Download App

मुझे समझ नहीं आ रहा कि मैं अपनी युवा बेटी को पीरियड्स के बारे में कैसे बताऊं

अगर आप भी अपनी समस्या भेजना चाहते हैं, तो इस लेख को अंत तक जरूर पढ़ें..

सवाल –

मेरी शादी को कुछ ही साल हुए थे जब मेरी पत्नी अचानक चल बसी. मेरी एक बेटी है जिसे मैं ने अपनी पत्नी के जाने के बाद बहुत प्यार से पाला है. मैं ने उस की हर फरमाइश पूरी करने की कोशिश की है और उसे अपनी मां की कमी कभी महसूस नहीं होने दी. जैसेजैसे मेरी बेटी की उम्र बढ़ रही है, वैसेवैसे मेरी चिंता भी बढ़ती जा रही है. कभीकभी तो मैं पूरी रात बस यही सोचता रहता हूं कि मैं अपनी बेटी का अकेले कैसे खयाल रखूंगा क्योंकि मां अपनी बेटियों के साथ फ्रैंक होती हैं और बेटियां भी अपनी मां से हर तरह की बातें कर लेती हैं. तो ऐसे में मेरी बेटी मुझ से अपनी परेशानियों के बारे में कैसे बात कर पाएगी जोकि अब बङी हो चुकी है? मैं उसे पीरियड्स के बारे में भी कैसे बताऊं? आप ही कुछ सलाह दीजिए?

जवाब –

एक पिता अपनी बेटी से हर वह बात नहीं कर सकता जो उस की मां कर सकती है और बेटियां भी अपने पिता से ऐसी बातें करने में शरमाती हैं जो कि बिलकुल गलत नहीं है. हमारे देश में बेटियां बाप की इज्जत करना अच्छी तरह जानती हैं और शुरुआत से ही बेटियों के मन में पिता के लिए एक डर और शर्म होती है। उन्हें अपनी मां से बात करना ज्यादा पसंद होता है.

जैसाकि आप ने बताया कि आप की पत्नी का देहांत हो चुका है और काफी समय से आपने ही अपनी बेटी को मांबाप दोनों का प्यार दिया है तो ऐसे में यह जिम्मेदारी भी आप की ही बनती है कि आप अपनी बेटी को हर तरह की जानकारी दें जोकि उस के लिए जरूरी है. आप अपनी बेटी के पिता के साथसाथ एक अच्छे दोस्त बन कर रहें.

अपनी बेटी के मन से अपने लिए डर या संकोच बिलकुल खत्म कर दें और अपनी बेटी को इस बात का विश्वास दिलाएं कि वे आप से हर तरह की बात कर सकती है और अपनी हर परेशानी आप के साथ शेयर कर सकती है.

आप उस की परेशानियों को हमेशा समझें और उस के साथ कदम से कदम मिला कर चलें. अपनी बेटी को समझाएं कि आप के होते उस को किसी बात की परेशानी नहीं होगी.

रही पीरियड्स की बात, तो पीरियड्स के बारे में बात करना कोई गलत बात नहीं है. पहले के जमाने में लोग पीरियड्स के बारे में बात करने से शरमाते थे पर इस आधुनिक जमाने में लोग पीरियड्स के बारे में खुल कर बात करते हैं और अपने बच्चों को इस की जानकारी भी देते हैं.

आप भी अपनी बेटी से बिना हिचक पीरियड्स के बारे में बताएं और पीरियड्स की जानकारी देने वाली वीडियोज भी दिखाएं. अपनी बेटी को बताएं कि पीरियड्स प्राकृतिक है, इस से घबराएं नहीं.

हां, आप चाहें तो इस के लिए अपनी बहन, मौसी, ताई या फिर घर की बुजुर्ग औरतों से भी मदद ले सकते हैं. वे आप की बेटी को समयसमय पर समझाती रहेंगी.

कुछ समय बाद बेटी खुद समझदार हो जाएगी और महिला संबंधी इन परेशानियों से खुद ही अपनी दोस्तों, परिजनों से पूछ कर समाधान कर लेगी.

व्हाट्सऐप मैसेज या व्हाट्सऐप औडियो से अपनी समस्या इस नम्बर पर 8588843415 भेजें.

मैं सत्यवती नहीं बनूंगी

पुराने समय से लोग कुंडली ही मिलाते आए हैं शादी के लिए. लेकिन कुंडली से ज्यादा जरूरी है विचार मिलना और वैचारिक स्तर पर दोनों (लड़का लड़की) में ट्‌यू‌निंग होना, तभी शादियां सफल हो सकती हैं. रही बात रुपएपैसे की, आर्थिक संपन्नता की, तो मेरा विचार है, पैसा सबकुछ नहीं होता है, बहुतकुछ हो सकता है लेकिन सबकुछ नहीं. रुपयों का पहाड़ हो घर में और रिश्तों में धोखा हो, मनमरजी हो, कपट हो तो ऐसे रिश्ते सिर्फ ढोए जा सकते हैं, निभाए नहीं. हमारे देश की कानून व्यवस्था लचर है, तलाक लेना भी चाहें तो बरसोंबरस लग जाते हैं.

आसानी से तलाक नहीं मिलता. जरूरत है कानून व्यवस्था भी सुधारी जाए. जहां रिश्ते बोझ बनने लगे वहां तलाक आसानी से मिले.

साथियो, कोई पति, पत्नी नहीं चाहते रिश्तों को खत्म करना लेकिन जब रिश्तों में दम घुटने लगे, व्यक्ति सांस भी न ले पाए तो तलाक बेहतर होगा.

चूंकि तलाक की प्रक्रिया बहुत ही जटिल और लंबी होती है, इसलिए वर्तमान पीढ़ी ने ‘लिवइन’ का जो रास्ता चुना है उस का मैं समर्थन करती हूं. लेकिन सोचसमझकर इस रिश्ते को चुनें, जिस से कि आप सुरक्षित रह सकें और जीवन अच्छे से बिता सकें. धन्यवाद. और मंजरी मंच से नीचे उतर गई.

तालियों का शोर, वाओ.

डिबेट कंपीटिशन में मंजरी विजेता घोषित कर दी गई. कालेज के डिबेट कंपीटिशन का विषय था, ‘लिवइन रिलेशनशिप समाज व संस्कृति के लिए घातक है.’ इस के पक्ष में मंजरी का भाषण था.

विपक्ष में जिसे विजेता घोषित किया गया था वह था मानस, जिस ने संस्कृति और समाज पर लिवइन के नुकसान बताए थे. इस से हमारे समाज पर बुरा प्रभाव पड़ेगा. समाज में स्वच्छंदता का वातावरण होगा, बच्चे अपनी संस्कृति को भूलेंगे, समाज का पतन होगा.

मंजरी के लिए प्रथम आना बड़ी बात नहीं थी. उस की स्पीच, तर्क, बोलने का ढंग इतना शानदार होता था कि कालेज के स्टूडैंट मंत्रमुग्ध हो कर सुनते थे. यों कहें तो वह कालेज की हीरोइन थी. मंजरी बीए औनर्स की सैकंड ईयर की स्टूडैंट थी. मानस सांइस का स्टूडैंट था. मानस और मंजरी का कोई तालमेल नहीं था. दोनों के विचार विपरीत थे.

मंजरी को बधाई देने वालों की भीड़ सी लग गई थी. शायद इसी बहाने से मंजरी से फ्रैंडशिप हो जाए. बधाई देने वालों की भीड़ जब छंटी तो मानस सामने था. उस ने भी हाथ बढ़ाया.

“थैंक्यू मानस,” कहती हुई मंजरी आगे निकलने लगी.

“मंजरी, क्या हम कौफी पी सकते हैं कालेज की कैंटीन में?” मानस ने पूछा.

“क्यो नहीं, श्योर,” मंजरी बोली. उस ने सोचा पहली बार मानस ने कहा है. कालेज आतेजाते, कालेज के गार्डन मे अनेक बार टकराए हैं लेकिन हैलोहाय से ज्यादा कभी बात नहीं की.

मंजरी अपनी फ्रैंड्स के साथ रहती थी. मानस भी अपने फ्रैंड्स के साथ.

डिबेट कंपीटिशन संडे को रखा गया था लेकिन कैंटीन खुली थी. पूरा कालेज रेशमी एहसास से भरा था. हंसतीखिलखिलाती लड़कियांलड़के, दूसरे कालेजों के स्टूडेंट भी थे जो डिबेट कंपीटिशन को सुनने आए थे.

सब्जैक्ट ने सब को अपनी ओर खींचा था- ‘लिवइन…’ ने. कैंटीन में खासी भीड़ थी.

सभी लिवइन पर ही चर्चा कर रहे थे. मंजरी को जैसे ही देखा, कुछ स्टूडैंट मंजरी को घेर कर खड़े हो गए.

“क्यों मंजरी, तुम लिवइन के फेवर में हो तो शादी करोगी या फिर किसी के साथ लिवइन में रहने का मूड बना रखा है?” और जोरदार ठहाकाहंसी की आवाजें.

“वैसे, मंजरी बहुत सुंदर बोलती हो,” एक स्टूडैंट बोली.

“अब कौफी पी लें, इस टौपिक पर फिर कभी बात कर लेंगे,” मंजरी बोली और मानस के साथ कूपन काउंटर की ओर बढ़ गई.

मानस कौफी के साथ सैंडविच भी लाया था. कौफी की भाप दोनों के बीच चिलमन का काम कर रही थी. दोनों आज पहली बार इतनी करीब से एकदूसरे को देख रहे थे.

उन्नीस वर्षीय मंजरी को गोरा नहीं कहा जा सकता था, उसे बादामी रंगत वाला कह सकते हैं. ऊंचा कद, बादामी रंगत, खुले बाल, जींस पर कमर तक टौप और हंसते समय दोनों गालों पर पड़ने वाले डिम्पल उस की सुंदरता में जादू जगाते थे. बस, उस दिन से मानस गालों के इन डिंपलों में उलझने लगा था. उस को दिल पहली बार धड़कता हुआ महसूस होने लगा था. लड़‌कियों के बीच मानस असहज नहीं होता था पर आज उस को कंफर्टेबल फील नहीं कर पा रहा था-

मंजरी की हंसी, बालों का रेश्मीपन, दांए हाथ में पहना गोल्ड ब्रेसलेट जिसे मंजरी रहरह कर छू रही थी.

मानस को कोई टौपिक नहीं सूझ रहा था, मंजरी से क्या बात करे. तभी उसे ब्रेसलेट दिख गया. उस ने पूछा, “मंजरी, ब्रेसलेट बहुत प्यारा है, कहां से खरीदा है? देख सकता हूं?”

“क्यों नहीं. देखो,” कहते हुए मंजरी ने ब्रेसलेट हाथ से उतार कर मानस के हाथ में दे दिया.

मानस बड़ी देर तक उस की डिजायन, खूबसूरती को देखता रहा. फिर जैसे ही ब्रेसलेट देने के लिए उस ने हाथ आगे बढ़ाया, मंजरी ने हाथ आगे कर दिया.

मानस ने मंजरी की कलाई में ब्रेसलेट पहना दिया. उस की उंगलियां मंजरी की कलई को स्पर्श कर गईं. एक रेशमी छुअन का एहसास.

कौफी खत्म हो रही थी.

“मानस चलें, लेट हो रहा है,” कहती हुई मंजरी उठ खड़ी हुई.

“चलो पार्किंग तक साथ चलते हैं,” मानस बोला.

“चलो,” मंजरी बोली.

कैंटीन से पार्किंग तक का रास्ता खामोशी से निकला. मंजरी ने अपनी एक्टिवा निकाली. मानस ने अपनी कार.

कार स्टार्ट करतेकरते मानसम बोला, “बाय मंजरी, कल मिलते हैं.”

“बाय मानस,” कहते हुए मंजरी ने एक्टिवा स्टार्ट कर दी थी.

मंजरी का घर जौनपुर की एक पौश कालोनी में था. मंजरी एक उच्चमध्यवर्गीय परिवार की लड़की थी. पिता डाक्टर थे. मां एक सच्ची, सफल गृहिणी थी. परिवार में मंजरी के अलावा 2 भाई थे- एक की शादी हो चुकी थी, वह दुबई में रहता था. एक भाई 12वीं में था. मंजरी का परिवार खुले माहौल का पक्षधर था.

डा. विश्वास खुल कर बात करने में विश्वास रखते थे. परिवार किसी भी प्रकार के अंधविश्वास और रूढ़ियों से दूर रहता था. मंजरी को भी यह सजगता, साहस अपने परिवार से मिला था.

जब मंजरी अपनी ट्रौफी, मैडल लिए घर पहुंची तो भाई अतुल इंतजार कर रहा था.

“अरे वाह, मंजरी, आज तो पार्टी पक्की रही,” अतुल ने जल्दी से ट्रौफी-मैडल हाथ में लिया और उस के साथ सैल्फी लेने लगा.

मंजरी हंसती हुई अपने रूम में गई. कपड़े चेंज कर के आ गई. मां ने नाश्ता तैयार कर लिया था.

“मम्मी, नाश्ता नहीं करूंगी, मानस के साथ कैंटीन में कौफी और सैंडविंच खा लिया था.”

“मानस तेरी क्लास में है?” मां ने सवाल किया.

“नहीं, मम्मी, वो बधाई देने वालों में था. मानस साइंस का स्टूडैंट है.”

“मंजर, आज तुम कंपीटिशन में जीती हो, आज तो डिनर बाहर बनता है,” अतुल बोला,

“हां, क्यों नहीं, पहले पापा को आने दे फिर,” कह कर मंजरी आज वाले पिक्स सोशल मीडिया पर पोस्ट करने लगी. देखतेदेखते लाइक्स, कमैंटस आने चालू हो गए.

डा. विश्वास किसी पेशेंट को देखने गए थे, इसलिए उन को फोन करना भी उचित नहीं था. लगभग घंटेभर बाद डा. विश्वास आ गए थे. सब से पहले मंजरी को ढेर सारी बधाई दीं. “यों ही आगे बढ़ती रहो, विजेता बनती रहो.”

मंजरी पापा के लाड़ मे इतराते हुए बोली, “पापा, डिनर बाहर करेंगे.”

“बस, इतनी सी बात, जरूर करेंगे. ठीक है,” कह कर डा. विश्वास वापस क्लिनिक में चले गए. घर के ठीक बाहर क्लीनिक था. कोई पेशेंट घर बुलाता था, तो वहां भी जाते थे.

जब रात के लगभग साढ़े 9 बजे डा. विश्वास पेशेंट से फ्री हो कर घर के अंदर आए तो डिनर के लिए सभी तैयार थे.

“पापा, जल्दी से चेंज कर लीजिए,” मंजरी बोली.

“बस, दस मिनट में रेडी हो कर आता हूं.” कुछ ही देर में डा. विश्वास तैयार हो कर घर से निकल गए.

जौनपुर का वह प्रसिद्द होटल सुपर सत्यम रैस्टोरैंट था.

कार पार्किंग में रोक कर जब सब वहां पहुंचे तो मंजरी बहुत खुश थी. रहरह कर उस की आंखों के सामने मानस का चेहरा घूम जाता था. उस के हाथों की छुअन उसे याद आ रही थी.

सब जा कर टेबल पर जम गए. मंजरी को यह होटल और यहां का डिनर पसंद था.

पानी की बोतलें रखने के बाद वेटर मीनू रख गया था. रैस्टोरैंट की खूबसूरती देखते बनती थी.

मंजरी मीनू देखने में व्यस्त थी.

“अरे, मंजरी, आज का दिन बहुत लकी है. आप से दोबारा मुलाकात होगी, सोचा भी न था.”

मंजरी ने नजर उठाई, तो सामने मानस खड़ा था.

“अरे, मानस, तुम भी यहां,” मंजरी बोली.

डा. विश्वास दोनों को देख रहे थे, बोले, “मंजरी, तुम जानती हो इन्हें?”

“हां पापा, यह मानस है, मेरे कालेज में साइंस का स्टुडैंट है.”

“अरे वाह, यह तो अच्छी बात है,” डा. विश्वास बोले.

“नमस्ते अंकलजी,” कहते हुए मानस ने डा. विश्वास के पैर छू लिए.

“जीते रहो बेटा, जीते रहो,” विश्वास खुश हो गए, “ऐसे अच्छे संस्कार, कैसे आए? दोस्तों के साथ?” डा. विश्वास ने सवाल किया.

“मम्मीपापा के साथ, छोटी सिस्टर भी साथ है,” मानस बोला.

“बेटा, तुम्हें दिक्कत न हो, साथ में डिनर कर लें,” डा. विश्वास बेटी मंजरी के चेहरे पे छाई खुशी की लालिमा को महसूस कर रहे थे.

उन की बातचीत होते देख कर मानस के मम्मीपापा भी नजदीक आ गए थे. दोनों परिवारों का आपस में परिचय हुआ.

मानस का परिवार भी संपन्न था. शहर में कई शोरूम थे और प्रौपर्टी का भी बिजनैस था. मानस की छोटी बहन हिमानी 10वीं की स्टूडैंट थी. खूब सैल्फियों का दौर चला.

डिनर भी सब की मिलीजुली पसंद का मंगवाया गया- सब्जी, कोरमा, मशरूम, मसाला, मखनी पनीर, बिरियानी, स्टफ्ड नौन, मिक्स वैजिटेबल सलाद.

मानस के परिवार को मंजरी का परिवार पसंद आया था. इस मुलाकात के बाद मानस मंजरी की बातें बढ़ने लगीं, बाहर मुलाकातें भी होने लगीं.

जौनपुर के किले की कभी सैर की जाती, तो कभी कौफीहाउस के गुलाबी अंधेरे भले लगते. कभी कोई मूवी देखने जाते तो कभी फ्लौवर एक्जीबिशन में.

कालेज में भी ढेरो बातें होतीं. घंटों साथ रहना और कभी घंटों साथ रहते तो भी कोई बात न होती, सिर्फ खामोशी पसरी रहती दोनों के बीच. न जाने कौन सी भाषा होती जिस से बातें होतीं दोनों की खामोशी से. त‌भी किसी ने कहा है, शायद, मोहब्बत की जबां नहीं होती.

मानस एक दिन बोला, “मंजरी, तुम स्टेज पर कितना अच्छा बोलती हो, हर विषय पर कितनी पकड़ है तुम्हारी लेकिन मुझ से तुम ज्यादा बात नहीं करती हो. बस, जी अच्छा, हां या न के अलावा कुछ नहीं बोलती हो.”

“अच्छा,” मंजरी मुसकरा कर बोली.

“मैं परेशान हो उठता हूं तुम्हारी खामोशी से,” मानस बोला.

मंजरी खिलखिला कर हंस दी. मानस देखता रह गया उस की हंसी को जैसे छोटेछोटे घुंघरू बज उठे हों. वह देखता रहा एकटक.

“क्या देख रहे हो?” मंजरी ने मानस का हाथ अपने हाथ में लिया.

मानस के पूरे शरीर मे बिजली दौड़ गई. उस ने मंजरी के हाथ को पकड़ कर उस पर अपनी प्रेममोहर लगा दी. फिर अचानक से हाथ छोड़ दिया कहीं कोई देख तो नहीं रहा.

ऐसे ही खुशबूभरे दिन उड़ते रहे. कहते हैं सुख के दिन पंख लगा कर आते हैं, जल्दी ही उड़ भी जाते हैं जबकि दुख की एक रात भी बहुत लंबी होती है.

मानस को पढाई सिर्फ डिग्री के लिए करनी थी. वह जानता था कि उस के पापा के साथ उसे बिजनैस ही देखना था. यों भी, वह नौकरी के पक्ष में बिलकुल नहीं था. एक बंधीबंधाई रकम के बजाय उसे तो रुपयों का ढेर पंसद था, जो उस के पास था ही, इसलिए उसे इस की ज्यादा परवा नहीं थी. उस की दौलत से प्रभावित कई युवतियां मानस के करीब जाने की कोशिश कर चुकी थीं. पर मानस मंजरी के गालों के भंवर में डूब चुका था. मानस को दौलत का नशा भी था. उसे लगता था, उसूल,चरित्र, सत्य नैतिकता, आदर्श, सिद्धांत सब किताबी बाते हैं.

मंजरी को पढ़ने में रुचि थी. वह प्रोफैसर बनना चाहती थी. इस के लिए उस ने मानस को बताया हुआ भी था. मानस को यह विश्वास था, मंजरी जब उस से शादी करेगी, प्रोफैसर बनना, पढ़नालिखना सब भूल जाएगी.

हुआ भी वही जो मानस ने सोचा था. कालेज में मंजरी का अंतिम वर्ष था. दोनों का मिलनाजुलना, प्रेम पूरे कालेज में फेमस हो गया था. सब को पता था दोनों ही संपन्न परिवार के हैं. कोई अड़चन नहीं आएगी. ऐसा ही हो भी गया. मंजरी का रिजल्ट आने से पहले ही मानस अपनी मम्मीपापा को ले कर मंजरी के घर पहुंच गया.

डा. विश्वास की विशाल कोठी, अंदर से उस की भव्यता देख मानस की मां बड़ी खुश हुई.

चाय, कौफी के साथ भुने काज़ुओं, गरम पकौड़ों के साथ चर्चा शुरु हुई. डा. विश्वास ने कहा, “मंजरी को तो प्रोफैसर बनना है. यह मंजरी का सपना है. बाकी का डिसीजन तो मंजरी को लेना है.”

“डा. साहब, पढ़ाई तो वहां भी कर सकती है, प्रोफैसर ही तो बनना है. आप तो मंजरी को हमें दे दो. दोनों बच्चे एकदूसरे को पसंद भी करते हैं.”

“मंजरी बेटे,” डा. विश्वास ने पुकारा.

मंजरी वहां नहीं थी. घर के गार्डन में मंजरी मानस के साथ गुलाबों को निहार रही थी. दोनों साथ ही अंदर पहुंचे.

“मंजरी बेटा, तुम्हारा क्या फैसला है शादी का?” डा. विश्वास ने पूछा.

मंजरी शरमा कर पापा के गले लग गई.

डा. विश्वास को जवाब मिल गया था.

दोनों परिवारों ने शादी की तैयारियां शुरू कर दी थीं. मानस के परिवार को यकीन था, ढेर सारा दहेज मिलेगा, डाक्टर की लड़की है.

रिसैप्शन में शहर के जानेमाने डाक्टर और धनी लोग थे. भव्य फाइवस्टार होटल ‘प्लाज़ा’ में रिसैप्शन था. डा. विश्वास ने दहेज के नाम पर कुछ भी नहीं दिया था. मंजरी का परिवार इन बातों के खिलाफ़ था.

शादी के कुछ दिनों बाद ही मानस, मंजरी सिंगापुर चले जाते हैं. जौनपुर से वाराणसी टैक्सी से, फिर वाराणसी से सिंगापुर फ्लाइट से.

हनीमून के समय ही मंजरी को यह भी मालूम पड़ा कि मानस की बहुत सी महिला मित्र हैं. लेकिन आज के युग मैं यह सब सामान्य था. मंजरी के भी कई लड़के मित्र कभीकभी हालचाल ले लिया करते थे. शादी में मंजरी व मानस के लगभग सभी फ्रैंड्स आए थे. लड़कियों को तो मंजरी से जलन भी थी. शानदार जोड़ी की सभी ने तारीफ की थी.

हनीमून की खुमारी में दोनों ही एकदूसरे में डूबे हुए थे. मानस के मोबाइल में मधुर आवाज ने दोनों को खुमारी से जगा दिया. मानस ने देखा, मां की कौल थी.

“हां मां,” मानस ने मंजरी के बालों को सहलाते हुए कहा.

“बेटा, वापसी कब की है? करवाचौथ आ रहा है, बहू का पहला करवाचौथ है. व्रत करना है,” मां बोली.

“मां कब करवाचौथ है?” मानस ने पूछा.

“बेटा, 25 अक्टूबर को है,: मां बोली.

“23 की फ्लाइट है, हम 24 तक पहुंच जाएंगे,” मानस बोला.

मंजरी चुपचाप सुन रही थी.

“जानू, मां को करवाचौथ की चिंता लगी हुई है,” मानस बोला. मंजरी फिलहाल बहस नहीं करना चाहती थी, चुप रही.

वे दोनों जब घर पहुंचे तो देखा, बहुत जी महिलाएं आई हुई हैं. ब्यूटीपार्लर वाली भी आई हुई है अपनी 2 असिस्टैंट के साथ. मेहंदी लगाई जा रही है, कपड़े, ज्वैलरी की चर्चा चल रही है.

“बहू, मेहंदी वाली शाम तक यहीं है. तुम आराम कर लो, शाम को मेहंदी लगवा लेना.”

“मां, मुझे यह पसंद नहीं है,” मंजरी सीधी भाषा में प्यार से बोली.

“बेटा, कल पहला करवाचौथ है तुम्हारा, कैसी बातें करती हो?” मानस की मां आश्चर्य से बोली. बाकी सब महिलाएं देखने लगीं.

“मां, तुम मेहंदी लगाओ, मैं बाद में बात करूंगा,” कह कर मानस मंजरी को अपने कमरे में ले कर आ गया.

मानस ने कहा फ्रैश हो जाओ, रैस्ट करो,” कह कर खुद भी फ्रैश होने चला गया.

मंजरी खुश हो गई कि मानस समझता है. मंजरी फ्रैश होने के बाद कपड़े चेंज कर कौफी पी कर सो गई.

शाम होने पर दोनों उठे. मानस बोला, “मंजरी, जाओ मेहंदी लगवा लो. अब तो थकान भी दूर हो गई होगी.”

“क्या?” मंजरी ने आश्चर्य से कहा.

“कल करवाचौथ की तैयारी नहीं करोगी, मेरे लिए व्रत नहीं रखोगी?” मानस उसे गले लगा कर बोला,

“अरे नहीं, मैं ये बेसिरपैर के व्रत पसंद नहीं करती,” मंजूरी ने अपने से उसे दूर करते हुए कहा.

“बेसिरपैर, मतलब? यह व्रत मेरे जीवन से जुड़ा है,” मानस बोला.

“देखो मानस, व्रत रखा जाए तो दिल से रखा जाए, जहां व्रत में श्रद्धाविश्वास हो वही व्रत रखना चाहिए. मेरा विश्वास नहीं है व्रत में,” मंजरी ने एक बार दोबारा कोशिश की.

“मैं कुछ नहीं जानता, तुम को व्रत रखना चाहिए बस,” इतना कह कर वह गुस्से में दरवाज़े से बाहर चला गया.

मंजरी चुपचाप बैठी रही अपने कमरे में.

बहुत देर तक मंजरी बाहर नहीं आई, तो उस की सास और रिश्ते की कुछ महिलाएं मंजरी के पास उस के कमरे में गईं.

“मंजरी बेटे, मेहंदी लगवा लो. सभी ने लगा ली है, तुम ही रह गई हो,” एक महिला बोली.

“मुझे मेहंदी लगवाने में कोई दिक्कत नहीं. लेकिन में व्रत नहीं रखूंगी,”

मंजरी साफ शब्दों में बोली.

“प्रौब्लम क्या है, मंजरी?” मानस अंदर आतेआते बोला.

“एक के व्रत रखने से दूसरे की उम्र नहीं बढ़ती. यह कथा तथ्यहीन है, कहीं सत्यवती नाम है, कहीं करवा बताया गया है? तीसरी बात, पति की डैडबौडी पत्नी ने सालभर सुरक्षित रखी, सालभर बाद व्रत रखने से पति जीवित हो गया. इस पर तुम को कैसे यकीन होता है? मानस, तुम तो एजुकेटेड हो,” मंजरी ने पूछा.

“देखो, मैं नहीं जानता ये सब, व्रत तो तुम्हें करना पड़ेगा वरना मुश्किल है तुम्हारीहमारी निभनी.”

“मुझे कोई दिक्कत नहीं, लेकिन इन ढकोसलों में विश्वास नहीं है मेरा,” मंजरी बोली.

“तो क्या मुझ से प्रेम नहीं करतीं?” मानस बोला.

“प्रेम अपनी जगह है,” मंजरी बोली.

“अगर प्रेम करती हो तो प्रेम की खातिर व्रत भी करो, समझीं,”

मानस बोला.

“मानस, मुझे भेड़चाल में चलना पसंद नहीं.”

“देखो, फिर करवाचौथ तुम अपने घर में मना लो इस बार. करवाचौथ के बाद वापस ससुराल आ जाना,” मानस ने फैसला सुनाते हुए कहा. साथ ही, उस ने मंजरी के पापा को फोन कर दिया. फिर घर से बाहर निकल गया.

मंजरी के पापा डा. विश्वास ने आ कर समस्या सुनी. उन्होंने मंजरी की सास से कहा, “हम किस युग में हैं, यह तो देखिए.”

“युग बदलने से क्या संस्कार-रीतिरिवाज बदल दें, समधीजी? कैसी बात करते हो आप?”

“लेकिन आप सोचिए, क्या यह संभव है? कब तक ढोते रहेंगे हम सड़ेगले रिवाजों को?” डा. विश्वास बोले.

“समधीजी, आप भी महिलाओं के मामले में उलझ गए,” अपने कमरे से मंजरी के ससुर आतेआते बोले.”

“सवाल महिलाओं के मामले का नहीं है, समधी जी, सवाल विश्वास और श्रद्धा का है. अगर मंजरी को इस पर भरोसा नहीं तो प्रैशर क्यों बनाया जाए?” डा. विश्वास बोले.

“समधीजी, सावित्री सत्यवान के प्राण यमराज से वापस ले आई थी. सत्यवती ने पति को सालभर बाद जीवित कर दिया, यह क्या गलत है? हम अपनी संस्कृति भूल जाएं?

“फिर आप खुद सोचिए, मंजरी और मानस हनीमून से अभी वापस लौटे हैं, महीनाभर भी नहीं हुआ शादी को, समाज क्या कहेगा?” मंजरी की सास बोली.

“मानस कहा है? मंजरी उन्हें बुलाओ”, डा. विश्वास बोले.

“पापा, वे गुस्से में बाहर निकल गए आप को फोन कर के,” मंजरी बोली.

“समधीजी, मानस गुस्से में बाहर चला गया है, मूड सही होगा तो आएगा. कुछ दिनों के लिए मंजरी को ले जाइए,” ससुर बोले.

“ले जाने से पहले एक बार जरूर सोचिए, मंजरी को दाग लग गया है शादीशुदा होने का. घर ले जाने से बदनामी होगी आप की,” सास बोली.

“शरीर के 2 इंच हिस्से से पवित्रअपवित्र कुछ नहीं होता. आप की सोच है, मेरी नहीं,” डा. विश्वास बोले.

“एक बार फिर सोचिए, पति को खुश करने के लिए व्रत रख भी लिया तो क्या हुआ?” ससुर बोले.

“आगे भी सालभर ये सब चलता रहेगा, क्या गलत बोल रहा हूं मैं?” डा. विश्वास ने पूछा, हमारे संस्कार हैं, सालभर व्रतत्योहार चलते भी हैं तो बुरा क्या है?” ससुर बोले.

“ठीक है. मंजरी, अब तुम ही बोलो, क्या फैसला है तुम्हारा,” डा. विश्वास ने मंजरी को देखा.

“पापा, मैं सत्यवती नहीं बनूंगी.”

मंजरी ने पापा का हाथ पकड़ा और घर के बाहर आ गई.

मैं झूठ नहीं बोलती : लेकिन सच बोल कर बुरा कौन बनना चाहता है

जब से होश संभाला, यही शिक्षा मिली कि सदैव सच बोलो. हमारी बुद्धि में यह बात स्थायी रूप से बैठ जाए इसलिए मास्टरजी अकसर ही  उस बालक की कहानी सुनाते, जो हर रोज झूठमूठ का भेडि़या आया भेडि़या आया चिल्ला कर मजमा लगा लेता और एक दिन जब सचमुच भेडि़या आ गया तो अकेला खड़ा रह गया.

मां डराने के लिए ‘झूठ बोले कौआ काटे’ की लोकोक्ति का सहारा लेतीं और उपदेशक लोग हर उपदेश के अंत में नारा लगवाते ‘सच्चे का बोलबाला, झूठे का मुंह काला.’ भेडि़ये से तो खैर मुझे भी बहुत डर लगता है बाकी दोनों स्थितियां भी अप्रिय और भयावह थीं. विकल्प एक ही बचा था कि झूठ बोला ही न जाए.

बचपन बीता. थोड़ी व्यावहारिकता आने लगी तो मां और मास्टरजी की नसीहतें धुंधलाने लगीं. दुनिया जहान का सामना करना पड़ा तो महसूस हुआ कि आज के युग में सत्य बोलना कितना कठिन काम है और समझदार बनने लगे हम. आप ही बताओ मेरी कोई सहकर्मी एकदम आधुनिक डे्रस पहन कर आफिस आ गई है, जो न तो उस के डीलडौल के अनुरूप है न ही व्यक्तित्व के. मन तो मेरा जोर मार रहा है यह कहने को कि ‘कितनी फूहड़ लग रही हो तुम.’ चुप भी नहीं रह सकती क्योंकि सामने खड़ी वह मुसकरा कर पूछे जा रही है, ‘‘कैसी लग रही हूं मैं?’’

‘अब कहो, सच बोल दूं क्या?’

विडंबना ही तो है कि सभ्यता के साथसाथ झूठ बोलने की जरूरत बढ़ती ही गई है. जब हम शिष्टाचार की बात करते हैं तो अनेक बार आवश्यक हो जाता है कि मन की बात छिपाई जाए. आप चाह कर भी सत्य नहीं बोलते. बोल ही नहीं पाते यही शिष्टता का तकाजा है.

आप किसी के घर आमंत्रित हैं. गृहिणी ने प्रेम से आप के लिए पकवान बनाए हैं. केक खा कर आप ने सोचा शायद मीठी रोटी बनाई है. बस, शेप फर्क कर दी है और लड्डू ऐसे कि हथौड़े की जरूरत. खाना मुश्किल लग रहा है पर आप खा रहे हैं और खाते हुए मुसकरा भी रहे हैं. जब गृहिणी मनुहार से दोबारा परोसना चाहती है तो आप सीधे ही झूठ पर उतर आते हैं.

‘‘बहुत स्वादिष्ठ बना है सबकुछ, पर पेट खराब होने के कारण अधिक नहीं खा पा रहे हैं.’’ मतलब यह कि वह झूठ भी सच मान लिया जाए, जो किसी का दिल तोड़ने से बचा ले.

‘शारीरिक भाषा झूठ नहीं बोलती,’ ऐसा हमारे मनोवैज्ञानिक कहते हैं. मुख से चाहे आप झूठ बोल भी रहे हों आप की आवाज, हावभाव सत्य उजागर कर ही देते हैं. समझाने के लिए वह यों उदाहरण देते हैं, ‘बच्चे जब झूठ बोलते हैं तो अपना एक हाथ मुख पर धर लेते हैं. बड़े होने पर पूरा हाथ नहीं तो एक उंगली मुख या नाक पर रखने लगते हैं अथवा अपना हाथ एक बार मुंह पर फिरा अवश्य लेते हैं,’ ऐसा सोचते हैं ये मनोवैज्ञानिक लोग. पर आखिर अभिनय भी तो कोई चीज है और हमारे फिल्मी कलाकार इसी अभिनय के बल पर न सिर्फ चिकनीचुपड़ी खाते हैं हजारों दिलों पर राज भी करते हैं.

वैसे एक अंदर की बात बताऊं तो यह बात भी झूठ ही है, क्योंकि अपनी जीरो फिगर बनाए रखने के चक्कर में प्राय: ही तो भूखे पेट रहते हैं बेचारे. बड़ा सत्य तो यह है कि सभ्य होने के साथसाथ हम सब थोड़ाबहुत अभिनय सीख ही गए हैं. कुछ लोग तो इस कला में माहिर होते हैं, वे इतनी कुशलता से झूठ बोल जाते हैं कि बड़ेबड़े धोखा खा जाएं. मतलब यह कि आप जितने कुशल अभिनेता होंगे, आप का झूठ चलने की उतनी अच्छी संभावना है और यदि आप को अभिनय करना नहीं आता तो एक सरल उपाय है. अगली बार जब झूठ बोलने की जरूरत पड़े तो अपने एक हाथ को गोदी में रख दूसरे हाथ से कस कर पकड़े रखिए आप का झूठ चल जाएगा.

हमारे राजनेता तो अभिनेताओं से भी अधिक पारंगत हैं झूठ बोलने का अभिनय करने में. जब वह किसी विपदाग्रस्त की हमदर्दी में घडि़याली आंसू बहा रहे होते हैं, सहायता का वचन दे रहे होते हैं तो दरअसल, वह मन ही मन यह हिसाब लगा रहे होते हैं कि इस में मेरा कितना मुनाफा होगा. वोटों की गिनती में और सहायता कोश में से भी. इन नेताओं से हम अदना जन तो क्या अपने को अभिनय सम्राट मानने वाले फिल्मी कलाकार भी बहुत कुछ सीख सकते हैं.

विशेषज्ञों ने एक राज की बात और भी बताई है. वह कहते हैं कि सौंदर्य आकर्षित तो करता ही है, सुंदर लोगों का झूठ भी आसानी से चल जाता है. अर्थात सुंदर होने का यह अतिरिक्त लाभ है. मतलब यह भी हुआ कि यदि आप सुंदर हैं, अभिनय कुशल हैं तो धड़ल्ले से झूठ बोलते रहिए कोई नहीं पकड़ पाएगा. अफसोस सुंदर होना न होना अपने वश की बात नहीं.

गांधीजी के 3 बंदर याद हैं. गलत बोलना, सुनना और देखना नहीं है. अत: अपने हाथों से आंख, कान और मुंह ढके रहते थे पर समय के साथ इन के अर्थ बदल गए हैं. आज का दर्शन यह कहता है कि आप के आसपास कितना जुल्म होता रहे, बलात्कार हो रहा हो अथवा चोट खाया कोई मरने की अवस्था में सड़क पर पड़ा हो, आप अपने आंख, कान बंद रख मस्त रहिए और अपनी राह चलिए. किसी असहाय पर होते अत्याचार को देख आप को अपना मुंह खोलने की जरूरत नहीं.

ऐसा भी नहीं है कि झूठ बोलने की अनिवार्यता सिर्फ हमें ही पड़ती हो. अमेरिका जैसे सुखीसंपन्न देश के लोगों को भी जीने के लिए कम झूठ नहीं बोलना पड़ता. रोजमर्रा की परेशानियों से बचे होने के कारण उन के पास हर फालतू विषय पर रिसर्च करने का समय और साधन हैं. जेम्स पैटरसन ने 2 हजार अमेरिकियों का सर्वे किया तो 91 प्रतिशत लोगों ने झूठ बोलना स्वीकार किया.

फील्डमैन की रिसर्च बताती है कि 62 प्रतिशत व्यक्ति 10 मिनट के भीतर 2 या 3 बार झूठ बोल जाते हैं. उन की खोज यह भी बताती है कि पुरुषों के बजाय स्त्रियां झूठ बोलने में अधिक माहिर होती हैं जबकि पुरुषों का छोटा सा झूठ भी जल्दी पकड़ा जाता है. स्त्रियां लंबाचौड़ा झूठ बहुत सफलता से बोल जाती हैं. हमारे नेता लोग गौर करें और अधिक से अधिक स्त्रियों को अपनी पार्टी में शामिल करें. इस में उन्हीं का लाभ है.

बिना किसी रिसर्च एवं सर्वे के हम जानते हैं कि झूठ 3 तरह का होता है. पहला झूठ वह जो किसी मजबूरीवश बोला जाए. आप की भतीजी का विवाह है और भाई बीमार रहते हैं. अत: सारा बंदोबस्त आप को ही करना है. आप को 15 दिन की छुट्टी तो चाहिए ही. पर जानते हैं कि आप का तंगदिल बौस हर्गिज इतनी छुट्टी नहीं देगा. चाह कर भी आप उसे सत्य नहीं बताते और कोई व्यथाकथा सुना कर छुट्टी मंजूर करवाते हैं.

दूसरा झूठ वह होता है, जो किसी लाभवश बोला जाए. बीच सड़क पर कोई आप को अपने बच्चे के बीमार होने और दवा के भी पैसे न होने की दर्दभरी पर एकदम झूठी दास्तान सुना कर पैसे ऐंठ ले जाता है. साधारण भिखारी को आप रुपयाअठन्नी दे कर चलता करते हैं पर ऐसे भिखारी को आप 100-100 के बड़े नोट पकड़ा देते हैं. यह और बात है कि आप के आगे बढ़ते ही वह दूसरे व्यक्ति को वही दास्तान सुनाने लगता है और शाम तक यों वह छोटामोटा खजाना जमा कर लेता है.

कुछ लोग आदतन भी झूठ बोलते हैं और यही होते हैं झूठ बोलने में माहिर तीसरे किस्म के लोग. इस में न कोई उन की मजबूरी होती है न लाभ. एक हमारी आंटी हैं, उन की बातों का हर वाक्य ‘रब झूठ न बुलवाए’ से शुरू होता है पर पिछले 40 साल में मैं ने तो उन्हें कभी सच बोलते नहीं सुना. सामान्य बच्चों को जैसे शिक्षा दी जाती है कि झूठ बोलना पाप है शायद उन्हें घुट्टी में यही पिलाया गया था कि ‘बच्चे सच कभी मत बोलना.’  बाल सफेद होने को आए वह अभी तक अपने उसी उसूल पर टिकी हुई हैं. रब झूठ न बुलवाए, इस में उन की न तो कोई मजबूरी होती है न ही लाभ.

सदैव सत्य ही बोलूंगा जैसा प्रण ले कर धर्मसंकट में भी पड़ा जा सकता है. एक बार हुआ यों कि एक मशहूर अपराधी की मौत हो गई और परंपरा है कि मृतक की तारीफ में दो शब्द बोले जाएं. यह तो कह नहीं सकते कि चलो, अच्छा हुआ जान छूटी. यहां समस्या और भी घनी थी. उस गांव का ऐसा नियम था कि बिना यह परंपरा निभाए दाह संस्कार नहीं हो सकता. पर कोई आगे बढ़ कर मृतक की तारीफ में कुछ भी बोलने को तैयार नहीं. अंत में एक वृद्ध सज्जन ने स्थिति संभाली.

‘‘अपने भाई की तुलना में यह व्यक्ति देवता था,’’ उस ने कहा, ‘‘सच भी था. भाई के नाम तो कत्ल और बलात्कार के कई मुकदमे दर्ज थे. अपने भाई से कई गुना बढ़ कर. अब उस की मृत्यु पर क्या कहेंगे यह वृद्ध सज्जन. यह उन की समस्या है पर कभीकभी झूठ को सच की तरह पेश करने के लिए उसे कई घुमावदार गलियों से ले जाना पड़ता है यह हम ने उन से सीखा.

मुश्किल यह है कि हम ने अपने बच्चों को नैतिक पाठ तो पढ़ा दिए पर वैसा माहौल नहीं दे पाए. आज के घोर अनैतिक युग में यदि वे सत्य वचन की ही ठान लेंगे तो जीवन भर संघर्ष ही करते रह जाएंगे. फिल्म ‘सत्यकाम’ देखी थी आप ने? वह भी अब बीते कल की बात लगती है. हमारे नैतिक मूल्य तब से घटे ही हैं सुधरे नहीं. आज के झूठ और भ्रष्टाचार के युग में नैतिक उपदेशों की कितनी प्रासंगिकता है ऐसे में क्या हम अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देना छोड़ दें. संस्कार सब दफन कर डालें? प्रश्न कड़वा जरूर है पर पूछना आवश्यक. बच्चों को वह शिक्षा दें, जो व्यावहारिक हो जिस का निर्वाह किया जा सके. उस से बड़ी शर्त यह कि जिस का हम स्वयं पालन करते हों.

सब से बड़ा झूठ तो यही कहना, सोचना है कि हम झूठ बोलते नहीं. कभी हम शिष्टाचारवश झूठ बोलते हैं तो कभी समाज में बने रहने के लिए. कभी मातहत से काम करवाने के लिए झूठ बोलते हैं तो कभी बौस से छुट्टी मांगने के लिए. सामने वाले का दिल न दुखे इस कारण झूठ का सहारा लेना पड़ता है तो कभी सजा अथवा शर्मिंदगी से बचने के लिए. कभी टैक्स बचाने के लिए, कभी किरायाभाड़ा कम करने के लिए. चमचागीरी तो पूरी ही झूठ पर टिकी है. मतलब कभी हित साधन और कभी मजबूरी से. तो फिर हम सत्य कब बोलते हैं?

शीर्षक तो मैं ने रखा था कि ‘मैं झूठ नहीं बोलती’ पर लगता है गलत हो गया. इस लेख का शीर्षक तो होना चाहिए था,  ‘मैं कभी सत्य नहीं बोलती.’ क्या कहते हैं आप?

सिध सिरी जोग लिखी कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन

लेखिका – नीलू शेखावत

कल प्रांशु ने पूछा- चिट्ठी क्या होती है? क्यों लिखी जाती है? संयोग से मैं ने कुछ खाली पोस्टकार्ड्स और लिफाफे संभाल कर रखे थे वरना अब तो पोस्टऔफिस का भी अस्तित्व नहीं, पोस्टकार्ड कहां से मिलते? मैं ने उन्हें पोस्टकार्ड्स तो दिखा दिए पर इस सब के लिए लिखना और पढ़ना भी तो जरूरी है.

बच्चे हंस रहे थे कि जो काम मैसेज या कौल से हो सकता है वह पत्र से क्यों? पर अब उन्हें आनंद आ रहा है. पत्र की भाषा मैं भी भूल रही हूं पर यत्नपूर्वक याद किया तो बचपन की स्मृतियां तैर गईं. मेरे सारे भाईबहन टैलीफोन पीढ़ी हैं, उन्होंने न कभी किसी को पत्र लिखा, न ही पढ़ा. मैं छुटपन में ननिहाल में रही जहां से मैं ने अपनी मां और मौसियों को खूब पत्र लिखे.

उस समय पत्र लिखना भी एक कला थी और यकीन मानिए, मैं ने इस में बहुत कम उम्र में निपुणता प्राप्त कर ली थी. हालांकि इस कार्य हेतु नियत एक कुशल व्यक्तित्व विद्यमान था जिन से हमारी कोई बराबरी नहीं थी. घर की दीवान-ए-इंशा हमारी मुरधर मौसी थी जिस के पास आसमानी रंग वाले खूब सारे अंतर्देशीय पत्र और सुंदरसुंदर पैन होते थे. किंतु मुझे उन्हें छूनेछेड़ने की इजाजत नहीं थी.

मेरे पिताजी जब भी असम से आते, मौसी के लिए चाइना पैन (एक महंगा पैन जिसे हम इसी नाम से जानते थे) लाते. यह पैन कमाल का होता था, एक बार दवात में मुंह डालता तो बकरी की तरह पूरा पेट भर कर ही बाहर निकलता. लिखते समय मजाल है कि स्याही का एक छींटा भी कहीं लग जाए? निप (निब) इतनी बारीक कि डोरे जैसे अक्षर छपते. जब उंगलियों के बीच फंसता तो शब्ददरशब्द ऐसा सरपट फिसलता कि हाथ को पता ही न चलता कि कब तीनचार पेज भर गए.

एक हमारा वक्त, मोटी निप वाला पैन जिस में स्याही डालनी हो तो पूरी दवात को उन्धाओ. पैन में चार बूंद और कपड़ों पर पूरी स्याही. नीचे कौपीकिताब होती तो वह भी हरहर गंगे! इस दौरान जुल्फें झूल रही हों और उन को चेहरे से हटाना हो तो चेहरा भी स्याह. लिखने बैठो तो निप दोफाड़. कुछ लिखने के बजाय कागज ही खुरच डालती. मगर पोस्टकार्ड इस लिहाज से ठीक था. चिकना व मोटा पुट्ठा जल्दी खुरचता नहीं और न ही दूसरी ओर छपता जैसा अकसर कौपियों में होता. एक तरफ का लेख दूसरी तरफ भी छप जाता. दूसरी तरफ लिखने पर राख-राबड़ी सब एक. इस के साथ टूटा हुआ निब वमन भी करता. इसलिए हर दूसरे पेज पर कोई न कोई स्याही-नक्शा बना ही रहता.

तब बौलपैन भी चलते थे पर वे भी अतिसार से त्रस्त रहते. लाल, नीले, काले, हरे धब्बेदार चेहरे उन दिनों हमारे लिए आम थे. कम से कम 5वीं कक्षा तक के बच्चे तो अपने होंठ रंगीन ही पाते काहे कि जब पैन चलता नहीं तो उसे मुंह में ले कर हवा खींचने का रिवाज था. इस से बीचबीच में बना गतिरोध टूट जाता है और स्याही निब की ओर खिंची चली आती है. यह नुस्खा काम तो करता पर इतना ज्यादा कर जाता कि जोरदार प्रैशर के साथ गुल्ली तो निकल जाती मगर पूरी स्याही मुंह में आ कर गोल मेज कर बैठती. हम कुल्ले थूकते, कभी लाल, कभी हरा, कभी नीला तो कभी काला. स्याही का रंग कुछ छूटता, कुछ रह जाता. खुशबूदार स्याही वाले पैन उन दिनों बड़े अच्छे लगते थे. लाइट वाले पैन भी याद हैं जिन से अंधेरे में भी लिखा जा सकता था पर यह काफी दिनों के बाद की बात है. पत्र लिखने वाले दिनों में ढंग का पैन शायद ही मिला हो.

मुझे अंतर्देशीय पत्र लिखने की अनुमति तभी मिलती जब मेरी पत्रलेखा मौसी घर में गैरहाजिर होती या वह स्वयं अनुमति देती. ऐसी स्थिति में मुझे एक गंभीर पत्रलेखन करना होता जिस की भाषा मेरी भाभू (नानी) की होती. ‘सिध सिरी जोग लिखी…’ और ‘अत्र कुशलम् तत्रास्तु…’ वाला पत्र तो मैं ने कभी नहीं लिखा पर तब भी कुछ विरुदावलीयुक्त वाक्य स्थायी होते थे जिन्हें हर पत्र के फौर्मेट में लिखना होता. आज भरसक प्रयत्न के बाद भी वह फौर्मेट याद न आया जो कभी मुंहजबानी याद था.

सब से पहले सब बड़ों को पांवां धोक और छोटों को प्रेम. फिर अपनी राजीखुशी (कुशलक्षेम) बतानी और अगले की पूछनी. सब से जरूरी ‘जमाना’ और ‘धीणा’. आप के वहां जमाना कैसा है और हमारे इधर जमाना ऐसा है. जमाने का अर्थ हुआ- मेह, पानी और खेतीबाड़ी. धीणे से आशय दुधारू पशुधन यानी कितनी गाय-भैंस दुहा रही हैं. ये दोनों दुरुस्त हैं तो आप समृद्ध हैं, मौज में हैं. दोनों में से एक ठीक हो तब भी बाबा भला करे. प्रत्येक वाक्य के अंत में ‘सा’ लिखना भी अनिवार्य था और शब्दावली लच्छेदार. जैसे, आप को हमारा पांव धोक अरज होवे सा. जब अंतर्देशीय लिखा जाता तो घर के एकएक बुजुर्ग को पूछा जाता कि आप को क्या सम्चार (समाचार) लिखवाना है. वे बताते- ‘आजकल पेट में आफरा रहता है, रोटी पचती नहीं, फलांने को पैसे उधार दिए थे, राख उड़े ने अब तक नहीं लौटाए. आंखों की कारी (औपरेशन) करवाने की सोच रहे हैं पर अभी ठंड (मौसम) नहीं हो रही, पड़ोस में पीहर आई फलांनी बाई का टाबर तीनचार दिनों से दूध नहीं चूंक रहा आदिआदि.’

अब यह लिखने वाले के विवेक पर निर्भर था कि वह इन समाचारों को कैसे लिखे. बड़ा और समझदार व्यक्ति इन्हें फिल्टर कर के तरीके से लिखता और मेरे जैसे लोग हूबहू.

कला पत्र लिखने की नई पीढ़ी हिंदी में पत्र लिखने लगी थी पर पुराने लोग अपनी बोली में लिखते. जैसे ढूंढाड के रिश्तेदार अपनी बोली में और उस का उत्तर मारवाड़ वाले अपनी बोली में देते. मेरे समय तक राजस्थानी भाषा गंवारपने का तमगा प्राप्त कर चुकी थी, इसलिए किसी को राजस्थानी में पत्र लिखते हुए न देखा, न ऐसा कोई पत्र पढ़ा. पत्र लिखना अपनेआप में बहुत बड़ी कला थी जिस पर हर किसी का अधिकार नहीं होता था. सधे शब्दों से कम जगह में अधिक से अधिक लिख देना कलाकारी थी.

सुंदर लिखावट भी बड़ा फैक्टर था. कई बार सामने वाले लोग पूछते थे- आप के पत्र की लिखावट बड़ी सुंदर थी सा, जिस ने देखा थुथकी डाली. जवाबी पत्र में लेखक का पूरा ब्योरा दिया जाता कि वह पढ़नेलिखने में कितना होशियार है.

मैं ने अधिसंख्य पोस्टकार्ड्स ही लिखे जिन में लिखने लायक सम्चार मेरे पास होते ही थे, फिर भी मुझे आंगन में बैठ कर मुनादी करनी ही होती थी कि फलांने को कागज लिख रही हूं, किसी को कुछ लिखवाना हो तो लिखवा दो. बड़े लोग चलतेफिरते एकदो वाक्य फेंक देते और मैं हाथोंहाथ झोल कर पत्र में चेप देती. मौसी पत्र लिखतीं तो बड़ी तहजीब से लिखतीं. आंगन में दरी बिछती. माचे पर दादोसा, पीढे पर दासा और घूंघट में भाभू अपूठी बैठ कर पत्र लिखवाते. मैं माचे पर बैठ कर पैर हिलाती जाती और कुछकुछ सम्चार याद दिलाती जाती. हालांकि उन्हें वैटेज कम ही मिलता मगर फूंदा बीचबीच में पूरा रंगती.

पत्र पूरा लिख चुकने के बाद मुझे सुपुर्द किया जाता तब पत्रों पर सूखा गोंद चिपका हुआ नहीं आता था और घर में गोंद रखते नहीं थे, ऐसे में आकड़े का दूध काम आता. बाड़ में कहीं भी आकड़ा उगा मिल जाता, कच्ची टहनी तोड़ो और उसे पत्र के किनारे से रगड़ कर चिपका दो. ऐसा चिपकता कि प्राप्तकर्ता को वह सिरा फाड़ना ही पड़ता, तब जा कर पत्र खुलता.

चिपकाने से ले कर पोस्टबौक्स में डालने तक का जिम्मा मेरा था. मैं जब भी उस लालकाले चिरमी जैसे डब्बे में पत्र डालती, अपना छोटा हाथ आगे ले जाती इस उम्मीद में कि कोई पोस्टकार्ड मेरे हाथ लगे और मैं उस में लिखे सारे सम्चार पढ़ लूं पर ऐसा कभी नहीं हो पाया. यह डब्बा सिर्फ निगलना जानता था, उगलना नहीं. डाकिया खुद ही खिड़की खोलता और पत्र निकाल कर फिर मोटा सा ताला जड़ देता.

डाकिया आया डाक लाया

खाकी कपड़े, खाकी गांधी टोपी और साइकिल की ट्रिनट्रिन करता डाकिया वैसे किताबी चित्रों और टीवी में ही देखा. हमारा डाकिया साधारण कपड़ों में, मोटे कपड़े का चेनदार थैला कंधे पर झलाते हुए आता था. उसे दूर गुवाड़ से आते देख कर मैं भांप लेती थी कि वह हमारे घर ही आएगा. बाहर के फाटक से ही पत्र लपकती, जोरजोर से प्रेषक का पता पढ़ती और सब के बीच बैठ कर बांचती.

जिन शब्दों का उच्चारण या आशय गलत बांचती तो बड़े लोग ठीक करते. पत्र में बहुत अच्छा सम्चार होता तो छोटीमोटी बधाई भी मिलती. फिर पत्र पढ़ने में भी एक प्रकार का रस था जिसे पढ़ने वाला ही जानता है.

ज्यों गूंगे मीठे फल को रस, अंतरगत ही भावै.

सुनने वाले भावविभोर हो कर सुनते. मेरी मां और बड़े मासीसा शादी के शुरुआती दिनों में जब अपने घर पत्र भेजते तो दादोसा डाकिए से उसे ले कर ऐसे दौड़ते मानो बूढ़े, पतले और कमजोर पांवों में सहसा पंख लग गए हों. कहते हैं- जब तक पत्र पढ़ा जाता, वे ?ार?ार रोते. मैं ने यह दृश्य कम देखा. हां, एक बार किसी इराक वाले (जीविका के लिए विदेश में रहने वाले) के कागज पढ़ने के दौरान उस की मां को रोते हुए देखा. उस ने लिखा था, दीवाली पर आप लोगों ने तो सब के साथ चावल-लापसी खाई होगी. यहां दूर देश में कैसी होली, कैसी दीवाली? मां, न मां का जाया, देश पराया.

कुछ लोग कैसेट भी भेजा करते थे क्योंकि पत्र में इतना कुछ लिखा नहीं जा सकता जितना एक घंटे की टेप में रिकौर्ड किया जा सकता था. गांव में दोचार ही टेप रिकौर्डर होते थे जो इराक वालों के घर में ही मिलते. इन्हें सुनने के लिए आसपड़ोस की भीड़ जुटती. कैसेट में उन सब का भी जिक्र होता.

मुझे याद है, हमारी जो सहेलियां स्कूल छोड़ कर चली जाती थीं वे भी पीछे पत्र लिखा करतीं. ये पत्र स्कूल और क्लास के पते पर आते. दूसरी कक्षाओं की लड़कियां वे पत्र औत्सुक्य से सुनतींपढ़तीं.

खास सहेलियों में ‘हमकौं लिख्यौ है कहा, हमकौं लिख्यौ है कहा’ वाली भागमभाग मचती. हर कोई सुनने को उत्सुक रहती कि पत्र में उन के लिए क्या लिखा गया है. पत्र में नाम आना प्रतिष्ठा का विषय था. ‘देखा, मैं उसे अब भी याद हूं.’ फिर वह पत्र मैडमें भी पढ़तीं और चारपांच सौ लड़कियों के स्कूल में मैडम अपना नाम बोले तो अहोभाग्य!

जब मैं ननिहाल छोड़ कर गांव में रहने लगी तो मैं ने भी कुछ दिन अपनी सहेलियों को पत्र लिखे. मैं ने कभी उन्हें अपने गांव का सही नाम नहीं बताया क्योंकि यह नाम जब भी कोई सुनता तो पहले ठहाका लगाता. कांकरा भी भला कोई नाम हुआ! मैं किसी को अपना गांव जोधपुर बताती तो किसी को जयपुर. मौज आई तो दिल्ली की फान्फ भी टेक देती. जब पत्र लिखने की बारी आई तो यह आठ दिक देने लगा. पत्र पर जयपुर, जोधपुर लिखती तो शायद डाकिया ही पढ़ कर वापस कर देता. इसलिए अपना पता ही न लिखती या तो गंतव्य तक पहुंच जाए या बीच में ही रुक जाए पर पत्र वापस न आए.

गांव के नाम के साथ ही सहेलियों के नाम भी इज्जत का सवाल बनते. छोटी, चिमनी, बिदामी जैसे नामों के बजाय प्रीति, कीर्ति, श्रुति जैसे नाम प्रभावशाली लगते. मैं जीभर कर इन पत्रों में गप हांकती. चूंकि यह गप किसी के आगे प्रकट नहीं की जा सकती थी, इसलिए पत्रलेखन के लिए नितांत एकांत ढूंढ़ा जाता. हालांकि उस समय बच्चों के लिए एकांत दूर की कौड़ी थी. एक पोस्टकार्ड कईकई दिनों में पूरा होता, तब तक उसे छिपा कर रखना भी कम जोखिम का काम न था. फिर किसी रोज चुपके से पोस्टबौक्स के हवाले करने के बाद मैं राहत की सांस लेती.

बचपन की अपनी दुनिया है, कितनी सारी विचित्रताएं. अच्छी शक्ल और बुरी शक्ल, बहुत पैसा-कम पैसा, ऊंची जात-नीची जात, बढि़या घर-घटिया घर, हलके नाम-भारी नाम जैसे पूर्वाग्रह उन्हीं दिनों में पलते हैं पर बच्चा यह सब अपने साथ तो नहीं लाता, बस, ठीक से बड़ों का निरीक्षण करता है और काफीकुछ समाज का अनुकरण भी. फिर जीवनभर उसे ही ढोता रहता है.

खैर, वे झठेसच्चे पत्र सहेलियों तक पहुंचते. वे भी मेरी तरह खुश होतीं और जवाबी पत्र लिखतीं. जब घर में मेरे लिए पत्र आते तो सब लोग खूब हंसते क्योंकि इस घर में कई वर्षों से टैलीफोन का उपयोग हो रहा था. पिताजी का बाकायदा औफिस था जिस में दिनभर फोन की घंटियां टनटनातीं. बच्चे फोन उठाने के लिए दौड़ते. कौन कैसे ‘हैलो’ बोलता है, इस पर रोस्ंिटग चलती. धीरेधीरे मैं भी इस एडवांस दुनिया का हिस्सा बन गई और आज उस पुरानी पत्रलेखन की दुनिया से इतनी दूर पहुंच गई कि प्रांशु को लिखवाते समय कितने ही वाक्य बारबार लिखनेमिटाने पड़े पर फिर भी वैसा पत्र न लिखवा पाई. एक वक्त था जब मु?ो कितने ही रिश्तेदारों के पते और पिनकोड उंगलियों पर याद हुआ करते थे मगर अब ‘ओ बख्त बेह गया!’

युवतियां ब्रेकअप से कैसे उबरें

औफिस के लंचब्रेक में पाखी को अनमना और उदास देख कर मैं ने उस से पूछा, “क्यों, अद्यांत को मिस कर रही है? बेहद दुखी दिख रही है. भूलने की कोशिश कर यार उसे?”

“कैसे भूलूं उसे, पूरे 3 बरसों का साथ था. उस पर बहुत ज़ोरों का गुस्सा आ रहा है कि वह अपनी मां के सामने कोई स्ट्रौंग स्टैंड क्यों नहीं ले सका. हम दोनों की शादी करने की मंशा सुन कर उन के ब्लडप्रैशर हाई होने से ही घबरा गया और मुझ से ब्रेकअप कर लिया. अरे, दवाइयों से ब्लडप्रैशर कम नहीं होता क्या? चलो, एक तरह से अच्छा ही हुआ, शादी से पहले ही उस की असली फितरत समझ आ गई कि वह मम्माज बौय है.”

“बिलकुल सही कह रही है तू, ऐसे कमजोर, बिना रीढ़ की हड्डी वाले इंसान के साथ तू कभी खुश नहीं रहती जो मां की जरा सी बीमारी से अपने पार्टनर से मुंह मोड़ ले. फिर उस के बारे में इतना सोच क्यों रही है तू. परे कर उस की यादों को.”

“मेरे वश में नहीं, अवनी. सच कह रही हूं. बेहद दुखी और कन्फ़्यूज्ड फील कर रही हूं. दुखी हूं उसे खोने पर और कन्फ़्यूज्ड हूं कि मेरे साथ ही ऐसा क्यों हुआ. मैं उसे पहचान क्यों नहीं पाई.”

“चलचल, उस के बारे में ज्यादा सोच मत और औफिस के काम में मन लगा. आई एम श्योर, वक़्त के साथ तू उसे भूलने लगेगी.”

लंचब्रेक के ख़त्म होने के थोड़ी देर बाद मैं उस के पास गई तो देखा, वह अपना काम छोड़ पनीली आंखों से शून्य में ताक रही थी.

“पाखी, डियर, अगर काम में मन न लग रहा हो तो घर जा और रैस्ट कर. तू मुझे ठीक नहीं लग रही.”

शाम को औफिस के बाद मैं उस के फ्लैट पहुंची. मैं ने देखा कि वह बेतहाशा रो रही थी और उस ने रोरो कर आंखें सुजा ली थीं.

उस का यह हाल देख मैं घबरा गई और उसे अपनी एक सहेली की मनोचिकित्सक मां डाक्टर सीमा शर्मा, फाउंडर, यंग इंडिया सायकोलौजिकल सौल्यूशंस के घर ले गई. डाक्टर सीमा ने ब्रेकअप को सक्षमता से हैंडल करने के लिए उसे जो टिप्स दिए उन्हें मैं आप सब के साथ साझा कर रही हूं.

अपना सैल्फकेयर रूटीन बनाएं और उस को फौलो करें: ब्रेकअप के बाद रोजाना कुछ ऐसी गतिविधि करें जो आप को खुशी दे, जैसे कि अपने फ्रैंड्स से मिलनाजुलना, नए खुशनुमा अनुभव लेना जैसे पिकनिक, सिनेमा जाना, दोस्तों के साथ होटल या पार्टी में जाना, अपनी पसंदीदा हौबी में समय बिताना. अपने को शारीरिक अथवा मानसिक पोषण देने वाली गतिविधियां करें, जैसे ऐक्सरसाइज़ करें, कुछ देर मैडिटेशन करें या यदि आप को कुकिंग पसंद हो तो कुछ नया और स्वादिष्ठ पकाएं.

अपनी डायरी में ब्रेकअप के बाद महसूस की गई अपनी फीलिंग्स व्यक्त करें अथवा किसी घनिष्ठ परिचित से उन्हें शेयर करें. किसी मनोचिकित्सक से अपनी भावनाएं साझा करना व उन की सलाह लेना भी ब्रेकअप से उबरने का कारगर उपाय है.

ब्रेकअप के बाद समुचित आराम करना चाहिए. करीब सात से आठ घंटों की नींद लेने का प्रयास करें. लेकिन इस से अधिक सोने से बचें क्योंकि नींद में कमी या ओवरस्लीपिंग आप के मूड को प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर सकती है.

इस स्थिति में समुचित पोषणयुक्त भोजन करना न भूलें.

अपनी भावनाओं को व्यक्त करें: आप ब्रेकअप के बाद अकेलापन, कन्फ़्यूजन, उदासी, दुख, और क्रोध जैसे स्ट्रौंग इमोशन्स का अनुभव कर सकती हैं. सो, इन्हें सहज और सामान्य भाव से स्वीकार करें. इन्हें अपनी डायरी में लिखें या किसी दोस्त से शेयर करें.

अपनी भावनाओं को खुल कर व्यक्त करें लेकिन उन में डूबे न रहें. नैगेटिव इमोशन्स और विचारों के अंतहीन दुष्चक्र में उलझने से बचें.
गौर करें, अपने ब्रेकअप के बारे निरंतर सोचते रहना आप के दुख और उदासी की अवधि में इजाफा कर सकता है.

यदि आप अपने एक्सप्रेमी को नहीं भूल पा रहीं, तो घर की डीप क्लीनिंग में जुट जाएं, अपना पसंदीदा संगीत सुनें, दोस्तों से मिलेंजुलें या उन से बातें करें.

यदि आप अपने एक्स को याद कर बेहद इमोशनल फील कर रही हैं तो टीवी पर कौमेडी शोज या प्रेरक कार्यक्रम देखें. हलकेफुलके, सुखद अंत वाला रोमांटिक साहित्य पढ़ें. यह आप का अपनी हालत से ध्यान हटाने में बहुत सहायता करेगा.

सोशल मीडिया से कुछ दिनों के लिए हर संभव दूरी बनाएं: सोशल मीडिया, जैसे फेसबुक, इंस्टाग्राम पर बारबार जाने से आप अपने एक्स के फोटो देख कर उसे याद करेंगी जो आप को उसे भूलने नहीं देगा. वहां अपने परिचित जोड़ों की हंसतीमुसकराती फ़ोटोज़ आप का मूड खराब कर सकती हैं.

सोशल मीडिया पर अपने ब्रेकअप को कतई पोस्ट न करें: ऐसा करना आप को लोगों के निरर्थक सवालों से बचाएगा.

सोशल मीडिया पर अपने एक्स को अन-फौलो या म्यूट कर दें: यदि आप के एक्स से ब्रेकअप के बाद भी परस्पर संबंध में बहुत अधिक कड़वाहट नहीं घुली, आप उसे अब भी अपना दोस्त मानती हैं तो उसे अनफ्रैंड करने की आवश्यकता नहीं. उसे बस म्यूट, अनफौलो या हाइड करने से आप उस की पोस्ट देखने से बच जाएंगी.

अपने एक्स का सोशल मीडिया पेज चैक करने से बचें: ब्रेकअप के बाद आप को उस की मनोदशा का पता लगाने के लिए उस के फोटो या स्टेटस देखने की इच्छा हो सकती है कि उस का हाल कैसा है लेकिन यह बिलकुल न करें क्योंकि यह मात्र आप के दुख में बढ़ोतरी करेगा.

उस के उपहारों को किसी अलमारी में ताले में रख दें: उस के गिफ्ट्स, आप के साथ खींचे गए फोटोज़ को अपने सामने से हटा देने से आप को अपने टूटे रिश्ते की याद नहीं आएगी जोकि आप को दुखी करने के अलावा और कुछ नहीं करेंगे.

भाषा की मर्यादा लांघ चुके भाजपा नेताओं पर कार्रवाई कब

लोकसभा चुनाव में मुंह की खाने के बाद से भारतीय जनता पार्टी बौखलाई हुई है. उस के नेता लगातार राहुल गांधी पर अपनी भड़ास निकाल रहे हैं. कोई मुंह से भले न कहे, भीतर से तो सभी जान रहे हैं कि भाजपा और मोदी के तिलिस्म को राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ ने तोड़ दिया है. रहीसही कसर इंडिया गठबंधन ने पूरी कर दी है और 400 पार का नारा देने वालों को 240 पर समेट दिया है.

उधर उत्तर प्रदेश के फायरब्रैंड भाजपाई मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बुलडोजर न्याय पर सुप्रीम कोर्ट ने हथौड़ा चला दिया है. योगी आदित्यनाथ समाज का ध्रुवीकरण करने की नीयत से मुसलिम समाज को डराने व हिंदू समाज को खुश करने के लिए प्रदेशभर में मुसलिम घरों, दुकानों को बुलडोजर से ढहा रहे थे. तुर्रा यह दिया जा रहा था कि जिन घरों और दुकानों पर बुलडोजर चलाए जा रहे हैं वो अवैध रूप से बने थे. कोई पूछे कि जब बन रहे थे तब इन के निकम्मे प्रशासन ने क्यों नहीं रोका? तब कैसे बन गईं इतनी अवैध संपत्तियां?

समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष और प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव तो योगी की बुलडोजर नीति की लंबे समय से आलोचना करते आ रहे हैं. इधर जब से भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व की तरफ से राहुल गांधी पर आक्रामक टिप्पणी करने की मौन स्वीकृति भाजपा नेताओं को मिली है तभी से अखिलेश यादव के खिलाफ भी भाजपा नेता ही नहीं, योगी आदित्यनाथ तक भाषाई मर्यादा लांघ कर निंदनीय बयानबाजी कर रहे हैं. दरअसल, राहुल और अखिलेश की जोड़ी से भाजपा थर्रा रही है, इसीलिए इन दोनों पर पिली हुई है. बात आरोपप्रत्यारोप की होती तो सहन की जा सकती थी मगर जिस तरह की बातें अब सामने आ रही हैं वे नेताओं की बयानबाजी नहीं बल्कि जान से मारने की धमकियां है, जिन के खिलाफ तुरंत एफआईआर दर्ज की जानी चाहिए और आरोपियों की गिरफ्तारी होनी चाहिए.

भाजपा के रेल राज्यमंत्री रवनीत सिंह बिट्‌टू ने 15 सितंबर को राहुल गांधी को आतंकवादी कहा. उन्होंने राहुल गांधी की नागरिकता को भी ख़ारिज करने की कोशिश की, कहा कि, राहुल गांधी हिंदुस्तानी नहीं हैं. उन को भारत से प्यार भी नहीं है. राहुल ने पहले मुसलमानों का इस्तेमाल करने की कोशिश की, लेकिन ऐसा नहीं हुआ तो वे अब सिखों को बांटने की कोशिश कर रहे हैं. राहुल गांधी देश के नंबर वन टेररिस्ट हैं. उन को पकड़ने वाले को ईनाम दिया जाना चाहिए, क्योंकि वे देश के सब से बड़े दुश्मन हैं. देश की एजेंसियों को उन पर नजर रखनी चाहिए.

भाजपा नेता और यूपी के मंत्री रघुराज सिंह ने भी 16 सितंबर को इंदौर में सार्वजनिक तौर पर कहा था कि नेताप्रतिपक्ष राहुल गांधी ‘भारत के नंबर वन आतंकवादी’ हैं.

दरअसल, हाल ही में राहुल गांधी अमेरिकी यात्रा पर थे जहां उन्होंने भारतीय मूल के लोगों से मुलाक़ात की और मंच से उन को संबोधित करते हुए देश के बारे में अपनी चिंता जाहिर की. राहुल गांधी ने अमेरिका में कहा कि भारत में सिख समुदाय के बीच इस बात की चिंता है कि उन्हें पगड़ी और कड़ा पहनने की इजाजत दी जाएगी या नहीं. उन के इस वक्तव्य पर भाजपा नेताओं ने राहुल को घेरना और उन पर आरोप मढ़ना शुरू कर दिया. मगर देश के नेताप्रतिपक्ष को आतंकवादी कहना न सिर्फ निंदनीय है बल्कि एक संगीन जुर्म है. एक ऐसा नेता जिस की दादी और पिता देश के प्रधानमंत्री रहे, जिन्होंने देश के लिए शहादत दी, जो खुद देश की सब से बड़ी पार्टी का नेतृत्व करता रहा हो, जिस के कदम से कदम मिला कर देश की जनता आज चलती हो, जिस को सुनने के लिए अपार जनसैलाब उमड़ता हो, ऐसे व्यक्तित्व को भाजपा का एक ऐसा नेता ‘आतंकवादी कह रहा है जिस ने कभी खुद कांग्रेस की गोद में बैठ कर राजनीति का ककहरा सीखा था.

रवनीत सिंह बिट्‌टू के बयान पर कांग्रेस प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत ने उन की बखिया उधेड़ते हुए कहा- जिस ने राहुल गांधी के आगेपीछे घूम कर अपना राजनीतिक कैरियर बनाया, वो सत्ता के लालच में विरोधियों की गोदी में बैठ कर सस्ते बयान दे रहा है. रवनीत बिट्टू जैसों को ही शास्त्रों में आस्तीन का सांप कहा गया है.

राजनीति में नेताओं के बीच आरोपप्रत्यारोप चलते रहते हैं. वे एकदूसरे पर कटाक्ष भी करते हैं जो अखबारों की सुर्खियां बनते हैं मगर आज जिस प्रकार की बातें नेताओं की गंदी जबान उगल रही हैं वे महज बयानबाजी या कटाक्ष या भाषा की मर्यादा लांघने जैसी नहीं हैं बल्कि नेताप्रतिपक्ष को जान की धमकी और मानहानि का मामला है जिस के खिलाफ सख्त कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए.

गत 16 सितंबर को महाराष्ट्र के बुलढाणा से विधायक संजय गायकवाड़ ने राहुल गांधी की जीभ काट कर लाने वाले को 11 लाख रुपए का ईनाम देने की घोषणा कर डाली. संजय गायकवाड़ ने कहा- राहुल गांधी पिछड़ों, आदिवासियों का आरक्षण खत्म करना चाहते हैं. उन्हें इस का ईनाम मिलेगा, जो भी राहुल की जीभ काटेगा, उसे 11 लाख रुपए दिए जाएंगे.

गौरतलब है कि एक सभा को संबोधित करते हुए राहुल गांधी ने कहा था कि जब भारत में (आरक्षण के लिहाज से) निष्पक्षता होगी, तब हम आरक्षण खत्म करने के बारे में सोचेंगे. अभी भारत इस के लिए एक निष्पक्ष जगह नहीं है. उन के कहने का सीधा अर्थ था कि जिस दिन भारत के सभी लोगों को समान अधिकार प्राप्त हो जाएगा, वे आरक्षण को ख़त्म करने की बात तब सोचेंगे.

इस में उन्होंने क्या गलत कहा? मगर अपने केंद्रीय आका को खुश करने के लिए कमअक्ल, बददिमाग और बदजबान भाजपा नेता सदन के नेताप्रतिपक्ष को जान की धमकी खुलेआम देने लगे और मोदी-शाह व उन की पुलिस गायकवाड़ जैसे नेताओं के खिलाफ कार्रवाई करने के बजाय तमाशा देखती रही.

याद होगा 13 अप्रैल, 2019 को, आम चुनाव से पहले भारत के कर्नाटक के कोलार में एक राजनीतिक रैली के दौरान राहुल गांधी ने हिंदी में टिप्पणी करते हुए कहा था, “सभी चोर, चाहे वह नीरव मोदी, ललित मोदी या नरेंद्र मोदी हों, उन के नाम में मोदी क्यों होता है?” इस टिप्पणी पर उन के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दर्ज हुआ था और उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उपनाम को बदनाम करने के आरोप में 2 साल के कारावास की सजा सुनाई गई थी. इस के चलते राहुल गांधी को 24 मार्च, 2023 को भारतीय संसद के निचले सदन (लोकसभा) के सदस्य के रूप में अयोग्य घोषित कर दिया गया था. मगर अब जबकि संजय गायकवाड़ राहुल गांधी की जीभ काटने की धमकी दे रहे हैं और रवनीत सिंह बिट्‌टू और रघुराज सिंह उन को आतंकवादी घोषित कर रहे हैं, तो इन के खिलाफ पुलिस का कोई ऐक्शन न होना और इन्हें गिरफ्तार न किया जाना देश की न्याय प्रणाली को कठघरे में खड़ा करता है.

धमकियों का सिलसिला इन्हीं 3 नेताओं तक सीमित नहीं है. सदन के भीतर बातबात पर बेतुकी कविताएं सुनाने वाले रामदास अठावले भी बदजबानी में आगे हैं. अठावले कहते हैं- राहुल गांधी विदेश में जा कर देश की प्रतिष्ठा को गिराते हैं, उन का पासपोर्ट रद्द होना चाहिए. वहीं भाजपा सांसद अनिल बोंडे भी राहुल की जीभ काट लेने का मशवरा देते हैं. भाजपा नेता तरविंदर सिंह ने तो अपनी सड़कछाप भाषा का परिचय दिया, एक्स पर लिखा- राहुल गांधी बाज आ जा, नहीं तो आने वाले टाइम में तेरा भी वही हाल होगा, जो तेरी दादी का हुआ.

यानी, भाजपा नेता खुलेआम देश के नेताप्रतिपक्ष को हत्या की धमकी दे रहा है. यह बेहद गंभीर मामला है. ये सभी भाजपा की नफरत की फैक्ट्री के प्रोडक्ट हैं और इन पर कठोर से कठोर कार्रवाई इसलिए होनी चाहिए क्योंकि ये देश के युवाओं को हत्या और मारकाट के लिए उकसा रहे हैं. देश के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री अगर इन धमकियों पर खामोशी ओढ़े हुए हैं तो माना जाना चाहिए कि उन की मौन स्वीकृति भाजपा नेताओं को मिली हुई है. इन के पाप और अपराध में वे बराबर के शरीक हैं.

नेता की भाषा उस के राजनीतिक स्तर को मापने का एक पैमाना होती है. इस में नेता का स्तर रिफ्लैक्ट होता है. अगर भाजपा नेता ऐसी आपराधिक बातें कह रहे हैं तो देश की जनता को समझ लेना चाहिए कि देश अगर ऐसे लोगों के हाथों में रहा तो आने वाले वक्त में चारों तरफ अपराध और अराजकता का बोलबाला होगा.

राहुल गांधी पर भाजपा द्वारा लगाए गए आरोप और उन को दी जा रही धमकियां केवल एक व्यक्ति पर हमला नहीं हैं बल्कि भारतीय लोकतंत्र, राजनीति और समाज के मूल्यों पर भी हमला हैं. जनता को यह समझना होगा कि यह राजनीति का गिरता स्तर है और इसे सुधारने की जिम्मेदारी जनता पर ही है.

भारतीय राजनीति में विचारधारा, मूल्यों और सिद्धांतों का अपना विशेष महत्त्व है. यह न केवल देश के विकास और स्थायित्व के लिए आवश्यक है बल्कि यह जन के प्रति राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी का भी प्रमाण होता है. लेकिन जब राजनीति में व्यक्तिगत हमले, अनर्गल आरोप और मिथ्या प्रचार का सिलसिला शुरू हो जाता है, तो यह राजनीति के गिरते स्तर को ही दर्शाता है.

भारतीय जनता पार्टी जिस तौरतरीके की राजनीति करना चाह रही है, वह भारतीय लोकतंत्र के लिए अस्वीकार्य है. यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि स्तर की इस गिरावट पर प्रधानमंत्री की चुप्पी वाचाल वर्ग को प्रोत्साहन दे रही है. कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और लोकसभा में नेताप्रतिपक्ष राहुल गांधी पर भाजपा द्वारा लगाए गए अनर्गल आरोप इसी विकृत मानसिकता का परिचायक हैं. भाजपा का बारबार राहुल गांधी के खिलाफ इस प्रकार के आरोप लगाना उस के राजनीतिक भय का भी बड़ा प्रमाण है. चूंकि राहुल गांधी देशहित में सरकार से लगातार सवाल पूछते हैं, गांव, गरीब, मजदूर और किसान की आवाज उठाते हैं, महिला उत्पीड़न के मामलों को राष्ट्रीय मुद्दा बनाते हैं, इसलिए प्रधानमंत्री के संरक्षण और प्रोत्साहन से केंद्र सरकार के मंत्री से ले कर अलगअलग राज्यों के विधायक तक गैरजरूरी व अनर्गल आरोप लगाते रहते हैं.

राहुल गांधी पर लगाए जाने वाले आरोप और भाजपा द्वारा अपनाई जा रही यह रणनीति भारतीय लोकतंत्र के लिए एक बड़ा खतरा है. प्रजातंत्र की मौलिक परिभाषा में यह एक स्थापित तथ्य और सत्य है कि स्वस्थ लोकतंत्र में विपक्ष का स्थान और सम्मान महत्त्वपूर्ण होता है. विपक्ष सरकार की नीतियों की आलोचना करता है और जनता की आवाज उठाता है. लेकिन जब विपक्ष के शीर्ष नेतृत्व पर नितांत निराधार व्यक्तिगत हमले होते हैं, तो यह सदन की गरिमा और गंभीरता के साथ लोकतंत्र की नींव को भी कमजोर करता है. राहुल गांधी पर लगाए गए आरोप अल्पजीवी चर्चा तो बटोर लेते हैं लेकिन लोकतांत्रिक प्रणाली के प्रति जनता के विश्वास को कमजोर कर देते हैं. इस से जनता के बीच यह संदेश जाता है कि राजनीति में विचारधारा और सिद्धांतों के बजाय व्यक्तिगत हमले ही प्रमुख हो गए हैं.

भाजपा अपनी नफरत से भरी वैचारिक विचारधारा और बांटने की राजनीतिक भावना को बढ़ावा देती है जबकि कांग्रेस एक धर्मनिरपेक्ष और समावेशी समाज की वकालत करती है. इस वैचारिक संघर्ष में बारबार हारने के बावजूद भाजपा राहुल गांधी को केवल इसलिए निशाना बनाती है क्योंकि वह कांग्रेस की विचारधारा के आगे आज भी खुद को बौना पाती है, परास्त होती है और बौखला कर बेशर्मी व अपराध की राह पकड़ती है.

मेरी मां अकसर चुपके से मेरी बीवी का मोबाइल फोन चैक करती है.

अगर आप भी अपनी समस्या भेजना चाहते हैं, तो इस लेख को अंत तक जरूर पढ़ें..

सवाल –

मेरी शादी को 1 साल हुआ है और मेरे घर में मैं, मेरी पत्नी और मेरे मातापिता रहते हैं. हम चारों में काफी प्यार है और किसी को किसी से कोई शिकायत नहीं रहती. मेरी पत्नी भी मेरे मातापिता का खूब अच्छे से खयाल रखती है. मैं ज्यादातर समय अपने काम पर ही रहता हूं और कभीकभी अपने काम के सिलसिले में मुझे शहर से बाहर भी जाना पड़ता है पर मैं इस बात से निश्चिंत हूं कि मेरी बीवी ने मेरा घर अच्छे से संभाल लिया है और वह अपनी जिम्मेदारी अच्छे से निभाती है. पिछले कुछ दिनों से मेरी बीवी ने मुझ से एक ऐसी शिकायत की जिसे सुन कर मुझे उस पर विश्वास नहीं हुआ. मेरी पत्नी को लगता था कि मेरी मां उस से छिप कर उस का मोबाइल फोन चैक करती हैं. पहले तो मुझे यकीन नहीं हुआ लेकिन मैं काफी हैरान हुआ जब मैं ने अपनी मां को खुद मेरी बीवी का फोन चैक करते हुए देखा. मुझे नहीं पता वे ऐसा क्यों कर रही हैं. मुझे क्या करना चाहिए ?

जवाब –

जैसाकि आप ने बताया कि आप ज्यादातर अपने काम पर ही रहते हैं, तो ऐसे में आप के मातापिता के सब से नजदीक आप की पत्नी ही रहती है. हो सकता है कि आप की मां ने कुछ ऐसा देखा हो या फिर उन्हें कुछ एहसास हुआ हो जो वे ऐसा कर रही हैं. या फिर यह भी हो सकता है आप की माताजी आप की पत्नी के मोबाइल से कुछ सीखने की कोशिश भी कर रही हों.

आप को बिना सारी बात जाने किसी से कोई बात नहीं करनी चाहिए. यहां तक की आप अपनी पत्नी को भी न बताएं कि आप ने भी अपनी मां को उन का फोन चैक करते देखा है. आप अपनी पत्नी से ऐसा कहें कि हो सकता है कि यह सब उन का वहम हो.

अपनी मां के साथ अकेले में बैठें और उन से पूछें कि वे यह सब क्यों कर रही हैं. आखिर उनके मन में ऐसा क्या चल रहा है जो वे अपनी बहू का फोन चैक करने लगी हैं. यह भी जानने की कोशिश करें कि कहीं वे मोबाइल पर कुछ जानने की कोशिश तो नहीं करतीं.

बात जो भी हो, वे यकीनन आप को सारी सचाई जरूर बताएंगी. ऐसे में आप को शांत दिमाग से काम लेना होगा.

अपनी मां की बात सुन कर पहले सारी सचाई का अपनी तरफ से पता लगा लें उस के बाद ही किसी से कुछ कहें क्योंकि रिश्तों की डोर काफी नाजुक होती है तो इसे संभाल कर चलना पङता है.

मां और पत्नी दोनों का साथ दे कर एकदूसरे के मन के वहम को दूर करना आप की जिम्मेदारी है.

अलबत्ता, मां को आप की बहू का फोन पसंद है, तो एक अपनी मां को भी ला कर दे दें. दूसरा, अगर वे पढ़ीलिखी हैं तो उन्हें पत्रपत्रिकाएं व अच्छा साहित्य भी पढ़ने को दे सकते हैं. इस से वे मोबाइल से दूर रहेंगी और बुजुर्ग अवस्था में उन का मन भी लगा रहेगा.

व्हाट्सऐप मैसेज या व्हाट्सऐप औडियो से अपनी समस्या इस नम्बर पर 8588843415 भेजें.

महाराष्ट्र : शक्की पति को पत्नी के चरित्र पर था शक, चाकू घोंप कर बेरहमी से मार डाला

महाराष्ट्र के पालघर जिले में एक 34 वर्षीय भारती नामक महिला की हत्या खुद उस के पति ने ही कर दी। उस ने चाकू से गोदगोद कर पत्नी की हत्या कर दी. इस घटना से पूरे क्षेत्र में सनसनी फैल गई. आरोपी की पहचान 37 वर्षीय गोपाल राठौड़ के रूप में की गई है.

पड़ोसियों की मानें तो दोनों पतिपत्नी के बीच काफी समय से किसी न किसी बात को ले कर विवाद चल रहा था.

आरोपी गोपाल राठौड़ को शराब पीने की भी लत थी और इसी के चलते बीते दिनों उस ने फुलपाड़ा इलाके में स्थित अपने घर खूब शराब पी कर आया और किसी बात पर उस में और उस की पत्नी में झगड़ा होने लगा। झगड़े के बीच उस ने बिना सोचेसमझे सुबह के साढ़े 4 बजे चाकू उठा कर अपनी पत्नी भारती के सीने में घोंप कर उस की हत्या कर दी.

खबर मिलते ही पुलिस की एक टीम घटनास्थल पहुंची और महिला के शव को पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया.

बताया जा रहा है कि आरोपी को अपनी पत्नी के चरित्र को ले कर शक था जिस के चलते दोनों में अकसर लड़ाइयां हुआ करती थीं.

पुलिस की तारीफ करनी चाहिए जिन्होंने सीसीटीवी फुटेज और अपने नैटवर्क का इस्तेमाल कर केवल 6 घंटे में इस केस को सौल्व कर आरोपी गोपाल राठौड़ को हिरासत में ले लिया.

पुलिस ने गोपाल राठौड़ को कोपर स्टेशन से गिरफ्तार किया जिस समय वह कर्नाटक भागने की कोशिश कर रहा था.

पतिपत्नी का रिश्ता आपसी भरोसे और विश्वास पर कायम रहता है, जिसे दोनों को ही निभाना चाहिए. मगर शराबी पति ने न सिर्फ नशे में अपनी पत्नी की हत्या कर दी, रिश्ते को भी कलंकित कर दिया.

कानून को हाथ में लेने वाले लोग अक्सर यह सोचते हैं कि वह पुलिस को चकमा दे कर बच जाएगा. मगर कानून के हाथ लंबे होते हैं और अपराधी कितना भी शातिर हो, एक न एक दिन जरूर पकड़ा जाता है.

अब वह सनकी पति पूरी उम्र जेल में बिताएगा और पलपल खुद को कोसता रहेगा कि ऐसी बङी गलती उसे नहीं करनी चाहिए थी.

शादी से पहले अपना आशियाना बना लें और खुशियों का दरवाजा खोलें

करन और काशवी की शादी को 6 महीने भी नहीं हुए हैं कि दोनों का रिश्ता टूटने की कगार पर है. काशवी और उस की सास में रोज किसी न किसी बात पर कलह होती है. काशवी अपनी तरफ से पूरी कोशिश करती है कि करन के पेरैंट्स के साथ उस का रिश्ता अच्छा रहे और घर में सब मिलजुल कर रहें, लेकिन उस की लाख कोशिशों के बाद भी ऐसा नहीं हो पा रहा. करन अपनी वाइफ और पेरैंट्स के बीच सैंडविच बना हुआ है. अब स्थिति यहां तक पहुंच चुकी है कि काशवी और करन ने अलग रहने का फैसला किया है. शादी के शुरुआती दिनों में अधिकतर परिवारों की यही कहानी होती है.

पेरैंट्स भी खुश और बच्चे भी खुश

आजकल विवाह के बाद कपल्स का लड़के के पैरैंट्स के घर को छोड़ अलग से रहना आम बात होती जा रही है. अगर लड़केलड़की दोनों जौब करते हैं और पेरैंट्स शारीरिक व आर्थिक रूप से स्वस्थ और संपन्न हैं तो अलग रहने में ही भलाई है.

इस का एक फायदा यह भी है कि वह घर जो दोनों ने अपनी कमाई से खरीदा है दोनों का बराबर होगा और एकदूसरे को कोई इमोशनल ब्लैकमेल नहीं कर सकता कि यह मेरा घर है.

समय तेजी से बदल रहा है, अब भारतीय युवा भी पारिवारिक रजामंदी से अपने पेरैंट्स से अलग रहने लगे हैं. पेरैंट्स को भी अब बच्चों को अपने से अलग रहने में कोई समस्या नहीं दिखाई देती क्योंकि साथ रह कर रोज की किचकिच से थोड़ा दूर रह कर प्यार बना रहना उन्हें सही फैसला लगता है. शहरों में पढ़ेलिखे परिवारों में जहां बच्चे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं, अपना अलग घर बसाने लगे हैं या फिर पेरैंट्स खुद अपने बच्चों को अपनी ही सोसाइटी या आसपास ही अलग घर दिला देते हैं, ताकि बच्चे और वे भी बिना किसी मनमुटाव के अपनी मनमरजी से रह सकें और दूर रह कर भी आपसी प्यार बना रहे.

आप सब ने स्टार वन चैनल पर दिखाया जाने वाला हिंदी हास्य धारावाहिक ‘साराभाई वर्सेस साराभाई’ जरूर देखा होगा. इस धारावाहिक में बेटाबहू यानी डा. साहिल साराभाई और मनीषा ‘मोनिशा’ सिंह साराभाई, ससुर इंद्रवदन साराभाई और सास माया मजूमदार साराभाई के सामने वाले फ्लैट में रहते हैं और दोनों अलगअलग रहते हुए भी साथ रहते हैं और इन के बीच की मीठी नोकझोंक सब का खूब मनोरंजन करती थी.

अपने पैरेंट्स से अलग अपने आशियाने में रहने वाले बौलीवुड सितारे

बौलीवुड में आप को कई ऐसे स्टार्स मिल जाएंगे जिन्होंने शादी से पहले ही अपना नया घर बना लिया और शादी करते ही अपने नए आशियाने में अपने पार्टनर के साथ शिफ्ट हो गए. बौलीवुड के उन मैरिड कपल्स में रणवीर सिंह-दीपिका पादुकोण, सिद्धार्थ मल्होत्रा-कियारा आडवाणी, कैटरीना कैफ-विक्की कौशल से ले कर रणबीर कपूर-आलिया भट्ट के अलावा और भी कई स्टार्स शामिल हैं.
वरुण धवन ने भी अपनी गर्लफ्रेंड नताशा दलाल से शादी करने के बाद अपने पिता डेविड धवन का घर छोड़ दिया था. सोनम कपूर भी शादी के बाद अपने बिजनैसमैन पति आनंद आहूजा के साथ उन के अपने घर में लंदन शिफ्ट हो गई थीं.

पेरैंट्स भी खुश और बच्चे भी खुश. लेकिन ऐसा बहुत कम है. अधिकतर मामलों में तो पारिवारिक अनबन, निजता, आजादी, घर के खर्चे और सामाजिकता आदि मुद्दे ही आधार होते हैं.

मजबूरी में नहीं हंसीखुशी लें अलग रहने का फैसला

पेरैंट्स से अलग रहने का फैसला कहीं हंसीखुशी से होता है तो कहीं मजबूरीवश. जहां यह फैसला हंसीखुशी से होता है वहां इस के कई फायदे हैं और जहां मजबूरीवश होता है वहां कई तरह के नुकसान.

एकदो कमरे का फ्लैट और उस में शादी के बाद सासससुर के साथ रहना अपने लिए स्पेस तलाशना, मनचाहे कपड़े पहनना, दोस्तों का आनाजाना आसान नहीं होता. कई तरह की बंदिशें और औपचारिकताएं निभानी पड़ती हैं. उस पर पेरैंट्स के नियमकायदे रिश्तों में मनमुटाव का कारण बन जाते हैं, इसलिए हंसीखुशी अलग रहें.

वर्किंग बहू की परेशानियां

परिवार के अपने रिवाज और परंपराएं होती हैं, ऐसे में कई बार बहुओं को इन के मुताबिक ढलने में परेशानी आती है. उदाहरण के लिए, अगर किसी घर में यह रिवाज हो कि सुबह के नाश्ते से ले कर दिन का खाना बहुएं ही बनाती हों, तो उन महिलाओं को दिक्कत आ सकती है जिन्हें सुबह औफिस जाना होता है. इसी तरह कुछ परिवारों में लड़कियों के लिए एक कर्फ्यू टाइम तय होता है. इस स्थिति में भी बहू अगर औफिस से लेट आए तो उसे सासससुर से सुनने को मिल सकता है. महिला के लिए जब इन स्थितियों में एडजस्ट करना मुश्किल हो जाता है तो वह अलग होना ही बेहतर समझती है.

हंसतेमुसकराते बनाएं स्पेस

हंसतेमुसकराते अपने और उन के लिए भी स्पेस बना कर जिस की उन को भी जरूरत है, खुशियों को इन्वाइट किया जा सकता है. शादी के बाद पेरैंट्स से अलग रहने का मतलब उन के प्रति लगाव कम होना नहीं होता. दूर रह कर भी पारिवारिक रिश्ते मजबूत बने रह सकते हैं.

फोनकौल, वीडियो चैट, त्योहारों, घर के कार्यक्रमों में शामिल हो कर रिश्तों में मजबूती और प्यार बनाए रखा जा सकता है. साथ रह कर एकदूसरे को दुख देने से बेहतर है थोड़ा दूर रह कर एकदूसरे की खुशियों को बढ़ाने में सहयोग किया जाए. नई पीढ़ी दूर रह कर भी पेरैंट्स के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को ले कर सजग रह सकती है. पेरैंट्स को भी यह समझना जरूरी है कि बदलते समय के साथ नई पीढ़ी का अपना घर चलाने का तरीका और लाइफस्टाइल बदल चुका है. इस नजरिए से दोनों दूर रह कर भी एक परिवार की तरह रह पाएंगे.

आज के युवाओं के लिए प्राइवेसी और पर्सनल फ्रीडम बहुत माने रखते हैं और वे अपना जीवन अपने हिसाब से जीना चाहते हैं जिस के वे काबिल भी हैं.

शादी के बाद परिवार से अलग रहने के फायदे

पेरैंट्स के साथ रहने से मैरिड कपल को प्राइवेसी नहीं मिल पाती है. इस के अलावा जब नए शादीशीदा कपल पेरैंट्स से अलग रहते हैं तो लड़का अपनी वाइफ की घर के कामों में मदद कर पाता है, दोनों को एकदूसरे को समझने का मौका मिल पाता है, दोनों एकदूसरे के साथ क्वालिटी टाइम स्पैंड कर पाते हैं, कैरियर पर फोकस कर पाते हैं. इसलिए लड़का हो या लड़की, आर्थिक रूप से स्वतंत्र होते ही, शादी से पहले ही, पेरैंट्स से अलग अपना आशियाने का इंतजाम करना बेहतर होता है. क्योंकि 2 पीढ़ियों की सोच, जिंदगी, खानपान, जीवनशैली आदि में बहुत फर्क होता है.

साथ में घर के काम करने से बढ़ता है प्यार

शादी के बाद जब अपने घर में अलग रहते हुए नए शादीशुदा कपल साथ में घर का काम करते हैं, जैसे साथ खाना बनाते हैं या फिर घर का कोई अन्य कार्य करते हैं तो उन का रिश्ता मजबूत बनता है, उन के बीच की बौन्डिंग मजबूत होती है और साथ काम करने से भेदभाव भी खत्म होता है. लेकिन जब आप पेरैंट्स के घर में रहते हैं तो घर के काम की सारी जिम्मेदारी नई बहू को दे दी जाती है और इस से जैंडर भेदभाव को बढ़ावा मिलता है.

एकदूसरे को समझने का मौका

जौइंट फैमिली में शादी के शुरुआती दिनों में पतिपत्नी को एकदूसरे को समझने का पर्याप्त मौका नहीं मिल पाता है जबकि पेरैंट्स से दूर रह कर पतिपत्नी एकदूसरे को ज्यादा बेहतर तरीके से समझ पाते हैं. परिवार के सभी सदस्यों को यह समझना चाहिए कि पतिपत्नी को बहुत लंबा जीवन जीना है, इसलिए उन्हें एकदूसरे को समझना बहुत जरूरी है. अकेले रहते हुए वे एकदूसरे की अच्छी और बुरी आदतों को समझते हुए दोनों एकदूसरे में रम जाते हैं और उस के बाद जीवन की असली खूबसूरती निखर कर आती है. जब कपल अकेले रहते हैं तो वे अपने व्यक्तित्व को ज्यादा बेहतर तरीके से निखार पाते हैं. उन्हें एकदूसरे को समझने का मौका मिलता है और उन्हें मिल कर जीवन के उतारचढ़ावों से जूझना आता है.

पति के साथ प्राइवेट मोमैंट मिलने का मौका चाहे लव मैरिज हो या फिर अरेंज्ड, हर कपल शादी के बाद एकदूसरे के साथ समय बिताना चाहता है लेकिन जब कपल शादी के बाद पेरैंट्स के साथ रहने का फैसला करता है तो नए नए पतिपत्नी बने कपल पारिवारिक जिम्मेदारियां निभाने में ही इतना बिजी हो जाते हैं कि उन्हें आपस में क्वालिटी टाइम स्पैंड करने का मौका ही नहीं मिलता. नईनवेली दुलहन के लिए यह स्थिति बहुत चैलेंजिंग होती है क्योंकि जिस के लिए वह परिवार में आती है उसी के साथ उसे समय बिताने का मौका नहीं मिल पाता जो उसे फ्रस्ट्रेट करता है और उन के बीच प्यार के बजाय झगड़े शुरू हो जाते हैं. ऐसी स्थिति नए कपल का अलग घर में शिफ्ट होना उन्हें साथ में समय बिताने का मौका देता है.

मैंटल स्ट्रैस से बचाव और रिश्तों में मिठास

बहुत सारे मामलों में नइ बहू के लिए सासससुर या ससुराल के किसी अन्य मैंबर से रोजरोज की तूतू मैंमैं, पति के साथ प्राइवेट मोमैंट का न मिलना जबरदस्त मैंटल स्ट्रेस का कारण बनते हैं और शादी को ले कर बुने सारे सपने हवा हो जाते हैं और झगड़े बढ़ने लगते हैं. ऐसे में मानसिक शांति और रिश्तों में मिठास के लिए पेरैंट्स से अलग रहना सही फैसला साबित होता है.

क्यों आंसुओं का कोई मोल नहीं : आखिर क्या हुआ था मार्गरेट के साथ

कोमल एहसासों की चादर में लिपटी मारिया अपने आज और आने वाले कल की खुशियों को धीमधीमे खुद में समेटने की कोशिश में जुटी थी. आज वह बहुत खुश थी. पूरे 3 साल बाद उस की बेटी मार्गरेट अमेरिका से पढ़ाई पूरी कर जयपुर लौट रही थी. डैविड की असमय मृत्यु के 5 सालों बाद मारिया दिल से खुशी को जी रही थी. मार्गरेट तो वैसे भी घर की जान हुआ करती थी. उस की हंसी और खुशमिजाज स्वभाव से तो सारा घर खिल उठता था. उस के अमेरिका चले जाने के बाद घर बिलकुल सूना सा हो गया था. मारिया यह सोच खुश थी कि उस के घर की रौनक लौट रही है. उस की खुशी का अंदाजा लगाना मुश्किल था.

न्यूयौर्क जाने से पहले मार्गरेट ने मारिया को धैर्य बंधाते हुए कहा था, ‘‘मां, मैं तुम्हारी बहादुर बेटी हूं और तुम्हारी ही तरह आत्मनिर्भर बनना चाहती हूं. आने वाले दिनों में तुम्हें मुझ पर गर्व होगा.’’ तब मारिया ने अपनी आंखें बंद कर मन ही मन कामना की थी बेटी की सारी इच्छाएं पूरी हों.

डैविड की 5 साल पहले एक ऐक्सीडैंट में असमय मौत हो गई थी. यों अचानक बीच रास्ते में साथी का साथ छूट जाना कितना तकलीफदेह होता है, इस बात को केवल वही समझ सकता है जिस के साथ यह घटित होता है. डैविड के जाने के बाद 2 बेटियों की परवरिश और घर चलाने का पूरा जिम्मा मारिया पर आ गया था. यह अच्छी बात थी कि मारिया भी डैविड के बिजनैस में अपना योगदान देती थी. उन का गारमैंट्स ऐक्सपोर्ट का बिजनैस था, जो बहुत अच्छा चल रहा था. इसीलिए डैविड की असमय मृत्यु के बाद मारिया को उतनी दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़ा जितना कि एक नौनवर्किंग महिला को करना पड़ता है. पर अकेले व्यापार और घर संभालना आसान भी नहीं था. फिर बेटियां भी छोटी ही थीं.

तब बड़ी बेटी मार्गरेट 10वीं कक्षा में पढ़ रही थी और छोटी बेटी ऐंजेल 8वीं कक्षा में. उस समय मार्गरेट अपनी मां का सहारा बनी. परिस्थितियों ने अचानक उसे परिपक्व बना दिया. अपनी पढ़ाई के साथसाथ घर के कामों में मां का हाथ भी बंटाने लगी. मार्गरेट पढ़ाई में बहुत होशियार थी. 2 साल बाद 12वीं कक्षा में स्कूल में टौप किया था और एक टेलैंट सर्च कंपीटिशन में उसे स्कौलरशिप मिली थी न्यूयौर्क यूनिवर्सिटी से बिजनैस की पढ़ाई के लिए.

हालांकि मारिया नहीं चाहती थी कि मार्गरेट पढ़ने के लिए सात समंदर पार जाए, पर बच्चों की जिद और उन के सपनों के लिए अपनी सोच से डर को रुखसत करना ही पड़ता है. हर मातापिता यही चाहते हैं कि उन के बच्चे खूब पढ़ेंलिखें और आगे बढ़ें. मारिया ने भी आखिरकार रजामंदी दे दी. मारिया की एक कजिन सुजन अमेरिका में ही रहती थी. अत: एक भरोसा था कि कोई जानने वाला वहां है जो जरूरत के समय काम आ जाएगा और यह भी कि मार्गरेट को भी घर जैसा फील चाहिए हो तो वह सुजन के घर जा सकती है. मारिया ने सुजन से बात कर अमेरिका के विषय में काफी जानकारी ले ली थी. उसे यह जान कर खुशी हुई थी कि वहां पढ़ाई का बहुत उच्च स्तर है जो मार्गरेट के भविष्य के लिए बहुत अच्छा होगा. अत: 3 साल का समय किसी तरह दिल पर पत्थर रख कर बिता दिया.

मार्गरेट की फ्लाइट शाम को 5 बजे लैंड होने वाली थी. मार्गरेट के इंतजार में एअरपोर्ट पर जैसे मारिया को 1-1 पल भारी पड़ रहा था. इंतजार का वक्त खत्म हुआ और मार्गरेट एअरपोर्ट से बाहर निकल मारिया केसामने आ खड़ी हो गई. पर मानो मारिया के लिए उसे पहचान पाना मुश्किल सा था. सामने कोई मुसकराता चेहरा न था. मार्गरेट का चेहरा मायूसी से भरा था. आंखों के नीचे काले गड्ढे हो गए थे. मुसकराहट तो चेहरे से लापता थी. सामने जैसे कोई हड्डी का ढांचा खड़ा हो.

मारिया ने जैसेतैसे खुद को संभाला और मार्गरेट को गले से लगाते हुए कहा, ‘‘कैसी है मेरी बच्ची? बहुत दुबली हो गई है.’’ मार्गरेट ने बहुत धीमे स्वर में कहा, ‘‘ठीक हूं और जिंदा हूं.’’

न उस के चेहरे पर कोई खुशी का भाव था और न ही दुख का. एक बेजान चेहरा. कुछ क्षणों के लिए जैसे मारिया के दिमाग ने काम करना बंद कर दिया हो, फिर खुद को संभालते हुए उस ने प्यार से मार्गरेट के सिर पर हाथ फेरा और कहा, ‘‘चलो, घर चलें. ऐंजेल तुम्हारा बेसब्री से इंतजार कर रही होगी.’’

मारिया ने गाड़ी में सामान रखवा कर गाड़ी घर की तरफ मोड़ दी. पूरा रास्ता मार्गरेट चुप बैठी एकटक लगाए कार की खिड़की से बाहर देखती रही.

मारिया को कई सवालों ने घेर लिया था. उसे मार्गरेट की चुप्पी खाए जा रही थी पर चाह कर भी उस ने मार्गरेट से कुछ नहीं कहा और न ही कुछ पूछा. उसे लगा हो सकता है लंबे सफर की वजह से थक गई हो या फिर 3 सालों के फासले ने उसे कुछ बदल दिया हो. दिमाग सवालों की एक माला पिरोता जा रहा था पर जवाब तो सारे मार्गरेट के पास थे. यही सब सोचतेसोचते मारिया मार्गरेट को ले कर घर पहुंच गई. कार का हौर्न बजाते ही ऐंजेल बुके लिए दरवाजे पर खड़ी थी. मार्गरेट कार से धीमी गति से उतरी, एकदम सुस्त. ऐंजेल दौड़ कर उस के पास पहुंची और चिल्लाते हुए बोली, ‘‘वैलकम होम दीदी… आई मिस्ड यू सो मच.’’

पर मार्गरेट के चेहरे पर न कोई खुशी, न कोई उत्साह और न कोई उल्लास था. जब मार्गरेट ने उसे कोई उत्साह नहीं दिखाया तो ऐंजेल थोड़ी मायूम हो गई. बोली, ‘‘क्या दीदी, तुम मुझ से 3 साल बाद मिल रही हो और तुम्हारे चेहरे पर कोई खुशी नहीं है.’’

मारिया ने ऐंजेल को समझाते हुए कहा कि मार्गरेट सफर से थकी हुई है. तुम इसे परेशान न करो. इसे आराम करने दो… बाद में बातें कर लेना.’’ ऐंजेल ने एक अच्छी बच्ची की तरह मां की बात मान ली. कहा, ‘‘चलो दीदी, मैं तुम्हें तुम्हारा कमरा दिखा दूं. मैं ने और मां ने उसे तुम्हारी पसंद से सजाया है.’’

कमरा बहुत खूबसूरती और करीने से सजा था. टेबल पर गुलाब के फूलों का गुलदस्ता था और मार्गरेट की पसंदीदा बैडशीट जिस पर गुलाब के फूलों के प्रिंट थे बिस्तर पर बिछी थी. मार्गरेट की फैवरिट कौर्नर की स्टडी टेबल पर फूलों से लिखा था- वैकलम होम. मार्गरेट जैसे ही कमरे में दाखिल हुई जोर से चिल्ला उठी, ‘‘आई हेट फ्लौवर्स,’’ और फिर गुलदस्ता जमीन पर पटक दिया. चादर को भी उठा कर एक कोने में सरका दिया, फिर अपना सिर पकड़ वहीं बैड पर बैठ गई.

मार्गरेट का यह रूप देख मारिया और ऐंजेल डरीसहमी एक कोने में खड़ी हो गईं. मारिया को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे. बहुत हिम्मत जुटा कर वह मार्गरेट के पास पहुंची और फिर उस के सिर पर हाथ सहलाते हुए बोली, ‘‘मार्गरेट, तुम आराम करो, सफर में थक गई होगी. थोड़ी देर बाद हम डिनर टेबल पर मिलते हैं,’’ और फिर मारिया ने ऐंजेल, जो सहमी सी एक कोने में खड़ी थी, को इशारे से वहां से जाने को कहा. फिर मार्गरेट को बिस्तर पर लिटा दिया. उसे चादर ओढ़ाते हुए कहा, ‘‘तुम आराम करो,’’ और कमरे से बाहर आ गई. डाइनिंगटेबल के पास बैठ बहुत परेशान हो मार्गरेट के विषय में सोचने लगी. उसे मार्गरेट के बदले स्वभाव के बारे में कुछ भी समझ नहीं आ रहा था.

फिर खयाल आया कि क्यों न सुजन से पूछे… हो सकता है वह कुछ जानती हो. अत: सुजन को फोन लगाया और यों ही बातोंबातों में जानने की कोशिश करते हुए कहा, ‘‘हैलो सुजन कैसी हो? तुम्हें इस वक्त फोन यह बताने के लिए कर रही हूं कि मार्गरेट घर पहुंच गई है. तुम्हें तहेदिल से शुक्रिया भी कहना था कि वहां परदेश में तुम ने मार्गरेट का खयाल रखा.’’ ‘‘नहीं मारिया शुक्रिया कहने की कोई जरूरत नहीं…मार्गरेट तो बहुत ही प्यारी बच्ची है और वह कभीकभार ही आती थी. पहले तो वह अकसर आती थी पर पिछले साल सिर्फ 1 बार ही आई थी और वह भी मेरे बुलाने पर,’’ सुजन बोली.

फिर कुछ इधरउधर की बातें कर मारिया ने थैंक्स कहते हुए फोन रख दिया. मारिया को सुजन से भी कुछ खास जानकारी न मिल सकी. अब वह और परेशान थी. तभी मार्गरेट के जोर से चिलाने की आवाज आई. मारिया दौड़ कर कमरे में पहुंची, मार्गरेट को देखा एक जगह सुन्न सी खड़ी रही. मार्गरेट अपने कपड़ों को अपने ही हाथों से नोचनोच कर अलग कर रही थी. बालों का एक गुच्छा जमीन पर पड़ा था. मार्गरेट की हालत और हरकतें कुछ पागलों जैसी थीं… मारिया ने खुद को फिर संभाला और मार्गरेट के पास जा उसे प्यार से सहलाने की कोशिश की तो मार्गरेट ने उस का हाथ झटकते हुए कहा, ‘‘डौंट टच मी,’’ और फिर जोरजोर से चिल्लाने लगी…

मार्गरेट की हालत देख कर मारिया को यह तो समझ आ गया था कि मार्गरेट किसी मानसिक समस्या से जूझ रही है. बड़ी मुश्किल से मारिया ने मार्गरेट को संभाला. किसी तरह खाना खिला उसे सोने के लिए छोड़ कमरे से बाहर गई. काफी रात हो चुकी थी, पर उस से रहा न गया. अपने फैमिली डाक्टर को फोन मिलाया और सारा ब्योरा देते हुए पूछा, ‘‘डाक्टर अमन बताएं मैं क्या कंरू? प्लीज मेरी मदद कीजिए. मैं ने अपनी बेटी को पहले कभी ऐसी हालत में नहीं देखा है.’’ डाक्टर ने धैर्य बंधाते हुए कहा, ‘‘मेरे खयाल से डाक्टर राजन आप की मदद कर सकते हैं, क्योंकि वे साइकिएट्रिस्ट हैं. मेरे अच्छे दोस्त हैं. तुम्हारी मदद जरूर करेंगे…डौंट वरी… सब ठीक हो जाएगा. तुम्हारी कल की अपौइंटमैंट फिक्स करवा देता हूं.’’

मारिया ने डाक्टर का शुक्रिया करते हुए फोन रख दिया. फिर उसे कई सवालों ने घेर लिया. पूरी रात यही सोचती रही कि न्यूयौर्क में ऐसा क्या हुआ होगा जो मार्गरेट की ऐसी हालत हो गई… सोचतेसोचते अचानक खयाल आया कि जब मार्गरेट सैकंड ईयर में थी तब वीडियो चैट के दौरान उस ने अपनी एक सहेली से भी बात करवाई थी, जो अमेरिकन थी. शायद एमिली नाम था. तब शायद उस समय उस का नंबर भी लिया था. उसे यह भी याद आया कि पिछले साल मार्गरेट ने कभी वीडियो चैट नहीं किया. अकसर फोन पर ही बातें करती थी. ये सब सोचतेसोचते कब उसकी आंख लगी और कब सुबह हो गई पता ही नहीं चला.

सुबह उठते ही सब से पहले मारिया ने एमिला का नंबर तलाशना शुरू किया. एक पुरानी डायरी में वह नंबर लिखा करती थी. उस में एमिली का नंबर लिखा मिल गया. इसी बीच डाक्टर की अपौइंटमैंट का समय हो गया. अत: मारिया ने एमिली को शाम को फोन लगाना उचित समझा, क्योंकि अमेरिका में तब रात होती है जब भारत में दिन होता है.

बड़ी मुश्किल से मार्गरेट तैयार हुई डाक्टर से मिलने को और वह भी यह कह कर कि मारिया को कुछ डिसकस करना है स्वयं के विषय में. डाक्टर अमन ने पहले ही डाक्टर राजन को पूरा ब्योरा दे दिया था.

मारिया जब डाक्टर मुखर्जी के रूम में मार्गरेट के संग दाखिल हुई तब डाक्टर राजन ऐसे मिले जैसे वह मारिया को पहले से जानते हों, ‘‘हैलो मारिया, कैसी हैं आप और अगर मैं गलती नहीं कर रहा तो यह आप बड़ी बेटी है मार्गरेट… एम आई राइट?’’ मारिया ने हां में सिर हिला दिया. बातोंबातों में डाक्टर ने बहुत सी जानकारी निकाल ली मार्गरेट के विषय में और उस के हावभाव, आचरण से यह साबित हो ही रहा था कि वह किसी तनाव से ग्रस्त है. यों ही मजाक करते हुए पहले मारिया का ब्लडप्रैशर लिया, फिर बाद में हंसते हुए कहा कि चलो मार्गरेट आज तुम्हारा भी बीपी चैक कर लिया जाए…

ऐसे ही बातोंबातों में डाक्टर ने एक प्रश्नावली मार्गरेट को भरने को कहा. दरअसल, यह कोई मामूली प्रश्नावली न हो कर एक साइकोलौजिकल टैस्ट था मार्गरेट के लिए. किसी तरह डाक्टर ने मार्गरेट का मूल्यांकन किया और फिर उसे बाहर बैठने को कहा. मार्गरेट के बाहर जाते ही उत्सुकता से मारिया ने पूछा, ‘‘क्या हुआ है मेरी बच्ची को… वह क्यों ऐसा बरताव कर रही हैं?’’

डाक्टर ने एक गहरी सांस लेते हुए कहा, ‘‘मार्गरेट को ऐनोरेक्सिया और पार्शियल एपिलिप्स्या है.’’ मारिया ने इस बीमारी का नाम पहले कभी नहीं सुना था. कहा, ‘‘डाक्टर यह कौन सी बीमारी है और इसे कैसे हो गई? मेरी बच्ची ठीक तो हो जाएगी न?’’

डाक्टर ने हताश मन से कहा, ‘‘मैडिकल में इस बीमारी का कोई ठोस इलाज नहीं है. ठीक होने के चांसेज 30-35% ही हैं. यह बीमारी अकसर अत्यधिक स्ट्रैस या फिर लंबे समय तक किसी मानसिक तनाव से गुजरने से हो जाती है. आप चाहें तो मार्गरेट को कुछ दिनों के लिए यहां ऐडमिट करा सकती हैं.’’ मारिया ने सोचने का समय लेते हुए डाक्टर को धन्यवाद कहा और फिर एक उदासी को साथ लिए कमरे से बाहर आ गई. मन सवालों की गठरी के नीचे दबा जा रहा था. पर जवाब मिलें भी तो कहां से मिलें. मार्गरेट की अवस्था सवालों के जवाब देने लायक तो बिलकुल भी नहीं थी. इन्हीं सवालों में उलझी मारिया मार्गरेट को ले घर पहुंची और तुरंत एमिली को फोन मिलाने का निश्चय किया.

एमिली इस वक्त एकमात्र जरीया थी जहां से कुछ जानकारी मिलने की आशा थी. बहुत संकोच के साथ मारिया ने एमिली को फोन मिलाया. जाने क्या सुनने को मिलेगा बस यही विचार बारबार दिमाग में आ कर बेचैन कर रहा था. तभी बेचैनी को भेदती हुए एक आवाज कानों में पड़ी, ‘‘हैलो.’’

जवाब में मारिया ने भी, ‘‘हैलो,’’ कहा. एमिली ने पूछा, ‘‘मे आई नो हु इज औन

द लाइन?’’ मारिया ने कहा, ‘‘इज दिस एमिली औन द लाइन… दिस इज मारिया मार्गरेट्स मदर. डू यू रीमैंबर मार्गरेट?’’

‘‘ओह यस आई डू रीमैंबर मार्गरेट… हाऊ इज शी?’’ मारिया ने समय न गंवाते हुए झट मार्गरेट की स्थिति से अवगत कराते हुए पूछा, ‘‘डू यू हैव एनी आइडिया, व्हाट हैप्पंड विद मार्गरेट व्हैन शी वाज इन अमेरिका?’’

सवाल को सुन एमिली कुछ देर चुप रही. इधर मारिया की जान मानो हलक में अटकी हो. मारिया ने फिर अपना सवाल दोहराया. तब एमिली ने एक गहरी सांस छोड़ते हुए कहा, ‘‘यस आंटी, बट आई कांट टैल यू ओवर द फोन. यू नीड टु कम हियर… इट्स अ लौंग स्टोरी.’’

जवाब सुनते ही मानो मारिया के दिमाग में हजारों सवालों ने एक सुरंग का रूप धारण कर लिया हो, जहां सिर्फ अंधकार ही अंधकार हो, जहां से दूसरा छोर नजर तो आ रहा था पर पहुंच के बाहर सा लग रहा था. मारिया कुछ देर चुप सोचती रही कि आखिर क्या करे, फिर, ‘‘आई विल कौल यू लेटर… थैंक यू,’’ कह फोन रख दिया. एक तरफ मार्गरेट का दर्द और तकलीफ, तो दूसरी तरफ ऐंजेल की स्कूल की पढ़ाई, तीसरी तरफ बिजनैस की जिम्मेदारी तो चौथी तरफ घर…क्या संभाले और कैसे. पर इस चक्रव्यूह को किसी भी तरह तो भेदना ही था. अत: बहुत सोचविचार कर मारिया ने निर्णय लिया कि वह अमेरिका जाएगी.

अगले ही दिन मारिया ने वीजा के लिए तत्काल में आवेदन किया. 10 दिनों में यूएस का मल्टिपल ऐंट्री वीजा मिल गया. इन 10 दिनों में मार्गरेट को डाक्टर राजन के हौस्पिटल में दाखिल करवा दिया. हालांकि यह एक दिल पर पत्थर रख कर लिया जाने वाला निर्णय था पर लेना भी तो जरूरी था. जाने से एक दिन पहले ऐंजेल को डैविड की बड़ी सिस्टर जो जयपुर में ही रहती थी उन के पास छोड़ दिया ताकि उस का खयाल रखें और पढ़ाई में कोई नुकसान न हो. औफिस की सारी जिम्मेदारी डैविड के खास दोस्त और कंपनी के चार्टर्ड अकाउंटैंट उमेश को सौंप मारिया अब तैयार थी आगे की लड़ाई के लिए. फ्लाइट में मारिया सोच रही थी कि पता नहीं न्यूयौर्क पहुंच क्या सुनने और जानने को मिले. विमान में बैठे घर और बच्चों की चिंता से मन भारी हो रखा था. एअरपोर्ट पर सुजन मारिया का इंतजार कर रही थी.

सुजन को देखते ही मारिया उस के गले से लिपट गई. दोनों एकदूसरी से 10 साल बाद मिल रही थीं. एअरपोर्ट से सुजन का घर आधे घंटे की दूरी पर था. सुजन ने मारिया से कहा, ‘‘इतने सालों बाद अचानक तुम से मुलाकात होने पर बहुत खुशी हो रही है.’’ मारिया ने जवाब में कहा, ‘‘क्या बताऊं तुम्हें… मेरी तो दुनिया ही उलटपलट हो गई है.’’

रास्ते में मारिया ने सुजन को मार्गरेट के बारे में सब कुछ बता दिया, फिर बोली, ‘‘इसी सिलसिले में यहां मार्गरेट की दोस्त एमिली से मिलने आई हूं… जानना चाहती हूं कि क्या हुआ इन 3 सालों में, जिस ने मेरी हंसतीखिलखिलाती बच्ची के चेहरे से हंसी ही छीन ली है.’’ सुजन को यह सब जान कर बेहद दुख हुआ. उस ने मायूसी भरे स्वर में कहा, ‘‘काश मैं कुछ कर पाती… मैं तो यहीं थी पर मुझे कुछ मालूम ही नहीं चला.’’

अगली सुबह मारिया की मुलाकात एमिली से तय थी. पूरी रात मारिया ने एक भय के साए में बिताई कि न जाने सुबह क्या सुनने को मिले. मारिया एमिली के बताए पते पर पहुंच गई. रविवार का दिन था. एमिली की छुट्टी का दिन था. वह एक न्यूज एजेंसी में पत्रकार थी. एमिली और मार्गरेट एक ही कालेज में साथ पढ़े थे. एमिली ने जर्नलिज्म का कोर्स किया था और मार्गरेट ने मैनेजमैंट का. जर्नलिज्म का कोर्स करते हुए एमिली ने कामचलाऊ हिंदी भी सीख ली थी. दोनों में बहुत अच्छी दोस्ती थी. एमिली ने मारिया को सोफे पर बैठने का आग्रह करते हुए कहा, ‘‘हैलो मारिया नाइस टु सी यू.’’

मारिया ने समय न गंवाते हुए सीधे एमिली से प्रश्न किया, ‘‘एमिली, आई हैव कम औल द वे टु नो अबाउट माई चाइल्ड मार्गरेट…प्लीज टैल मी इन डिटेल.’’ एमिली ने थोड़ी टूटीफूटी हिंदी में बताना शुरू किया, ‘‘वह मेरी रूममेट थी. हम एकदूसरे से काफी बातें शेयर करते थे. फर्स्ट ईयर तो हंसतेखेलते निकल गया. मार्गरेट ने कालेज में अपने अच्छे स्वभाव से अपनी बहुत अच्छी इमेज बना ली थी. वह पढ़ाई में तो होशियार थी ही, साथ ही ऐक्स्ट्रा ऐक्टिविटीज में भी.

‘‘रूथ एक अमेरिकन लड़का था जो मार्गरेट को पसंद करता था. दोनों में बहुत अच्छी दोस्ती भी थी. एक ही क्लास में थे. रूथ कालेज में बहुत पौपुलर था. उस की इमेज कुछ प्लेबौय जैसी थी पर वह मार्गरेट को पसंद करता था. मगर मार्गरेट का लक्ष्य पढ़ाई कर वापस जाना था. अत: उस ने रूथ को कभी सीरियसली नहीं लिया. पर रूथ उसे इंप्रैस करने की हमेशा कोशिश करता. हर रोज मार्गरेट को एक गुलाब का फूल देता था. हम सब जानते थे मार्गरेट को गुलाब का फूल बेहद पसंद है. ‘‘लास्ट सैम से पहले कालेज इलैक्शन के दौरान मार्गरेट और रूथ को नौमिनेट किया गया, कालेज प्रैसिडैंट की पोस्ट के लिए और जैसाकि हम सब जानते थे मार्गरेट इलैक्शन जीत गई. रूथ को दुख तो हुआ पर उस ने मार्गरेट को बधाई दी. मार्गरेट की जीत की खुशी में रूथ ने एक पार्टी और्गनाइज की जिस में केवल कुछ दोस्तों को ही बुलाया गया,’’ कहतेकहते एमिली रुक गई और रोने लगी.

मारिया की समझ में कुछ नहीं आ रहा था. उस ने एमिली से रिक्वैस्ट की ‘‘एमिली प्लीज मुझे सारी बातें बताओ… तुम ऐसे अचानक क्यों रोने लगी.’’ एमिली ने 1 घूंट पानी पीया और आगे बताना शुरू किया, ‘‘मार्गरेट जब रूथ के चंगुल से निकल कर आई तब उस ने मुझे बताया कि उस के साथ क्या गुजरी. अब तक हम सब रूथ को बस एक मदमस्त लड़के के रूप में जानते थे. पार्टी के बाद रूथ ने मार्गरेट को रुकने को कहा. अपनी दोस्ती का वास्ता दिया. मार्गरेट एक अच्छे दोस्त की तरह रूथ की बातों में आ गई. कहीं न कहीं मार्गरेट भी रूथ को पसंद करती थी. शायद यही कारण था कि वह उस की बातों में आ गई. फिर कोई अपने दोस्त पर शक करे भी तो कैसे? मार्गरेट भी तो अनजान थी रूथ के इरादों से.

‘‘पार्टी में सभी ने शराब पी. हालांकि मार्गरेट ने सिर्फ बियर ही पी थी पर न जाने कैसे बेहोश हो गई. जब आंखें खुली ने उस ने स्वयं को एक छोटे से गंदे से कमरे में पाया. स्टोररूम जैसा लग रहा था. मार्गरेट को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि आखिर वह उस कमरे में कैसे आई. घबराहट में उस की आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी. तभी दरवाजा खुलने की आवाज आई. सामने रूथ को देख उस की जान में जान आई. वह झट रूथ के गले लग गई. मगर रूथ ने उसे अपने से अलग करते हुए धक्का देते हुए कहा कि स्टे अवे. ‘‘मार्गरेट की समझ से परे था ये सब. वह सोच रही थी कि जिस लड़के ने एक दिन पहले उस की जीत की खुशी में पार्टी दी वही आज उस से इतनी बेरुखी से क्यों पेश आ रहा है? मार्गरेट ने फिर मदद की गुहार लगाई पर रूथ के कानों में तो जूं तक नहीं रेंग रही थी. अचानक उस ने मार्गरेट पर झपट्टा मारा और मार्गरेट के बदन से कपड़ों को नोच कर अलग कर दिया. मार्गरेट दया की गुहार लगाती रही और रूथ उस की इज्जत से खेलता रहा. मार्गरेट ने छूटने की बहुत कोशिश की, गिड़गिड़ाई पर जैसे रूथ तो एक आदमखोर भेडि़ए की तरह मार्गरेट को नोचने में लगा था.

बहुत कोशिशों के बाद भी मार्गरेट स्वयं को बचा न सकी. जब रूथ का दिल भर गया तो वह उसे वहीं कमरे में छोड़ जाने लगा. उस के चेहरे पर कुछ अजीब से भाव थे जैसे वह अपनी जीत का जश्न मना रहा हो. मार्गरेट को अब तक कुछ समझ नहीं आ रहा था कि आखिर रूथ ऐसा कर क्यों रहा था उस के साथ. जातेजाते रूथ अपने साथ मार्गरेट के कपड़े भी ले गया. ‘‘नग्नावस्था में मार्गरेट ने 1 नहीं, 2 नहीं पूरे 3 हफ्ते बिताए. रूथ का जब मन करता कमरे में आता और मार्गरेट की आबरू को छलनी कर वहां से ऐसे चला जाता जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो. मार्गरेट के आसुओं का, उस की विनती का कोई असर नहीं होता. उसे तो केवल अपनी हवस ही सर्वोपरी थी. उस ने जीतेजी एक लड़की को निर्जीव बना दिया था वह भी केवल अपने घमंड को ऊंचा रखने के लिए. रूथ मार्गरेट का इस्तेमाल एक सैक्स टौय के रूप में कर रहा था,’’ कहतेकहते एमिली फिर रुक गई.

यह सब सुनना मारिया के लिए एक नर्क से गुजरने जैसा था. मार्गरेट की चीखें जैसे मारिया के कानों को भेदते हुए उस के शरीर को तारतार कर रही थीं. मारिया का केवल कल्पनामात्र से शरीर सुन्न पड़ गया था. न जाने मार्गरेट ने इन कठिन परिस्तिथियों का सामना किस प्रकार किया होगा… मारिया ये सब सुन कर पूरी तरह से ब्लैकआउट हो गई थी. आज उसे बेहद पछतावा हो रहा था कि उस ने मार्गरेट को अमेरिका पढ़ने ही क्यों भेजा… वह सोच रही कि मार्गरेट इतने कठिन दौर से गुजरी और उस ने इस दर्द को किसी के साथ बांटा भी नहीं. मार्गरेट ने इस दर्द को अकेले सह साहसी होने का परिचय तो दिया था पर इस दर्द और तकलीफ ने उसे जीतेजी मार डाला था.

इन सब बातों को सुनने के बाद मारिया ने यह तय किया कि उसे रूथ को उस की गलतियों की सजा अवश्य दिलवानी है. मारिया ने एमिली से रूथ का पता जानने की इच्छा जताई तो एमिली ने बताया कि रूथ भी होस्टल में ही रहता था. उस के पास उस का पता नहीं है. एक संभावना थी शायद कालेज से पता मिल जाए पर उस के लिए कुछ जुगत लगानी होगी, क्योंकि अधिकतर कालेजों में पर्सनल डिटेल्स देना रूल्स के खिलाफ माना जाता है.

‘‘लड़ाई तो बस अभी शुरू ही हुई है,’’ मारिया ने एक लंबी सांस छोड़ते हुए कहा. उस ने हाथ जोड़ कर एमिली से रूथ का पता निकलवाने का आग्रह किया. एमिली ने मारिया को धैर्य बंधाते हुए कहा, ‘‘मैं पूरी कोशिश करूंगी… आप चिंता न करें.’’

एमिली को दिल से शुक्रिया कहते हुए मारिया ने उसे अपने गले से लगा लिया. फिर कहा, ‘‘तुम्हारी मदद की आवश्यकता मुझे आगे भी इस लड़ाई में पड़ती रहेगी. आशा करती हूं तुम मेरी हैल्प अवश्य करोगी.’’ एमिली ने दुख में सराबोर हो कहा, ‘‘एनी टाइम यू कैन कौल मी.’’

मारिया भारी मन से वहां से रुखसत हुई. वह यही सोच रही थी कि कैसे मार्गरेट ने इतनी तकलीफों का सामना किया होगा और अब सारी बातें जानने के बाद मार्गरेट के बदले और बेहाल स्वास्थ्य का कारण भी पता था. मारिया का मन तो कर रहा था कि रूथ बस कहीं से मिल जाए और वह उसे सरे बाजार नंगा कर बीच चौराहे में गोली मार दे. उस के भीतर गुस्से का ज्वालामुखी फट चुका था. इस ज्वालामुखी के शांत होने का सिर्फ एक ही उपाय था कि वह उसे सलाखों के पीछे देखे. पर यह इतना आसान भी नहीं था. मार्गरेट एक प्रवासी थी न्यूयौर्क में. इस रास्ते को तय करना बेहद मुश्किलों से भरा था, पर मारिया अब इन मुश्किलों से लड़ने के लिए स्वयं को तैयार कर चुकी थी.

2 दिन बाद एमिली ने मारिया को फोन कर खबर दी कि रूथ के लोकल गार्जियन जिन का नाम रोसेलिन था का पता मिल गया है. झट मारिया ने रूथ की आंटी का पता नोट कर उन से मिलने की सोची. समय न गंवाते हुए वे उस के घर जो बोस्टन में था के लिए रवाना हो गई. न्यूयौर्क से बोस्टन की दूरी बस द्वारा कुल 4 घंटों की थी. जैसेतैसे यह रास्ता भी तय हो गया. बस स्टौप से रोसेलिन का घर 5 मिनट की दूरी पर था. मारिया ने घर के दरवाजे पर दस्तक दी. दरवाजा रोसेलिन ने ही खोला. वह एक आकर्षक वृद्ध ब्रिटिश महिला थीं, जिन्होंने थोड़े आश्चर्यभाव के साथ दरवाजा खोला. उन्होंने दरवाजा खोलते ही पूछा ‘‘हू आर यू… व्हाट डू यू वांट.’’

मारिया ने जवाब में कहा, ‘‘आई वांट टू मीट रोसेलिन. आई एम मारिया फ्रौम इंडिया… वांट टू सी हर.’’ जवाब में रोसेलिन ने कहा, ‘‘कम इन, आई एम रोसेलिन.’’

घर काफी करीने से सजा था. मारिया ने एक नजर घर के चारों कोनों में दौड़ाई. वह मन ही मन सोच रही थी कि शुरुआत कहां से और कैसे की जाए.

तभी रोसेलिन ने पूछा, व्हाटस द पर्पज औफ आवर मीटिंग… हाऊ यू नो मी?’’ मारिया ने कहा, ‘‘आई वांट टु नो अबाउट रूथ योर नैफ्यू,’’ और फिर मारिया ने एक ही सांस में सारी कहानी रोसेलिन को बता डाली कि कैसे रूथ ने उस की बेटी मार्गरेट का जीवन नष्ट कर डाला और यह भी कि वह रूथ से मिल कर जानना चाहती है कि क्या मिला उसे मार्गरेट के जीवन से खेल कर.

पहले तो रोसेलिन चुप रहीं पर मारिया के बहुत समझाने और आग्रह करने पर वे मान गईं और फिर रूथ की पूरी कहानी मारिया को बताई. मारिया और रोसेलिन के बीच संपूर्ण वार्त्तालाप अंगरेजी में ही हुई थी. रोसेलिन ने बताया, ‘‘रूथ की परवरिश एक अजीबोगरीब परिवार में हुई थी. रूथ जब मात्र

7 साल का था तब उस की मां उस के पिता को छोड़ किसी और के साथ रहने लगी. पिता शराबी और व्यभिचारी था. रूथ ने जो बचपन से देखा वही सीखा. उसे कभी औरतों की इज्जत करना आया ही नहीं. आता भी कैसे. किसी ने कभी कुछ सिखाया ही नहीं. ‘‘अपने मातापिता होने के बावजूद उस ने अनाथों की तरह अपनी जिंदगी बिताई… घर का माहौल बेहद खराब था, जिस का असर यह हुआ कि रूथ में एक स्प्लिट पर्सनैलिटी ने जन्म ले लिया था. उसे औरतों से खासा नफरत सी थी. जब वह अपनी वास्तविक अवस्था में रहता तब कोईर् अंदाजा भी नहीं लगा सकता था कि उस के दिमाग के एक हिस्से में बेहद खतरनाक इंसान का वास है.

‘‘पर किसी भी दृष्टिकोण से रूथ को कोई हक नहीं था कि किसी बेगुनाह की जिंदगी से खेले. मुझे लगता है उसे उस के किए का कोई पछतावा भी नहीं होगा. होता भी कैसे. उसे जो उस की समझ में ठीक लगता है वह वही करता हैं. कई बार मैं ने उसे समझाने की कोशिश की पर कोई फायदा नहीं हुआ. रूथ जहां पढ़ने में बहुत अच्छा था, वहीं उस के मन को पढ़ना उतना ही कठिन था.’’ मारिया ने रोसेलिन से रूथ का पता जानने की इच्छा जताई तो रोसेलिन ने बताया कि जब तक कालेज में था तब तक वे उस की लोकल गार्जियन थीं, पर अब वह उन के साथ नहीं रहता था. कालेज खत्म कर रूथ ने वहां न्यूयौर्क के एक कालेज में फैलोशिप की नौकरी कर ली थी. उन की आखिरी मुलाकात 6 महीने पहले हुई थी.

मारिया को अपने कई सवालों के जवाब तो मिल गए थे पर यह जानना अभी बाकी था कि आखिर मार्गरेट ही क्यों उस का शिकार बनी? रोसेलिन का हृदय से धन्यवाद कर मारिया न्यूयौर्क वापस आ गई. अगले दिन मारिया सुजन की मदद से एक वकील जो इंडियन अमेरिकन था को मार्गरेट के साथ हुए भयावह अत्याचार का ब्योरा दिया.

वकील ने मारिया को सुझाव देते हुए कहा कि सुबूतों के अभाव की वजह से केस बहुत वीक है और विक्टिम भी कुछ बताने की स्थिति में नहीं है, ऐसे स्थिति में पुलिस भी शायद ही एफआईआर लिखे. फिर भी मारिया ने उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा. उस के सामने अब एक और चुनौती ने जन्म ले लिया था. वह किसी भी हाल में रूथ को सलाखों के पीछे देखना चाहती थी. उसे यह खयाल दिन में चैन से नहीं बैठने देता था कि उस के पास सारी जानकारी है पर सुबूत न होने की वजह से रूथ जैसे दुराचारी के खिलाफ कुछ नहीं कर पा रही है. मारिया ने मार्गरेट के कालेज मैनेजमैंट से बात कर सीसीटीवी फुटेज निकलवाए. जिन से यह पता चला कि मार्गरेट की वाकई जानपहचान थी रूथ से और फिर डाक्टर राजन से कह मार्गरेट की मैडिकल रिपोर्ट तैयार करवाई, जिस में डाक्टर ने मार्गरेट की मानसिक और शारीरिक स्थिति का पूरा ब्योरा दिया कि कैसे शारीरिक और मानसिक यातना का नतीजा है मार्गरेट की ऐसी दयनीय स्थिति. इन सभी सुबूतों को ले मार्गरेट और उस के वकील ने रूथ के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाई. इतना ही नहीं एमिली ने भी गवाही देना मंजूर कर लिया.

इन सभी रास्तों पर चलना मारिया के लिए आसान तो नहीं था पर शायद मां की आत्मशक्ति के आगे रास्ते खुदबखुद बनने लगे थे. आखिरकार पुलिस ने रूथ को पकड़ ही लिया. कस्टडी में पूछताछ के दौरान उस ने मान लिया कि मार्गरेट को उसी ने बंदी बना रखा था और वह ये सब इसलिए करता था क्योंकि उसे सुंदर और अंकलमंद औरतों से नफरत थी. दूसरा कारण यह भी था कि मार्गरेट

स्टूडैंट इलैक्शन में जीत गई थी, जिस से रूथ के अहं को बहुत ठेस पहुंची थी और वह मार्गरेट से इस बात का बदला लेना चाहता था. रूथ को सैशन कोर्ट ने आजीवन कारावास की सजा सुनाई और उसे मनोवैज्ञानिक उपचार भी करवाने की सलाह दी. मार्गरेट की कोई गलती न होने पर भी उसे नर्क से गुजरना पड़ा. मारिया को जब कारण का पता चला तो उस के होश उड़ गए. मार्गरेट को इतनी परेशानियों का सामना केवल इसलिए

करना पड़ा कि वह खूबसूरत और अकलमंद है. रूथ को सजा होने पर मारिया खुश तो थी पर मार्गरेट को देख बेहद दुख होता. एक होनहार लड़की की ऐसी हालत देख बहुत दर्द होता. मार्गरेट आज भी डाक्टर राजन से अपना इलाज करा रही है. उस से दैहिक घाव तो मिट गए हैं, पर आत्मिक घाव आज भी रिस रहे हैं. मार्गरेट के साथ जो भी घटित हुआ था वह आज के युग का एक ऐसा भयंकर सच है जिस के साथ जीना न केवल मुश्किल है, अपितु विषपान से भी अधिक कड़वा पान है. ऐसी कितनी ही मार्गरेट आएदिन विकृत विचारधारा वाले भेडि़यों के मुंह का निवाला बनती रहती हैं. उन के मन को इतना लहूलुहान कर दिया जाता है कि वे जिंदा तो होती हैं पर उन की स्थिति एक जिंदा लाश से कम नहीं.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें