Download App

New Movie : देवा – नहीं चला शाहिद कपूर के अभिनय का जादू

New Movie : देवा

रेटिंग: एक स्टार

यदि इंसान की मृत्यु की वजह बदल जाए, तो इस का असर उस इंसान से जुड़े हर किरदार पर पड़ना स्वाभाविक है. यह एक कटु सत्य है. पर यदि यही बात फिल्म की कहानी या किरदार या क्लाइमैक्स के साथ दोहराई जाए तो फिल्म का बरबाद होना तय है. मलयालम सिनेमा के लोकप्रिय फिल्म सर्जक रोशन एंड्यूज ने 2013 में मलयालम भाषा में फिल्म ‘मुंबई पोलिस’ बनायी थी, जिस में वहां के स्टार अभिनेता पृथ्वीराज सुकुमारन हीरो थे और वह फिल्म के किरदार में एकदम फिट थे. लेकिन फिल्म ‘कबीर सिंह’ की सफलता के बाद रोशन एंड्यूज ने अपनी सफल फिल्म मुंबई पोलिस’ का हिंदी रीमेक ‘देवा’ बनाने का फैसला किया. वह लक्की रहे कि इस फिल्म में एक तरफ शाहिद कपूर मुख्य भूमिका निभाने को तैयार हुए,तो वहीं सिद्धार्थ रौय कपूर व जी स्टूडियो ने फिल्म के निर्माण की जिम्मेदारी संभाल ली.

लगभग फिल्म फिल्माए जाने के बाद मीडिया में खबरें गरम हुई कि शाहिद कपूर और निर्देशक रोशन एंड्यूज के बीच रचनात्मक मतभेद के चलते ‘देवा’ बंद हो गई. 6 माह यह फिल्म पुनः शुरू हुई और अब 31 जनवरी को यह फिल्म सिनेमाघरों में पहुंची है. रहस्य व रोमांच प्रधान फिल्म ‘देवा’ उबाउ और सिरदर्द ही है.

फिल्म देखने के बाद पता चला कि फिल्म ‘मुंबई पोलिस’ की सफलता की वजह हीरो पृथ्वीराज सुकुमारन का किरदार और फिल्म का क्लाइमैक्स था. पर हिंदी रीमेक ‘देवा’ में हीरो यानी कि शाहिद कपूर के किरदार को बदलने के साथ ही फिल्म का क्लाइमैक्स ही बदल डाला. फिल्म में जिस वजह से एक पुलिस कर्मी की हत्या होती है, वह वजह आपने बदल दी, तो उसका असर ही बदल गया. हमारी समझ में एक बात नहीं आती कि मलयालम या दक्षिण की किसी भी फिल्म इंडस्ट्री में काम करते हुए हर कलाकार को अपने निर्देशन में नचाने वाले दिग्गज निर्देशक भी बौलीवुड में कदम रखते ही बौलीवुड के स्टार कलाकारों के इशॉरे पर खुद ही नाचना क्यों कम कर देते हैं.

यूं तो मीडिया में कहा जा रहा है कि शाहिद कपूर ने समलैंगिक किरदार वाला क्लाइमैक्स की शूटिंग करने से मना कर दिया था, जिस के चलते क्लाइमैक्स को बदलना पड़ा.

फिल्म ‘देवा’ की कहानी देव अम्ब्रे उर्फ देवा नामक एक गुस्सैल व अहंकारी पुलिस अफसर की है. पुलिस विभाग में देवा, फरहान खान (प्रवेश राणा) और पुलिस अफसर रोहण डिसूजा(पावेल गुलाटी ) की दोस्ती जगजाहिर है. देवा की बहन अलका की शादी फरहान खान से हुई है. तो वहीं सत्ता के नशे में चूर एक नेता आप्टे (गिरीश कुलकर्णी) भी है, जिसे नियमों का पालन करना पसंद नहीं. इस नेता के गुंडों का काम कहीं भी घुस जाओ और उसे चिल्ला कर मार डालो.

तीसरा किरदार प्रभात जाधव का है जो कि तड़ीपार बदमाश है. फिल्म की शुरूआत देवा (शाहिद कपूर) के एक्सीडेंट के साथ होती है. फिर शाहिद एक पार्टी में डांस करते हुए नजर आते हैं. पता चलता है कि यह मौका उन की बहन अलका व पुलिस अफसर फरहान खान (प्रवेश राणा) के विवाह का है. यहीं पर देवा की मुलाकात पुलिस विभाग में हवलदार के रूप में कार्यरत साठे की बेटी दिव्या साठे (पूजा हेगड़े) से होती है.

कहानी आगे बढ़ती है, तो पता चलता है कि एक अपराधी प्रभात जाधव जेल से फरार है और शाहिद कपूर और उन की टीम को उसे पकड़ना है. अब पुलिस विभाग मे किसी न किसी को गद्दार होना ही चाहिए, जो हर खबर प्रभात जाधव तक पहुंचाता रहे. इधर देवा के काम करने का अपना तरीका है. इसी के चलते उन के खिलाफ खबर छपती है कि ‘‘देवा पुलिस अफसर या माफिया ?”

पता चलता है कि यह खबर तो दिव्या साठे ने ही लिखी है. यहीं से देवा व दिव्या साठे के बीच रोमांस शुरू हो जाता है. प्रभात जाधव के यहां पुलिस दो तीन बाद दबिश देने जाती हैं, पर हर बार प्रभात जाधव पुलिस को चकमा दे जाता है. एक बार दबिश देने गई पुलिस बल में खुद देवा भी मौजूद रहता है, पर इस बार कुछ सिपाही ,जिस में हवलदार साठे भी है, बम विस्फोट में बुरी तरह से घायल हो जाते हैं. तब दिव्या साठे, देवा से कहती है कि पुलिस विभाग के अंदर ही कोई गद्दार है जो कि पुलिस के पहुंचने से पहले ही खबर प्रभात जाधव तक पहुंचा देता है और हर बार प्रभात जाधव बच निकलता है.

एक दिन दिव्या कहती है कि उस की जांच पूरी होने वाली है और वह बहत जल्द पुलिस विभाग के गद्दार का नाम बता देगी. इस के बाद देवा अपने भाई समान सहकर्मी पुलिस अफसर रोहण डिसूजा (पावेल गुलाटी ) के साथ प्रभात जाधव के यहां छापा मारता है और रोशन की बंदूक से प्रभात जाधव की हत्या कर प्रभात जाधव का इनकाउंटर करने का श्रेय रोशन को देता है.

रोशन को एक मई के दिन पुरस्कृत किया जाना है पर पुरस्कार लेते समय ही रोशन की हत्या हो जाती है. इस की जांच देवा को सौंपी जाती है. जब देवा सच तक पहुंच जाता है, तभी उस का एक्सीडेंट हो जाता है. एक्सीडेंट के बाद वह अपनी याददाश्त खो बैठता है. लेकिन वह अपनी ट्रेनिंग नहीं भूला. उस का दिमाग अभी भी तेज चलता है.

अंततः फरहान इस केस को हल करने का भार देवा को सौंपता है. देवा नए सिरे से जांच पड़ताल शुरू करता है और अपनी रपट फरहान को सौंपता है.

इंटरवल से पहले दर्शक दिग्भ्रमित होता रहता है कि यह हो क्या रहा है. कभी एक्सीडेंट, तो कभी पुसिस स्टेशन, कभी डासं आदि. मतलब यह कि इंटरवल से पहले फिल्म के कुछ टुकड़ों को देख कर आप कहानी समझते रहिए. या आप इसे यूं कह सकते हैं कि फिल्म ‘देवा’ के शुरुआती हिस्से ज्यादातर उस के मर्दानापन का जश्न मनाने वाले दृश्यों की एक श्रृंखला है.

देवा के पिता आपराधिक प्रवृत्ति के थे, जिन्हे देवा ने ही सलाखों के पीछे भेजा है, तो इस का देवा पर क्या मनोवैज्ञानिक असर पड़ा है, इस पउ रोशन एंड्यूज की फिल्म कोई बात नहीं करती. जबकि मातापिता के हर काम का असर उस के बच्चे पर पड़ता ही है.

फिल्म ‘देवा’ के नाम को ले कर एक दृश्य में सफाई दी गई है कि एक दुर्घटना के देवा अपने डाक्टर से वह मिलने जाता है तो डाक्टर उसे समझाता है कि पहले वह देव ए था और अब देव बी है. फिल्म का नाम ‘देवा’ शायद यहीं से निकला है.

फिल्म के निर्देशक रोशन एंड्यूज शायद ज्योतिष में बड़ा यकीन करते हैं, इसलिए उन्होने अपने नाम के साथ दो ‘एस’ और दो ‘आर’ लगाया हुआ है. मगर रोशन एंड्यूज अपनी मूल मलयालम फिल्म का हिंदी रीमेक करते समय उस में बदलाव कर गलती कर बैठे.

इंटरवल के बाद फिल्म की कहानी गति पकड़ती है. इंटरवल से पहले फिल्म को बेवजह रबर की तरह खींच कर उबाउ बना दिया गया है.

शाहिद कपूर और पूजा हेगड़े के बीच कहीं कोई केमिस्ट्री ही नहीं है. दोनों के बीच का रोमांस जबरन ठूसा हुआ नजर आता है. सस्पेंस को भी ठीक से 6 लेखकों की फौज ठीक से नहीं लिख पाई.

अधपकी कहानी व अधपके किरदारों से युक्त फिल्म ‘देवा’ में भावनाओं के लिए कोई जगह ही नहीं है. देवा के याददाश्त खोने के बाद देवा के मन में जो द्विविधा है, वह फिल्म की कहानी की मूल जड़ हो सकती थी,पर लेखकों ने सब कुछ गंवा दिया.

फिल्म की लंबाई भी काफी है. इसे एडिटिंग टेबल पर कांटछाट कर दो घंटे की किया जाना चाहिए था.

कुछ दृश्यों में कैमरामैन अमित रोय का काम उभर कर आता है. पर फिल्म से मुंबई का परिवेश गायब है. इतना ही नहीं बोम्बे’ का नाम 1995 में ही मुंबई हो गया था, पर इस फिल्म में एक जगह बोम्बे ही आता है.

देव आम्ब्रे उर्फ देवा के किरदार में एक बार फिर शाहिद कपूर निराश ही करते हैं. वास्तव में वह समझ ही नहीं पाए कि उन्हे ‘कबीर सिह’ का रास्ता अपनाना है या एकदम बदल कर देवा बनना है अथवा ‘दीवार का विजय बनना है अथवा ‘गजनी’ के आमीर खान से कुछ लेना है. वह अपराधी है, पर उन के चेहरे पर अपरोध बोध का कहीं कोई चिन्ह कभी भी नजर ही नहीं आता.

अधिकांश दृष्यों में शाहिद कपूर का वही सपाट चेहरा तथा एक ही तरह की संवाद अदायगी नजर आती है. फिल्म में क्राइम रिपोर्टर /पत्रकार दिव्या के किरदार में पूजा हेगड़े है. पर वह सुंदर दिखने के अलावा कुछ नहीं करती. पत्रकार या खोजी पत्रकार के रूप में भी उन की कोई गतिविधि नहीं है, सिर्फ संवाद में ही वह पत्रकार हैं. पूरी फिल्म में उन का किरदार नगण्य ही है.

महिला पुलिसकर्मी के रूप में कुब्रा सैत भी कार्यवाही में बहुत कुछ नहीं जोड़ती हैं. अगर लेखकों ने कुब्रा सैत के किरदार को ठीक से लिखा होता तो यह किरदार कहानी में अलग आयाम जोड़ सकता था, क्योंकि हम ज्यादातर पुरुषों को पुलिस अधिकारी के रूप में देखते हैं.

पावेल गुलाटी, गिरीष कुकलर्णी और प्रवेश राणा सहित किसी भी कलाकार के हिस्से करने को कुछ आया ही नहीं, तो उन के अभिनय पर क्या चर्चा की जाए.

Hindi Story : छत्रछाया – शेखर और पारुल के रिश्ते में क्या दिक्कत थी

Hindi Story : शहीद शेखर की पत्नी पारुल अपनी आकर्षक सास पर पति के ही दोस्त संदीप को उपहार लुटाते देख अंदर तक जलभुन गई थी. सास और संदीप आखिर क्या गुल खिलाने की तैयारी कर रहे थे? पारुल ने मां से कहा, ‘‘मां, आप से मैं ने कह दिया कि मैं शादी करूंगी तो सिर्फ शेखर से. आप लोग मेरी बात क्यों नहीं मानते,’’ और रोंआसी हो कर सोफे पर बैठ गई. ‘‘पारुल बेटी, अभी तू छोटी है, अपना बुराभला नहीं सोच सकती,’’ मां बोलीं, ‘‘अजय में क्या बुराई है? अच्छा, पढ़ालिखा और स्मार्ट लड़का है, खातापीता घर है और उस का अपना करोड़ों का बिजनैस है.

तू वहां रानी बन कर रहेगी.’’ ‘‘मां, शेखर में क्या बुराई है?’’ पारुल ने कहा, ‘‘वह सेना में है. मैं मानती हूं कि उस की मां अध्यापिका हैं, पिता की मौत हुए बरसों बीत गए हैं, उस के पास करोड़ों रुपया नहीं है, फिर भी वह मुझे जीजान से प्यार करता है और उस की मां को तो मैं बचपन से ही जानती हूं. मुझे कितना प्यार करती हैं. आप भी तो यह जानती हैं कि वे लोग मुझे खुश रखेंगे.’’ मां बोलीं, ‘‘बेटी, तू मेरी बात समझ क्यों नहीं रही है? हम तेरे भविष्य के बारे में अच्छा ही सोचेंगे. तू क्यों इतनी जिद कर रही है?’’ पारुल ने कहा, ‘‘मां, आप ने भैया की पसंद की शादी की है और वह लड़की गरीब घर की ही है.

ये भी पढ़ें- कसौटी: जब झुक गए रीता और नमिता के सिर

जब मैं अपनी पसंद की शादी करना चाह रही हूं तो यह लड़की और लड़के का भेद कैसा? जब आप लोग गरीब घर की लड़की ला सकते हैं तो अपनी लड़की की शादी गरीब घर में क्यों नहीं कर सकते? मुझे धनदौलत का बिलकुल लालच नहीं है. मैं तो इतना चाहती हूं कि मेरा होने वाला पति मुझे प्यार करे और दो वक्त की रोटी खिला सके.’’ पारुल की जिद के आगे घरवालों की एक न चली. उस के पिता रमेश ने कहा, ‘‘ठीक है, हम अपनी बेटी की शादी उस की मरजी से ही करेंगे,’’ पारुल और शेखर की शादी धूमधाम से हो गई. शेखर की मां ने पारुल की मां से कहा, ‘‘बहनजी, हमें आप की बेटी मिल गई, बस, हमें और कुछ दानदहेज नहीं चाहिए. हमारे लिए तो पारुल ही सब से बड़ा दहेज है.’’ पारुल की मां कांता ने कहा, ‘‘बहनजी, हम अपनी बेटी को दानदहेज तो देंगे ही.

आप बताइए, आप को और क्या चीज पसंद है, हीरे का सैट या कुंदन का, वह भी हम आप को देंगे. आखिर हम लड़की वाले हैं.’’ शेखर और पारुल यह सब सुन रहे थे. शेखर ने हाथ जोड़ कर पारुल की मां से कहा, ‘‘मम्मी, मैं और मेरी मां दानदहेज लेने और देने दोनों के खिलाफ हैं, इसलिए हम आप से क्षमा चाहते हैं. अगर आप की बेटी पारुल कुछ लेना चाहती हैं तो हमें कोई आपत्ति नहीं, लेकिन हमें कुछ नहीं चाहिए.’’ पारुल ने अपनी मम्मी से कहा, ‘‘मां, जब आप जानती हैं कि शेखर का परिवार दानदहेज लेना नहीं चाहता तो आप जिद मत कीजिए. आप जानती हैं कि मुझे भी गहने पहनने का शौक नहीं है, इसलिए मुझे भी कुछ नहीं चाहिए.’’ यह सुन कांता चुप रह गई. पारुल अपनी ससुराल आ कर बहुत खुश थी. शेखर और उस की मां पारुल को बहुत प्यार करते थे और उसे किसी चीज की कमी नहीं होने देते थे.

ये भी पढ़ें- बड़ा चोर: प्रवेश ने अपने व्यवहार से कैसे जीता मां का दिल?

शेखर की मां सरोजिनी जिस कालेज में पढ़ाती थीं वहां के सभी अध्यापकों और कर्मचारियों को अपने यहां दावत पर बुलाया, अपनी बहू से मिलवाया और उस की खूब तारीफ की. सरोजिनी भी बहुत हिम्मत वाली महिला थीं. शेखर जब छोटा था तभी उन के पति की दुर्घटना में मौत हो गई थी. तब से उन्होंने शेखर को मांबाप दोनों का प्यार दिया और स्वयं को भी अकेले जीवनपथ पर साहसपूर्वक आगे बढ़ने के लिए तैयार किया. वे लगभग 45 साल की होंगी, लेकिन उन्होंने अपनेआप को इतना फिट रखा हुआ है कि कोई कह नहीं सकता कि वे शादीशुदा बेटे की मां हैं. कालेज के सभी छात्रछात्राएं उन्हें बहुत पसंद करते हैं. उन का चेहरा हमेशा खिला रहता है और फुरती इतनी है कि कालेज के हर कार्यक्रम में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेती हैं. पति के अभाव का गम तो उन्हें है ही परंतु उस गम के आगे झुकना उन्हें कतई पसंद नहीं. उन के पति पुलिस विभाग में थे और शादी के समय उन्होंने वचन लिया था कि मुझे कुछ हो गया तो तुम मेरे बाद इसी तरह मुसकराती रहना.

सरोजिनी को अपने पति को दिया हुआ वचन हमेशा याद रहता है और हर हाल में खुश रहती हैं. कालेज की सभी अध्यापिकाएं उन के रूप की चर्चा करते थकती नहीं और जिस दिन वे कालेज नहीं जातीं, उन्हें अच्छा नहीं लगता. अगर कभी 2-4 दिन न गईं तो छात्राएं उन के घर भी पहुंच जाती हैं यह कह कर कि आप के स्वास्थ्य के बारे में हमें चिंता हो रही थी इसलिए हम पूछने आए हैं. आप के बगैर पढ़ने को हमारा मन ही नहीं करता. सरोजिनी हर बार उन्हें चायनाश्ता करातीं और प्यार से विदा करतीं. पारुल अपने मम्मीपापा के यहां कभीकभी मिलने चली जाती. वहां वह सास और शेखर की खूब तारीफ करती. उस के मम्मीपापा को लगा कि उन्होंने बेटी की पसंद की शादी कर के अच्छा किया, क्योंकि वह बहुत खुश है. उस से पूछते कि किसी चीज की जरूरत हो तो बताना. लेकिन पारुल का हमेशा यही उत्तर रहता, ‘‘नहीं मां, मेरी सासुमां मेरा इतना खयाल रखती हैं, जैसे मैं एक दूध पीती बच्ची हूं.

हमेशा कहती हैं कि तुम्हारी अभी खेलनेखाने की उम्र है. मां, सचमुच ऐसी सास पा कर मैं धन्य हो गई हूं.’’ कांता और रमेश अपनी बेटी को इतना खुश देख कर फूले नहीं समाते. एक दिन शेखर अपने दोस्त संदीप को ले कर घर आया और मां तथा पारुल से मिलवाया. संदीप पारुल से मिल कर बहुत खुश हुआ और बोला, ‘‘यार शेखर, यह तो मेरे कालेज में पढ़ती थी. मैं इस से सीनियर था.’’ पारुल भी संदीप से मिल कर खुश हुई. संदीप ने बताया कि वह डाक्टर बन गया है और अपनी प्रैक्टिस करता है. संदीप को सरोजिनी अपने बेटे शेखर की तरह प्यार करती थीं. संदीप की मां नहीं थी और वह अकसर बचपन में शेखर के साथ उस के घर आताजाता रहता था. शेखर और संदीप दोनों बहुत अच्छे दोस्त थे. पारुल इन की दोस्ती को देख कर बहुत प्रसन्न थी कि इन की बचपन की दोस्ती आज भी वैसी ही कायम है. एक दिन शेखर ने मां से कहा, ‘‘मां, आजकल पाकिस्तानी फौज ने कारगिल में गड़बड़ मचा रखी है.

हमारी यूनिट को भी कारगिल जाने का आदेश हो गया है.’’ सरोजिनी और पारुल ने जब शेखर को कारगिल जाने से मना किया तो वह बोला, ‘‘आप दोनों नहीं चाहतीं कि मैं एक सैनिक का कर्तव्य निभाऊं और एक बहादुर की तरह दुश्मनों को खदेड़ूं?’’ शेखर ने जाते समय संदीप से कहा, ‘‘यार, कभीकभी तुम घर पर आते रहना और मां तथा पारुल का ध्यान रखना.’’ शेखर चला गया. कारगिल की लड़ाई में बड़ी बहादुरी से लड़ा और शत्रुओं को खदेड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गया. सरोजिनी और पारुल को शेखर की मौत का समाचार मिला तो वे दुख के मारे पागल हो गईं. पारुल को तो विश्वास ही नहीं हो रहा था कि 2 दिनों पहले फोन पर शेखर से बात हुई थी तो उस ने कहा था कि कारगिल का युद्ध हम जीत चुके हैं और वह शीघ्र ही घर लौट आएगा. उसे लग रहा था कि मानो कोई उस के साथ मजाक कर रहा है. सरोजिनी की हालत पागलों जैसी हो रही थी और पारुल भी मारे गम के दुखी थी.

जब शेखर का शव लाया गया तो मानो पूरा हिंदुस्तान ही उन के घर में उमड़ आया हो. कालेज के सारे लोग तथा बच्चेबूढ़े, जिसे भी पता चलता सब दौड़े चले आते. दोस्त के जाने का गम संदीप भुला नहीं पा रहा था, लेकिन सरोजिनी और पारुल को उसे ही संभालना था. सो, अपने दुख को दबा कर उस ने दोनों से कहा कि हमारा शेखर देश के लिए लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ है. कितने लोग उसे श्रद्धांजलि देने आए हैं. हमें हिम्मत से काम ले कर उसे अंतिम विदाई देनी चाहिए. सेना के जवानों ने बड़ी धूमधाम से पूरे सैनिक सम्मान के साथ तोपों की सलामी से शेखर का अंतिम संस्कार किया. पारुल और सरोजिनी घर में अकेली रह गईं. अब सरोजिनी को ही पारुल को हिम्मत बंधाने का काम करना पड़ा, वे बोलीं, ‘‘बेटी, जाने वाला तो चला गया, तुम अब इस दुख से बाहर निकलने की कोशिश करो और स्वयं को मजबूत बनाओ.

मैं मां हूं और मैं नहीं चाहती कि मेरी बेटी इस तरह गुमसुम बनी रहे. जो होनी को मंजूर था, वह हो गया, उस के आगे किसी का बस नहीं चलता.’’ सरोजिनी ने पारुल को अपनी बांहों में भर कर सीने से चिपटा लिया और कहा, ‘‘बेटी, मैं चाहती हूं तुम कुछ करो. घर में खाली बैठे रहने से तुम्हारा मन और भी उदास हो जाएगा. तुम्हारी पढ़ाई बीच में रह गई थी. अब तुम एमए की परीक्षा की तैयारी करो.’’ इस बीच पारुल के मातापिता उसे लेने के लिए आए तो सरोजिनी के कुछ बोलने से पहले पारुल बोल पड़ी, ‘‘डैडी, शेखर ने जाते समय इन की देखभाल की जिम्मेदारी मुझे सौंपी थी. सो, मैं इन्हें अकेले छोड़ कर नहीं जा सकती.’’ दोनों मायूस हो कर चले गए. सरोजिनी ने पारुल को अपने ही कालेज में दाखिला दिला दिया. पारुल की मेहनत का नतीजा यह हुआ कि उस ने एमए प्रथम श्रेणी से पास करने के बाद बीएड की परीक्षा भी पास कर ली. धीरेधीरे समय बीतने लगा. पारुल में भी आत्मविश्वास आने लगा और उस की नौकरी भी उसी कालेज में लग गई जहां सरोजिनी पढ़ा रही थीं. इन सालों में संदीप उन के घर आताजाता रहता था और समयसमय पर आवश्यकता प़ने पर घर का जरूरी काम भी कर दिया करता था.

सरोजिनी ने महसूस किया कि संदीप पारुल में दिलचस्पी ले रहा है. वह किसी न किसी बहाने दोनों को अकेला छोड़ कर चली जातीं. संदीप सरोजिनी को मां की तरह बहुत प्यार करता था और दोनों ऐसे बातें करते जैसे कोई दोस्त हों. संदीप एक दिन सरोजिनी को साडि़यां दिखाने ले गया और बोला, ‘‘यह सब आप को पसंद आएंगी और आप इन में बहुत सुंदर लगेंगी.’’ पारुल को यह अच्छा नहीं लगा. वह मन ही मन अपनी सास से चिढ़ने लगी. फिर एक दिन संदीप एक हीरे का सैट लाया और बोला, ‘‘मैडम सरोजिनी, आप को यह सैट पहना हुआ देखने का मन है. यह आप पर बहुत जंचेगा.’’ सरोजिनी बोलीं, ‘‘अरे, संदीप, जो तुम्हें पसंद है वह हमें भी पसंद है.’’ यह सुन कर पारुल मन ही मन सोच रही थी कि इस बुढि़या को तो मैं देवी समझती थी और यह अब अपना असली रंग दिखा रही है. अपने शहीद बेटे शेखर की कमाई वह इन साडि़यों और हीरे के हारों में उड़ा रही है. पारुल ऊपर से तो कुछ न कहती, लेकिन उस के चेहरे को देख कर सरोजिनी साफ समझ रही थीं कि यह बात पारुल को पसंद नहीं आ रही है.

सरोजिनी ने कहा, ‘‘अरे, पारुल बेटी, मुझे कुछ काम याद आ गया. तुम संदीप को चाय पिलाओ, मैं अभी 2-3 घंटे में कालेज के काम को निबटा कर आती हूं,’’ इतना कह कर वे चली गईं. संदीप ने पारुल से कहा, ‘‘पारुल, तुम बहुत सुंदर हो, अपनी सेहत का खयाल रखा करो. शेखर को शहीद हुए आज 4 साल बीत गए हैं. देखो, तुम्हारी सासुमां तुम्हारे बारे में कितना सोचती हैं.’’ पारुल मन ही मन संदीप को चाहने लगी थी और गुस्से को दबा कर बोली, ‘‘हां, वह तो मुझे दिखाई दे ही रहा है.’’ पारुल उठ कर संदीप के लिए चाय बनाने जाने लगी तो कारपेट में उस का पांव फंस गया और वह संदीप की गोद में जा गिरी. संदीप ने उसे अपनी बांहों में भर लिया. पारुल को लगा मानो वह कुछ पलों के लिए ही सही शेखर की बांहों में आ गई हो. उधर सरोजिनी एक पंडित को ले कर दाखिल हुई तो पारुल एकदम सिटपिटा कर खड़ी हो गई.

सरोजिनी ने कहा, ‘‘सदीप, पंडितजी ने 20 तारीख को शादी का मुहूर्त निकाला है.’’ पारुल दंग रह गई. इस उम्र में मांजी शादी करेंगी तो लोग क्या कहेंगे, परंतु मन मसोस कर रह गई. शादी के कार्ड छप कर आए तो सरोजिनी ने पारुल से कहा, ‘‘बेटी, यह कार्ड देख लो, मैं ने और संदीप दोनों ने मिल कर इसे चुना था. देखो, तुम्हें पसंद है या नहीं?’’ पारुल ने उत्तर दिया, ‘‘मम्मी, मेरे देखने न देखने से क्या फर्क पड़ता है? करनी तो आप को अपने मन की है.’’ थोड़ी देर बाद जब किसी काम से सरोजिनी अंदर चली गईं तो पारुल ने कार्ड उठा देखा और पढ़ा तो संदीप और पारुल के नाम छपे थे. यह देख कर वह दंग रह गई और रोने लगी. रोते हुए पारुल अंदर गई और सरोजिनी से लिपट कर बोली, ‘‘मम्मी, मैं तो न जाने आप के बारे में क्याक्या सोच रही थी. आप मुझे माफ कर देना.’’ सरोजिनी बोलीं, ‘‘बेटी, मैं सब जानती हूं कि संदीप तुम्हें चाहता है और तुम भी संदीप को पसंद करने लगी हो.

अरे पगली, संदीप तो मेरे बेटे की तरह है और यह सारा नाटक मैं ने और संदीप ने तुम्हारे मन का भाव जानने के लिए किया था. मैं तुम दोनों को इसलिए अकेला छोड़ कर चली जाती थी कि तुम दोनों एकदूसरे को जान लो.’’ पारुल सरोजिनी के पैरों पर गिर पड़ी और बोली, ‘‘मैं ने एक मां पर शक किया, मैं क्षमा के योग्य कभी नहीं हो सकती.’’ सरोजिनी बोलीं, ‘‘बेटी, दुनिया में तुम्हारे सिवा मेरा और कौन है. तुम तो मेरी बेटी भी हो और बेटा भी. यह मेरी तरफ से तुम्हारे नए जीवन के लिए एक छोटी सी भेंट है. शेखर की मौत के बाद उसे वीर सम्मान के साथ जो 20 लाख रुपए मिले थे, उन का ड्राफ्ट मैं ने तुम्हारे नाम से बनवाया था.’’ पारुल को इस बात का बिलकुल पता नहीं था. वह तो मन ही मन सोच रही थी कि सास उन्हीं पैसों से सबकुछ खरीद रही हैं जो उस के पति के मरने के बाद उन्हें मिले थे.

आज उसे अपनी गलत सोच पर बहुत पछतावा हो रहा था. पारुल और संदीप का विवाह बड़ी धूमधाम से हुआ. विवाह के बाद दोनों खुशीखुशी रहने लगे. पारुल ने एक प्यारी सी बेटी को जन्म दिया, जिस का नाम उन्होंने शिखा रखा. उन का घर सरोजिनी के घर के पास ही था और दिनरात सरोजिनी से मिलते रहते थे. पारुल ने अपनी बेटी अपनी मां सरोजिनी के कदमों में डाल दी और बोली, ‘‘मां, मैं चाहती हूं कि इसे आप अपनी छत्रछाया में रखें और अपने जैसा बनाएं.’’ सरोजिनी ने आगे बढ़ कर शिखा को अपने गले से लगा लिया और उस पर चुंबनों की बौछार करने लगीं.

लेखिका- सुनीता कालरा 

Online Hindi Story : बराबरी – सनाया किस बात को लेकर घबराई हुई थी

Online Hindi Story : सनाया बहुत ज्यादा घबराई हुई थी. वाशरूम से लगभग भागते हुए वह ड्राइंगरूम में आई थी. मां ने पूछा, “क्या हुआ बेटा? इतनी घबराई हुई क्यों हो? क्या तुम ने कौकरोच देख लिया है या फिर छिपकली?”

“नहीं मम्मा, यूरिन के साथ ब्लड भी आ रहा है,” उस ने अपुष्ट स्वर में कहा.

सोनल उस के चेहरे पर साफतौर पर डर और घबराहट के भाव देख रही थी. उस का पूरा शरीर डर और गरमी की वजह से पसीने से तरबतर था.

यह देख कर सोनल भी थोड़ी सी घबरा गई थी, क्योंकि सनाया 5 मई को पूरे 10 साल की हुई थी और आज 12 मई था. उस ने सोचा कि इतनी जल्दी मासिक धर्म यानी पीरियड कैसे शुरू हो सकता है? लेकिन सोनल के मन में उठने वाली शंका गलत थी. सनाया को पीरियड ही शुरू हुआ था.

ये भी पढ़ें- कर्तव्य : मीनाक्षी का दिल किस पर आ गया था

सनाया 10 साल की थी, जबकि बड़ी बेटी आशिमा 13 साल की. सनाया और आशिमा की उम्र में 3 सालों का अंतर था, लेकिन सनाया आशिमा से केवल एक क्लास पीछे थी, क्योंकि सनाया ने कम उम्र में ही स्कूल में दाखिला ले लिया था.

सनाया 7वीं में है और आशिमा 8वीं में. उम्र को अगर पीरियड शुरू होने का पैमाना माना जाए तो यह आशिमा को अब तक शुरू हो जाना चाहिए था, लेकिन इस शारीरिक क्रिया का उम्र से कोई सीधा संबंध नहीं था. यह 8-9 साल की उम्र में भी शुरू हो सकता है और 15 साल की उम्र में भी.

सनाया के लिए पीरियड को समझना और उस का सामना करना आसान नहीं था. वह इसे समझने के लिए बहुत छोटी थी. वह पहले से ही मिरगी की बीमारी से पीड़ित थी. दवाई खाते हुए 6 साल से अधिक समय बीत चुका था. फिर भी वह ठीक नहीं हुई थी. डाक्टर का कहना था कि अभी 2-3 सालों तक सनाया को और दवाई खानी पड़ सकती है. 5 एमजी का फ्रीजियम और लेमिटोर 200 ओडी दवा खाने के बाद सनाया के दिमाग की सक्रियता काफी कम हो जाती थी. इस वजह से वह एकाग्रता के साथ पढ़ भी नहीं पाती थी. 7वीं क्लास की पहली तिमाही की परीक्षा में भी इसी वजह से सनाया को अच्छे अंक नहीं आए हैं. मिरगी के कारण सनाया न तो साइकिल चला पाती है और न ही स्वीमिंग कर सकती है.

ये भी पढ़ें- अच्छे लोग : भाग 3

सनाया के पेट में तेज दर्द हो रहा था. सोनल ने जल्दी से उसे एक पेनकिलर दिया. कुछ देर के बाद उस का दर्द कुछ कम हुआ, लेकिन सनाया को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था. वह दर्द और इस नई अबूझ पहेली को देख हतप्रभ और परेशान थी.

वह रोतेरोते बोल रही थी, “मुझे डाक्टर से जल्दी दिखवाओ मम्मा, पेट में बहुत तेज दर्द हो रहा है. पापा को भी औफिस से बुलाओ.”

सनाया बगैर पापा के रात में नहीं सोती थी. उसे अपने पापा से बहुत ज्यादा प्यार था. वह तकिए की जगह पापा के हाथ को तकिया बना कर सोती थी. पापा के हाथ पर सिर रखने के बाद ही उसे नींद आती थी.

सोनल को समझ में नहीं आ रहा था कि वह सनाया को कैसे समझाए कि मिरगी के दुष्परिणामों के साथसाथ उसे हर महीने पीरियड के दर्द को भी सहना पड़ेगा.

सोनल की बड़ी बेटी आशिमा कुछ समझदार थी. उस ने तुरंत पीरियड पर लिखे लेखों को इंटरनेट से डाउनलोड कर के उसे पढ़ा और फिर सनाया को भी समझाया. आशिमा ने कुछ चौकलेट भी सनाया को दी, ताकि उस का ध्यान दर्द से हट सके. दोनों बहनें, बहन कम और सहेलियां ज्यादा थीं. आशिमा के प्रयासों से थोड़ी देर बाद सनाया सामान्य हो गई.

सनाया के दर्द से कराहते चेहरे को देख कर सोनल को अपने पहले पीरियड के दिन याद आ गए. उसे भी पीरियड 11 साल की उम्र में शुरू हुआ था. सोनल का मां से संबंध सहेलियों जैसा नहीं था. पापा से तो वह डर की वजह से ठीक से बात भी नहीं कर पाती थी. पापा से उस का संवाद सिर्फ पढ़ाई के दौरान होता था. पापा जबान से कम तमाचों से ज्यादा बातें करते थे.

पीरियड शुरू होने के समय सोनल घर में अकेली थी. महल्ले में भी उस की कोई सहेली नहीं थी. वह स्कूल से आने के बाद घर में बंद रहती थी. घर में फोन नहीं था. सोनल को समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? सोनल को भी लगा था कि उसे कोई बड़ी बीमारी हो गई है. छोटी बहन थी, लेकिन वह भी नासमझ थी. बड़ा भाई था, लेकिन उसे क्या बताती. शर्म और डर की वजह मां से भी अपनी समस्या साझा नहीं कर सकी थी. बीमार होने का बहाना कर के वह 3 दिनों तक स्कूल नहीं गई थी. तीसरे दिन पापा ने बुरी तरह से पिटाई कर दी थी और कहा, “न तुम्हें बुखार है और न ही सर्दीखांसी. फिर स्कूल क्यों नहीं जा रही हो? बीमारी का बहाना कर के घर में बैठी हुई हो नालायक, बेवकूफ, इडियट और न जाने क्याक्या कहा था उन्होंने सोनल को और वह चुपचाप रोती रही थी.“

2 दिनों तक सोनल कपड़ों का इस्तेमाल करती रही थी, लेकिन तीसरे दिन शाम को मां ने वाशरूम में गंदे कपड़ों को देख लिया. मां को तुरंत पता चल गया कि इसे पीरियड शुरू हो गया है. मां दवा की दुकान से तुरंत पैड ले कर आईं. पैड अखबार में लपेटा हुआ था.

“अखबार में यह क्यों लपेटा हुआ है?” सोनल ने मां से पूछा तो वे बोलीं, “हमारे समाज में पैड को टैबू की तरह देखा जाता है. लोग इसे नहीं देखें, इसलिए दुकानदार इसे अखबार में लपेट कर या फिर काले रंग की पौलीथिन में ग्राहक को देते हैं.”

मां थोड़ी देर बाद फिर बोलीं, “गांव और कसबाई इलाकों में तो पीरियड के दौरान महिलाओं को पूजापाठ करना या मंदिर में प्रवेश करना मना होता है. कई दकियानूसी घरों में तो महिला को अलग कमरे में रहने के लिए कहा जाता है. घर के दूसरे सदस्यों को रजस्वला औरत से दूर रहने के लिए कहा जाता है.

“हालांकि मां कामख्या देवी के रजस्वला होने के दौरान लोग उन्हें पवित्र मान कर उन की पूजा करते हैं. वहां प्रसाद के रूप में रक्त से सने कपडे भक्तों को दिए जाते हैं.”

मां की बात सुन कर सोनल सोचने लगी कि हमारा समाज कितना बड़ा ढोंगी है?

सोनल मन ही मन सोच रही थी, “उस के पापा भी तो दकियानूसी विचारों के हैं. इसलिए मां को उस के लिए पैड लाने के लिए दुकान जाना पड़ा. पापा का ईगो उन्हें पैड लाने की इजाजत नहीं देता था. यह उन के पुरुषत्व के खिलाफ था.“

सोनल को अच्छी तरह याद है कि पापा और मां की कंजूसी और नासमझी के कारण पीरियड के दौरान गंदे कपड़ों के इस्तेमाल की वजह से वह गंभीर रूप से बीमार पड़ गई थी. घर में 3 सदस्य स्त्रियां हैं. फिर भी घर में कभी भी अतिरिक्त पैड नहीं होता था, जबकि मां और पापा दोनों को मालूम था कि पैड पीरियड से जुड़ी बीमारियों से बचने का सब से महत्वपूर्ण हथियार है.

बहरहाल, मां के समझानेबुझाने पर चौथे दिन से सोनल स्कूल जाना शुरू कर देती है. उसे सब से ज्यादा आश्चर्य तब होता है, जब उसे पता चलता है कि उस की अधिकांश सहेलियों को पीरियड के बारे में कुछ भी मालूम नहीं है, लेकिन कुछ लड़कों को जरूर यह मालूम था, क्योंकि वे गंदेगंदे इशारे किया करते थे. भले ही हमारे वेदपुराणों में शिक्षकों को गुरु का दर्जा दिया गया है, लेकिन आज के अधिकांश शिक्षक गुरु की कसौटी पर खरे नहीं उतरते हैं. कुछ शिक्षक तो शिक्षक की गरिमा को तारतार करने से भी बाज नहीं आते हैं. उन्हीं में से एक थे हमारे स्कूल के पीटी सर. वे रजस्वला लड़कियों को देख कर गंदे इशारे किया करते थे. सोनल ने भी उन के गंदे इशारों को झेला था.
सोनल सोच रही थी कि अब सनाया को भी इस शारीरिक व मानसिक दर्द से हर महीने जूझना होगा. अभी तो कोरोना की वजह से स्कूल बंद हैं, लेकिन जब स्कूल खुलेंगे तो सनाया को भी लड़कों के सामने से या फिर पीठ पीछे शर्मनाक शब्दबाण के वार झेलने पड़ेंगे, जिस में पुरुष शिक्षक भी शामिल हो सकते हैं. सोसाइटी के लड़के भी शामिल हो सकते हैं. किसकिस से सनाया लड़ाई करेगी और क्या वह इस जंग को जीत पाएगी?

सोनल को चिंता भी हो रही थी और गुस्सा भी आ रहा था. वह मन ही मन सवाल कर रही थी, “औरतें ही बच्चे को क्यों जन्म देंगी, पुरुष क्यों नहीं? औरत को शारीरिक रूप से कमजोर क्यों बनाया गया है? बच्चे पैदा करने के लिए पीरियड की क्या जरूरत है, इस के बिना बच्चे क्यों नहीं पैदा हो सकते? आदि.“

सोनल को गुस्सा पुरुष प्रधान सामाजिक व्यवस्था पर भी आ रहा था, जिस में औरत की स्थिति शुरू से कमतर बनी हुई है और स्त्री को भोग की वस्तु समझा जाता है. प्राचीन काल में राजा कई रानियां रखते थे, मध्यकाल में हरम में रखने की प्रथा थी. आज भी लड़की को भोग की वस्तु माना जाता है. घर हो या बाहर, हर जगह उन के साथ भेदभाव किया जाता है. 21वीं सदी में भी लड़कियां दहेज के लिए जलाई जा रही हैं. लड़के की आस में लड़की को जन्म लेने से पहले ही पेट में मार दिया जा रहा है. मां भी बेटे और बेटी में भेदभाव करती है. बेटी को बेटे से कम भोजन दिया जाता है. पौष्टिक खाने से भी उन्हें दूर ही रखा जाता है. लड़कियां अकेले देर रात घर से बाहर नहीं निकल सकती हैं, जबकि लड़के के लिए कोई समयसीमा तय नहीं होती है. वे देर रात को भी घर से बाहर निकल सकते हैं.

सोनल सोच रही थी कि अगर हम सभी इनसान हैं, तो हमें इनसानियत धर्म का पालन भी करना चाहिए अर्थात सही को सही और गलत को गलत मान कर फैसला करना चाहिए. अगर पुरुष इनसान है तो महिला भी इनसान है और उसे बराबरी का दर्जा जरूर दिया जाना चाहिए. सही या गलत सोचने की क्षमता ही तो इनसान को जानवरों से अलग करती है.

कोरोना के दौर में मौत को नजदीक से देखने के बाद भी पुरुषों की मन की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है. कोरोना ने बता दिया कि संसार में हर जीवित प्राणी नश्वर है और रंगमंच के कलाकारों की तरह इनसान को अपनी भूमिका निभा कर के इस दुनिया से विदा होना है. बावजूद इस के महिलाओं के महत्व की अनदेखी की जा रही है, जबकि पुरुष को महिला और उस के काम के महत्व को समझना चाहिए. घर को पुरुष अकेले नहीं चला सकते हैं. इनसानी सृष्टि भी पुरुष अकेले नहीं चला सकते हैं. आखिर किस बात का गुरूर है पुरुषों को, सोचतेसोचते सोनल का चेहरा दुख और गुस्से से स्याहा पड़ गया.

Romantic story : वो लम्हे

Romantic story : अनूप मुझे झंझोड़ कर जगा रहे थे और मैं पसीनापसीना हो रही थी. आज फिर वही सपना आया था. मीलों दूर तक फैला पानी, बीचोबीच एक खंडहर और उस खंडित इमारत में पत्थर का एक बुत… मैं हमेशा खुद को उस बुत के सामने खड़ा पाती हूं. मेरे देखते ही देखते वह बुत अपनी पत्थर की पलकें झपका कर एकदम आंखें खोल देता है।

आंखों से चिनगारियां फूटने लगती हैं, फिर वह लपट बन कर मेरी ओर आती हैं, एक अट्टहास के साथ… मैं पलटती हूं और वह हंसी एक सिसकी में बदल जाती है. मैं बाहर भागती हूं, पानी में हाथपैर मारती हूं, तैरने की कोशिश करती हूं, आंख, नाक कान सब में पानी भर जाता है और दम घुटने लगता है. मैं डूबने लगती हूं और फिर अचानक नींद खुल जाती है.

“क्या हुआ? कोई डरावना सपना देखा?” अनूप की आवाज कहीं दूर से आती प्रतीत हुई. मेरी आंखें अपनेआप मूंदने लगीं.

“मम्मा, आज सोशल साइंस की परीक्षा है,” 6 बजे ऋचा मुझे जगा रही थी. वैसे तो रोज स्कूल के लिए इसे जगाने में मुझे काफी मशक्कत करनी पड़ती है, पर परीक्षा के समय बिटिया कुछ ज्यादा समझदार हो जाती है. इस की यही समझदारी मुझे निश्चिंत करने के बजाय आशंकित कर देती है. बरसों से गहरे दफन किया हुआ राज धीरेधीरे दिलदिमाग पर जमी मिट्टी खोद कर उस के खूंख्वार पंजे बाहर निकालने लगता है. मैं सिर झटक कर उठ बैठी, सब विचारों और सपने के भय को परे हटा किचन में घुस गई.

ऋचा स्कूल और अनूप औफिस जा चुके थे. बेटे ऋत्विक के रूम में जा कर देखा, महाशय जमीन पर सो रहे थे और बैड पर किताबें पसरी पड़ी थीं. उस के बेतरतीब रूम को देख कर मन फिर पुरानी गलियों में बेतरतीब भटकने लगा.

“बेटा, यह क्या है, परीक्षा का मतलब यह तो नहीं कि किताबें पूरे कमरे में बिखर जाएं…” मां अकसर मुझे डांटा करती थीं, मगर मुझ पर कोई असर नहीं होता था. परीक्षा के दिनों में एक जनून सवार हो जाता था, मुझे खूब पढ़ना है और प्रथम आना है. पहली कक्षा से ले कर 10वीं तक हमेशा स्कूल में प्रथम आई थी. 11वीं कक्षा में एक नई लड़की ने प्रवेश लिया.

“श्वेता, यह मेधा है, नया ऐडमिशन हुआ है, तुम क्लास टौपर हो, इस की मदद कर देना, पिछले नोट्स दे कर…” मैडम ने मेरा परिचय करवाया. मैं दर्प से भर उठी. उस से दोस्ती भी हुई, मदद भी की…धीरेधीरे जाना कि वह मुझ से ज्यादा होशियार थी. मैं तो सिर्फ पढ़ाई में टौपर थी, पर वह हर गतिविधि में भाग भी लेती और पुरस्कार भी प्राप्त करती.

इस वर्ष मेरा मन पढ़ाई में कुछ कम लगने लगा था. मेधा से प्रतिस्पर्धा के चलते वह मेरे दिमाग में रहने लगी, इस के विपरीत मेधा मुझे दिल में उतारती जा रही थी. हम दोनों की दोस्ती उसे खुशी और मुझे तनाव दे रही थी. फिर वही हुआ, जिस का डर था, मेधा प्रथम और मैं कक्षा में पहली बार द्वितीय आई थी.

“मम्मी, नाश्ता लगा दो…” ऋत्विक की आवाज मुझे फिर वर्तमान में ले आई.

“कितने बजे सोया था?” मैं ने खुद को अतीत से बाहर लाने के लिए पूछा.

ऋत्विक ने क्या कहा और टेबल पर नाश्ते की प्लेट और सूप का कटोरा कब खाली हुआ, मैं नहीं जान पाई. मेरा मन तो बरसों पहले मेरी जिंदगी के खालीपन को टटोलने चला गया फिर से…

“श्वेता, तू 1 नंबर और ले आती यार या मेरा 1 नंबर कम आता तो हम दोनों के मार्क्स इक्वल होते…” मेधा की आवाज को अनसुना कर मैं खुद पर गुस्सा हो रही थी कि 2 नंबर का सवाल सही किया होता तो मैं हमेशा की तरह प्रथम आती.

यही तो अंतर था उस में और मुझ में… वह जितना मुझे अपना दोस्त समझती, मैं उस में अपने दुश्मन का अक्स देखती. उस के प्रति मेरी ईर्ष्या बढ़ती जा रही थी. जीवन के सारे रंग अपने में समेटे समय भी आगे बढ़ रहा था.

स्कूल के आखिरी वर्ष में हम हमेशा स्कूल ट्रिप पर शहर से दूर जाते थे. इस बार भी गए थे. वह एक पहाड़ की तराई में बसा गांव था… बहुत बड़ी नदी और उस में बीचोबीच बना एक टापूनुमा किले जैसा था, जहां स्टीमर से जाया जाता था. वह स्थान काफी बड़ा था. मैं वहां विचर ही रही थी कि कौलबेल ने तंद्रा तोड़ दी.

“मम्मा, आज का पेपर भी बहुत अच्छा हुआ। अब बस 2 महीने की छुट्टी… भैया की पेपर्स के बाद हम घूमने चल रहे हैं न?”

“हां बेटा, इस बार डैडी ने साउथ घूमने का प्लान बनाया है, भैया की इंजीनियरिंग पूरी होने पर वह पता नहीं कहां जाएगा और अब 2 साल तू भी स्कूल और कोचिंग के बीच चकरघिन्नी बन कर घूमेगी… इस साल के बाद पता नहीं कब कहां जाना होगा…”

ऐग्जाम से फ्री ऋचा सहेलियों के साथ घूमने चली गई, बेटा पढ़ने में मशगूल और मैं फिर सोच में डूब गई. ऋचा भी मेरी तरह हमेशा प्रथम आती है। गतिविधियों में भी उस के पुरस्कार मुझे मेधा की याद दिला देते और मेरे मन में एक आशंका पैर पसारने लगती. मेरा दिल ऋचा को मेरी या मेधा की जगह देखना नहीं चाहता, मगर दिमाग कोई तीसरी जगह तलाश ही नहीं कर पा रहा था.

उस दिन स्कूल ट्रिप से मैं बहुत बड़ा बोझ ले कर लौटी थी, इतना बड़ा कि उसे ढोतेढोते मैं मरमर कर जी रही हूं. बोझ भी और खालीपन भी… कभीकभी दिल का बोझ और दिमाग का खालीपन मुझे बेचैन कर देता है. ऋचा की 10वीं की परीक्षा खत्म होना और आज फिर उस सपने का आना… मैं घबरा गई. अच्छा हुआ अनूप आ गए और मुझे सोच से बाहर आने में मदद मिली. इन्हें कैसे पता चल जाता है कि मैं गहरे गड्ढे में गिरने वाली हूं और एकदम आ कर हाथ खींच लेते हैं.

अगला महीना सफर की तैयारी में बीत गया. मैं ने दिल और दिमाग को इतना व्यस्त रखा कि कुछ और सोचा ही नहीं. हमारा टूअर काफी अच्छा चल रहा था. ऋचा और ऋत्विक अपने नए अनुभव सोशल मीडिया पर शेयर कर रहे थे और अनूप भी उन के साथ पूरे मनोयोग से जुड़ कर चर्चा में हमेशा की तरह शामिल थे… बस मैं ही बारबार अतीत में पहुंच जाती थी.
कन्याकुमारी के विवेकानंद रौक मैमोरियल पहुंच कर तो मैं स्तब्ध रह गई.

“साल 1892 में विवेकानंद कन्याकुमारी आए थे. वे तैर कर इस विशाल शिला पर पहुंचे और इस निर्जन स्थान पर उन्हें जीवन का लक्ष्य एवं लक्ष्य प्राप्ति हेतु कुदरती मार्गदर्शन प्राप्त हुआ था…” अनूप बोल रहे थे. मुझे उस मूर्ति की आंखों से निकलती चिनगारियां दिख रही थीं.

“इस के कुछ समय बाद ही वे शिकागो सम्मेलन में भाग लेने गए थे और वहां भारत का नाम ऊंचा किया था. उन के अमर संदेशों को साकार रूप देने के लिए ही 1970 में इस विशाल शिला पर भव्य स्मृति भवन का निर्माण किया गया…”

मुझे वे चिनगारियां लपटों में बदलती दिख रही थीं. मैं फिर पानी में डूब रही थी…

“यह शोर कैसा है?”

“किसी ने मेधा को देखा?” टीचर की आवाज आई।

“हां मैम, वह नदी में उस मूर्ति के पीछे जा रही थी… ” मेरा दिल बोलना चाह रहा था, पर दिमाग रोक रहा था।

“पागल है क्या, उस से बदला लेने का मौका मिल रहा है, होने दे परेशान उसे…”

दिमाग जीत गया था और मेधा जिंदगी हार गई थी।

“मेधा…” मेरी आवाज से ऋचा चौंक गई, “डैडी, मम्मी को क्या हुआ?”

मोबाइल बज रहा था… मुझे अनूप ने फिर गढ्ढे में से बाहर निकाल लिया.
“मम्मा, मेरा रिजल्ट आ गया, मैं इस बार थर्ड पोजीशन पर हूं. 93% आया है…” ऋचा खुश थी.

“अरे वाह, अब तो यहीं पार्टी करेंगे,” ऋत्विक और अनूप चहक रहे थे.
मैं ने मूर्ति की ओर देखा… उस का चेहरा मुसकराता लगा.

“मम्मा, मेधा कौन है?”

“मेरी पक्की सहेली थी. हमारे स्कूल ट्रिप में एक नदी में ऐसी ही मूर्ति के पीछे पानी में डूब गई थी। और….” यह कहतेकहते मैं फूटफूट कर रो पड़ी। बरसों से जमा मेरा अपराधभाव धीरेधीरे पिघल रहा था।

‘वह एक दुर्घटना थी,’ दिल ने कहा.
लेकिन दिमाग को मैं ने सोचने ही नहीं दिया.

ऋचा का मोबाइल फिर बजा, “पलका, तुझे फर्स्ट आने की बधाई… और मैं अभी कन्याकुमारी में हूं। 2 दिन बाद लौटूंगी, तब पार्टी करते हैं, चल बाई…”

“बेटा, परीक्षा की मैरिट को कभी भी सहेलियों के बीच मत आने देना…”

“हां मम्मा, मुझे पता है…”

ऋचा की थर्ड पोजीशन आज मुझे असीम राहत दे गई.

मूर्ति की आंखों में कोई आग नहीं थी, उस के चेहरे में मेधा का चेहरा नजर आया… उस की मुसकराहट मानों मुझे माफी दे रही थी. बरसों से मेरे मन के तहखाने में कैद वे लम्हे पिघल कर मानो बूंदबूंद बह रहे थे।

लेखिका : डा. वंदना गुप्ता

Best Hindi Story : मां की गंध

Best Hindi Story : “किस बात की बेचैनी है. सब तो है तुम्हारे पास… शिफान और हैंडलूम की साड़ियों का बेहतरीन कलेक्शन, सब के साथ मैच करती एसेसरीज, पैरों के नीचे बिछा मखमली गलीचा. मोहतरमा और क्या ख्वाहिश है आप की?”

हालांकि सरगम ये सब मुझे हंसाने के लिए कह रही थी, लेकिन ये बातें मुझे इस समय अच्छी नहीं लग रही थी. मेरा मन फूटफूट कर रोना चाह रहा था, जिस का कारण वो खुद भी नहीं समझ रहा था. अचानक से हुई तेज बारिश ने शहर की सड़कों को पानी में डुबो दिया था. उस पर ये ट्रैफिक… घर पहुंचने में बहुत देर हो जाएगी. बच्चे इंतजार कर रहे होंगे. इतनी बारिश में शांति दीदी भी नहीं आ पाएंगी. खाना कैसे बनेगा? बाहर से मंगवा लूं?

लगातार बजते हौर्न की आवाजों से मेरी बेचैनी और बढ़ रही थी. आंख से निकलते आंसू मुझ से ही सवाल कर रहे थे. ये रास्ता तो तुम ने खुद ही चुना था अब क्यों परेशान हो? तुम को ही तो अपनी मां जैसी जिंदगी नहीं जीनी थी? एक महत्वहीन जिंदगी, जिस का कोई उद्देश्य नहीं था. मां को हमेशा मसालों की गंध में महकता देख तुम ही तो सोचती थी कि मां जैसी कभी नहीं बनूंगी. सच ही तो था ये… चाची की कलफ लगी साड़ियां, उन के शरीर से आती भीनी खुशबू, चाचा का उन की हर बात को मानना और चचेरे भाईबहनों का सब से अच्छे इंगलिश स्कूल में पढ़ना… सबकुछ उसे अपनी और मां की कमतरी का अहसास दिलाता था. उस ने कभी भी अपने मम्मीपापा की जिंदगी में उस रोमांच को महसूस नहीं किया, जो चाचाचाची की जिंदगी में बिखरा हुआ था. बचपन से ही एक छत के नीचे रहते 2 परिवारों के बीच का अंतर उसे अंदर ही अंदर घोलता रहा.

ये भी पढ़ें- फौजी का प्यार

विचारों की तंद्रा घर के सामने आ कर ही टूटी. गाड़ी पार्किंग में खड़ी कर मैं बदहवास सी अंदर गई. वैभव अब तक घर नहीं आए थे. बेटा अंकु मुझे देखते ही लिपट गया. बेटी मुझे देख कर अपने कमरे में चली गई. मैं ने अंकु को पुचकारते हुए पूछा, ”भूख लगी है मेरे बेटे को?”

अंकु ने नहीं में सिर हिलाया. मेज पर रखी प्लेट में ब्रेड का एक छोटा टुकड़ा रखा हुआ था. मुझे लगा कि वैभव ने बच्चों के लिए कुछ और्डर किया होगा? तब तक अंकु ने कहा, ”आज दीदी ने बहुत अच्छा सैंडविच बनाया था मम्मा.”

“ अवनी ने?”

“हां मम्मा, पहले तो बस ब्रेडबटर ही देती थी, लेकिन आज सैंडविच बनाया.”

अंकु के खिलौनों को समेटती हुई अवनी के कमरे की तरफ गई. मोबाइल पर तेजी से चलती उस की उंगलियां मुझे देख कर थम गई थीं. मैं ने अवनी को पुचकारते हुए अपने सीने से लगा लिया, ”मेरी गुड़िया तो बहुत समझदार हो गई है. सैंडविच बनाने लगी है.”

अवनी ने खुद को अलग करते हुए कहा, “ये आप का परफ्यूम… और अब मैं 13 साल की हो गई हूं. आप घर में नहीं रहेंगी तो इतना तो कर ही सकती हूं.”

इतना अटपटा जवाब… ऐसे क्यों बात कर रही है मुझ से? अरे रोज तो शांति दीदी शाम को आ ही जाती हैं, तब तक वैभव की आवाज आई, ”अरे, आज हमारी रानी साहिबा रसोईघर में. कहीं सपना तो नहीं देख रहा हूं मैं.”

उन की मुसकान ने मुझे फिर से सामान्य कर दिया. वैभव ने हमेशा मुझे वो सम्मान दिया, जो चाचा चाची को देते थे. सबकुछ तो ठीक था मेरी जिंदगी में, जैसा मुझे चाहिए था. मैं ही कुछ ज्यादा सोचने लगती हूं. पता नहीं, किस अपराध बोध में घिर जाती हूं. ये परेशनियां तो जिंदगी के साथ लगी ही रहती हैं. आज समाज में वैभव के नाम के बिना भी मेरी पहचान है.

ये भी पढ़ें- कर्तव्य : मीनाक्षी का दिल किस पर आ गया था

जब सब जिंदगी में कुछ ठीक चल रहा हो तो समझ लो जिंदगी करवट लेने वाली है. रात को 11 बजे पापा का फोन आया कि मां की तबियत खराब है. क्या हुआ? कब हुई? ये सब पापा ने सुना ही नहीं. पिछले 3 दिन से इतनी व्यस्त थी कि मां से बात नहीं हुई थी.

सुबह की किरणों के साथ मैं अस्पताल के गेट पर पहुंची. पापा,चाचा आईसीयू गेट के बाहर खड़े थे. मैं उन की तरफ बढ़ने लगी, तो वैभव ने मेरा हाथ पकड़ कर कहा, “हिम्मत रखना.” मैं तब भी कुछ समझ नहीं पाई.

सबकुछ शांत था. मां के पास लगे मौनिटर के अलावा… अब कुछ नहीं हो सकता है. ‘दर्शन कर लो,’ कह कर चाचा मुझे अंदर ले कर गए. मां की आंखें बंद थीं. मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था. दर्द की एक लहर मेरे सीने से ले कर हाथ तक दौड़ रही थी. मां का चेहरा देख कर लगा कि वो गहरी नींद में सो रही हैं. कांपते हुए हाथों से मैं ने उन का हाथ पकड़ लिया. वैसी ही गरम हथेलियां… महसूस हुआ कि उन्होंने भी मेरा हाथ हलके से दबाया है, तब तक वो मुसकराने लगी और सांस के तेज झटके के साथ सब बंद हो गया. मैं चिल्लाती रह गई, लेकिन मां ने कुछ नहीं सुना. ऐसे मुंह फेर लिया जैसे पहचानती ही नहीं हों. भला ऐसे कौन मां जाती है? अचानक से बिना कुछ बोले… बिना मिले…

मैं उन की अलमारी से कपड़ों को निकाल कर उन की गंध खोज रही थी. सब कपड़े धुले हुए थे. चाची के पास इस उम्मीद में बैठी कि उन से मां का स्पर्श मिलेगा, लेकिन वो तो खुद की ही सुधबुध खो चुकी थीं.

अस्पताल से आए कपड़ों में उन का कपड़ा मिला, जो उस दिन उन्होंने पहना हुआ था. वही मसालों की गंध जिस से मुझे चिढ़ थी, आज मां के पास होने का अहसास करा रही थी. हर रस्म अहसास दिला रहे थे कि मां अब वापस नहीं आएगी. दोनों बच्चों के समय मातृत्व अवकाश खत्म होने के बाद मां कुछ महीने मेरे पास ही रही थीं. वैसे भी साल में 2 बार तो मां उन दोनों के जन्मदिन पर आती ही थीं. अब मेरे पास बस उन पलों की यादें ही बची थीं. अवनी का जुड़ाव मां से बहुत ज्यादा था.

तेरहवीं की रस्मों के बाद पूरा परिवार एकसाथ बैठा हुआ था. अगले दिन सब को अपनेअपने घर निकलना था. चाची की आंखें फिर से डूबने लगीं, वो सुबकते हुए कहने लगीं, “भाभी ने मुझे मुंहदिखाई देते हुए कहा था, ये सारे उपहार तो साल दो साल में पुराने पड़ जाएंगे, लेकिन आज मैं तुम्हें वचन देती हूं कि मेरे जिंदा रहते तुम्हें मायके की कमी महसूस नहीं होने दूंगी.” उन के चलते ही मैं ने अपना पढ़ने और नौकरी करने का सपना पूरा किया.

पापा जो अब तक बिलकुल शांत थे. उन्होंने चाची को समझाते हुए कहा कि वो देवी थीं इस घर को मंदिर बनाने आई थीं अपना काम पूरा कर के चली गईं. अब तुम्हें सब संभालना है. ये क्या बोल रहे थे पापा? मैं ने तो उन्हें कभी मां की तारीफ करते नहीं सुना या उन दोनों के मूक प्रेम को मैं समझ ही नहीं पाई?

मां के जाने के बाद जिंदगी रुक गई थी. कभी लगा ही नहीं वो दूर हो कर भी इस कदर मेरी जिंदगी में मौजूद हैं. शांति दीदी को काम करते देख मैं उन्हें गले लगा लेती. उन से आती गंध में मैं मां को खोजने लगती थी. लगता था, मैं बहुत खराब बेटी हूं. मुझे उन की स्निग्धता और परिपक्वता पर गर्व करना चाहिए था और मैं अपनी आर्थिक स्वतंत्रता के मद में अंधी बनी रही. अपराध बोध से बड़ी कोई सजा नहीं होती और मुझे नहीं पता था कि इस सजा की अवधि कितनी है.

बढ़ती कमजोरी और मानसिक स्थिरता के कारण मैं ने छुट्टी ले ली. वैभव, बच्चे सब मेरी इस हालत से परेशान थे. परेशान तो मैं खुद भी थी, लेकिन इन सब से उबरने का कोई रास्ता नहीं दिख रहा था.

पतझड़ का सूनापन नई पत्तियों की आमद से ही दूर होता है. नन्हे पक्षियों की चहचहाहट से ही निर्जनता को आवाज मिलती है. एक दिन अवनी ने मुझे अपना मोबाइल दिया और कहने लगी, ”मम्मा, आप को पता है कि नानी आप को कितना प्यार करती थीं? आप जितना मुझे और अंकु को मिला कर करती हो उस से भी ज्यादा. याद है, उस दिन मैं ने अंकु के लिए सैंडविच बनाया था, वो मुझे नानी ने ही सिखाया था. पता नहीं क्यों उस दिन मुझे आप पर बहुत ग़ुस्सा आ रहा था. मैं ने नानी से कह दिया कि आप ने मम्मा को अपने जैसा क्यों नहीं बनाया. वो मुझ से कहने लगीं कि आप उन से भी अच्छी हैं, लेकिन मुझे उस दिन कोई बात सुनने का मन नहीं कर रहा था. तब उन्होंने ये मैसेज मुझे भेजा था.

“अवनी बेटा तुम्हें लगता है कि आभा तुम लोगों का ध्यान नहीं रख पाती. उसे भी नौकरी छोड़ कर तुम लोगों के साथ पूरे समय घर पर रहना चाहिए. लेकिन, ये तो गलत है ना बेटा. एक औरत जब बच्चों को छोड़ कर घर से काम करने निकलती है, तो वह खुद ही परेशान होती है. इस नौकरी को पाने के लिए जितनी मेहनत तुम्हारे पापा ने की थी, उतनी ही मेहनत मम्मा ने भी की है. मुझ पर घरपरिवार की बहुत जिम्मेदारियां थीं, लेकिन उस ने मुझे कभी किसी शिकायत का मौका नहीं दिया. जब वो अधिकारी बनी तो तुम्हारे नाना ने कहा कि ये सब तुम्हारे अच्छे कर्मों का फल है. उस की सफलता ने मुझे भी सफल मां बनाया है. उस को कभी गलत मत समझना और हमेशा मजबूती के साथ उस का साथ देना.”

एक बोझ था जो आंसुओं के साथ हलका हो रहा था. अवनी मुझ से चिपकी हुई थी. कह रही थी, आप के अंदर से नानी की खुशबू आ रही है.

लेखिका- पल्लवी विनोद

Romantic Story : क्या अपने प्यार के बारे में बता पाएगी आकांक्षा?

Romantic Story : कैफे की गैलरी में एक कोने में बैठे अभय का मन उदास था. उस के भीतर विचारों का चक्रवात उठ रहा था. वह खुद की बनाई कैद से आजाद होना चाहता था. इसी कैद से मुक्ति के लिए वह किसी का इंतजार कर रहा था. मगर क्या हो यदि जिस का अभय इंतजार कर रहा था वह आए ही न? उस ने वादा तो किया था वह आएगी. वह वादे तोड़ती नहीं है…

3 साल पहले आकांक्षा और अभय एक ही इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ते थे. आकांक्षा भी अभय के साथ मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रही थी, और यह बात असाधारण न हो कर भी असाधारण इसलिए थी क्योंकि वह उस बैच में इकलौती लड़की थी. हालांकि, अभय और आकांक्षा की आपस में कभी हायहैलो से ज्यादा बात नहीं हुई लेकिन अभय बात बढ़ाना चाहता था, बस, कभी हिम्मत नहीं कर पाया.

एक दिन किसी कार्यक्रम में औडिटोरियम में संयोगवश दोनों पासपास वाली चेयर पर बैठे. मानो कोई षड्यंत्र हो प्रकृति का, जो दोनों की उस मुलाकात को यादगार बनाने में लगी हो. दोनों ने आपस में कुछ देर बात की, थोड़ी क्लास के बारे में तो थोड़ी कालेज और कालेज के लोगों के बारे में.

ये भी पढ़ें- मन का रिश्ता: खून के रिश्तों से जुड़ी एक कहानी

फिर दोनों की मुलाकात सामान्य रूप से होने लगी थी. दोनों के बीच अच्छी दोस्ती हो गई थी. मगर फिर भी आकांक्षा की अपनी पढ़ाई को ले कर हमेशा चिंतित रहने और सिलेबस कम्पलीट करने के लिए हमेशा किताबों में घुसे रहने के चलते अभय को उस से मिलने के लिए समय निकालने या परिस्थितियां तैयार करने में ज्यादा मेहनत करनी पड़ती थी. पर वह उस से थोड़ीबहुत बात कर के भी खुश था.

दोस्ती होते वक्त नारी सौंदर्य के प्रखर तेज पर अभय की दृष्टि ने भले गौर न किया हो पर अब आकांक्षा का सौंदर्य उसे दिखने लगा था. कैसी सुंदरसुंदर बड़ीबड़ी आंखें, सघन घुंघराले बाल और दिल लुभाती मुसकान थी उस की. वह उस पर मोहित होने लगा था.

शुरुआत में आकांक्षा की तारीफ करने में अभय को हिचक होती थी. उसे तारीफ करना ही नहीं आता था. मगर एक दिन बातों के दौरान उसे पता चला कि आकांक्षा स्वयं को सुंदर नहीं मानती. तब उसे आकांक्षा की तारीफ करने में कोई हिचक, डर नहीं रह गया.

आकांक्षा अकसर व्यस्त रहती, कभी किताबों में तो कभी लैब में पड़ी मशीनों में. हर समय कहीं न कहीं उलझी रहती थी. कभीकभी तो उसे उस के व्यवहार में ऐसी नजरअंदाजगी का भाव दिखता था कि अभय अपमानित सा महसूस करने लगता था. वह बातें भी ज्यादा नहीं करती थी, केवल सवालों के जवाब देती थी.

ये भी पढ़ें- तुम देना साथ मेरा : भाग 2

अपनी पढ़ाई के प्रति आकांक्षा की निष्ठा, समर्पण और प्रतिबद्धता देख कर अभय को उस पर गर्व होता था, पर वह यह भी चाहता था कि इस तकनीकी दुनिया से थोड़ा सा अवकाश ले कर प्रेम और सौहार्द के झरोखे में वह सुस्ता ले, तो दुनिया उस के लिए और सुंदर हो जाए. बहुत कम ऐसे मौके आए जब अभय को आकांक्षा में स्त्री चंचलता दिखी हो. वह स्त्रीसुलभ सब बातों, इठलाने, इतराने से कोसों दूर रहा करती थी. आकांक्षा कहती थी उसे मोह, प्रेम या आकर्षण जैसी बातों में कोई दिलचस्पी नहीं. उसे बस अपने काम से प्यार है, वह शादी भी नहीं करेगी.

अचानक ही अभय अपनी खयालों की दुनिया से बाहर निकला. अपनेआप में खोया अभय इस बात पर गौर ही नहीं कर पाया कि आसपास ठहाकों और बातचीतों का शोर कैफे में अब कम हो गया है.

अभय ने घड़ी की ओर नजर घुमाई तो देखा उस के आने का समय तो कब का निकल चुका है, मगर वह नहीं आई. अभय अपनी कुरसी से उठ कैफे की सीढि़यां उतर कर नीचे जाने लगा. जैसे ही अभय दरवाजे की ओर तेज कदमों से बढ़ने लगा, उस की नजर पास वाली टेबल पर पड़ी. सामने एक कपल बैठा था. इस कपल की हंसीठिठोलियां अभय ने ऊपर गैलरी से भी देखी थीं, लेकिन चेहरा नहीं देख पाया था.

लड़कालड़की एकदूसरे के काफी करीब बैठे थे. दोनों में से कोई कुछ नहीं बोल रहा था. लड़की ने आंखें बंद कर रखी थीं मानो अपने मधुरस लिप्त होंठों को लड़के के होंठों की शुष्कता मिटा वहां मधुस्त्रोत प्रतिष्ठित करने की स्वीकृति दे रही हो.

अभय यह नजारा देख स्तब्ध रह गया. उसे काटो तो खून नहीं, जैसे उस के मस्तिष्क ने शून्य ओढ़ लिया हो. उसे ध्यान नहीं रहा कब वह पास वाली अलमारी से टकरा गया और उस पर करीने से सजे कुछ बेशकीमती कांच के मर्तबान टूट कर बिखर गए.

इस जोर की आवाज से वह कपल चौंक गया. वह लड़की जो उस लड़के के साथ थी कोई और नहीं बल्कि आकांक्षा ही थी. आकांक्षा ने अभय को देखा तो अचानक सकते में आ गई. एकदम खड़ी हो गई. उसे अभय के यहां होने की बिलकुल उम्मीद नहीं थी. उसे समझ नहीं आया क्या करे. सारी समझ बेवक्त की बारिश में मिट्टी की तरह बह गई. बहुत मुश्किलों से उस के मुंह से सिर्फ एक अधमरा सा हैलो ही निकल पाया.

अभय ने जवाब नहीं दिया. वह जवाब दे ही नहीं सका. माहौल की असहजता मिटाने के आशय से आकांक्षा ने उस लड़के से अभय का परिचय करवाने की कोशिश की. ‘‘साहिल, यह अभय है, मेरा कालेज फ्रैंड और अभय, यह साहिल है, मेरा… बौयफ्रैंड.’’ उस ने अंतिम शब्द इतनी धीमी आवाज में कहा कि स्वयं उस के कान अपनी श्रवण क्षमता पर शंका करने लगे.  अभय ने क्रोधभरी आंखें आकांक्षा से फेर लीं और तेजी से दरवाजे से बाहर निकल गया.

आकांक्षा को कुछ समझ नहीं आया. उस ने भौचक्के से बैठे साहिल को देखा. फिर दरवाजे से निकलते अभय को देखा और अगले ही पल साहिल से बिना कुछ बोले दरवाजे की ओर दौड़ गई. बाहर आ कर अभय को आवाज लगाई. अभय न चाह कर भी पता नहीं क्यों रुक गया.

आधी रात को शहर की सुनसान सड़क पर हो रहे इस तमाशे के साक्षी सितारे थे. अभय पीछे मुड़ा और आकांक्षा के बोलने से पहले उस पर बरस पड़ा, ‘‘मैं ने हर पल तुम्हारी खुशियां चाहीं, आकांक्षा. दिनरात सिर्फ यही सोचता था कि क्या करूं कि तुम्हें हंसा सकूं. तमाम कोशिशें कीं कि गंभीरता, कठोरता, जिद्दीपन को कम कर के तुम्हारी जिंदगी में थोड़ी शरारतभरी मासूमियत के लिए जगह बना सकूं. तुम्हें मझधार के थपेड़ों से बचाने के लिए मैं खुद तुम्हारे लिए किनारा चाहता था. मगर, मैं हार गया. तुम दूसरों के साथ हंसती, खिलखिलाती हो, बातें करती हो, फिर मेरे साथ यह भेदभाव क्यों? तकलीफ तो इस बात की है कि जब तुम्हें किनारा मिल गया तो मुझे बताना भी जरूरी नहीं समझा तुम ने. क्यों आकांक्षा?’’

आकांक्षा अपराधी भाव से कहने लगी, ‘‘मैं तुम्हें सब बताने वाली थी. तुम्हें ढेर सारा थैंक्यू कहना चाहती थी. तुम्हारी वजह से मेरे जीवन में कई सारे सकारात्मक बदलावों की शुरुआत हुई. तुम मुझे कितने अजीज हो, कैसे बताऊं तुम्हें. तुम तो जानते ही हो कि मैं ऐसी ही हूं.’’

आकांक्षा का बोलना जारी था, ‘‘तुम ने कहा, मैं दूसरों के साथ हंसती, खिलखिलाती हूं. खूब बातें करती हूं. मतलब, छिप कर मेरी जासूसी बड़ी देर से चल रही है. हां, बदलाव हुआ है. दरअसल, कई बदलाव हुए हैं. अब मैं पहले की तरह खड़ ूस नहीं रही. जिंदगी के हर पल को मुसकरा कर जीना सीख लिया है मैं ने. तुम्हारा बढ़ा हाथ है इस में, थैंक्यू फौर दैट. और तुम भी यह महसूस करोगे मुझ से अब बात कर के, अगर मूड ठीक हो गया हो तो.’’ अब वह मुसकराने लगी.

अभय बिलकुल शांत खड़ा था. कुछ नहीं बोला. अभय को कुछ न कहते देख आकांक्षा गंभीर हो गई. कहने लगी, ‘‘तुम्हें तो खुश होना चाहिए. तुम मेरे नीरस जीवन में प्यार की मिठास घोलना चाहते थे तो अपनी ही इच्छा पूरी होने पर इतने परेशान क्यों हो गए? मुझे साहिल के साथ देख कर इतना असहज क्यों हो गए? मेरे खिलाफ खुद ही बेवजह की बेतुकी बातें बना लीं और मुझ से झगड़ रहे हो. कहीं…’’ आकांक्षा बोलतेबोलते चुप हो गई.

इतना सुन कर भी अभय चुप ही रहा. आकांक्षा ने अभय को चुप देख कर एक लंबी सांस लेते हुए कहा, ‘‘तुम ने बहुत देर कर दी, अभय.’’

यह सुन कर उस के पूरे शरीर में सिहरन दौड़ गई. हृदय एक अजीब परंतु परिपूर्ण आनंद से भर गया. उस का मस्तिष्क सारे विपरीत खयालों की सफाई कर बिलकुल हलका हो गया. ‘तुम ने बहुत देर कर दी, अभय,’ इस बात से अब वह उम्मीद टूट चुकी थी जिसे उस ने कब से बांधे रखा था. लेकिन, जो आकांक्षा ने कहा वह सच भी तो था. वह न कभी कुछ साफसाफ बोल पाया न वह समझ पाई और अब जब उसे जो चाहिए था मिल ही गया है तो वह क्यों उस की खुशी के आड़े आए.

अभय ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘कम से कम मुझ से समय से मिलने तो आ जातीं.’’ यह सुन कर आकांक्षा हंसने लगी और बोली, ‘‘बुद्धू, हम कल मिलने वाले थे, आज नहीं.’’ अभय ने जल्दी से आकांक्षा का मैसेज देखा और खुद पर ही जोरजोर से हंसने लगा.

एक झटके में सबकुछ साफ हो गया और रह गया दोस्ती का विस्तृत खूबसूरत मैदान. आकांक्षा को वह जितना समझता है वह उतनी ही संपूर्ण और सुंदर है उस के लिए. उसे अब आज शाम से ले कर अब तक की सारी नादानियों और बेवकूफीभरे विचारों पर हंसी आने लगी. उतावलापन देखिए, वह एक दिन पहले ही उस रैस्टोरैंट में पहुंच गया था जबकि उन का मिलना अगले दिन के लिए तय था.

अभय ने कुछ मिनट लिए और फिर मुसकरा कर कहा, ‘‘जानबूझ कर मैं एक दिन पहले आया था, माहौल जानने के लिए आकांक्षा, यू डिजर्व बैटर.’’

लेखक – संदीप कुमरावत

Love Story : क्या नीना को उसका प्यार मिल पाया

Love Story : नीना के प्रति मेरा आकर्षण चुंबक की तरह मुझे खींच रहा था. एक दिन मैं ने हंस कर सीधेसीधे उस से कहा, ‘‘मैं तुम से प्यार करता हूं.’’ वह ठहाका मार कर हंसी, ‘‘तुम बड़े नादान हो रविजी. महानगर में प्यार मत करो, लुट जाओेगे.’’ उस ने फिर कहीं दूर भटकते हुए कहा, ‘‘इस शहर में रहो, पर सपने मत देखो. छोटे लोगों के सपने यों ही जल जाते हैं. जिंदगी में सिर्फ राख और धुआं बचते हैं. सच तो यह है कि प्यार यहां जांघों के बीच से फिसल जाता है.’’ ‘‘कितना बेहूदा खयाल है नीना…’’ ‘‘किस का…?’’ ‘‘तुम्हारा,’’ मैं ने तल्ख हो कर कहा, ‘‘और किस का?’’ ‘‘यह मेरा खयाल है?’’ वह हैरान सी हुई, ‘‘तुम यही समझे…?’’ ‘‘तो मेरा है?’’ ‘‘ओह…’’ उस ने दुखी हो कर कहा, ‘‘फिर भी मैं कह सकती हूं कि तुम कितने अच्छे हो… काश, मैं तुम्हें समझा पाती.’’ ‘‘नहीं ही समझाओ तो अच्छा,’’ मैं ने उस से विदा लेते हुए कहा, ‘‘मैं समझ गया…’’ रास्तेभर तरहतरह के खयाल आते रहे.

आखिरकार मैं ने तय किया कि सपने कितने भी हसीन हों, अगर आप बेदखल हो गए हों, तो उन हसरतों के बारे में सोचना छोड़ देना चाहिए. मैं नीना की जिंदगी से कट सा गया था. मैं नीना को एक बस के सफर में मिला था. वह भी वहीं से चढ़ी थी, जहां से मैं चढ़ा था और वहीं उतरी भी थी. कुछ दिन में हैलोहाय से बात आगे बढ़ गई. वह एक औफिस में असिस्टैंट की नौकरी कर रही थी. बैठनाउठना हो गया. वह बिंदास थी, पर बेहद प्रैक्टिकल. कुछ जुगाड़ू भी थी. मेरे छोटेमोटे काम उस ने फोन पर ही करा दिए थे. उस दिन मैं फैक्टरी से देर से निकला, तो जैक्सन रोड की ओर निकल गया. दिल यों भी दुखी था, क्योंकि फैक्टरी में एक हादसा हो गया था. बारबार दिमाग में उस लड़के का घायल चेहरा आ रहा था. मैं एक मसाज पार्लर के पास रुक गया. यह पुराना शहर था अपनी स्मृति में, इतिहास को समेटे हुए.

ये भी पढ़ें- खामोशी – भाग 2 : बहन और जीजा ने अपने ही घरवालों के साथ धोखा क्यों

मैं ने घड़ी देखी. 7 बज रहे थे. मैं थकान दूर करने के लिए घुस गया. अभी मैं जायजा ले ही रहा था कि मेरी नजर नीना पर पड़ी, ‘‘तुम यहां…?’’ ‘‘मैं इसी पार्लर में काम करती हूं.’’ ‘‘पर, तुम ने तो बताया था कि किसी औफिस में काम करती हो…’’ ‘‘हां, करती थी.’’ ‘‘फिर…?’’ ‘‘सब यहीं पूछ लोगे क्या…?’’ कहते हुए वह दूसरे ग्राहक की ओर बढ़ गई. नशे से लुढ़कतेथुलथुले लोगों के बीच से वह उन्हें गरम बदन का अहसास दे रही थी. यह देख मुझे गहरा अफसोस हुआ. मैं सिर्फ हैड मसाज ले कर वापस आ गया. रास्ते में मैं ने फ्राई चिकन और रोटी ले ली थी. कमरे में पहुंच कर मैं ने अभी खाने का एक गस्सा तोड़ा ही था कि मोहन आ गया. ‘‘आओ मोहन,’’ मैं ने कहा, ‘‘बड़े मौके से आए हो तुम.’’ ‘‘क्या है?’’ मोहन ने मुसकराते हुए पूछा. वह एक दवा की दुकान पर सेल्समैन था. पूरा कंजूस और मजबूर आदमी. अकसर उसे घर से फोन आता था, जिस में पैसे की मांग होती थी.

इस कबूतरखाने में इसी तरह के लोग किराएदार थे, जो दूर कहीं गांवघर में अपने परिवार को छोड़ कर अपना सलीब उठाए चले आए थे. मैं ने थाली मोहन की ओर खिसकाई. बिना चूंचूं किए वह खाने लगा. मोहन बोला, ‘‘यार रवि, तुम्हीं ठीक हो. तुम्हारे घर वाले तुम्हें नोचते नहीं. मैं तो सोचता हूं कि मेरी जिंदगी इसी तरह खत्म हो जाएगी कि मैं वापस भी नहीं जा सकूंगा गांव… पहले यह सोच कर आया था कि 2-4 साल कमा कर लौट जाऊंगा… मगर, 10 साल होने को हैं, मैं यहीं हूं…’’ ‘‘सुनो मोहन, मुझे फोन इसलिए नहीं आते हैं कि मेरे घर में लोग नहीं हैं… बल्कि उन्हें पता ही नहीं है कि मैं कहां हूं… इस दुनिया में हूं भी कि नहीं… यह अच्छा है… आज जिस लड़के के साथ हादसा हुआ, अगर मेरी तरह होता तो किस्सा खत्म था, पर अब जाने क्या गुजर रही होगी उस के घर वालों पर…’’ ‘‘एक बात बोलूं?’’ ‘‘बोलो.’’ ‘‘तुम शादी कर लो.’’ ‘‘किस से?’’ ‘‘अरे, मिल जाएगी…’’ ‘‘मिली थी…’’ मैं ने कहा. ‘‘फिर क्या हुआ?’’ ‘‘टूट गया.’’ रात काफी हो गई थी. मोहन उठ गया. सवेरे मेरी नींद देर से खुली, मगर फैक्टरी में मैं समय से पहुंच गया.

ये भी पढ़ें- टीकाकरण घोटाला

मुझे वहीं पता चला कि उस ने अस्पताल में रात तकरीबन 3 बजे दम तोड़ दिया. मैनेजर ने एक मुआवजे का चैक दिखा कर हमदर्दी बटोरने के बाद फैक्टरी में चालाकी से छुट्टी कर दी. मैं वापस लौटने ही वाला था कि नीना का फोन आया. चौरंगी बाजार में एक जगह वह इंतजार कर रही थी. ‘‘क्या बात है?’’ मैं ने पूछा. ‘‘कुछ नहीं,’’ वह हंसी. ‘‘बुलाया क्यों?’’ ‘‘गुस्से में हो?’’ ‘‘किस बात के लिए?’’ ‘‘अरे, बोलो भी.’’ ‘‘बोलूं?’’ ‘‘हां.’’ ‘‘झूठ क्यों बोली?’’ ‘‘क्या झूठ?’’ ‘‘कि औफिस में…’ ‘‘नहीं, सच कहा था.’’ ‘‘तो वहीं रहती.’’ ‘‘बौस देह मांग रहा था,’’ उस ने साफसाफ कहा. ‘‘क्या…?’’ मैं अवाक रह गया. काफी देर बाद मैं ने कहा, ‘‘चलो, मुझे माफ कर दो. गलतफहमी हुई.’’ ‘‘गलतफहमी में तो तुम अभी भी हो…’’ ‘‘मतलब…?’’ मैं इस बार चौंका, ‘‘कैसे?’’ ‘‘फिर कभी,’’ नीना ने हंस कर कहा. उस दिन नीना के प्रति यह गलतफहमी रह जाती, अगर मैं उस के साथ जिद कर के उस के घर नहीं गया होता. मेरे घर की तरह दड़बेनुमा मकान था.

ये भी पढ़ें- बीरा : पूरे गांव में बीरा को लेकर क्या हंगामा हो रहा था

एक बिल्डिंग में 30-40 परिवार होंगे. सचमुच कभीकभी जिंदगी भी क्या खूब मजाक करती है. वह 2 बूढ़ों को पालते हुए खुद बूढ़ी हो रही थी. उस की मां की आंखों में एक चमक उठी. कुछ अपना रोना रोया, कुछ नीना का. मेरा भी कोई अपना कहने वाला नहीं था. भाई कब का न जाने कहां छोड़ गया था. मांबाप गुजर चुके थे. चाचाताऊ थे, पर कभी साल 2 साल में कोई खबर मिलती. उस दिन नीना का हाथ अपने हाथ में ले कर मैं ने कहा, ‘‘मुझे अब कोई गलतफहमी नहीं है, तुम्हें हो, तो कह सकती हो.’’ ‘‘मुझे है,’’ उस ने हंस कर कहा, ‘‘पर, कहूंगी नहीं.’’ एक खूबसूरत रंग फिजा में फैल कर बिखर गया. उस दिन उस के छोटे बिस्तर पर जो अपनापन मिला, मां की गोद के बाद कभी नहीं मिला था. दो महीने बाद दोनों ने शादी कर ली, बस 10 जने थे. न घोड़ी, न बरात, पर मुझे और नीना को लग रहा था कि सारी दुनिया जीत ली. अगली सुबह मैं अपने साथ खाने का डब्बा ले गया था. इस से बढ़ कर दहेज होता है क्या?

लेखक- संजय कुमार सिंह

Instagram Influencers : जानकारियों के लिए इन्फ्लुएंसर्स पर निर्भरता कितना सही

Instagram Influencers : आज युवा अपना सब से ज्यादा समय सोशल मीडिया पर बिता रहा है. वह अपनी समस्या का हल ढूढ़ने की जगह सोशल मीडिया का सहारा लेने लगा है. इन्फ्लुएंसर्स भी बड़ा वर्ग इन युवाओं को अपना फौलोअर्स बना रहा है और इन के द्वारा ऐसा कंटेंट परोसा जा रहा है जो भटकाने का ही काम कर रहा है.

 

यंगस्टर्स इन्फ्लुएंसर्स की फैन फौलोइंग देख कर उन पर आंख बंद कर के भरोसा कर रहे हैं और सोचते हैं कि वे उन्हें सही जानकारी दे रहे हैं जबकि ऐसा नहीं है.

 

यूनेस्को की हाल की एक रिपोर्ट के अनुसार कंटेंट क्रिएटर फैक्ट चेक करने से कतरा रहे हैं. यूनेस्को द्वारा किए गए सर्वेक्षण के मुताबिक 62 फीसदी कंटेंट क्रिएटर किसी भी खबर या जानकारी को शेयर करने से पहले स्टैंडर्ड तरीके से उस का फैक्ट चेक नहीं करते हैं.

 

ये इन्फ्लुएंसर सिर्फ प्रोडक्ट्स या सर्विस के प्रचार तक सीमित रहते हैं. ये इन्फ्लुएंसर्स फैशन से ले कर रिलेशन तक, फिजिकल फिटनैस से ले कर स्किन केयर तक, ट्रेवल, इन्वेस्टमेंट, लाइफ स्टाइल, धर्म, राजनीति जैसी हर चीज पर एक्सपर्ट बन कर अपनी राय रखते हैं. और युवा जो इन की दी सलाह पर चलने में सक्षम नहीं होते वे कुंठा, असुरक्षा और हीनता की भावना से घिरने लगते हैं. अपने फैसलों को ले कर उन का आत्मविश्वास डगमगाने लगता है और वे डिप्रेशन, बौडी डिस्मार्फिया, ऐंगजाइटी जैसी मानसिक समस्याओं में घिरने लगते हैं.

 

कोई इन इंफ्लुएंसर्स और इन के फौलोअर्स को समझाए कि जब किताब के एक पेज को पढ़ कर किताब की पूरी जानकारी नहीं मिल सकती तो क्या 15-30 सेकेंड के रील में इन्फ्लुएंसर्स जो जानकारी दे रहे हैं क्या सही दे रहे हैं?

आधी से ज्यादा गलत जानकारी 

 

किसी भी फील्ड के एक्सपर्ट को सालों की मेहनत, पढ़ाई, डिग्री, अनुभव के बाद अपनी फील्ड की जानकारी मिलती है. वे इस के स्पैशलाइज्ड होने के लिए सालों खपाते हैं. बाल सफ़ेद करते हैं लेकिन ये इंफ्लुएंसर्स खुद को 15 से 30 सैकंड की रील में स्पैशलाइज्ड समझने लगते हैं. ये अपने यंग फौलोअर्स को बिना जानकारी इकठ्ठा किए, पढ़े पूरे कौन्फिडेंस के साथ बढ़चढ़ कर जानकारी देते हैं. 

जो भी इन्फ्लुएंसर्स अपने यंग फौलोअर्स को जानकारी दे रहे हैं वे खुद उस फील्ड के एक्स्पर्ट्स नहीं हैं कुछ तो 12 वीं पास हैं, कुछ सिर्फ ग्रेजुएट हैं फिर उन के द्वारा दी जानकारी पर यूथ को क्यों भरोसा करना चाहिए, यह समझने वाली बात है.

यूथ इन इन्फ्लुएंसर्स की फैन फौलोइंग देख कर उन पर आंख बंद कर के भरोसा करते हैं और सोचते हैं कि वे उन्हें सही जानकारी दे रहे हैं जबकि वास्तव में ऐसा नहीं होता.

इंफ्लुएंसर्स सिर्फ रटीरटाई बातें कहते हैं, वह भी यहांवहां से जोड़तोड़ कर इकठ्ठा की गई होती हैं. उन्हें खुद नहीं पता होता कि वे क्या बोल रहे हैं बस वे स्क्रीन पर आ कर वह लाइंस बोल देते हैं और यूथ उन की बातों पर भरोसा कर लेता है.

 

इंफ्लुएंसर्स द्वारा रील्स, शौर्ट वीडियोज़ में दी जाने वाली जानकारी कई किताबों की आधीअधूरी लाइंस का कौकटेल होता है, जिस का कोई सिर पैर नहीं होता. कई बार तो रील का टाइटल कुछ और होता है और उस में कही जाने वाली बात कुछ और होती है. यह किसी भी यूथ को गुमराह करने के लिए काफी है. इन्फ्लुएंसर्स द्वारा दी जाने वाली इस तरह की बिना रिसर्च की आधीअधूरी जानकारी से यूथ में कन्फ्यूजन क्रिएट हो रहा है. वह सही गलत का जजमेंट नहीं कर पा रहा, उस की किसी भी बात या जानकारी को एनालाइज करने की पावर खत्म होती जा रही है.  

 

इंफ्लुएंसर पर ट्रस्ट सोचसमझ कर 

शायद आप नहीं जानते होंगे कि आज ऐसे कई सोशल मीडिया प्लेटफार्म्स और वेबसाइट्स मौजूद हैं जहां से कोई भी पैसे दे कर फौलोअर्स, लाइक्स और व्यूज बढ़ाने की सर्विस ले सकता है. यानी कि फौलोअर्स खरीदे जा रहे हैं और इस के लिए बाकायदा सोशल मीडिया प्लेटफार्म्स की ओर से स्पोन्सर्ड विज्ञापन दिखाए जाते हैं.  

इसलिए किसी भी इंफ्लुएंसर को फौलो करने और उस की जानकारी पर भरोसा करने से पहले संभल जाएं. अगर आप को सोशल मीडिया पर कोई ऐसी आईडी नजर आए जिस के फौलोअर्स अचानक ही बढ़ गए हों तो हो सकता है कि उस ने फौलोअर्स खरीदे हों. जी हां, सोशल मीडिया पर इन दिनों 50 रुपये में 1000 फौलोअर्स, 5 रुपये में 100 लाइक्स और 5 रुपये में 1000 व्यूज तक बढ़ाने के बेसिक पैकेज दे कर लोगों को अपनी ओर खींचा जा रहा है. कई डिजिटल मार्केटिंग एजेंसियां हैं जो व्यूज बढ़ाने के तरीक बताती हैं. फिर चाहे उस के लिए जैसे तिकड़म करने पड़ें.  

आप सोचेंगे कि इतने सस्ते में फौलोअर्स, लाइक्स कैसे मिलते हैं तो आप को बता दें कि ये डेड आईडीज का सहारा ले कर किया जाता है. न ये काम करती हैं और न ही इन पर कोई असली व्यक्ति होता है. यानी यह सब एक गोरख धंधा है यूथ को अपनी राह से भटकाने का.

 

यूथ पर नेगेटिव प्रभाव डालने वाले इंफ्लुएंसर्स से बच कर रहें 

 

आजकल इनफ्लुएंसर्स सट्टेबाजी ऐप और औनलाइन जुआ प्लेटफौर्म के विज्ञापन भी करने लगे हैं और यूथ सोचता है कि इतना बड़ा इनफ्लुएंसर प्रमोशन कर रहा है तो सही ही होगा और इस तरह के विज्ञापन से युवा उन पर विश्वास कर के अपना मोटा नुकसान कर बैठते हैं. कई फाइनेंस की भी जानकारी देते हैं, जिस में घुमाफिरा कर किसी विशेष शेयर को खरीदने की बात कह देते हैं, इस से भी कई लोग नुकसान उठा लेते हैं. इसलिए युवाओं को इन्फ्लुएंसर द्वारा दी जाने वाली जानकारी पर भरोसा न करने की सलाह दी जाती है.

ये इनफ्लुएंसर्स आर्थिक लाभ के लिए फैक्ट्स को तोड़मरोड़ कर प्रस्तुत करते हैं. गलत जानकारियों के साथ खुद को इन्फ्लुएंसर्स के रूप में पेश करते हैं और बेचारा यूथ इन की बातों में आ कर इन की चमकधमक में उन्हें फौलो करने लगता है.  

 

फौलोअर्स के बेस पर नहीं करें इन्फ्लुएंसर्स का चुनाव 

आज युवा अपना सब से ज्यादा समय सोशल मीडिया पर बिता रहा है. वह अब किताबों में अपनी समस्या का हल ढूंढने की जगह सोशल मीडिया का सहारा लेने लगा है. ऐसे में एक बड़ा वर्ग इन युवाओं को अपना फौलोअर्स बना रहा है और इस वर्ग द्वारा ऐसा कंटेंट परोसा जा रहा है जिसे युवा अपनी राह से भटक रहा है, उन की बातों में आ रहा है. ये इन्फ्लुएंसर्स पैसे ले कर ऐसे कंटेंट की ब्रांडिंग कर रहे हैं जो यूथ के लिए नुकसानदायक है.  

 

रील्स के माध्यम से इन्फ्लुएंसर्स कुतार्किक बातें करते हैं कई तो धार्मिक उन्माद बढ़ाने तक का काम करते हैं. इतिहास के बारे में भी गलत जानकारी दी जा रही है. माइथोलौजिकल गपों से पूरा इंटरनेट भरा पड़ा है, इस में इन्फ्लुएंसर्स की बड़ी भूमिका है जो अनापशनाप कुछ भी बिना तथ्यों के कहते रहते हैं.  

सोशल मीडिया में इन्फ्लुएंसर्स द्वारा दिखाई जाने वाली 30 सेकंड की रील्स को मनोरंजन के लिए देखना तो कुछ हद तक ठीक भी है लेकिन इन रील्स को यूथ नौलेज कंजंप्शन का जरिया भी मानने लगा है जो उन के लिए खतरनाक है.

कई इन्फ्लुएंसर्स यूट्यूब शौर्ट्स, इंस्टाग्राम पर सेहत, डाइट और न्यूट्रिशन के बारे में भर भर कर जानकारी दे रहे हैं और यूथ इन्हें आम जिंदगी में अप्लाइ भी कर रहे हैं. यूथ को इस जानकारी को अपनी ज़िंदगी में अप्लाई करने से पहले यह समझना होगा कि ये इन्फ्लुएंसर्स सर्टिफाइड डाक्टर्स, न्यूट्रीशनिस्ट या हैल्थ एक्सपर्ट नहीं हैं. कई हैल्थ के उटपटांग टिप्स देते हैं. एक इन्फ्लुएंसर का दूसरे की बात काटना इसलिए भी जरुरी हो जाता है ताकि लोग उसे अहि मानें, इसलिए इन की बातें आपस में मेल भी नहीं खातीं. बहुत से प्रोडक्ट का प्रचार करने के लिए जबरन तारीफें करते हैं.

 

98% गलत जानकारी पर आंख मूंद कर भरोसा 

 

हाल ही में आई माय फिटनेस पैलऔर डब्लिन सिटी यूनिवर्सिटीकी एक जोइंट स्टडी के मुताबिक 57% मिलेनियल और जेन-जी यूजर्स सोशल मीडिया रील्स में दी जा रही जानकारी को सच मान कर अपनी जिंदगी में अप्लाई कर रहे हैं. स्टडी में ये भी पता चला कि न्यूट्रीशन और डाइट के बारे में सिर्फ 2% वीडियोज में ही सही इंफौर्मेशन दी गई है. यानी 98% लोग गलत जानकारी दे रहे हैं, जिसे यूथ आंख मूंद कर फौलो किए जा रहा है. 

हैल्थ और न्यूट्रिशन के ये वीडियोज की बातों को फौलो करना बेहद खतरनाक हो सकता है क्योंकि इन वीडियोज में लोग एक जेनेरिक किस्म का डाइट प्लान बताया जाता है जो हर देखने वाले के लिए सही नहीं हो सकता क्योंकि हर किसी का बीएमआई इंडेक्स, उस के गोल्स और न्यूट्रीशनल जरूरतें अलगअलग होती हैं. दो लोगों का एक्टिविटी लेवल अलग हो सकता है.  किसी की सिटिंग जौब हो सकती है तो किसी की फील्ड जौब. ऐसे में दोनों की डाइट एक जैसी कैसे हो सकती है ?

सोशल मीडिया पर इन्फ्लुएंसर किसी भी सब्जेक्ट का एक्सपर्ट बन कर ज्ञान दे रहा है और जो युवा इसे बिना सोचेसमझे फौलो कर रहे हैं, उन्हें कई मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है.

हाल ही में सोशल मीडिया पर एक वीडियो में कहा गया, “आजकल हर कोई सफेद बालों की समस्या से परेशान है. लेकिन अगर आप यह रेसिपी अपने बालों में लगाते हैं, तो बुढ़ापे में भी सफेद बाल नहीं होंगे.” 

यह वीडियो ब्यूटी और पर्सनल केयर इंफ्लुएंसर, सुमन द्वारा अपलोड किया गया था. वीडियो में दिखाया गया कि एक इंफ्लुएंसर ने बैंगन को तेल में डुबो कर गरम किया, फिर उस में रोजमैरी और शिकाकाई डाला. इस तेल को एक जार में भर कर उसे बालों में लगाने का तरीका बताया. पर क्या प्रूफ है कि इस से बाल काले ही हो जाएंगे? नहीं हुए तो क्या इन्फ्लुएंसर सार्वजनिक माफ़ी मांगेगी?

इस वीडियो के वायरल होने के बाद यह सवाल उठने लगा है कि क्या सोशल मीडिया पर किसी भी प्रकार के हेयर केयर टिप्स को सही मान कर फौलो करना चाहिए. 

उभरे और मोटे होंठ आज हर युवा लड़की की ख्वाहिश बनते जा रहे हैं. होंठों को मोटा बनाने के लिए लड़कियां कई तरह की कास्मेटिक सर्जरी, फिलर्स और ब्यूटी हैक्स ट्राई कर रही हैं. ऐसे में पिछले दिनों दिल्ली की एक मशहूर इंफ्लुएंसर सुभांगी आनंद ने इंस्टाग्राम पर होंठों को मोटा करने का एक ऐसा हैक शेयर किया है जिस ने हर किसी को चौंक दिया. 

शुभांगी का यह वीडियो इंस्टाग्राम पर वायरल हो रहा है. इस वीडियो में शुभांगी आनंद हरी मिर्च का इस्तेमाल नेचुरल लिप प्लम्पर की तरह करती नजर आ रही हैं. वीडियो में देखा जाता है कि शुभांगी पहले हरी मिर्च काटती हैं और फिर उसे होंठों पर लगाती हैं. 2 सेकेंड के बाद ही उन के होंठ बिल्कुल फूले और मोटे नजर आ रहे हैं.

कई इंटरनेट यूजर्स ने इसे खतरनाक बताया. जबकि कुछ लड़कियां इसे ट्राई करने और सही होने का दावा कर रही हैं. मैडम को शायद यह नहीं पता कि यह होंटो को मोटा करने की विधि नहीं बल्कि सुझाने की विधि है. जबकि हैल्थ एक्सपर्ट्स ने मिर्ची के इस्तेमाल से होंठों को मोटा करने के तरीके को गलत और स्किन साइड इफैक्ट्स वाला बताया है क्योंकि होंठों की त्वचा बहुत ही पतली और नाजुक होती है. ऐसे में हरी मिर्च का तीखापन और उस में मौजूद कैप्साइसिन होंठों को नुकसान पहुंचा सकता है. हरी मिर्च के तीखे तत्व होंठों की प्राकृतिक नमी को खत्म कर सकते हैं. इस की वजह से होंठ ड्राई और फटे हुए नजर आ सकते हैं. हरी मिर्च होंठों पर लगाने से खून आने का खतरा भी रहता है.  

 

फाइनैंस एडवाइस देते इंफ्लुएंसर्स 

सोशल मीडिया पर इन दिनों फाइनेंसियल एडवाइस देते इन्फ्लुएंसर्स की संख्या तेजी से बढ़ रही है. कोई क्रिप्टो में पैसे लगाने की सलाह देता है कोई शेयर मार्किट में. हद तो यह है कि कई बेटिंग में भी पैसा लगाने की बात करते हैं. ये गलत डेटा शेयर करते हैं. 

ऐसे इन्फ्लुएंसर्स के हजारोंलाखों सब्सक्राइबर्स होते हैं. इन के वीडियोज पर अच्छीखासी संख्या में व्यूज़ भी आते हैं. कई बार उन की रील्स या वीडियो देख कर युवा निवेशक अपने पैसा लगा देते है जो उन्हें बहुत भारी पड़ता है. 

सच तो ये है कि बहुत कम युवा सोशल मीडिया पर ज्ञान के सही स्रोत तक पहुंच पाते हैं.  सोशल मीडिया ने असल जिंदगी और डिजिटल लाइफ के बीच का फर्क ही मिटा दिया है. युवा अब एक काल्पनिक दुनिया में जी रहे हैं. वे परिवार से, दोस्तों से, किताबों से और प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं. यूथ को इस बात को समझना होगा कि कौन से इन्फ्लुएंसर्स उन के हित में हैं और कौन उन्हें भ्रमित कर रहे हैं. बिना सोचेसमझे उन की कही हर बात का अनुसरण करना यूथ को खतरे में डाल सकता है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें