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तलाक के सिवा कोई औप्शन नहीं बचा, क्या मैं उसे तलाक दे सकता हूं?

सवाल

मैं 30 वर्षीय विवाहित पुरुष हूं, विवाह को 3 साल हो चुके हैं. मेरी पत्नी में यौन विकार है और उस का व उस के परिवार वालों का हमारे प्रति इतना ज्यादा दुर्व्यवहार है कि  हमारा पूरा परिवार तंग है. मेरे लाख समझाने पर भी उस के व्यवहार में कोई अंतर नहीं आया है. तलाक के सिवा कोई विकल्प रह ही नहीं गया है, क्या मैं उसे तलाक दे सकता हूं.

जवाब

यों तो सरिता कभी भी तलाक की पक्षधर नहीं रही है, हमारा काम घरपरिवार जोड़ना है, तोड़ना नहीं, परंतु कभी स्थिति इतनी विकट हो जाए कि कोई विकल्प ही न रहे तो तलाक के सिवा कोई चारा भी नहीं रह जाता. आप के लिए बेहतर होगा इस बारे में आप किसी स्थानीय सुयोग्य वकील से परामर्श लें, तभी तलाक जैसा कदम सोचसमझ कर उठाएं.

 

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem 

ऐसे करें अपनी सेंसिटिव आंखों का ख्याल

आंख जिस्म का सब से नाजुक और संवेदनशील अंग है. इस में मामूली चोट या संक्रमण गंभीर रूप धारण कर सकता है और आंखों की रोशनी भी जा सकती है. इसलिए आंखों के मामलों में सतर्क रहना बेहद जरूरी है.

टैलीविजन, कंप्यूटर, मोबाइल, लेजर किरणें आदि का लगातार लंबे समय तक उपयोग किया जाए तो इन का दुष्प्रभाव आंखों पर भी पड़ता है. इसी तरह तेज रोशनी वाले हाईलोजन, बल्ब, बारबार जलनेबु?ाने वाली रोशनियां भी आंखों पर बुरा असर डालती हैं. वैल्ंिडग से निकली नीली रोशनी आंख के परदे को बहुत नुकसान पहुंचाती है.

आंखें इंसान की सब से बड़ी जरूरत होती हैं. इन को स्वस्थ रखने के लिए जरूरी है कि आंखों में होने वाली बीमारियों के बारे में पूरी जानकारी हो. इस संबंध में पेश हैं नेत्र रोग विशेषज्ञ डा. सौरभ चंद्रा से हुई बातचीत के अंश :

आंखों की बीमारियों में बदलते मौसम की भूमिका कितनी होती है?
आंखें हैं तो सबकुछ है. मौसम के साथ होने वाले बदलावों का आंखों पर गहरा असर पड़ता है. गरमी के मौसम में धूप और धूल से आंखों में संक्रमण हो जाता है. यह प्रदूषण और धूप से आंखों में आने वाले बैक्टीरिया के कारण होता है. बरसात में फंगल इन्फैक्शन ज्यादा होता है. इस में आंखें लाल हो जाती हैं, चिपकने लगती हैं. सर्दी का आंखों पर कम प्रभाव पड़ता है.

इन का इलाज क्या है?
गरमी में जब भी आप बाहर से वापस आएं तो अपनी आंखों को हलके गरम पानी से धो लें. इस से धूल और बैक्टीरिया को आंखों से दूर करने में मदद मिलती है. बरसात में अगर आंखें लाल हों तो इन की साफसफाई का ध्यान रखें.

क्या उम्र के हिसाब से भी आंखों में बीमारियां हो जाती हैं?
बच्चों में आंखों का भेंगापन, पानी बहना जैसी बीमारियां ज्यादा होती हैं. इस उम्र में आंखों में चोट भी बहुत लगती है. 20 से 30 साल की आयु के बीच काम का बो?ा ज्यादा होता है. इस से माइग्रेन होने की संभावना ज्यादा रहती है. 30 से 40 साल की उम्र में ब्लडप्रैशर, डायबिटीज जैसी बीमारियों का शरीर पर हमला होता है. ये भी आंखों की रोशनी को प्रभावित करती हैं. 50 से 60 साल की उम्र में आंखों में मोतियाबिंद और ग्लूकोमा हो सकता है.

इन परेशानियों से बचने के लिए क्या करें?
कभीकभी इलाज आंखों की ऐक्सरसाइज करने से हो जाता है. सही ढंग से काम करने और अपनी डाइट पर ध्यान देने से भी आंखों को सेहतमंद रखा जा सकता है.

आंखों पर पड़ने वाली तेज धूप या लेजर किरणें, एक्सरे व दूसरी तरह के विकिरण और प्रदूषण भी नुकसानदेय होते हैं. इन से भी आंखों की सुरक्षा करना जरूरी है. प्राकृतिक रूप से आंखों की रक्षा के लिए पलकें होती हैं तब भी हमें आंखों की उचित देखभाल की जरूरत होती है.

आंखों को सुरक्षित रखने के लिए कुछ सावधानियां अपेक्षित हैं :

आंखों की चोटें

आंखों को चोटों से बचाना बेहद जरूरी है. एक आंख में गंभीर चोट लगने पर दूसरी आंख भी प्रभावित हो जाती है. देश में लोगों के अंधे होने का एक बड़ा कारण असावधानियों या दुर्घटनावश आंखों में चोट लगना भी है. चोटें कई बार कार्य करते वक्त, खेलने के दौरान, पटाखे चलाने में व अन्य दुर्घटनाओं में लग जाती हैं.

चोटों का आंखों पर दुष्प्रभाव :

नेत्रश्लेष्मा की साधारण चोटों में आंख लाल हो जाती है. यदि आंख में दर्द नहीं है और दृष्टि में कोई फर्क नहीं है तो फिर चिंता करने की जरूरत नहीं होती. आंख में कचरा, जहरीला कीट या तिनका चले जाने पर यदि उसे जोर से मला जाए तो कौर्निया में खरोंच आ सकती है और घाव भी हो सकता है.

कुछ चोटों से नेत्र ज्योति भी जा सकती है. नुकीली या पैनी वस्तु आंख में घुस कर स्वच्छ पटल यानी कौर्निया को फाड़ कर अंदर लैंस को भी अपने स्थान से हटा सकती है. लैंस और अंदर का जैल बाहर निकल सकता है. ऐसे में यदि आंख का इलाज न किया जाए तो दूसरी स्वस्थ आंख में सूजन आ जाती है और वह भी खराब हो सकती है.

जब आंखों में चोट लग जाए

– तुरंत नेत्र रोग विशेषज्ञ या जो भी अच्छा चिकित्सक उपलब्ध हो, उसे दिखलाएं.
– आंख पर न दबाव दें न उसे मलें. पट्टी कस कर न बांधें.
– यदि आंख में रसायन या अम्ल पड़ गया हो तो आंख को पानी से तुरंत धोएं.
– आंख में पड़ा कचरा, कूड़ा या तिनका यदि पानी से आंख धोने पर भी न निकले तो तुरंत नेत्ररोग विशेषज्ञ को दिखलाएं.

आंखों की साफसफाई

– आंखों को गंदे हाथों से न छुएं.
– दिन में 2-3 बार ठंडे पानी से आंखों को धोएं या हलके छींटे मारें फिर उन्हें साफ कपड़े से पोंछें.
– आंखों को तेज धूप, धुएं व वैल्ंिडग की किरणों से बचाएं. इस के लिए गहरे रंग के चश्मे का प्रयोग किया जा सकता है.
– लगातार टैलीविजन देखना या कंप्यूटर पर कार्य करना नुकसान पहुंचा सकता है. इसलिए बीचबीच में आंखों को आराम दें. लेजर बीम वाले उपकरणों के प्रयोग में सावधानी रखें.
– पूरी नींद लें. इस से आंखें स्वस्थ रहेंगी.
– संतुलित भोजन लें अर्थात उस में आवश्यक मात्रा में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट्स, वसा, खनिज और विटामिंस भी हों. विशेषकर विटामिन ‘ए’ आंखों के लिए जरूरी है जोकि घी, मक्खन और दूध के साथसाथ गाजर व दूसरी हरी सब्जियों व फलों में होता है.
– मोतियाबिंद का शीघ्र इलाज करवाएं.
– उच्च रक्तचाप और मधुमेह रोगी आंखों में तकलीफ होने पर तुरंत नेत्र रोग विशेषज्ञ से जांच करवाएं. प्रत्येक वर्ष अपनी आंखों की पूरी जांच करवाएं.

जिंदगी एक पहेली : क्या वाकई में उमा आतंकवादी थी

कालिज का वार्षिकोत्सव था. छात्रों की गहमागहमी के बीच प्राचार्य शीला वर्मा व्यस्त थीं. तभी एक महिला अपने 8 साल के बच्चे के साथ वहां पहुंची और प्राचार्य का अभिवादन कर बोली, ‘‘मैम, मैं उमा हूं.’’ प्राचार्य शीला ने उसे गौर से देखा तो देखती रह गईं. उन्हें अपनी आंखों पर सहज भरोसा नहीं हो रहा था. उन की आंखों के सामने जो उमा खड़ी थी वह संपन्नता की प्रतिमूर्ति थी जबकि उन्होेंने जिस उमा को देखा था वह दीनहीन दुर्बल काया थी.

प्राचार्य को समझते देर न लगी कि संभ्रांत महिला के रूप में जो उमा खड़ी है वह कामयाबी के शिखर पर है. इसीलिए अपनी पूर्व छात्रा को मेहमानों की पंक्ति में बैठाते हुए वह बोलीं कि उमा, तुम कहीं जाना नहीं. इस कार्यक्रम के बाद मैं फुरसत में तुम से बात करूंगी. वार्षिकोत्सव के अवसर पर कालिज की छात्राओं द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम शुरू हो गया था. प्राचार्य शीला वर्मा अपनी कुरसी पर बैठी उमा के बारे में सोचने लगीं. 8 साल पहले की सारी घटनाएं उन की आंखों में चलचित्र की तरह घूमने लगीं.

प्राचार्य शीला सामने खड़ी युवती को चिंता भरी निगाहों से देख रही थीं. तकनीकी कालिज में दाखिला लेने आई उमा बदहवास सी खड़ी थी. बिखरे बाल, सूनी आंखें जैसे दया की याचना कर रही थीं. उमा शीला के निर्णय की प्रतीक्षा में खड़ी थी. ‘कालिज में सुबह 9 से शाम 4 बजे तक रहना होगा. छात्रों की उपस्थिति पर यहां काफी ध्यान रखा जाता है. महीने भर के बच्चे की देखभाल करते हुए पढ़ाई करना क्या संभव होगा?’ प्राचार्य ने शंका जाहिर की.

‘मैं किसी भी तरह समय के साथ तालमेल कर लूंगी. कृपया मुझे प्रवेश दें,’ उमा की आवाज कांप रही थी. ‘तुम अगले साल दाखिला ले सकती हो. तब तक बच्चा भी कुछ बड़ा हो जाएगा और तुम्हारी सेहत भी सुधर जाएगी.’

‘मैडम, मुझे यह प्रशिक्षण पूरा कर के नौकरी में लगना है. यदि मुझे दाखिला नहीं मिला तो मैं कहीं की नहीं रहूंगी.’ प्राचार्य शीला ने उमा की ओर गंभीरता से देखते हुए उसे जाने का संकेत किया. उमा के जाने के बाद कमरे में सन्नाटा छा गया. प्रवेश समिति के अन्य सदस्यों के साथ विचारविमर्श करने के बाद उमा को कालिज में प्रवेश देने का निर्णय लिया गया था.

उमा कालिज में सब से पहले पहुंच जाती थी. कक्षा में प्रश्नों का जवाब बड़ी फुर्ती से देती थी. साथ में पढ़ने वाली लड़कियों के साथ बहुत कम बोलती, क्योंकि वह हमेशा अपने में ही खोई रहती थी. कई बार तो छोटीछोटी बातों पर साथियों से उलझ जाती थी. प्राचार्य शीला वर्मा को उमा के कटु व्यवहार की खबर जबतब मिलती रहती थी. एक दिन दोपहर को शीला के कमरे में खुफिया पुलिस अफसर करियप्पन आ धमके. शहर के मशहूर महिला तकनीकी कालिज में पुलिस अफसर का आना लड़कियों व कालिज स्टाफ के बीच घबराहट पैदा करने वाला था. करियप्पन उमा से पूछताछ करना चाहते थे.

प्राचार्य ने उमा के सारे रेकार्ड पेश करवाए तो करियप्पन ने दबे स्वर में अपने आने का कारण जाहिर किया कि उमा का श्रीलंका के आतंकवादी संगठन से संपर्क होने की खबर कई बार थाने में आई है. खबर देने वाला हमेशा अपना नाम और पता फर्जी देता है. कई बार शिकायती पत्र आने के कारण खुफिया विभाग को खोजखबर लेने का आदेश दिया गया है.

शीला असमंजस में पड़ गईं. पुलिस केवल शक के आधार पर जांच के लिए आई है. उमा को अचानक पुलिस अफसर के सामने खड़ा करने पर न जाने वह कैसा व्यवहार करेगी. वैसे भी उस की दिमागी हालत ठीक नहीं है. यदि वह आवेग में चीखनेचिल्लाने लगी तो मामला चारों ओर फैल जाएगा और कालिज की बदनामी होगी. काफी सोचविचार के बाद वह बोली थीं, ‘आफिसर, मैं उमा से बातचीत कर के कुछ जानकारी लेती हूं. उस के बाद उमा से आप बातचीत करें. अचानक पुलिस जांच की बात सुन कर हो सकता है वह कुछ खतरनाक निर्णय ले बैठे. उमा काफी कमजोर है और तनावग्रस्त रहती है. आप 3-4 दिन का समय दीजिए.’

‘ठीक है, पर अब आप को उस की निगरानी भी करनी है, क्योंकि कालिज की सुरक्षा की जिम्मेदारी हम पुलिस वालों पर ही है,’ पुलिस अफसर करियप्पन ने उठते हुए कहा. अगले दिन प्राचार्य ने उमा को अपने कमरे में बुलवाया. कालिज की छुट्टी के बाद उमा उन के कमरे में आई. उमा को देखते ही उन्हें इंटरव्यू के दिन का दृश्य याद आया. उमा उस वक्त भी सामान्य नहीं लग रही थी. उस के चेहरे पर गहरी वेदना साफ झलक रही थी, पर उस के आतंकवादी होने की बात सचमुच दिल को दहलाने वाली थी. क्या सचमुच उमा किसी षड्यंत्र में उलझी हुई है? क्या वह किसी आतंकवादी घटना को अंजाम देने के लिए ही यहां छात्रा बन कर आई है? इस नाजुक मामले को सावधानी से सुलझाना होगा.

‘मैडम, आप ने मुझे मिलने को कहा था?’ उमा परेशान सी खड़ी थी. ‘आप कहां रहती हैं? आप के परिवार में कौनकौन हैं?’ प्राचार्य ने पूछा.

‘जी, मैं इस समय एक महिला होस्टल में रहती हूं,’ उमा के होंठ कांप रहे थे. ‘उमा, तुम ने कालिज में प्रवेश के समय अपने फार्म पर रेडहिल्स एरिया में रहने की बात दर्ज की है. अब तुम तामवरम स्थित होस्टल में रहने की बात कह रही हो. पता बदलने की सूचना कालिज को क्यों नहीं दी?’ प्राचार्य का चेहरा तमतमाने लगा.

‘जी मैम, सबकुछ काफी जल्दी में करना पड़ा. इस कारण होस्टल का पता स्कूल कार्यालय को बता नहीं पाई. मैं कल नया पता आफिस में दे दूंगी,’ उमा ने कहा. ‘आप अपना घर छोड़ कर होस्टल में क्यों रहने लगी हैं? आप के छोटे बच्चे की देखभाल कौन करता है?’ प्राचार्य ने पूछा.

‘जी मैम…यह सब मेरा निजी मामला है. मैं इस बारे में बात नहीं करना चाहती,’ उमा ने दृढ़ स्वर में कहा. ‘देखो उमा, तुम को ढूंढ़ते हुए खुफिया पुलिस के अफसर कालिज आए थे. पुलिस थाने में कई दिनों से कोई फोन कर कह रहा था कि तुम श्रीलंका के आतंकवादी संगठन से जुड़ी हुई हो. मैं ने पुलिस अफसर से कुछ समय मांग लिया है ताकि तुम से खुद पहले बात कर सकूं. तुम इस मामले में मेरा सहयोग करोगी तो तुम्हारे लिए अच्छा होगा,’ प्राचार्य कड़ी आवाज में बोलीं.

‘क्या मैं आतंकवादी हूं?’ उमा तमतमा कर बोली, ‘सारा आतंक मुझ पर करने के बाद अब वे लोग यह नया नाटक खेल रहे हैं…नीच कहीं के…आने दो पुलिस को…उन की सारी करतूत खोल कर रख दूंगी.’ ‘उमा…चिल्लाना बंद करो,’ प्राचार्य संयत स्वर में बोलीं, ‘पुलिस से निबटना इतना आसान नहीं है. आतंकवादियों से संबंध होने के शक में तुम्हें कैद करना बहुत आसान है. फिर बरसों कोर्टकचहरी में फंसना होगा. तुम्हारे जीवन के मूल्यवान दिन यों ही बरबाद हो जाएंगे. अपनी समस्या को बिना दुरावछिपाव के बताने पर मैं तुम्हारी मदद कर सकती हूं,’ कहते हुए उन्होंने उमा को कुरसी पर बैठने का इशारा किया.

उमा सिर झुकाए कुरसी पर कुछ क्षण मौन बैठी रही. फिर अपनी कहानी बताते हुए बोली कि मेरे पिता सदाशिवन का कोयंबटूर में कपड़े का काम था. मेरी 2 छोटी बहनें भी थीं. मां सरकारी स्कूल में अध्यापिका थीं. बचपन में मुझे कभी किसी चीज की कमी नहीं महसूस हुई.

मेरे पिताजी खानेपीने के बडे़ शौकीन थे. बच्चों को भी बढि़या पकवान खिलाते थे और सैरसपाटे के लिए अपने साथ ले जाते थे. मैं 8वीं कक्षा में पढ़ रही थी, तब मुझे मातापिता के बीच के तनाव का कुछ एहसास हुआ. पता चला कि मेरे पिता शराब पीते हैं. वह रात को देर से घर आते और फिर कमरे में मां से लड़ते रहते थे. मां का कड़ा अनुशासन मुझे अच्छा नहीं लगता था. मैं अपने पिता की ही बात मानती थी और उन के प्रति ही श्रद्धा रखती थी. मैं पढ़ने में काफी तेज थी और उस साल बी.एससी. की परीक्षा दी थी.

मैं ने जिस साल बी.एससी. की परीक्षा दी थी उसी साल अगस्त में एक दिन पिताजी अपने मित्र गोपीनाथ को घर ले कर आए और मुझे बुला कर गोपीनाथ को प्रणाम करने को कहा. पिताजी ने मेरे सामने ही मेरी पढ़ाई, संगीत और खाना बनाने की गोपीनाथ से काफी तारीफ की और बोले कि जितनी जल्दी हो शादी की तैयारी कर देंगे. गोपीनाथ के जाने के बाद मेरे मातापिता में मेरे विवाह को ले कर झड़प शुरू हो गई. मां कह रही थीं कि गोपीनाथ का बेटा रमेश उमा के लायक नहीं है. उस ने पढ़ाई भी ठीक तरह से नहीं की है और कोई ढंग का कामधंधा भी नहीं करता है.

पिताजी चिल्लाने लगे कि आज के समय में इस से ज्यादा अच्छा रिश्ता भला हमें और कहां मिलेगा? सबकुछ जानने के बाद भी तुम तकरार क्यों कर रही हो? पिता के प्रति पूरी श्रद्धा होने के कारण रमेश को देखे बिना ही मैं ने शादी के लिए अपनी सहमति दे दी थी. मां का विरोध टिक नहीं सका. रमेश के साथ मेरी शादी हो गई और हम हनीमून के लिए ऊटी गए थे. ऊटी का मौसम सुहावना था. वहां रंगबिरंगे फूलों से भरा अति विशाल बगीचा, गहरे ठंडे पानी से भरी झील में नौका विहार की सुविधा, चटपटी खाने की चीजों आदि के बीच हम कहीं खो से गए थे.

रात को कमरे में शराब की बोतल खोल कर रमेश जो बैठा तो सारी रात पीता ही रहा. दिन भर जिस रमेश के साथ जिंदगी को बेहद हसीन मान बैठी थी, वह रात में वहशी दरिंदा बन गया था. सुबह होने तक शरीर और मन दोनों बुरी तरह आहत हो चुके थे. होटल का बिल भरने के लिए भी रमेश के पास पैसा नहीं था तो मैं ने विदाई के समय मां के दिए हुए रुपयों से होटल का बिल भरा था.

ससुराल आते ही अपनी सास से पति की शिकायत करने लगी तो उन का तेवर बदल गया और झिड़की लगाते हुए बोलीं कि क्या तुम्हारे पिता शराब नहीं पीते हैं? तुम्हारी मां कैसे चुपचाप गृहस्थी चला रही हैं? जाओ, अपना काम करो. मेरे हाथ की मेहंदी भी नहीं छूटी थी कि घर की नौकरानी की छुट्टी कर दी गई. रसोई का पूरा काम और इसी के साथ सफाई, बर्तन मलना, कपड़ा धोना, बगीचे की देखरेख करना सबकुछ मेरे पल्ले आ पड़ा. बाद में मुझे पता चला कि मेरा पति रमेश न पिता के व्यापार में हाथ बंटाता है और न ही कहीं नौकरी करता है. दिन भर बिगड़े दोस्तों के साथ ताश खेलना, शराब पीना, फालतू आवारागर्दी करना ही उस का काम था.

इस नारकीय जीवन में मैं शादी के दूसरे ही महीने गर्भवती हो गई. शरीर की कमजोरी बढ़ गई तो मायके जाने की इच्छा जाहिर की. बहुत मुश्किल से 4 दिन मायके में रहने की अनुमति मिली. मायके पहुंचते ही मैं मां पर बिफर पड़ी. मां चुपचाप सबकुछ सुनती रहीं. अंत में उन्होंने वह सच बताया जिस से मैं पूरी तरह अनजान थी. मां ने बताया कि तुम्हारे पिता ने व्यापार में घाटा होने पर रमेश के पिता से 20 लाख का कर्ज लिया था जिसे वह दे नहीं पा रहे थे. जब स्थिति बिगड़ आई तब रमेश के पिता ने अपने आवारा लड़के की शादी तुम्हारे साथ करने की शर्त रखी. यदि शादी नहीं करते तो तुम्हारे पिता को जेल जाना पड़ता. वास्तव में एक तरह से तुम्हारे पिता ने उस राक्षस के हाथ तुम्हें बेच दिया.

कर्ज लेने के कागजात शादी के बाद वापस करने का वादा रमेश के पिता ने किया था, पर आज तक उन्हें वापस नहीं किया है. बताओ, मैं क्या कर सकती हूं? 2 लड़कियां और घर में बैठी हैं. उन का भविष्य भी तो मुझे देखना है. बेटी, तुम घर की इज्जत बचाए रखना.

‘मां, मैं अब न तो ससुराल जाऊंगी और न ही वह सब जुल्म सहूंगी,’ मेरे विश्वास को देख कर मां बोलीं कि बेटी तुम गर्भवती हो. अपने बच्चे के बारे में भी तो तुम्हें सोचना होगा. तुम्हारे पिताजी रमेश से किसी बुरी लत में कम नहीं हैं पर मैं केवल तुम बच्चों के कारण ही तो उन के साथ गृहस्थी चला रही हूं.’ मैं हारे हुए सिपाही की तरह ससुराल लौट गई थी. यातना भरे दिन, खूंखार रातें किसी तरह बीत रही थीं. नीरज का जन्म हुआ. उस के बाद पति से लड़झगड़ कर ही मैं टे्रनिंग कालिज में दाखिला ले पाई थी. मुझे घर के कामों से आजाद हो कर कालिज जाते देख मेरी सास चिढ़ गईं. छोटे बच्चे की देखभाल करना, अपने आवारा लड़के को असमय खिलाना- पिलाना सास को भारी पड़ रहा था.

मुझे कालिज से छुड़वा कर घर में बैठाने के लिए सास ने जादूटोने का सहारा लिया. घर में तांत्रिक आनेजाने लगे. एक दिन मेरे खाने में कुछ जड़ीबूटी मिला कर दिया गया तो मैं आधी बेहोशी की हालत में पहुंच गई, फिर मुझे घसीट कर उस तांत्रिक के सामने बैठाया गया और भूत उतारने के लिए मुझे मारापीटा गया. तब मैं रोती हुई, दर्द से चीखती हुई निढाल हो गई थी. होश आने पर मुझे अपनी असहाय स्थिति का ज्ञान हुआ. मायके मैं जा नहीं सकती थी. अपनी टे्रनिंग मुझे हर कीमत पर पूरी करनी है. काफी सोचविचार कर मैं गिल्ड आफ सर्विस के कार्यालय में गई तो सोशल वेलफेयर बोर्ड के होस्टल में बहुत मुश्किल से जगह मिली. अपने शरीर पर पड़े गहनों को बेच कर ही होस्टल में बच्चे के साथ रह कर अपनी पढ़ाई कर रही हूं. होस्टल की वार्डन रमेश को मुझ से मिलने नहीं देती हैं.

मैडम, मेरे पति ने मुझे फोन पर कई बार धमकी दी है कि मैं वापस घर चली आऊं. यदि मैं वापस नहीं आई तो वह मुझे बरबाद कर के ही छोड़ेंगे. यह उन्हीं की चाल होगी. आतंकवादी बता कर वह मुझे जेल भेजना चाहते हैं. मेरे बच्चे को मुझ से अलग करना चाहते हैं. प्लीज मैम, मेरी मदद कीजिए. प्राचार्य ने उमा को शांत करा कर भेज दिया. खुफिया पुलिस अधिकारी से बातचीत की. हफ्ते भर की जांच के बाद पुलिस ने उमा को निर्दोष पाया. उमा ने अपनी टे्रनिंग पूरी कर ली.

पुरस्कार वितरण की घोषणा के साथ प्राचार्य शीला वर्मा ने आंखें खोलीं तो सामने की कतार में उमा अपने बच्चे के साथ बैठी थी. उन्होंने उमा को मंच पर बुला कर उसे सम्मानित करने के बाद धीरे से कहा, ‘तुम जाना नहीं. तुम से बातें करनी हैं.’ प्राचार्य के ड्राइंगरूम में बैठी उमा अपने बारे में बता रही थी.

‘‘मैडम, यहां से टे्रनिंग करने के बाद मुझे दुबई के एक स्कूल में पढ़ाने का आफर मिला तो मैं अपने बच्चे को ले कर वहां चली गई. उस के बाद पढ़ाने की नौकरी छोड़ कर मैं एक कंपनी में लग गई और अब एक ऊंचे ओहदे पर हूं. कुछ समय के बाद पति को भी दुबई बुला लिया और उन का उपचार करा कर नशे की लत छुड़वा दी. वह भी अब काम कर रहे हैं. ‘‘मैं आप से मिल कर आशीर्वाद लेने आई हूं. यदि आप मेरी मदद नहीं करतीं तो शायद मैं पुलिस के चंगुल में फंस कर जेल चली गई होती. मैं आप का एहसान कभी नहीं भूल सकती,’’ उमा गद्गद हो कर कह रही थी फिर उस ने बैग से एक उपहार निकाल कर प्राचार्य को दिया.

‘‘उमा, जीवन की जंग को जीतना आसान नहीं है. जीवन एक अनबूझ पहेली है. हम आत्मविश्वास के बल पर ही सफलता पा सकते हैं और यह हौसला अपने में बनाए रखना.’’

पुनर्विवाह में झिझक सही नहीं

हर व्यक्ति को उम्र के हर पड़ाव में साथी की जरूरत जरूर पड़ती है चाहे अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए या शारीरिक जरूरतों को पूरा करने के लिए. इंसान सामाजिक प्राणी है तो समाज से अलग कट कर नहीं रह सकता. जीवनसाथी की जरूरत भी सामाजिक जरूरत के दायरे से अलग नहीं है. 28 वर्षीय श्रेया के पति की मौत कोरोना वायरस से हो गई. उस के 2 छोटेछोटे बच्चे हैं. इतनी कम उम्र में पति की मौत के कारण उस के ऊपर दुखों का पहाड़ आ गिरा है. उस के घर में कोई कमाने वाला भी नहीं है. वह अपने पति की मौत के बाद बिलकुल ही अकेली हो गई है. पति के मौत के बाद उस के मायके वाले उसे पुनर्विवाह के लिए राजी करना चाह रहे थे. सब चाहते थे कि श्रेया का पुनर्विवाह हो जाए. लेकिन श्रेया ने सिरे से नकार दिया. वह अपने पति की यादों को भुलाना नहीं चाहती.

भावनाओं में बह कर अकेला जीवन गुजारने का प्रण कर चुकी है. परंतु जीवन भावनाओं से नहीं चलता है. कुछ दिनों बाद ही वह बिलकुल सचाई के धरातल पर आ गई थी. पति की मौत के समय जो नातेरिश्तेदार संवेदना प्रकट करने आए थे, वे एकएक कर के चले गए थे. उस के अपने जो मदद करने का आश्वासन दे रहे थे, अपनेअपने कामों में व्यस्त हो चुके थे. कुछ दिनों बाद ही अपने लोगों से मिलने वाली सहानुभूति बंद हो गई थी. कोई पलट कर भी हालचाल नहीं ले रहा था. दरअसल, किसी के पास आज की भागदौड़ की जिंदगी में इतना समय नहीं है. सिर्फ उस के मातापिता द्वारा हालचाल लिया जाता था. अब उस पर दोनों बच्चों के पालनपोषण की जिम्मेदारी आ पड़ी है. पति द्वारा छोड़े गए पैसे और संपत्ति बच्चे के पालनपोषण में मददगार तो साबित हो रहे हैं परंतु जीवन नितांत अकेला हो गया है. उसे लग रहा है कि वह दोनों बच्चों के लिए आया बन कर रह गई है. रहरह कर उस का अपना अकेलापन खाए जा रहा है. पत्नी की मौत के बाद पुरुष तो दोबारा शादी कर लेता है. लेकिन आज भी औरतों के पुनर्विवाह में कहीं न कहीं धार्मिक सीखें रुकावट पैदा करती हैं. औरतों को धर्म यह सिखाता है कि पति की मृत्यु के बाद विधवा के रूप में जीवन व्यतीत करना चाहिए.

सफेद साड़ी पहननी है. सिंगार नहीं करना है. रूखासूखा भोजन करना है. और यही बातें औरतों को पुनर्विवाह करने से रोकती हैं. यही श्रेया के साथ भी हुआ है. इसलिए वह खुद को विधवा के रूप में ढालने की कोशिश कर रही थी. ओम प्रकाश की उम्र मात्र 35 साल थी जब उन की पत्नी का देहांत हुआ था. उस समय उन की पत्नी तीसरे बच्चे को जन्म देने वाली थी. लेकिन डाक्टर उन की पत्नी और नवजात शिशु को बचा नहीं सके थे. पत्नी की मौत के बाद उन्होंने निर्णय लिया था कि वे पुनर्विवाह नहीं करेंगे. उन का मानना था कि एक औरत से जब सुख नहीं मिला तो क्या गारंटी है कि दूसरी औरत से सुख मिलेगा ही? हालांकि उन दिनों पुनर्विवाह के लिए रिश्ते आ रहे थे.

उन्होंने अपने दोनों बच्चों की अच्छे से परवरिश की. उन के बच्चों ने अच्छी तालीम हासिल कर ली थी. सब से पहले उन्होंने अपनी बड़ी बेटी का विवाह किया था. उन की बेटी अपने घर चली गई थी. कुछ वर्षों बाद उन्होंने अपने बेटे का भी विवाह कर दिया. बेटा पढ़लिख कर अच्छी जौब करने लगा था और अपनी पत्नी सहित दूसरे शहर में रहने लगा था. सालों बाद उन्हें अपने लिए खुद ही खाना बनाना पड़ रहा है. तब उन्हें अपनी भूल का एहसास हुआ. उन का कहना है, ‘‘काश, मैं ने पुनर्विवाह कर लिया होता तो आज जिंदगी के आखिरी पड़ाव में मु झे अपने हाथों से भोजन नहीं पकाना पड़ता, इतने बड़े घर में अकेला नहीं रहना पड़ता. इस उम्र में खुद के लिए भोजन पकाना मेरे वश की बात नहीं है. ऐसे में अब अफसोस हो रहा है कि मैं ने जो भावना में बह कर निर्णय लिया था वह गलत था.’’ उन का आगे कहना था, ‘‘मैं ने अपने बेटेबेटी के सुख के लिए अपने सुख का त्याग कर दिया. लेकिन मेरे बच्चों ने अपने सुख के लिए अपने पापा को अपने हाल पर छोड़ दिया. हालांकि उन दोनों की अपनी मजबूरी भी है.

आज मैं बिलकुल अकेला हो गया हूं. यह अकेलापन बहुत परेशान कर रहा है. कभीकभार बेटाबेटी मिलने आ जाते हैं वरना फोन से हालचाल लेते रहते हैं. लेकिन जीवनसाथी के बिना जिंदगी अधूरी ही लग रही है. मन में रिक्तता का अनुभव हो रहा है. ‘‘जब इंसान शारीरिक रूप से सक्षम होता है तो कई प्रकार के कामों में व्यस्त रहता है. उसे समय काटने में ज्यादा दिक्कत नहीं आती है. अपने काम के दबाव के कारण समय बीत जाता है. परंतु बुढ़ापे में काम करने की शक्ति क्षीण हो जाती है. दिनभर खाली बैठे रहना पड़ता है. आदमी कहीं जा भी नहीं सकता है. ऐसे में वह अपनी भावनाओं को किस के पास अभिव्यक्त करे. इंसान जब अकेला होता है तो उसे ऐसा महसूस होता है कि कोई उस की बातों पर भी गौर करे, उस की बातें सुने. लेकिन आज की नई पीढ़ी के पास दूसरों के पास बैठने के लिए भी समय कहां है. आज के युवा अपने बीवीबच्चों में व्यस्त हो जाते हैं. वे दूसरों पर कहां ध्यान दे पाते हैं.’’ जीवनसाथी की मौत के बाद पुनर्विवाह से इनकार करना खुद के पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है. यह भी सत्य है कि पति या पत्नी के बिछुड़ जाने के बाद शारीरिक जरूरतों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. भूखे पेट तो कुछ दिन तक रहा जा सकता है लेकिन शारीरिक जरूरतों की उपेक्षा करना हर इंसान के बस की बात नहीं होती.

कुछ दिनों तक तो इस की उपेक्षा की जा सकती है लेकिन लंबे समय तक इस की उपेक्षा कर पाना हर इंसान के लिए असंभव सा प्रतीत होता है. वहीं अकेली औरतों को कई प्रकार की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. समाज भी उन्हें अच्छी नजरों से नहीं देखता है. चाहे घर हो या औफिस, हर जगह औरतों को पराए पुरुषों से सामना करना पड़ता है. अकेली औरतों को मर्दों द्वारा आसानी से पाने का जरिया सम झा जाता है. इस प्रकार के पुरुषों से औरतों को घरबाहर कहीं न कहीं सामना करना ही पड़ता है. प्रत्येक इंसान को किसी न किसी उम्र के पड़ाव में साथी की जरूरत पड़ती है चाहे अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए या शारीरिक जरूरतों को पूरा करने के लिए. इंसान सामाजिक प्राणी होने के नाते समाज में ही रहना चाहता है. जीवनसाथी की जरूरत भी सामाजिक जरूरत के दायरे से अलग नहीं है. चाहे पति हो या पत्नी. एक उम्र के बाद शरीर थकने लगता है.

ऐसा लगता है कि उस की जरूरतों का ध्यान कोई तो रखे. और यह सिर्फ पति का पत्नी और पत्नी का पति ही रख सकता है. बेटाबेटी की अपनी निजी जिंदगी होती है. वे शादी के बाद अपने सुनहरे भविष्य के सपनों में खो जाते हैं. एक उम्र के पड़ाव के बाद मातापिता के लिए वह स्थान बेटेबहुओं की नजर में नहीं रह पाता है. उन का अपना जीवनसाथी होने से दूसरों पर वे बो झ नहीं बनते. यह देखा गया है कि वृद्ध पतिपत्नी ही एकदूसरे का बो झ उठाते में सक्षम होते हैं. एकदूसरे की जरूरतों को पूरा करते हैं, देखरेख करते हैं, खयाल रखते हैं, सेवा करते हैं, एकदूसरे की तारीफ करते हैं, एकदूसरे से प्यार करते हैं,

एकदूसरे की भावनाओं का आदर करते हैं, सम्मान करते हैं, आपस में लड़ते झगड़ते हैं. और यही तो जीवन है. सो, पति या पत्नी की मृत्यु के बाद पुनर्विवाह कर लेना चाहिए. पुनर्विवाह करने से इनकार करना उचित नहीं है. आप जिन बेटेबेटियों के लिए अपना सुख त्याग करते हैं. वह त्याग आप के बच्चों के बड़े हो जाने पर छूमंतर हो जाता है. इसलिए आप उन के लिए सिर्फ जरूरत का हिस्सा न बनें, बल्कि अपनी जिंदगी के बारे में भी सोचें. अपनी जिंदगी की खुशियों का खयाल रखना भी जरूरी है

बांझ: बाबा ने राधा के साथ क्या किया ?

रोज की तरह आज की सुबह भी सास की गाली और ताने से ही शुरू हुई. राधा रोजरोज के झगड़े से तंग आ चुकी थी, लेकिन वह और कर भी क्या सकती थी? उसे तो सुनना था. वह चुपचाप सासससुर और पड़ोसियों के ताने सुनती और रोती. राधा की शादी राजेश के साथ 6 साल पहले हुई थी. इन 6 सालों में जिन लोगों की शादी हुई थी, वे 1-2 बच्चे के मांबाप बन गए थे. लेकिन राधा अभी तक मां नहीं बन पाई थी. इस के चलते उसे बांझ जैसी उपाधि मिल गई थी. राह चलती औरतें भी राधा को तरहतरह के ताने देतीं और बांझ कह कर चिढ़ातीं. राधा को यह सब बहुत खराब लगता, लेकिन वह किसकिस का मुंह बंद करती, आखिर वे लोग भी तो ठीक ही कहते हैं.

राधा सोचती, ‘मैं क्या करूं? अपना इलाज तो करा रही हूं. डाक्टर ने लगातार इलाज कराने को कहा है, जो मैं कर रही हूं. लेकिन जो मेरे वश में नहीं है, उसे मैं कैसे कर सकती हूं?’ एक दिन पड़ोस का एक बच्चा खेलतेखेलते राधा के घर आ गया. बच्चे को देख राधा ने उसे अपनी गोद में बिठा लिया और उसे प्यार से चूमने लगी. जब सास ने राधा को दूसरे के बच्चे को चूमते हुए देखा, तो वह बिफर पड़ी. वह उस की गोद से बच्चे को छीनते हुए बोली, ‘‘कलमुंही, बच्चा पैदा करने की तो ताकत है नहीं, दूसरों के बच्चों से अपना मन बहलाती है.

‘‘अरी, तू क्यों डालती है अपना मनहूस साया दूसरों के बच्चे पर…?

‘‘तू तो उस बंजर जमीन की तरह है, जहां फसल तो दूर घास भी उगना पसंद नहीं करती.’’ जब राधा से सास की बातें नहीं सुनी गईं, तो वह अपने कमरे में जा कर अंदर से दरवाजा बंद कर रोने लगी. रात को राजेश के आने पर राधा ने रोते हुए सारी बात उसे बता दी और बोली, ‘‘मैं बड़ी अभागिन हूं. मैं किसी की इच्छा पूरी नहीं कर सकती, ऊपर से मुझ पर बांझ होने का धब्बा भी लग चुका है.’’ राधा की बातें सुन कर राजेश ने कहा, ‘‘तुम मां की बातों का बुरा मत मानो. उन्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए. हर मांबाप की इच्छा होती है कि उन के परिवार को आगे बढ़ाने वाला उन के रहते हुए ही आ जाए. तुम से यह इच्छा पूरी नहीं होते देख कर मां तुम से उलटीसीधी बातें बोलती हैं. तुम चिंता मत करो, तुम्हारा इलाज चल रहा है. तुम जरूर मां बनोगी.’’

राधा बोली, ‘‘मेरी एक सहेली थी, वह भी बहुत दिनों बाद मां बनी थी. मां बनने में देर होते देख कर जब उस ने अपना इलाज कराया, तो जांच में उस में कोई कमी नहीं पाई गई. कमी उस के पति में थी. जब उस के पति ने इलाज कराया, तभी वह मां बन सकी.

‘‘हो सकता है, उसी की तरह आप में भी कोई कमी हो. इसलिए मैं चाहती हूं कि आप भी एक बार अपना इलाज करा लेते.’’ राधा की बात सुन कर राजेश भड़क उठा, ‘‘मुझ में भला क्या कमी हो सकती है? मैं तो बिलकुल ठीक हूं. मुझ में कोई कमी नहीं है. ‘‘मेरी चिंता छोड़ो, तुम अपना अच्छी तरह इलाज कराओ.’’

‘‘मैं मानती हूं कि आप में कोई कमी नहीं है, लेकिन तसल्ली की खातिर…’’ राधा ने सलाह देने के खयाल से ऐसा कहा, लेकिन राजेश ने उस की बात को बीच में ही काट दिया, ‘‘नहीं राधा, तसल्ली वगैरह कुछ नहीं. मैं ने कहा न कि मुझ में कोई कमी नहीं है,’’ राजेश ने उसे डांट दिया. पति के भड़के मिजाज को देख राधा ने चुप रहना ही उचित समझा. शहर के बड़े से बड़े डाक्टर से उस का इलाज हुआ, फिर भी उस की कोख सूनी ही रही. डाक्टर ने जांच के दौरान उस में कोई कमी नहीं पाई.

‘‘देखो राधा, रिपोर्ट देखने के बाद तुम में कोई कमी नजर नहीं आती. शायद तुम्हारे पति में कोई कमी होगी. तुम एक बार उसे भी इलाज कराने की सलाह दो,’’ डाक्टर ने उसे समझाया. अब राधा को पूरा भरोसा हो गया था कि उस में कोई कमी नहीं है. मां बनने के लिए कमी उस के पति में ही है, लेकिन उसे कौन समझाए. उसे राजेश के गुस्से से भी डर लगता था. एक दिन किसी ने राधा की सास को बताया कि पास ही गांव के मंदिर में एक बाबा रहते हैं, जिस की दुआ से हर किसी का दुख दूर हो जाता है. सास ने यह बात अपने बेटे राजेश को बता दी और राधा को बाबा के पास भेजने को कहा. रात को राजेश ने राधा से कहा, ‘‘कल तुम मंदिर चली जाना.’’

‘‘ठीक है, मैं चली जाऊंगी, लेकिन मैं डाक्टर के पास गई थी. डाक्टर ने मुझ में कोई कमी नहीं बताई. इसलिए मैं चाहती हूं कि आप भी एक बार अपना…’’ डरतेडरते राधा कह रही थी, लेकिन राजेश ने उस की बात को अनसुना कर दिया.

‘‘राधा, मैं कहीं नहीं जाऊंगा. तुम कल मंदिर में बाबा के पास चली जाना,’’ ऐसा कह कर राजेश सो गया. राधा ने भी अपने माथे पर लगा बांझपन का धब्बा मिटाने के लिए बाबा के पास जा कर उन से दुआ लेने की सोच ली. दूसरे दिन सवेरे नहाधो कर वह बाबा के पास चली गई. मंदिर में लगी भीड़ को देख कर उसे भरोसा हो गया कि वह भी बाबा की दुआ पा कर मां बन सकती है. राधा बाबा के पैरों पर गिर पड़ी और कहने लगी, ‘‘बाबा, मेरा दुख दूर करें. मैं 6 साल से बच्चे का मुंह देखने के लिए तड़प रही हूं.’’

‘‘उठो बेटी, निराश मत हो. तुम्हें औलाद का सुख जरूर मिलेगा.

‘‘लेकिन, इस के लिए तुम्हें माहवारी होने के बाद यहां 4 दिनों तक रह कर लगातार पूजा करनी होगी.’’

‘‘ठीक है बाबा, मैं जरूर आऊंगी.’’ राधा खुशी से घर गई. घर आ कर उस ने सारी बातें अपने पति को बताईं.

‘‘मैं कहता था न कि जो काम दवा नहीं कर सकती, कभीकभी दुआ से हो जाती है. बाबा की दुआ पा कर अब तुम जरूर मां बनोगी, ऐसा मुझे भरोसा है. तुम ठीक समय पर बाबा के पास चली जाना,’’ राजेश ने खुश होते हुए कहा.

राधा अब बेसब्री से माहवारी होने का इंतजार करने लगी. कुछ दिन बाद उसे माहवारी हो गई. माहवारी पूरी होने के बाद राधा फिर बाबा के पास गई. उसे देखते ही बाबा ने कहा, ‘‘बेटी, जैसा कि मैं ने तुम्हें पहले भी कहा था कि यहीं रह कर 4 दिनों तक लगातार पूजा करनी पड़ेगी, तभी तुम मां बन सकोगी.’’

‘‘जी बाबा, मैं रहने के लिए तैयार हूं,’’ राधा ने कहा.

‘‘ठीक है, अभी तुम अंदर चली जाओ. रात से तुम्हारे लिए पूजा करनी शुरू करूंगा,’’ अपनी चाल को कामयाब होते देख बाबा मन ही मन खुश होते हुए बोला. रात को बाबा ने राधा से कहा, ‘‘बेटी, इस पूजा के दौरान कोई भी देवता खुश हो कर तुम्हें औलाद दे सकता है. इस के लिए तुम्हें सबकुछ चुपचाप सहन करना पड़ेगा, नहीं तो तुम कभी मां नहीं बन पाओगी.’’ ‘‘जी बाबा, मैं सबकुछ करने को तैयार हूं. बस, मुझे औलाद हो जानी चाहिए.’’ राधा के इतना कहने के बाद बाबा उसे एक कोठरी में ले गए, जहां हवनकुंड बना हुआ था. उस में आग जल रही थी. बाबा ने उसे वहीं पर बिठा दिया और वह भी बैठ कर जाप करने लगा. कुछ देर तक जाप करने के बाद बाबा ने कहा, ‘‘राधा, देवता मुझ में समा चुके हैं. वह तुम्हें औलाद का सुख देना चाहते हैं, इसलिए तुम चुपचाप अपने बदन के सारे कपड़े उतार दो और औलाद पाने के लिए मेरे पास आ जाओ. वह तुम्हें दुआ देना चाहते हैं.’’

राधा ने यह सोच कर कि बाबा में देवता समा चुके हैं और देवता जो भी करते हैं, गलत नहीं करते, इसलिए उस ने अपने बदन के सारे कपड़े उतार दिए. बाबा उस के अंगों से खेलने लगा और उसे दुआ देने के नाम पर उस की इज्जत पर डाका डाल दिया. 4 दिनों तक लगातार बाबा ने इस पूजा के बहाने राधा से जिस्मानी संबंध बनाए. 5वें दिन बाबा ने कहा, ‘‘राधा बेटी, हमारी दुआ कबूल हो गई. पूजा भी पूरी हो गई. अब तुम जरूर मां बनोगी. तुम घर जा सकती हो.’’

बाबा की दुआ ले कर वह खुशीखुशी घर लौट आई. 9 महीने बाद राधा मां बन गई. उसे बाबा की दुआ लग गई थी. उस के माथे से बांझपन का धब्बा मिट चुका था. घर के सारे लोग बहुत खुश थे. राजेश को अब पूरा यकीन हो गया था कि उस में भी बाप बनने की ताकत है, लेकिन सचाई से सभी अनजान थे.

खुशहाल जीवन के लिए जरूरी जौब सैटिस्फैक्शन

एक मार्केटिंग फर्म के मार्केटिंग डिपार्टमैंट में काम कर रही महिमा शुरू में अपने काम को ले कर बहुत उत्साही थी, लेकिन साल पूरा होतेहोते उसे अपने काम से ऊब और थकान सी होने लगी. पैसे उसे जरूर अच्छे मिल रहे थे लेकिन टूरिंग जौब और ज्यादा देर तक काम करने से उस की सेहत पर भी खराब असर पड़ रहा था. साथ ही, अपने आसपास का माहौल और वहां काम करने वाले लोग भी उसे सूट नहीं कर रहे थे.

लेकिन घर की माली हालत ठीक न होने के कारण वह नौकरी छोड़ कर दूसरे विकल्प तलाश करने का जोखिम भी नहीं उठा सकती थी. पता नहीं दूसरी नौकरी मिले न मिले, मिले भी तो वहां का काम भी उस के मनमाफिक हो या नहीं. लिहाजा,  मन मार कर वह अपनी नौकरी करती रही और धीरेधीरे डिप्रैशन में आ गई.

दूसरी तरफ कृतिका एक मल्टीनैशनल कंपनी में कंप्यूटर औपरेटर थी. कुछ समय बाद उसे वह काम बोरिंग लगने लगा, फिर उस ने इनफौरमेशन टैक्नोलौजी में अपना कैरियर बनाना चाहा.

जब मन में ठान लिया तो पहले उस ने अपने बचे समय में एक अच्छे संस्थान से संबंधित पढ़ाई की. इनफौर्मेशन टैक्नोलौजी में पूरी जानकारी हासिल की और सालभर बाद ही उसे उस क्षेत्र में कामयाबी भी मिल गई. आईटी में जौब मिलने के बाद ही उस ने अपनी पहली नौकरी छोड़ दी. अब वह अपने मनमुताबिक कैरियर से बहुत संतुष्ट है.

मशहूर विद्वान विंस्टन चर्चिल ने कहा था, “हर संस्थान अथवा व्यक्ति को समय के साथ बदलते रहना चाहिए. अगर ऐसा नहीं है तो धीरेधीरे विकास रुक जाएगा. वास्तव में परिवर्तन प्रकृति का नियम है और परिवर्तन से ही विकास संभव है. जो समय और परिस्थिति के अनुसार अपनेआप को बदलते रहते हैं, वही सफल होते हैं.

हद से ज्यादा जौब सैटिस्फैक्शन के नुकसान 

हम अकसर कहतेसुनते हैं कि किसी भी नौकरी में ‘जौब सैटिस्फैक्शन’ होना बेहद जरूरी है. इसी से जौब व कैरियर में हमारी तरक्की तय होती है. अगर यह न हो, इस का बुरा असर हमारे प्रदर्शन पर पड़ता है. लेकिन हद से ज्यादा ‘जौब सैटिस्फैक्शन’ के कुछेक नुकसान भी होते हैं, जिन से हमें बच कर रहना चाहिए. आइए जानते हैं इन नुकसानों में बारे में…

कंफर्ट जोन से कभी बाहर नहीं निकलना : ‘जौब सैटिस्फैक्शन’ होने पर आप की प्रोफैशनल लाइफ तो अच्छी रहती है लेकिन इस का एक बुरा असर यह पड़ता है कि आप अपने कंफर्ट जोन से कभी बाहर नहीं निकलना चाहते. आप को उस में रहने की आदत पड़ जाती है. आप वही टास्क करना चाहते हैं जो कि आप को कंपनी जौइन करते वक्त दिया गया था. कोई भी नई चीज करने या सुझाने से आप कतराते हैं.

खुद को चैलेंज करने से हमेशा बचना : अत्यधिक ‘जौब सैटिस्फैक्शन’ होने पर आप किसी भी चुनौतीपूर्ण कार्य के आने की स्थिति में उसे स्वीकार करने से हिचकिचाते हैं. आप में पूरी टीम के बीच किसी नए कार्य को आगे बढ़ कर स्वेच्छा से करने की हिम्मत कम हो जाती है. ऐसे में ध्यान रखें कि जौब के प्रति संतुष्टि होना कहीं आप के कैरियर में रोड़ा न बन जाए.

चली जाती है कैरियर में रिस्क लेने की उम्र : अपने लक्ष्य को पाने के लिए कैरियर में प्लानिंग की जरूरत होती है. कैरियर के किसी पड़ाव पर की गई एक गलती आगे जा कर अपने भयावह परिणाम छोड़ती है. इसलिए सही वक्त पर सही कदम उठाना बेहद जरूरी होता है. कैरियर में बड़े रिस्क लेने की भी एक उम्र होती है. जितने लेट होते हैं, रिस्क लेने की क्षमता भी उतनी कम होती जाती है. जरूरत से ज्यादा ‘जौब सैटिस्फैक्शन’ होने पर हम रिस्क लेने से हमेशा डरते हैं. आप को यह सवाल हमेशा असमंजस में रखता है कि नई कंपनी में आप को ऐसा माहौल, काम और सहूलियतें मिलेंगी या नहीं.

क्यों जरूरी हैं जौब सैटिस्फैक्शन?

जौब सैटिस्फैक्शन हमारे जीवन का बहुत जरूरी हिस्सा है. यह हमें सफलता के एक कदम और नजदीक ले कर जाता है. साथ ही, हमें इस से पता चलता है कि हम अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने में सक्षम हैं और आर्थिक रूप से मजबूत हैं. लेकिन सब से बढ़ कर अपने काम के प्रति संतुष्टि हमारे मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बना सकती है. जब आप प्रोफैशनली अपने जौब से संतुष्‍ट होते हैं, तो यह आप की मैंटल हैल्थ को प्रभावित करता है.

हम पहले से ही एक बहुत ही प्रतियोगी दुनिया में रह रहे हैं. हालांकि, दूसरा कदम और भी जरूरी है. वह यह कि अपनी नौकरी को अपनी मैंटल हैल्थ को प्रभावित करने देने के बजाय वर्तमान में जो आप कर रहे हैं उस में शांति पाने और संतुष्ट रहने की कोशिश करें. ऐसे में आप कुछ चीजों को करने की कोशिश कर सकते हैं.

दोस्त जरूरी

आप जहां भी काम करते हैं, वहां अपने कुछ दोस्त बनाइए. आप का दिन कैसा रहा, इस सब को शेयर करने के लिए एक दोस्त का सपोर्ट होना आप के लिए बहुत जरूरी है. ऐसा करना आप के लिए बहुत फायदेमंद होता है. इस तरह एक नया संबंध बनाना भी आप के कार्यस्थल की खुशी को बढ़ाता है.

इस के लिए कुछ ऐसे लोगों को ढूंढें जिन के काम करने का लक्ष्य आप के जैसा ही हो. यह आप के काम के दौरान अधिक सकारात्मक वातावरण बनाएगा. साथ ही, ऐसा करने से आप को आप की नौकरी से अधिक संतुष्टि भी महसूस होगी.

एक नया शौक 

आप को यह समझने की जरूरत है कि आप वह नहीं है जो आप का काम है. अपनी नौकरी से कुछ अलग करने से नौकरी से संतुष्टि का स्तर बढ़ सकता है. एक नया शौक आप को आप के सभी उद्देश्य के लिए अधिक लाभ और आनंद प्राप्त करने में मदद कर सकता है.अगर आप अपनी नौकरी में खुश नहीं रह पा रहे हैं तो उस गतिविधि को करने की कोशिश करें जिसे आप हमेशा से आगे बढ़ाना चाहते हैं. यह आप के समग्र जीवन और स्वास्थ्य की गुणवत्ता में सुधार लाने में मदद करेगा.इस के अलावा आप यह भी कोशिश कर सकते हैं कि आप की नौकरी का कौन सा पहलू आप को सब से ज्यादा पसंद है. इस तरह प्रोडक्टिविटी से कोई समझौता न करते हुए खुद को खुश रखने पर ध्यान दें.

टालमटोली की आदत बुरी

टालमटोल करना एक स्पायरल की तरह है जिस के गिरने का कोई अंत नहीं है. जब आप ऐसा करते हैं तो आप के काम करने की क्षमता और प्रेरणा में कमी आती है. ऐसा करने से आप की कार्यसंतुष्टि पर नाकारात्मक प्रभाव पड़ते हैं. टालमटोली की आदत आप का बर्डन बढ़ा देती है.

तय करें हर दिन के छोटे लक्ष्य

हर दिन छोटे लक्ष्य निर्धारित करें और उन्हें अपने दैनिक आधार पर पूरा करने की कोशिश करें. यह आप को अगले दिन अपनी नौकरी के लिए तत्पर रहने के एहसास और उद्देश्य को बढ़ाएगा. साथ ही, इस से आत्मसम्मान भी बढ़ेगा.

हम जानते हैं कि स्थिति अभी आप के लिए ठीक नहीं है. लेकिन जब तक नौकरी का बाजार आप की महत्त्वाकांक्षाओं के अनुकूल नहीं हो जाता है तब तक आप जो कर रहें, उसी में संतुष्टि महसूस करने की कोशिश करें.

जोसफ की मारिया : गोपाल ने उससे माफी क्यों मांगी ?

सोमेश सर अपने एक दोस्त को विदा कर स्टेशन से तेज कदमों से लौट रहे थे। अभी 9 बजे हैं। 1 घंटा हाथ में है। जल्दीजल्दी तैयार हो कर स्कूल पहुंचना है। देर होना उन्हें पसंद नहीं। वे इस से बचना चाहते हैं। देर से पहुंचने वाले शिक्षकों को स्कूल के प्रिंसिपल जिस अंदाज में देखते हैं, वे नहीं चाहते कभी उसी अंदाज में उन्हें भी देखा जा।

रेलवे कालोनी अभी दूर थी। और 10 मिनट का वक्त लगेगा क्वार्टर पहुंचने में। वे चाहते तो स्टेशन तक आने के लिए अपनी बाइक का इस्तेमाल कर सकते थे। लेकिन कोई फायदा नहीं। क्वार्टर से निकल कर लगभग 100 मीटर का फासला तय करने के बाद बाइक को स्टैंड में खड़ा कर देना पड़ता है। बाइक चला कर स्टेशन तक नहीं पहुंचा जा सकता। एक लंबा ओवरब्रिज पार करने के बाद स्टेशन पहुंचा जाता है। उन्होंने ओवरब्रिज पार करते ही कदमों की रफ्तार बढ़ा ली।

“नमस्कार सोमेश सर…”

उन्होंने चलतेचलते मुड़ कर देखा, अपनी कालोनी के गोपालजी उन के पीछेपीछे चले आ रहे हैं।

“क्या बात है गोपाल बाबू, कहीं बाहर गए थे?”

“नहीं, अखबार लेने गए थे,” उन्होंने अखबार दिखाते हुए कहा।

“अब मुझे भी आपलोगों की तरह सुबहसवेरे अखबार बांचने की आदत लग गई है।”

“अच्छी आदत है…लेकिन हौकर गणेशी रोजाना दे जाता है न?”

“हां, इधर 2-4 रोज से नहीं आ रहा है। इसलिए स्टेशन जा कर चौबेजी के स्टौल से ले आते हैं।”

“आज हैडलाइन में क्या है?” कदम बढ़ाते हुए सोमेश सर ने यों ही पूछ डाला।

“अभी तो पूरा पढ़ा नहीं है लेकिन देख रहे हैं बड़ेबड़े अक्षरों में 2-3 तस्कर के पकङाने की खबर छपी है।”

“तस्कर…”

“अरे वही सर, गाय वाले तस्कर… बहुत मन बढ़ गया है इन ससुरों का. जगहजगह पिटने पर भी नहीं चेताते हैं। हम जिस को पूजते हैं उसी को हत्या कर के…कैसा घोर पाप करते हैं। आप ही कहिए कि यह सब बरदाश्त करने लायक है सर। सही करते हैं गौभक्त लोग, निकाल दें कचूमर इन का… तुम अगर कानून नहीं मानोगे तो भगत लोग कानून हाथ में लेंगे ही…जैसे को तैसा वाला मामला यहां लागू होना चाहिए… गोपाल बाबू अपने रौ में बोलते रहे। इधर सोमेश सर चुप्पी साध कर आगे बढ़ते रहे। बोलतेबोलते जब उन्हें यह एहसास हुआ कि सोमेश सर उन की बातों में कोई दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं तो चुप हो गए। कुछ पल तक खामोशी भी उन के साथ चलती रही। बाद में सोमेश सर ने ही विषय बदलते हुए चुप्पी तोड़ी,“कौन सी ड्यूटी चल रही है?”

“डे शिफ्ट। अभी तैयार हो कर जाना है।

गोपाल बाबू रेलवे के डीजल इंजन शेड में फ्यूल क्लर्क हैं। अपने नाम के अनुरूप गोपालक भी हैं। अपने क्वार्टर के पीछे खाली पड़े हिस्से को लोहे के एंगलों और चदरों से घेर कर एक ग्वालघर बना रखा है। जाहिर है, लोहे की ये सामग्रियां जर्जर अवस्था में पड़े लोकोशेड की हैं। ढहतेगिरते लोकोशेड की लौह संपत्ति के इस छोटे से हिस्से का अनाधिकृत उपयोग पर किसी ने आपत्ति नहीं जताई। चूंकि गऊ माता का घर बनाने का मामला था, गोपाल बाबू दिनदहाड़े लौह सामग्रियों को खुद ढो कर ले आए थे। 3 गाएं पाल रखी हैं। तीनों गायों को वे देश की तथाकथित पवित्र नदियों के नाम से संबोधित करते हैं- गंगा, जमुना और सरस्वती।

ड्यूटी से बचे हुए समय का उपयोग तीनों गायों की सेवा में लगाते हैं। गाय के प्रति उन का अतिरिक्त प्रेम, भक्ति और आस्था से पूरी कालोनी परिचित है। कहीं भी गौकशी कोई मामला सामने आता है तो वे फूट पड़ते हैं। खुल कर अपना विरोध जताते हैं। पूरी कालोनी उन्हें सच्चे गौभक्त के रूप में देखती है। गायों की सानीपानी, नहानधोआन, ग्वालघर की सफाई आदि कामों के लिए उन्होंने कभी किसी सहायक की आवश्यकता नहीं समझी। ये सारे कार्य बड़े प्रेम और मनोयोग से करते हैं।

गायों के चारे के लिए पुआल से कुट्टी (पुआल के छोटेछोटे टुकड़े ) बनाने वाली बिजली से संचालित मशीन भी उन्होंने ग्वालघर के एक कोने में लगा रखी है। स्वीचऔन किया, मशीन चालू। 10 मिनट में ही चारा तैयार। क्वार्टर के आसपास के लोगों के कानों में सुबहशाम जब गोपाल बाबू का लयबद्ध स्वर पड़ता है तो समझ जाते हैं कि वे दूध दुहने के काम में लग गए हैं।

वे अकसर कहा करते हैं कि दूध दुहना बड़ा पुण्य काम है। धूपबत्ती जला कर सब से पहले तीनों गायों को प्रणाम करते हैं। गायों के दूध देने के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हैं। दुहने के दौरान कुमार विशु की ‘गऊ महिमा…’ वाला गीत का मुखड़ा उसी सुर में गुनगुनाना नहीं भूलते,”गौमाता के श्रीचरण बसते जिस घरग्राम, बारह ज्योतिर्लिंग वहीं चारों धाम। घरघर जब भी पालते गौमाता को लोग, सुख वैभव भरपूर हो, निकट न आवे रोग…”

तीनों गायों से मिलने वाला भरपूर दूध का थोड़ा सा हिस्सा घर में उपयोग के लिए रख कर शेष हिस्सा बेच डालते हैं। कुछ होटल वाले, आसपास के क्वार्टर वाले स्वयं आ कर दूध ले जाते हैं।

सोमेश सर का क्वार्टर गोपाल बाबू के क्वार्टर से 5 ब्लौक की दूरी पर है। गोपाल बाबू अपने क्वार्टर वाले ब्लौक के करीब आते ही एक क्वार्टर की ओर अंगुली उठा कर फुसफुसाए,“देख रहे हैं सर…”

“क्या?”

“यहां भी गाय पाली जा रही है.”

वह क्वार्टर जोसफ का है. वह भी डीजलशेड में फ्यूल क्लर्क है. कहें तो वह गोपाल बाबू का सहकर्मी है। कुछ दिन पहले वह भी पालने के लिए एक गाय खरीद कर ले आया। उस का परिवार बड़ा है। परिवार में 4 बच्चों के अलावा वृद्ध मांपापा भी हैं। क्लर्की की तनख्वाह से घर चलाना मुश्किल हो रहा था, सो उस ने दूध बेच कर अतिरिक्त आय की प्राप्ति के मकसद से गाय खरीद कर ले आया। अपने क्वार्टर के पिछवाड़े मिट्टी से बने एक छोटे से घर को ग्वालघर का रूप दे कर अपनी गाय को बड़े जतन से पोस रहा है। जितनी सेवा, देखभाल की जरूरत है, उस से कहीं ज्यादा वह करता है। गाय की सेहत, उस की तंदरुस्ती इस बात की पुष्टि करती है।
जोसफ और उस के परिवार वाले अपनी गाय को मारिया कह कर संबोधित करते हैं। गाय को घर ले आने के 10-15 दिनों तक परिवार वाले उसे मैया ही कह कर पुकारते थे।

एक दिन जोसफ की पत्नी मार्था ने सुझाव दिया,“ क्यों न हम इसे मारिया कह कर पुकारें,” पत्नी के मुख से मारिया का नाम उच्चारित होते ही उस के भीतर कुछ हरहराने लगा। एक हूक सी उठी थी उस के सीने में। अंतस भीगने लगा था। आंखें भी पनीली हो गईं थीं। मरिया उस की 10 वर्षीया बेटी का नाम था, जो अब नहीं है। उस दर्दनाक हादसे की याद ने उसे हिला कर रख दिया था। क्वार्टर से निकली थी मुख्य सड़क पर। एक बाइक वाले ने सामने आए कुत्ते को बचाने के कवायद में अपनी बाइक मारिया पर चढ़ा दी थी। अंगअंग चूर हो गया था। इलाज का मौका भी नहीं दिया उस ने…

जोसफ ने कोई आपत्ति नहीं जताई पत्नी के सुझाव पर। अब वह मारिया में अपनी दिवंगत बेटी की छवि देखने लगा है। मारिया उस के लिए एक गाय नहीं रही, वरन बेटी थी। जोसफ और मार्था के बेटी सदृश्य प्यारदुलार, स्नेह, ममत्व पा कर मारिया भी अभिभूत थी।

जिस दिन जोसफ मारिया को खरीद कर लाया, उसी दिन से ही गोपाल बाबू दबी जबान में पूरी कालोनी में उलटीसीधी बातें सुनाने लगे थे। कुछ इस अंदाज में कि जैसे गाय पालने का अधिकार सिर्फ और सिर्फ एक ही समुदाय को है। गाय के प्रति भक्तिभावना किसी दूसरे समुदाय में नहीं देखी जा सकती…गौभक्षक के घर में गऊ मैया की दुर्गति होने जा रही है अदि।

जोसफ के प्रति गोपाल बाबू का कटाक्ष उन्हें समझने में देर नहीं लगी। कहने की भंगिमा ही ऐसी थी। सोमेश सर किंचित पल के लिए थोड़ी तिक्तता से भर उठे। वे चाहते तो करारा जवाब दे सकते थे। जोसफ दूसरे समुदाय का है, इसलिए उस का गाय पोसना उन्हें नागवार गुजर रहा है। तब तो मुसलिमम और यूरोपीय देशों में पाली जा रही गायों को ले कर उन्हें घोर आपत्ति होनी चाहिए। उन्होंने बात आगे नहीं बढ़ाई, बस इतना ही कहा, “इस में आप को कोई दिक्कत नहीं होनी चहिए गोपाल बाबू,” उन का स्वर अपनेआप अपेक्षाकृत शुष्क और तीखा हो गया था। शायद इसे गोपाल बाबू ने महसूस कर लिया था।

“अच्छा सर चलते हैं, ड्यूटी पर पहुंचना है।”

सोमेश सर ने घड़ी देखी,”ओह, 10 मिनट का रास्ता तय करने में 15 मिनट लग गए। अगर रास्ते में गोपाल बाबू न मिलते तो अब तक मैं अपने क्वार्टर पहुंच जाता,” लंबेलंबे डग भरते हुए वे क्वार्टर पहुंचे।

“ट्रेन लेट थी क्या?”

“नहीं, रस्ते में गोपाल बाबू मिल गए थे। उन की चाल में चाल मिलाते, बतियाते देर हो गई,” पत्नी को जवाब दे कर जल्दीजल्दी तैयार होने लगे।

रविवार का दिन था। घड़ी दिन का 10 बजा रही थी। सोमेश सर बाजार से कुछ सब्जियां लेने निकले थे। हाथ में झोला ले कर अपने क्वार्टर से कुछ कदम बढ़े ही थे कि दूर से मुख्य सड़क के किनारे वाली रेल की पटरियों के आसपास कालोनी के लोगों का अच्छाखासा हुजूम दिखा। ऐसी रेल कालोनी कम ही देखने को मिलती है जिस में दाखिल होने वाली मुख्य सड़क के 2-3 मीटर की दूरी से ही रेल की पटरियां शुरू हो जाती हैं। ये पटरियां सीधे लोकोशेड से जा मिलती हैं। लोकोशेड एक ऐसा कार्यस्थल, जहां स्टीम इंजन की मरम्मती, पैसेंजेर, गुड्स ट्रेनों से जुड़ कर उस की रवानगी से पहले जांचपड़ताल होती थी।

लोकोशेड का अपना वर्कशौप भी होता था, जिस में इंजनों के मुत्तालिक छोटेमोटे कलपुरजे भी बनाए जाते थे। लोको ड्राइवरों की ड्यूटी का रोस्टर भी यहीं मैंटेन होता था। अब तो लोकोशेड जर्जर अवस्था में है। स्टीम इंजन का जमाना लदे एक लंबा समय बीत गया। आहिस्ताआहिस्ता जमींदोज होते लोकोशेड के पीछे एक डीजलशेड बना दिया गया था, जहां फ्यूल के रूप में डीजल तेल की रिफिलिंग के लिए डीजल इंजन इन रेल की पटरियों से गुजरती हुई यहां पहुंचती हैं।

कालोनी का नाम है लोकोपाड़ा।ब्रिटिश हुकूमत के जमाने में लोकोशेड के सामने बनी इस कालोनी का नामकरण शायद इसी को ध्यान में रख कर कर दिया गया था। कालोनी की मुख्य सड़क के किनारेकिनारे लोहे की लंबीलंबी रैलिंग और उस के ढाई मीटर की दूरी से शुरू होती है पटरियां। उस के बाद लगभग 50 मीटर चौड़ी खाली जगह। यही खाली जगह अब मैदान का रूप ले चुका है।

सोमेश सर को पटरियों पर 3 डीजल इंजन एक के पीछे एक खड़ी दिखीं। माजरे को समझने के लिए उन्होंने अपने कदम तेज कर लिए। सामने से खटारा साइकिल पर सवार हौकर गणेशी को आता देखा तो उन्होंने अधीरतापूर्वक पूछा,“क्या हुआ है गणेशी?”

“रनओवर हो गया।”

“रनओवर… किस का?”

“गाय का।”

“किस की गाय?”

“पता नहीं सर।”

सोमेश सर जब भीड़ के करीब पहुंचे तो उन्होंने देखा कि रेलवे के सभी विभागीय प्रभारी लोको फोरमैन, कैरिज फोरमैन, आईओडब्ल्यू, पीडब्ल्यूआई, स्टेशन मैनेजर, रेलवे सुरक्षा बल के निरीक्षक पहुंचे हुए थे। साथ में कई जवान लुंगी बांधे, खुला बदन, सिर पर गमछा धरे बगल में शुक्लाजी खड़े थे। इत्मीनान से खैनी मल रहे थे। सोमेश सर ने उन्हें कुरेदा, “कैसे हुआ यह सब शुक्लाजी?”

“अरे, क्या बताएं सरजी, इधर मैदान में बच्चा सब क्रिकेट खेल रहे थे। 3 गाएं उधर से आ कर मैदान में घुस गई थीं। एक बच्चा एक गाय को पत्थर उठा कर इतना जोर से मारा कि वह बिलबिला कर लाइन की तरफ भागी। ऐन वक्त यही डीजल इंजन आई थी। मास्टर (चालक) कोशिश किया कि ब्रेक मार कर रोक दें, लेकिन तब तक धक्का खा कर गाय लाइन के बीच में आ गई और बस…”

“जल्दीजल्दी बोलो यह किस की गाय है?”

रेलवे सुरक्षा बल (आरपीएफ ) के सब इंस्पैक्टर मुखर्जी सर भीड़ से मुखातिब थे। कुछ दिन पहले ही मुखर्जी सर बंगाल के किसी रेलवे स्टेशन से तबादला हो कर यहां ओहदानशीं थे।

“देखो, बाद में पता लग जाएगा कि किस की गाय है तो भारी केस बन जाएगा….रेललाइन में घर का जानवर का घूमनाफिरना रेल के नियमकानून का खिलाफ है।”

भीड़ में फुसफुसाहट थी,”देखिए, रेल का काम कितना हंपर हो रहा है। स्टेशन मैनेजेर ने बताया कि यह जो 2 डीजल इंजन खड़ा है उन को तेल भर कर मालगाड़ी और पैसेंजर ट्रेन ले जाना है। कितना डिटेन हो रहा है डीजल इंजन। इस के चलते दोनों ट्रेन भी डिटेन हुआ तो डीआरएम लेबल से पूछताछ शुरू हो जाएगी।”

इसी बीच मुखर्जी सर के बगल में खड़े सुरक्षा बल के एक जवान दबी जबान में कुछ फुसफुसाया,”गोपाल मिश्रा कौन हैं? वे इधर हैं क्या?”

“जी, हम हैं सर…” गोपाल बाबू नमूदार हुए. अतिरिक्त विनम्रता के साथ हाथ जोड़े सब इंस्पैक्टर के सामने खड़े हो गए।

“यह आप की गाय है?”

“कैसी बात करते हैं हुजूर। अगर मेरी गऊ मैया होती तो अब तक हम इस को ऐसे ही पड़े रहने देते? अपने हाथों से क्लीयर कर देते और विधिविधान के साथ क्रियाकर्म भी कर देते. रामराम…ब्रह्महत्या का इतना घोर पाप ले कर हम जीवित रह पाएंगे?सर, हम भी रेल के मुलाजिम हैं, हम भी समझते हैं कि कितना डिटेन हो रहा है रेल का परिचालन…”

“आप के पास कितनी गाएं हैं?”

“सर, 3 हैं- गंगा, जमुना, सरस्वती. तीनों ग्वालघर में हैं… अभी तो सानीपानी दे कर आ रहे हैं। विश्वास नहीं हो तो सर चल कर जांच कर लें।”

सब इंस्पैक्टर ने अपने 2 जवानों को इशारा किया। वे दोनों गोपाल बाबू के साथ हो लिए। वहां पहुंच कर उन दोनों ने देखा कि एक ही नाद में तीनों गाय भोजन कर रही हैं। गोपाल बाबू की तीनों गायों का सशरीर मौजूद होने का सुबूत पा कर सब इंस्पैक्टर ने लावारिस गाय का रनओवर केस दर्ज कर मैडिकल डिपार्टमैंट के सैनेटरी इंस्पैक्टर को लाइन क्लीयर करने की हिदायत दी और अपने जवानों के साथ औफिस के लिए रवाना हो गए।

जोसफ को गाय खरीदे कुछ ही दिन हुए थे, इसलिए इस की खबर कालोनी वालों को भी नहीं थी। सिर्फ पड़ोसी ही जानते थे पर किसी ने मुंह नहीं खोला।

भीड़ जब छंटने लगी तो सहसा सोमेश सर की नजर जोसफ पर पड़ी, जो रनओवर स्पौट पर रेलवे ट्रैक को क्लीयर करने वाले सफाईकर्मियों की मदद कर रहा था। बिजली की मानिंद उन के जेहन में एक शंका कौंधी। कहीं यह मृत गाय जोसफ की तो नहीं? वे लंबेलंबे डग भरते हुए जोसफ के पास पहुंचे और उस के कंधे पर हाथ रख कर धीरे से पूछा, “तुम्हारी गाय?”

“नहीं…वह तो गोपाल बाबू के ग्वालघर में है।”

“क्या?” सोमेश सर जैसे आसमान से गिरे। जिस व्यक्ति को जोसफ का गाय पालना नागवार गुजर रहा है, उस के घर में जोसफ की गाय… उन के मन में एक और शंका उभरी कि कहीं जोसफ ने मारिया को बेच तो नहीं दिया। जोसफ के मुंह से ही शंका का निवारण चाह रहे थे, “लेकिन तुम्हारी गाय वहां क्यों?”

“उन की तीनों गायों के जिंदा होने के सुबूत के लिए।”

“मतलब…मैं समझा नहीं जोसफ… साफसाफ कहो न…”

“गंगा, जमुना और सरस्वती ये तीनों गायों को जीवित दिखाने के लिए वे मेरी मारिया को ले गए।”

“उन की 3 गाएं और तुम्हारी 1 कुल 4 हुए न?” जोसफ की बातें उन्हें पहेली जैसी लग रही थीं। गुस्सा भी आ रहा था उन्हें। सीधी सी बात को पेचीदा बना कर क्यों उलझा रहा है।
जोसफ तफसील से बताने लगा कि घंटाभर पहले गोपाल बाबू उस के पास दौड़तेहांफते आए और हाथपैर जोड़ कर गिड़गिड़ाने लगे,”कुछ घंटे के लिए मारिया को मुझे दे दो जोसफ भाई।”

“लेकिन क्यों?” जोसफ ने हैरानी से पूछा।

“देख भाई, मेरी गाय गंगा रेलवे ट्रैक पर रनओवर हो गई है। अब कानूनी काररवाई शुरू हो जाएगी और हम बुरी तरह फंस जाएंगे।”

“तो मारिया को ले कर क्या करेंगे?”

“मारिया को गंगा बना कर दिखा देंगे कि हमारी तीनों गाय जिंदा हैं।”

“लेकिन…” जोसफ की दुविधा वाली स्थिति को भांपते हुए गोपाल बाबू उस के पैर पर गिर पड़े, “देख भाई, न मत कहो…इस मुसीबत से तुम ही मुझे उबार सकते हो…जीवनभर नहीं भूलेंगे तुम्हारा यह उपकार।”

जोसफ इनकार नहीं कर सका। गोपाल बाबू ने मारिया को घर ले जा कर झटपट जमुना और सरस्वती के साथ बांध दिया। गोपाल बाबू की प्यारी गंगा जा चुकी थी। अब उस की भूमिका में मारिया थी, मुसीबत के फंदे से उन्हें बचाने वाली मारिया।

मामले की असलीयत से वाकिफ होते ही सोमेश सर का मुंह अचरज से खुला का खुला रह गया। उन्हें गौभक्त गोपाल बाबू के चेहरे पर किसी कसाई का चेहरा चस्पां नजर आने लगा।

लेखिका-मार्टिन जौन

बेकरी की यादें: क्यों दिप्ती ने काम करना शुरू किया?

मिहिरऔर दीप्ति की शादी को 2 साल हो गए थे, दोनों बेहद खुश थे. अभी वे नई शादी की खुमारी से उभर ही रहे थे कि मिहिर को कैलिफोर्निया की एक कंपनी में

5 सालों के लिए नियुक्ति मिल गई. दोनों ने खुशीखुशी इस बदलाव को स्वीकार कर लिया और फिर कैलिफोर्निया पहुंच गए.

दीप्ति को शुरूशुरू में बहुत अच्छा लगा. सब काम अपने आप करना, किसी तीसरे का आसपास न होना… सुबह उठ कर चाय के साथ ही वह नाश्ता और लंच बना लेती. फिर जैसे ही मिहिर दफ्तर जाता वह बरतन साफ कर लेती. बिस्तर ठीक कर के नहाधो लेती, इस के बाद सारा दिन अपना. अकेले बाजार जाना और पार्क के चक्कर लगाना, यही उस का नियम था. अब वह पैंट, स्कर्ट और स्लीवलैस कमीज पहनती तो अपनी तसवीरें फेसबुक पर जरूर डालती और पूरा दिन फेसबुक पर चैक करती रहती कि किस ने उसे लाइक या कमैंट किया है. 100-200 लाइक्स देख कर अपने जीवन के  इस आधुनिक बदलाव से निहाल हो उठती.

मगर यह जिंदगी भी चंद दिनों तक ही मजेदार लगती है. कुछ ही दिनों में यही रूटीन वाली जिंदगी उबाऊ हो जाती है, क्योंकि इस में हासिल करने को कुछ नहीं होता. दीप्ति के साथ भी ऐसा ही हुआ, फिर उस ने कुछ देशी लोगों से भी दोस्ती कर ली.

अब भारतीय तो हर जगह होते हैं और फिर इस अपरिचित ातावरण में परिचय की गांठ लगाना कौन सी बड़ी बात थी. घर के आसपास टहलते हुए ही काफी लोग मिल जाते हैं. दीप्ति ने उन्हीं लोगों के साथ मौल जाना, घूमनाफिरना शुरू कर दिया.

यूट्यूब देख कर कुछ नए व्यंजन बना कर वह अपने दिन काटने लगी, लेकिन जैसेजैसे मिहिर अपने काम में व्यस्त होता गया, वैसेवैसे दीप्ति का सूनापन भी बढ़ता गया. उसे अब भारत की बहुत याद आने लगी. वह परिवार के साथ रहने का सुख याद कर के और भी अकेला महसूस करने लगी.

एक दिन उस ने बैठेबैठे सोचा कि अब उसे कुछ काम करना चाहिए. काम करने का उसे परमिट मिला हुआ था. अत: कई जगह आवेदन कर दिया. राजनीति शास्त्र में एमए की डिग्री लिए हुए दीप्ति कई जगह भटकी. औनलाइन भी आवेदन किया, लेकिन कहीं से भी कोई जवाब नहीं आया. उस की बेचैनी बहुत बढ़ने लगी. वह किसी दफ्तर में डाटा ऐंट्री का काम करने को भी तैयार थी, लेकिन काम का कोई अनुभव न होने के कारण कहीं काम नहीं बना.

एक दिन पास की ग्रोसरी में शौपिंग करते हुए उस ने देखा कि बेकरी में एक जगह खाली है. उस ने वहीं खड़ेखड़े आवेदन कर दिया. 2 दिन बाद उस का इंटरव्यू हुआ. इंग्लिश उस की बहुत अच्छी नहीं थी. बस कामचलाऊ थी. लेकिन उस का इंटरव्यू ठीकठाक हुआ, क्योंकि उस में बोलना कम और सुनना अधिक था.

बेकरी के मैनेजर ने कहा, ‘‘तुम यहां काम कर सकती हो, लेकिन बेकरी में काम करने के लिए नाक की लौंग और मंगलसूत्र उतारना पड़ेगा, क्योंकि साफसफाई के नजरिए से यह बहुत जरूरी है.’’

दीप्ति को यह बहुत नागवार लगा. उस ने सोचा कि अगर ये लोग दूसरों की संस्कृति और भावनाओं का खयाल करते तो वह ऐसा न कहता. क्या मेरे मंगलसूत्र और लौंग में गंद भरा है, जो उड़ कर इन के खाने में चला जाएगा? फिर खुद को नियंत्रित करते हुए उस ने कहा कि वह सोच कर बताएगी.

मिहिर से पूछा तो उस ने कहा, ‘‘जो तुम ठीक समझो, करो. मुझे कोई आपत्ति नहीं है. बस शाम को मेरे आने से पहले घर वापस आ जाया करना.’’

दीप्ति ने वहां नौकरी शुरू कर दी. नाक की लौंग तो उस ने बहुत पीड़ा के साथ उतार दी. अभी शादी के कुछ दिन पहले ही उस ने नाक छिदवाई थी और बड़ी मुश्किल से वह लौंग नाक में फिट हुईर् थी, लेकिन मंगलसूत्र नहीं उतार पाई, इसलिए कमीज के बटन गले तक बंद कर के रखती ताकि वह दिखे न. पहले दिन वह बहुत खुशीखुशी बेकरी पर गई. वहां जा कर उस ने बेकरी का ऐप्रन पहन लिया.

मैनेजर ने पूछा, ‘‘क्या पहले कभी काम किया है?’’

‘‘नहीं, लेकिन मैं कोई भी काम कर

सकती हूं.’’

मैनेजर ने हंसते हुए कहा, ‘‘ठीक है अभी सिर्फ देखो और काम समझो… कुछ दिन सिर्फ बरतन ही धोओ.’’

दीप्ति ने देखा बड़ीबड़ी ट्रे धोने के लिए रखी थीं. उस ने सब धो दीं. जब मैनेजर ने देखा कि वह खाली खड़ी है तो कहा, ‘‘जाओ और बिस्कुट के डब्बे बाहर डिसप्ले में लगाओ, लेकिन पहले सभी मेजों को साफ कर देना,’’ और उस ने आंखों के इशारे से मेज साफ करने का सामान उसे दिखा दिया.

4 घंटों तक यही काम करतेकरते दीप्ति को ऊब होने लगी. लेकिन मन में कुछ संतुष्टि थी.

दीप्ति को वहां काम करना ठीकठाक ही लगा. काम करने से एक तो यहां की दुकानों के बारे में और जानकारी मिली वहीं बेकिंग के कुछ राज भी उस के हाथ लग गए. लेकिन उस के मन में बेकरी पर नौकरी करना एक निचते दर्जे का काम था. उस की जाति और खानदान के संस्कार उसे यह करने से रोक रहे थे.

वह इस काम के बारे में अपने घर या ससुराल में शर्म के मारे कुछ नहीं बता पाई. उस के लिए यह कोई इज्जत की नौकरी तो थी नहीं.

खैर, वह कुछ भी सोचे लेकिन काम तो वह बेकरी पर ही कर रही थी और उस में मुख्य काम था हर ग्राहक का अभिवादन करना और सैंपल चखने के लिए प्रेरित करना. दूसरा काम था ब्रैड और बिस्कुट को गिन कर डब्बों में भरना और बेकरी के बरतनों को धोना.

धीरेधीरे उस ने महसूस किया कि वहां भी प्रतिद्वंद्विता की होड़ थी, एकदूसरे की चुगली की जाती थी. परनिंदा में परम आनंद का अनुभव किया जाता था. लगभग 50 फीसदी बेकरी पर काम करने वाले लोग मैक्सिकन थे जो सिर्फ स्पैनिश में पटरपटर करते थे. दीप्ति उन की बातों का हिस्सा नहीं बन पाती.

बरहाल दीप्ति को बिस्कुट भरने में मजा आता, लेकिन बरतन धोने में

बहुत शर्म आती. उसे अपना घर याद आता. उस ने भारत में कभी बरतन नहीं धोए थे. कामवाली या मां सब काम करती थीं. अब यहां बरतन धोते हुए उसे लगता उस का दर्जा कम हो गया है.

एक दिन वहां काम करने वाली एक महिला ने उसे झाड़ू लगाने का आदेश दिया. पहले तो दीप्ति ने कुछ ऐसा भाव दिखाया कि बात उस की समझ में नहीं आई, लेकिन वह महिला तो उस के पीछे ही पड़ गई.

दीप्ति ने मन कड़ा कर के कहा, ‘‘दिस इज नौट माई जौब.’’

यह सुनते ही वह मैनेजर के पास गई और उस की शिकायत करनी लगी. दीप्ति ने भी सोचा कि जो करना है कर ले.

शाम को जब दीप्ति बरतन धो रही थी तो एक देशी आंटी पीछे आ कर खड़ी हो गईं और उसे पुकारने लगीं. उस ने अपनी कनखियों से पहले ही उसे आते देख लिया था. अब जानबूझ कर पीछे नहीं मुड़ रही थी. आंटी भी तोते की तरह ऐक्सक्यूज मी की रट लगाए खड़ी थीं, वहां कोई नहीं था सिवाए रौबर्ट के, जो बिस्कुट बना रहा था.

आखिर रौबर्ट ने भी दीप्ति को पुकार कर कहा, ‘‘जा कर देखो कस्टमर को क्या चाहिए.’’

हार कर दीप्ति को अपना न सुनने का अभिनय बंद कर के काउंटर पर आना पड़ा. बातचीत शुरू हुई. बिस्कुट के दाम से और ले

गई फिर वही कि तुम कहां से हो? तुम्हारे घर

में कौनकौन है? यहां कब आई? पति क्या

करते हैं? हिचकिचाते हुए उसे प्रश्नों के उत्तर

देने पड़े जैसे यह भी उस के काम का हिस्सा हो.

खैर, आंटी ने कुछ बिस्कुट के सैंपल खाए और बिना कुछ खरीदे खिसक गई.

अभी दीप्ति आंटी के सवालों और जवाबों से उभरी ही थी कि बेकरी का फोन घनघना उठा. रिसीवर उसी को उठाना पड़ा. फोन पर लग रहा था कि कोई बूढ़ी महिला केक का और्डर देना चाह रही है. जैसे ही दीप्ति ने थोड़ी देर बात की, बूढ़ी महिला ने कहा, ‘‘कैन यू गिव द फोन टू समबौडी हू स्पीक्स इंग्लिश?’’

दीप्ति को काटो तो खून नहीं. इस का मतलब क्या? क्या वह अब तक उस से इंग्लिश में बात नहीं कर रही थी? उस ने पहले कभी इंग्लिश को ले कर इतना अपमानित महसूस नहीं किया था. इतनी तहजीब और सब्र से वह ‘मैडममैडम’ कह कर बात कर रही थी.

लेकिन उस का उच्चारण बता देता है कि इंग्लिश उस की भाषा नहीं है. उसे बहुत कोफ्त हुई,

उस ने रौबर्ट को बुलाया और रिसीवर उस के हवाले कर दिया और कहा, ‘‘आई विल नौट वर्क हियर एनीमोर.’’

इस के बाद दनदनाती हुई वह अपना बेकरी का ऐप्रन उतार कर समय से पहले ही बेकरी से बाहर निकल आई. अगर वह न जाती तो उस की आंखों के आंसू वहीं छलछला पड़ते.

घर जा कर दीप्ति खूब रोई. पति के सामने अपना गुबार निकाला. पति ने प्यार से उस के

सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘बस इतने में ही डर गई. अरे, अपनी भाषा का हम ही आदर नहीं करते, लेकिन अन्य लोग तो अपनी भाषा ही पसंद करते हैं और वह भी सही उच्चारण के साथ.

‘‘जिस इंग्लिश की हम भारत में पूजा करते हैं वह हमें देती क्या है और इस बात को भी समझो कि सभी लोग एकजैसे नहीं होते. शायद उस औरत को विदेशी लोग पसंद न हों.

‘‘भाषा तो सिर्फ अपनी बात दूसरे तक पहुंचाने का माध्यम है. तुम ने कोशिश की. तुम इतना निराश मत हो. ये सब तो विदेश में होता ही रहता है.’’

मिहिर की बातों का दीप्ति पर असर यह हुआ कि अगले दिन वह समय पर अपना ऐप्रन पहन कर बेकरी के काम में लग गई जैसे कुछ हुआ ही न हो. किसी ने भी उस से सवालजवाब नहीं किया. अब उसे लगा कि वह किसी से नहीं डरती. अपने अहं को दरकिनार कर उस ने नए सिरे से काम शुरू कर दिया. उस ने अपने काम को पूरे दिल से अपना लिया. अपनी मेहनत पर उसे गर्व महसूस होने लगा.

जब मां बाप युवाओं की आवश्यकता न समझें 

“पापा  आप ने यह बहुत गलत किया. मेरे दोस्तों के आगे मेरी इंसल्ट की. वैरी बैड पापा. “
“ऐसा क्या गलत कर दिया मैं ने? तुझे इतना ही कहा न कि रात में पार्टी करने नहीं जाएगा. इस में गलत क्या है? रात के समय कितने क्राइम होते हैं. “
“यार पापा मैं क्या कोई दूध पीता बच्चा हूं जो रात में आ कर मां के हाथ से बोतल में दूध पियूंगा और फिर लोरी सुनते हुए सो जाऊंगा. समझने की कोशिश करो पापा. मेरा अपना सर्कल है. मैं अपने हिसाब से जीना चाहता हूँ. हर कदम पर मुझे गाइड मत किया करो. ‘
“हां हम तो अब तेरी नजर में मूर्ख हो गए न. सारी अक्लतेरे अंदर आ गई. तुझे पालने में अपना खूनपसीना एक कर दिया और जनाब अब हमें ही सीख देने लगे हैं. “
“पापा आप लोग तो मुझे समझते ही नहीं. आप से कुछ कहना ही बेकार है,” कह कर दिवेश ने जोर से अपने कमरे का दरवाजा बंद कर दिया.
इस तरह की घटनाएं अक्सर हमें अपने आसपास देखने को मिल जाती हैं जब घर में छोटीछोटी बातों पर पेरैंट्स और युवाओं के बीच कहासुनी होने लगती है. दोनों को लगता है कि सामने वाला हमें समझ नहीं रहा.
देखा जाए तो पिछले कुछ समय में लोगों की सोच, रहनसहन और जीवनशैली में काफी बदलाव आए हैं. समय बड़े रफ्तार से आगे बढ़ रहा है. इसी के साथ युवाओं के जीने का तरीका बदला है. स्वछंद वातावरण के साथ ही हर तरफ कम्पटीशन बढ़ता जा रहा है. इस भौतिक युग में ऊंचे मुकाम को हासिल करने के लिए अक्सर महत्वपूर्ण रिश्तों को त्यागने से भी लोग गुरेज नहीं करते.
ऐसे में जब बात आती है मातापिता के साथ युवाओं के रिश्ते की तो इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि ऊपर से भले ही सब बदल रहा हो पर जो प्यार इस रिश्ते में होता है वह अब भी कायम है. एक सर्वे में पाया गया है कि 75 प्रतिशत युवा अपने पैरेंट्स के साथ ही रहना पसंद करते हैं परंतु अक्सर परिस्थितियां उन्हें अलग रहने को भी मजबूर करती हैं. कभी अच्छी पढ़ाई के लिए तो कभी शिक्षा के बाद कैरियर बनाने के लिए युवाओं को बड़े शहरों का रुख करना पड़ता है. अपने शहर से बड़े शहर और बड़े शहर से विदेश का सफर आज युवाओं के कैरियर ग्राफ़ को बढ़ाने की जरूरत बन चुका है. इस तरह मातापिता और युवाओं के बीच एक दूरी आती है जो युवाओं के सोचने की दिशा भी बदल देती है. जो युवा घर में पेरैंट्स के साथ हैं उन की भी सोच अपने दोस्तों और सोशल मीडिया से प्रभावित होती रहती है.
आज के समय में ज्यादातर युवा स्वतंत्र माहौल में रह कर दोस्तों के साथ मौजमस्ती करना, देर रात तक जागना, पार्टी करना जैसी मानसिकता के साथ जीवन बिताना पसंद करते हैं तो वहीँ पेरैंट्स इसे गलत मान कर युवाओं को सीख देने लगते हैं. सच तो यह है कि पीढ़ी दर पीढ़ी लोगों की सोच और जीवन जीने के तरीके में बदलाव निश्चित है. इसे ही जेनरेशन गैप कहते हैं. आपसी तालमेल बिठाए रखने के लिए जरुरत है कुछ तुम बदलो और कुछ हम बदलें, वाले सिद्धांत को स्वीकार करना.
युवाओं को यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि जिंदगी के उतारचढ़ाव में, हर कठिन मोड़ पर मातापिता से बढ़ कर कोई शुभचिंतक नहीं होता. उन के न होने से जीवन में अधूरेपन का एहसास हमेशा होता है. आप के सुख, समृद्धि, खुशी और ऊँचाई हासिल करने पर देखने वाली सब से प्यारी आंखें मातापिता की होती हैं. इस बात से भी कोई इनकार नहीं कर सकता है कि एक बच्चे को जितना उस के मातापिता समझते हैं उतना कोई नहीं समझ सकता. एक बच्चे के लिए क्या सही है और क्या गलत, इस बात का फैसला मांबाप से बेहतर शायद ही कोई कर सकता हो.
वहीं दूसरी ओर लगभग हर बच्चे के लिए उस के मम्मीपापा ही पहले रोल मॉडल होते हैं. पैरेंट्स की छोटी से छोटी आदतें भी बच्चों पर बहुत गहरा प्रभाव डालती हैं. साइकोलॉजी की इमिटेशन थ्योरी से ये साबित भी होता है कि बच्चे सामाजिक व्यवहार अपने मातापिता से ही सीखते हैं. ऐसे में जब पेरैंट्स आप की कुछ बातों या आदतों से सहमत न हों तो आप को बहुत धैर्य से इस समस्या का समाधान ढूंढना चाहिए.
 *युवाओं की कुछ बातें जो पेरैंट्स नहीं समझते* 
1. कई बार पेरैंट्स अपने युवा बच्चों के लुक्स, पहनावे और करियर को ले कर उस की आलोचना करने लगते हैं. वे यह नहीं समझते कि उन का बच्चा आज के समय के अनुरूप खुद को ढालना चाहता है न कि पुरानी सोच के हिसाब से. युवाओं को कई बार पैरेंट्स के हिसाब से चलने पर दोस्तों के आगे शर्मिंदगी उठानी पड़ती है. ऐसे में आगे चल कर उसे डिप्रेशन और चिड़चिड़ेपन की शिकायत हो सकती है. क्यों कि जो पेरैंट्स की नजर में अच्छा है जरुरी नहीं कि वह आज के फैशन के हिसाब से भी सही हो. बच्चों को इस मामले में स्वतंत्रता मिलनी चाहिए. हां यह बात अलग है कि उन का पहनावा और लुक्स मर्यादा की सीमारेखा के अंदर हो. यही बात करियर के मामले में भी लागू होती है. बच्चा वही फील्ड चुनना चाहता है जो उसे पसंद है पर पेरैंट्स उन के जरिये अपने सपनों को पूरा करना चाहते हैं जो उचित नहीं है.
2. आजकल के पेरैंट्स को अपने युवा बच्चों से यह शिकायत भी रहती है कि वे सारा समय गैजेट्स जैसे लैपटॉप, मोबाइल आदि में लगे रहते हैं. उन के पास बातें करने के लिए समय नहीं होता. यह सच है कि अक्सर युवा बच्चे अपने दोस्तों या गर्ल/बॉयफ्रेंड्स में इतने व्यस्त रहते हैं कि वे पेरैंट्स को समय नहीं देते. इस के लिए पेरैंट्स को इस मामले में शुरू से ही स्ट्रिक्ट रहना चाहिए.
मगर बात यह भी सही है कि आज के समय में युवा बच्चों को बहुत सा समय गैजेट्स पर इसलिए भी बिताना पड़ता है क्योंकि गैजेट्स आजकल पढ़ाई और इनफार्मेशन का मुख्य जरिया बन चुका है. आज की गलाकाट प्रतियोगिता के इस दौर में वे इन के सहारे ही आगे बढ़ सकते हैं. आज के बच्चे तकनीकी बातों में बहुत होशियार रहते हैं और यह आज के समय की मांग है. सिर्फ पढ़ाई ही नहीं ऑफिस का सारा काम भी आजकल गैजेट्स के सहारे ही होता है और यह बात पेरैंट्स  को समझनी होगी.
3. कई मांबाप की यह आदत होती है कि वे अपने बच्चों को लड़का या लड़की होने के अनुसार व्यवहार करने के लिए कहते हैं. जैसे अगर लड़की है तो उन्हें यह नसीहत दी जाती है कि वे स्पोर्ट्स में भाग न लें या लड़कों वाले कपड़े न पहनें आदि. लड़कों को अक्सर अपनी भावनाओं को छिपाने की सलाह दी जाती है. उन्हें कहा जाता है कि वे मजबूत हैं, उन्हें रोना नहीं है. कई बार ऐसे हालात युवाओं में डिप्रेशन पैदा करते हैं. ऐसा करने से बच्चों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है.
जरूरी है कि पेरैंट्स उन्हें समझें और उन की पसंद और स्वभाव के हिसाब से जीने दें. उन पर कोई खास किरदार निभाने का भार न डालें. हर इनसान दूसरे से अलग होता है. उस की परिस्थितियां भी अलग होती हैं. अपने बच्चों से यह अपेक्षा नहीं रखी जा सकती कि वे आप की सोच के हिसाब से चलेंगे. उन्हें उन की जिंदगी जीने देनी चाहिए.
4. अक्सर यह देखा जाता है कि युवा वर्ग की सोच शादी विवाह के मसले में अपने पेरैंट्स से काफी अलग होती है. पेरैंट्स जहाँ अपने बच्चों को कम उम्र में ही शादी कर सेटल हो जाने की सलाह देते हैं वहीँ युवा जल्दी शादी के बंधन में बंधना नहीं चाहते. वे थोड़ा समय मौजमस्ती में बिताना चाहते हैं. अपने करियर के मामले में मुकाम हासिल कर लेने के बाद शादी की बात सोचना चाहते हैं. यही नहीं आज के युवा धर्म, जाति या कुल और हैसियत देख कर नहीं बल्कि कम्फर्ट लेवल देख कर जीवनसाथी चुनना चाहते हैं. कई बार वे पहले लिवइन में रहने की बात भी सोचते हैं. यह सब पेरैंट्स को रास नहीं आता और इस बात पर अक्सर पैरंट्स और युवाओं में ठन जाती है.
इस मामले में पेरैंट्स को थोड़ा लिबरल होना होगा. उन्हें समझना होगा कि जिंदगी उन के बच्चों को जीनी है. वे जिस के साथ जीना चाहते हैं उन के साथ जीने दें. क्योंकि इस मामले में जब तनाव बढ़ता है तो किसी का भला नहीं होता. कई बार घर बर्बाद हो जाते हैं. हॉनर किलिंग, आत्महत्या जैसे कदम उठा लिए जाते हैं पर युवा अपने प्यार को भूल नहीं पाते. इसलिए बेहतर है कि बच्चॉं की ख़ुशी में ही अपनी ख़ुशी ढूंढें और उन की भावनाओं को समझें.
5. अपने बच्चों की तुलना दूसरे बच्चों से कभी नहीं करनी चाहिए. न ही दोस्तों के आगे अपने युवा बच्चों को डांटना चाहिए. ऐसा करने से आप के बच्चे के आत्मसम्मान को ठेस पहुंच सकती है. दोनों के बीच रिश्ता और खराब हो सकता है. किसी भी रिश्ते को मजबूत बनाने के लिए एकदूसरे को समझने और अपने प्यार का अहसास दिलाने की जरुरत होती है.
 *युवा क्या करें* 
अपने पेरैंट्स को प्यार से समझाएं. आप के उम्रदराज पैरंट्स की सोच अपने समय के हिसाब से सही है. आप उन की सोच को बिल्कुल से नकार नहीं सकते. आप उन्हें अपने दिल की बात समझा सकते हैं, अपनी जरूरतों और मजबूरियों से अवगत करा सकते हैं पर जबरदस्ती इस बात के लिए मजबूर नहीं कर सकते कि वे आप की बात समझें ही. इसलिए बेहतर है की सब से पहले प्यार से उन्हें अपनी बात समझाने का प्रयास करें. जरूरत पड़े तो फिर उदाहरण दे कर अपने कथन की सत्यता साबित करें. उन से निवेदन करें कि वे आप को अपने मन का करने दें. पर भूल कर भी उन पर चीखेचिल्लाएं नहीं. कभी भी दूसरों के आगे उन की बेइज्जती न करें. हो सके तो कभीकभी उन की बात भी मान लें ताकि उन्हें यह न लगे कि आप हमेशा उन की अवज्ञा ही करते हैं. याद रखें पेरैंट्स की बात आप को भले ही गलत लग रही हो मगर कहीं न कहीं वे आप का भला सोच कर ही कुछ भी कहते हैं. उन से ज्यादा आप का भला चाहने वाला और कोई नहीं होता. इसलिए अपने पेरैंट्स को अहमियत देना न भूलें.
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