Download App

औल इंडिया फिल्म एम्प्लौयज कौंफीडरेशन की मुम्बई में हुई बैठक

मुम्बई, औल इंडिया फिल्म एम्प्लौयज कांफीडरेशन की यहां मुम्बई के साकीनाका स्थित पेनसुला होटल में एक महत्वपूर्ण बैठक शनिवार को  हुई जिसमें देश भर के फिल्म मजदूरों और टेक्नीशियन की हालात पर चर्चा की गयी.  इस बैठक में फेडरेशन औफ वेस्टर्न इंडिया सिने एम्प्लौयज (एफडब्लूआई सीइ) के प्रेसिडेंट श्री बी एन तिवारी ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की जबकि फेडरेशन के जनरल सेक्रेटरी अशोक दुबे और ट्रेजरार गंगेश्वर लाल श्रीवास्तव ने अतिथियों का स्वागत किया.

इस बैठक में कोलकाता फेडरेशन औफ सिने टेक्निशियंस एन्ड वर्कर्स औफ ईस्टर्न इंडिया की जनरल सेक्रेटरी अपर्णा घटक, ट्रेजरार रामेंद्र सुंदर कुंडू, ज्वाइंट सेक्रेटरी सुजीत कुमार हाजरा, तेलगु फिल्म इंडस्ट्रीज एम्पलौइज फेडरेशन के प्रेसिडेंट कोमरा वेंकटेश,तेलुगु सिने एन्ड टीवी आउटडोर यूनिट टेक्नीशियन यूनियन के जनरल सेक्रेटरी सैयद हुमायूं,तेलुगु सिने एन्ड टीवी प्रोडक्शन असिस्टेंट यूनियन के जनरल सेक्रेटरी के राजेश्वर रेड्डी,कर्नाटका फ़िल्म वर्कर असिस्टेंट टेक्नीशियन फेडरेशन के ट्रेजरार रविन्द्र जी,फ़िल्म एम्प्लौयज फेडरेशन औफ केरला के प्रेसिडेंट सिब्बी मलाइल,जनरल सेक्रेटरी उन्नीकृष्णन बी,वर्किंग सेक्रेटरी सोहनलाल सेनुलाल, फिल्म एम्प्लौयज फेडरेशन औफ साउथ इंडिया के आर के सेल्वमनी,संमुगम, स्वामीनाथन,श्रीधर,दिनेश कुमार,उमाशंकर, फेडरेशन औफ वेस्टर्न इंडिया सिने एम्प्लौयज के ज्वाइंट सेक्रेटरी राजन सिंह, सिनियर वाइस प्रेसिडेंट राजा खान,एलाइड मजदूर यूनियन के ट्रेजरार और फेडेरेशन के इंटरनल आडिटर राकेश मौर्या, शरद सेलार, उपेंद्र चन्ना,एडवोकेट के आर शेट्टी आदि ने अपने विचार व्यक्त किया.

ये भी पढ़ें- ‘‘अनफ्रेंंड्स’’: बलात्कार  और सोशल मीडिया से पनप रहे अपराध पर सोचने पर मजबूर करती फिल्म

इस अवसर पर लेबर लौ पर भी चर्चा की गई साथ ही वर्कर सेफ्टी पर भी वक्ताओं ने अपनी राय रखी. इस बैठक में आल इंडिया फिल्म एम्प्लौयज कांफीडरेशन के रिक्त पदों को एडहौक कमेटी बनाकर भरने और प्रेसिडेंट,ज्वाइंट सेक्रेटरी  और वाइस प्रेसिडेंट के रिक्त पद को भरने और कांफीडरेशन के संविधान में बदलाव पर भी चर्चा हुई. देश भर से आए फिल्म टेक्निशयन यूनियन के वक्ताओं ने देश के मौजूदा लेबर लौ में बदलाव पर बल दिया और सिनेमा और टेलीविजन से जुड़े वर्करों के काम करने के हालात पर चिंता जताई. मेहमानों का स्वागत फेडरेशन के फेडरेशन के जनरल सेक्रेटरी अशोक दुबे ने किया.

ये भी पढ़ें – ‘मुझे भुनाना नहीं आता’: औरोशिखा दे

इस शख्स ने टीवी एक्ट्रेस ‘निया शर्मा’ को कही ‘गंदी बात’, बताया ‘बदसूरत’

सोशल मीडिया के जरिए अपने फेवरेट स्टार्स तक अपनी बातें शेयर करना काफी आसान हो गया है. फैंस अपने फेवरेट स्टार्स से अपनी दिल की बातें शेयर करते हैं तो वहीं दूसरी तरफ निगेटिव बातों को भी बढ़ावा मिलने लगा है. जी हां आए दिन सोशल मीडिया पर ट्रोलर्स किसी न किसी एक्टर को ट्रोल करते रहते हैं और बेवजह उन्हें खरी खोटी सुनाते रहते हैं.

ट्रोलर ने कही भद्दी बातें

बता दें, हाल ही में एक शख्से ने टीवी एक्ट्रेस निया शर्मा को जमकर ट्रोल किया. यहां तक की  इस शख्स ने निया को ट्विटर पर  बेहद भद्दी बातें भी कह डालीं. दरअसल मधुर गुप्ता नामक एक शख्स ने  ट्विटर पर लिखा #NiaSharma ‘धरती पर सबसे बदसूरत और ओवर रेटेड सो कौल्ड सेलेब्रिटीज में से एक हैं निया शर्मा. लेकिन उनके पीआर को पूरे नबंर मिलने चाहिए, जिस तरह उन्हें बिना किसी कारण के ही खबरों में बनाए रखते हैं. मुंबई में भेलपुरी वाला भी उससे ज्यादा कमाई करता होगा’.

ये भी पढ़ें- ‘मुझे भुनाना नहीं आता’: औरोशिखा दे

निया शर्मा ने उस ट्रोलर की बोलती बंद कर दी

निया शर्मा ने इस ट्रोलर को बड़े संजीदगी से  ट्वीटर पर जवाब दिया. उन्होंने लिखा, ‘मेरे पास आज तक कोई पीआर टीम नहीं है तो मुझे लगता है कि मैं बिल्कुल नैचुरल हूं बच्चे’. निया शर्मा के इस जवाब के लिए उनके फैंस का सोशल मीडिया पर काफी सपोर्ट मिल रहा है. उनके फैंस ने इस ट्रोल की खबर ली है. तो वहीं दूसरी तरफ निया को कई सेलेब्रिटीज भी सपोर्ट कर रहे हैं.

ये भी पढ़ें- मेरी राय में हर तरह की फिल्म का दर्शक है : सिद्धार्थ मल्होत्रा

निया शर्मा के काम की बात करें तो वो कई टीवी शो में अहम किरदार निभा चुकी हैं.  दर्शक  इनके किरदार को खुब पसंद भी कर रहे हैं.

ये भी पढ़ें- ‘‘अनफ्रेंंड्स’’: बलात्कार  और सोशल मीडिया से पनप रहे अपराध पर सोचने पर मजबूर करती फिल्म

सामूहिक आत्महत्याएं : परिवार को रखें सुरक्षित

परिवार के सदस्यों की हत्या कर मुखिया द्वारा भी आत्महत्या कर लेने का यह कोई पहला या आखिरी मौका नहीं है बल्कि ऐसा अब हर कभी हर कहीं होता रहता है. फर्क आर्थिक स्थिति और प्रतिष्ठा के लिहाज से हत्या और फिर आत्महत्या कर लेने के तरीकों में होता है.

इंदौर निवासी 45 वर्षीय अभिषेक सक्सेना पेशे से एक नामी सौफ्टवेयर कंपनी में इंजीनियर थे. उन की 42 वर्षीया पत्नी प्रीति भी एक मल्टीनैशनल ईकौमर्स कंपनी में नौकरी करती थीं. जुड़वां बच्चों बेटे अद्वैत और बेटी अनन्या के अलावा घर में 83 वर्षीया बुजुर्गु मां थीं. बीती 24 सितंबर को अभिषेक मां को यह बता कर घर से सपरिवार निकले थे कि बच्चों को घुमाने ले जा रहा हूं, जल्द ही लौट आऊंगा, क्योंकि वापस लौटने के बाद पापा का श्राद्ध करना है.

बूढ़ी मां बेचारी बेटेबहू और नातीनातिन के लौटने का इंतजार करती रहीं. लेकिन खबर यह आई कि इन चारों ने आत्महत्या कर ली है. मां की आंखें पथराई की पथराई रह गईं. जिस ने भी सुना उस ने सोचा यही कि हंसमुख, मिलनसार सक्सेना दंपती के पास किस चीज की कमी थी जो उन्होंने इतने घातक तरीके से आत्महत्या कर ली और आगेपीछे कुछ नहीं सोचा. जरूर कोई बड़ी बात है या फिर सक्सेना परिवार किसी ऐसी परेशानी या अवसाद का शिकार था जिस की चर्चा वह किसी से नहीं कर पा रहा था.

ये भी पढ़ें- ब्लैकमेलिंग का धंधा, बन गया गले का फंदा !

अभिजात्य आत्महत्याएं

इंदौर के नजदीक क्रीसेंट वाटर पार्क रिसोर्ट 12 महीनों आबाद रहता है. परिवार सहित 1-2 दिनों की छुट्टियां गुजारने के लिए यहां लोगों का तांता लगा रहता है. अभिषेक ने औनलाइन इस रिसोर्ट में कमरा बुक कराया था और 24 सितंबर को प्रीति व बच्चों सहित रूम नंबर 211 में चैकइन भी कर लिया था.

अद्वैत और अनन्या की तो खुशी का ठिकाना नहीं था क्योंकि उन्हें न केवल व्यस्त नौकरीपेशा मम्मीपापा के साथ रिसोर्ट में वक्त गुजारने का मौका मिल रहा था बल्कि स्विमिंग पूल, मनपसंद पकवानों और पार्क का मजा भी मिल रहा था.

किसी को अंदाजा नहीं था कि अभिषेक और प्रीति के जेहन में एक ऐसा कायराना व पलायनवादी विचार पनप रहा है जिस की सभ्य और आधुनिक समाज में आमतौर पर कोई जगह या वजह नहीं होनी चाहिए. 26 सितंबर की दोपहर 3 बजे तक जब कमरा नंबर 211 में कोई हलचल नहीं हुई और न ही कोई बाहर निकला, तो रिसोर्ट प्रबंधन ने दरवाजा खटखटाया और कोई जवाब न मिलने पर दरवाजा डुप्लीकेट चाबी से खोला गया. वहां चारों की लाशें पड़ी थीं.

प्रारंभिक जांच में उजागर हुआ कि आत्महत्या के लिए सोडियम नाइट्रेट नाम के कैमिकल का इस्तेमाल किया गया था. चारों के शरीर नीले पड़ गए थे. कमरे में इलैक्ट्रौनिक वेइंग मशीन पड़ी थी जिसे देख अंदाजा लगाया गया कि उम्र के हिसाब से सोडियम नाइट्रेट की खुराक तोल कर तैयार की गई थी. पहले बच्चों को जहर खिलाया गया, फिर प्रीति और अभिषेक ने भी खा लिया. यह सोच कर ही लोगों की रूह कांप उठी कि इन्होंने आत्महत्या करने की कितनी योजनापूर्ण तैयारी कर रखी थी.

बाद में पता चला कि सक्सेना परिवार मूलतया दिल्ली का रहने वाला था और नौकरी करने के लिए इंदौर के पौश इलाके अपोलो डीबी सिटी में रहता था. हंसमुख व मिलनसार अभिषेक के अपने बहनोई विपिन, जो कि दिल्ली में रहते हैं, से काफी घनिष्ठ और अंतरंग संबंध हैं और इन दोनों परिवारों में आएदिन फोन पर बात व चैटिंग होती रहती थी.

यह छिपाया अभिषेक ने

ऐसी कोई ठोस वजह सामने नहीं आई जिस से यह पता चल पाता कि आखिरकार अभिषेक और प्रीति ने खुदकुशी का फैसला क्यों लिया और उस में मासूम अद्वैत और अनन्या को भी शामिल क्योें किया, जिन्होंने अभीअभी होश संभालते दुनिया देखनी शुरू की थी. उन्हें अपनी जिंदगी जीने का पूरा हक था.

कोई भी कुछ उल्लेखनीय बात नहीं बता सका. इतना जरूर सामने आया कि अभिषेक सौफ्टवेयर कंपनी में जो नौकरी करते थे वह छूट गई थी और कुछ दिनों पहले उन्हें औनलाइन ट्रेडिंग में भी काफी घाटा हुआ था.

यानी फौरीतौर पर आत्महत्याओं की वजह पैसों की तंगी थी. लेकिन क्या यह एक मुकम्मल वजह है? इस सवाल का जवाब न में निकलता है. इस का यह मतलब भी नहीं कि कोई भी और वजह इस हादसे की थी. दरअसल, अभिषेक और प्रीति अगर खुद खुदकुशी के पहले अपने जिगर के टुकड़ों की हत्या करने के लिए मजबूर हुए थे तो यह एक गहरा अवसाद, फुजूल की आशंका और बेवजह का डर था जिस से वे आसानी से बाहर निकल सकते थे. लेकिन, नहीं निकल पाए तो कई और वजहें इस हादसे से आ कर जुड़ गई हैं जो दिखतीं नहीं लेकिन उन का प्रभाव जरूर इन पर पड़ रहा था.

आएदिन परिवार सहित आत्महत्या की खबरें सामने आती रहती हैं. गरीब, मजबूर वर्ग के लोग भी पहले बच्चों की हत्या करते हैं, फिर खुद मौत को गले लगा कर कई सवाल पीछे छोड़ जाते हैं. इन वजहों को सम झा जाना और दूर किया जाना बेहद जरूरी है.

ये भी पढ़ें- शक के कफन में दफन हुआ प्यार

खर्चीली आदतें

अधिकांश खासा कमाने वाले लोग खर्चीली आदतों के शिकार होते हैं जिस के चलते वे इतनी बचत नहीं कर पाते कि बुरे वक्त के लिए सेविंग अकाउंट में पैसा रखें. महंगे गैजेट्स, बड़ी कारें, आलीशान मकान, फुजूल की शौपिंग और लग्जरी लाइफस्टाइल जीने वाले लोग यह मान कर चलते हैं कि पैसा हाथ का मैल है और जिंदगी पलभर की है. इसलिए जितनी जिंदादिली और विलासिता से जी सकते हो, जी लो, कल का क्या भरोसा.

बात, हालांकि, सच है लेकिन इसे सम झने का तरीका गलत है. अभिषेक और प्रीति के मामले में भी यही हुआ दिख रहा है कि इन्होंने भविष्य के लिए पर्याप्त पैसा बचा कर नहीं रखा था. अभिषेक की नौकरी जाते ही वे घबरा गए. प्रीति की सैलरी इतनी नहीं थी कि उस से घर के खर्च भी पूरे हो पाते.

अंतर्मुखी होते लोग

शहरीकरण और एकल होते परिवारों के इस दौर में लोग सोशल मीडिया की लत के चलते कहने को ही एकदूसरे के करीब और संपर्क में हैं. हकीकत तो यह है कि सोशल मीडिया ने रिश्तों व दोस्ती को बेहद औपचारिक बना दिया है और भावनात्मक लगाव को डेटा में कैद कर रख दिया है.

अभिषेक और प्रीति भी सोशल मीडिया के जरिए रिश्तेदारों, दोस्तों और दूसरे परिचितों के नियमित संपर्क में थे लेकिन किसी से अपनी हालत या दिल की बात शेयर नहीं कर पाए. तो साफसाफ दिख रहा है कि दिखावे की जिंदगी आत्मीयता को निगल रही है.

पाखंडी व खर्चीला धर्मकर्म

आदमी कितना भी सभ्य और आधुनिक हो जाए लेकिन दिलोदिमाग में गहरे तक बैठी धार्मिक मान्यताओं से लड़ने की ताकत अपनेआप में पैदा नहीं कर पाता, जिस की एक बड़ी वजह तेजी से बढ़ता धार्मिक माहौल और उस के पाखंड हैं. पढ़ेलिखे और कथित सभ्य समाज के लोग एक दफा भूतप्रेतों के अस्तित्वों को नकारते खुद को वैज्ञानिक सोच का मान लेते हैं, लेकिन इस मानसिक जकड़न से बाहर नहीं आ पाते कि एक सुप्रीम पावर है जिस से दुनिया और आदमी संचालित होते हैं.

ये लोग मानते हैं कि ऊपर वाला ही देता है और ले भी लेता है. लिहाजा, ये पैसा बचाते कम, लुटाते ज्यादा हैं, जम कर दानपुण्य करते हैं और ब्रैंडेड बाबाओं को खूब दक्षिणा देते हैं. नए दौर के बाबाओं ने भी इस अभिजात्य वर्ग की मानसिकता के लिहाज से धर्म का जाल बुनना शुरू कर दिया है. वे अब यह नहीं कहते कि तुम्हारा शनि क्रूर और खराब है बल्कि शनि की दशा, महादशा को विज्ञान से जोड़ते बताते हैं कि नकारात्मक ऊर्जा आप के मन में घर कर गई है जिसे इनइन तरीकों से दूर किया जा सकता है.

नए जमाने की मूर्खता

लोग शिक्षित तो हुए हैं लेकिन तार्किक और जागरूक नहीं हो पा रहे हैं. लिहाजा, वे आसानी से धार्मिक फंदों में फंस जाते हैं. ये वे कथित आधुनिक लोग हैं जो देहाती कहलाने से बचने के लिए धोती पहन कर पूजा करने से कतराते हैं, लेकिन लाखों रुपए बाबाओं को पूजापाठ के लिए दे देते हैं और फिर चमत्कार की  झूठी आस लिए जीते रहते हैं. नए जमाने के ये मूर्ख भूल जाते हैं कि वे कोई वैज्ञानिक काम नहीं कर रहे बल्कि पंडों और बाबाओं के इशारों पर उसी तरह नाच रहे हैं जिस तरह इन के पूर्वज नाचा करते थे. फर्क इतना है कि नचाने वालों ने इन के हिसाब से ही नचाने के यानी पैसा  झटकने के तरीके बदल दिए हैं.

ये भी पढ़ें- वेलेंसिया की भूल: भाग 2

सोशल मीडिया के इफैक्ट्स

अधिकतर घरों में अब इनेगिने दोचार लोग ही रहते हैं, लेकिन उन के पास भी एकदूसरे के लिए वक्त नहीं रहता.  यह कम हैरानी की बात नहीं कि किशोरवय का बच्चा अपने कमरे से मां को व्हाट्सऐप करता है या फिर फोन कर कहता है कि मम्मी, दूध ले आओ. पतिपत्नी एक पलंग पर बैठे या लेटे, एकदूसरे से बात नहीं करते, बल्कि हाथ में स्मार्टफोन लिए चैटिंग में मशगूल रहते हैं. वे इसे शान की बात सम झते हैं कि उन्हें कई लोग लाइक और फौलो कर रहे हैं.

उम्मीद करना बेकार है कि वे निहायत व्यक्तिगत बातें, आर्थिक स्थिति और पारिवारिक मसलों पर मुद्दे की बात आपस में शेयर करते उन समस्याओं को हल कर पाएं जो एक अदृश्य जानलेवा वायरस की तरह उन की जिंदगी और घरगृहस्थी को गिरफ्त में ले रही हैं.

दिक्कत यह है कि सोशल मीडिया ने लोगों से सोसाइटी ही छीन ली है. खासे पढ़े लोग और बच्चे औनलाइन गेम्स की तरह घातक और काल्पनिक दुनिया में जी रहे हैं और जब वास्तविकताएं सामने आती हैं तो घबरा उठते हैं. सूटबूट और चमकदमक वाली यह पीढ़ी भीतर से कितनी खोखली होती जा रही है, इस का अंदाजा अभिषेक और प्रीति के मामले से भी लगाया जा सकता है.

जमीन से कटाव

सच यह भी है कि अधिकांश अर्धसंपन्न लोग अब जमीन से कटते जा रहे हैं क्योंकि वे पढ़ नहीं पा रहे. धर्म और सोशल मीडिया दोनों उन्हें  झूठा आश्वासन और मनोरंजन भर देते हैं, कोई व्यावहारिक बातें नहीं सिखाते जो पिछली पीढ़ी को किताबों और पत्रिकाएं पढ़ने से मिल जाती थीं.

मिसाल अभिषेक और प्रीति की ही लें. नौकरी का जाना या फिर पैसों की कमी हो जाना कोई बहुत बड़ी समस्या नहीं थी. लेकिन ये लोग ऊपर बताई गई वजहों के चलते समाज और रिश्तेदारी से कट गए थे.

अभिषेक के बहनोई और दूसरे रिश्तेदार जब यह दुखद खबर सुन कर इंदौर आए तो हैरत में थे और उन की बातों से साफ लगा कि उन्हें मालूम ही नहीं था कि इन लोगों की आर्थिक व मानसिक स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि उन्हें आत्महत्या का रास्ता चुनना पड़ा और इस के लिए अपने मासूम बच्चों की हत्या करने का गुनाह भी करना पड़ा.

अगर लोगों की संघर्ष क्षमता यों ही खत्म होती रही और वक्त रहते वे नहीं संभले, तो यकीन मानें ऐसे हादसे आएदिन और ज्यादा होंगे. धर्म और सोशल मीडिया ने लोगों को दिमागीतौर पर इतना अपाहिज बना दिया है कि वे जिंदगी और भविष्य की कोई योजना ही नहीं बना पा रहे.

ये भी पढ़ें- आजकल की लड़कियां

 रहा हाल

जरूरी नहीं कि सभी हैरानपरेशान लोग आत्महत्या करें. अधिकांश लोग भीषण तनाव में जी रहे हैं और यह तनाव जिन वजहों – धर्म और सोशल मीडिया – के चलते हैं, उन्हें ही वे गले लगाए बैठे हैं. ऐसे में क्या रास्ता है जो उन्हें शान से जीने की कला दिखाए, कल्पनाओं व अवसाद से बाहर निकाले? इकलौता रास्ता है शिक्षाप्रद पुस्तकें और पत्रिकाएं, क्योंकि जो लोग इन्हें पढ़ रहे हैं वे छोटीमोटी तो क्या, बड़ीबड़ी परेशानियों का भी धैर्य से मुकाबला करते जीत जाते हैं.

लाख टके का सवाल या परेशानी यह है कि इन लोगों को पढ़ने के रास्ते पर कैसे लाया जाए, तो सटीक जवाब यही सम झ आता है कि जो लोग पढ़ने की अहमियत और फायदे सम झते हैं वे समाज और देशहित में दूसरों को प्रेरित करें. धर्मकर्म और सोशल मीडिया में इन से बरबाद हो रहे लोगों को बचाएं. उन्हें इन के दुष्परिणामों के बारे में बताएं. तभी बात बन सकती है वरना कल को फिर किसी  झुग्गी झोंपड़ी से ले कर आलीशान मकान, होटल या रिसोर्ट के कमरे में अकेले या सामूहिक आत्महत्या की हृदयविदारक खबर सुनने को तैयार रहें.

सुप्रीम कोर्ट के पारिवारिक निर्णय : लिवइन, तीन तलाक और समलैंगिकता

लेखक: डा. बसंतीलाल बाबेल

लिवइन रिलेशनशिप 21वीं सदी की एक महत्त्वपूर्ण नवीनतम अवधारणा है. सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इंदिरा शर्मा बनाम वी के वी शर्मा (एआईआर 2014 एससी 309) के मामले में इसे एक हद तक मान्यता प्रदान की गई है. इस अवधारणा के पीछे व्यक्ति के जीवन जीने की स्वतंत्रता के मूल अधिकार का प्रभाव है. यह एक प्रचलित व्यवहार पर कानूनी मुहर है. जो लोग इसे अनैतिक मान रहे थे उन के लिए यह एक चुनौती है.

लिवइन रिलेशनशिप में 2 व्यक्ति (पुरुष व स्त्री) स्वेच्छा से एकसाथ रहते हैं और यौन संबंध स्थापित करते हैं. वे एकसाथ ऐसे रहते हैं जैसे पतिपत्नी रहते हैं. लेकिन लिवइन रिलेशनशिप से कानूनी वैवाहिक दर्जा दोनों को नहीं मिलता. यह स्वाभाविक तौर से 2 व्यक्तियों की आपसी चौइस और रजामंदी का परिणाम है.

सुप्रीम कोर्ट ने इस लिवइन रिलेशनशिप को मान्यता दी कि ऐसे लोग जो लंबे समय से शांतिपूर्वक एकसाथ रह रहे हैं, उन्हें तंग या परेशान नहीं किया जाए. पुलिस अधिकारी भी उन के संबंधों में अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करें कि वे बिना पंडितमौलवी या अदालत के ठप्पे के साथ क्यों रह रहे हैं.

दीपिका बनाम स्टेट आफ उत्तर प्रदेश (एआईआर 2014 इलाहाबाद) के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा यह कहा गया कि जहां पुरुष व स्त्री स्वतंत्र इच्छा से पतिपत्नी के रूप में एकसाथ रह रहे हों तथा उन का जीवन शांतिपूर्वक चल रहा हो, वहां उन के मातापिता या रिश्तेदारों की शिकायत पर पुलिस अधिकारी द्वारा उन के शांतिपूर्वक जीवन में हस्तक्षेप करने का हक नहीं. ऐसे मामलों में अकसर लड़की के मातापिता पुलिस में एफआईआर दर्ज करा देते हैं कि उन की बेटी का अपहरण कर लिया गया है.

ऐसे अनेक व्यक्ति हैं जो विवाह नहीं करना चाहते. यह उन की इच्छा है. वे अपने जीवन में आनंद उठाने के लिए लिवइन रिलेशनशिप में रहना पसंद करते हैं. लिवइन रिलेशनशिप का फैसला उन के लिए वरदान है.

इस वरदान की शर्तें जरूर हैं पर वे इतनी हानिकारक नहीं अगर वयस्क युगल सावधानी और धैर्य बरतें. असल में लिवइन रिलेशनशिप में जिम्मेदारियां शादी से ज्यादा हैं क्योंकि यहां किसी की घौंस नहीं चल सकती. निम्न बातों का खयाल रखना फिर भी जरूरी है-

१. लिवइन रिलेशनशिप के संबंध कभी भी सहमति या असहमति से समाप्त किए जा सकते हैं.

२. लिवइन रिलेशनशिप में स्त्री को वे अधिकार नहीं मिलते जो एक विवाहित स्त्री को प्राप्त होते हैं.

३. लिवइन रिलेशनशिप में रहने वाली स्त्री भरणपोषण का दावा नहीं कर सकती.

४. लिवइन रिलेशनशिप के दौरान जन्मे बच्चों की वैधानिक स्थिति स्पष्ट नहीं है. वे मां के विधिवत बच्चे होंगे पर पिता का नाम होगा या नहीं, यह अस्पष्ट है.

५. स्त्रीपुरुष दोनों के पास किसी दूसरे के पास जाने का भी अधिकार बना रहता है.

६. लिवइन रिलेशनशिप में स्त्री अकसर धोखे का शिकार होती है.

७. लिवइन रिलेशनशिप में कई बार स्त्रियां भी पुरुषों का अनावश्यक शोषण करती हैं.

८. लिवइन रिलेशनशिप में भावनात्मक संबंध स्थापित होने की संभावना कम रहती है. पर दोनों किन्हीं विवाहितों से ज्यादा समर्पित होते हैं.

इंदिरा शर्मा के मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा लिवइन रिलेशनशिप के संबंध में उचित कानून बनाने को सरकार से कहा गया है पर शायद भाजपा सरकार ऐसा कानून कभी नहीं बनाएगी क्योंकि हिंदू धर्म विवाह को संस्कार मानता है. हालांकि, हिंदू धर्म के पौराणिक ग्रंथ इस तरह की कहानियों से भरे हैं कि जब बिना विवाह स्त्रीपुरुष साथ रहे.

लिवइन रिलेशनशिप के दुष्परिणामों से संबंधित अनेक मामले न्यायालय के समक्ष आ चुके हैं. स्टेट औफ उत्तर प्रदेश बनाम नौशाद (एआईआर 2014, एससी 384) के मामले में पुरुष व स्त्री लंबे समय तक लिवइन रिलेशनशिप में रहे. पुरुष ने स्त्री को उस के साथ बाद में विवाह करने का आश्वासन देते हुए यौन संबंध स्थापित किया जिस से स्त्री गर्भवती हो गई. बाद में पुरुष ने स्त्री के साथ विवाह करने से इनकार कर दिया. स्त्री धोखे का शिकार हो गई.

ऐसा ही एक और मामला बुहिसत्व गौतम बनाम कुमारी शुभ्रा चक्रवर्ती (एआईआर 1996 एससी 922) का है. इस में बुहिसत्व गौतम एक लंबे समय तक शुभ्रा चक्रवर्ती के साथ सहमति वाला बिना रस्मों का विवाह रचा कर उस से यौन संबंध बनाता रहा. बाद में बुहिसत्व गौतम ने किसी अन्य से विवाह कर लिया. यहां भी शुभ्रा चक्रवर्ती धोखे का शिकार हुई.

कुल मिला कर लिवइन रिलेशनशिप एक खतरे की घंटी है. ऐसे संबंध कभी भी समाप्त हो सकते हैं और दोनों दुविधा में पड़ सकते हैं. जब तक ये संबंध बने रहें, ये विवाह से ज्यादा सुखदायक हैं. पर आज भी कानून बहुत जगह इस रिश्ते को मान्यता नहीं देता. हां, इस फैसले के बाद इसे अपराध की गिनती में नहीं डाला जाएगा. एक तरह से यह बिना विवाह यौन संबंध बनाने का हक स्थापित करता है.

लिवइन रिलेशनशिप को कानूनी मान्यता सैकड़ों युवा जोड़ों को राहत देगी जो लड़की के मातापिता की धमकियों से डरे रहते हैं. लेकिन मकानमालिक, होटल रिसैप्शनिस्ट, हौस्पिटल इन्हें जोड़ा मानेंगे, इस में अभी संदेह है. अपराध न होते हुए भी यह धुंधला अधिकार बना रहेगा.

ये भी पढ़ें- दुनिया के  मुसलमान अपनों के  शिकार

तीन तलाक असंवैधानिक

सर्वोच्च न्यायालय ने 22 अगस्त, 2017 को एक चौंकाने वाला ऐतिहासिक फैसला देते हुए ‘तीन तलाक’ (तलाक उल बिद्दत) को असंवैधानिक करार दे दिया. मुसलिम विधि के अंतर्गत विवाह, संस्कार नहीं हो कर, एक सम झौता है.

जिस प्रकार एग्रीमैंट को कभी भी भंग किया जा सकता है उसी प्रकार मुसलिम विधि के अंतर्गत विवाह को भी कभी भी भंग किया जा सकता है. मुसलिम तलाक बहुत आसान है. मुसलिम पुरुष कभी भी अपनी पत्नी को तलाक दे सकता है. यहां तक कि हंसीमजाक और नींद में दिया गया तलाक भी मुसलिम कानून में वैध माना जाता है. तलाक का सर्वाधिक आसान तरीका है, तीन तलाक अर्थात तलाक उल बिद्दत.

तीन तलाक में पति तीन बार ‘मैं तलाक देता हूं, मैं तलाक देता हूं, मैं तलाक देता हूं’ शब्दों का उच्चारण करते हुए अपनी पत्नी को तलाक दे सकता है. ऐसा तलाक तुरंत अंतिम व अविखंडनीय हो जाता है. तलाक का यह अधिकार केवल पति को प्राप्त है.

प्रथम बार सायरा बानो नामक महिला द्वारा इसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई थी. सायरा बानो का विवाह रिजवान अहमद के साथ 21 अप्रैल, 2001 को इलाहाबाद में हुआ था. इरफान और उमेरा नाम की उन के 2 संतानें हुईं. उन का वैवाहिक जीवन लगभग कटुतापूर्ण रहा. पति की यह शिकायत थी कि  सायरा बानो 9 अप्रैल, 2015 को घर छोड़ कर अपने पिता के पास चली गई और वापस आने से मना कर दिया. इस पर 10 अक्तूबर, 2015 को प्रत्याशी पति द्वारा पत्नी को तीन तलाक दे दिया गया. सायरा बानो द्वारा इसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई.

मामले की सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे एस खेहर, न्यायमूर्ति कूरियन जोसफ, न्यायमूर्ति आर एफ नरीमन, न्यायमूर्ति यू यू ललित और न्यायमूर्ति अब्दुल नजीर द्वारा की गई. निर्णय 3:2 के बहुमत से दिया गया.

सर्वोच्च न्यायालय ने अपने बहुमत के निर्णय में तीन तलाक (तलाक उल बिद्दत) को अवैध व असंवैधानिक करार देते हुए कहा कि-

१. तीन तलाक अर्थात तलाक-उल-बिद्दत मनमाना, एक पक्षीय व अविखंडनीय होने से संविधान के अनुच्छेद 14 के प्रतिकूल है.

२. तीन तलाक संविधान के अनुच्छेद 25 के अंतर्गत सुरक्षित नहीं है. यह लोक व्यवस्था, नैतिकता व स्वास्थ्य आदि निर्बन्धने के अध्यधीन है. इन आधारों पर तीन तलाक को निर्बाधित किया जा सकता है.

३. कुरान में तीन तलाक अर्थात तलाक-उल-बिद्दत को स्पष्ट रूप से मान्यता नहीं दी गई है. कुरान में ऐसे तलाक को निरुत्साहित किया गया है. कुरान में यह व्यवस्था दी गई है कि तलाक से पूर्र्व पतिपत्नी में सम झाइश के प्रयास किए जाने चाहिए.

४. विश्व के अनेक देशों में तीन तलाक प्रतिबंधित है.

सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय समय के दस्तावेज पर एक सशक्त हालासर है. इस से मुसलिम महिलाओं को मनमाने तलाक से नजात मिली है.

मुसलिम स्त्री (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) द्वितीय संशोधन अध्यादेश 2019 द्वारा तीन तलाक को संज्ञेय एवं दंडनीय अपराध घोषित करते हुए 3 वर्ष तक की अवधि के कारावास की सजा एवं जुर्माने का प्रावधान किया गया है. अब भाजपा सरकार ने इस बारे में कानून भी बनाया है.

समलैंगिकता अपराध नहीं

संविधान द्वारा प्रदत्त समता एवं स्वतंत्रता के मूल अधिकार का प्रभाव सम झें या पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव, हमारे अपैक्स न्यायालय (सर्वोच्च न्यायालय) ने समलैंगिकता को अपराध व संविधान की भावना के विरुद्ध मानने से इनकार कर दिया है. नवतेज सिंह जोहर बनाम यूनियन औफ इंडिया (2018) के मामले में दिए गए अपने ऐतिहासिक निर्णय में कोर्ट न केवल भारतीय दंड संहिता 1860 की धारा 377 को असंवैधानिक करार दिया है बल्कि सुरेश कौशल बनाम नाज फाउंडेशन (2014) में दिए गए अपने ही निर्णय को उलट भी दिया है.

सुरेश कौशल के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति जी एस सिंघवी द्वारा यह कहा गया था कि भारतीय दंड संहिता की धारा 377 वैध एवं संवैधानिक है. इसे केवल संसद द्वारा समाप्त या कम किया जा सकता है, न्यायपालिका द्वारा नहीं. लगभग 5 वर्षों बाद सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा एवं सहयोगी न्यायाधीशों द्वारा इसे पलट दिया गया. इस से एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि प्रत्येक निर्णय में न्यायाधीश की वैयक्तिक सोच, मनोभाव, धारणा एवं पृष्ठभूमि काम करती है.

समलैंगिकता क्या है

आगे बढ़ने से पूर्व यहां समलैंगिकता का अर्थ स्पष्ट कर देना उचित होगा. समलैंगिकता से अभिप्राय है 2 समलिंगी व्यक्तियों के बीच लैंगिक संबंध.

भारतीय दंड संहिता की धारा 377 में इसे अप्राकृतिक मैथुन कहा गया है. धारा 377 में यह कहा गया है- ‘‘जो कोई किसी पुरुष, स्त्री या जीवजंतु के साथ प्रकृति की व्यवस्था के विरुद्ध स्वेच्छया इंद्रिय भोग करेगा वह आजीवन कारावास या दोनों में से किसी तरह के कारावास, जिस की अवधि 10 वर्ष तक की हो सकेगी, से दंडित किया जाएगा और जुर्माने से भी दंडनीय होगा.’’ इस परिभाषा से यह स्पष्ट है कि -‘गुदा मैथुन,’ ‘मुख मैथुन’ आदि अप्राकृतिक मैथुन की परिधि में आते हैं. समलैंगिकता में ऐसा ही होता है. पुरुष का पुरुष के साथ लैंगिक संभोग करना, पुरुष या स्त्री के साथ गुदा मैथुन करना, पुरुष का स्त्री के साथ गुदा मैथुन करना, स्त्री के मुंह में पुरुष का लिंग प्रवेश करना, जीवजंतुओं के साथ लैंगिक संभोग करना आदि अप्राकृतिक मैथुन हैं.

समलैंगिकता संवैधानिक क्यों

नवतेज सिंह जोहर द्वारा दायर रिट याचिका की सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति आर एफ नरीमन, न्यायमूर्ति ए एम खानविल्कर, न्यायमूर्ति डा. डी वाई चंद्रचूड़ तथा न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा की पीठ द्वारा की गई.

सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में समलैंगिकता की संवैधानिकता के निम्नांकित कारण बताए-

१. लैंगिक क्रियाएं मानव जीवन के लिए आवश्यक हैं. यह निजता का आवश्यक अंग है.

२. दो वयस्क व्यक्तियों की स्वैच्छिक प्राइवेट लैंगिक क्रियाएं न तो सामाजिक व्यवस्था में बाधक बनती हैं और न ही सामाजिक नैतिकता व शिष्टता के विरुद्ध हैं.

३. यदि 2 वयस्क व्यक्तियों की स्वैच्छिक प्राइवेट कृत्य किसी के लिए हानि नहीं पहुंचा रहे हैं तो उन्हें धारा 377 के अंतर्गत अपराध घोषित किया जाना संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है.

४. दो वयस्क व्यक्तियों की अपनी रुचि के अनुरूप स्वैच्छिक लैंगिक संबंध को प्रकृति की व्यवस्था के विरुद्ध नहीं कहा जा सकता.

५. भारतीय दंड विधि की धारा 377 लिंग के आधार पर विभेद करती है. सो, यह संविधान के अनुच्छेद 15 के खिलाफ है.

६. 18 वर्ष से अधिक आयु के व्यक्तियों के स्वैच्छिक प्राइवेट संबंधों को अपराध घोषित किया जाना संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 19 एवं 21 का भी उल्लंघन है.

अपवाद

लेकिन इस निर्णय में यह भी कहा गया है कि प्रकृति के विरुद्ध किया गया लैंगिक काम धारा 377 के अंतर्गत कुछ मामलों में अपराध बना रहेगा, जैसे-

१. वह किसी अवयस्क व्यक्ति के साथ किया जाता है.

२. किसी जीवजंतु के साथ किया जाता है, अथवा

३. वयस्क व्यक्ति के साथ उस की इच्छा के विरुद्ध किया जाता है

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि – ‘‘दो वयस्क व्यक्तियों के बीच स्वेच्छा से किए जाने वाले लैंगिक कृत्य अपराध नहीं हैं यदि उन से लोक व्यवस्था में बाधा कारित नहीं होती हो तथा वे लोक नैतिकता एवं शिष्टता के विरुद्ध नहीं हो.’’

निस्संदेह भारतीय संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में यह निर्णय लीक से हट कर है. इस के परिणाम क्या होंगे, यह भविष्य के गर्त में छिपा है.

ये भी पढ़ें- डेंगू से मौत हुई तो अदालत ने दिलाया 25 लाख रुपए

विवाहेतर संबंध अपराध नहीं

सर्वोच्च न्यायालय ने 21वीं सदी के प्रारंभिक काल में एक और चौंकाने वाला फैसला सुनाते हुए ‘विवाहेतर संबंध’ अर्थात ‘जारकर्म’ को संवैधानिक करार दे दिया है. जोसफ शाईन बनाम यूनियन औफ इंडिया (एआईआर 2018 एससी 4898) के मामले में भारतीय दंड संहिता 1860 की धारा 497 को असंवैधानिक घोषित करते हुए इसे संहिता से हटाए जाने का सु झाव दिया है.

भारतीय दंड संहिता की धारा 497 में आरंभ से ही विवाहेतर संबंध अर्थात जारकर्म को दंडनीय अपराध माना गया है. जारकर्म से अभिप्राय है- ‘‘किसी विवाहित स्त्री द्वारा अपने पति की सहमति या मौनानुकूलता के बिना किसी अन्य व्यक्ति के साथ लैंगिक संबंध स्थापित करना.’’ धारा 497 में यह कहा गया है कि- ‘‘जो कोईर् ऐसे व्यक्ति, जो कि किसी अन्य पुरुष की पत्नी है और जिस का किसी अन्य पुरुष की पत्नी होना वह जानता है, की सम्मति या मौनानुकूलता के बिना उस के साथ ऐसा मैथुन करेगा, जो बलात्संग के अपराध की कोटि में नहीं आता, जारकर्म के अपराध का दोषी होगा और दोनों में से किसी भी भांति के कारावास से जिस की अवधि 5 वर्ष तक की हो सकेगी या जुर्माने से या दोनों से दंडित किया जाएगा. ऐसे मामले में पत्नी दुष्प्रेरक के रूप में दंडनीय नहीं होगी.’’

इस परिभाषा से यह स्पष्ट होता है कि जारकर्म के अपराध का दोषी केवल पुरुष होता है, स्त्री नहीं. फिर यदि पति की सहमति है तो जारकर्म का अपराध गठित नहीं होता. धारा 497 की संरचना के पीछे भारतीय संस्कृति का प्रभाव रहा है. भारतीय संस्कृति में पत्नी को पति की अर्द्धांगिनी माना जाता है. पति का पत्नी पर एकाधिकार होता है. पत्नी अपने पति के सिवा किसी अन्य पुरुष के साथ लैंगिक संबंध स्थापित नहीं कर सकती. यही कारण है कि हिंदू संस्कृति में एकल पति या पत्नी की व्यवस्था है.

अब स्वतंत्रता के मूल अधिकार का प्रभाव कहें या पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव, सोच एवं वैवाहिक मान्याओं में काफी बदलाव आ गया है. जोसफ शाईन नामक व्यक्ति द्वारा मामला सर्वोच्च न्यायालय में उठाया गया. सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति आर एफ नरीमन, न्यायमूर्ति ए एम खानविल्कर, न्यायमूर्ति डा. डी वाई चंद्रचूड एवं न्यायमूर्ति इंदु मलहौत्रा द्वारा इस मामले की सुनवाई की गई.

सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 497 को अवैध एवं अंसवैधानिक घोषित करते हुए कहा कि-

१. धारा 497 लिंग विभेद पर आधारित है. यह पुरुष एवं स्त्री में भेदभाव करती है. इस में जारकर्म के लिए केवल पुरुष को दोषी ठहराया गया है, स्त्री को नहीं. यह संविधान के अनुच्छेद 15 का उल्लंघन है.

२. धारा 497 इस बात का संकेत देती है कि विवाहिता स्त्री पति की संपत्ति है. उस पर पति का एकाधिकार है. पति की सहमति के बिना पत्नी कुछ नहीं कर सकती. यह संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है.

३. धारा 497 का आशय यह है कि पत्नी पति के अधीनस्थ है. पति पत्नी पर अपने प्रभाव का प्रयोग कर सकता है. जारकर्म के अपराध के गठन में पति की अहम भूमिका रहती है. यदि पत्नी अपने पति की सहमति या मौनानुकूल से परपुरुष के साथ लैंगिक संबंध स्थापित करती है तो वह जारकर्म की परिधि में नहीं आता है. स्पष्ट है कि जारकर्म में पति की सहमति का प्रश्न सर्वोपरि है. यह संविधान के अनुच्छेद 14 एवं 21 का उल्लंघन है.

ये भी पढ़ें- ज्योतिषी, ढोंगी बाबा और गुरुमां बन रहे जी का जंजाल

४. संविधान के अनुच्छेद 21 में प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का मूल अधिकार प्रदान किया गया है. लेकिन जारकर्म की व्यवस्था इस के प्रतिकूल है क्योंकि महिला स्वयं अपनी इच्छा से विवाहेतर संबंध स्थापित नहीं कर सकती है.

उपयुक्त सभी कारणों से भारतीय दंड संहिता की धारा 497 (जारकर्म) संविधान के अनुच्छेद 14, 15 एवं 21 के प्रतिकूल होने से असंवैधानिक है.

लेकिन इन सब के बावजूद जारकर्म को विवाहविच्छेद का एक आधार यथावत रखा गया है. अर्थात जारकर्म के आधार पर विवाहविच्छेद की याचिका दायर की जा सकेगी. निस्संदेह यह निर्णय भारतीय संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में लीक से हट कर है. इस के परिणाम क्या होंगे, यह भविष्य के गर्त में छिपा है.

तुम्हें सब है पता मेरी मां

जब मिस वर्ल्ड का ताज किसी प्रतियोगी से सिर्फ एक प्रश्न दूर हो और उस प्रश्न के जवाब में प्रतियोगी एक मां को सब से ज्यादा सैलरी पाने का हकदार बताए और साथ ही मां की गरिमा को और बढ़ाते हुए यह भी कहे कि मां के वात्सल्य की कीमत कैश के रूप में नहीं, बल्कि आदर और प्यार के रूप में ही अदा की जा सकती है और जब उस के इस जवाब पर खुश हो कर विश्व भी अपनी सहमति की मुहर लगा कर उसे ‘ब्यूटी विद ब्रेन’ मानते हुए ‘मिस यूनिवर्स’ का ताज पहना देता है तो यकीनन उस की कही बात उस के ताज की ही तरह महत्त्वपूर्ण हो जाती है.

मानुषी छिल्लर के जवाब से शतप्रतिशत सहमत होने में संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है. सचमुच मां का काम अतुल्य है. एक मां एक दिन में ही अपने बच्चे के लिए आया, रसोइया, धोबी, अध्यापिका, नर्स, टेलर, मोची, सलाहकार, काउंसलर, दोस्त, प्रेरक, अलार्मघड़ी और न जाने ऐसे कितने तरह के कार्य करती है, जबकि घर से बाहर की दुनिया में इन सब कार्यों के लिए अलगअलग व्यक्ति होते हैं.

ये भी पढ़ें- बेवजह शक के ये हैं 5 साइड इफैक्ट्स

एक विलक्षण शक्ति

मां बनते ही मां के कार्यक्षेत्र का दायरा बहुत विकसित हो जाता है, किंतु निश्चित रूप से मां को ‘संपूर्ण और सम्माननीय मां’ उस के वे दैनिक कार्य नहीं बनाते, बल्कि एक मां को महान उस की वह आंतरिक शक्ति बनाती है, जो उसे एक ‘सिक्स्थ सैंस’ के रूप में मिली होती है, जिस के बल पर मां बच्चे के अंदर इस हद तक समाहित हो जाती है कि अपने बच्चे की हर बात, हर पीड़ा, हर जरूरत, उस की कामयाबी और नाकामयाबी हर बात को बिना कहे केवल उस का चेहरा देख कर ही भांप लेती है.

मां का कर्तव्य केवल अपने बच्चों की जरूरतों को पूरा करना ही नहीं होता, बल्कि मां की और भी बहुत सी जिम्मेदारियां होती हैं. अपने बच्चों को समझना, जानना और उन पर विश्वास करना, उन का उचित मार्गदर्शन और चरित्र निर्माण कर के उन्हें एक अच्छा इंसान बनाना भी मां की जिम्मेदारियों में शामिल होता है.

जहां एक तरफ मां का भावनात्मक संबल किसी भी बच्चे का सब से बड़ा सहारा होता है, वहीं दूसरी तरफ मां के विश्वास और मार्गदर्शन में वह शक्ति होती है, जिस से वह अपने बच्चे को फर्श से अर्श तक पहुंचा सकती है.

बच्चे को योग्य बनाती है मां

जहां एक तरफ अब्राहम लिंकन की मां ने घोर आर्थिक तंगी के बावजूद अब्राहम लिंकन को चूल्हे के कोयले से अक्षर ज्ञान कराया और उन्हें अमेरिका के राष्ट्रपति के पद पर पदासीन होने योग्य बनाया, वहीं दूसरी तरफ जब महान वैज्ञानिक थौमस एडिसन को उन के स्कूल टीचर ने ‘ऐडल्ट चाइल्ड’ कह कर उन्हें हतोत्साहित किया तब उन की मां ने एडिसन से सचाई छिपा कर उन्हें स्कूल से निकाल लिया और घर पर स्वयं ही उन्हें शिक्षा देनी शुरू कर दी.

उस समय एडिसन की मां ने झूठ बोल कर विलक्षण प्रतिभा के धनी अपने बेटे एडिसन के कोमल मन को न केवल आहत होने से बचा लिया था, बल्कि उन्हें प्रोत्साहित कर उन के लिए एक महान वैज्ञानिक बनने का मार्ग भी प्रशस्त कर दिया था.

अब्राहम लिंकन और एडिसन की मांओं की ही तरह हमारे आसपास भी बहुत सी ऐसी मांएं होती हैं जो विपरीत हालात में अपने बच्चों का संबल बन कर उन्हें सफलता के शिखर तक ले जाती हैं.

कैसे बनाती है मां बेहतर तालमेल

अपने पति की ट्रांसफर की वजह से निहारिका को सत्र के बीच में अपने बेटे संकल्प का दूसरे शहर के स्कूल में दाखिल कराना पड़ा. वे नए शहर के एक बड़े स्कूल में संकल्प को प्रवेश परीक्षा दिलाने ले कर गईं.

संकल्प के प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण कर लेने के प्रति निहारिका पूरी तरह आश्वस्त थीं, किंतु उन्हें यह सुन कर जबरदस्त झटका लगा कि वह परीक्षा उत्तीर्ण नहीं कर सकता है. उसे संकल्प की काबिलीयत पर पूरा विश्वास था. अत: उस ने स्कूल प्रशासन से कहा कि वे उस की उत्तर पुस्तिका देखना चाहती हैं. विद्यालय प्रशासन ने उन्हें प्रिंसिपलरूम में बुला कर उत्तर पुस्तिका दिखाई.

निहारिका यह देख कर दंग रह गई कि सचमुच संकल्प ने अधिकांश सवालों के जवाब ही नहीं लिखे थे. उस ने प्रश्नवाचक निगाहों से संकल्प की ओर देखा तो उस ने धीरे से कहा, ‘‘मम्मा, मुझे प्रश्न समझ में नहीं आए.’’

मां की प्रश्नवाचक निगाह को बेटे का जवाब मिल गया था. निहारिका समझ गई थीं कि बेटा जवाब देने से इसलिए नहीं चूका कि उसे ज्ञान नहीं हैं, बल्कि इसलिए चूका कि शायद यहां प्रश्नपत्र बनाने का तरीका उस के पुराने विद्यालय से भिन्न है.

प्रिंसिपल ने निहारिका से कहा, ‘‘सौरी मैम, उत्तर पुस्तिका देख कर आप समझ गई होंगी कि संकल्प पढ़ाई में कमजोर है, इसलिए हम अपने स्कूल में उसे दाखिला नहीं दे पाएंगे.’’

अब निहारिका के सामने एक तरफ संकल्प द्वारा खाली छोड़ दी गई उत्तर पुस्तिका थी जिस के आधार पर विद्यालय उसे प्रवेश देने से इनकार कर रहा था, तो दूसरी तरफ एक मां का विश्वास था कि उस का बेटा अयोग्य नहीं है, क्योंकि वह उस की प्रतिभा से बहुत अच्छी तरह वाकिफ थी.

ये भी पढ़ें- जब बौयफ्रेंड करने लगे जबरदस्ती तो ऐसे बचें

अंदरूनी प्रतिभा की पहचान

निहारिका ने प्रिंसिपल से कहा, ‘‘यह ठीक है सर कि मेरे बेटे ने सभी प्रश्न हल नहीं किए हैं और वह प्रवेश परीक्षा के मानदंड पर खरा नहीं उतर पाया है. अत: आप को इस बात का पूरा अधिकार है कि आप उसे अपने स्कूल में दाखिला न दें, लेकिन वह पढ़ाई में कमजोर है, मैं यह मानने को बिलकुल तैयार नहीं हूं और न ही मैं आप को ऐसा कहने दूंगी.’’

उन की बात सुन कर प्रिंसिपल हंस पड़े और बोले, ‘‘मैम, ऐसा मैं नहीं कह रहा हूं संकल्प की परफौर्मैंस कह रही है.’’

निहारिका ने उन से तर्क देते हुए कहा, ‘‘सर, आप 4 प्रश्नों के उत्तरों की परफौर्मैंस के आधार पर अगर मेरे बेटे को पढ़ाई में कमजोर कह सकते हैं तो उस की मां होने के नाते उस की आज तक ही हर परफौर्मैंस के आधार पर मैं यह कहती हूं कि मेरा बेटा बहुत ब्रिलिएंट है. अब आप बताएं कि यह कैसे सिद्ध होगा कि एक मां सही है यह उत्तर पुस्तिका.’’

निहारिका की बात सुन कर प्रिंसिपल बोले, ‘‘मैम, आप बिना बात अपना और हमारा समय बरबाद कर रही हैं.’’

मगर निहारिका नहीं मानीं. उन्होंने बड़ी विनम्रता से कहा, ‘‘सर, हो सकता है मेरी वजह से आप का कीमती समय बरबाद हो रहा हो पर एक मां होने के नाते अगर मैं इस समय अपने बेटे के पक्ष में नहीं बोली तो शायद मेरा बेटा अपना आत्मविश्वास खो देगा. आप प्रवेश न दें मुझे कोई शिकायत नहीं है पर जब तक मैं यह सिद्ध नहीं कर लूंगी कि मेरा बेटा कमजोर विद्यार्थी नहीं है मैं यहां से हरगिज नहीं जाऊंगी.’’

निहारिका की दृढ़ता देख कर प्रिंसिपल कुछ देर सोचते रहे, फिर बोले, ‘‘ठीक है, मैं संकल्प से कुछ प्रश्न पूछता हूं. देखता हूं वह कितनों के सही जवाब दे पाता है.’’

उस के बाद उन्होंने संकल्प से मैथ व सांइस के अनेक सवाल पूछे. संकल्प हर सवाल का सही जवाब देता गया. फिर उन्होंने उस से उस की हौबी और स्पोर्ट्स के सवाल पूछे. संकल्प ने उन के भी सही जवाब दिए.

निहारिका देख रही थीं कि हर सही जवाब के साथ संकल्प का आत्मविश्वास बढ़ता जा रहा था और प्रिंसिपल के चेहरे पर आश्चर्य के साथसाथ मुसकान भी फैलती जा रही थी.

उस के बाद प्रिंसिपल के व्यवहार में परिवर्तन आ गया. उन्होंने संकल्प की पीठ थपथपाते हुए कहा, ‘‘तुम लग तो ब्रिलिएंट रहे हो फिर तुम ने प्रश्न पूरे हल क्यों नहीं किए?’’

इस पर फिर उस ने सही जवाब दिया कि उसे प्रश्न समझ ही नहीं आए.

तब निहारिका ने कहा, ‘‘सर, निश्चय ही यहां के प्रश्न तैयार करने का ढंग संकल्प के पुराने स्कूल से अलग है, जिसे देख वह घबरा गया और ठीक से पेपर हल नहीं कर पाया. मगर अब तो आप ने स्वयं उस की परीक्षा ले ली, तो क्या आप अब भी इसे दाखिला नहीं देंगे?’’

प्रिंसिपल दुविधा में पड़ गए, क्योंकि अब उन्हें भी लगने लगा था कि संकल्प ने टैस्ट पेपर भले ही ठीक ढंग से हल नहीं किया पर वह है कुशाग्रबुद्धि. फिर उन्होंने प्रश्नवाचक दृष्टि से वाइस प्रिंसिपल की तरफ देखा कि क्या करना चाहिए?

काफी देर से निहारिका की बातें सुन रहे वाइस प्रिंसिपल ने कहा, ‘‘हिज मदर इज लुकिंग वैरी कौन्फिडैंट. हमें इन की बात पर भरोसा करना चाहिए और संकल्प को दाखिला देना चाहिए.’’

आत्मविश्वास की चमक

वसुंधरा का बेटा उत्कर्ष दूसरी कक्षा में पढ़ता था. उस के स्कूल में कक्षा का मौनिटर बनने के लिए बच्चों को स्कूल द्वारा दिए गए किसी एक विषय पर बोलना होता था. उन की वाक क्षमता तथा कुछ अन्य विशेषताओं के आधार पर सर्वश्रेष्ठ को मौनिटर चुना जाता था. उत्कर्ष ने भी प्रतियोगिता में हिस्सा लिया था और उसे चुन लिए जाने की पूरी उम्मीद थी, किंतु वह चयनित नहीं हुआ.

उस दिन स्कूल से वापस आने के बाद उत्कर्ष वसुंधरा की गोद में सर रख कर जोरजोर से रोने लगा. पहले तो वसुंधरा घबरा गई पर फिर तुरंत मां की छठी इंद्रिय जागृत हो गई. उन्हें उत्कर्ष के रोने का कारण समझ में आ गया. उन्होंने उत्कर्ष से पूछा, ‘‘क्या तुम मौनीटर नहीं चुने गए.’’

मां के मुंह से यह बात सुनते ही उत्कर्ष का रोना और तेज हो गया.

वसुंधरा ने उसे समझाते हुए कहा, ‘‘बेटा, हम जो चाहते हैं वह हमें मिलता जरूर है, पर यह जरूरी नहीं है कि वह पहली बार में ही मिल जाए. कुछ भी बनने या पाने के लिए हमें मेहनत करनी पड़ती है. एक बार असफल होने पर रोना या घबराना नहीं चाहिए, बल्कि अगली बार के लिए मेहनत करनी चाहिए. जब हम बिना घबराए और परेशान हुए पूरे मन से फिर से मेहनत करते हैं तो हमें हमारा लक्ष्य अवश्य हासिल हो जाता है.’’

अपनी मां के मुंह ये यह बात सुनते ही नन्हा उत्कर्ष अपने आंसू पोंछता हुआ पूछने लगा, ‘‘आप को कैसे मालूम?’’

अब वसुंधरा ने उस का हौसला बढ़ाते हुए कहा, ‘‘मैं तुम्हारी मां हूं, इसलिए मुझे पता है कि तुम जो चाहो वह कर सकते हो. बस तुम कोशिश करते रहो. देखना एक दिन तुम अपने स्कूल के हैड बौय भी बन जाओगे.’’

मां की बात सुन उत्कर्ष के चेहरे पर आत्मविश्वास की चमक आ गई. उस के मन में यह बात गहरे तक बैठ गई कि यदि वह कोशिश करेगा तो मौनीटर तो क्या हैड बौय तक बन जाएगा.

ये भी पढ़ें- पिता को भी बनना चाहिए बेटियों का दोस्त

जगाती है सकारात्मक सोच

अगर संकल्प और उत्कर्ष दोनों की मांएं उन की असफलता पर नकारात्मक रूख अपनातीं तो स्थिति बिगड़ सकती थी. संकल्प के खराब अंक देख कर अगर उस समय निहारिका उसे डांटती और उस की नाकामयाबियां गिनाती हुई उसे वहां से घर ले आती तो यकीनन संकल्प का आत्मविश्वास डगमगा जाता और शायद घबरा कर अन्य स्कूलों में भी सही ढंग से प्रश्न हल नहीं कर पाता. किंतु अपने बच्चे की प्रतिभा पर पूर्ण विश्वास रखने की वजह से निहारिका ने न केवल संकल्प का आत्मविश्वास दृढ़ किया, बल्कि उसे स्कूल में दाखिला दिलवाने में भी कामयाब रही.

बच्चे का खराब परिणाम आने या उस की किसी प्रकार की असफलता पर जहां उसे डांटना व उस की कमियां गिनाना गलत है, वहीं दूसरों के सामने उस की झूठी तारीफ और उस की छोटी सी उपलब्धि को भी बहुत बढ़ाचढ़ा कर बखानने का परिणाम भी हानिकारक होता है.

बच्चे की असफलता पर चीखने और उसे कोसने के बजाय शांत रह कर असफलता के कारण को समझने और फिर उसे दूर करने की कोशिश में बच्चे की मदद करनी चाहिए.

बदल रही है मां की जिम्मेदारी

वक्त बदल रहा है और वक्त के साथ मां की जिम्मेदारियां भी बदल रही हैं. पहले मां के पास शिक्षा का ज्ञान नहीं होता था पर वह व्यावहारिक और सांस्कारिक ज्ञान देती रहती थी पर आज मां के पास व्यावहारिक और सांस्कारिक ज्ञान के साथसाथ शैक्षणिक ज्ञान भी है. आज मां अपने बच्चे को और बेहतर भविष्य दे सकती है, किंतु समयाभाव आज बहुत सी मांओं को उन के कर्त्तव्य पूरे करने से दूर कर रहा है, जिस का दुष्परिणाम समाज को भुगतना पड़ रहा है.

आज परिवेश बहुत तेजी से बदल रहा है, जिस की वजह से हर उम्र के बच्चों को अलगअलग प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है. कई बार बच्चे अपनी समस्याओं को अपने मातापिता से शेयर नहीं करते हैं और अकेले उन से जूझते रहते हैं.

कई बार डांट के डर से बच्चे अपनी समस्याओं को शेयर नहीं करते. अत: यह बहुत आवश्यक है कि मां अपने बच्चे में इतना विश्वास जगाए रखे कि वह हर कदम पर और हर हालात में उस के साथ है ताकि बच्चा भयवश उस से अपनी परेशानी न छिपाए.

आज बच्चों की सुरक्षा भी एक बहुत बड़ा प्रश्नचिह्न बन कर खड़ा है. यह असुरक्षा छोटीबड़ी हर उम्र की लड़कियों और अब तो लड़कों के लिए भी व्याप्त हो चुकी है. किशोरवय बच्चों में आक्रोश भरता जा रहा है और वे बिना सोचेसमझे कोई भी कदम उठाते चले जा रहे हैं. उन्हें संभालने और संयमित परवरिश का भार मां के ही कंधों पर है और समय के साथसाथ वह न केवल बढ़ता जा रहा है, बल्कि मां की और जागरूकता मांग रहा है.

जिस समय एक औरत एक मां की भूमिका निभा रही होती है ठीक उसी समय वह एक पत्नी, एक बहू, एक बेटी, एक बहन, एक पड़ोसी और कई बार केवल एक इंसान की भूमिका में भी अपने बच्चों के समक्ष होती है.

बच्चे हरेक के साथ अपनी मां के व्यवहार को बहुत बारीकी से देखते हैं. उन्हें मां की कोई बात बहुत अच्छी तो कई बार कुछ व्यवहार बहुत खराब भी लगता है. किंतु उस की वे कोई प्रतिक्रिया नहीं देते, क्योंकि मां की बातों का विरोध करना उन्हें नहीं आता पर उस के आधार पर मां के लिए उपजी भावना उन के अंदर एक जगह बना लेती है.

ये भी पढ़ें- अगर आप सास बनने जा रही हैं तो पढ़ें ये खबर

दिवंगत भूतपूर्व राष्ट्रपति डा. ऐपीजे अब्दुल कलाम ने कहा था कि किसी भी राष्ट्र के निर्माण में मां के योगदान की भूमिका तय कर दी गई है, इसलिए हर मां को यह बात समझनी चाहिए कि उस की जिम्मेदारी केवल अपने बच्चे को पालपोस कर खिलापिला कर बड़ा कर देने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि उसे एक अच्छा नागरिक बनाना भी उस का ही कर्तव्य है, क्योंकि जब वह एक बच्चे का पालनपोषण कर रही होती है तो उस समय वह साथ ही साथ राष्ट्र के भविष्य का भी निर्माण कर रही होती है.

क्यों, आखिर क्यों

सुजाता ओवरसियर

आज लगातार 7वें दिन भी जब मालती काम पर नहीं आई तो मेरा गुस्सा सातवां आसमान छू गया, खुद से बड़बड़ाती हुई बोली, ‘क्या समझती है वह अपनेआप को? उसे नौकरानी नहीं, घर की सदस्य समझा है. शायद इसीलिए वह मुझे नजरअंदाज कर रही है…आने दो उसे…इस बार मैं फैसला कर के ही रहूंगी…यदि वह काम करना चाहे तो सही ढंग से करे वरना…’ अधिक गुस्से के चलते मैं सही ढंग से सोच भी नहीं पा रही थी.

मालती बेहद विश्वासपात्र औरत है. उस के भरोसे घर छोड़ कर आंख मूंद कर मैं कहीं भी आजा सकती हूं. मेरी बच्चियों का अपनी औलाद की तरह ही वह खयाल रखती है. फिर यह सोच कर मेरा हृदय उस के प्रति थोड़ा पसीजा कि कोई न कोई उस की मजबूरी जरूर रही होगी वरना इस से पहले उस ने बिना सूचित किए कभी लंबी छुट्टी नहीं ली.

मेरे मन ने मुझे उलाहना दिया, ‘राधिका, ज्यादा उदार मत बन. तू भी तो नौकरी करती है. घर और दफ्तर के कार्यों के बीच सामंजस्य बनाए रखने की हरसंभव कोशिश करती है. कई बार मजबूरियां तेरे भी पांव में बेडि़यां डाल कर तेरे कर्तव्य की राह को रोकती हैं…पर तू तो अपनी मजबूरियों की दुहाई दे कर दफ्तर के कार्य की अवहेलना कभी नहीं करती?’

दफ्तर से याद आया कि मालती के कारण मेरी भी 7 दिन की छुट्टी हो गई है. बौस क्या सोचेंगे? पहले 2 दिन, फिर 4 और अब 7 दिन के अवकाश की अरजी भेज कर क्या मैं अपनी निर्णय न ले पाने की कमजोरी जाहिर नहीं कर रही हूं?

तभी धड़ाम की आवाज के साथ ऋचा की चीख सुन कर मैं चौंक गई. मैं बेडरूम की ओर भागी. डेढ़ साल की ऋचा बिस्तर से औंधेमुंह जमीन पर गिर पड़ी थी. मैं ने जल्दीजल्दी उसे बांहों में उठाया और डे्रसिंग टेबल की ओर लपकी. जमीन से टकरा कर ऋचा के माथे की कोमल त्वचा पर गुमड़ उभर आया था. दर्द से रो रही ऋचा के घाव पर मरहम लगाया और उसे चुप कराने के लिए अपनी छाती से लगा लिया. मां की ममता के रसपान से सराबोर हो कर धीरेधीरे वह नींद के आगोश में समा गई.

फिर मुझे मालती की याद आ गई जिस की सीख की वजह से ही तो मैं अपनी दोनों बेटियों को स्तनपान का अधिकार दे पाई थी वरना मैं ने तो अपना फिगर बनाए रखने की दीवानगी में बच्चियों को अपनी छाती से लगाया ही न होता…सोच कर मेरी आंखों से 2 बूंदें कब फिसल पड़ीं, मैं जान न पाई.

ऋचा को बिस्तर पर लिटा कर मैं अपने काम में उलझ गई. हाथों के बीच तालमेल बनाती हुई मेरी विचारधारा भी तेजी से आगे बढ़ने लगी.

ये भी पढ़ें- जहां से चले थे

मां से ही जाना था कि जब मेरा जन्म हुआ था तब मां के सिर पर कहर टूट पड़ा था. रंग से तनिक सांवली थीं. अत: दादीजी को जब पता चला कि बेटी पैदा हुई है तो यह कह कर देखने नहीं गईं कि लड़की भी अपनी मां जैसी काली होगी, उसे क्या देखना? चाचीजी ने जा कर दादी को बताया, ‘मांजी, बच्ची एकदम गोरीचिट्टी, बहुत ही सुंदर है, बिलकुल आप पर गई है…सच…आप उसे देखेंगी तो अपनेआप को भूल जाएंगी.’

‘फिर भी वह है तो लड़की की जात…घर आएगी तब देख लूंगी,’ दादी ने घोषणा की थी.

मेरे भैया उम्र में मुझ से 3 साल बड़े थे…सांवले थे तो क्या? आगे चल कर वंश का नाम बढ़ाने वाले थे…अत: उन का सांवला होना क्षम्य था.

ज्योंज्यों मैं बड़ी होती गई, त्योंत्यों मेरी और भैया की परवरिश में भेदभाव किया जाने लगा. उन के लिए दूध, फल, मेवा, मिठाई सबकुछ और मेरे लिए सिर्फ दालचावल. यह दादी की सख्त हिदायत थी. वह मानती थीं कि लड़कियां बड़ी सख्त जान होती हैं, ऐसे ही बड़ी हो जाती हैं. लड़के नाजुक होते हैं, उन की परवरिश में कोई कमी नहीं होनी चाहिए. आखिर वही हमारे परिवार की शान में चार चांद लगाते हैं. बेटियां तो पराया धन होती हैं… कितना भी खिलाओपिलाओ, पढ़ाओ- लिखाओ…दूसरे घर की शोभा और वंश को आगे बढ़ाती हैं.

मम्मी और चाचीजी दोनों ही गांव की उच्चतर माध्यमिक पाठशाला में शिक्षिका थीं. वे सुबह 11 बजे जातीं और शाम साढ़े 6 बजे लौटतीं. मेरी देखभाल के लिए कल्याणी को नियुक्त किया गया था, लेकिन दादी उस से घर का काम करवातीं. बहुत छोटी थी तब भी मुझे एक कोने में पड़ा रहने दिया जाता. कई बार कपड़े गीले होते…पर कल्याणी को काम से इतनी फुर्सत ही नहीं मिलती कि वह मेरे गीले कपड़े बदल दे. एक बार इसी वजह से मैं गंभीर रूप से बीमार भी हो गई थी. बुखार का दिमाग पर असर हो गया था. मौत के मुंह से मुश्किल से बहार आई थी.

इस हादसे की बदौलत ही मम्मी को पता चला था कि दादी के राज में मेरे साथ क्या अन्याय किया जा रहा था. तब मां दादी से नजरें बचा कर एक कोने में छिप कर खूब रोई थीं…पापा 1 महीने के दौरे पर से जब लौटे तब मां ने उन्हें सबकुछ बता दिया. अपनी बच्ची के प्रति मां द्वारा किए गए अन्याय ने उन्हें बहुत दुख पहुंचाया था किंतु मम्मीपापा के संस्कारों ने उन्हें दादी के खिलाफ कुछ भी करने की इजाजत नहीं दी.

कुछ समय बाद पता चला कि मां ने सूरत के केंद्रीय विद्यालय में अर्जी दी थी. साक्षात्कार के बाद उन का चयन हो जाने पर पापा ने भी अपना तबादला सूरत करवा लिया. मैं मम्मी के साथ उन के स्कूल जाने लगी और भैया अन्य स्कूल में.

दादी मां द्वारा खींची गई बेटेबेटी की भेद रेखा ने मुझे इतना विद्रोही बना दिया था कि मैं अपने को लड़का ही समझने लगी थी. शहर में आ कर मैं ने मर्दाना पहनावा अपना लिया. मेरी मित्रता भी लड़कों से अधिक रही.

मम्मी कहतीं, ‘बेटी, तुम लड़की बन कर इस संसार में पैदा हुई हो और चाह कर भी इस हकीकत को झुठला नहीं सकतीं. मेरी बच्ची, इस भ्रम से बाहर आओ और दुनिया को एक औरत की नजर से देखो. तुम्हें पता चल जाएगा कि दुनिया कितनी सुंदर है. सच, दादी की उस एक गलती की सजा तुम अपनेआप को न दो, अभी तो ठीक है, लेकिन शादी के बाद तुम्हारे यही रंगढंग रहे तो मुझे डर है कि पुन: तुम्हें कहीं मायका न अपनाना पड़े.’

मम्मी के लाख समझाने के बावजूद मैं चाह कर भी अपनेआप को बदल नहीं पाती. सौभाग्य से मुझे वेदांत मिले जिन्हें सिर्फ मुझ से प्यार है, मेरी जिद से उन्हें कोई सरोकार नहीं. उन्होंने कभी मेरे लाइफ स्टाइल पर एतराज जाहिर नहीं किया.

टेलीफोन की घंटी कानों में पड़ते ही मैं फिर वर्तमान में आ पहुंची. दूसरी तरफ अंजलि भाभी थीं. उन्होंने बताया कि तेजस लोकल टे्रन से गिर गया था. इलाज के लिए उसे अस्पताल में दाखिल करवाया गया है. मैं ने उसी वक्त वेदांत को एवं आलोक भैया को फोन द्वारा सूचित तो कर दिया लेकिन मैं अजीब उलझन में पड़ गई. न तो मैं ऋचा को अकेली छोड़ कर जा सकती थी और न ही उसे अस्पताल ले जाना मेरे लिए ठीक रहता. अब क्या करूं…एक बार फिर मुझे मालती की याद आ गई…उफ, इस औरत का मैं क्या करूं?

डोरबेल बजने पर जब मैं ने दरवाजा खोला तो दरवाजे के बाहर मालती को खड़ा पाया. उसे सामने देख कर मेरा सारा गुस्सा हवा हो गया क्योंकि उस की सूजी हुई आंखें और चेहरे पर उंगलियों के निशान देख कर मैं समझ गई कि वह फिर अपने पति के जुल्म का शिकार हुई होगी.

ये भी पढ़ें- बालू पर पड़ी लकीर

‘‘क्या हुआ, मालती? तुम्हारे चेहरे पर हवाइयां क्यों उड़ रही हैं?’’ लगातार रो रही मालती उत्तर देने की स्थिति में कहां थी. मैं ने भी उसे रोने दिया.

मालती ने रोना बंद कर बताना शुरू किया, ‘‘भाभी, मैं तुम से माफी मांगती हूं. बंसी ने मुझे इतना पीटा कि मैं 3 दिन तक बिस्तर से उठ नहीं पाई.’’

‘‘लेकिन क्यों?’’ मुझे रहरह कर उस के पति पर गुस्सा आ रहा था. मन कर रहा था कि उसे पुलिस के हवाले कर दूं. पर अभी तो अस्पताल जाना ज्यादा जरूरी है.

‘‘मालती, मेरे खयाल से तुम काफी थकी हुई लग रही हो. थोड़ी देर आराम कर लो. मुझे अभी अस्पताल जाना है,’’ मैं ने उसे संक्षेप में सब बता दिया और बोली, ‘‘मेरे लौटने तक तुम्हें यहीं रुकना पड़ेगा. हम बाद में बात करेंगे…करिश्मा स्कूल से आए तो उस के लिए नाश्ता बना देना.’’

मैं अस्पताल पहुंची. मुझे देखते ही अंजलि मेरे कंधे से लग कर बेतहाशा रोने लगी. मेरी भी आंखें छलछला आईं. मेडिकल कालिज का मेधावी छात्र, लेकिन पिछले 6 महीनों से दूरदर्शन के एक मशहूर धारावाहिक में प्रमुख किरदार निभा रहा था. अभी तो उस के कैरियर की शुरुआत हुई थी, लोग उसे जानने, पहचानने और सराहने लगे थे कि शूटिंग से लौटते वक्त लोकल टे्रन से गिर कर ब्रेन हैमरेज का शिकार

हो गया. मां, पिताजी और मैं भाभी

को संभालतेसंभालते खुद भी हिम्मत हारने लगे थे. सभी एकदूसरे को

ढाढ़स बंधाने का असफल प्रयास कर रहे थे.

काफी रात हो चुकी थी. बच्चोें के कारण मुझे बेमन से घर जाना पड़ा. मालती की गोद में ऋचा तथा होम वर्क के दिए गए गणित के समीकरण को सुलझाने का प्रयास करती हुई करिश्मा को देख मेरी आंखें भर आईं.

मैं निढाल सी सोफे पर लेट गई. मेरे दिल और दिमाग पर तेजस की घटना की गहरी छाप पड़ी थी. थोड़े समय बाद जब कुछ सामान्य हुई तो यह सोच कर कि आज जितने हादसों से साक्षात्कार हो जाए अच्छा होगा, कम से कम, कल का सूरज आशाओं की कुछ किरणें हमारे उदास आंचल में डालने को आ जाए. यही सोच कर मैं ने मालती से उस की दर्दनाक व्यथा सुनी.

‘‘भाभी, मैं चौथी बार पेट से हूं. बंसी मेरे पीछे पड़ गया है कि मैं जांच करवा लूं और लड़की हो तो गर्भपात करा दूं. मैं इस के लिए तैयार नहीं हूं, इस बात पर वह मुझे मारतापीटता और धमकाता है कि अगर इस बार लड़की हुई तो मुझे घर से निकाल देगा, वह जबरदस्ती मुझे सरकारी अस्पताल भी ले गया था लेकिन डाक्टर ने उसे खूब डांटा, धमकाया कि औरत पर जुल्म करेगा, जांच के लिए जबरदस्ती करेगा तो पुलिस में सौंप दूंगी क्योंकि गर्भपरीक्षण कानूनी अपराध होता है. मैं ने तो उसे साफ बोल दिया कि वह मुझे मार भी डालेगा तो भी मैं गर्भपात नहीं कराऊंगी.’’

‘‘तो क्या तुम यों ही मार खाती रहोगी? इस तरह तो तुम मर जाओगी.’’

‘‘नहीं, भाभी, मैं ने उस को बोल दिया कि बेटा हुआ तो तुम्हारा नसीब वरना मैं अपनी चारों बच्चियों को ले कर कहीं चली जाऊंगी. हाथपैर सलामत रहे तो काम कहीं भी मिलेगा, वैसे भी बंसी तो सिर्फ नाम का पति है, वह कहां बाप होने का धर्म निभाता है? उस को भी तो मैं ही पालती हूं. मैं मां हूं और मां की नजर सिर्फ अपने बच्चे को देखती है, बेटी, बेटे का भेद नहीं. फिर लड़का या लड़की पैदा करना क्या मेरे हाथ में है?’’

कितनी कड़वी मगर सच्ची बात कह दी इस अनपढ़ औरत ने. एक मां अपने बच्चे के लिए बड़ी से बड़ी कुरबानी दे सकती है पर शायद यह पुरुष प्रधान भारतीय समाज की मानसिकता है कि वंश को आगे बढ़ाने के लिए और अर्थी को कांधा देने के लिए बेटे की जरूरत होती है…अत: अगर परिवार में बेटा न हो तो परिवार को अधूरा माना जाता है.

मेरी दादी मां क्यों औरत की कदर करना नहीं जानतीं? वह क्यों भूल गईं कि वह खुद भी एक औरत ही हैं? दादी की याद आते ही मेरा हृदय कड़वाहट से भर उठा. लेकिन अगले ही पल मेरे मन ने मुझे टोका कि तू खुद भी संकुचित मानसिकता में दादी मां से कम है क्या? अगर मालती चौथी बार मां बनने वाली है तो तेरे उदर में भी तो तीसरा बच्चा पल रहा है. तीसरी बार गर्भधारण के पीछे तेरा कौन सा गणित काम कर रहा है…? 2 बेटियों की मां बन कर तू खुश नहीं? क्या जानेअनजाने तेरे मन में भी बेटा पाने की लालसा नहीं पनप रही?

मैं सिर से पैर तक कांप उठी. यह मैं क्या करने जा रही हूं? दादी को कोसने से मेरा यह अपराधबोध क्या कम हो जाएगा? नहीं, कदापि नहीं. उसी वक्त मैं ने फैसला ले लिया कि तीसरे बच्चे के बाद मैं आपरेशन करवा लूंगी. यह फैसला करते ही मेरे दिमाग की तंग नसें धीरेधीरे सामान्य होती चली गईं.

चैन से सो रही मालती के चेहरे पर निर्दोष मुसकान खेल रही थी. जल्द ही मैं भी नींद के आगोश में समा गई. सुबह जब आंख खुली तब मैं अपने को हलका महसूस कर रही थी.

मालती पहले ही उठ कर घर के कामों को पूरा कर रही थी. उस ने करिश्मा को नाश्ता बना कर दे दिया था और वह स्कूल जाने को तैयार थी.

मैं ने करिश्मा के कपोल चूमते हुए उसे विश किया तो लगा कि वह कुछ बुझीबुझी सी थी.

‘‘क्यों बेटी, क्या आप की तबीयत ठीक नहीं?’’

‘‘नहीं मम्मी, ऐसी कोई बात नहीं.’’

‘‘मम्मी आप के चेहरे की हर रेखा पढ़ सकती है, बेटा, जरूर कोई बात है… मुझ से नहीं कहोगी?’’ सोफे पर बैठ कर मैं ने उसे अपनी गोद में खींच लिया.

ममता भरा स्पर्श पा कर उस की आंखें भर आईं. मैं ने सोचा शायद पढ़ाई में कोई मुश्किल सवाल रहा होगा, जिस का हल वह नहीं ढूंढ़ पा रही होगी.

‘‘बेटा, क्या मैं आप की कोई मदद कर सकती हूं?’’

‘‘नो, थैंक्स मम्मा,’’ उस के शब्द गले में ही अटक गए.

‘‘चलो, मैं प्रियंका को फोन कर देती हूं. वह आप की समस्या का कोई हल ढूंढ़ पाएगी, क्या उस से झगड़ा हुआ है?’’ मैं फोन की ओर बढ़ी, ‘‘उसे मैं कह देती हूं कि वह जल्दी आ जाए ताकि मैं आप दोनों को स्कूल में ड्राप कर दूं.’’

‘‘मम्मा,’’ वह चीख उठी, ‘‘प्रियंका अभी नहीं आ सकेगी.’’

‘‘क्यों…?’’ मुझे धक्का लगा.

‘‘सौरी, मम्मा,’’ वह धीरे से बोली, ‘‘प्रियंका लाइफ लाइन अस्पताल में है.’’

आश्चर्य का इतना तेज झटका मैं ने महसूस किया कि मैं संभल नहीं पाई, ‘‘क्या हुआ है उसे?’’

हमारे पड़ोस में ही निर्मल परिवार रहता है जिन की बड़ी बेटी प्रियंका  करिश्मा की खास सहेली है. दोनों एकसाथ 7वीं कक्षा में पढ़ती हैं.

ये भी पढ़ें- लड़का चाहिए

पता चला कि प्रियंका ने मिट्टी का तेल छिड़क कर खुद को जलाने की कोशिश की थी जिस में उस का 80 प्रतिशत बदन आग की लपेट में आ गया था. मेरा दिमाग सुन्न हो गया. मेरी नजरों के सामने प्रियंका का चेहरा उभर आया. इतनी कम उम्र और इतना भयानक कदम…? इतना सारा साहस उस फू ल सी बच्ची ने कहां से पाया होगा? न जाने किस पीड़ादायी अनुभव से वह गुजर रही होगी जिस से छुटकारा पाने के लिए उस ने यह अंतिम कदम उठाया होगा? लगातार रोए जा रही करिश्मा को बड़ी मुश्किल से चुप करा कर उसे स्कूल के गेट तक छोड़ दिया. फिर मैं प्रियंका को देखने अस्पताल के लिए चल पड़ी.

अस्पताल के गेट पर ही मुझे मेरी एक अन्य पड़ोसिन ईराजी मिल गईं. उन से जो हकीकत पता चली उसे जान कर तो मेरे रोंगटे खड़े हो गए, कल्पना से परे एक हकीकत जिसे सुन कर पत्थर दिल इनसान का भी कलेजा फट जाएगा.

प्रियंका की मम्मी को एक के बाद एक कर के 4 बेटियां हुईं. जाहिर है, इस के पीछे बेटा पाने की भारतीय मानसिकता काम कर रही होगी. धिक्कार है ऐसी घटिया सोच के साथ जीने वाले लोगों को…मेरे समग्र बदन में नफरत की तेज लहर दौड़ गई.

उन की आर्थिक स्थिति कुछ ठीक नहीं चल रही थी. इस महंगाई के दौर में 4 बेटियां और आने वाली 5वीं संतान की, सही ढंग से परवरिश कर पाना उन के लिए मुश्किल था. ऐसे में राजनजी के किसी मित्र ने उन की चौथी बेटी सोनिया को गोद लेने का प्रस्ताव रखा, जिसे उन्होंने मान लिया. क्या सोच कर उन्होंने ऐसा निर्णय किया यह तो वही जानें लेकिन प्रियंका इस बात के लिए हरगिज तैयार नहीं थी. उस ने साफ शब्दों में मम्मीपापा से कह दिया था कि यदि उन्होंने सोनिया को किसी और को सौंपने की बात सोची भी  तो वह उन्हें माफ नहीं करेगी.

प्रियंका बेहद समझदार और संवेदनशील बच्ची थी. वह उम्र से कुछ पहले ही पुख्ता हो चुकी थी. घर के उदासीन माहौल ने उसे कुछ अधिक ही संजीदा बना दिया था. बचपन की अल्हड़ता और मासूमियत, जो इस उम्र में आमतौर पर पाई जाती है, उस के वजूद से कब की गायब हो चुकी थी.

अपने को आग की लपटों के हवाले करने से पहले उस ने अपने हृदय की सारी पीड़ा शब्दों के माध्यम से बेजान कागज के पन्ने पर उड़ेल दी थी, अपने खून से लिखी उस चिट्ठी ने सब का दिल दहला दिया :

‘‘श्रद्धेय मम्मीपापा, अब मुझे माफ कर दीजिए, मैं आप सब को छोड़ कर जा रही हूं. वैसे मैं आप के कंधों से अपनी जिम्मेदारी का कुछ बोझ हलका किए जा रही हूं ताकि आप के कमजोर कंधे सोनिया का बोझ उठाने में सक्षम बन सकें. अपनी तीनों बहनों को मैं अपनी जान से भी ज्यादा चाहती हूं. किसी को भी परिवार से अलग होते हुए मैं नहीं देख पाऊंगी. सोनिया न रहे उस से अच्छा है कि मैं ही न रहूं…अलविदा.’’

आप की लाड़ली बेटी,

प्रियंका.’’

4 दिन तक जिंदगी और मौत के बीच संघर्ष करती हुई प्रियंका आखिर हार गई और जिंदगी का दामन छोड़ कर वह मौत के आगोश में हमेशा के लिए समा गई पर वह मर कर भी एक मिसाल बन गई. उस की कुरबानी ने हमारे परंपरागत, दकियानूसी समाज पर हमेशा के लिए कलंक का टीका लगा दिया, जिसे अपने खून से भी हम कभी न मिटा पाएंगे.

प्रियंका की मौत के ठीक एक हफ्ते बाद मेरे भतीजे तेजस ने भी बेहोशी की हालत में ही दम तोड़ दिया. तेजस हमारे परिवार का एकमात्र जीवन ज्योति था, जो अपनी उज्ज्वल कीर्ति द्वारा हमारे परिवार को समृद्धि के उच्च शिखर पर पहुंचाता. हमारे समाज के फलक पर रोशन होने वाला सूर्य अचानक ही अस्त हो गया फिर कभी उदित न होने के लिए.

दिनरात मेरी नजर के सामने उन दोनों के हंसते हुए मासूम चेहरे छाए रहते. हर पल अपनेआप से मैं एक ही सवाल करती, क्यों? आखिर क्यों ऐसा होता है जिसे हम चाह कर भी स्वीकार नहीं कर पाते? उन की मौत क्या हमारे समाज के लिए संशोधन का विषय नहीं?

दादीमां की पीढ़ी से ले कर प्रियंका के बीच कितने सालों का अंतराल है? दादीमां 85 वर्ष की हो चली हैं. तेजस सिर्फ 20 वसंत ही देख पाया और प्रियंका सिर्फ 12. इस लंबे अंतराल में क्या परिवर्तन की कोई गुंजाइश नहीं थी?

दादीमां औरत थीं फिर भी मानती थीं कि संसार पुरुष से ही चलता है. हर नीतिनियम, रीतिरिवाज सिर्फ पुरुष के दम से है फिर मालती का पति तो पुरुष है. उस का यह मानना लाजमी ही था कि जो पुरुष बेटा न पैदा कर पाए वह नामर्द होता है. प्रियंका के मातापिता भी तो इसी मानसिकता का शिकार हैं कि वंश की शान और नाम आगे बढ़ाने के लिए बेटा जरूरी है. क्या सोनिया की जगह अगर उन्होंने बेटा पैदा किया होता तो उसे किसी और की गोद में डालने की बात सोच सकते थे? या उस के बाद और बच्चा पैदा करने की जरूरत को स्वीकार कर पाते? नहीं, कभी नहीं….

भला हो मालती का जिस ने मेरी आंखें खोल दीं वरना जानेअनजाने मैं भी इन तमाम लोगों की तरह ही सोचती रह जाती. अपनी कुंठित मान्यताओं के भंवर से बाहर निकालने वाली मालती का मैं जितना शुक्रिया अदा करूं कम ही है.

ये भी पढ़ें- खुशियों के पल

तेजस की अकाल मौत ने दादी मां को यह सोचने पर मजबूर किया कि जिस कुलदीपक की चाह में उन्होंने अतीत में एक मासूम बच्ची के साथ अन्याय किया था उस कुलदीपक की जीवन ज्योति को अकाल ही बुझा कर नियति ने उन की करनी की सजा दी थी.

प्रियंका भी पुकारपुकार कर पूछ रही है, हर नारी और हर पुरुष यही सोचे और चाहे कि उन के घर बेटा ही पैदा हो तो भविष्य में कहां से लाएंगे हम वह कोख जो बेटे को पैदा करती है?

‘मुझे भुनाना नहीं आता’: औरोशिखा दे

बौलीवुड में माना जाता है कि जो दिखता है, वही बिकता है. इसी के चलते यहां हर कलाकार खुद ही अपनी प्रशंसा करते हुए नजर आता है. लोग हमेशा सूर्खियों में रहते हैं. हर कलाकार हौव्वा खड़ा करता रहता है. मगर कुछ कलाकार प्रचार से दूर अपने काम को अंजाम देने में ही लगे रहते हैं. ऐसी ही एक अदाकारा हैं- औरोशिखा दे. कई दिग्गज फिल्म निर्देशकों और कलाकारों के साथ काम करने के बाद औरोशिखा दे इन दिनों ब्रिटेन में रह रही फिल्मकार स्वाती भिसे की अंतरराष्ट्रीय फिल्म ‘‘द वारियर क्वीन  आफ झांसी’’ को लेकर चर्चा में हैं. यह फिल्म ‘झांसी की रानी लक्ष्मीबाई’ पर है, जिसमें औराशिखा दे ने झलकारी बाई का किरदार निभाया है.

प्रस्तुत है उनसे हुई बातचीत के मुख्य अंश..   

किस वजह से आपने अभिनय को कैरियर बनाने की सोची?

मैं मूलतः बंगाली हूं. बंगलोर में रहती हूं. मेरे पापा आर्मी में थे. इसलिए हम कई शहरों में रहे. मेरा जन्म आसाम में हुआ. जब मैं सातवीं कक्षा में थी, तब मेरे पापा का तबादला बंगलोर हो गया. जब मैं दसवीं कक्षा में और मेरी बड़ी बहन 12वीं कक्षा में थी, तो पापा ने रिटायरमेंट ले लिया था. उसके बाद से हम लोग बंगलोर में ही सेटल हो गए. मेरी पूरी पढ़ाई बेंगलुरु में ही हुई है. मैंने माउंट कौलेज से ग्रेजुएशन किया. उसके बाद पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट से अभिनय का प्रशिक्षण हासिल किया.

AUROSHIKHA DEY

पुणे फिल्म संस्थान जाने की बात आपके दिमाग में कैसे आयी?

मैं हमेशा से डांसर बनना चाहती थी. मुझे डांस करने का बहुत शौक है. मैंने तीसरी कक्षा से ही कत्थक सीखा और जब बंगलोर में थी, तो मैंने कत्थक और शामक डावर से आधुनिक नृत्य सीखा. जब मैं कौलेज में थी, तब मैं ड्रामैटिक एसोसिएशन का हिस्सा थी. हम लोग नाटक वगैरह में बढ़चढ़कर हिस्सा लेते थे. लेकिन तब भी मुझे नृत्य का शौक था. जिन दिनों मेरी परीक्षाएं चल रही थीं, उन्ही दिनों वहां पर ‘विवा’ का एक बैंड की तरफ से कार्यक्रम हुआ था. चैनल वी पर 4 से 5 लड़कियों का बैंड हुआ करता था. वह लोग बंगलोर आए हुए थे. तीन दिन बाद ही मेरी मैथ्स@गणित की परीक्षा थी. इस बैंड के लोग पंपलेट बांट रहे थे. हमारे कौलेज की कई लड़कियों ने फार्म भरा, तो मैंने भी भर दिया. फिर मैं बैठकर पढ़ाई कर रही थी, कि अचानक मुझे फोन आया कि आप लक्की विनर हैं और हमें टीजीआई में मिलने के लिए बुलाया. वहां पर एक कार्यक्रम था. उन्होंने गाड़ी भेजी थी, मेरे पापा मेरे साथ गए थे. उस दिन मेरे पापा भीड़ में खड़े थे और मैं ‘विवा बैंड’ के साथ खड़ी थी. मेरे पापा की आंखों में उस वक्त खुशी की चमक देखकर मैंने सोच लिया कि मुझे इसी क्षेत्र में कुछ करना है. मेरे पापा ने सुना कि भीड़ में लोग कह रहे थे कि यह लड़की कितनी खुशनसीब है कि उन लोगों के साथ गई है. तब मेरे दिमाग में मैंने सोचा कि मैं ड्रामा में हूं, डांसर भी हूं. तो मैं अपनी डांस की व अभिनय की प्रतिभा का उपयोग कर नाम कमाउंगी. मेरा मानना है कि नृत्य में भी चेहरे पर भाव तो लाने ही होते हैं. यानी कि एक्टिंग व डांसिंग में समानता है. इस कारण मैं अभिनेत्री बन गयी.

ये भी पढ़ें- मेरी राय में हर तरह की फिल्म का दर्शक है : सिद्धार्थ मल्होत्रा

पुणे फिल्म संस्थान जाने की जरूरत क्यों महसूस हुई ?

मैं अभिनय के बारे में ज्यादा समझ विकसित करना चाहती थी. उस वक्त तक मेरे पास जो जानकारी थी, वह उतनी ही थी, जितना कि मैं नाटक किया करती थी. मेरे मम्मी पापा ने मुझे सुझाव दिया कि बिना तैयारी के मुंबई चले जाने का मतलब नहीं है. उन्होंने कहा कि आपको कुछ पता ही नहीं है कि क्या करना है, क्या नहीं करना है ? इसलिए पढ़ाई कर समझ विकसित करने के बाद मुंबई जाओ. पुणे फिल्म संस्थान से कोर्स करने के बाद मुझे एक्टिंग की एक अलग समझ पैदा हुई. मैं यह नहीं कहती कि जो पुणे फिल्म संस्थान नहीं जाते हैं, उनको अभिनय की समझ नहीं है.

‘‘पुणे फिल्म संस्थान’’से निकलने के बाद आपने क्या किया?

पुणे फिल्म संस्थान से निकलने के बाद की भी मेरी एक अलग ही कहानी है. मैं फरवरी 2008 में मुंबई आयी. पर पुणे फिल्म संस्थान में ही मुझे डां. चंद्रप्रकाश द्विवेदी सर के ‘उपनिषद गंगा’ नामक एक टीवी सीरीज से जुड़ने का मौका मिल गया. फिर मैंने नागेश कुकुनूर की फिल्म के लिए औडीशन दिया और फिल्म ‘यह हौसला’ के लिए मेरा चयन हो गया.

नागेश कुकुनूर और डा. चंद्रप्रकाश द्विवेदी के साथ काम करके आपने क्या सीखा ?

दोनों ही बहुत अलग तरह के निर्देशक हैं. द्विवेदी सर बैकग्राउंड को बहुत ही खूबसूरती से दिखाते हैं. बैकग्राउंड के ऊपर बहुत ज्यादा काम करते हैं. वह बतौर कलाकार आपकी डिटेलिंग पर बहुत काम करते हैं. उनके साथ काम करते करते मैं भी डिटेलिंग में काम करने लगी थी.हाव भाव क्या है ? बौडीलैंग्वेज क्या है ? इस सीरियल के 25 एपीसोड मैंने किए और हर एपिसोड में अलगअलग किरदार निभाए हैं. हर किरदार के हावभाव, चालचलन, उसके बात करने के लहजे आदि पर काफी काम किया, जिससे बहुत कुछ सखने को मिला. तो डा. चंद्रप्रकाश द्विवेदी के साथ काम करते हुए मैंने सीखा कि कैसे उठनाबैठना चाहिए. मैंने नागेश कुकुनूर से यह सीखा कि थोड़ा सा कंट्रोल करके भी आप अपने किरदार को कितनी अच्छी तरह से लेकर आ सकते हैं. आपको ज्यादा चिल्लाने की जरूरत नहीं है. बिना चिल्लाए भी अपने गुस्से को कैसे दिखना है..

Auroshikha-Dey-IMG_3853

‘‘यह हौसला’’के बाद क्या किया?

‘‘यह हौसला’’के बाद मैंने पुनः डा. चंद्र प्रकाश द्विवेदी सर के साथ काम शुरू किया. उसके बाद मैंने सीमा कपूर के निर्देशन में फिल्म ‘हाट द वीकली बाजार’ की.इसमें मैं और दिव्या दत्ता पैरलल लीड में थी. फिर केरला जाकर एक मलयालम फिल्म‘द नोवा फ्रेंच’ की. इसमें मैंने मेन लीड किया. फिर नसिरूद्दीन शाह के साथ फिल्म ‘‘चार्ली के चक्कर’’ की, जिसमें मैंने पुलिस अफसर का किरदार निभाया.‘‘चार्ली के चक्कर में’’ के बाद मैंने ‘हंगामा’के लिए वेब सीरीज किया. इसके बाद मुझे इंटरनेशनल फिल्म ‘‘द क्वीन आफ वारियर’’ में झलकारी बाई का किरदार निभाने का अवसर मिला..

सिद्धार्थ आनंद निर्मित और दानिश असलम निर्देशित वेब सीरीज ‘‘फ्लैश’’ की है, जिसमें स्वरा भास्कर भी हैं. यह अभी तक रिलीज नही हुई. अभी मैंने इसी साल एक अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त मराठी भाषी निर्देशक गजेंद्र अहिरे के साथ मराठी फिल्म की है. यह कमाल की फिल्म है. यह हिंदी और मराठी दो भाषाओं में है. इसका नाम अभी तक तय नही है.

आपने काफी काम किया. पर आप हमेशा चर्चाओं से दूर ही रहीं ?

मैं मानती हूं कि एक कलाकार के लिए अपने आपको प्रमोट करना जरूरी है. लेकिन हर कोई अपने आप को प्रमोट करें यह भी जरूरी नहीं है. मैंने खुद को प्रमोट करने की बजाय अच्छा काम करने पर पूरा ध्यान लगाया. मेरा मानना रहा है कि हम जिनके साथ काम करते हैं, वह मायने रखता है. मैं ऐरा गैरा किरदार नही निभा सकती. मेरे लिए मेरा किरदार ही बहुत महत्वपूर्ण है.

मैंने अपने कैरियर की शुरुआत में ही दो बड़े व पुरस्कृत निर्देशकों के साथ कमाकिया, जो कि मेरे लिए भी बहुत बड़ी बात थी. पर मैं इसे भुना नहीं पायी.इसके अलावा ‘यह हौसला’ रिलीज नही हो पायी. पर मैं रूकने की बजाय लगातार आगे बढ़ती रही. लेकिन मैं जिनसे भी मिलती हूं, वह मेरे बारे में जानते हैं.

ये भी पढ़ें- टीवी एक्ट्रेस काम्या पंजाबी करने जा रही हैं दूसरी शादी

अंतरराष्ट्रीय फिल्म ‘‘द वारियर क्वीन आफ झांसी’’ कैसे मिली ?

शायद यह फिल्म मेरी तकदीर में थी. मुझे अचानक कास्टिंग डायरेक्टर हनी त्रेहान के यहां से फोन आया कि रानी लक्ष्मी बाई पर एक अंतरराष्ट्रीय फिल्म बन रही है, जिसमें झलकारी के किरदार के लिए वह मेरा औडीशन लेना चाहते हैं. मैंने जाकर औडीशन दिया और भूल गयी. पूरे एक माह बाद संदेश आया कि निर्देशक को औडीशन पसंद आ गया है, अब उनकी टीम एक बार फिर से औडीशन लेना चाहती हैं. उस दिन नताशा सहित कई लोग बैठे हुए थे. उन्होंने कहा कि वह एक अंतिम बार औडीशन देखना चाहते हैं. मैंने औडीशन दे दिया. दूसरे दिन मुझे झलकारी बाई के किरदार के लिए साइन कर लिया गया. इससे मुझे इस बात का अहसास हुआ कि यदि आप इमानदारी के साथ कुछ करना चाहते हैं, तो पूरा युनिवर्स उसे पूरा करने के लिए काम करने लगता है. यही वजह है कि मैं हमेशा सकारात्मक सोच ही रखती हूं.

इस फिल्म में स्वाती भिसे की बेटी देविका भिसे ने ही रानी लक्ष्मी बाई का किरदार निभाया है, ऐसे में सेट पर स्वाति भिसे ने अपनी बेटी देविका को ज्यादा अहमियत दी होगी?

सच कहूं तो मैं झांसी की रानी के संबंध में थोड़ा बहुत जानती थी. हमने स्कूल में भी पढ़ा है. झांसी की रानी के बारे में जानती थी. पर झलकारी के संबंध में बहुत कम जानती थी. इनके बारे में हमें पढ़ाया भी नहीं गया. अब झलकारी बाई पर स्कूल की किताब में एक अध्याय शामिल किया गया है. इस किरदार को निभाने से पहले मैंने बहुत रिसर्च किया. मैंने इंटरनेट पर पढ़ा. फिल्मों की जानकारी हासिल की. रिसर्च करते हुए मैं झलकारी बाई के योगदान को जानकर दंग रह गयी. मुझे यह भी पता चला कि उन्हें सम्मान देने के लिए डाक विभाग ने उनके नाम का डाक टिकट व पोस्टर बनाया था. ऐसे किरदार को निभाना मेरे लिए गर्व की बात रही. वह एक दलित परिवार की थीं. किस तरह उनका बचपन बीता. किस तरह वह रानी लक्ष्मीबाई की सेना से जुड़ी. वह बहुत बड़ी योद्धा थीं. बचपन से उन्हें तलवार बाजी का शौक था. इन बातों ने मुझ पर प्रभाव डाला.

Auroshikha-Dey

झलकारी बाई के किरदार को निभाने के लिए आपको किस तरह की तैयारी करने की जरुरत पड़ी ?

मुझे झलकारी बाई की बौडी लैंगवेज को आत्मसात करना पड़ा. वह किस तरह से बात करती थीं, तो उसे आत्मसात करना था, पर मुझे इसके लिए खुद कल्पना भी करनी पड़ी. क्योंकि मैंने उन्हें देखा नही था. मैंने उनके वीडियो नहीं देखा. सिर्फ उनके बारे में किताबी ज्ञान ही मुझे मिला. तो काफी मेहनत करनी पड़ी. मुझे तलवार बाजी और घुड़सवारी भी सीखनी पड़ी. एक्शन की ट्रेनिंग लेनी पड़ी. तीर कमान चालाना सीखा.

हौलीवुड से एक्शन डायरेक्टर ग्लेन, रोमानिया से कुछ एक्शन डायरेक्टर आए थे, उन्होंने हमें सिखाया कि तलवार को कैसे पकड़ते हैं. हमें एक्सरसाइज कराया. तलवार बाजी के समय सोल्जर कैसे रखना होता है, घुड़सवारी के वक्त घोड़े से नहीं डरना चाहिए. वगैरह बंहत लंबी, कठिन और गंभीर ट्रेनिंग हुई. कई बार चोट भी लगी.

शूटिंग के अनुभव कैसे रहे ?

बहुत अच्छे अनुभव रहे. मुझे इस फिल्म में बेहतरीन भारतीय व ब्रिटिश कलाकारों के साथ काम करने का अवसर मिला. इन्हें नजदीक से जानने व समझने का मौका मिला. मैंने पाया कि सभी ब्रिटिश कलाकार एकदम जमीन से जुड़े हुए थे.

ये भी पढ़े- कोच के सामने पहलवानों से भिड़ गए विद्युत जामवाल

ऐसे में सेट पर स्वाति भिसे ने अपनी बेटी देविका को ज्यादा अहमियत दी होगी?

जी नहीं.. बिलकुल ऐसा नहीं रहा. यूं तो देविका बहुत बेहतरीन अदाकारा हैं. पर स्वाती मैम ने कहीं भेदभाव नही किया. देविका के साथ मेरे जो सीन हैं, उनमे मुझे पूरी अहमियत दी गयी. मुझे कहीं दबाव का अहसास नही हुआ. देविका का स्वभाव भी बहुत अच्छा है. स्वाती मैम, देविका व मुझे दोनों को हर सीन अच्छी तरह से सिखाती थीं. मैम ने मेरे अंदर से सर्वश्रेष्ठ में से सर्वश्रेष्ठ निकाला है. फिल्म देखते समय आप अहसास करेंगे कि हर किरदार उभर कर आया है.

सिनेमा में आए बदलाव से कलाकार के तौर पर आपको क्या फायदा नजर आ रहा है ?

मैंने हर बार हर फिल्म में कुछ नया करने का प्रयास किया. मैं किसी बड़े निर्देशक के साथ भी ऐरा गैरा किरदार नही कर सकती. मैंने नागेश ककुनूर, डा. चंद्रप्रकाश द्विवेदी के साथ काम किया. मैं मुंबई एक बहुत बड़ी व बेहतरीन अदाकारा बनने का सपना लेकर आयी हूं.

नाइट शिफ्ट बीमारी गिफ्ट

बाइस साल की अर्चना जब दिल्ली में काम करने के इरादे से आयी थी, तब कितनी खूबसूरत और जीवंत थी, मगर चार साल में ही वह बीमार, चिड़चिड़ी, उदास और हर वक्त थकी-थकी सी नजर आती है. छब्बीस साल की उम्र में छत्तीस की दिखती है. वहीं उसकी बड़ी बहन उम्र में उससे कम और उससे ज्यादा खूबसूरत लगती है. अर्चना की इस हालत के पीछे जिम्मेदार है उसका काम. अर्चना एक बीपीओ में काम करती है. सैलरी तो बहुत अच्छी है, लेकिन काम करने का समय निश्चित नहीं है. उसके ऑफिस का वक्त कभी रात को आठ बजे से सुबह चार बजे तक होता है, कभी सुबह चार बजे से बारह बजे तक, कभी बारह बजे से आठ बजे तक. उसकी लाइफ में कुछ भी निश्चित और एकसमान नहीं है. पंद्रह-पंद्रह दिन पर शिफ्ट चेंज हो जाती है और उसके साथ ही उसका पूरा सिस्टम गड़बड़ा जाता है. सुबह-शाम का कोई ठिकाना नहीं. कभी सुबह तक सोती रहती है, कभी दोपहर में सोती है तो कभी रात में सोती है. नतीजा न खाने का कोई वक्त निश्चित है, न टॉयलेट जाने का. इसके चलते उसकी बायलॉजिकल क्लॉक बिगड़ चुकी है. अर्चना कभी भी कुछ भी खा लेती है. कभी-कभी तो हफ्तों फास्टफूड ही खाती रहती है. इन्हीं सब बातों के चलते उसका वजन तेजी से बढ़ रहा है, बाल झड़ रहे हैं, चेहरा निस्तेज हो गया है, आंखों के नीचे गड्ढे नजर आने लगे हैं. हर वक्त एसिडिटी की प्रॉब्लम के कारण पर्स में ईनो पाउडर के पैकेट्स भरे रहते हैं. हर वक्त खुश और चहकती रहने वाली अर्चना लगातार चिड़चिड़ी और उदास रहने लगी है.

पहले जहां दफ्तरों में नौ से पांच या दस से छह की ड्यूटी हुआ करती थी, वहीं अब महानगरों के साथ-साथ छोटे शहरों में चौबीसों घंटे और शिफ्ट में काम करने का ट्रेंड तेजी से बढ़ रहा है. मीडिया, बीपीओ सेक्टर और कई प्राइवेट कम्पनियों ने चौबीसों घंटे काम करने के चलन को बढ़ाया है. यहां लोग शिफ्टों में काम करते हैं. ये शिफ्ट पंद्रह दिन या महीने भर के अंतराल पर बदलती रहती हैं. बड़ी संख्या में लोगों को नाइट शिफ्ट में काम करना पड़ता है या फिर हर हफ्ते उनकी शिफ्ट और शेड्यूल में बदलाव होता रहता है. ऐसे में अगर आप भी इस तरह के शेड्यूल में काम करते हैं तो न सिर्फ आपको मोटापा और डायबीटीज का जोखिम अधिक है, बल्कि यह बदलती शिफ्ट आपको कई तरह के मानसिक रोगों का गिफ्ट भी दे सकती है.

ये भी पढ़ें- देश में उम्र से पहले बूढ़े हो रहे हैं लोग

एक अध्ययन में पता चला है कि नाइट शिफ्ट जिन्दगी के लिए बड़ा खतरा बन रही हैं. इसके चलते फेफड़े के कैंसर और हृदयरोग से जुड़ी समस्याएं पैदा हो रही हैं जो जल्द मौत की वजह भी बन सकती हैं. इस स्टडी के मुताबिक, पांच या इससे ज्यादा सालों तक बदल-बदल कर नाइट शिफ्ट में काम करने वाली महिलाओं में हृदयरोग से जुड़ी समस्याओं के कारण मृत्युदर बढ़ा पाया गया, जबकि 15 साल से अधिक समय तक काम करने वाली महिलाओं में फेफड़े के कैंसर से मृत्यु होने की दर में इजाफा देखा गया है.

नाइट शिफ्ट या शिफ्ट चेंज से इंसान का डेली रूटीन बुरी तरह प्रभावित होता है. हमारे मस्तिष्क में कुछ हजार ऐसी कोशिकाएं होती हैं, जहां हमारे शरीर की मुख्य जैविक घड़ी होती है. यह जैविक घड़ी निर्धारित करती है कि हमें कब सोना है, कब जागना है या भोजन पचाने के लिए लिवर को कब एंजाइम पैदा करना है. जैविक घड़ी हमारे दिल की धड़कन को भी नियंत्रित करती है, यह सुबह धड़कन को तेज और शाम को सुस्त करती है. रात की शिफ्ट में काम करने से जैविक घड़ी गड़बड़ा जाती है और ठीक से काम नहीं कर पाती, नतीजतन गंभीर बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है. रात में जागने से शरीर में हार्मोनल असंतुलन हो जाता है. शरीर में कुल 230 तरह के हॉर्मोंस होते हैं, जो अलग-अलग कामों को कंट्रोल करते हैं. हॉर्मोन की छोटी-सी मात्रा ही कोशिकाओं के काम करने के तरीके को बदल देती है. इसका असर हमारे मेटाबोलिज्म, इम्यून सिस्टम, शरीर के डेवलपमेंट और मूड पर पड़ता है.

डिप्रेशन और चिन्ता

नाइट शिफ्ट में काम करने वालों को डिप्रेशन और चिंता होने की संभावना 33 प्रतिशत अधिक हो जाती है. विशेष रूप से उन लोगों की तुलना में जो नाइट शिफ्ट में काम नहीं करते हैं या फिर वैसे लोग जो 9 से 5 बजे वाली शिफ्ट करते हैं. अवसाद के चलते नाइट शिफ्ट वाले हर वक्त चिड़चिड़े और थके-थके से रहते हैं. ठीक नींद न मिलने के चलते उनका थका हुआ मस्तिष्क लाइफ की छोटी-छोटी समस्याओं के निराकरण में भी खुद कर सक्षम नहीं पाता है और वे हर वक्त चिन्ताओं में घिरे रहते हैं. उनकी रोजमर्रा की जिन्दगी में तेजी से बदलाव आता है और वे इन्ट्रोवर्ट हो जाते हैं. रिश्तेदारों, दोस्तों से दूर रहने लगते हैं.

मानसिक बीमारियों का खतरा

शिफ्ट में काम करने वाले लोगों में मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित होने की संभावना 28 प्रतिशत अधिक होती है. दरअसल जब हम रात को अपनी पूरी नींद लेते हैं तो सुबह उठने पर हमारा दिमाग और शरीर तरोताजा महसूस करता है. रात के वक्त कोई डिस्टर्बेंंस नहीं होता, अंधेरा होता है, खामोशी होती है, वातावरण में ठंडक होती है. यह सभी चीजें हमारे शरीर को आराम पहुंचाती हैं. इसके विपरीत जब हम रात भर काम करते हैं और दिन के वक्त सोते हैं तो चारों तरफ वाहनों और लोगों का शोर होता है, तेज रोशनी होती है, गर्मी और उमस होती है, नतीजा न तो हमारा शरीर और न ही दिमाग पूरी तरह आराम हासिल कर पाता है. दोनों ही बेचैन और तनावग्रस्त हो जाते हैं. हम भले छह-सात घंटे सोए रहे हों, लेकिन यह नींद आरामदायक नींद नहीं होती है. यह बेचैनी और तनाव हमारे मस्तिष्क पर प्रभाव डालता है और हम दिमाग से जुड़ी कई बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं, जिसमें सबसे पहला लक्षण भूलने की बीमारी का सामने आता है.

चिड़चिड़ापन और मूड स्विंग

स्टडी में शामिल विशेषज्ञों का कहना है कि बार-बार शिफ्ट में बदलाव होने से हमारे सोने और जागने की आदत पर असर पड़ता है. हमारा शरीर सोने-जागने की आदत में बार-बार हो रहे इस बदलाव को नहीं झेल पाता, जिससे लोगों में चिड़चिड़ापन आ जाता है. इसके अलावा मूड स्विंग होना और सामाजिक अलगाव का कारण भी बनता है जिससे परिवार और दोस्तों से रिश्ते प्रभावित होने लगते हैं.

डायबीटीज, मेटाबौलिक सिंड्रोम

अध्ययन में यह बात सामने आयी है कि वैसे लोग जो शिफ्ट में काम करते हैं उन्हें डे वर्कर्स की तुलना में डायबीटीज होने का खतरा 50 प्रतिशत अधिक होता है. साथ ही ऐसे लोगों में मेटाबोलिक सिंड्रोम जिसमें कई तरह की हेल्थ प्रौब्लम्स जैसे- हाई बीपी, हाई ब्लड शुगर, मोटापा और अनहेल्दी कोलेस्ट्रौल लेवल की समस्या शामिल है.

ये भी पढ़ें- अगर रहना चाहते हैं फिट तो जरूर अपनाएं ये 5 टिप्स

रखें इन बातों का ध्यान

नाइट शिफ्ट या बदलने वाली शिफ्ट में काम करना अगर आपकी मजबूरी है, तो कोशिश करें कि दो-तीन साल में ही कोई ऐसी जॉब आपको मिल जाए जो दिन के वक्त हो. नाइट शिफ्ट वाली या शिफ्ट चेंज वाली जॉब लम्बे समय तक नहीं करनी चाहिए. नाइट शिफ्ट के चलते आप बीमार न पड़ें इसके लिए कुछ बातों पर अगर आप ध्यान दें तो यह आपके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को बनाए रखने में सहायक होगा.

–  नाइट शिफ्ट में काम करते हैं, तो दिन में सोते समय पर्याप्त अंधेरा रखें.

–  सोने के लिए शांत जगह का चुनाव करें.

–  रात में ड्यूटी पर जाने से पहले एक घंटे की छोटी नींद जरूर लें.

–  रात में काम करते समय चौकलेट, जंकफूड की बजाय, सलाद या फल का सेवन करें.

–  रात में काम करते समय चाय, कॉफी या शीतल पेय लेने से बचें.

–  ड्यूटी पूरी होने के बाद जब भी घर पहुंचें, तो खाली पेट न सोएं. हल्का-फुल्का खाना खाकर ही सोएं.

–  नींद नहीं आ रही है, तो दवा या अल्कोहल का प्रयोग बिल्कुल न करें.

–  डिनर हमेशा समय पर करें. आपको अपनी शिफ्ट शुरू होने से करीबन एक घंटा पहले ही डिनर कर लेना चाहिए.

–  ब्रंच टाइम अर्थात रात्रि में 12 से 1 के बीच जब हल्की भूख का अहसास हो तो चाय या कॉफी न पीएं, बल्कि कुछ हेल्दी फूड का चयन करें. मसलन, इस समय पौपकार्न, नट्स या ड्राई नमकीन जैसे चिवड़ा लें. यह आपकी भूख भी मिटाएगा और ऊर्जा भी देगा.

–  सुबह का नाश्ता कभी स्किप न करें. अक्सर रातभर काम करने और थकावट के कारण लोग सुबह नाश्ता छोड़कर सो जाते हैं. ऐसा नहीं करना चाहिए. जो लोग ऐसा करते हैं, उन्हें मेटाबोलिक डिसआर्डर की समस्या का सामना करना पड़ता है. मेटाबोलिक डिसआर्डर अन्य कई बीमारियों जैसे शुगर व बीपी आदि को जन्म देता है.

–  पीने के पानी पर ध्यान दें. रात के समय में मौसम में काफी हद तक बदलाव आ जाता है. खासतौर से, सर्दी के मौसम में तो वैसे भी पानी की प्यास कम लगती है. जिसके कारण व्यक्ति पानी कम पीता है, लेकिन रात के समय काम करते समय वाटर इनटेक कम हो जाता है. अगर काम के दौरान वाटर इनटेक पर ध्यान न दिया जाए तो इससे निर्जलीकरण की समस्या हो सकती है. इसलिए काम की व्यस्तता के बीच भी रात्रि में पानी पर्याप्त मात्रा में पीएं.

–  बौडी पौश्चर को ठीक रखें. चूंकि रात के समय में व्यक्ति को स्वाभाविक तौर पर नींद आती है ही, साथ ही इस समय औफिस का माहौल भी काफी हद तक बदल जाता है. जिसके कारण व्यक्ति उतना अलर्ट नहीं होता, जितना दोपहर के समय होता है. इतना ही नहीं, रात को काम के समय जब व्यक्ति को नींद आती है, तो उसका बौडी पॉश्चर भी बदल जाता है. यह गलत बौडी पौश्चर बैक पैन, गर्दन दर्द व अन्य कई तरह की समस्याओं की वजह बनता है. इसलिए बॉडी पॉश्चर पर भी उतना ही ध्यान दें, जितना आप अपने काम पर देते हैं.

ये भी पढ़ें- जानें, सर्दियां स्ट्रोक का खतरा कैसे बढ़ाती हैं

बचपन से ही रखें बच्चों की सेहत का ध्यान

बच्चा वहीं सीखता है जैसा उसे माहौल मिलता है. चाहे वो घर का हो या स्कूल का. यह बात सिर्फ उसके व्यवहार पर ही लागू नहीं होती बल्कि उसकी सेहत से भी जुड़ी होती है. बच्चे बहुत कोमल होते हैं, जैसे सांचे में ढालोगे वैसे ही वो बन जाएंगे. इसी तरह उनका पाचन तंत्र भी कमजोर होता है अगर आप उन्हें पोषण से भरपूर भोजन देते हैं तो वो उनकी सेहत के लिये अच्छा होगा. यदि बाहर का खाना या कुछ और खाते हैं तो वो उनकी जीवन शैली के लिए गलत रहेगा और वो कई तरह के संक्रमण की चपेट में आने की आशंका को बढ़ावा देगा. कई बार समस्याएं उम्र बढ़ने के साथ और अधिक परेशान करती हैं. इसलिए जरूरी है उनके खान पान और उनकी जीवनशैली का बचपन से ही ध्यान रखा जाएं.

बच्चों को स्तनपान जरूर कराएं

बच्चों के सही विकास की शुरुआत उसके पैदा होने से ही शुरू हो जाती है. मां का दूध बच्चे के स्वास्थ्य और विकास के लिए बहुत जरूरी है. मां के दूध की बच्चे के लिए उपयोगिता को देखते हुए ही विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सिफारिश की है कि छह महीनों तक बच्चे को सिर्फ मां का दूध ही दिया जाना चाहिए. इसके बाद दो साल तक बाहरी दूध और खाने-पीने की दूसरी चीजों के साथ स्तनपान जारी रखी जा सकता है. बचपन में बच्चे को कराया स्तनपान पूरी जिंदगी उसके स्वास्थ्य में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है.

ये भी पढ़ें- सर्दियों में रूखेपन को ऐसे कहें बाय बाय

पोषण से भरपूर भोजन

बच्चों के  सही विकास के लिये जरूरी है उसे पौष्टिक आहार देना. रोजाना उसके भोजन में एक तिहाई फल व सब्जियां खिलाएं व दो तिहाई अनाज अवश्य दें, प्रोटीन व फाइबर को डाइट में करें शामिल, फास्ट फूड व जंक फूड से बनाएं दूरी, रोजाना कम से कम आठ गिलास पानी पीने की आदत डालें, भोजन हमेशा बच्चे की उम्र की जरूरत के हिसाब से खिलाएं अधिक भोजन भी बीमारियों की जड़ बन सकता है.

बच्चों को तनाव से रखें दूर

कभी भी अपने बच्चों पर पढ़ाई का या घरेलू बातों का तनाव न डालें. बच्चे को हमेशा टाईमटेबल के अनुसार एक से दो घंटा हर रोज नियम से पढ़ाई कराएं पूरे दिन उसके पीछे न पड़ें, बार बार कहने से वो पढ़ाई से दूर भी भागता है और उस पर बनता प्रेशर उसे तनाव की ओर ले जाता है व घरेलू बातों को बच्चो के सामने न करे इससे बच्चे में नकारात्मकता का वास होता है और बच्चों मन कोमल होता है. हो सकता है कि वो बात उसके मन में घर कर जाए और वो तनावग्रस्त हो जाए.

व्यायाम की आदत अवश्य डालें

बढ़ती उम्र के लिए ही व्यायाम करना अच्छा नहीं है बल्कि इसकी तैयारी बचपन से ही की जाती है. व्यायाम हमें आगे बढ़ने की ऊर्जा, सकारत्मक नजरिया व हमें तंदरुस्त रखता है. इनसब की जरूरत बच्चों को बहुत ज्यादा होती है, इसलिए बचपन से ही व्यायाम की आदत है जरूरी. बच्चों को ताड़ासन, पद्मासन और भुजंग आसन जैसे सामान्य योगासन कराएं. बच्चों को ध्यान लगाने की आदत डालें. इससे उन्हें मानसिक शांति मिलेगी और उनका विकास बेहतर तरीके से होगा.

खेलने दें आउटडोर गेम

बच्चे को दिन में कम से कम एक घंटा जरूर खेलने दें. इससे वह फिट रहेंगे और उनका वजन भी नहीं बढ़ेगा. हल्की धुप में खेलने से बच्चों को विटामिन डी मिलता है. जो की रिकेट्स जैसी बीमारी से बचाता है खेलने से बच्चो की हड्डियां मजबूत होती है.

ये भी पढ़ें- 8 टिप्स : बच्चों को ऐसे बचाएं स्किन प्रौब्लम से

अच्छी नींद लें

आजकल बच्चे देर रात तक जगे रहते हैं. कंप्यूटर या फोन पर गेम खेलना या गाने सुनते हैं. जो कि उनकी आंखों के लिए  और उनके विकास के लिये नुकसानदेह साबित होता है. नवजात बच्चे के लिए दिन में 18 घंटे की नींद जरूरी है. 2 -3साल के बच्चों को 12  घंटे अवश्य सुलाएं और स्कूल जाने वाले बच्चों को 10 घंटे की नींद है बहुत जरूरी. उनका सोने और उठने का टाइम निर्धारित करें और दिन में सिर्फ 2  घंटे ही टीवी या गेम देखने दें.

खेती की स्मार्ट तकनीक जानने के लिए पढ़ें ये खबर

राजेश अग्रवाल, प्रबंध निदेशक, इंसैक्टिसाइड्स (इंडिया) लिमिटेड

कृषि क्षेत्र की सिल्वर लाइनिंग

यह एक ऐसा स्मार्ट युग है, जब हमारे फोन तक हम से ज्यादा स्मार्ट हैं. लेकिन जब बात खेती की आती है, तब ऐसा लगता है मानो हम एक ऐसे युग में ठहर से गए हैं जिसे हम ने कभी महसूस ही नहीं किया. अगर कुछ विकसित हो चुके इलाकों को छोड़ दें तो बाकी हर जगह के किसानों से बात कर के यह पता लगता है कि आज भी सालों पुराने तरीके से काम हो रहा है, अल्पविकसित तकनीकें इस्तेमाल हो रही हैं और किसान बेहद तनाव में हैं जो अपने और अपनी फसलों दोनों के भविष्य को ले कर अनिश्चितता के घेरे में हैं. हालत यह है कि 21वीं सदी में भी किसान अपनी फसलों के लिए बारिश के पानी पर निर्भर हैं. कर्ज, मामूली आमदनी और बढ़ते खर्च जैसी समस्याओं से घिरे इन किसानों ने संभावित निस्तारण स्मार्ट फार्मिंग तकनीक यानी एसएफटी के बारे में शायद कभी सुना भी नहीं होगा. इस तकनीक के बारे में राजेश अग्रवाल से बातचीत हुई, जो इस तरह है :

किसानी की यह पद्धति कितनी स्मार्ट है?

अनुमान के मुताबिक, अमेरिका में तकरीबन 80 फीसदी किसान किसी न किसी प्रकार की स्मार्ट फार्मिंग तकनीक का इस्तेमाल करते हैं, जबकि यूरोप में यह तादाद 24 फीसदी है, जो बेहद तेजी से आगे बढ़ रही है.

सही माने में ये तकनीकें ही हैं, जो किसानों को अपनी फसलों के बारे में सही फैसले लेने और फसलों की उत्पादकता बढ़ाने में मददगार साबित होती हैं.

ये तकनीकें कितनी कारगर हैं, इस की बानगी संख्याएं खुद ही पेश करती हैं. यहां तक कि विभिन्न बहुपक्षीय संस्थानों द्वारा दुनियाभर के विकासशील देशों में किए गए अध्ययन भी यह सुझाव देते हैं कि खेती के नतीजों में बेहतर सुधार के लिए स्मार्ट फार्मिंग तकनीक एक कारगर उपाय साबित हो सकती है.

जमीनी लैवल पर स्मार्ट फार्मिंग तकनीक जमीन की प्रतिबाधा की दर का आकलन करती है, उस में नमी, पानी सोखने की क्षमता, नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटैशियम वगैरह की वैल्यू और पोषण के माइग्रेशन संबंधी जानकारियां मुहैया कराती हैं, वहीं फसलों के स्तर पर एक निश्चित स्तर के क्लोरोफिल का आकलन, संवेदनशीलता, पौधों के स्तर पर तापमान और नमी की जानकारी किसानों को यह तय करने में मदद करती है कि फसलों की सही बढ़वार के लिए क्या कदम उठाने की जरूरत है.

जमीन से ऊपर की बात करें, तो मौसम के हालात के बारे में सही जानकारी मुहैया कराने में भी स्मार्ट तकनीकें कारगर हैं जैसे कि वातावरण संबंधी तापमान, नमी, बारिश वगैरह की जानकारी.

स्मार्ट तकनीक के इस्तेमाल का सब से बड़ा फायदा यह है कि इस के डाटा को ऐतिहासिक मकसद के लिए स्टोर भी किया जा सकता है.

मतलब यह कि आज की डिवाइस में रिकौर्ड की गई उन जानकारियों को भविष्य के किसानों के लिए संजो कर रखा जा सकता है, जिन के आधार पर किसान अपनी फसलों के बारे में फैसले ले रहे हैं. इस से ज्यादा परिशुद्ध डाटा जमा करने के साथ किसी क्षेत्र विशेष की प्रकृति के बारे में जानकारी हासिल कर पाना ज्यादा आसान हो जाता है.

ये भी पढ़ें- खुशबूदार फसल धनिया सीड ड्रिल से करें बोआई

क्या भारत स्मार्ट फार्मिंग तकनीक को अपनाने के लिए तैयार है?

भारत में सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में खेती की तकरीबन 18 फीसदी हिस्सेदारी है, जिस से गंवई इलाकों की 85 फीसदी आबादी जुड़ी हुई है. यद्यपि, भारत ने साल दर साल खेती के कुल परिणामों में बढ़ोतरी की है, मगर किसानों की तादाद में काफी गिरावट आई है.

‘द इकोनोमिक सर्वे 2018’ कहता है कि साल 2050 तक खेती में कामगारों की तादाद कुल जनबल का महज 25.7 फीसदी रह जाएगी. गंवई इलाकों के खेतिहर परिवारों में अगली पीढ़ी के किसान खेतों में काम करने को तैयार नहीं हो रहे हैं क्योंकि खेती में खर्च बढ़ता जा रहा है, जबकि प्रति व्यक्ति उत्पादकता घट रही है, जमीन के बेहतर प्रबंधन की कमी है और लोग उन कामों की तरफ ज्यादा खिंच रहे हैं जो खेती से जुड़े नहीं हैं, पर वहां कमाई बेहतर है. स्मार्ट तकनीकों को अपनाने के लिए भारत की स्थिति इतनी परिपक्व आज के समय से पहले कभी भी नहीं थी.

हम डिजिटल क्रांति के मध्य में पहुंच चुके हैं, वायरलैस कनैक्टिविटी से पूरी दुनिया के साथ जुड़ चुके हैं. अब वह समय आ चुका है, जब हम अपने किसानों की मदद के लिए डिजिटल कनैक्टिविटी का इस्तेमाल करें. हमें सिस्टमैटिक ढंग से स्मार्ट फार्मिंग तकनीकों के इस्तेमाल की शुरुआत करनी होगी.

स्मार्ट किसान क्या हैं?

हमारे ज्यादातर किसान अपढ़ हैं या प्राइमरी तक ही पढे़ हैं, ऐसे में उन के लिए डिजिटल डिवाइस का इस्तेमाल करना आसान नहीं है. यही वजह है कि वे ट्रांजैक्शन जैसे कामों के लिए सीधा न कह देते हैं और कभीकभार नुकसान भी उठाते हैं. कई बार वे मोबाइल एप्लीकेशन में इस्तेमाल किए गए आइकनों को समझने में नाकाम रहते हैं, जबकि वे आइकन उन की परंपरागत बोलचाल में काफी लोकप्रिय हैं और वे उन का इस्तेमाल करते आ रहे हैं. उन की मौजूदा जानकारी और उपलब्ध फौर्मेट के बीच की यह खाई भी स्मार्ट तकनीकों को अपनाने के मामले में एक बड़ी रुकावट है.

ये भी पढ़ें-  पैगांबरी किस्म है शुगर फ्री

स्मार्ट फार्मिंग तकनीकों का पूरा फायदा उठाने के लिए हमारे किसानों को डिजिटल तालीम देने की जरूरत है. साथ ही, कृषि तकनीक बनाने वाली कंपनियां, जो अपनी सेवाएं मुहैया करा रही हैं, उन्हें यह समझना चाहिए कि किसानों की समझ की सीमाएं क्या हैं और वही आइकन इस्तेमाल करने चाहिए जो किसानों को आसानी से समझ में आ जाएं.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें