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नेताओं का स्टाइल फंडा

धुआंधार भाषणों के अलावा नरेंद्र मोदी अपनी एक खास स्टाइल और पोशाक के चलते भी काफी शोहरत हासिल कर चुके हैं. चुनाव प्रचार के दौरान जनता का ध्यान खींचने में दूसरे नेताओं, खासतौर से अपने प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस के राहुल गांधी के मुकाबले ज्यादा कामयाब रहे थे. आधी बांह का कुरता और उस के ऊपर नेहरूकट जैकेट उन पर खूब फबी थी. कई दफा उन्होंने चूड़ीदार पाजामा भी पहना. लोकसभा चुनाव के दौरान ही एक सर्वे में 76 फीसदी लोगों ने मोदी को सब से स्टाइलिश नेता माना था. यह कहने में भी लोग हिचकिचाए नहीं थे कि वे ड्रैस के कारण उम्र से कम दिखते हैं.

बदल रहे हैं नेता

आजादी के बाद अधिकांश नेताओं की पसंदीदा पोशाक धोती, कुरता और जैकेट हुआ करती थी, सिर्फ पंडित जवाहर लाल नेहरू जैसे दोचार विदेश में पढ़े नेता ही पैंट, शर्ट या सूट पहनते थे. इसलिए वे अलग चमकते भी थे.

धीरेधीरे धोती की जगह पाजामे और पैंट ने ले ली पर नेता कुरते का मोह नहीं छोड़ पाए. पुराने नेताओं के पास 4-6 जोड़ी कपड़े हुआ करते थे पर आजकल के नेताओं की अलमारियों में सैकड़ों जोड़ी पोशाकें होती हैं. कभी केवल भाषणों की वजह से पहचाने जाने वाले नेता अब फैशन और ड्रैस की वजह से भी सुर्खियों में रहने लगे हैं. जनता भी चाहती है कि नेता स्मार्ट और स्टाइलिश कपड़े पहनने वाला हो और अलग दिखे, खासतौर से प्रधानमंत्री, क्योंकि उस पर दुनिया भर की निगाहें होती हैं. 

नरेंद्र मोदी अकसर दाएं हाथ में घड़ी पहनते हैं और उन के टेलर विपिन चौहान की मानें तो वे एक दफा कह चुके हैं कि मैं अपनी आंखों, आवाज और कपड़ों से समझौता नहीं कर सकता. प्रधानमंत्री बनने के बाद अब वे और सजग हो चले हैं और इस बात का भी खयाल रखते हैं कि पोशाक भारतीय हो लेकिन उस में इंटरनैशनल लुक भी हो. साल 2014 में ब्राजील दौरे के दौरान मोदी अलग अंदाज में दिखे थे. कुरतेपाजामे की जगह वे सूट में नजर आए थे जिसे अहमदाबाद की जेड ब्लू कंपनी ने डिजाइन किया था. सूट पहनने के पीछे मोदी की मंशा शायद यही थी कि विदेश जाएं तो ऐसे दिखें भी कि लोग यह समझ जाएं कि सब से बडे़ लोकतांत्रिक देश की अगुआई करने वाला हर रंग में खुद को रंगना जानता है.

और भी हैं उदाहरण

स्टाइलिश नेताओं में दूसरा बड़ा नाम कांगे्रस के ज्योतिरादित्य सिंधिया का लिया जाता है जो अपने पिता माधवराव की तरह ही खास अंदाज में दिखते हैं. सिंधिया की पसंदीदा ड्रैस चूड़ीदार पाजामा, सफेद झकास कुरता और नेहरूकट जैकेट है. इन कपड़ों के साथ वे काले रंग के जूते पहनते हैं. ग्वालियर राजघराने का वैभव तो ज्योतिरादित्य के चेहरे से झलकता ही है पर तरहतरह के बेशकीमती चश्मे भी उन के पास हैं. उन के एक नजदीकी ग्वालियर के पत्रकार की मानें तो चश्मों के अलावा उन के पास कलाई घडि़यों और रिस्ट बैंड का भी भंडार है.

कांगे्रस के ही राहुल गांधी हालांकि कभी अपनी ड्रैस और स्टाइल की वजह से चर्चित नहीं हुए पर सभाओं में वे अकसर सफेद कुरतापाजामा या फिर जींस की पैंट के ऊपर ढीला कुरता पहन कर जाते हैं और दाढ़ी हलकी बढ़ी रखते हैं. लंदन के एक नामी स्टोर्स से कपड़ों की खरीदारी करने वाले राहुल गांधी के पास प्रिंटैड शर्ट और सूट भी इफरात में हैं लेकिन उन्हें वे कभीकभार ही पहनते हैं.

राहुल के मुकाबले उन की मां सोनिया गांधी पहनावे के कारण ज्यादा लोगों का ध्यान खींचती हैं. जनसभाओं में वे साड़ी के अलावा कभीकभी सूट भी पहनती हैं. हैंडलूम के अलावा मध्य प्रदेश की मशहूर चंदेरी साड़ी हो या ओडिशा की संबलपुरी साड़ी, इन से सोनिया गांधी की अलमारियां भरी पड़ी हैं. अकसर हाई हील की सैंडल और चप्पल पहनने वाली सोनिया कभीकभी बंद गले का ब्लाउज भी पहने दिखती हैं जो उन्हें और खास बनाता है.

सुषमा स्वराज का स्टाइल भी औरतों को भाता है. वे साड़ी के ऊपर कोटि (जैकेट) पहनती हैं तो खूब जंचती हैं जिस पर माथे पर लगी बड़ी बिंदी बरबस ही लोगों का ध्यान खींचती है.

उलट इस के पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अपने सख्त तेवरों के मुकाबले कपड़े बेहद सादे पहनती हैं. राजनीतिक सफर की शुरुआत में वे खुद अपनी साडि़यां डिजाइन करती थीं और आज भी बगैर इस्त्री की साडि़यां पहन कर ही विधानसभा और जनता के बीच पहुंचती हैं. उन का यह सादगीभरा पहनावा, पश्चिम बंगाल में फैशन बनता जा रहा है. वे अकसर सफेद या हलकी नीली साड़ी पहनती हैं.

ममता जैसा ही हाल बसपा प्रमुख मायावती का है जिन्होंने कभी तड़कभड़क वाले पहनावे में यकीन नहीं किया और सादगी को ही फैशन बना डाला. मायावती के सलवार सूट दूर से ही सस्ते दिखते हैं. वे दुपट्टे को शाल की तरह इस तरह पहनती हैं कि वह घुटनों तक लटकता नजर आता है.

फिल्म एक्ट्रैस हेमा मालिनी अब मथुरा से भाजपा की सांसद भी हैं, नेतागीरी करते हुए वे अपने कपड़ों का खास खयाल रखती हैं. चुनाव प्रचार के दौरान वे सिल्क और कांजीवरम की साडि़यों में नजर आई थीं. खास बात यह है कि वे ड्रैस से मेल खाती ज्वैलरी पहनती हैं. साडि़यों और गहनों के मामले में तमिलनाडु की सीएम जे जयललिता किसी से पीछे नहीं.

स्टाइलिश नेताओं में एक अहम नाम भाजपा के नवजोत सिंह सिद्धू का भी है. सिद्धू उन गिनेचुने नेताओं में से हैं जो परंपरागत भारतीय कपड़ों के बजाय पैंटशर्ट पहनते हैं. पगड़ी के रंग से मैच करती टाई उन्हें स्टाइलिश बनाती है. जम्मूकश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की भी गिनती फैशनेबल और स्टाइलिश नेताओं में होती है. चूड़ीदार पाजामे पर वे अकसर सिल्क का कुरता पहनते हैं और नेहरूकट जैकेट उन की भी पसंदीदा पोशाक है.

कांग्रेस के सचिन पायलट भी अपने अलग लुक के लिए जाने जाते हैं. वजह, वे अकसर सहूलियत वाली परंपरागत ड्रैस पैंटशर्ट पहनते हैं. नेता दिखने के लिए वे भी सभाओं में जैकेट पहने रहते हैं. एक खास किस्म का चश्मा भी सचिन पहनते हैं. वे मान भी चुके हैं कि पैंटशर्ट्स का खास कलैक्शन उन के पास है.

स्टाइल के माने

हर एक नेता चाहता है कि ज्यादा से ज्यादा लोगों का ध्यान उस की तरफ जाए, इसलिए तेजी से उन का रुझान फैशन, स्टाइल और ड्रैस की तरफ बढ़ रहा है. यह जरूरी नहीं कि यही शोहरत की वजह हो पर और नेताओं से हट कर पहचान तो होती ही है. राजीव गांधी अपने बंद गले के सूट के चलते खूब पसंद किए गए थे, तो दूसरी तरफ लालू प्रसाद यादव का कुरतापाजामा भी लोगों ने सराहा.

वहीं, कई नेता ऐसे भी हैं जो प्रसिद्ध होते हुए भी ड्रैस और स्टाइल में मात खा गए. इन में सब से बड़ा नाम ‘आप’ के मुखिया अरविंद केजरीवाल और उन के बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का है. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी कपड़े और पहनावे पर तवज्जुह नहीं देते.

केवल अपने देश के ही नहीं, बल्कि कई विदेशी नेता भी अपनी ड्रैस, फैशन और स्टाइल की वजह से पहचाने जाते रहे हैं. इन में क्यूबा के कम्युनिस्ट नेता फिदेल कास्त्रो एक अहम नाम है जो अकसर खिलाडि़यों वाला ट्रैक सूट पहनते थे. चीन के पूर्व राष्ट्रपति माओत्से तुंग भी अपने सफारी सूट के कारण लोकप्रिय हुए थे. अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्ंिलटन का सूट भी काफी चर्चाओं में रहा था. इन दिनों अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी के नेता रिक सालोरूम का स्वेटर भी सुर्खियों में है.

भारत में स्टाइलिश नेताओं की तादाद काफी कम है. वजह, नेता छोटे शहरों में पैदा होते हैं जिन की नजर में खादी का कुरतापाजामा और जैकेट ही नेता की पहचान होती है. पैंटशर्ट पहन जनता के बीच जाने से छोटा नेता भी परहेज करता है. नरेंद्र मोदी के मेकओवर से इस सोच में कितना बदलाव आएगा यह देखना दिलचस्पी की बात होगी.

सांप्रदायिकता की आग में झुलसता उत्तर प्रदेश

उत्तर प्रदेश में 2012 के बाद से सांप्रदायिक तनाव, लड़ाईझगडे़ और दंगों का जो सिलसिला चल रहा है वह 2 साल के बाद भी रुकने का नाम नहीं ले रहा. प्रदेश में 2012 में सांप्रदायिक तनाव की 134 घटनाएं घटी थीं. 2013 में 247 घटनाओं में 77 लोग मरे और 360 लोग घायल हुए. 2014 में घटी अब तक 56 घटनाओं में 15 लोग मारे गए.

2013 में पूरे देश में कुल 823 घटनाएं घटीं. इन में 133 लोग मरे और 2269 लोग घायल हुए. उन में सब से अधिक घटनाएं उत्तर प्रदेश में घटीं. उस साल देश का सब से बड़ा दंगा उत्तर प्रदेश के मुजफ्फनगर जिले में हुआ. परेशानी की बात यह है कि बहुत सारी कोशिशों के बाद भी उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक तनाव खत्म नहीं हो पा रहा है. छोटीछोटी घटनाएं कब दंगे का रूप ले लेती हैं, पता ही नहीं चलता है. इस का सब से अधिक प्रभाव प्रदेश के पश्चिमी हिस्से में पड़ रहा है.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश सब से संपन्न व खुशहाल क्षेत्र माना जाता था. दलित, पिछड़ों और किसानों के राजनीतिक समीकरण ने देश और प्रदेश की राजनीति को प्रभावित करने का काम किया था. पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह और किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत जैसे नेता इसी क्षेत्र से आंदोलन शुरू कर के देश के पटल पर छा गए थे. यहां अलगअलग धर्म और जातियों के लोग मिलजुल कर खेतों में काम करते थे. इस वजह से यह देश के सब से संपन्न खेती वाले इलाकों में आता था. अब पश्चिमी उत्तर प्रदेश की पहचान बदल चुकी है. यहां सांप्रदायिक गोलबंदी शुरू हो चुकी है. ऐसे में राजनीतिक दलों को भी मजा आ रहा है. हर दल दूसरे दल पर सांप्रदायिकता के नाम पर राजनीति करने का आरोप लगा रहा है. जरूरत इस बात की है कि जनता खुद ऐसे तत्त्वों को सबक सिखाने का काम करे.

केंद्रीय खुफिया एजेंसी आईबी ने एक बार फिर उत्तर प्रदेश पुलिस को चौकन्ना रहने के लिए कहा है. आईबी ने उत्तर प्रदेश को भेजी अपनी जानकारी में कहा है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में धर्म परिवर्तन, महिलाओं के खिलाफ हो रहे अपराधों और अपहरण को ले कर घट रही घटनाओं को शरारती तत्त्व सांप्रदायिक रंग दे सकते हैं. आईबी ने पुलिस को ऐसे मामलों से सही तरीके से निबटने और इलाके में पुलिस बल बढ़ाने की बात कही है. आईबी ने यह जानकारी उस समय भेजी है जब मेरठ के खरखौंदा इलाके में एक युवती के साथ बलात्कार, अपहरण और धर्मपरिवर्तन का मामला गरम है.

खरखौंदा का धर्मपरिवर्तन कांड

मेरठ के खरखौंदा में रहने वाली लड़की गरीब परिवार की थी. वह पढ़ने में होशियार थी. घर की जरूरतों को पूरा करने के लिए उस ने मसजिद में चलने वाले स्कूल में बच्चों को पढ़ाने का काम शुरू किया. यहीं उस के संबंध कलीम नामक युवक से बन गए जिस से उस को गर्भधारण हो गया. परेशानी की बात यह थी कि गर्भ बच्चेदानी के बजाय फैलोपियन ट्यूब में ठहर गया जिस को मैडिकल की भाषा में एक्टोपिक प्रैग्नैंसी कहते हैं.  एक्टोपिक प्रैग्नैंसी में गर्भ ठहरने से पेट में दर्द होने लगता है. गर्भ के बढ़ने से फैलोपियन ट्यूब के फटने का खतरा रहता है. जब इस युवती को पेट में दर्द शुरू हुआ तो कलीम उसे ले कर लाला लाजपत राय मैमोरियल अस्पताल, मेरठ गया. अस्पताल में उस ने महिला डाक्टर सुनीता को परचा और अल्ट्रासाउंड रिपोर्ट दिखाई. इस के बाद 23 जुलाई को लड़की का औपरेशन किया गया. 29 जुलाई को लड़की अपने घर वापस आई. इस के बाद 31 जुलाई को उस के अपहरण और धर्मपरिवर्तन की बात सामने आई. 

इस बात को ले कर पुलिस के अलगअलग बयान आ रहे हैं जिस के कारण मामला उलझ गया है. मेरठ ही नहीं, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दूसरे शहरों में भी गांव की गरीब लड़कियों को बहलाफुसला कर फंसाने के तमाम मामले बिखरे पड़े हैं. ऐसे में इस तरह की अफवाहों को रंग देने में समय नहीं लगता.  पुलिस अगर समय पर सही ढंग से बिना किसी भेदभाव के छानबीन करे और दोषियों को सजा दे तो ऐसी अफवाहों को रोका जा सकता है.

मेरठ की ही तरह सहारनपुर में गुरुद्वारा और मसजिद की जमीन के विवाद में भड़के दंगे ने सहारनपुर की फिजा को नुकसान पहुंचाने का काम किया है.

कांठ में लाउडस्पीकर की गांठ

धार्मिक झगड़ों की कोई बड़ी वजह नहीं होती. उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद जिले के कांठ इलाके में आने वाले गांव अकबरपुर चैदरी के नयागांव मजरा में भी यही हुआ. यह गांव पीस पार्टी के विधायक अनीसुर्रहमान के चुनावी क्षेत्र में है. वे समाजवादी पार्टी के भी करीबी माने जाते हैं. यहां हिंदू और मुसलिम मिलीजुली आबादी के रूप में रहते हैं. हिंदुओं में बड़ी संख्या जाटव जाति के लोगों की है जो दलित वर्ग से आते हैं. यहां के शिवमंदिर में शिवरात्रि के त्यौहार पर लाउडस्पीकर लगा कर पूजा की जाती थी. 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान भारतीय जनता पार्टी के कुछ नेताओं ने मंदिर को लाउडस्पीकर दान में दिया़ इस के बाद रोज पूजा के समय लाउडस्पीकर बजने लगा. इस बात का विरोध दूसरे वर्ग के लोगों ने किया. उन का तर्क था कि मसजिद में होने वाली अजान के समय मंदिर का लाउडस्पीकर बजने से अजान में खलल पड़ता है.

इस बात को ले कर दोनों पक्षों में तनाव बढ़ गया. बीच का रास्ता यह तय हुआ कि जब तक रमजान का महीना चल रहा है, मंदिर पर लाउडस्पीकर न बजाया जाए. 3 अगस्त के बाद लाउडस्पीकर फिर से लगा लिया जाए. कु छ लोग इस बात को ले कर सहमत थे तो कुछ लोग इस के विरोध में थे. उन का मानना था कि जब एक पक्ष लाउडस्पीकर लगा सकता है तो दूसरा क्यों नहीं? मामला नहीं सुलझा तो 20 जून को थाना कांठ में सांप्रदायिक सौहार्द्र बिगाड़ने के लिए अपराध संख्या 84/14 के अधीन धारा 153, 120 बी के तहत 10 लोगों के खिलाफ मुकदमा कायम कर दिया गया. जिला प्रशासन ने मंदिर से लाउडस्पीकर हटाने के लिए पुलिस बल का प्रयोग किया. विरोध में वहां के भाजपा सांसद ने 4 जुलाई को महापंचायत बुला ली.

प्रशासन ने धारा 144 लगा कर जब महापंचायत को रोकने का काम किया तो भाजपा के 3 सांसद नेपाल सिंह, सतपाल सैनी और भंवर सिंह तंवर व विधायक संगीत सोम विरोध में उतर आए. बाद में हरिद्वारमुरादाबाद रेल मार्ग जाम कर रहे लोगों ने पुलिस और प्रशासन के लोगों पर पथराव शुरू कर दिया जिस में कई लोग गंभीर रूप से घायल हो गए. पथराव करने आए लोगों ने अपने चेहरे पर कपड़ा बांध रखा था जिस से उन को पहचाना न जा सके. झगड़े में हुई पत्थरबाजी में मुरादाबाद के डीएम चंद्रकांत को गंभीर चोट लगी. उन की एक आंख की रोशनी चली गई.

लापरवा प्रशासन

मुराबादबाद के एसएसपी धर्मवीर सिंह कहते हैं, ‘‘भाजपा ने ठाकुरद्वारा विधान- सभा सीट पर होने वाले उपचुनावों को सामने रख कर तनाव फैलाने का काम किया है.’’ एसएसपी के इस बयान का भाजपा ने खुलेरूप में विरोध किया. भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेई कहते हैं, ‘‘एसएसपी का यह बयान समाजवादी पार्टी के नेता सा बयान है. उन का काम जिले में तनाव को रोकना था. वे एकतरफा कार्यवाही कर रहे हैं, जिस के चलते क्षेत्र के लोग सरकार और प्रशासन दोनों का विरोध कर रहे हैं.’’ लोकसभा चुनावों में जिस तरह से भारतीय जनता पार्टी को उत्तर प्रदेश में सफलता मिली उस से एक संदेश यह चला गया कि सांप्रदायिक तनाव और झगड़ों के चलते यह जीत मिली है. ऐसे में कुछ नेता 2017 के विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करने के लिए ऐसे तनाव को बढ़ाने में लगे हैं. 

दरअसल, घटना कहीं भी घट सकती है, तनाव हो सकता है लेकिन दंगा तभी भड़कता है जब उस में राजनीति लिप्त कर दी जाती है, खासकर वोट की राजनीति. वहीं, कुछ चेहरे संप्रदाय विशेष का मसीहा बनने की फिराक में तनाव को दंगे का रूप देने से बाज नहीं आते. समय रहते अगर दंगों पर अंकुश नहीं लगाया गया तो सामाजिक विद्रोह की चिंगारी सुलगती रहेगी.

सीसैट : भाषाई भेदभाव के खिलाफ आक्रोश

पटना से ले कर दिल्ली तक और देहरादून से ले कर इंदौर तक हिंदीभाषी छात्र गुस्से में हैं और आरपार की लड़ाई का मूड बना चुके हैं. इन छात्रों ने सरकार को साफ चेतावनी दी है कि सिविल सर्विसेज एग्जाम से सीसैट को हर हाल में खत्म करना होगा. कहने का मतलब यह कि हिंदीभाषियों और तमाम दूसरी हिंदुस्तानी भाषाओं के माध्यम से सिविल सर्विसेज एग्जाम देने वाले

छात्र अब किसी भी कीमत पर सीसैट को स्वीकार करने के मूड में नहीं हैं. आखिर छात्र सीसैट से इतने खफा क्यों हैं?

दरअसल, साल 2011 में संघ लोक सेवा आयोग यानी यूपीएससी ने अपनी प्रारंभिक परीक्षा के पाठ्यक्रम के अंतर्गत कौमन सिविल सर्विसेज एप्टीट्यूड टैस्ट यानी सीसैट पैटर्न जोड़ा. इसे वाई के अलघ समिति की सिफारिशों के मद्देनजर संघ लोक सेवा आयोग ने जोड़ा था. इसे 2014 में पूरी तरह से लागू करना था. वास्तव में इस की सिफारिश का कारण यह माना गया था कि तेजी से बदलती परिस्थितियों में रट कर 5 प्रश्न हल करने की प्रणाली, जटिल प्रशासनिक जरूरतों के लिए योग्य प्रतिभाओं को छांट पाने में कामयाब नहीं हो पा रही थी. इसलिए सीसैट को लाया गया. मतलब यह कि इसे परीक्षार्थियों की कुशलता परखने के औजार के रूप में शामिल किया गया.

प्रारंभिक परीक्षा में जोड़े गए सीसैट पैटर्न का उद्देश्य यह था कि इस के जरिए उन विद्यार्थियों का चयन हो सके जिन में सहज प्रशासनिक क्षमता हो. लेकिन माना जा रहा है कि इस से हिंदी और दूसरी हिंदुस्तानी भाषाओं के माध्यम से परीक्षा देने वाले छात्रों को कोई फायदा नहीं हो रहा, उलटे उन का बहुत नुकसान हो रहा है.

सीसैट पैटर्न के तहत यूपीएससी की प्रारंभिक परीक्षा में 400 अंकों के 2 पेपर होते हैं. इन में से 200 अंकों का पेपर सामान्य अध्ययन का होता है और 200 अंकों का सीसैट होता है. 2 साल के अनुभवों के बाद पाया गया है कि इस के चलते जहां कुछ खास शैक्षिक पृष्ठभूमि के लोगों के लिए यह परीक्षा बिलकुल आसान हो गई है, वहीं कुछ दूसरों के लिए यह पहले के मुकाबले अब काफी मुश्किल हो गई है. वास्तव में इस पैटर्न के चलते गैर अंगरेजी माध्यम वाले प्रतियोगियों के लिए प्रारंभिक परीक्षा पास करना लगातार काफी मुश्किल हो गया है. सीसैट लागू होने के बाद से अभ्यर्थी, खासकर ग्रामीण पृष्ठभूमि वाले छात्र, गणित व रीजनिंग के सवालों से खासे परेशान नजर आ रहे हैं.

आयोग की दादागीरी

हालांकि शुरू में यानी 2011 में जब इसे पहली बार लागू किया गया था तब इतनी परेशानी नहीं हुई थी लेकिन बाद में साल दर साल सीसैट परीक्षा में गणित और रीजनिंग के जैसेजैसे सवाल बढ़े, मानविकी के छात्रों का बंटाधार होने लगा. पिछली बार यानी 2013 में सामान्य अध्ययन द्वितीय प्रश्नपत्र (सीसैट) में हिंदी कौंप्रिहैंशन के 23, अंगरेजी कौंप्रिहैंशन के 8, निर्णयन के 6, गणित के 15 व रीजनिंग के 28 सवाल पूछे गए. इस पैटर्न के चलते सामान्य अध्ययन के प्रथम प्रश्नपत्र में भी व्यावहारिक विज्ञान, अर्थशास्त्र और भूगोल के सवालों ने परीक्षार्थियों के लिए मुसीबत पैदा की. फिर भी परीक्षार्थियों के मुताबिक, पहला प्रश्नपत्र औसतन आसान और व्यावहारिक था.

पहली पाली में हुई इस परीक्षा में 2 घंटे में वस्तुनिष्ठ प्रकृति के 100 प्रश्न हल करने थे. हर प्रश्न के सही उत्तर के लिए 2 अंक मिलने थे, जबकि गलत उत्तर के लिए एकतिहाई अंक कटने थे. लेकिन सामान्य अध्ययन के द्वितीय प्रश्नपत्र में 200 अंक के 80 सवाल पूछे गए. इन सवालों में 40 सवाल कौंप्रिहैंशन के थे. वास्तव में फोकस किया जाए तो अंतिम रूप से फसाद की जड़ यही 40 कौंप्रिहैंशन के सवाल हैं. सीसैट इसी जगह पर आ कर भारतीय भाषाओं के छात्रों के लिए खलनायक बन जाता है.

गैर अंगरेजी माध्यम वाले परीक्षार्थियों का आरोप है कि सीसैट पैटर्न पर पूछे जाने वाले सवाल मूलरूप से अंगरेजी में बनाए जाते हैं. हिंदी या दूसरी भारतीय भाषाओं में इन का इतना घटिया अनुवाद प्रस्तुत किया जाता है कि ये सवाल एक बार पढ़ने से तो समझ ही नहीं आते, जबकि कई बार पढ़ कर समझने से काफी वक्त जाया हो जाता है. एक तरह से उन के कहने का मतलब यह है कि सारी जड़ अंगरेजी है.

हिंदी और दूसरी हिंदुस्तानी भाषाओं के छात्र मानते हैं कि सीसैट परीक्षा अंगरेजी माध्यम में इंजीनियरिंग और मैनेजमैंट की पढ़ाई करने वाले छात्रों के लिए बहुत ज्यादा अनुकूल है. उन के मुताबिक, भारतीय भाषाओं में दिए गए अनुवाद न सिर्फ काफी जटिल होते हैं बल्कि बोधगम्य भी नहीं होते. इस के साथ ही आयोग की यह दादागीरी भी देखिए कि वह स्पष्ट रूप से मानता है कि अंगरेजी के प्रश्न ही अंतिम रूप से मानक हैं अर्थात किसी तरह की त्रुटि की स्थिति में अंगरेजी में लिखा हुआ ही मान्य होगा. कहने का मतलब आप आयोग को उस की किसी गलती के लिए घेर भी नहीं सकते. सीसैट का विरोध करने वालों का कहना है कि इस से हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं में सफल छात्रों की संख्या में काफी गिरावट आई है.

इस में दोराय नहीं है कि ये तमाम आरोप तकनीकी दृष्टि से बिलकुल सही हैं. इन्हें तथ्यों के रूप में भी देखा जा सकता है. मसलन, 2013 की सिविल सेवा परीक्षा में सफल हिंदी माध्यम के छात्रों का प्रतिशत मात्र 2.3 रहा जबकि 2003 से 2010 के बीच ऐसे छात्रों का प्रतिशत हमेशा 10 से ज्यादा रहा था. 2009 में तो यह प्रतिशत 25.4 तक चला गया था. 2013 की परीक्षा में कामयाब हुए 1,122 छात्रों में सिर्फ 26 हिंदी माध्यम के थे. इन के साथ अगर सभी भारतीय भाषाओं के माध्यम वाले छात्रों की संख्या जोड़ लें तो वह भी सिर्फ 80 है.

समान अवसर का अभाव

इन आंकड़ों के आईने में अंगरेजी के दबदबे को स्वत: देखा जा सकता है. भारतीय भाषाओं के लिए यह आंकड़ा तब और भयावह हो जाता है जब यह पता चलता है कि सीसैट से पहले मुख्य परीक्षा में बैठने वाले छात्रों में हिंदी और अन्य भारतीय

भाषाओं के छात्रों का प्रतिशत 40 से ज्यादा होता था, जबकि सीसैट के बाद इस में बहुत भारी गिरावट आई है. पिछले 3 वर्षों में यह 10 से 15 फीसदी तक आ गिरा है.

ऐसा नहीं है कि केवल असफल छात्र ही सीसैट को खलनायक बनाने पर तुले हों. यूपीएससी की अपनी आंतरिक मशीनरी भी कहीं न कहीं इस बात को स्वीकार कर रही है. निगवेकर समिति ने भी इस पैटर्न की आलोचना की है. यूपीएससी द्वारा गठित निगवेकर समिति ने 2012 में अपनी रिपोर्ट में कहा था कि सीसैट परीक्षा पैटर्न शहरी क्षेत्र में अंगरेजी माध्यम के छात्रों को फायदा पहुंचा रहा है.

इस संदर्भ में निगवेकर समिति की तो आलोचनात्मक टिप्पणी हुई ही है, लाल बहादुर शास्त्री अकादमी भी इस मामले में ऐसी ही टिप्पणी दे चुकी है. सवाल है इस समस्या को अगर कुछ देर के लिए हम सैद्धांतिक और वैचारिक या सामाजिक व राजनीतिक दृष्टि से न देखें, सिर्फ तकनीकी रूप से देखें तो यह किस तरह से गैर अंगरेजी माध्यम वाले छात्रों को परेशान करती है? वास्तव में यूपीएससी के परीक्षा परिणामों का जो इतिहास रहा है, उस में हम देखते रहे हैं कि सामान्यतया 60 प्रतिशत नंबर लाने वाले परीक्षार्थी टौप कर जाते हैं.

नए पैटर्न के चलते अंगरेजी माध्यम के छात्र इंगलिश कौंप्रिहैंशन के 9 प्रश्नों में हिंदी वालों से कम से कम 3 सवाल ज्यादा बना लेते हैं और वह भी उन के मुकाबले 5 मिनट कम समय में. वास्तव में इंजीनियरिंग, पीओ, एसएससी, मैनेजमैंट जैसी पृष्ठभूमि के प्रतियोगी, मानविकी के विद्यार्थियों की तुलना में गणित एवं शक्ति परीक्षा के 32 सवालों का कम से कम 10 मिनट कम समय में उत्तर निकाल लेते हैं. इस के चलते वे मानविकी वालों के मुकाबले 4-5 सवाल से ज्यादा हल कर लेते हैं. वास्तव में इस में भाषा से ज्यादा प्रबंधन, अभियांत्रिकी जैसी पृष्ठभूमि के परीक्षार्थियों की तेज गति से पढ़ने की आदत का उन्हें फायदा मिलता है.

कौंप्रिहैंशन सैक्शन

इस पैटर्न के चलते सब से बड़ा फर्क पैदा करता है, प्रश्नपत्र का कौंप्रिहैंशन सैक्शन. कौंप्रिहैंशन का हिंदीरूप चूंकि अनूदित होता है, इसलिए यह मूल से भी कहीं ज्यादा जटिल हो जाता है. लेकिन गे्रजुएट मैनेजमैंट ऐडमिशन टैस्ट (जीमैट), इंडियन इंस्टिट्यूट औफ मैनेजमैंट (आईआईएम) एवं दूसरी प्रबंधन परीक्षाओं की तैयारी किए छात्र व छात्राएं कौंप्रिहैंशन में काफी तीव्र एवं सटीक होते हैं, क्योंकि उन्होंने पूर्व में इस की अच्छी तैयारी की होती है. चूंकि ये तमाम छात्र अमूमन अंगरेजी माध्यम के होते हैं इसलिए इसी माध्यम के खाते में ज्यादा सफलता आती है.

यही नहीं, यूपीएससी की तैयारी करने वाले छात्रों में एक तबका ऐसा भी है जो पूर्व की ऐसी परीक्षाओं की तैयारी की बदौलत ही इस में 80 से 90 प्रतिशत तक नंबर ले आता है. जबकि दूसरी तरफ ऐसे भी छात्र हैं जो कभी साक्षात्कार तक पहुंच गए थे, मगर पिछले 3 सालों से प्रारंभिक परीक्षा भी नहीं पास कर पाए हैं. इस का कारण है कि प्रारंभिक परीक्षा का कट औफ मार्क्स लगातार बढ़ रहा है, जो इस तरह की परीक्षा के विशेषज्ञों के अलावा अन्य लोगों के लिए लगभग असाध्य है. इस के उलट, मुख्य परीक्षा का प्राप्तांक पिछले 3 वर्षों से लगातार गिरते हुए कम से कम 20 प्रतिशत नीचे आ गया है.

वैसे भारतीय भाषाओं के साथ अंगरेजी माध्यम का यह कोई पहला आतंक नहीं है. इस के पहले भी ऐसा प्रत्यक्षअप्रत्यक्ष तौर पर होता रहा है. चूंकि यूपीएससी की वास्तविक परीक्षा लिखित और साक्षात्कार की परीक्षा है, इसलिए इस में शामिल होने वाले प्रतिभागियों की भीड़ की छंटनी के लिए प्रारंभिक परीक्षा को अब यह रूप दे दिया गया है. वैसे पहले भी यह इसी काम के लिए थी लेकिन अब इसे और धारदार तरीके से सीसैट अंजाम दे रहा है.

पहले भी देखा गया है कि हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं के माध्यम से परीक्षा पास करने वाले छात्रों से बहुधा अंगरेजी में साक्षात्कार लिया जाता रहा है. इस को ले कर भी बहुत बार आपत्तियां दर्ज हुई हैं. यह अकारण नहीं है कि यूपीएससी के इतिहास में कोई भी हिंदीभाषी परीक्षार्थी नंबर वन रैंक में नहीं आया है.

2013 के परीक्षाफल से तो लगता है कि आने वाले समय में मानविकी और इस में भी खासकर देशीभाषा के लोग यूपीएससी की परीक्षा वैसे ही पास कर पाएंगे जैसे कि अंगरेजी शासन के दौरान कुछ ही भारतीय यदाकदा आ जाया करते थे.

राहत दो आफत लो खेल नेपाल का

नेपाल भारत को अपना बड़ा भाई मानते हुए एक ओर जहां उस से राहत पाने की जुगाड़ में लगा रहता है वहीं दूसरी ओर भारत को आफत देने में जरा भी संकोच नहीं करता है. नेपाल एक दशक से भारत से राहत लेने और उसे आफत देने का खेल बड़ी ही चालाकी से खेल रहा है. भारत खुद को बड़ा भाई मानते हुए छोटे भाई नेपाल की बदमाशियों की अनदेखी करता रहा है. नेपाल पिछले कई सालों से इस बात की रट लगा कर भारत का सिरदर्द बढ़ाता रहा है कि ‘भारतनेपाल समझौता 1950’ से भारत को ही ज्यादा फायदा होता रहा है. फिर चाहे नेपाल के चीन के साथ पींगें बढ़ाने का मामला हो, भारतीय जमीन पर कब्जे का मसला हो या नेपाल की नदियों से पानी छोड़ने के बाद भारत के कई इलाकों में बाढ़ की तबाही मचने की बात हो, नेपाल ऐसे कई मामलों में भारत को सिरदर्द देने में कोई कोताही नहीं बरतता है जबकि भारत शांति और दोस्ती की रट लगाए रह जाता है. पिछले दिनों भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने 2 दिवसीय नेपाल दौरे के दौरान जहां नेपाल पर राहतों की बरसात कर रहे थे वहीं नेपाल अपनी नदियों का पानी बड़े पैमाने पर छोड़ भारतीय इलाकों में तबाही मचा रहा था.

मोदी के नेपाल दौरे की सब से बड़ी खासीयत यह है कि मोदी ने नेपाल को बिजली, सड़क, रेल, बांध, कारोबार आदि योजनाओं में माली मदद की झड़ी लगा कर नेपाल में चीन के बढ़ते प्रभाव को कम करने की पुरजोर कोशिश की. नेपाल को 1 अरब डौलर का रिआयती कर्ज दे कर भारत ने नेपाल को यह साफतौर पर बता दिया कि माली मदद के लिए उसे चीन के सामने हाथ पसारने की जरूरत नहीं है. आईबी के एक बड़े अफसर बताते हैं कि भारत ने काफी लंबे समय तक नेपाल की अनदेखी की है.

पिछले 17 सालों से भारत के प्रधानमंत्री का वहां नहीं जाना यही साबित करता है कि भारत उसे हलके में लेता रहा है. 1997 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल नेपाल के दौरे पर गए थे. मजबूर हो कर नेपाल ने चीन की ओर ताकना शुरू किया और चीन ने नेपाल की कमजोरी व गरीबी का भरपूर फायदा उठा कर उस के लिए अपने खजाने खोल दिए. अब जब नेपाल में चीन का प्रभाव और इस से भारत के लिए खतरा काफी बढ़ चुका है तो भारत उसे अपने पाले में करने की जुगत में लग गया है.

भारत और चीन के बीच बफर स्टेट बने नेपाल की हालत पिछले 2 दशकों से सांपछछूंदर वाली रही है. नेपाल न भारत की अनदेखी कर सकता है न ही चीन की. 2 बड़े एशियाई देशों की नाक की लड़ाई में नेपाल पिछले कई सालों से जंग का मैदान सा बना हुआ है. चीन के साथ नेपाल की 1414.88 किलोमीटर लंबी सीमा लगती है तो भारत के साथ 1,850 किलोमीटर लंबी सीमा लगी हुई है. यह उत्तराखंड से ले कर बिहार, बंगाल और सिक्किम तक फैली हुई है. इतनी लंबी खुली सीमा होने की वजह से नेपाल की सुरक्षा से भारत की सुरक्षा जुड़ी हुई है.

कारोबारी रिश्ते की मजबूरी

भारत और नेपाल के बीच हजारों किलोमीटर लंबी खुली सीमा भारत के लिए बड़ी मुसीबत है और 60 लाख से ज्यादा नेपाली भारत के अलगअलग हिस्सों में रह रहे हैं. 1 लाख 23 हजार पूर्व भारतीय सैनिक नेपाल के नागरिक हैं और भारत उन की मदद की योजनाएं चलाता रहता है. नेपाल में भारत की मदद से 485 परियोजनाओं पर काम चल रहा है, जिन में 35 बड़ी और 450 छोटी परियोजनाएं हैं. नेपाल के 225 स्कूल और कालेज भारत की मदद से चल रहे हैं. नेपाल के 1024 किलोमीटर लंबे ईस्टवैस्ट हाईवे की 807 किलोमीटर लंबी सड़क भारत ने बनवाई है. 650 करोड़ रुपए की लागत से भारतनेपाल सीमा रेल परियोजना को चालू करने की योजना पर विचार हो रहा है. इतना ही नहीं, नेपाल का करीब 66 फीसदी कारोबार भारत के साथ होता है और सड़क के रास्ते भारत हो कर ही नेपाल पहुंचा जा सकता है. इस के बाद भी नेपाल, चीन के उकसाने पर जबतब भारत को आंख दिखाने में पीछे नहीं रहता है.

नेपाल के साथ दोस्ती को और मजबूत करने के लिए मोदी ने 1950 की भारतनेपाल संधि की आज की जरूरत के मुताबिक समीक्षा करने का वादा किया. 17 सालों बाद भारत के किसी प्रधानमंत्री ने नेपाल का दौरा किया है. संधि की समीक्षा का फैसला दोनों देशों के जौइंट कमीशन ने लिया है. इस कमीशन को 1987 में बनाया गया था. दोनों देशों के विदेश मंत्रियों के स्तर पर बने इस आयोग का मकसद दोनों देशों के बीच आपसी समझ और सहयोग को बढ़ाने के उपायों को ढूंढ़ना है. भारत ने बिजली और कुछ खास सड़कों को बनाने में मदद देने व छात्रवृत्ति कीसंख्या 180 से बढ़ा कर 250 करने का ऐलान किया है. नेपाल की मांग पर

भारत ने 200 करोड़ रुपए की लागतसे रक्सौलअमलेखगंज पैट्रोलियम पाइपलाइन बिछाने पर भी अपनी सहमति दी है. मोदी ने नेपाल को 1 हजार करोड़ नेपाली रुपए यानी 1 अरब डौलर की रिआयती कर्ज सुविधा मुहैया कराने का ऐलान भी किया है.

नेपाल के शासक काफी लंबे वक्त से संधि की समीक्षा का मसला उठाते रहे हैं. 2008 में जब माओवादी नेता पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने इस मांग को काफी तेज कर दिया और लगातार भारत के सिर पर आरोप मढ़ते रहे कि भारतनेपाल संधि का फायदा भारत को ही हो रहा है, नेपाल को इस से काफी नुकसान हो रहा है. प्रचंड ने मोदी से मिलने के बाद यह उम्मीद जताई है कि मोदी के नेपाल दौरे से भारतनेपाल के रिश्तों का नया दौर शुरू हो सकता है.

पटना में रैस्टोरैंट चलाने वाले अमर थापा कहते हैं, ‘‘मोदी ने नेपाल पहुंच कर दोनों देशों के बीच पिछले कुछ सालों से आई खटास को कम किया है.’’

नेपाल की भौगोलिक बनावट ऐसी है कि वह भारत की मदद के बगैर एक कदम भी नहीं चल सकता है. दोनों देशों के लोग आसानी से इधरउधर आ और जा सकते हैं. नेपाल जाने के लिए भारत से ही हो कर जाया जा सकता है, इसलिए नेपाल की मजबूरी है कि वह भारत से बेहतर रिश्ता बना कर रखे.

चीन का चक्कर

1988 में जब नेपाल ने चीन से बड़े पैमाने पर हथियारों की खरीद की तो भारत ने नाराजगी जताई और उस के बाद से दोनों के बीच दूरियां बढ़ने लगी थीं. 1991 में भारत और नेपाल के बीच व्यापार और माली सहयोग को ले कर नया समझौता हुआ. इस के बाद 1995 में नेपाल के तब के प्रधानमंत्री मनमोहन अधिकारी ने दिल्ली यात्रा के दौरान 1950 के समझौते पर नए सिरे से विचार करने की मांग उठाई. साल 2008 में जब नेपाल में माओवादियों की सरकार बनी और ‘प्रचंड’ प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने 1950 के समझौते में बदलाव की आवाज बुलंद की.

गौरतलब है कि 2012 में चीन के प्रधानमंत्री बेन जिआबाओ ने 3 दिवसीय यात्रा के दौरान नेपाल के लिए अपने खजाने खोल दिए थे. नेपाल के आधारभूत ढांचे और जल, बिजली परियोजनाओं के अलावा सैन्य ताकत को मजबूत करने के लिए चीन ने नेपाल को 10 करोड़ डौलर की माली मदद दी और नेपाल की राजधानी काठमांडू तक अपनी पहुंच को आसान बनाने के लिए चीन ने 1,956 किलोमीटर लंबे रेलमार्ग पर तेजी से काम शुरू कर दिया. गोलमुडल्हासा नाम की इस रेल परियोजना पर चीन 1.9 अरब रुपए खर्च कर रहा है.

इस में शक नहीं है कि भारत के प्रधानमंत्री के नेपाल दौरे से दोनों देशों के रिश्तों पर कई सालों से जमी काई हटनी शुरू हुई है. नेपाल ने 17 सालों बाद भारत के प्रधानमंत्री के नेपाल पहुंचने पर उन्हें सिरआंखों पर लिया है. पिछले 17 सालों के दौरान नेपाल के राष्ट्राध्यक्ष 6 बार और प्रधानमंत्री 9 बार भारत आ चुके हैं. इन्हीं सारी वजहों से नेपाल के प्रधानमंत्री सुशील कोइराला प्रोटोकौल को तोड़ते हुए मोदी की अगवानी के लिए खुद भी एअरपोर्ट पहुंच गए.

नेपाल संसद में दिए गए भाषण में मोदी ने सब से पहले नेपाल की सांस्कृतिक भावनाओं को ही छूने की कोशिश की और नेपालियों के शस्त्र (हथियार) छोड़ शास्त्र (किताब) अपनाने का रास्ता चुनने की तारीफ की. मोदी ने नेपाल में कई सालों तक छिड़े गृहयुद्ध और माओवादियों की हिंसा का कोई जिक्र नहीं किया. सब से ज्यादा खास बात यह रही कि मोदी के भाषण को सुन कर माओवादी नेता प्रचंड उन के मुरीद हो गए और कई बार मेज थपथपा कर उन्होंने उन की बातों का समर्थन भी किया.

भारतनेपाल समझौता

31 जुलाई, 1950 को नेपाल के तब के प्रधानमंत्री शमशेर जंग बहादुर राणा और नेपाल में भारत के राजदूत चंद्रेश्वर प्रसाद नारायण सिंह ने भारतनेपाल समझौते पर दस्तखत किए थे. समझौते के तहत दोनों देशों के बीच रक्षा के मामले पर सहयोग और माल की मुफ्त आवाजाही की अनुमति मिली है. इस के साथ ही दोनों देशों को एकदूसरे की संप्रभुता, क्षेत्रीय अखंडता और आजादी को स्वीकार और सम्मान करने पर सहमति जताई गई है. इस समझौते में 10 अनुच्छेद हैं.

अनुच्छेद-1 में कहा गया है कि यह समझौता चिरस्थायी होगा, पर अनुच्छेद-10 कहता है कि 1 साल की नोटिस पर इस समझौते को खत्म किया जा सकता है. अनुच्छेद-5 में इस बात का जिक्र है कि नेपाल की सुरक्षा के लिए भारत हथियार, गोलाबारूद, जंगी सामान और जरूरी मशीनों को अपने देश से आनेजाने देगा, वहीं अनुच्छेद-7 कहता है कि दोनों देश के नागरिकों को एकदूसरे के देश में बेरोकटोक आनेजाने के साथ कारोबार या नौकरी करने की छूट है.

कई नेपाली शासक और कुछ कट्टरपंथी नेता पिछले कुछ सालों से यह हल्ला मचा रहे हैं कि इस समझौते की नींव असमानता के आधार पर रखी गई है. नेपाली कानून खुली सीमा की अनुमति नहीं देता है. भारतीयों के नेपाल में जमीन खरीदने और कारोबार करने से भी कुछ नेता नाराज हैं. 2008 में जब माओवादी नेता प्रचंड नेपाल के प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने संविधान सभा में इस समझौते को खत्म कर नया समझौता करने का प्रस्ताव पारित भी करा लिया था पर सरकार बनने के 9 महीने के भीतर ही उन्हें प्रधानमंत्री पद छोड़ना पड़ा और मामला खटाई में पड़ गया.

नेपाल में तेजी से बढ़ती मुसलिम आबादी और पाकिस्तानी एजेंसी आईएसआई की बढ़ती पैठ ने भारत के लिए खतरा और परेशानी बढ़ा दी है. आईएसआई वहां के अनपढ़ मुसलमानों को आसानी से अपना मोहरा बनाने में कामयाब हो जाती है. 1981 में नेपाल में 2 फीसदी मुसलिम आबादी थी जो आज बढ़ कर 4.2 फीसदी हो गई है. चीन के माओवादी और पाकिस्तान की आईएसआई नेपाल को बहलाफुसला कर वहां भारत विरोध की हवा बनाने का काम कर रही है. आईएसआई नेपाल के रास्ते ही आतंकी और नकली भारतीय करेंसी भारत पहुंचाने में कामयाब होती रही है.

नेपाल की नदियों से तबाही

नेपाल में भारी बारिश और पहाड़ों की चट्टानों के खिसकने से हर साल बिहार के कई जिलों में बाढ़ की तबाही मचती रही है. पिछले 2 अगस्त को काठमांडू से 100 किलोमीटर उत्तरपूर्व स्थित भट्टकोसी जिले के पास भूस्खलन से सुनकोसी नदी की मुख्यधारा में रुकावट आने से बहुत बड़ी कृत्रिम झील बन गई, जिस में 200 फुट तक पानी जमा हो गया. नेपाली सेना रुकावट को ब्लास्ट के जरिए हटाने लगी तो नेपाल से सटे बिहार के 8 जिलों में बाढ़ से भारी तबाही का खतरा पैदा हो गया. गौरतलब है कि नेपाल में भारी बारिश होने की वजह से 2008 में 18 अगस्त को बिहारनेपाल सीमा पर कुसहा बांध के टूटने से कोसी नदी में आई भयंकर बाढ़ ने काफी तबाही मचाई थी.

जजों की नियुक्ति : कानून नहीं सिस्टम बदलना होगा

एक बार फिर से सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति कीप्रक्रिया को बदल दिया गया है. कानून बदलने की कवायद के बाद अब सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति न्यायिक नियुक्ति कमीशन के जिम्मे होगी. इस के पहले सुप्रीम कोर्ट के जजों की कोलेजियम सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति करती थी. कोलेजियम में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के अलावा सुप्रीम कोर्ट के ही 4 वरिष्ठ जज इस के सदस्य होते हैं. कोलेजियम की यह व्यवस्था तकरीबन 2 दशक से हमारे देश में लागू थी.

कोलेजियम सिस्टम देश के सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले के बाद बना था. 1993 में सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट औन रिकौर्ड्स बनाम यूनियन औफ इंडिया के केस में सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने संविधान के अनुच्छेद 124(2) और 217(1) की व्याख्या की थी. संविधान की इन धाराओं में हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया का उल्लेख है.

सुप्रीम कोर्ट के उस वक्त के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जे एस वर्मा की अगुआई वाली पीठ के फैसले की व्याख्या से साफ है कि उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की राय को तरजीह मिले. उस वक्त कोलेजियम सिस्टम के समर्थन में एक तर्क यह भी दिया गया था कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों को न्यायिक प्रक्रिया की जानकारी रखने वालों के बारे में बेहतर जानकारी होती है, लिहाजा नियुक्ति में उन की राय को अहमियत मिलनी चाहिए. सब से अहम तर्क यह दिया गया था कि इस से न्यायपालिका को राजनीतिक दखलंदाजी से मुक्त रखा जाए जोकि संविधान की मूल आत्मा में निहित है. बहुत संभव है कि कोलेजियम सिस्टम की वकालत करने वालों के जेहन में तब इंदिरा गांधी का मशहूर कथन ‘वी वांट अ कमिटेड ज्यूडिशियरी’ रहा होगा.

80 के दशक में इंदिरा गांधी की इस इच्छा का उन के राजनीतिक चेलों ने जम कर सम्मान किया था. उस वक्त के कानून मंत्री लगातार इंदिरा गांधी की बात दोहराते रहते थे और जानकारों का कहना है कि उसी हिसाब से काम भी करते थे. कमोबेश कोलेजियम सिस्टम जजों की नियुक्ति में नेताओं की दखलंदाजी रोकने में काफी हद तक कामयाब भी रहा था. हाल के दिनों में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू लगातार एक के बाद एक खुलासा कर रहे हैं और दावा कर रहे हैं कि उच्च न्यायपालिका में नियुक्तियों में राजनीतिक दखलंदाजी और हाई कोर्ट के भ्रष्टाचार को देश के म?ुख्य न्यायाधीश रोक नहीं पाए. उन्होंने देश के 3 पूर्व मुख्य न्यायाधीशों पर आरोप लगाए. हालांकि काटजू जिन हालात का बयान कर रहे हैं उन में नाटकीयता का पुट भी है और उन के खुलासे की टाइमिंग के चलते भी वे सवालों के घेरे में हैं.

पूर्व कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज अपने कई टैलीविजन इंटरव्यू में जस्टिस काटजू की सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति की बाबत उस वक्त के चीफ जस्टिस रहे वाई के सब्बरवाल से बात करने को कह कर कुछ इशारा करते रहे हैं. यानी काटजू के आरोपों के अलावा भी कोलेजियम सिस्टम पर जजों के चुनाव को ले कर सवाल खड़े होते रहे हैं. दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रहे ए पी शाह को सुप्रीम कोर्ट में प्रोन्नति न दिए जाने के कोलेजियम के फैसले पर प्रश्नचिह्न लगा था. जस्टिस शाह की छवि बेदाग थी और यह माना जा रहा था कि उन को सुप्रीम कोर्ट का जज बनाया जाएगा. लेकिन मीडिया में ऐसी खबरें आईं कि सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के जी बालाकृष्णन की अध्यक्षता वाली कोलेजियम के एक सदस्य जस्टिस शाह की प्रोन्नति के खिलाफ थे, इस वजह से उन का सुप्रीम कोर्ट का जज बनना संभव नहीं हो सका.

समयसमय पर जजों के ऊपर भ्रष्टाचार के इल्जाम लगते रहे हैं. कलकत्ता हाईकोर्ट के जज सौमित्र मोहन पर आरोप लगे थे, कर्नाटक के चीफ जस्टिस पी डी दिनाकरन पर भी इस तरह के आरोप लगे थे. दोनों के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया चली थी.

सवालों के घेरे में

आजाद भारत के न्यायिक इतिहास में ये3 ही मौके हैं जब किसी भी जज के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया शुरू की गई थी. पहले जस्टिस वी रामास्वामी के खिलाफ संसद में महाभियोग की प्रक्रिया चली, तब कांगे्रस के सांसदों के सदन से वाक आउट करने के बाद महाभियोग का प्रस्ताव गिर गया था. पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट की जस्टिस निर्मल यादव पर भी घूस लेने के आरोप में अब भी केस चल रहा है. जब उन पर आरोप लगे थे तो कोलेजियम ने उन्हें लंबी छुट्टी पर भेज दिया था और जब मामला शांत हुआ तो उन का तबादला पंजाब हरियाणा हाई कोर्ट से उत्तरांचल हाई कोर्ट में कर दिया गया.

इसी तरह जनवरी 2007 में गुजरात हाई कोर्ट के जस्टिस पी बी मजुमदार ने अपने ही साथी जस्टिस बी जे सेठना पर बदतमीजी का आरोप लगाया थातो जस्टिस बी जे सेठना का तबादला सिक्किम और पी बी मजुमदार का तबादला राजस्थान कर दिया गया था. हालांकि तब न्यायमूर्ति सेठना ने सिक्किम जाने से इनकार करते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया था. पर इस से यह संदेश नहीं जाना चाहिए कि कोलेजियम सिस्टम लागू होने के पहले हमारी न्यायपालिका स्वतंत्र नहीं थी. कई ऐसे उदाहरण हैं जब सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों ने न्याय के उच्च मानदंडों की रक्षा की.

सब से बड़ा उदाहरण तो इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा का है, जिन्होंने 12 जून, 1975 को अपने ऐतिहासिक फैसले में इंदिरा गांधी के लोकसभा चुनाव को रद्द करते हुए अगले 6 वर्षों तक किसी भी संवैधानिक पद के लिए अयोग्य घोषित कर दिया था. बाद में जब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो जस्टिस कृष्णा अय्यर ने जस्टिस जगमोहन लाल के फैसले पर रोक लगा दी लेकिन उन्होंने भी इंदिरा गांधी को संसद में मतदान के अधिकार से वंचित कर दिया था. ये दोनों फैसले देश में इमरजैंसी का आधार बने.

उस वक्त इंदिरा गांधी के वकील रहे वी एन खरे बाद में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बने थे. अब अगर हम इतिहास से निकल कर वर्तमान में आएं तो यूपीए के दूसरे दौर के शासनकाल में तमाम घोटालों पर सुप्रीम कोर्ट के रवैए से सरकार

परेशान रही. यहां भी अदालत का रुख यूपीए सरकार की रुखसती की कई वजहों में से एक वजह बनी.

कहना न होगा कि आजादी के बाद से हमारे देश की न्यायपालिका कमोबेश कार्यपालिका और विधायिका के दबाव से आजाद रही है और न्याय के उच्चतम मानदंडों की स्थापना की है. लेकिन सब से बड़ा सवाल यह है कि कोलेजियम सिस्टम खत्म करने से क्या होगा. नियुक्ति की सिर्फ प्रक्रिया बदलेगी. क्या इस से सिस्टम में बदलाव हो पाएगा? इस बात की क्या गारंटी है कि न्यायिक नियुक्ति कमीशन से जिन न्यायाधीशों की नियुक्ति होगी वे बिलकुल बेदाग रहेंगे?

नए बिल के मुताबिक, अब हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति 6 सदस्यीय न्यायिक नियुक्ति कमीशन करेगा. सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, सुप्रीम कोर्ट के ही 2 वरिष्ठ जज, कानून मंत्री और 2 मशहूर नागरिक इस कमीशन के सदस्य होंगे.

क्या है नया बिल

नए बिल के मुताबिक, कमीशन में  2 मशहूर नागरिकों की नियुक्ति प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायाधीश और लोकसभा में सब से बड़े दल के नेता की 3 सदस्यीय कमेटी करेगी. अगर 6 सदस्यीय कमीशन के 2 सदस्य किसी भी उम्मीदवार के चयन से सहमत नहीं हैं तो उन का नाम राष्ट्रपति के पास नहीं भेजा जाएगा. नियुक्ति के लिए कम से कम 5 सदस्यों की सहमति आवश्यक की गई है. एक कानून को हटा कर दूसरे कानून को लागू कर सरकार जजों की नियुक्ति में अपना दखल कायम करने में कामयाब अवश्य हो गई है लेकिन इस से किसी भी तरह की व्यवस्था परिवर्तन की अपेक्षा बेमानी है. हमारे देश के रहनुमा हमेशा से कानूनों को बदल कर अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं,  व्यवस्था परिवर्तन की उन की मंशा रही ही नहीं है.

1989 में जब विश्वनाथ प्रताप सिंह देश के प्रधानमंत्री बने थे तो उन का एक जुमला बेहद मशहूर था. किसी भी समस्या पर जब उन से बात की जाती थी तो उन का एक रटारटाया जवाब होता था कि एक समिति बना दी गई है जो मामले के हर पहलू पर विचार करने के बाद अपनी रिपोर्ट पेश करेगी. रिपोर्ट के सुझावों पर सचिवों की समिति विचार करेगी और आवश्यक हुआ तो कानून में बदलाव किया जाएगा. यह वक्तव्य देश की व्यवस्था पर बेहद सटीक टिप्पणी है. विश्वनाथ प्रताप सिंह भले ही ये बातें 89-90 में कहा करते थे लेकिन तब से ले कर अब तक कई प्रधानमंत्री बदल गए, लेकिन यह मानसिकता और व्यवस्था नहीं बदली. कई प्रदेशों में सरकारें बदल गईं, कई मंत्रालयों में मंत्री बदल गए, मंत्रालय के कामकाज में आमूलचूल बदलाव आ गया लेकिन कानून बनाने की मानसिकता में कोई परिवर्तन नहीं हुआ. अंगरेजों के जमाने में बनाए गए कानूनों की गहन समीक्षा कभी नहीं हुई.

बदलते वक्त के साथ जहां लोकदबाव बढ़ा वहां कुछ बदलाव कर दिए गए या फिर जब ज्यादा दबाव बना तो आमूलचूल बदलाव कर दिए गए. इस तरह की कार्यशैली से अदालतों का काम काफी बढ़ गया. कानून की खामियों और नएनए कानूनों के अस्तित्व में आने और फिर उन को संविधान के आईने में अदालतों में चुनौतियां दी जाने लगीं.

कानूनी मकड़जाल

दरअसल, सरकारों को पहले से हालात को भांपते हुए उन के मद्देनजर कानून बनाने चाहिए. लेकिन हमारी सरकारें पहले समस्या खड़ी होने देती हैं फिर उसे कानूनी पचड़े में डाल कर और उलझा देती हैं. ऐसी स्थिति में जनता या फिर पीडि़त को अदालत की शरण में जाने के अलावा कोई विकल्प नजर नहीं आता. इस का बेहतरीन उदाहरण दिल्ली में चलने वाला ई-रिकशा है. बैटरी से चलने वाला ई-रिकशा विदेशों से आयात हो कर धड़ल्ले से राजधानी की सड़कों पर चलने लगा.

दिल्ली और आसपास के इलाकों में चलने वाले इन ई-रिकशों की संख्या जब काफी बढ़ गई तो एक शख्स अदालत की शरण में चला गया और इन पर पाबंदी की मांग की. दिल्ली की सड़कों पर बेरोकटोक चल रहे इन ई-रिकशों को ले कर सरकार की कोई नीति नहीं थी. किस कानून के तहत ये बैटरीचालित रिकशा चल रहे थे, इस की कोई जानकारी नहीं थी. ये ई-रिकशा किसी संस्था से रजिस्टर्ड नहीं थे, लिहाजा जब विरोध शुरू हुआ तो भाजपा के वरिष्ठ नेता और केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने दिल्ली के रामलीला मैदान में ई-रिकशा को वैधता प्रदान करने का वादा कर डाला.

दरअसल, ई-रिकशा के बारे में परिवहन मंत्रालय द्वारा एक कैबिनेट नोट तैयार किया गया था जिस के मुताबिक ई-रिकशा को मोटर व्हीकल ऐक्ट के दायरे से बाहर रखने की बात कही गई थी. लेकिन यहां भी बगैर सोचेसमझे जल्दबाजी में कदम उठाया जाने लगा. सरकार मोटर व्हीकल ऐक्ट में बदलाव कर के ई-रिकशा चालकों को रेट्रोस्पैक्टिव इफैक्ट (भूतलक्षी प्रभाव) से फायदा पहुंचाने की कोशिश में लगी थी जबकि यह संभव ही नहीं है. अब मामले के फंस जाने के बाद एक बार फिर से कानून बनाने की पहल होने लगी. अब इस का नुकसान आम आदमी, जो अब तक ई-रिकशा में 10 रुपए में सफर करता था, को उठाना होगा. उसे अब 20 रुपए देने होंगे. कानूनी बाध्यताओं के चलते ई-रिकशा को कई विभागों से क्लियरैंस लेनी होगी. लिहाजा, उस खर्च का बोझ परोक्ष रूप से जनता को ही भुगतना होगा.

अदालतों का काम कानून की व्याख्या करना है लेकिन बेवजह बनने वाले कानूनों और फिर उस की व्याख्या को ले कर अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या बढ़ती जा रही है. 2013 में उस वक्त के कानून मंत्री ने संसद में जानकारी दी थी कि पूरे देश में 3 करोड़ से ज्यादा मुकदमे विभिन्न अदालतों में लंबित हैं.

इन दिनों एक और मसले पर सरकार कानून में बदलाव और कुछ नए कानून बनाने की तैयारी में है. वे हैं 1948 के फैक्टरी  ऐक्ट में बदलाव, 1961 के अप्रैंटिस ऐक्ट और 1988 के श्रम कानून. एक कानून को संशोधित करने के नाम पर उस में

नई धाराएं जोड़ी जाएंगी. जैसे 66 साल पहले के फैक्टरी कानून में बदलाव के नाम पर उस धारा को हटाने का प्रस्ताव है जिस में मजदूरों के लिए साफ शौचालय नहीं होने पर फैक्टरी मालिकों पर जुर्माने का प्रावधान है.

सरकार का तर्क है कि इस तरह के छोटेछोटे मसलों को कानून के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए. श्रम कानून के इस बदलाव को निश्चित तौर पर अदालतों में चुनौती दी जाएगी और फिर तारीख दर तारीख पड़ेंगी. अदालत का जो वक्त जन समस्याओं को सुलझाने में लगना चाहिए वह कीमती वक्त इन कानूनों के मकड़जाल को साफ करने में बीतेगा.

दरअसल, असली समस्या वहीं से शुरू होती है जहां से सरकार हर मसले का कानूनी हल ढूंढ़ने में लग जाती है. दिल्ली के निर्भया गैंगरेप कांड के बाद बलात्कार के खिलाफ जनाक्रोश को दबाने के लिए भी सरकार ने बलात्कार कानून में बदलाव कर आक्रोश को थामने की कोशिश की.

बलात्कार की बढ़ती घटनाओं की सामाजिक वजहों की पड़ताल करने और उस के आधार पर नीति बनाने की कोशिश नहीं की गई. बलात्कार के खिलाफ कडे़ कानून बना देने से न तो अपराध रुका और न ही उस में कोई कमी आई. कड़े कानून से अपराध रुकने की अपेक्षा करना उचित नहीं है लेकिन उस में कमी की अपेक्षा तो की ही जा सकती है.

कानून के भरोसे

पुलिस के आंकडे़ इस बात के गवाह हैं कि बलात्कार के खिलाफ कड़े कानून बना देने से अपराध में कमी नहीं आई है. सामाजिक वजहों के अलावा हमें न्यायिक व्यवस्था दुरुस्त करने की आवश्यकता है. अदालती प्रक्रिया इतनी लंबी चलती है कि पीडि़त की न्याय की आस दम तोड़ देती है. हर मसले को कानून बना कर हल करने की प्रवृत्ति के कई नुकसान भी हैं.

निर्भया गैंगरेप केस में ही कानून तो बन गया लेकिन इस केस में आरोपी के नाबालिग होने की वजह से जुवेनाइल जस्टिस ऐक्ट में बदलाव की मांग उठने लगी. इस मांग के जोर पकड़ने से सरकार ने जुवेनाइलऐक्ट में बदलाव करने का मसौदा तैयारकर लिया. लेकिन बच्चों और किशोरों को ले कर 2 कानून पहले से हैं. बाल श्रम कानून और जुवेनाइल ऐक्ट में बाल श्रमिकों की व्याख्या अलगअलग है. बाल श्रम कानून के मुताबिक 14 साल के ऊपर के बच्चों से श्रम करवाया जा सकता है. वहीं, जुवेनाइल जस्टिस ऐक्ट के मुताबिक, 18 साल से कम के किशोर या बच्चों से काम नहीं करवाया जा सकता, यहां तक कि घरेलू नौकर के तौर पर भी नहीं.

कानून की इस स्थिति को ले कर बाल श्रमिकों का जम कर शोषण किया जाता है. यही हाल बच्चों के खिलाफ यौन शोषण को ले कर है. बच्चों के खिलाफ यौन हिंसा की वारदात जब ज्यादा होने लगी या फिर मीडिया की सक्रियता व अभिभावकों के ज्यादा जागरूक होने से इस तरह की खबरों से जब उस के खिलाफ एक माहौल बना तो सरकार कुंभकर्णी नींद से जागी और उस ने अभी प्रोटेक्शन औफ चाइल्ड फ्रौम सैक्सुअल औफेंस ऐक्ट यानी पाक्सो जैसा मजबूत कानून बनाया. हालांकि उस कानून में बच्चों के खिलाफ स्कूलों में यौन हिंसा होने पर स्कूल के खिलाफ मामूली कार्यवाही का प्रावधान है. अब स्कूलों की संलिप्तता या लापरवाही सामने आने के बाद फिर कानून में बदलाव की बात चल निकली है, संभव है बदलाव हो भी जाए.

सरकार को अब समस्या के कानूनी हल के फार्मूले से अलग हट कर चलना सीखना होगा. वक्त बदल रहा है, दुनिया बदल रही है, हमारे समाज का तानाबाना बदल रहा है, लोगों की मानसिकता बदल रही है, युवाओं की सोच सातवें आसमान पर जा रही है, चांद पर जाने के बाद हम अन्य ग्रहों पर तिरंगा लहराने के सपने देख रहे हैं लेकिन अपनी सामाजिक समस्याओं को सुलझाने के अपने औजारों को न तो बदलने के लिए तैयार हैं और न ही उस में संशोधन करने के लिए तैयार हैं.

बदले व्यवस्था

साम्यवादी व्यवस्था के दबाव में श्रमिकों के लिए कानून बनाना सही था, उस वक्त वह देश की जरूरत थी लेकिन अब बदली परिस्थितियों में सरकार को रैफरी की भूमिका में रहना चाहिए. मालिकों और श्रमिकों को अपनी नीतियांरीतियां तय करने का हक देना चाहिए. सरकार सिर्फ रैगुलेटर की भूमिका में हो. श्रमिकों को अपने फैसले खुद लेने का अधिकार होना चाहिए और कानून यह तय नहीं करे कि फैक्टरी में शौचालयों की स्थिति कैसी रहेगी.

सरकार अगर सचमुच न्यायिक व्यवस्था में सुधार चाहती है तो ऐसे कानून बनाने होंगे जिन में न्यायालयों का फैसला अंतिम और मान्य हो. अगर कोई आम आदमी किसी सरकारी अफसर के खिलाफ है या उस के रवैये से तंग हो कर हाई कोर्ट में शिकायत दर्ज करता है तो हाई कोर्ट के फैसले को अंतिम मानना चाहिए. हाई कोर्ट से विपरीत फैसला आने के बाद अफसर के पक्ष से उस का सरकारी विभाग सुप्रीम कोर्ट चला जाता है और यह कानूनी प्रक्रिया लंबी चलती है. जब तक न्याय हो पाता है तब तक उस न्याय का अर्थ नहीं रह जाता है. अगर सिर्फ सरकारें ही अदालत में जाना बंद कर दें तो देश में मुकदमों की संख्या आधी से कम हो सकती है. सरकारी विभाग के अलावा राज्य सरकारें भी एकदूसरे के खिलाफ लंबी अदालती लड़ाइयां लड़ती हैं. इस व्यवस्था को बदलने की जरूरत है.

यह विडंबना है कि हम आधुनिक होने का दावा तो करते हैं लेकिन अपने एप्रोच में हम लकीर के फकीर हैं. कानून को बदलने से नहीं, सिस्टम को बदलने से आम जनता को फायदा होगा. यही हाल हमारी सरकारों का भी है. वे भी पुरानी लीक पर ही चलना चाहती हैं. हर चीज पर कानून बनाने और हर समस्या का कानूनी हल ढूंढ़ना इस का ही प्रतीक है, उदाहरण है. इस का नुकसान यह है कि अदालतों में लंबित मामलों का अंबार लगता जा रहा है और तारीख पर तारीख के बीच न्याय की आस लिए भटक रहे लोगों का इंतजार लंबा होता जा रहा है. 2013 में 3 करोड़ से ज्यादा केस लंबित थे और यही हाल रहा तो इस के 5 करोड़ तक पहुंचने में वक्त नहीं लगेगा. यह लोकतंत्र के लिए उचित नहीं होगा.

आप के पत्र

सरित प्रवाह, जुलाई (द्वितीय) 2014

संपादकीय टिप्पणी ‘नारे, वादे, दावे और कर्म’ में आप के विचार पढ़े. इस संबंध में मुझे यह कहना है कि दूसरी राजनीतिक पार्टियों की तरह इस बार भी सत्तारूढ़ हुई पार्टी के झूठे वादों का खमियाजा जनता को भुगतना पड़ रहा है. जनता खुद को छला हुआ महसूस कर रही है जबकि मंत्रियों, सत्ताधारियों के चेहरे सत्ताप्राप्ति के सुख से चमक रहे हैं.

मोदीजी, आप को गंगा मइया ने नहीं, करोड़ों जनता ने इस मुकाम पर पहुंचाया है. जनता की आस को आप तोड़ नहीं सकते. आप अपने वादों, नारों से इतनी जल्दी मुकर नहीं सकते. माना कि खजाना खाली है लेकिन जमाखोरी, भ्रष्ट सरकारी तंत्र को काबू कर जनता को महंगाई से कुछ तो राहत दे ही सकते हैं, न कि महंगाई को और बढ़ाने के लिए काम करेंगे. उन कंधों के दर्द को आप इतनी जल्दी कैसे भूल सकते हैं जिन्होंने आप को इस ऊंचाई तक पहुंचाया है.

रेणु श्रीवास्तव, पटना (बिहार)

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आप की संपादकीय टिप्पणी ‘नारे, वादे, दावे और कर्म’ पढ़ कर लगा कि लोगों को कड़वी दवा देने वाली मोदी सरकार ने शायद केजरीवाल सरकार से कोई सबक नहीं लिया. अरविंद केजरीवाल ने सत्ता में आते ही जनहित के कई ऐसे फैसले तुरंत कर डाले जिन का उन्होंने चुनाव से पहले वादा किया था. यदि भाजपा सरकार भी थोड़ा सब्र से काम ले कर महंगाई बढ़ाने का काम थोड़े दिनों के लिए टाल देती तो यह जनता में उन का भरोसा बढ़ाने के लिए पर्याप्त होता.

दूसरी ओर, अरविंद केजरीवाल अपने जिस उद्देश्य को ले कर चले थे, कुरसी मिलते ही वही भूल गए. उन का कहना था कि गटर की गंदगी को साफ करने के लिए गटर में उतरना ही पड़ेगा. मगर खुद गटर देख भाग खड़े हुए. अब वे समझ गए हैं कि अगर इस्तीफा नहीं देते तो बहुत कुछ कर सकते थे, मगर अब वे भी लाचार हैं.

मुकेश जैन ‘पारस’, बंगाली मार्केट (न.दि.)

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संपादकीय टिप्पणी ‘नारे, वादे, दावे और कर्म’ विवादास्पद लगी. सचमुच भाजपा नेताओं के ‘अच्छे दिन’ और जनता के ‘बुरे दिन’ आ गए हैं. महंगाई आसमान छू रही है, इस के बावजूद मोदी सरकार बाजार से ऋण लेने की सोच रही है जो हास्यास्पद है. कांगे्रस के यूपीए शासन में जितनी महंगाई थी उस से अधिक मोदी सरकार में आई है. मेरा मानना है भारतीय जनसंख्या में वृद्धि इस का कारण है. मोदी सरकार को इस पर ध्यान देना चाहिए. आप का यह लिखना सही है कि मोदी सरकार को भगवा आचरण छोड़ना चाहिए.   

डा. जे डी जैन, नोएडा (उ.प्र.)

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‘नारे, वादे, दावे और कर्म’ शीर्षक से प्रकाशित आप की टिप्पणी सत्य से सराबोर है. यह बिलकुल सत्य है कि वोट प्राप्त करने के लिए अंधाधुंध घोषणाएं की जाती हैं, वादे कर लिए जाते हैं, दावे किए जाते हैं और तमाम नारे दिए जाते हैं. मगर जब जीतने वाला असली धरातल पर आता है तो उसे पता चलता है कि जबानी जमाखर्च अलग बात है और उन्हें कार्यरूप में परिणित करना और बात है.

कैलाशराम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)

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सरित प्रवाह की टिप्पणी ‘थैंक्यू जज साहिबा’ के जरिए तलाक पर रोचक आलोचना पढ़ने को मिली. पति यदि आदेश दे, साड़ी पहनो तो पत्नी उसे पूरा करे. यदि पत्नी कहे कि टाईसूट के बदले पाजामाकुरता पहनो तो क्या वह पूरा होगा? कम से कम खानेपीने, पहननेओढ़ने में तो आजादी होनी चाहिए. इस हुक्म के पीछे सदियों से चला आया वह ढर्रा है जिस में औरत को पैर की जूती और पति को भगवान कहा जाता था.

आप का यह इशारा भी सही है कि पत्नी अपनी उम्र अधिक क्यों दिखाए? जींसटौप में थुलथुल शरीर वाली महिला भी स्मार्ट दिखाई देती है. साड़ी में थुलथुलापन या मोटापा नहीं ढकता. जज साहिबा को थैंक्स देना अच्छा लगा. उन्होंने तलाक मंजूर कर पुराने चलन को तोड़ा तो सही.

शिक्षा सरोज, देहरादून (उत्तराखंड)

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संपादकीय टिप्पणी ‘अरविंद केजरीवाल की भूल’ में आप का यह कहना कि केजरीवाल की लहर तो उस मध्यवर्ग की देन थी जो बेहद मतलबी, कट्टर तथा परंपरावादी है, तो फिर केजरीवाल अब नया जोश व नई टीम कहां से लाएंगे? क्योंकि निम्न वर्ग को न तो मुफ्त में पानी मिला, न सस्ते में बिजली. मध्यवर्ग की तारीफ आप ऊपर कर चुके हैं तथा उच्चवर्ग को आम चुनावों में खैरातस्वरूप टिकट बांट कर वे अपने साथ उन को भी धूल चटवा ही चुके हैं. ऐसे में उन के खेमे के लिए अब बचा ही कौन सा वर्ग है?सच पूछो तो जो कड़वी सचाई है वह यह है कि केजरीवाल ने एक नहीं बल्कि अनेक गलतियां की हैं. लिहाजा, आज उन की पार्टी का जो हाल हो रहा है वह अतिआत्मविश्वास तथा धृतराष्ट्रसमान की गई भूलों का ही परिणाम है.

ताराचंद देव ‘रैगर’, श्रीनिवासपुरी (दिल्ली)

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देश में बदलाव की बयार और अच्छे दिन आने के आगाज के साथ देश की सत्ता की बागडोर संभालने वाले नरेंद्र मोदी की ताजा स्थिति पर आप की संपादकीय टिप्पणी, नारे, वादे, दावे और कर्म पढ़ी. देश की जमीनी हकीकत से रूबरू होने के बाद पता चला कि देश की तिजोरी में कंकड़ों की आवाज है, धन का नामोनिशान नहीं. इस कड़वी सचाई के साथ लोगों को अच्छे दिन की जगह बुरे दिन आने का एहसास हो रहा है.

छैलबिहारी शर्मा, छाता (उ.प्र.)

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विविधतापूर्ण रोचक अंक

मैं 50 वर्षों से भी अधिक समय से सरिता की पाठिका और प्रशंसिका हूं. पत्रिका का जुलाई (द्वितीय) अंक काफी रोचक और विविधतापूर्ण लगा. सभी लेख अच्छे हैं. ‘जीवन सरिता’ के अंतर्गत ‘अबुद्धित्तापूर्ण व्यवहार’ शीर्षक सही नहीं है. ‘बुद्धिहीन’ और ‘बुद्धिरहित’ सही विलोम हैं.

मुझे कुछ समय से यह शिकायत थी कि सरिता की कहानियों का स्तर गिर रहा है. किंतु जून (द्वितीय) अंक में प्रकाशित ‘अजनबी’, ‘अनोखा रिश्ता’ कहानियां बहुत पसंद आईं. किंतु ‘अफसोस’ कहानी बेतुकी लगी. एक वृद्ध विवाहित का अपने दफ्तर की स्त्रियों के साथ सोना, उन्हें पटाना आदि पढ़ कर मन कसैला हो गया. निवेदन है ऐसी कहानियां सरिता में न छापें. 

मीरा उगरा, बेंगलुरु (कर्नाटक)

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संस्कृत का प्रचार

जुलाई (द्वितीय) अंक में प्रकाशित लेख ‘संस्कृत को पुनर्जीवित करने का प्रयास’ बहुत अच्छा लगा. सभी भारतीय भाषाओं की जननी संस्कृत है. बौद्ध व जैन धर्मों के भी प्राचीन ग्रंथ संस्कृत में ही लिखे गए हैं. प्राचीन साहित्य, ग्रंथ एवं कई वैज्ञानिक रहस्य संस्कृत में लिखे गए हैं. हमारे देश की यह मूल भाषा अब लुप्तप्राय सी हो चली थी और इस के उत्थान व संरक्षण के कोई आसार नजर नहीं आ रहे थे, परंतु इस विपरीत परिस्थिति में ‘संस्कृत भारती’ नामक संगठन हमारे देश के साथ ही अमेरिका व ब्रिटेन जैसे देशों में भी संस्कृत के प्रचारप्रसार का झंडा बुलंद किए हुए है. इस कठोर व श्रमसाध्य कार्य के लिए ‘संस्कृत भारती’ के स्वयंसेवक धन्यवाद के पात्र हैं.

पुष्पेंद्र पणिक्कर, राजसमंद (राज.)

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जिंदगी गुलजार हो जाए

जुलाई (द्वितीय) अंक में जीवन सरिता के तहत प्रकाशित लेख ‘कांटे बोते हैं नकारात्मक व्यवहार’ बहुत पसंद आया. यह एक मुफ्त का ऐसा नुस्खा है जिसे यदि अपना लिया जाए तो जिंदगी गुलजार दिखाई देने लगे. नकारात्मक व्यवहार दूसरे के लिए तो हानिकारक है ही, स्वयं के लिए भी हितकर नहीं होता. नकारात्मक मानसिकता के लोग हर जगह हैं चाहे वह हमारा घर हो या दफ्तर, स्कूल हो या क्लब, यह रोग हर जाति में किसी भी स्त्री या पुरुष में पाया जा सकता है. मित्र बनाते समय इस बात का खयाल रखना चाहिए. आजकल हर वर्ग के और हर उम्र के लोग फिल्म व टीवी देखते हैं. फिल्म में पहले विलेन होता था जिस का पता देरसवेर सब को चल ही जाता था, परंतु टीवी सीरियल में जो लड़के या लड़कियां ऐसे रोल निभाते हैं, वे रोल मौडल बन रहे हैं. एकता कपूर के सीरियल में तो नकारात्मक रोल करने वाले को खास अहमियत दी जाती है.

आजकल एक निजी चैनल पर कुछ पाकिस्तानी सीरियल दिखाए जा रहे हैं. हैरत होती है यह देख कर कि उन के धारावाहिकों में नकारात्मक रोल इस हद तक नहीं होते हैं.

ओ डी सिंह, बड़ौदा (गुज.)

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असहनीय दर्द

जुलाई (द्वितीय) अंक में प्रकाशित लेख ‘ऐसी मौत पर सब्र नहीं होता’ के माध्यम से सामाजिक पीड़ा बयां की गई है. प्रभावित परिजनों के आत्मिक दर्द को हम देख तो नहीं सकते मगर उन के दर्द को समझ जरूर सकते हैं कि किसी भी अनहोनी का शिकार होना, कितना कष्टप्रद होता है, विशेषकर उन अपनों को खो देने का, जिन के कुछ हादसों में सदा के लिए बिछुड़ जाने के साथ अंतिम क्रिया के लिए उन के शव तक उपलब्ध नहीं हो पाते. लेकिन ऐसी हृदयविदारक दुर्घटनाओं को रोकने/कम करने हेतु कुछेक सावधानियां बरत कर प्रशासन/सरकार अन्य परिवारों/नागरिकों की किसी हद तक सुरक्षा की गारंटी तो दे ही सकती है.

टीसीडी गाडेगावलिया, पश्चिम विहार (न.दि.)

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शोकसभा की महत्ता

जब भी किसी शोकसभा का आयोजन किया जाता है तो लोगबाग अपने सारे जरूरी कामकाज एक तरफ छोड़ कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने हेतु पहुंच जाते हैं. परंतु आजकल अकसर देखा गया है कि लोगबाग इस तरह के आयोजन की दबी जबान से निंदा करते हुए दिखाई देते हैं, जिस का मुख्य कारण ऐसे कार्यक्रमों का 2 से 3 घंटे का होना और आज लोगों के पास, खासकर बड़े शहरों में, इतना समय व धीरज का न रहना है. सही पूछो तो आजकल कुछ लोग सिर्फ इसलिए भी शोकसभा का आयोजन करने लगे हैं कि ‘लोग क्या कहेंगे’ से छुटकारा पा सकें.

ऐसे में एक बात का ध्यान हर किसी को रखना होगा कि कम से कम शोकसभा जैसे गंभीर विषय को महज खानापूर्ति या अपनी प्रतिष्ठा का विषय न बना कर इस को व्यावहारिक बनाना चाहिए. मसलन, आए हुए सगेसंबंधी व विशेष आमंत्रित व्यक्ति दिवंगत व्यक्ति के अनुकरण करने योग्य गुणों का संक्षेप में बखान करें और बेतुकी बातों से अपना व आए हुए मेहमानोें का समय बरबाद न करें, ताकि शोकसभा की महत्ता बरकरार रहे. नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब लोगबाग स्वयं इन में भाग लेने की जगह किसी भाड़े के व्यक्ति को अपना दूत बना कर भेजना चालू कर दें और साथ ही एसएमएस पर शोक संदेश भिजवा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लें. 

एस संजय कुमार, बेंगलुरु (कर्नाटक) द्य

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प्रशासन की हकीकत

जुलाई (द्वितीय) अंक में प्रकाशित लेख ‘सपनों का घरौंदा, नियमकायदों ने रौंदा’ प्रशासन एवं बिल्डरों की मिलीभगत को उजागर करता है. मुंबई की कैंपाकोला सोसाइटी की बात हो या नोएडा में कृषकों की जमीन को बिल्डरों को सौंपने की बात, सभी जगह जनता को ठगने की कहानी है.

लेख में ठीक कहा गया है कि जब अवैध निर्माण हो रहा था तब क्या प्रशासन सो रहा था. आप देश के किसी भी रिहाइशी इलाके में बिना संबंधित विभाग की अनुमति के नक्शा पास नहीं करा पाएंगे और न ही निर्माण. लेकिन पैसा दे कर हमारे देश में

कौन सा काम नहीं होता. इसी चक्कर में कृषकों की कृषि योग्य भूमि हड़प ली गई.

दुख इस बात का है कि यही प्रयास पूरे देश में हो रहा है. तालाबों को पाट कर, जंगलों को काट कर जमीन को भूमाफियाओं के हवाले किया जा रहा है. पत्थरों और बालू को बेच कर पर्यावरण को बिगाड़ा जा रहा है. दरअसल, सरकारी अधिकारी माफियाओं से रिश्वत के तौर पर खासी उगाही में लगे हैं.

कृष्णा मिश्रा, लखनऊ (उ.प्र.)

सरकार, शेयर बाजार, कंपनियां

नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने से पहले, उम्मीद में देश का शेयर बाजार बहुत ऊंचा हुआ था. उस के बाद कभी ऊंचा होता है तो कभी गिरता है. जिस दिन मोदी सरकार बड़ी कंपनियों की बात करती है उस दिन शेयर बाजार ऊंचा हो जाता है और जिस दिन आम लोगों के हित की बात होती है वह गिर जाता है. भारत का ही नहीं, दुनियाभर के सभी देशों के शेयर बाजार कंपनियों के मुनाफों पर टिके हैं. और यह मुनाफा कंपनियां जल्दी से जल्दी कमाना चाहती हैं. शेयर बाजार के रोजाना ही नहीं, हर घंटे के उतारचढ़ाव से ब्रोकरिंग फर्मों, बैंकों, म्यूचुअल फंडों के मैनेजर अपनी कंपनियों को मुनाफा दिलाते हैं और खुद बोनस पाते हैं.

नतीजा यह है कि दुनिया की बहुत सी बड़ी कंपनियां अगले 5-7 साल के लिए नहीं, केवल मौजूदा साल के लिए काम करने लगी हैं और पैसों की अपनी शक्ति को येनकेनप्रकारेण मुनाफा बढ़ाने में लगाने लगी हैं. जब ईस्ट इंडिया कंपनी बनी थी या डच इंडिया कंपनी बनी थी तो उन्हें अंदाजा न था कि अफ्रीका या एशिया में उन्हें क्या मिलेगा. आज की कंपनियां, चाहे विदेशों की हों या भारत की, कल के लिए नहीं सोचतीं क्योंकि उन्हें मुनाफा आज चाहिए. जमीनों व खनिजों के जो दाम बढ़ रहे हैं वह इसलिए कि बड़ी कंपनियां इन क्षेत्रों में आ रही हैं जहां थोड़े से मोटा मुनाफा कमाया जा सकता है. जनता के हितों के लिए कंपनियों ने खोज कर काम करना बंद कर दिया है क्योंकि उस से मुनाफा कम होता है और शेयर बाजार में किरकिरी होती है.

 मानव समाज हर दम आगे बढ़ना चाहता है पर यदि नई चीजें न बनें, नए आविष्कार न हों तो यह संभव नहीं, खोखली होती सरकारों के लिए लंबे शोध के बाद नए उत्पाद तैयार करना असंभव है. कंपनियांपहले यह करती थीं पर आज सिवा मोबाइल टैक्नोलौजी के क्षेत्र के यह बहुत कम हो रहा है क्योंकि शेयर बाजार की धुंध हर आंख को कमजोर कर रही है. यह देश की प्रगति का सूचक नहीं, मुनाफाखोरी का प्रतीक है.

महंगाई, व्यापारी, सरकार

भारतीय जनता पार्टी की जीत के पीछे व्यापारियों और उद्योगपतियों का बहुत बड़ा हाथ था जिन्होंने भरपूर प्रचार किया, पैसा दिया, तकनीक दी और माहौल बनाया जिस से जनता को विश्वास हुआ कि नरेंद्र मोदी ही ऐसे व्यक्ति हैं जो तरक्की व कामयाबी के साथ सरकार चला सकते हैं. पर अब यही व्यापारी सरकार के निशाने पर हैं. आलूप्याज के बढ़ते दामों पर रोक लगाने के लिए, सरकार कालाबाजारी के नाम पर व्यापारियों को ही टारगेट बना रही है.

सरकार ने आदेश दिया है कि हर जगह मंडियों में छापे मारे जाएं, वायदा कारोबार बंद किया जाए, एक सीमा से अधिक सब्जियां रखने पर रोक लगाई जाए. ये सारे वे टोटके हैं जो पहले कांगे्रस सरकार अपनाती थी और मांग व पूर्ति के सिद्धांतों को ताक पर रख कर दोष व्यापारियों पर मढ़ा जाता था. इस बार मानसून खराब होने की आशंका है और व्यापारी माल रोकने लगे हैं जिस से खुदरा बाजार में सब्जियां महंगी होने लगी हैं. पर यह तो स्वाभाविक व्यापार का नियम है. जब माल की बहुतायत होती है तो यही व्यापारी अपना माल सस्ते में बेचते हैं और बची सब्जियां सड़कों पर फेंक देते हैं.

उन्हें दोष देने की जगह सरकार को मंडी कानूनों पर ध्यान देना चाहिए जो इन व्यापारियों को एकसाथ बैठने का मौका देते हैं. मंडी कानूनों के अंतर्गत किसानों को एक ही जगह पर अपना माल बेचने को बाध्य किया जाता है. वहां व्यापारियों की मनमानी चलती है. अगर मंडियां न हों तो अनाज व सब्जियों के व्यापारी छितर जाएंगे और उन का एकजुट हो कर जमाखोरी करना कठिन हो जाएगा, आढ़तियों की तानाशाही भी बंद होगी. मंडी अधिकारी ‘आज के शहंशाह’ बन गए हैं. वे अनाज व सब्जियों के सब से बड़े माफिया बन गए हैं. उन के पर काटने जरूरी हैं. पर यही लोग तो भाजपा के घंटोंघडि़यालों की सोच के सब से बड़े समर्थक हैं. जरूरत यह है कि व्यापार धर्म पर नहीं तर्क पर चले. भारतीय जनता पार्टी को केंद्र की सरकार चलाने के पहले महीने में ही पता चल रहा है कि नारे लगाना मंत्र पढ़ने की तरह आसान है, काम कर के उत्पादन करना कठिन.

विदेशों में गृहयुद्ध और कश्मीर

गृहयुद्धों में अलकायदा या उस टाइप के इसलामी जेहादी गुट जोरशोर से हमले कर रहे हैं. जैसा किसी भी युद्ध में होता है, सैनिकों को मोटा वेतन मिलता है, लूट मिलती है और औरतें मिलती हैं. इन गृहयुद्धों में बंदूक पकड़ने वालों को भी सब मिल रहा है और उलेमा मौलवियों के अनुसार, उन्हें जन्नत में जगह भी मिलेगी.

उन्हें जन्नत मिलेगी या नहीं, हमारी जन्नत यानी कश्मीर फिर खतरे में है. पिछली कांगे्रस सरकार को तो ये लोग कुछ समझते नहीं थे और कश्मीर के मामले को निरर्थक समझ कर छोड़ रहे थे पर अब कश्मीर, भारतीय जनता पार्टी को परेशान करने का अच्छा बहाना है. अलकायदा ने अब अपने कबीलों को कश्मीर की तरफ कूच करने को कह दिया है. अफगानी कबीलाई सैनिक, जिन्होंने अंगरेजों, रूसियों और अमेरिकियों को भगा दिया है, अब अगर भारत के पीछे पड़ गए तो देश को बेहद तकलीफ होगी. कश्मीर पिछले दिनों भारत के लिए अमनचैन की जगह बन गई थी. कश्मीरी भी नौकरियों के लिए देश के अन्य हिस्सों में जाने की तैयारी में थे. आज पश्चिमी एशिया में हो रहे गृहयुद्ध कश्मीर को दहशत में डाल रहे हैं.

कश्मीर भारत का अंग केवल इसलिए नहीं है कि 1947 में महाराजा हरि सिंह ने संधि पर हस्ताक्षर कर दिए थे बल्कि इसलिए है कि भारत की इज्जत इसी से है. पाकिस्तान के लिए यह मामला केवल धर्म का है. आतंकवादी चाहते हैं कि दक्षिण एशिया मुसलिम और गैरमुसलिम इलाकों में बंट जाए, चाहे 3 की जगह 33 देश बन जाएं और सब एकदूसरे से लड़ते रहें. धर्म का काम असल में शांति लाना नहीं, विवाद खड़े करना है और जो विवाद शिया, सुन्नी, अहमदिया, बहाई पश्चिमी एशिया में खड़े कर रहे हैं, वही कश्मीर के रास्ते वे पूरे भारत पर थोपना चाहते हैं. आने वाले दिन अच्छे होंगे, इस की गारंटी नहीं है. पड़ोस में जलती आग की लपटों से बचना शायद हमारे बस में न हो.

 

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