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जातीयता की उलटीचाल- दलितपिछड़ा बनने की बढ़ रही चाह

आरक्षण व सरकारी योजनाओं से मिलने वाले लाभ ने कई जातियों को उत्तर प्रदेश में दलित व पिछड़ा बनाने का आइडिया सुझा दिया है. लिहाजा, कल तक दलितों को दुत्कारने वाली कई जातियां सरकार से आज खुद को दलित बनाने की मांग कर रही हैं. उधर सियासी दल कैसे इस मुद्दे पर वोटबैंक का गणित बिठा रहे हैं, बता रहे हैं शैलेंद्र सिंह.

उत्तर प्रदेश को उलटा प्रदेश यों ही नहीं कहा जाता है. जहां एक ओर छुआछूत की खाई चौड़ी होती जा रही है वहीं दूसरी ओर कुछ जातियां पिछड़ा और दलित बनने की लड़ाई लड़ रही हैं. लड़ाई की वजह आरक्षण नाम की मलाई है जिस को तकरीबन सभी जीमना चाह रहे हैं. मानसिक रूप से ये अभी दलित व पिछड़ों से उतनी ही दूर हैं जितनी दूसरी अगड़ी जातियां. वोटबैंक के इस गणित को हर राजनीतिक दल अपने हिसाब से हल करने में लगा है.

प्रियंका गुप्ता बचपन से अपने को अगड़ी जाति का मानती थी. दलित और पिछड़ों से उसे कोई हमदर्दी नहीं थी. घर में भी छुआछूत और जातपांत का पूरा खयाल रखा जाता था. जब कभी उस की नीची जाति की सहेलियां उस के घर आती थीं तब प्रियंका की मां इस बात का पूरा ध्यान रखती थीं कि उन को अलग बरतनों में ही खाना दिया जाए. घर के यही तथाकथित संस्कार प्रियंका के मन पर भी हावी होते चले गए. उस में भी छुआछूत की भावना अपनी जगह बना चुकी थी.

समय बीता, प्रियंका बड़ी हुई तो उस ने विश्वविद्यालय से कौमर्स में पोस्टग्रैजुएट की डिगरी ली. प्रियंका का मन किसी बिजनैस हाउस में नौकरी करने का था. इसी बीच उत्तर प्रदेश सरकार ने टीचर की भरती करनी शुरू की. इस के लिए जिलेवार मैरिट तैयार होने लगी. प्रियंका के घर वाले भी उसे टीचर की सरकारी नौकरी कराना चाह रहे थे. परेशानी की बात यह थी कि जनरल रैंक में उस की मैरिट कम थी. इसी समय प्रियंका को पता चला कि वह वैश्य बिरादरी की कसौधन उपजाति से आती है जिसे उत्तर प्रदेश सरकार पिछड़ी जाति मानती है.

ऐसे में प्रियंका को पिछड़ी जाति के आरक्षण का लाभ मिल गया. उस की मैरिट बढ़ गई और उसे टीचर की सरकारी नौकरी मिल गई. कल तक दलित और पिछड़ी जातियों का विरोध करने वाला प्रियंका का परिवार प्रमाणपत्र ले कर भले ही पिछड़ा बन गया हो पर मानसिक रूप से अभी भी वह इन जातियों से दूर ही रहने की कोशिश करता है.

यह बात केवल अगड़ी से पिछड़ी जाति बनने वालों की ही नहीं है, बहुत सारी पिछड़ी जातियां अपने को दलित जातियों में शामिल कराने के लिए आंदोेलन कर रही हैं. उत्तर प्रदेश में 17 पिछड़ी जातियां अपने को दलित जातियों में शामिल कराने के लिए गोलबंद हो रही हैं. इन में कश्यप, मल्लाह और कहार जैसी वे जातियां भी हैं जो दलित जातियों के हाथ का छुआ पानी पीने से परहेज करती हैं.

एक जमाने में गांव में अगड़ी जातियों के यहां जब शादीविवाह जैसे काम होते थे तो उन के घरों में कुएं से पानी भरने का काम यही कहार जाति के लोग करते थे. इन को इस बात की खुशी होती थी कि अगड़ी जातियों के लोग इन का छुआ पानी पीते हैं.

ऐसे में ये कश्यप, मल्लाह या कहार जैसी जातियां खुद भी दलितोें से छुआछूत का व्यवहार करती थीं. अब चाल बदल गई है. बदले हालात में ये जातियां अपने को दलितोें के बराबर करने के लिए दबाव की राजनीति कर रही हैं.

दलित चिंतक रामचंद्र कटियार कहते हैं, ‘‘संविधान ने आरक्षण का जो लाभ दलित और पिछड़ी जातियों को दिया, अब कई दूसरी जातियां भी उन में शामिल हो कर वह लाभ लेना चाहती हैं. आरक्षण का लाभ लेने के बाद भी ये लोग सामाजिक और मानसिक रूप से अपने विचार नहीं बदल पा रहे हैं. इस तरह दूसरी जातियां आरक्षण का लाभ लेने के लिए दलित और पिछड़ी जातियों के कोटे में शामिल होना चाहती हैं. राजनीतिक दल इस के जरिए एकदूसरे के वोटबैंक में सेंधमारी करने की कोशिश में लगे हैं.’’

…ताकि लाभ मिले

ठाकुर, ब्राह्मण और बनिया देश की प्रमुख अगड़ी जातियां हैं. बनिया को वैश्य बिरादरी के नाम से भी जाना जाता है. आल इंडिया वैश्य फैडरेशन के प्रदेश अध्यक्ष डा. नीरज बोरा कहते हैं, ‘‘वैश्य बिरादरी की बहुत ही उपजातियां पहले से ही पिछड़ी जातियों का हिस्सा हैं. इन में कसौधन, स्वर्णकार, तेली या साहू, जायसवाल, हलवाई, मोदनवाल, कलवार, भुर्जी, बाथम और मदेसिया शामिल हैं. इस बिरादरी में अभी 11 ऐसी जातियां भी हैं जो सामाजिक और आर्थिक रूप से बहुत कमजोर हैं. ये छोटीमोटी दुकानें लगा कर अपनी रोजीरोटी का इंतजाम बड़ी मुश्किल से कर पा रही हैं. हम लोगों की मांग है कि इन को भी पिछड़ी जातियों के आरक्षण का लाभ दे कर आगे बढ़ने में मदद की जाए.’’

 

वे आगे बताते हैं, ‘‘सुप्रीम कोर्ट ने मंडल आयोग की संस्तुति पर 1992 में पिछड़ी जातियों का आकलन करने के लिए पिछड़ा वर्ग आयोग बनाने का काम किया था. पिछड़ा वर्ग आयोग उन जातियों का आकलन करता है जो पिछड़ी जाति में शामिल होना चाहती हैं. वहां पर पहले से चली आ रही पिछड़ी जातियों के लोग भी होते हैं जो कई बार बाहरी जातियों के पिछड़ी जातियों में शामिल होने का विरोध भी करते हैं. अगर पिछड़ा वर्ग आयोग सहमत हो जाता है तो नई जातियों को पिछड़ी जातियों में शामिल कर लिया जाता है.’’

आल इंडिया वैश्य फैडरेशन वैश्य बिरादरी की कमजोर 11 जातियों को पिछड़ी जाति में शामिल करने की लड़ाई लड़ रहा है. इन जातियों में अग्रहरि, दोसर, अयोध्यावासी, केसरवानी, वर्णवाल, ओमर, गुलहरे, पोरवाल, कमलापुरी, सन्मानी और गहोई शामिल हैं.

डा. नीरज बोरा कहते हैं, ‘‘वैश्य बिरादरी की 11 जातियों को पिछड़ी जातियों में शामिल होने से उन का सामाजिक और आर्थिक स्तर ऊपर उठ सकेगा. आज तमाम ऐसी पिछड़ी जातियां हैं जो आर्थिक रूप से संपन्न हो चुकी हैं. इस के बाद भी आरक्षण का लाभ ले रही हैं. जबकि ऐसी तमाम जातियां हैं जो कमजोर और गरीब हैं. उन को आरक्षण का लाभ दे कर आगे बढ़ाना चाहिए. उत्तर प्रदेश की सपा सरकार जानबूझ कर पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन नहीं कर रही है जिस से कि वैश्य बिरादरी की इन जातियों को पिछड़ी जातियों में शामिल होने से दूर रखा जा सके.’’

वोटबैंक की राजनीति

वैश्य बिरादरी की ही तरह 17 पिछड़ी जातियां दलित बनना चाहती हैं. इन में राजभर, निषाद, मगाह, कश्यप, कुम्हार, धीमर, बिंद, प्रजापति, धीवर, भर, केवट, बाथम, कहार, मछुआ, तुरहा, मांझी और गोंड प्रमुख हैं. इन पिछड़ी जातियों को भाजपा के उस समय के मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने अतिपिछड़ी जातियों के नाम से पहचाना था. समाजवादी पार्टी  के प्रदेश अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अतिपिछड़ी जातियों के प्रतिनिधि सम्मेलन में कहा कि इन जातियों की संख्या कम नहीं है. इन की कोई गणना नहीं की गई है. हमारी सरकार इन जातियों को दलित जाति की बिरादरी में शामिल करने के लिए केंद्र सरकार को प्रस्ताव भेज रही है.

समाजशास्त्र के जानकार लोग पिछड़ी जातियों के दलित बनने की इस चाह को राजनीति से जोड़ कर देख रहे हैं. भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष डा. लक्ष्मीकांत वाजपेई कहते हैं, ‘‘सपा अतिपिछड़ी जातियों के मसले पर राजनीति कर रही है. उसे पता है कि पिछड़ों को दलित वर्ग में शामिल किए जाने का काम केंद्र सरकार और संसद का है. सपा इस संबंध में प्रस्ताव भेज कर केवल लोगों को बरगलाने का काम कर रही है. इस के पहले 10 अक्तूबर, 2005 को भी सपा ऐसा ही प्रस्ताव भेज चुकी है.’’

वर्ष 2001 में उस समय के भाजपा के मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने भी अति पिछड़ी जातियों के वोटबैंक को जोड़ने के लिए ऐसी कोशिश की थी. तब बहुजन समाज पार्टी ने तकनीकी रूप से इस का विरोध किया था. 2007 में मायावती ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर कहा था कि इन अतिपिछड़ी जातियों को दलित वर्ग में शामिल किया जाए पर पहले दलितों को मिलने वाले आरक्षण कोटे को बढ़ा दिया जाए.

उत्तर प्रदेश मत्स्य विकास निगम के चेयरमैन डा. राजपाल कश्यप कहते हैं, ‘‘अतिपिछड़ी ये जातियां दलितोें से भी ज्यादा कमजोर और गरीब हैं. इन को दलित वर्ग में शामिल किया जाए तो इन की गरीबी कम हो सकती है. इन को भी दलित को मिलने वाली सरकारी योजनाओं का लाभ मिल सकता है.’’

रामचंद्र कटियार यह भी मानते हैं कि सपा नेता चाहते हैं कि अगर अतिपिछड़ी जातियों को दलितों का लाभ मिलने लगेगा तो विधानसभा और लोकसभा की आरक्षित सीटों पर वे चुनाव लड़ सकेंगी, जिस से उन को लाभ हो सकता है. यही बात मायावती को परेशान कर रही है, जिस से वे इस का अंदरखाने विरोध कर रही हैं.

ऐसे में जातीयता की उलटी चाल को देख कर आप यह समझने की भूल मत करिए कि उत्तर प्रदेश में सामाजिक समरसता बढ़ गई है जिस की वजह से सवर्ण पिछडे़ और पिछड़े दलित बनना चाह रहे हैं. यह जाति की राजनीति का एक गणित है जिसे हर पार्टी अपने हिसाब से हल करने की कोशिश कर रही है. वोट पाने के लिए राजनीतिक दल जोड़तोड़ में हमेशा से लगे रहते हैं और वोट की गणित को बिठाने में उन्हें सब से आसान तरीका यही लगता है कि जाति और धर्म के नाम पर लोगों को बरगलाया जाए. ऐसा नहीं है कि यह आज हो रहा है बल्कि यह दशकों से होता आ रहा है.

लोकतंत्र की पोल खोलता लालतंत्र

25 मई, 2013 को छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके के सुकमा के पास दरभा घाटी में जो भीषण हत्याकांड हुआ उस से मु झे कोई खास हैरानी नहीं हुई. 52 वर्षीय कृषि विभाग के एक अधिकारी ने नाम व पहचान छिपाए रखने की शर्त पर लंबी बातचीत में इस प्रतिनिधि को बताया, अपना आतंक बनाए रखने और अपने मिशन को आगे बढ़ाने के लिए नक्सली कुछ भी कर सकते हैं. यह इत्तफाक और मौके की बात सम झ आती है कि उन के निशाने पर कांग्रेसी काफिला आ गया वरना मरनेमारने के नाम पर वे कोई भेदभाव नहीं करते.

आदिवासी समुदाय के इस अधिकारी ने आगे बताया, यह जुलाई 1990 की बात थी जब मैं जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय, जबलपुर से एमएससी की डिगरी ले कर निकला तो ग्रामसेवक पद पर नौकरी हाथोंहाथ मिल गई पर नियुक्ति बीजापुर ब्लौक के भैरमगढ़ गांव में मिली. सरकारी नौकरी करने वालों के लिए तब बस्तर को मध्य प्रदेश का कालापानी और नर्क कहा जाता था. साथियों ने मु झे सम झाया कि बस्तर जा कर नौकरी, वह भी इतनी छोटी करने से कोई फायदा नहीं. बेहतर यह होगा कि मैं पीएससी या यूपीएससी की तैयारी करूं.

पर मैं सभी को नहीं सम झा सकता था कि मेरे घर के हालात क्या हैं, मेरी पढ़ाई के लिए पिताजी ने 2 एकड़ पुश्तैनी जमीन तक बेच दी थी जो 8 सदस्यों के परिवार के पेट भरने का इकलौता जरिया थी. बच्चों को छोड़ कर सभी लोग खेतों में मेहनतमजदूरी कर पेट पालते थे. उन की इकलौती उम्मीद अब मेरी नौकरी थी जिसे मैं और टरकाता तो घर के टीनटप्पर तक बिक जाते. लिहाजा, मैं ने बस्तर जाने में ही बेहतरी सम झी.

छत्तीसगढ़ ऐक्सप्रैस के स्लीपर कोच में आरक्षण करा कर  मैं तुरंत रायपुर पहुंचा. यहां से मु झे बस पकड़ कर भैरमगढ़ जाना था. गनीमत यह थी कि यह गांव सड़क किनारे ही था. रायपुर जा कर मालूम हुआ कि भैरमगढ़ जाने के लिए एक ही सरकारी बस चलती है जो शाम को आएगी.

जेब में पैसे बहुत ज्यादा न थे और तनख्वाह कब मिलनी शुरू होगी इस का भी अंदाजा नहीं था. लिहाजा, दिनभर मैं रायपुर के बसस्टैंड पर बैठा नईपुरानी बातें सोचता रहा. शाम को टिकट ले कर बस में बैठा तो बस वाकई सरकारी यानी खटारा नजर आ रही थी.

कल की खबर में महेंद्र कर्मा और नंदकुमार पटेल की हत्या के साथसाथ विद्याचरण शुक्ल के गंभीर रूप से घायल होने की बात पढ़ी तो मु झे बरबस ही उन के भांजे अनूप मिश्रा की याद आई जो मु झ से 2 साल सीनियर था और विश्वविद्यालय के न्यू होस्टल में रहता था. वह बेहद शराब पीता था और अब से ढाई साल पहले उस की पत्नी या प्रेमिका, जो भी कह लें, ने उस की हत्या करा दी थी. तब वह भी बड़े पद पर था और ड्यूटी पर भी शराब पी कर जाने के लिए कुख्यात था. चूंकि श्यामाचरण और विद्याचरण शुक्ल का नजदीकी रिश्तेदार था इसलिए यूनिवर्सिटी में उस की तूती बोलती थी और जबलपुर शहर में वह निकलता था तो उस के पीछे चलने वालों की तादाद कम न रहती थी. अनूप जानता था कि लोग उस के पैर तबादला करवाने, रुकवाने या तरक्की के लिए पड़ते थे.

बस में बैठी कुछ सवारियों से चर्चा हुई. उन्होंने मु झे हैरत से देखा और दबी जवान में इशारा किया कि भैरमगढ़ जैसी जगह में नौकरी करना अगर बहुत जरूरी न हो तो मैं दोबारा सोचूं.

चूंकि मेरे पास कोई विकल्प नहीं था इसलिए मैं ने ज्यादा कुछ नहीं सोचा. अलबत्ता, जो जानकारियां भैरमगढ़ और बीजापुर ब्लौक के बारे में मिलीं वे अच्छी कतई नहीं थीं. कंडक्टर, ड्राइवर को भी पता चल चुका था कि मैं नयानया नौकरी पर जा रहा हूं तो उन्होंने भी हैरत से मु झे देखा. मैं भी आदिवासी हूं यह जान कर उन्होेंने दूसरों की तरह कोई मशवरा नहीं दिया. दोनों शराब पिए हुए थे पर उन की बातचीत और व्यवहार दोनों संतुलित थे.

अलस्सुबह बस जगदलपुर पहुंची तो लगभग सारे यात्री वहां उतर गए. तब भी जगदलपुर आज की तरह जगमगाता शहर था और यहीं तक ही छत्तीसगढ़, शेष मध्य प्रदेश या देश जैसा लगता था. कंडक्टर के आमंत्रण पर मैं ने ठेले पर चाय पी. अब खुल कर वह जो बोला उस का सार यह था कि इस धरती पर नर्क अगर कहीं है तो यहीं बस्तर में है. अब तो यहां छिटपुट नक्सली वारदातें भी होने लगी हैं.

नक्सली बस्तर में सक्रिय हैं यह चर्चा अकसर जबलपुर में होस्टल में होती रहती थी, साथ ही चर्चा यह भी होती थी कि यहां रोटी महंगी, देह सस्ती है और शराब बेहद आम है. सियासी तौर पर यह इलाका कभी कम्युनिस्टों का गढ़ माना जाता था जो धीरेधीरे टूट रहा था. फिर भी 1993 तक एकाध विधायक चुन कर भोपाल पहुंच जाते थे वरना कांग्रेस को मध्य प्रदेश में सत्ता दिलाने में छत्तीसगढ़ इलाके की 90 विधानसभा सीटों की भूमिका अहम रहती थी.

‘अब यहां के बाद आदिवासी चढ़ना शुरू होंगे,’ कंडक्टर ने बताया, ‘और बस ठीकठाक चली तो 5-6 घंटों में आप भैरमगढ़ पहुंच जाएंगे.’ उस की कोशिश या मंशा कतई मु झे आतंकित करने की नहीं लग रही थी बल्कि वे जानकारियां देने की थीं जो पहली दफा इस इलाके में आ रहे नए आदमी के लिए महत्त्वपूर्ण साबित हो सकती थीं. इस में से एक थी कि भैरमगढ़ में मकान मिलना मुश्किल है.

बस जैसेजैसे आगे बढ़ती गई वैसेवैसे मेरे सिर पर अनजाना सा डर सवार होने लगा. यह एहसास मु झे था कि मैं अब एक नई जिंदगी में जा रहा हूं जहां लड़कपन बिलकुल नहीं चलना. अब चारों तरफ जंगल ही जंगल नजर आ रहा था. जहां बस रुकती या रुकवाई जाती वहां 2-4 आदिवासी चढ़ते पर सभी खाली पड़ी होने पर भी सीट पर नहीं बैठते, नीचे बैठ जाते थे. एकाध ने तो मु झ पैंटशर्ट वाले को बेवजह प्रणाम भी कर डाला था.

पर उस वक्त उस माहौल ने ज्यादा फर्क मेरे दिमाग पर नहीं डाला था. वजह, मेरे दिमाग में घर का गुणाभाग चल रहा था कि कैसे और कितना पैसा घर भेजूंगा और शेष में से खुद का खर्च चलाऊंगा.

इस मार्ग की यह इकलौती बस भोपालपट्टनम तक जाती थी. कुछ दूर बाद औरतों सहित कुछ और आदिवासी चढ़े, कुछ के मुंह से निकलती शराब की गंध पूरी बस में फैल रही थी. आमतौर पर आदिवासी शांत थे पर जब किसी बात पर बोलने लगते थे तो लगता था  झगड़ रहे हैं. मैं ने सुन रखा था कि यहां आदिवासी मामूली बात पर  झगड़ बैठते हैं और हत्या तक कर बैठते हैं.

सड़क के दोनों ओर दिख रहे जंगल में कहींकहीं पेड़ काट कर बनाए खेत दिख रहे थे जिन में धान की फसल दिख रही थी.

किसी तरह भैरमगढ़ आया. कंडक्टर ने भलमनसाहत दिखाते हुए सामान उतारने में मेरी मदद की. मेरे पीछे 2 आदिवासी भी उतरे तो मैं ने राहत की सांस ली कि इन से जरूर कुछ जानकारियां और मदद मिल जाएगी.

हमें उतार कर बस आगे बढ़ गई. बाईं तरफ भैरमगढ़ गांव दिख रहा था और सामने की तरफ एक टपरिया दिख रही थी, जो यहां का होटल कही जा सकती थी. एक मर्द और एक औरत, जो पतिपत्नी थे, इत्मीनान से बैठे पंखा  झल रहे थे.

उमस बढ़ चली थी और मु झे पसीना आ रहा था. साथ उतरे दोनों आदिवासियों ने कोई दिलचस्पी मु झ में नहीं ली और इस से पहले कि मैं कुछ कहतासुनता, वे तेज कदमों से गांव की तरफ बढ़ गए.

यह 29 साल की जिंदगी का दूसरा वक्त था जब मैं जिंदगी की सड़क पर अकेला खड़ा था. पहली दफा जब गांव से जबलपुर पढ़ने गया था तब और दूसरी दफा आज नौकरी वाले दिन. दोनों ही दफा मु झे नहीं मालूम था कि अब क्या होगा.

पर कुछ तो करना ही था, लिहाजा, सामान कंधे पर लाद कर मैं गांव की तरफ बढ़ा. 30-40 मकान दूरदूर बने दिख रहे थे पर अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ था. कुछ कदम चलने के बाद दाईं तरफ एक छोटी पर पक्की बिल्ंिडग स्टेट बैंक औफ इंडिया की दिखाई दी. सामान ले कर सीधे उस में ही दाखिल हो गया. बैंक का दफ्तर खाली सा था. 3 कर्मचारी बैठे बतिया रहे थे. उन में से एक युवती थी. मैं ने उन्हें अपना परिचय देते हुए आने की वजह बताई.

वे तीनों लंबे वक्त से वहां थे और  मु झे विस्फारित नेत्रों से देख रहे थे. उन में से एक क्लर्क, जिस का नाम मान लें राजेश और वह युवती, नाम मान लें कुसुम, ने मु झे काफी सहयोग दिया. शुरुआती बातचीत में ही स्पष्ट हो गया कि यहां रहने के लिए ढंग के मकान नहीं हैं, और जो हैं उन में शौचालय नहीं है, खाना खुद बना कर खाना पड़ेगा जिस के लिए घासलेट और स्टोव का इंतजाम करना होगा.

ये दोनों ही रायगढ़ जिले के रहने वाले थे और मेरी तरह ही गौंड आदिवासी थे पर तिर्की जाति के थे और ईसाई धर्म ग्रहण कर चुके थे. ईसाई मिशनरियों ने ही उन्हें पढ़ायालिखाया था. बातचीत में राजेश ने मु झे बताया कि एक कमरा खाली है पर उस का मकानमालिक बीजापुर में रहता है, कलपरसों में चल कर उस से बात कर कमरा तय कर लिया जाएगा. तब तक मैं उस के कमरे पर रह सकता हूं. नक्सलियों की इस वक्त कोई बातचीत नहीं हुई पर बाद में खूब खुल कर हुई और कई दफा नक्सली करार दिए गए लोगों से भी हुई. उन की बातों में हर बार चारू मजूमदार, असीम चटर्जी, कानू सान्याल और संतोष राणा के नाम जरूर आते थे जो उन के आदर्श थे. बातबात पर ये नक्सली यह जरूर दोहराते थे कि उन्हें कोई राजनीतिक विकल्प नहीं बनना है.

कुसुम मु झे राजेश के कमरे तक ले गई. वह मु झे बिंदास लड़की लगी. कमरे तक पहुंचतेपहुंचते कुछ गांव वालों ने मु झे आंखें फाड़ कर देखा तो वह बोली, ‘यहां हर नए आदमी को नक्सली या पुलिस का मुखबिर सम झ कर ही देखा जाता है. कल जब इन्हें पता चलेगा कि तुम इन के नए ग्राम सेवक हो तो सबकुछ ठीक हो जाएगा.’

इस गांव की पहली नजर में मैं ने कुछ खूबियां भांपी थीं कि मकान एकदूसरे से सटे नहीं हैं, उन के बीच मुकम्मल फासला है और 2-4 ही पक्के कहे जा सकते हैं, बाकी  झोंपड़े सरीखे हैं.

कमरे पर जा कर कुसुम ने स्टोव पर चाय बनाई और खाने के बाबत पूछा तो मैं ने घर से लाया खाना (पूरीअचार) खोल लिया जिसे खाने में उस ने साथ दिया. इस दौरान वह लगातार कुछ न कुछ बोलती रही जिस में हम आदिवासियों की दुर्दशा का बखान ज्यादा था.

इसी बातचीत में मु झे पता चला कि वह बैंककर्मी नहीं है, महिला बाल विकास विभाग में है. चूंकि वहां कामधाम न के बराबर होता है, इसलिए यहांवहां वक्त काटा करती है. उस की बातों से मैं ने अंदाजा लगाया कि गांव में दर्जनभर से कुछ ज्यादा शासकीय कर्मचारी हैं और सभी आदिवासी हैं. कोई दूसरा यहां आता नहीं और आ जाए तो महीनेभर भी नहीं टिकता.

थका और जागा था इसलिए मैं कुसुम के जाने के बाद सो गया. शाम को राजेश ने जगाया तो सकपका कर उठा. तेज बारिश के आसार नजर आ रहे थे.

राजेश के साथ औपचारिक बातें हुईं, तभी कुसुम भी आ गई और रात के खाने की तैयारी शुरू हो गई. राजेश ने बताया कि अगर यहां का भारी पानी हजम करना है तो शराब पीना जरूरी है वरना 2-4 दिन में बीमार पड़ जाओगे. ऐसा मैं ने भी सुन रखा था, इसलिए हैरानी कम हुई. वैसे भी मैं तब शराब पीता था- होस्टल में भी और उस से पहले अपने गांव में भी.

वह शाम अच्छी गुजरी, तीनों ने मिल कर साथ खाना खाया और शराब भी पी. किसी लड़की को शराब पीते देखने का यह पहला अनुभव था. खाने के बाद 3-4 घंटे फिर बातचीत का दौर चला जो बस्तर की जिंदगी पर केंद्रित था.

उन दोनों ने मु झे बताया कि यहां के आदिवासियों की हालत वाकई खराब है. वे बेहद गरीब हैं और सभी लोग उन का शोषण करते हैं. किसी सरकारी महकमे में मुलाजिम काम नहीं करते. मास्टर और पटवारी तक महीनों नहीं आते. असल राज सूदखोर बनियों का चलता है जो तगड़े ब्याज पर आदिवासियों को पैसा देते हैं और हाड़तोड़ मेहनत कराते हैं. सरकारी योजनाएं कागजों पर चलती हैं जिन का 75 फीसदी हिस्सा भोपाल में ही डकार लिया जाता है. आदिवासी जानकारियों के अभाव में योजनाओं का फायदा नहीं उठाते और कर्ज बैंक से लेने के बजाय साहूकारों से ही लेते हैं.

यहां राजनीति  चुनाव के वक्त ही दिखती है. कांगे्रस यहां धीरेधीरे मजबूत हो रही है जिस का महेंद्र कर्मा नाम का युवक तेजी से लोकप्रिय हो रहा है. कम्युनिस्टों का वजूद खत्म सा हो चला है. अब केवल मनीष कुंजाम ही विधानसभा चुनाव जीत पाते हैं. नक्सलियों का दबदबा बढ़ रहा है और सभी कर्मचारी व पैसे वाले आदिवासी हर तरह से उन की सहायता करते हैं. नक्सलियों और पुलिस वालों की मुठभेड़ आम है जिन में आरोपी बेकसूर आदिवासियों को ही बनाया जाता है. नक्सली हालांकि उन्हें हिफाजत देते हैं पर पुलिस वाले भारी पड़ते हैं. यहीं बाहर सड़क पर पुलिस चौकी है जो अकसर खाली पड़ी रहती है. जब किसी मंत्री या बड़े अधिकारी का दौरा होता है तो दंतेवाड़ा या बीजापुर से 2-4 पुलिस वाले आ कर बैठ जाते हैं.

बातचीत के आखिर में राजेश ने कायदे की एक बात कही जो उस के दिल का दर्द था कि आप ही बताइए, इन भोलेभाले गरीब आदिवासियों का गुनाह क्या है? यहां बिजली नहीं है, पीने का साफ पानी नहीं है, स्कूल न के बराबर हैं, रोजगार नहीं है. मेहनती आदिवासी गुलामों सी जिंदगी जी रहे हैं. साल और सागौन के पेड़ों की कीमती लकड़ी की तस्करी होती है, माइनिंग के सारे ठेके रसूखदार लोगों के पास हैं. बस्तर का सारा पैसा प्राकृतिक संसाधन और मानव श्रम पैसे वालों के लिए है, आदिवासियों के लिए तो जल, जंगल, जमीन कुछ नहीं है.

ऐसे में अगर कुछ माओवादी आदिवासियों को उन के अधिकारों के बाबत सम झाते हैं तो क्या गलत करते हैं? अगर वे घूसखोर कर्मचारियों को सरेआम सजा देते हैं तो सरकार तिलमिलाती क्यों है? वे पूंजीवादियों को यहां से उखाड़ने का नेक काम करते हैं तो उन्हें आतंकी क्यों कहा जाता है?

कुछ दिनों बाद यही बातें मु झे नक्सली प्रचार सामग्री में आंकड़ों की शक्ल में मिलीं जो वाकई चिंतनीय थीं कि आदिवासियों में साक्षरता दर महज 22 फीसदी है. 60 फीसदी मैट्रिक के पहले स्कूल छोड़ने को मजबूर हो जाते हैं और तकरीबन 50 फीसदी आदिवासी गरीबी रेखा के नीचे  जीते हैं.

इन सब से ज्यादा हैरान कर देने वाली बात यह उदाहरणों सहित बताई गई थी कि अब तक तकरीबन 30 फीसदी आदिवासी विभिन्न विकास परियोजनाआें के नाम पर विस्थापित हो चुके हैं. यह संख्या तकरीबन डेढ़ करोड़ होती है, इन बातों ने मु झे नए सिरे से सोचने का मौका दिया. सरकारी स्वार्थ आज भी कायम है, छत्तीसगढ़ सहित ओडिशा और पश्चिम बंगाल में टाटा, एस्सार, कोस्को और वेदांता जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को पलकपांवड़े बिछा कर बुलाया जा रहा है.

इन कंपनियों के आका सरकारी अधिकारियों की तरह नक्सलियों को नजराना देते हैं जिसे लेवी कहा जाता है. तकरीबन 600 करोड़ रुपए सालाना की लेवी नक्सलियों की जेब में जाती है, नक्सली इन कंपनियों को सरकारी अधिकारियों की तरह उखाड़ कर नहीं फेंक सकते इसलिए लेवी ले लेते हैं, जिस से उन के अभियान में पैसों की कमी आड़े नहीं आती.

ये बातें भैरमगढ़ के रहते नहीं, 2005 के बाद मु झे सम झ आई थीं. सम झ यह भी आया कि यही बहुराष्ट्रीय कंपनियां नक्सली आंदोलन को तबीयत से बदनाम कर सरकार और नक्सलियों के बीच खाई खोदने का काम कर रही हैं.

दूसरे दिन से मैं ने यह सब देखा और महसूस किया कि वाकई यहां के आदिवासी जिल्लत और जलालत की जिंदगी जी रहे हैं. उन के नाम पर आया अरबों रुपया पूंजीपति, उद्योगपति और नेता डकार रहे हैं. उन्हें इस से कोई मतलब नहीं, उलटे उन का याराना शोषकों से है. चुनावों के पहले शराब पानी की तरह बहाई जाती है जिस से आदिवासी पीपी कर खोखले होते रहें.

खुद अपने विभाग की हालत मैं ने देखी कि छोटे आदिवासी किसानों के लिए आया खाद, बीज, कृषि उपकरण वगैरह गीदम, दंतेवाड़ा, बीजापुर और जगदलपुर के गैर आदिवासी व्यापारियों में बंट जाता है और मु झ सरीखे छोटेबड़े कर्मचारी चुपचाप ये सब देखते रहते हैं क्योंकि नौकरी करना उन की मजबूरी जो है. दाल क्या होती है यह आदिवासी नहीं जानते. वे चावल का मांड़ खाते हैं या फिर आलू सस्ता होने पर उस की सब्जी कभीकभार खा लेते हैं. गेहूं की रोटी ये लोग उस के महंगा होने के कारण नहीं खा पाते. यह सुना भी सच निकला कि बस्तर के आदिवासी मेढक और  झींगुर तक भून कर खा जाते हैं, यह उन के जंगलीपन का जीताजागता उदाहरण है जिसे मु झ जैसे लोग पिछड़ापन कहते हैं.

यह अधिकारी रुक कर एक लंबी सांस लेने के बाद बताता है, छत्तीसगढ़ के अलग राज्य बनने के पहले तक मैं वहां रहा फिर 2001 में मध्य प्रदेश आ गया. सुकमा मैं कई बार गया. वह सचमुच नक्सली गतिविधियों का जंक्शन है. नक्सलियों से कई दफा मैं मिला, उन की आर्थिक मदद भी अपनी मरजी व हैसियत के मुताबिक की और आदिवासियों को सम झाया कि उन के लिए भला क्या है और बुरा क्या.

फिर कल सुकमा में थोक में कांग्रेसी नेताओं की हत्या की खबर आज देखी और पढ़ी. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी का यह बयान भी पढ़ा कि यह लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमला है तो मु झे उन पर तरस आया कि काश एक दफा ये लोग बस्तर जाएं, वहां की बदहाली देखें. फिर बताएं कि वहां कौन सा लोकतंत्र है, और है भी कि नहीं. 2 साल पहले ही मैं सरकारी काम से बस्तर गया था. तब काफीकुछ बदला दिखा. नई इमारतें दिखीं, कुछ विकास कार्य भी दिखे पर वे कुछ ही थे और 15 साल की मिआद के हिसाब से कतई संतोषजनक और मुकम्मल नहीं थे. वहीं मालूम करने पर पता चला कि राजेश और कुसुम दोनों का तबादला रायगढ़ हो गया है.

सुकमा में जो हुआ…, यह अधिकारी कहता है, वह अप्रत्याशित नहीं था, न ही लोकतंत्र पर हमला था बल्कि लोकतंत्र की पोल खोलता हुआ हादसा था. देशभर के नेता लाख चिल्लाते रहें पर आज नहीं तो कल उन्हें नक्सलियों के साथ बैठ कर बात करनी ही पड़ेगी क्योंकि न केवल बस्तर बल्कि पूरे रेड कौरीडोर में नक्सली सरकार से ज्यादा मजबूत हैं और 60 फीसदी आदिवासी उन से इत्तफाक रखते हैं इसलिए महेंद्र कर्मा का सलवा जुडूम आंदोलन ज्यादा नहीं चला. अदालत ने तो उसे एक तरहसे गैर कानूनी ही करार दे दिया था.

और अब जब दरभा घाटी का सच सामने है तब शायद सोनिया गांधी या मनमोहन सिंह यह बता पाएंगे कि नक्सली लोकतंत्र के दुश्मन कैसे हैं? हकीकत तो यह है कि जहांजहां मुक्त क्षेत्र यानी रेड कौरीडोर में नक्सली हैं वहां लोकतंत्र न पहले कभी था न आज है. वहां बाबू, सिपाही, पटवारी, व्यापारी राज आजादी के बाद ही कायम हो गया था, जिसे सरकार ने फलनेफूलने दिया.

भैरमगढ़ के एक बुजुर्ग आदिवासी ने एक बार बातोंबातों में बताया था कि गोरों का राज बड़े सुकून का था. हम शांति से यहां रहते थे. कोई परेशान नहीं करता था पर इन कालों का राज आया तो हमारा जीना हराम हो गया. थोड़ीबहुत सड़कें बनाने के एवज में इन्होंने हमारा चैन छीन लिया. सरकारी मुलाजिम आ कर हम पर तरहतरह के नियम व कायदेकानून थोपने लगे. न मानने पर हमें गाली देते थे और मारते थे. उन की बुरी नजर हमेशा हमारी औरतों पर रहती थी. आजादी के बाद से दीगर जातियों के लोग आए. वे हमें हिकारत से देखते थे, राजस्व विभाग के लोग आ कर अकसर हमें कहीं और बस जाने को कहते थे. कभी सड़क तो कभी कारखाना बनाने के नाम पर हमें तंग किया जाने लगा.

रहासहा चैन सरकारी दफ्तरों ने छीन लिया, गोरों की हुकूमत में हम कभी अपने टोले के बाहर नहीं गए पर अब जाना पड़ता है, कभी थाने तो कभी तहसील तो कभी अदालत. थोड़ाबहुत पैसा सरकारी योजनाओं का मिला पर उस से लाख गुना ज्यादा कीमत हम आदिवासियों ने चुकाई. सहारा नक्सलियों के आने के बाद मिला जिन्होंने सरकारी ज्यादतियों से हमें आजाद कराया. उन्होंने हमारी बोली सीखी, रीतिरिवाज अपनाए, हमारा खानपान अपनाया और हमें प्यार से गले लगाया.

सब से बड़ी वारदात

छत्तीसगढ़ में इस साल नवंबर में विधानसभा चुनाव होने हैं. सत्ता बरकरार रखने के लिए सत्तारूढ़ भाजपा और सत्ता वापस हासिल करने के लिए कांग्रेस ने तैयारियां शुरू कर दी थीं. भाजपा विकास यात्राओं के जरिए अपने 8 साल के कार्यकाल की उपलब्धियां गिना रही थी तो कांग्रेस परिवर्तन यात्राओं के जरिए मतदाताओं को बता रही थी कि भाजपा ने कुछ खास नहीं किया है, इसलिए अब बदलाव लाने के लिए वोट डाला जाए.

इतनी भीषण गरमी में भी दोनों दलों के नेता बेवजह पसीना नहीं बहा रहे थे. दरअसल, दोनों ही बारिश के पहले दूरदराज के अंचलों में एक बार प्रभावी उपस्थिति दर्ज करा लेना चाह रहे थे.

25 मई की परिवर्तन यात्रा में राज्य के तमाम कांग्रेसी शामिल हुए थे. जिन में विद्याचरण शुक्ल, महेंद्र कर्मा, नंद कुमार पटेल आदि भी थे. अजीत जोगी, जो यात्रा में औपचारिक हाजिरी दर्ज करा कर हैलीकौप्टर से वापस लौट गए थे. कांग्रेसी काफिले में 22 कारें थीं और सभी लोग जोश में थे.

तयशुदा कार्यक्रम के मुताबिक, कांग्रेसी काफिले को सुकमा में सभा करने के बाद शाम को गाढ़ीरास होते हुए दंतेवाड़ा पहुंचना था पर ऐन वक्त पर इस का रास्ता केशनूर की तरफ कर दिया गया. सुकमा की सभा के बाद जैसे ही काफिला तोंगपाल से

8 किलोमीटर दूर झीरम घाटी के पास बने मंदिर की पुलिया पर पहुंचा तो नक्सलियों ने ब्लास्ट कर दिया. ब्लास्ट के पहले 4 गाडि़यां उन्होंने गुजरने दीं. यह हमला पूर्व नियोजित था. जिस में कांग्रेस के ही किसी भेदिये ने नक्सलियों का साथ दिया था. वह कौन है, इस की जांच चल रही है.

काफिला रुकते ही तकरीबन 1,200 नक्सलियों ने काफिले को घेर लिया. इस के बाद शुरू हुआ नक्सलियों का खूनी खेल जो उन्होंने बेहद इतमीनान से खेला. कहां कितनी पुलिस और अर्द्धसैनिक बल हैं, यह उन्हें हमेशा की तरह किसी भी सरकारी अधिकारी से ज्यादा सटीक तरीके से मालूम था. काफिले में शामिल नेताओं के नाम उन्हें रटे पड़े थे. कांग्रेसी चारों तरफ से घिर गए थे. नक्सली एकएक कार के पास गए. वे नाम ले कर पूछ रहे थे कि महेंद्र कर्मा कहां है, नंद कुमार पटेल कहां है, दिनेश कहां है, सत्यनारायण शर्मा कहां है.

कारों से बाहर निकल कर खड़े काग्रेसियों और सुरक्षाकर्मियों ने जवाब नहीं दिया तो नक्सलियों ने कारों से उतार कर लोगों को मारना शुरू कर दिया. वे पूरी तरह वहशी हो गए थे और सब से पहले अपने खास और सब से बड़े दुश्मन महेंद्र कर्मा को मार डालना चाहते थे. और किसकिस को मारना है उस की लिस्ट उन के हाथ में थी. 2-4 लोगों को गोली लगी तो महेंद्र कर्मा खुद कार से बाहर आए और बोले, मैं हूं महेंद्र कर्मा, मेरे साथियों को मत मारो.

देखते ही देखते तकरीबन 50 गोलियां महेंद्र कर्मा के शरीर में चस्पां हो गईं. कितना जहर और नफरत उन के दिलोदिमाग में भरी थी इस का अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता. नक्सलियों ने उन की लाश पर नाच किया, इन में औरतें भी शामिल थीं. इस दौरान वे नक्सली ‘माओवाद जिंदाबाद’ के नारे लगाते जा रहे थे और यह संदेश भी दे रहे थे कि अगर औपरेशन ग्रीन हंट बंद नहीं हुआ तो कांग्रेस के बाकी नेता भी इसी तरह मारे जाएंगे.

इस के बाद मौत के इस नंगे नाच में जो भी सामने आया, नक्सलियों ने उसे मारा. कांग्रेसी विधायक उदय मुदलियार भी मारे गए. छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नंदकुमार पटेल और उन के बेटे दिनेश को तकरीबन 50 मीटर दूर जंगल में ले जा कर गोलियां मारी गईं.

सभी को मारना नक्सलियों का मकसद नहीं था. कुछ को वे जिंदा इसलिए जाने देना चाहते थे कि दहशत का यह नजारा देश देखे और ऐसा हुआ भी. विद्याचरण शुक्ल को 3 गोलियां लगीं.

महेंद्र कर्मा को जेड प्लस सुरक्षा मिली हुई थी. उन के एक गार्ड ने नक्सलियों पर फायरिंग की पर गोलियां खत्म हो गईं तो आखिरी गोली उस ने खुद को यह कहते मार ली कि मैं आप को बचा नहीं पाया. इस हादसे में तकरीबन 30 कांग्रेसी और सुरक्षा गार्ड मारे गए.

मंजर यह था कि लाशें सड़क पर बिछी थीं और घायल लोग जमीन पर पड़े कराह रहे थे, शाम तकरीबन 5 बजे के वक्त तीखी धूप इस घाटी पर थी. जैसेजैसे खबर जगदलपुर, रायपुर होते दिल्ली पहुंची तो देश अवाक् रह गया. तब किसी ने नहीं कहा कि यह कैसा लोकतंत्र है जिस में उस के नुमाइंदे ही सुरक्षित नहीं हैं.

बस्तर में दूरदूर तक घायलों को कोई राहत या चिकित्सा सुविधा नहीं थी. अधिकांश लोग वक्त पर इलाज न मिलने से मरे. विद्याचरण शुक्ल को शुरुआती चिकित्सा जगदलपुर में दी गई. इस के बाद उन्हें एअर ऐम्बुलैंस से गुड़गांव के मेदांता अस्पताल भेजा गया.

खिसियाहट और बेचारगी

जैसे ही हादसे की खबर फैली तो बजाय मुद्दे की बात होने के राजनीति होने लगी. छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी रायपुर में मीडिया के सामने रोते नजर आए. उन्होंने तुरंत राज्य सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग करते यह भी कहा कि छत्तीसगढ़ रमन सिंह से नहीं चलने वाला.

पहली हवा यह उड़ी, जो सच भी थी, कि छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार ने कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा को पर्याप्त सुरक्षा उपलब्ध नहीं कराई थी. सारी की सारी पुलिस फोर्स भाजपा की विकास यात्रा में लगा दी गई थी. विकास यात्रा की दैनिक समीक्षा सुरक्षा के मद्देनजर की जा रही थी. जबकि परिवर्तन यात्रा में नाममात्र को खाकी वरदी वाले थे. मुख्यमंत्री रमन सिंह को स्थायी एनएसजी की सुरक्षा मिली हुई है, इस के अलावा विकास यात्रा, जहां से भी गुजर रही थी वहां मकानों तक में सुरक्षाकर्मी तैनात किए गए थे.

मनमोहन सिंह ने हादसे को दुखद बताया पर सोनिया गांधी बेहद  झल्लाई नजर आईं. उन का कहना था कि यह लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमला है. राहुल गांधी 25 मई की आधी रात को ही रायपुर पहुंचे और कांग्रेसियों की हिम्मत बंधाई.

मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी दूसरे दिन दोपहर रायपुर पहुंचे, मृतकों को श्रद्धांजलि दी, घायलों से मुलाकात की और मृतक कांग्रेसियों के परिजनों को सांत्वना दी, पर उन्होंने छोटे कांग्रेसियों की तरह रमन सिंह पर निशाना नहीं साधा.

भाजपा की तरफ से पहला बयान अध्यक्ष राजनाथ सिंह का आया जिस में इस हादसे पर राजनीति न करने की सलाह दी गई थी. राहुल गांधी भी थोड़ी देर बाद यही बात कहते नजर आए. केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश दिल्ली में यह कहते  झल्लाए कि उन नक्सलियों से कोई बात नहीं की जाएगी जिन की हमारे लोकतंत्र में कोई आस्था ही नहीं है.

2 दिन बाद ही देश के तमाम दल और राजनेता आपसी बैर भुला कर नक्सली मुद्दे पर एकजुट दिखे कि इन के आगे घुटने नहीं टेकने हैं, मिलजुल कर इन का मुकाबला करना है, और दरभा घाटी की कुर्बानियों को बेकार नहीं जाने दिया जाएगा.

पर हकीकत में होती राजनीति ही रही. छत्तीसगढ़ के एक वरिष्ठ पत्रकार राजीव रंजन श्रीवास्तव की मानें तो अफसोस की बात तो यही है कि 40 सालों से नक्सली मुद्दे पर राजनीति ही हो रही है. सुरक्षा के मामले में तो रमन सिंह की चूक और भेदभाव साफसाफ दिखाई दे रहे हैं पर असल मुद्दे यानी नक्सली मुहिम पर नेता बात करने से हमेशा की तरह कतरा रहे हैं. उलट इस के, एक दूसरे वरिष्ठ पत्रकार की नजरों में यह गहरा राजनीतिक षड्यंत्र है जिसे जांच में उजागर हो जाना है. नक्सली एकाएक ही बगैर राजनेताओं की मिलीभगत के ऐसी वारदात को तकनीकी तौर पर अंजाम नहीं दे सकते.

बात सच भी है. वजह, छत्तीसगढ़ में नक्सली वारदात नई बात नहीं. आएदिन नक्सली गांव वालों, कर्मचारियों, जवानों और नेताओं को मारते रहते हैं. राजीव रंजन कहते हैं कि अभी कुछ दिन पहले ही नक्सलियों ने नहीं बल्कि कोबरा बटालियन ने 8 ग्रामीणों को मार गिराया था, तब पत्ता भी नहीं हिला था. मानो उन की जान की कोई कीमत ही न हो.

नक्सलियों से निबटने के नाम पर केंद्रीय बलों के हजारों जवान छत्तीसगढ़ में डेरा डाले हुए हैं. ये जवान आदिवासी औरतों से अपनी यौन इच्छाएं पूरी करने के लिए उन के साथ जबरदस्ती करते हैं, बूटों से उन्हें मारते हैं, पर नक्सलियों से थर्राते हैं. वजह, इन की ज्यादतियों की शिकायत जब नक्सलियों तक पहुंची तो उन्होंने जवानों को मारना शुरू कर दिया.

अप्रैल 2010 में तो नक्सलियों ने सीआरपीएफ के 75 जवानों की हत्या कर दी थी. तब बेवजह अरुंधति राय ने दंतेवाड़ा के लोगों को लाल सलाम नहीं भेजा था. अरुंधति सरीखे तमाम मानव अधिकार कार्यकर्ताओं को मालूम है कि हिफाजत के नाम पर तैनात ये जवान दरअसल आदिवासियों पर इस तरह का जुल्मोसितम ढाते हैं.

नई नक्सली नीति की घोषणा के पहले ही केंद्र सरकार ने हजारों जवान और छत्तीसगढ़ भेज दिए जो दरभा नरसंहार का बदला आदिवासियों से लें तो बात कतई हैरानी की नहीं होगी.

क्या यही रास्ता है

‘नक्सलियों के आगे घुटने नहीं टेकेंगे’ और ‘उन से कोई बातचीत नहीं करेंगे’ जैसी अपरिपक्व बचकानी बातें राजनीतिक जिद की देन हैं. लगता नहीं कि देश के नेता चाहे वे किसी भी दल के हों, नक्सली आंदोलन का मर्म सम झते हैं.

असल समस्या नक्सली हिंसा नहीं है. यह हिंसा तो शोषण और भेदभाव से संगठित रूप से उपजी है और यह आदिवासियों और शोषितों के उस वर्ग की देन है जो पढ़ालिखा है, बुद्धिजीवी है और लोकतंत्र के माने सम झता है. दरभा घाटी के वीभत्स नेता संहार को सलवा जुडूम से जोड़ कर देखा जाना कतई अचरज की बात नहीं बल्कि इस सच का हादसे के बाद बड़े पैमाने पर उजागर हो जाना सुखद बात है कि खुद महेंद्र कर्मा नक्सलियों की तर्ज पर आदिवासी युवाओं को हथियार चलाना और हिंसा करना सिखा रहे थे.

हिंसा से परहेज करने वाले कांग्रेसी तो कांग्रेसी भाजपाई भी सलवा जुडूम का समर्थन करने लगे थे. साल 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे नाजायज करार देते हुए इस पर रोक लगाने का फैसला दिया था पर तब तक बात काफी बिगड़ चुकी थी. वजह, सलवा जुडूम के कार्यकर्ता हाथ में हथियार लेते ही आदिवासियों पर जुल्म ढाने लगे थे जो कम से कम नक्सलियों को तो गवारा नहीं था.

समस्या की गंभीरता का अंदाजा या एहसास किसे है, इस सवाल का

जवाब कोई एकदम से नहीं दे सकता. छत्तीसगढ़ के ही मानवाधिकार कार्यकर्ता

डा. विनायक सेन का मुंह बंद करने के लिए भाजपा और रमन सिंह काफी निचले स्तर पर आ गए थे. विनायक सेन वही कह रहे थे जो मध्य प्रदेश के कृषि अधिकारी ने बताया कि कैसेकैसे आदिवासियों का शोषण होता है, उन पर पुलिस अत्याचार ढाती है, उन के साथ जातिगत भेदभाव किया जाता है, उस से बंधुआ मजदूर की तरह मजदूरी कराई जाती है, आदिवासी औरतों का बलात्कार किया जाता है और उन्हें पिछड़ा बनाए रखने के लिए मूलभूत सुविधाओं से वंचित रखा जाता है.

नक्सलवादी आंदोलन इन्हीं ज्यादतियों के खिलाफ शुरू हुआ था जो अब आक्रोशित आदिवासी चेतना का पर्याय बन चुका है.

विनायक सेन की पत्नी इलिना सेन ने वर्धा में एक अनौपचारिक बातचीत में विस्तार से हमें छत्तीसगढ़ के अंदरूनी हालात बताए थे. बेहद व्यथित हो कर उन्होंने कहा था कि हम हिंसा का समर्थन किसी भी शर्त पर नहीं करते पर आदिवासियों के हक में अपनी बात तो कहेंगे और यह हक हम से कोई सरकार या अदालत नहीं छीन सकती.

नक्सल प्रभावित इलाकों में नक्सलियों की समानांतर सरकार चलती है. भीतरी इलाकों में तो हालत यह है कि लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकार का कोई वजूद ही नहीं है. शायद ही कोई, खासतौर से मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, यकीन करे कि मंडला जिले के कई इलाकों में नक्सलियों का फरमान चलता है. और शिवराज सिंह कहते हैं कि मध्य प्रदेश में नक्सली नहीं हैं.

फिर छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, ओडिशा,  झारखंड और आंध्र प्रदेश के हालात का अंदाजा सहज लगाया जा सकता है कि वहां के आदिवासी इलाकों में लोकतंत्र नहीं, नक्सली तंत्र चलता है और जिसे आम लोगों का समर्थन मिला हुआ है. और कोई राज्य या केंद्र सरकार नहीं चाहती कि यह बात उजागर हो, इसलिए बात हमेशा की तरह निबटने की की जा रही है.

इस दफा चूंकि थोक में कांग्रेसी नेता मारे गए हैं इसलिए कांग्रेस तिलमिला उठी है पर उस की कुछ न कर पाने की बेबसी भी साफ दिख रही है. यह बेबसी राजनीतिक कभी नहीं थी, इस बार नक्सलियों ने बना दी है और साफ कर दिया है कि उन की बात न सुनी गई तो इस हादसे को आगाज भर माना जाना चाहिए.

कांग्रेस और भाजपा दोनों ही सवर्णवाद की पोषक पार्टियां हैं जिन्होंने राजनीतिक तौर पर तो मार्क्सवादियों को खत्म सा कर दिया पर वैचारिक स्तर पर माओवादियों को नहीं कर पा रहीं. वजह, नक्सली राजनीति नहीं करते. उन्हें मालूम है कि सत्ता का स्वाद लगने का मतलब है अपने मकसद से भटकना, जो वे किसी भी कीमत पर नहीं चाहते.

दरभा हमले की तह में असल बात यह है कि आदिवासियों को जंगली और जानवर न सम झा जाए, वे भी देश के आम नागरिक हैं जिन से काफी कुछ इस लोकतंत्र ने छीना है जिस में सरकारी तंत्र ने इफरात से बेईमानी की. उन से खेतीकिसानी का हक छीना और विस्थापन के नाम पर खूब नचाया, भगाया. हालिया एक रिपोर्ट में उजागर यह बात अब कम चिंता की नहीं कि छत्तीसगढ़ में 3 लाख किसान कम हुए हैं और 7 लाख मजदूर बढ़े हैं. आदिवासी किसान से मजदूर क्यों होता जा रहा है, इस का जवाब और हल वक्त रहते नहीं ढूंढ़ा गया तो सरकार को ऐसे और हादसे  झेलने को तैयार रहना चाहिए.

ऐसा भी होता है

मैं आगरा से भोपाल झेलम ऐक्सप्रैस से जा रही थी. साथ में केंद्रीय हिंदी संस्थान के कुछ विदेशी छात्र झांसी घूमने जा रहे थे. एसी कोच के साथ समस्या रहती है कि शीशे में से झांक कर स्थान देखना पड़ता है. छात्रों के साथ 2 शिक्षक भी थे. ट्रेन काफी देरी से चल रही थी, इसलिए स्टेशन नियत समय पर नहीं आ रहे थे. शिक्षक हर स्टेशन झांक कर देख लेते थे. ग्वालियर पर गाड़ी रुकी तो शिक्षक ने एक छात्र से कहा, ‘‘देखो कौन सा स्टेशन है.’’ छात्र ने शीशे में से झांका. सामने लिखे को पढ़ा और बोला, ‘‘सर, महिला शौचालय स्टेशन आया है.’’

मैं ने खिड़की से देखा, सामने ही महिला शौचालय था, हंसतेहंसते बुरा हाल हो गया. वे छात्र हिंदी सीखने आए थे. उन्होंने अभी वर्णमाला और जोड़जोड़ कर पढ़ना ही सीखा था. अटकअटक कर विदेशी उच्चारण से हिंदी बोलने की कोशिश कर रहे थे.

डा. शशि गोयल, आगरा (उ.प्र.)

 

हमारे एक परिचित हैं. उन की अपनी छोटी सी फैक्टरी में मिक्सी के पार्ट्स बनते थे. अच्छा काम चल रहा था. 2 वर्ष पहले वर्कर्स के मन में बेईमानी आ गई. किसी तरह फैक्टरी के बाहर वाले ताले की डुप्लीकेट चाबी बनवा ली और रात में 4-5 घंटे काम करने लगे. जो सामान रात को बनता उसे छुट्टी के दिन बेच आते.

मालिक को घाटा होता गया और वर्कर्स मालामाल होते गए.कुछ महीने पहले फैक्टरी बेचने की नौबत आ गई. उन के वर्कर्स ने ही मिल कर फैक्टरी खरीद ली.

निर्मल कांता गुप्ता, कुरुक्षेत्र (हरियाणा)

 

कुछ समय पूर्व मेरे परिचित के बेटे को पीलिया हो गया. मैं उसे देखने अस्पताल गई तो वहां पर एक महिला मेरे परिचित से बोल रही थी, ‘‘यह धागा मैं अभिमंत्रित करवा कर लाई हूं. इसे पहना दो. दवाओं से कुछ नहीं होगा. पीलिया तो मंत्र से ही ठीक होता है.’’ चूंकि मैं ने ‘अंधविश्वास उन्मूलन’ हेतु अपनी एक कहानी में इसी बात का जिक्र किया था तो सोचा, चलो, क्यों न यथार्थ में इसे अमल में लाया जाए.

मैं ने उस महिला से कहा, ‘‘आप दोनों मेरे साथ आएंगी?’’ हामी भरते हुए वे मेरे साथ मैदान में आईं. वहां चींटियों का झुंड था, मैं ने कहा, ‘‘इस पर मंत्र किया हुआ धागा फेर दो.’’ उस ने वैसा ही किया. चींटियां अभी भी वैसे ही घूम रही थीं.

चींटी पाउडर मंगा कर छोड़ा तो प्रभाव दिखने लगा. अब मैं ने उन महिलाओं को समझाया कि किसी भी बीमारी के कीटाणु मंत्र पढ़ने से नहीं बल्कि दवाओं से मरते हैं. मैं खुश हो कर बुदबुदाई ‘ऐसा भी होता है.’

 बकुला पारेख, इंदौर (म.प्र.) 

दिल अपना

दिल अपना दर्द का भंडार बन गया

जैसे तमाम गमों का इश्तिहार बन गया

 

पहले तो न थे हम इस तरह के आदमी

देखा उसे जब से दिल बीमार बन गया

 

खुशियां तमाम रूठी रहीं हम से जहान की

जीना हमारा खुशी का इंतजार बन गया

 

वो प्यारभरे लमहे न जाने कहां गुम हुए

अब गुफ्तगू का मतलब तकरार बन गया

 

दुनिया झुकती है सिर्फ दौलत वालों से

दौलत जिसे मिली वही इज्जतदार बन गया.

 हरीश कुमार ‘अमित’

 

इन्हें भी आजमाइए

  1. यदि आप अपने बगीचे में पुदीना बोना चाहती हैं और साथ ही उसे ज्यादा फैलने से रोकना चाहती हैं तो कनस्तर में 3-4 छेद कर के उस में अच्छी तरह मिट्टी भर कर जमीन में गाड़ दें और उस में पुदीना बो दें. इस तरह उस की जड़ें ज्यादा दूर तक नहीं फैलेंगी.
  2.  बचे हुए आटे को खमीरा होने से बचाने के लिए उसे पोलिथीन की थैली में डाल कर फ्रीजर में रख दें. जब आटे की आवश्यकता हो, 15 मिनट पहले थैली को फ्रीजर से निकाल पानी में रख दें, फिर प्रयोग में लाएं.
  3.  ताजा फूलों का मौसम न हो तो 4-5 कांटेदार टहनियों पर मक्के के खिले दाने लगा कर उन्हें लाल, गुलाबी, पीले, हरे रंग में रंग दीजिए. फूलदान में लगा कर सजाइए, फूलों का काम देंगे.
  4.  सलाद के मुरझाए पत्तों को हरा करने के लिए उन्हें थोड़ी देर के लिए खाने वाले सोडे के घोल में डुबो दें. पत्ते हरे और ताजा हो जाएंगे.
  5.  यदि हरी सब्जी बासी हो गई हो तो ठंडे पानी में 1 नीबू का रस डाल कर सब्जी उस में भिगो दीजिए. सब्जी ताजी हो जाएगी.
  6.  साबुन को अधिक गलने से बचाने के लिए फौयल पेपर को साबुन के निचले भाग में चिपका दें. साबुन अधिक मात्रा में नहीं घुलेगा.

हमारी बेडि़यां

बिना किसी पूर्व सूचना के एक रोज मैं अपनी मामी से मिलने मथुरा से दिल्ली गई थी. हमारे स्वागत में उन्होंने तरहतरह के पकवान बनाए.

दूसरे दिन सूर्यग्रहण था. उन का मानना था कि ग्रहण के पहले बनी खानेपीने की चीजों को फिर से इस्तेमाल में नहीं लाया जा सकता. इसलिए सब के खाना खा लेने के बाद अनिष्ट की आशंका से उन्होंने बची हुई चीजों को फेंक दिया.

दूसरे दिन सूर्यग्रहण देखने के लिए समय से पहले परिवार के सभी सदस्य जग गए. जैसेजैसे ग्रहणकाल का अंत नजदीक आता गया, ग्रहण के अनिष्ट प्रभाव से बचने के लिए सब लोग कीर्तन, जप, हवन आदि में व्यस्त हो गए.

पूजा की समाप्ति तक अन्नजल भी ग्रहण नहीं किया जा सकता था. इसलिए हमें भूखेपेट मथुरा के लिए रवाना होना पड़ा. ऐसी हैं हमारे समाज की अंधविश्वास व आडंबरों की बेडि़यां जिन का कोई अर्थ नहीं.

नीरू श्रीवास्तव, मथुरा (उ.प्र.)

मैं एक सरकारी स्कूल में शिक्षक के पद पर कार्यरत हूं. कुछ वर्ष पूर्व मैं एक ग्रामीण क्षेत्र में स्थित विद्यालय में कार्यरत था. वहां पर अशिक्षा के कारण लोगों में कई प्रकार के अंधविश्वास व्याप्त थे. एक बार गांव में एक बुजुर्ग व्यक्ति की अचानक मृत्यु हो गई. उन की मृत्यु की सूचना उन के पुत्र को फोन से दी गई. गांव की एक मान्यता के अनुसार मातापिता की मृत्यु हो जाने पर उन के पुत्र का खानपान तब तक प्रतिबंधित रहता था जब तक कि मृतक का अंतिम संस्कार संपन्न न हो जाए.

गांव के मृत व्यक्ति का पुत्र मधुमेह रोग से पीडि़त था. उसे कुछ समय के अंतराल पर कुछ न कुछ आवश्यक रूप से खाना पड़ता था. परंतु गांव की मान्यता के अनुसार वह अपने पिता के अंतिम संस्कार संपन्न होने से पूर्व कुछ भी नहीं खा सकता था. श्मशानघाट गांव से लगभग

40 किलोमीटर की दूरी पर था. इस प्रकार अंतिम संस्कार में काफी समय लगने की संभावना थी. काफी देर कुछ भी न खाने के कारण उन के पुत्र की हालत खराब होने लगी एवं उस पर बेहोशी छाने लगी. हम लोगों के काफी समझाने पर भी वह कुछ खाने को तैयार नहीं हुआ. उस की बिगड़ती हालत को देखते हुए हमें डाक्टर को बुलाना पड़ा.

डाक्टर ने बताया कि लंबे समय से खाली पेट रहने से उस की हालत खराब हुई है. उस ने तुरंत कुछ भोजन करने को कहा व कुछ दवाएं दीं. मजबूर हो कर उसे तब कुछ भोजन दिया गया. उस के बाद ही शवयात्रा प्रारंभ हो सकी. गांव की एक गलत मान्यता के कारण मृत व्यक्ति के पुत्र का जीवन संकट में पड़ गया था.

प्रकाश अवस्थी, गंगोलीहाट (उत्तराखंड) 

जीवन की मुसकान

कभीकभी 2-4कदम साथ चलने  वाला अनजान राही भी आप के जीवन में मुसकान बिखेर देता है. मैं लखनऊ में थी. सुबह 10 बजे के करीब गोरखपुर से छोटे भाई आलोक का फोन आया.

‘सुधांशु कहां है?’’

‘‘बैंक गए हैं. क्यों? क्या बात है?’’

‘‘क्या कोई घर से बाहर गया है?’’

‘‘हां, शीतांशु दिल्ली गया है. कुछ बताओ तो, क्या हुआ है?’’ मैं घबरा गई.

‘‘आप घबराइए मत. सुनिए, मैं जो नंबर आप को बता रहा हूं उस नंबर से दिल्ली से फोन आया था कि आप के रिश्तेदार का बैग छूट गया है. इसलिए वे मु से बात कर लें.’’

मैं ने शीतांशु को फोन किया और पूछा, ‘‘तुम्हारा सब सामान तुम्हारे पास है?’’

शीतांशु ने अपना सामान चैक कर के बताया कि उस का लैपटौप वाला बैग नहीं है. मैं ने आलोक द्वारा बताए गए फोन नंबर को दे कर कहा कि इस नंबर पर बात कर लो. शीतांशु ने फोन पर बात की, और फोन पर बताई जगह पहुंच गया. वहां बस के ड्राइवर ने उसे बैग दे दिया. बैग में लैपटौप के साथ जरूरी कागज, डायरी और जरूरी सामान भी था.

बैग मिलने से शीतांशु के होंठों पर जो मुसकान फैली थी वह उस अनजान ड्राइवर के फोन का कमाल था जो उस ने बैग की डायरी से नंबर ले कर आलोक को किया था.

रेणुका श्रीवास्तव, लखनऊ (उ.प्र.)

 

मैं पति के साथ साप्ताहिक हाट में गई थी. भीड़ में लोग एकदूसरे को धक्का दे कर आगे बढ़ रहे थे. हम भी एक हाथठेले के पास सब्जी खरीदने के लिए खड़े हो गए. तभी एक सज्जन स्कूटर से तेज हौर्न बजाते हुए आए और धक्का दे कर आगे बढ़ने का प्रयास करने लगे. यह देख कर मेरे पति कहने लगे, ‘‘यहां पर लोगों के पैदल चलने की जगह नहीं है और आप हैं कि गाड़ी ले आए,’’ इस पर वे सज्जन झगड़ने लगे. मैं ने पति को आगे ले जाना ही बेहतर समा.

थोड़ी दूर जाने के बाद इन्होंने अचानक जेब टटोली तो पर्स गायब था. हम ने सोचा उसी हाथठेले के पास चलते हैं, जहां हमारा ागड़ा हुआ था. हम वहां पहुंचे तो वे सज्जन दिखाई दिए जिन से हमारा ागड़ा हुआ था. हमें देखते ही वे बोले, ‘‘मैं आप को ही ढूंढ़ रहा था, हमारे ागड़े में आप का पर्स मेरे स्कूटर पर गिर गया था, जिसे मैं लौटाने आया हूं. देख लीजिए, पैसे पूरे हैं या नहीं.’’

यह सुन कर हमें शर्मिंदगी सी महसूस हुई कि जिस व्यक्ति से थोड़ी देर पहले बहस हुई थी वह इतना ईमानदार निकला. हम ने उसे धन्यवाद दिया, पर आगे कुछ न बोल पाए.            

ज्योति सराफ, भोपाल (म.प्र.) 

टूटे सपने

सपने कांच के गिलासों की तरह

रोज टूटते हैं

कभी मन की अलमारी से निकालते

हाथ से छूट जाते

कभी धोने, पोंछने, संवारने में

फिसल कर टूट जाते

कोई दुख की गरम चाय

सह नहीं पाते हैं

कोई समय के हाथ के दबाव से

चटक जाते हैं

कोई वास्तविकता के फर्श पर

गिर चूर हो जाते

कोई कड़वी आलोचना के भार तले

दब जाते

कभी किसी का क्रोध

सपनों को पटक देता है

दोष किसी का हो

टूटते तो सपने ही हैं

नए, पुराने, छोटे, बड़े, सहेजे, संभाले

अपने ही हैं

बेबस मैं हाथों से

उन के टुकड़े बटोर लाती हूं

और विस्मृति के डब्बों में

फेंक आती हूं

सोचती हूं, सब भूलभाल

नए सपने लाने को

मन के रीते शैल्फ पर

फिर से सजाने को

पर कभीकभी टूटे सपने की किरिचें

दिल में चुभ जाती हैं

और उन की कसक देर तक

दुखाती, रुला जाती है.

– जसबीर कौर

कानून बने, नौकरशाह 5 साल तक निजी संगठन से न जुड़ें

हमारे यहां षष्ठिपूर्ति यानी 60 साल की उम्र को जीवन का महत्त्वपूर्ण पड़ाव माना जाता है. उम्मीद की जाती है कि अब आदमी सांसारिक जीवन से उठ कर अपने अनुभव के आधार पर नई पीढ़ी को उन्नति की राह पर बढ़ने में सलाहमशविरा देगा.

लेकिन हमारी लोकतांत्रिक परंपरा ने इस उम्र को नया स्वरूप दे दिया है. राजनीति में 60 के बाद ऊंचे ओहदे मिलने लगे हैं और 80 साल तक की उम्र आतेआते आदमी को प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति जैसे महत्त्वपूर्ण पदों पर बिठाया जाने लगा है.

सरकारी सेवा में ‘चांदी की चमची’ के साथ शामिल होने वाले नौकरशाह पूरी जिंदगी साहब बन कर राज करते हैं और अपने हकों व सुविधाओं का भरपूर भोग करते हुए जब शीर्ष सरकारी ओहदे से सेवानिवृत्त होते हैं तो निजी कंपनियों से उन के लिए 25 की उम्र के जैसे नौकरियों के प्रस्ताव आने लगते हैं.

हालत यह है कि शीर्ष पदों की नौकरी छोड़ कर नौकरशाह दोगुनी रकम में निजी नौकरियों पर जा रहे हैं. सरकार ने इसे देखते हुए सेवानिवृत्ति के बाद 2 साल तक नौकरशाह के लिए निजी कंपनी की नौकरी करने पर रोक लगाई है लेकिन यह अवधि कम से कम 5 साल किए जाने की जरूरत है. जो नौकरशाह 60 साल की उम्र में सरकार के एक विभाग के शीर्ष पद पर रहते हुए 60 लाख रुपए सालाना पा रहा था वह 62 साल की उम्र में एक निजी कंपनी में 3 करोड़ रुपए सालाना पा रहा है. असली बात यह है कि ये तीरंदाज नहीं हैं बल्कि सरकार से जो लाभ निजी कंपनियों को चाहिए, वह मिलता है, इसलिए कंपनियां उन बूढ़े बाबुओं के साथ करोड़ों में खेलती हैं.

सूने पड़े हवाई अड्डों की सुध लेनी जरूरी

आम आदमी यह खबर सुन कर खुश होता है कि उस के इलाके में सड़क आ रही है. नई रेललाइन बिछ रही है और रेलवे स्टेशन बन रहा है या हवाई पट्टी का निर्माण हो रहा है. खबर पाते ही प्रस्तावित निर्माण क्षेत्र के आसपास जमीन के दाम बढ़ने लगते हैं और वह क्षेत्र शहरीकरण की तरफ एक कदम और आगे बढ़ जाता है.

इस तरह सोचने वाले लोगों को यह आंकड़ा देख कर निराशा होगी कि देश में 32 हवाई अड्डे ऐसे हैं जिन का संचालन निष्क्रिय पड़ा हुआ है. इन हवाई अड्डों के निर्माण और देखरेख का काम भारतीय विमानन प्राधिकरण करता है. इन हवाई अड्डों का संचालन पूरी तरह से ठप पड़ा हुआ है. इन के अलावा 6 हवाई अड्डे ऐसे हैं जहां दिन में सिर्फ एक ही उड़ान का संचालन होता है जबकि 9 में प्रतिदिन 2 तथा 6 में 3 से 4 उड़ानों का दैनिक संचालन होता है.

सरकार को घरेलू उड़ानों के नैटवर्क को बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए. यह काम तब ज्यादा संभव है जब कम भाड़ा चार्ज करने वाली विमान कंपनियों के विमानों को आसमान में उड़ने की सहूलियत मिले. सरकार शायद इस दिशा में काम भी कर रही है लेकिन उस की रफ्तार बहुत धीमी है.

अगले 3 वर्षों में सरकार की योजना इस तरह की विमान कंपनियों के लिए 400 करोड़ रुपए जुटाने की है लेकिन यह योजना तब ही सफल हो सकती है जब आम आदमी के लिए हवाई सफर की दिशा में ईमानदारी से काम शुरू होगा.

 

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