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ट्रेंडिंग में है डोपामाइन फैशन, जानें इसे जिंदगी में कैसे करें शामिल

दुनिया में तरहतरह के फैशन आतेजाते रहते हैं. जो फैशन ट्रैंड में होता है, ज्यादातर लोग उसी को फौलो करना ज्यादा पसंद करते हैं. आजकल डोपामाइन फैशन काफी ट्रैंड में है. होली जैसे उत्सव का माहौल हो या रैगुलर लाइफ में दूसरों पर पौजिटिव इंप्रैशन जमाना हो, डोपामाइन फैशन के रंग में आप भी रंग जाइए.

डोपामाइन फैशन आखिर है क्या? यह शब्द खुशी और सैटिस्फैक्शन के साथ जुड़ा होता है जो हमारे मूड और फीलिंग्स को बेहतर बनाने का काम करता है. आप सब ने डोपामाइन हार्मोन के बारे में सुना ही होगा.

डोपामाइन एक हार्मोन है जो हमारे शरीर में मौजूद होता है. इसे हैप्पी हार्मोन कहा जाता है क्योंकि जब भी हम खुश होते हैं तो दिमाग में डोपामाइन रिलीज़ होता है जिस से हमें खुशी का एहसास होता है. आप में किसी रंग, वीडियो, व्यक्ति, एक्टिविटी, सौंग या अन्य चीज़ों से डोपामाइन रिलीज़ हो सकता है. नैशनल इंस्टिट्यूट औन ड्रग एब्यूज के अनुसार डोपामाइन आप के मस्तिष्क में एक संदेशवाहक रसायन है जो आप को खुशी लाने वाले काम करने के लिए प्रोत्साहित करता है.

इस कौन्सैप्ट से ही प्रेरित है डोपामाइन ड्रैसिंग. यानी, ऐसी ड्रैसिंग जिसे देख कर और पहन कर आप का और सामने वाले का मूड अच्छा हो जाए. कपड़ों का हमारी भावनात्मक स्थिति पर गहरा असर पड़ता है. इस फैशन में वाइब्रैंट और ब्राइट कलर शामिल किए जाते हैं. साथ ही, ऐसे फैब्रिक और टैक्सचर लिए जाते हैं जिन्हें पहन कर अच्छा महसूस हो.

इस तरह कहा जा सकता है कि डोपामाइन ड्रैसिंग व्यक्तियों को ऐसे कपड़े पहनने के लिए प्रोत्साहित करती है जो उन्हें शारीरिक व भावनात्मक रूप से अच्छा महसूस कराते हैं. डोपामाइन ड्रैसिंग आमतौर पर जीवंत रंगों के चयन से जुड़ी होती है. इस में ऐसे कपड़ों की मांग शामिल है जो आराम और आत्मविश्वास पैदा करते हैं और चेहरे पर मुसकराहट लाते हैं. इस का मतलब कि आप जो भी और जिस भी रंग के कपड़े पहनते हैं वो आप के मूड को प्रभावित करते हैं. यह सिर्फ अच्छा दिखने के लिए नहीं, बल्कि बेहतर महसूस करने के साथ जुड़ा है. वो कपड़ें पहनें जिन्हें पहन कर आप अच्छे लगें भी और आप को खुशी भी मिले.

चलिए जानते हैं डोपामाइन ड्रैसिंग को अपनी जिंदगी में कैसे शामिल करें;

खिलने वाले रंग पहनें

सब से पहले एक लिस्ट बनाएं जिस में आप वे सभी रंग शामिल करें जो आप के व्यक्तित्व से मेल खाते हों, जिन्हें पहन कर आप को अच्छा महसूस होता है, जो रंग आप पर सब से ज्यादा अच्छे लगते हों और जो रंग ब्राइट हों. आप अपनी अलमारी में खिले रंग यानी ब्राइट कलर के कपड़े शामिल करें. लाल, नारंगी, आसमानी, सनी पीला, गाढ़ा बैगनी, सुर्ख गुलाबी जैसे खिलने वाले रंगों के कपड़े पहनें. लाल रंग ऊर्जा और जनून के साथ जुड़ा होता है, पीला खुशी और आशावाद के लिए जाना जाता है और नीला शांति का प्रतीक है. ऐसे रंग चुनें जो उन भावनाओं से मेल खाते हों जिन्हें आप खुद में जगाना चाहते हों. साथ ही, जिन्हें पहनने के बाद आप को अच्छा और एनर्जेटिक महसूस हो. ये रंग लोगों का ध्यान आप की ओर आकर्षित करेंगे.

बोल्ड एक्सेसरीज को मिक्स एंड मैच करें

अगर आप को इस तरह के रंग पहनना ज्यादा पसंद नहीं है तो आप बोल्ड एक्सेसरीज कैरी कर सकती हैं. आप एक बेहतर लुक देना वाला हैंडबैग कैरी कर सकती हैं जो आप की आउटफिट के साथ सूट करता हो. इसी के साथ आप स्टाइलिश इयररिंग्स वियर करें जो आप की लुक को कंप्लीट करें और आप को अच्छा महसूस हो. इन दिनों स्टेटमेंट इयररिंग्स काफी चलन में हैं. इन की एक जोड़ी आप के लुक को निखार देगी. कलरफुल सैंडल्स या बेल्ट्स भी आजमा सकती हैं.

प्रिंट, फैब्रिक और पैटर्न

आप अपने कपड़ों को सेलेक्ट करते समय अट्रैक्टिव प्रिंट और पैटर्न को अपनाएं जिन्हें पहनने के बाद आप को कौन्फिडेंस महसूस हो. आजकल मार्केट में कई तरह के प्रिंट और डिजाइनों में ड्रैस उपलब्ध हैं. खूबसूरत प्रिंट और पैटर्न वाले पहनावे मन में आनंद भरते हैं. आकर्षक रंग, लाइनिंग्स, फ्लावर प्रिंट्स, ब्लौक्स या जियोमेट्रिक पैटर्न आप के अंदर के उत्साह को बढ़ाते हैं. इस के अलावा एनिमल प्रिंट वाले कपड़े भी खास लगते हैं. फैब्रिक भी ऐसा हो जो अच्छा फील कराए.

फुटवियर

फुटवियर भी आप ऐसी ही चुनें. अगर आप को हील्स पहन कर अच्छा महसूस होता है तो हील्स चुनें. अगर आप को शूज पसंद हैं तो शूज के साथ थोड़े एक्सपैरिमैंट करें और नए स्टाइल को ट्राई कर के देखें. कलर भी ब्राइट लें.

आत्मविश्वास जरूरी है

याद रखें कि डोपामाइन ड्रैसिंग का मतलब है कि आप जो भी पहनते हैं उस में आप को अच्छा और कौन्फिडेंस महसूस हो. ऐसे में वही कपड़े चुनें जिन्हें पहन कर आप कंफर्टेबल महसूस कर पाएं.

व्यवसाय में घाटा, भारी कर्ज, व्यापारियों की बढ़ती आत्महत्याएं चिंता का विषय

जब कोई शख्स या व्यापारी छोटेबड़े कर्ज में डूब जाता है तो डिप्रैशन में आ कर आत्महत्या कर लेता है. ऐसी अनेक घटनाएं घटित होती रहती हैं. दरअसल, यह ऐसा समय होता है जब शख्स कुछ भी सकारात्मक सोच नहीं पाता और उस की आंखों के आगे अंधेरा छाता चला जाता है.

वस्तुत: ऐसी स्थिति में धैर्य व बुद्धि से काम लेना चाहिए. अगर थोड़ा समय बीत जाए तो व्यापार के घाटे में डूबा शख्स आत्महत्या करने के विचारों के भंवर से निकल सकता है. ऐसी अनेक घटनाएं घटित हुई हैं जिन पर विस्तार से चर्चा करने से पहले कुछ घटनाक्रम पर दृष्टिपात कर लीजिए.

  • प्रथम घटना- एक व्यक्ति ने बेटी की शादी के लिए ब्याज में रुपए लिए और जब वह नहीं अदा कर पाया तो व्यक्ति ने आत्महत्या कर ली.
  • द्वितीय घटना- एक व्यापारी ने व्यापार चलाने के लिए उधार लिया मगर घाटा होने के कारण उस का दीवाला निकल गया, आखिरकार आत्महत्या कर ली.
  • तृतीय घटना- छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में एक बेसन मिल के मालिक ने जब रुपयों की रिकवरी नहीं हो पाई तो त्रासदी में आत्महत्या कर ली.

अकसर हमारे आसपास आत्महत्या की खबरें मीडिया के माध्यम से आती रहती हैं, जिन्हें आम आदमी पढ़ कर आगे बढ़ जाता है. दरअसल, इस तरह की घटनाएं यह बताती हैं कि मनुष्य कितना संवेदनशील होता है वह जब किसी से रुपए उधार लेता है या कोई बिजनैस करता है और उस में नुकसान झेलता है तो वह एक तरह से सन्नीपात में चला जाता है. उसे कुछ भी दिखाई नहीं देता और जिंदगी से दूर जा कर इस अवसाद से बचने की कोशिश करता है. मगर वह भूल जाता है कि किसी भी समस्या का हाल आत्महत्या नहीं हो सकता.

ऐसे में अगर वह थोड़ा ध्यान से काम ले, विवेक से सोचे तो इस भंवरजाल से निकल सकता है और आगे की जिंदगी खुशहाली से व्यतीत कर सकता है.

प्रवासी व्यवसायी की आत्महत्या

हाल ही में महाराष्ट्र में अपने व्यापार में नुकसान खाने के बाद छत्तीसगढ़ आ कर एक होटल में रुके व्यवसायी ने आत्महत्या कर ली. वह थोड़ा धैर्य दिखाता, किसी मनोवैज्ञानिक से रायमशवरा कर लेता तो उस की जान सहज बच सकती थी.

छत्तीसगढ़ के स्टील सिटी भिलाई में एक होटल के कमरा नंबर 312 में पिछले 20 दिनों से रुके महाराष्ट्र के एक कारोबारी ने फांसी लगा कर खुदकुशी कर ली. दरअसल उस पर करोड़ों रुपए का कर्जा था. कर्ज नहीं चुका पाने के चलते वह छिप कर भिलाई में रह रहा था. जब कर्जदारों का दबाव बढ़ा तो उस ने खुदकुशी कर ली. सुपेला पुलिस ने शव को मोर्च्युरी में रखवा कर मामले की जांच शुरू कर दी है.

सुपेला पुलिस के मुताबिक मृतक की पहचान गोविंद तायाप्पा पवार (41 साल) पिता तायाप्पा पवार, निवासी 1098/2 मार्केट कमेटी शेजरील, दिघंची, आटपाड़ी, सांगली महाराष्ट्र के रूप में हुई है. वह दिसंबर 2023 से भिलाई लगातार अपनी हर्बल कंपनी के काम के सिलसिले में आ रहा था. वह इस होटल में 3 मार्च, 2024 से ठहरा हुआ था.

यहीं उस ने पहले हाथ की नस काटने की कोशिश की. लेकिन जब वह ऐसा नहीं कर सका तो चादर फाड़ कर उस का फंदा बनाया और पंखे पर बांध कर लटक गया. होटल के मैनेजर के मुताबिक गोविंद पवार पिछले 3 मार्च से होटल के कमरा नंबर 312 में रुका हुआ था. वह समय पर पैसा देता था. शनिवार दोपहर जब गोविंद लंच के लिए कमरे से नहीं निकला तो स्टाफ उसे बुलाने गया. काफी आवाज‌ लगाने और डोरबेल बजाने पर भी उस ने कमरा नहीं खोला. ‌इस से होटल स्टाफ को किसी अनहोनी का शक हुआ.

इस के बाद होटल स्टाफ ने मास्टर चाबी से दरवाजा खोलने की कोशिश की. अंदर से बंद होने के चलते दरवाजा नहीं खुला. स्टाफ ने सुपेला पुलिस को इस की सूचना दी. पुलिस होटल पहुंची और दरवाजा तोड़ कर देखा तो गोविंद फंदे पर लटका हुआ था. बैड पर एक चाकू पड़ा हुआ मिला है. हाथ में चाकू से काटने का निशान था. यह घटना अनेक घटनाओं की तरह यह बताती है कि कर्ज लेने के बाद जब व्यवसाय में नुकसान हो जाता है तो छोटा व्यापारी हो या बड़ा व्यवसायी, आत्महत्या का रास्ता अख्तियार कर लेता है.

शिक्षाविद और मनोवैज्ञानिक डाक्टर संजय गुप्ता के मुताबिक जीवन में उतारचढ़ाव की परिस्थितियां आनी स्वाभाविक है. ऐसे घटनाक्रम के दरमियान व्यक्ति को तत्काल परिजनों को सारी घटना से वाकिफ कराना चाहिए और इष्ट मित्रों से परामर्श लेना चाहिए. साथ ही, किसी मनोवैज्ञानिक अथवा अधिवक्ता यानी लीगल एडवाइजर से परामर्श करना चाहिए. ऐसी स्थितियों में इस तरह बड़ी आसानी से भंवरजाल से निकला जा सकता है.

बोझ नहीं रिश्ते दिल के: भाग 2

अब तो अनुजा का नित्य का क्रम बन गया था. जब तक वह स्कूल से आ कर उस बच्चे के साथ घंटाआधघंटा बिता न लेती, उस का खाना ही हजम न होता था. एक दिन वह उस के साथ खेल रही थी कि अचानक सविता मेम आ गईं.  वह उन्हें देख कर डर गई. अपनी सफाई में कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था कि वे संजीदा स्वर में बोलीं, ‘अच्छा, तो वह तुम ही हो जिस के साथ खेल कर मेरा बेटा विपुल इतना खुश रहता है. यहां तक कि छोटेछोटे वाक्य भी बोलने लगा है.’

कहां तो अनुजा सोच रही थी कि उन की आज्ञा के बिना उन के घर घुसने तथा उन के बच्चे के साथ खेलने के लिए उसे खरीखोटी सुननी पड़ेगी पर उन्होंने न केवल उस से प्यार से बातें कीं बल्कि उसे सराहा भी. उन का सराहनाभर  स्वर सुन कर वह भी उत्साह के स्वर में बोली, “मेम, मुझे बच्चों के साथ खेलना बहुत अच्छा लगता है, घर में कोई छोटा बच्चा नहीं है, सो इस के साथ खेलने आ जाती हूं.’ बहुत ही प्यारी बच्ची हो तुम. बस, आगे यह ध्यान रखना कि जो काम अच्छा लगता है उसे छिप कर करने के बजाय सब के सामने करो, जिस से ग्लानि का एहसास नहीं होगा,’ कहते हुए उन्होंने उस की पढ़ाई के बारे में जानकारी ली. 

मां को जब अपने इस वार्त्तालाप के विषय में बताया तो वह बोली, ‘क्यों व्यर्थ अपना समय बरबाद कर रही है. आज उसे तेरी आवश्यकता है तो मीठामीठा बोल रही है, कल जब आवश्यकता नहीं रहेगी तो वह तुझे दूध में पड़ी मक्खी की तरह बाहर निकाल फेंकेगी. आखिर ऐसे लोगों की यही फितदरत होती है. वैसे भी, जो अपनों का न हो सका वह भला दूसरों का क्या होगा?’

मां की बात उस समय उसे अटपटी लगी. दरअसल मां की एक मित्र उसी कालेज में अध्यापिका थीं, जिस में सविता मेम पढ़ाती हैं. उन से उन्हें पता चल चुका था कि उन्होंने अपने पति को छोड़ दिया है. उस समय ऐसा फैसला लेना, वह भी स्त्री द्वारा, उसे अहंकारी, घमंडी तथा बददिमाग की पदवी से विभूषित करने के लिए काफी था. उस का दिल कहता कि किसी का किसी के साथ रहना न रहना उन का निजी फैसला है, इस पर किसी को आपत्ति क्यों?

अगर सविता मेम ने यह कदम उठाया है तो अवश्य ही कोई बड़ा कारण होगा. एक औरत अकारण घर की चारदीवारी नहीं लांघती, वह भी एक छोटे बच्चे को गोद में लिए. उन का व्यवहार देख कर उसे कभी नहीं लगा कि वे झगड़ालू या दंभी किस्म की औरत हैं. उस समय उसे यह प्रश्न बारबार झकझोरता था कि हमारा समाज सारी बुराइयां औरत में ही क्यों ढूंढ़ता है, क्यों उसे शांति से जीने नहीं देता? मां से मन की बात कही तो वे उस पर ही बरस पड़ीं- ‘दो बित्ते की छोकरी है और बातें बड़ीबड़ी करती है. अरे, घर की सुखशांति बरकरार रखने के लिए औरत को ही त्याग करना पड़ता है, नहीं तो चल चुकी घर की गाड़ी. और हां, उस घर में ज्यादा मत जाया कर, कहीं उस के कुलक्षण तुझ में भी न आ जाएं.’ 

मां आम घरेलू औरत की तरह थीं, जिन का दायरा अपने पति और बच्चों तक ही सीमित था. औरत घर की चारदीवारी में शोभित ही अच्छी लगती है.ऐसा दादी का मानना था. दादी के विचारों, कठोर अनुशासन ने सामाजिक समारोह के अतिरिक्त उन्हें घर से बाहर निकलने ही नहीं दिया. दादी के न रहने के पश्चात् भी उन के द्वारा थोपे विचार, अंधविश्वास मां के मन में ऐसे रचबस गए कि वे उन से मुक्ति न पा सकीं. आज उसे लगता है कि व्यक्ति की सोच का दायरा तभी बढ़ता है जब वह दुनियाजहान घूमता है. विभिन्न समुदायों तथा संप्रदायों के लोगों से मिलता है, तभी उस के स्वभाव और व्यक्तित्व में लचीलापन आ पाता है. तभी वह समझ पाता है कि व्यक्ति के आचारविचार में परिवर्तन समय की देन है. जो समय के साथ नहीं चल पाता या समय को अपने अनुकूल बनाने की सामर्थ्य नहीं रखता वह एक दिन तिनकातिनका टूट कर बिखरता जाता है. वह इंसान ही क्या जो अपने आत्मसम्मान की रक्षा न कर पाए तथा परिस्थतियों के आगे घुटने टेक दे.

सविता मेम उसे सदा परिष्कृत रुचि की लगीं. सो, मां के मना करने के बावजूद कभी छिप कर तो कभी उन की जानकारी में वह उन के घर जाती रही. धीरेधीरे लगाव इतना बढ़ा कि विपुल के साथ खेलने के लिए उन की अनुपस्थिति में तो वह जाती ही थी, अब वह उन के सामने भी, जब भी मन हो, बेहिचक जाने लगी थी. कभी उन के साथ चाय बनाती तो कभी सब्जी और कुछ नहीं तो उन के साथ अपनी पढ़ाई से संबंधित मैटर ही डिस्कस कर लेती थी. 

वे कैमिस्ट्री की टीचर थीं. हायर सैकंडरी में फिजिक्स, कैमिस्ट्री उन के विषय थे. सविता मेम कैमिस्ट्री के अतिरिक्त फिजिक्स से संबंधित समस्याएं भी हल करवा दिया करती थीं. उन का समझाने का तरीका इतना रुचिकर था कि गंभीर से गंभीर विषय भी सहज हो जाता था.

उसे उन के साथ बैठकर, बातें करना अच्छा लगता था. उन की सोच उन्हें अन्य महिलाओं से अलग करती थी. वे साड़ी, जेवरों की बातें नहीं बल्कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विषयों पर बातें किया करती थीं. यहां तक कि उन्होंने उसे कालेज में हो रही वादविवाद प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए न केवल प्रेरित किया बल्कि विषयवस्तु भी तैयार करवाया. उन के प्रयत्नों का ही नतीजा था कि वह अपने स्कूल में ही प्रथम नहीं बल्कि इंटर-स्कूल वादविवाद प्रतियोगिता में भी प्रथम आई.

उस के पढ़ाई और अन्य प्रतियोगिताओं में अच्छे प्रदर्शन के कारण मां अब उसे उन के घर जाने से रोकती तो नहीं थी पर अभी भी मां की धारणा उन के प्रति बदल नहीं पाई थी जबकि वह अपने सुलझे विचारों तथा आत्मविश्वास के कारण उस की आदर्श ही नहीं, प्रेरणा भी बन चुकी थीं. कम से कम वे उन औरतों से तो अच्छी थीं जो हर काम में मीनमेख निकालते हुए एकदूसरे की टांगें खींचने में लगी रहती हैं. कम से कम उन के जीवन का कोई मकसद तो है. वे जीवन में आई हर कठिनाई को चुनौती के रूप में लेती हुई जिंदादिली से लगातार आगे बढ़ रही हैं तो लोगों को आपत्ति क्यों

उस समय वह ग्रेजुएशन कर रही थी. ज़िंदगी के अच्छेबुरे पहलुओं को थोड़ाथोड़ा  समझने लगी थी. एक दिन उस ने उन की जिंदगी में झांकने का प्रयास किया तो वे उखड़ गईं तथा तीखे स्वर में कहा, ‘पता नहीं लोगों को किसी की निजी जिंदगी में झांकने में क्यों मजा आता है? मेरी जिंदगी है चाहे जैसे भी जीऊं.’

‘सौरी मेम, मेरा इरादा आप को दुख पहुंचाने का नहीं था लेकिन जब आसपड़ोस के लोग आप के बारे में अनापशनाप कहते हैं तो मुझ से सहा नहीं जाता, इसीलिए सचाई जानने के लिए आज मैं ने आप से पूछा. पर मुझे नहीं पूछना चाहिए था. आप को दुख हुआ, प्लीज, मुझे क्षमा कर दीजिए.’

इस में तुम्हारी कोई गलती नहीं हैं, अनु. गलती हमारी, समाज की सोच और धारणा की है. सचाई यह है कि हमारा समाज आज भी अकेली औरत को सहन नहीं कर पाता. वह उस के लिए एक पहेली बन कर रहती है. उस पहेली को सब अपनीअपनी तरह से सुलझाना चाहते हैं. बस, यहीं से बेसिरपैर की बातें प्रारंभ होती हैं. पर मैं ने अपने आंख, कान और मुंह बंद कर रखे हैं. अगर खोल कर रखे होते तो शायद जीवित न रह पाती,’ कहते हुए उन की आंखें छलछला आई थीं.

 

सीमा: क्यों नवनीत से किनारा कर रही थी सीमा?

‘‘माया तुम पहले चढ़ो. नेहा आदिल को मुझे दो. अरे, संभाल कर…’’ ट्रेन के छूटने में केवल 5 मिनट शेष थे. सीमा ने अपनी सीट पर बैठ कर अभी पत्रिका खोली ही थी कि दरवाजे से आती आवाज ने सहसा उस की धड़कनें बढ़ा दीं. यह वही आवाज थी, जिसे सीमा कभी बेहद पसंद करती थी. इस आवाज में गंभीरता भी थी और दिल छूने की अदा भी. वक्त बदलता गया था पर सीमा इस आवाज के आकर्षण से कभी स्वयं को मुक्त नहीं कर सकी थी.

अकसर सोचती कि काश कहीं अचानक यह आवाज फिर से उसे पुकार कर वह सब कुछ कह दे, जिसे सुनने की चाह सदा से उस के दिल में रही.

आज वर्षों बाद वही आवाज सुनने को मिली थी. मगर सीमा को उस आवाज में पहले वाली कोमलता और सचाई नहीं वरन रूखापन महसूस हो रहा था. कभी कुली तो कभी अपने परिवार पर झल्लाती आवाज सुनते हुए सीमा बरबस सोचने लगी कि क्या जिंदगी की चोटों ने उस स्वर से कोमलता दूर कर दी या फिर हम दोनों के बीच आई दूरी का एहसास उसे भी हुआ था.

कई दफा 2 लोगों के बीच का रिश्ता अनकहा सा रह जाता है. फासले कभी सिमट नहीं पाते और दिल की कसक दिल में ही रह जाती है. कुछ ऐसा ही रिश्ता था उस आवाज के मालिक यानी नवनीत से सीमा का.

सीमा बहुत उत्सुक थी उसे एक नजर देखने को, 10 साल बीत चुके थे. वह सीट से उठी और दरवाजे की तरफ देखने लगी, जिधर से आवाज आ रही थी. सामने एक शख्स अपने बीवीबच्चों के साथ अपनी सीट की तरफ बढ़ता नजर आया.

सीमा गौर से उसे देखने लगी. केवल आंखें ही थीं जिन में 10 साल पहले वाले नवनीत की झलक नजर आ रही थी. अपनी उम्र से वह बहुत अधिक परिपक्व नजर आ रहा था. माथे पर दूर तक बाल गायब थे. आंखों में पहले वाली नादान शरारतों की जगह चालाकी और घमंड था. शरीर पर चरबी की मोटी परत, निकली हुई तोंद. लगा ही नहीं कि कालेज के दिनों का वही हैंडसम और स्मार्ट नवनीत सामने खड़ा है.

नवनीत ने भी शायद सीमा को पहचाना नहीं था. वह सीमा को देख तो रहा था, मगर पहचानी नजरों से नहीं, अपितु एक खूबसूरत लड़की को देख कर जैसे कुछ पुरुषों की नजरें कामुक हो उठती हैं वैसे और यह सीमा को कतई बरदाश्त नहीं था. वह चुपचाप आ कर सीट पर बैठ गई और पुरानी बातें सोचने लगी…

कालेज का वह समय जब दोनों एकसाथ पढ़ते थे. वैसे उन दिनों सीमा बहुत ही साधारण सी दिखती थी, पर नवनीत में ऐसी कई बातें थीं, जो उसे आकर्षित करतीं. कभी किसी लड़के से बात न करने वाली सीमा अकसर नवनीत से बातें करने के बहाने ढूंढ़ती.

पर अब वक्त बदल गया था. अच्छी सरकारी नौकरी और सुकून की जिंदगी ने सीमा के चेहरे पर आत्मविश्वास भरी रौनक ला दी थी. फिजिकली भी उस ने खुद को पूरी तरह मैंटेन कर रखा था. जो भी पहनती उस पर वह खूब जंचता.

सीमा चुपचाप पत्रिका के पन्ने पलटने लगी. ऐसा नहीं है कि इस गुजरे वक्त में सीमा ने कभी नवनीत के बारे में सोचा नहीं था. 1-2 दफा फेसबुक पर उस की तलाश की थी और उस की गुजर रही जिंदगी को फेसबुक पर देखा भी था. उस का नया फोन नंबर भी नोट कर लिया था पर कभी फ्रैंड रिक्वैस्ट नहीं भेजी और न ही फोन किया.

आज सीमा फ्री बैठी थी तो सोचा क्यों न उस से चैटिंग ही कर ली जाए. कम से कम पता तो चले कि वह शख्स नवनीत ही है या कोई और. उसे कुछ याद है भी या नहीं. अत: उस ने व्हाट्सऐप पर नवनीत को ‘‘हाय,’’ लिख कर भेज दिया. तुरंत जवाब आया, ‘‘कैसी हो? कहां हो तुम?’’

वह चौंकी. एक पल भी नहीं लगा था उसे सीमा को पहचानने में. प्रोफाइल पिक सीमा ने ऐसी लगाई थी जिसे ऐडिट कर कलरफुल बनाया गया था और फेस क्लीयर नहीं था. शायद मैसेज के साथ जाने वाले नाम ने तुरंत नवनीत को उस की याद दिला दी थी.

सीमा ने मैसेज का जवाब दिया, ‘‘पहचान लिया मुझे? याद हूं मैं ?’’

‘‘100 प्रतिशत याद हो और सब कुछ…’’

‘‘सब कुछ क्या?’’ सीमा चौंकी.

‘‘वही जो तुम ने और मैं ने सोचा था.’’

सीमा सोच में पड़ गई.

नवनीत ने फिर सवाल किया, ‘‘आजकल कहां हो और क्या कर रही हो?’’

‘‘दिल्ली में हूं. जौब कर रही हूं,’’ सीमा ने जवाब दिया.

‘‘गुड,’’ उस ने स्माइली भेजी.

‘‘तुम बताओ, घर में सब कैसे हैं? 2 बेटे हैं न तुम्हारे?’’ सीमा ने पूछा.

‘‘हां, पर तुम्हें कैसे पता?’’ नवनीत ने चौंकते हुए पूछा.

‘‘बस पता रखने की इच्छा होनी चाहिए,’’ सीमा ने नवनीत के जज्बातों को टटोलते हुए जवाब दिया.

वह तुरंत पूछ बैठा, ‘‘तुम ने शादी की?’’

‘‘नहीं, अभी तक नहीं की. काम में ही व्यस्त रहती हूं.’’

‘‘मैं तो सोच रहा था कि पता नहीं कभी तुम से कौंटैक्ट होगा भी या नहीं, पर तुम आज भी मेरे लिए फ्री हो.’’

नवनीत की फीलिंग्स बाहर आने लगी थीं. पर सीमा को उस के बोलने का तरीका अच्छा नहीं लगा.

‘‘गलत सोच रहे हो. मैं किसी के लिए फ्री नहीं होती. बस तुम्हारी बात अलग है, इसलिए बात कर ली,’’ सीमा ने मैसेज किया.

‘‘मैं भी वही कह रहा था.’’

‘‘वही क्या?’’

‘‘यही कि तुम्हारे दिल में मैं ही हूं. सालों पहले जो बात थी वही आज भी है, नवनीत ने मैसेज भेजा.

जब सीमा ने काफी देर तक कोई मैसेज नहीं किया तो नवनीत ने फिर से मैसेज किया, ‘‘आज तुम से बातें कर के बहुत अच्छा लगा. हमेशा चैटिंग करती रहना.’’

‘‘ओके श्योर.’’

अजीब सी हलचल हुई थी सीमा के दिलोदिमाग में. अच्छा भी लगा और थोड़ा आश्चर्य भी हुआ. वह समझ नहीं पा रही थी कि कैसे रिऐक्ट करे. उस ने मैसेज किया, ‘‘वैसे तुम हो कहां फिलहाल?’’

‘‘फिलहाल मैं ट्रेन में हूं और बनारस जा रहा हूं.’’

‘‘विद फैमिली?’’

‘‘हां.’’

‘‘ओके ऐंजौय,’’ कह सीमा ने फोन बंद कर दिया. यह तो पक्का हो गया था कि वह नवनीत ही था. वह सोचने लगी कि जिंदगी भी कैसेकैसे रुख बदलती है. फिर बहुत देर तक वह पुरानी बातें याद करती रही.

घर आ कर सीमा काम में व्यस्त हो गई. सफर और नवनीत की बातें भूल सी गई. मगर अगले दिन सुबहसुबह नवनीत का गुड मौर्निंग मैसेज आ गया. सीमा जवाब दे कर औफिस चली गई.

शाम को औफिस से घर आ कर टीवी देख रही थी, तो फिर नवनीत का मैसेज आया, ‘‘क्या कर रही हो?’’

‘‘टीवी देख रही हूं और आप?’’ सीमा ने सवाल किया.

‘‘आप का इंतजार कर रहा हूं.’’

मैसेज पढ़ कर सीमा मुसकरा दी और सोचने लगी कि इसे क्या हो गया है. फिर मुसकराते हुए उस ने मैसेज किया, ‘‘मगर कहां?’’

‘‘वहीं जहां तुम हो.’’

‘‘यह तुम ही हो या कोई और? अपना फोटो भेजो ताकि मुझे यकीन हो.’’

‘‘मैं कल भेजूंगा. तब तक तुम अपना फोटो भेजो, प्लीज.’’

सीमा ने एक फोटो भेज दिया.

तुरंत कमैंट आया, ‘‘मस्त लग रही हो.’’

‘‘मस्त नहीं, स्मार्ट लग रही हूं,’’ सीमा ने नवनीत के शब्दों को सुधारा.

नवनीत चुप रहा. इस के बाद 2 दिनों तक उस का मैसेज नहीं आया. तीसरे

दिन फिर से गुड मौर्निंग मैसेज देख कर सीमा ने पूछा, ‘‘और बताओ कैसे हो?’’

‘‘वैसा ही जैसा तुम ने छोड़ा था.’’

‘‘मुझे नहीं लगता… तुम्हारी जिंदगी में तो काफी बदलाव आए हैं. तुम पति परमेश्वर बने और पापा भी, सीमा ने कहा.’’

इस पर नवनीत ने बड़े ही बेपरवाह लहजे में कहा, ‘‘अरे यार, वह सब छोड़ो. तुम बताओ क्या बनाओगी मुझे?’’

‘‘दोस्त बनाऊंगी और क्या?’’ सीमा ने टका सा जवाब दिया.

‘‘वह तो हम हैं ही,’’ कह कर उस ने ‘दिल’ का निशान भेजा.

‘‘अच्छा, अब कुछ काम है. चलती हूं. बाय,’’ कह कर सीमा व्हाट्सऐप बंद करने ही लगी कि फिर नवनीत का मैसेज आया, ‘‘अरे सुनो? मैं कुछ दिनों में दिल्ली आऊंगा.’’

‘‘ओके, आओ तो बताना.’’

‘‘क्या खिलाओगी? कहांकहां घुमाओगी?’’

‘‘जो तुम्हें पसंद हो.’’

‘‘पसंद तो तुम हो.’’

उस के बोलने की टोन से एक बार फिर सीमा चकित रह गई. फिर बोली, ‘‘क्या सचमुच? मगर पहले कभी तो तुम ने कहा नहीं.’’

‘‘क्योंकि तुम औलरैडी समझ गई थीं.’’

‘‘हां वह तो 100% सच है. मैं समझ गई थी.’’

‘‘मगर तुम ने क्यों नहीं कहा?’’ नवनीत ने उलटा सवाल दागा, तो सीमा ने उसी टोन में जवाब दिया, ‘‘क्योंकि तुम भी समझ गए थे.’’

‘‘अब तुम कैसे रहती हो?’’

‘‘कैसे मतलब?’’ सीमा ने पूछा.

‘‘मतलब ठंड में,’’ नवनीत का जवाब था.

‘‘क्यों वहां ठंड नहीं पड़ती क्या?’’ नवनीत का यह सवाल सीमा को अजीब लगा था.

नवनीत ने फिर लिखा, ‘‘मेरे पास तो ठंड दूर करने का उपाय है. पर तुम्हारी ठंड कैसे दूर होती होगी?’’

‘‘कैसी बातें करने लगे हो?’’ सीमा ने झिड़का.

मगर नवनीत का टोन नहीं बदला. उसी अंदाज में बोला, ‘‘ये बातें पहले कर लेते तो आज का दिन कुछ और होता.’’

‘‘वह तो ठीक है, पर अब यह मत भूलो कि तुम्हारी एक बीवी भी है.’’

‘‘वह अपनी जगह है, तुम अपनी जगह. तुम जब चाहो मैं तुम्हारे पास आ सकता हूं,’’ नवनीत ने सीधा जवाब दिया.

सीमा को नवनीत का शादीशुदा होने के बावजूद इस तरह खुला निमंत्रण देना पसंद नहीं आया था. पहले नवनीत से इस तरह की बातें कभी नहीं हुई थीं, मगर उस के लिए मन में फीलिंग्स थीं जरूर. अब बात तो हो गई थी, मगर फीलिंग्स खत्म हो चुकी थीं. उस के मन में नवनीत के लिए एक अजीब सी उदासीनता आ गई थी.

2 घंटे भी नहीं बीते थे कि नवनीत ने फिर मैसेज किया, ‘‘कैसी हो?’’

‘‘अरे क्या हो गया है तुम्हें? ठीक हूं,’’ सीमा ने लिखा.

‘‘रातें कैसे बिताती हो? नवनीत ने अगला सवाल दागा.’’

सीमा के लिए यह अजीब सवाल था. सीमा ने उस से इस तरह की बातचीत की अपेक्षा नहीं की थी. अत: सीधा सा जवाब दिया, ‘‘सो कर.’’

‘‘नींद आती है?’’

यह सवाल सीमा को और भी बेचैन कर गया. पर लिखा, ‘‘हां पूरी नींद आती है.’’

‘‘और जब…’’

नवनीत ने कुछ ऐसा अश्लील सा सवाल किया था कि वह बिफर पड़ी, ‘‘आई डौंट लाइक दिस टाइप औफ गौसिप.’’

मैं सोच रहा था कि अपने दोस्त से बातें हो रही हैं. मगर सौरी, तुम तो दार्शनिक निकलीं.

नवनीत ने सीमा का मजाक उड़ाया तो सीमा ने कड़े शब्दों में जवाब दिया, ‘‘मैं ने चैटिंग करने से मना नहीं किया, मगर एक सीमा में रह कर ही बातें की जा सकती हैं.’’

‘‘दोस्ती में कोई सीमा नहीं होती.’’

‘‘पर मैं कभी ऐसी दोस्ती के लिए रजामंदी नहीं दूंगी, जिस में कोई सीमा न हो,’’ सीमा ने फिर से दृढ़ स्वर में कहा.

‘‘यह मत भूलो कि तुम भी मुझे पसंद किया करती थीं सीमा.’’

‘‘पसंद करना अलग बात है, पर उसे अपनी जिंदगी की गलती बना लेना अलग. शायद मैं यह कतई नहीं चाहूंगी कि ऐसा कुछ भी हो. इस तरह की बातें करनी हैं तो प्लीज अब कभी मैसेज मत करना मुझे,’’ मैसेज भेज सीमा ने फोन बंद कर दिया.

अब सीमा का मन काफी हलका हो गया था. नवनीत से सदा के लिए दूरी बना कर उसे तनिक भी अफसोस नहीं हो रहा था. नवनीत, जिसे कभी उस ने मन ही मन चाहा था और पाने की ख्वाहिश भी की थी, अब वह बदल चुका या फिर उस की असली सूरत सीमा को रास नहीं आई.

परदे: क्या स्नेहा के सामने आया मनोज ?

स्नेहा से चैटिंग का सिलसिला एक बार शुरू हुआ तो फिर चलता ही गया. अजीब सा नशा आ गया था इस बातचीत में. मैं स्नेहा के बारे में दिन पर दिन उत्सुक होता जा रहा था. उस की एक झलक देखने की कशिश ने मुझे उस के सामने खड़ा कर दिया, पर चाह कर भी क्यों मैं उस के सामने न आ सका?

मेरा बॉयफ्रेंड शादी नहीं करना चाहता है, मैं क्या करूं?

सवाल

मैं 26 वर्षीय अविवाहित, सरकारी कार्यरत युवती हूं. पिता की मृत्यु हो चुकी है. मु झ से छोटी 2 बहनें और हैं. मां ने जैसेतैसे हमें पढ़ायालिखाया. एक बहन पार्लर में काम कर रही है. उस से छोटी प्राइवेट कंपनी में रिसैप्शनिस्ट का काम कर रही है. मैं 45 वर्षीय आदमी से प्यार करती हूं और उस से शादी करना चाहती हूं. लेकिन वह शादी करने से मना करता है. मैं उसे छोड़ भी नहीं सकती क्योंकि फाइनैंशियली वह मेरे परिवार की मदद करता है. मु झ पर बहनों की शादी की भी जिम्मेदारी है. उस आदमी को छोड़ती हूं तो आर्थिक मदद बंद हो जाएगी. कुछ सम झ नहीं आ रहा, क्या करूं?

जवाब

पिता न होने के कारण बड़ी होने के नाते छोटी बहनों की जिम्मेदारी भी आप पर है. दोनों बहनें अब थोड़ाबहुत कमाने लगीं हैं. उन के लिए लड़का खोजना शुरू कर दें. काम आसान नहीं है लेकिन कोशिश करने में क्या हर्ज है. शादी सादी या कोर्ट मैरिज ही करें. लड़के ऐसे ही ढूंढ़ें जिन्हें आप के घर की माली हालत अच्छी तरह पता हो, जिन्हें दानदहेज का लालच न हो. ऐसा घरबार मिल जाए तो अच्छा है. आप को अपने बारे में भी सोचना पड़ेगा क्योंकि शादी की उम्र तो आप की भी हो रही है.

वह आदमी आप से शादी नहीं करना चाहता, आप की मजबूरी सम झता है और उसे लगता है कि आर्थिक मजबूरी आप को उस के साथ बंधे रहने को मजबूर करती है तो आप उस की यह गलतफहमी दूर कर दें. उस आदमी से रिश्ता तोड़ दें. बेमेल प्यार की उम्र वैसे भी ज्यादा नहीं होती. अपने लिए दूसरा कोई लड़का ढूंढें़. लड़के को बता दें कि छोटी बहनों के प्रति जिम्मेदारी भी आप की है.

जहां चाह होती है वहां राह निकल ही जाती है. आप के सामने 2 विकल्प हैं. सोचसम झ कर सम झदारी से मिलजुल कर आगे की जिंदगी के बारे में सोचिए. बहनें अपने को और भी ज्यादा स्वावलंबी बनाना चाहती हैं तो उन्हें उत्साहित करें. विवाह भी हर समस्या का हल नहीं. यदि जीवन में नई राह की ओर चलते हैं तो कई रास्ते मिलते हैं. इसलिए अपने बूते पर कुछ करने का दम रखें.

अगर आप भी इस समस्या पर अपने सुझाव देना चाहते हैं, तो नीचे दिए गए कमेंट बॉक्स में जाकर कमेंट करें और अपनी राय हमारे पाठकों तक पहुंचाएं.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

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उम्र लंबी, साथ पुराना, फिर भी दिल न लगे तो क्या करें

वैश्विक स्तर पर, 2000 और 2019 के बीच जीवन प्रत्याशा यानी लाइफ एक्सपेक्टेंसी में 6 साल से अधिक की वृद्धि हुई है. 2000 में 66.8 वर्ष से 2019 में 73.4 वर्ष हो गई है. 1970-75 में भारत में लोगों की औसत आयु 49.7 साल थी. अगले 45 साल के दौरान इस में करीब 20 साल का इजाफा हुआ. वर्ल्ड हैल्थ और्गेनाइजेशन द्वारा की गई एक स्टडी के मुताबिक अनुमान है कि वर्ष 2030 तक बहुत से देशों में औसत आयु 90 साल हो जाएगी.

जाहिर है हमारी उम्र तो लंबी हो रही है मगर परिवार छोटे हो रहे हैं. पहले संयुक्त परिवार हुआ करते थे तो पूरे दिन इंसान बिजी रहता था. भले ही यह व्यस्तता घर वालों से लड़नेझगड़ने या बुराईभलाई करते रहने की वजह से होती थी या फिर बच्चों के कोलाहल और शरारतों की वजह से. लेकिन यह सच है कि बुजुर्गों के आसपास बहुत से लोग बने रहते थे. मगर अब एकल परिवार में पतिपत्नी और बच्चे होते हैं. बच्चे भी एक या दो से ज्यादा नहीं होते और 18 – 20 की उम्र होतेहोते उन की दुनिया अलग हो जाती है.

ज्यादातर घरों में बच्चे नौकरी या शादी के बाद वैसे भी अलग दूसरे शहर या विदेश में रहने लगते हैं. पतिपत्नी 50 की उम्र के बाद घर में नितांत अकेले रह जाते हैं. सामान्य रूप से उन के पास दिनभर एकदूसरे की शक्ल देखने, एकदूसरे से बातें करने के अलावा कोई और औप्शन नहीं होता.

कभी कोई रिश्तेदार भूलेबिसरे आ जाए तो उस से बातें हो जाती हैं. वह भी आजकल एकदो घंटे से ज्यादा रिश्तेदारों के पास बैठने का समय कहां होता है. घर में टीवी है तो उसे चला कर बोरियत कुछ देर के लिए दूर करने की कोशिश की जाती है मगर टीवी भी कोई भला कितनी देर देख सकता है. बुजुर्ग पतिपत्नी के बीच कुछ नया शेयर करने की बातें भी नहीं होतीं. वही पुरानी बातें रह जाती हैं जिन्हें आखिर कितनी दफा सुना जाए. कुछ नया करने का भी मिजाज नहीं होता. आखिर पतिपत्नी पहले ही सब कर चुके होते हैं. उन दोनों के पास एकदूसरे के लिए कुछ नया देने या करने को नहीं होता.

अब जरा विचार कीजिए, इसी तरह की बोरियतभरी जिंदगी उन्हें और 30 साल एकदूसरे के साथ गुजारनी है तो यह कितना बड़ा टौर्चर है.
वही पुरानी शक्ल देखना जो अब बुढ़ापे में खास आकर्षक भी नहीं रह जाती. वही एकदूसरे की छोटीबड़ी शारीरिक तकलीफों में राहत पहुंचाने की कोशिशें और वही एकदूसरे की खामियों व बुरी आदतों को नजरअंदाज करते हुए समय काटने की मजबूरी. बुढ़ापे में पतिपत्नी आपस में ज्यादा लड़ते भी नहीं क्योंकि उन्हें पता होता है कि लाख समझा लो, मियां तो ऐसे ही रहेंगे.

अब जरा विचार करें कि उन के पास औप्शन क्या बच जाता है? अगर वे किसी और के साथ आंखें चार करने की सोचें तो जमाने की नजरें उन पर उठ जाएंगी. वे किसी पड़ोसिन/पड़ोसी के साथ ज्यादा उठेंबैठें तो भी लोग बातें बनाने लगेंगे और उन्हें एक दायरे में रहने की सलाह देने लगेंगे. अपने किसी रिश्तेदार के साथ हंसीमजाक और शरारतें करना भी उन्हें भारी पड़ेगा क्योंकि समाज बुढ़ापे में संस्कारशील बनने की अपेक्षा रखता है और यह सब जमाने की नजरों में ओछापन कहलाएगा.

इस तरह की तथाकथित घटिया हरकतों का हवाला दे कर समाज उन से कटऔफ करने में ज्यादा समय नहीं लगाएगा. इस वजह से अपने समाज में सम्मान के साथ जीने के लिए ऐसी तमाम सोच पर लगाम रखना जरूरी हो जाता है.

तब ले-दे कर उन्हें औप्शन दिए जाएंगे कि धार्मिक कार्यों, भजनकीर्तनों में शामिल हों, सुबहशाम पार्क जाएं, दानदक्षिणा करें और परलोक सुधारें. बुढ़ापे में परलोक की बात होती है मगर लोग इस लोक की नहीं सोचते. आखिर जो जन्म मिला है और लंबी उम्र भी मिली है, उसे यों ही बोरियत में बिताना आसान है? उसी एक इंसान के साथ अगले 30 साल का साथ कितनी बड़ी नाइंसाफी है. वैसे, हमारे यहां तो यह साथ सात जन्मों का होता है, तो फिर क्या कोई और रास्ता नहीं?

सोचिए, पति व पत्नी को अलग होने का मौका मिल भी जाए तो वे जाएंगे कहां? बुजुर्ग पत्नी के पास अपने बूढ़े पति और उस के घर के अलावा कौन सा ठिकाना है? इस बुढ़ापे में वह और कहां जाने का सोच सकती है? बच्चों की दुनिया अलग हो चुकी होती है. उस में बुजुर्ग एडजस्ट नहीं कर सकते. बच्चे खुद उन को साथ रखना नहीं चाहते. आखिर उन्हें भी अपने बच्चों को अपने हिसाब से बड़ा करना है. पेरैंट्स की दखलंदाजी उन्हें पसंद नहीं आती.

एक रास्ता है तलाक ले कर दूसरी शादी करने का. मगर यहां भी तलाक की प्रक्रिया कोई आसान नहीं. सालों लग जाते हैं. कानून प्रक्रिया सरल की जाए और बुढ़ापे में लोग आपसी सहमति से सहजता से तलाक ले कर अलग हो सकें तो बात बन सकती है. मगर बच्चे कहीं न कहीं इस से अपसेट होंगे. वे नहीं चाहेंगे कि इस उम्र में आ कर उन के पेरैंट्स अलग हों या किसी और के साथ घर बसाएं. इस से वे खुद को मजाक का पात्र बनता हुआ महसूस करेंगे. तो फिर उपाय क्या है?

जीवनसाथी बदलना तो बुजुर्गों के लिए हमारे समाज में आसान नहीं है मगर वे अपनी जिंदगी की बोरियत कुछ उपायों द्वारा कम कर सकते हैं. मसलन, वे समाजसेवा के कामों में लग जाएं, कुछ क्रिएटिव काम जैसे लिखना, पेंटिंग करना, गाना, डांस आदि में इन्वौल्व हों, किताबें पढ़नी शुरू करें. जवानी की व्यस्त जिंदगी में किताबें और मैगजीन पढ़ने का समय नहीं मिलता. मगर जब अब आप के पास समय है तो तरहतरह की बुक्स पढ़ें और ज्ञान बढ़ाएं. अपडेट रहें तब आप के पास दूसरों से बातें करने के टौपिक्स रहेंगे.

हमउम्र महलाओं, पुरुषों से दोस्ती बढ़ाएं. एकदूसरे से मिलेंजुलें. कहीं साथ घूमने जाएं. इस से आप को उन लोगों के साथ समय बिताने, बातें करने और कुछ अच्छी यादें जमा करने का मौका मिलेगा. आप चाहें तो सोशल मीडिया पर भी ऐक्टिव हो सकते हैं. इस तरह नए दोस्त बना सकते हैं ताकि जीवनसाथी न बदल पाने का गम कुछ हलका हो जाए. कम से कम नए दोस्त तो मिल जाएंगे.

तेलंगाना में रेड्डीयों और वेलम्माओं के वर्चस्व की लड़ाई, कौन मारेगा जीत की बाजी

पृथक तेलंगाना का चुनावी इतिहास और आंकड़े बताते हैं कि यहां सीधा मुकाबला कांग्रेस और बीआरएस के बीच है. 2019 के लोकसभा चुनाव में जरूर भाजपा ने 17 में 4 सीटें जीत कर हर किसी को चौंका दिया था तब उसे 19.65 फीसदी वोट मिले थे. बीआरएस को 9 सीटें 34.54 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं. कांग्रेस का प्रदर्शन दयनीय था उसे 3 सीटें 29.79 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं.

एआईएमआईएम को एक सीट 2.80 फीसदी वोटों के साथ मिली थी. यह सीट हैदरावाद थी जिस पर 2004 से ही असद्दुदीन ओवेसी जीत दर्ज करते आ रहे हैं. इस के पहले मुसलिमबाहुल्य हैदराबाद सीट 1984 से उन के पिता सुल्तान सलाउद्दीन जीतते रहे थे.

इस से पहले 2018 के विधानसभा चुनाव में बीआरएस 119 में से (तब टीआरएस) को 88 सीटें 46.87 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं. कांग्रेस 19 सीटें 28.43 फीसदी वोटों के साथ ले गई थी. भाजपा को तब एक सीट 6.98 फीसदी वोटों के साथ मिलीं थीं. एआईएमआईएम को 7 सीटें 2.71 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं.

लेकिन 2023 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने वापसी करते बीआरएस को सत्ता से बेदखल कर दिया था. उस ने 64 सीटें 39.40 फीसदी वोटों के साथ हासिल की थी जबकि बीआरएस 39 सीटों पर सिमट कर रह गई थी. उसे 37.35 फीसदी वोट मिले थे. भाजपा ने 8 सीटें 13.90 फीसदी वोटों के साथ जीती थीं. एआईएमआईएम 7 सीटें 2.7 फीसदी वोटों के साथ ले गई थी. हमेशा की तरह भाजपा और एआईएमआईएम का प्रभाव क्षेत्र हैदराबाद के इर्दगिर्द ही रहा था जहां वोटों का ध्रुवीकरण हिंदूमुसलिम बिना पर होने लगा है.

केसीआर का ग्राफ बेवजह नहीं गिर रहा है जिस का जातियों और धर्म की राजनीति से गहरा ताल्लुक है. पिछले विधानसभा चुनाव में दलित, आदिवासी, मुसलिम और पिछड़े तबके के वोट भी कांग्रेस को बेवजह नहीं गए थे. अपने सियासी कैरियर की शुरुआत कांग्रेस से करने वाले केसीआर 1985 में टीडीपी से जुड़ गए थे.

2001 में उन्होंने तेलंगाना राष्ट्र समिति पार्टी बना ली थी जिस का इकलौता मकसद पृथक तेलंगाना की मांग था जिस के लिए उन्होंने लंबी लड़ाई भी लड़ी. इस का इनाम भी उन्हें 2 बार मुख्यमंत्री बना कर जनता ने दिया. पृथक तेलांगना आंदोलन में उन के साथ सभी वर्गों और समुदायों के लोग थे जो उन के मुख्यमंत्री बनने के बाद छंटते गए.
इस के जिम्मेदार भी केसीआर खुद थे जो तेलंगाना बनने के बाद कोई नए मकसद नहीं गढ़ पाए और धरमकरम की राजनीति में उलझ कर रह गए. वह भी कुछ इस तरह कि दलित, आदिवासी, मुसलमान और पिछड़े खुद को ठगा महसूस करने लगे जो राज्य की आबादी का 80 फीसदी हिस्सा होते हैं. तेलांगना आंदोलन में इन्हीं तबकों की भागीदारी अहम थी जिस के चलते केसीआर ने वादा किया था कि राज्य का पहला मुख्यमंत्री दलित समुदाय का ही बनाया जाएगा और हरेक दलित परिवार को खेती के लिए मुफ्त जमीन व एक परिवार से एक सदस्य को सरकारी नौकरी भी दी जाएगी. इन और ऐसे कई वादों के चलते दलितों ने उन्हें 2 मौके दिए लेकिन नाउम्मीदी हाथ लगी तो यह तबका कांग्रेस के साथ हो लिया.

इन तबकों का माथा उस वक्त ठनका जब केसीआर ने साल 2017 में बालाजी मंदिर में सरकारी खजाने से कोई साढ़े 5 करोड़ का सोना दान में दे दिया. यह सोना गहनों की शक्ल में था. ये गहने पंडेपुजारियों द्वारा किए गए पूजापाठ के साथ समारोहपूर्वक चढ़ाए गए थे. केसीआर का परिवार और भारीभरकम लावलश्कर 2 हवाई जहाजों से तिरुपति मंदिर पहुंचा था. इस के कुछ महीने पहले ही उन्होंने साढ़े 3 करोड़ रुपए की कीमत का मुकुट वारंगल के देवी भद्रकाली मंदिर को तोहफे में दिया था. बकौल केसीआर, उन्होंने मन्नत मांगी थी कि तेलंगाना बना तो वे इन मंदिरों में दानदक्षिणा देंगे.

जाहिर है, वे भाजपा की तर्ज पर चलने लगे थे और सार्वजनिक सभाओं में खुद को सच्चा हिंदू भी घोषित करने लगे थे जिस से इस शुष्क खेती वाले राज्य के लोगों को कोई सरोकार न तब था न आज है.

इस से पहले भी तेलंगाना के लोगों को उन की निष्ठा और नियत पर तब शक हुआ था जब उन्होंने हैदराबाद के बीचोंबीच बेगमपेट इलाके में भव्य 50 करोड़ रुपए की लागत से सीएम हाउस बनवाया था. बुलेट प्रूफ इस आवास के होम थिएटर में ही 250 लोगों के बैठने की व्यवस्था की गई थी. अपना अतीत और इरादे भूल चुके केसीआर जब सामंतों और राजाओं की तरह महल में शाही ठाटबाट से मंदिरों में सोना दान करने लगे तो हिंदुत्व की उग्र और कट्टर राजनीति से डरा मुसलिम समुदाय भी उन से कट गया. उस के लिए भी इकलौता मुफीद और महफूज ठिकाना कांग्रेस ही बचा था. हालांकि हैदराबाद के मुसलमान ओवैसी पर भरोसा जताते रहे. लेकिन बाकी जगहों पर उन्होंने कांग्रेस पर भरोसा जताया.

तेलंगाना के 13 फीसदी मुसलमान 45 विधानसभा सीटों पर निर्णायक भूमिका निभाते हैं. लेकिन उस ने बाकी इलाकों में बीआरएस और एआईएमआईएम गठबंधन को नकारना शुरू कर दिया है तो चिंता अब ओवैसी को करना चाहिए कि जरूरी नहीं कि हैदराबाद के मुसलमान भी उन्हें वोट करते रहेंगे जिन के दिलोदिमाग में यह बात घर कर गई है कि बीएसआर भाजपा के इशारे पर नाचते उस के हिंदूवादी एजेंडे पर चलने लगे हैं. उस के संगठन पर भी वेलम्माओं का कब्जा कुछ इस तरह है कि वह वेलम्मा राष्ट्रीय समिति ज्यादा लगती है.

ठीक यही डर 18 फीसदी दलितों और 12 फीसदी आबादी वाले आदिवासियों सहित 50 फीसदी पिछड़ों के मन में भी बैठ गया है जिन्होंने 2 बार बीआरएस को वोट दे कर केसीआर को मुख्यमंत्री बनाया. लेकिन वे हिंदुत्व और पंडेपुजारियों के जाल में ऐसे उलझे कि उस से निकल ही नहीं पा रहे.

दरअसल एनटीआर के चेले रहे केसीआर यह मान बैठे थे कि ये वर्ग तो उन का साथ देते ही रहेंगे और इन्हीं के कंधों पर चढ़ कर दिल्ली भी सब से बड़ी कुरसी तक पहुंचा जा सकता है. पिछले विधानसभा चुनाव में उन की यह गलतफहमी किस हद तक दूर हुई, यह तो उन का व्यंकटेश जाने लेकिन यह प्रचार भी तेजी से तेलंगाना के चौपालों पर होने लगा है कि केसीआर रसूख वाली वेलम्मा जाति के हैं जिन का बड़ा मकसद 5 फीसदी वेलम्माओं की तरह ही रसूख वाली जाति रेड्डी की राजनीति खत्म करना है. यही सपना कभी एनटीआर ने भी देखा और दिखाया था.

लेकिन आंध्रप्रदेश और तेलंगाना में रेड्डी रहित राजनीति की कल्पना करना ठीक वैसी ही बात है जैसी उत्तरप्रदेश और बिहार में बगैर यादवों के राजनीति की बात सोचना जो सत्ता में रहें न रहें समाज और राजनीति की धुरी बने ही रहते हैं. और जब इन्हें मुसलमानों व दलितों का साथ मिल जाता है तो ये सत्ता झटक ले जाते हैं.

कांग्रेस ने तेलंगाना में रेवंत रेड्डी को मुख्यमंत्री तो बनाया लेकिन अपने तजरबों से सबक लेते सभी तबकों का ध्यान वह रख रही है और इसी दम पर इस लोकसभा चुनाव में ताल ठोक रही है कि इस बार बीआरएस का बचाखुचा वोट भी समेट ले जाएगी. भाजपा ने यहां दलित समुदाय पर डोरे डालने की कम कोशिशें नहीं कीं लेकिन दलितों ने उस पर भरोसा नहीं किया. नतीजतन, वह 3 फीसदी ब्राह्मण सहित दूसरे सवर्णों के सहारे चुनाव लड़ रही है.

केसीआर को अब एहसास हो रहा है कि अगर इस बार पिछला सा प्रदर्शन नहीं दोहरा पाए तो फिर मौका मिलना मुश्किल हो जाएगा, इसलिए उन्होंने पूरी ताकत झोंक रखी है. भाजपा भले ही अब की बार 400 पार का नारा तेलांगना में लगाते 10 सीटों का टारगेट ले कर चल रही हो पर मालूम उसे भी है कि यहां भी उस का धर्म और हिंदुत्व का एजेंडा नहीं चलने वाला. इसलिए उस का फोकस पिछली जीती सीटों पर है. दूसरे, उस के पास असरदार प्रादेशिक नेतृत्व का भी अभाव है. कभी वेकैंया नायडू और बंगारू लक्ष्मण जैसे कद्दावर राष्ट्रीय नेता उस की ताकत हुआ करते थे. रेवंत रेड्डी के साथसाथ तेलंगाना में कांग्रेस को बड़ा फायदा राहुल गांधी की लोकप्रियता का यहां से मिलना तय है जिन की भारत जोड़ो यात्रा ने विधानसभा की जीत में अहम रोल निभाया था.

मंदिर में आग: जिम्मेदार भगवान नहीं तो फिर कौन ?

धार्मिक नगर उज्जैन के मशहूर महाकाल मंदिर के गर्भगृह में ऐन होली के दिन सुबहसुबह आग लगने से 14 पंडे पुजारी झुलस गए थे. हादसा मंदिरों में आएदिन होने वाले हादसों के मुकाबले बहुत ज्यादा गंभीर व नुकसानदेह नहीं था लेकिन राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री द्वारा सोशल मीडिया पर चिंता जताए जाने के बाद जरूरत से ज्यादा गंभीर हो गया.

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव की यह बहैसियत मुख्यमंत्री पहली होली थी जिसे वे भोपाल में मना भी रहे थे लेकिन जैसे ही महाकाल मंदिर के इस तथाकथित भीषण अग्निकांड की खबर उन्हें लगी तो वे तुरंत उज्जैन के मंदिर पहुंच गए. हालांकि प्रशासन उन्हें पहले ही सूचित कर चुका था कि कोई हताहत नहीं हुआ और न ही इस में आतंकियों या विधर्मियों या शरारती तत्त्वों का हाथ है तो उन्होंने बेफिक्री की लंबी सांस ली होगी लेकिन मामला चूंकि उन के गृहनगर का भी था और प्रधानमंत्री ने उन्हें खासतौर से फोन भी किया था, इसलिए भी उन्हें फ़ौरन पहुंचना पड़ा.

मंदिर पहुंच कर उन्होंने पहले हादसे की जानकारी ली और फिर पूजापाठ करने के बाद उज्जैन के सरकारी अस्पताल जा पहुंचे जहां अग्निपीड़ितों का इलाज चल रहा था. शुरुआती जानकारी के मुताबिक कुल 14 लोग झुलसे थे जिन में 3 पुजारी व अन्य सेवादार थे. मूर्ति के श्रृंगार के बाद कपूर आरती के दौरान स्प्रे गुलाल उड़ाने से यह आग लगी और तेजी से फैली इसलिए कि चांदी की दीवार पर लगे कपड़ों ने आग पकड़ ली थी.

यह भूमिका या प्रस्तावना ही इस अग्निकांड का उपसंहार भी है. इस से ज्यादा जांच में कुछ सामने आएगा, ऐसा लगता नहीं. प्रधानमंत्री ने इसे दर्दनाक बताया तो युवा मुख्यमंत्री मोहन यादव ने बुजुर्गों के से अंदाज में लाख टके की बात यह कह दी कि भगवान की कृपा से कोई बड़ा हादसा नहीं हुआ. यानी, जो छोटा हादसा हुआ वह भी भगवान की ही मरजी थी. फिर जांच कमेटी की तुक क्या? धार्मिक लोग बड़े दिलचस्प होते हैं जो हर अच्छेबुरे का जिम्मेदार ऊपर वाले को ठहराते खुद को भूमिका और दोषमुक्त कर लेते हैं. इस फलसफे का कोई तोड़ आज तक कोई नहीं निकाल पाया है कि जो भी होता है ऊपर वाले की इच्छा से होता है.

लेकिन उज्जैन के इस अग्निकांड में जले सभी पंडेपुजारी यानी भगवान के सेवक ही थे, इसलिए यह हैरानी होना भी स्वाभाविक बात है कि अगर यह भगवान ने किया तो वह ही दोषी क्यों नहीं. परेश रावल अभिनीत फिल्म ‘ओ माई गौड’ का वह दृश्य भूलने की चीज नहीं है जिस में वह भरी अदालत में सभी धर्मों के ग्रंथों के हवाले से साबित कर देता है कि भूकंप से क्षतिग्रस्त हुई उस की दुकान का जिम्मेदार चूंकि ऊपर वाला ही है, इसलिए मुआवजा और हर्जाना भी वही दे. फिल्मी अदालत में इस मुकदमे का फैसला हो पाता, इस के पहले सैंसर की कैंची से बचने के लिए निर्देशक ने बड़ी खूबसूरती से कहानी का अंत कर दिया लेकिन एक तार्किक सवाल उठाने के श्रेय और साधुवाद से उन्हें वंचित करना उमेश शुक्ला के साथ ज्यादती ही होगी.

इधर, पुजारियों को कम से कम एक एक लाख रुपए मुआवजा देने की घोषणा करने के साथ मोहन यादव ने अपनी संवेदनशीलता जताने का मौका नहीं गंवाया. मुफ्त इलाज की घोषणा की तो बात ही क्या, जो उज्जैन के सरकारी अस्पताल में हुआ. फिर भगवान के सेवकों को इंदौर के ब्रैंडेड अरविंदो अस्पताल रैफर कर दिया गया. इस से साबित हो गया कि खुद मुख्यमंत्री के गृहनगर का सरकारी अस्पताल इतना घटिया है कि वहां 30-40 फीसदी जले लोगों का इलाज भी नहीं हो सकता. इस बाबत वहां की बर्न यूनिट के स्टाफ को सस्पैंड नहीं किया गया तो यह भी भगवान की ही मरजी रही होगी.

एक बात जो साबित नहीं हुई लेकिन पूरी शिद्दत से मौजूद है वह यह है कि न केवल उज्जैन बल्कि देशभर के सरकारी अस्पतालों में गंद रहती है. वे कपूर-चंदन की महक से नहीं, बल्कि दुनियाभर के अवशिष्ट पदार्थों की बदबू से पहचाने जाते हैं. इस से पुजारियों को घुटन हो सकती थी. इस के अलावा डर भगवान के इन सेवकों के धर्म के भृष्ट हो जाने का भी था क्योंकि सरकारी अस्पतालों में इलाज कराने जाने वाले अधिकतर मरीज छोटी जाति वाले होते हैं. इन्हें धर्मग्रंथ शूद्र और संविधान अनुसूचित जाति, जनजाति वाला और राजनेता व मीडियाकर्मी दलित, आदिवासी, पिछड़ा कहते हैं. संविधान की किसी एक अनुसूची में इन्हें बराबरी देने की बात कही गई है जिसे समाज को मानने को बाध्य नहीं किया जा सकता.

अरविंदो जैसे आलीशान, चमचमाते, वातानुकूलित, प्राइवेट लक्जरी अस्पताल की शान और बात ही कुछ और है जहां आधा मर्ज तो साफसुथरे, सुंदर, स्मार्ट स्टाफ और माहौल को देख कर ही छू हो जाता है. उलट इस के, सरकारी अस्पतालों का माहौल देख बीमारी और बढ़ जाती है और अच्छेखासे स्वस्थ आदमी को भी बीमार बना देने का माद्दा रखता है. अरविंदो जैसे अस्पतालों में शूद्र फटक भी नहीं सकते और जो फटक सकते हैं उन की जेब में लक्ष्मी होती है. जिस की अधिकता उन्हें शूद्र्पने यानी शूद्र होने के पौराणिक श्राप से मुक्त कर चुकी होती है.

तो मध्य प्रदेश सरकार ने पुजारियों का धर्म भृष्ट होने से बचा लिया. नहीं तो इलाज तो उन का उज्जैन के सरकारी अस्पताल में भी हो सकता था क्योंकि उज्जैन में जलने वाले सभी इंदौर के अरविंदो नहीं जाते. वे वहीँ ठीक हो जाते हैं. जांच बिंदुओं में इसे अगर शामिल किया जाता तब लगता कि सरकार ने निष्पक्षता और ईमानदारी बरती.

सवाल तो यह भी जवाब का मुहताज है कि अगर ये पंडेपुजारी घर में या किसी और जगह जले होते तो भी क्या उन्हें इतनी ही सुविधाओं के साथ अरविंदो भेजा जाता, तब भी क्या मंदिरप्रेमी प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री इतनी ही संवेदनशीलता और फुरती दिखाते? जवाब है- नहीं. असल में मामला उस चमत्कारी और भव्य मंदिर का है जिस पर सरकार करोड़ों रुपए फूंक चुकी है और अभी भी कोई कंजूसी नहीं कर रही और न आगे करेगी.

ऐसे में अगर कोई अनहोनी हो जाती जो, बकौल मोहन यादव, भगवान की कृपा से नहीं हुई तो जरूर भक्तों की आस्था दरकती. हालांकि, तार्किक और व्यावहारिक लोग अभी भी यह सवाल दागने से चूक नहीं रहे कि सर्वशक्तिमान ईश्वर ने अपने सेवकों और पुजारियों को जलने से बचाया क्यों नहीं. और यह आग अगर इन्ही लोगों की लापरवाही से लगी है तो क्या उन्हें दोषी मानते सजा दी जाएगी जैसा कि जांच के बिंदुओं में से एक में कहा गया है कि दोषियों को सजा दी जाएगी.

आग इसलिए लगती है, भगदड़ इसलिए मचती है कि मंदिरों में अब ज्यादा से ज्यादा चढ़ावे के चक्कर और लालच में तीजत्योहारों पर जरूरत से ज्यादा शोबाजी होने लगी है. पत्थर की मूर्तियों के लिए गरमी में एसी लगाए जाने लगे हैं. ठंड में मूर्तियों को स्वेटर पहनाए जाते हैं, अलाव जलाए जाते हैं और गरम हवा वाले हीटर भी लगाए जाने लगे हैं. मूर्तियों को सैकड़ों तरह के व्यंजनपकवान खिलाए जाने लगे हैं जबकि हकीकत में इन्हें खाते पंडेपुजारी हैं.

कुछ हिस्सा प्रसाद के नाम पर मौजूद भक्तों को दे दिया जाता है जिस से कोई हायतोबा न मचे. एसी और अलाव का सुख भी यही सेवक भोगते हैं. अब यह सब व्यावसायिक तौर पर होगा, तो फैक्टरियों और कारखानों की तरह हादसे भी स्वाभाविक रूप से होंगे, जिन के जिम्मेदार यही नीचे वाले होते हैं जो शाश्वत धूर्तता दिखाते सारी जिम्मेदारी ऊपर वाले के सिर मढ़ देते हैं (इन्हें ‘ओ माई गौड’ फिल्म में कांजी भाई के मुंह से ऊपरवाले का एजेंट और मैनेजर कहलवाया गया है). इन का मकसद दुकानदारी और ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाना होता है. मंदिरों में भीड़ ज्यादा आती है तो चढ़ावे की तादाद में भी इजाफा होता है जिस से दक्षिणापंथियों की बांछें खिली रहती हैं. इस बाबत वे मदिरों में दुनियाभर के ड्रामे करते हैं.

किसी फैकटरी, कारखाने या रेल में आग लगती है तो पहली गाज संबंधित जिम्मेदारों पर गिरती है और कई बार तो उन पर जुर्माना भी लगता है और कोर्ट से सजा भी होती है. लेकिन मंदिर इस के अपवाद हैं, क्यों हैं, यह सवाल उतना ही बेमानी है जितना यह कि भगवान कहीं है भी या नहीं. रही बात आलीशान अस्पतालों में महंगे से महंगा इलाज कराने यानी पैसे खर्च कर छुआछूत से बचने की, तो दुनियाभर के ब्रैंडेड धर्मगुरु आप को वहां स्वास्थ्यलाभ लेते मिल जाएंगे.

एक महीने पहले मशहूर वैष्णव संत स्वामी रामभद्राचार्य को इलाज के लिए देहरादून के सिनर्जी इंस्टिट्यूट औफ मैडिकल साइंसेज में भरती कराया गया था. उन की सांस कथा सुनातेसुनाते ही फूल गई थी. बीती 17 मार्च को ही आध्यात्मिक गुरु जग्गी वासुदेव अपनी ब्रेन सर्जरी के लिए दिल्ली के अपोलो अस्पताल में भरती हुए थे. उन्हें ब्रेन हेमरेज हुआ था. इन और ऐसे धर्मगुरुओं के उपदेश और प्रवचन इस नसीहत से भरे पड़े हैं कि सात्विक आहार लो, योग करो और जरूरत पड़े तो आयुर्वेदिक व चमत्कारिक प्राक्रतिक चिकित्सा अपनाओ.

यानी, एलोपैथी की तरफ मत जाओ क्योंकि वह विदेशी चिकित्सा पद्धति है जिस से ठीक होने के बजाय बीमारी और बढ़ती है. इस से भी बात न बने तो भजन, पूजन, कीर्तन, ध्यान वगैरह करो, ईश्वर सब ठीक करेगा. बस, यह कीमती मशवरा देने की फीस दानपेटी में डालते जाओ.

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