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Women’s Day Special– भाग 3 : कागज का रिश्ता

विभा की आवाज सुन कर मुकेश ने उस की तरफ पलट कर देखा. विभा ने मुकेश की दी हुई गुलाबी साड़ी पहन रखी थी. उस पर गुलाबी रंग खिलता भी खूब था. कोई और दिन होता तो

मुकेश की धमनियों में आग सी दौड़ने लगती, पर उस समय वह बिलकुल खामोश था. चिंता की गहरी लकीरें उस के माथे पर स्पष्ट उभर आई थीं. उस ने एक गुलाबी लिफाफा अपनी पत्नी के आगे रखते हुए कहा, ‘‘तुम्हारा पत्र आया है.’’

‘‘मेरा पत्र,’’ विभा ने आगे बढ़ कर वह पत्र अपने हाथ में उठाया और चहक कर बोली, ‘‘अरे, यह तो मोहन का पत्र है.’’

मुसकरा कर विभा वह पत्र खोल कर पढ़ने लगी. उस के चेहरे पर इंद्रधनुषी रंग थिरकने लगे थे.

मुकेश पत्नी पर एक दृष्टि फेंक कर सिगरेट सुलगाते हुए बोला, ‘‘यह मोहन कौन है?’’

‘‘मेरे पत्र मित्रों में सब से अधिक स्नेहशील और आकर्षक,’’ विभा पत्र पढ़तेपढ़ते ही बोली.

विभा पत्र पढ़ती रही और मुकेश चोर निगाहों से पत्नी को देखता रहा. पत्र पढ़ कर विभा ने दराज में डाल दिया और फिल्मी धुन गुनगुनाती हुई ड्रैसिंग टेबल के आईने में अपनी छवि निहारते हुए बाल संवारती रही.

मुकेश ने घड़ी में समय देखा और विभा से बोला, ‘‘आज खाना नहीं मिलेगा क्या?’’

‘‘खाना तो लगभग तैयार है,’’ कहते हुए विभा रसोई की तरफ चल दी. जब रसोई से बरतनों की उठापटक की आवाज आनी शुरू हो गई तो मुकेश ने दराज से वह पत्र निकाल कर पढ़ना शुरू कर दिया.

हिमाचल के चंबा जिले के किसी गांव से आया वह पत्र पर्वतीय संस्कृति की झांकी प्रस्तुत करता हुआ, विभा को सपरिवार वहां आ कर कुछ दिन रहने का निमंत्रण दे रहा था.

विभा के द्वारा भेजे गए नए साल के बधाई कार्ड और पूछे गए कुछ प्रश्नों के उत्तर भी उस पत्र में दिए गए थे. पत्र की भाषा लुभावनी और लिखावट सुंदर थी.

विभा ने मेज पर खाना लगा दिया था. पूरा परिवार भोजन करने बैठ चुका था, पर मुकेश न जाने क्यों उदास सा था. राकेश बराबर में बैठा लगातार अपने भैया के मर्म को समझने की कोशिश कर रहा था. उसे अपनी भाभी पर रहरह कर क्रोध आ रहा था.

राकेश ने मटरपनीर का डोंगा भैया के आगे सरकाते हुए कहा, ‘‘आप ने मटरपनीर की सब्जी तो ली ही नहीं. देखिए तो, कितनी स्वादिष्ठ है.’’

‘‘ऐं, हांहां,’’ कहते हुए मुकेश ने राकेश के हाथ से डोंगा ले लिया, पर वह बेदिली से ही खाना खाता रहा.

मुकेश की स्थिति देख कर राकेश ने निश्चय किया कि वह इस बार भाभी के नाम आया कोई भी पत्र मुकेश के ही हाथों में देगा. जितनी जल्दी हो सके, इन पत्रों का रहस्य भैया के आगे खुलना ही चाहिए.

राकेश के हृदय में बनी योजना ने साकार होने में अधिक समय नहीं लिया. एक दोपहर जब वह अपने मित्र के यहां मिलने जा रहा था, उसे डाकिया घर के बाहर ही मिल गया. वह अन्य पत्रों के साथ विभा भाभी का गुलाबी लिफाफा भी अपनी जेब के हवाले करते हुए बाहर निकल गया.

राकेश जब घर लौटा तब मुकेश घर पहुंच चुका था. भाभी रसोई में थीं और मांजी बरामदे में बैठी रेडियो सुन रही थीं. राकेश ने अपनी जेब से 3-4 चिट्ठियां निकाल कर मुकेश के हाथ में देते हुए कहा, ‘‘भैया, शायद एक पत्र आप के दफ्तर का है और एक उमा दीदी का है. यह पत्र शायद भाभी का है. मैं सतीश के घर जा रहा था कि डाकिया रास्ते में ही मिल गया.’’

‘‘ओह, अच्छाअच्छा,’’ मुकेश ने पत्र हाथ में लेते हुए कहा. अपने दफ्तर का पत्र उस ने दफ्तरी कागजों में रख लिया और उमा का पत्र घर में सब को पढ़ कर सुना दिया. विभा के नाम से आया पत्र उस ने तकिए के नीचे रख दिया.

रात को कामकाज निबटा कर विभा लौटी तो मुकेश ने गुलाबी लिफाफा उसे थमाते हुए कहा, ‘‘यह लो, तुम्हारा पत्र.’’

‘‘मेरा पत्र, इस समय?’’ विभा ने आश्चर्य से कहा.

‘‘आया तो यह दोपहर की डाक से था, जब मैं दफ्तर में था. लेकिन अभी तक यह आप के देवर की जेब में था,’’ मुकेश ने पत्नी की तरफ देखते हुए कहा.

विभा ने मुसकरा कर वह पत्र खोला और पढ़ने लगी. शायद पत्र में कोई ऐसी बात लिखी थी, जिसे पढ़ कर वह खिलखिला कर हंस पड़ी. मुकेश ने इस बार पलट कर पूछा, ‘‘मोहन का
पत्र है?’’

‘‘हां, लेकिन आप ने कैसे जान लिया?’’ विभा ने हंसतेहंसते ही पूछा.

‘‘लिफाफे को देख कर. कुछ और बताओगी इन महाशय के बारे में?’’ मुकेश ने पलंग पर बैठते हुए कहा.

‘‘हांहां, क्यों नहीं. मोहन एक सुंदर नवयुवक है. उस का व्यक्तित्व बहुत आकर्षक है. मुझे तो उस की शरारती आंखों की मुसकराहट बहुत भाती है,’’ विभा ने सहज भाव से कहा पर मुकेश शक और ईर्ष्या की आग में जल उठा.

मुकेश ने फिर पत्नी से कोई बात नहीं की और मुंह फेर कर लेट गया. विभा ने एक बार मुकेश की पीठ को सहलाया भी, पर पति का एकदम ठंडापन देख कर वह फिर नींद की आगोश में डूब गई.

घरगृहस्थी की गाड़ी ठीक पहले जैसी ही चलती रही पर मुकेश का स्वभाव और व्यवहार दिनोंदिन बदलता चला गया. अब अकसर वह देर रात घर लौटता. पति के इंतजार में भूखी बैठी विभा से वह ‘बाहर से खाना खा कर आया हूं’ कह कर सीधे अपने कमरे में घुस जाता. मांजी और राकेश भी मुकेश का व्यवहार देख कर परेशान थे. मुकेश और विभा के बीच धीरेधीरे एक ठंडापन पसरने लगा था. दोनों के बीच वार्त्तालाप भी अब बहुत संक्षिप्त होता था. मुकेश अब अगर दफ्तर से समय पर घर लौट भी आता तो सिगरेट पर सिगरेट फूंकता रहता.

आखिर एक शाम विभा ने मुकेश के हाथ से सिगरेट छीनते हुए तुनक कर कहा, ‘‘आप मुझे देखते ही नजरें क्यों फेर लेते हैं? क्या अब मैं सुंदर नहीं रही?’’

मुकेश ने विभा की बात का कोई जवाब नहीं दिया.

‘‘आप किस सोच में डूबे रहते हैं? देखती हूं, आप आजकल सिगरेट ज्यादा ही पीने लगे हैं. बताइए न?’’ विभा की आंखों में आंसू भर आए.

‘‘तुम तो उतनी ही सुंदर हो जितनी शादी के समय थीं, पर मैं न तो मोहन की तरह सुंदर हूं न ही बलिष्ठ. न मैं उस की तरह योग्य हूं न आकर्षक,’’ मुकेश ने रूखे स्वर में जवाब दिया.

‘‘यह क्या कह रहे हैं आप?’’

‘‘मैं अब तुम्हें साफसाफ बता देना चाहता हूं कि अब मैं तुम्हारे साथ अधिक दिनों तक नहीं निभा सकता. मैं बहुत जल्दी ही तुम्हें आजाद करने की सोच रहा हूं जिस से तुम मोहन के पास आसानी से जा सको,’’ मुकेश ने अत्यंत ठंडे स्वर से कहा.

‘‘यह क्या कह रहे हैं आप?’’ विभा घबरा कर बोली. उसे लगा, संदेह के एक नन्हे कीड़े ने उस के दांपत्य की गहरी जड़ों को क्षणभर में कुतर डाला है.

‘‘मैं वही सच कह रहा हूं जो तुम नहीं कह सकीं और छिप कर प्रेम का नाटक खेलती रहीं,’’ अब मुकेश के स्वर में कड़वाहट घुल गई थी.

‘‘ऐसा मत कहिए. मोहन सिर्फ मेरा पत्र मित्र है और कुछ नहीं. मेरे मन में आप के प्रति गहरी निष्ठा है. आप मुझ पर शक कर रहे हैं,’’ कहते हुए विभा की आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी.

‘‘तुम चाहे अब अपनी कितनी भी सफाई क्यों न दो लेकिन मैं यह नहीं मान सकता कि मोहन तुम्हारा केवल पत्र मित्र है. कौन पति यह सहन कर सकता है कि उस की पत्नी को कोई पराया मर्द प्रेमपत्र भेजता रहे,’’ मुकेश का स्वर अब नफरत में बदलने लगा था.

‘‘आप पत्र पढ़ कर देख लीजिए, यह कोई प्रेमपत्र नहीं है,’’ विभा ने जल्दी से मोहन का पत्र दराज से निकाल कर मुकेश के आगे रखते हुए कहा.

‘‘यह पत्र अब तुम अपने भविष्य के लिए संभाल कर रखो,’’ मुकेश ने मोहन का पत्र विभा के मुंह पर फेंकते हुए कहा.

‘‘तुम जानते नहीं हो मुकेश, मेरी दोस्ती सिर्फ कागज के पत्रों तक ही सीमित है. मेरा मोहन से ऐसावैसा कोई संबंध नहीं है. अब मैं तुम्हें कैसे समझाऊं?’’ विभा अब सचमुच रोने लगी थी.

‘‘तुम मुझे क्या समझाओगी? शादी के बाद भी तुम्हारी आंखों में मोहन का रूप बसता रहा. तुम्हारे हृदय में उस के लिए हिलोरें उठती हैं. मैं इतना बुद्धू नहीं हूं, समझीं,’’ मुकेश पलंग से उठ कर सोफे पर जा लेटा.

विभा देर तक सुबकती रही.

अगली सुबह मुकेश कुछ जल्दी ही उठ गया. जब तक विभा अपनी आंखों को मलते हुए उठी तब तक तो वह जाने के लिए तैयार भी हो चुका था. विभा ने आश्चर्य से घड़ी की तरफ देखा, 8 बज रहे थे. विभा घबरा कर जल्दी से रसोई में पहुंची. वह मुकेश के लिए नाश्ता बना कर लाई, परंतु वह जा चुका था.

विभा मुकेश को दूर तक जाते हुए देखती रही, नाश्ते की प्लेट अब तक उस के हाथों में थी.

‘‘क्या हुआ, बहू?’’ दरवाजे के बाहर खड़ी उस की सास ने भीतर आते हुए पूछा.

‘‘कुछ नहीं, मांजी,’’ विभा ने सास से आंसू छिपाते हुए कहा.

‘‘मुकेश क्या नाश्ता नहीं कर के गया?’’ उन्होंने विभा के हाथ में प्लेट देख कर पूछा.

‘‘जल्दी में चले गए,’’ कहते हुए विभा रसोई की तरफ मुड़ गई.

‘‘ऐसी भी क्या जल्दी कि आदमी घर से भूखा ही चला जाए. मैं देख रही हूं, तुम दोनों में कई दिनों से कुछ तनाव चल रहा है. बात बढ़ने से पहले ही निबटा लेनी चाहिए, बहू. इसी में समझदारी है.’’

शाम को मुकेश दफ्तर से लौटा तो मां ने उसे अपने समीप बैठाते हुए कहा, ‘‘मुकेश, आजकल इतनी देर से क्यों लौटता है?’’

‘‘मां, दफ्तर में आजकल काम कुछ ज्यादा ही रहता है.’’

‘‘आजकल तू उदास भी रहता है.’’

‘‘नहींनहीं, मां,’’ मुकेश ने बनावटी हंसी हंसते हुए कहा.

‘‘आज कोई पुरानी फिल्म डीवीडी पर लगाना,’’ मां ने हंसते हुए कहा.

‘‘अच्छा,’’ कहते हुए मुकेश उठ कर अपने कमरे में चला गया.

दिनभर के थके और भूख से बेहाल हुए मुकेश ने जैसे ही कमरे की बत्ती जलाई, उसे अपने बिस्तर पर शादी का अलबम नजर आया. कपड़े उतारने को बढ़े हाथ अनायास ही अलबम की तरफ बढ़ गए. वह अलबम देखने बैठ गया. हंसीठिठोली, मानमनुहार, रिश्तेदारों की चुहलभरी बातें एक बार फिर मन में ताजा हो उठीं. तभी विभा ने चाय का प्याला आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘लीजिए.’’

मुकेश का गुस्सा अभी भी नाक पर चढ़ा था, पर उस ने पत्नी के हाथ से चाय का प्याला ले लिया. विभा फिर रसोईघर में चली गई.

मुकेश जब तक हाथमुंह धो कर बाथरूम से निकला, परिवार रात के खाने के लिए मेज पर बैठ चुका था. विमला देवी ने बेटे को पुकारा, ‘‘मुकेश, आओ बेटे, सभी तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं.’’

कुरसी पर बैठते हुए मुकेश सामान्य होने का प्रयत्न कर रहा था, पर उस का रूखापन छिपाए नहीं छिप रहा था. सभी भोजन करने लगे तो विमला देवी बोलीं, ‘‘आज मुकेश जल्दीजल्दी में नाश्ता छोड़ गया तो विभा ने भी पूरे दिन कुछ नहीं खाया.’’

‘‘पतिव्रता स्त्रियों की तरह,’’ राकेश ने शरारत से हंसते हुए कहा.

विमला देवी भी मुसकराती रहीं, पर मुकेश चुपचाप खाना खाता रहा. गरम रोटियां सब की थालियों में परोसते हुए विभा ने यह तो जान लिया था कि मुकेश बारबार उस को आंख के कोने से देख रहा है, जैसे कुछ कहना चाहता हो, पर शब्द न मिल रहे हों.

रात में बिस्तर पर बैठते हुए विभा बोली, ‘‘देखिए, मेरे दिल में कोई ऐसीवैसी बात नहीं है. हां, आज तक मैं अपने बरसों पुराने पत्र मित्रों के पत्रों को सहज रूप में ही लेती रही. मेरे समझने में यह भूल अवश्य हुई कि मैं ने कभी गंभीरता से इस विषय पर सोचा नहीं…’’

मुकेश चुपचाप दूसरी तरफ निगाहें फेरे बैठा रहा. विभा ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, ‘‘आज दिनभर मैं ने इस विषय पर गहराई से सोचा. मेरी एक साधारण सी भूल के कारण मेरा भविष्य एक खतरनाक मोड़ पर आ खड़ा हुआ है. हम दोनों की सुखी गृहस्थी अलगाव की तरफ मुड़ गई है. मैं आज ही आप के सामने इन कागज के रिश्तों को खत्म किए देती हूं.’’

यह कहते हुए विभा ने बरसों से संजोया हुआ बधाई कार्डों व पत्रों का पुलिंदा चिंदीचिंदी कर के फाड़ दिया और मुकेश का हाथ अपने हाथ में लेते हुए धीरे से कहा, ‘‘मैं आप को बहुत प्यार करती हूं. मैं सिर्फ आप की हूं.’’

शक के कारण अपनत्व की धुंधली पड़ती छाया मुकेश की पलकों को गीला कर के उजली रोशनी दे गई. वह पत्नी के हाथ को दोनों हाथों में दबाते हुए बोला, ‘‘मुझे अब तुम से कोई शिकायत नहीं है, विभा. अच्छा हुआ जो तुम्हें अपनी गलती का एहसास समय रहते ही हो गया.’’

‘‘जो कुछ हम ने कहासुना, उसे भूल जाओ,’’ विभा ने पति के समीप आते हुए कहा.

‘‘मुझे गुस्सा तुम्हारी लापरवाही ने दिलाया. एक के बाद एक तुम्हारे पत्र आते चले गए और मेरी स्थिति अपने परिवार में गिरती चली गई. जरा सोचो, अगर घर के बुजुर्ग इन पत्रों को गलत नजरिए से देखने लगते तो परिवार में तुम्हारी क्या इज्जत रह जाती?’’ मुकेश ने धीमे स्वर में कहा.

विभा कुछ नहीं बोली. मुकेश ने अपनी बात जारी रखते हुए आगे कहा, ‘‘उस शाम जब राकेश ने तुम्हारा वह पत्र मेरे हाथों में दिया था तो तुम नहीं जानतीं, वह कैसी विचित्र निगाहों से तुम्हें ताक रहा था. वह लांछित दृष्टि मैं बरदाश्त नहीं कर सकता, विभा. हम ऐसा कोई काम करें ही क्यों जिस में हमारे साथसाथ दूसरों का भी सुखचैन खत्म हो जाए?’’

‘‘आप ठीक कह रहे हैं,’’ विभा ने इस बार मुकेश की आंखों में देखते हुए कहा. उस ने मन ही मन अपने पति का धन्यवाद किया. जिस तरह मुकेश ने भविष्य में होने वाली बदनामी से विभा को बचाया, यह सोच कर वह आत्मविभोर हो उठी. फिर लाइट बंद कर सुखद भविष्य की कल्पना में खो गई.

Women’s Day Special– भाग 2 : कागज का रिश्ता

इन पत्रों के सिलसिले ने विमला देवी के माथे पर अनायास ही बल डाल दिए. उन्होंने राकेश से पूछा, ‘‘पत्र कहां से आया है?’’

राकेश कंधे उचका कर बोला, ‘‘मुझे क्या मालूम? भाभी के किसी ‘पैन फ्रैंड’ का पत्र है.’’

‘‘ऐं, यह ‘पैन फ्रैंड’ क्या चीज होती है?’’ विमला देवी ने खोजी निगाहों से बेटे की तरफ देखा.

‘‘मां, पैन फ्रैंड यानी कि पत्र मित्र,’’ राकेश ने हंसते हुए कहा.

‘‘अच्छाअच्छा, जब मुकेश छोटा था तब वह भी बाल पत्रिकाओं से बच्चों के पते ढूंढ़ढूंढ़ कर पत्र मित्र बनाया करता था और उन्हें पत्र भेजा करता था,’’ विमला देवी ने याद करते हुए कहा.

‘‘बचपन के औपचारिक पत्र मित्र समय के साथसाथ छूटते चले जाते हैं. भाभी की तरह उन के लगातार पत्र नहीं आते,’’ कहते हुए राकेश ने बाहर की राह ली और विमला देवी अकेली आंगन में बैठी रह गईं.

सर्दियों के गुनगुने दिन धूप ढलते ही बीत जाते हैं. विभा ने जब तक चायनाश्ते के बरतन समेटे, सांझ ढल चुकी थी. वह फिर रात का खाना बनाने में व्यस्त हो गई. मुकेश को बढि़या खाना खाने का शौक भी था और वह दफ्तर से लौट कर जल्दी ही रात का खाना खाने का आदी भी था.

दफ्तर से लौटते ही मुकेश ने विभा को बुला कर कहा, ‘‘सुनो, आज दफ्तर में तुम्हारे भैयाभाभी का फोन आया था. वे लोग परसों अहमदाबाद लौट रहे हैं, कल उन्होंने तुम्हें बुलाया है.’’

‘‘अच्छा,’’ विभा ने मुकेश के हाथ से कोट ले कर अलमारी में टांगते हुए कहा.

अगले दिन सुबह मुकेश को दफ्तर भेज कर विभा अपने भैयाभाभी से मिलने तिलक नगर चली गई. वे दक्षिण भारत घूम कर लौटे थे और घर के सदस्यों के लिए तरहतरह के उपहार लाए थे. विभा अपने लिए लाई गई मैसूर जार्जेट की साड़ी देख कर खिल उठी थी.

विभा की मां को अचानक कुछ याद आया. वे अपनी मेज पर रखी चिट्ठियों में से एक कार्ड निकाल कर विभा को देते हुए बोलीं, ‘‘यह तेरे नाम का एक कार्ड आया था.’’

‘‘किस का कार्ड है?’’ विभा की भाभी शीला ने कार्ड की तरफ देखते हुए पूछा.

‘‘मेरे एक मित्र का कार्ड है, भाभी. नव वर्ष, दीवाली, होली, जन्मदिन आदि पर हम लोग कार्ड भेज कर एकदूसरे को बधाई देते हैं,’’ विभा ने कार्ड पढ़ते हुए कहा.

‘‘कभी मुलाकात भी होती है इन मित्रों से?’’ शीला भाभी ने तनिक सोचते हुए कहा.

‘‘कभी आमनेसामने तो मुलाकात नहीं हुई, न ऐसी जरूरत ही महसूस हुई,’’ विभा ने सहज भाव से कार्ड देखते हुए उत्तर दिया.

‘‘तुम्हारे पास ससुराल में भी ऐसे बधाई कार्ड पहुंचते हैं?’’ शीला ने अगला प्रश्न किया.

‘‘हांहां, वहां भी मेरे कार्ड आते हैं,’’ विभा ने तनिक उत्साह से बताया.

‘‘क्या मुकेश भाई भी तुम्हारे इन पत्र मित्रों के बधाई कार्ड देखते हैं?’’ इस बार शीला भाभी ने सीधा सवाल किया.

‘‘क्यों? ऐसी क्या गलत बात है इन बधाई कार्डों में?’’ प्रत्युत्तर में विभा का स्वर भी बदल गया था.

‘‘अब तुम विवाहिता हो विभा और विवाहित जीवन में ये बातें कोई महत्त्व नहीं रखतीं. मैं मानती हूं कि तुम्हारा तनमन निर्मल है, लेकिन पतिपत्नी का रिश्ता बहुत नाजुक होता है. अगर इस रिश्ते में एक बार शक का बीज पनप

गया तो सारा जीवन अपनी सफाई देते हुए ही नष्ट हो जाता है. इसलिए बेहतर यही होगा कि तुम यह पत्र मित्रता अब यहीं खत्म कर दो,’’ शीला ने समझाते हुए कहा.

‘‘भाभी, तुम अच्छी तरह जानती हो कि हम लोग यह बधाई कार्ड सिर्फ एक दोस्त की हैसियत से भेजते हैं. इतनी साधारण सी बात मुकेश और मेरे बीच में शक का कारण बन सकती है, मैं ऐसा नहीं मानती,’’ विभा तुनक कर बोली.

शाम ढल रही थी और विभा को घर लौटना था, इसलिए चर्चा वहीं खत्म हो गई. विभा अपना उपहार ले कर खुशीखुशी ससुराल लौट आई.

लगभग पूरा महीना सर्दी की चपेट में ठंड से ठिठुरते हुए कब बीत गया, कुछ पता ही न चला. गरमी की दस्तक देती एक दोपहर में जब विभा नहा कर अपने कमरे में आई तो देखा, मुकेश का चेहरा कुछ उतरा हुआ सा है. वह मुसकरा कर अपनी साड़ी का पल्ला हवा में लहराते हुए बोली, ‘‘सुनिए.’’

 

लाचार : गणपत टेलर सो लोगों की क्या दुश्मनी थी

घर से अचानक गायब हुए गणपत टेलर के कपड़े 2-3 दिन के बाद गांव से 2 कोस की दूरी पर नदी के किनारे मिलने से जैसे गांव में हड़कंप मच गया. गणपत टेलर के घर में इस खबर के पहुंचते ही उस की बूढ़ी मां शेवंताबाई छाती पीटने लगी, तो बीवी अनुसूया अपने दोनों बच्चों को गले लगा कर रोने लगी. गणपत टेलर हंसमुख और नेक इंसान था. उस के बारे में उक्त खबर पूरे गांव में फैल गई. लोग अपनेअपने तर्क देने लगे. कोई कह रहा था कि गणपत नहाने के लिए उतरा होगा तभी पैर फिसलने से गिर गया होगा. तो कोई कह रहा था कि नहाने के लिए भला वह इतनी दूर क्यों जाएगा. उन्हीं में से एक ने कहा, गणपत तो अच्छा तैराक था. कई बार बाढ़ के पानी में भी उतर कर उस ने लोगों को बचाया था. इन तर्कों में कुछ भी तथ्य नहीं है, यह बात जल्द ही सब की समझ में आ गई.

घर में गणपत जैसा सुखी आदमी ढूंढ़ने पर भी नहीं मिलने वाला था. बहू, बेटा और पोतेपोतियों से प्रेम करने वाली मां, अनुसूया जैसी सुंदर और मेहनती पत्नी, 2 सुंदर बच्चे और खापी कर आराम से जिंदगी जीने के लिए पैसा देने वाला टेलरिंग का कारोबार. ऐसा आदमी कैसे और क्यों अपनी जान देगा? जितने मुंह उतनी बातें.गांव के बड़ेबुजुर्गों ने थाने में गणपत के गायब होने की रपट लिखा दी. पुलिस वालों ने खोजबीन शुरू कर दी. तैराक बुला कर नदी में खोजा गया लेकिन कोई सुराग भी न मिला.10-15 दिन ऐसे ही बीत गए. गणपत को जमीन निगल गई या आकाश खा गया, किसी को कुछ पता नहीं. जाने वाला तो चला गया लेकिन अपने पीछे वाले लोगों के सिर पर जिम्मेदारी व चिंता का बोझ छोड़ गया.

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अनुसूया अकेली पड़ गई थी. वह दिनरात यह सोचती कि बच्चों का क्या होगा, गृहस्थी कैसे चलेगी वगैरह. अनुसूया को लगने लगा था कि बच्चों का भविष्य अब अंधकार में डूब गया है. रातरातभर उसे नींद नहीं आती थी. आधी रात को वह चारपाई से उठ कर बैठ जाती और रोने लगती. उसे देख उस की सास शेवंताबाई की भी आंखों से आंसू बह जाते लेकिन अपनी बहू को वह अकसर ढाढ़स बंधाती रहती. आज तक मांबेटी जैसी रहने वाली बहूसास ऊपर से शांत रहने का दिखावा कर अपना दुख छिपा रही थीं.

लेकिन कहते हैं न कि समय सबकुछ सिखा देता है. अब उन के दुख की तीव्रता कम होने लगी थी. एक तरफ शेवंताबाई लोगों के खेतों पर काम करने के लिए जाने लगी तो दूसरी ओर अनुसूया लोगों की सिलाईकढ़ाई का काम करने लगी.  लेकिन इतने भर से काम चलने वाला नहीं था. सिलाईकढ़ाई करने के लिए पूरा कोर्स करना जरूरी था. बच्चे जब थोड़े बड़े हो गए तो उस ने एक सरकारी संस्थान में टेलरिंग कोर्स में दाखिला ले लिया. कुछ ही महीने में वह सिलाईकढ़ाई में ट्रेंड हो गई. अब उस का कोर्स भी पूरा हो गया था. कोर्स पूरा होने के बाद वह गणपत की बंद पड़ी दुकान को बड़ी कुशलता से संभालने लगी.

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बच्चे बड़े हो गए थे. गणपत की मां शेवंताबाई जिम्मेदारियों का बोझा उठाउठा कर अब पूरी तरह थक चुकी थी. गणपत का बेटा आनंदा 24 साल का नौजवान हो चुका था. वह ग्रेजुएट हो कर नौकरी ढूंढ़ रहा था. रंजना ने बीएड कर लिया था.दोनों भाईबहन अब अपने पैरों पर खडे़ हो कर मां का किस तरह हाथ बटाएं, इसी चिंता में थे. लेकिन अनुसूया को तो बेटी की नौकरी से ज्यादा उस की शादी की चिंता सता रही थी. वह चाह रही थी कि सासूमां के जिंदा रहते कम से कम रंजना के हाथ पीले हो जाते तो अच्छा रहता. उस ने अपने रिश्तेदारों से कह भी रखा था कि कोई अच्छा लड़का हो तो बताना. बहुत खोजबीन के बाद आखिरकार दूर के रिश्ते के एक लड़के के साथ उस ने रंजना की शादी तय कर दी. लड़का टीचर  था. खातेपीते घर के लोग थे. खुद की खेतीबाड़ी थी, घर अपना था. और क्या चाहिए था.

लड़के वालों को शादी की जल्दी थी. उन लोगों ने कह दिया था कि शादी में देर नहीं होनी चाहिए. इसलिए शादी की तारीख भी जल्द ही पक्की हो गई.अनुसूया ने पहले से ही सोच रखा था इसलिए अपने सामर्थ्य के अनुरूप उस ने शादी की थोड़ीबहुत तैयारी भी कर रखी थी. जल्द ही वह समय भी आ गया. नातेरिश्तेदार घर में जुटने लगे. शादी को अब 4 दिन ही बचे थे. हलवाई वाले भी आ चुके थे. घर में चहलपहल शुरू हो चुकी थी. मिठाई बननी शुरू हो गई थी. शादी के दिन अनुसूया भी इधरउधर भाग कर थक चुकी थी, इसलिए थोड़ी देर के लिए वह अपने कमरे में लेटने के लिए चली गई.

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उस ने आंखें बंद ही की थीं कि उस की बेटी उस को उठाते हुए बोली, ‘‘मां, बाहर कोई साधुभेष में आया है. देख, अपने बाबा के बारे में पूछ रहा है,’’ रंजना अपने पिता गणपत को बाबा कह कर बुलाती थी. बहुत साल के बाद पति के बारे में पूछने वाला कोई आया था इसलिए अनुसूया भाग कर उन के पास गई और देखा कि कोई सचमुच एक अधेड़ साधु के भेष में खड़ा है. अनुसूया ने विनम्रता से उन से पूछा, ‘‘क्या चाहिए महाराज आप को?’’ वह कुछ न बोल कर सिर्फ उस के चेहरे को देखता रहा. अनुसूया ने उस से दोबारा पूछा, ‘‘क्या चाहिए आप को?’’ लेकिन उस ने कुछ भी जवाब नहीं दिया. अनुसूया को लगा शायद इन्हें खाना चाहिए, इसलिए वह बोली, ‘‘ठहरिए, मैं आप के लिए खाना ले कर आती हूं.’’

तभी वह अधेड़ बोला, ‘‘नहीं, खाना नहीं चाहिए.’’ और उस ने उस को पुकारा ‘‘अनुसूया.’’ यह सुनते ही अनुसूया का रोमरोम खड़ा हो गया. उस ने उन की ओर अपनी आंखें गड़ा दीं और कुछ देर तक देखती रही. यह आवाज तो गणपत की है. तभी उस का ध्यान उस के माथे पर गया. उस के माथे पर वही कैंची से लगा हुआ निशान था. उस ने उसे तुरंत पहचान लिया. अनुसूया को शांत देख वह फिर से बोला, ‘‘अब तक पहचाना नहीं, अनुसूया?’’

‘‘आप? इतने दिन तक कहां थे आप?’’ आगे वह कुछ बोल न सकी.

कुछ भी न बोलते हुए गणपत ने शौल के अंदर से अपने हाथ बाहर निकाले. उस की उंगलियां कटी हुई थीं. यह देख कर अनुसूया स्तब्ध रह गई. उस की आंखों से आंसू झरझर बहने लगे. बड़ी मुश्किल से उस ने अपनेआप को संभाला और थोड़ी देर रुक कर पूछा, ‘‘तुम कहां चले गए थे? इतनी बड़ी घटना हो गई और तुम ने मुझे कुछ नहीं बताया. मुझे अकेला छोड़ खुद निकल गए,’’ यह कहतेकहते वह फूटफूट कर रोने लगी. पिछले 15 सालों से उसे सता रहा सवाल एक ही क्षण में खत्म हो गया था. क्याक्या नहीं सहा 15 सालों में. पति के जिंदा रहते हुए भी एक विधवा की जिंदगी जी रही थी वह. पिता हो कर भी बच्चे अनाथ की सी जिंदगी जी रहे थे.

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अभी दोनों के बीच की बात भी खत्म नहीं हुई थी कि रंजना ‘मांमां’ कहती हुई उस के सामने खड़ी हो गई. अनुसूया अजीब दुविधा में फंस गई थी. उसे एक तरफ गम था तो दूसरी तरफ खुशी भी. बरात आ चुकी थी. सभी रिश्तेदार अनुसूया को पूछ रहे थे. अनुसूया मां का फर्ज निभाने के लिए पति का साथ छोड़ बरात के स्वागत में लग गई. लेकिन मन में वह बारबार गणपत के हालात के बारे में सोच रही थी. धूमधाम से शादी संपन्न हुई और गणपत एक जगह खड़ा अकेला अपनी बेटी को विदा होते देखता रहा. गले लगा कर बेटी को विदा करने का एक पिता का सपना सपना ही रह गया.

अनुसूया ने इन कुछ ही घंटों में एक दृढ़ फैसला ले लिया था. बेटी के विदा होने के बाद अनुसूया रसोई में गई और वहां से 4 लड्डू उठा, थैली में डाल कर गणपत के सामने रख कर बोली, ‘‘लीजिए बाबा, बेटी की शादी के लड्डू हैं,’’ बोल कर दृढ़ता से वह उस की तरफ पीठ फिरा कर पीछे मुड़ कर न देखते हुए अंदर चली गई. अब न उस की आंखों में आंसू थे न मन में उमड़ता तूफान. गणपत टेलर तो 15 साल पहले ही मर गया था. उस का अब आना क्या माने रखता था. जीवन के वे 15 साल, जो उस ने अकेले, बेबसी, मुश्किलों के साथ काटे थे, जो सिर्फ उस ने भोगे थे, पति के साथ की जरूरत तो तब थी उसे, उस के बच्चों को. अब उस का आना…नहीं, अब तन्हा जिंदगी जी लेगी वह

Women’s Day Special– भाग 1: कागज का रिश्ता

विभा अपने नाम आते गुलाबी खतों को देख खिल जाती थी. लेकिन वह इस बात से अनजान थी कि इन्हीं खतों की वजह से वह परिवार के सभी सदस्यों की नजरों में संदेह के घेरे में आ जाएगी. क्या वाकई खत लिखने वाले के साथ विभा का कोई संबंध था?

‘‘यह लो भाभी, तुम्हारा पत्र,’’ राकेश ने मुसकराते हुए गुलाबी रंग के पत्र को विभा की तरफ बढ़ाते हुए कहा.

सर्दियों की गुनगुनी धूप में बाहर आंगन में बैठी विमला देवी ने बहू के हाथों में पत्र देखा तो बोलीं, ‘‘किस का पत्र है?’’

‘‘मेरे एक मित्र का पत्र है, मांजी,’’ कहते हुए विभा पत्र ले कर अपने कमरे में दाखिल हो गई तो राकेश अपनी मां के पास पड़ी कुरसी पर आ बैठा.

कालेज में पढ़ने वाला नौजवान हर बात पर गौर करने लगा था. साधारण सी घटना को भी राकेश संदेह की नजर से देखनेपरखने लगा था. यों तो विभा के पत्र अकसर आते रहते थे, पर उस दिन जिस महकमुसकान के साथ उस ने वह पत्र देवर के हाथ से लिया था, उसे देख कर राकेश की निगाह में संदेह का बादल उमड़ आया.

‘‘राकेश बेटा, उमा की कोई चिट्ठी नहीं आती. लड़की की राजीखुशी का तो पता करना ही चाहिए,’’ विमला देवी अपनी लड़की के लिए चिंतित हो उठी थीं.

‘‘मां, उमा को भी तो यहां से कोई पत्र नहीं लिखता. वह बेचारी कब तक पत्र डालती रहे?’’ राकेश ने भाभी के कमरे की तरफ देखते हुए कहा. उधर से आती किसी गजल के मधुर स्वर ने राकेश की बात को वहीं तक सीमित कर दिया.

‘‘पर बहू तो अकसर डाकखाने जाती है,’’ विमला देवी ने कहा.

‘‘आप की बहू अपने मित्रों को पत्र डालने जाती हैं मां, अपनी ननद को नहीं. जिन्हें यह पत्र डालने जाती हैं उन की लगातार चिट्ठियां आती रहती हैं. अब देखो, इस पिछले पंद्रह दिनों में उन के पास यह दूसरा गुलाबी लिफाफा आया है,’’ राकेश ने तनिक गंभीरता से कहा.

‘‘बहू के इन मित्रों के बारे में मुकेश को तो पता होगा,’’ इस बार विमला देवी भी सशंकित हो उठी थीं. यों उन्हें अपनी बहू से कोई शिकायत नहीं थी. वह सुंदर, सुघड़ और मेहनती थी. नएनए पकवान बनाने और सब को आग्रह से खिलाने पर ही वह संतोष मानती थी. सब के सुखदुख में तो वह ऐसे घुलमिल जाती जैसे वे उस के अपने ही सुखदुख हों. घर के सदस्यों की रुचि का वह पूरा ध्यान रखती.

इन टिप्स को फौलो कर आसानी से बनाएं ‘सेब का जैम’

सेब को आप किसी भी तरह से खाएं वो हमारे लिए फायदेमंद होता है. ऐसे में आज आपको सेब के मुरब्बा बनाना बताते हैं जो कम समय में आप घर पर बना सकते हैं.

सेब का जैम आवश्यक सामग्री : सेब – 1 किलोग्राम चीनी – 700 ग्राम साइट्रिक एसिड – एक चम्मच (5 ग्राम) रसभरी – रैड कलर (1 ग्राम) सुगंध बनाने का तरीका * सब से पहले सेब को धोपोंछ कर साफ कर लें. उस के बाद सेब को गोलाकार टुकड़ों में काट लें. * मीडियम आंच पर एक भगोने में 10 मिनट तक सेब को उबाल लें. सेब को हलका सा नरम होने तक उबलने दें. जब सेब हलके नरम हो गए हों, तो गैस बंद कर दीजिए.

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* जब सेब का गूदा अच्छी तरह से गल जाए, तब उस को निकाल कर छलनी की मदद से मैश कर लेंगे, जिस से बीज, छिलका और गूदा अलग हो जाएगा. अब गूदे को एल्युमिनियम के बरतन में रख कर मध्यम आंच पर लगातार चलाते हुए पकाएं.

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* इस के बाद चीनी डाल कर चलाते रहें.  अब इस में एक चम्मच साइट्रिक एसिड (5 ग्राम) डालेंगे.  1 ग्राम रेड रसभरी कलर डालें.  अब जैम तकरीबन बन कर तैयार चुका है. इस के बाद तैयार हुए जैम का परीक्षण करने के लिए इसे एक प्लेट पर चम्मच की मदद से गिराएंगे और प्लेट को तिरछा कर जैम को चला कर देखेंगे. अगर जैम का थक्का एकसाथ बिना पानी छोड़े चल रहा है, तो इस का मतलब हमारा जैम बन कर तैयार है.  अब हम इस में सुगंध मिला कर गरमागरम जैम हवारहित डब्बे में भर कर स्टोर कर लेंगे.  ध्यान रहे, जैम अगर एक बार खोलें तो उस को जल्द ही खा कर खत्म कर दिया जाए, क्योंकि खुला हुआ जैम ज्यादा दिन तक महफूज नहीं रहेगा.

सिंदूर विच्छेद: भाग 3- अधीरा पर शक करना कितना भारी पड़ा

जीतेजी अधीरा अपने दोनों बेटों से कह कर गई थी कि मैं मरूं तो मेरा तथाकथित पति मेरा अंतिम संस्कार ना करे. करना तो दूर, मेरा चेहरा भी ना देखे, मुझे छू भी ना सके और बेटों ने इस का पूरा मान रखा था.

अतीत के वे पल चलचित्र की भांति मनोज की आंखों में तैर उठे…

कुछ वर्ष शांति से बीते. मनोज का बिजनैस खूब तरक्की कर रहा था. दोनों बेटे भी पढ़लिख कर जौब करने लगे. सजल के लिए तो रिश्ते भी आने लगे थे. लंबे, आकर्षक दोनों बेटे तो अधीरा की आंखों के तारे थे. एक बडा़ फ्लैट भी खरीद लिया था दिल्ली में. दोनों बेटे वहीं रहते थे साथसाथ.

अकसर मनोज और अधीरा भी 1-2 दिन बच्चों के साथ रह आते थे.

सबकुछ ठीक चल रहा था. बच्चों की पढ़ाई और नौकरी के कारण कुछ वर्षों से अधीरा अकेली पड़ गई थी.मनोज अपने बिजनैस में बिजी रहता था और उस के शक्की स्वभाव के कारण अधीरा कहीं आतीजाती नहीं थी तो घर बैठेबैठे ही साहित्य में उसे रुचि हो आई थी.

काफी समय मिला तो कविताकहानी और लेखन में व्यस्त हो गई. मनोज भी देख कर खुश था कि घर बैठे ही वह अपना मन बहलाने लगी है.

‘अरे सजल बेटा, प्रगति मैदान में बुक फेयर लगा है. एक बार मुझे ले चलो.’

‘हां…हां…क्यों नहीं,’ दोनों बेटे अपनी मां की कोई बात नहीं टालते थे. कहने के साथ ही उस की सारी फरमाइशें पूरी करते थे. चाहे औनलाइन किताबें मंगानी हों या अधीरा के 45वें जन्मदिन पर उस का पसंदीदा 54 इंची प्लाज्मा टीवी घर में ला कर उसे आश्चर्यचकित कर देने का प्लान हो.

मनोज तो इतने दिन वहां रह नहीं सकता था. वह अपने शहर जबलपुर लौट गया.

6 फरवरी का दिन था जब अधीरा  सजल के साथ प्रगति मैदान गई थी.घर के बाहर की दुनिया और वह भी किताबों से लबालब देख कर उस की खुशी का पारावार ना था. वहां पहुंच कर सजल को भी कुछ दोस्त मिल गए. वह अधीरा को उस की पसंदीदा बुकस्टौल पर छोड़ कर कुछ देर के लिए चला गया.

‘अरे, अधीरा तुम…’ सामने से अधीरा की कुछ फेसबुक फ्रैंड्स चली आ रही थीं. उन से पहली बार मिलने का रोमांच ही अलग था.

‘हाय, तुम तो बहुत ही प्यारी हो अधीरा,’ प्रतिमा बोल पङी.

वह खुद भी कविताएं लिखती थी. कुछ काव्यसंग्रह भी आ गए थे उस के. पूनम, रेखा, तेजस सब मिल बैठीं तो सैल्फी का दौर चल पड़ा.

हंसतेखिलखिलाते चेहरों के साथ कितने ही फोटो खींच गए खूबसूरत यादें बनाने के लिए.

पास ही 22-23 साल के 2 नवयुवक सौरभ और प्रफुल्ल भी खड़े थे,’मैम,   आप बहुत अच्छी कविताएं लिखती हैं. बिलकुल दिल को छू जाती हैं.’

‘थैंक्स, तुम दोनों तो बिलकुल मेरे बेटे जैसे हो,” अधीरा कह उठी.

सब ने संगसाथ में खूब सैल्फी लीं. फोटो लेने के क्रम में दोनों लड़के और पूनम, प्रतिभा अधीरा के कुछ और करीब हो गए. प्रफुल्ल ने अधीरा के कांधे पर हाथ रख दिया. हंसीखुशी के पल कैमरे में कैद हो गए. अपने मनपसंद लेखकों की हस्ताक्षरित प्रति ले कर अधीरा बहुत खुश थी और दोनों बेटे उसे खुश देख कर खुश थे.

रात में खूब चाव से अधीरा ने बच्चों के पसंद का खाना बनाया. अगले दिन सुबह जबलपुर जाने के लिए अधीरा का ट्रेन में रिजर्वेशन करा दिया था बेटों ने. अकेले सफर करने के अवसर कम ही आए थे अधीरा के जीवन में.

पर वह रोमांचित थी. बेटों ने भी उस का हौंसला बढ़ाया,’मम्मी, आप अब अकेले आनाजाना शुरू करो. देखो सब महिलाएं अकेली कहांकहां हो आती हैं और दिल्ली के लिए तो बहुत सी सीधी ट्रेनें हैं.’

अगले दिन जबलपुर अपने घर पहुंच कर रात में अधीरा शौक से मनोज को अपने फोटो दिखाने लगी,’यह देखो मेरा फोटो, कवि सुरेंद्र के साथ… यह तसलीमा नसरीन के साथ… और यह मेरी फेसबुक फ्रैंड है और…’

‘यह तुम्हारे कांधे पर किस ने हाथ रखा है?’ मनोज ने पूछा.

अधीरा ने झट से फोटो आगे बढ़ा दी और उसे दूसरी फोटो दिखाने लगी.मनोज ने उस के हाथों से मोबाइल छीन लिया और फोटो स्लाइड कर के पूछने लगा,’यह लड़का कौन है और इस का हाथ कैसे आ गया तुम्हारे बदन पर?’

अविश्वास का फन ना केवल सिर उठा चुका था बल्कि जहरीली फुफकार भी मार रहा था. जिस बात से अधीरा बचना चाह रही थी वही हुआ…

‘तुम्हें वहां बुकफेयर देखने भेजा था मैं ने और तुम जा कर अपने यार के साथ ऐयाशी करने लगीं.’

‘प…प… पर वह तो मेरे बेटे की उम्र का है और हम तो पहली बार ही मिले थे.’

पर मनोज कुछ सुनने को तैयार नहीं था,’40 से ऊपर की उम्र हो गई तुम्हारी और अक्ल नाम की चीज नहीं है. बूढ़ी हो गई हो पर शौक जवानों के हैं.’

‘ओह…’

उस के कानों में जैसे पिघलता शीशा उङेल दिया गया हो. अधीरा रोरो कर रह गई. रातरात भर जागती रही थी. दिन में मुंह छिपाए पड़ी रहती थी. किस बात की सजा भुगत रही थी वह? एक औरत होने की? स्त्रीदेह ले कर पैदा होने की? स्त्रीदेह उस की पर मालिक है उस का पति मनोज? वह जब चाहे कठपुतली की तरह उसे नचाए…

अधीरा ने अपना फोन ही औफ कर के रख दिया. कुछ दिन बेटों से बात नहीं हुई तो तीसरे ही दिन बेटे घर आ पहुंचे. अधीरा की सूजी आंखें और उतरे चेहरे ने ही सब कहानी बयां कर दी.

मनोज अब भी अपने दंभ में बोले जा रहा था,’चरित्रहीन है, कुलटा है तुम्हारी मां.’

‘चुप रहिए,’ सजल चीख उठा.

‘आप के शक ने आप को अंधा कर दिया है पर मेरी मां को आप एक भी अपशब्द नहीं कहेंगे. मुझे मम्मी की सहेली मधु आंटी ने सब बता दिया है.

‘आप के शक का कोई इलाज नहीं है. इतनी समर्पित और प्रेम करने वाली पत्नी को आप ने जिंदा लाश बना कर रख दिया है,’ जवान बेटे का क्रोध देख कर मनोज ठंडा पड़ गया.

उधर अधीरा अपने दोनों जवान बेटों के सामने पति के मुंह से ऐसे लांक्षण सुन कर मानों शर्म से जमीन में गड़ी जा रही थी,’मैं क्यों न समा जाऊं धरती की गोद में? कब तक मैं देती रहूंगी अग्निपरीक्षा? अब कोई अग्निपरीक्षा नहीं…’

वह तङप कर बोल पङी एक दिन,’सजल, सारांश… मेरे बच्चो, अब मैं सफाई देतेदेते थक गई हूं. मैं मर जाऊं तो पति नाम के इस इंसान को मेरी मृतदेह को छूने मत देना और चेहरा भी मत देखने देना.

‘हो सके तो इतना कर के मेरे दूध का कर्ज चुका देना…’

उस दिन से अधीरा ने मनोज को पति के सिंहासन से उतार कर जमीन पर ला पटका.

समय बीतता गया. करवाचौथ आदि सब त्याग दिया अधीरा ने.

2 वर्षों के अंतराल पर दोनों बेटों का धूमधाम से विवाह कर दिया. सभी पारिवारिक और सामाजिक दायित्व बखूबी निभाए अधीरा ने पर मन में चरित्रहीनता की जो फांस चुभी थी  वह अब शहतीर बन गई थी.

एक रात वह सोई फिर कभी ना जागने के लिए.

कितनी बातें थीं जिन्हें साझा करने की जरूरत थी, कितने खुले घावों को सिला जाना था, कितनी खरोचों पर मोहब्बत के फाहे रखे जाने थे…पर घड़ी की टिकटिक ने नए घाव दिए..कितनाकितना हंसना था…कितनाकितना रोना… पर बेरहम वक्त ने उन्हें मुहलत न दी…पलक झपकी और पल गायब…

वहां उपस्थित लोगों के रूदन से मनोज अपने वर्तमान में लौट आया.

“हाय, क्या मैं अंतिम समय में अपनी जीवनसाथी का चेहरा भी नहीं देख सकूंगा…”

अधीरा का चिरनिद्रा में लीन चेहरा शांत था जैसे तमाम जिल्लत और रुसवाई से मुक्ति पा गई हो.

अधीरा की बहनें, सखियां और दोनों जिठानी तेज स्वर में रो रही थीं.  सजल अपने हाथों में मिट्टी का घड़ा ले कर जा रहा था. सारांश और परिवार के कुछ अन्य पुरुष अर्थी को कांधा दे कर ले जा रहे थे.

जिस अर्धांगिनी को वह हमेशा परपुरुष के नाम के साथ जोड़ कर उस का चरित्रहरण करता रहा उसे ही आज गैरपुरूष कांधा दे रहे थे पर मनोज के लिए ही वर्जित था अधीरा को छूना तक भी.

अविश्वास, शक का फुफकारता नाग मनोज के मन में आज निर्जीव सा पड़ा है और जीतेजी इसी लाश को ढोते रहना है उसे अब ताउम्र.

लेखिका- यामिनी नयन गुप्ता

दुविधा मकान मालिक की

नये शहर में मनपसन्द घर जितना ढूँढना कठिन हैं, उतना ही कठिन हैं, मकानमालिक के लिये किरायेदार का चयन करना . सरकारी सर्वे के मुताबिक ,शहरी इलाकों में 1.1 करोड़ लगभग  प्रापर्टीस खाली पड़ी हैं क्योंकि उनके मालिको को , प्रापर्टी किराये पर देने से डर लगता हैं.वे डरते हैं कि  कही किरायेदार ने कब्जा कर लिया तो उन्हें अपनी प्रापर्टी से हाथ ही न धोना पड़ जाये ..केंद्र सरकार “आदर्श किराया कानून” जल्द लाने वाली हैं, जिसमें मकान, दूकान मालिक और किरायेदार के बीच संतुलन कायम किया गया हैं  ,कोई मतभेद न हो और नियमानुसार काम हो .राज्य सरकारे इस मसौदे में अपने स्तर से बदलाव कर सकती हैं .

मकान मालिक के पास यदि एक से अधिक मकान ,दुकान होती हैं तो वे उसे किराए से,यह सोच कर  देते हैं कि  उन्हें अतिरिक्त आमदनी प्राप्त हो सकें . मालिकों की आमदनी में इजाफा करने  की जगह, कुछ  किरायेदार  किराया देना बंद कर देते हैं और प्रापर्टी में कब्जा कर लेते हैं . मकान मालिक ,कोर्ट कचहरी के चक्कर में फंस कर रह जाता हैं . किरायेदार लम्बे समय तक किसी प्रापर्टी का उपभोग करता हैं तो वो उस पर अपना मालिकाना हक समझने लगता हैं .पुराने प्रापर्टी में जिसमे किरायेदार  बीस से लेकर पचास साल तक रह रहा हो, वे किराया तो पुराने न्यूनतम कीमत की अदा  करते है मगर मालिक प्रापर्टी बेचने या अपने उपभोग के लिए खाली कराना चाहते हैं तो किरायेदार लाखो का मुआवजा माँगने लगते हैं .कुछ किरायेदार कोर्ट केस दाखिल कर देते हैं .

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शालिनी का परिवार  जिस हवेलीनुमा कोठी के  परिसर  में रह रहा हैं वो उसके दादा जी ने किराए से लिया था  .मकान काफ़ी जर्जर अवस्था में पहुँच चुका हैं .जिसका किराया आज की तारीख में भी मात्र २०० रूपये हैं .कोठी से जुड़े परिसर में शालिनी के जैसे दस परिवार और भी हैं . वे सभी मुंशी द्वारा किराया वसूलने आने पर ही किराया देते थे .जबसे उन सभी को मकान खाली करने को कहा  गया हैं वे सभी सिविल कोर्ट में किराया जमा करने लगे हैं . कोई भी लखनऊ की इस  पुरानी  और बेशकीमती जायदाद को खाली करने को तैयार नहीं हैं .इतने वर्षो में पुराने किरायेदार अपने नए मकानों में गए तो खुद ही अपने रिश्तेदारों को कब्जा दे गए. कुछ पड़ोसी को ही अपना परिसर गुपचुप तरीके से सौपं कर ,पैसे लेकर चले गए . जो परिसर में जमे हैं उनसे मालिक मकान का आग्रह हैं कि  या तो हमसे बीस लाख रूपये लो और परिसर खाली करो या फिर हमें तीस लाख दो और इसे खरीद लो . ऐसा ऑफर मिलने के बाद भी किरायेदार चुप्पी साधे बैठे हैं .

लखनऊ के चौक इलाके से अलीगंज में किराए से रहने आई महिला ने बताया कि उनका चौक का मकान काफ़ी पुराना व् खस्ताहाल हो गया हैं, जिसमें  बरसात का पानी भी रिसने लगा हैं. इसी वजह से वे चौक के सस्ते  किराये के मकान को छोड़कर  ,अलीगंज के महँगे किराये के  मकान में रहने आ गयी .उनका कहना था कि उस मकान में अन्य किरायेदार अभी भी रह रहे हैं .वे भी अपना पुराने सामान को वही छोड़कर आई हैं और वहां का  बिजली का बिल भर रही हैं . वे मकानमालिक से मुआवजा मिलने के बाद ही कब्जा छोड़ना चाहती हैं .

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ऐसे कई केसों में देखा गया हैं कि किरायेदार केस जीत गये और मकान मालिक केस हार जाते हैं .दरअसल हमारे सविधान में ऐसा कोई कानून नहीं हैं जो किरायेदार को मकान का मालिक बन जाने का हक देता हो .किरायेदार पचास वर्ष पुराना हो या पांच वर्ष ,वो हमेशा  किरायेदार ही रहेगा और मकान मालिक ,मालिक ही रहेगा .किसी के केस दायर कर देने से ,उसे मालिकाना हक नहीं मिल सकता .

जिन केसों में मकान मालिक की हार हुई हैं, उनके पास प्रापर्टी के वाजिब कागजात नहीं थे .इसी का फायदा किरायेदार को मिल जाता हैं. क्योंकि कागज की उपलब्धता न होने पर, वो अपना मालिकाना हक साबित नहीं कर पाते और किरायेदार प्रापर्टी का मालिक बन जाता हैं .

ऐसी परिस्तिथि से बचने के लिए यदि आप के पास प्रापर्टी के पूरे कागजात नहीं हैं तो अपना मकान किसी को रेंट पर न दें .

रेंट एग्रीमेंट जरुर बनाये और उसका  समय समय पर नवीनीकरण भी करते रहे. एग्रीमेंट में सभी परिस्तिथियाँ जुड़ी होनी चाहिए जैसे समयावधि ,किराया बढ़ोतरी आदि .

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अपने प्रोपर्टी की देखभाल करते रहें उसे किरायेदार के भरोसे न छोड़े .जब भी आवश्यक लगे मकान खाली करवा लें.

आदर्श किराया कानून किरायेदार के अधिकार

किरायेदार को अचानक ही घर,दुकान से   नहीं, निकाल सकते हैं . उसके साथ किये रेंट एग्रीमेंट के, तय समय के पूरा हो जाने पर ही ,उसे निकाला जा सकता हैं .

मकान मालिक अचानक ही किरायेदार के घर नहीं आ सकता .यदि मकान मालिक को किसी जरूरी कार्य से आना हैं तो चौबीस घंटे पहले एडवांस में नोटिस देना होगा .

मकान मालिक के अधिकार .

किरायेदार आपकी सम्पत्ति का दुरपयोग करें ,गैर क़ानूनी गतिविधियाँ चलाये या दो महीने तक किराया न दे या बिना इजाज़त ,किसी अन्य को अपनी जगह रखे  या  घर में व्यवसाय प्रारम्भ कर दे, प्रापर्टी का दुरुप्रयोग करें .उपरोक्त परिस्तिथियों में, एग्रीमेंट के तय समय से पूर्व भी , किरायेदार को निकाल सकते हैं.

.नये मसौदे में प्रस्ताव हैं कि अगर किरायेदार तय समय सीमा के अंतर्गत मकान या दूकान खाली न करें तो मकान मालिक  अगले दो महिने तक, उससे दोगुना किराये की मांग कर सकता हैं व् उसके अगले दो महीनों का उसे चार गुना तक किराया वसूलने का अधिकार होगा .

क्या करें

समझौता खत्म होने पर भी कई  किरायेदार घर खाली नहीं करते हैं .इस उलझन से बचने के लिए मकानमालिक अग्रीमेंट में ग्यारह महीने के बाद, दस प्रतिशत  किराया बढ़ोतरी का नियम भी जोड़ कर रखे . भारत में हर दो वर्षों में १० प्रतिशत तक किराया बढ़ाया जा सकता हैं . रेंट अग्रीमेंट खत्म होने के बाद भी यदि मकान खाली नहीं कर रहा हैं तो मकान मालिक को यह अधिकार दिया गया हैं  कि वो चार गुना तक  महीने का किराया मांग सकता हैं .

 

घर की मरम्मत की जिम्मेदारी मकानमालिक की होती हैं. प्रोपर्टी में छोटी रिपेयरिंग किरायेदार भी करा सकता हैं मगर उसे इसके लिए इजाजत लेनी चाहिए .मकानमालिक प्रोपर्टी को अच्छी हालत में रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं .मकान की देखभाल के लिए मकान मालिक और किरायेदार दोनों जिम्मेदार हैं .यदि मकान या बिल्डिंग में कोई बेहतर सुविधा बढ़ा दी गयी हैं तो किराया बढ़ाया जा सकता हैं. लेकिन इसमें किरायेदार से भी मशविरा किया जा सकता हैं ..वैसे किराया बढाने के लिए तीन महिने पहले नोटिस दिया जाना चाहिए .रेंट अग्रीमेंट खत्म होने से पहले किराया नहीं बढ़ाया जा सकता .

मकान ,दुकान खाली करवाने के लिए आपको एक महिने का नोटिस देना चाहिए .यदि खाली करने को तैयार न हो तो आपको सिविल कोर्ट में केस करना चाहिए .जहाँ आपके द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य के अधर पर कोर्ट अपना फैसला सुनाती हैं .उसके बाद ही आप अपनी मकान, दुकान खाली करवा सकते हैं .

आदर्श किराया कानून” लागू होने से ,पुराने किराया कानून अधिनियम की कमी पूरी होगी  और रियल एस्टेट क्षेत्र को प्रोत्साहन मिलेगा .नया कानून लागू  होने से मकान मालिकों का हौसला  बढ़ेगा और वे खाली मकानों ,दुकानों को बेहिचक किराए पर दे सकेंगे.

कचरा बीनने वाले भाइयों की सिंगिंग से हैरान हुए आनंद महिंद्रा

मशहूर बिजनेसमैन आनंद महिंद्रा आए दिन किसी ना किसी मदद करते रहते हैं और उन्हें सोशल मीडिया पर एक्टिंव रहना खूब पसंद है. उन्हें इस दौरान जब भी कोई पोस्ट अच्छी लगती है वो उन्हें जरूर शेयर करते हैं साथ ही प्रोत्साहित भी करते हैं. इस बार भी आनंद महिंद्रा ने कुछ ऐसा किया जिससे लोग उनकी तारिफ करते नहीं थक रहें. आनंद महिंद्रा इस बार कचरा बीनने वाले दो भाइयों ने अपनी सिंगिंग से हैरान कर दिया है. इस वीडियो में दिल्ली के फ्रेंड्स कॉलोनी इलाके में घरों से कूड़ा उठाने वाले दो लड़के बड़ी ही सुरीली आवाज में राहत फतह अली खान का गीत गुनगुना रहे थे. देखते ही देखते यह वीडियो सोशल मीडिया पर तेजी से वायरल हो गया. आनंद महिंद्रा ने ट्वीट कर दोनों भाइयों के वीडियो को शेयर किया है और साथ ही कहा है कि वो उनकी आगे की प्रोफेशनल म्यूजिक ट्रेनिंग भी करवाएंगे.

आनंद महिंद्रा ने अपने पहले ट्वीट करते हुए लिखा: “अतुल्य भारत. मेरे दोस्त रोहित खट्टर ने इस पोस्ट को शेयर किया, जो उन्हें सोशल मीडिया पर प्राप्त हुए. दो भाई, हफिज और हबीबुर दिल्ली के न्यू फ्रेंड्स कॉलोनी में कचरा बीनते हैं. जाहिर है, इसकी कोई सीमा नहीं है कि प्रतिभा कहां से निकल सकती है.”

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आनंद महिंद्रा ने अपने अगले ट्वीट में लिखा: “उनकी प्रतिभा कच्ची है, लेकिन साफ है. रोहित और मैं संगीत में उनके आगे की ट्रेनिंग का सपोर्ट करना चाहते हैं. क्या दिल्ली में कोई संगीत शिक्षक है जो वॉयस कोच के बारे में जानकारी शेयर कर सकता है, और जो उन्हें शाम को ट्रेनिंग दे सकते हैं, क्योंकि वे पूरे दिन काम करते हैं?

कौन है ये दोनों लड़के?

इस वीडियो के बाद हमने भी रविवार को उन दोनों लड़कों की तलाश शुरू की. काफी मशक्कत के बाद हम हबीबर और हाफिज़ को तलाशने में कामयाब रहे. दिल्ली के खादर गाँव की झुग्गियों में हबीबर और हाफिज अपने परिवार के साथ रहते हैं. उनसे बात करने पर पता चला। कि कूड़ा उठाना इनका पारिवारिक पेशा है. होश संभालने के बाद से ही इन लड़कों ने कूड़ा उठाने का काम शुरू कर दिया था. उनका कहना है कि गरीबी की वजह से दोनों भाई पढ़ाई नहीं कर पाए. आनंद महिंद्रा के दोस्त रोहित खट्टर के परिवार के किसी सदस्य ने इन दोनों लड़के की वीडियो बनाई थी. रोहित खट्टर के माध्यम से यह वीडियो आनंद महिंद्रा तक पहुँची.

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पिता भी है कमाल के गायक

इन दोनों लड़के के पिता शाहनवाज़ असम के रहने वाले हैं. वो कामकाज की तलाश में करीब बीस साल पहले दिल्ली आ गए. वो खुद बंगाली सूफी संगीत में माहिर हैं. उनका कहना है कि मैंने जो कुछ भी सीखा वो अब अपने बच्चों को स्वयं सीखा रहा हूं. वो कहते है कि पैसों की कमी और मोहताजी की वजह से बच्चों को नहीं पढ़ा पाए. वो खुद कव्वाली और भजन गाते हैं. उन्होंने बताया कि दिल्ली के अंदर होने वाली माता चौकी में वो बिना पैसे लिए भजन गाते हैं. साथ ही चाहते हैं कि उनके बच्चों को भी मौका मिले. अगर उनके बच्चों को मौका मिला तो वो जरूर उन्हें आगे भेजेंगे और उनकी मदद करेंगे.

बड़े टीवी प्रोग्राम से आने लगे हैं कॉल

बता दें कि वीडियो वायरल होने के बाद से ही उन्हें लगातार मुंबई से फोन आने लगे हैं. साथ ही बड़े रियलिटी शो में भी आने का निमंत्रण मिला है. जिसके लिए यह दोनों लड़के जल्द ही मुंबई रवाना हो जाएंगे. इस अचानक से आई खुशखबरी से परिवार वालों की भी ख़ुशी का ठिकाना नहीं है. माँ की आँखों में खुशी के आंसू थे और उनका कहना है कि उन्हें उम्मीद है कि शायद बेटों की मेहनत से उनके परिवार की तकदीर बदल सकती है.

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परिवार ने आनंद महिंद्रा को कहा धन्यवाद

हबीबर और हाफिज़ ने आनंद महिंद्रा का दिल से शुक्रिया अदा किया. साथ ही कहा कि उनकी वजह से शायद हम अपने सपने को पूरा कर पाएं. साथ ही शाहनवाज के पिता ने कहा कि अगर हमारे बच्चे आगे बढ़ते हैं और देश के लिए कुछ करते हैं तो मुझे बहुत गर्व होगा. आगे हमने जब रोहित खट्टर से बात की तो उनका कहना था कि वो इन लड़कों की मेहनत और इनकी आवाज़ से वो बहुत प्रभावित हैं. अगर इन बच्चों को किसी बड़े मंच पर मौका मिलता है तो इन्हें बहुत ख़ुशी होगी.

Bollywood: सरकारी नीतियों से बदतर होती फिल्म इंडस्ट्री

फिल्म इंडस्ट्री को उद्योग का दर्जा मिलने के साथसाथ बौलीवुड पर राजनीतिक शिकंजा कसना शुरू हुआ और बौलीवुड जाति, धर्म, ऊंच नीच व राजनीतिक सोच के अनुसार कई खेमों में बंटता चला गया.

वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के चेयरमैन, गीतकार व फिल्म पटकथा लेखक प्रसून जोशी तथा कुछ निर्माताओं की पहल पर कई फिल्मी कलाकारों, निर्माता व निर्देशकों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली में मुलाकात कर फिल्म इंडस्ट्री के विकास पर चर्चा की थी. उस के बाद अपने मुंबई आगमन पर भी कुछ फिल्मी हस्तियों संग प्रधानमंत्री ने मुलाकात कर काफी तसवीरें खिंचवाई थीं. लेकिन हकीकत में फिल्म इंडस्ट्री के हालात सुधरने के बजाय बदतर ही हुए हैं. फिल्म इंडस्ट्री के बदतर हालात के लिए सरकार द्वारा उठाए गए कदम कुसूरवार नहीं हैं.

कई वर्षों से फिल्म उद्योग, फिर चाहे वह बौलीवुड (मुंबई) हो या टौलीवुड (दक्षिण भारत), ने सुचारुरूप से फिल्म निर्माण व उन के वितरण आदि को जारी रखने के लिए अपनी एक स्वतंत्र प्रणाली व तंत्र को विकसित कर रखा था. इसी मकसद से 1937 में इंडियन मोशन पिक्चर्स एसोसिएशन (इम्पा) का गठन किया गया था.

यह एसोसिएशन फिल्म ‘आलम आरा’ के निर्मातानिर्देशक खान बहादुर आर्देशीर एम ईरानी के दिमाग की उपज थी, जिस में उन्हें चंदूलाल जे शाह, एम ए फजल भौय, जे बी एच वाडिया, चिमनलाल बी देसाई, रुस्तम सी एन बरूचा और शंकर लाल जे भट्ट का साथ मिला था. 2006 से इम्पा अध्यक्ष के तौर पर टी पी अग्रवाल काबिज हैं. अनिल नागरथ इस के सचिव हैं. इम्पा का अपना इम्पा वैलफेयर ट्रस्ट भी है. इस से इम्पा के सदस्य निर्माता  को बीमारी के समय सहायता दी जाती है. इम्पा का मानना रहा है कि अन्य सभी  32 एसोसिएशनें उस की छत के नीचे हैं.

इसी के साथ इस मुख्य एसोसिएशन के ही साथ फिल्म निर्माण में कार्यरत अलगअलग पेशे की एसोसिएशनों का गठन किया गया. इम्पा और प्रोड्यूसर गिल्ड के अलावा सिने एंड टीवी आर्टिस्ट एसोसिएशन,  इंडियन फिल्म डायरैक्टर एसोसिएशन,  द फिल्म राइटर एसोसिएशन, सिने म्यूजिक डायरैक्टर एसोसिएशन इत्यादि दर्जनों एसोसिएशनें गठित की गई हैं. जब बौलीवुड में राजनीतिज्ञों की घुसपैठ हुई तो शिवसेना व दूसरी राजनीतिक पार्टियों के भी अपने संगठन बौलीवुड में कार्यरत हो गए.

हर एसोसिएशन किसी को भी अपनी एसोसिएशन का सदस्य बनाने के नाम पर पहली बार एक लंबी रकम वसूल करती है. उस के बाद वार्षिक सदस्यता शुल्क भी वसूलती है. मसलन, कभी जूनियर आर्टिस्ट एसोसिएशन का कार्ड बनवाने यानी कि इस एसोसिएशन का सदस्य बनने के लिए एक जूनियर आर्टिस्ट को एक लाख से डेढ़ लाख रुपए देने पड़ते थे. अब कितना लिया जा रहा है, इस पर कोई कुछ कहने को तैयार नहीं है.

जबकि इम्पा के समानांतर ही वर्करों के हित के लिए 1958 में फैडरेशन औफ वैस्टर्न इंडिया सिने इम्पलौइज एसोसिएशन की स्थापना हुई, जिसे बहुत ज्यादा अहमियत कभी नहीं मिली. मगर 2014 के बाद यह एसोसिएशन हावी होती चली गई. अब इस एसोसिएशन का दावा है कि उस की छत के नीचे 31 एसोसिएशनें कार्यरत हैं और इन की कुल सदस्य संख्या 5 लाख है. इस के अध्यक्ष बी एन तिवारी हैं.

केंद्र में एनडीए की सरकार आने के बाद इस एसोसिएशन का दबदबा धीरेधीरे बढ़ता गया. उधर अब इम्पा का अस्तित्व न के बराबर है. वास्तव में द प्रोड्यूसर्स गिल्ड ज्यादा हावी है. वर्तमान समय में इम्पा के सदस्य शांत हैं, कोई भी सदस्य फिल्म का निर्माण नहीं कर रहा.

फैडरेशन आफ वैस्टर्न इंडिया सिने इम्पलौइज के अंतर्गत अधिकार फिल्म एंड टीवी वैंडर्स एसोसिएशन,  औल इंडिया कैमरामैन अटैंडैंट एंड तकनीशियन, औल इंडिया सिने एंड टीवी फूड सप्लायर्स एसोसिएशन इत्यादि सहित कुल 31 एसोसिएशनें आती हैं.

1954 में राजकपूर, शशधर मुखर्जी, महबूब खान, बी एन सरकार, व्ही शांताराम, विजय भट्ट व बी आर चोपड़ा ने द प्रोड्यूसर्स गिल्ड औफ इंडिया लिमिटेड स्थापित की थी. मगर वर्चस्व सिर्फ इम्पा का ही था. 2004 में टीवी निर्माता भी इस से जुड़े और तब इस का नाम बदल कर द फिल्म एंड टीवी प्रोड्यूसर्स गिल्ड औफ इंडिया किया गया. तभी से इस संस्था संग जुड़ कर रौनी स्क्रूवाला व सिद्धार्थ रौय कपूर ने रूपर्ट मर्डोक के इशारे पर खेल खेलना शुरू किया. 2006 से 2008 तक रौनी स्क्रूवाला इस गिल्ड के अध्यक्ष रहे. 2017 से सिद्धार्थ रौय कपूर इस के अध्यक्ष हैं (ज्ञातव्य है कि एक वक्त में रौनी स्क्रूवाला की कंपनी यूटीवी में सिद्धार्थ रौय कपूर कार्यरत थे जब 2003 में यूटीवी में रूपर्ट मर्डोक की हिस्सेदारी बढ़ी तब डिजनी यूटीवी के सीईओ सिद्धार्थ रौय कपूर बने थे. यह एक अलग बात है कि 2016 में सौ प्रतिशत एफडीआई का कानून बनते ही डिजनी यूटीवी पूरी तरह से डिजनी हो गया और सिद्धार्थ रौय कपूर की छुट्टी हो गई. 2017 से सिद्धार्थ रौय कपूर और रौनी स्क्रूवाला मिल कर आरएसवीपी नामक फिल्म प्रोडक्शन कंपनी चला रहे हैं).

2017 में प्रोड्यूसर्स गिल्ड ने पूर्णरूपेण इम्पा की ही तर्ज पर काम करना शुरू कर दिया. अब लोग इसे द प्रोड्यूसर्स गिल्ड औफ इंडिया के नाम से जानते हैं. मगर इस का रजिस्ट्रेशन अभी भी एक पब्लिक लिमिटेड कंपनी द फिल्म एंड टीवी प्रोड्यूसर्स गिल्ड औफ इंडिया लिमिटेड के रूप में ही है.

अब तक बौलीवुड की दूसरी सभी एसोसिएशनों ने बौलीवुड में कार्यरत हर विभाग के कलाकारों, वर्करों व तकनीशियनों की समस्याओं को सुलझाने व जरूरत के वक्त उन की मदद करने तक ही खुद को सीमित कर रखा था. लेकिन द प्रोड्यूसर्स गिल्ड ने विभिन्न व्यापार निकायों, जैसे फैडरेशन औफ इंडियन चैंबर्स औफ कौमर्स एंड इंडस्ट्रीज (फिक्की), भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) और पीएचडी चैंबर औफ कौमर्स द्वारा विभिन्न सैमिनार आयोजित कर के व्यापार व कानूनी विशेषज्ञों को विस्तृत रूप से जानने के लिए सहयोग करने का काम शुरू किया. गिल्ड ने ही सरकार के साथ मेलमुलाकातों का सिलसिला शुरू किया. इस के अलावा, गिल्ड ने फिल्म और टैलीविजन में उत्कृष्टता के लिए वार्षिक गिल्ड अवार्ड्स की स्थापना की है.

बौलीवुड में सभी एसोसिएशनों का काम सुचारुरूप से चल रहा था. फिल्म इंडस्ट्री में हर तरह के मतभेद ये संगठन आपस में बातचीत कर सुलझा लेते थे. परिणामतया फिल्म इंडस्ट्री के अंदर होने वाले झगड़े अदालत तक नहीं पहुंच पाते थे. इन एसोसिएशनों ने नियम बना रखा है कि किसी भी फिल्म, टीवी सीरियल या वैब सीरीज के निर्माण का हिस्सा कोई ऐसा शख्स नहीं हो सकता जो इंडस्ट्री के किसी भी एसोसिएशन का सदस्य न हो. इस तरह के नियम के चलते यदि कोई निर्माता किसी को पारिश्रमिक राशि नहीं देता है तो उस राशि को दिलवाने से ले कर हर तरह के विवाद को हल करने में ये एसोसिएशनें मदद करती आ रही हैं. यदि किसी निर्माता ने किसी को पारिश्रमिक राशि देने में आनाकानी की तो उस की अगली फिल्म में कोई भी कलाकार या तकनीशियन या वर्कर काम नहीं करता.

एसोसिएशन की कार्यशैली

यह अलग बात है कि फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े सभी संगठन फिल्म उद्योग में विभिन्न हितधारकों के लिए प्लेटफौर्मों व पंचायतों या यों कहें कि खाप पंचायतों की ही तरह काम करते रहे हैं और इन के निर्णय मानने के लिए सभी बाध्य होते थे. बौलीवुड के इन सभी संगठनों ने आम सहमति से नियम बनाया हुआ था कि उस इंसान के साथ कोई भी निर्माता, निर्देशक या संगठन काम नहीं करेगा, जो फिल्म इंडस्ट्री की किसी न किसी एक संस्था का सदस्य न हो. जब किसी गरीब व मजबूर वर्कर का पैसा कोई ताकतवर निर्माता नहीं देता था तब यह एसोसिएशन उस के लिए मददगार बन कर खड़ी होती थी. उस वक्त तो इन की खाप पंचायत वाली कार्यशैली प्रशंसा के योग्य भी होती थी. पर कई बार इन का खाप पंचायत जैसा बरताव कुछ लोगों को अखरता भी रहा है. समय के साथ बदलाव होना भी चाहिए. इन एसोसिएशनों की सब से बड़ी खूबी यह रही है कि इन में शिकायत किए जाने पर देश की अदालतों की तरह निर्णय होने में वक्त नहीं लगता है.

कंपीटिशन कमीशन ने बिगाड़ा खेल

प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने 2001 में फिल्म इंडस्ट्री को उद्योग का दर्जा देने के साथ ही बौलीवुड पर अपना शिकंजा कसना शुरू कर दिया. उसी वक्त से बौलीवुड के अंदर धीरेधीरे राजनीति हावी होने लगी. बौलीवुड जाति, धर्म, ऊंचनीच व राजनीतिक सोच के अनुसार कई खेमों में बंटना शुरू हो गया. उसी दौर में भाजपा ने बौलीवुड के इन संगठनों में अपनी पैठ बनानी शुरू कर दी. तो वहीं शिवसेना ने भी अपना एक संगठन खड़ा कर दिया.

लगभग डेढ़दो वर्ष बाद स्वच्छ प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देने के मकसद से 14 अक्तूबर, 2003 में तब की वाजपेयी सरकार ने भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग (कंपीटिशन कमीशन औफ इंडिया) का गठन किया जिस से बाजार को उपभोक्ताओं के हित का साधन बनाया जा सके. नवंबर 2018 से आईएएस अशोक कुमार गुप्ता इस के अध्यक्ष हैं. भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग ने सिनेमा तथा फिल्म इंडस्ट्री के हर विभाग के कामकाज व कार्यशैली के कमतर ज्ञान के बावजूद जिस तरह से बौलीवुड के कामकाज में दिलचस्पी लेनी शुरू की, उस से सभी को आश्चर्य हुआ.

सब से पहले अजय देवगन पहुंचे कंपीटिशन कमीशन

सरकार द्वारा 2003 में गठित किया गया कंपीटिशन कमीशन औफ इंडिया पहली बार 2012 में तब चर्चा में आया जब 13 नवंबर, 2012 को यशराज निर्मित व शाहरुख खान के अभिनय से सजी फिल्म ‘जब तक है जान’ और अजय देवगन निर्मित व उन के अभिनय से सजी फिल्म ‘सन औफ सरदार’ प्रदर्शित हुईं. उस वक्त यशराज फिल्म्स ने अपनी फिल्म ‘जब तक है जान’ के प्रदर्शन के लिए ज्यादातर सिनेमाघरों पर कब्जा कर लिया था. अजय देवगन को अपनी फिल्म ‘सन औफ सरदार’ के लिए अपेक्षित सिनेमाघर नहीं मिले थे. तब अजय देवगन ने इम्पा में शिकायत दर्ज कराने के बजाय एक नवंबर को भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग (कंपीटिशन कमीशन औफ इंडिया) में शिकायत दर्ज कराई थी, जिस पर कार्यवाही करते हुए जनवरी 2013 में भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग ने अजय देवगन की शिकायत को रद्द कर दिया था. तब तक अजय देवगन की फिल्म भी प्रदर्शित हो चुकी थी. कंपीटिशन कमीशन से अजय देवगन की याचिका रद्द होने पर बौलीवुड के अंदर चर्चाएं गरम हो गई थीं कि अगर अजय देवगन ने बौलीवुड की कई दशकों से चली आ रही पुरानी परंपरा के अनुसार एक नवंबर को ही इम्पा के दरवाजे पर दस्तक दी होती तो शायद 13 नवंबर से पहले कोई राह निकल आती.

नई सरकार के वक्त विपुल ए शाह पहुंचे कंपीटिशन कमीशन

2014 में सरकार के बदलते ही निर्मातानिर्देशक विपुल अमृतलाल शाह ने भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग में फिल्म उद्योग की सभी एसोसिएशनों के खिलाफ शिकायत की. विपुल ए शाह का तर्क था कि वे किसी भी इंसान, कलाकार, लेखक, कर्मचारी, वर्कर को ले कर फिल्म बनाने के लिए स्वतंत्र हैं मगर फिल्म उद्योग की विभिन्न एसोसिएशनें उन्हें ऐसा करने से रोकती हैं. विपुल ए शाह ने बौलीवुड की सभी 32 एसोसिएशनों के खिलाफ शिकायत की थी, जिस पर सुनवाई करते हुए देवेंद्र कुमार सिकरी की अध्यक्षता में कंपीटिशन कमीशन औफ इंडिया ने 31 अक्तूबर, 2017 को अपने 90 पन्ने के आदेश में विपुल ए शाह के पक्ष में निर्णय दिया. इस निर्णय ने सभी एसोसिएशनों के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान खड़ा कर दिया. उस के बाद लोग हर विवाद के लिए इन एसोसिएशनों में जाने के बजाय अदालत के दरवाजे खटखटाने लगे. फिलहाल पटकथा के कौपीराइट सहित कुछ मामले अदालत में लंबित हैं.

कंपीटिशन कमीशन की वजह से बौलीवुड में फैला जंगलराज?

कंपीटिशन कमीशन ने कमतर ज्ञान के चलते जिस तरह के निर्णय सुनाए, उन का सब से बड़ा खमियाजा 5 लाख डेली वेजर्स व कमजोर वर्करों को उठाना पड़ रहा है. अब ताकतवर निर्माता व निर्देशक न सिर्फ इन की पारिश्रमिक राशि हड़प रहे हैं बल्कि इन्हें काम भी नहीं दे रहे हैं. तमाम छोटेछोटे वर्करों के पेट पर लात पड़नी शुरू हो गई. काम करने के बाद उन की मेहनत का भुगतान नहीं किया जा रहा है. यह कटु सत्य है.

मसलन फिल्मकार रामगोपाल वर्मा ने लंबे समय से फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े कलाकारों, तकनीशियनों और वर्करों की पारिश्रमिक राशि नहीं चुकाई है. यह रकम सवा करोड़ रुपए से भी अधिक की है. वे उन नए वर्करों के साथ अपनी नई फिल्म बना रहे हैं जो किसी भी एसोसिएशन के सदस्य नहीं हैं. रामगोपाल वर्मा के इस कृत्य को ले कर वर्करों की तरफ से शिकायत मिलने के बाद फैडरेशन औफ वैस्टर्न इंडिया सिने इंप्लौइज ने कई बार रामगोपाल वर्मा को नोटिस भेज कर वर्करों का पैसा चुकाने का निवेदन किया. मगर रामगोपाल वर्मा के कानों में अब तक जूं नहीं रेंगी है.

फैडरेशन औफ वैस्टर्न इंडिया सिने एम्पलौइज के अध्यक्ष बी एन तिवारी कहते हैं, ‘‘हमें बीच में पता चला कि कोरोनाकाल के समय भी रामगोपाल वर्मा अपने एक प्रोजैक्ट की शूटिंग कर रहे हैं जिस पर हम ने गोवा के मुख्यमंत्री को भी 10 सितंबर, 2020 को पत्र लिखा था. हम चाहते थे कि रामगोपाल वर्मा गरीब तकनीशियनों, कलाकारों और वर्करों की बकाया राशि का भुगतान करें. मगर रामगोपाल वर्मा ने इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया. वे हमारे पत्र भी बैरंग वापस कर रहे हैं.’’

फिल्म इंडस्ट्री एसोसिएशनों ने खोई पहचान

इस भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग (कम्पीटिशन कमीशन औफ इंडिया) के दुर्भाग्यपूर्ण हस्तक्षेप ने फिल्म इंडस्ट्री के संगठनों व पंचायतों को लगभग दोषपूर्ण बना दिया. परिणाम अब अगर किसी निर्माता और वितरक या निर्माता और प्रदर्शक या निर्माता और ब्रौडकास्टर के बीच कोई विवाद है तो इसे केवल एक लंबे समय तक खींचे जाने वाले व बेहद बोझिल अदालती लड़ाई के जरिए ही हल किया जा सकता है.

धीरेधीरे फिल्म उद्योग के संगठन अपनी प्रासंगिकता और अधिकार खो सा चुके हैं. 2014 के बाद तो सरकारी दखलंदाजी व राजनीति इस कदर बढ़ी कि भाजपा समर्थक कुछ नए संगठन भी बन गए. द प्रोड्यूसर्स गिल्ड औफ इंडिया है जोकि 2004 से चर्चा में आना शुरू हुआ था. मगर 2017 के बाद यह बड़ी तेजी से उभरा और इस संगठन के चलते इम्पा का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है.

किस ने डुबोया इम्पा को

इम्पा अति पुराना संगठन होने के साथ ही इस संगठन के पास करोड़ों रुपए की संपत्ति भी है जिस पर कुछ खास लोगों का गिरोह ही 2006 से काबिज है. यों तो संस्था के नियमों के अनुसार, इम्पा की कार्यकारिणी का चुनाव हर 3 वर्ष पर होता है मगर यह चुनाव भी ठीक उसी तरह से होता है जिस तरह से कुछ दिनों पहले महाराष्ट्र में ग्राम पंचायतों के चुनाव हुए थे.

महाराष्ट्र में 15 जनवरी को संपन्न ग्राम पंचायत चुनाव से 2 दिनों पहले नासिक जिले के गांव उमरणे की ग्राम पंचायत की नीलामी 2 करोड़ और नंदूरबार जिले के गांव कोंडामली ग्राम पंचायत की नीलामी 42 लाख रुपए में हुई थी. यह अलग बात है कि इस की भनक चुनाव आयोग को लग गई और इन ग्राम पंचायतों के चुनाव रद्द कर दिए गए थे.

2006 से टी पी अग्रवाल गुट का इम्पा पर कब्जा है. 2006 से टी पी अग्रवाल ही लगातार इम्पा अध्यक्ष चुने जा रहे हैं. अभी इन का कार्यकाल 2022 तक है. इम्पा एक अति सशक्त संगठन रहा है. फिल्मों के नाम के रजिस्ट्रेशन से ले कर कई तरह के काम इस संस्था के तहत ही होते रहे हैं.

इसी वजह से एक ही नाम पर 2 फिल्में कभी नहीं बनीं. मगर इम्पा अध्यक्ष के नाते टी पी अग्रवाल की कुछ अपनी गलतियां, कुछ कंपीटिशन कमीशन औफ इंडिया की बेवजह की दखलंदाजी, कुछ सौ प्रतिशत एफडीआई के चलते विदेशी ताकतों की बढ़ी शक्ति व इंडस्ट्री के अंदर राजनीतिक दखलंदाजी के साथ ही द प्रोड्यूसर्स गिल्ड औफ इंडिया के बढ़ते प्रभाव से इम्पा का अस्तित्व लगभग समाप्त सा हो चुका है.

दो खेमों में बंटा बौलीवुड 

हकीकत में देखा जाए तो 2003 से धीरेधीरे बौलीवुड जंगलराज में तबदील होने लगा था. मगर 2014 के बाद तो पूरी तरह से जंगलराज कायम हो गया है. अब बौलीवुड खुल कर 2 खेमों में बंट चुका है. एक वह खेमा है जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भक्त है, दूसरा जो उन के साथ नहीं है. इसी जंगलराज व नीति के चलते धीरेधीरे बौलीवुड में सिंगल निर्माताओं का जीवित रहना असंभव हो गया है.

राजनीतिक दखलंदाजी, भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग की कार्यशैली और सौ प्रतिशत एफडीआई के चलते बौलीवुड में स्वतंत्र निर्माता, डिस्ट्रिब्यूटर और एक्जीबीटर अब जीवित नहीं रह सकते. अब सिस्टम मुट्ठीभर संस्थाओं द्वारा संचालित है जो स्वतंत्ररूप से कार्य करने वालों को बाहर का रास्ता दिखाती रहती हैं. एक निर्माता बिना ओटीटी प्लेटफौर्म या बड़े खिलाड़ी के आदेश के बिना अपनी फिल्म का प्रचार तक नहीं कर सकता. प्रचार के मंच, विभिन्न टीवी चैनल और एफएम रेडियो स्टेशन वगैरह भी कुछ विदेशी संस्थाओं द्वारा नियंत्रित होते हैं जो बिना किसी नियम का पालन किए मनमाने ढंग से कार्य कर रहे हैं.

फिल्म इंडस्ट्री के लिए रैगुलेटरी बौडी की मांग

मजेदार बात यह है कि अब बौलीवुड के अंदर का एक तबका तो फिल्म व टीवी इंडस्ट्री के लिए भी एक रैगुलेटरी बौडी बनाने की मांग करने लगा है.

टीवी सीरियल ‘नया जमाना’ का निर्माण व निर्देशन कर चुके राजेश कुमार सिंह का तर्क है कि वर्तमान सरकार स्वस्थ प्रतिस्पर्धी माहौल में सभी के लिए समान अवसर प्रदान करने में विश्वास करती है, इसलिए इसे सुनिश्चित करने के लिए एक भारतीय फिल्म एवं टीवी उद्योग नियामक प्राधिकरण बनाया जाए. उन्होंने इस बाबत सरकार के नाम एक खुला खत लिखा है.

अपने खुले पत्र में राजेश कुमार सिंह ने फिल्म इंडस्ट्री के विकास के लिए 4 मुख्य मांगें रखी हैं-

  1. उद्योग के कारोबार और विकास की निगरानी के लिए एक विश्वसनीय संरचना का निर्माण किया जाए. इस में बौक्सऔफिस कलैक्शन और टीवी व्यूअरशिप मौनिटरिंग अथौरिटी के लिए रिपोर्टिंग इंफ्रास्ट्रक्चर की स्थापना शामिल हो.
  2. फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े विभिन्न हितधारकों के बीच विवाद निबटान के लिए एक बुनियादी ढांचा व तंत्र का निर्माण किया जाए जो विभिन्न हितधारकों के बीच अपने निर्णयों को लागू करने के लिए पर्याप्त अधिकार के साथ सरकार द्वारा अधिकृत पंचायत के रूप में कार्य करे.
  3. एक ऐसी नियामक संस्था का गठन किया जाए जोकि प्रतिस्पर्धी माहौल को बिगाड़ने वालों और कई तरीकों से छोटे खिलाडि़यों के साथ भेदभाव करने वालों को नियंत्रित कर सके. इस पर नजर रखने के लिए एक चौकीदार निकाय का निर्माण हो. इस निकाय को गलत संस्थाओं के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई करने का अधिकार हो.
  4. राष्ट्र के नीतिनिर्माताओं और योजनाकारों को आवश्यक इनपुट प्रदान कर के उद्योग के साथसाथ विश्व स्तर पर इस की पूरी क्षमता का दोहन कर के उद्योग की आगे की वृद्धि सुनिश्चित करने के लिए विचारों व दृष्टिकोणों का विकास किया जाए.

कोरोना वायरस के दौरान इम्पा ने फैडरेशन औफ वैस्टर्न इंडिया सिने इम्पलौइज  को भेजे कानूनी नोटिस टी पी अग्रवाल इम्पा के माध्यम से कुछ भी सकारात्मक काम करने के बजाय ‘मेरी कमीज से तुम्हारी कमीज साफ क्यों’ की लड़ाई लड़ने में ही धन व समय बरबाद करते नजर आते हैं. कोरोना वायरस के प्रकोप के दौरान जब 3 माह का पूरा लौकडाउन था, जब देश के साथ ही पूरी फिल्म इंडस्ट्री बंद थी, तब फैडरेशन औफ वैस्टर्न इंडिया सिने इम्पलौइज ने सलमान खान व अन्य लोगों से विनती कर अपने संगठन से जुड़े लोगों तक कुछ धनराशि व राशन सामग्री भिजवाने की व्यवस्था की थी.

फैडरेशन औफ वैस्टर्न इंडिया सिने इम्पलौइज ने सरकार से बात की. इतना ही नहीं, फिल्म इंडस्ट्री में जल्द से जल्द शूटिंग शुरू करने की इजाजत देने के लिए इस संगठन ने गिल्ड और सिंटा के साथ मिल कर सरकार से बात की. फैडरेशन औफ वैस्टर्न इंडिया सिने इम्पलौइज ने केंद्र सरकार, केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्रालय व महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को कई पत्र लिखे. तब टी पी अग्रवाल ने इम्पा  की तरफ से फैडरेशन के अध्यक्ष बी एन तिवारी को कानूनी नोटिस भेजा था कि वे झूठ बोल रहे हैं. उन के संगठन के पास 5 लाख सदस्य नहीं हैं और इम्पा ही एकमात्र संस्था है जोकि बौलीवुड का प्रतिनिधित्व करती है. इम्पा ने सरकार को भी इसी आशय का पत्र लिखा था जिस का फैडरेशन ने मुंहतोड़ जवाब देते हुए अपने सदस्यों की एक सूची तक भेजी थी. कहने का अर्थ यह है कि टी पी अग्रवाल के नेतृत्व में इम्पा ने आपस में ही लड़ाई की. इस के चलते भी फिल्म उद्योग की संस्थाएं चरमरा गईं.

एसोसिएशनों को राजनीति से मुक्त करने की जरूरत

वास्तव में भारतीय फिल्म उद्योग के समुचित विकास व वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा करने के लिए सरकार को मनोरंजन क्षेत्र में सौ प्रतिशत की एफडीआई की छूट नहीं देनी चाहिए थी. इस के अलावा, कला जगत व फिल्म इंडस्ट्री को भी कंपीटिशन कमीशन के अंतर्गत नहीं लाना चाहिए था. मगर फिल्म इंडस्ट्री की सभी एसोसिएशनों को सुचारुरूप से चलने देने के साथ इन एसोसिएशनों की कार्यशैली पर अंकुश रखने की जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता क्योंकि इम्पा, द प्रोड्यूसर्स गिल्ड, फिल्म डायरैक्टर्स एसोसिएशन, सिने फिल्म एंड टीवी आर्टिस्ट एसोसिएशन जैसी फिल्म इंडस्ट्री की अपनी एसोसिएशनें काफी बड़ी हैं. इन के सदस्य भी करोड़ों रुपए कमाने वाले हैं.

हालांकि इन के अपने अंदरूनी चुनाव दूध के धुले नहीं हैं मगर फिल्म इंडस्ट्री की एसोसिएशन आदि पर अंकुश रख कर परोक्ष या अपरोक्ष रूप से रचनात्मक स्वतंत्रता पर पाबंदी का भी समर्थन नहीं किया जा सकता. इस के अलावा इन एसोसिएशनों को राजनीति से दूर रखना चाहिए जोकि फिलहाल नजर नहीं आता.

वर्तमान समय में यदि इन एसोसिएशनों पर बारीकी से गौर किया जाए तो लगभग सभी बड़ी एसोसिएशनों की कार्यकारिणी में वही लोग हैं जो भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा से जुड़े हुए या इस राजनीतिक दल की किसी न किसी संस्था का हिस्सा हैं. यदि बौलीवुड की सभी एसोसिएशनें राजनीति से मुक्त हो जाएं तो वे फिल्म इंडस्ट्री का विकास करने व वर्करों के हित साधने की दिशा में सही व बेहतर ढंग से काम कर सकती हैं.

फिल्म इंडस्ट्री के मुख्य संगठन

इम्पा :

सदस्यता शुल्क : 11,800 रुपए. फिर प्रतिवर्ष 1,180 रुपए अथवा आजीवन सदस्यता शुल्क 41,300 रुपए है.

सिने एंड टीवी आर्टिस्ट एसोसिएशन (सिंटा) :

1958 में स्थापित कलाकारों की संस्था का नाम सिने आर्टिस्ट एसोसिएशन था. इस की पहली अध्यक्ष दुर्गा खोटे थीं. लेकिन टीवी इंडस्ट्री के विकसित होने व सैटेलाइट चैनलों के आने के बाद इस का नाम सिने एंड टीवी आर्टिस्ट एसोसिएशन किया गया. फिलहाल 9,000 कलाकार इस के सदस्य हैं. इस का सदस्यता शुल्क पहले 3 वर्ष तक प्रतिवर्ष 10 हजार रुपए है, चौथे वर्ष से प्रतिवर्ष 1,200 रुपए है.

निर्देशकों की संस्था :

इंडियन फिल्म डायरैक्टर्स एसोसिएशन का ठन 1959 में हुआ था. टीवी चैनलों के विस्तार के बाद 23 दिसंबर, 2007 को इस का नाम इंडियन फिल्म एंड टीवी डायरैक्टर्स एसोसिएशन हो गया. फिलहाल इस के 10 हजार सदस्य हैं और इस के वर्तमान अध्यक्ष अशोक पंडित हैं. इस का प्रथम वर्ष का सदस्यता शुल्क 25 हजार एक रुपए है तथा आजीवन सदस्यता शुल्क 50 हजार एक सौ रुपए है.

सिने म्यूजीशियन एसोसिएशन :

1952 में स्थापित इस संस्था के वर्तमान अध्यक्ष अमर हल्दीपुर हैं.

सिने म्यूजिक डायरैक्टर्स एसोसिएशन :

इस संस्था के वर्तमान अध्यक्ष रंजीत बारोट हैं. प्रथम वर्ष 14,160 रुपए चुकाने होते हैं. इस के अलावा जिस तरह से संगीतकार काम करता है उस पर अलग से शुल्क भी देना पड़ता है.

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