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अस्पताल की खचाखच भरी हुई गैलरी धीरधीरे खाली होने लगी. सुरेंद्र ने करवट बदल कर आंखें मूंद लीं. पूरी शाम गैलरी से गुजरते उन अनजान, अपरिचित चेहरों के बीच कोई जानापहचाना सा चेहरा ढूंढ़ने का प्रयत्न करतेकरते जब आंखें निराशा के सागर में डूबनेउतराने लगती हैं तो वह इसी प्रकार करवट बदल कर अपनी थकी आंखों पर पलकों का शीतल, सुखद आंचल फैला देता है.

क्यों करता है यह इंतजार? किस का करता है इंतजार?

‘‘सो गए, बाबूजी?’’ लाइट का स्विच औन कर जगतपाल ने कमरे में प्रवेश किया तो जैसे नैराश्य के अंधकार में भटकते सुरेंद्र के हाथ में ढेर सी उजलीउजली किरणें आ गईं.

‘‘कौन, जगतपाल? आओ बैठो.’’

‘‘बाबूजी, माफ कीजिएगा. बिना पूछे अंदर घुस आया हूं,’’

बैसाखी के सहारे लंगड़ा कर चलते हुए वह उस के बैड के पास आ कर खड़ा हो गया. चेहरे पर वही चिरपरिचित सी मुसकान और उस के साथ लिपटा एक कोमलकोमल सा भाव. धीरे से करवट बदल कर सुरेंद्र ने अपनी निराश व सूनी आंखें उस के चेहरे पर टिका दीं. क्या है इस कालेस्याह चेहरे के भीतर जो इन थोड़े से दिनों में ही नितांत अजनबी होते हुए भी उन्हें इतना परिचित, इतना अपनाअपना सा लगने लगा है.

‘‘आप शाम के समय इतने अंधेरे में क्यों लेटे थे, बाबूजी? मैं समझा शायद सो गए.’’

‘‘बस, यों ही. सोच रहा था, सिस्टर किसी काम से इधर आएंगी तो खुद ही लाइट जला देंगी. छोटेछोटे कामों के लिए किसी को दौड़ाना अच्छा नहीं लगता, जगतपाल.’’ दिनरात फिरकी की तरह नाचती, शिष्टअशिष्ट हर प्रकार के रोगियों को झेलती, उन छोटीछोटी उम्र की लड़कियों के प्रति उन के मन में इन 16-17 दिनों में ही न जाने कैसी दयाममता भर आई थी. और सच पूछो तो जगतपाल, कभीकभी मन के भीतर का अंधेरा इतना गहन हो उठता है कि बाहर का यह अंधकार उसे छू भी नहीं पाता. लगता है जैसे…’’ अवसाद में डूबा उन का स्वर कहीं गहरे और गहरे डूबता जा रहा था.

‘‘आप तो बड़ीबड़ी बातें करते हैं, बाबूजी. अपने दिमाग में यह सब नहीं घुसता. यह बताइए, आज तबीयत कैसी है आप की? कुछ खाने को मिला या वही दूध की बोतल…’’

उदास वातावरण को जगतपाल ने अपने ठहाके से चीर कर रख दिया. सुरेंद्र का चेहरा खिल गया, ‘‘हां, जगतपाल, आज तबीयत बहुत हलकी लग रही है. रात को नींद भी अच्छी आई और जानते हो, आज से डाक्टर ने दूध के साथ ब्रैड खाने की इजाजत दे दी है.’’ 15 दिनों से केवल दूध और बिना नमकमिर्च के सूप पर पड़े सुरेंद्र के चेहरे पर मक्खन लगे 2 स्लाइस खाने की तृप्ति और संतुष्टि बिखर आई थी. ‘‘सच कहता हूं, जगतपाल, दूध पीतेपीते इस कदर उकता गया हूं  कि दूध का गिलास देखते ही उसे लाने वाले के सिर पर दे मारने को जी हो आता है.’’

‘‘बसबस, बहुत अच्छे. अब आप 2-4 दिनों में जरूर घर चले जाएंगे. देख लीजिएगा…’’ उस का चेहरा प्रसन्नता के अतिरेक से चमक रहा था. धीरेधीरे वह सुरेंद्र का हाथ सहला रहा था. घर? सुबह डाक्टर शशांक ने भी तो यही कहा था, ‘आप की हालत में ऐसे ही सुधार होता रहा तो इस हफ्ते आप को जरूर यहां से छुट्टी मिल जाएगी.’

सिरहाने रखा चार्ट देख कर वे अपने नियमित राउंड पर चले गए थे. तो क्या वे सचमुच फिर से घर जा सकेंगे? किस का घर? कौन सा घर? क्या उन का कोई घर है?

‘‘एक काम कर दोगे, जगतपाल? जरा यह कंबल पांवों पर डाल दो. कुछ ठंड सी महसूस हो रही है.’’

कंबल सुरेंद्र के पैर पर डाल कर जगतपाल ने मेज पर पड़ा अखबार उठा लिया और कुरसी घसीट कर उस पर पसर गया. एकएक खबर जो सुरेंद्र सुबह से न जाने कितनी बार पढ़ चके थे, अपनी टिप्पणियों सहित जगतपाल उसे सुनाए जा रहा था. और सुरेंद्र उस के चेहरे पर दृष्टि टिकाए एकटक उसे घूर रहे थे. ‘आखिर किस मिट्टी का बना हुआ है यह आदमी? अबोध मासूम बच्चे, अनपढ़, भोली पत्नी, सामने मुंहबाए अंधकारमय भविष्य और यह है कि चेहरे पर शिकन तक नहीं पड़ने देता.’ जगतपाल एक फैक्टरी में काम करता था. वह लोकल ट्रेन से आवाजाही करता था. रेलवे की स्थिति तो जानते ही हैं. आजीवन कुछ न कुछ हादसा होता रहता है और दशकों पुरानी तकनीक के बल पर विकसित देशों की बराबरी करने के ढोल पीटे जा रहे हैं. जगतपाल एक ट्रेन हादसे में अपनी एक टांग गंवा बैठा. 3 महीनों से अस्पताल में पड़ा है. अब चलनेफिरने की आज्ञा मिली है तो बैसाखी के सहारे सारे अस्पताल में चक्कर लगाता फिरता है. अपनी जीवनगाथा दोहरा कर हरेक को जीने के लिए उत्साहित किया करता है.

टांग चली गई, नौकरी की आशा टूट गई. पर माथे पर चिंता की रेखा तक नहीं आने देता. कहता है, ‘फैक्टरी में नौकरी नहीं रहेगी तो न सही, मुआवजा तो देंगे. बाबूजी 12 साल हो गए इस फैक्टरी में खटतेखटते. मुआवजे के रुपए से कोई धंधा शुरू करूंगा.’ उस की छोटीछोटी आंखों में आत्मविश्वास छलक आता है. ‘‘वक्त ने साथ दिया तो कौन जाने इस पराई चाकरी की अपेक्षा अधिक सुखचैन का जीवन कटे. कौन जानता है, वक्त कब क्या दिखा दे?’’ और उस की ये बातें सुन कर सुरेंद्र उसे देखते रह जाते हैं. कितना खुश, कितना मस्त, चिंता और दुख के सागर में डूब कर भी आशा की किरणें ढूंढ़ निकालता है. नित्य कुछ देर उन के पास आ कर हंसबोल कर उन्हें जीवन के प्रति विश्वास दिला जाता है. वरना 24 घंटे अस्पताल की इन सूनी सफेद दीवारों में घिरेघिरे उन्हें ऐसा महसूस होने लगता है जैसे वे दुनिया से कट गए हों. किसी को उन की जरूरत नहीं, दुनिया में उन का कोई अपना नहीं. ‘‘अच्छा, बाबूजी, अब आप आराम कीजिए,’’ बैसाखी उठा कर जगतपाल कुरसी से उठ कर खड़ा हो गया, ‘‘अब जरा जनरल वार्ड की तरफ जाऊंगा. नमस्ते, बाबूजी.’’

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