छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव के युवक अभिषेक नरेडी ने बीती 23 जनवरी को आत्महत्या कर ली थी. जांच के दौरान पुलिस को उस के पास से सुसाइड नोट मिला था जिस में उस ने अपने प्रेम प्रसंग और 2 युवकों का जिक्र किया था जो उसे प्रताड़ित कर रहे थे. पुलिस ने इसी सुसाइड नोट की बिना पर युवती व दोनों युवकों को गिरफ्तार कर लिया था. युवती से अभिषेक का प्रेम प्रसंग लगभग 6 साल साल चला था, इस के बाद ब्रेकअप हो गया था.

इन्वेस्टिगेशन के बाद पुलिस ने आईपीसी की धारा 306 के तहत मामला दर्ज करते एडिशनल सेशन जज राजनांदगांव की अदालत में चालान पेश किया. अदालत ने युवती और दोनों युवकों के खिलाफ आरोप तय किए. आरोपियों ने निचली अदालत के फैसले के खिलाफ बिलासपुर हाईकोर्ट में क्रिमिनल रिवीजन पेश किया. अपने फैसले में हाईकोर्ट की सिंगल बेंच के जस्टिस पार्थ प्रीतम साहू ने आरोपियों को आत्महत्या करने के लिए उकसाने के आरोप से मुक्त करते उन्हें बरी कर दिया.

हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि कमजोर मानसिकता में लिए फैसले को आत्महत्या करने के लिए दुष्प्रेरण नहीं माना जा सकता. यदि कोई मानसिक दुर्बलता के चलते ऐसा यानी आत्महत्या करने जैसा कदम उठाता है तो इस के लिए किसी और को दोषी नहीं ठहराया जा सकता. भले ही उस ने सुसाइड नोट में नाम ही क्यों न लिखा हो.

सुनवाई के दौरान अभियुक्तों के वकील की इस दलील से अदालत ने इत्तफाक रखा कि मृतक ने सुसाइड नोट में धमकी देने की बात कही है लेकिन इस की शिकायत उस ने पुलिस में नहीं की थी. हालांकि अदालत ने माना कि प्रेम संबंध खत्म करने और शादी करने से इनकार करने की वजह से ही युवक ने आत्महत्या की थी.

नई बात क्या ?

प्यार में असफलता और ब्रेकअप के चलते खुदकुशी कर लेना कोई नई या हैरानी की बात नहीं है. नई बात है धारा 306 के तहत मामले का हाईकोर्ट तक पहुंचना और उस का यह फैसला कि यह मानसिक दुर्बलता है. यानी, प्यार में इनकार के सदमे को बरदाश्त न कर पाना. कोर्ट ने यह भी माना है कि शादी के लिए हां या न करना निहायत ही व्यक्तिगत बात है. इस के लिए किसी को दोषी नहीं माना जा सकता.

रही बात तीसरों के दखल और धौंसधपट की, तो वह भी नई बात नहीं. लेकिन मृतक ने चूंकि इस की रिपोर्ट पुलिस में नहीं लिखाई थी इसलिए इस के कोई कानूनी माने नहीं. केवल सुसाइड नोट में नाम भर लिख देने से किसी को दोषी नहीं माना जा सकता.

प्यार कोई भी कभी कर सकता है लेकिन उस में असफलता से अकसर किशोर और युवा ही ज्यादा हताश होते हैं और आत्मघाती कदम उठाते हैं. यह एक बड़ी समस्या हो चली है जिस का कोई सटीक हल नहीं लेकिन पारिवारिक और सामाजिक तौर पर हम क्या कर सकते हैं, इस पर गौर किया जाना जरूरी है. बात जहां तक आत्महत्या की है तो यह तय है कि कोई किसी को इस के लिए उकसा नहीं सकता. इस के लिए बिलासपुर हाईकोर्ट के इस फैसले को ही बिन्दुवार देखें तो कुछ बातें स्पष्ट होती हैं, मसलन-

– प्यार में असफलता का सामना न कर पाना एक बड़ी कमजोरी है जिस के लिए किसी एक को या किसी को भी जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता. इस कथन से जुड़ा दूसरा अहम पहलू यह है कि क्या वाकई प्यार खासतौर से युवाओं को इतना कमजोर बना देता है कि उन्हें जिंदगी खुदकुशी कर लेने की हद तक बेकार और बेगार लगने लगती है.

बिलाशक प्यार एक कैमिकल लोचा है जिसे सौ फीसदी समझनेसमझाने में साहित्यकार, समाजशास्त्री, दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक सफल नहीं रहे हैं. लेकिन इस की जरूरत से भी कोई इनकार नहीं कर पाया. प्यार में पड़े युवाओं की हालत देखें तो वे दीनदुनिया से कटे एक खास किस्म की मानसिकता में जी रहे होते हैं. वे दुनिया में रहते हुए भी दुनिया में नहीं होते. ऐसे युवाओं की पहचान हर कोई आसानी से कर लेता है. यहां अहम सवाल यह है कि जब दुनिया एक आदमी में सिमट जाए तो कोई और क्या कर लेगा. यानी, प्यार अपनी रिस्क पर किया जाता है.

– हाईकोर्ट के फैसले से लगता है कि शादी प्यार की मंजिल हो, यह भी जरूरी नहीं. आजकल के प्यार को महज शारीरिक आकर्षण ठहराए जाने की साजिशाना कोशिश पिछले 2 दशकों से हो रही है. और ऐसा हर दौर में होता है कि नई पीढ़ी के प्यार को वासना करार दे कर उसे सामाजिक तौर पर हतोत्साहित करने की कोशिश की जाती रही है.

कहने को तो आसानी से कहा जा सकता है कि आजकल धड़ल्ले से लव मैरिज हो रही हैं. नौर्थ के युवा साउथ में प्यार और शादी कर रहे हैं. उन पर कोई बंदिश नहीं है, उलटे, खुद पेरैंट्स आगे आ कर उन की शादी करवा रहे हैं.

यह अधूरा सच है. यह आंकड़ा या दावा बहुत बड़ा नहीं है लेकिन दिखता ज्यादा है. बात उन लोगों की कोई नहीं करता और न ही इस संबंध में सर्वे होते कि जो युवा आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होते हुए भी पारिवारिक या सामाजिक दबाबों के चलते प्यार को शादी की मंजिल तक नहीं पहुंचा पाते उन की संख्या कितनी है और ऐसा न कर पाने के पीछे दोष किसे दिया जाना चाहिए. वे चूंकि आत्महत्या नहीं करते और सामान्य जिंदगी जीते समाज का हिस्सा बन जाते हैं, इसलिए उन की घुटन कोई देखता ही नहीं.

अदालत की इस बात से इत्तफाक रखा जा सकता है कि प्यार में शादी के लिए ‘हां’ कोई बाध्यता नहीं, यानी, अपराध भी नहीं. यह बात उन युवाओं को कौन और कैसे समझाए कि शादी न हो पाने पर खुदकुशी कर लेना कोई बुद्धिमानी की बात नहीं. उन्हें जिंदा रहना चाहिए और जिंदा रहने के नए मकसद ढूंढना चाहिए. मनपसंद से शादी न हो पाना कोई गिल्ट फील होने की बात नहीं, न ही यह नाकामी है और न ही हार है.

– प्यार में कोई तीसरा या तीसरे आएं तो इस से घबराना नहीं चाहिए. वे समझाएं, धमकियां दें या किसी और मकसद से आएं या जानबूझ कर लाए गए हों, उन का सामना करना चाहिए. अगर वे धमकाते हैं तो इस की पुलिस में रिपोर्ट लिखाई जानी चाहिए. अदालत ने इसे भी खामी ही माना है. पुलिस में न भी जा पाएं तो दोस्तों, शुभचिंतकों या पेरैंट्स की मदद ऐसी हालत में जरूर लेनी चाहिए. प्राइवेसी तो एक न एक दिन खत्म होना तय रहती है, फिर छिपाना क्या.

दिक्कत तो यह है कि प्यार करने वाले ही अपनेआप में आश्वस्त नहीं होते कि वे सही कर रहे हैं या गलत. इसलिए युवा तनाव, परेशानी और दूसरी कई दुश्वारियों सहित आत्मघाती मानसिकता के शिकार होने लगते हैं, जो डिप्रैशन का पहला चरण है.

इस से खुद को बचा लिया तो कुछ मुश्किल नहीं रह पाती. बेहतर तो यह भी रहता है कि प्यार को एक तरह के अनुबंध के तौर पर लिया और जिया जाए, जिस में कोई भी पक्ष खत्म करने को स्वतंत्र हो. इस अनुबंध का एक बिंदु यह भी हो कि न केवल खुद से बल्कि पार्टनर से भी ज्यादा उम्मीदें नहीं रखी जाएंगी.

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