हर इंसान का जन्म समान रूप से होता है.लेकिन इंसान के जन्म लेने के बाद समाज उसके साथ भेदभाव करते हुए बांट देता है. इंसान को जाति,धर्म से लेकर उसके शारीरिक रंग रूप व शारीरिक बनावट के आधार पर की जाती है.नेत्रहीन यानी कि आंखों की रोशनी खो चुके विकलांगों के साथ सर्वाधिक भेदभाव किया जाता है.नेत्रहीन को बाक्सर बनने की इजाजत नही है.‘बाक्सिंग फेडरेशन नेत्रहीन/दृष्टिहीन दिव्यांग को बाक्सिंग की रिंग में उतरने की इजाजत नहीं देता.

जबकि यूगांडा, इंग्लैंड जैसे देशों में दृष्टिहीन बाक्सर हैं,मगर उन्हें इसे पेशे के रूप में खेलने की इजाजत नहीं है.सर्वाधिक आश्चर्य की बात यह है कि पैरा ओलंपिक में व्हील चेअर(जिनके पैर नहीं है अथवा जो अपने पैरों पर खड़े नहीं हो सकते) पर बैठे दिव्यांग को बाक्सिंग रिंग में उतर कर बाक्सिंग प्रतियोगिता का हिस्सा बनने का हक है,मगर दृष्टिहीन/अंधे इंसान को पैरा ओलंपिक भी बाक्सर बनने की इजाजत नहीं देता.

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इसे नेत्रहीन विकलांगों के खिलाफ सामाजिक भेदभाव मानते हुए ही पुरस्कृत फिल्म सर्जक जोड़ी बिजाॅय बनर्जी और कौशिक मंडोल ने एक घंटे की फिल्म ‘ अली: द ब्लाइंड बाक्सर’बनायी है,जो कि जन्म से ही अंधे/दृष्टिहीन बालक के बाक्सर बनने की दास्तान है.यह फिल्म इस बात का भी सबूत है कि एक नेत्रहीन दिव्यांग भी बाक्सर बन सकता है और वह बाक्सिंग रिंग के अंदर आंखों से देख सकने वाले किसी भी बाक्सर के साथ प्रतियोगिता कर सकता है.यानीकि बिजाॅय बनर्जी और कौशिक मंडोल एक ज्वलंत मुद्दे पर मकसदपूर्ण फिल्म लेकर आए हैं, जिसे कई अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में पुरस्कृत किया जा चुका है.

प्रस्तुत है फिल्मकार जोड़ी बिजाॅय बनर्जी और कौशिक मंडोल के बिजाॅय बनर्जी संग हुई एक्सक्लूसिब बातचीत के अंश..
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अपनी पृष्ठभूमि और अब तक की यात्रा के बारे में बताएं?

-मेरा जन्म व परवरिश कलकत्ता में हुई.जाधवपुर युनिवर्सिटी से 1995 में मैने सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की.फिर 1999 में मैंने दिल्ली से इंटरनेशनल बिजनेस विषय में एमबीए किया.1999 में ही मेरा कारपोरेट जगत में कैरियर शुरू हुआ.मैं कुछ वर्ष विदेश में भी रहा.कई कंपनियों में उच्च पदों पर रहा.एक कंपनी का सीईओ भी रहा.मैं यूरोप,इंग्लैंड,एशिया के कई देशों में रहा.कारपोरेट जगत में काफी व्यस्त जिंदगी रही.पर मेरे मन में फिल्म बनाने की इच्छा रही है.फिल्म के प्रति मेरा पैशन रहा है.2014 में मैने फिल्म निर्माण करने की ठान ली.इसलिए मैंने अपनी नौकरी छोड़कर इस दिशा में काम करने का मन बनाया.इसमें मेरे मित्र कौशिक मंडोल का साथ मिला.वर्ह आई आईटी खड़कपुर,इलेक्ट्रॉनिक्स से हैं और वह अभी भी इंफोसिस,पुणे में कार्यरत हैं.कहानी सुनाना हम दोनों का पैशन है.हमने ऑडियो विज्युअल माध्यम का उपयोग कर उन कहानियों को सुनाने का निर्णय लिया,जो कि समाज से निकली हों,मगर जिन्हे हम देख नही पाते हैं या हम उन्हे अनदेखा कर देते हैं.

ऐसी कहानियां कहने में ही हम दोनों की रूचि है.हम लोगो ने 2015 में बंगला भाषा में एक 20 मिनट की लघु फिल्म ‘उपहार’बनायी थी.इसमें हमने एक बच्चे के नजरिए से दिखाया है कि एक एकाकी परिवार की वजह से रिश्तों  में  किस तरह से असर पड़ता है.इस फिल्म को कई अंतरराष्ट्रीय  पुरस्कार,बाल कलाकार को सर्वश्रेष्ठ बाल कलाकार का अवार्ड भी मिला.यहां से हमारी सिनेमाई यात्रा शुरू हुई.हमने फिल्म मेकिंग का कोई कोर्स नहीं किया है.काम करते हुए ही सीखा.इसके बाद हमने एक घंटे की फिल्म ‘अली: द ब्लाइंड बाॅक्सर’बनायी.

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फिल्म‘लकी: द ब्लाइंड बाक्सर’ बनाने का ख्याल कैसे आया?
-‘उपहार’को मिली सफलता व शोहरत ने हमें कुछ नया करने के लिए प्रेरित किया.तब हमने सोचना शुरू किया कि किस विषय को उठाया जाए?हमने महसूस किया कि हमारे यहां सामाजिक भेदभाव काफी हैं.यह बात मुझे व कौशिक को काफी कष्ट देती है.मेरा मानना है कि हम सभी समान स्तर पर ही पैदा होते हैं,उसके बाद समाज हम पर लेबल लगाता है.समाज हमे स्किन/चमड़ी के रंग,शारीरिक बनावट आदि के आधार पर बांटती है और यह तय करती है कि कौन हमारे समकक्ष है,कौन हसमे उंचा है और कौन हमसे नीचा है.यह बातें हमें कष्ट देती है.इसी बीच हमें यह जानकर आष्चर्य हुआ कि दृष्टिहीन/अंधे इंसान को समाज में ‘बेचारा’की दृष्टि से देखा जाता है.

इतना ही नहीं खेल जगत में एक ऐसा क्षेत्र है,जहां नेत्रहीनों को अछूत माना जाता है.और यह खेल है बाॅक्सिंग.इस बात ने हमें आश्चर्य  चकित करने के साथ ही तकलीफ पहुॅचायी और सोचने पर भी मजबूर किया.बाॅक्सिंग फेडरेशन का नियम है कि दृष्टिहीन इंसान बाॅक्सिंग का हिस्सा नहीं बन सकते और इस नियम को बदला नहीं जा सकता.पैरा ओलंपिक में जूड़ो,कराटे जैसे शरीर को छूने वाले खेल दृष्टिहीनों के लिए हैं,मगर बाॅक्सिंग नही है.अब आप खुद सोचिए कि एक इंसान व्हील चेअर पर बैठा हुआ है,उसके पैर नही है,तब भी वह बाॅक्सिंग कर सकता है,मगर दृष्टिहीन इंसान बाॅक्सिंग नहीं कर सकता.

जबकि मेरी रूचि बाक्सिंग में काफी रही है.क्योंकि बाॅॅक्सिंग सिर्फ एक खेल नही हैं,यह तो बाॅक्सिंग रिंग में तीन मिनट तक ‘मोमेंट आफ सरवाइवल’यानीकि खुद को जीवंत रखने का पल है.

हम सैलाॅन की ‘राॅकी’ सहित कई फिल्में देख चुके हैं.‘बाॅक्सिंग’के खेल में यह बात मायने नहीं रखती कि आपको कितनी बड़ी चोट लगी है, बल्कि मायने यह रखता है कि चोटिल होने के बावजूद आप कितनी जल्दी उठ खड़े होते हैं.कितनी जल्दी चोट से उबरते हैं.ऐसे में हमें लगा कि यदि समाज व खेल जगत में इतना भेदभाव है,तो क्यों हैं? क्या वास्तव में दृष्टिहीन का बाॅक्स बनना मुमकीन नही है.तब हमने इस पर शोध करना शुरू किया.

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आपने शोध में क्या पाया?

-हमने शोध में पाया कि भारत में एक भी दृष्टिहीन बाॅक्सर नही है.पूरे विश्व में तीन चार लोग हैं.मसलन, यूगांडा,आस्टे्लिया व इंग्लैंड में हैं.यह वह लोग हैं,जो कि वयस्क हैं और किसी दुर्घटना में अपनी आंखों की रोशनी खो बैठने के बाद अंधे हो गए.जब आप उम्र के किसी पड़ाव में आकर दृष्टिहीन हो जाए,तो इसका मनोवैज्ञानिक असर होता है,यह लोग फ्रस्ट्रेशन में पंचिंग करने लगे. पंचिंग करते करते यह बाॅक्सर बन गए.अमरीका के ए ले में ‘मिक्स मार्शल आर्ट’का खेल होता है.थाईलैंड व यूके में एक दृष्टिहीन लड़का है और बाॅक्सिंग करता है.यूगांडा के कम्पाला शहर में बशीर रामनाथन लंबे समय से बाॅक्सिंग फेडरेशन से मांग कर रहे हैं कि उसे लायसेंस दिया जाए,वह प्रोफेशनल बाॅक्सिंग करना चाहता है.पर बाॅक्सिंग फेडरेशन उसे लायसेंस देने को तैयार नही है,जबकि उसने बाॅक्सिंग सीखी है.फेडरेशन का कहना है कि हम तुम्हे प्रोफेशनल बाॅक्सर से लड़ने के लिए अवसर देंगे,मगर हम देख सकने वाले बाक्सर की आंख में पटी बांध देंगे,यह बात शबीर रामनाथन को मंजूर नही.वह कहता है कि मुझे सामान्य बाॅक्सर संग ही बाक्सिंग प्रतियोगिता करनी है.शबीर का मनना है कि दृष्टिहीन होते हुए भी उसने अपने तरीके से देखना सीखा है.

यदि आंखों की रोशनी वाले को उसकी आंख पर पट्टी बांधकररिंग में उतारोगे,तो यह उसके साथ अन्याय होगा.मेरे कहने का अर्थ यह है कि हर दृष्टिहीन इंसान अपने तरीके से देखता है,पर हम उसकी तारीफ नही कर पाते.हमने जितने भी ऐसे उदाहरण देखे,वह सभी किसी न किसी दुर्घटना में अंधे हो चुके है,उसके बाद उन्होने बाॅक्सिंग के बारे में सोचा.

शोध करने के बाद हमने ऐसे बालक के बारे में कहानी सोची जो कि जन्म से अंधा है और बाॅक्सर बनता है.एक बाक्सर की जरुरत के अनुसार उसके पंच में दम है, उसके अंदर जुनून है, मगर आंख में रोशनी नही है.तो क्या वह बाॅक्सर के रूप में अपनी यात्रा को आगे बढ़ा सकता है?इस तरह की कहानी के माध्यम से हम स्वयं यह जानना व परखना चाहते थे कि एक दृष्टिहीन इंसान का बाॅक्सर बनना संभव/मुमकीन है या नहीं है.

हमारे देश में कई एनजीओ है,जो कि अपने फायद के लिए कुछ गतिविधियां करते रहते हैं.अंधों के लिए फुुटबाल स्टेडियम का उद्घाटन हुआ,तो वहां कुछ अंधे बालकों को लेकर गए.दिन भर धूप में खड़ा रखा, मगर फुटबाल को पैर तक मारने नहीं दिया.सिर्फ नेता आए,इन बालको संग फोटो खिंचवायी,इसके अलावा कुछ नहीं.इस तरह के अनुभव इन दृष्टिहीन बालकों को होते रहे हैं.वह दृष्टिहीन बालक के माता पिता से उनके बच्चे को कुछ बना देने के झूठे आश्वासन देते रहते हैं.

फिल्म ‘‘अली:द ब्लाइंड बाक्सर’’ की कहानी क्या है?

-यह कहानी एक सोलह सत्रह वर्ष के जन्म से ही दृष्टिहीन बालक अली की है.उसके माता पिता मध्यमवर्गीय हैं और बहन है.वह स्कूल जाता है.एक सामान्य जिंदगी जी रहा है.उसके मम्मी पापा मानते हैं कि उनका बेटा दुनिया में किसी से कम नहीं है.उसके माता पिता के पास अक्सर एनजीओ के लोग आकर बड़ी बड़ी बातें करके जा चुके हैं.एक दिन एक बाक्सिंग कोच की नजर अली पर पड़ती है और वह उसे बाक्सर बनाने का निर्णय लेता है.जिसके लिए अली व उसके माता पिता भी तैयार हो जाते हैं.प्रशिक्षण हासिल करने के बाद अली बाक्सिंग रिंग में उतर कर आंखों से देख सकने वाले बाॅक्सिंग चैंम्पियन से प्रतियोगिता करता है और विजयी होता है.अंततः अली पूरे समाज के सामने दिखाता है कि वह बाक्सिंग कर सकता है.वह एक बेहतरीन बाॅक्सर है.

फिल्म ‘अली द ब्लाइंड बाक्सर’ में एक अंधे बालक को बाक्सर बनाने की बात की गयी है?

-इसी के साथ हमने इस फिल्म में दिव्यांग बच्चों का अपने माता पिता के साथ किस तरह का इक्वेषन होता है,इसे भी चित्रित किया है.एक घटना ऐसी घटित होती है कि बाॅक्सिंग कोच की नजर अली पर पड़ती है.उसे कुछ अहसास होता है और वह तय करता है कि वह अली को बाॅक्सिंग सिखाएगा.उसके बाद अली व उस कोच की यात्रा शुरू होती है.साथ में सामाजिक इनजस्टिस/ अन्याय की बातों को भी उठायी हैं.सबसे बड़ी बात यह कि हम स्वयं यह समझना चाहते थे कि क्या यह सिर्फ एक मानसिकता का मुद्दा है या तकनीकी अड़चन है.
हम मानते है कि बॉक्सिंग ताकत और चपलता का खतरनाक खेल है.गलत जगह जबड़ा टूटा या मुक्का मारा जाए,तो एक पल की देरी से जान का खतरा होता है.मगर हमें यह याद रखना चाहिए कि नेत्रहीन/अंधा इंसान अपने तरीके से देख सकता है.

कलाकारों का चयन?

-पटकथा लिखने के बाद हमने सोचा कि यदि हमने किसी आंखों की रोशनी वाले कलाकार को अली के किरदार में लेकर फिल्म बनाई,तो हमारा जो मकसद है,वह तो पूरा नहीं हो सकता.इसलिए हमने अली के किरदार को निभाने के लिए सोलह सत्रह वर्ष के दृष्टिहीन बालक की तलाष षुरू की.क्योंकि हमारी फिल्म महज किसी किरदार को अंधा दिखाने के मकसद से नही बनी है.बल्कि हम एक दृष्टिहीन इंसान इंसान को दिखाना चाहते थे,जो कि आम जिंदगी जी रहा है.दूसरी बात यह हमारी खुद की यह प्रयोगात्मक यात्रा इस बात को समझने के लिए थी कि आंखों की रोषनी न होने पर भी इंसान बाॅक्सर बन सकता है या नहीं?ऐसे में अली के किरदार के लिए किसी अंधे युवक को चुनना हमारे लिए काफी कठिन रहा.पर हमने तलाष जारी रखी.काफी समय लगा.हमें अली के किरदार के लिए शब्बीर शेख नामक बालक ‘पुणे अंध विद्यालय’में मिला,जो कि दसवीं कक्षा का छात्र था.अब तो वह बारहवीं कक्षा में पहुॅच गया है.उसकी आंखों की रोशनी एक संक्रमण के चलते एक वर्ष की उम्र में ही चली गयी थी.उसके पापा बीड़ के एक गांव में किसान हैं.उसका भाई तौसिफ भी अंधा है.यदि हमें षब्बीर षेख या उसके जैसा कोई लड़का नहीं मिलता, तो हम यह फिल्म नहीं बनाते.

हम चाहते थे कि कोई भी कलाकार कैमरे के सामने अभिनय करने की बजाय स्वाभाविक ढंग से काम करे.क्योंकि हमारी फिल्म की कहानी हमारे समाज के आम इंसान की कहानी है.इसमें जो बाक्सर हैं,जिसके साथ अली को रिंग के अंदर बाक्सिंग करनी है,वह आठवें लेबल का बाक्सिंग चैंम्पियन साहिर वाघमारे है.कोच के किरदार में बाक्सिंग व फिटनेस ट्रेनर और इंटरनेशनल स्तर पर पुरस्कृत बौडीबिल्डर आकाश आहुते हैं.उसने भारत का प्रतिनिधित्व किया है.अली की बहन के किरदार में राष्ट्रीय स्तर की बाॅक्सिंग चैंपियन है.मैचे के रेफरी के किरदार में वास्तविक बाक्सिंग मैच रेफरी राकेश भानु हैं.अली के पापा के किरदार में अनुज सेंगर व मां के किरदार में अर्चना पाटिल है,निजी जीवन में इनके बच्चे भी किसी अन्य रूप से विकलांग हैं,तो यह विकलांग बच्चों की मानसिकता वगैरह को समझते हैं.इसलिए इन सभी ने हमारी कहानी के अपने किरदारों को पहले से जिया हुआ था.नकुल तलवरकर हमारे साउंड रिकाॅर्डिस्ट हैं.विनय देषपांडे एडीटर और संगीतकार भी हैं.

अली के किरदार के लिए शब्बीर शेख ही क्यों?

-(बहुत अच्छा सवाल है)…. हमने जो पटकथा लिखी थी,उसमें अली की शारीरिक बनावट के बारे में विस्तार से सोचकर लिखा था कि उसके कंधे चैड़े व मजबूत होने चाहिए.उसका कद उंचा होना चाहिए.हमने यह सब सिनेमा के दृष्टिकोण से सोचा था.नेत्रहीन इंसानो की आंखे दो तरह की होती हैं.एक वह जिसकी आंखे डिफाॅम्र्ड/कुरूप हों,दूसरा वह जिसकी आंखें कुरूप नहीं होती है, मगर उसकी आंखों में रोशनी नहीं होती है.हम दोनों तरह की आंखों वाले नेत्रहीन बालक को अपनी फिल्म से जोड़ने को तैयार था.हमने यह सोचा था कि वह आत्म विष्वासी नजर आना चाहिए.उसके हाथ भी लंबे होने चाहिए.हम जब पुणे के अंध स्कूल पहुॅचे,तो वहां लड़कों की भीड़ में मैने देखा कि एक लड़का बिंदासपना के साथ चलकर आ रहा है.वह खेलों में भी रूचि रखता हैै.वह क्रिकेट में आल राउंडर है.वह अपनी क्रिकेट टीम का कैप्टन भी है और कई शील्ड जीत चुका है.वह मलखम करता है.पुणे का यह अंध विद्यालय मलखम के लिए प्रसिद्ध है.फिर हमने कुछ लड़कांे से बात भी की थी.शब्बीर से भी बात की.फिर स्कूल के प्रिंसिपल व शब्बीर के माता पिता से बात की.शब्बीर के माता पिता तुरंत तैयार हो गए,और उनका पूरा सपोर्ट मिला.

शब्बीर ने बाॅक्सिंग सीखने के लिए हामी क्यों भरी?

-उसकी सोच सिर्फ इतनी थी कि यदि कोई उससे कहे कि वह नेत्रहीन है,इसलिए यह काम नहीं कर सकता, तो वह उस काम को करके दिखाएगा.शब्बीर खुद को किसी भी सामान्य बालक से कमतर नही आंकता.वास्तव में नेत्रहीन इंसान के देखने का तरीका अलग होता है,यह बात हर इंसान को समझनी चाहिए.यही बात हम अपनी फिल्म के माध्यम से भी पूरे विष्व के लोगों, खासकर बाॅक्सिंग फेडरेशन को समझाना चाहते हैं.

शब्बीर की याददाष्त तेज है.हमने उसके लिए फिल्म की पटकथा को ब्रेल भाषा में नहीं बनाया.हमने संवाद कहे और उसे याद हो गए.सच कहूं तो हमने स्वयंउससे कुछ न कुछ सीखा.

फिर शब्बीर शेख को बाक्सिंग कैसे सिखायी?

-अली के किरदार के लिए शब्बीर शेख का चयन करने के बाद अहम सवाल था कि क्या वह बाॅक्सिंग सीखना चाहेगा और सीख सकेगा?शब्बीर ने कहा कि वह सीखना चाहता है.तब हमने उसके विद्यालय और उसके माता पिता से इस बात के लिए इजाजत लेकर उसे पूरे चार माह तक ट्रेनिंग दिलायी.उसकी ट्रेनिंग के दौरान बिना फिल्म की शूटिंग किए हम अपनी फिल्म को देख रहे थे.

हमारे सामने समस्या थी कि शब्बीर को बाॅक्सिंग की शिक्षा कैसे देंगें? क्योंकि हमारे यहां ऐसा कोई ट्रेनर नही है,जो कि दृष्टिहीन को बाॅक्सिंग सिखाता हो.और न ही कोई मैन्युअल आदि ही है.हमने कई बाल मनोवैज्ञानिक डाक्टरों से बात की.कई बाक्सरों से बात की.बाक्सिंग की ट्रेनिंग देेने वालों से बात की.हमने शोध के दौरान उन खेलों के बारे में जाना,जिन खेलों का अंधे खेल सकते हैं और यह जाना कि वहां पर उन्हें उन खेलों के ट्रेनिंग कैसे दी जाती है.और हमने खुद ही बाॅक्सिंग मैन्युअल बनाया कि किस तरह एक अंधे बालक को बाॅक्सिंग सिखायी जा सकती है.उसी आधार पर ट्रेनिंग ने शब्बीर शेख को बाॅक्सिंग की ट्रेनिंग दी.
देखिए,शोध आदि से हमारी समझ में आया कि बाॅक्सिंग टाइमिंग और स्पेस को समझने का खेल है.दृष्टिहीन व्यक्ति यह कैसे समझेगा?इसके लिए ट्रेनिंग देते समय कोच के दाहिने पैर को शब्बीर के बाएं पैर के साथ बांध दिया.इससे हुआ यह कि कोच जैसे जैसे अपना पैर आगे बढ़ा रहा था,वैसे वैसे षब्बीर भी कर रहा था.पंच वह आवाज के हिसाब से करता था.इसमें सामने वाले की साॅंस,चले आदि की आवाज को आधार बनाया.कई तरह की तकनीक अपनाकर उसे बाॅक्सर बनाया.उसने भी काफी मेहनत करके इसे सीखा.अब तो वह प्रोफेशनल बाक्सर बनने के साथ ही दृष्टिहीनों को बाॅक्सिंग सिखाना भी चाहता है.फिलहाल उसने दो लड़कों को सिखा दिया है.

फिर हमने एक वीडियो बनाया, जिसमें वह साहिल नामक युवक को बाक्सिंग सिखाता है.उसने जिस तरह से सीखा है,उसी तरह से वह दूसरे लड़के को सिखा रहा है.इससे हमें अहसास हुआ कि एक दृष्टिहीन /अंधा इंसान का बाॅक्सर बनना मुमकीन है. फिर हमने अपनी पटकथा के हर दृष्य को लेकर सभी कलाकारों के साथ वर्कषाॅप किया.क्योंकि हमारी फिल्म में अनुभवी कलाकार कोई नही है.सभी ने पहली बार कैमरे का सामना किया है, इसलिए वर्कषाॅप के दौरान इन्हे ग्रूम करना पड़ा.हाॅं!हर कलाकार निजी जिंदगी में जिस पेषे में है,उसी का किरदार उसने इस फिल्म में निभाया है.

हमने पहले से रिंग के अंदर के फाइटिंग दृष्यों को कैमरे के एंगल आदि के अनुसार कोरियोग्राफ नहीं किया था.बल्कि हमने साहिल से कहा कि तुम बाॅक्सिंग में चैंपियन हो और शब्बीर तुमने बाॅक्सिंग सीखी है,अब आप दोनो बाक्सिंग करो,हम अपना कैमरा उसी हिसाब से एडजस्ट कर लेंगें.इन दोनो ने बाक्सिंग रिंग के अंदर दो राउंड की वास्तविक फाइटिंग की,जिसे हमने अपने कैमरे में कैद किया.इस दौरान शब्बीर का ओंठ भी फट गया.पर शब्बीर व उसके पिता ने कहा कि कोई बात नहीं, चिंता न करें.

शब्बीर को रिंग के अंदर साहिल के संग फाइट करते देख कोच राकेष भानु ने ऐलान किया कि शब्बीर के अंदर बाक्सर है और अब वह आगे उसे मुफ्त में सिखाएंगे.

शब्बीर शेख भारत का पहला दृष्टि हीन/अंधा बाक्सर है.जिस खेल के साथ वह कभी जुड़ा हुआ नहीं था,जिसके बारे में उसने कल्पना भी नहीं की थी,उसी खेल को लेकर उसका अपना आत्मविष्वास जबरदस्त बढ़ा है.यह बात फिल्म के अंदर उसके किरदार में दिखाता है.सच कहूं तो अब फिक्षन,रियालिटी में बदल चुका है.कल्पना, हकीकत में में बदल चुकी है.

आपने 2015 में लघु फिल्म ‘उपहार’ बनायी थी.उसके बाद ‘अलीः द ब्लाइंड बाक्सर’को आने में चार पांच वर्ष का समय लग गया?

-हमें ‘अली द ब्लाइंड बाक्सर’की पटकथा लिखने में करीबन डेढ़ वर्ष का समय लग गया.क्योंकि उससे पहले हमने काफी शोध कार्य किया,कुछ बाल मनोवैज्ञानिकों व डाक्टरों से भी बातचीत की.बाल मनोवैज्ञानिकों से बात करने के पीछे मकसद यह समझना था कि एक नेत्रहीन बालक बाॅक्सिंग सीख सकता है या नहीं.अगर बिना सच को समझे हम आगे बढ़ जाते और बाद में पता चलता कि ऐसा ंसंभव नहीं है,तो हमारी मेहनत,समय व पैसा बर्बाद होता.और जिस बाल को लेगें, उसका सबसे अधिक उत्साह खत्म होगा.
फिर हमें अपने घर का किचन भी चलाना था,तो बीच बीच में उसके लिए भी कुछ काम करते रहे.उसके बाद अली के किरदार की तलाश में शब्बीर तक पहुॅचने में भी वक्त लगा.हमें खुद यह सीखना पड़ा कि बाक्सिंग के दृष्य कैसे फिल्माए जाते हैं.इसकी फोटोग्राफी भी मैने स्वयं की है.इस फिल्म के निर्माण में तेरह लोगों से थोड़ी थोड़ी सी रकम ली है,जो कि भारत के अलावा दूसरे देश के हमारे दोस्त हैं,उन सभी के नाम हमने कार्यकारी निर्माता के रूप में फिल्म में दिए हैं.

फिल्म किन फिल्म समारोहों  में दिखायी जा चुकी हैं और वहां पर किस तरह की प्रतिक्रियाएं मिली?

-.पिछले एक वर्ष से यह फिल्म कई फिल्म समारोहों में घूम रही है.भूटान के इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में विकलांगता सेक्शन की फिल्मों में सर्वश्रेष्ठ फिल्म घोषित की गई.भूटान इंटरनेशल फिल्म फेस्टिवल में इसे सर्वश्रेष्ठ मोबाइल फिल्म का भी पुरस्कार दिया गया,यह क्यों दिया गया,मैं समझ नहीं पाया.कोलकाता इंटरनेशनल कल्ट फिल्म फेस्टिवल में सर्वश्रेष्ठ फिल्म पुरस्कार भी मिला.षांति निकेतन के टैगोर इंटरनेशनल फिल्म महोत्सव में ‘उत्कृष्ट उपलब्धि‘ पुरस्कार मिला.इसके अलावा कुछ अन्य अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों के लिए चयन हो चुका है.

अमरीका में कैलीफोर्निया व लास ऐंजेल्स के एक फिल्म समारोह के लिए चयन हुआ है.इस फिल्म का अफीका प्रीमियर केन्या में हो चुका है.‘केन्या इंटरनेशनल स्पोट्र्स फिल्म फेस्टिवल’होता है,यह अफ्रीका का अपना खेलों को समर्पित फिल्म समारोह है.इस फिल्म समारोह में पूरे विष्व की फिल्में शामिल हुई थी.इस फिल्म फेस्टिवल के निदेशक आसिफ करीम पहले क्रिकेट टीम के कैप्टन रहे हैं.उनका केन्या सरकार में अच्छी पहुॅच है.आसिफ करीम ने मेरी फिल्म की तारीफ की और अब वह केन्या सरकार और केन्या की पैरालाॅटिक कमेटी से बात कर रहे हैं कि फिल्म‘अली: द ब्लाइंड बाॅक्सर’ सबसे बड़ा सबूत है कि एक नेत्रहीन इंसान बाॅक्सर बन सकता है,इसलिए सरकार को चाहिए कि वह नेत्रहीनों को भी बाॅक्सिंग के क्षेत्र में आने की इजाजत दे और उन्हे प्रोत्साहित करे.

केन्या में इस फिल्म को आम जनता को दिखाया गया,बाकी फिल्मफेस्टिवल तो ‘कोविड 19’के चलते ऑन लाइन ही हुए.

हम अपनी इस फिल्म को ‘राष्ट्रीय पुरस्कार’के लिए भी इस वर्ष भेजना चाहते हैं.इसके पीछे हमारा मकसद यह कि ज्यूरी में शामिल लोग देखेंगे,कि ऐसा संभव है.हम शब्बीर के माध्यम से शब्बीर जैसे नेत्रहीनों/ विकलांगो के अंदर उत्साह का सृजन करने के साथ ही इनके प्रति लोगों के नजरिए में बदलाव लाना चाहते हैं.

भावी योजना?

-जी!हमने दूसरी फिल्म की योजना पर काम कर लिया है,यह फीचर फिल्म बांगला भाषा में होगी.यह एक दिन की कहानी है.जिसका हीरो अंधा है.हमने इसके लिए सुभाष डे को अनुबंधित किया है.जो कि जन्म से अंधे हैं और भारत के एकमात्र अंधे थिएटर निर्देशक हैं.उनका थिएटर ग्रुप है..‘‘ओनली देष’/द अदर वल्र्ड’’.इसके सभी 42 सदस्य अंधे हैं.उच्च कोटि का थिएटर करते हैं.उनकी पत्नी भी नेत्रहीन है.

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