपालिका के अध्यक्ष बने. उन्होंने वहां की जनता के लिए अच्छे काम किए और लंबे समय तक इस पद पर बने रहे. लेकिन इस बीच अयोध्या के मामले ने हमारे दिलोदिमाग को भीतर तक झकझोरा और हम पहली बार खुद को असुरक्षित समझने लगे. हम अपने दोस्तों व गांववालों से नजरें मिलाते तो ऐसा लगता जैसे हिंदुस्तान में जो हो रहा है उस के लिए हम जिम्मेदार हैं.

हमें हिंदुओं के बारें में धार्मिक स्थिति तो पता थी पर सामाजिक व राजनीतिक स्थिति से हम लोग अनजान थे. अब हम जब अपने दूसरों जगहों के रिश्तेदारों से मिलते तो यही चर्चा होती कि क्या हम पाकिस्तान में सुरक्षित हैं? यदि हां, तो कब तक? हमारे चेहरे भले ही शांत हो पर मनमस्तिष्क में द्वंद्व चलता रहता था. मस्तिष्क कह रहा था कि हम सुरक्षित नहीं हैं पर मन कहता कि यह तो हमारी जन्मभूमी है.

इस बीच रथयात्रा निकली. हिंदुस्तान के दंगों की चर्चा पाकिस्तानी समाज व अखबारों में होने लगी. वहां कुछ लोग इस की प्रतिकिया करने लगे. पुराने मंदिर खंडहर फिर समतल मैदान होने लगे. हिंदुओं की दुकानें जो गिनीचुनी थीं लुटी जाने लगीं.

मुझे लग रहा था कि भारत पाकिस्तान के विभाजन की प्रकिया अभी तक पूरी नहीं हुई है. अब हमारा पाकिस्तान में रहना मुझे असहज लगने लगा. मैं अब जल्द से जल्द विधर्मी देश को छोड़ कर सहधर्मी देश में आने की सोचने लगा ताकि मैं अपने लोगों के बीच सुरक्षित महसूस कर सकूं. मुझे लग रहा था कि भारत पाकिस्तान के विभाजन की प्रकिया अभी तक पूरी नहीं हुई है. मैं परिवार के सदस्यों के बीच इस बात को ले कर विचारविमर्श करने लगा. लेकिन सब ने मुझे यही समझाया कि यहां से उखड़ कर, वहां पनपना आसान नहीं होगा. यहां की जमींदारी व जमाजमाया व्यवसाय छोड़ कर कहीं तुम्हें वहां की दरदर की ठोकरें न खानी पड़े. तुम्हारी हालत बिना जड़ के पेड़ की तरह हो जाएगी. आखिर उन का तर्क सही था.

लेकिन दूसरी तरफ मन कहता कि जहां चाह वहां राह. दूसरा मेरा हठीला स्वभाव अपने बाबा पर गया था. वैसे भी घोड़े पर चढ़ने वाला दुल्हा फेरे खाने के बाद ही नीचे उतरता है.

जब मेरे मुसलमान दोस्तों व गांव वालों को मेरे निर्णय के बारे में पता चला तो वे सब मेरे पास आए और मुझे समझाने लगे, “किशन तुम्हें हम पर विश्वास नहीं, हम लोग न जाने कितनी पीढ़ियों से एकसाथ रह रहे हैं, क्या हमारे होते हुए तुम्हें आंच आ सकती है?” समझाते हुए उन की आंखों में आंसू आने लगे. मैं भी रोने लगा. एक बार तो मैं ने भी अपना निर्णय बदलने की सोची लेकिन कुछ समय बाद के बुरे खयालों से मेरा दिल कांपने लगा.

आखिरकार, मैं अपना घर, कारोबार व जन्मभूमी, बसबसाया सुख छोड़ कर अनजाने लेकिन सहधर्मी देश की ओर निकल पड़ा, संशयपूर्ण भविष्य को साथ में ले कर.

घर व गांव को छोड़ते हुए मेरे आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे. मेरे परिजन, गांव वालों व दोस्तों की आंखों में आंसू थे. मेरे दोस्तों व गांव वालों ने विदा करते समय कहा,”किशन, यदि तुम्हें पराई जमीन पंसद न आए तो निस्संकोच अपने गांव वापस आ जाना,” यह उन के अंतिम वाक्य थे, जो मुझे न जाने कितनी बार याद आए.

अभी तक तो मेरी जिंदगी सुख के धरातल पर चल रही थी. पुरखों के बोए बीजों के फल मैं खा रहा था. उबङखाबड़ और परेशानियों वाली जिंदगी के दर्शन अभी तक बाकी थे जो यहां आने के बाद होने लगे.
नई आशा व विश्वास में आ गया अपने सहधर्मी देश. बहुत सारे सामान व अपने परिवार के साथ मैं मुंबई एअरपोर्ट पर उतरा. सब से पहली परेशानी यहीं से शुरू होती है. यहां पर कस्टम अधिकारियों ने शुरू में बहुत परेशान किया क्योंकि एक तो मैं पाकिस्तान से आया था, दूसरा मेरे साथ पूंजी के रूप में बहुत सारा सोना आभूषणों के रूप में मेरे साथ था. पर जब उन्होंने पाकिस्तान में एक हिंदू के रूप में मेरी व्यथा सुनी तो उन का दिल पसीजा और उन्होंने मेरे न सिर्फ कस्टम ड्यूटी माफ की बल्कि उन्होंने मेरे और मेरे परिवार को दिल से कैंटीन में खाना भी खिलाया. मेरे प्रति एक हिंदू के रूप में यह पहली सहानुभूति थी.

हिंदुस्तान आ कर कुछ दिन मैं अपनी बड़ी बहन के यहां रहा. कुछ दिन बाद उन्हीं के शहर में एक मकान भी लिया, जहां मैं ने पहली बार सहधर्मी पड़ोसियों के अनुभव लिए. मैं जहां रह रहा था वहां पाकिस्तान से विस्थापित हो कर आना जिज्ञासा का विषय नहीं था, क्योंकि हमारी तरह के बहुत सारे परिवार विस्थापित हो कर यहां आ कर बस गए थे. जिज्ञासा का विषय तो हमार शाही रहनसहन व खानपान था. साथ में हमारा बड़ा परिवार भी सब की नजरों में चर्चा का विषय था. हमारे यहां 8-10 सदस्यों का परिवार सामान्य समझा जाता था. लेकिन यहां के 2-3 सदस्यों वाले परिवारों में हमें स्वाभाविक रूप से चर्चा का विषय बनना ही था.

हमारी मातृभाषा सिंधी थी जो यहां की गुजराती भाषा से बहुत भिन्न थी. हालांकि मुझे इस की खास परेशानी नहीं थी क्योंकि कराची में मेरे कुछ दोस्त गुजरात से आए हुए थे, लेकिन बच्चों व बीवी को बहुत परेशानी होती थी.

हम ने कुछ ही समय में सारी भौतिक सुखसुविधाएं जुटा लीं. हमारा शाहीखर्च उन को आश्चर्यचकित कर देता था. मेरी पत्नी का उन को चायनाश्ता के साथ स्वागत करना विस्मय से भर देता था क्योंकि वे लोग चाय तक ही सीमीत रहते थे. बच्चों का दिनभर झगड़ना उन की शांत जिंदगी में तुफान ला देता था. बहुत लोगों ने इस की शिकायत की. लेकिन मेरे कहने पर कि यह तो बच्चे हैं उन को गुस्से में ला देता था, “आप तो बड़े हैं,” ऐसा अपमान बहुत बार हुआ.

काम करने वाली जिस दिन नहीं आती उस दिन जूठे बरतनों व कपड़ों का अंबार लग जाता था. मेरे घर का माहौल देख कर लोगों ने धीरेधीरे आना बंद कर दिया.

उधर मैं व्यवसाय ढूंढ़ने के लिए इधरउधर अपने भाई के दोस्त के साथ भटकने लगा. व्यवसाय शुरू करना व उसे सुचारु रूप से चलाना कितना मुश्किल भरा होता है यह मुझे अब पता लगना था. अब तक मैं अपने बापदादा की जमीजमाई जमींदारी पर आराम के साथ जिंदगी गुजार रहा था.

दूसरी तरफ मेरी बहन के परिवार के साथ संबध कटने लगा, वे मुझे व्यवसाय में मदद के लिए असमर्थ लगे. लेकिन आज सोचता हूं कि वे उस समय कितने सही थे. उन का मुझे कुछ समय राह देख कर, व्यवसाय शुरू करने की सलाह को मैं ने गलत तरीके से लिया था. आज यह सोच कर ग्लानी से भर उठता हूं.

मैं ने जल्द ही भाई दोस्त के कहने पर अहमदाबाद के नजदीक शहर में अपना व्यवसाय शुरू किया, लेकिन जो व्यवसाय मैं ने शुरू किया उस का मुझे तनिक भी अनुभव नहीं था. जिस कारण शुरू में मैं बहुत परेशान रहा.

मेरी परेशानी देख कर मेरी बहन ने अपने बेटे को मेरी मदद करने लिए भेजा. वह इस मामले में बड़ा अनुभवी व होशियार निकला. उस ने मेरे व्यवसाय को जमाने में मेरी बहुत मदद की. मेरे बच्चे तो बहुत ही छोटे थे.

बच्चों को भी शुरू में विद्यालय व आसपास के माहौल में सामंजस्य बैठाने में बहुत तकलीफें आईं. भाषा की तकलीफें तो थीं ही साथ में और भी कई परेशानियां थीं.

एक बार मेरे बेटे को विद्यालय में राष्ट्रगान बोलने को कहा तो उस ने पाकिस्तान का राष्ट्रगान सुना दिया. इस पर विद्यालय व शहर में बहुत हंगामा हुआ. घर पर बुलावा आया, मुझे माफी मांगनी पड़ी व भविष्य में ऐसा नहीं होगा लिखित आश्वासन भी देना पड़ा.

हर महीने पुलिस थाने जा कर उपस्थिती के साथ नजराना भी देना पड़ता था. यहां पर व्यवसाय के चक्कर में सरकारी अधिकारियों के साथ रोज पाला पड़ता था.

मेरा सपना हिंदुस्तान आ कर चकनाचूर हो गया. मैं ने तो यह सपना देखा था कि सहधर्मी देश आ कर मैं सुरक्षित व सुखी रहूंगा. हालांकि मुझे व्यवसाय में सफलता मिल रही थी पर मैं यहां की परेशानियां झेलने में असफल व असमर्थ था.

जब मैं अपने साथी व्यापारी व रिश्तेदारों से बातें करता तो वे हंस कर कहते,”यह तो साधारण रोज की बातें हैं जिन का जिंदगीभर सामना करना पड़ता है. जितना बड़ा व्यापारी उतनी ज्यादा परेशानियां.

मैं परेशान हो गया, मन में अजीब सा द्वंद्व पैदा हो गया. कभीकभी सोचता था कि सबकुछ छोड़ कर वापस पाकिस्तान चला जाऊं. लेकिन वहां मेरे दोस्त व रिश्तेदार क्या कहेंगे? क्या उन के व्यंग्यबाण मैं झेल पाउंगा? हो सकता है वहां की सरकार मुझे शक की नजरों से देखे.

इस तनाव के कारण मैं चिड़चिड़ा हो गया. मैं तनाव में रहने लगा. मेरे व्यवहार में अजीब सी कर्कशता आ गई. बच्चे भी सहमने लगे. मैं ने पहली बार जाना कि अपनी जड़ों से कट कर दूसरी जगह जुड़ना कितना कठिन व कष्टदायक होता है.

मुझे बीमार व तनाव में देख कर मेरी पत्नी ने बड़ी बहन को बुलाया. मेरी हालत देख कर मेरी बहन की आंखों में आंसू आ गए.

मैं ने रोते हुए कहा, “दीदी, अब मैं यहां और नहीं रह सकता. मेरे में और परेशानियां झेलने की क्षमता नहीं है. मैं अब वापस अपने लोगों के बीच लौट जाना चाहता हूं.”

“क्या हम तुम्हारे नहीं हैं कृष्ण? और फिर क्या बारबार एक जगह से पेड़ों को उखाड़ कर दूसरी जगह रोपना आसान है? क्या तुम पहले की तरह वहां रह सकोगे? इतना फैला हुआ व्यापार समेटना क्या आसान है? तुम्हारे बच्चों का यहां मन लग गया है. देखो वे कितने खुश हैं,” मस्ती से खेलते बच्चों को दखते हुए बोली.

“क्या वापस पाकिस्तान जा कर बच्चों की हालत तेरी जैसी नहीं हो जाएगी?”

कुछ देर बाद रुक कर दीदी आगे बोली,”तुम एक बार वहां की जिंदगी को भूल कर, वहां के सारे सुखों को भूल कर, यहां नई जिंदगी शुरू कर दो. यही सोचो कि तुम्हारा जन्म यहीं पर हुआ है. मैं जब ससुराल आई थी, तब मेरा यहां कोई नहीं था. मैं अपना सुखदुख किसी को सुना नहीं सकती थी. लेकिन तुम्हारा तो यहां पूरा परिवार है, मैं हूं, अपने लोगों से तुम्हारा फोन पर संपर्क है. और तुम जल्दी घबरा गए, जल्दी हार मान गए. मैं तो तुम्हारी तरह वापस भी नहीं जा सकती थी. तू तो मेरा भाई है, तेरे में तो मेरे से भी ज्यादा हिम्मत, हौसला व हिम्मत होनी चाहिए. उठ और हिम्मत से काम ले. सहनशील व संयमशील बन कर जिंदगी को आसान व सफल बना,” दीदी ने सिर पर हाथ फेर कर कहा.

‘उन की बात सही थी कि मेरा वापस जाना संभव नहीं. मेरे बच्चों की भी हालत मेरी जैसी न हो जाए. अब मुझे यहीं रहना होगा. मुझे ही इस मुल्क के अनुकूल होना पड़ेगा,’ यह सोच कर मैं ने अपना मन मजबूत किया. इस से जो समस्याएं मुझ में पहाड़ सी दिखती थीं वे कंकड़ के समान दिखने लगी. मैं वही हंसमुख कृष्णकुमार बना. मुझ में हद से ज्यादा संयमशीलता आ गई. मेरा व्यवसाय अच्छा जमने लगा.

कृष्णराय के घर से आने के बाद मैं सोचने लगा कि सच में कितना मुश्किल होता है अपनी जड़ों से कट कर दूसरी जगह पनपना, भले ही वह जगह अपनी मनपंसद व अनुकूल ही क्यों न हो.

सर्दी की धूप से जलती स्किन का कैसे रखें ध्यान ?

सर्दी में धूप सेंकना सब को पसंद है क्योंकि धूप शरीर को गरम करने के अलावा विटामिन डी भी देती है जो मानव स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक है. लेकिन याद रखने वाली बात यह है कि सूरज की किरणें हमेशा हमारे लिए लाभदायक नहीं होतीं क्योंकि अधिक समय तक सूरज की रोशनी के संपर्क में रहने से स्किन डैमेज होने की संभावना रहती है.

सूरज की हानिकारक किरणों से स्किन में फाइन लाइंस आना,  झुर्रियां,  झांइयां जैसी समस्याएं हो सकती हैं, जिस के चलते समय से पहले एजिंग के लक्षण दिखने लगते हैं. ऐसा नहीं है कि स्किन को डैमेज से बचाने के लिए आप सर्दी में धूप का आनंद न लें लेकिन इस मौसम में स्किन का खास ध्यान रखना बहुत जरूरी होता है ताकि सर्दी की धूप से त्वचा न तो जले और न किसी प्रकार की स्किन डैमेज हो.

इस बारे में मुंबई की एस्थेटिक क्लीनिक की कंसल्टैंट डर्मेटोलौजिस्ट और डर्मेटो सर्जन डा. रिंकी कपूर कहती हैं कि सर्दी के मौसम में त्वचा का खयाल रखना काफी जरूरी है क्योंकि इस मौसम में सूरज की रोशनी त्वचा के लिए हानिकारक होती है. सूर्य की किरणें कुहरे और बादलों को भेद कर त्वचा तक पहुंच सकती हैं जिस से सूखापन, समय से पहले त्वचा का एजिंग होना, बेजान त्वचा और यहां तक कि त्वचा का कैंसर भी हो सकता है. इसलिए खासकर, सर्दी के महीनों में त्वचा की देखभाल करना काफी जरूरी है.

अधिक समय तक धूप लेने से त्वचा में जलन और टैनिंग होने लगती है जिस का मुख्य कारण यूवी किरणें हैं. इसलिए यदि आप सर्दी की छुट्टियां बर्फ में बिताने जा रहे हैं, तब भी त्वचा को जलने से बचाने के लिए देखभाल की आवश्यकता होगी. यूवी किरणें कांच में भी प्रवेश कर सकती हैं. इस के लिए कुछ सु झाव हैं जिन्हें अपनाने से सर्दी में भी त्वचा स्वस्थ रहेगी.

  • सर्दी में मुलायम कपड़े पहनना अच्छा होता है. इस मौसम में शरीर को पूरा ढकने वाले मुलायम कपड़े पहनने चाहिए. धूप से बचने के लिए चश्मा पहनें. इस से चेहरे, सिर और गरदन की सुरक्षा में मदद मिलती है. धूप से बचने के लिए हलके रंग के कपड़े अच्छे विकल्प साबित होते हैं.
  • सनस्क्रीन का उपयोग जाड़े में अवश्य करें. कम से कम 30 एसपीएफ वाली सनस्क्रीन क्रीम का प्रयोग करना जरूरी होता है. इस मौसम में चेहरे को साफ रखना भी बेहद आवश्यक होता है. चेहरा साफ कर लेने के बाद सनस्क्रीन लगानी चाहिए. त्वचा को रूखेपन से बचाने के लिए मौइस्चराइजिंग लोशन या क्रीम लगाएं. हर 4 से 6 घंटे में सनस्क्रीन दोबारा लगाएं.
  • दिन में अधिकतम धूप के समय से बचें, जो आमतौर पर सुबह 10 बजे से शाम 4 बजे के बीच में होती है.
  • सर्दी में त्वचा पर एलोवेरा जैल का प्रयोग करें. इस मौसम में जैल वाले लोशन और क्रीम का प्रयोग कर सकते हैं. इस के अलावा त्वचा पर सीधे शुद्ध एलोवेरा जैल का उपयोग कर सकते हैं. यह सूरज की रोशनी से होने वाले नुकसान, त्वचा की जलन और सूजन को कम करने में मदद कर सकता है.
  • धूप से होंठों को सुरक्षित रखने के लिए विटामिन ई से भरपूर लिपबाम लगाना न भूलें. हर बार खाने या पीने के बाद इसे लगाएं.
  • भोजन में धूप से बचाव वाले विटामिन, जैसे डी, ए, सी, ई आदि को शामिल करें. खट्टे फल, दूध, मछली, अंडे, फोर्टिफाइड सेरेस, एवोकाडो, ब्लूबेरी, नट्स, ग्रीन टी, शकरकंद, स्ट्राबेरी, टमाटर, गाजर और पत्तेदार सब्जियां त्वचा को अंदर से मजबूत बनाने में मदद करेंगी.

धूप की वजह से सर्दी में त्वचा के टैन हो जाने पर कुछ घरेलू उपाय किए जा सकते हैं, जिन से आप की त्वचा फिर से निखर सकती है :

  • शहद और नीबू का रस बराबर मात्रा में मिला कर फेस पर लगा लें, सूखने पर धो लें, चेहरा निखर जाएगा. इसे सप्ताह में एक या दो बार किया जा सकता है.
  • मसूर दाल का पाउडर लें और उस में दूध मिला लें. इस पेस्ट को फेस पर लगा लें. सूखने पर धो लें. इस से डैड स्किन निकलने के अलावा चेहरे का कालापन और  झांइयां भी दूर हो जाएंगी.
  • खीरा और गुलाब जल से भी आप सन टैन को दूर कर सकते हैं. खीरे का रस और गुलाब जल को बराबर मात्रा में मिलाएं और कौटन बौल की मदद से त्वचा पर लगाएं. कुछ देर बाद त्वचा को ठंडे पानी से धो लें. इस से सन टैन का असर खत्म हो जाएगा.
  • हलदी और बेसन भी धूप से जली हुई त्वचा को साफ करने में सहायक होता है. 2 चम्मच बेसन में, आधा चम्मच हलदी मिला कर पेस्ट बना कर चेहरे पर लगा लें. सूखने पर गुनगुने पानी से धो लें. सन टैन दूर हो जाएगा.
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