मंच से कहने और वास्तव में करने में बहुत फर्क होता है. मुख्य न्यायाधीश ने डाक्टर भीमराव अंबेडकर की न्यायालय में पहली पेशी की 100वीं वर्षगांठ पर राष्ट्रपति की मौजूदगी में कहा कि न केवल न्यायपालिका में वास्तविक जीवन में औरतों और वंचितों को अभी भी न्याय नहीं मिल रहा है और वे 70 साल या यों कहिए 100 साल पहले की सी स्थिति में हैं.

न्यायपालिका में जज अधिकांशता ऊंची जातियों के पुरुष हैं, इसे स्वीकारते हुए उन्होंने सफाई दी कि उन्हें उच्च अदालतों के जज तो उपलब्ध मंजे हुए निचली अदालतों के जजों से ही चुनने होते हैं जहां ऊंची जातियों के पुरुषों की संख्या बहुत ज्यादा है. उन्होंने यह जरूर कहा कि अब एकदम निचले स्तर पर ज्यूडिशियल सर्विस एग्जाम के कारण 70 प्रतिशत लड़कियां नियुक्त हो रही हैं और कुछ दिनों में वे ऊंची अदालतों में दिखने लगेंगी.

लेकिन समाज में बदलाव क्यों नहीं आ रहा इस पर वे भी बोलने से कतरा गए. असल में समाज में बदलाव इसलिए नहीं आ रहा कि धर्म अपनी बिक्री बड़े जोरशोर से कर रहा है. सरकार तो धर्म प्रचारकों की है ही, धर्म की दुकानें भी हर रोज हर कोने में खुल रही हैं, नईनई, चमकदार. देश का न जाने कितना पैसा चारधामों, मंदिरों तक  पहुंचने की सड़कों, रेलों, हवाईअड्डों पर खर्चा जा रहा है. लोगों को बारबार एहसास दिलाया जा रहा है कि सब कष्टों को दूर करने के लिए न्याय पाने के लिए न्यायपालिका जाने की क्या जरूरत जब एक मंदिर पास ही है. उस मंदिर से बात न बने तो बड़े मंदिर में जाइए, उस से बड़े मंदिर में जाइए.

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