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Crime Story: लाल चूड़ियों के टुकड़े

 सौजन्य-मनोहर कहानियां 

300गज में फैली उस कोठी में 2 बैडरूम और एक ड्राइंगरूम भूतल पर था, 2 बैडरूम और एक ड्राइंगरूम पहली मंजिल पर था. दाएं हिस्से में एक लंबी ओपन गैलरी कोठी के पीछे के हिस्से में बने गैराज तक गई थी. ऊपर की मंजिल में जाने के लिए सीढि़यां अंदर से भी थीं और बाहरी गैलरी से भी.

इस कोठी में एक ही परिवार रहता था. इस परिवार में मात्र 5 प्राणी थे- नरेश सेठी, उस की पत्नी पूर्णिमा सेठी और नौकर रामकिशन उर्फ रामू. नरेश सेठी का एकमात्र 8 वर्षीय बेटा विशु मसूरी के किसी पब्लिक स्कूल में पढ़ रहा था और बोर्डिंग में रहता था.

पूर्णिमा सेठी की लाश ऊपर की मंजिल के एक बैडरूम में डबल बैड पर पड़ी मिली थी. उसे गला घोंट कर मारा गया था. जिस चुन्नी से पूर्णिमा का गला घोंटा गया था, वह उसी की थी और उस के गले में ही लिपटी मिली थी.

पता चला कि पूर्णिमा सेठी सुबह साढ़े 9 बजे से दोपहर डेढ़ बजे तक घर में अकेली थी. उस का पति नरेश सेठी अपने औफिस गया हुआ था और नौकर रामू कनाट प्लेस. इसी बीच किसी समय पूर्णिमा का कत्ल हुआ था. पूर्णिमा की लाश सब से पहले दोपहर के डेढ़ बजे नौकर रामू ने देखी थी. उसी ने शोर मचा कर पासपड़ोस के लोगों की बुलाया था. उन्हीं में से किसी ने पुलिस को सूचना दी थी.

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जिस वक्त मैं मौका ए वारदात पर पहुंचा, उस समय पूर्णिमा का पति नरेश आ चुका था और इंसपेक्टर उसी से पूछताछ कर रहा था. नरेश ने बताया कि वह सुबह 9 बजे घर से निकला था. रास्ते में उसे 2-3 जगह जाना था, वहीं से होता हुआ वह पौने 2 बजे औफिस पहुंचा था. 2 बजे उसे औफिस में ही पूर्णिमा की हत्या की सूचना मिली थी.

पूछताछ में रामू ने बताया कि वह सुबह साढ़े 9 बजे घर से निकला था. उसे पहले जमुनापार शकरपुर में अपने एक रिश्तेदार के घर जाना था और उस के बाद कनाट प्लेस की एक ट्रैवल एजेंसी से मैडम का मुंबई का हवाई टिकट ले कर वापस लौटना था.

यह काम कर के वह डेढ़ बजे कोठी पर लौटा. उस समय कोठी का मुख्य द्वार बंद था, पर अंदर के सारे दरवाजे खुले मिले. मैडम नीचे दिखाई नहीं दीं तो वह ऊपर पहुंचा. वहीं उस ने बैडरूम में मैडम की लाश पड़ी देखी.

घर में न तो किसी प्रकार की लूटपाट हुई थी और न ही कोई चीज गायब थी. संघर्ष का भी कोई चिह्न नहीं मिला. अलबत्ता जिस में पूर्णिमा की लाश मिली थी, उसी बैडरूम में बैड के पास कमीज का गुलाबी रंग का एक बटन जरूर पड़ा मिला. बटन रामू की उसी कमीज का था, जो वह पहने हुए था.

रामू को स्वयं पता नहीं था कि उस की कमीज का एक बटन गायब है. इंसपेक्टर ने इस ओर उस का ध्यान दिलाया तो वह चौंका. उस ने बताया कि सुबह कमरे की सफाई करते समय बटन टूटा होगा.

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रामू शादीशुदा युवक था. वह उत्तर प्रदेश के जिला सुलतानपुर का रहने वाला था और पिछले 11 सालों से नरेश सेठी के घर में नौकरी कर रहा था. मात्र बटन के आधार पर उस पर शक करना बेमानी था.

मैं ने इंसपेक्टर को साथ ले कर कोठी की दोनों मंजिलों का मुआयना किया. कोठी की छानबीन में हमें कई ऐसी चीजें मिलीं, जो हमारी जांच को दिशा दे सकती थीं. ऐसी चीजें थीं, फ्रिज के ऊपर रखा मिला एक बिल और कुछ खुले रुपए. बिल 440 रुपए का था और उसी के पास 10 रुपए खुले रखे थे.

नरेश सेठी ने बताया कि वह बिल दूध का है. उस दिन महीने की 2 तारीख थी और 2 तारीख को ही दूध वाला बिल लेने आता था. बिल के अलावा हमें कुछ और भी ऐसी चीजें मिलीं, जिन्हें मुद्दा बना कर घटना की जड़ों को टटोल सकते थे.

चाय के 2 जूठे प्याले रसोई के सिंक में पड़े मिले थे और 2 ऊपर की मंजिल वाले ड्राइंगरूम की सेंटर टेबल पर. इस के अलावा नीचे की मंजिल वाले ड्राइंगरूम के सोफे पर हमें खूबसूरत सा एक पेन भी पड़ा मिला. वहीं पर साइड टेबल पर 2 किताबें और एक आधी लिखी नोट बुक रखी थी. दोनों ही किताबें जनरल इंगलिश की थीं और नोटबुक में भी अंगरेजी ही लिखी थी.

पूछताछ करने पर पता चला कि पूर्णिमा सेठी मदन भाटिया नाम के एक ट्यूटर से अंगरेजी बोलना सीख रही थी. जो उसे प्रतिदिन 11 से 12 बजे के बीच पढ़ाने आता था. सोफे पर मिले पेन को पूर्णिमा का पति नरेश तो नहीं पहचान पाया, अलबत्ता रामू ने उस पेन को पहचान कर बताया कि उस तरह का पेन मदन भाटिया अपनी जेब में लगाए रहते थे.

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सिंक और ऊपर की मंजिल वाले ड्राइंगरूम की टेबल पर मिले प्यालों के बारे में किसी तरह की कोई जानकारी नहीं मिल सकी कि उन में किस ने चाय पी थी. हम ने अनुमान लगाया कि चाय 2 बार बनाई गई थी और दोनों बार नीचे की मंजिल वाली रसोई में ही बनी थी.

पूर्णिमा ने दोनों बार चाय एक ही व्यक्ति के साथ पी या अलगअलग व्यक्तियों के साथ, यह कहना मुश्किल था. ऊपर की मंजिल पर पूर्णिमा सेठी किसी खास व्यक्ति को ही साथ ले जा सकती थीं. प्यालों से यह भी संदेह हुआ कि पूर्णिमा सेठी की हत्या संभवत: दूसरी बार चाय पीने के बाद चाय पीने वाले व्यक्ति द्वारा की गई होगी.

साढ़े 9 बजे से डेढ़ बजे के बीच हुई हत्या की वारदात के लिए हम ने 5 लोगों को संदेह के दायरे में रखा. ये थे रामू, मृतका का पति नरेश सेठी, दूध वाला शंकर और ट्यूटर मदन भाटिया. 5वें नंबर पर उस शख्स पर संदेह किया जा सकता था, जिस के साथ पूर्णिमा ने ऊपर के ड्राइंगरूम में चाय पी थी.

इन पांचों में सब से ज्यादा संदिग्ध रामू लगा. वह काफी घबराया हुआ भी था, जिस से उस पर संदेह और भी बढ़ा.

मैं ने रामू से पूछा, ‘‘तुम कहां सोते हो?’’

‘‘पहली मंजिल के जिस बैडरूम में मैडम की लाश मिली है, उसी के बराबर वाले बैडरूम में सोता हूं. कोठी में सर्वेंट क्वार्टर न होने की वजह से मालिक ने वह कमरा मुझे दे रखा है.’’ रामू बोला.

रामू पर शक था, इसीलिए मैं ने उस के कमरे में जा कर देखा. जिस कमरे में रामू सोता था, यह 8×10 का बैडरूम था और उस में सिंगल बैड पड़ा हुआ था.

सामान या सजावट के नाम पर उस कमरे में कुछ नहीं था, अलावा रामू के कपड़ों और जरूरत की दूसरी चीजों के. बैड भी सामान्य सा था. बैड के साथ वाले शोकेस में एक औरत और बच्चे का सादा सा फोटो फ्रेम रखा था. वह रामू की पत्नी और बच्चे का फोटो था.

मैं ने रामू के बैड को गौर से देखा तो मुझे लगा कि उस कमरे में जरूर कुछ न कुछ अस्वाभाविक घटा था.

रामू के कमरे का निरीक्षण करने पर खिड़की में लाल रंग की टूटी हुई चूड़ी का एक टुकड़ा मिला. पूर्णिमा सेठी के दोनों हाथों में कोई चूड़ी नहीं मिली थी. मैं ने चूड़ी के उस टुकड़े को सावधानीपूर्वक उठा लिया. जिस खिड़की में टुकड़ा मिला था, वह पीछे की ओर गली में खुलती थी. कुछ सोच कर मैं कोठी के बाहर आया और आसपड़ोस की 2-3 कोठियों का चक्कर काट कर पीछे वाली गली में पहुंचा.

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पीछे वाली गली से मुझे रामू के कमरे की वह खिड़की नजर आ गई, जिस में चूड़ी का टुकड़ा मिला था. मैं ने उस खिड़की के नीचे गली में खोजबीन की, तो लाल चूडि़यों के वैसे ही 8 टुकड़े मिल गए. सारे टुकड़े एकत्र कर के मैं ने कागज में रख लिए.

मैं ने वे टुकड़े नरेश सेठी को दिखा कर पूछा, ‘‘ये टुकड़े तुम्हारी पत्नी की चूडि़यों के हैं?’’

‘‘नहीं,’’ नरेश सेठी ने दो टूक जवाब दिया, ‘‘मेरी पत्नी कांच की चूडि़यां विशेष अवसरों पर ही पहनती थी. लाल रंग की चूडि़यां तो उस ने कभी पहनी ही नहीं. चूडि़यां तो क्या, लाल रंग के कपड़ों तक से उसे चिढ़ थी.’’

रामू के कमरे की खिड़की के नीचे से चूडि़यों के टुकड़े एकत्र करते समय मैं सोच रहा था कि मैं हत्यारे के करीब पहुंच गया हूं, लेकिन नरेश सेठी ने यह बात बता कर मेरी सारी आशाओं पर पानी फेर दिया.

रामू 27-28 साल का था, लगभग इतनी ही उम्र पूर्णिमा सेठी की भी थी. ऐसी स्थिति में संदेह के लिए कई बातें सोचीसमझी जा सकती थीं.

मैं ने रामू को चूडि़यों के टुकड़े दिखा कर पूछा, ‘‘पहचानते हो इन्हें? तुम ने ही खिड़की से बाहर फेंके थे?’’

‘‘जी नहीं, मैं इस बारे में कुछ नहीं जानता.’’

‘‘कोई बात नहीं, थाने चल कर हम पता लगा लेंगे.’’ मैं ने उस पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव डाला तो वह रोने लगा, ‘‘साहबजी, आप गलत समझ रहे हैं. मैं इस घर में 11 साल से नौकरी कर रहा हूं. मैं इस परिवार का बुरा नहीं सोच सकता.’’

नरेश सेठी पत्नी की असमय मौत के गम से व्यथित था. फिर भी उस ने रामू को तसल्ली दी. समझाया, ‘‘डर मत. पुलिस को अपना काम करने दे.’’

मैं ने नरेश सेठी से पूछा कि क्या उसे रामू के शकरपुर और कनाट प्लेस जाने की बात मालूम थी. उस ने बताया कि इस संबंध में तो उसे कोई जानकारी नहीं थी, अलबत्ता यह जरूर मालूम था कि पूर्णिमा को 5 अगस्त को मुंबई जाना है और इस के लिए उस ने कनाट प्लेस की किसी ट्रैवल एजेंसी को टिकट का इंतजाम करने को कहा था.

मैं ने रामू से उस के शकरपुर वाले रिश्तेदार और ट्रैवल एजेंसी का पता ले लिया, फिर वह टिकट देखा, जो वह ले कर आया था. टिकट वास्तव में 5 अगस्त का ही था.

‘‘पूर्णिमा मुंबई किस सिलसिले में जा रही थी?’’ मेरे यह पूछने पर नरेश सेठी ने कोई संतोषजनक जवाब नहीं दिया.

उस वक्त हमारे सामने रामू के अलावा कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं था, जिसे हम संदेह के दायरे में रख सकते. इसीलिए हम रामू को पूछताछ के लिए थाने ले आए.

चूडि़यों के टुकड़े, कमीज का बटन, सोफे पर मिला पेन, ड्राइंगरूम और सिंक में मिले चाय के प्याले, फ्रिज पर मिला दूध का बिल और पैसे आदि सभी चीजें हम ने जांच के लिए कब्जे में ले ली थीं. इस के साथ ही हम ने हत्या का केस दर्ज करने के बाद पूर्णिमा सेठी की लाश पोस्टमार्टम के लिए भिजवा दी थी.

जिन दिनों की यह बात है, उन दिनों मैं एसीपी था. मेरा औफिस थाने में ही था. थाने पहुंचते ही मैं ने 2 सबइंसपेक्टरों को बुलाया. उन में से एक को कनाट प्लेस स्थित ट्रैवल एजेंसी और दूसरे को रामू के शकरपुर स्थित रिश्तेदार के यहां भेजा.

शाम होतेहोते मुझे दोनों जगह की रिपोर्ट मिल गई. पता चला कि रामू पौने 11 बजे अपने मौसा श्यामबाबू के यहां पहुंचा था.

श्यामबाबू के पास रामू पौन घंटे के करीब रुका. उस के बाद वह कनाट प्लेस स्थित टै्रवल एजेंसी के औफिस पहुंचा. वहां वह 12 या सवा 12 बजे पहुंचा था और 15 या 20 मिनट वहां रहा, फिर वहां से मैडम का एयर टिकट ले कर वापस लौट आया.

रात को हम ने रामू से पूछताछ की. रामू के अनुसार उस ने न तो पूर्णिमा सेठी का कत्ल किया था और न वह ऐसा सोच सकता था. पूर्णिमा को वह अपनी बहन मानता था.

रामू ने बताया कि वह डेढ़ नहीं, बल्कि एक बजे कोठी पर वापस लौटा था. उसे कोठी का मुख्य दरवाजा बंद मिला. दरवाजा खोल कर जब वह अंदर पहुंचा, तो उसे सारे दरवाजे खुले मिले. उस ने मैडम को पहले नीचे खोजा, लेकिन जब वह नीचे नजर नहीं आईं तो वह ऊपर की मंजिल पर गया.

ऊपर  की मंजिल पर उस ने मैडम को अपने कमरे में बैड पर पड़े देखा, तो उस का माथा ठनका. मैडम ऊपर की मंजिल पर कम ही आती थीं. उस के रूम में तो मैडम के आने का प्रश्न ही नहीं था.

रामू ने बताया कि मैडम को 2 चीजें चमचमाती हुई रखने का शौक था, एक बाथरूम और दूसरा बैड. वह न तो किसी के बैड पर बैठना पसंद करती थीं और न ही किसी को अपने बैड पर बैठाती थीं. मैडम का रामू के बैड पर तो बैठने का प्रश्न ही नहीं था.

वह समझ गया कि जरूर कोई गड़बड़ है. गौर से देखा तो उसे समझते देर नहीं लगी कि मैडम मर चुकी हैं. उन के गले में जिस ढंग से चुन्नी लिपटी थी, उसे देख कर कोई भी बता सकता था कि उन्हें गला घोंट कर मारा गया था.

पूर्णिमा सेठी की हत्या रामू के कमरे में उसी के बैड पर हुई थी. वह यह सोच कर डर गया था कि सब उसी पर शक करेंगे, वह पकड़ा जाएगा. सोचविचार कर उस ने मैडम की लाश को अपने कमरे से हटाने का निश्चय किया. सब से पहले उस ने लाश को नीचे वाली मंजिल में ले जाने की सोची. लेकिन पूर्णिमा सेठी चूंकि उस से काफी भारी थीं, इसलिए उसे अपना इरादा बदलना पड़ा.

अंतत: उस ने पूर्णिमा की लाश को अपने कमरे से उठा कर दूसरे बैडरूम के बैड पर डालने का निश्चय किया. ऐसा ही उस ने किया भी. लाश को दूसरे बैडरूम में डालते समय ही उस की कमीज का बटन भी दूटा था, जिस पर बौखलाहट में ध्यान नहीं दे पाया था.

इतना सब करने के बाद रामू ने अपने आप को सामान्य किया और फिर शोर मचा कर आसपड़ोस के लोगों को बुला लिया था.

रामू से हम ने रात को साढ़े 12 बजे पूछताछ शुरू की थी, जो सुबह साढ़े 4 बजे तक चलती रही. इस पूछताछ के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि रामू जो कह रहा है, वह सच है. उस ने अपने बचाव के लिए हत्या के सबूतों को अपने स्थान से हटाने और मिटाने का अपराध जरूर किया है, लेकिन वह हत्यारा नहीं है.

अब सवाल यह था कि पूर्णिमा सेठी की हत्या रामू ने नहीं की, तो किस ने की? रामू के बाद संदिग्धों की लिस्ट में हम दूधिया शंकर, ट्यूटर मदन भाटिया और नरेश सेठी को रख सकते थे. रामू की गैरमौजूदगी में मदन भाटिया और शंकर कोठी पर आए थे, इस बात के प्रमाण हमारे पास थे ही.

मदन भाटिया का पता मैं ने नरेश सेठी से ले लिया था. शंकर का पता उस के पास भी नहीं था. मैं ने इंसपेक्टर से कहा कि वह सुबह होते ही एक हवलदार को इस निर्देश के साथ नरेश सेठी की कोठी पर भेज दें कि शंकर अगर दूध देने आए, तो वह उसे थाने ले आए.

सुबह में मैं ने इंसपेक्टर से कहा कि एक एसआई को मदनगीर स्थित भाटिया के घर भेज कर उसे बुला लें.

मदन भाटिया की उम्र 32-33 साल थी. स्वभाव से वह सीधासज्जन लगता था. उसे ले कर आने वाले दरोगा ने मेरी हिदायत के मुताबिक उसे पूर्णिमा सेठी के कत्ल की बात नहीं बताई थी. मैं ने मदन भाटिया को सामने की कुरसी पर बैठा कर पूछताछ की. कुछ सामान्य रूप से तो कुछ तीखे सवालों के साथ.

मदन भाटिया के चेहरे और मन के भावों को समझने के लिए मैं उस के साथ सख्ती से पेश आया था.

पूर्णिमा सेठी की हत्या की बात सुन कर मदन भाटिया बेहद आश्चर्य में था. उस से बातचीत के दौरान मुझे जरा भी ऐसा नहीं लगा कि वह इस मामले में कहीं दोषी है. मैं ने उस से पिछले दिन की सारी बातें बताने को कहा.

मदन भाटिया ने बताया कि वह रोज की तरह गत दिवस भी सवा 11 बजे नरेश सेठी की कोठी पर पहुंचा था. उस ने घंटी बजाई तो रामू की जगह पूर्णिमा सेठी ने दरवाजा खोला. पता चला, रामू कहीं बाहर गया हुआ था. मदन भाटिया पूर्णिमा के साथ अंदर गया और ड्राइंगरूम में सोफे पर जा बैठा. पूर्णिमा वहीं बैठ कर पढ़ती थी. उस ने मदन भाटिया को पानी पिलाया और किताबें तथा नोटबुक ले कर पढ़ाई के लिए आ बैठी.

इत्तफाक से पूर्णिमा पेन लाना भूल गई थी. वह पेन लाने के लिए उठी, तो भाटिया ने उसे अपना पेन दे दिया.

भाटिया ने लगभग पौन घंटे तक पूर्णिमा को पढ़ाया. जब वह जाने लगा तो पूर्णिमा चाय पीने की जिद करने लगी. वह बैठ गया. पूर्णिमा रसोई में जा कर 2 कप चाय बना लाई. चाय पीते समय पूर्णिमा की नजर किताबों के ऊपर रखे पेन पर पड़ी, तो उस ने पेन उठा कर भाटिया की ओर बढ़ाया. उस समय भाटिया के हाथ में चाय का प्याला था. उस ने यह सोच कर पेन सोफे पर रख दिया कि जाते समय उठा लेगा. लेकिन उसे पेन उठाने का ध्यान नहीं रहा.

मदन भाटिया नरेश सेठी की कोठी से सवा 12 बजे लौटा था. अगर वह सच बोल रहा था, तो फिर कत्ल सवा 12 से एक बजे के बीच पौन घंटे की अवधि में हुआ था. मदन भाटिया के अनुसार पूर्णिमा ने उसे चाय पिलाई थी. चाय के प्याले भी सिंक में पड़े मिले थे. इस का मतलब यह था कि ऊपर वाली मंजिल में चाय के जो प्याले मिले थे, उन में पूर्णिमा ने मदन भाटिया के जाने के बाद किसी और के साथ चाय पी थी.

रामू और मदन भाटिया को भी हम संदेह से मुक्त नहीं कर सकते थे. इसीलिए मैं ने दोनों को निगरानी में रखने का आदेश दिया.

दूसरा सबइंसपेक्टर शंकर को ले कर साढ़े 10 बजे मेरे औफिस आया. शंकर 40-42 साल का गठे हुए बदन का व्यक्ति था. मैं ने शंकर से पूछताछ की तो उस ने बताया कि गत दिवस वह सवा 10 बजे सेठी की कोठी पर पहुंचा था. उस ने घंटी बजाई तो रामू की जगह पूर्णिमा सेठी ने दरवाजा खोला.

उस ने अंदर जा कर दूध दिया और साथ ही पिछले महीने का बिल भी. पूर्णिमा सेठी ने उसे साढ़े 4 सौ रुपए ला कर दिए. बिल 440 रुपए का था, अत: उस ने 10 रुपए पूर्णिमा को लौटा दिए. उस के बाद वह वहां से चला गया था.

मदन भाटिया के अनुसार पूर्णिमा सेठी सवा 12 बजे तक सहीसलामत थीं. जबकि शंकर सवा 10 बजे ही कोठी पर पहुंचा था. ऐसी स्थिति में उस पर शक करने की कोई तुक नहीं थी, फिर भी ऐहतियात के तौर पर मैं ने उसे भी निगरानी में रखने को कहा.

पूर्णिमा की हत्या हुए 24 घंटे होने को थे. इस बीच नरेश सामान्य हो गया होगा, यह सोच कर मैं इंसपेक्टर को साथ ले कर उस की कोठी पर पहुंचा. वहां पर हमें पूर्णिमा के मातापिता और भाई भी मिल गए. वे लोग रात को आए थे. पता चला, पूर्णिमा का मायका चंडीगढ़ में था. हम ने पूर्णिमा के मातापिता और भाई से बातचीत की तो उन्होंने अपने दामाद पर किसी तरह का संदेह व्यक्त नहीं किया. उन का कहना था कि नरेश पूर्णिमा को बहुत प्यार करता था. ऐसा कोई कारण नहीं था जिस की वजह से उसे पूर्णिमा की हत्या करने की जरूरत पड़ती.

मैं ने नरेश सेठी को एक अलग कमरे में बैठा कर पूछताछ की. उस ने बताया कि गत दिवस उसे 2-3 जगह जाना था, इसीलिए वह सुबह 9 बजे घर से निकल गया था. घर से रवाना होने के बाद वह पहले जैकी एक्सपोर्ट के मालिक नवीन खन्ना के घर ग्रेटर कैलाश गया. नवीन खन्ना के घर वह सवा घंटा बैठा रहा. वहां से वह आरकेपुरम स्थित अशोक बब्बर के घर गया. अशोक बब्बर की कालकाजी में बब्बर ओवरसीज के नाम से एक्सपोर्ट कंपनी थी. बब्बर के साथ वह एक घंटे तक रहा.

बब्बर के घर से वह लक्ष्मीबाई नगर स्थित अंजलि एक्सपोर्ट में पहुंचा. इस कंपनी के मालिक रमेश भसीन के साथ वह डेढ़ घंटा रहा. फिर वह ग्रीन पार्क स्थित अपने औफिस गया. तब तक दोपहर के पौने 2 बज गए थे. 2 बजे उसे औफिस में ही पूर्णिमा की हत्या की सूचना मिली.

नरेश सेठी के सचझूठ को परखने के लिए मैं ने तीनों पतों से जानकारी कराई तो पता चला, उस की बात सच थी. लेकिन इस के बावजूद हम नरेश सेठी को शक के दायरे से बाहर नहीं कर सकते थे. वजह यह थी कि नरेश जिनजिन जगहों पर गया था, वे सब लाजपतनगर के करीब थीं. नरेश के पास चूंकि कार थी, इसलिए वह आर.के. पुरम, ग्रेटर कैलाश, ग्रीन पार्क और लक्ष्मीबाई नगर कहीं से भी 10-15 मिनट में लाजपत नगर पहुंच सकता था.

बाकी सारी चीजें तो पता चल गईं, लेकिन हम यह पता नहीं लगा पाए कि पूर्णिमा ने दूसरी बार किस के साथ चाय पी थी. दोपहर होतेहोते हमें पूर्णिमा सेठी की लाश की पोस्टमार्टम रिपोर्ट मिल गई. उस की मृत्यु दम घुटने से हुई थी. मृत्यु से पहले उस के साथ कुकर्म या सहवास नहीं हुआ था.

रिपोर्ट के अनुसार, पूर्णिमा की मृत्यु 12 बजे से दोपहर 2 बजे के बीच हुई थी. नरेश सेठी की कोठी से न तो कोई सामान गायब था, न पूर्णिमा के साथ कुछ ऐसावैसा हुआ था, फिर हत्या क्यों की गई? इस मुद्दे पर हम बुरी तरह उलझ कर रह गए. कोई राह नहीं सूझी, तो मैं ने रामू के कमरे की खिड़की के नीचे गली में मिले चूडि़यों के टुकड़ों को जांच का मुद्दा बनाया.

सारे टुकड़ों को जोड़ा गया, तो 2 चूडि़यों के मौडल तैयार हुए. मैं ने चूडि़यों के इन मौडलों की नाप को पूर्णिमा के हाथों में मिली चूडि़यों से मिलाया, तो यह देख कर आश्चर्य हुआ कि मौडल वाली चूडि़यों की साइज पूर्णिमा की चूडि़यों से काफी छोटी थी. संदेह होने पर मैं ने नरेश सेठी की कोठी पर जा कर वार्डरोब में रखी पूर्णिमा की कांच की चूडि़यां देखीं.

उन चूडि़यों में वास्तव में लाल रंग की कोई चूड़ी नहीं थी. साइज भी घटनास्थल पर मिली चूडि़यों से बड़ी थी. इस से यह बात साफ हो गई कि खिड़की के बाहर गली में मिले चूडि़यों के टुकड़े पूर्णिमा के नहीं थे.

नरेश सेठी ने मेरे 3 बार पूछने पर भी यह बात स्पष्ट नहीं की थी कि पूर्णिमा मुंबई किस लिए जा रही थी. यह जानकारी हमारे लिए महत्त्वपूर्ण साबित हो सकती थी. रामू उस परिवार में पिछले 11 साल से नौकरी कर रहा था. यह सोच कर कि उसे परिवार के सभी महत्त्वपूर्ण मामलों की जानकारी रहती होगी, मैं ने रामू से पूछताछ करने की सोची.

इस बारे में रामू ने बताया कि मुंबई में मैडम के एक कजिन परवीन चड्ढा का काफी बड़ा कारोबार है. उन के कारोबार में मैडम स्लिपिंग पार्टनर थीं. वह उन्हीं के पास मुंबई आतीजाती थीं.

‘‘कितनेकितने दिनों के अंतराल से जाती थीं?’’ मैं ने पूछा तो रामू ने बताया कि वह महीने में 1-2 बार मुंबई जरूर जाती थीं और 3-4 दिन में लौटती थीं. इतना ही नहीं, कभीकभी परवीन चड्ढा भी दिल्ली आते रहते थे. वह हमेशा होटल में ठहरते थे. मेरे पूछने पर रामू ने यह भी बताया कि नरेश सेठी मैडम के बारबार मुंबई आनेजाने से खुश नहीं थे. इस बात को ले कर दोनों में एकदो बार झड़पें भी हुई थीं.

यह बात पता चलते ही मैं ने नरेश सेठी को बुलाया. उस से परवीन चड्ढा के बारे में पूछा तो वह थोड़ी झुंझलाहट में बोला, ‘‘मैं उस शख्स के बारे में कोई बात नहीं करना चाहता. उस से मेरा न तो कोई सरोकार था, न है.’’

‘‘लेकिन तुम्हारी पत्नी का तो था? वह उस के पास महीने में 2-2 बार जाती थी.’’

नरेश सेठी कुछ देर खामोश बैठा रहा. फिर कुछ सोच कर बोला, ‘‘आप परवीन चड्ढा को इस केस में न घसीटें तो ठीक रहेगा. इस से हमारी बदनामी हो सकती है. मैं इतना ही कह सकता हूं कि वह मुंबई से यहां आ कर पूर्णिमा का कत्ल नहीं कर सकता. इस की उसे जरूरत भी नहीं थी, क्योंकि पूर्णिमा ने उस की बहुत मदद की थी.’’

‘‘कर भी तो सकता है. पूर्णिमा उस के कारोबार में स्लिपिंग पार्टनर थी. हो सकता है, उस ने अपने किसी व्यावसायिक लाभ के लिए…’’ मैं ने कहना चाहा तो नरेश सेठी खीझे से स्वर में बोला, ‘‘स्लिपिंग पार्टनर सिर्फ नाम के लिए थी. एक बहाना था यह.’’

नरेश सेठी की बातों से मैं समझ गया कि पूर्णिमा और परवीन चड्ढा के बीच चाहे जो भी रिश्ता रहा हो, उसे नरेश सेठी पसंद नहीं करता था. मैं नरेश सेठी को ले कर उस की कोठी पर गया और उस के बैडरूम और ड्राइंगरूम में लगे फोन के पास रखी मैसेज स्लिपें चैक कीं. बैडरूम के फोन वाली स्लिपों में मुझे एक काम का टेलीफोन नंबर मिल गया. इस नंबर के साथ 311 लिखा था.

मैं ने उस नंबर पर फोन मिलाया तो मेरा अनुमान सही निकला. वह नंबर नई दिल्ली के एक होटल का था. मैं समझ गया कि 311 इसी होटल के कमरे का नंबर है.

औफिस लौट कर मैं ने एक सबइंसपेक्टर को बुला कर कहा कि वह उस होटल के रिकौर्ड से पता लगाए कि कमरा नंबर 311 में एक और दो तारीख को कौन ठहरा था. वह कब होटल आया और कब गया? क्या उस के साथ कोई महिला भी थी?

सबइंसपेक्टर ने वापस लौट कर जो कुछ बताया, वह मेरी आशा के अनुरूप था. पता चला, उस कमरे में 30 तारीख से 2 तारीख की शाम तक परवीन चड्ढा ठहरा था. साथ में एक औरत भी थी, जो उस ने अपनी पत्नी बताई थी. परवीन चड्ढा ने अपना नामपता सही लिखा था. आगमन की जगह उस ने मुंबई लिखा था और जाने की जगह चंडीगढ़.

परवीन चड्ढा दिल्ली आया हो और पूर्णिमा से न मिला हो, ऐसा संभव नहीं था. मुझे लगा कि पूर्णिमा का कत्ल संभवत: परवीन चड्ढा ने ही किसी औरत की मदद से किया है. कत्ल क्यों किया, यह वही बता सकता है.

परवीन चड्ढा के बारे में जानकारी मिलने के बाद मैं ने शंकर और मदन भाटिया को इस चेतावनी के साथ जाने की इजाजत दे दी कि वह पूछताछ के लिए दिल्ली में ही उपलब्ध रहें. रामू की स्थिति अभी स्पष्ट नहीं थी.

परवीन चड्ढा का मुंबई और चंडीगढ़ का पता नरेश सेठी से मिल गया था. मैं ने उसी रात उस की तलाश में दोनों जगह पुलिस पार्टियां भेजीं.

चंडीगढ़ गई पुलिस पार्टी दूसरे दिन परवीन चड्ढा को साथ ले कर दिल्ली लौट आई. उस के साथ उस की पत्नी परमजीत कौर भी थी. वे दोनों काफी घबराए हुए थे. परवीन चड्ढा कुछ दुखी और परेशान सा भी लग रहा था. मैं ने सब से पहले परमजीत कौर की चूडि़यों का साइज चैक किया. परमजीत कौर का साइज भी बड़ा था.

घटनास्थल पर मिली चूडि़यां उस की नहीं थीं, यह देख मुझे आश्चर्य हुआ. परवीन और परमजीत से बातचीत के बाद यह बात तो साफ हो गई कि होटल में वह दोनों ही कमरा नंबर 311 में ठहरे थे.

मैं ने परमजीत कौर से पूछा, ‘‘आप पूर्णिमा सेठी को जानती थीं?’’

‘‘हां, सालों पहले 2-3 बार मुलाकात हुई थी.’’ परमजीत कौर ने बताया तो मैं ने आश्चर्यचकित हो कर पूछा, ‘‘वह तो हर महीने मुंबई जाती थीं. क्या आप के घर नहीं ठहरती थीं?’’

‘‘नहीं.’’ उस ने जवाब दिया.

‘‘वह आप लोगों के व्यवसाय में स्लिपिंग पार्टनर थीं?’’

‘‘स्लिपिंग पार्टनर!’’ परमजीत ऐसे चौंकी, जैसे मैं ने कोई अनहोनी बात कह दी हो.

मेरी और परमजीत कौर की इन बातों से परवीन चड्ढा के चेहरे का रंग उतर गया था. वह नजरें झुकाए बैठा था. मैं ने परमजीत से एक सवाल और पूछा, ‘‘आप को मालूम है, आप के पति एक और दो तारीख को दिल्ली में पूर्णिमा सेठी से मिले थे?’’

‘‘नहीं, यह बात मेरी जानकारी में नहीं है.’’

मैं ने परवीन को समझाते हुए कहा, ‘‘मि. चड्ढा, आप की प्रेमिका का कत्ल हो चुका है. हमें संदेह है कि कत्ल में आप शामिल हैं. अगर आप इस बात से इत्तफाक नहीं रखते तो हमें सारी बातें साफसाफ बता दें.’’

परवीन चड्ढा की स्थिति बड़ी विचित्र हो गई. उस के एक ओर पुलिस थी, दूसरी ओर बीवी. चेहरे का रंग उड़ जाना स्वाभाविक था. उस की समझ में नहीं आ रहा था, क्या करे. लेकिन बोलना उस की मजबूरी थी.

परवीन चड्ढा ने जो कुछ बताया, उस का सार यह था कि पूर्णिमा और परवीन दोनों सहपाठी रहे थे. शादी से पहले दोनों न केवल एकदूसरे को जानते थे, बल्कि प्यार भी करते थे. उन की शादी भी हो जाती. लेकिन परवीन चड्ढा को 2 साल का बिजनैस मैनेजमेंट का कोर्स करने इंग्लैंड जाना पड़ा. इसी बीच पूर्णिमा के पिता ने उस की शादी नरेश सेठी से कर दी थी.

इस शादी का पूर्णिमा ने विरोध भी किया था, लेकिन अपनी मां और दिल्ली वाली मौसी के दबाव की वजह से उसे झुकना पड़ा था.

मैनेजमेंट का कोर्स करने के बाद परवीन भारत लौटा, तो उस ने पूर्णिया को उस की बेवफाई के लिए ताना दिया. पूर्णिमा ने बताया कि उस ने नरेश सेठी से अपनी मरजी से शादी नहीं की थी. इंग्लैंड से लौटने के बाद परवीन चड्ढा को मुंबई की एक मल्टीनैशनल कंपनी में मैनेजर की नौकरी मिल गई. उस ने चंडीगढ़ की ही एक लड़की से शादी भी कर ली. लेकिन इस के बावजूद उस ने पूर्णिमा सेठी से मिलनाजुलना बंद नहीं किया था.

पूर्णिमा के पति का आयातनिर्यात का काफी बड़ा कारोबार था. पैसे की उस के पास कोई कमी नहीं थी. पूर्णिमा का जब भी मन होता, वह परवीन चड्ढा से मिलने मुंबई चली जाती थी.

नरेश सेठी की मां की मृत्यु उस की शादी से पहले ही हो चुकी थी. 2 साल बाद पिता भी चल बसे. लेदे कर नरेश सेठी का एक ही बड़ा भाई था, जो अमेरिका में रहता था.

परवीन को नौकरी करते अभी 3 साल हुए थे कि पूर्णिमा ने उसे कोई अपना व्यवसाय करने की राय दी. उस ने उस से यह भी कहा कि वह उस की आर्थिक मदद करेगी.

कुछ पैसा परवीन चड्ढा के पास था, कुछ पूर्णिमा ने दिया. कुछ पैसा बैंक से कर्ज ले कर उस ने भांडुप, पश्चिम मुंबई में इलैक्ट्रौनिक उपकरण बनाने की फैक्ट्री लगा ली. फैक्ट्री में इलैक्ट्रौनिक उपकरण बनने तो लगे, इस के बावजूद कई कारणों से उतना लाभ अर्जित न हुआ, जितना होना चाहिए था.

इस का नतीजा यह हुआ कि परवीन चड्ढा की आर्थिक स्थिति नरेश सेठी जैसी सुदृढ़ न हो सकी. उस की स्थिति को ध्यान में रखते दुए पूर्णिमा सेठी उस की जबतब रुपएपैसे से मदद करती रही. पूर्णिमा सेठी, नरेश सेठी से परवीन चड्ढा को अपना कजिन बताती थी. उस ने परवीन चड्ढा के कारोबार में स्लिपिंग पार्टनर होने की बात भी बताई थी. नरेश सेठी चूंकि अपने कारोबार में बेहद व्यस्त रहता था, इसलिए उस ने हमेशा उसी बात पर यकीन किया, जो पूर्णिमा ने कही थी.

पूछताछ में परवीन चड्ढा ने यह बात स्वीकार की कि पूर्णिमा उस से मिलने मुंबई जाती थी और होटल में ठहरती थी. उस ने यह भी माना कि 30 जुलाई को दिल्ली आते ही उस ने पूर्णिमा को फोन किया था. होटल का फोन नंबर और कमरा नंबर भी उस ने ही बताया था.

उस ने बताया कि वह 31 जुलाई, एक और 2 अगस्त को पूर्णिमा से उस की कोठी पर ही जा कर मिला था. वहीं पर पूर्णिमा का 5 अगस्त को मुंबई जाने का प्रोग्राम बना था. परवीन चड्ढा के अनुसार, परमजीत कौर को चंडीगढ़ छोड़ते हुए उसे भी 5 अगस्त को मुंबई पहुंचना था.

परवीन चड्ढा ने बताया कि पूर्णिमा के कत्ल में उस का कोई हाथ नहीं है. उस ने यह भी बताया कि पूर्णिमा उसे तनमनधन हर तरह से चाहती थी. ऐसी हालत में वह उस का बुरा कैसे सोच सकता था. अगर परवीन चड्ढा सच बोल रहा था तो फिर ऐसा कोई कारण नहीं था कि उसे पृर्णिमा का कल्ल करने की जरूरत पड़ती.

इस मामले में जितने भी लोग संदिग्ध हो सकते थे, मैं ने एकएक कर सभी से पूछताछ कर ली थी, फिर भी मैं हत्यारे की छाया को नहीं छू पाया. समझ में नहीं आ रहा था कि हत्यारा कौन है. मैं ने परवीन चड्ढा से पूछा कि 31 जुलाई और एक व 2 अगस्त को जब वह पूर्णिमा से मिलने गया था, तब उसे नरेश सेठी ने तो नहीं देखा था?

‘‘नरेश सेठी ने तो नहीं, लेकिन 3 अगस्त को जब मैं कोठी से बाहर जा रहा था, तो रामू मुझे जरूर मिला था. वह उसी समय कहीं से लौटा था.’’

परवीन चड्ढा की इस बात से मुझे लगा कि कहीं नरेश सेठी ने ही तो पूर्णिमा की हत्या नहीं की. हो सकता है, चूडि़यों के टुकड़े उस ने पुलिस को गुमराह करने के लिए फेंके हों. मैं ने रामू से पूछा कि उसे 3 अगस्त को परवीन चड्ढा को कोठी से निकलते देखा था, क्या यह बात उस ने नरेश सेठी से बताई थी?

रामू ने बताया कि 3 अगस्त को मैडम ने मुझे 11 बजे टेलीफोन का बिल जमा करने भेजा था. बिल जमा करने में काफी देर लगी. मैं साढ़े 12 बजे जब वापस लौटा, तो परवीन चड्ढा कोठी से निकल रहे थे. नरेश सेठी ने मुझे निर्देश दे रखा था कि कभी परवीन चड्ढा दिखाई दे, तो बताना. परवीन चड्ढा कई बार कोठी पर आए थे. मैं उन्हें पहचानता था, इसलिए यह बात मैं ने मालिक को बता दी थी.

रामू की बात से मुझे पक्का विश्वास हो गया कि पूर्णिमा की हत्या उस के पति ने ही की है. लेकिन समस्या यह थी कि नरेश सेठी के खिलाफ हमारे पास कोई ऐसा सुबूत नहीं था, जिस के बूते पर हम उसे गिरफ्तार कर सकते.

जब कोई रास्ता नहीं सूझा, तो मैं ने नरेश सेठी के बैडरूम की तलाशी लेने का निश्चय किया. मैं इंसपेक्टर को ले कर नरेश की कोठी पर पहुंचा और उस से बातचीत करने के बाद तलाशी लेने की इच्छा जाहिर की. उस ने इस में कोई आपत्ति नहीं की.

नीचे के दोनों बैडरूम, उन की शेल्फों और अलमारियों में हमें कोई भी ऐसी चीज न मिली, जिस के आधार पर कोई कड़ी जुड़ पाती. ऊपर वाले बैडरूम में भी हमें कोई खास चीज नहीं मिली. ऊपर वाले बैडरूम में अलमारी के ऊपर लोहे का पुराना संदूक रखा था. मैं ने वह संदूक उतरवाने को कहा, तो नरेश सेठी बोला, ‘‘इस संदूक में मां के पुराने कपड़े हैं. चाबी भी पता नहीं कहां होगी. उसे छोडि़़ए, उस में कुछ नहीं मिलेगा.’’

नरेश सेठी की इस बात से मुझे शक हुआ. मैं ने वह संदूक उतरवा लिया और उस से चाबी मांगी. वह बोला यह संदूक मां की मौत के बाद से यूं ही बंद है. चाबी पता नहीं कहां होगी. वैसे भी चाबियां पूर्णिमा के पास ही रहती थीं.

कोई और चारा न देख मैं ने संदूक का ताला तुड़वा दिया. उस संदूक में सब से ऊपर बिना तह किया शादी का लाल जोड़ा कुछ इस तरह रखा था, जैसे जल्दी में रखा गया हो. संदूक के अंदर गहने वगैरह तो नहीं थे, अलबत्ता सूखे फूलों की पत्तियां, कुछ पुराने कपड़े और एक पुरानी सफेद चादर थी. देख कर ही बताया जा सकता था कि यह सब सुहागरात की इस्तेमाली चीजें थीं.

उसी संदूक में हमें वह सबूत भी मिल गया, जिस के आधार पर हम कह सकते थे कि हत्यारा कौन है. वह सबूत था, लाल रंग की दरजनभर से ज्यादा चूडि़यां. ये चूडि़यां बिलकुल वैसी ही थीं, जैसी चूडि़यों के टुकड़े खिड़की के बाहर मिले थे.

मैं ने संदूक के अंदर से चूडि़यां निकाल कर हाथ में लीं, तो नरेश सेठी के चेहरे का रंग उतर गया. पूर्णिमा की मां अभी दिल्ली में ही थीं. मैं ने शादी का जोड़ा और चूडि़यां उसे दिखाईं तो उस ने बताया कि शादी का जोड़ा और चूडि़यां पूर्णिमा की ही थीं.

उस के अनुसार, 10 साल पहले जब पूर्णिमा की शादी हुई थी, तो वह बहुत दुबलीपतली थी. तब उस के हाथों में उसी साइज की चूडि़यां आती थीं.

इस के बाद नरेश समझ गया कि अब कुछ भी छिपाना व्यर्थ है. उस ने स्वत: ही सब कुछ कह डाला. नरेश सेठी ने बताया कि पूर्णिमा को वह बहुत प्यार करता था. उसे उस ने अपने व्यापार में भी औन रिकौर्ड आधे का साझेदार बना रखा था.

शादी के बाद शुरू के 6 साल उस ने पूर्णिमा के साथ बड़े आराम और प्रेम के साथ गुजारे. इस बीच उन के यहां एक बच्चा भी पैदा हुआ. तब तक उसे पूर्णिमा और परवीन चड्ढा के संबंधों या प्रेम की कोई बात पता नहीं थी. यही वजह थी कि जब पूर्णिमा ने परवीन के व्यवसाय में पैसा लगाया, तो भी उस ने कोई आपत्ति नहीं की.

नरेश सेठी के अनुसार पूर्णिमा पर उसे संदेह तब हुआ, जब 4 साल पहले रामू ने एक दिन बताया कि परवीन चड्ढा उस के पीछे कोठी पर आता है और घंटों वहां रहता है. पूर्णिमा उस वक्त किसी न किसी बहाने से उसे कहीं भेज देती थी. उस समय मेरा बेटा भी दिल्ली में ही था. उस ने भी मुझे यह बात बताई. यह पता चलने के बाद भी मैं ने पूर्णिमा पर शक नहीं किया.

बाद में जब बेटा मसूरी चला गया और पूर्णिमा हर महीने मुंबई जाने लगी, तो मैं ने टोकाटाकी शुरू की. लेकिन जबजब मैं ने कुछ कहा, पूर्णिमा मुझ से लड़ बैठती कि मैं बिना वजह उस पर शक करता हूं. मेरे मना करने के बावजूद वह मुंबई के चक्कर पर चक्कर लगाती रही और मैं कुछ न कर सका.

मेरी जानकारी के हिसाब से पूर्णिमा ने परवीन चड्ढा के व्यवसाय में 20 लाख रुपए लगाए थे. यह अलग बात थी कि उस व्यवसाय से पूर्णिमा को लाभ की कोई राशि कभी नहीं मिली थी. इस साल फरवरी में इत्तफाक से पूर्णिमा की एक व्यक्तिगत डायरी मेरे हाथ लग गई. उस डायरी में पूर्णिमा ने उस रकम का ब्यौरा लिख रखा था, जो उस ने परवीन चड्ढा को दी थी. मैं ने टोटल किया तो पता चला यह रकम लगभग 40 लाख थी.

मुझे लगा कि मैं ने कुछ न किया तो पूर्णिमा चड्ढा के चक्कर में मुझे बरबाद कर देगी. मैं ने निश्चय किया कि जैसे भी होगा, मैं इस कहानी को खत्म कर दूंगा.

नरेश सेठी ने बताया कि पिछले एक साल से उसे व्यापार में काफी नुकसान हुआ था. पैसे की परेशानी हो रही थी. मैं ने पूर्णिमा से कहा कि उस ने चड्ढा के व्यवसाय में जो 20 लाख रुपए लगाए हैं, उन से कोई लाभ तो हो नहीं रहा, अत: वापस ले ले.

पैसे लाने का बहाना कर वह मुंबई जाती और पैसा लाने के बजाए उसे पैसा दे कर आ जाती. मुझ से वह बहाने बना देती. मैं ने उस से कई बार कहा कि वह परवीन चड्ढा से मेरी बात करा दे, लेकिन उस ने चड्ढा से न तो मेरी बात ही कराई और न मिलवाया.

मजबूरी में मैं ने एक प्राइवेट जासूस की मदद ली और चड्ढा और अपनी पत्नी के संबंध की हकीकत पता की. जो कुछ पता चला, उस से मेरा दिल भी टूटा और विश्वास भी. रामू ने चड्ढा को 3 तारीख को देखा था. उस ने यह बात मुझे उसी शाम को बताई. मुझे लगा कि परवीन चड्ढा दिल्ली में ही होगा. मैं ने रामू से पूछा, ‘‘क्या मैडम ने आज दोपहर भी तुम्हें कहीं भेजा था?’’

उस ने बताया कि मैडम ने उसे 12 बजे कुछ कीमती साडि़यां दे कर कहा था कि वह उन्हें बैंडबौक्स ड्राईक्लीनर कनाट प्लेस को ड्राई क्लीनिंग के लिए दे आए. साडि़यां दे कर रामू ढाई बजे वापस लौटा था. लाजपत नगर में कई बड़े ड्राई क्लीनर थे, फिर क्लीनिंग के लिए साडि़यां कनाट प्लेस भेजने की क्या तुक थी. मैं समझ गया कि दोपहर में चड्ढा आया होगा. इसीलिए पूर्णिमा ने रामू को कनाट प्लेस भेजा होगा.

नरेश ने बताया, 2 अगस्त की सुबह जब मैं ड्राइंगरूम में बैठा चाय पी रहा था, तो रामू ने मुझ से कहा कि उस के मौसा का फोन आया था, उसे थोड़ी देर के लिए शकरपुर जाना है. मैं ने उस से पूछा कि कब तक लौटेगा तो वह बोला, 2-ढाई घंटे में लौट आएगा. पूर्णिमा मेरे पास बैठी थी. वह बोली, ‘‘कनाट प्लेस से मेरा एयर टिकट भी लाना है. मैं ने फोन किया था, साढ़े 12 या 1 बजे तक कंफर्मेशन मिलेगा.’’

नरेश ने मन ही मन हिसाब लगाया. साढ़े 12, एक बजे तक रामू कनाट प्लेस में रहेगा, फिर एकडेढ़ घंटे में घर लौटेगा. इसी बीच चड्ढा को आना चाहिए.

नरेश ने चाय पीतेपीते पूरी योजना बना ली कि उसे क्या करना है. हकीकत में उस का इरादा पूर्णिमा और चड्ढा को कोई शारीरिक क्षति पहुंचाने का नहीं था. अलबत्ता उस दिन वह उन दोनों को आमनेसामने बैठा कर कुछ बातें साफ कर लेना चाहता था.

नरेश ने बताया कि वह अशोक बब्बर के आरके पुरम स्थित घर से सवा 12 बजे निकला और पहले ग्रीन पार्क गया. उस का इरादा औफिस में जाने का था. लेकिन औफिस से थोड़ा पहले ही उस का इरादा बदल गया और उस ने घर जाने का निश्चय किया. जिस समय वह कोठी पर पहुंचा, उस समय पौने एक बजा था. जब वह अपनी गली में प्रवेश कर रहा था, तो उस गली से एक टैक्सी को निकलते देखा. उसे लगा कि वह औफिस के चक्कर में लेट हो गया और चड्ढा निकल गया.

नरेश सेठी ने बताया कि वह काफी गुस्से में था. कोठी के अंदर पहुंचा तो बाहर का गेट खुला पड़ा था. नीचे की मंजिल के दरवाजे भी खुले हुए थे. पूर्णिमा नीचे नहीं दिखी, तो वह ऊपर गया. ऊपर ड्राइंगरूम की मेज पर रखे 2 प्याले देखते ही नरेश समझ गया कि चड्ढा ही आया था. उस ने देखा, पूर्णिमा ऊपर वाले बैडरूम में पुराना संदूक खोले बैठी थी और उस का सामान सहेज रही थी.

नरेश गुस्से में तो था ही, उस ने पूर्णिमा से पूछा कि उस संदूक को क्यों खोले बैठी है? लेकिन उस ने कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दिया. चड्ढा के बारे में भी उस ने जुबान नहीं खोली. इस पर नरेश ने संदूक का सारा सामान उलटपलट कर देखा, तो उसे पत्रों का एक बंडल मिला. नरेश ने बंडल खोलना चाहा, तो पूर्णिमा उलझ गई. उस ने पत्रों का बंडल नरेश के हाथ से छीनने की कोशिश की. जबकि वह सारे पत्र बिना पढ़े लौटाना नहीं चाहता था.

नरेश गुस्से में था और पूर्णिमा डरी हुई. जब वह नहीं मानी, तो नरेश ने उसे बैड पर गिराया और उस की चुन्नी से ही उस का गला घोंट दिया. वह भहरा कर एक ओर लुढ़की तो नरेश की रूह फना हो गई. वह उसे मारना नहीं चाहता था. लेकिन वह मर चुकी थी.

पूर्णिमा की लाश बैड पर पड़ी थी. बैड पर ही सामान भी फैला पड़ा था. सामान संदूक में भरने के बाद बैड को झाड़ना जरूरी था. सोचविचार कर नरेश पूर्णिमा की लाश रामू के कमरे में डाल आया और सारा सामान संदूक में भर दिया. पूर्णिमा से गुत्थमगुत्था होने की वजह से बैड पर सामान के साथ पड़ी कुछ चूडि़यां टूट गई थीं.

उन के टुकड़े बीन कर नरेश ने रामू के कमरे की खिड़की से बाहर फेंक दिए. दरअसल जिस बैडरूम में नरेश ने पूर्णिमा का गला घोंटा था, उस की खिड़की साइड वाली गैलरी में खुलती थी, जबकि रामू के कमरे की खिड़की गली में खुलती थी. इसीलिए उस ने चूडि़यां वहां से फेंक दी थीं.

संदूक में सामान भरने के बाद नरेश ने संदूक अलमारी के ऊपर रख दिया और डबल बैड की चादर झाड़ कर बिछा दी. पत्रों का बंडल साथ लिया और बिना एक पल भी गंवाए कोठी से बाहर निकल गया. यह सारा काम 15 मिनट में निपट गया था. यह इत्तेफाक ही था कि किसी ने उसे आतेजाते नहीं देखा था.

नरेश ने आगे बताया कि कोठी से निकल कर वह अंजलि एक्सपोर्ट के औफिस गया और वहां लगभग पौन घंटा बैठ कर अपने औफिस चला गया था.

पूर्णिमा के कत्ल की पूरी कहानी पता चल चुकी थी. हम ने नरेश को विधिवत गिरफ्तार कर लिया. उस ने अपने औफिस से पत्रों का पुलिंदा भी बरामद करा दिया. ये पत्र वे थे जो पूर्णिमा ने लंदन और मुंबई के पतों पर शादी से पहले और बाद में परवीन चड्ढा को लिखे थे. पत्रों के हिसाब से उन दोनों में बहुत प्यार था. प्यार ही नहीं दैहिक संबंध भी था.

रामू पर भी भादंवि की धारा 201 का अपराध बनता था. अत: पूछताछ के बाद हम ने नरेश सेठी और रामू को अदालत में पेश कर के जेल भेज दिया.

—प्रस्तुति : पुष्कर पुष्प

घर पर ऐसे बनाएं खोया चॉकलेट बरफी

तमाम तरह की मिठाइयां मूल रूप से खोए, अनाजों, मेवों और चीनी से ही मिल कर बनती हैं. मिठाइयां बनाने के शौकीन लोग तरहतरह के प्रयोग कर के खाने वालों को अलगअलग स्वाद का एहसास कराने की कोशिश करते रहते हैं. खोया चाकलेट बरफी भी इसी कोशिश का नतीजा है. यह 2 तरह बनती है. पहली खोया चाकलेट परतदार बरफी होती है, जो खोए और चाकलेट के दोहरे स्वाद का एहसास कराती है. यह परतदार बरफी खाने में जितनी स्वादिष्ठ होती है, उतनी ही दिखने में भी अलग होती है.

दूसरी किस्म की बरफी खोया चाकलेट की साधारण बरफी होती है, जिस में खोए के स्वाद में चाकलेट का अंदाज दिखता है. दोनों ही तरह की बरफियों में खोए के साथ मेवों का इस्तेमाल किया जाता है. दोनों में फर्क यह होता है कि परतदार बरफी में चाकलेट और खोया अलगअलग परतों में दिखते हैं और दूसरी किस्म में केवल एक ही तरह की बरफी दिखाई पड़ती है.

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खोया चाकलेट परतदार बरफी बनाने के लिए पहले खोए की परत तैयार की जाती है, फिर चाकलेट की परत तैयार होती है. दोनों को एकदूसरे के ऊपर रख कर जमा दिया जाता है. खोया चाकलेट की साधारण बरफी तैयार करने के लिए खोए में चाकलेट पाउडर और मेवे मिला कर एक जैसी ही बरफी तैयार की जाती है.

कुछ लोग परतदार बरफी पसंद करते हैं, तो कुछ लोग दूसरी बरफी पसंद करते हैं. चाकलेट खोया बरफी देखने में चाकलेट पीस की तरह लगती है. इसे और अच्छा बनाने के लिए चांदी के वर्क से सजा दिया जाता है. खाने वाले को क्रंची स्वाद का एहसास हो इस के लिए बरफी में अलगअलग तरह के मेवे मिलाए जा सकते हैं. मिठाइयों की माहिर प्रिया अवस्थी कहती हैं, ‘मुझे तो चाकलेट खोया की साधारण बरफी ज्यादा अच्छी लगती है. परतदार बरफी देखने में बरफी जैसी ही लगती है, मगर साधारण चाकलेट खोया बरफी चाकलेट जैसी नजर आती है.’

सामग्री :

खोया 300 ग्राम, चीनी पाउडर 100 ग्राम, 5-6 छोटी इलायचियों का पाउडर.

चाकलेट बरफी परत के लिए :

खोया 200 ग्राम, चीनी पाउडर 70 ग्राम, कोको पाउडर 2 टेबल स्पून, घी 2 टेबल स्पून.

विधि :

खोया बरफी बनाने के लिए खोए को कद्दूकस कीजिए. फिर कढ़ाई में 1 छोटा चम्मच घी डाल कर गरम कर लीजिए. गैस एकदम धीमी रखिए.

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घी पिघलने के बाद कद्दूकस किया हुआ खोया और चीनी पाउडर डाल दीजिए. लगातार चलाते हुए खोए चीनी के आपस में ठीक से मिलने तक भूनिए. सही तरह से मिलने के बाद मिश्रण को धीमी गैस पर 5-6 मिनट तक लगातार चलाते हुए पका लीजिए.

फिर इस में इलायची पाउडर मिला दीजिए. प्लेट में घी लगा कर चिकना कीजिए और मिश्रण को जमने के लिए प्लेट में डालिए और घी लगे चम्मच से एक जैसा फैला कर 1 घंटे तक ठंडा होने दीजिए.

चाकलेट बरफी की परत तैयार करने के लिए कढ़ाई में एक छोटा चम्मच घी, कद्दूकस किया खोया, चीनी पाउडर और कोको पाउडर डालें. मिश्रण को धीमी आंच पर लगातार चलाते हुए खोया चीनी के मिलने तक भूनें.

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खोया व चीनी अच्छी तरह मिलने के बाद मिश्रण को धीमी आंच पर 4-5 मिनट तक लगातार चलाते हुए भूनें. चाकलेट का मिश्रण बरफी जमाने के लिए तैयार है.

चाकलेट वाले तैयार मिश्रण को ठंडे किए हुए बर्फी के मिश्रण के ऊपर डालिए और घी लगे चम्मच से फैला कर एक जैसा कर दीजिए.

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बरफी को जमने के लिए ठंडी जगह पर 2-4 घंटे के लिए रख दीजिए. इस के बाद बरफी तैयार हो जाएगी, जमी तैयार बरफी को अपने मनपसंद टुकड़ों में काट लीजिए.

गलती-भाग 1: मालती ने माला का जीवन कैसे खराब किया था?

मैं ने सोचा था कि स्वरूप के यहां काफी गहमागहमी होगी. उस ने मेरे अतिरिक्त अन्य मित्रों को भी निमंत्रित किया होगा. जम कर पार्टी होगी. दिल खोल कर ठहाके लगेंगे. पर ऐसा कुछ होता नजर नहीं आया. स्वरूप का सुंदर, छोटा सा कोठीनुमा घर एक विचित्र श्मशानी खामोशी और निर्जनता से आतंकित था. सारे दरवाजे बंद, चारों ओर गहन अंधकार. ‘क्या मुझे निमंत्रित कर के ये लोग कहीं और चले गए हैं?’ मैं ने सोचा. पर अंतर ने इस विचार को अस्वीकार कर दिया. स्वरूप तथा माला मेरे साथ ऐसा नहीं कर सकते.

मैं ने दरवाजे के बाहर लगे घंटी के सफेद बटन को दबा दिया. सन्नाटा छटपटा गया, पर मानव गतिविधि का कोई आभास नहीं मिला. फिर वही सन्नाटा.

‘शायद घर में कोई नहीं है,’ मैं ने सोचा और अनायास फिर से मेरा हाथ घंटी के बटन की ओर बढ़ गया. बटन दबा कर मैं मुड़ गया, वापस लौटने के लिए. मुख्यद्वार से कोई 50 गज की दूरी पर पहुंचते ही मुझे एक करुणभीगी नारीस्वर सुनाई दिया, ‘‘कौन है?’’ मैं पलटा. लपक कर मुख्यद्वार के समीप पहुंचा. उस अविश्वसनीय दृश्य को देख कर मैं बुरी तरह चौंक गया और मेरे मुंह से अनायास निकल गया, ‘‘माला भाभी, आप?’’

‘‘राकेश भैया, आप,’’ जिस तरह मैं चौंका था, उसी तरह माला भाभी भी मेरी अनपेक्षित तथा आकस्मिक उपस्थिति को देख कर जैसे घबरा गई थीं. मेरे सारे प्रश्न जम गए. शंकाओं को जैसे लकवा मार गया. यह क्या हुआ माला भाभी को? अस्तव्यस्त बाल, लाल आंखें, गालों पर सूखे आंसुओं की अव्यक्त एवं अदृश्य रेखाएं. कंपकंपाते होंठ, थरथराता शरीर. पिछले 12 वर्षों में पहली बार मैं माला भाभी को इस रूप में देख रहा था. यह अचानक रूपांतर क्यों? आखिर इस खिले, महकते पुष्प को क्या हो गया, जो इस तरह मुरझा गया?

‘‘अंदर आइए, भाईसाहब,’’ माला भाभी का जलतरंगीय स्वर जैसे बेसुरा हो गया था.

‘‘भाभीजी, आखिर बात क्या है?’’ हार कर मैं ने पूछ ही लिया.

‘‘कुछ भी तो नहीं.’’

‘‘फिर इस तरह, आप की तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘हूं.’’

‘‘फिर?’’

‘‘अंदर तो आइए.’’

मैं अंदर पहुंचा. भाभी की आंखों की भांति उन का ड्राइंगरूम भी बिलकुल सूना और अंधकारमय था. मैं ने लाइट जलाई. कमरा दूधिया प्रकाश में जगमगा उठा. मैं ने कमरे के बीचोंबीच व्यथा तथा शोक की प्रतिमूर्ति बनी खड़ी माला भाभी को देखा और दृढ़तापूर्वक बोला, ‘‘लगता है, स्वरूप से खटपट हो गई है.’’ माला भाभी ने कोई उत्तर नहीं दिया.

‘‘भाभी, आखिर चक्कर क्या है? आप कुछ बोलती क्यों नहीं? मैं आप लोगों को पिछले 12 वर्षों से देख रहा हूं. आप दोनों वास्तव में एक आदर्श पतिपत्नी की तरह रह रहे थे. आप दोनों में कितनी आपसी समझबूझ थी. 2 बच्चे, आर्थिक समृद्धि, किसी चीज का अभाव नहीं. फिर आखिर आज आप के सुखसंतोष की जलधारा कैसे सूख गई?’’ इस बार भी माला ने कोई उत्तर नहीं दिया. सहानुभूति की उष्मा पा कर उन का जमा अंतर पिघला और आंखों को डबडबा गया.

‘‘अरे, आप तो रो रही हैं. आज कितना अच्छा दिन है. आप के विवाह की 12वीं वर्षगांठ. ऐसे खुशी के अवसर पर आप की आंखों में आंसू.’’

‘‘हां, भाईसाहब, अब तो जिंदगीभर रोना है.’’

‘‘यह आप क्या कह रही हैं?’’ मैं ने घोर आश्चर्य से कहा. मैं विस्मित तथा उलझा हुआ सा एकटक माला भाभी को देख रहा था. इस तरह का माहौल इस घर के लिए एक अप्रत्याशित बात थी. मैं सोफे पर बैठ गया. मैं अंदर ही अंदर परेशान हो उठा. अचानक मुझे स्वरूप की याद आई. मैं ने पूछा, ‘‘स्वरूप कहां है?’’

‘‘फिल्म देखने गए हैं.’’

‘‘अकेले ही?’’

‘‘नहीं, मालती भी साथ गई है.’’

‘‘आप को नहीं ले गए?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘मेरी अब क्या जरूरत है?’’ माला भाभी बोलीं. मैं स्तंभित सा उन की ओर देखता रह गया. क्या मालती ‘तीसरा व्यक्ति बन कर इस सुखी परिवार को नष्ट करने का माध्यम बन गई है?’ ऐसा होना तो नहीं चाहिए. माला भाभी ने अपनी छोटी बहन मालती पर बड़ा उपकार किया है. बीए पास करने के बाद मालती को घर बैठ जाना पड़ा. मेरठ में उसे बीटेक में दाखिला नहीं मिला. घर की आर्थिक दशा ऐसी नहीं थी कि पापा मालती को कहीं मेरठ से बाहर भेज कर आगे पढ़ा सकते. तब मालती ने कैसी दर्दभरी दास्तां लिख कर एसएमएस किया था. मैं ने उस एसएमएस को गौर से पढ़ा था. माला भाभी ने कैसी अभूतपूर्व सहायता की थी अपनी छोटी बहन की. स्वरूप प्रोफैसर है. उस की भागदौड़ तथा सिफारिश के कारण मालती को बीटेक में दाखिल मिल गया. वह दिल्ली आ कर माला के घर में ही रहने लगी. स्वरूप और माला उस की पढ़ाईलिखाई तथा घर में रहनेसहने का पूरा खर्च उठा रहे थे.

माला भाभी तथा स्वरूप ने यह निर्णय करते समय मुझ से सलाह ली थी. मुझे खूब अच्छी तरह याद है कि मालती को दिल्ली में पढ़ाने के विषय में स्वरूप सब से ज्यादा उत्साही था. माला भाभी थोड़ी सकुचा रही थीं. पर मैं उन के विरुद्ध था. मैं ने दबी जबान से इस निर्णय का विरोध किया था. पर स्वरूप ने उत्साह में भर कर कहा था, ‘‘यार, अपने नातेरिश्तेदार ही काम आते हैं. फिर मालती कोई पराई है क्या? अरे, वह तो अपनी साली है. और तुम जानते ही हो कि साली आधी घरवाली होती है.’’ ‘‘स्वरूप, यह विचारधारा एकदम भ्रामक है.’’

 ग्रामीण इलाके की प्रतिभा लड़कियों में अव्वल

ग्रामीण समाज में आज भी लडकियों को पढने के अवसर कम मिलते है. लडकियों के पैदा होने पर घर माहौल उस तरह खुशी नहीं जाहिर करता तैसे बेटे के होने पर करता है. एससीबीसी में हालात और भी खराब है. जिन पिछडी जातियों में लडकियों पर भरोसा किया जाता है उनको साधन और प्रोत्साहन दिया जाता है वहां की लडकियां प्रतिभा वर्मा जैसा कमाल करती है. सिविल सर्विस परीक्षा 2019 में लडकियों ने पहले के मुकाबले बेहतर पर्दशन किया है. जिसको देख कर कहा जा सकता है कि हमारी लडकियां किसी से कम है क्या ?

‘’मैं बचपन से ही यह देखती थी कि कोई भी बडा संकट आता है तो आईएएस अधिकारी ही आगे बढ कर समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाते है. ऐसे में मैं भी आईएएस बन कर देश और समाज की सेवा करना चाहती थी. इस कारण पिछले साल इनकम टैक्स कमिश्नर बनने के बाद भी मेरा प्रयास रहा कि आईएएस बन जाऊ.‘  यह कहना है सिविल सेवा में लडकियोे की कैटेगरी में पहला मुकाम हासिल करने वाली प्रतिभा वर्मा का.

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उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले के दुबेपुर ब्लाक की रहने वाली प्रतिभा वर्मा ने 2019 की सिविल सेवा परीक्षा में महिला वर्ग में पूरे देश में पहले स्थान पर रही. औल ओवर इंडिया में प्रतिभा ने तीसरी रैंक हासिल की. प्रतिभा की स्कूली शिक्षा सुल्तानपुर के सरकारी स्कूलों में हुई. 2008 में उसने रामराजी इंटर कालेज यूपी बोर्ड की कक्षा 10 परीक्षा में टौप किया. 2010 में इंटरमीडिएट में प्रतिभा ने केएनआईसी कालेज से जिला टौप किया. 2014 में उसने आईआईटी दिल्ली से बीटेक किया. 2015 में प्रतिभा के पिता ने सिविल सर्विस की लिये प्रेरित किया. सिविल सर्विस 2018 में  498 रैंक हासिल करके इनकम टैक्स कमिश्नर बनी. एक साल तक प्रतिभा ने  नौकरी की. प्रतिभा के मन में बचपन से ही आईएएस बनने का सपना था. इसलिये पढाई जारी रखी. इसके साथ ही साथ उसने सिविल सर्विस की तैयारी जारी रखी. इस साल उसका सपना पूरा हुआ. प्रतिभा की बडी बहन प्रियंका वर्मा दिल्ली में डाक्टर है.

प्रतिभा वर्मा

प्रतिभा में पढाई के प्रति रूझान बचपन से था. इसमें प्रतिभा के मातापिता का प्रमुख मार्गदर्शन रहा. प्रतिभा बचपन में अपने पिता के साथ सुल्तानपुर जिले के बघराजपुर गांव में रहती थी. प्रतिभा के पिता सुवंश वर्मा बिकवाजितपुर  गांव के माध्यमिक विद्यालय में पढाते थे. वहां से प्रिसिपल के पद से रिटायर हुये. प्रतिभा की मां ऊषा वर्मा प्राथमिक विद्यालय बभनगंवा में प्रिसिपल है. मातापिता ने प्रतिभा का हौसला बढाने का काम किया.

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प्रतिभा ने बताया कि पढाई के दौरान हम घरेलू कामकाज निपटाते थे. जब रात में घर के लोग सो जाते थे तब अपनी पढाई करते थे. 16 से 18 घंटे पढाई करने के बाद भी सफलता मिलना सरल नहीं होता है. 2018 की सिविल परीक्षा में जब 498 रैंक आई तो बहुत निराशा हुई थी. पर हार नहीं माना. मातापिता ने हौसला बढाया और इसके बाद सेल्फ स्टडी करनी शुरु कर दी. टाइम मैनेजमेंट करके पढाई शुरू की. अब जब सफलता मिली तो बहुत अच्छा लग रहा. उससे भी अच्छा यह लग रहा कि हमारे जैसी तमाम लडकियों ने सिविल सर्विस में अच्छा स्थान पाया है. लडकियों की भागीदारी बढ रही है.

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सिविल सर्विस में लडकियों की धमक:

सिविल सर्विस परीक्षा 2019 में पहले 20 सफल प्रत्यशियों में 7 लडकियां है. पहले 50 में 19 लडकियां है. कुल 829 प्रत्याशी सफल हुये. इनमें जनरल कैटेगरी के 304, ओबीसी के 251 एससी के 129 और एसटी के 67 प्रत्याशी सफल हुये. सिविल सेवा परीक्षा में पहली बार 78 प्रत्याशियों को आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग की श्रेणी में आरक्षण के तहत सफलता मिली. जम्मू कश्मीर में 14 प्रत्याशी सफल हुये. कुपवाडा की रहने वाली नादिया ने 23 साल की उम्र में ही सफलता पाई.

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हर विषय और हर इलाके से आये छात्र बनेगे अफसर:

26 वें नम्बर पर आये प्रदीप सिंह बिहार के गोपालगंज के रहने वाले है. पिता ने घर बेच कर उनको पढाई करवाई. अभी उनका परिवार इंदौर में रहता है. 2018 की सिविल सर्विस परीक्षा में प्रदीप को इंडियन रेवेन्यू सर्विस में स्थान मिला था. 1 नंबर कम रैंक रहने से आईएएस में उनको चुनाव रह गया था. सिविल सर्विस के 829 प्रत्याशियों में से 180 लोग आईएएस बनते है. हरियाणा के सोनीपत के रहने वाले प्रदीप सिंह ने पहला स्थान हासिल किया. सिविल सर्विस की परीक्षा में किसी एक विषय का दबदबा नहीं रहा. इस परीक्षा में पूरे देश की अलग अलग प्रतिभाओं ने अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया.

CBI को ट्रांसफर हुआ सुशांत सिंह राजपूत का केस, फैंस ने इस अंदाज में जाहिर की अपनी खुशी

बॉलीवुड अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत ने अपने फ्लैट बांद्रा में फांसी लगाकर आत्महत्या की थी. इस घटना को करीब दो महीने होने वाले है लेकिन अब जाकर इस केस ने अहम मोड़ लिया है. सुशांत के मौत के बाद से कई तरह के सवाल उठाए जा रहे थें.

सुशांत के मौत को उनके फैंस आत्महत्या नहीं मान रहे थें. उनका कहना था कि सुशांत सुसाइड नहीं कर सकते हैं. वह इतना कमजोर दिल का लड़का नहीं था. वहीं सुशांत के करीबी दोस्त और रिश्तेदारों का भी यही कहना था कि सुशांत इतना कमजोर दिल का लड़का नहीं था.

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बता दें कि अभिनेता के मौत के बाद से लगातार सोशल मीडिया पर सीबीआई जांच की मांग चल रही है. हालांकि महाराष्ट्र पुलिस इसे कुछ वक्त से टाल रही थी लेकिन बिहार सरकार ने अपने तरफ से अनुमति दे दी है कि इस मामले पर सीबीआई जांच होना चाहिए उसके बाद से महाराष्ट्र सरकार ने भी इसे स्वीकार किया है. हालांकि महाराष्ट्र सरकार का कहना है कि हमें बदनाम करने के लिए यह सब किया जा रहा है.

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अगर बात करें हालिया रिपोर्ट की तो अभिनेता के फैंस के चेहरे पर इस बात से दोगुनी खुशी आ गई है. सुशांत के फैंस को इसका लंबे समय से इंतजार था कि इस मामले की जांच कि जाए.

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हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा था कि अभिनेता के मौत की सच्चाई सामने आनी चाहिए. सुशांत सिंह राजपूत का परिवार, शेखर सुमन, रूपा गांगुली, कंगना रनौत, अंकिता लोखंडें समेत सुशांत के परिवार ने भी इस मामले पर सीबीआई जांच की मांग की थी. जिसके बाद से यह फैसला लिया गया.

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फैंस इस बात से बहुत ज्यादा खुश है कि अब सुशांत को इंसाफ मिल जाएगा. वहीं सुशांत के करीबी और परिवार वालों को भी तस्लली मिली है.

नागिन 5 लॉन्च डेट: हिना खान के नए लुक को फैंस कर रहे हैं पसंद, टीआरपी में आएगा भूचाल

एकता कपूर का सुपरनैचुरल शो नागिन 5 में हिना खान धमाल मचाने वाली है. इसके प्रोमो को देखने के बाद से ही फैंस को इस शो का इंतजार था. फैंस की खुशी दोगुनी तब हो गई जब उन्हें पता चला कि नागिन शो कब ऑन एयर होगा.

कुछ समय पहले ही नागिन 5 का नया प्रोमो लॉच किया गया है. जिसमें बताया गया है कि 9 अगस्त से ऑन एयर होगा.

यानि नागिन 4 खत्म होने के कुछ दिन बाद ही नागिन 5 शुरू हो जाएगा. चैनल ने नागिन का स्लॉट रात को 8 बजे का दिया है. अब से आप हर रविवार को आप रात 8 बजे नागिन देख पाएंगे.

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नागिन 5 के प्रोमो में हिना खान नागिन के लुक में नजर आ रही हैं.इस लुक को फैंस बहुत ज्यादा पसंद कर रहे हैं. हिना के नए अवतार को देखने के लिए फैंस लंबे वक्त से इंतजार कर रहे थें.

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हिना अपने ड्रेस के साथ-साथ मैंचिंग ज्वैलरी भी पहनी हुई हैं जिसमें बेहद खूबसूरत लग रही हैं.हिना ने लाल और गोल्डन कलर का आउटफीट पहना हुआ है. इस लुक में हिना किसी परी से कम नहीं लग रही हैं.

फैंस हिना के इस लुक की तारीफ करते नहीं थक रहे हैं. हिना कि फोटो सोशल मीडिया पर भी खूब वायरल हो रही है. फैंस इन्हें पहले से भी ज्यादा प्यार देने लगे हैं.

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बता दें हिना खान ने अपने करियर की शुरुआत सीरियल ये रिश्ता क्या कहलाता है से किया था इस सीरियल में भी फैंस ने हिना के लुक को खूब पसंद किया था. हिना खान सीरियल में एक संस्कारी बहू और बेटी के किरदार में नजर आई हैं. हिना खान का यह लुक घर-घर में छाया था.

कुछ वक्त पहले हिना खान बिग बॉस में भी नजर आई थीं. फैंस हिना खान को वहां भी खूब पसंद किए थें.

अपना अपना रास्ता-भाग 3: सुरेंद्र का चेहरा क्यों खिल गया?

‘‘मैं समझता हूं, श्रीमती सुरेंद्र. लेकिन आप ज भी यहां आती हैं, इन का ब्लडप्रैशर बढ़ जाता है. और इन के ब्लडप्रैशर बढ़ने का अर्थ आप समझती हैं न, कितना खतरनाक हो सकता है? आज सारी रात ये सो नहीं पाएंगे. कई दिनों के बाद कल रात इन्हें नींद की गोलियों के बगैर नींद आई थी, मगर आज फिर पुरानी हालत हो जाएगी. आप समझने की कोशिश कीजिए.’’ डाक्टर के नम्रता और शालीनता में डूबे शब्द सुन कर इंद्रा का खून खौल गया. ‘‘हां, हां, मैं खूब समझती हूं. कितनी कठिनाई से समय निकाल कर इन्हें देखने आती हूं और ये हैं कि…ठीक है, अब नहीं आऊंगी.’’ झटके से पलट कर वह तेज कदम रखती हुई स्पैशल वार्ड के बाहर निकल गई.

‘‘पत्नी को देख कर आप को इतना उद्विग्न नहीं होना चाहिए, मिस्टर सुरेंद्र. आप समझदार हैं. जरा संयम रखिए,’’ डाक्टर सुधीर सुरेंद्र को अपनी स्नेह भीगी दृष्टि से सहला रहे थे.

‘‘बहुत नियंत्रण किया है अपनेआप पर, डाक्टर. बहुत सहा है इस कलेजे पर पत्थर रख कर, इसी आशा में कि शायद यह किसी दिन संभल जाएगी. पर अब नहीं सहा जाता. इस औरत को देखते ही मेरे दिमाग की नसें फटने लगती हैं. समझ में नहीं आता, क्या कर डालूं? उस का गला दबा दूं या अपना?’’  सुरेंद्र बेहद कातर हो उठे थे. ‘‘आप नहीं जानते, डाक्टर, मेरी इस दशा के लिए पूरी तरह यह औरत जिम्मेदार है. इस ने मेरा जीवन बरबाद कर दिया है. मेरा घर, मेरे बच्चे, मेरा सबकुछ. मैं इसे कभी माफ नहीं कर सकता. डाक्टर, थोड़ा सा ग्लूकोज दीजिए, प्लीज? बड़ी तकलीफ हो रही है सीने में. लगता है दिल डूबा जा रहा है जैसे…’’

ग्लूकोज पिला कर, नर्स को नींद का इंजैक्शन लगाने का आदेश दे कर डाक्टर सुधीर चले गए. लेकिन नींद का इंजैक्शन और डाक्टर के सांत्वना में डूबे शब्द, सब मिल कर भी सुरेंद्र के मस्तिष्क की फटती नसों को शांति के सागर में न डुबो सके. इंद्रा ने कुछ पलों के लिए आ कर उन की आर्द्र स्मृतियों के दर्द को फिर से कुरेद कर रख दिया था. यत्न से दबाई चिनगारियां जरा सी हवा पा कर फिर से सुलग उठी थीं. तब नईनई नौकरी लगी थी उन की. नया शहर, नए मित्र, नया काम, सबकुछ नयानया. एक दिन घूमफिर कर लौटे थे तो पिता का पत्र मिला, ‘लड़की देखी है. सुंदर है, बीए कर रही है. घरखानदान अच्छा है. चाहो तो तुम भी आ कर देख जाओ.’ उन्होंने सीधासादा सा उत्तर लिख दिया था, ‘आप सब ने देख लिया, पसंद कर लिया. फिर मैं क्या देखूंगा? पढ़ीलिखी लड़की है, जैसी भी है, अच्छी ही होगी. मुझे मंजूर है.’

इंद्रा की परीक्षा तक उन्हें रुकना पड़ा था. वे कुछ महीने उन्होंने कैसे काटे थे, मन हर समय उल्लास की सतरंगी किरणों से घिराघिरा सा रहता. विवाह के नाम से कलियां सी चटखने लगतीं. आंखों में खुमार सा उतर आता. वे क्या जानते थे कि यह विवाह उन के जीवन का सब से बड़ा कंटक बन कर उन के जीवन की दिशा ही मोड़ देगा, उन का सबकुछ अस्तव्यस्त कर डालेगा? फिर एक दिन इंद्रा ने उन के साथ उन के घर में कदम रखा था. जीवनभर साथ देने की अनेक प्रतिज्ञाएं कर के दुखसुख में कदम से कदम मिला कर जीवन में आए संघर्षों से जूझने के वादे ले कर.

लेकिन उस के सारे वादे, सारी प्रतिज्ञाएं, वर्षभर के ही अंदरअंदर धूल चाटने लगी थीं. उन्होंने समझ लिया था कि उन का और इंद्रा का निबाह होना कठिन था. इंद्रा की बड़ीबड़ी महत्त्वाकांक्षाएं थीं, ऊंचेऊंचे सपने थे, जो उन के छोटे से घर की दीवारों से टकरा कर चूरचूर हो गए थे. उन का छोटा सा घर, छोटा सा ओहदा, छोटीछोटी इच्छाएं और आवश्यकताएं, कोई भी चीज इंद्रा को पसंद नहीं आई थी. दिनदिनभर पड़ोसिनों के साथ फिल्में देखना और मौल्स के चक्कर लगाना अथवा किसी के घर में किट्टी पार्टियों के साथ नएनए फैशन की साडि़यों व गहनों की चर्चा करना, यही थी उस की कुछ चिरसंचित अभिलाषाएं जो मातापिता के कठोर नियंत्रण से मुक्त हो कर अब स्वच्छंद आकाश में पंख पसार कर उड़ना चाहती थीं. दिनभर के थकेहारे सुरेंद्र घर लौट कर आते तो दरवाजे पर झूलते ताले को देख उन का तनमन सुलग उठता. ‘क्या तुम अपना घूमनाफिरना 5 बजे तक नहीं निबटा सकतीं, इंद्रा?’

‘ओहो, कौन सा आसमान टूट पड़ा, जो जरा सी देर इंतजार करना पड़ गया. ताश की बाजी चल रही थी, कैसे बीच से उठ कर आ जाती, बोलो?’ उस का स्वर सुरेंद्र को आरपार चीरता चला जाता. ‘खुद तो दिनभर दोस्तों के साथ मटरगश्ती करते फिरते हैं, मैं कहीं जाऊं तो जवाबतलबी होती है.’ ‘नहीं, इंद्रा, मुझे गलत मत समझो. मेरी तरफ से तुम्हें पूरी आजादी है. कहीं जाओ, कहीं घूमो. बस, मेरे आने तक घर लौट आया करो. तुम्हारी खिलीखिली सी मुसकान मेरी दिनभर की थकान हर लेती है.’ सुरेंद्र पत्नी की जिह्वा का हलाहल कंठ में उतार वाणी में मिठास सी घोल देते.

अपना अपना रास्ता-भाग 2: सुरेंद्र का चेहरा क्यों खिल गया?

सुरेंद्र उसे बैसाखी के सहारे जाते देखते रहे. अब किसी और अकेले पड़े रोगी के पास कुछ क्षण हंसबोल कर उस में जीवन के प्रति विश्वास घोलने का यत्न करेगा. फिर किसी और…और यही उस की दिनचर्या है. अपना भी समय कट जाता है, दूसरों का भी. पहले वे स्वयं भी तो बिलकुल ऐसे ही थे. मस्त, बेफिक्र, भविष्य के प्रति पूर्णतया आश्वस्त. सपने में भी नहीं सोचा था कि जिंदगी कभी इतनी कड़वी व बोझिल हो जाएगी. जीवन को बांधने वाले स्नेहप्यार का एकएक धागा छिन्नभिन्न हो कर बिखर जाएगा.‘काश, उन्हें भी जगतपाल की तरह कोई भोलीभाली सी सीधीसरल पत्नी मिली होती, जिस के होंठों की खिलीखिली सी मुसकान उन की दिनभर की थकान धोपोंछ कर साफ कर डालती. जिस के हाथों की गरमगरम रोटियों में प्यार घुला होता. जो उन  के बच्चों को स्नेहप्यार से जीवन के संघर्षों से जूझना सिखाती. जिस के प्रेम और विश्वास में डूब कर वे समस्त संसार को भुला देते. वे सोचने लगे, ‘ओह, यह उन्हें क्या हो गया है? क्या सोचे जा रहे हैं? निरर्थक, अस्तित्वहीन, बेकार…जिन विचारों को ठेल कर दूर भगाना चाहते हैं, वे ही उन्हें चारों ओर से दबोचे चले जाते हैं.’

आंखों पर हाथ रख कर उन्होंने आंखें मूंद लीं. कहां गया जीवन का वह उल्लास, वह माधुर्य, उन्होंने कितने सपने देखे थे. लेकिन सपने भी कभी सच होते हैं कहीं? ‘‘क्या मैं अंदर आ सकती हूूं?’’ और इस के साथ ही दरवाजे पर लटका सफेद परदा सरकाते हुए इंद्रा ने अस्पताल के उस स्पैशल वार्ड में प्रवेश किया तो जैसे अतीत की सूनी, उदास पगडंडियों में भटकते सुरेंद्र के पांव एकाएक ठिठक गए. विचारों की कडि़यां झनझनाती हुई बिखर गईं. ‘‘तुम? आज कैसे रास्ता भूल गई, इधर का?’’

कमरे में बिखरी दवाइयों की तीखी गंध से नाक सिकोड़ती इंद्रा ने कुरसी पर पसर कर कंधे से लटका बैग मेज पर पटक दिया. ‘‘बस, कुछ न पूछो. बड़ी कठिनाई स समय निकाल कर आई हूं.’’ सेंट की भीनीभीनी खुशबू कहीं भीतर तक सुरेंद्र को सुलगाती चली गई. कभी कितना प्यार था उन्हें इस महक से? ‘‘कुछ अमेरिकी औरतें आई हुई हैं आजकल एशिया का टूर करने. बस, उन्हीं के साथ व्यस्त रही इतने दिन. पता ही नहीं चला कि 8-10 दिन कैसे बीत गए.’’ एक उड़तीउड़ती सी दृष्टि पूरे कमरे में डाल उस ने पति के दुर्बल, कुम्हलाए चेहरे पर आंखें टिका दीं, ‘‘बस, अभीअभी उन्हें एयरपोर्ट पर छोड़ कर आ रही हूं. इधर से जा रही थी. सोचा, 5 मिनट आप से मिलती चलूं. कल फिर एक सैमिनार के सिलसिले में बाहर जाना है. 3-4 दिनों के लिए अचला और रमेश भी आज आने वाले थे. तुम्हारी बीमारी के बारे में बता दिया था. शायद घर पहुंच भी गए होंगे.’’

वह अपनी रौ में बोले जा रही थी और सुरेंद्र पत्नी के चेहरे पर दृष्टि टिकाए विचारों में उलझे हुए थे. ‘तो आज भी मेमसाहब मुझ पर एहसान लादने चली आई हैं. और वह भी इस रूप में? क्या इस स्त्री को तनिक भी लाजशरम नहीं है? जीवन की इस संध्या बेला में यह चटख, चमकीले कपड़े, झुर्री पड़े, बुढ़ाते चेहरे को छिपाने के यत्न में पाउडर और लिपस्टिक की महकतीगमकती परतें. आंखों के आरपार खिंचा सिनेतारिकाओं का सा काजल और चांदी के तारों को छिपाने के यत्न में नकली बालों का ऊंचा फैशनेबल जूड़ा देख कर वितृष्णा से उन के मुंह में ढेर सी कड़वाहट घुल गई. इंद्रा से पति की बेरुखी छिपी न रह सकी, ‘‘तुम आज भी नाराज हो न? पर क्या कर सकती हूं, समय ही नहीं मिलता आने का.’’

‘‘मैं तो तुम से कोई सफाई नहीं मांग रहा हूं?’’

‘‘तो क्या मैं समझती नहीं हूं तुम्हें. जब देखो मुंह फुलाए पड़े रहते हो. पर सच कहती हूं कि एक बार उन विदेशी महिलाओं को देखते तो समझते. किस कदर भारत पर फिदा हो गई हैं. कहती हैं, ‘यहां की स्त्रियों की संसार में कहीं भी समता नहीं हो सकती. कितनी शांत, कितनी सरल और ममतामयी होती हैं. घर, पति और बच्चों में अनुरक्त. असली पारिवारिक जीवन अगर कहीं है तो केवल भारत में. एक हमारा देश है जहां स्त्रियों को न घर की चिंता होती है, न बच्चों की. और पति नाम का जीव? उसे तो जब चाहो पुराने जूते की तरह पैर से निकालो और तलाक दे दो,’’ वह हंसी, ‘‘हमारे महिला क्लब को देख कर भी वे बेहद प्रभावित हुईं…’’

सुरेंद्र पत्नी के गर्व से दमकते चेहरे को आश्चर्यचकित सा देखते रह गए. पति, घर, बच्चे, सुखी पारिवारिक जीवन, ममतामयी नारियां? यह सब क्या बोल रही है इंद्रा? क्या वह इस सब का अर्थ भी समझती है? यदि हां, तो फिर वह सब क्या था? जीवनभर पति को पराजित करने की दुर्दमनीय महत्त्वाकांक्षा, जिस के वशीभूत उस ने एक अत्यंत कोमल, अत्यंत भावुक हृदय को छलनी कर दिया. उन का सबकुछ नष्ट कर डाला. ‘‘तुम्हें किसी चीज की जरूरत हो तो कहो, किसी के हाथ भिजवा दूंगी. मेरा मतलब है कुछ फल वगैरा या कोई किताब, कोई पत्रिका?’’सूनीसूनी आंखें कुछ पल पत्नी के चेहरे पर जैसे कुछ खोजती रहीं, ‘‘जरूरत? डाक्टर को बुला दो, बस…’’

ठंडा, उदास स्वर इंद्रा को कहीं गहरे तक सहमाता चला गया.

‘‘कहिए, कोई खास बात?’’

सुरेंद्र ने डाक्टर सुधीर की आवाज सुन कर आंखों पर से हाथ हटाया, ‘‘जी, हां, डाक्टर साहब, इन्हें यहां से बाहर कर दीजिए.’’ डाक्टर सुधीर एकाएक सन्न रह गए. सुरेंद्र का कांपता स्वर, उन की आंखों में छलकता करुण आग्रह आखिर यह सब क्या है? कैसी अनोखी विडंबना है? पतिपत्नी के युगोंयुगों से चले आ रहे तथाकथित अटूट दृढ़ संबंधों का आखिर यह कौन सा रूप है? मृत्युशय्या पर पड़ा व्यक्ति सब से अधिक कामना अपने सब से प्रिय, सब से मधुर संबंधियों के सान्निध्य की करता है, और यह व्यक्ति है कि…

एक असहाय सी दृष्टि उन्होंने इंद्रा पर डाली. ‘‘लेकिन, डाक्टर, मैं ने तो इन से कोई ऐसीवैसी बात नहीं की. मेरा मतलब है…’’ इंद्रा का चेहरा अपमान से स्याह पड़ गया था.

अपना अपना रास्ता-भाग 1: सुरेंद्र का चेहरा क्यों खिल गया?

अस्पताल की खचाखच भरी हुई गैलरी धीरधीरे खाली होने लगी. सुरेंद्र ने करवट बदल कर आंखें मूंद लीं. पूरी शाम गैलरी से गुजरते उन अनजान, अपरिचित चेहरों के बीच कोई जानापहचाना सा चेहरा ढूंढ़ने का प्रयत्न करतेकरते जब आंखें निराशा के सागर में डूबनेउतराने लगती हैं तो वह इसी प्रकार करवट बदल कर अपनी थकी आंखों पर पलकों का शीतल, सुखद आंचल फैला देता है.

क्यों करता है यह इंतजार? किस का करता है इंतजार?

‘‘सो गए, बाबूजी?’’ लाइट का स्विच औन कर जगतपाल ने कमरे में प्रवेश किया तो जैसे नैराश्य के अंधकार में भटकते सुरेंद्र के हाथ में ढेर सी उजलीउजली किरणें आ गईं.

‘‘कौन, जगतपाल? आओ बैठो.’’

‘‘बाबूजी, माफ कीजिएगा. बिना पूछे अंदर घुस आया हूं,’’

बैसाखी के सहारे लंगड़ा कर चलते हुए वह उस के बैड के पास आ कर खड़ा हो गया. चेहरे पर वही चिरपरिचित सी मुसकान और उस के साथ लिपटा एक कोमलकोमल सा भाव. धीरे से करवट बदल कर सुरेंद्र ने अपनी निराश व सूनी आंखें उस के चेहरे पर टिका दीं. क्या है इस कालेस्याह चेहरे के भीतर जो इन थोड़े से दिनों में ही नितांत अजनबी होते हुए भी उन्हें इतना परिचित, इतना अपनाअपना सा लगने लगा है.

‘‘आप शाम के समय इतने अंधेरे में क्यों लेटे थे, बाबूजी? मैं समझा शायद सो गए.’’

‘‘बस, यों ही. सोच रहा था, सिस्टर किसी काम से इधर आएंगी तो खुद ही लाइट जला देंगी. छोटेछोटे कामों के लिए किसी को दौड़ाना अच्छा नहीं लगता, जगतपाल.’’ दिनरात फिरकी की तरह नाचती, शिष्टअशिष्ट हर प्रकार के रोगियों को झेलती, उन छोटीछोटी उम्र की लड़कियों के प्रति उन के मन में इन 16-17 दिनों में ही न जाने कैसी दयाममता भर आई थी. और सच पूछो तो जगतपाल, कभीकभी मन के भीतर का अंधेरा इतना गहन हो उठता है कि बाहर का यह अंधकार उसे छू भी नहीं पाता. लगता है जैसे…’’ अवसाद में डूबा उन का स्वर कहीं गहरे और गहरे डूबता जा रहा था.

‘‘आप तो बड़ीबड़ी बातें करते हैं, बाबूजी. अपने दिमाग में यह सब नहीं घुसता. यह बताइए, आज तबीयत कैसी है आप की? कुछ खाने को मिला या वही दूध की बोतल…’’

उदास वातावरण को जगतपाल ने अपने ठहाके से चीर कर रख दिया. सुरेंद्र का चेहरा खिल गया, ‘‘हां, जगतपाल, आज तबीयत बहुत हलकी लग रही है. रात को नींद भी अच्छी आई और जानते हो, आज से डाक्टर ने दूध के साथ ब्रैड खाने की इजाजत दे दी है.’’ 15 दिनों से केवल दूध और बिना नमकमिर्च के सूप पर पड़े सुरेंद्र के चेहरे पर मक्खन लगे 2 स्लाइस खाने की तृप्ति और संतुष्टि बिखर आई थी. ‘‘सच कहता हूं, जगतपाल, दूध पीतेपीते इस कदर उकता गया हूं  कि दूध का गिलास देखते ही उसे लाने वाले के सिर पर दे मारने को जी हो आता है.’’

‘‘बसबस, बहुत अच्छे. अब आप 2-4 दिनों में जरूर घर चले जाएंगे. देख लीजिएगा…’’ उस का चेहरा प्रसन्नता के अतिरेक से चमक रहा था. धीरेधीरे वह सुरेंद्र का हाथ सहला रहा था. घर? सुबह डाक्टर शशांक ने भी तो यही कहा था, ‘आप की हालत में ऐसे ही सुधार होता रहा तो इस हफ्ते आप को जरूर यहां से छुट्टी मिल जाएगी.’

सिरहाने रखा चार्ट देख कर वे अपने नियमित राउंड पर चले गए थे. तो क्या वे सचमुच फिर से घर जा सकेंगे? किस का घर? कौन सा घर? क्या उन का कोई घर है?

‘‘एक काम कर दोगे, जगतपाल? जरा यह कंबल पांवों पर डाल दो. कुछ ठंड सी महसूस हो रही है.’’

कंबल सुरेंद्र के पैर पर डाल कर जगतपाल ने मेज पर पड़ा अखबार उठा लिया और कुरसी घसीट कर उस पर पसर गया. एकएक खबर जो सुरेंद्र सुबह से न जाने कितनी बार पढ़ चके थे, अपनी टिप्पणियों सहित जगतपाल उसे सुनाए जा रहा था. और सुरेंद्र उस के चेहरे पर दृष्टि टिकाए एकटक उसे घूर रहे थे. ‘आखिर किस मिट्टी का बना हुआ है यह आदमी? अबोध मासूम बच्चे, अनपढ़, भोली पत्नी, सामने मुंहबाए अंधकारमय भविष्य और यह है कि चेहरे पर शिकन तक नहीं पड़ने देता.’ जगतपाल एक फैक्टरी में काम करता था. वह लोकल ट्रेन से आवाजाही करता था. रेलवे की स्थिति तो जानते ही हैं. आजीवन कुछ न कुछ हादसा होता रहता है और दशकों पुरानी तकनीक के बल पर विकसित देशों की बराबरी करने के ढोल पीटे जा रहे हैं. जगतपाल एक ट्रेन हादसे में अपनी एक टांग गंवा बैठा. 3 महीनों से अस्पताल में पड़ा है. अब चलनेफिरने की आज्ञा मिली है तो बैसाखी के सहारे सारे अस्पताल में चक्कर लगाता फिरता है. अपनी जीवनगाथा दोहरा कर हरेक को जीने के लिए उत्साहित किया करता है.

टांग चली गई, नौकरी की आशा टूट गई. पर माथे पर चिंता की रेखा तक नहीं आने देता. कहता है, ‘फैक्टरी में नौकरी नहीं रहेगी तो न सही, मुआवजा तो देंगे. बाबूजी 12 साल हो गए इस फैक्टरी में खटतेखटते. मुआवजे के रुपए से कोई धंधा शुरू करूंगा.’ उस की छोटीछोटी आंखों में आत्मविश्वास छलक आता है. ‘‘वक्त ने साथ दिया तो कौन जाने इस पराई चाकरी की अपेक्षा अधिक सुखचैन का जीवन कटे. कौन जानता है, वक्त कब क्या दिखा दे?’’ और उस की ये बातें सुन कर सुरेंद्र उसे देखते रह जाते हैं. कितना खुश, कितना मस्त, चिंता और दुख के सागर में डूब कर भी आशा की किरणें ढूंढ़ निकालता है. नित्य कुछ देर उन के पास आ कर हंसबोल कर उन्हें जीवन के प्रति विश्वास दिला जाता है. वरना 24 घंटे अस्पताल की इन सूनी सफेद दीवारों में घिरेघिरे उन्हें ऐसा महसूस होने लगता है जैसे वे दुनिया से कट गए हों. किसी को उन की जरूरत नहीं, दुनिया में उन का कोई अपना नहीं. ‘‘अच्छा, बाबूजी, अब आप आराम कीजिए,’’ बैसाखी उठा कर जगतपाल कुरसी से उठ कर खड़ा हो गया, ‘‘अब जरा जनरल वार्ड की तरफ जाऊंगा. नमस्ते, बाबूजी.’’

अपना अपना रास्ता-भाग 5: सुरेंद्र का चेहरा क्यों खिल गया?

एक दिन इसी बात को ले कर उन पर बुरी तरह झल्ला उठी थी, ‘पापा, आप अपनी शिक्षा और उपदेश अपने पास ही रखिए. मैं अपना भलाबुरा खुद समझ सकती हूं. आप की तरह संकीर्ण विचारों वाली बन कर मैं दुनिया में जीना नहीं चाहती. जब मम्मी हम लोगों को कुछ नहीं कहतीं, फिर आप…’ 15-20 दिनों के लिए मांबेटी कोलकाता गई थीं. जब वापस आईं तो अचला अपना लुटा कौमार्य फिर से वापस लौटा लाई थी, खुली हवा में और अधिक आजादी से घूमने के लिए. कितनी सरलता से इंद्रा ने इतनी बड़ी समस्या से छुटकारा पा लिया था. ‘तुम समझते हो, हमारी अचला ने जैसे कोई अनहोनी बात कर डाली है. आएदिन मेरे पास ऐसे कितने ही मामले आते रहते हैं. मैं इन से निबटना भी अच्छी तरह जानती हूं. बच्चों से गलती हो जाती है. गलती नहीं करेंगे तो सीखेंगे कैसे?’

शराब की मात्रा और अधिक बढ़ गई थी. वे जानते थे, जिस रास्ते पर वे जा रहे थे वह उन्हें विनाश की ओर ले जा रहा था. मदिरा उन्हें कुछ क्षणों के लिए मानसिक तनाव से छुटकारा दिला सकती थी, उन के थके, टूटे तनमन को प्रेम से जोड़ नहीं सकती थी. स्नेह, विश्वास, शांति के अभाव ने आज उन्हें फूल की एकएक पंखुड़ी की तरह मसलकुचल कर 50 वर्ष की आयु में ही मौत के कगार पर ला पटका था. डाक्टर कहते हैं, कुछ दिनों में ठीक हो कर वे फिर से घर जा सकेंगे. लेकिन वे जानते हैं, अब कभी घर नहीं लौट सकेंगे. लौटना भी नहीं चाहते. कौन है वहां जिस की ममता के बंधन उन्हें वापस लौटा लाने के लिए विवश करें? पत्नी, बेटे, बेटी? कौन?

दिल काबू से बाहर हुआ जा रहा था. सिर से पैर तक वे पसीने में नहा गए थे. ‘‘सिस्टर, सिस्टर,’’ उन्होंने घंटी पर हाथ मारा, ‘‘सिस्टर, पानी…’’ अस्पताल से निकल कर इंद्रा ने तेजी से गाड़ी घर की ओर मोड़ दी. मन में जितना आक्रोश भरा था, उसी के अनुपात में गाड़ी का ऐक्सीलेटर तेज होता गया. इस व्यक्ति ने उसे कभी नहीं समझा, समझने की कोशिश ही नहीं की. ज्योंज्यों वह यश और प्रशस्ति के पथ पर बढ़ती चली गई, यह उन से कटता चला गया.

आज शहर में उस का कितना मान और आदर है. क्या नहीं है उस के पास? सरकारी गाड़ी, बंगला, महंगे मोबाइल? वह जिधर से गुजर जाती है, लोग उस की एक झलक देखने के लिए ठिठक कर रुक जाते हैं. शहर में कोई ऐसा आयोजन नहीं जहां उसे सम्मानपूर्वक आमंत्रित न किया जाता हो. मान और यश के इस उच्चतम शिखर पर पहुंचने के लिए उस ने कितना त्याग, कितना परिश्रम, कितना कठिन संघर्ष किया है? और यह व्यक्ति है कि घायल शेर की तरह उसे काटने को दौड़ता है. घर आ गया था. गाड़ी गेट से होती हुई बरामदे के सामने जा कर रुक गई.

‘‘मम्मी, तुम आ गईं,’’ दौड़ती हुई अचला आ कर उस के गले से लिपट गई.

इंद्रा ने सिर से पैर तक सजीधजी बिटिया को देखा. वह पिता की नाजुक हालत की खबर पा कर आई थी.

‘‘कब आई?’’

‘‘यही कोई 4 साढ़े 4 बजे के करीब.’’

‘‘अकेली आई हो?’’

‘‘क्यों, अकेली क्यों आऊंगी? रमेश भी आए हैं साथ. अब कोई पापा का डर थोड़े ही है, जो न आते.’’ पापा के न होने की प्रसन्नता उस के चेहरे पर छलकीछलकी पड़ रही थी.

इंद्रा के गले में बांहें झुलाती हुई वह उसे ड्राइंगरूम में घसीट लाई. सालभर के बच्चे को पेट पर लिटाए रमेश सोफे पर पसरा पड़ा था. ‘‘उठो, रमेश, मम्मी आई हैं.’’ सास को देख रमेश उठ कर बैठ गया, ‘‘मम्मी, आइए. कब से हम लोग आप का इंतजार कर रहे हैं. विनोद और प्रमोद भी घर से गायब हैं. लगता है, क्लब में यारदोस्तों के साथ पत्तों में मशगूल होंगे. हम दोनों बैठेबैठे बोर हो रहे थे अकेले.’’ सोफे पर पसर कर इंद्रा ने बेटीदामाद के चेहरों पर टटोलती सी दृष्टि डाली. न कोई दुख, न उदासी. बस, एक तटस्थ सा भाव, जैसे यह भी एक औपचारिकता है. खबर मिली, चले आए. बस. मगर दुख और चिंता का भाव आता भी तो क्योंकर? कभी बच्चों ने पिता को पिता नहीं समझा. मातापिता की कलह में विजय हमेशा मां के हाथ रही. पिता सदा से एक परित्यक्त जीवन ढोता रहा. न उस की इच्छा और रुचि की कोई चिंता करने वाला था, न उस के दुख में कोई दुखी होने वाला. घर में सब से बेकार, सब से फालतू कोई चीज यदि थी तो वह था पिता नाम का प्राणी. फिर उस के प्रति किसी प्रकार की ममता, आदर या स्नेह आता तो कैसे?

‘‘अस्पताल क्यों नहीं गए?’’ इंद्रा ने सोफे की पीठ पर बाल फैलाते हुए अचला की ओर देखा.

‘‘अस्पताल? बाप रे, कौन जाता पागल कुत्ते से कटवाने अपने को?’’ अचला ने हाथमुंह नचाते हुए टेढ़ा मुंह बनाया.

‘‘साफसाफ क्यों नहीं कहती कि पापा अस्पताल में हैं, इसलिए हम लोग आप सब से मिलने आए हैं. उन के रहते तो इस घर में पांव रखने में भी डर लगता है. मुझे कैसी खूंखार आंखों से घूरते हैं. बाप रे’’ रमेश ने बिटिया को अचला की गोद में डाल, उसे शाल उढ़ाते हुए मन की सच्ची बात उगल दी.

अचला ने पिता की इच्छा के विरुद्घ घर से भाग कर उस से शादी की थी, क्योंकि सुरेंद्र की नजरों में वह एक आवारा और गुंडा किस्म का लड़का था. इसी वजह से वह ससुर से घृणा करता था. ‘‘तुम ठीक कहते हो. आजकल वे सचमुच पागल कुत्ते की तरह काटने दौड़ते हैं. मैं ने भी फैसला कर लिया है कि अब अस्पताल नहीं जाऊंगी. शायद जाना भी न पड़े. जानते हो, डाक्टर कहते हैं, वे 2-4 दिन के मेहमान हैं.’’ इंद्रा ने चाय का घूंट निगलते हुए अचला की ओर देखा, ‘‘पहला दौरा उन्हें तब हुआ था जब विनोद कालेज से उषा को भगा कर मुंबई में बेच आया था. 3 दिनों तक वे घर नहीं आए थे. तीसरे दिन पता चला था, होटल में शराब पीतेपीते उन्हें दौरा पड़ा था. वहीं से उन्हें अस्पताल पहुंचा दिया गया था. और अब तुम्हारे जाने के बाद उन के इस दूसरे दौरे ने उन के दिल की धज्जियां उड़ा दी हैं. मैं तो आज तक नहीं समझ पाई इस आदमी को. क्या चाहता है, क्या सोचता है, क्या नहीं है इस के पास?’’

निर्लिप्त से स्वर में बोलतेबोलते उस ने चाय का खाली प्याला मेज पर रख दिया. रात को खापी कर देर तक ड्राइंगरूम में बैठ सब ऊधम मचाते रहे. अचला और रमेश के आगमन की सूचना पा कर उन के मित्र भी मिलने चले आए थे. इंद्रा को सुबह 7 बजे की फ्लाइट पकड़नी थी, सो 6 बजे का अलार्म लगा कर नौकर को सब आदेश दे, वह बिस्तर में दुबक गई. सुबह घड़ी के अलार्म की जगह मोबाइल की घंटी टनटनाई तो इंद्रा रजाई फेंक कर बिस्तर से उठ बैठी.

‘‘हैलो,’’ उधर से आवाज आई, ‘‘मिस्टर सुरेंद्र अब इस दुनिया में नहीं रहे.’’

‘‘ओहो, अच्छाअच्छा.’’

मोबाइल रख कर कुछ क्षण वह जैसे निर्णय सा लेती रही, ‘इन्हें भी यही वक्त मिला था खबर देने को,’ बड़बड़ाती हुई वह गुसलखाने में घुस गई. वहां से हाथमुंह धो कर निकली तो नौकर को पुकारा, ‘‘देखो, रामू, मेरी चाय यहीं दे जाओ और ड्राइवर से कहो गाड़ी तैयार करे. जाने का टाइम हो गया है, समझे. और हां देखो, विनोद और प्रमोद को मेरे पास भेज दो जगा कर. कहना बहुत जरूरी काम है. समझ गए?’’

‘‘जी,’’ कह कर रामू चला गया तो वह ड्रैसिंगटेबल के सामने बैठ कर जल्दीजल्दी बालों में कंघी करने लगी. जूड़ा बना कर उस ने होंठों पर लिपस्टिक फैलाई ही थी कि विनोद आंखें मलता सामने आ कर खड़ा हो गया, ‘‘क्या बात है, मम्मी? सुबहसुबह नींद क्यों बिगाड़ दी हमारी? क्या हमें जगाए बिना आप की सवारी सैमिनार में नहीं जा सकती थी?’’ इंद्रा ने लिपस्टिक को फिनिशिंग टच दे कर बेटे के चेहरे पर आंखें टिका दीं, ‘‘तुम्हारे पापा नहीं रहे. अभीअभी अस्पताल से फोन आया है. रात को वे बहुत बेचैन रहे और सुबह कोई 4 बजे के करीब डाक्टरों की पूरी कोशिश के बावजूद उन का हार्ट सिंक कर गया.’’

‘‘क्या?’’ विनोद की अधखुली आंखें अब पूरी तरह खुल कर फैल गई थीं,  ‘‘इतनी जल्दी?’’

‘‘जल्दी क्या? उन्होंने तो अपनी मौत खुद बुलाई है. खैर, मैं ने तो तुम्हें इसलिए बुलाया है कि मैं तो जा रही हूं. रुक नहीं सकती. वचन जो दे चुकी हूं. तुम लोग रमेश अंकल को फोन कर देना. वे आ कर सब संभाल लेंगे, समझे.’’ नित्य की तरह माथे पर सुहाग चिह्न लगाने के अभ्यस्त हाथ एक क्षण के लिए कांपे. क्या अब भी यह सौभाग्य चिह्न माथे पर अंकित करना चाहिए? सौभाग्य चिह्न? कैसा सौभाग्य चिह्न? क्या इस रूप में उस ने कभी इसे माथे पर अंकित किया था? बस, अन्य सौंदर्य प्रसाधनों की तरह जैसे चेहरे पर पाउडर और होंठों पर लिपस्टिक लगाती रही, वैसे ही यह भी उस के गोरे, उजले माथे पर शोभता रहा. फिर सोचना क्या?

हवा में ठिठका उस का हाथ आगे बढ़ा और माथे पर लाल रंग की गोलमोल बिंदी टिक गई.

कैसे पति? कैसी पत्नी? जब वे अपना रास्ता नहीं छोड़ सके तो मैं ही क्यों छोड़ दूं? साड़ी का पल्ला ठीक करती हुई वह ड्रैसिंगटेबल के सामने से उठी और पर्स उठा कर बाहर निकल गई. ‘‘देखो, विनोद, कोई पूछे तो कह देना जब खबर आई, मैं घर से जा चुकी थी, समझे.’’ पलट कर तेजतेज कदम रखती हुई वह सीढि़यां उतर कर गाड़ी में बैठ गई. अनिश्चय की स्थिति में सकपकाया सा विनोद गाड़ी को गेट से निकलते देखता रहा. क्या मम्मीपापा में कभी कोई संबंध था? यदि हां, तो फिर कौन सा?

 

 

 

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