“अरुण गोविल की अभिनय प्रतिभा का मैं कायल रहा हूं.‌ रामायण सीरियल तो मैं नहीं देख पाया लेकिन ‘बिस्तर’ और ‘माशूका’ जैसी फिल्मों में उन का कमाल का अभिनय देखा है, खासकर, नंगे और अंतरंग दृश्य वे बहुत सहजता से करते रहे हैं. फिल्मों में उन्होंने सी या डी ग्रेड का कोई अंतर नहीं किया.”
• महेंद्र यादव, (सोशल मीडिया से)

भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा चुनाव में प्रसिद्ध पौराणिक धारावाहिक ‘रामायण’, जिस के निर्मातानिर्देशक रामानंद सागर थे, में दशरथ नंदन राम की भूमिका निभाने वाले अभिनेता अरुण गोविल को अपना प्रत्याशी बना कर चुनावी मैदान में उतारा है. इस के बाद से ही यह चर्चा का दौर चल पड़ा है कि फिल्मों या अन्य गतिविधियों में नाम कमाने के बाद जिस तरह कुछ ‘चेहरे’ नेताओं के भुलावे में राजनीति में आ जाते हैं उस का देश-समाज को कोई लाभ नहीं मिल पाता और मतदाता सिर्फ एक पक्ष को देखता है, उस के दूसरे काम को नजरअंदाज कर देता है.

और अंत में जब उन का 5 वर्षों का कार्यकाल देखा जाता है व समीक्षा की जाती है तो देश और समाज को कुछ भी नहीं मिलता. अरुण गोविल को ले कर सोशल मीडिया में जो टिप्पणियां की जा रही हैं वे बताती हैं कि जहां अरुण गोविल धारावाहिक ‘रामायण’ में राम की भूमिका अदा करने के बाद देशभर में जो लोकप्रिय हुए तो सचाई यह है कि उन्होंने कुछ ऐसी फिल्मों में भी 80 के दशक में काम किया जो आज यूट्यूब आदि पर मौजूद हैं जिन्हें देख कर राम की जो छवि हम उन में देखते हैं वह चकनाचूर हो जाती है.
दरअसल, सच यह है कि हमें इतनी बौद्धिक क्षमता होनी चाहिए कि हम किसी कलाकार को उस के सिनेमाई चरित्र के आधार पर सिरआंखों पर न बैठाएं वरना यह लोकतंत्र के साथ धोखा होगा और यह जो तमाशा बना हुआ है उस से लोकतांत्रिक मूल्य कमजोर होंगे.

किसी अभिनेता ने अगर राम का अभिनय किया, किसी ने सीता का अभिनय किया और किसी ने हनुमान का किरदार कर लिया है तो इस का मतलब यह नहीं है कि वह भगवान बन गया है. और वह एक अच्छा समाजसेवक और संसद में पहुंचने के बाद देश को दिशा देने का काम करेगा.

अभी तक का इतिहास अगर हम देखें तो इस से सचाई अपनेआप हमारे सामने आ जाती है. इन फिल्मी सितारों के साथसाथ अन्य विविध विधाओं चाहे वह क्रिकेट हो या अन्य के नामचीन सितारे जब संसद की देहरी पर पहुंचते हैं तो देश को बड़ी उम्मीदें होती हैं मगर वे 5 साल बीतते खत्म हो जाती हैं. ज्यादा दूर नहीं, अगर हम 2 दशक पीछे जाएं तो देखते हैं कि अरविंद त्रिपाठी ने रावण की भूमिका अदा की और भाजपा ने उन्हें राज्यसभा पहुंचा दिया. इसी तरह दीपिका ने सीता की भूमिका की, लोकसभा पहुंच गईं.

कृष्ण की भूमिका कर के नितीश भारद्वाज संसद पहुंच गए. आम जनता उन्हें उन के किरदार के आधार पर वोट दे देती है मगर बाद में वह अपनेआप को ठगा हुआ महसूस करती है. इसलिए होना यह चाहिए कि जो भी प्रत्याशी हमारे पास मत मांगने आते हैं उन्हें हम देखेंपरखें और फिर अपना बेशकीमती वोट उन्हें दें. सचाई यह है कि हमारे देश में धर्मधार्मिकता से अभी भी शिक्षित हो जाने के बावजूद करोड़ों लोग बाहर नहीं निकल पाए हैं और जब ऐसे मौके पर कोई अभिनय कर के दिलों में अपना स्थान बना चुका है तो भूल जाते हैं कि यह वह पौराणिक पात्र नहीं है, इस ने तो उस पात्र का अभिनय मात्र किया है.

अगर आज हम अरुण गोविल की बात करें तो यूट्यूब पर उन की ऐसी अश्लील फिल्में मौजूद हैं जिन से उन का चरित्र ढह सकता है. उन की ‘बिस्तर’ फिल्म देख कर आप स्वयं अंदाज लगा सकते हैं कि जब 90 के दशक में ‘रामायण’ धारावाहिक आया था उसी दरमियां उन का आभामंडल राम के रूप में जनजन तक पहुंच चुका था. मगर उन्होंने हिम्मत नहीं की और राजनीति से दूर रहे, शायद, उन्हें यह महसूस रहा होगा कि ‘बिस्तर’ फिल्म राजनीति में उन के ऊपर हमले का कारण बन सकती है और वे चुनाव हार भी सकते हैं मगर अब बहुत समय बीत चुका है और बहुत सोचसमझ कर अरुण गोविल ने भारतीय जनता पार्टी का हाथ थामा है. यह भी एक पक्ष है कि आज जब अरुण गोविल जैसे लोगों को फिल्मी दुनिया में कोई काम नहीं मिल रहा है तो वे आखिर करें क्या? और भाजपा जैसे दलों को ऐसे चेहरे चाहिए जो उन की राजनीति की नाव को चलाने में मददगार बनें. इस चक्कर में देश और लोकतंत्र को निसंदेह नुकसान हो रहा है.

 

 

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