कुछ महीने पहले तक बच्चों को मोबाइल फ़ोन पर गेम खेलने के लिए माँ बाप की डांट पड़ती थी. कभी-कभी तो पापा का मोबाइल फ़ोन चुपके से उठा कर यूट्यूब पर कार्टून देखने पर पिटाई भी हो जाती थी. अम्मा चिल्लाती थी – हर वक़्त मोबाइल में आँखें गड़ाए रखता है, आँखें खराब हो जाएंगी. जब से कोरोना का कहर टूटा वही माता पिता अपने बच्चों के लिए लॉक डाउन में भी बाज़ार-बाजार घूम कर स्मार्ट फ़ोन खरीदते दिखे. अच्छी से अच्छी कंपनी का मोबाइल फोन, जिसमें पिक्चर भी क्लियर आये, स्क्रीन भी बड़ा हो और जिस पर नेटवर्क भी धांसू चले. टेबलेट और लैपटॉप की खरीदारी भी करनी पड़ी और ये सब सिर्फ इसलिए ताकि बच्चे ऑनलाइन क्लास अटेंड कर सकें.
घर की कमजोर आर्थिक स्थिति में बच्चों की पढ़ाई को लेकर माता-पिता की बढ़ी हुई चिंताओं की बानगी देखिये कि कोरोना महामारी ने एक गरीब पिता को अपनी बेटी के लिए स्मार्ट फोन खरीदने और स्कूल की फीस भरने के लिए अपनी गाय बेचने पर मजबूर कर दिया. हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले के एक पिता ने ऐसा इसलिए किया ताकि कोरोना के चलते उनकी बेटी की पढ़ाई में कोई रुकावट न आए. इस समय देशभर में स्कूल छात्रों तक शिक्षा पहुंचाने के लिए इंटरनेट का सहारा ले रहे हैं. कुलदीप कुमार भी अपनी बेटी की ऑनलाइन क्लास के लिए स्मार्ट फोन खरीदना चाहते थे लेकिन उनके पास पैसों की कमी थी. उन्होंने किसी से पैसे उधार लिए और बेटी को फोन खरीद कर दिया. हालांकि कर्ज चुकाने के लिए उन्हें अपनी गाय बेचनी पड़ गयी. अब वो हर महीने मोबाइल डाटा रिचार्ज करने का पैसा कहां से लाएंगे, भगवान जाने.
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सैफ अयान और पिता आरिफ
लखनऊ में सैफ अयान के पिता आरिफ जो खुद भी एक टीचर हैं, सातवीं कक्षा में पढ़ने वाले अपने बेटे सैफ की पढ़ाई को ले कर बहुत चिंतित हैं. सैफ आजकल ऑनलाइन पढ़ाई कर रहा है. खुद उन्हें भी अपने स्टूडेंट्स को ऑनलाइन पढ़ाना पड़ रहा है. बेटे की ऑनलाइन पढ़ाई के लिए उनको अलग से बारह हज़ार रूपए का नया स्मार्ट फ़ोन खरीदना पड़ा. इसके अलावा ट्राइपॉड, ब्लैक बोर्ड, अच्छा नेटवर्क प्लान और पढ़ाई से सम्बंधित अन्य आवश्यक चीज़ों की खरीदारी में करीब बीस हज़ार रूपए खर्च हो गए. लेकिन इतने तामझाम के साथ चल रही ऑनलाइन पढ़ाई का हाल यह है कि ढाई घंटे की ऑनलाइन पढ़ाई के बाद आरिफ जब खुद सैफ को लेकर पढ़ाने बैठते हैं तब उसकी समझ में कुछ आता है. शाम को उसको घर के पास ही चलने वाली ट्यूशन क्लास में भी भेजते हैं. आरिफ कहते हैं, ‘मोबाइल फ़ोन पर टीचर जो लेक्चर दे रही है उसका पांच फीसदी भी बच्चे को समझ में आ जाए तो बहुत है. मोबाइल फ़ोन पर लगातार आँखें गड़ाए रखने के बाद जब मेरा बेटा ढाई घंटे बाद उठता है तो उसकी आँखों से पानी गिरता है, रात भर बच्चा सिरदर्द से परेशान रहता है. इस तरह और कुछ महीने पढ़ाई चली तो बच्चा बीमार पड़ जाएगा.’
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आरिफ कहते हैं, ‘ऑनलाइन क्लासेज शिक्षा का मज़ाक भर है. गाइडलाइन है कि 8वीं तक के छात्रों की ऑनलाइन क्लास डेढ़ घंटे से ज्यादा नहीं होनी चाहिए, लेकिन स्कूल वाले 3 से 4 घंटे तक बच्चों को पीस रहे हैं. सेकंड-थर्ड क्लास का बच्चा भी चार-चार घंटे मोबाइल फ़ोन में आँखें गड़ाए बैठा है. उधर टीचर को पता ही नहीं चलता है कि चालीस-पचास बच्चों में कौन गंभीरता से पढ़ रहा है और कौन खेल कर रहा है, किसका ध्यान पढ़ाई पर है और किसका नहीं. अब टीचर के सामने क्लास को अनुशासन सिखाने की भी जिम्मेदारी नहीं है. हो सकता है कुछ दिनों में रिकार्डड लैसन पढ़वाने शुरू हो जाएँ और वही लैसन बार-बार दोहराया जाए. इसके अलावा क्लास में जहाँ बच्चे एक दूसरे से बातचीत के ज़रिये बहुत कुछ सीख लेते थे, प्रोब्लेम्स को हल कर लेते थे, ऑनलाइन क्लास में यह संभव ही नहीं हैं क्योंकि आपस में बच्चों का इंटरेक्शन नहीं हो पा रहा है. क्लास में कुछ ना समझ आया तो तुरंत खड़े होकर टीचर से पूछ लेते थे, मगर ऑनलाइन कोई समस्या महसूस होने पर वे टीचर से पूछते भी नहीं हैं. उनको भी पता है कोरोना काल में पढ़ाई के नाम पर सब टाइम-पास चल रहा है. ऑनलाइन सिस्टम सिर्फ इसलिए शुरू हुआ है ताकि स्कूल प्रशासन पेरेंट्स को यह जाहिर कर सकें कि देखिये हम तो पढ़ा रहे हैं, और इसलिए आपको फीस तो देनी होगी. भले बच्चे की समझ में कुछ ना आये.’
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शिफाली अस्थाना
लखनऊ के ही क्राइस्ट चर्च स्कूल में पढ़ने वाले कक्षा पांच के विद्यार्थी आलिंद नारायण अस्थाना की माँ शिफाली अस्थाना कहती हैं, ‘ऑनलाइन क्लास के कारण मेरे बच्चे में डिप्रेशन बढ़ रहा है. वो हर वक रोता रहता है कि टीचर क्या पढ़ा रही है कुछ समझ में नहीं आ रहा है. कभी मोबाइल फ़ोन पर पढ़ाई के दौरान नेटवर्क की प्रॉब्लम हो जाती है और क्लास के बीच कनेक्शन टूट जाता है, तो उस वक़्त तो आलिंद चिल्ला चिल्ला कर ज़मीन-आसमान एक कर देता है. खुद नौकरी कर रही शिफाली के लिए ये समय बहुत कठिन जान पड़ता है. फिर जिस वक़्त बच्चे की ऑनलाइन क्लास चल रही होती है उसको ऑफिस के लिए निकलना पड़ता है. उसके पीछे बच्चे ने कितनी देर क्लास की, की या बीच में ही छोड़ दी, उसको कुछ पता नहीं चलता है. शाम को वो आलिंद को ट्यूशन क्लास ले कर जाती है, तब वहां कुछ पढ़ाई हो पाती है.
उन घरों में मुश्किल और भी ज्यादा जहां पति-पत्नी दोनों नौकरी में हैं. उन्हें अपने काम पर जाना है और बच्चे को ऑनलाइन क्लास भी अटेंड करनी है. माता-पिता की गैरमौजूदगी में इंटरनेट पर बच्चा अपनी क्लास के अलावा क्या-क्या देख सकता है, खतरा आप समझ सकते हैं. वो भी बच्चे को किसके भरोसे छोड़कर जाएं?
शिफाली के दो बच्चे हैं. बेटा आलिंद जहाँ पांचवी का छात्र है, वहीँ बेटी का इस साल हाई स्कूल है. कोरोना काल में पति का बिज़नेस चौपट हो चुका है और शिफाली की अपनी छोटी सी नौकरी से जो तनख्वाह आ रही है, उसका बड़ा हिस्सा उसने बेटे के लिए स्मार्ट फ़ोन और बेटी के लिए लैपटॉप खरीदने में लगा दिया. लेकिन ऑनलाइन पढ़ाई का कुछ फायदा होता उसको नज़र नहीं आ रहा है. दोनों बच्चो की पढाई के लिए उसको चार हज़ार रूपए महीने की ट्यूशन अलग से लगवानी पड़ी है.
आलिंद
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ऑनलाइन क्लासेस ने शिक्षा और छात्र दोनों का बड़ा गर्क कर दिया है. छोटे-छोटे बच्चों की 4-4 घंटे तक ऑनलाइन क्लास चल रही है. बच्चे पस्त हो रहे हैं, गार्जियन के सामने नए-नए बहाने बना रहे हैं. बच्चे अवसाद के शिकार भी हो रहे हैं. सोचिये कि केजी क्लास का नन्हा सा बच्चा ऑनलइन क्या सीख-पढ़ रहा होगा? क्या ऑनलाइन क्लासेज पेरेंट्स को बेवक़ूफ़ बना कर पैसे ऐंठने का ज़रिया नहीं हैं?
शिफाली कहती हैं, ‘हम स्कूल की इतनी लम्बी-चौड़ी फीस क्यों भरें, जब बच्चा ऑनलाइन कुछ सीख ही नहीं पा रहा है? इस ऑनलइन क्लास ने हमारी तो कमर ही तोड़ दी है. बिजली हमारी, इंटरनेट का खर्चा हमारा, अलग से ट्यूशन टीचर हमें रखनी पड़ रही है, स्मार्ट फ़ोन, लैपटॉप हमें खरीदने पड़ रहे हैं, तो स्कूल वाले किस बात की फीस और किस बात का मेंटेनेंस चार्ज मांग रहे हैं? ना तो उनकी बिल्डिंग इस्तेमाल हो रही है, ना बिजली-पानी और ना ही बच्चे को लाने-ले जाने के लिए बस, तो स्कूल ट्यूशन फीस में ये तमाम चार्जेस क्यों जोड़ रहे हैं? हमने तो चार महीने से फीस नहीं दी है और आगे भी अगर इसी तरह ऑनलाइन क्लास चले तो कोई फीस नहीं देंगे.’
उन अभिभावकों की हालत तो और भी ज़्यादा खराब है, जो प्राइवेट नौकरी में रहते हुए छंटनी के शिकार हो गए या फिर बिजनेस में थे और कोराना काल के लॉकडाउन में उनके बिजनेस की रीढ़ ही टूट गई. जिंदगी में दो जून की रोटी के लाले पड़ गए तो बच्चों की फीस का इंतजाम कहां से करें? जिनके तीन या चार बच्चे हैं भला वो कहाँ से इतना पैसा लाएं कि हर बच्चे के हाथ में एक नया स्मार्ट फ़ोन और इंटरनेट कनेक्शन दे सकें?
घर में पहले एक स्मार्ट फोन था तो अब जरूरत उससे ज्यादा की है. स्मार्ट फोन पर ऑनलाइन क्लास तो सजा ही है, सही मायने में तो लैपटॉप चाहिए. लेकिन 3-4 बच्चों के लिए 3-4 लैपटॉप का इंतजाम अभिभावक कैसे करें? गाज़ियाबाद में रहने वाले अशोक मिश्रा के तीन बच्चे हैं, तीनों की क्लास एक ही वक्त शुरू हो जाती है, वो बेचारे अड़ोस-पड़ोस से मोबाइल फ़ोन मांगकर लाते हैं. घर में एक लैपटॉप है, उसको लेकर झगड़ा मचता है.
दिल्ली शिक्षा निदेशालय की तरफ से शुरू की गई ऑनलाइन कक्षाओं के तहत संसाधनों की कमी का सबसे अधिक सामना 10वीं और 12वीं के छात्रों को करना पड़ रहा है. निदेशालय के एक शिक्षक के मुताबिक जिन बच्चों ने अभी 9वीं व 11वीं पास की है. उन्हें ऑनलाइन शिक्षा देने के लिए कक्षा शिक्षक ने व्हाट्सएप ग्रुप बनाए हैं. इन ग्रुप के माध्यम से ही ऑनलाइन कक्षाओं का आयोजन व निगरानी होती है. कक्षा में पंजीकरण के हिसाब से एक कक्षा के लिए बनाए गए ग्रुप में 40 से 50 छात्र होने चाहिए. लेकिन, इन ग्रुपों में बड़ी संख्या में छात्र ही नहीं जुड़े हैं. आलम यह है कि किसी ग्रुप में 50 फीसद तो किसी ग्रुप में 60 फीसदी छात्र ही जुड़े हैं. शिक्षक के मुताबिक इसके पीछे जो प्रथम दृष्टया कारण समझ आ रहा है, वह यह है कि कई छात्रों के पास इन ऑनलाइन कक्षाओं में शामिल होने के लिए जरूरी संसाधन नहीं है. इसमें स्मार्ट फोन, लैपटॉप या इंटरनेट जैसे संसाधन प्रमुख हैं.
छात्र लंबे समय तक मैसेज नहीं देख रहे
ऑनलाइन कक्षाओं के लिए ग्रुप में जुड़े बच्चे भी ऑनलाइन पढ़ाई के लिए उतनी दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं. सुभाष नगर एसबीवी के शिक्षक संत राम के अनुसार शिक्षकों की तरफ से लगातार छात्रों के लिए पाठ्य सामग्री भेजी जाती रही है. वहीं, खान व ब्रिटिश अकादमी की तरफ से भेजी जा रही पाठ्य सामग्री की जिम्मेदारी भी शिक्षकों पर है. ऐसे में कई बार ऐसा होता है कि पाठ्य सामग्री के लिए जो मैसेज ग्रुप में भेजे जाते हैं, वह लंबे समय तक छात्रों की तरफ से देखे ही नहीं जाते. अब स्थिति यह है कि छात्र ग्रुप छोड़ रहे हैं.
मूल्यांकन का तंत्र नहीं
शिक्षा निदेशालय की तरफ से नर्सरी से आठवीं तक के बच्चों के अभिभावकों के मोबाइल में संदेश व आईवीआर के माध्यम से पाठ्य सामग्री भेजने की व्यवस्था की गई है. लेकिन, इस व्यवस्था के परिणाम से भी शिक्षक अंजान हैं. एक शिक्षक के अनुसार भेजे गए संदेशों पर बच्चों व अभिभावकों की तरह से क्या काम किया गया है और इस पर कितना अमल हुआ है, इसकी निगरानी व मूल्यांकन करने का कोई तंत्र नहीं है. इस वजह से यह पूरी प्रक्रिया औपचारिक हो गई है. बच्चों के पास लैपटॉप और इंटरनेट की पहुंच नहीं होने की वजह से दस फीसदी बच्चे ही ऑनलाइन पढ़ पा रहे हैं.
आर्थिक तंगी से जूझ रहे स्कूल
उधर स्कूल-कॉलेज प्रशासन का भी हाल खस्ता है. फीस ना आने से आर्थिक दुष्चक्र में फंसे कॉलेज मालिक हर रोज एक नई सुबह का इंतजार कर रहे हैं, लेकिन अंधेरा छंटने का नाम ही नहीं ले रहा है. कोरोना से बच भी गए तो इस अंधेरे से बचने का उनके पास रास्ता क्या है? दिल्ली के खानपुर देवली रोड स्थित सी. के. मैनी पब्लिक स्कूल के प्रबंधक श्री एन. मैनी का कहना है, ‘हम कई महीने से अपने स्टाफ को तनख्वाह नहीं दे पा रहे हैं. जब फीस ही नहीं आ रही है तो तनख्वाह कहाँ से दें? हमारी कई टीचर्स अपने घरों में ही ट्यूशन क्लासेस चला रही हैं. कुछ अन्य कामों में लग गयी हैं जिससे उनके घर की गाड़ी चल रही है.
श्री मैनी का स्कूल नर्सरी से आठवीं तक है और उनकी कई टीचर्स ऑनलाइन क्लासेस ले रही हैं, जिसके लिए तमाम अरेंजमेंट्स करने में उनको काफी बड़ी रकम खर्च करनी पड़ी है. इसके अलावा बिजली का बिल, पानी का बिल, बिल्डिंग का रख रखाव और किराया जैसे तमाम खर्चे मुँह बाए खड़े हैं, ऐसे में जब पैरेंट फीस देने से इंकार कर दें, तो खर्चा कैसे चले?
कोरोना काल में कई छोटे स्कूल आर्थिक तंगी का शिकार हो कर बंद होने की कगार पर हैं. किराए के भवनों में चल रहे ऐसे कई स्कूल इन चार महीनों में बंद भी हो चुके हैं. कंप्यूटर कोचिंग क्लासेज, टाइपिंग इंस्टीटूट्स पर ताले पड़ गए हैं. आईएएस-पीसीएस कोचिंग सेंटर्स बंद हैं. एक बड़े कॉलेज के मैनेजिंग डायरेक्टर कहते हैं, ‘हाल बेहाल हैं. कोरोना के चलते हॉस्टल खाली हैं. छात्र गायब हैं, छात्रों ने फीस नहीं दी है. एडमिशन का समय है, लेकिन नए छात्र रजिस्ट्रेशन भी नहीं करवा रहे हैं. कमाई पूरी तरह ठप है. कहां से दें अध्यापकों और बाकी कर्मचारियों का वेतन? ऐसा ही चलता रहा तो 70 फीसदी प्राइवेट कॉलेज बंद हो जाएंगे. प्राइवेट कॉलेज के अध्यापक आत्महत्या पर मजबूर हो जाएंगे.
एक कस्बाई स्कूल के प्रिंसिपल साहब कहते हैं, ‘छात्रों ने स्कूल में आना बंद कर दिया तो अभिभावकों ने फीस भी बंद कर दी. अध्यापक से लेकर चपरासी तक पैदल हो गए. और सरकार बिजली का बिल, पानी का बिल भेजने में शर्म नहीं कर रही है. आखिर कुछ तो रियायत सरकार भी दिखाए.
गाजियाबाद के एक डेंटल कॉलेज की हालत ये है कि वहां चार महीने से स्टाफ को वेतन नहीं मिला है. मैनेजमेंट ने कह दिया है कि आप चाहे आएं या न आएं आपकी मर्जी. हम तनख्वाह देने की स्थिति में नहीं हैं. कॉलेज में फीस नहीं आ रही है. नीट का इम्तिहान भी आगे बढ़ गया है, जाने कब इम्तिहान होगा, कब नतीजे आएंगे और कब छात्र कॉलेज पहुंचेंगे. नए एडमिशन हो नहीं रहे हैं, कॉलेज में पैसे कहां से आएं. तमाम प्राइवेट स्कूल-कॉलेजों की हालत खस्ता है. प्राइवेट कॉलेज के कई अध्यापक अब सब्जी और फल बेच रहे हैं. ऐसी खबरें रोज आ रही हैं.
फाइव स्टार स्कूलों की चांदी
हालांकि बड़े शहरों के फाइव स्टार स्कूल-कॉलेज जिनमे बड़े-बड़े नेताओं और व्यापारियों का पैसा लगा है, को कोरोना महामारी से कोई ज़्यादा फर्क नहीं पड़ा है. कई मेडिकल, इंजीनियर कॉलेज लॉक डाउन के बावजूद पेरेंट्स से पूरी फीस वसूल रहे हैं. ऐसे स्कूलों में फीस न देने का कोई रास्ता नहीं है. कोई मुरव्वत नहीं, फीस नहीं तो नाम कट. अब जहां-तहां से इंतजाम करके लोग फीस भर रहे हैं. यही नहीं कुछ नामी स्कूल तो तय सीमा से ज्यादा फीस ले रहे हैं. सैमेस्टर की फीस जमा करने के लिए फाइव स्टार प्राइवेट यूनिवर्सिटी सिर्फ 2 दिन का वक्त देती हैं, वो भी बिना पूर्व सूचना के. फीस में एक दिन की भी देरी हुई तो लेट पेमेंट के नाम पर करीब हजार रुपये का चूना लग जाता है. ज्यादा देर हो गई तो दोगुनी फीस भी देनी पड़ सकती है. इन यूनिवर्सिटी में अपने बच्चों को पढ़ाने वाले उन तमाम मध्यमवर्गीय, निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों की परेशानियों का कोई अंत नहीं है, जिनके दो या उससे ज्यादा बच्चे हैं. सबकी ऑनलाइन क्लास एक ही वक्त चलनी है, इसलिए सभी को लैपटॉप और स्मार्ट फ़ोन इंटरनेट कनेक्शन के साथ चाहिए. अब स्कूल प्रशासन के सामने छात्रों के बीच अनुशासन मेंटेन करने का कोई झंझट नहीं है, स्कूल के रखरखाव की परेशानी भी कम हो गयी है, खेल एक्टिविटीज़ बंद हैं, वाहन बंद हैं, लेकिन उसकी फीस भी ली जा रही है. पढ़ाई की क्वालिटी के बारे में कोई सवाल नहीं उठ रहे. स्कूल प्रशासन को अच्छी तरह पता है कि कोरोना काल में अभिभावक संगठित नहीं हो सकते तो इनकी पहले भी चांदी थी, अब भी चांदी है.