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कौन जिम्मेदार?

‘‘किशोरीलाल ने खुदकुशी कर ली…’’ किसी ने इतना कहा और चौराहे पर लोगों को चर्चा का यह मुद्दा मिल गया.

‘‘मगर क्यों की…?’’  भीड़ में से सवाल उछला.

‘‘अरे, अगर खुदकुशी नहीं करते, तो क्या घुटघुट कर मर जाते?’’ भीड़ में से ही किसी ने एक और सवाल उछाला.

‘‘आप के कहने का मतलब क्या है?’’ तीसरे आदमी ने सवाल पूछा.

‘‘अरे, किशोरीलाल की पत्नी कमला का संबंध मनमोहन से था. दुखी हो कर खुदकुशी न करते तो वे क्या करते?’’

‘‘अरे, ये भाई साहब ठीक कह रहे हैं. कमला किशोरीलाल की ब्याहता पत्नी जरूर थी, मगर उस के संबंध मनमोहन से थे और जब किशोरीलाल उन्हें रोकते, तब भी कमला मानती नहीं थी,’’ भीड़ में से किसी ने कहा.

चौराहे पर जितने लोग थे, उतनी ही बातें हो रही थीं. मगर इतना जरूर था कि किशोरीलाल की पत्नी कमला का चरित्र खराब था. किशोरीलाल भले ही उस के पति थे, मगर वह मनमोहन की रखैल थी. रातभर मनमोहन को अपने पास रखती थी. बेचारे किशोरीलाल अलग कमरे में पड़ेपड़े घुटते रहते थे. सुबह जब सूरज निकला, तो कमला के रोने की आवाज से आसपास और महल्ले वालों को हैरान कर गया. सब दौड़ेदौड़े घर में पहुंचे, तो देखा कि किशोरीलाल पंखे से लटके हुए थे. यह बात पूरे शहर में फैल गई, क्योंकि यह मामला खुदकुशी का था या कत्ल का, अभी पता नहीं चला था.

इसी बीच किसी ने पुलिस को सूचना दे दी. पुलिस आई और लाश को पोस्टमार्टम के लिए ले गई. यह बात सही थी कि किशोरीलाल और कमला के बीच बनती नहीं थी. कमला किशोरीलाल को दबा कर रखती थी. दोनों के बीच हमेशा झगड़ा होता रहता था. कभीकभी झगड़ा हद पर पहुंच जाता था. यह मनमोहन कौन है? कमला से कैसे मिला? यह सब जानने के लिए कमला और किशोरीलाल की जिंदगी में झांकना होगा. जब कमला के साथ किशोरीलाल की शादी हुई थी, उस समय वे सरकारी अस्पताल में कंपाउंडर थे. किशोरीलाल की कम तनख्वाह से कमला संतुष्ट न थी. उसे अच्छी साडि़यां और अच्छा खाने को चाहिए था. वह उन से नाराज रहा करती थी.

इस तरह शादी के शुरुआती दिनों से ही उन के बीच मनमुटाव होने लगा था. कुछ दिनों के बाद कमला किशोरीलाल से नजरें चुरा कर चोरीछिपे देह धंधा करने लगी. धीरेधीरे उस का यह धंधा चलने लगा. वैसे, कमला ने लोगों को बताया था कि उस ने अगरबत्ती बनाने का घरेलू धंधा शुरू कर दिया है. इसी बीच उन के 2 बेटे हो गए, इसलिए जरूरतें और बढ़ गईं. मगर चोरीछिपे यह धंधा कब तक चल सकता था. एक दिन किशोरीलाल को इस की भनक लग गई. उन्होंने कमला से पूछा, ‘मैं यह क्या सुन रहा हूं?’

‘क्या सुन रहे हो?’ कमला ने भी अकड़ कर कहा.

‘क्या तुम देह बेचने का धंधा कर रही हो?’ किशोरीलाल ने पूछा.

‘तुम्हारी कम तनख्वाह से घर का खर्च पूरा नहीं हो पा रहा था, तो मैं ने यह धंधा अपना लिया है. कौन सा गुनाह कर दिया,’ कमला ने भी साफ बात कह कर अपने अपराध को कबूल कर लिया. यह सुन कर किशोरीलाल को गुस्सा आया. वे कमला को थप्पड़ जड़ते हुए बोले, ‘बेगैरत, देह धंधा करती हो तुम?’ ‘तो पैसे कमा कर लाओ, फिर छोड़ दूंगी यह धंधा. अरे, औरत तो ले आया, मगर उस की हर इच्छा को पूरा नहीं करता है. मैं कैसे भी कमा रही हूं, तेरे से तो नहीं मांग रही हूं,’ कमला भी जवाबी हमला करते हुए बोली और एक झटके से बाहर निकल गई. किशोरीलाल कुछ नहीं कर पाए. इस तरह कई मौकों पर उन दोनों के बीच झगड़ा होता रहता था. इसी बीच शिक्षा विभाग से शिक्षकों की भरती हेतु थोक में नौकरियां निकलीं. कमला ने भी फार्म भर दिया. उसे सहायक टीचर के पद पर एक गांव में नौकरी मिल गई.

चूंकि गांव शहर से दूर था और उस समय आनेजाने के इतने साधन न थे, इसलिए मजबूरी में कमला को गांव में ही रहना पड़ा. गांव में रहने के चलते वह और आजाद हो गई. कमला ने 10-12 साल इसी गांव में गुजारे, फिर एक दिन उस ने अपने शहर के एक स्कूल में ट्रांसफर करवा लिया. मगर उन की लड़ाई अब भी नहीं थमी. बच्चे अब बड़े हो रहे थे. वे भी मम्मीपापा का झगड़ा देख कर मन ही मन दुखी होते थे, मगर उन के झगड़े के बीच न पड़ते थे. जिस स्कूल में कमला पढ़ाती थी, वहीं पर मनमोहन भी थे. उन की पत्नी व बच्चे थे, मगर सभी उज्जैन में थे. मनमोहन यहां अकेले रहा करते थे. कमला और उन के बीच खिंचाव बढ़ा. ज्यादातर जगहों पर वे साथसाथ देखे गए. कई बार वे कमला के घर आते और घंटों बैठे रहते थे. कमला भी धीरेधीरे मनमोहन के जिस्मानी आकर्षण में बंधती चलीगई. ऐसे में किशोरीलाल कमला को कुछ कहते, तो वह अलग होने की धमकी देती, क्योंकि अब वह भी कमाने लगी थी. इसी बात को ले कर उन में झगड़ा बढ़ने लगा.

फिर महल्ले में यह चर्चा चलती रही कि कमला के असली पति किशोरीलाल नहीं मनमोहन हैं. वे किशोरीलाल को समझाते थे कि कमला को रोको. वह कैसा खेल खेल रही है. इस से महल्ले की दूसरी लड़कियों और औरतों पर गलत असर पड़ेगा. मगर वे जितना समझाने की कोशिश करते, कमला उतनी ही शेरनी बनती. जब भी मनमोहन कमला से मिलने घर पर आते, किशोरीलाल सड़कों पर घूमने निकल जाते और उन के जाने का इंतजार करते थे.  पिछली रात को भी वही हुआ. जब रात के 11 बजे किशोरीलाल घूम कर बैडरूम के पास पहुंचे, तो भीतर से खुसुरफुसुर की आवाजें आ रही थीं. वे सुनने के लिए खड़े हो गए. दरवाजे पर उन्होंने झांक कर देखा, तो शर्म के मारे आंखें बंद कर लीं. सुबह किशोरीलाल की पंखे से टंगी लाश मिली. उन्होंने खुद को ही खत्म कर लिया था. घर के आसपास लोग इकट्ठा हो चुके थे. कमला की अब भी रोने की आवाज आ रही थी.

इस मौत का जिम्मेदार कौन था? अब लाश के आने का इंतजार हो रहा था. शवयात्रा की पूरी तैयारी हो चुकी थी. जैसे ही लाश अस्पताल से आएगी, औपचारिकता पूरी कर के श्मशान की ओर बढ़ेगी.

Online गुंडागर्दी : इंस्टाग्राम, यूट्यूब का नया तमाशा

आज के समय में हर कोई अपने सोशल मीडिया चैनल जैसे कि फेसबुक, इंस्टाग्राम, यूट्यूब के फौलोवर्स बढ़ाने के लिए बहुत कुछ कर रहे हैं. कई लोग अपना खुद का कंटेंट बना रहे हैं तो कई दूसरों का कंटेंट कौपी कर अपने चैनल को आगे ले जाने की सोच रहे हैं. ऐसा लोग इसलिए कर रहे हैं क्योंकि अब सबको समझ आ चुका है कि लोगों के बीच जल्दी पौपुलर होने का और खूब पैसा कमाने का एकमात्र तरीका है सोशल मीडिया पर अपने फौलोवर्स बढ़ाओ. फिर चाहे उसके लिए गलत रास्ता ही क्यों न अख्तियार करना पड़े.

ऐसे कई उदाहरण हैं, जिन्होंने अपने कंटेंट से बहुत जल्दी तरक्की हासिल कर ली है जैसे कि चंद्रिका दीक्षित (Chandrika Dixit) जो कि वडा पाव का ठेला लगा कर बिग बौस तक पहुंच गई है और दूसरी तरफ नागपुर के डौली चायवाला (Dolly Chaiwala) नाम के एक व्यक्ति के पास खुद बिल गेट्स (Bill Gates) चाय पीने पहुंच गए. अब इस तरह की चीजें जैसे ही सोशल मीडिया पर आती है तो वायरल हो जाती है और इसे पोस्ट करने वाले के फौलोअर्स भी बढ़ने शुरू हो जाते हैं.

औनलाइन गुंडागर्दी क्या है

औनलाइन गुंडागर्दी एक शब्द आजकल साेशल मीडिया की दुनिया में काफी पौपुलर हो रहा है, पिछले कुछ महीनों में हुई घटनाओं ने इस टर्म को जन्म दिया है. लड़ाई झगड़े के इस नए ट्रैंड की मोडस ओपरेंडी की बात करें, तो इसमें ट्वीटर या इंस्टाग्राम या दूसरे सोशल मीडिया प्लैटफार्म से धमकियां दी जाती है, जिसे धमकी दी जाती है, वह भी उन्हीं प्लैटफार्म्स का यूज कर पलटवार करता है. मतलब फिजिकली आमनेसामने आकर दोदो हाथ करने की बजाय सोशल मीडिया पर इसका माहौल बनाने का काम होता है.

गुंडागर्दी के इस तरीके के कुछ नमूने

ऐसे में कुछ लोग औनलाइन गुंडागर्दी कर अपने फौलोवर्स बढ़ा रहे हैं और इसका सबसे बड़ा एग्जाम्पल है मैक्टर्न (Maxtern) और एल्विश यादव (Elvish Yadav) की लड़ाई. ये दोनों यूट्यूबर सोशल मीडिया के जानेमाने चेहरे हैं, सोशल मीडिया पर एल्विश की पौपुलरिटी का ही नतीजा था कि वे बिग बौस ओटीटी सीजन 2 का हिस्सा बनें. इतना ही नहीं उनके फैन्स ने उनको विनर भी बना दिया और इस सीजन को जीतकर वे ट्रौफी के साथसाथ 25 लाख रुपए भी अपने घर ले गए. लेकिन कुछ समय पहले उनका एक एल्विश और मैक्सटर्न के झगड़े का एक वीडियो वायरल हुआ जिसमें एल्विश 4-5 लड़कों को लेकर मैक्टर्न को मारने आता है पर मैक्टर्न ने पहने से ही वहां कैमरा लगा दिया होता है. एल्विश और मैक्सटर्न की यह लड़ाई खूब चर्चा में रही थी और इस कारण मैक्सटर्न की फैन फौलोइंग अच्छी खासी बढ़ गई थी. लेकिन कुछ समय बाद दोनों ने एकदूसरे से फिर से दोस्ती कर ली थी. ऐसे में सबको यही दिखा कि यह सारा झगड़ा फेक था और मैक्सटर्न को फौलोवर्स बढ़ाने के लिए यह सब प्री-पलैन्ड था.

एक बार फिर एल्विश यादव सुर्खियों में बने हुए हैं और इस बार उनका औनलाइन झगड़ा एजाज़ खान (Ajaz Khan) के साथ हो रहा है. दोनों अपनीअपनी तरफ से वीडियोज़ बना कर एकदूसरे को भला-बुरा बोल रहे हैं. ऐसे में किसी को नहीं पता कि इन दोनों की यह औनलाइन लड़ाई फेक है या इसके पीछे भी वही पुरानी वजह है, फौलोअर्स बढ़ाने की.

औनलाइन गुंडागर्दी के ट्रैंड से नुकसान

आज के टीनएजर्स और यूथ्य खासकर जो सोशल मीडिया पर बेहद एक्टिव हैं, उन को यह बात समझनी चाहिए कि किसी दिन यह औनलाइन गुंडागर्दी उन को बेहद महंगी पड़ सकती हैं. किसी दिन वे सोशल मीडिया और फैन फौलोविंग के चक्कर में सचमुच किसी बड़ी मुसीबत में फस सकते हैं. आपके फोलोवर्स आपका साथ तब तक देंगे जब तक उन्हें लगेगा कि आप सच बोल रहे हैं पर यही सब चीज़ें करके आपके साथ भी कहीं शेर आया वाली कहानी ना हो जाए.

अगर आप को अपने फौलोअर्स बढ़ाने हैं तो आप कुछ ऐसा कंटेंट बनाएं जो कि लोगों को अच्छा लगे और लोग उसे देखना पसंद करें बल्कि ऐसा नहीं कि लोग आपसे नफरत करने लगें और लोगों के मन में आप के लिए नैगेटिविटी आ जाए. कोशिश कीजिए कि ऐसे पब्लिलिटी स्टंट से दूर रहें. इस तरह से बढ़ाएं हुए फौलोअर्स लंबे समय तक टिक नहीं पाएंगे, और आप को अनफौलो कर देंगे

टौमी : मेरे बैड पर ही सोने लगा

आज 8 सालों के अपने संरक्षक टौमी की यादें दिल को मसोस रही हैं. आंसू थम नहीं रहे हैं. इन 8 सालों में टौमी मेरा सबकुछ बन गया था. एक ऐसा साथी जिस पर मैं पूरी तरह निर्भर रहने लगी थी. टौमी ने तो अपना पूरा जीवन मुझ पर न्योछावर कर दिया था. सालभर का भी तो नहीं था, जब वह मेरे पास आया था मेरा वाचडौग बन कर. और तब से वह वाचडौग ही नहीं, मेरे संरक्षक, विश्वासपात्र साथी के रूप में हर क्षण मेरे साथ रहा.

20 साल पहले की घटना आज भी जरा से खटके से ताजी हो जाती है, हालांकि उस समय यह आवाज खटके की आवाज से कहीं भारी लगी थी. और लगती भी क्यों न, बम विस्फोट की आवाज न होते हुए भी गोली की आवाज उस समय बम विस्फोट जैसी ही लगी थी.

रीटा के शरीर में उस आवाज की याद से झुरझुरी सी दौड़ गई. वसंत का बड़ा अच्छा दिन था. सड़क के दोनों ओर खड़े पेड़ नईनईर् पत्तियों से सज गए थे. क्रैब ऐप्पल्स के पेड़ों पर फूलों की बहार अपनी छटा दिखा रही थी. शीत ऋतु में जमी बर्फ के पहाड़ देख जहां शरीर में झुरझुरी पैदा हो जाती थी वहीं उस दिन वसंत की कुनकुनी धूप शरीर के अंगों को सहती बड़ी सुखदायक लग रही थी.

इस सुहावने मौसम में रीटा के होंठ एक बहुत पुराना गीत गुनगुना उठे थे. हालांकि गीत कुनकुनी धूप का नहीं, सावन की फुहार का था. और हो भी क्यों न, सावन की फुहार…रीटा 18 वर्ष की ही तो थी. उस अवस्था में इसी रस की फुहार के सपने ही तो सभी लड़कियां देखती हैं. गीत गुनगुना उठी, ‘ओ सजन, बरखा बहार आई, रस की फुहार लाई, अंखियों में प्यार लाई…,’ शायद यह उम्र का तकाजा था कि मन कहीं से कहीं भटक रहा था.

जहां गीत को याद कर रीटा मुसकरा उठी वहीं उस दिन की याद कर उस का बदन सिहर उठा. वह कालेज के दूसरे साल में पढ़ रही थी. छुट्टियों में उस ने एक दुकान पर पार्टटाइम नौकरी कर ली. दुकान में उस समय वह अकेली थी. कोई ग्राहक नहीं था, सो वह गुनगुनाती हुई शैल्फ पर सामान लगा रही थी कि अचानक हलके से खटके से उस का ध्यान भंग हुआ. सोचा कि कोई ग्राहक आया है, वह उठ कर कैश काउंटर के पास गई. रीटा ने पूछने के लिए मुंह ऊपर उठा कर खोला ही था कि क्या चाहिए? उस ने देखा ग्राहक का मास्क से ढका चेहरा और उस की अपनी ओर तनी पिस्तौल की नली. इस आकस्मिक दृश्य व व्यवहार से बौखला गई वह. फिर शीघ्र ही संभल गई. पिस्तौलधारी के आदेश पर उस ने उसे कैश काउंटर से सारे डौलर तो दे दिए पर साथ ही, उस की आंख बचा पुलिस के लिए अलार्म बजाने का प्रयत्न भी किया. अपने अनाड़ीपन में उस का यह प्रयत्न पिस्तौलधारी की नजर से अनदेखा न रह पाया और उस ने गोली दाग दी.

जब उसे होश आया, दुकान का मालिक रोरो कर कह रहा था, ‘‘रीटा, मैं ने कहा था कि यदि कभी भी ऐसी परिस्थिति आए तो चुपचाप पैसा दे देना. अपने को किसी खतरे में मत डालना. पैसा जीवन से बढ़ कर नहीं है. यह तुम ने क्या कर लिया?’’ रीटा ने सांत्वना देने के लिए उठ कर बैठने का प्रयत्न किया पर यह क्या, रीटा अचंभे में पड़ गई क्योंकि वह उठ नहीं पा रही थी. रीटा अतीत में खोई हुई थी. उसे शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ होने में कई महीने लगे थे. अब तक रीटा ने इस तथ्य को पूरी तरह आत्मसात कर लिया था कि अब पूरा जीवन इसी विकलांगता के साथ ही उसे जीना है, चाहे निरर्थक जिए या अब इस जीवन को कोई सार्थकता प्रदान करे. और फिर वह अपने पुराने सपने को पूरा करने में लग गई. हालांकि डेढ़दोसाल जब वह अपने मातापिता के साथ रही, वह उन पर तथा भाईबहन पर पूरी तरह निर्भर रही. पर उस के बाद सोच में पड़ गई कि कब तक वह सब पर निर्भर रहेगी. इस विकलांगता में भी उसे आत्मनिर्भर बनना है. इसी दिशा में उस ने टोरंटो यूनिवर्सिटी में अपने पहले के कोर्स खत्म कर के अपनी ग्रेजुएशन पूरी की. फिर उस ने एरिजोना जाने की ठान ली क्योंकि वहां का मौसम पूरे साल अच्छा रहता है. उस के स्वास्थ्य के लिए एरिजोना का मौसम उपयुक्त था.

रीटा के लिए एक विशेष कारवैन बना दी गई थी जिस में वह सफर कर सके, फिर भी उसे किसी ऐसे की जरूरत तो थी ही जो उसे ड्राइव कर सके. घर से बाहर क्या, घर के अंदर भी वह अकेले समय नहीं बिता पा रही थी. वह सोच में पड़ गई थी कि मातापिता तो नहीं, पर क्या भाईबहन में कभी न कभी आगे चल कर उस के प्रति रोष की भावना नहीं उभरेगी. रीटा इस स्थिति से बचना चाहती थी. इसलिए उस ने एरिजोना जा कर स्वतंत्ररूप से अपनी पढ़ाई पूरी करने का निर्णय लिया था.

तकरीबन 3 साल बाद जब वह टोरंटो लौटी तब तक वह काफी आत्मनिर्भर हो चुकी थी. परिवार का प्यार तो उस के साथ हरदम रहा. मातापिता उम्र के इस दौर में स्वयं ही धीरेधीरे अक्षम हो रहे थे. सो, उन्हें यह देख कर खुशी ही हुई कि रीटा ने अपने जीवन को एक नए ढर्रे पर अच्छी तरह चलाने का गुर सीख लिया है. उस ने पत्रकारिता तथा मैनेजमैंट में डिगरी हासिल कर ली और टोरंटो के एक अखबार में नौकरी भी कर ली है. अब वह आर्थिक रूप से भी किसी पर निर्भर नहीं रही.

टोरंटो में रीटा ने सैंट लौरेंस में फ्लैट किराए पर ले लिया क्योंकि यह उस के काम करने के स्थान से बिलकुल पास था. वह अपनी इलैक्ट्रिक व्हीलचेयर में आसानी से कुछ ही मिनटों में वहां पहुंच सकती थी. साथ ही, यह स्थान ऐसा था कि उसे यहां हर तरह की सुविधा थी. यह मार्केट नैशनल ज्योग्राफिक में दुनिया की सब से अच्छी मार्केट बताई गई है. साथ ही यहां से मैसी मौल, एयर कनाडा सैंटर, थिएटर, पार्क आदि मनोरंजन की जगहें भी पासपास थीं. सो, यह स्थान हर तरह से सुविधाजनक था.

हालांकि सबकुछ ठीकठाक ही चलने लगा था, यहां मैं बहुत चीजें कर सकती थी लेकिन वास्तव में, कम से कम स्वयं खुद से, मैं कुछ भी नहीं कर रही थी.पर जब से टौमी आया, सबकुछ बदल सा गया. लंबे समय तक, इस दुर्घटना के बाद मैं अपनी हरेक बात को शूटिंग से पहले और शूटिंग के बाद के कठघरे में रखती थी पर टौमी के आने बाद अब हरेक बात टौमी से पहले और टौमी के आने के बाद के संदर्भ में होने लगी.टौमी के आने से पहले मैं कभी भी शौपिंग, या किसी भी काम के लिए, यहां तक कि अपनी व्हीलचेयर पर जरा सा घूमने के लिए भी, अकेले नहीं जाती थी. मेरी बिल्डिंग में ही पूरे हफ्ते चौबीसों घंटे खुलने वाला ग्रोसरी स्टोर है, वहां भी मैं कभी अकेले नहीं गई. घर में अकेले ही पड़ी रहती थी. हां, मेरे पास एक अफ्रीकन ग्रे तोता रौकी जरूर था जिसे अपने जैसे किसी और पक्षी का साथ न होने की वजह से इंसानी साथ की बहुत जरूरत थी. हालांकि रौकी बहुत प्यारा था पर मेरी अवस्था के मुताबिक, अच्छा पालतू पक्षी नहीं था. वह मेरी देखभाल करने वाली नर्सों को काट लिया करता था, सो वे उस से भयभीत रहती थीं. स्वास्थ्य समस्याओं के कारण उसे काफी देखभाल की जरूरत थी और मैं उस की देखभाल अच्छी तरह नहीं कर सकती थी. आखिरकार वह एक दिन स्वयं ही अपने कंधे पर किए गए घाव की सर्जरी के दौरान चल बसा. उस की अकाल मृत्यु के दुख ने मुझे, लोगों के कहने पर भी किसी और पक्षी को रखने का मन नहीं बनाने दिया.

6 महीने बाद एक दिन एक मित्र ने कहा कि क्यों नहीं मैं एक सर्विस डौग के बारे में सोचती. हालांकि कुछ समय पहले भी मैं ने इस दिशा में सोचा था और कैलिफोर्निया की एक संस्था, जो कुत्तों को प्रशिक्षित करती है, से बात भी की थी, पर उन के विचार से मेरी पक्षाघात, लकवा की स्थिति इतनी गंभीर है कि कुत्ता मुझ से जुड़ नहीं पाएगा क्योंकि मुझ में उसे खिलानेपिलाने या सहलाने तक की क्षमता नहीं है. सो, मैं ने इस दिशा में सोचना ही छोड़ दिया था.

मित्र के सुझाव पर फिर यह विचार पनपने लगा क्योंकि उस के साथसाथ मैं ने भी महसूस किया कि सचमुच मुझे कुत्ते की आवश्यकता है. मैं स्वयं को अकेला, असुरक्षित सा महसूस करने लगी थी. स्टोर का या थोड़ा सा बाहर घूमने जाने का काम, जो मैं अकेले कर सकती थी, उस के लिए भी मैं अपनी परिचारिका को साथ घसीटे रहती थी यह जानते हुए भी कि मुझे उस की जरूरत नहीं. कोईर् भी व्यक्ति मेरी दशा देख कर अपनेआप ही मेरे लिए दरवाजा खोल देता या दुकान वाले मेरी पसंद की चीज मुझे अपनेआप काउंटर से उठा कर दे देते व मेरे पर्स से यथोचित पैसे निकाल लेते. मैं मन ही मन सोचती कि ऐसी कई बातों के लिए मुझे किसी भी परिचारिका की जरूरत नहीं है. मैं स्वयं ही यह सब कर सकती हूं, फिर भी नहीं कर रही हूं.

एक दिन तो बाजार से आते हुए फुटपाथ पर कठपुतली का नाच देखने के लिए रुक तो गई, मजा भी आया पर फिर पता नहीं क्यों, बस घर जाने का ही मन करता रहा और वहां रुक न सकी. हालांकि मैं परिचारिका की छुट्टी कर स्वयं घर जाने में सक्षम थी. रुकने का मन भी था और घर में ऐसा कुछ नहीं था जिस के लिए मुझे वहां जल्दी पहुंचने की विवशता हो.

कई बार मित्रों के साथ फुटबौल देखने जाने का आमंत्रण या अन्य कार्यक्रमों के आमंत्रण भी स्थगित करती रही. पता नहीं क्यों, असुरक्षा की भावना से ग्रसित रही.

एक दिन गर्मी की छुट्टियों में अपनी कौटेज में थी तब फिर पालतू कुत्ता रखने की भावना ने जोर पकड़ा. हुआ यों कि दोपहर के समय मेरे भाईबहन के बच्चे पास के बाजार में घूमने के लिए चले गए और मेरी परिचारिका मेरे साथ बैठेबैठे झपकी लेने लगी. मैं ने उसे अंदर जा कर सोने के लिए कहा. बाद में मैं बोर होने लगी और बिना किसी को बताए घूमने के लिए चल दी.

ड्राइववे के आगे थोड़ी सी ढलान थी. चेयर को संभाल न सकी और मैं घुटनों के बल गिर गई. चिल्लाने की कोशिश की, यह जानते हुए भी कि वहां सुनने वाला कोई नहीं है. तब सोचा, काश, मेरे पास कुत्ता होता. परिचारिका की नींद खुलने पर मुझे अपनी जगह न पा वह मेरा नाम पुकारतेपुकारते ढूंढ़ने निकली. मेरी दर्दभरी आवाज सुन वह मुझ तक पहुंची.

मैं ने अब मेरे जैसे लोगों की सहायता करने वाले ‘वर्किंग डौग’ की सक्रिय रूप से खोज करनी शुरू की. नैशनल सर्विस डौग्स संस्था के माध्यम से मैं ने टौमी को चुना. या यों कहें कि टौमी ने मुझे चुना. वहां के कार्यकर्ता टौमी के साथ मुझे जोड़ने से पहले यह देखना चाहते थे कि वह मेरी व्हीलचेयर के साथ कैसा बरताव करता है, मेरी चेयर के प्रति उस की कैसी प्रतिक्रिया होगी. मुझे टौमी के बारे में कुछ भी बताए बिना उन्होंने मुझे टोटांटो स्पोर्ट्स सैंटर में आमंत्रित किया जहां 6 कुत्तों से मेरा परिचय कराया. टौमी मेरी चेयर के पास ही सारा समय लेटा रहा.

बेला, जिस ने टौमी को पालापोसा था, ने बताया था, ‘टौमी शुरू से ही अलग किस्म का था. छोटा सा पिल्ला बड़ेबड़े कुत्तों की तरह गंभीर था. इस की कार्यप्रणाली अपनी उम्र से कहीं ज्यादा परिपक्व थी. लगता था कि उसे पता था कि वह इस संसार में किसी महत्त्वपूर्ण काम के लिए आया है.

टौमी को स्वचालित दरवाजों के बटन दबा कर खोलना, रस्सी को खींच कर कार्य करना, फेंकी हुई चीज को उठा कर लाना या बताने पर कोई वस्तु लाना, जिपर खोलना, कोट पकड़ कर खींचना, बत्ती का बटन दबा कर जलाना या बुझाना, बोलने के लिए कहने पर भूंकना आदि काम सिखाए गए थे. टौमी हरदम काम को बड़े करीने से करता था.’

‘पर, हां, वह शैतान भी कम नहीं था. एक दिन बचपन में उस ने 7 किलो का अपने खाने का टिन खोल डाला और उस में से इतना खाया कि उस का पेट फुटबौल की तरह फूल गया था. और फिर उस के बाद इतनी उलटी की कि बच्चू को दिन में भी तारे नजर आने लगे. लेकिन फिर कभी उस ने ऐसा नहीं किया.

‘टौमी को मेरे फ्लैट और पड़ोस में प्रशिक्षित किया गया. रोज प्रशिक्षित करते समय उसे बैगनी रंग की जैकेट पहनाई जाती. जैकेट जैसे उस का काम पर जाते हुए व्यक्ति का बिजनैस सूट था. उस की जैकेट उस के लिए व बाकी लोगों के लिए इस बात का संकेत थी कि वह इस समय काम पर तैनात है. लोगों के लिए यह इस बात का भी संकेत था कि वे ‘वर्किंग डौग’ के काम में उसे थपथपा कर, पुचकार कर उस के काम में वे बाधा न डालें.’

शुरू में मुझे यह अच्छा लगा कि टौमी फर्श पर अपने बिस्तरे में सोए. पहली 2 रातें तो यह व्यवस्था ठीकठाक चली. तीसरी सुबह टौमी ने मेरे बिस्तरे के पास आ कर मेरे चेहरे के पास अपना मुंह रख दिया. मैं भी उस का विरोध न कर पाई और उसे अपने बिस्तरे पर आमंत्रित कर बैठी. उस ने एक सैकंड की भी देरी नहीं की और मेरे बिस्तरे पर आ गया. जब मुझे बिस्तर से मेरी व्हीलचेयर पर बैठाया गया तो वह मेरे शरीर द्वारा बिस्तर पर बनाए गए निशान पर लोटने लगा. मुझे कुत्तों के बारे में ज्यादा ज्ञान नहीं था, फिर भी मेरे विचार से वह मेरे शरीर की खुशबू में स्वयं को लपेट रहा था. उस दिन से वह हर समय मेरे साथ ही सोने लगा था, फिर कभी वह फर्श पर नहीं सोया.

टौमी ने जल्दी ही सीख लिया था कि मेरी व्हीलचेयर कैसे काम करती है. पहले हफ्ते गलती से व्हीलचेयर के नीचे उस का पंजा आतेआते बचा था. उस के बाद से वह कभी भी मेरी व्हीलचेयर के नीचे नहीं आया. चेयर की क्लिक की आवाज पर वह तुरंत उस से नियत फासले पर काम की तैनाती मुद्रा में खड़ा हो जाता. आरंभ से ही लोगों ने मेरे प्रति उस की प्रतिक्रिया की तारीफ करनी शुरू कर दी थी. वह शुरू से अपनी प्यारीप्यारी आंखों द्वारा मेरे चेहरे को देखते हुए मेरे आदेश, निर्देश व आज्ञा की कुछ इस तरह प्रतीक्षा करता था कि मेरा मन स्वयं ही उस पर पिघल जाता था.

अधिकतर लोग कुत्तों को प्यार करते हैं और टौमी को देख तो वैसे ही प्यार उमड़ पड़ता था. पहले महीने जब मैं एक सरकारी रिसैप्शन में गई तो मुख्यमंत्री ने मुझ से हाथ मिलाने के बाद पूछा, ‘क्या मैं इसे सहला सकता हूं?’ मैं ने कहा कि अभी यह काम पर तैनात है. मुझ से बात करने के बाद जब वे अगले व्यक्ति से बात करने लगे तो टौमी जल्दी से उन की टांगों पर अपना भार डाल उन के पैरों पर बैठ गया. मुख्यमंत्री हंस कर बोले, ‘अरे, मुझे इसे सहलानेदुलारने का मौका मिल ही गया.’

गोल्डन रिट्रीवर और लैब्राडोर अच्छी नस्ल के और अपने खुशनुमा स्वभाव के कारण सब से अच्छे वर्किंग डौग होते हैं. काम इन के लिए सचमुच आनंददायी होता है. टौमी तो हरदम ऐसा पूछता हुआ लगता कि बताओ, अब मैं और क्या करूं? ये खाने के भी शौकीन होते हैं. मैं काम करते समय अपने उस स्टैंड के पास, जिस पर मेरी ‘माउथस्टिक’ होती थी, जिस से मैं काम करने के लिए बटन दबाया करती थी, उस के लिए बिस्कुट रखती थी और उसे उस के हर अच्छे काम पर इनामस्वरूप बिस्कुट नीचे गिरा देती थी. कुछ ही दिनों में टौमी इतना कुशल हो गया था कि वह उन्हें बीच रास्ते में हवा में ही पकड़ लेता था.

अब सोचती हूं कि जिस से मैं ने सालों पहले कैलिफोर्निया में कुत्ता रखने के बारे में बात की थी, उसे नहीं पता कि वह क्या कह रही थी. उस ने मुझे साफ मना कर दिया था. उस के विचार से कुत्ता मुझ से किसी भी हालत में जुड़ नहीं सकता क्योंकि मैं उस की देखभाल नहीं कर सकती. मैं तो उसे खाना तक नहीं दे सकती हूं. ऐसी हालत में कुत्ता मुझ से बिलकुल नहीं जुड़ेगा. पर वह गलत थी क्योंकि टौमी को तो मुझ से जुड़ने में जरा भी समय नहीं लगा.

टौमी के लिए यह कोई मसला ही नहीं था कि कौन उस के लिए खाना रखता है. जब तक मैं न कह दूं, वह खाने को छूता तक नहीं था. मेरी कुरसी के बायीं ओर उस का एक छोटा व लचीला पट्टा बंधा होता था. वह जानता था कि छोटा पट्टा काम का पट्टा है और लचीला, छोटाबड़ा होने वाला आराम से घूमने वाला पट्टा है. वह मेरे स्वामी होने के एहसास को अच्छी तरह जानता था. उसे पता था कि घर का मालिक कौन है, चाहे उसे खाना कोईर् भी परोसे.

टौमी मेरी असमर्थताओं को भी जान गया था. उस ने समाधान निकाल लिया था कि मैं कैसे उसे सहला सकती हूं, उसे कैसे अपना प्यारदुलार दे सकती हूं. अपनी परिचारिका की सहायता से सुबहसुबह मैं थोड़ाथोड़ा अपनी बाहों को फैलाने की चेष्टा करती थी. हमारे रिश्ते की शुरुआत में ही टौमी, जब मेरी बाहें अधर में, हवा में होतीं, मेरे सीने पर आ जाता और मेरी गरदन चाटने लगता और फिर अपने शरीर को मेरे हाथों के नीचे स्थापित कर लेता. उस का यह प्रयास हर रोज सुबह के नाश्ते से पहले उस के आखिरी दम तक बना रहा.

मेरे लिए उस से जुड़ने के वास्ते यह बहुत जरूरी था कि मैं उसे उस की जरूरत की सब चीजें प्रदान करूं, विशेषरूप से पहले साल. मैं उसे रोज घुमाने ले जाती चाहे कितनी भी गरमी या सर्दी हो. पर दूसरे साल से इस में ढील पड़ गई. सर्दी में दूसरों को मैं ने यह काम सौंप दिया. हां, अधिक सर्दी के दिन छोड़ कर, मैं ही उसे घुमाने ले जाती थी. या यों कहूं कि मैं उस के साथ घूमती थी.

पहले पहल अकेले जाने में बड़ी समस्या आई. बाहर से अंदर आते समय तो वाचमैन मेरे लिए दरवाजा खोल देता था और लिफ्ट का बटन दबा देता था. मैं अपनी फ्लोर पर जा कर अपने घर का मुख्यद्वार अपने सिर में लगे कंट्रोल से खोल लेती थी. पर अकेले बाहर जाने की समस्या विकट थी कि कैसे एलिवेटर का बटन दबाया जाए. दीवार पर क्या चिपकाया जाए जिस की मदद से टौमी एलिवेटर का बटन दबा सके. इस में समय लग रहा था कि एक दिन मैं ने अपनी माउथस्टिक से बटन दबाने की सोची. स्टिक की लंबाई पूरी पड़ गई और समस्या हल हो गई.

अब मैं आसपड़ोस के लोगों से भी मिलने लगी, डौग पार्क में भी मेरी कइयों से दोस्ती हो गई. साथ ही, मैं अपने कई काम खुद ही करने लगी. अब मैं अकेले टौमी के साथ बाहर जाने के लिए प्रोत्साहित होने लगी. मेरी बाहर अकेले जाने की घबराहट कब खत्म हो गई, पता ही न चला. लोग मेरे से पहले टौमी को देख लेते थे और उस की वजह से ही मेरी व्हीलचेयर अजनबियों को कम भयग्रस्त करती थी.

जब मैं टौमी से पहले की अपनी जिंदगी देखती हूं कि किस तरह मैं ने खुद को अपने फ्लैट तक सीमित कर लिया था, कैद कर लिया था तो स्वयं को पहचान भी नहीं पाती हूं. मैं टौमी की बदौलत बहुत ही आत्मनिर्भर, आरामदेह, शांतिप्रद, सुखी हो गई थी. मैं इतने साल कैसे एक कौकून की तरह बंद कर के रही, आश्चर्य करती हूं. टौमी मुझे उस स्थिति के नजदीक ले आया जो दुर्घटना के पहले थी. ऐसी स्थिति जो इन परिस्थितियों में मेरे लिए खुशहाली लाई. टौमी ने मेरे लिए उस संसार के द्वार खोल दिए थे जो मैं ने अपने लिए अनावश्यक रूप से स्वयं ही बंद कर लिए थे.

हमारी झोली में कई साहसिक और कुछ भयग्रस्त करने वाले किस्से भी हैं. आज भी उन्हें याद कर सिहर जाती हूं. पार्क में एक रात अकेले होने पर पिट बुल द्वारा अटैक अभी भी बदन को सिहरा जाता है. एक बार वह मुश्किल से एलिवेटरद्वार बंद होने से पहले अंदर घुस पाया था. एक बार तो वह कार से टकरातेटकराते बचा था. मैं ने अपनी व्हीलचेयर का पहिया कार की ओर मोड़ दिया था जिस से कि मेरे पैरों पर भले ही आघात हो पर कम से कम टौमी बच जाए. लेकिन हम दोनों ही बच गए.

हालांकि आखिर में टौमी खाने के प्रति थोड़ा लालची होने लगा था लेकिन फिर भी वह जैकेट पहन कर काम में जरा भी शिथिलता नहीं आने देता था. हां, कौटेज में जाने पर वह मस्तमौला हो जाता था. वहां वह ज्यादा से ज्यादा ड्राइववे तक मेरे साथ जाता. उस के बाद मैं कितना ही उसे पुचकारती, बढ़ावा देती, वह मेरे साथ आगे न बढ़ता. हां, किसी और के साथ मजे में वह सब जगह घूमता. मैं सोचती कि क्या यह इस स्थान के प्रति मेरी भावनाओं को समझ रहा है. मैं सालों बाद भी, उस स्थान से जहां मैं गिरी थी, स्वयं को उबार नहीं पा रही थी. मेरे अंतर्मन के किसी कोने में उस स्थान के प्रति हलकी सी भयग्रस्त भावना समाई हुई थी. शायद इसीलिए, यह वहां नहीं जाना चाहता था.

एक सुबह मैं ने अपनी उस असुरक्षा की भावना को जड़ से उखाड़ फेंकने का निश्चय किया और संपूर्ण साहस बटोर, परिचारिका को बिना बताए उस पथ पर चल दी. ड्राइववे पर टौमी कुछ दूर तक मेरे साथसाथ चला पर आधे रास्ते जा, स्वभावगत वह वहीं रुक गया. मैं धीरेधीरे आगे बढ़ती रही, टौमी को पुकारती रही पर वह टस से मस न हुआ. बस, खड़ा देखता रहा. मैं ने भी अपना प्रण न छोड़ा, बढ़ती गई. ड्राइववे के अंतिम छोर पर मैं रुकी. पलट कर मैं ने उसे कई बार पुकारा, हर आवाज में- कड़ी, उत्साहित, डांटने वाली, आदेश वाली, मानमनौवल वाली, भयभीत आवाज की नकल करते हुए भी पुकारा, यहां तक कि भावनात्मक ब्लैकमेल भी किया पर वह वहीं चुपचाप खड़ा रहा. फिर झल्ला कर मैं ने कहा, ‘ठीक है, मैं अकेले ही आगे जा रही हूं. मैं ने सोचा कि देखूं कि वह मुझे आंखों से ओझल हो, देख क्या करता है. जैसे ही मैं पलटी, पाया कि गाड़ी के पहिए रेत में धंस अपनी ही जगह पर घूम रहे हैं. मेरी पीठ टौमी व कौटेज की तरफ थी. मैं करीबकरीब उसी जगह पर फंसी थी जहां सालों पहले गिरी थी.

मुझे याद नहीं, कि वास्तव में मेरे मुंह से पूरी तरह से टौमी का नाम निकला भी था या नहीं, कि मैं ने उसे अपनी ओर दौड़ता हुआ आता महसूस किया. फिर मुझे याद नहीं कि मैं ने इतने सालों के साथ में कभी भी उस की ऐसी शारीरिक मुद्रा देखी हो. उस की मौन भाषा, उस की शारीरिक मुद्रा बारबार मुझ से पूछ रही थी कि मैं तुम्हारे लिए क्या करूं.

मैं ने कहा, ‘टौमी, बोलो.’ अधिकतर जब भी मैं टौमी को ऐसा आदेश देती थी, वह एक बार भूंकता था या कभीकभी जब ज्यादा उत्साहित होता तो 2 बार. पर इस समय वह मेरे आदेश देने पर कई बार भूंका, जैसे वह समय की नजाकत पहचान रहा हो.

मैं टौमी की शारीरिक भाषा से पार नहीं पा रही थी. उस की उस समय की दयनीय आंखें, उस की मुखमुद्रा जीवनभर मेरे साथ रहेंगी. मैं उस की प्रशंसा करती रही और उसे बोलने को उत्साहित करती रही. तकरीबन 10-15 मिनट लगे होंगे जब मैं ने पदचापों को अपनी ओर आते सुना. यदि टौमी न होता तो न जाने मैं कब तक और किस हाल में वहां पड़ी होती.

यादें, न जाने कितनी यादें, अब तो बस टौमी की यादों का पिटारा ही साथ रह गया है.

शिकारी चंचल : आंचल गिरा कर फांसने की करती थी कोशिश

मिस्टर महेश का कारोबार अच्छा चल रहा था. उन की गारमैंट की कंपनी थी. उन के बनाए सामान का एक बड़ा हिस्सा ऐक्सपोर्ट होता था. मिस्टर महेश थोड़े नाटे और मोटे थे और रंग भी सांवला था, पर उन की पढ़ाईलिखाई और कारोबार करने की चतुराई लाखों में एक थी. मिस्टर महेश ने अमेरिका की हौर्वर्ड यूनिवर्सिटी से एमबीए करने के बाद अपने पिता का कारोबार संभाला था. वे तकरीबन 50 साल के हो चुके थे. उन की शादी भी हो चुकी थी. बीवी काफी खूबसूरत और स्मार्ट थी, पर 5 साल बाद ही उन्हें छोड़ कर किसी और के साथ विदेश जा बैठी थी. उस के बाद उन्हें शादी में कोई खास दिलचस्पी नहीं थी. पर कुछ महीने पहले ही तकरीबन 25 साल की चंचल से उन की दूसरी शादी हुई थी.

चंचल अपनी निजी जिंदगी में भी काफी चंचल थी. 20 साल की उम्र में उस ने जानबूझ कर रवि से शादी की थी. रवि को कैंसर था और वह 3 साल के अंदर चल बसा. रवि वैसे तो ज्यादा अमीर नहीं था, फिर भी 2 कमरे का एक फ्लैट, बीमा की रकम और कुछ बैंक बैलैंस मिला कर तकरीबन 2 लाख रुपए और साथ में एक स्कूटर वह छोड़ गया था. पर वह रकम चंचल जैसी मौडर्न लड़की के लिए ज्यादा नहीं थी. धीरेधीरे वह रकम भी खत्म हो रही थी. इसी बीच उस ने मिस्टर महेश को अपने जाल में फांस लिया था. वह उन की कंपनी में सैक्रेटरी बन कर आई और फिर उन की लाइफ पार्टनर बन बैठी. चंचल ने शादी के बाद नौकरी छोड़ दी. अब वह मिस्टर महेश के आलीशान बंगले में रहती थी और कार के भरपूर मजे ले रही थी.

इसी बीच मनीष नाम का एक नौजवान मिस्टर महेश की कंपनी में चंचल की जगह सैक्रेटरी बन कर आया. चंचल और मिस्टर महेश की जिंदगी कुछ दिनों तक सामान्य रही थी. वह पेट से भी हुई थी, पर मिस्टर महेश को इस की भनक भी नहीं होने दी और उस ने बच्चा गिरवा लिया. उस की नजर मिस्टर महेश के कारोबार पर थी. उधर मनीष अकसर मिस्टर महेश से मिलने घर पर भी आया करता था. चंचल उस की खूब खातिरदारी करती थी. उस के साथ बैठ कर बातें किया करती थी. बातों के दौरान चाय का कप बढ़ाते समय वह अपना आंचल जानबूझ कर गिरा देती और अपने उभार दिखाती, तो कभी टेबल के नीचे से मनीष के पैरों से खेलती. धीरेधीरे मनीष भी चंचल की ओर खिंचने लगा था. अब तो वह मनीष के साथ घूमने भी जाया करती थी. कभीकभार खुद मिस्टर महेश भी मनीष को चंचल के साथ शौपिंग के लिए भेज देते थे. चंचल ने खुश हो कर मनीष को भी बिलकुल अपने जैसा एक कीमती मोबाइल फोन खरीद कर दिया था.

चंचल मनीष को शहर से थोड़ी दूर हाईवे पर बने एक रिसोर्ट पर ले जाती, वहां घंटों उस के साथ समय बिताती और उस के साथ बिस्तरबाजी भी करती. जो देहसुख उसे मिस्टर महेश से नहीं मिलता था, वह मनीष से पा रही थी.

मिस्टर महेश को कारोबार के सिलसिले में शहर से बाहर भी जाना होता था. ऐसे में तो चंचल और मनीष को पूरी छूट होती थी. खून, खांसी और खुशी छिपाए नहीं छिपते हैं. धीरेधीरे उन दोनों के किस्से दफ्तर से होतेहोते मिस्टर महेश के कानों में भी पड़े, पर उन्होंने इसे चंचल के सामने कभी जाहिर नहीं होने दिया. वैसे, कुछ सचेत चंचल भी हो गई थी. कुछ दिनों बाद मिस्टर महेश को फिर शहर से बाहर जाना पड़ा था. चंचल मनीष को जीप में बिठा कर फिर किसी रिसोर्ट में मजे ले रही थी. उसी समय मिस्टर महेश का फोन चंचल के फोन पर आया था. मनीष ने अपना फोन समझ कर ‘हैलो’ कहा. ठीक इसी बीच चंचल भी बोल उठी, ‘‘किस का फोन है डियर?’’

मिस्टर महेश की आवाज सुन कर मनीष ने फोन चंचल को पकड़ा दिया. बात कर के चंचल ने फोन रख दिया, पर दोनों के चेहरों पर चिंता की लकीरें खिंच आई थीं. उन की मौजमस्ती के आलम में खलल पड़ गया था. चंचल ने कहा, ‘‘हमें इसी वक्त चलना होगा. मिस्टर महेश 2-3 घंटे में घर आने वाले हैं.’’ रिसोर्ट में आम के बाग थे. चंचल ने 10 किलो आम पैक कराए, तो मनीष पूछ बैठा, ‘‘इतने आमों का तुम क्या करोगी?’’ ‘‘तुम आम खाओ, गुठली गिनने की क्या जरूरत है?’’ और दोनों ने एकएक आम जीप में बैठेबैठे खाया. दोनों अब घर लौट रहे थे. जीप चंचल चला रही थी. जिस ओर मनीष बैठा था, सड़क के ठीक नीचे गहरी खाई थी. एक जगह जीप को धीमा कर चंचल बाईं ओर पड़ी रेत के ढेर पर कूद गई और जीप का स्टीयरिंग थोड़ा खाई की तरफ ही काट दिया. मनीष जीप के साथ खाई में जा गिरा था. चंचल की बांह पर मामूली खरोंचें आई थीं. थोड़ी दूर जा कर उस ने लिफ्ट ली और आगे टैक्सी ले कर घर पहुंची, तो देखा कि मिस्टर महेश सोफे पर बैठे कौफी पी रहे थे और टैलीविजन देख रहे थे.

मिस्टर महेश ने पूछा, ‘‘बड़ी देर कर दी… कहां गई थीं?’’

‘‘रिसोर्ट के बाग में फ्रैश आम की सेल लगी थी, वहीं चली गई थी.’’ इसी बीच टैलीविजन पर खबर आई कि एक जीप खाई में गिरी है. उस में सवार एक नौजवान की मौत हो गई है. उस जीप में आमों से भरा एक बैग भी था. मिस्टर खन्ना बोल उठे, ‘‘तुम्हें तो चोट नहीं आई? मैं मनीष को नौकरी से निकालने ही वाला था. कमबख्त काम के समय दफ्तर से लापता रहता था. मौत ने उसे दुनिया से ही निकाल बाहर कर दिया.’’ इधर शिकारी चंचल अपनी साड़ी पर चिपकी रेत झाड़ रही थी.

मुझे शक है कि जिस लड़की से मैंने फेसबुक पर दोस्ती की है, वो लड़की नहीं लड़का है.

सवाल –

हाल ही मे मैंने फेसबुक पर एक लड़की को फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजी और उसी शाम उस लड़की ने मेरी फ्रेंड रिक्वेस्ट एक्सेप्ट भी कर ली. जब मेरी नज़र उसकी फेसबुक प्रोफाइल की फोटो पर पड़ी तो मैं उस फोटो को देखता ही रह गया. वे फोटो में बेहद खूबसूरत और सेक्सी दिख रही थी. अगले दिन से हमारी बातें होना शुरू हुई और मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मैं उसकी तरफ अट्रैक्ट हो रहा हूं. मैं जब भी उसे मैसेज भेजता वे उसी पल मुझे रिप्लाई करती. ऐसा लग रहा था कि वे मेरे ही मैसेज का वेट कर रही होती है. मैं जब भी उसे कौल पर बात करने को कहता हूं तो वे मना कर देती है और अपना फोन नंबर भी मुझसे शेयर नहीं कर रही. फेसबुक पर तो वे कहती हैं कि मैं उसे बेहद पसंद हूं और वे मेरे साथ रिलेशनशिप में आना चाहती है पर कभी भी वे ना तो कौल पर बात करती है और ना ही अपनी कोई दूसरी फोटो मेरे साथ शेयर करती है. मुझे शक है जिससे मैं इतने दिनों से प्यार भरी बातें कर रहा हूं वे कोई लड़की नहीं बल्कि लड़का है. ऐसे में मुझे क्या करना चाहिए?

जवाब –

ऐसा कई बार देखा गया है कि लोग अपना मैक्सिमम टाइम फेसबुक पर अंजान लोगों से बात कर के बिताने लगे हैं. अंजान लोगों से बात करना अच्छी बात है पर हमें इस बात का भी खास खयाल रखना चाहिए कि जिससे हम फेसबुक पर बात कर रहें हैं असल में वे व्यक्ति वही है या फिर कोई और. काफी लोग इसका गलत फायदा भी उठाते हैं और भोले-भाले लोगों के साथ फ्रौड भी करते हैं.

फेसबुक पर ऐसे कई लोग हैं जो लड़की बन कर लड़को को अपने प्यार के जाल में फसाते हैं और फिर जब वे लड़का पूरी तरह उनके प्यार में पड़ जाता है तब वे उससे पैसों की मांग करती हैं . और तो और कई लोग फेसबुक पर अपने प्यार के जाल में फसा कर आपसे आपकी निजी बातें करते हैंं, तो कभी आपकी प्रोइवेट फोटोज, वीडियोज भी मंगवाते हैं और जब उनके पास यह सब आ जाता है तब वे आपको ब्लैकमेल करना शुरू कर देते हैं और पैसे मांगने लगते हैं. अगर कोई पैसे देने से इंकार करता है तो वे उनकी प्राइवेट फोटो और वीडियो को वायरल करने की धमकी भी देते हैं. अपनी इज्जत बचाने के चक्कर में शरीफ लोग इस फ्रौड का शिकार बन बैठते हैं.

आप जिससे इतने दिनों से फेसबुक पर बातें कर रहे हैं पहले तो ये समझिए कि वे एक्चुअल में एक लड़की ही है या फिर कोई आपके साथ टाइम पास कर रहा है. अपनी अटैचमेंट बढ़ाने से पहले आप उनसे कौल पर बात करने का दबाव डालें और कोशिश कीजिए की आप एक बार उनके मिल लीजिए या फिर वीडियो कौल पर बात कीजिए. अगर तो वे प्रोफाइल फोटो वाली लड़की ही हुई तो ठीक है पर अगर वे वीडियो कौल करने से या मिलने ये मना करती है तो आप सावधान हो जाइए और फौरन उसे अनफ्रेंड कर दीजिए.

आपको सावधानी रखनी है कि ऐसे लोगों को आप अपनी कोई भी प्रोइवेट बात या फिर कोई ऐसी फोटो ना भेजें जिससे कि वे भविष्य में उसका फायदा उठा कर आपको ब्लैकमेल कर सकें. इनसे किसी तरह का बैंक डिटेल्स भी शेयर न करें, न ही किसी तरह खास तरह का पासवर्ड, ऐसे मामलों वाले ढेरों केस साइबर क्राइम से जुड़े होते हैं

सौतेला बरताव : कामधंधा न मिले, तो कोठे पर बैठ

चंपा को देह धंधा करने के आरोप में जेल हो गई. वह रंगे हाथ पकड़ी गई थी. वह जेल की सलाखों में उदास बैठी हुई थी. चंपा के साथ एक अधेड़ औरत भी बैठी हुई थी. थोड़ी देर पहले पुलिस उसे भी इस बैरक में डाल गई थी. चंपा जिस होटल में देह धंधा करती थी, उसी होटल में पुलिस ने छापा मारा था और उसे रंगे हाथ पकड़ लिया था. आदमी तो भाग गया था, मगर पुलिस वाला उसे दबोचते हुए बोला था, ‘चल थाने.’

‘नहीं पुलिस बाबू, मुझे माफ कर दो…’ वह हाथ जोड़ते हुए बोली थी, ‘अब नहीं करूंगी यह धंधा.’

‘वह आदमी कौन था ’ पुलिस वाला उसी अकड़ से बोला था.

‘मुझे नहीं मालूम कि वह कौन था ’ वह फिर हाथ जोड़ते हुए बोली थी.

‘झूठ बोलती है. चल थाने, सारा सच उगलवा लूंगा.’

‘मुझे छोड़ दीजिए.’

‘हां, छोड़ देंगे. लेकिन तू ने उस ग्राहक से कितने पैसे लिए हैं ’

‘कुछ भी नहीं दे कर गया.’

‘झूठ कब से बोलने लगी  चल थाने ’

‘छोड़ दीजिए, कहा न कि अब कभी नहीं करूंगी यह धंधा.’

‘करेगी… जरूर करेगी. अगर करना ही है, तो लाइसैंस ले कर कोठे पर बैठ. फिर हम तुझ से कुछ नहीं कहेंगे…’ हवलदार थोड़ा नरम पड़ते हुए बोला था, ‘तुझे छोड़ सकता हूं, मगर अंटी में जितने पैसे हैं, निकाल कर मुझे दे दे.’

‘साहब, आज तो मेरी अंटी में कुछ भी नहीं है,’ वह बोली थी.

‘ठीक है, तब तो एक ही उपाय है… जेल,’ फिर वह पुलिस वाला उसे पकड़ कर थाने ले गया था. चंपा दीवार के सहारे चुपचाप बैठी हुई थी. वह अधेड़ औरत न जाने कब से उसे घूर रही थी.आखिरकार वह अधेड़ औरत बोली, ‘‘ऐ लड़की, तू कौन है ’’

तब चंपा ने अपना चेहरा ऊपर कर उस अधेड़ औरत की तरफ देखा, मगर जवाब कुछ नहीं दिया.

वह अधेड़ औरत जरा नाराजगी से बोली, ‘‘सुना नहीं  बहरी है क्या ’’

‘‘हां, पूछो ’’ चंपा ने कहा.

‘‘क्या अपराध किया है तू ने ’’

‘‘मैं ने वही अपराध किया है, जो तकरीबन हर औरत करती है ’’

‘‘क्या मतलब है तेरा गोलमोल बात क्यों कर रही है, सीधेसीधे कह न,’’ वह अधेड़ औरत गुस्से से बोली.

‘‘मुझे देह धंधा करने के आरोप में पकड़ा गया है.’’

‘‘शक तो मुझे पहले से ही था. अरे, जिस पुलिस वाले ने तुझे पकड़ा है, उस के मुंह पर नोट फेंक देती.’’

‘‘अगर मेरे पास पैसे होते, तो उस के मुंह पर मैं तभी फेंक देती.’’

‘‘तुम ने यह धंधा क्यों अपनाया ’’

‘‘क्या करोगी जान कर ’’

‘‘मत बता, मगर मैं सब जानती हूं.’’

‘‘क्या जानती हैं आप ’’

‘‘औरत मजबूरी में ही यह धंधा अपनाती है.’’

‘‘नहीं, गलत है. मैं मजबूरी में वेश्या नहीं बनी, बल्कि बनाई गई हूं.’’

‘‘कैसे अपनी कहानी सुना.’’

‘‘हां सुना दूंगी, मगर आप इस उम्र में जेल में क्यों आई हो ’’

‘‘मेरी बात छोड़, मेरा तो जेल ही घर है,’’ उस अधेड़ औरत ने कहा.

‘‘आप आदतन अपराधी हैं ’’

‘‘यही समझ ले…’’ उस अधेड़ औरत ने गहरी सांस ले कर कहा, ‘‘फिर भी सुनना चाहती है तो सुन. मैं अफीम की तस्करी करती थी. अब सुना तू अपनी कहानी.’’

चंपा की कहानी कुछ इस तरह थी: चंपा के पिता मजदूर थे. उन का नाम मांगीलाल था. उन्होंने रुक्मिणी नाम की औरत से शादी की थी.

शादी के 2 साल गुजर गए थे. एक दिन पिता मांगीलाल को पता चला कि रुक्मिणी मां बनने वाली है. उन की खुशियों का ठिकाना न रहा.

रुक्मिणी को बांहों में भरते हुए वे बोले थे, ‘पहला बच्चा लड़का होना चाहिए…’

यह मेरे हाथ में है क्या ’ रुक्मिणी उन्हें झिड़कते हुए बोली थी. 9 महीने बाद जब चंपा पैदा हुई, तो 4 दिन बाद उस की मां मर गई. पिता के ऊपर सारी जवाबदारी आ पड़ी. रिश्तेदार कहने लगे कि पैदा होते ही यह लड़की मां को खा गई. तब मौसी ने उसे पाला. मां के मरने पर पिता टूट गए थे. वे उदासउदास से रहने लगे थे. तब अपना गम भुलाने के लिए वे शराब पीने लगे थे. रिश्तेदारों और उन के बड़े भाई ने खूब कहा कि दोबारा शादी कर लो, मगर वे तैयार नहीं हुए थे. धीरेधीरे चंपा मौसी की गोद में बड़ी होती गई. जब वह 5 साल की हो गई, तब उसे स्कूल में भरती करा दिया गया. पिता को दोबारा शादी के प्रस्ताव आने लगे. चारों तरफ से दबाव भी बनने लगा. एक दिन पिता के बड़े भाई भवानीराम और उन की पत्नी तुलसाबाई आ धमके. आते ही भवानीराम बोले, ‘ऐसे कैसे काम चलेगा मांगीलाल ’

‘क्या कह रहे हैं भैया ’ मांगीलाल ने पूछा.

‘सारी जिंदगी यों ही बैठे रहोगे ’ भवानीराम ने दबाव डालते हुए कहा.

‘आप कहना क्या चाहते हो भैया ’

‘अरे देवरजी…’ तुलसाबाई मोरचा संभालते हुए बोली, ‘देवरानी को गुजरे 6-7 साल हो गए हैं. अब उस की याद में कब तक बैठे रहोगे. चंपा भी अब बड़ी हो रही है.’ ‘भाभी, मेरा मन नहीं है शादी करने का,’ मांगीलाल ने साफ इनकार कर दिया था. ‘मैं पूछती हूं कि आखिर मन क्यों नहीं है ’ दबाव डालते हुए तुलसाबाई बोली, ‘यों देवरानी की याद करने से वह वापस तो नहीं आ जाएगी. फिर शादी कर लोगे, तो देवरानी के गम को भूल जाओगे.’

‘नहीं भाभी, मैं ने कहा न कि मुझे शादी नहीं करनी है.’

‘क्यों नहीं करनी है  हम तेरी शादी के लिए आए हैं. और हां, तेरी हां सुने बगैर हम जाएंगे नहीं,’ भैया भवानीराम ने हक से कहा, ‘हम ने तेरे लिए लड़की भी देख ली है. लड़की इतनी अच्छी है कि तू रुक्मिणी को भूल जाएगा.’

‘नहीं भैया, मैं चंपा के लिए सौतेली मां नहीं लाऊंगा,’ एक बार फिर इनकार करते हुए मांगीलाल बोला.

‘कैसी बेवकूफों जैसी बातें कर रहा है. जिन की औरत भरी जवानी में ही चली जाती है, तब वे दोबारा शादी नहीं करते हैं क्या ’

‘अरे देवरजी, यह क्यों भूल रहे हो कि चंपा को मां मिलेगी. कब तक मौसी उस की देखरेख करती रहेगी  इस बात को दिमाग से निकाल फेंको कि हर मां सौतेली होती है. जिस के साथ हम तुम्हारी शादी कर रहे हैं, वह ऐसी नहीं है. चंपा को वह अपनी औलाद जैसा ही प्यार देगी ’ ‘भाभी, आप लोग क्यों मेरे पीछे पड़े हुए हो ’

‘बिना औरत के आदमी का घर नहीं बसता है और हम तेरा घर बसाना चाहते हैं. लड़की हम ने देख ली है. एक बात कान खोल कर सुन ले, हम तेरी शादी करने के लिए आए हैं. इनकार तो तुम करोगे नहीं. बस, तैयार हो जाओ,’ कह कर भवानीराम ने बिना कुछ सुने फैसला सुना दिया. मांगीलाल को भी हार माननी पड़ी. भैयाभाभी ने जो लड़की पसंद की थी, उस का नाम कलावती था. मान न मान मैं तेरा मेहमान की तरह कलावती के साथ उस की शादी कर दी गई. जब तक कलावती की पहली औलाद न हुई, तब तक उस ने चंपा को यह एहसास नहीं होने दिया कि वह उस की सौतेली मां है. मगर बच्चा होने के बाद वह चंपा को बातबात पर डांटने लगी. उस का स्कूल छुड़वा दिया गया. वह उस से घर का सारा काम लेने लगी. पिता भी नई मां पर ज्यादा ध्यान देने लगे. इस तरह नई मां ने पिता को अपने कब्जे में कर लिया. धीरेधीरे चंपा बड़ी होने लगी. लड़के उसे छेड़ने लगे.

कलावती भी उसे देख कर कहने लगी, ‘लंबी और जवान हो गई है. कब तक हमारे मुफ्त के टुकड़े तोड़ती रहेगी. कोई कामधंधा कर. कामधंधा नहीं मिले, तो किसी कोठे पर जा कर बैठ जा. तेरी जवानी तुझे कमाई देगी.’ चंपा के पिता जब शादी की बात चलाते, तब सौतेली मां कहती, ‘कहां शादी के चक्कर में पड़ते हो. चंपा अब बड़ी हो गई है. साथ ही, जवान भी. रूप भी ऐसा निखरा है कि अगर इसे किसी कोठे पर बिठा दो, तो खूब कमाई देगी.’ तब पिता विरोध करते हुए कहते, ‘जबान से ऐसी गंदी बात मत निकालना. क्या वह तुम्हारी बेटी नहीं है ’

‘‘मेरी पेटजाई नहीं है वह. आखिर है तो सौतेली ही,’ कलावती उसी तरह जवाब देती. पिता को गुस्सा आता, मगर वह उन्हें भी खरीखोटी सुना कर उन की जबान बंद कर देती थी. इस गम में पिता ज्यादा शराब पीने लगे. रातदिन की चकचक से तंग आ कर चंपा ने कोई काम करने की ठान ली. मगर सौतेली मां तो उस से देह धंधा करवाना चाहती थी. आखिर में चंपा ने भी अपनी सौतेली मां की बात मान ली. जिस होटल में वह धंधा करती थी, वहीं सौतेली मां ग्राहक भेजने लगी. ग्राहक से सारे पैसे सौतेली मां झटक लेती थी. चंपा ने उस अधेड़ औरत के सामने अपना दर्द उगल दिया. थोड़ी देर के सन्नाटे के बाद वह अधेड़ औरत बोली, ‘‘तेरी कहानी बड़ी दर्दनाक है. आखिर सौतेली मां ने अपना सौतेलापन दिखा ही दिया.’’

चंपा कुछ नहीं बोली.

‘‘अब क्या इरादा है  तेरी सौतेली मां तुझे छुड़ाने आएगी ’’ उस अधेड़ औरत ने पूछा.

‘‘नहीं, मैं तो अब जेल में ही रहना चाहती हूं. उस सौतेली मां की सूरत भी नहीं देखना चाहती हूं.’’

‘‘तू भले ही मत देख, मगर तेरी सौतेली मां तुझ से पैसा कमाएगी, इसलिए तुझे छुड़ाने जरूर आएगी,’’ अपना अनुभव बताते हुए वह अधेड़ औरत बोली.

‘‘मगर, अब मैं घर छोड़ कर भाग जाऊंगी ’’

‘‘भाग कर जाएगी कहां  यह दुनिया बहुत बड़ी है. यह मर्द जात तुझे अकेली देख कर नोच लेगी. मैं कहूं, तो तू किसी अच्छे लड़के से शादी कर ले.’’ ‘‘कौन करेगा मुझ से शादी बस्ती के सारे बिगड़े लड़के मुझ से शादी नहीं मेरा जिस्म चाहते हैं. वैसे भी मैं बदनाम हो गई हूं. अब कौन करेगा शादी ’’ ‘‘हां, ठीक कहती हो…’’ कह कर वह अधेड़ औरत खामोश हो गई. कुछ पल सोच कर वह अधेड़ औरत बोली, ‘‘हम औरतों के साथ यही परेशानी है. देख न मुझे भी मेरी जवानी का फायदा उठा कर तस्करी का काम दिया, ताकि औरत देख कर कोई शक नहीं करे. मगर जब पैसे मिलने लगे, तब धंधा मुझे रास आ गया. इस का नतीजा देख रही हो, आज मैं जेल में हूं.’’ फिर दोनों के बीच काफी देर तक सन्नाटा पसरा रहा. तभी एक पुलिस वाले ने ताला खोलते हुए कहा, ‘‘बाहर निकल. तेरी मां ने जमानत दे दी है.’’ चंपा ने देखा कि उस की मां कलावती खड़ी थी. वह गुस्से में बोली, ‘‘तू चुपचाप धंधा करती रही और मुझे बदनाम कर दिया. सारी बस्ती वाले मुझ पर थूक रहे हैं. आखिर मैं तेरी सौतेली मां हूं न, बदनाम तो होना ही है. वैसे भी सौतेली मां तो बदनाम ही रहती है.

‘‘चल, निकल बाहर. अब कभी धंधा किया न, तो तेरी खाल खींच लूंगी. मां हूं तेरी, भले ही सौतेली सही. मैं ने जमानत दे दी है.’’ चंपा कुछ नहीं बोली. वह अपनी सौतेली मां के साथ हो ली. वह जानती थी कि यह केवल लोकलाज का दिखावा है. अब यह कैसी साहूकार बन रही है. उलटा चोर कोतवाल को डांट कर.

तवायफ मां नहीं हो सकती

यह उन दिनों की बात है जब मैं पंजाब के एक छोटे से शहर के एक थाने में तैनात था. एक दिन दोपहर लगभग 3 बजे एक अधेड़ उम्र की औरत थाने में आई, उस के साथ 2 आदमी भी थे. उन्होंने बताया कि एक औरत मर गई है, उन्हें शक है कि उस की हत्या की गई है. पूछने पर उन्होंने बताया कि उन्हें संदेह इसलिए है कि देखने से ऐसा लग रहा है जैसे उसे जहर दिया गया हो.

मैं ने देखा मर्द बोल रहे थे लेकिन औरत चुप थी. मैं ने पूछा रिपोर्ट किस की ओर से लिखी जाएगी. उन्होंने औरत की ओर इशारा कर दिया. वे दोनों मर्द उस के पड़ोसी थे. औरत का नाम शादो था और मरने वाली का नाम सरदारी बेगम. मैं ने मरने वाली से उस का संबंध पूछा तो उस ने बताया कि मरने वाली उस की सौतन थी. उस के पति का 9 महीने पहले देहांत हो चुका था. सौतनों के झगड़े होना मामूली बात है. मैं ने भी इसी तरह का केस समझ कर रिपोर्ट लिख ली और उनके घर पहुंच गया.

मैं ने लाश को देखा तो लगा कि मृतका को जहर दिया गया है. मैं ने कागजी काररवाई कर के लाश को पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया और केस की जांच में लग गया. मैं ने देखा कि घर में एक ओर चीनी की प्लेट में थोड़ा सा हलवा रखा हुआ था, उस में से कुछ हलवा खाया भी गया था.

मैं ने अनुमान लगाया कि मृतका को हलवे में जहर मिला कर खिलाया गया होगा. मैं ने उस हलवे को जाब्ते की काररवाई में शामिल कर के उसे मैडिकल टेस्ट के लिए भेज दिया. मैडिकल रिपोर्ट आने पर ही आगे की काररवाई की जा सकती थी.

शादो से मैं ने पूरी जानकारी ली तो पता लगा कि उस के और सरदारी बेगम के पति का नाम मसूद अहमद था. वह छोटामोटा कारोबार करते थे. सरदारी बेगम अपने पति की दूर की रिश्तेदार भी थी, जबकि शादो की उन से कोई रिश्तेदारी नहीं थी. सरदारी बेगम से मसूद के 2 बेटे और एक बेटी थी. जबकि शादो से कोई संतान नहीं थी. तीनों बच्चों की शादी हो चुकी थी. लड़की अपने घर की थी और दोनों लड़के मांबाप से अलग रहते थे. शादो ने कहा कि उन दोनों को उन की मां के मरने की जानकारी दे दी गई है.

शादो से जो जानकारी मिली, वह संक्षेप में लिख रहा हूं. मसूद अहमद का कारोबार ठीकठाक चल रहा था. उन्होंने शादो से चोरीछिपे शादी कर ली थी और उसे एक अलग मकान में रखा हुआ था. इसी बीच मसूद बीमार पड़ गए. उन की हालत दिनबदिन गिरती जा रही थी. तभी एक दिन उन्होंने सरदारी बेगम से कहा कि उन्होंने चोरी से एक और शादी की हुई है.

यह सुन कर सरदारी बेगम को दुख तो हुआ लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता था. मसूद अहमद ने दूसरी पत्नी शादो को बुला कर उस का हाथ सरदारी बेगम के हाथ में दे कर कहा कि मेरा कोई भरोसा नहीं है कि मैं कितने दिन जिऊंगा. मेरे बाद तुम शादो का खयाल रखना, क्योंकि इस के आगेपीछे कोई नहीं है. मैं तुम्हारी खानदानी शराफत की वजह से इस का हाथ तुम्हें दे रहा हूं और उम्मीद करता हूं कि तुम इस का खयाल रखोगी.

सरदारी बेगम ने मसूद से वादा किया कि वह शादो का पूरा खयाल रखेगी और उसे कभी भी अकेला नहीं छोड़ेगी. इस के कुछ दिन बाद ही मसूद का देहांत हो गया.

सरदारी बेगम ने शादो को अपने पास बुला कर रख लिया और उस से कहा कि वह उसे सौतन की तरह नहीं, बल्कि अपनी सगी बहन की तरह रखेगी. शादो के इस तरह घर में आ कर रहने से सरदारी के दोनों बेटे खुश नहीं थे. न ही उन्होंने उसे अपनी सौतेली मां माना. उस के आने से घर में रोज झगड़े होने लगे. हालात से तंग आ कर सरदारी बेगम शादो के उस मकान में चली गई, जिस में वह रहा करती थी.

दोनों बेटे इस बात से खुश थे, लेकिन दुनियादारी निभाने के लिए मां से कहते थे कि तुम हमारे पास आ जाओ, लेकिन शादो को साथ नहीं लाना. सरदारी ने कहा कि मैं मरते दम तक अपने पति से किया वादा पूरा करूंगी और शादो का साथ नहीं छोड़ सकती.

महीने-2 महीने में सरदारी बेगम अपने बेटों से मिलने चली जाती थी. बड़ा बेटा मां से खुश नहीं था. वह कहता था कि शादो को छोड़ कर यहां आ जाओ, लेकिन वह इस के लिए तैयार नहीं थी.

बड़े बेटे शरीफ ने बहाने बना कर अपने पिता के कारोबार और बैंक में जमा रकम पर कब्जा कर लिया था. इस से उन दोनों को खानेपीने की तंगी होने लगी. सरदारी बेगम पढ़ीलिखी थी, उस ने घर में बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया.

शादो ने एक स्कूल की हेडमिस्ट्रैस से मिल कर अपने लिए स्कूल में छोटेमोटे कामों के लिए नौकरी कर ली. इस तरह उन की आय बढ़ गई और खानेपीने का इंतजाम हो गया. शरीफ अपनी मां से बारबार शादो को छोड़ने के लिए कहा करता था लेकिन वह किसी तरह भी तरह तैयार नहीं होती थी. इस से शरीफ अपनी मां से बहुत नाराज था.

जिस दिन सरदारी बेगम का देहांत हुआ था, उस दिन शादो स्कूल से अपनी ड्यूटी पूरी कर के घर पहुंची तो देखा सरदारी बेगम मर चुकी हैं. वह रोनेचीखने लगी. मोहल्ले वाले इकट्ठा हो गए. उन्होंने लाश को देखा तो मृतका का रंग देख कर उन्हें भी लगा कि उसे जहर दिया गया है या उस ने खुद जहर खा लिया है, इसलिए पुलिस में रिपोर्ट करनी जरूरी है. और इस तरह वे 2 आदमी शादो के साथ रिपोर्ट लिखाने थाने आए थे.

अगले दिन पोस्टमार्टम रिपोर्ट आ गई, जिस में लिखा था कि मृतका की मौत जहर के कारण हुई है. उस के पेट में जो हलवे की मात्रा निकली, वह हजम नहीं हुई थी, उस में जहर मिला हुआ था. शाम तक हलवे के टेस्ट की रिपोर्ट भी आ गई. रिपोर्ट में लिखा था कि हलवे में संखिया की मात्रा पाई गई है. संखिया को अंगरेजी में आर्सेनिक कहते हैं. यह इंसान के लिए बहुत खतरनाक होता है.

पोस्टमार्टम रिपोर्ट और मैडिकल टेस्ट से यह बातसाफ हो गई कि सरदारी बेगम को जहर दे कर मारा गया था. मैं ने शादो से पूछा कि क्या उस दिन घर में हलवा बना था? लेकिन उस ने इस बात से इनकार कर दिया.

अब सोचने वाली बात यह थी कि अगर घर में हलवा नहीं बना तो सरदारी को हलवे में जहर किस ने दिया? सरदारी बेगम के नाम कोई जायदाद भी नहीं थी और न ही वह सुंदर थी, जिस की वजह से उसे जहर दे कर मार दिया गया हो. मैं ने शादो से पूछा कि उस का किसी से कोई लड़ाईझगड़ा तो नहीं था.

उस ने कहा, ‘‘नहीं जी, मेरी सौतन तो बहुत भली औरत थी. कभी किसी से न झगड़ने वाली. मैं ने उसे कभी गुस्से में नहीं देखा. मैं खुद सोच रही हूं कि उसे जहर कौन दे सकता है?’’

केस मेरी समझ से बाहर था. मैं ने सरदारी बेगम के दोनों बेटों को बुला कर जांच करने का मन बनाया. शादो से मैं ने पूछा कि उसे किसी पर शक तो नहीं, उस ने कहा नहीं.

मैं ने शादो से बहुत से सवाल किए और कुरेदकुरेद कर पूछा कि कोई काम की बात पता चल सके, लेकिन उस से कुछ पता नहीं लग सका. अगले दिन तो वे लोग सरदारी बेगम के अंतिम संस्कार में लगे रहे. इस के तीसरे दिन मैं ने उस के दोनों बेटों को थाने बुलवाने का प्रोग्राम बनाया.

थाने बुला कर मैं ने शरीफ और उस के छोटे भाई इदरीस से पूछताछ की. लेकिन उन से भी कोई बात पता नहीं लगी. इदरीस कम बोलता था, मेरे हर सवाल का संक्षेप में जवाब देता था. उस ने अधिकतर सवालों के जवाब हां या ना में दिए थे. मैं ने दोनों भाइयों को यह कह कर भेज दिया कि जरूरत पड़ी तो फिर बुला लूंगा.

मैं ने अपने मुखबिर चारों ओर फैला दिए थे. मुझे उम्मीद थी कि वे जरूर कुछ न कुछ पता लगा लेंगे. मैं ने उन से कह दिया था कि वे यह पता करें कि शादो और सरदारी बेगम के आपसी संबंध कैसे थे? क्या उन में कभी झगड़ा हुआ था? हत्या वाले दिन मृतका के घर कौनकौन आया था? किसी ने प्लेट में किसी को कोई चीज लाते तो नहीं देखा था?

यह केस मेरे लिए सिरदर्द बन गया था. हत्या का कोई कारण पता नहीं लग रहा था. मैं ने बहुत दिमाग लगाया. घूमफिर कर शादो ही दिमाग में आ रही थी, इसलिए मैं ने शादो से पूछताछ करने का फैसला कर लिया.

सरदारी बेगम के मरने के बाद शादो अकेली रह गई थी. वह अकसर सरदारी को याद कर के रोती रहती थी. स्कूल की हेडमिस्ट्रैस ने उस की यह हालत देख कर उस के रहने के लिए स्कूल में एक कमरा दे दिया था. वह उसी कमरे में रहने लगी थी. मैं ने एक सिपाही को बुला कर स्कूल का पता दे कर कहा कि छुट्टी के बाद शादो को ले आए.

करीब ढाई बजे वह शादो को ले कर आ गया. उस के साथ स्कूल की हेडमिस्ट्रैस भी थीं. उस ने बताया कि वह शादो के साथ इसलिए आई है क्योंकि वह बहुत डरी हुई थी.

मैं ने हेडमिस्ट्रैस को तसल्ली दी कि शादो से केवल पूछताछ करनी है, आप इसे यहीं छोड़ जाएं. वह चली गई तो मैं ने शादो के दिल से थाने का डर निकालने के लिए इधरउधर की बातें कीं और फिर बातों का रुख उस के दिवंगत पति की ओर मोड़ दिया.

पति की बात सुन कर वह भावुक हो गई और उस की ऐसे तारीफ करने लगी, जैसे वह कोई फरिश्ता हो.

बातोंबातों में मैं ने एक सवाल पूछा, ‘‘क्या यह सच है कि तुम एक वेश्या हो?’’ न चाहते हुए भी मैं ने उस से सवाल किया.

यह सवाल सुन कर उसे झटका सा लगा. उस के चेहरे का रंग लाल हो गया, उस की आंखों से आंसू निकल आए. उस ने सिर झुका कर जवाब दिया, ‘‘हूं नहीं, लेकिन कभी थी.’’

फिर झटके से अपना सिर उठा कर बोली, ‘‘यह बात आप से शरीफ ने कही होगी. उस के पिता ने मुझे गंदगी से निकाल कर इज्जत की जगह दी थी. इस हिसाब से मैं उस की मां लगती हूं, लेकिन वह मुझे मां समझने के बजाय अपने पिता की रखैल समझता है.’’

शादो की यह बात सुन कर मेरी रुचि बढ़ी और मैं ने उस से कहा कि वह मुझे विस्तृत जानकारी दे कि उस की शादी मसूद से कैसे हुई. उस ने कहा, ‘‘यह बहुत लंबी कहानी है.’’

मैं ने उस से कहा कि वह निश्चिंत हो कर सब कुछ बताए. इस पर उस ने अपनी दुखभरी लंबी कहानी सुनाई, जो मैं यहां संक्षेप में लिख रहा हूं.

शादो का असली नाम शमशाद बेगम था लेकिन घर वाले उसे शादो कहा करते थे. उस का बाप एक सरकारी औफिस में चपरासी था. बहुत गरीब थे ये लोग. मुश्किल से गुजारा होता था. शादो के 2 भाई और 2 बहनें थीं. शादो सब से बड़ी थी इसलिए

वह सब की लाडली थी. पिता उस की हर चाहत पूरी करता था, इसलिए उस की आदत बिगड़ गई थी.

5 बच्चे होने के कारण घर का खर्च मुश्किल से चलता था, इसलिए उस के पिता ने पार्टटाइम दुकान कर ली, जो चल निकली. इस के बाद घर का खर्च भी ठीक से चलने लगा.

शादो गरीब के घर जरूर पैदा हुई थी, लेकिन थी बहुत सुंदर. शादो को 5 जमात पढ़ाने के बाद घर बैठा लिया गया. वह घर पर मां के साथ घर का काम करने लगी.

शादो को फिल्मों और फिल्मी गानों का शौक था, लेकिन उस ने फिल्म कभी नहीं देखी थी. इस के बावजूद वह अपने आप को किसी हीरोइन से कम नहीं समझती थी. बाप से जिद कर के उस ने एक ट्रांजिस्टर मंगवा लिया, जिस पर वह बराबर गाने सुनती थी. जवान होते ही उस पर मोहल्ले के लड़कों की नजर पड़ी. उन में एक लड़का जमाल था. वह खातेपीते घर का था. गोराचिट्टा जवान. जमाल के रिश्तेदार लाहौर में रहते थे.

वह अकसर लाहौर जाता रहता था. शादो भी उसे चाहने लगी थी. दोनों छिपछिप कर मिलते थे. एक दिन ऐसा भी आया जब वह उस के साथ भागने को तैयार हो गई. जमाल ने उसे बताया था कि लाहौर के फिल्म उद्योग में उस की जानपहचान है. वह उसे फिल्मों में काम दिलवा देगा. उस ने शादो से यह वादा भी किया कि वह उस के साथ शादी कर लेगा.

और फिर एक दिन वह अपनी मां से सहेली के घर जाने का बहाना कर के जमाल के साथ भाग गई. उसे मांबाप, अपने घर की याद  तो आई लेकिन उस की सोच पर जमाल के जादू ने परदा डाल दिया. लाहौर की फिल्मी दुनिया की चकाचौंध ने उसे अंधा कर दिया था. वह यह बात सुनातेसुनाते हिचकियां ले कर रोने लगी.

जरा सी देर रुक कर वह आगे बोली, ‘‘जमाल ने मुझे बता दिया था कि घर से निकल कर कहां पहुंचना है. मैं उस जगह पहुंच गई. वहां जमाल मेरा इंतजार कर रहा था. जमाल घर से काफी रकम चुरा कर लाया था. हम दोनों लाहौर पहुंच गए. वहां जमाल का एक मित्र सरकारी औफिस में नौकरी करता था. वह मुझे उस के क्वार्टर पर ले गया. जमाल के मित्र ने उसे एक अलग कमरा दे दिया. अगले दिन वह हमें नाश्ता करा कर अपने औफिस चला गया. जमाल और मैं कमरे में अकेले रह गए.’’

दोस्त के जाने के बाद जमाल ने शादो के साथ छेड़छाड़ शुरू कर दी. शादो ने उसे रोका तो वह बोला, ‘‘फिल्मों में काम करने के लिए इस तरह की झिझक दूर करना जरूरी है.’’ फिर धीरेधीरे जमाल ने उस की ऐसी शर्म उतारी कि वह अपनी इज्जत खो बैठी. इस तरह एक शरीफ औरत बेगैरत बन गई.

जमाल का मित्र अंधा नहीं था. वह जानबूझ कर अनजान बना हुआ था. वह भी मौके की तलाश में था और लूट के माल में अपना हिस्सा लेना चाहता था. दूसरी ओर शादो जमाल पर शादी के लिए जोर डाल रही थी.

लेकिन उस ने यह कह कर मना कर दिया कि फिल्मों में शादीशुदा औरतों को नहीं लेते. फिर एक दिन जमाल यह कह कर चला गया कि वह अपने एक फिल्मी दोस्त के पास जा रहा है. उस के जाने के बाद उस का वह मित्र आ गया, जिस ने उसे कमरा दिया हुआ था. उस ने शादो के साथ जबरदस्ती शुरू कर दी.

वह कमजोर औरत थी, कुछ नहीं कर सकी. वेश्या का तो कुछ मोल भी होता है, लेकिन वह तो लूट का माल थी. पहले जमाल लूट रहा था और अब एक और लुटेरा आ गया था.

जमाल जब वापस आया तो उस ने उसे यह बात बताई. सुन कर वह गुस्से में आ गया और अपने दोस्त से झगड़ने लगा. उस के दोस्त ने कहा कि ये कौन सी शरीफ है. तुम दोनों का रिश्ता क्या है? अगर यहां रहना है तो मेरी शर्तों पर रहना होगा, नहीं तो पुलिस को बता दूंगा, फिर समझ लेना तुम दोनों का क्या होगा. यह सुन कर वे दोनों चुप हो गए.

मित्र के औफिस जाने के बाद जमाल शादो को एक ऐसे इलाके में ले गया, जहां चारों ओर फिल्मों के बोर्ड लगे थे. वह उसे साथ लिए एक ऐसे औफिस में गया, जहां 3-4 लोग बैठे थे. कमरे में सिगरेट का धुआं भरा हुआ था. शादो के आते ही सब उस के शरीर को ऐसे देखने लगे, जैसे कोई कसाई बकरे को देखता है. शादो घबराई लेकिन जमाल ने कहा, ‘‘घबराओ नहीं, ये लोग फिल्म के प्रोड्यूसर और डायरेक्टर हैं.’’

जमाल ने एक मोटे से आदमी से कहा, ‘‘अच्छी तरह देख लो राठौर साहब, हीरा है हीरा…आप इसे अपनी फिल्म में काम दे कर घाटे में नहीं रहेंगे.’’

राठौर बोला, ‘‘लड़की तो ठीक है, लेकिन खर्च कुछ कम कर दो.’’

जमाल ने कहा, ‘‘खर्च कम नहीं होगा, अगर आप को पसंद नहीं तो मैं दूसरे डायरेक्टर से बात कर लेता हूं. ऐसी हीरोइन के लिए तो मुंहमांगा पैसा मिलेगा.’’

राठौर साहब ने उसे एक लिफाफा देते हुए कहा, ‘‘चलो, ये रखो, हम इसे काम दे देंगे. इस खुशी में मुंह मीठा होना चाहिए.’’

राठौर ने जमाल को सौ रुपए का नोट दे कर कहा कि जा कर मिठाई ले आए. जमाल ने शादो से कहा, ‘‘मैं मिठाई ले कर आता हूं.’’

जब जमाल को गए काफी देर हो गई तो शादो घबरा कर रोने लगी. वे लोग बोले, ‘‘रोओ नहीं, जमाल अभी आ जाएगा.’’

लेकिन वह नहीं मानी और जोरजोर से रोने लगी. इस पर राठौर ने कहा, ‘‘यार, ये लड़की तो हमारे लिए मुसीबत खड़ी कर देगी. इसे सुला दो.’’

एक आदमी ने एक शीशी ले कर रुमाल पर लगाई और शादो का मुंह दबोच लिया. इस से वह बेहोश हो गई. जब उसे होश आया तो वह एक कमरे में बंद थी. इस के बाद उस के साथ वही खेल खेला जाने लगा जो जमाल और उस का मित्र खेल चुके थे.

राठौर से पता लगा कि जमाल उसे बेच कर चला गया है. राठौर ने उसे यह भी बताया कि जब उस से दिल भर जाएगा तो उसे वेश्याओं को बेच देगा. यह सुन कर शादो ने वहां से भागने का इरादा किया.

एक दिन राठौर ने बहुत शराब पी और सो गया. शादो ने उस की जेबों की तलाशी ली तो उसे काफी नोट मिल गए. उस ने जल्दीजल्दी उस की जेब से नोट निकाले और वहां से भाग कर सीधा रिक्शा कर के स्टेशन पहुंची. वह अपने घर वापस जाना नहीं चाहती थी. उस ने आत्महत्या करने के बारे में भी सोचा.

शादो परेशान हाल सी बेंच पर बैठी रो रही थी कि उस पर एक शरीफ से आदमी की नजर पड़ गई. उस व्यक्ति ने उस की परेशानी का कारण पूछने के बाद कहा, ‘‘अगर ऐसे ही रोती रही तो किसी गलत आदमी के हत्थे चढ़ जाओगी.’’

उस ने रोरो कर अपनी विपदा सुनाई. उस आदमी ने उस से कहा कि वह उस की पूरी मदद करेगा और उसे उस के घर छोड़ देगा. शादो ने घर जाने से मना कर दिया तो वह आदमी कहने लगा कि अगर उसे विश्वास हो तो वह उस के साथ चले. उस आदमी की शराफत को देख कर वह उस के साथ चलने को तैयार हो गई.

वह आदमी मसूद अहमद था. मसूद उसे अपने एक मित्र के घर ले गया और वहां उस से शादी का प्रस्ताव रखा. साथ ही उसे यह भी बता दिया कि वह विवाहित है और उस के बच्चे भी हैं. शादो उस से शादी के लिए तैयार हो गई. मसूद ने अपने कुछ दोस्तों को बुलाया और शादो से निकाह कर के उसे एक अलग मकान में रखा.

अपनी इस शादी के बारे में मसूद ने अपने घर वालों को नहीं बताया. शादो मसूद द्वारा दिलाए गए घर में रह कर उस की सेवा करने लगी. उस के साथ जो गलत काम हुआ था, उस की वजह से उस के शरीर में ऐसी खराबी आ गई कि वह मां बनने के लायक नहीं रह गई थी. साल डेढ़ साल ठीक से गुजरा. फिर अचानक मसूद गंभीर रूप से बीमार हो गया. उस ने शादो से कहा कि मेरे मरने के बाद पता नहीं तुम्हारा क्या हो, इसलिए मैं चाहता हूं कि तुम्हें अपनी पत्नी के हवाले कर जाऊं, वह बहुत शरीफ औरत है, तुम्हारा पूरा ध्यान रखेगी.

फिर मसूद अहमद ने अपनी पहली पत्नी सरदारी बेगम को बुला कर पूरी कहानी सुनाई और शादो को उस के हवाले कर दिया. सरदारी बेगम ने पति से वादा किया कि वह उस का पूरा खयाल रखेगी. उस ने शादो का इतना साथ दिया कि वह अपने बच्चों को छोड़ कर शादो के साथ रहने लगी.

शादो के इतने लंबे बयान से मुझे लगा कि शादो जैसी शरीफ औरत सरदारी बेगम को जहर नहीं दे सकती, इसलिए मैं ने उसे घर जाने दिया. मैं सरदारी के हत्यारे के बारे में सोचने लगा. सोचविचार कर मैं ने शरीफ से पूछताछ करने का इरादा किया. एक मुखबिर ने मुझे बताया कि शरीफ शादो के खिलाफ तो था ही, जब उस की मां ने उस की बात नहीं मानी तो वह अपनी मां के भी खिलाफ हो गया था.

वह कहता था कि उस की मां उस की बदनामी करा रही है. लोग उस पर थूथू कर रहे हैं. जवान बेटों के होते हुए वह बच्चों को पढ़ा कर अपना गुजारा कर रही है. शरीफ ने पूरी कोशिश कर के देख ली कि उस की मां शादो को छोड़ दे, लेकिन उस की मां अपने दिवंगत पति से किया हुआ वादा तोड़ना नहीं चाहती थी.

अगले दिन मैं ने अपने एएसआई से शरीफ को उस के औफिस से लाने के लिए कहा. शरीफ एक सरकारी औफिस में स्टेनो था. वह उसे लेने चला गया. तभी 2 औरतें मेरे कमरे में आईं. उन में से एक शादो थी और दूसरी उस के स्कूल की टीचर. दूसरी औरत ने अपने पर्स में से एक पर्चा निकाल कर मुझे दिया. वह पर्चा शादो के नाम था. मैं ने उसे पढ़ा तो मेरी आंखें खुल गईं. मैं सोच भी नहीं सकता था कि मेरी समस्या इतनी जल्दी हल हो जाएगी.

यह पर्चा सरदारी बेगम का शादो के नाम था, जिस में लिखा था, ‘आज शरीफ मेरे पास हलवा ले कर आया और उस ने बहुत कोशिश कर के मुझे हलवा खिलाया. कुछ देर तक वह मेरे पास बैठा और फिर चला गया. उस के जाने के बाद मेरा दिल मिचलाने लगा. मेरी सांस रुकने लगी. मैं समझ गई कि हलवे में वह मुझे जहर दे कर गया है. अब मैं बच नहीं सकूंगी. मैं यह तहरीर लिख कर संदूक में रख रही हूं, जिस से कि किसी निर्दोष को तंग न किया जाए.’ उस पर्चे में सब से नीचे सरदारी बेगम ने अपना नाम भी लिखा था.

मैं ने मिस्ट्रैस से पूछा कि यह पर्चा तुम्हें कहां से मिला. इस का जवाब शादो ने दिया. उस ने बताया कि सरदारी बेगम के पास एक ट्रंक था. उस की चाबी वह अपने सिर के पीछे की ओर बालों के नीचे लटका कर रखती थी. जिस दिन वह मरी तो मैं ने सब से पहले वह चाबी बालों से निकाल कर अपने पास रख ली थी. बाद में मैं उस चाबी के बारे में भूल गई थी.

भूलने का कारण यह था कि वह ट्रंक इतना महत्त्वपूर्ण नहीं था. उस में पैसा या जेवर जैसी कीमती कोई चीज नहीं थी. उस में वह अपने पति के कपड़े रखती थी. शादो उसे याद कर के बहुत रोती थी. यह उस दिन की बात है जब वह थाने आई थी. उस दिन वह रो रही थी तो वही मिस्ट्रैस जो उस के साथ आई थी. उस ने रोने का कारण पूछा तो उस ने कहा, ‘‘सरदारी को मरे काफी दिन हो गए हैं. उसे अपना कुछ सामान उस घर से लाना है, लेकिन वहां जाते डर लगता है.’’

मिस्ट्रैस ने कहा, ‘‘चलो मेरे साथ.’’

वह उस के साथ चली गई और वहां जा कर उस ने अपना सामान इकट्ठा किया. तभी उस की नजर सरदारी के संदूक पर पड़ी तो शादो से चाबी ले कर उसे खोला. कपड़ों के ऊपर यह पर्चा रखा मिला. पर्चा पढ़ते ही टीचर शादो को ले कर सीधी थाने आ गई थी.

पर्चा पढ़ कर मैं ने शादो से पूछा कि क्या सरदारी बेगम की कोई लिखावट मिल सकती है? उस ने बताया कि वह बच्चों को पढ़ाती थी, घर में जरूर उन का लिखा हुआ कुछ न कुछ मिल जाएगा. मैं ने एक कांस्टेबल को शादो के साथ भेज दिया. उस ने घर जा कर सरदारी बेगम की लिखावट ढूंढ कर दे दी.

उन दोनों के जाते ही एएसआई शरीफ को ले कर आ गया. उसे देख कर मुझे गुस्सा आ गया. मैं ने एएसआई को जाने के लिए कहा. उस के जाते ही शरीफ कुरसी पर बैठ गया.

‘‘खड़े हो जाओ,’’ मैं ने छड़ी को जोर से मेज पर मार कर कहा, ‘‘सामने दीवार की ओर मुंह कर के खड़े हो जाओ.’’

उस ने कहा, ‘‘क्या हुआ आगा साहब, मैं ने क्या गलती कर दी?’’

वह मेरे सामने नाटक कर रहा था. उस ने अपनी मां की हत्या की और नाम शादो का लगा दिया. उसे हत्यारिन साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी और मुझे भी झूठ बोल कर गलत रास्ते पर जांच करने पर लगा दिया.

वह कुरसी पर बैठ चुका था और मेज पर हाथ रख लिए. मैं ने जोर से उस के हाथों पर छड़ी मारी, वह अपने हाथों को बगल में दबा कर सी…सी… करने लगा. उस की आंखों में आंसू आ गए.

‘‘अपना इकबाली बयान दो, नहीं तो तुम्हारी चमड़ी उधेड़ कर रख दूंगा.’’ मैं ने गुस्से में कहा.

‘‘कैसा इकबाली बयान आगा साहब?’’ वह ढिठाई से बोला.

मैं उस के पास गया और छड़ी से उस का गला दबा कर कहा, ‘‘बको, जल्दी बको. तुम ने अपनी मां की हत्या की है या नहीं?’’

‘‘आप कैसी बातें कर रहे हैं आगा साहब, मैं अपनी मां की हत्या कैसे कर सकता हूं?’’

मैं ने उस की मां के हाथ का लिखा हुआ पर्चा दिखाते हुए कहा, ‘‘पढ़ो.’’

वह पर्चा लेना चाह रहा था. मैं ने उस का हाथ झटक दिया और कहा, ‘‘दूर से पढ़ो.’’

वह जैसेजैसे पर्चा पढ़ता जा रहा था, वैसेवैसे उस का शरीर ढीला पड़ता जा रहा था. फिर उस ने सिर झुका लिया. मैं ने उसे बताया कि यह पर्चा उस की मां के संदूक से मिला है. वह मेरी ओर आंखें फाड़ कर देखता रहा, बोला कुछ नहीं. मैं ने उसे बयान देने के लिए तैयार कर लिया. उस ने अपने बयान में बताया कि उसे मां के साथ शादो का रहना बिलकुल पसंद नहीं था. उस ने कई बार मां को शादो से अलग रहने के लिए कहा भी था, लेकिन वह तैयार नहीं हुई. उसे उस वक्त जबरदस्त झटका लगा, जब उस के पिता मसूद अहमद के एक मित्र ने उसे बताया कि शादो एक वेश्या है और उस का पिता शादो को लाहौर की हीरामंडी से ले कर आया था. ऐसी बातें सुनसुन कर वह कुढ़ता रहता था. उसे अपनी मां का एक बाजारू औरत के साथ रहना बिलकुल पसंद नहीं था, इसलिए उस ने तय कर लिया कि वह अपनी मां और शादो दोनों को जहर दे कर मार देगा.

उस ने हकीम जुम्मा खां से संखिया लिया और हलवा बना कर उस में मिला दिया और अपनी मां के घर ले गया. लेकिन उस दिन शादो घर में नहीं थी. उस ने मां को जोर दे कर हलवा खिलाया और उस से कहा कि यह हलवा शादो को भी खिलाना.

कुछ ही देर में उस ने देखा, मां की हालत खराब हो रही है, वह सांस खींचखींच कर ले रही थी. वह वहां से भाग आया. बाद में उसे पता चला कि उस की मां मर गई. उस ने अपने बयान में यह भी कहा कि उसे क्या पता था कि उस की मां मरतेमरते उसे फंसा जाएगी. उस ने वहां से भागने में जल्दी की, मरने के बाद आता तो मां को लिखने का मौका ही नहीं मिलता.

बयान लिख कर मैं ने शरीफ के हस्ताक्षर करा लिए और एक कांस्टेबल को हकीम जुम्मा खां को गिरफ्तार करने के लिए भेज दिया. वह भी गिरफ्तार हो कर थाने आ गया. मैं ने उसे अवैध रूप से जहर रखने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया. मैं ने पूरे केस को मेहनत से तैयार किया और अदालत में पेश कर दिया. शरीफ को आजीवन कारावास की सजा मिली और हकीम को 2 साल की. इस तरह एक निकृष्ट बेटा अपने अंत को पहुंचा.

– डीएसपी आगा रियाज अहमद

प्रस्तुति : एस. एम. खान

कांवड़ यात्रा रूट में नेम प्लेट मामले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से मुसलमानों से ज्यादा मोदी को राहत

 

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को पवित्र कहे जाने वाले सावन मास का पहला सोमवार ही नहीं फला कांवड़ यात्रा के दौरान मुसलमानों और दलितों से अपनी दुकानों पर नाम और पहचान की तख्ती लटकवाने की उन की मंशा पूरी हुई और न ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इसी आड़ में तंग करने की खवाहिश पूरी हो पाई. सुप्रीम कोर्ट ने दो टूक कह दिया कि ऐसा नहीं होगा यह गलत है.

यह कुछ न कुछ किया कर पजामा फाड़ कर सिया कर वाली कहावत जैसा फरमान था जिस से योगी ने एक तीर से दो निशाने साधने की कोशिश की थी. पहली जगजाहिर है कि खासतौर से मुसलमान दुकानदारों के लिए परेशानी खड़ी कर बचेखुचे सवर्ण वोटों को खुश करना और दूसरी थी नरेंद्र मोदी के लिए धर्म संकट पैदा करना. 4 दिन पहले ही उस वक्त राजनीति गरमा उठी जब उत्तर प्रदेश सरकार ने यह आदेश जारी किया था कि 270 किलोमीटर लम्बे कांवड़ रूट के सभी दुकानदार अपने नाम और पहचान की तख्तियां लगाएं. इस के पीछे छिपा मैसेज यह था कि जानेअनजाने में कांवड़ये मुसलमानों की दुकानों पर खापी लेते हैं जिस से उन का धर्म भ्रष्ट हो जाता है. यह और बात है कि हिंदू धर्म ग्रंथों में शूद्रों को अछूत बताया गया है और उन से दूर रहने की हिदायत दी गई है.

कैसे योगी आदित्यनाथ नरेन्द्र मोदी को धर्म संकट में डालना चाहते थे और कैसे सब से अदालत से मोदी को राहत मिली इसे कोर्ट रूम में हुई बहस से भी समझा जा सकता है जिस में याचिकाकर्ता के वकील अभिषेक मनु सिंघवी सुप्रीम कोर्ट को इस बात पर सहमत करने में सफल हुए कि दरअसल में मामला शुद्धता की आड़ में मुसलमानों के आर्थिक बहिष्कार का है जिस के लपेटे में दलित भी आ रहे हैं क्योंकि शाकाहारी होटलों में वे भी काम करते हैं . एक और दिलचस्प बात यह भी रही कि सरकार की तरफ से कोई वकील हाजिर ही नहीं हुआ नहीं तो ऐसे मामलों में सोलिस्टर जनरल तुषार मेहता दौड़ते भागते हुए आते हैं और सरकारी पक्ष कोर्ट में पेश करते हुए मामले को ख़ारिज करवाने की बहस करने लगते हैं . यह शायद पहला मामला है जिस में तुषार मेहता या बांसुरी स्वराज कोर्ट में आए ही नही . अब देखना यह भी दिलचस्प होगा कि अगली सुनवाई 26 जुलाई को भी कोई पेश होगा या नहीं .

4 जून के नतीजे देख यह साफ हो गया था कि अब भाजपा अपने हिंदूवादी एजेंडे को आगे नहीं बढ़ा पाएगी क्योंकि सरकार बनाने के लिए उस ने सेक्यूलर दलों का सहयोग लिया है जो किसी भी शर्त या कीमत पर उस की हिंदुत्व की पालकी अपने कंधों पर ढोने तैयार नहीं होंगे. सरकार बनने के बाद यह पहला मौका था जब सहयोगी दलों को यह फैसला लेना था कि वे भाजपा की हिंदूमुसलिम वाली राजनीति से इत्तफाक रखेंगे या नहीं.
लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद से ही सरिता अपनी हर राजनैतिक रिपोर्ट में यह बताती रही है कि सेक्यूलर पार्टियां भाजपा की इस मुहिम का हिस्सा नहीं बनेंगी. क्योंकि वे सिर्फ ऊंची जाति वालों के भरोसे नहीं हैं बल्कि मुसलमान दलित और पिछड़ों सहित आदिवासी भी बड़ी तादाद में उन के साथ हैं और भाजपा से गठबंधन के बाद भी उन्हें वोट अगर देते हैं तो वे यह मान कर चलते हैं या यह अपेक्षा रखते हैं कि उन की पार्टी सेक्यूलर ही रहेगी.
और ऐसा हुआ भी योगी के इस तुगलकी फरमान के बाद जनता दल (यू), आरएलडी और एलजेपी ने बिना कोई परवाह किए इस का विरोध किया. यानी इस मुद्दे पर वे इंडिया गठबंधन के साथ खड़े नजर आए. सब से कड़ी और दिलचस्प बात आरएलडी के मुखिया और केन्द्रीय मंत्री जयंत चौधरी ने कही कि ‘क्या अब कुर्ते पर अपना नाम लिखना शुरू कर दें. जिस से कि लोग नाम देख कर हाथ मिलाएं और गले लगें. यह कोई सोचसमझ कर लिया गया तर्क संगत फैसला नहीं है सरकार को इसे वापस लेना चाहिए.’
दूसरे सहयोगी दलों की तरह जयंत चौधरी भी नहीं चाहते कि आरएलडी पर भी हिंदूवादी होने और भाजपा का पिछलग्गू होने का ठप्पा लगे. इस से उन का मुसलिम वोट बैंक प्रभावित होता और दलित पिछड़े भी बिदकते. आरएलडी ने लोकसभा में 2 सीटें जीतीं थीं और उसे दलित मुसलिम पिछड़ों का भी वोट मिला था.
एक और बड़े सहयोगी दल जेडीयू ने भी इस फरमान का विरोध किया था. पार्टी के महासचिव केसी त्यागी ने इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सोच के विपरीत जताते यह संकेत भी दे दिया था कि यह दरअसल में योगी की एक राजनैतिक चाल है जिस के पचड़े में उन की पार्टी नहीं पड़ेगी. त्यागी ने मोदी के सबका साथ सबका विकास स्लोगन का हवाला देते हुए कहा था कि इस से सांप्रदायिक विभाजन होता है. जनता दल यू का रुख साफ़ करते हुए उन्होंने यह भी अपने बयान में जोड़ा था कि कांवड़ यात्रा बिहार से भी गुजरेगी लेकिन वहां यह नियम नहीं है.

अब भला एलजेपी के चिराग पासवान क्यों चूकते. उन्हें भी दलित मुसलमान पिछड़ों से एनओसी चाहिए थी इसलिए उन्होंने कहा जातिवाद और साम्प्रदायिकता ने देश को अन्य किसी चीज से ज्यादा नुकसान पहुंचाया है. जब भी जाति या धर्म के नाम पर कोई विभाजन होता है तो मैं इस का बिलकुल भी समर्थन नहीं करता.
हर किसी की तरह इस तरह की प्रतिक्रियाओं की उम्मीद योगी आदित्यनाथ को भी थी और उन का मकसद भी यही था कि जैसे भी हो दिल्ली में नरेंद्र मोदी के लिए सरदर्दी खड़ी हो. इसी वक्त में उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य उन के खिलाफ दिल्ली में फील्डिंग जमा रहे थे और माहौल भी कुछ ऐसा बनने लगा था कि योगीजी अब गए कि तब गए. योगी की दिक्कत यह थी कि उन्हें मोदी शाह की तरफ से अपने सीएम बने रहने का कोई इशारा नहीं मिल रहा था लिहाजा उन्होंने महज ध्यान बंटाने की गरज से यह फरमान जारी कर दिया.
दुकानों पर नाम और पहचान लिखे जाने पर सुप्रीम कोर्ट के आए फैसले के कुछ देर पहले ही सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने तो लोकसभा में योगी पर तंज कसते यह तक कह दिया था कि दिया बुझने के पहले फड़फड़ा रहा है. कांग्रेस का यह तंज भी काफी अहम है कि यह फैसला भाजपा के गाल पर तमाचा है.

इधर नई दिक्कत मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तराखंड से होने लगी थी. इन प्रदेशों से भी मांग उठने लगी थी कि उत्तर प्रदेश की तर्ज पर हमारे यहां भी नेम प्लेट की व्यवस्था शुरू हो. इन तीनों राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं इसलिए भी मोदी जी घबरा गए थे कि अगर बवाल ज्यादा मचा तो सहयोगी दल समर्थन वापस भी ले सकते हैं और अगर ऐसा हुआ तो रही सही साख भी राख में मिल जाएगी जिस से योगी आदित्यनाथ का कुछ नहीं बिगड़ना जो भी बिगड़ेगा उन का बिगड़ेगा.

ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का फैसला उन के लिए वरदान बन कर आया है क्योंकि वे इस फैसले का न तो समर्थन कर सकते थे और न ही विरोध कर सकते थे. समर्थन करते तो सरकार टूटने का अंदेशा था और विरोध करते तो कहा जाता कि वे अब पार्टी की नीतियोंरीतियों का ही विरोध प्रधानमंत्री बने रहने के लिए कर रहे हैं. यानी उन के तरफ कुआं था तो दूसरी तरफ खाई थी जिस से हालफिलहाल तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने बचा लिया है लेकिन हर बार ऐसा नहीं होगा क्योंकि जरूरी नहीं कि हर मामला ऐसा ही हो कि कोई एनजीओ कोर्ट का दरवाजा खटखटाए. रही बात योगी की तो अब वे और घिर गए हैं देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा उन का क्या करती है वजह साफ है कि योगी आदित्यनाथ अब सहजता से सरकार नहीं चला पा रहे हैं.

आईएएस पूजा खेड़कर मामला : क्या दक्षिणपंथी अधिकारियों की हताशा का इशारा है मनोज सोनी का इस्तीफा

शायद ही कभी किसी ने उन्हें माथे पर बिना तिलक के देखा हो. कभीकभी तो यह टीका अंग्रेजी के यू अक्षर के आकार का हो जाता था जो आमतौर पर वैष्णव संप्रदाय के अनुयायी लगाते हैं. यूपीएससी के तिलकधारी चेयरमेन मनोज सोनी ने व्यक्तिगत कारणों का हवाला देते अचानक अपने पद से इस्तीफा दे दिया है जबकि उन का कार्यकाल अभी 5 साल और बचा था.

अब मनोज पूरे वक्त समाज और धार्मिक कार्य करेंगे. यह इस्तीफा ऐसे वक्त में दिया गया है जब एक आईएएस अधिकारी पूजा खेड़कर का विकलांगता और जाति प्रमाणपत्र शक और जांच के दायरे में है. जिस से कई सवाल और अंगुलियां स्वभाविकतौर पर मनोज सोनी पर भी उठ रहे हैं. हालांकि वे अपने फैसले का इस गंभीर प्रकरण से कोई वास्ता न होना बता रहे हैं लेकिन मात्र कह देने भर से कोई उन का भरोसा नहीं कर रहा है. राहुल गांधी प्रियंका गांधी, सहित कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे इस मुद्दे पर सरकार को घेरे हुए हैं यानी दाल पूरी काली न सही पर उस में कुछ तो काला है. गौरतलब है कि पूजा का इंटरव्यू मनोज ने ही लिया था और उसे 275 में से 184 मार्क्स दिए थे.

मनोज सोनी की गिनती उन आईएएस अधिकारियों में शुमार होती है जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कृपापात्र हैं. इन का काम महत्वपूर्ण प्राशासनिक पद पर रहते सरकार के राष्ट्रवादी एजेंडे को बढ़ावा देना होता है. इस के लिए जरुरी है कि अधिकारी पूजापाठी व कट्टर हिंदूवादी विचारधारा और मानसिकता का हो और उस की निष्ठां संविधान में कम मनु स्मृति में ज्यादा हो. इस पैमाने और शर्तों पर मनोज सोनी भी 100 फीसदी से ज्यादा फिट बैठ रहे थे इसलिए पिछले साल ही मई में यूपीएससी जैसी अहम एजेंसी का मुखिया बना दिया गया था. इस के पहले वे इस के यानी संघ लोक सेवा के सदस्य बनाए गए थे.

मनोज सोनी पर नरेंद्र मोदी की मेहरबानियों का सिलसिला अब से कोई 20 साल पहले ही शुरू हो गया था जब साल 2005 में उन्हें बड़ोदा के एसएसयू यानी महाराजा सायाजीराव विश्वविध्यालय का कुलपति बनाया गया था. तब इस बात की खूब चर्चा हुई थी कि शिक्षाविद डाक्टर मनोज सोनी देश के सब से कम उम्र के वाइस चांसलर बने. तभी उन की अभाव और संघर्ष भरे जीवन की भी चर्चा जम कर हुई थी.

इस चर्चा से लोग खासतौर से युवा काफी इंस्पायर हुए थे कि मनोज सोनी कभी अगरबत्तियां बेचा करते थे वगैरहवगैरह. लेकिन बड़ी दिलचस्प बात यह है कि उन के भगवा प्रेम के चलते एसएसयू में कई लोग उन्हें छोटा मोदी के संबोधन से भी नवाजते थे. बचपन से ही मनोज सोनी देश की सब से बड़ी धार्मिक संस्था स्वामीनारायण संप्रदाय और उस के अक्षरधाम मंदिरों से गहरे तक जुड़ गए थे. इस संप्रदाय से नरेंद्र मोदी के भी बेहद घनिष्ठ संबंध रहे हैं इस नाते ये दोनों गुरुभाई होते हैं.

मनोज सोनी इसी संस्था की ब्रह्म निर्झर मैगजीन का भी संपादन करते थे और स्वामीनारायण संप्रदाय की ही शाखा अनुपम मिशन से जुड़े थे. इस मिशन का मकसद भी दूसरे दुकानदारों की तरह साधक को जन्म मृत्यु के चक्र से मुक्ति दिलाना यानी मोक्ष का कारोबार करना है. साल 2020 में उन्होंने निष्काम कर्म योग की भी दीक्षा ले ली थी यानी घोषित तौर पर साधु हो गए थे. अगर सच में ही हो गए थे तो क्यों अब तक यूपीएससी का अध्यक्ष पद संभाले रहे यह समझ से परे बात है.

जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो दिल्ली में उन्हें अपने भरोसेमंद आईएएस अफसरों की जरूरत पड़ी. लिहाजा उन्होंने मनोज सोनी को भी दिल्ली बुला लिया और यूपीएससी में फिट कर दिया. गुजरात में रहते मनोज ने कई बार मोदी भक्ति दिखाई थी. यहां तक कि कुख्यात गोधरा कांड पर एक किताब इन सर्च औफ ए थर्ड स्पेस भी लिख दी थी. जाहिर है इस में नरेंद्र मोदी के बचाव की ही बातें काल्पनिक तथ्यों के रूप में पेश की गईं थीं.

अब उन के इस्तीफे के बाद और नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री रहते यूपीएससी में कितने घपले घोटाले हुए. इस की सुगबुगाहट से ज्यादा चर्चा इस बात की हो रही है कि आखिर मनोज सोनी जैसे कट्टर हिंदूवादियों को ऊंचे और अहम पदों पर बैठाने के पीछे सरकार की मंशा क्या थी? दरअसल में हिंदुत्व का एजेंडा थोपना जरुरी था कि पूरी मशीनरी इस मुहिम में जुट जाए. ऐसा हुआ भी और सरेआम हिंदूवादी अधिकारियों को इनामों से नवाजा गया.

इस खेल में ज्युडीशियरी को भी शामिल कर लिया गया. सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस रंजन गोगोई इस की बेहतर मिसाल हैं. यह मामला बेहद दिलचस्प और चिंतनीय भी है. 14 दिसम्बर 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक अहम फैसले में राफेल सौदे की जांच की मांग करने वाली याचिकाओं को ख़ारिज कर दिया था जिसे मोदी सरकार को क्लीन चिट देने के तौर पर देखा गया था. गौरतलब है कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी सार्वजनिक तौर पर फ्रांस के साथ हुए रक्षा सौदों में गड़बड़ी का आरोप लगाते रहे थे.

इस से पहले सुप्रीम कोर्ट परिसर में नरेंद्र मोदी और जस्टिस रंजन गोगोई की मुलाकात की तस्वीरें सामने आई थीं. इस से भी पहले 26 नवम्बर 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने BIMSTEC देशों के जजों के लिए डिनर का आयोजन किया था. इस में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खासतौर से मौजूद थे. ( BIMSTEC का मतलब बांग्लादेश, भारत, म्यांमार, श्रीलंका, थाईलैंड आर्थिक सहयोग हैं).

इस दिन भारत में संविधान दिवस और राष्ट्रीय कानून दिवस मनाया जाता है. ऐसा पहली बार हुआ था कि किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने सुप्रीम कोर्ट की इस तरह की किसी बैठक में शिरकत की थी. विपक्ष खासतौर से कांग्रेस ने इस मेलमिलाप पर स्वभाविक एतराज जताते सुप्रीम कोर्ट के निष्पक्ष रह जाने पर भी शंका और चिंता व्यक्त की थी.

लेकिन तब कांग्रेस आज जितनी मजबूत और भाजपा भी आज जितनी कमजोर नहीं थी. लिहाजा मोदी की मनमानी पर कोई असर नही पड़ा. जस्टिस रंजन गोगोई और नरेंद्र मोदी की बढ़ती अंतरंगता और मित्रता का असर राम मंदिर के मुकदमे पर भी पड़ा. 9 नवम्बर 2019 को जब इस चर्चित और विवादित मुकदमे का फैसला उम्मीद के मुताबिक हिंदुओं के पक्ष में आया तब रंजन गोगोई चीफ जस्टिस थे.

लेकिन इस फैसले के अगले ही सप्ताह रिटायर हुए जस्टिस रंजन गोगोई को महज 4 महीने बाद ही 16 मार्च 2020 को तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने राज्यसभा के लिए नामित कर दिया. क्या यह एक सामान्य सी बात थी. इस सवाल का बेहद पारदर्शी जबाब यह है कि यह एक तरह की सरकारी घूस थी. अंगरेजी का गिव एंड टेक शब्द ऐसे मौकों पे एकदम सटीक और फिट बैठता है.

अकेले रंजन गोगोई ही नहीं बल्कि यह एतिहासिक फैसला सुनाने वाले लगभग सभी जजों को बख्शीश दी गई. इस पैनल में शामिल जस्टिस अशोक भूषण को रिटायरमैंट के बाद सरकार ने NCLAT यानी राष्ट्रीय कम्पनी कानून अपीलीय न्यायाधिकरण का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया. उन से बड़ा इनाम जस्टिस एस अब्दुल नजीर को रिटायरमैंट के 2 महीने बाद ही आंध्र प्रदेश का राज्यपाल बनाते दिया गया.

इन दोनों जस्टिसों और मनोज सोनी के अलावा कट्टर हिंदुवादियों की लिस्ट बहुत लम्बी है. 2014 के बाद से ही बड़ी तादाद में प्रशासनिक अधिकारी भाजपा में गए हैं. कुछ ने चुनाव लड़ा भी है. राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव के वक्त यह अफरातफरी ज्यादा मची थी लेकिन बात आज की नहीं है बल्कि आजादी के पहले और बाद में भी दक्षिणपंथी अधिकारी हिंदुत्व के एजेंडे को सुलगाए रखने में पीछे नही रहे थे. यह और बात है कि कांग्रेस के सत्ता में रहते उन के कुछ भी करने की सीमाएं थीं. इसलिए देश में कमोबेश शांति रही.

राम मंदिर विवाद को केवल आरएसएस या हिंदू महासभा ने ही हवा नहीं दी थी कि बल्कि 1949 में कई सरकारी अधिकारी भी अपने स्तर पर सक्रिय थे कि जैसे भी हो विवादित जमीन हिंदुओं को ही मिलना चाहिए. 1947 में फैजाबाद के डीएम केके नायर थे. वे भी मनोज सोनी की तरह कट्टरवादी हिंदू थे. जब 22 दिसम्बर 1949 की देर रात अयोध्या में रामलला की मूर्तियां कथित चमत्कारी ढंग से प्रगट हुईं थीं या की गई थीं तब खूब हल्ला मचा था और बड़ी तादाद में हिंदू वहां जा कर पूजापाठ भजनकीर्तन करने लगे थे. जिस से तनाव के बाद दंगे तक के हालत पैदा हो गए थे.

बात दिल्ली तक पहुंची तो प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत को ये मूर्तियां हटाने के आदेश दिया. पंत ने तब के मुख्य सचिव भगवान सहाय को यह आदेश फौरवर्ड कर दिया उन्होंने भी इसे आगे बढ़ाते डीएम केके नायर से आदेश का पालन करने को कहा लेकिन हिंदूवादी नायर ने यह आदेश यह दलील देते नहीं माना कि इस से शांति और कानून व्यवस्था की स्थिति बिगड़ जाएगी.

इस के बाद जो हुआ वह सब ने देखा कि कैसे हजारों लोगों की मौतों और दंगे फसादों के बाद सुप्रीम कोर्ट का फैसला हिंदुओं के हक में आया. लेकिन 4 जून के नतीजों में भाजपा अयोध्या वाली लोकसभा सीट फैजाबाद एक दलित सपा उम्मीदवार अवधेश पासी के हाथों हार गई तो हिंदूवादियों के कसबल ढीले हो गए.

मनोज सोनी का इस्तीफा इसी हताशा की कड़ी है जो अब स्वामीनारायण सम्प्रदाय में सक्रिय रह कर फिर हिंदुत्व को मजबूत करेंगे लेकिन अपना कार्यकाल में हिंदुत्व को जो रायता वे लुढ़का गए हैं उसे समेटने और साफ करने में सालों लग जाना तय है.

भले घर की बहू-बेटियां ऐसा नहीं करतीं

एक तरफ हम डिजिटल इंडिया के साथ मंगल और चांद पर जाने की बात करते हैं लेकिन वहीं हमारे समाज ने आज भी महिलाओं को अंधविश्वासों, दकियानूसी रीतिरिवाजों, रूढि़वादी परंपराओं में कैद किया हुआ है. ‘भले घर की बहू बेटियां ऐसा नहीं करतीं’ के नाम पर ऐसे कई रिवाज हैं जिन्हें महिलाओं को सदियों से निभाने पर मजबूर किया जाता रहा है.

गैरजिम्मेदार ठहरा कर व्यर्थ की बंदिशों में बांधने की कोशिश

हमारे समाज में अगर कोई महिला अपने छोटे बच्चे को छोड़ कर नौकरी जौइन कर ले तो उसे गैरजिम्मेदार होने का ताना दे कर व्यर्थ के रीतिरिवाजों में बांधने की कोशिश की जाती है. अगर वास्तव में देखा जाए तो किसी भी बच्चे को 5 साल तक ही मां की जरूरत होती है या कहें तो बच्चे केवल 5 साल तक ही तंग करते हैं, उस के बाद बच्चे अपनेआप संभल सकते हैं. वैसे भी, आजकल 5 साल का बच्चा स्कूल जाने लगता है तो कोई मां आराम से नौकरी या अपना कोई काम कर सकती है, इसलिए उस को गैरजिम्मेदार ठहरा कर व्यर्थ की बंदिशों में बांधने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए.

अगर देखा जाए तो कोई भी महिला 25 से 70 साल तक अपनी काबिलीयत के अनुसार कोई भी काम कर सकती है और घरपरिवार में अपना योगदान दे सकती है. इसलिए उसे जिम्मेदारी के नाम पर बच्चों के ऊपर अपना समय और अपना कैरियर बरबाद नहीं करना चाहिए.

पूजापाठ, व्रत का जाल

धर्म का उद्देश्य स्त्रियों को नकारा बनाना, अपनी सोचने समझने की शक्ति का प्रयोग न करने देना है. महिलाएं व्यर्थ के व्रतत्योहारों में उलझी रहें, इसीलिए हर पर्व को मनाने के लिए उस की पूरी तैयारी की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ महिलाओं के कंधों पर होती है.

त्योहारों में पूजा, व्रत, त्योहार की तैयारी और पकवान बनाने की पूरी ज़िम्मेदारी सिर्फ़ महिलाओं के हिस्से आती है चाहे होली की गुझिया हो या दीवाली की पूजा. ऐसे में रोजमर्रा के काम के अलावा त्योहारों का दोहरे कामों का भार उन्हें औरों की तरह सुकून व आराम देने के बजाय थका देता है. आखिर क्यों औरतें पूजा, व्रत, त्योहार रीतिरिवाजों के नाम पर पूरे घर की जिम्मेदारी अपने सिर पर लेती हैं और अपने तन व मन के साथ खिलवाड़ करती हैं.

धर्म में केवल महिलाओं को ही पति, पुत्र और पूरे परिवार की सलामती के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाता है और उन्हें व्यर्थ के पूजापाठ, व्रत के जाल में फंसाया जाता है और धर्म का डर दिखाया जाता है. कई बार पढ़ीलिखी सशक्त महिलाएं भी धर्म के डर के आगे घुटने टेकने को मजबूर होती हैं. कई बार किसी व्रतपूजन में हुई चूक के बाद अगर घर में कोई छोटीबड़ी घटना होती है तो इस के लिए सीधे महिलाओं को ज़िम्मेदार भी बताया जाता है, जो महिलाओं में धर्म के डर को मज़बूत करने का काम करता है.

‘भले घर की बहूबेटियां ऐसा नहीं करतीं’

कहीं न कहीं महिलाओं की उड़ान को रोकने के लिए यह एक ऐसी टैगलाइन है जिस को सुन कर महिलाएं खुद ही गिल्ट में आ जाती है. यह महिलाओं को इमोशनली ब्लैकमेल करने का उन्हें दकियानूसी बंधन में बांधने और उन की ख़्वाहिशों को दबाने की एक साजिश है.
अगर भले घर की कोई बहू या बेटी रात 10 बजे के बाद घर आती है तो समाज द्वारा यह दुहाई दी जाती है कि ये हमारे संस्कार नहीं हैं. घर की बहुओं, ख़ासकर गांवों में रहने वाली बहुओं, का घूंघट थोड़ा सा चेहरे से हट जाए तो उन्हें चरित्रहीन और संस्कारविहीन ठहरा दिया जाता है. व्यर्थ के ये दकियानूसी रीतिरिवाज स्त्रियों को मानसिक, आर्थिक व सामाजिक रूप से बंधन में बांधने की साजिश लगते हैं.

अपने नए रीतिरिवाज बनाएं

बदलते समय के साथ उन रीतिरिवाजों, जो महिलाओं के लिए सही नहीं हैं, को त्याग कर देना चाहिए और नए रीतिरिवाज जो उन के खुद के लिए सुविधजनक, तार्किक और प्रैक्टिकल हों, बनाए जाने चाहिए, जो उन्हें खुशी दें, कुढ़कुढ़ कर जीने को मजबूर न करें. अगर पत्नी वर्किंग है और उसे अपने कलीग्स के साथ कंपनी के काम से ट्रैवलिंग पर जाना पड़े तो बेकार के दकियानूसी रीतिरिवाजों, जो उसे ऐसा करने से, आगे बढ़ने से रोकें, को त्याग कर नए रीतिरिवाज बनाने चाहिए.

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