संध्या बचपन से ही दबंग और दंभी स्वभाव की लड़की थी, इसलिए शादी के लिए आए अच्छे घरों के रिश्तों में मीनमेख निकाल कर बड़ी बेरुखी से ठुकरा देती.

मां को अग्नि के सुपुर्द कर के मैं लौटी तो पहली बार मुझे ऐसा लगा जैसे मैं दुनिया में बिलकुल अकेली रह गई हूं. श्मशान पर लिखे शब्द अभी भी मेरे दिमाग पर अंकित थे, ‘यहां तक लाने का धन्यवाद, बाकी का सफर हम खुद तय कर लेंगे.’ मां तो परम शांति की ओर महाप्रस्थान कर गईं और मुझे छोड़ गईं इस अकेली जिंदगी से जूझने के लिए.

मां थीं तो मुझे अपने चारों ओर एक सुरक्षा कवच सा प्रतीत होता था. शाम को जब तक मैं आफिस से न लौटती, उन की सूनी आंखें मुझे खोजती रहतीं और मुझे देख कर अपना सारा प्यार उड़ेल देतीं. मैं भी मां को सारे दिन के कार्यक्रमों को बता कर अपना जी हलका कर लेती. आफिस में अपनी पदप्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए मुझे एक चेहरा ओढ़ना पड़ता था पर घर में तो मैं मां की बच्ची थी, हठ भी करती और प्यार भी. पर अब मैं बिलकुल अकेली पड़ गई थी.

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कुछ दिन बाद आफिस के केबिन में बैठ कर मैं सामने दीवार पर देखने लगी तो मन में खयाल आया कि पापा के फोटो के साथ मां की भी फोटो लगा दूं, इतने में दरवाजा खोल कर मेरे निजी सचिव ने आ कर बताया कि कुछ जरूरी कागज साइन करने हैं, जो टेबल पर ही रखे हैं.

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