फिल्म इंडस्ट्री को उद्योग का दर्जा मिलने के साथसाथ बौलीवुड पर राजनीतिक शिकंजा कसना शुरू हुआ और बौलीवुड जाति, धर्म, ऊंच नीच व राजनीतिक सोच के अनुसार कई खेमों में बंटता चला गया.

वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के चेयरमैन, गीतकार व फिल्म पटकथा लेखक प्रसून जोशी तथा कुछ निर्माताओं की पहल पर कई फिल्मी कलाकारों, निर्माता व निर्देशकों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली में मुलाकात कर फिल्म इंडस्ट्री के विकास पर चर्चा की थी. उस के बाद अपने मुंबई आगमन पर भी कुछ फिल्मी हस्तियों संग प्रधानमंत्री ने मुलाकात कर काफी तसवीरें खिंचवाई थीं. लेकिन हकीकत में फिल्म इंडस्ट्री के हालात सुधरने के बजाय बदतर ही हुए हैं. फिल्म इंडस्ट्री के बदतर हालात के लिए सरकार द्वारा उठाए गए कदम कुसूरवार नहीं हैं.

कई वर्षों से फिल्म उद्योग, फिर चाहे वह बौलीवुड (मुंबई) हो या टौलीवुड (दक्षिण भारत), ने सुचारुरूप से फिल्म निर्माण व उन के वितरण आदि को जारी रखने के लिए अपनी एक स्वतंत्र प्रणाली व तंत्र को विकसित कर रखा था. इसी मकसद से 1937 में इंडियन मोशन पिक्चर्स एसोसिएशन (इम्पा) का गठन किया गया था.

यह एसोसिएशन फिल्म ‘आलम आरा’ के निर्मातानिर्देशक खान बहादुर आर्देशीर एम ईरानी के दिमाग की उपज थी, जिस में उन्हें चंदूलाल जे शाह, एम ए फजल भौय, जे बी एच वाडिया, चिमनलाल बी देसाई, रुस्तम सी एन बरूचा और शंकर लाल जे भट्ट का साथ मिला था. 2006 से इम्पा अध्यक्ष के तौर पर टी पी अग्रवाल काबिज हैं. अनिल नागरथ इस के सचिव हैं. इम्पा का अपना इम्पा वैलफेयर ट्रस्ट भी है. इस से इम्पा के सदस्य निर्माता  को बीमारी के समय सहायता दी जाती है. इम्पा का मानना रहा है कि अन्य सभी  32 एसोसिएशनें उस की छत के नीचे हैं.

इसी के साथ इस मुख्य एसोसिएशन के ही साथ फिल्म निर्माण में कार्यरत अलगअलग पेशे की एसोसिएशनों का गठन किया गया. इम्पा और प्रोड्यूसर गिल्ड के अलावा सिने एंड टीवी आर्टिस्ट एसोसिएशन,  इंडियन फिल्म डायरैक्टर एसोसिएशन,  द फिल्म राइटर एसोसिएशन, सिने म्यूजिक डायरैक्टर एसोसिएशन इत्यादि दर्जनों एसोसिएशनें गठित की गई हैं. जब बौलीवुड में राजनीतिज्ञों की घुसपैठ हुई तो शिवसेना व दूसरी राजनीतिक पार्टियों के भी अपने संगठन बौलीवुड में कार्यरत हो गए.

हर एसोसिएशन किसी को भी अपनी एसोसिएशन का सदस्य बनाने के नाम पर पहली बार एक लंबी रकम वसूल करती है. उस के बाद वार्षिक सदस्यता शुल्क भी वसूलती है. मसलन, कभी जूनियर आर्टिस्ट एसोसिएशन का कार्ड बनवाने यानी कि इस एसोसिएशन का सदस्य बनने के लिए एक जूनियर आर्टिस्ट को एक लाख से डेढ़ लाख रुपए देने पड़ते थे. अब कितना लिया जा रहा है, इस पर कोई कुछ कहने को तैयार नहीं है.

जबकि इम्पा के समानांतर ही वर्करों के हित के लिए 1958 में फैडरेशन औफ वैस्टर्न इंडिया सिने इम्पलौइज एसोसिएशन की स्थापना हुई, जिसे बहुत ज्यादा अहमियत कभी नहीं मिली. मगर 2014 के बाद यह एसोसिएशन हावी होती चली गई. अब इस एसोसिएशन का दावा है कि उस की छत के नीचे 31 एसोसिएशनें कार्यरत हैं और इन की कुल सदस्य संख्या 5 लाख है. इस के अध्यक्ष बी एन तिवारी हैं.

केंद्र में एनडीए की सरकार आने के बाद इस एसोसिएशन का दबदबा धीरेधीरे बढ़ता गया. उधर अब इम्पा का अस्तित्व न के बराबर है. वास्तव में द प्रोड्यूसर्स गिल्ड ज्यादा हावी है. वर्तमान समय में इम्पा के सदस्य शांत हैं, कोई भी सदस्य फिल्म का निर्माण नहीं कर रहा.

फैडरेशन आफ वैस्टर्न इंडिया सिने इम्पलौइज के अंतर्गत अधिकार फिल्म एंड टीवी वैंडर्स एसोसिएशन,  औल इंडिया कैमरामैन अटैंडैंट एंड तकनीशियन, औल इंडिया सिने एंड टीवी फूड सप्लायर्स एसोसिएशन इत्यादि सहित कुल 31 एसोसिएशनें आती हैं.

1954 में राजकपूर, शशधर मुखर्जी, महबूब खान, बी एन सरकार, व्ही शांताराम, विजय भट्ट व बी आर चोपड़ा ने द प्रोड्यूसर्स गिल्ड औफ इंडिया लिमिटेड स्थापित की थी. मगर वर्चस्व सिर्फ इम्पा का ही था. 2004 में टीवी निर्माता भी इस से जुड़े और तब इस का नाम बदल कर द फिल्म एंड टीवी प्रोड्यूसर्स गिल्ड औफ इंडिया किया गया. तभी से इस संस्था संग जुड़ कर रौनी स्क्रूवाला व सिद्धार्थ रौय कपूर ने रूपर्ट मर्डोक के इशारे पर खेल खेलना शुरू किया. 2006 से 2008 तक रौनी स्क्रूवाला इस गिल्ड के अध्यक्ष रहे. 2017 से सिद्धार्थ रौय कपूर इस के अध्यक्ष हैं (ज्ञातव्य है कि एक वक्त में रौनी स्क्रूवाला की कंपनी यूटीवी में सिद्धार्थ रौय कपूर कार्यरत थे जब 2003 में यूटीवी में रूपर्ट मर्डोक की हिस्सेदारी बढ़ी तब डिजनी यूटीवी के सीईओ सिद्धार्थ रौय कपूर बने थे. यह एक अलग बात है कि 2016 में सौ प्रतिशत एफडीआई का कानून बनते ही डिजनी यूटीवी पूरी तरह से डिजनी हो गया और सिद्धार्थ रौय कपूर की छुट्टी हो गई. 2017 से सिद्धार्थ रौय कपूर और रौनी स्क्रूवाला मिल कर आरएसवीपी नामक फिल्म प्रोडक्शन कंपनी चला रहे हैं).

2017 में प्रोड्यूसर्स गिल्ड ने पूर्णरूपेण इम्पा की ही तर्ज पर काम करना शुरू कर दिया. अब लोग इसे द प्रोड्यूसर्स गिल्ड औफ इंडिया के नाम से जानते हैं. मगर इस का रजिस्ट्रेशन अभी भी एक पब्लिक लिमिटेड कंपनी द फिल्म एंड टीवी प्रोड्यूसर्स गिल्ड औफ इंडिया लिमिटेड के रूप में ही है.

अब तक बौलीवुड की दूसरी सभी एसोसिएशनों ने बौलीवुड में कार्यरत हर विभाग के कलाकारों, वर्करों व तकनीशियनों की समस्याओं को सुलझाने व जरूरत के वक्त उन की मदद करने तक ही खुद को सीमित कर रखा था. लेकिन द प्रोड्यूसर्स गिल्ड ने विभिन्न व्यापार निकायों, जैसे फैडरेशन औफ इंडियन चैंबर्स औफ कौमर्स एंड इंडस्ट्रीज (फिक्की), भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) और पीएचडी चैंबर औफ कौमर्स द्वारा विभिन्न सैमिनार आयोजित कर के व्यापार व कानूनी विशेषज्ञों को विस्तृत रूप से जानने के लिए सहयोग करने का काम शुरू किया. गिल्ड ने ही सरकार के साथ मेलमुलाकातों का सिलसिला शुरू किया. इस के अलावा, गिल्ड ने फिल्म और टैलीविजन में उत्कृष्टता के लिए वार्षिक गिल्ड अवार्ड्स की स्थापना की है.

बौलीवुड में सभी एसोसिएशनों का काम सुचारुरूप से चल रहा था. फिल्म इंडस्ट्री में हर तरह के मतभेद ये संगठन आपस में बातचीत कर सुलझा लेते थे. परिणामतया फिल्म इंडस्ट्री के अंदर होने वाले झगड़े अदालत तक नहीं पहुंच पाते थे. इन एसोसिएशनों ने नियम बना रखा है कि किसी भी फिल्म, टीवी सीरियल या वैब सीरीज के निर्माण का हिस्सा कोई ऐसा शख्स नहीं हो सकता जो इंडस्ट्री के किसी भी एसोसिएशन का सदस्य न हो. इस तरह के नियम के चलते यदि कोई निर्माता किसी को पारिश्रमिक राशि नहीं देता है तो उस राशि को दिलवाने से ले कर हर तरह के विवाद को हल करने में ये एसोसिएशनें मदद करती आ रही हैं. यदि किसी निर्माता ने किसी को पारिश्रमिक राशि देने में आनाकानी की तो उस की अगली फिल्म में कोई भी कलाकार या तकनीशियन या वर्कर काम नहीं करता.

एसोसिएशन की कार्यशैली

यह अलग बात है कि फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े सभी संगठन फिल्म उद्योग में विभिन्न हितधारकों के लिए प्लेटफौर्मों व पंचायतों या यों कहें कि खाप पंचायतों की ही तरह काम करते रहे हैं और इन के निर्णय मानने के लिए सभी बाध्य होते थे. बौलीवुड के इन सभी संगठनों ने आम सहमति से नियम बनाया हुआ था कि उस इंसान के साथ कोई भी निर्माता, निर्देशक या संगठन काम नहीं करेगा, जो फिल्म इंडस्ट्री की किसी न किसी एक संस्था का सदस्य न हो. जब किसी गरीब व मजबूर वर्कर का पैसा कोई ताकतवर निर्माता नहीं देता था तब यह एसोसिएशन उस के लिए मददगार बन कर खड़ी होती थी. उस वक्त तो इन की खाप पंचायत वाली कार्यशैली प्रशंसा के योग्य भी होती थी. पर कई बार इन का खाप पंचायत जैसा बरताव कुछ लोगों को अखरता भी रहा है. समय के साथ बदलाव होना भी चाहिए. इन एसोसिएशनों की सब से बड़ी खूबी यह रही है कि इन में शिकायत किए जाने पर देश की अदालतों की तरह निर्णय होने में वक्त नहीं लगता है.

कंपीटिशन कमीशन ने बिगाड़ा खेल

प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने 2001 में फिल्म इंडस्ट्री को उद्योग का दर्जा देने के साथ ही बौलीवुड पर अपना शिकंजा कसना शुरू कर दिया. उसी वक्त से बौलीवुड के अंदर धीरेधीरे राजनीति हावी होने लगी. बौलीवुड जाति, धर्म, ऊंचनीच व राजनीतिक सोच के अनुसार कई खेमों में बंटना शुरू हो गया. उसी दौर में भाजपा ने बौलीवुड के इन संगठनों में अपनी पैठ बनानी शुरू कर दी. तो वहीं शिवसेना ने भी अपना एक संगठन खड़ा कर दिया.

लगभग डेढ़दो वर्ष बाद स्वच्छ प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देने के मकसद से 14 अक्तूबर, 2003 में तब की वाजपेयी सरकार ने भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग (कंपीटिशन कमीशन औफ इंडिया) का गठन किया जिस से बाजार को उपभोक्ताओं के हित का साधन बनाया जा सके. नवंबर 2018 से आईएएस अशोक कुमार गुप्ता इस के अध्यक्ष हैं. भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग ने सिनेमा तथा फिल्म इंडस्ट्री के हर विभाग के कामकाज व कार्यशैली के कमतर ज्ञान के बावजूद जिस तरह से बौलीवुड के कामकाज में दिलचस्पी लेनी शुरू की, उस से सभी को आश्चर्य हुआ.

सब से पहले अजय देवगन पहुंचे कंपीटिशन कमीशन

सरकार द्वारा 2003 में गठित किया गया कंपीटिशन कमीशन औफ इंडिया पहली बार 2012 में तब चर्चा में आया जब 13 नवंबर, 2012 को यशराज निर्मित व शाहरुख खान के अभिनय से सजी फिल्म ‘जब तक है जान’ और अजय देवगन निर्मित व उन के अभिनय से सजी फिल्म ‘सन औफ सरदार’ प्रदर्शित हुईं. उस वक्त यशराज फिल्म्स ने अपनी फिल्म ‘जब तक है जान’ के प्रदर्शन के लिए ज्यादातर सिनेमाघरों पर कब्जा कर लिया था. अजय देवगन को अपनी फिल्म ‘सन औफ सरदार’ के लिए अपेक्षित सिनेमाघर नहीं मिले थे. तब अजय देवगन ने इम्पा में शिकायत दर्ज कराने के बजाय एक नवंबर को भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग (कंपीटिशन कमीशन औफ इंडिया) में शिकायत दर्ज कराई थी, जिस पर कार्यवाही करते हुए जनवरी 2013 में भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग ने अजय देवगन की शिकायत को रद्द कर दिया था. तब तक अजय देवगन की फिल्म भी प्रदर्शित हो चुकी थी. कंपीटिशन कमीशन से अजय देवगन की याचिका रद्द होने पर बौलीवुड के अंदर चर्चाएं गरम हो गई थीं कि अगर अजय देवगन ने बौलीवुड की कई दशकों से चली आ रही पुरानी परंपरा के अनुसार एक नवंबर को ही इम्पा के दरवाजे पर दस्तक दी होती तो शायद 13 नवंबर से पहले कोई राह निकल आती.

नई सरकार के वक्त विपुल ए शाह पहुंचे कंपीटिशन कमीशन

2014 में सरकार के बदलते ही निर्मातानिर्देशक विपुल अमृतलाल शाह ने भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग में फिल्म उद्योग की सभी एसोसिएशनों के खिलाफ शिकायत की. विपुल ए शाह का तर्क था कि वे किसी भी इंसान, कलाकार, लेखक, कर्मचारी, वर्कर को ले कर फिल्म बनाने के लिए स्वतंत्र हैं मगर फिल्म उद्योग की विभिन्न एसोसिएशनें उन्हें ऐसा करने से रोकती हैं. विपुल ए शाह ने बौलीवुड की सभी 32 एसोसिएशनों के खिलाफ शिकायत की थी, जिस पर सुनवाई करते हुए देवेंद्र कुमार सिकरी की अध्यक्षता में कंपीटिशन कमीशन औफ इंडिया ने 31 अक्तूबर, 2017 को अपने 90 पन्ने के आदेश में विपुल ए शाह के पक्ष में निर्णय दिया. इस निर्णय ने सभी एसोसिएशनों के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान खड़ा कर दिया. उस के बाद लोग हर विवाद के लिए इन एसोसिएशनों में जाने के बजाय अदालत के दरवाजे खटखटाने लगे. फिलहाल पटकथा के कौपीराइट सहित कुछ मामले अदालत में लंबित हैं.

कंपीटिशन कमीशन की वजह से बौलीवुड में फैला जंगलराज?

कंपीटिशन कमीशन ने कमतर ज्ञान के चलते जिस तरह के निर्णय सुनाए, उन का सब से बड़ा खमियाजा 5 लाख डेली वेजर्स व कमजोर वर्करों को उठाना पड़ रहा है. अब ताकतवर निर्माता व निर्देशक न सिर्फ इन की पारिश्रमिक राशि हड़प रहे हैं बल्कि इन्हें काम भी नहीं दे रहे हैं. तमाम छोटेछोटे वर्करों के पेट पर लात पड़नी शुरू हो गई. काम करने के बाद उन की मेहनत का भुगतान नहीं किया जा रहा है. यह कटु सत्य है.

मसलन फिल्मकार रामगोपाल वर्मा ने लंबे समय से फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े कलाकारों, तकनीशियनों और वर्करों की पारिश्रमिक राशि नहीं चुकाई है. यह रकम सवा करोड़ रुपए से भी अधिक की है. वे उन नए वर्करों के साथ अपनी नई फिल्म बना रहे हैं जो किसी भी एसोसिएशन के सदस्य नहीं हैं. रामगोपाल वर्मा के इस कृत्य को ले कर वर्करों की तरफ से शिकायत मिलने के बाद फैडरेशन औफ वैस्टर्न इंडिया सिने इंप्लौइज ने कई बार रामगोपाल वर्मा को नोटिस भेज कर वर्करों का पैसा चुकाने का निवेदन किया. मगर रामगोपाल वर्मा के कानों में अब तक जूं नहीं रेंगी है.

फैडरेशन औफ वैस्टर्न इंडिया सिने एम्पलौइज के अध्यक्ष बी एन तिवारी कहते हैं, ‘‘हमें बीच में पता चला कि कोरोनाकाल के समय भी रामगोपाल वर्मा अपने एक प्रोजैक्ट की शूटिंग कर रहे हैं जिस पर हम ने गोवा के मुख्यमंत्री को भी 10 सितंबर, 2020 को पत्र लिखा था. हम चाहते थे कि रामगोपाल वर्मा गरीब तकनीशियनों, कलाकारों और वर्करों की बकाया राशि का भुगतान करें. मगर रामगोपाल वर्मा ने इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया. वे हमारे पत्र भी बैरंग वापस कर रहे हैं.’’

फिल्म इंडस्ट्री एसोसिएशनों ने खोई पहचान

इस भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग (कम्पीटिशन कमीशन औफ इंडिया) के दुर्भाग्यपूर्ण हस्तक्षेप ने फिल्म इंडस्ट्री के संगठनों व पंचायतों को लगभग दोषपूर्ण बना दिया. परिणाम अब अगर किसी निर्माता और वितरक या निर्माता और प्रदर्शक या निर्माता और ब्रौडकास्टर के बीच कोई विवाद है तो इसे केवल एक लंबे समय तक खींचे जाने वाले व बेहद बोझिल अदालती लड़ाई के जरिए ही हल किया जा सकता है.

धीरेधीरे फिल्म उद्योग के संगठन अपनी प्रासंगिकता और अधिकार खो सा चुके हैं. 2014 के बाद तो सरकारी दखलंदाजी व राजनीति इस कदर बढ़ी कि भाजपा समर्थक कुछ नए संगठन भी बन गए. द प्रोड्यूसर्स गिल्ड औफ इंडिया है जोकि 2004 से चर्चा में आना शुरू हुआ था. मगर 2017 के बाद यह बड़ी तेजी से उभरा और इस संगठन के चलते इम्पा का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है.

किस ने डुबोया इम्पा को

इम्पा अति पुराना संगठन होने के साथ ही इस संगठन के पास करोड़ों रुपए की संपत्ति भी है जिस पर कुछ खास लोगों का गिरोह ही 2006 से काबिज है. यों तो संस्था के नियमों के अनुसार, इम्पा की कार्यकारिणी का चुनाव हर 3 वर्ष पर होता है मगर यह चुनाव भी ठीक उसी तरह से होता है जिस तरह से कुछ दिनों पहले महाराष्ट्र में ग्राम पंचायतों के चुनाव हुए थे.

महाराष्ट्र में 15 जनवरी को संपन्न ग्राम पंचायत चुनाव से 2 दिनों पहले नासिक जिले के गांव उमरणे की ग्राम पंचायत की नीलामी 2 करोड़ और नंदूरबार जिले के गांव कोंडामली ग्राम पंचायत की नीलामी 42 लाख रुपए में हुई थी. यह अलग बात है कि इस की भनक चुनाव आयोग को लग गई और इन ग्राम पंचायतों के चुनाव रद्द कर दिए गए थे.

2006 से टी पी अग्रवाल गुट का इम्पा पर कब्जा है. 2006 से टी पी अग्रवाल ही लगातार इम्पा अध्यक्ष चुने जा रहे हैं. अभी इन का कार्यकाल 2022 तक है. इम्पा एक अति सशक्त संगठन रहा है. फिल्मों के नाम के रजिस्ट्रेशन से ले कर कई तरह के काम इस संस्था के तहत ही होते रहे हैं.

इसी वजह से एक ही नाम पर 2 फिल्में कभी नहीं बनीं. मगर इम्पा अध्यक्ष के नाते टी पी अग्रवाल की कुछ अपनी गलतियां, कुछ कंपीटिशन कमीशन औफ इंडिया की बेवजह की दखलंदाजी, कुछ सौ प्रतिशत एफडीआई के चलते विदेशी ताकतों की बढ़ी शक्ति व इंडस्ट्री के अंदर राजनीतिक दखलंदाजी के साथ ही द प्रोड्यूसर्स गिल्ड औफ इंडिया के बढ़ते प्रभाव से इम्पा का अस्तित्व लगभग समाप्त सा हो चुका है.

दो खेमों में बंटा बौलीवुड 

हकीकत में देखा जाए तो 2003 से धीरेधीरे बौलीवुड जंगलराज में तबदील होने लगा था. मगर 2014 के बाद तो पूरी तरह से जंगलराज कायम हो गया है. अब बौलीवुड खुल कर 2 खेमों में बंट चुका है. एक वह खेमा है जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भक्त है, दूसरा जो उन के साथ नहीं है. इसी जंगलराज व नीति के चलते धीरेधीरे बौलीवुड में सिंगल निर्माताओं का जीवित रहना असंभव हो गया है.

राजनीतिक दखलंदाजी, भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग की कार्यशैली और सौ प्रतिशत एफडीआई के चलते बौलीवुड में स्वतंत्र निर्माता, डिस्ट्रिब्यूटर और एक्जीबीटर अब जीवित नहीं रह सकते. अब सिस्टम मुट्ठीभर संस्थाओं द्वारा संचालित है जो स्वतंत्ररूप से कार्य करने वालों को बाहर का रास्ता दिखाती रहती हैं. एक निर्माता बिना ओटीटी प्लेटफौर्म या बड़े खिलाड़ी के आदेश के बिना अपनी फिल्म का प्रचार तक नहीं कर सकता. प्रचार के मंच, विभिन्न टीवी चैनल और एफएम रेडियो स्टेशन वगैरह भी कुछ विदेशी संस्थाओं द्वारा नियंत्रित होते हैं जो बिना किसी नियम का पालन किए मनमाने ढंग से कार्य कर रहे हैं.

फिल्म इंडस्ट्री के लिए रैगुलेटरी बौडी की मांग

मजेदार बात यह है कि अब बौलीवुड के अंदर का एक तबका तो फिल्म व टीवी इंडस्ट्री के लिए भी एक रैगुलेटरी बौडी बनाने की मांग करने लगा है.

टीवी सीरियल ‘नया जमाना’ का निर्माण व निर्देशन कर चुके राजेश कुमार सिंह का तर्क है कि वर्तमान सरकार स्वस्थ प्रतिस्पर्धी माहौल में सभी के लिए समान अवसर प्रदान करने में विश्वास करती है, इसलिए इसे सुनिश्चित करने के लिए एक भारतीय फिल्म एवं टीवी उद्योग नियामक प्राधिकरण बनाया जाए. उन्होंने इस बाबत सरकार के नाम एक खुला खत लिखा है.

अपने खुले पत्र में राजेश कुमार सिंह ने फिल्म इंडस्ट्री के विकास के लिए 4 मुख्य मांगें रखी हैं-

  1. उद्योग के कारोबार और विकास की निगरानी के लिए एक विश्वसनीय संरचना का निर्माण किया जाए. इस में बौक्सऔफिस कलैक्शन और टीवी व्यूअरशिप मौनिटरिंग अथौरिटी के लिए रिपोर्टिंग इंफ्रास्ट्रक्चर की स्थापना शामिल हो.
  2. फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े विभिन्न हितधारकों के बीच विवाद निबटान के लिए एक बुनियादी ढांचा व तंत्र का निर्माण किया जाए जो विभिन्न हितधारकों के बीच अपने निर्णयों को लागू करने के लिए पर्याप्त अधिकार के साथ सरकार द्वारा अधिकृत पंचायत के रूप में कार्य करे.
  3. एक ऐसी नियामक संस्था का गठन किया जाए जोकि प्रतिस्पर्धी माहौल को बिगाड़ने वालों और कई तरीकों से छोटे खिलाडि़यों के साथ भेदभाव करने वालों को नियंत्रित कर सके. इस पर नजर रखने के लिए एक चौकीदार निकाय का निर्माण हो. इस निकाय को गलत संस्थाओं के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई करने का अधिकार हो.
  4. राष्ट्र के नीतिनिर्माताओं और योजनाकारों को आवश्यक इनपुट प्रदान कर के उद्योग के साथसाथ विश्व स्तर पर इस की पूरी क्षमता का दोहन कर के उद्योग की आगे की वृद्धि सुनिश्चित करने के लिए विचारों व दृष्टिकोणों का विकास किया जाए.

कोरोना वायरस के दौरान इम्पा ने फैडरेशन औफ वैस्टर्न इंडिया सिने इम्पलौइज  को भेजे कानूनी नोटिस टी पी अग्रवाल इम्पा के माध्यम से कुछ भी सकारात्मक काम करने के बजाय ‘मेरी कमीज से तुम्हारी कमीज साफ क्यों’ की लड़ाई लड़ने में ही धन व समय बरबाद करते नजर आते हैं. कोरोना वायरस के प्रकोप के दौरान जब 3 माह का पूरा लौकडाउन था, जब देश के साथ ही पूरी फिल्म इंडस्ट्री बंद थी, तब फैडरेशन औफ वैस्टर्न इंडिया सिने इम्पलौइज ने सलमान खान व अन्य लोगों से विनती कर अपने संगठन से जुड़े लोगों तक कुछ धनराशि व राशन सामग्री भिजवाने की व्यवस्था की थी.

फैडरेशन औफ वैस्टर्न इंडिया सिने इम्पलौइज ने सरकार से बात की. इतना ही नहीं, फिल्म इंडस्ट्री में जल्द से जल्द शूटिंग शुरू करने की इजाजत देने के लिए इस संगठन ने गिल्ड और सिंटा के साथ मिल कर सरकार से बात की. फैडरेशन औफ वैस्टर्न इंडिया सिने इम्पलौइज ने केंद्र सरकार, केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्रालय व महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को कई पत्र लिखे. तब टी पी अग्रवाल ने इम्पा  की तरफ से फैडरेशन के अध्यक्ष बी एन तिवारी को कानूनी नोटिस भेजा था कि वे झूठ बोल रहे हैं. उन के संगठन के पास 5 लाख सदस्य नहीं हैं और इम्पा ही एकमात्र संस्था है जोकि बौलीवुड का प्रतिनिधित्व करती है. इम्पा ने सरकार को भी इसी आशय का पत्र लिखा था जिस का फैडरेशन ने मुंहतोड़ जवाब देते हुए अपने सदस्यों की एक सूची तक भेजी थी. कहने का अर्थ यह है कि टी पी अग्रवाल के नेतृत्व में इम्पा ने आपस में ही लड़ाई की. इस के चलते भी फिल्म उद्योग की संस्थाएं चरमरा गईं.

एसोसिएशनों को राजनीति से मुक्त करने की जरूरत

वास्तव में भारतीय फिल्म उद्योग के समुचित विकास व वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा करने के लिए सरकार को मनोरंजन क्षेत्र में सौ प्रतिशत की एफडीआई की छूट नहीं देनी चाहिए थी. इस के अलावा, कला जगत व फिल्म इंडस्ट्री को भी कंपीटिशन कमीशन के अंतर्गत नहीं लाना चाहिए था. मगर फिल्म इंडस्ट्री की सभी एसोसिएशनों को सुचारुरूप से चलने देने के साथ इन एसोसिएशनों की कार्यशैली पर अंकुश रखने की जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता क्योंकि इम्पा, द प्रोड्यूसर्स गिल्ड, फिल्म डायरैक्टर्स एसोसिएशन, सिने फिल्म एंड टीवी आर्टिस्ट एसोसिएशन जैसी फिल्म इंडस्ट्री की अपनी एसोसिएशनें काफी बड़ी हैं. इन के सदस्य भी करोड़ों रुपए कमाने वाले हैं.

हालांकि इन के अपने अंदरूनी चुनाव दूध के धुले नहीं हैं मगर फिल्म इंडस्ट्री की एसोसिएशन आदि पर अंकुश रख कर परोक्ष या अपरोक्ष रूप से रचनात्मक स्वतंत्रता पर पाबंदी का भी समर्थन नहीं किया जा सकता. इस के अलावा इन एसोसिएशनों को राजनीति से दूर रखना चाहिए जोकि फिलहाल नजर नहीं आता.

वर्तमान समय में यदि इन एसोसिएशनों पर बारीकी से गौर किया जाए तो लगभग सभी बड़ी एसोसिएशनों की कार्यकारिणी में वही लोग हैं जो भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा से जुड़े हुए या इस राजनीतिक दल की किसी न किसी संस्था का हिस्सा हैं. यदि बौलीवुड की सभी एसोसिएशनें राजनीति से मुक्त हो जाएं तो वे फिल्म इंडस्ट्री का विकास करने व वर्करों के हित साधने की दिशा में सही व बेहतर ढंग से काम कर सकती हैं.

फिल्म इंडस्ट्री के मुख्य संगठन

इम्पा :

सदस्यता शुल्क : 11,800 रुपए. फिर प्रतिवर्ष 1,180 रुपए अथवा आजीवन सदस्यता शुल्क 41,300 रुपए है.

सिने एंड टीवी आर्टिस्ट एसोसिएशन (सिंटा) :

1958 में स्थापित कलाकारों की संस्था का नाम सिने आर्टिस्ट एसोसिएशन था. इस की पहली अध्यक्ष दुर्गा खोटे थीं. लेकिन टीवी इंडस्ट्री के विकसित होने व सैटेलाइट चैनलों के आने के बाद इस का नाम सिने एंड टीवी आर्टिस्ट एसोसिएशन किया गया. फिलहाल 9,000 कलाकार इस के सदस्य हैं. इस का सदस्यता शुल्क पहले 3 वर्ष तक प्रतिवर्ष 10 हजार रुपए है, चौथे वर्ष से प्रतिवर्ष 1,200 रुपए है.

निर्देशकों की संस्था :

इंडियन फिल्म डायरैक्टर्स एसोसिएशन का ठन 1959 में हुआ था. टीवी चैनलों के विस्तार के बाद 23 दिसंबर, 2007 को इस का नाम इंडियन फिल्म एंड टीवी डायरैक्टर्स एसोसिएशन हो गया. फिलहाल इस के 10 हजार सदस्य हैं और इस के वर्तमान अध्यक्ष अशोक पंडित हैं. इस का प्रथम वर्ष का सदस्यता शुल्क 25 हजार एक रुपए है तथा आजीवन सदस्यता शुल्क 50 हजार एक सौ रुपए है.

सिने म्यूजीशियन एसोसिएशन :

1952 में स्थापित इस संस्था के वर्तमान अध्यक्ष अमर हल्दीपुर हैं.

सिने म्यूजिक डायरैक्टर्स एसोसिएशन :

इस संस्था के वर्तमान अध्यक्ष रंजीत बारोट हैं. प्रथम वर्ष 14,160 रुपए चुकाने होते हैं. इस के अलावा जिस तरह से संगीतकार काम करता है उस पर अलग से शुल्क भी देना पड़ता है.

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