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बाड़ : अविनाश की पत्नी क्यों नहीं जाना चाहती थी गांव

“यार, वीकेंड फौर्म हाउस में गुजारते हैं इस बार, कैसा रहेगा?”अविनाश ने पत्नी सुलभा से पूछा.

“वाह, बढ़िया रहेगा. 24 घंटे इस पौल्यूशन में रह कर दम घुटने लगता है. बच्चों की भी आउटिंग हो जाएगी,” सुलभा ने खुशी से हामी भरी।

“अरे सुनो, तुम्हें बताना भूल गया था, बाबूजी का फोन आया था गांव से कि कुछ समय हम उन के साथ गांव में रहें, बोलो क्या कहती हो? फौर्म हाउस की बजाए अपने गांव, अपने खेत बच्चों को दिखा लाएं? वहां का आनंद ही कुछ और होगा,” अचानक अविनाश ने कुछ सोचते हुए कहा.

“अरे नहीं, अभी तो फौर्म हाउस ही चलो, गांववांव फिर कभी चलेंगे, मैं मेरी फ्रैंड ऐश्वर्या से भी कह दूंगी कि वह भी अरुण के साथ चलने की तैयारी कर ले, काफी समय से उस के साथ वक्त नहीं गुज़ारा है. सुनो ननकू से अभी से बोल दो कि वह पास के गांव के सरपंच से बुलौक कार्ट मांग लाए, बच्चों को बुलौक कार्ट राइडिंग का मजा भी आ जाएगा,” सुलभा ने साफ मना कर दिया.

“ठीक है भाई, अब बनावट हम लोगों पर इस कदर हावी है कि बनावटी फौर्म ही भाता है, वास्तविकता से तो हमारे रिश्ते टूटते ही जा रहे हैं. बनावटी फौर्म, दिखावटी रिश्ते, चलो चलते हैं फौर्म हाउस,” अविनाश बनावटी हंसी हंसते हुए बोला.

गेहूं की रोटी को आप की रसोई से क्यों निकालने पर तुले हैं लोग

भारत में उगने वाले अनाज में पहला स्थान धान का है जिस से चावल बनता है और दूसरे नंबर पर है गेहूं, जिस से आटा तैयार होता है. भोजन के लिए रोटियां बनाने में गेहूं के आटे का प्रयोग ही सब से ज्यादा होता है. सदियों से गेहूं के आटे की रोटियां हमारे खाने का खास हिस्सा रही हैं. मगर अभी कुछ समय से यह बात सारी दुनिया में फैलाई जा रही है कि गेहूं हमारे स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह है.

दुनियाभर में लोग गेहूं के आटे से बनी रोटियों से दूर हो रहे हैं. जो भी मोटा हो रहा है उस को पहली सलाह यह दी जा रही है कि गेहूं के आटे की रोटी खाना छोड़ दो. उस की जगह चावल खाओ. व्हाट्सऐएप यूनिवर्सिटी पर तो इस को ले कर तमाम रील्स दिखाई जा रही हैं. कोई कह रहा है कि आटे में उपस्थित ग्लूटेन आंतों में जम कर बीमारियां पैदा करता है तो कोई समझाने की कोशिश कर रहा है कि गेहूं में बहुत अधिक मात्रा में ग्लैडिन पाया जाता है, जो एक प्रोटीन है और भूख बढ़ाने का काम करता है. इस कारण से गेहूं का सेवन करने वाला व्यक्ति एक दिन में अपनी जरूरत से ज्यादा कम से कम 400 कैलोरी अधिक सेवन कर जाता है. इसलिए गेहूं के आटे की रोटी को अपनी रसोई से बाहर कर दें.

अमेरिका के एक हृदय रोग विशेषज्ञ हैं डा. विलियम डेविस. उन की एक किताब इन दिनों बड़ी चर्चा में है. ‘व्हीट बेली’ यानी गेहूं की तोंद, नामक इस किताब में उन्होंने गेहूं से होने वाले शारीरिक नुकसान के बारे में विस्तार से लिखा है. डा. विलियम लिखते हैं कि यदि लोगों को डायबिटीज और हृदय रोगों से मुक्ति चाहिए तो गेहूं छोड़ कर पुराने लोगों की तरह मोटा अनाज यानी ज्वार, बाजरा, रागी, चना, मटर, कोडव, जौ और सावां जैसे अनाजों की रोटी खानी चाहिए.

डा. विलियम का कहना है कि भारत के लोग सुबहशाम गेहूं खाखा कर महज 40 वर्षों में ही मोटापे और डायबिटीज का शिकार हो रहे हैं. इस मामले में भारत दुनिया की राजधानी बन चुका है. एक पीढ़ी पहले तक भारत में मोटा होना आश्चर्य की बात होती थी. मोटे लोगों की शादियां बड़ी मुश्किल से होती थीं मगर आज 30 वर्ष की उम्र पार का हर दूसरा भारतीय मोटापा चढ़ाए घूम रहा है. डा. विलियम का सुझाव है कि मोटापे और मोटापे के कारण होने वाले रोगों से मुक्ति के लिए हमें अपनी रसोई में 80 से 90 प्रतिशत जगह मोटे अनाज को देनी होगी और गेहूं को मात्र 10 से 20 प्रतिशत देना होगा.

गौरतलब है कि भारत में गेहूं की सालाना पैदावार 109.6 मिलियन टन है. इस के बाद रूस 76.1 मिलियन टन, यूएसए 44.8 मिलियन टन और फ्रांस 36.5 मिलियन टन का नंबर आता है. 2021 के डेटा के मुताबिक यूक्रेन में सलाना 32.1 मिलियन टन गेहूं का उत्पादन होता है. चीन 21वीं सदी के पहले 2 दशकों में 2.4 बिलियन टन के साथ दुनिया का सब से बड़ा गेहूं उत्पादक देश रहा है, जो वैश्विक कुल गेहूं का 17 फीसदी है. विश्व में सब से ज्यादा गेहूं पैदा करने वाला उत्तर चीन है. 2020 तक यहां गेहूं का उत्पादन 1,34,250 हजार टन था जो दुनिया के गेहूं उत्पादन का 20.65 फीसदी हिस्सा है. सारी दुनिया में गेहूं का खूब उत्पादन हो रहा है और खूब खपत भी हो रही है. भारत में कुल उत्पादन का मात्र एक फीसदी ही निर्यात होता है, बाकी यहीं खप जाता है.

भारत में उत्तर प्रदेश सब से बड़ा गेहूं उत्पादक राज्य है, इस के बाद पंजाब, हरियाणा और मध्य प्रदेश आते हैं. भारत में गेहूं का उपयोग खाने के तौर पर हजारों वर्षों से हो रहा है. मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई से पता चलता है कि साढ़े चार हजार साल पहले सिंधु घाटी की सभ्यता में गेहूं की खेती होती थी. यानी, 5,000 वर्ष से भी अधिक समय पहले से भारत में गेहूं का उत्पादन हो रहा है.

गौर करने वाली बात यह है कि हजारों सालों से गेहूं का आटा भारतीय रसोई का खास हिस्सा होने के बावजूद यहां मोटापे की समस्या इस हद तक कभी नहीं हुई जैसी आजकल देखी जा रही है. वजह यह कि भारतीय मानस जम कर रोटी, प्याज और नमक खाने के बाद दिनभर खेतों में कड़ी मेहनत करता था. जो लोग सेना में होते थे वे भी दिनभर शारीरिक कार्य करते थे. शहरी लोग भी मेहनतमशक्कत में कम नहीं थे. मोटर गाड़ियां और लग्जरी जीवन तो था नहीं, एक जगह से दूसरी जगह अधिकांश लोग पैदल यात्रा करते थे या घोड़े की सवारी होती थी. अंगरेजों के जमाने में भारत में साइकिल आई तो धनाढ्य वर्ग ने इस की सवारी करनी शुरू कर दी, जिस में भी खासी मेहनत लगती है.

पुराने समय में और आज भी गांवदेहात में महिलाएं घरों में सारा काम स्वयं करती हैं. जब तक घरों में नल नहीं आए थे, महिलाओं के हिस्से कुओं से पानी भर कर लाना, हाथचक्की चलाना, खेतों में काम करना, जानवरों की देखभाल करना, दूध दुहना, जानवरों को चराने ले जाना, घर में चूल्हा फूंकना, जलावन की लकड़ी जंगलों से इकट्ठा करना, खाना बनाना, कपड़े धोना, घरों को लीपनापोतना, बच्चों को पालना आदि सब शारीरिक काम होते थे, तो गेहूं के आटे की 10-12 रोटियां खा कर भी किसी के शरीर पर कभी मोटापा नहीं चढ़ता था. आज भी ग्रामीण भारत में मोटापे के लक्षण नहीं दिखते हैं. हां, लिवर सिरोसिस, किडनी की बीमारी या मच्छरों के काटने से होने वाले बुखार की जद में वे ज्यादा आते हैं.

लिवर और किडनी के रोग ग्रामीण और शहरी दोनों जगहों पर बढ़ रहे हैं जो मुख्यतया इस कारण से हैं क्योंकि खेतों में फसलों, दालों और सब्जियों पर जरूरत से ज्यादा कीटनाशकों का इस्तेमाल होने लगा है. गोबर की खाद किसानों को उपलब्ध नहीं है. पशुधन इतना महंगा है कि हर किसान गायभैंस नहीं पाल सकता. लिहाजा, फसलें उगाने के लिए यूरिया और कीटनाशकों की मदद ली जा रही है. कृषिभूमि और सिंचाई का पानी इन कीटनाशकों की वजह से बहुत हद तक जहरीला हो चुका है.

शहरी लोगों के पास पैसा है, ऐशोआराम है, लग्जरी गाड़ियां हैं, फास्ट फूड है, कोल्ड ड्रिंक है, मेक्डोनाल्ड का फ्राइड चिकन है, पिज्जा हट का मेयोनीज और चीज से भरे पिज्जा बर्गर हैं. रसोई में जो काम महिलाएं पहले हाथ से करती थीं, उन सब की जगह अब मशीनों ने ले ली है. लाइटर की एक क्लिक से चूल्हा जल जाता है. मसाला पीसने के लिए मिक्सी है. कपड़े धोने के लिए वाशिंगमशीन है. घर साफ करने के लिए वैक्यूम क्लीनर या मेड है. कहीं आनेजाने के लिए स्कूटर या गाड़ी है. खाना पकाने का मन नहीं है तो होटल और रैस्तरां हैं. फिर मोटापे और बीमारियों के लिए सारा इलजाम गेहूं के आटे से बनी रोटी को देना क्या उचित है?

आप रोटी खाएं या चावल अथवा मोटा अनाज, यदि शारीरिक श्रम नहीं होगा तो मोटापा और बीमारियां तो बढ़नी ही हैं. भारत में मोटापे का शिकार बच्चे भी हो रहे हैं क्योंकि उन को भरभर के फास्टफूड खिलाया जा रहा है. वे हर दिन कोल्डड्रिंक गटक रहे हैं. ब्लौटिंग पेपर और क्रीम से बनी आइसक्रीम खा रहे हैं. स्कूलों और कालेज की कैंटीन में अब खाने की वह थाली गायब हो चुकी है जिस में दाल, रोटी, सब्जी, दही, चावल होता था. अब मिलते हैं तले हुए पकौड़े, समोसा, पैटी, बर्गर, नूडल्स, पिज्जा, मोमोज और पौलिश्ड चीनी से भरे एनर्जी ड्रिंक्स.

इस तरह का खाना पेट में भर कर दिनभर बच्चे क्लासरूम में बैठे रहते हैं. उस के बाद ट्यूशन क्लास में चले जाते हैं. वहां से निकले तो घर आ कर मोबाइलफोन, औनलाइन गेम या टीवी देखने में बिजी हो गए. मैदान में जा कर खेलने, व्यायाम करने या स्विमिंग-साइक्लिंग करने का समय उन के पास कहां हैं? तो मोटापा बढ़ने की असली वजह यह है, न कि गेहूं के आटे की दो रोटी, जिस को रसोई से निकालने का षड्यंत्र बड़े व्यापक रूप से चलाया जा रहा है.

पिछले कुछ समय से भारत की केंद्रीय सरकार मिलेट्स को बढ़ावा देने में जुटी है. मिलेट्स यानी मोटा अनाज. सरकारी कार्यक्रमों में आजकल मिलेट्स से बने पकवान परोसे जा रहे हैं. ज्वारबाजरे की रोटियां, खीर आदि बन रही हैं. कुछ बड़े नामी होटल भी अब मोटे अनाज को बढ़ावा देने के लिए पकवान तैयार कर परोसने में लगे हैं. सवाल यह है कि मोटा अनाज भारत में कितना उगाया जाता है? क्या यह भारत की 140 करोड़ जनता का पेट भरने लायक उगता है? बिलकुल नहीं.

भारत का किसान मुख्य रूप से धान और गेहूं की फसल ही उगाता है. खेतों में इन 2 फसलों की अच्छी पैदावार हो जाए तो उस के परिवार की दो जून की रोटी का इंतजाम कर देती है. चना, बाजरा, ज्वार, कोदो जैसा मोटा अनाज तो वह बहुत कम उगाता है. अगर खेत में जगह बचती है या 2 फसलों के बीच जब खेत खाली होते हैं तब ये फसलें उगाई जाती हैं. ऐसे में अचानक गेहूं के आटे के प्रति उपभोक्ता के मन में बीमारी का डर पैदा कर किसानों के पेट पर लात मारने के षड्यंत्र के पीछे सरकार और मल्टीनैशनल कंपनियों की मिलीभगत साफ नजर आती है. गेहूं के प्रति भय पैदा कर के उपभोक्ता द्वारा गेहूं की मांग जब कम की जाएगी तो इस का बुरा प्रभाव सीधे किसानों पर पड़ेगा.

जब किसान की फसल कम बिकेगी तब मल्टीनैशनल कंपनियां पूरी साजिश के साथ उन की मदद को आगे बढ़ेंगी और कम कीमत पर उन का अनाज खरीद कर अपने गोदाम भरेंगी. यह भी गौर करने वाली बात है कि भारत के स्वास्थ्य, मोटापे और हृदय रोगों के बढ़ने के संबंध में किताब लिखने वाले डा. विलियम डेविस अमेरिकी लोगों के मोटापे की वजह नहीं बताते, जहां भारत के मुकाबले मोटापे की समस्या चारगुना अधिक है. जबकि अमेरिकी रसोई में गेहूं के आटे की रोटी भारतीय परिवारों के अलावा शायद ही किसी अमेरिकी के घर में बनती हो. हां, ब्रेड का इस्तेमाल वहां जरूर होता है.

दरअसल मोटापे और बीमारियों की मुख्य वजह फास्ट फूड, कोल्डड्रिंक, रिफाइंड औयल में तले हुए खाद्य पदार्थ, चौकलेट्स, फ्रोजन फूड और विभिन्न प्रकार के प्रोटीन व एनर्जी ड्रिंक हैं. वहीं, शारीरिक श्रम बिलकुल खत्म हो चुका है. खासतौर पर उच्च और मध्य वर्ग की महिलाएं बहुत ज्यादा आलसी व फूडी हो गई हैं. उन का हर काम मशीनें कर रही हैं और उन का पूरा वक्त फास्टफूड या चौकलेट्स खाते और टीवी देखते गुजर रहा है. यही आदतें उन्होंने अपने बच्चों में डैवलप कर दी हैं. नतीजा, मोटापा और मोटापे से जुड़ी बीमारियां बढ़ रही हैं.

क्या आप ने सोचा है कि गांव की औरतों में या आप के घर में काम करने वाली मेड के शरीर पर चरबी क्यों नहीं चढ़ती? वे क्यों नहीं मोटी, थुलथुल नजर आतीं जबकि उन की खुराक अपनी मालकिन की खुराक से दुगनीतिगुनी होती है. आप अगर लंच और डिनर में 4 रोटी खाती हैं तो आप की मेड दिनभर में 12 से 15 रोटियां गेहूं के आटे की खाती है, फिर भी वह दुबलीपतली है क्योंकि वह सारा दिन शारीरिक श्रम करती है. जबकि, आप खाना खा कर बिस्तर या सोफे पर ही पड़ी रहती हैं.

अगर मोटापे और बीमारी से दूर रहना है तो शरीर को हिलाना और उस से काम लेना बहुत जरूरी है. बूढ़े हों, बच्चे हों, पुरुष हों या स्त्री, उतना ही खाएं जितनी भूख है और उस खाने को पचाने व ऊर्जा में परिवर्तित करने के लिए नियमित व्यायाम और श्रम करें. गेहूं के आटे को रसोई से निकालने की जरूरत नहीं है बल्कि मोमोज, नूडल्स, पिज्जा, बर्गर, फ्राइड चिकन, फिंगर चिप्स, केक, पैटीज, पेस्ट्री, कोल्डड्रिंक जैसे जंक फूड को अपने जीवन से निकालना जरूरी है.

आज मनाया जा रहा है World Multiple Sclerosis Day, जानिए इस बीमारी के बारे में सबकुछ

World Multiple Sclerosis Day 2024 : मल्टीपल स्केलेरोसिस डिजीज हमारे ब्रेन और स्पाइनल कोर्ड को इफैक्ट करता है. साथ में औप्टिक नर्व को भी इंवौल्व करता है. यह एक औटोइम्यून डिसऔर्डर है. औटोइम्यून का मतलब होता है, बौडी अपनी ही बौडी के किसी पार्ट या सेल के अगेंस्ट काम करना शुरू कर देती है. हमारी न्युरौंस को आपस में कम्युनिकेट करने के लिए उन के ऊपर एक शीट होती हैं जिस को हम मायलिन शीट कहते हैं. यह शीट एकदूसरे न्यूरौन में सिग्नल भेजने और कम्युनिकेट करने में हैल्प करती हैं. इस इम्यून डिसऔर्डर में हमारी मायलिन शीट, जो हमारी नर्व के ऊपरवाला कवर है, डैमेज हो जाती है जिस से उन का कम्युनिकेशन लिंक टूट जाता हैं और इस बीमारी के लक्षण आने शुरू हो जाते हैं.

हमें कैसे पता चलेगा कि हमें यह समस्या है

यह बीमारी कौमन रूप से फीमेल में होती है खासकर 20 साल से ले कर 35 साल तक की महिलाओं में अकसर देखी जाती है. इस में लक्षण हमेशा पर्सन टू पर्सन या मेल टू फीमेल वैरी करते हैं.

कुछ कौमन लक्षण हैं. आंखों की रोशनी धुंधली पड़ जाना, वन हाफ बौडी का सुन्न हो जाना, शरीर का एक हिस्सा वीक हो जाना या बौडी में करंट वाली लहरें दौड़ना. गरदन को जब हम हिलाते हैं और पूरी बौडी में, खासकर गरदन के नीचे, करंट वाली लहरें दौड़ रहीं हैं तो उस का मतलब है कि इस बीमारी की शुरुआत हो चुकी है. इसी तरह जब आप को दोदो चीजें दिखने लग जाएं, एक साइड की बाजू, टांग, बेस सब सुन्न हो जाएं, चलें तो ऐसे लगे जैसे लड़खड़ा के चल रहे हैं तो समझिए इस बीमारी की चपेट में आ चुके हैं.

इलाज के औप्शन

इस संदर्भ में डाक्टर बीरिंदर सिंह पॉल, प्रोफैसर डिपार्टमैंट औफ न्यूरोलौजी, दयानंद मैडिकल कालेज एंड हौस्पिटल, लुधियाना, पंजाब कहते हैं कि इस बीमारी में पिछले 10-15 वर्षों में इतनी रिसर्च हो गई है कि अब हमारे पास इस के इलाज के बहुत सारे औप्शन्स हैं.

इस बीमारी के लिए मुख्य रूप से 2 तरह के ट्रीटमैंट हैं. दरअसल जब हमारे नस के ऊपर से कवर उतरता है तो हमारी आंखों की रोशनी चली जाती है. इस अवस्था को अटैक आना कहते हैं. जब यह बीमारी अटैक के रूप में आती है तो इमिजेटली इस का इलाज स्टिरौयड्स से होता है जिसे इंजैक्शन के फौर्म में देते हैं ताकि इस अटैक को रोका जाए. जो कवर उतर रहा है उस के अराउंड जो स्वेलिंग या इनफ्लोनेशन हो रही है उस को कम किया जाए. इस को कहते हैं एक्यूट ट्रीटमैंट.

आजकल इतनी रिसर्च के बाद कुछ खाने वाली दवाई आ गई हैं. कुछ इंजैक्शन भी अवेलेबल हैं जो डायरैक्टली हमारे इम्यून सिस्टम पर काम करती हैं ताकि बौडी में अगर इम्यून इन बैलेंस हो रहा है, इम्यून सिस्टम खराब या डैमेज हो रहा है, इम्यून सिस्टम में चेंजेस आने की वजह से नर्व डैमेज हो रही हैं तो उस को रोकने के लिए यह ट्रीटमैंट दे सकते हैं. इस ट्रीटमैंट का नाम है ‘डिजीज मोडिफाइ ट्रीटमैंट’. यह दोतीन फौर्म में अवेलेबल है. एक तो खाने वाली गोली आती है, एक आता है लगाने का इंजैक्शन जो हम हफ्ते में जैसे इंसुलिन का टीका लगता है वैसे लगाते हैं. अब इस में एक और रिसर्च हो गई है. अभी कुछ ऐसे इंजैक्शन भी अवेलेबल हैं जो महीने में 2 लगवाने हैं और इस का असर 6 महीने से साल तक रहता है. यह एडवांस ट्रीटमैंट अभी पिछले दिसंबर से इंडिया में अवेलेबल हो गया है. एडवांस ट्रीटमैंट को ‘सीडी ट्वेंटी मोनोक्लोनल एंटीबौडीज’ कहते हैं.

दरअसल हमारी बौडी में टी सेल और बी सेल होते हैं. किसी का गला खराब हो गया तो हमारी बौडी में इमिजेटली टी और बी सेल काम करते हैं. इस बीमारी में ये टी और बी सेल आउट औफ कंट्रोल हो जाती है. बौडी की बात नहीं सुनते. ये बी सेल जा कर हमारी नर्व को डैमेज करते हैं. वहां पे मायलिंग कवर को डैमेज करना शुरू कर देते हैं. सीडी ट्वेंटी मोनोक्लोनल एंटीबौडीज ऐसी दवा है जो इस बी सेल को कंट्रोल करती है.

भले ही इस बीमारी को जड़ से नहीं खत्म कर सकते मगर इतने इफैक्टिव ट्रीटमैंट आ रहे हैं जिस से बीमारी को डोरमैंट स्टेज में ले जाते हैं. तब कई साल तक कोई दोबारा ट्रीटमैंट की जरूरत नहीं पड़ती. यानी, यह 70 -80 परसेंट तक इफैक्टिव ट्रीटमैंट है.

जब सालों पहले इस बीमारी का ट्रीटमैंट शुरू हुआ था तो हमारे पास एक ही औप्शन था, रोज इंजैक्शन लगाओ. हमारे पास कोई गोली खाने वाली नहीं थी. फिर पिछले 10 सालो में 5-6 गोलियां अवेलेबल हो गईं. अब ऐसे इंजैक्शन भी आ रहे हैं जिन को साल में केवल 2 बार लगाना होता है. यह सारे साल काम करता है. वह इंजैक्शन जो आप रोज लगाते थे उस का इफैक्ट 35 से 50 फीसदी था, मतलब 50 फीसदी लोगों में ही वह इंजैक्शन काम करता था. मगर अब जो ट्रीटमैंट अवेलेबल है और जिस को हम हाई एफिकेसी ट्रीटमैंट कहते हैं, वह डिजीज को 70 से 80 परसैंट तक कंट्रोल करता है.

यानी, एक तो चेंज यह हुआ है कि नंबर औफ इंजैक्शन या नंबर औफ गोली जो हमें इस बीमारी में खानी होती थी वह कम हो गई है. दूसरा एफिकेसी बढ़ गई है. मतलब डिजीज कंट्रोल करने की क्षमता बहुत बढ़ गई है. औल मोस्ट डबल हो गई है. पहले इस के पेशेंट्स को हम कहते थे कि आप घर जा कर इस की केयर और फिजियोथेरैपी करो, हमारे पास ज्यादा इलाज नहीं है. अब उलटा हो गया है. हम पेशेंट को कहते हैं कि आप हमारे पास हौस्पिटल में आओ. हमें बताओ क्या डिजीज है. आप का इलाज 80 परसैंट पौसिबल है. 20 साल में यह चेंज हो गया.

मल्टीपल स्केलेरोसिस के प्रकार

एमएस के 3 मुख्य प्रकार हैं:

रिलैप्सिंग-रिमिटिंग एमएस (आरआरएमएस)- यह एमएस (मल्टीपल स्केलेरोसिस) का सब से आम प्रकार है. एमएस से पीड़ित लगभग 85 फीसदी लोगों में यह होता है. इस के साथ आप को रिलैप्स यानी अटैक से जूझना पड़ता जाता है. यदि आप को आरआरएमएस है तो अटैक के दौरान आप के लक्षण बिगड़ने की संभावना बहुत अधिक है.

प्राइमरी प्रोग्रैसिव एमएस (पीपीएमएस)- यदि आप को पीपीएमएस है तो आप के एमएस लक्षण धीरेधीरे खराब होने लगते हैं. लेकिन आप को बीमारी के दोबारा उभरने या ठीक होने की कोई खास अवधि नहीं मिलती.

सैकंडरी-प्रोग्रैसिव एमएस (एसपीएमएस)- एसपीएमएस के साथ आप के लक्षण समय के साथ लगातार बदतर होते जाते हैं.

मल्टीपल स्केलेरोसिस के कारण

• कुछ खास जीन वाले लोगों में इस के होने की संभावना ज्यादा हो सकती है.
• धूम्रपान करने से भी जोखिम बढ़ सकता है.
• कुछ लोगों को वायरल संक्रमण के बाद एमएस हो सकता है क्योंकि इस से उन की प्रतिरक्षा प्रणाली सामान्य रूप से काम करना बंद कर देती है.
• संक्रमण बीमारी को ट्रिगर कर सकता है या बीमारी को फिर से होने का कारण बन सकता है.
कुछ अध्ययनों से पता चलता है कि विटामिन डी, जो आप को सूरज की रोशनी से मिल सकती है, आप की प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत कर सकता है और आप को एमएस से बचा सकता है.

मल्टीपल स्केलेरोसिस जोखिम कारक

इस के होने की संभावना अधिक हो सकती है यदि आप-

• आप महिला हैं
• आप की उम्र 20, 30 या 40 के बीच है
• धूप में ज्यादा समय न बिताना
• अंधेरे वातावरण में रहना
• धुआं
• एमएस का पारिवारिक इतिहास होना

इस बीमारी का डायग्नोसिस कैसे होता है

डायग्नोसिस के लिए सब से पहले डाक्टर आप की हिस्ट्री को एनालाइज करता है. आप की हिस्ट्री को समझता है, फिर आप को एग्जामिन करता है. उस के बाद कुछ टैस्ट करता है जिन में ब्रेन का एमआरआई और एक होता है जिस को हम कहते हैं विजुअल इवोक पोटैंशियल. कई बार रीड़ की हड्डी के पानी, जिस को हम सीएसएफ एग्जामिनेशन कहते हैं, को भी टैस्ट करते हैं.

इस के इलाज में कितना खर्च आता है

डाक्टर वीरेंद्र सिंह पाल कहते हैं कि इलाज का खर्च इस बात पर डिपैंड करता है कि आप किस स्टेज से इलाज शुरू कर रहे हो, कौन सी डिजीज में कर रहे हो, जैसे पीपीएमएस डिसीज है, प्रोग्रैसिव है. इस में इलाज कई बार लाखों में भी चला जाता है, महंगा हो जाता है. बाकी दूसरा इलाज अगर हम देखें तो अगर साल में आप ने 1 या 2 बार ट्रीटमैंट लेना है तो वह इलाज इतना महंगा नहीं पड़ता. अगर हम एक साल का पीरियड काउंट करें तो कुछ हजार से लाखों रुपयों में होता है.

स्कूल में बच्चे मेरी बेटी का मजाक उड़ाते हैं, मैं क्या करूं?

सवाल

मेरी 15 वर्षीया बेटी 9वीं क्लास में पढ़ती है. वह मानसिक रूप से कमजोर है. 7 वर्ष की उम्र से उस का मिर्गी का इलाज चल रहा है. वह पढ़ाई में और बौद्धिक तौर पर भी कमजोर है. स्पैशल एजुकेटर की देखरेख में वह पढ़ाई करती है. लेकिन इन दिनों वह स्कूल नहीं जाना चाहती क्योंकि स्कूल में बच्चे उस का मजाक उड़ाते हैं जिस से संघर्ष करने के बजाय वह बस अपनी दुनिया में ही खोए रहना चाहती है. हम उस की कैसे मदद करें?

जवाब

आप की बेटी ऐसे दौर से गुजर रही है जहां मानसिक के साथसाथ उस में शारीरिक बदलाव भी होने शुरू हो गए हैं. इस स्थिति में उस पर आप को सचमुच पहले से ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है. सब से पहले तो आप अपनी बेटी को सामान्य स्कूल से निकलवा कर स्पैशल स्कूल में भरती कराएं. ऐसा इसलिए क्योंकि हम अकसर यह सोचते हैं कि सामान्य स्कूल में शारीरिक या मानसिक रूप से कमजोर बच्चों को डाल कर हम उन्हें सामान्य होने का एहसास दिला रहे हैं, लेकिन होता इस का बिलकुल उलटा ही है.

बच्चे बाकी बच्चों को देखदेख कर यह सोचनेसमझने लगते हैं कि उन में कोई कमी है. यह भावना समय के साथ गहरी होती जाती है. वहीं स्पैशल स्कूल में बच्चे के शारीरिक व मानसिक स्तर के अनुसार ही पढ़ाईलिखाई व दूसरी ऐक्टिविटीज होती हैं जो बच्चे के पूर्ण विकास के लिए बेहद जरूरी हैं. वहां वह अपने जैसे बाकी बच्चों से मिलेगी भी और काफी कुछ सीखेगी व उन्हें भी सिखाएगी, जो विकास की सही परिभाषा भी है. वहां कोई उस का मजाक नहीं उड़ाएगा.

आप उसे समय दें, उस से बातें करें. उसे यह एहसास न कराएं कि उस में कोई कमी है. इन सब के बाद भी यदि उस का मनोबल मजबूत न हो तो किसी काउंसलर या विशेषज्ञ की मदद लें.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem

कौन तोड़ रहा दलित युवा नेताओं की हिम्मत

24 अप्रैल, संतकबीर नगर

भाजपा गद्दार और घमंडी है, भाजपा के लोग कहते हैं कि उन्होंने राम मंदिर बनवाया. तुम कौन होते हो भगवान को लाने वाले? तुम इंसान हो कर भगवान को लाने की बात कर रहे हो. मंदिर तो सुप्रीम कोर्ट के आदेश से बनना शुरू हुआ और पैसे जनता के लग रहे हैं. इस में भाजपा का क्या लगा है?

25 अप्रैल, आजमगढ़

सरकारी नौकरियों के लिए पेपर देते हो, वह लीक हो जाता है. तो मन करता है जिस ने पेपर लीक किया उस का गूदा निकाल कर जमीन में गाड़ दें.

28 अप्रैल, सीतापुर

वे कहते हैं सरकारी नौकरियां नहीं हैं तो क्या हुआ, पकोड़े तलना भी तो रोजगार है. अब आप बताइए, खासी पढ़ाईलिखाई करने, डिग्री हासिल करने के बाद आप अपने बच्चों से पकोड़े तलवाएंगे? बहुजन समाज पढ़ालिखा समाज है, वह पकोड़े तलने के लिए पैदा नहीं हुआ है. यह समाज संविधान के आधार पर भारत को आगे बढ़ाने का काम करेगा.

इलैक्शन कमीशन को लगे कि हमें भाजपा को आतंकवादी नहीं बोलना चाहिए था तो हम चुनाव आयुक्तों से अपील करेंगे कि वे गांवगांव घूमें, देखें और पता करें कि यहां जो बहनबेटियां हैं वो किस हाल में जी रही हैं. यहां के युवाओं के हालात देखें, उन्हें पता चल जाएगा कि मैं सच बोल रहा हूं.

chandra shekhar ravan - Copy_11zon

भाजपा के खिलाफ इतना बोलने वाले को अव्वल तो बाहर नहीं, बल्कि किसी झूठेसच्चे इल्जाम में जेल में होना चाहिए था. इस की नौबत आती, इस से पहले ही बसपा सुप्रीमो मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद से 7 मई को दी गई वे तमाम जिम्मेदारियां व पद वापस ले लिए जो उन्होंने उन्हें पिछले साल दिसंबर में सौंपे थे. बकौल मायावती, आकाश अभी अपरिपक्व हैं. (उम्र 28 वर्ष, लंदन से एमबीए, इस के बाद भी अपरिपक्व?).

दरअसल आकाश विकट की परिपक्वता दिखाते और जनता को भाजपा की हकीकत से रूबरू कराते लोकसभा चुनाव में बसपा उम्मीदवारों की मजबूती देने की कोशिश कर रहे थे और खुद भी बहुजनों के बीच लोकप्रिय व मजबूत हो रहे थे कि एक झटके में बूआ ने उन्हें एहसास करा दिया कि हमें बसपा को नहीं, बल्कि भाजपा को मजबूत करना है. राममंदिर और धर्म की बात तो भूल कर भी नहीं करना है. दलित युवाओं को नौकरी न मिले, न सही, इस के लिए हम अपने आर्थिक साम्राज्य और अस्तित्व को खतरे में नहीं डाल सकते. दलित तो सदियों से ही प्रताड़ित और शोषित है. उस की बदहाली न तो बाबासाहेब दूर कर पाए थे, न मान्यवर कांशीराम और न ही मैं कुछ कर पाई, तो तुम किस खेत की मूली हो. जाओ अपने महल के एसी में बैठ आईपीएल का लुत्फ उठाओ, आराम करो, हमारी तरह पसीना मत बहाओ. राजनीति तुम्हारे बस की बात नहीं. एक इंटरव्यू में आकाश ने यह भी उजागर किया था कि स्कूल के दिनों में एक सीनियर उन्हें चमार कह कर बेइज्जत करता था.

कुछ दिन अपना जलवा बिखेर कर खूबसूरत और स्मार्ट आकाश उत्तरप्रदेश से वापस दिल्ली पहुंच गए. जातेजाते सनातनी शैली में बूआ के आदेश को उन्होंने सिरआखों पर लिया और अब यदाकदा, इक्कादुक्का कोई छोटामोटा बयान दे देते हैं जिस के कोई माने नहीं होते. अब इस युवा के पास यह सोचने के लिए मुक्कमल वक्त और मौका है कि आखिर कौनकौन दलित युवा नेतृत्व की पौध को पेड़ नहीं बनने दे रहा. और कोई क्यों अब कांशीराम के दिए चर्चित नारे ‘तिलक तराजू और तलवार इन को मारो जूते चार’ की बात करता? क्यों बसपा अयोध्या के महंगे आलीशान मंदिर की प्रासंगिकता को बहुजन समाज के मद्देनजर कठघरे में खड़ा करतीं हैं? आखिर ऐसी कौन सी मजबूरी आन पड़ी है जो एक दलित युवा नेता दिल की बात जबां पर ले आए तो उस के कान अपने वाले ही उमेठने लगे हैं? जबकि इस बाबत तो उसे प्रोत्साहन ही मिलना चाहिए कि, शाबाश बेटा, डटे रहो, इस मुहिम में हम तुम्हारे साथ हैं.

chirag paswan - Copy_11zon

दलित राजनीति इन दिनों सब से बुरे दौर से गुजर रही है. देश के अधिकतर दलित नेता भाजपा की गोद में जा बैठे हैं जिन में रामदास अठावले, चिराग पासवान और जीतनराम माझी के नाम प्रमुख हैं. कांग्रेस में भी इन दिनों दलित नेताओं के लिए कोई खास स्पेस नहीं है. मल्लिकार्जुन खडगे के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद दूसरी पंक्ति के दलित दलित नेता न तो सनातनी राजनीति और मंदिर मुद्दे पर तुक की कोई बात कह पाए और न ही आरक्षण पर मचे बवंडर पर आम दलित युवा का डर जता पाए.

कांग्रेस के एक प्रमुख युवा दलित नेता उदित राज दिल्ली से चुनाव मैदान में जरूर हैं लेकिन उन के तेवर पहले जैसे आक्रामक नहीं रह गए हैं. भाजपा का झूठा पानी पी चुके उदित राज अब बूढ़े भी हो चले हैं. साल 2014 में वे अपनी इंडियन जस्टिस पार्टी सहित भाजपा में चले गए थे लेकिन भगवा गैंग की पूजापाठी मानसिकता ज्यादा नहीं झेल पाए तो 2019 में कांग्रेस में आ गए.

2014 का चुनाव वे दक्षिणपूर्व दिल्ली सीट से भाजपा के टिकट पर जीते थे. इस बार भी वे इसी सीट से मैदान में हैं. मुकाबला भाजपा के योगेंद्र चंदोलिया से है. आम आदमी पार्टी का साथ उन्हें फिर से संसद पहुंचा भी सकता है. उदित राज जीतें या न जीतें लेकिन एक बात तय है कि भाजपा में महत्त्वाकांक्षी दलित नेताओं के लिए कोई जगह नहीं है. वहां वही चलता है जो गले में भगवा गमछा डाल कर गला फाड़ कर जयजय श्रीराम के नारे लगाए और यह मान ले कि वर्णव्यवस्था पर दलितों को कोई एतराज नहीं.
उदित राज की तरह ही मनुवाद विरोधी तीखे तेवरों के लिए पहचाने जाने वाले 37 वर्षीय चंद्रशेखर रावण अपनी ही बनाई आजाद समाज पार्टी से उत्तरप्रदेश की नगीना सीट से चुनाव लड़ रहे हैं. एक वक्त में चंद्रशेखर को मायावती के विकल्प के तौर पर भी देखा जाने लगा था जिसे ले कर मायावती घबरा भी उठी थीं और उन्होंने रावण की राजनीति खत्म करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी.

भाजपा भी चंद्रशेखर को ले कर चिंतित थी क्योंकि वे तेजी से दलित समुदाय में पैठ बना रहे थे. इस से ज्यादा दिक्कत की बात यह थी और है भी कि वे अकसर मनुवाद और वर्णव्यवस्था को ले कर लगातार हमलावर रहते हैं जिसे ले कर उन पर आएदिन जानलेवा हमले होते रहते हैं और जिस के चलते ही उन्हें वाई श्रेणी की सुरक्षा मिली हुई है.
नगीना सीट उन के ही नहीं, बल्कि मनुवाद विरोधी और मनुवाद समर्थक दलित राजनीति का भी भविष्य तय करेगी. क्योंकि इस सीट पर उन का मुकाबला भाजपा के ओम कुमार, सपा के मनोज कुमार और बसपा के सुरेंद्रपाल सिंह से है. 2019 के चुनाव में नगीना से बसपा के गिरीश चंद्र ने भाजपा के यशवंत सिंह को 1 लाख 66 हजार वोटों से हराया था. इस बार के चतुष्कोणीय कड़े मुकाबले में जीत किस के हाथ लगेगी, यह तो सट्टा बाजार भी तय नहीं कर पा रहा.

चंद्रशेखर के लिए यह पहला चुनाव ही चैलेंज इस लिहाज से साबित हो रहा है कि उन्हें किसी भी सूरत में बसपा उम्मीदवार सुरेंद्रपाल को नहीं जीतने देना है, तभी भविष्य में दलित उन का साथ देगा. दूसरे, उन्हें भाजपा के ओम कुमार को भी सवर्ण वोटों तक समेट कर रखना है.

भाजपा इस सुरक्षित सीट को ले कर आश्वस्त नहीं है लेकिन दलित वोटों का बंटवारा किस फार्मूले पर होता है, इस पर भी उसकी नजर है. जो भी इस लोकसभा सीट के 6 लाख के लगभग मुसलिम वोट थोक में ले जाएगा उस की जीत की संभावनाए ज्यादा होंगी. इस लिहाज से तो इंडिया गठबंधन के मनोज कुमार फायदे में रहेंगे, बशर्ते उन्हें कुछ वोट दलितपिछड़ों के भी मिलें. रावण अगर बसपा का वोट काटने में कामयाब रहे तो इस में कोई शक नहीं कि दलित नेता के तौर पर वे स्थापित हो जाएंगे लेकिन इस के लिए उन के वोट बसपा उम्मीदवार से ज्यादा होने चाहिए. इस सीट से जो भी जीतेगा उस का मार्जिन बहुत कम होना तय है.

एक और युवा दलित नेता 41 वर्षीय चिराग पासवान भी अपनी लोक जनशक्ति पार्टी से बिहार की जमुई सीट से मैदान में हैं. भाजपा उन के साथ है, जिस ने एलजेपी को पहले की तरह 6 सीटें दी हैं. लेकिन इस बार हालत खस्ता है क्योंकि रामविलास पासवान नहीं हैं जो जुगाड़तुगाड़ के महारथी थे और जनता भी उन्हें चाहती थी.

चिराग की दिक्कत यह है कि उन्होंने कभी जमीनी राजनीति नहीं की है. दलितों की परेशानियों का उन्हें एहसास ही नहीं. दूसरी दिक्कत यह है कि उन्होंने भी सनातनी तौरतरीकों से रहना/जीना शुरू कर दिया है. एक हिंदी फिल्म में बतौर हीरो दिख चुके चिराग ने अपने पिता का अंतिम संस्कार और गंगा पूजन सनातनी रीतिरिवाजों से किए थे और इस दौरान खुलेआम ब्राह्मणों के पैरों में माथा नवाते, उन्हें तगड़ी दक्षिणा भी दी थी. इसलिए भाजपा ने उन्हें साथ भी ले लिया कि, चलो, लड़का मंदिर और वर्णव्यवस्था का विरोधी नहीं जबकि रामविलास पासवान इन ढोंगपाखंडों को दलितों का दुश्मन मानते थे और डील अपनी शर्तों पर करते थे.

ऐसा किसी को नहीं लग रहा कि एलजेपी अपना पुराना प्रदर्शन दोहरा पाएगी. ऐसे में चिराग की भविष्य की राजनीति यही होगी कि वे भी भगवा गमछा गले में डाल लें. हालांकि, अभी वे इस बात से इंकार कर रहे हैं कि एलजेपी का भाजपा में विलय होगा. लेकिन यह तय है कि बहुत से ऐसे अहम और दिलचस्प सौदे 4 जून के बाद संपन्न होंगे.
चंद्रशेखर रावण की तरह ही दलित अत्याचारों के विरोध में खड़े रहने वाले गुजरात के बाड़मेर से विधायक कांग्रेस के युवा दलित विधायक जिग्नेश मेवानी भी चुनावप्रचार में उम्मीद के मुताबिक सक्रिय नहीं दिखे. दलित जीवन की दुश्वारियां भुगत चुके जिग्नेश से दलित युवाओं को बड़ी उम्मीदें हैं लेकिन कांग्रेस उन का सही इस्तेमाल नहीं कर पा रही है.

पिछले दिनों गृहमंत्री अमित शाह के एक वीडियो से कथित छेड़छाड़ के आरोप में शक की सुई जिग्नेश पर गहराई थी और उन की गिरफ्तारी की चर्चा भी हुई थी लेकिन चुनाव सिर पर देख एक दलित युवा नेता को गिरफ्तार करना घाटे का सौदा भाजपा के लिए साबित होता इसलिए उन्हें हालफिलहाल बख्श दिया गया है लेकिन अमित शाह की वक्रदृष्टि जिग्नेश पर पड़ चुकी है. इस विवादित वीडियो में गृहमंत्री यह कहते नजर आ रहे हैं कि एससी, एसटी का आरक्षण खत्म कर दिया जाएगा.

10 साल से भाजपा मंदिरमंदिर खेल रही है. इस खेल में दलितों का न तो कोई रोल है और न ही उन्हें मंदिरों की जरूरत है. उन्हें दरकार है तो बस सरकारी नौकरियों की, जिन की वेकैंसी अब कभीकभार ही निकलती हैं. आरक्षण कैसेकैसे कमजोर किया जा रहा है, यह हर वह दलित युवा समझ रहा है जो पढ़ रहा है लेकिन उन के गले को आवाज देने वाला नेता कोई नहीं है जिस से वे निराश हताश हो चले हैं.

सामाजिक न्याय की बात भी अब कोई नहीं करता जबकि इस की जरूरत पहले से कहीं ज्यादा महसूस की जा रही है. रोज कोई न कोई दलित दबंगों के कहर का शिकार हो रहा है लेकिन देश का माहौल धर्ममय है. जो यह कहता है कि तुम अगर छोटी जाति के हो तो यह तुम्हारी प्रौब्लम है. तुम्हारे पूर्वजन्म के कर्म खराब थे जो तुम ने शूद्र वर्ण में जन्म लिया. अब अगर इस से बचना है तो अगले जन्म में ऊंचे कुल में पैदा होने के लिए धर्मकर्म करो, ब्राह्मणों को दानदक्षिणा दो और पूजापाठ, व्रतउपवास शुरू कर दो जैसे तुम्हारे कई नेता कर रहे हैं और इतना कर रहे हैं कि इसी जन्म में उन की हालत सुधर गई है. रही बात रोजगार और नौकरी की, तो वह नश्वर है और भाग्य की बात है जिसे बदलने को अब हर कभी तो कोई भीमराव आंबेडकर पैदा होगा नहीं, जिन्हें हम ने देवता सरीखा बना दिया है. सो, तुम लोग बेकार का हल्ला न मचाओ.

बच्चों की जिद कहीं भारी न पड़ जाए, जानें क्या है रास्ता

कहते हैं कि बाल हट से बड़ा कोई हट नहीं होता. नन्हामुन्ना बच्चा अगर कोई जिद कर ले तो उसे समझाना अच्छेअच्छे उस्ताद के लिए भारी पड़ जाता है. ऐसे में आवश्यकता पड़ती है समझदारी की, होशियारी की और अनुभव की. अगर थोड़ी भी गलती हुई तो बाल हट को ले कर कुछ ऐसे घटनाक्रम सामने आ जाते हैं जो परिवार और समाज के लिए कलंक का टीका बन जाते हैं और सोचने पर मजबूर कर देते हैं.

ऐसे अनेक घटनाक्रम हमारे आसपास अकसर घटित होते रहते हैं जिन्हें हम देखते हैं और कई दफा अनदेखा कर देते हैं जो बाद में नासूर बन जाते हैं.

ऐसे ही घटनाक्रमों में से कुछ हम नीचे प्रकाशित कर रहे हैं-

पहली घटना – छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में एक किशोर अपनी मां से यह जिद करने लगा कि फलां खिलौने ले कर दीजिए. मां ने अनदेखी कर दी तो बच्चे ने घर में आग लगा दी. मुश्किल से परिवारजनों की जान बच पाई.

दूसरी घटना – छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव में 10 वर्ष के एक बालक ने पिता से वाहन मांगा, कहा खरीद कर दीजिए. जब पिता ने नहीं खरीदा तो बालक ने घर में रखा हुआ डिटौल पी लिया. बालक को बहुत मुश्किल से बचाया जा सका.

आप को हम अब बताते हैं हाल ही में मध्य प्रदेश की संस्कारधानी के जाने वाले जबलपुर का घटनाक्रम- जबलपुर में एक छात्रा रंजना (बदला नाम) की मौत का मामला सामने आया है. रंजना 5वीं क्लास में पढ़ती थी. परिजनों के मुताबिक, वह घूमने जाना चाहती थी लेकिन उस की मां ने जाने के लिए मना कर दिया था. इस बात से गुस्से में आ कर रंजना फांसी के फंदे से लटक गई. फिलहाल पुलिस मामले की जांच कर रही है और जो जानकारियां सामने आ रही हैं वे चिंताजनक हैं.

दरअसल, घटना जबलपुर के धनवंतरी नगर थाना इलाके के जसूजा सिटी की है. रंजना की उम्र सिर्फ 10 साल थी. वह 5वीं क्लास में पढ़ रही थी. छात्रा अपने मातापिता की इकलौती संतान थी. एक दिन रंजना ने अपनी मां से भेड़ाघाट घूमने के लिए मनुहार की थी लेकिन मां ने उसे मना कर दिया था.

रंजना की मां उसे पढ़ाई और होमवर्क करने के लिए समझाने लगी. पुलिस ने बताया, वह घूमने की जिद पर अड़ी हुई थी लेकिन मां इस के लिए राजी नहीं हुई. इस बात से गुस्साई रंजना घर के ऊपर वाले कमरे में चली गई. वहां जा कर उस ने दरवाजे पर लगे परदे का फंदा बना कर अपनी इहलीला समाप्त कर ली.

जांच अधिकारी ने हमारे संवाददाता को बताया, मृतक छात्रा रंजना धनवंतरी नगर के जसूजा सिटी में रहने वाले भलावी परिवार की इकलौती बेटी थी. वह लिटिल वर्ल्ड स्कूल में कक्षा 5वीं की छात्रा थी. पुलिस ने पोस्टमार्टम करा कर शव को परिजन को सौंप दिया है. पुलिस ने बताया कि, वह मां से भेड़ाघाट घुमाने को ले कर जाने के लिए बोल रही थी. मां ने मना कर दिया. जिद करने पर मां ने डांट लगा दी. इस के बाद बच्ची ने खुदकुशी कर ली.

कुछ देर बाद जब मां ने ऊपर कमरे में जा कर देखा तो वहां का मंजर देख उस के होश उड़ गए. मां ने देखा कि बेटी फांसी के फंदे से लटकी है, जिसे देख मां चीखनेचिल्लाने लगी. महिला की चीखपुकार सुन कर वहां लोग आ पहुंचे. लोगों ने पुलिस को कौल कर मामले की जानकारी दी.

परिवारवालों का रोरो कर बुरा हाल हो गया. छोटी सी गलती और इतना बड़ा खमियाजा परिवार को भुगतना पड़ा. रंजना की मां ने अगर समझदारी से काम लिया होता तो शायद यह घटना घटित न होती.

शिक्षाविद और प्राचार्य डाक्टर संजय गुप्ता के मुताबिक अगर ऐसे हालात हैं कि बच्चे जिद्दी हैं तो मांबाप को बड़े ही मनोवैज्ञानिक तरीके से बच्चों को समझाना चाहिए. सब से पहले तो बच्चों के मनोभाव को समझना और पढ़ना मांबाप के लिए आवश्यक है.

डाक्टर जी आर पंजवानी के मुताबिक, समाज में ऐसी घटनाएं अकसर घट जाती हैं. इस के लिए मांबाप, परिजनों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता. मगर, परिजनों को यह समझना होगा कि किस बच्चे का क्या स्वभाव है. अगर बच्चा उद्दंड, जिद्दी है तो उसे बड़े ही प्यार से स्नेह से समझाना जरूरी होता है. यह उम्र ऐसी होती है जब बच्चा कोई भी खतरनाक कदम उठा सकता है. मांबाप का कर्तव्य है कि वे बच्चों के स्वभाव को समझें.

औरों से अलग होती है पुलिस वालों के बच्चों की जिंदगी

निर्देशक रमेश सिप्पी की 1982 में आई फिल्म ‘शक्ति’ इसलिए हिट हुई थी कि उस में बौलीवुड के 2 दिग्गज ऐक्टर दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन पहली बार एकसाथ नजर आए थे लेकिन क्राइम और ऐक्शन प्रधान इस फिल्म की कहानी एक ऐसे आला पुलिस अफसर और उस के बेटे पर केंद्रित थी जो निहायत ही उसूल वाला, सख्त और अनुशासनप्रिय है. और इतना है कि अपने इकलौते बेटे को अपराधियों के चंगुल से छुड़ाने वह अपनी ईमानदारी से समझौता नहीं करता.

नन्हा बेटा जिंदगीभर इस हादसे को नहीं भुला पाता और यह मान कर चलता है कि पिता अगर चाहता तो अपराधियों की गिरफ्त से उसे छुड़ा सकता था. ऐसे में उस की जान अपराधियों के ही एक साथी ने बचाई थी. कहानी कुछ ऐसे आगे बढ़ती है कि बड़ा हो कर बेटा इंट्रोवर्ट होता जाता है और फिर स्मगलरों के साथ ही मिल कर गैरकानूनी काम करने लगता है और आखिर में पिता के ही हाथों मारा जाता है.

जरूरी नहीं कि यह या ऐसी ही कोई दूसरी फिल्मी कहानी हर पुलिस वाले की जिंदगी पर लागू होती हुई हो. लेकिन इतना जरूर तय है कि पुलिस वालों के बच्चे आमतौर पर आम बच्चों से कुछ या ज्यादा अलग हट कर ही होते हैं. वे बहुत अच्छे भी हो सकते हैं और बहुत बुरे भी. यह बात उन की पेरैंटिंग पर निर्भर करती है.

उम्मीद यह की जाती है कि कानून के रखवालों की संतानें जुर्म का रास्ता अख्तियार नहीं करेंगी लेकिन जब किसी पुलिस वाले की संतान ही कानून अपने हाथ में लेती है तो कठघरे में पूरा पुलिस महकमा खड़ा नजर आता है.

ऐसा ही एक हादसा भोपाल में 25 मई की देररात हुआ. जहांगीराबाद स्थित पुलिस आवासीय परिसर में कुछ पुलिसकर्मियों के बिगड़ैल बेटों ने कोई दर्जनभर खड़ी कारों के कांच तोड़ दिए और कारों में रखे कागजात व नकदी लूट ली. गुस्साए लड़कों ने दूसरी जगह भी ऐसा ही किया. क्यों किया, पूछताछ में यह खुलासा हुआ कि चूंकि आवासीय परिसर के ही लोग उन के देररात आने पर एतराज जताते हैं, इसलिए उन्हें सबक सिखाने की गरज से यह हंगामा बरपाया गया, जिस में कुछ बाहरी लड़कों ने भी इन का साथ दिया. एफआईआर दर्ज हुई और मामला मीडिया में आया तो हर किसी ने यही कहा कि जब पुलिस वालों की औलादें ही ऐसा जुर्म करेंगी तो औरों का क्या दोष. ये पुलिस वालों के लड़के होते ही उद्दंड और बिगड़ैल हैं जिन्हें कानून और पुलिस का डर नहीं रहता. जब अपने ही बच्चों को कानून की इज्जत और लिहाज करना इन के मांबाप इन्हें नहीं सिखा पाए तो मुजरिमों को क्या सुधारेंगे और सबक सिखाएंगे.

तो क्या सभी पुलिस वालों के बच्चे ऐसे ही उपद्रवी और कानून तोड़ने वाले होते हैं. इस सवाल का जवाब न में निकलता है क्योंकि इस उपद्रव की रात कई पुलिस वालों के बच्चे अपनी पढ़ाई भी कर रहे थे. अभी ये बच्चे ‘शक्ति’ फिल्म के पोर्टेबल अमिताभ बच्चन जैसे हैं, जिन्हें वक्त रहते सबक और नसीहत नहीं मिले तो ये बड़े कारनामों को भी अंजाम देने से चूकेंगे नहीं और इस का भी दोष अपने पुलिसकर्मी पिता पर मढ़ते तरहतरह की दलीलें भी देंगे. लेकिन राह भटक चले इन नौजवानों को समझाए कौन कि यह गलत है?

जब पुलिस वाला पिता ही नहीं सिखा सका तो कोई और क्या खाक इन्हें जिंदगी की ऊंचनीच और भविष्य के बारे में बताएगा कि पुलिस वाले की संतान हो, इसलिए पुलिस से नहीं डरते. लेकिन हर बार बाप का रुतबा और रसूख काम नहीं आएगा. एकाध बार तो बाप अपने अफसरों के सामने रोधो कर, माफी मांग कर तुम्हें बचा लेगा लेकिन अगली या हर बार ऐसा नहीं होगा.

अगर पहली बार में ही तुम्हें थाने में कैद कर आम अपराधियों सरीखी तुम्हारी कंबलकुटाई की जाए तो तुम दोबारा ऐसी जुर्रत नहीं करोगे. पुलिस वाला भले ही हो लेकिन तुम्हारे पिता के सीने में भी बाप का दिल धड़कता है जो तुम्हें थाने की उन यातनाओं और रातभर किस्तों में की जाने वाली मारपिटाई से बचा लेगा जिन से एक बार गुजर कर 90-95 फीसदी लोग दोबारा गुंडागर्दी करने से डरते हैं और जो नहीं डरते वे ‘शक्ति’ फिल्म के अमिताभ बच्चन जैसे पेशेवर मुजरिम बन जाते हैं जिन का हश्र पुलिस की गोली या फिर जेल ही होती है.

पुलिस वालों के बच्चे कैसे और बच्चों से अलग होते हैं, इस बाबत भोपाल के ही कोई दर्जनभर पुलिसकर्मियों और उन के बच्चों से बातचीत की गई तो जो बातें उभर कर सामने आईं उन से से यह साबित होता है कि जब पुलिस वालों की ही जिंदगी आम लोगों सरीखी आम या सामान्य नहीं होती तो उस का कुछ असर तो बच्चों पर पड़ेगा लेकिन वह हमेशा नकारात्मक हो, यह कतई जरूरी नहीं.

एक कौंस्टेबल ने बताया कि वह थाना इंचार्ज इंस्पैक्टर साहब के बच्चे की ड्यूटी करता है. 15 साल के इस बच्चे को अकेला बाहर नहीं जाने दिया जाता क्योंकि उसे उन अपराधियों से खतरा हो सकता है जो साहब पर किसी बात से खार खाए बैठे हों. यह बच्चा आजादी से दूसरे बच्चों के साथ खेलकूद नहीं सकता. कोचिंग जब भी जाता है तो बाहर मेरी ड्यूटी रहती है. एक तरह से मैं साहब के इकलौते बच्चे का बौडीगार्ड हूं जो पूरे वक्त साए की तरह उस के साथ रहता है. इस पर कभीकभी वह बच्चा झल्ला उठता है और मुझे मेरे नाम से पुकार कर कहता है कि तू पीछा छोड़ यार मेरा. इस बच्चे को पैसों की कोई कमी नहीं है. वह जिस चीज पर हाथ रख देता है वह उसे दिलाई जाती है, साहब उस की कीमत नहीं देखते. उन के पास बेटे को देने वक्त कम है जबकि पैसा ज्यादा है और वह भी कैसे आता है, यह आप को बताने की जरूरत नहीं.

जाहिर इस बच्चे का मानसिक विकास अपनी उम्र के दूसरे बच्चों की तरह नहीं हो रहा है जो उसे स्वाभाविक तौर पर कुंठित बना रहा है. यह बच्चा सुबह जब स्कूल जा रहा होता है तो टाटा करने पापा नहीं होते जो अकसर आधी रात को घर आते हैं यानी और बच्चों की तरह वह रात को पापा के गले से लिपट कर उन से गुडनाइट भी नहीं कर पाता. मम्मी जितना हो सकता है उस का उतना ध्यान रखती हैं लेकिन अधिकांश समय वे मोबाइल पर व्यस्त रहती हैं या पड़ोसिनों से गपें लड़ा रही होती हैं.

वह बताता है, कभीकभी मम्मीपापा में मुझे ले कर कलह होती है तो दोनों एकदूसरे को दोष देते रहते हैं. मम्मी कहती हैं तुम्हारे पास टाइम नहीं तो मैं क्या करूं, जितना हो सकता है ध्यान रखती हूं. लेकिन बच्चे को बाप का भी प्यार मां की बराबरी से चाहिए रहता है. इस पर पापा रटारटाया जवाब यही देते हैं कि तो मैं क्या करूं, पुलिस की नौकरी होती ही ऐसी है कि जिस में खुद के लिए भी वक्त नहीं रहता. सो, तुम लोगों को कहां से दूं. इस कलह से कोई हल नहीं निकलता लेकिन बच्चे के दिमाग पर जरूर बुरा असर पड़ता है.

वक्त की कमी पैसों से पूरी नहीं हो सकती. यह बात शायद कुछ पुलिस वालों को समझ आती. इसलिए वे अपने स्तर पर कोई न कोई इंतजाम कर लेते हैं, मसलन छोटी जगह ट्रांसफर करा लेना और सालदोसाल में लंबी छुट्टी ले कर बीवीबच्चों के साथ घूमने निकल जाना. इस दौरान वे बड़े होते बच्चे को अपनी नौकरी की व्यस्तता और दुश्वारियों के बारे में सलीके से समझा पाने में सफल होते हैं.

एक और सबइंस्पैक्टर की मानें तो एक पुलिस वाले की और भी दिक्कतें होती हैं जिन का असर बच्चों पर पड़ता है. मसलन, बारबार ट्रांसफर होना और जहां पुलिस विभाग के आवास न हों वहां किराए का मकान आसानी से नहीं मिलता. हर मकान वाला यह मान बैठता है कि यह पुलिस वाला है, क्या पता नियमित किराया देगा या नहीं और अगर नहीं दिया तो मैं इस का क्या बिगाड़ लूंगा.

अलावा इस के, रातबिरात देर से आएगा और इस के यहां जो मिलनेजुलने वाले आएंगे भी, इस के ही जैसे लोग होंगे, जिन के कोई नियमधरम नहीं होते. पीता होगा तो और दिक्कतें खड़ी करेगा, इसलिए कौन कुछ पैसों के लिए झंझट मोल ले. इस सबइंस्पैक्टर के मुताबिक, नई जगह जब हम जौइन करने जाते हैं तो अकेला देख मकानमालिक दूर से ही हाथ इन बहानों के साथ जोड़ लेता है कि अभी मकान रिनोवेट कराना है या फिर कुछ दिनों बाद भतीजा पढ़ने के लिए आने वाला है या कि बयाना ले कर मकान का सौदा कर दिया है, कभी भी रजिस्ट्री करना पड़ सकती है. एक साल पहले मैं सागर से भोपाल आया था तो 6 महीने होटल में रुकना पड़ा था, बाद में जैसेतैसे साथ वालों के सहयोग से मकान मिला.

एक लेडी सबइंस्पैक्टर ने तो और भी दिलचस्प बात बताई कि “पुलिस वालों की लड़कियों और लड़कों का रिश्ता आसानी से तय नहीं होता क्योंकि सामने वाले की नजर में पुलिस वालों के बच्चों की इमेज अच्छी नहीं होती. और तो और, पुलिस वालों की लड़कियों को तो बौयफ्रैंड भी मुश्किल से मिलते हैं. हंसते हुए यह मिलनसार सबइंस्पैक्टर खुद का उदाहरण देते हुए बताती है कि मेरे पापा भी पुलिस में थे, इसलिए लड़के मुझे प्रपोज करने से डरते थे कि कहीं ऐसा न हो कि किसी चौराहे पर अपने डीएसपी पापा से ठुकाई लगवा दे. इस युवती के साथ अब नई परेशानी परफैक्ट मैच का न मिलना है. नौकरी या बिजनैस में जमे हुए लड़के और उन के परिवार वाले पुलिस वाली बहू के नाम से ही ऐसे बिदकते हैं मानो वह कोई हौआ हो.”

फिर कुछ गंभीर हो कर वह बताती है, “दरअसल हम पुलिसवालियों का कैरेक्टर शक की निगाह में रहता है कि यह तो रातरातभर गैरमर्दों के साथ ड्यूटी करती है, क्या पता क्याक्या करती होगी. पुलिसवालियां आम औरत नहीं होतीं, वे बेलगाम होती हैं. वे घर नहीं चला पातीं वगैरहवगैरह. वैसे भी, पुलिस महकमा तो पहले से ही बदनाम है. मेरे साथ की 2 सबइंस्पैक्टरों को बेमन से ऐसे लोगों से शादी करनी पड़ी जिन के पति तकरीबन निठल्ले हैं. एक का हमेशा घाटे में चलने वाला छोटा सा बिजनैस है जिस के लोन की किस्तें अब सहेली भरती है तो दूसरा वकील है जिसे कभी अर्जी लिखने का भी काम मिल जाए तो वह खुद को कपिल सिब्बल समझने लगता है.”

बातचीत के आखिर में वह कहती है, “लगता है मुझे भी ऐसे ही किसी लल्लूपंजू से शादी करनी पड़ेगी क्योंकि खुद पुलिसवाले भी पुलिसवाली से शादी नहीं करना चाहते. पुलिस की जिंदगी की दुश्वारियां और कुछ वास्तविकताएं वे रोजरोज देखते हैं.”

जब खुद पुलिस वाले समाज का हिस्सा होते हुए भी एक निर्वासित सी जिंदगी जीने को मजबूर हों तो उन के बच्चे तो अलग होंगे ही. भोपाल के एक ब्रैंडेड स्कूल की टीचर की मानें तो यह सच है कि पुलिस वालों के बच्चे जिद्दी होते हैं लेकिन दूसरे बच्चों से कम प्रतिभाशाली और कम मेहनती नहीं होते. एक उम्र के बाद उन का गिल्ट या कौम्प्लेक्स कुछ भी कह लें दूर हो जाता है लेकिन जिंदगी के सुनहरे 15-16 साल तो उन्हें मुश्किलों में गुजारने पड़ते हैं.

आईपीएस अफसरों के बच्चों के साथ यह दिक्कत नहीं है. उलटे, दूसरे बच्चे उन से दोस्ती करने को बेताब रहते हैं लेकिन उस से नीचे के पद वालों के बच्चों को कुछ दिक्कतें होती हैं जिन्हें अच्छे दोस्त और अच्छा माहौल मिल जाए तो कोई खास मुश्किल पेश नहीं आती. पति अगर पुलिस में है तो पत्नी की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वह पिता की भी भूमिका में भी रहे और अपनी सामाजिक जिंदगी और हैसियत से बच्चे को परिचित कराती रहे जिस से उस के मन में कोई शंका या गठान न रहे.

एकतरफा प्यार के परिणाम हो सकते हैं बुरे, आप भी जानें One Sided Love के साइड इफेक्ट्स

एकतरफा प्यार में सिरफिरे आशिकों की दास्तां आएदिन सुनने/पढ़ने को मिलती रहती हैं. किसी ने प्रेमिका को गोली से उड़ा दिया तो किसी ने जला दिया. कोई उस के घरवालों के साथ खून की होली खेल कर लौटा तो किसी ने खुद ही आत्महत्या कर ली. इस एकतरफा प्यार की गिरफ्त में आ कर सिर्फ लड़के ही नहीं बल्कि लड़कियां और यहां तक कि किन्नर भी गलत कदम उठा लेती हैं.

नवंबर 2023 में मुंबई में एकतरफा प्यार में पागल हो कर अलवीना ने फांसी लगा ली. उस ने अपने प्रेमी को दूसरी लड़की के साथ देख लिया था. इसी वजह से उस का दिल टूटा तो उस ने यह कदम उठा लिया. दरअसल अलवीना एक लड़के से प्यार करती थी लेकिन कुछ दिनों पहले उस ने अपने प्रेमी को किसी दूसरी लड़की के साथ देखा था. इस के बाद अलवीना ने अपने प्रेमी से कई बार मिलने के लिए कहा था. लेकिन वह उस से नहीं मिला. अलवीना अपने बौयफ्रैंड के इस रवैये से काफी परेशान थी. अलवीना इंस्टाग्राम पर काफी मशहूर थी. उस ने आत्महत्या करने से पहले एक वीडियो भी बनाया.

“एकतरफा प्यार की ताकत ही कुछ और होती है. औरों के रिश्तों की तरह यह 2 लोगों में नहीं बंटता, सिर्फ मेरा हक है इस पर” ‘ए दिल है मुश्किल’ फिल्म का यह डायलौग सुनने में तो बहुत अच्छा लगता है लेकिन इस में कितनी तकलीफ है, यह एकतरफा प्यार में पड़ा व्यक्ति ही समझ सकता है. दरअसल किसी के प्रति आकर्षण होना जितना सहज है, किसी का आप के प्यार को अस्वीकार कर देना भी उतना ही सामान्य है. मगर एकतरफा प्यार करने वाले के लिए यह दर्द सहना बहुत कठिन हो जाता है.

क्या है एकतरफा प्यार

एकतरफा प्यार एक तरह का प्यार ही होता है लेकिन सिर्फ एक तरफ से. इस का मतलब यह है कि या तो आप किसी ऐसे व्यक्ति से प्यार करते हैं जो आप से प्यार नहीं करता या आप किसी व्यक्ति से प्यार करते हैं मगर कभी बताया नहीं या फिर ऐसा व्यक्ति अब आप की पहुंच से बाहर है और उस ने मूवऔन कर लिया है. एकतरफा प्यार तब भी हो सकता है जब आप किसी ऐसे व्यक्ति के प्रति आकर्षित हो जाते हैं जो किसी और के साथ रिलेशनशिप में है. यह ब्रेकअप के बाद भी हो सकता है और यह तब भी हो सकता है जब आप अपने रिलेशन में खुश हों लेकिन आप का पार्टनर आप को छोड़ना चाहता हो. इस प्यार में दर्द और अकेलापन ज्यादा महसूस होता है.

एकतरफा प्यार पर एक अध्ययन में पाया गया कि इस प्रकार के रिश्ते ‘वास्तविक’ पारस्परिक प्यार की तुलना में भावनात्मक रूप से कम तीव्र होते हैं. शायद यही कारण है कि एकतरफा प्यार भी 2 लोगों द्वारा साझा किए गए प्यार की तुलना में चारगुना अधिक आम पाया जाता है. एकतरफा प्रेम सामान्य प्रेम की तुलना में जनून, त्याग, निर्भरता, प्रतिबद्धता और व्यावहारिक प्रेम में कम तीव्र होता है.

एकतरफा प्यार की बुनियाद

जब हम किसी के साथ ज्यादा समय गुजारते हैं या किसी के बेहद करीब होते हैं तो धीरेधीरे एक आकर्षण बंधन में बंध जाते हैं. लेकिन यह आकर्षण अगर जनूनभरे प्रेम का रूप ले ले तो समझ लीजिए कि संभल जाने का समय आ गया है. इस एकतरफा प्यार की शुरुआत थोड़ी सी जानपहचान या दोस्ती से शुरू हो सकती है. हम किसी के साथ थोड़ा समय गुजारते हैं तो सामने वाले की कुछ बातें हमारे विचारों से मिलतीजुलती लगती हैं और हम उस आकर्षण को प्यार समझ बैठते हैं. या फिर हम ने अपने होने वाले लाइफ पार्टनर को ले कर जैसे ख्वाब बुने होते हैं वैसी झलक सामने वाले में दिखाई देने लगे तो हम उसे प्रेम का नाम दे बैठते हैं. लेकिन ऐसी स्थिति में यह समझना जरूरी है कि अगर ऐसा खिंचाव सामने वाला भी आप के प्रति महसूस कर रहा है तो ही इसे प्यार का नाम दें और उसे ले कर सपने देखें. वरना उसे एक खूबसूरत मोड़ दे कर भूल जाना ही अच्छा है.

मैंटल हैल्थ के लिए अच्छा नहीं है एकतरफा प्यार

वन साइडेड लव आप की मैंटल हैल्थ को प्रभावित कर सकता है क्योंकि यह आप को कोई खुशी नहीं देता बल्कि आप केवल इस से दुखी ही होते हैं. एकतरफा प्यार में केवल आप उसे पाने की चाहत करते रहते हैं और उस के बारे में सोचते रहते हैं जिस से आप अंदर से डिस्टर्ब्ड हो जाते हैं. यानी, आप का दिल किसी ऐसे व्यक्ति की वजह से टूटता है जिसे आप ने डेट नहीं किया है या जिस के साथ आप रिलेशनशिप में नहीं रहे हैं. उस से रिश्ते के टूटने का दर्द लगभग वैसा ही होता है जैसा 2 प्यार करने वालों के बीच ब्रेकअप के बाद होता है.

इस क्रश से मूवऔन करने के लिए एक क्लोजर की जरूरत होती है. वास्तव में कोई भी ऐसा रिश्ता, जिस में अकेले आप ही एफर्ट कर रहे हैं, आप के लिए बोझ बन जाता है. इसलिए जरूरी है कि इस तरह के रिश्ते से तुरंत बाहर आया जाए. अगर आप भी वन साइडेड लव की स्थिति में फंस चुके हैं और इस से बाहर आना चाहते हैं तो कुछ बातों का खयाल रखें;

अपनी भावनाओं को स्वीकार करें

एकतरफा प्यार से बाहर निकलने का पहला कदम अपनी भावनाओं को स्वीकार करना है. चाहे आप गुस्से, आक्रोश, शर्मिंदगी या दिल टूटने से जूझ रहे हों, जो भी स्थिति हो, उसे नौर्मल मान कर स्वीकार करें.

संपर्क में रहें मगर रिश्ते प्रगाढ़ करने की कोशिश न करें

जब आप किसी को पसंद करते हैं तो आप उन से बात करना चाहते हैं और उन्हें अपनी भावनाओं के बारे में बताना चाहते हैं. अगर आप ऐसे व्यक्ति को अपनी भावनाएं बताएंगे जो आप से प्यार नहीं करता तो वह आप को नहीं समझेगा और इस से आप और ज्यादा दुखी हो सकते हैं. इसलिए जिस से आप एकतरफा प्यार करते हैं उस से दोस्ती रख सकते हैं, रिश्ता बनाने की कोशिश न करें.

खुद से प्यार करें

प्यार अपनी जगह है लेकिन आप को अपने बारे में सोचना बहुत जरूरी है. आप सब से पहले खुद से प्यार करें. उस के बाद ही आप उस काबिल बन सकते हैं कि आप किसी और से प्यार करें. एकतरफा रिश्ते से बाहर निकलने के लिए आप को खुद के लिए कुछ अच्छा करना चाहिए जो आप के शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य में सुधार करे. खुद को व्यस्त रखने से आप को तेजी से आगे बढ़ने में मदद मिल सकती है. आप जिस के साथ एकतरफा प्यार में हैं, शायद वह आप को डिजर्व न करता हो और उस से कोई बेहतर आप का इंतजार कर रहा हो. इसलिए आप को अपनी वैल्यू को हमेशा महत्त्व देना चाहिए. खुद को व्यस्त रखने और मनपसंद काम में इन्वौल्व रहने से आप को तेजी से आगे बढ़ने में मदद मिल सकती है. उन चीजों को करने के लिए समय निकालें जो आप को पसंद हैं, जैसे ड्राइंग, गाना या खाना बनाना.

एकतरफा प्यार न बन जाए दर्द का सबब

मुहब्बत एक ऐसी शै है जो किसी को भी अपनी रौ में बहा कर ले जाती है. जाति, धर्म, रंगरूप से परे प्यार ने खुद को कभी किसी परिभाषा का मुहताज नहीं रखा. ऐसे में अगर प्रेम का दीया किसी एक के ही दिल में जले तो स्थिति सोचनीय हो जाती है. लेकिन इस एकतरफा प्यार का दूसरा विकल्प क्या है? किसी के प्रति प्रेम एवं आकर्षण सहज ही मन में प्रस्फुटित हो जाते हैं क्योंकि ये मानवीय भावनाएं हैं. इसे एकदम से रोक पाना मुमकिन नहीं. लेकिन इस दर्द में डूब कर खुद को या सामने वाले को नुकसान पहुंचाने से बहुत अच्छा है कि खुद को इस आकर्षण से बचा कर जीवन को नई दिशा दें. यही समझदारीभरा कदम होगा.

पागलपन की हद तक न पहुंचने दें एकतरफा प्यार को

हमारे आसपास के समाज का तानाबाना बहुत ज्यादा संकुचित मानसिकता वाला है. समाज में इस प्यार को कभी अहमियत नहीं दी गई. सामने वाला अगर किसी के साथ इन्वौल्व है या शादीशुदा है तब एकतरफा प्यार समाज की नजरों में कोई माने नहीं रखता और यदि कोई फिर भी रिश्ता बनाए रखना चाहे तो यह समाज की नजरों में गलत है. ऐसे में प्रेम की एकतरफा कहानियों ने समाज में कई वीभत्स घटनाओं को अंजाम दिया है. आएदिन इसी एकतरफा प्यार की वजह से बलात्कार, हत्या, अपहरण जैसी घटनाएं देखने को मिलती हैं. ऐसे में इस सोच को भी समझना होगा कि यदि आप किसी के प्रति खिंचाव महसूस कर भी रहे हैं तो पागलपन की हद को पार न करें.

उस व्यक्ति के बारे में कल्पना करना बंद करें

आप को ऐसी कल्पनाएं करना बिलकुल बंद कर देना चाहिए जिस में आप का क्रश शामिल हो. उन की तसवीरों को भी दूर रखें और उस व्यक्ति के साथ रहने की सभी संभावनाओं के बारे में सोचना बंद कर दें. भले ही शुरुआत में आप को ऐसा करने में परेशानी हो लेकिन आगे चल कर यह आप के लिए ही अच्छा साबित होगा.

Women Health Tips: पीरियड्स का न आना ओवरी कैंसर का संकेत तो नहीं

लेखक- डा. बी बी दास

ओवरी कैंसर और पीरियड्स न आने के बीच की कड़ी के बारे में जानकारी, लक्षण और उस से जुड़े जोखिम के बारे में जानिए और यह भी जानें कि ऐसे मामले में डाक्टर के पास कब जाएं…

महिलाओं में 2 अंडाशय होते हैं. गर्भाशय के दोनों तरफ एकएक अंडाशय होता है. अंडाशय महिलाओं की प्रजनन प्रणाली का हिस्सा हैं और एस्ट्रोजन और प्रोजैस्टेरौन सहित हार्मोंस के उत्पादन के लिए जिम्मेदार हैं.

महिलाओं के अंडाशय पर ट्यूमर या अल्सर विकसित हो सकते हैं. आमतौर पर ये सौम्य होते हैं. इस का मतलब यह है कि इन में कैंसर नहीं है. ये अंडाशय के अंदर या ऊपर रहते हैं. बहुत कम मामलों में ओवरी के ट्यूमर्स में कैंसर पाया जाता है.

ओवरी कैंसर के लक्षणों को समझने से किसी महिला के कैंसरग्रस्त होने की पहचान जल्दी हो सकती है. कई महिलाओं में ओवरी कैंसर के शुरुआती चरणों में लक्षण दिखाई नहीं देते. इस के अलावा ओवरी कैंसर के लक्षण इरिटेबल बाउल सिंड्रोम जैसी स्थितियों से मिलते हैं. लक्षण अस्पष्ट और बहुत कम हो सकते हैं जिससे निदान में देरी होने के कारण नतीजा खराब हो सकता है. यदि निम्न लक्षण महीने में 12 से ज्यादा बार होते हैं तो अपने डाक्टर या स्त्रीरोग विशेषज्ञ से संपर्क करें :

उदर या पेड़ू का दर्द, पेट फूलना, खाने में कठिनाई, भोजन करने पर पेट जल्दी भरा महसूस होना, मूत्र संबंधी आदतों में बदलाव, जल्दीजल्दी मूत्र आना, यौन संबंध के समय दर्द, पेट खराब रहना, अत्यंत थकावट, कब्ज, पेट की सूजन, वजन कम होना आदि.

जोखिम के दूसरे कारण : ओवरी कैंसर के जोखिम को बढ़ाने वाले कारण एक नहीं, बल्कि कई हैं. मसलन, उम्र का बढ़ना, 35 वर्ष की उम्र के बाद बच्चे होना, गर्भधारण के बाद बच्चा न होना, ज्यादा वजन या मोटा होना, परिवार में ओवरी कैंसर, स्तन कैंसर या कोलोरैक्टल कैंसर का इतिहास होना, रजोनिवृत्ति के बाद हार्मोन थेरैपी लेना, फैमिली कैंसर सिंड्रोम हो और इनविट्रो फर्टिलाइजेशन जैसे उपचार लेना आदि.

जल्दी निदान महत्त्वपूर्ण क्यों : शुरुआती निदान से ओवरी कैंसर को सही तरह से समझा जा सकता है. शुरुआती चरण में ओवरी कैंसर का इलाज कराने वाली लगभग 94 प्रतिशत महिलाएं इलाज के बाद 5 साल से अधिक समय तक जीवित रहती हैं. लेकिन ओवरी के केवल 20 प्रतिशत कैंसर का ही प्रारंभिक चरण में पता चलता है. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि कई लक्षण अस्पष्ट होते हैं और अक्सर उन्हें अनदेखा किया जाता है या किसी दूसरी वजह के लिए जिम्मेदार मान लिया जाता है.

अगर डाक्टर को लगता है कि ओवरी का कैंसर हो सकता है तो वह एक या कई जांचें करवाने के लिए आप से कह सकता है, जैसे अल्ट्रासाउंड, एमआरआई, सीटी स्कैन या एक्सरे जैसे इमेजिंग परीक्षण लेप्रोस्कोपी या कोलोनोस्कोपी, जिस में कैंसर के लक्षणों की जांच के लिए शरीर में पतली ट्यूब से एक कैमरा और लाइट भेजी जाती है. बायोप्सी, जिस में अंडाशय का एक नमूना लेना और उस का विश्लेषण करना शामिल है. स्वास्थ्य की सभी जांचें करने और अन्य स्थितियों से बचने के लिए खून की जांच जरूरी होती है.

स्क्रीनिंग : स्क्रीनिंग टैस्ट में उन लोगों में बीमारी का पता लगा सकते हैं जिन में लक्षण दिखाई नहीं देता है. ओवरी के कैंसर का पता लगाने वाले 2 परीक्षण ट्रांसवैजिनल अल्ट्रासाउंड यानी टीवीयूएस और सीए-125 खून की जांच होती है. सीए-125 खून की जांच में ओवरी कैंसर की कोशिकाओं पर मौजूद प्रोटीन का पता लगाया जाता है.

हालांकि ये परीक्षण लक्षणों के विकसित होने से पहले ट्यूमर का पता लगा सकते हैं लेकिन ओवरी कैंसर वाली महिलाओं की मृत्युदर को कम करने में ये कामयाब साबित नहीं हुए हैं. नतीजतन, औसत जोखिम वाली महिलाओं को सामान्यतौर पर इन जांचों को करवाने के लिए नहीं कहा जाता. डाक्टर बढ़े हुए जोखिम वाली महिलाओं के लिए स्क्रीनिंग की सलाह दे सकते हैं. ओवरी कैंसर से पीडि़त लगभग 20 प्रतिशत महिलाओं को जल्दी निदान मिल जाता है. अकसर, इस तरह के कैंसर में प्रारंभिक चरण में कोई लक्षण दिखाई नहीं देता है.

लक्षणों को इग्नोर न करें : कई महिलाएं तब तक लक्षणों पर ध्यान नहीं देतीं जब तक कि कैंसर एडवांस अवस्था में नहीं आ जाता. लेकिन शुरुआती लक्षणों की जानकारी होने पर कैंसर का पता लगाने में मदद मिल सकती है. यदि आप अपने कैंसर के खतरे को ले कर चिंतित हैं या अप्रत्याशित रूप से पीरियड्स नहीं आ रही है, तो अपने डाक्टर से जरूर मिलें.

(लेखक फोर्टिस ला फेमे हौस्पिटल, दिल्ली में सीनियर कंसल्टैंट और स्त्रीरोग लेप्रोस्कोपिक सर्जन हैं)

ससुराल में मेरी मां के चलते क्लेश हो रहे हैं, अब आप ही बताएं कि मैं क्या करूं ?

सवाल

मैं 25 वर्षीया शादीशुदा महिला हूं. ससुराल और मायका आसपास ही है. इस वजह से मेरी मां और अन्य रिश्तेदार अकसर ससुराल आतेजाते रहते हैं. पति को कोई आपत्ति नहीं है पर मेरी सास को यह पसंद नहीं. वे कहती हैं कि तुम अपनी मां से बात करो कि वे कभीकभी मिलने आया करें. हालांकि ससुराल में मेरे मायके के लोगों का पूरा ध्यान रखा जाता है, मानसम्मान में कमी नहीं है मगर सास का मानना है कि रिश्तेदारी में दूरी रखने से संबंध में नयापन रहता है. इस वजह से घर में क्लेश भी होता है पर मैं अपनी मां से कहूं तो क्या व कैसे कहूं? एक बेटी होने के नाते मैं उन का दिल नहीं दुखाना चाहती. कृपया सलाह दें, क्या करूं ?

जवाब

अधिकाश मामलों में देखा गया है कि जब बेटी का ससुराल मायके के नजदीक होता है तब उस के मायके के रिश्तेदारों का बराबर ससुराल में आनाजाना होता है और वे अकसर पारिवारिक मामलों में दखलंदाजी करते हैं. इस से बेटी का बसाबसाया घर उजड़ जाता है.

आप की सास का कहना सही है. रिश्ते दिल से निभाएं पर उन में उचित दूरी जरूरी है. इस से रिश्ता लंबा चलता है और संबंधों में गरमाहट भी बनी रहती है.

भले ही हरेक सुखदुख में एकदूसरे का साथ निभाएं पर रिश्तों में दूरियां जरूर रखें. इस से सभी के दिलों में प्रेम व रिश्तों की मिठास बनी रहती है.

आप अपनी मां से इस बारे में खुल कर बात करें. वे आप की मां हैं और यह कभी नहीं चाहेंगी कि इस वजह से बेटी के घर में क्लेश हो. हां, एक बेटी होने का दायित्व उठाने में आप को पीछे नहीं रहना है. इसलिए एक निश्चित तिथि या छुट्टी के दिन आप खुद ही मायके जा कर मां का हालचाल लेती रहें. आप उन से फोन पर भी नियमित संपर्क में रहें, मायके वालों के सुखदुख में शामिल रहें. यकीनन, इस से घर में क्लेश खत्म हो जाएगा और रिश्तों में मिठास बनी रहेगी.

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