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जन आवाज और सरकार

सरकार से किसान आंदोलन संभल नहीं पा रहा है. इसलिए वह अब देश की आवाज बंद करने पर उतारू हो आई है ताकि उस आंदोलन की खबरें लोगों व दुनिया को न मिले सकें. चीनी तौरतरीकों पर न केवल दिल्ली के चारों ओर बैठे किसानों को दुश्मनों की तरह माना जाने लगा है बल्कि उन का समर्थन करने वालों व उन के पक्ष में कुछ कहने वालों को देश का दुश्मन, समाजद्रोही, सरकार को गिराने वाला कहा जाने लगा है. किसान देश की रीढ़ की हड्डी हैं और कभी भी कोई राजा उन्हें नाराज कर के बचा नहीं है. सदियों से राजाओं की आय का स्रोत किसान ही रहे हैं. जिसे हम सोने की चिडि़या कहते हैं वह असल में किसान की पाली होती थीं. किसान से वसूले गए लगान के बल पर सेनाएं खड़ी की गईं, किसान परिवारों के बच्चों को हथियार दे कर सेना में रखा गया था.

यह बात दूसरी है कि पौराणिककाल से ही किसानों को शूद्र समझा गया है और उन्हें बिना पेट भरे काम करने वाला जानवर माना गया है. इस सरकार को वोट भगवा झंडे उठाने वाले किसानों के बेटों से ही मिले थे. मारपीट करने वाले गैंग किसानों के घरों से ही आए थे. अब जब किसान अपनी बात मनवाने के लिए पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश ही नहीं, पूरे देश में उठ खड़े हुए हैं तो पौराणिक सरकार तिलमिला उठी है और वह न केवल उन्हें जेलों में भर रही है, उन के धरनेस्थलों को जेलों जैसा बना रही है और उन के पक्ष की बात करने वालों को जेल में डालने की धमकी दे रही है. अमेरिकी सोशल मीडिया कंपनी ट्विटर तक को धमकी दी जा रही है कि अगर किसान समर्थकों की बातें कहने वालों के अकाउंट बंद नहीं किए तो उन्हें जेल में डाल दिया जाएगा. यह कोरी तानाशाही है और इस तानाशाही का असर किसानों के प्रति सरकारी रुख पर ही नहीं दिख रहा है, हर सरकारी फैसले में भी दिख रहा है. सरकार न किसी तरह का विरोध सह रही है, न लोकतांत्रिक संस्थानों की सुन रही है. वह स्कूलकालेजों, ज्यूडीशियरी, नौकरशाही के किसी सदस्य द्वारा उस से किसी तरह की असहमति जताने वाले को बख्श नहीं रही है. सरकार के कदम की आलोचना करने वाले पत्रकारों को जेल में डाला जा रहा है.

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नए कृषि कानूनों व किसानों के मुद्दे को ले कर इंसाफ की बात करने वालों को डरायाधमकाया जा रहा है. मौजूदा सरकार को समाजसुधार से कोई सरोकार नहीं है. उस का ध्येय केवल सत्ता पर पकड़ मजबूत रखना व अपने चाटुकारों और पूजाकारों को पनपने देने का रह गया है. यह एक भयंकर स्थिति पैदा कर रहा है क्योंकि इस का मतलब यह है कि देश में नए विचारों को कुचल दिया जाएगा. सरकार जन की आवाज पर पहरे लगा रही है. देश को आगे बढ़ने के लिए सैकड़ों सामाजिक सुधारों की आवश्यकताएं हैं, जबकि सरकार ने उन की ओर आंखें ही नहीं मूंद ली हैं, बल्कि उन्हें सरकार ने अपना विरोध मान लिया है. जो पुराणों में नहीं लिखा, वह मौजूदा सरकार को मंजूर नहीं. यह देश को 2,000 साल पीछे ले जाएगा जब मुट्ठीभर विदेशी आते और देश के बड़े हिस्से पर राज करने लगते थे.

हां, मंदिरों के रखवाले हर युग में किसी न किसी तरह रंग बदल कर जीवित रहे और आज मौजूदा पौराणिक सरकार के संरक्षण तले वे शेर बन रहे हैं. कट्टरता बेलगाम उत्तर प्रदेश के चरण सिंह विश्वविद्यालय में खुल्लमखुल्ला हिंदू पंचायत का आयोजन किया गया जिस में एक स्वामी आनंद स्वरूप ने खुल्लमखुल्ला कहा कि अगर मुसलमान भारत में रहना चाहते हैं तो उन्हें कुरान पढ़ना बंद करना होगा और नमाज बंद करनी होगी. इतना ही नहीं, उन्होंने यह कह कर हिंदुओं को उकसाया भी कि हिंदू जनता मुसलिम दुकानदारों से सामान न खरीदे ताकि वे धीरेधीरे हिंदू बन जाएं. अगर ऐसा कुछ कोई मुसलमान अपने प्रभाव के क्षेत्र में हिंदुओं के लिए कहता तो पुलिस 10 घंटे के भीतर न केवल उक्त मुसलमान वक्ता को गिरफ्तार कर चुकी होती, बल्कि हर आयोजक को भी गिरफ्तार कर चुकी होती और हरेक पर विभिन्न कानूनों की 10-12 धाराएं लगा चुकी होती.

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अभी इस मामले में केवल जांच हो रही है जो कभी पूरी नहीं होगी और स्वामी आनंद स्वरूप अगली सभा में सम्मानजनक ढंग से बुलाए जाएंगे. जाहिरी तौर पर मुसलमानों के लिए ऐसा कहा गया है लेकिन परोक्षरूप से ऐसा ईसाईयों, यहूदियों, सिखों, जैनियों और ईश्वर को न मानने वालों के लिए भी कहा जा रहा है. इस के पीछे कट्टर हिंदुओं का उद्देश्य यह है कि हिंदुओं के मन में एक खतरा पैदा कर के रखो ताकि सभी हिंदू कट्टरता को अपनाएं. वहीं, दूसरे धर्म वालों के प्रति नफरतभरी इन बातों का विरोध न किया जाना यह दर्शाता है कि देश की हिंदू जनता आज धर्मप्रचारकों के हाथों की कठपुतली बनी हुई है. और इन धर्मप्रचारकों की पूजापाठ, हवनयज्ञ, दान लेने में रुचि है, देश के निर्माण में नहीं, देश में सामाजिक सुधारों में नहीं, देश की औरतों को इज्जत व बराबरी का स्थान देने में नहीं.

हिंदू संगठनों ने तमाम छुट्टे सांड यानी धर्मप्रचारक छोड़ रखे हैं जो कुछ अति बोल कर जनता को डराते रहें कि देश में जो कुछ होगा वह लंबी दाढ़ी वालों के कहे अनुसार होगा जो भगवा वस्त्र पहनते हैं, चाहे वह शौल हो, जैकेट हो, कमीज हो या स्टौल. इन स्वामी महाराज ने सितंबर में कहा था कि हिंदू का अग्निदाह राशि में केवल काशी में हो सकता है यानी जीवन और मौत दोनों पर क्या किया जाए, यह फैसला धर्म करेगा, व्यक्ति नहीं. इन्हें उन ट्रस्टों पर भी आपत्ति है जो सरकार के अधीन हैं क्योंकि उस के आधार पर ट्रस्टी कोई ईसाई या शास्त्र द्वारा अमान्य व्यक्ति भी बनाया जा सकता है. ये स्वामी बैक टू बेसिक में विश्वास करते हैं, जबकि ये आधुनिक ट्विटर, इंटरनैट, फेसबुक का जम कर इस्तेमाल करने से परहेज नहीं करते जो पौराणिक युग में थे नहीं. वैसे तो ये भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने को कहते हैं जिस में समुद्रपार जाने की बंदिश हो, लेकिन वहीं वे 60 देशों में अपनी परिषद खोलना भी चाहते हैं, शायद इसलिए कि विदेशों में बसे हिंदू कट्टरपंथी काफी अमीर हैं.

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देश को आवश्यकता है कि सभी देशवासी मिल कर नया समाज बनाएं और प्राचीन व संकीर्णवाद समाज को त्यागें जिस में स्त्री को पापयोनि का कहा जाता है और वर्णव्यवस्था का बखान होता है. आज हमारे देश को कर्मठ हाथों की जरूरत है, पर इस तरह के लोग उन हाथों में कमंडल पकड़ा देना चाहते हैं. आरक्षण की हत्या भारतीय जनता पार्टी का बड़ा एजेंडा आरक्षण समाप्त करना रहा है. आज जो समर्थन उसे मीडिया, तथाकथित विद्वानों, नौकरशाही, व्यापारियों से मिल रहा है, उस के पीछे बड़ा कारण है कि वे सभी पौराणिक युग का जातिगत भेदभाव, जो जन्म पर आधारित है, सत्ता में बनाए रखना चाहते हैं और पिछड़े यानी ओबीसियों व दलितों यानी एससीएसटियों को असल सत्ता में बैठा नहीं देखना चाहते. ऐसा ही वे औरतों के साथ करना चाहते हैं कि हर जाति, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य की महिलाएं आगे बढ़ कर सत्ता में बैठें. अब सरकार ने प्रशासनिक सुधारों व कार्यकुशलता के नाम पर 3 जौइंट सैक्रेटरियों और 27 डायरैक्टरों को बिना यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन की परीक्षाओं को पास करने के केवल अनुभव व इंटरव्यू के आधार पर नियुक्त करने का फैसला किया है.

जो पिछड़ी व निचली जातियों के अफसर पदोन्नति के सपने देख रहे थे अब भूल जाएं कि इस सरकार में उन्हें सत्ता मिलेगी. हां, वेतन व मकान की सुविधा के टुकड़े चाहे मिलते रहें. मुख्य मंत्रालय जैसे कौमर्स मंत्रालय, राजस्व मंत्रालय और कृषि मंत्रालयों के अतिरिक्त सचिव अब सीधे प्रधानमंत्री की चाहत पर नियुक्त होंगे और उन्हें वही वरिष्ठता मिल जाएगी जो उस पद पर धीरेधीरे बढ़ते हुए लोगों को मिलती है. 27 बेहद कमाऊ मंत्रालयों में डायरैक्टर पोस्ट पर सीधे नियुक्तियां होंगी. कहने को विज्ञापन दिया जाएगा पर असल में 2 ही तय करेंगे कि कौन, कहां, किस मंत्रालय में जाएगा. यह साफ है कि इन 30 लोगों में इक्कादुक्का ही पिछड़ों या दलितों से होंगे. ये सब अपनेअपने विभागों में एक तरह से सुपर मंत्री होंगे क्योंकि इन की नियुक्ति नई होगी और इन्हें प्रधानमंत्री कार्यालय से आदेश मिलेंगे. सरकार पर शिकंजा कसने के साथ मंत्रियों को उसी तरह निष्क्रिय कर दिया जाएगा जैसे आज एक आम भाजपाई सांसद, मुख्यमंत्री या विधायक हैं. उन्हें बस, सरकार के इशारे पर ट्विटर पर बयान देना होगा. एक देश, एक कानून के साथ ‘एक ही शासक’ की ओर बढ़ रहा यह देश एक ही जाति को पूरी तरह बढ़ावा दे रहा है. कानून का दुरुपयोग बलात्कार के कानून का दुरुपयोग आजकल किसी पर भी किसी बच्ची को सैक्सुअली मोलैस्ट करने या यौन प्रताड़ना के नाम पर किया जा सकता है.

दिल्ली में एक व्यक्ति को छोड़ा नहीं गया हालांकि जमानत मिल गई. उस पर अपने एक जानकार की ढाई साल की बेटी की यौन प्रताड़ना का आरोप लगाया गया था. सीसीटीवी देखने पर पता चला कि यह आरोपी 2 मिनट में घर से वापस आ गया. जबकि 8 घंटे बाद बच्ची के पिता ने एफआईआर दर्ज कराई. बड़ी लड़कियों के बलात्कार की बात तो लोग छिपा जाते हैं क्योंकि उन के चरित्र पर धब्बा लग जाता है. और भारत तो ऐसा देश है जहां लड़कियों पर ही चरित्र के सारे धब्बे पौराणिक युगों से, राम के जमाने से लगते रहे हैं. यहीं अहल्या को पत्थर बनना पड़ा और सीता को घरनिकाला मिला था. इसलिए बच्चियों को ले कर किसी पर भी झूठे आरोप मढ़ना बहुत आसान है. ढाई साल की बच्ची से ओरल सैक्स करवाना, वह भी उस के अपने घर में जब घर वाले मौजूद हों, अटपटा ही लगता है. पर चूंकि ‘हथियार’ कानून ने दे दिया है तो इस का जम कर दुरुपयोग हो रहा है. बच्चों से यौनक्रियाएं करवाना कोई अत्प्रत्याशित बात नहीं है. सैकड़ों नहीं, लाखों बच्चे, जिन में लड़के भी शामिल हैं, जीवनभर बचपन में मिले दंश को ले कर जीते हैं.

आमतौर पर बच्चों के साथ यौनक्रिया घर का कोई नजदीकी ही करता है और इस अपराध में किशोर, गैरशादीशुदा, शादीशुदा और वृद्ध तक शामिल होते हैं. ऐसे में मातापिता का सतर्क रहना बहुत ही आवश्यक है. लेकिन इस कानून का बदला लेने का चलन चलने लगा तो इस का प्रभाव जाता रहेगा. यौनक्षुधा ऐसी है जिस को हजार तरीकों से निबटाया जाता है. अब तक सामाजिक या बायलौजिकल विद्वानों के पास इस का कोई हल नहीं है. अपराध करने पर दंड देना समस्या का हल नहीं, क्योंकि अपराधी यह काम आवेश में करता है जब भी उसे मौका मिले. और तब वह आगापीछा नहीं सोचता. इस का एक सरल हल यही है कि लोगों की भाषा में यौनजनित गालियां कम हों. यौनसंबंध जीवन को सुख देता है जब एकदूसरे का सहयोग हो. पर गाली के साथ जोड़ कर इसे बदला लेने या पाश्विकता के साथ जोड़ दिया गया है. वैसे भगवा सैल इस का भरपूर उपयोग अपने विरोधियों के खिलाफ ट्विटर, इंस्टाग्राम और फेसबुक पर करता है. सारे पढ़ेलिखे उच्च जातियों के लोगों के संस्कार तब आहत नहीं होते जब वे यौन अंगों, वे भी पराई औरतों के, का इस्तेमाल करते हैं.

Womens Day Special: पहचान-वसुंधरा ननद की शादी से इतनी ज्यादा खुश क्यों थी

वसुंधरा ने ननद रूपाली की शादी में देने के लिए जो पैसा जमा किया था, वह बेटे के बीमार पड़ने पर खर्च हो गया. लेकिन फिर भी वसुंधरा ने रूपाली को ऐसा उपहार दिया जिस की कल्पना तक सुकांत नहीं कर सकता था.  बड़ी जेठानी ने माथे का पसीना पोंछा और धम्म से आंगन में बिछी दरी पर बैठ गईं. तभी 2 नौकरों ने फोम के 2 गद्दे ला कर तख्त पर एक के ऊपर एक कर के रख दिए. दालान में चावल पछोरती ननद काम छोड़ कर गद्दों को देखने लगी. छोटी चाची और अम्माजी भी आंगन की तरफ लपकीं. बड़ी जेठानी ने गर्वीले स्वर में बताया, ‘‘पूरे ढाई हजार रुपए के गद्दे हैं. चादर और तकिए मिला कर पूरे 3 हजार रुपए खर्च किए हैं.’’आसपास जुटी महिलाओं ने सहमति में सिर हिलाया.

गद्दे वास्तव में सुंदर थे. बड़ी बूआ ने ताल मिलाया, ‘‘अब ननद की शादी में भाभियां नहीं करेंगी तो कौन करेगा?’’ ऐसे सुअवसर को खोने की मूर्खता भला मझली जेठानी कैसे करती. उस ने तड़ से कहा, ‘‘मैं तो पहले ही डाइनिंग टेबल का और्डर दे चुकी हूं. आजकल में बन कर आती ही होगी. पूरे 4 हजार रुपए की है.’’घर में सब से छोटी बेटी का ब्याह था. दूरपास के सभी रिश्तेदार सप्ताहभर पहले ही आ गए थे. आजकल शादीब्याह में ही सब एकदूसरे से मिल पाते हैं. सभी रिश्तेदारों ने पहले ही अपनेअपने उपहारों की सूची बता दी थी, ताकि दोहरे सामान खरीदने से बचा जा सके शादी के घर में.अकसर रोज ही उपहारों की किस्म और उन के मूल्य पर चर्चा होती. ऐसे में वसुंधरा का मुख उतर जाता और वह मन ही मन व्यथित होती.वसुंधरा के तीनों जेठों का व्यापार था. उन की बरेली शहर में साडि़यों की प्रतिष्ठित दुकानें थीं.

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सभी अच्छा खाकमा रहे थे. उस घर में, बस, सुकांत ही नौकरी में था. वसुंधरा के मायके में भी सब नौकरी वाले थे, इसीलिए उसे सीमित वेतन में रहने का तरीका पता था. सो, जब वह पति के साथ इलाहाबाद रहने गई तो उसे कोई कष्ट न हुआ.छोटी ननद रूपाली का विवाह तय हुआ तो उसे बड़ी प्रसन्नता हुई, क्योंकि रूपाली की ससुराल उसी शहर में थी जहां उस के बड़े भाई नियुक्त थे. वसुंधरा पुलकित थी कि भाई के घर जाने पर वह ननद से भी मिल लिया करेगी. वैसे भी रूपाली से उसे बड़ा स्नेह था. जब वह ब्याह कर आई थी तो रूपाली ने उसे सगी बहन सा अपनत्व दिया था. परिवार के तौरतरीकों से परिचित कराया और कदमकदम पर साथ दिया.शादी तय होने की खबर पाते ही वह हर महीने 5 सौ रुपए घरखर्च से अलग निकाल कर रखने लगी. छोटी ननद के विवाह में कम से कम 5 हजार रुपए तो देने ही चाहिए और अधिक हो सका तो वह भी करेगी. वेतनभोगी परिवार किसी एक माह में ही 5 हजार रुपए अलग से व्यय कर नहीं सकता. सो, बड़ी सूझबूझ के साथ वसुंधरा हर महीने 5 सौ रुपए एक डब्बे में निकाल कर रखने लगी. 1-2 महीने तो सुकांत को कुछ पता न चला. फिर जानने पर उस ने लापरवाही से कहा, ‘‘वसुंधरा,  तुम व्यर्थ ही परेशान हो रही हो. मेरे सभी भाई जानते हैं कि मेरा सीमित वेतन है. अम्मा और बाबूजी के पास भी काफी पैसा है. विवाह अच्छी तरह निबट जाएगा.’’  वसुंधरा ने तुनक कर कहा, ‘‘मैं कब कह रही हूं कि हमारे 5-10 हजार रुपए देने से ही रूपाली की डोली उठेगी. परंतु मैं उस की भाभी हूं. मुझे भी तो कुछ न कुछ उपहार देना चाहिए.’’‘‘जैसा तुम ठीक समझो,’’ कह कर सुकांत तटस्थ हो गए. वसुंधरा को पति पर क्रोध भी आया कि कैसे लापरवाह हैं. बहन की शादी है और इन्हें कोई फिक्र ही नहीं. इन का क्या? देखना तो सबकुछ मुझे ही है. ये जो उपहार देंगे उस से मेरा भी तो मान बढ़ेगा और अगर उपहार नहीं दिया तो मैं भी अपमानित होऊंगी, वसुंधरा ने मन ही मन विचार किया और अपनी जमापूंजी को गिनगिन कर खुश रहने लगी.जैसा सोचा था, वैसा ही हुआ.

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रूपाली के विवाह के एक माह पहले ही उस के पास 5 हजार रुपए जमा हो गए. उस का मन संतोष से भर उठा. उस ने सहर्ष सुकांत को अपनी बचत राशि दिखाई. दोनों बड़ी देर तक विवाह की योजना की कल्पना में खोए रहे. विवाह में जाने से पहले बच्चे के कपड़ों का भी प्रबंध करना था. वसुंधरा पति के औफिस जाते ही नन्हे मुकुल के झालरदार झबले सिलने बैठ जाती. इधर कई दिनों से मुकुल दूध पीते ही उलटी कर देता. पहले तो वसुंधरा ने सोचा कि मौसम बदलने से बच्चा परेशान है. परंतु जब 3-4 दिन तक बुखार नहीं उतरा तो वह घबरा कर बच्चे को डाक्टर के पास ले गई. 2 दिन दवा देने पर भी जब बुखार नहीं उतरा तो डाक्टर ने खूनपेशाब की जांच कराने को कहा. जांच की रिपोर्ट आते ही सब के होश उड़ गए. बच्चा पीलिया से बुरी तरह पीडि़त था. बच्चे को तुरंत नर्सिंग होम में भरती करना पड़ा.

15 दिन में बच्चा तो ठीक हो कर घर आ गया परंतु तब तक सालभर में यत्न से बचाए गए 5 हजार रुपए खत्म हो चुके थे. बच्चे के ठीक होने का संतोष एक तरफ था तो दूसरी ओर अगले महीने छोटी ननद के विवाह का आयोजन सामने खड़ा था. वसुंधरा चिंता से पीली पड़ गई. एक दिन तो वह सुकांत के सामने फूटफूट कर रोने लगी. सुकांत ने उसे धीरज बंधाते हुए कहा, ‘‘अपने परिवार को मैं जानता हूं. अब बच्चा बीमार हो गया तो उस का इलाज तो करवाना ही था. पैसे इलाज में खर्च हो गए तो क्या हुआ? आज हमारे पास पैसा नहीं है तो शादी में नहीं देंगे. कल पैसा आने पर दे देंगे.’’ वसुंधरा ने माथा ठोक लिया, ‘‘लेकिन शादी तो फिर नहीं होगी. शादी में तो एक बार ही देना है. किसकिस को बताओगे कि तुम्हारे पास पैसा नहीं है. 10 साल से शहर में नौकरी कर रहे हो. बहन की शादी के समय पर हाथ झाड़ लोगे तो लोग क्या कहेंगे?’’बहस का कोई अंत न था. वसुंधरा की समझ में नहीं आ रहा था कि वह खाली हाथ ननद के विवाह में कैसे शामिल हो. सुकांत अपनी बात पर अड़ा था. आखिर विवाह के 10 दिन पहले सुकांत छुट्टी ले कर परिवार सहित अपने घर आ पहुंचा. पूरे घर में चहलपहल थी.

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सब ने वसुंधरा का स्वागत किया. 2 दिन बीतते ही जेठानियों ने टटोलना शुरू किया, ‘‘वसुंधरा, तुम रूपाली को क्या दे रही हो?’’ वसुंधरा सहम गई मानो कोई जघन्य अपराध किया हो. बड़ी देर तक कोई बात नहीं सूझी, फिर धीरे से बोली, ‘‘अभी कुछ तय नहीं किया है.’’‘पता नहीं सुकांत ने अपने भाइयों को क्या बताया और अम्माजी से क्या कहा,’ वसुंधरा मन ही मन इसी उलझन में फंसी रही. वह दिनभर रसोई में घुसी रहती. सब को दिनभर चायनाश्ता कराते, भोजन परोसते उसे पलभर का भी कोई अवकाश न था. परंतु अधिक व्यस्त रहने पर भी उसे कोई न कोई सुना जाता कि वह कितने रुपए का कौन सा उपहार दे रही है. वसुंधरा लज्जा से गड़ जाती. काश, उस के पास भी पैसे होते तो वह भी सब को अभिमानपूर्वक बताती कि वह क्या उपहार दे रही है.वसुंधरा को सब से अधिक गुस्सा सुकांत पर आता जो इस घर में कदम रखते ही मानो पराया हो गया. पिछले एक सप्ताह से उस ने वसुंधरा से कोई बात नहीं की थी. वसुंधरा ने बारबार कोशिश भी की कि पति से कुछ समय के लिए एकांत में मिले तो उन्हें फिर समझाए कि कहीं से कुछ रुपए उधार ले कर ही कम से कम एक उपहार तो अवश्य ही दे दें. विवाह में आए 40-50 रिश्तेदारों के भरेपूरे परिवार में वसुंधरा खुद को अत्यंत अकेली और असहाय महसूस करती. क्या सभी रिश्ते पैसों के तराजू पर ही तोले जाते हैं. भाईभाभी का स्नेह, सौहार्द का कोई मूल्य नहीं. जब से वसुंधरा ने इस घर में कदम रखा है, कामकाज में कोल्हू के बैल की तरह जुटी रहती है.

बीमारी से उठे बच्चे पर भी ध्यान नहीं देती. बच्चे को गोद में बैठा कर दुलारनेखिलाने पर भी उसे अपराधबोध होता. वह अपनी सेवा में पैसों की भरपाई कर लेना चाहती थी. वसुंधरा मन ही मन सोचती, ‘अम्माजी मेरा पक्ष लेंगी. जेठानियों के रोबदाब के समक्ष मेरी ढाल बन जाएंगी. रिश्तेदारों का क्या है. विवाह में आए हैं, विदा होते ही चले जाएंगे. उन की बात का क्या बुरा मानना. शादीविवाह में हंसीमजाक, एकदूसरे की खिंचाई तो होती ही है. घरवालों के बीच अच्छी अंडरस्टैंडिंग रहे, यही जरूरी है.’परंतु अम्माजी के हावभाव से किसी पक्षधरता का आभास न होता. एक नितांत तटस्थ भाव सभी के चेहरे पर दिखाई देता. इतना ही नहीं, किसी ने व्यग्र हो कर बच्चे की बीमारी के बारे में भी कुछ नहीं पूछा. वसुंधरा ने ही 1-2 बार बताने का प्रयास किया कि किस प्रकार बच्चे को अस्पताल में भरती कराया, कितना व्यय हुआ? पर हर बार उस की बात बीच में ही कट गई और साड़ी, फौल, ब्लाउज की डिजाइन में सब उलझ गए. वसुंधरा क्षुब्ध हो गई. उसे लगने लगा जैसे वह किसी और के घर विवाह में आई है, जहां किसी को उस के निजी सुखदुख से कोई लेनादेना नहीं है. उस की विवशता से किसी को सरोकार नहीं है.वसुंधरा को कुछ न दे पाने का मलाल दिनरात खाए जाता. जेठानियों के लाए उपहार और उन की कीमतों का वर्णन हृदय में फांस की तरह चुभता, पर वह किस से कहती अपने मन की व्यथा. दिनरात काम में जुटी रहने पर भी खुशी का एक भी बोल नहीं सुनाई पड़ता जो उस के घायल मन पर मरहम लगा पाता.

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शारीरिक श्रम, भावनात्मक सौहार्द दोनों मिल कर भी धन की कमी की भरपाई में सहायक न हुए. भावशून्य सी वह काम में लगी रहती, पर दिल वेदना से तारतार होता रहता. विवाह धूमधाम से संपन्न हुआ. सभी ने बढ़चढ़ कर इस अंतिम आयोजन में हिस्सा लिया. विदा के समय वसुंधरा ने सब की नजर बचा कर गले में पड़ा हार उतारा और गले लिपट कर बिलखबिलख कर रोती रूपाली के गले में पहना दिया.रूपाली ससुराल में जा कर सब को बताएगी कि छोटी भाभी ने यह हार दिया है, हार 10 हजार रुपए से भला क्या कम होगा. पिताजी ने वसुंधरा की पसंद से ही यह हार खरीदा था. हार जाने से वसुंधरा को दुख तो अवश्य हुआ, पर अब उस के मन में अपराधबोध नहीं था. यद्यपि हार देने का बखान उस ने सास या जेठानी से नहीं किया, पर अब उस के मन पर कोई बोझ नहीं था. रूपाली मायके आने पर सब को स्वयं ही बताएगी. तब सभी उस का गुणगान करेंगे. वसुंधरा के मुख पर छाए चिंता के बादल छंट गए और संतोष का उजाला दमकने लगा.रूपाली की विदाई के बाद से ही सब रिश्तेदार अपनेअपने घर लौटने लगे थे. 2 दिन रुक कर सुकांत भी वसुंधरा को ले कर इलाहाबाद लौट आए. कई बार वसुंधरा ने सुकांत को हार देने की बात बतानी चाही, पर हर बार वह यह सोच कर खामोश हो जाती कि उपहार दे कर ढिंढोरा पीटने से क्या लाभ? जब अपनी मरजी से दिया है, अपनी चीज दी है तो उस का बखान कर के पति को क्यों लज्जित करना. परंतु स्त्रीसुलभ स्वभाव के अनुसार वसुंधरा चाहती थी कि कम से कम पति तो उस की उदारता जाने. एक त्योहार पर वसुंधरा ने गहने पहने, पर उस का गला सूना रहा. सुकांत ने उस की सजधज की प्रशंसा तो की, पर सूने गले की ओर उस की नजर न गई.वसुंधरा मन ही मन छटपटाती.

एक बार भी पति पूछे कि हार क्यों नहीं पहना तो वह झट बता दे कि उस ने पति का मान किस प्रकार रखा. लेकिन सुकांत ने कभी हार का जिक्र नहीं छेड़ा.एक शाम सुकांत अपने मित्र  विनोद के साथ बैठे चाय पी रहे  थे. विनोद उन के औफिस में ही लेखा विभाग में थे. विनोद ने कहा, ‘‘अगले महीने तुम्हारे जीपीएफ के लोन की अंतिम किस्त कट जाएगी.’’ सुकांत ने लंबी सांस ली, ‘‘हां, भाई, 5 साल हो गए. पूरे 15 हजार रुपए लिए थे.’’ संयोग से बगल के कमरे में सफाई करती वसुंधरा ने पूरी बात सुन ली. वह असमंजस में थी. सोचा कि सुकांत ने जीपीएफ से तो कभी लोन नहीं लिया. लोन लिया होता तो मुझ को अवश्य पता होता. फिर 15 हजार रुपए कम नहीं होते. सुकांत में तो कोई गलत आदतें भी नहीं हैं, न वह जुआ खेलता है न शराब पीता है. फिर 15 हजार रुपए का क्या किया. अचानक वसुंधरा को याद आया कि 5 साल पहले ही तो रूपाली की शादी हुई थी. वसुंधरा अपनी विवशता पर फूटफूट कर रोने लगी. काश, सुकांत ने उसे बताया होता. उस पर थोड़ा विश्वास किया होता. तब वह ननद की शादी में चोरों की तरह मुंह छिपाए न फिरती. हार जाने का गम उसे नहीं था. हार का क्या है, अपने लौकर में पड़ा रहे या ननद के पास, आखिर उस से रहा नहीं गया.

उस ने सुकांत से पूछा तो उस ने बड़े निरीह स्वर में कहा, ‘‘मैं ने सोचा, मैं बताऊंगा तो तुम झगड़ा करोगी,’’ फिर जब वसुंधरा ने हार देने की बात बताई तो सुकांत सकते में आ गया. फिर धीमे स्वर में बोला, ‘‘मुझे क्या पता था तुम अपना भी गहना दे डालोगी. मैं तो समझता था तुम बहन के विवाह में 15 हजार रुपए देने पर नाराज हो जाओगी,’’ वसुंधरा के मौन पर लज्जित सुकांत ने फिर कहा, ‘‘वसुंधरा, मैं तुम्हें जानता तो वर्षों से हूं किंतु पहचान आज सका हूं.’’वसुंधरा को अपने ऊपर फक्र हो रहा था, पति की नजरों में वह ऊपर जो उठ गई थी.

मध्यवर्ग के लिए निवेश के अवसर

लेखिका- मनीषा अग्रवाल

मध्यवर्ग के लिए निवेश के अवसर दिखने में अच्छे लगते हैं पर इन की असलियत छिपी रह जाती है. फिर भी जो प्रचार फाइनैंस कंपनियां करती हैं, इन के बारे में जानिए.    मध्यवर्ग के लोग अपनी सीमित आय तथा अधिक खर्च के कारण थोड़ी बचत ही कर पाते हैं. ऐसे में यह आवश्यक है कि वे अपनी बचत राशि को सुनियोजित तथा सुरक्षित तरीके से निवेश करें जो वृद्धावस्था में किसी आपातकाल की स्थिति में अथवा किसी और जरूरत के समय उन के काम आ सके. बेहतर तरीके से निवेश के लिए बेहतर प्लानिंग जरूरी होती है.निवेश के कुछ विकल्प निम्न हैं :

एफडी तथा आरडी : यह आम लोगों के बीच निवेश का सब से लोकप्रिय माध्यम है. बैंक या पोस्टऔफिस में कराई जाने वाली टैक्स सेविंग एफडी (फिक्स्ड डिपौजिट) तथा आरडी (रेकरिंग डिपौजिट) से आप निवेश के वक्त सैक्शन 80 सी के तहत टैक्स बचा सकते हैं. यह निवेश का सुरक्षित एवं गारंटीड रिटर्न का विकल्प है. इस पर मिलने वाले ब्याज पर आप को इनकम टैक्स स्लैब के अनुसार टैक्स चुकाना पड़ता है.

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सोना : प्राचीनकाल से भारतीय सोने में निवेश करते रहे हैं. महंगाई के खिलाफ निवेश का अच्छा यह माध्यम है. सोने को चोरी से बचाने के लिए गोल्ड बौंड या गोल्ड ईटीएफ (एक्सचेंज ट्रेडेड फंड) द्वारा भी हम सोने में निवेश कर सकते हैं. गोल्ड ईटीएफ में निवेश तथा भुनाना दोनों ही शेयर बाजार द्वारा होता है. जमीन या मकान खरीदने में रुपया लगाना एक आम तरीका है : निवेश के पहले उस मकान या जमीन के सभी कागजों का अच्छी तरह से निरीक्षण कर लें. इस के लिए बैंक से लोन भी आसानी से मिल जाता है.

रेगुलराइज्ड कालोनी में घर लेने पर, पहले घर पर, प्रधानमंत्री आवास योजना के अंतर्गत छूट भी मिलती है. पूरी तरह विकसित क्षेत्र की जगह सभी सुविधाओं से युक्त डैवलपिंग क्षेत्र में यदि घर या जमीन ली जाए तो बेहतर रिटर्न मिलने की संभावना रहती है. इस के अलावा किराए से आमदनी का विकल्प भी होता है.

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शेयर : इस में रिटर्न की निश्चित गारंटी नहीं होती है. किंतु अन्य विकल्पों की तुलना में लंबी अवधि में रिटर्न देने की क्षमता शेयरों में सब से अधिक होती है. बेहतर जानकारी के साथ सही समय पर अच्छे शेयरों में निवेश करना काफी मुनाफे वाला साबित हो सकता है.

डिबैंचर : यह निश्चित रिटर्न देने वाले ऋ णपत्र होते हैं जिन में 10,000 रुपए का भी निवेश कर सकते हैं. निवेश के पहले इन की क्रैडिट रेटिंग अवश्य देख लेनी चाहिए. इन में बैंक एफडी की तुलना में अधिक ब्याज मिलता है.

म्यूचुअल फंड : ये इक्विटी, हाइब्रिड, डेट आदि विभिन्न प्रकार के होते हैं. एसआईपी (सिस्टमैटिक इन्वैस्टमैंट प्लान) द्वारा इन में लंबे समय के लिए निवेश सुरक्षित माना जाता है. अपनी जोखिम लेने की क्षमता के अनुसार ही म्यूचुअल फंड का चयन करना चाहिए. इस में बेहतर रिटर्न मिलता है. म्यूचुअल फंड को बेच कर आप कभी भी अपना रुपया वापस ले सकते हैं.

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जीवन बीमा : इस में निवेश के साथ आप को लाइफ कवर भी मिलता है. अर्थात, आप के असमय निधन की स्थिति में यह आप के परिवार के लिए वित्तीय मददगार साबित होता है. साथ ही, जीवन बीमा में निवेश की राशि तथा मैच्योरिटी की राशि टैक्सफ्री होती है. ध्यान में रखने की बात यह है कि जो निश्चित राशि आप जीवन बीमा निधि के रूप में जमा कर सकते हैं तथा निकट भविष्य में उस की आवश्यकता नहीं हो, उतनी ही राशि का प्रीमियम रखें क्योंकि इस की सरैंडर वैल्यू काफी कम हो जाती है.

एनपीएस : नैशनल पैंशन स्कीम सरकार समर्थित सब से अच्छा सौल्यूशन है जिस में 18 से 60 साल का व्यक्ति निवेश कर सकता है. इस में 2 तरह के खाते होते हैं. एक में खातों से 60 साल की उम्र तक पैसे नहीं निकाल सकते हैं. दूसरा बचत खाते की तरह काम करता है. आवश्यक होने पर आंशिक निकासी संभव है. हालांकि, 60 वर्ष की उम्र के बाद भी इस में निवेश में बने रह सकते हैं. यह शेयर, एफडी, कौर्पोरेट बौंड फंड तथा सरकारी निवेश का मिलाजुला रूप है. पिछले कुछ वर्षों के दौरान इस ने बहुत अच्छा रिटर्न दिया है.

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पीपीएफ (पब्लिक प्रोविडैंट फंड): जिन लोगों के पास नौकरी या कारोबार का कोई संगठित ढांचा नहीं है, वे लंबी अवधि के सुरक्षित निवेश के लिए इसे चुन सकते हैं. 1.5 लाख रुपए तक के निवेश पर निवेशित राशि, पीपीएफ का ब्याज तथा मैच्योरिटी की रकम टैक्सफ्री है. सरकार समर्थित इस फंड का रिटर्न काफी अच्छा है. इस के लिए खाता बैंक या पोस्टऔफिस में खोला जा सकता है. इस में न्यूनतम15 वर्ष का लौकइन समय होता है. सो, लंबी अवधि के निवेश के लिए ही इस का चयन करें.एक बेहतर निवेशक के रूप में आप के लिए आवश्यक है कि बेहतर योजना के साथ अपनी जरूरतें आमदनी तथा जोखिम उठाने की क्षमता को परख कर ही निवेश करें. अपना निवेश कई जगहों पर विभाजित रखें ताकि आपातकाल की स्थिति में भी आप रुपया निकाल सकें. अपनी मेहनत से कमाए रुपए को भरोसेमंद निवेश विकल्प में ही निवेश करें.

 

Women’s Day Special -भाग 3 : यात्रान्त

सुबह की ठंडक में प्लेटफौर्म पर चहलपहल न के बराबर थी. लगभग सन्नाटा ही पसरा था. उस का कंपार्टमैंट प्लेटफौर्म से थोड़ा दूर आ कर रुका था. काले पड़ते पीपल के पेड़ों की डालियों से छन कर आता आकाश का फीका सा उजाला था. उस के नीचे लेटे भिखारियों का झुंड कटेफटे कम्बलों में खुद को सिकोड़ कर तल्लीनता से सोया हुआ था और उन के पास दुम दबाए लेटे कुत्तों का रहरह कर चींचींयाना जारी था. सन्नाटे में सुराख करती आवाजें…चाय अदरक वाली चाय…गरमागरम चाय… वहीं पास में झाड़ू मारता आदमी.

कितने गहरे होते है इंतजार के रंग, सोचतेसोचते सुजाता ने मानो अपने हाथों को सांत्वना देते हुए आपस में कस लिया था.

तभी सामने से अनिरुद्ध आता दिखाई दिया. थकी सी चाल में उम्र की गंभीरता उतर आई थी. सुजाता को देखते ही उस के चेहरे पर एकसाथ कई भाव आजा रहे थे. अनिरुद्ध ने जिन नजरों से उसे देखा, वह पल वहीं का वहीं ठहर गया था. एक रिश्ता जो कभी अपना था, एक इतिहास. साथ जिया उम्र का एक खूबसूरत हिस्सा. आज पहचान के दूसरे छोर पर खड़ा था. उस ठिठके हुए पल को धकेलने की हिम्मत दोनों में नहीं थी. दोनों को ही समझ नहीं आ रहा था कि किस तरह व्यवहार करें.

‘‘मुझे आने में देर तो नहीं हुई?’’

‘‘कैसे हो?’’

‘‘तुम बिलकुल भी नहीं बदलीं.’’

“तुम भी तो…’’ कहतेकहते रुक गई थी सुजाता. बदल तो पहले ही चुका था. पर सुदर्शन, हंसमुख, आकर्षक से अनिरुद्ध की जगह यह वाला अनिरुद्ध…कैसा लगने लगा था…बाल तेजी से कम हो चुके थे. झुकेझुके से कंधे. अनिरुद्ध की धंस चुकी आंखों के इर्दगिर्द खिंच आए वीरानगी के दायरों की भाषा को पढ़ने की नाकाम कोशिश करती सुजाता.

‘‘यह क्या हाल बना लिया है तुम ने, कहां थे इतने साल?’’

वह पल…लगा जैसे सदियों से वह इसी पल की ही तो प्रतीक्षा कर रही थी. गहरी सांसों के साथ रुके हुए आसूं छलक ही उठे थे.

अनिरुद्ध, बस, उसे एकटक देखता ही जा रहा था. वह बमुश्किल हाथ आए इन बेशकीमती पलों को मुट्ठी में बंद कर लेना चाहता था.

अपने प्रश्न का जवाब न पा कर सुजाता को कुछ झेंप सी होने लगी थी और वह दूसरी तरफ देखती हुई मानो हवा में उड़ते तिनकों को इकट्ठा करने का असफल प्रयत्न कर रही थी.

स्टेशन पर पसरे सन्नाटे का दिमाग में चल रहे कोलाहल से कोई वास्ता न था.

दोनों ही वर्तमान में नहीं थे. यादों की रील जैसे हाथ से छूट कर पीछे की ओर भाग रही थी. चुप्पीभरी इस बोझिलता को तोड़ते हुए अनिरुद्ध पूछ बैठा था, ‘‘कैसी हो सुजाता? मैं कहता था न कि तुम बिलकुल भी न बदलोगी.’’

‘‘नहीं, नहीं. देखो, मैं अब थोड़ी थोड़ी फैलने लगी हूं. बालों में सफेदी भी आने लगी है. इन 22 सालों में बहुतकुछ बदला है.’’

फीकी हंसी के साथ उस की आवाज कहीं सुदूर यादों के भंवर से अटकअटक कर आ रही थी और फिर इको करती हुई उन के बीच कहीं गुम हो गई थी.

‘‘मुझे विश्वास था सुजाता, तुम जरूर आओगी.’’

‘‘विश्वास??? कितना विश्वास था मुझे इस शब्द पर अनिरुद्ध,’’  न चाहते हुए भी गुस्सा छलक ही पड़ा था जबकि उम्र तो अपनी गति से चल ही रही थी.

‘‘सच, तुम जरा भी नहीं बदली,’’ हताश सा अनिरुद्ध बुदबुदा उठा था.

‘‘हां, मैं जरा भी नहीं बदली. पर तुम? मुझे कितनी सरलता से झाड़पोंछ कर खुद से अलग कर दिया तुम ने. तुम्हारा प्यार दिखावा मात्र था. क्या मेरे प्रति कोई दायित्व नहीं था तुम्हारा. यह प्रश्न एक लावे की तरह मेरे जेहन में हर वक्त उबलता रहता है. जब भी मैं अकेली होती हूं, तुम्हारी याद…न याद करने से परे का हर पल सालता दर्द कभी चेतना से मिटा ही नहीं. मेरे जीवन के इस चमकीले एहसास को अंधेरे में बदलने का क्या हक था तुम को? एक तुम्हीं थे जो उस वक्त मेरी जिंदगी में रोशनी या अंधेरे का होना निश्चित या निर्धारित कर सकते थे. फिर क्यों तुम ने मुझे अंधेरे के स्याह गर्त में धकेल दिया था?’’

‘‘उसी का फल भुगत रहा हूं सुजाता. मैं कैंसर की आखिरी स्टेज के करीब हूं. आंतों का यह कैंसर नासूर की तरह मेरे शरीर पर तेजी से फैल रहा है. तुम्हें दिया हुआ दर्द अंदर ही अंदर तोड़ रहा है मुझे. तुम से मिलने के बाद शायद मरना आसान हो जाए. जैसा सोचा था वैसा जीवन जी नहीं पाया. यह मेरी नाकामी ही थी या फिर मेरी तकदीर जो मुझे हर बार सूरज दिखा कर परछाई थमा देती थी, जिस में मुझे मेरा ही अक्स जकड़ा हुआ बेबस व धूमिल नजर आता था. हो सके तो मुझे जीवन के इस आखिरी पड़ाव पर माफ कर देना. सिवा दुखों के कुछ भी तो नहीं दे पाया मैं,’’ कहते हुए अनिरुद्ध ने भरी आंखों व कांपते हाथों से उस का बेजान पसीजा हुआ हाथ थाम लिया था.

‘‘अनिरुद्ध, तुम ने मुझे बहुतकुछ दिया है, मेरे जीने की वजह. अगर वह वजह न होती तो मैं कब की इस दुनिया को अलविदा कह चुकी होती, हमारी बेटी शुभि.”

‘‘क्या?????’’

स्तब्ध, चकित, लुटापिटा सा खड़ा अनिरुद्ध. उस का सिर घूम गया, लगा, जैसे किसी ने उसे बालों से पकड़ कर उस के चेहरे को जलते अलाव के पास रख दिया हो. लड़खड़ा कर गिर ही गया होता अगर सुजाता ने संभाला न होता.

‘‘हां अनिरुद्ध, सिवा शादी के कोई और विकल्प नहीं था मेरे पास. इसीलिए दौड़ी चली आई थी तुम्हारे पास. और तुम ने एक बार भी नहीं पूछा कि आखिर ऐसी क्या बात है जो तुम अपने स्वभाव के विपरीत जा कर इतना बड़ा कदम उठाना चाहती हो?’’

‘‘तुम बता भी तो सकती थी सुजाता,’’ अनिरुद्ध की थकी आवाज में एक तल्ख़ी, एक तेजी आ चुकी थी.

‘‘क्या बताती, तुम से हमारे होने वाले बच्चे की भीख मांगती? तुम ने तो कह ही दिया था कि अब हम सिर्फ मित्र हो सकते हैं. सो, एक पिता का अधिकार कैसे मांगती तुम से. निखिल ने बिना कुछ कहे ही खुशीखुशी अजन्मे बच्चे को अपना लिया था. जो प्यारदुलार उसे तुम से मिलना चाहिए था वह उसे निखिल ने दिया और मैं ने तब भी सिर्फ प्रेम को ही चुना था और आज तक उसी एहसास को पूरी ईमानदारी से निभा रही हूं. तुम बेशक मेरे लिए कभी नहीं थे पर मेरा प्यार तुम्हारे लिए हमेशा रहेगा. अब तुम से कोई उम्मीद, शिकायत भी नहीं. तुम ने उसी पल से अकेला छोड़ दिया था मुझे. कोई खोजखबर लेने की चेष्टा तक नहीं की तुम ने. पर मैं ने कभी भी तुम्हें इस हाल में नहीं चाहा था. तुम्हारा अहित तो मैं सपने में भी नहीं सोच सकती. तुम्हें शायद यह सब कभी भी न बताती पर आज इन हालात में तुम्हारा यह सब जानना जरूरी था.’’

22 बरस की चुप्पी नम हो कर रिसने लगी थी.

‘‘अब तो बड़ी हो गई होगी मेरी शुभि. कैसी दिखती है?’’

‘‘अब तो काफी बड़ी हो गई है, पूरे 21 साल की. जब हंसती है तो तुम्हारी ही तरह उस के गालों पर गड्ढे पड़ते हैं, वही तुम्हारा वाला बेपरवाह अंदाज. ढेरों बातें. एक बार जो बोलती है तो रुकती नहीं. उसे भी कौफी ही पसंद है. आदतों में बिलकुल तुम पर गई है शुभि.‘‘

बतातेबताते मुसकहट सी खिल गई थी सुजाता के चेहरे पर. और अनिरुद्ध का मन भीग गया था. भर्राई आवाज में सारा लाड़दुलार समेट कर इतना ही कह पाया था, ‘‘सुजाता, मेरी शुभि को एक अच्छा इंसान जरूर बनाना.’’

‘‘हां अनिरुद्ध, उस में सारे गुण अपने पिता निखिल के ही आए हैं, जीवन में वह जो चाहेगी वह बनेगी. पर मैं उसे कभी भी तुम्हारी तरह कायर इंसान नहीं बनने दूंगी.’’

सुजाता की तेज और निर्भीक दृष्टि का सामना कर पाना अब अनिरुद्ध के लिए मुश्किल हो गया था.

उधर ट्रेन की सीटी उम्र की दूरी को नापते तमाम जरूरी व गैरजरूरी प्रश्नों को समेटने का इशारा कर रही थी. स्टेशन का पसरा सन्नाटा अब उन दोनों के बीच जगह बनाने लगा था. सुजाता सधे मजबूत कदमों से वापस अपने कंपार्टमैंट की ओर पलटने लगी थी. बर्थ तक आतेआते सुजाता बेहद भावुक हो उठी थी.

अधूरे रिश्तों में अपूर्णता होते हुए भी आखिरकार कुछ बचा रह ही जाता है. किसी दर्द के भीतर तक हो कर गुजर जाने से वह भोग्य बन जाता है…बह जाता है… जब टीसें रिस जाती हैं तो जीवन आसान हो जाता है.

दो हाथ अलगअलग दिशाओं से दूर तक हिल रहे थे फिर कभी न मिलने के लिए.

 

 

Women’s Day Special -भाग 2 : यात्रान्त

अनिरुद्ध के प्रेम में पागल सुजाता ने निखिल से शादी न करने के लिए घरवालों का कितना विरोध किया था. तर्कवितर्क किए थे. एक लड़की के पास जितनी भी सामर्थ्य होती है उतनी ही सीमा के भीतर रह कर अपनी अनिच्छा जताई थी उस ने. पर कर भी क्या लिया था सुजाता ने. जब उस ने अनिरुद्ध से भाग कर शादी करने के लिए कहा था तब कितनी आसानी से अनिरुद्ध ने कह दिया था, ‘अभी अपनी महत्त्वाकांक्षाओं और सपनों को छोड़ कर अगर तुम से शादी कर भी लूंगा तो जिंदगीभर अफसोस रहेगा.’

भारी सा मन लिए सुजाता ने अपनी बायीं ओर देखा. कंपार्टमैंट में और भी बच्चे थे. रात के एक बजे भी कुछ मोबाइल में सिर गड़ाए हुए थे तो कुछ बेवजह मस्ती के मूड में थे. 5 लड़के और एक लड़की…कोई झिझकशरम नहीं. व्यस्तता का दिखावा करने के लिए सुजाता की आंखें मुस्तैदी से किताब पर चाकचौबंद थीं और सभी इंद्रियां कानों में समाहित हो गई थीं. उन की बिंदास बातचीत से सुजाता को यह अंदाजा हो गया था कि उन में से 4 लड़के दिल्ली में आयोजित होने वाली रैली ‘गे दिवस’ में भाग लेने जा रहे थे. स्त्रीलिंगपुल्लिंग की जद्दोजेहद से परे ये कमिटेड लोग विभिन्न मुखौटों व रंगबिरंगे कपड़े पहन कर मार्च करेंगे और अपने हक के लिए समर्थन मांगेंगे. फिर भी इन्हें दुनिया से ज्यादा अपने परिवार से लड़ना होगा. जमाने के परिवर्तन का एहसास प्रतिदिन होने वाली इन छोटीबड़ी घटनाओं से ही होता है. आज की युवा पीढ़ी अब किसी के नियंत्रण में नहीं, बल्कि आजाद रहना चाहती है. उम्र की सीढ़ियां सभी चढ़ रहे हैं, मगर अलगअलग, अपनीअपनी सोच के दायरों में सीमित.

सुजाता की आंखों में लाइट पड़ रही थी. नींद न आने का फिलहाल यही कारण उसे समझ आ रहा था. चादर के ऊपर कंबल ओढ़ कर उस ने करवट ले ली थी. लेकिन नींद थी कि कोसों दूर कहीं और ही घेरा डाले बैठी थी.

कितना विश्वास था उसे अनिरुद्ध पर. कितनी आहत हुई थी. इस अनमोल एहसास की उम्र इतनी कम होगी, सोचा भी नहीं था. पर यह तो हो चुका था जब अनिरुद्ध ने कहा था कि उस ने मित्रता चुन ली है और आगे भी हम मित्र की तरह ही मिलेंगे.

और प्यार, उस का क्या? सुजाता स्तब्ध रह गई थी. कम से कम वह तो ऐसा नहीं कर सकती थी. उस ने तो प्रेम किया था, सच्चा, निस्वार्थ भाव से पूर्ण समर्पित हो कर.

अनिरुद्ध के इनकार के बाद सुजाता का मन उस के वश में कहां था. खुद को संयमित और नियंत्रित करना मुश्किल हो गया था. कितना रोई थी, गुस्से में, मजबूरी में सोचती कि अपनी जिंदगी के साथ जुआ खेलने के लिए वह ही दोषी थी. कहां गया वह सच कि कोई उस के प्रेम में पागल है. क्या कमी थी उस में, जो अनिरुद्ध उस से विमुख हो कर दूसरी दिशा में मुड़ गया था. उस का अहं लहूलुहान था. पर जब भी उस ने सहारा चाहा, निखिल को हमेशा खड़ा पाया. निखिल से उसे आज भी कोई शिकायत नहीं थी. बिना कोई सवाल किए जीवन के सभी सुख दिए थे उस ने.

थोड़ी देर बर्थ पर लेटेलेटे सुजाता ने आसपास की स्थिति का निरीक्षण किया. ट्रेन कितनी हिलती है, घर से निकले हुए उसे पूरे 5 घंटे हो चुके थे. इस उम्र में शरीर के प्राकृतिक बहाव को रोकना भी बेवजह डैंजर जोन में घुसने जैसा होता है. नैपकिन से हाथ पोंछती हुई जब सुजाता अपनी बर्थ की ओर लौट रही थी तब दरवाजे के पास ही खड़े 2 लड़के सिगरेट के छल्ले उड़ाने में संलिप्त थे. दोनों बड़ी ही ढिठाई से उस की ओर देख कर हंस रहे थे. वह कुढ़ कर रह गई थी. ‘बदतमीज बच्चे’… जेहन में उस के अपनी 21 साल की बेटी की तसवीर कौंध गई थी, वह भी अकेली ट्रेन में या होस्टल आतेजाते वक्त ऐसी ही परिस्थितियों का सामना करती होगी. अपने आप से रूठी हुई सी सुजाता की चाल में तेजी आ गई थी. तभी दरवाजा खटाक से उस की कुहनी से जा टकराया और वह दर्द को इग्नोर करती हुई अपनी बर्थ पर आ कर लेट गई थी.

अचानक ही उसे याद आया और वह सामने की बर्थ पर लेटी हुई उस लड़की से पूछ बैठी थी, ‘‘गाजियाबाद कितने बजे आएगा?‘‘

‘‘6 बजे. पर आप को तो दिल्ली जाना है न? दिल्ली तो 7 बजे पहुचेंगे.”

झिझकते हुए जवाब दिया सुजाता ने, ‘‘कोई मिलने आएगा.‘‘  हालांकि इस ‘कोई’ शब्द को बोलने के लिए अच्छाखासा समय व स्ट्रैस पड़ा था उस पर.

6 बजे का अलार्म लगा कर सुजाता ने आंखें मूंद ली थीं. ‘कितने भी साल बीत जाएं, पर मैं तुम्हारी आंखों के इस लहराते समंदर को भीड़ में भी पहचान लूंगा.’

‘क्या वह पहचान पाएगा. इन आंखों की पीड़ा को अब 22 साल बाद भी?’ सोचतेसोचते न जाने कब उसे नींद ने आ घेरा था.

अलार्म के बजने से वह लगभग हड़बड़ाती, चादर फेंकते हुए पर्स दबाए गेट की तरफ दौड़ पड़ी थी. ट्रेन प्लेटफौर्म पर खड़ी हो चुकी थी. सुजाता का दिल तेजी से धड़कने लगा था. उस के सामने होने की तैयारी तो वह पिछले 15 दिनों से कर रही थी. अब बस होना था. अपने को साध कर सुजाता कंपार्टमैंट की सीढ़ियां उतरने लगी.

Women’s Day Special -भाग 1 : यात्रान्त

सुजाता ने खिड़की से झांक कर बाहर देखा. रातभर का सफर था लखनऊ से दिल्ली का. नीचे की बर्थ पा कर वह संतुष्ट थी. इस उम्र में ऊपर की बर्थ पर चढ़ने की सिरदर्दी से मुक्ति मिली.

थर्ड एसी के उस कंपार्टमैंट में ठंड न के बराबर थी. फिर भी सुजाता ने हलके से स्टौल में खुद को समेट लिया था. यह मौसम एकसार क्यों नहीं रहता. सारी ऋतुओं में एक 5वां मौसम प्यार का भी होता, तो जीवन कितना आसान होता.

दिल्ली में सैमिनार अटेंड करना तो बस एक बहाना था. दरअसल, गाजियाबाद का आकर्षण उसे खींचता हुआ दिल्ली ले जा रहा था. यह 5वां मौसम शुरू हुआ तो था सुजाता की जिंदगी में और अब तक वह निश्चिंत थी कि कुछ भी नही समेटनासहेजना. फिर यह क्या और क्यों हो रहा था. उसे अपने ही मन की फिक्र होने लगी थी जो कि अब बेलगाम होने लगा था.

पूरे 22 वर्षों बाद अचानक अनिरुद्ध का फोन का आना,   ‘बस, एक बार मिलना चाहता हूं, आओगी?’ और सुजाता अनिरुद्ध की आवाज सुनते ही संभलने की तमाम कोशिशों के बावजूद खुद को संभाल नहीं पाई थी क्योंकि एहसास तो बदले नहीं जा सकते. प्रेम का होना सिर्फ भावनाओं का होना ही नहीं होता. यह आप के अस्तित्व में होने का भी सब से प्रबल प्रमाण होता है.

जिंदगी जब आप को शुरू से ही निहत्था कर दे तो आप को पता होता है कि जीवन के इस महासागर में आप की हैसियत एक तिनके की भी नहीं. बहाव के अनुरूप ही आप की जीवनयात्रा के पड़ाव तय होते हैं और इस तिनके ने कैसे अनिरुद्ध को अपना सहारा, अपना सबकुछ मान लिया था.

ट्रेन अपने गंतव्य की ओर धीरेधीरे सरकने लगी थी. इस से पहले कि सुजाता कुछ और सोच पाती, उस के सामने वाली बर्थ पर वही लड़की आ कर बैठ गई थी जिस को थोड़ी देर पहले ही स्टेशन पर लड़कों के बीच अकेली देख कर अपनी ओवर प्रोटैक्टिवनैस के चलते उस के पास जा कर एकाएक बोल उठी थी, ‘’घबराओ मत, मैं हूं तुम्हारे साथ.’’ आत्मविश्वास से लबालब वह झांसी की रानी मुसकराती हुई बोल पड़ी थी, ‘‘डर और इन से, आंटी, जमाना बदल चुका है. अब हमारे डरने के दिन गए. जूडो में ब्लैक बैल्ट हूं. हमारे नाजुक हाथों में चूड़ियों की जगह फौलाद उतर आया है.’’

नजरें मिलते ही दोनों मुसकरा उठी थीं. मर्दाना लिबास पहने गोरीचिट्टी, पारदर्शी त्वचा, कंधे तक कटे काले गहरे बाल और हाई हील. बातों ही बातों में उस ने बड़ी ही सहजता के साथ बताया कि वह और आरव एक ही कंपनी में काम करते हैं. पिछले 6 महीनों से लिवइन में रह रहे हैं. घरवालों को पता है और अब वे आरव से शादी करने के लिए दबाव डाल रहे हैं.

’’यह तो अच्छी बात है. तुम्हें शादी कर लेनी चाहिए.’’

’’आंटी, हम साथ जरूर रहते हैं और प्यार, बस, उतना ही है कि जब हम एकदूसरे के साथ नहीं निभा पाएंगे तो बिना शिकायत के अलग भी हो जाएंगे. हम ने आपस में कोई कमिटमैंट थोड़े ही किया है. हम दोनों ही आजाद हैं. वैसे भी, जिंदगी एक ही बार मिलती है. क्यों न उस को जी भर कर जिया जाए.’’

यह कहते हुए वह लड़की हंस दी थी और सुजाता को वह हंसी बेहद ही नागवार लगी थी.

समय सच में बदल रहा है. अपने मूल स्वभाव के बदलते स्वरूप में उसे एक 5वें मौसम की आहट सुनाई दे रही थी. अनायास ही सुजाता सहम गई थी. उस की अपनी बेटी भी तो यही सब…नहीं…नहीं. ऐसे संस्कार थोड़े ही दिए हैं उस ने. पर संस्कारों का क्या, वे तो आयात भी किए जा सकते हैं. घर की चारदीवारी से बाहर उड़ते बच्चे घोसलों से ताज़ाताज़ा उन्मुक्त हुए पक्षियों की तरह बेपरवाह उड़ानें भरते हैं.

एक हमारा समय था, तब आज की यह सोच, यह जिद कहां हुआ करती थी. जब भी अनिरुद्ध को देखती, तो मन बसंत सा खिल उठता था. अनिरुद्ध ही वह पहला इंसान था जिस ने उस के मन को पढ़ लिया था. हवा में नमी की तरह था उस का वजूद. जब भी अनिरुद्ध कहता, ‘मेरा पहला और आखिरी प्यार तुम ही रहोगी. तुम्हारी बोलती आंखें, खिला हुआ चेहरा, हंसती हो तो और भी आकर्षक लगती हो.’ तब सुजाता शरमा कर अपनी जवां मोहब्बत पर निहाल हुई जाती थी.

पार्थ समथान शॉकिंग खुलासा, एकता कपूर की वजह से छोड़ा था ‘कसौटी जिंदगी की 2’

टीवी जगत के मशहूर कलाकार पार्थ समथान की गिनती , जाने माने कलाकार में कि जाती है. इनके चाहने वाले की संख्या भी काफी ज्यादा है. वह अपने किरदार में भी आसानी से बैठ जाते हैं. पार्थ समथान का म्यूजिक वीडियो ‘पहले प्यार का पहला गम’ कुछ दिनों पहले ही रिलीज हुआ है.

इस गाने ने म्यूजिक चार्ट में खूब धमाल मचाया है. कुछ दिनों पहले पार्थ समथान को लेकर खबरे आ रही थी कि वह बॉलीवुड में भी अपना किस्मत अजमाना चाहते हैं. खैर अगर बात कि जाए पार्थ समथान के फैंस की तो उनके मन में बार- बार एक सवाल जरुर आता है कि उन्होंने सीरियल कसैटी जिंदगी को क्यों अलविदा कहा.

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इसके साथ ही यह भी खबर आ रही थी कि पार्थ समथान और एकता कपूर के बीच कुछ अनबन हुआ था. अब पार्थ समथान ने इस बात से पर्दा उठा दिया है कि आखिरकर उन्होंने इस शो को क्यों छोड़ा है. पार्थ ने एक इंटरव्यू में बात करते हुए कहा कि जैसे ही उनके 2 साल पूरे हुए वह अनुराग के किरदार को निभा- निभा कर बोर हो गए थें. जिसके बाद उन्होंने यह शो छोड़ने का निर्णय लिया.

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पार्थ ने बताया कि वह ऐसे कलाकार नहीं है जो 4,5 साल तक एक ही किरदार को निभाएं. वहीं पार्थ ने इस बात का भी खुलाका किया कि वह एक कलाकार के तौर पर अलग- अलग किरदार को जीना चाहते हैं.

 

बिग बॉस के एक्स कंटेस्टेंट को हुआ कोरोना, लोगों से की ये अपील

भारत के तेज गेंदबाज और बिग बॉस के एक्स कंटेस्टेंट सलिल अकोला का कोरोना वायरस रिपोर्ट पॉजिटीव आय़ा है. जिसकी जानकारी उन्होंने सोशल मीडिया के जरिए अपने फैंस को दिया है. खास बात यह है कि आज अभिनेता का जन्मदिन भी है, लेकिन वह आज के दिन भी अस्पताल में हैं.

अस्पताल के बिस्तर से एक तस्वीर साझा करते हुए एक्टर ने लिखा है कि कल मेरे जन्मदिन पर कोरोना वायरस ने गिरफ्त कर लिया, इस वायरस से गुजरना काफी ज्यादा डरावना है ऐसे में मुझे आप सबके आशीर्वाद की जरुरत है.

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जल्द वापसी करूगां ,सलिल अंकोला आज 53 साल के हो गए हैं. वह कुछ वक्स से छोटे पर्दे से दूर रहे हैं लेकिन कुछ समय पहले उन्होंने मुंबई क्रिकेट टीम के सीनियर सिलेक्शन समिति के तौर पर ज्वाइन किया है.

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सलिल अकोला ने कोरा कागज , रिश्ते प्यार का बंधन और सावधान इंडिया जैसे कई टीवी शोज में काम किया है. इसके अलावा संजय दत्त की फिल्म कुरुक्षेत्र में भी काम किया है.

वहीं आरबाज की फिल्म तेरा इंतजार में भीकाम किया था, जिसमें लोगों ने उन्हें काफी ज्यादा पसंद किया था. बिग बॉस सीजन में भी नजर आएं थें, लेकिन वह वहां ज्यादा दिनों तक टिक नहीं पाएं थें.

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हालांकि खबर है कि क्रिकेट में वापसी के बाद वह इसी पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं. खैर उनके फैंस उनकी वापसी का इंतजार कर रहे हैं.

क्या खोया क्या पाया: मौसी जी के अचानक आने से लोग घबरा क्यों गए

धूप का टुकड़ा बरामदे में प्रवेश कर चुका था. सूरज की कोमल किरणों के स्पर्श का अनुभव करते हुए रविवार की सुबह, अखबार पढ़ने के लोभ से मैं कुरसी पर पसर गई. अभी मैं ने अखबार खोला ही था कि दरवाजे की घंटी बज उठी.

दरवाजे पर मौसीजी को देख कर मैं ने लपक कर दरवाजा खोला.

मौसीजी के इस तरह अचानक आ जाने से मैं किसी बुरी आशंका से घबरा गई थी. पर वे काफी खुश नजर आ रही थीं.

‘‘बात ही कुछ ऐसी है, स्नेहा. मैं खुद आ कर तुम्हें खबर देना चाहती थी. राघव को हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में दाखिला मिल गया है.’’

‘‘अरे वाह, मौसीजी, बधाई हो.’’

मौसीजी के बेटे राघव की सफलता पर मैं खुशी से झूम उठी थी. राघव भैया इंजीनियरिंग की पढ़ाई समाप्त कर चुके थे, लेकिन उन की जिद थी कि एमबीए करेंगे तो हार्वर्ड से ही. हार्वर्ड जैसे विश्वविद्यालय में प्रवेश पाना हर किसी के बस की बात नहीं है. पर मनुष्य यदि ठान ले तो क्षमता और परिश्रम का योग उसे मंजिल तक पहुंचा कर ही दम लेता है.

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‘‘चलती हूं, ढेर सारा काम पड़ा है,’’ कह कर मौसीजी उठ खड़ी हुईं. मैं मौसीजी को जाते हुए देखती रही. और मेरा मन अतीत की गहराइयों में डूबता चला गया.

मेरी मां और मौसीजी बचपन की सहेलियां थीं. इत्तेफाक से शादी के बाद दोनों को ससुराल भी एक ही महल्ले में मिली. बचपन की दोस्ती अब गाढ़ी दोस्ती में बदल गई थी. मां की जिंदगी में अनगिनत तूफान आए. जबजब मां विचलित हुईं तबतब मौसीजी ने मां को सहारा दिया. उन के द्वारा कहे गए एकएक शब्द, जिन्होंने हमारा पथप्रदर्शन किया था,

मुझे आज भी याद हैं.

राघव भैया और मैं एक ही स्कूल में पढ़ते थे. भैया मेरा हाथ पकड़ कर मुझे स्कूल ले जाते और लाते थे. सगे भाईबहनों सा प्यार था हम दोनों में.

मैं चौथी कक्षा में पढ़ रही थी कि एक दिन पापा का स्कूटर एक गाड़ी की चपेट में आ गया था. दुर्घटना की खबर सुनते ही मौसीजी दौड़ी चली आईं. बदहवासी की हालत में पड़ी मां के साथ साए की तरह रहीं मौसीजी. कई रिश्तेदार पापा को देखने आए, पर सब सहानुभूति जता कर चले गए. किसी ने भी आगे बढ़ कर मदद नहीं की. पैसा पानी की तरह बहाने के बावजूद पापा को बचाया नहीं जा सका.

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पापा की असामयिक और अप्रत्याशित मृत्यु ने मां को तोड़ कर रख दिया था. इस कठिन घड़ी में मौसीजी ने मां को आर्थिक संबल के साथसाथ मानसिक संबल भी प्रदान किया था. सच ही कहा गया है कि मुसीबत के समय ही इंसान की सही परख होती है.

जैसे ही मां थोड़ा संभलीं

उन्होंने पापा की सारी जमा पूंजी निकाल कर मौसीजी के पैसे चुकाए. मौसीजी नाराज हो गई थीं, ‘शीला, जिस दिन तुझे नौकरी मिले, मेरे पैसे लौटा देना.’

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‘तुम ने जो मेरे लिए किया है, जया, उसे मैं कभी नहीं चुका सकती. कल फिर जरूरत होगी तो तुम से ही मांगूंगी न?’ कहा था मां ने. मां के बारबार आग्रह करने पर भी मौसीजी ने नहीं बताया कि उन्होंने पैसों का जुगाड़ कैसे किया था. बाद में जौहरी से मां को पता चला कि मौसीजी ने पैसों के लिए अपने गहने गिरवी रख दिए थे.

अब भविष्य का प्रश्न मां के सामने मुंहबाए खड़ा था.

एक मौसीजी का ही आसरा था. पर जल्द ही मां को पापा की जगह पर नौकरी मिल गई. मां के पास डिगरियां तो काफी थीं पर उन्होंने कभी नौकरी नहीं की थी, इसलिए उन में आत्मविश्वास की कमी थी. उन की घबराहट को भांप कर मौसीजी ने उन का मनोबल बढ़ाते हुए कहा था, ‘अपनी काबिलीयत पर भरोसा रखो, शीला. अकसर हम अपनी क्षमताओं पर अविश्वास कर उन का सही मूल्यांकन नहीं कर पाते हैं. अपनेआप पर विश्वास कर के हिम्मत जुटा कर आगे बढ़ने पर दुनिया की कोई ताकत हमें कामयाब होने से नहीं रोक सकती. देखना एक दिन ऐसा आएगा जब तुम सोचोगी कि तुम नाहक ही परेशान थीं, तुम तो अपने सभी सहकर्मियों से बेहतर हो.’

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मौसीजी की बातों का गहरा असर पड़ा था मां पर. उस दिन के बाद मां ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा. मौसीजी ने मां को मेरी ओर से भी निश्ंिचत कर दिया था. मां की अनुपस्थिति में मैं मौसीजी के घर पर ही रहती थी. मौसीजी के घर, मेरी खुशहाल परवरिश से तृप्त, मां ने अपनेआप को काम में डुबो दिया था. मां की विद्वत्ता, सत्यनिष्ठा और कर्मठता ने रंग दिखाया .

एकएक सीढ़ी चढ़ती हुई मां शिखर के करीब पहुंच गई थीं.

अब मैं बड़ी हो गई थी और मेरे स्कूल का आखिरी साल था. सबकुछ अच्छा चल रहा था कि हमारी जिंदगी में एक दूसरा वज्रपात हुआ. मुझे अच्छी तरह याद है, रविवार का दिन था. मां चक्कर खा कर गिर पड़ी थीं. मैं ने घबरा कर मौसीजी को फोन किया. मौसीजी दौड़ी चली आईं. मां हमें परेशान देख कर कहने लगीं, ‘रिलैक्स जया, इतनी हाइपर मत बनो. मुझे कुछ नहीं हुआ है. सुबह से कुछ खाया नहीं था, इसलिए शुगर डाउन हो गई होगी.’’

मौसीजी की जिद पर मां ने एक हफ्ते की छुट्टी ले ली और जांचों का सिलसिला शुरू हुआ. उस दिन मेरे पैरों तले धरती खिसक गई जिस दिन पता चला कि मां को कैंसर है. मां भर्राए हुए गले से मौसीजी से कहने लगीं, ‘स्नेहा के सिर पर पिता का साया भी नहीं रहा. मुझे कुछ हो गया तो स्नेहा का क्या होगा, जया?’

मौसीजी ने मां को ढाढ़स बंधाया,

‘हर कैंसर जानलेवा ही हो, यह जरूरी नहीं, शीला. धीरज रखो. यू मस्ट फाइट इट आउट.’

मां के चेहरे से हंसी छिन गई थी. मां को उदास देख कर मेरा मन भी उदास हो जाता था. एक दिन मौसीजी मां से मिलने आईं, तो उन्होंने मां को गहन चिंता में डूबी, शून्य में दृष्टि गड़ाए बैठी देखा. मौसीजी ने मां को आड़ेहाथों लिया, ‘किस सोच में डूबी हो, शीला? इस तरह चिंता करोगी तो भविष्य को खींच कर और करीब ले आओगी. आज प्रकृति ने तुम्हें जो मौका दिया है, स्नेहा के साथ हंसनेबोलने का उस के साथ अधिक से अधिक समय बिताने का, उसे यों ही गंवा रही हो. आज से मैं तेरा हंसतामुसकराता चेहरा ही देखना चाहती हूं.’

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मौसीजी की मीठी झिड़की का मां पर ऐसा असर पड़ा कि मैं ने फिर कभी मां को उदास नहीं देखा. इस के बाद जो सुखद पल मैं ने मां के साथ बिताए वे अविस्मरणीय बन गए. मौसीजी की बातों ने मुझे भी समय से पहले ही परिपक्व बना दिया था.

एक दिन मां ने मौसीजी को अपनी वसीयत सौंपी,

जिस के मुताबिक मां की सारी संपत्ति मेरे और मौसीजी के नाम कर दी गई थी. वसीयत देख कर मौसीजी नाराज हो गई थीं. कहने लगीं, ‘शीला, ये पैसे मेरे नाम कर के तुम मुझे पराया कर रही हो. पहले तो तुझे कुछ होगा नहीं, फिर स्नेहा की परवरिश तुम्हारे पैसों की मुहताज नहीं है.’

‘जया, तुम गलत समझ रही हो. वसीयत तो हर किसी को बनानी चाहिए, चाहे वह बीमार हो या न हो. दुर्घटना तो किसी के साथ भी घट सकती है. रही मेरी बात तो इस सच को झुठलाया नहीं जा सकता कि मैं अब चंद दिनों की मेहमान हूं. वसीयत के अभाव में स्नेहा और पैसों की जिम्मेदारी कोई ऐसा रिश्तेदार लेना चाहेगा, जिसे सिर्फ पैसों से प्यार हो. क्या तुम चाहती हो जया, कि स्नेहा की परवरिश किसी गलत रिश्तेदार के हाथ हो? मुझे तुम्हारे सिवा किसी और पर भरोसा नहीं है, जया,’ कहतेकहते मां भावुक हो गई थीं.

‘मेरे रहते तुम्हें स्नेहा की चिंता करने की जरूरत नहीं है,

शीला,’ यह कह कर मौसीजी ने चुपचाप मां के हाथ से वसीयत ले कर रख ली.महीनाभर भी नहीं बीता कि मां हमें सदा के लिए छोड़ कर चली गईं. अंतिम समय तक उन के चेहरे पर मुसकान थी. शायद मौसीजी की वजह से वे मेरी ओर से निश्ंिचत हो गई थीं.

मां के गुजरते ही वैसा ही हुआ जैसा कि मां को अंदेशा था. कई रिश्तेदार मुझ पर अपना हक जताने आ पहुंचे. मौसीजी मेरे सामने ढाल बन कर खड़ी हो गई थीं. मां की वसीयत को दिखा कर उन्होंने सब को चुप करा दिया था. लेकिन जितने मुंह थे उतनी बातें थीं. मौसीजी पर किसी की बातों का कोई असर नहीं हुआ. वे चट्टान की तरह अडिग खड़ी थीं. उन की दृढ़ता देख कर सब चुपचाप खिसक लिए.

मां की तेरहवीं होने तक मौसीजी मां के घर में मेरे साथ रहीं.

बाद में घर में ताला लगा कर वे मुझे साथ ले कर अपने घर चली गईं. मौसाजी को उन्होंने राघव भैया के कमरे में स्थानांतरित कर दिया. मेरे रहने और पढ़ने की व्यवस्था अपने कमरे में कर दी. मौसीजी की प्रेमपूर्ण छत्रछाया में रह कर मैं ने अपनी पढ़ाई पूरी की. इस के बाद मुझे नौकरी भी मिल गई. मौसीजी मुझे एक पल के लिए भी मां की कमी महसूस नहीं होने देती थीं.

एक दिन मुझे मौसीजी ने विनीत और उस के परिवार वालों से मिलाया. हम ने एकदूसरे को पसंद किया. फिर मेरा ब्याह हो गया. मौसीजी ने मेरे ब्याह में कोई कमी नहीं रखी. उन्होंने वह सबकुछ किया जो एक मां अपनी बेटी के विवाह के वक्त करती है.

दिल्ली में विनीत अपने एक मित्र के साथ किराए के मकान में रहते थे. इसलिए मौसीजी ने शादी के बाद हमें मां के घर की चाबी पकड़ा दी. साथ ही, मौसीजी ने मां की वसीयत और बैंक के सारे जमाखाते मुझे पकड़ा दिए. मैं ने उन पैसों को लेने से इनकार किया तो मौसीजी ने कहा, ‘बेटी, ये तुम्हारी मां की अमानत हैं. इन्हें मां का आशीर्वाद समझ कर स्वीकार कर लो.’

मैं मौसीजी से झगड़ पड़ी थी. मैं ने काफी तर्क किया कि इन पैसों पर उन का हक है. पर मौसीजी टस से मस नहीं हुईं. मैं सोचने लगी, किस मिट्टी की बनी हैं मौसीजी, जिन्होंने मेरे ऊपर खर्च किए गए पैसों की भरपाई भी मां के पैसों से नहीं की और कहां मेरे रिश्तेदार, जिन्होंने मां के पैसे हड़पने चाहे थे. खैर, मैं ने सोच लिया था, मौसीजी पैसे नहीं लेतीं तो क्या हुआ. मैं उन की छोटीछोटी बातों का भी इतना खयाल रखूंगी कि उन्हें किसी चीज की तकलीफ होने ही नहीं दूंगी. जी तो चाहता था कि मैं उन्हें मां कह कर पुकारूं, पर न जाने कौन सा संकोच मुझे रोके रहता.

अचानक विनीत की आवाज सुन कर, मैं जैसे नींद से जागी. बरामदे से धूप का टुकड़ा विलीन हो चुका था.

मैं ने विनीत को राघव भैया के हार्वर्ड जाने की सूचना दी.

आखिर वह दिन भी आ गया जब राघव भैया हार्वर्ड जाने के लिए तैयार थे. हम सब ने उन्हें भावभीनी विदाई दी.

समय पंख लगा कर उड़ गया. पढ़ाई पूरी होते ही राघव भैया 2 हफ्ते के लिए भारत आए. काफी बदलेबदले लग रहे थे. पहले से ही वे बातूनी नहीं थे, लेकिन अब हर वाक्य नापतोल कर बोलते थे. मौसीजी तो ममता से ओतप्रोत अपने बेटे की झलक पा कर ही निहाल हो गई थीं.

वापस लौटने के बाद धीरेधीरे भैया का फोन आना कम होता गया, फोन करते भी तो अकसर शिकायतें ही करते, कि मौसीजी ने उन्हें कितने बंधनों में पाला, उन्हें किसी बात की स्वतंत्रता नहीं दी गई थी, विदेश जा कर ही उन्होंने जीना सीखा. वगैरहवगैरह. मौसीजी उन्हें समझातीं कि बचपन और जवानी में बंधनों का होना जरूरी है वरना बच्चों के भटकने का डर रहता है.

अगर उन के साथ सख्ती नहीं बरती जाती तो वे उस मुकाम पर नहीं पहुंचते, जहां वे आज हैं. भैया के कानों में जूं तक नहीं रेंगती क्योंकि उन का व्यवहार ज्यों का त्यों बना रहा, अब तो भैया पढ़ाई पूरी कर के नौकरी भी करने लगे थे. पर वे अपनी ही दुनिया में जी रहे थे.

इस बीच मौसाजी को हार्टअटैक आ गया. मौसीजी का फोन आते ही मैं तुरंत काम छोड़ कर औफिस से भागी. उन्हें अस्पताल में दाखिल करवाया. समय पर इलाज होने की वजह से उन की हालत में सुधार हुआ. राघव भैया को सूचित किया जा चुका था. पर वे ‘पापा अभी तो ठीक हैं, मुझे छुट्टी नहीं मिलेगी,’ कह कर नहीं आए. मौसाजी को बहुत बुरा लगा. उन्होंने कहा, ‘‘तो क्या वह मेरे मरने पर ही आएगा?’’

कुछ दिनों के बाद मौसाजी को दोबारा हार्टअटैक आया. इस बार भी मैं वक्त जाया किए बिना तुरंत उन्हें अस्पताल ले गई. राघव भैया को तुरंत खबर कर दी गई थी. ऐसा लग रहा था जैसे मौसाजी की तबीयत में सुधार हो रहा है. वे बारबार भैया के बारे में पूछ रहे थे. दरवाजे पर टकटकी लगाए शायद भैया की राह देख रहे थे. लेकिन तीसरे दिन उन की मृत्यु हो गई. राघव भैया मौसाजी के गुजरने के अगले दिन पहुंचे.

मैं सोचने लगी कि काश, भैया, मौसाजी के जीतेजी आते.

तेरहवीं के बाद राघव भैया ने मां से पूछा, ‘‘मां, अब पापा नहीं रहे. यहां कौन है तुम्हारी देखभाल करने वाला? मैं बारबार इंडिया नहीं आ सकता. तुम कहो तो तुम्हारा टिकट भी ले लूं.’’

‘‘राघव, तुम ने वादा किया था कि पढ़ाई खत्म कर के तुम भारत लौट आओगे.’’

‘‘तब की बात और थी, मां. उस वक्त मैं वहां की जिंदगी से वाकिफ नहीं था. उस ऐशोआराम की जिंदगी को छोड़ कर मैं यहां नहीं आ सकता. अब तुम्हें फैसला करना है कि तुम मेरे साथ चल रही हो या नहीं.’’

मौसीजी एक क्षण चुप रहीं. फिर उन्होंने कह दिया, ‘‘बेटा, मैं ने फैसला कर लिया है. मैं इस घर को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी, जहां तुम्हारे पिता की यादें बसी हुई हैं. रही मेरे देखभाल की बात, तो मेरी बेटी है न. जिस तरह उस ने तुम्हारे पिता की देखभाल की, वक्त आने पर मेरी भी करेगी.’’

कभीकभी मैं सोचा करती थी कि मौसीजी मुझे अपना नहीं समझतीं, तभी तो मुझ से पैसे नहीं लिए. लेकिन आज मुझे पुत्री का दरजा दे कर, उन्होंने मुझे निहाल कर दिया. गद्गद हो कर मैं ने मौसीजी के पांव पकड़ लिए. आंखें आंसुओं से भर गईं. हाथ ‘धन्यवाद’ की मुद्रा में जुड़ गए. मुख से ‘मौसी मां’ शब्द निकल पड़ा. मौसीजी ने मुझे उठा कर गले से लगा लिया. भर्राए हुए गले से उन्होंने कहा, ‘‘सिर्फ मां कहो, बेटी.’’

उन्हें मां कह कर पुकारते हुए मेरा रोमरोम पुलकित हो गया.

राघव भैया हमें अवाक् हो कर देखते रहे. फिर चुपचाप अपने कमरे की ओर चले गए. उन्हें इस तरह जाते देख मैं सोचती रही, भैया, संसार के इतने बड़े विश्वविद्यालय से पढ़ कर भी आप अनपढ़ ही रहे. मां की अनमोल, निस्वार्थ ममता को ठुकरा कर जा रहे हैं? आप ने जो खोया, उस का आप को भान भी नहीं, पर मौसीजी के रूप में एक वात्सल्यमयी मां पा कर, मैं ने जो पाया वह एक सुखद अनुभूति है. हां, इतना अवश्य कह सकती हूं कि जिंदगी में आज तक मैं ने जितना खोया उस से कहीं अधिक पा लिया. मौसीजी की सेवा करना ही मेरी जिंदगी में सर्वोपरि होगा.

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