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डिंक कपल्स, डबल कमाई और लाइफ के अंतिम पड़ाव में अकेलेपन की खाई

बेंगलुरु के एक DINK कपल (डबल इनकम नो किड्स) के दोनों पार्टनर्स सौफ्टवेयर इंजीनियर हैं. उन की टैक्स पे करने के बाद मंथली इनकम 7 लाख रुपए है. उन्हें समझ नहीं आ रहा कि सारे खर्चों के बाद अपने बचे 3 लाख रुपए को कहां खर्च करें तो उन्होंने एक इंडियन प्रोफैशनल प्लेटफौर्म ग्रेपवाइन ऐप पर पोस्ट शेयर कर के कम्युनिटी से सजेशन मांगा कि वे बचे हुए पैसे का क्या करें.

ग्रेपवाइन ऐप पर शेयर की गई उन की पोस्ट वायरल हो गई और पोस्ट पर करीब 200 कमैंट्स भी आए और कुछ यूजर ने मजाक उड़ाते हुए सुझाव दिया कि दंपती उन्हें गोद ले लें. कहीं आप भी DINK कपल बनने की राह पर तो नहीं हैं?

DINK कपल्स की सोच

पिछले कुछ सालों में DINK कपल्स ट्रैंड काफी देखने में आ रहा है और सोशल मीडिया पर इस की बहुत चर्चा हो रही है. DINK कपल्स वो होते हैं जो शादी के बाद बेबी प्लानिंग में जल्दी नहीं करते और यहां तक कि बिना बच्चों के ही जिंदगी गुजारना चाहते हैं. उन का सारा फोकस पैसे कमाने और अच्छी लाइफस्टाइल पर होता है. ऐसे कपल्स ज्यादा से ज्यादा पैसे कमाने, घूमनेफिरने, अपने कैरियर और रिश्ते को मज़बूत बनाने पर ध्यान देते हैं. वे बच्चों के पालनपोषण की ज़िम्मेदारी से फ्री रहने, आजाद जीवनशैली का आनंद लेने और अपनी लाइफ को भरपूर से जीने में यकीन रखते हैं, वे बच्चों की जिम्मेदारी ले कर अपनी रातों की नींद खराब करने में यकीन नहीं रखते.

DINK कपल्स मानते हैं कि बच्चे को दुनिया में लाना एक बड़ा फैसला और निजी मामला है और अपने बुढ़ापे को सुरक्षित करने के लिए बच्चा पैदा करने में खुद को निवेश करने को वे सही फैसला नहीं मानते.

रिसर्चगेट की एक स्टडी के मुताबिक, भारत में अब धीरेधीरे DINK कपल्स की संख्या बढ़ती जा रही है और यह देखा गया है कि लगभग 65 फीसदी न्यूली वैडेड कपल बच्चे नहीं करना चाहते हैं. काम के बाद बचा हुआ समय वे अपने पार्टनर और दोस्तों के साथ पार्टी व ट्रैवल कर के बिताते हैं. ये कपल्स परिवार के बजाय अपने निजी जीवन, अपनी खुशी और कैरियर को ज़्यादा अहमियत देते हैं.

DINK कपल्स सोसाइटी के लिए एक चैलेंज

पिछले दिनों एक मार्केटिंग फर्म द्वारा किए गए सर्वे में यह बात भी सामने आई कि भारत में डिंक यानी डबल इनकम नो किड ग्रुप की संख्या हर साल 30 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है. महिलाएं कम बच्चों को जन्म दे रही हैं. भारत में फर्टिलिटी रेट भी तेजी से घट रही है. साल 1950 में जो फर्टिलिटी रेट 6.2 फीसदी थी वह अब घट कर 2 फीसदी रह गई है.

आगे क्या होगा?

माना कि इस ट्रैंड को फौलो करने वाले कपल्स के बच्चे नहीं होने की वजह से उन की फाइनैंशियल सिचुएशन अच्छी रहती है, खुद के लिए समय मिलने, अपनी चाहतों को पूरा करने के अलावा वे एकदूसरे को क्वालिटी टाइम दे पाते हैं, एकदूसरे को समझने का समय मिलता है, वे अपने सपनों और लक्ष्यों पर फोकस कर पाते हैं. लेकिन यह सोच रखने वाले लोगों को इस बात का एहसास नहीं है कि वे कब तक नौकरियां कर पाएंगे, इस बात की कोई गारंटी नहीं. एक दिन ऐसा जरूर आएगा जब उन्हें रिटायर्ड जीवन बिताना होगा और तब वे फिजिकली इतने ऐक्टिव भी नहीं होंगे कि रोज कहीं घूमने जा सकें, दोस्तों के साथ पार्टियां कर सकें. तब, क्या होगा?

अकेलेपन की खाई

खाओपियो मौज उड़ाओ की स्वार्थी सोच वाले इन कपल्स को एक समय के बाद अपनी लाइफ में कई नुकसान भी उठाने पड़ते हैं. ऐसे कपल्स को समाज, परिवार से सपोर्ट नहीं मिलता. वे सब से अलगथलग हो जाते हैं और एक समय के बाद ऐसे कपल्स अकेलेपन को महसूस करते हैं.

डगमग फाइनैंशियल प्लानिंग

बच्चे न होना आर्थिक रूप से किसी भी कपल को आजादी का एहसास दे सकता है क्योंकि आप को उन की शिक्षा या अन्य जरूरतों के लिए सेविंग करने की चिंता नहीं करनी पड़ती लेकिन अधिकांश केसेज में देखा गया है कि फाइनैंशियल गोल नहीं होने से डिंक कपल्स बिना सोचेसमझे खर्च करते हैं और उन की फाइनैंशियल प्लानिंग गड़बड़ा जाती है. एसोसिएटेड चैंबर औफ कौमर्स एंड इंडस्ट्री औफ इंडिया द्वारा किए गए एक सर्वे से भी पता चला है कि DINK कपल्स बहुत ज्यादा खर्च करने वाले लोग होते हैं. वे ज्यादातर बाहर खाते हैं और एंटरटेन्मेंट व वैकेशन पर बहुत ज्यादा खर्च करते हैं.

DINK कपल्स में से 60 फीसदी लोग हर दो महीने में कुछ दिनों के लिए छुट्टियों पर जाते हैं. 45 प्रतिशत लोग अपनी आय का एक बड़ा हिस्सा EMI चुकाने में खर्च करते हैं जो मासिक 20 हजार रुपए से अधिक हो सकती है. 45 फीसदी लोग गैरजरूरी वस्तुओं पर 5,000-10,000 रुपए खर्च करते हैं.

कहीं देर न हो जाए

डिंक कपल्स पहले तो अपनी ज़िंदगी जीने की चाहत में बच्चा अपनी जिंदगी में नहीं चाहते लेकिन जब वे अपने साथी कपल्स को पेरैंट्स बनते देखते हैं और अपने ग्रुप में अकेले पड़ जाते हैं तो फिर अपनी लाइफ में बच्चा चाहते हैं लेकिन तब उन की उम्र आड़े आती है और नौर्मल प्रैग्नैंसी की उम्र निकल चुकी होती है और अनेक तरह की परेशानियां सामने आती हैं.

अपना सकते हैं निम्न उपाय

• सोशल वर्क करें. इस से अकेलापन और स्ट्रैस कम होता है और नया सोशल सर्कल और नए दोस्त भी बनते हैं व जुड़ाव बढ़ता है.

• करीबी कपल्स से दोस्ती बढ़ाएं, उन से कनेक्टेड रहें, उन के साथ पार्टी प्लान करें, साथ में ट्रैवल प्लान करें. इस से अकेलापन दूर होगा और उन के साथ नजदीकी भी बढ़ेगी.

• क्रिएटिव एक्टिविटीज में इन्वौल्व हों. अपनी हौबीज पर काम करें. अपने शहर के कल्चरल प्रोग्राम का हिस्सा बनें चाहे बोरियत ही क्यों न हो.

• अकेलेपन को दूर करने के लिए भूल कर भी धर्म के चक्कर में न पड़ें. धर्म आप का समय बरबाद करने के अलावा दानदक्षिणा के चंगुल में फंसा कर आप की सेविंग्स भी लूट लेगा.

• DINK कपल्स की लाइफ में बच्चों के न होने से उन के पास समय की कमी नहीं होती तो वे पौलिटिक्स भी जौइन कर सकते हैं.

सोने का झुमका : पूर्णिमा का सोने का झुमका खोते ही मच गया कोहराम    

जगदीश की मां रसोईघर से बाहर निकली ही थी कि कमरे से बहू के रोने की आवाज आई. वह सकते में आ गई. लपक कर बहू के कमरे में पहुंची.

‘‘क्या हुआ, बहू?’’

‘‘मांजी…’’ वह कमरे से बाहर निकलने ही वाली थी. मां का स्वर सुन वह एक हाथ दाहिने कान की तरफ ले जा कर घबराए स्वर में बोली, ‘‘कान का एक झुमका न जाने कहां गिर गया है.’’

‘‘क…क्या?’’

‘‘पूरे कमरे में देख डाला है, मांजी, पर न जाने कहां…’’ और वह सुबकसुबक कर रोने लगी.

‘‘यह तो बड़ा बुरा हुआ, बहू,’’ एक हाथ कमर पर रख कर वह बोलीं, ‘‘सोने का खोना बहुत अशुभ होता है.’’

‘‘अब क्या करूं, मांजी?’’

‘‘चिंता मत करो, बहू. पूरे घर में तलाश करो, शायद काम करते हुए कहीं गिर गया हो.’’

‘‘जी, रसोईघर में भी देख लेती हूं, वैसे सुबह नहाते वक्त तो था.’’ जगदीश की पत्नी पूर्णिमा ने आंचल से आंसू पोंछे और रसोईघर की तरफ बढ़ गई. सास ने भी बहू का अनुसरण किया.

रसोईघर के साथ ही कमरे की प्रत्येक अलमारी, मेज की दराज, शृंगार का डब्बा और न जाने कहां-कहां ढूंढ़ा गया, मगर कुछ पता नहीं चला.

अंत में हार कर पूर्णिमा रोने लगी. कितनी परेशानी, मुसीबतों को झेलने के पश्चात जगदीश सोने के झुमके बनवा कर लाया था.

तभी किसी ने बाहर से पुकारा. वह बंशी की मां थी. शायद रोनेधोने की आवाज सुन कर आई थी. जगदीश के पड़ोस में ही रहती थी. काफी बुजुर्ग होने की वजह से पासपड़ोस के लोग उस का आदर करते थे. महल्ले में कुछ भी होता, बंशी की मां का वहां होना अनिवार्य समझा जाता था. किसी के घर संतान उत्पन्न होती तो सोहर गाने के लिए, शादीब्याह होता तो मंगल गीत और गारी गाने के लिए उस को विशेष रूप से बुलाया जाता था. जटिल पारिवारिक समस्याएं, आपसी मतभेद एवं न जाने कितनी पहेलियां हल करने की क्षमता उस में थी.

‘‘अरे, क्या हुआ, जग्गी की मां? यह रोनाधोना कैसा? कुशल तो है न?’’ बंशी की मां ने एकसाथ कई सवाल कर डाले.

पड़ोस की सयानी औरतें जगदीश को अकसर जग्गी ही कहा करती थीं.

‘‘क्या बताऊं, जीजी…’’ जगदीश की मां रोंआसी आवाज में बोली, ‘‘बहू के एक कान का झुमका खो गया है. पूरा घर ढूंढ़ लिया पर कहीं नहीं मिला.’’

‘‘हाय राम,’’ एक उंगली ठुड्डी पर रख कर बंशी की मां बोली, ‘‘सोने का खोना तो बहुत ही अशुभ है.’’

‘‘बोलो, जीजी, क्या करूं? पूरे तोले भर का बनवाया था जगदीश ने.’’

‘‘एक काम करो, जग्गी की मां.’’

‘‘बोलो, जीजी.’’

‘‘अपने पंडित दयाराम शास्त्री हैं न, वह पोथीपत्रा विचारने में बड़े निपुण हैं. पिछले दिनों किसी की अंगूठी गुम हो गई थी तो पंडितजी की बताई दिशा पर मिल गई थी.’’

डूबते को तिनके का सहारा मिला. पूर्णिमा कातर दृष्टि से बंशी की मां की तरफ देख कर बोली, ‘‘उन्हें बुलवा दीजिए, अम्मांजी, मैं आप का एहसान जिंदगी भर नहीं भूलूंगी.’’

‘‘धैर्य रखो, बहू, घबराने से काम नहीं चलेगा,’’ बंशी की मां ने हिम्मत बंधाते हुए कहा.

बंशी की मां ने आननफानन में पंडित दयाराम शास्त्री के घर संदेश भिजवाया. कुछ समय बाद ही पंडितजी जगदीश के घर पहुंच गए. अब तक पड़ोस की कुछ औरतें और भी आ गई थीं. पूर्णिमा आंखों में आंसू लिए यह जानने के लिए उत्सुक थी कि देखें पंडितजी क्या बतलाते हैं.

पूरी घटना जानने के बाद पंडितजी ने सरसरी निगाहों से सभी की तरफ देखा और अंत में उन की नजर पूर्णिमा पर केंद्रित हो गई, जो सिर झुकाए अपराधिन की भांति बैठी थी.

‘‘बहू का राशिफल क्या है?’’

‘‘कन्या राशि.’’

‘‘ठीक है.’’ पंडितजी ने अपने सिर को इधरउधर हिलाया और पंचांग के पृष्ठ पलटने लगे. आखिर एक पृष्ठ पर उन की निगाहें स्थिर हो गईं. पृष्ठ पर बनी वर्गाकार आकृति के प्रत्येक वर्ग में उंगली फिसलने लगी.

‘‘हे राम…’’ पंडितजी बड़बड़ा उठे, ‘‘घोर अनर्थ, अमंगल ही अमंगल…’’

सभी औरतें चौंक कर पंडितजी का मुंह ताकने लगीं. पूर्णिमा का दिल जोरों से धड़कने लगा था.

पंडितजी बोले, ‘‘आज सुबह से गुरु कमजोर पड़ गया है. शनि ने जोर पकड़ लिया है. ऐसे मौके पर सोने की चीज खो जाना अशुभ और अमंगलकारी है.’’

पूर्णिमा रो पड़ी. जगदीश की मां व्याकुल हो कर बंशी की मां से बोली, ‘‘हां, जीजी, अब क्या करूं? मुझ से बहू का दुख देखा नहीं जाता.’’

बंशी की मां पंडितजी से बोली, ‘‘दया कीजिए, पंडितजी, पहले ही दुख की मारी है. कष्ट निवारण का कोई उपाय भी तो होगा?’’

‘‘है क्यों नहीं?’’ पंडितजी आंख नचा कर बोले, ‘‘ग्रहों को शांत करने के लिए पूजापाठ, दानपुण्य, धर्मकर्म ऐसे कई उपाय हैं.’’

‘‘पंडितजी, आप जो पूजापाठ करवाने  को कहेंगे, सब कराऊंगी.’’ जगदीश की मां रोंआसे स्वर में बोली, ‘‘कृपा कर के बताइए, झुमका मिलने की आशा है या नहीं?’’

‘‘हूं…हूं…’’ लंबी हुंकार भरने के पश्चात पंडितजी की नजरें पुन: पंचांग पर जम गईं. उंगलियों की पोरों में कुछ हिसाब लगाया और नेत्र बंद कर लिए.

माहौल में पूर्ण नीरवता छा गई. धड़कते दिलों के साथ सभी की निगाहें पंडितजी की स्थूल काया पर स्थिर हो गईं.

पंडितजी आंख खोल कर बोले, ‘‘खोई चीज पूर्व दिशा को गई है. उस तक पहुंचना बहुत ही कठिन है. मिल जाए तो बहू का भाग्य है,’’ फिर पंचांग बंद कर के बोले, ‘‘जो था, सो बता दिया. अब हम चलेंगे, बाहर से कुछ जजमान आए हैं.’’

पूरे सवा 11 रुपए प्राप्त करने के पश्चात पंडित दयाराम शास्त्री सभी को आसीस देते हुए अपने घर बढ़ लिए. वहां का माहौल बोझिल हो उठा था. यदाकदा पूर्णिमा की हिचकियां सुनाई पड़ जाती थीं. थोड़ी ही देर में बंशीं की मां को छोड़ कर पड़ोस की शेष औरतें भी चली गईं.

‘‘पंडितजी ने पूरब दिशा बताई है,’’ बंशी की मां सोचने के अंदाज में बोली.

‘‘पूरब दिशा में रसोईघर और उस से लगा सरजू का घर है.’’ फिर खुद ही पश्चात्ताप करते हुए जगदीश की मां बोलीं, ‘‘राम…राम, बेचारा सरजू तो गऊ है, उस के संबंध में सोचना भी पाप है.’’

‘‘ठीक कहती हो, जग्गी की मां,’’ बंशी की मां बोली, ‘‘उस का पूरा परिवार ही सीधा है. आज तक किसी से लड़ाई-झगड़े की कोई बात सुनाई नहीं पड़ी है.’’

‘‘उस की बड़ी लड़की तो रोज ही समय पूछने आती है. सरजू तहसील में चपरासी है न,’’ फिर पूर्णिमा की तरफ देख कर बोली, ‘‘क्यों, बहू, सरजू की लड़की आई थी क्या?’’

‘‘आई तो थी, मांजी.’’

‘‘लोभ में आ कर शायद झुमका उस ने उठा लिया हो. क्यों जग्गी की मां, तू कहे तो बुला कर पूछूं?’’

‘‘मैं क्या कहूं, जीजी.’’

पूर्णिमा पसोपेश में पड़ गई. उसे लगा कि कहीं कोई बखेड़ा न खड़ा हो जाए. यह तो सरासर उस बेचारी पर शक करना है. वह बात के रुख को बदलने के लिए बोली, ‘‘क्यों, मांजी, रसोईघर में फिर से क्यों न देख लिया जाए,’’ इतना कह कर पूर्णिमा रसोईघर की तरफ बढ़ गई.

दोनों ने उस का अनुसरण किया. तीनों ने मिल कर ढूंढ़ना शुरू किया. अचानक बंशी की मां को एक गड्ढा दिखा, जो संभवत: चूहे का बिल था.

‘‘क्यों, जग्गी की मां, कहीं ऐसा तो नहीं कि चूहे खाने की चीज समझ कर…’’ बोलतेबोलते बंशी की मां छिटक कर दूर जा खड़ी हुई, क्योंकि उसी वक्त पतीली के पीछे छिपा एक चूहा बिल के अंदर समा गया था.

‘‘बात तो सही है, जीजी, चूहों के मारे नाक में दम है. एक बार मेरा ब्लाउज बिल के अंदर पड़ा मिला था. कमबख्तों ने ऐसा कुतरा, जैसे महीनों के भूखे रहे हों,’’ फिर गड्ढे के पास बैठते हुए बोली, ‘‘हाथ डाल कर देखती हूं.’’

‘‘ठहरिए, मांजी,’’ पूर्णिमा ने टोकते हुए कहा, ‘‘मैं अभी टार्च ले कर आती हूं.’’

चूंकि बिल दीवार में फर्श से थोड़ा ही ऊपर था, इसलिए जगदीश की मां ने मुंह को फर्श से लगा दिया. आसानी से देखने के लिए वह फर्श पर लेट सी गईं और बिल के अंदर झांकने का प्रयास करने लगीं.

‘‘अरे जीजी…’’ वह तेज स्वर में बोली, ‘‘कोई चीज अंदर दिख तो रही है. हाथ नहीं पहुंच पाएगा. अरे बहू, कोई लकड़ी तो दे.’’

जगदीश की मां निरंतर बिल में उस चीज को देख रही थी. वह पलकें झपकाना भूल गई थी. फिर वह लकड़ी डाल कर उस चीज को बाहर की तरफ लाने का प्रयास करने लगी. और जब वह चीज निकली तो सभी चौंक पड़े. वह आम का पीला छिलका था, जो सूख कर सख्त हो गया था और कोई दूसरा मौका होता तो हंसी आए बिना न रहती.

बंशी की मां समझाती रही और चलने को तैयार होते हुए बोली, ‘‘अब चलती हूं. मिल जाए तो मुझे खबर कर देना, वरना सारी रात सो नहीं पाऊंगी.’’

बंशी की मां के जाते ही पूर्णिमा फफक-फफक कर रो पड़ी.

‘‘रो मत, बहू, मैं जगदीश को समझा दूंगी.’’

‘‘नहीं, मांजी, आप उन से कुछ मत कहिएगा. मौका आने पर मैं उन्हें सबकुछ बता दूंगी.’’

शाम को जगदीश घर लौटा तो बहुत खुश था. खुशी का कारण जानने के लिए उस की मां ने पूछा, ‘‘क्या बात है, बेटा, आज बहुत खुश हो?’’

‘‘खुशी की बात ही है, मां,’’ जगदीश पूर्णिमा की तरफ देखते हुए बोला, ‘‘पूर्णिमा के बड़े भैया के 4 लड़कियों के बाद लड़का हुआ है.’’ खुशी तो पूर्णिमा को भी हुई, मगर प्रकट करने में वह पूर्णतया असफल रही.

कपड़े बदलने के बाद जगदीश हाथमुंह धोने चला गया और जाते-जाते कह गया, ‘‘पूर्णिमा, मेरी पैंट की जेब में तुम्हारे भैया का पत्र है, पढ़ लेना.’’

पूर्णिमा ने भारी मन लिए पैंट की जेब में हाथ डाल कर पत्र निकाला. पत्र के साथ ही कोई चीज खट से जमीन पर गिर पड़ी. पूर्णिमा ने नीचे देखा तो मुंह से चीख निकल गई. हर्ष से चीखते हुए बोली, ‘‘मांजी, यह रहा मेरा खोया हुआ सोने का झुमका.’’

‘‘सच, मिल गया झुमका,’’ जगदीश की मां ने प्रेमविह्वल हो कर बहू को गले से लगा लिया.

उसी वक्त कमरे में जगदीश आ गया. दिन भर की कहानी सुनतेसुनते वह हंस कर बिस्तर पर लेट गया. और जब कुछ हंसी थमी तो बोला, ‘‘दफ्तर जाते वक्त मुझे कमरे में पड़ा मिला था. मैं पैंट की जेब में रख कर ले गया. सोचा था, लौट कर थोड़ा डाटूंगा. लेकिन यहां तो…’’ और वह पुन: खिलखिला कर हंस पड़ा.

पूर्णिमा भी हंसे बिना न रही.

‘‘बहू, तू जगदीश को खाना खिला. मैं जरा बंशी की मां को खबर कर दूं. बेचारी को रात भर नींद नहीं आएगी,’’ जगदीश की मां लपक कर कमरे से बाहर निकल गई.

इकलौते बच्चे को जरूरत से ज्यादा प्रोटैक्ट करना ठीक नहीं

सारंग की पत्नी का देहांत शादी के 10 साल बाद हो गया. अचानक आए तेज बुखार ने एक हफ्ते में उस की इहलीला समाप्त कर दी. तब सारंग का बेटा अनुज मात्र 7 साल का था. पत्नी की अचानक मौत से सारंग टूट गया था. घर में उस के बूढ़े बीमार मांबाप, नन्हा सा बच्चा और अकेला सारंग जिसे इन तीनों की जिम्मेदारी उठानी थी. पत्नी का ग़म धीरेधीरे कम हुआ तो सारंग ने फिर से नौकरी पर जाना शुरू किया.

वह एक स्कूल में टीचर था. पहले उस का बेटा जिस स्कूल में पढ़ रहा था, वहां से उस को निकाल कर सारंग ने उस का एडमिशन अपने ही स्कूल में करवा लिया ताकि वह उस के साथ ही स्कूल आएजाए. पहले उस की पत्नी ही बच्चे का खयाल रखती थी. उस को स्कूल लाना, ले जाना, पेरैंटटीचर मीटिंग अटेंड करना, बच्चे की जरूरत का सामान खरीदना सारी जिम्मेदारी पत्नी की थी. मगर अब सुबह बच्चे को उठाना, तैयार करना, उस को नाश्ता कराना, उस का बैग पैक करना, लंच बनाना, मातापिता को नाश्ता देना और उन के लिए लंच तैयार कर के जाना सब काम अकेले सारंग के जिम्मे आ गया था.

बच्चे को ले कर सारंग बहुत प्रोटैक्टिव हो गया था. वह उसे हर वक्त अपने साथ रखता था. उस को अकेले घर से बाहर नहीं जाने देता था. सामने पार्क में शाम को अनेक बच्चे खेलते थे मगर सारंग अपने बेटे को नहीं भेजता था. दरअसल, पत्नी की अचानक मौत ने सारंग को डरा दिया था. वह नहीं चाहता था कि उस के बेटे को कोई खरोंच भी आए.

अनुज भी मां के जाने के बाद अपने पिता के बहुत निकट आ गया था. वह बड़ा हो रहा था मगर फिर भी रात में वह पिता से ही लिपट कर सोता था. हर बात अपने पिता सारंग से पूछ कर करता था. जिस उम्र में बच्चे अपनी साइकिल ले कर पूरा शहर नाप आते हैं, अनुज अपने पिता की बाइक पर उन के पीछे बैठ कर हर जगह जाता था. हालांकि उस के पास साइकिल थी, मगर वह साइकिल उस ने बस अपनी गली में ही चलाई. बाहर सड़क पर नहीं. सारंग ही कभी उस को अकेले निकलने नहीं देता. यहां तक कि सामने की दुकान से ब्रेड भी लानी हो तो सारंग खुद ही लाता कि कहीं सड़क पार करते समय कोई दुर्घटना न हो जाए.

अनुज को ले कर सारंग बहुत प्रोटैक्टिव रहा. बापबेटे में प्रेम तो बहुत था मगर इस प्रेम के कारण अनुज चूंकि बाहरी दुनिया के लोगों से घुलमिल नहीं पाया, लिहाजा आज 18 साल की उम्र में जब वह इंटरमीडिएट में आ चुका है, बहुत इंट्रोवर्ट नैचर का हो गया है. क्लास में उस का कोई दोस्त नहीं है. वह चुपचाप एक कोने में बैठता है. किसी ने खुद आगे बढ़ कर बात कर ली, तो जवाब दे देता है मगर खुद किसी से बात करने की कोई चाहत नहीं होती. उस के क्लास के लड़कों की स्कूल की लड़कियों से दोस्ती है, कुछ की तो बाकायदा गर्लफ्रैंड हैं, मगर अनुज लड़कियों की तरफ आंख उठा कर भी नहीं देखता.

अनुज के न तो कालेज में कोई दोस्त हैं न महल्ले में. वह अकेला रहना पसंद करता है. अपनी ख्वाहिशों और जरूरतों को बताने में झिझकता है. बाजार से कुछ सामान लाना हो तो दुकानदार से मोलतोल नहीं कर पाता. अब उस के इस नैचर से सारंग को बहुत परेशानी होती है. वह हर वक्त शिकायत करता है कि अनुज को बाहर का काम करना पसंद नहीं है, सारे काम मुझे अकेले ही करने पड़ते हैं, हर वक्त वह अपने कमरे में ही बंद रहना चाहता है, किसी से बात नहीं करता, कोई मेहमान घर में आ जाए तो सामने आ कर उस को नमस्ते तक करने में इस को परेशानी है, आगे भविष्य में क्या करना है, क्या बनना है उस के बारे में कोई सोच ही नहीं है आदिआदि.

दरअसल, सारंग के अत्यधिक प्रोटैक्शन ने ही अनुज को अकेला कर दिया है. हर वक़्त बाप से चिपके रहने के कारण जिस उम्र में उस के अच्छे दोस्त बनने चाहिए थे, वे नहीं बने. दोस्तों के साथ बच्चे बाहर घूमते हैं, मिल कर पढ़ाई करते हैं तो कंपीटिशन की भावना जागती है. वे अपने भविष्य और कैरियर के बारे में सोचने लगते हैं. दोस्तों के साथ बहुत सारे अच्छबुरे एक्सपीरियंस होते हैं, जो इंसान को बेहतर जिंदगी की तरफ धकेलते हैं. मगर यहां तो सारंग ने अनुज को कभी दूसरे बच्चों के साथ घुलनेमिलने ही नहीं दिया. इतने सालों हर वक्त उसे अपने से ही चिपटाए रखा. तो, अब उस की गलती नहीं है अगर उसे अकेला रहना ही अच्छा लगने लगा है.

कुछ ऐसी ही कहानी कल्पना बनर्जी और उन की बेटी मधुलिका की है. कल्पना बनर्जी एक बैंक में काम करती हैं. उन के पति का देहांत शादी के 3 साल बाद ही हो गया था. उन का संयुक्त परिवार है. लिहाजा कल्पना बनर्जी अपनी ससुराल में ही रहीं. उन के एक जेठ और दो देवरों के भी अपनेअपने परिवार हैं, पत्नी और बच्चे हैं जो एक ही बिल्डिंग में अलगअलग फ्लोर पर रहते हुए भी आपस में घुलेमिले हैं. सब का सब के घर आनाजाना है. त्योहारों पर पूरा परिवार इकट्ठा हो कर त्योहार मनाता है. पति की मौत के बाद कल्पना अपने फ्लैट में बिलकुल अकेली रह गईं. तब किसी ने उन को सलाह दी कि वे बच्चा गोद ले लें. पहाड़ सी जिंदगी अकेले कैसे काटेंगी. उन को बात जम गई. उन्होंने बच्चा गोद लेने के लिए सरकारी एजेंसी में अप्लाई किया और सरकारी अनाथाश्रम से सालभर के भीतर उन्हें एक डेढ़ साल की बच्ची गोद मिल गई जिस का नाम उन्होंने मधुलिका रखा.

बच्ची के आ जाने से कल्पना जैसे जीवित हो उठीं. बच्ची उन की खुशियों का केंद्र बन गई. वे उसे सुबह तैयार कर के अपने साथ औफिस ले जातीं. औफिस में उन की सहकर्मियों ने भी उन की काफी मदद की और बेटी धीरेधीरे बड़ी होने लगी. कल्पना को डर था कि कहीं कोई उन की बेटी को यह न बता दे कि वह उन की नहीं बल्कि गोद ली हुई बच्ची है. इस डर से कल्पना अपने देवर या जेठ के फ्लैट में मधुलिका को अकेले नहीं जाने देती थी और न ही उन के बच्चों से ज्यादा घुलनेमिलने देती थी. मधुलिका को ले कर कल्पना बनर्जी इतनी प्रोटैक्टेड थीं कि उन्होंने कभी उस को दोस्तों के साथ भी कहीं अकेले नहीं जाने दिया.

मांबेटी एकदूसरे के साथ हमेशा रहीं और दोनों में अथाह प्रेम रहा. मगर 20 साल की उम्र में जब कल्पना ने बेटी के हाथ पीले किए और उस को ससुराल विदा किया तो मधुलिका पति के साथ एक महीना भी नहीं रह पाई. उस को मां की कमी परेशान करती थी. मां ने खाना खाया कि नहीं, मां ने दवाई खाई कि नहीं, मां अपनी आर्थराइटिस के इलाज के लिए डाक्टर के पास गईं या नहीं, मां अकेले राशन कैसे लाई होंगी जैसी बातें करकर के उस ने पति को परेशान कर डाला. आखिरकार एक महीने बाद वह अपने घर लौट आई और अब साल पूरा होने को आ रहा है, वह ससुराल वापस जाने को तैयार ही नहीं है. उस की जिद है कि उस का पति अगर उस के और उस की मां के साथ उन के फ्लैट में आ कर रह सकता है तो ठीक, वरना तलाक ले ले.

यह देखा गया है कि जिन परिवारों में इकलौता बच्चा होता है वे परिवार बच्चे की सुरक्षा के प्रति बहुत सजग रहते हैं. आखिर वही एक उन का वंश जो आगे बढ़ाएगा, लिहाजा उस को कहीं कुछ न हो, इस डर से हर वक्त उस को अपनी निगरानी में रखते हैं. उस की हर जरूरत तुरंत पूरी करते हैं. उसे इतना लाड़प्यार करते हैं कि बच्चा भी अपने परिवार से इतर देख नहीं पाता. लेकिन यह निगरानी और इतना लाड़प्यार उस के भविष्य और कैरियर के लिए ठीक नहीं है. कहते हैं, ठोकर खाए बिना अक्ल नहीं आती. मगर ठोकर तो तब मिलेगी जब बच्चे अकेले घर से बाहर निकलेंगे और दुनिया का सामना करेंगे.

जिन परिवारों में ज्यादा बच्चे होते हैं, वहां अकसर मांबाप उन्हें खुला छोड़ देते हैं, उन पर सौदा वगैरह लाने की जिम्मेदारी भी डालते हैं, घर की सफाई, बड़ों की देखभाल और छोटे भाईबहन का खयाल रखने का काम भी उन के जिम्मे होता है. ऐसे में वे जीवन के संघर्ष को सीखते हैं. कैसे आपस में लड़भिड़ कर एकदूसरे से आगे निकलने की कोशिश में लगे रहते हैं. स्कूलकालेज में भी दूसरे छात्रों से कंपीटिशन करते हैं, लड़तेभिड़ते हैं और इस से उन में जोश जागता है, कौन्फिडेंस आता है, जिंदगी के तौरतरीके सीखने का मौका मिलता है. वे समझने लगते हैं कि कहां प्यार से काम लेना है और कहां चालाकी से.

ऐसे बच्चे डल या इंट्रोवर्ट हो ही नहीं सकते जिन्होंने बचपन से अपने निर्णय खुद लिए हों. डल और इंट्रोवर्ट वही बच्चे होते हैं जिन्हें बचपन में बहुत प्रोटैक्ट कर रखा गया हो. तो अगर आप अपने बच्चे को जोशीला और तेजतर्रार बनाना चाहते हैं तो उसे अकेले घर से बाहर निकलने दीजिए, उस के कंधों पर जिम्मेदारी डालिए, उस से घर का सामान मंगवाइए, स्कूलकालेज के बच्चों के साथ पिकनिक पर जाने दीजिए. हर वक्त उन की चौकीदारी करेंगे तो वह आप की कैद को ही जिंदगी समझने लगेगा और फिर आप शिकायत करेंगे कि ये दूसरे बच्चों जैसा नहीं है.

व्यथा दो घुड़सवारों की : क्या बींद राजा ने मेरी बात मानी

जो  भी घोड़ी पर बैठा उसे रोता हुआ ही देखा है. घोड़ी पर तो हम भी बैठे थे. क्या लड्डू मिल गया, सिवा हाथ मलने के. एक दिन एक आदमी घोड़ी पर चढ़ रहा था. मेरा पड़ोसी था इसलिए मैं ने जा कर उस के पांव पकड़ लिए और बोला, ‘‘इस से बढि़या तो बींद राजा, सूली पर चढ़ जाओ. धीमा जहर पी कर क्यों घुटघुट कर मरना चाहते हो?’’

मेरा पड़ोसी बींद राजा, मेरे प्रलाप को नहीं समझ सका और यह सोच कर कि इसे बख्शीश चाहिए, मुझे 5 का नोट थमाते हुए बोला, ‘‘अब दफा हो जा, दोबारा घोड़ी पर चढ़ने से मत रोकना मुझे,’’ यह कह कर पैर झटका और मुझ से पांव छुड़ा कर वह घुड़सवार बन गया. बहुत पीड़ा हुई कि एक जीताजागता स्वस्थ आदमी घोड़ी पर चढ़ कर सीधे मौत के मुंह में जा रहा है.

मैं ने उसे फिर आगाह किया, ‘‘राजा, जिद मत करो. यह घोड़ी है बिगड़ गई तो दांतमुंह दोनों को चौपट कर देगी. भला इसी में है कि इस बाजेगाजे, शोरशराबे तथा बरात की भीड़ से अपनेआप को दूर रखो.’’

बींद पर उन्माद छाया था. मेरी ओर हंस कर बोला, ‘‘कापुरुष, घोड़ी पर चढ़ा भी और रो भी रहा है. मेरी आंखों के सामने से हट जा. विवाह के पवित्र बंधन से घबराता है तथा दूसरों को हतोत्साहित करता है. खुद ने ब्याह रचा लिया और मुझे कुंआरा ही देखना चाहता है, ईर्ष्यालु कहीं का.’’

मैं बोला, ‘‘बींद राजा, यह लो 5 रुपए अपने तथा मेरी ओर से यह 101 रुपए और लो, पर मत चढ़ो घोड़ी पर. यह रेस बहुत बुरी है. एक बार जो भी चढ़ा, वह मुंह के बल गिरता दिखा है. तुम मेरे परिचित हो इसलिए पड़ोसी धर्म के नाते एक अनहोनी को मैं टालना चाहता हूं. बस में, रेल में, हवाईजहाज में, स्कूटर पर या साइकिल पर चढ़ कर कहीं चले जाओ.’’

बींद राजा नहीं माने. घोड़ी पर चढ़ कर ब्याह रचाने चल दिए. लौट कर आए तो पैदल थे. मैं ने छूटते ही कहा, ‘‘लाला, कहां गई घोड़ी?’’

‘‘घोड़ी का अब क्या काम? घोड़ी की जहां तक जरूरत थी वहीं तक रही, फिर चली गई.’’

‘‘इसी गति से तुम्हें साधनहीन बना कर तुम्हारी तमाम सुविधाएं धीरेधीरे छीन ली जाएंगी. कल घोड़ी पर थे, आज जमीन पर. कल तुम्हारे जमीन पर होने पर आपत्ति प्रकट की जाएगी. तब तुम कहोगे कि मैं ने सही कहा था.’’

इस बार भी बींद ने मेरी बात पर गौर नहीं फरमाया तथा ब्याहता बींदणी को ले कर घर में घुस गया. काफी दिनों बाद बींद राजा मिले तो रंक बन चुके थे. बढ़ी हुई दाढ़ी तथा मैले थैले में मूली, पालक व आलूबुखारा ले कर आ रहे थे. मैं ने कहा, ‘‘राजा, क्या बात है? क्या हाल बना लिया? कहां गई घोड़ी. इतना सारा सामान कंधे पर लादे गधे की तरह फिर रहे हो?’’

‘‘भैया, यह तो गृहस्थी का भार है. घोड़ी क्या करेगी इस में.’’

‘‘लाला, दहेज में जो घोड़ी मिली है, उस के क्या हाल हैं. वह सजीसंवरी ऊंची एड़ी के सैंडलों में बनठन कर निकलती है और आप चीकू की तरह पिचक गए हो. भला ऐसे भी घोड़ी से क्या उतरे कि कोई सहारा देने वाला ही नहीं रहा?’’

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है. इस बीच मुझे पुत्र लाभ हो चुका है तथा अन्य कई जिम्मेदारियां बढ़ गई हैं. बाकी विशेष कुछ नहीं है,’’ बींद राजा बोले.

‘‘अच्छाभला स्वास्थ्य था राजा आप का. किस मर्ज ने घेरा है कि अपने को भुरता बना बैठे हो.’’

‘‘मर्ज भला क्या होगा. असलियत तो यह है, महंगाई ने इनसान को मार दिया है.’’

‘‘झूठ मत बोलो भाई, घोड़ी पर चढ़ने का फल महंगाई के सिर मढ़ रहे हो. भाई, जो हुआ सो हुआ, पत्नी के सामने ऐसी भी क्या बेचारगी कि आपातकाल लग जाता है. थोड़ी हिम्मत से काम लो. पत्नी के रूप में मिली घोड़ी को कामकाज में लगा दो, तभी यह उपयोगी सिद्ध होगी. किसी प्राइवेट स्कूल में टीचर बनवा दो,’’ मैं ने कहा.

‘‘बकवास मत करो. तुम मुझे समझते क्या हो? इतना कायर तो मैं नहीं कि बीवी की कमाई पर बसर करूं.’’

‘‘भैया, बीवी की कमाई ही अब तुम्हारे जीवन की नैया पार लगा सकती है. ज्यादा वक्त कंधे पर बोझ ढोने से फायदा नहीं है. सोचो और फटाफट पत्नी को घोड़ी बना दो. सच, तुम अब बिना घुड़सवार बने सुखी नहीं रह सकते,’’ मैं ने कहा.

पर इस बार भी राजा बनाम रंक पर मेरी बातों का असर नहीं हुआ और हांफता हुआ घर में जा घुसा तथा रसोईघर में तरकारी काटने लगा.

एक दिन बींद राजा की बींदणी मिली. मैं ने कहा, ‘‘बींदणीजी, बींद राजा पर रहम खाओ. दाढ़ी बनाने को पैसे तो दिया करो और इस जाड़े में एक डब्बा च्यवनप्राश ला दो. घोड़ी से उतरने के बाद वह काफी थक गए हैं?’’

बींदणी ने जवाब दिया, ‘‘लल्ला, अपनी नेक सलाह अपनी जेब में रखो और सुनो, भला इसी में है कि अपनी गृहस्थी की गाड़ी चलाते रहो. दूसरे के बीच में दखल मत दो.’’

मैं ने कहा, ‘‘दूसरे कौन हैं. आप और हम तो एकदूसरे के पड़ोसी हैं. पड़ोसी धर्म के नाते कह रहा हूं कि घोड़े के दानापानी की व्यवस्था सही रखो. उस के पैंटों पर पैबंद लगने लगे हैं. कृपया उस पर इतना कहर मत बरपाइए कि वह धूल चाटता फिरे. किस जन्म का बैर निकाल रही हैं आप. पता नहीं इस देश में कितने घुड़सवार अपने आत्मसम्मान तथा स्वाभिमान के लिए छटपटा रहे हैं.’’

बींदणी ने खींसें निपोर दीं, ‘‘लल्ला, अपना अस्तित्व बचाओ. जीवन संघर्ष में ऐसा नहीं हो कि आप अपने में ही फना हो जाओ.’’

वह भी चली गई. मैं सोचता रहा कि आखिर इस गुलामी प्रथा से एक निर्दोष व्यक्ति को कैसे मुक्ति दिलाई जाए. अपनी तरह ही एक अच्छेभले आदमी को मटियामेट होते देख कर मुझे अत्यंत पीड़ा थी. एक दिन फिर राजा मिल गए. आटे का पीपा चक्की से पिसा कर ला रहे थे. मैं ने कहा, ‘‘अरे, राजा, तुम चक्की से पीपा भी लाने लगे. मेरी सलाह पर गौर किया?’’

‘‘किया था, वह तैयार नहीं है. कहती है हमारे यहां प्रथा नहीं रही है. औरत गृहशोभा होती है और चारदीवारी में ही उसे अपनी लाज बचा कर रहना चाहिए.’’

‘‘लेकिन अब तो लाज के जाने की नौबत आ गई. उस से कहो, तुम्हारे नौकरी करने से ही वह बचाई जा सकती है. तुम ने उसे घोड़ी पर बैठने से पहले का अपना फोटो दिखाया, नहीं दिखाया तो दिखाओ, हो सकता है वह तुम्हारे तंग हुलिया पर तरस खा कर कोई रचनात्मक कदम उठाने को तैयार हो जाए. स्त्रियों में संवेदना गहनतम पाई जाती है.’’

इस पर पूर्व घुड़सवार बींद राजा बिदक पड़े, ‘‘यह सरासर झूठ है. स्त्रियां बहुत निष्ठुर और निर्लज्ज होती हैं. तुम ने घोड़ी पर बैठते हुए मेरा पांव सही पकड़ा था. पर मैं उसे समझ नहीं पाया. आज मुझे सारी सचाइयां अपनी आंखों से दीख रही हैं.’’

‘‘घबराओ नहीं मेरे भाई, जो हुआ सो हुआ. अब तो जो हो गया है तथा उस से जो दिक्कतें खड़ी हो गई हैं, उन के निदान व निराकरण का सवाल है.’’

इस बार वह मेरे पांव पड़ गया और रोता हुआ बोला, ‘‘मुझे बचाओ मेरे भाई. मेरे साथ अन्याय हुआ है. मैं फिल्म संगीत गाया करता था, तेलफुलेल तथा दाढ़ी नियमित रूप से बनाया करता था. तकदीर ने यह क्या पलटा खाया है कि तमाम उम्मीदों पर पानी फिर गया.’’

मैं ने उसे उठा कर गले से लगाया और रोने में उस का साथ देते हुए मैं बोला, ‘‘हम एक ही पथ के राही हैं भाई. जो रोग तुम्हें है वही मुझे है. इसलिए दवा भी एक ही मिलनी चाहिए. परंतु होनी को टाले कौन, हमें इसे तकदीर मान कर हिम्मत से काम करना चाहिए.’’

औस्कर के लिए “लापता लेडीज” फिल्म का चयन, आखिर विवादों में क्यों घिरी

औस्कर के लिए आधिकारिक भारतीय प्रतिनिधि फिल्म के रूप में किरण राव निर्देशित और आमीर खान निर्मित फिल्म ‘लापता लेडीज’ के चयन की सोमवार, 23 सितंबर को ‘फिल्म फेडरेशन औफ इंडिया’ द्वारा घोशणा की गई, जिस ने भारत के विभिन्न क्षेत्रों और भाषाओं से प्रस्तुत 29 से अधिक फीचर फिल्मों को पछाड़ दिया. लेकिन उसी के साथ ही देश, खासकर सरकारी गलियारों में तहलका मच गया.

सूत्र बताते हैं कि सरकारी तंत्र के बीच चर्चा शुरू हो गई कि जिस किरण राव ने कभी कहा था कि उन्हें भारत में डर लगता है, उसी की फिल्म क्यों चुनी गई? कुछ लोगों को ‘लापता लेडीज’ का चयन राष्ट्रवाद पर हमला लगा. तभी तो महज 20 घंटे के अंदर ही मंगलवार को ‘एन आई न्यूज एजंसी’ ने बताया कि औस्कर के लिए भारतीय प्रतिनिधि फिल्म के तौर पर रणदीप हुडा की फिल्म ‘‘स्वातंत्रय वीर सावरकर’ का चयन किया गया है. तो वहीं फिल्म वीर सावरकर’ के निर्माता आनंद पंडित ने इंस्टाग्राम पर फिल्म ‘वीर सावरकर’ का पोस्टर साझा करते हुए लिखा, ‘‘सम्मानित और विनम्र. हमारी फिल्म स्वातंत्र्यवीर सावरकर को आधिकारिक तौर पर औस्कर के लिए प्रस्तुत किया गया है. इस उल्लेखनीय सराहना के लिए भारतीय फिल्म महासंघ को धन्यवाद. यह यात्रा अविश्वसनीय रही है और हम उन सभी के बहुत आभारी हैं जिन्होंने इस रास्ते में हमारा समर्थन किया है.’’

इस के मायने यह हुआ कि भारत की तरफ से एक नहीं दो फिल्में औस्कर के लिए भेजी जाएंगी. जो कि संभव नहीं है. क्योंकि नियम के अनुसार एक देश से एक ही फिल्म आधिकारिक तौर पर ‘औस्कर’ के लिए भेजी जा सकती है. इसलिए ‘वीर सावरकर’ के भी चयन की घेषणा के साथ ही ‘भारतीय फिल्म फेडरेशन’ और औस्कर के लिए फिल्मकार जानू बारूआ की अध्यक्षता में गठित फिल्म चयन करने वाली ज्यूरी के दीमागी दिवालयापन की चर्चांएं होने लगीं.

मंगलवार को फिल्म इंडस्ट्री कई भागों में विभाजित नजर आने लगी. हर किसी के अंदर बैठे डर के चलते कोई बयान देने को तैयार न था, मगर सब इसे सरकार का भारतीय सिनेमा के लिए पतन का गड्ढा खेादने व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय सिनेमा की फजीहत कराना करार दे रहे थे. फिर मंगलवार, 24 सितंबर को ही लगभग 4 घंटे बाद ही फिल्म फेडरेशन औफ इंडिया’ के अध्यक्ष रवि कोट्टाकारा ने स्पष्ट किया कि एफएफआई, रणदीप हुडा की स्वातंत्र्य वीर सावरकर द्वारा की गई घोषणा में शामिल नहीं है. ऐसा लगता है कि रणदीप हुडा द्वारा निर्देशित बायोपिक स्वातंत्र्य वीर सावरकर और इस के औस्कर के लिए प्रस्तुतीकरण को ले कर भ्रम की स्थिति है. मतलब यह हुआ कि ‘फिल्म फेडरेशन’ के अध्यक्ष के अनुसार औस्कर में भारत की तरफ से आधिकारिक फिल्म के रूप में केवल ‘लापता लेडीज’ ही जा रही है.

फिर मंगलवार रात 11 बजे न्यूज एजंसी ‘एएनआई’ ने अपनी वेबसाइट से ‘वीर सावरकर’ से जुड़ी खबर को हटा दिया. मगर आनंद पंडित के इंस्टाग्राम पर सब कुछ ज्यों का त्यों बुधवार, दोपहर 2 बजे तक मौजूद है. लेकिन फिल्म फेडरेशन औफ इंडिया’ के अध्यक्ष रवि कोट्टाकारा के स्पष्टीकरण के बाद से रणदीप हुड्डा और आनंद पंडित के फोन बंद चल रहे हैं. कुछ लोग मान रहे हैं कि राष्ट्रवाद के नाम पर थूथू करवाने के बाद ‘एएनआई’ पर से वीर सावरकर की खबर हटवाई गई. पर सवाल उठ रहे हैं कि 24 घंटे के अंदर जो घटनाक्रम घटित हुए, उस की सचाई क्या है? क्या यह किसी साजिश के तहत किया गया? क्या इस में सूचना प्रसारण मंत्रालय की कोई भूमिका रही है या नहीं रही? इन सारे सवालों की जांच कराई जानी चाहिए क्योंकि इस घटनाक्रम से भारतीय सिनेमा के साथसाथ भारत देश की प्रतिष्ठा पर भी आंच आई है.

‘लापता लेडीज’ का चयन कितना सही, कितना गलत

अकादमी पुरस्कार, वैश्विक सिनेमा में सब से प्रतिष्ठित पुरस्कारों में से एक, सर्वश्रेष्ठ अंतर्राष्ट्रीय फीचर फिल्म सहित कई श्रेणियों में फिल्म निर्माण में उत्कृष्टता का सम्मान करता है. हर साल, दुनिया भर के देश प्रतिष्ठित नामांकन हासिल करने की उम्मीद में अपनी सर्वश्रेष्ठ फिल्में जमा करते हैं. औस्कर 2025 के लिए, भारत की आधिकारिक प्रविष्टि किरण राव के निर्देशन में बनी लापता लेडीज है, जो एक ऐसी फिल्म है जो अत्यधिक प्रतिस्पर्धी सर्वश्रेष्ठ अंतर्राष्ट्रीय फीचर फिल्म श्रेणी में देश का प्रतिनिधित्व करेगी. सोमवार को, फिल्म फेडरेशन औफ इंडिया ने आधिकारिक तौर पर लापता लेडीज के चयन की घोषणा की, जिस ने भारत के विभिन्न क्षेत्रों और भाषाओं से प्रस्तुत 29 से अधिक फीचर फिल्मों को पछाड़ दिया.

‘लापता लेडीज’ के साथ ही 29 फिल्में जूरी के सामने आई थी, जिन में रणबीर कपूर की एनिमल, प्रभास की ‘कल्कि 2898 एडी’, मराठी की ‘घात’, पायल कपाड़िया की कान्स में पुरस्कृत फिल्म ‘औल वी इमेजिन ऐज लाइट’, राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फिल्म ‘आटम’, मलयालम फिल्म ‘महाराजा’, अजय देवगन की स्पोर्ट्स ड्रामा ‘मैदान’, कार्तिक आर्यन की फिल्म ‘चंदू चैंपियन’, आर्टिकल 370, वीर सावरकार, श्रीकांत, सैम बहादुर माणेकाशा, मनोज बाजपेई अभिनीत जोरम, किल, तेलुगु फिल्म ‘हनु मान’ और गुड लक जैसी फिल्में रहीं. आखिरकार इन नामों में चयन कर ‘लापता लेडीज’ पर मुहर लगाई.

ज्यूरी का मानना है कि किरण राव की लापता लेडीज, ग्रामीण भारत की पृष्ठभूमि पर स्थापित पितृसत्ता की व्यंग्यपूर्ण परीक्षा, वैश्विक दर्शकों के साथ जुड़ने की क्षमता रखती है. लेकिन जोनू बरूआ की जूरी द्वारा ‘लापता लेडीज’ को ‘औस्कर के लिए भारतीय प्रतिनिधि फिल्म के तौर पर भेजने के निर्णय को सही नहीं कहा जा सकता. क्योंकि यह पूरी तरह से नियमों का उल्लंघन है. औस्कर के नियम के अनुसार मौलिक फिल्म ही भेजी जानी चाहिए. लेकिन ‘लापता लेडीज’ पर तो चोरी का इल्जाम है.

‘लापता लेडीज’ के सिनमाघरों में प्रदर्शित हेाते ही फिल्म लेखक, निर्देशक, निर्माता व अभिनेता अनंत महादेवन ने आरोप लगाया था कि ‘लापात लेडीज’ की कहानी उन की 1999 में प्रदर्शित फिल्म ‘‘घूंघट के पट खोल’ से चोरी की गई है. यह फिल्म दूरदर्शन पर भी प्रसारित हो चुकी है और जब अनंत महादेवन ने आरोप लगाया था, उस वक्त यह फिल्म ‘यूट्यूब’ पर भी मौजूद थी. अंनंत महादेन ने तो यह भी आरोप लगाया था कि ‘लापता लेडीज’ की निर्देशक ने तो उन की फिल्म के कुछ दृष्य व कुछ संवाद तक ज्यों का त्यों चुराए हैं. मगर आमीर खान के दबाव में किसी ने भी अनंत महादेवन का साथ नहीं दिया और दो दिन बाद यूट्यूब ने भी ‘घूंघट के पट खोल’ को अपने चैनल से हटा दिया था.

मगर इस ज्यूरी के सदस्यों से यही उम्मीद की जा सकती है. इस ज्यूरी के सदस्यों में एक नाम निर्माता बौबी बेदी का है, जिन्होंने कभी आमीर खान की फिल्म ‘मंगल पांडे’ का निर्माण किया था. ऐसे में वह आमीर खान का साथ नहीं देंगें तो कौन देगा. ज्यूरी अध्यक्ष व असमिया फिल्मकार जोनू बरूआ की गिनती अलग तरह के फिल्मकारों में होती है. वे हिंदी में ‘मैं ने गांधी को नहीं मारा’ जैसी फिल्म का निर्देशन कर चुके हैं. ज्यूरी के सदस्य व फिल्मकार रवि जाधव विवादास्वद माने जाते हैं. उन की फिल्म ‘‘न्यूड’’ को इफी के पैनोरमा सैक्शन से अंतिम वक्त हटाया गया था.

भारत के सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने बताया कि फिल्म पूरी नहीं थी और इसलिए उस के पास सेंसरशिप प्रमाणपत्र नहीं था. जबकि निर्देशक उस वक्त रवि जाधव ने दावा किया था कि उन्होंने एक ईमानदार फिल्म बनाई है. केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सीबीएफसी) ने फिल्म देखने के लिए अभिनेत्री विद्या बालन की अध्यक्षता में एक विशेष जूरी का गठन किया. फिर इसे बिना किसी कटौती के पारित कर दिया गया और ए प्रमाणन दिया गया था. पर बाद में वह पाला बदल चुके थे.

रवि जाधव की फिल्म न्यूड को आगामी भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (आईएफएफआई) के भारतीय पैनोरमा खंड से हटा दिया गया था. भारत के सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने बताया कि फिल्म पूरी नहीं थी और इसलिए उस के पास सेंसरशिप प्रमाणपत्र नहीं था. उस के बाद रवि जाधव अचानक बदल गए और कुछ समय पहले उन्होंने अटल बिहारी बाजपेयी की बायोपिक फिल्म ‘‘मैं अटल हूं’’ का निर्देशन किया था, जिसे दर्शक नहीं मिले. रवि जाधव के पास इतना अनुभव नहीं है कि वह औस्कर के लिए फिल्म का चयन कर सकें. ज्यूरी के अन्य सदस्य ऐसे हैं जिन से मैं स्वं परिचित नहीं हूं. ऐसे में हमें लगता है कि इस बार ज्यूरी सही नहीं बनाई गई है.

क्या ‘लापता लेडीज’ औस्कर लेकर आएगी?

जी नहीं..‘‘लापता लेडीज’’ भारत के लिए औस्कर ले कर आएगी, इस की संभावनाएं कम ही नजर आती हैं. पर आमीर खान व किरण राव को निजी तौर पर फायदा जरुर हो सकता है. ‘लापता लेडीज’ अंमिम 5 में पहुंचेगी, ऐसा हमें नहीं लगता. जबकि आमीर खान की फिल्म ‘लगान’ 2001 में अंतिम 5 तक पहुंच गई थी. पर तब इस फिल्म को ले कर एक माहौल बना हुआ था. जबकि ‘लापता लेडीज’ के साथ ऐसा नहीं है. ‘लापता लेडीज’ ने भारत में भी बौक्स औफिस पर कुछ खास कमाई नहीं की. दूसरी बात फिल्म पर चोरी के जो इल्जाम लगे हैं, उन से ‘औस्कर’ की ज्यूरी के लोग अनभिज्ञ हों, ऐसा नहीं हो सकता.

तीसरी बात ‘औस्कर’ में विजेता बनने के लिए निर्माता को ज्यूरी के हर सदस्य तक अपनी फिल्म पहुंचाने के साथ ही यह आश्वस्त करना होता है कि ज्यूरी के हर सदस्य उन की फिल्म को कोर मेरिट के आधार पर अपना वोट दे. जबकि ज्यूरी का सदस्य फिल्म को वेाट करने के लिए बाध्य नहीं होता है. ऐसे में अमरीका जा कर एकएक ज्यूरी के सदस्य से मिलना और उन्हें फिल्म दिखाना, उन से फेवर पाना आसान नहीं है.

वर्तामन समय में किसी फिल्म को ‘औस्कर’ अवार्ड देने के लिए साढ़े 9 हजार सदस्य वोट डालते हैं. क्या आमीर खान की टीम इतने लोगों तक पहुंच कर उन्हें अपने पक्ष में कर सकती है? हमें इस की उम्मीद कम ही नजर आती है.

लेकिन आमीर खान की फिल्म ‘लापता लेडीज’ औस्कर में गई है, इस का प्रचार होने पर जो ‘हाइप’ बनेगी, उस का फायदा आमीर खान अपनी आगामी प्रदर्शित होने वाली फिल्मों के लिए उठा सकते हैं.

हमें तो यही लगता है कि ‘औस्कर’ के लिए ‘लापता लेडीज’ का चयन कर ज्यूरी ने देश के बारे में नहीं सोचा. अन्यथा वह कांस में पुरस्कृत व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित पायल कपाड़िया की फिल्म ‘औल वी इमेजिन ऐज़ लाइट’ अथवा तीन राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फिल्म ‘आटम’ या मलयालम फिल्म ‘महाराजा’ का चयन किया जा सकता था.

फिल्म ‘महाराजा’ ने तो बौक्स औफिस पर सफलता के जबरदसत रिकार्ड बनाए हैं. इतना ही नहीं अब तो यह फिल्म नेटफ्लिक्स पर भी है. इतना ही नहीं ज्यूरी के पास मराठी फिल्म ‘‘घात’’ को भी चुनने का विकल्प मौजूद था. घात मराठी की फिल्म होते हुए भी ‘बर्लिन’ सहित 15 इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में धूम मचा चुकी है. ‘घात; वह फिल्म है, जिसे दर्शकों की मांग पर बर्लिन के तीन बड़े सिनेमाघरों में भी प्रदर्शित किया गया था. इस के अलावा इस फिल्म की विषयवस्तु रोचक है. फिल्म की कहानी महाराष्ट् के आदिवासी इलाके के जंगलों में नक्सलाइट और पुलिस बल के बीच पिस रहे आदिवासी इंसानों की कहानी बयां करती है.

सैक्स बिफोर मैरिज एंजौय करना नहीं इतना आसान

आज की जनरेशन, जिसे जूमर्स या पोस्टमिलेनियल्स के नाम से भी जाना जाता है, के लिए सैक्स सब से पहले है.

एक अध्ययन के अनुसार, भारत में प्रीमैरिटल सैक्स में जबरदस्त उछाल देखने में आ रहा है. ‘लव विल फौलो: व्हाई द इंडियन मैरिज इज बर्निंग’ की राइटर ने अपनी किताब में लिखा है कि एक अनुमान के मुताबिक, अर्बन इंडिया में 18 से 24 वर्ष के एज ब्रैकेट में 75 फ़ीसदी लोगों ने शादी से पूर्व सैक्स का अनुभव किया है.

वर्तमान में गर्लफ्रैंडबौयफ्रैंड के बीच शादी से पहले सैक्स करना कोई हैरानी की बात नहीं है. आंकड़ों की मानें तो भारत में 75 फीसदी लोग शादी से पहले संबंध बना चुके होते हैं और इस में भी पुरुषों की संख्या अधिक है.

चूंकि आज के समय में शादी की उम्र दिनोंदिन बढ़ती जा रही है, इसलिए लड़कालड़की के प्रीमैरिटल सैक्स करने की संभावना भी बढ़ जाती है.

प्रीमैरिटल सैक्स के हैं अपने रिस्क

मौडर्न होते जमाने में युवाओं के बीच कैजुअल सैक्स एक आम बात हो गई है. लेकिन इस के अपने रिस्क हैं. यही वजह है कि हर कोई इस से दूरी बनाए रहने की सलाह देता है. उन के लिए प्रीमैरिटल सैक्स करना आसान भी नहीं है. लड़के और लड़की को अनेक चैलेंजेस का सामना करना पड़ता है.

प्री मैरिटल सैक्स की राह नहीं आसान

• प्रीमैरिटल सैक्स करने वालों को परिवार और जानने वालों से बच कर व छिप कर सैक्स करने के लिए सेफ और सही जगह की तलाश करना भी एक टेढ़ा काम होता है.

• प्रीमैरिटल सैक्स में जब 2 लोगों को एकदूसरे की आदत हो जाती है और अगर उन के बीच किसी वजह से ब्रेकअप हो जाए तो ब्रेकअप के बाद मूवऔन करना मुश्किल हो जाता है और किसी और के साथ रिलेशन बनाने में परेशानी होती है.

• प्रीमैरिटल सैक्स करने वालों को अकसर इस बात का भी डर सताता रहता है कि कहीं सामने वाला उन्हें धोखा न दे.

• कोई भी कंट्रासैप्टिव मैथड 100 फीसदी सेफ नहीं होता. कई बार लड़के और लड़की के बीच प्रीमैरिटल सैक्स के दौरान कंडोम भी प्रैग्नैंसी के केस में 100 फीसदी प्रोटैक्टशन की गारंटी नहीं होते. ऐसे में लड़कियों को इस बात का हमेशा डर बना रहता है कि कहीं वे प्रैग्नैंट न हो जाएं और प्रैग्नैंट होने का मतलब होता है लाइफ में भूचाल का आ जाना. यानी, प्रैग्नैंसी से बचने के लिए उलटीसीधी पिल्स खाना, गाइनी के पास चक्कर लगाना, अबौर्शन की मुसीबत.

वैसे भी, लड़कियां कंडोम के यूज पर तभी ज़्यादा अड़ती हैं जब वे एक ही बौयफ्रैंड के साथ रैगुलर सैक्स संबंध बनाती हैं क्योंकि तब उन के पास प्लानिंग करने का टाइम होता है. लेकिन जब वे अचानक किसी कैजुअल पार्टनर के साथ सैक्स करती हैं तो इस बात की बहुत ज़्यादा संभावना होती है कि वे कंडोम का इस्तेमाल न करें. ऐसे में अनसेफ सैक्स की आशंका बहुत बढ़ जाती है.

• प्रीमैरिटल सैक्स को ले कर सोसाइटी भी अपने डबल स्टैंडर्ड दिखाने से पीछे नहीं हटती है. लड़कों के प्रीमैरिटल रिलेशनशिप्स को सोसाइटी उस नज़र से नहीं देखती जिन नज़रों से वह लड़कियों को देखती है. सोसाइटी की सोच के मुताबिक इन सब से लड़कों को कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन वही सोसाइटी एक लड़की की जिंदगीभर की इज़्ज़त को उस की वर्जिनिटी से जोड़ कर देखती है इसलिए अगर शादी से पहले पता चल जाए कि लड़की प्री मैरिटल सैक्स में इन्वौल्व थी तो सोसाइटी की नज़रों में उस लड़की से ज़्यादा बेशर्म कोई नहीं होता है. लड़की के ऊपर लांछन लगाया जाता है कि लड़की ने बेचारे लड़के को अपने ‘जाल’ में ‘फंसा’ लिया. इस तरह लड़की का ही चरित्रहनन होता है.

• अगर किसी लड़के या लड़की के कईयों के साथ प्रीमैरिटल सैक्शुअल रिलेशन हैं तो उस का सब से बड़ा नुकसान यह हो सकता है कि उन्हें सैक्शुअली ट्रांसमिटेड डीसीज हो जाए.

• कई बार कुछ लोगों को जो शादी से पहले किसी के साथ सैक्शुअल रिलेशन बना लेते हैं और फिर उस से शादी नहीं कर पाते तो उन्हें जीवनभर डर रहता है कि कहीं पति को शादी से पहले के संबंधों के बारे में पता न चल जाए. कुछ केसेज में कई बार लड़कियों को अपने पति से पहली बार संबंध बनाते समय मन में गिल्टी फीलिंग भी आ सकती है.

• भारतीय समाज शादी से पहले संबंध बनाने वालों को गलत नज़रों से देखता है और उन से घृणा करता है. अगर सोसाइटी में यह बात पता चल जाए कि लड़की ने शादी से पहले प्रीमैरिटल सैक्स किया है तो उस की शादी में अड़चनें आ सकती हैं. भारतीय समाज और परिवारों में प्रीमैरिटल सैक्स अभी भी वह लक्ष्मणरेखा है जिसे पार करते ही कोई भी, खासकर लड़की, फैमिली के नाम पर बेलिहाज़, बदनुमा दाग में तबदील हो जाता है.

• कई केसेज में प्रीमैरिटल सैक्स करने वाले में से किसी एक को बाद में दूसरे से ब्लैकमेलिंग का सामना भी करना पड़ सकता है.

• अगर कोई 2 लोग लंबे समय से एकदूसरे को डेट कर रहे हैं और शादी से पहले सैक्स कर रहे हों तो एक समय के बाद उन की सैक्सलाइफ बोरियत भरी हो जाती है.

• प्रीमैरिटल सैक्स के चक्कर में अपनी एजुकेशन पर ध्यान न दे पाने के कारण उस का असर कैरियर पर भी पड़ सकता है.

• कई बार एक बार हुए कैजुअल सैक्स में लड़के या लड़की द्वारा उसे जारी रखने का अनकहा प्रैशर शुरू हो सकता है.

कुलमिला कर प्रीमैरिटल सैक्स यूथ की पर्सनल चौइस है लेकिन इस के अपने फायदेनुकसान हैं. हर चीज की कीमत तो अदा करनी ही पड़ती है. कुछ चीज़ों का फायदानुकसान फौरन नजर आ जाता है, तो कुछ का भविष्य में नजर आ जाता है.

धर्म की दुकानदारी और राजनीति का ही हिस्सा है प्रसाद पर फसाद

देश भर के शराबी शराब पीने से पहले शराब में अंगुलिया डुबो कर उस की कुछ बूंदें जमीन पर छिड़कते हैं. वे ऐसा क्यों करते हैं यह उन्हें भी नहीं मालूम. कुछ मदिरा प्रेमी श्रुति और स्मृति की बिना पर जो बता पाते हैं उस का सार यही निकलता है कि यह रिवाज सदियों से चला आ रहा है जिस के पीछे मूल भावना तेरा तुझ को अर्पण वाली है. यानी यह एक रूढ़ि है जिस का पालन शराब पीने में भी ईमानदारी से किया जाता है. ऐसा करने से वे सीधे भगवान से जुड़ जाते हैं.

हालांकि देश के कुछ मंदिरों में शराब प्रसाद की शक्ल में भी चढ़ाई जाती है. इन में उज्जैन का काल भैरव और असम का कामख्या देवी का मंदिर प्रमुख है जहां शराब का प्रसाद चढ़ाने के भक्त बाकायदा इस प्रसाद को ग्रहण भी करते हैं. कामख्या देवी के मंदिर में तो शाकाहारी के साथ मांसाहारी प्रसाद जैसे मछली और बकरी का मांस चढ़ाए जाने का भी रिवाज है. यानी भगवान का प्रसाद चाहे मांस हो या मदिरा हो या लड्डू हों पवित्र माना जा कर खायापिया जाता है.

इस से किसी सनातनी की भावनाएं आहत नहीं होतीं और न ही किसी को किसी तरह का पाप लगता है. शराब को धरती माता को अर्पित की जाने वाली बूंदों की तरह ही प्रसाद का रिवाज है जिस के बारे में मोटे तौर पर लोग यही जानते और मानते हैं कि इस से भगवान प्रसन्न होते हैं और मनोकामनाएं पूरी करते हैं. वे फिर यह नहीं देखते कि भक्त ने क्या चढ़ाया है. भगवान भाव का भूखा होता है प्रसाद का नहीं, यह बात इन उदहारणों से साबित भी होती है गीता में ( अध्याय 9 श्लोक 26 ) जरुर एक जगह श्रीकृष्ण ने कहा है कि – ‘जो भक्त मुझे पत्र पुष्प फल और जल आदि वस्तु भक्तिपूर्वक देता है उस भक्त के द्वारा भक्तिपूर्वक अर्पण किए हुए वे पत्र पुष्पादि मैं स्वयं ग्रहण करता हूं.’

साफ जाहिर है कि कृष्ण शुद्ध अंतःकरण पर जोर देते हैं, खाध साम्रगी पर नहीं फिर भगवान को अन्न, मिष्ठान और धन वगैरह चढ़ाने की रूढ़ि या परंपरा कहां से शुरू हुई और किस ने की यह किसी को नहीं मालूम. लगता ऐसा है कि यह पंडेपुजारियों ने ही शुरू की होगी जिस से उन्हें फोकट में पकवान खाने को मिलते रहें और पैसा बरसता रहे जिस के लिए वे मंदिर में बैठते हैं.

ओशो यानी रजनीश ने कहा भी है कि अगर भक्त मंदिर में सिर्फ फूल ले कर जाएंगे तो वहां पुजारी भी नहीं टिकेगा. यानी भक्त श्रुति और स्मृति की आधार पर ही प्रसाद चढ़ाए जा रहे हैं. धर्म की इस भेड़चाल का ही नतीजा है हालिया तिरुपति का प्रसादम विवाद जिस में कथित रूप से लड्डुओं में चर्बी मछली वगैरह पाए गए.

मीडिया कोई भी हो गागा कर बता रहा है कि तिरुपति के लड्डुओं में चर्बी का पाया जाना हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं से खिलवाड़ है जिस की सजा दोषियों को मिलनी ही चाहिए. सोशल मीडिया के जरिये बहुत से विवरण के साथ लोगों को यह ज्ञान भी प्राप्त हो गया है कि यह सब पूर्व मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी का किया धरा है जो इसाई हैं. उन्होंने देवस्थानम बोर्ड में पहले अपने चहेतों को ठूंसा और फिर चर्बी वाले टेंडर पास हो गए नहीं तो आजकल कल के ज़माने में कहां 300 – 350 रुपए किलो शुद्ध घी मिलता है.

यहां इन बातों के कोई ख़ास माने नहीं कि पहले कौन सी कम्पनी घी सप्लाई कर रही थी और अब कौन सी कर रही है और कैसे इस कथित साजिश का खुलासा हुआ. माने सिर्फ इतने हैं कि भाजपा के सहयोगी मौजूदा मुख्यमंत्री चंद्र बाबू नायडू की पहल और तत्परता के चलते इस साजिश का भांडाफोड़ हो पाया नहीं तो इस खानदानी इसाई मुख्यमंत्री ने तो हमारा धर्म भृष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी.

दूसरी तरफ रेड्डी भी नायडू पर आरोप लगा रहे हैं कि वे सरासर झूठ बोल रहे हैं. उन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर इस प्रसाद कांड की जांच की मांग भी की है. आंध्र प्रदेश के उप मुख्यमंत्री दुखी हो कर 11 दिन के प्रायश्चित पर बैठ गए हैं लेकिन यह किसी को समझ नहीं आ रहा कि जब यह पाप उन्होंने नहीं किया तो वे प्रायश्चित किस बात का या किस के हिस्से का कर रहे हैं.

देश भर के सनातनियों की भावनाएं चर्बी वाले प्रसाद से ज्यादा इस बात से आहत हैं कि इसाई भी हमारा धर्म नष्ट भ्रष्ट करना चाहते हैं. मुसलमान तो यदाकदा खानेपीने की चीजों में थूकते और पेशाब भर करते हैं लेकिन इस बंदे ने तो थोक में करोड़ों को चर्बी खिलवा दी. यह विवाद गणेश के दूध पीने की अफवाह की तरह फैल भी सकता है. ताज़ी खबर यह है कि मुंबई के सिद्धि विनायक मंदिर के प्रसाद में भी चूहों की मिलावट होती है.

प्रसाद पर फसाद मचाने में धर्म गुरुओं का रोल और स्वार्थ भी अहम है. आर्ट औफ लिविंग वाले श्रीश्री रविशंकर ने कहा है कि यह ऐसी चीज है जिसे माफ नहीं किया जा सकता. यह दुर्भावनापूर्ण है और इस प्रक्रिया में शामिल लोगों के लालच की पराकाष्ठा है. इसलिए उन्हें कड़ी सजा मिलनी चाहिए. उन की सारी सम्पत्ति जब्त कर लेनी चाहिए और दोषियों को जेल में डाल देना चाहिए. इस के बाद उन्होंने मुद्दे की बात यह कही कि सरकार और प्रशासन नहीं भक्तगण मंदिरों का संचालन करें. उन्होंने 1857 के विद्रोह का भी हवाला दिया. मंदिर प्रबंधन में साधु संतों की एक कमेटी होनी चाहिए जो इस पर निगरानी रख सके.

बात कैसे प्रसाद से मुड़ कर मंदिरों के मैनेजमेंट और मालिकाना हक झटकने पर आ रही है इसे एक और नामी वैष्णव संत रामभद्राचार्य के बयान से भी समझा जा सकता है जिन्होंने रविशंकर की हां में हां मिलाते कहा है कि 1857 में जो स्थिति मंगल पांडे की थी वही स्थिति हमारी है. अब हम किसी न किसी परिणाम पर पहुंचेंगे. इसलिए हम कह रहे हैं कि मंदिरों का सरकारी अधिग्रहण नहीं होना चाहिए सरकार हमारा अधिग्रहण बंद करे.

छोटेबड़े सभी साधु संत लट्ठ ले कर पीछे पड़ गए हैं कि मंदिर हमे सौंप दो जिस से हम बैठे बिठाए करोड़ों अरबों खरबों के मालिक बन जाएं. प्रसाद मिलावट से भगवान के इन दलालों का सरोकार क्रमश कम होता जा रहा है.

कब से तिरुपति के प्रसाद में यह कथित मिलावट की जा रही थी यह तो सीबीआई जांच के बाद ही उजागर होगा लेकिन इस मियाद में जिन हिंदूओं का धर्म भ्रष्ट हो चुका है उन का क्या होगा? क्या वे अब हिंदू नहीं रहे? क्या उन का शुद्धिकरण भी तिरुपति के मंदिर की तरह किया जाएगा?

इन सवालों पर सभी साधुसंत खामोश हैं सिवाय एक शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानन्द के जिन्होंने अयोध्या से कहा कि भक्त पंचगव्य का प्राशन करें इस से शरीर के भीतर छिपा हुआ पाप नष्ट हो जाता है. उन्होंने भक्तों को यह भी कहा कि अनजाने में ऐसा हो जाए जैसा कि हुआ तो भी पाप नहीं लगता है. इसलिए हिंदू किसी अपराधबोध से ग्रस्त न हों. उन्हें किसी प्रायश्चित की जरूरत नहीं. फिर भी जिन्हें ज्यादा गिल्ट फील हो रहा है वे पंचगव्य का सेवन कर लें. गौरतलब है कि अयोध्या में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के वक्त तिरुपति से आए कोई एक लाख लड्डू भक्तों को बांटे गए थे.

कम ही लोग समझ पा रहे हैं कि तिरुपति प्रसाद मुद्दे पर साधु संत एक बार फिर दो फाड़ ( शैव और वैष्णव ) हो गए हैं. अविमुक्तेश्वरानन्द अयोध्या तो गए लेकिन उन्होंने रामलला की मूर्ति के दर्शन नहीं किए. उन के मुताबिक यह मंदिर दोषपूर्ण तरीके से बना है और सरकार गायों की हिफाजत के बजाय गौमांस का कारोबार कर रही है. वे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर भी जम कर बरसे कि उन्हें सनातन धर्म से ज्यादा कुर्सी से प्रेम है. इतना ही नहीं उन्होंने असुद्दीन ओबेसी को भी वोट देने की बात कह डाली. बकौल अविमुक्तेश्वरानन्द जो लोग सब से ज्यादा गौरक्षा की बात करते थे वही गौमांस का निर्यात कर रहे हैं.

गाय को राष्ट्रमाता का दर्जा दिलाने के लिए यात्रा पर निकले इन शंकराचार्य ने वैष्णव संतों की तरह मंदिरों पर नियंत्रण की बात नहीं की लेकिन प्रसाद में मिलावट के आरोपियों को सजा दिलाने का राग वे भी अलापते रहे. जाहिर है आरोपियों को सजा भगवान नहीं बल्कि कानून देगा क्योंकि मूर्तियां प्रसाद या कुछ और भी नहीं खातीपीतीं इसलिए यह कथित अपराध भी भगवान के बजाय भक्तों के प्रति है.

मुद्दे की बात जगन मोहन रेड्डी का इसाई होना है, इसलिए हिंदू उन्हें ही एडवांस में दोषी मान चुके हैं ( गौरतलब है कि कोई दलित आदिवासी या ओबीसी हिंदू इस पर आपत्ति नहीं कर रहा क्योंकि तिरुपति, अयोध्या, वैष्णोदेवी, रामेश्वरम जैसे बड़े मंदिरों में जाने की उस की न तो हैसियत है और न ही उसे इस की इजाजत है). जबकि यह मामला बड़ा रहस्मय है जिस पर राजनीति भी जम कर हो रही है, न हो रही होती तो जरुर लगता कि यह भारत की ही बात है या कहीं और की है.

अगर रेड्डी की जगह कोई हिंदू मुख्यमंत्री होता तो क्या हिंदुओं की भावनाएं आहत नहीं होतीं? इस सवाल का जवाब यही मिलता कि तो भी होतीं फिर इसाई होने पर ही एतराज क्यों और अविमुक्तेश्वरानन्द के बीफ के सरकारी कारोबार के आरोप पर चुप्पी क्यों? क्या हिंदू इस बात पर सहमत हैं कि ऐसा अपराध फिर चाहे वह प्रसाद में मांस की मिलावट का हो या गौमांस के कारोबार का अगर वह हिंदूवादी सरकार करे तो यह जुर्म माफ़ी के काबिल है.

और वैसे भी धार्मिक भावनाएं होने का फसाद कुछ धार्मिक और राजनीतिक दुकानदार ही कर रहे हैं नहीं तो मामला उजागर होने के बाद भी 4 दिन में 14 लाख रुपए के लड्डू तिरुपति मंदिर में बिकना यह बताता है कि इस का कोई असर भक्तों या उन की भावनाओं पर नहीं पड़ा है. ठीक वैसे ही जैसे मिलावट के रोजमर्राई मामलों से नहीं पड़ता है. मिलावट को लोगों ने सहज स्वीकार लिया है और तिरुपति में विवाद के बाद भी रिकौर्ड लड्डुओं को बिक्री यह बताती है कि लोग डरते तभी जब इन्हें खा कर कोई बीमार पड़ा होता या लोग मरे होते. इस से इन भक्तों की भावना और आस्था ही प्रगट होती है कि आप लाख हल्ला मचा लो, प्रसाद चढ़ाने की परंपरा को कोस लो कि इस से गंद फैलती है, इन में तरहतरह की मिलावट होती है और यह बेवजह पैसों की बरबादी है उन की अन्धास्था पर कोई फर्क नहीं पड़ता. और जब तक यह अंधी आस्था है तब तक शराब की बूंदों की तरह प्रसाद चढ़ता रहेगा.

प्यार की मिसाल : शादी से 4 दिन पहले प्रेमी संग फरार प्रेमिका

रचना और नीरज बचपन से ही एकदूसरे को प्यार करते थे. उन का प्यार शारीरिक आकर्षण नहीं बल्कि प्लैटोनिक था, जिस में इसे नादानी और कम उम्र के प्यार का नतीजा कहना रचना और नीरज के साथ ज्यादती ही कहा जाएगा. दरअसल, यह दुखद हादसा सच्चे और निश्छल प्यार का उदाहरण है. जरूरत इस प्यार को समझने और समझाने की है, जिस से फिर कभी प्यार करने वालों की लाशें किसी पेड़ से लटकती हुई न मिलें.

विश्वप्रसिद्ध पर्यटनस्थल खजुराहो से महज 8 किलोमीटर दूर एक गांव है बमीठा, जहां अधिकांशत: पिछड़ी जाति के लोग रहते हैं. खजुराहो आने वाले पर्यटकों का बमीठा में देखा जाना आम बात है, इन में से भी अधिकतर विदेशी ही होते हैं. बमीठा से सटा गांव बाहरपुरा भी पर्यटकों की चहलपहल से अछूता नहीं रहता. लेकिन इस गांव में लोगों पर विदेशियों की आवाजाही का कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि वे इस के आदी हो गए हैं.

भैरो पटेल बाहरपुर के नामी इज्जतदार और खातेपीते किसान हैं. कुछ दिन पहले ही उन्होंने अपनी 18 वर्षीय बेटी रचना की शादी नजदीक के गांव हीरापुर में अपनी बराबरी की हैसियत वाले परिवार में तय कर दी थी. शादी 11 फरवरी को होनी तय हुई थी, इसलिए भैरो पटेल शादी की तारीख तय होने के बाद से ही व्यस्त थे.

गांव में लड़की की शादी अभी भी किसी चुनौती से कम नहीं होती. शादी के हफ्ते भर पहले से ही रस्मोरिवाजों का जो सिलसिला शुरू होता है, वह शादी के हफ्ते भर बाद तक चलता है. ऐसी ही एक रस्म आती है छई माटी, जिस में महिलाएं खेत की मिट्टी खोद कर लाती हैं. बुंदेलखंड इलाके में इस दिन महिलाएं गीत गाती हुई खेत पर जाती हैं और पूजापाठ करती हैं.

यह रस्म रचना की शादी के 4 दिन पहले यानी 7 फरवरी को हुई थी. हालांकि फरवरी का महीना लग चुका था, लेकिन ठंड कम नहीं हुई थी. भैरो पटेल उत्साहपूर्वक आसपास के गांवों में जा कर बेटी की शादी के कार्ड बांट रहे थे. कड़कड़ाती सर्दी में वे मोटरसाइकिल ले कर अलसुबह निकलते थे तो देर रात तक वापस आते थे.

7 फरवरी को भी वे कार्ड बांट कर बाहरपुर की तरफ वापस लौट रहे थे कि तभी उन की पत्नी का फोन आ गया. मोटरसाइकिल किनारे खड़ी कर उन्होंने पत्नी से बात की तो उन के पैरों तले से जमीन खिसक गई. पत्नी ने घबराहट में बताया कि जब वह छई माटी की रस्म पूरी कर के घर आई तो रचना घर में नहीं मिली. वह सारे गांव में बेटी को ढूंढ चुकी है. पत्नी की बात सुन कर उन्होंने बेसब्री से पूछा, ‘‘और नीरज…’’

‘‘वह भी घर पर नहीं है,’’ पत्नी का यह जवाब सुन कर उन के हाथपैर सुन्न पड़ने लगे. जिस का डर था, वही बात हो गई थी.

20 वर्षीय नीरज उन्हीं के गांव का लड़का था. उस के पिता सेवापाल से उन के पीढि़यों के संबंध थे. लेकिन बीते कुछ दिनों से ये संबंध दरकने लगे थे, जिस की अपनी वजह भी थी.

इस वजह पर गौर करते भैरो पटेल ने फिर मोटरसाइकिल स्टार्ट की और तेजी से गांव की तरफ चल पड़े. रचना और नीरज का एक साथ गायब होना उन के लिए चिंता और तनाव की बात थी. 4 दिन बाद बारात आने वाली थी. आसपास के गांवों की रिश्तेदारी और समाज में बेटी की शादी का ढिंढोरा पिट चुका था.

यह सवाल रहरह कर उन के दिमाग को मथ रहा था कि कहीं रचना नीरज के साथ तो नहीं भाग गई. अगर ऐसा हुआ तो वे और उन की इज्जत दोनों कहीं के नहीं रहेंगे. ‘फिर क्या होगा’ यह सोचते ही शरीर से छूटते पसीने ने कड़ाके के जाड़े का भी लिहाज नहीं किया.

गांव पहुंचे तो यह मनहूस खबर आम हो चुकी थी कि आखिरकार रचना और नीरज भाग ही गए. काफी ढूंढने के बाद भी उन का कोई पता नहीं चल पा रहा था. घर आ कर उन्होंने नजदीकी लोगों से सलाहमशविरा किया और रात 10 बजे के लगभग चंद्रपुर पुलिस चौकी जा कर बेटी की गुमशुदगी की सूचना दर्ज करा दी. उन्होंने नीरज पर रचना के अपहरण का शक भी जताया. थाना इंचार्ज डी.डी. शाक्य ने सूचना दर्ज की और काररवाई में जुट गए.

बुंदेलखंड इलाके में नाक सब से बड़ी चीज होती है. एक जवान लड़की, जिस की शादी 4 दिन बाद होनी हो, अगर दुलहन बनने से पहले गांव के ही किसी लड़के के साथ भाग जाए और यह बात सभी को मालूम हो तो लट्ठफरसे और गोलियां चलते भी देर नहीं लगती.

इसलिए पुलिस वालों ने फुरती दिखाई और रचना और नीरज की ढुंढाई शुरू कर दी. डी.डी. शाक्य ने तुरंत इस बात की खबर बमीठा थाने के इंचार्ज जसवंत सिंह राजपूत को दी. वह भी बिना वक्त गंवाए चंद्रपुर चौकी पहुंच गए.

पुलिस अधिकारियों ने अपनी संक्षिप्त मीटिंग में तय किया कि दोनों अभी ज्यादा दूर नहीं भागे होंगे, इसलिए तुरंत छतरपुर बस स्टैंड और खजुराहो रेलवे स्टेशन की तरफ टीमें दौड़ा दी गईं. रचना और नीरज कहीं भी जाते, उन्हें जाना इन्हीं दोनों रास्तों से पड़ता.

पुलिस ने खजुराहो रेलवे स्टेशन और छतरपुर बस स्टैंड सहित आसपास के गांवों में खाक छानी, लेकिन रचना और नीरज को नहीं मिलना था सो वे नहीं मिले. आधी रात हो चली थी, इसलिए अब सुबह देखेंगे सोच कर बात टाल दी गई.

इधर बाहरपुर में भी मीटिंगों के दौर चलते रहे, जिन में नीरज और रचना के परिवारजनों को बच्चों के भागने से ज्यादा चिंता अपनी इज्जत की थी, खासतौर से भैरो सिंह को, क्योंकि वे लड़की वाले थे. ऐसे मामलों में छीछालेदर लड़की वाले की ही ज्यादा होती है.

बस एक बार रचना मिल जाए तो सब संभाल लूंगा जैसी हजार बातें सोचते भैरो सिंह बारबार कसमसा उठते थे. अंत में उन्होंने भी हालात के आगे हथियार डाल दिए कि अब सुबह देखेंगे कि क्या करना है.

सुबह सूरज उगने से पहले ही नीरज की मां रोज की तरह उठ कर मवेशियों को चारा डालने गांव के बाहर अपने खेतों की तरफ गईं तो आम के पेड़ को देख चौंक गईं. रोशनी पूरी तरह नहीं हुई थी, इसलिए वे एकदम से समझ नहीं पाईं कि पेड़ पर यह क्या लटक रहा है.

जिज्ञासावश वह पेड़ के नजदीक पहुंचीं, तो ऊपर का नजारा देख उन की चीख निकल गई. पेड़ पर रचना और नीरज की लाशें झूल रही थीं. वह चिल्लाते हुए गांव की तरफ भागीं.

देखते ही देखते बाहरपुर में हाहाकार मच गया. अलसाए लोग खेत की तरफ दौड़ने लगे. कुछ डर और कुछ हैरानी से सकते में आए लोग अपने ही गांव के बच्चों की एक और प्रेम कहानी का यह अंजाम देख रहे थे. भीड़ में से ही किसी ने मोबाइल फोन पर पुलिस चौकी में खबर कर दी.

पुलिस आती, इस के पहले ही लव स्टोरी पूरी तरह लोगों की जुबान पर आ गई. इस छोटे से गांव में सभी एकदूसरे को जानते हैं. गांव में एक ही मिडिल स्कूल है, इस के बाद की पढ़ाई के लिए बच्चों को चंद्रपुर जाना पड़ता है.

नीरज की रचना से बचपन से ही दोस्ती थी. आठवीं के बाद उन्हें भी चंद्रपुर जाना पड़ा. सभी बच्चे एक साथ जाते थे और एक साथ वापस आते थे. सब से समझदार और जिम्मेदार होने के चलते आनेजाने का जिम्मा नीरज पर था. बच्चे खेलतेकूदते मस्ताते आतेजाते थे. यहीं से इन दोनों के दिलों में प्यार का बीज अंकुरित होना शुरू हुआ.

दोनों जवानी की दहलीज पर पहला कदम रख रहे थे. बचपना जा रहा था और दोनों में शारीरिक बदलाव भी आ रहे थे. साथ आतेजाते रचना और नीरज में नजदीकियां बढ़ने लगीं और कब दोनों को प्यार हो गया, उन्हें पता ही नहीं चला. हालत यह हो गई थी कि दोनों एकदूसरे को देखे बगैर नहीं रह पाते थे.

यह प्यार प्लैटोनिक था, जिस में शारीरिक आकर्षण कम एक रोमांटिक अनुभूति ज्यादा थी. बाहरपुर से ले कर चंद्रपुर तक दोनों तरहतरह की बातें करते जाते थे तो रास्ता छोटा लगता था. रचना को लगता था कि यूं ही नीरज के साथ चलती रहे और रास्ता कभी खत्म ही न हो. यही हालत नीरज की भी थी. उस का मन होता कि रचना की बातें सुनता रहे, उस के खूबसूरत सांवले चेहरे को निहारता रहे और उसे निहारता देख रचना शर्म से सर झुकाए तो वह बात बदल दे.

दुनियादारी, समाज, धर्म और जाति की बंदिशों और उसूलों से परे यह प्रेमी जोड़ा अपनी एक अलग दुनिया बसा बैठा था. अब दोनों आने वाली जिंदगी के सपने बुनने लगे थे. ख्वाबों में एकदूसरे को देखने लगे थे.

अब तक घर और गांव वाले इन्हें बच्चा ही समझ रहे थे. इधर इन ‘बच्चों’ की हालत यह थी कि दिन में कई दफा एकदूसरे को ‘आई लव यू’ बोले बगैर इन का खाना नहीं पचता था. दोनों एकदूसरे की पसंद का खास खयाल रखते थे, यहां तक कि टिफिन में खाना भी एकदूसरे की पसंद का ले जाते थे और साथ बैठ कर खाते थे.

प्यार का यह रूप कोई देखता तो निहाल हो उठता, लेकिन सच्चे और आदर्श वाले प्यार को नजर जल्द लगती है यह बात भी सौ फीसदी सच है. रचना तो नीरज के प्यार में ऐसी खोई कि कौपीकिताबों में भी उसे प्रेमी का चेहरा नजर आता था. नतीजतन 9वीं क्लास में वह फेल हो गई. इस पर घर वालों ने स्कूल से उस का नाम कटा दिया.

लेकिन उस के दिलोदिमाग में नीरज का नाम कुछ इस तरह लिखा था कि दुनिया की कोई ताकत उसे मिटा नहीं सकती थी. स्कूल जाना बंद हुआ तो वह बिना नीरज के और बिना उस के नीरज छटपटाने लगा. दिन भर घर में पड़ी रचना मन ही मन नीरज के नाम की माला जपती रहती थी और नीरज दिन भर उस की याद में खोया रहता था.

सुबह जैसे ही स्कूल जाने का वक्त होता था तो रचना हिरणी की तरह कुलांचे मारते सड़क पर आ जाती थी. दोनों कुछ देर बातें करते और फिर शाम का इंतजार करते रहते. जैसे ही आने का वक्त होता था तो रचना गांव के छोर पर पहुंच जाती.

दोनों का दिल से अख्तियार हटने लगा था. कुछ ही दिनों बाद जैसे ही नीरज बच्चों के साथ वापस आता तो दोनों खेतों में गुम हो जाते थे और सूरज ढलने तक अकेले में बैठे एकदूसरे की बांहों में समाए दुनियाजहान की बातें करते रहते.

बात छिपने वाली नहीं थी. साथ के बच्चों ने जब उन्हें इस हालत में देखा तो बात उन से हो कर बड़ों तक पहुंची. भैरो सिंह को जब यह बात पता चली तो उन्होंने वही गलती की जो आमतौर पर ऐसी हालत में एक पिता करता है.

गलती यह कि रचना पर न केवल बंदिशें लगाईं बल्कि आननफानन में उस की शादी भी तय कर दी. उन का इरादा जल्दी से जल्दी बेटी को विदा कर देना था, ताकि कोई ऐसा हादसा न हो जिस की वजह से उन की मूंछें झुक जाएं.

यह रचना और नीरज के लिए परेशानियों भरा दौर था. दोनों के घर वालों ने साफतौर पर चेतावनी दे दी थी कि उन की शादी नहीं हो सकती, लिहाजा दोनों एकदूसरे को भूल जाओ.

शादी तय हुई और तैयारियां भी शुरू हो गईं तो दोनों हताश हो उठे. दोनों जवानी में पहला पांव रखते ही साथ जीनेमरने की कसमें खा चुके थे, लेकिन घर वालों से डरते और उन का लिहाज करते थे. इसी समय उन्हें समाज की ताकत और अपनी बेबसी का अहसास हुआ. यह भी वे सोचा करते थे कि आखिर उन की शादी पर घर वालों को ऐतराज क्यों है.

प्रेम प्रसंग आम हो चुका था, इसलिए दोनों का मिलनाजुलना कम हो गया था. शादी की रस्में शुरू हुईं तो रचना को लगा कि वह बगैर नीरज के नहीं रह पाएगी. फिर भी वह खामोशी से वह सब करती जा रही थी जो घर वाले चाहते थे.

रचना अब एक ऐसे मोड़ पर खड़ी थी, जहां से कोई रास्ता नीरज की तरफ नहीं जाता था. घर वालों के खिलाफ भी वह नहीं जा पा रही थी और नीरज को भी नहीं भूल पा रही थी. उसे लगने लगा था कि वह बेवफा है.

ऐसे में जब मंगेतर देवेंद्र का फोन आया तो वह और भी घबरा उठी. क्योंकि इन सब बातों से अंजान देवेंद्र भी प्यार जताते हुए यह कहता रहता था कि हम दोनों अपनी सुहागरात 11 फरवरी को नहीं बल्कि 14 फरवरी को वैलेंटाइन डे पर मनाएंगे.

नीरज के अलावा कोई और शरीर को छुए, यह सोच कर ही रचना की रूह कांप उठती थी. लिहाजा उस ने जी कड़ा कर एक सख्त फैसला ले लिया और नीरज को भी बता दिया. जिंदगी से हताश हो चले नीरज को भी लगा कि जब घर वाले साथ जीने का मौका नहीं दे रहे तो न सही, रचना के साथ मरने का हक तो नहीं छीन सकते.

7 फरवरी की दोपहर जब मां दूसरी महिलाओं के साथ छई माटी की रस्म के लिए खेतों पर गई तो रचना घर से भाग निकली. नीरज उस का इंतजार कर ही रहा था. दोनों ने आत्महत्या करने से पहले पेड़ के नीचे सुहागरात मनाई और नीरज ने रचना की मांग में सिंदूर भी भरा, फिर दोनों एकदूसरे को गले लगा कर फंदे पर झूल गए.

दोनों के शव जब पेड़ से उतारे गए तो गांव वाले गमगीन थे. जिन्होंने अभी अपनी जिंदगी जीनी शुरू भी नहीं की थी, वे बेवक्त मारे गए थे. दोनों के पास से कोई सुसाइड नोट नहीं मिला था. पोस्टमार्टम के बाद शव घर वालों को सौंप दिए गए और दोनों का एक ही श्मशान घाट पर अंतिम संस्कार हुआ.

प्रेमियों का इस तरह एक साथ या अलगअलग खुदकुशी कर लेना कोई नई बात नहीं है, लेकिन इस मामले से यह तो साफ हो गया कि सच्चा प्यार मर जाना पसंद करता है, जुदा होना नहीं.

ऐसे प्रेमी जब परंपराएं, धर्म, जाति वगैरह की दीवारें तोड़ने में खुद को असमर्थ पाते हैं, तो उन के पास सिवाय आत्महत्या के कोई भी रास्ता नहीं रह जाता, जिन की मंशा घर वालों और समाज को उन की गलती का अहसास कराने की भी होती है.

भैरो सिंह और सेवापाल जैसे पिता अगर वाकई बच्चों को प्यार करते होते तो उन की इच्छा और अरमानों का सम्मान करते, उन्हें पूरा करते लेकिन इन्हें औलाद से ज्यादा अपने उसूल प्यारे थे तो क्यों न इन्हें ही दोषी माना जाए.

डिजिटल दुनिया के चमत्कारी बाबा

आप ने ‘डिजिटल अरैस्ट’ की कई घटनाएं हालफिलहाल में सुनी होंगी. मतलब अब डिजिटल तांत्रिक भी चर्चा में आने लगे हैं. हालांकि, ‘डिजिटल तांत्रिक’ के बारे में आप ने शायद ही सुना हो, लेकिन इस से जुड़ा एक हैरान करने वाला मामला उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से आया है, जहां एक डिजिटल तांत्रिक ने काले जादू का डर दिखा कर एक शेयर कारोबारी से 65 लाख रुपए हड़प लिए. इस मामले में एफआईआर दर्ज की गई है.

जानकारी के मुताबिक, हेमंत कुमार राय नाम के एक व्यापारी ने नुकसान का सामाधान तलाशने के लिए एक तांत्रिक से औनलाइन बात की.

इंटरनैट पर तलाशने पर प्रिया बाबा के बारे में जानकारी मिली, जिस पर चैटिंग होने के बाद प्रिया बाबा ने हेमंत कुमार राय को बताया कि उस पर काला जादू का साया है, जिस के लिए कुछ क्रियाएं करानी पड़ेंगी.

हेमंत कुमार राय के मुताबिक, क्रिया के नाम पर शुरुआत में तकरीबन 11,000 रुपए तांत्रिक को दिए गए. पर प्रिया बाबा के सुझाई गई क्रियाओं से हेमंत को कोई फायदा नहीं हुआ. बाबा ने कभी उन की ग्रह दशा को खराब तो कभी किसी और वजह को उन की दिक्कतों की वजह बताया.

साथ ही, तांत्रिक ने पीड़ित को बताया कि तंत्र क्रियाओं को पूरा होने तक नहीं छोड़ना है. अगर बीच मे तंत्र बंद हुआ, तो इस का उलटा असर दिखना शुरू हो जाएगा.

परेशानी से उबारने के लिए बताए गए उपायों को पूरा करने के लिए हेमंत कुमार राय ने तांत्रिक प्रिया बाबा को समयसमय पर रुपए दिए. आरोप है कि धीरेधीरे कर के साइबर तांत्रिक ठग ने 65 लाख रुपए समाधान की आड़ में ले लिए. इस के बाद भी जब वह रुपयों की मांग करता रहा, तब परेशान हो कर पीड़ित ने हजरतगंज कोतवाली में मुकदमा दर्ज कराया.

इस से पहले भी लखनऊ से साइबर ठगी के मामले सामने आ चुके हैं. हाल ही में ठगों ने एक डाक्टर को अपना शिकार बनाया था. अलीगंज के रहने वाले डाक्टर अशोक सोलंकी का विकास नगर में अपना क्लिनिक है. साइबर ठगों ने 20 और 21 अगस्त, 2025 को उन के घर पर डेढ़ दिन तक उन्हें डिजिटल अरैस्ट कर के 48 लाख रुपए ठग लिए. इन में से एक ने खुद को कूरियर सर्विस का मुलाजिम और दूसरे ने खुद को मुंबई का डीजीपी बताया था.

क्या है डिजिटल अरैस्ट

दरअसल, ‘डिजिटल अरैस्ट’ कानून की भाषा का कोई शब्द नहीं है, बल्कि साइबर अपराधियों के ठगी करने का नया तरीका है. साइबर अपराधियों का सब से बड़ा हथियार डर और लालच होता है. साइबर ठग लोगों को वीडियो काल करते हैं. वे डरा कर या लालच दे कर वीडियो काल पर अपने शिकार को जोड़ लेते हैं. हफ्तों या कुछ घंटे तक आप को डर या लालच दिखा कर कैमरे के सामने रखते हैं.

‘डिजिटल अरैस्ट’ के मामले में स्कैमर्स एक वर्चुअल लौकअप भी बना देते हैं और अरैस्ट मैमो पर दस्तखत भी डिजिटल कराया जाता है.

‘डिजिटल अरैस्ट’ में ये फेक फार्म (फर्जी फार्म) भी भरवाते हैं. सबकुछ डिजिटल होता है, लेकिन ये इतनाडरा देते हैं कि पीड़ित घर के बाहर तक नहीं निकलता. जालसाज डर या किसी न किसी बहाने तब तक वीडियो काल पर जोड़े रखते हैं, जब तक आप उन की डिमांड पूरी करते रहते हैं. इस के लिए स्कैमर्स बड़ी एजेंसियों और अफसरों के शामिल होने, सालों जेल में रहने जैसी बातों से डराते हैं.

कैसे अंजाम देते हैं

आरोपी खुद को या तो सभी परेशानियों से मुक्त करने वाला बाबा बताते हैं या फिर खुद को पुलिस या इनकम टैक्स अफसर बताते हैं, ताकि शिकार को यकीन हो जाए. इस के लिए वे वरदी पहन कर काल करते हैं. बैकग्राउंड भी ऐसा रखते हैं, जिस से लगे है कि काल करने वाला शख्स किसी दफ्तर में बैठा है और और सही बोल रहा है. आरोपी अपने शिकार को धमकाते हैं कि उन के पैनकार्ड और आधारकार्ड का इस्तेमाल गैरकानूनी काम में किया गया है. इतना नहीं नहीं, आरोपी इस दौरान पूरी नजर रखते हैं. शिकार को किसी से बात तक नहीं करने देते. इस के बाद उसे डराधमका कर रुपए ट्रांसफर करा लेते हैं.

लेकिन अगर आप बाबा के चुंगल में फंसे हैं तो आप खुद ही वहां बैठे रहेंगे, यह सो चकर कि बस अभी चमत्कार हुआ और आप की सब परेशानी दूर हो जाएंगी या फिर आप अमीर हो जाएंगे. इसी चमत्कार की आस में आप खुद ही ‘डिजिटल अरैस्ट’ हो जाते हैं और जब सामने वाला आप से पैसा लूट लेता है और कोई चमत्कार नहीं होता, तब अब पछताय होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत वाली कहावत ही सच होती नजर आती हैं.

क्या वाकई आप को लगता है कि इस में सारी गलती लूट बाबा की है? क्या बाबा आप के घर आए थे आप को लूटने? खुद आप ने संपर्क किया बाबा से तो फिर उन्हें कुसूरवार उन्हें क्यों ठहराना?

आप ने खुद उन्हें ढूंढ़ा अपना माल लुटाने के लिए. अच्छे पढ़ेलेखे लोग यहां तक कि इंजीनियर और डाक्टर तक ऐसी घटनाओं को शिकार हो रहे हैं. सवाल यह उठता है कि जब ऐसी चीजों में ही फंसना है, तो इतनी महंगी डिगरियां लेने का क्या फायदा? फिर आप ने किस बात की डाक्टरी या इंजीनियरिंग की है? अगर जादूटोना पर ही यकीन करना था, तो बेकार है आप की इतनी महंगी तालीम.

कैसे बचें इन से

अगर कोई आप को बोलता है कि आप का फोन नंबर, आधारकार्ड या पैनकार्ड गैरकानूनी रूप से इस्तेमाल हो रहा है तो उस पर यकीन न करें. या फिर वह आप को कहे कि आप का कोई जानपहचान का, आप का बेटाबेटी, पतिपत्नी या कोई रिश्तेदार किसी केस में फंस गया है, तो उस पर भी यकीन न करें. जब तक कि उन के मोबाइल नंबर से आप को खुद काल कर के यह सब न बताया जाए.

जब कोई आप को काल पर आप से पैसों के लेनदेन की बात करे, तो आप बिलकुल भी न करें. अपनी निजी जानकारी बिलकुल भी शेयर न करें. किसी भी अनजाने मैसेज पर क्लिक न करें. उस लिंक को कभी न खोलें. अपने फोन में या कहीं लैपटौप वगैरह में कभी भी थर्ड पार्टी एप डाउनलोड न करें. अपने बैंकिंग एप्स और फाइनैंशियल ट्रांजैक्शन अकाउंट एप पर मजबूत सिक्योरिटी पासवर्ड लगाएं.

जांच एजेंसी या पुलिस आप को काल कर के धमकी नहीं देती है. जांच एजेंसी या पुलिस कानूनी प्रक्रिया के तहत कार्यवाही करती है. अगर आप को भी डरानेधमकाने के लिए इस तरह के फोन आते हैं तो आप तुरंत इस की सूचना स्थानीय पुलिस को दें या फिर 1930 नैशनल साइबर क्राइम हैल्पलाइन पर काल कर के शिकायत दर्ज कराएं.

इस के आलावा ढोंगी बाबा के जाल में भी न फंसे..पाखंडी बाबा सिर्फ अपनी जेब भरने वाले होते हैं. इन की करनी और कथनी में अंतर होता है.

भाई और जीजा से करवाया लिव-इन पार्टनर का कत्ल

9 सितंबर, 2019 को अनीता अपनी सहेली से मिलने ग्रेटर नोएडा गई थी. अगले दिन अपराह्न 2 बजे जब वह दिल्ली के लाजपत नगर में स्थित अपने फ्लैट में पहुंची तो वहां का खौफनाक मंजर देखते ही उस के मुंह से चीख निकल गई. उस के पैर दरवाजे पर ही ठिठक गए.

उस के लिवइन पार्टनर सुनील तमांग की लहूलुहान लाश फर्श पर पड़ी थी. उस की गरदन से खून निकल कर पूरे फर्श पर फैल चुका था, जो अब जम चुका था. अनीता ने सब से पहले अपने फ्लैट के मालिक ए.के. दत्ता को फोन कर इस घटना की जानकारी दी. ए.के. दत्ता पास की ही एक दूसरी कालोनी में रहते थे. लिहाजा कुछ देर में वह अपने लाजपत नगर वाले फ्लैट पर पहुंचे, जहां बुरी तरह घबराई अनीता उन का इंतजार कर रही थी.

सुनील की खून से सनी लाश देखने के बाद उन्होंने घटना की जानकारी दिल्ली पुलिस के कंट्रोल रूम को दी तो कुछ ही देर के बाद थाना अमर कालोनी के थानाप्रभारी अनंत कुमार गुंजन पुलिस टीम के साथ मौके पर पहुंच गए और घटनास्थल की जांच में जुट गए. उन्होंने डौग स्क्वायड और फोरैंसिक टीम को भी बुला लिया.

घटनास्थल की फोटोग्राफी और वहां पर मौजूद खून के धब्बों के नमूने एकत्र करने के बाद थानाप्रभारी अनंत कुमार गुंजन ने तहकीकात शुरू की. मृतक सुनील की गरदन पर पीछे की तरफ से किसी तेज धारदार हथियार से जोरदार वार किया गया था, जिस से ढेर सारा खून निकल कर फर्श पर फैल गया था.

कमरे के सभी कीमती सामान अपनी जगह मौजूद थे, जिसे देख कर लगता था कि यह हत्या लूटपाट के लिए नहीं बल्कि रंजिशन की गई होगी. उन्होंने अनीता से पूछताछ की तो उस ने बताया कि वह और सुनील पिछले एक साल से इस फ्लैट में लिवइन पार्टनर के रूप में रह रहे थे. वह एक ब्यूटीपार्लर में काम करती थी, जबकि सुनील एक रेस्टोरेंट में कुक था. लेकिन कई महीने पहले किसी वजह से उस की नौकरी छूट गई थी.

कल रात साढ़े 11 बजे किसी जरूरी काम से वह अपनी सहेली से मिलने ग्रेटर नोएडा गई थी. रात को वह वहीं रुक गई थी. रात में उस ने फोन पर काफी देर तक सुनील से बातें की थीं.

आज दोपहर को वह यहां पहुंची तो देखा फ्लैट का दरवाजा खुला था और अंदर प्रवेश करते ही उस की नजर सुनील की लाश पर पड़ी थी. इस के बाद उस ने अपने मकान मालिक को फोन कर इस घटना के बारे में बताया तो उन्होंने यहां पहुंचने के बाद इस घटना की सूचना पुलिस को दी.

थानाप्रभारी ने मकान मालिक ए.के. दत्ता से भी पूछताछ की तो उन्होंने भी वही बातें बताईं जो अनीता ने बताई थीं.

सारी काररवाई से निपटने के बाद थानाप्रभारी ने लाश पोस्टमार्टम के लिए भेज दी और थाने लौट कर सुनील की हत्या का मामला दर्ज कर लिया.

इस केस की गुत्थी सुलझाने के लिए दक्षिणपूर्वी दिल्ली के डीसीपी चिन्मय बिस्वाल ने कालकाजी के एसीपी गोविंद शर्मा की देखरेख में एक टीम का गठन किया, जिस में थानाप्रभारी अनंत कुमार गुंजन, एसआई अभिषेक शर्मा, ईश्वर, आर.एस. डागर, एएसआई जगदीश, कांस्टेबल राजेश राय, मनोज, सज्जन आदि शामिल थे.

विरोधाभासी बयानों से हुआ शक 

अगले दिन थानाप्रभारी ने घटनास्थल के आसपास लगे सीसीटीवी कैमरों की फुटेज निकलवाई, ताकि वारदात की रात फ्लैट के आसपास घटने वाली सभी गतिविधियों की बारीकी से जांच की जा सके. साथ ही मृतक सुनील तमांग और अनीता के मोबाइल फोन की काल डिटेल्स निकलवाई.

काल डिटेल्स और सीसीटीवी फुटेज की बारीकी से जांचपड़ताल करने के बाद थानाप्रभारी ने गौर किया कि अनीता के बयान विरोधाभासी थे. इसलिए अनीता को पुन: पूछताछ के लिए अमर कालोनी थाने बुलाया गया. उस से सघन पूछताछ की गई तो अनीता यही कहती रही कि वह रात साढ़े 11 बजे अपनी सहेली से मिलने ग्रेटर नोएडा गई थी, लेकिन वह वहां देर रात को क्यों गई, इस की वजह नहीं बता पाई.

पुलिस को लग रहा था कि वह झूठ पर झूठ बोल रही है. उस ने उस रात जिनजिन नंबरों पर बात की थी, उन के बारे में भी वह संतोषजनक जवाब नहीं दे सकी. लिहाजा उस से सख्ती से पूछताछ की गई तो वह टूट गई और सुनील तमांग की हत्या में खुद के शामिल होने का जुर्म स्वीकार कर लिया.

उस ने बताया कि इस हत्याकांड में उस का भाई विजय छेत्री तथा जीजा राजेंद्र छेत्री भी शामिल थे. ये दोनों पश्चिम बंगाल के कालिंपोंग शहर के रहने वाले थे. अनीता द्वारा अपने लिवइन पार्टनर की हत्या में शामिल होने की बात स्वीकार करने के बाद पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया.

बाकी आरोपियों विजय छेत्री और राजेंद्र छेत्री को गिरफ्तार करने के लिए थानाप्रभारी अनंत कुमार गुंजन ने एसआई अभिषेक शर्मा के नेतृत्व में एक टीम गठित की. यह टीम 13 सितंबर, 2019 को वेस्ट बंगाल के कालिंपोंग शहर पहुंच गई. स्थानीय पुलिस के सहयोग से दिल्ली पुलिस ने विजय छेत्री और राजेंद्र छेत्री को उन के घर से गिरफ्तार कर लिया.

दोनों से जब सुनील तमांग की हत्या के बारे में पूछताछ की गई तो उन दोनों ने पुलिस को बरगलाने की काफी कोशिश की लेकिन बाद में जब उन्हें बताया गया कि अनीता गिरफ्तार हो चुकी है और उस ने अपना गुनाह कबूल कर लिया है, तो उन दोनों ने भी अपना जुर्म स्वीकार कर लिया.

वेस्ट बंगाल की स्थानीय कोर्ट में पेश करने के बाद दिल्ली पुलिस दोनों आरोपियों को ट्रांजिट रिमांड पर ले कर दिल्ली लौट आई.

अनीता, विजय और राजेंद्र से की गई पूछताछ तथा पुलिस की जांच के आधार पर इस हत्याकांड के पीछे की जो कहानी उभर कर सामने आई, वह इस प्रकार है—

अनीता मूलरूप से पश्चिम बंगाल के कालिंपोंग की रहने वाली थी. करीब 5 साल पहले वह अपने पति से अनबन होने पर उसे छोड़ कर अपने सपनों को पंख लगाने के मकसद से दिल्ली आ गई थी. यहां उस की एक सहेली थी, जो बहुत शानोशौकत से रहती थी. वह सहेली जरूरत पड़ने पर उस की मदद भी कर दिया करती थी.

दरअसल, अनीता स्कूली दिनों से ही खुले विचारों वाली एक बिंदास लड़की थी. वह जिंदगी को अपनी ही शर्तों पर जीना चाहती थी, जबकि उस का पति एक सीधासादा युवक था. उसे अनीता का ज्यादा फैशनेबल होना तथा लड़कों से ज्यादा मेलजोल पसंद नहीं था.

विपरीत स्वभाव होने के कारण शादी के थोड़े दिनों बाद ही वे एकदूसरे को नापसंद करने लगे थे. बाद में जब बात काफी बढ़ गई तो एक दिन अनीता ने पति को छोड़ दिया और वापस अपने मायके चली आई. कुछ दिन तो वह मायके में रही, फिर बाद में उस ने अपने पैरों पर खडे़ होने का फैसला कर लिया. और वह दिल्ली आ गई.

वह ज्यादा पढ़ीलिखी तो नहीं थी, महज 8वीं पास थी. छोटे शहर की होने और कम शिक्षित होने के बावजूद उस का रहने का स्टाइल ऐसा था, जिसे देख कर लगता था कि वह काफी मौडर्न है.

दिल्ली पहुंचने के बाद अनीता ने अपनी उसी सहेली की मदद से ब्यूटीशियन की ट्रेनिंग ली. इस के बाद वह एक ब्यूटीपार्लर में नौकरी करने लगी. नौकरी करने से उस की माली हालत अच्छी हो गई और जिंदगी पटरी पर आ गई.

इसी दौरान एक दिन उस की मुलाकात सुनील तमांग नाम के युवक से हुई जो नेपाल का रहने वाला था. उस की मां कुल्लू हिमाचल प्रदेश की थी. 28 वर्षीय सुनील दक्षिणी दिल्ली के साकेत में स्थित एक रेस्टोरेंट में कुक था.

दोनों एकदूसरे को चाहने लगे 

कुछ दिनों तक दोस्ती के बाद वह सुनील को अपना दिल दे बैठी. सुनील अनीता की खूबसूरती पर पहले से ही फिदा था. एक दिन सुनील ने अनीता को अपने दिल की बात बता दी और कहा कि वह उसे दिलोजान से प्यार करता है. इतना ही नहीं, वह उस से शादी रचाना चाहता है.

अनीता उस के दिल की बात जान कर खुशी से झूम उठी. उस ने सुनील से कहा कि पहले कुछ दिनों तक हम लोग साथ रह लेते हैं. फिर घर वालों की रजामंदी से शादी कर लेंगे. इस की एक वजह यह भी थी कि अभी पहले पति से अनीता का तलाक नहीं हुआ था. तलाक के बाद ही दूसरी शादी संभव हो सकती थी.

कोई 4 साल पहले अनीता ने सुनील तमांग के साथ चिराग दिल्ली में किराए का मकान ले कर रहना शुरू कर दिया. दोनों एकदूसरे को पा कर बेहद खुश थे. सुनील अनीता का काफी खयाल रखता था. अनीता भी सुनील के साथ लिवइन में रह कर खुद को भाग्यशाली समझती थी.

सुनील न केवल देखने में स्मार्ट था, बल्कि एक अच्छे पार्टनर की तरह उस की प्रत्येक छोटीछोटी बात का विशेष ध्यान रखता था. अनीता भी सुनील की खुशियों का खूब खयाल रखती थी. वह अपनी तरफ से कोई ऐसा काम नहीं करती थी, जिस से सुनील की कोई भावना आहत हो.

अनीता और सुनील 3 सालों तक चिराग दिल्ली स्थित इस मकान में रहे. इस बीच जब अनीता की पगार अच्छी हो गई तो वह चिराग दिल्ली से लाजपत नगर आ गई. यहां वह ए.के. दत्ता के फ्लैट में किराए पर रहने लगी. यहां उस का फ्लैट तीसरी मंजिल पर था.

इतने दिनों तक लिवइन रिलेशन में रहने के कारण दोनों के परिवार वाले भी उन के संबंधों से परिचित हो गए थे. अनीता का भाई विजय छेत्री जबतब कालिंपोंग से दिल्ली में उस के पास आता रहता था. उसे सुनील का व्यवहार पसंद नहीं था.

विजय ने अनीता की पसंद पर ऐतराज तो नहीं जताया लेकिन एक दिन उस ने सुनील की गैरमौजूदगी में अपने मन की बात अनीता को बता दी. चूंकि अनीता सुनील से प्यार करती थी, इसलिए उस ने भाई से सुनील का पक्ष लेते हुए कहा कि सुनील दिल का बुरा नहीं है लेकिन फिर भी अगर सुनील की कोई बात उसे अच्छी नहीं लगती है तो वह उसे कह कर इस में सुधार लाने का प्रयास करेगी.

विजय ने जब देखा कि उस की बहन ने उस की बात को ज्यादा तवज्जो नहीं दी है तो उस ने चुप रहने में ही अपनी भलाई समझी. सुनील और अनीता को विजय की बातों से जरा भी फर्क नहीं पड़ा था.

लेकिन कहते हैं कि हर आदमी का वक्त हमेशा एक सा नहीं रहता है. सुनील तमांग के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. किसी बात को ले कर सुनील की रेस्टोरेंट से नौकरी छूट गई. नौकरी छूट जाने की वजह से वह परेशान तो हुआ लेकिन अनीता अच्छा कमा रही थी, इसलिए घर का खर्च आराम से चल जाता था.

हालांकि कुछ दिन बाद अनीता सुनील को समझाबुझा कर जल्दी कहीं नौकरी खोजने का दबाव बना रही थी, मगर 6 महीने तक सुनील को उस के मनमुताबिक नौकरी नहीं मिली.

धीरेधीरे अनीता को ऐसा लगने लगा जैसे सुनील जानबूझ कर नौकरी नहीं करना चाहता है और अब वह उस के ही पैसों पर मौज करना चाहता है. ऐसा विचार मन में आते ही उस ने एक दिन तीखे स्वर में सुनील से कहा, ‘‘सुनील, या तो तुम जल्दी कहीं पर नौकरी ढूंढ लो अन्यथा मेरा साथ छोड़ कर यहां से कहीं और चले जाओ.’’

हालांकि अनीता ने यह बात सुनील को समझाने के लिए कही थी, लेकिन उस दिन के बाद सुनील के तेवर बदल गए. उस ने अनीता से कहा कि वह उसे छोड़ कर कहीं नहीं जाएगा और फिर भी अगर वह उसे जबरन खुद से दूर करने की कोशिश करेगी तो उस के पास अंतरंग क्षणों के कई फोटो मोबाइल पर पड़े हैं, जिन्हें वह उस के सगेसंबंधियों के मोबाइल पर भेज देगा, जिस के बाद वह कहीं भी मुंह दिखाने लायक नहीं रहेगी.

रुपयों की तंगी तथा सुनील की धमकी को सुन कर अनीता कांप उठी. इस घटना के कुछ दिनों बाद तक अनीता ने सुनील को नौकरी ढूंढने पर जोर देती रही, लेकिन सुनील पर इस का कोई फर्क नहीं पड़ा.

अंत में अनीता ने कालिंपोंग स्थित अपने भाई विजय को अपनी मुसीबत के बारे में बताया तो विजय गुस्से से भर उठा. उस ने अनीता से कहा कि वह जल्द ही सुनील नाम के इस कांटे को उस की जिंदगी से निकाल फेंकेगा.

भाई ने बनाया हत्या का प्लान 

भाई की बात सुन कर अनीता को राहत महसूस हुई. विजय को सुनील पहले से नापसंद था. अब जब अनीता खुद ही उस से छुटकारा पाना चाहती थी तो उस ने अपने रिश्ते के बहनोई राजेंद्र के साथ मिल कर सुनील को मौत की नींद सुलाने की योजना तैयार कर ली. इस के बाद उस ने अनीता को अपनी योजना के बारे में बताया तो अनीता ने दोनों को दिल्ली पहुंचने के लिए कह दिया.

7 सितंबर, 2019 को विजय छेत्री और राजेंद्र छेत्री पश्चिम बंगाल के कालिंपोंग से नई दिल्ली पहुंचे और पहाड़गंज के एक होटल में रुके. अनीता फोन से बराबर भाई के संपर्क में थी. लेकिन सुनील अनीता और विजय के षडयंत्र से अनजान था. उसे सपने में भी गुमान नहीं था कि अनीता उस की ज्यादतियों से तंग आ कर उस का कत्ल भी करवा सकती है.

9 सितंबर को विजय छेत्री और राजेंद्र छेत्री पूर्वनियोजित योजना के अनुसार रात के 10 बजे अनीता के फ्लैट पर पहुंचे. अनीता दोनों से ऐसे मिली जैसे उन्हें पहली बार देखा हो. सुनील भी उन से घुलमिल कर बातें करने लगा.

साढ़े 11 बजे उस ने अचानक सब को बताया कि उसे अभी इसी वक्त अपनी सहेली से मिलने ग्रेटर नोएडा जाना है. इस के बाद वह तैयार हो कर फ्लैट से बाहर निकल गई.  रात में अनीता सुनील के मोबाइल पर काल कर के उस से 2-3 घंटे तक मीठीमीठी बातें करती रही.

तड़के करीब 4 बजे जैसे ही सुनील सोया, तभी विजय ने राजेंद्र के साथ मिल कर उस की गरदन पर चाकू से वार किया. थोड़ी देर तड़पने के बाद जब उस का शरीर ठंडा पड़ गया तो दोनों वहां से आनंद विहार के लिए निकल गए, क्योंकि वहां से उन्हें कालिंपोंग के लिए ट्रेन पकड़नी थी.

आनंद विहार जाने के दौरान रास्ते में विजय ने खून से सना चाकू एक सुनसान जगह पर फेंक दिया. आनंद विहार स्टेशन से रेलगाड़ी द्वारा वे कालिंपोंग पहुंच गए.

इन से विस्तार से पूछताछ करने के बाद अगले दिन 16 सितंबर, 2019 को थानाप्रभारी अनंत कुमार गुंजन ने सुनील तमांग की हत्या के आरोप में उस की लिवइन पार्टनर अनीता, विजय छेत्री तथा राजेंद्र छेत्री को गिरफ्तार कर कोर्ट में पेश किया, जहां से तीनों को तिहाड़ जेल भेज दिया गया. मामले की जांच थानाप्रभारी अनंत कुमार गुंजन कर रहे थे.

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