पटना से ले कर दिल्ली तक और देहरादून से ले कर इंदौर तक हिंदीभाषी छात्र गुस्से में हैं और आरपार की लड़ाई का मूड बना चुके हैं. इन छात्रों ने सरकार को साफ चेतावनी दी है कि सिविल सर्विसेज एग्जाम से सीसैट को हर हाल में खत्म करना होगा. कहने का मतलब यह कि हिंदीभाषियों और तमाम दूसरी हिंदुस्तानी भाषाओं के माध्यम से सिविल सर्विसेज एग्जाम देने वाले

छात्र अब किसी भी कीमत पर सीसैट को स्वीकार करने के मूड में नहीं हैं. आखिर छात्र सीसैट से इतने खफा क्यों हैं?

दरअसल, साल 2011 में संघ लोक सेवा आयोग यानी यूपीएससी ने अपनी प्रारंभिक परीक्षा के पाठ्यक्रम के अंतर्गत कौमन सिविल सर्विसेज एप्टीट्यूड टैस्ट यानी सीसैट पैटर्न जोड़ा. इसे वाई के अलघ समिति की सिफारिशों के मद्देनजर संघ लोक सेवा आयोग ने जोड़ा था. इसे 2014 में पूरी तरह से लागू करना था. वास्तव में इस की सिफारिश का कारण यह माना गया था कि तेजी से बदलती परिस्थितियों में रट कर 5 प्रश्न हल करने की प्रणाली, जटिल प्रशासनिक जरूरतों के लिए योग्य प्रतिभाओं को छांट पाने में कामयाब नहीं हो पा रही थी. इसलिए सीसैट को लाया गया. मतलब यह कि इसे परीक्षार्थियों की कुशलता परखने के औजार के रूप में शामिल किया गया.

प्रारंभिक परीक्षा में जोड़े गए सीसैट पैटर्न का उद्देश्य यह था कि इस के जरिए उन विद्यार्थियों का चयन हो सके जिन में सहज प्रशासनिक क्षमता हो. लेकिन माना जा रहा है कि इस से हिंदी और दूसरी हिंदुस्तानी भाषाओं के माध्यम से परीक्षा देने वाले छात्रों को कोई फायदा नहीं हो रहा, उलटे उन का बहुत नुकसान हो रहा है.

सीसैट पैटर्न के तहत यूपीएससी की प्रारंभिक परीक्षा में 400 अंकों के 2 पेपर होते हैं. इन में से 200 अंकों का पेपर सामान्य अध्ययन का होता है और 200 अंकों का सीसैट होता है. 2 साल के अनुभवों के बाद पाया गया है कि इस के चलते जहां कुछ खास शैक्षिक पृष्ठभूमि के लोगों के लिए यह परीक्षा बिलकुल आसान हो गई है, वहीं कुछ दूसरों के लिए यह पहले के मुकाबले अब काफी मुश्किल हो गई है. वास्तव में इस पैटर्न के चलते गैर अंगरेजी माध्यम वाले प्रतियोगियों के लिए प्रारंभिक परीक्षा पास करना लगातार काफी मुश्किल हो गया है. सीसैट लागू होने के बाद से अभ्यर्थी, खासकर ग्रामीण पृष्ठभूमि वाले छात्र, गणित व रीजनिंग के सवालों से खासे परेशान नजर आ रहे हैं.

आयोग की दादागीरी

हालांकि शुरू में यानी 2011 में जब इसे पहली बार लागू किया गया था तब इतनी परेशानी नहीं हुई थी लेकिन बाद में साल दर साल सीसैट परीक्षा में गणित और रीजनिंग के जैसेजैसे सवाल बढ़े, मानविकी के छात्रों का बंटाधार होने लगा. पिछली बार यानी 2013 में सामान्य अध्ययन द्वितीय प्रश्नपत्र (सीसैट) में हिंदी कौंप्रिहैंशन के 23, अंगरेजी कौंप्रिहैंशन के 8, निर्णयन के 6, गणित के 15 व रीजनिंग के 28 सवाल पूछे गए. इस पैटर्न के चलते सामान्य अध्ययन के प्रथम प्रश्नपत्र में भी व्यावहारिक विज्ञान, अर्थशास्त्र और भूगोल के सवालों ने परीक्षार्थियों के लिए मुसीबत पैदा की. फिर भी परीक्षार्थियों के मुताबिक, पहला प्रश्नपत्र औसतन आसान और व्यावहारिक था.

पहली पाली में हुई इस परीक्षा में 2 घंटे में वस्तुनिष्ठ प्रकृति के 100 प्रश्न हल करने थे. हर प्रश्न के सही उत्तर के लिए 2 अंक मिलने थे, जबकि गलत उत्तर के लिए एकतिहाई अंक कटने थे. लेकिन सामान्य अध्ययन के द्वितीय प्रश्नपत्र में 200 अंक के 80 सवाल पूछे गए. इन सवालों में 40 सवाल कौंप्रिहैंशन के थे. वास्तव में फोकस किया जाए तो अंतिम रूप से फसाद की जड़ यही 40 कौंप्रिहैंशन के सवाल हैं. सीसैट इसी जगह पर आ कर भारतीय भाषाओं के छात्रों के लिए खलनायक बन जाता है.

गैर अंगरेजी माध्यम वाले परीक्षार्थियों का आरोप है कि सीसैट पैटर्न पर पूछे जाने वाले सवाल मूलरूप से अंगरेजी में बनाए जाते हैं. हिंदी या दूसरी भारतीय भाषाओं में इन का इतना घटिया अनुवाद प्रस्तुत किया जाता है कि ये सवाल एक बार पढ़ने से तो समझ ही नहीं आते, जबकि कई बार पढ़ कर समझने से काफी वक्त जाया हो जाता है. एक तरह से उन के कहने का मतलब यह है कि सारी जड़ अंगरेजी है.

हिंदी और दूसरी हिंदुस्तानी भाषाओं के छात्र मानते हैं कि सीसैट परीक्षा अंगरेजी माध्यम में इंजीनियरिंग और मैनेजमैंट की पढ़ाई करने वाले छात्रों के लिए बहुत ज्यादा अनुकूल है. उन के मुताबिक, भारतीय भाषाओं में दिए गए अनुवाद न सिर्फ काफी जटिल होते हैं बल्कि बोधगम्य भी नहीं होते. इस के साथ ही आयोग की यह दादागीरी भी देखिए कि वह स्पष्ट रूप से मानता है कि अंगरेजी के प्रश्न ही अंतिम रूप से मानक हैं अर्थात किसी तरह की त्रुटि की स्थिति में अंगरेजी में लिखा हुआ ही मान्य होगा. कहने का मतलब आप आयोग को उस की किसी गलती के लिए घेर भी नहीं सकते. सीसैट का विरोध करने वालों का कहना है कि इस से हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं में सफल छात्रों की संख्या में काफी गिरावट आई है.

इस में दोराय नहीं है कि ये तमाम आरोप तकनीकी दृष्टि से बिलकुल सही हैं. इन्हें तथ्यों के रूप में भी देखा जा सकता है. मसलन, 2013 की सिविल सेवा परीक्षा में सफल हिंदी माध्यम के छात्रों का प्रतिशत मात्र 2.3 रहा जबकि 2003 से 2010 के बीच ऐसे छात्रों का प्रतिशत हमेशा 10 से ज्यादा रहा था. 2009 में तो यह प्रतिशत 25.4 तक चला गया था. 2013 की परीक्षा में कामयाब हुए 1,122 छात्रों में सिर्फ 26 हिंदी माध्यम के थे. इन के साथ अगर सभी भारतीय भाषाओं के माध्यम वाले छात्रों की संख्या जोड़ लें तो वह भी सिर्फ 80 है.

समान अवसर का अभाव

इन आंकड़ों के आईने में अंगरेजी के दबदबे को स्वत: देखा जा सकता है. भारतीय भाषाओं के लिए यह आंकड़ा तब और भयावह हो जाता है जब यह पता चलता है कि सीसैट से पहले मुख्य परीक्षा में बैठने वाले छात्रों में हिंदी और अन्य भारतीय

भाषाओं के छात्रों का प्रतिशत 40 से ज्यादा होता था, जबकि सीसैट के बाद इस में बहुत भारी गिरावट आई है. पिछले 3 वर्षों में यह 10 से 15 फीसदी तक आ गिरा है.

ऐसा नहीं है कि केवल असफल छात्र ही सीसैट को खलनायक बनाने पर तुले हों. यूपीएससी की अपनी आंतरिक मशीनरी भी कहीं न कहीं इस बात को स्वीकार कर रही है. निगवेकर समिति ने भी इस पैटर्न की आलोचना की है. यूपीएससी द्वारा गठित निगवेकर समिति ने 2012 में अपनी रिपोर्ट में कहा था कि सीसैट परीक्षा पैटर्न शहरी क्षेत्र में अंगरेजी माध्यम के छात्रों को फायदा पहुंचा रहा है.

इस संदर्भ में निगवेकर समिति की तो आलोचनात्मक टिप्पणी हुई ही है, लाल बहादुर शास्त्री अकादमी भी इस मामले में ऐसी ही टिप्पणी दे चुकी है. सवाल है इस समस्या को अगर कुछ देर के लिए हम सैद्धांतिक और वैचारिक या सामाजिक व राजनीतिक दृष्टि से न देखें, सिर्फ तकनीकी रूप से देखें तो यह किस तरह से गैर अंगरेजी माध्यम वाले छात्रों को परेशान करती है? वास्तव में यूपीएससी के परीक्षा परिणामों का जो इतिहास रहा है, उस में हम देखते रहे हैं कि सामान्यतया 60 प्रतिशत नंबर लाने वाले परीक्षार्थी टौप कर जाते हैं.

नए पैटर्न के चलते अंगरेजी माध्यम के छात्र इंगलिश कौंप्रिहैंशन के 9 प्रश्नों में हिंदी वालों से कम से कम 3 सवाल ज्यादा बना लेते हैं और वह भी उन के मुकाबले 5 मिनट कम समय में. वास्तव में इंजीनियरिंग, पीओ, एसएससी, मैनेजमैंट जैसी पृष्ठभूमि के प्रतियोगी, मानविकी के विद्यार्थियों की तुलना में गणित एवं शक्ति परीक्षा के 32 सवालों का कम से कम 10 मिनट कम समय में उत्तर निकाल लेते हैं. इस के चलते वे मानविकी वालों के मुकाबले 4-5 सवाल से ज्यादा हल कर लेते हैं. वास्तव में इस में भाषा से ज्यादा प्रबंधन, अभियांत्रिकी जैसी पृष्ठभूमि के परीक्षार्थियों की तेज गति से पढ़ने की आदत का उन्हें फायदा मिलता है.

कौंप्रिहैंशन सैक्शन

इस पैटर्न के चलते सब से बड़ा फर्क पैदा करता है, प्रश्नपत्र का कौंप्रिहैंशन सैक्शन. कौंप्रिहैंशन का हिंदीरूप चूंकि अनूदित होता है, इसलिए यह मूल से भी कहीं ज्यादा जटिल हो जाता है. लेकिन गे्रजुएट मैनेजमैंट ऐडमिशन टैस्ट (जीमैट), इंडियन इंस्टिट्यूट औफ मैनेजमैंट (आईआईएम) एवं दूसरी प्रबंधन परीक्षाओं की तैयारी किए छात्र व छात्राएं कौंप्रिहैंशन में काफी तीव्र एवं सटीक होते हैं, क्योंकि उन्होंने पूर्व में इस की अच्छी तैयारी की होती है. चूंकि ये तमाम छात्र अमूमन अंगरेजी माध्यम के होते हैं इसलिए इसी माध्यम के खाते में ज्यादा सफलता आती है.

यही नहीं, यूपीएससी की तैयारी करने वाले छात्रों में एक तबका ऐसा भी है जो पूर्व की ऐसी परीक्षाओं की तैयारी की बदौलत ही इस में 80 से 90 प्रतिशत तक नंबर ले आता है. जबकि दूसरी तरफ ऐसे भी छात्र हैं जो कभी साक्षात्कार तक पहुंच गए थे, मगर पिछले 3 सालों से प्रारंभिक परीक्षा भी नहीं पास कर पाए हैं. इस का कारण है कि प्रारंभिक परीक्षा का कट औफ मार्क्स लगातार बढ़ रहा है, जो इस तरह की परीक्षा के विशेषज्ञों के अलावा अन्य लोगों के लिए लगभग असाध्य है. इस के उलट, मुख्य परीक्षा का प्राप्तांक पिछले 3 वर्षों से लगातार गिरते हुए कम से कम 20 प्रतिशत नीचे आ गया है.

वैसे भारतीय भाषाओं के साथ अंगरेजी माध्यम का यह कोई पहला आतंक नहीं है. इस के पहले भी ऐसा प्रत्यक्षअप्रत्यक्ष तौर पर होता रहा है. चूंकि यूपीएससी की वास्तविक परीक्षा लिखित और साक्षात्कार की परीक्षा है, इसलिए इस में शामिल होने वाले प्रतिभागियों की भीड़ की छंटनी के लिए प्रारंभिक परीक्षा को अब यह रूप दे दिया गया है. वैसे पहले भी यह इसी काम के लिए थी लेकिन अब इसे और धारदार तरीके से सीसैट अंजाम दे रहा है.

पहले भी देखा गया है कि हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं के माध्यम से परीक्षा पास करने वाले छात्रों से बहुधा अंगरेजी में साक्षात्कार लिया जाता रहा है. इस को ले कर भी बहुत बार आपत्तियां दर्ज हुई हैं. यह अकारण नहीं है कि यूपीएससी के इतिहास में कोई भी हिंदीभाषी परीक्षार्थी नंबर वन रैंक में नहीं आया है.

2013 के परीक्षाफल से तो लगता है कि आने वाले समय में मानविकी और इस में भी खासकर देशीभाषा के लोग यूपीएससी की परीक्षा वैसे ही पास कर पाएंगे जैसे कि अंगरेजी शासन के दौरान कुछ ही भारतीय यदाकदा आ जाया करते थे.

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