Download App

साथ-साथ

आपरेशन थियेटर के दरवाजे पर लालबत्ती अब भी जल रही थी और रुखसाना बेगम की नजर लगातार उस पर टिकी थी. पलकें मानो झपकना ही भूल गई थीं, लग रहा था जैसे उसी लालबत्ती की चमक पर उस की जिंदगी रुकी है.

रुखसाना की जिंदगी जिस धुरी के चारों तरफ घूमती थी वही रज्जाक मियां अंदर आपरेशन टेबल पर जिंदगी और मौत से जूझ रहे थे. जिन बांहों का सहारा ले कर वह कश्मीर के एक छोटे से गांव से सुदूर कोलकाता आई थी उन्हीं बांहों पर 3-3 गोलियां लगी थीं. शायद उस बांह को काट कर शरीर से अलग करना पड़े, ऐसा ही कुछ डाक्टर साहब कह रहे थे उस के मकान मालिक गोविंदरामजी से. रुखसाना की तो जैसे उस वक्त सुनने की शक्ति भी कमजोर पड़ गई थी.

क्या सोच रहे होंगे गोविंदरामजी और उन की पत्नी शीला उस के और रज्जाक के बारे में? कुछ भी सोचें पर भला हो शीला बहन का जो उन्होंने उस के 1 साल के पुत्र रफीक को अपने पास घर में ही रख लिया, वरना वह क्या करती? यहां तो अपने ही खानेपीने की कोई सुध नहीं है.

रुखसाना ने मन ही मन ठान लिया कि अब जब घर लौटेगी तो गोविंद भाई साहब और शीला भाभी को अपने बारे में सबकुछ सचसच बता देगी. जिन से छिपाना था जब उन्हीं से नहीं छिपा तो अब किस का डर? और फिर गोविंद भाई और शीला भाभी ने उस के इस मुसीबत के समय जो उपकार किया, वह तो कोई अपना ही कर सकता है न. अपनों की बात आते ही रुखसाना की आंखों के आगे उस का अतीत घूम गया.

ऊंचेऊंचे बर्फ से ढके पहाड़, हरेभरे मैदान, बीचबीच में पहाड़ी झरने और उन के बीच अपनी सखियों और भाईबहनों के साथ हंसताखेलता रुखसाना का बचपन.

वह रहा सरहद के पास उस का बदनसीब गांव जहां के लोग नहीं जानते कि उन्हें किस बात की सजा मिल रही है. साल पर साल, कभी मजहब के नाम पर तो कभी धरती के नाम पर, कभी कोई वरदीधारी तो कभी कोई नकाबधारी यह कहता कि वतन के नाम पर वफा करो… धर्म के नाम पर वफा करो, बेवफाई की सजा मौत है.

रुखसाना को अब भी याद है कि दरवाजे पर दस्तक पड़ते ही अम्मीजान कैसे 3 बहनों को और जवान बेवा भाभी को अंदर खींच कर तहखाने में बिठा देती थीं और अब्बूजान सहमेसहमे दरवाजा खोलते.

इन्हीं भयावह हालात में जिंदगी अपनी रफ्तार से गुजर रही थी.

कहते हैं हंसतेखेलते बचपन के बाद जवानी आती ही आती है पर यहां तो जवानी मातम का पैगाम ले कर आई थी. अब्बू ने घर से मेरा निकलना ही बंद करवा दिया था. न सखियों से हंसना- बोलना, न खुली वादियों में घूमना. जब देखो इज्जत का डर. जवानी क्या आई जैसे कोई आफत आ गई.

उस रोज मझली को बुखार चढ़ आया था तो छोटी को साथ ले कर वह ही पानी भरने आई थी. बड़े दिनों के बाद घर से बाहर निकलने का उसे मौका मिला था. चेहरे से परदा उठा कर आंखें बंद किए वह पहाड़ी हवा का आनंद ले रही थी. छोटी थोड़ी दूरी पर एक बकरी के बच्चे से खेल रही थी.

सहसा किसी की गरम सांसों को उस ने अपने बहुत करीब अनुभव किया. फिर आंखें जो खुलीं तो खुली की खुली ही रह गईं. जवानी की दहलीज पर कदम रखने के बाद यह पहला मौका था जब किसी अजनबी पुरुष से इतना करीबी सामना हुआ था. इस से पहले उस ने जो भी अजनबी पुरुष देखे थे वे या तो वरदीधारी थे या नकाबधारी…रुखसाना को उन दोनों से ही डर लगता था.

लंबा कद, गठा हुआ बदन, तीखे नैननक्श, रूखे चेहरे पर कठोरता और कोमलता का अजीब सा मिश्रण. रुखसाना को लगा जैसे उस के दिल ने धड़कना ही बंद कर दिया हो. अपने मदहोशी के आलम में उसे इस बात का भी खयाल न रहा कि वह बेपरदा है.

तभी अजनबी युवक बोल उठा, ‘वाह, क्या खूब. समझ नहीं आता, इस हसीन वादी को देखूं या आप के हुस्न को. 3-4 रात की थकान तो चुटकी में दूर हो गई.’

शायराना अंदाज में कहे इन शब्दों के कानों में पड़ते ही रुखसाना जैसे होश में आ गई. लजा कर परदा गिरा लिया और उठ खड़ी हुई.

अजनबी युवक फिर बोला, ‘वैसे गुलाम को रज्जाक कहते हैं और आप?’

‘रुखसाना बेगम,’ कहते हुए उस ने घर का रुख किया. इस अजनबी से दूर जाना ही अच्छा है. कहीं उस ने उस के दिल की कमजोरी को समझ लिया तो बस, कयामत ही आ जाएगी.

‘कहीं आप अब्दुल मौला की बेटी रुखसाना तो नहीं?’

‘हां, आप ने सही पहचाना. पर आप को इतना कैसे मालूम?’

‘अरे, मुझे तो यह भी पता है कि आप के मकान में एक तहखाना है और फिलहाल मेरा डेरा भी वहीं है.’

अजनबी युवक का इतना कहना था कि रुखसाना का हाथ अपनेआप उस के सीने पर ठहर गया जैसे वह तेजी से बढ़ती धड़कनों को रोकने की कोशिश कर रही हो. दिल आया भी तो किस पत्थर दिल पर. वह जानती थी कि तहखानों में किन लोगों को रखा जाता है.

पिछली बार जब महजबीन से बात हुई थी तब वह भी कुछ ऐसा ही कह रही थी. उस का लोभीलालची अब्बा तो कभी अपना तहखाना खाली ही नहीं रखता. हमेशा 2-3 जेहादियों को भरे रखता है और महजबीन से जबरदस्ती उन लोगों की हर तरह की खिदमत करवाता है. बदले में उन से मोटी रकम ऐंठता है. एक बार जब महजबीन ने उन से हुक्मउदूली की थी तो उस के अब्बू के सामने ही जेहादियों ने उसे बेपरदा कर पीटा था और उस के अब्बू दूसरी तरफ मुंह घुमाए बैठे थे.

तब रुखसाना का चेहरा यह सुन कर गुस्से से तमतमा उठा था पर लाचार महजबीन ने तो हालात से समझौता कर लिया था. उस के अब्बू में तो यह अच्छाई है कि वह पैसे के लालची नहीं हैं और जब से उस के सीधेसादे बड़े भाई साहब को जेहादी उठा कर ले गए तब से तो अब्बा इन जेहादियों से कुछ कटेकटे ही रहते हैं. पर अब सुना है कि अब्बू के छोटे भाई साहब जेहादियों से जा मिले हैं. क्या पता यह उन की ही करतूत हो.

एक अनजानी दहशत से रुखसाना का दिल कांप उठा था. उसे अपनी बरबादी बहुत करीब नजर आ रही थी. भलाई इसी में है कि इस अजनबी को यहीं से चलता कर दे.

कुछ कहने के उद्देश्य से रुखसाना ने ज्यों ही पलट कर उस अजनबी को देखा तो उस के जवान खूबसूरत चेहरे की कशिश रुखसाना को कमजोर बना गई और होंठ अपनेआप सिल गए. रज्जाक अभी भी मुहब्बत भरी नजरों से उसी को निहार रहा था.

नजरों का टकराना था कि फिर धड़कनों में तेजी आ गई. उस ने नजरें झुका लीं. सोच लिया कि भाई साहब बड़े जिद्दी हैं. जब उन्होेंने सोच ही लिया है कि तहखाने को जेहादियों के हाथों भाड़े पर देंगे तो इसे भगा कर क्या फायदा? कल को वह किसी और को पकड़ लाएंगे. अपना आगापीछा सोच कर रुखसाना चुपचाप रज्जाक को घर ले आई थी.

बेटे से बिछुड़ने का गम और ढलती उम्र ने अब्बू को बहुत कमजोर बना दिया था. अपने छोटे भाई के खिलाफ जाने की शक्ति अब उन में नहीं थी और फिर वह अकेले किसकिस का विरोध करते. नतीजतन, रज्जाक मियां आराम से तहखाने में रहने लगे और रुखसाना को उन की खिदमत में लगा दिया गया.

रुखसाना खूब समझ रही थी कि उसे भी उस के बचपन की सहेली महजबीन और अफसाना की तरह जेहादियों के हाथों बेच दिया गया है पर उस का किस्सा उस की सहेलियों से कुछ अलग था. न तो वह महजबीन की तरह मजबूर थी और न अफसाना की तरह लालची. उसे तो रज्जाक मियां की खिदमत में बड़ा सुकून मिलता था.

रज्जाक भी उस के साथ बड़ी इज्जत से पेश आता था. हां, कभीकभी आवेश में आ कर मुहब्बत का इजहार जरूर कर बैठता था और रुखसाना को उस का पे्रम इजहार बहुत अच्छा लगता था. अजीब सा मदहोशी का आलम छाया रहता था उस समय तहखाने में, जब दोनों एक दूसरे का हाथ थामे सुखदुख की बातें करते रहते थे.

रज्जाक के व्यक्तित्व का जो भाग रुखसाना को सब से अधिक आकर्षित करता था वह था उस के प्रति रज्जाक का रक्षात्मक रवैया. जब भी किसी जेहादी को रज्जाक से मिलने आना होता वह पहले से ही रुखसाना को सावधान कर देता कि उन के सामने न आए.

उस दिन की बात रुखसाना को आज भी याद है. सुबह से 2-3 जेहादी तहखाने में रज्जाक मियां के पास आए हुए थे. पता नहीं किस तरह की सलाह कर रहे थे…कभीकभी नीचे से जोरों की बहस की आवाज आ रही थी, जिसे सुन कर रुखसाना की बेचैनी हर पल बढ़ रही थी. रज्जाक को वह नाराज नहीं करना चाहती थी इसलिए उस ने खाना भी छोटी के हाथों ही पहुंचाया था. जैसे ही वे लोग गए रुखसाना भागीभागी रज्जाक के पास पहुंची.

रज्जाक घुटने में सिर टिकाए बैठा था. रुखसाना के कंधे पर हाथ रखते ही उस ने सिर उठा कर उस की तरफ देखा. आंखें लाल और सूजीसूजी सी, चेहरा बेहद गंभीर. अनजानी आशंका से रुखसाना कांप उठी. उस ने रज्जाक का यह रूप पहले कभी नहीं देखा था.

‘क्या हुआ? वे लोग कुछ कह गए क्या?’ रुखसाना ने सहमे लहजे में पूछा.

‘रुखसाना, खुदा ने हमारी मुहब्बत को इतने ही दिन दिए थे. जिस मिशन के लिए मुझे यहां भेजा गया था ये लोग उसी का पैगाम ले कर आए थे. अब मुझे जाना होगा,’ कहतेकहते रज्जाक का गला भर आया.

‘आप ने कहा नहीं कि आप यह सब काम अब नहीं करना चाहते. मेरे साथ घर बसा कर वापस अपने गांव फैजलाबाद लौटना चाहते हैं.’

‘अगर यह सब मैं कहता तो कयामत आ जाती. तू इन्हें नहीं जानती रुखी…ये लोग आदमी नहीं हैवान हैं,’ रज्जाक बेबसी के मारे छटपटाने लगा.

‘तो आप ने इन हैवानों का साथ चुन लिया,’ रुखसाना का मासूम चेहरा धीरेधीरे कठोर हो रहा था.

‘मेरे पास और कोई रास्ता नहीं है रुखी. मैं ने इन लोगों के पास अपनी जिंदगी गिरवी रखी हुई है. बदले में मुझे जो मोटी रकम मिली थी उसे मैं बहन के निकाह में खर्च कर आया हूं और जो बचा था उसे घर से चलते समय अम्मीजान को दे आया था.’

‘जिंदगी कोई गहना नहीं जिसे किसी के भी पास गिरवी रख दिया जाए. मैं मन ही मन आप को अपना शौहर मान चुकी हूं.’

‘इन बातों से मुझे कमजोर मत बनाओ, रुखी.’

‘आप क्यों कमजोर पड़ने लगे भला?’ रुखसाना बोली, ‘कमजोर तो मैं हूं जिस के बारे में सोचने वाला कोई नहीं है. मैं ने आप को सब से अलग समझा था पर आप भी दूसरों की तरह स्वार्थी निकले. एक पल को भी नहीं सोचा कि आप के जाने के बाद मेरा क्या होगा,’ कहतेकहते रुखसाना फफकफफक कर रो पड़ी. रज्जाक ने उसे प्यार से अपनी बांहों में भर लिया और गुलाबी गालों पर एक चुंबन की मोहर लगा दी.

चढ़ती जवानी का पहला आलिंगन… दोनों जैसे किसी तूफान में बह निकले. जब तूफान ठहरा तो हर हाल में अपनी मुहब्बत को कुर्बान होने से बचाने का दृढ़ निश्चय दोनों के चेहरों पर था.

रुखसाना के चेहरे को अपने हाथों में लेते हुए रज्जाक बोला, ‘रुखी, मैं अपनी मुहब्बत को हरगिज बरबाद नहीं होने दूंगा. बोल, क्या इरादा है?’
मुहब्बत के इस नए रंग से सराबोर रुखसाना ने रज्जाक की आंखों में आंखें डाल कर कुछ सोचते हुए कहा, ‘भाग निकलने के अलावा और कोई रास्ता नहीं रज्जाक मियां. बोलो, क्या इरादा है?’

‘पैसे की चिंता नहीं, जेब में हजारों रुपए पडे़ हैं पर भाग कर जाएंगे कहां?’ रज्जाक चिंतित हो कर बोला.

महबूब के एक स्पर्श ने मासूम रुखसाना को औरत बना दिया था. उस के स्वर में दृढ़ता आ गई थी. हठात् उस ने रज्जाक का हाथ पकड़ा और दोनों दबेपांव झरोखे से निकल पड़े. झाडि़यों की आड़ में खुद को छिपातेबचाते चल पड़े थे 2 प्रेमी एक अनिश्चित भविष्य की ओर.

रज्जाक के साथ गांव से भाग कर रुखसाना अपने मामूजान के घर आ गई. मामीजान ने रज्जाक के बारे में पूछा तो वह बोली, ‘यह मेरे शौहर हैं.’
मामीजान को हैरत में छोड़ कर रुखसाना रज्जाक को साथ ले सीधा मामूजान के कमरे की तरफ चल दी. क्योंकि एकएक पल उस के लिए बेहद कीमती था.

मामूजान एक कीमती कश्मीरी शाल पर नक्काशी कर रहे थे. दुआसलाम कर के वह चुपचाप मामूजान के पास बैठ गई और रज्जाक को भी बैठने का इशारा किया.

बचपन से रुखसाना की आदत थी कि जब भी कोई मुसीबत आती तो वह मामूजान के पास जा कर चुपचाप बैठ जाती. मामूजान खुद ही समझ जाते कि बच्ची परेशान है और उस की परेशानी का कोेई न कोई रास्ता निकाल देते.

कनखियों से रज्जाक को देख मामूजान बोल पड़े, ‘इस बार कौन सी मुसीबत उठा लाई है, बच्ची?’

‘मामूजान, इस बार की मुसीबत वाकई जानलेवा है. किसी को भनक भी लग गई तो सब मारे जाएंगे. दरअसल, मामूजान इन को मजबूरी में जेहादियों का साथ देना पड़ा था पर अब ये इस अंधी गली से निकलना चाहते हैं. हम साथसाथ घर बसाना चाहते हैं. अब तो आप ही का सहारा है मामू, वरना आप की बच्ची मर जाएगी,’ इतना कह कर रुखसाना मामूजान के कदमों में गिर कर रोने लगी.

अपने प्रति रुखसाना की यह बेपनाह मुहब्बत देख कर रज्जाक मियां का दिल भर आया. चेहरे पर दृढ़ता चमकने लगी. मामूजान ने एक नजर रज्जाक की तरफ देखा और अनुभवी आंखें प्रेम की गहराई को ताड़ गईं. बोले, ‘सच्ची मुहब्बत करने वालों का साथ देना हर नेक बंदे का धर्म है. तुम लोग चिंता मत करो. मैं तुम्हें एक ऐसे शहर का पता देता हूं जो यहां से बहुत दूर है और साथ ही इतना विशाल है कि अपने आगोश में तुम दोनों को आसानी से छिपा सकता है. देखो, तुम दोनों कोलकाता चले जाओ. वहां मेरा अच्छाखासा कारोबार है.

जहां मैं ठहरता हूं वह मकान मालिक गोविंदरामजी भी बड़े अच्छे इनसान हैं. वहां पहुंचने के बाद कोई चिंता नहीं…उन के नाम मैं एक खत लिखे देता हूं.’

मामूजान ने खत लिख कर रज्जाक को पकड़ा दिया था जिस पर गोविंदरामजी का पूरा पता लिखा था. फिर वह घर के अंदर गए और अपने बेटे की जीन्स की पैंट और कमीज ले आए और बोले, ‘इन्हें पहन लो रज्जाक मियां, शक के दायरे में नहीं आओगे. और यहां से तुम दोनों सीधे जम्मू जा कर कोलकाता जाने वाली गाड़ी पर बैठ जाना.’

जिस मुहब्बत की मंजिल सिर्फ बरबादी नजर आ रही थी उसे रुखसाना ने अपनी इच्छाशक्ति से आबाद कर दिया था. एक युवक को जेहादियों की अंधी गली से निकाल कर जीवन की मुख्यधारा में शामिल कर के एक खुशहाल गृहस्थी का मालिक बनाना कोई आसान काम नहीं था. पर न जाने रुखसाना पर कौन सा जनून सवार था कि वह अपने महबूब और मुहब्बत को उस मुसीबत से निकाल लाई थी.

पता ही नहीं चला कब साल पर साल बीत गए और वे कोलकाता शहर के भीड़़ का एक हिस्सा बन गए. रज्जाक बड़ा मेहनती और ईमानदार था. शायद इसीलिए गोविंदराम ने उसे अपनी ही दुकान में अच्छेखासे वेतन पर रख लिया था और जब रफीक गोद में आया तो उन की गृहस्थी झूम उठी.

शुरुआत में पहचान लिए जाने के डर से रज्जाक और रुखसाना घर से कम ही निकलते थे पर जैसेजैसे रफीक बड़ा होने लगा उसे घुमाने के बहाने वे दोनों भी खूब घूमने लगे थे. लेकिन कहते हैं न कि काले अतीत को हम बेशक छोड़ना चाहें पर अतीत का काला साया हमें आसानी से नहीं छोड़ता.

रोज की तरह उस दिन भी रज्जाक काम पर जा रहा था और रुखसाना डेढ़ साल के रफीक को गोद में लिए चौखट पर खड़ी थी. तभी न जाने 2 नकाबपोश कहां से हाजिर हुए और धांयधांय की आवाज से सुबह का शांत वातावरण गूंज उठा.

उस खौफनाक दृश्य की याद आते ही रुखसाना जोर से चीख पड़ी तो आसपास के लोग उस की तरफ भागे. रुखसाना बिलखबिलख कर रो रही थी. इतने में गोविंदराम की जानीपहचानी आवाज ने उस को अतीत से वर्तमान में ला खड़ा किया, वह कह रहे थे, ‘‘रुखसाना बहन, अब घबराने की कोई जरूरत नहीं. आपरेशन ठीकठाक हो गया है. रज्जाक मियां अब ठीक हैं. कुछ ही घंटों में उन्हें होश आ जाएगा.’’

रुखसाना के आंसू थे कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे. उसे कहां चोट लगी थी यह किसी की समझ से परे था.

इतने में किसी ने रफीक को उस की गोद में डाल दिया. रुखसाना ने चेहरा उठा कर देखा तो शीला बहन बड़े प्यार से उस की तरफ देख रही थीं. बोलीं, ‘‘चलो, रुखसाना, घर चलो. नहाधो कर कुछ खा लो. अब तो रज्जाक भाई भी ठीक हैं और फिर तुम्हारे गोविंदभाई तो यहीं रहेंगे. रफीक तुम्हारी गोद को तरस गया था इसलिए मैं इसे यहां ले आई.’’

रुखसाना भौचक्क हो कर कभी शीला को तो कभी गोविंदराम को देख रही थी. और सोच रही थी कि अब तक तो इन्हें उस की और रज्जाक की असलियत का पता चल गया होगा. तो पुलिस के झमेले भी इन्होंने झेले होंगे. फिर भी कितने प्यार से उसे लेने आए हैं.

रुखसाना आंखें पोंछती हुई बोली, ‘‘नहीं बहन, अब हम आप पर और बोझ नहीं बनेंगे. पहले ही आप के हम पर बड़े एहसान हैं. हमें हमारे हाल पर छोड़ दीजिए. कुछ लोग दुनिया में सिर्फ गम झेलने और मरने को आते हैं. हम अपने गुनाह की सजा आप को नहीं भोगने देंगे. आप समझती होंगी कि वे लोग हमें छोड़ देंगे? कभी नहीं.’’

‘‘रुखसाना कि वे आतंकवादी गली से बाहर निकल भी न पाए थे कि महल्ले वाले उन पर झपट पड़े. फिर क्या था, जिस के हाथों में जो भी था उसी से मारमार कर उन्हें अधमरा कर दिया, तब जा कर पुलिस के हवाले किया. दरअसल, इनसान न तो धर्म से बड़ा होता है और न ही जन्म से. वह तो अपने कर्म से बड़ा होता है. तुम ने जिस भटके हुए युवक को सही रास्ता दिखाया वह वाकई काबिलेतारीफ है. आज तुम अकेली नहीं, सारा महल्ला तुम्हारे साथ है .’’

शीला की इन हौसला भरी बातों ने रुखसाना की आंखों के आगे से काला परदा हटा दिया. रुखसाना ने देखा शाम ढल चुकी थी और एक नई सुबह उस का इंतजार कर रही थी. महल्ले के सभी बड़ेबुजुर्ग और जवान हाथ फैलाए उस के स्वागत के लिए खड़े थे. वह धीरेधीरे गुनगुनाने लगी, ‘हम साथसाथ हैं.’

लेखक – शुक्ला चौधरी

प्रतिदिन

सबकुछ वैसा ही नहीं रहता जैसा आज है या कल था. मौसम के हिसाब से दिन भी कभी लंबे और कभी छोटे होते हैं पर उन के जीवन में यह परिवर्तन क्यों नहीं आता? क्या उन की जीवन रूपी घड़ी को कोई चाबी देना भूल गया या बैटरी डालना जो उन की जीवनरूपी घड़ी की सूई एक ही जगह अटक गई है. कुछ न कुछ तो ऐसा जरूर घटा होगा उन के जीवन में जो उन्हें असामान्य किए रहता है और उन के अंदर की पीड़ा की गालियों के रूप में बौछार करता रहता है.

मैं विचारों की इन्हीं भुलभुलैयों में खोई हुई थी कि फोन की घंटी बज उठी.

‘‘हैलो,’’ मैं ने रिसीवर उठाया.

‘‘हाय प्रीत,’’ उधर से चहक भरी आवाज आई, ‘‘क्या कर रही हो…वैसे मैं जानती हूं कि तू क्या कर रही होगी. तू जरूर अपनी स्टडी मेज पर बैठी किसी कथा का अंश या कोई शब्दचित्र बना रही होगी. क्यों, ठीक कहा न?’’

‘‘जब तू इतना जानती है तो फिर मुझे खिझाने के लिए पूछा क्यों?’’ मैं ने गुस्से में उत्तर दिया.

‘‘तुझे चिढ़ाने के लिए,’’ यह कह कर हंसती हुई वह फिर बोली, ‘‘मेरे पास बहुत ही मजेदार किस्सा है, सुनेगी?’’ मेरी कमजोरी वह जान गई थी कि मुझे किस्सेकहानियां सुनने का बहुत शौक है.

‘‘फिर सुना न,’’ मैं सुनने को ललच गई.

‘‘नहीं, पहले एक शर्त है कि तू मेरे साथ पिक्चर चलेगी.’’

‘‘बिलकुल नहीं. मुझे तेरी शर्त मंजूर नहीं. रहने दे किस्साविस्सा. मुझे नहीं सुनना कुछ और न ही कोई बकवास फिल्म देखने जाना.’’

‘‘अच्छा सुन, अब अगर कुछ देखने को मन करे तो वही देखने जाना पड़ेगा न जो बन रहा है.’’

‘‘मेरा तो कुछ भी देखने का मन नहीं है.’’

‘‘पर मेरा मन तो है न. नई फिल्म आई है ‘बेंड इट लाइक बैखम.’ सुना है स्पोर्ट वाली फिल्म है. तू भी पसंद करेगी, थोड़ा खेल, थोड़ा फन, थोड़ी बेटियों को मां की डांट. मजा आएगा यार. मैं ने टिकटें भी ले ली हैं.’’

‘‘आ कर मम्मी से पूछ ले फिर,’’ मैं ने डोर ढीली छोड़ दी.

मैं ने मन में सोचा. सहेली भी तो ऐसीवैसी नहीं कि उसे टाल दूं. फोन करने के थोड़ी देर बाद वह दनदनाती हुई पहुंच जाएगी. आते ही सीधे मेरे पास नहीं आएगी बल्कि मम्मी के पास जाएगी. उन्हें बटर लगाएगी. रसोई से आ रही खुशबू से अंदाजा लगाएगी कि आंटी ने क्या पकाया होगा. फिर मांग कर खाने बैठ जाएगी. तब आएगी असली मुद्दे पर.

‘आंटी, आज हम पिक्चर जाएंगे. मैं प्रीति को लेने आई हूं.’

‘सप्ताह में एक दिन तो घर बैठ कर आराम कर लिया करो. रोजरोज थकती नहीं बसट्रेनों के धक्के खाते,’ मम्मी टालने के लिए यही कहती हैं.

‘थकती क्यों नहीं पर एक दिन भी आउटिंग न करें तो हमारी जिंदगी बस, एक मशीन बन कर रह जाए. आज तो बस, पिक्चर जाना है और कहीं नहीं. शाम को सीधे घर. रविवार तो है ही हमारे लिए पूरा दिन रेस्ट करने का.’

‘अच्छा, बाबा जाओ. बिना गए थोड़े मानोगी,’ मम्मी भी हथियार डाल देती हैं.

फिर पिक्चर हाल में दीप्ति एकएक सीन को बड़ा आनंद लेले कर देखती और मैं बैठी बोर होती रहती. पिक्चर खत्म होने पर उसे उम्मीद होती कि मैं पिक्चर के बारे में अपनी कुछ राय दूं. पर अच्छी लगे तब तो कुछ कहूं. मुझे तो लगता कि मैं अपना टाइम वेस्ट कर रही हूं.

जब से हम इस कसबे में आए हैं पड़ोसियों के नाम पर अजीब से लोगों का साथ मिला है. हर रोज उन की आपसी लड़ाई को हमें बरदाश्त करना पड़ता है. कब्र में पैर लटकाए बैठे ये वृद्ध दंपती पता नहीं किस बात की खींचातानी में जुटे रहते हैं. बैक गार्डेन से देखें तो अकसर ये बड़े प्यार से बातें करते हुए एकदूसरे की मदद करते नजर आते हैं. यही नहीं ये एकदूसरे को बड़े प्यार से बुलाते भी हैं और पूछ कर नाश्ता तैयार करते हैं. तब इन के चेहरे पर रात की लड़ाई का कोई नामोनिशान देखने को नहीं मिलता है.

हर रोज दिन की शुरुआत के साथ वृद्धा बाहर जाने के लिए तैयार होने लगतीं. माथे पर बड़ी गोल सी बिंदी, बालों में लाल रिबन, चमचमाता सूट, जैकट और एक हाथ में कबूतरों को डालने के लिए दाने वाला बैग तथा दूसरे हाथ में छड़़ी. धीरेधीरे कदम रखते हुए बाहर निकलती हैं.

2-3 घंटे बाद जब वृद्धा की वापसी होती तो एक बैग की जगह उन के हाथों में 3-4 बैग होते. बस स्टाप से उन का घर ज्यादा दूर नहीं है. अत: वह किसी न किसी को सामान घर तक छोड़ने के लिए मना लेतीं. शायद उन का यही काम उन के पति के क्रोध में घी का काम करता और शाम ढलतेढलते उन पर शुरू होती पति की गालियों की बौछार. गालियां भी इतनी अश्लील कि आजकल अनपढ़ भी उस तरह की गाली देने से परहेज करते हैं. यह नित्य का नियम था उन का, हमारी आंखों देखा, कानों सुना.

हम जब भी शाम को खाना खाने बैठते तो उधर से भी शुरू हो जाता उन का कार्यक्रम. दीवार की दूसरी ओर से पुरुष वजनदार अश्लील गालियों का विशेषण जोड़ कर पत्नी को कुछ कहता, जिस का दूसरी ओर से कोई उत्तर न आता.

मम्मी बहुत दुखी स्वर में कहतीं, ‘‘छीछी, ये कितने असभ्य लोग हैं. इतना भी नहीं जानते कि दीवारों के भी कान होते हैं. दूसरी तरफ कोई सुनेगा तो क्या सोचेगा.’’

मम्मी चाहती थीं कि हम भाईबहनों के कानों में उन के अश्लील शब्द न पड़ें. इसलिए वह टेलीविजन की आवाज ऊंची कर देतीं.

खाने के बाद जब मम्मी रसोई साफ करतीं और मैं कपड़ा ले कर बरतन सुखा कर अलमारी में सजाने लगती तो मेरे लिए यही समय होता था उन से बात करने का. मैं पूछती, ‘‘मम्मी, आप तो दिन भर घर में ही रहती हैं. कभी पड़ोस वाली आंटी से मुलाकात नहीं हुई?’’

‘‘तुम्हें तो पता ही है, इस देश में हम भारतीय भी गोरों की तरह कितने रिजर्व हो गए हैं,’’ मम्मी उत्तर देतीं, ‘‘मुझे तो ऐसा लगता है कि दोनों डिप्रेशन के शिकार हैं. बोलते समय वे अपना होश गंवा बैठते हैं.’’

‘‘कहते हैं न मम्मी, कहनेसुनने से मन का बोझ हलका होता है,’’ मैं अपना ज्ञान बघारती.

कुछ दिन बाद दीप्ति के यहां प्रीति- भोज का आयोजन था और वह मुझे व मम्मी को बुलाने आई पर मम्मी को कहीं जाना था इसीलिए वह नहीं जा सकीं.

यह पहला मौका था कि मैं दीप्ति के घर गई थी. उस का बड़ा सा घर देख कर मन खुश हो गया. मेरे अढ़ाई कमरे के घर की तुलना में उस का 4 डबल बेडरूम का घर मुझे बहुत बड़ा लगा. मैं इस आश्चर्य से अभी उभर भी नहीं पाई थी कि एक और आश्चर्य मेरी प्रतीक्षा कर रहा था.

अचानक मेरी नजर ड्राइंगरूम में कोने में बैठी अपनी पड़ोसिन पर चली गई. मैं अपनी जिज्ञासा रोक न पाई और दीप्ति के पास जा कर पूछ बैठी, ‘‘वह वृद्ध महिला जो उधर कोने में बैठी हैं, तुम्हारी कोई रिश्तेदार हैं?’’

‘‘नहीं, पापा के किसी दोस्त की पत्नी हैं. इन की बेटी ने जिस लड़के से शादी की है वह हमारी जाति का है. इन का दिमाग कुछ ठीक नहीं रहता. इस कारण बेचारे अंकलजी बड़े परेशान रहते हैं. पर तू क्यों जानना चाहती है?’’

‘‘मेरी पड़ोसिन जो हैं,’’ इन का दिमाग ठीक क्यों नहीं रहता? इसी गुत्थी को तो मैं इतने दिनों से सुलझाने की कोशिश कर रही थी, अत: दोबारा पूछा, ‘‘बता न, क्या परेशानी है इन्हें?’’

अपनी बड़ीबड़ी आंखों को और बड़ा कर के दीप्ति बोली, ‘‘अभी…पागल है क्या? पहले मेहमानों को तो निबटा लें फिर आराम से बैठ कर बातें करेंगे.’’

2-3 घंटे बाद दीप्ति को फुरसत मिली. मौका देख कर मैं ने अधूरी बात का सूत्र पकड़ते हुए फिर पूछा, ‘‘तो क्या परेशानी है उन दंपती को?’’

‘‘अरे, वही जो घरघर की कहानी है,’’ दीप्ति ने बताना शुरू किया, ‘‘हमारे भारतीय समाज को पहले जो बातें मरने या मार डालने को मजबूर करती थीं और जिन बातों के चलते वे बिरादरी में मुंह दिखाने लायक नहीं रहते थे, उन्हीं बातों को ये अभी तक सीने से लगाए घूम रहे हैं.’’

‘‘आजकल तो समय बहुत बदल गया है. लोग ऐसी बातों को नजरअंदाज करने लगे हैं,’’ मैं ने अपना ज्ञान बघारा.

‘‘तू ठीक कहती है. नईपुरानी पीढ़ी का आपस में तालमेल हमेशा से कोई उत्साहजनक नहीं रहा. फिर भी हमें जमाने के साथ कुछ तो चलना पड़ेगा वरना तो हम हीनभावना से पीडि़त हो जाएंगे,’’ कह कर दीप्ति सांस लेने के लिए रुकी.

मैं ने बात जारी रखते हुए कहा, ‘‘जब हम भारतीय विदेश में आए तो बस, धन कमाने के सपने देखने में लग गए. बच्चे पढ़लिख कर अच्छी डिगरियां लेंगे. अच्छी नौकरियां हासिल करेंगे. अच्छे घरों से उन के रिश्ते आएंगे. हम यह भूल ही गए कि यहां का माहौल हमारे बच्चों पर कितना असर डालेगा.’’

‘‘इसी की तो सजा भुगत रहा है हमारा समाज,’’ दीप्ति बोली, ‘‘इन के 2 बेटे 1 बेटी है. तीनों ऊंचे ओहदों पर लगे हुए हैं. और अपनेअपने परिवार के साथ आनंद से रह रहे हैं पर उन का इन से कोई संबंध नहीं है. हुआ यों कि इन्होंने अपने बड़े बेटे के लिए अपनी बिरादरी की एक सुशील लड़की देखी थी. बड़ी धूमधाम से रिंग सेरेमनी हुई. मूवी बनी. लड़की वालों ने 200 व्यक्तियों के खानेपीने पर दिल खोल कर खर्च किया. लड़के ने इस शादी के लिए बहुत मना किया था पर मां ने एक न सुनी और धमकी देने लगीं कि अगर मेरी बात न मानी तो मैं अपनी जान दे दूंगी. बेटे को मानना पड़ा.

‘‘बेटे ने कनाडा में नौकरी के लिए आवेदन किया था. नौकरी मिल गई तो वह चुपचाप घर से खिसक गया. वहां जा कर फोन कर दिया, ‘मम्मी, मैं ने कनाडा में ही रहने का निर्णय लिया है और यहीं अपनी पसंद की लड़की से शादी कर के घर बसाऊंगा. आप लड़की वालों को मना कर दें.’

‘‘मांबाप के दिल को तोड़ने वाली यह पहली चोट थी. लड़की वालों को पता चला तो आ कर उन्हें काफी कुछ सुना गए. बिरादरी में तो जैसे इन की नाक ही कट गई. अंकल ने तो बाहर निकलना ही छोड़ दिया लेकिन आंटी उसी ठाटबाट से निकलतीं. आखिर लड़के की मां होने का कुछ तो गरूर उन में होना ही था.

‘‘इधर छोटे बेटे ने भी किसी ईसाई लड़की से शादी कर ली. अब रह गई बेटी. अंकल ने उस से पूछा, ‘बेटी, तुम भी अपनी पसंद बता दो. हम तुम्हारे लिए लड़का देखें या तुम्हें भी अपनी इच्छा से शादी करनी है.’ इस पर वह बोली कि पापा, अभी तो मैं पढ़ रही हूं. पढ़ाई करने के बाद इस बारे में सोचूंगी.

‘‘‘फिर क्या सोचेगी.’ इस के पापा ने कहा, ‘फिर तो नौकरी खोजेगी और अपने पैरों पर खड़ी होने के बारे में सोचेगी. तब तक तुझे भी कोई मनपसंद साथी मिल जाएगा और कहेगी कि उसी से शादी करनी है. आजकल की पीढ़ी देशदेशांतर और जातिपाति को तो कुछ समझती नहीं बल्कि बिरादरी के बाहर शादी करने को एक उपलब्धि समझती है.’

’’इसी बीच दीप्ति की मम्मी कब हमारे लिए चाय रख गईं पता ही नहीं चला. मैं ने घड़ी देखी, 5 बज चुके थे.

‘‘अरे, मैं तो मम्मी को 4 बजे आने को कह कर आई हूं…अब खूब डांट पड़ेगी,’’ कहानी अधूरी छोड़ उस से विदा ले कर मैं घर चली आई.

कहानी के बाकी हिस्से के लिए मन में उत्सुकता तो थी पर घड़ी की सूई की सी रफ्तार से चलने वाली यहां की जिंदगी का मैं भी एक हिस्सा थी. अगले दिन काम पर ही कहानी के बाकी हिस्से के लिए मैं ने दीप्ति को लंच टाइम में पकड़ा. उस ने वृद्ध दंपती की कहानी का अगला हिस्सा जो सुनाया वह इस प्रकार है:

‘‘मिसेज शर्मा यानी मेरी पड़ोसिन वृद्धा कहीं भी विवाहशादी का धूमधड़ाका या रौनक सुनदेख लें तो बरदाश्त नहीं कर पातीं और पागलों की तरह व्यवहार करने लगती हैं. आसपड़ोस को बीच सड़क पर खड़ी हो कर गालियां देने लगती हैं. यह भी कारण है अंकल का हरदम घर में ही बैठे रहने का,’’ दीप्ति ने बताया, ‘‘एक बार पापा ने अंकल को सुझाया था कि आप रिटायर तो हो ही चुके हैं, क्यों नहीं कुछ दिनों के लिए इंडिया घूम आते या भाभी को ही कुछ दिनों के लिए भेज देते. कुछ हवापानी बदलेगा, अपनों से मिलेंगी तो इन का मन खुश होगा.

‘‘‘यह भी कर के देख लिया है,’ बडे़ मायूस हो कर शर्मा अंकल बोले थे, ‘चाहता तो था कि इंडिया जा कर बसेरा बनाऊं मगर वहां अब है क्या हमारा. भाईभतीजों ने पिता से यह कह कर सब हड़प लिया कि छोटे भैया को तो आप बाहर भेज कर पहले ही बहुत कुछ दे चुके हैं…वहां हमारा अब जो छोटा सा घर बचा है वह भी रहने लायक नहीं है.

‘‘‘4 साल पहले जब मेरी पत्नी सुमित्रा वहां गई थी तो घर की खस्ता हालत देख कर रो पड़ी थी. उसी घर में विवाह कर आई थी. भरापूरा घर, सासससुर, देवरजेठ, ननदों की गहमागहमी. अब क्या था, सिर्फ खंडहर, कबूतरों का बसेरा.

‘‘‘बड़ी भाभी ने सुमित्रा का खूब स्वागत किया. सुमित्रा को शक तो हुआ था कि यह अकारण ही मुझ पर इतनी मेहरबान क्यों हो रही हैं. पर सुमित्रा यह जांचने के लिए कि देखती हूं वह कौन सा नया नाटक करने जा रही है, खामोश बनी रही. फिर एक दिन कहा कि दीदी, किसी सफाई वाली को बुला दो. अब आई हूं तो घर की थोड़ी साफसफाई ही करवा जाऊं.’

‘‘‘सफाई भी हो जाएगी पर मैं तो सोचती हूं कि तुम किसी को घर की चाबी दे जाओ तो तुम्हारे पीछे घर को हवाधूप लगती रहेगी,’ भाभी ने अपना विचार रखा था.

‘‘‘सुमित्रा मेरी सलाह लिए बिना भाभी को चाबी दे आई. आ कर भाभी की बड़ी तारीफ करने लगी. चूंकि इस का अभी तक चालाक लोगों से वास्ता नहीं पड़ा था इसलिए भाभी इसे बहुत अच्छी लगी थीं. पर भाभी क्या बला है यह तो मैं ही जानता हूं. वैसे मैं ने इसे पिछली बार जब इंडिया भेजा था तो वहां जा कर इस का पागलपन का दौरा ठीक हो गया था. लेकिन इस बार रिश्तेदारों से मिल कर 1 महीने में ही वापस आ गई. पूछा तो बोली, ‘रहती कहां? बड़ी भाभी ने किसी को घर की चाबी दे रखी थी. कोई बैंक का कर्मचारी वहां रहने लगा था.’

‘‘सुमित्रा आगे बताने लगी कि भाभी यह जान कर कि हम अब यहीं आ कर रहेंगे, खुश नहीं हुईं बल्कि कहने लगीं, ‘जानती हो कितनी महंगाई हो गई है. एक मेहमान के चायपानी पर ही 100 रुपए खर्च हो जाते हैं.’ फिर वह उठीं और अंदर से कुछ कागज ले आईं. सुमित्रा के हाथ में पकड़ाते हुए कहने लगीं कि यह तुम्हारे मकान की रिपेयरिंग का बिल है जो किराएदार दे गया है. मैं ने उस से कहा था कि जब मकानमालिक आएंगे तो सारा हिसाब करवा दूंगी. 14-15 हजार का खर्चा था जो मैं ने भर दिया.

‘‘‘रात खानेपीने के बाद देवरानी व जेठानी एकसाथ बैठीं तो यहांवहां की बातें छिड़ गईं. सुमित्रा कहने लगी कि दीदी, यहां भी तो लोग अच्छा कमातेखाते हैं, नौकरचाकर रखते हैं और बडे़ मजे से जिंदगी जीते हैं. वहां तो सब काम हमें अपने हाथ से करना पड़ता है. दुख- तकलीफ में भी कोई मदद करने वाला नहीं मिलता. किसी के पास इतना समय ही नहीं होता कि किसी बीमार की जा कर खबर ले आए.’

‘‘भाभी का जला दिल और जल उठा. वह बोलीं कि सुमित्रा, हमें भरमाने की बातें तो मत करो. एक तुम्हीं तो विलायत हो कर नहीं आई हो…और भी बहुत लोग आते हैं. और वहां का जो यशोगान करते हैं उसे सुन कर दिल में टीस सी उठती है कि आप ने विलायत रह कर भी अपने भाई के लिए कुछ नहीं किया.

‘‘सुमित्रा ने बात बदलते हुए पूछा कि दीदी, उस सुनंदा का क्या हाल है जो यहां स्कूल में प्रिंसिपल थी. इस पर बड़ी भाभी बोलीं, ‘अरे, मजे में है. बच्चों की शादी बडे़ अमीर घरों में कर दी है. खुद रिटायर हो चुकी है. धन कमाने का उस का नशा अभी भी नहीं गया है. घर में बच्चों को पढ़ा कर दौलत कमा रही है. पूछती तो रहती है तेरे बारे में. कल मिल आना.’

‘‘अगले दिन सुमित्रा से सुनंदा बड़ी खुश हो कर मिली. उलाहना भी दिया कि इतने दिनों बाद गांव आई हो पर आज मिलने का मौका मिला है. आज भी मत आतीं.

‘‘सुनंदा के उलाहने के जवाब में सुमित्रा ने कहा, ‘लो चली जाती हूं. यह तो समझती नहीं कि बाहर वालों के पास समय की कितनी कमी होती है. रिश्तेदारों से मिलने जाना, उन के संदेश पहुंचाना. घर में कोई मिलने आ जाए तो उस के पास बैठना. वह उठ कर जाए तो व्यक्ति कोई दूसरा काम सोचे.’

‘‘‘बसबस, रहने दे अपनी सफाई,’ सुनंदा बोली, ‘इतने दिनों बाद आई है, कुछ मेरी सुन कुछ अपनी कह.’

‘‘आवभगत के बाद सुनंदा ने सुमित्रा को बताया तुम्हारी जेठानी ने तुम्हारा घर अपना कह कर किराए पर चढ़ाया है. 1,200 रुपए महीना किराया लेती है और गांवमहल्ले में सब से कहती फिरती है कि सुमित्रा और देवरजी तो इधर आने से रहे. अब मुझे ही उन के घर की देखभाल करनी पड़ रही है. सुमित्रा पिछली बार खुद ही मुझे चाबी दे गई थी,’ फिर आगे बोली, ‘मुझे लगता है कि उस की निगाह तुम्हारे घर पर है.’

‘‘‘तभी भाभी मुझ से कह रही थीं कि जिस विलायत में जाने को हम यहां गलतसही तरीके अपनाते हैं, उसी को तुम ठुकरा कर आना चाहती हो. तेरे भले की कहती हूं ऐसी गलती मत करना, सुमित्रा.’

‘‘सुनंदा बोली, ‘मैं ने अपनी बहन समझ कर जो हकीकत है, बता दी. जो भी निर्णय लेना, ठंडे दिमाग से सोच कर लेना. मुझे तो खुशी होगी अगर तुम लोग यहां आ कर रहो. बीते दिनों को याद कर के खूब आनंद लेंगे.’

‘‘सुनंदा से मिल कर सुमित्रा आई तो घर में उस का दम घुटने लगा. वह 2 महीने की जगह 1 महीने में ही वापस लंदन चली आई.

‘‘‘विनोद भाई, तुम्हीं कोई रास्ता सुझाओ कि क्या करूं. इधर से सब बेच कर इंडिया रहने की सोचूं तो पहले तो घर से किराएदार नहीं उठेंगे. दूसरे, कोई जगह ले कर घर बनाना चाहूं तो वहां कितने दिन रह पाएंगे. बच्चों ने तो उधर जाना नहीं. यहां अपने घर में तो बैठे हैं. किसी से कुछ लेनादेना नहीं. वहां तो किसी काम से भी बाहर निकलो तो जासूस पीछे लग लेंगे. तुम जान ही नहीं पाओगे कि कब मौका मिलते ही तुम पर कोई अटैक कर दे. यहां का कानून तो सुनता है. कमी तो बस, इतनी ही है कि अपनों का प्यार, उन के दो मीठे बोल सुनने को नहीं मिलते.’’

‘‘‘बात तो तुम्हारी सही है. थोडे़ सुख के लिए ज्यादा दुख उठाना तो समझदारी नहीं. यहीं अपने को व्यस्त रखने की कोशिश करो,’’ विनोद ने उन्हें सुझाया था.

‘‘अब जब सारी उम्र खूनपसीना बहा कर यहीं गुजार दी, टैक्स दे कर रानी का घर भर दिया. अब पेंशन का सुख भी इधर ही रह कर भोगेंगे. जिस देश की मिट्टीपानी ने आधी सदी तक हमारे शरीर का पोषण किया उसी मिट्टी को हक है हमारे मरने के बाद इस शरीर की मिट्टी को अपने में समेटने का. और फिर अब तो यहां की सरकार ने भारतीयों के लिए अस्थिविसर्जन की सुविधा भी शुरू कर दी है.

‘‘विनोद, मैं तो सुमित्रा को समझासमझा कर हार गया पर उस के दिमाग में कुछ घुसता ही नहीं. एक बार बडे़ बेटे ने फोन क्या कर दिया कि मम्मी, आप दादी बन गई हैं और एक बार अपने पोते को देखने आओ न. बस, कनाडा जाने की रट लगा बैठी है. वह नहीं समझती कि बेटा ऐसा कर के अपने किए का प्रायश्चित करना चाहता है. मैं कहता हूं कि उसे पोते को तुम से मिलाने को इतना ही शौक है तो खुद क्यों नहीं यहां आ जाता.

‘‘तुम्हीं बताओ दोस्त, जिस ने हमारी इज्जत की तनिक परवा नहीं की, अच्छेभले रिश्ते को ठुकरा कर गोरी चमड़ी वाली से शादी कर ली, वह क्या जीवन के अनोखे सुख दे देगी इसे जो अपनी बिरादरी वाली लड़की न दे पाती. देखना, एक दिन ऐसा धत्ता बता कर जाएगी कि दिन में तारे नजर आएंगे.’’

‘‘यार मैं ने सुना है कि तुम भाभी को बुराभला भी कहते रहते हो. क्या इस उम्र में यह सब तुम्हें शोभा देता है?’’ एक दिन विनोद ने शर्माजी से पूछा था.

‘‘क्या करूं, जब वह सुनती ही नहीं, घर में सब सामान होते हुए भी फिर वही उठा लाती है. शाम होते ही खाना खा ऊपर जा कर जो एक बार बैठ गई तो फिर कुछ नहीं सुनेगी. कितना पुकारूं, सिर खपाऊं पर जवाब नहीं देती, जैसे बहरी हो गई हो. फिर एक पैग पीने के बाद मुझे भी होश नहीं रहता कि मैं क्या बोल रहा हूं.’’

पूरी कहानी सुनातेसुनाते दीप्ति को लंच की छुट्टी का भी ध्यान न रहा. घड़ी देखी तो 5 मिनट ऊपर हो गए थे. दोनों ने भागते हुए जा कर बस पकड़ी.

घर पहुंचतेपहुंचते मेरे मन में पड़ोसिन आंटी के प्रति जो क्रोध और घृणा के भाव थे सब गायब हो चुके थे. धीरेधीरे हम भी उन के नित्य का ‘शबद कीर्तन’ सुनने के आदी होने लगे.

लेखक – कमला घटाऔरा

खाने की मेज पर नान, दाल के साथ शिकायत न परोसें

गुप्ताजी का पूरा परिवार रात को खाने की टेबल पर बैठा हुआ था. सब खाने की टेस्टी डिशेज का आनंद ले रहे थे. तभी गुप्ताजी ने अपने एसोसिएशन के काम करने के तौरतरीके को ले कर शिकायती लहजे में कहना ही शुरू किया था कि हमारी यह एसोसिएशन किसी काम की नहीं. जहां देखो कूड़ा पड़ा रहता है. गाड़ियों की पार्किंग का कोई सिस्टम नहीं है, जिसे देखो जहां मरजी गाड़ी लगा कर देता है. तभी उन के बड़े बेटे राजन ने उन्हें टोक दिया. ‘प्लीज पापा, हम ने डिसाइड किया था न, कि हम खाने की टेबल पर कोई शिकायत नहीं करेंगे. खाने की मेज पर किसी तरह की शिकायतों का पुलिंदा नहीं खोलेंगे और शिकायतों का भंडार न लगाएंगे. सिर्फ गौसिप, हंसीमजाक और खाने को एंजौय करेंगे और आप बताइए अब हम नैक्स्ट फैमिली टूर पर कहां जा रहे हैं, चलिए प्लान बनाते हैं.

क्या आप को नहीं लगता गुप्ताजी के परिवार का यह नियम सभी परिवारों में लागू होना चाहिए कि कम से कम खाने की मेज पर शिकायतों का पुलिंदा नहीं खोला जाए और खाने के समय नान, दाल के साथ परिवार के सदस्यों के साथ शिकायतें न परोसी जाएं?

नान दाल के साथ शिकायत न परोसें – दिन हो रात, जब भी खाने की मेज पर घर के सदस्य बैठे हों, किसी भी प्रकार की किसी की शिकायत नहीं की जानी चाहिए, क्योंकि वह समय परिवार के साथ समय बिताने का सब से अच्छा मौका होता है. उस समय भले ही आपपड़ोस वाली आंटी की, अंकल की गौसिप करें. घर में होने वाले शादीब्याह की चर्चा करें, उस की प्लानिंग करें लेकिन पौलिटिक्स में फलां पार्टी अच्छी, फलां पार्टी खराब, सोशल समस्याओं जैसे सड़कों पर गड्ढ़े, नालियां टूटी हुई, साफसफाई की कमी, शहर में बढ़ते ट्रैफिक, पौल्यूशन, खराब एजुकेशन सिस्टम की शिकायतों का भंडार न लगाएं.

शिकायतें करते रहने से कोई समस्या हल नहीं होती

डाइनिंग टेबल पर सोशल समस्याओं की शिकायतों से कुछ हल नहीं निकलने वाला. यह समझ जाइए कि आप के शिकायत करते रहने से संसार और आसपास की स्थितियां बदलने वाली नहीं हैं और शिकायत करने से सिर्फ भड़ास निकलती है.

आप के आसपास भी ऐसे लोग होंगे जो हमेशा अपनी जिंदगी और परिस्थितियों से नाराज दिखते हैं और अपने हालात व अपने आसपास के माहौल को ले कर उन्हें हमेशा कोई न कोई शिकायत रहती है. धीरेधीरे उन की यह आदत इतनी ज्‍यादा बढ़ जाती है कि उन्‍हें अपने आसपास कुछ भी अच्‍छा नजर नहीं आता और वे खाने की टेबल पर भी खाना और परिवार का साथ एंजौय करने के बजाय देशदुनिया की शिकायतें कर के अपने खाने के साथसाथ दूसरों के खाने और परिवार के साथ मिलने वाले इस अमूल्य समय का मजा भी किरकिरा कर देते हैं.

शिकायतों से कुछ समाधान नहीं निकलने वाला

जब भी आप खाने की टेबल पर किसी समस्या को ले कर शिकायत करने वाले हों तो पहले यह सोचें कि क्‍या आप जिस बात की शिकायत करने वाले हैं उस से अगले 5 मिनट या 5 महीने या 5 साल में कुछ बड़ा बदलाव आएगा ? क्या आप के किसी पर्टिकुलर पार्टी की नीतियों में गलतियां निकालने, शिकायत करने से कुछ समाधान निकलेगा? अगर ऐसा नहीं है तो शिकायत न कर के परिवार के साथ मिले समय का आनंद उठाएं.

बदलाव के लिए करें शिकायत

अगर आप सच में समाज में किसी चीज को ले कर बदलाव चाहते हैं तो पहली बात यह कि खाने की टेबल पर न करें. दूसरी, जब कहीं चर्चा हो तो शिकायतों की झड़ी लगाने से बेहतर होगा कि आप इस तरह बात करें कि आप की बातों का असर हो. ऐसा कर के आप इस के लिए लोगों की मदद कर सकते हैं और समाज और देश में बदलाव की दिशा में काम कर सकते हैं.

क्यों करते हैं लोग शिकायत?

अधिकांश लोगों के लिए शिकायत करना सामाजिक डीएनए का एक अभिन्न अंग जैसा होता है. उन्हें बातबात में शिकायत करने में सुकून मिलता है. वे जहां बैठते हैं, शिकायतें करना शुरू कर देते हैं. शिकायतें करना उन का स्वभाव बन चुका होता है.
ज्यादातर लोग दिन में कम से कम 15-20 बार किसी न किसी बात की शिकायत करते रहते हैं. कुछ लोगों के लिए शिकायत करना खुद को रिलैक्स करने का जरिया होता है और उन्हें लगता है कि शिकायत करने से उन का तनाव दूर करने में मदद मिलेगी लेकिन वास्तव में ऐसा होता नहीं है.

औरतों को अंगदान करने से कतराते हैं पुरुष

अनुराग निगम की उम्र महज 38 साल है. नोएडा स्थित एक मल्टीनेशनल कंपनी के कार्यालय में वह पिछले 10 वर्षों से कार्यरत था. घर में पत्नी और एक बेटी है. अनुराग को शराब पीने की लत जौब में आने के बाद लगी. कंपनी की तरफ से आयोजित फंक्शन या पार्टियों में वह अकसर जरूरत से ज्यादा शराब पीता था. फ्री की शराब छोड़ता भी कौन है? कभीकभी तो वह इतनी पी लेता कि उस को उस के घर तक छोड़ने के लिए किसी को उस के साथ जाना पड़ता.

अत्यधिक शराब पीने का नतीजा यह हुआ कि अनुराग को लिवर सिरोसिस नामक बीमारी हो गई. इस की वजह से अकसर उस के शरीर में पानी भर जाता जिस को निकलवाने के लिए उस को अस्पताल में भरती होना पड़ता था. फिर भी उस से शराब नहीं छूटी. पत्नी से छिपचिप कर वह रोज पीने लगा था. उस के मातापिता और 2 बड़ी बहनें जो पटना में रहती हैं, उस को फोन पर समझातीं कि शराब छोड़ दो. मगर अनुराग की यह लत नहीं छूटी. आखिरकार अनुराग का लिवर पूरी तरह डैमेज हो गया और डाक्टर ने लिवर ट्रांसप्लांट करवाने को कह दिया.

लिवर ट्रांसप्लांट के लिए अनुराग को किसी ऐसे व्यक्ति के लिवर का कुछ हिस्सा चाहिए था जो उस से मैच करे. ब्लड ग्रुप भी मैच करना जरूरी था. अनुराग की पत्नी ने उस को लिवर देने के लिए अपना टैस्ट करवाया मगर वह मैच नहीं हुआ. उस ने यह बात अपनी ससुराल में बताई. पटना में अनुराग का परिवार काफी बड़ा है. उस के मांबाप के अलावा 2 बहनें, 2 भाई, 2 जीजा, 2 भाभियां व उन के 5 जवान बेटे हैं मगर लिवर दान करने के नाम पर सभी पीछे हट गए. समय बीतता जा रहा था. जब अनुराग की हालत काफी खराब हो गई तब उस की बड़ी बहन उस को अपना लिवर देने को तैयार हुईं. इस के लिए वे पटना से दिल्ली आईं जहां एक हौस्पिटल में अनुराग का इलाज चल रहा था. उन का टैस्ट हुआ तो डाक्टर ने पाया कि उन का लिवर भाई को लग सकता था. औपरेशन सक्सैसफुल रहा. अनुराग ने अपनी बहन द्वारा दान किए गए लिवर की बदौलत नया जीवन पाया.

बिहार के राजनेता व राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू यादव के 9 बच्चे हैं. 7 बेटियां और 2 बेटे. 75 वर्षीय लालू यादव की किडनी खराब हुई और बात जब जान पर बन आई तब उन की बेटी रोहिणी आचार्य ने अपनी एक किडनी दे कर उन को नया जीवन दिया. सिंगापुर के एक अस्पताल में उन का ट्रीटमैंट चला. आज लालू यादव काफी स्वस्थ हैं.

आमतौर पर देखा जाता है कि जब परिवार में किसी को मानव अंग या खून की जरूरत पड़ती है तब घरपरिवार की औरतें ही सामने आती हैं और अंगदान कर के अपने परिजन की जान बचाती हैं. इस मामले में पुरुष पीछे ही रहते हैं. महिलाएं तो अंगदान कर के पुरुषों का जीवन बचा लेती हैं लेकिन जब उन को जरूरत होती है तो परिवार के पुरुष उन से किनारा कर लेते हैं. अस्पतालों में अनेक गंभीर बीमारियों से जूझ रही महिलाएं अंगदान के इंतजार में आएदिन मर रही हैं.

भारत में अंगदान को ले कर पहले ही से जागरूकता और इच्छाशक्ति की बहुत कमी है. किडनी लिवर की गंभीर बीमारियों से जूझ रहे मरीज सालों किसी डोनर का इंतजार करते हैं. अगर समय अच्छा हुआ तो कोई डोनर मिल जाता है अन्यथा वे अपनी बीमारी के साथ मौत के मुंह में समा जाते हैं. ऐसे में अगर मरीज कोई महिला हो तो परिजन भी अंगदान के लिए आगे नहीं आते हैं. अस्पतालों में ऐसे भी केस देखे जा रहे हैं. औरत में किडनी या लिवर की गंभीर बीमारी होने पर परिजन उस का इलाज ही बंद कर देते हैं और उस को मौत की तरफ जाने देते हैं.

उत्तर प्रदेश के राज्य अंग एवं ऊतक प्रत्यारोपण संगठन (एसओटीटीओ) की एक सर्वे रिपोर्ट कहती है कि पुरुष मरीजों को लिवर और किडनी दान करने वाली 87 फीसदी महिलाएं होती हैं. इन में करीब 50 फीसदी मामलों में पत्नी ही अंगदान करती है. पत्नी के न होने पर 38 फीसदी केस में मां अपना अंगदान करती है. इस के अलावा परिवार के अन्य सदस्य, जैसे बहनें या भाई आगे आते हैं. वहीं जब कोई स्त्री लिवर या किडनी रोग से प्रभावित हो और उस को अंगदान की आवश्यकता हो तो केवल 13 फीसदी परिवार के पुरुष ही आगे आते हैं.

महिला मरीजों को दान में अंग दिलाना आज चिकित्सा जगत की सब से बड़ी चुनौती है. इस के पीछे मूल कारण धर्म और सामाजिक सोच है. महिलाओं के बारे में पुरुष की सोच आज भी ज्यों की त्यों है. वह आज भी उसे अपने पैर की जूती ही समझता है, जो यदि खराब हो जाए तो वह आसानी से उसे उतार फेंके या बदल दे.

कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि परिवार के किसी पुरुष को अंग की जरूरत पड़ती है तो पत्नी, मां या बहन तत्काल आगे आ जाती हैं, लेकिन किसी महिला को अंग की जरूरत पड़ती है तो कोई पुरुष अंगदान करना भी चाहे तो परिवार के अन्य सदस्य उन्हें प्रोत्साहित करने के बजाय हतोत्साहित करते हैं.

लखनऊ के किंग जौर्ज मैडिकल यूनिवर्सिटी में 34 मरीजों का लिवर ट्रांसप्लांट हुआ. इन में 32 पुरुष और 2 महिलाएं थीं. एक महिला को उस के बेटे ने अपना लिवर दान किया जबकि दूसरी महिला को एक ब्रेन डेड व्यक्ति का लिवर लगाया गया. जबकि पुरुष मरीजों को लिवर दान करने वाली ज्यादातर उन के घरों की महिलाएं थीं.

अंगदान के प्रति जागरूकता और महिलाओं की जिंदगी को समाज में ज्यादा तवज्जुह न देने के कारण अंगदान के लिए लोग तैयार नहीं होते हैं. जबकि लिवर ट्रांसप्लांट में दानदाता के लिवर से डाक्टर सिर्फ एक छोटा सा लोब यानी लिवर का छोटा सा हिस्सा लेते हैं और मरीज में प्रत्यारोपित कर देते हैं. दोनों के शरीर में ही लिवर कुछ दिनों में ही बढ़ कर तैयार हो जाता है. फिर भी महिलाओं को अंगदान करने से पुरुष बचते हैं. किसी महिला के लिए अंगदान करना हो तो परिजनों की बहुत काउंसलिंग करनी पड़ती है.

डाक्टर का बहुत समय बरबाद होता है यह समझाने में कि लिवर का छोटा सा टुकड़ा निकालने या एक किडनी ले लेने से दानदाता की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा, तब जा कर कोई इक्कादुक्का पुरुष महिला मरीज को अपना लिवर या किडनी देने को तैयार होते हैं. जबकि किसी महिला के सामने यदि उस के घर के पुरुष की जान खतरे में है तो वह अपनी जिंदगी की परवा किए बगैर उस को अपने अंग देने के लिए तुरंत तैयार हो जाती है. अंगदान करने में महिलाओं की भागीदारी 87 फीसदी होना और पुरुषों की महज 13 फीसदी होना समाज की मानसिकता को दर्शाता है. किसी महिला को किडनी, लिवर जैसी गंभीर बीमारी का पता चलते ही परिवार का उस से मुंह मोड़ लेना, उस का इलाज बंद करने की कोशिश करना या महिला मरीजों को अंगदान से परहेज करना चिकित्सा जगत के सामने एक गंभीर सामाजिक चुनौती है.

दम तोड़ चुकी उत्तर प्रदेश में सरकारी शिक्षा

आगरा के थाना एत्मादपुर के गांव अरेला में गांव वालों ने आवारा गोवंश, जो उन की फसलों को लगातार नुकसान पहुंचा रहे थे, को घेर कर उन्हें एक सरकारी विद्यालय में बंद कर दिया और गेट पर ताला लटका दिया. सुबह जब शिक्षक और बच्चे स्कूल पहुंचे तो पशुओं को अंदर देख कर दंग रह गए. अब पढ़ाई कहां हो? जब तक गांव वालों की परेशानी दूर नहीं होती तब तक बच्चों की पढ़ाई से छुट्टी. उत्तर प्रदेश के स्कूलों में गाय, भैंस, बकरियां बंधी दिखाई देना आम है. योगी के राज में तो प्राथमिक स्कूल के अध्यापकों को अकसर आवारा गोवंश को ढूंढने व उन की गिनती करने में लगा दिया जाता है.

स्कूल में बच्चों के लिए मिडडे मील बनवाने, राशन खरीदने, फल सब्जी लाने का काम भी टीचर ही करते हैं. बच्चों को पोलियो की दवा पिलाने, पेट के कीड़े मारने वाले गोली एल्बेंडाजोल खिलाने, 0 से 14 वर्ष की उम्र के बच्चे क्या कर रहे हैं इस की गिनती करने, बच्चों को मिडडे मील परोसने और दूध-फल का वितरण करने, उन्हें जूते-ड्रेस व किताबें बांटने, स्कूल में अतिरिक्त कमरा बनवाने, रंगाईपुताई करवाने, क्षेत्र में स्कूल न जाने वाले बच्चों की गिनती करने, जनगणना करने, बीएलओ की ड्यूटी करने, चुनाव ड्यूटी करने और सरकारी आदेश आ जाएं तो केंद्र सरकार की योजनाओं का सत्यापन करने, जिला स्तर पर होने वाले सरकारी आयोजनों में काम करवाने, प्राइमरी स्कूल के टीचर पढ़ाने के अलावा 32 ऐसे काम कर रहे हैं जिन्हें ज्यों का त्यों लिखना मुमकिन नहीं है. आखिर वे बच्चों को पढ़ाते कब हैं? उन के पास पढ़ाने का समय कहां है?

हफ्ताभर पहले योगी सरकार ने आदेश निकाला कि अब टीचरों की हाजिरी डिजिटल तरीके से लगेगी. उन्हें अपना चेहरा स्क्रीन के आगे रख कर अपनी उपस्थिति दर्ज करनी होगी. फेस रिकग्निशन सिस्टम की मदद से वे विद्यालय खुलने और विद्यालय बंद होने पर अपनी हाजिरी लगाएंगे. उन्हें प्रतिदिन दो बार इसे लगाना अनिवार्य होगा. इस आदेश पर तो हंगामा खड़ा हो गया. कौन सा सरकारी टीचर समय से स्कूल आता है? समय से बच्चों को पढ़ाता है? और छुट्टी होने पर ही घर जाता है? बहुतेरे तो ऐसे हैं जिन की रजिस्टर में हाजिरी लगाने की जिम्मेदारी स्कूल के ही किसी छात्र की होती है. अब ये बातें सोच कर ही मुख्यमंत्री को आदेश निकालना चाहिए था. उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि जब सुबहसुबह टीचर क्षेत्र में आवारा गायभैंसों की गिनती करते घूमेंगे तो हाजिरी लगाने कैसे आएंगे? लिहाजा, तमाम टीचर आदेश के खिलाफ सड़कों पर उतर आए. आखिरकार योगी को अपना फैसला वापस लेना पड़ा, गुरुजनों का गुस्सा कौन मोल ले.

सरकारी अध्यापक को गुस्सा भी खूब आता है. कल की खबर है कि बरेली में एक प्राथमिक विद्यालय में कक्षा 4 का छात्र अपनी टीचर के लिए जामुन और नीबू तोड़ कर नहीं लाया तो गुस्से में उस महिला टीचर ने पीटपीट कर उस की खाल उधेड़ दी और एक घंटा कमरे में बंद रखा. शिक्षिका का नाम रजनी गंगवार है और जिस बच्चे को उस ने निर्ममता से पीटा वह अनुसूचित जाति से आता है, नाम है कमल. ऐसी क्रूर टीचर से कौन बच्चा पढ़ना चाहेगा?

एक खबर यह भी है कि उत्तर प्रदेश में इस बार के सैशन में 50 जिलों के 5,350 परिषदीय स्कूलों में एक भी नया एडमिशन नहीं हुआ है. इस में कक्षा एक से संबंधित 3,894 विद्यालय और कक्षा 6 से संबंधित 1,456 स्कूल हैं जिन में एक भी नया बच्चा एडमिशन लेने नहीं आया. वहीं प्रयागराज में 125 परिषदीय स्कूल ऐसे हैं जहां कक्षा एक में इस बार एक भी एडमिशन नहीं हुआ. 97 जूनियर स्कूलों में कक्षा 5 में एक भी नया पंजीयन नहीं हुआ. शून्य एडमिशन वाली सूची में शाहजहांपुर शीर्ष पर है. वहां सब से अधिक 464 ऐसे विद्यालय हैं जिन में कक्षा एक में इस बार कोई एडमिशन नहीं हुआ. आगरा में 443, मैनपुरी में 432, बदायूं में 277, अलीगढ़ में 272, बरेली में 253, एटा में 236, मथुरा में 192, कासगंज में 135, हाथरस में 117, मेरठ में 118, पीलीभीत में 92, मुजफ्फरनगर में 81, फिरोजाबाद में 75 सरकारी स्कूल ऐसे हैं जहां इस सैशन में एक भी नया बच्चा एडमिशन लेने नहीं आया.

पिछले 3 सालों के अंदर देश के कई सरकारी स्कूलों में ताला लग चुका है. यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इनफौर्मेशन सिस्टम फौर एजुकेशन प्लस डेटा के मुताबिक देश में सरकारी स्कूलों की संख्या में भारी कमी आई है. यूडीआईएसई की एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश में 50 हजार से अधिक सरकारी स्कूल बंद हो गए हैं. उत्तर प्रदेश में सरकारी स्कूलों की संख्या में 26,074 स्कूलों की गिरावट देखी गई. जबकि, इस दौरान प्राइवेट स्कूलों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ी है. उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल ऐसे राज्य हैं जहां सब से ज्यादा प्राइवेट स्कूलों की संख्या में बढ़ोतरी देखी गई है.

देश के सरकारी स्कूलों में ज़्यादातर पिछड़े, दलित, आदिवासी और बेहद गरीब परिवारों के बच्चे पढ़ते हैं. इन के मातापिता गरीब, अनपढ़, मजदूर होते हैं. इन बच्चों को स्कूल तक लाने के लिए भी काफी मशक्कत करनी पड़ती है. टीचर क्षेत्र के स्लम एरिया, झुग्गी बस्ती, गांवगांव घूम कर ऐसे परिवारों से मिलते हैं और उन्हें अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिए प्रेरित करते हैं. वे उन्हें मिडडे मील का लालच देते हैं, साल में 2 यूनिफौर्म, जूतेमोजे, किताबें, बस्ता आदि देने की बात करते हैं तो वे अपने बच्चों को यह सोच कर भेज देते हैं कि चलो, एक वक्त तो पेटभर खाना खा लेगा और पहनने के लिए कपड़ेलत्ते भी मिल जाएंगे. लेकिन शौचालयविहीन व जर्जर स्कूल भवन, टपकती छत, एकएक कमरे में 100-100 बच्चे, टूटाफूटा फर्नीचर, बिजलीपंखे का अभाव जहां इन की पढ़ाई में बाधा बनता है वहीं निकम्मे अध्यापकों का हाजिरी लगा कर दिनभर स्कूल से गायब रहना आम है. बाकी बचे अध्यापक पढ़ाने के अलावा सरकारी आदेशों की पूर्ति में लगे रहते हैं. ऐसे में भारत में और उत्तर प्रदेश में सरकारी शिक्षा की असलियत क्या है, इसे समझना मुश्किल नहीं है.

क्षेत्र के सरकारी स्कूलों की क्या दशा है, वहां टीचर आ रहे हैं या नहीं, पढ़ाई हो रही है या नहीं, बच्चों को किताबें-यूनिफौर्म और खाना मिल रहा है या नहीं, यह देखने का काम क्षेत्र के पार्षद-विधायक-सांसद का होता है. मगर वे इस के लिए अपना समय क्यों बरबाद करें जब उन के अपने निजी स्कूल धड़ल्ले से चल रहे हों और लाखोंकरोड़ों की कमाई हो रही हो?

एक नामी दैनिक अखबार की पड़ताल कहती है कि उत्तर प्रदेश में आधे से ज्यादा स्कूलकालेज राजनेताओं के हैं. जिन सरकारी स्कूलों को सुधारने की जिम्मेदारी सांसदों-विधायकों-पार्षदों की है, वे कभी इस के लिए गंभीरता से काम नहीं करते हैं. वजह है उन के अपने प्राइवेट स्कूल. जान कर आश्चर्य होगा कि उत्तर प्रदेश में आधे से ज्यादा यानी करीब 60 फीसदी प्राइवेट स्कूलकालेजों के मालिक राजनेता हैं.

बसपा नेता शिव प्रसाद यादव के इटावा और मैनपुरी में 100 से ज्यादा स्कूल चल रहे हैं. भाजपा नेता बृजभूषण शरण सिंह के गोंडा और बहराइच में 54 प्राइवेट स्कूल हैं. भाजपा के पूर्व विधायक जय चौबे के 50 से अधिक विद्यालय चल रहे हैं. सपा के प्रदेश सचिव डा. जितेंद्र यादव के फर्रुखाबाद में 20 से अधिक विद्यालय हैं.

अजय प्रताप सिंह, भाजपा जिला पंचायत अध्यक्ष, फतेहपुर के 18 से ज्यादा स्कूल, वाचस्पति/अपना दल (विधायक)/प्रयागराज/15 से ज्यादा स्कूल, एस पी सिंह पटेल/सपा (सांसद)/प्रतापगढ़/एलपीएस ग्रुप/13 स्कूल, संजय सिंह/भाजपा (पूर्व कैबिनेट मंत्री)/अमेठी/13 स्कूल, मनोज सिंह/भाजपा /गाजीपुर/11 स्कूल, संजयन त्रिपाठी/भाजपा (पूर्व एमएलसी)/गोरखपुर/10 से ज्यादा विद्यालयों के मालिक हैं.

उत्तर प्रदेश में 74 हजार से ज्यादा प्राइवेट स्कूल हैं. इन में 50 हजार स्कूलों के मालिक नेता हैं. इन में लगभग सभी पार्टियों के नेता शामिल हैं. 20 हजार प्राइवेट इंटर कालेज और 7 हजार से ज्यादा प्राइवेट डिग्री कालेज भी नेताओं के ही हैं. 31 प्राइवेट यूनिवर्सिटीज में 5 भाजपा और 3 सपा नेताओं की हैं.

प्रतापगढ़ से सपा सांसद एस पी सिंह पटेल लखनऊ पब्लिक स्कूल के मालिक हैं. फर्रुखाबाद के सपा नेता डा. जितेंद्र यादव के पास पूरा बाबू सिंह ग्रुप है, 20 से ज्यादा डिग्री कालेज और 4 मैडिकल कालेज हैं. सपा सरकार में मंत्री रहे सिद्धार्थनगर के माता प्रसाद पांडेय के पास भी 5 स्कूलकालेज हैं. सपा के दिग्गज नेता आजम खान के पास 3 स्कूल हैं, एक यूनिवर्सिटी भी है जिस पर फिलहाल योगी सरकार का कब्जा हो गया है.

राष्ट्रीय परिवर्तन दल के डी पी यादव जिला बदायूं में 8 स्कूलों के मालिक हैं. कांग्रेस सांसद प्रमोद तिवारी 6 भव्य स्कूलों के मालिक हैं. सपा के माता प्रसाद पांडेय सिद्धार्थनगर में 5 स्कूल चला रहे हैं. कांग्रेस के राजेश्वर पटेल वाराणसी में 5 से ज्यादा स्कूल खोल कर बैठे हैं. कानपुर के आलोक मिश्रा, जो कांग्रेस नेता हैं, डीपीएस ग्रुप चला रहे हैं जिस के अंतर्गत 4 स्कूल हैं. इन के अलावा राजेश गौतम/बसपा (पूर्व विधायक)/लखीमपुर/4 स्कूल, चंद्रमणि यादव/सपा (पूर्व ब्लौक प्रमुख)/मऊ/4 स्कूल, अक्षय प्रताप सिंह/जनसत्ता दल (एमएलसी)/प्रतापगढ़/3 स्कूल, राकेश प्रताप सिंह/सपा विधायक/अमेठी/3 स्कूलों के मालिक हैं.

अपने स्कूलकालेज खोलने में भाजपा के नेता सब से आगे हैं. अमेठी में भाजपा नेता और पूर्व कैबिनेट मंत्री संजय सिंह के पास कुल 13 स्कूलकालेज हैं. हरदोई के भाजपा एमएलए अवनीश प्रताप सिंह के पास जिले में 10 से ज्यादा स्कूलकालेज हैं. गाजीपुर के भाजपा नेता मनोज सिंह के पास 8 डिग्री कालेज, 2 इंटर कालेज और आईटीआई कालेज हैं. भाजपा विधायक अनुराग सिंह के पास मिर्जापुर में 5 डिग्री कालेज हैं. डुमरियागंज से भाजपा सांसद जगदंबिका पाल के पास सूर्य ग्रुप औफ इंस्टिट्यूशन नाम से इंस्टिट्यूट है. इस में डिग्री कालेज और इंजीनियरिंग कालेज शामिल हैं. कौशांबी में भाजपा के पूर्व विधायक संजय गुप्ता के पास 4 इंटर कालेज और एक डिग्री कालेज हैं, बोर्डिंग स्कूल भी है. इन सब के अलावा जालौन के जिला पंचायत अध्यक्ष (भाजपा) घनश्याम अनुरागी के पास 3 कालेज, आगरा के भाजपा विधायक छोटेलाल वर्मा के पास 5 स्कूलकालेज और संभल के भाजपा नेता अजीत यादव के पास 4 स्कूलकालेज हैं.

उत्तर प्रदेश में इस वक्त 31 प्राइवेट यूनिवर्सिटीज हैं जिन में से 5 यूनिवर्सिटीज भाजपा नेताओं की हैं. इन में नारायण दास अग्रवाल की जीएलए यूनिवर्सिटी, सचिन गुप्ता की संस्कृति यूनिवर्सिटी, जिला पंचायत अध्यक्ष किशन चौधरी की केएम यूनिवर्सिटी शामिल हैं. इस के अलावा ठाकुर जयवीर सिंह की नोएडा इंटरनैशनल यूनिवर्सिटी, बरेली के महापौर उमेश गौतम की इन्वर्टिस यूनिवर्सिटी भी है. गोरखपुर की महायोगी गोरखनाथ यूनिवर्सिटी गोरक्षा पीठ ट्रस्ट के अधीन है. अन्य यूनिवर्सिटीज के प्रमुख या तो व्यवसायी हैं या फिर शिक्षा क्षेत्र से ही जुड़े हैं.

स्कूल खोलना आसान नहीं होता. इस के लिए कई मापदंड तय किए गए हैं, मगर नेताओं के लिए सब संभव है. अधिकारियों का मुंह पैसे से भर देने पर उन की फाइल कहीं नहीं अटकती है. उत्तर प्रदेश के आधे प्राइवेट स्कूल भी तय नियम के हिसाब से नहीं चल रहे हैं. यदि नियमों की मानें तो शहरी क्षेत्र में 5वीं तक का स्कूल खोलने के लिए 500 वर्ग गज (करीब 5,000 वर्ग फुट) का खेल का मैदान होना ही चाहिए. गांव में स्कूल खोलना है तो 1,000 वर्ग गज का खेल का मैदान होना चाहिए. इस के अलावा 270 वर्ग फुट के 3 क्लासरूम, 150-150 वर्ग फुट का एक स्टाफरूम और एक प्रिंसिपलरूम होना चाहिए. 8वीं तक के स्कूल में 600 वर्ग फुट की एक विज्ञान प्रयोगशाला भी अनिवार्य है. इन दोनों प्रकार के स्कूलों में एक 400 वर्ग फुट का अलग कमरा होना चाहिए. शहर में कालेज खोलने के लिए 3 हजार वर्ग मीटर और गांव में कालेज खोलने पर 6 हजार वर्ग मीटर जमीन होनी चाहिए.

इस के अलावा जमीन की खरीद का एफिडेविट, बिल्डिंग का फिटनैस सर्टिफिकेट, कंप्लीशन सर्टिफिकेट, जल बोर्ड से जल परीक्षण रिपोर्ट, बिल्डिंग का साइट प्लान, बैंक का इश्यू किया गया एफडी के बदले में नो-लोन सर्टिफिकेट जैसे कुल 17 तरीके के सर्टिफिकेट देने होते हैं. लेकिन, उत्तर प्रदेश में 80 फीसदी से ज्यादा स्कूल इन मानकों पर खरे नहीं उतरते हैं. बावजूद इस के, वे धड़ल्ले से चल रहे हैं और जम कर कमाई कर रहे हैं. एक पैटर्न और भी दिखता है, जिन नेताओं के पास कई स्कूलकालेज हैं, वे राजनीति में बहुत आक्रामक नहीं हैं. जैसे ही सरकार बदलती है, उन की विचारधारा भी बदल जाती है. वे बस सत्ता से चिपके रहते हैं और अपना धंधा चलाते रहते हैं. इन्हें उन सरकारी स्कूलों की व्यवस्था से कोई लेनादेना नहीं जो उन के क्षेत्र में हैं और सरकारी योजनाओं के तहत चल रहे हैं. इन्हें उन गरीब बच्चों के भविष्य की कोई चिंता नहीं है जो पिछड़े, दलित और आदिवासी समाज से आते हैं. ऐसे में देश के इस बड़े तबके को अपने बच्चों की शिक्षा की चिंता करनी खुद ही शुरू कर देनी चाहिए.

इस तबके को समझना होगा कि उन के बच्चों की शिक्षा के लिए सरकारी योजनाओं के जरिए जो पैसे की नदियां बहाई जा रही हैं उन की कुछ बूंदें तो उन को भी हासिल हों. ये सरकारी पैसा उन्हीं की मेहनत का पैसा है. सरकारी स्कूल में यदि टीचर समय से नहीं आ रहा है, बच्चों को नहीं पढ़ा रहा है तो अब बच्चों के मातापिता को हल्ला बोलने की जरूरत है. खासतौर पर माओं को.

अनोखी तरकीब

कहते हैं कि जिस घर में बेटी दामाद शादी के बाद भी बैठे हों उस घर में अपनी लड़की कभी नहीं ब्याहनी चाहिए, क्योंकि वहां बेटी के आगे बहू की कोई इज्जत नहीं होती. पर सबीहा के घर वालों ने तो कभी यह सोचा ही नहीं था. उन्होंने तो बस, लड़का देखा, उस के चालचलन को परखा, कामधंधा का पता किया और बेटी को ब्याह दिया.

उन्हें तो यह तब पता चला जब सबीहा पहली विदाई के बाद घर आई. मां के हालचाल पूछने पर सबीहा ने बडे़ ही उदासीन अंदाज में बताया, ‘‘बाकी तो वहां सब ठीकठाक है पर एक गड़बड़ है कि जरीना आपा शादी के बाद भी वहीं मायके में पड़ी हुई हैं. उन के मियां के आगेपीछे कोई भी नहीं था और वह दूर के भाई लगते थे इसलिए उन लोगों ने उन्हें घरदामाद बना रखा है.

‘‘जरीना आपा तो वहां ऐसे रहा करती हैं मानो वही उस घर की सबकुछ हों. उन के आगे किसी की भी नहीं चलती है और उन की जबान भी खूब चला करती है. आप लोगों को वहां रिश्ता करने से पहले यह सब पता कर लेना चाहिए था.’’

बेटी की बात सुन कर उस की मां सन्न रह गईं पर अब वह कर भी क्या सकती थीं इसलिए बेटी को समझाने लगीं, ‘‘यह तो वाकई हम से बहुत बड़ी भूल हो गई. जब हम तुम्हारा रिश्ता ले कर वहां गए थे तो जरीना को वहां देखा भी था लेकिन हम ने यही समझा कि शादीशुदा लड़की है, ससुराल आई होगी, इसलिए पूछना जरूरी नहीं समझा और हम धोखा खा गए.

‘‘खैर, तुम्हें इस की ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं है. बस, तुम्हें अपने काम से काम रखना है, और मैं समझती हूं कि यह कोई बहुत बड़ी बात भी नहीं है. हो सकता है कल को वे अपना हंडि़याबर्तन अलग कर लें.’’

सबीहा का पति अनवर जमाल भारतीय स्टेट बैंक में कैशियर था. वह अच्छीखासी कदकाठी का खूबसूरत नवयुवक था लेकिन उस के साथ एक गड़बड़ थी, वह उन मर्दों में से था जो अपनी बीवियों को दोस्त बना कर नहीं सिर्फ बीवी बना कर रखना जानते हैं.

जरीना के 2 बेटे और 2 बेटियां थीं. चारों बच्चे बेहद शरारती और जिद्दी थे. वे घर में हर वक्त हुड़दंग मचाते रहते और सबीहा से तरहतरह की फरमाइशें करते रहते. अकसर वह उन की फरमाइशें पूरी कर देती लेकिन कभी तंग आ कर कुछ बोल देती तो बस, जरीना का भाषण शुरू हो जाता, ‘‘बच्चों से ऐसे पेश आया जाता है. जरा सा घर का काम क्या करती हो इन मासूमों पर गुस्सा उतारने लगती हो.’’

बेटी की चिल्लाहट सुन कर सबीहा की सास भी बिना कुछ जानेबूझे उसे कोसने लगतीं, ‘‘इतनी सी जिम्मेदारी भी तुम से निभाई नहीं जाती. इसीलिए कहती हूं कि लड़कियों को ज्यादा पढ़ानालिखाना नहीं चाहिए. ज्यादा पढ़लिख लेने के बाद उन का मन घरेलू कामों में नहीं लगता है.’’

अगर कभी सबीहा की कोई शिकायत अनवर तक पहुंच जाती तो उस को अलग डांटफटकार सुनने को मिलती लेकिन वह किसी को कुछ बोल नहीं सकती थी. अपनी सफाई नहीं दे सकती थी, केवल उन की सुन सकती थी. वह इस सच को जान चुकी थी कि उस के कुछ भी बोलने का मतलब है सब मिल कर उसे चीलकौवे की तरह नोच खाएंगे.

सबीहा मायके में अपने ससुराल वालों की कोई शिकायत करती तो वे उलटे उसे ही नसीहत देने लगते और सब्र से काम लेने को कहते. इसलिए शुरुआत में वह जो भी वहां की बात मायके वालों को बताती थी, बाद में उस ने वह भी बताना बंद कर दिया.

एक दिन सबीहा अपने हालात से भरी बैठी थी कि ननद ने कुछ कहा तो वह उस से जबान लड़ा बैठी और जवाब में उसे ऐसी बातें सुनने को मिलीं जिस की उस ने कल्पना भी नहीं की थी.

सास और ननद की झूठी और बेसिरपैर की बातों को सुन वह स्तब्ध रह गई और सोचने लगी कि कहां से वह जरीना के मुंह लग गई.
लेकिन उन का अभी इतने से पेट नहीं भरा था और जब अनवर बैंक से आया तो मौका मिलते ही उन्होंने उन बातों में कुछ और मिर्चमसाला लगा कर उस के कान भर दिए और वह भी सबीहा की खबर लेने लगा, ‘‘क्या यही सिखा के भेजा है तुम्हारे मांबाप ने कि सासननद का एहतेराम मत करना? उन के बच्चों को नीची नजर से देखना. घर में अपनी मनमानी करती रहना और मौका मिलते ही शौहर को लेके अलग हो जाना.’’

‘‘अरे, यह आप क्या कह रहे हैं? मैं ने तो ऐसा कभी सोचा भी नहीं और कभी किसी को कुछ कहा भी नहीं है. पता नहीं वह क्याक्या अपने मन से लगाती रहती हैं.’’

अनवर के सामने सबीहा जैसे डरतेडरते पहली बार इतना बोली तो वह और भी भड़क उठा, ‘‘खामोश, यहां यह जबानदराजी नहीं चलेगी. यहां रहना है तो सभी का आदरसम्मान करना सीखना होगा और सब से मिलजुल कर रहना पड़ेगा. समझीं.’’

पति की डांट के बाद सबीहा अंदर ही अंदर फूट पड़ी और मन में बड़बड़ाने लगी कि मैं इन्हें क्या तकलीफ पहुंचाती हूं जो ये मेरे पीछे पड़ी रहती हैं. मुझ से ऐसा कौन सा कर्म हो गया था जो मैं ऐसे घर में चली आई. जब मुझे शादी के बाद यही सब देखना था तो इस से बेहतर था कि मैं घर में ही कुंआरी पड़ी रहती.

उसे पति की बात उतनी बुरी नहीं लगी थी, उसे तो पति के कान भरने वाली सासननद पर गुस्सा आ रहा था. उस ने मन में सोच लिया था कि अब खामोश बैठने से काम नहीं चलेगा. इन्हें कुछ न कुछ सबक सिखाना ही पड़ेगा, तभी उस की जान छूटेगी. लेकिन उसे करना क्या होगा? लड़ाईझगडे़ से तो उस का यह काम बनने वाला नहीं था. फिर कौन सी तरकीब लगाई जाए कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे.

सबीहा काफी देर तक अपनी इस समस्या के समाधान के लिए बिस्तर पर पड़ी दिमागी कसरत करती रही. अचानक उसे एक अनोखी तरकीब सूझ गई और वह मन में बड़बड़ाई, ‘हां, यह ठीक रहेगा. ऐसे लोग उलटे दिमाग के होते हैं. इन्हें उलटी बात कहो तो सीधा समझते हैं और सीधा बोलो तो उलटा समझते हैं. इन्हें उलटे हाथ से ही हांकना पड़ेगा. निहायत नरमी से इन्हें उलटी कहानी सुनानी पड़ेगी, तब ये मेरी बात को सीधा समझेंगे और तब ही यह झंझट खत्म होगा.’

सबीहा कई दिनों तक अपनी योजना में उलझी उस के हर पहलू पर विचार करती रही और जब योजना की पूरी रूपरेखा उस के दिमाग में बस गई तब एक दिन मौका पा कर वह सास की तेलमालिश करने बैठ गई. कुछ देर उन से इधरउधर की बातें करने के बाद वह बोली, ‘‘जानती हैं अम्मी, इस बार मैं अपने घर गई थी तो एक दिन मेरे पड़ोस में एक अजब ही तमाशा हो गया.’’

‘‘अच्छा, क्या हुआ था? जरा मैं भी तो सुनूं,’’ उस की कहानी में दिलचस्पी लेते हुए सास बोलीं.

सबीहा उन्हें अपनी पूरी कहानी सुनाने लगी:

‘‘मेरे मायके में एक खातून मेरे मकान से कुछ मकान छोड़ के रहती हैं. उन के पास दोमंजिला मकान था और 2 शादीशुदा लड़के थे. आधे मकान में वे एकसाथ रहते थे और आधे को उन्होंने किराए पर दे रखा था. वे रहते तो मिलजुल कर थे पर उन की मां अपने बडे़ बेटे को बहुत मानती थीं. मां का यही नजरिया दोनों बहुओं और उन के बच्चों के साथ भी था.

‘‘फिर बेटाबहू ने मां की एकतरफा मोहब्बत का गलत फायदा उठाते हुए मकान का वह एक हिस्सा जो देखने में अच्छा था, अपने नाम लिखवा लिया और जो खंडहर जैसा था उस हिस्से को छोटे भाई के लिए छोड़ दिया. यही नहीं बडे़ बेटे ने धोखे से मां के कीमती जेवर आदि भी हड़प लिए.

‘‘छोटे भाई को जब इस बात का पता चला तो वह बडे़ भाई से भिड़ गया और दोनों भाइयों के बीच जम कर झगड़ा हुआ, जिस में बीचबचाव करते समय मां भी घायल हो गईं. इस घटना के बाद मां तो बड़े बेटे के साथ रहने लगीं लेकिन छोटे बेटे से उन का नाता लगभग टूट सा गया.’’
सबीहा ने एक पल रुक कर अपनी सास की ओर देखा तो उसे यों लगा जैसे वह अंदर से कांप रही हैं.

उस ने फिर अपनी कहानी को आगे बढ़ा दिया :

‘‘अम्मीजी, सच कह रही हूं, जब उस लड़ाई के बारे में मुझे पता चला तो इतना गुस्सा आया कि जी चाहा जा कर उन दोनों कमबख्तों के तलवार से टुकड़े- टुकडे़ कर दूं. भाई भाई से लडे़ तो बात अलग है लेकिन बूढ़ी मां के साथ ऐसा सुलूक. उन पर हाथ उठाना कितना बड़ा गुनाह है.

‘‘उस लड़ाईझगडे़ का मां के दिल पर ऐसा असर हुआ कि वह बुरी तरह बीमार पड़ गईं. अब बडे़ लड़के ने उन से साफ कह दिया कि मेरे पास तुम्हारे इलाज के लिए पैसे नहीं हैं, जिस बेटे के नाम की बैठेबैठे माला जपती हो उसी के पास जा कर इलाज कराओ.

‘‘छुटके ने यह सुना तो जैसे उसे ताव आ गया और तुरंत एक अच्छे डाक्टर के पास ले जा कर मां का इलाज कराया. उन्हें अपने पास रख कर खूब देखभाल की. और अब वह एकदम ठीक हो कर बडे़ मजे में छोटे बेटे के पास रह रही हैं.

‘‘अब मुझे उन के बडे़ बेटाबहू पर गुस्सा आ रहा था कि उन्होंने उस बेचारी बुढि़या का सबकुछ लूट लिया था और फिर बेरहमी से खदेड़ भी दिया. यह तो जमाना आ गया है. जिस पर हद से ज्यादा प्यार लुटाइए वही बरबाद करने पर तुल जाता है. इस से तो अच्छा है कि हम सभी को एक नजर से देखते चलें. चाहे वह बेटा हो या बेटी. क्यों अम्मीजी?’’

‘‘हां, बिलकुल,’’ इतना कह कर वह किसी गहरी सोच में डूब गईं. उन्हें खोया हुआ देख कर सबीहा धीरे से मुसकराई और कुछ देर उन की सेवा करने के बाद धीरे से उठ कर चली गई.

दरअसल, सबीहा की सास उस की कहानी सुन कर जो खो गई थीं तो उस दौरान वह अपने प्रति एक फिल्म सी देखने लगी थीं कि बेटीदामाद पर अंधाधुंध प्यारमोहब्बत, धनदौलत सब- कुछ लुटा रही हैं जिस का फायदा उठाते हुए वह उन्हें कंगाल कर के निकल गए. उस के बाद उन की नफरत के मारे हुए बेटाबहू ने भी उन से नाता तोड़ लिया और वह भरी दुनिया में एकदम से अकेली और बेसहारा हो कर रह गई हैं.

शायद इस भयानक खयाल ने ही उन्हें इतनी जल्दी बदल कर रख दिया था. सबीहा की उलटी कहानी सचमुच में काम कर गई थी.
सबीहा अपनी इस पहली सफलता से खुश थी लेकिन अभी उसे ननद से भी निबटना था. उस के भी दिमाग को घुमाना था. इसलिए वह अपनी सफलता पर बहुत ज्यादा खुश न हो कर मन ही मन एक और कहानी बनाने में जुट गई.

जब उस की दूसरी कहानी भी तैयार हो गई तो एक दिन वह ननद के पास भी धीरे से जा बैठी और उन से इधरउधर की बातें करते हुए सोचने लगी कि उन्हें किस तरह कहानी सुनाई जाए. अभी वह यह सोच ही रही थी कि जरीना बोलीं, ‘‘जानती हो सबीहा, आगे पत्थर वाली गली में एक करीम साहब रहते हैं. उन के लड़के की शादी को अभी कुछ ही माह हुए थे कि वह अपनी बीवी को ले कर अलग हो गया. कितनी बुरी बात है. मांबाप कितने अरमानों से बच्चों को पालते हैं और बच्चे उन्हें कितनी आसानी से छोड़ कर चले जाते हैं.’’

यह सुनते ही सबीहा की आंखें चमक उठीं. वह गहरी सांस लेते हुए बोली, ‘‘क्या कीजिएगा बाजी, यही जमाना आ गया है. जिधर देखिए, लोग परिवार से अलग होते जा रहे हैं. यह करीम साहब का बेटा तो कुछ माह बाद अलग हुआ है लेकिन मेरी एक सहेली तो शादी के कुछ ही हफ्ते बाद मियां को ले कर अलग हो गई थी.

‘‘जब मैं ने उस का यह कारनामा सुना तो मुझे उस पर बेहद गुस्सा आया था. मेरी जब उस से मुलाकात हुई और मैं उस पर बिगड़ी तो जानती हैं वह बड़ी ही अदा से मेरे गले में बांहें डाल कर बोली थी, ‘तुम क्या जानो मेरी जान कि अलग रहने के क्या फायदे हैं. जो जी चाहे खाओपिओ, जब दिल चाहे काम करो जहां मन चाहे घूमोफिरो और घर में कहीं पर भी, किसी भी वक्त शौहर के गले में बेधड़क झूल जाओ. कोई रोकनेटोकने वाला नहीं. ये सब आजादियां भला संयुक्त परिवार में कहां मिल पाती हैं?

‘‘‘और सब से बड़ी बात, सभी को कभी न कभी तो अलग होना ही पड़ता है. महंगाई बढ़ती जा रही है. जमीन के दाम भी आसमान छूते जा रहे हैं. अब हिस्से के बाद किसी को मिलता भी क्या है? बस, एक छोटा सा मुरगी का दरबा. इसलिए आज के दौर में जो जितनी जल्दी अलग हो जाएगा वह उतनी ही अच्छी रिहाइश बना सकता है. समझ में आया मेरी जान?’

‘‘उस की फालतू बकबक सुन कर मेरी खोपड़ी और भी गरम हो गई और मैं उसे झिड़कते हुए बोली, ‘यह सब तुम्हारे दिमाग का फितूर है वरना तो संयुक्त परिवार में रहने में जो मजा है वह अकेले रहने में नहीं है, क्योंकि जीवन की असली खुशी इसी में प्राप्त होती है.’

‘‘बाजी, आप ही बताओ, क्या मैं ने उस से कुछ गलत कहा था?’’

‘‘नहीं भई, तुम ने वही कहा था जिसे दुनिया सच मानती आई है.’’

इतना बोल कर जरीना चुपचाप सोचने लगीं कि इस की सहेली ने जो कुछ कहा है वह तो मैं ने कभी देखा ही नहीं. जो भी यहां मिलता रहा हम खातेपीते रहे. जहां ये घुमानेफिराने ले गए हम बस, वहीं गए और शौहर से प्यार, इस छोटे से घर में हम खुल के कभी प्यार भी नहीं कर सके. भला ये भी कोई जिंदगी है?

जरीना को गुमसुम देख सबीहा को अपनी यह योजना भी सफल होती नजर आने लगी, लेकिन उसे पता नहीं था कि वह अपनी इस दूसरी योजना में कहां तक कामयाब होगी.

रात को जरीना के पति जब दुकान से आए तो वह उन के पैर दबाते हुए बोली, ‘‘अजी जानते हैं, कल रात मैं ने एक अजीब सपना देखा था और सोचा था कि उस के बारे में सुबह आप को बताऊंगी लेकिन बताना याद ही नहीं रहा.

‘‘मैं ने सपने में देखा कि एक बेहद बुजुर्ग फकीर मेरे सिरहाने खडे़ हैं और वह बड़ी भारी आवाज में मुझ से कह रहे हैं कि तू जितनी जल्दी इस घर से निकल जाएगी जिंदगी भर उतनी ही ज्यादा खुशहाल रहेगी. समझ ले ये चंद दिन तेरे लिए बड़ी ही रहमतोबरकत के बन कर आए हैं. इसलिए तू अपने इस नेक काम को बिना देर किए कर डाल. और फिर वह साए की तरह लहराते हुए गायब हो गए.’’

‘‘अच्छा, वह तुम से कहां जाने के लिए कह रहे थे?’’ जरीना के पति ने बडे़ ही भोलेपन से पूछा तो उस ने अपना माथा ठोंक लिया.

‘‘अरे, बुद्धू, आप इतना भी नहीं समझे. वह हमें किराए के मकान में जाने के लिए कह रहे थे और कहां?’’

‘‘ठीक है, मैं कोशिश करता हूं.’’

‘‘कोशिश नहीं, एकदम से लग जाइए और 1-2 दिन के अंदर ही इस काम को कर डालिए.’’

अगले दिन जरीना के मियां अपना कामधाम छोड़ कर मकान की तलाश में निकल गए और शाम होतेहोते उन्हें 2 कमरे का एक अच्छा मकान मिल गया. फिर सुबह होते ही उन का सामान भी जाने लगा.

यह देख जरीना के भाई अनवर व अम्मी की आंखें हैरत से फैल गईं. लेकिन यह देख कर सबीहा की तो खुशी का ठिकाना नहीं रहा. उस की दूसरी कहानी भी सफल हो गई थी और उस की ये अनोखी तरकीब बेहद कारगर साबित हुई थी, जिस में उस का न तो किसी से कोई लड़ाईझगड़ा हुआ था और न ही उस ने किसी को सीधे मुंह कुछ कहा था.

लेखक – जमशेद अख्तर

आखिर कहां तक

रात के लगभग साढे़ 12 बजे का समय रहा होगा. मैं सोने की कोशिश कर रहा था. शायद कुछ देर में मैं सो भी जाता तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया. इतनी रात को कौन आया है, यह सोच कर मैं ने दरवाजा खोला तो देखा हरीश खड़ा है. हरीश ने अंदर आ कर लाइट आन की फिर कुछ घबराया हुआ सा पास बैठ गया.

‘‘क्यों हरीश, क्या बात है इतनी रात गए?’’

हरीश ने एक दीर्घ सांस ली, फिर बोला, ‘‘नीलेश का फोन आया था. मनमोहन चाचा…’’

‘‘क्या हुआ मनमोहन को?’’ बीच में उस की बात काटते हुए मैं उठ कर बैठ गया. किसी अज्ञात आशंका से मन घबरा उठा.

‘‘आप को नीलेश ने बुलाया है?’’ ‘‘लेकिन हुआ क्या? शाम को तो वह हंसबोल कर गए हैं. बीमार हो गए क्या?’’

‘‘कुछ कहा नहीं नीलेश ने.’’

मैं बिस्तर से उठा. पाजामा, बनियान पहने था, ऊपर से कुरता और डाल लिया, दरवाजे से स्लीपर पहन कर बाहर निकल आया.

हरीश ने कहा, ‘‘मैं बाइक निकालता हूं, अभी पहुंचा दूंगा.’’

मैं ने मना कर दिया, ‘‘5 मिनट का रास्ता है, टहलते हुए पहुंच जाऊंगा.’’ हरीश ने ज्यादा आग्रह भी नहीं किया.

महल्ले के छोर पर मंदिर वाली गली में ही तो मनमोहन का मकान है. गली में घुसते ही लगा कि कुछ गड़बड़ जरूर है. घर की बत्तियां जल रही थीं. दरवाजा खुला हुआ था. मैं दरवाजे पर पहुंचा ही था कि नीलेश सामने आ गया. बाहर आ कर मेरा हाथ पकड़ा.

मैं ने हाथ छुड़ा कर कहा, ‘‘पहले यह बता कि हुआ क्या है? इतनी रात गए क्यों बुलाया भाई?’’ मैं अपनेआप को संभाल नहीं पा रहा था इसलिए वहीं दरवाजे की सीढ़ी पर बैठ गया. गरमी के दिन थे, पसीनापसीना हो उठा था.

‘‘मुन्नी, एक गिलास पानी तो ला चाचाजी को,’’ नीलेश ने आवाज दी और उस की छोटी बहन मुन्नी तुरंत स्टील के लोटे में पानी ले कर आ गई.
हरीश ने लोटा मेरे हाथों में थमा दिया. मैं ने लोटा वहीं सीढि़यों पर रख दिया. फिर नीलेश से बोला, ‘‘आखिर माजरा क्या है? मनमोहन कहां हैं

कुछ बताओगे भी कि बस, पहेलियां ही बुझाते रहोगे?’’

‘‘वह ऊपर हैं,’’ नीलेश ने बताया.

‘‘ठीकठाक तो हैं?’’

‘‘जी हां, अब तो ठीक ही हैं.’’

‘‘अब तो का क्या मतलब? कोई अटैक वगैरा पड़ गया था क्या? डाक्टर को बुलाया कि नहीं?’’ मैं बिना पानी पिए ही उठ खड़ा हुआ और अंदर आंगन में आ गया, जहां नीलेश की पत्नी सुषमा, बंटी, पप्पी, डौली सब बैठे थे. मैं ने पूछा, ‘‘रामेश्वर कहां है?’’

‘‘ऊपर हैं, दादाजी के पास,’’ बंटी ने बताया.

आंगन के कोने से लगी सीढि़यां चढ़ कर मैं ऊपर पहुंचा. सामने वाले कमरे के बीचों- बीच एक तखत पड़ा था. कमरे में मद्धम रोशनी का बल्ब जल रहा था. एक गंदे से बिस्तर पर धब्बेदार गिलाफ वाला तकिया और एक पुराना फटा कंबल पैताने पड़ा था. तखत पर मनमोहन पैर लटकाए गरदन झुकाए बैठे थे. फिर नीचे जमीन पर बड़ा लड़का रामेश्वर बैठा था.

‘‘क्या हुआ, मनमोहन? अब क्या नाटक रचा गया है? कोई बताता ही नहीं,’’ मैं धीरेधीरे चल कर मनमोहन के करीब गया और उन्हीं के पास बगल में तखत पर बैठ गया. तखत थोड़ा चरमराया फिर उस की हिलती चूलें शांत हो गईं.

‘‘तुम बताओ, रामेश्वर? आखिर बात क्या है?’’

रामेश्वर ने छत की ओर इशारा किया. वहां कमरे के बीचोंबीच लटक रहे पुराने बंद पंखे से एक रस्सी का टुकड़ा लटक रहा था. नीचे एक तिपाई रखी थी.

‘‘फांसी लगाने को चढ़े थे. वह तो मैं ने इन की गैंगैं की घुटीघुटी आवाज सुनी और तिपाई गिरने की धड़ाम से आवाज आई तो दौड़ कर आ गया. देखा कि रस्सी से लटक रहे हैं. तुरंत ही पैर पकड़ कर कंधे पर उठा लिया. फिर नीलेश को आवाज दी. हम दोनों ने मिल कर जैसेतैसे इन्हें फंदे से अलग किया. चाचाजी, यह मेरे पिता नहीं पिछले जन्म के दुश्मन हैं.

‘‘अपनी उम्र तो भोग चुके. आज नहीं तो कल इन्हें मरना ही है, लेकिन फांसी लगा कर मरने से तो हमें भी मरवा देते. हम भी फांसी पर चढ़ जाते. पुलिस की मार खाते, पैसों का पानी करते और घरद्वार फूंक कर इन के नाम पर फंदे पर लटक जाते.

‘‘अब चाचाजी, आप ही इन से पूछिए, इन्हें क्या तकलीफ है? गरम खाना नहीं खाते, चाय, पानी समय पर नहीं मिलता, दवा भी चल ही रही है. इन्हें कष्ट क्या है? हमारे पीछे हमें बरबाद करने पर क्यों तुले हैं?’’ रामेश्वर ने कुछ खुल कर बात करनी चाही.

‘‘लेकिन यह सब हुआ क्यों? दिन में कुछ झगड़ा हुआ था क्या?’’

‘‘कोई झगड़ाटंटा नहीं हुआ. दोपहर को सब्जी लेने निकले तो रास्ते में अपने यारदोस्तों से भी मिल आए हैं. बिजली का बिल भी भरने गए थे, फिर बंटी के स्कूल जा कर साइकिल पर उसे ले आए. हम ने कहीं भी रोकटोक नहीं लगाई. अपनी इच्छा से कहीं भी जा सकते हैं. घर में इन का मन ही नहीं लगता,’’ रामेश्वर बोला.

‘‘लेकिन तुम लोगों ने इन से कुछ कहासुना क्या? कुछ बोलचाल हो गई क्या?’’ मैं ने पूछा.

‘‘अरे, नहीं चाचाजी, इन से कोई क्या कह सकता है. बात करते ही काटने को दौड़ते हैं. आज कह रहे थे कि मुझे अपना चेकअप कराना है. फुल चेकअप. वह भी डा. आकाश की पैथोलौजी लैब में. हम ने पूछा भी कि आखिर आप को परेशानी क्या है? कहने लगे कि परेशानी ही परेशानी है. मन घबरा रहा है. अकेले में दम घुटता है.

‘‘पिछले महीने ही मैं ने इन्हें सरकारी अस्पताल में डा. दिनेश सिंह को दिखाया था. जांच से पता चला कि इन्हें ब्लडप्रेशर और शुगर है…’’

तभी नीलेश पानी का गिलास ले कर आ गया. मैं ने पानी पी लिया. तब मैं ने ही पूछा, ‘‘रामेश्वर, यह तो बताओ कि पिछले महीने तुम ने इन का दोबारा चेकअप कराया था क्या?’’

‘‘नहीं, 2 महीने पहले डा. बंसल से कराया था न?’’ रामेश्वर बोला.

‘‘2 महीने पहले नहीं, जनवरी में तुम ने इन का चेकअप कराया था रामेश्वर, आज इस बात को 11 महीने हो गए. और चेकअप भी क्या था, शुगर और ब्लडप्रेशर. इसे तुम फुल चेकअप कहते हो?’’

‘‘नहीं चाचाजी, डाक्टर ने ही कहा था कि ज्यादा चेकअप कराने की जरूरत नहीं है. सब ठीकठाक है.’’

‘‘लेकिन रामेश्वर, इन का जी तो घबराता है, चक्कर तो आते हैं, दम तो घुटता है,’’ मैं ने कहा.

‘‘अब आप से क्या कहूं चाचाजी,’’ रामेश्वर कह कर हंसने लगा. फिर नीलेश को इशारा कर बोला कि तुम अपना काम करो न जा कर, यहां क्या कर रहे हो.

बेचारा नीलेश चुपचाप अंदर चला गया. फिर रामेश्वर बोला, ‘‘चाचाजी, आप मेरे कमरे में चलिए. इन की मुख्य तकलीफ आप को वहां बताऊंगा,’’ फिर धूर्ततापूर्ण मुसकान फेंक कर चुप हो गया.

मैं मनमोहन के जरा और पास आ गया. रामेश्वर से कहा, ‘‘तुम अपने कमरे में चलो. मैं वहीं आ रहा हूं.’’

रामेश्वर ने बांहें चढ़ाईं. कुछ आश्चर्य जाहिर किया, फिर ताली बजाता हुआ, गरदन हिला कर सीटी बजाता हुआ कमरे से बाहर हो गया.

मैं ने मनमोहन के कंधे पर हाथ रखा ही था कि वह फूटफूट कर रोने लगे. मैं ने उन्हें रोने दिया. उन्होंने पास रखे एक मटमैले गमछे से नाक साफ की, आंखें पोंछीं लेकिन सिर ऊपर नहीं किया. मैं ने फिर आत्मीयता से उन के सिर पर हाथ फेरा. अब की बार उन्होंने सिर उठा कर मु़झे देखा. उन की आंखें लाल हो रही थीं. बहुत भयातुर, घबराए से लग रहे थे. फिर बुदबुदाए, ‘‘भैया राजनाथ…’’ इतना कह कर किसी बच्चे की तरह मुझ से लिपट कर बेतहाशा रोने लगे, ‘‘तुम मुझे अपने साथ ले चलो. मैं यहां नहीं रह सकता. ये लोग मुझे जीने नहीं देंगे.’’

मैं ने कोई विवाद नहीं किया. कहा, ‘‘ठीक है, उठ कर हाथमुंह धो लो और अभी मेरे साथ चलो.’’

उन्होंने बड़ी कातर और याचना भरी नजरों से मेरी ओर देखा और तुरंत तैयार हो कर खड़े हो गए.

तभी रामेश्वर अंदर आ गया, ‘‘क्यों, कहां की तैयारी हो रही है?’’

‘‘इस समय इन की तबीयत खराब है. मैं इन्हें अपने साथ ले जा रहा हूं, सुबह आ जाएंगे,’’ मैं ने कहा.

‘‘सुबह क्यों? साथ ले जा रहे हैं तो हमेशा के लिए ले जाइए न. आधी रात में मेरी प्रतिष्ठा पर मिट्टी डालने के लिए जा रहे हैं ताकि सारा समाज मुझ पर थूके कि बुड्ढे को रात में ही निकाल दिया,’’ वह अपने मन का मैल निकाल रहा था.

मैं ने धैर्य से काम लिया. उस से इतना ही कहा, ‘‘देखो, रामेश्वर, इस समय इन की तबीयत ठीक नहीं है. मैं समझाबुझा कर शांत कर दूंगा. इस समय इन्हें अकेला छोड़ना ठीक नहीं है.’’

‘‘आप इन्हें नहीं जानते. यह नाटक कर रहे हैं. घरभर का जीना हराम कर रखा है. कभी पेंशन का रोना रोते हैं तो कभी अकेलेपन का. दिन भर उस मास्टरनी के घर बैठे रहते हैं. अब इस उम्र में इन की गंदी हरकतों से हम तो परेशान हो उठे हैं. न दिन देखते हैं न रात, वहां मास्टरनी के साथ ही चाय पीएंगे, समोसे खाएंगे. और वह मास्टरनी, अब छोडि़ए चाचाजी, कहने में भी शर्म आती है. अपना सारा जेबखर्च उसी पर बिगाड़ देते हैं,’’ रामेश्वर अपनी दबी हुई आग उगल रहा था.

‘‘इन्हें जेबखर्च कौन देता है?’’ मैं ने सहज ही पूछ लिया.

‘‘मैं देता हूं, और क्या वह कमजात मास्टरनी देती है? आप भी कैसी बातें कर रहे हैं चाचाजी, उस कम्बख्त ने न जाने कौन सी घुट्टी इन्हें पिला दी है कि उसी के रंग में रंग गए हैं.’’

‘‘जरा जबान संभाल कर बात करो रामेश्वर, तुम क्या अनापशनाप बोल रहे हो? प्रेमलता यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं. उन का भरापूरा परिवार है. पति एडवोकेट हैं, बेटा खाद्य निगम में डायरेक्टर है, उन्हें इन से क्या स्वार्थ है. बस, हमदर्दी के चलते पूछताछ कर लेती है. इस में इतना बिगड़ने की क्या बात है. अच्छा, यह तो बताओ कि तुम इन्हें जेबखर्च क्या देते हो?’’ मैं ने शांत भाव से पूछा.

‘‘देखो चाचाजी, आप हमारे बडे़ हैं, दिनेश के फादर हैं, इसलिए हम आप की इज्जत करते हैं, लेकिन हमारे घर के मामले में इस तरह छीछालेदर करने की, हिसाबकिताब पूछने की आप को कोई जरूरत नहीं है. इन का खानापीना, कपडे़ लत्ते, चायनाश्ता, दवा का लंबाचौड़ा खर्चा कहां से हो रहा है? अब आप इन से ही पूछिए, आज 500 रुपए मांग रहे थे उस मास्टरनी को देने के लिए. हम ने साफ मना कर दिया तो कमरा बंद कर के फांसी लगाने का नाटक करने लगे. आप इन्हें नहीं जानते. इन्होंने हमारा जीना हराम कर रखा है. एक अकेले आदमी का खर्चा घर भर से भी ज्यादा कर रहे हैं तो भी चैन नहीं है…और आप से भी हाथ जोड़ कर प्रार्थना है कि हमें हमारे हाल पर छोड़ दें. कहीं ऐसा न हो कि गुस्से में आ कर मैं आप से कुछ बदसलूकी कर बैठूं, अब आप बाइज्जत तशरीफ ले जा सकते हैं.’’

इस के बाद तो उस ने जबरदस्ती मुझे ठेलठाल कर घर से बाहर कर दिया. रामेश्वर ने बड़ा अपमान कर दिया मेरा.

मैं ने कुछ निश्चय किया. उस समय रात के 2 बज रहे थे. गली से निकल कर सीधा प्रो. प्रेमलता के घर के सामने पहुंच गया. दरवाजे की कालबेल दबा दी. कुछ देर बाद दोबारा बटन दबाया. अंदर कुछ खटरपटर हुई फिर थोड़ी देर बाद हरीमोहन ने दरवाजा खोला. मुझे सामने देख कर उन्हें कुछ आश्चर्य हुआ लेकिन औपचारिकतावश ही बोले, ‘‘आइए, आइए शर्माजी, बाहर क्यों खडे़ हैं, अंदर आइए,’’ लुंगी- बनियान पहने वह कुछ अस्तव्यस्त से लग रहे थे. एकाएक नींद खुल जाने से परेशान से थे.

मैं ने वहीं खडे़खडे़ उन्हें संक्षेप में सारी बातें बता दीं. तभी प्रो. प्रेमलता भी आ गईं. बहुत आग्रह करने पर मैं अंदर ड्राइंगरूम के सोफे पर बैठ गया.

प्रो. प्रेमलता अंदर पानी लेने चली गईं.

लौट कर आईं तो पानी का गिलास मुझे थमा कर सामने सोफे पर बैठ गईं और कहने लगीं, ‘‘यह जो रामेश्वर है न, नंबर एक का बदमाश और बदतमीज आदमी है. मनमोहनजी का सारा पी.एफ., जो लगभग 8 लाख था, अपने हाथ कर लिया. साढे़ 5 हजार पेंशन भी अपने खाते में जमा करा लेता है. इधरउधर साइन कर के 3 लाख का कर्जा भी मनमोहनजी के नाम पर ले रखा है. इन्हें हाथखर्चे के मात्र 50 रुपए देता है और दिन भर इन से मजदूरी कराता है.’’

‘‘सागसब्जी, आटापिसाना, बच्चों को स्कूल ले जानालाना, धोबी के कपडे़, बिजली का बिल सबकुछ मनमोहनजी ही करते हैं. फरवरी या मार्च में इसे पता चला कि मनमोहन का 2 लाख रुपए का बीमा भी है, शायद पहली बार स्टालमेंट पेमेंट के कागज हाथ लगे होंगे या पेंशन पेमेंट से रुपए कट गए होंगे, तभी से इन की जान के पीछे पड़ गया है, बेचारे बहुत दुखी हैं.’’

मैं ने हरीमोहनजी से कुछ विचार- विमर्श किया और फिर रात में ही हम पुलिस थाने की ओर चल दिए. उधर हरीमोहनजी ने फोन पर संपर्क कर के मीडिया को बुलवा लिया था. हम ने सोच लिया था कि रामेश्वर का पानी उतार कर ही रहेंगे, अब यह बेइंसाफी सहन नहीं होगी.

धंधा बना लिया

‘‘सुनती हो चंपा?’’

‘‘क्या बात है? दारू पीने के लिए पैसे चाहिए?’’ चंपा ने जब यह बात कही, तब विनोद हैरानी से उस का मुंह ताकता रह गया.

विनोद को इस तरह ताकते देख चंपा फिर बोली, ‘‘इस तरह क्या देख रहा है? मुझे पहले कभी नहीं देखा क्या?’’

‘‘मतलब, तुम से बात करना भी गुनाह है. मैं कोई भी बात करूं, तो तुम्हें लगता है कि मैं दारू के लिए ही पैसा मांगता हूं.’’

‘‘हां, तू ने अपना बरताव ही ऐसा कर लिया है. बोल, क्या कहना चाहता है?’’

‘‘लक्ष्मी होटल में धंधा करते हुए पकड़ी गई.’’

‘‘हां, मुझे मालूम है. एक दिन यही होना था. वही क्या, पूरी 10 औरतें पकड़ी गई हैं. क्या करें, आजकल औरतों ने अपने खर्चे पूरे करने के लिए यह धंधा बना लिया है. लक्ष्मी खूब बनठन कर रहती थी. वह धंधा करती है, यह बात तो मुझे पहले से मालूम थी.’’

‘तुझे मालूम थी?’’ विनोद हैरानी से बोला.

‘‘हां, बल्कि वह तो मुझ से भी यह धंधा करवाना चाहती थी.’’

‘‘तुम ने क्या जवाब दिया?’’

‘‘उस के मुंह पर थूक दिया,’’ गुस्से से चंपा बोली.

‘‘यह तुम ने अच्छा नहीं किया?’’

‘‘मतलब, तुम भी चाहते थे कि मैं भी उस के साथ धंधा करूं?’’

‘‘बहुत से मरद अपनी जोरू से यह धंधा करा रहे हैं. जितनी भी पकड़ी

गईं, उन में से ज्यादातर को धंधेवाली बनाने में उन के मरदों का ही हाथ था,’’ विनोद बोला.

‘‘वे सब निकम्मे मरद थे, जो अपनी जोरू की कमाई खाते हैं. आग लगे ऐसी औरतों को…’’ कह कर चंपा झोंपड़ी से बाहर निकल गई.

चंपा जा जरूर रही थी, मगर उस का मन कहीं और भटका हुआ था.

चंपा घरों में बरतन मांजने का काम करती थी. जिन घरों में वह काम करती है, वहां से उसे बंधाबंधाया पैसा मिल जाता था. इस से वह अपनी गृहस्थी चला रही थी.

चंपा की 4 बेटियां और एक बेटा है. उस का मरद निठल्ला है. मरजी होती है, उस दिन वह मजदूरी करता है, वरना बस्ती के आवारा मर्दों के साथ ताश खेलता रहता है. उसे शराब पीने के लिए पैसा देना पड़ता है.

चंपा उसे कितनी बार कह चुकी है कि तू दारू नहीं जहर पी रहा है. मगर उस की बात को वह एक कान से सुनता है, दूसरे कान से निकाल देता है. उस की चमड़ी इतनी मोटी हो गई है कि चंपा की कड़वी बातों का उस पर कोई असर नहीं पड़ता है.

जो 10 औरतें रैस्टहाउस के पकड़ी गई थीं, उन में से लक्ष्मी चंपा की बस्ती के मांगीलाल की जोरू है.

पुरानी बात है. एक दिन चंपा काम पर जा रही थी. कुछ देरी होने के चलते उस के पैर तेजी से चल रहे थे. तभी सामने से लक्ष्मी आ गई थी. वह बोली थी, ‘कहां जा रही हो?’

‘काम पर,’ चंपा ने कहा था

‘कौन सा काम करती हो?’ लक्ष्मी ने ताना सा मारते हुए ऊपर से नीचे तक उसे घूर था

तब चंपा भी लापरवाही से बोली थी, ‘5-7 घरों में बरतन मांजने का काम करती हूं.

‘महीने में कितना कमा लेती हो?’ जब लक्ष्मी ने अगला सवाल पूछा, तो चंपा सोच में पड़ गई थी. उस ने लापरवाही से जवाब दिया था, ‘यही कोई 4-5 हजार रुपए महीना.’

‘बस इतने से…’ लक्ष्मी ने हैरान हो कर कहा था.

‘तू समझ रही है कि घरों में बरतन मांज कर 10-20 हजार रुपए महीना कमा लूंगी क्या?’ चंपा थोड़ी नाराजगी से बोली थी.

‘कभी देर से पहुंचती होगी, तब बातें भी सुननी पड़ती होंगी,’ जब लक्ष्मी ने यह सवाल पूछा, तब चंपा भीतर ही भीतर तिलमिला उठी थी. वह गुस्से से बोली थी, ‘जब तू सब जानती है, तब क्यों पूछ रही है?’

‘‘तू तो नाराज हो गई चंपा…’’ लक्ष्मी नरम पड़ते हुए बोली थी, ‘इतने कम पैसे में तेरा गुजारा चल जाता है?’

‘चल तो नहीं पाता है, मगर चलाना पड़ता है,’ चंपा ने जब यह बात कही, तब वह भीतर ही भीतर खुश हो गई थी.

‘अगर मेरा कहना मानेगी तो…’ लक्ष्मी ने इतना कहा, तो चंपा ने पूछा था, ‘मतलब?’

‘तू मालामाल हो सकती है,’ लक्ष्मी ने जब यह बात कही, तब चंपा बोली थी, ‘कैसे?’

‘अरे, औरत के पास ऐसी चीज है कि उसे कहीं हाथपैर जोड़ने की जरूरत नहीं पड़े. बस, थोड़ी मर्यादा तोड़नी पड़ेगी,’ चंपा की जवानी को ऊपर से नीचे देख कर जब लक्ष्मी मुसकराई,

तो चंपा ने पूछा था, ‘क्या कहना चाहती है.’

‘नहीं समझी मेरा इशारा…’ फिर लक्ष्मी ने बात को और साफ करते हुए कहा था, ‘अभी तेरे पास जवानी है. इन मर्दों से मनचाहा पैसा हड़प सकती है. ये मरद तो जवानी के भूखे होते हैं.’

‘तू मुझ से धंधा करवाना चाहती है?’ चंपा नाराज होते हुए बोली थी

‘‘क्या बुराई है इस में? हम जैसी कितनी औरतें धंधा कर रही हैं और हजारों रुपए कमा रही हैं. फिर आजकल तो बड़े घरों की लड़कियां भी अपना खर्च निकालने के लिए यह धंधा कर रह हैं,’’ लक्ष्मी ने यह कहा, तो चंपा आगबबूला हो उठी और गुस्से से बोली थी, ‘एक औरत हो कर ऐसी बातें करते हुए तुझे शर्म नहीं आती?

‘शर्म गई भाड़ में. अगर औरत इस तरह शर्म रखने लगी है, तो हमारे मरद ह को खा जाएं. एक बार यह धंधा अपना लेगी न, तब देखना तेरा मरद तेरे आगेपीछे घूमेगा,’ लक्ष्मी ने जब चंपा को यह लालच दिया, तब वह गुस्से से बोली थी, ‘ऐसी सीख मुझे दे रही है, खुद क्यों नहीं करती है यह धंधा?’

‘तू तो नाराज हो गई. ठीक है, अपने मरद के सामने सतीसावित्री बन. जब पैसे की बहुत जरूरत पड़ेगी न, तब मेरी यह बात याद आएगी,’ कह कर लक्ष्मी चली गई थी.

आज लक्ष्मी धंधा करती पकड़ी गई. धंधा तो वह बहुत पहले से ही कर रही थी. सारी बस्ती में यह चर्चा थी.

जब चंपा मिश्राइन के बंगले पर पहुंची, तब मिश्राइन और उस के पति ड्राइंगरूम में बैठे बातें कर रहे थे.

चंपा के पहुंचते ही मिश्राइन जरा गुस्से से बोली, ‘‘चंपा, आज तो तुम ने बहुत देर कर दी. क्या हुआ?’’

चंपा चुप रही. मिश्राइन फिर बोली, ‘‘तू ने जवाब नहीं दिया चंपा?’’

‘‘क्या करूं मेम साहब, आज हमारी बस्ती की लक्ष्मी धंधा करते हुए पकड़ी गई.’’

‘‘उस का अफसोस मनाने लगी थी?’’ मिश्राइन बोली.

‘‘अफसोस मनाए मेरी जूती…’’ गुस्से से चंपा बोली, ‘‘सारी बस्ती वाले उस पर थूथू कर रहे हैं. अच्छा हुआ कि वह पकड़ी गई.

‘‘तेरे आने के पहले उसी पर चर्चा चल रही थी…’’ मिश्राजी बोले, ‘‘लक्ष्मी भी क्या करे? पैसों की खातिर ऐसी झुग्गीझोंपड़ी वाल औरतों ने यह धंधा बना लिया है.’’

मिश्राजी ने जब यह बात कही, तब चंपा की इच्छा हुई कि कह दे, ‘आप जैसे अमीर घरों की औरतें भी गुपचुप तरीके से यह धंधा करती हैं,’ मगर वह यह बात ह नहीं सकी.

वह बोली, ‘‘क्या करें बाबूजी, हमारी बस्ती में एक औरत बदनाम होती है, यह धंधा करती है, मगर उस के पकड़े जाने पर सारी बस्ती की औरतें बदनाम होती हैं.’

इतना कह कर चंपा बरतन मांजने रसोईघर में चली गई.

मेरे बौस मुझे बेहद अच्छे लगते हैं पर वे शादीशुदा हैं. जौब खोने के डर से उन्हें कुछ बोल नहीं पाती.

सवाल –

मुझे जौब ज्वाइन किए अभी कुछ ही महीने हुए हैं और मेरे बौस दिखने में बहुत यंग और डैशिंग हैं. मैं उनकी पर्सनैलिटी और लुक्स की तो मानो दीवानी सी हो गई हूं. वे जब भी मुझे अपने कैबिन में किसी काम से बुलाते हैं तो मेरा दिल बहुत ज़ोर ज़ोर से धड़कने लगता है. मुझे मेरे कलीग्स से पता चला कि उनकी शादी हो चुकी है और ये सुनके ही मेरा दिल टूट गया. लेकिन पता नहीं कयूं सब कुछ जानते हुए भी मैं उन्हें अपने दिल से निकाल नहीं पा रही हूं. मैने उन्हें उनके कैबिन में कई बार हिंट्स देने की भी कोशिश की जिसे उन्होनें साफ इग्नोर कर दिया. मैं औफिस से घर आने के बाद भी उनके बारे में सोचती रहती हूं. कभी कभी मेरा मन करता है कि उन्हें अपने दिल की बात बता दूं पर जौब खोने के डर से मैं उन्हें कुछ बोल नहीं पाती. मुझे क्या करना चाहिए.

जवाब –

आपकी उम्र में इस तरह के खयाल आना काफी नौर्मल हैं. कई स्टूडेंट्स अपनी टीचर्स के प्रति एट्रैक्ट हो जाते हैं तो कई बार एम्पलौइज़ भी अपने सीनियर्स के प्रति एट्रैक्शन फील करते हैं. आपको इस बात का खास खयाल रखना चाहिए कि आपके बौस शादीशुदा हैं और आपका कोई भी कदम आपको मुसीबत में डाल सकता है.

जैसा कि आपने बताया कि आपने उन्हें कई बार हिंट्स देने की भी कोशिश की तो ऐसे में बौस खुद सामने से अपने एम्पलौइज़ से फलर्ट करने लगते हैं और उन्हें कभी मीटिंग के बहाने तो कभी लंच डेट के लिए पूछ लेते हैं पर अगर आपके बौस यह सब इग्नोर कर रहे हैं तो और वे इस तरह की कोई हरकत को बढ़ावा नहीं देना चाह रहे तो आपको समझ जाना चाहिए कि वे अपनी पत्नी के लिए लौयल हैं और वे अपनी लाइफ में किसी प्रकार की कोई प्रोब्लम में नहीं फसना चाहते.

मेरी माने तो आपको उनसे दूरी बनानी चाहिए और उनके साथ प्रोफेशनल बिहेवियर रखना चाहिए. अगर उनके मन में आपके लिए कोई फीलिंग्स होंगी तो वे सामने से आपको अप्रोच कर लेंगें पर आपका एक गलत कदम आपको नौकरी से भी निकलवा सकता है. आपका उनसे दूरी बनान इसलिए भी जरूरी है क्योंकि आपकी यह फीलिंग्स उनका बसा बसाया घर उजाड़ सकती हैं.

दोहरे मापदंड

‘‘यह कैसी जगह है? यहां तो किसी से कोई मतलब ही नहीं रखता. तुम तो औफिस चले जाते हो, मेरे लिए वक्त काटना भारी पड़ता है,’’  मैं ने सचिन के औफिस से वापस आते ही हमेशा की तरह शिकायती लहजे में कहा.

‘‘यह मुंबई है श्वेता, यहां आने पर शुरू में सब को ऐसा ही लगता है, लेकिन बाद में सब इस शहर को, और यह शहर यहां आने वालों को अपना लेता है. जल्दी ही तुम भी यहां के रंगढंग में ढल जाओगी.’’

मुझे धौलपुर में छूटे हुए अपने ससुरालमायके की बहुत याद आती. शादी के बाद मैं सिर्फ 2 महीने ही अपनी ससुराल में रही थी लेकिन सब ने इतना प्यारदुलार दिया कि महसूस ही नहीं हुआ कि मैं इस परिवार में नई आई हूं. सचिन का परिवार उस के दादाजी की पुश्तैनी हवेली में रहता था. उस के परिवार में उस के चाचाचाची, मातापिता और एक विवाहित बहन पद्मजा थी.

पद्मजा थी तो सचिन से छोटी मगर उस की शादी हमारी शादी से एक साल पहले ही हो चुकी थी. उस की ससुराल भी धौलपुर में ही थी, इसलिए वह जबतब मायके आतीजाती रहती थी. चाचाचाची की कोई अपनी संतान नहीं थी, सो वे दोनों अपने अंदर संचित स्नेह सचिन और पद्मजा पर ही बरसाया करते थे. ऐसे हालात में जब मैं शादी के बाद ससुराल में आई तो मुझे एक नहीं, 2 जोड़े सासससुर का प्यार मिला.

सब के प्यार के रस से भीगी हुई मैं ससुराल नहीं छोड़ना चाहती थी. मगर ब्याहता तो मैं सचिन की थी और उन की नौकरी धौलपुर से मीलों दूर मुंबई में थी, इसलिए शादी के कुछ महीनों बाद जब मैं मुंबई आई तो मन में दुख और सुख के भाव साथसाथ उमड़ रहे थे.

एक तरफ अपने छोटे से घरौंदे में आने की खुशी तो दूसरी तरफ ससुरालमायके का आंगन पीछे छूटने का गम. ऊपर से मुंबई की भागमभाग जिंदगी जहां किसी को किसी के दुखसुख से मतलब नहीं. बस, लगे हैं ‘रैट रेस’ में अपनीअपनी रोजीरोटी की फिक्र में, जिस के पास जितना है उस से ज्यादा पाने की होड़ में. झोंपड़पट्टी वाले खोली में, खोली वाले अपार्टमैंट और अपार्टमैंट वाले बंगले के ख्वाब में जिंदगी के ट्रेडव्हील पर दौड़े जा रहे हैं.

हमारे अपार्टमैंट के हर फ्लोर पर 4 फ्लैट थे. हमारे फ्लोर का एक फ्लैट खाली पड़ा था. एक में हम रहते थे. बाकी बचे 2 फ्लैट्स में से एक में अधेड़ दंपती रहते थे और दूसरे में एक बैचलर. अधेड़ दंपती उत्तर भारत से आए हुए हर व्यक्ति को भइया लोग कह कर बुलाते थे और सोचते थे कि अगर उन्होंने अपना उठनाबैठना भइया लोगों के साथ बढ़ाया तो मुंबइया महाराष्ट्रियन उन का हुक्कापानी बंद कर देंगे. और वह बैचलर, वह तो उन से भी एक कदम आगे था. वह जब भी सामने आता तो मुसकराने तक की जहमत न उठाता. ऐसा लगता कि अगर वह मुसकरा दिया तो भारत सरकार उस पर अतिरिक्त कर लगा देगी.

जब तीसरे और महीनों से खाली पड़े हुए फ्लैट में उत्तर भारतीय निकिता और राज आए तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा. मैं दूसरे ही दिन उन के यहां चाय का थरमस और ताजी बनी मठरियों के साथ पहुंच गई. निकिता भी मुझ से ऐसे मिली जैसे कि अपनी किसी पुरानी सहेली से मिल रही हो.

2-3 दिनों तक मैं उन के घर ऐसे ही चाय ले कर जाती रही और नए घर में सामान लगाने में उन की मदद करती रही. निकिता और राज एक प्राइवेट बैंक में काम करते थे. उन का एक 6-7 साल का बेटा दिग्गज भी था. राज की माताजी भी उन के साथ ही रहती थीं.

जब घर व्यवस्थित होने के बाद उन की दिनचर्या ढर्रे पर आ गई तो निकिता ने मुझे और सचिन को अपने घर खाने पर आने का न्योता दिया, ‘‘श्वेता, तुम ने तो हमारे लिए बहुत किया वरना यहां मुंबई में कौन किसे पूछता है. मैं बहुत खुश हूं कि मुझे यहां आते ही तुम्हारे जैसी पड़ोसिन और सहेली मिल गई. अब आने वाले इतवार को तुम और सचिन हमारे यहां डिनर पर आओ. इसी बहाने सचिन और राज भी एकदूसरे से मिल लेंगे.’’

मैं ने निकिता का निमंत्रण बड़ी तत्परता के साथ स्वीकार कर लिया क्योंकि मैं जब भी उस के घर जाती तो निकिता की सास उस की पाककला की तारीफ करते न थकती थीं. मैं ने मन ही मन सोचा कि जिस खाने की तारीफ मैं इतने दिनों से सुनती आ रही हूं, अब उसे खाने का मजा भी मिलेगा.

‘‘तुम इतना सारा खाना कैसे बनाओगी, मैं भी अपने घर से एकदो चीजें बना लाऊंगी,’’ मैं ने निकिता का मन रखने के लिए ऊपरी तौर पर पूछ लिया.

‘‘कुछ मत बना कर लाना. बस, आ जाना टाइम से,’’ निकिता ने सामने पड़े हुए कपड़ों के गट्ठर में से एक तौलिया तह करते हुए कहा.

इतवार की शाम दोनों परिवार निर्धारित समय पर निकिता के घर में डाइनिंग टेबल के इर्दगिर्द बैठे थे. जायकेदार खाने के दौरान हर तरह की गपशप चल रही थी. राज की अत्यंत सौम्य स्वभाव की माताजी बड़े ही दुलार से सब की प्लेटों पर नजर रखे हुए थीं. किसी की भी प्लेट में जरा सी भी कोई चीज कम होती तो वे बड़ी ही मनुहार के साथ उस में और डाल देतीं. खाखा कर हम सब बेहाल हुए जा रहे थे.

गपशप भी अपनी चरम सीमा पर थी. पहले राज ने सचिन से उस के कामकाज के बारे में जानकारी ली, फिर उस ने अपने और निकिता के काम के बारे में उसे बताया. खेलकूद और राजनीति पर भी चर्चा हुई. घूमतेफिरते बातों ही बातों में वे सवाल भी पूछ लिए गए जो कि जब नए जोड़े पहली बार अनौपचारिक माहौल में मिलते हैं तो अकसर पूछ लेते हैं.

‘‘वैसे तुम्हारी शादी हुए कितना वक्त हो गया?’’ उस हलकेफुलके माहौल में सचिन ने राज और निकिता से पूछा.

‘‘सिर्फ 2 साल,’’ राज ने संक्षिप्त जवाब दे कर फिर से राजनीतिक मुद्दों की तरफ बात मोड़नी चाही, मगर उस का जवाब सचिन की जिज्ञासा बढ़ा चुका था.

‘‘क्या…सिर्फ 2 साल?’’ ऐसा कैसे हो सकता है, तुम्हारा बेटा दिग्गज ही करीब 6-7 साल का होगा, सचिन ने आश्चर्र्य से पूछा.

‘‘हां, हमारा बेटा अगले महीने पूरे

7 साल का हो जाएगा. बहुत ही प्याराप्यारा बेटा है मेरा,’’ राज के स्वर में गर्व और खुशी दोनों का भाव एकसाथ था.

‘‘वह तो ठीक है, सभी बच्चे अपने मांबाप को प्यारे ही लगते हैं. मगर जब तुम्हारी शादी को ही 2 साल हुए हैं तो यह 7 साल का बेटा तुम्हारा कैसे हो सकता है. अभी हम भारतीयों में शादी के पहले बच्चे पैदा करने का रिवाज तो नहीं है.’’

‘‘तुम ने बिलकुल सही कहा सचिन. हमारे समाज में विवाहपूर्व बच्चों की स्वीकृति अभी बिलकुल भी नहीं है. हां, कुछ हद तक लिवइन का ट्रैंड तो अब आ चुका है. असल में दिग्गज निकिता की पहली शादी की संतान है,’’ राज ने सलाद की प्लेट से एक गाजर का टुकड़ा उठा कर उसे कुतरते हुए कहा.

सचिन राज की तरफ ऐसे देख रहे थे जैसे कि उन का सामना किसी दूसरी दुनिया के प्राणी से हो गया हो. उन की जिज्ञासा अब हैरानी में बदल चुकी थी. वे अपने मुंह के खाने को चबाना भूल कर अधखुले मुंह से हक्केबक्के से मेजबान परिवार के सदस्यों को ताक रहे थे.

राज की अनुभवी माताजी ने सचिन की हालत को भांपते हुए बात आगे बढ़ाई, ‘‘बेटा सचिन, राज जो कह रहा है वह सच है. दिग्गज निकिता की पहली शादी की संतान है. मगर अब वह मेरा पोता है और राज ही उस का पिता है.’’

‘‘जब राज ने भोपाल में बैंक में काम शुरू किया तो मैं वहां पहले से ही काम करती थी. एक बार हम सब साथी काम के बाद डिनर पर गए. वहीं बातों ही बातों में मेरी एक सहेली से राज को पता चला कि मेरे पति की एक कार दुर्घटना में मृत्यु हो चुकी है. साथ ही, बताया कि मेरे बेटे का जन्म मेरे पति की मृत्यु के करीब 2 महीने बाद में हुआ था. बेचारे दिग्गज को तो उस के बायोलौजिकल पिता की छाया तक देखने को नहीं मिली,’’ बतातेबताते निकिता की आवाज कंपकंपाने लगी थी.

निकिता की बात को राज ने आगे बढ़ाया, ‘‘भोपाल में हमारी बैंक की शाखा में महीने में एक बार काम के बाद सब का एकसाथ डिनर पर जाने का अच्छा चलन था. ऐसे ही एक डिनर के बाद मैं ने निकिता से कहा था, ‘निकिता तुम दूसरी शादी क्यों नहीं कर लेती? अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है? ऐसे अकेले कहां तक जिंदगी ढोओगी? शादी कर लोगी तो तुम्हारे बेटे को अगर पिता का नहीं, तो किसी पिता जैसे का प्यार तो मिलेगा.’

‘‘इस पर निकिता ने अपनी शून्य में ताकती निगाहों के साथ मुझ से पूछा था, ‘ये सब कहने में जितना आसान होता है, करने में उतना ही मुश्किल. कौन बिताना चाहेगा मुझ विधवा के साथ जिंदगी? कौन अपनाएगा मुझे मेरे बेटे के साथ? क्या तुम ऐसा करोगे राज, अपनाओगे किसी विधवा को एक बच्चे के साथ?’

‘‘निकिता के शब्दों ने मेरे होश उड़ा दिए थे और उस वक्त मैं सिर्फ ‘सोचूंगा, और तुम्हारे सवाल का जवाब ले कर ही तुम्हारे पास आऊंगा,’ कह कर वहां से चला आया था.

‘‘मैं चला तो आया था मगर निकिता के शब्द मेरा पीछा नहीं छोड़ रहे थे. मेरे मन में एक अजब सी उथलपुथल मची हुई थी. मेरे मन की उलझन मां से छिपी न रह सकी. उन के पूछने पर मैं ने निकिता के साथ डिनर के दौरान हुए वार्त्तालाप का पूरा ब्योरा उन्हें दे दिया.

‘‘सब सुनने के बाद मां ने कहा, ‘सीधे रास्तों पर तो बहुत लोग हमराही बन जाते है मगर सच्चा पुरुष वह है जो दुर्गम सफर में हमसफर बन कर निभाए. बेटा, एक विधवा हो कर अगर मैं ने दूसरी विधवा स्त्री के दर्द को न समझा तो धिक्कार है मुझ पर. यह मैं ही जानती हूं कि तुम्हारे पिता की मृत्यु के बाद तुम्हें कैसेकैसे कष्ट उठा कर पाला था. कहने को तो मैं संयुक्त परिवार में रहती थी पर तुम्हारे पिता के दुनिया से जाते ही मुझे जीवन की हर खुशी से बेदखल कर दिया गया था.

‘‘‘घर और घर के लोग मेरे होते हुए भी बेगाने हो चुके थे. तुम्हारी परवरिश भी तुम्हारे चाचाताऊ के बच्चों की तरह न थी. जहां उन के बच्चे अच्छे कौन्वैंट स्कूल में जाते थे वहीं तुम्हें मुफ्त के सरकारी स्कूल में भेज दिया गया. जिन कपड़ों को पहन कर उन के बच्चे उकता जाते, वे तुम्हारे लिए दे दिए जाते.

‘‘‘राज बेटा, उस माहौल में मेरा तुम्हारा जीना, जीना नहीं था, सिर्फ जीवन का निर्वाह करना था. बेटा, मुझे तुम पर गर्व होगा अगर तुम निकिता और उस के बच्चे को अपना कर, उन की जिंदगी के पतझड़ को खुशगवार बहार में बदल दो.’ मां ने छलकते हुए आंसुओं के बीच आपबीती बयां की थी.

‘‘दूसरे दिन जब मैं ने निकिता को लंचटाइम में अपनी मां के साथ हुई सारी बातचीत बताई और कहा कि मैं उस से शादी करना चाहता हूं, तब निकिता बोली, ‘मैं किसी की दया की मुहताज नहीं हूं, कमाती हूं, जैसे 4 साल काटे हैं वैसे ही बची जिंदगी भी काट लूंगी.’

‘‘‘निकिता पैसा कमाना ही अगर सबकुछ होता तो संसार में परिवार और घर की परिकल्पना ही न होती. जिंदगी में बहुत से पड़ाव आते हैं जब हमसब को एकसाथी की जरूरत होती है.’

‘‘‘और अगर मुझे अपनाने के कुछ सालों बाद तुम्हें अपने निर्णय पर पछतावा होने लगा तो मैं कहीं की नहीं रहूंगी. पहले ही वक्त का क्रूर प्रहार झेल चुकी हूं, अब और झेलने की हिम्मत नहीं है. मुझ में. इसलिए किसी से भी मन जोड़ने से घबराती हूं, न मैं किसी से बंधन जोडूं, न वक्त के सितम ये बंधन तोड़ें.’

‘‘‘निकिता, डूबने के डर से किनारे पर खड़े रह कर उम्र बिता देने में कहां की बुद्धिमानी है? ऐसे ही खौफ के अंधेरों को दिल में बसा कर जिओगी तो उम्मीदों का उजाला तो तुम से खुदबखुद रूठा रहेगा.’

‘‘ऐसी ही कुछ और मुलाकातों, कुछ और तकरारों व वादविवादों के बाद अंत में निकिता और मैं शादी के बंधन में बंध गए.’’

राज की माताजी ने अब दिग्गज को अपना नातीपोता ही मान लिया था. वे नहीं चाहती थीं कि निकिता और राज के कोई दूसरी संतान पैदा हो और दिग्गज के प्यार का बंटवारा हो.

उन सब की बातें सुन कर मेरी आंखें छलछला गईं. मैं ने ऐसे महान लोगों के बारे में कहानियों में ही पढ़ा था, आज आमनेसामने बैठ कर देख रही थी. श्रद्घा से ओतप्रोत मेरा मन उन के सामने नतमस्तक होने को मचल रहा था. किसी तरह से मैं ने अपनी उफनती हुई भावनाओं पर काबू पाया और आज की शाम को खुशगवार बनाने के लिए धन्यवाद देते हुए विदाई लेने को उठ खड़ी हुई.

‘‘क्या बेवकूफ आदमी है,’’ राज के घर से दस कदम दूर आते ही सचिन का पहला वाक्य था.

‘‘कौन?’’

‘‘राज, और कौन.’’

‘‘क्यों, ऐसा क्या कर दिया उस ने. इतने अच्छे से हम दोनों का स्वागत किया, अच्छे से अच्छा बना कर खिलाया, और कैसे होते हैं भले लोग? तुम्हें इस सब में बेवकूफी कहां नजर आ रही है?’’

‘‘जो एक बालबच्चेदार सैकंडहैंड औरत के साथ बंध कर बैठा है, वह बेवकूफ नहीं तो और क्या है? देखने में अच्छाखासा है, बैंक में मैनेजर है, अच्छी से अच्छी कुंआरी लड़की से उस की शादी हो सकती थी. जिस ने भरीपूरी थाली को छोड़ कर किसी की जूठन को अपनाया हो, उसे बेवकूफ न कहूं तो और क्या कहूं.’’

‘‘मगर सचिन…’’

‘‘जैसा राज खुद, वैसी ही उस की वह मदर इंडिया. कह रही थीं कि उन्हें खुद का कोई नातीपोता भी नहीं चाहिए, और दिग्गज ही उन के लिए सबकुछ है. भारत सरकार को उन्हें तो मदर इंडिया के खिताब से नवाजना चाहिए.’’

सचिन राज और उस की मां की बुरी तरह से खिंचाई कर रहे थे. मैं ने चुप रहना ही ठीक समझा. इन विषयों पर बहस करने की कोई सीमा नहीं होती. तर्क का जवाब तो दिया जा सकता है पर कुतर्क का नहीं.

वक्त के साथ मेरी और निकिता की दोस्ती पक्की होती जा रही थी. वैसे, मैं निकिता से ज्यादा वक्त उस की सास के साथ बिताती क्योंकि निकिता तो अपनी नौकरी के कारण ज्यादातर घर में होती ही नहीं थी. पुराने जमाने की और कम पढ़ीलिखी होने के बावजूद उन के खयालात कितने ऊंचे थे. वे लकीर की फकीर नहीं थीं, लीक से हट कर सोचती थीं.

उन्हें देखते ही मेरा मन उन का सौसौ नमन करने लगता. वे हमेशा ही बहुत अच्छा बोलतीं, अच्छी सीख देतीं. उन के पास उठनेबैठने का दोहरा फायदा होता था, एक तो मेरी बोरियत का इलाज हो जाता, दूसरे मुझे बहुत सी ऐसी नैतिक बातें सीखने को मिलतीं जो कि दुनिया के किसी भी विश्वविद्यालय में सिखाई नहीं जाती हैं.

इधर, सचिन के विचारों में कोई परिवर्तन नहीं था. जब कभी भी मेरे घर में राज का जिक्र आता तो सचिन उस को उस के नाम से न बुला कर सैकंडहैंड बीवी वाला कह कर बुलाते. मैं ने उन्हें कई बार समझाने की कोशिश की कि किसी के लिए भी ऐसे शब्द बोलना अच्छी बात नहीं. ऐसे शब्द बोलने से दूसरे का अपमान होता है. सो, वे राज के लिए ऐसी बात न किया करें और उस को उस के नाम से बुलाने की आदत डालें. मगर मेरा उन्हें समझाना चिकने घड़े पर पानी डालने जैसे था.

आखिर में समझाने का कोई असर न होते देख मैं ने उन से इस बारे में कुछ भी कहना बंद कर दिया. हालांकि मेरा मन अपने उच्चशिक्षित पति के इस रवैए से बेहद आहत था. मुझ को हैरानी थी कि इतने शिक्षित होने पर भी सचिन कितनी संकीर्ण मानसिकता रखते हैं. अगर किसी के अच्छे कर्म की प्रशंसा करने का हौसला नहीं रखते थे तो कम से कम उस का यों सरेआम मजाक तो न बनाते.

दिनचर्या अपने ढर्रे पर चल रही थी. सचिन की हाल ही में पदोन्नति हुई थी. काम में उन की व्यस्तता दिनबदिन बढ़ती जा रही थी, इसलिए दीवाली पर भी हम धौलपुर न जा पाए. एक दिन सचिन ने औफिस से आते ही बताया कि उन के पापा का फोन आया था और तत्काल ही हम दोनों को धौलपुर बुलाया है. मेरी ननद पद्मजा के पति अस्पताल में भरती थे. पिछले कुछ दिनों से उन की तबीयत ठीक नहीं चल रही थी. सचिन के फोन पर बहुत बार पूछने पर भी ससुर साहब ने नहीं बताया कि क्या बीमारी है. बस, यह कहा कि जितनी जल्दी हो सके, धौलपुर आ जाओ.

‘‘इस में इतना सोचना क्या? जब घर में कोई बीमार है तो हमें जाना ही चाहिए. वैसे भी हम दीवाली पर भी जा नहीं पाए,’’ बुलावे की खबर सुनते ही मैं ने धौलपुर जाने की तत्परता जताई.

‘‘ठीक है, तो फिर जल्दी से दिल्ली की फ्लाइट बुक करा लेता हूं, फिर दिल्ली से टैक्सी ले कर धौलपुर चले चलेंगे.’’

फ्लाइट बुक होतेहोते और धौलपुर तक पहुंचने में 3 दिनों का वक्त लग गया. पहुंचने पर पता चला कि पद्मजा के पति की 2 घंटे पहले ब्रेन हेमरेज होने से मृत्यु हो चुकी है. सारे घर में मातम छाया हुआ था. पद्मजा का रोरो कर बुरा हाल था. उस के मुंह से कोई आवाज नहीं निकल रही थी. वह आंखें बंद किए हुए कोने में बेसुध सी बैठी थी और उस की पलकों के बांध को तोड़ कर गालों पर आसुंओं का सैलाब उमड़ रहा था.

उस की मुसकराहट से तर रहने वाले गुलाबी होंठ सूख कर चटख रहे थे. उस की इस हालत को देख कर मुझे विश्वास ही न होता था कि यह मेरी वही प्यारी सी ननद है जो सिर्फ 8 महीने पहले मेरी बरात में नाचती, गाती, हंसती, मुसकराती, गहनों से लदी हुई आई थी. तब मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था कि तब के बाद सीधे उसे इस बदहाल स्थिति में देखूंगी.

सचिन चाह कर भी धौलपुर में ज्यादा समय न रुक पाए. तेरहवीं के तीसरे दिन ही उन्हें मुंबई लौटना पड़ा. तेरहवीं के कुछ दिनों बाद ससुरजी पद्मजा को उस की ससुराल से ले आए थे. मैं ने उस के साथ रहना ही ठीक समझा, सोचा कि जब महीनेदोमहीने में परिवार पर आए हुए दुख के बादल थोड़े छंट जाएंगे तब मैं मुंबई लौट जाऊंगी. अभी पद्मजा को मेरे साथ की बहुत जरूरत थी. अगर वह कभी गलती से मुसकराती थी तो मेरे साथ, खाना खाती तो मेरे साथ और मेरे आग्रह करने पर. वह मेरे साथ सोती और मुझ से ही थोड़ीबहुत बातचीत करती.

इन हालात को देख कर परिवार के सभी बड़ों ने फैसला किया कि पद्मजा को भी मेरे साथ मुंबई भेज दिया जाए. इसी में उस की भलाई भी थी. मुंबई वापस आ कर मैं ने जैसेतैसे उसे एमबीए करने के लिए राजी कर लिया. दुखों के भार को दूर रखने का सब से सही तरीका होता है खुद को इतना व्यस्त करो कि दुखों को क्या, खुद को ही भूल जाओ.

पद्मजा को पढ़नेलिखने का शौक तो था ही, अब यह शौक उस का संबल बन गया. वह दिनरात असाइनमैंट्स और परीक्षाओं की तैयारी में व्यस्त रहती. अपनी जिंदगी के नकारात्मक पहलू को सोचने का ज्यादा वक्त ही न मिल पाता उसे. इस संबल की बदौलत उस की जिंदगी की उतरी हुई गाड़ी फिर से धीरेधीरे पटरी पर आने लगी थी.

एमबीए पूरा करते ही उसे एक कंपनी में नौकरी भी मिल गई और वह अपने इस नए माहौल में पूरी तरह से रम चुकी थी. अब उस के चेहरे पर पुरानी रंगत कुछ हद तक वापस आने लगी थी.

मगर सचिन के दिल को चैन नहीं था. वे कहा करते, ‘‘पद्मजा मेरी बहन है, मुझे अच्छा लगता अगर यह अपने पति के साथ हमारे पास कभीकभी छुट्टियां बिताने आतीजाती और अपने पति के घर में आबाद रहती. शादी के बाद बहनबेटियां इसी तरह आतीजाती अच्छी लगती हैं, दयापात्र बन कर बापभाई के घर में उम्र बिताती हुई नहीं. पद्मजा का इन परिस्थितियों में हमारे पास उम्र बिताना तो वह घाव है जिस पर वक्त मरहम नहीं लगाता बल्कि उस को नासूर बनाता है.’’

यह सच भी था, हम चाहे पद्मजा का कितना भी खयाल रख लें, कितना भी प्यार और सुखसुविधाएं दे लें, हमारे घर में उस का उम्र बिताना उस की जिंदगी की अपूर्णता थी. सचिन जब भी उस की तरफ देखते, उन की आंखों की बेबसी छिपाए न छिपती.

इधर कुछ दिनों से पद्मजा के हावभाव बदल रहे थे. वह औफिस से भी देर से आने लगी थी. पूछने पर कहती कि एक सहयोगी काम छोड़ कर चला गया है, सो, वह उस के हिस्से का काम करने में भी बौस की मदद कर रही है.

मगर उस के हावभाव कुछ और ही कहानी कहते से लगते. अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा वह अपने रखरखाव, कपड़ों और सौंदर्य प्रसाधनों पर खर्च करती. उस का मोबाइल उस के हाथ से न छूटता था. खातेपीते, टैलीविजन देखते हुए भी वह चैट करती रहती.

पहले तो मैं ने इसे मुंबई की हवा का असर समझा, मगर मेरा दिमाग ठनका जब मैं ने देखा कि वह मोबाइल को टौयलेट में भी अपने साथ ले जाती थी. जो मोबाइल पहले वह सिर्फ कौल करने और सुनने के लिए प्रयोग करती थी वह अब उस की लत बन गया था.

मैं ने सचिन से कई बार इस बारे में बात करनी चाही मगर उन्होंने मेरी बात को हर बार अनसुना कर दिया. आखिर मैं ने ही इस पहेली को सुलझाने का निश्चय किया और सही मौके का इंतजार करने लगी. और वह मौका मुझे जल्दी ही मिल गया.

रविवार का दिन था और पद्मजा अपनी किसी महिला सहकर्मी सोनाली के साथ सिनेमा देखने जाने वाली थी. आदतानुसार वह सुबह से उठ कर चैट कर रही थी. जब अचानक उसे खयाल आया कि जाने से पहले उसे अभी नहाना भी है, तो वह जल्दीजल्दी कपड़े समेट कर बाथरूम में भागी. इस हड़बड़ी में कपड़ों के बीच में रखा उस का मोबाइल बाथरूम के दरवाजे पर गिर गया और उसे पता न चला.

उस के बाथरूम का दरवाजा बंद करते ही मैं ने मोबाइल उठा लिया. चूंकि वह 2 सैकंड पहले ही उस पर चैट कर रही थी, इसलिए वह अभी अनलौक ही था. मैं ने फटाफट उस के मैसेज कुरेदने शुरू कर दिए. उस की कौल हिस्ट्री में सब से ज्यादा कौल किसी देवांश की थीं.

जब मैं ने देवांश के संदेशों को पढ़ा तो सारी स्थिति समझने में मुझे देर न लगी. वह सिनेमा देखने भी उसी के साथ जा रही थी किसी सोनाली के साथ नहीं. खैर, मैं ने अपनी भावनाओं को काबू में रख के पद्मजा का मोबाइल उस के हैंडबैग में ले जा कर रख दिया और किचन में जा कर काम करने लगी. वह गुनगुनाती हुई बाथरूम से निकली और मुझ से गले मिल कर खुशीखुशी सिनेमा देखने चली गई.

मैं ने धीरज रखा और सोचा कि जब वह वापस आएगी तब इत्मीनान से बैठ कर बात करूंगी. अभी मैं ने सचिन से भी इस बारे में कुछ कहना ठीक न समझा. बात को आगे बढ़ाने के पहले मैं खुद उस की तह तक जाना चाहती थी, इसलिए मैं पहले पद्मजा के मुंह से सबकुछ सुनना चाहती थी.

उस रात मैं घर का काम खत्म कर के पद्मजा के कमरे में आ कर उस के पास लेट गई और यहांवहां की बातें करने लगी.

‘‘मूवी कैसी थी पद्मजा?’’

‘‘ठीक ही थी, वैसी तो नहीं जैसी कि सोनाली ने बताई थी, जब वह पिछले हफ्ते देख कर आई थी.’’

‘‘सोनाली, क्या मतलब? वह यह मूवी पहले देख चुकी थी और आज फिर से तुम्हारे साथ गई थी.’’

‘‘भाभी वो मैं…’’

‘‘वो मैं क्या, पद्मजा, मुझे नहीं लगता कि तुम सोनाली के साथ मूवी देखने गई थीं.’’

‘‘मगर भाभी मैं…’’

‘‘अगरमगर क्या? मैं जानती हूं कि तुम किसी देवांश के साथ गई थीं.’’

‘‘पर आप ऐसा कैसे कह सकती हैं?’’

‘‘क्योंकि तुम जब नहाने गईं तो तुम्हारा मोबाइल बाथरूम के बाहर गिर गया था और मैं ने तुम्हारे कुछ मैसेजेस देख लिए थे. मुझे परेशानी इस बात की नहीं कि तुम किसी पुरुष मित्र के साथ गई थीं, दुख इस बात का है कि तुम ने मुझ से झूठ बोला और मुझे बेगाना समझा. शायद मैं ने ही तुम्हारे रखरखाव में कुछ कमी की होगी जो मैं तुम्हारा विश्वास न जीत सकी.’’

‘‘नहीं भाभी, ऐसी बात नहीं है. मेरी अच्छी भाभी, ऐसा तो भूल कर भी न सोचिए. आप ही हैं जो बुरे वक्त में मेरा सब से बड़ा सहारा, सब से अच्छी दोस्त बनीं. बताना तो मैं बहुत समय से चाहती थी मगर समझ नहीं आ रहा था कि कैसे बात शुरू करूं. डर था कि न जाने भैया की क्या प्रतिक्रिया हो.’’

‘‘ठीक है, कोई बात नहीं. पर अब तो जल्दी से मुझे सब बताओ.’’

‘‘देवांश मेरे साथ मेरे औफिस में काम करता है, भाभी वह बहुत अच्छा लड़का है. वह यह जानता है कि मैं एक विधवा हूं फिर भी वह मुझे अपनाने को तैयार है.’’

‘‘और तुम्हारी क्या मरजी है?’’

‘‘मेरा दिल भी उसे चाहता है, अभी मेरी उम्र भी क्या है. मैं अपने दिवंगत पति की यादों की काली चादर ओढ़ कर, जिंदगी के अंधेरों में उम्रभर नहीं भटक सकती.’’

‘‘हम ही कौन सा तुम्हें एकाकी जीवन बिताते हुए देख कर सुखी हैं. तुम और देवांश वयस्क हो, अपना भलाबुरा समझते हो. तुम दोनों जो भी फैसला करोगे, ठीक ही करोगे. और हां, अब ज्यादा देर न लगाओ, अगले ही इतवार को देवांश को घर बुला लो, हम से मिलने के लिए.’’ मैं ने पद्मजा के गालों पर बिखरे हुए बालों को हटाते हुए कहा.

‘‘ठीक है, मेरी अच्छी भाभी,’’ कह कर पद्मजा भावविभोर हो कर छोटे बच्चे की तरह मुझ से लिपट गई.

कहते हैं कि घर में जितने ज्यादा सदस्य होते हैं, उतना ही वहां सूनापन कम होता है. मगर जब से पद्मजा विधवा हो कर मेरे घर आई थी, तब से सूनेपन का बसेरा हो गया था घर में. ऐसा सूनापन जो नाग की तरह हम तीनों के हृदय में घर कर के हमें अंदर ही अंदर डस रहा था. आज पद्मजा की आंखों की चमक उस नाग पर वार कर के उसे पूर्णरूप से खत्म करने को तत्पर थी.

 

अगले रविवार की शाम मेरे घर में रूपहला उजाला सा बिखरा हुआ था और पद्मजा इस उजाले में सिर से पांव तक नहाई सी प्रतीत हो रही थी. रोशनखयाल देवांश ने कुछ ही घंटों में सचिन पर अपना प्रभुत्व कायम कर लिया.

‘‘औरत केवल एक शरीर नहीं है, पूरी सृष्टि है. जब विधुर पुरुष का विवाह अविवाहित स्त्री से हो सकता है तो फिर अविवाहित पुरुष एक विधवा को अपनाने में क्यों इतना सोचते हैं? रही बात समाज और रीतिरिवाजों की, तो ये सब इंसान के लिए बने हैं, इंसान  इन के लिए नहीं.

इंसानों के बदलने से युग परिवर्तन हुए हैं क्योंकि ये युग प्रवर्तक अच्छी सोच को करनी में उतारते हैं, कथनी तक सीमित नहीं रहने देते हैं,’’ कहतेकहते देवांश थोड़ा रुका, उस की आंखें पद्मजा पर एक सरसरी दृष्टि डालती हुई सचिन के चेहरे पर जम गईं और उस ने घोषणात्मक स्वर में ऐलान किया, ‘‘मैं पद्मजा को अपना जीवनसाथी बनाना चाहता हूं. अगर आप न भी करेंगे तो भी मैं ऐसा करूंगा क्योंकि मैं जानता हूं कि पद्मजा की खुशी इसी में है और मेरे लिए संसार में उस की खुशी से बढ़ कर कुछ नहीं हैं.’’

कुछ देर के लिए कमरे में गहरी चुप्पी छाई रही, सभी एकदूसरे के चेहरे ताक रहे थे. मन ही मन विचारों की कुछ नापतौल सी चल रही थी.

अंत में सचिन ने ही चुप्पी तोड़ी, ‘‘अरे भाई, जब तुम दोनों ने सबकुछ पहले से ही फाइनल कर लिया है तो मैं क्या, कोई भी तुम्हारा निर्णय नहीं बदल सकता,’’ कहते हुए सचिन अपनी जगह से उठे और उन्होंने पद्मजा का हाथ ले देवांश के हाथों में पकड़ा दिया. फिर दोनों को एकसाथ अपनी बाहों में ले कर अपने कलेजे से लगा लिया.

उस रात डिनर के बाद देवांश खुशीखुशी विदा हो गया था अपनी शादी की तैयारियां जो शुरू करनी थी उसे. पद्मजा के कमरे से खुशी के गीतों की गुनगुनाहटें आ रही थीं. सब से ज्यादा फूले नहीं समा रहे थे सचिन. वे बिना रुके देवांश की तारीफों के पुल बांधे जा रहे थे, ‘‘क्या कमाल का लड़का है, कैसे उत्तम विचार हैं उस के. अपने मांबाप का इकलौता बेटा है.

‘‘बहुतेरे लोग अपनी बेटी का रिश्ता उस से जोड़ने को दरवाजे पर खड़े रहते होंगे. मगर इसे कहते हैं संस्कार. बड़े ही ऊंचे संस्कार दिए हैं उस के मांबाप ने उसे. युगपुरुष, महापुरुष वाली बात है उस में. बहुत बड़ी बात है कि जो ऐसे उच्च विचारों का व्यक्ति हमारे यहां रिश्ता जोड़ रहा है.’’

और मैं हैरान, जड़वत सी, दोगली मानसिकता के शिकार अपने पति के दोहरे मापदंडों की गवाह बनी खड़ी थी.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें