सरित प्रवाह, जुलाई (द्वितीय) 2014
संपादकीय टिप्पणी ‘नारे, वादे, दावे और कर्म’ में आप के विचार पढ़े. इस संबंध में मुझे यह कहना है कि दूसरी राजनीतिक पार्टियों की तरह इस बार भी सत्तारूढ़ हुई पार्टी के झूठे वादों का खमियाजा जनता को भुगतना पड़ रहा है. जनता खुद को छला हुआ महसूस कर रही है जबकि मंत्रियों, सत्ताधारियों के चेहरे सत्ताप्राप्ति के सुख से चमक रहे हैं.
मोदीजी, आप को गंगा मइया ने नहीं, करोड़ों जनता ने इस मुकाम पर पहुंचाया है. जनता की आस को आप तोड़ नहीं सकते. आप अपने वादों, नारों से इतनी जल्दी मुकर नहीं सकते. माना कि खजाना खाली है लेकिन जमाखोरी, भ्रष्ट सरकारी तंत्र को काबू कर जनता को महंगाई से कुछ तो राहत दे ही सकते हैं, न कि महंगाई को और बढ़ाने के लिए काम करेंगे. उन कंधों के दर्द को आप इतनी जल्दी कैसे भूल सकते हैं जिन्होंने आप को इस ऊंचाई तक पहुंचाया है.
रेणु श्रीवास्तव, पटना (बिहार)
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आप की संपादकीय टिप्पणी ‘नारे, वादे, दावे और कर्म’ पढ़ कर लगा कि लोगों को कड़वी दवा देने वाली मोदी सरकार ने शायद केजरीवाल सरकार से कोई सबक नहीं लिया. अरविंद केजरीवाल ने सत्ता में आते ही जनहित के कई ऐसे फैसले तुरंत कर डाले जिन का उन्होंने चुनाव से पहले वादा किया था. यदि भाजपा सरकार भी थोड़ा सब्र से काम ले कर महंगाई बढ़ाने का काम थोड़े दिनों के लिए टाल देती तो यह जनता में उन का भरोसा बढ़ाने के लिए पर्याप्त होता.
दूसरी ओर, अरविंद केजरीवाल अपने जिस उद्देश्य को ले कर चले थे, कुरसी मिलते ही वही भूल गए. उन का कहना था कि गटर की गंदगी को साफ करने के लिए गटर में उतरना ही पड़ेगा. मगर खुद गटर देख भाग खड़े हुए. अब वे समझ गए हैं कि अगर इस्तीफा नहीं देते तो बहुत कुछ कर सकते थे, मगर अब वे भी लाचार हैं.
मुकेश जैन ‘पारस’, बंगाली मार्केट (न.दि.)
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संपादकीय टिप्पणी ‘नारे, वादे, दावे और कर्म’ विवादास्पद लगी. सचमुच भाजपा नेताओं के ‘अच्छे दिन’ और जनता के ‘बुरे दिन’ आ गए हैं. महंगाई आसमान छू रही है, इस के बावजूद मोदी सरकार बाजार से ऋण लेने की सोच रही है जो हास्यास्पद है. कांगे्रस के यूपीए शासन में जितनी महंगाई थी उस से अधिक मोदी सरकार में आई है. मेरा मानना है भारतीय जनसंख्या में वृद्धि इस का कारण है. मोदी सरकार को इस पर ध्यान देना चाहिए. आप का यह लिखना सही है कि मोदी सरकार को भगवा आचरण छोड़ना चाहिए.
डा. जे डी जैन, नोएडा (उ.प्र.)
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‘नारे, वादे, दावे और कर्म’ शीर्षक से प्रकाशित आप की टिप्पणी सत्य से सराबोर है. यह बिलकुल सत्य है कि वोट प्राप्त करने के लिए अंधाधुंध घोषणाएं की जाती हैं, वादे कर लिए जाते हैं, दावे किए जाते हैं और तमाम नारे दिए जाते हैं. मगर जब जीतने वाला असली धरातल पर आता है तो उसे पता चलता है कि जबानी जमाखर्च अलग बात है और उन्हें कार्यरूप में परिणित करना और बात है.
कैलाशराम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)
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सरित प्रवाह की टिप्पणी ‘थैंक्यू जज साहिबा’ के जरिए तलाक पर रोचक आलोचना पढ़ने को मिली. पति यदि आदेश दे, साड़ी पहनो तो पत्नी उसे पूरा करे. यदि पत्नी कहे कि टाईसूट के बदले पाजामाकुरता पहनो तो क्या वह पूरा होगा? कम से कम खानेपीने, पहननेओढ़ने में तो आजादी होनी चाहिए. इस हुक्म के पीछे सदियों से चला आया वह ढर्रा है जिस में औरत को पैर की जूती और पति को भगवान कहा जाता था.
आप का यह इशारा भी सही है कि पत्नी अपनी उम्र अधिक क्यों दिखाए? जींसटौप में थुलथुल शरीर वाली महिला भी स्मार्ट दिखाई देती है. साड़ी में थुलथुलापन या मोटापा नहीं ढकता. जज साहिबा को थैंक्स देना अच्छा लगा. उन्होंने तलाक मंजूर कर पुराने चलन को तोड़ा तो सही.
शिक्षा सरोज, देहरादून (उत्तराखंड)
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संपादकीय टिप्पणी ‘अरविंद केजरीवाल की भूल’ में आप का यह कहना कि केजरीवाल की लहर तो उस मध्यवर्ग की देन थी जो बेहद मतलबी, कट्टर तथा परंपरावादी है, तो फिर केजरीवाल अब नया जोश व नई टीम कहां से लाएंगे? क्योंकि निम्न वर्ग को न तो मुफ्त में पानी मिला, न सस्ते में बिजली. मध्यवर्ग की तारीफ आप ऊपर कर चुके हैं तथा उच्चवर्ग को आम चुनावों में खैरातस्वरूप टिकट बांट कर वे अपने साथ उन को भी धूल चटवा ही चुके हैं. ऐसे में उन के खेमे के लिए अब बचा ही कौन सा वर्ग है?सच पूछो तो जो कड़वी सचाई है वह यह है कि केजरीवाल ने एक नहीं बल्कि अनेक गलतियां की हैं. लिहाजा, आज उन की पार्टी का जो हाल हो रहा है वह अतिआत्मविश्वास तथा धृतराष्ट्रसमान की गई भूलों का ही परिणाम है.
ताराचंद देव ‘रैगर’, श्रीनिवासपुरी (दिल्ली)
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देश में बदलाव की बयार और अच्छे दिन आने के आगाज के साथ देश की सत्ता की बागडोर संभालने वाले नरेंद्र मोदी की ताजा स्थिति पर आप की संपादकीय टिप्पणी, नारे, वादे, दावे और कर्म पढ़ी. देश की जमीनी हकीकत से रूबरू होने के बाद पता चला कि देश की तिजोरी में कंकड़ों की आवाज है, धन का नामोनिशान नहीं. इस कड़वी सचाई के साथ लोगों को अच्छे दिन की जगह बुरे दिन आने का एहसास हो रहा है.
छैलबिहारी शर्मा, छाता (उ.प्र.)
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विविधतापूर्ण रोचक अंक
मैं 50 वर्षों से भी अधिक समय से सरिता की पाठिका और प्रशंसिका हूं. पत्रिका का जुलाई (द्वितीय) अंक काफी रोचक और विविधतापूर्ण लगा. सभी लेख अच्छे हैं. ‘जीवन सरिता’ के अंतर्गत ‘अबुद्धित्तापूर्ण व्यवहार’ शीर्षक सही नहीं है. ‘बुद्धिहीन’ और ‘बुद्धिरहित’ सही विलोम हैं.
मुझे कुछ समय से यह शिकायत थी कि सरिता की कहानियों का स्तर गिर रहा है. किंतु जून (द्वितीय) अंक में प्रकाशित ‘अजनबी’, ‘अनोखा रिश्ता’ कहानियां बहुत पसंद आईं. किंतु ‘अफसोस’ कहानी बेतुकी लगी. एक वृद्ध विवाहित का अपने दफ्तर की स्त्रियों के साथ सोना, उन्हें पटाना आदि पढ़ कर मन कसैला हो गया. निवेदन है ऐसी कहानियां सरिता में न छापें.
मीरा उगरा, बेंगलुरु (कर्नाटक)
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संस्कृत का प्रचार
जुलाई (द्वितीय) अंक में प्रकाशित लेख ‘संस्कृत को पुनर्जीवित करने का प्रयास’ बहुत अच्छा लगा. सभी भारतीय भाषाओं की जननी संस्कृत है. बौद्ध व जैन धर्मों के भी प्राचीन ग्रंथ संस्कृत में ही लिखे गए हैं. प्राचीन साहित्य, ग्रंथ एवं कई वैज्ञानिक रहस्य संस्कृत में लिखे गए हैं. हमारे देश की यह मूल भाषा अब लुप्तप्राय सी हो चली थी और इस के उत्थान व संरक्षण के कोई आसार नजर नहीं आ रहे थे, परंतु इस विपरीत परिस्थिति में ‘संस्कृत भारती’ नामक संगठन हमारे देश के साथ ही अमेरिका व ब्रिटेन जैसे देशों में भी संस्कृत के प्रचारप्रसार का झंडा बुलंद किए हुए है. इस कठोर व श्रमसाध्य कार्य के लिए ‘संस्कृत भारती’ के स्वयंसेवक धन्यवाद के पात्र हैं.
पुष्पेंद्र पणिक्कर, राजसमंद (राज.)
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जिंदगी गुलजार हो जाए
जुलाई (द्वितीय) अंक में जीवन सरिता के तहत प्रकाशित लेख ‘कांटे बोते हैं नकारात्मक व्यवहार’ बहुत पसंद आया. यह एक मुफ्त का ऐसा नुस्खा है जिसे यदि अपना लिया जाए तो जिंदगी गुलजार दिखाई देने लगे. नकारात्मक व्यवहार दूसरे के लिए तो हानिकारक है ही, स्वयं के लिए भी हितकर नहीं होता. नकारात्मक मानसिकता के लोग हर जगह हैं चाहे वह हमारा घर हो या दफ्तर, स्कूल हो या क्लब, यह रोग हर जाति में किसी भी स्त्री या पुरुष में पाया जा सकता है. मित्र बनाते समय इस बात का खयाल रखना चाहिए. आजकल हर वर्ग के और हर उम्र के लोग फिल्म व टीवी देखते हैं. फिल्म में पहले विलेन होता था जिस का पता देरसवेर सब को चल ही जाता था, परंतु टीवी सीरियल में जो लड़के या लड़कियां ऐसे रोल निभाते हैं, वे रोल मौडल बन रहे हैं. एकता कपूर के सीरियल में तो नकारात्मक रोल करने वाले को खास अहमियत दी जाती है.
आजकल एक निजी चैनल पर कुछ पाकिस्तानी सीरियल दिखाए जा रहे हैं. हैरत होती है यह देख कर कि उन के धारावाहिकों में नकारात्मक रोल इस हद तक नहीं होते हैं.
ओ डी सिंह, बड़ौदा (गुज.)
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असहनीय दर्द
जुलाई (द्वितीय) अंक में प्रकाशित लेख ‘ऐसी मौत पर सब्र नहीं होता’ के माध्यम से सामाजिक पीड़ा बयां की गई है. प्रभावित परिजनों के आत्मिक दर्द को हम देख तो नहीं सकते मगर उन के दर्द को समझ जरूर सकते हैं कि किसी भी अनहोनी का शिकार होना, कितना कष्टप्रद होता है, विशेषकर उन अपनों को खो देने का, जिन के कुछ हादसों में सदा के लिए बिछुड़ जाने के साथ अंतिम क्रिया के लिए उन के शव तक उपलब्ध नहीं हो पाते. लेकिन ऐसी हृदयविदारक दुर्घटनाओं को रोकने/कम करने हेतु कुछेक सावधानियां बरत कर प्रशासन/सरकार अन्य परिवारों/नागरिकों की किसी हद तक सुरक्षा की गारंटी तो दे ही सकती है.
टीसीडी गाडेगावलिया, पश्चिम विहार (न.दि.)
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शोकसभा की महत्ता
जब भी किसी शोकसभा का आयोजन किया जाता है तो लोगबाग अपने सारे जरूरी कामकाज एक तरफ छोड़ कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने हेतु पहुंच जाते हैं. परंतु आजकल अकसर देखा गया है कि लोगबाग इस तरह के आयोजन की दबी जबान से निंदा करते हुए दिखाई देते हैं, जिस का मुख्य कारण ऐसे कार्यक्रमों का 2 से 3 घंटे का होना और आज लोगों के पास, खासकर बड़े शहरों में, इतना समय व धीरज का न रहना है. सही पूछो तो आजकल कुछ लोग सिर्फ इसलिए भी शोकसभा का आयोजन करने लगे हैं कि ‘लोग क्या कहेंगे’ से छुटकारा पा सकें.
ऐसे में एक बात का ध्यान हर किसी को रखना होगा कि कम से कम शोकसभा जैसे गंभीर विषय को महज खानापूर्ति या अपनी प्रतिष्ठा का विषय न बना कर इस को व्यावहारिक बनाना चाहिए. मसलन, आए हुए सगेसंबंधी व विशेष आमंत्रित व्यक्ति दिवंगत व्यक्ति के अनुकरण करने योग्य गुणों का संक्षेप में बखान करें और बेतुकी बातों से अपना व आए हुए मेहमानोें का समय बरबाद न करें, ताकि शोकसभा की महत्ता बरकरार रहे. नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब लोगबाग स्वयं इन में भाग लेने की जगह किसी भाड़े के व्यक्ति को अपना दूत बना कर भेजना चालू कर दें और साथ ही एसएमएस पर शोक संदेश भिजवा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लें.
एस संजय कुमार, बेंगलुरु (कर्नाटक) द्य
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प्रशासन की हकीकत
जुलाई (द्वितीय) अंक में प्रकाशित लेख ‘सपनों का घरौंदा, नियमकायदों ने रौंदा’ प्रशासन एवं बिल्डरों की मिलीभगत को उजागर करता है. मुंबई की कैंपाकोला सोसाइटी की बात हो या नोएडा में कृषकों की जमीन को बिल्डरों को सौंपने की बात, सभी जगह जनता को ठगने की कहानी है.
लेख में ठीक कहा गया है कि जब अवैध निर्माण हो रहा था तब क्या प्रशासन सो रहा था. आप देश के किसी भी रिहाइशी इलाके में बिना संबंधित विभाग की अनुमति के नक्शा पास नहीं करा पाएंगे और न ही निर्माण. लेकिन पैसा दे कर हमारे देश में
कौन सा काम नहीं होता. इसी चक्कर में कृषकों की कृषि योग्य भूमि हड़प ली गई.
दुख इस बात का है कि यही प्रयास पूरे देश में हो रहा है. तालाबों को पाट कर, जंगलों को काट कर जमीन को भूमाफियाओं के हवाले किया जा रहा है. पत्थरों और बालू को बेच कर पर्यावरण को बिगाड़ा जा रहा है. दरअसल, सरकारी अधिकारी माफियाओं से रिश्वत के तौर पर खासी उगाही में लगे हैं.
कृष्णा मिश्रा, लखनऊ (उ.प्र.)