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मृदुभाषिणी : शुभा को मामी का चरित्र बौना क्यों लगने लगा

कई बार ऐसा भी होता है कि हम किसी को आदर्श मान कर, जानेअनजाने उसी को मानो घोल कर पी जाते हैं.

सुहागरात को दुलहन बनी शुभा से पति ने प्रथम शब्द यही कहे थे, ‘मेरी एक मामी हैं. वे बहुत अच्छी हैं. हमारे घर में सभी उन की प्रशंसा करते हैं. मैं चाहता हूं, भविष्य में तुम उन का स्थान लो. सब कहें कि बहू हो तो शुभा जैसी. मैं चाहता हूं जैसे वे सब को पसंद हैं, वैसे ही तुम भी सब की पसंद बन जाओ.’

पति ने अपनी धुन में बोलतेबोलते एक आदर्श उस के सामने प्रस्तुत कर दिया था. वास्तव में शुभा को भी पति

की मामी बहुत पसंद आई थीं, मृदुभाषिणी व धीरगंभीर. वे बहुत स्नेह से शुभा को खाना खिलाती रही थीं. उस का खयाल रखती रही थीं. नई वधू को क्याक्या चाहिए, सब उन के ध्यान में था. सत्य है, अच्छे लोग सदा अच्छे ही लगते हैं, उन्होंने सब का मन मोह रखा था.

वक्त बीतता गया और शुभा 2 बच्चों की मां बन गई. मामी से मुलाकात होती रहती थी, कभी शादीब्याह पर तो कभी मातम पर. शुभा की सास अकसर कहतीं, ‘‘देखा मेरी भाभी को, कभी ऊंची आवाज में बात नहीं करतीं.’’

शुभा अकसर सोचती, ‘2-3 वर्ष के अंतराल के उपरांत जब कोई मनुष्य किसी सगेसंबंधी से मिलता है, तब भला उसे ऊंचे स्वर में बात करने की जरूरत भी क्या होगी?’ कभीकभी वह इस प्रशंसा पर जरा सा चिढ़ भी जाती थी.

एक शाम बच्चों को पढ़ातेपढ़ाते उस ने जरा डांट दिया तो सास ने कहा, ‘‘कभी अपनी मामी को ऊंचे स्वर में बात करते सुना है?’’

‘‘अरे, बच्चों को पढ़ाऊंगी तो क्या चुप रह कर पढ़ाऊंगी? क्या सदा आप मामीमामी की रट लगाए रखती हैं. अपने घर में भी क्या वे ऊंची आवाज में बात नहीं करती होंगी?’’ बरसों की कड़वाहट सहसा निकली तो बस निकल ही गई, ‘‘अपने घर में भी मुझे कोई आजादी नहीं है. आप लोग क्या जानें कि अपने घर में वे क्याक्या करती होंगी. दूसरी जगह जा कर तो हर इंसान अनुशासित ही रहता है.’’

‘‘शुभा,’’ पति ने बुरी तरह डांट दिया.

वह प्रथम अवसर था जब उस की मामी के विषय में शुभा ने कुछ अनचाहा कह दिया था.

कुछ दिन सास का मुंह भी चढ़ा रहा था. उन के मायके की सदस्य का अपमान उन से सहा न गया. लेदे कर वही तो थीं, जिन से सासुमां की पटती थी.

धीरेधीरे समय बीता और मामाजी के दोनों बच्चों की शादियां हो गईं. शुभा उन के शहर न जा पाई क्योंकि उसे घर पर ही रहना था. सासुमां ने महंगे उपहार दे कर अपना दायित्व निभाया था.

ससुरजी की मृत्यु के बाद परिवार की पूरी जिम्मेदारी शुभा के कंधों पर आ गई थी. सीमित आय में हर किसी से निभाना अति विकट था, फिर भी जोड़जोड़ कर शुभा सब निभाने में जुटी रहती.

पति श्रीनगर गए तो उस के लिए महंगी शौल ले आए. इस पर शुभा बोली, ‘‘इतनी महंगी शौल की क्या जरूरत थी. अम्मा के लिए क्यों नहीं लाए?’’

‘‘अरे भई, इस पर किसी का नाम लिखा है क्या. दोनों मिलजुल कर इस्तेमाल कर लिया करना.’’

शुभा ने शौल सास को थमा दी.

कुछ दिनों बाद कहीं जाना पड़ा तो शुभा ने शौल मांगी तो पता चला कि अम्मा ने मामी को पार्सल करवा दी.

यह सुन शुभा अवाक रह गई, ‘‘इतनी महंगी शौल आप ने…’’

‘‘अरे, मेरे बेटे की कमाई की थी, तुझे क्यों पेट में दर्द हो रहा है?’’

‘‘अम्मा, ऐसी बात नहीं है. इतनी महंगी शौल आप ने बेवजह ही भेज दी. हजार रुपए कम तो नहीं होते. ये इतने चाव से लाए थे.’’

‘‘बसबस, मुझे हिसाबकिताब मत सुना. अरे, मैं ने अपने बेटे पर हजारों खर्च किए हैं. क्या मुझे इतना भी अधिकार नहीं, जो अपने किसी रिश्तेदार को कोई भेंट दे सकूं?’’

अम्मा ने बहू की नाराजगी जब बेटे के सामने प्रकट की, तब वह भी हैरान रह गया और बोला, ‘‘अम्मा, मैं पेट काटकाट कर इतनी महंगी शौल लाया था. पर तुम ने बिना वजह उठा कर मामी को भेज दी. कम से कम हम से पूछ तो लेतीं.’’

इस पर अम्मा ने इतना होहल्ला मचाया कि घर की दीवारें तक दहल गईं. शुभा और उस के पति मन मसोस कर रह गए.

‘‘पता नहीं अम्मा को क्या हो गया है, सदा ऐसी जलीकटी सुनाती रहती हैं. इतनी महंगाई में अपना खर्च चलाना मुश्किल है, उस पर घर लुटाने की तुक मेरे तो पल्ले नहीं पड़ती,’’ शौल का कांटा शुभा के पति के मन में गहरा उतर गया था.

कुछ समय बीता और एक शाम मामा की मृत्यु का समाचार मिला. रोतीपीटती अम्मा को साथ ले कर शुभा और उस के पति ने गाड़ी पकड़ी. बच्चों को ननिहाल छोड़ना पड़ा था.

क्रियाकर्म के बाद रिश्तेदार विदा होने लगे. मामी चुप थीं, शांत और गंभीर. सदा की भांति रो भी रही थीं तो चुपचाप. शुभा को पति के शब्द याद आने लगे, ‘हमारी मामी जैसी बन कर दिखाना, वे बहुत अच्छी हैं.’

शुभा के पति और मामा का बेटा अजय अस्थियां विसर्जित कर के लौटे तो अम्मा फिर बिलखबिलख कर रोने लगीं, ‘‘कहां छोड़ आए रे, मेरे भाई को…’’

शुभा खामोशी से सबकुछ देखसुन रही थी. मामी का आदर्श परिवार पिछले 20 वर्षों से कांटे की शक्ल में उस के हलक में अटका था. उन के विषय में जानने की मन में गहरी जिज्ञासा थी. मामी की बहू मेहमाननवाजी में व्यस्त थी और बेटी उस का हाथ बंटाती नजर आ रही थी. एक नौकर भी उन की मदद कर रहा था.

बहू का सालभर का बच्चा बारबार रसोई में चला जाता, जिस के कारण उसे असुविधा हो रही थी. शुभा बच्चा लेना चाहती, मगर अपरिचित चेहरों में घिरा बच्चा चीखचीख कर रोने लगता.

‘‘बहू, तुम कुछ देर के लिए बच्चे को ले लो, नाश्ता मैं बना लेती हूं,’’ शुभा के अनुरोध पर बीना बच्चे को गोद में ले कर बैठ गई.

जब शुभा रसोई में जाने लगी तो बीना ने रोक लिया, ‘‘आप बैठिए, छोटू है न रसोई में.’’

मामी की बहू अत्यंत प्यारी सी, गुडि़या जैसी थी. वह धीरेधीरे बच्चे को सहला रही थी कि तभी कहीं से मामी का बेटा अजय चला आया और गुस्से में बोला, ‘‘तुम्हारे मांबाप कहां हैं? वे मुझ से मिले बिना वापस चल गए? उन्हें इतनी भी तहजीब नहीं है क्या?’’

‘‘आप हरिद्वार से 2 दिनों बाद लौटे हैं. वे भला आप से मिलने का इंतजार कैसेकर सकते थे.’’

‘‘उन्हें मुझ से मिल कर जाना चाहिए था.’’

‘‘वे 2 दिन और यहां कैसे रुक जाते? आप तो जानते हैं न, वे बेटी के घर का नहीं खाते. बात को खींचने की क्या जरूरत है. कोई शादी वाला घर तो था नहीं जो वे आप का इंतजार करते रहते.’’

‘‘बकवास बंद करो, अपने बाप की ज्यादा वकालत मत करो,’’ अजय तिलमिला गया.

‘‘तो आप क्यों उन्हें ले कर इतना हंगामा मचा रहे हैं? क्या आप को बात करने की तमीज नहीं है? क्या मेरा बाप आप का कुछ नहीं लगता?’’

‘‘चुप…’’

‘‘आप भी चुप रहिए और जाइए यहां से.’’

शुभा अवाक रह गई. उस के सामने

ही पतिपत्नी भिड़ गए थे. ज्यादा

दोषी उसे अजय ही नजर आ रहा था. खैर, अपमानित हो कर वह बाहर चला गया और बहू रोने लगी.

‘‘जब देखो, मेरे मांबाप को अपमानित करते रहते हैं. मेरे भाई की शादी में भी यही सब करते रहे, वहां से रूठ कर ही चले आए. एक ही भाई है मेरा, मुझे वहां भी खुशी की सांस नहीं लेने दी. सब के सामने ही बोलना शुरू कर देंगे. कोई इन्हें मना भी नहीं करता. कोई समझाता ही नहीं.’’

शुभा क्या कहती. फिर जरा सा मौका मिलते ही शुभा ने मामी की समझदार बेटी से कहा, ‘‘जया, जरा अपने भाई को समझाओ, क्यों बिना वजह सब के सामने पत्नी का और उस के मांबाप का अपमान कर रहा है. तुम उस की बड़ी बहन हो न, डांट कर भी समझा सकती हो. कोई भी लड़की अपने मांबाप का अपमान नहीं सह सकती.’’

‘‘उस के मांबाप को भी तो अपने दामाद से मिल कर जाना चाहिए था. बीना को भी समझ से काम लेना चाहिए. क्या उसे पति का खयाल नहीं रखना चाहिए. वह भी तो हमेशा अजय को जलीकटी सुनाती रहती है?’’

शुभा चुप रह गईर् और देखती रही कि बीना रोतेरोते हर काम कर रही है. किसी ने उस के पक्ष में दो शब्द भी नहीं कहे.

खाने के समय सारा परिवार इकट्ठा हुआ तो फिर अजय भड़क उठा, ‘‘अपने बाप को फोन कर के बता देना कि मैं उन लोगों से नाराज हूं. आइंदा कभी उन की सूरत नहीं देखूंगा.’’

तभी शुभा के पति ने उसे बुरी तरह डपट दिया, ‘‘तेरा दिमाग ठीक है कि नहीं? पत्नी से कैसा सुलूक करना चाहिए, यह क्या तुझे किसी ने नहीं सिखाया? मामी, क्या आप ने भी नहीं?’’

लेकिन मामी सदा की तरह चुप थीं.

शुभा के पति बोलते रहे, ‘‘हर इंसान की इज्जत उस के अपने हाथ में होती है. पत्नी का हर पल अपमान कर के, वह भी 10 लोगों के बीच में, भला तुम अपनी मर्दानगी का कौन सा प्रमाण देना चाहते हो? आज तुम उस का अपमान कर रहे हो, कल को वह भी करेगी, फिर कहां चेहरा छिपाओगे? अरे, इतनी संस्कारी मां का बेटा ऐसा बदतमीज.’’

वहां से लौटने के बाद भी शुभा मामी के अजीबोगरीब व्यवहार के बारे में ही सोचती रही कि अजय की गलती पर वे क्यों खामोश बैठी रहीं? गलत को गलत न कहना कहां तक उचित है?

एक दिन शुभा ने गंभीर स्वर में पति से कहा, ‘‘मैं आप की मामी जैसी नहीं बनना चाहती. जो औरत पुत्रमोह में फंसी, उसे सही रास्ता न दिखा सके, वह भला कैसी मृदुभाषिणी? क्या बहू के पक्ष में वे कुछ नहीं कह सकती थीं, ऐसी भी क्या खामोशी, जो गूंगेपन की सीमा तक पहुंच जाए.’’

यह सुन कर भी शुभा के पति और सास दोनों ही खामोश रहे. उन्हें इस समय शायद कोई जवाब सूझ ही नहीं रहा था.

Esha Deol संभालेंगी हेमा मालिनी की राजनीतिक विरासत

Esha Deol: हेमा मालिनी और धर्मेंद्र की बेटी ईशा देओल का 12 वर्ष के वैवाहिक जीवन के बाद अपने पति भरत तख्तानी से सौहार्दपूर्ण वातावरण में तलाक हो गया. कुछ दिन पहले ही ईशा देओल और भरत तख्तानी ने इस बात को सार्वजनिक किया. अब ईशा देओल अपनी मां हेमा मालिनी के साथ ही रह रही हैं. वह 2 बेटियों की मां भी हैं.

अब बौलीवुड में कयास लगाए जा रहे हैं कि पति भरत तख्तानी से तलाक लेने के बाद अब ईशा देओल क्या करेंगी? ईशा देओल के करीबी फिल्मकारों का मानना है कि अब ईशा देओल वेब सीरीज और फिल्मों में अभिनय करेंगी. सभी जानते हैं कि 2012 में उद्योगपति भरत तख्तानी से विवाह रचाने के बाद ईशा देओल ने अभिनय से दूरी बना ली थी. पर अचानक 2019 में वह निर्देशक राम कमल की लघु फिल्म में अभिनय करते हुए नजर आई थी. लेकिन 2021 में ईशा देओल ने अपनी फिल्म निर्माण कंपनी शुरू करते हुए राम कमल मुखर्जी के निर्देशन में लघु फिल्म ‘एक दुआ’ का निर्माण किया और इस में मुख्य किरदार भी निभाया.

इस फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला. 2022 में वह वेबसीरीज ‘रूद्रा : द एज औफ डार्कनेस’ में अजय देवगन के साथ अभिनय किया. 2023 में वह वेब सीरीज ‘हंटर’ में अभिनय करते हुए नजर आईं. 2023 में ही उन्होंने एक फिल्म ‘मैं’ की शूटिंग शुरू की. इस से इस बात ने जोर पकड़ा कि अब वह अभिनय में ही व्यस्त होना चाहेंगी.
लेकिन 2023 में लगाातर वह अपनी मां हेमा मालिनी के साथ जिस तरह से सामाजिक, धार्मिक व राजनैतिक कार्यक्रमों में नजर आती रही हैं, उस से कयास लगाए जा रहे हैं कि अब ईशा देओल मथुरा से अपनी मां हेमा मालिनी की राजनीतिक विरासत को संभालने वाली हैं.

ईशा देओल के राजनीति से जुड़ने के पीछे सशक्त वजहें नजर आ रही हैं. हेमा मालिनी दो बार से मथुरा की सांसद हैं. अब वह 75 वर्ष की उम्र को पार कर चुकी हैं. भाजपा के अपने संविधान के अनुसार 75 वर्ष की उम्र के बाद पार्टी अपने किसी भी काय्रकर्ता को चुनाव लड़ने के लिए टिकट नहीं देगी.

इस नियम के चलते इस बार लोकसभा चुनाव में हेमा मालनी का मथुरा से टिकट कट सकता है. इसी वजह से कंगना रानौट ने मथुरा से भाजपा की टिकट पर चुनाव लड़ने का ईशारा कर चुकी हैं. वैसे कुछ समय यह बात काफी गर्म थी कि हेमा मालिनी ने पार्टी नेतृत्व से कहा है कि अपवाद स्वरुप उन्हें मथुरा से तीसरी बार सांसद बनने का अवसर दिया जाए, जिस से वह मथुरा में शुरू किए गए, मगर अधूरे पड़े दक्षिणापंथी कार्यों को अपने तीसरे कार्यकाल में पूरा कर सकें.

लेकिन 2023 में जिस तरह से हेमा मालिनी अपने साथ ईशा देओल को ले कर चल रही थी, उस से हेमा मालिनी व ईशा देओल करीबी मानते हैं कि हेमा मालिनी ने समय को भांप कर अपनी बेटी ईशा देओल को अपने उत्तराधिकारी के रूप में पहले से ही तैयार करना शुरू कर दिया था. सभी जानते हैं कि 16 सितंबर 2023 में मुंबई के 5 सितारा होटल ‘जे डब्लू मेरिएट’ में अपने संसदीय क्षेत्र मथुरा पर आधारित किताब ‘चल मन वृंदावन’ का भव्य विमोचन कार्यक्रम रखा था.

यह किताब उन्हीं के प्रयासों का नतीजा है. इस अवसर पर केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर, शत्रुघ्न सिन्हा सहित बौलीवुड व राजनीति के क्षेत्र की हस्तियां मौजूद थीं. इस कार्यक्रम में हेमा मालिनी की बेटी ईशा देओल, केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर से ले कर सभी हस्तियों का मंच पर सम्मान करती नजर आई थी. इतना ही नहीं नवंबर माह के पहले सप्ताह में दुर्गा पूजा के अवसर पर भी हेमा मालिनी व ईशा देओल एक साथ नजर आए.

बौलीवुड में चर्चाएं गर्म है कि हेमा मालिनी अपनी राजनीतिक विरासत दो वजहों से ईशा देओल को सौंपना चाहती हैं. पहली वजह वह नहीं चाहती कि मथुरा की सीट पर कंगना रानौत आएं और उन के द्वारा शुरू किए गए कार्यक्रमों पर विराम लग जाए. दूसरी वजह यह है कि अब ईशा देओल का तलाक हो चुका है. तो वह ईशा देओल का जीवन सुरक्षित करना चाहती हैं.

हेमा मालिनी प्रयासरत हैं कि उन्हें तीसरी बार मथुरा से सांसद बनने का मौका भाजपा दे दे. वह ईशा देओल को मथुरा से टिकट दिलवाने का प्रयास कर सकती हैं. सभी जानते हैं कि भाजपा में सभी से हेमा मालिनी के संबंध मधुर हैं. इसलिए भी ईशा देओल के राजनीति में उतरने की खबरें काफी गर्म हैं.

मैडिकल कालेज में कैमरे करेंगे निरीक्षक का काम, जानिए क्या हैं इस के नुकसान

National Medical Council: एनएमसी यानि नेशनल मेडिकल काउसिंल ने नए मैडिकल कालेजों में पारदर्शिता के लिए वीडियो के जरीए मान्यता देने और बायोमेट्रिक उपस्थिति को लागू करने को कहा है. एनएमसी से मान्यता प्राप्त लेने वाले नए मेडिकल कालेजों को पीजी स्तर पर मूल्यांकन में नए नियमों का पालन करना होगा. एनएमसी ने पोस्ट ग्रेजुएट मैडिकल एजुकेशन बोर्ड (पीजीएमईआरबी) को मैडिकल कालेजों के निरीक्षण के लिए पीजी परीक्षा प्रक्रिया को कैमरे पर रिकौर्ड करने के लिए मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) शुरू करने का निर्देश दिया.

कालेजों के लिए यह आवश्यक कर दिया गया है कि वह कालेज में निगरानी के लिए कैमरे लगाए. परीक्षक की जगह पर वीडियो का प्रयोग ज्यादा हो. कालेज में किस तरह से वीडियो के जरीए काम हो रहे हैं उस को दिखाए. इस से कालेज खोलने का खर्च बढ़ गया है. परीक्षकों की जरूरत कम हो जाएगी. टैक्नलौजी का पैसा विदेशी कंपनियों और इंजीनियर्स के पास जाएगा. इस से देश का पैसा विदेश तो जाएगा ही बेरोजगारी भी बढ़ेगी.

मान्यता के लिए मान्य होंगे वीडियो

यदि कौलेज मान्यता के नवीनीकरण और मान्यता की निरंतरता के लिए आवेदन करने की योजना बना रहे हैं तो उन्हें आधार सक्षम बायोमेट्रिक उपस्थिति प्रणाली (एईबीएएस) स्थापित करना होगा. स्नातकोत्तर परीक्षा एसओपी के तहत मैडिकल कालेजों को परीक्षा प्रक्रिया की वीडियो रिकौर्डिंग करनी होगी और परीक्षकों, परीक्षा प्रक्रिया, परीक्षा के लिए रखे गए मामलों का विवरण, छात्रों की थीसिस आदि के बारे में सभी प्रासंगिक डेटा एकत्र करना होगा. अगर कालेज में पूरी तरह से वीडियो का प्रयोग नहीं होगा तो मान्यता नहीं मिलेगी.

एनएमसी नियम के मुताबिक नए मेडिकल कालेजों का 3 साल में निरीक्षण होना जरूरी है. बुनियादी ढांचे का निरीक्षण करने के अलावा निरीक्षक द्वारा परीक्षा प्रक्रिया का औडिट भी किया जाएगा. सभी मानदंडों को पूरा करने के बाद ही कालेजों को उन की एनएमसी मान्यता मिलेगी. कोविड महामारी के कारण भौतिक निरीक्षण संभव नहीं था. इसलिए इसे वर्चुअल मोड के माध्यम से किया जा रहा था. अब जब मेडिकल कालेजों की संख्या बढ़ रही है और कालेजों के औडिट की मांग बढ़ गई है तो एनएमसी ने कैमरा रिकौर्डिंग के उपयोग का निर्देश दिया है.

कैमरे से होगा निरीक्षण टीचर की जरूरत खत्म

अब परीक्षा की कार्यवाही का अवलोकन कर के और मैडिकल कालेज के बुनियादी ढांचे और अन्य सुविधाओं के निरीक्षण के लिए बाद की तारीख में संस्थान का दौरा कर के निरीक्षण किया जा सकता है. मैडिकल कालेजों में उपस्थिति के लिए बायोमेट्रिक मशीन से फैकल्टी की जवाबदेही बढ़ेगी. तर्क यह दिया जा रहा है कि पहले निरीक्षकों को आधार जैसे पहचान पत्रों के लिए लगातार पूछताछ करनी पड़ती थी. अब बायोमेट्रिक उपस्थिति एक निश्चित आईडी होगी और संकाय को हर बार निरीक्षकों के दौरे पर पहचान पत्र प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं होगी.

परीक्षा प्रक्रिया की वीडियो रिकौर्डिंग से साक्ष्य रिकौर्ड करने में मदद मिलेगी. बायोमेट्रिक उपस्थिति से निरीक्षण की आवश्यकता कम हो जाएगी. इस से व्यक्तिगत निरीक्षण की आवश्यकता भी कम हो जाएगी, जिस से समय की बचत होगी. देखा गया है कि कुछ निजी मेडिकल कालेज पूर्णकालिक संकाय को नियुक्त नहीं करते हैं या उन्हें केवल कुछ दिनों के लिए निरीक्षण के लिए रखते हैं. बायोमेट्रिक उपस्थिति से यह काम पूरी तरह से बंद हो जाएगा.

कई मैडिकल कालेजों ने पहले ही बायोमेट्रिक उपस्थिति स्थापित कर दी है. पीजी परीक्षाओं की वीडियो रिकौर्डिंग से छात्रों और कालेज प्रबंधन के बीच टकराव की संभावना भी खत्म हो जाएगी और निष्पक्ष परीक्षा सुनिश्चित होगी. इस तरह से अब परीक्षाओं से ले कर मान्यता तक में वीडियोग्राफी का सहारा लिया जाएगा. इस से हम इंसान से अधिक टैक्नोलौजी पर निर्भर होते जा रहे हैं. इस के अपने खतरे हैं. कई बार वीडियो में एडिट कर के कुछ का कुछ दिखाया जा सकता है. यह बेरोजगारी को बढ़ावा देने का काम करेगा.

टैक्नोलौजी से मिलने वाला पैसा विदेशों में बैठे इंजीनियर्स और बड़ी कंपनियों के पास चला जाता है. अगर लोगों को रोजगार मिलता तो देश में बेरोजगारी खत्म हो जाती. टैक्नोलौजी पर होने वाला खर्च बढ़ता जा रहा है. दूसरी तरफ बेरोजगारी बढ़ रही है. परीक्षक का काम अगर कैमरे करेंगे तो धीरेधीरे कालेज खोलने की जरूरत खत्म हो जाएगी. छात्र औनलाइन पढ़ाई करेगा. औनलाइन परीक्षा देगा. ऐसे में टीचर की जरूरत खत्म हो जाएगी. टैक्नोलौजी के प्रयोग से देश का पैसा विदेशों में बैठी कंपनियों और इंजीनियर्स को जाता है. देश का पैसा देश में रहे और यहां के लोगों को रोजगार मिले यह प्रयास होना चाहिए.

भाजपा की बेचैनी की वजह कहीं चक्रवर्ती मानसिकता तो नहीं?

मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेसी दिग्गज कमलनाथ के भी भाजपा में जाने न जाने के ड्रामे से अब परदा लगभग गिर गया है. कहा जा रहा है कि कमलनाथ खुद भाजपा में नहीं जाएंगे बल्कि अपने बेटे नकुलनाथ और बहू प्रियनाथ को सनातन धर्म की दीक्षा दिलाने मोदी-शाह की शरण में भेज देंगे. हालांकि कमलनाथ अब इस से भी इनकार कर रहे हैं लेकिन आयारामगयाराम जैसे ऐसे नाटक अब देश की राजनीति में रोज की बात हो चले हैं जिन में दिलचस्प बात यह है कि अधिकतर कांग्रेसी और दूसरे विपक्षी नेता भाजपा में ज्यादा जा रहे हैं, भाजपा छोड़ कर कोई कांग्रेस या दूसरी पार्टी में नहीं जा रहा.

एक और ताजा मामला चंडीगढ़ का है जहां आम आदमी पार्टी के 3 पार्षद भाजपा में चले गए. गौरतलब है कि चंडीगढ़ नगर निगम चुनाव में खुलेआम जम कर धांधली हुई थी. भाजपा से मेयर बने मनोज सोनकर ने भी इस्तीफा दे दिया है. धांधली को ले कर आप और कांग्रेस दोनों सुप्रीम कोर्ट गए थे जिस की सुनवाई अभी चल रही है.
इस के पहले हुई सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव अधिकारी अनिल मसीह को कड़ी फटकार लगाते उन पर मुकदमा चलाने की बात कही थी. हुआ इतना भर था कि अनिल मसीह ने आप और कांग्रेसी पार्षदों के बैलट पेपर पर स्याही चलाते उन्हें रद्द घोषित कर दिया था जिस से मनोज सोनकर मेयर बन गए थे. सुप्रीम कोर्ट ने इसे लोकतंत्र की हत्या भी करार दिया था.

लोकतंत्र की बदहाली का आलम तो इन दिनों यह है कि इस के होने पर ही शक और न होने पर यकीन होने लगा है. जो नेता किसी एक पार्टी की नीतियोंरीतियोंसिद्धांतों सहित चुनावचिन्ह पर चुने जाते हैं वे सैकंडों में खीसें निपोरते पूरी बेशर्मी से किसी दूसरी पार्टी में चले जाते हैं. अब यह दूसरी पार्टी 95 फीसदी मामलों में भाजपा ही क्यों होती है, यह जरूर गौरतलब बात है. यहां बहुत सीधी सी बात यह भी है कि उसूल अपनी मूल पार्टी छोड़ने वाला ही नहीं त्यागता बल्कि उसे लेने वाली भाजपा भी त्यागती है तभी तो वह नंबर वन पार्टी है.

इस में शक नहीं कि इन दिनों भाजपा की तूती बोल रही है ठीक वैसे ही जैसे नेहरू और इंदिरा के दौर में कांग्रेस की बोला करती थी. बकौल भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा, जल्द ही सभी राज्यों में भगवा परचम लहराएगा. लोकसभा में भाजपा 370 और एनडीए गठबंधन 400 से भी ज्यादा सीटें जीतेगा, यह राग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित तमाम छोटेबड़े नेता सुबहशाम अलापते रहते हैं.

इस पार्टी में हर शख्स परेशान क्यों हैं

शक तो इस बात में भी नहीं कि लोकसभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा दूसरी पार्टियों से कहीं बेहतर स्थिति में है लेकिन सब से ज्यादा बेचैनी भी उसी के खेमे में है. कमलनाथ के जाने न जाने के 3 दिवसीय ड्रामे में यह सब दिखा भी. पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने कहा वे यानी कमलनाथ राम का नाम ले कर भाजपा में आ सकते हैं. एक और वरिष्ठ भाजपाई नेता कैलाश विजयवर्गीय, जो पहले कमलनाथ की एंट्री पर भौंहे सिकोड़ रहे थे, झुकते हुए नजर आए. मध्यप्रदेश भाजपा अध्यक्ष वी डी शर्मा ने कहा कि जो भी देश की तरक्की में योगदान देना चाहे, उस का स्वागत है.

इस मसले पर कांग्रेसियों से ज्यादा बेचैनी भाजपाइयों में देखी गई जो कमलनाथ को ले कर उतने ही रोमांचित और उत्सुक थे जितने 3 साल पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया को ले कर थे. इस की वजह साफ है कि अब भाजपाइयों को समझ आ गया है कि खुद के दम पर जितना मिलना था, मिल चुका. अब दूसरी पार्टियों से जो मिलेगा, वह बोनस है.
यही हाल शीर्ष भाजपाई नेताओं का है जो आंख बंद कर विपक्षी नेताओं के लिए पलकपांवड़े बिछा कर बैठे हैं. यह, दरअसल, भाजपा का राजसूय यज्ञ है जिस के तहत मंशा नरेंद्र मोदी को चक्रवर्ती सम्राट बनाने की है. यह यज्ञ त्रेता युग में राजा दशरथ और द्वापर युग में युधिष्ठिर ने किया था. इन यज्ञों को ब्राह्मण ही संपन्न कराते थे. राजा तो उन का मोहरा होता था, जिस की पीठ पर तीरकमान रख ऋषिमुनि अपना दानदक्षिणा का कारोबार फैलाते थे.

इन दिनों इस भूमिका में यानी परदे के पीछे आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत हैं, यह भी हरकोई जानतासमझता है. अधिसंख्य सवर्णों को इस पर एतराज नहीं है. उलटे, वे तो इस यज्ञ में ज्यादा से ज्यादा आहुतियां ही डाल रहे हैं. ये लोग मनुवादी व्यवस्था के पैरोकार हैं जिस के तहत सबकुछ ऊंची जाति वालों का होता है. चले तो इन्हें भी जाना चाहिए.

कमलनाथ जैसे सवर्ण मानसिकता के नेताओ ने जम कर कांग्रेस को नुकसान पहुंचाया है. नेताओं की यह वह खेप है जो दलित, आदिवासी, पिछड़ों और मुसलमानों के वोटों पर चुन कर विधानसभाओं और संसद में पहुंचती थी, लेकिन काम खुद के और सवर्णों के करती थी. यही अब भाजपा कर रही है और कमलनाथ जैसे नेता उस की देहरी पर माथा टेक रहे हैं. यह और बात है कि कमलनाथ से भाजपा का सौदा पटा नहीं.

कांग्रेस में ऐसे बुढ़ाते नेताओं का ही दबदबा है जो मन से मनुवादी हैं लेकिन दिखाने को खुद को गांधीवादी कहते हैं. शशि थरूर, पी चिदंबरम, अभिषेक मनु सिंघवी और मनीष तिवारी जैसे दिग्गज हैं तो कमलनाथ जैसे मौसरे भाई भी जिन का कोई ठिकाना नहीं कि कब कांग्रेस छोड़ दें. दरअसल, अब इन के संसद में पहुंचने की संभावना खत्म हो रही है और एकाध कोई पहुंच भी जाए तो भाजपा कब ईडी के जरिए उसे रुला दे, कहा नहीं जा सकता. मध्यप्रदेश में कमलनाथ के ड्रामे के वक्त यह चर्चा घरघर में थी कि वे अपने कारोबार के चलते भगवा गैंग जौइन कर रहे हैं. पुत्रमोह तो धृतराष्ट्र की तरह कुख्यात है ही.

यही नेता कांग्रेस को कमजोर करते रहे हैं जिन पर भाजपा को मजबूत करने का आरोप भी लगता रहता है. भाजपा का राजसूय यज्ञ इन्हीं सवर्ण मानसिकता वाले नेताओं की वजह से परवान चढ़ रहा है जिन में लड़ने की ताकत नहीं रही, वे हथियार डालने लगे हैं. अशोक चव्हाण और मिलिंद देवड़ा राज्यसभा में हैं तो भाजपा की कृपा से हैं वरना तो उन की जमीनी हैसियत तो पार्षदी का चुनाव जीतने की भी नहीं बची. हकीकत तो यह है कि पहले भी कभी नहीं थी. ये लोग तो गांधी-नेहरू परिवार के रहमोकरम पर सत्ता का हिस्सा थे.

यही गलती भाजपा कर रही

जो गलती अतीत में कांग्रेस ने की थी जिस का आज वह खमियाजा भी भुगत रही है वही गलती अब भाजपा भी कर रही है जिसे भविष्य में कांग्रेस जैसे हश्र के लिए तैयार रहना चाहिए. 370 सीटों का ख्वाव वह अगर देख रही है तो दलित, पिछड़ों और आदिवासियों के दम पर देख रही है जिन्हें धर्म के संक्रामक रोग में वह फंसा चुकी है. कोई सिंधिया, देवड़ा या चव्हाण यों ही राज्यसभा में नहीं पहुंच जाता. उन्हें चुनने वाले विधायकों के वोट, अल्पसंख्यकों को छोड़, सभी हिंदू वर्णों के होते हैं.

लेकिन जल्द से जल्द चक्रवर्ती बन जाने की मानसिकता में नरेंद्र मोदी भी इंदिरा गांधी की तरह गिरफ्त में आ चुके हैं. उन की अहंकारी भाषा इस की गवाही भी दे रही है. उन के इर्दगिर्द हां में हां मिलाने वालों का हुजूम है जो नेहरू और इंदिरा युग की याद दिलाता है.

राजनीति और राजनेताओं के उत्थानपतन का इतिहास या स्क्रिप्ट कुछ भी कह लें यही चाटुकार लिखते हैं जो जनता की नहीं बल्कि पूंजीपतियों के हितैषी होते हैं. फर्क इतना है कि कांग्रेस के सुनहरे दिनों में ये धर्मनिरपेक्षता के नारे लगाते थे और अब भाजपा के स्वर्णिमकाल में राम और कृष्ण की जयकार कर रहे हैं. जनता का भला न तब हुआ था न आज हो रहा. इसीलिए मुद्दे की बातें गायब हैं और काल्पनिक बातें हो रही हैं. अफसोसजनक बात यह कि पूरी दुनिया में रूढ़िवादियों का दबदबा बढ़ रहा है.

किशमिश-भाग 2: मंजरी और दिवाकर गंगटोक क्यों गए थे?

उस वक्त जैसे ही जाम लगा और अंधेरा होना शुरू हुआ तो उन की बेचैनी बढ़ने लगी. वे दोनों और ड्राइवर बस, अपना समय होने पर और दिवाकर के बहुत मना करने के बावजूद ड्राइवर ने साथ लाई शराब पी और खाना खा कर सो गया. गाड़ी के अंदर की लाइट भी लूज होने से बंद हो गई.

दोनों अंधेरे में परस्पर गूंथ कर बैठ गए. जो अंधेरा नवविवाहितों को आनंद देता है, वह कितना खौफनाक हो सकता है, यह वे ही जानते हैं. रात के सन्नाटे में हर आहट आतंक का नया अध्याय लिख देती. दिवाकर ने हिम्मत कर के गाड़ी से बाहर निकल कर देखा तो होने को वहां बहुत सी गाडि़यां थीं लेकिन इन के आसपास जितनी भी थीं उन में सारे लोग ऐसे ही दुबके हुए थे. वह तो यह अच्छा था कि बारिश बंद हो चुकी थी. और आसमान में इक्केदुक्के तारे अपने होने का सुबूत देने लगे थे. मंजरी सिर नीचा और आंखें बंद किए बैठी थी.

ड्राइवर बेसुध सो रहा था. उस के खर्राटों से मंजरी के बदन में झुरझुरी सी हो रही थी. इतने में खिड़की के शीशे पर ठकठक हुई तो मंजरी की तो चीख ही निकल गई. लेकिन दिवाकर की आवाज सुन कर जान में जान आई. दिवाकर ने बताया था कि वहां से कुछ दूरी पर सेना का कैंप है, उन में से किसी का जन्मदिन है, इसलिए वे कैंपफायर कर रहे हैं. और इसी बहाने लोगों की सहायता भी.

मंजरी थोड़े नानुकुर के बाद जाने को राजी हुई थी. जब दिवाकर ने वहां पहुंच कर सैनिकों को बताया कि उन के पिताजी भी सेना में थे और 1967 का नाथूला का युद्घ लड़ा था तो दिवाकर उन के लिए आदर के पात्र हो गए. फिर वह रात गातेबजाते कब निकल गई थी, पता ही नहीं चला. उस दिन दिवाकर ने मंजरी को पहली बार गाते हुए सुना था. मंजरी ने गाया था- ‘ये दिल और उन की निगाहों के साए…’ उस दिन से आज तक दोनों को वह घटना ऐसे याद है मानो कल ही घटी हो.

‘‘अरे, कहां खो गई,’’ दिवाकर ने कहा तो स्मृतियों को विराम लग गया.

इधर, ड्राइवर ने चायनाश्ते के लिए गाड़ी रोक दी. दोनों ने साथ लाया नाश्ता किया और बिना चीनी की चाय पी. दिवाकर अपने जमाने में बहुत तेज मीठी चाय के शौकीन रहे हैं, और इसी कारण मंजरी की पसंद भी धीरेधीरे वैसी ही होती चली गई. लेकिन दिवाकर को डायबिटीज ने अनुशासित कर दिया. नतीजतन, मंजरी भी वैसी ही चाय पीने लगी. दिवाकर उस से कहते भी हैं कि तुम अपनी पसंद का ही खायापिया करो. पर वह हर बार बात को हंस कर टाल देती है. मीठे के नाम पर अब दोनों केवल मीठी बातें ही करते हैं, बस.

नाथूला में वे सब से पहले वार मैमोरियल गए और शहीदों को श्रद्धासुमन अर्पित किए. चीनी सीमा दिखते ही दिवाकर को बाबूजी की याद आ गई. नाथूला पास भारत और चीन (तिब्बत) को जोड़ने वाले हिमालय की वादियों में एक बेहद खूबसूरत किंतु उतना ही खतरनाक रास्ता है. यह प्राचीनकाल से दोनों देशों को सिल्क रोड (रेशम मार्ग) के माध्यम से जोड़ता है और यह सांस्कृतिक, व्यापारिक एवं ऐतिहासिक यात्राओं का गवाह रहा है. जो इन दोनों देशों के 1962 के युद्ध के बाद बंद कर दिया गया था. जिसे 2006 में आंशिक रूप से खोला गया. बाबूजी ने 1967 का वह युद्ध लड़ा था जो इसी नाथूला पास पर लड़ा गया. बाबूजी ने इसी युद्ध में अपनी जांबाजी के चलते एक पैर खो कर अनिवार्यतया सेवानिवृत्ति ली थी जिसे भारत की चीन पर विजय के बाद लगभग बिसार दिया गया. जबकि 1962 का वह युद्ध सभी को याद है जिस में देश ने मुंह की खाई थी. इस की पीड़ा बाबूजी को ताउम्र रही.

दिवाकर ने जब बाबूजी को अपने हनीमून पर गंगटोक जाने का इरादा बताया था, तो बाबूजी की युद्घ की सारी स्मृतियां ताजी हो गई थीं. चीनी सैनिकों की क्रूरता और उन का युद्धकौशल सभी कुछ उन की आंखों के आगे घूम गया था. साथ ही, अपने पैर को खोने की पीड़ा भी आंखों के रास्ते बह उठी थी. बाबूजी नहीं चाहते थे कि उन के बच्चे उस देश की सीमा को दूर से भी देखें, जिस ने एक बार न सिर्फ अपने देश को हराया था, बल्कि उन का पैर, नौकरी एवं सुखचैन हमेशा के लिए छीन लिया था. इसीलिए उन्होंने दिवाकर से कहा था कि पहाड़ों पर ही जाना है तो बद्रीनाथ, केदारनाथ हो आओ. लेकिन दिवाकर के गरम खून ने यह कहा कि ‘हम हनीमून के लिए जा रहे हैं, धार्मिक यात्रा पर नहीं.’ तब बाबूजी ने हथियार डालते हुए मां को इस बात के लिए डांट भी लगाई थी कि उन के लाड़प्यार ने ही बच्चों को बिगाड़ा है.

इतने लंबे वैवाहिक जीवन में मंजरी ने दिवाकर को जितना जाना, उस के आधार पर ही उन्होंने दिवाकर को अकेला रहने दिया. जब काफी समय दिवाकर ने अतीत में विचरण कर लिया तब, दिवाकर जहां खड़े थे, उन के सामने वाली एक ऊंची चट्टान के पास खड़े हो कर, मंजरी ने जोर से आवाज लगाई, ‘‘क्यों जी, कैसी लग रही हूं मैं यहां?’’ इस पर दिवाकर ने वर्तमान में लौटते हुए कहा, ‘‘अरे रे, उस पर क्यों चढ़ रही हो, तुम से न हो सकेगा अब यह सब.’’ ‘‘ओके बाबा, अब मैं भी कौनसी चढ़ी ही जा रही हूं इस पर. लेकिन इस के साथ फोटो तो खिंचवा सकती हूं न,’’ मंजरी ने फोटो के लिए पोज देते हुए कहा. दिवाकर ने भी कहां देर की, अपने कैमरे से फटाफट कई फोटो खींच लिए. दोनों को याद आया कि पिछली बार रोल वाले कैमरे से कैसे वे एकएक फोटो गिनगिन कर खींचते थे. और यह भी कि कैसे दोनों में प्रतियोगिता होती थी कि कौन ऐसी ही चट्टानों और कठिन चढ़ाइयों पर पहले पहुंचता है. मंजरी की शारीरिक क्षमता काफी अच्छी थी क्योंकि वह अपनी शिक्षा के दौरान ऐथलीट रही थी. मगर फिर भी दिवाकर कभी जानबूझ कर हार जाते तो मंजरी का चेहरा जीत की प्रसन्नता से और भी खिल जाता था. इस पर दिवाकर उस की सुंदरता पर कुरबान हो जाते. सो, हनीमून और भी गरमजोशी से भर उठता.

गर्भावस्था को बनाना है आसान, तो अपनाएं ये टिप्स

अगर आप की गर्भावस्था सामान्य है, तो इस दौरान कामकाज जारी रखने में कोई नुकसान नहीं है. लेकिन आप को इस दौरान ज्यादा सतर्क रहने की जरूरत है. ऐसे कई तरीके हैं, जिन के जरीए आप काम करने के दौरान अपनी गर्भावस्था को आसान बना सकती हैं.

पहले के 3 महीने

गर्भावस्था के पहले 3 महीनों के दौरान शरीर में काफी बदलाव हो रहे होते हैं. इस दौरान होने वाले हारमोनल बदलावों का मतलब है कि आप को थकान महसूस होगी. मुमकिन है कि बिना किसी बात के आप रोने लगें. ऐसे में खुद को भी और अपने आसपास के लोगों को भी यह बताने से कि हारमोनल बदलाव के कारण आप के साथ ऐसा हो रहा है, आप को सही ट्रैक पर रहने में मदद मिलेगी.

पोषक स्नैक्स जैसे कटी सब्जियां, फल, योगर्ट, पनीर, दाल, स्प्राउट्स, सोया, दूध और अंडों का सेवन करें, क्योंकि ये गर्भवती कामकाजी महिलाओं के लिए बिलकुल उपयुक्त होते हैं. गर्भवती महिलाओं के लिए दिन में कम से कम 4 बार कैल्सियम युक्त भोजन करना बेहद आवश्यक है.

क्या हो आहार

गर्भवती महिला के लिए अपना मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए डाक्टर द्वारा बताए गए फोलेट और ओमेगा 3 सप्लिमैंट्स लेने भी महत्त्वपूर्ण हैं. ये सभी तत्त्व गर्भ में पल रहे शिशु के उचित विकास के लिए भी आवश्यक होते हैं. दिन भर में लगभग हर 2 घंटे बाद पौपकौर्न, पीनट, पनीर, उबले हुए अंडे और फलों का सेवन करें, क्योंकि भूख या ब्लड में शुगर का स्तर कम होने से उबकाई आ सकती है.

अगर आप गंभीर मौर्निंग सिकनैस की शिकार हैं, तो उस के लिए दवाएं उपलब्ध हैं. प्राकृतिक घरेलू नुसखे भी अपना सकती हैं. इस के अतिरिक्त गर्भवती महिला को नियमित रूप से ठंडा पानी, नीबू पानी, ज्वार का पानी, इलैक्ट्रोल पी कर खुद को हाइड्रेट रखना चाहिए. उसे यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि उसे फलों, जूस या सप्लिमैंट्स से पर्याप्त मात्रा में विटामिन सी मिल रहा हो.

सोने की आदत में लाएं बदलाव

स्वस्थ शरीर के लिए गर्भावस्था मुश्किल समय होता है और संभव है आप को पूरी गर्भावस्था के दौरान थकावट महसूस हो. विशेषतौर पर पहली और तीसरी तिमाही में. अगर मुमकिन हो तो दिन में थोड़ी देर करीब 2 घंटे सो लें. पहली तिमाही में मूत्राशय पर पड़ने वाले अधिक दबाव का मतलब है कि आप को बारबार बाथरूम जाना होगा. इसलिए इस समय की भरपाई के लिए अधिक देर तक सोएं. हर रात कम से कम 10-11 घंटे की नींद जरूर लें.

शिशु तक अच्छे रक्तप्रवाह के लिए रात में अच्छी नींद लेना महत्त्वपूर्ण है और इस से सूजन घटाने में भी मदद मिलेगी.

महत्त्वपूर्ण देखभाल

गर्भावस्था के दौरान अपनी देखभाल करना बेहद महत्त्वपूर्ण है, अपने स्वास्थ्य के लिए भी और गर्भ में पल रहे शिशु के लिए भी. अपने वरिष्ठ अधिकारियों से बात कर लें कि अगर आप को समय से पहले छुट्टी मिल जाए तो आप डाक्टर के पास जाने जैसे अतिरिक्त काम कर सकेंगी.

जैसेजैसे गर्भावस्था का समय बढ़ेगा आप के बढ़ते वजन के अनुसार शरीर के गुरुत्वाकर्षण का केंद्र भी बदलेगा. इस वजह से पीठ में दर्द, पैरों में सूजन और मांसपेशियों में अकड़न हो सकती है. अगर आप दिन भर बैठी रहती हैं तो प्रत्येक 2 घंटे के अंतराल पर करीब 5 मिनट टहल लें. आप पैर रखने के लिए अपनी मेज के नीचे एक स्टूल भी रख सकती हैं. अगर आप को खड़ा होना है तो पीठ में दर्द से बचने के लिए स्टूल से एक बार में एक ही पैर उठाएं.

काम और गर्भवस्था में तालमेल

जब आप गर्भावस्था की तीसरी तिमाही में प्रवेश करेंगी तो शिशु के बढ़ने से आप के मूत्राशय पर दबाव पड़ेगा और आप को बारबार बाथरूम जाना पड़ेगा. इस से आप को बारबार टहलने का मौका मिलेगा. अगर आप किसी भी वजह से सीट से उठें तो बाथरूम तक हो आएं.

गर्भवती महिला को अपने डाक्टरों की अपौइंटमैंट्स और कार्यालय की जिम्मेदारियों को नोट कर रखना चाहिए और इसे घर और औफिस दोनों जगह हमेशा साथ रखें. ज्यादा थकान से बचने के लिए अपने शैड्यूल तक ही सीमित रहें.

गर्भवती महिला को सुनिश्चित करना चाहिए कि वह अपने दिन का शैड्यूल इस तरह तय करे कि उस में आराम के लिए थोड़ा वक्त मिले. ऐसा करने पर उसे अधिक थकान नहीं होगी.

नशा और शराब से दूरी

औफिस से निकल कर सैर पर जाने से खून के थक्के जमने, वैरिकोस वेंस और पैरों में सूजन की आशंका घटेगी. भारीभरकम काम करने या वस्तुएं उठाने से भी बचना चाहिए. इस से पैरों में सूजन नहीं होगी. रात में सोते समय अपने पैर थोड़े ऊपर कर के सोएं.

धूम्रपान महिला और शिशु दोनों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है. इस के कारण गर्भपात, समयपूर्ण प्रसव, जन्म के दौरान कम वजन और नवजात की मृत्यु तक की आशंका रहती है. ऐसे में बेहतर यही होगा कि गर्भवती महिला शराब से दूर रहे. फीटल अलकोहल सिंड्रोम से शिशु में गंभीर और जन्मजात विकार हो सकते हैं. ऐसा शराब की बेहद कम मात्रा लेने से भी हो सकता है.

– डा. मोनिका वधावन, सीनियर कंसल्टैंट, डिपार्टमैंट औफ ओब्स्टट्रिशियन ऐंड गाइनेकोलौजी, फोर्टिस हौस्पिटल, नोएडा

रिश्तों में भूलकर भी न करें दिखावा, नहीं तो हो सकती हैं ये समस्याएं

बच्चे बुढ़ापे में अकेले कष्ट उठा कर जिंदगी की शाम गुजार रहे माता पिता की परवा भले ही न करें लेकिन अंतिम समय पर दर्शन करने का दिखावा जरूर करते हैं.

अर्चि की सास बहुत बीमार थीं. दूर रहने की वजह से अर्चि उन से मिलने बारबार जा नहीं सकती थी. इस बार छुट्टियों में वह महीनाभर बीमार सास के पास बिता कर जैसे ही घर लौटी, सास की मृत्यु का समाचार मिला. उस के पति के बड़े भाई, भाभी, बहन कोई भी मृत्यु पूर्व उन से मिल नहीं पाए थे. अर्चि के मन में यही संतोष था कि कितना अच्छा हुआ कि वह महीनाभर मां के पास रह ली. ज्यादा नहीं तो थोड़ीबहुत ही अंतिम दिनों में उन की सेवा कर ली.

मृत्यु का समाचार मिलने पर वह बड़ी दुविधा में थी. सफर में 2-3 दिन लग जाना मामूली बात थी. तब तक मां का अंतिम दर्शन करना भी नहीं हो पाएगा. बड़े भाइयों ने मां की स्मृति में कोई भी कार्यक्रम न करने का निश्चय किया. ऐसी स्थिति में अर्चि को वहां जाना फुजूल ही लगा. सब बातें सोचविचार कर तय कर के अर्चि व उस के पति ने यही निश्चय किया कि अर्चि यहीं रहेगी. सिर्फ उस के पति चले जाएंगे. हालांकि अंतिम दर्शन तो उन्हें भी नहीं होंगे पर मां की मिट्टी ले आएंगे, यही सोच कर वे चले गए.

रिश्तेदारों परिचितों को पता चला कि अर्चि अपनी सास की मौत पर भी नहीं गई, उन के अंतिम दर्शन भी नहीं किए तो सब ने उसे बड़ा भलाबुरा कहा, आलोचना की, उसे निष्ठुर और पाषाणहृदया कहा.

अर्चि किसी को भी नहीं समझा पाई कि मृत्यु के बाद जबकि वह उन का आखिरी बार चेहरा भी न देख पाती, उस के वहां पहुंचने से पहले उन का अंतिम संस्कार हो जाना निश्चित था, वहां बेकार जा कर करती क्या? क्या यह अच्छा नहीं हुआ कि वह सास के जीतेजी ही महीनाभर वहां रह कर उन की सेवा कर आशीर्वाद ले आई. किसी ने भी उस की बात पर ध्यान नहीं दिया. सब के दिमाग में यही रहा कि कैसी बहू है, सास के मरने पर भी ससुराल नहीं गई.

यह हमारे समाज की विडंबना है कि अंतिम दर्शन को बड़ी मान्यता दी जाती है. बेटेबहू जीतेजी भले बूढ़े सासससुर की खैरखबर न लें, कभी उन के हालचाल न पूछें, उन की हारीबीमारी का खयाल न करें, उन के जीनेमरने की चिंता न करें, बुढ़ापे में अकेले कष्ट उठा कर जिंदगी की शाम गुजार रहे मातापिता की परवा न करें तो कोई बात नहीं लेकिन मरने पर उन के अंतिम दर्शन करने के कर्तव्य की औपचारिकता जरूर निभाएं, यह जरूरी है.

रोजी की सास गांव में अकेली रहती थी. बूढ़ी जान अकसर बीमार रहती थी. रोजी ने कभी उन्हें अपने पास बुला कर रखने की जहमत उठाना गवारा नहीं किया. गांव में जा कर, वहां रह कर सास की सेवा करने का तो प्रश्न ही नहीं था. अकेले बीमारी से लड़तीलड़ती बेटाबहू की उपेक्षा से टूटी बेचारी आखिर एक दिन मौत के गले लग गई. गांव के अन्य रिश्तेदार, परिचितों ने बेटाबहू को उन की मौत की खबर दी. जिस दिन उन की मौत की खबर आई, पड़ोसियों व अन्य लोगों को दिखाने के लिए रोजी छाती पीट कर, फूटफूट कर रोती हुई यही कहती रही, ‘‘हाय, अम्मा अचानक चल बसीं. मैं कैसी अभागी हूं कि उन के अंतिम दर्शन भी नहीं कर पाई. आखिरी बार उन के चरण नहीं छू पाई. आखिरी पल में कुछ कहसुन नहीं पाई.’’

जिंदा सास की खैरखबर लेने कभी गांव के घर में पैर नहीं रखा. अकेली सास को अपने साथ रखने में सदा कतराती रही. जब वह मर गई तो अंतिम दर्शन न कर पाने के मलाल में टसुए बहाती रही. क्या यह सिर्फ दिखावा व ढकोसला नहीं है?

मजबूरी व महत्त्वाकांक्षाएं

कामधंधे की तलाश में ज्यादातर बेटे आजकल मांबाप से दूर ही रहते हैं. मांबाप के बुढ़ापे की लाठी बनने के बजाय उन का संबल छीन लेते हैं. इन में कुछ तो मजबूरीवश घर छोड़ते हैं, कुछ अतिमहत्त्वाकांक्षा के तहत. दोनों ही परिस्थितियों में बूढ़े मांबाप को ही अकेलेपन की घुटन सहनी होती है.

जो मांबाप अपने बच्चों को जिंदगी की रफ्तार के साथ उड़ान भरना सिखाते हैं वे पंखों में मजबूती आते ही फुर्र हो जाते हैं. पीछे घिसटघिसट कर जिंदगी गुजारते मातापिता अकेले ही बच्चों की व्यस्तता, बेरुखी और बेगानेपन से टूटे जिंदगी को अलविदा कह जाते हैं. तब यही बच्चे मांबाप के अंतिम दर्शन न कर पाने, अंतिम समय पर न मिल पाने पर अफसोस जाहिर करते देखे जा सकते हैं.

मांबाप और सासससुर

बूढ़े मांबाप के साथ रहना या उन्हें साथ रखना आज की युवा पीढ़ी को स्वीकार्य नहीं है. आधुनिकता व स्टेटस मैंटेन करने में बूढ़े मांबाप अनफिट होते हैं. उन्हें साथ रख कर गंवारू कहलाना कोई पसंद नहीं करता. बहुत कम परिवार ऐसे होंगे जहां बेटाबहू मांबाप व सासससुर को उचित आदर, मान व सम्मान देते होंगे. अपने ही बच्चों का यह बरताव उन के जिंदगी जीने के उत्साह को खत्म कर देता है और वे असमय ही मौत का दामन थाम लेते हैं.

बुजुर्गों के दायित्व

कई बार गलती बुजुर्गों की भी होती है. वे युवाओं के सामान्य व्यवहार को भी अपने ही चश्मे से देखते हैं. उन की साधारण बातचीत को भी बतंगड़ बना कर अनेक समस्याएं खड़ी कर देते हैं. बदलते जमाने व नई पीढ़ी के साथ वे सामंजस्य बिठाना ही नहीं चाहते. बेटेबहू की समस्याओं को समझना ही नहीं चाहते. उन्हें थोड़ा खुलापन व आजादी देना उन्हें मंजूर नहीं. मांबाप के इस तानाशाही रवैए से तंग आ कर बेटाबहू अलग रहना ही हितकर समझते हैं तो सर्वस्व उन की आलोचना की जाती है कि बुढ़ापे में मांबाप को अकेला छोड़ दिया.

युवाओं के कर्तव्य

परिवार को खुशहाल बनाने के लिए सामंजस्य तो दोनों को ही बिठाना पड़ेगा. स्वार्थ व भौतिकता की अंधी दौड़ में लिप्त आज के युवाओं को मातापिता के उपकार, उन के कर्तव्य, बच्चों के लिए किए गए उन की इच्छाओं व आकांक्षाओं के दमन को याद रखना चाहिए और बुढ़ापे में उन्हें अकेला छोड़ कर यह सोचने के बजाय कि उन की उम्र तो बीत गई अब उन्हें भजनपूजन करते हुए मौत का इंतजार करना चाहिए, एकदम अनुचित है.

युवाओं को चाहिए कि वे बजाय मांबाप की मौत के बाद उन के अंतिम दर्शन की इच्छा रखने के उनके जीतेजी उन की देखभाल करें. उन का सम्मान व आदर करें, बुढ़ापे में उन्हें सुरक्षा व संबल प्रदान करें. साथ में रहना संभव न हो तो उन की देखभाल के लिए उचित बंदोबस्त करें. समयसमय पर फोन के जरिए उन के हालचाल लेते रहें. बच्चों को भी दादादादी, नानानानी का सम्मान करना सिखाएं. उन्हें दुत्कारने के बजाय उन के अनुभवों से शिक्षा लें. जीतेजी उन की सेवा करें और सम्मान करें, यही ज्यादा उचित है व मन को शांति भी प्रदान करता है.

6 महीने पहले मेरे पैर में कील चुभ गई थी, क्या इतने समय बाद भी मुझे टिटनैस हो सकता है?

सवाल

मैं 25 साल की युवती हूं. लगभग 6 महीने पहले मेरे पैर में कील चुभ गई थी. लेकिन मैं टिटनैस का टीका नहीं लगवा पाई. पैर में कभीकभी सरसराहट सी दौड़ती है, तो डर जाती हूं कि कहीं मुझे टिटनैस तो नहीं होने वाला. क्या चोट लगने के इतने समय बाद भी मुझे टिटनैस हो सकता है? मुझे क्या करना चाहिए?

जवाब

चोट लगने के 6 महीने बाद अब टिटनैस होने का डर लगभग न के बराबर है. जिन मामलों में चोट लगने पर टिटनैस होना होता है, प्राय: यह 3 हफ्तों के अंदर प्रकट हो जाता है.

टिटनैस उन्हीं लोगों को होता है, जिन्होंने बचपन में या जीवन में पहले ठीक से टिटनैस टौक्सायड (टीटी) के टीका नहीं लिए होते. उन के जख्म में टिटनैस उत्पन्न करने वाले बैक्टीरिया पैठ कर जाते हैं.

बचाव के लिए यह जरूरी है कि टिटनैस टौक्सायड के 3 टीके आप ने पहले से लिए हों. दूसरा टीका पहले टीके के 6 हफ्तों बाद लगाया जाता है और तीसरा टीका पहले टीके के 6 महीने बाद. उस के बाद हर 10 साल बाद यह टीका लगवाते रहना चाहिए. घाव बहुत गंदा हो, तो पहला टीका लगे 5 साल बीत चुके हों तब भी यह टीका लगवा लेना चाहिए. इस से टिटनैस नहीं होता.

जिन लोगों ने कभी टिटनैस का टीका नहीं लिया होता, उन्हें डाक्टर से तुरंत मिल कर टिटनैस के 3 टीकों का कोर्स तो लेना ही चाहिए. टिटनैसरोधी इम्युनोग्लोबुलिन का टीका भी जरूर लगवा लेना चाहिए.

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लाइलाज नहीं जैंडर डिस्फोरिया

17 वर्ष का मोहसिन मुंबई में अपनी मां और बहन के साथ अपने मामा के घर में रहता है. जब घर पर कोई नहीं होता तो वह बहन के कपड़े और अंडरगारमैंट्स चुपके से ले कर पहनता और घर में ठुमके लगाया करता था. वह मां की हाईहील सैंडल पहन कर भी घूमता था. उस की इस आदत को पड़ोसी देख कर उस की मां से शिकायत किया करते थे. मां को गुस्सा आ जाता था और वे उसे पीटती थीं, पर उस में सुधार नहीं आया.

ऐसा कई सालों तक चलता रहा. मां को पता था कि उन का बेटा ऐसा है. लेकिन करें तो क्या करें? परेशान हो कर वे मुंबई के सायन अस्पताल में असिस्टैंट प्रोफैसर व मनोरोग चिकित्सक, डा. गुरविंदर कालरा से मिलीं. वे डाक्टर से कहती रहीं कि यह बिगड़ चुका है, इसे सुधारने की आवश्यकता है.

दरअसल, मां को लगता था कि उन के बेटे का दिमागी संतुलन ठीक नहीं है जिस की वजह से वह लड़का होते हुए भी लड़कियों के कपड़े पहन कर नाचता है.

डा. कालरा का कहना था कि यह लड़का किसी भी रूप में बीमार नहीं है. उस के अंदर ‘जैंडर डिसऔर्डर’ है जिसे चाहें तो आप ठीक कर सकते हैं या फिर उसे वैसे ही रहने दे सकते हैं.

डा. कालरा आगे कहते हैं कि मोहसिन को ‘जैंडर डिस्फोरिया’ या ‘जैंडर डिसऔर्डर’ काफी समय से है. इस में व्यक्ति को खुद की शारीरिक बनावट और मानसिक बनावट में अंतर दिखाई पड़ता है. व्यक्ति लड़की या लड़का पूरी तरह से बनना नहीं चाहता, उसे अपनी शारीरिक संरचना पसंद है पर उस का मानसिक स्तर लड़की जैसा है. अधिकतर किन्नर इसी के शिकार होते हैं जो शारीरिक रूप से लड़के होते हैं पर वे मानसिक रूप से लड़कियों जैसा व्यवहार करते हैं.

एक अध्ययन में पाया गया कि अगर कोई व्यक्ति ‘जैंडर आइडैंटिटी डिसऔर्डर’ का शिकार हो तो वह किन्नर ही बने, यह सोचना ठीक नहीं.

सायन अस्पताल के मनोरोग प्रमुख डा. निलेश शाह कहते हैं कि ऐसा व्यक्ति अपना सैक्स बदलने के लिए सर्जरी करवा सकता है. तकरीबन 50 किन्नरों से बात करने पर पता चला कि 84 प्रतिशत किन्नर ‘जैंडर आईडैंटिटी डिसऔर्डर के शिकार हैं. उन की इस मनोदशा को शुरुआती अवस्था में ही इलाज द्वारा सुधारा जा सकता है. असल में किन्नर ‘थर्ड जैंडर’ में आते हैं जबकि ‘जैंडर डिस्फोरिया’ में व्यक्ति सिंगल जैंडर का होता है.

यूएस के अटलांटा में पिछले वर्ष वर्ल्ड प्रोफैशनल एसोसिएशन फौर ट्रांसजैंडर हैल्थ द्वारा विचारगोष्ठी का आयोजन किया गया था जिस में डा. गुरविंदर कालरा ने इस विषय पर अपनी स्टडी प्रस्तुत की. इसे सभी ने सराहा और अधिक से अधिक लोगों ने इस विषय की जानकारी प्राप्त की. इस पर बातचीत भी हुई. इस तरह के अध्ययन पश्चिमी देशों में अधिक हुए हैं.

न करें मारपीट

डा. कालरा कहते हैं कि इस तरह की अव्यवस्था या गड़बड़ी बच्चे को ढाई या 3 साल की अवस्था से शुरू हो जाती है. जब बच्चा अपने लिंग की पहचान कर पाता है. ऐसे बच्चे समलैंगिक नहीं होते. ये अधिकतर लड़कियों के बीच में खेलते या फिर लड़कियां लड़कों के बीच में खेलना, उन की जैसी हरकतें करना वगैरा करते हैं. ऐसे में समाज उन की हंसी उड़ाया करता है. परेशान हो कर मातापिता उस से मारपीट करते हैं जो ठीक नहीं.

यह अव्यवस्था बच्चे को जन्म से ही होती है. लेकिन कई बार कुछ विडंबना या घटना भी इसे जन्म दे सकती है, जैसे कि पिता का घर से दूर रहना, पिता का मर जाना आदि. इस तरह के बच्चे बहुत कम डाक्टर तक पहुंच पाते हैं.

मुंबई के फोर्टिस अस्पताल की मनोरोग चिकित्सक डा. पारुल टांक कहती हैं कि बचपन से ही बच्चे की आदत को सुधारना जरूरी है. कई बार मातापिता लड़की को लड़कों के कपड़े पहना देते हैं क्योंकि घर में लड़का नहीं है. ऐसे में बच्चे के कुछ हावभाव लड़कों जैसे हो जाते हैं, जैसा कि उन के पास आई एक लड़की का हुआ जो अपने पिता की मौत के बाद अपनेआप को लड़का समझने लगी और बाद में अपना ‘सैक्स’ भी चैंज करवा डाला.

यह सर्जरी हमारे देश में काफी लंबी है और उम्रभर हार्माेन देना पड़ता है क्योंकि उन में स्वाभाविक तौर पर हार्मोन नहीं होता.

मजाक न उड़ाएं

जब लड़की या लड़का अपनेआप को विपरीत लिंग के समझने लगते हैं तो सब से पहले पड़ोसी, दोस्त वगैरा उस का मजाक उड़ाते हैं जिस से बच्चे को तनाव, उदासीनता, घबराहट आदि होने लगती है इसलिए बड़े हो कर वे बच्चे ‘सैक्स चैंज’ की लंबी प्रक्रिया को भी अपनाने के लिए तैयार हो जाते हैं.  समय रहते अगर मातापिता मनोरोग चिकित्सक के पास जाएं तो बच्चे को इस समस्या से निकालने का प्रयास किया जा सकता है.

इस में यह भी देखना होता है कि कहीं यह अव्यवस्था उस में पागलपन की वजह से तो नहीं है. अगर ऐसा नहीं है तो यह बीमारी नहीं है. इस का इलाज किया जा सकता है. मातापिता समाज या परिवार से डरें नहीं बल्कि आगे आ कर बच्चे को इस समस्या से नजात दिलाने का प्रयास करें.

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