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तुमने क्यों कहा मैं सुंदर हूं : क्या दो कदम ही रहा दोनों का साथ

सरकारी नौकरियों में लंबे समय तक एकसाथ काम करते और सरकारी घरों में साथ रहते कुछ सहकर्मियों से पारिवारिक रिश्तों से भी ज्यादा गहरे रिश्ते बन जाते हैं, मगर रिटायरमैंट के बाद अपने शहरोंगांवों में वापसी व दूसरे कारणों के चलते मिलनाजुलना कम हो जाता है. फिर भी मिलने की इच्छा तो बनी ही रहती है. उस दिन जैसे ही मेरे एक ऐसे ही सहकर्मी मित्र का उन के पास जल्द पहुंचने का फोन आया तो मैं अपने को रोक नहीं सका.

मित्र स्टेशन पर ही मिल गए. मगर जब उन्होंने औटो वाले को अपना पता बताने की जगह एक गेस्टहाउस का पता बताया तो मैं ने आश्चर्य से उन की ओर देखा. वे मुझे इस विषय पर बात न करने का इशारा कर के दूसरी बातें करने लगे.

गेस्टहाउस पहुंच कर खाने वगैरह से फारिग होने के बाद वे बोले, ‘‘मेरे घर की जगह यहां गेस्टहाउस में रहने की कहानी जानने की तुम्हें उत्सुकता होगी. इस कहानी को सुनाने के लिए और इस का हल करने में तुम्हारी मदद व सुझाव के लिए ही तुम्हें बुलाया है, इसलिए तुम्हें तो यह बतानी ही है.’’ कुछ रुक कर उन्होंने फिर बोलना शुरू किया, ‘‘मित्र, महिलाओं की तरह उन की बीमारियां भी रहस्यपूर्ण होती हैं. हर महिला के जीवन में उम्र के पड़ाव में मीनोपौज यानी प्राकृतिक अंदरूनी शारीरिक बदलाव होता है, जो डाक्टरों के अनुसार भी कोई बीमारी तो नहीं होती, मगर इस का मनोवैज्ञानिक प्रभाव हर महिला पर अलगअलग तरह से होता है. कुछ महिलाएं इस में मनोरोगों से ग्रस्त हो जाती हैं.

‘‘इसी कारण मेरी पत्नी भी मानसिक अवसाद की शिकार हो गई, तो मेरा जीवन कई कठिनाइयों से भर गया. घरपरिवार की देखभाल में तो उन की दिलचस्पी पहले ही कम थी, अब इस स्थिति में तो उन की देखभाल में मुझे और मेरी दोनों नवयुवा बेटियों को लगे रहना पड़ने लगा जिस का असर बेटियों की पढ़ाई और मेरे सर्विस कैरियर पर पड़ रहा था.

‘‘पत्नी की देखभाल के लिए विभाग में अपने अहम पद की जिम्मेदारी के तनाव से फ्री होने के लिए जब मैं ने विभागाध्यक्ष से मेरी पोस्ंिटग किसी बेहद सामान्य कार्यवाही वाली शाखा में करने की गुजारिश की, तो उन्होंने नियुक्ति ऐसे पद पर कर दी जो सरकारी सुविधाओं को भोगते हुए नाममात्र का काम करने के लिए सृजित की गई लगती थी.’’

‘‘काम के नाम पर यहां 4-6 माह में किसी खास मुकदमे के बारे में सरकार द्वारा कार्यवाही की प्रगति की जानकारी चाहने पर केस के संबंधित पैनल वकीलों से सूचना हासिल कर भिजवा देना होता था.

‘‘मगर मुसीबत कभी अकेले नहीं आती. मेरे इस पद पर जौइन करने के 3 हफ्ते बाद ही उच्चतम न्यायालय ने राज्य सरकार से विभिन्न न्यायालयों में सेवा से जुड़े 10 वर्ष से ज्यादा की अवधि से लंबित मामलों में कार्यवाही की जानकारी मांग ली. मैं ने सही स्थिति जानने के लिए वकीलों से मिलना शुरू किया. विभाग में ऐसे मामले बड़ी तादाद में थे, इसलिए वकील भी कई थे.

‘‘इसी सिलसिले में 3-4 दिनों में कई वकीलों से मिलने के बाद में एक महिला पैनल वकील के दफ्तर में पहुंचा. उन पर नजर डालते ही लगा कि उन्होंने अपने को एक वरिष्ठ और व्यस्त वकील दिखाने के लिए नीली किनारी की मामूली सफेद साड़ी पहन रखी है और बिना किसी साजसज्जा के गंभीरता का मुखौटा लगा रखा है. और 2-3 फाइलों के साथ कानून की कुछ मोटी किताबें सामने रख कर बैठी हुई हैं. मेरे आने का मकसद जानते ही उन्होंने एक वरिष्ठ वकील की तरह बड़े रोब से कहा, ‘देखिए, आप के विभाग के कितने केस किसकिस न्यायाधीश की बैंच में पैडिंग हैं और इस लंबे अरसे में उन में क्या कार्यवाही हुई है, इस की जानकारी आप के विभाग को होनी चाहिए. मैं वकील हूं, आप के विभाग की बाबू नहीं, जो सूचना तैयार कर के दूं.’

‘‘इस प्रसंग में वकील साहिबा के साथ अपने पूर्व अधिकारियों के व्यवहार को जानते व समझते हुए भी मैं ने उन से पूरे सम्मान के साथ कहा, ‘वकील साहिबा, माफ करें, इन मुकदमों में सरकार आप को एक तय मानदेय दे कर आप की सेवाएं प्राप्त करती है, तो आप से उन में हुई कार्यवाही कर सूचना प्राप्त करने का हक भी रखती है. वैसे, हैडऔफिस का पत्र आप को मिल गया होगा. मामला माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा मांगी गई सूचना का है. यह जिम्मेदारीभरा काम समय पर और व्यवस्था से हो जाए, इसलिए मैं आप लोगों से संपर्क कर रहा हूं, आगे आप की मरजी.’

‘‘मेरी बात सुन कर वकील साहिबा थोड़ी देर चुप रहीं, मानो कोई कानूनी नुस्खा सोच रही हों. फिर बड़े सधे लहजे में बोलीं, ‘देखिए, ज्यादातर केसेज को मेरे सीनियर सर ही देखते थे. उन का हाल  में बार कोटे से न्यायिक सेवा में चयन हो जाने से वे यहां है नहीं, इसलिए मैं फिलहाल आप की कोई मदद नहीं कर सकती.’

‘ठीक है मैडम, मैं चलता हूं और आप का यही जवाब राज्य सरकार को भिजवा दिया जाएगा.’ कह कर मैं चलने के लिए उठ खड़ा हुआ तो वकील साहिबा को कुछ डर सा लगा. सो, वे समझौते जैसे स्वर में बोलीं, ‘आप बैठिए तो, चलिए मैं आप से ही पूछती हूं कि यह काम 3 दिनों में कैसे किया जा सकता है?’

‘‘अब मेरी बारी थी, इसलिए मैं ने उन्हीं के लहजे में जवाब दिया, ‘देखिए, यह न तो मेरा औफिस है, न यहां मेरा स्टाफ काम करता है. ऐसे में मैं क्या कह सकता हूं.’ यह कह कर मैं वैसे ही खड़ा रहा तो अब तक वकील साहिबा शायद कुछ समझौता कर के हल निकालने जैसे मूड में आ गई थीं. वे बोलीं, ‘देखिए, सूचना सुप्रीम कोर्ट को भेजी जानी है, इसलिए सूचना ठोस व सही तो होनी ही चाहिए, और अपनी स्थिति मैं बता चुकी हूं, इसलिए आप कड़वाहट भूल कर कोई रास्ता बताइए.’

‘‘वकील साहिबा के यह कहने पर भी मैं पहले की तरह खड़ा ही रहा. तो वकील साहिबा कुछ ज्यादा सौफ्ट होते हुए बोलीं, ‘देखिए, कभीकभी बातचीत में अचानक कुछ कड़वाहट आ जाती है. आप उम्र में मेरे से बड़े हैं. मेरे फादर जैसे हैं, इसलिए आप ही कुछ रास्ता बताइए ना.’

‘‘देखिए, यह कोई इतना बड़ा काम नहीं है. आप अपने मुंशी से कहिए. वह हमारे विभाग के मामलों की सूची बना कर रिपोर्ट बना देगा.’

‘‘देखिए, आप मेरे फादर जैसे हैं, आप को अनुभव होगा कि मुंशी इस बेगार जैसे काम में कितनी दिलचस्पी लेगा, वैसे भी आजकल उस के भाव बढ़े हुए हैं. सीनियर सर के जाने के बाद कईर् वकील लोग उस को बुलावा भेज चुके हैं,’ कह कर उन्होंने मेरी ओर थोड़ी बेबसी से देखा. मुझे उन का दूसरी बार फादर जैसा कहना अखर चुका था. सो, मैं ने उन्हें टोकते हुए कहा, ‘मैडम वकील साहिबा, बेशक आप अभी युवा ही है और सुंदर भी हैं ही, मगर मेरी व आप की उम्र में 4-5 साल से ज्यादा फर्क नहीं होगा. आप व्यावसायिक व्यस्तता के कारण अपने ऊपर ठीक से ध्यान नहीं दे पाती हैं, नहीं तो आप…

‘‘महिला का सब से कमजोर पक्ष उस को सुंदर कहा जाना होता है. इसलिए वे मेरी बात काट कर बोलीं, ‘आप कैसे कह रहे हैं कि मेरी व आप की उम्र में सिर्फ 4-5 साल का फर्क है और आप मुझे सुंदर कह कर यों ही क्यों चिढ़ा रहे हैं.’ उन्होंने एक मुसकान के साथ कहा तो मैं ने सहजता से जवाब दिया, ‘वकील साहिबा, मैं आप की तारीफ में ही सही, मगर झूठ क्यों बोलूंगा? और रही बात आप की उम्र की, तो धौलपुर कालेज में आप मेरी पत्नी से एक साल ही जूनियर थीं बीएससी में. उन्होंने आप को बाजार वगैरह में कई बार आमनासामना होने पर पहचान कर मुझे बतलाया था. मगर आप की तरफ से कोई उत्सुकता नहीं होने पर उन्होंने भी परिचय को पुनर्जीवित करने की कोशिश नहीं की.’

‘‘अब तक वकील साहिबा अपने युवा और सुंदर होने का एहसास कराए जाने से काफी खुश हो चुकी थीं. इसलिए बोलीं, ‘अच्छा ठीक है, मगर अब आप बैठ तो जाइए, मैं चाय बना कर लाती हूं, फिर आप ही कुछ बताएं,’ कह कर वे कुरसी के पीछे का दरवाजा खोल कर अंदर चली गईं.

‘‘थोड़ी देर में वे एक ट्रे में 2 कप चाय और नाश्ता ले कर लौटीं और बोलीं, ‘आप अकेले बोर हो रहे होंगे. मगर क्या करूं, मैं तो अकेली रहती हूं, अकेली जान के लिए कौन नौकरचाकर रखे.’ उन की बात सुन कर एकदफा तो लगा कि कह दूं कि सरकारी विभागों के सेवा संबंधी मुदकमों के सहारे वकालत में इतनी आमदनी भी नहीं होती? मगर जनवरी की रात को 9 बजे के समय और गरम चाय ने रोक दिया.

‘‘चाय पीने के बाद तय हुआ कि मैं अपने कार्यालय में संबंधित शाखा के बाबूजी को उन के मुंशी की मदद करने को कह दूंगा और दोनों मिल कर सूची बना लेंगे. फिर उन की फाइलों में अंतिम तारीख को हुई कार्यवाही की फोटोकौपी करवा कर वे सूचना भिजवा देंगी.

‘‘सूचना भिजवा दी गई और कुछ दिन गुजर गए मगर कोई काम नहीं होने की वजह से मैं उन से मिला नहीं. तब उस दिन दोपहर में औफिस में उन का फोन आया. फोन पर उन्होंने मुझे शाम को उन के औफिस में आ कर मिलने की अपील की.

‘‘शाम को मैं उन के औफिस में पहुंचा तो एकाएक तो मैं उन्हें पहचान ही नहीं पाया. आज तो वे 3-4 दिनों पहले की प्रौढ़ावस्था की दहलीज पर खड़ी वरिष्ठ गंभीर वकील लग ही नहीं रही थीं. उन्होंने शायद शाम को ही शैंपू किया होगा जिस से उन के बाल चमक रहे थे, हलका मेकअप किया हुआ था और एक बेहद सुंदर रंगीन साड़ी बड़ी नफासत से पहन रखी थी जिस का आंचल वे बारबार संवार लेती थीं.

‘‘मुझे देखते ही उन के मुंह पर मुसकान फैल गई तो पता नहीं कैसे मेरे मुंह से निकल गया, ‘क्या बात है मैडम, आज तो आप,’ मगर कहतेकहते मैं रुक गया तो वे बोलीं, ‘आप रुक क्यों गए, बोलिए, पूरी बात तो बोलिए.’ अब मैं ने पूरी बात बोलना जरूरी समझते हुए बोल दिया, ‘ऐसा लगता है कि आप या तो किसी समारोह में जाने के लिए तैयार हुई हैं, या कोई विशेष व्यक्ति आने वाला है.’ मेरी बात सुन कर उन के चेहरे पर एक मुसकान उभरी, फिर थोड़ा अटकती हुई सी बोलीं, ‘आप के दोनों अंदाजे गलत हैं, इसलिए आप अपनी बात पूरी करिए.’ तो मैं ने कहा, ‘आज आप और दिनों से अलग ही दिख रही हैं.’

‘‘और दिनों से अलग से क्या मतलब है आप का,’ उन्होंने कुछ शरारत जैसे अंदाज में कहा तो मैं ने भी कह दिया, ‘आज आप पहले दिन से ज्यादा सुंदर लग रही हैं.’

‘‘मेरी बात सुन कर वे नवयुवती की तरह मुसकान के साथ बोलीं, ‘आप यों ही झूठी तारीफ कर के मुझे चने के झाड़ पर चढ़ा रहे हैं.’ तो मैं ने हिम्मत कर के बोल दिया, ‘मैं झूठ क्यों बोलूंगा? वैसे, यह काम तो वकीलों का होता है. पर हकीकत में आज आप एक गंभीर वकील नहीं, किसी कालेज की सुंदर युवा लैक्चरर लग रही हैं?’ यह सुन कर वे बेहद शरमा कर बोली थीं, ‘अच्छा, बहुत हो गई मेरी खूबसूरती की तारीफ, आप थोड़ी देर अकेले बैठिए, मैं चाय बना कर लाती हूं. चाय पी कर कुछ केसेज के बारे में बात करेंगे.’

इस घटना के कुछ दिनों बाद शाम को मैं औफिस से घर लौटा तो वकील साहिबा मेरे घर पर मौजूद थीं और बेटियों से खूब घुममिल कर बातचीत कर रही थीं. मेरे पहुंचने पर बेटी ने चाय बनाई तो पहले तो उन्होंने थोड़ी देर पहले ही चाय पी है का हवाला दिया, मगर मेरे साथ चाय पीने की अपील को सम्मान देते हुए चाय पीतेपीते उन्होंने बेटियों से बड़ी मोहब्बत से बात करते हुए कहा, ‘देखो बेटी, मैं और तुम्हारी मम्मी एक ही शहर से हैं और एक ही कालेज में सहपाठी रही हैं, इसलिए तुम मुझे आंटी नहीं, मौसी कह कर बुलाओगी तो मुझे अच्छा लगेगा.

‘‘अब जब भी मुझे टाइम मिलेगा, मैं तुम लोगों से मिलने आया करूंगी. तुम लोगों को कोई परेशानी तो नहीं होगी?’ कह कर उन्होंने प्यार से बेटियों की ओर देखा, तो दोनों एकसाथ बोल पड़ीं, ‘अरे मौसी, आप के आने से हमें परेशानी क्यों होगी, हमें तो अच्छा लगेगा, आप आया करिए. आप ने तो देख ही लिया, मम्मी तो अभी बातचीत करना तो दूर, ठीक से बोलने की हालत में भी नहीं हैं. वैसे भी वे दवाइयों के असर में आधी बेहोश सी सोई ही रहती हैं. हम तो घर में रहते हुए किसी अपने से बात करने को तरसते ही रहते हैं और हो सकता है कि आप के आतेजाते रहने से फिल्मों की तरह आप को देख कर मम्मी को अपना कालेज जीवन ही याद आ जाए और वे डिप्रैशन से उबर सकें.’

‘‘मनोचिकित्सक भी ऐसी किसी संभावना से इनकार तो नहीं करते हैं. अपनी बेटियों के साथ उन का संवाद सुन कर मुझे उन के एकदम घर आ जाने से उपजी आशंकापूर्ण उत्सुकता एक सुखद उम्मीद में परिणित हो गई और मुझे काफी अच्छा लगा.

‘‘इस के बाद 3-4 दिनों तक मेरा उन से मिलना नहीं हो पाया. उस दिन शाम को औफिस से घर के लिए निकल ही रहा था कि उन का फोन आया. फोन पर उन्होंने मुझे शाम को अपने औफिस में आने को कहा तो थोड़ा अजीब तो लगा मगर उन के बुलावे की अनदेखी भी नहीं कर सका.

‘‘उन के औफिस में वे आज भी बेहद सलीके से सजी हुई और किसी का इंतजार करती हुई जैसी ही मिलीं. तो मैं ने पूछ ही लिया कि वे कहीं जा रही हैं या कोई खास मेहमान आने वाला है?

‘‘मेरा सवाल सुन कर वे बोलीं, ‘आप बारबार यही अंदाजा क्यों लगाते हैं.’ यह कह कर थोड़ी देर मुझे एकटक देखती रहीं, फिर एकदम बुझे स्वर में बोलीं, ‘मेरे पास अब कोई नहीं आने वाला है. वैसे आएगा भी कौन? जो आया था, जिस ने इस मन के द्वार पर दस्तक दी थी, मैं ने तो उस की दस्तक को अनसुना ही नहीं किया था, पता नहीं किस जनून में उस के लिए मन का दरवाजा ही बंद कर दिया था. उस के बाद किसी ने मन के द्वार पर दस्तक दी ही नहीं.

‘‘आज याद करती हूं तो लगता है कि वह पल तो जीवन में वसंत जैसा मादक और उसी की खुशबू से महकता जैसा था. मगर मैं न तो उस वसंत को महसूस कर पाई थी, न उस महकते पल की खुशबू का आनंद ही महसूस कर सकी थी,’ यह कह कर वे खामोश हो गईं.

‘‘थोड़ी देर यों ही मौन पसरा रहा हमारे बीच. फिर मैं ने ही मौन भंग किया, ‘मगर आप के परिवारजन, मेरा मतलब भाई वगैरह, तो आतेजाते होंगे.’ मेरी बात सुन कर थोड़ी देर वे खामोश रहीं, फिर बोलीं, ‘मातापिता तो रहे नहीं. भाइयों के अपनेअपने घरपरिवार हैं. उन में उन की खुद की व्यस्तताएं हैं. उन के पास समय कहां है?’ कहते हुए वे काफी निराश और भावुक होने लगीं तो मैं ने उन की टेबल पर रखे पानी के गिलास को उन की ओर बढ़ाया और बोला, ‘आप थोड़ा पानी पी लीजिए.’

‘‘मेरी बात सुन कर भी वे खामोश सी ही बैठी रहीं तो मैं गिलास ले कर उन की ओर बढ़ा और उन की कुरसी की बगल में खड़ा हो कर उन्हें पानी पिलाने के लिए गिलास उन की ओर बढ़ाया. तो उन्होंने मुझे बेहद असहाय नजर से देखा तो सहानुभूति के साथ मैं ने अपना एक हाथ उन के कंधे पर रख कर गिलास उन के मुंह से लगाना चाहा. उन्होंने मेरे गिलास वाले हाथ को कस कर पकड़ लिया. तब मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ, और मैं ने सौरी बोलते हुए अपना हाथ खींचने की कोशिश की.

‘‘मगर उन्होंने तो मेरे गिलास वाले हाथ पर ही अपना सिर टिका दिया और सुबकने लगीं. मैं ने गिलास को टेबल पर रख दिया, उन के कंधे को थपथपाया. पत्नी की लंबी बीमारी के चलते काफी दिनों के बाद किसी महिला के जिस्म को छूने व सहलाने का मौका मिला था, मगर उन से परिचय होने के कम ही वक्त और अपने सरकारी पद का ध्यान रखते हुए मैं शालीनता की सीमा में ही बंधा रहा.

‘‘थोड़ी देर में उन्हें सुकून महसूस हुआ तो मैं ने कहा, ‘आई एम सौरी वकील साहिबा, मगर आप को छूने की मजबूरी हो गई थी.’ सुन कर वे बोलीं, ‘आप क्यों अफसोस जता रहे हैं, गलती मेरी थी जो मैं एकदम इस कदर भावुक हो गई.’ कह कर थोड़ी देर को चुप हो गईं, फिर बोलीं, ‘आप से एक बात कहना चाहती हूं. आप ‘मैं जवान हूं, मैं सुंदर हूं’ कह कर मेरी झूठी तारीफ कर के मुझे यों ही बांस पर मत चढ़ाया करिए.’ यह कहते हुए वे एकदम सामान्य लगने लगीं, तो मैं ने चैन की सांस ली.

‘‘उस दिन के बाद मेरा आकर्षण उन की तरफ खुद ही बढ़ने लगा. कोर्ट से लौटते समय वे अकसर मेरी बेटियों से मिलने घर आ जाती थीं. फिर घर पर साथ चाय पीते हुए किसी केस के बारे में बात करते हुए बाकी बातें फाइल देख कर सोचने के बहाने मैं लगभग रोज शाम को ही उन के घर जाने लगा.

पत्नी की मानसिक अस्वस्थता के चलते उन से शारीरिक रूप से लंबे समय से दूर रहने से उपजी खीझ से तल्ख जिंदगी में एक समवयस्क महिला के साथ कुछ पल गुजारने का अवसर मुझे खुशी का एहसास देने लगा.

‘‘दिन बीतते रहे. बातचीत में, हंसीमजाक से नजदीकी बढ़ते हुए उस दिन एक बात पर वे हंसी के साथ मेरी और झुक गईं तो मैं ने उन्हें बांहों में बांध लिया. उन्होंने एकदम तो कोई विरोध नहीं किया मगर जैसे ही उन्हें आलिंगन में कसे हुए मेरे होंठ उन्हें चूमने के लिए बढ़े, अपनी हथेली को बीच में ला कर उन्हें रोकते हुए वे बोलीं, ‘देखिए, लंबे समय से अपने घरपरिवार और अपनों से अलग रहते अकेलेपन को झेलती तल्ख जिंदगी में आप से पहली ही मुलाकात में आप के अंदर एक अभिभावक का स्वरूप देख कर आप मुझे अच्छे लगने लगे थे.

‘‘आप से बात करते हुए मुझे एक अभिभावक मित्र का एहसास होता है. आप के परिवार में आप की बेटियों से मिल कर उन के साथ बातें कर के समय बिताते मुझे एक पारिवारिक सुख की अनुभूति होती है. मेरे अंदर का मातृत्वभाव तृप्त हो जाता है. इसलिए आप से, आप के परिवार से मिले बिना रह नहीं पाती.

‘‘हमारा परिचय मजबूत होते हुए यह स्थिति भी आ जाएगी, मैं ने सोचा नहीं था. फिर भी आप अगर आज यह सब करना चाहेंगे तो शायद आप की खुशी की खातिर आप को रोकूंगी नहीं, मगर इस के बाद मैं एकदम, पूरी तरह से टूट जाऊंगी. मेरे मन में आप की बनाई हुई एक अभिभावक मित्र की छवि टूट जाएगी. आप की बेटियों से मिल कर बातें कर के मेरे मन में उमंगती मातृत्व की सुखद अनुभूति की तृप्ति की आशा टूट जाएगी. मैं पूरी तरह टूट कर बिखर जाऊंगी. क्या आप मुझे इस तरह टूट कर बिखर जाने देंगे या एक परिपक्व मित्र का अभिभावक बन सहारा दे कर एक आनंद और उल्लास से पूर्ण जीवन प्रदान करेंगे, बोलिए?’

‘‘यह कहते भावावेश में उन की आवाज कांपने लगी और आंखों से आंसू बहने लगे. मेरी चेतना ने मुझे एकदम झकझोर दिया. जिस्म की चाहत का जनून एक पल में ठंडा हो गया. अपनी बांहों से उन्हें मुक्त करते हुए मैं बोला, ‘मुझे माफ कर देना. पलभर को मैं बहक गया था. मगर अब अपने मन का द्वार बंद मत करना.’

‘यह द्वार दशकों बाद किसी के सामने अपनेआप खुला है, इसे खुला रखने का दायित्व अब हम दोनों का है. आप और मैं मिल कर निभाएंगे इस दायित्व को,’ कह कर उन्होंने मेरा हाथ कस कर थाम लिया, फिर चूम कर माथे से लगा लिया.

‘‘उस दिन के बाद उन का मेरे घरपरिवार में आना ज्यादा नियमित हो गया. एक घरेलू महिला की तरह उन की नियमित देखभाल से बच्चे भी काफी खुश रहने लगे थे. एक दिन घर पहुंचने पर मैं बेहद पसोपेश में पड़ गया. मेरी बड़ी बेटी पत्नी के कमरे के बाहर बैठी हुई थी. और कमरे का दरवाजा अंदर से बंद था. मेरे पूछने पर बेटी ने बताया कि आज भी सेविका नहीं आई है और उसे पत्नी के गंदे डायपर बदलने में काफी दिक्कत हो रही थी. तभी अचानक मौसी आ गईं. उन्होंने मुझे परेशान देख कर मुझे कमरे के बाहर कर दिया और खुद मम्मी का डायपर बदल कर अब शायद बौडी स्पंज कर रही हैं. तभी, ‘मन्नो, दीदी के कपड़े देदे,’ की आवाज आई.

‘‘बेटी ने उन्हें कपड़े पकड़ा दिए. थोड़ी देर में वकील साहिबा बाहर निकलीं तो उन के हाथ में पत्नी के गंदे डायपर की थैली देख कर मैं शर्मिंदा हो गया और ‘अरे वकील साहिबा, आप यह क्या कर रही हैं,’ मुश्किल से कह पाया, मगर वे तो बड़े सामान्य से स्वर में, ‘पहले इन को डस्टबिन में डाल दूं, तब बातें करेंगे,’ कहती हुई डस्टबिन की तरफ बढ़ गईं.

‘‘डस्टबिन में गंदे डायपर डाल कर वाशबेसिन पर हाथ धो कर वे लौटीं और बोलीं, ‘मैं ने बच्चों को मुझे मौसी कहने के लिए यों ही नहीं कह दिया. बच्चों की मौसी ने अपनी बीमार बहन के कपड़े बदल दिए तो कुछ अनोखा थोड़े ही कर दिया,’ कहते हुए वे फिर बेटी से बोलीं, ‘अरे मन्नो, पापा को औफिस से आए इतनी देर हो गई और तू ने चाय भी नहीं बनाई. अब जल्दी से चाय तो बना ले, सब की.’

‘‘चाय पी कर वकील साहिबा चलने लगीं तो बेटी की पीठ पर हाथ रख कर बड़े स्नेह से बोलीं, ‘देखो मन्नो, आइंदा कभी भी ऐसे हालात हों तो मौसी को मदद के लिए बुलाने में देर मत करना.’

‘‘ऐसे ही दिन, महीने बीतते हुए 5 साल बीत गए. पत्नी इलाज के साथसाथ वकील साहिबा की सेवा से धीरेधीरे काफी स्वस्थ हो गईं. मगर उन के स्वास्थ्य में सुधार होते ही उन्होंने सब से पहले कभी उन की कालेजमेट रही और अब बच्चों की मौसी वकील साहिबा के बारे में ही एक सख्त एन्क्वायरी औफिसर की तरह उन से मेरा परिचय कैसे बढ़ा, वह घर कैसे और क्यों आने लगी, बेटियों से वह इतना क्यों घुलमिल गई, मैं उन के घर क्यों जाता हूं आदि सवाल उठाने शुरू कर दिए तो मैं काफी खिन्न हो गया. मगर मैं ने अपनी खिन्नता छिपाए रखी, इस से पत्नी के शक्की स्वभाव को इतना प्रोत्साहन मिल गया कि एक दिन घर में मुझे सुनाने के लिए ही बेटी को संबोधित कर के जोर से बोली थी, ‘वकील साहिबा तेरे बाप की बीवी बनने के लिए ही तेरी मौसी बन कर घर में घुस आई. खूब फायदा उठाया है दोनों ने मेरी बीमारी का. मगर मैं अब ठीक हो गई हूं और दोनों को ठीक कर दूंगी.’

‘‘पत्नी का प्रलाप सुन कर बेटी कुढ़ कर बोली, ‘मम्मी, मौसी ने आप के गंदे डायपर तक कई बार बदले हैं, कुछ तो खयाल करो.’ यह कह कर अपनी मां की बेकार की बातें सुनने से बचने के लिए वह अपने कमरे में चली गई. वह अपनी मौसी की मदद से किसी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रही थी.

‘‘इस के कुछ समय बाद बड़ी बेटी, जो ग्रेजुएशन पूरा होते ही वकील साहिबा के तन, मन से सहयोग के कारण बैंक सेवा में चयनित हो गई थी, ने अपने सहपाठी से विवाह करने की बात घर में कही तो पत्नी ने शालीनता की सीमाएं तोड़ते हुए अपनी सहपाठिनी वकील साहिबा को फोन कर के घर पर बुलाया और बेटी के दुस्साहस के लिए उन की अस्वस्थता के दौरान मेरे साथ उन के अनैतिक संबंधों को कारण बताए हुए उन्हें काफी बुराभला कह दिया.

‘‘इस के बावजूद भी बेटी के जिद पर अड़े रहने पर जब उन्होंने बेटी का विवाह में सहयोग करते हुए उस की शादी रजिस्ट्रार औफिस में करवा दी तब तो पत्नी ने उन के घर जा कर उन्हें बेहद जलील किया. इस घटना के बाद मैं ने ही उन्हें घर आने से रोक दिया. अब जब भी कोर्ट में उन से मिलता, उन का बुझाबुझा चेहरा और सीमित बातचीत के बाद एकदम खामोश हो कर ‘तो ठीक है,’ कह कर उन्हें छोड़ कर चले जाने का संकेत पा कर मैं बेहद खिन्न और लज्जित हो जाता था.

‘‘इस तरह एक साल गुजर गया. उस दिन भी हाईकोर्ट में विभाग के विरुद्ध एक मुकदमे में मैं भी मौजूद था. विभाग के विरुद्ध वादी के वकील के कुछ हास्यास्पद से तर्क सुन कर जज साहब व्यंग्य से मुसकराए थे और उसी तरह मुसकराते हुए प्रतिवादी के वकील हमारी वकील साहिबा की ओर देख कर बोले, ‘हां वकील साहिबा, अब आप क्या कहेंगी.’

‘‘जज साहब के मुसकराने से अचानक पता नहीं वकील साहिबा पर क्या प्रतिक्रिया हुई. वे फाइल को जज साहब की तरफ फेंक कर बोलीं, ‘हां, अब तुम भी कहो, मैं, जवान हूं, सुंदर हूं, चढ़ाओ मुझे चने की झाड़ पर,’ कहते हुए वे बड़े आक्रोश में जज साहब के डायस की तरफ बढ़ीं तो इस बेतुकी और अप्रासंगिक बात पर जज साहब एकदम भड़क गए और इस गुस्ताखी के लिए वकील साहिबा को बरखास्त कर उन्हें सजा भी दे सकते थे पर गुस्से को शांत करते हुए जज साहब संयत स्वर में बोले, ‘वकील साहिबा, आप की तबीयत ठीक नहीं लगती, आप घर जा कर आराम करिए. मैं मुकदमा 2 सप्ताह बाद की तारीख के लिए मुल्तवी करता हूं.’

‘‘उस दिन जज साहब की अदालत में मुकदमा मुल्तवी हो गया. मगर इस के बाद लगातार कुछ ऐसी ही घटनाएं और हुईं. एक दिन वह आया जब एक दूसरे जज महोदय की नाराजगी से उन्हें मानसिक चिकित्सालय भिजवा दिया गया. अजीब संयोग था कि ये सभी घटनाएं मेरी मौजूदगी में ही हुईं.

‘‘वकील साहिबा की इस हालत की वजह खुद को मानने के चलते अपनी नैतिक जिम्मेदारी मानते हुए औफिस से ही समय निकाल कर उन का कुशलक्षेम लेने अस्पताल हो आता था. एक दिन वहां की डाक्टर ने मुझ से उन के रिश्ते के बारे पूछ लिया तो मैं ने डाक्टर को पूरी बात विस्तार से बतला दी. डाक्टर ने मेरी परिस्थिति जान कर मुलाकात का समय नहीं होने पर भी मुझे उन की कुशलक्षेम जानने की सुविधा दी. फिर डाक्टर ने सीधे उन के सामने पड़ने से परहेज रखने की मुझे सलाह देते हुए बताया कि वे मुझे देख कर चिंतित सी हो कर बोलती हैं, ‘तुम ने क्यों कहा, मैं सुंदर हूं.’ और मेरे चले आने पर लंबे समय तक उदास रहती हैं.

‘‘बेटा उच्चशिक्षा के बाद और बड़ी बेटी व दामाद किसी विदेशी बैंकिंग संस्थान में अच्छे वेतन व भविष्य की खातिर विदेश चले गए थे. छोटी बेटी केंद्र की प्रशासनिक सेवा में चयनित हो गई थी. मगर वह औफिसर्स होस्टल में रह रही थी. अब परिवार में मेरे और पत्नी के अलावा कोई नहीं था. उधर पत्नी के मन में मेरे और वकील साहिबा के काल्पनिक अवैध संबंधों को ले कर गहराते शक के कारण उन का ब्लडप्रैशर एकदम बढ़ जाता था, और फिर दवाइयों के असर से कईकई दिनों तक मैमोरीलेप्स जैसी हालत हो जाती थी.

‘‘इसी हालात में उन्हें दूसरा झटका तब लगा जब बेटे ने अपनी एक विदेशी सहकर्मी युवती से शादी करने का समाचार हमें दिया.

‘‘उस दिन मेरे मुंह से अचानक निकल गया, ‘अब मन्नू को तो वकील साहिबा ने नहीं भड़काया.’ मेरी बात सुन कर पत्नी ने कोई विवाद खड़ा नहीं किया तो मुझे थोड़ा संतोष हुआ. मगर उस के बाद पत्नी को हाई ब्लडप्रैशर और बाद में मैमोरीलेप्स के दौरों में निरंतरता बढ़ने लगी तो मुझे चिंता होने लगी.

‘‘कुछ दिनों बाद उन्हें फिर से डिप्रैशन ने घेर लिया. अब पूरी तरह अकेला होने कारण पत्नी की देखभाल के साथ दैनिक जीवन की जरूरतों को पूरा करना बेहद कठिन महसूस होता था. रिटायरमैंट नजदीक था, और प्रमोशन का अवसर भी, इसलिए लंबी छुट्टियां ले कर घर पर बैठ भी नहीं सकता था. क्योंकि प्रमोशन के मौके पर अपने खास ही पीठ में छुरा भोंकने का मौका तलाशते हैं और डाक्टर द्वारा बताई गई दवाइयों के असर से वे ज्यादातर सोई ही रहती थीं. फिर भी अपनी गैरहाजिरी में उन की देखभाल के लिए एक आया रख ली थी.

‘‘उस दिन आया ने कुछ देर से आने की सूचना फोन पर दी, तो मैं उन्हें दवाइयां, जिन के असर से वे कमसेकम 4 घंटे पूरी तरह सोईर् रहती थीं, दे कर औफिस चला गया था. पता नहीं कैसे उन की नींद बीच में ही टूट गई और मेरी गैरहाजिरी में नींद की गोलियों के साथ हाई ब्लडप्रैशर की दशा में ली जाने वाली गोलियां इतनी अधिक निगल लीं कि आया के फोन पर सूचना पा कर जब मैं घर पहुंचा तो उन की हालत देख कर फौरन उन्हें ले कर अस्पताल को दौड़ा. मगर डाक्टरों की कोशिश के बाद भी उन की जीवन रक्षा नहीं हो सकी.

‘‘पत्नी की मृत्यु पर बेटे ने तो उस की पत्नी के आसन्न प्रसव होने के चलते थोड़ी देर इंटरनैट चैटिंग से शोक प्रकट करते हुए मुझ से संवेदना जाहिर की थी, मगर दोनों बेटियां आईं थी. छोटी बेटी तो एक चुभती हुई खमोशी ओढ़े रही, मगर बड़ी बेटी का बदला हुआ रुख देख कर मैं हैरान रह गया. वकील साहिबा को मौसी कह कर उन के स्नेह से खुश रहने वाली और बैंकसेवा के चयन से ले कर उस के जीवनसाथी के साथ उस का प्रणयबंधन संपन्न कराने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निबाहने के कारण उन की आजीवन ऋ णी रहने की बात करने वाली मेरी बेटी ने जब कहा, ‘आखिर आप के और उन के अफेयर्स के फ्रस्टेशन ने मम्मी की जान ले ही ली.’ और मां को अपनी मौसी की सेवा की याद दिलाने वाली छोटी बेटी ने भी जब अपनी बहन के ताने पर भी चुप्पी ही ओढ़े रही तो मैं इस में उस का भी मौन समर्थन मान कर बेहद दुखी हुआ था.

‘‘कुछ समय बाद मैं और तुम सेवानिवृत्त हो गए. मैं अब वकील साहिबा को देखने के लिए नियमितरूप से मानसिक अस्पताल जाने लगा और उन के साथ काफी समय गुजारने लगा. एक दिन अस्पताल की डाक्टर ने मुझ से कहा, ‘देखिए, अब वह बिलकुल स्वस्थ हो गई है. वह वकालत फिर से कर पाएगी, यह तो नहीं कहा जा सकता मगर एक औरत की सामान्य जिंदगी जी पाएगी, बशर्ते उसे एक मित्रवत व्यक्ति का सहारा मिल सके जो उसे यह यकीन दिला सके कि वह उसे तन और मन से संरक्षण दे सकता है.

‘‘पत्नी की मृत्यु के बाद मैं ने अपनी संतानों द्वारा मुझे लगभग पूरी तरह इग्नोर कर दिए जाने के चलते गहराए अकेलेपन से छुटकारा पाने के लिए उन का दिल से मित्र बनने का संकल्प लिया. इस बारे में बच्चों से बात की, तो पुत्र ने तो केवल इतना कहा, ‘आप तो हमें भारतीय सभ्यता, संस्कृति और सामाजिक नैतिकता की बातें सिखाया करते थे, अब हम क्या कहें.’ मगर बड़ी पुत्री ने कहा, ‘आया का देर से आने की सूचना देने के बावजूद आप का औफिस चले जाना और इस बीच उसी दिन मम्मी की दवाइयों का असर समय से पहले ही खत्म होने के कारण उन का बीच में जाग जाना व अपनी दवाइयां घातक होने की हद तक अपनेआप खा लेना पता नहीं कोई कोइंसीडैंट था या साजिश. ऐसी क्या मजबूरी थी कि आप पूरे दिन की नहीं, तो आधे दिन की छुट्टी नहीं ले सके उस दिन. लगता है मम्मी ने डिप्रैशन में नींद की गोलियों के साथ ब्लडप्रैशर कम करने की गोलियां इतनी ज्यादा तादाद में खुद नहीं ली थीं. किसी ने उन्हें जान कर और इस तरह दी थीं कि लगे कि ऐसा उन्होंने डिप्रैशन की हालत में खुद यह सब कर लिया.’

‘‘यह सुन कर तो मैं स्तब्ध ही रह गया. छोटी पुत्री ने, ‘अब मैं क्या कहूं, आप हर तरह आजाद हैं. खुद फैसला कर लें,’ जैसी प्रतिक्रिया दी. तो एक बार तो लगा कि पत्नी की बची पड़ी दवाइयों की गोलियां मैं भी एकसाथ निगल कर सो जाऊं, मगर यह सोच कर कि इस से किसी को क्या फर्क पड़ेगा, इरादा बदल लिया और पिछले कुछ दिनों से सब से अलग इस गैस्टहाउस में रहने लगा हूं. परिचितों को इसी उपनगर में चल रहे किसी धार्मिक आयोजन में व्यस्त होने की बात कह रखी है.’’ यह सब कह कर मेरे मित्र शायद थक कर खामोश हो गए.

काफी देर मौन पसरा रहा हमारे बीच, फिर मित्र ने ही मौन भंग किया, और बड़े निर्बल स्वर में बोले, ‘‘मैं ने तुम्हें इसलिए बुलाया है कि तुम बताओ, मैं क्या करूं?’’

मित्र के सवाल करने पर मुझे अपना फैसला सुनाने का मौका मिल गया. सो, मैं बोला, ‘‘अभिनव तुम्हें क्या करना है, तुम दोनों अकेले हो. वकील साहिबा के अंदर की औरत को तुम ने ही जगाया था और उन के अंदर की जागी हुई औरत ने तुम्हारे हताशनिराश जीवन में नई उमंग पैदा की और तुम्हारे परिवार को तनमन से अपने प्यार व सेवा का नैतिक संबल दे कर टूटने से बचाया. ऐसे में उसे जीवन की निराशा से टूटने से उबार कर नया जीवन देने की तुम्हारी नैतिक जिम्मेदारी बनती है. उस के द्वारा तुम्हारे परिवार पर किए गए एहसानों को चुकाने का समय आ गया है. तुम वकील साहिबा से रजिस्ट्रार औफिस में बाकायदा विवाह करो, जिस से वे तुम्हारी विधिसम्मत पत्नी का दर्जा पा सकें और भविष्य में कभी भी तुम्हारी संतानें उन्हें सता न सकें. तुम्हारे संतानों की अब अपनी दुनिया है, उन्हें उन की दुनिया में रहने दो.’’

मेरी बात सुन कर मित्र थोड़ी देर कुछ फैसला लेने जैसी मुद्रा में गंभीर रहे, फिर बोले, ‘‘चलो, उन के पास अस्पताल चलते हैं.’’

मित्र के साथ अस्पताल पहुंच कर डाक्टर से मिले, तो उन्होंने सलाह दी कि आप उन के साथ एक नई जिंदगी शुरू करेंगे, इसलिए उन्हें जो भी दें, वह एकदम नया दें और अपनी दिवंगत पत्नी के कपड़े या ज्वैलरी या दूसरा कोई चीज उन्हें न दें. साथ ही, कुछ दिन उस पुराने मकान से भी कहीं दूर रहें, तो ठीक होगा.

डाक्टर से सलाह कर के और उन्हें कुछ दिन अभी अस्पताल में ही रखने की अपील कर के हम घर लौटे तो पड़ोसी ने घर की चाबी दे कर बताया कि उन की छोटी बेटी सरकारी गाड़ी में थोड़ी देर पहले आई थी. आप द्वारा हमारे पास रखाई गई घर की चाबी हम से ले कर बोली कि उन्होंने मां की मृत्यु के बाद आप को अकेले नहीं रहने देने का फैसला लिया है, और काफी बड़े सरकारी क्वार्टर में वह अकेली ही रहती है, इसलिए अभी आप का कुछ जरूरी सामान ले कर जा रही है. आप ने तो कभी जिक्र किया नहीं, मगर बिटिया चलते समय बातोंबातों में इस मकान के लिए कोई ग्राहक तलाशने की अपील कर गई है.

ताला खोल कर हम अंदर घुसे तो पाया कि प्रशासनिक अधिकारी पुत्री उन के जरूरी सामान के नाम पर सिर्फ उन की पत्नी का सामान सारे वस्त्र, आभूषण यहां तक कि उन की सारी फोटोज भी उतार कर ले गई थी. एक पत्र टेबल पर छोड़ गई थी. जिस में लिखा था, ‘हम अपनी दिवंगता मां की कोई भी चीज अपने बाप की दूसरी बीवी के हाथ से छुए जाना भी पसंद नहीं करेंगे. इसलिए सिर्फ अपनी मां के सारे सामान ले जा रही हूं. आप का कोईर् सामान रुपयापैसा मैं ने छुआ तक नहीं है. मगर आप को यह भी बताना चाहती हूं कि अब हम आप को इस घर में नहीं रहने देंगे. भले ही यह घर आप के नाम से है और बनवाया भी आप ने ही है, मगर इस में हमारी मां की यादें बसी हैं. हम यह बरदाश्त नहीं करेंगे कि हमारे बाप की दूसरी बीवी इस घर में हमारी मां का स्थान ले. आप समझ जाएं तो ठीक है. वरना जरूरत पड़ी तो हम कानून का भी सहारा लेंगे.’

पत्र पढ़ कर मित्र कुछ देर खिन्न से दिखे. तो मैं ने उन्हें थोड़ा तसल्ली देने के लिए फ्रिज से पानी की बोतल निकाल कर उन्हें थोड़ा पानी पीने को कहा तो वे बोले, ‘‘आश्चर्य है, तुम मुझे इतना कमजोर समझ रहे हो कि मैं इस को पढ़ कर परेशान हो जाऊंगा. नहीं, पहले मैं थोड़ा पसोपेश में था, मगर अब तो मैं ने फैसला कर लिया है कि मैं इस मकान को जल्दी ही बेच दूंगा. पुत्री की धमकी से डर कर नहीं, बल्कि अपने फैसले को पूरा करने के लिए. इस की बिक्री से प्राप्त रकम के 4 हिस्से कर के 3 हिस्से पुत्र और पुत्रियों को दे दूंगा, और अपने हिस्से की रकम से एक छोटा सा मकान व सामान्य जीवन के लिए सामान खरीदूंगा. उस घर से मैं उन के साथ नए जीवन की शुरुआत करूंगा. मगर तब तक तुम्हें यहीं रुकना होगा. तुम रुक सकोगे न.’’ कह कर उन्होंने मेरा साथ पाने के लिए मेरी ओर उम्मीदभरी नजर से देखा. मेरी सांकेतिक स्वीकृति पा कर वे बड़े उत्साह से, ‘‘किसी ने सही कहा है, अ फ्रैंड इन नीड इज अ फ्रैंड इनडीड,’’ कहते हुए कमरे के बाहर निकले, दरवाजे पर ताला लगा कर चाबी पड़ोसी को दी और सड़क पर आ गए. नई जिंदगी की नई राह पर चलने के उत्साह में उन के कदम बहुत तेजी से बढ़ रहे थे.

ढीलीढाली रिसर्च से बनी फिल्म “सैक्टर 36”

साइकोपैथ्स या साइकोकिलर्स को ले कर बौलीवुड में फिल्में कम बनी हैं. यह डार्क जोन माना जाता है. इस तरह की फिल्में भारत में कमर्शियली हिट नहीं होतीं. एक ऐसे अपराधी को परदे पर देखना और उस के क्राइम की डिटेलिंग में जाना घिनौना लगता है, हां पर इन किरदारों को निभाने वाले कलाकारों की इंटैंसिटी जरूर चर्चा में आ जाती है.

आमतौर से भारत में ऐसे डायरैक्टर कम ही हैं जो ऐसे किरदारों को ठीक से फिल्माएं और इस के साइकोलौजिकल साइड को समझ पाएं. हौलीवुड में साइकोथ्रिलर फिल्में खूब बनती हैं. वहां दर्शक इस तरह की फिल्में देखना पसंद भी करते हैं. ‘डार्क नाइट्स’ और ‘जोकर’ जैसी फिल्में इस के उदाहरण हैं. वहीं भारत में इस तरह की फिल्मों को ओटीटी लायक ही समझा जाता है क्योंकि इस में मसालों की कमी रहती है.

फिल्म ‘सैक्टर 36’ भी ओटीटी पर रिलीज हुई. यह एक क्राइम थ्रिलर फिल्म है जो असल घटना पर आधारित है. यह घटना ‘निठारी कांड’ के नाम से जानी जाती है. साल 2006 में नोएडा के सैक्टर 36 के निठारी गांव में घटी उस घटना ने पूरे देश को हिला कर रख दिया था जब पता चला कि एक कोठी के पीछे वाले नाले से करीब 2 दर्जन बच्चों और बच्चियों के नरकंकाल बरामद हुए हैं. इस मामले में कोठी के मालिक मोनिंदर सिंह पंढेर और उस का नौकर सुरेंद्र कोली आरोपी थे.

यह एक घृणित फिल्म है. एक नाले से कटे हुए हाथ से शुरू हुई तफतीश करीब दो दर्जन बच्चों के अस्थिपंजर तक पहुंचेगी, यह सब किसी वीभत्स फिल्म जैसा लगता है. पिछले साल सुबूतों के अभाव में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस कांड के दोनों आरोपियों को बरी कर दिया था.
आजकल निठारी कांड एक बार फिर चर्चा में है. आखिरकार गाजियाबाद की सैशन कोर्ट ने प्रदेश सरकार को मौत का परवाना जारी कर दिया है. कोर्ट ने प्रदेश सरकार को कोली का डैथ वारंट जारी कर इसे लागू करने के लिए आवश्यक कार्यवाही करने के निर्देश दिए हैं.

फिल्म की यह कहानी सच्ची घटना से प्रेरित है. आज भी निठारी गांव के बच्चों की आंखों में खौफ नजर आता है. सैक्टर 31 की कोठी नंबर डी-5 में इंसान के रूप में मौजूद भेडि़यों ने 17 बच्चों को अपना शिकार बना कर वहीं दफन कर दिया. इस कोठी में रहने वाले नरपिशाचों ने मासूम बच्चों को किसी न किसी बहाने अपने पास बुला कर उन के साथ हैवानियत की हदें पार कीं. साथ में, उन की हत्या करने के बाद लाशों को टुकड़टुकड़े कर नाले में बहा दिया.

यह फिल्म उन्हीं हत्याओं की तफतीश करती है. मोनिंदर सिंह पंढेर और सुरेंद्र कोली बच्चों के शवों के छोटेछोटे टुकड़े कर पका कर खाते थे और हड्डियां कोठी के पीछे नाले में बहा देते थे.

फिल्म की कहानी एक कोठी से शुरू होती है, जहां प्रेम सिंह (विक्रांत मैसी) सोफे पर लेटे हुए टीवी पर करोड़पति बनाने वाला शो देख रहा होता है. शो खत्म होने पर वह उठता है, प्लेट में हड्डियां साफ करता है और ऊपर अपने कमरे में जाता है जहां पहले से बंधी स्कूली बच्ची को बेरहमी से मौत के घाट उतार देता है. यह पहला ही सीन रोंगटे खड़े कर देता है.

कोठी के पास की बस्ती से लगातार बच्चे गायब हो रहे हैं. बच्चों के मातापिता इंस्पैक्टर रामचरण पांडे (दीपक डोबरियाल) के पास लगातार बच्चों के गायब होने की शिकायत दर्ज कराने आ रहे हैं. जब एक दिन पांडेजी की खुद की बच्ची अगवा होने के कगार पर आ जाती है तब रामचरण पांडे का जमीर जागता है और एक के बाद एक खुलासे सामने आते हैं.

निर्देशक ने अपनी पहली ही फिल्म में एक साइकोपैथ की मनोदशा, सिस्टम की खामियां और अमीरगरीब की खाई को दिखाया है. फिल्म में पुलिस पर व्यंग्य भी किया गया कि कैसे अमीर बिजनैसमैन के बेटे को 2 दिनों में खोज निकालने वाली पुलिस गरीब बच्चों की गुमशुदगी को ले कर कानों में तेल डाले बैठी रहती है.

अच्छी बात यह है कि फिल्म को जस का तस रखा गया है. फिल्म को ड्रामेटिक नहीं होने दिया गया. जांच को भी सामान्य रखा गया है, ऐसा नहीं लगने दिया कि पुलिस ने इस हाई प्रोफाइल मामले को कई सुरागों, गुत्थियों से सुल?ाया हो. शुरुआत से ही प्रेम सिंह और उस के मालिक पर शक था, वही मुजरिम निकले भी.

हां, डायरैक्टर ने साइकोकिलर प्रेम सिंह की साइकोलौजी में घुसने की नाकाम कोशिश जरूर की है. परदे पर यह दिखाने की कोशिश हुई कि चूंकि उस का बचपन बेहद डिस्टर्ब रहा, इस कारण वह बच्चों से ऐसी बर्बरता करता था. यह बात न ठीक से डिलीवर हो सकी, न जस्टिफाई हो पाई.

वहीं, मालिक के किरदार की लेयर भी ठीक से देखने को नहीं मिलती. उसे बहुत कम स्क्रीनटाइम दिया गया. फिल्म साइकोथ्रिलर के नाम पर महज अच्छी ऐक्ंिटग और बर्बर हिंसा परोसती है, कैरेक्टर के बैकग्राउंड पर लेशमात्र की रिसर्च नहीं की गई है.

‘12वीं फेल’ के बाद साइकोपैथ की भूमिका में विक्रांत मैसी ने बढि़या अदाकारी दिखाई है. दीपक डोबरियाल का अभिनय भी बढि़या है. तकनीकी दृष्टि से फिल्म ठीकठाक है, परंतु हिंसा ज्यादा है. यह फिल्म कमजोर दिलवालों के लिए नहीं बनी है. इस तरह की फिल्मों में गीतसंगीत कोई माने नहीं रखता. सिनेमेटोग्राफी बढि़या है.

फिल्म रूखीसूखी है, फिल्म में कोई मनोरंजन नहीं है, नायिका भी नहीं है. फिल्म में बच्चियों के शरीर के कटे अंगों को पका कर खाते हुए दिखाया गया है. फिर भी क्राइम थ्रिल वाली फिल्में पसंद करने वालों को यह कुछ हद तक भा सकती है.

लव सितारा??

फिल्म ‘लव सितारा’ एक फैमिली ड्रामा है. इस साफसुथरी मगर धीमी फिल्म को परिवार के साथ एंजौय कर सकते हैं. फिल्म हम सब को एक ऐसे संसार में ले जाती है जहां आप, हम सब उल?ो हुए हैं. हम सब परिवार से ही बातें छिपाते हैं कि कहीं हमें जज न किया जाए. इस से चीजें और भी खराब हो जाती हैं.

फिल्म एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर के गिल्ट की बात भी करती है. यह अपने परिवार को हमेशा सच बताने को कहती है. फिल्म बताती है कि खुशी हमेशा सचाई में मिलती है.

फिल्म की साधारण कहानी बेहतरीन अंदाज में फिल्माई गई है. कहानी आप को मुसकराने के लिए बाध्य करेगी. कहानी में एक छोटे से दक्षिण भारतीय घर को दिखाने की कोशिश की गई है. आसपास की प्रकृति का पूरा इस्तेमाल किया गया है. डाइनिंग टेबल के गौसिप से ले कर शादी से पहले की उथलपुथल तक यह कहानी रोचक बनी रहती है. शोभिता धुलिपाला के चेहरे पर हर वक्त फैली मुसकान दर्शकों को मुसकराने पर बाध्य करती है.

कहानी की शुरुआत सितारा (शोभिता धुलिपाला) से होती है. डाक्टर से पता चलता है कि वह प्रैग्नैंट है. इस बात का सितारा को खुद को पता नहीं था. वह शौक्ड रह जाती है. उसे बैस्ट डिजाइनर का अवार्ड मिलने वाला था, इसलिए उस ने पार्टी रखी थी. पार्टी में वह अपने बौयफ्रैंड अर्जुन (राजीव सिद्धार्थ) का पार्टी में इंतजार कर रही थी.

अगले सीन में हम अर्जुन को देखते है. आते ही वह सितारा से लेट आने पर सौरी कहता है. सितारा अर्जुन से कहती है कि वह उस से शादी करना चाहती है. अर्जुन शौक्ड रह जाता है. 2 साल पहले उस ने सितारा को प्रपोज किया था परंतु सितारा ने मना कर दिया था. इस बार अर्जुन मान जाता है. सितारा चाहती थी कि अर्जुन के सिंगापुर जाने से पहले वे दोनों शादी कर लें. दोनों अपनेअपने घरवालों से शादी की बात बता देते हैं. सितारा के पापा बेटी की शादी बड़े होटल में करना चाहते थे परंतु सितारा अपनी शादी नानी के घर से करना चाहती थी. अर्जुन को उस ने नहीं बताया था कि वह प्रैग्नैंट है. सितारा अपने मम्मीपापा के साथ नानी के घर आ जाती है.

सितारा की नानी सितारा की मौसी हेमा (सोनाली कुलकर्णी) के साथ रहती थी. हेमा एयरहोस्टेस थी. उस ने अभी तक शादी नहीं की थी. सितारा को एक फोटो अलबम से पता चलता है कि उस के डैडी अरविंद और एयरहोस्टेस हेमा के बीच अवैध संबंध हैं. इस के बारे में उस की मां को कुछ भी पता नहीं है.

हेमा अरविंद पर अपनी पत्नी को तलाक लेने के लिए दबाव बनाती है. अब सितारा अपने पापा से ठीक से बात नहीं करती थी. वह गिल्ट फील कर रही थी. उसे यह पता नहीं था कि यह बच्चा किस का है. लंदन में एक रात नशे में चूर सितारा के किसी युवक के साथ संबंध बन गए थे.

इधर सितारा की मां को भी पता चल जाता है कि वह प्रैग्नैंट है. तभी वहां अर्जुन भी आता है. सुन कर उसे भी पता चल जाता है कि सतारा प्रैग्नैंट है. सितारा अर्जुन को सब सच बता देती है कि उस की मौसी और पापा का अफेसर था. सितारा की मां हेमा को माफ करने वाली नहीं थी.

सितारा फैसला करती है कि वह अपने बच्चे को जन्म देगी और पालेगी. सितारा को कुछ वर्षों पहले पता चल गया था कि उस की दोनों ओवरीज डैमेज हैं और भविष्य में वह कोई बच्चा पैदा नहीं कर सकेगी.

5 महीने बीत जाते हैं. अरविंद दुबई जाने वाला है, यह बात उस ने हेमा से छिपाई थी. अब हेमा अरविंद को रोकने की कोशिश करती है. मगर अरविंद उसे छोड़ कर चला जाता है.

दादी के पूछने पर सितारा बताती है कि वह अपने बच्चे को रखना चाहती है.

हेमा की लाइफ खुश नहीं थी. अर्जुन सिंगापुर पहुंच जाता है. सितारा अपने बच्चे के लिए एक नर्सरी का डिजाइन करती है. 5 महीने बाद हेमा वापस अपने घर आ जाती है और अपनी बहन से सौरी कहती है. तभी दादी हेमा और लता से कहती हैं कि तुम्हारा पिता मुझे छोड़ कर अपनी प्रेमिका के साथ भाग गया था. जब वह छोड़ कर गया तो दादी 20 वर्ष की थीं. उन के 2 बच्चे थे. इसीलिए दादी ने इन दोनों को प्यार नहीं दिया. वे सितारा से कहती हैं कि उन्होंने उस के बच्चे के नाम प्रौपर्टी वगैरह सबकुछ कर दिया. सितारा अर्जुन के पास वापस सिंगापुर लौट जाती है. दोनों एकदूसरे को गले लगाते हैं.

फिल्म की यह कहानी एक अनहैप्पी फैमिली की है. यह कहानी 4 पीढि़यों की बेटियों की कहानी है- घर की मुखिया मां, उन की 2 बेटियों- एक शादीशुदा और दूसरी एक शादीशुदा मर्द संग विवाहेतर रिश्तों में. केरल में रह रही सितारा की नानी बिंदास है, सैक्स, संभोग और मैथुन उन के लिए गायों के वंश बढ़ाने के साधन मात्र हैं.

शुरू में यह फिल्म धीमी रफ्तार में चलती है. फिल्म में जयश्री, उस की दोनों बेटियां- वर्जीनिया रौड्रिग्स व सोनाली कुलकर्णी और शोभिता धुलिपाला हैं. तीन पीढि़यों की ये बेटियां जब क्लाइमैक्स में एकसाथ फ्रेम में होती हैं तो फ्रेम खिल उठता है. लेकिन यहां तक आतेआते
3 पीढि़यों की 4 अलग कहानियों की सचाई खुलती है.

फिल्म का निर्देशन अच्छा है. फिल्म साफसुथरी है. फिल्म का हर फ्रेम किसी पेंटिंग जैसा लगता है. किरदारों की पोशाकों पर ध्यान दिया गया है. फिल्म की पटकथा थोड़ी और चुस्त होती तो ज्यादा अच्छा होता. निर्देशिका कहानी को आखिरी के 30 मिनटों में सारा सस्पैंस खोलती है. गीतसंगीत याद नहीं रह पाते. शोभिता धुलिपाला का काम सब से बढि़या है. सिनेमेटोग्राफी अच्छी है.

प्रायश्चित्त : अनुभा के साथ कुछ ऐसा ही हुआ था

रात के 2 बजे के करीब अनुभा की आंखें खुलीं तो उस ने देखा, सुगम बिस्तर पर नहीं है. 5-7 मिनट बाद जब सुगम वापस नहीं आया तो अनुभा को कुछ चिंता हुई. वह उठ कर बाहर की तरफ जाने वाले दरवाजे पर गई तो उस ने पाया दरवाजे की सांकल खुली हुई है. सुगम को अचानक बाहर जाने की क्या जरूरत आ पड़ी. अनुभा यह सोच ही रही थी कि पास के कमरे से खुसुरफुसुर की आवाजें आईं. संभवतया सुलभा की बच्ची को कोई परेशानी हुई होगी. यही सोच कर शायद उस ने सामने वाला दरवाजा न खोल कर कमरों को जोड़ने वाला दरवाजा खोलने का निर्णय लिया होगा. निश्चित रूप से कोई बड़ी परेशानी रही होगी. वरना यह दरवाजा तो दिन के समय तक दोनों तरफ से बंद रहता है. आशंकाओं से भरी अनुभा ने कुछ झिझकते हुए दरवाजा खोल दिया.

आंखों के सामने का दृश्य अविश्वसनीय था. सुगम और सुलभा अंतरंग प्रणय की अवस्था में थे. अनुभा को कुछ समझ में नहीं आया की वह क्या करे. उसे चक्कर सा आ गया, वह गिरने लगी. ‘सुगम…’ अनुभा गिरने से पहले पूरी ताकत लगा कर चीखी. अनुभा की चीख में इतनी तेजी तो थी ही कि वह प्रगत प्रताप और जैविका की नींद खोल सके.

‘‘यह तो अनुभा की आवाज है. पेट से है. कहीं कुछ गड़बड़,’’ कहते हुए आशंकित जैविका उठ बैठी.

‘‘चलो,चल कर कर देखते हैं,’’ प्रगत प्रताप बिस्तर छोड़ते हुए बोले.

तेज कदमों से दोनों सुगम के कमरे की तरफ चल दिए. चूंकि आगे वाले दरवाजे का सांकल खुला हुआ ही था, इसलिए ढकेलते ही खुल गया. कमरे में सुगम व अनुभा दोनों को न पा कर वे भी कमरों को जोड़ने वाले दरवाजे की तरफ दौड़े.

फर्श पर अनुभा को लगभग बेहोश व सुगम और सुलभा को साथ खड़ा देख कर प्रगत प्रताप और जैविका को माजरा समझते देर न लगी.

‘‘यह क्या सुगम? कितना नीचे गिर गए हो तुम? अपने बड़े भाई की पत्नी के साथ इस तरह के संबंध रखते हुए तुम्हें शर्म नहीं आती,’’ प्रगत प्रताप सुगम को डांटते हुए बोले.

‘‘सुलभा तुम? तुम तो सुगम से बड़ी हो, उम्र में भी और ओहदे व मानमर्यादा में भी,’’ जैविका सुलभा को डांटते हुए बोली, ‘‘डायन भी सात घर छोड़ कर बच्चे खाती है.’’

‘‘वाह, सुगम, खूब नाम रोशन किया है हमारा. इंग्लिश स्कूल में तुम को शिक्षा दिलवाई थी परंतु देशी सभ्यता और संस्कृति को भूलने को नहीं कहा था. दुनिया को अब क्या मुंह दिखाऊंगा,’’ प्रगत प्रताप की आंखों में आंसू आ गए. आवाज भर्रा गई.

सुगम व सुलभा मुजरिमों की तरह सिर झुकाए खड़े थे. अब तक अनुभा भी कुछकुछ होश में आ गई थी.

प्रगत प्रताप इस शहर के जानेमाने उद्योगपति हैं. इन्होंने अपनी काबिलीयत के दम पर अपने पुरखों से विरासत में मिले ब्याजबट्टे के धंधे को छोड़ कर कारखाना डालने की हिम्मत की. और आज सफलता के उस मुकाम पर हैं जहां पहुंचने की सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है. परिवार में पत्नी जैविका और 3 बच्चे हैं. सब से बड़ी लड़की सरला की शादी हो चुकी है जो अपनी ससुराल में सुखी है. उस से छोटा लड़का अगम है. अगम की उम्र 34 साल है. अगम की पत्नी का नाम सुलभा है और दोनों की शादी 5 साल पहले हुई है. इन दोनों की एक बेटी है जिस का नाम विधा है. सब से छोटा बेटा सुगम है जो लगभग 27 साल का है जो यह नई वाली फैक्टरी को संभालता है. सुगम भी शादीशुदा है और अभी पिछले महीने ही शादी की पहली सालगिरह बड़ी धूमधाम से मनाई है. इस की पत्नी अनुभा अभी एक माह की गर्भवती है.

प्रगत प्रताप अपने नाम के अनुरूप प्रगतिशील विचारधारा के तो हैं ही, साथ ही अपने पुरखों द्वारा दी गई सीख का सम्मान करने वाले भी हैं. शायद यह ही कारण है कि नए व्यवसाय को अपनाने के बावजूद उन्होंने अपनी हवेली के नवीनीकरण के समय पुरखों की मान्यता को ध्यान में रखते हुए हवेली की आमूलचूल डिजाइन पुरानी ही रखी. 20 कमरों वाली इस हवेली की खासीयत यह है कि यदि इस के सभी दरवाजे खोल दिए जाएं तो सब कमरे अंदर ही अंदर एकदूसरे से जुड़ जाएं.

इन सब के अतिरिक्त, प्रगत प्रताप की खासीयत और थी. वे बेहद न्यायप्रिय थे. यही कारण था कि उन की फैक्टरियों में एक भी मजदूर मैनेजमैंट विरोधी नहीं था. सभी कर्मचारी उन के फैसलों का सम्मान करते थे.

अगम पिछले 2 दिनों से कारखाने के काम के सिलसिले में शहर से बाहर गया हुआ था. उस का सप्ताहभर बाद लौटने का प्रोग्राम था. पिछले 6 महीनों से कारखाने के विस्तारीकरण का काम चल रहा था. इसी कारण अगम ज्यादातर बाहर ही रहता था.

‘‘क्यों किया तुम ने ऐसा सुगम?’’ अनुभा की रुलाई अब फूट पड़ी थी.

‘‘जवाब दो सुगम, असली गुनाहगार तो तुम अनुभा के ही हो? और सुलभा, तुम अगम को क्या जवाब दोगी? किस मुंह से उस के सामने जाओगी. क्या उस के विश्वास का जवाब यह अविश्वास, फरेब और धोखेबाजी ही है?’’ जैविका की रुलाई भी अब फूट पड़ी थी.

‘‘जवाब दो सुगम, जवाब दो. तुम्हें हमारे होने वाले बच्चे की कसम, बताओ, मुझ में क्या कमी थी जो तुम ने मेरे साथ यह दगाबाजी की,’’ अनुभा बच्चों की तरह बिलख कर रोते हुए सुगम से प्रश्न करती रही.

सुगम व सुलभा मूर्ति की तरह निश्चल खड़े रहे.

‘‘जवाब दो सुगम. तुम्हें अपने होने वाले बच्चे की कसम है,’’ अनुभा ने अपना प्रश्न फिर जोर दे कर दोहरा दिया. अनुभा ने अपना प्रश्न 3-4 बार दोहरा दिया.

‘‘नहीं अनुभा, तुम में या तुम्हारे प्यार में कोई कमी नहीं है. लेकिन कुछ ‘अतिरिक्त’ पाने की चाह में हम दोनों एकदूसरे के प्रति आकर्षित हो गए,’’ सुगम दबी आवाज में सफाई देते हुए बोला.

‘‘क्या हर स्त्री और पुरुष के अंगों की बनावट अलगअलग होती है? कहां से तुम्हें कुछ ‘अतिरिक्त’ मिलेगा? आखिर यह ‘अतिरिक्त’ क्या है? और सब से बड़ा प्रश्न यह ‘अतिरिक्त’ पा कर समाज में कितना सम्मान मिलेगा? समाज में तुम्हारा ओहदा कितना बढ़ जाएगा? अपनी पत्नी के अलावा कितनी और स्त्रियों से संबंध रखे हैं तुम ने? और कितना कुछ ‘अतिरिक्त’ पाया तुम ने. यह जानने के बाद कौन सी संस्था पुरस्कृत करने वाली है तुम्हें? मुझे बताओ तो जरा,’’ प्रगत प्रताप गुस्से से भर कर सुगम से पूछ बैठे.

‘‘सुगम, तुम्हें एक बार भी नहीं लगा कि तुम मुझ से विश्वासघात कर के कितना बड़ा गुनाह कर रहे हो. मैं तुम्हारा साथ और संबंल पाने की खातिर अपने मां, बाप, भाई, बहन सभी को छोड़ कर आई हूं सिर्फ तुम्हारे भरोसे पर…’’ अनुभा रोए जा रही थी.

‘‘गुनाह तो इस कुलटा का भी है. यह भी इस गुनाह में बराबर की साझीदार है,’’ जैविका सुलभा की तरफ इशारा कर के बोलीं.

सुगम अपना अपमान सहन कर रहा था लेकिन जैसे ही जैविका ने सुलभा के प्रति सख्त शब्दों का इस्तेमाल किया तो वह तिलमिला उठा. उस की सुलभा के प्रति यह सहानुभूति शायद तात्कालिक शारीरिक संबंधों की वजह से थी.

‘‘गुनाह, कौन सा गुनाह मम्मी?

2 शादीशुदा स्त्रीपुरुष के बीच आपसी संबंध को तो अदालत भी गुनाह नहीं मानती. इन संबंधों के आधार पर किसी को सजा नहीं मिल सकती है, न ही किसी को परेशान किया जा सकता है,’’ सुगम अब अपनी बेशर्मी को सुप्रीम कोर्ट के आदेश का जामा पहनाने लगा.

सुगम की इस दलील को सुन कर प्रगत प्रताप सुन्न रह गए. उन्हें लगा यह उन के दिए गए संस्कारों की हार है. अब तक अपनेआप को संभाले हुए प्रगत प्रताप और अधिक सहन नहीं कर पाए, फूटफूट कर रो पड़े.

सुगम को अपने मजबूत पिता से इस तरह की प्रतिक्रिया की उम्मीद न थी. वह सोच रहा था. प्रगत प्रताप उसे डांटेंगे और शायद एकदो चांटें भी रसीद कर दें. उस ने अपनी मां जैविका को कई बार रोते हुए देखा था, किंतु अपने पिता का इस प्रकार बिलखबिलख कर रोना वह पहली बार देख रहा था. वह मन ही मन अपनेआप को धिक्कारने लगा. अपने पिता से नजरें मिलाने की हिम्मत उस में नहीं थी.

रोते हुए प्रगत प्रताव व जैविका अनुभा को अपने साथ ले कर कमरे से बाहर निकल गए.

सुगम व सुलभा कुछ समय तक चुपचाप खड़े रहे. शायद दोनों को ही अपनी गलती का एहसास हो गया था.

कुछ मिनटों के बाद सुगम भी वापस कमरे में आ गया. अनुभा पहले ही अपने सासससुर के साथ उन के कमरों में चली गई थी.

दूसरे दिन सुबह हमेशा की तरह प्रगत प्रताप के पास अगम का फोन आया. वह बड़े उत्साह के साथ अपने व्यवसाय की सफलता की बातें बता रहा था. उसे कई छोटेछोटे औडर्स मिल चुके थे. एक बहुत बड़े और्डर के लिए बातचीत चल रही थी. यदि यह और्डर उसे मिल जाता है तो फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखना होगा. किंतु इसे पाने के लिए उसे कम से कम एक सप्ताह और रुकना होगा.

प्रगत प्रताप नहीं चाहते थे कि इस घटना के कारण से अगम के व्यवसाय पर कोई उलटा असर पड़े, सो उन्होंने उसे जरूरत के मुताबिक काम करने की सलाह दी.

2 दिनों तक घर में मुर्दनी सी छायी रही. सभी सदस्य एकदूसरे से कटते से रहे. कोई किसी से नजरें मिलाने की स्थिति में नहीं था. सभी अपनेअपने कमरों में बंद थे. कोई भी काम पर नहीं गया. तीसरे दिन नाश्ते की टेबल पर सुगम ने सभी को बुलवाया. सभी की आंखों में एक अजीब तरह की उदासी थी. सुलभा की आंखों से भी पछतावे के आंसू बह रहे थे.

‘‘पिताजी, मैं अपनी गलती स्वीकार करती हूं. मुझ से बहुत ही बड़ी गलती हुई है. मैं ने आप की शिक्षा व सामाजिकता और अनुभा के विश्वास को गहरी चोट पहुंचाई है.’’

मुझे अपनी गलती का अहसास हो गया है मैं अनुभा को ले कर दूसरे घर में शिफ्ट हो जाता हूं, क्योंकि यहां रहने पर मैं हमेशा अपराधबोध से ग्रस्त रहूंगा. इस अवस्था में साथ रहना दोनों परिवारों के लिए ठीक नहीं होगा. मैं अनुभा को वचन देता हूं कि भविष्य में मुझ से इस तरह की कोई गलती नहीं होगी,’’ यह सब कहते समय सुगम की आंखें भीगी हुई थीं.

‘‘लेकिन अगम को क्या कहेंगे?’’ प्रगत प्रताप ने पूछा.

‘‘उस से शहर में हमारा जो दूसरा घर है उस पर कुछ लोग कब्जा करना चाहते थे. सो, आननफानन यह फैसला लेना पड़ा वरना प्रौपर्टी हाथ से चली जाती. उन्हें असली बात मत बताइए वरना कोई भी अपने भाई व पत्नी पर विश्वास नहीं करेगा,’’ सुगम लगभग रोते हुए बोला.

‘‘तुम क्या कहती हो अनुभा? वैसे, पहली गलती तो सभी माफ कर देते है,’’ प्रगत प्रताप ने अनुभा की तरफ देख कर पूछा.

‘‘जैसा आप उचित समझें, पिताजी,’’ कहते हुए अनुभा की आंखों में भी आंसू थे पर घाव तो गहरा था और भरे या न भरे, पता नहीं.

पूजापाठ से नहीं, धनधान्य मेहनत से मिलता है

दीवाली को धार्मिक त्योहार मानने की हमारी पुरानी परंपरा है और इस में पूजापाठ से धनधान्य पाने की कल्पना बहुत ज्यादा हावी रहती है. दीवाली असल में अब पूजापाठ, लक्ष्मीपूजन, स्नान, दानदक्षिणा का नहीं, खुशी का अवसर है. दीवाली ऐसा दिन है जिसे भारत के अधिकांश लोग कुछ नए से जोड़ते हैं और इस को इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए.

दीवाली पर पूजापाठ से क्या लक्ष्मी मिलती है, इस पर अंधविश्वासों में फंसने से पहले कुछ जान लें.

सैकड़ों पौराणिक कथाएं हैं जो पूजापाठ व धनधान्य से जुड़ी हैं. वे सब अतार्किक और चमत्कारों वाली हैं. उन्हीं के चक्कर में लोग इस दिन बहुत सा समय और पैसा ही नहीं खर्च कर डालते, बल्कि बरबाद भी कर देते हैं.

एक कहानी देखिए- एक बार नारद मुनि ने वैकुंठ धाम पहुंच कर विष्णु से कहा कि प्रभु, पृथ्वी पर आप का प्रभाव कम हो रहा है. जो धर्म के रास्ते पर चल रहे हैं उन का भला नहीं हो रहा और जो पाप कर रहे हैं उन का खूब भला हो रहा है. यह सुन कर विष्णु ने कहा कि ऐसा नहीं है देवर्षि, नियति के अनुसार ही सब हो रहा है और वही उचित है. तब नारद ने कहा कि मैं ने स्वयं अपनी आंखों से देखा है. तब विष्णुजी ने कहा कि इस तरह की किसी एक घटना के बारे में बताओ.

तब नारद ने एक घटना का उल्लेख करते हुए बताया कि जब वे जंगल से गुजर रहे थे तब एक गाय दलदल में फंसी हुई थी. कोई उसे बचाने के लिए नहीं आ रहा था. उसी दौरान एक चोर आया. उस ने गाय को बचाया नहीं बल्कि उस पर पैर रख कर दलदल लांघ कर निकल गया.

आगे चल कर उसे सोने की मोहरों से भरी थैली मिली. फिर वहां से एक बूढ़ा साधु गुजरा. उस ने गाय को बचाने की पूरी कोशिश की और बचाने में कामयाब भी हो गया. लेकिन जब गाय को बचा कर वह साधु आगे गया तो एक गड्ढे में गिर गया. सो, बताइए, यह कौन सा न्याय है.

नारद की बात सुन कर प्रभु ने कहा कि जो चोर गाय पर पैर रख कर भाग गया था उस के भाग्य में तो खजाना था लेकिन उस के पाप के चलते उसे कुछ ही सोने की मोहरें मिलीं.

वहीं उस साधु के भाग्य में मृत्यु लिखी थी लेकिन उस ने गाय की जान बचाई. उस के इस पुण्य के चलते उस की मृत्यु टल गई और वह एक छोटी सी चोट में बदल गई. यही कारण था कि वह गड्ढे में जा गिरा.

ऐसे में इंसान का भाग्य उस के कर्म पर ही निर्धारित होता है. सत्कर्मों का प्रभाव ऐसा होता है कि दुखों और संकटों से मनुष्य का उद्धार हो जाता है.

इस कहानी में तर्क नहीं है. कहानी में उठाए गए सवालों का अतार्किक, इल्लौजिकल उत्तर विष्णु के मुंह से कहलवाया गया है ताकि कोई भक्त आपत्ति न कर सके.

दुखी और असंतुष्ट जीवन

आईटी और एआई के इस दौर में भी आम जिंदगी में इस तरह के पौराणिक किस्सेकहानियां चल रहे हैं और सोशल मीडिया पर दोहराए जा रहे हैं. ऐसे में यह सोचना लाजिमी है कि आखिर लोग क्यों इस हद तक तथाकथित भाग्य के मुहताज हैं कि वे तर्कों और कर्मों की उपेक्षा कर भाग्यवाद को बढ़ाने वाले किस्सों में फंस जाते हैं और अपनी उपलब्धि की वास्तविक खुशी को अनदेखा करते हुए ज्यादातर दुखी और असंतुष्ट रहना ही पसंद करते हैं. यह उन का ‘कम्फर्ट’ जोन है जो धार्मिक प्रचार की देन है.

पैसा लोग कमाते अपनी मेहनत से हैं लेकिन धर्म के बिचौलिए यह कह कर कायल कर देते हैं कि यह भगवान की देन है. इस की तह में एक साजिश है. पूजापाठ में पैसा खर्च करना होता है उन लोगों पर जो पूजापाठ कराते हैं.

यह एक धार्मिक टैक्स है, जिस का भुगतान लोग अपनी आमदनी के मुताबिक करते हैं. दीवाली पर भी दान दिया जाता है जो नकदी के अलावा अन्न के रूप में वस्त्र, भूमि, सोना, चांदी और गाय से ले कर गिलास और चम्मच तक होते हैं जिन्हें पंडेपुजारी लेते हैं. ये वे लोग हैं जो खुद मेहनत नहीं करते.

दुनिया का सब से चालाक वह व्यक्ति होगा जिस ने भगवान का आविष्कार किया और उस से भी ज्यादा वह चालाक होगा जिस ने भाग्य की कल्पना गढ़ी. भाग्य शब्द के माने बहुत साफ हैं कि होता वही है जो ईश्वर चाहता है. सुख, ऐश्वर्य, प्रसन्नता, पैसा वगैरह सब प्रभुकृपा से ही प्राप्त होते हैं और प्रभुकृपा उन्हीं लोगों पर होती है जो उस का पूजापाठ, भजन, ध्यान, आरती वगैरह करते हैं. अधिकतर लोगों ने बहुत सहज ढंग से बिना कोई तर्क किए मान लिया है कि दूसरी कई चीजों और सुखों की तरह पैसा और खुशी भी पूजापाठ से आते हैं, मेहनत से नहीं. मंदिर ही नहीं, मसजिदों, चर्च, गुरुद्वारों, बौद्ध विहार सब में यही होता है.

अगर ऐसा है तो फिर लोग पैसा कमाने के लिए मेहनत क्यों करते हैं, इस सवाल का जवाब बेहद जटिल और पेचीदा है जिस का कनैक्शन धर्म के ठेकेदारों ने सीधा भाग्य से जोड़ दिया है. जिंदगी भाग्यप्रधान है, इस वाक्य को महिमामंडित करते ऊपर बताई गई कहानी की तरह सैकड़ों-हजारों किस्से चलन में हैं. जिन का सार यह है कि अगर भाग्य में पैसा होगा तो आदमी को कुछ करने की जरूरत नहीं और अगर भाग्य में पैसा नहीं तो आदमी लाख पसीना बहा ले उसे पैसा नहीं मिलने वाला. इस की वजह से धर्म के बिचौलिए कि, ‘उन्हें पूजा करने पर भी कुछ नहीं मिला,’ अपने हर आरोप से निकल जाते हैं.

दीवाली पर खुशियां मनाई जानी चाहिए, रोशनी होनी चाहिए, मिलन होना चाहिए पर यहां से शुरू होता है पूजापाठ और अंधविश्वासों का बाजार भी, जिस की चपेट में हर कोई है.

असल में लोग जितने ज्यादा पूजापाठी और अंधविश्वासी होते जाते हैं उतनी ही खुशियां और पैसा भी उन से दूर होते जाते हैं. जो हर दीवाली लक्ष्मीगणेश की मूर्तियों के सामने बैठे घंटों पूजा करते रहते हैं उस से उन के पास लक्ष्मी यानी पैसा तो कभी आता नहीं, उलटे खर्च हो जाता है.

दीवाली महंगा त्योहार है जिस में पूजापाठ पर खर्च भी अनापशनाप होता है और लोग इसे खुशीखुशी इस आस में करते भी हैं कि आज कुछ हजार खर्च कर भी देंगे तो भगवान कल को उस से हजार नहीं तो सौ गुना कर के दे ही देगा.

जबकि, दीवाली मेहनत से मिलने वाले फल की उपलब्धि पर खुशी मनाने का त्योहार है, यह भाग्य चमकाने वाला नहीं. पूजापाठ से कुछ नहीं होता. इस के उदाहरण तो पौराणिक कहानियों में भी मिल जाते हैं.

ज्यादा अंधविश्वास, कम विकास

हर साल लक्ष्मीपूजन के बाद भी देश में क्यों भूखे हैं, क्यों गरीब हैं, क्यों लोग स्लमों में रहने को मजबूर हैं? इन सवाल का दोटूक जवाब यह निकलता है कि ये ज्यादा अंधविश्वासी हैं और अंधविश्वास इन की मेहनत पर पानी फेर देता है. हमारे यहां साइंटिस्ट नहीं हो रहे, कांवडि़यों, राम, कृष्ण और हनुमान सहित शिवभक्तों की भरमार है. दुनिया के बहुत देश इस तरह के अंधविश्वासों से गुजर कर विज्ञान और तर्क को अपना चुके हैं. जिस देश की पूरी पीढ़ी ही बुरी तरह से दकियानूसी, रूढि़वादी, पूजापाठी और अंधविश्वासी हो वह गरीबी को समाप्त नहीं कर सकता.

दुनिया में सब से ज्यादा और तेजी से अगर कोई देश तरक्की कर रहा है तो हर कोई जानता है कि वह चीन है जहां अनास्थावादी ज्यादा हैं जो न पूजापाठी हैं और न ही अंधविश्वासों में विश्वास करते हैं. वे विज्ञान और तर्क से जिंदगी चलाते हैं, इसलिए भाग्यवादियों के मुकाबले वे ज्यादा खुश रहते हैं. इस से मन का डर भी खत्म होता है कि ईश्वर को पूजापाठ के जरिए खुश करो तो वह मालामाल कर देगा और न करो तो कंगाल बना देगा. मेहनती व्यक्ति, मेहनती जाति और मेहनती देश इन पाखंडों से जितने दूर रहते हैं उतनी ज्यादा उन्नति करते हैं.

वर्ल्ड पौपुलेशन सर्वे 2023 के मुताबिक सब से ज्यादा 91 फीसदी नास्तिक चीन में हैं. ये लोग किसी ईश्वर, धर्म या पवित्र किताब के गुलाम नहीं हैं. नास्तिकों की संख्या के मामले में जापान दूसरे नंबर पर है. जापान के 86 फीसदी लोग किसी धर्म को नहीं मानते. स्वीडन तीसरे नंबर पर है जहां के 78 फीसदी लोग किसी धर्म या भगवान पर भरोसा नहीं करते.

इस शृंखला में भारत 60वें नंबर पर है जहां महज 6 फीसदी लोग ही खुद को नास्तिक बताते हैं बाकी 94 फीसदी भाग्यवादी और भगवानवादी हैं. वे किसी न किसी धर्म, ईश्वर, धर्मग्रंथ और चमत्कारी शक्तियों को मानते हैं जिन में ज्योतिष, तंत्रमंत्र वगैरह भी शामिल हैं. पूजापाठ, मंदिर, मसजिद, चर्च, गुरुद्वारे जैसे धर्मस्थल इन्हीं 94 फीसदी से गुलजार हैं. इन में भी बहुसंख्यक हिंदुओं का तो कहना ही क्या जिन का रोज कोई न कोई तीजत्योहार होता है. दीवाली को इस तरह के पूजापाठ के त्योहारों से अलग रखा जाना चाहिए. दीवाली चूंकि सब से बड़ा और खास त्योहार है इसलिए इस की चमकदमक देखते ही बनती है.

खुशी में भी फिसड्डी

अब एक और शर्म की बात खुशी की. दीवाली का त्योहार मशहूर है कि इस दिन लोग खुश रहते हैं, तरहतरह के पकवान खाते हैं, नए कपड़े पहनते हैं, आतिशबाजी चलाते हैं, घर रोशन करते हैं वगैरहवगैरह.

इसी साल 20 मार्च को जारी हुई वर्ल्ड हैप्पीनैस रिपोर्ट के मुताबिक 143 देशों में भारत 126वें नंबर पर है, यानी दुखियारों के मामलों और गिनती में हम टौप 20 में हैं. इस रैंकिंग में हम इतने नीचे हैं. इस का सीधा सा मतलब यह है कि देश के लोग खुश नहीं हैं. लीबिया, इराक, फिलिस्तीन और नाइजर जैसे देश भी भारत से बेहतर स्थिति में हैं. इस इंडैक्स के प्रमुख पैमाने अगर पूजापाठ होते तो तय है हम 7 साल से पहले नंबर पर काबिज फिनलैंड को भी धकिया देते लेकिन इस के प्रमुख पैमाने जीवन प्रत्याशा, सामाजिक बंधन, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और भ्रष्टाचार हैं.

भष्टाचार में भी भारत दुनियाभर के देशों का गुरु है. ट्रांसपेरैंसी इंटरनैशनल ने इसी साल 30 जनवरी को 180 देशों में भ्रष्टाचार पर एक रिपोर्ट जारी की है जिस के मुताबिक भारत में भ्रष्टाचार बढ़ा है.

करप्शन इंडैक्स में हम अब 93वें पायदान पर आ गए हैं जबकि 2022 में 85वें स्थान पर थे. 180वे नंबर पर रहने वाला सोमालिया सब से भ्रष्ट और पहले नंबर पर रहने वाला डेनमार्क सब से कम भ्रष्ट है जो खुशहाली के मामले में दूसरे नंबर पर है.

पूजापाठ से अगर खुशी आ रही होती, पैसा मिल रहा होता, सुख, समृद्धि, संपन्नता और स्वास्थ्य मिलते होते तो हैप्पी दीवाली कहने और सुनने दोनों में वाकई खुशी और संतुष्टि दोनों मिलते लेकिन ऐसा है नहीं, यह कई मौकों पर उजागर होता रहता है. कोरोनाकाल इस का जीवंत और बेहतर उदाहरण है.

कोविड से उजागर हुआ था सच

कोविड 19 का भयावह दौर लोग मुद्दत तक नहीं भूल पाएंगे, जब मौत हर किसी के सिर पर खड़ी थी. कब कौन मर जाए, इस की कोई गारंटी नहीं थी. कोरोना वायरस से बचने के लिए लोगों ने जम कर पूजापाठ किया था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हुक्म पर खूब तालीथाली बजाई गई थी. लेकिन मौतों का सिलसिला बजाय कम होने के और बढ़ गया था. पूरी दुनिया सहित भारत भी दहशत में था. यह दहशत दोहरी इस लिहाज से थी कि कोरोना का कोई इलाज नहीं था और लोगों को सिवा भगवान के कुछ नहीं दिख रहा था जो खुद लौकडाउन के चलते ताले में बंद कर दिया गया था.

इस श्राप से बचाने के लिए कोई देवीदेवता, अल्लाह या जीजस या कोई और आगे नहीं आया तो लोगों का ऊपर वाले से भरोसा उठने लगा था और लोग दवाइयों पर विश्वास करने लगे थे. पहली बार लोगों को विज्ञान की अहमियत समझ आई थी और जब इस महामारी का वैक्सीन वैज्ञानिकों ने बहुत कम वक्त में खोज निकाला तो लोगों ने राहत की सांस ली. लेकिन बहुत कम लोगों ने ही विज्ञान और वैज्ञानिकों को इस का श्रेय दिया. अधिकतर लोग इसे भी भगवान की देन और लीला मानते रहे और सबकुछ सामान्य हो जाने के बाद फिर धर्मस्थलों पर जा कर धार्मिक टैक्स भरने लगे. यह ठीक वैसा ही था जैसे पैसा मिल जाने का श्रेय ऊपर वाले को दिया जाता है और न मिलने पर या कम मिलने पर लोग अपनी किस्मत को दोष देते खामोश हो जाते हैं.

भाग्य प्रधान विश्व रचि राखा

धर्म ने कभी लोगों को यह नहीं बताया और सिखाया कि मेहनत से खुशी और पैसा और उस से भी ज्यादा अहम आत्मसंतुष्टि मिलती है.

धर्म के दुकानदारों को मालूम है कि पैसा पेड़ पर नहीं उगता, इसलिए लोग इसे कमाएंगे ही कमाएंगे. उन का मकसद सिर्फ इतना रहता है कि लोग जितना भी कमाएं उस का बड़ा हिस्सा उन्हें धार्मिक टैक्स की शक्ल में देते रहें. जिस से उन्हें मेहनत न करनी पड़े.

सालभर लोग विभिन्न तीजत्योहारों पर चढ़ावा देते ही रहते हैं. उसे झटकते रहने के लिए दीवाली को लक्ष्मी का त्योहार बना डाला गया जिस से लोग मेहनत से हासिल की गई कमाई का श्रेय खुद न लेने लगें.

अब अगर मेहनत, किस्मत और खुशी की बात की जाए तो लोगों का यह पूछना बहुत आम है कि कई बार क्या, अकसर ही ज्यादा मेहनत करने वालों को कम पैसा मिलता है, ऐसा क्यों? अगर पैसा सिर्फ मेहनत से आ रहा होता और भाग्य का उस में कोई रोल न होता तो सब से ज्यादा आमदनी किसानों और मजदूरों की होनी चाहिए. यह सवाल कतई तर्कसंगत नहीं है जिस का पहला जवाब तो यही है कि क्या सभी पूजापाठियों को उम्मीद के मुताबिक पैसा मिलता है? जवाब है नहीं. अगर मिलता होता तो देश में कोई गरीब ही न होता.

पूजापाठ का रोग अब निचले स्तर तक महामारी सरीखा पसर गया है. गरीब से गरीब आदमी भी लक्ष्मीपूजन पूरे तामझाम से करता है, फिर भी वह गरीब है. उसे जो भी मिलता है वह उस की मेहनत से मिलता है और उस का भी बड़ा हिस्सा वह इन्हीं धार्मिक प्रपंचों में खर्च कर देता है.

रही बात कमज्यादा की, तो यह शिक्षा, स्किल और मेहनत के अलावा लगन और मिलने वाले मौकों पर भी निर्भर करता है. अधिकतर किसानमजदूर अर्धशिक्षित हैं, इसलिए कम कमा पाते हैं. उन का शोषण भी इसी अज्ञान और अशिक्षा के चलते जम कर होता है. उन्हें भी एक साजिश के तहत भाग्यवादी बना दिया गया है और अब हिंदू एकता के नाम पर फुसलाया जा रहा है. इस के लिए उन में मुसलमानों का डर जम कर फैलाया जा रहा है.

अधिकतर गरीब छोटी जातियों वाले हैं जिन के दिमाग में सदियों से ठूंसठूंस कर यह बात भर दी गई है कि तुम पिछले जन्मों के कर्मों और पापों के चलते छोटी जाति वाले और गरीब हो और अगर अगले जन्म में इस का दोहराव नहीं चाहते तो इस जन्म में दानपुण्य और पूजापाठ करते रहो, सारी दरिद्रता दूर हो जाएगी.

जो मामूली तादाद में दलित आरक्षण के चलते सरकारी नौकरियों में आ कर ठीकठाक जिंदगी जी रहे हैं वे भी यथास्थिति बनाए रखने के लिए पूजापाठी होते जा रहे हैं. एक तरह से उन्हें अछूत सवर्ण होने की मान्यता मिलने लगी है. रही बात मिडल क्लास की, तो उन्हें यह कहानी सुना कर बहला दिया जाता है कि भिखारी था जो रोज भगवान के नाम पर भीख मांगता रहता था लेकिन उसे पेट भरने और जिंदा रहने लायक ही भीख मिलती थी.

एक बार विष्णु और लक्ष्मी भ्रमण पर निकले तो लक्ष्मी को उस भिखारी पर दया आ गई. पहले उन्होंने विष्णु से कहा कि हे नाथ, यह भिखारी दिनभर आप का नाम लेता रहता है. इस के बाद भी इतना दरिद्र है, ऐसा क्यों? इस पर विष्णु ने कहा कि धन इस के भाग्य में ही नहीं है तो मैं भी कुछ नहीं कर सकता. यह हमेशा ही गरीब रहेगा. इस जवाब पर लक्ष्मी ने कहा तो ठीक है, मैं इसे धनवान बनाए देती हूं. जिस रास्ते से भिखारी को गुजरना था उस पर लक्ष्मी ने पैसों और गहनों की पोटली रख दी कि भिखारी इन्हें उठाएगा और उस की गरीबी दूर हो जाएगी. इस पर विष्णु मंदमंद मुसकराते हुए तमाशा देखते रहे.

उस दिन भिखारी को लगा कि अगर अंधे हो कर भीख मांगी जाए तो ज्यादा मिलेगी, इसलिए वह आंखें बंद कर चलने की प्रैक्टिस करने लगा और आंखें बंद किए ही रास्ता पार कर गया. वे पोटलियां उसे दिखी ही नहीं.

इस तरह की कहानियां जानबूझ कर लिखी गई हैं ताकि लोग पूजापाठ और भाग्य पर अपना विश्वास कायम रखें. जबकि दीवाली का त्योहार नई उमंगों, नए प्रकाश, नए रिश्तों, नए उत्साह का त्योहार है. यह ऐसा त्योहार है जिस में शहर के शहर, गांव के गांव चमचमाने लगते हैं. यह हताशा और गरीबी पर आशा और परिश्रम का गुणगान करने वाला त्योहार है जिसे पूरा देश मिल कर मनाता है.

रोशनी व खुशियों का त्योहार

दीवाली धन का सम्मान करने का दिन है. उस धन के सम्मान का दिन, जिसे आप ने मेहनत से पाया है और इसलिए उसे मनाने में कुछ ज्यादा करने से न कतराएं. बस, यह ध्यान रखें कि प्रकाश में, दीयों में, रोशनियों में, पटाखों में (जहां भी इन की अनुमति है) आप खुद ऐसा हादसा न कर बैठें जो खुशी को कम कर दे.

आप की दीवाली प्रकाशमयी हो, आप को दीवाली हर नई खुशी दे, यह आप को स्फूर्ति दे, यही इस खुले त्योहार का आमंत्रण है.

यह ऐसा त्योहार है जिसे लोग घरों में बंद रह कर नहीं मनाते, घर को बाहर से भी प्रकाशमय कर के मनाते हैं. वे यह बताते हैं कि उन की रोशनी अमावस्या की काली रात को दूर कर सकती है. यह अंधेरे पर आदमी के परिश्रम का अवसर है. जीभर कर दीवाली मनाइए. पूरी रात मनाइए. सब के साथ मनाइए. पूरी तैयारी के साथ मनाइए. पूरे वर्ष अच्छे दिनों की कामनाओं के साथ मनाइए.

यह अकेला अवसर है जिस दिन आप अपने घर को बाहर से रोशन कर के अपनी खुशी अनजानों के साथ सांझ कर सकते हैं.

इतने गरीब हैं हम

दुनियाभर में हम कहां खड़े हैं, इस की शुरुआत प्रतिव्यक्ति औसत आय से करें तो आईएमएफ की इसी एक जुलाई को जारी रिपोर्ट के मुताबिक भारतीयों की औसत आमदनी 2.28 लाख रुपए है जबकि उस की जीडीपी 3.94 ट्रिलियन डौलर है. इसी को बड़े गर्व से हमारे प्रधानमंत्री और उन की सरकार अकसर गाया करते हैं कि आज हम दुनिया की 5वीं सब से बड़ी इकोनौमी हैं. 28.78 ट्रिलियन डौलर की पहले नंबर की जीडीपी वाले अमेरिका की प्रतिव्यक्ति औसत आय भारत से लगभग 31 गुना ज्यादा 71.30 लाख रुपए है. इस लिस्ट में अमेरिका 1960 से टौप पर है. जीडीपी के मामले में चीन दूसरे नंबर पर है, जहां प्रतिव्यक्ति औसत आय 10.97 लाख रुपए है.

जरमनी की जीडीपी 4.59 ट्रिलियन डौलर है लेकिन वहां प्रतिव्यक्ति औसत आमदनी 45.34 लाख रुपए है. जीडीपी के मामले में जापान 4.11 लाख ट्रिलियन डौलर के साथ चौथे नंबर पर है जहां प्रतिव्यक्ति औसत आय 27.67 लाख रुपए है. यूके की जीडीपी भारत के बाद 6ठे नंबर पर 3.50 ट्रिलियन डौलर है लेकिन वहां प्रतिव्यक्ति औसत आय 42.65 लाख रुपए है. फ्रांस की जीडीपी 3.13 ट्रिलियन डौलर है और प्रतिव्यक्ति औसत आय 39.55 लाख रुपए है. ब्राजील 2.33 ट्रिलियन डौलर की जीडीपी के साथ 8वें नंबर पर है लेकिन उस की प्रतिव्यक्ति औसत आय 9.48 लाख रुपए है. 9वे नंबर पर इटली है जिस की जीडीपी 2.33 ट्रिलियन डौलर और प्रतिव्यक्ति औसत आय 33.05 लाख रुपए है. टौप 10 देशों में 10वें नंबर पर कनाडा है जिस की जीडीपी 2.24 ट्रिलियन डौलर है लेकिन प्रतिव्यक्ति औसत आमदनी 45.62 लाख रुपए है.

जाहिर है, हमारे देश के कर्णधार 5वीं सब से बड़ी अर्थव्यवस्था का फटा ढोल पीटते रहते हैं लेकिन वे यह नहीं बताते कि प्रतिव्यक्ति औसत आय के मामले में हम फिसड्डी क्यों हैं. घोषित तौर पर जिस देश में 80 करोड़ और अघोषित तौर पर कोई 120 करोड़ लोग गरीब हों उस देश के लोगों को पूजापाठ करने की नहीं बल्कि मेहनत करने की जरूरत है.

श्रीमती का रूप वर्गीकरण : हम तो उन के हर रूप पर फिदा हैं

दुनिया में हम पर किसी ने यदि कोई उपकार किया है तो वे हैं हमारी आदरणीय श्रीमतीजी. आप कृपया इस शब्दावली को मजाक न समझें. घरेलू जिंदगी में सुखशांति का यह एक अस्त्र है. विभिन्न अवसरों पर उन के स्वरूप को महसूस कर हम नतीजा पेश कर रहे हैं. वैसे, सच तो यह है कि जब समझ में कुछ न आए तो वंदना-स्तुति से कार्य साध लेना चाहिए और हम इसी टैक्नीक से खुशहाल जिंदगी जी रहे हैं. अब मुख्य बिंदु पर आते हैं, ताकि श्रीमती के लाजवाब व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला जा सके.

समय कभी एकजैसा नहीं रहता, इसलिए खास समय पर उन के रूप की बानगी जुदाजुदा होती है. सो, मैं अकसर इस रिसर्च में जुटा रहता हूं कि आखिर उन का मूल स्वरूप कौन सा है? कभी गाय तो कभी शेरनी, कभी अप्सरा तो कभी विकराल रौद्र रूप…

वैसे, बेसिकली हमें उन से कोई गिलाशिकवा नहीं है, हम जैसे मनमरजी के जीव, आजाद पंछी को उन्होंने निभा लिया और ट्रेंड कर कुशल पति बना दिया, यही उपकार हमारे लिए कीमती है. दिन में दसियों बार उन के ऐसे श्रीवचनों को सुन कर अब सच में हमें अपने मूलस्वरूप का ज्ञान संभव हो सका है. अपनी अल्पबुद्धि से उन के जो विभिन्न रूप समयसमय पर समझ पाया हूं वे आप से शेयर कर रहा हूं ताकि हमारे वर्गीकरणों से आप भी मूल्यांकन व आकलन का सदुपयोग कर सकें.

समससमय पर उन के मुख से निकलते शुभ वचनों पर ध्यान दें तो आप भी इस रिसर्च को आसानी से समझ सकते हैं. आप की सुविधा के लिए हम चुनिंदा रूप और संवाद की बानगी आप की सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं. गारंटी मानिए यह लेख वक्तबेवक्त आप के काम आएगा और घर की शांति में सहयोग करने वाला साबित होगा.

१. इतिहास विश्लेषक : यह रूप दिन में अकसर 10-20 बार अनुभव हो जाता है. ‘तुम्हारे सारे खानदान की हकीकत जानती हूं. मुझे सब का कच्चाचिट्ठा पता है. मुझ से गड़े मुरदे मत उखड़वाओ…’ जैसी शब्दावली उन के इतिहासपसंद व्यक्तित्व को जाहिर करती है.

२. डौन स्वरूप : जब उन का पारा ऊंचाई छृने लगता है तो यह रूप भी जाहिर हो जाता है. उस समय उन की भाषाशैली में कठोरता टपकने लगती है, ‘कान खोल कर सुन लो, अगर फिर कभी ऐसा किया तो…मैं अब और सहन नहीं करूंगी…मुझ से बुरा कोई नहीं होगा…मैं जो करूंगी, पता चल जाएगा, सबक तो सिखा कर रहूंगी आप को.’ सच पूछें तो इस रूप से बहुत तनाव, भय और डर महसूस होता है.

३. शक्की, शंकालु स्वभाव : यह उस समय प्रकट होता है जब हम मोबाइल या लैपटौप पर काम कर रहे होते हैं. व्हाट्सऐप, फेसबुक पर हमारी मौजूदगी उन्हें शंकालू बना देती है और फिर उन का यह रूप फूट पड़ता है, ‘किस सौतन से चैटिंग चल रही है… कितनी दोस्त बना रखी हैं इस उम्र में…’ स्वाभाविक है उन की दहाड़ सुनते ही हमारा औफलाइन हो जाना तय है. कारण, जब ज्वालामुखी विस्फोट के चांस सौ प्रतिशत बढ़ जाते हैं, हम तुरंत जरूरी काम छोड़ कर उन की वंदना-स्तुतिगान में जुट जाते हैं.

४. धार्मिक : यह रूप चौबीसों घंटे हावी रहता है. ‘भगवान जाने आप की क्या माया है, आप को तो ईश्वर भी नहीं समझा सकता. पाप में पड़ोगे अगर मुझ से छल करोगे…’ ऐसे संवाद उन के धर्मभीरू होने की दुहाई देते हैं और इस स्वरूप में होने पर हमें कोई परेशानी नहीं होती. यह उन का सौम्य और शांत स्वरूप है.

५. अर्थशास्त्री स्वरूप : यह रूप दिनभर दिखलाईर् पड़ता है. कारण, महंगाई और बजट के असंतुलन से उन का हिसाब गड़बड़ा जाता है. तब वे हमारे साथसाथ बच्चों को भी हिदायतें देने लगती हैं. ‘आमदनी बढ़ाए बिना मुझ से पनीर, पकवानों की उम्मीद मत करना, कोई खजाना नहीं गड़ा घर में, न कोई नोट छापने की मशीन लगा रखी है जो तुम सब के नखरेडिमांड पूरी करूं, चटनी चाटो और मौज करो.’ उन की मजबूरी को हम समझते हैं. आसमान छूती महंगाई में बेचारी क्या करें? दोष हमारा है, हम जितना उन्हें देते हैं उस से सवाया करने की टैंशन में वे हमेशा घुली रहती हैं.

६. भविष्यवक्ता : हालांकि, उन्हें न तो ज्योतिष का ज्ञान है, न ही अंकशास्त्र और न ही भविष्यवाणी के स्रोतों का, लेकिन फिर भी सीमा पार जा कर अपनी मन की शक्ति से हमारे भविष्य को ले कर दिन में अनेकानेक बार भविष्यवाणी करती रहती हैं, तब हम उन के दिव्यस्वरूप के कायल हो जाते हैं. ‘सात जन्मों तक मेरी जैसी पत्नी नहीं मिलनी.’ यह अमर वाक्य इस घोषणा का प्रमाण है.

७. भ्रमित रूप : कभीकभी श्रीमतीजी इस अज्ञेय स्वरूप को धारण कर बैठती हैं. तब सच में हमें पता नहीं चलता कि वे हम से चाहती क्या हैं? इस रूप में ताने, व्यंग्यबाणों की बौछार से हम खुद भ्रमित हो जाते हैं. हमारी समझ पर प्रश्नचिन्ह नाचने लगते हैं. ‘आदमी हो या औरत? पजामा तो नहीं… कैसे आदमी हो, बच्चे हो क्या?’ जैसे वाक्यांश हमें भ्रमित कर देते हैं.

८. स्वार्थी स्वरूप : यह रूप टीवी चैनल बदलने, शौपिंग मौल, सैल, ज्वैलरी खरीदने, ब्यूटीपार्लर के लिए जाते समय आसानी से नजर आ जाता है. फैशनपरस्ती में वे शायद कालोनी में किसी से पीछे रहना नहीं चाहतीं, इसलिए खुद की डिमांड पूरी करवा कर ही मानती हैं. ‘हमेशा खुद की ही सोचते हो, दूसरों की जरूरत भी समझना सीखो, अरे आप की पत्नी हूं, पहला हक मेरा बनता है, कभी तो अपने पर्स का स्पर्श कर लेने दिया करो, 2 हजार रुपए देना सेल लगी है, मैं पिछले सप्ताह भी नहीं गई… इतनी कंजूसी भी ठीक नहीं.’

९. कुंठाग्रस्त रूप : ‘हाय क्या बुरे काम किए थे जो…जो घरवालों ने इस के साथ ब्याह रचा दिया, कब सुधरेंगे, कब समझेंगे, समझ नाम की चीज तो है ही नहीं.’ ऐसे वाक्यांश भी अकसर प्रतिदिन सुनने पड़ते हैं. तब हम समझ जाते हैं कि उन पर डिप्रैशन का दौरा पड़ गया है. तुरंत हम गंभीरता का लबादा ओढ़ कर उन की अदालत में पेश हो जाते हैं और उन के गुबार को कान में रुई ठूंस कर ध्यान से सुनते हैं. तब जा कर वे नौर्मल हो पाती हैं, दिमाग कूल होता है और फिर रसोई गरम.

१०. पुलिसिया रूप : इस रूप के वर्गीकरण की जरूरत नहीं. कारण, इस रूप से पति साहबानों को अकसर रूबरू होना पड़ता है. ‘फोन क्यों नहीं उठा रहे, कहां हो…ट्रेन की आवाज तो सुनाई ही नहीं पड़ रही, औफिस से कब निकले, आजकल ऐसे बनठन कर क्यों जाते हो?’ जैसे अनगिनत सवालों की वर्षा हंसतेमुसकराते झेलने की आदत पड़ गई है. इस रूप में हम भीगी बिल्ली की तरह सहने में ही भलाई मानते हैं.

११. आलसी स्वरूप : यह रूप महीने में कभीकभार नजर आता है, सो दुर्लभ श्रेणी में रखा जा सकता है. इस का पता ऐसे संवादों से होता है- ‘आज मूड नहीं, बाहर होटल में खा लेते हैं, चाय बना लो, मुझे भी पिला देना’ आदिइत्यादि. मुझे इस बात पर गर्व है कि कामकाज में वो कभी लापरवाही नहीं करतीं. समय से सब काम घड़ी की सुइयों के मुताबिक करती हैं.

१२. शृंगार स्वरूप : सब रूपों में यह श्रेष्ठतम स्वरूप है लेकिन यह कभीकभी ही देखने को मिलता है. सच तो यह है कि इस रूप को अफोर्ड करने की हमारी कैपेसिटी भी नहीं. जवैलरी की खरीद, औनलाइन शौपिंग के समय बजट की डिमांड के अनुरूप वो इस रूप में प्रकट होती हैं. यह रामबाण रूप भी है. कभी खाली नहीं जाता और हमें आत्मसमर्पण कर के ही दम लेता है.

अब इस वर्गीकरण को समाप्त करें. कारण, जन्ममतांतर की इस गाथा को वर्गीकृत-परिभाषित करना सरल नहीं. लेकिन यह सत्य है कि रूप चाहे कोईर् भी क्यों न हो, उस के पीछे हमारा भला ही छिपा रहता है. कहने को चाहे कितनी ही बातें बना लें लेकिन यह सिर्फ पत्नी ही है जो घर को एक करने के लिए अपना सबकुछ खो कर भी खुश रहती है.

ईंटसीमेंट के ढांचे को घर बनाने और उस में रहने वालों की जिंदगी को सुखद बनाने में पत्नीजी अपना सबकुछ दांव पर लगा देती हैं. इस तथ्य को कैसे भुलाया जा सकता है? यही कारण है, हमें उन के किसी भी रूप से कभी शिकायत नहीं होती. वो कहेंगी भी तो किस से? जिस के पीछे घर छोड़ कर आईं उस पर हक तो बनता ही है.

थप्पड़ – सवाल आत्‍मसम्‍मान का

‘‘फाइनली शिफ्ट हो रही हूं.’’

‘‘हमेशा खुश रहो बच्चे. बीचबीच में आती रहना. भूलना नहीं हमें.’’

चौधरी चाचा ने यह कहा तो वसुधा की नम आंखें झाक गईं. अपने आंसू उन्हें कैसे दिखाती जिन्होंने पिता की तरह सदा ही सिर पर हाथ रखा. बस, हाथ जोड़ कर विदा ले ली और अपने कैरियर की ऊंचाइयों के सफर पर निकल पड़ी. ओह, चौदह घंटे, पूरे चौदह घंटे बिताने हैं जो आसान कतई नहीं है. मां के लिए एक कौमेडी सिनेमा लगाया और बेटे के लिए कार्टून मूवी और खुद अपने ही जीवन के चलचित्र में खो गई.

इंटर में थी जब सिर से पिता का साया उठ गया था. दो छोटे भाई, जवान मां और संपत्ति के नाम पर घर के अलावा कुछ नहीं था. गणित में अच्छी थी. गलीमहल्ले वाले ट्यूशन के लिए अपने बच्चे भेजने लगे. कुछ तो अपने बच्चों की शरारतों से निश्ंिचत होना था तो कुछ का मकसद उस के परिवार की मदद करना भी एक उद्देश्य था. ट्यूशन से भला कितने पैसे आते? स्कूल, कालेज की फीस का इंतजाम ही हो पाता.

किशोरवय के बढ़ते बच्चों की और भी आवश्यकताएं होती हैं. मां ने महल्ले के ही कपड़ों की दुकान पर नौकरी कर ली. घरबाहर कड़ी मेहनत करती मां सुषमाजी के मुख का तेज मलिन हुआ जा रहा था. यह सब देखती वसुधा जाने कैसे खुद को अभिभावक समझने लगी थी. छोटे भाइयों पर अंकुश रखती और मां की चिंता करती. उस ने मन ही मन तय कर लिया था कि पहली नौकरी मिलते ही मां को आराम देगी.

सब अपने स्कूलकालेज में अच्छा कर रहे थे. उसे अच्छी तरह से याद है बी कौम फाइनल ईयर का आखिरी परचा. दोनों भाइयों को उन की स्कूलबस में चढ़ा कर जब कालेज के लिए बस में चढ़ने लगी तब ध्यान आया कि अपना पर्स तो घर में ही भूल आई है. चुपचाप बस से उतर गई. कालेज काफी दूर था. घर वापस जा कर कालेज जाना संभव नहीं था. परीक्षाभवन बंद हो जाता और इस तरह उस का पूरा साल बरबाद हो जाता.

‘का हुआ बिटिया? बस से काहे उतर गई?’ चौधरी चाचा बसस्टौप के पास अपनी पान की दुकान से बैठेबैठे ही आवाज दे रहे थे.

‘वह मैं पर्स घर पर ही…,’ आंखों से बड़ीबड़ी बूंदें बरसने लगीं. बात पूरी ही न कर पाई. चाचा को जब पूरी बात पता चली तो उन्होंने औटो वाले को रोक कर उसे आनेजाने के पैसे दे दिए और कहा, ‘बड़े अच्छे इंसान थे तुम्हारे पिता. अगर तुम्हारे किसी काम आ सका तो उस लोक में उन्हें अपना मुंह तो दिखा सकूंगा. जा बिटिया, अच्छे से इम्तिहान देना. सब ठीक होगा.’

सचमुच चाचाजी का आशीर्वाद उस के काम आ गया था. उस ने यूनिवर्सिटी में प्रथम स्थान प्राप्त किया और साथ ही कैंपस सेलेक्शन से जौब भी लग गई. तभी से वह हर काम चौधरी चाचा के आशीर्वाद से ही शुरू करती. नौकरी लगते ही उस रोज भी उन का आशीर्वाद ले कर घर पहुंची थी तो मौसाजी को मां से बातें करते सुना.

‘घर की बड़ी बेटी है वसुधा. उस का रिश्ता समय पर कर दो. रोजरोज नहीं आते ऐसे रिश्ते,’ मौसाजी अपने भतीजे के लिए उस का हाथ मांग रहे थे.

‘लेकिन जीजाजी, अभी तो लड़की ने नौकरी शुरू ही की है. थोड़ा रुक कर करेंगे तो कुछ पैसे भी जमा हो जाएंगे.’

‘तुम्हें दुनियादारी की कोई समझ नहीं है, सुषमा. कमाऊ लड़की सोने की चिडि़या समान होती है. देर किया तो कोई और ले उड़ेगा.’

उस की भोली मां मौसाजी की चाल समझ ही नहीं पाई. वह एकमात्र कमाने वाली उसे घरगृहस्थी में फंसा कर मां की गृहस्थी चरमराना चाहते थे, साथ ही, अपने आवारा भतीजे को उस से शादी कर निबटाना भी ताकि किसी भी तरह यह परिवार, उन के परिवार से अधिक उन्नति न कर पाए. वैसे भी नानीमां का वह व्यवहार मौसीजी को नहीं भूला था कि मां के ब्याह के बाद वे अपने छोटे दामाद यानी उस के पिता को अधिक मान देती आई थीं और उन की इज्जत एक पैसे की भी न रह गई थी. बस, इस तरह से वे अपना बदला लेने पर आमदा थे.

‘‘वसुधा, बड़ी अच्छी लगी यह पिक्चर. तू ने नहीं देखी?’’ मां की आवाज सुन कर जैसे वह गहरी नींद से जागी.

‘‘जानती हो न मां, मैं फिल्में नहीं देखती.’’

‘‘हां बेटा, फिल्में भी उन्हें अच्छी लगती हैं जिन की खुद की जिंदगी में शांति हो.’’ मां की आवाज भर्राई तो उस से रहा न गया.

‘‘क्या कहती हो, मां, भूल जाओ सब.’’

‘‘कैसे भूल जाऊं? तुम ने हमारे लिए इतना कुछ किया और मैं ने तुम्हारी जिंदगी बरबाद. मां का कहतेकहते गला भर आया.’’

‘‘अरे, बहुत बढि़या जिंदगी है मेरी. तुम हो, रोहन है और साथ में इतनी बढि़या नौकरी, खुश रहने के लिए भला और क्या चाहिए,’’ कह कर वह रोहन से बातें करने लगी और सुषमाजी भारी मन से अतीत के गलियारे में खोती चली गईं.

वसुधा की शादी के 2 साल बाद अमित को अकाउंटैंट की नौकरी मिल गई थी. तब छोटे भाई सुमित को पढ़ाने की जिम्मेदारी उस ने अपने सिर ले ली. जीवन ठीकठाक ही चल रहा था जब तक सुमित के इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा का रिजल्ट न आया था. सुमित को राज्य के टौप कालेज में एडमिशन मिला था. एडमिशन फीस के लिए उसे 50 हजार रुपयों की नितांत आवश्यकता थी. अमित के पास जोड़ कर दस ही निकले और दस उन्होंने अपनी ओर से मिला दिए. सुषमाजी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि बाकी के पैसों के लिए किस से कहें. रिश्तेदारों ने तो पहले ही हाथ खड़े कर दिए थे. ऐसे में ‘आशा की किरण’ तो वसुधा ही थी. इधर वह भी काफी परेशान थी. क्रिकेट खेलते हुए दामादजी के पैरों में फ्रैक्चर हो गया था और वसुधा अस्पताल, घर व औफिस भागभाग कर तंग आ गई थी. ऐसे में बेटी से कहे या न कहे? तभी वसुधा की तरफ से ही फोन आ गया.

‘अम्मा, सुमित के एंट्रैंस का रिजल्ट आया क्या?’

‘हां, पर पैसे पूरे नहीं पड़ रहे. इस साल एडमिशन रहने देते हैं.’

‘अगले साल वह सीट भी न मिली तो? नहीं, यह नहीं होने दूंगी मैं. मेरा भाई एडमिशन लेगा और इसी साल लेगा. तू उसे मेरे औफिस भेज दे. मैं 30 हजार का चैक लिखती हूं.’

और उसी शाम वह हमेशा के लिए ससुराल छोड़ कर अपने घर वापस आ गई थी. उस के कानों से लगातार रक्तस्राव हो रहा था. कई दिनों तक अस्पताल में रहना पड़ा तब जा कर उस के सुनने की शक्ति वापस आ सकी थी. बहुत पूछने पर ही उस ने बताया कि बैंक मैनेजर ने वैरीफिकेशन के लिए पति को फोन कर दिया था कि वे यह रकम सचमुच निकालना चाहते हैं या किसी और ने… खैर, अपनी ही कमाई के पैसों को खर्चने की वीभत्स सजा पाई थी उस ने और वह भी उस वक्त जब वह अस्पताल के बिस्तर पर पड़े पति के स्नेह से वशीभूत खाने का निवाला उस के मुंह में धर रही थी. तड़ाक की जोरदार आवाज!

तभी उस ने फैसला कर लिया था कि अब वह ससुराल में कभी कदम नहीं रखेगी. सवाल एक थप्पड़ का नहीं था. सवाल उस के आत्मसम्मान का था. दिनरात की मेहनत के बाद भी एक नौकरानी का जीवन बसर कर रही थी. इस संघर्ष का अंत तो होना ही था. भाई की फीस तो एक माध्यम मात्र था. अब वह उस घर से आजाद होने के लिए तड़प उठी थी. एक साल के रोहन को गोद में उठा वह निकल आई थी. अपने बच्चे की किलकारी और क्रंदन दोनों ही वापस सुनने में उसे पूरा एक वर्ष लग गया था. घरेलू हिंसा के नाम पर तलाक आसानी से मिल गया था पर उस के जख्म अब भी हरे थे. बीते दिनों की याद से द्रवित हो सुषमाजी उस के गालों को सहलाती हुई बड़बड़ाने लगीं.

‘शादी के पहले कैसा बिल्ली सा था और बाद में शेर.’

‘‘शेर भी ढेर होते हैं मां. लेकिन यह क्या? तुम फिर से वही सब सोचने लगीं. पुरानी बातों को भुला कर हम लोग सुखचैन से रह सकें, इसीलिए तो सुमित ने अमेरिकी कंपनी जौइन की और तुम…’’

‘‘क्या करूं मेरे बच्चे? तेरा दुख.’’

‘‘वह देखो ‘स्टैच्यू औफ लिबर्टी,’ हम लैंड करने वाले हैं.’’

‘‘नानी, कानों में कौटन बौल्स रख लो वरना चिल्लाओगी आप,’’ रोहन बोला.

‘‘ला, शैतान दे जल्दी,’’ कह कर सुषमाजी हंस पड़ीं. सुमित एयरपोर्ट पर खड़ा था. उस के साथ ही एक जानीपहचानी सी शक्ल देख वसुधा बुरी तरह से चौंक गई. उस का सहपाठी विकास यहां सुमित के साथ, भला कैसे?

‘‘नो सवालजवाब दीदी. मैं जब से यहां आया हूं, विकास भैया ने मेरी हर तरह से मदद की है. इतना ही नहीं, वे तो कब से आप की राह देख रहे हैं. उन्होंने ही आप का जौब ट्रांसफर कराया है.’’

‘‘तुम ने सुमित का सहारा लिया, विकास, सीधेसीधे मुझ से भी तो कह सकते थे?’’

‘‘कब कहता? पहले तुम्हारे लायक बनने की कोशिश कर रहा था. पैरों पर खड़े होने के बाद तुम्हारी शादी और उस दुर्घटना की बात पता चली तो सामने आने की हिम्मत ही नहीं हुई.’’

‘‘और तुम छोटे मियां, तुम्हारी मिलीभगत है इस में,’’ वसुधा ने सुमित के कान पकड़े.

‘‘अरे दीदी, न न, कान नहीं.’’ सहसा वसुधा को अपना कान ध्यान आ गया तो वह फिर से सहम गई. सारा दर्द भूल पाना आसान तो नहीं था.

माहौल की गंभीरता देख विकास बोल उठा, ‘‘इस बेचारे की क्या गलती है, इस ने तो मेरा काम आसान किया है?’’ कह कर विकास ने सुमित के कंधे पर हाथ रखा पर नजरें वसुधा से जा टकराईं तो उस ने निगाहें नीची कर लीं. उस की पलकें जैसे लाज का परदा बन गई थीं.

‘‘कोई बताएगा मुझे कि क्या हो रहा है?’’ सुषमाजी चिल्ला पड़ीं.

‘‘दीदी की शादी हो रही है विकास भैया के साथ,’’ कह कर सुमित हंसने लगा. वसुधा अपने मित्र में अपना प्यार पा कर शर्म से दोहरी हो रही थी जबकि विकास ने बढ़ कर सुषमाजी के चरण छू लिए और हंसते हुए सुमित से कहा कि, ‘‘सही कहते हैं कि सारी खुदाई एक तरफ और जोरू का भाई एक तरफ.’’

उस की बात पर सभी हंस पड़े पर वसुधा रोहन को एयरपोर्ट के नियम समझने में व्यस्त थी. जानती थी कि इस रिश्ते में बंधने से पहले उसे नए सिरे से अपने 10 वर्षीय बेटे को मानसिक रूप से तैयार करना होगा और इस वक्त यही उस की सब से बड़ी जिम्मेदारी है और चुनौती भी. विकास वसुधा के मन के भावों को अच्छी तरह से समझ रहा था. भविष्य की कल्पना कर वह मन ही मन मुसकरा उठा.

लेखक – आर्या झा

सोचेंसमझें और फिर ही किसी को जज करें

कुछ दिन पहले सोसाइटी में सामने वाले घर में दो नए लोग रहने आए थे. लड़के की उम्र 28 और लड़की की 22 साल के करीब होगी. दोनों सुबहसुबह तैयार हो कर बाइक पर निकल जाते. देर रात को घर आते. घर के दरवाजे हमेशा बंद रहते. मेरी पड़ोसन जब भी मिलती उन दोनों की बुराइयां करती. पता नहीं कैसे लोग आए हैं, न किसी से बात करते, पता नहीं क्या काम करते हैं. लड़की को देखा है कैसे कपड़े पहनती है. मैं उस की बात का कोई जवाब नहीं देती. क्योंकि मैं दूसरों की जज करने की अपनी पड़ोसन की आदत को जानती थी.

बाद में जब मैं दोनों से मिली तो पता चला दोनों भाईबहन हैं, मातापिता कोविड में इस दुनिया से चले गए. दोनों भाईबहन अपनी ज़िंदगी को पटरी पर लाने के लिए जीतोड़ मेहनत कर रहे हैं. इसीलिए सुबहसुबह नौकरी पर निकल जाते हैं और देर रात घर आते हैं.

“कैसे कपड़े पहन कर आया था, इसलिए मैं ने उसे इंटरव्यू में रिजेक्ट कर दिया, वह मुझे बड़ी अजीब सी लगी, बहुत कम बोलती है. कैसे कपड़े पहनती है.” अपने आसपास लोगों की आपसी बातचीत में ऐसे वाक्यांश अकसर सुनने को मिलते हैं. कई बार हम भी जानेअनजाने में दूसरों के प्रति अपनी ऐसी ही राय बना लेते हैं.

सोचेंसमझें, समय दें फिर करें जज

किसी भी इंसान के व्यक्तित्व के कई पहलू होते हैं जो दूसरों के सामने धीरेधीरे खुलते हैं. इसलिए पहली मुलाकात में ही किसी के बारे में अपनी राय बनाना गलत होता है. बेहतर यही होगा कि किसी भी व्यक्ति से पहली बार मिलने के बाद उसे समझने के लिए खुद को थोड़ा समय दें.

– कुछ चालाक या धोखेबाज लोग पहली मुलाकात में दूसरों के सामने अच्छा इंप्रेशन जमाने की कला में माहिर होते हैं. ऐसे लोगों से इम्प्रेस न होना चाहिए और उन्हें जाननेपरखने के बाद ही उन के बारे में कोई राय बनानी चाहिए.

– अगर बातचीत के दौरान कोई व्यक्ति लगातार सिर्फ अपने बारे में ही बोल रहा हो और आप को बोलने का मौका भी न दे तो आप को ऐसे सेल्फ प्रेज़ करने वाले लोगों की बातों पर जल्दी भरोसा नहीं करना चाहिए और उन्हें जज करने या उन के बारे में राय में समय लेना चाहिए.

– जब कोई स्ट्रेस में होता है तो आमतौर पर किसी से पहली बार मिलते वक्त वह उस में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाते और उसे गलत समझते हैं. इसलिए जब आप अच्छे मूड में हों तभी किसी से पहली बार मिलें और जल्दबाजी में कोई राय न बनाएं.

जज करने की आदत को ऐसे करें दूर

बुराई में अच्छाई खोजें

जिन लोगों की किसी को भी बात बात में या पहली मुलाकात में जज करने की आदत होती है वे अकसर सामने वाले व्यक्ति में खामियों खोजते हैं. इसलिए अगली बार जब आप किसी से मिलें तो उस की पॉजिटिव चीजों पर फोकस करें. व्यक्ति की छोटीमोटी बुराइयों को नजरअंदाज कर उस की अच्छी बातों पर ध्यान दें. ऐसा जब आप अकसर करने लगेंगे तो धीरेधीरे आप की जज करने की आदत बंद हो जाएगी.

हर दिन 10 अच्छी बातें करें

अपने दिमाग को पोजिटिव बातों पर फोकस करने की ट्रेनिंग दें. ऐसा करने के लिए आप हर दिन कम से कम 10 लोगों को या उन के लिए पोजिटिव बातें कहें. ऐसा करने से धीरेधीरे आप की निगेटिव सोच दूर होगी और आप की लोगों को जज करने की आदत भी खत्म होगी.

जज करने की आदत से होगा आप का नुकसान

कुछ लोग हमेशा दूसरों को जज करते हैं. किसी को जज करना कभीकभी सामान्य हो सकता है, लेकिन हमेशा नहीं. दूसरों को जज करने की आदत धीरेधीरे व्यक्ति को तनाव और गुस्से से भर देती है और वह अपने जीवन में आगे नहीं बढ़ पाता. इस के अलावा जज करने की आदत परिवार, दोस्तों और करीबियों से भी दूर ले जा सकती है. इसलिए अगर आप को जीवन में आगे बढ़ना है तो दूसरों को जज करने की आदत छोड़नी होगी.

किसी को भी जज करने से पहले उसकी अच्छाइयों पर गौर करें

प्रत्येक व्यक्ति में कुछ अच्छाइयां और कुछ बुराइयां दोनों होती हैं. लेकिन जब कोई किसी को जज करता है तो उसे सामने वाली की केवल बुराइयां ही नजर आती हैं और उस की अच्छाइयों पर ध्यान नहीं जाता. किसी को जज करने की आदत से बचने के लिए प्रत्येक व्यक्ति की अच्छाइयों पर ध्यान दें.

• किसी के रंग रूप जैसे गोरे काले, पतले मोटे, लंबे, नाटे होने पर जज न करें
• किसी ने क्या पहना है, जींस या सलवार, इंडियन या वेस्टर्न इस बात पर जज न करें
• किसी के एग्जाम में कितने नंबर आए हैं इस बात पर जज न करें
• कोई क्या काम करता है, उस की जौब क्या है इस बात पर जज न करें
• किस उम्र में क्या करना चाहिए, इस उम्र में लड़कों के साथ घूमती हैं, रात देर से आती है, सुबह जल्दी निकल जाती है इन बातों पर जज न करें
• किस के साथ घूमती या घूमता है, किसी के कैरेक्टर को ले कर जज करना सही नहीं है
• किसी की उम्र के हिसाब से उसे घर का काम आता है या नहीं आता, खाना बनाना नहीं आता इस से भी जज न करें
• बेटी 25 की हो गई, अभी तक शादी नहीं की यह जज करने लायक बात नहीं

बुढ़ापे को बोझ बनाना है या ग्रेसफुल, निर्भर आप पर ही करता है, जानिए कैसे

सरकारी नौकरी से रिटायर हुए गुप्ताजी जीवन के 80 बसंत देख चुके हैं. वर्तमान में वे एक प्राइवेट स्कूल में एडमिनिस्ट्रेटिव औफिसर के पद पर कार्य कर रहे हैं. बुढ़ापे में खुद को बेचारा बनाए रखने के बजाए उन्होंने अपने जीवन के इस गोल्डन पीरियड को ग्रेसफुल तरीके से अकेले इंजोय करने का निर्णय लिया. वहीं दूसरी ओर 80 वर्ष शर्माजी बेटे की शादी के बाद उन के साथ रह रहे हैं और रोज किसी न किसी बात पर घर में कलह हो जाता है क्योंकि वे न तो घर के किसी काम में मदद करते हैं, न अपनी सेहत का ध्यान रखते हैं, बाजार जा कर उलट सीधा जंक फूड खा कर आ जाते हैं फिर तबीयत खराब होने की वजह से खुद तो परेशान होते ही हैं नौकरीपेशा बेटाबहू को भी परेशान करते हैं.

बुढ़ापा जीवन का वह समय होता है जिस में कई लोगों को बहुत तरह की चिंताएं और गंभीर चिकित्सा परेशानियां हो सकती हैं. इस समय बुजुर्गों को अपनी स्वतंत्रता खोने और लोगों के दूर जाने का एहसास होने लगता है. अधिकतर बुजुर्ग बुढ़ापे के बारे में सोचसोच कर डिप्रेशन में आ जाते हैं. इस से उन का स्वास्थ्य और खराब हो जाता है. घर में खाली बैठे रहने से बुजुर्गों के प्रति लोगों का सम्मान भी कम हो जाता है. ऐसे में जरूरत होती है सकारात्मक सोच के साथ खुद को किसी काम में व्यस्त रखने की.

बुढ़ापे को बोझ न बनाएं

बुढ़ापे के फेज़ को ग्रेसफुल तरीके से जीना या नाकारा बनाना दोनों अपने हाथ में होता है. यह पड़ाव हरेक की जिंदगी में आना है इसलिए जरूरी है कि बुढ़ापे के लिए प्लानिंग (शारीरिक, मानिसक, आर्थिक और कानूनी रूप से) समय रहते कर लें. उम्र बढ़ने के साथ साथ अपनी दिनचर्या को सही रखना शुरू कर दें. सुबह उठने से ले कर रात के सोने तक अपना सभी काम नियमित रूप से करें. सोना, जागना, भोजन, व्यायाम, टहलना, ध्यान पठनपाठन, मनोरंजन आदि सभी जीवन को अपने जीवन का हिस्सा बनाएं.

खुद को व्यस्त रखेँ

बुढ़ापे को नाकारा न बनाएं, व्यर्थ में समय न गंवाएं. घरपरिवार के छोटेछोटे काम में सहयोग करें. उन से घुलमिल कर समय बिताएं. बच्चे, बड़ों से ले कर हम उम्र के व्यक्ति से, पड़ोसी एवं अपने आसपास के लोगों से मित्रतापूर्ण व्यवहार रखें. इस से परेशानियां कम होंगी, उम्र बढ़ेगी, स्वस्थ रहेंगे और समय का सदुपयोग होगा.

एक्टिव रहें

टीवी या फोन में समय बरबाद करने की बजाय वे कार्य करें जिस से शारीरिक सक्रियता बनी रहे क्योंकि ऐसा करने से बीमारियां दूर रहती हैं और शरीर स्वस्थ रहता है. डाक्टर द्वारा बताई गई दवा निर्धारित समय पर लें. समयसमय पर डाक्टर से मिलते रहें. फालतू खर्च न करें. व्यर्थ का तनाव न पालें. घरपरिवार की परेशानी से भागें नहीं परिवार के साथ मिल कर उसे सुलझाएं. परिवार के सदस्यों के साथ घुलेंमिलें, हंसेहंसाएं, खामोश न रहें.

शिकायत करने की बजाय थैंकफुल बनें

बच्चों को जज न करें, सारा समय शिकायत न करें कि वे आप का ध्यान नहीं रखते, अपने साथ नहीँ ले जाते. आप पर खर्च नहीं करते. बच्चों की भी अपनी जिंदगी अपनी जिम्मेदारियां हैं आप को अपना ध्यान खुद रखने की आदत डालनी चाहिए.

अगर बच्चे आप के साथ समय नहीं बिता पाते तो “वो सारा दिन बाहर रहती या रहता है, उसे हमारी परवाह नहीं है, हमारे लिए तो समय ही नहीं है. बच्चे हमारी केयर नहीं करते” ऐसा सोचना एक बहुत बड़ी प्रौब्लम है. अगर आज के वक्त को देखें तो आज की भगदौड़ वाली लाइफ बहुत टफ है, आज के बच्चे बहुत प्रेशर में काम करते हैं इसलिए बच्चे आप के लिए जो भी कर पा रहे हैं उस के लिए पेरैंट्स को उन का थैंकफुल होना चाहिए.

अपना सोशल नेटवर्क बनाएं

“बुजुर्ग सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर अपने हम उम्र लोगों का ग्रुप बनाएं. ग्रुप पर अपने हम उम्र लोगों से बात करना सुबहशाम गप्पे जैसा लगेगा. आप उन चीज़ों में अपनी खुशी ढूंढ सकते हैं जो आप को खुशी देती हैं जैसे कुकिंग, सिंगिंग, योगा, म्यूजिक क्लासेज.

घर में अपनी जिम्मेदारी निभाएं

बच्चों की शादी या उन के सेटल होने के बाद कोशिश करें. अकेले रहें लेकिन अगर किसी परिस्थिति में जरूरत पड़ने पर बेटी या बेटे के साथ रहना पड़े तो उन पर बोझ न बनें, उन के काम आएं. घर के कामों जैसे बच्चों को स्कूल कोचिंग सेंटर छोड़ने या लाने की जिम्मेदारी या सब्जी लाने की जिम्मेदारी निभाएं इस से बेटी दामाद या बहू बेटा को मदद होगी. आप में भी घर में सहभागिता और उन से जुड़े होने का अहसास पैदा होता है.

सेहत का खास ध्यान रखें

चाहिए बुजुर्ग अकेले रह रहे हों या बच्चों के साथ उन्हें अपनी सेहत की अनदेखी बिल्कुल नहीं करनी चाहिए . कमजोरी महसूस होना, भूलने की शिकायत, रास्ता भूल जाना और चलनेबैठने में संतुलन खो देना, जैसे कुछ जरूरी शारीरिक और मानसिक बदलाव पर नजर बनाए रखें. उन्हें अपनी केवल शारीरिक ही नहीं, बल्कि मानसिक बीमारी पर भी ध्यान रखने की जरूरत है. अपनी दवाइयां समय पर लें. योग, मौर्निंग वौक का अपना रूटीन बनाएं.

रागिनी (बदला हुआ नाम) दिल्ली में रहती हैं और एक बड़ी मल्टीनेशनल कंपनी में काम करती हैं. कुछ साल पहले रागिनी के डैड इस दुनिया में नहीं रहे. डैड के जाने के बाद रागिनी की मौम उस के साथ रहती हैं. रागिनी की मौम न तो घर के कामों में, न रागिनी के बच्चों की देखभाल में रागिनी की कोई मदद करती हैं और छोटीछोटी बात पर गुस्सा हो जाती हैं. रिश्तेदारों से रागिनी की फोन पर बुराई करती रहती हैं, कई बार तो वे रागिनी और अपने दामाद रोहित से बात करना बंद कर देती हैं.

अकसर देखा जाता है कि बुजुर्ग बच्चों की जरा सी भी बात सहन नहीं कर पाते. कभी वे बहुत खुश रहते हैं तो कभी छोटी सी बात का बुरा मान जाते हैं तो कभी अपनी मन की बात पूरी न होने पर शिकायत करने, चीखनेचिल्लाने लगते हैं. ऐसे में बेटा बहू या बेटी दामाद के लिए उन की देखभाल करना या साथ रखना कठिन हो जाता है.

अगर पेरैंट्स को बेटा या बेटी के घर में उन के साथ रहना पड़े तो मुख्यतः इन कमज़ोरियों पर ख़ास ध्यान दें –

• शादी के बाद साथ रहने वाले मातापिता को अपने बेटे या बेटी के पारिवारिक जीवन में जरूरत से ज्यादा हस्तक्षेप न करें. जीवन उन का है, जीने की जिम्मेदारी उन की है और उस से जुड़े नुकसान अथवा फायदे उन के हैं इसलिए अपने बच्चों की लाइफ में दखलंदाजी न करें. उन्हें अपनी जिंदगी जीने दें.

• मातापिता होने के नाते आप ने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया. कभीकभी उन्हें अपना मत अवश्य दें परन्तु निर्णय उन्हें लेने दें और यदि उन्होंने आप के मत को नहीं माना तो गांठ बांध कर न बैठें.

ब्रेकअप के बाद खुद में लाएं बदलाव

प्यार जीवन का सब से खूबसूरत एहसास होता है और जब इंसान प्यार में होता है तो उस के अंदर एक अलग तरह की खुशी होती है लेकिन उसी प्यार के रिश्ते में अलग होने का दौर किसी के लिए भी भावनात्मक रूप से तोड़ कर रख देने वाला अनुभव होता है और अगर रिश्ता ज्यादा पुराना और गहरा होता है तो उस के खत्म होने का असर भी उतना ही दर्द देता है.

ब्रेकअप के बाद अकसर लोग अपने प्यार को भुलाने में काफी समय निकाल देते हैं और उस से जुड़ी यादों और खास पलों को याद करतेकरते अपनी पहचान और खुद को ही कहीं खो देते हैं. लेकिन यही वह समय होता है जिस में व्यक्ति को अपनी भावनाओं पर कंट्रोल कर के समझदारी से इसे डील करना चाहिए और खुद के लिए, अपने कैरियर, दोस्त, फैमिली की तरफ ध्यान देना चाहिए.

एक्स से जुड़ी यादों को करें लाइफ से इरेज

ब्रेकअप के बाद अपने एक्स से जुड़ी चीजों को दूर करना बेहद जरूरी होता है. बारबार अपने एक्स की डीपी को देखने, बारबार उसे ब्लौक अनब्लौक करने, डीपी देखने या उस के स्टेटस चेक करने से आप उसे बिल्कुल नहीं भूल पाएंगे इसलिए खुद को इन सब चीजों से दूर रखें.
डायरी से करें दोस्ती

ब्रेकअप के बाद कुछ बातों को दोस्तों या परिवार वालों के साथ शेयर हिचकिचाहट महसूस होती है. ऐसे में डायरी में अपनी भावनाओं को लिख कर शेयर करना एक अच्छा तरीका हो सकता है. ऐसा करने से आप को मौजूदा परिस्थिति से बाहर निकलने में मदद मिलेगी.

डेली रूटीन में लाएं बदलाव

जब कोई लंबे समय तक किसी रिलेशनशिप में होता है तो उस की जिंदगी अपने पार्टनर की पसंद नपसंद के हिसाब से चलती है लेकिन ब्रेकअप के बाद इन आदतों को छोड़ कर अपनी पसंद नपसंद और अपने मुताबिक रूटीन तय करना चाहिए और अगर आपके एक्स का दिया हुआ कुछ सामान आप के पास हो तो उन चीजों को खुद से दूर कर दें. ऐसा करने से आप को नई शुरुआत करने में मदद मिलेगी.

दोस्तों और परिवार के साथ समय बिताएं

ब्रेकअप का असर हर इंसान पर अलगअलग तरह से होता है और इस के दर्द से निकलने और नए रिश्ते में आने में लगने वाला समय भी सब के लिए कम या ज्यादा हो सकता है. लेकिन कई रिलेशनशिप एक्सपर्ट का मानना है कि किसी भी नए रोमांटिक रिश्ते पर विचार करने या उस में शामिल होने से पहले ब्रेकअप के बाद 21 दिनों का समय महत्वपूर्ण होता है. क्योंकि हर गुजरते दिन के साथ किसी घटना विशेष से जुड़ी आप की भावना कई तरह से बदलती है और लगभग 3 हफ्ते में स्टैंड क्लियर होता है.

ब्रेकअप के बाद लोग मन ही मन ब्रेकअप को किसी गलती की तरह समझने लगते हैं लेकिन ऐसे वक्त में आप का परिवार व दोस्त आप को इस गलत सोच से निकालने में मदद करते हैं.

ब्रेकअप के बाद डिप्रेशन से निकलने में मदद करेंगे ये टिप्स

• अपनी फिजिकल और मेंटल हैल्थ का विशेष ख्याल रखें
• ब्रेकअप के बाद खुद को संभलने और संवरने का समय दें.
• अपने खुद के विकास पर ध्यान दें. ऐसा करने से दिमाग रिलैक्स होता है, और चीजों को नए नजरिए से समझने की कोशिश करता है.
• अपने जीवन का उद्देश्य तय करें और उस पर काम करें.
• अपने साथ समय बिताएं और खुद को जाननेसमझने की कोशिश करें.
• अपनी अपेक्षाओं के साथ अपनी सीमाओं को पहचानें, ताकि कोई दूसरा व्यक्ति वापस आप को इस स्तर पर दुख न पहुंचा सके.
• अपनी पसंद के हिसाब से कोई नई स्किल, ट्रेनिंग या कोर्स ज्वाइन करें. इस से आप के भविष्य को भी फायदा होगा.
• अगर इस सब के बाद भी बाद ब्रेकअप के दर्द से न निकल पा रहे हैं तो किसी अच्छे प्रोफेशनल की मदद लें .Community-verified icon

मेरी पत्नी का अफेयर मेरे छोटे भाई से चल रहा है.

अगर आप भी अपनी समस्या भेजना चाहते हैं, तो इस लेख को अंत तक जरूर पढ़ें..

सवाल –

मैं इंदौर का रहने वाला हूं और घर के पास ही मेरा एक छोटा सा कारोबार है. मेरे परिवार में मैं, मेरी पत्नी, मेरा एक बच्चा, मेरा छोटा भाई और साथ में मांबाप रहते हैं. मेरा और मेरी पत्नी का रिश्ता काफी अच्छा चल रहा था पर कुछ समय से मैं देख रहा हूं कि मेरी पत्नी मेरे भाई के साथ कुछ ज्यादा ही समय बिताने लगी है. वह मेरे भाई के साथ ही बाजार जाती है और अकसर जब मैं काम पर होता हूं तो उसी के कमरे में रहती है और वह भी दरवाजा बंद कर के. पहले मैं ने इस बात को नजरअंदाज किया पर मेरे साथसाथ मेरे घर वालों को भी पता चल चुका है कि मेरी पत्नी का अफेयर मेरे छोटे भाई से चल रहा है. ऐसे में मैं परिवार में मुंह दिखाने लायक नहीं रहा. मुझे क्या करना चाहिए ?

जवाब –

देवर और भाभी का रिश्ता बेहद पवित्र होता है, मगर यदि वे दोनों इस रिश्ते में अपनी सीमाएं लांघ चुके हैं तो आप की चिंता स्वभाविक है.

एक पति को अपनी पत्नी से सिर्फ यही चाहिए होता है कि चाहे कुछ भी हो जाए, उस की पत्नी उस के साथ वफादार रहे पर यहां तो शायद आप की पत्नी के साथसाथ आप के सगे भाई ने भी आप को धोखा दिया है.

ऐसा भी हो सकता है कि जैसा आप सोच रहे हैं वैसा कुछ न हो लेकिन आप की पत्नी का आप के भाई के कमरे में दरवाजा बंद कर के रहना बिलकुल गलत है और इस से यही पता चलता है कि उन के बीच कुछ चल रहा है. देवरभाभी के साथ हंसीमजाक आम है मगर इस का मतलब यह कतई नहीं कि दोनों एक कमरे में दरवाजा बंद कर के रहें.

अगर यह नौर्मल होता और सिर्फ आप का शक होता तो हो सकता है कि आप के परिवार वालों को गलत न लगता पर अगर आप के मांबाप को भी लग रहा है कि यह सही नहीं है तो आप को सब से पहले अपनी पत्नी से बात करनी चाहिए.

आप को अपनी पत्नी को समझाना चाहिए कि वह जो कर रही है बिलकुल गलत है और अगर ऐसा ही चलता रहा और किसी बाहर वाले को पता चल गया तो आप की समाज में इज्जत बिलकुल खत्म हो सकती है.

आप उन्हें समझाइए कि आप दोनों का एक बच्चा भी है तो उन्हें यह सब करने से पहले सोचना चाहिए कि वह जो कर रही है बिलकुल गलत है. अगर फिर भी आप की पत्नी अपनी गलती नहीं मानती तो आप उन्हें धमकी दे सकते हैं कि अगर ऐसा ही चलता रहा तो हम दोनों अलग घर में रहने चले जाएंगे. अगर आप के घर में से किसी को परेशानी नहीं है तो कुछ दिन आप कोई अलग मकान ले कर भी रह सकते हैं जिस से कि आप की पत्नी का आप के भाई के साथ मिलना कम हो सके.

आप की पत्नी को समझना चाहिए कि आप के बच्चे पर इस का बहुत बुरा असर पड़ सकता है तो उन्हें अपने नाजायज संबंध खत्म करने ही होंगे. आप कोशिश कीजिए कि अगर आप के भाई की शादी की उम्र हो गई है तो उस की भी जल्द शादी करवा दीजिए जिस से कि वे अपने परिवार में मस्त हो जाए.

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