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फर्क कथनी और करनी का : सुच्चामल का फर्जी ज्ञान का रायता

सुच्चामल हमारी कालोनी के दूसरे ब्लौक में रहते थे. हर रोज मौर्निंग वाक पर उन से मुलाकात होती थी. कई लोगों की मंडली बन गई थी. सुबह कई मुद्दों पर बातें होती थीं, लेकिन बातों के सरताज सुच्चामल ही होते थे. देशदुनिया का ऐसा कोई मुद्दा नहीं होता था जिस पर वे बात न कर सकें. उस पर किसी दूसरे की सहमतिअसहमति के कोई माने नहीं होते थे, क्योंकि वे अपनी बात ले कर अड़ जाते थे. उन की खुशी के लिए बाकी चुप हो जाते थे. बड़ी बात यह थी कि वे, सेहत के मामले में हमेशा फिक्रमंद रहते थे. एकदम सादे खानपान की वकालत करते थे. मोटापे से बचने के कई उपाय बताते थे. दूसरों को डाइट चार्ट समझा देते थे. इतना ही नहीं, अगले दिन चार्ट लिखित में पकड़ा देते थे. फिर रोज पूछना शुरू करते थे कि चार्ट के अनुसार खानपान शुरू किया कि नहीं. हालांकि वे खुद भी थोड़ा थुलथुल थे लेकिन वे तर्क देते थे कि यह मोटापा खानपान से नहीं, बल्कि उन के शरीर की बनावट ही ऐसी है.

एक दिन सुबह मुझे काम से कहीं जाना पड़ा. वापस आया, तो रास्ते में सुच्चामल मिल गए. मैं ने स्कूटर रोक दिया. उन के हाथ में लहराती प्लास्टिक की पारदर्शी थैली को देख कर मैं चौंका, चौंकाने का दायरा तब और बढ़ गया जब उस में ब्रैड व बड़े साइज में मक्खन के पैकेट पर मेरी नजर गई. मैं सोच में पड़ गया, क्योंकि सुच्चामल की बातें मुझे अच्छे से याद थीं. उन के मुताबिक वे खुद भी फैटी चीजों से हमेशा दूर रहते थे और अपने बच्चों को भी दूर रखते थे. इतना ही नहीं, पौलिथीन के प्रचलन पर कुछ रोज पहले ही उन की मेरे साथ हुई लंबीचौड़ी बहस भी मुझे याद थी.

वे पारखी इंसान थे. मेरे चेहरे के भावों को उन्होंने पलक झपकते ही जैसे परख लिया और हंसते हुए पिन्नी की तरफ इशारा कर के बोले, ‘‘क्या बताऊं भाईसाहब, बच्चे भी कभीकभी मेरी मानने से इनकार कर देते हैं. कई दिनों से पीछे पड़े हैं कि ब्रैडबटर ही खाना है. इसलिए आज ले जा रहा हूं. पिता हूं, बच्चों का मन रखना भी पड़ता है.’’

‘‘अच्छा किया आप ने, आखिर बच्चों का भी तो मन है,’’ मैं ने मुसकरा कर कहा.

‘‘नहीं बृजमोहन, आप को पता है मैं खिलाफ हूं इस के. अधिक वसा वाला खानपान कभीकभी मेरे हिसाब से तो बहुत गलत है. आखिर बढ़ते मोटापे से बचना चाहिए. वह तो श्रीमतीजी भी मुझे ताना देने लगी थीं कि आखिर बच्चों को कभी तो यह सब खाने दीजिए, तब जा कर लाया हूं.’’ थोड़ा रुक कर वे फिर बोले, ‘‘एक और बात.’’

‘‘क्या?’’ मैं ने उत्सुकता से पूछा, तो वे नाखुशी वाले अंदाज में बोले, ‘‘मुझे तो चिकनाईयुक्त चीजें हाथ में ले कर भी लगता है कि जैसे फैट बढ़ रहा है, चिकनाई तो दिल की भी दुश्मन होती है भाईसाहब.’’

‘‘आइए आप को घर तक छोड़ दूं,’’ मैं ने उन्हें अपने स्कूटर पर बैठने का इशारा किया, तो उन्होंने सख्त लहजे में इनकार कर दिया, ‘‘नहीं जी, मैं पैदल चला जाऊंगा, इस से फैट घटेगा.’’

आगे कुछ कहना बेकार था क्योंकि मैं जानता था कि वे मानेंगे ही नहीं. लिहाजा, मैं अपने रास्ते चला गया.

2 दिन सुच्चामल मौर्निंग वौक पर नहीं आए. एक दिन उन के पड़ोसी का फोन आया. उस ने बताया कि सुच्चामल को हार्टअटैक आया है. एक दिन अस्पताल में रह कर घर आए हैं. अब मामला ऐसा था कि टैलीफोन पर बात करने से बात नहीं बनने वाली थी. घर जाने के लिए मुझे उन की अनुमति की जरूरत नहीं थी. यह बात इसलिए क्योंकि वे कभी भी किसी को घर पर नहीं बुलाते थे बल्कि हमारे घर आ कर मेरी पत्नी और बच्चों को भी सादे खानपान की नसीहतें दे जाते थे.

मैं दोपहर के वक्त उन के घर पहुंच गया. घंटी बजाई तो उन की पत्नी ने दरवाजा खोला. मैं ने अपना परिचय दिया तो वे तपाक से बोलीं, ‘‘अच्छाअच्छा, आइए भाईसाहब. आप का एक बार जिक्र किया था इन्होंने. पौलिथीन इस्तेमाल करने वाले बृजमोहन हैं न आप?’’

‘‘ज…ज…जी भाभीजी.’’ मैं थोड़ा झेंप सा गया और समझ भी गया कि अपने घर में उन्होंने खूब हवा बांध रखी है हमारी. सुच्चामल के बारे में पूछा, तो वे मुझे अंदर ले गईं. सुच्चामल ड्राइंगरूम के कोने में एक दीवान पर पसरे थे. मैं ने नमस्कार किया, तो उन के चेहरे पर हलकी सी मुसकान आई. चेहरे के भावों से लगा कि उन्हें मेरा आना अच्छा नहीं लगा था. हालचाल पूछा, ‘‘बहुत अफसोस हुआ सुन कर. आप तो इतना सादा खानपान रखते हैं, फिर भी यह सब कैसे हो गया?’’

‘‘चिकनाई की वजह से.’’ जवाब सुच्चामल के स्थान पर उन की पत्नी ने थोड़ा चिढ़ कर दिया, तो मुझे बिजली सा झटका लगा, ‘‘क्या?’’

‘‘कैसे रोकूं अब इन्हें भाईसाहब. ऐसा तो कोई दिन ही नहीं जाता जब चिकना न बनता हो. कड़ाही में रिफाइंड परमानैंट रहता है. कोई कमी न हो, इसलिए कनस्तर भी एडवांस में रखते हैं.’’ उन की बातों पर एकाएक मुझे विश्वास नहीं हुआ.

‘‘लेकिन भाभीजी, ये तो कहते हैं कि चिकने से दूर रहता हूं?’’

‘‘रहने दीजिए भाईसाहब. बस, हम ही जानते हैं. किचेन में दालों के अलावा आप को सब से ज्यादा डब्बे तलनेभूनने की चीजों से भरे मिलेंगे. बेसन का 10 किलो का पैकेट 15 दिन भी नहीं चलता. बच्चे खाएं या न खाएं, इन को जरूर चाहिए. बारिश की छोडि़ए, आसमान में थोड़े बादल देखते ही पकौड़े बनाने का फरमान देते हैं.’’

यह सब सुन कर मैं हैरान था. सुच्चामल का चेहरा देखने लायक था. मन तो किया कि उन की हर रोज होने वाली बड़ीबड़ी बातों की पोल खोल दूं, लेकिन मौका ऐसा नहीं था. सुच्चामल हमेशा के लिए नाराज भी हो सकते थे. यह राज भी समझ आया कि सुच्चामल अपने घर हमें शायद पोल खुलने के डर से क्यों नहीं बुलाना चाहते थे. इस बीच, डाक्टर चैकअप के लिए वहां आया. डाक्टर ने सुच्चामल से उन का खानपान पूछा, तो वह चुप रहे. लेकिन पत्नी ने जो डाइट चार्ट बताया वह कम नहीं था. सुच्चामल सुबह मौर्निंग वाक से आ कर दबा कर नाश्ता करते थे.

हर शाम चाय के साथ भी उन्हें समोसे चाहिए होते थे. समोसे लेने कोई जाता नहीं था, बल्कि दुकानदार ठीक साढ़े 5 बजे अपने लड़के से 4 समोसे पैक करा कर भिजवा देता था. सुच्चामल महीने में उस का हिसाब करते थे. रात में भरपूर खाना खाते थे. खाने के बाद मीठे में आइसक्रीम खाते थे. आइसक्रीम के कई फ्लेवर वे फ्रिजर में रखते थे. मैं चलने को हुआ, तो मैं ने नजदीक जा कर समझाया, ‘‘चलता हूं सुच्चामल, अपना ध्यान रखना.’’

‘‘ठीक है.’’

‘‘चिकने से परहेज कर के सादा खानपान ही कीजिए.’’

‘‘मैं तो सादा ही…’’ उन्होंने सफाई देनी चाही, लेकिन मैं ने बीच में ही उन्हें टोक दिया, ‘‘रहने दीजिए, तारीफ सुन चुका हूं. डाक्टर साहब को भी भाभीजी ने आप की सेहत का सारा राज बता दिया है.’’ मेरी इस सलाह पर वे मुझे पुराने प्राइमरी स्कूल के उस बच्चे की तरह देख रहे थे जिस की मास्टरजी ने सब से ज्यादा धुनाई की हो. अगले दिन मौर्निंग वाक पर गया, तो हमारी मंडली के लोगों को मैं ने सुच्चामल की तबीयत के बारे में बताया, तो वे सब हैरान रह गए.

‘‘कैसे हुआ यह सब?’’ एक ने पूछा, तो मैं ने बताया, ‘‘अजी खानपान की वजह से.’’

एक सज्जन चौंक कर बोले, ‘‘क्या…? इतना सादा खानपान करते थे, ऐसा तो नहीं होना चाहिए.’’

‘‘अजी काहे का सादा.’’ मेरे अंदर का तूफान रुक न सका और सब को हकीकत बता दी. मेरी तरह वे भी सुन कर हैरान थे. सुच्चामल छिपे रुस्तम थे. कुछ दिनों बाद सुच्चामल मौर्निंग वाक पर आए, लेकिन उन्होंने खानपान को ले कर कोई बात नहीं की. 1-2 दिन वे बोझिल और शांत रहे. अचानक उन का आना बंद हो गया.

एक दिन पता चला कि वे दूसरे पार्क में टहल कर लोगों को अपनी सेहत का वही ज्ञान बांट रहे हैं जो कभी हमें दिया करते थे. हम समझ गए कि सुच्चामल जैसे लोग ज्ञान की गंगा बहाने के रास्ते बना ही लेते हैं. यह भी समझ आ गया कि कथनी और करनी में कितना फर्क होता है. सुच्चामल से कभीकभी मुलाकात हो जाती है, लेकिन वे अब सेहत के मामले पर नहीं बोलते.

पितापुत्र में मतभेद शिक्षा और कैरियर के लिए ?

जैसेजैसे टैक्नोलौजी जिंदगी का अनिवार्य हिस्सा बनती जा रही है वैसेवैसे कई सहूलियतों के साथसाथ अनिश्चितताएं भी बढ़ती जा रही हैं. किसी को भी यह अंदाजा नहीं है कि आने वाला वक्त कैसा होगा. दुनिया इतनी तेजी से बदल रही है कि लोग, खासतौर से युवा, भविष्य तो क्या वर्तमान को भी ठीक से नहीं देख व समझ पा रहे हैं. हालांकि कुछ भी समझने के लिए युवा अब किसी पर निर्भर नहीं रह गए हैं, पिता पर तो न के बराबर, इसलिए नहीं कि पिता पर उन्हें भरोसा नहीं बल्कि इसलिए कि उन्हें यह लगता है कि अपनी एजुकेशन और कैरियर के बारे में वे खुद बेहतर फैसला ले सकते हैं.

वह दौर अब गया जिस में पिता यह तय करता था कि बेटे को क्या बनना है. शिक्षा और कैरियर के लिए बेटे की इच्छा, राय या इंट्रैस्ट के कोई माने नहीं होते थे. हाईस्कूल तक आतेआते उसे हुक्म सुना दिया जाता था कि तुम्हें यह या वह बनना है. बेटा भी श्रवण कुमार की तरह तनमनधन से इस हुक्म की तामील में लग जाता था फिर चाहे कामयाब हो या न हो और अकसर उस के हाथ असफलता ही लगती थी.

अगर ऐसा नहीं होता तो देश डाक्टरों, इंजीनियरों (आजकल सरीखे नहीं) और आईएएस अफसरों से भरा पड़ा होता, जबकि सरकारी नौकरियों में क्लर्कों, पटवारियों और शिक्षकों की भरमार है. ये ही अतीत के वे लाड़ले हैं जिन का कैरियर पिताओं ने तय किया था. भोपाल के वल्लभभवन के एक सरकारी महकमे में कार्यरत एक क्लर्क दिनेश सक्सेना की मानें तो उन के शिक्षक पिता की बड़ी इच्छा थी कि मैं डाक्टर बनूं, जिस से समाज और रिश्तेदारी में उन का नाम ऊंचा हो और वे फख्र से कह सकें कि देखो, मेरा बेटा डाक्टर है.

अक्स देखता पिता

उस दौर के दूसरे पुत्रों की तरह दिनेश ने दिनरात मेहनत की लेकिन हर बार प्री मैडिकल टैस्ट में नाकाम होते गए. 3 अटैम्प्ट के बाद जब उन्हें और पिता को यह ज्ञान प्राप्त हो गया कि इन से न हो सकेगा तो ?ाख मार कर क्लर्की कर ली. वह भी यों ही बैठेबिठाए नहीं मिल गई बल्कि खूब एडि़यां रगड़नी पड़ीं और ग्रेजुएशन के बाद 3 साल पापड़ बेलने पड़े. अब दिनेश उन पिताओं की जमात में शामिल हैं जो विधाता की तरह अपने पुत्र की तकदीर नहीं लिख रहे. खुद बेटे ने ही कंप्यूटर इंजीनियरिंग से बीटैक किया और अब बेंगलुरु की एक सौफ्टवेयर कंपनी में 18 लाख रुपए सालाना के पैकेज पर नौकरी कर रहा है.

पिता पुत्र में अपना अक्स देखता है और उस के जरिए अपनी अधूरी ख्वाहिशें पूरी करना चाहता है, यह बात या धारणा कोई 3 दशकों पहले ही दम तोड़ चुकी है. अब अपवादस्वरूप भी ऐसा नहीं होता कि पिता बेटे पर शिक्षा या कैरियर को ले कर अड़े कि तुम्हें यह या वह बनना है लेकिन हैरत की बात यह भी है कि कोई पिता अपने बेटे को दुनिया की दौड़ में पिछड़ते नहीं देखना चाहता. इन दिनों सब से बड़ा खर्च संतान की महंगी होती पढ़ाई है जिस में कटौती, बचत या किफायत की कोई गुंजाइश ही नहीं.

यह महज इत्तफाक की बात है कि 3 दशकों में ही टैक्नोलौजी जिंदगी का हिस्सा बनी और इसी दौरान घरपरिवारों की बनावट भी बदली. अब दौर एकल परिवारों का है जिन में पिता का रोल फाइनैंसर का ज्यादा हो गया है. कई मानो में बेटे को बाप आउटडेटेड लगने लगा है. धार्मिक मान्यताओं को ले कर हर दौर में पितापुत्र के बीच मतभेद रहे हैं लेकिन अब ये समझौते में तबदील होने लगे हैं. बेटा पूजापाठी पिता की आस्था पर झिकझिक नहीं करता तो पिता बेटे की एजुकेशन और कैरियर में दखल नहीं देता. यह समझता कोई हर्ज की बात भी नहीं है क्योंकि इस से बेटे को अपनी राह चुनने की आजादी मिल रही है. इस आजादी की अच्छी बात यह है कि अभी तक बहुत ज्यादा नुकसानदेह साबित नहीं हुई है.

पिता के पुरातन पैमाने

दरअसल, बेटा बहुत जल्द आने वाले वक्त और हालात को भांपने लगा है लेकिन अब वह भी गफलत में है. दरअसल इन दिनों जो बदलाव टैक्नोलौजी में आ रहा है वह क्या गुल खिलाएगा, इस का अंदाजा लगाया ही नहीं जा सकता. अब स्कूली शिक्षा बेमानी होती जा रही है क्योंकि 45 गुणा 325 अब स्कूल में सीखने की जरूरत नहीं है, हर हाथ में मोबाइल से चलने वाला कैलकुलेटर है. कल को मैथमेटिक्स की जटिल इन्वेंश्ने भी एआई सैकंडो में कर देगा तो गणित की विलक्षणता के पैसे किसे मिलेंगे. एआई वाली दुनिया बिलकुल अलग हो सकती है जिस का वैज्ञानिकों को अंदाजा नहीं तो फिर मांबाप को कैसे होगा. सो, वे अपने पुराने फार्मूले बच्चों पर न थोपें तो ही सही है.

दिक्कत तो यह है कि पिता के पैमाने अभी भी लगभग पुरातन और पौराणिक हैं. पिता आमतौर पर रिस्क उठाने और नया कुछ करने या अपनाने से कतराता है. लेकिन बेटा नहीं, जिसे नो रिस्क नो गेन की पौलिसी ही स्वीकार्य नहीं. मिसाल एक मझली किराने की दुकान की लें तो पिता को डिजिटल तराजू से भी परहेज था और नएनए सौफ्टवेयरों से भी वह बचने की कोशिश करता दिखता रहा.

भोपाल के शाहपुरा इलाके की एक खासी चलती किराने के दुकान का उदाहरण लें तो जब यह तय हो गया कि पिता के साथ पुत्र भी इस कारोबार में हाथ बंटाएगा तो 2-3 साल में ही दुकान का नक्शा बदल गया. बेटे ने लेजर की जगह कंप्यूटर को प्राथमिकता दी जिस से काम आसान होता गया.

इस दुकान में 6 कर्मचारी काम करते हैं जिन की निगरानी के लिए बेटे ने अंदरबाहर सीसीटीवी कैमरे लगवाए और जितना हो सकता था, दुकान का आधुनिकीकरण कर डाला. औनलाइन कंपनियों की तर्ज पर उस ने सामान की होम डिलीवरी भी शुरू करवा दी. अब कोई 40 फीसदी ग्राहक व्हाट्सऐप पर लिस्ट भेजते हैं जिन्हें वक्त रहते सामान घरबैठे मिल जाता है और पेमैंट भी औनलाइन आसानी से हो जाते हैं.

शुरू में पिता इस से सहमत नहीं थे. लेकिन ज्यादा एतराज उन्होंने नहीं जताया क्योंकि बेटा एमबीए था और उन के कहने पर ही कुछ शर्तों पर उस ने बाहर नौकरी करने के बजाय अपना पैतृक व्यवसाय करना मंजूर कर लिया था.

3 साल में ही दुकान का टर्नओवर डेढ़गुना हुआ तो पिता ने भी मान लिया कि अब व्यापार में टैक्नोलौजी इस्तेमाल करना जरूरी हो गया है. इस से अगर लागत बढ़ती है तो आमदनी में भी इजाफा होता है. प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिए परंपराएं तो छोड़नीतोड़नी ही पड़ेंगी.

कुछ पारिवारिक और सामाजिक कारणों से नाम न छापने के आग्रह पर यह बेटा, नाम मान लें रोहित, बताता है कि यह दुकान हमारे दादाजी की खड़ी की हुई है. मैं चाहता तो बाहर कहीं नौकरी भी कर सकता था लेकिन उस से यह दुकान बंद हो जाती. हमारे आसपास की कुछ दुकानें इसीलिए बंद हो चुकी हैं और कई बंद होने की कगार पर हैं क्योंकि उन्हें पिछली पीढ़ी ही संभाल रही है जो अपडेट नहीं हो पाती. मेरे पापा न मानते तो मैं भी किसी कंपनी की नौकरी कर लेता लेकिन मैं ने अपने कारोबार का मालिक बनना पसंद किया क्योंकि इस में पैसा भी ज्यादा है और भविष्य भी सुरक्षित है.

द्वंद्व में पीढि़यां

बकौल रोहित, ऐसा हर छोटे व्यापार में हो रहा है कि शिक्षित हो गए युवा अपना पैतृक धंधा नहीं संभाल रहे हैं क्योंकि उन्हें अपने मुताबिक काम करने की आजादी पिता नहीं दे रहे. वे कहते हैं जब तक मैं हूं तब तक कोई बदलाव मत करो. जब मैं मर जाऊं तो जो चाहे करते रहना. यह एक फिल्मी और इमोशनल ब्लेकमेलिंग वाली बात है. रोहित कहता है, ‘अगर पिता बेटे को आजादी दे तो वह बेहतर कर दिखा सकता है, फिर बात चाहे शिक्षा की हो, कैरियर की हो या व्यापार की. मौका और आजादी तो नई पीढ़ी को मिलने ही चाहिए.’

बातों ही बातों में रोहित एक संवेदनशील और चुनौतीपूर्ण सवाल यह खड़ा कर देता है कि जो युवा बजाय पैतृक व्यवसाय संभालने के, पढ़लिख कर नौकरी की तरफ भाग रहे हैं, क्या वे गलत नहीं कर रहे हैं और क्यों उन के पेरैंट्स चाहते हैं कि बेटा उन का पुश्तैनी कारोबार न संभाले.

दरअसल, यह छोटे और घटिया समझे जाने वाले धंधों में ज्यादा हो रहा है. मसलन, कोई नाई नहीं चाहता कि उस का बेटा लोगों की कटिंग करने और दाढ़ी बनाने जैसा निकृष्ट समझ जाने वाला काम करे. इसलिए उस की हरमुमकिन कोशिश यह रहती है कि बेटा पढ़लिख कर कहीं छोटीमोटी नौकरी कर ले. धोबी, बढ़ई, लुहार, माली और मोची भी यही चाहते हैं. बिलाशक, यह जाति आधारित बात या विसंगति है जिस का कोई इलाज या समाधान किसी के पास नहीं. लेकिन हो यह रहा है कि इन के बेटे किसी जोमैटो या स्विगी में डिलीवरी बौय बन कर 10-15 हजार रुपए की ही नौकरी कर पा रहे हैं या इतनी ही सैलरी पर सिक्योरटी गार्ड बने 40-45 वर्ष की उम्र के बाद को ले कर चिंतित और तनावग्रस्त हैं.

अग्निवीरों की हालत भी इन से जुदा नहीं कही जा सकती. ये सब के सब सिरे से जातिगत गुलामी नए तरीके से कर रहे हैं. फिर पढ़ाईलिखाई का फायदा क्या? यह बात न तो पिता सोच रहा और न ही पुत्र सोच पा रहा है. उलट इस के, हकीकत यह है कि इन्हें टैक्नोलौजी से और टैक्नोलौजी से इन को एक साजिश के तहत दूर रखा गया.

यहां जरूर दोनों पीढि़यां द्वंद्व और असमंजस का शिकार लगती हैं. लेकिन अहम बात इस में पिता का रोल है जो चाह कर भी बेटे का भविष्य नहीं संवार पा रहा और बेटा जब अपने ध्वस्त होते सपनों और भविष्य को देखता है तो डिप्रैशन में आ जाता है और यही उस की नियति है.

दुर्घटना का कारण बनती हैं पुरुषों के दिखावे में काम आने वाली महंगी कारें

महाराष्ट्र में पुणे के कल्याणी नगर में एक रईसजादे वेदांत अग्रवाल ने रात के करीब 2.00 बजे अपनी महंगी पोर्शे कार से बाइक सवार अनीस अवधिया और अश्विनी कोष्टा को टक्कर मार दी. इस घटना में दोनों की मौत हो गई है. इस घटना के बाद वहां लोगों ने रईसजादे की जम कर पिटाई की. वेदांत के पिता विशाल अग्रवाल मशहूर ब्रह्मा रियलिटी कंपनी के मालिक हैं जो बिल्ंिडग बनाने का काम करती है.

पुलिस ने वेदांत अग्रवाल के खिलाफ यरवड़ा पुलिस स्टेशन में एफआईआर दर्ज कर ली. इस घटना के बाद मृतकों के दोस्त एकिब रमजान मुल्ला ने पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज कराई. अश्विनी और अनीस दोस्तों के साथ अपनी मोटरसाइकिल पर कल्याणीनगर से यरवड़ा की ओर यात्रा कर रहे थे. वेदांत अपनी पोर्शे कार को तेज गति से चला रहा था. इस बीच वह कार से नियंत्रण खो बैठा. इस के बाद कार एक बाइक और अन्य वाहनों से टकरा गई.

रईसजादे का शिकार बने 2 इंजीनियर

पुणे पोर्श कार हादसे का आरोपी वेदांत अग्रवाल के बालिग और नाबालिग होने पर सवाल उठ रहे हैं. वेदांत ने अपनी कार से जिन बाइक सवार को रौंद दिया वे दोनों इंजीनियर थे. पुलिस ने वेदांत के पिता विशाल अग्रवाल को गिरफ्तार कर लिया. विशाल के पिता सुरेंद्र कुमार अग्रवाल ने अपने भाई से संपत्ति विवाद में अंडरवर्ल्ड डौन छोटा राजन की मदद ली थी. राजन के गुर्गे ने गोलीबारी भी की थी. पहले पुलिस ने जांच की. बाद में सीबीआई को मामला सौंपा गया. यह केस कोर्ट में विचाराधीन है. इस से यह साफ जाहिर होता है कि आरोपी वेंदात का परिवार दबंग किस्म का था. उस के लिए इस तरह के हादसे कोई बड़ी बात नहीं.

हमारी अदालतों में मुकदमे सालोंसाल चलते हैं. जिस वजह से सही समय पर न्याय नहीं मिल पाते. 5 करोड़ से अधिक के मामले आदलतों में लंबित हैं. अमीर आदमी के मामलों में विवेचना से ले कर जिरह तक में इतना घालमेल हो जाता है कि आरोपी बरी हो जाता है. पीडि़त को न्याय नहीं मिल पाता. उन परिवारों के बारे में कोई नहीं सोच रहा जिन के बाइक सवार 2 बच्चे दुर्घटना का शिकार हुए हैं.

17 साल के लड़के ने पहले शराब के नशे में अपनी पोर्शे कार से बाइक सवार 2 इंजीनियरों को रौंद दिया. हादसे में दोनों लड़कालड़की की मौत हो गई. मरने वालों की पहचान 24 साल के अनीश अवधिया और 24 साल की अश्विनी कोष्टा के रूप में हुई है. दोनों मध्य प्रदेश के रहने वाले थे. पुणे में काम करते थे.

इस मामले में जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड ने कुछ शर्तों के साथ आरोपी नाबालिग को रिहा कर दिया. बाद में पुलिस ने आरोपी नाबालिग के पिता विशाल अग्रवाल को छत्रपति संभाजीनगर से गिरफ्तार किया. विशाल अग्रवाल की कार बिना रजिस्ट्रेशन सड़कों पर दौड़ रही थी. इस से साफ पता चलता है कि विशाल अग्रवाल कितना पहुंच वाला आदमी है.

पोर्शे कार की कीमत

भारत में इस समय पोर्शे कार के 8 मौडल्स बिक्री के लिए उपलब्ध है. इन में 3 एसयूवी, 4 कूपे और 1 वैगन शामिल हैं. पोर्शे ने पोर्शे टायकन भी 2024 लौंच की है. इंडिया में पोर्शे कारों की कीमत 88.06 लाख से शुरू होती है. भारत में पोर्शे की सब से महंगी कार 911 है जो 4.26 करोड़ रुपए में उपलब्ध है. पोर्शे के लाइनअप में सब से लेटेस्ट मौडल कायेन है जिस की कीमत 1.36 से 2 करोड़ रुपए है. पोर्शे की मौजूदा कारों में मैकन, कायेन, कायेन कूप, 718, टायकन, मैकन ईवी, पैनामेरा और 911 जैसी कारें शामिल हैं.

पोर्शे जरमनी की औटोमोबाइल कंपनी है जो हाई परफौर्मेंस स्पोर्ट्स कार, एसयूवी और सेडान बनाने के लिए मशहूर है. इस कंपनी का स्वामित्व आस्ट्रियन पोर्शे और पाइक फैमिली (आस्ट्रियन बिजनैस फैमिली पोर्शे) के पास है. मई 2006 के एक सर्वे में पोर्शे को लग्जरी इंस्टिट्यूट, न्यूयौर्क द्वारा सब से प्रतिष्ठित औटोमोबाइल ब्रैंड का खिताब दिया गया. इस सर्वे में 7,20,000 अमेरिकी डौलर की कुल संपत्ति वाले 500 से अधिक परिवारों ने हिस्सा लिया था जिन की वार्षिक आय न्यूनतम 200,000 अमेरिकी डौलर थी.

भारत में बढ़ रहा है महंगी कारों का शौक

सस्ती और टिकाऊ गाडि़यों के बजाय अब भारतीयों को महंगी गाडि़यां पसंद आ रही हैं. देश में लग्जरी कारों की बिक्री में 41 फीसदी बढ़ोतरी हुई है. इन कारों में लुक और सेफ्टी फीचर्स के साथ ही साथ दिखावा भी होता है. साल 2022 में कुल गाडि़यों के मुकाबले 41 फीसदी गाडि़यां 10 लाख रुपए से अधिक कीमत की थीं.

क्रिकेट खिलाडी ऋषभ पंत के साथ कार का हादसा हुआ था. उस में उस को गंभीर चोटें आई थीं. दिल्लीदेहरादून एक्सप्रैसवे पर हुए हादसे के समय में ऋषभ मर्सिडीज कार से सफर कर रहे थे. इस हादसे में ऋषभ की जान बच गई. जिस का श्रेय उन की महंगी गाड़ी को दे रहे हैं. अगर मर्सिडीज जैसी लग्जरी कार की जगह किसी साधारण कार में वे होते तो इतने भयानक हादसे में बच पाना मुश्किल था. महंगी कारों के सेफ्टी फीचर्स लोगों को लुभा रहे हैं.

पहले लोग सस्ती और टिकाऊ गाडि़यां पसंद करते थे. वहीं अब भारत में महंगी गाडि़यों का क्रेज बढ़ रहा है. टोयोटा, फोर्ड, इनोवा, सकोडा, सिकैड, औडी और मर्सिडीज जैसी गाडि़यों की डिमांड तेजी से बढ़ रही है. साल 2018 के मुकाबले साल 2022 में इन लग्जरी और महंगी गाडि़यों की डिमांड में 41 फीसदी की तेजी आई है. ग्रामीण इलाकों में भी स्कौर्पियो और फारच्युनर जैसी गाडियां लोगों की पसंद बनती
रही हैं.

आंकड़ों को देखें तो 10 लाख रुपए से ऊपर की महंगी कारों को खरीदने वालों की संख्या बढ़ रही है. शौकीन लोग 25 लाख से 60 लाख रुपए तक की रेंज में गाडि़यां खरीद रहे हैं. इन में 3 श्रेणी के लोग हैं. पहले बिजनैसमैन हैं. दूसरे नेता और तीसरे अफसर हैं. इन की गाडि़यां इन के अपने नाम से कम होती हैं. माफिया टाइप लोगों के पास एक गाड़ी का मतलब नहीं होता, उन को अपने काफिले में एकजैसी 6-7 गाडि़यां चलने के लिए चाहिए. ये गाडि़यां बड़ी आसानी से बैंक लोन से मिल जाती हैं.

साल 2018 में 10 लाख से अधिक महंगी कारों की सेल 5.4 लाख थी तो वहीं साल 2022 में यह आंकड़ा 15.5 लाख के ऊपर पहुंच गया. अगर तुलना करें तो साल 2008 में करीब 34 लाख कारों की बिक्री हुई, जिन में से 16 फीसदी गाडि़यां ऐसी थीं जो 10 लाख रुपए से अधिक कीमत की थीं. वहीं साल 2022 में 38 लाख गाडि़यों की बिक्री हुई, लेकिन इस दौरान 10 लाख से महंगी कारों की संख्या 15 लाख रुपए को पार कर गई. यानी महंगी कारें खरीदने वालों में 41 फीसदी का इजाफा हुआ.

शान और साख बढ़ाती हैं महंगी गाडि़यां

महंगी गाडि़यों की बढ़ती खरीदारी की 3 वजहें हैं. पहली, दिखावा यानी शान. जिस तरह से अमीर औरतों को अपने गहने और साड़ी दिखाने में खुशी होती है उसी तरह से पुरुष अपनी महंगी कार दिखा कर दूसरों पर रोब डालता है. जब वह अपनी महंगी कार से उतरता है तो मन में अलग किस्म की खुशी होती है. घर कितना भी अच्छा हो, उसे दिखाने के लिए लोगों को बुलाना पड़ता है. महंगी कार दिखाने के लिए किसी को बुलाना नहीं पड़ता.

महंगी गाडि़यों के फीचर्स लोगों को लुभा रहे हैं. सनरूफ, ड्राइविंग असिस्ट फीचर्स, 360 डिग्री कैमरा, इंफोर्मेशन स्क्रीन, 6 एयरबैग्स फीचर्स, महंगे साउंड फीचर्स भारतीयों को लुभा रहे हैं. इस के अलावा महंगी गाडि़यों के सेफ्टी फीचर्स लोगों को खूब लुभा रहे हैं. महंगी गाडि़यां समाज में साख को बढ़ाती हैं. लोग आप पर भरोसा करने लगते हैं. जिस बिजनैस में आप हैं उस में 20 प्रतिशत की बढ़ोतरी इस से संभव होती है.

अच्छी सड़कें होने से एक शहर से दूसरे शहर की दूरी कम हो गई है. अच्छी कारों से यह सफर कम समय में तय हो जाता है. यह बात और है कि महंगी कारें दुर्घटना का कारण बनती हैं. सुरक्षा कारणों से कार चलाने वाला भले ही बच जाए पर सड़क पर चलने वाले इस की चपेट में आ ही जाते हैं. पुणे में 2 परिवार तबाह हो गए, जिन के बच्चे अपने परिवार की मदद के लिए इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद जौब कर रहे थे.

कानून और अदालतें गुनाहगार को दंड देने से अधिक उस के बचाने का काम करती है. वेदांत अग्रवाल को नाबालिग मान कर उसे छोड़ दिया है. उस के पिता को पुलिस ने पकड़ा है. पिता के खिलाफ केवल यह आरोप है कि उस ने नाबालिग बेटे को गाड़ी चलाने को दी और गाड़ी का रजिस्ट्रेशन नहीं था. इस मामले में मामूली सजा के बाद आरोपी छूट जाएगा. जिन परिवार के बच्चे हादसे का शिकार हुए, 2-4 दिन रोपीट कर उन के परिवार वाले चुप हो जाएंगे.

क्या कहता है कानून

लापरवाही और तेज गति से व्हीकल ड्राइविंग दूसरों के जीवन खतरे में डालने वालों को जेल जाना होगा. केंद्र सरकार के नए प्रस्ताव के मुताबिक जानलेवा दुर्घटना गैरजमानती अपराध होगा. ऐसे प्रकरणों में दोष सिद्ध होने पर अधिकतम 2 साल की सजा की जगह नए कानून में न्यूनतम 2 साल से ले कर अधिकतम 7 साल तक की सजा भुगतनी पड़ सकती है. सजा को सख्त बनाने के पीछे सड़क दुर्घटनाओं में कमी ला कर यात्रा को सुरक्षित बनाना है.

गृह मंत्रालय ने कहा की आईपीसी (भारतीय दंड संहिता 1860) की सड़क दुर्घटनाओं से संबंधित धाराओं में सुधार किया जा रहा है. आईपीसीसी की धारा 304 में दुर्घटना से मौत या असावधानी से किसी की मृत्यु होने पर अधिकतम 2 वर्ष तक की सजा का प्रावधान था, साथ ही पुलिस को थाने में जमानत पर छोड़ने का अधिकार था. अब आईपीसी की धारा 304 में उपधारा जोड़ कर इसे 304 ए किया किया जा रहा है. कानून तक मसले पहुंचते कम हैं, जो पहुंचते हैं उन को चक्कर लगाने पड़ते हैं. पीडि़त को न्याय नहीं मिलता.

सफलता के बाद धोखा, मगर क्यों ?

पीसीएस ज्योति मौर्य के बहुचर्चित मामले की तरह का एक मामला हाल ही में (11 जुलाई को) झांसी में सामने आया. अकाउंटैंट (लेखपालों) के नियुक्तिपत्र वितरण के दौरान एनआईसी पहुंचे एक युवक का कहना था कि लेखपाल बनने के बाद उस की पत्नी ने उसे ठुकरा दिया. वह शादी की तसवीरों के साथ पहुंचा था. उस ने अफसरों से गुहार भी लगाई हालांकि इस मामले में उस की मदद करने से अफसरों ने फिलहाल हाथ खड़े कर दिए.

कोतवाली के नई बस्ती महल्ला निवासी नीरज विश्वकर्मा का आरोप है कि सरकारी नौकरी मिलते ही पत्नी ने उस से दूरियां बना लीं. 3 साल पहले उन दोनों ने परिवार से बगावत कर प्रेमविवाह किया था. वह कार पेंटिंग का काम करता है जबकि युवती पढ़ाई कर रही थी. उस समय दोनों के बीच प्रेम परवान चढ़ा. जब यह बात युवती के परिजनों को मालूम चली तब उन्होंने विरोध किया. तब तक दोनों साथ में जीनेमरने की कसमें खा चुके थे.

दोनों ने घर से भाग कर ओरछा के मंदिर में शादी रचा ली. युवक का कहना है, कुछ समय तक दोनों साथ रहे. इस के बाद युवती अपने परिजनों के पास चली गई. वह युवती की पढ़ाई में पैसों से मदद करता रहा. 2 साल पहले जब लेखपाल की वैकेंसी आई तब उस ने पत्नी का फौर्म भरवाया. इस में पत्नी का चयन हो गया. लेखपाल बनने के बाद पत्नी के व्यवहार में बदलाव आने लगा. उस के मायके के लोगों ने भी पत्नी को समझाया कि वह अब लेखपाल है जबकि पति की हैसियत छोटी है.

उन की बातों में आ कर पत्नी ने उस से दूरी बना ली. मोबाइल पर भी बात नहीं करती. कई बार जब उस ने मिलने की कोशिश की तब उस के परिजनों ने उसे धमकाया. शादी के फोटो और वीडियो ले कर पुलिस से गुहार लगाई लेकिन मदद नहीं मिली. इधर उस की पत्नी इन आरोपों का खंडन करती दिखी.

यूपी के बरेली में चीनी शुगर मिल की महाप्रबंधक ज्योति मौर्य (पीसीएस अधिकारी) और प्रयागराज में चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी आलोक मौर्य का किस्सा भी जगजाहिर है.

जुलाई 2023 में यह मामला काफी चर्चा में आया था. आलोक ने अपनी पत्नी ज्योति पर रिश्ते में धोखा देने जैसे गंभीर आरोप लगाए थे. आलोक का आरोप था कि शादी के बाद उस ने ज्योति को पढ़ाने में काफी पैसा खर्च किया और मदद की. जब वह उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग की परीक्षा में चयनित हो कर अधिकारी बन गई तो उस ने दगा दे दिया. यह भी आरोप था कि वह किसी और अधिकारी के साथ अवैध रिश्ते में आ गई थी.

दरअसल यूपी के बनारस की रहने वाली ज्योति मौर्य बेहद साधारण परिवार से ताल्लुक रखती थी. उस के पिता की एक छोटी सी दुकान थी जिस पर पूरा परिवार निर्भर था. ज्योति बचपन से ही पढ़ने में तेज थी लेकिन पिता ने ग्रेजुएशन के दौरान ज्योति की शादी प्रयागराज के रहने वाले आलोक मौर्य से कर दी. आलोक से शादी के बाद जब ज्योति अपनी ससुराल पहुंची तो आलोक ने अपनी पत्नी को पढ़ालिखा कर कुछ बनाने की सोची. यानी आप कह सकते हैं कि यह कहानी अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्म ‘सूर्यवंशम’ की तरह है. उस दौरान आलोक को फोर्थ क्लास की नौकरी मिल गई थी. आलोक ने ग्रेजुएशन पूरा होते ही ज्योति को प्रयागराज में यूपीपीसीएस की कोचिंग करवाई.

ज्योति पढ़ने में होशियार थी. साल 2015 में ज्योति का पीसीएस में चयन हो गया जिस में 16वीं रैंक हासिल की थी उस ने. जब ज्योति सफल हुई तो अपनी सफलता का श्रेय अपने ससुर और पति को दिया था. 2020 के बाद रिश्ते में कड़वाहट बढ़ने लगी थी.

आलोक प्रयागराज के रहने वाले हैं. आलोक के पिता अध्यापक थे और रिटायर हो चुके थे. अब वे प्रयागराज में ही अपना आवास बना कर रह रहे हैं. आलोक मौर्य ने अपनी पढ़ाई प्रयागराज में ही रह कर की. उन्हें चतुर्थ श्रेणी की सरकारी नौकरी मिली थी. इधर अधिकारी बनने के बाद ज्योति ने आलोक को छोड़ दिया. इस बात पर उस समय काफी बवाल मचा था. बाद में तलाक के लिए इन का केस कोर्ट में भी गया.

शादी का फैसला लेने से पहले सोचना जरूरी, बाद में नहीं

प्यार ऐसी भावना है जिस में कोई बड़ा या छोटा नहीं होता. इसी भावना के साथ इंसान किसी से प्यार और शादी करता है. लेकिन शादी के बाद दूसरों के बहकावे में आ कर अपने पति या पार्टनर को छोड़ देना उचित नहीं. जरूरी है कि पहले ही सोचविचार कर फैसला लेना चाहिए कि आप को अपने जीवन में किस चीज से समझौता करना है और क्या जरूरी है. कुछ लोग पार्टनर के स्वभाव को, उस के मददगार या सहयोगी रवैए को महत्त्व देते हैं लेकिन कुछ लोग हैं जो पैसे को, स्टैंडर्ड को, उस के काम को और उस की इनकम को देख कर फैसला लेते हैं.

ऐसे में शादी करने से पहले यह विचार कर लेना चाहिए कि आप को क्या चाहिए और आप जिस से शादी कर रही हैं उस से आप को वह सब मिलने वाला है या नहीं.

कुछ लोग शादी के बाद पार्टनर के रंगरूप को ले कर उसे छोड़ देते हैं. ऐसे में भी यही सवाल उठता है कि जब शादी से पहले सब मंजूर था तो बाद में क्या हो गया. जितना सोचनासमझना है, शादी से पहले सोचना और परखना चाहिए. जल्दी में शादी करने के बजाय थोड़ा समय एकदूसरे को समझने के लिए देना चाहिए. इस के बाद ही फैसला लेना चाहिए. एक बार फैसला लेने के बाद अपने हालात सुधरने की वजह से प्यार को नकार देना कतई मान्य नहीं हो सकता.

यदि आप शादी कर लेती हैं तो उस के बाद सोचने की बात सिर्फ यह रहती है कि आप अपने पार्टनर को कैसे और आगे बढ़ा सकती हैं, कैसे उन की उन्नति में मदद कर सकती हैं, कैसे उन्हें प्रेरित कर सकती हैं कि वे ज्यादा ऊंचे ओहदे के लिए प्रयास करें और कैसे उन की इनकम बढ़े. भले ही वह कम पढ़ालिखा है पर फिर भी हर फील्ड में आगे बढ़ने के रास्ते होते हैं. उन रास्तों को दिखाना होगा.

अगर पति पत्नी को पढ़ने में मदद कर सकता है तो पत्नी जब कुछ बन जाती है तब वह अपने पति को भी पढ़ने में मदद कर सकती है. अगर उसे सच में प्यार है तो वह अपने पति का कायाकल्प कर सकती है. लेकिन उसे छोड़ देना या उस से अलग हो जाना कोई विकल्प नहीं है.

अगर वह चतुर्थ श्रेणी का कर्मचारी है या मजदूर है या वह ज्यादा पढ़ालिखा भी नहीं तो भी आप पार्टनर की उन्नति के प्रयास तो कर ही सकती हैं. शादी के बाद आप उस के स्टैंडर्ड को अपने प्यार के बीच में नहीं ला सकते.

रेप के डर से होती हैं नाबालिगों की शादियां

भारत में आजादी के 8वें दशक में भी हर मिनट 3 नाबालिग लड़कियों की शादी हो रही है. ‘चाइल्ड मैरिज फ्री इंडिया’ के एक अध्ययन के अनुसार, यह संख्या प्रतिवर्ष 16 लाख तक पहुंच जाती है. नैशनल क्राइम रिकौर्ड ब्यूरो यानी एनसीआरबी की रिपोर्ट हो या समयसमय पर सरकार की ओर से जारी किए जाने वाले अन्य आंकड़े, इस बात की तस्दीक करते हैं कि 2018 से 2022 के बीच 3,863 नाबालिग शादियां होने के मामले दर्ज हुए थे.

इस के बाद ‘चाइल्ड मैरिज फ्री इंडिया’ की ‘इंडिया चाइल्ड प्रोटैक्शन’ ने 2011 की जनगणना से जुड़े आंकड़ों के साथ एनसीआरबी और नैशनल फैमिली हैल्थ सर्वे-5 (2019-21) की सूचनाओं को मिला कर उन का विश्लेषण किया. उस के आधार पर उस ने बताया कि हर साल 16 लाख नाबालिग लड़कियों की शादी हो रही है. भारत में 1929 में नाबालिग शादी को प्रतिबंधित किया जा चुका है.

देश में कानून अपनी जगह रहता है पर समाज अपने ढंग से काम करता है. अपराध के आंकड़े बताते हैं कि जिन राज्यों में नाबालिग लड़कियों के साथ शादी की घटनाएं हो रही हैं वहां उन के साथ रेप के अपराध भी हो रहे हैं. इस के कई उदाहरणों में सब से प्रमुख दहेज लेनेदेने का उदाहरण है. दहेज लेना और देना दोनों ही अपराध हैं. इस के बाद भी दहेज का लेनदेन चल रहा है. दूसरा उदाहरण भ्रष्टाचार का है. यह भी कानूनन अपराध है. इस के बाद भी समाज में यह चल रहा है.

इसी तरह से नाबालिग लड़कियों की शादी का मसला भी है. रेप से बचने के लिए या रेप होने के बाद सम?ाते के तहत दोनों की शादी करा दी जाती है. यह उन प्रदेशों में अधिक है जहां अपराध अधिक होते हैं. गरीबी है. ज्यादातर छोटी उम्र से ही लड़कियां मजदूरी करने लगती हैं. वहीं ये शोषण का शिकार होती हैं.

ओडिशा, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश से शादी करने के बाद ही कम उम्र में लड़कियों को मजदूरी करने को बाहरी प्रदेश भेजा जाता है. पहले ये केवल ईंटभट्टे पर काम करती थीं या घर बनाने में मजदूरी करती थीं. अब ये घरेलू नौकरानी, मौल, अस्पताल जैसी जगहों पर साफसफाई का काम करती हैं. ठेकेदार के जरिए ये काम पाती हैं. बाहर जा कर इन के साथ रेप न हो, इस से बचने के लिए इन की कम उम्र में शादी कर दी जाती है. ये अपने पतियों के साथ ही मजदूरी करने बाहर प्रदेश में आती हैं.

रेप के डर से होती है शादी

नाबालिग लड़कियों के साथ रेप की बढ़ती घटनाएं बताती हैं कि कानून व्यवस्था की हालत खराब है. रेप की शिकार ज्यादातर लड़कियां गरीब तबके से आती हैं. ये दलित, अतिपिछड़ा और आदिवासी समुदाय की होती हैं, जो रेप के शिकार होने के बाद अपनी शिकायत पुलिस में दर्ज नहीं करा पातीं. रेप करने वाले दबंग और मजबूत होते हैं. वे पुलिस और कचहरी संभाल लेते हैं और लड़की के परिवार वालों पर दबाव डाल कर समझौता भी करकरा लेते हैं. रेप के इस डर से मांबाप नाबालिग लड़कियों की मजबूरी में शादी कर देते हैं. रेप कानून व्यवस्था से जुड़ा मसला है, अगर कानून मजबूत हो तो न रेप होंगे न नाबालिग लड़कियों की शादियां होंगी.

इंदौर में नाबालिग लड़की अपने से 13 साल बड़े लड़के से शादी करना चाहती थी. नाबालिग लड़की अपनी उम्र से बड़े लड़के के साथ लिवइन में थी. उन के आपस में संबंध भी थे. अब लड़का शादी करने से इनकार कर रहा था. लड़की का मानना था कि अब वह शादी इसी से करेगी. इस के बाद दोनों के परिवार वालों ने जब बात मान ली कि कुछ समय बाद उन की शादी करा देंगे तब लड़की तैयार हुई.

डराती हैं रेप की घटनाएं

उज्जैन में 25 सितंबर को एक नाबालिग बच्ची से रेप का मामला सामने आया था. महाकाल थाने के इलाके में बड़नगर रोड पर दंडी आश्रम के पास यह बच्ची घायल अवस्था में मिली थी. उस के कपड़े खून से सने थे. यह बच्ची आधेअधूरे कपड़ों में सांवराखेड़ी सिंहस्थ बाइपास की कालोनियों में करीब ढाई घंटे भटकती रही. स्थानीय लोगों से उसे कोई मदद नहीं मिली. पुलिस को सीसीटीवी फुटेज में दिखा कि यह नाबालिग लड़की 3 औटो ड्राइवर और 2 लोगों के साथ बात करती दिखी. यह नाबालिग लड़की सतना की रहने वाली है. इस की उम्र 15 साल दर्ज थी.

राहुल गांधी ने मध्य प्रदेश सरकार को ले कर कहा, ‘‘प्रदेश सरकार बच्चियों की सुरक्षा करने में अक्षम है. मध्य प्रदेश में महिलाओं और बच्चियों के साथ बलात्कार की घटनाएं सब से ज्यादा घट रही हैं. यह घटना प्रशासन और समाज के लिए कलंक है.’’

दूसरी घटना झारखंड की राजधानी रांची के रातू थाना क्षेत्र की है. नाबालिग लड़की अपनी एक सहेली के साथ पास के गांव में ही सरहुल मेला देखने गई थी. लौटने के समय नाबालिग के साथ 5 युवकों ने गैंगरेप किया. पीडि़ता की सहेली किसी तरह दरिंदों के चुंगल से भागने में कामयाब रही.

राजस्थान के सिरोही जिले में गांव की रहने वाली एक 17 साल की लड़की के घर रात को 10 बजे 3 युवक पहुंचे. लड़की के घर पर कोई नहीं था. उन लड़कों ने लड़की को घर से जबरन उठा लिया और उसे कार में ले कर चले गए. 3 दिन उस के साथ रेप किया गया. इस के बाद वेलड़की को मरा हुआ सम?ा कर सड़क किनारे छोड़ कर चले गए. लड़की को कुछ लोगों ने देखा. पुलिस आई, लड़की को होश आया तो उस ने अपनी बात बताई. इस के बाद पुलिस ने लड़कों को पकड़ा.

उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर के जहांगीराबाद कोतवाली में 10 वर्ष की लड़की को एक युवक बहलाफुसला कर खेत में ले गया. उस के साथ रेप किया और बाद में उस की हत्या भी कर दी. पुलिस ने आरोपी को पकड़ कर जेल भेज दिया.

मुंबई के भिवंडी के शांतिनगर इलाके के गोविंद नगर में एक परिवार दोमंजिली चाल में रहता था. परिवार में मातापिता, 2 बड़ी बहनें और एक भाई व सब से छोटी पीडि़ता थी. पीडि़ता के पिता एक करघा कारखाने में और मां एक गोदाम में काम करती हैं. मां अपनी दोनों बड़ी बेटियों को भी काम पर साथ ले जाती थी, जबकि भाई स्कूल पढ़ने जाता था.

परिवार रोज की तरह काम पर गया था. दोपहर को जब लड़का स्कूल गया तो उसी चाल की ऊपरी मंजिल पर अकेले रहने वाले युवक ने बच्ची को खाने का लालच दे कर अपने कमरे में बुलाया. जहां रेप कर के उस की हत्या कर दी. शाम को जब भाई स्कूल से घर आया तो कमरा बंद देख कर उस ने अपनी छोटी बहन की तलाश की. वह नहीं मिली.

इस बीच, मां और बड़ी बहन भी काम से घर लौट आईं. जब उन्होंने इलाके में खोजबीन शुरू की तो इलाके के एक छोटे लड़के ने बताया कि उस ने पीडि़ता को ऊपर के कमरे में जाते देखा था. बाद में जब परिवार वालों ने खोजबीन की तो उस बंद कमरे में मासूम का शव मिला.

नाबालिगों से रेप के डरावने आंकड़े

एनसीआरबी द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार 2022 में देश में हर दिन कम से कम 90 नाबालिग लड़कियों के साथ बलात्कार किया गया. ये मामले भारतीय दंड संहिता की धारा 376 (बलात्कार) और धारा 4 (पेनेट्रेटिव यौन हमले के लिए सजा) और 6 (गंभीर यौन उत्पीड़न के लिए सजा) के तहत यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (पौक्सो) अधिनियम के तहत दर्ज किए गए.

एक और रिपोर्ट में कहा गया है कि 2021 में देशभर में 33,186 नाबालिग लड़कियों के साथ बलात्कार किया गया था. 3,522 नाबालिग लड़कियों के यौन शोषण की रिपोर्ट करने में मध्य प्रदेश पहले नंबर पर था. उस के बाद महाराष्ट्र में 3,480, तमिलनाडु में 3,435 और उत्तर प्रदेश में 2,749 थे. ऐसी 2,093 घटनाओं के साथ कर्नाटक 5वें स्थान पर रहा.

आज भी रेप से बचाव के लिए ही नाबालिग लड़कियों की शादी कर दी जाती है. यह आज के दौर की बात नहीं है. मराठा राज, जिसे आखिरी हिंदू राज कहा जाता था, में भी इसी तरह होता था. 1820-25 के मराठा राज में पंडेपुरोहितों का काम था कि वे यह देखें कि 9 साल से 14 साल के बीच की कोई लड़की बिना शादी के न रह जाए. ये शादियां पंडित करा देते थे. यह लगभग अंतिम हिंदू राजाओं का दौर था जिस में ब्राह्मणवाद फिर से पेशवाओं के कारण पनपा. वरना तो भारत में बाल विवाह का इतिहास बहुत लंबे समय से रहा है.

ऋग्वैदिक काल से ले कर आधुनिक काल तक किसी न किसी रूप में यह मौजूद रहा है. मुगल राजाओं को हिंदू जनता के सामाजिक सुधारों में कोई रुचि नहीं थी क्योंकि इसलामी कानून भी वैसा ही सा था. अंगरेजों ने कुछ साल अपने प्रोटोस्टैंट और लिबरल विचार आने दिए पर फिर 1857 के बाद उन्होंने तभी कोई सुधार का कानून लागू किया जब हिंदू नेताओं ने जोर दिया.

आजादी के बाद जवाहरलाल नेहरू ने जिद कर के हिंदू विवाह कानून बनवाया था 1955 में वरना धार्मिक प्रतिबंधों के साथ बाल विवाह की प्रथा प्रचलित रही है.

मनुस्मृति इस की समर्थक

मनुस्मृति में कहा गया है कि यदि पिता अपनी पुत्री की यौवनप्राप्ति के 3 वर्ष के भीतर शादी नहीं करा पाता है तो वह स्वयं अपना जीवनसाथी ढूंढ़ सकती है. मनुस्मृति के सब से पुराने और आरंभिक टीकाकारों में से एक मेधातिथि के अनुसार, लड़की का विवाह करने की सही आयु 8 वर्ष है. ऋग्वेद में गर्भाधान का उल्लेख है. जिस का शाब्दिक अर्थ है गर्भ की संपत्ति प्राप्त करना. यह उन 16 संस्कारों में से पहला है जिसे एक हिंदू को करना चाहिए.

यूनानी यात्री मेगस्थनीज ने लिखा है कि उसे बताया गया था कि दक्षिण भारत में पांडियन साम्राज्य की महिलाएं 6 साल की उम्र में बच्चे पैदा करती थीं. 7 शताब्दियों बाद फारसी विद्वान अल बिरूनी ने लिखा कि भारत में बालविवाह बड़े पैमाने पर प्रचलित थे. विवाह कानूनों में सुधार का श्रेय अंगरेजों को दिया जाना चाहिए. 1861 और 1891 के एज औफ कन्सैंट एक्ट के जरिए वैवाहिक अधिकारों में सुधार लाया गया. यह बात और है कि कानून के साथ ही साथ समाज भी अपनी परंपरा को निभाता रहा.

यौन संबंध के लिए न्यूनतम आयु

1861 के अधिनियम में यौनसंबंध के लिए न्यूनतम आयु 10 वर्ष निर्धारित की गई थी. सहमति की आयु अधिनियम 1891, ब्रिटिश भारत में 19 मार्च, 1891 को लागू किया गया एक कानून था, जिस के तहत सभी लड़कियों, चाहे वे विवाहित हों या अविवाहित के लिए यौनसंबंध बनाने की सहमति की आयु सभी अधिकार क्षेत्रों में 10 वर्ष से बढ़ा कर 12 वर्ष कर दी गई थी. इस का उल्लंघन बलात्कार के रूप में आपराधिक मुकदमा चलाने के अधीन था. इन सब कानूनों का हिंदू पंडितों ने विरोध किया था.

रुखमाबाई और फूलमनी दासी नामक 2 युवा लड़कियों के कारण यह कानून बना था. 1884 में 20 वर्षीया रुखमाबाई को उस के पति भीकाजी ने बंबई उच्च न्यायालय में ले जा कर मुकदमा दायर किया, क्योंकि उस ने उस के साथ रहने से इनकार कर दिया था. 11 वर्ष की आयु में उस से विवाह करने के बाद कभी वैवाहिक संबंध स्थापित न कर पाने तथा लगभग 8 वर्षों तक अलग रहने के कारण उस ने उस के साथ वापस जाने से इनकार कर दिया.

अदालत ने उन्हें आदेश दिया कि वे अपने पति के साथ रहें या फिर 6 महीने की जेल की सजा भुगतें. उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया और मुकदमे की बढ़ती लागत के कारण भीकाजी को जुलाई 1888 में 2,000 रुपए के समझौते पर केस वापस लेना पड़ा.

दूसरी घटना 1889 की है. 11 वर्षीया बंगाली लड़की फूलमोनी दासी की उस के 35 वर्षीय पति हरि मोहन मैती द्वारा क्रूरतापूर्वक बलात्कार के बाद मौत के घाट उतार दिया गया. हरि मोहन मैती को बलात्कार के आरोप से बरी कर दिया गया, लेकिन उसे लापरवाही से अनजाने में हुई मौत का दोषी पाया गया. हिंदुओं के एक वर्ग ने इस आयु को 12 वर्ष करने का इस आधार पर विरोध किया कि यह गर्भाधान से संबंधित मानदंडों का उल्लंघन करता है. बाल गंगाधर राव तिलक इस अभियान में सब से आगे थे, जो सहमति की आयु अधिनियम का विरोध कर रहे थे.

इस के बाद विवाह सुधार के नएनए कानून बनते रहे. बाल विवाह निरोधक अधिनियम 1929 को सारदा अधिनियम के नाम से भी जाना जाता है. यह अधिनियम 28 सितंबर, 1929 को पारित किया गया था. अधिनियम के अनुसार लड़कियों के लिए विवाह की आयु 14 वर्ष तथा लड़कों के लिए 18 वर्ष निर्धारित की गई. इस को बनाने वाले न्यायाधीश और आर्य समाज के सदस्य हरबिलास सारदा थे. उन के नाम पर ही इस को सारदा अधिनियम कहा जाता है. यह अधिनियम संपूर्ण ब्रिटिश भारत पर लागू था. देशी रियासतों को इस अधिनियम के दायरे से छूट दी गई थी.

भले ही कानून बने हों लेकिन समाज अपने हिसाब से चलता रहा है. बालविवाह और नाबालिग विवाह का कारण रेप से बचने के लिए विवाह को सही समझ जाता है. यह आज भी चल रहा है. ऐसे में जरूरत इस बात की है कि कानून व्यवस्था को सही किया जाए तो ही रेप रुकेगा और उस के बाद नाबालिग विवाह को रोका जा सकेगा.

श्मशानघाट का सौंदर्यीकरण : अंतिम यात्रा का मजा किरकिरा

पहले अर्थी को कंधा देना नेक कार्य माना जाता था पर अब औपचारिकता हो गई है. अब तो घर से मुक्तिवाहन तक और श्मशान घाट के प्रवेशद्वार से चितास्थल तक सांकेतिक कंधे देना प्रचलन में आ गया है. अधिकांश मुक्तिवाहन नगरनिगम के ‘राइटअप’ हो चुके ट्रकों का परिमार्जित संस्करण होते हैं. शहरों के बेतरतीब विकास को देख कर लगता है कि इन का विकास श्मशान घाट यानी कब्रिस्तान को केंद्र मान कर किया गया है. आदमी कहीं जाए या न जाए, पर यहां तो सभी को आना है. जैसे शासन की नीति है कि स्कूल सभी को जाना है, वैसे ही आदमी की नियति है कि अंत में सभी को यहीं आना है.

जिस प्रकार 2 किलोमीटर के दायरे में प्राइमरी स्कूल का शासकीय प्रावधान है, जिस से बच्चों को अधिक न चलना पड़े, वैसे ही 5 किलोमीटर के दायरे में श्मशान केंद्र होना चाहिए, जिस से ले जाने वालों को आत्मिक शांति मिल सके, जाने वाला तो चिरशांति को प्राप्त हो ही जाता है.

ऐसे ही, मुक्तिधाम की यात्रा पर दिवंगत पिताजी की अर्थी को ले कर मुक्तिवाहन से मंत्रीजी रवाना हुए. अभी कुछ ही आगे बढ़े थे कि अर्थी हिली, एक चमचा प्रकार का प्राणी बोला, ‘‘माननीय पिताजी लौट आए.’’

सभी अर्थी को देखने लगे, मंत्रीजी ने माथा छुआ, ठंडा था, नाक के आगे उंगली की, श्वास नदारद. वे गमगीन हो गए. इतने में अर्थी के साथसाथ वाहन में सवार अन्य लोग भी हिले, फिर तो हिलनेडुलने का सिलसिला चल निकला. किसी ने पंडितजी से पूछा, ‘‘पंडितजी, पिताजी स्वर्ग ही गए हैं न?’’ पंडितजी बोले, ‘‘सौ प्रतिशत, कनागत में प्राण छोड़े हैं, स्वर्ग के दरवाजे खुले मिलेंगे.’’

‘‘पर, स्वर्ग का रास्ता बहुत खराब है,’’ मंत्रीजी धीरेधीरे बोले.

‘‘आप के हाथ में है श्रीमान. आप वसुधा के इंद्र हैं, यहां पर स्वर्गमार्ग का निर्माण कर सकते हैं. इहलोक के साथसाथ परलोक में भी आप की कीर्तिपताका फहरेगी,’’ पंडितजी ने प्रशस्तिवाचन किया.

मंत्रीजी विचारमग्न हो गए. उन्हें इस घटना ने अंदर तक हिला दिया. जैसेतैसे अंतिम संस्कार संपन्न हुआ, तेरहवीं भी धूमधाम से संपन्न हुई. प्रशासन ने मंत्रीजी की भावनाओं के अनुरूप स्वर्गमार्ग के निर्माण की योजना प्रस्तुत की जो शासन द्वारा स्वीकृति को प्राप्त हुई. स्वर्गमार्ग का प्रचार जोरशोर से किया गया- ‘संवेदनशील शासन की पहचान, अब स्वर्ग जाना आसान.’ मार्ग के शुभारंभ हेतु माननीय मंत्रीजी के साथ प्रशासन व सम्माननीय नागरिक श्मशान घाट में उपस्थित थे. यहां की समस्याओं के समाधान हेतु यहीं बैठक आयोजित की गई.

वरिष्ठ संघ के अध्यक्ष ने माइक संभाला और बोले, ‘‘राजा हो, रंक हो, सभी को यहां आना है. यह हमारे शासन की, माननीय मंत्रीजी की संवेदनशीलता है कि वे मुर्दों की भी चिंता करते हैं. जिंदा लोग तो अपनी यात्रा कैसे भी पूरी कर लेते हैं, पर मुर्दा बेचारा क्या कर सकता है? न चल सके, न बोल सके? कैसे अपनी व्यथा कहे? उस की व्यथा को शासन ने अनुभूत किया और हमारे आदरणीय मंत्रीजी के सदप्रयासों से यह शुभ घड़ी आई. हम उन्हें हार्दिक धन्यवाद देते हैं कि अब हम निश्ंिचत हो कर मर सकेंगे, धन्यवाद.’’

श्मशान घाट तालियों से गूंज उठा, एक आक्रोशित युवा नागरिक ने माइक पकड़ा और बोला, ‘‘सर, यह तो ठीक है पर हमें यहां की समस्याओं पर भी ध्यान देना चाहिए. हम यहां आते हैं, कभीकभी हमें एकदो घंटे इंतजार भी करना पड़ता है. समय ही सोना है, जिन्हें सोना था वे तो हमेशा के लिए सो गए, पर हमें समय का सदुपयोग करना सीखना होगा. श्मशान घाट में एक साइबर कैफे हो, जिस से समय का सदुपयोग हो सके.’’

‘‘अवश्य, तुम्हारा मन नहीं भटकेगा, चैटिंग भी होगी और सैटिंग भी, दुख से प्रभावित नहीं होंगे, अच्छा सुझाव है,’’ नगीना बाबू बोले.

‘‘पुराने लोग, पुरानी बातें,’’ कुछ नवयुवक एकसाथ बोले.

‘‘शांत युवको, शांत. आप तरुण हैं, आप वर्तमान हैं, ये अतीत,’’ मंत्रीजी अब बुजुर्गवार की ओर देखते हुए बोले, ‘‘इन की सुननी पड़ेगी, चाचा, साइबर कैफ का सुझाव अच्छा है. और कोई सुझाव युवको?’’

‘‘सर, स्वर्ग में एक स्पा भी खुल जाए तो अच्छा रहे, यहीं से फ्रैश हो कर बाहर निकलें,’’ एक आधुनिक युवक बोला.

‘‘स्विमिंग पूल और भी अच्छा रहेगा, नहाने के साथ ऐक्सरसाइज भी हो जाएगी.’’

‘‘सत्य वचन’’, पंडितजी ने समर्थन किया, फिर बोले, ‘‘श्मशान घाट जाने से व्यक्ति अशुद्ध हो जाता है. पूर्वकाल में घाट पर स्नान करने का विधान था. घाट शब्द इसी का सूचक है, जैसे नर्मदा के घाट, गंगा के घाट वैसे ही श्मशान घाट, यहां मृत शरीर अग्नि स्नान करता है और हम जल स्नान.’’

तभी मंत्रीजी को किसी ने एक पर्ची थमा दी, पढ़ कर वे गंभीर स्वर में बोले, ‘‘भाइयो और बहनो, आवागमन निरंतर प्रक्रिया है, कल हम वहां थे, आज यहां हैं, कल कहां होंगे, कुछ नहीं पता.’’ एक अंतिम यात्रा का जुलूस वहां से गुजरा. मंत्रीजी भावविह्वल हो गए, ‘‘ये जो हमें छोड़ कर जा रहे हैं, हमारे बचपन के मित्र हैं.’’ फिर पर्ची देखते हुए बोले, ‘‘रामदयाल जी, राम की इन पर दया हो गई, अपने पास बुला लिया. हमें अभी और भुगतना है, सो, हम यहां हैं. इन के बेटे, हो सकता है, हमें न जानते हों, पर हम जानते हैं. मैं ने इन्हें बचपन में खिलाया है.’’

‘प्रभु, आप अंतर्यामी हैं, घटघट वासी हैं,’ नगीना बाबू मन ही मन बोले फिर कहा, ‘‘आप को कौन नहीं जानता, मान्यवर. यहां का एकएक वोटर जानता है. किसी महान आत्मा ने ही यह नश्वर शरीर धारण किया है श्मशान को आबाद करने के लिए.’’

‘‘यह समय महिमामंडन का नहीं, हम श्रद्धांजलि दे कर आते हैं,’’ कहते हुए मंत्रीजी ने मृतशरीर पर पुष्पांजलि अर्पित की, हाथ जोड़े, आंखें बंद कीं, सिर झुकाया. अभी तक राम नाम सत्य है, के नारे लग रहे थे, एकाएक नारों का स्वर बदला, अब ‘मंत्रीजी जिंदाबाद, रामदयाल अमर रहें. मंत्रीजी संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं, मंत्रीजी अमर रहे,’ के नारे लगने लगे.

‘मंत्रीजी अभी मरे कहां हैं, जो अमर रहेंगे,’ नगीना बाबू सोच रहे थे.

मंत्रीजी नारों से ऊर्जा ग्रहण कर रहे थे. ऊर्जा अश्रुरूप में बह निकली. सभी भावविह्वल हो गए. रामदयाल के पुत्र व सगेसंबंधी अचंभित थे कि पापा की मित्रता मंत्रीजी से थी और उन्होंने बताया भी नहीं, कितने सिद्धांतवादी थे, मित्रता का दुरुपयोग नहीं किया. 2 बेरोजगार बेटे और एक कुंआरी बेटी छोड़ कर गए. किसी से कुछ नहीं मांगा. बेटों के हृदय में आशा की किरण फूटी. संवेदना जागी. मंत्रीजी की ओर देखते हुए वे रो पड़े, ‘‘चाचाजी, पापा तो रहे नहीं, अब आप ही सहारा हैं.’’

‘‘बिलकुल, कभी भी आ जाना, हम हैं न,’’ मंत्रीजी ने दिलासा दी.

रामदयाल के बड़े भैया गंभीर हो गए. उन्होंने मंत्रीजी की बचपन की शक्ल याद करने की कोशिश की. असफल रहे तो हाथ जोड़ कर बोले, ‘‘भैया रामू तो रहा नहीं, अब तुम्हीं हो, तुम्हारी दोस्ती की चर्चा तो गलीगली में थी, क्या जोड़ी थी सुदामाकृष्ण की. रामू जातेजाते कह गया था, ‘भैया, हर काम का शुभारंभ मंत्रीजी करते हैं. अगर मैं मर जाऊं तो मुझे पहली लकड़ी मेरा दोस्त मंत्री दे, उसे भी याद आ जाएगा रामदयाल नहीं रहा.’ ’’

मंत्रीजी अचकचा गए. फिर बात संभालते हुए बोले, ‘‘हम किसी का अधिकार नहीं छीनते. लकड़ी देने का पहला अधिकार पुत्र को है. वही देंगे. जल्दी करें, विलंब अच्छा नहीं. राम नाम सत्य है.’’ यह कह कर मंत्रीजी ने हाथ जोड़े. वह अंतिम यात्रा आगे बढ़ गई.

मंत्रीजी वापस लौट आए, फिर सिर उठा कर बोले, ‘‘सब नियति है, जो होना था, होगा पर शो मस्ट गो औन. हां, आगे कहिए?’’

‘‘सर, साइबर कैफे, स्विमिंग पूल तो ठीक हैं, पर बजट में प्रावधान नहीं है,’’ नगर निगम के अधिकारी बोले.

‘‘सड़क का प्रावधान था क्या? पर बन रही है न. सब हो जाएगा. आप सोचिए मत, सोचने का काम हमारा है. आप आदेशों का पालन करें. हमारे यहां सोचने की बहुत बुरी बीमारी है. चपरासी सोचता है औफिस हम चला रहे हैं. साहिब सोचते हैं हम, समय कहता है सब हम से चलता है,’’ मंत्रीजी ने समझाया.

‘और आप समझते हैं कि देश हम चला रहे हैं. वह तो रामभरोसे चल रहा है,’ अधिकारी मन ही मन कुड़कुड़ाते हुए सोच रहा था, प्रत्यक्ष में बोला, ‘‘सर, ठीक है.’’

‘‘पंडितजी, आप बताइए, आप तो श्मशान आते ही रहते हैं,’’ मंत्रीजी ने बात आगे बढ़ाई.

‘‘देखिए श्रीमान, हम ने अभी तक 15,001 शरीरों का अंतिम संस्कार कराया है.’’

‘‘फिर तो आप गिनीज बुक औफ वर्ल्ड रिकौर्ड्स में प्रविष्टि क्यों नहीं भेज देते,’’ नगीना बाबू ने सुझाव दिया.

पंडितजी मुसकराए, ‘‘यह तो हमारा कर्म है, सांसारिक वस्तुओं से हमें क्या? हमारे यजमान हमें जीवित होने पर देते हैं और उन की संतानें मृत्यु पश्चात. श्रीमानजी, आप जैसे पुरुष मिलते कहां हैं? एक सत्यवादी हरिश्चंद्र थे जिन्होंने श्मशान अपनाया और एक आप कलियुग के हरिश्चंद्र. आप धन्य हैं. शास्त्रों में लिखा है, मुत्युपरांत आत्माएं कुछ समय यहीं निवास करती हैं. देखिए कैसा वीरान है यह घाट, हमारे पूर्वजों की आत्माएं कितना कष्ट उठाती होंगी? क्यों न इस के सौंदर्यीकरण की सोची जाए, जिस से आत्माओं को अच्छा वातावरण मिल सके.’’

‘‘क्यों नहीं, क्यों नहीं? अवश्य, अच्छा सुझाव है. बताइए, कितनी जमीन है, क्या व्यय आएगा?’’ मंत्रीजी ने पूछा.

‘‘सर, 20 एकड़, एक एकड़ में क्रियाकर्म, सभाएं होती हैं, जीवंत हैं, शेष 19 एकड़ अनुपयोगी है, मृतप्राय है,’’ नगरनिगम अधिकारी बोले.

‘‘इस मृतप्राय जमीन का इलाज किया जाए, इस में प्राण फूंके जाएं?’’ मंत्रीजी बोले.

‘‘सर, पैसा? निगम घाटे में है,’’ अधिकारी ने हस्तक्षेप किया.

‘‘आप यहां के हैं नहीं, आप क्या जानें यहां का दर्द, काम में अड़ंगे न लगाएं, पैसे का इंतजाम हम करेंगे,’’ मंत्रीजी तल्ख लहजे में बोले.

तभी एक सूटबूटधारी उठ कर बोला, ‘‘सर, मैं डैवलपमैंट वर्ल्ड का सीनियर कंसल्टैंट, हमारे प्रोजैक्ट रशिया, लेटिन अमेरिका, फ्रांस जैसे 50 देशों में चल रहे हैं. इंडिया में हम ने इंट्रोड्यूज किया है. पीपीपी मोड, यानी पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप में यहां डैवलपमैंट किया जा सकता है. जमीन हमारी, डैवलपमैंट उन का, साथ में आय भी, 19 एकड़ लैंड वह भी सिटी के सैंटर में, मौल बन सकता है, औफिस खुल सकते हैं. श्मशान घाट चमन हो जाएगा. ब्यूटीफुल श्मशान. फाउंटेन लग जाएंगे, आत्माएं लोग नहाएंगी, साइलैंट जोन डैवलप करेंगे, जोनल प्लानिंग ठीक रहेगी, क्रिएशन जोन, इंटरटेंमैंट जोन, बिजनैस जोन, मीटिंग जोन, सबकुछ. जब अर्थी श्मशान घाट में प्रवेश करेगी, फूलों की वर्षा होगी. सर, इट्स अ ब्यूटीफुल आइडिया, ग्रेट. यू आर ग्रेट. हाऊ सैंसिबल यू आर. आदेश हो तो प्रोजैक्ट तैयार करें.’’

सभी मंत्रमुग्ध हो कर सुन रहे थे. मंत्रीजी नगरनिगम के अधिकारी को समझाते हुए बोले, ‘‘देखो, जहां चाह, वहां राह, पैसे का भी इंतजाम हो गया. चलिए, टैंडर निकालिए, कुछ सीखें, विजन बढ़ाएं, संसार में क्या हो रहा है, देखें. फाइल के कीड़े न बनें. चलिए, प्रोजैक्ट बनाएं, सब का आभार.’’ और मंत्रीजी उठ गए.

‘यह पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप क्या होती है?’ नगीना बाबू सोच रहे थे.

जीवनधारा

ओमा 50 साल की चुस्तदुरुस्त महिला है. वह रमा के घर पर काम करती है. रमा ने उसे एक महीना पहले ही काम पर रखा है. रमा को उस के बारे में कालोनी की प्रैसिडैंट ने बताया था. रमा का अगले महीने ट्रांसफर होने वाला है, इसलिए रमा ने कोई कागजी कार्रवाई नहीं की. कुछ दिनों से रमा की गरदन में कुछ परेशानी थी, इसलिए गले पर पट्टा लगा कर इन दिनों वह वर्क फ्रौम होम करती है. आज ओमा ने काम पूरा करने के बाद रमा से एक हजार रुपए उधार मांग लिए. रमा का दिल बहुत उदार है. वह मना न कर सकी. रुपए दे दिए, फिर भी पूछ लिया, “किसलिए चाहिए रुपए?”

ओमा बोली, “दीदी, मुझे किसी और का उधार वापस करना है. उस ने रातदिन चिकचिक मचा रखी है. एक बात और कहनी थी, दीदी.”

“बोलो,” रमा ने कहा मगर दिल ही दिल में रमा को कुछ अजीब सा लग रहा था.

“दीदी, कल मेरी जगह मेरी बहू आ जाएगी. कल मुझ को कुछ जरूरी काम से पास वाले गांव जाना होगा.”

“अच्छा, ठीक है. मगर वह आएगी न,” रमा ने दोहराया.

“दीदी, आएगी और एकदम समय पर आएगी. रुपए के लिए फिर से शुक्रिया आप का दीदी.”

यह कह कर वह फटाफट चली गई. उधर रमा को अजीबोगरीब खयाल आने लगे. रमा को पता था कि 3 दिनों पहले ही इस को पगार दी है. आज 6 तारीख है. आज इस ने फिर रुपए मांग लिए. रमा के मन में लगातार कुछ सवाल उमड़ रहे थे. अगले दिन सुबह ही समय पर एक 25 साल की युवती आ गई. वह ओमा की बहू थी. रमा से दो मिनट में सब काम पूछ कर चटपट काम में लग गई. उस की मेहनत देख कर रमा भावुक हो गई. उस का दिल पिघल गया. उस ने आज सैंडविच बना रखे थे.

“नाम क्या है,” रमा ने पूछा.

“सजीली,” कह कर उस ने चाय का कप ले लिया और जमीन पर बैठ गई.

“अरे कुरसी ले लो, सजीली. मैं ऐसा भेदभाव कभी नहीं करती,” प्यार से कह कर रमा ने प्लेट में सैंडविच रख कर दिए. रमा ने देखा, उस ने सैंडविच नहीं खाए. रद्दी के लिए रखे एक बौक्स से पुराना अखबार निकाला. उस में सफाई से दोनों सैंडविच लपेट कर रख दिए.

वह काम में एकदम सुघड़ थी. रमा को उस का काम बहुत पसंद आया. रमा ने पूछ लिया, “सजीली, तुम ने सैंडविच नहीं खाए?”

“जी, बात यह है कि अपनी बेटी के लिए रख लिए. अभी स्कूल से आती होगी.”

“अच्छा, कब हुई शादी?” रमा ने पूछा तो उस ने सच बता दिया, “जी, शादी नहीं. खरीदी हुई.”

“खरीदी, तुम्हारी खरीदी,” रमा का कलेजा धकधक कर रहा था.

“जी, मैं मुंबई की नहीं हूं. मैं तो झारखंड की रहने वाली हूं. 7 वर्षों पहले मुझे मेरी सास ने 35 हजार रुपए में खरीदा और यहां ला कर अपने इकलौते बेटे से विवाह करा दिया.”

“मातापिता ने तुम को बेच दिया. मातापिता तो मैं ने कभी देखे नहीं. हम कुछ युवतियां एक आश्रयघर में रहती थीं. वहां हम मोमबत्ती और साबुन बनाती थीं. वहीं खाना, वहीं सोना. वहां के ही एक ताऊजी ने बेचा था.”

“मगर, मगर क्या किसी ने शिकायत नहीं की?”

“जी नहीं. हम को उधर से मुक्ति मिल गई. यहां मेरी सास मुझे बहुत प्यार करती है. मगर आजकल हमारी हालत खराब है. मेरी सास पर कर्ज का संकट हो गया है. मेरे पति 3 महीने पहले एक दुर्घटना में घायल हो गए. इलाज में काफी रुपया लग गया. आज तो वे एक डिलीवरी के घर में मजदूरी करने गई हैं.”

“डिलीवरी के घर में, यह क्या होता है?”

“जी, यहां पास के कुछ गांवों में रस्म होती है. 11 महिलाओं को बुला कर उन से पकवान तथा पंजीरी बनवाई जाती है. यह डिलीवरी के दिन या उस के अगले दिन होता है. एक दिन के 2 हजार रुपए मिल जाते हैं और नेग में भी अलग से रुपए मिल जाते हैं. आज वे शाम को ही वापस आएंगी. अच्छा, तो मैं जाती हूं. मैं भी एकदो घर में काम करने के लिए जाने लगी हूं. घर का खर्च चलाना है. नमस्ते,” कह कर वह चली गई.
उस के जाने के बाद रमा का दिल कैसाकैसा हो गया था. दो साल से रमा अपने मातापिता को इस बात के लिए माफ तक न कर सकी थी कि मातापिता ने उस की बूआ की शादी रमा के मामा से करवा दी थी. रमा ने तकरीबन झगड़ा कर लिया था.

मातापिता ने समझाया था कि, ‘दीदी की पहले सगाई टूट गई है, अब वह 30 वर्ष की है, उस की इच्छा है घरपरिवार बसाने की. इस में बुराई क्या है?’

‘हद है मांपापा, आप भी न, बूआ की मरजी जाने बगैर बात पक्की कर आए.’ मगर रमा ने गौर नहीं किया था कि बूआ ने विरोध में एक लफ्ज तक न कहा. वह खुश थी. बस, रमा को ही लग रहा था कि बूआ को ठिकाने लगाया जा रहा है. अब रमा सजीली के विषय में सोच रही थी कि यहां तो इस को एक अनजान ने खरीदा. सजीली को यह तक नहीं पता है कि किस जगह जाना है. किस के साथ रहना है. यह इसी दुनिया मे हो रहा है. यह सब सोच कर वह बेचैन हो गई. उस ने बूआ को फोन लगा दिया. खनकती हुई आवाज में बूआ ने आशीर्वाद दिया. आधा घंटे की गपशप में बूआ ने अपनी खुशहाल जिंदगी, अपने सुख का बखान किया. उन से बात करने के बाद रमा ने मातापिता को फोन किया.

आज उस के दफ्तर का काम पैंडिग हो गया था. वह देररात तक बैठ कर काम निबटा रही थी. करीब 10 बजे होंगे, तभी ओमा का फोन आया.

“दीदी, बुरा न मानो तो कल भी मेरी बहू आ सकती है क्या?”

“कौन सजीली की बात कर रही हो?”

“जी दीदी, कल भी मुझे गांव जाना है.”

“ठीक है, ठीक है. उस को समय पर भेज देना.”

“जी दीदी. कल वह एक हजार रुपए भी ले कर आएगी. आप से उधार लिया था न. फिर से धन्यवाद, दीदी,” ओमा की आवाज के सुकून से रमा को सौ गुना सुख मिल रहा था. रमा अब उमंग से भर गई. कल फिर सजीली आएगी, वह किसी बच्चे की तरह बहुत खुश थी.

अंधविश्वास : यह है हमारा शिल्पशास्त्र (भाग-4)

पिछले 3 अंकों में आप ने भूमि की जाति, भूमि से भविष्य और भूमि पर कब निर्माण करें के बारे में पढ़ा था जो बेसिरपैर का था. अब आगे शिल्पशास्त्र में क्या कहा गया, उसे पढि़ए-

तिथियों के तुक्के

जब शिल्पशास्त्र के नियमों के अनुसार तिथि और वार चुन कर घर बनाना शुरू किया जाता है तो यह सवाल उठता है कि क्या वाकई इन में कोई सचाई है या यह मात्र अंधविश्वास है?

हमारा वास्तुशास्त्र/शिल्पशास्त्र इतनी गहराई तक गया है कि हंसी भी आती है और रोना भी. महीनों की कथा सुन कर अब वह तिथियों पर उतर आया है. देशी महीने के प्रत्येक पक्ष में 15 तिथियां होती हैं. उन में से दूसरी, तीसरी, 7वीं, 8वीं, और 13वीं केवल ये 5 तिथियां शुभ हैं. सो घर बनाने का काम इन्हीं तिथियों में करें (शिल्पशास्त्रम् 1/28). इन के लिए जंतरी वाले की शरण में जाएं और उसे दानदक्षिणा दें, क्योंकि दैनिक व्यवहार में तो कोई इन तिथियों को पूछता नहीं.

बाकी तिथियों में क्या होता है? शिल्पशास्त्र का कथन है :

गृह कृत्वा प्रतियदि दु:खं प्रान्पोति नित्यश:,
अर्थक्षयं तथा षष्ठयां पंचम्यां चित्रचांचल्य:.
चौरभीति दशम्यां तु चैकादश्यां नृपात्मयम,
पत्नीनाशस्तु पौर्णमास्यां स्नाननाश: कुहौ तथा
रिक्तायां सर्वकार्यानि नाशमायान्ति सर्वदा.
-शिल्पशास्त्रम् 1/26-28

पहली तिथि को यदि घर बनाना शुरू किया जाए तो नित्य दुख होता है. छठवीं को किया जाए तो धन का नाश, 5वीं को किया जाए तो चित्त अस्थिर. (ध्यान रहे, शिल्पशास्त्र ने जो ‘चित्रचांचल्यर्’ लिखा है वह गलत है. सही शब्द है- ‘चित्तचांचल्यम्’), 10वीं को किया जाए तो चोरी होती है, 11वीं को किया जाए तो राजभय होता है, पूर्णिमा को किया जाए तो पत्नी का विनाश, अमावस्या को किया जाए तो वह स्थान ही हाथ से छिन जाता है जहां घर बनाना हो, चौथी, नौवीं व तेरहवीं को किया जाए तो सब कार्य बिगड़ जाते हैं.

दुनियाभर में लोग अपनी सुविधा के अनुसार घर बनाना शुरू करते हैं. वे हिंदू जंतरी से न तिथियां जानने की कोशिश करते हैं, न महीने, फिर भी दुनिया भली प्रकार से चल रही है.

अपने यहां दहेज कम लाने वाली बहुओं, जो उन घरों के लड़कों की पत्नियां होती हैं, को जला कर मारा जाता है. अपने यहां जो इस तरह का पत्नीनाश होता है, क्या वह इसीलिए होता है कि शिल्पशास्त्र के नियमों का उल्लंघन कर के उस घर को पूर्णिमा तिथि को या आश्विन मास में बनाना आरंभ किया गया होता है?

फिर तो ऐसे अपराधियों को छोड़ देना चाहिए, क्योंकि पत्नी की मृत्यु तो पूर्णिमा तिथि या आश्विन मास के कारण होती है. असली दोषी तो वे दोनों हैं. ‘बेचारा’ हत्यारा तो वास्तुशास्त्र के क्रोध का ऐसे ही शिकार हो गया है.

अपना शिल्पशास्त्र औंधी खोपड़ी का प्रतीत होता है, क्योंकि पूर्णिमा को अथवा आश्विन में घर बनाना शुरू कोई करता है, परंतु उस के दंडस्वरूप मरता कोई और है. मरने वाली पत्नी ने तो कुछ भी नहीं किया होता. कई मामलों में तो भावी ससुर जब घर बना रहा होता है, तब भावी बहू अभी ?जन्मी भी नहीं होती.

वारों के वार

शिल्पशास्त्र महीनों, तिथियों के बाद वारों की बात करता है. उसे एक मनोरोगी की तरह सर्वत्र कुछ न कुछ दिखाई दे रहा है- ऐसा कुछ जो वहां वास्तव में है नहीं.

शिल्पशास्त्र कहता है, यदि रविवार को घर बनाना शुरू किया जाए तो उस घर को आग लग जाती है, यदि सोमवार को शुरू किया जाए तो धन का नाश होता है और यदि मंगलवार को शुरू किया जाए तो उस घर पर बिजली गिरती है :

वह्नेर्भय भवति भानुदिनेडर्थनाश:,
सौरे दिने ज्ञितिसुतस्य च वज्रपात:
-शिल्पशास्त्रम्, 1/29

आमतौर पर लोग रविवार से ही घर बनाना शुरू करते हैं, क्योंकि उस दिन छुट्टी होती है. परंतु शिल्पशास्त्र कहता है कि उस दिन शुरू किए घर को आग लगती है. क्या जिन घरों में आग लगती है, वे इसलिए जलते हैं कि उन्हें बनाना रविवार को शुरू किया गया था, या कि शौर्टसर्किट होने या दूसरी किसी असावधानी के कारण ऐसा होता है? क्या ऐसा संभव है कि घर रविवार को न बना हो और उधर शौर्टसर्किट के कारण या वहां रखे पटाखों के अंबार के कारण आग लग जाए और घर केवल इसलिए न जले कि उसे बनाना रविवार को शुरू नहीं किया गया था?

ऐसे ही मंगलवार को घर को बनाना शुरू करने तथा उस पर बिजली गिरने में आपस में क्या संबंध है? मंगल का अर्थ तो खुशी होता है. क्या मंगलवार की खुशी का अर्थ बिजली का गिरना है? बाकी जिन दिनों को शुभ करार दिया गया है, उन में क्या दैवीय शक्ति है कि वे कुछ भी अप्रिय होने से रोक लेंगे? दुनिया में क्या कोई भी दिन ऐसा जाता है जिस दिन कहीं न कहीं दुर्घटना, बीमारी, हत्या, अप्रिय घटना आदि घटित न होती हो? अगले अंक में जारी…

 

शीशे की दिशा में वास्तुशास्त्रियों की गपोड़बाजी

शीशा, जोकि शोभा बढ़ाने और खुद को देखने का साधन भर है, को ले कर कई तरह की कुतर्की बातें वास्तुशास्त्रियों ने फैला रखी हैं. वास्तुशास्त्री कहते हैं कि घर में मौजूद हर वस्तु में ऊर्जा होती है, कुछ में पौजिटिव तो कुछ में नैगेटिव. इसे वे हर निर्जीव वस्तु की तरह शीशे पर भी लागू करते हैं. सवाल यह कि क्या यह ऊर्जा इलैक्ट्रौंस और प्रोटोंस से अधिक कुछ है? वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो ऊर्जा का स्थान और दिशा का आपस में कोई संबंध नहीं है. ऊर्जा भौतिक नियमों पर आधारित है, न कि किसी अज्ञात शक्ति या मान्यता पर.

वास्तुशास्त्री के अनुसार बताया जाता है कि घर में शीशा लगाने के लिए उत्तर या पूर्व दिशा को चुनना चाहिए, ऐसा करने से घर में धन का प्रवाह बढ़ता है और शांति का वास होता है. चलिए मान लेते हैं कि शीशे को उत्तर दिशा में लगाने से कुबेर देवता प्रसन्न हो जाते हैं और पैसा बरसने लगता है पर सोचिए यदि ऐसा होता तो हम सभी के घरों में सिर्फ एक शीशा ही काफी न होता? हमें मेहनत करने, नौकरी ढूंढ़ने या व्यवसाय चलाने की जरूरत ही क्यों पड़ती? हाल ही में संसद में वित्त बजट पेश किया गया है, उस की जगह निर्मला सीतारमण शीशा ही पेश कर देतीं और देशभर के लोगों से कह देतीं कि सभी लोग अपने घरों में वास्तु अनुरूप शीशा लगाएं, ताकि धनवृद्धि हो और देश की अर्थव्यवस्था बढ़े.

वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो ऊर्जा का प्रवाह किसी एक दिशा में नहीं होता, यह विभिन्न कारकों पर निर्भर करता है, जैसे कि तापमान, वायु का प्रवाह और अन्य भौतिक तत्त्व. ऊपर से शीशे पर ऊर्जा, यह थोड़ा हास्यास्पद है. एक सम?ादार इंसान होता तो यह सुझाव देता कि शीशा उस जगह लगाया जाना चाहिए जहां से दर्पण साफ दिखाई दे. मान लें घर में बल्ब यदि शीशे के ठीक सामने है तो उस दिशा में रोशनी का रिफ्लैक्शन शीशे पर पड़ेगा और चेहरा साफ दिखाई नहीं देगा. यानी, चेहरा देखने के लिए यदि शीशा लगाया जा रहा है तो घर में रोशनी किस दिशा से आ रही है, उस अनुसार लगाया जाना चाहिए, न कि वास्तुशास्त्रियों के अनुसार. वास्तुशास्त्री बताता है कि घर में गलत जगह लगाया गया शीशा आप के भाग्य को खराब कर सकता है. क्या इस में ऐसा है? पहली बात यह कि यह कोई क्यों नहीं बताता कि भाग्य तय कैसे होता है? कौन तय कर रहा है? और कर रहा है तो क्यों कर रहा है? बस, खालीपीली उपदेश दे दिए गए हैं.

अगर सुबह उठते ही शीशे में अपनी शक्ल देखने से दिन खराब हो सकता है तो शायद अपनी शक्ल पर ध्यान देने की ज्यादा जरूरत है, न कि शीशे की दिशा पर. बल्कि अच्छी बात तो यह होती कि सुबह उठ कर सब से पहले शीशे में अपनी शक्ल देखी जाए. भारतीय महिलाएं अपने चेहरे पर बिंदी, लिपस्टिक, सिंदूर न जाने क्याक्या लगाती हैं. वास्तव में, सुबह उठ कर शीशे में अपनी शक्ल देखने से यह तो समझ आएगा कि बिंदी कहीं नाक में न चली गई हो, सिंदूर कहीं माथे पर न आ गया हो या बाल कहीं बिखरे न हों. पता चले बाहर आए, तो बच्चेबूढ़े सब शक्ल देखते ही हंसने लगे.

वे डराते हैं कि शीशा कभी भी पश्चिम या दक्षिण की दीवार पर नहीं लगाना चाहिए. इस दिशा में शीशा लगाने से घर में अशांति बनी रहती है. क्या शीशे से शांति तय होती है? अशांति या शांति तो घर के वातावरण, लोगों के व्यवहार और जीवनशैली पर निर्भर करती है. कोई पति अगर मारपीट करने वाला हो या पत्नी झगड़ालू हो तो शीशा इस में क्या कर लेगा? सास की अगर बहू से नहीं बन रही तो इस में शीशे का क्या दोष? क्या शीशा फैमिली कोर्ट का भी काम करने लगा है जो रिश्ते सुलझ रहा हो? और अगर ऐसा है तो फैमिली कोर्ट खुला ही क्यों है?

वास्तुशास्त्री यह भी बताते हैं कि शीशा लगाते समय या खरीदते समय शीशा साफ हो और टूटा न हो. अब यह अजीब बात है. क्या कोई ऐसा है जो कहेगा कि शीशा टूटा और गंदा खरीदो? कैसी बचकानी बातें हैं? यह तो ऐसी बात हुई कि खाना ताजा खाना चाहिए, अपनी सेहत पर ध्यान देना चाहिए, गंदी लतों से दूर रहना चाहिए. भई, शीशा साफसुथरा ही खरीदा जाता है, इस में ऐसा ज्ञानवर्धक चूर्ण जैसा क्या है?

थोड़ा भारतीय इतिहास में जाएं तो पता चलेगा शीशा हमारे यहां का है ही नहीं, न ही हम ने इस का आविष्कार किया. जब इस तरह का शास्त्र लिखा गया था तब कहीं ग्लास या मिरर का जिक्र ही नहीं था, आज उस को ले कर ये वास्तुशास्त्री शास्त्रीय निर्देश दे रहे हैं. तब कांसे की तश्तरी को चमका कर शीशा बनाया जाता था और इस के दिशाओं को ले कर भी कोई बात नहीं थी. दरअसल, शीशे का आविष्कार ही 1835 में हुआ था, वह भी जरमन रसायन वैज्ञानिक जस्टस वान लिबिग द्वारा, जिस ने कांच के एक फलक की सतह पर मैटेलिक सिल्वर की पतली परत लगा कर इस को बनाया था. यह तो सीधासीधा विज्ञान से जुड़ी बात है. शीशा तो भारत में बहुत देर में आम लोगों तक पहुंच पाया. इस में वास्तुशास्त्र का क्या काम?

पावर शेयरिंग नहीं, औपरेशन लोटस के भरोसे चल रही भाजपा

4 जून 2024 के बाद जिस तरह के भारतीय जनता पार्टी को झटका लगा है, उसे वह मानने को तैयार नहीं है. 2014 और 2019 की सरकार और 2024 वाली सरकार में बहुत अंतर है. पहली दो सरकारों में जिस तरह से भाजपा ने न जनता की सुनी न सहयोगी दलों की सुनी. उस तरह के फैसले 2024 वाली सरकार के लिए संभव नहीं हैं. यह बात भाजपा समझ ही नहीं रही है. यही वजह है कि वह मनमाने कानून बनाने से बाज नहीं आ रही है. वक्फ कानून, ब्रौडकास्ट बिल, पेंशन प्लान और लैटरल एंट्री ऐसे तमाम मामले पिछले दिनों देखने को मिले जिन में केंद्र सरकार ने अपने कदम वापस खीचें.

इस की वजह केवल विपक्ष ही नहीं है केंद्र सरकार के सहयोगी दल भी इन फैसलों से खुश नहीं थे. उन के विरोध के चलते सरकार को कदम वापस खींचने पड़े. चिराग पासवान, नीतीश कुमार और चन्द्रबाबू नायडू हर फैसले में केंद्र सरकार के साथ नहीं हैं. अब केंद्र सरकार को कोई फैसला करने से पहले अपने इन सहयोगी दलों से बात करनी चाहिए. असल में सहयोगी दलों से बातचीत करने की आदत केंद्र सरकार खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वभाव का हिस्सा नहीं रही. वह भूल जाते हैं कि अब उन की पहले जैसी तानाशाही नहीं चलने वाली.

मोदी 3.0 के सामने सहयोगी दलों के साथ ही साथ विपक्ष भी मजबूती से खड़ा है. भाजपा के कमजोर होने के 2 प्रभाव और देखे जा सकते हैं. छोटेबड़े सहयोगी दल सरकार के फैसलों की खुल कर आलोचना करने लगे हैं. केंद्र से ले कर राज्यों तक में ऐसे हालात बन गए हैं. उत्तर प्रदेश में योगी सरकार के नजूल कानून, बुलडोजर नीति और ओबीसी आरक्षण को ले कर अपना दल की नेता अनुप्रिया पटेल मुखर आलोचक के रूप में सामने आई. निषाद पार्टी के डाक्टर संजय निषाद ने योगी के बुलडोजर की आलोचना की. सहयोगी दल ही नहीं भाजपा में पार्टी के अंदर से ही विरोध के स्वर फूटने लगे हैं.

उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के बीच अंसतोष को खत्म करने के लिए पार्टी, संगठन और आरएसएस को लंबी कवायद करनी पड़ी. इस के बाद भी यह लड़ाई अभी अंदर ही अंदर चल रही है. उत्तर प्रदेश में होने वाले 10 विधानसभा के उपचुनाव के परिणामों के बाद यह लड़ाई फिर तेज होगी. ओबीसी नेता लंबे समय से उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री के खिलाफ है. ओबीसी आरक्षण को ले कर अनुप्रिया पटेल ने पत्र लिखा था. यह सारा बदलाव 4 जून के चुनाव परिणामों की वजह से है. उत्तर प्रदेश में भाजपा 80 सीटें जीतने का दावा कर रही थी और केवल 33 सीटें ही मिल पाईं.

यूपी की हार की वजह से ही केंद्र में भाजपा 240 सीटों तक ला सकी. अखिलेश यादव कहते हैं अगर बेईमानी नहीं हुई होती तो यूपी में इंडिया ब्लौक 50-60 सीटे लाती भाजपा 20 सीटों तक रह जाती. उत्तर प्रदेश के खराब चुनाव परिणामों के चलते मोदी 3.0 सरकार सहयोगी दलों की बेशाखी पर टिकी सरकार है. यह पहले फैसले लेती है फिर वापस कदम खींचने पड़ते हैं. यह दावा करते हैं कि जनता के हित में फैसले वापस लिए हैं असल में यह मजबूरी में फैसले वापस लेते हैं. जनता के हित का तो कभी ध्या नही नहीं रखा. नोटबंदी, तालाबंदी और जीएसटी ऐसे तमाम फैसले वह थे जिन से जनता परेशान हुई पर यह फैसले वापस नहीं लिए.

आम आदमी पार्टी में तोड़फोड़

कमजोर होने के बाद भी भाजपा ‘पावर शेयरिंग’ की जगह अपने पुराने ‘औपरेशन लोटस’ वाले तोड़फोड़ के फैसले पर चल रही है. वह दूसरे दलों को तोड़ कर अपनी ताकत बढ़ाना चाहती है. इस के उलट इंडिया ब्लौक ‘पावर शेयरिंग’ पर चल कर काम कर रही है. जिस से उस का किसी गठबंधन दल के टकराव नहीं हो रहा है. हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव के बीच भारतीय जनता पार्टी दिल्ली में खुद को मजबूत करने में लिए आम आदमी पार्टी के पांच पार्षदों को भाजपा मे मिला लिया. इसी तरह से प्रयास लंबे समय से भाजपा कर्नाटक में भी कर रही है. महाराष्ट्र में भी उस की निगाह उद्वव ठाकरे पर है.

आम आदमी पार्टी के पांच पार्षदों राम चन्द्र पवन सहरावत, मंजू निर्मल, सुगंधा बिधूड़ी और ममता पवन ने भाजपा की सदस्यता ग्रहण की है. दिल्ली में भी अगले ही साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. आम आदमी के पार्षदों ने कहा कि ‘पार्टी में भ्रष्टाचार और काम न करने की नीयत से आजीज आ कर हम लोगों ने भारतीय जनता पार्टी की सदस्यता ग्रहण की है. जिस तरह से पूरे देश में प्रधानमंत्री विकास कार्यों को गति दे रहे हैं, लोगों को, सब को साथ ले कर चल रहे हैं तो हम भी दिल्ली में अपने लोगों के लिए कुछ काम करना चाहते हैं.’

देश संभल नहीं रहा, विदेश का दावा कर रहे

भाजपा दिल्ली के विधानसभा चुनाव में खुद को मजबूत करने के लिए यह कर रही है. महाराष्ट्र में शिवसेना और भाजपा लंबे समय से सहयोगी रहे. भाजपा शिवसेना के साथ पावर शेयरिंग नहीं करना चाहती थी इस कारण दोनों दलों में विवाद हुआ. राज्यपाल का दुरूपयोग कर भाजपा ने शिवसेना को 2 हिस्सों में बांट दिया. इस के बाद भी शिवसेना से अलग हुए मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे अपनी पहचान नहीं बना पाए हैं. विधान सभा चुनाव में कमजोर पड़ती भाजपा अब उद्वव ठाकरे पर डोरे डाल रही है. दूसरी तरफ उद्वव ठाकरे मजबूती से इंडिया ब्लौक का हिस्सा बने हुए हैं.

4 जून के बाद नरेंद्र मोदी की ताकत का सच सब को पता चल गया है. संसद में वह बेहद लाचार और दबे हुए दिखते हैं. इस के बाद भी उन के चाहने वाले मानते हैं कि नरेंद्र मोदी रूस और यूक्रेन युद्व में बिचौलिये बन सकते हैं. सोशल मीडिया पर एक रील बहुत वायरल हुई जिस में एक लड़की कहती है, ‘मोदी ने यूक्रेन युद्व रूकवा दिया.’ नरेंद्र मोदी के समर्थक अपने लेख और समाचारों में यह साबित करने का काम कर रहे हैं कि मोदी युद्व रूकवा सकते हैं.

भाजपा की सरकार बनने के बाद पडोसी देशों से उस के संबंध अच्छे नहीं रहे. नेपाल जैसे देश जो भारत के मित्र देश थे उन के साथ भी संबंध खराब हो गए. चीन, पाकिस्तान बंगलादेश और श्रीलंका तो अलग है ही मौरीशस तक से संबंध नहीं बन रहे. अमेरिका के साथ भारत के संबंध अच्छे नहीं है. पहले एक गहरी दोस्ती दिखाने का काम हुआ लेकिन बाद में संबंध खराब हो गए. कनाडा के साथ भारत का अलग विवाद है.

भारत के साथ विदेशों के रिश्तों को देखते हुए यह लगता है जैसे भारत की विदेश नीति है ही नहीं. विदेश मंत्री एस जयशंकर असल में ब्यूरोक्रेट रहे हैं. ऐसे में उन के सोचने और काम करने का तरीका अफसरों वाला है नेताओं वाला नहीं. अपने अक्खड़ स्वभाव के कारण वह विदेशों में अच्छे संबंध नहीं रख पा रहे हैं. 4 जून के बाद अब इन मुददों पर लोग खुल कर बोलने लगे हैं जिस से पुराने दौर की कलई खुल गई है. देश से ले कर विदेश तक में भारत की सरकार के कामों की समीक्षा होने लगी है.

इस साल देश में जम्मू कश्मीर और हरियाणा में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं. इसी बीच कुछ राज्यों में विधानसभा के उपचुनाव और लोकसभा की खाली सीटों पर उपचुनाव होने हैं. अब इन चुनावों के परिणाम भाजपा के लिए खतरनाक साबित हो सकते हैं. क्योंकि इंडिया ब्लौक ने आरक्षण और संविधान का जो मुद्दा 2024 के लोकसभा चुनाव में उठाया था वह अभी भी जनता की पंसद बना हुआ है.

ऐसे में भाजपा का आरक्षण विरोधी चेहरा समाने आ रहा है. उसे छिपाना भाजपा के लिए सरल नहीं है. भाजपा अपने पार्टी के एससी और ओबीसी नेताओं और सहयोगी दलों के विरोध का संभाल नहीं पाएगी. उस की ऊंची जातियों वाली सोच काम नहीं करेगी. भाजपा दोधारी तलवार पर चल रही है, जिस के नुकसान होने तय हैं.

मैं एक पिछड़ी जाति की दलित लड़की के साथ सैक्स करना चाहता हूं.

अगर आप भी अपनी समस्या भेजना चाहते हैं, तो इस लेख को अंत तक जरूर पढ़ें..

सवाल :

मैं एक गांव में रहता हूं और मेरी उम्र 21 साल है. यहां के लोग जाति में बहुत विश्वास करते हैं. मेरा परिवार गांव की उच्च जातियों में से एक है और हमारे परिवार में छोटी जाति के लोगों या दलितों से बात तक करने की इजाजत नहीं है. मुझे एक लड़की बहुत अच्छी लगती है और मैं उस के साथ कई बार खेतों में रोमांस भी कर चुका हूं. बात कुछ ऐसी है कि वह लड़की दलित है और उस की उम्र भी 17 साल है. मेरा उस लड़की के साथ सैक्स करने का बहुत मन करता है और वह भी तैय्यार है। पर मुझे बहुत डर लगता है कि अगर इस बात की जानकारी घर वालों को लग गई तो क्या होगा. मुझे क्या करना चाहिए ?

जवाब :

वैसे तो आजकल लोग काफी आधुनिक खयाल के हो चुके हैं और जातपात में विश्वास नहीं रखते पर जैसाकि आप ने बताया कि आप के समाज के लोगों के लिए इन सब बातों के काफी मायने हैं तो ऐसे में आप बहुत बड़ी मुसीबत में फंस सकते हैं. पहली बात तो यह कि अभी वह लड़की बालिग तक नहीं हुई और दूसरी बात आप ऐसी लड़की के साथ संबंध बनाने की सोच रहे हैं जिस से कि आप का परिवार बात तक करने की इजाजत नहीं देता.

अगर आप उस लड़की के साथ संबंध बना लेते हैं तो इस में उस लड़की से ज्यादा आप का नुकसान हो सकता है. अगर आप ने उस लड़की के साथ सैक्स कर लिया और यह बात उस के घर में पता चल गई तो वे आप के ऊपर मुकदमा कर सकते हैं या फिर शादी के लिए दबाव डाल सकते हैं.

सैक्स करने के बाद अगर आप या आप का परिवार शादी से पीछे हटा तो ऐसे में लड़की के परिवार वाले आप के ऊपर पुलिस केस भी कर सकते हैं जिस से कि आप को जेल तक जाना पड़ सकता है क्योंकि आप तो बालिग हो चुके हैं पर वह लड़की अभी तक नाबालिग है.

अगर आप उस लड़की से सच में प्यार करते हैं तो कोई भी संबंध बनाने से पहले आप अपने घर वालों से बात करें और उन को अपने मन की बात बताएं. अगर आप के घर वाले मान जाते हैं तो ठीक वरना आप को उस लड़की के बारे में सोचना और उस से मिलना बंद करना होगा नहीं तो आप बहुत बड़ी मुसीबत मोल ले लेंगे.

अगर आप दोनों एकदूसरे से बहुत प्यार करते हैं, तो फिलहाल दोनों पढ़ाई पर ध्यान दें और जब वह लड़की बालिग हो जाए तो एक बार फिर से घर वालों से शादी की बात करें. वे न मानें तो आप कोर्ट मैरिज कर सकते हैं. इस से आप को कानून का संरक्षण भी मिलेगा.

मगर फिलहाल तो अच्छा यही रहेगा कि अभी आप दोनों ही अपनी पढ़ाई और कैरियर पर ध्यान दें . अपने पैरों पर खङे हो जाएंगे तो फिर आप को किसी का मुहताज नहीं होना पङेगा और फिर शादी कर अपनी जिंदगी आराम से बिता पाएंगे.

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