धार्मिक नगर उज्जैन के मशहूर महाकाल मंदिर के गर्भगृह में ऐन होली के दिन सुबहसुबह आग लगने से 14 पंडे पुजारी झुलस गए थे. हादसा मंदिरों में आएदिन होने वाले हादसों के मुकाबले बहुत ज्यादा गंभीर व नुकसानदेह नहीं था लेकिन राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री द्वारा सोशल मीडिया पर चिंता जताए जाने के बाद जरूरत से ज्यादा गंभीर हो गया.
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव की यह बहैसियत मुख्यमंत्री पहली होली थी जिसे वे भोपाल में मना भी रहे थे लेकिन जैसे ही महाकाल मंदिर के इस तथाकथित भीषण अग्निकांड की खबर उन्हें लगी तो वे तुरंत उज्जैन के मंदिर पहुंच गए. हालांकि प्रशासन उन्हें पहले ही सूचित कर चुका था कि कोई हताहत नहीं हुआ और न ही इस में आतंकियों या विधर्मियों या शरारती तत्त्वों का हाथ है तो उन्होंने बेफिक्री की लंबी सांस ली होगी लेकिन मामला चूंकि उन के गृहनगर का भी था और प्रधानमंत्री ने उन्हें खासतौर से फोन भी किया था, इसलिए भी उन्हें फ़ौरन पहुंचना पड़ा.
मंदिर पहुंच कर उन्होंने पहले हादसे की जानकारी ली और फिर पूजापाठ करने के बाद उज्जैन के सरकारी अस्पताल जा पहुंचे जहां अग्निपीड़ितों का इलाज चल रहा था. शुरुआती जानकारी के मुताबिक कुल 14 लोग झुलसे थे जिन में 3 पुजारी व अन्य सेवादार थे. मूर्ति के श्रृंगार के बाद कपूर आरती के दौरान स्प्रे गुलाल उड़ाने से यह आग लगी और तेजी से फैली इसलिए कि चांदी की दीवार पर लगे कपड़ों ने आग पकड़ ली थी.
यह भूमिका या प्रस्तावना ही इस अग्निकांड का उपसंहार भी है. इस से ज्यादा जांच में कुछ सामने आएगा, ऐसा लगता नहीं. प्रधानमंत्री ने इसे दर्दनाक बताया तो युवा मुख्यमंत्री मोहन यादव ने बुजुर्गों के से अंदाज में लाख टके की बात यह कह दी कि भगवान की कृपा से कोई बड़ा हादसा नहीं हुआ. यानी, जो छोटा हादसा हुआ वह भी भगवान की ही मरजी थी. फिर जांच कमेटी की तुक क्या? धार्मिक लोग बड़े दिलचस्प होते हैं जो हर अच्छेबुरे का जिम्मेदार ऊपर वाले को ठहराते खुद को भूमिका और दोषमुक्त कर लेते हैं. इस फलसफे का कोई तोड़ आज तक कोई नहीं निकाल पाया है कि जो भी होता है ऊपर वाले की इच्छा से होता है.
लेकिन उज्जैन के इस अग्निकांड में जले सभी पंडेपुजारी यानी भगवान के सेवक ही थे, इसलिए यह हैरानी होना भी स्वाभाविक बात है कि अगर यह भगवान ने किया तो वह ही दोषी क्यों नहीं. परेश रावल अभिनीत फिल्म ‘ओ माई गौड’ का वह दृश्य भूलने की चीज नहीं है जिस में वह भरी अदालत में सभी धर्मों के ग्रंथों के हवाले से साबित कर देता है कि भूकंप से क्षतिग्रस्त हुई उस की दुकान का जिम्मेदार चूंकि ऊपर वाला ही है, इसलिए मुआवजा और हर्जाना भी वही दे. फिल्मी अदालत में इस मुकदमे का फैसला हो पाता, इस के पहले सैंसर की कैंची से बचने के लिए निर्देशक ने बड़ी खूबसूरती से कहानी का अंत कर दिया लेकिन एक तार्किक सवाल उठाने के श्रेय और साधुवाद से उन्हें वंचित करना उमेश शुक्ला के साथ ज्यादती ही होगी.
इधर, पुजारियों को कम से कम एक एक लाख रुपए मुआवजा देने की घोषणा करने के साथ मोहन यादव ने अपनी संवेदनशीलता जताने का मौका नहीं गंवाया. मुफ्त इलाज की घोषणा की तो बात ही क्या, जो उज्जैन के सरकारी अस्पताल में हुआ. फिर भगवान के सेवकों को इंदौर के ब्रैंडेड अरविंदो अस्पताल रैफर कर दिया गया. इस से साबित हो गया कि खुद मुख्यमंत्री के गृहनगर का सरकारी अस्पताल इतना घटिया है कि वहां 30-40 फीसदी जले लोगों का इलाज भी नहीं हो सकता. इस बाबत वहां की बर्न यूनिट के स्टाफ को सस्पैंड नहीं किया गया तो यह भी भगवान की ही मरजी रही होगी.
एक बात जो साबित नहीं हुई लेकिन पूरी शिद्दत से मौजूद है वह यह है कि न केवल उज्जैन बल्कि देशभर के सरकारी अस्पतालों में गंद रहती है. वे कपूर-चंदन की महक से नहीं, बल्कि दुनियाभर के अवशिष्ट पदार्थों की बदबू से पहचाने जाते हैं. इस से पुजारियों को घुटन हो सकती थी. इस के अलावा डर भगवान के इन सेवकों के धर्म के भृष्ट हो जाने का भी था क्योंकि सरकारी अस्पतालों में इलाज कराने जाने वाले अधिकतर मरीज छोटी जाति वाले होते हैं. इन्हें धर्मग्रंथ शूद्र और संविधान अनुसूचित जाति, जनजाति वाला और राजनेता व मीडियाकर्मी दलित, आदिवासी, पिछड़ा कहते हैं. संविधान की किसी एक अनुसूची में इन्हें बराबरी देने की बात कही गई है जिसे समाज को मानने को बाध्य नहीं किया जा सकता.
अरविंदो जैसे आलीशान, चमचमाते, वातानुकूलित, प्राइवेट लक्जरी अस्पताल की शान और बात ही कुछ और है जहां आधा मर्ज तो साफसुथरे, सुंदर, स्मार्ट स्टाफ और माहौल को देख कर ही छू हो जाता है. उलट इस के, सरकारी अस्पतालों का माहौल देख बीमारी और बढ़ जाती है और अच्छेखासे स्वस्थ आदमी को भी बीमार बना देने का माद्दा रखता है. अरविंदो जैसे अस्पतालों में शूद्र फटक भी नहीं सकते और जो फटक सकते हैं उन की जेब में लक्ष्मी होती है. जिस की अधिकता उन्हें शूद्र्पने यानी शूद्र होने के पौराणिक श्राप से मुक्त कर चुकी होती है.
तो मध्य प्रदेश सरकार ने पुजारियों का धर्म भृष्ट होने से बचा लिया. नहीं तो इलाज तो उन का उज्जैन के सरकारी अस्पताल में भी हो सकता था क्योंकि उज्जैन में जलने वाले सभी इंदौर के अरविंदो नहीं जाते. वे वहीँ ठीक हो जाते हैं. जांच बिंदुओं में इसे अगर शामिल किया जाता तब लगता कि सरकार ने निष्पक्षता और ईमानदारी बरती.
सवाल तो यह भी जवाब का मुहताज है कि अगर ये पंडेपुजारी घर में या किसी और जगह जले होते तो भी क्या उन्हें इतनी ही सुविधाओं के साथ अरविंदो भेजा जाता, तब भी क्या मंदिरप्रेमी प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री इतनी ही संवेदनशीलता और फुरती दिखाते? जवाब है- नहीं. असल में मामला उस चमत्कारी और भव्य मंदिर का है जिस पर सरकार करोड़ों रुपए फूंक चुकी है और अभी भी कोई कंजूसी नहीं कर रही और न आगे करेगी.
ऐसे में अगर कोई अनहोनी हो जाती जो, बकौल मोहन यादव, भगवान की कृपा से नहीं हुई तो जरूर भक्तों की आस्था दरकती. हालांकि, तार्किक और व्यावहारिक लोग अभी भी यह सवाल दागने से चूक नहीं रहे कि सर्वशक्तिमान ईश्वर ने अपने सेवकों और पुजारियों को जलने से बचाया क्यों नहीं. और यह आग अगर इन्ही लोगों की लापरवाही से लगी है तो क्या उन्हें दोषी मानते सजा दी जाएगी जैसा कि जांच के बिंदुओं में से एक में कहा गया है कि दोषियों को सजा दी जाएगी.
आग इसलिए लगती है, भगदड़ इसलिए मचती है कि मंदिरों में अब ज्यादा से ज्यादा चढ़ावे के चक्कर और लालच में तीजत्योहारों पर जरूरत से ज्यादा शोबाजी होने लगी है. पत्थर की मूर्तियों के लिए गरमी में एसी लगाए जाने लगे हैं. ठंड में मूर्तियों को स्वेटर पहनाए जाते हैं, अलाव जलाए जाते हैं और गरम हवा वाले हीटर भी लगाए जाने लगे हैं. मूर्तियों को सैकड़ों तरह के व्यंजनपकवान खिलाए जाने लगे हैं जबकि हकीकत में इन्हें खाते पंडेपुजारी हैं.
कुछ हिस्सा प्रसाद के नाम पर मौजूद भक्तों को दे दिया जाता है जिस से कोई हायतोबा न मचे. एसी और अलाव का सुख भी यही सेवक भोगते हैं. अब यह सब व्यावसायिक तौर पर होगा, तो फैक्टरियों और कारखानों की तरह हादसे भी स्वाभाविक रूप से होंगे, जिन के जिम्मेदार यही नीचे वाले होते हैं जो शाश्वत धूर्तता दिखाते सारी जिम्मेदारी ऊपर वाले के सिर मढ़ देते हैं (इन्हें ‘ओ माई गौड’ फिल्म में कांजी भाई के मुंह से ऊपरवाले का एजेंट और मैनेजर कहलवाया गया है). इन का मकसद दुकानदारी और ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाना होता है. मंदिरों में भीड़ ज्यादा आती है तो चढ़ावे की तादाद में भी इजाफा होता है जिस से दक्षिणापंथियों की बांछें खिली रहती हैं. इस बाबत वे मदिरों में दुनियाभर के ड्रामे करते हैं.
किसी फैकटरी, कारखाने या रेल में आग लगती है तो पहली गाज संबंधित जिम्मेदारों पर गिरती है और कई बार तो उन पर जुर्माना भी लगता है और कोर्ट से सजा भी होती है. लेकिन मंदिर इस के अपवाद हैं, क्यों हैं, यह सवाल उतना ही बेमानी है जितना यह कि भगवान कहीं है भी या नहीं. रही बात आलीशान अस्पतालों में महंगे से महंगा इलाज कराने यानी पैसे खर्च कर छुआछूत से बचने की, तो दुनियाभर के ब्रैंडेड धर्मगुरु आप को वहां स्वास्थ्यलाभ लेते मिल जाएंगे.
एक महीने पहले मशहूर वैष्णव संत स्वामी रामभद्राचार्य को इलाज के लिए देहरादून के सिनर्जी इंस्टिट्यूट औफ मैडिकल साइंसेज में भरती कराया गया था. उन की सांस कथा सुनातेसुनाते ही फूल गई थी. बीती 17 मार्च को ही आध्यात्मिक गुरु जग्गी वासुदेव अपनी ब्रेन सर्जरी के लिए दिल्ली के अपोलो अस्पताल में भरती हुए थे. उन्हें ब्रेन हेमरेज हुआ था. इन और ऐसे धर्मगुरुओं के उपदेश और प्रवचन इस नसीहत से भरे पड़े हैं कि सात्विक आहार लो, योग करो और जरूरत पड़े तो आयुर्वेदिक व चमत्कारिक प्राक्रतिक चिकित्सा अपनाओ.
यानी, एलोपैथी की तरफ मत जाओ क्योंकि वह विदेशी चिकित्सा पद्धति है जिस से ठीक होने के बजाय बीमारी और बढ़ती है. इस से भी बात न बने तो भजन, पूजन, कीर्तन, ध्यान वगैरह करो, ईश्वर सब ठीक करेगा. बस, यह कीमती मशवरा देने की फीस दानपेटी में डालते जाओ.