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Short Story : रंगबिरंगी तितली

Short Story : सियाली के मम्मीपापा का तलाक क्या हुआ, वह एक आजाद चिडि़या हो गई, जो कहीं भी उड़ान भरने के लिए अपनी मरजी की मालकिन थी. अब वह खुल कर जीना चाहती थी, मगर यह इतना आसान नहीं था. रविवार के दिन की शुरुआत भी मम्मी व पापा के आपसी झगड़ों की कड़वी आवाजों से हुई. सियाली अभी अपने कमरे में सो ही रही थी, चिकचिक सुन कर उस ने चादर सिर पर ओढ़ ली. आवाज पहले से कम तो हुई पर अब भी कानों से टकरा रही थी. सियाली मन ही मन कुढ़ कर रह गई थी. पास पड़े मोबाइल को टटोल कर उस में ईअरफोन लगा कर बड्स को कानों में कस कर ठूंस लिया और वौल्यूम को फुल कर दिया.

18 वर्षीया सियाली के लिए यह नई बात नहीं थी. उस के मम्मीपापा आएदिन झगड़ते रहते थे, जिस का सीधा कारण था उन दोनों के संबंधों में खटास का होना, ऐसी खटास जो एक बार जीवन में आ जाए तो उस की परिणति आपसी रिश्तों के खात्मे से होती है. सियाली के मम्मीपापा प्रकाश और निहारिका के संबंधों में यह खटास एक दिन में नहीं आई, बल्कि, यह तो एक मध्यवर्गीय परिवार के कामकाजी दंपती के आपसी सामंजस्य बिगड़ने के कारण धीरेधीरे आई एक आम समस्या थी. सियाली का पिता अपनी पत्नी के चरित्र पर शक करता था. उस का शक करना जायज था क्योंकि निहारिका का अपने औफिसकर्मी के साथ संबंध चल रहा था. पतिपत्नी की हिंसा और शक समानुपाती थे. जितना शक गहरा हुआ उतना ही प्रकाश की हिंसा बढ़ती गई और परिणामस्वरूप परपुरुष के साथ निहारिका का प्रेम बढ़ता गया. ‘जब दोनों साथ नहीं रह सकते तो तलाक क्यों नहीं दे देते एकदूसरे को?’ सियाली झुं झला कर मन ही मन बोली.

सियाली जब अपने कमरे से बाहर आई तो दोनों काफी हद तक शांत हो चुके थे. शायद, वे किसी निर्णय तक पहुंच गए थे. ‘‘ठीक है, मैं कल ही वकील से बात कर लेता हूं, पर सियाली को अपने साथ कौन रखेगा?’’ प्रकाश ने निहारिका की ओर घूरते हुए कहा. ‘‘मैं सम झती हूं कि सियाली को तुम मु झ से बेहतर संभाल सकते हो,’’ निहारिका ने कहा. उस की इस बात पर प्रकाश भड़क गया, ‘‘हां, तुम तो सियाली को मेरे पल्ले बांधना चाहती हो ताकि तुम अपने उस औफिस वाले यार के साथ गुलछर्रे उड़ा सको और मैं जवान बेटी के चारों तरफ गार्ड सा बन कर घूमता रहूं.’’ प्रकाश की इस बात पर निहारिका ने भी तेवर दिखाते हुए कहा, ‘‘मर्दों के समाज में क्या सारी जिम्मेदारी एक मां की ही होती है?’’ निहारिका ने गहरी सांस ली और कुछ देर रुक कर बोली, ‘‘हां, वैसे सियाली कभीकभी मेरे पास भी आ सकती है. 1-2 दिन मेरे साथ रहेगी तो मु झे एतराज नहीं होगा,’’ निहारिका ने मानो फैसला सुना दिया था. सियाली कभी मां की तरफ देख रही थी तो कभी अपने पिता की तरफ.

उस से कुछ कहते न बना पर इतना सम झ गई थी कि मांबाप ने अपनाअपना रास्ता अलग कर लिया है और उस का अस्तित्व एक पैंडुलम से अधिक नहीं है, जो दोनों के बीच एक सिरे से दूसरे सिरे तक डोल रही है. मांबाप के बीच रोजरोज के झगड़े ने एक अजीब विषाद से भर दिया था सियाली को. इस विषाद का अंत शायद तलाक जैसे कदम से ही संभव था, इसलिए सियाली के मन में कहीं न कहीं चैन की सांस ने प्रवेश किया कि चलो, आपस की कहासुनी अब खत्म हुई. और अब सब के रास्ते अलगअलग हैं. शाम को सियाली कालेज से लौटी तो घर में एक अलग सी शांति थी. उस के पापा सोफे पर बैठे चाय पी रहे थे, चाय, जो उन्होंने खुद ही बनाई थी. उन के चेहरे पर महीनों से बने रहने वाले तनाव की शिकन गायब थी. सियाली को देख कर उन्होंने मुसकराने की कोशिश भी की, ‘‘देख लो, तुम्हारे लिए चाय बची होगी.’’ सियाली पास आ कर बैठी तो उस के पापा ने अपनी सफाई में कहना शुरू किया, ‘‘मैं बुरा आदमी नहीं हूं, पर तेरी मम्मी ने गलत किया था.

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उस के कर्म ही ऐसे थे कि मु झे उसे देख कर गुस्सा आ ही जाता था और फिर तेरी मां ने भी तो रिश्तों को बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी.’’ पापा की बातें सुन कर सियाली से न रहा गया, ‘‘मैं नहीं जानती कि आप दोनों में से कौन सही है और कौन गलत, पर इतना जरूर जानती हूं कि शरीर में अगर नासूर हो जाए तो औपरेशन ही सही रास्ता और ठीक इलाज होता है,’’ दोनों बापबेटी ने कई दिनों के बाद आज खुल कर बात की थी. पापा की बातों में मां के प्रति नफरत और द्वेष छलक रहा था जिसे चुपचाप सुनती रही सियाली. अगले दिन ही सियाली के मोबाइल पर मां का फोन आया और उन्होंने सियाली को अपना पता देते हुए शाम को उसे अपने फ्लैट पर आने को कहा, जिसे सियाली ने खुशीखुशी मान भी लिया था और शाम को मां के पास जाने की सूचना भी उस ने अपने पापा को दे दी, जिस पर पापा को कोई एतराज न हुआ. शाम को शालीमार अपार्टमैंट में पहुंच गई थी सियाली. पता नहीं क्या सोच कर उस ने लाल गुलाब का एक बुके खरीद लिया था.

फ्लैट नंबर 111 में सियाली पहुंच गई थी. घंटी बजाई, तो दरवाजा मां ने खोला. अब चौंकने की बारी सियाली की थी. मां गहरे लाल रंग की साड़ी में बहुत खूबसूरत लग रही थी. मांग में भरा हुआ सिंदूर और माथे पर तिलक की शक्ल में लगाई हुई बिंदी. सियाली को याद नहीं कि उस ने मां को कब इतनी अच्छी तरह से शृंगार किए हुए देखा था. हमेशा सादे वेश में ही रहती थी उस की मां और टोकने पर दलील देती, ‘अरे, हम कोई अगड़ी जाति के तो हैं नहीं जो हमेशा सिंगार ओढ़े रहें. हम पिछड़ी जाति वालों के लिए सिंपल रहना ही अच्छा है.’ ‘‘आज मां को यह क्या हो गया? उन की सादगी आज शृंगार में कैसे परिवर्तित हो गई थी और क्यों वे जातपांत की गंदी व बेकार की दलीलें दे कर सही बात को छिपाना चाह रही थीं?’’ सियाली ने बुके मां को दे दिया. मां ने बहुत उत्साह से बुके लिया. ‘‘अरे, अंदर आने को नहीं कहोगी सियाली से?’’ मां के पीछे से आवाज आई. आवाज की दिशा में नजर उठाई तो देखा कि सफेद कुरता और पाजामा पहने हुए एक आदमी खड़ा हुआ मुसकरा रहा था. सियाली उसे पहचान गई. वह मां का सहकर्मी देशवीर था. उस की मां उसे पहले भी घर भी ला चुकी थी. मां ने बहुत खुशीखुशी देशवीर से सियाली का परिचय कराया, जिस पर सियाली ने कहा, ‘‘जानती हूं मां, पहले भी तुम इन से मिलवा चुकी हो मु झे.’’ ‘‘पर पहले जब मिलवाया था तब यह सिर्फ मेरे अच्छे दोस्त थे पर आज मेरे सबकुछ हैं. हम लोग फिलहाल तो लिवइन में रह रहे हैं और तलाक होते ही शादी कर लेंगे.’’ मुसकरा कर रह गई थी सियाली. सब ने एकसाथ खाना खाया. डाइनिंग टेबल पर भी माहौल सुखद ही था.

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मां के चेहरे की चमक देखते ही बनती थी और यह चमक कृत्रिम या किसी फेशियल की नहीं थी, उस के मन की खुशी उस के चेहरे पर झलक रही थी. सियाली रात में मां के साथ ही सो गई और सुबह वहीं से कालेज के लिए निकल गई. चलते समय मां ने उसे 2,000 रुपए देते हुए कहा, ‘‘रख लो, घर जा कर पिज्जा वगैरह मंगवा लेना.’’ कल से ले कर आज तक मां ने सियाली के सामने एक आदर्श मां होने के कई उदाहरण प्रस्तुत किए थे पर सियाली को यह सब नहीं भा रहा था और न ही उसे सम झ में आ रहा था कि यह मां का कैसा प्यार है जो उस के पिता से अलग होने के बाद और भी अधिक छलक रहा है. फिलहाल तो वह अपनी जिंदगी खुल कर जीना चाहती थी, इसलिए मां के दिए गए पैसों से सियाली उसी दिन अपने दोस्तों के साथ पार्टी करने चली गई. ‘‘सियाली, आज तुम किस खुशी में पार्टी दे रही हो?’’ महक ने पूछा. ‘‘बस, यों सम झो आजादी की,’’ मुसकरा दी थी सियाली. सच तो यह था कि मांबाप के अलगाव के बाद सियाली बहुत रिलैक्स महसूस कर रही थी. रोजरोज की टोकाटाकी से अब उसे मुक्ति मिल चुकी थी और सियाली अब अपनी जिंदगी अपनी शर्तों पर जीना चाहती थी.

इसीलिए उस ने अपने दोस्तों से अपनी एक इच्छा बताई, ‘‘यार, मैं एक डांस ट्रिप जौइन करना चाहती हूं ताकि मैं अपने जज्बातों को डांस द्वारा दुनिया के सामने पेश कर सकूं.’’ उस के दोस्तों ने उसे और भी कई रास्ते बताए जिन से वह अपनेआप को व्यक्त कर सकती थी, जैसे ड्राइंग, सिंगिंग, मिट्टी के बरतन बनाना. पर सियाली तो मजे और मौजमस्ती के लिए डांस ट्रिप जौइन करना चाहती थी, इसलिए उसे औप्शन अच्छे नहीं लगे. अपने शहर के डांस ट्रिप गूगल पर खंगाले तो डिवाइन डांसर नामक एक डांस ट्रिप ठीक लगा, जिस में 4 सदस्य लड़के थे और एक लड़की. सियाली ने तुरंत ही वह ट्रिप जौइन कर लिया और अगले ही दिन से डांस प्रैक्टिस के लिए जाने लगी. सियाली अपना सारा तनाव अब डांस द्वारा भूलने लगी और इस नई चीज का मजा भी लेने लगी. डिवाइन डांसर नाम के इस ट्रिप को परफौर्म करने का मौका भी मिलता तो सियाली भी साथ में जाती और स्टेज पर सभी परफौर्मेंस देते जिस के बदले सियाली को भी ठीकठाक पैसे मिलने लगे.

इस समय सियाली से ज्यादा खुश कोई नहीं था. वह निरंकुश हो चुकी थी. न मांबाप का डर और न ही कोई टोकाटोकी करने वाला. जब चाहती, घर जाती और अगर नहीं भी जाती तो भी कोई पूछने वाला न था. उस के मांबाप का तलाक क्या हुआ, सियाली तो एक आजाद चिडि़या हो गई, जो कहीं भी उड़ान भरने के लिए आजाद थी. सियाली का फोन बज रहा था. फोन पापा का था, ‘‘सियाली, कई दिनों से घर नहीं आईं तुम क्या बात है? हो कहां तुम?’’ ‘‘पापा, मैं ठीक हूं और डांस सीख रही हूं.’’ ‘‘पर तुम ने बताया नहीं कि तुम डांस सीख रही हो?’’ ‘‘जरूरी नहीं कि मैं आप लोगों को सब बातें बताऊं. आप लोग अपनी जिंदगी अपने ढंग से जी रहे हैं, इसलिए मैं भी अब अपने हिसाब से ही जीना चाहती हूं.’’ फोन काट दिया था सियाली ने, पर उस का मन एक अजीब सी खटास से भर गया था. डांस ट्रिप के सभी सदस्यों से सियाली की अच्छी दोस्ती हो गई थी पर पराग नाम के लड़के से उस की कुछ ज्यादा ही पटने लगी. पराग स्मार्ट भी था और पैसे वाला भी.

वह सियाली को गाड़ी में घुमाता और खिलातापिलाता. उस की संगत में सियाली को सुरक्षा का एहसास होता था. अगले दिन डांस क्लास में जब दोनों मिले तो पराग ने एक सुर्ख गुलाब सियाली की ओर बढ़ा दिया. ‘‘सियाली, मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं और शादी करना चाहता हूं,’’ घुटनों को मोड़ कर जमीन पर बैठते हुए पराग ने कहा. सभी लड़केलड़कियां इस बात पर तालियां बजाने लगे. सियाली ने भी मुसकरा कर गुलाब पराग के हाथों से ले लिया और कुछ सोचने के बाद बोली, ‘‘लेकिन, मैं शादी जैसी किसी बेहूदा चीज के बंधन में नहीं बंधना चाहती. शादी एक सामाजिक तरीका है 2 लोगों को एकदूसरे के प्रति ईमानदारी दिखाते हुए जीवन बिताने का. पर क्या हम ईमानदार रह पाते हैं?’’ सियाली के मुंह से ऐसी बड़ीबड़ी बातें सुन कर डांस ट्रिप के लड़केलड़कियां शांत थे. सियाली ने रुक कर कहना शुरू किया, ‘‘मैं ने अपने मांबाप को शादीशुदा जीवन में हमेशा लड़ते देखा है, जिस की परिणति तलाक के रूप में हुई और अब मेरी मां अपने प्रेमी के साथ लिवइन में रह रही हैं और पहले से कहीं अधिक खुश हैं.’’ पराग यह सुन कर तपाक से बोला कि वह भी सियाली के साथ लिवइन में रहने को तैयार है अगर उसे मंजूर हो तो. पराग की बात सुन कर उस के साथ लिवइन के रिश्ते को झट से स्वीकार कर लिया था सियाली ने. और कुछ दिनों बाद ही पराग और सियाली लिवइन में रहने लगे,

जहां पर दोनों जीभर कर अपने जीवन का आनंद ले रहे थे. पराग के पास आय के स्रोत के रूप में एक बड़ा जिम था, जिस से पैसे की कोई समस्या नहीं आई. पराग और सियाली ने अब भी डांस ट्रिप को जौइन कर रखा था और लगभग हर दूसरे दिन ही दोनों क्लासेज के लिए जाते और जीभर नाचते. इसी डांस ट्रिप में गायत्री नाम की लड़की थी. उस ने सियाली से एक दिन पूछ ही लिया, ‘‘सियाली, तुम्हारी तो अभी उम्र बहुत कम है और इतनी जल्दी किसी के साथ… मतलब लिवइन में रहना कुछ अजीब सा नहीं लगता तुम्हें?’’ सियाली के चेहरे पर एक मीठी सी मुसकराहट आई और चेहरे पर कई रंग आतेजाते गए, फिर सियाली ने अपनेआप को संयत करते हुए कहा,

‘जब मेरे मांबाप ने सिर्फ अपनी जिंदगी के बारे में सोचा और मेरी परवा नहीं की तो मैं अपने बारे में क्यों न सोचूं? और गायत्री, जिंदगी मस्ती करने के लिए बनी है. इसे न किसी रिश्ते में बांधने की जरूरत है और न ही रोरो कर गुजारने की. ‘‘मैं आज पराग के साथ लिवइन में हूं और कल मन भरने के बाद किसी और के साथ रहूंगी और परसों किसी और के साथ. ‘‘उम्र का तो सोचो ही मत, एंजौय योर लाइफ, यार,’’ सियाली यह कहते हुए वहां से चली गई थी जबकि गायत्री अवाक खड़ी थी. तितलियां कभी किसी एक फूल पर नहीं बैठीं. वे कभी एक फूल के पराग पर बैठती हैं तो कभी दूसरे फूल के. और तभी तो इतनी चंचल होती हैं व इतनी खुश रहती हैं तितलियां, रंगबिरंगी तितलियां, जीवन से भरपूर तितलियां..

Moral Story : पछतावे की चुभन

महेश की नौकरी भारतीय वायु सेना में बतौर मैडिकल अटैंडैंट लगी थी. वायु सेना सिलैक्शन सैंटर के कमांडर ने कहा, ‘‘बधाई हो महेश, तुम्हें एक नोबेल ट्रेड मिला है. तुम नौकरी के साथसाथ इनसानियत के लिए भी काम कर सकोगे. किसी लाचार के काम आ सकोगे.’’ जो भी हो, महेश की समझ में तो यही आया कि उसे एक अच्छी नौकरी मिल गई है बस. अस्पताल में तकरीबन 3 महीने की ट्रेनिंग चल रही थी. सबकुछ करना था. मरीजों का टैंपरेचर, ब्लडप्रैशर, नाड़ी वगैरह के रिकौर्ड रखने से ले कर उन्हें बिस्तर पर सुलाने तक की जिम्मेदारी थी. हर बिस्तर तक जा कर मरीजों को दवा खिलानी पड़ती थी. लाचार मरीजों को स्पंज बाथ देना पड़ता था.

महेश तो एक पिछड़े इलाके से था, जहां के अस्पताल के नर्स से ले कर कंपाउंडर, डाक्टर तक मरीजों को डांटते रहते थे. एकएक इंजैक्शन लगाने के लिए नर्स फीस लेती थी. डाक्टरों से बात करने में डर लगता था कि कहीं डांटने न लगें. स्पंज बाथ का तो नाम भी नहीं सुना था. कभी कोई सगा अस्पताल में भरती हुआ, तो उसे एकएक रिलीफ के लिए दाम देते देखा था. पर यहां तो नर्सों का ‘इंटरनैशनल एथिक्स’ हम पर लागू था. हमें पहले ही ताकीद कर दी गई थी कि किसी मरीज से कभी भी चाय मत पीना, वरना कोर्ट मार्शल हो सकता है.

पलपल यही खयाल रहता था कि कैसे नौकरी महफूज रखी जाए. एक दिन जब महेश अपनी शिफ्ट ड्यूटी पर गया, तो उस से पहले काम कर रहे साथी ने बताया, ‘‘एक मरीज भरती हुआ है. उस का आपरेशन होना है और उसे तैयार करना है.’’

यह कह कर वह साथी चला गया. महेश ने देखा, तो वह बवासीर का मरीज था. महेश ने उसे नुसखे के मुताबिक समझा दिया और दवा दे दी. पर एक बात के लिए महेश दुविधा में पड़ गया कि उस मरीज के गुप्त भाग की शेविंग करनी थी. उस की शेविंग कैसे की जाए? अब महेश को अफसोस होने लगा कि यह कैसी नौकरी में वह फंस गया. ड्यूटी उस की थी. उस से पूछा जाएगा.

महेश ने एक उपाय निकाला. मरीज को बुलाया. रेजर में ब्लेड लगा कर उस से कहा, ‘‘अंदर से दरवाजा बंद कर लो और पूरा समय ले कर शेविंग कर डालो.’’ उस मरीज ने हामी में सिर हिलाया और रेजर ले कर चला गया. महेश ने संतोष की सांस ली. दूसरे दिन जब उस मरीज को औपरेशन के लिए जाना था, तब महेश ही ड्यूटी पर था. वह सोच रहा था कि सब ठीक हो.

उस के सीनियर ने उस से पूछा, ‘‘क्या मरीज का ‘प्रीऔपरेटिव’ केयर फालो हुआ?’’ महेश ने ‘हां’ में सिर हिला दिया.

उस सीनियर ने स्क्रीन पर लगा कर मरीज की जांच की. महेश के पास आ कर वह चिल्लाया, ‘‘यह क्या है? तुम ने तो मरीज का कोई केयर ही नहीं किया है?’’

यह सुन कर महेश के पैरों तले जमीन खिसक गई. वह बोला, ‘‘सर, मैं ने उसे समझा दिया था.’’ वह सीनियर महेश पर बिगड़ा, ‘‘तुम्हारी समझाने की ड्यूटी नहीं है. तुम्हें खुद करना है और यह तय करना है कि मरीज को तुम्हारी लापरवाही के चलते कोई इंफैक्शन न हो.’’ महेश की बोलती बंद हो गई. अगले ही महीने उसे छुट्टी पर घर जाना था. उसे बड़ी कुंठा होने लगी कि यही सब जा कर घर पर बताऊंगा. अब वह अपनेआप को बड़ा बेबस महसूस कर रहा था. वह पूरी तरह हार मान कर सीनियर के पास चला गया, ‘‘सर, मुझे तो अपनेआप को नंगा देखने में शर्म आती है और आप मुझ से उस के गुप्त भाग की शेविंग करने को कह रहे हैं.’’

वह सीनियर तुरंत मुड़ा और मरीज को आवाज दी. उस ने शेविंग का सामान उठाया और कमरे में चला गया. थोड़ी देर बाद वे दोनों बाहर आए.

सीनियर ने महेश से कहा, ‘‘मैं ने इस मरीज की शेविंग कर दी है. किसी लाचार की सेवा करना छोटा या घटिया काम नहीं होता. मैडिकल के प्रोफैशन में औरतमर्द या अंगगुप्तांग नहीं होता, बस एक मरीज होता है और उस का शरीर होता है. तो फिर इस शरीर की साफसफाई करने में किस बात की दिक्कत?’’

इतना कह कर सीनियर चला गया. कितनी आसानी से बिना किसी हीनभावना के उस ने सब कर दिया था. यह देख कर महेश को दुख होने लगा कि उस ने पहले ही ये सब क्यों नहीं किया? उस के अंदर कितनी कुंठा है. उस की नौकरी का असली माने तो यही था. यही तो उस का असली काम था, जिसे करने से वह चूक गया था. उसके पछतावे की चुभन काफी  चोट पहुंचा रही थी.

LOVE STORY 2024 : दो बाेल अनकहे


वे फिर मिलेंगे. उन्हें भरोसा नहीं था. पहले तो पहचानने में एकदो मिनट लगे उन्हें एकदूसरे को. वे पार्क में मिले. सबीना का जबजब अपने पति से झगड़ा होता, तो वह एकांत में आ कर बैठ जाती. ऐसा एकांत जहां भीड़ थी. सुरक्षा थी. लेकिन फिर भी वह अकेली थी. उस की उम्र 40 वर्ष के आसपास थी. रंग गोरा, लेकिन चेहरा अपनी रंगत खो चुका था. आधे से ज्यादा बाल सफेद हो चुके थे. जो मेहंदी के रंग में डूब कर लाल थे. आंखें बुझबुझ सी थीं.

वह अपने में खोई थी. अपने जीवन से तंग आ चुकी थी. मन करता था कि  कहीं भाग जाए. डूब मरे किसी नदी में. लेकिन बेटे का खयाल आते ही वह अपने उलझे विचारों को झटक देती. क्याक्या नहीं हुआ उस के साथ. पहले पति ने तलाक दे कर दूसरा विवाह किया. उस के पास अपना जीवन चलाने का कोई साधन नहीं था. उस पर बेटे सलीम की जिम्मेदारी.

पति हर माह कुछ रुपए भेज देता था. लेकिन इतने कम रुपयों में घर चलाए या बेटे की परवरिश अच्छी तरह करे. मातापिता स्वयं वृद्ध, लाचार और गरीब थे. एक भाई था जो बड़ी मुश्किल से अपना गुजारा चलाता था. अपना परिवार पालता था. साथ में मातापिता भी थे. वह उन से किस तरह सहयोग की अपेक्षा कर सकती थी.

उस ने एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने का काम शुरू कर दिया. वह अंगरेजी में एमए के साथ बीएड भी थी. सो, उसे आसानी से नौकरी मिल गई. सरकारी नौकरी की उस की उम्र निकल चुकी थी. वह सोचती, आमिर यदि बच्चा होने के पहले या शादी के कुछ वर्ष बाद तलाक दे देता, तो वह सरकारी नौकरी तो तलाश सकती थी. उस समय उस की उम्र सरकारी नौकरी के लायक थी. शादी के कुछ समय बाद जब उस ने आमिर के सामने नौकरी करने की बात कही, तो वह भड़क उठा था कि हमारे खानदान में औरतें नौकरी नहीं करतीं.

उम्र गुजरती रही. आमिर दुबई में इंजीनियर था. अच्छा वेतन मिलता था. किसी चीज की कमी नहीं थी. साल में एकदो बार आता और सालभर की खुशियां हफ्तेभर में दे कर चला जाता. एक दिन आमिर ने दुबई से ही फोन कर के उसे यह कहते हुए तलाक दे दिया कि यहां काम करने वाली एक अमेरिकन लड़की से मुझे प्यार हो गया है. मैं तुम्हें हर महीने हर्जाखर्चा भेजता रहूंगा. मुझे अपनी गलती का एहसास तो है, लेकिन मैं दिल के हाथों मजबूर हूं. एक बार वापस आया तो तलाक की शेष शर्तें मौलवी के सामने पूरी कर दीं और चला गया. इस बीच एक बेटा हो चुका था.

आमिर को कुछ बेटे के प्रेम ने खींचा और कुछ अमेरिकन पत्नी की प्रताड़ना ने सबीना की याद दिलाई. और वह माफी मांगते हुए दुबई से वापस आ गए. लेकिन सबीना से फिर से विवाह के लिए उसे हलाला से हो कर गुजरना था. सबीना इस के लिए तैयार नहीं हुई. आमिर ने मौलवी से फिर निकाह के विकल्प पूछे जिस से सबीना राजी हो सके. मौलवी ने कहा कि 3 लाख रुपए खर्च करने होंगे. निकाह का मात्र दिखावा होगा. तुम्हारी पत्नी को उस का शौहर हाथ भी नहीं लगाएगा. कुछ समय बाद तलाक दे देगा.

‘ऐसा संभव है,’ आमिर ने पूछा.

‘पैसा हो तो कुछ भी असंभव नहीं,’ मौलाना ने कहा.

‘कुछ लोग करते हैं यह बिजनैस अपनी गरीबी के कारण. लेकिन यह बात राज ही रहनी चाहिए.’

‘मैं तैयार हूं,’ आमिर ने कहा और सबीना को सारी बात समझई. सबीना न चाहते हुए भी तैयार हो गई. सबीना को अपनी इच्छा के विरुद्ध निकाह करना पड़ा. कुछ समय गुजारना पड़ा पत्नी बन कर एक अधेड़ व्यक्ति के साथ. फिर तलाक ले कर सबीना से आमिर ने फिर निकाह कर लिया.

 

दुबई से नौकरी छोड़ कर आमिर ने अपना खुद का व्यापार शुरू कर दिया. बेटे सलीम को पढ़ाई के लिए उसे होस्टल में डाल दिया. सबीना का भी आमिर ने अच्छी तरह ध्यान रखा. उसे खूब प्रेम दिया. लेकिन जबजब आमिर सबीना से कहता कि नौकरी छोड़ दो. सबकुछ है हमारे पास. सबीना ने यह कह कर इनकार कर दिया कि कल तुम्हें कोई और भा गई. तुम ने फिर तलाक दे दिया तो मेरा क्या होगा? फिर मुझे यह नौकरी भी नहीं मिलेगी. मैं नौकरी नहीं छोड़ सकती. इस बात पर अकसर दोनों में बहस हो जाती. घर का माहौल बिगड़ जाता. मन अशांत हो जाता सबीना का.

‘तुम्हें मुझ पर यकीन नहीं है?’ आमिर ने पूछा.

‘नहीं है,’ सबीना ने सपाट स्वर में जवाब दिया.

‘मैं ने तो तुम पर विश्वास किया. तुम्हें क्यों नहीं है?’

‘कौन सा विश्वास?’

‘इस बात का कि हलाला में पराए मर्द को तुम ने हाथ भी नहीं लगाया होगा.’

‘जब निकाह हुआ तो पराया कैसे रहा?’

‘मैं ने इस बात के लिए 3 लाख रुपए खर्च किए थे. ताकि जिस से हलाला के तहत निकाह हो, वह  हाथ भी न लगाए तुम्हें.’

‘भरोसा मुझ पर नहीं किया आप ने. भरोसा किया मौलवी पर. अपने रुपयों पर, या जिस से आप ने गैरमर्द से मेरा निकाह करवाया.’’

‘लेकिन भरोसा तो तुम पर भी था न.’

‘न करते भरोसा.’

‘कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरे 3 लाख रुपए भी गए और तुम ने रंगरेलियां भी मनाई हों.’ आमिर की इस बात पर बिफर पड़ी सबीना. बस, इसी मुद्दे को ले कर दोनों में अकसर तकरार शुरू हो जाती और सबीना पार्क में आ कर बैठ जाती.

पार्क की बैंच पर बैठे हुए उस की दृष्टि सामने बैठे हुए एक अधेड़ व्यक्ति पर पड़ी. वह थोड़ा चौंकी. उसे विश्वास नहीं हुआ इस बात पर कि सामने बैठा हुआ व्यक्ति अमित हो सकता है. अमित उस के कालेज का साथी. 45 वर्ष के आसपास की उम्र, दुबलापतला शरीर, सफेद बाल, कुछ बढ़ी हुई दाढ़ी जिस में अधिकांश बाल चांदी की तरह चमक रहे थे. यहां क्या कर रहा है अमित? इस शहर के इस पार्क में, जबकि उसे तो दिल्ली में होना चाहिए था. अमित ही है या कोई और. नहीं, अमित ही है. शायद मुझ पर नजर नहीं पड़ी उस की.

अमित और सबीना एकसाथ कालेज में पूरे 5 वर्ष तक पढ़े. एक ही डैस्क पर बैठते. एकदूसरे से पढ़ाई के संबंध में बातें करते. एकदूसरे की समस्याओं को सुलझने में मदद करते. जिस दिन वह कालेज नहीं आती, अमित उसे अपने नोट्स दे देता. जब अमित कालेज नहीं आता, तो सबीना उसे अपने नोट्स दे देती. कालेज के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में दोनों मिल कर भाग लेते और प्रथम पुरुस्कार प्राप्त करते हुए सब की वाहवाही बटोरते. जिस दिन अमित कालेज नहीं आता, सबीना को कालेज मरघट के समान लगता. यही हालत अमित की भी थी. तभी तो वह दूसरे दिन अपनत्वभरे क्रोध में डांट कर पूछता. ‘कल कालेज क्यों नहीं आईं तुम?’

सबीना समझ चुकी थी कि अमित के दिल में उस के प्रति वही भाव हैं जो उस के दिल में अमित के प्रति हैं. लेकिन दोनों ने कभी इस विषय पर बात नहीं की. सबीना घर से टिफिन ले कर आती जिस में अमित का मनपसंद भोजन होता. अमित भी सबीना के लिए कुछ न कुछ बनवा कर लाता जो सबीना को बेहद पसंद था. वे अपनेअपने सुखदुख एकदूसरे से कहते. अमित ने बताया कि उस के घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है. घर में बीमार बूढ़ी मां है. जवान बहन है जिस की शादी की जिम्मेदारी उस पर है. अपने बारे में क्या सोचूं? मेरी सोच तो मां के इलाज और बहन की शादी के इर्दगिर्द घूमती रहती है. बस, अच्छे परसैंट बन जाएं ताकि पीएचडी कर सकूं. फिर कोई नौकरी भी कर लूंगा.’’

सबीना उसे सांत्वना देते हुए कहती, ‘चिंता मत करो. सब ठीक हो जाएगा.

सबीना के घर की उन दिनों आर्थिक स्थिति अच्छी थी. उस के अब्बू विधायक थे. उन के पास सत्ता भी थी और शक्ति भी. कभी कहने की हिम्मम नहीं पड़ी उस की अपने अब्बू से कि वह किसी हिंदू लड़के से प्यार करती है. कहती भी थी तो वह जानती थी कि उस का नतीजा क्या होगा? उस की पढ़ाईलिखाई तुरंत बंद कर के उस के निकाह की व्यवस्था की जाती. हो सकता है कि अमित को भी नुकसान पहुंचाया जाता. लेकिन घर वालों की बात क्या कहे वह? उस ने खुद कभी अमित से नहीं कहा कि वह उस से प्यार करती है. और न ही अमित ने उस से कहा.

अमित अपने परिवार, अपने कैरियर की बातें करता रहता और वह अमित की दोस्त बन कर उसे तसल्ली देती रहती. पैसों के अभाव में सबीना ने कई बार अमित के लाख मना करने पर उस की फीस यह कह कर भरी कि जब नौकरी लग जाए तो लौटा देना, उधार दे रही हूं.

और अमित को न चाहते हुए भी मदद लेनी पड़ती. यदि मदद नहीं लेता तो उस का कालेज कब का छूट चुका होता. कालेज की तरफ से कभी पिकनिक आदि का बाहर जाने का प्रोग्राम होता, तो अमित के न चाहते हुए भी उसे सबीना की जिद के आगे झकना पड़ता. कई बार सबीना ने सोचा कि अपने प्यार का इजहार करे लेकिन वह यह सोच कर चुप रह गई कि अमित क्या सोचेगा? कैसी बेशर्म लड़की है? अमित को पहल करनी चाहिए. अमित

कैसे पहल करता? वह तो अपनी गरीबी से उबरने की कोशिश में लगा हुआ था. अमित सबीना को अपना सब से अच्छा दोस्त मानता था. अपना सब से बड़ा शुभचिंतक. अपने सुखदुख का साथी. लेकिन वह भी कर न सका अपने प्यार का इजहार. प्यार दोनों ही तरफ था. लेकिन कहने की पहल किसी ने नहीं की. कहना जरूरी भी नहीं था. प्यार है, तो है. बीए प्रथम वर्ष से एमए के अंतिम वर्ष तक, पूरे 5 वर्षों का साथ. यह साथ न छूटे, इसलिए सबीना ने भी अंगरेजी साहित्य लिया जोकि अमित ने लिया था. अमित ने पूछा भी, ‘तुम्हारी तो हिंदी साहित्य में रुचि थी?’

‘मुझे क्या पता था कि तुम अंगरेजी साहित्य चुनोगे,’ सबीना ने जवाब दिया.

‘तो क्या मेरी वजह से तुम ने,’ अमित ने पूछा.

‘नहीं, नहीं, ऐसी कोई बात नहीं. सोचा कि अंगरेजी साहित्य ही ठीक रहेगा.’

‘उस के बाद क्या करोगी?’

‘तुम क्या करोगे?’

‘मैं, पीएचडी.’

‘मैं भी, सबीना बोली.’

 

लेकिन एमए पूरा होते ही सबीना के निकाह की बात चलने लगी. उस के पिता चुनाव हार चुके थे. और सारी जमापूंजी चुनाव में लगा चुके थे. बहुत सारा कर्र्ज भी हो गया था उन पर. जब सबीना ने निकाह से मना करते हुए पीएचडी की बात कही, तो उस के अब्बू ने कहा, ‘बीएड कर लो. पढ़ाई करने से मना नहीं करता. लेकिन पीएचडी नहीं. मैं जानता हूं कि पीएचडी के नाम पर पीएचडी करने वालों का कैसा शोषण होता है? निकाह करो और प्राइवेट बीएड करो. अपने अब्बू की बात मानो. समय बदल चुका है. मेरी स्थिति बद से बदतर हो गई है. अपने अब्बू का मान रखो.’ अब्बू की बात तो वह काट न सकी, सोचा, जा कर अमित के सामने ही हिम्मत कर के अपने प्यार का इजहार कर दे.

अमित को जब उस ने बीएड की बात बताई और साथ ही निकाह की, तो अमित चुप रहा.

‘तुम क्या कहते हो?’

‘तुम्हारे अब्बू ठीक कहते हैं,’ उस ने उदासीभरे स्वर में कहा.

‘उदास क्यों हो?’

‘दहेज न दे पाने के कारण बहन की शादी टूट गई.’ सबीना क्या कहती ऐसे समय में चुप रही. बस, इतना ही कहा, ‘अब हमारा मिलना नहीं होगा. कुछ कहना चाहते हो, तो कह दो.’

‘बस, एक अच्छी नौकरी चाहता हूं.’

‘मेरे बारे में कुछ सोचा है कभी.’

वह चुप रहा और उस ने मुझे भी चुप रहने को कहा, ‘कुछ मत कहो. हालात काबू में नहीं हैं. मैं भी पीएचडी करने के लिए दिल्ली जा रहा हूं. औल द बैस्ट. तुम्हारे निकाह के लिए.’

दोनों की आंखों में आंसू थे और दोनों ही एकदूसरे से छिपाने की कोशिश कर रहे थे. जो कहना था वह अनकहा रह गया. और आज इतने वर्षों के बीत जाने के बाद वही शख्स नागपुर में पार्क में इस बैंच पर उदास, गुमसुम बैठा हुआ है. सबीना उस की तरफ बढ़ी. उस की निगाह सबीना की तरफ गई. जैसे वह भी उसे पहचानने की कोशिश कर रहा हो.

‘‘पहचाना,’’ सबीना ने कहा.

कुछ देर सोचते हुए अमित ने कहा, ‘‘सबीना.’’

‘‘चलो याद तो है.’’

‘‘भूला ही कब था. मेरा मतलब, कालेज का इतना लंबा साथ.’’

‘‘यह क्या हुलिया बना रखा है,’’ सबीना ने पूछा.

‘‘अब यही हुलिया है. 45 साल का वक्त की मार खाया आदमी हूं. कैसा रहूंगा? जिंदा हूं. यही बहुत है.’’

‘‘अरे, मरें तुम्हारे दुश्मन. यह बताओ, यहां कैसे?’’

‘‘मेरी छोड़ो, अपने बारे में बताओ.’’

‘‘मैं ठीक हूं. खुश हूं. एक बेटे की मां हूं. प्राइवेट स्कूल में टीचर हूं. पति का अपना बिजनैस है,’’ सबीना ने हंसते

हुए कहा.

‘‘देख कर तो नहीं लगता कि खुश हो.’’

‘‘अरे भई, मैं भी 40 साल की हो गई हूं. कालेज की सबीना नहीं रही. तुम बताओ, यहां कैसे? और हां, सच बताना. अपनी बैस्ट फ्रैंड से झठ मत बोलना.’’

‘‘झठ क्यों बोलूंगा. बहन की शादी हो चुकी है. मां अब इस दुनिया में नहीं रहीं. मैं एक प्राइवेट कालेज में प्रोफैसर हूं. मेरा भी एक बेटा है.’’

‘‘और पत्नी?’’

‘‘उसी सिलसिले में तो यहां आया हूं. पत्नी से बनी नहीं, तो उस ने प्रताड़ना का केस लगा कर पहले जेल भिजवाया. किसी तरह जमानत हुई. कोर्ट में सम?ौता हो गया. आज कोर्ट में आखिरी पेशी है. उसे ले जाने के लिए आया हूं. अदालत का लंचटाइम है, तो सोचा पास के इस बगीचे में थोड़ा आराम कर लूं,’’ उस ने यह कहा तो सबीना ने कहा, ‘‘मतलब, खुश नहीं हो तुम.’’

उस ने हंसते हुए कहा, ‘‘खुश तो हूं लेकिन सुखी नहीं हूं.’’

जी में तो आया सबीना के, कि कह दे कालेज में जो प्यार अनकहा रह गया, आज कह दो. चलो, सबकुछ छोड़ कर एकसाथ जीवन शुरू करते हैं. लेकिन कह न सकी. उसे लगा कि अमित ही शायद अपने त्रस्त जीवन से तंग आ कर कुछ कह दे. लगा भी कि वह कुछ कहना चाहता था. लेकिन, कहा नहीं उस ने. बस, इतना ही कहा, ‘‘कालेज के दिन याद आते हैं तो तुम भी याद आती

हो. कम उम्र का वह निश्छल प्रेम, वह मित्रता अब कहां? अब तो

केवल गृहस्थी है. शादी है. और उस शादी को बचाने की हर

संभव कोशिश.’’

‘‘आज रुकोगे, तुम्हारा तो ससुराल है इसी शहर में,’’ सबीना ने पूछा.

‘‘नहीं, 4 बजे पेशी होते ही मजिस्ट्रेट के सामने समझौते के कागज पर दस्तखत कर के तुरंत निकलना पड़ेगा. 8 दिन बाद से कालेज की परीक्षाएं शुरू होने वाली हैं. फिर, बस खानापूर्ति के लिए, समाज के रस्मोरिवाज के लिए कानूनी दांवपेंच से बचने के लिए पत्नी को ले कर जाना है. ऐसी ससुराल में कौन रुकना चाहेगा. जहां सासससुर, बेटी के माध्यम से दामाद को जेल की सैर करा दी जा चुकी हो.’’ उस के स्वर में कुछ उदासी थी.

‘‘अब कब मुलाकात होगी?’’ सबीना ने पूछा.

इस घने अंधकार में उजाले का टिमटिमाता तारा लगा अमित. सबीना की आंखों में आंसू आ गए. आंसू तो अमित की आंखों में भी थे. सबीना ने आंसू छिपाते हुए कहा, ‘‘पता नहीं, अब कब मुलाकात होगी.’’

‘‘शायद ऐसे ही किसी मोड़ पर. जब मैं दर्द में डूबा हुआ रहूं और तुम मिल जाओ अचानक. जैसे आज मिल गईं. मैं तो तुम्हें देख कर पलभर को भूल ही गया था कि यहां किस काम से आया हूं. मेरी कोर्ट में पेशी है. अपनी बताओ, तुम कैसी हो?’’

सबीना उस के दुख को बढ़ाना नहीं चाहती थी अपनी तकलीफ बता कर. हालांकि, समझ चुका था अमित कि उस की दोस्त खुश नहीं है. ‘‘बस, जिंदगी मिली है, जी रही हूं. थोड़े दुख तो सब के हिस्से में आते हैं.’’

‘‘हां, यह ठीक कहा तुम ने,’’ अमित ने कहा.

‘‘मेरे कोर्ट जाने का समय हो गया, मैं चलता हूं.’’

‘‘कुछ कहना चाहते हो,’’ सबीना ने कुरेदना चाहा.

‘‘कहना तो बहुतकुछ चाहता था. लेकिन कमबख्त समय, स्थितियां, मौका ही नहीं देतीं,’’ आह सी भरते हुए अमित ने कहा.

‘‘फिर भी, कुछ जो अनकहा रह गया हो कभी,’’ सबीना ने कहा. सबीना चाहती थी कि वह अमित के मुंह से एक बार अपने लिए वह अनकहा सुन ले.

‘‘बस, यही कि तुम खुश रहो अपनी जिंदगी में. मैं भी कोशिश कर रहा हूं जीने की. खुश रहने की. जो नहीं कहा गया पहले. उसे आज भी अनकहा ही रहने दो. यही बेहतर होगा. झठी आस पर जी कर क्यों अपना जीना हराम करना.’’

दोनों की आंखों में आंसू थे और दोनों ही एकदूसरे से छिपाने की कोशिश करते हुए अपनीअपनी अंधेरी सुरंगों की तरफ बढ़ चले. जो पहले अनकहा रह गया था, आज भी अनकहा ही रह गया.

Romance : नए प्रेम का अंकुर

कभीकभी निशा को ऐसा लगता है कि शायद वही पागल है जिसे रिश्तों को निभाने का शौक है जबकि हर कोई रिश्ते को झटक कर अलग हट जाता है. उस का मानना है कि किसी भी रिश्ते को बनाने में सदियों का समय लग जाता है और तोड़ने में एक पल भी नहीं लगता. जिस तरह विकास ने उस के अपने संबंधों को सिरे से नकार दिया है वह भी क्यों नहीं आपसी संबंधों को झटक कर अलग हट जाती.

निशा को तरस आता है स्वयं पर कि प्रकृति ने उस की ही रचना ऐसी क्यों कर दी जो उस के आसपास से मेल नहीं खाती. वह भी दूसरों की तरह बहाव में क्यों नहीं बह पाती कि जीवन आसान हो जाए.

‘‘क्या बात है निशा, आज घर नहीं चलना है क्या?’’ सोम के प्रश्न ने निशा को चौंकाया भी और जगाया भी. गरदन हिला कर उठ बैठी निशा.

‘‘मुझे कुछ देर लगेगी सोम, आप जाइए.’’

‘‘हां, तुम्हें डाक्टर द्वारा लगाई पेट पर की थैली बदलनी है न, तो जाओ, बदलो. मुझे अभी थोड़ा काम है. साथसाथ ही निकलते हैं,’’ सोम उस का कंधा थपक कर चले गए.

कुछ देर बाद दोनों साथ निकले तो निशा की खामोशी को तोड़ने के लिए सोम कहने लगे, ‘‘निशा, यह तो किसी के साथ भी हो सकता है. शरीर में उपजी किसी भी बीमारी पर इनसान का कोई बस तो नहीं है न, यह तो विज्ञान की बड़ी कृपा है जो तुम जिंदा हो और इस समय मेरे साथ हो…’’

‘‘यह जीना भी किस काम का है, सोम?’’

‘‘ऐसा क्यों सोचती हो. अरे, जीवन तो कुदरत की अमूल्य भेंट है और जब तक हो सके इस से प्यार करो. तरस मत खाओ खुद पर…तुम अपने को देखो, बीमार हुई भी तो इलाज करा पाने में तुम सक्षम थीं. एक वह भी तो हैं जो बिना इलाज ही मर जाते हैं… कम से कम तुम उन से तो अच्छी हो न.’’

सोम की बातों का गहरा अर्थ अकसर निशा को जीवन की ओर मोड़ देता है.

‘‘आज लगता है किसी और ही चिंता में हो.’’

सोम ने पूछा तो सहसा निशा बोल पड़ी, ‘‘मौत को बेहद करीब से देखा है इसलिए जीवन यों खो देना अब मूर्खता लगता है. मेरे दोनों भाई आपस में बात नहीं करते. अनिमा से उन्हें समझाने को कहा तो उस ने बुरी तरह झिड़क दिया. वह कहती है कि सड़े हुए रिश्तों में से मात्र बदबू निकलती है. शरीर का जो हिस्सा सड़ जाए उसे तो भी काट दिया जाता है न. सोम, क्या इतना आसान है नजदीकी रिश्तों को काट कर फेंक देना?

‘‘विकास मुझ से मिलता नहीं और न ही मेरे बेटे को मुझ से मिलने देता है, तो भी वह मेरा बेटा है. इस सच से तो कोई इनकार नहीं कर सकता न कि मेरे बच्चे में मेरा खून है और वह मेरे ही शरीर से उपजा है. तो कैसे मैं अपना रिश्ता काट दूं. क्या इतना आसान है रिश्ता काट देना…वह मेरे सामने से निकल जाए और मुझे पहचाने भी न तो क्या हाल होगा मेरा, आप जानते हैं न…’’

‘‘मैं जानता हूं निशा, इसलिए यही चाहता हूं कि वह कभी तुम्हारे सामने से न गुजरे. मुझे डर है, वह तुम्हें शायद न पहचाने…तुम सह न पाओ इस से तो अच्छा है न कि वह तुम्हारे सामने कभी न आए…और इसी को कहते हैं सड़ा हुआ रिश्ता सिर्फ बदबू देता है, जो तुम्हें तड़पा दे, तुम्हें रुला दे वह खुशबू तो नहीं है न…गलत क्या कहा अनिमा ने, जरा सोचो. क्यों उस रास्ते से गुजरा जाए जहां से मात्र पीड़ा ही मिलने की आशा हो.’’

चुप रह गई निशा. शब्दों के माहिर सोम नपीतुली भाषा में उसे बता गए थे कि उस का बेटा मनु शायद अब उसे न पहचाने. जब निशा ने विकास का घर छोड़ा था तब मनु 2 साल का था. साल भर का ही था मनु जब उस के शरीर में रोग उभर आया था, मल त्यागने में रक्तस्राव होने लगता था. पूरी जांच कराने पर यह सच सामने आया था कि मलाशय का काफी भाग सड़ गया है.

आपरेशन हुआ, वह बच तो गई मगर कलौस्टोमी का सहारा लेना पड़ा. एक कृत्रिम रास्ता उस के पेट से निकाला गया जिस से मल बाहर आ सके और प्राकृतिक रास्ता, जख्म पूरी तरह भर जाने तक के लिए बंद कर दिया गया. जख्म पूरी तरह कब तक भरेगा, वह प्राकृतिक रास्ते से मल कब त्याग सकेगी, इस की कोई भी समय सीमा नहीं थी.

अब एक पेटी उस के पेट पर सदा के लिए बंध गई थी जिस के सहारे एक थैली में थोड़ाथोड़ा मल हर समय भरता रहता. दिन में 2-3 बार वह थैली बदल लेती.

आपरेशन के समय गर्भाशय भी सड़ा पाया गया था जिस का निकालना आवश्यक था. एक ही झटके में निशा आधीअधूरी औरत रह गई थी. कल तक वह एक बसीबसाई गृहस्थी की मालकिन थी जो आज घर में पड़ी बेकार वस्तु बन गई थी.

आपरेशन के 4 महीने भी नहीं बीते थे कि विकास और उस की मां का व्यवहार बदलने लगा था. शायद उस का आधाअधूरा शरीर उन की सहनशीलता से परे था. परिवार आगे नहीं बढ़ पाएगा, एक कारण यह भी था विकास की मां की नाराजगी का.

‘‘विकास की उम्र के लड़के तो अभी कुंआरे घूम रहे हैं और मेरी बहू ने तो शादी के 2 साल बाद ही सुख के सारे द्वार बंद कर दिए…मेरे बेटे का तो सत्यानाश हो गया. किस जन्म का बदला लिया है निशा ने हम से…’’

अपनी सास के शब्दों पर निशा हैरान रह जाती थी. उस ने क्या बदला लेना था, वह तो खुद मौत के मुंह से निकल कर आई थी. क्या निशा ने चाहा था कि वह आधीअधूरी रह जाए और उस के शरीर के साथ यह थैली सदा के लिए लग जाए. उस का रसोई में जाना भी नकार दिया था विकास ने, यह कह कर कि मां को घिन आती है तुम्हारे हाथ से… और मुझे भी.

थैली उस के शरीर पर थी तो क्या वह अछूत हो गई थी. मल तो हर पल हर मनुष्य के शरीर में होता है, तो क्या सब अछूत हैं? थैली तो उस का शरीर ही है अब, उसी के सहारे तो वह जी रही है. अनपढ़ इनसान की भाषा बोलने लग गया था विकास भी.

जीवन भर के लिए विकास ने जो हाथ पकड़ा था वह मुसीबत का जरा सा आवेग भी सह नहीं पाया था. उसी के सामने मां उस के दूसरे विवाह की चर्चा करने लगी थी.

एक दिन उस के सामने कागज बिछा दिए थे विकास ने. सोम भी पास ही थे. एक सोम ही थे जो विकास को समझाना चाहते थे.

‘‘रहने दीजिए सोम, हमारे रिश्ते में अब सुधार के कोई आसार नजर नहीं आते. मेरा क्या भरोसा कब मरूं या कब बीमारी से नाता छूटे… विकास को क्यों परेशान करूं. वह क्यों मेरी मौत का इंतजार करें. आप बारबार विकास पर जोर मत डालें.’’

और कागज के उस टुकड़े पर उस का उम्र भर का नाता समाप्त हो गया था.

‘‘अब क्या सोच रही हो निशा? कल डाक्टर के पास जाना है.’’

‘‘कब तक मेरी चिंता करते रहेंगे?’’

‘‘जब तक तुम अच्छी नहीं हो जातीं. दोस्त हूं इसलिए तुम्हारे सुखद जीवन तक या श्मशान तक जो भी निश्चित हो, अंतिम समय तक मैं तुम्हारा साथ छोड़ना नहीं चाहता.’’

‘‘जानते हैं न, विकास क्याक्या कहता है मुझे आप के बारे में. कल भी फोन पर धमका रहा था.’’

‘‘उस का क्या है, वह तो बेचारा है. जो स्वयं नहीं जानता कि उसे क्या चाहिए. दूसरी शादी कर ली है…और अब तो दूसरी संतान भी आने वाली है… अब तुम पर उस का भला क्या अधिकार है जो तलाक के बाद भी तुम्हारी चिंता है उसे. मजे की बात तो यह है कि तुम्हारा स्वस्थ हो जाना उस के गले से नीचे नहीं उतर रहा है.

‘‘सच पूछो तो मुझे विकास पर तरस आने लगा है. मैं ने तो अपना सब एक हादसे में खो दिया. जिसे कुदरत की मार समझ मैं ने समझौता कर लिया लेकिन विकास ने तो अपने हाथों से अपना घर जला लिया.’’

कहतेकहते न जाने कितना कुछ कह गए सोम. अपना सबकुछ खो देने के बाद जीवन के नए ही अर्थ उन के सामने भी चले आए हैं.

दूसरे दिन जांच में और भी सुधार नजर आया. डाक्टर ने बताया कि इस की पूरी आशा है कि निशा का एक और छोटा सा आपरेशन कर प्राकृतिक मल द्वार खोल दिया जाए और पेट पर लगी थैली से उस को छुटकारा मिल जाए. डाक्टर के मुंह से यह सुन कर निशा की आंखें झिलमिला उठी थीं.

‘‘देखा…मैं ने कहा था न कि एक दिन तुम नातीपोतों के साथ खेलोगी.’’

बस रोतेराते निशा इतना ही पूछ पाई थी, ‘‘खाली गोद में नातीपोते?’’

‘‘भरोसा रखो निशा, जीवन कभी ठहरता नहीं, सिर्फ इनसान की सोच ठहर जाती है. आने वाला कल अच्छा होगा, ऐसा सपना तो तुम देख ही सकती हो.’’

निशा पूरी तरह स्वस्थ हो गई. पेट पर बंधी थैली से उसे मुक्ति मिल गई. अब ढीलेढाले कपड़े ही उस का परिधान रह गए थे. उस दिन जब घर लौटने पर सोम ने सुंदर साड़ी भेंट में दी तो उस की आंखें भर आईं.

विकास नहीं आए जबकि फोन पर मैं ने उन्हें बताया था कि मेरा आपरेशन होने वाला है.

‘‘विकास के बेटी हुई है और गायत्री अस्पताल में है. मैं ने तुम्हारे बारे में विकास से बात की थी और वह मनु को लाना भी चाहता था. लेकिन मां नहीं मानीं तो मैं ने भी यह सोच कर जिद नहीं की कि अस्पताल में बच्चे को लाना वैसे भी स्वास्थ्य की दृष्टि से अच्छा नहीं होता.’’

क्या कहती निशा. विकास का परिवार पूर्ण है तो वह क्यों उस के पास आता, अधूरी तो वह है, शायद इसीलिए सब को जोड़ कर या सब से जुड़ कर पूरा होने का प्रयास करती रहती है.

निशा की तड़प पलपल देखते रहते सोम. विकास का इंतजार, मनु की चाह. एक मां के लिए जिंदा संतान को सदा के लिए त्याग देना कितना जानलेवा है?

‘‘क्यों झूठी आस में जीती हो निशा,’’ सोम बोले, ‘‘सपने देखना अच्छी बात है, लेकिन इस सच को भी मान लो कि तुम्हारे पास कोई नहीं लौटेगा.’’

एक सुबह सोम की दी हुई साड़ी पहन निशा कार्यालय पहुंची तो सोम की आंखों में मीठी सी चमक उभर आई. कुछ कहा नहीं लेकिन ऐसा बहुत कुछ था जो बिना कहे ही कह दिया था सोम ने.

‘‘आज मेरी दिवंगत पत्नी विभा और गुड्डी का जन्मदिन है. आज शाम की चाय मेरे साथ पिओगी?’’ यह बताते समय सोम की आंखें झिलमिला रही थीं.

सोम उस शाम निशा को अपने घर ले आए थे. औरत के बिना घर कैसा श्मशान सा लगता है, वह साफ देख रही थी. विभा थी तो यही घर कितना सुंदर था.

‘‘घर में सब है निशा, आज अपने हाथ से कुछ भी बना कर खिला दो.’’

चाय का कप और डबलरोटी के टुकड़े ही सामने थे जिन्हें सेक निशा ने परोस दिया था. सहसा निशा के पेट को देख सोम चौंक से गए.

‘‘निशा, तुम्हें कोई तकलीफ है क्या, यह कपड़ों पर खून कैसा?’’

सोम के हाथ निशा के शरीर पर थे. पेटी की वजह से पेट पर गहरे घाव बन चुके थे. थैली वाली जगह खून से लथपथ थी.

‘‘आज आप के साथ आ गई, पेट पर की पट्टी नहीं बदल पाई इसीलिए. आप परेशान न हों. पट््टी बदलने का सामान मेरे बैग में है, मैं ने आज साड़ी पहनी है. शायद उस की वजह से ऐसा हो गया होगा.’’

सोम झट से बैग उठा लाए और मेज पर पलट दिया. पट्टी का पूरा सामान सामने था और साथ थी वही पुरानी पेटी और थैली.

सोम अपने हाथों से उस के घाव साफ करने लगे तो वह मना न कर पाई.

पहली बार किसी पुरुष के हाथ उस के पेट पर थे. उस के हाथ भी सोम ने हटा दिए थे.

‘‘यह घाव पेटी की वजह से हैं सोम, ठीक हो जाएंगे…आप बेकार अपने हाथ गंदे कर रहे हैं.’’

मरहमपट्टी के बाद सोम ने अलमारी से विभा के कपड़े निकाल कर निशा को दिए. वह साड़ी उतार कर सलवारसूट पहनने चली गई. लौट कर आई तो देखा सोम ने दालचावल बना लिए हैं.

हलके से हंस पड़ी निशा.

सोम चुपचाप उसे एकटक निहार रहे थे. निशा को याद आया कि एक दिन विकास ने उसे बंजर जमीन और कंदमूल कहा था. आधीअधूरी पत्नी उस के लिए बेकार वस्तु थी.

‘क्या मुझे शरीरिक भूख नहीं सताती, मैं अपनेआप को कब तक मारूं?’ चीखा था विकास. पता नहीं किस आवेग में सोम ने निशा से यही नितांत व्यक्तिगत प्रश्न पूछ लिया, तब निशा ने विकास के चीख कर कहे वाक्य खुल कर सोम से कह डाले.

हालांकि यह सवाल निशा के चेहरे की रंगत बदलने को काफी था. चावल अटक गए उस के हलक में. लपक कर सोम ने निशा को पानी का गिलास थमाया और देर तक उस की पीठ थपकते रहे.

‘‘मुझे क्षमा करना निशा, मैं वास्तव में यह जानना चाहता था कि आखिर विकास को तुम्हारे साथ रहने में परेशानी क्या थी?’’

सोम के प्रश्न का उत्तर न सूझा उसे.

‘‘मैं चलती हूं सोम, अब आप आराम करें,’’ कह कर उठ पड़ी थी निशा लेकिन सोम के हाथ सहसा उसे जाने से रोकने को फैल गए..

‘‘मैं तुम्हारा अपमान नहीं कर रहा हूं निशा, तुम क्या सोचती हो, मैं तमाशा बना कर बस तुम्हारी व्यक्तिगत जिंदगी का राज जान कर मजा लेना चाहता हूं.’’

रोने लगी थी निशा. क्या उत्तर दे वह? नहीं सोचा था कि कभी बंद कमरे की सचाई उसे किसी बाहर वाले पर भी खोलनी पड़ेगी.

‘‘निशा, विकास की बातों में कितनी सचाई है, मैं यह जानना चाहता हूं, तुम्हारा मन दुखाना नहीं चाहता.’’

‘‘विकास ने मेरे साथ रह कर कभी अपनेआप को मारा नहीं था…मेरे घाव और उन से रिसता खून भी कभी उस की किसी भी इच्छा में बाधक नहीं था.’’

उस शाम के बाद एक सहज निकटता दोनों के बीच उभर आई थी. बिना कुछ कहे कुछ अधिकार अपने और कुछ पराए हो गए थे.

‘‘दिल्ली चलोगी मेरे साथ…बहन के घर शादी है. वहां आयुर्विज्ञान संस्थान में एक बार फिर तुम्हारी पूरी जांच हो जाएगी और मन भी बहल जाएगा. मैं ने आरक्षण करा लिया है, बस, तुम्हें हां कहनी है.’’

‘‘शादी में मैं क्या करूंगी?’’

‘‘वहां मैं अपनी सखी को सब से मिलाना चाहता हूं…एक तुम ही तो हो जिस के साथ मैं मन की हर बात बांट लेता हूं.’’

‘‘कपड़े बारबार गंदे हो जाते हैं और ठीक से बैठा भी तो नहीं जाता…अपनी बेकार सी सखी को लोगों से मिला कर अपनी हंसी उड़ाना चाहते हैं क्या?’’

उस दिन सोम दिल्ली गए तो एक विचित्र भाव अपने पीछे छोड़ गए. हफ्ते भर की छुट्टी का एहसास देर तक निशा के मानस पटल पर छाया रहा.

बहन उन के लिए एक रिश्ता भी सुझा रही थी. हो सकता है वापस लौटें तो पत्नी साथ हो. कितने अकेले हैं सोम. घर बस जाएगा तो अकेले नहीं रहेंगे. हो सकता है उन की पत्नी से भी उस की दोस्ती हो जाए या सोम की दोस्ती भी छूट जाए.

2 दिन बीत चुके थे, निशा रात में सोने से पहले पेट का घाव साफ करने के लिए सामान निकाल रही थी. सहसा लगा उस के पीछे कोई है. पलट कर देखा तो सोम खड़े मुसकरा रहे थे.

हैरानी तो हुई ही कुछ अजीब सा भी लगा उसे. इतनी रात गए सोम उस के पास…घर की एक चाबी सदा सोम के पास रहती है न…और वह तो अभी आने वाले भी नहीं थे, फिर एकाएक चले कैसे आए?

‘‘जी नहीं लगा इसलिए जल्दी चला आया. गाड़ी ही देर से पहुंची और सुबह का इंतजार नहीं कर सकता था…मैं पट्टी बदल दूं?’’

 

‘‘मैं बदल लूंगी, आप जाइए, सोम. और घर की चाबी भी लौटा दीजिए.’’

सोम का चेहरा सफेद पड़ गया, शायद अपमान से. यह क्या हो गया है निशा को? क्या निशा स्वयं को उन के सामीप्य में असुरक्षित मानने लगी है? क्या उन्हें जानवर समझने लगी है?

एक सुबह जबरन सोम ने ही पहल कर ली और रास्ता रोक बात करनी चाही.

‘‘निशा, क्या हो गया है तुम्हें?’’

‘‘भविष्य में आप खुश रहें उस के लिए हमारी दोस्ती का समाप्त हो जाना ही अच्छा है.’’

‘‘सब के लिए खुशी का अर्थ एक जैसा नहीं होता निशा, मैं निभाने में विश्वास रखता हूं.’’

तभी दफ्तर में एक फोन आया और लोगों ने चर्चा शुरू कर दी कि बांद्रा शाखा के प्रबंधक विकास शर्मा की पत्नी और दोनों बच्चे एक दुर्घटना में चल बसे.

सकते में रह गए दोनों. विश्वास नहीं आया सोम को. निशा के पैरों तले जमीन ही खिसकने लगी, वह धम से वहीं बैठ गई.

सोम के पास विकास की बहन का फोन नंबर था. वहां पूछताछ की तो पता चला इस घटना को 2 दिन हो गए हैं.

भारी कदमों से निशा के पास आए सोम जो दीवार से टेक लगाए चुपचाप बैठी थी. आफिस के सहयोगी आगेपीछे घिर आए थे.

हाथ बढ़ा कर सोम ने निशा को पुकारा. बदहवास सी निशा कभी चारों तरफ देखती और कभी सोम के बढ़े हुए हाथों को. उस का बच्चा भी चला गया… एक आस थी कि शायद बड़ा हो कर वह अपनी मां से मिलने आएगा.

भावावेश में सोम से लिपट निशा चीखचीख कर रोने लगी. इतने लोगों में एक सोम ही अपने लगे थे उसे.

विकास दिल्ली वापस आ चुका था. पता चला तो दोस्ती का हक अदा करने सोम चले गए उस के यहां.

‘‘पता नहीं हमारे ही साथ ऐसा क्यों हो गया?’’ विकास ने उन के गले लग रोते हुए कहा.

वक्त की नजाकत देख सोम चुप ही बने रहे. उठने लगे तो विकास ने कह दिया, ‘‘निशा से कहना कि वह वापस चली आए… मैं उस के पास गया था. फोन भी किया था लेकिन उस ने कोई जवाब नहीं दिया,’’ विकास रोरो कर सोम को सुना रहा था.

उठ पड़े सोम. क्या कहते… जिस इनसान को अपनी पत्नी का रिसता घाव कभी नजर नहीं आया वह अपने घाव के लिए वही मरहम चाहता है जिसे मात्र बेकार कपड़ा समझ फेंक दिया था.

‘‘निशा तुम्हारी बात मानती है, तुम कहोगे तो इनकार नहीं करेगी सोम, तुम बात करना उस से…’’

‘‘वह मुझ से नाराज है,’’ सोम बोले, ‘‘बात भी नहीं करती मुझ से और फिर मैं कौन हूं उस का. देखो विकास, तुम ने अपना परिवार खोया है इसलिए इस वक्त मैं कुछ कड़वा कहना नहीं चाहता पर क्षमा करना मुझे, मैं तुम्हारीं कोई भी मदद नहीं कर सकता.’’

सोम आफिस पहुंचे तो पता चला कि निशा ने तबादला करा लिया. कार्यालय में यह बात आग की तरह फैल गई. निशा छुट्टी पर थी इसलिए वही उस का निर्देश ले कर घर पर गए. निर्देश पा कर निशा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई.

‘‘तबीयत कैसी है, निशा? घाव तो भर गया है न?’’

‘‘पता नहीं सोम, क्या भर गया और क्या छूट गया.’’

धीरे से हाथ पकड़ लिया सोम ने. ठंडी शिला सी लगी उन्हें निशा. मानो जीवन का कोई भी अंश शेष न हो. ठंडे हाथ को दोनों हाथों में कस कर बांध लिया सोम ने और विकास के बारे में क्या बात करें यही सोचने लगे.

‘‘मैं क्या करूं सोम? कहां जाऊँ? विकास वापस ले जाने आया था.’’

‘‘आज भी उस इनसान से प्यार करती हो तो जरूर लौट जाओ.’’

‘‘हूं तो मैं आज भी बंजर औरत, आज भी मेरा मूल्य बस वही है न जो 2 साल पहले विकास के लिए था…तब मैं मनु की मां थी…अब तो मां भी नहीं रही.’’

‘‘क्या मेरे पास नहीं आ सकतीं तुम?’’ निशा के समूल काया को मजबूत बंधन में बांध सोम ने फिर पूछा, ‘‘पीछे मुड़ कर क्यों देखती हो तुम…अब कौन सा धागा तुम्हें खींच रहा है?’’

किसी तरह सोम के हाथों को निशा ने हटाना चाहा तो टोक दिया सोम ने, ‘‘क्या नए सिरे से जीवन शुरू नहीं कर सकती हो तुम? सोचती होगी तुम कि मां नहीं बन सकती और जो मां बन पाई थी क्या वह काल से बच पाई? संतान का कैसा मोह? मैं भी कभी पिता था, तुम भी कभी मां थीं, विकास तो 2 बच्चों का पिता था… आज हम तीनों खाली हाथ हैं…’’

‘‘सोम, आप समझने की कोशिश करें.’’

‘‘बस निशा, अब कुछ भी समझना शेष नहीं बचा,’’ सस्नेह निशा का माथा चूम सोम ने पूर्ण आश्वासन की पुष्टि की.

‘‘देखो, तुम मेरी बच्ची बनना और मैं तुम्हारा बच्चा. हम प्रकृति से टक्कर नहीं ले सकते. हमें उसी में जीना है. तुम मेरी सब से अच्छी दोस्त हो और मैं तुम्हें खो नहीं सकता.’’

सोम को ऐसा लगा मानो निशा का विरोध कम हो गया है. उस की आंखें हर्षातिरेक से भर आईं. उस ने पूरी ताकत से निशा को अपने आगोश में भींच लिया. कल क्या होगा वह नहीं जानते परंतु आज उन्हें प्रकृति से जो भी मिला है उसे पूरी ईमानदारी और निष्ठा से स्वीकारने और निभाने की हिम्मत उन में है. आखिर इनसान को उसी में जीना पड़ता है जो भी प्रकृति दे.

‘‘सच पूछो तो मुझे विकास पर तरस आने लगा है. मैं ने तो अपना सब एक हादसे में खो दिया. जिसे कुदरत की मार समझ मैं ने समझौता कर लिया लेकिन विकास ने तो अपने हाथों से अपना घर जला लिया.’’

कहतेकहते न जाने कितना कुछ कह गए सोम. अपना सबकुछ खो देने के बाद जीवन के नए ही अर्थ उन के सामने भी चले आए हैं.

दूसरे दिन जांच में और भी सुधार नजर आया. डाक्टर ने बताया कि इस की पूरी आशा है कि निशा का एक और छोटा सा आपरेशन कर प्राकृतिक मल द्वार खोल दिया जाए और पेट पर लगी थैली से उस को छुटकारा मिल जाए. डाक्टर के मुंह से यह सुन कर निशा की आंखें झिलमिला उठी थीं.

‘‘देखा…मैं ने कहा था न कि एक दिन तुम नातीपोतों के साथ खेलोगी.’’

बस रोतेराते निशा इतना ही पूछ पाई थी, ‘‘खाली गोद में नातीपोते?’’

‘‘भरोसा रखो निशा, जीवन कभी ठहरता नहीं, सिर्फ इनसान की सोच ठहर जाती है. आने वाला कल अच्छा होगा, ऐसा सपना तो तुम देख ही सकती हो.’’

निशा पूरी तरह स्वस्थ हो गई. पेट पर बंधी थैली से उसे मुक्ति मिल गई. अब ढीलेढाले कपड़े ही उस का परिधान रह गए थे. उस दिन जब घर लौटने पर सोम ने सुंदर साड़ी भेंट में दी तो उस की आंखें भर आईं.

विकास नहीं आए जबकि फोन पर मैं ने उन्हें बताया था कि मेरा आपरेशन होने वाला है.

‘‘विकास के बेटी हुई है और गायत्री अस्पताल में है. मैं ने तुम्हारे बारे में विकास से बात की थी और वह मनु को लाना भी चाहता था. लेकिन मां नहीं मानीं तो मैं ने भी यह सोच कर जिद नहीं की कि अस्पताल में बच्चे को लाना वैसे भी स्वास्थ्य की दृष्टि से अच्छा नहीं होता.’’

क्या कहती निशा. विकास का परिवार पूर्ण है तो वह क्यों उस के पास आता, अधूरी तो वह है, शायद इसीलिए सब को जोड़ कर या सब से जुड़ कर पूरा होने का प्रयास करती रहती है.

निशा की तड़प पलपल देखते रहते सोम. विकास का इंतजार, मनु की चाह. एक मां के लिए जिंदा संतान को सदा के लिए त्याग देना कितना जानलेवा है?

‘‘क्यों झूठी आस में जीती हो निशा,’’ सोम बोले, ‘‘सपने देखना अच्छी बात है, लेकिन इस सच को भी मान लो कि तुम्हारे पास कोई नहीं लौटेगा.’’

एक सुबह सोम की दी हुई साड़ी पहन निशा कार्यालय पहुंची तो सोम की आंखों में मीठी सी चमक उभर आई. कुछ कहा नहीं लेकिन ऐसा बहुत कुछ था जो बिना कहे ही कह दिया था सोम ने.

‘‘आज मेरी दिवंगत पत्नी विभा और गुड्डी का जन्मदिन है. आज शाम की चाय मेरे साथ पिओगी?’’ यह बताते समय सोम की आंखें झिलमिला रही थीं.

सोम उस शाम निशा को अपने घर ले आए थे. औरत के बिना घर कैसा श्मशान सा लगता है, वह साफ देख रही थी. विभा थी तो यही घर कितना सुंदर था.

‘‘घर में सब है निशा, आज अपने हाथ से कुछ भी बना कर खिला दो.’’

चाय का कप और डबलरोटी के टुकड़े ही सामने थे जिन्हें सेक निशा ने परोस दिया था. सहसा निशा के पेट को देख सोम चौंक से गए.

‘‘निशा, तुम्हें कोई तकलीफ है क्या, यह कपड़ों पर खून कैसा?’’

सोम के हाथ निशा के शरीर पर थे. पेटी की वजह से पेट पर गहरे घाव बन चुके थे. थैली वाली जगह खून से लथपथ थी.

‘‘आज आप के साथ आ गई, पेट पर की पट्टी नहीं बदल पाई इसीलिए. आप परेशान न हों. पट््टी बदलने का सामान मेरे बैग में है, मैं ने आज साड़ी पहनी है. शायद उस की वजह से ऐसा हो गया होगा.’’

सोम झट से बैग उठा लाए और मेज पर पलट दिया. पट्टी का पूरा सामान सामने था और साथ थी वही पुरानी पेटी और थैली.

सोम अपने हाथों से उस के घाव साफ करने लगे तो वह मना न कर पाई.

पहली बार किसी पुरुष के हाथ उस के पेट पर थे. उस के हाथ भी सोम ने हटा दिए थे.

‘‘यह घाव पेटी की वजह से हैं सोम, ठीक हो जाएंगे…आप बेकार अपने हाथ गंदे कर रहे हैं.’’

मरहमपट्टी के बाद सोम ने अलमारी से विभा के कपड़े निकाल कर निशा को दिए. वह साड़ी उतार कर सलवारसूट पहनने चली गई. लौट कर आई तो देखा सोम ने दालचावल बना लिए हैं.

हलके से हंस पड़ी निशा.

सोम चुपचाप उसे एकटक निहार रहे थे. निशा को याद आया कि एक दिन विकास ने उसे बंजर जमीन और कंदमूल कहा था. आधीअधूरी पत्नी उस के लिए बेकार वस्तु थी.

‘क्या मुझे शरीरिक भूख नहीं सताती, मैं अपनेआप को कब तक मारूं?’ चीखा था विकास. पता नहीं किस आवेग में सोम ने निशा से यही नितांत व्यक्तिगत प्रश्न पूछ लिया, तब निशा ने विकास के चीख कर कहे वाक्य खुल कर सोम से कह डाले.

हालांकि यह सवाल निशा के चेहरे की रंगत बदलने को काफी था. चावल अटक गए उस के हलक में. लपक कर सोम ने निशा को पानी का गिलास थमाया और देर तक उस की पीठ थपकते रहे.

‘‘मुझे क्षमा करना निशा, मैं वास्तव में यह जानना चाहता था कि आखिर विकास को तुम्हारे साथ रहने में परेशानी क्या थी?’’

सोम के प्रश्न का उत्तर न सूझा उसे.

‘‘मैं चलती हूं सोम, अब आप आराम करें,’’ कह कर उठ पड़ी थी निशा लेकिन सोम के हाथ सहसा उसे जाने से रोकने को फैल गए..

‘‘मैं तुम्हारा अपमान नहीं कर रहा हूं निशा, तुम क्या सोचती हो, मैं तमाशा बना कर बस तुम्हारी व्यक्तिगत जिंदगी का राज जान कर मजा लेना चाहता हूं.’’

रोने लगी थी निशा. क्या उत्तर दे वह? नहीं सोचा था कि कभी बंद कमरे की सचाई उसे किसी बाहर वाले पर भी खोलनी पड़ेगी.

‘‘निशा, विकास की बातों में कितनी सचाई है, मैं यह जानना चाहता हूं, तुम्हारा मन दुखाना नहीं चाहता.’’

‘‘विकास ने मेरे साथ रह कर कभी अपनेआप को मारा नहीं था…मेरे घाव और उन से रिसता खून भी कभी उस की किसी भी इच्छा में बाधक नहीं था.’’

उस शाम के बाद एक सहज निकटता दोनों के बीच उभर आई थी. बिना कुछ कहे कुछ अधिकार अपने और कुछ पराए हो गए थे.

‘‘दिल्ली चलोगी मेरे साथ…बहन के घर शादी है. वहां आयुर्विज्ञान संस्थान में एक बार फिर तुम्हारी पूरी जांच हो जाएगी और मन भी बहल जाएगा. मैं ने आरक्षण करा लिया है, बस, तुम्हें हां कहनी है.’’

‘‘शादी में मैं क्या करूंगी?’’

‘‘वहां मैं अपनी सखी को सब से मिलाना चाहता हूं…एक तुम ही तो हो जिस के साथ मैं मन की हर बात बांट लेता हूं.’’

‘‘कपड़े बारबार गंदे हो जाते हैं और ठीक से बैठा भी तो नहीं जाता…अपनी बेकार सी सखी को लोगों से मिला कर अपनी हंसी उड़ाना चाहते हैं क्या?’’

उस दिन सोम दिल्ली गए तो एक विचित्र भाव अपने पीछे छोड़ गए. हफ्ते भर की छुट्टी का एहसास देर तक निशा के मानस पटल पर छाया रहा.

बहन उन के लिए एक रिश्ता भी सुझा रही थी. हो सकता है वापस लौटें तो पत्नी साथ हो. कितने अकेले हैं सोम. घर बस जाएगा तो अकेले नहीं रहेंगे. हो सकता है उन की पत्नी से भी उस की दोस्ती हो जाए या सोम की दोस्ती भी छूट जाए.

2 दिन बीत चुके थे, निशा रात में सोने से पहले पेट का घाव साफ करने के लिए सामान निकाल रही थी. सहसा लगा उस के पीछे कोई है. पलट कर देखा तो सोम खड़े मुसकरा रहे थे.

हैरानी तो हुई ही कुछ अजीब सा भी लगा उसे. इतनी रात गए सोम उस के पास…घर की एक चाबी सदा सोम के पास रहती है न…और वह तो अभी आने वाले भी नहीं थे, फिर एकाएक चले कैसे आए?

‘‘जी नहीं लगा इसलिए जल्दी चला आया. गाड़ी ही देर से पहुंची और सुबह का इंतजार नहीं कर सकता था…मैं पट्टी बदल दूं?’’

‘मैं बदल लूंगी, आप जाइए, सोम. और घर की चाबी भी लौटा दीजिए.’’

सोम का चेहरा सफेद पड़ गया, शायद अपमान से. यह क्या हो गया है निशा को? क्या निशा स्वयं को उन के सामीप्य में असुरक्षित मानने लगी है? क्या उन्हें जानवर समझने लगी है?

एक सुबह जबरन सोम ने ही पहल कर ली और रास्ता रोक बात करनी चाही.

‘‘निशा, क्या हो गया है तुम्हें?’’

‘‘भविष्य में आप खुश रहें उस के लिए हमारी दोस्ती का समाप्त हो जाना ही अच्छा है.’’

‘‘सब के लिए खुशी का अर्थ एक जैसा नहीं होता निशा, मैं निभाने में विश्वास रखता हूं.’’

तभी दफ्तर में एक फोन आया और लोगों ने चर्चा शुरू कर दी कि बांद्रा शाखा के प्रबंधक विकास शर्मा की पत्नी और दोनों बच्चे एक दुर्घटना में चल बसे.

सकते में रह गए दोनों. विश्वास नहीं आया सोम को. निशा के पैरों तले जमीन ही खिसकने लगी, वह धम से वहीं बैठ गई.

सोम के पास विकास की बहन का फोन नंबर था. वहां पूछताछ की तो पता चला इस घटना को 2 दिन हो गए हैं.

भारी कदमों से निशा के पास आए सोम जो दीवार से टेक लगाए चुपचाप बैठी थी. आफिस के सहयोगी आगेपीछे घिर आए थे.

हाथ बढ़ा कर सोम ने निशा को पुकारा. बदहवास सी निशा कभी चारों तरफ देखती और कभी सोम के बढ़े हुए हाथों को. उस का बच्चा भी चला गया… एक आस थी कि शायद बड़ा हो कर वह अपनी मां से मिलने आएगा.

भावावेश में सोम से लिपट निशा चीखचीख कर रोने लगी. इतने लोगों में एक सोम ही अपने लगे थे उसे.

विकास दिल्ली वापस आ चुका था. पता चला तो दोस्ती का हक अदा करने सोम चले गए उस के यहां.

‘‘पता नहीं हमारे ही साथ ऐसा क्यों हो गया?’’ विकास ने उन के गले लग रोते हुए कहा.

वक्त की नजाकत देख सोम चुप ही बने रहे. उठने लगे तो विकास ने कह दिया, ‘‘निशा से कहना कि वह वापस चली आए… मैं उस के पास गया था. फोन भी किया था लेकिन उस ने कोई जवाब नहीं दिया,’’ विकास रोरो कर सोम को सुना रहा था.

उठ पड़े सोम. क्या कहते… जिस इनसान को अपनी पत्नी का रिसता घाव कभी नजर नहीं आया वह अपने घाव के लिए वही मरहम चाहता है जिसे मात्र बेकार कपड़ा समझ फेंक दिया था.

‘‘निशा तुम्हारी बात मानती है, तुम कहोगे तो इनकार नहीं करेगी सोम, तुम बात करना उस से…’’

‘‘वह मुझ से नाराज है,’’ सोम बोले, ‘‘बात भी नहीं करती मुझ से और फिर मैं कौन हूं उस का. देखो विकास, तुम ने अपना परिवार खोया है इसलिए इस वक्त मैं कुछ कड़वा कहना नहीं चाहता पर क्षमा करना मुझे, मैं तुम्हारीं कोई भी मदद नहीं कर सकता.’’

सोम आफिस पहुंचे तो पता चला कि निशा ने तबादला करा लिया. कार्यालय में यह बात आग की तरह फैल गई. निशा छुट्टी पर थी इसलिए वही उस का निर्देश ले कर घर पर गए. निर्देश पा कर निशा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई.

‘‘तबीयत कैसी है, निशा? घाव तो भर गया है न?’’

‘‘पता नहीं सोम, क्या भर गया और क्या छूट गया.’’

धीरे से हाथ पकड़ लिया सोम ने. ठंडी शिला सी लगी उन्हें निशा. मानो जीवन का कोई भी अंश शेष न हो. ठंडे हाथ को दोनों हाथों में कस कर बांध लिया सोम ने और विकास के बारे में क्या बात करें यही सोचने लगे.

‘‘मैं क्या करूं सोम? कहां जाऊँ? विकास वापस ले जाने आया था.’’

‘‘आज भी उस इनसान से प्यार करती हो तो जरूर लौट जाओ.’’

‘‘हूं तो मैं आज भी बंजर औरत, आज भी मेरा मूल्य बस वही है न जो 2 साल पहले विकास के लिए था…तब मैं मनु की मां थी…अब तो मां भी नहीं रही.’’

‘‘क्या मेरे पास नहीं आ सकतीं तुम?’’ निशा के समूल काया को मजबूत बंधन में बांध सोम ने फिर पूछा, ‘‘पीछे मुड़ कर क्यों देखती हो तुम…अब कौन सा धागा तुम्हें खींच रहा है?’’

किसी तरह सोम के हाथों को निशा ने हटाना चाहा तो टोक दिया सोम ने, ‘‘क्या नए सिरे से जीवन शुरू नहीं कर सकती हो तुम? सोचती होगी तुम कि मां नहीं बन सकती और जो मां बन पाई थी क्या वह काल से बच पाई? संतान का कैसा मोह? मैं भी कभी पिता था, तुम भी कभी मां थीं, विकास तो 2 बच्चों का पिता था… आज हम तीनों खाली हाथ हैं…’’

‘‘सोम, आप समझने की कोशिश करें.’’

‘‘बस निशा, अब कुछ भी समझना शेष नहीं बचा,’’ सस्नेह निशा का माथा चूम सोम ने पूर्ण आश्वासन की पुष्टि की.

‘‘देखो, तुम मेरी बच्ची बनना और मैं तुम्हारा बच्चा. हम प्रकृति से टक्कर नहीं ले सकते. हमें उसी में जीना है. तुम मेरी सब से अच्छी दोस्त हो और मैं तुम्हें खो नहीं सकता.’’

सोम को ऐसा लगा मानो निशा का विरोध कम हो गया है. उस की आंखें हर्षातिरेक से भर आईं. उस ने पूरी ताकत से निशा को अपने आगोश में भींच लिया. कल क्या होगा वह नहीं जानते परंतु आज उन्हें प्रकृति से जो भी मिला है उसे पूरी ईमानदारी और निष्ठा से स्वीकारने और निभाने की हिम्मत उन में है. आखिर इनसान को उसी में जीना पड़ता है जो भी प्रकृति दे.

कमजोर कोर्ट रूम ड्रामा है Kirti Sanon की ‘दो पत्ती’  

Kirti Sanon’s Do Patti : वर्ष 2010 में आई अमिताभ बच्चन अभिनीत ‘तीन पत्ती’ जुआ के खेल पोकर से संबंधित थी, मगर नई फिल्म ‘दो पत्ती’ 2 बहनों की राइवलरी पर है. अकसर हम ने देखा है कि जिस घर में 2 किशोरी या युवा होती बेटियां होती हैं उन में आपस में नोकझोक होती रहती है. दोनों बहनों का स्वभाव अलग होता है, एक को मातापिता ज्यादा प्यार करते हैं तो दूसरी को इग्नोर किया जाता है. एक पढ़ाई में तेज होती है तो दूसरी बोर, एक तेजतर्रार होती है तो दूसरी फिसड्डी.

 

हाल ही में स्टार टीवी पर चल रहे एक सीरियल ‘एडवोकेट अंजलि अवस्थी’ में दोनों बहनों को राइवल दिखाया गया है. उन का पिता मृत्युशैया पर है परंतु बहुत अमीर घर में ब्याही बेटी न तो अपने बाप को पहचानती है, न ही पिता के इलाज के लिए अपनी बहन को पैसे देती है.

 

जब घर में 2 बहनें आपस में लगती झगड़ती हों तो यह चोट पूरे परिवार पर लगती है, परिवार तहसनहस हो जाता है. बहनों की इसी राइवलरी को मसालेदार पैकेजिंग में पेश कर प्रस्तुत किया गया है.

 

फिल्म की कहानी एक पहाड़ी इलाके देवीपुर की इंस्पैक्टर विद्या ज्योति (काजोल) से शुरू होती है. विद्या को एक फोनकौल आता है जिस में एक पतिपत्नी की मारपीट के बारे में बताया जाता है. विद्या तहकीकात करने निकल पड़ती है. पता चलता है कि यह तो 2 जुड़वां बहनों सौम्या (कृति सेनन) और शैली (कृति सेनन की दूसरी भूमिका) की कहानी है जो बहनें कम, दुश्मन ज्यादा हैं.

 

सौम्या शांत रहती है, वहीं शैली बिंदास है. सौम्या को एंग्जाइटी के अटैक पड़ते हैं, इसलिए उसे ज्यादा तवज्जुह दी जाती है. शैली से यह बरदाश्त नहीं होता. वह सौम्या के प्यार ध्रुव (शहीर शेख) को भी उस से छीन लेती है. मगर ध्रुव पत्नी के रूप में मौडर्न शैली के बजाय घरेलू सौम्या को चुनता है.

 

इधर शादी के बाद ध्रुव बातबात पर सौम्या को पीटता है और शैली के करीब आने लगता है. उधर अगले दिन सौम्या ध्रुव को पैराग्लाइडिंग पौइंट पर मिलती है. वह ध्रुव को अपने साथ पैराग्लाइडिंग पर चलने को कहती है. ध्रुव उस से कन्फैस करता है कि उसे अब लाइफ में सैटल होना है जबकि शैली उस से कहती है कि वह सौम्या से शादी न करे मगर उस की शादी सौम्या से हो जाती है. ध्रुव और शैली में अनबन होती रहती है.

 

तहकीकात करती विद्या जब वहां पहुंचती है तो उसे बताया जाता है कि शादी के 2-3 महीने बाद डोमैस्टिक वौयलैंस शुरू हो गया था. दरअसल शैली सौम्या की शादी को तुड़वाना चाहती थी. वह बहाने बना कर सौम्या के पति के साथ संबंध बनाना चाहती थी. विद्या उसे सलाह देती है कि जब तक वह कोई शिकायत नहीं करेगी, ऐक्शन नहीं लिया जाएगा.

 

एक रात ध्रुव सौम्या से इंटीमेट होने की कोशिश करता है तो वह कहती है कि वह उस के बच्चे की मां बनना चाहती है. सुबह ध्रुव सौम्या से माफी मांगता है. बच्चों की बात सुन कर ध्रुव को लगता है कि उस ने गलत बहन का चुनाव किया है. यहां फिर ध्रुव सौम्या को मारतापीटता है. सौम्या सीढि़यों से गिर जाती है. सौम्या किसी तरह उठती है और खुद ही डाक्टर को दिखा लाती है. तभी विद्या कौंस्टेबल को आदेश देती है कि पता लगाओ कि ध्रुव के खिलाफ कितने केस हैं.

 

दरअसल सौम्या डिप्रैशन की पेशेंट थी. थाने में सौम्या बताती है कि वह प्रैग्नैंट है. ध्रुव उस से माफी मांगता है और कहता है, कल से नई शुरुआत करेंगे. फाइनली सौम्या पुलिस को बता देती है कि ध्रुव ने पैराग्लाइडिंग करते वक्त उसे मारने की कोशिश की थी. ध्रुव को जेल में डाल दिया जाता है. कोर्ट में यह प्रूव हो जाता है कि सौम्या मानसिक रूप से बीमार है और उसे ऊंचाई से डर लगता है. केस सौल्व हो जाता है. शैली सौम्या की उबरने में मदद करती है.

 

इस कहानी की पटकथा रोचक है. कई ट्विस्ट्स और टर्न डाले गए हैं. कहानी धीरेधीरे खुलती जाती है, कोर्टरूम ड्रामा भी है जो कमजोर है. कहानी का आइडिया ऐक्ट्रैस कृति सेनन का है. शहीर शेख का काम अच्छा है. खूबसूरत वादियों में फिल्माई गई इस फिल्म की सिनेमेटोग्राफी अच्छी है. पार्श्व संगीत अच्छा है. फिल्म बेटियों को संदेश देती है कि बहनें आपस में मिलजुल कर रहें, एकदूसरे का हक न मारें.

 

 

I want to talk : अमिताभ बच्‍चन ने थपथपाई बेटे अभिषेक की पीठ

Abhishek Bachchan :  ‘आई वांट टू टौक’ यानी मुझे बात करनी है. इंग्लिश के टाइटल वाली इस फिल्म को शुजित सरकार ने बनाया है और इस में एक अरसे बाद अभिषेक बच्चन को अभिनय करते देख अच्छा लगता है. शुजित सरकार ने 5 बेहतरीन फिल्में बनाई हैं. अगर आप ने उन फिल्मों को मिस कर दिया है तो अरेंज कर के उन्हें देख डालिए.

 

2012 में रिलीज हुई फिल्म ‘विकी डोनर’ एक कौमेडी ड्रामा थी जिसे बौक्सऔफिस पर खासी सफलता मिली. उस फिल्म का मूल विषय बांझपन और स्पर्म डोनेशन पर आधारित था. उस फिल्म से आयुष्मान खुराना ने डैब्यू किया था. फिल्म में उस के साथ यामी गौतम थी. आजकल यह फिल्म जियो प्राइम पर देखी जा सकती है.

 

 

भारतीय राजनीतिक रहस्यों पर आधारित 2013 में आई शुजित सरकार की दूसरी फिल्म थी ‘मद्रास कैफे’. यह फिल्म नैटफ्लिक्स पर अवेलेबल है. 2015 में अमिताभ बच्चन और दीपिका पादुकोण अभिनीत ‘पीकू’ में पितापुत्री के भावनात्मक रिश्ते को दिखाया गया था. यह फिल्म सोनी लिव पर उपलब्ध है. 2018 में शुजित सरकार के निर्देशन में बनी ‘अक्तूबर’ एक और बेहतर फिल्म है. यह अमेजन प्राइम पर देखी जा सकती है. इस के अलावा 2021 में आई ‘सरदार उधम सिंह’ शुजित सरकार की एक और उम्दा फिल्म है. यह फिल्म जियो सिनेमा पर उपलब्ध है.

 

अच्छा निर्देशक वही माना जाता है जिस की फिल्म का सब्जैक्ट उस की अन्य फिल्मों से एकदम अलग हो. यहां शुजित सरकार की पांचों फिल्मों के सब्जैक्ट अलगअलग हैं.

 

‘आई वांट टू टौक’ एकदम अलग विषय पर बनी फिल्म है जिस का नायक अर्जुन सेन (Abhishek Bachchan) कैलिफोर्निया में मार्केटिंग की दुनिया में धूम मचा रहा है. एक दिन उसे पता चलता है कि उसे गले का कैंसर है और उस की जिंदगी के महज 100 दिन बाकी हैं. वह जिंदगी से हार मान कर चुप नहीं बैठता, बल्कि मौत को ठेंगा दिखा कर जीवन जीतने के युद्ध में उतर पड़ता है. वह अपनी बेटी (अहिल्या बामरू) के साथ अपने रिश्ते को बेहतर बनाता है. इस सिलसिले में उस का एकाकीपन, नौकरी खोना, अस्पताल के लंबेलंबे बिल, सिर पर लटकती मौत की तलवार से भी जूझता है, मगर हिम्मत नहीं हारता, मौत को मात देता है और जिंदगी की जंग को जीतता है.

 

फिल्म की कहानी कहने का शुजित सरकार का अपना ढंग है. वे कहानी को जीवन की क्षणभंगुरता तक ले जाते हैं. उन्होंने अर्जुन सेन की 20 सर्जरियों को महिमामंडित नहीं किया है बल्कि उसे एक रूटीन की तरह ट्रीट किया है.

 

फिल्म का फर्स्टहाफ कुछ धीमा है, लेकिन सैकंडहाफ में फिल्म दौड़ने लगती है. निर्देशक ने डाक्टर (जयंत कृपलानी) के साथ मरीज अर्जुन सेन की रिलेशनशिप में कई हलकेफुलके पल जुटाए हैं.

 

फिल्म के संवाद चुटीले हैं. अभिषेक के प्रोस्थोटिक मेकअप पर मेहनत की गई है. फिल्म की कहानी में अभिषेक का पत्नी से तलाक होना दिखाया गया है. वह तलाक क्यों हुआ था, इस के बारे में भी बताया जाना चाहिए था.

 

अभिषेक बच्चन का अभिनय शानदार है. अभिषेक बच्चन अपनी भूमिका में कमाल कर गया है. अर्जुन सेन की बेटी की भूमिका में बाल कलाकार हो या युवा बेटी के रोल में अहिल्या बामरू, दोनों ने गजब की ऐक्टिंग की है. छोटी सी भूमिका में जौनी लीवर राहत पहुंचाता है.

 

फिल्म का निर्देशन काफी अच्छा है. फिल्म को देखने के बाद अमिताभ बच्चन ने बेटे की पीठ थपथपाई है. शुजित सरकार के साथ अभिषेक बच्चन ने पहली बार काम किया है. गीतसंगीत साधारण है. सिनेमेटोग्राफी अच्छी है. फिल्म की शूटिंग कैलिफोर्निया में की गई है.

 

‘The sabarmati Report’ : विवादित मुद्दे को भुनाने की नाकाम कोशिश

इसी साल जुलाई में गोधरा कांड पर एक फिल्म रिलीज हुई थी. फिल्म में बताया गया था कि गुजरात का बहुचर्चित गोधरा कांड एक हादसा था या साजिश. इसी विषय पर तहकीकात करती यह दूसरी फिल्म है. ये दोनों फिल्में एक एजेंडे के तहत बनाई गई हैं. वर्ष 2002 में गोधरा हादसे के वक्त नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे. इस हादसे या साजिश के बाद पूरा गुजरात दंगों की आग में झुलस उठा था. प्रशासन आंखें मूंदे बैठा था. मुसलमानों का चुनचुन कर खात्मा किया गया था.

अब उसी विषय पर एक और फिल्म बनाने की आवश्यकता ही नहीं थी, मगर लगता है, एक ही समय पर दोनों फिल्मों के बनाने का निर्णय लिया गया. ‘द साबरमती रिपोर्ट’ भी विवादास्पद गोधरा कांड पर बनाई गई है. शायद ही कोई ऐसा हो जो गुजरात के गोधरा कांड के बारे में न जानता हो. इस ट्रेन अग्निकांड में 59 लोग मारे गए थे और सैकड़ों घायल हुए थे. नानावती आयोग ने गोधरा कांड को हादसा नहीं, एक साजिश बताया था. यह फिल्म भी उस साजिश को परतदरपरत खोलती है.

‘द साबरमती रिपोर्ट’ की कहानी एक न्यूज चैनल में बतौर कैमरामैन काम करने वाले समर कुमार (विक्रांत मैसी) की है जो गोधरा के पास ट्रेन में लगी आग के मामले को रिपोर्ट करने गई एक वरिष्ठ रिपोर्टर मनिका राजपुरोहित (रिद्धि डोगरा) के साथ भेजा जाता है.

समर और मनिका राजपुरोहित दोनों गोधरा पहुंचते हैं. समर यहां सारी चीजें रिकौर्ड करता है. उसे पता चलता है कि यह आग जानबू?ा कर लगाई गई थी, जबकि मनिका राज इसे सिर्फ एक हादसा मान रही थी. मनिका राज के लौटने के बाद समर अस्पताल जा कर घायलों के बयान भी रिकौर्ड करता है. उस पर दंगाइयों ने हमला करने की भी कोशिश की, मगर वह बच कर भाग निकला और सीधे चैनल के डायरैक्टर को जा कर टेप सौंप दी.

अगले दिन समर हैरान रह गया. टीवी पर उस का टेप नहीं, मनिका राजपुरोहित द्वारा शूट किया गया टेप चलाया गया था, जिस में मनिका राज ने इसे सिर्फ एक हादसा बताया था. समर के एतराज करने पर उसे नौकरी से निकाल दिया गया और एक ?ाठे केस में जेल में डाल दिया गया, मगर उस की गर्लफ्रैंड ने उसे जेल से बाहर निकलवा दिया. अब उस का अपनी गर्लफ्रैंड के साथ ब्रेकअप हो चुका था.

अब समर रातदिन शराब के नशे में धुत रहने लगा. इसी तरह 5 साल बीत गए. कहानी 2007 में पहुंच जाती है, जहां दर्शक अमृता गिल (राशि खन्ना) को देखते हैं. वह एक टीवी चैनल ग्रुप को जौइन कर लेती है.

2007 में जब मुख्यमंत्री बदला तो केस एक बार फिर से खुला. न्यूज चैनल को सरकार ने गोधरा कांड पर फिर से रिपोर्ट तैयार करने को कहा. मनिका राज अमृता गिल से गोधरा कांड के विक्टिम्स के बारे में रिपोर्ट तैयार करने को कहती है. न्यूज चैनल के हैड मिश्राजी अमृता को वह टेप दे देते हैं जो समर ने शूट किया था और न्यूज चैनल के डायरैक्टर को सौंपा था. टेप को देखने के बाद अमृता सम?ा चुकी थी कि यह कोई हादसा नहीं बल्कि सोचीसम?ा साजिश है.

अमृता तुरंत समर के पास जाती है. पैसों के लालच में समर अमृता को सारी इन्फौर्मेशन देने को राजी हो जाता है. अगले दिन दोनों गोधरा पहुंचते हैं. वहां जा कर उन्हें गोधरा कांड की सचाई मालूम पड़ती है. दोनों साबरमती ट्रेन की जली बोगियों को भी देखने जाते हैं. पहले बनाई गई रिपोर्टों में विरोधाभास था. समर को यह बात नागवार लगी कि ट्रेन में खाना बनाया जा रहा था, जबकि ट्रेन में पैर रखने तक की जगह न थी.

इस सारी घटना के प्रमुख गवाह प्लेटफौर्म पर कार्यरत एक वेटर अरुण बर्धा को पुलिस द्वारा छिपाया जा रहा था. समर और अमृता एक वरिष्ठ अधिकारी का भेष बदल कर अरुण बर्धा तक पहुंच जाते हैं और उस से सारी सचाई उगलवाते हैं. उस के अनुसार एक सोचीसम?ा साजिश के तहत ट्रेन को जलाने की प्लानिंग एक दिन पहले ही हो गई थी. 20-20 लिटर केरोसिन टिन के पीपे पहले से ही ला कर रख दिए थे. समर अदालत को सारी सचाई बताता है और प्रूव करता है कि गोधरा कांड हादसा नहीं, साजिश थी. नानावती आयोग ने भी इसे साजिश माना था.

कहानी और उस का ट्रीटमैंट विषय के साथ न्याय नहीं करता. ‘द साबरमती रिपोर्ट’ ऐक्सिडैंट या कौंसपिरेसी इस संवेदनशील मुद्दे में कुछ ऐसा नहीं जोड़ पाती जो नया हो. पटकथा भी कमजोर है. फिल्म का पहला भाग उस भयावह हादसे को मीडिया पर छिपाने के लिए फोकस करता है, दूसरा इस सच की पड़ताल करता है. यह दूसरा भाग कमजोर है.

फिल्म में हिंदी बनाम इंग्लिश की जंग भी दिखाई गई है. कई बार फिल्म मुद्दे से हट कर 2 समुदायों की अनबन को दिखाने के साथसाथ कौमी एकता को भी दिखाती है. विक्रांत मैसी अपने किरदार में आसानी से ढल गए हैं. रिद्धि डोगरा ने अपना किरदार बखूबी निभाया है. राशि खन्ना का काम भी बढि़या है.

यह बात बारबार दोहराई गई है कि समर हिंदी का पत्रकार है. अमूमन हिंदी के पत्रकारों की कोई इज्जत नहीं होती. पत्रकार आखिर पत्रकार होता है, वह चाहे हिंदी का पत्रकार ही क्यों न हो. प्रैस इन्फौर्मेशन ब्यूरो उन के साथ दोगला व्यवहार नहीं कर सकता, सरकार को इस ओर ध्यान देना चाहिए.

नानावती आयोग की रिपोर्ट, गुजरात हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का उदाहरण देती इस फिल्म में दर्शकों को यही याद दिलाने की कोशिश की गई है कि अयोध्या से यज्ञ कर के लौट रहे 59 रामभक्तों को गोधरा में जिंदा जला दिया.

निर्देशक अनुराग कश्यप के सहायक रहे राजन पटेल ने फिल्म ‘द साबरबती रिपोर्ट’ निर्देशित की है. फिल्म में विक्रांत मैसी की शोहरत को भुनाने की कोशिश की गई है. रिद्धि डोगरा दबंग पत्रकार के रूप में जमी है. पार्श्व संगीत अच्छा है. सिनेमेटोग्राफी बढि़या है. एक खोजी पत्रकार का निराश हो कर नशे की लत में डूब जाना अखरता है. इस से पत्रकारों की प्रतिष्ठा पर आंच आती है.

 

 

Varicose veins के इलाज का बेहतर तरीका क्या है?

मेरी आयु 42 वर्ष की है. मुझे अपने पैरों में हो रही वैरिकोज वेन्स के लिए इलाज करवाना है. लेकिन मैं कन्फ्यूज हो रही हूं कि मुझे इस के लिए कौन सा इलाज करवाना चाहिए. एलोपैथिक, होम्योपैथिक या एक्यूप्रैशर? आप की क्या सलाह है?

 

आप ने यह नहीं लिखा कि आप की वैरिकोज वेन्स की स्थिति कितनी गंभीर है, क्योंकि इलाज के लिए कौन सा तरीका बेहतर रहेगा, उसी पर निर्भर करता है. वैसे एलोपैथिक इलाज वैरिकोज वेन्स के लिए सब से इफैक्टिव और फास्ट रिजल्ट देने वाला है. इस में दवाइयां, रक्लेरोथेरैपी, लेजर ट्रीटमैंट और गंभीर मामलों में सर्जरी शामिल हैं, यह एंडवास या सीवियर केसेस के लिए बैस्ट औप्शन है.

 

होम्पोपैथिक उपचार धीरेधीरे काम करता है और लक्षणों को कम करने के लिए प्राकृतिक तरीके अपनाता है. यह माइल्ड और अरली स्टेज के लिए ठीक रहता है.

 

एक्यूप्रैशर रक्तप्रवाह को सुधारने और दर्द को कम करने में मदद करता है. यह सपोर्टिव थेरैपी के लिए उपयोगी है लेकिन वैरिकोज वेन्स का पूर्ण इलाज नहीं कर सकता.

 

यदि समस्या गंभीर है तो एलोपैथिक इलाज करें. हलके मामलों में होम्योपैथी से मदद मिल सकती है. एक्यूप्रैशर को सहायक चिकित्सा के रूप में ही अपनाएं. सही इलाज के लिए डाक्टर से परामर्श करना बेहद जरूरी है.

 

आप भी अपनी समस्या हमें एसएमएस या व्हाट्सऐप के जरिए मैसेज/औडियो भी कर सकते हैं.

phone number : 08588843415

 

 

Bold Story : लव इन लौकडाउन

बेहद खूबसूरत, स्मार्ट, आधुनिक, एक मल्टीनेशनल कंपनी में उच्च पद पर मिहिका आजकल लौकडाउन के चलते वर्क फ्रोम होम ही कर रही थी.

मुंबई के अपने सुंदर से फ्लैट में वह अकेली रहती थी. 38 साल की अविवाहिता मिहिका लाइफ को अपनी शर्तों पर जी कर खुश थी, संतुष्ट थी. अपनी हेल्थ, फिगर का खूब ध्यान रखती, सुंदर थी ही. देखने में वह 25-30 साल की ही लगती. आजकल औफिस के काम के साथसाथ वह माइग्रेंट मजदूरों के लिए भी बहुतकुछ कर रही थी.

सिर्फ जरूरी चीजों की दुकानें ही खुली थीं. काफी सामानों की तो होम डिलीवरी हो ही रही थी.

एक दिन वह यों ही कार निकाल कर सोसाइटी से बाहर निकली. यह भी लग रहा था कि कार खड़ेखड़े बेकार ही न हो जाए.

सोसाइटी से कुछ दूर गांधी नगर था, जहां मजदूरों की बस्ती थी, वहीं आसपास उसे गरीब बच्चे मुंह लटकाए दिख गए.

 

स्वभाव से बेहद कोमल मिहिका उसी समय ग्रोसरी स्टोर गई, कई फूड पैकेट्स बनवाए और सीधे गांधी नगर पहुंच गई. बच्चों को आवाज दी, तो बच्चे भागे आए, उन के पीछेपीछे कई बड़े भी आ गए.

भूख, गरीबी से क्लांत चेहरे देख मिहिका ने उसी दिन से एक फैसला ले लिया. अब उस ने ग्रोसरी वाले को फोन किया, “नरेश भाई, जैसे पैकेट्स आज मैं ने लिए हैं, ऐसे रोज 50 पैकेट्स तैयार कर के मेरे फ्लैट पर पहुंचा देना.‘’

”जी मैडम, जरूर. बड़ी नेकी का काम करेंगी.”

अब यह रोज का नियम हो गया. औफिस का काम खत्म होने के बाद मिहिका कार निकालती, खुशीखुशी मजदूरों की बस्ती में जा कर खाना बांट कर आती. इस में उसे एक असीम खुशी मिलने लगी.

बस्ती में उस की कार का हौर्न सुन कर लोग रोड पर आ कर खड़े हो जाते, कभी उन के लिए खूब सब्जियां भी खरीद कर ले जाती. गरीबी, महामारी के सताए मजदूर काफी संख्या में तो मुंबई से जा चुके थे, पर ये जो रह गए थे, उन के लिए मिहिका काफीकुछ करने लगी थी. वैसे भी वह घर में अकेली ही रहती थी. आजकल उस की मेड भी नहीं आ रही थी. अपने काम करते हुए उस का दिन तो व्यस्त बीतता. शाम को वह गांधी नगर निकल जाती.

वह आजादखयाल लड़की थी. उस ने शादी की नहीं थी. खूब अच्छा खाती, कमाती, लाइफ को भरपूर एंजौय करने वाली थी.

उस दिन जैसे ही घर पहुंच कर नहा कर बाहर निकली, तभी रजत का फोन आ गया, ”कहां हो मिहिका? किधर गायब हो? कोई हालचाल नहीं, फोन नहीं ?”

 

”हां यार, थोड़ा बिजी हो गई.”

”कहां…?”

”ऐसे ही. बताओ, कब आ रहे हो? कल डिनर करो मेरे साथ.”

”नहीं यार, डिनर कहां कर सकता हूं, आजकल घर में ही तो बंद हैं, बाहर निकलूंगा तो सीमा पूछेगी कि कहां खा कर आए,” कहते हुए रजत हंसा, ”होटल भी बंद हैं, कोई बहाना नहीं चलने वाला.”

”यह तो है. आना है तो बहाना तो सोचना ही पड़ेगा.”

”ठीक है, यही बोल कर निकलूंगा कि थोड़ा टहल कर आता हूं. यह तो अच्छा है कि तुम्हारी बराबर की सोसाइटी में ही रहता हूं, पैदल भी आ सकता हूं.‘’

मिहिका ने हंसते हुए कहा, ”सीमा को किसी दिन पता चल जाए कि लौकडाउन में भी उस का पति अपनी गर्लफ्रेंड से मिलने गया है तो क्या होगा?”

”अरे यार, अच्छाअच्छा बोलो, आता हूं.”

रजत मिहिका का कलीग है. मिहिका और उस की दोस्ती 2 महीने पहले ही हुई थी. कोविड के चक्कर में जब सब वर्क फ्रोम होम कर रहे थे, तभी चैट करतेकरते दोनों खुलते चले गए.

मिहिका को हंसी आती कि वह तो अनमैरिड है, ये विवाहित पुरुषों को क्या हो जाता है कि उस के एक इशारे पर उस की तरफ खिंचे चले आते हैं, अच्छीभली पत्नियों के होते हुए उसे देख कर दीवाने बने घूमते हैं.

खैर, रजत पहला विवाहित पुरुष तो है नहीं, जो उस की जिंदगी में आया हो.

मिहिका अच्छी कुक थी, उस ने सोचा, रजत खाना तो खाएगा नहीं, बीवी को जवाब देना होगा. थोड़ा सा पास्ता बना लेती हूं, जब भी वह औफिस पास्ता बना कर ले गई है, रजत ने शौक से खाया है.

रजत तय समय पर आया. आते ही किसी दीवाने की तरह मिहिका को बांहों में भर उसे जी भर कर प्यार किया. मिहिका ने उस की बांहों में खुद को सौंप दिया. कुछ समय दोनों एकदूसरे में खोए रहे, फिर दोनों ने बेड पर ही लेटेलेटे ढेरों बातें की.

रजत ने कहा, “यार, जल्दी नहीं आ पाऊंगा. सीमा आज भी निकलने नहीं दे रही थी.”

”ठीक है, कोई दिक्कत नहीं.”

”मुझे याद करती हो?”

”हां, करती तो हूं.”

”आजकल घर में ही रहना हो रहा है, बोर होती हो?”

मिहिका हंसी, ”अरे नहीं, बोर तो मैं कभी नहीं होती.”

रजत हैरान हुआ, पर चुप रहा. थोड़ी देर में वह चला गया, तो मिहिका लेटेलेटे ही बहुत सी बातों के बारे में सोचने लगी. उसे सचमुच रजत से ऐसा लगाव नहीं था कि उस से मिलना नहीं हो पाएगा तो वह उदास हो जाएगी. रजत उसे अच्छा लगा था. शांत, हंसमुख सा रजत उसे पहली नजर में ही अच्छा लगा था और उस के खुद के चुम्बकीय व्यक्तित्व से बचना किसी पुरुष के लिए आसान नहीं होता. वह जानती है यह बात, इस बात को उस ने हमेशा एंजौय किया है.

पिछले साल इसी सोसाइटी की इसी बिल्डिंग में रहने वाले अनिल से उस की लिफ्ट में कई बार बातचीत हुई तो मिहिका उस से खुलने लगी. वह बैचलर था.

मिहिका ने उसे अपने फ्लैट में कौफी के लिए इनवाइट किया तो दोस्ती कुछ और बढ़ी थी, इतनी कि दोनों ने 6 महीने खुल कर एंजौय किया, साथसाथ खूब घूमे, कभी लोनावाला निकल जाते, कभी माथेरान, वीकेंड का मतलब ही मौजमस्ती हो गया था. फिर उस का ट्रांसफर दिल्ली हो गया. दोनों अच्छे दोस्तों की तरह प्यार से ही अलग हुए.
अब तो उस की शादी भी होने वाली थी. जब अनिल ने उसे फोन पर बताया कि वह पेरेंट्स की पसंद की लड़की से शादी कर रहा है, तो मिहिका बहुत हंसी थी और वह झेंपता रह गया था.

मिहिका का वही रूटीन शुरू हो गया था. औफिस और गांधी नगर जा कर मजदूरों के लिए कुछ करना. वह अपने जीवन से पूरी तरह संतुष्ट और सुखी थी.

एक दिन वह कार निकाल ही रही थी कि सोसाइटी के चेयरमैन जो वहीं वाचमैन को किसी बात पर डांट रहे थे, दिलकश मुसकराहट से मिहिका को हेलो बोलते हुए कह रहे थे, ”अरे, इस लौकडाउन में भी आप रोज कहां घूम रही हैं?”

मिहिका को चेयरमैन मिस्टर श्रीनिवासन हमेशा एक सौम्य पुरुष लगते, ऊपर से उन की स्माइल मिहिका को बहुत पसंद थी. उन की एक ही बेटी थी, जो बाहर पढ़ती थी. मिहिका ने कहा, ”गांधी नगर जाती हूं, मिस्टर श्रीनिवासन. आप चलना चाहेंगे वहां…”

”क्या करने…?”

”फ्री हों तो आइए, आप को घुमा कर लाती हूं.”

श्रीनिवासन ने सकुचाते हुए कहा, ”फिर कभी.”

मिहिका हंसते हुए चली गई. पर वह बहुत हैरान हुई, जब सोसाइटी के अंदर घुसते हुए उस ने देखा, श्रीनिवासन उस की बिल्डिंग के बाहर टहल रहे हैं. वह मन ही मन मुसकराई.

मिहिका ने जैसे ही कार पार्क की, श्रीनिवासन उस की ओर लपके, पूछने लगे, “आप को लौकडाउन में कोई परेशानी तो नहीं हो रही है?”

”जी नहीं, थैंक यू.”

श्रीनिवासन वहां खड़े रहे, तो मिहिका ने पूछा, “आप का भी आजकल वर्क फ्रोम होम चल रहा है?”

”हां, पर काफी बोर हो रहा हूं, लौकडाउन के समय मेरी पत्नी अपनी मां को देखने दिल्ली गई हुई थी, वह अब तक नहीं लौट पाई है.”

”ओह्ह, वैरी सैड. मैं आप के लिए कुछ कर सकती हूं?”

श्रीनिवासन मुसकराते हुए बोले, “फिलहाल एक कप चाय पिलाएंगी?”

”जरूर, बस मुझे इतना टाइम दीजिए कि मैं फ्रेश हो जाऊं. बाहर से आई हूं न.”

”हां… हां, मैं थोड़ी देर में आता हूं.”

मिहिका नहाधो कर जैसे ही फ्री हुई, उस की डोर बेल बजी. मिहिका ने उन का मुसकरा कर स्वागत किया. मिहिका ने एंट्री पर ही सैनिटाइजर रखा हुआ था. श्रीनिवासन ने हाथ सेनिटाइज किए. वे पहली बार उस के घर आए. घर पर एक नजर डालते हुए वे बोले, “वाह, आप ने तो घर को बहुत अच्छा रखा हुआ है. कमाल का साफसुथरा घर है, जबकि मेड भी नहीं है.”

”जी, थैंक्स.”

”आप मुझे श्री ही कहेंगी तो मुझे अच्छा लगेगा. मेरे दोस्त मुझे श्री ही कहते हैं. उन्हें मेरा नाम बड़ा लगता है,” कहते हुए वे प्यारी हंसी हंसे. मिहिका ने उन की काफी तारीफ सुनी थी. उसे वे पसंद थे. उम्र 40 से 45 के बीच ही होगी, पर काफी स्मार्ट और सभ्य थे.

मिहिका 2 कप चाय बना लाई. श्री को काफी नालेज थी. वे मिहिका की वहां रखी बुक्स के बारे में काफी बातें करते रहे. मिहिका को उन के पढ़ने के शौक पर खुशी हुई. वह खुद खूब पढ़ती थी.

श्री के साथ बैठेबैठे मिहिका को भी टाइम का पता ही नहीं चला. वे जाने लगे तो मिहिका ने उन्हें फिर आने के लिए कहा.

3-4 दिन में वह एक बार शाम को वहां आने लगे. चाय कभीकभी खाना भी खा कर जाने लगे और यह दोस्ती बढ़तेबढ़ते धीरेधीरे सारी सीमाएं भी पार कर ही गईं.

वैसे तो इस टाइम सोसाइटी में सब अपनेअपने घर में बंद थे. न कोई किसी से मिल रहा था, न एकदूसरे के घर जा रहा था. श्री सब से चोरीचोरी धीरेधीरे मिहिका के फ्लैट में चले जाते. दोनों इस नए बने रिश्ते में खोए ही थे कि धीरेधीरे फ्लाइट्स आनेजाने लगीं, तो एक दिन उन्होंने बताया, “मिहिका, अब मेरी पत्नी किसी दिन भी आने वाली है. इस तरह तो जल्दीजल्दी नहीं, पर मैं आता रहूंगा.”

”ठीक है, जब आप का मन करे, आ जाना.”

श्री अपनी पत्नी इंदु के आने के बाद भी चोरीचोरी 1-2 बार तो आए, पर एक ही सोसाइटी में ये दिल्लगी उन की गृहस्थी को नुकसान पहुंचा सकती थी, इसलिए बहुत कम तभी ही आ पाते, जब इंदु किसी काम से बाहर गई होती.

मिहिका का मजदूरों की बस्ती में जाना जारी था. ऐसे ही दिनों में वह एक दिन सो कर उठी, तो उस के पूरे शरीर में दर्द था, खूब तेज जुकाम और बुखार से उस की हालत खराब होने लगी, तो उस ने श्री को फोन किया. इस बार श्री उलझे से आए, बोले, “क्या हुआ?”

”मेरी तबियत काफी खराब हो रही है, श्री. मुझे डाक्टर के पास ले जा सकते हो?”

”हां, ठीक है, चलो. मैं बस इंदु को फोन कर के बता दूं.”

”क्या कहोगे उन्हें?”

”मैं सोसाइटी का चेयरमैन तो हूं ही. कह दूंगा कि इस टाइम मेरी ड्यूटी है तुम्हें ले जाना. तुम अकेली हो.”

मिहिका से उठा ही नहीं जा रहा था. बड़ी मुश्किल से वह श्री की कार तक गई. अस्पताल ज्यादा दूर नहीं था.

मिहिका को बुखार तेज था, इसलिए अस्पताल में एडमिट कर लिया गया. श्री मिहिका के ही कहने पर उसे अस्पताल छोड़ घर आ गए.

मिहिका ने ही वहीं कुछ दूर रहने वाली अपनी फ्रेंड आरती को आने के लिए कह दिया था. आरती और वह एक ही औफिस में थीं और अच्छी फ्रेंड्स भी थीं.

आरती के पति विजय और उस की एक बेटी मिंटी मिहिका को एक फैमिली मेंबर ही समझते थे.

आरती तुरंत अस्पताल पहुंच गई. मिहिका की हालत ठीक नहीं थी उसे दूसरे अस्पताल में शिफ्ट कर दिया गया. आरती लगातार उस के साथ थी, पर यहां वह रुक नहीं सकती थी. इस की अनुमति नहीं मिली तो वह बहुत परेशान हो गई.

मिहिका ने ही उसे समझाबुझा कर घर भेज दिया. यह अस्पताल भी अच्छा था. मिहिका की देखरेख अच्छी तरह से हो रही थी. उस का बुखार उतरा. आरती लगातार उस के टच में थी.

एक हफ्ते बाद मिहिका ने डाक्टर से कहा, ”मैं घर पर अकेली ही रहती हूं. अगर मेरी रिपोर्ट अब नेगेटिव आ जाए तो क्या मैं घर जा सकती हूं?”

”थोड़ा टाइम और लगेगा, फिर रिपोर्ट देख कर भेज देंगे.”

मिहिका ने रजत और श्री को भी मैसेज में अपनी हालत के बारे में बता दिया था. दोनों के यह सोच कर होश उड़ गए कि वे एक कोरोना पौजिटिव के साथ समय बिता कर आए हैं.

कुछ दिन और बीते. मिहिका काफी ठीक हुई, फिर कोविड का टेस्ट हुआ. इस बार रिपोर्ट नेगेटिव आई तो उसे डिस्चार्ज कर दिया गया.

आरती को मिहिका ने सख्ती से दूर रहने के लिए कहा हुआ था, फिर भी उस के बारबार मना करने पर भी आरती ही अपनी कार से उसे उस की बिल्डिंग के पास छोड़ कर गई.

मिहिका को घर आ कर भी क्वारंटीन रहना था. आरती ने उस की हर जरूरत की चीज के लिए होम डिलीवरी की व्यवस्था कर दी थी.

मिहिका बहुत ही हिम्मती थी. वह इन हालात में जरा भी नहीं घबराई. उस के पेरेंट्स उस के जौब लगते ही एक एक्सीडेंट में दुनिया छोड़ गए थे, तब से वह अकेली ही जी रही थी. वह खूब उतारचढ़ाव देख चुकी थी.

घर आ कर मिहिका बहुत कमजोरी का अनुभव कर रही थी. वह फ्रेश हो कर लेटी ही थी कि श्री का फोन आया. उस के हेलो कहते ही शुरू हो गया, ”मिहिका, क्या बताऊं, कोरोना तुम्हें हुआ है, नींद मेरी उड़ गई है. मैं ने तो तुम्हारे साथ बहुत टाइम बिताया है इधर. मुझे कहीं कुछ न हो जाए, मैं तो वैसे भी ब्लड प्रेशर का मरीज हूं, बहुत डर लग रहा है. क्या बताऊं, एक छींक भी आती है तो डर जाता हूं.”

मिहिका बड़े धैर्य से श्री का डर सुनती रही. उस ने बड़ी मुश्किल से अपनी हंसी रोकी. हां, हूं कर के उस ने फोन रख दिया.

अगले दिन ही रजत का फोन आ गया. उस की भी हालत खराब थी, ”यार, क्या बताऊं, तुम्हें यह कैसे हो गया? डर लग रहा है कि कहीं मैं भी इस की चपेट में न आ जाऊं? तुम्हें कहां से हो गया होगा?”

”कुछ कह नहीं सकती… शायद माइग्रेंट मजदूरों की बस्ती में जा कर हुआ हो.’’

”क्या…? तुम वहां क्यों जा रही थी?”

”उन्हें कुछ देने.‘’

”तुम ने मुझे बताया नहीं.”

”जरूरत नहीं समझी. अरे, वैसे भी मैं हर जगह तो तुम्हें बता कर जाऊं, ऐसा तो कुछ नहीं हमारे बीच.”

रजत उस की साफगोई पर चुप रह गया. बस एक ठंडी सांस ले कर उस ने इतना ही कहा, “मिहिका, बहुत डर लग रहा है कि कहीं मैं भी कोरोना की चपेट में न आ जाऊं, घर में मां हैं, छोटे बच्चे हैं… क्या कर सकते हैं अब? खैर, टेक केयर.”

मिहिका का कोविड का केस सोसाइटी का पहला केस था. पूरी सोसाइटी को चिंता होने लगी. मिहिका की बिल्डिंग की एंट्री पर नगरपालिका वाले एक बैनर भी लटका गए कि इस बिल्डिंग में कोरोना का केस है, सब दूर रहें, ध्यान रखा जाए.

मिहिका ने सोसाइटी में ही टिफिन सर्विस वाली महिला से रिक्वेस्ट की थी कि वह उस के लिए खाना भिजवाती रहे. वैसे तो वह इस लौकडाउन में खुद ही बना रही थी, पर औफिस जाने के समय उस ने इस महिला से कई बार खाना मंगवाया था. आरती उस की चिंता में बराबर उस का हालचाल लेती रही.

मिहिका अब कुछ ठीक महसूस कर रही थी, पर जिस तरह से रजत और श्री डर रहे थे, वह आराम करती हुई यही सोच रही थी कि बेचारे, इन्हें मौजमस्ती महंगी न पड़ जाए. वह तो अब ठीक है, पर दोनों के डर से भरे मैसेज पढ़पढ़ कर उसे हंसी आ जाती. वे अपने इस डर का सच किसी से शेयर नहीं कर सकते थे. उसी से ही सुबहशाम अपनाअपना डर बांट रहे थे, डर का सच वही जानती थी और इस सच पर मुसकराए जा रही थी.

Emotional Hindi Kahani : पराया भाई सगी भाभी

लेखिका- अमिता बत्रा

बहू शब्द सुनते ही मन में सब से पहला विचार यही आता है कि बहू तो सदा पराई होती है. लेकिन मेरी शोभा भाभी से मिल कर हर व्यक्ति यही कहने लगता है कि बहू हो तो ऐसी. शोभा भाभी ने न केवल बहू का, बल्कि बेटे का भी फर्ज निभाया. 15 साल पहले जब उन्होंने दीपक भैया के साथ फेरे ले कर यह वादा किया था कि वे उन के परिवार का ध्यान रखेंगी व उन के सुखदुख में उन का साथ देंगी, तब से वह वचन उन्होंने सदैव निभाया.

जब बाबूजी दीपक भैया के लिए शोभा भाभी को पसंद कर के आए थे तब बूआजी ने कहा था, ‘‘बड़े शहर की लड़की है भैयाजी, बातें भी बड़ीबड़ी करेगी. हमारे छोटे शहर में रह नहीं पाएगी.’’

तब बाबूजी ने मुसकरा कर कहा था, ‘‘दीदी, मुझे लड़की की सादगी भा गई. देखना, वह हमारे परिवार में खुशीखुशी अपनी जगह बना लेगी.’’

बाबूजी की यह बात सच साबित हुई और शोभा भाभी कब हमारे परिवार का हिस्सा बन गईं, पता ही नहीं चला. भाभी हमारे परिवार की जान थीं. उन के बिना त्योहार, विवाह आदि फीके लगते थे. भैया सदैव काम में व्यस्त रहते थे, इसलिए घर के काम के साथसाथ घर के बाहर के काम जैसे बिजली का बिल जमा करना, बाबूजी की दवा आदि लाना सब भाभी ही किया करती थीं.

मां के देहांत के बाद उन्होंने मुझे कभी मां की कमी महसूस नहीं होने दी. इसी बीच राहुल के जन्म ने घर में खुशियों का माहौल बना दिया. सारा दिन बाबूजी उसी के साथ खेलते रहते. मेरे दोनों बच्चे अपनी मामी के इस नन्हे तोहफे से बेहद खुश थे. वे स्कूल से आते ही राहुल से मिलने की जिद करते थे. मैं जब भी अपने पति दिनेश के साथ अपने मायके जाती तो भाभी न दिन देखतीं न रात, बस सेवा में लग जातीं. इतना लाड़ तो मां भी नहीं करती थीं.

एक दिन बाबूजी का फोन आया और उन्होंने कहा, ‘‘शालिनी, दिनेश को ले कर फौरन चली आ बेटी, शोभा को तेरी जरूरत है.’’

मैं ने तुरंत दिनेश को दुकान से बुलवाया और हम दोनों घर के लिए निकल पड़े. मैं सारा रास्ता परेशान थी कि आखिर बाबूजी ने इस समय हमें क्यों बुलाया और भाभी को मेरी जरूरत है, ऐसा क्यों कहा  मन में सवाल ले कर जैसे ही घर पहुंची तो देखा कि बाहर टैक्सी खड़ी थी और दरवाजे पर 2 बड़े सूटकेस रखे थे. कुछ समझ नहीं आया कि क्या हो रहा है. अंदर जाते ही देखा कि बाबूजी परेशान बैठे थे और भाभी चुपचाप मूर्ति बन कर खड़ी थीं.

भैया गुस्से में आए और बोले, ‘‘उफ, तो अब अपनी वकालत करने के लिए शोभा ने आप लोगों को बुला लिया.’’

भैया के ये बोल दिल में तीर की तरह लगे. तभी दिनेश बोले, ‘‘क्या हुआ भैया आप सब इतने परेशान क्यों हैं ’’

इतना सुनते ही भाभी फूटफूट कर रोने लगीं.

भैया ने गुस्से में कहा, ‘‘कुछ नहीं दिनेश, मैं ने अपने जीवन में एक महत्त्वपूर्ण फैसला लिया है जिस से बाबूजी सहमत नहीं हैं. मैं विदेश जाना चाहता हूं, वहां बहुत अच्छी नौकरी मिल रही है, रहने को मकान व गाड़ी भी.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छी बात है भैया,’’ दिनेश ने कहा.

दिनेश कुछ और कह पाते, तभी भैया बोले, ‘‘मेरी बात अभी पूरी नहीं हुई दिनेश, मैं अब अपना जीवन अपनी पसंद से जीना चाहता हूं, अपनी पसंद के जीवनसाथी के साथ.’’

यह सुनते ही मैं और दिनेश हैरानी से भैया को देखने लगे. भैया ऐसा सोच भी कैसे सकते थे. भैया अपने दफ्तर में काम करने वाली नीला के साथ घर बसाना चाहते थे.

‘‘शोभा मेरी पसंद कभी थी ही नहीं. बाबूजी के डर के कारण मुझे यह विवाह करना पड़ा. परंतु कब तक मैं इन की खुशी के लिए अपनी इच्छाएं दबाता रहूंगा ’’

मैं बाबूजी के पैरों पर गिर कर रोती हुई बोली, ‘‘बाबूजी, आप भैया से कुछ कहते क्यों नहीं  इन से कहिए ऐसा न करें, रोकिए इन्हें बाबूजी, रोक लीजिए.’’

चारों ओर सन्नाटा छा गया, काफी सोच कर बाबूजी ने भैया से कहा, ‘‘दीपक, यह अच्छी बात है कि तुम जीवन में सफलता प्राप्त कर रहे हो पर अपनी सफलता में तुम शोभा को शामिल नहीं कर रहे हो, यह गलत है. मत भूलो कि तुम आज जहां हो वहां पहुंचने में शोभा ने तुम्हारा भरपूर साथ दिया. उस के प्यार और विश्वास का यह इनाम मत दो उसे, वह मर जाएगी,’’ कहते हुए बाबूजी की आंखों में आंसू आ गए.

भैया का जवाब तब भी वही था और वे हम सब को छोड़ कर अपनी अलग दुनिया बसाने चले गए.

बाबूजी सदा यही कहते थे कि वक्त और दुनिया किसी के लिए नहीं रुकती, इस बात का आभास भैया के जाने के बाद हुआ. सगेसंबंधी कुछ दिन तक घर आते रहे दुख व्यक्त करने, फिर उन्होंने भी आना बंद कर दिया.

जैसेजैसे बात फैलती गई वैसेवैसे लोगों का व्यवहार हमारे प्रति बदलता गया. फिर एक दिन बूआजी आईं और जैसे ही भाभी उन के पांव छूने लगीं वैसे ही उन्होंने चिल्ला कर कहा, ‘‘हट बेशर्म, अब आशीर्वाद ले कर क्या करेगी  हमारा बेटा तो तेरी वजह से हमें छोड़ कर चला गया. बूढ़े बाप का सहारा छीन कर चैन नहीं मिला तुझे  अब क्या जान लेगी हमारी  मैं तो कहती हूं भैया इसे इस के मायके भिजवा दो, दीपक वापस चला आएगा.’’

बाबूजी तुरंत बोले, ‘‘बस दीदी, बहुत हुआ. अब मैं एक भी शब्द नहीं सुनूंगा. शोभा इस घर की बहू नहीं, बेटी है. दीपक हमें इस की वजह से नहीं अपने स्वार्थ के लिए छोड़ कर गया है. मैं इसे कहीं नहीं भेजूंगा, यह मेरी बेटी है और मेरे पास ही रहेगी.’’

बूआजी ने फिर कहा, ‘‘कहना बहुत आसान है भैयाजी, पर जवान बहू और छोटे से पोते को कब तक अपने पास रखोगे  आप तो कुछ कमाते भी नहीं, फिर इन्हें कैसे पालोगे  मेरी सलाह मानो इन दोनों को वापस भिजवा दो. क्या पता शोभा में ऐसा क्या दोष है, जो दीपक इसे अपने साथ रखना ही नहीं चाहता.’’

यह सुनते ही बाबूजी को गुस्सा आ गया और उन्होंने बूआजी को अपने घर से चले जाने को कहा. बूआजी तो चली गईं पर उन की कही बात बाबूजी को चैन से बैठने नहीं दे रही थी. उन्होंने भाभी को अपने पास बैठाया और कहा, ‘‘बस शोभा, अब रो कर अपने आने वाले जीवन को नहीं जी सकतीं. तुझे बहादुर बनना पड़ेगा बेटा. अपने लिए, अपने बच्चे के लिए तुझे इस समाज से लड़ना पड़ेगा.

तेरी कोई गलती नहीं है. दीपक के हिस्से तेरी जैसी सुशील लड़की का प्यार नहीं है.

तू चिंता न कर बेटा, मैं हूं न तेरे साथ और हमेशा रहूंगा.’’

वक्त के साथ भाभी ने अपनेआप को संभाल लिया. उन्होंने कालेज में नौकरी कर ली और शाम को घर पर भी बच्चों को पढ़ाने लगीं. समाज की उंगलियां भाभी पर उठती रहीं, पर उन्होंने हौसला नहीं छोड़ा. राहुल को स्कूल में डालते वक्त थोड़ी परेशानी हुई पर भाभी ने सब कुछ संभालते हुए सारे घर की जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठा ली.

भाभी ने यह साबित कर दिया कि अगर औरत ठान ले तो वह अकेले पूरे समाज से लड़ सकती है. इस बीच भैया की कोई खबर नहीं आई. उन्होंने कभी अपने परिवार की खोजखबर नहीं ली. सालों बीत गए भाभी अकेली परिवार चलाती रहीं, पर भैया की ओर से कोई मदद नहीं आई.

एक दिन भाभी का कालेज से फोन आया, ‘‘दीदी, घर पर ही हो न शाम को

आप से कुछ बातें करनी हैं.’’

‘‘हांहां भाभी, मैं घर पर ही हूं आप आ जाओ.’’

शाम 6 बजे भाभी मेरे घर पहुंचीं. थोड़ी परेशान लग रही थीं. चाय पीने के बाद मैं ने उन से पूछा, ‘‘क्या बात है भाभी कुछ परेशान लग रही हो  घर पर सब ठीक है ’’

थोड़ा हिचकते हुए भाभी बोलीं, ‘‘दीदी, आप के भैया का खत आया है.’’

मैं अपने कानों पर विश्वास नहीं कर पा रही थी. बोली, ‘‘इतने सालों बाद याद आई उन को अपने परिवार की या फिर नई बीवी ने बाहर निकाल दिया उन को ’’

‘‘ऐसा न कहो दीदी, आखिर वे आप के भाई हैं.’’

भाभी की बात सुन कर एहसास हुआ कि आज भी भाभी के दिल के किसी कोने में भैया हैं. मैं ने आगे बढ़ कर पूछा, ‘‘भाभी, क्या लिखा है भैया ने ’’

भाभी थोड़ा सोच कर बोलीं, ‘‘दीदी, वे चाहते हैं कि बाबूजी मकान बेच कर उन के साथ चल कर विदेश में रहें.’’

‘‘क्या कहा  बाबूजी मकान बेच दें  भाभी, बाबूजी ऐसा कभी नहीं करेंगे और अगर वे ऐसा करना भी चाहेंगे तो मैं उन्हें कभी ऐसा करने नहीं दूंगी. भाभी, आप जवाब दे दीजिए कि ऐसा कभी नहीं होगा. वह मकान बाबूजी के लिए सब कुछ है, मैं उसे कभी बिकने नहीं दूंगी. वह मकान आप का और राहुल का सहारा है. भैया को एहसास है कि अगर वह मकान नहीं होगा तो आप लोग कहां जाएंगे  आप के बारे में तो नहीं पर राहुल के बारे में तो सोचते. आखिर वह उन का बेटा है.’’

मेरी बातें सुन कर भाभी चुप हो गईं और गंभीरता से कुछ सोचने लगीं. उन्होंने यह बात अभी बाबूजी से छिपा रखी थी. हमें समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या करें, तभी दिनेश आ गए और हमें परेशान देख कर सारी बात पूछी. बात सुन कर दिनेश ने भाभी से कहा, ‘‘भाभी, आप को यह बात बाबूजी को बता देनी चाहिए. दीपक भैया के इरादे कुछ ठीक नहीं लग रहे.’’

यह सुनते ही भाभी डर गईं. फिर हम तीनों तुरंत घर के लिए निकल पड़े. घर जा कर

भाभी ने सारी बात विस्तार से बाबूजी को बता दी. बाबूजी कुछ विचार करने लगे. उन के चेहरे से लग रहा था कि भैया ऐसा करेंगे उन्हें इस बात की उम्मीद थी. उन्होंने दिनेश से पूछा, ‘‘दिनेश, तुम बताओ कि हमें क्या करना चाहिए ’’

दिनेश ने कहा, ‘‘दीपक आप के बेटे हैं तो जाहिर सी बात है कि इस मकान पर उन का अधिकार बनता है. पर यदि आप अपने रहते यह मकान भाभी या राहुल के नाम कर देते हैं तो फिर भैया चाह कर भी कुछ नहीं कर सकेंगे.’’

दिनेश की यह बात सुन कर बाबूजी ने तुरंत फैसला ले लिया कि वे अपना मकान भाभी के नाम कर देंगे. मैं ने बाबूजी के इस फैसले को मंजूरी दे दी और उन्हें विश्वास दिलाया कि वे सही कर रहे हैं.

ठीक 10 दिन बाद भैया घर आ पहुंचे और आ कर अपना हक मांगने लगे. भाभी पर इलजाम लगाने लगे कि उन्होंने बाबूजी के बुढ़ापे का फायदा उठाया है और धोखे से मकान अपने नाम करवा लिया है.

भैया की कड़वी बातें सुन कर बाबूजी को गुस्सा आ गया. वे भैया को थप्पड़ मारते हुए बोले, ‘‘नालायक कोई तो अच्छा काम किया होता. शोभा को छोड़ कर तू ने पहली गलती की और अब इतनी घटिया बात कहते हुए तुझे जरा सी भी लज्जा नहीं आई. उस ने मेरा फायदा नहीं उठाया, बल्कि मुझे सहारा दिया. चाहती तो वह भी मुझे छोड़ कर जा सकती

थी, अपनी अलग दुनिया बसा सकती थी पर उस ने वे जिम्मेदारियां निभाईं जो तेरी थीं.

तुझे अपना बेटा कहते हुए मुझे अफसोस होता है.’’

भाभी तभी बीच में बोलीं, ‘‘दीपक, आप बाबूजी को और दुख मत दीजिए, हम सब की भलाई इसी में है कि आप यहां से चले जाएं.’’

भाभी का आत्मविश्वास देख कर भैया दंग रह गए और चुपचाप लौट गए. भाभी घर की बहू से अब हमारे घर का बेटा बन गई थीं.

 

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