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Hindi Poem : क्या पूर्ण हुई मेरी कविता

Hindi Poem : मेरे शब्दों की छाँव तले
कभी बैठ जरा क्षण दो क्षण,
हृदय में उपजे भावों से
सिञ्चित करती कण-कण,
मेरे अंतर्मन में भावों की
बहती रहती नित सरिता,
शब्द भाव को बुन-बुन कर
गढ़ देती फिर एक कविता,
स्नेह प्रेम अनुराग से
विनती करती यह वनिता।
क्या मन को छुई मेरी कविता?

कहीं बीज में हो अंकुरण
कभी कहीं जो खिले सुमन
या फूलों के ही पाश में
भ्रमर करते रहते गुंजन
निज उर के ही भावों का
करके रखती थी अवगूंठन
न जाने कब निकला उदगार
कर बैठा एक नवीन सृजन
सच-सच कहना तुम सखे
विनती करती यह नमिता।
सहमी सकुचाई सविता
क्या गढ़ लेती है कविता?

कभी छंद लिखूँ स्वच्छंद लिखूँ
सजल गज़ल दोहा मुक्तक,
लेखनी सफल होगी तभी
जब पहुँचे सबके हृदय तक,
माँ शारदे यह करूँ विनती
सक्रिय रहे मेरी तूलिका,
शब्द भाव का ज्ञान रहे
रचती रहूँ बस गीतिका,
आहत ना करूँ मर्म को
लेखनी में रहे शुचिता
अब कह भी दो हे मदने!
क्या पूर्ण हुई मेरी कविता?

लेखिका : सविता सिंह मीरा
जमशेदपुर

Hindi Kavita : काश की हम पागल होते

Hindi Kavita : हंसते गाते बिना बात के खुश होते
काश की हम पागल होते

उच्चाकांक्षाओं से ना घायल होते
काश की हम पागल होते

समझ ना पाते लोगों के ताने
करते काम सब मनमाने

सब हमको बस दूर भगाते
तब शायद हम खुद को पा जाते

हर पल समाज के ना पहरे होते
दिल के ज़ख्म ना इतने गहरे होते

मर्यादाओं की भी ना मजबूरी होती
सोच और शब्द के बीच ना कुछ दूरी होती

ना ऊंचे ऊंचे सपने होते
झूठ मूठ के ना अपने होते

जान बूझ कर अंजान न बनते
झूठी महफिल के मेहमान न बनते

षडयंत्रों के व्यूह से घिरे न होते
हम कुछ पाने को इतना गिरे न होते

बिन मर्जी कोई काम न करते
बड़े बड़े लोगो से तनिक ना डरते

मन पर इतने अवसाद ना होते
बोझिल से दिन रात ना होते

मन में इतने अंतर्द्वंद ना होते
जीवन में इतने दंद फंद ना होते

ऊंची चौखट पे ही माथा टेके
काश हम इतने होशियार ना होते

लेखिका : प्रज्ञा पांडेय मनु

Box Office : निर्माताओं ने डुबाई ‘डिप्लोमेट’ और ‘इन गलियों में’

Box Office : बड़ी फिल्मों का बज इतना ज्यादा होता है कि छोटी फिल्में कहीं दबी रह जाती हैं. यही ‘डिप्लोमेट’ और ‘इन गलियों में’ के साथ हुआ है. फिल्में हौल में बेदम हो चली हैं.

मार्च माह के दूसरे सप्ताह यानी कि 14 मार्च से 20 मार्च, 14 मार्च होली के दिन एक साथ दो फिल्में रिलीज हुईं. इन में से एक जौन अब्राहम की फिल्म ‘द डिप्लोमेट’ और दूसरी अविनाश दास की फिल्म ‘इन गलियो में’ रही. इन के निर्माताओं ने जो हरकत की, उसे देख कर तो यही कहा जा सकता है कि दोनों ने ‘आ बैल मुझे मार’ वाला कारनामा किया.

जौन अब्राहम और सादिया खतीब की मुख्य भूमिका से सजी फिल्म ‘द डिप्लोमेट’ का निर्देशन शिवम नायर और निर्माण जौन अब्राहम ने टीसीरीज के साथ मिल कर किया है. शिवम नायर की गिनती बेहतरीन संजीदा फिल्म निर्देशक के तौर पर होती है. वह इस फिल्म से पहले ‘आहिस्ता आहिस्ता’, ‘महारथी’, ‘भाग जौनी’ और ‘नाम शबाना’ जैसी फिल्में निर्देशित कर चुके हैं. उन्हें सिनेमा की अच्छी समझ है. यही वजह है कि ‘द डिप्लोमेट’ भी अच्छी फिल्म बनी है. मगर यह फीचर फिल्म की बनिस्बत डाक्यूमेंट्री फिल्म नजर आती है.

2017 की सत्य घटनाक्रम पर आधारित फिल्म की कहानी 2017 के उज्मा अहमद केस पर है. भारतीय महिला उज्मा अहमद पाकिस्तान में एक लड़के के प्रेम के चक्कर में फंस जाती है, किसी तरह वह भारतीय दूतावास में जा कर वहां भारतीय राजदूत जेपी सिंह से मदद मांगती है. पाक में मौजूद तत्कालीन भारतीय राजदूत जेपी सिंह, तत्कालीन भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की मदद से उज्मा अहमद को भारत भेजने में सफल होते हैं.

फिल्म अच्छी बनी लेकिन जौन अब्राहम और सादिया खतीब ने इस फिल्म का प्रमोशन ही नहीं किया. दूसरी बात फिल्म के रिलीज से एक सप्ताह पहले अलजजीरा द्वारा एक लेख छापा गया था कि किस तरह हिंदी सिनेमा को कुछ निर्माता कुछ पत्रकारों को पैसा दे कर गलत रिव्यू लिखवा कर बरबाद कर रहे हैं. इस खबर को गलत साबित करने और अपनी सोच को ही सही साबित करने के लिए फिल्म ‘द डिप्लोमेट’ के निर्माता जौन अब्राहम और टीसीरीज ने एक निर्णय के तहत फिल्म का प्रेस शो ही नहीं किया. लेकिन जिन पत्रकारों के नाम ‘जलजजीरा’ में छपे थे, उन्हें बुला कर फिल्म दिखाई और इन सभी ने चार व साढ़े चार स्टार दिए.

इस का एक पोस्टर पत्रकारों के नाम व दिए गए स्टार के साथ विज्ञापन के तौर पर कुछ अखबारों में 14 तारीख की सुबहसुबह छपवा दिया. मजेदार बात यह है कि इस में एक नाम वीरेंद्र चावला का भी है, जो कि फिल्म क्रिटिक्स की बजाय फोटोग्राफर हैं. निर्माता का यह कदम उन की फिल्म को ले डूबा. दर्शकों ने देखा कि जिन पत्रकारों पर पैसे ले कर रिव्यू लिखने के आरोप ‘जलजजीरा’ में लगे हैं, उन्हीं ने ‘द डिप्लोमेट’ को बेहतरीन फिल्म बताई है, तो दर्शक ने फिल्म से दूरी बना ली.

पूरे 7 दिन में ‘द डिप्लोमेट’ बाक्स आफिस पर लगभग 17 करोड़ ही कमा सकी. वैसे फिल्म के पीआरओ ने 19 करोड़ 45 लाख रूपए एकत्र करने का दावा किया है. इस में से निर्माता की जेब में बामुश्किलों 7 करोड़ रूपए ही आएंगे. इतना ही नहीं निर्माता ने गुरूवार 20 मार्च और शुक्रवार 21 मार्च को महज 99 रूपए में ‘द डिप्लोमेट’ दिखाने का भी ऐलान किया हुआ है, पर दर्शक जाने को तैयार नहीं.

निर्माता को सब से बड़ा झटका ओटीटी की तरफ से लगा है, सभी ओटीटी प्लेटफार्म ने इस फिल्म को लेने से मना कर दिया है. पहले निर्माता की तरफ से विक्कीपीडिया पर फिल्म की लागत 120 करोड़ बताई गई थी, लेकिन 21 मार्च की शाम 5 बजे विक्कीपीडिया पर फिल्म का बजट 20 करोड़ और सात दिन में इकट्ठा की गई राशि 18 करोड़ एक लाख रूपए दिखा रहा है. यहां याद दिला दें कि फिल्म की नायिका सादिया खातिब का पीआर ‘यूनिवर्सल कम्यूनीकेशन’ कर रहा है, जिस के मालिक पराग देसाई हैं. और फिल्म का पीआर टीसीरीज की अपनी आंतरिक पीआर टीम कर रही है. अब किस ने क्या सलाह दी, पता नहीं मगर एक अच्छी फिल्म को निर्माताओं ने खुद ही डुबा डाला.

2017 में बतौर लेखक व निर्देशक अविनाश दास ने स्वरा भाक्सर को मेन लीड में ले कर फिल्म ‘अनारकली आफ आरा’’ बनाई थी जिसे काफी सराहा गया था. इस के बाद अविनाश दास ने ‘शी’, ‘रात बाकी है’, ‘रन अवे लुगाई’ जैसी फिल्में निर्देशित कीं. और अब अविनाश दास ने ‘इन गलियों में’ का निर्देशन किया है. इस रोमांटिक कौमेडी फिल्म को दर्शक ही नहीं मिले. इस की सब से बड़ी वजह यह रही कि फिल्म के रिलीज के बाद भी दर्शक को पता नहीं चला कि ‘इन गलियों में’ नामक कोई फिल्म रिलीज हुई है. जबकि निर्माता ने फिल्म का पीआरओ ‘यूनिवर्सल कम्युनिकेशन’ को रखा हुआ है, जिस के मालिक पराग देसाई हैं. यह वही हैं जो कि अमिताभ बच्चन, अजय देवगन, रोहित शेट्टी सहित कई दिग्गज कलाकारों और लगभग हर बड़ी फिल्म के पीआओ होते हैं.

फिल्म ‘इन गलियो में’ ने बौक्स औफिस पर 7 दिन के अंदर एक करोड़ रूपए भी नहीं एकत्र किए. निर्माता अपनी शर्मिंदगी को बचाने के लिए फिल्म के बजट और बौक्स औफिस कलैक्शन पर कुछ भी कहने को तैयार नहीं हैं.

Healthy Life : नींद आने में नहीं होगी परेशानी, इस आसान ट्रिक को आजमाएं

Healthy Life : बिस्तर पर मोजे पहनने से आप को जल्दी नींद आने में मदद मिल सकती है और रात में बेहतर नींद आ सकती है. बिस्तर पर मोजे पहनना कूलिंग मैकेनिज्म (ठंडा करने की प्रक्रिया) के रूप में काम करता है, क्योंकि मोजे पहनने से आप के पैरों का तापमान नियंत्रित रहता है, जो आप के पूरे शरीर के तापमान को प्रभावित कर सकता है.

2018 के एक अध्ययन से पता चला है कि पैरों में बहुत सारी ब्लड वेसेल्स होती हैं, जो शरीर के तापमान को कंट्रोल करने में मदद करती हैं. जब हम मोजे पहनते हैं तो ये ब्लड वेसेल्स को गरम होने से रोकते हैं, जिस से शरीर को आरामदायक स्थिति में रखा जाता है. हमारे शरीर का तापमान रात के दौरान स्वाभाविक रूप से गिरता है और यह अच्छी नींद के लिए एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है.

स्टडी में पाया गया कि औसतन जो लोग 7 घंटे की नींद की अवधि के दौरान मोजे पहनते थे वे 7.5 मिनट पहले सो गए, 7.5 कम बार जागना पड़ा और उन्हें 32 अतिरिक्त मिनट की नींद मिली.

हमारे शरीर में कुछ प्रमुख जगहें हैं जहां गरमी का आदानप्रदान ज्यादा होता है. पैरों के तलवे उन में से एक हैं. मोजे पहनने से शरीर के तापमान में सुधार हो सकता है, क्योंकि यह रक्त वाहिकाओं के विस्तार में मदद करता है. जैसे ही पैरों में ब्लड सर्कुलेशन बढ़ता है, शरीर से गरमी बाहर निकलने लगती है और शरीर ठंडा होता है, जिस से बेहतर नींद मिलती है. यह कूलिंग प्रक्रिया शरीर को आरामदायक स्थिति में लाती है, जिस से व्यक्ति गहरी नींद में जा सकता है.

Trending Debate : औरंगजेब की कब्र पर राजनीतिक मातम

Trending Debate : आजकल ट्रेंड चल पड़ा है कि जिस को भी बड़ा नेता बनना है वो हिंदू भावनाओं को भड़काने वाला कोई विवादित बयान दे दे तो रातोंरात पोपुलर हो जाता है. इस समय औरंगजेब और औरंगजेब की कब्र को लेकर खूब विवादास्पद बयान दिए जा रहे हैं. जाहिर है कि कब्र की आग अभी और फैलेगी और यह मामला बाबरी मसजिद से भी ज्यादा गंभीर हो सकता है.

महाराष्ट्र सहित पूरे उत्तर भारत में औरंगजेब की कब्र को लेकर सियासत गरम है. फिल्म छावा जो छत्रपति शिवाजी और उन के पुत्र छत्रपति संभाजी महाराज के जीवन और मुगल शासक औरंगजेब से उन के युद्ध पर आधारित है, की रिलीज के बाद हिंदू संगठन औरंगजेब के खिलाफ आग उगल रहे हैं. खुल्दाबाद से औरंगजेब की कब्र को उखाड़ फेंकने के लिए विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल और भाजपा के कार्यकर्ता सड़क पर हैं. मजे की बात यह है कि जिस फिल्म को देख कर हिंदूवादी उग्र हो रहे हैं, उस फिल्म की कहानी इतिहास के पन्नों से नहीं बल्कि मराठी के उपन्यासकार शिवाजी सावंत के मराठी उपन्यास ‘छावा’ से उठाई गई है.

हिंदू संगठनों ने महाराष्ट्र सरकार को चेतावनी देते हुए कहा है कि अगर सरकार द्वारा कब्र को नहीं हटाया जाएगा तो हम अयोध्या की बाबरी मसजिद की तरह इसे खुद हटा देंगे. इस के बाद से छत्रपति संभाजी नगर (औरंगाबाद) में स्थित औरंगजेब की कब्र की सुरक्षा बढ़ा दी गई है और बड़ी संख्या में पुलिस बल की वहां तैनाती है.

गौरतलब है कि औरंगजेब की कब्र भारत की ऐतिहासिक विरासत है. इसे भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का संरक्षण प्राप्त है. भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के कानून के अनुसार, कोई भी प्राचीन स्मारक या संरचना जो कम से कम 100 वर्षों से मौजूद हो, उसे पुरातत्वीय स्थल या संरक्षित स्मारक माना जाता है. औरंगजेब की कब्र 1707 से खुल्दाबाद में मौजूद है. इस आधार पर केंद्र सरकार ने इसे संरक्षित स्मारक घोषित किया है और महाराष्ट्र की फडणवीस सरकार इस को चाह कर भी हटा नहीं सकती.

बावजूद इस के औरंगजेब की कब्र को ले कर कारसेवा की गूंज बिलकुल वैसे ही उठ रही है और माहौल कुछ उसी तरह गरम हो रहा है, जिस तरह बाबरी मसजिद विध्वंस के समय हुआ था. राम जन्मभूमि को ले कर शुरू हुई कारसेवा के पहले उत्तर प्रदेश के कई शहरों में दंगे शुरू हो गए थे. 17 मार्च को नागपुर के महाल में दो गुटों के बीच जिस तरह हिंसा भड़की उस ने दंगों के लिए धरातल तैयार कर दिया है. महाल के बाद देर रात हंसपुरी में भी हिंसा हुई. उपद्रवियों ने दुकानों में तोड़फोड़ की और वाहनों में आग लगा दी. इस दौरान जम कर पथराव भी हुआ. हिंसा के बाद कई इलाकों में कर्फ्यू लगा दिया गया है.

हिंसा की खबर जब उत्तर प्रदेश पहुंची तो श्री कृष्ण जन्मभूमि संघर्ष न्यास ने मुगल शासक औरंगजेब की कब्र पर बुलडोजर चलाने वाले को 21 लाख रुपए इनाम के तौर पर देने का ऐलान कर डाला. कहा कि ऐसी कब्र हिंदुस्तान में नहीं होनी चाहिए. अगर किसी को कब्र की जरूरत है तो पाकिस्तान ले जाए. इस से पहले एक लेखक मनोज मुन्तशिर ने औरंगजेब की कब्र पर शौचालय बनवाने का मशवरा भी दिया था.

आजकल ट्रेंड चल पड़ा है कि जिस को भी बड़ा नेता बनना है वो हिंदू भावनाओं को भड़काने वाला कोई विवादित बयान दे दे तो रातोंरात पोपुलर हो जाता है. इस समय औरंगजेब और औरंगजेब की कब्र को ले कर खूब विवादास्पद बयान दिए जा रहे हैं. जाहिर है कि कब्र की आग अभी और फैलेगी और यह मामला बाबरी मसजिद से भी ज्यादा गंभीर हो सकता है.

हैरानी की बात है कि जो शासक 300 साल पहले मर चुका है, दक्षिणपंथियों को उस की कब्र हटाने की याद अब आ रही है. गौर करिये कि जिस दिन नौसेना पोत चालक, हैलीकौप्टर पायलट, परीक्षण पायलट, पेशेवर नौसैनिक, गोताखोर, पशुप्रेमी, मैराथन धावक और नासा की अंतरिक्ष यात्री सुनीता विलियम्स विश्व कीर्तिमान रच कर, मानवज्ञान का दायरा विकसित करने के लिए अंतरिक्ष के रहस्यों को समेटे 289 दिन के बाद धरती पर वापस आ रही थीं, उस दिन हमारे देश के युवा एक 300 साल पुरानी कब्र खोदने को बेकरार हो रहे थे.

यह बात सच है कि औरंगजेब के हाथ कई राजाओं के खून से रंगे हुए हैं. खुद अपने बाप और भाइयों की ह्त्या का आरोप इस मुगल शासक पर है. पर सत्ता में रहे कितने ही शासक हैं जिन पर ऐसे आरोप हैं. कोई औरंगजेब अकेला तो ऐसा शासक नहीं है. हमारे तमाम धर्मग्रंथ सगे भाइयों और परिजनों के लहू से ही लाल हैं. उन की हत्याएं किसी बाहरी ने नहीं बल्कि सत्ता पाने की लालसा में उन के अपने लोगों ने की. क्या महाभारत का युद्ध किसी बाहरी से अपना राज्य बचाने के लिए हुआ था? आखिर भाईभाई में ही मारकाट मची थी और पूरे वंश को गाजर मूली की तरह रणभूमि में काट डाला गया था. सत्ता के लालच में आज के राजनेता अपने करीबियों का कत्ल कर देते हैं या करवा देते हैं तो सिर्फ औरंगजेब पर ही दोषारोपण क्यों?

अच्छेअच्छे राजाओं ने अपने राज को बढ़ाने के लिए क्रूरता की. अशोक महान का उदाहरण सामने है. उस ने तो इतना खून बहाया कि अंत में खुद ग्लानि से भर गया और सब कुछ छोड़ कर धर्म प्रचार में लग गया. उल्लेखनीय है कि सम्राट अशोक ने कलिंग पर 362 ईसा पूर्व में युद्ध किया था. इस युद्ध में एक लाख लोग मारे गए थे और इतने ही लोग युद्ध के बाद पैदा हुई परिस्थितियों से मरे थे. डेढ़ लाख से ज्यादा लोगों को या तो बंदी बनाया गया था या निर्वासित किया गया था. मारे गए लोगों में से ज्यादातर लोग असैनिक थे. युद्ध के बाद अशोक उड़ीसा के धावली क्षेत्र गए, तो वहां एक नदी थी जो खून से लाल हो गई थी. इन तमाम दृश्यों और युद्ध भूमि में खूनखराबे, रोतेबिलखते लोगों को देख कर अशोक विचलित हो गया. इस युद्ध के बाद अशोक ने बौद्ध धर्म को अपना लिया.

औरंगजेब अपने पड़दादा अकबर के बाद सब से अधिक समय तक शासन करने वाला मुगल शासक था. उस के शासन में मुगल साम्राज्य अपने विस्तार के शिखर पर पहुंचा. औरंगजेब जब सत्ता में आया तो जो राज्य उस को विरासत में मिला था उस ने उस का विस्तार करना शुरू किय, जैसा कि हर राजा करता है. दक्षिण भारत उस से बाहर था, तो उस ने इस के लिए लड़ाइयां लड़ीं. औरंगजेब ने दक्कन से ले कर बदख़्शान (उत्तरी अफगानिस्तान) और बाल्ख (अफगान-उज़्बेक) तक अपने राज्य को फैलाया और लगभग आधी सदी (50 साल) तक सफलतापूर्वक राज किया. औरंगजेब की सफलता इस बात से आंकी जा सकती है कि उस की प्रजा ने उस को ‘आलमगीर’ का नाम दिया था. आलमगीर यानी विश्व विजेता. क्योंकि औरंगजेब ने हिंदुस्तान ही नहीं बल्कि उस के आसपास के क्षेत्रों को भी जीत कर भारत भूमि से मिलाया था. यह उपलब्धियां इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं. मगर भाजपा के शासनकाल में मुगल बादशाहों के खिलाफ जहर उगल कर समाज के ध्रुवीकरण की कोशिश अपने चरम पर है. कहीं उन के नाम पर रखे जिलों, शहरों, सड़कों के नाम बदले जा रहे हैं तो कहीं उन की कब्र उखाड़ फेंकने की कोशिश हो रही है.

आज की राजनीति में इतिहास के राजाओं के नाम का जम कर उपयोग हो रहा है. कहा जा रहा है कि हिंदू राजा महान थे और मुसलमान राजा खराब थे. यह सिर्फ ध्रुवीकरण कर हिंदू वोट पाने का एक तरीका है. ‘बांटो और राज करो’ का यह तरीका अंगरेजों और अंगरेज इतिहासकारों का इजाद किया हुआ है जिसे अंगरेजी में कहते हैं ‘कम्युनल राइटिंग औफ हिस्ट्री’ यानी इतिहास का सांप्रदायिक लेखन. उस का आधार होता है राजा के कार्य को उस के धर्म से जोड़ना जबकि वास्तव में किसी भी राजा को प्रजा के धर्म से कोई लेनादेना नहीं होता है. राजा जो कुछ भी करता है वह सत्ता और सम्पत्ति के लिए करता है और अपने राज्य के विस्तार के लिए करता है.

ऐसा सिर्फ औरंगजेब ने नहीं किया बल्कि हर शासक ने किया फिर चाहे वह हिंदू था या मुसलमान. मगर आम जनता को कहानी कुछ इस तरह सुनाई जाती है कि जैसे मुसलिम शासकों ने दूसरों की जगहों पर अतिक्रमण किया. इसे कैसे ठीक कहेंगे कि हिंदू राजा अगर अपने राज्य का विस्तार करे तो वह प्रतापी और महान. वह अश्वमेघ यज्ञ करे और घोड़ा छोड़ कर तमाम दूसरे राज्यों को अपने अधीन होने के लिए विवश करे तो वह प्रतापी राजा और वहीं अगर मुसलिम राजा अपने राज्य के विस्तार के लिए लड़ाई लड़े तो वह क्रूर और आक्रांता हो जाता है.

औरंगजेब को सब से विवादास्पद मुगल शासक कहा गया. उस का नाम हिंदुओं के मंदिर तोड़ने और हिंदू तीर्थ पर जजिया कर लगाने के लिए बदनाम है. लेकिन विकिपीडिया पर औरंगजेब के इन फैसलों और कृत्यों के बारे में काफी रोचक तथ्य मिलते हैं. विकिपीडिया लिखता है –

औरंगजेब द्वारा लगाया गया जिज्या/जज़िया कर उस समय के हिसाब से था. मुगल काल में यह कर पहले भी लगाया जाता था. मुगल शासक अकबर ने जज़िया कर को हटा दिया था, लेकिन औरंगजेब के समय यह दोबारा लागू किया गया. जज़िया सामान्य करों से अलग था जो गैरमुसलमानों को चुकाना पड़ता था. इस के 3 स्तर थे और इस का निर्धारण संबंधित व्यक्ति की आमदनी से होता था. इस कर के कुछ अपवाद भी थे. गरीबों, बेरोजगारों और शारीरिक रूप से अशक्त लोग इस के दायरे में नहीं आते थे. इन के अलावा हिंदुओं की वर्ण व्यवस्था में सब से ऊपर आने वाले ब्राह्मण और सरकारी अधिकारी भी इस से बाहर थे. मुसलमानों के ऊपर लगने वाला ऐसा ही धार्मिक कर जकात था जो हर अमीर मुसलमान के लिए देना जरूरी था.

विकिपीडिया लिखता है, आधुनिक मूल्यों के मानदंडों पर जज़िया निश्चितरूप से एक पक्षपाती कर व्यवस्था नजर आती थी. आधुनिक राष्ट्र, धर्म और जाति के आधार पर इस तरह का भेद नहीं कर सकते. इसीलिए जब हम 17वीं शताब्दी की व्यवस्था को आधुनिक राष्ट्रों के पैमाने पर देखते हैं तो यह बहुत अराजक व्यवस्था लग सकती है, लेकिन औरंगजेब के समय ऐसा नहीं था. उस दौर में इस के दूसरे उदाहरण भी मिलते हैं. जैसे मराठों ने दक्षिण के एक बड़े हिस्से से मुगलों को बेदखल कर दिया था. उन की कर व्यवस्था भी तकरीबन इसी स्तर की पक्षपाती थी. वे मुसलमानों से ज़कात वसूलते थे और हिंदू आबादी इस तरह की किसी भी कर व्यवस्था से बाहर थी.

अब अगर औरंगजेब द्वारा मंदिरों को तोड़ने की चर्चा करें तो स्थापित और ख्यात इतिहासकार कहते हैं कि उस ने ज्यादा से ज्यादा 15 मंदिर तोड़े, जिन्हें तोड़ने के पीछे वजह थी.

विश्व प्रसिद्ध इतिहासकार रिचर्ड ईटन के मुताबिक मुगल काल में मंदिरों को ढहाना दुर्लभ घटना थी और जब भी ऐसा हुआ तो उस के कारण राजनीतिक ही रहे. ईटन के मुताबिक वही मंदिर तोड़े गए जिन में विद्रोहियों को शरण मिलती थी या जिन की मदद से शहंशाह के खिलाफ साजिश रची जाती थी. उस समय मंदिर तोड़ने का कोई धार्मिक उद्देश्य नहीं था. उस की जड़ में राजनीतिक कारण ही थे.

उदाहरण के लिए औरंगजेब ने दक्षिण भारत में कभी भी मंदिरों को निशाना नहीं बनाया, जबकि उन के शासनकाल में ज्यादातर सेना वहां तैनात थी. उत्तर भारत में उन्होंने जरूर कुछ मंदिरों पर हमले किए जैसे मथुरा का केशव राय मंदिर लेकिन इस का कारण धार्मिक नहीं था. मथुरा के जाटों ने सल्तनत के खिलाफ विद्रोह किया था इसलिए यह हमला किया गया.

आजकल बुलडोजर बाबा भी मस्जिदों को और मुसलमानों की सम्पत्तियों को यही कह कर तोड़ रहे हैं कि उस में आतंकी, विद्रोही, बदमाश रहते हैं. कोई फर्क नहीं है. सत्ता में जो बैठा है उस को अपने खिलाफ कहीं विद्रोह की ज़रा भी सुगबुगाहट मिली नहीं कि वह उस विद्रोह को दबाने के लिए निकल पड़ता है. इंदिरा गांधी ने स्वर्ण मंदिर में सेना भेजी थी क्योंकि वहां विद्रोही गतिविधियों की सूचना थी. फिर औरंगजेब पर इतनी चिल्लपों क्यों?

डा. पट्टाभि सीतारमैया जो आजादी की लड़ाई में एक बड़े लीडर भी थे, की लिखी एक किताब है ‘फेदर्स एंड स्टोन’. इस किताब में वो लिखते हैं कि काशी का जो मंदिर तोड़ा गया था उस में कुछ अनैतिक काम चल रहे थे. ऐसे और भी कारण होंगे जिस के चलते औरंगजेब ने 12-15 मंदिर तोड़े. यह दुर्भाग्यपूर्ण था. पर सवाल यह उठता है कि अगर उस ने मंदिर तोड़े या वह हिंदूओं से नफरत करता था, तो उस ने बाकी मंदिरों को दान क्यों दिया?

औरंगजेब ने अनेक मंदिरों को संरक्षण दिया. किंग्स कालेज, लंदन की इतिहासकार कैथरीन बटलर लिखती हैं कि औरंगजेब ने जितने मंदिर तोड़े, उस से ज्यादा बनवाए थे. कैथरीन फ्रैंक, एम अथर अली और जलालुद्दीन जैसे विद्वान इस तरफ भी इशारा करते हैं कि औरंगजेब ने कई हिंदू मंदिरों को अनुदान दिया था जिन में बनारस का जंगम बाड़ी मठ, चित्रकूट का बालाजी मंदिर, इलाहाबाद का सोमेश्वर नाथ महादेव मंदिर और गुवाहाटी का उमानंद मंदिर सब से जानेपहचाने नाम हैं.

डा. विशम्भर नाथ पांडेय जो आजादी के आंदोलन से जुड़े थे और आजादी के बाद उड़ीसा के गवर्नर भी बने, ने एक किताब ‘फरमान औफ किंग औरंगजेब’ लिखी थी. इस किताब को लिखने से पहले उन्होंने अपने कई रिसर्च स्कौलर्स को दक्षिण भारत के मंदिरों के पुजारियों के पास भेज कर औरंगजेब द्वारा दिए गए आदेशों यानी फरमानों की प्रतियां इकट्ठा करवाई थीं. इन फरमानों से उन्हें पता चला कि औरंगजेब ने करीब सौ मंदिरों को बड़े दान दिए. अब यह आश्चर्य की बात है. यह बात दक्षिणपंथी सरकार के नेता कभी नहीं बताएंगे. गुवाहाटी (आसाम) में कामाख्या देवी का मंदिर, उज्जैन में महाकाल के मंदिर को और वृन्दावन में भगवन कृष्ण के मंदिर को औरंगजेब ने बड़े दान दिए. कहीं उस ने जागीरें दीं, कहीं आभूषण और स्वर्ण मुद्राएं दीं. तो औरंगजेब हिंदू विरोधी था इस बात को इतिहास नकारता है.

मुगल काल में भी भारत की ज्यादा प्रजा हिंदू थी और सत्ता में बैठा हर व्यक्ति इस बात को अच्छी तरह समझता है कि प्रजा की भावनाओं का आदर किए बगैर आप सुचारु रूप से राज्य नहीं कर सकते हैं. औरंगजेब ने तो 50 साल तक राज किया. उस की सेना में हिंदू राजा बड़ी संख्या में थे. वह हिंदू प्रजा को अपने साथ ले कर चला. औरंगजेब के दरबार में हिंदू अधिकारियों की संख्या 34 फ़ीसदी थी. उस में राजा जयसिंह (जो छत्रपति शिवाजी से मोर्चा लेने गए थे) दूसरे राजा जसवंत सिंह और तीसरे थे राजा रघुनाथ बहादुर, जो औरंगजेब का रेवेन्यू डिपार्टमेंट देखते थे. राजा रघुनाथ बहादुर राजा टोडरमल के पोते थे. वही राजा टोडरमल जो बादशाह अकबर के दरबार में ऊंचे ओहदे पर थे. तो मुगल प्रशासन हमेशा ही एक मिलाजुला प्रशासन था जिस में हिंदू राजपूत राजाओं को बड़ेबड़े ओहदे और सम्मान प्राप्त था.

छत्रपति शिवाजी महाराज के राज में भी बहुतेरे मुसलमान अधिकारी थे. उन के सब से बड़े अधिकारी थे मौलाना हैदर अली, जो उन के गोपनीय सचिव और सेनापति थे. उन का तोपखाना मुसलमान अधिकारी के नियंत्रण में काम करता था. ये सारी बातें इतिहास में दर्ज हैं और जिन को नकारा नहीं जा सकता है.

दरअसल सत्ता का आधार धर्म हो ही नहीं सकता. यह एक प्रमाणित सत्य है कि जिस ने भी अपनी सत्ता का आधार धर्म को बनाया, वह सत्ता कुछ ही समय में समाप्त हो गई. इतिहास को हिंदूमुसलमान के चश्मे से देखेंगे तो हिंसा और उपद्रव ही होंगे.

औरंगजेब किस तरह हिंदू विरोधी था जबकि उस के दरबार में सभी हिंदू त्यौहार मनाए जाते थे. ‘जश्ने चरागां’ यानी दिवाली और ‘जश्ने गुलाबी’ यानि होली यह दोनों ही त्यौहार खासी धूमधाम से मनाए जाते थे.

मुगल काल में ब्रज भाषा और उस के साहित्य को हमेशा संरक्षण मिला और यह परंपरा औरंगजेब के शासन में भी जारी रही. कोलंबिया यूनिवर्सिटी से जुड़ी इतिहासकार एलिसन बुश लिखती हैं कि औरंगजेब के दरबार में ब्रज को प्रोत्साहन देने वाला माहौल था. शहंशाह के बेटे आज़म शाह की ब्रज कविता में खासी दिलचस्पी थी. ब्रज साहित्य के कुछ बड़े नामों जैसे महाकवि देव को उन्होंने संरक्षण दिया था. इसी भाषा के एक और बड़े कवि वृंद तो औरंगजेब के प्रशासन में भी अधिकारी नियुक्त थे.

हिंदू धर्म की भक्ति परम्परा इसी मुगल शासनकाल में विकसित हुई. मुगल दौर में ही धार्मिक परम्पराओं का मेलजोल भी बढ़ा. गंगाजमुनी संस्कृति का विकास इस दौर में हुआ. हिंदूमुसलिम ने एकदूसरे के तौरतरीके, खानपान, पहनावा आदि को अपनाया. अगर मुगल हिंदूओं से नफरत करते तो हमारी महान भक्ति परम्परा को वे कतई विकसित न होने देते. भक्ति काल के अनेक बड़े कवि इसी दौर में हुए.

मुगलों के 300 साल तक शासन किया, अगर वे हिंदूओं से नफरत करते होते तो हिंदू धर्म समाप्त क्यों नहीं हुआ? वह तो इस दौर में खूब उन्नत हुआ. खूब मंदिरों का निर्माण हुआ. हिंदू बनाम मुसलिम का राग अलापना अंगरेजों ने शुरू किया और बाद में चल कर साम्प्रदायिक ताकतों ने इस को पकड़ लिया और उस के आधार पर हिंदूमुसलमानों को आपस में लड़वा कर अपना उल्लू सीधा करते रहे. मुसलिम लीग ने हिंदुओ के खिलाफ नफरत फैलाई. हिंदू महासभा और आरएसएस ने मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाई. एक लम्बे समय से हिंदूमुसलिम कार्ड खेल कर भाजपा सत्ता में है. यह उस का अमोघ अस्त्र है जो कभी खाली नहीं जाता.

Hindi Story : दत्तक बेटी ने झुका दिया सिर

Hindi Story : लंदन के वेंबली इलाके में ज्यादातर गुजराती रहते हैं. नैरोबी से लंदन आ कर बसे घनश्याम सुंदरलाल अमीन भी अपनी पत्नी सुनंदा के साथ वेंबली में ही रहते थे. वे लंदन में अंडरग्राउंड ट्रेन के ड्राइवर थे. नौकरी से रिटायर होने के बाद वे पत्नी के साथ आराम से रह रहे थे.

घनश्यामभाई को सोशल स्कीम के तहत अच्छा पैसा मिल रहा था. इस के अलावा उन की खुद की बचत भी थी. उन्हें किसी चीज की कमी नहीं थी. बस, एक कमी के अलावा कि वे बेऔलाद थे. गोद में खेलने वाला कोई नहीं था, जिस का पतिपत्नी को काफी दुख था.

किसी दोस्त ने घनश्यामभाई को सलाह दी कि वे कोई बच्चा गोद ले लें. ब्रिटेन में बच्चा गोद लेना बहुत मुश्किल है, वह भी भारतीय परिवार के लिए तो और भी मुश्किल है, इसलिए घनश्यामभाई ने अपने किसी भारतीय दोस्त की सलाह पर कोलकाता की एक स्वयंसेवी संस्था से बात की. उस संस्था ने एक अनाथाश्रम से उन का परिचय करा दिया.

अनाथाश्रम वालों ने घनश्यामभाई से कोलकाता आने को कहा. वे पत्नी के साथ कोलकाता आ गए.

कोलकाता के उस अनाथाश्रम में उन्हें सुचित्र नाम की एक लड़की पसंद आ गई. वह 15 साल की थी. जन्म से बंगाली और महज बंगाली व हिंदी बोलती थी. देखने में एकदम भोली, सुंदर और मुग्धा थी.

पतिपत्नी ने सुचित्र को पसंद कर लिया. सुचित्र भी उन के साथ लंदन जाने को तैयार हो गई. घनश्यामभाई ने सुचित्र को गोद लेने की तमाम कानूनी कार्यवाही पूरी कर ली. सुचित्र को वीजा दिलाने में तमाम मुश्किलों का सामना करना पड़ा. तरहतरह के प्रमाणपत्र देने पड़े. आखिरकार 6 महीने बाद सुचित्र को वीजा मिल गया.

सुचित्र अब लंदन पहुंच गई. उस के लिए वहां सबकुछ नया नया था. देश नया, दुनिया नई, भाषा नई, लोग नए. वहां उस का एक स्कूल में दाखिल करा दिया गया. उस ने जल्दी ही इंगलिश भाषा सीख ली. वह गोरी थी और छोटी भी, इसलिए जल्दी से गोरे बच्चों के साथ घुलमिल गई. स्कूल में गुजराती, पंजाबी और बंगलादेश से आए परिवारों के तमाम बच्चे पढ़ते थे.

सुचित्र अब बड़ी होने लगी. वह अकेली लंदन में अंडरग्राउंड ट्रेन में सफर कर सकती थी. वह बिलकुल अकेली पिकाडाली तक जा सकती थी. वह पढ़ने में भी अच्छी थी.

सुचित्र को गोद लेने वाले घनश्यामभाई और उन की पत्नी सुनंदा खुश थे अपनी इस बेेटी से. छुट्टी के दिनों में वे कभी उसे मैडम तुसाद म्यूजियम दिखाने ले जाते तो कभी उसे हाइड पार्क घुमाने ले जाते. दोस्तों के घर पार्टी में भी वे सुचित्र को हमेशा साथ रखते. सुचित्र सुनंदा को ‘मम्मी’ कहती तो वे खुश हो जातीं. उन्हें ऐसा लगता कि सुचित्र उन्हीं की बेटी है. वह स्कूल तो जा ही रही थी, अब कभीकभार अपनी सहेली के घर रुक जाती. समय के साथ अब वह हर शनिवार को सहेली के घर रुकने की बात करने लगी थी. अभी वह 17 साल की ही थी.

एक दिन सुनंदा को पता चला कि सुचित्र घर से तो अपनी सहेली के घर जा कर रुकने की बोल कर गई थी, पर वह सहेली के घर गई नहीं थी. उन्होंने सुचित्र से सख्ती से पूछताछ की तो सुचित्र खीज कर बोली, “मैं कहीं भी जाऊं, इस से आप को क्या मतलब…”

सुचित्र की इस बात से घनश्यामभाई और सुनंदा को गहरा धक्का लगा. कुछ दिनों बाद एक दूसरी घटना घटी. सुचित्र अकसर स्कूल नहीं जाती थी. घनश्यामभाई और सुनंदा ने जब उस से पूछा तो उस ने कोई संतोषजनक जवाब नहीं दिया.

पतिपत्नी ने सुचित्र की सहेलियों से पूछताछ की तो पता चला कि सुचित्र सुखबीर नाम के एक पंजाबी लड़के के साथ घूमती है. वह स्कूल छोड़ कर उस के साथ बाहर घूमने चली जाती है.

घनश्यामभाई ने शाम को सुचित्र से पूछा, “मुझे पता चला है कि तुम सुखबीर नाम के किसी लड़के के साथ घूमती हो, क्या यह सच है?”

यह सुन कर सुचित्र ने कहा, “मैं कहां जाती हूं और बाहर जा कर क्या करती हूं, यह आप को बिलकुल नहीं पूछना चाहिए.”

सुनंदा ने कहा, “तुम हमारी बेटी हो. हमें चिंता होती है. तुम अभी 17 साल की ही तो हो.”

“मैं आप की बेटी नहीं हूं. आप ने अपने फायदे के लिए मुझे गोद लिया है. मैं आप की कोख से पैदा नहीं हुई हूं. मेरे ऊपर आप के बहुत कम अधिकार हैं, समझीं?”

“मतलब?” सुनंदा ने पूछा.

“मैं तुम्हारे शरीर का कोई भी हिस्सा नहीं हूं. मेरे शरीर पर मेरा ही अधिकार है?”

सुचित्र की बात सुन कर घनश्यामभाई को गुस्सा आ गया. उन्होंने सुचित्र को एक तमाचा मार दिया.

सुचित्र चिल्लाई, “अगर दूसरी बार आप ने ऐसा किया तो मैं पुलिस बुला लूंगी.”

घनश्यामभाई ने कहा, “मैं खुद ही पुलिस को बताऊंगा कि मेरे द्वारा गोद ली गई बेटी पढ़ने की उम्र में गलत काम करती है. तुम्हें सामाजिक काउंसलिंग में भेज दूंगा।. उस के बाद भी नहीं सुधरी तो फिर भारत वापस भेज दूंगा.”

भारत वापस भेजने की बात सुन कर सुचित्र सोच में पड़ गई. वह एकदम चुप हो गई और अपने बैडरूम में चली गई. अगले दिन उठ कर उस ने मम्मीपापा से माफी मांगी. यह सुन कर घनश्यामभाई और सुनंदा शांत हो गए.

सुनंदा ने कहा, “देखो बेटा, यह तुम्हारी पढ़नेलिखने की उम है. तुम अच्छी तरह पढ़लिख कर अपना कैरियर बना लो. अभी तुम टीनएज हो. जिस लड़के के साथ मन हो, नहीं घूम सकती हो.”

सुचित्र ने सिर झुका कर कहा, “मम्मी, इस तरह की गलती अब दोबारा नहीं करूंगी.”

इस के बाद सुचित्र नियमित रूप से स्कूल जाने लगी. धीरेधीरे इस बात को काफी समय बीत गया.

एक दिन घनश्यामभाई और सुनंदा के पड़ोसियों ने पुलिस से शिकायत की कि हमारे बगल वाले घर से बहुत तेज बदबू आ रही है. तुरंत पुलिस आ गई. घर का दरवाजा बंद था, पर अंदर से ताला नहीं लगा था. पुलिस ने धक्का मारा तो दरवाजा खुल गया.

पुलिस ने अंदर जा कर देखा तो बैडरूम में घनश्यामभाई और उन की पत्नी की लाशें पड़ी थीं. पूछताछ में पड़ोसियों ने बताया कि इन के साथ गोद ली गई एक बेटी भी रहती थी. उस समय वह घर में नहीं थी.

दोनों लाशों को पुलिस ने पोस्टमार्टम के लिए भिजवा दिया. उन की गोद ली गई बेटी गायब थी. पता चला कि वह कई दिनों से स्कूल भी नहीं गई थी. पोस्टमार्टम रिपोर्ट आई तो पता चला कि पतिपत्नी की मरने से पहले खाने मेेें नींद की दवा दी गई थी. उस के बाद घनश्यामभाई की हत्या चाकू से और सुनंदा की हत्या मुंह पर तकिया रख कर की गई थी.

पुलिस का पहला शक मारे गए पतिपत्नी की गोद ली गई बेटी सुचित्र पर गया. उन्होंने घनश्यामभाई और सुचित्र के मोबाइल का काल रिकौर्ड चैक किया. 2 ही दिनों में पुलिस सुचित्र के बौयफ्रैंड सुखबीर के घर पहुंच गई.

सुखबीर अकेला ही अपनी विधवा मां के साथ रहता था. सुचित्र भी उसी के घर पर मिल गई. पुलिस ने दोनों से सख्ती से पूछताछ की तो सुचित्र और सुखबीर ने स्वीकार कर लिया कि उन्होंने प्रेम का विरोध करते की वजह से घनश्यामभाई और सुनंदा की हत्या की है.

सुचित्र ने बताया, “उस रात मैं ने ही अपने मम्मीपापा के खाने में नींद की गोलियां मिला दी थीं, जिस से वे जाग न सकें. दोनों गहरी नींद सो गए तो मैं ने सुखबीर को बुला लिया. उस के बाद मम्मी के मुंह पर तकिया रख कर पूरी ताकत से दबाए रखा तो उन की सांसों की डोर टूट गई.

“मम्मी के छटपटाने की आवाज सुन कर मेरे पापा जाग गए. सुखबीर अपने साथ चाकू लाया था. उसी चाकू से उस ने पापा पर ताबड़तोड़ वार कर के उन्हें बुरी तरह घायल कर दिया. उस के बाद हम दोनों भाग गए.”

दोनों के बयान सुन कर पुलिस हैरान रह गई. सुचित्र अभी नाबालिग थी. पुलिस ने उस की मैडिकल जांच कराई तो पता चला कि वह पेट है. सुचित्र ने जो किया, उसे सुन कर तो अब यही लगता है कि इस तरह बच्चे को गोद लेने में भी कई बार सोचना पड़ेगा.

Online Hindi Story : और मौसम बदल गया

Online Hindi Story : “सुनो, आप ने मांजी से बात की, आज भी पापा का फोन आया था, बहुत परेशान हो रहे थे.”

“मैं तो बिलकुल ही भूल गया…अच्छा हुआ तुम ने याद दिला दिया.”

“कितना मुश्किल होता होगा, पापा के लिए 2-2 बेटे हैं, पर साथ में कोई रखना नहीं चाहता. मां के जाने के बाद पापा वैसे भी अकेले हो गए हैं, अब तो उन्हें साथ की जरूरत है, लेकिन यहां तो कोई बात समझने को तैयार ही नहीं है, पापा से कुछ कहो, तो वे गांव जाने के लिए कहते रहते हैं. अब वहां कौन हैं, जो उन का ध्यान रखेगा, पिछली बार जब गए थे, तो शुगर कितनी बढ़ गई थी, हौस्पिटल में ऐडमिट करवाना पड़ा था. पता नहीं, उम्र बढ़ने के बाद सब बच्चे क्यों बन जाते हैं,” सोनाली अपनेआप ही परिस्थिति का विष्लेषण कर रही थी.”

“क्या हुआ, क्या सोच रही हो, कह तो रहा हूं, कल पक्का बात कर लूंगा.”

“कैसे होगा, दोनों ही जिद्दी हैं, आसानी से बात नहीं मानेंगे, पापा से बात करो तो वे संस्कृति और संस्कारों की दुहाई देने लगते है. हमारे यहां तो बेटी के घर का पानी भी नहीं पीते, बेटियां तो पराया धन होती हैं, उन के घर बारबार आना अच्छा नहीं लगता और मांजी…वे तो मेरे मायके का जिक्र आते ही चिढ़ जाती हैं.”

“न मैं भैया के घर रह सकती हूं और न ही पापा हमारे घर आ कर रह सकते हैं…अजीब मुश्किल हैं,”सोनाली अपनी रौ में बोलती जा रही थी.

सोनाली,“उन की बात अपनी जगह सही है, अब यह पुराने रीतिरिवाज आसानी से पीछा कहां छोड़ते हैं.”

“मैं आप से अपनी परेशानी का हल मांग रही हूं और आप हैं कि मुझे और परेशान किए जा रहे हो,” कहतेकहते सोनाली रुआंसी हो गई.”

“यह तुम्हारा बढ़िया है, कुछ न भी कहो तो भी रोना शुरू कर के मुझे मुजरिम बना देती हो. अब तुम ही बता दो कि मुझे क्या करना है.”

“एक बार आप बात कर के देखो, आप कहोगे तो पापा मना नहीं कर पाएंगे,” कहते हुए सोनाली के चेहरे पर मुसकान फैल गई.

“यह तो है, मैं कहूंगा तो शायद मना नहीं कर पाएंगे. पर मैं एक बात और सोच रहा हूं. मां को कैसे मनाया जाए? मां भी तो पुराने विचारों वाली है और ऊपर से उन का स्वभाव भी थोड़ा गरम है, कहीं उन्होंने कुछ कह दिया तो… मुझे तो डर है कि तुम्हारे पापा की स्थिति ‘आसमान से गिरे खजूर में अटके’ जैसी न हो जाए.”

“जानती हूं मैं, पापा की स्थिति में कोई खास परिवर्तन नहीं होगा. पर यहां मैं तो रहूंगी न… मैं उन का ध्यान रखूंगी तो सब सही होगा. बस, आप एक बार मांजी से बात कर के देखो, मेरे कहने से तो बात बिगड़ जाएगी.”

अगले दिन शाम को घर लौटते हुए सुधीर गुलाबजामुन और समोसे ले कर आया. दोनों ही चीजें मां को बहुत पसंद हैं. पापा को जब भी अपना मनमाना काम करवाना होता, तो वह यही फौर्मूला अपनाते थे.

“सोनाली, जल्दी से अदरक वाली कड़क चाय बना कर मां के कमरे में ले कर आना. गरमगरम समोसे लाया हूं.”

“मां…मां, कहां हो तुम?”

“मैं कहां जाऊंगी, इन चारों कोनों को छोड़ कर, अब तो घर के चारों कोने ही मेरे लिए चारधाम बन गए हैं.”

“क्या बात है, आज तो तुम्हारा गुस्सा समोसे से भी ज्यादा गरम हो रहा है.”

“कोरोना के कारण पहले ही घर में बंद पड़ी थी. बड़ी मुश्किल से बाहर जाने का एक मौका आया वह भी तेरी पत्नी की वजह से न हो पाया.

“कहां जा रही थी… तुम्हें मना किया है. अभी संकट पूरी तरह से नहीं टला है. रोज 4-5 केस आ ही जाते हैं.”

“कोई बहुत दूर थोड़े जा रही थी. सामने मिश्रा भाभी के पोते का मुंडन था. बस, आसपास के लोगों को ही बुलाया था. उसी दिन से सोच रखा था कि हरी वाली कौटन की साड़ी पहनूंगी, जो तू जयपुर से लाया था. अलमारी खोल कर देखा तो कोने में जैसेतैसे पड़ी थी. तेरी बहू से प्रैस करने के लिए कहा, पर इसे मेरी बात कहां याद रहती है. मेरे हाथ में दर्द नहीं होता तो मैं खुद ही कर लेती.”

“भूल गई होगी, तुम कल मुझे दे देना. औफिस जाते समय प्रैस को देता जाऊंगा.”

“पता नहीं सारा दिन क्या करती रहती है. एक तू ही है, जो मेरा खयाल रखता है, वरना मैं तो कब का हरिद्वार निकल गई होती…”

“समोसे लाया है, तो गुलाबजामुन भी जरूर लाया होगा.”

“कैसे भूल सकता हूं, रात को खाने के बाद गुलाबजामुन भी खाएंगे.”

“कुछ तो गड़बड़ है… जो तू मुझे इतना मक्खन लगा रहा है. बता क्या बात है…”

“कुछ भी तो नहीं, तुम्हें तो हर वक्त दाल में काला ही नजर आता है. अच्छी तरह से जानती हूं तुझे, यह सब ट्रिक तू ने अपने पापा से ही सीखी है. कोई न कोई ऐसी बात होगी, जिस के लिए मैं मंजूरी नहीं दूंगी.”

“मां, आज भी तुम मेरे मन की बात जान लेती हो,” सुधीर भावुक हो गया.

“मां हूं न…मुंह की थोड़ी कड़वी जरूर हूं, पर दिल चाशनी से भी ज्यादा मीठा है.”

“जानता हूं,” सुधीर ने मां का हाथ अपने हाथों में ले कर कहा,” सोनाली के पापा के बारे में बात करनी है. उन को यहां बुलाने की सोच रहे हैं. आप से राय लेनी थी…”

“इस में पूछने वाली क्या बात है, मैं क्यों मना करूंगी?” बात को बीच में काटते हुए मां बोली.

“नहीं, वह बात ऐसी है कि सोनाली की भाभी को उन का घर में रहना पसंद नहीं है. बातबात में घर में झगड़े होते रहते हैं. इसीलिए सोच रहे थे कि…”

“तेरा दिमाग तो खराब नहीं हो गया जो ऐसी बेसिरपैर की बातें कर रहा है. 2-3 दिन की बात अलग थी. यहां रहने लगेगे, तो लोग क्या कहेंगे… जितने मुंह, उतनी बातें… किसकिस को समझाते फिरेंगे.”

“हम लोगों की चिंता क्यों करें? 2-3 दिन बात बना कर सब चुप हो जाएंगे. कोरोना में मै ने सब को देख लिया कि कौन किस का साथ देता है…”

“मेरी बात तो तुम्हें हमेशा ही बुरी लगती है. कुछ कहने का फायदा तो है नहीं, तुम ने जय प्रकाशजी (सोनाली के पापा) से पूछ लिया?”

“अभी तो कुछ दिन रहने के लिए बुलाएंगे, फिर धीरेधीरे…”

“मतलब की सारी खिचड़ी पक चुकी है, बस मेरे ही नाम का बघार लगाना बाकी है. जब तुम दोनों अपना मन बना चुके हो तो मुझ से पूछने की क्या जरूरत है… घर तुम्हारा… जिसे चाहे रखो, मैं कौन होती हूं मना करने वाली.”

“पर एक बात अच्छे से समझ लो, मैं अपना कमरा नहीं छोडूंगी जिसे जहां रहना है रहे… मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता.”

रात को डाइनिंग टेबल पर मौन ही पसरा रहा. किसी को गुलाबजामुन भी याद नहीं आए.

“क्या हुआ… मांजी मान गईं?” सुधीर के कमरे में आते ही सोनाली ने पूछा.

दरवाजे के पीछे खड़ी सब सुन तो रही थी, अब मैं अलग से क्या बताऊं? मैं ने पहले ही कहा था, मां नहीं मानेगी.”

“सोनाली ने बात को वहीं खत्म करते हुए कहा,” इस का भी समाधान मैं ने सोच लिया है, उन्हें अपना कमरा छोड़ने की जरूरत नहीं है. मैं ने विहान से बात कर ली, वह ड्राइंगरूम में दीवान पर सो जाएगा. आप पापा से बात कर लो, वह ट्रेन का टिकट करवा लेंगे. परसों रविवार है आप भी घर पर होंगे. हम उन्हें स्टेशन से ले आएंगे.”

“ठीक है, जैसा तुम कहो, हम तो तुम्हारे गुलाम हैं, जैसा आदेश दोगी, मानना तो वही पड़ेगा. पर पापा के आने के बाद हमें भूल मत जाना,” कह कर सुधीर ने सोनाली को अपनी बांहों में भर लिया.

कुछ दिनों के लिए पापा घर आने के लिए राजी हो गए. पर मां की तेवर बदले हुए थे, उन्होंने एक बार भी पापा से ढंग से बात नहीं की. शायद लता बहनजी को मेरा यहां आना अच्छा नहीं लगा. पहले तो उन्होंने कभी ऐसा व्यवहार नहीं किया. सोनाली बहुत कोशिश करती कि घर का माहौल सामान्य रहे, पर कभी बिजली कड़कने लगती तो कभी ओलों के साथ तेज बौछारें… इतनी ठंडक होने के बावजूद भी घर का तापमान हमेशा गरम रहता. हर कदम फूंकफूंक कर रखना पड़ता. पता नहीं कब तूफान आ जाए…

“बहू, यह गीजर खराब हो गया क्या? गरम पानी नहीं आ रहा…”

“आज शायद पापा पहले नहाने चले गए इसीलिए पानी खत्म हो गया होगा. आप मेरे बाथरूम में नहा लीजिए.”

“कोई नहीं, आज कान्हाजी को थोड़ी देर में भोग लगा लूंगी. अब तो यह सब चलता ही रहेगा.”

“सोनाली, कहां हो तुम… मेरा लंच तैयार हुआ कि नहीं?”

“ला रही हूं, डाइनिंग टेबल पर रखा है. आज तो आप ने बचा लिया, वरना मांजी का गुस्सा… जाने कितनी देर और सुनना पड़ता.”

“पता है… इसीलिए तो तुम्हें आवाज दे कर बुला लिया, वरना थोड़ी देर में तुम्हारी गंगाजमुना दोनों धाराएं एकसाथ बहनी शुरू हो जातीं और हमारी रात काली…”

“बहुत बुरे हो आप, हर वक्त एक ही ओर आप का दिमाग घूमता रहता है.”

“फिर रात की बात पक्की,” सलोनी के गालों पर हलकी से चिकोटी काटते हुए सुधीर ने कहा. आज कहानी यहीं खत्म नहीं हुई थी. शायद आज सोनाली का दिन ही खराब था.

दोपहर को खाने के समय…

“बहू, आज खाने में चनेलौकी की दाल क्यों बनाई है? भूल गईं क्या… मुझे यह दाल बिलकुल पसंद नहीं. क्या अब मेरी यह स्थिति हो गई है कि मुझे घर में अपनी पसंद का खाना भी नसीब नहीं होगा.”

“नहीं मांजी, ऐसा नहीं है. मैं ने प्याज की भिंडी बनाई थी. आज यह दीपक भैया का खाना भी ले गए हैं, इसलिए सब्जी खत्म हो गई.”

“मतलब… खत्म हो गई. क्या दूसरी सब्जी नहीं बन सकती थी या बाजार में सब्जी वालों की हड़ताल है…”

“उबले आलू रखे हैं, अभी भून कर लाती हूं,” सोनाली ने उन्हें मनाने की पुरजोर कोशिश की.

“रहने दे, मुझे दिखाने के लिए बातें न बना. अब मेरा खाना खाने का मन नहीं है. उबले आलू की 2-4 पकौड़ियां तल कर लिया.”

“तली हुई चीजें खाने से आप की तबीयत खराब हो जाएगी,” सोनाली कहना चाहती थी, पर कह नहीं सकी…

वही हुआ, जिस का डर था. शाम होतेहोते मांजी की तबीयत खराब हो गई. आज तो उलटी रुकने का नाम ही नहीं ले रही, क्या करूं… अब तक तो सुधीर बंगलुरु के लिए निकल गए होंगे. इन्हें भी आज ही बाहर जाना था. पिछली बार तो अस्पताल ले जाना पड़ा था,” सोनाली घबराहट में बड़बड़ाने लगी.

“पहले तो तू शांत हो, सब ठीक हो जाएगा. अपनी सास को ओआरएस का घोल लगातार पिलाती रह. इस से शरीर में नमक और चीनी की कमी नहीं रहेगी और जान भी बनी रहेगी, और हां… मुझे पिछली बार की दवाई का पर्चा दे दे. मैं विहान के साथ जा कर दवाई ले आता हूं.”

रात होतेहोते लताजी की तबीयत में काफी सुधार आ चुका था.

“अब आप कैसा महसूस कर रही हैं?”

“पहले से ठीक हूं…”

“कुछ खाने का मन है, खिचड़ी बनवा दे,” लताजी ने सिर हिला कर हामी भरी.

लता जी ने सोनाली और उस के पापा की बातें सुन ली थी, इसलिए शांतिपूर्वक हां कह दिया.

“मुझे भी अकसर ऐसिडिटी हो जाती है. डाक्टर ने तलाभुना खाने से बिलकुल मना कर रखा है, पर जब मन करता है तो कुछ ध्यान नहीं रहता. आखिर जिंदगी सिर्फ लौकीतोरी खा कर तो नहीं गुजारी जा सकती,” लताजी के चेहरे पर फीकी मुसकान आ गई.

“विहान बेटा, ताश ले आ. तेरी दादी का मन भी लगा रहेगा. अकेले लेटेलेटे तो मन और भी घबराता है.”

“आप को ताश खेलना पसंद है?”

“जी, पहले तो बहुत पसंद था. सोनाली की मां और मैं रोज ही खेला करते थे, पर जब से वह साथ छोड़ कर गई है, तब से केवल समय गुजारने का साधनमात्र बन गया है.
विहान जिद कर रहा था कि मुझे भी ताश खेलना सिखाओ इसीलिए… अगर आप को पसंद न हो तो हम नहीं खेलते.”

“नानू, आप को पता नहीं… दादी तो ताश में चैंपियन है. आज तक उन्हें कोई नहीं हरा पाया. क्या जबरदस्त रमी खेलती हैं, मैं इसीलिए तो आप से ट्रिक सीख रहा हूं. मुझे एक दिन दादी को जरूर हराना है. है न दादी… जल्दी से ठीक हो जाओ फिर मैं तुम्हें हराऊंगा.”

“मुझे क्या हुआ… मैं तो ठीक हूं, तू पत्ते बांट…”

“आप की तबीयत…” कहतेकहते जयप्रकाशजी चुप हो गए, शायद खेलने से मन बदल जाए.

“पापा, सुधीर ने कल डॉक्टर का अपौइंटमैंट ले लिया है. मुझे तो विहान की पेरैंट्स मीटिंग में जाना है. क्या आप मांजी को दिखा लाएंगे?”

“हां… हां, क्यों नहीं… मैं चला जाऊंगा.”

“बहू, सुधीर कब तक आएगा?”

“वे तो आज औफिस से ही बंगलुरु चले गए हैं, 2 दिन बाद आएंगे.”

“कोई बात नहीं, जब वह आ जाएगा, तब दिखा लेंगे,” शायद लताजी को सोनाली के पापा के साथ जाने में संकोच हो रहा था.

“कैसी बातें कर रही हैं आप, तबीयत आप की खराब है और आप डाक्टर को दिखाने कुछ दिन बाद जाएंगी. शायद आप को मेरे साथ जाने में संकोच हो रहा है.”

“आप तो जानते हैं, जैसे ही बाहर निकलेंगे गलीमोहल्ले वाले, सब की नजर पड़ेगी. पता नहीं क्याक्या बातें बनाएंगे. 2-3 दिन की ही तो बात है, जैसे ही सुधीर वापस आएगा, मैं डाक्टर को दिखा आऊंगी. अब तो मैं सही भी हो गई हूं,” लताजी ने बात को संभालने की पूरी कोशिश की.

“आप मेरा मतलब नहीं समझीं, आप को इन्फैक्शन है. कभी भी बढ़ सकता है. अब तो संभाल में आ गया, नहीं तो बहुत परेशानी हो सकती थी. आप को मेरे साथ जाने में परेशानी है, तो इस का भी हल है.

“आप सुधीरजी की कार में चले जाइएगा. ड्राइवर आप को डाक्टर के यहां छोड़ देगा. मैं थोड़ी देर में औटो से आ जाऊंगा,” जयप्रकाशजी ने जब अधिकारपूर्वक कहा, तो लताजी को उन की बात माननी ही पड़ी.

सुबह, जैसा निश्चित हुआ था, उसी के अनुसार लताजी ड्राइवर के साथ चली गई और थोड़ी देर बाद जयप्रकाशजी भी औटो के साथ वहां पहुंच गए.

“आप आ गए…बहुत देर हो गई, मुझे तो घबराहट होने लगी थी.”

“पता नहीं, दोपहर का समय है, फिर भी ट्रैफिक बहुत मिला. अब तो सड़कों पर आदमी से ज्यादा वाहन हो गए हैं. क्या आप का नंबर आ गया?”

“नहीं, अभी 2 लोगों के बाद है.”

“आप कुछ लेंगी, पानी या चाय… मैं भी जल्दी में घर से लाना भूल गया,”लताजी मन ही मन खुश हो रही थी. अपनी फिक्र होते देख उन्हें बहुत अच्छा लग रहा था. डाक्टर साहब से भी सारी बातें जयप्रकाशजी ने ही की.

आप ने सही समय पर दवाई और ओआरएस का घोल दे दिया, जिस से पेट में इन्फैक्शन नहीं फैला. अब मैं 3 दिन की दवाई लिख रहा हूं और कुछ टेस्ट भी आप करवा लीजिए. और हां… मांजी, आप भी थोड़ा घूमना शुरू कर दीजिए, इस से डाइजेशन दुरुस्त रहता है.”

क्लीनिक से बाहर निकल कर जयप्रकाश जी औटो ढूंढ़ने लगे.

“आप भी कार में बैठ जाइए. बाहर कितनी चिलचिलाती धूप हो रही है. पता नहीं आप को औटो कब मिलेगा?”

“पर लोग…”

“आप उन की चिंता न करें. मैं सब देख लूंगी,” अचानक से लताजी का ह्रदय परिवर्तन देख कर जयप्रकाशजी हैरान हो गए.

“फिर क्या था, सारे रास्ते दोनों में बातचीत होती रही. कहीं से भी आभास नहीं हो रहा था कि अभी साथ दिखने मात्र से ही उन को परेशानी हो रही थी.

“अरे, मैं आप को बताना ही भूल गया. आप सुबह 8 बजे तक कुछ नहीं खाएंगे. पैथोलौजी लैब से आप का ब्लड सैंपल लेने आएगा. जब मैं आप की दवाई लेने गया था, तभी उसे बुक कर दिया था.”

‘भाई साहब कितने सरल और सहज हैं. सब काम चुपचाप निबटा दिया. मैं ने कितना गलत समझा,’लताजी मन ही मन विचार करने लगी.

“कहां खो गईं आप, घर आ गया है.”

“भाई साहब, आप का बहुतबहुत धन्यवाद. कल से आप मेरी इतनी अधिक देखभाल कर रहे हैं और मैं अब तक आप से परायों जैसा व्यवहार कर रही थी. मैं अपने व्यवहार पर बहुत शर्मिंदा हूं.”

“ऐसा न कहिए बहनजी, घरपरिवार में तो यह सब चलता ही रहता है.”

“धीरेधीरे घर का मौसम बदलने लगा, पहले जहां लू के थपेड़ों ने आपसी रिश्तों को झुलसा दिया था, वहीं अब रोज पड़ने वाली बूंदों ने मौसम को खुशनुमा बना दिया. पापा भी धीरेधीरे घर का हिस्सा बन गए थे. मैं ने विहान को पढ़ाने की जिम्मेदारी उन्हें सौंप दी. सब को एकसाथ देख कर कितना सुकून मिलता है. किसी प्रकार की कोई टैंशन नहीं… पता नहीं हमारे समाज में इतनी पाबंदियां क्यों हैं? लड़की का मायका और ससुराल एक जगह मिल कर क्यों नहीं रह सकते?”

“सोनाली क्या सोच रही हैं?” पापा ने आवाज दी.

“एक कोफ्ता और मिल सकता है क्या.. आज लौकी के कोफ्ते बहुत स्वादिष्ठ बने हैं. पेट भर गया है पर मन अभी तृप्त नहीं हुआ है,” पापा ने खाने की तारीफ की, तो सोनाली ने बताया कि आज कोफ्ते मांजी ने बनाए हैं. लताजी ने तो रसोई से सन्यास ले लिया था. आज अचानक मन किया या शायद धन्यवाद कहने का उन्हें यह तरीका समझ आया…पर इतनी तारीफ सुनने को मिलेगी, ऐसा सोचा न था, अब तो हर दूसरे दिन लताजी रसोई के चक्कर लगाने लगीं.धीरेधीरे उन दोनों के बीच संकोच की दूरी घटने लगी. पहले शाम को तिकड़ी जमा होती थी, फिर विहान के ऐग्जाम शुरू होने के बाद दोनों ही ताश खेलते रहते. अब सब अच्छा चल रहा था लेकिन खुशियां कभी भी एक जगह ज्यादा देर तक नहीं ठहरतीं. सोनाली को अपनी ही नजर लग गई. अभी बहार आई थी कि पतझड़ ने भी दस्तक देने शुरू कर दिए.

“पापा देखो न, आज मम्मी सुबह से ही बिना बात के गुस्सा हो रही है. मैं ने अपना सारा होमवर्क निबटा दिया, फिर भी जबरदस्ती पढ़ने के लिए बैठा दिया,” विहान ने सुधीर के आते ही सोनाली की शिकायत करना शुरू कर दिया.”

“ठीक है, मैं बात करता हूं. क्या हुआ, आज बिन बादल, बिजली और बरसात दोनों एक साथ…”

“अमित भैया का फोन आया था. कह रहे हैं कि अब कोरोना का प्रभाव कम होने लगा है, इसीलिए कंपनी वाले औफिस बुला रहे हैं. उन्हें और रीना दोनों को ही जाना पड़ेगा. बच्चों के स्कूल अभी नहीं खुलेंगे, इसलिए वे दोनों घर पर ही रहेंगे. पापा घर पर आ जाते, तो उन्हें बच्चों की कोई चिंता नहीं रहती. कितने खुदगर्ज हो गए हैं भैया… इतने दिन हो गए, पापा को यहां आए हुए. मगर एक भी फोन नहीं… और आज जब उन्हें जरूरत पड़ी तो तुरंत फोन कर दिया. कहीं नहीं जा रहे पापा… अब तो उन का यहां मन भी लग गया है.”

“वह तो ठीक है, पर एक बार पापा को भी बता दो, अगर उन का वहां जाने का मन नहीं होगा तो मैं खुद अमित को मना कर दूंगा.”

“रात को डिनर के समय अमित का फोन आया था, घर वापस आने के लिए कह रहा हैं,” जयप्रकाशजी ने सब को बताया.

“पता है मुझे, पर अब आप वहां नहीं जाएंगे. यह क्या बात हुई, पहले तो उन्हें आप का ध्यान नहीं आया और अब जरूरत पड़ी तो…”

“बेटी, ऐसा नहीं कहते, समय पर अपने ही अपनों के काम नहीं आएंगे तो…” अभी जय प्रकाशजी की बात खत्म नहीं हुई थी कि लताजी ने भी सोनाली का समर्थन किया,”सही तो कह रही है सोनाली, यह क्या बात हुई, अब उन्हें जरूरत है, तो बुला रहे हैं. कल को जब जरूरतें खत्म हो जाएंगी, तब क्या होगा…आप को वहां नहीं जाना चाहिए. बच्चों को भी तो आप की अहमियत का पता चले,” सब लताजी की बात सुन कर आश्चर्यचकित रह गए. कहां तो मां उन के आने का विरोध कर रही थीं और जब वह जाने के लिए कह रहे हैं तो मना कर रही हैं. शायद इतने दिनों से जिस अकेलेपन को वह झेल रही थी, वह अब भरने लगा था.

“नहीं लताजी, मुझे जाना ही पड़ेगा. बेटा खुदगर्ज हो सकता है, पर एक पिता नहीं… अगर मैं भी उस की तरह व्यवहार करूंगा, तो उस में और मुझ में क्या अंतर रह जाएगा. मैं अपने बेटे को सही संस्कार देने में नाकामयाब रहा. पर कोशिश करूंगा कि आने वाली पीढ़ी को संभाल सकूं.

“पापा अपनी जगह सही थे और हम सबकी चिंता भी वाजिब थी. सबके मन दुखी थे, कोई नहीं चाहता था कि पापा वापस जाएं. आप के घर में आने से रौनक आ गई थी. अब आप चले जाएंगे, तो फिर से…”

“जाना तो पड़ेगा, आप भी समझती हैं कि बच्चे गलती कर सकते हैं, पर मांबाप नहीं. मैं आप से रोज फोन पर बात करूंगा.”

सोनाली कभी मां की ओर देखती और कभी अपने पापा की ओर… शायद इस उम्र में व्यक्ति को भौतिक संसाधनों से ज्यादा संग साथ की आवश्यकता अधिक होती है.

“ठीक है नानू, आप मामा के घर जा सकते हैं. पर आप वादा करो, कि गरमियों की छुट्टी में आप हमारे साथ रहेंगे. सही कहा न दादी?”

विहान की बात सुन कर सब लताजी की ओर देख कर मुसकरा उठे.

लेखिका : अपर्णा गर्ग 

Hindi Kahani : प्यार – कस्तूरी से क्यों हो गया था संजय को प्यार

Hindi Kahani : ‘‘अरे संजय… चल यार, आज मजा करेंगे,’’ बार से बाहर निकलते समय उमेश संजय से बोला. दिनेश भी उन के साथ था.

संजय ने कहा, ‘‘मैं ने पहले ही बहुत ज्यादा शराब पी ली है और अब मैं इस हालत में नहीं हूं कि कहीं जा सकूं.’’

उमेश और दिनेश ने संजय की बात नहीं सुनी और उसे पकड़ कर जबरदस्ती कार में बिठाया और एक होटल में जा पहुंचे.

वहां पहुंच कर उमेश और दिनेश ने एक कमरा ले लिया. उन दोनों ने पहले ही फोन पर इंतजाम कर लिया था, तो होटल का एक मुलाजिम उन के कमरे में एक लड़की को लाया.

उमेश ने उस मुलाजिम को पैसे दिए. वह लड़की को वहीं छोड़ कर चला गया.

वह एक साधारण लड़की थी. लगता था कि वह पहली बार इस तरह का काम कर रही थी, क्योंकि उस के चेहरे पर घबराहट के भाव थे. उस के कपड़े भी साधारण थे और कई जगह से फटे हुए थे.

संजय उस लड़की के चेहरे को एकटक देख रहा था. उसे उस में मासूमियत और घबराहट के मिलेजुले भाव नजर आ रहे थे, जबकि उमेश और दिनेश उस को केवल हवस की नजर से देखे जा रहे थे.

तभी उमेश लड़खड़ाता हुआ उठा और उस ने दिनेश व संजय को बाहर जाने के लिए कहा. वे दोनों बाहर आ गए.

अब कमरे में केवल वह लड़की और उमेश थे. उमेश ने अंदर से कमरा बंद कर लिया. संजय को यह सब बिलकुल भी अच्छा नहीं लग रहा था, लेकिन उमेश और दिनेश ने इतनी ज्यादा शराब पी ली थी कि उन्हें होश ही न था कि वे क्या कर रहे हैं.

काफी देर हो गई, तो संजय ने दिनेश को कमरे में जा कर देखने को कहा.

दिनेश शराब के नशे में चूर था. लड़खड़ाता हुआ कमरे के दरवाजे पर पहुंच कर उसे खटखटाने लगा. काफी देर बाद लड़की ने दरवाजा खोला.

उस लड़की ने दिनेश से कहा कि उस का दोस्त सो गया है, उसे उठा लो. नशे की हालत में चूर दिनेश उस लड़की की बात सुनने के बजाय पकड़ कर उसे अंदर ले गया और दरवाजा बंद कर लिया.

संजय दूर बरामदे में बैठा यह सब देख रहा था. दिनेश को भी कमरे में गए काफी देर हो गई, तो संजय ने दरवाजा खड़काया.

इस बार भी उसी लड़की ने दरवाजा खोला. वह अब परेशान दिख रही थी. उस ने संजय की तरफ देखा और कहा, ‘‘ बाबू, ये लोग कुछ कर भी नहीं कर रहे और मेरा पैसा भी नहीं दे रहे हैं.

मुझे पैसे की जरूरत है और जल्दी घर भी जाना है,’’ कहते हुए उस लड़की का गला बैठ सा गया.

संजय ने लड़की को अंदर चलने को कहा और थोड़ी देर में उसे उसी होटल के दूसरे कमरे में ले गया. उस ने जाते हुए देखा कि उमेश और दिनेश शराब में चूर बिस्तर पर पड़े थे.

संजय ने दूसरे कमरे में उस लड़की को बैठने को कहा. लड़की घबराते हुए बैठ गई. वह थोड़ा जल्दी में लग रही थी. संजय ने उसे पास रखा पानी पीने को दिया, जिसे वह एक सांस में ही पी गई.

पानी पीने के बाद वह लड़की खड़ी हुई और संजय से बोली, ‘‘बाबू, अब जो करना है जल्दी करो, मुझे पैसे ले कर जल्दी घर पहुंचना है.’’

संजय को उस की मासूम बातों पर हंसी आ रही थी. उस ने उसे पैसे दे दिए तो उस ने पैसे रख लिए और संजय को पकड़ कर बिस्तर पर ले गई और अपने कपड़े उतारने लगी.

संजय ने उस का हाथ पकड़ा और कपड़े खोलने को मना किया. लड़की बोली, ‘‘नहीं बाबू, कस्तूरी ऐसी लड़की नहीं है, जो बिना काम के किसी से भी पैसे ले ले. मैं गरीब जरूर हूं, लेकिन भीख नहीं लूंगी.’’

संजय अब बोल नहीं पा रहा था. तभी कस्तूरी ने संजय का हाथ पकड़ा और उसे बिस्तर पर ले गई, यह सब इतना जल्दी में हुआ कि संजय कुछ कर नहीं पाया.

कस्तूरी ने जल्दी से अपने कपड़े उतारे और संजय के भी कपड़े उतारने लगी. अब कस्तूरी संजय के इतने नजदीक थी कि उस के मासूम चेहरे को वह बड़े प्यार से देख रहा था. वह कस्तूरी की किसी बात का विरोध नहीं कर पा रहा था. उस के मासूम हावभाव व चेहरे से संजय की नजर हटती, तब तक कस्तूरी वह सब कर चुकी थी, जो पतिपत्नी करते हैं.

कस्तूरी ने जल्दी से कपड़े पहने और होटल के कमरे से बाहर निकल गई. संजय अभी भी कस्तूरी के खयालों में खोया हुआ था.

समय बीतता गया, लेकिन संजय के दिमाग से कस्तूरी निकल नहीं पा रही थी.

एक दिन संजय बाजार में सामान खरीद रहा था. उस ने देखा कि कस्तूरी भी उस के पास की ही एक दुकान से सामान खरीद रही थी.

संजय उस को देख कर खुश हुआ. उस ने कस्तूरी को आवाज दी तो कस्तूरी ने मुड़ कर देखा और फिर दुकानदार से सामान लेने में जुट गई.

संजय उस के पास पहुंचा. कस्तूरी ने संजय की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया. कस्तूरी ने सामान खरीदा और दुकान से बाहर निकल गई.

संजय उसे पीछे से आवाज देता रहा, लेकिन उस ने अनसुना कर दिया.

कुछ दिन बाद संजय को कस्तूरी फिर दिखाई दी. उस दिन संजय ने कस्तूरी का हाथ पकड़ा और उसे भीड़ से दूर खींच कर ले गया और उस से उस की पिछली बार की हरकत के बारे में पूछना चाहा, तो संजय के पैरों की जमीन खिसक गई. उस ने देखा, कस्तूरी का चेहरा पीला पड़ चुका था और वह बहुत कमजोर हो गई थी. उस ने अपनी फटी चुनरी से अपना पेट छिपा रखा था, जो कुछ बाहर दिख रहा था.

कस्तूरी वहां से जाने के लिए संजय से जोरआजमाइश कर रही थी. संजय ने किसी तरह उसे शांत किया और भीड़ से दूर एक चाय की दुकान पर बिठाया.

संजय ने गौर से कस्तूरी के चेहरे की तरफ देखा, तो उस का दिल बैठ गया. कस्तूरी सचमुच बहुत कमजोर थी. संजय ने कस्तूरी से उस की इस हालत के बारे में पूछा, तो पहले तो कुछ नहीं बोली, लेकिन संजय ने प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरा तो वह रोने लगी.

संजय कुछ समझ नहीं पा रहा था. कस्तूरी ने अपने आंसू पोंछे और बोली, ‘‘बाबू, मेरी यह हालत उसी दिन से है, जिस दिन आप और आप के दोस्त मुझे होटल में मिले थे.’’

संजय ने उस की तरफ सवालिया नजरों से देखा, तो वह फिर बोली, ‘‘बाबू, मैं कोई धंधेवाली नहीं हूं. मैं उस गंदे नाले के पास वाली कच्ची झोंपड़पट्टी में रहती हूं. उस दिन पुलिस मेरे भाई को पकड़ कर ले गई थी, क्योंकि वह गली में चरसगांजा बेच रहा था. उसे जमानत पर छुड़ाना था और मेरे मांबाप के पास पैसा नहीं था. अब मुझे ही कुछ करना था.

‘‘मैं ने अपने पड़ोस में सब से पैसा मांगा, लेकिन किसी ने नहीं दिया. थकहार कर मैं बैठ गई तो मेरी एक मौसी बोली कि इस बेरहम जमाने में कोई मुफ्त में पैसा नहीं देता.

‘‘मौसी की यह बात मेरी समझ में आई और मैं आप और आप के दोस्तों तक पहुंच गई.’’

कस्तूरी चुप हुई, तो संजय ने अपने चेहरे के दर्द को छिपाते हुए पूछा, ‘‘तुम्हारी यह हालत कैसे हुई?’’

कस्तूरी ने कहा, ‘‘बाबू, यह जान कर आप क्या करोगे? यह तो मेरी किस्मत है.’’

संजय ने फिर जोर दिया, तो कस्तूरी बोली, ‘‘बाबू, उस दिन आप के दिए गए पैसे से मैं अपने भाई को हवालात से छुड़ा लाई, तो भाई ने पूछा कि पैसे कहां से आए. मैं ने झूठ बोल दिया कि किसी से उधार लिए हैं.’’

थोड़ी देर चुप रहने के बाद वह फिर बोली, ‘‘बाबू, सब ने पैसा देखा, लेकिन मैं ने जो जिस्म बेच कर एक जान को अपने शरीर में आने दिया, तो उसे सब नाजायज कहने लगे और जिस भाई को मैं ने बचाया था, वह मुझे धंधेवाली कहने लगा और मुझे मारने लगा. वह मुझे रोज ही मारता है.’’

यह सुन कर संजय के कलेजे का खून सूख गया. इस सब के लिए वह खुद को भी कुसूरवार मानने लगा. उस की आंखों में भी आंसू छलक आए थे.

कस्तूरी ने यह देखा तो वह बोली, ‘‘बाबू, इस में आप का कोई कुसूर नहीं है. अगर मैं उस रात आप को जिस्म नहीं बेचती तो किसी और को बेचती. लेकिन बाबू, उस दिन के बाद से मैं ने अपना जिस्म किसी को नहीं बेचा,’’ यह कहते हुए वह चुप हुई और कुछ सोच कर बोली, ‘‘बाबू, उस रात आप के अच्छे बरताव को देख कर मैं ने फैसला किया था कि मैं आप की इस प्यार की निशानी को दुनिया में लाऊंगी और उसी के सहारे जिंदगी गुजार दूंगी, क्योंकि हम जैसी गरीब लड़कियों को कहां कोई प्यार करने वाला जीवनसाथी मिलता है.’’

इतना कह कर कस्तूरी का गला भर आया. वह आगे बोली, ‘‘बाबू, यह आप की निशानी है और मैं इसे दुनिया में लाऊंगी, चाहे इस के लिए मुझे मरना ही क्यों न पड़े,’’ इतना कह कर वह तेजी से उठी और अपने घर की तरफ चल दी.

यह सुन कर संजय जैसे जम गया था. वह कह कर भी कुछ नहीं कह पाया. उस ने फैसला किया कि कल वह कस्तूरी के घर जा कर उस से शादी की बात करेगा.

वह रात संजय को लंबी लग रही थी. सुबह संजय जल्दी उठा और बदहवास सा कस्तूरी के घर की तरफ चल दिया. वह उस के महल्ले के पास पहुंचा तो एक जगह बहुत भीड़ जमा थी. वह किसी अनहोनी के डर को दिल में लिए भीड़ को चीर कर पहुंचा, तो उस ने जो देखा तो जैसे उस का दिल बाहर निकलने की कोशिश कर रहा हो.

कस्तूरी जमीन पर पड़ी थी. उस की आंखें खुली थीं और चेहरे पर वही मासूम मुसकराहट थी.

संजय ने जल्दी से पूछा कि क्या हुआ है तो किसी ने बताया कि कस्तूरी के भाई ने उसे चाकू से मार दिया है, क्योंकि सब कस्तूरी के पेट में पल रहे बच्चे की वजह से उसे बेइज्जत करते थे.

संजय पीछे हटने लगा, अब उसे लगने लगा था कि वह गिर जाएगा. तभी पुलिस का सायरन बजने लगा तो भीड़ छंटने लगी.

संजय पीछे हटते हुए कस्तूरी को देख रहा था. उस का एक हाथ अपने पेट पर था और शायद वह अपने प्यार को मरते हुए भी बचाना चाहती थी. उस के चेहरे पर मुसकराहट ऐसी थी, जैसे उन खुली आंखों से संजय को कहना चाहती हो, ‘बाबू, यह तुम्हारे प्यार की निशानी है, पर इस में तुम्हारा कोई कुसूर नहीं है.’

संजय पीछे मुड़ा और अपने घर पहुंच कर रोने लगा. वह अपनेआप को माफ नहीं कर पा रहा था, क्योंकि अगर वह कल ही उस से शादी की बात कर लेता तो शायद कस्तूरी जिंदा होती.

बारिश होने लगी थी. बादल जोर से गरज रहे थे. वे भी कस्तूरी के प्यार के लिए रो रहे थे.

Best Hindi Story : मैं अहिल्या नहीं नंदिनी हूं

Best Hindi Story : ‘आखिर मेरा दोष क्या है जो मैं अपमान की पीड़ा से गुजर रही हूं? नातेरिश्तेदार, पासपड़ोस यहां तक कि मेरा पति भी मुझे दोषी समझ रहा है. कहता है वह मुझ से शादी कर के पछता रहा है और लोग कहते हैं मुझे अपनी मर्यादा में रहना चाहिए था. पासपड़ोस की औरतें मुझे देखते ही बोल पड़ती हैं कि मुझ जैसी चरित्रहीन औरत का तो मुंह भी देखना पाप है. जो मेरी पक्की सहेलियां थीं वे भी मुझे रिश्ता तोड़ चुकी हैं. लेकिन मेरा दोष क्या है? यही सवाल मैं बारबार पूछती हूं सब से. मैं तो अपनी मर्यादा में ही थी. क्यों समाज के लोगों ने मुझे ही धर्मकर्म के कामों से दूर कर दिया यह बोल कर कि हिंदू धर्म में ऐसी औरत का कोई स्थान नहीं?’ अपने ही खयालों में खोई नंदिनी को यह भी भान नहीं रहा कि पीछे से गाड़ी वाला हौर्न पर हौर्न बजाए जा रहा है.

‘‘ओ बहनजी, मरना है क्या’’ जब उस अजनबी ने यह कहा तो वह चौंक कर पलटी.

‘‘बहनजी? नहींनहीं मैं किसी की कोई बहनवहन नहीं हूं,’’ बोल कर नंदिनी सरपट भागी और वह इंसान उसे देखता रह गया, फिर अपने कंधे उचका कर यह बोल कर आगे बढ़ गया कि लगता है कोई पागल औरत है.

घर आ कर नंदिनी दीवार की ओट से लग कर बैठ गई. जरा सुस्ताने के बाद उस ने घर को बड़े गौर से निहारा. सबकुछ तो वैसे ही था. सोफा, पलंग, टेबलकुरसी, अलमारी, सब अपनीअपनी जगह व्यवस्थित रखे हुए.

मगर नंदिनी की ही जिंदगी क्यों इतनी अव्यवस्थित हो गई? क्यों उसे आज अपना ही घर पराया सा लगने लगा था? जो पति अकसर यह कहा करता था कि वह उस से बहुत प्यार करता है वही आज क्यों उस का चेहरा भी नहीं देखना चाहता?

जिन मातापिता की वह संस्कारी बेटी थी, क्यों उन्होंने भी उस का बहिष्कार कर

दिया? ये सारे सवाल नंदिनी के दिल को मथे जा रहे थे. आखिर किस से कहे वह अपने दिल का दर्द और कहां जाए? मन कर रहा था उस का कि जोरजोर से चीखेचिल्लाए और कहे दुनिया वालों से कि उस की कोई गलती नहीं है. अरे, उस ने तो इस इंसान को अपना भाई समझा था. लेकिन उस के मन में नंदिनी के लिए खोट था वह उसे कहां पता था.

‘‘दीदी’’, हिचकते हुए नंदिनी ने अपनी बड़ी बहन को फोन लगाया, ‘‘क्या आप भी मुझे ही गलत समझ रही हैं? आप को भी यही लगता है कि मैं ही उस इंसान पर गलत नजर रखती थी? नहीं दीदी ऐसी बात नहीं, बल्कि झूठा वह इंसान है, पर यह बात मैं कैसे समझाऊं सब को? मन तो कर रहा है कि मैं कहीं भाग जाऊं या फिर मर जाऊं ताकि इस जिंदगी से छुटकारा मिले,’’ कह कर नंदिनी सिसक पड़ी.

‘‘मरने या कहीं भाग जाने से क्या होगा नंदिनी? लोग तो तब भी वही कहेंगे न और मैं गुस्सा तुम से इस बात पर नहीं हूं कि तुम गलत हो. भरोसा है मुझे तुम पर, लेकिन गुस्सा मुझे इस बात पर आ रहा है कि क्यों तुम ने उस इंसान को माफ कर दिया? क्यों नहीं उस के खिलाफ थाने में रिपोर्ट लिखाई, जिस ने तुम्हें कहीं का नहीं छोड़ा? तुम ने उसे अपना भाई माना था न? रिश्तों की आड़ में पहले तो उस ने तुम्हारी आबरू लूटी और फिर उसी रिश्ते की दुहाई दे कर बच निकला और तुम ने भी तरस खा कर उसे माफ कर दिया? क्यों, आखिर क्यों नंदिनी?’’

‘‘उस के बच्चों की सोच कर दीदी, उस की पत्नी मेरे कदमों में गिर गिड़गिड़ाने लगी, बोली कि अगर उस का पति जेल चला जाएगा, तो वह मर जाएगी और फिर उस के बच्चे सड़क पर भीख मांगेंगे. दया आ गई मुझे उस के बच्चों पर दीदी और कुछ नहीं, सोचा उस के कर्मों की सजा उस के भोेलेभाले बच्चों को क्यों मिले.’’

‘‘अच्छा, और तुम्हारे बच्चे का क्या, जो तुम से दूर चला गया? चलो मान भी गए कि तुम ने उस के बच्चों का सोच कर कुछ नहीं कहा और न ही पुलिस में रपट लिखाई, लेकिन उस ने क्या किया तुम्हारे साथ? तुम्हें बदनाम कर खुद साफ बच निकला. पता भी है तुम्हें कि लोग तुम्हें ले कर क्याक्या बातें बना रहे हैं? कौन पिताभाई या पति यह बात सहन कर पाएगा भला? तुम्हारी सहेली रमा, सब से कहती फिर रही है कि भाईभाई कह कर तुम ने उस के पति को फंसाने की कोशिश की. मेरी तो समझ में नहीं आ रहा है कि तुम क्यों कर रही हो ये सब?’’

‘‘तुम कोई अहिल्या नहीं, जो दोषी न होते हुए भी पत्थर की शिला बन जाओ और कलंकिनी कहलाओ और इंतजार करो किसी राम के आने का जो तुम्हें तार सके. तुम आज की नारी हो नंदिनी आज की. भूल गई उस लड़के को, जो कालेज की हर लड़की को परेशान करता था और जब एक दिन उस ने मुझ पर हाथ डालने की कोशिश की, तो कैसे तुम उसे घसीटते हुए प्रिंसिपल के पास ले गई थी.

प्रिंसिपल को उस लड़के को कालेज से निकालना पड़ा था. जब उस लड़के के घमंडी पैसे वाले बाप ने तुम्हें धमकाने की कोशिश की, तब भी तुम नहीं डरी और न ही अपने शब्द वापस लिए थे. तो फिर आज कैसे तुम चुप रह गई नंदिनी? छल और बलपूर्वक जिस रावण ने तुम्हें छला उस का ध्वंस तुम्हें ही करना होगा. लोगों का क्या है. वे तो जो सुनेंगे वही दोहराएंगे. लेकिन तुम्हें यह साबित करना होगा कि तुम सही हो गलत वह इंसान है.’’

अपनी बहन की कही 1-1 बात नंदिनी को सही लग रही थी. पर वह साबित कैसे करे कि वह सही है? कोसने लगी वह उस दिन को जब पहली बार वह रूपेश और रमा से मिली थी.

विकास और रूपेश दोनों बहुत अच्छे दोस्त थे और इसी वजह से नंदिनी और रमा भी अच्छी सहेलियां बन चुकी थीं. रूपेश नंदिनी को भाभी कह कर बुलाता था और नंदिनी उसे रूपेश भैया कह कर संबोधित करती थी. कहीं न कहीं रूपेश में उसे अपने भाई का अक्स दिखाई देता जो अब इस दुनिया में नही रहा.

जब भी रूपेश नंदिनी के घर आता वह उस के लिए वही सब करती, जो कभी अपने भाई के लिए किया करती थी. लेकिन रमा को ये सब अच्छा नहीं लगता. उसे लगता कि वह जानबूझ कर रूपेश के सामने अच्छा बनने की कोशिश करती है, दिखाती है कि वह उस से बेहतर है. कह भी देता कभी रूपेश कि सीखो कुछ नंदिनी भाभी से. चिढ़ उठती वह उस की बातों से, पर कुछ बोलती नहीं.

नंदिनी की सुंदरता, उस के गुण और जवानी को देख रमा जल उठती क्योंकि वह बेडौल औरत थी. इतनी थुलथुल कि जब चलती, तो उस का पूरा शरीर हिलता. कितना चाहा उस ने कि नंदिनी की तरह बन जाए, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया. वह जानती थी कि नंदिनी उस से हर मामले में 20 है और इसी बात से वह उस से जलती थी पर दिखाती नहीं थी.

दोनों के घर पासपास होने के कारण अकसर वे एकदूसरे के घर आतेजाते रहते थे. नंदिनी के हाथों का बनाया खाना खा कर रूपेश बोले बिना नहीं रह पाता कि उस के हाथों में तो जादू है. कहता अगर रमा को भी वह कुछ बनाना सिखा दे, तो उस पर कृपा होगी, क्योंकि रोजरोज एक ही तरह का खाना खाखा कर वह ऊब जाता है. उस की बातों पर नंदिनी और विकास हंस पड़ते. लेकिन रमा चिढ़ उठती और कहती कि अब वह उस के लिए कभी खाना नहीं बनाएगी.

दोनों परिवारों के बीच इतनी मित्रता हो गई थी कि अकसर वे साथ घूमने निकल जाते. छुट्टी वाले दिन भी साथ फिल्म देखने जाते या फिर लौंग ड्राइव पर. कभी रमा अपने मायके जाती तो नंदिनी रूपेश के खानेपीने का ध्यान रखती और जब कभी नंदिनी कहीं चली जाती तो रमा विकास के खानेपीने का ध्यान रखती थी.

उस रोज भी यही हुआ था. रमा अपने भाई की शादी में गई थी, इसलिए रूपेश के खानेपीने की जिम्मेदारी नंदिनी पर ही थी. विकास भी औफिस के काम से शहर से बाहर गया था. कामवाली भी उस दिन नहीं आई थी. नंदिनी खाना पकाने के साथसाथ कपड़े भी धो रही थी. इसी बीच रूपेश आ गया, ‘‘भाभी,’’ उस ने हमेशा की तरह बाहर से ही आवाज लगाई.

‘‘अरे, भैया आ जाओ दरवाजा खुला ही है,’’ कह कर वह अपना काम करती रही.

रूपेश हमेशा की तरह सोफे पर बैठ गया और फिर टेबल पर पड़ा अखबार उठा कर पढ़ने लगा. तभी उस की नजर नंदिनी पर पड़ी, तो वह भौचक्का रह गया. भीगी सफेद साड़ी में नंदिनी का पूरा बदन साफ दिखाई दे रहा था और जब वह कपड़े सुखाने डालने के लिए अपने हाथ ऊपर उठाती तो उस का सुडौल वक्षस्थल का उभार और अधिक उभर आता. रूपेश अपलक देखे जा रहा था. उस के उरोज की सुडौलता देख कर उस का मन बेचैन हो उठा और उस ने अपनी नजर फेर ली, पर फिर बारबार उस की नजर वहीं जा कर टिक जाती.

‘‘भैया, चाय बनाऊं क्या?’’ कह कर नंदिनी ने जब अपनी साड़ी का पल्लू कमर में खोसा तो उस का गोरागोरा पूरा पेट दिखने लगा.

नंदिनी के मादक संगमरमरी जिस्म को देख रूपेश का पूरा शरीर थरथराने लगा.

उस की आंखें चौंधिया गईं और उत्तेजना की लहर पूरे जिस्म में फैल गई. आज से पहले नंदिनी को उस ने इस प्रकार कभी नहीं देखा था. नंदिनी को इस अवस्था में देख उस का अंगअंग फड़कने लगा और बेचैन रूपेश ने क्षण भर में ही एक फैसला ले लिया. नंदिनी कुछ समझ पाती उस

से पहले ही उस ने उसे अपनी बांहों में भींच लिया और फिर अपने जलते होंठ उस के अधरों पर रख दिए और जोरजोर से उस के होंठों को चूसने लगा.

नंदिनी कुछ बोल नहीं पा रही थी. अवाक सी आंखें फाड़े उसे एकटक देखे जा रही थी. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि जिसे वह भाईर् मानती आई है आज वह उस के साथ क्या करने की कोशिश कर रहा है, क्योंकि रूपेश की सरलता और सहजता देख कभी उसे ऐसा नहीं लगा था कि उस के अंदर इतना यौन आक्रमण भरा हुआ है.

रूपेश का यह रूप देख नंदिनी सिहर उठी. भरसक अपनेआप को उस से छुड़ाने का प्रयास करने लगी, पर सब बेकार था. वह अभी भी नंदिनी के होठों को चूसे जा रहा था. उस का एक हाथ नंदिनी के स्तनों पर गया. जैसे ही उस ने नंदिनी के स्तन को जोर से दबाया वह चीख के साथ बेहोश हो गई और फिर जब होश आया तब तक अनहोनी हो चुकी थी.

अपनी करनी पर माफी मांग रूपेश तो वहां से भाग निकला, लेकिन वह रात नंदिनी के लिए अमावस्या की काली रात बन गई. कैसे उस ने पूरी रात खुद में सिमट कर बिताई, वही जानती. मुंह से कोई शब्द नहीं निकल पा रहा था. बस आंखों के रास्ते आंसुओं का दरिया बहे जा रहा था. समझ में नहीं आ रहा था कि किस से कहे और कैसे? जब विकास को इस बात का पता चला तो सहानभूति दिखाने के बजाय वह उसे ही भलाबुरा कहने लगा कि जरूर दोनों का पहले से ही नाजायज रिश्ता रहा होगा और अब जब उसे पता चल गया तो वह रोनेधोने का नाटक कर रही है.

विकास और नंदिनी के घर वाले रूपेश के

खिलाफ पुलिस में बलात्कार का केस दर्ज कराने घर से निकल ही रहे थे कि तभी ऐन वक्त पर वहां रमा पहुंच गई और नंदिनी के पैरों में गिर कर गिड़गिड़ाते हुए अपने पति के जीवन की भीख मांगने लगी, अपने छोटेछोटे बच्चों की दुहाई देने

लगी. रूपेश भी नंदिनी के पैरों में लोट गया. कहने लगा कि चाहे नंदिनी उसे जो भी सजा दे दे, पर पुलिस में न जाए. वरना वह मर जाएगा. अपनी बेइज्जती बरदाश्त नहीं

कर पाएगा.

दोनों पतिपत्नी की दशा देख नंदिनी का दिल पसीज गया. कहने लगी कि उस के साथ जो होना था सो तो हो गया, अब क्यों इतनी जिंदगियां बरबाद हों? यह सुन कर तो सब का पारा गरम हो गया. विकास तो कहने लगा कि जरूर नंदिनी और रूपेश का नाजायज रिश्ता है और इसीलिए उस ने अपना फैसला बदल दिया.

नंदिनी के मांपापा भी गुस्से से यह बोल कर निकल गए कि अब नंदिनी से उन का कोई वास्ता नहीं है, सोच लेंगे कि उन की 1 ही बेटी है. कितना समझया नंदिनी ने सब को कि ऐसी कोई बात नहीं है और इस से क्या हो जाएगा, उलटे उस की भी बदनामी होगी सब जगह, पर किसी ने उस की बात नहीं सुनी और उसे ही दोषी मान कर वहां से चले गए.

मगर नंदिनी गलत थी, क्योंकि कुछ महीने बाद ही रमा और रूपेश ने यह बात फैलानी शुरू कर दी कि नंदिनी अच्छी औरत नहीं है. दूसरे मर्दों को फंसा कर अपनी हवस पूरी करना उस की आदत है. रूपेश को भी उस ने अपने जाल में फंसा रखा था और मौका मिलते ही उसे अपनी हवस का शिकार बना डाला और फिर रोनेधोने का नाटक करने लगी.

यह सुन कर पासपड़ोस की औरतों ने अपनेअपने मुंह पर हाथ रख लिया और ‘हायहाय’ करने लगीं. जो महल्ले की औरतें नंदिनी से रोज बातें करती थीं, अब उसे देख कर मुंह फेरने लगीं और तरहतरह की बातें बनाने लगीं. रूपेश को ले कर विकास ने भी उस पर गंदेगंदे इलजाम लगाए, कहा कि अगर वह सही थी तो क्यों नहीं उस के खिलाफ पुलिस में मामला दर्ज करवाया?

दुनिया की तो वह सुन ही रही थी पर जब उस का पति भी इस तरह उस पर इलजाम लगाने लगा, तो वह टूट गई. विकास की बातों ने उस का कलेजा छलनी कर दिया, ‘‘पहले तो मुझे शंका थी, पर अब वह यकीन में बदल गई. तुम जितनी सतीसावित्री दिखती हो उतनी हो नहीं. मेरी पीठ पीछे मेरे ही दोस्त के साथ… छि: और नाम क्या दे दिया इस रिश्ते को, भाईबहन का रिश्ता ताकि लोगों

को लगे कि यह तो बड़ा ही पवित्र रिश्ता है. है न? धूल झोंक रह थी मेरे आंखों में?

‘‘अरे, जो लोग मुझे टोकने तक की हिम्मत नहीं करते थे, आज वही लोग मेरी आंखों में आंखें मिला कर बात करने की जुर्रत करते हैं सिर्फ तुम्हारी वजह से. नहीं रहना अब मुझे इस घर में,’’ कह कर विकास घर से निकल गया और साथ में बच्चों को भी यह कह कर ले गया कि उस के साथ रह कर उन के भी संस्कार खराब हो जाएंगे. आज नंदिनी के साथ कोई नहीं था सिवा बदनामी के.

बड़ी हिम्मत कर एक रोज उस ने अपने मांबाप को फोन लगाया, पर उन्होंने फोन नहीं उठाया. जब विकास को फोन लगाया तो पहले तो उस ने फोन काटना चाहा, लेकिन फिर कहने लगा, ‘‘क्या यही सफाई देना चाहती हो कि तुम सही हो और लोग जो बोल रहे हैं वह गलत? तो साबित करो न, करो न साबित कि तुम सही हो और वह इंसान गलत. साबित करो कि छल से उस ने तुम्हारी इज्जत पर हाथ डाला.

‘‘माफ कर दूंगा मैं तुम्हें, लेकिन तुम ऐसा नहीं करोगी नंदिनी, पता है मुझे. इसलिए आज के बाद तुम मुझे कभी फोन मत करना,’’ कह कर विकास ने फोन पटक दिया. नंदिनी कुछ देर तक अवाक सी खड़ी रह गईर्.

‘सही तो कह रहे हैं विकास और मैं कौन सा रिश्ता निशा रही हूं और किस के साथ? जब उस ने ही रिश्ते की लाज नहीं रखी तो फिर मैं क्यों दुनिया के सामने जलील हुई जा रही हूं?’ परिवार से रुसवाई, समाज में जगहंसाई और

पति से विरह के अलावा मिला ही क्या मुझे? आज भी अपने पति के प्रति मेरी पूरी निष्ठा है. लेकिन छलपूर्वक मेरी निष्ठा को भ्रष्ट कर दिया उस दरिंदे ने. मेरा तनमन छलनी कर दिया उस ने, तो फिर क्यों मैं उस हैवान को बचाने की सोच रही हूं?

सही कहा था दीदी ने मैं कोई अहिल्या नहीं जो बिना दोष के ही शिला बन कर सदियों तक दुख भोगूं और इंतजार करूं किसी राम के आने का. मैं नंदिनी हूं नंदिनी जो गलत के खिलाफ हमेशा आवाज उठाती आई है, तो फिर आज जब मुझ पर आन पड़ी तो कैसे चुप रह गई मैं? नहीं, मैं चुप नहीं रहूंगी. बताऊंगी सब को कि उस दरिंदे ने कैसे मेरे तनमन को छलनी किया. कोमल हूं कमजोर नहीं, मन ही मन सोच कर नंदिनी ने अपनी दीदी को फोन लगाया.

नंदिनी के जीजाजी के एक दोस्त का भाई वकील था, पहले दोनों बहनें उन के पास गईं और फिर सारी बात बताई. सारी बात जानने के बाद वकील साहब कहने लगे, अगर यह फैसला रेप के तुरंत बाद लिया गया होता, तो नंदिनी का केस मजबूत होता, लेकिन सुबूतों के अभाव की वजह से अब यह केस बहुत वीक हो गया है, मुश्किल है केस जीत पाना. शायद पुलिस भी अब एफआईआर न लिखे.’’

‘‘पर वकील साहब, कोई तो रास्ता होगा न? ऐसे कैसे कुछ नहीं हो सकता? नंदिनी की दीदी बोली.

‘‘हो सकता है, अगर गुनहगार खुद ही अपना गुनाह कबूल कर ले तो,’’ वकील ने कहा.

‘‘पर वह ऐसा क्यों करेगा?’’ वकील की बातों से नंदिनी सकते में आ गई, क्योंकि उस के सामने एक बड़ी चुनौती आ खड़ी हुई थी. लेकिन उसे उस इंसान को सजा दिलवानी ही है, पर कैसे यह सोचसोच कर वह परेशान हो उठी.

घर आ कर भी नंदिनी चिंता में डूबी रही. बारबार वकील की कही यह बात कि सुबूत न होने की वजह से उस का केस बहुत वीक है उस का दिमाग झझकोर देती. वह न चैन से सो पा

रही थी और न ही बैठ. परेशान थी कि कैसे वह रूपेश के खिलाफ सुबूत जुटाए और कैसे उसे जल्द से जल्द सजा दिलवाए. पर कैसे? यही बात उसे समझ में नहीं आ रही थी. तभी अचानक उस के दिमाग में एक बात कौंधी और तुरंत उस ने अपनी दीदी को फोन लगा कर सारा मामला समझा दिया.

‘‘पर नंदिनी, यह काम इतना आसान नहीं है बहन,’’ चिंतातुर उस की दीदी ने कहा. उसे लगा कि कहीं नंदिनी किसी मुसीबत में न फंस जाए.

‘‘जानती हूं दीदी, पर मुश्किल भी नहीं, मुझे हर हाल में उसे सजा दिलवानी है, तो यह रिस्क उठाना ही पड़ेगा अब. कैसे छोड़ दूं उस इंसान को मैं दीदी, जिस ने मेरी इज्जत और आत्मसम्मान को क्षतविक्षत कर दिया. उस के कारण ही मेरा पति, बच्चा मुझ से दूर हो गए,’’ कह वह उठ खड़ी हुई.

‘‘आप यहां?’’ अचानक नंदिनी को अपने सामने देख रूपेश चौंका.

‘‘घबराइए नहीं भा… सौरी, अब तो मैं आप को भैया नहीं बुला सकती न. वैसे हम कहीं बैठ कर बातें करें?’’ कह कर नंदिनी उसे पास की ही एक कौफी शौप में ले गई. वहां उस का हाथ पकड़ कर कहने लगी, ‘‘रूपेश, आप उस बात को ले किर गिल्टी फील मत कीजिए और सच तो यह है कि मैं भी आप को चाहने लगी थी. सच कहती हूं, जलन होती थी मुझे उस मोटी रमा से जब वह आप के करीब होती.

‘‘भैया तो मैं आप को इसलिए बुलाती थी ताकि विकास और रमा बेफिक्र रहें, उन्हें शंका न हो हमारे रिश्ते पर. जानते हैं जानबूझ कर मैं ने उस रोज अपनी बाई को छुट्टी दे दी थी. लगा विकास भी बाहर गए हुए हैं तो इस से अच्छा मौका और क्या हो सकता है.’’

‘‘जैसा प्लान बना रखा था मैं ने ठीक वैसा ही किया. पारदर्शी साड़ी पहनी.

दरवाजा पहले से खुला रखना भी मेरे प्लान में शामिल था रूपेश. अगर आप न हरकत करते उस दिन तो मैं ही आप के आगोश में आ जाती. खैर, बातें तो बहुत हो गईर्ं, पर अब क्या सोचा है?’’ उस की आंखों में झांकते हुए नंदिनी बोली, ‘‘कभी विकास और रमा को हमारे रिश्ते के बारे में पता न चले यह ध्यान मैं ने हमेशा रखा,’’ कह कर रूपेश को चूम लिया और जता दिया कि वह उस से क्या चाहती है.

पहले तो रूपेश को थोड़ा अजीब लगा, लेकिन फिर नंदिनी की साफसाफ बातों से उसे पता चल गया कि वह भी उसी राह की राही है जिस का वह.

फिर तय हुआ कल दोनों एक होटल में मिलेंगे, जो शहर से दूर है.

‘‘क्या बहाना बनाया आप ने रमा से?’’ रूपेश की बांहों में समाते हुए नंदिनी ने पूछा.

‘‘यही कि औफिस के काम से दूसरे शहर जा रहा हूं और तुम ने क्या बहाना बनाया?’’

‘‘मैं क्या बहाना बनाऊंगी, विकास मेरे साथ रहते ही नहीं अब,’’ अदा से नंदिनी ने कहा, ‘‘कब का छोड़ कर चला गया वह मुझे. अच्छा ही हुआ. वैसे भी वह मुझे जरा भी पसंद नहीं था,’’ कह कर नंदिनी ने रुपेश को चूम लिया.

पक्षी को जाल में फंसाने के लिए दाना तो डालना ही पड़ता है न, सो नंदिनी वही कर रही थी. पैग नंदिनी ने ही बनाया और अब तक 3-4 पैग हो चुके थे. नशा भी चढ़ने लगा था धीरेधीरे.

‘‘अच्छा रूपेश, सचसच बताना, क्या तुम भी मुझे पसंद करते थे?’’ बात पहले उस ने ही छेड़ी.

‘‘सच कहूं नंदिनी,’’ नशे में वह सब सहीसही बकने लगा, ‘‘जब तुम्हें पहली बार देखा था न तभी मुझे कुछकुछ होने लगा था. लगा था कि विकास कितना खुशहाल है जो तुम जैसी सुंदर पत्नी मिली और मुझे मोटी थुलथुल… जलन होती थी मुझे विकास से. जब भी मैं तुम्हें देखता था मेरी लार टपकने लगती थी. लगता कैसे मैं तुम्हें अपनी बांहों में भर लूं और फिर गोद में उठा कर कमरे में ले जाऊं और फिर… लेकिन जब तुम मुझे भैया कह कर बुलाती थी न, तो मेरा सारा जोश ठंडा पड़ जाता. ‘‘मौका ढूंढ़ता था तुम्हारे करीब आने का और उस दिन मुझे वह मौका मिल ही गया.

‘‘तुम्हारे गोरेगोरे बदन को देख उस दिन मैं पागल हो गया. लगा अगर तभी तुम्हें न पा लूं तो फिर कभी ऐसा मौका नहीं मिलेगा. सच में मजा आ गया था उस दिन तो,’’ एक बड़ा घूंट भरते हुए वह बोला, ‘‘जो मजा तुम में है न नंदिनी वैसा कभी रमा के साथ महसूस नहीं किया मैं ने. वैसे तुम चुप क्यों हो गई नंदिनी, बोलो कुछ…’’

जैसे ही उस ने ये शब्द कहे, कमरे की लाइट औन हो गई. सामने पुलिस को देख रूपेश की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. फिर जब नंदिनी के व्यंग्य से मुसकराते चेहरे को देखा, तो समझ गया कि ये सब उसे फंसाने की साजिश थी अब वह पूरी तरह इन के चंगुल में फंस चुका है.

फिर भी सफाई देने से बाज नहीं आया, कहने लगा, ‘‘इंस्पैक्टर साहब, म… म… मेरा कोई दोष नहीं है… इस ने मुझे यहां बुलाया था तो मैं आ गया.’’

‘‘हां, मैं ने ही तुम्हें यहां बुलाया था पर क्यों वह भी सुन लो’’, कह कर नंदिनी ने अपना सारा प्लान उसे बता दिया.

एक न चली रूपेश की, क्योंकि सारी सचाई अब पुलिस के सामने थी, सुबूत के साथ, जो नंदिनी ने अपने फोन में रिकौर्ड कर लिया था. पुलिस के डर से रूपेश ने अपना सारा गुनाह कबूल कर लिया. नंदिनी से जबरन बलात्कार और उसे बदनाम करने के जुर्म में कोर्ट ने रूपेश को 10 साल की सजा सुनाई.

गलत न होने के बाद भी नंदिनी को दुनिया के सामने जलील होना पड़ा, अपने पति बच्चों से दूर रहना पड़ा. सोच भी नहीं सकती थी वह कि जिस इंसान को उस ने दिल से भाई माना, वह उस के लिए इतनी गंदी सोच रखता था. रूपेश की सजा पर जहां नंदिनी ने सुकून की सांस ली वहीं विकास और उस के मायके वाले बहुत खुश थे.

अगर नंदिनी ने यह कदम न उठाया होता आज तो वह दरिंदा फिर किसी और नंदिनी को अपनी हवस का शिकार बना देता और फिर उसे ही दुनिया के सामने बदनाम कर खुद बच निकलता. रूपेश को उस के कर्मों की सजा मिल चुकी थी और नंदिनी को सुकून.

Love Story : तेरी देहरी – अनुभव पर क्यों डोरे डाल रही थी अनुभा

Love Story : क्लासरूम से बाहर निकलते ही अनुभा ने अनुभव से कहा, ‘‘अरे अनुभव, कैमिस्ट्री मेरी समझ में नहीं आ रही है. क्या तुम मेरे कमरे पर आ कर मुझे समझा सकते हो?’’

‘‘हां, लेकिन छुट्टी के दिन ही आ पाऊंगा.’’

‘‘ठीक है. तुम मेरा मोबाइल नंबर ले लो और अपना नंबर दे दो. मैं इस रविवार को तुम्हारा इंतजार करूंगी. मेरा कमरा नीलम टौकीज के पास ही है. वहां पहुंच कर मुझे फोन कर देना. मैं तुम्हें ले लूंगी.’’

रविवार को अनुभव अनुभा के घर में पहुंचा. अनुभा ने बताया कि उस के साथ एक लड़की और रहती है. वह कंप्यूटर का कोर्स कर रही है. अभी वह अपने गांव गई है.

अनुभव ने अनुभा से कहा कि वह कैमिस्ट्री की किताब निकाले और जो समझ में न आया है वह

पूछ ले. अनुभा ने किताब निकाली और बहुत देर तक दोनों सूत्र हल करते रहे.

अचानक अनुभा उठी और बोली, ‘‘मैं चाय बना कर लाती हूं.’’

अनुभव मना करना चाह रहा था लेकिन तब तक वह किचन में पहुंच गई थी. थोड़ी देर में वह एक बडे़ से मग में चाय ले कर आ गई. अनुभव ने मग लेने के लिए हाथ बढ़ाया, तभी मग की चाय उस की शर्टपैंट पर गिर गई.

‘‘सौरी अनुभव, गलती मेरी थी. मैं दूसरी चाय बना कर लाती हूं. तुम्हारी शर्टपैंट दोनों खराब हो गई हैं. ऐसा करो, कुछ देर के लिए तौलिया लपेट लो. मैं इन्हें धो कर लाती हूं. पंखे की हवा में जल्दी सूख जाएंगे. तब मैं प्रैस कर दूंगी.’’

अनुभव न… न… करता रहा, लेकिन अनुभा उस की ओर तौलिया उछाल कर भीतर चली गई.

अनुभव ने शर्टपैंट उतार कर तौलिया लपेट लिया. तब तक अनुभा दूसरे मग में चाय ले कर आ गई थी. वह शर्टपैंट ले कर धोने चली गई.

अनुभव ने चाय खत्म की ही थी कि अनुभा कपड़े फैला कर वापस आ गई. उस ने ढीलाढाला गाउन पहन रखा था. अनुभव ने सोचा शायद कपड़े धोने के लिए उस ने ड्रैस बदली हो.

अचानक अनुभा असहज महसूस करने लगी मानो गाउन के भीतर कोई कीड़ा घुस गया हो. अनुभा ने तुरंत अपना गाउन उतार फेंका और उसे उलटपलट कर देखने लगी.

अनुभव ने देखा कि अनुभा गाउन के भीतर ब्रा और पैंटी में थी. वह जोश और संकोच से भर उठा. एकाएक हाथ बढ़ा कर अनुभा ने उस का तौलिया खींच लिया.

अनुभव अंडरवियर में सामने खड़ा था. अनुभा उस से लिपट गई. अनुभव भी अपनेआप को संभाल नहीं सका. दोनों वासना के दलदल में रपट गए.

अगले रविवार को अनुभा ने फोन कर अनुभव को आने का न्योता दिया. अनुभव ने आने में आनाकानी की, पर अनुभा के यह कहने पर कि पिछले रविवार की कहानी वह सब को बता देगी, वह आने को तैयार हो गया.

अनुभव के आते ही अनुभा उसे पकड़ कर चूमने लगी और गाउन की चेन खींच कर तकरीबन बिना कपड़ों के बाहर आ गई. अनुभव भी जोश में था. पिछली बार की कहानी एक बार फिर दोहराई गई. जब ज्वार शांत हो गया, अनुभा उसे ले कर गोद में बैठ गई और उस के नाजुक अंगों से खेलने लगी.

अनुभा ने पहले से रखा हुआ दूध का गिलास उसे पीने को दिया. अनुभव ने एक ही घूंट में गिलास खाली कर दिया.

अभी वे बातें कर ही रहे थे कि भीतर के कमरे से उस की सहेली रमा निकल कर बाहर आ गई.

रमा को देख कर अनुभव चौंक उठा. अनुभा ने कहा कि घबराने की कोई बात नहीं है. वह उस की सहेली है और उसी के साथ रहती है.

रमा दोनों के बीच आ कर बैठ गई. अचानक अनुभा उठ कर भीतर चली गई.

रमा ने अनुभव को बांहों में भींच लिया. न चाहते हुए भी अनुभव को रमा के साथ वही सब करना पड़ा. जब अनुभव घर जाने के लिए उठा तो बहुत कमजोरी महसूस कर रहा था. दोनों ने चुंबन ले कर उसे विदा किया.

इस के बाद से अनुभव उन से मिलने में कतराने लगा. उन के फोन आते ही वह काट देता.

एक दिन अनुभा ने स्कूल में उसे मोबाइल फोन पर उतारी वीडियो क्लिपिंग दिखाई और कहा कि अगर वह आने से इनकार करेगा तो वह इसे सब को दिखा देगी.

अनुभव डर गया और गाहेबगाहे उन के कमरे पर जाने लगा.

एक दिन अनुभव के दोस्त सुरेश ने उस से कहा कि वह थकाथका सा क्यों लगता है? इम्तिहान में भी उसे कम नंबर मिले थे.

अनुभव रोने लगा. उस ने सुरेश को सारी बात बता दी.

सुरेश के पिता पुलिस इंस्पैक्टर थे. सुरेश ने अनुभव को अपने पिता से मिलवाया. सारी बात सुनने के बाद वे बोले, ‘‘तुम्हारी उम्र कितनी है?’’

‘‘18 साल.’’

‘‘और उन की?’’

‘‘इसी के लगभग.’’

‘‘क्या तुम उन का मोबाइल फोन उठा कर ला सकते हो?’’

‘‘मुझे फिर वहां जाना होगा?’’

‘‘हां, एक बार.’’

अब की बार जब अनुभा का फोन आया तो अनुभव काफी नानुकर के बाद हूबहू उसी के जैसा मोबाइल ले कर उन के कमरे में पहुंचा.

2 घंटे समय बिताने के बाद जब वह लौटा तो उस के पास अनुभा का मोबाइल फोन था.

मोबाइल क्लिपिंग देख कर इंस्पैक्टर चकित रह गए. यह उन की जिंदगी में अजीब तरह का केस था. उन्होंने अनुभव से एक शिकायत लिखवा कर दोनों लड़कियों को थाने बुला लिया.

पूछताछ के दौरान लड़कियां बिफर गईं और उलटे पुलिस पर चरित्र हनन का इलजाम लगाने लगीं. उन्होंने कहा कि अनुभव सहपाठी के नाते आया जरूर था, पर उस के साथ ऐसीवैसी कोई गंदी हरकत नहीं की गई.

अब इंस्पैक्टर ने मोबाइल क्लिपिंग दिखाई. दोनों के सिर शर्म से झुक गए. इंस्पैक्टर ने कहा कि वे उन के मातापिता और प्रिंसिपल को उन की इस हरकत के बारे में बताएंगे.

लड़कियां इंस्पैक्टर के पैर पकड़ कर रोने लगीं. इंस्पैक्टर ने कहा कि इस जुर्म में उन्हें सजा हो सकती है. समाज में बदनामी होगी और स्कूल से निकाली जाएंगी सो अलग. उन के द्वारा बारबार माफी मांगने के बाद इंस्पैक्टर ने अनुभव की शिकायत पर लिखवा लिया कि वे आगे से ऐसी कोई हरकत नहीं करेंगी.

अनुभव ने वह स्कूल छोड़ कर दूसरे स्कूल में दाखिला ले लिया. साथ ही उस ने अपने मोबाइल की सिम बदल दी.

इस घटना को 7 साल गुजर गए.

अनुभव पढ़लिख कर कंप्यूटर इंजीनियर बन गया. इसी बीच उस के पिता नहीं रहे. मां की जिद थी कि वह शादी कर ले.

अनुभव ने मां से कहा कि वे अपनी पसंद की जिस लड़की को चुनेंगी, वह उसी से शादी कर लेगा.

अनुभव को अपनी कंपनी से बहुत कम छुट्टी मिलती थी. ऐन फेरों के दिन वह घर आ पाया. शादी खूब धूमधाम से हो गई.

सुहागरात के दिन अनुभव ने जैसे ही दुलहन का घूंघट उठाया, वह चौंक पड़ा. पलंग पर लाजवंती सी घुटनों में सिर दबाए अनुभा बैठी थी.

‘‘तुम…?’’ अनुभव ने चौंकते हुए कहा.

‘‘हां, मैं. अपनी गलती का प्रायश्चित्त करने के लिए अब जिंदगीभर के लिए फिर तुम्हारी देहरी पर मैं आ गई हूं. हो सके तो मुझे माफ कर देना,’’ इतना कह कर अनुभा ने अनुभव को गले लगा लिया.

VIDEO : पीकौक फेदर नेल आर्ट

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