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अंधविश्वास : यह है हमारा शिल्पशास्त्र (भाग-4)

पिछले 3 अंकों में आप ने भूमि की जाति, भूमि से भविष्य और भूमि पर कब निर्माण करें के बारे में पढ़ा था जो बेसिरपैर का था. अब आगे शिल्पशास्त्र में क्या कहा गया, उसे पढि़ए-

तिथियों के तुक्के

जब शिल्पशास्त्र के नियमों के अनुसार तिथि और वार चुन कर घर बनाना शुरू किया जाता है तो यह सवाल उठता है कि क्या वाकई इन में कोई सचाई है या यह मात्र अंधविश्वास है?

हमारा वास्तुशास्त्र/शिल्पशास्त्र इतनी गहराई तक गया है कि हंसी भी आती है और रोना भी. महीनों की कथा सुन कर अब वह तिथियों पर उतर आया है. देशी महीने के प्रत्येक पक्ष में 15 तिथियां होती हैं. उन में से दूसरी, तीसरी, 7वीं, 8वीं, और 13वीं केवल ये 5 तिथियां शुभ हैं. सो घर बनाने का काम इन्हीं तिथियों में करें (शिल्पशास्त्रम् 1/28). इन के लिए जंतरी वाले की शरण में जाएं और उसे दानदक्षिणा दें, क्योंकि दैनिक व्यवहार में तो कोई इन तिथियों को पूछता नहीं.

बाकी तिथियों में क्या होता है? शिल्पशास्त्र का कथन है :

गृह कृत्वा प्रतियदि दु:खं प्रान्पोति नित्यश:,
अर्थक्षयं तथा षष्ठयां पंचम्यां चित्रचांचल्य:.
चौरभीति दशम्यां तु चैकादश्यां नृपात्मयम,
पत्नीनाशस्तु पौर्णमास्यां स्नाननाश: कुहौ तथा
रिक्तायां सर्वकार्यानि नाशमायान्ति सर्वदा.
-शिल्पशास्त्रम् 1/26-28

पहली तिथि को यदि घर बनाना शुरू किया जाए तो नित्य दुख होता है. छठवीं को किया जाए तो धन का नाश, 5वीं को किया जाए तो चित्त अस्थिर. (ध्यान रहे, शिल्पशास्त्र ने जो ‘चित्रचांचल्यर्’ लिखा है वह गलत है. सही शब्द है- ‘चित्तचांचल्यम्’), 10वीं को किया जाए तो चोरी होती है, 11वीं को किया जाए तो राजभय होता है, पूर्णिमा को किया जाए तो पत्नी का विनाश, अमावस्या को किया जाए तो वह स्थान ही हाथ से छिन जाता है जहां घर बनाना हो, चौथी, नौवीं व तेरहवीं को किया जाए तो सब कार्य बिगड़ जाते हैं.

दुनियाभर में लोग अपनी सुविधा के अनुसार घर बनाना शुरू करते हैं. वे हिंदू जंतरी से न तिथियां जानने की कोशिश करते हैं, न महीने, फिर भी दुनिया भली प्रकार से चल रही है.

अपने यहां दहेज कम लाने वाली बहुओं, जो उन घरों के लड़कों की पत्नियां होती हैं, को जला कर मारा जाता है. अपने यहां जो इस तरह का पत्नीनाश होता है, क्या वह इसीलिए होता है कि शिल्पशास्त्र के नियमों का उल्लंघन कर के उस घर को पूर्णिमा तिथि को या आश्विन मास में बनाना आरंभ किया गया होता है?

फिर तो ऐसे अपराधियों को छोड़ देना चाहिए, क्योंकि पत्नी की मृत्यु तो पूर्णिमा तिथि या आश्विन मास के कारण होती है. असली दोषी तो वे दोनों हैं. ‘बेचारा’ हत्यारा तो वास्तुशास्त्र के क्रोध का ऐसे ही शिकार हो गया है.

अपना शिल्पशास्त्र औंधी खोपड़ी का प्रतीत होता है, क्योंकि पूर्णिमा को अथवा आश्विन में घर बनाना शुरू कोई करता है, परंतु उस के दंडस्वरूप मरता कोई और है. मरने वाली पत्नी ने तो कुछ भी नहीं किया होता. कई मामलों में तो भावी ससुर जब घर बना रहा होता है, तब भावी बहू अभी ?जन्मी भी नहीं होती.

वारों के वार

शिल्पशास्त्र महीनों, तिथियों के बाद वारों की बात करता है. उसे एक मनोरोगी की तरह सर्वत्र कुछ न कुछ दिखाई दे रहा है- ऐसा कुछ जो वहां वास्तव में है नहीं.

शिल्पशास्त्र कहता है, यदि रविवार को घर बनाना शुरू किया जाए तो उस घर को आग लग जाती है, यदि सोमवार को शुरू किया जाए तो धन का नाश होता है और यदि मंगलवार को शुरू किया जाए तो उस घर पर बिजली गिरती है :

वह्नेर्भय भवति भानुदिनेडर्थनाश:,
सौरे दिने ज्ञितिसुतस्य च वज्रपात:
-शिल्पशास्त्रम्, 1/29

आमतौर पर लोग रविवार से ही घर बनाना शुरू करते हैं, क्योंकि उस दिन छुट्टी होती है. परंतु शिल्पशास्त्र कहता है कि उस दिन शुरू किए घर को आग लगती है. क्या जिन घरों में आग लगती है, वे इसलिए जलते हैं कि उन्हें बनाना रविवार को शुरू किया गया था, या कि शौर्टसर्किट होने या दूसरी किसी असावधानी के कारण ऐसा होता है? क्या ऐसा संभव है कि घर रविवार को न बना हो और उधर शौर्टसर्किट के कारण या वहां रखे पटाखों के अंबार के कारण आग लग जाए और घर केवल इसलिए न जले कि उसे बनाना रविवार को शुरू नहीं किया गया था?

ऐसे ही मंगलवार को घर को बनाना शुरू करने तथा उस पर बिजली गिरने में आपस में क्या संबंध है? मंगल का अर्थ तो खुशी होता है. क्या मंगलवार की खुशी का अर्थ बिजली का गिरना है? बाकी जिन दिनों को शुभ करार दिया गया है, उन में क्या दैवीय शक्ति है कि वे कुछ भी अप्रिय होने से रोक लेंगे? दुनिया में क्या कोई भी दिन ऐसा जाता है जिस दिन कहीं न कहीं दुर्घटना, बीमारी, हत्या, अप्रिय घटना आदि घटित न होती हो? अगले अंक में जारी…

 

शीशे की दिशा में वास्तुशास्त्रियों की गपोड़बाजी

शीशा, जोकि शोभा बढ़ाने और खुद को देखने का साधन भर है, को ले कर कई तरह की कुतर्की बातें वास्तुशास्त्रियों ने फैला रखी हैं. वास्तुशास्त्री कहते हैं कि घर में मौजूद हर वस्तु में ऊर्जा होती है, कुछ में पौजिटिव तो कुछ में नैगेटिव. इसे वे हर निर्जीव वस्तु की तरह शीशे पर भी लागू करते हैं. सवाल यह कि क्या यह ऊर्जा इलैक्ट्रौंस और प्रोटोंस से अधिक कुछ है? वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो ऊर्जा का स्थान और दिशा का आपस में कोई संबंध नहीं है. ऊर्जा भौतिक नियमों पर आधारित है, न कि किसी अज्ञात शक्ति या मान्यता पर.

वास्तुशास्त्री के अनुसार बताया जाता है कि घर में शीशा लगाने के लिए उत्तर या पूर्व दिशा को चुनना चाहिए, ऐसा करने से घर में धन का प्रवाह बढ़ता है और शांति का वास होता है. चलिए मान लेते हैं कि शीशे को उत्तर दिशा में लगाने से कुबेर देवता प्रसन्न हो जाते हैं और पैसा बरसने लगता है पर सोचिए यदि ऐसा होता तो हम सभी के घरों में सिर्फ एक शीशा ही काफी न होता? हमें मेहनत करने, नौकरी ढूंढ़ने या व्यवसाय चलाने की जरूरत ही क्यों पड़ती? हाल ही में संसद में वित्त बजट पेश किया गया है, उस की जगह निर्मला सीतारमण शीशा ही पेश कर देतीं और देशभर के लोगों से कह देतीं कि सभी लोग अपने घरों में वास्तु अनुरूप शीशा लगाएं, ताकि धनवृद्धि हो और देश की अर्थव्यवस्था बढ़े.

वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो ऊर्जा का प्रवाह किसी एक दिशा में नहीं होता, यह विभिन्न कारकों पर निर्भर करता है, जैसे कि तापमान, वायु का प्रवाह और अन्य भौतिक तत्त्व. ऊपर से शीशे पर ऊर्जा, यह थोड़ा हास्यास्पद है. एक सम?ादार इंसान होता तो यह सुझाव देता कि शीशा उस जगह लगाया जाना चाहिए जहां से दर्पण साफ दिखाई दे. मान लें घर में बल्ब यदि शीशे के ठीक सामने है तो उस दिशा में रोशनी का रिफ्लैक्शन शीशे पर पड़ेगा और चेहरा साफ दिखाई नहीं देगा. यानी, चेहरा देखने के लिए यदि शीशा लगाया जा रहा है तो घर में रोशनी किस दिशा से आ रही है, उस अनुसार लगाया जाना चाहिए, न कि वास्तुशास्त्रियों के अनुसार. वास्तुशास्त्री बताता है कि घर में गलत जगह लगाया गया शीशा आप के भाग्य को खराब कर सकता है. क्या इस में ऐसा है? पहली बात यह कि यह कोई क्यों नहीं बताता कि भाग्य तय कैसे होता है? कौन तय कर रहा है? और कर रहा है तो क्यों कर रहा है? बस, खालीपीली उपदेश दे दिए गए हैं.

अगर सुबह उठते ही शीशे में अपनी शक्ल देखने से दिन खराब हो सकता है तो शायद अपनी शक्ल पर ध्यान देने की ज्यादा जरूरत है, न कि शीशे की दिशा पर. बल्कि अच्छी बात तो यह होती कि सुबह उठ कर सब से पहले शीशे में अपनी शक्ल देखी जाए. भारतीय महिलाएं अपने चेहरे पर बिंदी, लिपस्टिक, सिंदूर न जाने क्याक्या लगाती हैं. वास्तव में, सुबह उठ कर शीशे में अपनी शक्ल देखने से यह तो समझ आएगा कि बिंदी कहीं नाक में न चली गई हो, सिंदूर कहीं माथे पर न आ गया हो या बाल कहीं बिखरे न हों. पता चले बाहर आए, तो बच्चेबूढ़े सब शक्ल देखते ही हंसने लगे.

वे डराते हैं कि शीशा कभी भी पश्चिम या दक्षिण की दीवार पर नहीं लगाना चाहिए. इस दिशा में शीशा लगाने से घर में अशांति बनी रहती है. क्या शीशे से शांति तय होती है? अशांति या शांति तो घर के वातावरण, लोगों के व्यवहार और जीवनशैली पर निर्भर करती है. कोई पति अगर मारपीट करने वाला हो या पत्नी झगड़ालू हो तो शीशा इस में क्या कर लेगा? सास की अगर बहू से नहीं बन रही तो इस में शीशे का क्या दोष? क्या शीशा फैमिली कोर्ट का भी काम करने लगा है जो रिश्ते सुलझ रहा हो? और अगर ऐसा है तो फैमिली कोर्ट खुला ही क्यों है?

वास्तुशास्त्री यह भी बताते हैं कि शीशा लगाते समय या खरीदते समय शीशा साफ हो और टूटा न हो. अब यह अजीब बात है. क्या कोई ऐसा है जो कहेगा कि शीशा टूटा और गंदा खरीदो? कैसी बचकानी बातें हैं? यह तो ऐसी बात हुई कि खाना ताजा खाना चाहिए, अपनी सेहत पर ध्यान देना चाहिए, गंदी लतों से दूर रहना चाहिए. भई, शीशा साफसुथरा ही खरीदा जाता है, इस में ऐसा ज्ञानवर्धक चूर्ण जैसा क्या है?

थोड़ा भारतीय इतिहास में जाएं तो पता चलेगा शीशा हमारे यहां का है ही नहीं, न ही हम ने इस का आविष्कार किया. जब इस तरह का शास्त्र लिखा गया था तब कहीं ग्लास या मिरर का जिक्र ही नहीं था, आज उस को ले कर ये वास्तुशास्त्री शास्त्रीय निर्देश दे रहे हैं. तब कांसे की तश्तरी को चमका कर शीशा बनाया जाता था और इस के दिशाओं को ले कर भी कोई बात नहीं थी. दरअसल, शीशे का आविष्कार ही 1835 में हुआ था, वह भी जरमन रसायन वैज्ञानिक जस्टस वान लिबिग द्वारा, जिस ने कांच के एक फलक की सतह पर मैटेलिक सिल्वर की पतली परत लगा कर इस को बनाया था. यह तो सीधासीधा विज्ञान से जुड़ी बात है. शीशा तो भारत में बहुत देर में आम लोगों तक पहुंच पाया. इस में वास्तुशास्त्र का क्या काम?

पावर शेयरिंग नहीं, औपरेशन लोटस के भरोसे चल रही भाजपा

4 जून 2024 के बाद जिस तरह के भारतीय जनता पार्टी को झटका लगा है, उसे वह मानने को तैयार नहीं है. 2014 और 2019 की सरकार और 2024 वाली सरकार में बहुत अंतर है. पहली दो सरकारों में जिस तरह से भाजपा ने न जनता की सुनी न सहयोगी दलों की सुनी. उस तरह के फैसले 2024 वाली सरकार के लिए संभव नहीं हैं. यह बात भाजपा समझ ही नहीं रही है. यही वजह है कि वह मनमाने कानून बनाने से बाज नहीं आ रही है. वक्फ कानून, ब्रौडकास्ट बिल, पेंशन प्लान और लैटरल एंट्री ऐसे तमाम मामले पिछले दिनों देखने को मिले जिन में केंद्र सरकार ने अपने कदम वापस खीचें.

इस की वजह केवल विपक्ष ही नहीं है केंद्र सरकार के सहयोगी दल भी इन फैसलों से खुश नहीं थे. उन के विरोध के चलते सरकार को कदम वापस खींचने पड़े. चिराग पासवान, नीतीश कुमार और चन्द्रबाबू नायडू हर फैसले में केंद्र सरकार के साथ नहीं हैं. अब केंद्र सरकार को कोई फैसला करने से पहले अपने इन सहयोगी दलों से बात करनी चाहिए. असल में सहयोगी दलों से बातचीत करने की आदत केंद्र सरकार खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वभाव का हिस्सा नहीं रही. वह भूल जाते हैं कि अब उन की पहले जैसी तानाशाही नहीं चलने वाली.

मोदी 3.0 के सामने सहयोगी दलों के साथ ही साथ विपक्ष भी मजबूती से खड़ा है. भाजपा के कमजोर होने के 2 प्रभाव और देखे जा सकते हैं. छोटेबड़े सहयोगी दल सरकार के फैसलों की खुल कर आलोचना करने लगे हैं. केंद्र से ले कर राज्यों तक में ऐसे हालात बन गए हैं. उत्तर प्रदेश में योगी सरकार के नजूल कानून, बुलडोजर नीति और ओबीसी आरक्षण को ले कर अपना दल की नेता अनुप्रिया पटेल मुखर आलोचक के रूप में सामने आई. निषाद पार्टी के डाक्टर संजय निषाद ने योगी के बुलडोजर की आलोचना की. सहयोगी दल ही नहीं भाजपा में पार्टी के अंदर से ही विरोध के स्वर फूटने लगे हैं.

उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के बीच अंसतोष को खत्म करने के लिए पार्टी, संगठन और आरएसएस को लंबी कवायद करनी पड़ी. इस के बाद भी यह लड़ाई अभी अंदर ही अंदर चल रही है. उत्तर प्रदेश में होने वाले 10 विधानसभा के उपचुनाव के परिणामों के बाद यह लड़ाई फिर तेज होगी. ओबीसी नेता लंबे समय से उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री के खिलाफ है. ओबीसी आरक्षण को ले कर अनुप्रिया पटेल ने पत्र लिखा था. यह सारा बदलाव 4 जून के चुनाव परिणामों की वजह से है. उत्तर प्रदेश में भाजपा 80 सीटें जीतने का दावा कर रही थी और केवल 33 सीटें ही मिल पाईं.

यूपी की हार की वजह से ही केंद्र में भाजपा 240 सीटों तक ला सकी. अखिलेश यादव कहते हैं अगर बेईमानी नहीं हुई होती तो यूपी में इंडिया ब्लौक 50-60 सीटे लाती भाजपा 20 सीटों तक रह जाती. उत्तर प्रदेश के खराब चुनाव परिणामों के चलते मोदी 3.0 सरकार सहयोगी दलों की बेशाखी पर टिकी सरकार है. यह पहले फैसले लेती है फिर वापस कदम खींचने पड़ते हैं. यह दावा करते हैं कि जनता के हित में फैसले वापस लिए हैं असल में यह मजबूरी में फैसले वापस लेते हैं. जनता के हित का तो कभी ध्या नही नहीं रखा. नोटबंदी, तालाबंदी और जीएसटी ऐसे तमाम फैसले वह थे जिन से जनता परेशान हुई पर यह फैसले वापस नहीं लिए.

आम आदमी पार्टी में तोड़फोड़

कमजोर होने के बाद भी भाजपा ‘पावर शेयरिंग’ की जगह अपने पुराने ‘औपरेशन लोटस’ वाले तोड़फोड़ के फैसले पर चल रही है. वह दूसरे दलों को तोड़ कर अपनी ताकत बढ़ाना चाहती है. इस के उलट इंडिया ब्लौक ‘पावर शेयरिंग’ पर चल कर काम कर रही है. जिस से उस का किसी गठबंधन दल के टकराव नहीं हो रहा है. हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव के बीच भारतीय जनता पार्टी दिल्ली में खुद को मजबूत करने में लिए आम आदमी पार्टी के पांच पार्षदों को भाजपा मे मिला लिया. इसी तरह से प्रयास लंबे समय से भाजपा कर्नाटक में भी कर रही है. महाराष्ट्र में भी उस की निगाह उद्वव ठाकरे पर है.

आम आदमी पार्टी के पांच पार्षदों राम चन्द्र पवन सहरावत, मंजू निर्मल, सुगंधा बिधूड़ी और ममता पवन ने भाजपा की सदस्यता ग्रहण की है. दिल्ली में भी अगले ही साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. आम आदमी के पार्षदों ने कहा कि ‘पार्टी में भ्रष्टाचार और काम न करने की नीयत से आजीज आ कर हम लोगों ने भारतीय जनता पार्टी की सदस्यता ग्रहण की है. जिस तरह से पूरे देश में प्रधानमंत्री विकास कार्यों को गति दे रहे हैं, लोगों को, सब को साथ ले कर चल रहे हैं तो हम भी दिल्ली में अपने लोगों के लिए कुछ काम करना चाहते हैं.’

देश संभल नहीं रहा, विदेश का दावा कर रहे

भाजपा दिल्ली के विधानसभा चुनाव में खुद को मजबूत करने के लिए यह कर रही है. महाराष्ट्र में शिवसेना और भाजपा लंबे समय से सहयोगी रहे. भाजपा शिवसेना के साथ पावर शेयरिंग नहीं करना चाहती थी इस कारण दोनों दलों में विवाद हुआ. राज्यपाल का दुरूपयोग कर भाजपा ने शिवसेना को 2 हिस्सों में बांट दिया. इस के बाद भी शिवसेना से अलग हुए मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे अपनी पहचान नहीं बना पाए हैं. विधान सभा चुनाव में कमजोर पड़ती भाजपा अब उद्वव ठाकरे पर डोरे डाल रही है. दूसरी तरफ उद्वव ठाकरे मजबूती से इंडिया ब्लौक का हिस्सा बने हुए हैं.

4 जून के बाद नरेंद्र मोदी की ताकत का सच सब को पता चल गया है. संसद में वह बेहद लाचार और दबे हुए दिखते हैं. इस के बाद भी उन के चाहने वाले मानते हैं कि नरेंद्र मोदी रूस और यूक्रेन युद्व में बिचौलिये बन सकते हैं. सोशल मीडिया पर एक रील बहुत वायरल हुई जिस में एक लड़की कहती है, ‘मोदी ने यूक्रेन युद्व रूकवा दिया.’ नरेंद्र मोदी के समर्थक अपने लेख और समाचारों में यह साबित करने का काम कर रहे हैं कि मोदी युद्व रूकवा सकते हैं.

भाजपा की सरकार बनने के बाद पडोसी देशों से उस के संबंध अच्छे नहीं रहे. नेपाल जैसे देश जो भारत के मित्र देश थे उन के साथ भी संबंध खराब हो गए. चीन, पाकिस्तान बंगलादेश और श्रीलंका तो अलग है ही मौरीशस तक से संबंध नहीं बन रहे. अमेरिका के साथ भारत के संबंध अच्छे नहीं है. पहले एक गहरी दोस्ती दिखाने का काम हुआ लेकिन बाद में संबंध खराब हो गए. कनाडा के साथ भारत का अलग विवाद है.

भारत के साथ विदेशों के रिश्तों को देखते हुए यह लगता है जैसे भारत की विदेश नीति है ही नहीं. विदेश मंत्री एस जयशंकर असल में ब्यूरोक्रेट रहे हैं. ऐसे में उन के सोचने और काम करने का तरीका अफसरों वाला है नेताओं वाला नहीं. अपने अक्खड़ स्वभाव के कारण वह विदेशों में अच्छे संबंध नहीं रख पा रहे हैं. 4 जून के बाद अब इन मुददों पर लोग खुल कर बोलने लगे हैं जिस से पुराने दौर की कलई खुल गई है. देश से ले कर विदेश तक में भारत की सरकार के कामों की समीक्षा होने लगी है.

इस साल देश में जम्मू कश्मीर और हरियाणा में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं. इसी बीच कुछ राज्यों में विधानसभा के उपचुनाव और लोकसभा की खाली सीटों पर उपचुनाव होने हैं. अब इन चुनावों के परिणाम भाजपा के लिए खतरनाक साबित हो सकते हैं. क्योंकि इंडिया ब्लौक ने आरक्षण और संविधान का जो मुद्दा 2024 के लोकसभा चुनाव में उठाया था वह अभी भी जनता की पंसद बना हुआ है.

ऐसे में भाजपा का आरक्षण विरोधी चेहरा समाने आ रहा है. उसे छिपाना भाजपा के लिए सरल नहीं है. भाजपा अपने पार्टी के एससी और ओबीसी नेताओं और सहयोगी दलों के विरोध का संभाल नहीं पाएगी. उस की ऊंची जातियों वाली सोच काम नहीं करेगी. भाजपा दोधारी तलवार पर चल रही है, जिस के नुकसान होने तय हैं.

मैं एक पिछड़ी जाति की दलित लड़की के साथ सैक्स करना चाहता हूं.

अगर आप भी अपनी समस्या भेजना चाहते हैं, तो इस लेख को अंत तक जरूर पढ़ें..

सवाल :

मैं एक गांव में रहता हूं और मेरी उम्र 21 साल है. यहां के लोग जाति में बहुत विश्वास करते हैं. मेरा परिवार गांव की उच्च जातियों में से एक है और हमारे परिवार में छोटी जाति के लोगों या दलितों से बात तक करने की इजाजत नहीं है. मुझे एक लड़की बहुत अच्छी लगती है और मैं उस के साथ कई बार खेतों में रोमांस भी कर चुका हूं. बात कुछ ऐसी है कि वह लड़की दलित है और उस की उम्र भी 17 साल है. मेरा उस लड़की के साथ सैक्स करने का बहुत मन करता है और वह भी तैय्यार है। पर मुझे बहुत डर लगता है कि अगर इस बात की जानकारी घर वालों को लग गई तो क्या होगा. मुझे क्या करना चाहिए ?

जवाब :

वैसे तो आजकल लोग काफी आधुनिक खयाल के हो चुके हैं और जातपात में विश्वास नहीं रखते पर जैसाकि आप ने बताया कि आप के समाज के लोगों के लिए इन सब बातों के काफी मायने हैं तो ऐसे में आप बहुत बड़ी मुसीबत में फंस सकते हैं. पहली बात तो यह कि अभी वह लड़की बालिग तक नहीं हुई और दूसरी बात आप ऐसी लड़की के साथ संबंध बनाने की सोच रहे हैं जिस से कि आप का परिवार बात तक करने की इजाजत नहीं देता.

अगर आप उस लड़की के साथ संबंध बना लेते हैं तो इस में उस लड़की से ज्यादा आप का नुकसान हो सकता है. अगर आप ने उस लड़की के साथ सैक्स कर लिया और यह बात उस के घर में पता चल गई तो वे आप के ऊपर मुकदमा कर सकते हैं या फिर शादी के लिए दबाव डाल सकते हैं.

सैक्स करने के बाद अगर आप या आप का परिवार शादी से पीछे हटा तो ऐसे में लड़की के परिवार वाले आप के ऊपर पुलिस केस भी कर सकते हैं जिस से कि आप को जेल तक जाना पड़ सकता है क्योंकि आप तो बालिग हो चुके हैं पर वह लड़की अभी तक नाबालिग है.

अगर आप उस लड़की से सच में प्यार करते हैं तो कोई भी संबंध बनाने से पहले आप अपने घर वालों से बात करें और उन को अपने मन की बात बताएं. अगर आप के घर वाले मान जाते हैं तो ठीक वरना आप को उस लड़की के बारे में सोचना और उस से मिलना बंद करना होगा नहीं तो आप बहुत बड़ी मुसीबत मोल ले लेंगे.

अगर आप दोनों एकदूसरे से बहुत प्यार करते हैं, तो फिलहाल दोनों पढ़ाई पर ध्यान दें और जब वह लड़की बालिग हो जाए तो एक बार फिर से घर वालों से शादी की बात करें. वे न मानें तो आप कोर्ट मैरिज कर सकते हैं. इस से आप को कानून का संरक्षण भी मिलेगा.

मगर फिलहाल तो अच्छा यही रहेगा कि अभी आप दोनों ही अपनी पढ़ाई और कैरियर पर ध्यान दें . अपने पैरों पर खङे हो जाएंगे तो फिर आप को किसी का मुहताज नहीं होना पङेगा और फिर शादी कर अपनी जिंदगी आराम से बिता पाएंगे.

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भला सा अंत : प्यार में खुद से हार मानने की कहानी

 

रविवार की सुबह मरीजों की चिंता कम रहती है. अत: सुबह टहलते हुए मैं रानी के घर की ओर चल दिया. वह एक शिशु रोगी के उपचार के बारे में कल मुझ से बात कर रही थी इसलिए सोचा कि आज उस बारे में रानी के साथ तसल्ली से बात हो जाएगी और काली के साथ बैठ कर मैं एक प्याला चाय भी पी लूंगा.

मैं काली के घर के दरवाजे पर थपकी देने ही वाला था कि घर के भीतर से आ रही काली की आवाज को सुन कर मेरे हाथ रुक गए.

‘‘रानी प्लीज, इस गजरे को यों बेकार मत करो, कितनी मेहनत से फूलों को चुन कर मैं ने मालिन से कह कर तुम्हारे लिए यह गजरा बनवाया है. बस, एक बार इसे पहन कर दिखा दो. आज बरसों बाद मन में पुरानी हसरत जागी है कि एक बार फिर तुम्हें फूलों के गजरे से सजा देखूं.

‘‘मैं तुम्हारे इस रूप को सदासदा के लिए अपनी आंखों में कैद कर लूंगा और जब हम 80 साल के हो जाएंगे तब मन की आंखों से मैं तुम्हारे इस सजेधजे रूप को देख कर खुश हो लूंगा.’’

काली की बातें सुन कर मुझे हंसी आ रही थी. यह काली भी इतना उग्र हो गया कि 20 साल का बेटा होने को आया लेकिन इस का शौकीन मिजाज अभी तक बरकरार है.

‘‘आप यह क्या बचकानी बातें कर रहे हैं? अब क्या इन फूलों से बने गजरे पहनने व सजने की मेरी उम्र है? जब आशीष की बहू आएगी तब उसे रोज नए गहनों से सजानाधजाना,’’ रानी ने हंसते हुए काली से कहा था.

‘‘तो तुम ऐसे नहीं मानोगी. लाओ, मैं ही तुम्हें गजरों से सजा देता हूं,’’ कहते हुए शायद काली रानी को जबरन फूलों से सजा रहा था और वह उन्मुक्त हो कर जोरों से खिलखिला रही थी.

रानी का यह खिलखिला कर हंसना सुन मन भीतर तक सुकून से भर गया था.

उन दोनों को इस प्यार भरी तकरार के बीच छेड़ना अनुचित समझ मैं उन के घर के दरवाजे तक पहुंच कर भी वापस लौट गया था. मेरा मनमयूर कब अतीत में उड़ कर चला गया, मुझे एहसास तक नहीं हुआ था.

काली मेरा बचपन का अंतरंग मित्र था. रानी उस की पत्नी थी. काली, रानी और मैं, हम तीनों एक अनाम, अबूझ रिश्ते में जकड़े हुए थे. काली के घर छोड़ कर जाने के बाद मैं ने ही रानी को मानसिक संबल दिया था. वह किसी भी तरह मेरे लिए सगी छोटी बहन से कम नहीं थी.

16 साल की कच्ची उम्र में रानी मेरे पड़ोस वाले मकान में काली के साथ ब्याह कर आई थी. ब्याह कर आने के बाद रानी ने काली की गृहस्थी बहुत सुगढ़ता से संभाली लेकिन काली ने उसे पत्नी का वह मान- सम्मान नहीं दिया जिस की वह हकदार थी.

काली एक फक्कड़, मस्तमौला स्वभाव का इनसान था. मन होता तो महीनों रानी को सिरआंखों पर बिठा कर उस की छोटी से छोटी इच्छा पूरी करता. उसे दुनिया भर का हर सुख देता. सुंदर कपड़ों और गहनों में सजेसंवरे उस के अपूर्व रूपरंग को निहारता और फिर मेरे पास आ कर रानी की सुंदरता और मधुर स्वभाव की प्रशंसा करता.

मुझ से काली के जीवन का कोई पहलू अछूता नहीं था. यहां तक कि मूड में होने पर रानी के साथ बिताए हुए अंतरंग क्षणों की वह बखिया तक उधेड़ कर रख देता. काली खानेपीने का भी बहुत शौकीन था. वह जब भी घर पर होता, रसोई में स्वादिष्ठ पकवानों की महक उड़ती रहती. हम दोनों के घर के बीच बस, एक दीवार का फासला था इसलिए काली के साथ मुझे भी आएदिन रानी के हाथ के बने स्वादिष्ठ व्यंजनों का आनंद मिला करता.

अच्छे मूड में काली, रानी को जितना सुखसुकून देता, मूड बिगड़ने पर उस से दोगुना दुख भी देता. गुस्सा होने के लिए छोटे से छोटा बहाना उस के लिए काफी था. अत्यधिक क्रोध आने पर वह घर छोड़ कर चला जाता और हफ्तों घर वापस नहीं आता था. काली की मां अपने बेटे के इस व्यवहार से बेहद दुखी रहा करती और रानी उस के वियोग में रोरो कर आंखें सुजा लेती.

वैसे काली की कपड़ों की एक दुकान थी लेकिन उस के मनमौजी होने की वजह से दुकान आएदिन बंद रहा करती और आखिर वह हमेशा के लिए बंद हो गई.

काली ज्योतिषी का धंधा भी करता था और इस ठग विद्या का हुनर उस ने अपने पिता से सीखा था. उस का दावा था कि उसे ज्योतिष में महारत हासिल है. लोगों के हाथ, मस्तक की रेखाएं तथा जन्मकुंडली देख कर वह उन के भूत, भविष्य और वर्तमान का लेखाजोखा बता देता तो लोग खुश हो कर उसे दक्षिणा में मोटी रकम पकड़ा जाते. शायद यही वजह थी कि कपड़े की दुकान पर मेहनत करने के बजाय उस ने लोगों को ठगने के हुनर को अपने लिए बेहतर धंधा समझा.

काली जब तक घर में रहता पैसों की कोई कमी नहीं रहती लेकिन उस के घर से जाने के बाद घरखर्च बड़ी मुश्किल से चलता, क्योंकि तब आमदनी का एकमात्र जरिया पिता की पेंशन रह जाती थी जो बहुत थोड़ी सी उस को मिलती थी.

रानी की जिंदगी की गाड़ी हंसतेरोते आगे बढ़ती जा रही थी. बेटे के सनकी स्वभाव की वजह से बहू को रोते देख उस की सास का मन भीतर तक ममता से भीग जाया करता. वह अपनी तरफ से बहू को हर सुख देने की कोशिश करतीं लेकिन अपने बाद उस की स्थिति के बारे में सोचतीं तो भय से कांप उठती थीं.

रानी ने आगे पढ़ने का निश्चय किया तो उस की सास ने कहा, ‘अच्छा है, आगे पढ़ोगी तो व्यस्त रहोगी. इधरउधर की बातों में मन नहीं भटकेगा. पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश करो.’

मैं ने भी रानी को आगे पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया. सो, उस ने पढ़ना शुरू कर दिया और 12वीं कक्षा में वह प्रथम श्रेणी में पास हुई. बहू की इस सफलता पर सास ने सभी रिश्तेदारों में लड्डू बंटवाए.

रानी मुझ से तथा मेरे डाक्टरी के पेशे से बहुत प्रभावित थी. वह खाली समय में घंटों मेरे क्लीनिक में बैठ कर मुझे रोगियों के उपचार में व्यस्त देखा करती और चिकित्सा संबंधी ढेरों प्रश्न मुझ से पूछती.

काली के आएदिनों के झगड़े से वह बहुत उदास रहने लगी तो एक दिन मुझ से बोली, ‘भाई साहब, आजकल वह मुझे बहुत दुख देते हैं. मूड अच्छा होने पर तो उन से बढि़या कोई दूसरा इनसान नहीं मिलेगा लेकिन मूड खराब होने पर बहाने ढूंढ़ढूंढ़ कर मुझ से लड़ते हैं. मैं उन्हें बहुत चाहती हूं. मेरी जिंदगी में उन की बहुत अहमियत है. जब वह मुझ से गुस्सा हो जाते हैं तो मन होता है कि मैं आत्महत्या कर लूं.’

घोर निराशा के उन क्षणों में मैं ने रानी को समझाया था, ‘काली बहुत मनमौजी स्वभाव का फक्कड़ इनसान है लेकिन वह मन का बहुत साफ है. तुम काली को अपने जीवन में इतनी अहमियत मत दो कि उस के खराब मूड का असर तुम्हारे दिमाग और शिक्षा पर पड़े. निर्लिप्त रहो, व्यस्त रहो. 12वीं में तुम्हारे पास विज्ञान विषय था, क्यों न तुम एम.बी.बी.एस. की प्रवेश परीक्षा की तैयारी करो. डाक्टर बन कर तुम आत्मनिर्भर बन जाओगी. पैसों की तंगी नहीं रहेगी. काली को अपनी जिंदगी की धुरी मानना बंद कर दो, अपनी जिंदगी अपने बल पर जीना सीखो.’

मेरी सलाह मान कर रानी ने मेडिकल की प्रवेश परीक्षा की तैयारी जोरशोर से शुरू कर दी. उस की मेहनत रंग लाई और वह प्रवेश परीक्षा में उत्तीर्ण हो गई. मैं ने और उस की सास ने उस के इस काम में भरपूर सहयोग दिया और वह अपने ही शहर के प्रतिष्ठित मेडिकल कालिज में जाने लगी.

उस बार जो काली घर छोड़ कर गया तो 1 साल तक लौट कर नहीं आया. सुनने में आया कि वह बनारस में अपनी ज्योतिष विद्या का प्रदर्शन कर अपने दिन मजे से गुजार रहा था. कतिपय कारणों से जिस का भला हो गया उस ने काली को ज्योतिष का बड़ा जानकार माना. अनगिनत लोग उस के शिष्य बन गए थे तथा समाज में उसे बहुत आदर की दृष्टि से देखा जाता था. वह जिस रास्ते से गुजर जाता, लोग उस के पैरों पर झुकते नजर आते.

एक साल बाद जब काली घर आया तो मां ने उसे सिरआंखों पर बिठाया लेकिन रानी अपनी मेडिकल की पढ़ाई की वजह से उसे अपना पूरा वक्त नहीं दे पाई. इस से नाराज हो कर काली ने रानी की पढ़ाई छुड़वाने के लिए बहुत शोर मचाया.

एक दिन काली के झगड़े से परेशान रानी रोते हुए मेरे पास आई और मुझे बताने लगी कि काली कह रहे हैं, मैं अगर मेडिकल की पढ़ाई छोड़ दूं तो वह कभी घर छोड़ कर नहीं जाएंगे और न ही कभी मुझ से झगड़ा करेंगे.

तब मैं ने रानी को समझाया, ‘देखो, तुम काली की बातों में कतई न आना तथा अपनी पढ़ाई छोड़ने की गलती भी न करना. काली की घर छोड़ कर भागने की आदत कोई नई तो है नहीं, इसलिए वह इस आदत को आसानी से छोड़ने वाला नहीं है. डाक्टर बनते ही तुम्हारी अपनी जिंदगी बिना काली के सहारे आराम से कट पाएगी. मैं ने उसे यह भी समझाया कि आत्मनिर्भर बनने का सुख बहुत सुकून देता है. जिंदगी काटने के लिए इनसान को किसी न किसी सहारे की जरूरत पड़ती है और एक ईमानदार पेशे से अच्छा हमसफर कोई और नहीं हो सकता.’

मेरी उन बातों से रानी को बहुत संबल मिला और उस के बाद उस का डाक्टर बनने का हौसला कभी कमजोर नहीं पड़ा था.

डाक्टर बनने के बाद रानी ने एम.एस. किया और शिशुरोग विशेषज्ञ बन गई. मैं भी एक शिशुरोग विशेषज्ञ था अत: रानी ने मेरे निर्देशन में प्रैक्टिस शुरू की. धीरेधीरे रानी की प्रैक्टिस में निखार आता गया और वह शहर की नामी डाक्टरों में गिनी जाने लगी. जैसेजैसे डाक्टर के रूप में रानी की शोहरत बढ़ती गई वैसेवैसे काली और रानी के बीच का फासला बढ़ता गया.

रानी के रोगियों की लंबी कतारें देख काली के तनबदन में आग लग जाया करती. पत्नी के डाक्टर बनने के बाद शुरू के 2 सालों में तो काली 2-3 बार घर आया था लेकिन वह रानी के डाक्टर बनने के बाद की बदली हुई परिस्थितियों से तालमेल नहीं बिठा पाया तो एक बार 6 सालों तक गायब रहा.

रानी अकसर रोगियों के उपचार से संबंधित सलाहमशविरा करने मेरे पास आ जाया करती. बातों के दौरान कभीकभी काली की चर्चा भी छिड़ जाया करती थी जिसे ले कर रानी बहुत भावुक हो जाया करती. एक बार उस ने काली के बारे में मुझ से कहा था, ‘भाई साहब, मैं काली को आज भी बहुत चाहती हूं लेकिन मेरा अकेलापन मुझे खाए जाता है. जिंदगी के सफर में अकेले चलतेचलते अब मैं टूट गई हूं.’

मैं ने उसे दिलासा दिया था कि कैसी भी परिस्थितियां क्यों न हों, उसे किसी हालत में कमजोर नहीं पड़ना है. उसे सभी चुनौती भरे हालात का डट कर मुकाबला करना है. और उस दिन वह मेरे कंधों पर सिर रख कर रो पड़ी थी.

उस बार काली को घर छोड़े 6 वर्ष होने को आए थे. उस दौरान रानी की सास की मृत्यु हो गई और उन की मौत के बाद वह बिलकुल अकेली हो गई. सास की मौत के बाद रानी एक दिन मेरे घर आई और उस ने मुझ से कहा, ‘भाई साहब, मैं सोच रही हूं कि दोबारा शादी कर डालूं. मेरे मातापिता दूसरी शादी करने के लिए मुझ पर बहुत दबाव डाल रहे हैं. इन 6 सालों में काली ने एक बार भी मेरी खोजखबर नहीं ली है. मेरे मातापिता ने एक डाक्टर वर मेरे लिए पसंद किया है. उस की पत्नी की मृत्यु अभी पिछले साल कैंसर से हुई है. मैं सोचती हूं कि मातापिता की बात मान ही लूं.

‘भाई साहब, ये 6 साल अकेले मैं ने किस तरह काली की प्रतीक्षा करते हुए बिताए हैं, यह मुझे ही पता है. बस, अब मैं काली का और इंतजार नहीं कर सकती. उन्होंने मेरे निश्छल प्यार की बहुत तौहीन की है. अब अपने किए की कीमत उन्हें चुकानी ही पड़ेगी. एक निष्ठुर की वजह से मैं क्यों अपने दिन रोरो कर बिताऊं? मैं डाक्टर शेखर से मिल चुकी हूं. वह बहुत अच्छे स्वभाव के सुलझे हुए इनसान हैं. मेरे लिए हर तरह से उपयुक्त हैं. बस, भाई साहब, आप अपना आशीर्वाद दीजिए मुझे.’

रानी की बातें सुन कर मैं बहुत खुश हुआ था. मुझे इस बात का संतोष भी हुआ कि अब शेखर से विवाह के बाद वह एक सुखी वैवाहिक जीवन बिता पाएगी. मैं ने उस से कहा था, ‘हांहां रानी, मेरा आशीर्वाद सदा तुम्हारे साथ है. तुम्हारा यह फैसला बिलकुल सही है. डा. शेखर से विवाह करो और घर बसाओ.’

रानी का विवाह डा. शेखर से हो गया. डा. शेखर के साथ रानी बहुत खुश रहने लगी लेकिन शादी के डेढ़ साल बाद एक कार दुर्घटना में डा. शेखर की मृत्यु हो गई और रानी विधवा हो गई थी. सूनी मांग और सफेद लिबास में उसे देख मेरा कलेजा मुंह को आ गया था पर होनी को कौन टाल सकता है, यह सोच कर मैं ने अपनेआप को दिलासा दिया था.

डा. शेखर की मृत्यु के 1 साल बाद काली अचानक एक दिन घर वापस आ गया था. शेखर की मौत के बाद रानी काली के पैतृक घर में वापस आ गई थी क्योंकि काली की मां वह मकान रानी के नाम कर गई थी.

काली को घर वापस आया देख रानी ने उस से कहा था, ‘अब तुम्हारा और मेरा कोई रिश्ता नहीं. मैं डा. शेखर की विधवा हूं. मुझ से अब तुम कोई उम्मीद मत रखना.’

उत्तर में काली ने उस से कहा, ‘मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं. तुम ने डा. शेखर से विवाह किया, अच्छा किया लेकिन अब तुम मेरी पत्नी हो. हमारा रिश्ता तो आज भी पतिपत्नी का ही है. अब मैं ने निश्चय कर लिया है कि मैं घर छोड़ कर ताउम्र कहीं नहीं जाऊंगा क्योंकि जगहजगह की धूल फांक कर मैं समझ गया हूं कि तुम जैसी पत्नी का मिलना बहुत सौभाग्य की बात है.’

‘नहीं, मैं तुम से किसी तरह का कोई रिश्ता नहीं रखना चाहती. मैं किसी दूसरे मकान में चली जाऊंगी, यह तुम्हारा घर है, इस पर तुम्हारा अधिकार है. तुम आराम से इस में रहो.’

काली ने इस के बावजूद रानी की खुशामद करनी नहीं छोड़ी थी. वह जितना रानी के पास आने की कोशिश करता, रानी उतना ही उस से दूर भागने की कोशिश करती. एक अच्छे डाक्टर के रूप में रानी एक व्यस्त जीवन बिता रही थी.

जब भी काली, रानी से कहता कि तुम्हारे हाथ की रेखाओं में लिखा है कि जीवन का एक बड़ा हिस्सा तुम मेरी पत्नी के रूप में बिताओगी तो वह गुस्से से भड़क पड़ती, ‘मैं एक डाक्टर हूं और तुम्हारी ज्योतिष विद्या को झूठा साबित कर के ही रहूंगी. मैं अब तुम्हें कभी पति के रूप में नहीं स्वीकार करूंगी.’

उन्हीं दिनों काली ने मुझ से कहा था, ‘यार, रानी को क्या हो गया है? पहले तो वह गाय जैसी सीधीसादी थी. अब डाक्टर बनने के बाद उस में बहुत गुरूर आ गया है. मेरी ज्योतिष विद्या को भी गलत साबित करने पर तुली हुई है. वैसे इतना तो मैं जानता हूं कि वह अब भी मुझे चाहती है. इस कमजोरी का फायदा मैं उस के साथ छल कर के उठाऊंगा और उस के सामने यह साबित कर दूंगा कि मेरा ज्योतिष ज्ञान कैसे शत प्रतिशत सही है.’

अपनी योजना के मुताबिक काली ने अपने कुछ विश्वासपात्र परिचितों से कहा कि एक दिन वे आधी रात को लाठियों से लैस हो कर उस पर आक्रमण करें और उसे रानी के सामने पीट कर जमीन में डाल दें.

योजना के अनुसार आधी रात में कुछ लोग काली पर जब लाठियां बरसा रहे थे, रानी घबरा कर उस से लिपट गई और उस ने उन लोगों से कहा कि उस के जीतेजी वे काली को हाथ तक नहीं लगा सकते. तब लठैतों ने धमकी दी कि डाक्टरनी आज घर में तो तू ने इसे बचा लिया लेकिन यह घर से बाहर निकल कर देखे, इस के तो हाथपैर हमें तोड़ने ही तोड़ने हैं.

लठैतों के जाने के बाद काली ने रानी को अपने से अलग नहीं होने दिया था और उस रात रानी को इतना प्यार किया था कि पिछली सारी कमी पूरी कर दी. इनसान हारता है तो अपनेआप से. आखिर रानी अपने ही दिल के हाथों हार गई थी और चुपचाप काली के आगोश में सिमट गई थी.

उस दिन के बाद रानी, काली के हृदय की रानी बन कर रह गई थी. काली फिर कभी घर छोड़ कर नहीं गया. रानी एक सुंदर, अति कुशाग्र बुद्धि के बेटे की मां बनी. बेटा आशीष बड़ा हो कर मां के नक्शेकदम पर चल कर अब डाक्टरी की पढ़ाई कर रहा है, जिसे देख कर रानी और काली फूले न समाते. अब रानी को यों सुखी देख कर मन में यही विचार आता है कि वह हमेशा ही सुखी और आबाद रहे.

लेखिका – रेणु दीप

हिंदू और हिंसा

संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बहस के दौरान लंबे भाषण में कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने प्रतिपक्ष के नेता के तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी की धज्जियां उड़ाते हुए यह तक कह डाला कि नरेंद्र मोदी, आरएसएस या भारतीय जनता पार्टी हिंदुओं के ठेकेदार नहीं हैं और वे ऐसे हिंदू हैं जो हिंसा व नफरत फैलाते हैं. उन के शब्दों पर न जा कर देखें तो उन्होंने यह कहा तो उन हिंदुओं के लिए है जो धर्म का सहारा ले कर सारे देश में मुसलमानों, दलितों, पिछड़ों के ही नहीं, सवर्णों की औरतों के भी खिलाफ हिंसा करते रहते हैं.

हिंदुओं के ज्यादातर देवता हमेशा कोई न कोई हथियार हाथ में रखे हुए दिखाए जाते हैं. अयोध्या में राम लला की मूर्ति, जो भारतीय जनता पार्टी ने लगवाई, को भी छोटा सा धनुष पकड़ा दिया गया. अब यह धनुष हिंसा के लिए ही तो है. जानने की यह बात भी है कि पौराणिक कथाओं के ये पात्र, जिन में बहुतों को देवता मान कर पूजा जाता है, किसी भी कहानी में किसी विदेशी के सामने ये हथियार इस्तेमाल नहीं करते थे. यह हर जगह बारबार कहा गया है कि उन्होंने अधर्मियों के खिलाफ हथियार का इस्तेमाल किया, विदेशियों, लुटेरों, बलात्कारियों के विरुद्ध नहीं.

अधिकांश पात्र, पौराणिक गाथाओं में, स्थापित ऋषिमुनियों के आश्रमों की रक्षा करने के लिए हथियारों का इस्तेमाल करते थे या दूसरे हिंदू से किसी निजी दुश्मनी के कारण. हिंदू धर्म में हर समस्या का हल हिंसा ही है, यह स्पष्ट है. ऋषि राजाओं के पास जाते थे कि वे अपने हथियारों का उपयोग उन्हें तंग करने वालों, उन के यज्ञोंमंत्रों में विघ्न डालने वालों के खिलाफ करें.

इस से क्या इनकार किया जा सकता है कि संपत्ति के हक के लिए छोटे बच्चों से ले कर भाइयों, राजाओं, गुरुओं तक पर हिंसा का इस्तेमाल किया गया और फिर उस का महिमामंडन किया गया.

हिंसा के इसी महिमामंडन की वजह से आज हर पुलिस वाला एनकाउंटर कर सकता है, जबकि स्थापित संविधान और कानून के अनुसार यह एकदम अपराध है चाहे पुलिस वाले द्वारा किया जाए. हमारे यहां औरतों के प्रति हिंसा तो रोज का काम है और इसीलिए भ्रूण हत्या और दहेज हत्या जैसे कानून बनाने पड़े.

जो भारतीय जनता पार्टी अपने को शांति का दूत बताती है उस की मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पहली ऐसी संस्था है जिस की सभा/शाखा में लाठियां ले कर जाना होता है. ये लाठियां हिंसा का प्रतीक हैं. यह गांधीजी की लाठी नहीं है जो बुढ़ापे में काम आती है. आरएसएस की इस लाठी कवायद के पीछे क्या मकसद है, वह किस से सुरक्षा या किस पर आक्रमण का पाठ पढ़ाती है? क्या मुश्किल से 15 फीसदी रह गए मुसलमानों से रक्षा के लिए. नहीं, हिंसा का यह पाठ हर उस हिंदू के लिए होता है जो धर्म के रीतिरिवाज न माने, जो वर्णव्यवस्था को न माने, जो सही दानदक्षिणा न दे.

राहुल गांधी ने मधुमक्खी के छत्ते को छेड़ दिया है. उन की मंशा क्या थी, पता नहीं पर यह स्पष्ट है कि इस सच को भारतीय जनता पार्टी आसानी से नहीं पचा पाएगी कि पिछले 200-250 सालों के हिंदू राजाओं के इतिहास को देख लें तो साफ हो जाएगा कि उन्होंने अपने हथियारों का उपयोग विधर्मी या विदेशी के खिलाफ बहुत कम जबकि हिंदुओं पर ही ज्यादा किया है, कभी पूजापाठ, रीतिरिवाज थोपने के लिए तो कभी धर्म के आचरण के विरुद्ध कुछ करने पर.

मजेदार बात यह रहेगी कि राहुल गांधी तो 10-20 शब्द बोल कर चुप हो गए पर अब हिंदू सफाई देतेदेते अपने हिंसक व्यवहार का उपयोग करने लगें, तो बड़ी बात नहीं. कांग्रेस दफ्तरों पर हमले नहीं हुए तो यह आश्चर्य की बात है. हिंसक ‘हिंदू’ भीड़ पता नहीं क्यों जमा हुई जो यह मांग करती रही कि राहुल गांधी अपने शब्द वापस लें और हिंदू समुदाय से माफी मांगें.

बुल्डोजरी न्याय

दिल्ली में सिविल लाइंस एरिया वह जगह है जहां से 2-3 किलोमीटर की रेंज में दिल्ली राज्य सरकार के दफ्तर, विधानसभा, सचिवालय आदि हैं. दिल्ली सरकार की एजेंसी लैंड एंड डैवलपमैंट अथौरिटी, जो कानून के अंतर्गत केंद्र सरकार के अधीन है और जिसे उपराज्यपाल वीरेंद्र कुमार सक्सेना लीड करते हैं, ने दशकों से 32 एकड़ सरकारी जमीन पर बसीं गैरकानूनी बस्तियां हाल में उजाड़ दीं. लगभग 70 साल से इस जमीन पर लोग पक्के मकान बना कर रह रहे थे जबकि यह उन की मिल्कीयत नहीं थी.

यह सरकारी निकम्मेपन का पक्का सुबूत है. जो अफसर आम आदमी पार्टी के मुखिया व दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से 10 सालों से झगड़ा करने का समय निकाल पा रहे थे उन्हें सरकार की संपत्ति की चिंता नहीं थी कि आखिर कैसे उन की जमीन पर कोई आदमी घर बना कर रह सकता है.

नैशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने भी केंद्र सरकार की इसी एजेंसी को फटकार लगाई है कि यमुना के बाढ़ वाले इलाके में पक्के मकान कैसे धड़ाधड़ बन रहे हैं. हर थोड़े दिनों बाद खबर आती है कि बुलडोजरों और जेसीबियों से लैस अफसरों व मजदूरों ने सैकड़ों मकान ढहा दिए, ताकि यमुना का पानी बाढ़ के दिनों में नजदीकी बस्तियों में न घुसे. तोड़ना तो सही है पर कब्जा हुआ ही क्यों, इस का जवाब कोई नहीं देता.

यह सिर्फ दिल्ली में हो रहा हो, ऐसा नहीं है. सारे देश में निजी व सरकारी जमीन पर कब्जे करना आम बात है और कभीकभार उन पर बुलडोजर चलते हैं. कुछ राज्यों में सत्ता अपने विरोधियों पर, अगर वे मुसलिम हों तो खासतौर पर, बुलडोजरी न्याय थोप देती है जो एकदम तानाशाही है क्योंकि बहुत सी तोड़फोड़ अपनी जमीन पर कुछ अनधिकृत निर्माण के नाम पर की जाती है.

असल में सरकारी अफसरों का काम तो यह है कि उन की यानी सरकार की जमीन के एक इंच पर भी किसी का कब्जा न हो लेकिन जिन की आंखें चारों ओर लगी रहती हैं वे चुनचुन कर वही कदम उठाते हैं जहां चार पैसे बनने होते हैं.

सरकारी जमीन पर गैरकानूनी कब्जा होने देने से पुलिस, म्यूनिसिपल कौर्पोरेशन, लैंड की मालिक एजेंसी आदि सब के अफसरों को मासिक भुगतान शुरू हो जाता है. अवैध निर्माण मुफ्त में नहीं होते. मुफ्त में तो पटरी पर संदूक भी कोई रख नहीं सकता, इस सब के लिए सरकारी कर्मचारी बहुत ही मुस्तैद रहते हैं, वे तो इंतजार में ही रहते हैं कि कब मौका मिले और ऊपरी कमाई की जा सके.

इस तोड़फोड़ से नुकसान उन नागरिकों का होता है जिन्होंने जमीन का रिश्वत के तौर पर वर्षों किराया दिया. उन के मकान टूट जाते हैं. वे बेघर बना दिए जाते हैं. पर वे अफसर, चाहे अभी भी नौकरी पर हों या रिटायर हो चुके हों, मजे में रहते है. उन पर कोई आंच नहीं आती. कानून, जज, सरकार सब अपने लोगों पर पूरी तरह मेहरबान रहते हैं. पिसता तो नागरिक है चाहे सही काम करे या गलत.

मानव, प्रकृति और विज्ञान

जहां गरमी से उत्तर भारत इस बार ज्यादा परेशान रहा वहीं मौनसून के पहले ?ाटके ने कई हवाई अड्डों की छतों को ढहा दिया. अयोध्या में जो ताबड़तोड़ निर्माण किए गए थे उन में से कुछ को गिरा दिया, कहीं गड्ढे हो गए, कहीं पानी चूने लगा. कई शहर पानीभराव से परेशान हो गए.
क्लाइमेट चेंज, जो वैज्ञानिकों के अनुसार पिछले 100 सालों में कोयला और पैट्रोल ज्यादा फूंकने के कारण हुआ है, अब डर नहीं रहा, दरवाजा फलांग कर घर में घुस चुका है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा हाल में उद्घाटित की गईं या बनवाई चीजें पहली बारिश में ही खराब होने लगीं. इसलिए इस का ठीकरा उन के सिर पर फोड़ा गया और नीट व अन्य परीक्षाओं के साथसाथ छतों के, शहरों के, नालों के, रेलडब्बों के लीक के समाचार सोशल मीडिया पर छा गए. नरेंद्र मोदी का सीधे उन में हाथ नहीं है पर जो अपने को सर्वश्रेष्ठ, सर्वगुणसंपन्न, 140 करोड़ लोगों की अकेली आशा होने का ढोल पीट रहा हो, उस को लोगों का रोष तो सहना ही पड़ेगा.

आज जो हो रहा है वह उन सुखों पर प्रकृति का हमला सा है जो सुख मानव पिछले 100-150 सालों से प्रकृति को दोह कर उठा रहा है. प्रकृति का संतुलन बहुत नाजुक है और आप एक चीज को जरा सा डिस्टर्ब करेंगे, उस का असर तुरंत कहीं और पड़ेगा. इस में चिंता करने की आज बात नहीं है क्योंकि आज का प्रकृति का यह कहर अभी पहले से कहीं कम घातक है. पहले प्रकृति सूखा, अतिवर्षा, बाढ़, प्लेग, हैजा, चेचक जैसी महामारियों, आग आदि के जरिए सदियों की मेहनत को रातोंरात नष्ट कर देती थी.

वर्ष 1900 के बाद मानव बेवकूफी

2 बार जरमनी के कारण हुई जब करोड़ों मारे गए और करोड़ों के घर बरबाद हुए पर इन युद्धों के अलावा न शहर उजड़े न शहर जले, न बाढ़ ने शहरों को लीला. जो भी नुकसान जब हुआ, तुरंत विज्ञान और तकनीक के कारण मानव ने भरपाई कर ली. दोनों विश्वयुद्धों के बाद भी जापान, कोरिया से ले कर फ्रांस के तटों तक बमबारियों के कारण जो बरबादी हुई, उसे दोबारा वैसा का वैसा बना लिया गया.
हमारे यहां अब शहरों को तकनीक बदलनी होगी. 12 इंच के सीवरों की जगह 3 फुट या 4 फुट के सीवर डालने होंगे. उन्हें बारबार साफ करना होगा. आंधीतूफान, अतिवर्षा का खयाल रख कर निर्माण करने होंगे.

जापान, जो भूकंपों के लिए जाना जाता था, आज सुरक्षित देश है क्योंकि वहां का निर्माण भूकंप की कल्पना कर के किया जा रहा है. इसी तरह कोई कारण नहीं कि एयरपोर्टों के खंबे, सड़कों के अंडरपास और नए भवन वर्षाप्रूफ न बन सकें. आज भी इंजीनियर इन बातों का खयाल रखते हैं पर चूंकि ये निर्माण नेताओं और अफसरों की देखरेख में होते हैं, उन में मिलावट और बेईमानी की गुंजाइश बहुत रहती है. प्रकृति का यह ?झटका शायद यह समझने में सफल हो जाए कि प्रकृति के साथ ज्यादा खिलवाड़ न करो.

यह न भूलें कि आज प्रकृति के हर कहर के मुकाबले का हल विज्ञान में है. आज तकनीक ऐसी है कि वह माउंट एवरेस्ट को चाहे न हिला सके पर उस में छेद कर सकती है. चांद पर पहुंच सकने वाली तकनीक शहरी पानी को आसानी से हैंडल कर सकती है. बस, एकदो झटकों की जरूरत है, वैज्ञानिक हल खोजने में लग जाएंगे. जो लोग भगवानों की शरण में जाते है उन के बारे में तो शून्य कहा जा सकता है पर जो लैबोरेट्रीज में जाते हैं उन पर 100 प्रतिशत भरोसा कर सकते हैं.

मेरे बच्चे की मानसिक स्थिति अजीब है, क्या करूं?

सवाल –

मेरे परिवार में 4 साल का एक बालक है. वह अकसर भय की मुद्रा में रहता है. पूछने पर बोलता है कि ‘कौए से डरता है’. यह पूछने पर कि कौआ कहां है, वह अपने कमरे की खिड़की से बाहर की ओर संकेत करते हुए कहता है कि वहां है कौआ. हम ने मकान बदला है, तब से ऐसा है. उस की खिड़की से बाहर कुछ दूरी पर स्थित एक मकान की छत पर शाम को अंधेरा होने पर बैलून की आकृति या बाल्ब दिखाई पड़ता है, जिस से लाल रंग की रोशनी निकलती है, उसे ही वह कौआ समझता है. दिन में डरने की बात करता है, तब तकिए को देख डरता है, खिलौनों से डरता है. रात में सोतेसोते डर जाता है. इस वजह से कुछ गुस्सैल, चिड़चिड़ा, जिद्दी सा हो गया है. बीचबीच में यूं डरने का हावभाव परिवार के लिए चिंता का विषय है. आप अपनी कुछ राय दीजिए.

जवाब –

मकान बदलने के बाद ही बच्चे में यह बदलाव आया है तो ऐसा लगता है कि बच्चे के दिलोदिमाग पर जगह परिवर्तन, घर परिवर्तन से यह प्रभाव पड़ा है. बच्चे कोमल मनोस्थिति के होते हैं. क्या सोचते हैं, समझते हैं, पूरी तरह से स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं कर पाते. खिड़की से बाहर कौआ है. ऐसी कल्पना बच्चे ने दिमाग में बैठा ली है और उसे सच का आकार दे दिया है. हो सकता है उसे अपने तकिए, खिलौनों में भी कौए की आकृति नजर आती हो और वह भयभीत हो जाता हो.

दूसरी बात यह कि जिद्दी हो रहा है तो बच्चे अपनी जिद पूरी न होने पर रोतेचीखते तो हैं ही. हां, हर बात पर ऐसा करने लगें तो चिंता का विषय हो सकता है.

खैर, अहम बात है बच्चे के डरने की, तो बच्चे के सोने का कमरा बदल दें. बच्चे को कमरे में अकेला न सुलाएं. मातापिता उस के साथ ही रहें. बच्चे के साथ घूमेंफिरें, उसे बाहर खानेपिलाने ले जाएं. घर का माहौल खुशनुमा बना कर रखें. बच्चे को किसी न किसी एक्टिविटी में इनवौल्व रखें, इस से उस का दिमाग बेकार की बातों की तरफ नहीं जाएगा.

बच्चा अभी छोटा है. उम्र के साथसाथ मानसिक विकास होता जाता है. बातें समझने लगेगा तो हो सकता है धीरेधीरे यह भय की स्थिति कम होतेहोते खत्म हो जाए. बच्चे पर पूरा ध्यान देने की जरूरत है.

6 लाख का गुजारा भत्ता वाले फैसले से पुरुष समुदाय क्यों हुआ खुश, क्या है भरणपोषण कानून

जूते और ड्रैस खरीदने के लिए चाहिए – 15000 रुपए महीना
घर पर खाना खाने के लिए चाहिए – 60000 रुपए महीना
घुटने के दर्द और इलाज के लिए चाहिए – 4 से 5 लाख रुपए महीना
इस तरह महीने भर के लिए कुल गुजारा भत्ता चाहिए – 616300 रुपए महीना

यह लिस्ट एक पत्नी की है जो कर्नाटक हाईकोर्ट में तलाक के एक मामले के दौरान 22 अगस्त को पेश की गई. लिस्ट देख कर मामले की सुनवाई कर रहीं जस्टिस ललिता कन्नेगंती को गुस्सा आ गया. उन्होंने फटकार लगाते हुए कहा, ‘इतने पैसे कौन खर्च करता है, खुद कमाओ.’

यह मामला चिंतनीय भी है और दिलचस्प भी जो यह बताता है कि गुजारा भत्ता कानून का कैसेकैसे मखौल बनाया जाने लगा है. इस मामले में याचिकाकर्ता को उस के वकील के जरिये झाड़ लगाते हुए जस्टिस ललिता कन्नेगंती ने यह भी कहा कि पत्नी से विवाद होना पति के लिए सजा नहीं है. अगर आप इतने पैसे खर्च करना चाहती हैं तो खुद कमाएं. अकेली महिला को गुजारे के लिए इतने पैसों की जरूरत नहीं हो सकती.

क्या है गुजारा भत्ता के नियम, प्रावधान और यह कैसे तय किया जाता है? इस से पहले कर्नाटक के उक्त मामले पर सोशल मीडिया पर जो कहा सुना गया उसे देखें तो समझ आता है कि इस मामले और फैसले को लोगों ने गंभीरता से लिया है और गुजारा भत्ते के कानूनी के अलावा सामाजिक और पारिवारिक सरोकार भी हैं. तलाक के मुकदमे के दौरान पत्नियां इसे शंकर या विष्णु का वरदान समझते अनापशनाप पैसे मांगने लगती हैं जो पतियों के लिए बड़ा सरदर्द साबित होता है. और वे बेकसूर होते हुए भी गुनहगारों जैसी गिल्ट महसूस करने लगते हैं.

कर्नाटक हाईकोर्ट की कार्रवाई का एक वीडियो सोशल मीडिया पर खूब वायरल हो रहा है जिसे अब तक लाखों लोग देख चुके हैं और लगभग सभी जस्टिस ललिता कन्नेगंती के न्याय की तारीफ ही कर रहे हैं. मुकेश शा नाम के एक यूजर ने अंगरेजी में लिखा, “सब की अपनीअपनी आमदनी है उसी हिसाब से खर्चे हैं.” विशाल एस . नाम के यूजर ने वकील को दोषी ठहराते कहा, “कानून के दलाल अति मचा रहे हैं. क्लाइंट को भरमा कर मुगेरीलाल के ख्वाव दिखा कर कुछ भी केस तैयार करवा देते हैं.”

सौरव विश्वास की भड़ास इन शब्दों में व्यक्त हुई, “जीरो रूपए दिए जाने चाहिए और मेंटल टार्चर करने के लिए पनिशमैंट दिया जाना चाहिए.” ज्ञान प्रकाश नाम के यूजर ने ताना कसा कि 600 करोड़ मांग लो.

पुरुष समुदाय खुश हुआ

पुरुष समुदाय ने तो जज साहिबा को हाथोंहाथ लिया. इंस्टाग्राम पर सुरेश सिंह ने कहा, ‘पति नाम के जीव का शोषण हो रहा है. जज साहिबा को धन्यवाद. उन्होंने अन्याय नहीं होने दिया. बिट्टू शर्मा ने अपनी ख़ुशी इन शब्दों में जाहिर की कि सलाम इन की सोच को जिन्होंने पुरुष समाज के बारे में सोचा नहीं तो आजकल औरतों को उन की बात से पलटवाना बहुत मुश्किल होता है.

एक यूजर केके नेहरा ने तो महिला आयोग की तरह देश में पुरुष आयोग तक गठित करने की मांग कर डाली. पुरुष ही नहीं कुछ महिलाओं ने भी इस फैसले से इत्तफाक जताया. डाक्टर शीतल यादव ने लिखा, जज साहिबा का बेहतरीन निर्णय. हमें ऐसे जजों की जरूरत है जो नैतिकता को ध्यान में रख कर अपना निर्णय सुनाएं.

बहुत कम अदालती फैसलों में ऐसा होता है कि सोशल मीडिया पर इतने व्यापक पैमाने पर प्रतिक्रियाएं मिले. अगर यह भड़ास है तो इसे बेवजह नहीं कहा जा सकता. गुजारा भत्ते के फैसले आमतौर पर पत्नी के हक में जाते हैं जो हर्ज की बात नहीं बशर्ते पति की हैसियत उस की मांग पूरी करने की हो. वैसे तो आम राय लोगों की यह भी है कि गुजारा भत्ता पत्नी की मांग पर नहीं बल्कि पति की हैसियत के मुताबिक तय होना चाहिए और इतना ही होना चाहिए जिस से पत्नी सम्मानजनक तरीके से गुजर बसर कर सके.

इस मामले में पत्नी के वकील ने दलील दी थी कि उस की क्लाइंट ब्रांडेड आइटम्स और रेस्टोरेंट की आदी है. इस पर ताना मारते हुए एक यूजर डाक्टर देवेन्द्र यादव ने अपनी राय कुछ इस तरह दी, ‘यह घटना वास्तव में बहुत दिलचस्प है और समाज में कई मुद्दों को उजागर करती है. जज साहिबा का जवाब इस बात पर बल देता है कि अगर किसी व्यक्ति की जीवनशैली बहुत महंगी है तो उन्हें अपनी आर्थिक जिम्मेदारियों को भी खुद ही संभालना चाहिए.’ यह भी दिखता है कि कोर्ट में जजों का काम केवल नियमों के पालन की निगरानी करना नहीं बल्कि न्याय के प्रति ईमानदार रहना भी है ऐसे मुद्दों पर स्पष्ट और संतुलित राय रखना बहुत महत्वपूर्ण है.

एक और यूजर मिस्टर गुप्ता ने लिखा, ‘जज साहिबा का बेहद सटीक जवाब. आजकल कुछ लड़कियां अपना घर बर्बाद कर ऐसे ही कोर्ट में बकवास करती हैं. पता है कानून हमारे लिए बनाया गया है. महिला कानून का बेजा इस्तेमाल हो रहा है.’ एक पत्रकार जैकी यादव ने भी पुरुषों की हिमायत की.

क्या कहता है कानून

कर्नाटक हाईकोर्ट के इस फैसले पर आम लोग लगभग वही बातें कह रहे हैं जो कानून कहता है. गुजारा भत्ते से सम्बंधित अहम धारा सीआरपीसी की 125 है जो भरणपोषण के अधिकार से जुड़े मामलों की व्यवस्था करती है. इस धारा के तहत वह महिला गुजारा भत्ते की हकदार है जिसे पति द्वारा तलाक दे दिया गया हो या जिस ने पति को तलाक दे दिया हो. पत्नी को यह साबित करना होता है कि वह आर्थिक रूप से इतनी सक्षम नहीं है कि अपना भरणपोषण कर सके. हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 25 के तहत पति या पत्नी को अदालत द्वारा तय की गई राशि का भुगतान करना पड़ता है.

लेकिन इस के लिए कुछ शर्तें हिंदू दत्तक भरणपोषण अधिनियम की धारा 18 ( 1 ) में वर्णित भी हैं जिन के आधार पर हिंदू पत्नी अपने पति से अलग रहते भी भरणपोषण की हकदार होती है –

– जब पति परित्याग के लिए जिम्मेदार हो
– जब पति क्रूरता के लिए उत्तरदायी हो
– जब पति कुष्ठ रोग से पीड़ित हो
– जब पति दूसरी शादी कर ले
– जब पतिपत्नी की बिना सहमति के धर्म परिवर्तन कर ले.

ऐसे तय होती है राशि

हिंदू दत्तक और भरणपोषण अधिनयम 1956 की धारा 23 में भरणपोषण की राशि के बारे में बताया गया है कि यह कितनी होनी चाहिए. आमतौर पर अदालतें इन बातों का ध्यान रखती हैं.

1 – दावेदार की मूल आवश्यकता.
2 – दोनों पक्षों का स्टेटस और पोजीशन.
3 – उचित बुनियादी आराम जो एक व्यक्ति को चाहिए.
4 – प्रतिवादी की चल व अचल संपत्ति की कीमत.
5 – प्रतिवादी की आय.
6 – प्रतिवादी पर आर्थिक रूप से निर्भर व्यक्तियों की संख्या.
7 – दोनों के बीच संबंधों की डिक्री.

जाहिर है ये आधार लगभग वही हैं जो सोशल मीडिया पर यूजर्स ने अपने शब्दों में व्यक्त किए. बाबजूद इस के गुजारा भत्ते की राशि तय करना आसान काम नहीं होता. अदालतों के कई फैसले विरोधाभासी हैं. गुजारा भत्ता या भरणपोषण एक लेटिन शब्द एलिमोनिया से बना है बोलचाल की भाषा में यह एल्मनी हो गया है.

वैवाहिक मामलों में गुजारा भत्ता 2 तरह का होता है पहले को अंतरिम भरणपोषण राशि कहते हैं जो अदालती कार्रवाई के दौरान दी जाती है और दूसरी जिसे स्थाई कहा जाता है कानूनी अलगाव यानी तलाक के बाद दी जाती है. यह एक मुश्त भी हो सकती है और मासिक त्रैमासिक भी जैसी वादी को जरूरत हो. लेकिन इस के लिए अदालत की सहमति आवश्यक है.

पत्नी, पति की आमदनी में से कितने फीसदी की हकदार है इस का कोई तयशुदा पैमाना नहीं है लेकिन आमतौर पर भरणपोषण की राशि पति की सैलरी या आमदनी का 20 से 30 फीसदी होती है. यानी पति की आय अगर 50 हजार रुपए महीना है तो वह बतौर भरणपोषण 10 से 15 हजार रुपए महीने देगा. पर ये तब की बाते हैं जब महिलाएं कमाऊ और शिक्षित नहीं होती थीं. अब लड़कियां खुद भी पति के बराबर या उस से भी ज्यादा कमा रही हैं तो उन्हें कोई गुजारा भत्ता नहीं मिलता. अप्रैल 2023 में दिल्ली हाईकोर्ट का एक अहम फैसला आया था जिस में एमबीए पास पत्नी ने 50 हजार रुपए महीने के अंतरिम गुजारे भत्ते के लिए अदालत से गुहार लगाई थी.

इस मामले में पति डाक्टर था लेकिन बेरोजगार था. एमबीए पत्नी की अर्जी कोर्ट ने इस टिप्पणी के साथ ख़ारिज कर दी थी कि आप पढ़ीलिखीं हैं अपनी आमदनी के जरिये खुद ढूंढे या पैदा कर सकती हैं. कोर्ट ने उस के घरेलू हिंसा के आरोप को भी ख़ारिज कर दिया था.

तब इस पर देशव्यापी प्रतिक्रियाएं हुई थीं. ठीक वैसे ही जैसे आज कर्नाटक हाईकोर्ट के फैसले पर हो रही हैं. तब भी आम लोग जज की भूमिका से सहमत थे कि यदि पत्नी पर्याप्त शिक्षित है तो उसे खुद कमाना चाहिए खासतौर से उस वक्त जब पति बेरोजगार हो.

इसे यानी बदलते सामाजिक हालातों को बारीकी से समझने के लिए थोड़े पीछे चलना पड़ेगा. आजादी के पहले तलाक का कोई क़ानूनी प्रावधान ही नहीं था. पुरुष प्रधान समाज में कोई भी पतिपत्नी को बिना किसी कारण के छोड़ सकता था. पत्नी दूसरों के रहमोकरम पर रहती थी जिस का हर तरह से शोषण होता था. न किसी अदालत में वह जा सकती थी न आज की तरह थाने में जा कर हल्ला मचा सकती थी कि मेरे साथ ज्यादती हो रही है मुझे बचाओ या इंसाफ दो. हालांकि अंगरेजों ने तलाक कानून बनाया था लेकिन कई वजहों के चलते उस का असर बहुत ज्यादा नहीं था.

आजादी के बाद जवाहर लाल नेहरु सरकार ने हिंदू कोड बिल के जरिए औरतों को भी तलाक का हक दिया तो इस के विरोध में कट्टर हिंदुवादियों ने सड़क से ले कर संसद तक जम कर बवाल काटा था लेकिन नेहरु उन के सामने झुके नहीं थे. इस विषय पर आप सरिता के आगामी अंकों में विस्तार से तथ्यात्मक रिपोर्ट पढ़ सकते हैं.

सरिता के सितम्बर प्रथम अंक से श्रृखलावद्ध तरीके से यह सिलसिला ( शीर्षक – 1947 के बाद कानून से रेंगती सामाजिक बदलाव की हवाएं) शुरू हो जाएगा जो कई अनछुई बातों को बताएगा, आप की आंखें खोलेगा कि आज हम सुकून और आजादी से हैं खासतौर से महिलाएं तो वह किसी दैवीय वरदान या धर्म की वजह से नहीं हैं बल्कि पहली कांग्रेसी सरकार की वजह से हैं जिस ने महिलाओं को उस मुकाम पर ला खड़ा कर दिया है कि वे तलाक और मेंटेनेंस दोनों के लिए अदालत जा कर न्याय मांग सकती हैं और वह उन्हें मिलता भी है.

अब आज की बात यह कि कुछ मामलों में ही सही कुछ महिलाएं अपने क़ानूनी अधिकारों का बेजा इस्तेमाल करने लगी हैं जिस पर रोक लगना या फिर से विचार होना जरुरी है. तलाक और मेंटेनेस के मामलों में पतियों को भी कम सामाजिक प्रताड़नाओं और तिरस्कार का सामना नहीं करना पड़ता.

दूसरे वे तलाक की प्रक्रिया के दौरान तमाम सुखों से भी वंचित रहते हैं जिन में से यौन सुख प्रमुख है. अब अगर वे बिना तलाक के दूसरी शादी कर लें तो भी मुसीबत में पड़ जाते हैं क्योंकि एक पत्नी के रहते वे दूसरी शादी करने पर अपराधी हो जाते हैं. सैक्स की अपनी जरूरत पूरी करने वे कौलगर्ल्स के पास जाएं तो भी मुसीबतों का सामना उन्हें करना पड़ता है कि पकड़े गए तो भी बेइज्ज्ती, थाना और जेल और नहीं भी पकड़े गए तो बीमारियों का डर और तथाकथित व्यभिचार का एक अपराध बोध उन्हें सालता रहता है.

हालांकि दुश्वारियां पत्नी की भी उतनी ही रहती हैं लेकिन सोचा यह भी जाना चाहिए कि तलाक के मुकदमे के दौरान पति योन सुख से वंचित क्यों रहे और रहने मजबूर है तो फिर गुजारा भत्ता किस बात का दे. क्या इस बात पर विचार नहीं होना चाहिए कि तलाक के मुकदमे के दौरान पत्नी पति की मांग पर उसे शारीरिक सुख देने बाध्य हो. किसी भी पति की एक बड़ी परेशानी यह भी है कि तलाक के बाद दूसरी शादी करने पर उसे दोदो पत्नियों का खर्च उठाना पड़ता है. पहली वो जो दूसरी बन कर आई है और दूसरी वो जो कभी पहली थी लेकिन अब उस के लिए भार बन गई है.

हालांकि कानून यह भी कहता है कि अगर पत्नी आर्थिक रूप से सक्षम है तो मेंटेनेंस की हकदार नहीं होगी. आजकल के युवा अगर नौकरीपेशा पत्नी प्राथमिकता में रखते हैं तो उस की एक बड़ी वजह यह भी है कि जिंदगी शानदार तरीके से जी जाए क्योंकि डबल इनकम से बहुत से सुख सुविधाएं हासिल की जा सकती हैं और खुदा न खास्ता अलगाव की नौबत आई तो तलाक के दौरान या बाद में कोई गुजारा भत्ता तो नहीं देना पड़ेगा. यही सोच लड़कियों की भी है जो अच्छी भी हैं कि वे किसी भी लिहाज से पति की मोहताज नहीं रहतीं. उन की अपनी खासी इनकम होती है सोशल स्टेटस भी होती है और कान्फिडेंस भी उन में भरपूर रहता है.

दिक्कत उन पत्नियों को है जो हर स्तर पर पति की मोहताज रहती हैं. लेकिन चूंकि उन्हें तलाक के मुकदमे के दौरान अंतरिम गुजारा भत्ता भी मिलता है और तलाक के बाद परमानेंट भी इसलिए उन के वकील की कोशिश यह रहती है कि मुकदमा जितना हो सके लम्बा चले जिस से हर पेशी पर दक्षिणा मिलती रहे. यही सोच पूजापाठी जजों की भी रहती है कि तलाक कम से कम हों इसलिए दोनों पक्षों को इतना नचा दो कि उन की हालत देख दूसरे पतिपत्नी तलाक के लिए अदालत का रुख ही न करें फिर भले ही वे पारिवारिक और सामाजिक तौर पर घुटघुट कर जीते रहें.

बूआजी का भूत: कैलाश के साथ उस रात क्या हुआ

कैलाश की मां मर गई थीं. वे 75 साल की थीं. कैलाश ने अपने मामा के लड़कों के साथ रिश्तेदारों को भी खबर पहुंचा दी. तकरीबन सभी रिश्तेदार और समाज के लोग कैलाश के इस दुखद समय पर हाजिर हो गए. फिर कैलाश ने अपनी मां की अर्थी का इंतजाम कर दाह संस्कार भी कर दिया. उसी दिन शाम को ही नातेरिश्तेदारों के साथ बैठ कर कैलाश मृत्युभोज का दिन व समय तय करने के लिए चर्चा करने लगा, तभी कैलाश के मामा के लड़के मोहन ने आगे बढ़ कर कहा, ‘‘भाई, अभी मृत्युभोज की तारीख तय मत करो… मैं बूआजी की गौरनी करना चाहता हूं. उस के बाद तुम मृत्युभोज कर लेना.’’

कैलाश ने पूछा, ‘‘यह गौरनी क्या होती है?’’ मोहन ने कैलाश को हैरानी से देखा, ‘‘गौरनी नहीं जानते तुम… यह गौने का छोटा रूप है,’’ फिर वह समझाने लगा, ‘‘मैं बूआजी को इज्जत से उन के मायके यानी अपने घर ले जाऊंगा. बाकायदा उन का ट्रेन, बस वगैरह का टिकट भी लूंगा. जो वे खाएंगी खिलाऊंगा, फिर समाज के लोगों को न्योता दे कर अच्छेअच्छे पकवान बना कर भोजन कराऊंगा. ‘‘उस के बाद बूआजी को नए कपड़ों और सिंगार के सामान के साथ इज्जत से तुम्हारे घर विदा कर दूंगा. भाई, फिर तुम मृत्युभोज की तारीख तय कर लेना.

‘‘पर, मां तो मर गई हैं. उन की देह को हम ने जला भी दिया है. कैसे ले जाओगे उन्हें?’’ कैलाश ने हैरानी से पूछा.

‘‘मैं बूआजी के पुराने कपड़ों को बूआजी समझ कर ले जाऊंगा… अब मेरी ट्रेन का समय हो रहा है. चल, जल्दी से बूआजी को मेरे साथ विदा कर दे.’’ कैलाश हैरान हो कर मोहन का मुंह ताकने लगा, तो मोहन ने उसे झिड़का, ‘‘मूर्ख, मेरा मुंह क्या ताक रहा है? जा, बूआजी के पुराने कपड़े ले आ.’’

कैलाश घर के भीतर जा कर थोड़ी देर में अपनी मां के पुराने कपड़े एक पौलीथिन बैग में रख कर ले आया. मोहन उसे देख कर चीख पड़ा, ‘‘अबे, बूआजी का दम घुट जाएगा. जल्दी पौलीथिन से बाहर निकाल.’’

कैलाश ने घबरा कर फौरन कपड़े बाहर निकाले और एक गहरी लंबी सांस ली, मानो अपनी मां को दम घुटने से बचा लिया हो, फिर मायूस हो कर उस ने कपड़े मोहन को थमा दिए. मोहन बोला, ‘‘अब बूआजी से माफी मांग और प्रणाम कर के बोल कि मां घर जल्दी आ जाना.’’

लाचार कैलाश कपड़ों से माफी मांग कर बोला, ‘‘मां, घर जल्दी आ जाना.’’ मोहन ने कपड़ों से कहा, ‘‘चलो बूआजी अपने मायके. वहां भाईभतीजे आप का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं.’’

मोहन अपनी पत्नी शारदा को साथ ले रिकशा स्टैंड पर आ गया. थोड़ी देर में एक रिकशा उस के पास आ कर रुका. ‘‘कहां जाओगे?’’

‘‘रेलवे स्टेशन. तुम 3 सवारियों का कितना पैसा लोगे?’’ रिकशे वाले ने इधरउधर देख कर पूछा, ‘‘तीसरा कौन है?’’

‘‘देख नहीं रहे हो. मेरे हाथ में बूआजी हैं,’’ मोहन ने जवाब दिया. रिकशे वाले ने गौर से देख कर कहा, ‘‘ये तो किसी औरत के पुराने कपड़े हैं.’’

‘‘इन्हें कपड़े मत कहो.’’ मोहन ने नाराजगी जाहिर की, ‘‘ये मेरी बूआजी हैं. इन का अभीअभी कुछ देर पहले देहांत हो गया है.

‘‘पर, तुम चिंता मत करो, मैं बूआजी का पूरा किराया दूंगा.’’ यह सुन कर रिकशे वाला डर कर कांपने लगा, क्योंकि मोहन के चेहरे पर बढ़ी हुई दाढ़ी और माथे पर लगा तिलक तांत्रिक होने का संकेत दे रहे थे.

‘‘भैया, आप की बूआजी को बिठा कर ले जाना मेरे बस की बात नहीं है,’’ रिकशे वाला हाथ जोड़ते हुए बोला. इतना कह कर वह रिकशा ऐसे ले कर भागा, जैसे बूआजी का भूत उस के पीछे पड़ गया हो. मोहन और उस की पत्नी उस को रोकते रह गए, पर वह

नहीं रुका. थोड़ी देर बाद एक सवारी टैंपो वहां आ कर रुका. निराश मोहन और शारदा की आंखों में चमक लौट आई.

सवारी टैंपो में पहले से ही 3-4 सवारियां बैठी थीं और 4-5 सवारियों के बैठने की जगह थी. मोहन शारदा के साथ बैठ गया और पास ही खाली सीट पर बूआजी के कपड़े रख कर बोला, ‘‘बूआजी, अब आप आराम से यहां बैठिए. आप को कोई तकलीफ नहीं होगी.’’

आसपास बैठी सवारियां उस की बात सुन कर हैरत से उसे और कपड़ों को देखने लगीं. ‘‘अजीब आदमी है, कपड़ों से बात कर रहा है,’’ टैंपो का कंडक्टर बोला.

‘‘भैया, खाली सीट से कपड़े उठा लो और उधर सरक कर बैठो. मुझे और भी सवारियां लेनी हैं,’’ कंडक्टर बोला. मोहन ने तैश में आ कर जवाब दिया, ‘‘तमीज से बोलो… वे कपड़े नहीं, बूआजी हैं और उन का किराया मैं देने को तैयार हूं.’’

‘‘कहां हैं बूआजी?’’ कंडक्टर ने हैरानी से पूछा. ‘‘वे मर गई हैं, लेकिन उन के कपड़े ही बूआजी हैं.’’

‘‘तो क्या बूआजी के भूत को साथ ले कर चल रहा है?’’ परेशान मोहन तैश में बोला, ‘‘यही समझ ले.’’

आसपास बैठी सवारियां उन की बातें सुन कर खौफ से भर गईं और सभी एकएक कर के टैंपो से उतर गईं. कंडक्टर ने देखा कि सवारियां डर कर उतरी हैं, तो वह भी डर गया. हालात से समझौता करते हुए कंडक्टर हाथ जोड़ कर मोहन से बोला, ‘‘भाई, तू मुझ से किराया ले ले और किसी दूसरी गाड़ी से स्टेशन चला जा, पर अपनी बूआजी को नीचे उतार ले. मेरी सारी सवारियां डर कर भाग रही हैं.’’

मोहन ने उसे समझाने की कोशिश की, पर सवारी और कंडक्टर उस की बात सुनने को तैयार नहीं हुए. मोहन थकहार कर कपड़े उठा कर टैंपो से उतर गया. ‘‘ऐसे तो हम किसी गाड़ी में नहीं बैठ पाएंगे,’’ शारदा ने कहा, ‘‘अब किसी रिकशे वाले को यह मत बताओ कि बूआजी हमारे साथ हैं.’’

‘‘बात तो तुम ठीक कह रही हो, पर इस उम्र में बूआजी को बिना भाड़ा दिए ले जाना सरासर बेईमानी है. उन की आत्मा हमें कोसेगी.’’ ‘‘चलो, फिर पैदल ही चलते हैं.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर मोहन और शारदा पैदल चल दिए. थोड़ी दूर चलने के बाद शारदा बोली, ‘‘सुनोजी, बूआजी थक गई होंगी, क्यों न कहीं बैठ कर हम थोड़ा आराम कर लें?’’

‘‘ऐसे कैसे थकेंगी बूआजी. उन को तो हम उठाए हैं.’’ ‘‘मेरा मतलब है कि बूआजी को थोड़ा चायनाश्ता करवा दो, बेचारी कब से भूखीप्यासी हमारे साथ चल रही हैं.’’

‘‘तुम ठीक कह रही हो. सवारी गाड़ी के चक्कर में बूआजी की भूखप्यास का मुझे जरा भी खयाल नहीं आया.’’ एक होटल में जा कर मोहन ने

एक खाली कुरसी पर बूआजी के कपड़े रखे और और्डर दिया, ‘‘भैया, 3 गिलास पानी और 3 जगह 2-2 समोसे और चाय देना.’’

नौकर ने पानी, चाय, समोसे टेबल पर रख कर पूछा, ‘‘तीसरा कौन है साहब?’’ मोहन तैश में आ कर बोला, ‘‘इन कपड़ों के सामने सामान रख दे. तुझे बूआजी नजर नहीं आएंगी.’’

नौकर ने मोहन और कपड़ों को अजीब नजरों से देखा और चुपचाप नहाने चला गया. नाश्ता और पानी का गिलास कपड़ों के सामने सरका कर मोहन बोला, ‘‘बूआजी, समोसे खा कर पानी पी लो.’’ नौकर ने दूर से मोहन की बुदबुदाहट सुनी, पर उस की समझ में कुछ नहीं आ रहा था. वह डर कर सीधा अपने मालिक के पास पहुंचा.

थोड़ी देर बाद होटल मालिक मोहन के सामने जा खड़ा हुआ और बोला, ‘‘यहां क्या यह तांत्रिक पूजा चल रही है? यह होटल है, तुम्हारी तंत्र साधना की जगह नहीं. चलो, उठो यहां से.’’ मोहन हड़बड़ा कर सफाई देने लगा, ‘‘आप गलत समझ रहे हो, दरअसल…’’

मालिक झल्लाया, ‘‘मुझे मूर्ख बना रहे हो… कपड़े को समोसा खिला रहे हो, पानी पिला रहे हो और ऊपर से मंत्र बुदबुदा रहे हो. मेरे नौकर ने तुम्हें दूर से देखा है.’’ तभी नौकर ने मालिक की बात का समर्थन करते हुए कहा, ‘‘मालिक, जब मैं ने तीसरी प्लेट के बारे में पूछा, तो यह आदमी बोला कि कपड़ों के सामने रख दे. यह प्लेट बुआजी की है, जो तुझे नजर नहीं आएंगी.’’

मोहन के कुछ बोलने से पहले ही मालिक बोला, ‘‘चलो, उठो यहां से. नाश्ते के पैसे भी मत दो. चलो, होटल के बाहर जाओ.’’ मोहन और शारदा बेइज्जत हो कर होटल के बाहर आ कर रेलवे स्टेशन की ओर चल दिए.

रेलवे स्टेशन पहुंच कर मोहन 3 टिकट ले कर ट्रेन में जा बैठा और खाली सीट पर कपड़े रख दिए.

धीरेधीरे डब्बा मुसाफिरों से भरने लगा. एक मुसाफिर ने मोहन से कहा, ‘‘भैया, कपड़े उठाओ, उधर सरको और हमें भी बैठने की जगह दो.’’ मोहन बोला, ‘‘बूआजी बैठी हैं.’’

उस मुसाफिर ने सोचा कि शायद इस की बूआजी बाथरूम वगैरह कहीं गई होंगी. वह आगे बढ़ गया, तभी दूसरे मुसाफिर ने कपड़े के लिए मोहन को टोका, तो मोहन ने वही जवाब दिया, ‘‘बूआजी बैठी हैं.’’ वह आदमी खीज कर बड़बड़ाने लगा, ‘‘हमारा देश भी अजीब है. बस सीट पर कपड़ा या रूमाल रख दो, तो आरक्षण हो जाता है.’’

डब्बा जब खचाखच भर गया और ट्रेन चलने को हुई, तो पास ही खड़े एक मुसाफिर ने पूछा, ‘‘भैया, तेरी बूआजी कब आएंगी? ‘‘आएंगी क्या…? बूआजी तो यहीं बैठी हैं,’’ मोहन बोला.

‘‘कहां बैठी हैं? हमें तो नजर नहीं आ रही हैं.’’ ‘‘कपड़े ही बूआजी हैं.’’

‘‘तो भाई ऐसा कर, अपनी बूआजी को गोद में बिठा ले,’’ उस आदमी ने तैश में आ कर कहा, ‘‘और हमें बैठने दे.’’ मोहन जिद पर अड़ गया, ‘‘नहीं उठाऊंगा. मैं ने बूआजी का टिकट लिया है,’’ मोहन की उस मुसाफिर से जम कर बहस होने लगी.

तभी वहां टिकट कलक्टर यानी टीसी आ गया. उस ने मोहन से कपड़े उठाने को कहा, तो मोहन ने जवाब दिया, ‘‘नहीं उठाऊंगा. मैं ने बूआजी का टिकट लिया है.’’ टीसी ने टिकट देख कर गरदन हिलाते हुए कहा, ‘‘टिकट बराबर है.’’

मोहन के चेहरे पर जीत भरी मुसकान आ गई. टीसी ने गुजारिश करते हुए मोहन से कहा, ‘‘देखो भाई, आप सही हैं, टिकट सही है, पर दूसरे मुसाफिरों को सुविधा मिले, इसलिए अपनी बूआजी के कपड़े गोद में रख लो.’’

मोहन टीसी की बात ठुकराते हुए अपनी जिद पर अड़ा रहा, तभी टीसी के दिमाग में कुछ आया. वह मोहन से बोला, ‘‘जरा फिर से टिकट दिखाना.’’ मोहन ने उसे टिकट दे दिया. टीसी ने टिकट देख कर पूछा, ‘‘आप की बूआजी सीनियर सिटीजन हैं.’’

‘‘जी हां, मैं ने टिकट भी सीनियर सिटीजन का ही लिया है,’’ मोहन ने गर्व से जवाब दिया. ‘‘आप की बूआजी नजर नहीं आ रही हैं. मैं कैसे अंदाजा लगा लूं कि वे सीनियर सिटीजन हैं. कोई पहचानपत्र या आधारकार्ड वगैरह है?’’

अब तो मोहन की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. वह हिचकिचाते हुए बोला, ‘‘जी, वह तो नहीं है.’’ टीसी ने मन ही मन सोचा कि अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे. ‘‘पहचानपत्र नहीं है. चलो, फाइन के साथ दोगुना किराया दे दो या इन कपड़ों को बूआजी मत कहो. अच्छी तरह समझ लो कि ये कपड़े हैं और चुपचाप उठा लो. अंधविश्वास छोड़ो, वरना जुर्माने के साथ दोगुना किराया भरो.’’ थकहार कर मोहन ने कपड़े उठा लिए, तो एक मुसाफिर उस सीट पर जा कर बैठ गया.

टीसी के जाते ही दूसरे मुसाफिर अंधविश्वास के खिलाफ चर्चा में मशगूल हो गए और इधर मोहन चुपचाप नजरें झुकाए शर्मिंदा होते हुए न चाहते हुए भी उन की बातें सुनता रहा.

ओरल सैक्स से लाएं रिश्तों में गरमाहट

सैक्स पतिपत्नी के रिश्ते में बहुत बड़ा रोल अदा करता है. जैसे अच्छे लाइफस्टाइल के लिए पैसा होना बेहद आवश्यक है, उसी तरह हैल्दी रिलेशनशिप के लिए अच्छा सैक्स बहुत जरूरी है.

सैक्स दोनों पार्टनर्स को करीब लाने का अवसर देता है और ऐसा देखा गया है कि अगर दोनों पार्टनर्स एकदूसरे को पूरी तरह संतुष्ट कर पा रहे हैं तो उन के बीच संबंध काफी अच्छे बने रहते हैं और लड़ाईझगड़े काफी कम होते हैं क्योंकि हैल्दी सैक्स टैंशन को दूर भगा देता है.

क्यों जरूरी है ओरल सैक्स

हमें हमेशा इस बात का खयाल रखना चाहिए कि सैक्स से पहले अपने पार्टनर को इस कदर प्यार देना चाहिए कि दोनों को सैक्स से पहले ही इतना आनंद मिल जाए कि बस दोनों पार्टनर्स सैक्स करने पर मजबूर हो जाएं और सैक्स किए बिना रह न पाएं.

ओरल सैक्स में आप को अपने हाथों के साथसाथ अपने लिप्स और अपनी जीभ का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करना है जिस से कि आप का पार्टनर सैक्स के लिए पूरी तरह तैयार हो जाए.

उस के बाद आप को अपने पार्टनर की पूरी बौडी पर जम कर किस करनी चाहिए जिस से कि वे इस कदर बेचैन हो उठे कि आप को अपनी बांहों में जकड़ ले कि.

जम कर करें कडलिंग और किसिंग

याद रहे कि आप का फोकस सिर्फ सैक्स करना नहीं होना चाहिए बल्कि अपने पार्टनर को और खुद को वह आनंद देना होना चाहिए जिसे पा कर दोनों एकदूसरे के और भी ज्यादा करीब आ जाएं. अगर आप अपने पार्टनर के साथ सिर्फ सैक्स करते हैं तो आप दोनों एकदूसरे से बहुत ही जल्दी बोर होने लग जाएंगे। इसलिए अपनी सैक्स लाइफ में रोमांच भरने के लिए ओरल सैक्स जरूर ट्राई करें.

सैक्स से पहले अपने पार्टनर के साथ खूब रोमांस करना चाहिए और अपने पार्टनर के साथ जम कर कडलिंग और किसिंग करनी चाहिए.

पार्टनर को न होने दें कोई भी तकलीफ

इस बात का जरूर ध्यान रखना है कि हर चीज अपने पार्टनर के हिसाब से करनी चाहिए. ऐसा देखा गया है कि ओरल सैक्स के दौरान पुरूष साथी कुछ ऐसी चीजें ट्राई करने लगता है जिस से महिला साथी को आनंद से ज्यादा तकलीफ होने लगती है. तो आप जो कुछ भी करें बहुत ही आराम से और धीरेधीरे ताकि आप दोनों सैक्स का भरपूर आनंद उठा पाएं और दोनों में से किसी को भी कोई तकलीफ न हो.

हिंदी फिल्मों को विदेशों में पसंद न करने की वजह है क्या, जाने यहां

हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का कभी वह दौर था जब एक नई फिल्म के आने पर जोरशोर से दर्शक चाहे देश के हों या विदेशों के, उसे देखने के लिए आतुर हो उठते थे और उस में अभिनय करने वाले पात्रों के फौलोअर्स बन जाते थे व कहानीकार की चर्चा किया करते थे. यह सही है कि समय के साथसाथ कहानियों में परिवर्तन आया. पहले गांव की कहानी, फिर समय के साथ शहरों की कहानी पर फ़िल्में बनीं. उन से निकल कर बौलीवुड आधुनिकता की ओर बढ़ गया और आधुनिक तकनीक के साथ, सैक्स, मारधाड़, खूनखराबा आदि को जम कर परोसा जाने लगा. इस तरह की फिल्मों से भी दर्शक ऊब गया और उस ने अब ऐसी फिल्मों को नकार दिया. फलस्वरूप, फिल्में फ्लौप रहीं.

दर्शकों का प्यार इन फिल्मों को नहीं मिला और कई थिएटर हौल बंद हो चुके हैं, तो कुछ बंद होने की कगार पर हैं. लेकिन क्या ऐसी कहानियों, जो दर्शकों के मन को छू सकें, पर फ़िल्में बननी बंद हो गईं? क्या निर्माता, निर्देशक दर्शकों की चाहत को टटोलने में असमर्थ हो चुके हैं? यही वजह है कि पूरे विश्व में इन फिल्मों को देखने वाले दर्शक बजाय देखने के उन का बहिष्कार कर रहे हैं. आखिर क्या है इस की वजह, जिस के परिणामस्वरूप दर्शक थिएटर हौल तक जाने और फिल्मों को देखना नहीं चाहते और आज भी वे 80 और 90 के दशक की फिल्मों को बारबार देखते हैं?

अमेरिका के लास एंजिलस में रहने वाले विजित होर कहते हैं कि आज की हिंदी फिल्में अजीब कहानियों वाली होती हैं, जिन्हें एक घंटा भी बैठ कर देखना मुमकिन नहीं, कहानियों में कसाव नहीं होता, कहानियां ओरिजिनल नहीं होतीं, किसी न किसी विदेशी फिल्म की कौपी होती हैं.

वे कहते हैं, “हालफिलहाल मैं ने ‘एनिमल’ और ‘क्रू’ फिल्म देखी. एक में खूनखराबा, तो दूसरे में कहानी ही बेसिर पैर की है. मनोरंजन से भी आज की फिल्में दूर हो चुकी हैं. क्या अच्छी कहानियों को लिखने वाले नहीं हैं? हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को समस्या का पता नहीं, आज मैँ 80 या 90 के दशक की फिल्में देखता हूं और बारबार देखता हूं और मुझे अच्छी लगती हैं.”

क्वालिटी कंटैंट की नहीं कमी

यह सही है कि आज की तारीख में क्वालिटी कंटैंट की कमी दर्शकों के पास नहीं है, इसलिए उन की आशाएं फिल्मों से भी बढ़ चुकी हैं, क्योंकि वे किसी भी कंटैंट पर अपना समय बरबाद नहीं करना चाहते. आज की कहानियां रियलिटी से दूर हो चुकी हैं, जबकि पहले की कहानियां आम जिंदगी से जुड़ी हुई होती थीं, जिन के गाने, संवाद उन की पिक्चराइजेशन भी रियल और लार्जर दैन लाइफ थी, जो आज की फिल्मों में नहीं है. आधिकतर फिल्में बाहर की लोकेशन पर शूट की जाती हैं, जिन्हें देखने पर इंडियन या फौरेन फिल्म या दोनों का मिश्रण कुछ भी साफ समझ में नहीं आता.

कन्फ्यूज़्ड निर्माता-निर्देशक

पहले की फिल्मों के हीरो और उन के संवाद आम दर्शकों के बीच आ जाते थे, मसलन फिल्म ‘दीवार’ का प्रसिद्ध संवाद ‘मेरे पास मां है’, फिल्म ‘शोले’ का ‘कितने आदमी थे’ आदि बच्चेबच्चे से ले कर बड़ों के बीच में था. तब संगीत भी यों ही नहीं डाल दिए जाते थे, बल्कि कहानी के अनुसार उन्हें समय लगा कर तैयार किया जाता था, जो रियल होते थे और सुनने में अच्छा लगता था. आम इंसान की जिंदगी को आज की फिल्में बयां नहीं करतीं. फिल्म निर्माता भी खुद नहीं जानना चाहते हैं कि उन्हें आज क्या दिखाना है और मनोरंजन के रूप में मैसेज कैसे देना है. यही वजह है कि फिल्म इंडस्ट्री धीरेधीरे पतन की ओर बढ़ती जा रही है.

जनून की कमी

पिछले दिनों कामयाब राइटर जोड़ी सलीम-जावेद पर बनी डाक्युमैंट्री फिल्म ‘ऐंग्री यंग मैन’ का प्रमोशन हुआ. उस दौरान जावेद अख्तर ने एक फिल्म लेखक के रूप में अपने संघर्ष के दिनों को याद करते हुए कहा कि “जब मैँ युवा था, इस मुंबई शहर में आया था, उस समय मेरे पास न तो कोई नौकरी थी और न ही कोई संपर्क या पैसा था. कई बार मुझे भूखे पेट सो जाना पड़ता था, लेकिन इस के बावजूद मैं ने हार नहीं मानी, क्योंकि मैँ अपनी लिखी कहानी को दुनिया के साथ शेयर करना चाहता था और मैं ने किया. मैं ने कहानियां सलीम साहब के साथ मिल कर भी लिखीं. उस समय हम दोनों की जोड़ी सब से अधिक पैसे लेने वाले फिल्म लेखकों की बनी. जिस में हम दोनों ने 22 फिल्में साथ लिखीं, जिस में 20 फिल्में सुपर हिट रहीं. आज फिर से एक और फिल्म दर्शकों के लिए हम दोनों साथ में लिखना चाहते हैं.

उक्त अवसर पर फिल्म लेखक सलीम खान गहरी सांस लेते हुए कहते हैं, “ऐसा कब तक चलेगा, आज के अच्छे लेखक कहां गए. मैं ने अपने कैरियर की शुरुआत एक ऐक्टर के रूप में की थी, बाद में एहसास हुआ कि मुझे कहानी लिखने में अधिक दिलचस्पी है, फिर मैं ने ऐक्टिंग छोड़ लेखन की ओर ध्यान केंद्रित किया और जावेद अख्तर से मिला व हम दोनों ने मिल कर कई सफल फिल्मों के साथसाथ इंडस्ट्री को चुनौती दी.”

जिम्मेदार इंग्लिश माध्यम स्कूल

यह सही है कि वो दिन अब नहीं रहे जब एक साधारण लड़का मुंबई जैसे अनजान शहर में एक झोले में कुछ कहानियों और एक कलम के साथ फिल्म इंडस्ट्री के दरवाजा खटखटाता हो और प्रतीक्षा करता हो कि कब कौन सा दरवाजा खुले और उस की कहानी को फिल्म बनने की स्वीकृति मिले. आज वैसा धीरज और जनून किसी में नहीं रहा, क्योंकि इंग्लिश मीडियम स्कूल्स ने इस की जगह ले ली है, जहां अच्छी हिंदी जानने वाले युवाओं की कमी फिल्म इंडस्ट्री को भुगतना पड़ रहा है. आज कहानियां इंग्लिश या रोमन में लिखी जाती हैं, ऐसे में कहानी के भाव का अलग होना स्वाभाविक हो जाता है. पहले जैसी कहानियां न तो लिखी जा रही हैं और न ही फिल्में बन पा रही हैं.

काम नहीं कर रहा स्टार पावर

आज की फिल्में दर्शकों के मन को छूने में असमर्थ हो रही हैं, लेकिन इस क्राइसिस के बावजूद गिनीचुनी कुछ फिल्में ऐसी हैं जिन्हें दर्शकों का प्यार मिला है. मसलन, ‘जुगजुग जियो’, ‘भूलभुलैया’ और ‘गंगूबाई कठियावाड’ आदि फिल्मों को देश में ही नहीं विदेश में भी सराहना मिली है. रुचिकर, रिलेटेबल, थ्रिलिंग स्टोरीज. जिन में कुछ नयापन हो और जो दर्शकों का ध्यान अपनी ओर खींच सकें, पर आज फिल्म नहीं बन रही हैं. वास्तविकता से दूर और ढीली कहानियों की आज फिल्में बन रही हैं, जिन्हें दर्शक हजम नहीं कर पा रहे.

इतना ही नहीं, स्टार पावर भी आज कमजोर कहानी की वजह से कुछ कमाल नहीं दिखा पा रहा है. शाहरुख खान, सलमान खान, आमिर खान, अक्षय कुमार आदि जैसे बड़े स्टार की फिल्में भी आज फ्लौप हो रही हैं, क्योंकि कहानी में दम नहीं.

तकनीकों का प्रयोग

हिंदी फिल्मों में आजकल नई तकनीकों का अधिक प्रयोग होने लगा है, जिस की क्वालिटी आज के दर्शकों को अच्छी नहीं लगती. यही वजह है कि विदेश में रहने वाले भारतीय ऐसी फिल्मों का बहिष्कार कर रहे हैं.

अमेरिका के पोर्टलैंड में रहने वाला और एक मल्टीनैशनल कंपनी का इंजीनियर सुजोय कहता है कि हिंदी फिल्मों में तकनीकों का प्रयोग सही तरीके से नहीं होता, जिस से दृश्य बिचकने लगते हैं. तकनीक का सही जगह प्रयोग फिल्ममेकर को करना नहीं आता. इंग्लिश फिल्मों की कौपी की कोई वजह भी समझ में नहीं आती, क्योंकि इंडिया में अच्छे लेखक रहे हैं, सालों से सभी ने अच्छी ओरिजिनल कहानियां लिखी हैं, लेकिन आज की फिल्मों के क्लाइमैक्स से ले कर गाने और कहानी सभी को वे विदेशी फिल्मों से कौपी करते हैं. नई और मनोरंजक फिल्मों की कहानी फिल्मों में आज देखने को नहीं मिलती.

कंफ्यूज्ड कहानी

असल में पहले की तरह लेखक अब नहीं हैं. इसे रणबीर कपूर ने भी एक इंटरव्यू में माना है. उन का कहना है कि इंडस्ट्री में नए लोगों की प्रतिभा को सराहा नहीं जा रहा है. नई प्रतिभा और आउटसाइडर्स को आगे आने नहीं दिया जाता. अधिकतर कहानियां कंफ्यूज्ड नजर आती हैं. आजकल लेखक व निर्देशक एक ही व्यक्ति है, जो गलत हो रहा है. हर कोई एक सही कहानी नहीं लिख सकता. इस के अलावा पिछले 2 दशकों से हिंदी फिल्में पश्चिमी देशों से प्रभावित रही हैं, जिन्हें आम भारतीय दर्शक देखना नहीं चाहते. दर्शकों को सही तरह से समझ न पाना भी इंडस्ट्री के नीचे गिरने की अहम वजह है.

नेपोटिज्म है हावी

फिल्म इंडस्ट्री के अच्छा न करने की वजह नेपोटिज्म भी कुछ हद तक जिम्मेदार है. हालांकि पहले भी इंडस्ट्री में नेपोटिज्म था, एकाधिकार थे, लेकिन किसी का ध्यान उधर नहीं गया, क्योंकि अच्छी फिल्में बन रही थीं. लगातार फिल्मों के गिरते स्तर को देखते हुए दर्शकों का ध्यान अब उधर गया है. कुछ दिनों पहले फिल्म ‘द आर्चीस’ रिलीज हुई जिस में शाहरुख खान की बेटी सुहाना खान के साथ कई सैलिब्रिटी स्टार्स के बेटेबेटियों ने अभिनय किया, लेकिन बेकार की कहानी और उन सब की कमजोर परफौर्मेंस ने दर्शकों को एक बार फिर से निराश किया. फिल्म ठंडे बस्ते में चली गई.

‘द आर्चीस’ के अलावा इंडस्ट्री की कई फिल्में इस साल दर्शकों की नब्ज नहीं पकड़ पाईं और वे फ्लौप हो गईं, मसलन अभिनेता अक्षय कुमार की फिल्म ‘बड़े मिया छोटे मिया’, ‘मैदान’, ‘एलएसडी 2’, ‘इश्क विश्क रिबाउंड’, ‘खेल खेल में’, ‘वेदा’ इत्यादि.

अंत में इतना कहा जा सकता है कि अगर बौलीवुड फिल्म इंडस्ट्री दर्शकों से खुद को एक बार फिर से जोड़ने की कोशिश करती है या उन के टैस्ट को पहचान पाती है, तो फिल्ममेकर को अच्छा कंटैंट दर्शकों को परोसना होगा, जिस की वे चाहत रखते हैं. और तब जा कर एक बार फिर से पुराने दौर में इंडस्ट्री जा सकती है और फिल्में सफल हो सकती हैं.

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