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अब हम खुश हैं : क्या जाति भेद दो दिलों को अलग कर पाया ?

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सूफियों को सियासत में क्यों घसीट रहे हैं सनातनी

सूफियों के बारे में यह आम राय गलत नहीं है कि वे आमतौर पर धार्मिक हिंसा से परहेज करते हैं, इस नातेवे कतई नुकसानदेह नहीं हैं. लेकिन सूफियों के बारे में पसरी यह धारणा बिलकुल गलत है कि वे कोई ऊंचे पहुंचे सिद्ध या चमत्कारी होते हैं और सभी धर्मों को मानते हैं. सूफी खालिस मुसलमान ही होते हैं जिनका कोई स्पष्ट मकसद नहीं है. वे दिनरात ऊपर वाले की आराधना किया करते हैं.

सूफीवाद को समझने के लिए इतना ही काफी नहीं है कि सूफी खुद को आशिक और ऊपरवाले को माशूक और भक्ति को इश्क करार देते हैं. सूफीवाद कहता यह है कि भक्ति में इतने लीन हो जाओ कि सुधबुध खो बैठो. यही मोक्ष है, जोजिंदगी का असल लुत्फ और मकसद है. कर्मकांडों को ईश्वर तकपहुंचने का जरिया न मानने वाले सूफीवाद के पास मेहनत कर खाने और जीने का भी उपदेश नहीं है. वे मानते हैं कि जिस भगवान ने पेट दिया है वही उसे भरने का इंतजाम भी करेगा. यह तो वे भी आज तक नहीं बता पाए कि यह ऊपरवाला आखिर कहीं है भी किनहीं, और अगर है तो उस तक पहुंचने और उस को पाने के लिए इतने सारे रास्ते, धर्म, संप्रदाय व दार्शनिक विचारधाराओं की जरूरत क्यों आन पड़ी.

सूफियों की उत्पत्ति और विकास को लेकर कोई प्रामाणिक साहित्य उपलब्ध नहीं है लेकिन आम सहमति इस बात पर इतिहासकारों में है कि उनकी उत्पत्ति फारस यानी वर्तमान ईरान में हुई थी और 11वीं शताब्दी में सूफी भारत आए थे. हालांकि, इराक के शहर बसरा को भी सूफीवाद की जन्मस्थली माना जाता है. मंसूर हल्लाज,राबिया और अल अदहम जैसे लोकप्रिय कवियों को इनका जनक माना जाता है.

शुरुआती दौर में सूफियों का एक मकसद इसलाम में सुधार का भी था जो कट्टरवादियों को रास नहीं आता था. इसलिए सूफीवाद की अनदेखी भी हुई और इसे स्वीकार्यता नहीं मिली. साल 1100 में अल गजाली के वक्त में सूफियों को मान्यता मिलना शुरू हुई जो अपने दौर के प्रमुख फारसी शिक्षाविद और तर्कशास्त्री थे.कुछ इतिहासकार मानते हैं कि सूफीवाद की उत्पत्ति हजरत मोहम्मद की मौत के बाद 632 के लगभग हुई. सूफियों की शिक्षाएं, जिन्हें आदेश कहा जाता है, 12वीं शताब्दी में चलन में आई मानी जाती हैं.

इतिहास का यह कालखंड यानी मौजूदा दौर दुश्वारियों से भरा पड़ा है. दुनियाभर में कट्टरवाद चरम पर है.इसलाम के पहले ईरान में जरदोष्ट धर्म के अनुयायी रहते थे जिन्होंने जबरिया इसलाम कुबूल करना गवारा नहीं किया. उन्हें यातनाएं दी गईं तो कुछ लोग भारत के गुजरात के तटों पर आ बसे. इन्हें पारसी कहा जाता है जो अब बहुत कम बचे हैं. पारसी सूफी नहीं थे लेकिन सूफीवाद का खासा प्रभाव उन पर था.

तो फिर सूफी कौन थे और भारत कैसे आए, इन में से पहले सवाल का जवाव तो बेहद साफ है कि सूफी वे लोग थे जो कट्टर इसलाम का शिकार थे और सरल जीवन जीना चाहते थे. सूफीवाद जिन नामी कवियों के जरिए परवान चढ़ा उन में एक लोकप्रिय नाम रुबाइयों के लिए मशहूर उमर खैयाम का भी है जो प्रतिभाशाली गणितज्ञ भी थे.इस श्रृंखला में अगले नाम फिरदौसी, रूदाकी, रूमी और नासिर ए खुसरो के हैं.

आज की तरह तब भी दुनियाभर के सारे झगड़ेफसाद धर्म को लेकर ही होते थे. हालिया इजराइल और हमास जंग इसकी ताजी मिसाल है जिसमें हजारों बंदे बेमौत मारे गए. यह एक धर्मयुद्ध ही है जिसमें और भी न जाने कितने मारे जाएंगे, इसका इल्म खुदा के किसी बंदे को नहीं.धर्मांध यहूदी और मुसलमान, बस, जंगली बिल्लियों की तरह लड़े जा रहे हैं.

शांति औरअहिंसा के धार्मिक उपदेशों व सिद्धांतों को तो छोड़िए, कोई सूफी चिंतन का जिक्र तकनहीं कर रहा.तय है, इसीलिए कि वह भी एक धर्म की तरह ही है. फर्क इतना है कि उसकी राजनीतिक और सामाजिक सक्रियता न के बराबर है. इसलाम की उदारवादी शाखा कहे जाने वाले सूफिज्म का फसाना बड़ा चालाकीभरा है कि ‘कटोरा लेकर खड़े रहो, नाचतेगाते रहो,मन लागा यारफकीरी में’वाली थ्योरी तुम्हें भूखा नहीं रहने देगी.अभिजात्य संगठित तरीके से भिक्षा मांगने का एक और नाम सूफीवाद है.

सनातनियों को याद आए सूफी

समाज के इस अनुपयोगी और अनुत्पादक वर्ग को अब हैरत की बात है कि भाजपा घेर रही है. सूफी संवाद महाभियान श्रृंखला में बीते दिनों फिर एक आयोजन हुआ. आयोजक था भाजपा का अल्पसंख्यक मोरचा, तारीख थी 12 अक्तूबर 2023,जगह थी भाजपा कार्यालय, लखनऊ. एजेंडा था-‘मिशन 75’ जिसके तहत भाजपा ने उत्तरप्रदेश की 80 में से 75 लोकसभा सीटें जीतने का लक्ष्य तय किया हुआ है.

मेजबान अल्पसंख्यक मोरचा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जमाल सिद्दीकी ने मेहमान सूफियों से अपील की कि वे मोदी सरकार की योजनाओं और नीतियों को आम मुसलमान तक पहुंचाएं. इस बाबत भाजपा मुसलिम बाहुल्य इलाकों में मुशायरों, कव्वालियों और कौमी चौपालों का आयोजन करेगी. मुसलमानों में मोदी की इमेज चमकाने का ठेका इकट्ठा हुए कोई 200 मजारों से तशरीफ लाए सूफियों ने लिया या नहीं, यह तो उनका ऊपरवाला जाने लेकिन दाद देनी होगी भगवा गैंग के आशावादी नजरिए की जो अनहोनी को होनी बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा.

बोहरा समाज और पसमांदा मुसलमानों पर भी भाजपा ने डोरे डालने की कोशिश की है लेकिन ये मुहिमें परवान चढ़ने के पहले ही फुस्स हो चुकी हैं क्योंकि ये खुद बेदम थीं.यह बात कभी किसी सुबूत की मुहताज नहीं रही कि नरेंद्र मोदी और भाजपा हिंदू राष्ट्र के अपने एजेंडे पर काम कर रहे हैं और इसमें वे कुछ मुसलमानों को भी सहमत करने की कोशिश कर रहे हैं.

लेकिन यह सब इतना आसान नहीं है क्योंकि आम मुसलमान मोदी राज में डर और दहशत के साए में जी रहा है. पसमांदा मुसलमान,बोहरा और सूफी इसके अपवाद नहीं हैं.चूंकि वे कट्टर हिंदूवाद का खुला विरोध नहीं करते, इसलिए सनातनियों ने उन्हें तटस्थ रखने की चाल चली है. एक दूसरा मकसद, बेवजह का रायता लुढ़काते रहने के लाभ उठाने की भी है.‘हल्ला मचता रहे इसमें हर्ज क्या है’ की मानसिकता के अलावा तीसरा मकसद मुसलमानों में फूट डालने का भी हो सकता है. ठीक वैसी ही फूट जैसी उदारवादी और कट्टर हिंदुओं के बीच है.

चादर और फादर शिर्डी और मोदी

जिन कुछ मामलों में नरेंद्र मोदी को अपनी भूमिका तय करने की छूट नहीं, उनमें से एक मामला उनकी इमेज का भी है.चंद दिनों पहले ही मोदी शिर्डी में थे जहां उन्होंने भक्तों की लाइन लगने वाली जगह का उद्घाटन किया. सनातनी अब बेहिचक कहने लगे हैं कि साईं बाबा एक वेश्यापुत्र था और उसका नाम चांद मियां था. हिंदुओं को शिर्डी जाकर साईं बाबा का पूजापाठ नहीं करना चाहिए क्योंकि वह सनातनी देवता नहीं, बल्कि पीरफकीर है. इस मसले, जिस पर कई दफा बबाल मच चुका है, को तूलघोषित तौर पर एक शंकराचार्य स्वरूपानंद ने दिया था. अब उनकी टीम इस मुहिम को अंजाम देती रहती है.

जब साईं बाबा मुसलमान थे तो फिर मोदीजी क्यों वहां पूजापाठ करने गए थे. यह कोई औपचारिक राजनीतिक शिष्टाचार जैसा कदम भले ही भक्त लोग अपनी खिसियाहट दूर करने को मानते रहें पर हकीकत में यह उदारवादी हिंदुओं और मुसलमान दोनों को घेरने वाली बात थी.  मजार पर जाकर सिर झुकाने और बिरियानी खाने वाले प्रसंग अब हवा हो चुके हैं,जिनका अब कोई जिक्र भी नहीं करता.नरेंद्र मोदी की इमेज सैक्युलर दिखे,यह मंशा भी भगवा गैंग की नहीं दिखती बल्कि यह उदारवाद के प्रति उपेक्षा और उसका उपहास उड़ाने जैसी बात थी जिसकी स्क्रिप्ट आरएसएस लिखता है.

जैसे, जब कभी संघ प्रमुख मोहन भागवत यह कहते हैं कि मुसलमान कोई गैर नहीं, बल्कि हिंदुओं के ही भटके हुए वंशज हैं और मुसलमान जितना सुरक्षित भारत में हैं उतना दुनिया के किसी देश में नहींहैं तो आम मुसलमान घबरा उठता है कि अब न जाने क्या होने वाला है. इन्हीं दिनों के आगेपीछे सूफियों या शिर्डी के साईं बाबा के दर्शन जैसा कोई ड्रामा संपन्न हो जाता है.

अब यह और बात है कि ऐसे वक्त में चादर और फादर को कोसते रहने वाले कट्टर सनातनी हिंदुओं को समझा और संभाल पाना मुश्किल हो जाता है जो इस गफलत में पड़ा रहता है कि हमें तो मैसेज दिया जाता है कि अड़े रहो और यहां वे खुद सजदा सा कर रहे हैं, वरना तो अजमेर शरीफ चादर भेजे जाने की तुक भी समझ नहीं आती. यह लीला या कूटनीति अवैतनिक प्रचारकों को समझ नहीं आती.

शिर्डी में साईं बाबा के पूजापाठ के वक्त नरेंद्र मोदी श्रद्धा भक्ति में डुबकी लगातेनहीं दिखते, ऐसे मौकों पर उनका चेहरा स्लेट की तरह सपाट दिखता है. जबकि, काशी या उज्जैन में शिवलिंग का अभिषेक और पूजा करते उनका चेहरा चमक रहा होता है और वे पूरे मनोयोग से धार्मिक अनुष्ठान करते अकसर साष्टांग हो जाया करते हैं.

कुछ लोग साईं बाबा को भी सूफी ही मानते हैं और यही लोग वे सनातनी हिंदू हैं जो हिंदू राष्ट्र के एजेंडे पर उग्र नहीं होते. इन हिंदुओं को जहां चमत्कार दिखता है वे वहीं अपना बटुआ खोलकर नमस्कार करने बैठ जाते हैं फिर चाहे वह मंदिर हो या मजार, इससे उनकी आस्था या मन के डर पर कोई फर्क नहीं पड़ता.

शिर्डी में नरेंद्र मोदी ने साईं बाबा की शान में कोई कसीदा नहीं गढ़ा, न उन्होंने यह कहा कि महान साईं बाबा ठीक कहते थे कि सबका मालिक एक है औरहमें श्रद्धा व सबूरीवाली शिक्षा में भरोसा करना चाहिए. मोदी किसी मजबूरी के तहत भी शिर्डी जैसी जगह नहीं जाते बल्कि यह उनके हिंदू राष्ट्र के एजेंडे का एक हिस्सा है जिसके तहत कट्टरवाद पर अस्थाई नकाब ओढ़ ली जाती है जिससे विदेशों में यह मैसेज जाए कि मोदी जी सबके हैं और उनके राज में धार्मिक असहिष्णुता व संकीर्णता नहीं पनप रही. बावजूद इस सच के कि वह दिन दोगुनी रात चौगुनी फैल रही है.

यों पनपे सूफी और मजारें

यह बहुत दिलचस्प इत्तफाक है कि जहांजहां मुगल गए, उनके पीछेपीछे सूफी भी अपनी आध्यात्म की दुकान लेकरपहुंचते गए. भारत में सूफीवाद ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती लाए थे जो अफगान सेनापति शिहाबुद्दीन गौरी के साथ 1192 में भारत आए थे. ख्वाजा ने चिश्ती तरीके से भारत में सूफीवाद का प्रचारप्रसार किया.

चिश्ती कोई पद्धति नहीं है बल्कि चश्त ईरान के एक शहर का नाम है जहां अबू इसहाक शामी ने सूफी दर्शन के काव्यात्मक प्रचारप्रसार का सिलेबस तैयार किया था. इसी से चिश्ती शब्द वजूद में आया जिसके तहत शांतिपूर्ण तरीके से गीत और संगीत के जरिए आध्यात्म की आड़ में इसलाम का प्रचार किया जाता था.

भारतीय यानी हिंदुओं ने सूफियों का विरोध नहीं किया क्योंकि वे खुद भजन और आरतियों के जरिएईश्वर की आराधना करते थे. दूसरे, सूफी सनातन के लिए खतरा महसूस नहीं हुए थे. मोईनुद्दीन चिश्ती ने अजमेर में डेरा डाला और अपनी दुकान शुरू कर दी जिसे भारी रिस्पौंस मिला. लोगों को शांतिपूर्ण तरीके से भगवान को पूजने व मानने का आइडिया कुछ ज्यादा ही पसंद आया.

हैरत की बात यह भी रही कि ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती के अनुयायियों में हिंदुओं की संख्या ज्यादा थी जो आज तक बरकरार है. तत्कालीन कुछ शासकों की झड़पें और विवाद सूफियों से होते रहते थे लेकिन जल्द ही उन्होंने सूफियों और मजारों के सामने घुटने टेक दिए जो आज तक टिके हुए हैं.आमतौर पर मजार और दरगाह में हिंदू कोई फर्क नहीं करते हैं. दरगाह वहीं बनाई जाती है जो मरने वाले की वास्तविक जगह होती है जबकि मजार कहीं भी बनाई जा सकती है और हर कहीं बनाई भी गईं.

कांग्रेस के शासनकाल में भी अजमेर की दरगाह पर चादर प्रधानमंत्री की तरफ से भेजी जाती थी. यह रिवाज भाजपा के वक्त तक कायम है. इसी साल जनवरी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 811वें उर्स के मौके पर अजमेर 9वीं बार चादर भेजते ख्वाजा की शान में कसीदे गढ़े थे. इस साल चादर उन्हीं जमाल सिद्दीकी के हाथों भेजी जो उत्तरप्रदेश में सूफियों को इकट्ठा कर रहे हैं. उनके पहले अजमेर शरीफ चादर ले जाने का नेक काममुसलिम होने के नाते पूर्व केंद्रीय मंत्री मुख़्तार अब्बास नकवी से करवाया जाता था.

साफ दिख रहा है कि खुद भगवा गैंग ही चादर-फादर की राजनीति को गरमाता रहता है जिससे धर्म की राजनीति परवान चढ़ती रहे. यह बात सनातनी शायद ही कभी समझ पाएं कि हर कभी सार्वजनिक तौर पर कांग्रेस को तुष्टिकरण की राजनीति का जिम्मेदार ठहराने वाले नरेंद्र मोदी किस मजबूरी, जो दरअसल खुदगर्जी है, के तहत खुद तुष्टिकरण की राजनीति करते हैं.

इसी तुष्टिकरण के चलते देश में मजारें भी इफरात से बढ़ीं जिन में नाजायज तरीके से बनी मजारों की संख्या ज्यादा है. ऐसी मजारों को अब दिल्ली में भी खूब तोड़ा जा रहा है और उत्तराखंड में भी. लेकिन अब इन पर हल्ला कम मचता है और ऐसी खबरों से सबसे ज्यादा खुश कट्टर हिंदू ही होते हैं.

इसी साल अप्रैल में दिल्ली के मंडी हाउस स्थित हजरत नन्हे मियां चिश्ती की मजार को रातोंरात प्रशासन ने हटा दिया था तो किसी ने विरोध नहीं किया था लेकिन साल 2002 में अहमदाबाद में वली दखानी की मजार को तोड़े जाने पर खासा हल्ला मचा था. वली दखानी 17वीं सदी के पहले उर्दू गजलकार थे जिनका नाम हिंदी और उर्दू साहित्य में इज्जत से लिया जाता है. इस मजार को तोड़े जाने का जिक्र गोधरा दंगों की जांच करने वाले आयोग ने अपनी जांच रिपोर्ट में किया तो था लेकिन इसके लिए किसी को दोषी नहीं ठहराया था.

मजारों को तोड़े जाने पर उदारवादी हिंदू अमूमन खामोश ही रहता है जबकि मजारों और दरगाहों पर चादर चढ़ाने में वह मुसलमानों से आगे रहता है. यह आस्था की नहीं, बल्कि चमत्कारों की महिमा है क्योंकि दरगाहें और मजारें भी हिंदूमंदिरों की तरह लोगों को औलादें देती हैं, रोजगार दिलाती हैं, असाध्य बीमारियों से छुटकारा दिलाती हैं, शादी करवाती हैं, पतिपत्नी की अनबन दूर कराती हैं और शादी व जरूरत पड़ने पर तलाक भी करवाती हैं.

शर्त बस पैसा चढ़ाने की है जिसमें आम भारतीय उन्नीस नहीं.अजमेर की दरगाह में तमाम क्षेत्रों की हस्तियां जाती हैं. चढ़ावे और कमाई के मामले में दूसरा नंबर दिल्ली की हजरत निजामुद्दीन दरगाह का आता है. हजरत निजामुद्दीन चिश्ती घराने के चौथे संत थे जिन्होंने दक्षिणी दिल्ली का इलाका दुकान चलाने को चुना था.

सनातनी, जाहिर है जिनमें पंडेपुजारी ज्यादा हैं, मजारों और दरगाहों की फलतीफूलती दुकानों पर एतराज जताते रहते हैं. वे इस मानसिकता को भूल जाते हैं कि वह धर्म ही है जो लोगों को चमत्कारों और मोक्ष की घुट्टी पिलाता है और यह ठेका सभी धर्मों में लिया व दिया जाता है. अब अगर आपका ग्राहक इधरउधर भागता है तो उसे आप ब्रैंड के रस्से से बांधनहीं सकते. यह तो नशा है जो जहां सस्ता और सहूलियत से मिलेगा, लोग खूंटा तोड़ कर उधर भागेंगे ही. इसलिए बात करना है तो नशामुक्ति की जाए न कि इस बात की कि जब अपने यहां नशा मौजूद है तो वहां जाकर क्यों पैसा और वक्त बरबाद कर रहे हो. यह तो लोगों की अपनी मरजी पर निर्भर करता है कि वे कहां जाकर लुटना पसंद करते हैं.

अंधविश्वासों की खान हैं मजारें

मजारों से जुड़े चमत्कारों के किस्से भी कम दिलचस्प नहीं हैं. भोपाल के 1250 इलाके की सड़क के बीचोंबीच बनी एक मजार पर गुरुवार और शुक्रवार को भारी भीड़ रहती है. यहां मन्नत मांगने के लिए झुग्गीझोंपड़ी के लोग ज्यादा आते हैं जिनकी मन्नत भी छोटी ही रहती है. किसी को सट्टे कीनंबर खुलने की मुराद रहती है तो कोई पत्नी के प्रेमप्रसंग से परेशान है. कोई रोजगार में बरकत के लिए फूल और चादर चढ़ाता है तो किसी को पेट में अल्सर की समस्या से मुक्ति चाहिए रहती है.

यानी, अंधविश्वासों और पाखंडों का बाजार गरमाने में मजारों का योगदान भी कमतर नहीं है जहां के मुजाविर रोज हजारों की नजर उतारकर दक्षिणा बटोरते हैं. लेकिन ज्यादा पैसा बड़े चमत्कारों से आता है. जानकर हैरानी होती है कि बाराबंकी की एक मजार दीवान साहब में हाजिरी लगाने भर से चोरी गए सामान की जानकारी मिल जाती है.इसके लिए फरियादी को वहां की एक ईंट पलटानी पड़ती है.

गाजियाबाद के बसस्टैंड स्थित गाजीउद्दीन बाबा की मजार पर हर गुरुवार भारी भीड़ उमड़ती है क्योंकि यहां के सिद्ध बाबा भक्तों की हर तकलीफ दूर करते हैं. इसके लिए फरियादी को अपनी रिपोर्ट मजार पर दर्ज करानी होती है. रिपोर्ट लिखाने के तीनतीन दिनों के अंदर ही समस्या का समाधान हो जाता है. एवज में फरियादी को गाजीउद्दीन बाबा को चादर भेंट करने के आलावा3 सप्ताह तक मजार पर आमद दर्ज करानीपड़ती है.

अजमेर की ही एक और दरगाह मीरा सैयद हुसैन खिंग्सवार की एक दरगाह के बारे में तो चर्चित है कि यहां लाल बूंदी का करिश्माई पेड़ है जिसके फल खाने से कोई बेऔलाद नहीं रहता. एक बार एक किन्नर ने फल खा लिया था जिससे वह प्रैग्नैंट हो गया या हो गई थी और एक सुंदर कन्या को जन्म दिया था.

बेसिरपैर के इन चमत्कारी किस्सेकहानियों को सुन लगता है कि मैडिकल साइंस एक फुजूल की चीज है और निसंतानों को बजाय फर्टिलिटी वगैरह के ऐसे फल खाना चाहिए जो गुलाब के कुछ फूलों, रेवड़ियों, बताशों एक हरी चादर और चुटकीभर लोबान के एवज में गोद हरी होने की गारंटी हैं. लेकिन चूंकिसच में ऐसा है नहीं, इसलिए लोग सहारा तो विज्ञान का ही लेते हैं.

मोक्षनगरी गया में हिंदू केवल पूर्वजों की मुक्ति के लिए ही नहीं जाते बल्कि यहां भी बाई वन गेट वन फ्री की स्कीम चलती है. यहां की बिधोशरीफ दरगाह के बाबा हजरत मखदूम के दरबार  में हाजिरी लगाने भर से साध्य और असाध्य बीमारियां ठीक होती हैं. इस दरगाह पर अब विदेशी भी आने लगे हैं.

बाराबंकी की ही एक और मजार, जो गुलाम शाह की है, की होली की आग तापने से कैंसर और सफेद दाग जैसी लाइलाज बीमारियां ठीक होती हैं.देशभर में ऐसी कोई 2 लाख मजारों पर हजारों तरह के चमत्कार के नाम पर लोग मूर्ख बनते हैं. इन मजारों के बाबाओं को पीर साहब, शाह आदि कहा जाता है जो अलौकिक शक्तियों के स्वामी के रूप में प्रचारित किए जा चुके हैं.इनकी शान में गुस्ताखी हो तो ये दुर्वासा जैसे क्रोधित होकर श्राप भी दे देते हैं.

दुख की बात यह है कि कभी भी सूफियों ने इन चमत्कारों का खंडनमंडन नहीं किया और यह उम्मीद भी उनसे करना बेकार की बात है क्योंकि यही चमत्कार उन्हें रोजीरोटी देते हैं. सार यह कि सूफी और सूफीवाद कोई रहस्य नहीं है, वे भी दुकानदार ही हैं और लोगों को बेवकूफ बनाते हैं. अब इनको भाजपा प्रचारप्रसार में झोंक रही है तो यह उसकी मार्केटिंग का पुराना और परंपरागत तरीका है. हिंदू पंडेपुजारी भी उसके लिए वोट ही कबाड़ते हैं.अब मजारों की खिदमत और देखभाल करने की खा रहे मुजाविर भी यही करेंगे.

सूफियों को भी झांसा

सूफी संवाद और शिर्डी दर्शन लगभग एक ही वक्त यानी `कालखंड` में हुए,सो, सियासी तौर पर इसे 2024 की तैयारियां कहा जा सकता है जो भाजपा केहिंदुओं के प्रति या हिंदुओं के भाजपा के प्रति कम होते विश्वास व भय को ही दिखाते हैं. तमाम अंदरूनी और बाहरी सर्वेक्षणों से यह उजागर हो चुका है कि चाहे कुछ भी हो जाए, मुसलमान भाजपा को 5 फीसदी से ज्यादा वोट कभीनहीं देता.

सूफियों के प्रचारप्रसार करने से यह बढ़ेगा, ऐसा कहने व सोचने की भी कोई वजह नहीं. धारा 370 और तीन तलाक जैसे मुद्दे अब राममंदिर की तरह बासी हो चुके हैं. इनका ढोल सूफी पीटेंगे तो आम मुसलमान को यह रास नहीं आएगा और यही भाजपा की मंशा भी है कि हिंदुओं की तरह मुसलमानों में भी फूट पड़े और उनका एक, छोटा ही सही, तबका उसकी और झुके.

सूफी क्या करेंगे और क्या नहीं, यह वक्त बताएगा कि वे अपने हाथ के चिमटे को बजाते ‘भर दे झोली या मोदी की…’ गाते हैं या नहीं या मोहम्मद तक ही सिमटे रहना पसंद करेंगे. लेकिन यह इन सूफियों को ही समझना होगा कि उन्हें मोहरा बनाया जा रहा है.

लिहाजा, वे भक्ति यानी आशिकी में ही लीन रहें, इसमें ही उनकी भलाई है. अगर सियासत में आए तो न वे हिंदुओं के रहेंगे और न ही मुसलमानों के. एक वक्त में उन पर आरोप लगा था कि वे उदारता की आड़ लेकर हिंदुओं को बहलाफुसलाकर उनका धर्मांतरण कराते हैं. तब दौर मुगलों का था, अब सनातनियों का है.

खतरा दोनों ही तरफ बराबर का है. लिहाजा, मजारें ही उनके लिए मुफीद हैं. चौराहों पर वे आए तो भीख मिलना भी कम हो जाएगी. लोग उन्हें समाज से दूर रहने के लिए ही दक्षिणा देते हैं, समाज में घुलनेमिलने और सियासत के लिए नहीं. इसके लिए तो पहले से ही दुकानें खुली हुई हैं.

कंगना रनौत : फिल्में असफल लेकिन अंधभक्ति जारी, आगे क्या ?

यह महज संयोग है कि दर्शकों ने सत्ता के चाटुकार बौलीवुड के 2 कलाकारों को सिरे से खारिज कर दिया है.इनमें से एक हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का इंटरव्यू करने वाले अभिनेता अक्षय कुमार व दूसरी हैं देश को 2014 में असली आजादी मिलने की बात करने वाली कंगना रनौत.

बौलीवुड की ये दोनों हस्तियां हिंदुत्व व राष्ट्रवाद को प्रचारित करती रहती हैं.उनके इस कृत्य ने उन्हें देश के शासकों, भाजपा व आरएसएस के करीब जरूर पहुंचा दिया हैमगर दर्शकों ने उन्हें ठुकरा दिया है. परिणामतया इन दोनों कलाकारों की कई फिल्में बौक्सऔफिस पर लगातार मुंह के बल गिर रही हैं.इनकी फिल्मों की दुर्गति की वजह यह है कि इन्होंनेएजेंडे के तहत फिल्में बनाते व अभिनय करते हुए ‘कला’ के साथ न्याय नहीं किया.इनकी फिल्में मनोरंजनविहीन होती हैं.कहानी का कोई सिरपैर नहीं होता.

ऐसे में दर्शक इनकी फिल्मों को देखने के लिए अपनी गाढ़ी कमाई बरबाद नहीं करना चाहता. मजेदार बात यह है कि ‘सम्राट पृथ्वीराज’ के असफल होने के बाद अक्षय कुमार ने बाकायदा अपने दर्शकों और प्रशंसकों से माफी मांगते हुए अपनी गलती कुबूल करते हुए कहा था कि अब वे राष्ट्रवाद व हिंदुत्व की बात करने वाली ऊलजलूल कहानी की फिल्में नहीं करेंगे. अब वे अच्छी कहानी व पटकथा वाली फिल्मों पर जोर देंगे.

अक्षय ने यह भी कहा था कि उन्होंने कमजोर पटकथा के चलते कौन सी फिल्में छोड़ दी हैं.मगर वे आज भी अपने पुराने ढर्रे पर चल रहे हैं जिसका सुबूत उनकी नई फिल्म ‘मिशन रानीगंज‘है, जिसे दर्शकों ने पूरी तरह से खारिज कर दिया.

अक्षय कुमार की ही तरह कंगना रनौत ने भी अब एक वीडियो जारी कर लगभग माफी मांगते हुए दर्शकों और अपने प्रशंसकों से अपनी फिल्म ‘तेजस’ को देखने का आह्वान किया हैपर कंगना के इस वीडियो का दर्शकों पर कोई असर नहीं हुआ.लगभग 100करोड़ रुपए की लागत से बनी फिल्म ‘तेजस’ बामुश्किल3 दिन में साढ़े 3 करोड़ का ही व्यापार कर सकी.इसमें से निर्माता के हाथ में बामुश्किल45 लाख रुपए ही आए.

हिमाचल में जन्मी,36 वर्षीया कंगना रनौतशुरू से ही नारीवाद की वकालत करने वाली अतिविद्रोही स्वभाव की रही हैं.फिल्मों से जुड़ने के लिए वे अपने मातापिता का विद्रोह करके मुंबई आईथीं. 18साल के अपने अभिनय कैरियर में अपनी दबंग ईमेज के बावजूद उत्कृष्ट अभिनय प्रतिभा के चलते उन्होंने अपनी झोली में सर्वश्रेष्ठ अदाकारा के 4राष्ट्रीय पुरस्कार, 5 फिल्मफेयर अवार्ड सहित कई दूसरे अवार्ड भी डाल लिए.

2020 में उन्हें वर्तमान सरकार ने ‘पद्मश्री’ से भी नवाज दिया.शुरुआती दौर में एक तरफ वे अध्ययन सुमन,रितिक रोशन के साथ अपने रिश्तों को लेकर चर्चा में बनी रहींतो वहीं दूसरी तरफ वे अपनी अभिनय क्षमता को निखारने पर ध्यान देती रहीं.निजी जीवन के कटु अनुभवों व उन से पैदा हुए क्रोध को दबाकर उन्होंने अपने को अभिनय के माध्यम से बाहर निकाला.

यहां तक कि फिल्म ‘क्वीन’ में अभिनय करने से पहले कंगना ने लंदन जाकर पटकथा व संवाद लेखन का कोर्स भी किया.अपने ज्ञान व प्रतिभा को उन्होंने2013 में प्रदर्शित फिल्म ‘क्वीन’ के वक्त भरपूर उपयोग किया था.कंगना रनौत ने फिल्म ‘क्वीन’ के संवाद भी लिखे थे.परिणामतया इस फिल्म को जबरदस्त सफलता मिली और वे स्टार बन गईं.

उन्हें इस फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय पुरस्कार सहित करीबन एक दर्जन अवार्ड मिले.यों तो पहली फिल्म ‘गैंगस्टर’ के लिए भी उन्हें सर्वश्रेष्ठ नवोदित अभिनेत्री का फिल्मफेयर पुरस्कार मिल गया था.‘वो लमहे’ तथा ‘लाइफ इन मैट्रो’ में भावनात्मक रूप से गहन किरदारों को चित्रित करने के लिए उन्हें प्रशंसा मिली थी.

‘फैशन’के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला था. मगर 2010 तक उनका कैरियर महज घिसट रहा था. 2010 में आनंद एल राय निर्देशितफिल्म ‘तनु वेड्स मनु’ से उन्हें अच्छी सफलता नसीब हुई थी.फिल्म ‘क्वीन’ के बाद प्रदर्शित फिल्म ‘रिवौल्वर रानी’ अपनी लागत वसूल नहीं कर पाई थी लेकिन 22 मई, 2015 को प्रदर्शित फिल्म ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न’ ने अपनी लागत से 6 गुना अधिक कमा कर हंगामा बरपा दिया था.इस फिल्म को मिली बंपर सफलता के साथ ही कंगना रनौत के कैरियर का पतन शुरू हो गया.

पतन की वजहें

2005 में मुंबई पहुंचने के बाद से कंगना रनौत अपने कैरियर को संवारने के लिए काफी मेहनत कर रही थीं. चालाक लोमड़ी की तरह अपना उल्लू साधने के लिए वे अपने मित्रों, खासकर पुरुष कलाकारों का भरपूर उपयोग कर रही थीं. उनके अफेयर के किस्से अध्ययन सुमन तक फ़ैल चुके चुके थे. 2010 में जब कंगना रनौत ने रितिक रोशन के साथ फिल्म ‘काइट्स’ की तो उन्हेंएहसास हुआ कि स्टार कलाकार रितिक रोशन से उनकी नजदीकी उन्हें फायदा पहुंचा सकती है.मगर उस वक्त रितिक रोशन फिल्म ‘काइट्स’ की नायिका बारबरा मोरी की तरफ आकर्षित थे, इसलिए उनकी दाल नहीं गली.

वहीं ‘काइट्स’ असफल हो गई और कंगना रनौत की फिल्म ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न’ ने सफलता के झंडे गाड़ दिए थे. सो, एक बार फिर कंगना ने अपने अभिनय पर ध्यान देना शुरू कियामगर ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न’ को मिली सफलता के चलते निर्मातानिर्देशक राकेश रोशन ने फिल्म ‘क्रिश 3’ में रितिक रोशन के साथ कंगना रनौत को हीरोइन बना दिया.

इस फिल्म की शूटिंग के ही दौरान कंगना व रितिक के बीच रोमांस की पतंग ने उड़ान भरनी शुरू कर दी. 2013 में प्रदर्शित ‘कृश3’ ने लागत से चारगुना कमाई कर ली,तो चर्चा शुरू हो गई कि ‘क्रिश 4’ में भी रितिक रोशन के साथ कंगना ही होंगी.

उधर, कंगना और रितिक के बीच प्यार परवान चढ़ चुका था.कंगना ने भी मान लिया था कि अब रितिक रोशन की हर फिल्म में वही होंगी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.इधर 2014 में दो बातें हो गईं.एक तरफ 7 मार्च,2014 को कंगना की फिल्म ‘क्वीन’ ने अचानक उन्हें स्टार बना दिया.लोग उनके अभिनय के साथ ही उनके लेखन की भी तारीफ करने लगे.दूसरी तरफ मई 2014 में देश में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बन गई.

फिल्म ‘क्वीन’ में नारी स्वतंत्रता व नारीवाद की बातें थीं.नई सरकार भी इन मुद्दों पर बात कर रही थी, जिसके चलते कंगना रनौत धीरेधीरे सरकार व भाजपा नेताओं से नजदीकियां बढ़ाने लगीं.इसका असर उनकी कला पर पड़ने लगा. तो वहीं 2017 आतेआते कंगना और रितिक रोशन के बीच अलगाव के साथ ही एकदूसरे के खिलाफ जबरदस्त बयानबाजी शुरू हो गई.कंगना रनौत ने अपने विवेक से या अपने पीआर के कहने पर,पता नहीं,रितिक रोशन के साथ ईमेल पर बातचीत को भी सार्वजनिक करना शुरू किया.

कंगना रनौत अभिनय पर कम, सरकार के साथ रिश्ते प्रगाढ़ करने व रितिक के साथ झगड़े में इस कदर लिप्त हुईन कि उनका अभिनय कैरियर चौपट हो गया.2018 से कंगना रनौत ने हिंदुत्व, राष्ट्रवाद, नारीवाद आदि को लेकर बयानबाजी करने के साथ ही सरकार के पक्ष में बातें करने लगीं.जनवरी 2020 में उन्हें सरकार ने ‘पद्मश्री’ से नवाज दिया. फिर तो कंगना हवा में उड़ने लगीं.

कंगना रनौत ने तो सरकार की चापलूसी करते हुए यहां तक कह डाला कि देश को असली आजादी 2014 में मिली.कोविडकाल में कंगना ने केंद्र सरकार का पक्ष लेते हुए बौलीवुड व अन्य लोगों को जमकर लताड़ना शुरू कर दिया.उनके बयानों में पूर्णतया सरकार की चापलूसी करने के ही भाव नजर आते हैं.

जब कंगना की व्यस्तता राजनीति में बढ़ गई,तो अभिनय से उनका ध्यान भंग हुआ, जिसके चलते ‘क्वीन’ के बाद उन की ‘उंगली’, ‘आई लव यू न्यूयौर्क’,‘कट्टी बट्टी’,‘रंगून’,‘सिमरन’,‘मणिकर्णिकाःद क्वीन औफ झांसी’, ‘जजमैंटल है क्या’,‘पंगा’, ‘थलैवी’,‘धाकड़’, ‘टिकू वेड्स शेरू’, ‘चंद्रमुखी 2’ फिल्मों ने बौक्सऔफिस पर पानी नहीं मांगा.

फिल्म ‘जजमैंटल है क्या’ की प्रैसकौन्फ्रैंस में कंगना रनौत की मीडिया से तीखी नोकझोंक हो गई थी.उसके बाद कंगना ने मीडिया से भी दूरी बना ली.कंगना रनौत ने 2020 में अपनी फिल्म प्रोडक्शन कंपनी शुरू कर ली.

‘मणिकर्णिका: द क्वीन औफ झांसी’ का सहनिर्माण करने के साथ ही उन्होंने इसका निर्देशन भी किया था और झांसी की रानी का किरदार भी निभाया था. पर उनकी नीयत सही नहीं थी, इसलिए यह बहुत ही ज्यादा खराब बनी थी.इसके बाद कंगना ने फिल्म ‘टीकू वेड्स शेरू’ का निर्माण किया. यह ओटीटी प्लेटफौर्म अमेज़न प्राइम पर आई.मगर इसे भी दर्शकनहीं मिले.अब कंगना ने फिल्म ‘इमरजैंसी’ का निर्माण,लेखन व निर्देशन करने के साथ ही इंदिरा गांधी का किरदार भी निभाया हैजो 2024 में चुनाव होने से पहले प्रदर्शित की जाएगी.

फिल्म ‘तेजस’ : राम भक्ति भी काम न आई

अब 27 अक्टूबरको कंगना रनौत के अभिनय से सजी फिल्म ‘तेजस’ प्रदर्शित हुई है.फिल्म ‘तेजस’ एयरफोर्स अफसर तेजस गिल की काल्पनिक कहानी है.तेजस गिल के मुख्य किरदार में कंगना रनौत है.फिल्म को दर्शकों ने सिरे से नकार दिया.लगभग 70 करोड़ की लागत से बनी फिल्म ‘तेजस’ ने 3 दिन के अंदर सिर्फ साढ़े 3 करोड़ रुपए ही कमाए.इतना तो शूटिंग के दौरान मेकअप मैन वगैरह का खर्च हो गया होगा.हम सभी जानते हैं कि इन दिनों हर फिल्म का असली कलैक्शनशुरुआत के 3 दिनों में ही होता है.

फिल्म ‘तेजस’ के प्रदर्शन से पहले कंगना रनौत ने पत्रकारों से दूरी बनाकर रखी.अपनी फिल्म का ट्रेलरउन्होंने सोशल मीडिया पर पोस्ट किया था.मगर कंगना ने फिल्म के प्रदर्शन से पहले ही ‘तेजस’ को रक्षामंत्री राजनाथ सिंह के अलावा कई भाजपा नेताओं को दिखाया.

24 अक्टूबर को दशहरे के मौके पर दिल्ली में रावण दहन करने पहुंचीं. इजराइली दूतावास जाकर इजराइल के राजदूत नाओर गिलौन से मिलकर फिलिस्तीन व मुसलिमों के खिलाफ बकबक की. फिर 26 अक्टूबर को अयोध्या जाकर ‘राम लला’ मंदिर के दर्शन करने के साथ ही ‘जयश्री राम’ के जमकर नारे लगाएमगर इससे उनकी फिल्म ‘तेजस’ को फायदा होने के बजाय नुकसान ही हुआ.

दर्शक अपनी मेहनत की कमाई को महज राष्ट्रवाद के नारे या ‘जयश्रीराम’ के नारे के लिए खर्च नहीं कर सकता.उसे फिल्म में अच्छी कहानी,अच्छी परफौर्मेंस,अच्छा मनोरंजन चाहिए.इस कसौटी पर फिल्म ‘तेजस’ शून्य है.‘तेजस’ में पाकिस्तान, आतंकवाद के साथ ही अयोध्या के उस राममंदिर पर ‘आतंकवादी हमले’ और उस आतंकवादी हमले से राममंदिर को सुरक्षित करने की काल्पनिक कहानी बयां की गई हैजो मंदिर अभी तक निर्माणाधीन है.फिल्म में कंगना का अभिनय भी शून्य है.

जब 2 दिनों तक ‘तेजस’ को दर्शकनहीं मिले, तब कंगना ने दर्शकों के नाम माफीनामानुमा एक वीडियो संदेश जारी कियाजिसमें उन्होंने कोविड के बाद सिनेमाघरों में कम दर्शकों की संख्या के बारे में बात करते हुए अपने दर्शकों से सिनेमाघर जाकर फिल्म ‘तेजस’ को देखने व आनंद लेने का आग्रह किया.मगर कंगना रनौत की घटिया फिल्म ‘तेजस’ देखने के लिए कोई तैयार नहीं है.

बौलीवुड में अब लोग खुलेआम कह रहे हैं कि कंगना को अब राजनीति में सक्रिय होकर मंडी,हिमाचल प्रदेश से चुनाव लड़ना चाहिए.तो वहीं कंगना अपने ऐसे विरोधियों को श्राप देने से बाज नहीं आ रही हैं.

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खाने के साथ पीते हैं पानी तो हो जाएं सावधान

आम तौर पर लोगों की आदत होती है कि वो खाने के साथ पानी पीते रहते हैं. खाने के दौरान पानी पीने से सेहत के लिए कई समस्याएं पैदा होती हैं. खाना के मुंह में आते ही शरीर की पाचन क्रिया शुरू हो जाती है. जब आप खाने के साथ तुरंत पानी पीते हैं तो आपके पाचन तंत्र की ताकत कमजोर होती है और भोजन के पचने में परेशानी होती है.

चिकित्सा विज्ञान के अनुसार पाचन के लिए पाचन प्रक्रिया में जो अग्नि जिम्मेदार होती है पानी पीने से कमजोर होती है और इसलिए पाचन प्रक्रिया से प्रभावित हो सकता है.

  • ब्लड शुगर

खाने के तुरंत बाद पानी पीने से ब्लड शुगर के बढ़ने का खतरा होता है. पेट में अपचलित भोजन की मात्रा रक्त में चीनी के स्तर को बढ़ा सकती है.

  • अपच

आंतो को अच्छे से पाचन प्रक्रिया पूरी करने के लिए भोजन का अच्छे से पचना जरूरी है. ऐसा ना होने से  भोजन पूरी तरह से पचेंगे नहीं और इससे कब्ज की परेशानी होती है.

  • ब्लोटिंग की परेशानी

खाना खाने के तुरंत बाद पानी पीने से खाने के पाचन में खासा परेशानी होती है. इससे खाना पूरी तरह से पच नहीं पाता. जिसके कारण पेट में हवा बनने लगती है. इससे ब्लोटिंग की परेशानी होती है.

  • एसिडिटी

जब आप खाना खाने के तुरंत बाद पानी पीते हैं तो शरीर में खाना पचाने वाले अम्ल कमजोर होता है. जिसके कारण खाना के पचने में काफी समय लगता है और ऐसिडिटी होती है.

  • कब पीए पानी?

पानी पीने का सबसे सही समय होता है भोजन से आधे घंटे पहले और आधे घंटे बाद. खाने के आधे घंटे पहले पानी पीने से पेट को पर्याप्त पानी मिल जाता है. खाने के दौरान पेट में पाचन क्रिया होती है. इस दौरान सारे अम्ल खाने को पचाने में लगे रहते हैं. करीब आधे घंटे में खाने का बड़ा हिस्सा पच जाता है. इसके बाद पानी पीने से कोई परेशानी नहीं होगी.

वह छोटा लड़का : एक गरीब बच्चे की संघर्ष भरी कहानी

एक हाथ में पर्स व टिफिन और दूसरे हाथ में गाड़ी की चाबी ले कर तेजी से मैं घर से बाहर निकल रही थी कि अचानक चाबी मेरे हाथ से छूट कर आंगन के एक तरफ जा गिरी.

‘ओफ्फो, एक तो वैसे ही आफिस के लिए देरी हो रही है दूसरे…’ कहतेकहते जैसे ही मैं चाबी उठाने के लिए झुकी तो मेरी नजर कूड़ेदान पर गई, जो ऊपर तक भरा पड़ा था. लगता है कूड़े वाला आज भी नहीं आया, यह सोच कर झल्लाती हुई मैं घर से बाहर निकल गई.

गाड़ी में बैठ कर मैं अपने आफिस की ओर चल पड़ी. जितनी तेजी से मैं सड़क पर दूरी तय कर रही थी, मेरा मन शायद उस से भी तेजी से छलांगें भर रहा था.

याद आया मुझे 15 साल पहले का वह समय जब मैं नईनई इस कालोनी में आई थी. सामान को ठीक जगह पर लगातेलगाते रात के 12 बज गए थे. थकान के मारे बदन टूट रहा था. यह सोच कर कि सुबह देर तक सोऊंगी और फिर फ्रैश हो कर सामान सैट करूंगी, मैं सो गई थी.

सुबहसुबह ही दरवाजे की घंटी बज उठी और उस गहरी नींद में मुझे वह घंटी चीत्कार करती लग रही थी.

‘अरे, इतनी सुबह कौन आ गया,’ झल्लाती हुई मैं बाहर आ गई.

‘‘अरे, बीबीजी, कूड़ा दे दो और कूड़े का डब्बा कल से रात को ही बाहर निकाल दिया करना. मेरी आदत बारबार घंटी बजाने की नहीं है.’’

वह यहां का कूड़ा उठाने वाला कर्मचारी था.

धीरेधीरे मैं नई कालोनी में रम गई. पड़ोसियों से जानपहचान हो गई. बाजार, पोस्टआफिस, डाक्टर आदि हर चीज की जानकारी हो गई. नए दफ्तर में भी सब ठीक था. काम वाली बाई भी लगभग समय पर आ जाती थी. बस, अगर समस्या रही तो कूड़े की. रात को मैं कूड़ा बाहर निकालना भूल जाती थी और सुबह कूड़ा उठाने वाला अभद्र भाषा में चिल्लाता था.

गुस्से में एक दिन मैं ने उस से कह दिया, ‘‘कल से कूड़ा उठाने मत आना. मैं कोई और कूड़े वाला लगा लूंगी.’’

‘‘कैसे लगा लेंगी आप कोई दूसरा कूड़े वाला? लगा कर तो दिखाइए, हम उस की टांगें तोड़ देंगे. यह हमारा इलाका है. इधर कोई दूसरा देख भी नहीं सकता,’’ उस की आवाज में किसी आतंकवादी सा दर्प था.

मेरा स्वाभिमान आहत हो गया. उस की ऊंची आवाज सुन कर मेरी पड़ोसिन श्रीमती शर्मा भी बाहर आ गईं. उन्होंने किसी तरह कूड़े वाले को शांत किया और उस के जाने के बाद मुझे समझाया कि इस से पंगा मत लो वरना तुम्हारे कूड़े उठवाने की समस्या खड़ी हो जाएगी. इन के इलाके बटे हुए हैं. ये किसी दूसरे को लगने नहीं देते.

श्रीमती शर्मा का कालोनी में काफी रुतबा था. उन के पति किसी अच्छी पोस्ट पर थे. उन के घर में सुखसुविधा का हर सामान था. नौकरचाकर, गाडि़यां, यहां तक कि उन के इकलौते बेटे को स्कूल लाने ले जाने के लिए भी एक गाड़ी तथा ड्राइवर अलग से था. तो अगर वह भी इस कूड़े वाले के आगे असहाय थीं तो मेरी क्या बिसात. मैं मन मार कर रह गई. पर मन में एक फांस सी चुभती रहती थी कि काश, मैं उस कूड़े वाले को हटा पाती.

एक दिन शाम को मैं किसी काम से अपनी कालोनी के सामने वाली कालोनी में गई थी. गाड़ी रोक कर मैं ने एक छोटे से लड़के से अपने गंतव्य का पता पूछा. अचानक मुझे लगा कि यह लड़का तो घरों से कूड़ा उठा रहा है.

समाज के प्रति जागरूकता के अपने स्वभाव के चलते मैं उस लड़के से पूछने ही जा रही थी कि बेटा, आप स्कूल क्यों नहीं जाते लेकिन मेरा स्वार्थ और मेरा आहत स्वाभिमान आड़े आ गया. मैं ने पूछा, ‘बेटा, मैं सामने वाली कालोनी में रहती हूं, क्या तुम मेरा कूड़ा उठाओगे?’

मेरी आशा के विपरीत उस का जवाब था, ‘उठा लेंगे.’

मैं हैरान हो गई. मैं ने उसे अपने कूड़े वाले की बात बता देना उचित समझा. मेरी बात सुन कर वह लड़का मुसकराया और बोला, ‘हम किसी से नहीं डरते, हम क्या किसी से कम हैं पर हम कूड़ा उठाने शाम को ही आ पाएंगे.’

10-12 साल के उस बच्चे की आवाज में इतना आत्मविश्वास था कि मैं ने उसे अपना पता दे दिया तथा अगले दिन से आने को कह दिया.

मुझे लगा, मेरी समस्या सुलझ गई. लड़का शाम को कूड़ा लेने आने लगा. उस के आने तक अकसर मैं अपने आफिस से वापस आ जाती थी. पुराने कूड़े वाले को मैं ने यही कहा कि मैं खुद ही अपना कूड़ा कहीं डाल आती हूं. वैसे भी वह लड़का शाम को आता था और पुराने कूड़े वाले को पता भी नहीं चलता था. पर यह नया लड़का छुट्टियां बहुत करता था. कभीकभी तो कईकई दिन. मैं मन ही मन बहुत कुढ़ती थी. बीमारी फैलने का डर बना रहता था. मैं सोचती, काश, भारत में भी विदेशों की तरह मशीन मिलने लगे, जिस में कूड़ा डालो बटन दबाओ और बस कूड़ा खत्म. कूड़े की यह परेशानी जैसे हमेशा मेरे व्यक्तित्व पर हावी रहती थी.

छुट्टी करने के बाद जब वह आता तो मैं इतनी झल्लाई हुई होती कि गुस्से से पूछती, ‘कहां मटरगश्ती करते रहे इतने दिन तक?’

उस का वही चिरपरिचित जवाब, ‘कहीं भी, हम क्या किसी से कम हैं.’

मेरा मन करता कि मैं उस की छुट्टियों के पैसे काट लूं पर कहीं वह काम न छोड़ दे यही सोच कर डर जाती और मन मसोस कर रह जाती थी. उस की छुट्टियां करने की आदत से मैं उस से इतनी नाराज रहती कि मैं ने कभी भी उस के बारे में जानने की कोशिश ही नहीं की कि उस के मांबाप क्या करते हैं, वह स्कूल क्यों नहीं जाता, आदि. हां, एकाध बार उस का नाम जरूर पूछा था पर वह भी जहन से उतर गया.

मेरी छुट्टी वाले दिन अकसर श्रीमती शर्मा मेरे पास आ कर बैठ जातीं. उन की बातों का विषय उन का बेटा ही होता. उन का बेटा शहर के सब से महंगे स्कूल में पढ़ता था. घर पर भी बहुत अच्छे ट्यूटर पढ़ाने आते थे. उन के बेटे के पास महंगा कंप्यूटर, महंगे वीडियो गेम्स तो थे ही साथ में एक अच्छा सा मोबाइल फोन भी था. वह अपने बच्चे का पालनपोषण पूरे रईसी ढंग से कर रही थीं. यहां तक कि मैं ने कभी उसे कालोनी के बच्चों के साथ खेलते भी नहीं देखा था. कभीकभी मुझे लगता था कि श्रीमती शर्मा अपने बेटे की चर्चा कम मगर बेटे की आड़ में अपनी रईसी की चर्चा ज्यादा कर रही हैं. पर फिर भी मुझे उन से बात करना अच्छा लगता क्योंकि मेरे बच्चे होस्टल में थे और उन के बेटे के बहाने मैं भी अपने बच्चों की बातें कर लेती थीं.

वक्त गुजरता रहा, जिंदगी चलती रही. श्रीमती शर्मा का लड़का जवान हो गया और कूड़े वाला भी. पर उस की आदतें नहीं बदलीं. वह अब भी बहुत छुट्टियां करता था. पर मेरे पास उसे झेलने के सिवा कोई चारा नहीं था क्योंकि मैं पुराने कूड़े वाले की सुबहसुबह की अभद्र भाषा सहन नहीं कर सकती थी. ‘इतने वर्षों में भी कोई मशीन नहीं बनी भारत में’ कुढ़तेकुढ़ते मैं ने अपने आफिस में प्रवेश किया.

रोज की तरह आफिस का दिन बहुत व्यस्त था. कूड़ा और कूड़े वाले के विचारों को मैं ने दिमाग से झटका और अपने काम में लग गई.

शाम को घर आई तो देखा कि मेरे पति अभी नहीं आए थे. मैं ने अपने लिए चाय बनाई और चाय का कप ले कर लौन में बैठ गई. अचानक मैं ने देखा कि सफेद टीशर्ट और नीली जींस पहने मिठाई का डब्बा हाथ में लिए कूड़े वाला लड़का मेरे सामने खड़ा है. उस ने पहली बार मेरे पांव छुए तथा मिठाई मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘मैं ने नौन मैडिकल में यूनिवर्सिटी में टौप किया है. यह सब आप लोगों की उन छुट्टियों की बदौलत है, जो मैं ने जबरदस्ती की हैं. दिन में मैं सरकारी स्कूल में पढ़ता था. इसलिए शाम को कूड़ा उठाता था लेकिन परीक्षाओं के दिनों में मैं शाम को आ नहीं पाता था. कूड़ा उठाना मेरी पढ़ाई के खर्च का जरिया था. अगर आप लोग मुझे सहयोग नहीं देते और हटा देते तो मैं यह सब नहीं कर पाता.’’

मैं हैरान रह गई. अचानक ही मुझे उस की बात ‘हम क्या किसी से कम हैं’ याद आ गई. मैं ने पूछा कि तुम ने कभी इस बारे में बताया नहीं तो वह हंस कर बोला, ‘‘आंटी, आप ने कभी पूछा ही नहीं.’’

मैं ने आशीर्वाद दिया तथा उस की लाई मिठाई भी खाई. कूड़े वाला अचानक ही मेरी नजर में ऊंचा, बहुत ऊंचा हो गया था. जिसे इतने वर्षों तक कोसती रही थी तथा हमेशा ही जिस के पैसे काटना चाहती थी आज मन ही मन मैं ने उस की आगे की पढ़ाई का खर्च उठाने का निश्चय कर लिया था.

अरे, श्रीमती शर्मा के बेटे का भी तो आज ही परीक्षाफल आया होगा. वह भी तो नौन मैडिकल की परीक्षा दे रहा था. याद आते ही मैं श्रीमती शर्मा के यहां चली गई. उन का चेहरा उतरा हुआ था.

‘‘मैं ने अपने बेटे को सभी सुविधाएं व ऐशोआराम दिए हैं फिर भी वह मुश्किल से पास भर हुआ है,’’ श्रीमती शर्मा बोलीं.

अचानक ही श्रीमती शर्मा की रईसी मुझे उस कूड़े वाले की गरीबी के आगे बहुत बौनी लगने लगी थी.

आता और कूड़ा उठा कर चला जाता. वह क्या करता है, इतनी छुट्टियां क्यों करता है, यह जानने की मैं ने कभी जरूरत नहीं समझी. और आज जब मुझे उस के बारे में पता चला तो हैरान रह गई.

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नेकी का फल

‘‘सर, कोई बहुत बड़े वकील साहब आप से मिलना चाहते हैं,’’ वार्ड बौय गणपत ने दरवाजा फटाक से खोलते हुए उत्सुकता व उत्कंठा से हांफते हुए कहा और उस की सांसें भी इस कारण फूली हुई थीं.

मैं ने हौल से ही खिड़की से देखा था कि कोई प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के सामने बरगद के पेड़ के नीचे बड़ी व लग्जरी गाड़ी मर्सिडीज पार्क कर रहा था. शायद इस बड़ी गाड़ी के कारण गणपत नैसर्गिक रूप से गाड़ी में आने वाले व्यक्ति को बड़ा वकील मान रहा था.

मैं सम?ा नहीं पा रहा था कि कोई बड़ा सा वकील मुझ से क्यों मिलना चाहता है? सामान्यतया सरकारी अस्पताल में कभीकभार नसबंदी केस बिगड़ने पर मरीज के रिश्तेदार मुआवजे के लिए कोर्ट केस करते हैं पर उस के लिए सामान्यतया नोटिस मरीज के रिश्तेदार देने आते हैं.

‘‘हैलो डाक्टर साहब, माइसैल्फ एडवोकेट गुप्ता और ये मेरे असिस्टैंट हैं,’’ काले कोट वाली ड्रैस में सहज उन्होंने मेरे हाथ से हाथ मिलाते हुए कहा.

‘‘बैठिए,’’ मैं ने कुरसी की ओर इशारा करते हुए कहा.

‘‘आप सोच रहे होंगे कि शहर से आए हुए वकील का आप से क्या काम होगा?’’ उन्होंने मेरे चेहरे को पढ़ते देख कर मुसकरा कर कहा.

‘‘निशंक,’’ मैं ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘लीजिए चाय,’’ गणपत मेरे कहे बिना ही चाय ले कर आ गया. यह गणपत की सम?ादारी थी या फिर पूंजीवाद का असर?

‘‘यह दुर्गेश्वरीजी की वसीयत है,’’ फाइल हाथ में ले कर मेरी टेबल पर रख कर खोलते हुए वे बोले.

‘‘पर आप मुझे यह क्यों बता रहे हो? और दुर्गेश्वरीजी कौन हैं?’’ मैं ने हैरानगी से उन की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देख कर पूछा.

‘‘मैं आप को सब इसलिए बता रहा हूं कि दुर्गेश्वरीजी ने वसीयत में अपनी आधी संपत्ति, जिस में एक दोमंजिला मकान, लगभग एक किलो सोने के गहने आप के नाम किया है और आधी संपत्ति का मैडिकल ट्रस्ट बना कर आप को उस का मुख्य ट्रस्टी बनाया है,’’ वकील गुप्ता ने धड़ाका करते हुए आगे बताया, ‘‘दुर्गेश्वरीजी वही, आप की वह मरीज हैं जो आप के पास दुर्गा के नाम से इलाज कराने आती थीं.’’

मैं हैरान था. उन के पास उतनी संपत्ति कहां से आई, वे तो बहुत ही गरीब थीं, यहां तक कि उन के पास साधारण सी दवा खरीदने के भी पैसे नहीं होते थे.

‘‘पर वे खुद कहां हैं? काफी दिनों से हौस्पिटल भी नहीं आईं,’’ मैं ने चिंतित स्वर में पूछा. मुझे अभी तक वकील साहब की बातों पर विश्वास नहीं हुआ, क्योंकि पिछले 2 वर्षों से वे मुझ से सरकारी अस्पताल में इलाज करा रही थीं, मुझ से अच्छा उन की गरीबी को कौन जान सकता है.

‘‘सौरी सर, मुझे आप को बताते हुए दुख हो रहा है कि पिछले सप्ताह ही शहर के मशहूर अपोलो अस्पताल में उन का निधन हो गया,’’ वकील साहब ने दुखी स्वर में कहा.

‘‘ओह नो, वे मेरी सब से अच्छी मरीज थीं,’’ मैं ने दुखी स्वर में कहा.

मैं तो उन का संबधी हूं भी नहीं. फिर वसीयत मेरे नाम करने का मतलब क्या है. मैं अभी भी स्तब्ध व आश्चर्य में बुत बन गया था. जिस स्त्री ने मेरे नाम लाखों रुपए किए, उस का सही नाम तक मुझे पता नहीं.

मेरे चेहरे पर प्रश्न देख कर वे बोले, ‘‘मैं आप को पूरी बात बताता हूं जिस से आप सारी बात समझ सकें. मैं समझ सकता हूं कि आप के अंदर कई प्रश्न उठ रहे होंगे कि, आखिर सरकारी दवाखाने की मुहताज व छोटे से गांव में अकेले गरीबी में रहने वाली दुर्गेश्वरी कौन थीं? उन के पास इतनी सारी प्रौपर्टी कहां से आई? क्यों वे छोटे से गांव में रहती थीं?

‘‘दरअसल मैं उन के पति अखिलेश सिंह का बचपन का मित्र हूं. वे भी वकील थे और उन के पति भी मेरे साथ हाईकोर्ट में वकालत करते थे. 5 वर्षों पहले उन की एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी और उन का कोई बच्चा नहीं था.

‘‘वे अकेली हो गई थीं, भले ही उन के पति बहुत सारी संपत्ति छोड़ गए थे. उन के काफी रिश्तेदार उन की अकूत जायदाद के लिए आसपास मंडराते थे और जिन रिश्तेदारों को उन की जायदाद का लालच नहीं था वे उन की जवाबदारी लेने से हिचकिचाते थे कि कौन उन की जिंदगीभर जवाबदारियों का बोझ ले.

‘‘स्वार्थी रिश्तेदार उन की मृत्यु की कामना करने लगे और कई रिश्तेदार अपने बच्चे उन्हें गोद देने की जिद करने लगे. दुर्गेश्वरी पर दबाव बढ़ने लगा, एक पति बिन अकेली स्त्री, ऊपर से स्वार्थी रिश्तेदार.

‘‘एक रात उन्होंने अपने कानों से सुना कि उन की हत्या की योजना बन रही है. वे घबरा गईं और उन्हें अपने घर व शहर से भागना हितकर लगा.

‘‘इस देवकरण गांव में उन के बहुत दूर के एक रिश्तेदार रहते थे जिन के यहां शादी के किसी कार्यक्रम में बरसों पहले वे आई थीं.

‘‘वे दूसरे दिन सुबह कुछ गहने व रोकड़ रकम ले कर भाग कर यहां आ गई थीं. यहां अपने दूर के रिश्तेदार से ?ाठ बोला कि उन के पति की मृत्यु के बाद उन की आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो गई और कोई रिश्तेदार उन्हें रखना नहीं चाहता है. इस कारण वे गांव में जिंदगी गुजारना चाहती हैं. वे लोग कृपया उन्हें छोटा सा मकान किराए पर दिला दें. रिश्तेदार भी अपने यहां रखना नहीं चाहते थे. उन्होंने पुराना सा वर्षों से बंद मकान बहुत ही कम किराए पर दिलाया.

‘‘यह छोटा सा मकान व गांव उन की हैसियत से बहुत ही छोटा था पर उन के जीवन के लिए सुरक्षित था. उस के बाद क्या हुआ, यह आप अच्छी तरह जानते हैं.

‘‘यहां आ कर कभी भी उन्होंने किसी को अपने पैसे व हैसियत के बारे में नहीं बताया. हमेशा जानबूझकर लाचार व गरीब की तरह जीवन बिताया और सरकारी योजना व अस्पताल का लाभ लिया.

‘‘थोड़े दिनों बाद सबकुछ शांत होने के बाद वे बीचबीच में शहर जाती थीं और अपनी जायदाद का ध्यान रखती थीं और वहां अपने रिश्तेदारों को यह बताती थीं कि उन्होंने सबकुछ दान में दे दिया है और एक अनाथालय में रह कर सेवाकार्य करती हैं.

‘‘यह सबकुछ सुन कर जो रिश्तेदार उन की संपत्ति के भूखे थे उन्होंने दुर्गेश्वरीजी को बहुत बुराभला कहा और हमेशा के लिए संबध तोड़ लिए और जिन रिश्तेदारों को उन की संपत्ति का मोह नहीं था, उन लोगों ने अब उन से संबंध रखना शुरू कर दिया.

‘‘अब वे भले ही थोड़ीबहुत तकलीफ में जी रही थी पर अब परिस्थतियां उन के अनुकूल और सुरक्षित हो गई थीं. कुछ महीने पहले जब शहर आई थीं तो उन्होंने मुझ से वसीयतनामा बनवाया और मुझे पूरी बात बताई कि क्यों वे आप के नाम अपनी संपत्ति करना चाहती हैं और मैं भी एक दिन गुपचुप यहां बीच में आया था और उन के फैसले से संतुष्ट हुआ था,’’ वकील गुप्ता ने उन्हें पूरी बात बताई.

‘‘पर मैं अभी तक यह समझ नहीं पा रहा हूं कि उन्होंने क्यों मुझे अपनी संपत्ति का वारिस बनाया? मैं अभी तक यह बात सम?ा नहीं पाया हूं,’’ मैं अभी तक हैरत में था.

‘‘वह आप इस पत्र को पढ़ कर ही समझ सकते हैं जो आप के नाम दुर्गेश्वरीजी ने तब लिखा था जब वे मेरे पास वसीयत बनाने आई थीं. उन्होंने मुझ से कहा था कि उन के मरने के बाद यह पत्र मैं आप को दूं,’’ वकील साहब ने सीलबंद हालत में एक लिफाफा मुझे दिया, जिस पर मेरा नाम लिखा था.

‘‘आप कब आ रहे हैं कोर्ट में ताकि प्रौपर्टी आप के नाम हैंडओवर हो सके,’’ वकील गुप्ता ने पूछा.

‘‘जब तक मैं पत्र पढ़ न लूं कि क्यों उन्होंने मुझे वारिसदार बनाया, तब तक मैं कैसे कुछ कहूं?’’

मैं ने पत्र खोल कर पढ़ा. बहुत ही खूबसूरत और सलीकेदार लिखावट थी जो कह रही थी कि वे बहुत ही पढ़ीलिखी महिला होंगी.

‘डाक्टर साहब,

‘मैं आप को डाक्टर साहब की जगह जीवन देने वाला कहूं तो गलत न होगा. न आप मेरे, बल्कि इस छोटे से पिछड़े गांव के कई गरीबों के उद्धारक हो. आप मेरा पत्र पढ़ रहे होंगे तब तक मैं न सिर्फ गांव से बल्कि दुनिया से ही बहुत दूर जा चुकी हूंगी कि आप की दवा भी असर नहीं करेगी. सब को एक दिन जाना होता है और मैं भी जा रही हूं. सच बताऊं डाक्टर साहब, मैं शांति और संतुष्टि से जा रही हूं, क्योंकि जाने से पहले मैं अपने पति की मेहनत व ज्ञान से अर्जित संपत्ति आप के हाथों में दे कर जा रही हूं. जो न सिर्फ सच्चा हकदार है बल्कि उस धन का सदुपयोग भी करेगा और मानवता के काम में भी लगाएगा.

‘मुझे अब भी वे दिन याद हैं जब मैं पहली बार सरकारी अस्पताल आई थी. मैं पूरी रात बुखार से तप व कांप रही थी, उस दिन मैं शहर से वापस आई थी और रास्ते में बारिश के कारण पूरी तरह से भीग गई थी. रात को छोटे से गांव में डाक्टर नहीं होगा, यह सोच कर पूरी रात घर पर बुखार से तड़प रही थी. बहुत सुबहसुबह मैं यह सोच कर अस्पताल गई कि शायद नर्स या फिर वार्ड बौय हो जो मुझे दवा दे देगा जिस से कि मुझे थोड़ाबहुत आराम मिले. उस समय सुबह लगभग 8 बजे थे. देखा तो आश्चर्य हुआ कि सुबहसुबह केस बारी पर लंबी लाइन लगी हुई थी. घिसट कर मैं आप के चिकित्सा कक्ष में दाखिल हुई.

‘डाक्टर साहब, मुझे बहुत तेज बुखार है,’ मैं ने मरियल सी आवाज में दरवाजे का हैंडिल पकड़ते हुए कहा.

‘आप ने कुरसी से उठ कर मुझे उठाया और जोर से बोले, ‘गणपत, मांजी को इमरजैंसी रूम में ले कर जाओ.’

‘गणपत मुझे व्हीलचेयर पर इमरजैंसी रूम में ले गया जो आप के कक्ष के पास ही था. पीछेपीछे आप आए और मुझे जांच कर, नर्स को जरूरी इंजैक्शन व ग्लुकोज चढ़ाने को बोला. मैं इतने बुखार और अर्धबेहोशी में भी सुखद आश्चर्य में थी गांव के सरकारी डाक्टर का व्यवहार देख कर. आप के इंजैक्शन व इलाज से मैं दोपहर तक काफी ठीक हो गई थी. मैं प्यास से पानीपानी बोल रही थी कि किसी ने पानी का गिलास मेरे आगे किया. मैं ने गटागट बिना देखे पानी पिया. पानी के कारण शरीर को जान मिली तो मैं ने देखा कि एक डाक्टर मुझे पानी पिला रहा है. मैं झेप गई, बोली, डाक्टर साहब, आप ने पानी का गिलास दिया?’

‘हां, गणपत काम से बाहर गया है. आप पानी के लिए कह रही थीं,’ आप ने मुसकरा कर कहा था.

‘फिर आप ने मेरे परिवारों वालों के बारे में पूछा तो मैं ने कहा कि कोई नहीं है तो आप को मेरे खाने की चिंता हुई और आप ने चपरासी भेज कर अपने घर से मेरे लिए खाना मंगाया. सच कहूं उस दिन पहली बार मेरे पति के जाने के बाद, ‘मेरा कोई दुनिया में है’ यह महसूस हुआ, लगा कि इस गांव में आप के रूप में मेरी संतान की कमी को पूरी कर दिया.

‘मैं पूरे 4 साल से इस गांव में रह रही हूं और पूरे गांव वाले हमेशा आप की प्रंशसा करते रहते हैं कि आप के इस गांव के अस्पताल में आने के बाद गांववालों को छोटीमोटी बीमारियों के लिए शहर की ओर नहीं भागना पड़ता है. रात को भी किसी को इमरजैंसी हो तो भी आप मुसकराते हुए इलाज करते हैं. फिर भी आप को कई बार मरीजों को शहर भेजना पड़ता है क्योंकि आप के पास जरूरी साधन और दवाइयां नहीं होती हैं. मेरी बैंक में जमा रकम से मिलने वाले ब्याज से आप ट्रस्ट बना कर जरूरी दवाइयां और साधन ले कर आएं, जिस से मैं इस गांव के प्यार और सुरक्षा के बदले आभार जता सकूं.

‘आप भी दूसरे डाक्टरों की तरह शहर में नर्सिंगहोम खोल कर, प्रैक्टिस कर के लाखोंकरोड़ों कमा सकते थे, वैभवशाली जिंदगी जी सकते थे, खुद का बहुत बड़ा बंगला बना सकते थे, विदेश घूम सकते थे पर आप ने गांव में सेवा करने का प्रण लिया. यह महान कार्य आप जैसा आदमी ही कर सकता है.

‘अभी तक मुझे मेरे पति की संपत्ति के लिए हमेशा चिंता होती कि मेरे मरने के बाद यह गलत हाथों में जाएगी पर आप की मेरे और पूरे गांव की निस्वार्थ भाव से की गई सेवा से मैं बहुत प्रभावित हूं और इसलिए फीस सम?ा कर ही मैं अपनी आधी संपत्ति आप के नाम पर कर के जा रही हूं.

‘आप की सब से फेवरेट मरीज, ‘दुर्गेश्वरी.’

‘‘वकील साहब, आज तक किसी बड़े से बड़े डाक्टर को इतनी फीस नहीं मिली जितनी मेरे को मिली है.’’ पत्र पढ़ कर मेरी आंखों से ?ार?ार आंसू बहने लगे.

एक घर ऐसा भी

वृद्धाश्रम के गेट पर कार रुकते ही बहू फूटफूट कर रोने लगी थी,”मांजी, प्लीज आप घर वापस चलो…’’ उस की सिसकियों की आवाज में आगे की बात गुम हो गई थी. मांजी ने अपनी बहू के सिर पर प्यार से हाथ फेरा,”बेटा, तुम उदास मत हो. मैं कोई तुम से रूठ कर थोड़ी न वृद्धाश्रम रहने आई हूं. मुझे यहां अच्छा लगता है.’’

‘‘नहीं मांजी, मैं आप के बगैर वहां कैसे रहूंगी.’’

कुसुम कुछ नहीं बोली. केवल अपनी बहू आरती के सिर को सहलाती रही. कार का दरवाजा विजय ने खोला था. उस ने सहारा दे कर अपने पिताजी को कार से बाहर निकाला फिर पीछे बैठी अपनी मां की ओर देखा. मां उस की पत्नी के सिर पर हाथ फेर रही थीं और आरती बिलखबिलख कर रो रही थी. उस की आंखें नम हो गईं.

‘‘मां, आप यहां कैसे रह पाएंगी. कुछ देर यहां घूम लो फिर हम साथ वापस लौट चलेंगे,’’ विजय ने अपना चेहरा दूसरी ओर घुमा लिया था ताकि उस की मां उस के बहते आंसुओं को न देख सकें. पर पिता की नजरों से उस के आंसू कैसे छिप सकते थे.

‘‘विजय, तुम रो रहे हो? अरे, हम तो यहां रहने आए हैं और कोई दूर भी नहीं है. जब मन करे यहां आ जाया करो. हम साथ में मिल कर यहां रह रहे बजुर्गों की सेवा करेंगे.’’

‘‘पर बाबूजी, आप लोगों के बगैर हमें अपना ही घर काटने को दौड़ेगा. हम आप के बगैर नहीं रह सकते,” विजय अपने पिता के कांधे पर सिर रख कर फूटफूट कर रोने लगा.

कुछ देर शांति छाई रही फिर कुसुम ने अपने पति का हाथ पकड़ा और वृद्धाश्रम के गेट से अंदर हो गई. उन के पीछेपीछे आरती और विजय उन का सामान हाथ में उठाए चल रहे थे.

‘‘आरती, मांबाबूजी का सारा सामान अच्छी तरह से रख दिया था न?’’

‘‘हां, मैं ने मांजी से पूछ कर सामान बैग में जमा दिया था.’’

‘‘और वह मांजी की दवाई?’’

‘‘हां, वह भी कम से कम 2 महीनों के हिसाब से रख दी हैं. फिर जब हम आएंगे तो और लेते आएंगे.’’

मांबाबूजी को वृद्धाश्रम में छोड़ कर लौटने के पहले विजय ने वद्धाश्रम के मैनेजर से बात की थी और उन्हें बाबूजी की देखभाल करते रहने का अनुरोध किया था. वह कुछ पैसे भी उन के पास छोड़ कर आया था, ‘‘कभी जरूरत पड़े तो आप उन्हें दे देना, मेरा नाम बताए बगैर,” मैनेजर विजय को श्रद्धा के भाव से देख रहा था.

‘‘यहां जो भी बुजुर्ग आते हैं वे अपने बेटे और बहू द्वारा सताए हुए होते हैं पर तुम तो बिलकुल अलग ही हो, विजय.’’

‘‘मैं तो चाहता ही नहीं हूं कि मां और पिताजी यहां रहें. उन की ही जिद के कारण उन को यहां लाना पड़ा. मालूम नहीं हम से क्या अपराध हो गया है,” उस की आंखों से आंसू बह निकले.

मैंनेजर बोला, ‘‘तुमलोग जाओ, मैं उन का ध्यान रखूंगा.”

विजय और आरती भारी कदमों से वृद्धाश्रम से बाहर निकले. वे चाहते थे कि लौटते समय उक बार और मांजी से मिल लें पर आरती ने रोक दिया था.

कुसुम और केदार आश्रम की खिड़की के झरोखे से विजय और आरती को लौटते हुए देख रहे थे, ‘‘बहुत उदास हैं दोनों.”

“हां कुसुम, मगर हम ने उन्हें छोड़ कर कोई गलती तो नहीं की?’’ पहली बार केदार के चेहरे पर सिकन दिखाई दी थी. कुसुम ने पलट कर अपने पति की ओर देखा,”नहीं, हम कोई नाराज हो कर थोड़ी न आए हैं. जब हमें लगेगा कि यहां मन नहीं लग रहा है तब हम अपने घर लौट चलेंगे, कुसुम ने साड़ी के पल्लू से आंखें पोंछते हुए कहा.

केदार कुछ नहीं बोले. वृद्धाश्रम आने का निर्णय उन का ही था. वे ही तो गहेबगाहे इस आश्रम में आतेजाते रहते थे. उन का मित्र रंजीत यहां रह रहा था. रंजीत को तो उन का बेटा ही आश्रम में छोड़ गया था, ‘‘देखो पिताजी, आप हमारे साथ शूट नहीं होते इसलिए आप यहां रहें. जितना खर्चा लगेगा मैं देता रहूंगा…’’ रंजीत आवाक उस की ओर देख रहे थे, ‘‘बेटा इस में शूट नहीं होता का क्या मतलब? मांबाप तो अपने बेटों को पालते ही इसलिए हैं कि वे उन के बुढ़ापे का सहारा बनें.’’

‘‘होता होगा पर हमलोग आप के साथ ऐडजस्ट नहीं कर पा रहे हैं,’’ रंजीत कुछ नहीं बोला और चुपचाप वृद्धाश्रम आने की तैयारी करने लगा. उन्होंने अपने मित्र रंजीत को जरूर बताया था, ‘‘यार, अब हम मिल नहीं पाएंगे.’’

केदार को आश्चर्य हुआ, ‘‘क्यों?’’

‘‘मेरा बेटा मुझे वृद्धाश्रम छोड़ रहा है…’’

‘‘वृद्धाश्रम… पर क्यों?’’ रंजीत कुछ नहीं बोला. केदार ने भी उसे नहीं उकेरा.

‘‘देखो रंजीत, हम तो मिलेंगे ही, यहां नहीं तो मैं वृद्धाश्रम आ कर मिलूंगा,’’अरे नहीं केदार, तुम्हारा बेटा तो हीरा है. तुम उस के साथ ऐंजौय करो.’’

रंजीत की आंखें बरस रहीं थीें. बहुत छिपाने के बाद भी उन की सिसकियां केदार तक चहुंच चुकी थीं. केदार ने रंजीत से मिलने वृद्धाश्राम जाना शुरू कर दिया था. वे दिनभर वहां रहते और रंजीत के दुख को हलका करते. वहां रह रहे और वृद्धजनों से भी मिलते. केदार जब भी वृद्धाश्रम जाते अपने साथ खानेपीने का कुछ न कुछ सामान ले कर जाते. सारे लोगों के साथ बैठ कर खाते और मस्ती करते. केदार को वृद्धाश्रम में अच्छा लगने लगा था. कई बारे वे अपनी पत्नी कुसुम को भी ले कर जाते .

‘‘विजय मुझे कुछ पैसे दोगे?’’

‘‘जी बाबूजी, कितन पैसे दूं?’’

‘‘यही कोई ₹5 लाख,” केदार बोल पङे.

‘‘जी बाबूजी, मैं चेक दे दूं कि नगद दूं?” केदार को इस बात पर जरा सा भी आश्चर्य नहीं हुआ था कि विजय ने उन से यह नहीं पूछा कि इतनी सारी रकम की उन्हें क्या जरूरत आ पड़ी है. विजय कभी भी अपने पिताजी से कोई सवाल करता ही नहीं था. वे जो कह देते उसे उन का आदेश मान कर तत्काल उस की पूर्ति कर देता था.

‘‘चेक दे दो.’’

‘‘जी बाबूजी,” विजय ने तुरंत ही चेक काट कर उन के हाथों में थमा दिया.

‘‘नालायक, यह तो पूछ लिया होता कि मुझे ₹5 क्यों चाहिए…’’

‘‘मैं आप से भला कैसे पूछ सकता हूं…आप को पैसे चाहिए तो कोई अच्छे काम के लिए ही चाहिए होंगे.’’

‘‘हां, वह तो ठीक है पर फिर भी मैं बता देता हूं. वहां एक वृद्धाश्रम है न… मैं वहां एक कमरा बनवा रहा हूं.”

‘‘जी, यह तो अच्छी बात है बाबूजी. और पैसे चाहिए हों तो बता देना…’’
विजय इस से अधिक कुछ और जानना भी नहीं चाहता था.

विजय उन का इकलौता बेटा था. उन्होंने उसे खूब पढ़ायालिखाया और उसे किसी चीज की कभी कमी नहीं होने दी. वे सरकारी अधिकारी थे तो शहरशहर उन का ट्रांसफर होता रहता. पर जब वे रिटायर्ड हुए तो अपनी जन्मभूमि में ही आ कर रहने लगे. विजय को पढ़ाया तो बहुत उसे इंजीनियर भी बना दिया पर उसे नौकरी पर नहीं जाने दिया. उन्होंने उस के लिए बड़ा सा व्यापार खुलवा दिया. व्यापार अच्छा चल रहा था. उस की शादी आरती से हुई. आरती बेटी बन कर ही घर आई. वे और कुसुम भी उसे बेटी की तरह ही प्यार करते और आरती भी उन्हें सासससुर न मान कर मांपिताजी ही मानती. विजय अपनी दुकान चला जाता और कुसुम और आरती अपने में ही उलझे रहते तो केदार अपने रंजीत के साथ अपना टाइम काटते. रात में सभी लोग एकसाथ खाने की टेबल पर बैठ कर खाना खाते और दिनभर की गतिविधियों की चर्चा करते. ऐसा कभीकभार ही होता जब रात में खाने की टेबल पर सभी साथ न हों.

“बाबूजी और अम्मां आप के साथ बैठ कर खाना न खाओ तो पेट ही नहीं भरता.’’

‘‘हां रे… बड़ा हो गया पर अभी भी छोटे बच्चे जैसा करता है. ले एक रोटी और ले…’’ कुसुम का लाड़ टपक पड़ता.

‘‘नहीं अम्मां, अच्छा दे ही दो… नहीं तो आप नाराज हो जाओगी…’’
कुसुम प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरतीं तो वह उन के आंचल से चिपक जाता.

केदार इस मामले में अपनेआप को बहुत खुशकिस्मत मानता कि भले ही उन के एक ही बेटा है पर वह बेटा श्रवण कुमार बन कर उन की सेवा करता है. केदार वृद्धाश्रम में रंजीत के साथ ही अपना ज्यादातर समय काटते. कई बार कुसुम भी उन के साथ वहां जाती. वृद्धाश्रम में उन का मन लगने लगा. केदार ने विजय से पैसे ले कर 2 कमरे बना लिए. एक कमरा तो उस ने रंजीत को रहने के लिए दे दिया पर दूसरा कमरा खाली ही था. उन्होंने वहां रह रहे वृद्धजनों से भी आग्रह किया पर वे अपने कमरों में खुश थे. वह कमरा बंद ही था. इस बंद कमरे को देख कर ही उन के मन में खयाल आया कि क्यों ने वे और कुसुम यहां रहने लगें और जैसे वे यहां रंजीत से मिलने आते हैं वैसे ही वे वहां विजय से मिलने चले जाया करेंगे. उन्होंने अपने विचारों को कुसुम के साथ भी साझा किया.

‘‘हां, यह तो अच्छी बात है पर विजय इस के लिए तैयार नहीं होगा और वह मेरी बेटी आरती…वह तो सारा घर अपने सिर पर उठा लेगी,” कुसुम जानती थी कि आरती उन से दूर नहीं रह सकती. वह आम बहुओं के जैसी थोड़ी न है जिन के लिए सास सिरदर्द होती हैं. केदार भी इस बात को जानते थे कि ऐसा संभव नहीं है पर प्रयास तो करना ही चाहिए.

केदार और कुसुम ने धीरेधीरे वृद्धाश्रम में अपनी उपस्थिति बढ़ा ली थी. कई बार तो वे रात वहीं रह भी जाते थे. विजय और आरती झुंझला जाते पर वे कुछ बोल नहीं पाते थे. विजय और आरती को अपने मातापिता का व्यवहार कुछ अजीब सा लगने लगा था,”आरती, कोई बात तो नहीं हो गई है? मांबाबूजी आजकल वृद्धाश्रम में कुछ ज्यादा ही समय दे रहे हैं…” उस के स्वर में चिंता साफ झलक रही थी.

‘‘नहीं तो, पर यह तो सच है कि वे अब वहां कुछ ज्यादा ही रुकने लगे हैं,’’
आरती का स्वर भी उदास था.

वे अपने मातापिता से कुछ भी पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे. एक दिन उन के पिता ने ही उन से कह दिया था,”विजय, हम लोग सोच रहे हैं कि कुछ दिनों के लिए वृद्धाश्रम रहने चले जाएं,” विजय के साथ ही साथ आरती भी चौंक गई थी.

‘‘अरे बाबूजी, हम से कोई गलती हो गई क्या?’’ उस का चेहरा रुआंसा हो गया था.

‘‘नहीं… तुम तो मेरा बेटा है. तुझ से गलती हो ही नहीं सकती और हो भी जाए तो उस के लिए मेरे हाथ में डंडा है न,” केदारा जानते थे कि वे जब भी इस बात को कहेंगे तब ही विजय की प्रतिक्रया ऐसी ही आएगी.

‘‘फिर बाबूजी, आप वहां क्यों जाना चाहते हैं, अपने बेटे को छोड़ कर?’’

‘‘अपने बेटे को कैसे छोड़ सकते हैं हम. वहां केवल इसलिए जा रहे हैं ताकि हम जैसे लोगों के साथ अपना समय काट सकें. हमें वहां बहुत अच्छा लगता है इस कारण से भी.’’

‘‘यह क्या बात हुई बाबूजी…’’

‘‘तुम नहीं समझोगे, इतना समझ लो कि हम ने तय कर लिया है कि हम वहां जाएंगे.’’

‘‘मां को क्यों ले जा रहे हैं आप?’’

‘‘इस उम्र में मैं अपनी पत्नी से कैसे दूर रह सकता हूं? हम दोनों जाएंगे अब इस पर और कोई बात नहीं होगी,” जानबूझ कर केदार ने जोर से बोला था ताकि वे अपने बेटे के प्रश्नों से बच सकें. उन के पास उन प्रश्नों का कोई उत्तर था भी नहीं.

विजय की आंखों से आंसू बह निकले थे. आरती तो भाग कर अपने कमरे में जा कर सिसक रही थी, उस की सिसकियों की आवाज बाहर तक आ रही थी.

विजय और आरती अपने मातापिता के निर्णय को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे. उन्होंने उन्हें बहुत समझाया भी पर वे नहीं माने तो अंततः उन्हें कुछ दिनों के लिए जा रहे हैं कि संभावनाओं के साथ वृद्धाश्रम छोड़ आए थे. केदार और कुसुम जानते थे कि विजय के लिए ऐसा करना कठिन होगा पर उन के पास और कोई विकल्प था भी नहीं. वे अपने बेटे और बहू के साथ रह तो बहुत अच्छी तरह से रहे थे, बेटा और बहु उन की बहुत ध्यान रखते भी थे पर इस के बाद भी वे एकाकी बने हुए थे. विजय से वे सीमित ही बात कर पाते थे और विजय भी उन से ज्यादा कुछ बोलता नहीं था. अमूमन यही स्थिति कुसुम की भी थी. वृद्धाश्रम में उन का एकाकीपन दूर हो जाता था. यहां वे बहस कर लेते लड़ लेते और मस्ती भी कर लेते थे. उन्होंने अपना सारा जीवन जिस शाही अंदाज में व्यतीत किया था वैसे जीवन से वे निराश हो चुके थे.

केदार और कुसुम को वृद्धाश्रम में रहते हुए 1 साल से अधिक का समय हो गया था. विजय और आरती नियमित उन से मिलने आते थे और कई बार वे फैस्टिवल पर उन्हें घर भी ले जाते थे, ‘‘आप के बिना तीजत्योहार अच्छे नहीं लगते. आप को चलना ही पड़ेगा,’’ आरती की जिद के आगे कुसुम समर्पण कर देती और वे 1-2 दिनों के लिए घर चले जाते पर तुरंत ही लौट कर आश्रम आ जाते. उन का मन आश्रम में अच्छी तरह लग चुका था. वे यहां मुक्तभाव से रहते थे. विजय और आरती ने भी धीरेधीरे अपनेआप को ढाल लिया था. आज ही वृद्धाश्रम के मैनेजर ने बताया था कि आरती बाथरूम में फिसल गई है और उस के पैरों में पलास्टर चढ़ा है. यह सुनते ही कुसुम की आंखों से आंसू बह निकले,‘‘अरे, विजय ने बताया ही नही,” उन की नारजगी अपने बेटे के प्रति बढ़ रही थी.

औटो उन के मकान के सामने आ कर रूक गया था. औटो से सब से पहले केदार उतरे फिर कुसुम. दोनों कुछ देर तक अपने मकान को यों ही देखते रहे. बहुत दिनों के बाद वे अपने घर आए थे. उन के हाथ में केवल एक ही थैला था. गेट को पार कर जैसे ही वे अंदर के कमरे की में पहुंचे उन्हें आरती बैड पर लेटी दिखाई दे गई. कुसुम ने बहू को निहारा. आरती कुछ दुबली लग रही थी. उस के पैर में बंधा पलास्टर दिखाई दे रहा था. कुसुम का वात्सल्य उमड़ आया,”बहू…” उस की आवाज में अपनत्व भरी मिठास थी. आरती को झपकी लग गई थी पर उस ने कदमों की आहट को सुन लिया पर जैसे ही उस के कानों में ‘बहू’ शब्द गूंजा वह हडबड़ा गई, ‘‘यह तो मांजी की आवाज है,” उस ने झट आंखें खोल लीं. मांजी को अपने सामने खड़ा देखा तो उस की आंखें बरस गईं. उस ने उठने की कोशिश की.

‘‘रहने दो बहू, सोई रहो…’’ कुसुम उस के सामने आ कर खड़ी हो गई थी.

‘‘कैसी हो बिटिया…’’ अब की बार केदार ने उसे पुकारा था.

‘‘बाबूजी…’’ आरती की सिसकियों भरी आवाज कमरे में गूंज गई.
विजय शायद अंदर था. वहीं उस ने आरती के सिसकने की आवाज सुनी थी. वह दौड़ कर बाहर आया तो सामने अपने पिताजी और मां को देखा.

‘‘अम्मां…बाबूजी…’’ वह उन से लिपट गया. केदार उसे अपने सीने से लगाए उस के सिर पर हाथ फेर रहे थे और कुसुम आरती के सिर को सहला रही थी.

‘‘अबे नालायक, जब बहू के पैर में फ्रैक्चर हो गया इस की सूचना भी तुम ने मुझे देना जरूरी नहीं समझा…’’ केदार की आवाज में कठोरता थी.

‘‘हां बेटा, तुझे हमें बताना चाहिए था. यह तो तेरी गलती है…’’ कुसुम का स्वर भी नाराजगी भरा था.

‘‘क्या करूं बाबूजी, अब मैं आप को तकलीफ नहीं देना चाहता था. आप को दुख होता यह सोच कर आप को नहीं बताया.’’

‘‘यह तो गलत है बेटा. मैं घर से भले ही दूर चला गया हूं पर तुम तो अपने से ही हमें दूर करने में लगे हो…’’ केदार का स्वर भीग गया था. बहुत देर तक दोनों सुखदुख की बातें करते रहे.

‘‘सुनो बेटा, अब कुसुम जब तक बहू के पैर का प्लास्टर नहीं उतर जाता तब तक यहीं रहेगी और मैं कल सुबह ही आश्रम चला जाऊंगा.’’

‘‘आप भी क्यों नहीं रुकते यहां. वैसे भी आपने बोला था कि आप कुछ दिनों के लिए ही आश्रम जा रहे हैं. अब तो बहुत दिन हो गए. नहीं बाबूजी, अब हम आप लोगों को नहीं जाने देंगे,’’ विजय ने जोर से केदार को जकड़ लिया था.

‘‘देखो बेटा, आश्रम तो हम को जाना ही होगा….हम ने वहां का कमरा थोड़ी न छोड़ा है… वैसे भी वहां रह रहे सभी लोग हमारा इंतजार कर रहे होंगे पर कुसुम अभी कुछ दिन यहीं रहेगी, आरती के स्वस्थ होने तक…’’ विजय कुछ नहीं बोला वह जानता था कि बाबूजी उस की बात नहीं मानेंगे.

सुबह जल्दी ही केदार अपना थैला उठा कर आश्रम की ओर चल दिए थे. जातेजाते कुसुम को बोल गए थे, ‘‘देखो बहू के स्वस्थ होते ही तुम आ जाना. वहां तुम्हारे बगैर मेरा मन नहीं लगेगा.’’

कुसुम के गालों में लालिमा दौड़ गई थी.

मराठा आरक्षण आंदोलन : जातीय गणना से मिली ताकत

बिहार में जिस तरह से जातीय गणना की गई उस का व्यापक असर दूसरे राज्यों में भी देखने को मिलने लगा है. जैसेजैसे लोकसभा के चुनाव आएंगे जातीय गणना की मांग जोर पकड़ने लगेगी. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी तो जातीय गणना की मांग कर ही रही है, कांग्रेस ने भी इस को ले कर 1 करोड़ लोगों से समर्थनपत्र लिखवाने की तैयारी कर ली है.

कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने ‘जिस की जिनती संख्या भारी, उस को उतनी भागीदारी’ की बात उठानी शुरू कर दी है. महाराष्ट्र राज्य में मराठा आरक्षण की मांग भी इसी से जुड़ी हुई है. ‘मराठवाड़ा से महाराष्ट्र’ की यह जंग नया गुल खिलाएगी जो भाजपा के लिए 2024 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव पर भारी पड़ेगा.

कोई नई मांग नहीं

महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण की मांग नई नहीं है लेकिन वर्तमान समय में बिहार की जातीय गणना के बाद मराठा आरक्षण की मांग ने तेजी पकड़ी है जिस से राज्य में मराठा और ओबीसी आमनेसामने आ गए हैं. मराठा आरक्षण का समर्थन तो सभी राजनीतिक दल कर रहे हैं. दिक्कत इस बात की है कि सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण सीमा को बढ़ाने से इनकार किया हुआ है. मराठों को जब ओबीसी सीमा में आरक्षण दिया जा रहा तो ओबीसी नाराज हो रहे हैं. यह काम उन को अपने आरक्षण में हस्तक्षेप लग रहा है.

महाराष्ट्र में मराठा आंदोलन जितना आगे बढ़ेगा सत्ताधारी भाजपा और शिवसेना शिंदे गुट को नुकसान होगा. मराठा आरक्षण आंदोलन के उग्र होते ही महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने मराठा आंदोलन की अगुवाई करने वाले मनोज जरांगे पाटिल से बातचीत कर मसले का हल निकालने की शुरुआत की.

जातीय समीकरण

महाराष्ट्र में 3 प्रमुख वर्ग हैं- मराठा, ओबीसी और दलित, जो अब अपनेअपने अधिकार और आरक्षण को ले कर सजग हो गए हैं. ‘कुनबी’ का सवाल नया पेंच फंसा रहा है। एकनाथ शिंदे ने मनोज जरांगे को भरोसा दिलाया कि उन की सरकार जो आरक्षण देगी वह कानून की कसौटी पर खरा उतरेगा.

महाराष्ट्र सरकार ने ‘कुनबी जातीय प्रमाणपत्र’ वितरण के संबंध में ठोस निर्णय लेने का भरोसा भी दिलाया है. मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के आश्वासन के बाद मराठा आंदोलन के नेता मनोज जारांगे पाटिल ने 7वें दिन पानी पी कर अनिश्चितकालीन अनशन को खत्म कर दिया.

भूख हङताल

मनोज जरांगे अंतरवली सराती गांव में भूख हड़ताल पर बैठे थे. सोमवार को जरांगे की हालत बिगड़ गई थी. इस के बाद राज्य में प्रदर्शनकारी उग्र हो गए थे. राज्य में तोड़फोड़ हो गई. इस के बाद यह पहल सरकार की तरफ से हुई. देखा जाए तो यह काम सरकार को पहले करना चाहिए था. सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में मराठा आरक्षण को ले कर क्यूरेटिव पीटिशन दाखिल की है. कोर्ट इस याचिका पर सुनवाई के लिए तैयार हो गया है. महाराष्ट्र सरकार मराठा समुदाय को आरक्षण देने के लिए कानूनी उपाय कर रही है.

जोरदार आंदोलन

2016 में मराठों को आरक्षण के लिए जोरदार आंदोलन हुआ था. राज्यभर में पूरे मराठा समाज की तरफ से तकरीबन 58 मोरचे निकाले गए थे. यह राज्य का सब से बड़ा प्रदर्शन था, जिस पर सरकार को राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग की रिपोर्ट जिस में मराठा समुदाय को 16% आरक्षण की सिफारिश की गई थी. इस के बाद समुदाय को आरक्षण देने के लिए मजबूर होना पड़ा था. मराठा महाराष्ट्र की एक प्रभावशाली जाति है. इस के लोग काफी समय से सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण की मांग कर रहे हैं.

महाराष्ट्र में मराठों को वर्चस्व रखने वाली जाति माना जाता है. किसी जाति को वर्चस्व रखने वाली जाति या डामिनेटेड कास्ट तब कहा जा सकता है जब उस की आबादी दूसरी जातियों से ज्यादा होती है और जब उस के पास मजबूत आर्थिक और राजनीतिक ताकत भी होती है.

एक बड़ा और ताकतवर जाति समूह आसानी से हावी हो सकता है अगर स्थानीय जातीय व्यवस्था में उस की स्थिति बहुत नीचे न हो. मराठों के साथ यह सब है. वह जातीय व्यवस्था में ‘बहुत नीचे’ नहीं हैं.

क्या है मांग

2016 में मराठों की 4 मांगें थीं- सरकारी नौकरी और सरकारी अनुदान से चलने वाले शिक्षा संस्थानों में आरक्षण, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अत्याचार कानून (1956) की कठोरता को कम करना, कोपर्डी कांड के दोषियों को सजा देना और स्वामीनाथन रिपोर्ट को लागू करना. हालांकि आंदोलन के अंत तक सिर्फ पहली मांग ही बची रह गई थी.

महाराष्ट्र ने आयोग की सिफारिशों के आधार पर 29 नवंबर, 2018 को सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ा वर्ग कानून, 2018 पारित किया, जिस से सरकारी अनुदान से चलने वाले महाराष्ट्र के शिक्षा संस्थानों और सरकारी नौकरियों में भरती में मराठों के लिए 16% आरक्षण दिया गया.

मराठों को 16% आरक्षण को हाई कोर्ट में चुनौती दी गई. हाई कोर्ट ने सरकार को आरक्षण को 16% के बजाय 12-13% करने का निर्देश दिया, जिस का 2018 में महाराष्ट्र विधानमंडल ने सर्वसम्मति से पालन किया.

कुनबी दरजा बहाल करने की मांग

इस बार के मराठा आंदोलन में नई मांग रखी गई है कि कुनबी का दरजा बहाल हो. कुनबी मूल रूप से ‘खेतिहर’ वर्ग के लोग थे, जिन्हें महाराष्ट्र की पारंपरिक व सामाजिक व्यवस्था में ‘शूद्र’ माना जाता था. मराठवाडा जब महाराष्ट्र में शामिल हुआ तो 1948 में इन की पहचान मराठों में बदल गई, जिस से इन को आरक्षण मिलना बंद हो गया. सितबंर, 1948 तक निजाम का शासन खत्म होने तक मराठाओं को कुनबी माना जाता था.

कुनबी की गणना ओबीसी में होती थी। इसलिए मराठा समुदाय के लोगों को फिर से कुनबी जाति का दरजा बहाल किए जाने और इस का प्रमाणपत्र फिर से जारी किए जाने की मांग उठ रही है.

कुनबी दरजा वापस मिलते ही उन को पिछड़ी जातियों वाला आरक्षण मिलने लगेगा. एकनाथ शिंदे सरकार ने मराठा समुदाय को आरक्षण देने की बात दोहराते हुए अपने काम भी गिना रही है, जो उस ने मराठों के लिए अब तक किया है.

मराठवाड़ा के मराठों के लिए कुनबी जाति प्रमाणपत्र अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) श्रेणी के तहत आरक्षण के लिए योग्य बनाने की बात कही है. महाराष्ट्र के जानकार लोगों का कहना है कि इन दोनों जातियों का अलगअलग समय पर उन के पेशे के हिसाब से नाम बदलता रहा है. जो लोग खेती का काम कर रहे हैं वे कुनबी हैं और जो देश की रक्षा के लिए हथियार उठाता है तो वह मराठा बन जाता है.

दूसरा सच

कुनबी मराठा का दूसरा सच यह भी है कि 96 कुली मराठा आमतौर पर अपनी जाति के अंदर शादी करने को सही मानते हैं. कुनबी के साथ शादी को समुदाय से बाहर की शादी माना जाता है. इस से यह लगता है कि यह अलगअलग जातियां हैं. एक अलग बात यह भी है कि आंदोलनकारी मराठा होने का दावा करते हुए भी कुनबी जाति के सर्टिफिकेट की मांग कर रहे हैं.

सवाल यह उठता है कि अगर यह सच है तो वर्ण विभाजन में कुनबी को ‘शूद्र’ और मराठा को ‘क्षत्रिय’ कैसे माना जाता है ? इस मसले को हल करने और जातीय गणना को करने के लिए मुख्यमंत्री द्वारा स्थापित समिति बनी है. उस की रिपोर्ट अभी आई नहीं है. समिति ने 2 माह का समय मांगा है.

महाराष्ट्र सरकार ने मराठा आरक्षण को ले कर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है. कोर्ट 2021 के फैसले को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई करने के लिए सहमत हुई, जिस ने सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के तहत राज्य के मराठा आरक्षण कानून को अमान्य कर दिया था. सुनवाई के लिए अभी कोई तारीख तय नहीं की गई है.

दबाव में सरकार

2024 में लोकसभा चुनाव के साथ ही साथ महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव भी है. ऐसे में मराठा आरक्षण आंदोलन से सरकार की मुश्किलें बढ़ गई हैं. यह आंदोलन जोर न पकड़ सके इस के पहले ही इस को शांत करना जरूरी था. ऐसे में एकनाथ शिंदे सरकार ने हर बात मान लेने में भलाई समझी.

मराठा आरक्षण की मांग करने वाले जारंगे पाटिल ने कुनबी ओबीसी जाति प्रमाणपत्र प्रदान करने की अलग मांग रख कर सरकार को परेशान करने वाला काम किया है. महाराष्ट्र में ओबीसी आबादी का 52% हैं. मराठों की आबादी लगभग 33% है. ऐसे में जिस की जितनी संख्या भारी उस को उतनी हिस्सेदारी के तहत अधिकार देने पड़ेंगे.

महाराष्ट्र में मराठा समुदाय पहले से ही केंद्र सरकार द्वारा आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) के लिए प्रदान किए गए 10% आरक्षण का लाभ ले रहा है. सरकार के विरोधी नेता कह रहे हैं कि ओबीसी समुदाय में पहले से ही बहुत सारी जातियां हैं. अगर मराठों को इस में जोड़ा गया तो दिक्कत होगी.

ओबीसी समुदाय 1980 के दशक से ही बीजेपी के लिए अहम रहा है. गोपीनाथ मुंडे और एकनाथ जैसे नेताओं के कारण भाजपा को लाभ मिलता रहा है. कांग्रेस को इस से नुकसान हुआ था. अब ओबीसी का भाजपा से राजनीतिक मोहभंग हो रहा है. विरोधी दल इस का लाभ उठा सकते हैं.

महाराष्ट्र सरकार कुछ भी दावे करे मगर उस के लिए काम करना सरल नहीं है. सरकार को आरक्षण सीमा में संशोधन के लिए इसे केंद्र के पास ले जाना होगा. लेकिन अगर ऐसा होता है तो राजस्थान, गुजरात जैसे अन्य राज्य भी केंद्र के सामने ऐसी ही मांग रख सकते हैं. मराठों और ओबीसी के बीच आरक्षण को ले कर टकराव हो रहा है. ओबीसी अब तक बीजेपी के पीछे लामबंद हुए हैं, वे ज्यादातर उन के साथ रहेंगे तो मराठा वोट बंट जाएगा. भाजपा को इस का नुकसान उठाना होगा. मराठा आंदोलन का हल सरल नहीं है. जैसेजैसे जातीय गणना की मांग पूरे देश में जोर पकङेगी महाराष्ट्र भी उस आंदोलन में जुङ जाएगा।

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