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Hindu-Muslim : अलगाव का भ्रमजाल

Hindu-Muslim :  जो काम आरएसएस और भारतीय जनता पार्टी ने हिंदूमुसलिम, हिंदूमुसलिम कर के भारत में मौजूद गरीब बंगलादेशियों के साथ किया वैसा अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप ने अपने अंधभक्तों के साथ मिल कर अमेरिका में दक्षिणी अमेरिका या कहीं और से बिना कानूनी रास्ते आए लोगों के साथ किया था. ट्रंप और मोदी की जीत के पीछे यह अलगाव की भावना बहुत ज्यादा कारगर रही है.

भारत अब बंगलादेश में आग झेल रहा है और वहां के हिंदुओं पर लगातार अत्याचार बढ़ रहे हैं. यही नहीं, अब पाकिस्तानी सैनिक अफसर ढाका लौटने लगे हैं जिन्हें इंदिरा गांधी ने सेना भेज कर 1971 में मुश्किल से बंगलादेश के इलाके से हटा कर पाकिस्तान के 2 टुकड़े कराए थे.

अब रिपब्लिकन पार्टी में मौजूद ऊंची जातियों के ब्राह्मण भारतीय मूल के नेताओं को बुराभला कहने वाले रिपब्लिकन मागा हैं. अमेरिका में डैमोक्रेटिक व रिपब्लिकन पार्टियों के भारतीय व अन्य लैटिनों व विदेशी मूल के सांसदों, विधायकों के खिलाफ मागा ग्रुपों ने जंग छेड़ दी है.

डोनाल्ड ट्रंप ने देशीविदेशी की आग जला कर जीत का जश्न तो मना लिया पर यह आग अब उन्हीं के अपने लोगों, जिन में एलन मस्क भी शामिल हैं जो अमेरिका से बाहर के हैं, को खाने लगी है. अमेरिका का तानाबाना उसी तरह कमजोर होने लगा है जैसे भारत का हुआ है. दोनों बड़ी लोकतांत्रिक शक्तियां अपने नेताओं के कारण आज संकट में हैं और यह संकट और बिगड़ेगा, सुधरेगा नहीं, क्योंकि इनफौर्मेशन टैक्नोलौजी के जरिए कट्टरपंथी झूठ, सफेद झूठ, कोरा झूठ बुरी तरह फैला रहे हैं.

यह वह आग है जो भारत में 1850 के बाद लगाई गई थी जिस में दयानंद सरस्वती भी शामिल थे और जिस का परिणाम 1947 में सामने आया. यही आग हिटलर ने यहूदियों के बारे में लगाई जिस का परिणाम पहले तो जरमनी की अविश्वसनीय जीत रही है लेकिन फिर बिलकुल विनाश रहा.

डोनाल्ड ट्रंप और नरेंद्र मोदी की पार्टियों के पदचिह्नों पर दुनिया के बहुत से देशों की पार्टियां चल रही हैं जिन्हें अपने अलग रंग, भाषा, धर्म, जाति, मूल देश के पड़ोसी से बेबात की नाराजगी है. ये सब पार्टियां भूल रही हैं कि उन के देश की प्रगति में हजार जोखिम ले कर आए कुछ सस्ते मजदूर तो कुछ दक्ष होशियार लोगों का खास योगदान है. उन का देश वह न होता जो है. अब ये लोग नहीं आते.

अमेरिका में बिना कागजों के घुसे लोगों ने कारखानों में, औफिसों में, घरों में, खानों में, खेतों में मुश्किल काम सस्ते में किए जिस का फायदा पूरे अमेरिका ने उठाया. जरमनी की पहले विश्व युद्ध से पहले महानता वहां के यहूदी ही थे जिन्हें हिटलर ने थोक में मारा. भारत में बंगलादेशियों ने फटेहाल रह कर सस्ते में काम कर उत्पादन का खर्च घटाया.

जो भारतीय कागजों के सहारे अमेरिका पहुंचे, अब अपना गिरगिटी रंग बदल रहे हैं और अमेरिकियों का साथ देने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन मागा कट्टरवादी डोनाल्ड ट्रंप को भगवान नहीं मानते, सिर्फ जरिया मानते हैं अपना श्रेष्ठ रंग दिखाने के लिए.

रंगभेद करने वाले चर्चों के पिट्ठू ये गोरे अमेरिका को नष्ट कर दें, तो कोई बड़ी बात नहीं. अमेरिकी कल्चर आज नशेड़ी, निकम्मा हो गया है. वह उस महानता को अब नहीं पा सकता जिस का उसे दंभ है, बिना बाहरी लोगों के.

 

Best Hindi Story : अंधविश्वास

Best Hindi Story : रिया के चेहरे पर आज एक अजीब सी चमक थी. आंखें हंस रही थीं और होंठ गुनगुना रहे थे. जैसे हर लड़की के मन में अपनी ससुराल के, पति के और घरपरिवार के सपने पलते हैं वैसे ही रिया ने भी कुछ ख्वाब पाल रखे थे.

21वीं सदी की पढ़ीलिखी, तेज़तर्रार लड़की रिया आसमान में उड़ रही थी. जैसी सोच रखी थी वैसी ही ससुराल पाई थी. सुखी, संपन्न और सब से महत्त्वपूर्ण घर के सारे लोग पढ़ेलिखे व प्रबुद्ध थे. रिया का मानना था कि पढ़ेलिखे लोगों से तालमेल बिठाना सहज हो जाता है. मानसिक खटराग नहीं होता और ज़िंदगी आसान बन जाती है.

ससुरजी नामी वकील है, सासुजी एमकौम तक पढ़ी बहुत बड़ी समाज सेविका है, देवर एमसीए की पढ़ाई कर रहा है, ननद फैशन डिज़ाइनर है और पति आरव एमबीए तक पढ़ा हुआ एक बड़ी कंपनी में मैनेजर है. सगाई और शादी के बीच ज़्यादा समय नहीं था तो रिया ने ससुराल देखा नहीं था. बस, वीडियो पर आरव ने घर दिखा दिया था. बढ़िया शानदार बंगला था.

सगाई के बाद 2 महीने में ही शादी हो गई तो ससुराल वालों से ज़्यादा जानपहचान का मौका नहीं मिला रिया को. पर रिया को लगा, मेरा स्वभाव सरल और हसमुख है, सो, सब को चुटकी में अपना बना लूंगी, समझ लूंगी और घुलमिल जाऊंगी. ससुराल के सारे मैंबर्स पढ़ेलिखे, समझदार हैं तो दिक्कत नहीं होगी.
शादी भी निबट गई और रिया आरव का हाथ थामे एक नए जीवन की नींव रखने जा रही थी. पर यह क्या, रिया ने गाड़ी से उतर कर दहलीज़ पर कदम रखा कि आश्चर्य में पड़ गई और दिल को धक्का भी लगा. घर के गेट पर एक काला पुतला लटक रहा था, दूसरी ओर नीबूमिर्ची और बीच में लोहे की यू आकार की कोई चीज़ लगी हुई थी.

रिया को अजीब लगा कि पढ़ेलिखे, समझदार लोग भी ऐसी चीज़ों को मानते हैं यह जानकर. पर रिया चुप रही. अभी तो पहला कदम रखा था ससुराल में, तो सवालजवाब करना उचित नहीं समझा उस ने.

सारी रस्में ख़त्म कर के घर के भीतरे पहुंची तो रिया को और झटका लगा. घर में तरहतरह की अजीब चीज़ें देख कर. छोटा कछुआ, कहीं बाम्बू तो कहीं पिरामिड. और तो सब ठीक पर आते ही रिया की सासुजी ने आरव और रिया की नीबू, नमक और लालमिर्च से नज़र उतार कर उस की ननद से बोला कि जा कर चार रस्ते पर फेंक आ. रिया को एक और शोक लगा. मन में पढ़ेलिखे लोगों की जो परिभाषा बिठा रखी थी वह ध्वस्त हो गई. पर अभी कुछ भी पूछने का समय नहीं था, सो चुपचाप रिया सब का अनुसरण करती रही.

सारी रस्में निबट गईं. आरव का हाथ थामे वह अपने बेडरूम में आई. पूरे रूम में बुरी नज़र से बचाने वाले हर टोटके मौजूद थे. रिया को बेचैनी होने लगी मानो पढ़ेलिखे लोगों के बीच न हो कर कोई झाडफूंक वाले बाबा के घर में आ गई हो. थकीहारी, सोचतेसोचते कब नींद आ गई उसे, पता नहीं चला.

सुबह उठी, नहाधो कर नीचे आई तो सासुमां ने कहा, “रिया तुम और आरव करुणानिधि स्वामी के आश्रम जा कर उन के आशीर्वाद ले कर आओ, बाबाजी की कृपा बनी रहेगी.” रिया का दिमाग हिल गया साक्षात द्वारिकाधीश को न पाय लागूं जो जीवनआधार है, ऐसे बाबाजी को क्यों नमूं. हे प्रकृति, छोटे से मोबाइल में हर चीज़ अपडेट करने वाले खुद की सोच को अपडेट करना कब सीखेंगे. पर शादी के पहले ही दिन आरव को नाराज़ करना नहीं चाहती थी रिया तो बेमन से गई आश्रम.

बाबाजी के चेहरे पर रिया को देख कर जो भाव बदले उसे देख कर रिया के दिमाग में आग लग गई. भगवाधारी बाबा के ठाट देख कर रिया को ताज्जुब हुआ. आलीशान कोठी में हर आधुनिक सुखसुविधा मौजूद थी. बाबा के आशीर्वाद लेने के लिए लोगों का तांता लगा था. और वहां उपस्थित भीड़ में कोई भी अनपढ़गंवार नहीं लग रहा था. सभी अच्छे घर के समझदार व पढ़ेंलिखे लोग थे.

रिया सोचने लगी, एक तरफ़ हम चंद्रयान भेज रहे हैं और एक तरफ़ अंधश्रद्धा को हवा दे रहे हैं. कब सुधरेगा समाज. बेमन से बाबा को प्रणाम किया तो बाबा ने आशीर्वाद देने के बहाने रिया के गालों को कुछ यों छुआ कि रिया के तनमन में आग लग गई. मैं गाड़ी में हूं बोल कर पैर पटकते निकल गई.

क्या सोचा था ससुराल वालों के बारे में और क्या निकले. यह बाबा कौन सा भगवान है, महज़ हमारे जैसा इंसान ही तो है, इतना अंधविश्वास और अंधभक्ति. क्या मैं छोटी बच्ची हूं जो बैड टच को न समझ पाऊं. लंपट, कैसे सहला रहा था मेरे गाल. रिया को आरव पर इतना गुस्सा आया था लेकिन सही समय पर बात करूंगी, सोच कर चुप रही.
हर छोटीबड़ी बात के लिए बाबा, ज्योतिष और टोटके… रिया तिलमिला उठती थी. पर रिश्ता बचाने की जद्दोजेहद में आहिस्ताआहिस्ता रिया ससुराल वालों के साथ एडजस्ट करने की पूरी कोशिश कर रही थी. फिर भी हर रोज़ कोई न कोई बात ऐसी हो जाती कि मन आहत हो जाता. 21वीं सदी की पढ़ीलिखी रिया खुद को बहुत मुश्किल से इस अंधविश्वासभरे वातावरण में ढाल रही थी.

धीरेधीरे समय बीतते शादी को एक साल हो गया एक डेढ़ महीने से रिया की तबीयत ठीक नहीं रहती, उलटियां आना, जी मिचलना, चक्कर आना वगैरह. रिपोर्ट करवाने पर पता चला रिया मां बनने वाली है. आज घर में कितनी खुशी का माहौल था. रिया की प्रैग्नैंसी रिपोर्ट पौज़िटिव आई थी. रिया की सास ने आरव को बताया कि बाबाजी कुछ मंत्र बोल कर भभूत देते हैं, उस भभूत को खाने से बेटा पैदा होता है. पहले तो आरव भी भड़का कि ये सब अंधविश्वास है, मैं नहीं मानता.

मां के रोज़रोज़ के दबाव ने और कुछ बेटे की चाह की भीतरी लालसा ने उसे उकसाया. सो, आरव भी रिया पर दबाव ड़ालने लगा, “रिया मेहरबानी कर के मान जाओ न, मां का दिल रख लो. सुनो, मुझे बेटे की चाह नहीं, बस, मां की खुशी के लिए चलते हैं न बाबा के पास. सिर्फ़ कुछ भभूत ही तो खानी है तुम्हें. अगर इतनी सी बात से बेटे का मुंह देखने को मिलता है तो क्या बुराई है.”

रिया गुस्से से कांप उठी, “आरव, बीज को बोये डेढ़ महीना हो गया. जो बोया है वही उगेगा. क्या खेतों में ज्वार बोने के बाद किसी भभूत के छिड़काव से गेहूं उगते हैं. पढ़ेलिखे हो कर बच्चों जैसी बातें मत करो, मैं नहीं जाऊंगी किसी बाबा के पास.”

पर रिया की सास के दिमाग में बाबाजी का भूत और पोते की चाह ने रिया के खिलाफ़ बगावत का बिगुल बजा दिया था. सो, वह सुबह से शाम तक रिया को प्रताड़ित करने का एक बहाना नहीं छोड़ती थी. और इस बात को ले कर घर में हो रहे झगड़े व तनाव के आगे रिया को झुकना पड़ा, बेमन से खाती रही भभूत. उस की सास सब के सामने इतराती रहती देखना, हमारे घर गुलाब जैसा बेटा ही आएगा. और बेटे के सपने देखने लगी. घर में भी सब के मन में यह बात बैठ गई कि बेटा ही होगा.
इतने में नौ महीने बीत गए और एक काली बरसाती रात में रिया को दर्द उठा और अस्पताल ले जाना पड़ा. बाहर सब बेटे की प्रतीक्षा में बैठे थे कि अभी खुशखबरी आएगी. रिया की सास ने नर्स से बोला, “जल्दी से मेरे गुलाब जैसे पोते को ले आना मेरी गोद में.”
बारिश का मौसम था. बिजली ज़ोर से कड़की और नर्स ने आ कर एक और बिजली गिराई, “माताजी, गुलाब नहीं, जूही खिली है आप के आंगन में.” सब के दिल बैठ गए, यह क्या हो गया.

आरव ने जैसेतैसे दिल बहलाया और बोला, “कोई बात नहीं. बेटी तो लक्ष्मी का रुप होती है.” लेकिन रिया की सास हारने को तैयार नहीं, बोली, “बहू ने श्रद्धा से भभूत खाई होती तो जरूर बेटा होता. खैर, अगली बार ढ़ंग से खिलाऊंगी, पर देख आरव, बेटी बोझ होती है, तू इस का कुछ इंतज़ाम कर दे और अगली बार मुझे पोता ही चाहिए और उस के लिए तेरी दूसरी शादी भी करवानी पड़ी तो भी करवा दूंगी, हां.”

अब आरव का धैर्य जवाब दे गया. उस ने उसी समय मां को सख्त़ शब्दों में डांट दिया, “मां, अब बस भी कीजिए. आप के अंधविश्वास ने मेरे मन में भी बेटेबेटी में फ़र्क का बीज बो दिया. मेरी बेटी मेरा अभिमान होगी. अब आप मुझे बख़्श दीजिए और आप भी ऐसे ढोंगी बाबाओं के चक्कर से नज़ात पाइए, अपनी सोच बदलिए. हम 21वीं सदी में जी रहे हैं.

“रिया और अपनी बच्ची के साथ मैं अलग हो जाऊं, उस से पहले सुधर जाइए. आप जैसे स्वभाव वाली सास की वजह से ही कहावत पड़ी होगी कि स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है.”

पर आज रिया खुश थी अपनी चांद सी बेटी को पा कर और आरव को एक अंधविश्वास से बाहर निकलता देख कर. दूसरे दिन अख़बार की हैडलाइन पढ़ कर रिया की सास चौंक उठी, ‘शहर में संन्यास आश्रम वाले गुरुजी करुणानिधि स्वामी नाबालिग लड़की के साथ बलात्कार केस में गिरफ़्तार.” सासुमां दौड़ते हुए नम आँखों से पोती को गोद में उठा कर खिलाने लगी, मेरी गुड़िया मेरा अभिमान और रिया को गले लगा कर बोली, “धन्यवाद बेटी जो तुम ने हमें इतनी प्यारी पोती का उपहार दिया.”
रिया को आज अपने सपनों का घर, परिवार मिल गया. आरव ने कहा सैल्फ़ी तो बनती है और छोटे से स्क्रीन में संयुक्त परिवार एकसाथ हंसतेमुसकराते झिलमिलाने लगा.

Family Story : जगहुं न मिलिहें सहोदर भाई

Family Story :  सुबहसुबह उठते ही आकाश के फोन पर मेल फ्लैश हुआ तो वह सकते में आ गया.

“क्या हुआ आकाश, आप इतने परेशान क्यों?”

“कुछ मत पूछो नीला, मेरा भाई मुसीबत में है. उसे मेरी जरूरत है.”

यह कह कर वह आननफानन टिकट बुक कर भारत के लिए रवाना हो गया और अपने पीछे नीला को चिंतित छोड़ गया. इस से पहले आकाश कभी अकेला नहीं जाता था. उस ने मेल खोला तो उस में ब्लडकैंसर की रिपोर्ट थी.

ओह, तभी आकाश कुछ बोल नहीं पा रहा था. वह उसे पिछले 35 वर्षों से जानती है. वह जितना ही ईमानदार है उतना ही भावुक और साथ ही साथ अंतर्मुखी भी. तभी तो उस ने अपने दुख खुद तक ही समेटे रखा, उस से खुल कर कहा तक नहीं. उसे एकएक कर सबकुछ याद आने लगा. पिछले दिनों वे कैसे भावुक हो कर देश पहुंचे और उन के साथ क्याकुछ घटा था.

‘नीला, जानती हो मैं और अमन हमेशा ही मां का पेट पकड़ कर सोते थे,’ एक रविवार जब आकाश उस से अपना बचपन साझा कर रहा था.

‘और वे तुम्हारी ओर अपना चेहरा रखती थीं.’

‘उन्हें बातों में फंसा कर अपनी ओर कर लेता. कितना अच्छा था न जब तक मांपिताजी थे.’

‘सच में, जब तक सिर पर मातापिता का साया रहता है, बचपन ज़िंदा रहता है.’ यह कहती हुई नीला मानो अपने बच्चों के बचपन में खो गई.

‘अब तुम कहां?’

‘मुझे तो रौनित और नैना के बच्चों संग खेलना है. जाने कैसी जनरेशन आ गई है, शादी के 2 साल हो गए मगर ये तो खुद के ही फोटो शूट करते नहीं थक रहे.’

‘कोई बात नहीं, उन्हें उन की जिंदगी जीने दो.’

‘अरे, हम 5 साल बाद ऐसे थोड़े ही रह जाएंगे, फिर कैसे बच्चों की मालिश होगी.’

‘जैसी तुम्हें तेलमालिश की इजाज़त होगी.’

‘अरे हां, इन के विदेशी पार्टनर हैं. यहां छठी-बरही थोड़े ही होती है.’

दोनों बिस्तर के अपने कोनों में सिमट कर सो गए. 60 साल की उम्र ही ऐसी होती है जब काम और परिवार दोनो ही ओर एकरसता आ चुकी होती है और जीवन में खालीपन भरने लगता है.

अगली सुबह जब नीला जागी तो सूर्य के प्रकाश से आकाश का चेहरा चमक रहा था. वह वौक से लौट आया था और भारत जाने का टिकट बुक कर रहा था.

‘मुझे तुम्हारा इरादा पहले ही समझ में आ गया था जब तुम बचपन याद कर रहे थे.’

‘हाहाहा, 35 वर्ष का साथ एकदूसरे को समझने के लिए काफ़ी होता है.’

चाय का कप होंठों पर लगाते ही उसे अपने संघर्ष के दिन याद आए जब वह नईनई शादी के बाद अटलांटा आई थी. तब सस्ता घर किराए पर लिया था जो सिटी से दूर था. बाज़ार से सामान उठा कर लाने में बर्फीली पहाड़ी पर खींचना पड़ता था. फिर घर के सारे काम अपने ही हाथों करना भी तो एक चैलेंज था.

विदेश में रहना जितना सुखद दिखता है उतना होता नहीं. एक तनख्वाह में मुश्किल से गुजारा होता है मगर उस ने भी कमर कस ली थी. छोटे से गांव से आए आकाश के बड़े सपने और उन्हें पूरा करने की लगन में उस ने अपनी पूरी ताक़त लगा दी.

पहले घर में रह कर बच्चों की देखभाल करती रही मगर जब वे स्कूल जाने लगे, उस ने बच्चों के स्कूल में ही नौकरी कर ली. घर,बाहर,बच्चे,स्कूल सबकुछ स्वयं संभाला तभी तो आकाश नामी डाक्टर बन सका और अपना अस्पताल चला रहा है. और तो और, बच्चे भी डाक्टर बन गए तो अस्पताल की जिम्मेदारी भी उन्होंने बखूबी संभाल ली.

अब अकसर दोनो फुरसत में रहते हैं और कहीं न कहीं घूमने निकल जाते हैं. उस ने चाय के खाली प्याले उठाए और रसोई में आ गई. फ्रिज में जो सब्जियां पड़ी थीं, पहले उन्हें ख़त्म करना था. अगले दिन से गांव की हरी सब्जियां खाने के लिए मिलेंगी, यह सोच कर ही मन झूम रहा था. रसोई निबटा कर उसे पैकिंग भी करनी थी.

‘परीक्षाएं शुरू हो गई हैं तो कोई बात नहीं, तुम हमें आखिरी परीक्षा की डेट बताओ, तब आ जाएंगे.’

आकाश फ़ोन पर था. कानों में यह बात पड़ते ही वह ठिठक गई तो आकाश कुछ झेंप गया,

‘अरे. पहले अमन ने ही कहा कि जब चाहो, आ जाओ और अब छोटे बेटे की परीक्षा की बात कह रहा है. लगता है उस की बीवी ने मना कर दिया होगा.’

‘मन छोटा न करो. हम होटल में रुक जाएंगे. घूमतेफिरते पहुंचेंगे, तब तक परीक्षाएं ख़त्म हो गई होंगी.’

‘यह सही रहेगा.’

आकाश के चेहरे पर वही शांत भाव वापस पा कर नीला की जान में जान आई. वे इस बार 4 साल बाद हिंदुस्तान जा रहे थे. पहले कोरोना, फिर देवर के बेटे की परिक्षाएं. अब तो हर तरह से निश्चिंत हो कर ही ससुराल आएगी.

पहले 15 दिन दक्षिण भारत की यात्रा में निकले, फिर मायके वालों से मिलने गई. वहां के बच्चों को देख काफी अचरज में थी. नब्बे के दशक में देश में इतने ब्रैंड्स नहीं थे, जो मिलता था, बच्चे वही पहनते थे. मगर इन दिनों सभी हाईफाई रहना एक स्टाइल स्टेटमैंट बना कर चल रहे थे, साथ ही, एनआरआई बूआ व फूफा पर इंप्रैशन भी जमाना चाह रहे थे.

ख़ैर, समाज में आए बदलाव के लिए वह किसकिस को जिम्मेदार ठहराती. परीक्षाएं ख़त्म होते ही अमन के परिवार से मिलने ससुराल आ गई. घर देख कर आश्चर्य से आंखें फटी की फटी रह गईं. ससुरजी के देहांत पर जब आई थी तो घर खंडहर सा दिख रहा था जो अब नवनिर्मित भवन चमचम चमक रहा था.

अच्छा तो वक्तबेवक्त जो पैसे मांगे जा रहे थे वे मकान में लग रहे थे. घर में काम करने वाली कई नौकरानियां थीं जो देवरानी के आगेपीछे डोल रही थीं. यह सब देख कर उसे चक्कर आने लगा.

वह तो चाहे अपने घर में रहे या बच्चों के पास जाए, सब्जियों को काटने-पकाने से ले कर रसोई का पूरा कार्य स्वयं संभालती थी. मगर देवरानी के पास घर की चाबी का छल्ला घुमाने के सिवा कोई काम न था.

‘ये सब कब बनाया, अमन, मुझे बताया तक नहीं?’ आकाश ने पूछा.

‘भैया, जब आप ने कोचिंग में दाखिले के पैसे दिए तो उसे मैं ने…’

‘कोचिंग के अलावा बड़ी के एनआरआई कोटा में एडमिशन के लिए भी तो तुम ने 15 लाख…’

‘भैया, बच्चे मेहनत कर रहे हैं, तीसरी बार परीक्षा दी है. सरकारी कालेज में एडमिशन दिलाऊंगा.’

‘फिर मुझ से मणिपाल मैडिकल कालेज में एडमिशन के नाम पर पैसे ऐंठना गलत है न. झू बोल कर तुम ने महल बना डाला?’

‘देखिए भैया, आप यहां रहते नहीं. लोग हंसते हैं कि बड़ा भाई अमेरिका में डाक्टर है और घर खंडहर बन गया है. मैं ने इज्ज़त बचाई है.’

‘भाई की कोई लौटरी थोड़े ही निकली है. बहुत मेहनत से कुछ कर पाया हूं. जो संघर्ष मैं ने किया है वह बच्चे न करें, इसलिए उन की शिक्षा के लिए मदद की. मगर तुम तो अलग ही किस्म के इंसान निकले. मैं यहां खुशीखुशी वक्त बिताने आया था मगर तुम ने तो मेरा दिल तोड़ कर रख दिया.’ आकाश की आंखों में आंसू थे, तभी अचानक रेखा कुछ कागज़ के पुलिंदे उठा लाई.

‘भैया, इस में दुखी होने की क्या बात है. आप लोग देशविदेश घूम रहे हैं मगर हम भी वेले नहीं बैठे. केयरटेकर रखते तो तनख्वाह देते न. समझ लीजिए वही दिया. अब आ ही गए हैं तो इन कागजों पर दस्तख़त कर के छुट्टी कीजिए.’

‘कैसा कागज़, कैसे दस्तख़त?’

आकाश की आंखें धुंधलाई थीं. भावुकतावश होंठ कांप रहे थे. जैसा भारत छोड़ कर गया था और जिसे देखनेमिलने वह आया था यहां, वैसा कुछ भी नहीं था. इस से अच्छा भारत तो उस ने अपने घर में बना रखा था जहां सभी मेहनती थे. एकदूसरे का सम्मान करते थे. छुट्टी के दिन एकसाथ बैठ कर फिल्म देखते और मिलजुल कर खाना खाया करते थे. कोई बेईमान या मुफ्तखोर न था.

पति की मनोदशा से वाकिफ नीला आगे बढ़ी. ऐसे भी स्त्रियों को जितना भावुक समझा जाता है वे उतनी होती नहीं हैं. कागजों को ठीक से देखा, तो पाया कि वे पावर औफ अटौर्नी के थे जिस पर हस्ताक्षर होते ही अमन उन का हकदार हो जाता. नीला की यह समझते देर नहीं लगी कि ये सब पतिपत्नी की मिलीजुली साज़िश थी. पहले तो घरनिर्माण की बात न खुल जाए, इस के लिए उन के आने पर रोक लगाना चाह रहे थे और जब आ ही गए तो पावर औफ अटौर्नी ले कर निश्चिंत होना चाहते थे. यही एक काम शेष था. उस के बाद अमन पूरी संपत्ति को बेचने का हकदार हो जाता.

‘देखो रेखा, अब तक जो भी तुम ने कहा, हम ने किया. हमें लगता था तुम लोग सासससुर की देखभाल कर रहे हो तो तुम्हारी हर मांग पूरी करना और बच्चों की जरूरतों का खयाल रखना हमारा फ़र्ज़ है मगर इस तरह से पुश्तैनी संपत्ति अपने नाम करने की साज़िश ठीक नहीं.’

‘हम आख़िर कब तक आप से मांग कर अपना काम चलाएंगे और पैसों का हिसाब देंगे. अब एक आखिरी काम करिए कि भैया से हस्ताक्षर करा दीजिए. हम जमीन बेच कर बच्चों की पढ़ाई और शादी करा लेंगे. आप भी खुश, हम भी खुश.’

‘इस घर में जो हम ने इतना कुछ लगाया, उस का क्या?’

‘वो हमारा मेहनताना था,’ रेखा चीखी.

नीला ने सुना था कि डौलर से रिश्ते खरीदे जाते हैं. यहां तो डौलर ने सारे रिश्ते छीन लिए थे. आकाश अभी भी हतप्रभ सब का चेहरा देख रहा था. वह अपने बचपन को जीने आया था. जिन संबंधों की मिठास की आस में आज तक जीतोड़ मेहनत करता रहा वह सब के सब अचानक मिथ्या लगने लगे. जब कुछ न सूझा तो मां का चेहरा आंखों में लिए भाई की ओर रुख कर बोला,

‘तू बता, तू क्या चाहता है?’

‘आप के पास बहुतकुछ है. यहां की संपत्ति मेरे लिए छोड़ दो.’

सहसा कानों में मां के वही शब्द गूंजे जो वह भाइयों के झगड़े सुलझाते वक्त अकसर कहा करतीं,

‘जगहुं न मिलिहें सहोदर भाई.’

उस ने आव देखा न ताव, सीधे हस्ताक्षर करने के लिए कलम उठा लिया. सबकुछ दे कर भी संबंध बचाना गवारा लगा.

‘एक मिनट, आकाश, मुझे कुछ कहना है,’ नीला की आवाज़ पर आकाश की उंगलियां थम गईं. उस ने आगे कहा, ‘आज तक के आप के सभी निर्णय शिरोधार्य थे. मगर आज मुझे एतराज है. यह पैतृक संपत्ति सिर्फ़ आप दोनों भाइयों की नहीं बल्कि इस के दावेदार और भी हैं.’

चारो ओर सन्नाटा सा पसर गया. रेखा और अमन तो फुल एंड फाइनल करने पर तुले थे. भाई के स्नेह में आकाश सर्वस्व त्याग करने को तत्पर था मगर नीला के कहने पर सबकुछ थम गया.

‘यहां बराबरी के हकदार होते हुए भी हमें यहां आने के पूर्व इजाज़त लेनी पड़ती है. भविष्य में हमारे बच्चे तो इस जगह को देखने के लिए तरस ही जाएंगे. अब तो सब बराबरी में ही बंटेगा. और हमारे हिस्से में हमारा केयरटेकर रहेगा.’

उस ने धीरे से आकाश से कहा, ‘जहां कमाने से ज्यादा गंवाने को तैयार हैं और सारी संपत्ति बेचने पर आमादा हैं तो कम से कम आधा तो बचा लें.’

नीला के इस व्यावहारिक रूप से अनभिज्ञ आकाश अवाक रह गया. मगर उस वक्त उसे इस विषय में कुछ भी कहनासुनना ठीक नहीं लगा. सो, वापस अटलांटा लौट गया. अब इस बात को 2 महीने बीते कि भतीजी के मेल ने उन को वस्तुस्थिति की जानकारी दी.

‘चाचाजी, पिताजी की मैडिकल रिपोर्ट आई है. उन्हें ब्लडकैंसर है. हर 2 दिन में खून बदलना पड़ता है जिस में डेढ़दो लाख रुपए का खर्चा आता है. उन के इलाज़ में सारी जमापूंजी निकल गई है, अब, आप का ही सहारा है.

‘आप की निधि.’

फास्टेस्ट फ्लाइट ले कर आकाश भाई के पास पहुंचा तो उस के चेहरे को देखते ही आंसुओं में डूब गया.

“इतना कुछ हो गया और तुम ने कहा तक नहीं?”

“किस मुंह से कहता, भैया.”

“मैं आ गया हूं, सब ठीक कर दूंगा.”

वाकई उस ने अमन के इलाज़ में जमीनआसमान एक कर दिया. अपने बैचमेट्स की मदद से एम्स में इलाज़ कराने लगा जहां एक से बढ़ कर एक कैंसर स्पैशलिस्ट थे. जब स्थिति थोड़ी संभल गई तो नीला को भी मदद के लिए बुला लिया. इस बार रेखा नज़रें नहीं मिला पा रही थी.

“दीदी, भैया, आप से बराबरी करने में मैं ने अमन की साझेदारी में न जाने कितने अपराध किए, फिर भी आप ने इस आपातकाल में हमारी सहायता की. आप का यह एहसान आजीवन नहीं भूलूंगी.”

“नहींनहीं, एहसान की क्या बात है. भाई तो भाई है. मेरा भाई ठीक हो जाए तो मुझे सब मिल जाएगा. भाई की अहमियत समझाते हुए मां क्या कहती थीं, याद है- ‘जगहुं न मिलिहें सहोदर भाई.’”

अमन के लब फड़फड़ाए तो आकाश ने उसे सीने से लगा लिया. मांबाप से छिप कर निधि ने जो मेल किया था उस से ही पूरे परिवार का मेल संभव हो सका, जिसे देख कर वह आत्मविभोर थी.

लेखिका : आर्या झा

‘‘Sky Force : अक्षय की बजाय वीर पहाड़िया का किरदार हीरो होना चाहिए, मगर…’’

Sky Force : रेटिंग: दो स्टार
एक साल पहले गणतंत्र दिवस के मौके पर 25 जनवरी 2024 को देशभक्ति के नाम पर फिल्म ‘‘फाइटर’’ प्रदर्शित हुई थी, इस बकवास फिल्म ने बौक्स औफिस पर पानी नही मांगा था. इस वर्ष गणतंत्र दिवस के मौके पर 24 जनवरी को फिल्म ‘‘स्काई फोर्स’’ प्रदर्शित हुई है. ‘फाइटर’ और ‘स्काई फोर्स’ में कोई बहुत ज्यादा अंतर नही है, फर्क सिर्फ इस बात का है कि अनमने तरीके से ‘स्काई फोर्स ’में 1965 के भारत व पाक युद्ध के समय शहीद हुए एयरफोर्स स्क्वार्डन लीडर एबी देवैया से जुड़ी सत्य घटना को जोड़ने के. इस हिसाब से तो इस फिल्म का हीरो वीर पहाड़िया को होना चाहिए था, मगर फिल्म का हीरो अक्षय कुमार हैं.

मतलब इस फिल्म में इतना घालमेल है कि दर्शक की समझ में ही नही आता कि वह कहां फंस गया. क्या सिनेमाई स्वतंत्रता के नाम पर लेखकों व निर्देशकों ने जबरदस्त तरीके से तथ्यों के साथ छेड़छाड़ की है? क्या यह फिल्म अंधभक्ति वाला राष्ट्रवाद परोसती है? लेखकों व निर्देशकों को किस मजबूरी के तहत कथ्य व तथ्य के साथ छेड़छाड़ करने के साथ ही किरदारों के नाम भी बदलने पड़े, पता नहीं. फिल्म की शुरूआत में सबसे पहले लंबाचौड़ा डिस्क्लेमर/अस्वीकृतिकरण दिया गया है, जिसे अति कम समय में पढ़ पाना संभव नही हुआ. इसलिए इस में क्याक्या कहा गया है, पता नही.

खैर, सबसे पहले बात फिल्म के नाम को ले कर ही की जाए. फिल्म देखते हुए दर्शक की समझ में आता है कि 1965 के युद्ध के समय पाकिस्तान द्वारा भारत के एयरफोर्स के एयरबेस पर किए गए हमले का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए जिस मिशन की घोषणा हुई थी, उसे ‘स्काई फोर्स’ मिशन कहा गया. पर जब हम ने इस पर शोध किया तो हमें 1965 से 1971 के बीच भारत व पाक ने जितने भी मिशन चलाए, उन के जो नाम नजर आए, उन में ‘स्काई फोर्स’ का कहीं जिक्र नही है.

मतलब यह नाम ही फर्जी है. अगर सोशल मीडिया पर यकीन किया जाए, तो पोलिश वीडियो गेम के ऊपर से यह नाम रखा गया है. 1965 के युद्ध में एयरफोर्स स्क्वाड्रन लीडर ए.बी. देवैया शहीद हो गए थे, जिन की यह कहानी बताई जा रही है, पर फिल्म में उन का नाम बदल कर टीके विजया उर्फ टैबी कर दिया गया. वहीं दूसरे किरदारों के नाम भी बदले गए हैं.

शहीद स्क्वाड्रन लीडर अज्जामदा बोप्पय्या देवैया उर्फ एबी देवैया कौन थे?

1965 के भारत व पाक युद्ध के दौरान स्क्वाड्रन लीडर ए.बी. देवैया, जो स्टैंडबाय पर थे, ने अपने साथियों पर संकट देख कर वह अपने नेता के सीधे आदेशों की अवज्ञा करता है और एक ऐसे विमान में उड़ान भरता है जो उड़ने लायक नहीं है. वह अपने उड़ान कौशल व साहस के बल पर अपने आठ वीर साथियों को बचाने में सफल रहते हैं. मगर खुद दुश्मन देश में शहीद हो जाते हैं.

लंबे समय तक यह माना जाता रहा कि वह ‘कार्रवाई में लापता’ थे, और 1979 में अंग्रेजी लेखक जौन फ्रिकर की पुस्तक बैटल फौर पाकिस्तान- द एयर वार औफ 1965 के प्रकाशित होने तक देवैया के भाग्य का विवरण ज्ञात नहीं हुआ. उस के पास देवैया के एयरबेस के ग्रुप कैप्टन ओ.पी. तनेजा के प्रयासों के बाद देवैया 1988 में महावीर चक्र से मरणोपरांत सम्मानित होने वाले पहले और एकमात्र भारतीय वायु सेना अधिकारी बने.

फिल्म ‘स्काई फोर्स’ में स्क्वाड्रन लीडर ए.बी. देवैया का नाम बदल कर टीके विजया उर्फ टैबी तथा ग्रुप कैप्टन ओपी तनेजा का नाम बदल कर ओके आहुजा कर दिया गया है. टीके विजया के किरदार में वीर पहाड़िया और ओके आहुजा के किरदार में अक्षय कुमार है. इस हिसाब से इस फिल्म का हीरो तो वीर पहाड़िया के किरदार को होना चाहिए, मगर फिल्मकार ने अक्षय कुमार के किरदार को हीरो बना दिया.

यह कहानी तब की है जब देश के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री थे. ‘जय जवान, जय किसान’ सबसे लोकप्रिय नारा था. भारत के पास तब, बस दो किमी रडार शक्ति वाले लड़ाकू विमान थे और पाकिस्तान के पास अमरीका से दहेज में मिले 25 किमी रडार शक्ति वाले 12 लड़ाकू विमान थे.

फिल्म ‘स्काई फोर्स’ की कहानी शुरू होती है 1971 में, जब पाकिस्तान की वायु सेना ने अचानक भारत के एयरबेस पर हमला कर दिया. भारतीय बलों ने जवाबी हमले में एक पाकिस्तानी पायलट अहमद हुसैन (शरद केलकर) को पकड़ लिया था. भारतीय वायु सेना के विंग कमांडर के.ओ. आहूजा (अक्षय कुमार) अहमद से पूछताछ करने के लिए पहुंचते हैं. इस पूछताछ में उन्हें पता चलता है कि 1965 के सरगोधा हमले के बाद अहमद को सम्मानित किया गया था.

आहूजा के मन में यहीं से संदेह पैदा होता है और पहला सुराग भी हाथ लगता है. फिर कहानी 6 साल पीछे यानी कि 1965 में पहुंच जाती है. 1965 के युद्ध में दोनों देशों द्वारा हवाई हमलों का पहला उदाहरण था. पाकिस्तान को 12 एफ -104 स्टारफाइटर जेट मिले थे, जिन्हें भारत के फोलैंड नैट और डसौल्ट मिस्टर के बेड़े से बेहतर माना जाता था. हालांकि, ग्रुप कैप्टन के.ओ. आहूजा (अक्षय कुमार) का मानना है कि मशीन नहीं, बल्कि पायलट हवाई युद्ध का नतीजा तय करता है.

1965 में जब विंग कमांडर ओ. आहूजा आदमपुर एयरबेस पर पोस्टेड दिखाए जाते हैं जहां अपने साथियों को युद्ध के लिए ट्रेनिंग देते हैं. इन में टी. विजया (वीर पहाड़िया) और अन्य शामिल हैं. विजया में आहूजा को अपना वीरगति को प्राप्त हो चुका भाई नजर आता है. विजया एक रिबेल युवा अधिकारी है, जिस में देश के लिए कुछ भी कर गुजरने का जुनून है.

5 सितंबर 1965 में भारतीय एयरबेस पर पाकिस्तान हमला करता है, जिस में कई जवान मारे जाते हैं. इस के बाद भारत बदले की आग में झुलसता है और अपने कमजोर हवाई जहाजों की मदद से सात सितंबर की सुबह पाकिस्तानी एयरफोर्स से लोहा लेता है. सरगोधा में एकत्रित पाकिस्तान के मौडर्न और नई तकनीक वाले एयरक्राफ्ट्स को नष्ट करने के लिए स्काई फोर्स औपरेशन के नाम से अहूजा की अगुवाई में प्लान किया जाता है.

भारत इस में सफलता हासिल करता है, लेकिन एक साथी इस मिशन में गुमशुदा हो जाता है. यह कोई और नहीं बल्कि टी विजया है. अब आहूजा उसे ढूंढने की कोशिश करने के लिए हर संभव प्रयास करता है. इस बीच, टैबी की पत्नी, गीता (सारा अली खान) की उम्मीदें अपने पति को पाने के लिए आहूजा पर टिकी हैं. टैबी को खोजने की कोशिश करते समय, आहूजा को पता चलता है कि उस के लापता साथी ने अपने साथी सैनिकों की रक्षा के लिए न केवल अपनी जान जोखिम में डाली है, बल्कि विमानन इतिहास और प्रौद्योगिकी की दिशा भी बदल दी.

चारचार लेखकों ने मिल कर फिल्म की स्क्रिप्ट का बंटाधार कर डाला. उपदेशात्मक लहजे और अंधराष्ट्रवाद के कारण यह फिल्म दर्शकों के साथ जुड़ नही पाती. फिल्म में बात शहीद व देशभक्ति की ही हो रही है, मगर किसी तरह भावनाएं जुड़ नहीं पाती हैं.

फिल्म की स्क्रिप्ट कच्ची सड़क पर बैल गाड़ी के चलने की तरह हिचकोले ले कर चलती रहती है. फिल्म की कहानी के सेंटर में बहादुर व देश के लिए शहीद होने के लिए तत्पर वीर है. फिल्म के अंदर वीरता, भावुकता, राष्ट्वाद का होना लाजमी है और इस तरह की कहानी व दृश्यों के साथ भावावेश में दर्शकों को जुड़ना चाहिए, मगर ऐसा हो नही पाता.

इंटरवल से पहले तो फिल्म काफी गड़बड़ है. स्क्रिप्ट लेखकों की मूर्खता के चलते खराब लेखन, मूर्खतापूर्ण चरित्र चित्रण और नीरस अभिनय के अलावा कुछ नही है. चारचार लेखक मिल कर भी युद्धबंदी पाकिस्तानी सैनिक अहमद हुसैन के कैरेक्टर को ठीक से लिख ही नही पाए. इंटरवल के बाद जब आहूजा, विजया की खोज के लिए प्रयास शुरू करते हैं, तब कुछ रोमांच पैदा होता है और दर्शक भी इमोशनल हो कर फिल्म के साथ जुड़ते हैं.

लेखकों की सोच का दिवालियापन मिसाल के तौर पर फिल्म में एक संवाद है, जब टैबी पहली बार पिता बनने वाले हैं, तब आहूजा उस की पत्नी गीता से कहते हैं कि एक अच्छे पायलट को बेटी का आशीर्वाद मिलेगा. मतलब यहां भी लिंग भेद की बात. यह संवाद सुन कर एक बात यह भी उभरती है कि क्या वह वायु सेना अधिकारी जो बेटे पैदा करते हैं, वह बुरे पायलट हैं?

फिल्म के निर्देशकों में से एक संदीप केलवानी की बतौर निर्देशक यह पहली फिल्म है. इस से पहले वह बुरी तरह से असफल रही ‘भोला’ और ‘रनवे 34 ’ फिल्मों का लेखन कर चुके हैं, ऐसे में उन से क्या उम्मीद की जाए. दूसरे निर्देशक अभिषेक अनिल कपूर इस से पहले ‘स्त्री’ और ‘बाला’ के वक्त निर्देशक अमर कौशिक के सहायक थे.

शुरुआती एक्शन दृश्यों में वीर पहाड़िया के अंदर दृढ़विश्वास की कमी का अहसास होता है और विमानन विशेषज्ञ टी.के. विजया उर्फ टैबी (वीर पहाड़िया) के दुस्साहसी हवाई युद्धाभ्यास, विशेष रूप से वायुगति की खामियां निकाल सकते हैं. एक दृश्य, जहां वह जमीन से महज कुछ फीट ऊपर उड़ते हुए घाटी के बीच एक आश्चर्यजनक स्टंट करते हैं, अविश्वसनीय लगता है. इस के लिए तो निर्देशक ही जिम्मेदार हैं.

भावनात्मक दृश्य तो नीरस नजर आते हैं. फिल्म में एक दृश्य है, जब विजया के घर वापस न लौटने के छह माह बाद उस के संबंध में बिना किसी पुख्ता जानकारी के अक्षय कुमार और निम्रत कौर स्क्रार्व्डन लीडर विजया की पत्नी गीता यानी कि अभिनेत्री सारा अली खान के घर पहुंचते हैं. उस वक्त अपनी रोती हुई छह माह की बेटी को गोद में लिए गीता जिस तरह से आहूजा व उन की पत्नी को चले जाने के लिए कहती है, इस सीन को सही ढंग से लिखा ही नही गया.

यह सीन ऐसा है, जहां इमोशन उभरना चाहिए और दर्शक की आंखों से आंसू बहने चाहिए. मगर घटिया तरीके से लिखे गए इस सीन का दर्शक पर कोई असर नही होता. महज सरकार परस्ती के लिए बेटी को ले कर जो सीन व संवाद लिखे गए हैं, वह अपना सही प्रभाव छोड़ने की बजाय गलत इशारा ही करते हैं.

शहीद देवैया के साथ ही 1965 व 1971 का युद्ध रीयल घटना है, मगर इस कहानी को लेखकों ने इस तरह पेश किया है कि फिल्म देखते हुए दर्शकों को अंग्रेजी फिल्म ‘टौप गन’ की याद आती है. क्या एयरफोर्स के किसी जांबाज को कौकरोच उपनाम देना सही है, इस का जवाब तो लेखकों के पास नही होगा?

फिल्म की सबसे बड़ी कमजोर कड़ी तो यह है कि शहीद स्क्वाड्रन लीडर अज्जामदा बोप्पय्या देवैया उर्फ एबी देवैया से आम दर्शक परिचित नही है. फिल्म के प्रमोशन के दौरान लेखक, निर्देशक, कलाकार सोशल मीडिया पर व्यस्त रहे या एयरपोर्ट पर खड़े हो कर फोटो खिंचवा कर सोशल मीडिया पर पोस्ट करते रहें. और इन में से किसी ने भी शहीद स्क्वाड्रन लीडर अज्जामदा बोप्पय्या देवैया के बारे में बात नहीं की.

युद्ध पर बनी फिल्म में फाइटर विमान, युद्ध बहादुर एयरपायलट व वीरता सब कुछ है, पर इस से फिल्म दर्शनीय नही हो जाती. आज का दर्शक जागरूक है, उसे पता है कि यह सब तो वीएफएक्स व सीजेआई का कमाल है. जब इन लड़ाकू विमानों की उड़ानों की अति हो जाती है तो वह दर्शक उब महसूस करने लगता है. फिर भी फिल्म के अंतिम 20 मिनट दर्शकों को भावनात्मक रूप से अपने साथ जोड़ते हैं. तो वहीं फिल्म के अंतिम दृश्य में जब विजया के परिवार को ‘महावीर चक्र’ दिया जाता है, तो दर्शक की आंखें गीली हो जाती हैं.

फिल्म के कुछ संवाद और कुछ दृश्य अत्यधिक उपदेशात्मक लगते हैं तो कुछ संवाद खलते है. मसलन एक संवाद है, जब संवाद आहूजा एक पाकिस्तानी अधिकारी को अपना परिचय ‘तेरा बाप, हिंदुस्तान’ कह कर देते हैं. लेखकों की सोच होगी कि इस डायलौग पर थिएटर तालियों से गूंजेगा, पर ऐसा नही हुआ.

कुल मिला कर यह फिल्म शहीद देवैया के अटूट साहस के साथ न्याय करने में विफल रही है. लेखक व निर्देशक का वीर पहाड़िया की बजाय अक्षय कुमार के किरदार को हीरे बनाने के चक्कर में कहानी व पटकथा का बंटाधार कर डाला.

ग्रुप कमांडर आहूजा के किरदार में अक्षय कुमार ने बता दिया कि वह बदलने से रहे. वह हर दृश्य में चिरपरिचित अंदाज में सपाट सा चेहरा लिए तन कर खड़े रहते हैं. लगातार 17 असफल फिल्में देते आ रहे अक्षय कुमार को ले कर आलोचकों ने कितनी बार कहा है कि अक्षय को अभिनेता के रूप में खुद को बदलने की जरूरत है.

पर वह एक ही रट लगाए हुए हैं- ‘‘हम नहीं सुधरेंगे..’’ कम से कम अक्षय कुमार को चाहिए कि वह तीनचार माह फिल्मों से दूरी बना कर थिएटर करते हुए अपने अंदर की अभिनय क्षमता को नए सिरे से तलाशें.

शहीद विजया के किरदार में वीर पहाड़िया की तो यह पहली फिल्म है. वह महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री सुशील कुमार शिंदे की बेटी के बेटे हैं. उन के पिता बहुत बड़े उद्योगपति हैं. वीर पहाड़िया के हिस्से ऐसे दृश्य कम ही आए हैं, जहां उन की अभिनय क्षमता का आकलन किया जा सके. पर शहीद देवैया के किरदार के लिए जिस तरह का जुनून कलाकार के अंदर चाहिए, उस का वीर पहाड़िया में घोर अभाव नजर आता है.

शहीद विजया की पत्नी के कैरेक्टर में सारा अली खान के हिस्से भी करने को कुछ ज्यादा रहा ही नहीं. सारा अली खान का किरदार सिर्फ एक चिंतित और गर्भवती पत्नी तक सीमित है. देवैया और उन की पत्नी सुंदरी दक्षिण भारत से थे, लेकिन गीता के किरदार में सारा अली खान दक्षिण भारतीय नजर ही नही आती.

दूसरी बात सारा अली खान की निजी जिंदगी में वीर पहाड़िया पूर्व प्रेमी रहे हैं, इस के बावजूद सिनेमा के परदे पर दोनों के बीच एक भी दृश्य में भावनात्मक जुड़ाव न होना खटकता है. निम्रत कौर के हिस्से भी कुछ करने को नही आया. अहमद हुसैन के छोटे किरदार में शरद केलकर अपनी छाप छोड़ जाते हैं.

अक्षय कुमार अपनी हरकतों से अपना करियर तो डुबा ही रहे हैं, पर लगता है कि अब उन्होंने सिनेमा को भी खत्म करने का मन बना लिया है. तभी तो फिल्म ‘स्काई फोर्स’ देखने के लिए दर्शकों को टिकट के दाम पर तीन दिन यानी कि 24,25 ओर 26 जनवरी को 250 रूपए की छूट दी जा रही है. यदि टिकट 250 रूपए तक की है, तो एकदम फ्री. पर यह रकम सिनेमा घर मालिक को कौन देगा? स्वाभाविक तौर पर निर्माता या कलाकार ही देगा. आज ‘स्काई फोर्स’ के निर्माता व कलाकार अरबपति हैं, पर छोटी फिल्म का निर्माता क्या करेगा. यह बहुत बड़ा खतरा है, जिस पर हर इंसान को बात करनी चाहिए.

Home Tips : कैसे रखें साफसुथरा और सुगंधित घर

Home Tips : साफसुथरा और सुगंधित घर बनाए रखने के लिए खुद को काम करना होगा. अब यह काम बेहद सरल हो गया है. जानिए क्या है तरीका.

घर की पुताई लेबर की जगह पर खुद करें. नए समय में अब यह कठिन काम नहीं रह गया है. पुताई से पहले यह समझ लें कि कलर किस किस तरह के आने लगे हैं. उन का सही इस्तेमाल करने से ही घर में चमक आएगी.

आज कल घरों की पेंटिंग के लिए अलगअलग तरह के कलर का प्रयोग किया जाता है. पेंट के प्रकार से ही मजदूरी तय होती है. अगर डिस्टेंपर पेंट कराना है तो लेबर चार्ज 10 रुपए प्रति वर्ग फीट से 12 रूपए के बीच आती है. इमल्शन पेंट 12-60 रुपए प्रति वर्ग फुट, एनेमल पेंट 80 रुपए प्रति वर्ग फीट, लस्टर पेंट 26-30 रुपए प्रति वर्ग फुट, टेक्सचर पेंट 80 -200 रुपए प्रति वर्ग फुट लेबर चार्ज होता है. पेंट के अलावा पुट्टी और प्राइमर जैसे जरूरी सामानों की जरूरत होती है. पुट्टी एक तरह का सफेद सीमेंट होता है. जो पानी से भी बचाव करता है. अगर दीवारों की सतह उबड़खाबड़ है तो यह उसे ठीक कर देता है. आमतौर पर एक किलो पुट्टी 15 स्क्वेयर फुट से 35 प्रति वर्ग फुट तक कवरेज कर देती है.

प्राइमर यह मटेरियल पेंट के लिए बेस का काम करता है और उस के लुक में भी इजाफा करता है. मार्केट में अलगअलग तरह के प्राइमर उपलब्ध हैं, लिहाजा कीमत अलग हो सकती है. एक लीटर प्राइमर में 210-270 प्रति वर्ग फुट का एरिया कवर हो जाता है. पुट्टी का इस्तेमाल करने से पहले पेंट को बेहतर तरीके से चिपकाने के लिए प्राइमर का एक कोट अच्छा रहता है. मजदूरी की लागत सामान के लिए किए गए खर्च का लगभग डेढ़ गुना होती है. मजदूरी पर छोटेबड़े शहर का भी असर रहता है.

किन कंपनियों के पेंट्स का करें इस्तेमाल

सब से अच्छे किस्म के पेंट डूलैक्स पेंट्स, बर्जर पेंट्स, नेरोलैक पेंट्स, एशियन पेंट्स, इंडिगो पेंट्स, निप्पोन पेंट्स और शालीमार पेंट्स कंपनियों के आते हैं. बाजार में इन के मिलतेजुलते नामों के पेंट भी आते हैं. यह कीमत में कम होते हैं. कई बार दुकानदार भी इस किस्म के पेंट्स को बेच देते हैं. अब बड़ीबड़ी पेंट्स कंपनियां खुद पुताई के पहले पूरी जानकारी देने का काम करने लगी हैं. सही कंपनी के पेंटस को ही चुनिए.

एशियन पेंट्स के सब से अधिक पंसद किए जाने वाले पेंट्स में रोयल, एप्को लाइट इमल्शन, ट्रैक्टर डिस्टेंपर और कई अन्य शामिल हैं. नेरोलैक पेंट्स में सब से लोकप्रिय ब्रांड कंसाई नेरोलैक पेंट्स है. इस के अलावा इम्प्रेशन अल्ट्रा एचडी, इम्प्रेशन अल्ट्रा फ्रेश, इम्प्रेशन 24 कैरेट, इम्प्रेशन मेटैलिक फिनिश और कई अन्य सामान ब्रांड हैं.
बर्जर पेंट में सब से लंबे समय तक चलने वाला ग्लौस और सेमी ग्लौस पेंट है. डूलैक्स पेंट्स के पर्ल ग्लो और डूलैक्स वेलवेट टच सहित विभिन्न प्रकार के इंटीरियर पेंट प्रदान करते हैं. इस के अलावा डूलैक्स वेदरशील्ड और पेंट है. इस में दीवार पुट्टी, ऐक्रेलिक प्राइमर, पानी आधारित सीमेंट प्राइमर आदि शामिल हैं.

शालीमार पेंट्स चाय, कौफी और केचप जैसे आम घरेलू दागों के लिए को खत्म करने की क्षमता वाले रंग बनाने के कारण सब से अधिक पंसद किया जाता है. इंडिगो पेंट्स में प्राइमर, डिस्टेंपर, इमल्शन और डिस्टेंपर सहित पानी आधारित पेंट्स है. जौनसन और निकोल्सन पेंट्स के पेंटस भी खूब पंसद किए जाते हैं. यह सब से पुरानी पेंटस कंपनी है.

क्या है पेंट्स की कीमत

पेंट्स की कीमत कंपनी और कलर पर निर्भर करती है. रिटेलर और थोक दुकानदार के पास अलगअलग कीमत मिल सकती है. कई दुकानदार एमआरपी से कम दाम पर भी बेच देते हैं. इन का मार्जिन अधिक होता है. पेंट्स कंपनियां अधिक से अधिक पेंटस बेचने के लिए औफर देती रहती है. ऐसे में पेंट्स की कीमत अलगअलग हो सकती है.

प्लास्टिक पेंट की कीमत को देखें तो 1 लीटर एशियन पेंट्स 70 रूपए से, डूलैक्स 110 रूपए से, नेरोलैक 192 रूपए से शुरू होता है. ब्रांड के हिसाब से कीमत बदल जाती है. 20 लीटर के एशियन प्लास्टिक पेंट की कीमत डूलैक्स पेंट की कीमत 20 लीटर से अलग है. बर्जर सिल्क ग्लैमआर्ट प्लास्टर दीवारों के लिए फिनिश पेंट की कीमत 1 लीटर के लिए 799 रुपए है. बर्जर वालमास्टा बाहरी पेंट की कीमत 1 लीटर के लिए 355 रुपए है. बर्जर इंस्ट्रूमेंट्स बर्जर इंटीरियर ऐक्रेलिक वाल पेंट की कीमत 1 लीटर के लिए 619 रुपए है. बर्जर पेंट्स लक्सोल हाई-ग्लौसस इनेमल पेंट की कीमत 1 लीटर के लिए 500 रुपए है. औल बाउंड की कीमत सब से कम होती है. 2 लीटर की कीमत 350 रूपए है.

कैसे जाने पेंटिंग का बजट

1,000 स्क्वायर फीट के 2 बीएचके फ्लैट को पेंट करने के लिए 30 से 45 लीटर पेंट की आवश्यकता होती है. डिस्टेंपर पेंट का एक कोट लगभग 10 रुपए प्रति वर्ग फुट होता है. इमल्शन पेंट का एक कोट लगभग 15 रुपए प्रति वर्ग फुट होता है. 1,000 स्क्वायर फीट के 2 बीएचके फ्लैट में डिस्टेंपर पेंट की कुल लागत लगभग 10,000 रुपए और इमल्शन पेंट की कुल लागत लगभग 15,000 रुपए होगी. छत को छोड़ कर. पेंट करने योग्य एरिया की कैलकुलेशन सरल है. सब से पहले, जगह की लंबाई और चैड़ाई को आपस में गुणा करें जिस से आप को कुल एरिया मिलेगा. इस में दरवाजे या खिड़कियां जैसे उस हिस्से को घटा दें, जिसे पेंट नहीं करना है. इस तरह से पेंट करने के लिए सही एरिया मिल जाएगा.

खुद करें पुताई

पुताई के लिए घर के अंदर का काम घर के लोग खुद कर सकते हैं. अगर 4 लोग हैं और वह अपनाअपना कमरा बांट लें तो मनोरंजन के साथ पुताई कर सकते हैं. घर के बाहर की दीवारें ऊंची होती है. ऐसे में वह काम जानकार का करना ही ठीक रहता है. घर के अंदर कमरों का काम सरल होता है. ऐसे में अगर आप के पास समय है तो खुद पुताई का काम कर सकते हैं. वैसे भी जब पुताई होती है तो घर के लोग भी काम पर लगे होते हैं.

घर के अंदर की पुताई करना अब सरल काम रह गया है क्योंकि इस के कई सरल तरीके सामने आ गए हैं. घर के बाहर की पुताई कठिन काम होता है. बाहरी दीवारों वाले पेंट की कीमत कम होती है. इसे लगाना ज्यादा बोझिल और समय लेने वाला होता है क्योंकि इस के लिए मचान और दीवारों के लेवल की सीढ़ियों की जरूरत होती है.

आजकल पेंट तैयार आते हैं. इन में केवल पानी मिला कर पुताई की जा सकती है. पुताई के लिए ब्रश और रोलर आने लगे हैं. रोलर का प्रयोग अधिक होता है. दीवार साफ करने के लिए रेगमाल का प्रयोग किया जाता है. दीवारों पर किए जाने वाले रंग अलगअलग किस्म के होते हैं. डिस्टेंपर पेंट में पानी में मिला कर पुताई की जाती है. इमल्शन पेंट पानी या औयल बेस्ड होता है. यह तेजी से सूखता है और शानदार फिनिश देता है. इमल्शन पेंट काफी समय तक चलता है और इस पर लगे दागधब्बों को डिटरजेंट सोल्यूशन के साथ एक कपड़े से साफ कर सकते हैं. ऐसे कुछ पेंट्स में एंटी फंगल के गुण भी होते हैं. इस को प्लास्टिक इमल्शन पेंट और एक्रेलिक इमल्शन पेंट की केटेगरी में बांटा जाता है.

एनेमल पेंट का प्रयोग ऐसी सतहों पर किया जाता है जहां काफी ज्यादा लोग आतेजाते हों. गंदगी ज्यादा होती हो, क्योंकि ये लंबे समय तक चलते हैं. इन की सफाई करना भी बेहद आसान होता है. इन से ग्लौसी इफैक्ट भी मिलता है. ये पानी और दाग से भी निपट लेते हैं. इस का प्रयोग आमतौर पर धातु और लकड़ी की सतह पर किया जाता है. लस्टर पेंट तेल या पानी आधारित होता है. यह मोती की तरह चिकनी फिनिशिंग देता है. लस्टर पेंट को आप बारबार वाश कर सकते हैं. यह सूखने के बाद भी कुछ समय के लिए गंध छोड़ते हैं.

टैक्सचर पेंट का प्रयोग उन दीवारों पर किया जाता है, जिन्हें घर में स्पैशल टच दिया जाता है. इस को लगाने के लिए खास तरह के औजार जैसे चाकू, रोलर, ब्रश, खुरपी और पुट्टी जैसी सामग्री का इस्तेमाल होता है. जो थ्रीडी टैक्सचर बनाने में काम आते हैं. आमतौर पर टैक्सचर पेंट विशालकाय होते हैं और एक अलग तरह की फील देते हैं. टैक्सचर पेंट बेहद महंगा होता है. सामान्य लोग इस का प्रयोग कम करते हैं. स्नोसेम एक खास सीमेंट पेंट है जो पानी, गरमी और रोशनी से भी बचाता है. इसे पानी मिलाने पर यह न तो झड़ता है और न ही उखड़ता है.

सीमेंट पेंट बाहरी दीवारों पर रिसाव और गंदगी को रोकने के लिए पानी आधारित सीमेंट पेंट का उपयोग किया जाता है. यह पेंट दीवारों को सजाने और सुरक्षा देने के लिए अच्छा है क्योंकि यह सीमेंट जैसा दिखता है. यह सूरज की किरणों, बारिश, गरमी और नमी से दीवारों को बचाता है. मैटेलिक पेंट में चमक होती है. क्योंकि इस के आधार में धातु के टुकड़े और कांच जोड़े जाते हैं. इस पेंट में मुख्य रूप से आयरन औक्साइड होता है, जिसे मेटल फ्लेक या पौलीक्रोमैटिक भी कहा जाता है. इसे खासतौर पर एक्सेंट दीवारों पर इस्तेमाल किया जाता है, क्योंकि यह दीवारों को गहराई और चमक देता है. पेंट लगाने के बाद, सतह पर एक हल्की, रेशमी चमक दिखती है.

हमेशा अच्छी क्वालिटी और ब्रांडेड पेंट ही खरीदें. ये दीवारों की रक्षा करने का काम करते हैं. पानी से बचाने वाला प्रोडक्ट घर के बाहरी हिस्से पर लगाना चाहिए, ताकि नमी या पानी का रिसाव रोका जा सके. यह दीवारों और नींव को बारिश और नमी से बचाता है. घर के बाहर के लिए रंग चुनते वक्त दो रंग से ज्यादा नहीं चुनने चाहिए. घर की खिड़कियों और ग्रिलों को पेंट करके जंग को रोकें, जिस से भविष्य में पेंटिंग की लागत बच जाएगी.

कैसे करें पुताई

डार्क रूम को गहरे रंगों और रोशनीदार कमरे को हल्के रंगों से पुतवाना चाहिए. पुताई करने से पहले दीवारों के छेद भरने का काम शुरू करें. दीवारों पर बहुत सारी धूल और मलबा चिपक जाता है. इसे गीले कपड़े से साफ कर सकते हैं या वैक्यूम कर सकते हैं. यदि गहरे रंग के स्थान पर हल्का रंग लगा रहे हैं तो पहले प्राइमर करें. पेंट का काम शुरू होने से पहले फर्नीचर को हटा दें या तिरपाल से ढक दें. पुताई में रंग और कूची का साथ बहुत पुराना हो गया है, अब जमाना ब्रश और रोलर का है जिस से रंग करना बेहद सरल होता है. इस के अलावा अब कमरे की पुताई के लिए अच्छी सीढ़ी भी आने लगी है.

पुताई करते समय कपड़े खराब न हों इस के लिए कपड़ों के ऊपर पहनने के लिए किट आने लगी है. हाथ खराब न हो तो ग्लब्स यानी दस्तानों का प्रयोग किया जा सकता है. जूते भी अलग किस्म के आते हैं. जल्दी दीवारें खराब न हो केवल सफाई से काम चल जाए इस के लिए नियमित कार्यों के भाग के रूप में, पेंट की गई दीवारों को कम से कम हर महीने धूलमिट्टी साफ करनी चाहिए और मकड़ी के जाले हटाने चाहिए. महीने में दो बार तो और भी बेहतर होगा. हर हफ्ते दरवाजे के हैंडल और लाइट स्विच के आसपास के दाग और गंदगी को साफ करना चाहिए.

पुताई के लिए जरूरी सामाग्री

पुताई करने के लिए सब से पहले एक बाल्टी, कपड़ा, स्टेप स्टूल या सीढ़ी, मीठा सोडा चाहिए. पुताई के लिए सब से पहले धूल हटाएं, दीवार के उपर से शुरू करते हुए, धूल और मकड़ी के जाले को हटाने का काम करें. हमेशा मजबूत स्टूल या सीढ़ी का उपयोग करें. दीवार से धूल हटाने के लिए डस्टिंग ब्रश से वैक्यूम करें. पहले कपड़े या वैक्यूम क्लीनर से दीवारों को साफ करें. बेहतर होगा कि दीवारों को धो दें. पहले यह देख लें कि बिजली बंद हो और लाइट स्विच और आउटलेट प्लेट के आसपास की जगहों को सावधानीपूर्वक साफ करें. इन जगहों को ज्यादा गीला न होने दें.

पेंट करने के लिए कूची और ब्रश की जगह पर रोलर आने लगा है. इस में छोटे हैंडल और बड़े हैंडल वाले रोलर आते हैं. इन की वजह से कलर करना सरल हो गया है. जमीन से ही ऊंची दीवार पर कलर कर सकते हैं. रोलर में लगा हैंडल बड़ा होता है. बड़े हैंडल वाले रोलर की कीमत 500 से 900 रूपए के बीच होती है. बड़े हैंडल में छोटाबड़ा करने की सुविधा भी होती है. इस की मदद से सीढ़ी पर चढ़ कर पेंट करने का खतरा लेने की जरूरत नहीं है.
पुताई करने से पहले दीवार को ठीक करने के लिए ब्रश और रोलर के साथ मिलने लगे हैं. रोलर के सहारे कैमिकल को दीवार पर लगा कर छोड़ने से कुछ समय में दीवारें ठीक हो जाती हैं. इस के बाद पेंट्स कर सकते हैं.

स्प्रे पेंटिंग की टैक्नोलौजी भी आ गई है. पेंट्स के डिब्बे के आगे स्प्रे मशीन लगी होती है. स्प्रे करने से ही रंग दीवारों पर सही तरह से फैल जाता है. दीवार पर पुट्टी लगाने के लिए साधरण पत्ती की जगह पर हैंडल वाली पट्टी 200 रूपए की आ गई है. इस से पुट्टी लगाने में हाथ को खतरा नहीं होता है. हाथों को रंगों से नुकसान न हो इस के लिए ग्लब्स का प्रयोग कर सकते हैं. रबर से बने दस्ताने 300 रूपए जोड़े की कीमत वाले होते हैं. जिस तरह से खाना बनाने वाले शेफ एप्रेन पहनते हैं उसी तरह के एप्रेन और पहनने वाली किट भी आती है. जिस से पुताई करते हुए भी आप स्टाइलिश दिख सकते हैं. इस तरह से पुताई शुरू करें. खुद से पुताई करने से बचत और लगाव दोनों होता है. ऐसे में बिना झिझक अपने घर की पुताई करें.

New Trend : ग्रूमिंग के बाद भी लड़के क्यों लगते हैं झल्ले

New Trend : लड़कों में भी स्मार्ट दिखने का क्रेज बढ़ रहा है जिस के लिए वह सैलून, जिम ही नहीं ट्रीटमेंट के लिए डाक्टरों के पास भी जाने लगे हैं. बावजूद इस के वे लगते हैं झल्ले ही.

जहां सुदंर लड़कियों की चाहत लड़कों को होती है हीं सुदंर लड़कियों को स्मार्ट लड़के पंसद आते है. लड़कियों की पंसद बन सके इसके लिए लड़के जवान होते ही खुद को फिट करने में जुट जाते हैं. इस के लिए वह अच्छे कपड़े पहनते हैं. बौडी को फिट रखते हैं. अब हैल्थ और ब्यूटी सैक्टर लड़कों को सामने रख कर तैयार होने लगा है. पहले लड़कों के सैलून में केवल हेयर कट और शेविंग ही होती थी. अब यह सैलून तो बदल ही रहे हैं लड़कियों के ही सैलून में लड़कों का सैलून खुलने लगा है. जिस को यूनिसैक्स सैलून कहते हैं.

यूनीसैक्स सैलून पहले बड़े शहरों में ही होते थे. अब छोटेबड़े शहरों में भी यह खुल गए हैं. लड़केलड़कियों को एक ही सैलून में सर्विस लेने में कोई दिक्कत नहीं होती है. यहां लड़के हेयर कट, हेयर कलर, फेशियल और फेस और हेड मसाज जैसी तमाम सर्विस लेने के लिए आते हैं. सैलून के साथ लड़के अब फिटनैस के लिए जिम जाने लगे हैं. इस के अलावा स्किन, हेयर और चेहरे पर दागधब्बे का इलाज कराने स्किन स्पैशलिस्ट डाक्टर के पास भी जाने लगे हैं. इतने सारे प्रयासों के बाद भी लड़के लगते झल्ले ही हैं.

सुंदर दिखने के उपाय

लड़के सुदंर दिखने के लिए कुछ दिन उपाय करते हैं पर इस को नियमित नहीं कर पाते. इस कारण झल्ले ही लगते हैं. लड़कियों की तुलना में लड़कों की त्वचा ज्यादा ओयली और मोटी होती है. ऐसे में उन को भी सीटीएम यानि क्लींजिंग, टोनिंग और मौइस्चराइजिंग का प्रयोग समयसमय पर जरूरत के अनुसार करना चाहिए. लड़कों को धूल और धूप में रहना पड़ता है. धूम्रपान करने वाले लड़कों के सामने यह परेशानी अधिक ही होती है. ऐसे में जरूरत इस बात की होती है कि अच्छे फैशियल क्लीन्जर का उपयोग करें. जो सभी प्रकार की त्वचा पर काम करता हो.

जब भी धूप में निकलना हो सनस्क्रीन का प्रयोग करें. 30 से 50 एसपीएफ वाला सनस्क्रीन लगाना चाहिए. सूरज की किरणें आप की त्वचा के रंग और बनावट को खराब करती हैं. इस के लिए टैनिंग कम करने के लिए इसे अपने चेहरे के साथसाथ हाथों पर भी लगाएं. सुनिश्चित करें कि आप बाहर निकलने से 15 मिनट पहले सनस्क्रीन लगाएं, ताकि यह अच्छे से औब्जर्व हो सके.

लड़कों को अपनी त्वचा साफ और चिकना करने के लिए फेस स्क्रब बेहद जरूरी है. फेस स्क्रब करने से ड्राई स्किन से छुटकारा मिलती है. साथ ही त्वचा कोमल होती है और परिणामस्वरूप चिकनी दाढ़ी उगती है. इसलिए हफ्ते में कम से कम 2 से 3 बार फेस स्क्रब करना जरूरी है. ध्यान रखें स्क्रब करते वक्त हल्के हाथों का प्रयोग करें, नहीं तो इस से आप की स्किन छिल सकती है.

आंखों के आसपास की त्वचा का भी ध्यान रखें. ऐसा न करने से आंखों के नीचे काला घेरा बनने लगता है. यह अंडर-आई डिहाइड्रेशन के कारण होता है. इसे रोकने के लिए हर सुबह और सोने से पहले आंखों के आसपास थोड़ी सी हाइड्रेटिंग आई क्रीम लगाएं. इस के साथ ही साथ अपने होठों पर भी ध्यान देने की जरूरत है. होंठ की स्किन बेहद सौप्ट होती है. इन का सही तरीके से ध्यान नहीं रखा जाए तो होंठ फटने के कारण और खराब दिख सकते हैं. इस के लिए जरूरी है कि अच्छे बाम का इस्तेमाल करें.
मैनीक्योर सिर्फ लड़कियों के लिए नहीं है. लड़कों को भी अपने हाथों पर कड़ी नजर रखनी चाहिए. नाखून साफ और छोटे रखें. आजकल लड़कों में दाढ़ी रखने का क्रेज है. अगर दाढ़ी चेहरे पर अच्छी लगती है तो उस को रखना बिल्कुल ठीक है. लेकिन सुनिश्चित करें कि इसे साफ रखें. समयसमय पर कटिंग करते रहें. दाढ़ी को धोने के बाद खुशबू वाला तेल भी लगा सकते हैं. सुदंर दिखने के लिए नियमित उपाय करें. केवल शौकिया करने से बहुत खराब लगता है. लड़के केवल सैलून ही नहीं जिम भी जाते हैं.

घर में ही करे एक्सरसाइज

जिम जाने से अच्छा है कि घर पर ही एक्सरसाइज करें. इस में सब से सरल स्किपिंग रोप होती है. यह 150 रुपए से 1500 रुपए तक में मिल जाती है. रस्सी कूदना बेहद आसान और प्रभावी वर्कआउट होता है. एक वेट मशीन रख लें. वेट मशीन का होना बहुत जरूरी है. जिस से अपने वजन में होने वाले बदलावों का रिकौर्ड रख सकें. बाजार में वेट मशीन 800 से 1500 रुपए की कीमत तक में मिल जाती है. स्ट्रैचिंग और शरीर का संतुलन बनाए रखने के लिए रजिस्टेंस बैंड्स का काफी उपयोग किया जाता है. अच्छी ग्रिप वाले हैंडल्स हों. यह बाजार में 1500 से 3000 रुपए तक की कीमत में मिल सकते हैं.

वेट लिफ्टिंग एक्सरसाइज के लिए डंबल्स और बार्बेल्स जरूरी होते हैं. इन का प्रयोग भी कर सकते हैं. यह 150 रुपए से 500 रुपए प्रति किलो वजन के आधार पर मिलते हैं. अपनी जरूरत के अनुसार इन का वजन बढ़ा सकते हैं. अपने को शेप में रखने के लिए एक्सरसाइज बौल या स्टेबिलिटी बौल काफी प्रभावी है. इस का इस्तेमाल दूसरे उपकरणों के साथ भी कर सकते हैं. बाजार में इस की कीमत 600 रुपए से 1000 रुपए के बीच तक हो सकती है.

कुछ दिन का शौक

जिम में मेम्बरशिप लेना सरल होता है. लड़कों के पास अपने पैसे होते हैं. वह कहीं न कहीं जौब या बिजनैस कर रहे होते हैं. ऐसे में खुद को फिट रखने के लिए जिम की मेम्बरशिप ले लेते है. कुछ दिन बहुत क्रेजी रहते हैं. सोशल मीडिया पर जिम करते फोटो वीडियो पोस्ट करते हैं. धीरेधीरे यह शौक पुराना हो जाता है. आलस्य उन पर हावी होने लगता है. जिम छूट जाता है. जब तक बौडी फिट नहीं रहती कोई भी फैशन अच्छा नहीं लगता है. गोल मटोल चेहरा, बढ़ा हुआ पेट, झुके हुए कंधों में लड़के झल्ले लगने लगते हैं. इस की सब से बड़ी वजह यह होती है कि फिट और स्मार्ट दिखने के लिए जो अनुशासन चाहिए वह नहीं रह पाता है.

जो लोग नशा करते हैं उस का प्रभाव उन की हैल्थ पर पड़ता ही है. इस के साथ ही साथ इन लड़कों में समय से खाना और सोना भी नहीं होता है. देर रात तक यह जगते हैं. सुबह देर से उठते हैं. कोविड के प्रभाव में जिन लड़कों का वर्क फ्रौम होम चलता है. उन की हालत और भी खराब होती है. वह लोगों से मिलजुल नहीं पाते हैं. शारीरिक मेहनत नहीं होती और खाने के नाम पर होम डिलीवरी में फास्टफूड आ जाता है. यह मोटापा बढ़ाने वाला होता है. लड़कियां इन हालातों में भी अपना ख्याल रख लेती हैं. लड़के नहीं रख पाते.

पुरूष प्रधान समाज है तो लड़कों को लगता है वह अच्छे दिखे या नहीं फर्क क्या पड़ता है ? असल में फर्क पड़ता है भाई. जो लड़की साथ चलती है उस को फर्क पड़ता है. उस की दोस्त कहती है ‘तेरा वाला कैसा दिखता है ? तू कुछ समझाती क्यों नहीं ?’ लड़की बोलती है ‘समझासमझा कर थक गई, दो दिन सुधरता है इस के बाद फिर पुराने जैसा हो जाता है.’ खासतौर से शादी के बाद तो कोई कंट्रोल ही नहीं रहता है.

शौकशौक में कई लड़के तो स्किन स्पैशलिस्ट डाक्टर के पास भी चले जाते हैं. वहां भी तमाम तरह के प्रोसीजर करवा लेते हैं पर इस का असर भी जल्द खत्म हो जाता है. इस की सब से बड़ी वजह यह होती है खानपान पर नियत्रंण न रखना. फास्टफूड और डिब्बाबंद खाना पीना हैल्थ के लिए ठीक नहीं होता है. लड़के इस का मोह छोड़ नहीं पाते हैं. समय पर अपना ध्यान न देने से जिम और सैलून का किया धरा रखा रह जाता है.

ऐसे में अगर स्मार्ट दिखना है समय पर खाना खाना चाहिए. इस के अलावा अपने सोने और जागने का समय तय होना चाहिए. देर रात तक जागना और सुबह देर से उठना बंद करना चाहिए. अगर जिम जाएं तो रेगुलर जाना चाहिए. सैलून जाएं तो समयसमय पर जाते रहें. जीवन में अगर अनुशासित नहीं रहेंगे तो न फिट रहेंगे न स्मार्ट रहेंगे. ऐसे में लोग झल्ला ही कहेंगे.

Love Story : फेसरीडर

Love Story : पैंतालीस साल के अधेड़ दिवाकर ने जल्दी से औटो वाले को किराया दिया और अपना हैंडबैग संभालते हुए तेजी से रेलवे स्टेशन के उस हिस्से की ओर दौड़ पड़ा जहां क्लौकरूम स्थित था. बारबार घड़ी देखने के साथ उस की नजर क्लौकरूम की ओर थी, जहां से उसे अपना सूटकेस लेना था.

ट्रेन छूटने में सिर्फ 20 मिनट ही शेष थे और उसे तत्परता से यह काम कर, 2 फुटओवर ब्रिज पार कर के प्लेटफौर्म नंबर 6 पर पहुंचना था जहां पर वह ट्रेन खड़ी थी जिस में सवार हो कर उसे अपने गंतव्य दिल्ली पहुंचना था. खैर, शीघ्रता से औपचारिकता पूरी कर उस ने अपना सूटकेस लिया और दौड़ताहांफता प्लेटफौर्म नंबर 6 पर जा पहुंचा.

ट्रेन चल पड़ी थी लेकिन अभी उस ने रफ्तार नहीं पकड़ी थी. उस की आंखें चलती ट्रेन में अपने कंपार्टमैंट एस-3 डब्बे को खोजने लगी. ट्रेन धीरेधीरे स्पीड पकड़ रही थी और उस का एस-3 डिब्बा आगे निकल चुका था. उस ने सोचा, यदि वह अपने कंपार्टमैंट की ओर दौड़ेगा और उस तक पहुंचेगा, तब तक तो ट्रेन की स्पीड बढ़ जाएगी और उस का ट्रेन में चढ़ना मुश्किल हो जाएगा. संभव है ट्रेन ही छूट जाए. उस की त्वरा बुद्धि ने तुरंत प्रतिक्रिया दी. उस ने अपना सूटकेस सामने से गुजरते हुए एक डब्बे में फेंका और खुद भी दौड़ कर उस में सवार हो गया.

जिस डब्बे में वह चढ़ा था वह एक द्वितीय श्रेणी का आरक्षित कंपार्टमैंट था. उस ने घूम कर देखा, सभी लोग अपनीअपनी सीट पर बैठे अपने में मशगूल थे. कोई अपना सामान सेट कर रहा था, तो कोई जूते उतार कर उन्हें बर्थ के नीचे खिसका रहा था, तो वहीं, कोई मोबाइल में व्यस्त था. उन्हीं में से एक ऐसा भी हिस्सा था जिस में एक ही महिला बैठी हुई थी. सकुचाते और इधरउधर देखते हुए वह इस हिस्से में महिला के सामने वाली खाली बर्थ पर जा कर बैठ गया. जो महिला उस के सामने वाली बर्थ पर बैठी थी वह लगातार खिड़की से बाहर पीछे छूटते प्लेटफौर्म को निहार रही थी. दिवाकर उसे कनखियों से देखने लगा.

वह सीट पर आ तो बैठा था लेकिन निश्चिंत नहीं था क्योंकि जो निश्चिंतता अपने निर्धारित टिकट से प्राप्त आरक्षित सीट पर आती है वह यहां नहीं थी. कभी भी, किसी भी स्टेशन से आरक्षित बर्थ का वास्तविक पैसेंजर आ सकता था और उसे वहां से अपना बोरियाबिस्तर ले कर उतरना पड़ेगा. यदि उस से पहले टिकट कलैक्टर ही आ गया तो उस के सामने सफाई देनी पड़ेगी और उसे सफाईवफाई देना बहुत ही इरिटेटिंग लगता था.

दिवाकर के मन में सोचविचार का सिलसिला चल ही रहा था कि तभी अचानक उस की सोचविचार की कंदरा के मुहाने पर किसी ने भारीभरकम चट्टान गिरा दी. फलस्वरुप, कंदरा में अंधकार व्याप्त हो गया. विचार, प्रश्न सब तिमिराच्छादित हो गए. कारण था, महिला का उस की ओर, और खुद दिवाकर का उस की ओर एकटक भाव से अपलक देखते ही रह जाना. उस महिला की उम्र कोई चालीसपैंतालीस से कम नहीं थी. उस के चेहरे में एक कशिश थी जो उसे अपनी ओर खींचे जा रही थी.

सामान्य कदकाठी की यह महिला गुलाबी रंग के डिजाइनर सूट सलवार पहने थी जिस पर क्रीम रंग का दुपट्टा और उस में जड़ी छोटीछोटी अनगिनत घंटियां सोने पर सुहागा प्रतीत हो रही थीं. दिवाकर उस महिला के आभामंडल से सम्मोहित हुआ जा रहा था. वह उसे देख कर मन ही मन प्रसन्न हो, खयालों में खोने लगा.

“एक्सक्यूज मी, एक्सक्यूज मी, कुछ कहना है आप को? क्या देख रहे हैं आप, आप को नहीं लगता कि इस तरह से किसी महिला को तकना बदतमीजी कहलाती है? हेलो मिस्टर, आप ही से कह रही हूं. आप चूंकि हुलिए और कपड़ों से शरीफ आदमी लग रहे हैं इसलिए इस भाव में बात कर रही हूं वरना मुझे दूसरे भाव भी आते हैं. हेलो, हां जी?”
दिवाकर अभी भी उसे अपलक देखे जा रहा था. दो चुटकियां चेहरे के पास बजीं, तो वह सम्मोहन से बाहर आया.

“ओह, सौरी मैडम, एक्चुअली मैं एक फेसरीडर हूं. मुझे आप के चेहरे में कुछ विशेष· दिखाई पड़ रहा है जो फेसरीडिंग के मेरे अब तक के अनुभव को चुनौती देता प्रतीत हो रहा है. क्षमा चाहता हूं, मुझे आप को ऐसे नहीं देखना चाहिए था.”

दिवाकर ने क्षमायाचना तो की लेकिन इस दौरान वह उस महिला के पूरे चेहरे को पढ़ चुका था. उसे पूरा विश्वास था कि कुछ ही देर बाद उस से कुछ प्रश्न पूछे जाने हैं. फेसरीडिंग संबंधी जिज्ञासाएं प्रकट होने वाली हैं. वह चाहता तो आमतौर पर सटीक पड़ने वाली एकदो बात बता कर उस महिला को कौतुक में डाल सकता था. परंतु, वह पहल सामने से करवाना चाहता था. इसलिए शांत भाव से अपने मोबाइल के साथ व्यस्त होने का नाटक करने लगा. उस ने प्रतीक्षा करना शुरू किया. उस के अधरों पर मुसकान तैर रही थी.

फेसरीडिंग की बात ने महिला को रोमांचित कर दिया था. उसे ऐसी अनुभूति होने लगी कि वह इस व्यक्ति से पहले भी मिल चुकी है परंतु बहुत जोर देने पर भी वह स्मरण न कर सकी कि वह इस से कब और कहां मिली है. वह मन ही मन सोच रही थी कि इस अजनबी को क्या मालूम कि फेसरीडिंग उस की कमज़ोरी है. फिर उस ने सोचा, कहीं यह कोई बहरूपिया तो नहीं जो उसे हानि पहुंचाना चाहता है?

आजकल बहुत बुरा समय चल रहा है. इसलिए हर किसी के सामने खुलना ठीक नहीं, पर देखने से तो यह कोई पाखंडी या आपराधिक प्रवृत्ति का नहीं लगता. मुझे न जाने क्यों ऐसा महसूस हो रहा है कि यह आदमी मेरे लिए नुकसानदेह नहीं हो सकता, पर आजकल किसी का क्या भरोसा? छलिये और कपटी लोग ऐसी ही मोहिनी सूरत लिए फिरते हैं.
दोनों अपनेअपने मन में विचारमग्न थे.

“चिंता मत कीजिए, आप को मुझ से कोई खतरा नहीं हो सकता,” दिवाकर ने आश्वस्त करते हुए कहा.
“आप हंस क्यों रहे हैं?” महिला ने दिवाकर से पूछा.
“मुझे लगता है मैडम कि मेरे चेहरे पर जो भाव प्रतिलक्षित है वह मुसकान कहलाती है. हंसने में तो अधर कपाट खुलते हैं और दंतुलियों के दिग्दर्शन होते हैं जोकि नहीं हुए, इसलिए इस भावमुद्रा को आप हंसना नहीं कह सकती हैं.”
“हांहां, वहीवही. मेरा मतलब वही था. आप मुझे देख कर मुसकरा क्यों रहे हैं?”
“क्योंकि मेरी फेसरीडिंग विद्या मुझ से कह रही है कि यहां एक इंटरैस्टिंग फेसरीडिंग का सैशन होने वाला है, जिस की शुरुआत आप करेंगी.”
“मैं भला क्यों आप से बात करूंगी, मैं आप को जानती नहीं, पहचानती नहीं. और वैसे भी, मेरी फेसवेस रीडिंग में कोई दिलचस्पी नहीं है.”
“वैसे, आप कहें तो मैं आप के बारे में कुछ अनुमान लगा सकता हूं” दिवाकर ने महिला की ओर एक सटीक गुगली फेंकी.
“लेकिन मैं आप को क्यों इजाज़त दूं? और मैं ने कहा न, मुझे इन अंधविश्वासों में कोई दिलचस्पी नहीं है.”
“लेकिन मेरी फेसरीडिंग विद्या कह रही है कि आप के शब्द कुछ और कह रहे हैं और आप का चेहरा कुछ और ही बयान कर रहा है.”
“’मतलब?”
“मतलब, आप के चेहरे ने जैसे ही मेरे मुंह से फेसरीडिंग शब्द सुने, सकारात्मक प्रतिक्रिया दी. आप की आंखों की चमक, अधरों का स्मित भाव और भौंहों का फैलाव बताता है कि आप भी इस क्षेत्र में दखल रखती हैं. मतलब, आप को भी थोड़ाबहुत इस विद्या का ज्ञान है.”
महिला उस की बात सुन कर थोड़ा गंभीर हुई, फिर मुसकराते हुए बोली, “चलिए, मान लेते हैं, इसी बहाने थोड़ा टाइम ही पास हो जाएगा. लगाइए क्या अनुमान लगा सकते हैं आप मेरे बारे में?”
जैसे ही महिला ने दिलचस्पी दिखाई, दिवाकर मन ही मन खुश हो गया. यही तो चाहता था वह. बस, फिर क्या था, खेल शुरू.
“जैसे कि मेरी विद्या कहती है कि आप दिल्ली जा रही हैं.”
“हाहाहाहाहाहा, अरे, दिल्ली वाली ट्रेन से सवारी दिल्ली नहीं जाएगी तो क्या लंदन जाएगी?” और महिला जोर से खिलखिला कर हंस पड़ी. उस की हंसी में बालसुलभ निर्मलता थी.

दिवाकर मंत्रमुग्ध हो उस महिला को हंसते हुए देखता रहा. फिर मुसकराते हुए उस ने हाईफाई वाली मुद्रा में अपनी दाईं हथेली आगे बढ़ाई और महिला ने भी हंसते हुए ही उस के हाथ पर ताली दे दी.
महिला हंसतेहंसते अचानक रुक गई, बोली, “आप ने इस तरह हाथ आगे क्यों बढ़ाया?”
“क्योंकि मेरी विद्या कहती है कि आप हंसते हुए सामने वाले के हाथ पे ताली मार कर अपनी हंसी समाप्त करती हैं.”
“आप को यह बात कैसे पता?” महिला ने हैरत से पूछा.
“कहा न, कि मेरी फेसरीडिंग विद्या मुझे सिग्नल देती है.”
“इंटरैस्टिंग, वैरी इंटरैस्टिंग. और क्या सिग्नल दे रही है आप की फेसरीडिंग विद्या?”
महिला दिवाकर के चेहरे को गौर से पढ़ने लगी. दिवाकर भी गौर से महिला के चेहरे को देखने लगा. कुछेक क्षण देखता रहा. फिर आंखें बंद कर के बोला, “आप के चेहरे को देख कर मुझे पुष्प दिखाई पड़ने लगे हैं. पुष्प के साथ भीमराव बाबासाहेब अंबेडकर भी दिखने लगे हैं. मतलब, आप का दिल्ली में पुष्प या अंबेडकरजी से कोई संबंध जरूर होगा. मतलब, कोई गार्डन या अंबेडकरजी से संबंधित कोई पुस्तक या कोई नगर या घर का पता वगैरहवगैरह.”

दिवाकर ने अब आंखें खो दीं. उस ने देखा, महिला आश्चर्य से भरी उस को अपलक देख रही थी.
“और, और क्या बता रही है तुम्हारी विद्या, तुम्हारी यह फेसरीडिंग?” महिला ने गंभीर होते हुए पूछा.
“लेकिन आप ने जवाब नहीं दिया कि आप का पुष्प और अंबेडकरजी से क्या संबंध है?”
“मैं दिल्ली में पुष्प विहार में रहती हूं, उसे अंबेडकर नगर भी कहते हैं.”
“आप हाथ आगे कीजिए एक मिनट.”
महिला ने दिवाकर की बात का अनुसरण किया. दिवाकर थोड़ा आगे झुक कर महिला की हथेली को किसी अनुभवी और प्रशिक्षित ज्योतिषी की भांति देखने लगा. कुछ देर निरीक्षण करने के बाद वह वापस पीछे की ओर सरक गया और गौर से महिला के फेस को देखा, फिर आंखें बंद कर मंदमंद मुसकराने लगा.

“क्या बात है, आप मुसकरा क्यों रहे हैं?” महिला ने आश्चर्य से पूछा.
“कोई खास बात नहीं है,” दिवाकर ने आंखें बंद किएकिए ही कहा.
“कोई ख़ास बात नहीं है तो फिर यों एकाएक मुसकराने का सबब?”
“देखिए, यदि आप बुरा न माने तो कहूं?”
“ऐसी क्या बात है?”
“मुझे कुछ ऐसा दिखाई पड़ रहा है कि असमंजस में हूं कि कहूं या न कहूं. कहूं तो डर है कि कहीं आप बुरा न मान जाएं.”
“ऐसा क्या विलक्षणण दिख रहा है आप को कि दुविधाग्रस्त हो गए, मैं जानना चाहती हूं, मेरी उत्सुकता न बढा़इए.”
“तो सुनिए, मुझे दिखाई पड़ रहा है एक रसगुल्ला, उस के ऊपर रखी हुई एक मूंछ, एक किताब, जिस पर ‘कविता’ लिखा हुआ है. एक चाक, एक डस्टर और साथ में गुलाब के 2 अधखिले फूल. कुछ समझ में आया, मैडम?”
“मैं कैसे समझ सकती हूं, तुम यह सब देख रहे हो, तुम ही बताओ?”
“शायद मैं गलत भी हो सकता हूं लेकिन इन सब के मुताबिक जैसे, रसगुल्ले के ऊपर मूंछ अर्थात मिठाई और व्यक्ति, मतलब आप का या आप के किसी करीबी का मिठाइयों का कारोबार या मिठाई में दिलचस्पी…”
“मेरे पिताजी की मिठाई की दुकान है,” महिला ने दिवाकर की बात काटते हुए कहा.
“ओके, दूसरा, एक कविता की किताब और चाकडस्टर अर्थात आप टीचर हैं और हिंदी विषय की शिक्षिका हैं. क्या यह भी सही है?”
“हां, सही है.”

दिवाकर ने अब महिला के चेहरे को और भी गौर से देखते हुए कहा, “मैं ने कहा था न कि यहां फेसरीडिंग का एक इंटरैस्टिंग सैशन होने वाला है,” दिवाकर ने आंखें खोलते हुए कहा.
“वह सब तो ठीक है परंतु अभी आप ने पूरी बात नहीं बताई है. उन 2 अधखिले गुलाब के फूलों का क्या रहस्य है?” महिला ने दिवाकर की आंखों में आंखें गडा़ते हुए पूछा.

दिवाकर कुछ क्षण खामोश रहा, फिर एक गहरी निश्वास खींचते हुए बोला, “वे आप के युवावस्था के अधूरे प्रेम के प्रतीक हैं.”
“क्या बकवास कर रहे हैं, आप? यों ही कुछ भी अनापशनाप आप कहेंगे और मैं हां करती जाऊंगी. यह ग़लत है.” यह कह कर महिला खिड़की के बाहर देखने लगी. दिवाकर उसे गौर से देखने लगा. कुछ देर तक कंपार्टमैंट में मौन छा गया.
“लेकिन मेरी विद्या और आप के फेशियल एक्सप्रैशन कह रहे हैं कि मैं जो कह रहा हूं वह ग़लत नहीं है.”
“मुझे लगता है कि ये बहुत निजी बातें होती हैं जिन्हें सब से शेयर नहीं करनी चाहिए.”
“मैं आप की भावना का सम्मान करता हों पर फिर भी सच बताइएगा, क्या कोई आप से प्रेम करता था कालेज में?”
महिला ट्रेन की छत पर लगे पंखे को देखने लगी. कुछ देर मौन रही.
“देखिए, यदि आप नहीं बताना चाहती हैं तो ठीक है, मैं अपनी दुकान बंद करता हूं.”
महिला ने उस की ओर देखा, फिर गहरी सांस छोड़ते हुए बोली, “यस, मैं जानती थी कि वह मुझे चाहता है पर कभी कह नहीं सका. शरीफ और ईमानदार लड़का था.”
“क्या उस ने कभी कुछ नहीं कहा?”
“नहीं, कभी नहीं.”
“लेकिन मेरी विद्या कहती है कि उस ने एक बार इज़हार किया था.”
“तो आप यह कहना चाहते हैं कि मैं झूठ बोल रही हूं?”
“नहीं, बिलकुल नहीं. लेकिन आप कोशिश कर रही हैं, पर आप का फेस इस के उलट गवाही दे रहा है.”
महिला फिर से खिड़की के बाहर तेजी से बदलते दृश्यों को देखने लगी. उस का चेहरा गंभीर हो उठा.
“हां, एकदो बार कहने की कोशिश जरूर की थी उस ने पर हिम्मत नहीं जुटा सका था. फिर आखिरकार एक दिन उस ने इस पार या उस पार की मुद्रा में कहा.
“’मतलब?”
“मतलब, उस ने सीधेसीधे मुझ से कहा कि वह मुझ से शादी करना चाहता था.”
“वैरी इंटरैस्टिंग, तो फिर अड़चन क्या थी?”
“अड़चन मैं खुद थी. मेरे संस्कार, मेरा डर था.”
“मतलब, आप ने उसे मना कर दिया?”
“कह सकते हो.”
“फिर आप उस से कभी नहीं मिलीं?”
“मिली थी एकदो बार उस के दिल्ली विश्वविद्यालय के साउथ कैंपस में.”
“क्यों, आप ने तो उसे मना कर दिया था, फिर क्यों मिलीं आप?”
“बस, ऐसे ही मन किया.”
“मतलब, आप भी उस से प्यार करती थीं?”
“हो सकता है. यह अनुभूति मुझे उस के एमए में पास आउट हो जाने के बाद महसूस हुई. उस के बाद फिर उस से कभी नहीं मिली. पच्चीसछब्बीस साल हो गए हैं इस बात को, अब तो वह मेरे सामने आ भी जाए तो शायद मैं उसे पहचान न पाऊं.”
“और अगर वह संयोग से किसी दिन आप के सामने आ ही गया तो वह आप को पहचान लेगा?”
“सौ फीसदी पहचान लेगा,” महिला ने दृढ़ता से कहा.
“लेकिन पच्चीसतीस सालों में तो आदमी की शक्लसूरत, चालढाल, डीलडौल सब बदल जाता है. आप में भी तो बदलाव आए होंगे, फिर भी आप को विश्वास है कि वह आप को पहचान लेगा?”
“बिलकुल, बिलकुल विश्वास है,” महिला ने फिर दृढ़ता से कहा.
“आप जानना नहीं चाहती हैं कि इस समय वह कहां और कैसा है?”
“जरूर जानना चाहती हूं, बल्कि, मैं यह भी जानना चाहती हूं कि उस ने शादी की या नहीं, क्या तुम बता सकते हो?”

दिवाकर मुसकरा दिया और उस ने आंखें बंद कर लीं. कुछ क्षण मौन, बंद आंखों के साथ मुसकराता रहा. फिर आंखें बंद किए हुए ही बोला, “उस के 2 बच्चे हैं. एक खूबसूरत, मृदुभाषिणी पत्नी है जो उस पर अपनी जान निछावर करने को हमेशा तैयार रहती है. खुश है वह अपनी दुनिया में, सुखी है.”
यह कह कर दिवाकर ने आंखें खोल दीं, देखा, महिला की आंखें सजल हो आई थीं. उस ने दुपट्टे से आंखें पोंछते हुए कहा, “मुझे ख़ुशी है कि वह सुखी है.”
“मैडम, एक बात पूछूं? ऐक्चुअली मैं भविष्यवाणी नहीं करता और न ही भविष्य के बारे में कुछ बताता हूं लेकिन मैं आप से एक बात पूछना चाहता हूं, हालांकि यह एक निजी प्रश्न है फिर भी, क्या आप ने शादी की?”
“की थी, मैं ने भी शादी की थी, पर मेरी शादी की उम्र मात्र 3 साल ही रही. लेकिन छोड़ो, मुझे ख़ुशी है कि वह सुखी है,” कहते हुए महिला फिर से बाहर देखने लगी.

खेत, घर, सड़क, पेड़ों का समूह, दूर पहाड़ों की पंक्तियां तीव्र गति से पीछे छुटते जा रहे थे. कुछ देर बाद स्टेशन आ गया और ट्रेन रुक गई. प्लेटफौर्म से चायपकौड़े, पूरीसब्जी की आवाजें आने लगीं. सवारी का चढ़नाउतरना जारी था. तभी एक फैमिली कंपार्टमैंट में दाखिल हुई और दिवाकर के सामने आ कर खड़ी हो गई.

दिवाकर समझ गया कि आरक्षित बर्थ का वास्तविक स्वामी आ गया है. उस ने एक क्षण महिला को देखा. फिर तुरंत ही अपना सूटकेस और हैंडबैग ले कर नीचे उतर गया. खिड़की के पास आ कर महिला से बोला, “यह मेरा कार्ड है, कभी कोई समस्या हो, जरूरत हो, तो मुझे याद कर लेना. मुझे तुम्हारे कुछ काम आने में बहुत खुशी होगी.” यह कह कर उस ने खिड़की की सलाखों के सामने एक विशेष मुद्रा में राजेश खन्ना स्टाइल में सिर झुका कर दाएं हाथ की एक उंगली से जैसे ही सैल्यूट किया, वैसे ही ट्रेन खिसकने लगी.

यह देख महिला का मुंह आश्चर्य से खुला का खुला ही रह गया. वह दौड़ कर दरवाजे तक गई. परंतु तब तक ट्रेन ने गति पकड़ ली थी. प्लेटफौर्म पीछे छूटने लगा था. महिला की नजर दूरदूर तक प्लेटफौर्म पर दौड़ कर लौट आई पर वो नहीं दिखा. उस ने दुपट्टे से अपना मुंह ढांप लिया. वह वापस अपनी बर्थ पर आ बैठी.
‘वो मेरे सामने था और मैं उसे पहचान न पाई, ओह!’
वह छत के पंखे को एकटक देखने लगी. उस की सांसें तेज़तेज़ चलने लगीं. वह उस के साथ हुई बातचीत को मन ही मन रिवाइंड करने लगी. उस ने बर्थ की पीठ पर सिर टिका दिया और आंखें मूंद लीं. फिर कुछ देर बाद अचानक उस का ध्यान हाथ में पकड़े कार्ड की ओर गया. उस ने कार्ड देखा, उस के कोनों में उकेरी गई नीली कमल पत्तियों को देख मुसकरा दी.
‘दुनिया कितनी छोटी है, रश्मि, वह एक बार फिर तुम्हारे सामने था और तुम पहचान न सकी. उस ने इतने सालों बाद भी झट से तुझे पहचान लिया. तुझ से बतियाता रहा, हायवाय भी किया. घर, परिवार, ऐड्रेस, कालेज की बात की. और तू मूर्ख, उस की बातों में ही अटकी रही. उसे न पहचान सकी. दिवाकर, मुझे समझ जाना चाहिए था कि तुम फेसरीडिंग नहीं बल्कि इतने सालों बाद मुझे पहचान कर पुरानी स्मृतियों को ताज़ा कर रहे थे.’
यह सब सोचतेसोचते महिला (रश्मि) मुसकराने लगी. उस ने अपने हैंडबैग में से एक कार्ड निकाला और उसे दिवाकर के दिए कार्ड के साथ मिलाने लगी. नीली कमल पत्तियों वाले दोनों कार्डों पर लिखा था- ‘तुम सर्वश्रेष्ठ हो.’ उस ने दोनों कार्डों को हैंडबैग में रखा और मुसकराते हुए एक बार फिर खिड़की के बाहर देखने लगी.

कुछ देर पहले के निर्जन मैदानों, सूखे-कंटीले पेड़ों, काले-मटमैले पहाड़ों के दृश्यों की जगह अब हरेभरे लहलहाते खेतों, फूलों से लदेफंदे पेड़पौधों, बलखाती नदी के दृश्यों ने ले ली थी. और रश्मि खयालों में खोई, बाहर की ओर देखते हुए लगातार मुसकरा रही थी.

लेखक : नेतराम भारती

Hindi Kahani : डिंपल – आखिर क्यों डिंपल बदलने लगी?

Hindi Kahani : जैसे शरद पूर्णिमा की ठंडी रात में आसमान सितारों से भरा रहता और हर सितारा मानों चांद के इर्दगिर्द रहता है, उसी तरह सारी क्लास में भी ऐसा लगता था जैसे सब डिंपल की ओर ही आकृष्ट रहते हैं. यों चांद का तसव्वुर कौन नहीं चाहता… उस की उजली चांदनी में सब के चेहरे उजले और आनंद से लबरेज दिखाई देते हैं. हर सितारा चांद के करीब रहना चाहता है क्योंकि चांद होता ही प्यारा है।

डिंपल का नाम ही डिंपल नहीं बल्कि उस के कपोलों पर भी जब भी वह चहकती है नर्म डिंपल वहां उभर आते हैं. उस के बालों में बंधा वह सुर्ख रिबन दूर तक चमकता है जैसे कोई भंवरा किसी महकते फूल पर मधु के लिए उमड़ा हुआ हो. तारीफ सुनना किसे नहीं भाता और फिर जब भी कोई प्रेमवश डिंपल के लिए कोई 2 शब्द कह दे तो फिर तो डिंपल की सुंदरत में चार चांद लग जाते हैं. यह उम्र का तकाजा है या कुछ और पर कुछ भी हो इस का भी अपना ही नशा है बिलकुल अलग बिलकुल जुदा.

सुबह की नर्म धूप जैसे ही डिंपल के चेहरे पर गिरी वह पलंग पर उठ कर बैठ गई. आज इतवार है यानी कि आज की छुट्टी किताबों से और कक्षाओं से. वह तकिए पर उलटा लेट कर अपनी टांगों को बारीबारी से हिलाने लगी. कल रात का सपना अभी भी उस के जेहन में तैर रहा है कि वह रोहन के साथ सब से अलग स्कूल पिकनिक पर है. कितनी खुश है वह इस नई जिंदगी से, जहां वह है और केवल रोहन है. रोहन उस के नर्म हाथों को थामे हुए है. पिंक ड्रैस में वह बहुत खूबसूरत दिखाई दे रही है. वह एक चबूतरे पर बैठी है और रोहन ने मुसकराते हुए एक लाल गुलाब उसे औफर किया है। वह प्यार से उस गुलाब को ले लेती है और उस फूल को अपनी जुल्फों में लगाने के लिए कहती है. वे दोनों एकदूसरे का हाथ थामे लालपीले फूलों से खिले बगीचे में दूर कहीं चलते जा रहे हैं, ऐसी नई जगह जहां वे आज पहली ही बार आए हैं.

रोहन उस की क्लास का सब से सुंदर और बिंदास लडका है. उंचालंबा कद, चेहरे पर हलकी मूंछें और दिलकश आंखें सहज ही डिंपल को अपनी तरफ खींच लेती हैं. आज डिंपल इतनी खुश है जैसे उस ने जिंदगी की सारी खुशियां पा ली हो. कल तक डिंपल में बचपना था, मम्मीपापा के साए में वह जी रही थी पर आज जैसे वह किसी फिल्म की हीरोइन की भांति जलपरी सी चहक रही थी.

वह मानसिक और शारीरिक रूप से पहले से कहीं परिपक्व हो चुकी है और तभी शायद आज उसे यह नई जिंदगी ज्यादा अच्छी दिखाई दे रही है. उस ने उलटे लेटेलेटे पैरों में पैर उलझा कर खिड़की से बाहर देखा. आज की सुबह उसे बहुत खूबसूरत दिखाई दे रही है. उस ने रातभर रोहन को अपने करीब देखा था. क्लास में कितने ही तो लड़के हैं जो उस पर मरते हैं पर किसी में भी रोहन जैसी बात नहीं. रोहन जैसे ही स्कूल में प्रवेश करता है जाने क्यों उस की नजरें उस के चेहरे पर अटक जाती हैं. रोहन से डिंपल ने हालांकि आज तक सामान्य रूप से ही बात की है पर जाने क्यों दिल उसी को एक नजर भर देखने के लिए दौड़ता है.

‘रोहन अभी 17 का है और मैं 16 की. ओह यस… आई एम स्वीट सिक्सटीन…’ उस वक्त उस की आंखों में खास किस्म की चमक थी. डिंपल ने माथे पर से गिरी जुल्फों को समेटते हुए पीछे पलट कर देखा. सामने मम्मी खड़ी थीं. वह डिंपल को आश्चर्य से देख रही थीं. उस के कांपते होंठ वहीं सिमट गए, “क्या हुआ मम्मा, ऐसे घूर कर क्या देख रही हो?” उस ने मम्मी की और गंभीरता से देखते हुए पूछा.

“कुछ नहीं बेटे, अभी कल तक तुम कितनी छोटी और भोली थी,” मम्मी ने दार्शनिक भाव से कहा.

“हां तो…” डिंपल ने बीच में ही टोकते हुए पूछा.

“कुछ नहीं…” मम्मी ने बात टालते हुए कहा.

“नहींनहीं… मां, कहो भी अब. कुछ कहना चाहती हो?” डिंपल सकपकाते हुए बोली.

“नहींनहीं…बेटा, चलो उठ कर नहाधो लो. आज तेरे पापा के औफिस से किसी को आना है। चल, सफाई भी तो करनी है.”

“क्या मां आज भी… आज तो संडे है न। एक ही दिन तो रैस्ट के लिए मिलता है पर आज भी…” डिंपल ने मुंह बिचकाते हुए उत्तर दिया.

“डिंपल बेटा, जिंदगी में हर काम जरूरी है और फिर जब हम लोगों से मिलेंगे तभी तो हम दुनिया को और दुनिया हमें जान सकेगी,” मम्मी डिंपल को देखते हुए बोलती रहीं.

कमरे में कुछ आहट हुई जैसे कोई फोन वाईब्रैट हो रहा हो. डिंपल ने अपना फोन उठाया,”हैलो, आ रही हो न मेरी जान? फोन में शैली की आवाज सुनाई दी. नहीं यार, मेरा कोई कन्फर्म नहीं,” डिंपल ने मम्मा की ओर देखते हुए जवाब दिया.

“क्यों, कल तुम तो मेरे यहां आने के लिए बहुत उछल रही थीं, फिर नहीं क्यों?”

डिंपल अनमने ढंग से जवाब देती रही,” पता नहीं यार, अब फोन रखो. अभी मम्मी हैं,” डिंपल मम्मी को देखते हुए बोली.

“जानती हो, रोहन भी आ रहा है,” दूसरी ओर से आवाज आई.

“सच…रियली…” डिंपल का मुसकराता हुआ चेहरा सुर्ख हो गया,”चलो, कोशिश करती हूं,” और उस ने फोन रख दिया.

“किस का फोन था?” मम्मी ने खिड़की के दरवाजे को रगड़ते हुए पूछा.

“वो…वो… शैली का?”  उस ने कुछ झिझकते हुए जवाब दिया.

“कब जाना है?” मम्मी ने पूछा.

“आज ही दोपहर,” डिंपल फोन में कुछ देखते हुए बोली,”उस का जन्मदिन है न मम्मी. अब मैं क्या कर सकती हूं और बाकी सभी दोस्त भी तो आ रहे हैं फिर मैं कैसे उसे टाल सकती हूं.”

“बेटे, देखो, अब तुम बड़ी हो गई हो. तुम्हारी भी कोई जिम्मेदारी है. यह नहीं कि केवल अपने में जीना होता है. मैं कुछ दिनों से देख रही हूं कि तुम बहुत बदल गई हो. जाने क्यों लगता है कि तुम अब झूठ भी बोलने लगी हो,” डिंपल जैसे अब सपने से जाग गई,”अरे नहीं मम्मा, ऐसा कुछ नहीं. वह स्टडी है न बस कोर्स कंपलीट हो जाए उस में ही उलझी हूं.”

“चलो देख लेना… कह देती हूं. बस, अपना खयाल रखना फिर तुम्हारी उम्र भी उस नाजुक दौर से गुजर रही है कि कोई भी तुम्हें बेबकूफ बना कर तुम से फायदा उठा सकता है. समझ रही हो न कि मैं क्या कह रही हूं,” डिंपल अब पलंग से उठ कर मम्मी के सामने आ कर खड़ी हो गई,”आप साफसाफ कहो जो भी कहना चाहती हो,” डिंपल ने उत्तेजित हो कर कहा.

“बस बेटे, तुम अब समझदार हो जाओ. किसी गलत रास्ते पर न चलना. कल रात भी तुम्हें देर रात तक फोन पर बात करते देखा था. तुम्हारे पापा को और मुझे भी बहुत अजीब सा महसूस होता है.”

“ओ मम्मा… कमऔन. ऐसा कुछ नहीं है,” वह शायद पहले शैली के घर न जाती पर जैसे ही उस ने रोहन का नाम सुना उस के मन में सैकड़ों तरंगे दौड़ने लगीं. वह एक पल खामोश रही फिर मम्मी के करीब जा कर गाल पर प्यार से किस करती हुई बोली,”बस, 2 घंटों में आ जाउंगी. पापा के औफिस के अंकल कितने बजे आएंगे? डिंपल ने गुमसुम मम्मी के चेहरे को देखते हुए पूछा?

“वह 5 बजे आ रहे हैं,” मम्मी ने आंख बंद कर के तेज सांस खींचते हुए जवाब दिया,”अब पापा को क्या जवाब दोगी? घर में कोई आने वाला है पर यह राजदुलारी कहीं बाहर जा रही हैं. चली जाना पर 2 एक घंटे में वापस आ जाना,” मम्मी ने डिंपल को समझाते हुए कहा.

मम्मी को भी लगा कि इस तरह किसी दोस्त के जन्मदिन पर जाने से मना करना कहां की समझदारी है. फिर लड़की अब बङी हो चुकी है। इस तरह घर में कैद करना क्या अच्छी बात है।

“कोई नहीं, आई विल बी हियर टिल 4,” डिंपल ने मम्मी के कानों के करीब आ कर कहा. मम्मी ने हां में गरदन को हिला दिया. डिंपल के चेहरे पर वही पुरानी सी रौनक लौट आई. वह जल्दी से अपने कमरे में गई. कमरे में रखी अलमारी को खोल कर सामने टंगी गोल्डन गाउन को देखने लगी. उस ने हैंगर से निकाल कर उस गाउन को बैड पर लटका दिया. पीली रौशनी में वह खूब दमक रहा था. ‘रोहन भी वहां होगा. वाऊ…’ वह मन ही मन चहक गई.

उस वक्त उस के शरीर का 1-1 रोया रोमांच से पुलकित हो रहा था मानों रोहन उस के सामने हो, उस के पतली मुलायम कलाई को थाम कर प्यार से मुसकरा रहा हो. उस ने गाउन को उम्मीद भरी नजरों से देख कर निर्णय किया कि हो न हो आज वह अपने दिल का हाल उसे कह ही देगी. उसे पूरा यकीन है कि यदि रोहन के दिल में भी ऐसी ही कोई बात होगी तो आज इस मौके पर वह जरूर कहेगा,’जाने क्यों लगता है कि वह भी मुझ से कुछ कहना चाहता है पर शायद सब के सामने अपने प्रेम का इजहार नहीं कर पाता है. अब मेरी जिंदगी है मैं इतनी छोटी भी तो नहीं कि किसी के दिल की बात न जान सकूं. रोहन है ही इतना अच्छा कि कोई भी लड़की हो एक ही बार में उस की हो जाए. काश, आज का सपना सच हो जाए…’

डिंपल को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. उसे तो बस हर पल रोहन और रोहन का खयाल दिखाई दे रहा था,’मम्मीपापा, भाईबहन सब अपनी जगह हैं। उन का प्यारदुलार अपनी जगह है पर रोहन अपनी जगह है. मुझे क्यों लगता है कि रोहन के बिना अब नहीं जी सकती? रोहन में अजीब सा आकर्षण है, शायद तभी मैं खुदबखुद उस की तरफ खिंची चली जाती हूं.

‘काश, मैं बालिग होती फिर जैसेतैसे अपनी चाहत को अपना बना लेती, चाहे प्यार से या भाग कर. फिर अब लगने लगा है कि मेरी भी तो कुछ जरूरते हैं जिन्हें मैं जैसे चाहूं पूरी कर सकूं. मम्मी भी न… अब तो हर वक्त किसी साए की भांति मेरे पीछे पड़ी रहती हैं. काश, आज रोहन मेरे दिल का हाल जान ले.

‘रोहन, एक बार मेरा हाथ थामो तो, देखो मैं खुद तुम्हारे पीछेपीछे न चली आऊं तो कहना,’ उस ने फोन गैलरी खोली और रोहन का फोटो देखने लगी. उस का मुसकराता चेहरा और सिर पर बालों का वह पफ जो हमेशा उसे और भी अधिक सुंदर बनता है, वह पलभर उस के होंठों को देखती रही फिर फोटो को करीब ला कर अपने लरजते होंठों से छू दिया. वह आंखे मूंदे खड़ी रही मानों दोनों एक हो गए हों.

“ओह रोहन, आई लव यू,” वह फोटो को करीब ला कर बारबार चूमती रही. उस की सांसें इस वक्त किसी मशीन की भांति कंपित हो रही थीं. कमरे की खिड़की से ठंडी शीतल हवा का झोंका अंदर आया, तो वह स्वयं में चहक गई,’ओह रोहन, कितना सुखद एहसास है. अब तक तुम्हें ख्वाबों में देखती हूं पर अब यही तमन्ना है कि यह ख्वाब अब सच हो जाए,’ वह बारबार बैड पर लटके गाउन को उठा कर अपने सीने से लगा कर देखती है मानों हर बार उस के शरीर में कोई नई सिहरन उठती हो. वह शैली को फोन लगाती है,”हैलो… शैली, यार, एक बात बता, पक्का रोहन आ रहा है न…” और वह हंस पड़ी. जैसे ही वह हंसी उस के गालों पर उस के नाम के अनुरूप डिंपल पङने लगे।

“हां बाबा हां…” शैली ने दूसरी ओर से हामी भरी,”जानती हो, पहले वह भी नहीं आ रहा था. पर उसे जैसे ही उसे पता चला कि तुम भी आ रही हो तो वह पलभर में तैयार हो गया. अब तो खुश हो मेरी जान,” और शैली भी तेजतेज हंसने लगी.

“ओए जान, तो मैं केवल उसी की हूं,” डिंपल ने तनिक लजाते हुए जवाब दिया और खुशी की एक लहर उस के शरीर में दौड़ गई,”यार, यह उम्र ही इतनी कातिल है कि जो मन को भा जाए बस उसी का हो जाने का दिल करता है. और बताओ, तुम्हारे वाले साहब यानी दीपक भी आ रहा है न?”

“हां मेरी जान, वह नहीं आया तो केक भी नहीं काटूंगी. जानती हो वह कुछ सरप्राइज देने वाला है,” शैली ने उत्सुकतावश कुछ बताना चाहा.

“अच्छा क्या?” कुछ देर सन्नाटा… “क्या, बोल न…” डिंपल ने उत्तर की आशा में फिर दोहराया. जब आओगी तभी बताउंगी. अच्छा, टाइम से आ जाना.”

“यार, मेरे पापा के औफिस से कोई मेहमान आ रहे हैं. मैं केवल 2 घंटे के लिए ही आ पाउंगी.”

डिंपल आईने के सामने आ कर खुद को तरहतरह से निहारती रही मानों उसे किसी खास के लिए ही वहां जाना हो. उस ने अपने नर्म मुलायम गालों पर उंगलियां फिराईं, उभरे हुए नाजुक डिंपल को कपोलों पर देखते ही उस का चेहरा खिल गया था.

Best Hindi Story : सीजर – क्या दादाजी की कुत्तों से नफरत कम हो पाई?

Best Hindi Story : कुत्ते का पिल्ला पालने की बात चली तो दादाजी ने अपनी अप्रसन्नता व्यक्त की, ‘‘पालना ही है तो मिट्ठू पाल लो, मैना पाल लो, खरगोश पाल लो…और कोई सा भी जानवर पाल लो, लेकिन कुत्ता मत पालो.’’

घर की नई पीढ़ी ने घोषणा की, ‘‘नहीं, हम तो कुत्ता ही पालेंगे. अच्छी नस्ल का लाएंगे.’’

दादाजी ने दलील दी, ‘‘भले ही अच्छी नस्ल का हो…मगर होगा तो कुत्ता ही?’’

नई पीढ़ी ने प्रतिप्रश्न किया, ‘‘तो क्या हुआ? कुत्ते में क्या खराबी होती है? वह वफादार होता है. इसीलिए आजकल सभी लोग कुत्ता पालने लगे हैं.’’

दादाजी का मन हुआ कि कहें, ‘हां बेटा, अब गोपाल के बजाय सब श्वानपाल हो गए हैं.’ किंतु इस बात को उन्होंने होंठों से बाहर नहीं निकाला.

कुत्ते की अच्छाईबुराई के विवाद में भी वे नहीं पड़े. व्यावहारिक कठिनाइयां ही बताईं, ‘‘कुत्ते बड़े बंगलों में ही निभते हैं क्योंकि वहां कई कमरे होते हैं, लंबाचौड़ा लौन होता है, खुली जगह होती है. इसलिए वह बड़े मजे से घूमताफिरता है. इस छोटे फ्लैट में बेचारा घुट कर रह जाएगा.’’

नई पीढ़ी ने दलील दी, ‘‘अपने आसपास ही छोटेछोटे फ्लैटों में कई कुत्ते हैं. आप कहें तो नाम गिना दें?’’

दादाजी ने इनकार में हाथ हिलाते हुए दूसरी व्यावहारिक कठिनाई बताई, ‘‘वह घर में गंदगी करेगा, खानेपीने की चीजों में मुंह मारेगा. कहीं पागल हो गया तो घर भर को पेट में बड़ेबड़े 14 इंजैक्शन लगवाने पड़ेंगे.’’

नई पीढ़ी ने इन कठिनाइयों को भी व्यर्थ की आशंकाएं बताते हुए कहा, ‘‘अच्छी नस्ल के कुत्ते समझदार होते हैं. वे देसी कुत्तों जैसे गंदे नहीं होते. प्रशिक्षित करने पर विदेशी नस्ल के कुत्ते सब सीख जाते हैं. सावधानी बरतने पर उन के पागल होने का कोई खतरा नहीं रहता है.’’

दादाजी ने अपनी आदत के अनुसार हथियार डाल दिए. नई पीढ़ी से असहमत होने पर भी वे ज्यादा जिद नहीं करते थे. अपनी राय व्यक्त कर छुट्टी पा लेते थे. इसी नीति से वे कलह से बचे रहते थे. इस मामले में भी उन्होंने यह कह कर छुट्टी पा ली, ‘‘तुम जानो…मेरा काम तो सचेत करना भर है.’’

अलसेशियन पिल्ला घर में आया तो दादाजी ने उस में कोई विशेष रुचि नहीं ली. वे आश्चर्य से उसे देखते रहे. वह अस्पष्ट सी ध्वनि करता हुआ उन के पैर चाटते हुए दुम हिलाने लगा, तब भी वे उस से दूरदूर ही रहे. उन्होंने उसे न उठाया, न सहलाया. हालांकि उस छोटे से मनभावन पिल्ले का पैरों को चाटना व दुम हिलाना उन्हें अच्छा लगा.

नई पीढ़ी ने खेलखेल में कई बार उस पिल्ले को दादाजी की गोद तथा हाथों में रख दिया, तब न चाहते हुए भी उन्हें उस पिल्ले के स्पर्श को सहना पड़ा. यह स्पर्श उन्हें अच्छा लगा. नरमनरम बाल, मांसल शरीर, बालसुलभ चंचलता आदि ने उन के मन को मोहा. घर में कोई छोटा बच्चा न होने से ऐसा स्पर्श सुख उन्हें अपवाद-स्वरूप ही मिलता था. इस पिल्ले के स्पर्श ने उसी सुख की अनुभूति उन्हें करा दी. फिर भी वे पिल्ले को अपने से परे हटाने का नाटक करते रहे. इसलिए नई पीढ़ी को नया खेल मिल गया. वे जब देखो तब दादाजी के पास उस पिल्ले को छोड़ने लगे. दादाजी का उस से कतराना एवं परे हटाने का प्रयास उन्हें प्रसन्नता से भर देता.

नई पीढ़ी ने अपने चहेते पिल्ले का नाम रखा, सीजर.

दादाजी ने इस नाम का भारतीयकरण कर दिया, सीजरिया.

नई पीढ़ी ने शिकायत की, ‘‘दादाजी, सीजर का नाम मत बिगाडि़ए.’’

दादाजी ने सफाई दी, ‘‘मैं ने तो उसे भारतीय बना दिया.’’

‘‘यह भारतीय नहीं है…अलसेशियन है.’’

‘‘नस्ल भले ही विदेशी हो…मगर है तो यहीं की पैदाइश. इसलिए नाम इस देश के अनुकूल ही रखना चाहिए.’’

‘‘नहीं, इस का नाम सीजर ही रहेगा.’’

‘‘लेकिन हम तो इसे सीजरिया ही कहेंगे.’’

दादाजी को इस छेड़छाड़ में मजा आने लगा. नई पीढ़ी से बदला लेने का उन्हें अच्छा मौका मिल गया. वे लोग सीजर को उन के पास धकेल कर खुश होते रहते थे. दादाजी ने सीजर के नाम को ले कर जवाबी हमला कर दिया. इस हमले के दौरान वे सीजर को अपने दिए नाम से संबोधित करकर के अपने पास बुलाने लगे.

‘सीजरिया’ संबोधित करने पर भी पिल्ला जब ललक कर उन के पास आने लगा तो वे नई पीढ़ी को चिढ़ाने लगे, ‘‘देखा, सीजरिया को यह नाम पसंद है.’’

आएदिन की इस छेड़छाड़ ने दादाजी का सीजर से संपर्क बढ़ा दिया. अब वे उसे अपनी बांहों में भरने लगे, उठाने लगे, सहलाने लगे. नई पीढ़ी की अनुपस्थिति में भी वे उस से खेलने लगे. पलंग पर अपने पास लिटाने लगे. उस की चेष्टाओं पर प्रसन्न होने लगे. उस के स्पर्श से गुदगुदी सी अनुभव करने लगे.

एक दिन घर के लोगों ने दादाजी से प्रश्न किया, ‘‘आप तो इस के खिलाफ थे?’’

‘‘हां, था तो…मगर इस खड़े कान वाले ने मेरे मन में जगह बना ली है,’’ दादाजी ने मुसकराते हुए उत्तर दिया.

सीजर के लिए दादाजी का स्नेह दिनोदिन बढ़ता ही गया क्योंकि अपने खाली समय को भरने का उन्हें यह अच्छा साधन लगा. जब सीजर इस घर में नहीं आया था तब वे खाली समय बातों में, पढ़ने में, टीवी देखने में तथा ऐसे ही अन्य कामों में व्यतीत किया करते थे. बातों के लिए घर के लोग हमेशा सुलभ नहीं रहते थे क्योंकि दिन के समय सभी छोटेबड़े अपनेअपने काम से घर से बाहर चले जाते थे. कोई स्कूल जाता था तो कोई कालेज, कोई बाजार जाता था तो किसी को दफ्तर जाना होता था. खासी भागमभाग मची रहती थी. घर में रहने पर सभी की अपनीअपनी व्यस्तताएं थीं, इसीलिए दादाजी से बातें करने का अवकाश वे कम ही पाते थे.

लेदे कर घर में बस, दादीजी ही थीं, जो दादाजी के लिए थोड़ा समय निकालती थीं. किंतु उन के पास अपनी बीमारी और घर के रोनों के सिवा और कोई बात थी ही नहीं. आसपास भी कोई ऐसा बतरस प्रेमी नहीं था, इसलिए दादाजी बातें करने को तरसते ही रहते थे. कोई मेहमान आ जाता था तो उन की बाछें खिल उठती थीं.

पढ़ने और टीवी देखने में दादाजी की आंखों पर जोर पड़ता था. इसलिए वे अधिक समय तक न तो पढ़ पाते थे, न ही टीवी देख पाते थे. दैनिक समाचारपत्र को ही वे पूरे दिन में किस्तों में पढ़ पाते थे. घर की नई पीढ़ी उन के इस वाचन का मजा लेती रहती थी. सुबह के बाद किसी को यदि अखबार की आवश्यकता होती तो वह मुसकराते हुए दादाजी से पूछता, ‘‘पेपर ले जाऊं दादाजी, आप का वाचन हो गया?’’

सीजर ने उन के इस खाली समय को भरने में बड़ा योगदान दिया. वह जब देखो तब दौड़दौड़ कर उन के पास आने लगा, उन के आसपास मंडराने लगा. दादाजी उसे उठाने और सहलाने लगे तो उस का आवागमन उन के पास और भी बढ़ गया. घर के दूसरे लोगों को उसे पुकारना पड़ता था, तब कहीं वह उन के पास जाता था. दादाजी के पास वह बिना बुलाए ही चला आता था. घर के लोग शिकायत करने लगे, ‘‘दादाजी, आप ने सीजर पर जादू कर दिया है.’’

सीजर जब इस घर में नयानया आया था तब उस का स्पर्श हो जाने पर दादाजी हाथ धोते थे. खानेपीने से पहले तो वे साबुन से हाथ धोए बिना किसी वस्तु को छूते नहीं थे. वही दादाजी अब सारासारा दिन सीजर के स्पर्श में आने लगे. किंतु हाथ धोने की सुध उन्हें अब न रहती. खानेपीने की वस्तुएं उठाते समय भी साबुन से हाथ धोना वे कई बार भूल जाते थे. नई पीढ़ी कटाक्ष करने लगी, ‘‘दादाजी, गंदे हाथ.’’

दादाजी उत्तर देने लगे, ‘‘तुम ने ही भ्रष्ट किया है.’’

सीजर के प्रति यों उदार हो जाने के बावजूद यह भ्रष्ट किए जाने वाली बात दादाजी को फांस की तरह चुभती रहती थी. यह शिकायत उन्हें शुरू से ही बनी हुई थी. सीजर का सारे घर में निर्बाध घूमना, यहांवहां हर चीज में मुंह मारना उन्हें खलता रहता था. रसोईघर में उस का प्रवेश तथा भोजन करते समय उस का स्पर्श वे सहन नहीं कर पाते थे. इसलिए कई बार उन्हें नई पीढ़ी को झिड़कना पड़ा था, ‘‘कुछ तो ध्यान रखा करो…अपने संस्कारों का कुछ तो खयाल करो.’’

इस शिकायत के होते हुए भी सीजर का जन्मदिन जब मनाया गया तो दादाजी ने भी घर भर के स्वर में स्वर मिलाया, ‘‘हैप्पी बर्थ डे टू यू…’’

सीजर के अगले पंजे से छुरी सटा कर जन्मदिन का केक काटने की रस्म अदा कराई गई तो दादाजी ने भी दूसरों के साथ तालियां बजाईं.

केक का प्रसाद भी दादाजी ने लिया. सीजर के साथ फोटो भी उन्होंने सहर्ष खिंचवाई.

देखते ही देखते जरा से पिल्ले के बजाय सीजर जब ऊंचा, पूरे डीलडौल वाला बनता गया. दादाजी भी घर भर की तरह प्रसन्न हुए. उस में आए इस बदलाव पर वे भी चकित हुए. वह पांवों में लोटने के बजाय अब कंधों पर दोनों पैर उठा कर गले मिलने जैसा कृत्य करने लगा तो दादाजी भी गद्गद कंठ से उसे झिड़कने लगे, ‘‘बस भैया, बस.’’

यों प्रेम दर्शाते हुए सीजर जब मुंह चाटने को बावला होने लगा तो दादाजी को पिंड छुड़ाना मुश्किल होने लगा. फिर भी उन्होंने उसे पीटा नहीं. हाथ उठा कर पीटने का स्वांग करते हुए वे उसे डराते रहे.

आसपास के बच्चे पत्थर फेंकफेंक कर या और कोई शरारत कर के सीजर को चिढ़ाने की कुचेष्टा करते तो दादाजी फौरन दौड़े जाते थे और उन शरारती बच्चों को झिड़कते थे, ‘‘क्यों रे, उस से शरारत करोगे तो वह मजा चखा देगा…भाग जाओ.’’

रात को जब कभी भी सीजर भूंकता था तो वे फौरन देखते थे कि क्या मामला है. उन से उठते बनता नहीं था, फिर भी वे उठ कर जाते थे. घर भर के लोग उन की इस तत्परता पर मुसकराते तो वे जवाब देते, ‘‘सीजर अकारण नहीं भूंकता है.’’

एक बार 10-12 दिन के लिए दादाजी को दूसरे शहर जाना पड़ा. वे जब लौटे तो बरामदे में ही सीजर उन से लिपट गया. दादाजी उस के सिर को सहलाते हुए बुदबुदाते रहे, ‘बस बेटा, बस…इतना प्रेम अच्छा नहीं है.’

दादाजी की नींद बड़ी नाजुक थी. संकरी जगह में उन्हें नींद नहीं आती थी. किसी अन्य का स्पर्श हो जाने से भी उन की नींद उचट जाती थी. किंतु सीजर ने उन की इन असुविधाओं की कतई परवा नहीं की. वह दादाजी से सट कर या उन के पैरों के पास सोता रहा. दादाजी उसे सहन करते रहे. टांगें समेटते हुए कहते रहे, ‘‘तू जबरदस्त निकला.’’

एक बार सीजर घर से गायब हो गया. पड़ोसियों से पता लगा कि वह घर के सामने की मेहंदी की बाड़ को फलांग कर भागा है. एक बार इस बाड़ में उलझा, फिर दोबारा कोशिश करने पर निकल पाया. बाहर निकल कर गली की कुतिया के पीछे लगा था.

इस जानकारी के प्राप्त होते ही इस घर की नई पीढ़ी सीजर को ढूंढ़ने निकल पड़ी. सभी का यही खयाल था कि वह आसपास ही कहीं मिल जाएगा.

दादाजी भी अपनी लाठी टेकते हुए सीजर को ढूंढ़ने निकले. दादीजी ने टोका, ‘‘तुम क्यों जा रहे हो? सभी लोग उसे ढूंढ़ तो रहे हैं?’’

मगर दादाजी न माने. वे गलीगली में भटकते हुए परिचितअपरिचित से पूछने लगे, ‘‘हमारे सीजर को देखा? अलसेशियन है, लंबा…पूरा…बादामी, काला और सफेद मिलाजुला रंग है. कान उस के खड़े रहते हैं.’’

उन की सांस फूलती रही और वे लोगों से पूछते रहे, ‘‘हमारे सीजर को तो आप पहचानते ही होंगे? उसे बाहर घुमाने हम लाते थे. वह लोगों को देखते ही लपकता था. चेन खींचखींच कर हम उसे काबू में रखते थे. उस ने किसी को काटा नहीं, वह बस लपकता था.’’

काफी भटकने के बाद भी न तो नई पीढ़ी को और न ही दादाजी को सीजर का पता लगा. सारा दिन निकल गया, रात हो  गई, किंतु सीजर लौट कर न आया.

सभी को आश्चर्य हुआ कि वह कहां चला गया. गली की कुतिया के पास भी नहीं मिला. इस महल्ले के सारे रास्ते उस के देखेभाले थे, वह रास्ता भी नहीं भूल सकता था. किसी के रोके वह रुकने वाला नहीं था.

दादाजी ने आशंका व्यक्त की, ‘‘किसी ने बांध लिया होगा…बेचारा कैसे आएगा?’’

नई पीढ़ी ने इस आशंका को व्यर्थ माना, ‘‘उसे बांधना सहज नहीं है. वह बांधने वालों का हुलिया बिगाड़ देगा.’’

‘‘दोचार ने मिल कर बांधा होगा तो वह बेचारा क्या करेगा, असहाय हो जाएगा,’’ दादाजी ने हताश स्वर में कहा.

नई पीढ़ी ने उन की इस चिंता पर भी ध्यान न दिया तो वे बोले, ‘‘नगर निगम वालों ने कहीं न पकड़ लिया हो?’’

दादाजी के पुत्र झल्लाए, ‘‘कैसे पकड़ लेंगे…उस के गले में लाइसैंस का पट्टा है.’’

‘‘फिर भी देख आने में क्या हर्ज है?’’ दादाजी ने झल्लाहट की परवा न करते हुए सलाह दी.

पुत्र ने सहज स्वर में उत्तर दिया, ‘‘देख लेंगे.’’

दूसरे रोज भी दिन भर सीजर की तलाश होती रही. नई पीढ़ी ने दूरदूर तक उसे खोजा मगर उस का कहीं पता न लगा. वह जैसे जमीन में समा गया था. दादाजी सड़क की ओर आंखें लगाए बाहर बरामदे में ही डटे रहे. हर आहट पर उन्हें यही लगता रहा कि सीजर अब आया, तब आया.

दिन ढलने तक भी सीजर का जब कोई पता नहीं लगा तो दादाजी ने आदेश दिया, ‘‘जाओ, समाचारपत्रों में चित्र सहित इश्तहार निकलवाओ. लिखो कि सीजर को लाने वाले को 100…नहीं, 200 रुपए इनाम देंगे.’’

नई पीढ़ी भी इश्तहार निकलवाने का विचार कर रही थी. किंतु वे लोग यह सोच रहे थे कि एक दिन और रुक जाएं. किंतु दादाजी तकाजे पर तकाजे करने लगे, ‘‘जाओ, नहीं तो सुबह के अखबार में इश्तहार नहीं निकलेगा.’’

दादाजी का बड़ा पोता सीजर का चित्र ले कर चला तो उन्होंने मसौदा बना कर दिया. साफसाफ लिखा, ‘सीजर का पता देने वाले को या उसे लाने वाले को 200 रुपए इनाम में दिए जाएंगे.’

आधी रात के बाद बाहर के बड़े लोहे के फाटक पर ‘खरर…खरर’ की ध्वनि हुई तो बरामदे में सो रहे दादाजी ने चौंक कर पूछा, ‘‘कौन है?’’

कोई उत्तर नहीं मिला, तो उन्होंने फिर तकिए पर सिर टिका दिया. कुछ देर बाद फिर ‘खरर…खरर’ की आवाज आई. दादाजी ने फिर सिर ऊंचा कर पूछा, ‘‘कौन है?’’

इस बार खरर…खरर ध्वनि के साथ सीजर का चिरपरिचित स्वर हौले से गूंजा, ‘भू…भू…’

इस स्वर को दादाजी ने फौरन पहचान लिया. वे खुशी में पलंग से उठने का प्रयास करते हुए गद्गद कंठ से बोले, ‘‘सीजरिया, बेटा आ गया तू.’’

गठिया के कारण वे फुरती से उठ नहीं पाए. घुटनों पर हाथ रखते हुए जैसेतैसे उठे. बाहर की बत्ती जलाई, बड़े गेट पर दोनों पंजे टिका कर खड़े सीजर पर नजर पड़ते ही वे बोले, ‘‘आ रहा हूं, बेटा.’’

बरामदे के दरवाजे का ताला खोलते- खोलते उन्होंने भीतर की ओर मुंह कर समाचार सुनाया, ‘‘सीजरिया आ गया… सुना, सीजरिया आ गया है.’’

घर भर के लोग बिस्तर छोड़छोड़ कर लपके. दादाजी ने बड़ा फाटक खोला, तब  तक सभी बाहर आ गए. फाटक खुलते ही सीजर तीर की तरह भीतर आया. दुम हिलाते हुए वह सभी के कंधों पर अगले पंजे रखरख कर खड़ा होने लगा. कभी इस के पास तो कभी उस के पास जाने लगा. मुंह के पास अपना मुंह लाला कर दयनीय मुद्रा बनाने लगा. तरहतरह की अस्पष्ट सी ध्वनियां मुंह से निकालने लगा.

कीचड़ सने सीजर के बदन पर खून के धब्बे तथा जख्म देख कर सभी दुखी थे. दादाजी ने विगलित कंठ से कहा, ‘‘बड़ी दुर्दशा हुई सीजरिया की.’’

नई पीढ़ी ने सीजर को नहलायाधुलाया, उस के जख्मों की मरहमपट्टी की, खिलायापिलाया. दादाजी विलाप करते रहे, ‘‘नालायक को इन्फैक्शन न हो गया हो?’’

देर रात को सीजर आ कर दादाजी के पैरों में सोया तो वे उसे सहलाते हुए बोले, ‘‘बदमाश, बाड़ कूद कर चला गया था.’’

सुबह अखबार में सीजर की तसवीर आई. उस तसवीर को सीजर को दिखाते हुए दादाजी चहके, ‘‘देख, यह कौन है? पहचाना? बेटा, अखबार में फोटो आ गया है तेरा…बड़े ठाट हैं तेरे.’’

लेखक- चंद्रशेखर दुबे

Emotional Story : तेरी मेरी कहानी – कैसे बदल गई रिश्तों की परिभाषा

Emotional Story : नींद कोसों दूर थी. कुछ देर बिस्तर पर करवटें बदलने के बाद वह उठ खड़ा हुआ और अपने कमरे के आगे की छोटी सी बालकनी में जा खड़ा हुआ. पूरा चांद साफ आसमान में चुपड़ी रोटी की तरह दमक रहा था… कुछ फूला सा कुछ चकत्तों वाला, लेकिन बेहद खूबसूरत, दूरदूर तक चांदनी छिटकाता… धुले हुए से आसमान में तारे बिखरे हुए थे, बहुत चमकीले, हवा के संग झिलमिलाते. मंद बयार उस के कपोलों को सहला गई थी, आज हवा की उस छुअन में एक मादकता थी जो उसे कई बरस पीछे धकेल गई थी.

तब वह युवा था, बहुत से सपने लिए हुए… जिंदगी को दिशा न मिली थी पर मन में उत्साह था. आज जिंदा तो था पर जी कहां रहा था… एक आह के साथ वह वहां पड़ी कुरसी पर बैठ गया. सिगरेट बहुत दिन से छोड़ दी थी पर आज बेहद तलब महसूस हो रही थी, कमरे में गया और माचिस व सिगरेट की डिबिया उठा लाया, लौटते हुए दोनों बच्चों और पत्नी पर नजर पड़ी. वे अपनी स्वप्नों की दुनिया में गुम थे. अब वे ही उस की दुनिया थे पर आज जाने क्यों दिल हूक रहा था यह सोच कर कि उस की दुनिया कितनी अलग हो सकती थी…

ऐसी ही दूरदूर तक फैली चांदनी वाली रात तो थी, वह उन दिनों हारमोनियम सीखता था. सभी स्वर सधे हुए न थे पर कर्णप्रिय बजा लेता था. जाने चांदनी ने कुछ जादू किया था या फिर दबी हुई कामना ने पंख फैलाए थे. न जाने क्या सोच कर उस ने हारमोनियम उठाया था और बजाने लगा था… ‘एक प्यार का नगमा है, मौजों की रवानी है, जिंदगी और कुछ भी नहीं तेरी मेरी कहानी है…’ गीत का दर्द सुरों में पिघल कर दूर तक फैलता रहा था… रात गहरा चुकी थी, चांदनी को चुनौती देती कोई बिजली कहीं नहीं टिमटिमा रही थी पर शब्द जहां भेजे थे वहां पहुंच गए थे.

उस ने क्यों मान लिया था कि गीत उस के लिए बजाया गया था. चार शब्द कानों में बस गए थे… तेरी मेरी कहानी है और तब से दुनिया उस के लिए अपनी और उस की कहानी हो गई थी. वे बचपन में साथ खेले थे, वह लड़का था हमेशा जीतता पर वह कभी अपनी हार न मानती. वह हंसता हुआ कहता, ‘‘कल देखेंगे…’’ तो वह भी, ‘‘हांहां, कल देखेंगे,’’ कह कर भाग जाती. उसे यकीन था एक दिन वह जीतेगी. लड़की थी लेकिन बड़ेबड़े सपने देखती थी. वह उन दिनों की कुछ फिल्मों की नायिका की तरह बनना चाहती थी जो सबला व आत्मनिर्भर थी, एक ऐसी स्त्री जिस पर उस के आसपास की दुनिया टिकी हो.

कसबे के उस महल्ले में ज्यादातर घर एकमंजिले थे. बड़ेबड़े आंगन, एक ओर लाइन से कुछ कमरे, एक कोने में रसोई व भंडार जिस का प्रयोग सामान रखने के लिए अधिक होता था और खाना रसोई के बाहर अंगीठी रख कर पकाया जाता था, वहीं पतलीपतली दरियां बिछा कर खाना खाया जाता था. कोई मेहमान आता तो आंगन में चारपाई के आगे मेज रख दी जाती, गरमगरम रोटियां सिंकतीं और सीधे थाली में पहुंचतीं.

आंगन के बाहर वाले कोने की ओर 2 छोटे दरवाजे थे, शौच व गुसलखाने के. लगभग सभी घरों का ढांचा एकसा था. उस महल्ले में बस एक एकलौता घर तीनमंजिला था उस का. तीसरी मंजिल पर एक ही कमरा था, जिसे उस की पढ़ाई के लिए सब से उपयुक्त माना गया. आनेजाने वालों के शोर से परे वहां एकांत था. मामा के निर्देश थे कि मन लगा कर पढ़ाई की जाए. उस के और पढ़ाई के बीच कुछ न आए. मामा पुलिस में थे. ड्यूटी के कारण हफ्तों घर न आते थे. मामी और उन के 2 बच्चे उन के साथ रहते थे. घर में कुल मिला कर वह, उस की मां, उस के दादाजी, जिन्हें वह बाबा पुकारता था और मामी व उन के बच्चे रहते थे. वह समझ न पाता था कि मामा ने उस की विधवा मां को अकेले न रहने दे कर उसे सहारा दिया या अपना घोंसला न होने के कारण कोयल का चरित्र अपनाया. खैर जो भी कारण रहा हो, मामा उसे बहुत प्यार करते थे. घर में पित्रात्मक सत्ता प्रदान करते थे पर मामी ऐसी न थीं. मामा न होते तो मां से खूब झगड़तीं, शायद उन के मन में कुछ ग्रंथियां थीं. तीनमंजिला घर के भूतल पर वे रहते थे, बाहर बैठक थी और उस के साथ में एक गलियारा आंगन में ला छोड़ता था जहां एक ओर रसोई, सामने एक कमरा और कमरे के भीतर एक और कमरा था. बैठक में बाबाजी रहते थे, अंदर के कमरों में वे सब. पहली और दूसरी मंजिल के कुल 4 कमरों में कभी 3 किराएदार रहते तो कभी 4. उन कमरों का किराया उस के परिवार के लिए पर्याप्त था.

जब से उसे ऊपर वाला कमरा मिला था वह वहीं पर पढ़ाई करने लगा था. कमरे के बाहर छोटी सी 4 ईंटों की मुंडेर वाले छज्जे पर छोटी मेजकुरसी लगा कर वह पढ़ता… जानता था उसे कोई देख रहा है, पर वह किताब से नजरें न हटाता. बहुत होशियार न था पर पढ़ाई तो पूरी करनी ही थी. वह भटक भी नहीं सकता था, मां को दुख नहीं देना चाहता था. मामा प्रेरणा देते थे पर पिता की कमी को कब कोई पूरा कर पाया है? उस का मन पढ़ने में बहुत न था, उसे डाक्टर इंजीनियर न बनना था. कोई बड़े ख्वाब भी न थे, मामा जैसी नौकरी न करनी थी जिस में महीने के 25 दिन शहर से बाहर काटने पड़ें और बाकी के 5 दिन आप के घर वाले छठे दिन का इंतजार करें. उसे पिता सी पुरोहिताई भी नहीं करनी थी. एक समय इंटर पास बड़े माने रखता था. पर अब ऐसा न था. उस पर घर के गुजारे का बोझ न था पर जिंदगी बिताने को कुछ करना जरूरी था… भविष्य के विषय में संशय ही संशय था.

वह बारबार चबूतरे तक चक्कर लगा आती. चबूतरे से छज्जा साफ दिखाई पड़ता था, लेकिन उसे शाम को 8 से 9 बजे तक का बिजली की कटौती वाला समय पसंद था, क्योंकि मिट्टी के तेल के लैंप की आभा में पढ़ने वाले का चेहरा चमक उठता था. वह स्वयं अनदेखा रह कर उसे देख पाती. अब वे बच्चे न रहे थे, किशोरवय को बड़ी निगरानी में रखा जाता था, कोई बंदिश तो न थी, लेकिन पहले की उन्मुक्तता समाप्त हो गई थी. तब वह 10वीं में थी और वह 12वीं में था. वह अकसर सोचती, ‘काश, दोनों एक ही कक्षा में होते तो वह पढ़ाई और किताबों के आदानप्रदान के बहाने ही एकदूसरे से बात कर पाते. यदाकदा मां के काम से ताईजी के पास जाने में सामना हो जाता, पर बात न हो पाती,’ शायद मन के भीतर जो था, वह सामान्य बातचीत करने से भी रोकता था. संस्कारों में बंधे वे 2 युवामन कभी खुल न पाए. उस दिन भी नहीं जब अम्मां ने उसे गला बुनने की सलाई लेने भेजा था लेकिन ताईजी घर पर नहीं थीं और वह बैठक में अकेला था. वह चाह कर भी कह नहीं पाया कि दो पल रुको और वह मन होते भी रुक नहीं पाई. शायद वह तब भी सोच रहा था, ‘कल देखेंगे.’

दादाजी के गुजर जाने के बाद बहुत दिन तक बैठक खाली रही, फिर मां के कहने पर उस ने उसे अपना कमरा बना लिया. दादाजी के कमरे में आते ही उसे लगा वह बड़ा हो गया है. दोस्त पहले ही बहुत न थे, जो थे वे भी धीरेधीरे छूटते गए. मन बहलाव को कुछ तो चाहिए सो उस ने तीसरी मंजिल के कमरे में कबूतरों के दड़बे रख दिए थे. सुबहशाम वह कबूतरों को दानापानी देने ऊपर चढ़ता, कबूतरों को पंख पसारने के लिए ऊपर छोड़ता… और जब उन्हें वापस बुलाने को पुकारता आ आ आ… तो उसे लगता वह पुकार उस के लिए है. वह किसी न किसी बहाने छत पर चढ़ती, कभी कपड़े सुखाने, कभी छत पर सूख रहे कपड़े इकट्ठे करने तो कभी छोटे भाईबहनों को खेल खिलाने.

वह जिस अंगरेजी स्कूल में पढ़ती थी वह कक्षा 12वीं से आगे न था. वह शुरू से अंगरेजी स्कूल में पढ़ी थी. सरकारी स्कूल में जाने का स्वभाव न था… मौसी दिल्ली रहती थीं, उसे वहीं भेज दिया गया. वह भारी मन से चली थी, जाने से पहले की रात चांद पूरा खिला था, उस के कान हारमोनियम की आवाज को तरसते रहे… काश, एक बार वह सुन पाती पर उस रात कहीं कोई संगीत न था.

रात आंखों में कटी और सुबह तैयार हो गई. मां मौसी के घर छोड़ने गई थी. वह पिता की बात गांठ बांध कर साथ ले गई थी. मन लगा कर पढ़ना और कुछ बन कर लौटना.

वह पढ़ती रही, बढ़ती रही, यह संकल्प लिए कि कुछ बन कर ही लौटेगी. आज 10 बरस बाद लौटी. पिता बहुत खुश, मां बारबार आंख के कोने पोंछतीं, उसे देखती निहाल हो रही हैं. लड़की पढ़लिख कर सरकारी अफसर बन गई, आला अधिकारी. मौका लगते ही वह छत पर जा पहुंची. सब बदल गया था… कहीं कोई न था. महल्ले के ज्यादातर घर दोमंजिले हो गए थे, दूर कुछ तीनचार मंजिले घर भी दिखाई दे रहे थे.

शाम को बाहर चबूतरे पर निकली ही थी कि देखा एक छोटा बालक तीनमंजिले घर की देहरी पार कर बाहर निकल आया था, घुटनों के बल चलते उस बालक को उठाने का लोभ वह संवरण न कर पाई, ‘कहीं यह?’

वह उसे पहुंचाने के बहाने घर के भीतर ले गई थी. तेल चुपड़े बालों की कसी चोटी, सिर पर पल्ला, गोरी, सपाट चेहरे वाली एक महिला सामने आई और अपने मुन्ना को उस की बांहों में झूलते देख सकपका गई.

एक अजब सा क्षण, जब आमनेसामने दोनों के प्रश्न चेहरे पर गढ़े होते हैं किंतु शब्द खो जाते हैं… और एक मसीहा की तरह ताईजी आ गई थीं… ‘अरे, बिट्टो तुम, अभी तो शन्नो की अम्मां से सुना कि तुम आई हो… कितने बरस बाहर रहीं, आंखें तरस गईं तुम्हें देखने को… बहुत बड़ा कलेजा है तुम्हारी मां का जो इत्ती दूर छोड़े रही… बहू, रजनी जीजी के पैर छू कर आशीर्वाद लो, जानो कौन हैं ये?’ हां अम्मां, मैं समझ गई थी.

वह अचानक जिज्जी और बूआ बन गई.

तभी वह आया था, सामने के बाल उड़ चुके थे, सुना था किसी दुकान पर सहायक लगा था… खबरें तो कभीकभार मिलती रही थीं, उस के ब्याह की खबर भी मिली थी पर खबर मिलने और प्रत्यक्ष देखने में बड़ा अंतर होता है. इस सच से अब रूबरू हुई. 2 बच्चों का पिता 30-32 वर्ष का वह आदमी उस की कल्पना के पुरुष से बिलकुल अलग था.

पल भर के लिए वह वहां नहीं थी, मानो 10 सदी से लगने वाले 10 बरसों में उसे खोजने का प्रयास कर रही थी, देखना चाह रही थी कि उस के चेहरे की लकीरें इतना कैसे गहरा गईं.

उस ने नाम से संबोधित करते हुए कहा था… ‘‘रजनी, बैठो. खाना खा कर जाना…’’ उफ्फ, वह औपचारिकता भरी आवाज उस का कलेजा चीर गई थी. कसी चोटी वाली एक आत्मीयता भरी नजर भर तुरंत रसोई में चली गई थी, वह समझ नहीं पाई कि वह भोजन लगाने का निमंत्रण था या उस के लिए प्रस्थान करने का संकेत. वह क्षमा याचना सी करती, मां के इंतजार का बहाना कर ताईजी को प्रणाम कर लौट आई थी.

एक गहरी निश्वास के साथ उस के मुंह से निकला… ‘अब कल न होगी.’

वह समझ गया था कि कहीं कुछ चटका है, भीतर या बाहर, यह अंदाजा नहीं कर पा रहा था.

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