story in hindi
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अकसर बचपन में भी सुनते थे और अब भी सुनते हैं कि गांधीजी ने कहा था कि कोई एक गाल पर चांटा मारे तो दूसरा भी आगे कर देना चाहिए. समय के उस दौर में शायद एक गाल पर चांटा मारने वाले का भी कोई ऐसा चरित्र होता होगा जिसे दूसरा गाल भी सामने पा कर शर्म आ जाती होगी.
आज का युग ऐसा नहीं है कि कोई लगातार वार सहता रहे क्योंकि वार करने वालों की बेशर्मी बढ़ती जा रही है. उस युग में सहते जाना एक गुण था, आज के युग में सहे जाना बीमारी बनता जा रहा है. ज्यादा सहने वाला अवसाद में जाने लगा है क्योंकि उस का कलेजा अब लक्कड़, पत्थर हजम करने वाला नहीं रहा, जो सामने वाले की ज्यादती पर ज्यादती सहता चला जाए.
पलट कर जवाब नहीं देगा तो अपनेआप को मारना शुरू कर देगा. पागलपन की हद तक चला जाएगा और फिर शुरू होगा उस के इलाज का दौर जिस में उस से कहा जाएगा कि आप के मन में जो भी है उसे बाहर निकाल दीजिए. जिस से भी लड़ना चाहते हैं लड़ लीजिए. बीमार जितना लड़ता जाएगा उतना ही ठीक होता जाएगा.
अब सवाल यही है कि इतना सब अपने भीतर जमा ही क्यों किया गया जिसे डाक्टर या मनोवैज्ञानिक की मदद से बाहर निकलना पड़े? पागल होना पड़ा सो अलग, बदनाम हुए वह अलग.
हर इनसान का अपनाअपना चरित्र है. किसी को सदा किसी न किसी का मन दुखा कर ही सुख मिलता है. जब तक वह जेब से माचिस निकाल कर कहीं आग न लगा दे उस के पेट का पानी हजम नहीं होता. इस तरह के इनसान के सामने अगर अपना दूसरा गाल भी कर दिया जाएगा तो क्या उसे शर्म आ जाएगी?
गलत को गलत कहना जरूरी है क्योंकि गलत जब हमें मारने लगेगा तो अपना बचाव करना गलत नहीं. अब प्रश्न यह भी उठता है कि कैसे पता चले कि गलत कौन है? कहीं हम ही तो गलत नहीं हैं? कहीं हम ने ही तो अपने दायरे इतने तंग नहीं बना लिए कि उन में आने वाला हर इनसान हमें गलत लगता है?
हमारे एक सहयोगी बड़ा अच्छा लिखते हैं. अकसर पत्रिकाओं में उन की रचनाओं के बारे में लिखा जाता है कि उन का लिखा अलग ही होता है और प्रेरणादायक भी होता है. सत्य तो यही है कि लेखक के भीतर की दुनिया उस ने स्वयं रची है जिस में हर चरित्र उस का अपना रचा हुआ है. यथार्थ से प्रेरित हो कर वह उन्हें तोड़तामरोड़ता है और समस्या का उचित समाधान भी करता है.
जाहिर है, उन का अपना चरित्र भी उन की लेखनी में शतप्रतिशत होता है क्योंकि काला चरित्र कागज पर चांदनी नहीं बिखेर सकता और न ही कभी संस्कारहीन चरित्र लेखनी में वह असर पैदा कर सकता है जिस में संस्कारों का बोध हो. जो स्वयं ईमानदार नहीं उस की रचना भी भला ईमानदार कैसे हो सकती है.
मेरे बड़े अच्छे मित्र हैं ‘मानव भारद्वाज’. खुशमिजाज हैं और स्पष्टवादी भी. गले की किसी समस्या से जू झ रहे हैं. जूस, शीतल पेय और बाजार के डब्बाबंद हर सामान को खाने से उन के गले में पीड़ा होने लगती है, जिस का खमियाजा उन्हें रातरात भर जाग कर भरना पड़ता है. कौफी पीने से भी उन्हें बेचैनी होती है. वे सिर्फ चाय पी सकते हैं. अकसर शादीब्याह में कभी हम साथसाथ जाएं तो मु झे उन्हें देख कर दुख भी होता है. चुपचाप शगुन का लिफाफा थमा कर खिसकने की सोचते हैं.
‘‘कुछ तो ले लीजिए, मानव.’’
‘‘नहीं यार, यहां मेरे लायक कुछ नहीं है. तुम खाओपिओ, मैं यहां रुका तो किसी न किसी की आंख में खटकने लगूंगा.’’
‘‘आप के तो नखरे ही बड़े हैं, चाय आप नहीं पीते, कौफी आप के पेट में लगती है, जूस से गला खराब होता है, इस में अंडा है… उस में यह है, उस में वह है. आप खाते क्या हैं साहब? हर चीज में आप कोई न कोई कमी क्यों निकालते रहते हैं.’’
मुसकरा कर टालना पड़ता है उन्हें, ‘‘पानी पी रहा हूं न मैं. आप चिंता न करें… मु झे जो चाहिए मैं ले लूंगा. आप बेफिक्र रहें. मेरा अपना घर है…मेरी जो इच्छा होगी मैं अपनेआप ले लूंगा.’’
‘‘अरे, मेरे सामने लीजिए न. जरा सा तो ले ही सकते हैं.’’
अब मेजबान को कोई कैसे सम झाए कि एक घूंट भी उन्हें उतना ही नुकसान पहुंचाता है जितना गिलास भर कर.
‘‘मेरे घर पर कोई आता है तो मैं उस से पूछ लेता हूं कि वह क्या लेगा. जाहिर है, हर कोई अपने घर से खा कर ही आता है… हर पल हर कोई भूखा तो नहीं होता. आवभगत करना शिष्टाचार का एक हिस्सा है लेकिन कहां तक? वहां तक जहां तक अतिथि की जान पर न बन आए. वह न चाहे तो जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए.’’
‘‘तब तो आप अच्छे मेजबान नहीं हैं. अच्छा मेजबान तो वही है जो मना करने पर भी अतिथि की थाली भरता जाए.’’
इस विषय पर अकसर हम बात करते हैं और उन्हें मु झ से मिलना अच्छा लगता है क्योंकि मैं कोशिश करता हूं कि उन्हें सम झ पाऊं. वे कुछ खाना न चाहें तो मेरा परिवार उन्हें खाने को मजबूर नहीं करता. वैसे वे स्वयं ही चाय का कप मांग लेते हैं तो हमें ज्यादा खुशी होती है.
‘‘मानव चाचा के लिए अच्छी सी चाय बना कर लाती हूं,’’ मेरी बहू भागीभागी चाय बनाने चली जाती है और मानव जम कर उस की चाय की तारीफ करते हैं.
‘‘आज मैं ने सोच रखा था कि चाय अपनी बच्ची के हाथ से ही पिऊंगा. मीना घर पर नहीं है न, कल आएगी. उस के पिता बीमार हैं.’’
‘‘चाचाजी, तब तो आप रात का खाना यहीं खाइए. मैं ने आज नईनई चीजें ट्राई की हैं.’’
‘‘क्याक्या बनाया है मेरी बहू ने?’’
मानव का इतना कहना था कि बहू ने ढेरों नाम गिनवा दिए.
‘‘चलो, अच्छा है, यहीं खा लेंगे,’’ मानव की स्वीकृति पर वसुधा उत्साह से भर उठी.
हम बाहर लौन में चले आए. बातचीत चलती रही.
‘‘पड़ोस का घर बिक गया है. सुना है कोई बुजुर्ग दंपती आने वाले हैं. उन की बेटी इसी शहर में हैं. उसी की देखरेख में रहेंगे,’’ मानव ने नई जानकारी दी.
‘‘चलो, अच्छा है. सम झदार बुजुर्ग लोगोें के साथ रह कर आप को नए अनुभव होंगे.’’
‘‘आप को क्या लगता है, बुजुर्ग लोग ज्यादा सम झदार होते हैं?’’
‘‘हां, क्यों नहीं. लंबी उम्र का उन के पास अनुभव जो होता है.’’
‘‘अनुभव होता है यह सच है, लेकिन वे सम झदारी से उस अनुभव का प्रयोग भी करते होंगे यह जरूरी नहीं. मैं ने 60-70 साल के ऐसेऐसे इनसान देखे हैं जो बहुत ज्यादा चापलूस और मीठे होते हैं और सामने वाले की भावनाओं का कैसे इस्तेमाल करना है…अच्छी तरह जानते हैं. वे ईमानदार भी होें जरूरी नहीं, उम्र भर का अनुभव उन्हें इतना ज्यादा सिखा देता है कि वे दुनिया को ही घुमाने लगते हैं. कौन जाने मेरे साथ उन की दोस्ती हो पाएगी कि नहीं.’’
मानव की चिंता जायज थी. अच्छा पड़ोसी वरदान है क्योंकि अपनों से पहले पड़ोसी काम आता है.
खाने की मेज पर सभी जुट गए. वसुधा की मेहनत सामने थी. सभी खाने लगे मगर मानव ने सिर्फ रायता और चावल ही लिए. मंचूरियन में सिरका था, चिली चीज में टोमैटो कैचअप था और अंडाकरी में तो अंडा था ही. सूप में भी अंडा था. आंखें भर आईं वसुधा की. मानव ये सब नहीं खा पाएंगे, उसे नहीं पता था. उसे रोता देख कर मानव ने खाने के लिए हाथ बढ़ा दिया.
‘‘नहीं, चाचाजी, आप बीमार हो जाएंगे. रहने दीजिए.’’
‘‘मैं घर पर भी नमकीन चावल ही बना कर खाता हूं. तुम दुखी मत हो बच्ची. फिर किसी दिन बना लेना.’’
वसुधा का सिर थपथपा कर मानव चले गए. वे मेरे सहकर्मी हैं. वरिष्ठ प्रबंधक हैं, इसलिए शहर की बड़ी पार्टियां उन्हें हाथोंहाथ लेती हैं.
‘‘कोई फायदा नहीं साहब, जब तक आप के सारे कागज पूरे नहीं होंगे आप को लोन नहीं मिल सकता. मेरी चापलूसी करने से अच्छा है कि आप कागज पूरे कीजिए. मेरी सुविधा की बात मत कीजिए. मेरी सुविधा इस में है कि जो बैंक मु झे रोटी देता है कम से कम मैं उस के साथ तो ईमानदार रहूं. मेरी जवाबदेही मेरे अपने जमीर को है.’’
इस तरह की आवाजें अकसर सब सुनते हैं. कैबिन का दरवाजा सदा खुला होता है और मानव क्या कहसुन रहे हैं सब को पता रहता है.
‘‘आज जमाना इतने स्पष्टवादियों का नहीं है, मानव…10 बातें बताने वाली होती हैं तो 10 छिपाने वाली भी.’’
‘‘मैं क्या छिपाऊं और क्यों छिपाऊं. सच सच है और झूठ झूठ. जो काम मु झे नहीं करना उस के लिए आज भी ना है और कल भी ना. कैबिन बंद कर के मैं किसी से मीठीमीठी बातें नहीं करना चाहता. हमारा काम ही पैसे लेनादेना है. छिपा कर सब की नजरों में शक पैदा क्यों किया जाए. 58 का हो गया हूं. इतने साल कोई समस्या नहीं आई तो आगे भी आशा है सब ठीक ही होगा.’’
एक शाम कार्यालय में मानव की लिखी रचना पर चर्चा छिड़ी थी. किसी भ्रष्ट इनसान की कथा थी जिस में उस का अंत बहुत ही दर्दनाक था. मेरी बहू वसुधा मानव की बहुत बड़ी प्रशंसक है. रात खाने के बीच मैं ने पूछा तो सहज सा उत्तर था वसुधा का :
‘‘जो इनसान ईमानदार नहीं उस का अंत ऐसा ही तो होना चाहिए, पापा. ईमानदारी नहीं तो कुछ भी नहीं. सोचा जाए तो आज हम लोग ईमानदार रह भी कहां गए हैं. होंठों पर कुछ होता है और मन में कुछ. कभीकभी तो हमें खुद भी पता नहीं होता कि हम सच बोल रहे हैं या झूठ. मानव चाचा ने जो भी लिखा है वह सच लिखा है.’’
वसुधा प्रभावित थी मानव से. दूसरी दोपहर कोई कैबिन में बात कर रहा था :
‘‘आप ने तो हूबहू मेरी कहानी लिखी है. उस में एक जगह तो सब वैसा ही है जैसा मैं हूं.’’
‘‘तो यह आप के मन का चोर होगा,’’ मानव बोले, ‘‘आप शायद इस तरह के होंगे तभी आप को लगा यह कहानी आप पर है. वरना मैं ने तो आप पर कुछ भी नहीं लिखा. भला आप के बारे में मैं जानता ही क्या हूं. अब अगर आप ही चीखचीख कर सब से कहेंगे कि वह आप की कहानी है तो वह आप का अपना दोष है. पुलिस को देख कर आम आदमी मुंह नहीं छिपाता और चोर बिना वजह छिपने का प्रयास करता है.’’
‘‘आप सच कह रहे हैं, आप ने मु झ पर नहीं लिखा?’’
‘‘हमारे समाज में हजारों लोग इस तरह के हैं जो मेरे प्रेरणास्रोत हैं. हर लेखक अपने आसपास की घटनाओं से ही प्रभावित होता है. इसी दुनिया में हम जीते हैं और यही दुनिया हमें जीनामरना सब सिखाती है. लिखने के लिए किसी और दुनिया से प्रेरणा लेने थोड़े न जाएंगे हम. कृपया आप मन पर कोई बो झ न रखें. मैं ने आप पर कुछ नहीं लिखा.’’
समय बीतता रहा. मानव के पड़ोस में जो वृद्ध दंपती आए उन से भी उन की अच्छी दोस्ती हो गई. बैंक की नौकरी बहुत व्यस्त होती है, इस में इधरउधर की गप मारने का समय कहां होता है. फिर भी कभीकभार उन से मानव की किसी न किसी विषय पर चर्चा छिड़ जाती. अपनी छपी रचनाएं मानव उन्हें थमा देते हैं जिन से उन का समय कटता रहता है.
80-85 साल के दंपती जिंदगी के सारे सुखदुख समेट बस कूच करने की फिराक में हैं. फिर भी जब तक सांस है यह चिंता लगी ही रहती है कि क्या नहीं है जो होना ही चाहिए. मानव उन से 30 साल पीछे चल रहे हैं. कुछ बातें सिर्फ समय ही सिखाता है. मानव को अच्छा लगता है उन के साथ बातें करना. कुछ ऐसी बातें जिन्हें सिर्फ समय ही सिखा सकता है…मानव उन से सीखते हैं और सीखने का प्रयास करते हैं.
2 साल और बीत गए. मानव और मैं दोनों ही बैंक की नौकरी से रिटायर हो गए. अब तो हमारे पास समय ही समय हो गया. बच्चों के ब्याह कर दिए, वे अपनीअपनी जगह पर खुश हैं. जीवन में घरेलू समस्याएं आती हैं जिन से दोचार होना पड़ता है. रिश्तेदारी में, समधियाने में, ससुराल वालों के साथ अकसर मानव के विचार मेल नहीं खाते फिर भी एक मर्यादा रख कर वे सब से निभाते रहते हैं. कभी ज्यादा परेशानी हो तो मु झ से बात भी कर लेते हैं. बेटी की ससुराल से कुछ वैचारिक मतभेद होने लगे जिस वजह से मानव ने उन से भी दूरी बना ली.
‘‘मैं तो वैसे भी मर्यादा से बाहर जाना नहीं चाहता. आजकल लड़की के घर जाने का फैशन है. वहां रह कर खानेपीने का भी. मु झे अच्छा नहीं लगता इसलिए मैं मीना को भी वहां जाने नहीं देता. ऐसा नहीं कि हमारे वहां बैठ कर खानेपीने से उन के घर में कोई कमी आ जाती है, लेकिन हमें यह अच्छा नहीं लगता कि वे हमें खाने पर बुलाएं और हम वहां डट कर बैठ कर खाएं.
‘‘हमारे बुजुर्गों ने कहा था कि बेटी के घर कम से कम जाओ. जाओ तो खाओ मत, 4 घंटे के बाद इनसान को भूख लग जाती है. भाव यह था कि 4 घंटे से ज्यादा मत टिको. बातचीत में ऐसा न हो कि कोई बात हमारे मुंह से निकल जाए… लाख कोई दावा करे पर लड़की वालों को कोई दोस्ती की नजर से नहीं देखता. लड़की वाला छींक भी दे तो अकसर कयामत आ जाती है.
‘‘मानसम्मान जितना दिया जाना चाहिए उतना अवश्य देता हूं मैं लेकिन मेरे अपने घर की मर्यादा में किसी का दखल मु झे पसंद नहीं. मेरे घर में वही होगा जो मु झे चाहिए. आप के घर में भी वही होगा जो आप चाहें. हम दुनिया को नहीं बदल सकते लेकिन अपने घर में अपने तौरतरीकों के साथ जीने का हमें पूरापूरा हक होना चाहिए.’’
एक दिन परेशान थे मानव, आंखों में बसी चिरपरिचित सी शक्ति कहीं खो गई थी.
‘‘आप को क्या लगता है, मैं लड़ाका हूं, सब से मेरा झगड़ा लगा रहता है. मैं हर जगह सब में कमियां ही निकालता रहता हूं. वसुधा बेटा, जरा सम झाना. 2 रातों से मैं सो नहीं पा रहा हूं.’’
मानव के मन की पीड़ा को जान कर मैं व वसुधा अवाक् थे. ऐसा क्या हो गया. पता चला कि मानव ने उस वृद्ध दंपती से अपनी रचनाओं के बारे में एक ईमानदार राय मांगी थी. 2 दिन पहले उन के घर पर कुछ मेहमानों के साथ मानव और मीना भाभी भी थीं.
‘‘मानव, आप की रचनाएं तो कमाल की होती हैं. आप के पात्रों के चरित्र भी बड़े अच्छे होते हैं मगर आप स्वयं इस तरह के बिलकुल नहीं हैं. आप की आप के रिश्तेदारों से लड़ाई, आप की आप के समधियों से लड़ाई इसलिए होती है कि आप सब में नुक्स निकालते हैं. आप तारीफ करना सीखिए. देखिए न हम सदा सब की तारीफ ही करते रहते हैं.’’
85 साल के वृद्ध इनसान का व्यवहार चार लोगों के सामने मानव को नंगा सा कर गया था.
‘‘मेरी रचनाओं के पात्रों के चरित्र बहुत अच्छे होते हैं और मैं वैसा नहीं हूं… वसुधा, क्या सचमुच मैं एक ईमानदार लेखक नहीं…अगर मैं ने कभी उन्हें अपना बुजुर्ग सम झ उन से कोई राय मांग ही ली तो उन्होंने चार लोगों के सामने इस तरह कह दिया. अकसर वहां मैं वह सब नहीं खाता जो वे मेहमान सम झ कर परोस देते हैं… मु झे तकलीफ होती है… तुम जानती हो न… हैरान हूं मैं कि वे मु झे 3 साल में बस इतना ही सम झे. क्या मेरे लिए अपने मन में इतना सब लिए बैठे थे. यह दोगला व्यवहार क्यों? कुछ सम झाना ही चाहते थे तो अकेले में कह देते. अब उस 85-87 साल के इनसान के साथ मैं क्या माथा मारूं कि मैं ऐसा नहीं हूं या मैं वैसा हूं. क्या तर्कवितर्क करूं?
‘‘मैं चापलूस नहीं हूं तो कैसे सब की तारीफ करता रहूं. जो मु झे तारीफ योग्य लगेगा उसी की करूंगा न. और फिर मेरी तारीफ से क्या बदलेगा? मेरी समस्याएं तो समाप्त नहीं हो जाएंगी न. मु झे किसी की झूठी तारीफ नहीं करनी क्योंकि मु झे किसी से कोई स्वार्थ हल नहीं करना. क्या सचमुच मैं जो भी लिखता हूं वह सब झूठ होता है क्योंकि मेरे अपने चरित्र में वह सब है ही नहीं जो मेरे संदेश में होता है.
‘‘मैं ने उस पल तो बात को ज्यादा कुरेदा नहीं क्योंकि 4-5 लोग और भी वहां बैठे थे. मैं ने वहां सब के साथ कौफी नहीं पी, जूस नहीं पिया. पकौड़ों के साथ चटनी नहीं खाई, क्योंकि मैं वह ले ही नहीं सकता. वे जानते हैं फिर भी कहते रहे मैं किसी का मान ही नहीं रखता…जरा सा खा लेने से खिलाने वाले का मन रह जाता है. अपनी कहानियों में तो मैं क्षमा कर देता हूं जबकि असल जिंदगी में मैं क्षमा नहीं करता. क्या ऐसा सच में है, वसुधा?’’
मानव की आंखें भर आई थीं.
‘‘मैं अपने उसूलों के साथ कोई सम झौता नहीं करता…क्या यह बुरी बात है? मीना कहती है कि आप को अपने घर की बात उन से नहीं करनी चाहिए थी. क्या जरूरत थी उन से यह कहने की कि आप के रिश्तों में तनाव चल रहा है तभी तो उन्हें पता चला.
‘‘अरे, तनाव तो लगभग सभी घरों में होता है…कहीं कम कहीं ज्यादा…इस में नया क्या है. मेरा दोष इतना सा है कि मैं ने बुजुर्ग सम झ कर उन से राय मांग ली थी कि मु झे क्या करना चाहिए…उस का उत्तर उन्होंने इस तरह चार लोेगों के सामने मु झे यह बता कर दिया कि मैं अपनी रचनाओं से मेल ही नहीं खाता.’’
मानव परेशान थे. वसुधा उन की बांह सहला रही थी.
‘‘चाचाजी, हर इनसान के पास किसी को नापने का फीता अलगअलग है. हो सकता है, जो समस्या आप के सामने है वह उन्होंने न झेली हो, लेकिन यह सच है कि उन्होंने सम झदारी से काम नहीं लिया. आप स्पष्टवादी हैं और आज का युग सीधी बात करने वालों का नहीं है और सीधी बात आज कोई सुनना भी नहीं चाहता.’’
‘‘उन्होंने भी तो सीधी बात नहीं की न.’’
‘‘सीधी बात 3 साल की जानपहचान के बाद की. अरे, सीधी बात तो इनसान पहली व दूसरी मुलाकात में ही कर लेता है. 3 साल में भी अगर वे यही सम झे तो क्या समझे आप को?’’
दूसरी सुबह मैं ने मानव को फोन किया था और पूछा था कि रात आप क्या कहना चाहते थे. जरा खुल कर सम झाइए.
तब मानव ने बस इतना ही कहा कि मु झे सब की तारीफ करनी चाहिए. हर इनसान ठीक है. कोई भी गलत नहीं होता.
‘‘चाचाजी, आप परेशान मत होइए. मन की हम से कह लिया कीजिए क्योंकि नहीं कहने से भी आप बीमार हो सकते हैं. वैसे भी बाहर की दुनिया हम ने नहीं बनाई इसलिए सब के साथ हम एक जैसे नहीं रह सकते. आप के भीतर की दुनिया वह है जो आप लिखते हैं…सच में आप वही हैं जो आप लिखते हैं. आप ईमानदार हैं. आप का चरित्र वैसा है जैसा आप लिखते हैं.’’
‘‘सम झ नहीं पा रहा हूं बेटी, क्या सच में…अपनेआप पर ही शक हो रहा है मु झे. 2-3 साल की हमारी जानपहचान में उन्होंने यही निचोड़ निकाला कि मैं वह नहीं हूं जो रचनाओं में लिखता हूं…तो शायद मैं वैसा ही हूं.’’
‘‘वे कौन होते हैं यह निर्णय लेने वाले…आप गलत नहीं हैं. आप वही हैं जो आप अपनी रचनाओं में होते हैं. जो इनसान आप को सम झ ही नहीं पाया उन से दूरी बनाने में ही भलाई है. शायद वही आप की दोस्ती के लायक नहीं हैं. 60 साल जिन सिद्धांतों के साथ आप जिए और जिन में आप ने अपनी खुशी से किसी का न बुरा किया न चाहा, वही सच है और उस पर कहीं कोई शक नहीं है मु झे. अपना आत्म- विश्वास क्यों खो रहे हैं आप?’’
सहसा मानव का हाथ पकड़ कर वसुधा बोली, ‘‘चाचाजी, जो याद रखने लायक नहीं, उसे क्यों याद करना. उन्हें क्षमा कर दीजिए.’’
‘‘क्षमा तो उसी पल कर दिया था लेकिन भूल नहीं पा रहा हूं. अपना सम झता रहा हूं उन्हें. 3 साल से हम मिल रहे हैं इस का मतलब इतना अभिनय कर लेते हैं वे दोनों.’’
‘‘3 साल आप की तारीफ करते रहे और आप सम झ ही नहीं पाए कि उन के मन में क्या है…अभिनय भी अच्छा करते रहे. पहली बार ईमानदार सलाह दी और सम झा दिया कि वे आप को पसंद ही नहीं करते. यही ईमानदारी आप नहीं सह पाए. आप के रास्ते सिर्फ 2 हैं ‘हां’ या ‘ना’…उन का रास्ता बीच का है जो आज का रास्ता है. जरूरत पड़ने पर दोनों तरफ मुड़ जाओ. चाचाजी, आप मु झ से बात किया करें. मैं दिया करूंगी आप को ईमानदार सलाह.’’
वसुधा मेरी बहू है. जिस तरह से वह मानव को सम झा रही थी मु झे विश्वास नहीं हो रहा था. 30-32 साल की उम्र है उस की, मगर सम झा ऐसे रही थी जैसे मानव से भी कहीं बड़ी हो.
सच कहा था एक दिन मानव ने. ज्यादा उम्र के लोग जरूरी नहीं सम झदारी में ईमानदार भी हों. अपनी सम झ से दूसरों को घुमाना भी सम झदार ही कर सकते हैं. मानव आज परेशान हैं, इसलिए नहीं कि वे गलत सम झ लिए गए हैं, उन्हें तो इस की आदत है, बल्कि इसलिए क्योंकि सिद्धांतों पर चलने वाला इनसान सब के गले के नीचे भी तो नहीं न उतरता. उन्हें अफसोस इस बात का था कि जिन्हें वे पूरी निष्ठा से अपना सम झते रहे उन्होंने ही उन्हें इस तरह घुमा दिया. इतना कि आज उन्हें अपने चरित्र और व्यक्तित्व पर ही संदेह होने लगा.
प्रधानमंत्री और उन के सहयोगी मंदिरों के बाद बचा समय विपक्षी सरकारों की तोड़फोड़ में लगाते हैं. जैसेजैसे 2024 के लोकसभा चुनाव करीब आ रहे हैं वैसेवैसे विपक्षी पार्टियों में सेंधमारी बढ़ती जा रही है. भाजपा की यह सेंधमारी 2 तरह की हो रही हैं. एक में दूसरे को कमजोर कर के छोड़ देना है. दूसरी, उस को अपनी पार्टी में मिला लेना है. बिहार में नीतीश कुमार को तोड़ कर एनडीए का हिस्सा बना लिया गया. उत्तर प्रदेश में मायावती को अकेले चलने के लिए छोड़ दिया गया है.
मध्य प्रदेश से जो खबरें आ रही हैं उन में यह साफ दिख रहा है कि मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव में कमलनाथ पर कमल का प्रभाव ज्यादा था. हाथ का दबाव कम था. यही वजह है कि कमलनाथ ने ‘इंडिया’ ब्लौक की वहां मीटिग नहीं होने दी.
समाजवादी पार्टी को एक भी सीट नहीं दी. सपा प्रमुख अखिलेश यादव को बेइज्जत किया. हालात ऐसे बना दिए कि गठबंधन की आपस में ठन गई. इस का नुकसान कांग्रेस को चुनावी हार के साथ ही साथ अब गठबंधन के फैसले करने में हो रहा है. जहां इंडिया गठबंधन और कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता की बात कर रहे थे, वहीं कमलनाथ हनुमान मंदिर बनाने और बाबा धीरेंद्र ब्रहमचारी की शरण में बैठे थे.
कांग्रेस को यह बात तब समझ आई जब उस का नुकसान हो चुका था. इस के बाद जब बिना कमलनाथ की सहमति के उन को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटा कर जीतू पटवारी को कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष बनाया, कमलनाथ नाराजगी दिखाने के लिए भाजपा में जाने की बात करने लगे ताकि कांग्रेस पर दबाव बना सके. कांग्रेस ने खुद को दबाव से मुक्त किया. उस के बाद कमलनाथ और उन के बेटे के भाजपा में जाने की खबरों पर रोक लग गई. मोदी सरकार को जो समय राजकाज चलाने में लगाना चाहिए वह समय वह पार्टी चलाने और मंदिर बनवाने में लगा रही है.
पीएमओ चला रहा देश
सामान्य तौर पर अगर प्रधानमंत्री के पास समय नहीं है तो मंत्रिमंडल के वरिष्ठ मंत्री सरकार के फैसलों की जानकारी देश को देते हैं. इस दौर में देश और पार्टी से जुड़े फैसले 4 लोगों की जानकारी में होते हैं. इन में पहला नाम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, दूसरा नाम गृहमंत्री अमित शाह, तीसरा नाम भाजपा अध्यक्ष जे पी नड्डा और चैथा नाम बी एल संतोष का है.
बी एल संतोष भाजपा संगठन के राष्ट्रीय महामंत्री हैं. वे आरएसएस और भाजपा के बीच समन्वयक का काम देखते हैं. आरएसएस की नजर से वे बहुत महत्त्वपूर्ण हैं. उन का काम यह देखना है कि सरकार और पार्टी के फैसलों में संघ की नीतियों का कितना पालन हो रहा है.
टिकट बंटवारे में भी उन का अलग वीटो पावर होता है. ईडी, सीबीआई के जरिए दबाव बना कर दलों में तोड़फोड़ या दूसरे दल के नेताओं को भाजपा में लेने का अंतिम फैसला अमित शाह का होता है.
बिहार में जब सरकार बदल रही थी तो बताया जाता है कि सुबह 4 बजे तक जाग कर अमित शाह ने तैयारियों को देखा था. जब सबकुछ योजना के हिसाब से तय हो गया तब वे रिलैक्स हुए.
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा का कार्यकाल बढ़ा दिया गया है. इस की वजह यह है कि सरकार और पार्टी के बीच रिश्तों को मधुर रखने में उन का बड़ा हाथ है. वहीं, नोटबंदी, जीएसटी व कोरोनाकाल में कुप्रबंधन जिस के चलते सैकड़ोंहजारों मजदूरों को दरदर भटकना पड़ा आदि के फैसले नौकरशाही ने लिए.
कोरोना के दौरान अचानक ट्रेन, बस और औफिस बंद कर दिए गए. पूरे देश में तालाबंदी हो गई. मरीजों को जबरदस्ती घरों से उठा कर अस्पतालों में भरती कर दिया गया. वहां कोई सुविधा नहीं थी. रोजरोज नएनए नियम बने. अस्पतालों में औक्सीजन की कमी रही. ये फैसले नौकरशाही ने लिए.
सरकार के स्तर पर पीएमओ ही इस की गाइडलाइन देता रहा. डाक्टरों से अधिक अधिकार पुलिस को दिए गए थे. मरीजों के घरों के सामने बल्लियां लगा कर उन के घर बंद कर दिए गए थे. इस की दहशत ने माहौल को खराब करने का काम किया था. ऐसे निष्ठुर फैसले मंत्री नहीं, नौकरशाह ही ले सकते हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश के कल्कि धाम मंदिर के उद्घाटन पर कहा कि, ‘ईश्वर ने मुझे राष्ट्ररूपी मंदिर के नवनिर्माण का काम सौंपा है.’ इसलिए यह साफ दिख रहा है कि उन का काम मंदिर निर्माण पर है. कई मंदिरों के निर्माण और उन की सुदंरता बढ़ाने वाले काम नरेंद्र मोदी ने किए हैं. हर बड़े मंदिर में कौरीडोर का निर्माण किया गया है. अगर उन की यात्राओं को देखें तो मंदिर उन के केंद्र में रहा है. इस से यह बात साफ हो जाती है कि नरेंद्र मोदी राजकाज चलाने से अधिक मंदिर निर्माण को समय दे रहे हैं. सरकार के फैसले नौकरशाह यानी पीएमओ ले रहा है.
क्रिकेट की बात करें तो फिलहाल इंगलैंड की टीम भारत में टैस्ट मैच खेल रही है. 5 मैचों की इस सीरीज में से 3 मैच हो चुके हैं, जिन में से पहला मैच भारत हार गया था, पर बाद के दोनों मैचों में भारत ने पलटवार कर के इंगलैंड को धूल चटाई. इस जीत में भारत के नए ओपनर बल्लेबाज यशस्वी जायसवाल का योगदान न भुलाने वाला है. उन्होंने लगातार 2 मैचों में 2 डबल सैंचुरी बना कर एक अलग ही रिकौर्ड कायम किया है और जता दिया है कि वे इस खेल में लंबी रेस के घोड़े बन सकते हैं.
यशस्वी जायसवाल ने अब तक कुल 7 टैस्ट मैच खेले हैं. इन में उन्होंने 71.75 की औसत से कुल 861 रन बनाए हैं, जिन में एक सैंचुरी और 2 डबल सैंचुरी शामिल हैं. उन की स्ट्राइक रेट 68.99 की है जो टैस्ट मैच के हिसाब से काफी विस्फोटक है. मतलब, उन्होंने गेंदबाजों की बखिया उधेड़ी है.
तीसरे टैस्ट मैच में यशस्वी जायसवाल ने दूसरी पारी में 236 गेंदों पर नाबाद 214 बनाए थे. इस पारी में 14 चौके और 12 चौके शामिल थे. स्ट्राइक रेट थी 90.68. टैस्ट मैच में इतनी ताबड़तोड़ बल्लेबाजी बहुत कम ही देखने को मिलती है. पर आज जिस तरह वे अपने बल्ले से आग उगल रहे हैं, उन की जिंदगी भी उसी दहक से भरी है, जहां तप कर यह खिलाड़ी इतने बड़े कद का दिख रहा है.
उत्तर प्रदेश के भदोही जिले के सुरियावां गांव से ताल्लुक रखने वाले यशस्वी जायसवाल के पिता भूपेंद्र जायसवाल एक छोटी सी हार्डवेयर की दुकान चलाते हैं. क्रिकेट में यशस्वी की दीवानगी उन्हें 11 साल की उम्र में मुंबई खींच लाई. अकेले जद्दोजेहद की. यहां तक कि डेरी तक में काम करना पड़ा. बहुत साल तक तक तो वे मुंबई के आजाद मैदान के मुसलिम यूनाइटेड क्लब टैंट में भी रहे. यहां पर वे रात को खाना बनाने का काम करते थे और दिन को क्रिकेट का अभ्यास करते थे. इस के अलावा उन्होंने गोलगप्पे भी बेचे.
साल 2021 को यशस्वी जायसवाल ने सोशल मीडिया प्लेटफौर्म पर पोस्ट करते हुए बताया था कि वे अपने पिता की वजह से क्रिकेटर बने और लिखा था, ‘मैं वहां पहुंचने की कोशिश कर रहा हूं, जहां जाना चाहता हूं. आप के शब्द मुझे हर पल मोटिवेट करते हैं. आप का यह कहना कि घबराओ मत, तुम यह कर सकते हो, मुझ में जोश भर देता है. मैं आप का शुक्रिया अदा करना चाहता हूं कि आप ने मुझे क्रिकेट खेलने का सपना दिखाया. यह पापा आप का ही तो सपना था, जिसे पूरा करने के लिए ही मैं ने क्रिकेट खेलना शुरू किया था.’
इतना ही नहीं, यशस्वी जायसवाल ने इंडियन प्रीमियर लीग 2023 के दौरान अपनी जद्दोजेहद पर बात करते हुए बताया था, ‘बंजारे की तरह टैंट में रातें गुजारना भयानक अनुभव था. लाइट नहीं होती थी और हमारे पास इतने पैसे नहीं होते थे कि हम किसी बेहतर जगह पर जा कर रह सकें. यही नहीं, मैदान पर बने टैंट में आसरे के लिए भी हमें मेहनत करनी पड़ी. जब टैंट में सोने को जगह मिली, तो वहां रहने वाले माली बुरा बरताव करते थे. कई बार तो पीट देते थे.’
यशस्वी जायसवाल के उस दौर के बारे में उन के कोच ज्वाला सिंह ने बीबीसी को बताया था, “यशस्वी जब तकरीबन साढ़े 11 साल का था, तब मैं ने उसे पहली बार खेलते हुए देखा था. उस से बातचीत करने के बाद पता चला कि वह बुनियादी बातों के लिए बेहद जद्दोजेहद कर रहा है. उस के पास न तो खाने के लिए पैसे थे और न ही रहने के लिए जगह. वह मुंबई के एक क्लब में गार्ड के साथ टैंट में रहा. वह दिन में क्रिकेट खेलता और रात को गोलगप्पे भी बेचता था. सब से बड़ी बात वह कम उम्र में उत्तर प्रदेश के भदोही जिले में अपने घर से दूर मुंबई में था.
“वह उस के लिए बेहद मुश्किल दौर था, क्योंकि बच्चों को घर की याद भी आती है. एक तरह से उसने अपना बचपन खो दिया था. लेकिन यशस्वी अपनी जिंदगी में कुछ करना चाहता था. मेरी कहानी भी कुछ ऐसी ही थी. मैं भी कम उम्र में गोरखपुर से कुछ करने मुंबई गया था. मैं ने भी वही झेला था जो यशस्वी झेल रहा था.
“उस की परेशानी को मैं समझ पा रहा था. घर से थोड़े बहुत पैसे आते थे. अपने परिवार को कुछ बता भी नहीं सकते थे, क्योंकि दिल में डर होता है कि अगर सबकुछ उन्हें पता चल गया तो वे कहीं वापस न बुला लें. तब मैं ने फैसला कर लिया कि मैं इस लड़के को संबल दूंगा, इस की मदद करूंगा, इस को ट्रेनिंग दूंगा, इस की तमाम जरूरतें पूरी करूंगा.”
फिलहाल तो यशस्वी जायसवाल ने कोच और पिता की उम्मीदों पर खरा उतर रहे हैं और अगर ऐसा ही रहा तो वे बाएं हाथ के एक उम्दा बल्लेबाज बन कर अपना नाम क्रिकेट में कमाएंगे.
Supreme Court Recognized Invaluable Contribution of Housewives : दुर्घटना में जान गंवाने वाली एक महिला के परिवार को मुआवजा दिए जाने के एक मामले की सुनवाई करते हुए देश की सब से बड़ी अदालत ने जो कहा वह घर संभालने वाली महिलाओं की आंखें खोलने वाला है. कोर्ट की टिप्पणी सचेत करती है कि अब उन्हें अपना मूल्य समझना चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि घर चलाने वाली महिला के काम को कम नहीं आंकना चाहिए. एक गृहिणी की भूमिका वेतनभोगी परिवार के सदस्य जितनी ही महत्त्वपूर्ण है. शीर्ष अदालत ने आगे कहा कि एक गृहिणी के महत्त्व को कभी कम नहीं आंकना चाहिए. शीर्ष अदालत में जस्टिस सूर्यकांत और के वी विश्वनाथन की पीठ ने 2006 में एक दुर्घटना में मरने वाली महिला के परिजनों को मुआवजा राशि बढ़ा कर 6 लाख रुपए कर दिया. सुप्रीम कोर्ट ने वाहन मालिक को मृत महिला के परिवार को 6 सप्ताह में भुगतान करने का निर्देश देते हुए कहा कि किसी को गृहिणी के महत्त्व को कभी कम नहीं आंकना चाहिए. गृहिणी के कार्य को अमूल्य बताते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि घर की देखभाल करने वाली महिला का मूल्य उच्च कोटि का है और उस के योगदान को मौद्रिक संदर्भ में आंकना कठिन है. पीठ ने कहा कि चूंकि जिस वाहन से वह यात्रा कर रही थी उस का बीमा नहीं था, इसलिए उस के परिवार को मुआवजा देने का दायित्व वाहन के मालिक पर है.
इस से पहले एक मोटर दुर्घटना दावा न्यायाधिकरण ने उन के परिवार, उन के पति और नाबालिग बेटे को 2.5 लाख रुपए का हर्जाना देने का आदेश दिया था. परिवार ने अधिक मुआवजे के लिए उत्तराखंड हाईकोर्ट में अपील की थी, लेकिन 2017 में उन की याचिका यह कहते हुए खारिज कर दी गई कि चूंकि महिला एक गृहिणी थी, इसलिए मुआवजा नहीं बढ़ाया जाएगा.
शीर्ष अदालत ने हाईकोर्ट की उस टिप्पणी को अस्वीकार कर दिया और कहा कि एक गृहिणी की आय को दैनिक मजदूर से कम कैसे माना जा सकता है. हम इस तरह के दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं करते हैं.
महिला के काम का मूल्यांकन नहीं
सच पूछें तो एक आम भारतीय परिवार में गृहिणी अमूमन सुबह 5 से रात 12 बजे तक लगातार घर के अनेक कार्यों को निबटाती है. एक नौकरीपेशा पुरुष मात्र 8 से 10 घंटे कोई एक तरह का काम करता है और अपनी कमाई की धौंस पूरे घर पर जमाता है. जबकि एक औरत प्रतिदिन करीब 18 घंटे काम करती हैं, ये काम कई प्रकार के होते हैं, अर्थात वह कई प्रकार के कार्यों को करने में दक्ष होती है, मगर उस के काम का न कोई मूल्यांकन होता है और न कोई भुगतान.
पानी भरना, सब के लिए खाना पकाना, घर की साफ़सफाई करना, घर सजाना, बागबानी करना, बरतन धोना, कपड़े धोना, कपड़े प्रैस करना, बच्चों को स्कूल लाना-लेजाना, बच्चों का होमवर्क करवाना, घर के लिए सब्जीभाजी खरीदना, सासससुर और अन्य परिजनों की देखभाल करना, उन के लिए दवा या अन्य चीजों की खरीदारी करना, उन को समय से भोजनपानी और दवा देना, अधिक बुजुर्ग या चलनेफिरने में लाचार सासससुर को नहलानाधुलाना, तीजत्योहारों की तैयारी और खरीदारी करना, कृषक परिवार में इन कार्यों के अलावा कृषि से जुड़े काम, ऐसी तमाम चीजें हैं जो एक गृहिणी प्रतिदिन करती है.
इन कामों के लिए यदि नौकर रखने पड़ें तो एक नहीं बल्कि कई लोग रखने पड़ेंगे, जैसे खाना पकाने के लिए रसोइया, पेड़पौधों की देखभाल के लिए माली, झाड़ूपोंछा और डस्टिंग के लिए मेहरी, नालियां और बाथरूम साफ़ करने के लिए जमादार, बरतन मांजने वाली, कपड़े धोने के लिए धोबिन, कपडे प्रैस करने के लिए प्रैसवाला, बच्चों की देखभाल के लिए आया, बुजुर्गों की देखभाल के लिए नर्स, बच्चों को स्कूल लाने-लेजाने के लिए ड्राइवर, बच्चों का होमवर्क करवाने के लिए ट्यूटरटीचर आदि. इन में से प्रत्येक को हर महीने दिए जाने वाले भुगतान को यदि जोड़ लें तो वह घर के पुरुष की प्रतिमाह कमाई से कहीं ज्यादा बैठेगा. यानी, एक गृहिणी इतने लोगों के कार्य और इतने प्रकार के कार्य न सिर्फ अकेले करती है बल्कि मुफ्त में करती है और उस को इन तमाम कार्यों के लिए कोई अहमियत, कोई शाबाशी, कोई रिकग्निशन नहीं मिलती.
नौकरी करने वाली महिलाएं
जो महिलाएं घर के इन कार्यों के साथसाथ नौकरी भी कर रही हैं, उन की हिम्मत और कार्य तो किसी भी पुरुष के कार्य से कई गुना ज़्यादा अहमियत रखते हैं. मगर, अफ़सोस कि पितृसत्तात्मक और बेहद संकुचित भारतीय मानसिकता वाला समाज औरत के किसी कार्य को कोई मान्यता नहीं देना चाहता. वह सिर्फ पुरुष द्वारा किए जाने वाले कुछ घंटों के दफ्तरी कार्य का ही महिमामंडन करने में पूरी ऊर्जा लगाता है.
दरअसल जिन महिलाओं ने खुद को घर के कामों में झोंक रखा है उन्हें अब अपनी दक्षता को आंकना, उस को जताना और अपने कार्यों का मूल्यांकन कर के घर के लोगों के सामने उस आंकड़े को रखने की जरूरत है. जो महिलाएं पढ़ीलिखी हैं, जो महिलाएं किसी विधा में दक्ष हैं, उन्हें अपना जीवन चूल्हेचौके में झोंकने के बजाय अपनी क्षमताओं के अनुसार घर से निकल कर काम करने, पैसा कमाने और अपनी उन्नति पर ध्यान देने की आवश्यकता है. नहीं करती हैं तो वे स्त्री जाति की सब से बड़ी दुश्मन हैं. ऐसी अनेक महिलाएं हैं जिन्होंने अपने पिता के घर में रह कर अपनी पढाई पर उन का खूब पैसा खर्च करवाया, मगर शादी के बाद खुद को घर की चारदीवारी में कैद कर के अपने सारे ज्ञान को चूल्हे में झोंक दिया. ऐसी अनेक महिलाएं हैं जिन के पास लौ की डिग्री है, डाक्टर की डिग्री है, इंजीनियर की डिग्री है मगर वे घर में खाना पका रही हैं और मर्द के बच्चे पाल रही हैं. ऎसी महिलाएं स्त्री जाति के लिए कलंक हैं. ऐसी ही औरतों ने औरतों की तरक्की में रोड़े डाल रखे हैं.
क्या घर सिर्फ स्त्री का है? क्या घर के लोगों की जिम्मेदारी सिर्फ औरतों की है? क्या खाना पकाना, बच्चे पालना, बूढ़ों की सेवा करना, घर की साफसफाई करना, कपड़े धोना आदि सिर्फ औरत अपने नाम लिखा कर मां की कोख से जन्मी है? ये तमाम कार्य पुरुष क्यों नहीं कर सकते? एक औरत यदि औफिस के साथसाथ घर के काम भी कर सकती है तो वही काम पुरुष क्यों नहीं कर सकता है? क्यों औरतों ने सारे काम सिर्फ अपने सिर पर उठा रखे हैं? क्यों नहीं वह काम का बंटवारा अपने पति के साथ करती है? क्यों वही औफिस से आ कर किचन में खाना बनाए? क्यों नहीं उस का पति बनाए? क्या उस के शरीर में औरत से कम ताकत है?
जब तक औरत यह नहीं समझेगी कि घर सिर्फ उस का नहीं, बल्कि उस के पति और घर के अन्य सदस्यों का भी है और उन सब को भी घर के कामों को उसी तरह करना चाहिए जैसे कि वह करती है, तब तक पितृसत्तात्मक समाज औरत को मजदूर बना कर उस को रौंदता रहेगा. जिस दिन औरत खुद यह बात समझ गई कि घर चलाने की जिम्मेदारी सिर्फ उस की नहीं है, उसी दिन से समाज और परिवार की सोच में बदलाव आने लगेगा. उसी दिन से समाज को औरत के काम का सही मूल्यांकन करना आ जाएगा.
खबर कुछ इस अंदाज में आई थी मानो लुप्त होती किसी दुर्लभ प्रजाति का कोई पक्षी दिख गया हो. ‘चंबल इलाके में डकैत फिर सक्रिय’ के मुकाबले अधिकांश खबरचियों ने हैडिंग यह दी कि ‘चंबल में रामसहाय गुर्जर का मूवमैंट देखा गया’. अरसे बाद सुना यह भी गया कि इस दस्यु पर सरकार 1975 की ‘शोले’ फिल्म के गब्बर सिंह की तरह 50 हजार रुपए का इनाम रखा है. यह खबर चिंताजनक थी या नहीं, यह तय कर पाना मुश्किल काम है. खुशी की बात यह रही कि चंबल के लोगों ने इस पर मिठाई नहीं बांटी कि हमारी पहचान अभी भी कायम है.
एक वक्त था जब चंबल के डाकुओं के नाम से देश कांपता था. मोहर सिंह, माधो सिंह, पान सिंह, मान सिंह, पुतलीबाई, फूलन देवी, सीमा परिहार और सरला जाटव जैसे दर्जनों नाम दहशत के पर्याय होते थे. डाकुओं पर कहानिया लिखी गईं, उपन्यास लिखे गए और इफरात से फिल्में भी बनीं. जिन में से कईयों ने तो रिकौर्ड बना दिए, ‘गंगा जमुना’, ‘मुझे जीने दो’, ‘मेरा गांव मेरा देश’, ‘शोले’ से ले कर ‘बैंडिट क्वीन’ होते हुए ‘पान सिंह तोमर’ और ‘चाइना गेट’ तक फिल्में खूब चलीं क्योंकि ये सभी हकीकत के बहुत नजदीक थीं.
अब डकैत और डकैती गुजरे कल की बातें हो चुकी हैं. न वे बीहड़ और अड्डे हैं, न घोड़ों की टापों की आवाज है, न अपहरण हैं, न फिरौतियां हैं और न जय मां भवानी के नारे हैं. ये क्यों नहीं हैं, इस सवाल का जवाब बहुत छोटे में यह कहते दिया जा सकता है कि बढ़ता शहरीकरण और सड़कीकरण डाकुओं के खात्मे की बड़ी वजह है. जंगलों की कटाई का फर्क भी पड़ा है.
ऐसे में रामसहाय गुर्जर का प्रगटीकरण, जिसे बाघ की तरह के मूवमैंट की संज्ञा दी गई, एक खौफजदा अतीत की याद दिलाता है. यह और बात है कि यह इनामी डकैत ज्यादा दिन बच नहीं पाएगा. वजह, वह टैक्नोलौजी है जिस के चलते अब कोई बहुत ज्यादा दिनों तक खुद को छिपा कर नहीं रख सकता.
रामसहाय गुर्जर के बारे में काफीकुछ जानकारियां पुलिस ने शेयर की हैं जिन में उस का या उस के गिरोह के किसी सदस्य का मोबाइल नंबर नहीं हैं जो कि नए दौर का मुखबिर है. जिस दिन पुलिस को किसी डाकू का मोबाइल नंबर मिल गया उसी दिन उस की लोकेशन ट्रेस कर थोड़ी सी धायंधायं के बाद यह खबर आएगी कि चंबल का आखिरी डाकू भी मारा या पकड़ा गया.
मुमकिन है, कुछ दिनों बाद फिर कोई टुटपुंजिया डाकू पैदा हो जाए लेकिन यह बात किसी सबूत की मुहताज नहीं कि अब इस पेशे की कोई इज्जत या पूछपरख नहीं रह गई है. मोबाइल फोन के चलते लोग डाकुओं से डरते नहीं हैं. अब डाकू भी पहले से दिलेर नहीं रहे जो मरना पसंद करते थे पर अपने उसूल नहीं छोड़ते थे.
नए दौर के डाकू
यह बात जरूर हैरत और रिसर्च की है कि जिन वजहों के चलते लोग डकैत बनते थे वे खत्म नहीं हुई हैं, मसलन शोषण, जातिगत अत्याचार और बदला वगैरह. बेरोजगारी किसी के डाकू बनने की कभी अहम वजह नहीं रही. इन में से भी अधिकतर के डाकू बनने की वजह प्रतिशोध रहा. ठीक वैसे ही जैसे दक्षिणी राज्यों सहित पश्चिम बंगाल, ओडिशा और बिहार के कुछ इलाकों में नक्सलवाद पनपा था. डाकुओं की कोई घोषित विचारधारा नहीं होती, इसलिए उन्हें किसी वाद से नहीं जोड़ा गया.
डाकुओं का इतिहास बताता है कि लगभग सभी बदले की आग में जलते और शोषण व अत्याचार से मुक्ति के लिए बीहड़ों में कूदे. दलित अत्याचार देशभर की आम समस्या रही है. ठाकुर टाइप के जमींदार जो कहर दलितों पर ढाते थे उसे देख अच्छेअच्छों का दिल कांप जाता था.
फूलन देवी के डाकू बन जाने की वजह ऊंची जाति वाले दबंगों के जुल्मोसितम थे. अब दलित डाकू नहीं बनते, तो उस की भी कई वजहें हैं जिन में से अहम है उन्हें, अलग से ही सही, मंदिरों का मिल जाना. जिन में वे भी सवर्णों की तरह पूजापाठ, यज्ञ, हवन और भंडारे आदि करते रहते हैं. इस से उन्हें यह गलतफहमी हो आती है कि वे भी ऊंची जाति वाले हो गए हैं.
डकैती अब अहिंसक भी हो चली है जिस में डकैत कहीं नहीं जाते. वे अपनी जगह पर बैठेबैठे डाका डालते हैं. इस में टैक्निकल नौलेज एक अनिवार्य शर्त है. गलीगली में कंप्यूटर के जानकार पैदा हो गए हैं. कुछ इलाके तो चंबल की तरह मशहूर हो गए हैं जिन में प्रमुख हैं झारखंड का जामताड़ा और हरियाणा का नूंह जो सांप्रदायिकता के लिए भी कुख्यात है. नूंह के दंगे और गौकशी वगैरह तो होलीदीवाली जैसे त्योहरों की तरह एक नियमित अंतराल से होते रहते हैं.
परंपरागत डकैती बनाम साइबर डकैती
अब जो नए इलाके विकसित हो रहे हैं उन में राजस्थान के भरतपुर और उत्तर प्रदेश के मथुरा के नाम प्रमुखता से लिए जा सकते हैं. ये साइबर डकैत हैं जिन के हाथ में रायफल नहीं, बल्कि लैपटौप होता है. समानता इतनी है कि ये भी योजनाबद्ध तरीके से अपनी डकैती को अंजाम देते हैं और भी कुछ समानताएं हैं जो इन्हें परंपरागत डाकुओं के समकक्ष ठहराती हैं. मसलन, ये भी बहुत ज्यादा पढ़ेलिखे नहीं होते.
पहले चंबल के युवा बंदूक उठा कर बीहड़ में कूदते थे. ये लोग हाथ में मोबाइल और लैपटौप ले कर किसी छोटे से मकान या झोंपड़े में इत्मीनान से बैठे लोगों को फोन कर मीठी सी आवाज में कह रहे होते हैं कि ‘फलां बैंक से बोल रहा हूं सर, आप को जानकर खुशी होगी कि हमारे बैंक ने आप के क्रैडिट कार्ड को अपग्रेड करने का फैसला लिया है. अब आप की क्रैडिट लिमिट बढ़ाई जा रही है और इस के लिए आप से अलग से कोई चार्ज नहीं लिया जाएगा.’ बंदा अगर झांसे में आता दिखता है तो अंजाम वही होता है जो कहीं और के नहीं बल्कि चंबल इलाके के ही रायला के निवासी हरजीराम धाकड़ का हुआ था.
हरजीराम संयुक्त चंबल परियोजना के डिप्टी प्रोजैक्ट मैनेजर हैं. एक दिन उन के पास बैंक के नाम से एक लड़की का कौल आया कि आप के क्रैडिट कार्ड के रिवार्ड पौइंट रिडीम करने के लिए एक मैसेज लिंक सहित भेजा गया है. आप उस लिंक पर जा कर अपना बेनिफिट ले लें. वे तो लिंक पर गए पर सकते में उस वक्त आ गए जब उन के खाते से एक लाख 83 हजार 64 रुपए उड़ गए.
साइबर डकैतों का यह गिरोह भीलवाड़ा का था, भरतपुर का था या मथुरा का, कहा नहीं जा सकता लेकिन इन का जलवा वही है जो अब से कोई 40-50 साल पहले चंबल के डकैतों का आगरा से ले कर दतिया तक और सतना से ले कर शिवपुरी तक हुआ करता था.
तब के बंदूकधारी डकैत आम लोगों के डर का फायदा उठाते कई बार तो पहले ही गांव के साहूकार, जमींदार या बनिए को चिट्ठी भेज देते थे कि ‘फलां अमावस की रात तुम्हारे यहां डाका डाला जाएगा. अगर बचना चाहते हो तो 25 हजार रुपए (70-80 के दशक में यह रकम बहुत होती थी) अमुक काली मंदिर के टीले पर रख जाओ, नहीं तो…’
यह चिट्ठी, दरअसल, बैंक के विदड्राल फौर्म की तरह होती थी जिस में राशि डाकू ही भर कर भेजते थे. पीड़ित बेचारा पुलिस वगैरह के लफड़ेपचड़े में नहीं पड़ता था क्योंकि उसे अनुभवों के आधार पर मालूम रहता था कि अव्वल तो पुलिस मौका ए वारदात पर पहुंचेगी ही नहीं, और पहुंच भी गई तो दूर से थोड़ीबहुत ठायंठायं कर वापस चली जाएगी जिस का लिहाज करते डाकू भाग तो जाएंगे लेकिन कुछ दिनों बाद उस के बेटे या बेटी के अपहरण के वक्त पुलिस मौजूद नहीं रहेगी. लिहाजा, डील बिना किस हीलहुज्जत के संपन्न हो जाती थी.
साइबर डकैत लोगों के लालच का फायदा उठाते हैं. वे पीड़ित को मोबाइल फोन के जरिए दाना डालते हैं कि अमेजन पर 16 हजार रुपए की कीमत वाला स्मार्टफोन महज 6 हजार रुपए में मिल रहा है लेकिन यह औफर आप जैसों के लिए कुछ ही घंटों के लिए है और सिर्फ औनलाइन पेमैंट पर ही उपलब्ध है. दस में से एकाध की अक्ल पर तो पत्थर पड़ना तय होता है जो 6 हजार रुपए का भुगतान कर देता है और फिर इंतजार करता रहता है कि अब डिलीवरी आया कि तब आया. लेकिन उसे नहीं आना होता तो वह नहीं आता और लुटनेपिटने वाला अपने समय को कोस कर चुप हो जाता है. कुछ हिम्मत वाले ही होते हैं जो साइबर या सादा पुलिस में रिपोर्ट लिखाने पहुंच जाते हैं. इस से आमतौर पर होताजाता कुछ नहीं, बल्कि साइबर फ्रौड या डकैती के आंकड़े में एक नंबर और जुड़ जाता है.
और ये डिजिटल दस्यु हसीनाएं
ऐसा ही एक आंकड़ा ग्वालियर के एक बुजुर्ग का है जो लाखों मर्दों की तरह एक खूबसूरत लड़की से न्यूड वीडियोकौल के चक्कर में लाखों रुपए से हाथ धो बैठे और लंबे वक्त तक मानसिक तनाव झेला सो अलग.
80 वर्षीय रिटायर्ड मिलिट्री अधिकारी श्यामसुंदर (बदला हुआ नाम) शहर के अनुपम नगर में रहते हैं. हुआ बस इतना ही एक दिन उन के पास एक युवती का व्हाट्सऐप कौल आई. कौल उठाते ही लड़की नग्न हो गई और सैक्सी बातें करने लगी. थोड़ी देर में ही श्यामसुंदर ने कौल काट दी.
कुछ देर बाद पता चला कि उन की न्यूड कौल यानी फिल्म बन चुकी है. लड़की ने फोन कर उन्हें धमकी दी कि तुरंत 20 हजार रुपए दो, वरना वीडियो वायरल कर दूंगी. श्यामसुंदर बुढ़ापे में यह कलंक झेलने को तैयार नहीं थे, सो, उन्होंने लड़की के बताए अकाउंट में 20 हजार रुपए यह सोचते ट्रांसफर कर दिए कि चलो बला टली. लेकिन दूसरे दिन पता चला कि असल मुसीबत तो अब शुरू हुई है. इस दिन उन के पास क्राइम ब्रांच के एक अधिकारी का फोन आया कि फलां युवती ने आप के खिलाफ न्यूड वीडियो बनाने का मामला दर्ज कराया है.
अब तो श्यामसुंदर के हाथों के तोते उड़ गए क्योंकि जैसा भी था लड़की का और उन का वीडियो तो वजूद में था. उन्होंने उस अफसर से मामला रफादफा करने की गुजारिश की तो वह 90 हजार रुपए में अपना इमान बेचने को राजी हो गया. उन्होंने उस के बताए अकाउंट में भी पैसे ट्रांसफर कर दिए. इस बार भी यही सोचा कि चलो, अब मुसीबत टली. पर यह खुशफहमी जल्द ही दूर हो गई जब उस क्राइम ब्रांच अफसर ने उन्हें फोन कर खबर दी कि वह लड़की गिरफ्तार कर ली गई है लेकिन अब हमें उस की भी रिपोर्ट दर्ज करनी पड़ेगी. इस बार भी झंझट से बचने के लिए उन्होंने डेढ़ लाख रुपए ट्रांसफर कर दिए.
फिर कुछ दिनों बाद उसी अफसर का पैसों कि बाबत फोन आया तो श्यामसुंदर का माथा ठनका और उन्हें ज्ञान प्राप्त हो गया कि क्राइम ब्रांच का अफसर भी फर्जी है और उसी लड़की का साथी है तो उन्होंने अपने साथ हुई इस डकैती की पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई. इस बार जाने क्यों उन्हें बदनामी का डर नहीं लगा. अब जो भी हो, वह खूबसुरत सैक्सी लड़की और उस का गिरोह शायद कभी पकड़ा जाए लेकिन जरा सी मौज के चक्कर में श्यामसुंदर को लंबा चूना लग चुका था.
ब्लैकमेलिंग के इस तरीके को सैक्सटोर्शन कहा जाता है, जिस के शिकारों की तादाद लाखों में होगी. लेकिन बदनामी के डर से लोग पुलिस में नहीं जाते. इस अनूठी डकैती में यूजर के पास किसी भी नाम से डिजिटल सुंदरी का कौल आती है और वह बड़े सैक्सी अंदाज में वीडियो कौल पर न्यूड हो कर सैक्सी क्रियाएं करने की बात करती है. जिस ने यह गलती यानी बाथरूम में जा कर कपड़े उतार कर बात करना शुरू की तो उस का अंजाम श्यामसुंदर या फिर गुरुग्राम के विवेक (बदला नाम) जैसा ही होता है.
साउथ सिटी-2 में रहने वाले विवेक के पास भी पिछले साल वैलेंटाइन डे के दिन एक लड़की रिया शर्मा का फोन आया था कि आओ, नग्न हो कर सैक्सी बातें करते हैं. उस दिन विवेक ने रिया से न्यूडकौल पर बात की तो उस ने पूरी बातचीत का वीडियो कौल रिकौर्डिंग ऐप के जरिए रिकौर्ड कर लिया. इस के बाद विवेक को रिया सहित कई लोगों ने ब्लैकमेल किया. 4 दिनों में ही विवेक को कोई सवा 4 लाख रुपए की कुरबानी देनी पड़ी.
इस के बाद उस का अकाउंट और सब्र दोनों जवाब देने लगे तो वह साइबर क्राइम थाना ईस्ट में जा पहुंचा और आपबीती की रिपोर्ट दर्ज कराई. साइबर डकैती की रेंज और तौरतरीकों का कहीं अंत नहीं है, जिन के सरदार का असली नाम भी पकड़े जाने के बाद ही पता चलता है लेकिन तब तक इन्हें रामसहाय कहना ही बेहतर होगा.
किस्मकिस्म की डकैतियां
जाहिर है ऐसे सैकड़ोंहजारों रामसहाय किसी जामताड़ा, भरतपुर, मथुरा या नूंह में बैठे नई साजिश रचते किसी का पासवर्ड मांग रहे होंगे, लिंक शेयर करने को कह रहे होंगे, ओटीपी भेज रहे होंगे या कोई सुंदर सी कन्या किसी से कह रही होगी कि बाथरूम में जा कर अपना प्राइवेट पार्ट दिखाओ, हमतुम फोन सैक्स करेंगे. और लोग ऐसा कर भी रहे होंगे. इन को कितने का चूना लगेगा, कहा नहीं जा सकता क्योंकि साइबर डकैतों के विदल फौर्म पर अमाउंट डील के दौरान अकसर खुद लुटने वाले भरते हैं.
अब तो इन साइबर डकैतों पर भी फिल्में और वैब सीरिज बनने लगी हैं, जैसे कुछ वर्षों पहले परंपरागत डकैतों पर बनती थीं. इन में कुछ खास हैं ‘प्लेयर्स’, ‘मिक्की वायरस’, ‘प्रिंस’, ‘जीनियस’ और ‘हेक्ड’. हालांकि, ये फिल्में ज्यादा असरदार नहीं थीं और चली भी नहीं, फिर भी आगाह करती हुई तो थीं.
एक हद तक नीरज पांडेय निर्देशित साल 2013 में प्रदर्शित ‘स्पैशल 26’ भी इसी जौनर की फिल्म थी, जिस में ठगों का एक गिरोह एक नकली सीबीआई अधिकारी की अगुआई में कारोबारियों और राजनेताओं के कालेधन को लूटने के लिए छापे मारता है. यही चंबल के डाकू करते थे पर वे खालिस डाकू थे जिन की तुलना राजनेताओं से यह कहते की जाती है कि वे सफेदपोश हैं. इन दिनों लीगल डकैती का जोर है, ईडी जैसी अधिकार संपन्न एजेंसियां कर रही हैं जो आएदिन छापे मार रही हैं. इसे एक किस्म की डकैती भी कहा जा सकता है.
तो डकैती चालू आहे. बच सकें, तो बच लीजिए.
राज्यसभा चुनावों में फिल्म अभिनेत्री व राजनेता जया बच्चन चर्चा में हैं. जया बच्चन को समाजवादी पार्टी 5वीं बार राज्यसभा भेज रही है. इस बात को ले कर समाजवादी पार्टी में कलह शुरू हो गई है. फिल्मों से राजनीति में आए उत्तर भारत के कलाकारों में बड़ी संख्या ऐसे कलाकारों की है जो सीधे चुनाव लड़ कर संसद में पहुंचने की फिराक में रहते हैं. दूसरी बात यह कि राजनीति में पहुंच कर भी वे फकत तमाशाई रहते हैं. इस के उलट, दक्षिण भारत के फिल्म कलाकार सक्रिय राजनीति करते हैं. फिल्मी कलाकारों के पास पैसा और शोहरत दोनों होती है. वे चाहें तो राजनीति के जरिए समाज को बहुतकुछ दे सकते हैं.
फिल्मों में एक हीरो दर्जनों विलेन को एक मुक्के से धूल चटा देता है लेकिन वह राजनीति में अपनी उस ताकत को नहीं दिखाता. हीरो से नेता बने ज्यादातर कलाकार राजनीति से पलायन कर जाते हैं या राजनीति में रहते हुए महज तमाशाई बने रहते हैं. ये एम जी रामचंद्रन, जयललिता, एन टी रामाराव, कमल हासन और रजनीकांत की तरह राजनीति में अपनी छाप छोड़ने में असफल रहते हैं. फिल्मी हीरो को चाहिए कि वे राजनीति में आएं और उस के जरिए समाज को कुछ दें. समाज ही इन लोगों को पैसा और शोहरत दोनों देता है. इन के आने से राजनीति के चेहरे में सुधार भी आएगा.
फिल्म और राजनीति का रिश्ता
फिल्मों में काम करते हुए राजनीति में कदम रखने वाले कलाकारों की लिस्ट लंबी है. इन कलाकारों ने जो दम फिल्मों में दिखाया वैसा दमदार प्रभाव राजनीति में दिखाने में सफल नहीं रहे हैं. इस से उन की परदे की नकली छवि का पता चलता है. परदे पर हीरो दिखने वाले ये कलाकार राजनीति में जीरो साबित होते हैं. राजेश खन्ना सुपरस्टार थे. एक के बाद 15 हिट फिल्में दी थीं. उन्होंने अपनी फिल्मी कैरियर की शुरुआत फिल्म ‘आखिरी खत’ से की थी. यह फिल्म 1966 में रिलीज हुई थी. उस के बाद उन्होंने 166 फिल्मों में बेहतरीन काम किया.
इस के बाद 1991 में कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा का चुनाव भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी के मुकाबले लड़ा पर हार गए. राजेश खन्ना बाद में शत्रुघन सिन्हा को हरा कर लोकसभा के सदस्य बने. इतनी हिट फिल्में देने वाले राजेश खन्ना राजनीति में अपनी छाप छोड़ने में सफल नहीं हुए. कुछ यही हाल बौलीवुड के महानायक कहे जाने वाले अमिताभ बच्चन का हुआ.
फिल्मों से ब्रेक ले कर राजीव गांधी के कहने पर उन्होंने इलाहाबाद से लोकसभा चुनाव लड़ा था और वे जीत भी गए. जब कांग्रेस संकट में आई, बोफोर्स घोटाले का आरोप लगा तो अमिताभ बच्चन ने राजनीति से पलायन किया. फिर कभी राजनीति में प्रवेश नहीं करने की कसम खाई. ‘जंजीर’ जैसी तमाम फिल्में देने वाले अमिताभ परदे पर कैसे दिखते थे लेकिन राजनीति में पलायनवादी निकले.
अभिनेता विनोद खन्ना ने अपने फिल्मी कैरियर की शुरुआत 60 के दशक में आई फिल्म ‘मन का मीत’ से किया था. वे पंजाब के गुरदासपुर से सांसद चुने गए. इस कड़ी में एक नाम मिथुन चक्रवर्ती का भी है. सनी देओल ने 63 की उम्र में राजनीति में एंट्री ली है. 2019 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस सांसद सुनील जाखड़ और आप के पीटर मसीह को भारी अंतर से हराने के बाद पंजाब के गुरदासपुर निर्वाचन क्षेत्र से सांसद बने हैं. फिल्म ‘गदर’ में उन का किरदार बहुत पंसद किया गया, वैसा दमदार काम वे राजनीति में नहीं कर सके.
धर्मेंद्र ने भी साल 2004 में बीजेपी का हाथ थामा था. पार्टी की ओर से उन को बीकानेर से टिकट दे कर लोकसभा में पहुंचाया गया था. जब भी सदन की कार्यवाही या सत्र चलता था तो वे उस में नहीं जाते थे, जिस के चलते राजनीति में उन का कैरियर शुरू होने से पहले ही खत्म हो गया.
दिग्गज ऐक्ट्रैस रेखा भी साल 2012 से राज्यसभा सांसद रही हैं. रेखा भी सदन में सत्र के दौरान कम ही आया करती थीं, जिस का सीधा असर उन के राजनीतिक कैरियर के लिए भारी साबित हुआ और ऐक्ट्रैस ने भी राजनीति में ऐक्टिव रहना कम कर दिया.
शबाना आजमी बौलीवुड की एक बेहतरीन हीरोइन रही हैं. उन्होंने अपनी फिल्मों से बौलीवुड में सिनेमा की रूपरेखा बदलने में बहुत मदद की है. जिस वजह से ऐक्ट्रैस को राज्यसभा की सदस्यता हासिल है. फिल्मों जैसा प्रभाव वे राजनीति में डालने में सफल नहीं रहीं. फिल्म कलाकार परेश रावल ने 200 से ज्यादा फिल्मों में काम किया है. गुजरात के अहमदाबाद पूर्व निर्वाचन क्षेत्र से भाजपा के सांसद हैं. राजनीति में कुछ नया करने में सफल नहीं हुए.
स्मृति ईरानी ने एक मौडल के तौर पर टीवी इंडस्ट्री में कदम रखा था. उन को टीवी की रानी कहा जाता था. उस के बाद उन्होंने राजनीति में कदम रखा. स्मृति ईरानी मोदी सरकार में केंद्रीय मंत्रिमंडल में मंत्री हैं. वे भारतीय जनता पार्टी के भीतर एक प्रमुख नेता हैं. वे संसद सदस्य के रूप में अमेठी लोकसभा से आती हैं. कांग्रेस नेता राहुल गांधी को हराने का तमगा उन के नाम भले ही हो पर टीवी की तरह वे राजनीति में कोई बदलाव नहीं कर पाई हैं. अपने गुस्से की वजह से समाज में उन की छवि पत्रकारविरोधी भी है.
शौटगन कहे जाने वाल शत्रुघन सिन्हा भारतीय जनता पार्टी सरकार में केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण और जहाजरानी मंत्री के रूप में काम कर चुके हैं. इस के बाद वे राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए. 2019 के आम चुनाव में भाजपा ने उन को टिकट नहीं दिया था. राजनीति में फिल्मों जैसी सफलता उन को नहीं मिली.
अभिनेता राज बब्बर भी इसी तरह के कलाकार हैं. फिल्मों की दुनिया को अलविदा कहने के बाद वे 3 बार लोकसभा के सदस्य और 2 बार भारतीय संसद के राज्यसभा के सदस्य रहे हैं. उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष रहे. ऐसा कोई उल्लेखनीय काम याद नहीं आता जो समाज के लिए उन्होंने किया हो. कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष रहते पार्टी को चुनाव जितवाने में सफल नहीं रहे.
अभिनेता सुनील दत्त ने अपना सब से ज्यादा समय राजनीति को दिया और उस से उन के पारिवारिक रिश्ते भी बहुत दिक्कत में आ गए थे. उन्होंने 1984 से अपने राजनीतिक कैरियर की शुरुआत की और 5 बार कांग्रेस पार्टी से सांसद रहे. इस के बाद भी फिल्मों जैसा प्रभाव वे राजनीति में नहीं डाल सके.
लोकप्रिय हीरो रहे गोविंदा का फिल्मी कैरियर 80 के दशक में शुरू हुआ था. उन्होंने बौलीवुड में सारी भूमिकाओं में अपना नाम कमाया. उस के बाद उन्होंने राजनीति में कदम रखा. 2004 के लोकसभा चुनाव में 50 हजार वोटों से मुंबई उत्तर सीट जीती और राजनीति में अपनी यात्रा शुरू की. राजनीति में फिल्मों जैसी सफलता इन के खाते में भी दर्ज नहीं हुई.
भोजपुरी फिल्मों में अपनी अदाकारी का लोहा मनवा चुके ऐक्टर रवि किशन, मनोज तिवारी, दिनेश लाल यादव ‘निरहुआ’ सांसद हैं. ये भी भोजपरी फिल्मों या समाज को नेता के रूप में कुछ भी देने में सफल नहीं रहे हैं. अभिनेत्री जयाप्रदा ने तेलुगू, तमिल, हिंदी, कन्नड़, मलयालम, बंगाली और मराठी फिल्मों में काम किया है. ऐक्ट्रैस एक दौर में स्टारडम के मामले में श्रीदेवी को टक्कर देती थीं. लेकिन कुछ दिनों बाद उन्होंने फिल्मों का दामन छोड़ राजनीति में आ गेन. वे 2004 से 2014 तक रामपुर से सांसद थीं. वे अपने प्रभाव से कभी चुनाव नहीं जीत सकीं. यही हालत ‘ड्रीमगर्ल’ हेमा मालिनी कि है. वे भाजपा की सांसद हैं. वे भी अपने बल पर चुनाव नहीं जीत सकतीं.
राजनीति में कुछ नहीं कर सके कलाकारों के बच्चे
बिहार के रहने वाले चिराग पासवान ने 2011 में फिल्म ‘मिले न मिले हम’ में कंगना रनौत के साथ काम किया था, लेकिन यह फिल्म बौक्सऔफिस पर फ्लौप हो गई. उस के बाद चिराग ने बौलीवुड को अलविदा कह दिया और राजनीति में उतर आए. उन के पिता रामविलास पासवान का देश की राजनीति में प्रभाव रहा है. चिराग पासवान फिल्मों की तरह राजनीति में भी सफल नहीं हुए. अभी भी उन को सहारे की तलाश रहती है.
अभिनेत्री नेहा शर्मा की खूबसूरती के लाखों दीवाने हैं, लेकिन वे बौलीवुड में कुछ खास कमाल नहीं कर सकीं. नेहा ने अपने कैरियर की शुरुआत 2007 में साउथ इंडियन फिल्म ‘चिरुथा’ से की थी. उस के बाद वे साल 2010 में बौलीवुड फिल्म ‘क्रूक’ में इमरान हाशमी के साथ नजर आई थीं. नेहा के पिता अजीत शर्मा बिहार के भागलपुर से कांग्रेस के विधायक रहे. नेहा शर्मा ने राजनीति के जरिए समाजसेवा का मन नहीं बनाया.
इसी कड़ी में एक नाम लव सिन्हा का है. वे मशहूर अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा के बेटे हैं, जो नेता भी हैं. उन की मां पूनम सिन्हा ने भी लखनऊ से लोकसभा का चुनाव लड़ा. लव सिन्हा ने अपने कैरियर की शुरुआत फिल्म ‘सदियां’ से की थी. बौलीवुड में असफल होने के बाद लव ने राजनीति कि ओर रुख किया. वहां भी अपनी छाप छोड़ने में वे सफल नहीं हो सके.
अभिनेता सलमान खान की बहन अर्पिता खान के पति आयुश शर्मा ने बौलीवुड में फिल्म ‘लव यात्री’ से शुरुआत की. सलमान की तरह बड़े स्टार का ख्वाब देखने वाले आयुश की पहली ही फिल्म बौक्सऔफिस पर फ्लौप हो गई. इन के पिता अनिल शर्मा भाजपा विधायक रहे हैं.
प्रभावी रहे हैं दक्षिण के कलाकार
उत्तर भारत के मुकाबले दक्षिण भारत के कलाकार अधिक सफल रहे हैं. वे राजनीति में केवल तमाशाई ही नहीं रहे, य्न्होंने समाज को बदलने का काम किया है. एम जी रामचद्रंन, एन टी रामाराव और जयललिता तो इस के उदाहरण रहे हैं. दूसरे कलाकारों ने भी अपनी पहचान बनाई है. इन में कमल हासन का नाम प्रमुख है. उन्होंने अपनी फिल्म ‘एक दूजे के लिए’ 1981 से बौलीवुड में एंट्री ली थी. उस के बाद अब उन्होंने अपनी खुद की पार्टी से शुरुआत की है. उन की पार्टी का नाम ‘मक्कल निधि मैयम’ है. दक्षिण के सुपरस्टार रजनीकांत ने भी 2021 में अपनी नई पार्टी बनाई.
तमिल सिनेमा के बड़े स्टार विजय ने राजनीति में आने का ऐलान कर दिया है. केंद्रीय चुनाव आयोग में दल का पंजीकरण होने के बाद अभिनेता ने 2026 का विधानसभा लड़ने की घोषणा की है. उन्होंने अपनी पार्टी का नाम तमिझगा वेत्रि कषगम रखा है. तमिझागा वेत्री कषगम का शाब्दिक अर्थ तमिलनाडु विजय पार्टी है.
अभिनेता विजय ने कहा कि उन की पार्टी आगामी लोकसभा चुनाव में किसी दल का समर्थन नहीं करेगी. पार्टी 2026 का विधानसभा चुनाव लड़ेगी. केंद्रीय चुनाव आयोग में पार्टी का पंजीकरण होने के बाद अभिनेता विजय ने इस फैसले का ऐलान किया.
उन्होंने कहा कि फिल्मों के साथ वे राजनीति में अपनी जिम्मेदारी को निभाएंगे. राजनीति कोई पेशा नहीं, बल्कि पवित्र जनसेवा है. अभिनेता विजय ने कहा कि मौजूदा राजनीति में भ्रष्टाचार हावी है. प्रशासन में गलत तौरतरीके हावी हैं तो दूसरी तरफ बांटने की राजनीति की जा रही है. ऐसा जाति और धर्म के नाम पर किया जा रहा है. यह हमारी प्रगति और एकता की राह में बड़ा रोड़ा है.
49 साल के अभिनेता विजय का पूरा नाम जोसेफ विजय चंद्रशेखर है. उन का जन्म तब के मद्रास में 22 जून, 1974 को हुआ था. विजय ने ऐक्टिंग की दुनिया बतौर बाल कलाकार कदम रखा था. 1984 में उन्होंने महज 10 साल की उम्र में ‘वेत्री’ नाम की फिल्म में अभिनय किया था.
4 दशकों से साउथ के सिनेमा में सक्रिय विजय करोड़ों रुपए की संपत्ति रखते हैं. 2023 में उन के परस 474 करोड़ रुपए की संपत्ति थी. विजय के राजनीति में कदम रखने से राज्य में सत्ताधारी डीएमके के साथ एआईएडीएमके को नुकसान हो सकता है.
विजय जैसा कदम क्या कोई उत्तर भारत का फिल्म स्टार उठा सकता है? उत्तर भारत के कलाकारों को भी दक्षिण के कलाकारों की तरह से गंभीरता से राजनीति में आना चाहिए, जिस से वे राजनीति के जरिए समाजसेवा कर सकें.
उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने सेना में अग्निवीर योजना, बेराजगारी, अडानी, राम मंदिर और जातीय गणना पर मुखर हो कर बोलते दिखे. प्रदेश में इस यात्रा में पार्टी नेता प्रियंका गांधी को भी शामिल होना था लेकिन तबीयत ठीक न होने के कारण वे इस में शामिल नहीं हो सकीं. प्रदेश में दूसरे दिन यह यात्रा कुरौना, वाराणसी में दोपहर का भोजन कर के लोगों से बात करने के बाद वाराणसी की तरफ बढ़ेगी.
16 फरवरी को भारत जोड़ो न्याय यात्रा ने देश के सब से अधिक लोकसभा सीटों वाले राज्य उत्तर प्रदेश में प्रवेश किया. यह बिहार से चंदौली के रास्ते उतर प्रदेश पहुंची जहां यात्रा का निर्धारित कार्यक्रम ‘तिरंगा सेरेमनी’ हुआ जिस में बिहार कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश प्रसाद सिंह ने उत्तर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय राय को तिरंगा सौंपा. इस अवसर पर राष्ट्रीय महासचिव व प्रदेश प्रभारी अविनाश पांडे, कांग्रेस विधान मंडल दल के नेता आराधना मिश्रा मोना और अन्य कई नेता उपस्थित रहे.
चंदौली पहुंच कर राहुल गांधी ने सैयद राजा शहीद स्मारक पर शहीदों को नमन किया. राहुल गांधी ने कहा, ‘एक विचारधारा भाई को भाई से लड़ाती है और आप की जेब से पैसा निकाल कर चुनिंदा अरबपतियों को दे देती है, दूसरी विचारधारा नफरत के बाजार में मोहब्बत की दुकान खोलती है और आप का हक आप को वापस लौटाती है.’
भारत जोड़ो न्याय यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने लोगों से पूछा कि देश में फैली नफरत का क्या कारण है, इस पर जवाब मिला कि देश में फैल रही नफरत का कारण डर है और डर का कारण अन्याय है. आज देश के हर हिस्से में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर अन्याय हो रहा है. देश में किसानों व गरीबों की जमीनें छीन कर अरबपतियों को दी जा रही हैं. महंगाई और बेरोजगारी बढ़ती जा रही है.
मोदी सरकार की अग्निपथ योजना को युवाओं के साथ धोखा बताते हुए राहुल गांधी ने कहा कि अग्निवीर को न कैंटीन सुविधा मिलेगी, न पैंशन मिलेगी और न शहीद का दरजा मिलेगा. यह युवाओं के साथ धोखा है.
मोदी सरकार अग्निपथ योजना इसलिए लाई ताकि देश के रक्षा बजट से पैसा हमारे जवानों की रक्षा, उन की ट्रेनिंग और पैंशन में न जाए. रक्षा के सभी कौन्ट्रैक्ट अडानी की कंपनी के पास हैं. मोदी सरकार हिंदुस्तान के बजट का पूरा पैसा अडानी को देना चाहती है, इसलिए अग्निवीर योजना लाई गई.
राहुल गांधी ने आगे कहा कि मोदी सरकार चाहती है कि सब लोग ठेके के मजदूर बनें. युवाओं को सेना, रेलवे और पब्लिक सैक्टर में नौकरी नहीं मिल रही, क्योंकि मोदी सरकार चाहती है कि युवा ठेके पर ही काम करें. आज हिंदुस्तान में दोतीन अरबपतियों को पूरा फायदा मिल रहा है और युवाओं का ध्यान भटका कर उन का भविष्य छीना जा रहा है. केंद्र में ‘इंडिया’ की सरकार आने पर पूरे हिंदुस्तान में रिक्त पड़े सरकारी पदों पर भरती की जाएगी.
राहुल गांधी ने कहा कुछ ही दिनों पहले हम ने किसानों के लिए एमएसपी की लीगल गारंटी दी है. हम कानूनी गारंटी देंगे कि हिंदुस्तान के किसानों को सही एमएसपी दी जाए. उन्होंने कहा, “मैं आप से यह कहना चाहता हूं कि सामाजिक अन्याय हो रहा है, आर्थिक अन्याय हो रहा है, किसानों के खिलाफ अन्याय हो रहा है.”
राहुल गांधी ने जनता से सवाल किया कि नरेंद्र मोदी ने किसानों का कितना कर्जा माफ किया? जनता की भीड़ ने कहा, ‘जीरो. एक रुपया नहीं किया.’ राहुल गांधी ने दूसरा सवाल किया, ‘हिंदुस्तान के 20-25 अरबपतियों का कितना कर्जा माफ किया?’ जवाब आया. ‘16 लाख करोड़ रुपए.’
मीडिया पर तंज कसते राहुल बोले, ‘हम ने किसानों का कर्जा माफ किया, 72 हजार करोड़ रुपए हम ने माफ किए और उस टाइम सारे मीडिया ने कहा कि देखो, यूपीए की सरकार पैसा जाया कर रही है, किसानों को आलसी बना रही है. तो जब किसानों का कर्जा माफ होता है तो मीडिया कहती है कि किसानों को आलसी बनाया जा रहा है और जब नरेंद्र मोदी जी 15-20 लोगों का 16 लाख करोड़ रुपए कर्जा माफ करते हैं, तो फिर ये एक शब्द नहीं कहते. जनता की भीड़ ने कहा, ‘मोदी मीडिया, गोदी मीडिया एक शब्द नहीं कहता.’ जनता के यह कहने पर राहुल बोले, ‘तो इसी अन्याय के खिलाफ हम ने यह यात्रा निकाली है.’
कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष गांधी ने कहा कि मीडिया में कभी किसान या मजदूर का चेहरा नहीं दिखाई देगा. राम मंदिर की प्राणप्रतिष्ठा कार्यक्रम में अडानी, अंबानी, अरबपति, फिल्मी सितारे दिखे लेकिन कोई गरीब, किसान, बेरोजगार, दुकानदार या मजदूर नहीं दिखा.
भागीदारी न्याय का मुद्दा उठाते हुए कांग्रेस नेता ने कहा कि देश में पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों की आबादी 73 प्रतिशत है. मगर इन वर्गों की कहीं भी भागीदारी नहीं है. इन वर्गों को कुछ नहीं मिल रहा है. यह अन्याय है. जाति जनगणना से पता चलेगा कि देश में कितने पिछड़े, दलित और आदिवासी हैं. किस वर्ग के पास कितना धन है. जाति जनगणना देश का एक्सरे है. इस से पता लग जाएगा कि सोने की चिड़िया का धन किस के हाथ में है. यह क्रांतिकारी कदम है. केंद्र में ‘इंडिया’ की सरकार आने पर पूरे देश में जाति जनगणना कराई जाएगी.
सवाल
मैं 28 वर्षीय युवक हूं. मेरी गर्लफ्रैंड मुझे बहुत चाहती है. मैं और मेरी गर्लफ्रैंड अकसर मिलते रहते हैं, कभी पब्लिक प्लेस में तो कभी प्राइवेट प्लेस में. मैं उस के घर चला जाता हूं क्योंकि उस के पेरैंट्स वर्किंग हैं, घर पर कोई नहीं होता. वह इकलौती संतान है. जब भी मैं उस के घर जाता हूं, वह मुझे उत्तेजित कर देती है लेकिन इंटरकोर्स करने से मना कर देती है. मैं उसे समझाने की कोशिश करता हूं कि वह मेरे लिए खास है और मेरी जिंदगी में उस के अलावा न कोई है न होगा. इंटरकोर्स करने में कोई हर्ज नहीं लेकिन वह नहीं मानती. मैं तनाव में आ जाता हूं. मुझे बुरा भी लगता है. मैं क्या करूं?
जवाब
आप यह मानते हैं कि आप की गर्लफ्रैंड आप को पसंद करती है, बेहद प्यार करती है. यकीनन इस में संदेह नहीं वरना वह आप पर ऐतबार कर के आप को अपने घर आने न देती.
अकसर लड़कियां शादी से पहले पेनिट्रेटिव सैक्स पसंद नहीं करती हैं. हमारे समाज में वैजाइनल सैक्स को ले कर बहुत ज्यादा भ्रांतियां हैं, जिन में मनोवैज्ञानिक और सामाजिक दबाव भी शामिल हो जाता है. वैजाइना सैक्स उन के लिए सब से अंतिम चीज है, जो वे शादी के बाद करती हैं और वे इसे जबतब या बारबार नहीं करना चाहतीं.
पेनिट्रेटिव सैक्स से उस का इनकार इस वजह से भी हो सकता है कि उसे कुछ और समय चाहिए. हालांकि इस का मतलब यह नहीं हो सकता है कि वह आप को पसंद नहीं करती. इस का सिर्फ यह मतलब हो सकता है कि आप को उस की इच्छा का सम्मान करना चाहिए और उसे समय देना चाहिए.
समय के साथ प्यार बढ़ता है, एकदूसरे पर भरोसा बढ़ता है. वैसे, यदि आप दोनों लाइफ में सैटल हो गए हैं तो शादी करने का परफैक्ट टाइम है. शादी कर लीजिए आप की सारी ख्वाहिशें पूरी हो जाएंगी. तनाव में रहने की कोई वजह ही नहीं रहेगी.
अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz
सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem
रिलेशनशिप में आना हर किसी के जीवन में एक नए पड़ाव जैसा होता है जिसमे व्यक्ति किसी ऐसे व्यक्ति के साथ अपने जीवन के सुख दुःख को साझा करता है जिसे वो पसंद करता है जिससे वो प्यार करता है.
जहां नए रिलेशनशिप में आना लड़का और लड़की दोनों के लिए नया और प्यारा एहसास होता है वहीं दूसरी ओर दोनों के मन में नए रिश्ते को लेकर कई तरह के डर भी पैदा होते हैं.
आज हम आपसे उन्ही बातों, उन्ही डर का जिक्र करेंगे जो एक व्यक्ति के मन में नए रिलेशनशिप में आने के बाद घर करती है.