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Satire : थूक

केदारनाथ धाम में मुंबई के मेरे एक दोस्त पिछले दिनों केदारनाथ धाम आए थे. अपने आने की खबर उन्होंने मुझे पहले से दे दी थी. वे एक होटल में ठहरे थे.

उन से मुलाकात कर के मैं वापस लौट रहा था. रास्ते में देखा कि एक कोढ़ी खस्ता हालत में शिवलिंग के दर्शन के लिए गुजरात से आया था.

वह कोढ़ी पूरी शिद्दत से मंदिर के अंदर चला गया. सब लोग लाइन में खड़े थे, तभी उस कोढ़ी के पास एक पंडा आया. उस कोढ़ी ने जेब से 500 रुपए निकाल कर पंडे को दे दिए. पंडा उसे स्पैशल पूजा के रास्ते से मंदिर के भीतर ले गया.

पूजा के बाद पंडा तो खिसक गया, लेकिन उस कोढ़ी ने शिवलिंग को कस कर पकड़ते हुए कहा, ‘‘महाराज, मैं गुजरात से आया हूं. न जाने मैं ने पिछले जन्म में क्या पाप किया था, जो मैं कोढ़ी हो गया…’’

वह कोढ़ी शिवलिंग पर ऐसे चिपटा हुआ था, मानो उस का कोढ़ गायब हो जाएगा. वह शिवलिंग को छोड़ने के मूड में नहीं था, तभी वहां तमाम भक्तों की भीड़ लग गई. सभी दर्शनों के लिए बेचैन थे. दूसरे पंडे उसे शिवलिंग को छोड़ने के लिए लगातार कह रहे थे, पर वह उन की बात न सुन कर केवल रोए जा रहा था.

 

हार कर 4 पंडे और आए और उसे जबरन घसीट कर मंदिर से बाहर ले गए.

गुस्से में आगबबूला हो कर पंडे उसे गालियां देने लगे. कुछ पंडे उस पर लातें चला रहे थे, तो कई घूंसे जमा रहे थे.

थोड़ी देर बाद वह कोढ़ी लहूलुहान हो कर सीढ़ी के किनारे आ बैठा.

मैं ने उस की हालत देख कर कहा, ‘‘अरे, यह क्या कर दिया?’’

दिल्ली रेलवे स्टेशन पर मुझे कवि सम्मेलन में भाग लेने के लिए नागपुर जाना था. मैं ने स्टेशन पर पता किया कि नागपुर के लिए गाड़ी रात के 3 बजे मिलेगी. मैं रात के 12 बजे स्टेशन पहुंच गया. मैं ने सोचा कि 3 घंटे टहलतेटहलते कट जाएंगे.

मैं प्लेटफार्म नंबर 5 पर आया और एक लोहे की बैंच पर बैठ गया. मेरे बगल वाली बैंच पर धोतीकुरता पहने एक साहब गहरी नींद में सोए हुए थे.

मेरी दाईं तरफ एक साहब व उन की बीवी और 2 बच्चे एक बैंच पर बैठे थे. शायद वे भी गाड़ी का इंतजार कर रहे थे. उन के बच्चे बहुत नटखट नजर आ रहे थे. उन की मम्मी उन्हें बिट्टू व पिंटू नाम से पुकार रही थीं.

वे दोनों बच्चे मेरे बगल वाली बैंच पर सो रहे साहब को नाना पाटेकर कह रहे थे. एक भिखारी व एक भिखारिन को वे अनिल कपूर व जूही चावला कह रहे थे.

अचानक वे दोनों बच्चे मेरी बगल वाली बैंच पर सोए हुए साहब की बैंच पर बैठ गए और उन में से एक ने अपनी मम्मी से कहा, ‘‘मम्मी, हम नाना पाटेकर के साथ बैठे हैं.’’

उन की मम्मी मुसकराते हुए उन्हें चुप रहने का इशारा करने लगीं.

वे दोनों बच्चे उन साहब के नीचे रखे जूतों को इस तरह देख रहे थे, मानो जूतों की तहकीकात कर रहे हों. फिर उन दोनों ने जूतों में पेशाब करना शुरू कर दिया. वे पेशाब की धार की गिनती गिनने लगे. बिट्टू ने 50 की गिनती तक जूता भरा, जबकि पिंटू ने 30 की गिनती में ही जूता भर दिया. इस के बाद वे दोनों अपनी मम्मी के पास चले गए.

तभी एक पुलिस वाला आया. उसने सोए हुए आदमी को डंडा चुभा कर कहा, ‘‘अबे ओ घोंचू, घर में सोया है क्या?’’

उन साहब की नींद खुली और वे जूता पहनने लगे कि जूतों में भरे पेशाब ने वहां का फर्श गीला कर दिया.

‘‘अरे, यह क्या किया. जूतों में पेशाब कर के सो रहा था. प्रदूषण फैलाता है. तुझे सामने लिखा नहीं दिखाई दिया कि गंदगी फैलाने वाले से 500 रुपए जुर्माना वसूल किया जाएगा. चल थाने,’’ कह कर पुलिस वाला उसे थाने ले जाने लगा.

 

वे साहब चलतेचलते गिड़गिड़ाने लगे, ‘‘नहीं जनाब, मैं ने पेशाब नहीं किया…’’

पुलिस वाले ने उन की एक न सुनी. वह उन्हें प्लेटफार्म नंबर 4 की तरफ ले गया.

मैं ने उन दोनों बच्चों की तरफ देखा. वे भी सारा माजरा समझ गए थे. उन में से एक ने दूसरे से कहा, ‘‘अभी तो फिल्म का ट्रेलर चल रहा है, पिक्चर शुरू नहीं हुई.’’

मैं धीरे से कहने लगा, ‘‘अरे, यह क्या कर दिया?’’

राजस्थान की बस में मैं अजमेर में एक अखबार में सहायक संपादक था. प्रधान संपादक ने मुझे निजी काम से दिल्ली भेजा था. मैं अजमेर से दिल्ली के लिए सुबह बस से चला था. जयपुर से आगे एक छोटे शहर में बस का टायर पंचर हो गया. सभी सवारियां समय बिताने व कुछ खानेपीने के लिए आसपास की दुकानों में चली गईं.

मैं एक पेड़ की छाया में बैठ गया. बगल वाली गली में कुछ बच्चे खेल रहे थे, तभी वहां से एक गधा गुजरा. गधे को देख कर बच्चों ने हल्ला मचाना शुरू कर दिया. 3 बच्चे गधे पर सवार हो गए और 2 बच्चे डंडे से पीटते हुए उसे दौड़ाने लगे. गधा ‘ढेंचूढेंचू’ करता हुआ दौड़ता जा रहा था.

सभी सवारियां यह तमाशा देख रही थीं. हमारी बस का ड्राइवर लंबी चोटी रखे हुए था. वे बच्चे ड्राइवर को चिढ़ाने लगे, ‘चोटी वाला साबुन क्या भाव है?’

 

ड्राइवर को गुस्सा आ गया. उस ने सड़क के किनारे पड़ा एक पुराना सैल उठाया और बच्चों की तरफ फेंक दिया. सैल एक बच्चे की खोपड़ी में जोर से लगा और उस की खोपड़ी से खून बहने लगा.

बस का टायर बदला जा चुका था. ड्राइवर ने हौर्न बजाया. सब सवारियां बस में बैठ गईं और बस दिल्ली की तरफ चल पड़ी.

रेवाड़ी पहुंचते ही पुलिस ने बस को घेर लिया और ड्राइवर को हथकड़ी पहना दी.

मैं ने कहा, ‘‘अरे, यह क्या कर दिया?’’

मसजिद के बाहर बात मुरादाबाद की है. एक मसजिद के बाहर एक हिंदू दंपती ने अपना तकरीबन 15 साल का लड़का नंगा कर के जमीन पर बैठा रखा था. जो भी नमाज पढ़ने अंदर जाता, उस से लड़के का पिता गुजारिश करता कि बाहर आते समय लड़के के ऊपर थूक कर चले जाना, क्योंकि यह लड़का दुष्ट आत्मा का शिकार है.

मैं ने अपने दोस्त से पूछा कि यह क्या हो रहा है, तो उस ने बताया कि यह किसी जिन का चक्कर है.

हम दोनों मसजिद के सामने वाली दुकान पर अखबार पढ़ने के बहाने बैठ गए. मेरी नजर उसी लड़के पर टिकी थी. जो भी नमाजी बाहर आ रहा था,

वह लड़के पर थूक रहा था. कोई पान वाला लाल थूक डाल रहा था तो कोई सादा थूक.

नमाजियों की भीड़ बढ़ती जा रही थी. एक नमाजी नया सफेद पठानी सूट पहने था. भीड़ की वजह से उस की सलवार पर उस लड़के के बदन का थूक लग गया.

 

‘‘बेवकूफ, मेरी सलवार को कौन साफ करेगा? तेरा बाप…?’’ कहते हुए उस ने एक जोरदार लात लड़के के मुंह पर जमा दी. मैं ने देखा कि लड़के की दाईं आंख लात की चोट से बंद हो चुकी थी.

दुष्ट आत्मा तो थूकने या लात खाने से भले ही न निकली हो, पर उस लड़के को रिकशे पर लाद कर अस्पताल ले जाना पड़ा.

मैं ने कहा, ‘‘अरे, यह क्या कर दिया?’’

Hindi Story : जज्‍बात का सौदागर

रोमा सारे घरों का काम जल्दीजल्दी निबटा कर तेज कदमों से भाग ही रही थी कि वनिता ने आवाज लगाई, ‘‘अरी ओ रोमा… नाश्ता तो करती जा. मैं ने तेरे लिए ही निकाल कर रखा है.’’‘‘रख दीजिए बीबीजी, मैं शाम को आ कर खा लूंगी. अभी बहुत जरूरी काम से जा रही हूं,’’ कहते हुए रोमा सरपट दौड़ गई. रोमा यहां सोसाइटी के कुछ घरों में झाड़ूपोंछा, बरतन, साफसफाई का काम करती थी. इस समय वह इतनी तेजी से अपने प्रेमी रौनी से मिलने जा रही थी. रौनी बगल वाली सोसाइटी में मिस्टर मेहरा के यहां ड्राइवर था.

पिछले 2 साल से रोमा और रौनी में गहरी जानपहचान हो गई थी. वे दोनों अगलबगल की सोसाइटी में काम करते थे और एक दिन आतेजाते उन की निगाहें टकरा गईं. फिर देखते ही देखते उन के बीच प्यार की शहनाई बज उठी.जवानी की दहलीज पर अभीअभी कदम रखने वाली रोमा पूर्णमासी के चांद की तरह बेहद ही खूबसूरत और मादक लगती थी. उस की हिरनी जैसी आंखें, सुराहीदार गरदन, पतली कमर और गदराया बदन देख कर हर कोई उसे रसभरी निगाहों से देखता था, लेकिन रोमा की जिंदगी का रस रौनी था, जिस से शादी कर के वह अपना घर बसाना चाहती थी. रौनी दिखने में बांका जवान था.

बिखरे बाल, आंखों पर चश्मा, शर्ट के सामने के 2 बटन हमेशा खुले, गले में चेन और कलाई में ब्रैसलेट… रौनी का यह स्टाइल किसी हीरो से कम नहीं था और रोमा उस के इसी स्टाइल पर मरमिटी थी.अकसर रोमा ही सारे घरों का काम निबटा कर रौनी को पास वाले पार्क में मिलने के लिए फोन किया करती थी, लेकिन आज पहली बार रौनी ने फोन कर के रोमा को ‘जरूरी काम है’ कह कर बुलाया था.रोमा भागीभागी पार्क में पहुंची, तो देखा कि रौनी वहां उस का इंतजार कर रहा था.

रोमा को सामने देखते ही रौनी ने उसे अपनी बांहों में दबोच लिया. रोमा खुद को छुड़ाते हुए बोली, ‘‘यही था तेरा जरूरी काम, जो तू ने मुझे यहां इतनी जल्दी में बुलाया… तुझे पता है कि मैं बनर्जी के घर का काम छोड़ कर आई हूं…

अब जल्दी से बोल कि यहां मुझे क्यों बुलाया?’’रोमा की कमर पर अपना हाथ डाल कर उसे अपनी ओर खींच कर करीब लाने के बाद उस के होंठों पर अपनी उंगली फेरते हुए रौनी बोला, ‘‘हमारी शादी के लिए रुपयों का जुगाड़ हो गया…’’यह सुनते ही रोमा उछल पड़ी और बोली, ‘‘अरे वाह… यह सब तू ने कैसे किया? तेरा मालिक तुझे रुपए उधार देने के लिए तैयार हो गया क्या?’’रोमा के ऐसा पूछने पर रौनी के चेहरे पर एक राजभरी मुसकान और आंखों पर एक अजीब सी शरारत तैर गई और वह रोमा का चेहरा अपने दोनों हाथों में ले कर उस के होंठों को चूमने लगा. रोमा झुंझला कर रौनी से अलग होते हुए बोली,

‘‘छोड़ मुझे… पहले यह बता कि रुपए कहां से आएंगे?’’अपने हाथों से अपने ही होंठों को पोंछते हुए रौनी बोला, ‘‘तुझे हमारे साहब के बच्चे को जन्म देना होगा.’’इतना सुनते ही रोमा चिढ़ गई और बोली, ‘‘तुझे शर्म नहीं आती, कैसी बेशर्मों जैसी बात करता है. मैं भला तेरे साहब के बच्चे की मां क्यों बनूंगी…’’

रोमा के ऐसा कहने पर रौनी हंसते हुए बोला, ‘‘अरे, तुझे साहब के बच्चे की मां नहीं बनना है, बच्चे की मां तो उन की बीवी ही रहेगी, तुझे तो बस उन के बच्चे को अपनी कोख में 9 महीने के लिए रखना है. इस के लिए साहब हमें 2 लाख रुपए देंगे, मकान किराए पर ले कर देंगे और खानापीना सब का खर्चा साहब ही उठाएंगे.’’पहले तो रोमा मानी नहीं, लेकिन जब रौनी ने उसे सरोगेसी मां के बारे में अच्छी तरह से समझाया, अपने प्यार का वास्ता दिया और जल्द ही शादी करने का वादा किया, तो 20 साल की भोलीभाली रोमा सरोगेसी मां बनने के लिए तैयार हो गई.

रोमा ने सारे घरों का काम छोड़ दिया. इतना ही नहीं, अपना घर भी छोड़ दिया. वैसे भी घर पर उस का अपना कोई था नहीं. बाप पूरा दिन शराब के नशे में पड़ा रहता. उसे अपना होश नहीं रहता था, तो वह अपनी बेटी की फिक्र कहां से करता. सौतेली मां के लिए रोमा बोझ ही थी. रोमा के आगेपीछे कोई नहीं था. जो था रौनी ही था, जिस पर उसे अंधा भरोसा था और वह रौनी पर जान छिड़कती थी.रौनी कोलकाता से रोमा को उत्तराखंड ले आया.

यहां आ कर रोमा को पता चला कि जहां वह रहने वाली है वह कोई घर नहीं, बल्कि एक आश्रम है, जहां उस के जैसी और भी बहुत सी लड़कियां और औरतें दिखाई दे रही थीं, जो मां बनने वाली थीं. आश्रम में कुछ जवान लड़कियां और बुजुर्ग औरतें भी थीं, जो साध्वी और सेवादार थीं. यह आश्रम एक जानेमाने आचार्य द्वारा चलाया जा रहा था, जिन का देशविदेश में हर दिन प्रवचन होता था और वे धर्म से जुड़ी कहानियां भक्तों से साझा करते थे.

रोमा को यह सब बहुत अटपटा लग रहा था, लेकिन वह रौनी का साथ पा कर इन सभी को नजरअंदाज कर रही थी. रोमा की दुनिया अब बदल गई थी. रौनी हर समय उस के साथ रहता, उस का पूरा खयाल रखता. एक महीने के भीतर डाक्टर की निगरानी में रोमा पेट से भी हो गई, लेकिन उसे कुछ समझ नहीं आया कि यह सब हुआ कैसे? न रौनी के साहब यहां आए और न ही साहब की पत्नी.इस बीच रोमा ने न कभी आश्रम में रह रही किसी लड़की या औरत से कोई बात की और न ही यह जानने की कोशिश की कि वे सब कहां से आई हैं, उन के पति कहां हैं और वे इस आश्रम में कब से हैं.

एक रात अचानक खाना खाने के बाद रौनी कहीं जाने की तैयारी करने लगा. यह देख कर रोमा बोली, ‘‘रौनी, तू कहीं जा रहा है क्या?’’रोमा के ऐसा कहने पर रौनी बोला, ‘‘हां, काम पर तो लौटना होगा. शादी की तैयारी जो करनी है.’’यह सुन कर रोमा का चेहरा उतर गया. वह रोआंसी हो गई और रौनी के गले लगते हुए बोली, ‘‘तू मत जा, रौनी. मैं तेरे बगैर यहां नहीं रह पाऊंगी.

फिर अभी तो बच्चे के होने में पूरे 9 महीने हैं. मैं यहां अकेली तेरे बगैर कैसे रहूंगी… मैं भी तेरे साथ चलती हूं.’’रोमा को इस तरह रोते और साथ चलने की जिद करते देख रौनी उसे समझाते हुए बोला, ‘‘देख, साहब और मेमसाहब की पहली शर्त यही थी कि उन का बच्चा इसी आश्रम में पैदा हो, ताकि बच्चे में अच्छे गुण और संस्कार आएं, इसलिए तुझे यहीं रहना होगा और मुझे तो जाना ही होगा. ‘‘शादी के लिए और भी रुपयों की जरूरत पड़ेगी. तुझे दुखी होने की कोई जरूरत नहीं.

तू यहां अकेली कहां है. इस आश्रम में इतने सारे लोग हैं. सब तेरा ध्यान रखेंगे और मैं भी तो आताजाता ही रहूंगा,’’ ऐसा कह कर रौनी जाने लगा. रोमा उसे भारी मन से आश्रम के बाहर तक छोड़ने के लिए साथ चलने लगी. अभी वे दोनों आश्रम के मेन गेट से कुछ दूर ही पहुंचे थे कि एक लड़की दौड़ती हुई आई और रौनी से लिपट गई. यह देख कर रोमा हैरान थी, क्योंकि वह लड़की बारबार रौनी को अपने साथ ले चलने की बात कह रही थी.वह लड़की कह रही थी,

‘‘रौनी, यह आश्रम, आश्रम नहीं है. यहां लड़कियों की दलाली होती है. उन का शारीरिक शोषण होता है. जबरन उन्हें पेट से किया जाता है और उन से पैदा होने वाले बच्चों को उन पैसे वाले और विदेशी जोड़ों को बेच दिया जाता है, जिन के बच्चे नहीं हैं.’’उस लड़की की बातों को सुन कर रोमा को यह समझने में समय नहीं लगा कि उस के साथ छल हुआ है और वह भी उस लड़की की ही तरह रौनी के हाथों ठगी जा चुकी है. वह रौनी के किसी भी साहब या उन की पत्नी के लिए सरोगेसी मां नहीं बनाई जा रही है, बल्कि इस आश्रम में बच्चों का व्यापार होता है और उसे इसीलिए इस आश्रम में लाया गया है.

रोमा उस लड़की से कोई सवाल करती या फिर रौनी से पूछती कि उस ने उस के साथ यह छल क्यों किया, उस से पहले एक साध्वी तेज कदमों से वहां आई और उस लड़की के गाल पर जोरदार तमाचा जड़ने के बाद उसे वहां से खींच कर ले जाने लगी. वह लड़की चीखचीख कर रौनी को पुकारती रही और उस से कहती रही, ‘‘रौनी, मुझे इस नरक से ले चलो…’’लेकिन रौनी उस लड़की को अनसुना और रोमा को अनदेखा कर आश्रम के गेट से बाहर अपने नए शिकार की तलाश में निकल गया. रोमा हैरान सी खड़ी रौनी को अपनी आंखों से ओझल होते हुए देखती रही.

Romantic Kahani : सबसे हसीन दुलहन

इन दिनों अनुजा की स्थिति ‘कहां फंस गई मैं’ वाली थी. कहीं ऐसा भी होता है भला? वह अपनेआप में कसमसा रही थी.

ऊपर से बर्फ का ढेला बनी बैठी थी और भीतर उस के ज्वालामुखी दहक रहा था. ‘क्या मेरे मातापिता तब अंधेबहरे थे? क्या वे इतने निष्ठुर हैं? अगर नहीं, तो बिना परखे ऐसे लड़के से क्यों बांध दिया मुझे जो किसी अन्य की खातिर मु झे छोड़ भागा है, जाने कहां? अभी तो अपनी सुहागरात तक भी नहीं हुई है. जाने कहां भटक रहा होगा. फिर, पता नहीं वह लौटेगा भी या नहीं.’

उस की विचार शृंखला में इसी तरह के सैकड़ों सवाल उमड़ते घुमड़ते रहे थे. और वह इन सवालों को झेल भी रही थी.  झेल क्या रही थी, तड़प रही थी वह तो.

लेकिन जब उसे उस के घर से भाग जाने के कारण की जानकारी हुई, झटका लगा था उसे. उस की बाट जोहने में 15 दिन कब निकल गए. क्या बीती होगी उस पर, कोई तो पूछे उस से आ कर.

सोचतेविचारते अकसर उस की आंखें सजल हो उठतीं. नित्य 2 बूंद अश्रु उस के दामन में ढुलक भी आते और वह उन अश्रुबूंदों को देखती हुई फिर से विचारों की दुनिया में चली जाती और अपने अकेलेपन पर रोती.

अवसाद, चिड़चिड़ाहट, बेचैनी से उस का हृदय तारतार हुआ जा रहा था. लगने लगा था जैसे वह अबतब में ही पागल हो जाएगी. उस के अंदर तो जैसे सांप रेंगने लगा था. लगा जैसे वह खुद को नोच ही डालेगी या फिर वह कहीं अपनी जान ही गंवा बैठेगी. वह सोचती, ‘जानती होती कि यह ऐसा कर जाएगा तो ब्याह ही न करती इस से. तब दुनिया की कोई भी ताकत मु झे मेरे निर्णय से डिगा नहीं सकती थी. पर, अब मु झे क्या करना चाहिए? क्या इस के लौट आने का इंतजार करना चाहिए? या फिर पीहर लौट जाना ही ठीक रहेगा? क्या ऐसी परिस्थिति में यह घर छोड़ना ठीक रहेगा?’

वक्त पर कोई न कोई उसे खाने की थाली पहुंचा जाता. बीचबीच में आ कर कोई न कोई हालचाल भी पूछ जाता. पूरा घर तनावग्रस्त था. मरघट सा सन्नाटा था उस चौबारे में. सन्नाटा भी ऐसा, जो भीतर तक चीर जाए. परिवार का हर सदस्य एकदूसरे से नजरें चुराता दिखता. ऐसे में वह खुद को कैसे संभाले हुए थी, वह ही जानती थी.

दुलहन के ससुराल आने के बाद अभी तो कई रस्में थीं जिन्हें उसे निभाना था. वे सारी रस्में अपने पूर्ण होने के इंतजार में मुंहबाए खड़ी भी दिखीं उसे. नईनवेली दुलहन से मिलनजुलने वालों का आएदिन तांता लग जाता है, वह भी वह जानती थी. ऐसा वह कई घरों में देख चुकी थी. पर यहां तो एकबारगी में सबकुछ ध्वस्त हो चला था. उस के सारे संजोए सपने एकाएक ही धराशायी हो चले थे. कभीकभार उस के भीतर आक्रोश की ज्वाला धधक उठती. तब वह बुदबुदाती, ‘भाड़ में जाएं सारी रस्मेंरिवाज. नहीं रहना मु झे अब यहां. आज ही अपना फैसला सुना देती हूं इन को, और अपने पीहर को चली जाती हूं. सिर्फ यही नहीं, वहां पहुंच कर अपने मांबाबूजी को भी तो खरीखोटी सुनानी है.’ ऐसे विचार उस के मन में उठते रहे थे, और वह इस बाबत खिन्न हो उठती थी.

इन दिनों उस के पास तो समय ही समय था. नित्य मंथन में व्यस्त रहती थी और फिर क्यों न हो मंथन, उस के साथ ऐसी अनूठी घटना जो घटी थी, अनसुल झी पहेली सरीखी. वह सोचती, ‘किसे सुनाऊं मैं अपनी व्यथा? कौन है जो मेरी समस्या का निराकरण कर सकता है? शायद कोई भी नहीं. और शायद मैं खुद भी नहीं.’

फिर मन में खयाल आता, ‘अगर परीक्षित लौट भी आया तो क्या मैं उसे अपनाऊंगी? क्या परीक्षित अपने भूल की क्षमा मांगेगा मुझ से? फिर कहीं मेरी हैसियत ही धूमिल तो नहीं हो जाएगी?’ इस तरह के अनेक सवालों से जूझ रही थी और खुद से लड़ भी रही थी अनुजा. बुदबुदाती, ‘यह कैसी शामत आन पड़ी है मु झ पर? ऐसा कैसे हो गया?’

तभी घर के अहाते से आ रही खुसुरफुसुर की आवाजों से वह सजग हो उठी और खिड़की के मुहाने तक पहुंची. देखा, परीक्षित सिर  झुकाए लड़खड़ाते कदमों से, थकामांदा सा आंगन में प्रवेश कर रहा था.

उसे लौट आया देखा सब के मुर झाए चेहरों की रंगत एकाएक बदलने लगी थी. अब उन चेहरों को देख कोई कह ही नहीं सकता था कि यहां कुछ घटित भी हुआ था. वहीं, अनुजा के मन को भी सुकून पहुंचा था. उस ने देखा, सभी अपनीअपनी जगहों पर जड़वत हो चले थे और यह भी कि ज्योंज्यों उस के कदम कमरे की ओर बढ़ने लगे. सब के सब उस के पीछे हो लिए थे. पूरी जमात थी उस के पीछे.

इस बीच परीक्षित ने अपने घर व घर के लोगों पर सरसरी निगाह डाली. कुछ ही पलों में सारा घर जाग उठा था और सभी बाहर आ कर उसे देखने लगे थे जो शर्म से छिपे पड़े थे अब तक. पूरा महल्ला भी जाग उठा था.

जेठानी की बेटी निशा पहले तो अपने चाचा तक पहुंचने के लिए कदम बढ़ाती दिखी, फिर अचानक से अपनी नई चाची को इत्तला देने के खयाल से उन के कमरे तक दौड़तीभागतीहांफती पहुंची. चाची को पहले से ही खिड़की के करीब खड़ी देख वह उन से चिपट कर खड़ी हो गई. बोली कुछ भी नहीं. वहीं, छोटा संजू दौड़ कर अपने चाचा की उंगली पकड़ उन के साथसाथ चलने लगा था.

परीक्षित थके कदमों से चलता हुआ, सीढि़यां लांघता हुआ दूसरी मंजिल के अपने कमरे में पहुंचा. एक नजर समीप खड़ी अनुजा पर डाली, पलभर को ठिठका, फिर पास पड़े सोफे पर निढाल हो बैठ गया और आंखें मूंदें पड़ा रहा.

मिनटों में ही परिवार के सारे सदस्यों का उस चौखट पर जमघट लग गया. फिर तो सब ने ही बारीबारी से इशारोंइशारों में ही पूछा था अनुजा से, ‘कुछ बका क्या?’

उस ने एक नजर परीक्षित पर डाली. वह तो सो रहा था. वह अपना सिर हिला उन सभी को बताती रही, अभी तक तो नहीं.’

एक समय ऐसा भी आया जब उस प्रागंण में मेले सा समां बंध गया था. फिर तो एकएक कर महल्ले के लोग भी आते रहे, जाते रहे थे और वह सो रहा था जम कर. शायद बेहोशी वाली नींद थी उस की.

अनुजा थक चुकी थी उन आनेजाने वालों के कारण. चौखट पर बैठी उस की सास सहारा ले कर उठती हुई बोली, ‘‘उठे तो कुछ खिलापिला देना, बहू.’’ और वे अपनी पोती की उंगली पकड़ निकल ली थीं. माहौल की गर्माहट अब आहिस्ताआहिस्ता शांत हो चुकी थी. रात भी हो चुकी थी. सब के लौट जाने पर अनुजा निरंतर उसे देखती रही थी. वह असमंजस में थी. असमंजस किस कारण से था, उसे कहां पता था.

परिवार के, महल्ले के लोगों ने भी सहानुभूति जताते कहा था, ‘बेचारे ने क्या हालत बना रखी है अपनी. जाने कहांकहां, मारामारा फिरता रहा होगा? उफ.’

आधी रात में वह जगा था. उसी समय ही वह नहाधो, फिर से जो सोया पड़ा, दूसरी सुबह जगा था. तब अनुजा सो ही कहां पाई थी. वह तो तब अपनी उल झनोंपरेशानियों को सहेजनेसमेटने में लगी हुई थी.

वह उस रात निरंतर उसे निहारती रही थी. एक तरफ जहां उस के प्रति सहानुभूति थी, वहीं दूसरी तरफ गहरा रोष भी था मन के किसी कोने में.

सहानुभूति इस कारण कि उस की प्रेमिका ने आत्महत्या जो कर ली थी और रोष इस बात पर कि वह उसे छोड़ भागा था और वह सजीसंवरी अपनी सुहागसेज पर बैठी उस के इंतजार में जागती रही थी. वह उसी रात से ही गायब था. फिर सुहागरात का सुख क्या होता है, कहां जान पाई थी वह.

उस रात उस के इंतजार में जब वह थी, उस का खिलाखिला चेहरा पूनम की चांद सरीखा दमक रहा था. पर ज्यों ही उसे उस के भाग खड़े होने की खबर मिली, मुखड़ा ग्रहण लगे चांद सा हो गया था. उस की सुर्ख मांग तब एकदम से बु झीबु झी सी दिखने लगी थी. सबकुछ ही बिखर चला था.

तब उस के भीतर एक चीत्कार पनपी थी, जिसे वह जबरन भीतर ही रोके रखे हुए थी. फिर विचारों में तब यह भी था, ‘अगर उस से मोहब्बत थी, तो मैं यहां कैसे? जब प्यार निभाने का दम ही नहीं, तो प्यार किया ही क्यों था उस से? फिर इस ने तो 2-2 जिंदगियों से खिलवाड़ किया है. क्या इस का अपराध क्षमायोग्य है? इस के कारण ही तो मु झे मानसिक यातनाएं  झेलनी पड़ी हैं.

मेरा तो अस्तित्व ही अधर में लटक गया है इस विध्वंसकारी के कारण. जब इतनी ही मोहब्बत थी तो उसे ही अपना लेता. मेरी जिंदगी से खिलवाड़ करने का हक इसे किस ने दिया?’ तब उस की सोच में यह भी होता, ‘मैं अनब्याही तो नहीं कहीं? फिर, कहीं यह कोई बुरा सपना तो नहीं?’

दूसरे दिन भी घर में चुप्पी छाई रही थी. वह जागा था फिर से. घर वालों को तो जैसे उस के जागने का ही इंतजार था.  झटपट उस के लिए थाली परोसी गई. उस ने जैसेतैसे खाया और एक बार फिर से सो पड़ा और बस सोता ही रहा था. यह दूसरी रात थी जो अनुजा जागते  बिता रही थी. और परीक्षित रातभर जाने क्याक्या न बड़बड़ाता रहा था. बीचबीच में उस की सिसकियां भी उसे सुनाई पड़ रही थीं. उस रात भी वह अनछुई ही रही थी.

फिर जब वह जागा था, अनुजा के समीप आ कर बोला, तब उस की आवाज में पछतावे सा भाव था, ‘‘माफ करना मु झे, बहुत पीड़ा पहुंचाई मैं ने आप को.’’

‘आप को,’ शब्द जैसे उसे चुभ गया. बोली कुछ भी नहीं. पर इस एक शब्द ने तो जैसे एक बार में ही दूरियां बढ़ा दी थीं. उस के तो तनबदन में आग ही लग गई थी.

रिमझिम, जो उस का प्यार थी, इस की बरात के दिन ही उस ने आत्महत्या कर ली थी. लौटा, तो पता चला. फिर वह भाग खड़ा हुआ था.

लौटने के बाद भी अब परीक्षित या तो घर पर ही गुमसुम पड़ा रहता या फिर कहीं बाहर दिनभर भटकता रहता. फिर जब थकामांदा लौटता तो बगैर कुछ कहेसुने सो पड़ता.

ऐसे में ही उस ने उसे रिमझिम झोड़ कर उठाया और पहली बार अपनी जबान खोली थी. तब उस का स्वर अवसादभरा था, ‘‘मैं पराए घर से आई हूं. ब्याहता हूं आप की. आप ने मु झ से शादी की है, यह तो नहीं भूले होंगे आप?’’

वह निरीह नजरों से उसे देखता रहा था. बोला कुछ भी नहीं. अनुजा को उस की यह चुप्पी चुभ गई. वह फिर से बोली थी, तब उस की आवाज विकृत हो आई थी.

‘‘मैं यहां क्यों हूं? क्या मुझे लौट जाना चाहिए अपने मम्मीपापा के पास? आप ने बड़ा ही घिनौना मजाक किया है मेरे साथ. क्या आप का यह दायित्व नहीं बनता कि सबकुछ सामान्य हो जाए और आप अपना कामकाज संभाल लो. अपने दायित्व को सम झो और इस मनहूसियत को मिटा डालो?’’

चंद लमहों के लिए वह रुकी. खामोशी छाई रही. उस खामोशी को खुद ही भंग करते हुए बोली, ‘‘आप के कारण ही पूरे परिवार का मन मलिन रहा है अब तक. वह भी उस के लिए जो आप की थी भी नहीं. अब मैं हूं और मु झे आप का फैसला जानना है. अभी और अभी. मैं घुटघुट कर जी नहीं सकती. सम झे आप?’’

अनुजा के भीतर का दर्द उस के चेहरे पर था, जो साफ  झलक रहा था. परीक्षित के चेहरे की मायूसी भी वह भलीभांति देख रही थी. दोनों के ही भीतर अलगअलग तरह के झंझावात थे,  झुंझलाहट थी.

परीक्षित उसे सुनता रहा था. वह उस के चेहरे पर अपनी नजरें जमाए रहा था. वह अपने प्रति उपेक्षा, रिमिझम के प्रति आक्रोश को देख रहा था. जब उस ने चुप्पी साधी, परीक्षित फफक पड़ा था और देररात फफकफफक कर रोता ही रहा था. अश्रु थे जो उस के रोके नहीं रुक रहे थे. तब उस की स्थिति बेहद ही दयनीय दिखी थी उसे.

वह सकपका गई थी. उसे अफसोस हुआ था. अफसोस इतना कि आंखें उस की भी छलक आई थीं, यह सोच कर कि ‘मु झे इस की मनोस्थिति को सम झना चाहिए था. मैं ने जल्दबाजी कर दी. अभी तो इस के क्षतविक्षत मन को राहत मिली भी नहीं और मैं ने इस के घाव फिर से हरे कर दिए.’

उस ने उसे चुप कराना उचित नहीं सम झा. सोचा, ‘मन की भड़ास, आंसुओं के माध्यम से बाहर आ जाए, तो ही अच्छा है. शायद इस से यह संभल ही जाए.’ फिर भी अंतर्मन में शोरगुल था. उस में से एक आवाज अस्फुट सी थी, ‘क्या मैं इतनी निष्ठुर हूं जो इस की वेदना को सम झने का अब तक एक बार भी सोचा नहीं? क्या स्त्री जाति का स्वभाव ही ऐसा होता है जो सिर्फ और सिर्फ अपना खयाल रखती है? दूसरों की परवा करना, दूसरों की पीड़ा क्या उस के आगे कोई महत्त्व नहीं रखती? क्या ऐसी सोच होती है हमारी? अगर ऐसा ही है तो बड़ी ही शर्मनाक बात है यह तो.’

उस की तंद्रा तब भंग हुई थी जब वह बोला, ‘‘शादी हो जाती अगर हमारी तो वह आप के स्थान पर होती आज. प्यार किया था उस से. निभाना भी चाहता था. पर इन बड़ेबुजुर्गों के कारण ही वह चल बसी. मैं कहां जानता था कि वह ऐसा कर डालेगी.’’

‘‘पर मेरा क्या? इस पचड़े में मैं दोषी कैसे? मु झे सजा क्यों मिल रही है? आप कहो तो अभी, इसी क्षण अपना सामान समेट कर निकल जाऊं?’’

‘‘देखिए, मु झे संभलने में जरा वक्त लगेगा. फिर मैं ने कब कहा कि आप यह घर छोड़ कर चली जाओ?’’

तभी अनुजा फिर से बिफर पड़ी, ‘‘वह हमारे वैवाहिक जीवन में जहर घोल गई है. अगर वह भली होती तो ऐसा कहर तो न ढाती? लाज, शर्म, परिवार का मानसम्मान, मर्यादा भी तो कोई चीज होती है जो उस में नहीं थी.’’

‘‘इतनी कड़वी जबान तो न बोलो उस के विषय में जो रही नहीं. ऊलजलूल बकना क्या ठीक है? फिर उस ने ऐसा क्या कर दिया?’’ वह एकाएक आवेशित हो उठा था.

वह एक बार फिर से सकपका गई थी. उसे, उस से ऐसे व्यवहार की अपेक्षा तो नहीं थी. फिर वह अब तक यह बात सम झ ही नहीं पाई थी कि गलत कौन है. क्या वह खुद? क्या उस का पति? या फिर वह नासपीटी?

देखतेदेखते चंद दिन और बीत गए. स्थिति ज्यों की त्यों ही बनी रही थी. अब उस ने उसे रोकनाटोकना छोड़ दिया था और समय के भरोसे जी रही थी.

परीक्षित अब भी सोते में, जागते में रोतासिसकता दिखता. कभी उस की नींद उचट जाने पर रात के अंधेरे में ही घर से निकल जाता. घंटों बाद थकाहारा लौटता भी तो सोया पड़ा होता. भूख लगे तो खाता अन्यथा थाली की तरफ निहारता भी नहीं. बड़ी गंभीर स्थिति से गुजर रहा था वह. और अनुजा झुंझलाती रहती थी.

ऐसे में अनुजा को उस की चिंता सताने भी लगी थी. इतने दिनों में परीक्षित ने उसे छुआ भी नहीं था. न खुद से उस से बात ही की थी उस ने.

उस दिन पलंग के समीप की टेबल पर रखी रिमझिम की तसवीर फ्रेम में जड़ी रखी दिखी तो वह चकित हो उठा. उस ने उस फ्रेम को उठाया, रिमझिम की उस मुसकराती फोटो को देर तक देखता रहा. फिर यथास्थान रख दिया और अनुजा की तरफ देखा. तब अनुजा ने देखा, उस की आंखें नम थीं और उस के चेहरे के भाव देख अनुजा को लगा जैसे उस के मन में उस के लिए कृतज्ञता के भाव थे.

अनुजा सहजभाव से बोली, ‘‘मैं ने अपनी हटा दी. रिमझिम दीदी अब हमारे साथ होंगी, हर पल, हर क्षण. आप को बुरा तो नहीं लगा?’’

उस ने उस वक्त कुछ न कहा. काफी समय बाद उस ने उस से पूछा, ‘‘तुम ने खाना खाया?’’ फिर तत्काल बोला, ‘‘हम दोनों इकट्ठे खाते हैं. तुम बैठी रहो, मैं ही मांजी से कह आता हूं कि वे हमारी थाली परोस दें.’’

खाना खाने के दौरान वह देर तक रिमझिम के विषय में बताता रहा. आज पहली बार ही उस ने अनुजा को, ‘आप’ और ‘आप ने’ कह कर संबोधित नहीं किया था. और आज पहली बार ही वह उस से खुल कर बातें कर रहा था. आज उस की स्थिति और दिनों की अपेक्षा सामान्य लगी थी उसे. और जब वह सोया पड़ा था, उस रात, एक बार भी न सिसका, न रोया और न ही बड़बड़ाया. यह देख अनुजा ने पहली बार राहत की सांस ली.

मानसिक यातना से नजात पा कर अनुजा आज गहरी नींद में थी. परीक्षित उठ चुका था और उस के उठने के इंतजार में पास पड़े सोफे पर बैठा दिखा. पलंग से नीचे उतरते जब अनुजा की नजर  टेबल पर रखी तसवीर पर पड़ी तो चकित हो उठी. मुसकरा दी. परीक्षित भी मुसकराया था उसे देख तब.

अब उस फोटोफ्रेम में रिमझिम की जगह अनुजा की तसवीर लगी थी.

‘तुम मेरी रिमझिम हो, तुम ही मेरी पत्नी अनुजा भी. तुम्हारा हृदय बड़ा विशाल है और तुम ने मेरे कारण ही महीनेभर से बहुत दुख  झेला है, पर अब नहीं. मैं आज ही से दुकान जा रहा हूं.’

और तभी, अनुजा को महसूस हुआ कि उस की मांग का सिंदूर सुर्ख हो चला है और दमक भी उठा है. कुछ अधिक ही सुर्ख, कुछ अधिक ही दमक रहा है.

Story : शादी का आइडिया

दावतों में जाना माया को पसंद नहीं था क्योंकि वह बदले में किसी को दावत नहीं दे सकती थी, खासकर उस घर में जहां यह इंतजार रहता था कि कब वह शादी कर के विदा हो और उस की चारपाई की जगह पर उस के भतीजे की पढ़ने की मेज लग सके. लेकिन यह दावत विभागाध्यक्ष मनोरमाजी ने अपने पति मनोज की तरक्की होने की खुशी में दी थी, न जाने पर मनोरमाजी नाराज हो जातीं और उन्हें नाराज करना जल में रह कर मगर से बैर मोल लेना था.

दावत में मनोरमाजी के ही नहीं मनोज के औफिस के लोग भी थे. परस्पर परिचय के बाद, सदाबहार विषय देश की वर्तमान स्थिति पर बहस छिड़ गई.

‘‘वर्तमान स्थिति तो बहुत ही हास्यास्पद है भई, सुबह के समय सरेआम यानी खुले में फारिग होते लोग मोबाइल पर बतिया रहे होते हैं, कहीं और मिलेगी पिछड़ेपन और आधुनिकीकरण की ऐसी मिसाल?’’ मिर्जा साहब की बात पर जोरदार ठहाका लगा.

‘‘एक मिसाल और भी है, हमारे समाज में एक ओर तो लिव इन रिलेशनशिप जीरो है और दूसरी ओर आधुनिक उच्च जातियां अभी भी जातिबिरादरी और दहेज के लेनदेन में बुरी तरह पिछड़ी हुई हैं. उन के उत्थान के आसार मुझे अपनी जिंदगी में तो नजर नहीं आ रहे,’’ एक युवक ने उत्तेजित स्वर में कहा.

‘‘ऐसी क्या नाराजगी है अपनी उच्च जाति से, विद्याधर, साफसाफ बताओ बंधु?’’ मनोज ने पूछा.

‘‘आप सब अकसर पूछते रहते हैं न कि शादी कब कर रहे हो तो सुनिए, मेरी शादी इस जन्म में तो होने से रही क्योंकि हमारे श्रीपंथ समाज में लड़कों का मूल्य निर्धारित है यानी उतनी मोटी रकम दहेज में लिए बगैर मेरे मांबाप  मेरी शादी नहीं करेंगे, बिरादरी में इज्जत का सवाल है और मेरे जैसे मामूली सूरतशक्ल, नौकरी और परिवार यानी हर तरह से औसत लड़के के लिए कोई उतनी रकम क्यों देगा जबकि उतने में मुझ से बेहतर घरवर मिल सकता है.

‘‘अपनी पसंद की या दूसरी जाति में शादी करने का मतलब है, अपनी जाति से बहिष्कार और आजकल जो यह औनर किलिंग का चलन शुरू हो गया है, वह सोच कर तो बिरादरी से बगावत करते हुए भी डर लगता है. कहिए, क्या यह सब पिछड़ापन नहीं है?’’ विद्याधर ने पूछा, ‘‘अगर अपनी बिरादरी की लड़की से भी कम दहेज ले कर शादी कर लूं तो इसे बगावत समझा जाएगा और इस के अलावा मेरी मां, बहनें और मामीचाची वगैरह ताने देदे कर उस लड़की का जीना दुश्वार कर देंगी कि सस्ते में हमारा लाखों का बेटा फंसा लिया. सो, मेरे लिए तो बेहतर यही है कि शादी ही न करूं.’’

माया को लगा जैसे विद्याधर उसी की भावनाएं या व्यथा व्यक्त कर रहा था.

‘‘मूल्य निर्धारण या औनर किलिंग छोटे कसबों की बातें हैं विद्याधर, देश की राजधानी में रहने वाले तुम पर लागू नहीं होतीं,’’ मनोरमाजी बोलीं.

‘‘बात कसबे या राजधानी की नहीं, पिछड़ेपन की हो रही है भाभीजी. और वह तो राजधानी में भी घटने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है, खासकर दहेज और जाति के मामले में.’’

किसी अन्य की टिप्पणी पर माया की हिम्मत बढ़ी और वह बोली, ‘‘आप लोग ठीक कह रहे हैं, औनर किलिंग का तो मालूम नहीं लेकिन राजधानी में भी श्रीपंथ संप्रदाय में तो लड़कों का मूल्य या दहेज की रकम तय है. लड़की चाहे कितनी भी अच्छी हो उस राशि से कम में उस की शादी का सवाल ही नहीं उठता और लड़का चाहे लूलालंगड़ा भी हो, बिकेगा फिक्स्ड रेट पर ही.’’

‘‘तुम्हें यह सब कैसे मालूम है?’’ मनोरमाजी ने पूछा.

‘‘क्योंकि मैं भी श्रीपंथ समाज से ही हूं. मेरी योग्यता और तगड़ी तनख्वाह से दहेज की रकम में कोई रियायत करने को तैयार नहीं है.’’

‘‘तो तनख्वाह से दहेज की रकम जोड़ लो…’’

‘‘और उस के लिए बरसों मन मार कर जीओ,’’ माया ने उस की बात काटी, ‘‘यह सुझाव अकसर मिलता रहता है मगर मुझे यह सौदा मंजूर नहीं है.’’

‘‘होना भी नहीं चाहिए,’’ विद्याधर ने सराहना के स्वर में कहा, ‘‘अगर युवा वर्ग इस प्रथा के सामने घुटने न टेके तो समाज के ठेकेदार स्वयं ही इस प्रथा को समाप्त करने पर मजबूर हो जाएंगे.’’

‘‘हमारे समाज में एक नहीं, कई कुरीतियां ऐसी हैं जिन के सामने घुटने टेकने बंद कर दिए जाएं तो यह जहान जन्नत बन जाए. तुम्हारे से पहले न जाने कितने लोग यह सपना देख चुके हैं विद्याधर…’’

‘‘और न जाने कितने देखेंगे, मिश्राजी,’’ मनोज ने मिश्राजी की बात काटी, ‘‘पत्तागोभी के छिलके छीलने के बजाय आप फूलगोभी के पकौड़े खाइए.’’

मनोज ने तो बात बदल दी लेकिन मनोरमाजी के दिमाग में यह बात जैसे घर कर गई. सब के जाने के बाद उन्होंने मनोज से कहा, ‘‘माया और विद्याधर दोनों जब एक ही जाति के हैं तो क्यों न हम कोशिश कर के दोनों की शादी करवा दें?’’

‘‘विद्याधर से यह सुनने के बाद भी कि दहेज लाने वाली सजातीय लड़की का भी उस की मांबहनें जीना दुश्वार कर देंगी?’’ मनोज ने कहा, ‘‘उन दोनों ने अपने हालात से समझौता कर के जीना सीख लिया है, सो तुम भी उन्हें चैन से जीने दो.’’

लेकिन मनोरमाजी जानती थीं कि दोनों चैन से नहीं बड़ी बेचैनी से जी रहे थे. माया की तनख्वाह से जुटाई गई सुखसुविधाओं का मजा लूटने वाले भाईभाभी उसे परिवार का अनचाहा सदस्य समझते थे और मां भी उन का साथ देती थीं.

यही हाल तकरीबन विद्याधर का भी था, मां उसे चायखाना देते हुए यह याद दिलाना नहीं भूलती थीं कि उन की उमर अब काम करने की नहीं, बहू से सेवा करवाने की है और अकसर आने वाली बहनें भी यह कह कर बिसूरती रहती थीं कि वे अपने पतियों को इसलिए साथ नहीं ला सकतीं कि मां पर काम का बोझ बढ़ जाएगा. जैसे माया जानबूझ कर ससुराल नहीं जा रही थी और विद्याधर शादी से मना कर रहा था. मनोरमाजी ने सोच लिया कि वह माया और विद्याधर को अकसर मिलवाया करेंगी. जल्दी ही संयोग भी बन गया. मनोज को औफिस के काम से कुछ सप्ताह के लिए विदेश जाना पड़ा. औफिस में बकाया काम तो रहता ही है सो, उसे निबटाने के बहाने मनोरमाजी ने एक रोज माया को देर तक रुकने को कहा.

 

‘‘तुम्हें घर पहुंचाने की जिम्मेदारी मेरी है.’’

‘‘फिर तो आप जब तक कहेंगी मैं रुक जाऊंगी.’’

शाम को मनोरमाजी ने कहा, ‘‘रात को हम दोनों का अकेले आटो पर जाना ठीक नहीं रहेगा. मैं विद्याधर को फोन कर देती हूं, वह अपने स्कूटर पर हमारे साथ हो लेगा.’’

‘‘जैसा आप ठीक समझें.’’

कुछ देर फोन पर बात करने के बाद मनोरमाजी ने पूछा, ‘‘माया, घर देर से जाने पर तुम्हें खाने के लिए कुछ परेशानी तो नहीं होगी?’’

माया ने इनकार में सिर हिलाया, ‘‘ढका रखा होगा, खा लूंगी.’’

‘‘तो क्यों न तुम भी हमारे साथ बाहर ही खा लो? विद्याधर को देर से जाने पर मां की बातें सुननी पड़ेंगी और मुझे अपने लिए कुछ पकाना पड़ेगा, सो हम लोग बाहर खा रहे हैं, फिक्र मत करो, औफिस के काम में देर हुई न, सो बिल औफिस को दे दूंगी. तुम अपने घर पर फोन कर दो कि तुम खाना खा कर आओगी या मुझे नंबर मिला कर दो, मैं तुम्हारी मां को समझा देती हूं.’’

‘‘आज के लिए इतना ही काफी है, माया. जाओ, फ्रैश हो जाओ,’’ मनोरमाजी ने 7 बजे के बाद कहा.

जब वह वापस आई तो विद्याधर आ चुका था.

‘‘तुम दोनों बातें करो, मैं अभी फ्रैश हो कर आती हूं,’’ कह कर मनोरमाजी चली गईं.

दोनों में परिचय तो था ही सो कुछ देर तक आसानी से बात करते रहे, फिर माया ने कहा, ‘‘बड़ी देर लगा दी मनोरमाजी ने.’’

‘‘बौस हैं और बौस की बीवी भी, कुछ तो ठसका रहेगा ही,’’ विद्याधर ने ठहाका लगा कर कहा. माया भी हंस पड़ी और रहीसही असहजता भी खत्म हो गई.

‘‘कल ‘निमंत्रण’ में चलेंगे, वहां का खाना इस से भी अच्छा है,’’ मनोरमाजी से खाने की तारीफ सुन कर विद्याधर ने कहा.

‘‘तुम्हारा खयाल है कि हम कल भी देर तक काम करेंगे?’’ मनोरमाजी ने पूछा.

‘‘बौस आप हैं. सो यह तो आप को ही मालूम होगा कि काम खत्म हुआ है या नहीं,’’ विद्याधर ने कहा.

‘‘काम तो कई दिन तक खत्म नहीं होगा लेकिन तुम लोग रोज देर तक रुकोगे?’’

‘‘हां, मुझे तो कुछ फर्क नहीं पड़ता,’’ विद्याधर बोला.

‘‘मुझे भी, अब जब काम शुरू किया है तो पूरा कर ही लेते हैं,’’ माया ने कहा.

‘‘ठीक है, मुझे भी आजकल घर पहुंचने की जल्दी नहीं है.’’

माया के घर के बाहर आटो रुकने पर विद्याधर ने भी स्कूटर रोक कर कहा, ‘‘कल मिलते हैं, शुभरात्रि.’’

‘जल्दी ही तुम इस में ‘स्वीट ड्रीम’ भी जोड़ोगे,’ मनोरमाजी ने पुलक कर सोचा, उन की योजना फलीभूत होती लग रही थी. औफिस में यह पता चलते ही कि मनोरमाजी और माया बकाया काम निबटा रही थीं, अन्य लोगों ने भी रुकना चाहा. मनोरमाजी सहर्ष मान गईं क्योंकि अब वे सब के खाना लाने के बहाने माया को विद्याधर के साथ भेज दिया करेंगी, घर छोड़ने का सिलसिला तो वही रहेगा. और काम का क्या उसे तो रबर की तरह खींच कर जितना चाहे लंबा कर लो.

मनोज के लौटने से पहले ही माया और विद्याधर में प्यार हो चुका था. उन्हें अब फोन करने या मिलने के लिए बहाने की जरूरत नहीं थी लेकिन मुलाकात लंचब्रेक में ही होती थी. छुट्टी के रोज या शाम को मिलने का रिस्क दोनों ही लेना नहीं चाहते थे.

मनोज ने उन के जीवन में और भी उथलपुथल मचाने के लिए मनोरमा को बुरी तरह लताड़ा.

‘‘जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा. माया के घर वाले तो बिना दहेज या कम दहेज के सजातीय वर से तुरंत शादी कर देंगे और विद्याधर के घर वाले भी हमारी थोड़ी सी कोशिश से मान जाएंगे,’’ मनोरमाजी ने कहा.

‘‘कुछ ठीक नहीं होगा मनोरमा, माना कि विद्याधर की मां को बहू की सख्त जरूरत है लेकिन बिरादरी में नाक कटवा कर नहीं, यानी उसे तो शादी में निर्धारित रकम मिलनी ही चाहिए जो माया का परिवार नहीं दे सकता और मां या बिरादरी के खिलाफ जाने की हिम्मत प्यार होने के बावजूद विद्याधर में नहीं है.’’

‘‘कई बार हिम्मत नहीं हिकमत काम आती है. मानती हूं विद्याधर तिकड़मी भी नहीं है लेकिन मैं तो हूं. आप साथ दें तो मैं दोनों की शादी करवा सकती हूं,’’ मनोरमाजी ने बड़े आत्मविश्वास से कहा, ‘‘आप को कुछ ज्यादा नहीं करना है, बस मेरे साथ विद्याधर के घर चलना है और बातोंबातों में उस के घर वालों को बताना है कि आप की नजर में विद्याधर के लिए एक उपयुक्त कन्या है, उस के बाद मैं सब संभाल लूंगी.’’

‘‘बस, इतना ही? तो चलो, अभी चलते हैं.’’

शनिवार की सुबह थी सो विद्याधर घर पर ही मिल गया. उस ने और घर वालों ने उन का स्वागत तो किया लेकिन चेहरे पर एक प्रश्नचिह्न लिए हुए, ‘कैसे आए?’

‘‘हम ने तो सोचा तुम तो कभी बुलाओगे नहीं, हम स्वयं ही चलते हैं,’’ मनोज ने कहा.

‘‘कैसे बुलाए बेचारा? घर में मेहमानों को चायपानी पूछने वाला कोई है नहीं,’’ विद्याधर की मां ने असहाय भाव से कहा, ‘‘मेरे से तो अब कुछ होता नहीं…’’

‘‘आप की उम्र अब काम नहीं, आराम करने यानी बहू से सेवा करवाने की है, मांजी,’’ मनोरमाजी ने कहा.

‘‘बहू का सुख तो लगता है मेरे नसीब में है ही नहीं,’’ मांजी उसांस ले कर बोलीं.

‘‘ऐसी मायूसी की बातें मत करिए, मांजी. मैं विद्याधर के लिए ऐसी सर्वगुण संपन्न, सजातीय लड़की बताता हूं कि यह मना नहीं करेगा,’’ मनोज ने कहा, ‘‘माया मनोरमा की कनिष्ठ अधिकारी है, बहुत ही नेक स्वभाव की संस्कारशील लड़की है, नेहरू नगर में घर है उस का…’’

‘‘शंकरलाल की बेटी की बात तो नहीं कर रहे?’’ विद्याधर की मां ने बात काटी, ‘‘मिल चुके हैं हम उन से, लड़की के सर्वगुण संपन्न होने में तो कोई शक नहीं है लेकिन बाप के पास दहेज में देने को कुछ नहीं है. कहता है कि लड़की की तनख्वाह को ही दहेज समझ लो. भला, ऐसे कैसे समझ लें? हम ही क्या, और भी कोई समझने को तैयार नहीं है, तभी तो अभी तक माया कुंआरी बैठी है.’’

‘‘और विद्याधर भी, आप को बहू की सख्त जरूरत है मांजी, तो एकमुश्त रकम का लालच छोड़ कर क्यों नहीं दोनों का ब्याह कर देतीं?’’ मनोरमाजी ने तल्ख हुए स्वर को भरसक संयत रखते हुए कहा, ‘‘माया की तनख्वाह तो हर महीने घर ही में आएगी.’’

‘‘हमें एकमुश्त रकम का लालच अपने लिए नहीं, बिरादरी में अपना मानसम्मान बनाए रखने के लिए है,’’ विद्याधर के पिता पहली बार बोले, ‘‘हमारा श्रीपंथ संप्रदाय एक कुटुंब  की तरह है. इस संप्रदाय के कुछ नियम हैं जिन का पालन हम सब को करना पड़ता है. जब हमारे समाज में लड़की के दहेज की राशि निर्धारित हो चुकी है तो शंकरलाल कैसे उसे कम कर सकता है और मैं कैसे कम ले सकता हूं?’’

‘‘यह तो सही कह रहे हैं आप,’’ मनोज बोला, ‘‘लेकिन संप्रदाय तो भाईचारे यानी जातिबिरादरी के लोगों की सहायतार्थ बनाए जाते हैं लेकिन मांजी की गठिया की बीमारी को देखते हुए भी कोई उन्हें बहू नहीं दिलवा रहा?’’

‘‘कैसे दिलवा सकते हैं मनोज बाबू, कोई किसी से जोरजबरदस्ती तो कर नहीं सकता कि अपनी बेटी की शादी मेरे बेटे से करो?’’

‘‘और जो आप के बेटे से करना चाहते हैं जैसे शंकरलालजी तो उन की बेटी से आप करना नहीं चाहते,’’ मनोज ने चुटकी ली.

‘‘क्योंकि मुझे समाज यानी अपने संप्रदाय में रहना है सो मैं उस के नियमों के विरुद्ध नहीं जा सकता. आज मजबूरी से मैं शंकरलाल की कन्या को बहू बना लाता हूं तो कल को तो न जाने कितने और शंकरलाल-शंभूदयाल अड़ जाएंगे मुफ्त में लड़की ब्याहने को और दहेज का चलन ही खत्म हो जाएगा.’’

‘‘और एक कुप्रथा को खत्म करने का सेहरा आप के सिर बंध जाएगा,’’ मनोरमाजी चहकीं.

‘‘तुम भी न मनोरमा, यहां बात विद्याधर की शादी की हो रही है और सेहरा तुम चाचाजी के सिर पर बांध रही हो,’’ मनोज ने कहा, ‘‘वैसे चाचाजी, देखा जाए तो सौदा बुरा नहीं है. माया को बहू बना कर आप को किस्तों में निर्धारित रकम से कहीं ज्यादा पैसा मिल जाएगा और मांजी को आराम भी और आप को समाजसुधारक बनने का अवसर.’’

‘‘हमें नेता या समाजसुधारक बनने का कोई शौक नहीं है. हमारा श्रीपंथ संप्रदाय जैसा भी है, हमारा है और हमें इस के सदस्य होने का गर्व है,’’ मांजी बोलीं, ‘‘आप अगर हमारी सहायता करना ही चाह रहे हो तो विद्याधर को तरक्की दिलवा दो, तुरंत निर्धारित दहेज के साथ शादी हो जाएगी और इस भरोसे से कि इस की शादी में तो पैसा मिलेगा ही, इस के पिताजी ने इस की बहन की शादी के लिए जो कर्जा लिया हुआ है वह भी उतर जाएगा.’’

विद्याधर और उस के पिता हतप्रभ रह गए. मनोरमा और मनोज भी चौंक पड़े.

‘‘कमाल है पिताजी, वह कर्जा आप ने अभी तक उतारा नहीं? मैं ने चिटफंड से ले कर रकम दी थी आप को,’’ विद्याधर ने पूछा.

‘‘वह तेरी मेहनत की कमाई है. उस से बेटी का दहेज क्यों चुकाऊं? उसे मैं ने बैंक में डाल दिया है, तेरे दहेज में जो रकम मिलेगी उस से वह कर्जा उतारूंगा.’’

विद्याधर ने सिर पीट लिया.

‘‘आप ने यह नहीं सोचा, बेकार में सूद कितना देना पड़ रहा है? कल ही उस पैसे को बैंक से निकलवा कर कर्जा चुकता करूंगा,’’ विद्याधर ने दृढ़ स्वर में कहा.

‘‘विद्याधर को तरक्की मिल सकती है,’’ मनोज ने मौका देख कर कहा, ‘‘अगर यह आएदिन सुबह का नाश्ता बनाने के चक्कर में देर से औफिस न आया करे और फिर शाम को जल्दी घर न भागा करे. आप लोग एक अच्छी सी नौकरानी क्यों नहीं रखते?’’

‘‘कई रखीं लेकिन सभी एक सी हैं, चार रोज ठीक काम करती हैं फिर देर से आना या नागा करने लगती हैं,’’ मांजी असहाय भाव से बोलीं.

‘‘बात घूमफिर कर फिर बहू लाने पर आ गई न?’’ मनोरमाजी ने भी मौका लपका, ‘‘और उस के लिए आप दहेज का लालच नहीं छोड़ोगे.’’

‘‘हमें दहेज का लालच नहीं है, बस समाज में अपनी इज्जत की फिक्र है,’’ मांजी ने कहा, ‘‘दहेज न लिया तो लोग हंसेंगे नहीं हम पर?’’

‘‘लोगों से कह दीजिएगा, नकद ले कर बैंक में डाल दिया, बात खत्म.’’

‘‘बात कैसे खत्म,’’ मां झल्ला कर बोलीं, ‘‘श्री का मतलब जानती हो, लक्ष्मी होता है यानी श्रीपंथ, लक्ष्मी का पंथ, इसलिए हमारे में शादी की पहली रस्म, ससुराल से आई लक्ष्मी की पूजा से ही होती है, उसे हम खत्म नहीं कर सकते.’’

‘‘अगर आप को रकम का लालच नहीं है तो महज रस्म के लिए हम उस रकम का इंतजाम कर देंगे,’’ मनोरमाजी ने कहा, ‘‘रस्म पूरी करने के बाद यानी बिरादरी को दिखाने के बाद आप रकम हमें वापस कर दीजिएगा.’’

‘‘आप का बहुतबहुत धन्यवाद, भाभी, लेकिन मैं और माया झूठ की बुनियाद पर की गई शादी कदापि नहीं करेंगे,’’ विद्याधर ने दृढ़ स्वर में कहा.

‘‘तो फिर क्या करोगे?’’

‘‘ऐसे ही घुटघुट कर जीते रहेंगे.’’

विद्याधर के पिता ने उसे चौंक कर देखा, ‘‘तू घुटघुट कर जी रहा है?’’

‘‘घुटघुट कर ही नहीं तड़पतड़प कर भी,’’ मनोज बोला, ‘‘जवान आदमी है, जब से माया से प्यार हुआ है, तड़पने लगा है. मगर आप को क्या फर्क पड़ता है. आप को तो अपने बच्चे की खुशी से ज्यादा संप्रदाय की मर्यादा की फिक्र है. चलो मनोरमा, चलते हैं.’’

‘‘रुकिए मनोज बाबू, मुझे शंकरलालजी के घर ले चलिए, शादी की तारीख तय कर के ही आऊंगा, जिसे जो कहना है कहता रहे.’’

‘‘मुझे भी अपने बेटे की खुशी प्यारी है, मैं भी किसी के कहने की परवा नहीं करूंगी.’’

मनोरमा, मनोज और विद्याधर खुशी से गले मिलने लगे. हिकमत कामयाब हो गई थी.

 

‘‘और विद्याधर भी, आप को बहू की सख्त जरूरत है मांजी, तो एकमुश्त रकम का लालच छोड़ कर क्यों नहीं दोनों का ब्याह कर देतीं?’’ मनोरमाजी ने तल्ख हुए स्वर को भरसक संयत रखते हुए कहा, ‘‘माया की तनख्वाह तो हर महीने घर ही में आएगी.’’

‘‘हमें एकमुश्त रकम का लालच अपने लिए नहीं, बिरादरी में अपना मानसम्मान बनाए रखने के लिए है,’’ विद्याधर के पिता पहली बार बोले, ‘‘हमारा श्रीपंथ संप्रदाय एक कुटुंब  की तरह है. इस संप्रदाय के कुछ नियम हैं जिन का पालन हम सब को करना पड़ता है. जब हमारे समाज में लड़की के दहेज की राशि निर्धारित हो चुकी है तो शंकरलाल कैसे उसे कम कर सकता है और मैं कैसे कम ले सकता हूं?’’

‘‘यह तो सही कह रहे हैं आप,’’ मनोज बोला, ‘‘लेकिन संप्रदाय तो भाईचारे यानी जातिबिरादरी के लोगों की सहायतार्थ बनाए जाते हैं लेकिन मांजी की गठिया की बीमारी को देखते हुए भी कोई उन्हें बहू नहीं दिलवा रहा?’’

‘‘कैसे दिलवा सकते हैं मनोज बाबू, कोई किसी से जोरजबरदस्ती तो कर नहीं सकता कि अपनी बेटी की शादी मेरे बेटे से करो?’’

‘‘और जो आप के बेटे से करना चाहते हैं जैसे शंकरलालजी तो उन की बेटी से आप करना नहीं चाहते,’’ मनोज ने चुटकी ली.

‘‘क्योंकि मुझे समाज यानी अपने संप्रदाय में रहना है सो मैं उस के नियमों के विरुद्ध नहीं जा सकता. आज मजबूरी से मैं शंकरलाल की कन्या को बहू बना लाता हूं तो कल को तो न जाने कितने और शंकरलाल-शंभूदयाल अड़ जाएंगे मुफ्त में लड़की ब्याहने को और दहेज का चलन ही खत्म हो जाएगा.’’

‘‘और एक कुप्रथा को खत्म करने का सेहरा आप के सिर बंध जाएगा,’’ मनोरमाजी चहकीं.

‘‘तुम भी न मनोरमा, यहां बात विद्याधर की शादी की हो रही है और सेहरा तुम चाचाजी के सिर पर बांध रही हो,’’ मनोज ने कहा, ‘‘वैसे चाचाजी, देखा जाए तो सौदा बुरा नहीं है. माया को बहू बना कर आप को किस्तों में निर्धारित रकम से कहीं ज्यादा पैसा मिल जाएगा और मांजी को आराम भी और आप को समाजसुधारक बनने का अवसर.’’

‘‘हमें नेता या समाजसुधारक बनने का कोई शौक नहीं है. हमारा श्रीपंथ संप्रदाय जैसा भी है, हमारा है और हमें इस के सदस्य होने का गर्व है,’’ मांजी बोलीं, ‘‘आप अगर हमारी सहायता करना ही चाह रहे हो तो विद्याधर को तरक्की दिलवा दो, तुरंत निर्धारित दहेज के साथ शादी हो जाएगी और इस भरोसे से कि इस की शादी में तो पैसा मिलेगा ही, इस के पिताजी ने इस की बहन की शादी के लिए जो कर्जा लिया हुआ है वह भी उतर जाएगा.’’

विद्याधर और उस के पिता हतप्रभ रह गए. मनोरमा और मनोज भी चौंक पड़े.

‘‘कमाल है पिताजी, वह कर्जा आप ने अभी तक उतारा नहीं? मैं ने चिटफंड से ले कर रकम दी थी आप को,’’ विद्याधर ने पूछा.

‘‘वह तेरी मेहनत की कमाई है. उस से बेटी का दहेज क्यों चुकाऊं? उसे मैं ने बैंक में डाल दिया है, तेरे दहेज में जो रकम मिलेगी उस से वह कर्जा उतारूंगा.’’

विद्याधर ने सिर पीट लिया.

‘‘आप ने यह नहीं सोचा, बेकार में सूद कितना देना पड़ रहा है? कल ही उस पैसे को बैंक से निकलवा कर कर्जा चुकता करूंगा,’’ विद्याधर ने दृढ़ स्वर में कहा.

‘‘विद्याधर को तरक्की मिल सकती है,’’ मनोज ने मौका देख कर कहा, ‘‘अगर यह आएदिन सुबह का नाश्ता बनाने के चक्कर में देर से औफिस न आया करे और फिर शाम को जल्दी घर न भागा करे. आप लोग एक अच्छी सी नौकरानी क्यों नहीं रखते?’’

‘‘कई रखीं लेकिन सभी एक सी हैं, चार रोज ठीक काम करती हैं फिर देर से आना या नागा करने लगती हैं,’’ मांजी असहाय भाव से बोलीं.

‘‘बात घूमफिर कर फिर बहू लाने पर आ गई न?’’ मनोरमाजी ने भी मौका लपका, ‘‘और उस के लिए आप दहेज का लालच नहीं छोड़ोगे.’’

‘‘हमें दहेज का लालच नहीं है, बस समाज में अपनी इज्जत की फिक्र है,’’ मांजी ने कहा, ‘‘दहेज न लिया तो लोग हंसेंगे नहीं हम पर?’’

‘‘लोगों से कह दीजिएगा, नकद ले कर बैंक में डाल दिया, बात खत्म.’’

‘‘बात कैसे खत्म,’’ मां झल्ला कर बोलीं, ‘‘श्री का मतलब जानती हो, लक्ष्मी होता है यानी श्रीपंथ, लक्ष्मी का पंथ, इसलिए हमारे में शादी की पहली रस्म, ससुराल से आई लक्ष्मी की पूजा से ही होती है, उसे हम खत्म नहीं कर सकते.’’

‘‘अगर आप को रकम का लालच नहीं है तो महज रस्म के लिए हम उस रकम का इंतजाम कर देंगे,’’ मनोरमाजी ने कहा, ‘‘रस्म पूरी करने के बाद यानी बिरादरी को दिखाने के बाद आप रकम हमें वापस कर दीजिएगा.’’

‘‘आप का बहुतबहुत धन्यवाद, भाभी, लेकिन मैं और माया झूठ की बुनियाद पर की गई शादी कदापि नहीं करेंगे,’’ विद्याधर ने दृढ़ स्वर में कहा.

‘‘तो फिर क्या करोगे?’’

‘‘ऐसे ही घुटघुट कर जीते रहेंगे.’’

विद्याधर के पिता ने उसे चौंक कर देखा, ‘‘तू घुटघुट कर जी रहा है?’’

‘‘घुटघुट कर ही नहीं तड़पतड़प कर भी,’’ मनोज बोला, ‘‘जवान आदमी है, जब से माया से प्यार हुआ है, तड़पने लगा है. मगर आप को क्या फर्क पड़ता है. आप को तो अपने बच्चे की खुशी से ज्यादा संप्रदाय की मर्यादा की फिक्र है. चलो मनोरमा, चलते हैं.’’

‘‘रुकिए मनोज बाबू, मुझे शंकरलालजी के घर ले चलिए, शादी की तारीख तय कर के ही आऊंगा, जिसे जो कहना है कहता रहे.’’

‘‘मुझे भी अपने बेटे की खुशी प्यारी है, मैं भी किसी के कहने की परवा नहीं करूंगी.’’

मनोरमा, मनोज और विद्याधर खुशी से गले मिलने लगे. आइडिया कामयाब हो गया.

 

 

sad love story : प्रेम की चिता

‘‘अरे बाबा, आजकल फसलों पर एक बड़ी मुसीबत आई है. सुना है कि 3-4 किलोमीटर लंबा एक टिड्डी दल किसी भी दिशा से आता है और लहलहाती फसलों पर बैठ कर कुछ ही समय में उन्हें चट कर जाता है. इन टिड्डियों के चलते किसानों में बड़ा डर फैला हुआ है. आजकल किसान खेतों में दिनरात पहरा दे रहे हैं,’’ केशव ने अपने बाबा त्रिकाली डोम से कहा.

‘‘हां… हो सकता है… पर इस खतरे से हमें न कल डर था और न आज ही कोई डर है,’’ केशव के बाबा आसमान में देखते हुए बोले. ‘‘हम तो भूमिविहीन ही पैदा हुए. और हमारे डोम समाज का काम चिता को सजाने से ले कर उसे पूरी तरह जलाने का था. इसलिए जमीन न होने के चलते फसल कभी उगाई नहीं और आज भी हमारे पास जमीन नहीं है, इसलिए टिड्डी दल का खतरा हो या न हो, हमें कोई असर नहीं पड़ता,’’ और फिर केशव का बाबा एक गाना गाने लगा था:

‘‘तिसना छूटी… माया छूटी, छूटी माटी, माटी रे… माटी का तन मिला माटी में… रह गई, माटी माटी… रे…’’ किसी जमाने में इस गांव में लाशें जलाने का काम करने वालों को डोमराजा कहा जाता था और वे समाज में अनदेखे रहते थे, पर धीरेधीरे जैसे इस गांव का विकास हुआ, वैसे ही इन लोगों की जिंदगी में भी सुधार हुआ. डोम लोगों की अगली पीढ़ी अब अपना पुश्तैनी काम न कर के पढ़ाई करना चाहती थी.

त्रिकाली डोम का पोता केशव भी शहर से पढ़ाईलिखाई कर के गांव में वापस आ गया था और उस ने गांव में ही कपड़े का कारोबार शुरू कर दिया था. केशव के अच्छे बरताव और मेहनत के चलते उस का काम भी चमक रहा था.

इस कसबे में एक तरफ ऊंची जाति के लोगों की बस्तियां थीं, तो दूसरी तरफ पिछड़ी जाति की. ऐसे तो ऊंचनीच के भेद को किसी भौगोलिक रेखा की जरूरत नहीं होती है, वह भेद तो हमेशा ही दोनों जातियों के मन में अपनी जगह बनाए रखता है. ऊंची जातियों में, ऊंचे होने का अहंकार रहता है, तो नीची जातियों में नीच कहलाए जाने का दर्द और एक अनजाना डर.

किसी जमाने में एक पिछड़ा गांव आज एक अच्छेखासे कसबे में तबदील हो गया था. इस गांव में मोबाइल और केबल टीवी से ले कर जरूरत की तकरीबन हर चीज मिलने लगी थी. पर यह गांव आज भी किसी जमाने में अपने ऊपर हुए जोरजुल्म की कहानी कहता है और यह बताता है कि जोरजुल्म की कोई जाति नहीं होती, माली तौर पर कमजोर किसी भी आदमी को सताया और दबाया जा सकता है, जिस का उदाहरण इसी गांव में रहने वाली 55 साल की एक औरत रूपाली देवी थी. वह जाति से ठाकुर थी, पर उस के पति से उस के देवर का जमीनी विवाद चला करता था. उस के पति ने कोर्टकचहरी कर के जमीन का कब्जा हासिल कर लिया था.

इस बात से गुस्साए देवर ने एक दिन दबंगों के साथ मिल कर रूपाली देवी का रेप कर डाला था. उस समय रूपाली देवी की उम्र महज 20 साल थी, अपने ऊपर हुए रेप की रिपोर्ट कराने गई रूपाली देवी की कोई भी सुनवाई नहीं हुई. उलटा उसे ही जलील हो कर थाने से बाहर निकाल दिया गया. इतने पर भी जब रूपाली देवी के देवर की सीने की आग ठंडी नहीं हुई. रेप के एक साल के अंदर ही रूपाली देवी ने एक चांद सी लड़की ‘मालती’ को जन्म दिया, तो उस बच्ची को रेप से पैदा हुई औलाद के रूप में भी खूब प्रचारित किया गया.

इस से दुखी हो कर रूपाली देवी और उस के पति ने कई बार गांव ही छोड़ देने और दूसरे गांव में जा बसने की योजना बनाई, पर जमीन से जुड़े होने के चलते और अपनी जमीन की सही कीमत न मिल पाने के चलते वे अपने मुंह को सी कर इसी गांव में रहते रहे.

मालती रेप के द्वारा पैदा हुई औलाद है, इस दुष्प्रचार का असर ये हुआ कि मालती से कोई भी लड़का शादी करने को राजी नहीं हो रहा था. यदि कहीं से रिश्ता बनता भी तो मालती की बदनामी पहले ही करा दी जाती. लिहाजा, यह रिश्ता टूट जाता और इसी तरह मालती की उम्र आज 35 साल की हो गई थी और वह अब भी कुंआरी थी.

मालती के घर में उस की मां, बाप और एक भाई थे. मालती ने अपनी बढ़ती उम्र के बीच खुद को बिजी रखने और रोजीरोटी के लिए खुद का काम करना शुरू कर दिया था. वह कसबे की दुकानों से कपड़ा खरीद कर उस पर बढि़या कढ़ाई करती और अपने भाई द्वारा उन्हें शहरों के बाजारों में बिकने भेज देती.

इस बार जब मालती कसबे के बाजार में कपड़ा खरीदने गई, तो अपनी दुकान पर बैठे केशव ने मालती को अच्छा ग्राहक जान कर उस से कहा, ‘‘कभी हमारी दुकान से भी कपड़ा खरीद कर देखो… क्वालिटी में सब से बेहतर ही पाएंगी.’’ ‘‘हां… पर, मैं तो यह काम चार पैसे कमाने के लिए करती हूं… अगर बाजार से कम कीमत लगाओ, तो मैं तुम से ही कपड़ा ले लिया करूंगी,’’ मालती ने कहा.

‘हां, तो फिर आओ… दुकान के अंदर आ आओ… एक से एक कपड़ा दिखाता हूं और वे भी सही कीमत के साथ, अगर पसंद आ जाए तो बता देना… घर तक पहुंचवा भी दूंगा,’’ केशव ने दुकान के अंदर आने का इशारा करते हुए कहा. मालती ने दुकान के अंदर जा कर अपनी पसंद के कपड़े लिए और अपने मुताबिक कीमत भी लगवाई.

‘‘एक बात कहूं… मैं तो सोचता था कि तुम ठकुराइन हो… मुझ डोम के यहां से कपड़ा खरीदने में गुरेज करोगी,’’ केशव ने मालती की आंखों में झांकते हुए कहा. ‘‘ये जातपांत वे मानें… जिन्हें वोट लेना हो… मैं ये ऊंचनीच, भेदभाव में यकीन नहीं रखती… और यह सब सोचने का मेरे पास टाइम भी नहीं है और न ही मेरी समझ,’’ यह कह कर मालती दुकान से बाहर निकल गई.

‘‘और… हां, वे पैसे मैं छोटे भाई से भिजवा दूंगी,’’ मालती ने कहा, जिस के बदले में केशव सिर्फ मुसकरा दिया. ‘‘कसबे की बाकी दुकानों से कपड़ा भी अच्छा है और दाम भी ठीक लगाए हैं केशव ने, अगली बार भी इसी के यहां से कपड़ा लूंगी,’’ केशव की दुकान से आए हुए कपड़े पर कढ़ाई करते हुए मालती मन ही मन बुदबुदा उठी थी.

फिर तो केशव की दुकान से कपड़ा खरीदने का सिलसिला शुरू हो गया, और एक ठाकुर जाति की लड़की और एक डोम जाति के लड़के में अपने धंधे को ले कर एक अच्छी समझ पैदा हो गई थी. केशव अब 30 साल का हो गया था और अपनी पढ़ाई और धंधा जमाने के चक्कर में ब्याह की सुध भी न रही, एकाध बार बाबूजी ने बोला भी तो केशव ने यह कह कर टाल दिया कि थोड़ा धंधापानी जम जाए तो कर लूंगा, पर अब उस के लिए रिश्ते आने बंद हो गए थे, क्योंकि डोम लोगों की प्रथा के मुताबिक उस की शादी करने की उम्र अब निकल चुकी थी.

मालती और केशव भले ही अलगअलग जाति के थे, पर एक  यही बात उन दोनों में समान थी कि  दोनों अभी तक कुंआरे थे. आसमान में कालेकाले बादल घिर आए थे और बहुत तेज बारिश होने की उम्मीद थी. बहुत देर से कोई ग्राहक न आता देख केशव ने दुकान का शटर बंद कर दिया और एक छाता ले कर अपने घर की तरफ चल पड़ा.

बारिश बहुत तेज हो गई थी. सड़कों पर सन्नाटा छा गया था. ऐसे में अचानक केशव की नजर एक कोने में खड़ी मालती पर गई, जो एक कोने में खड़ी हो कर बारिश से बचने की नाकाम कोशिश कर रही थी. ‘‘अरे… मालती… तुम… इतनी तेज बारिश में यहां क्या कर रही हो?’’ अपना छाता केशव ने मालती के सिर के ऊपर लगाते हुए कहा.

‘‘दरअसल, मैं तुम्हारे पास ही आ रही थी… मुझे कल ही इस लाल रंग का कपड़ा चाहिए… सोचा, तुम्हें और्डर दे दूं चल कर… पर रास्ते में ही बारिश आ गई… अब पता नहीं कब तक यह यों ही होती रहेगी,’’ मालती ने ऊंची आवाज में कहा. ‘‘कोई बात नहीं… वह सामने देखो… स्कूल की पुरानी बिल्डिंग है… आओ वहीं चल कर बारिश रुकने का इंतजार करते हैं,’’ केशव ने कहा और कह कर दोनों के कदम उस स्कूल की ओर बढ़ गए.

स्कूल की छत के नीचे दोनों खड़े हो गए, दोनों के शरीर गीले हो गए थे. मालती अपनी साड़ी के गीले पल्लू को निचोड़ने लगी और अपने भीगे हुए सिर के बालों को झटका दे कर सुखाने लगी थी कि तभी उस के सीने से उस का आंचल हट गया और उस के गोरे उभार उजागर हो गए.

केशव की नजर अब भी मालती के सीने पर ही लगी हुई थी. उसे अपने सीने को घूरता देख कर मालती ने उन्हें अपनी साड़ी के पल्लू से ढक लिया. मालती और केशव दोनों कुंआरे थे और आज जब दोनों के जिस्म पूरी तरह से पानी में भीग गए थे, तो उन की छुअन ने उन दोनों के अंदर दबी हवस की चिनगारी को भड़का दिया.

चारों तरफ सन्नाटा था. बस बारिश ही बारिश थी. केशव ने मालती का हाथ पकड़ लिया. मालती ने कोई विरोध नहीं किया, तो उस की हिम्मत बढ़ गई और उस ने मालती के गालों को चूम लिया और धीरेधीरे होंठों का रसपान करने लगा. मालती ने अपनी दोनों आंखें बंद कर लीं और कोई विरोध नहीं किया. केशव की हिम्मत बढ़ गई थी. उस ने  मालती को अपनी मजबूत बांहों में भर लिया और बेतहाशा चूमने लगा.

मालती के जिस्म को भी जैसे किसी की बांहों में आने का ही इंतजार था.  वह भी अब केशव का साथ देने लगी  और दोनों देह मिलन की नौका पर  सवार हो कर किनारे पर लगने का सफर  करने लगे…कुछ देर बाद दोनों हांफते हुए एकदूसरे से अलग हो गए, बाहर अब भी बारिश तेज हो रही थी, पर दोनों जिस्मों के अंदर का तूफान शांत हो चुका था.

आज जातियों के सारे भेद मिट चुके थे, 2 जिस्मों की जरूरत ने आज ऊंचनीच की सभी दीवारें गिरा दी थीं. काम के सिलसिले में उन दोनों का जो एकदूसरे से मिलना शुरू हुआ था, उस ने इन दोनों कुंआरे दिलों को अपनी हवस मिटाने का रास्ता दिखा दिया था. मालती और केशव के बीच एक बार संबंध क्या बने, फिर तो दोनों काम के बहाने कम मिलते और अपने जिस्म की प्यास बुझाने के लिए ज्यादा, जिस का नतीजा यह हुआ कि मालती को बच्चा ठहर गया, जिस से वह बहुत घबरा गई थी.

‘‘केशव… हम से बहुत बड़ी भूल हो गई है… जवानी के जोश में हम ने बिना आगापीछा सोचे संबंध बनाए और अब मुझे बच्चा ठहर गया है… अब क्या होगा?’’ मालती घबराई हुई थी. ‘‘अरे, होना क्या है… अब हम और तुम शादी कर लेंगे,’’ केशव ने कहा.

‘‘शादी… पर क्या तुम जानते हो कि मेरी मां के साथ जो हुआ था…? और लोग मुझे रेप से पैदा हुई औलाद समझते हैं, इसीलिए मेरी शादी आज तक नहीं हुई… और फिर हमारी उम्र में भी फर्क है और हमारी जाति में भी,’’ मालती की आंखों में आंसू आ गए थे. ‘‘हां… मैं जानता हूं मालती कि तुम मुझ से पूरे 5 साल बड़ी हो… पर क्या उम्र का ये फैसला हमारे प्यार को कहीं से कम करता है क्या…? और फिर आज इनसान कहां से कहां पहुंच रहा है और हम ये दकियानूसी बातें ले कर कब तक बैठे रहेंगे? या फिर तुम्हारा मन मुझ से भर तो नहीं गया?’’ केशव ने पूछा.

‘ऐसी तो कोई बात नहीं… पर तुम भी जानते हो कि हमारी शादी इतनी आसानी से नहीं होगी.’’‘‘हां, हो सकता है कि राह में कुछ मुश्किलें आएं, पर हम बिना कोशिश करे तो हार नहीं मान सकते न… मेरे विचार में हमें अपने घरों में एक बार बात कर लेनी चाहिए,’’ केशव ने मालती को ढांढस देते हुए कहा.

मालती और केशव ने यही फैसला लिया कि आज वे दोनों अपने घर में बता देंगे कि वे दोनों शादी करना चाहते हैं. ‘‘क्या…? क्या 35 साल तक तुझे इसीलिए घर में बिठाए रखा कि एक दिन तू उस डोम से ब्याह रचा ले… जानती भी है कि उस लड़के के बापदादा क्या काम किया करते थे… लाशें फूंकते थे… लाशें… चिता जलाया करते थे वे सब… और हम लोगों की दी गई जूठन ही उन की रोजीरोटी का जरीया हुआ करती थी.

‘‘और हम लोग सुबहसुबह उन का नाम लेना भी अपशकुन समझते हैं… घर का पानी और खाना तो बहुत दूर की बात है,’’ मालती के पिता आपे से बाहर हो रहे थे.

‘‘पर पिताजी… वे मेरी सब बातें जानते हुए भी मुझ से ब्याह रचाने को तैयार हैं,’’ मालती ने डरते हुए कहा.

‘‘क्या… सबकुछ जानता है…? क्या सबकुछ…? यही न कि तुम्हारे अंदर एक ठाकुर का खून दौड़ रहा है… और कुछ नहीं जानता वह…

‘‘मालती, तुम नहीं जानती कि ये निचली जाति के लड़के एक साजिश के तहत अच्छे घर की लड़कियों को फंसाते हैं और फिर उन के घरपरिवार पर

अपना दबदबा भी जमाते हैं,’’ मालती के पिता ने कहा.

‘‘और हां दीदी… अगर तुम से अकेले नहीं रहा जा रहा था, तो कोई और लड़का ढूंढ़ लिया होता, तुम्हें वही लाशें जलाने वाला डोम ही मिला,’’ अब तक चुप मालती के भाई ने कहा.

मालती को अपने छोटे भाई के मुंह से ऐसी बातें सुनने की उम्मीद नहीं थी. वह अब और सुन पाने की हालत में नहीं थी. वह वहां से अपने कमरे में भाग गई थी.

जब केशव ने अपने घर में मालती से ब्याह रचाने की बात कही, तो उस के घर में भी वही हुआ, जिस की उम्मीद कभी उस ने नहीं की थी.

‘‘क्या…? पूरी बिरादरी में तुम्हें कोई और लड़की नहीं मिली, जो उस लड़की से शादी करोगे तुम…

‘‘अरे, तुम्हें पता भी है कि इतने सालों तक उस की शादी क्यों नहीं हुई… क्योंकि वह नाजायज… उस का असली बाप कौन है, किसी को नहीं पता,’’ केशव के पिताजी चीख रहे थे.

‘‘पता है न तुम्हें कि उस की मां का कई लोगों ने मिल कर रेप किया था  और उसी के बाद इस लड़की का जन्म हुआ है…

‘‘भले ही वह तुम से जाति में ऊंची है, पर उस से क्या… है तो वे नाजायज ही न,’’ केशव के पिता की आवाज में उस के सभी घर वालों की भी आवाज शामिल लग रही थी, क्योंकि सभी लोग केशव को नफरत भरी नजरों से देख रहे थे.

अगले ही दिन इन दोनों की बातें ही लोगों की जुबान पर थीं और सब लोग इसे एक बेमेल जोड़ी और समाज को तोड़ने वाली कोशिश बता रहे थे.

आननफानन ही ब्राह्मण सभा बुलाई गई और यह फैसला लिया गया कि किसी दलित द्वारा एक अबला सवर्ण लड़की के शील को भंग कर के उस से ब्याह रचा कर सारी ब्राह्मण कौम को बदनाम करने की साजिश है यह… उसे सजा तो जरूर मिलनी चाहिए.’’

कसबे में मीडिया की चहलपहल अचानक से बढ़ गई थी और चुनावी बारिश वाले नेता भी मैदान में उतर आए थे.

कसबे में अचानक ही एक अजीब सा तनाव वाला माहौल बन गया था. अगले ही दिन भरी दोपहर में केशव की दुकान धूधू कर के जलती हुई देखी जा सकती थी.

उधर मालती के घर में भी आपसी रिश्तों में आग लगी हुई थी और पूरा महल्ला मालती और उस के परिवार की थूथू कर रहा था.

‘‘क्या… मेरी यह सजा है कि मेरी मां के साथ रेप हुआ है. अब तक मैं ने रेप का दंश झेला और बदनामी सही. अब उस के बाद यह दंश मुझे भी दुख देता रहेगा.

अगर किसी औरत के साथ रेप होना गलत है, तो सजा उसे नहीं, बल्कि बलात्कारियों को मिलनी चाहिए, जिन्होंने यह घिनौना अपराध किया है. मालती अपने घर में चीख रही थी.

तभी उस के घर के दरवाजे पर दस्तक हुई. मालती के पिता ने दरवाजा खोला, सामने मुंह पर कपड़ा बांधे दो लंबेचौड़े लोग खड़े थे, वे किस जाति के थे, ये कहना मुश्किल था कि किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था, सिर्फ उन की आंखें ही देखी जा सकती थीं. वे आंखें मालती को ढूंढ़ रही थीं. मालती ने खतरा भांप लिया और पीछे के दरवाजे से भाग निकली. वे दोनों लठैत उस के पीछे दौड़ रहे थे.

मालती दौड़तेदौड़ते बुरी तरह थक गई थी, अचानक उस के पैर से एक पत्थर टकराया और वह गिर गई. उस के पेट के निचले हिस्से से खून की धार फूट पड़ी थी. इस से पहले कि वह कुछ समझ पाती, मालती के सिर पर लाठियां बरसने लगी थीं. उस की आंखें मुंद गई थीं. मालती की आंखें फिर कभी खुल नहीं सकीं.

 

Satire : मौर्निंग वौक

ममता मेहता हाय रे फूटी जिंदगी, आई खुशियां भी चली गईं. अच्छीभली सुबह कट रही थी. पत्नी से छिप कर मौर्निंग वाक में दोचार हसीनाओं को देख लिया, एकदो से हंस कर बात कर ली. लेकिन नहीं, तुम्हें तो मेरा खुश होना ही बरदाश्त नहीं, आखिर गलती ही क्या थी? डाक्टर से चैकअप करवा कर निकला तो तनाव दोपहर की धूप की तरह तनमन को झुलसा रहा था. समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा कैसे हो गया. ऊपर से डाक्टर की बातें, ‘घबराने की कोई बात नहीं है मिस्टर शर्मा, इस उम्र में अकसर ऐसा हो ही जाता है. जरा प्रिकौशन लेंगे तो सब ठीक हो जाएगा.’ इस उम्र में… क्या हुआ है मेरी उम्र को… आज के जमाने में 40 की उम्र कोई उम्र है. जितने भी महान लोग हुए हैं उन्हें महानता, सफलता 40 के बाद ही मिली है. और यह डाक्टर मेरी उम्र का बखान कर रहा है.

यह सब तो आजकल नौर्मल हो गया है. छोटे बच्चों को भी हो जाता है. इस में उम्र की क्या बात है. अब परहेज दुनिया भर के, रिस्ट्रिक्शंस दुनियाभर के, ऊपर से अब उबले, बिना नमक के, खाने की कल्पना मात्र से मु घझेबराहट होने लगी. घर पहुंचा तो सुमि सोफे पर ही बैठी थी. मुझे देखते ही मेरे हाथों से रिपोर्ट खींच कर बोली, ‘क्या हुआ करवा आए चैकअप, क्या कहा डाक्टर ने, सब ठीक तो है न?’ मैं ने कहा, ‘हां, सब ठीक है, बस, थोड़ा ब्लडप्रैशर और कोलैस्ट्रौल बढ़ा हुआ है.’ सुमि की प्रतिक्रिया वही थी जैसी मैं ने सोची थी, ‘हाई ब्लडप्रैशर! कोलैस्ट्रौल! मैं पहले से ही कह रही हूं कि थोड़ा खाने पर कंट्रोल करो, चटपटा खाना बंद करो. मगर नहीं… चटपटा, मसालेदार खाना देखते ही तो जबान चटकने लगती है और कुछ नहीं तो आदमी को अपनी उम्र का तो खयाल रखना ही चाहिए. अब कल से सब बंद.

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लौकी और कच्चे सलाद के अलावा कुछ नहीं.’ मैं चुप बैठा रहा. अपना तो यह निजी अनुभव रहा है कि बरखा, बौस और बीवी वजहबेवजह कभी भी बरस सकते हैं. यह 3 बी ‘बी’ की तरह ही काटने को हमेशा तत्पर रहते हैं. उन मधुमक्खियों से तो आप किसी तरह बच भी सकते हैं पर इन से बचना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है. फिर भी मैं ने हलके से प्रतिरोध का असफल प्रयास किया, ‘अरे काहे इतना टैंशन ले रही हो. थोड़ा सा ही तो हाई है. डाक्टर ने कहा है, कभीकभी हो जाता है, परेशान होने की कोई जरूरत नहीं.’ सुमि ने अपने ज्ञान का प्रदर्शन किया, ‘थोड़ेथोड़े में ही कब बड़ा हो जाता है, पता चलता है क्या आप को? पता भी है, वह शक्ति कालोनी वाले सीखी ऐसे ही ब्लडप्रैशर को ‘कुछ नहीं कुछ नहीं’ कहते रहे और यही कहतेकहते एक दिन लुढ़क गए. वे मेरे जामनगर वाले फूफाजी भी यही कहते रहे और कुछ नहीं कुछ नहीं में आम खातेखाते रवाना हो गए.

वे अपने…’ मैं ने बीच में टोका, ‘अब बस भी करो. मेरा ध्यान रख रही हो या डरा रही हो. यह गया वह गया, पर मैं कहीं जाने वाला नहीं हूं अभी, सम?ा. जाओ, चाय बनाओ.’ जातेजाते पलटी, ‘अब आप को कहीं जाना है या नहीं, वह मु?ो नहीं पता, पर अब रोज सवेरे घूमने जरूर जाएंगे, यह सम?ा लीजिए.’ मेरा माथा ठनका, ‘घूमने! सवेरे! दिमाग खराब है तुम्हारा. मैं कहीं नहीं जाने वाला और तुम भी मु?ो परेशान करने की कोशिश मत करना.’ सुमि लड़ने जैसे अंदाज में बोली, ‘हां, कुछ मत करो आप. बस, पड़े रहो और खाते रहो. बढ़ाओ अपना ब्लडप्रैशर, दवाइयों का खर्चा. सारा जमाना कसरत के पीछे पड़ा है, सारा जमाना मौर्निंग वाक के लिए जा रहा है, आप बैठे रहो ऐसे ही. ‘मु?ो पता है आप चाहते ही नहीं हो कि आप की तबीयत ठीक हो. आप बीमार ही पड़े रहना चाहते हैं, लोगों की सिंपैथी लेना चाहते हैं, लेकिन मैं कह देती हूं मैं ऐसा होने नहीं दूंगी. आप अब से पूरे प्रिकौशन लेंगे, मतलब लेंगे. उस में सब से पहले मौर्निंग वाक, सम?ो आप? कल सुबह मौर्निंग वाक पर जाएंगे, मतलब जाएंगे.’

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मैं ने सिर पकड़ लिया, ‘अब यह हिडिंबा मुझे मौर्निंग वाक पर भेजे बिना मानेगी नहीं. ठीक है एकदो दिन जाऊंगा, फिर कुछ न कुछ बहाना बना दूंगा.’ सुबह सुमि ने 5 बजे ही उठा दिया. बड़ी मुश्किल से आंखें मलता, सुस्ताता, अलसाता उठा. घिसटतेघिसटते टेकड़ी पर पहुंचा. वहां पहुंचते ही सारी इंद्रियां सचेत हो गईं. लगा कि फूलों की घाटी में आ पहुंचा हूं. जहां देखो वहां नजारे ही नजारे. जौगिंग करती बालाएं, कसरत करती सुंदरियां, वाक करती तितलियां… हाय, मैं इतने दिन पहले क्यों नहीं आया मौर्निंग वाक के लिए. लोग तो और भी कई थे, हर साइज, हर शेप, हर उम्र के. राष्ट्रीय एकता की ऐसी मिसाल कहीं और न थी. हर धर्म, हर जाति, हर आयु, हर वर्ग के लोग वहां मौजूद थे. पता नहीं सेहत सुधारने या आंखें सेंकने. उस टेकड़ी के गार्डन में तो मेरा दिल गार्डनगार्डन हो गया. एक बड़ी सुंदर बाला को देख कर मेरा दिल उस से बातें करने को मचलने लगा. मेरा हलकाफुलका मन तो तुरंत उछल कर उस के पास पहुंच गया और जब तक मैं अपने भारीभरकम शरीर को ठेलठाल कर उस के पास पहुंचाता,

वह अपने बौयफ्रैंड के साथ उड़नछू हो गई. मेरा हलका मन भी भारी हो गया. अब तो इस शरीर को हलका करना ही पड़ेगा, नहीं तो जब तक मैं किसी बाला से बात करने उस तक पहुंचूंगा वह 2 बच्चों की मां बन चुकी होगी. अब तो कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा. वजन कम करने के साथ अपने इस उजड़े चमन जैसे हुलिए को भी सुधारना पड़ेगा. मैं एकदम जाग गया जागरूक नागरिक की तरह. मेरी सारी संचेतना जागृत हो गई. अब पता चला चौबेजी, वर्माजी, बत्राजी, चोपड़ाजी, देशपांडेजी, देशमुखजी, जोशीजी क्यों सवेरेसवेरे मौर्निंग वाक के लिए आते थे. सेहत तो बहाना था नजरें जो मिलाना था और मैं मूर्ख आदमी इतने दिन तक सोता रहा. सोएसोए खोता रहा. जिंदगी की कितनी महत्त्वपूर्ण बातें तू ने मिस कर दीं,

अब तो संभल जा. मैं ने मन ही मन सुमि को धन्यवाद दिया और संभल गया. अब तो कोई बेवकूफ ही होगा जो मौर्निंग वाक के लिए मना करता. मैं भी सुमि के सामने ऊपर से नानुकुर करता, अंदर ही अंदर हुलसता मौर्निंग वाक करने के लिए. मन कुलबुलाने लगा. अपने रहनसहन पर ध्यान दिया. सब से पहले बालों को सुधारा. जहांतहां झांकती चांदी को ब्लैक मैटल में बदला. मूंछों पर सिलवर पेंट की जगह ब्लैक पेंट किया. नया ट्रैक सूट, नए जूते खरीदे जिस से कि मैं स्मार्ट नजर आऊं. एक हफ्ते में तो हुलिया ही बदल गया. चेहरा चमक गया, रौनक आ गई, मन प्रसन्न रहने लगा. अब तो हर वक्त गुनगुनाने का मन करता था. बस, तोंद थी जो बढ़ी हुई थी. पर मैं आशावादी था, मुझे आशा थी कि यह जल्दी ही कम हो जाएगी. गार्डन में मेरी कल्पनाओं के घोड़े भी उड़ान भरने लगे. पर… मुझे और घोड़ों को उड़ान भरते अभी एक महीना भी नहीं हुआ था कि एक दिन सुबह उठते ही सुमि ने कहा, ‘आज मैं भी चलूंगी आप के साथ वाक के लिए.’ मैं उठताउठता बैठ गया, ‘तुम क्या करोगी चल कर. तुम चलोगी तो यहां मेरा नाश्ताखाना कौन बनाएगा, मुझे औफिस जाना है भई.’

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उस ने लापरवाही से कहा, ‘उस की चिंता आप मत करो. मैं आ कर बना दूंगी.’ मरता क्या न करता. सुमि को चलना था तो वह चली ही. मेरी बिलकुल भी बिसात न थी कि उसे रोक पाता. हम चले. इतने दिनों में वहां काफी लोगों से पहचान हो गई थी. मुझे देखते ही सब की हायहैलो शुरू हो गई, उन में वे हसीनाएं भी थीं जो रोज मुझे देख कर मुसकराती थीं, हाथ हिलाती थीं, दोचार कोई बात भी कर जाती थीं. सुमि का चेहरा मौसम विभाग की भविष्यवाणी की तरह पलपल बदल रहा था, इसलिए हालफिलहाल कुछ भी अनुमान लगाना कठिन था कि सुहानी धूप खिली रहेगी, भारी वर्षा होगी, गरज के साथ छींटे पड़ेंगे या वर्षा के साथ ओले गिरेंगे. सबकुछ समय के हवाले कर मैं संभावित परिणाम की प्रतीक्षा करने लगा. घर पहुंचे. सुमि कुछ नहीं बोली. चुपचाप नाश्ताखाना बनाने में लग गई. मुुुझे भी लगा, मैं बेकार ही टैंशन ले रहा हूं. कुछ नहीं है. इस सोच से मुझे बड़ी राहत मिली. मैं आराम से दफ्तर गया. आराम से दफ्तर के आवश्यक काम, जैसे गपशप, चर्चा, कैंटीन के चक्कर लगाना वगैरह निबटाया और आराम से घर आया. सुमि अभी भी कुछ नहीं बोली.

मैं ने रात्रिभोजन का स्वाद लिया, टीवी का आनंद लिया और सुबह की सुहानी कल्पना में डूबा अपने ट्रैक सूट वगैरह को संभालने लगा कि बम विस्फोट हुआ, ‘कल से आप मौर्निंग वाक के लिए नहीं जाएंगे.’ तो वह खतरा आ ही गया जिस की भाप मुझे सुबह से आ रही थी. मैं ने कारण जानना चाहा, ‘अरे, क्यों? अचानक क्या हो गया, अभी तक तो तुम ही पीछे पड़ी थीं कि मौर्निंग वाक जाओ मौर्निंग वाक जाओ, अब क्या हुआ?’ सुमि तल्खी से बोली, ‘हां, मैं ने मौर्निंग वाक के लिए कहा था, जौगर्स पार्क फिल्म का रिऐलिटी शो बनाने के लिए नहीं. अब पता चला मुझे नाना करने वाला बंदा एकाएक मौर्निंग वाक को ले कर इतना उत्साहित क्यों हो गया. 56 पकवानों से भरी थाली दिखेगी तो घर की दाल किसे भाएगी.’ मैं बौखला गया, ‘क्या बकवास कर रही हो. मैं वहां घूमने जाता हूं,

पकवान देखने नहीं.’ सुमि चादर निकालते बोली, ‘हां, वह तो मैं ने देखा ही है कितनी सैर हो रही थी और कितने सपाटे मैं चिढ़ गया, ‘तुम्हारा भी जवाब नहीं. पहले नहीं जा रहा तो लड़लड़ कर भेजा कि घूमने जाओ घूमने जाओ, अब जा रहा हूं तो कह रही हो मत जाओ. आखिर तुम चाहती क्या हो? फिक्र नहीं है तुम्हें मेरी सेहत की.’ सुमि बोली, ‘बहुत फिक्र है, तभी कह रही हूं. मैं ने आप को सेहत बनाने के लिए कहा था, मुझे को बेवकूफ बनाने के लिए नहीं. अब से आप मौर्निंग वाक नहीं, इवनिंग वाक पर जाएंगे और मैं भी आप के साथ चलूंगी, समझे और टेकड़ी पर नहीं, यों ही रोड पर घूमेंगे. सेहत भी बरकरार रहेगी और जौगर्स पार्क का रीमेक भी नहीं बनेगा. अब, सो जाओ.’ उस ने करवट बदल ली. मैं अपने सुहानेसुनहले टूटे सपनों की किरचें संभालने लगा, ‘जिंदगी देने वाले, जिंदगी लेने वाले… खुशी मेरी छीन के बता तुझे क्या मिला…’

Story : बाबुल का घर पराया

पुष्पा की सारी दलीलें 1-1 कर के व्यर्थ हो गई थीं. सुरेशजी अडिग थे कि उन्हें तो आश्रम जाना ही है, चाहे कुछ भी क्यों न हो जाए.

‘‘अगर ऐसा ही है और तुम्हारा जाने का मन नहीं है तो मैं अकेला ही चला जाऊंगा,” अपना अंतिम हथियार फेंकते हुए उन्होंने कह ही दिया था.

पुष्पा फिर चुप रह गई. पति का स्वास्थ ठीक रहता नहीं है फिर अब उम्र भी ऐसी नहीं ही कि अकेले यात्रा कर सकें, तो फिर उन्हें अकेला कैसे भेज दें, वहां कुछ हो गया तो कौन संभालेगा इन्हें? आखिरकार, जब कुछ कहते नहीं बना तो उस ने साथ जाने की हामी भर ही दी थी.

‘‘ठीक है, अब तैयारी करो। मैं तो अपना सामान पहले ही जमा चुका हूं,’’ सुरेशजी ने फिर बात खत्म कर दी थी.

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पुष्पा की सारी दलीलें 1-1 कर के व्यर्थ हो गई थीं. सुरेशजी अडिग थे कि उन्हें तो आश्रम जाना ही है, चाहे कुछ भी क्यों न हो जाए.

‘‘अगर ऐसा ही है और तुम्हारा जाने का मन नहीं है तो मैं अकेला ही चला जाऊंगा,” अपना अंतिम हथियार फेंकते हुए उन्होंने कह ही दिया था.

पुष्पा फिर चुप रह गई. पति का स्वास्थ ठीक रहता नहीं है फिर अब उम्र भी ऐसी नहीं ही कि अकेले यात्रा कर सकें, तो फिर उन्हें अकेला कैसे भेज दें, वहां कुछ हो गया तो कौन संभालेगा इन्हें? आखिरकार, जब कुछ कहते नहीं बना तो उस ने साथ जाने की हामी भर ही दी थी.

‘‘ठीक है, अब तैयारी करो। मैं तो अपना सामान पहले ही जमा चुका हूं,’’ सुरेशजी ने फिर बात खत्म कर दी थी.

 

ऐसा नहीं था कि पुष्पा पहली बार ही आश्रम में जा रही थी. वहां तो वे लोग पिछले कई सालों से जा रहे थे, पर इस बार सुरेशजी ने तय किया कि अब वहीं रहना है. आश्रम की आजन्म सदस्यता लेंगे वे और इस बात को कई बार कह भी चुके थे.

‘‘देखो, हम लोगों का गृहस्थाश्रम का समय अब पूरा हो गया. भगवान की कृपा से सारी जिम्मेदारियां भी पूरी हो गईं। बेटे अपने सैट हो गए, शादीब्याह कर दी, बेटी भी ब्याह दी, अब हमें…’’सुरेशजी वाक्य पूरा करते पर बेटी शब्द के बाद उन्होंने क्या कहा, पुष्पा के कान मानों सुन्न हो कर रह जाते, एक ही शब्द दिलोदिमाग तक ठकठक करता रहता…

बेटी…बेटी… हां, बेटी ही तो है नंदिता। नंदी… जिसे अब सब लोग नंदी के ही नाम से पुकारते हैं और बेटी का करुण, दयनीय चेहरा फिर आंखों के सामने घूमने लगता। देर तक वह उसे ओझल नहीं कर पाती। नंदी उन की बेटी, नाजो पली. दोनों बेटों के काफी समय बाद हुई थी तो वह अब तक नन्ही गुड़िया सी ही लगती थी. हां, अभी कम उम्र की ही तो थी, पर यहां भी सुरेशजी की ही जिद थी कि नौकरी से रिटायर्ड होने से पहले बेटी को ब्याह देना है. मुश्किल से तब हाईस्कूल ही तो पास कर पाई थी। पढ़ने में इतनी कुशाग्र, कितना मन था उस का आगे पढ़ने का. पिता के सामने तो उस की बोलती बंद हो जाती थी। बस, मां से ही जिद करती,”मां, बाबूजी से कहो न, मेरे ब्याह की इतनी जल्दी न करें। इतनी जल्दी तो तुम ने भैया लोगों के भी ब्याह नहीं किए. मुझे पढ़ने दो न…’’

कितना कहा था पुष्पा ने तब सुरेशजी से, पर वे उलटे उसी पर बिगड़ पङे थे,”तुम ने ही तो बेटी को सिर पर चढ़ा रखा है। अरे, इतनी बार कह चुका हूं कि नहीं है हैसियत मेरी लड़की को आगे पढ़ाने की और फिर 4 जमातें आगे पढ़ भी गई तो कौन सा तीर मार लेगी. आखिरकार, उसे ब्याह कर ससुराल ही तो जाना है फिर… अभी तो लड़के वालों के यहां से रिश्ते भी आ रहे हैं, फिर कहां मैं सब के दरवाजे हाथ जोड़ता जाऊंगा. आखिर मेरा भी तो कुछ खयाल करो कि गृहस्थी के जंजाल से मुक्त हो कर 2 घड़ी भगवान का नाम ले सकूं।”

गृहस्थी… जंजाल…बंधन… सुरेशजी के ये शब्द नए नहीं थे पुष्पा के लिए. अब तो खैर नौकरी से मुक्त हो चुके हैं, पर वह तो प्रारंभ से ही ऐसे शब्द उन के मुंह से सुनती आ रही थी और इस आश्रम की सदस्यता लेने का भी उन का निर्णय काफी समय पहले हो चुका था। खैर आननफानन में बिटिया ब्याह दी। वह तो बाद में पता चला था दामाद मयंक की बीमारी का.

‘‘अरे पीलिया ही तो है, कुछ भी कह लो, हेपेटाइसबी सही, पर ऐसी बीमारी कोई गंभीर रोग नहीं है…’’

पता नहीं कोई और गंभीर रोग था या नहीं, पर शादी के 6 महीने बाद ही बेटी विधवा हो गई. नंदी… पुष्पा का कलेजा फिर से मुंह को आने लगता. खबर सुनी थी तो उसी समय उसे गश आ गया था. बदहवास सी फिर बेटी की ससुराल भी गई. सफेद, विधवा और खुले केश में पथराई आंखों से उसे देखती नंदी उस के तो मानों आंसू भी सूख चुके थे. क्या यही उस की गुड़िया थी, नाजों में पली?

‘‘मां…’’

उस के गले से लग कर नंदी का वह चीत्कार भरा स्वर अभी भी दिल दहला जाता है. पता नहीं कैसे रहेगी बिटिया यहां, पर उस की सास ने तो दोटूक निर्णय उसी समय सुना दिया था,”अब यह इस घर की बहू है, जैसे भी हो, रहना तो यहीं है इसे…’’

2 महीने फिर रातदिन गिनगिन कर काटे थे पुष्पा ने. एक बार दबे स्वर में फोन किया था समधिन को,”न हो तो नंदिता को कुछ दिनों के लिए यहां भेद दें, थोड़ा चेंज हो जाएगा…’’ तो फिर समधिनजी फोन पर ही बिगड़ी थीं.

‘‘आप तो एक पारंपरिक परिवार से हैं। सारे रीतिरिवाज जानने वाली. सालभर से पहले तो नंदिता घर से बाहर जा ही नहीं सकती है। आप को पता होना चाहिए, फिर अब यह हमारी जिम्मेदारी है, आप परेशान न हों.’’

नंदी से तो फोन पर ढंग से बात भी नहीं हो पाती थी। मन ही नहीं माना तो पुष्पा ही एक दिन वहां पहुंच गई थी. 2-3 महीने में ही बेटी एकदम भटक गई थी. सफेद साड़ी में लिपटी, दिनभर घर के काम में उलझी। सास, जेठानी सब हुक्म चलाती रहतीं उस पर. बड़ी मुश्किल से दोपहर को थोड़ा सा समय निकाल कर मां से एकांत में मिल पाई थी.

‘‘मां, मुझे घर ले चलो…’’ सिसकियों के बीच इतना ही बोल पाई थी कि तभी टोह लेती हुई छोटी ननद वहां पहुंच गई. लौटते समय पूरे रास्ते आंसू बहते रहे थे पुष्पा के। सुरेशजी से कहा तो और बिगड़े ही थे उसी पर.

‘‘तुम्हें क्या आवश्यकता थी वहां जाने की… हम ने अब कन्यादान कर दिया है, बेटी ब्याह दी है, अब उस का सुखदुख उसी घर से बंधा है, समझी.’’

पुष्पा की आंखें और पथरा गई थीं,’कैसे बाप हैं? वहां बेटी तिलतिल कर मर रही है और इन्हें कोई दुख नहीं. बेटी ब्याह दी तो क्या सारे संबंध ही टूट गए उस से? ठीक है, वे लोग समर्थ हैं, अच्छा कमाखा रहे हैं, दूर भी हैं तो क्या उन की चिंता नहीं है हमें, बेटी भी सुख से रहती तो और बात थी पर यहां तो पहाड़ जैसा दुख टूट पड़ा है उस पर। अब हम उसे सहारा नहीं देंगे तो कौन देगा, फिर इन सब जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ कर हम आश्रम में कौन से भगवान को खोजने जाएंगे?’

“हां, सुबह 6 बजे की ही ट्रेन है। सोचा तो यही है कि अब लंबे समय तक वही रहा जाए, तैयारियां हो ही चुकी हैं,” सुरेशजी शायद फोन पर किसी से बात कर रहे थे. पुष्पा को याद आया कि तैयारी तो उसे भी करनी है. बेमन से कुछ कपड़े बैग में इकट्ठे किए. सुरेशजी तो अपनी आध्यात्मिक पुस्तकें साथ रखते थे, बस गाड़ी चली तो सामान निकाल लिया. पुष्पा चुपचाप खिड़की से बाहर देख रही थी. पहाड़, पेड़, नदी सब के बीच उसे नंदी का करुण चेहरा ही दिखाई दे रहा था. जैसे बेटी चीखचीख कर कह रही हो,’मां, मुझे अपने पास बुला लो। मां कहां दूर भाग रही हो मुझ से, तुम ने तो जन्म दिया है मुझेे… फिर क्यों मेरा दुख तुम्हें छूता नहीं…’ घबरा कर आंखें मूंद ली उस ने.

‘‘इस प्रकार पीठ फेर लेने से जिम्मेदारियां थोड़े ही कम हो जाती हैं बहिनजी…’’ यही तो कहा था नंदी के स्कूल की हैड मिस्ट्रैस ने.

नंदी उन की प्रिय छात्रा रही थी। फिर उसे जल्दी ही ब्याह देने के निर्णय पर भी वे काफी नाराज हुई थीं. और इस दुखभरी घटना की खबर जब उन्हें मिली तो एक बार स्वयं जा कर भी नंदी से मिल आई थीं और तभी पुष्पा के पास आई थीं.

‘‘देखिए पुष्पाजी, आप अपने दायित्व से मुंह नहीं मोड़ सकती हैं। नंदिता एक मेधावी छात्रा रही है। उसे यहां बुलाएं, मैं उस के आगे की पढ़ाई का प्रबंध करूंगी. उसे अपने पैरों पर खड़ा होने दीजिए। आप स्वयं सोचिए कि किस दुर्दशा में जी रही है वह…’’

उस दिन खुल कर पुष्पा ने सुरेशजी से कहा भी था,”आप के दोस्त हैं निर्मलजी, उन की बेटी की ससुराल में नहीं बनी तो यहां बुला लिया है। अब पढ़ालिखा रहे हैं पर हमारी नंदी तो… नीलिमाजी कह रही थी…’’

‘‘नीलिमाजी… नीलिमाजी, आखिर तुम्हें हो क्या गया है? हमारे यहां के रीतिरिवाज सब भूल गईं तुम…दूसरों की बात और है, पर हमारे यहां जब बेटी ससुराल जाती है तो फिर ताउम्र वहीं की होकर रहती है, समझीं तुम… अगर तुम भूल गई हो तो मैं याद दिलाऊं…’’ क्रोध में सुरेशजी की आवाज कांप रही थी. पुष्पा अपने आंसू पी कर रह गई.

इस आश्रम में तो पिछले वर्ष भी आई थी वह… तब सबकुछ कितना सुहावना लगा था. मंदिर में देवी की मूर्ति के सामने बैठी वह घंटों पूजा करती, पर आज तो देवी की मूर्ति देख कर उसे चिढ़ हो रही थी। वह सोचने लगी थी कि अगर देवी या भगवान होते तो क्या इतना पूजापाठ करने के बाद यही हश्र होता? यह सब एक अंधविश्वास ही तो है। उसे नंदी का करुण चेहरा दिख रहा था.

‘‘मां…’’

नंदी का आंसू भरा कांपता स्वर…
कुछ घबरा कर वह बाहर आ गई थी. आज मन पता नहीं क्याक्या हो रहा था. सुरेशजी तो शायद अपना आजन्म आश्रम की सदस्यता का फौर्म जमा करने गए होंगे. धीरेधीरे चल कर वह उस पिछवाड़े में बने छोटे से बगीचे की पत्थर की बैंच पर बैठ गई थी… आंखें सुदूर में पता नहीं क्या ताक रही थी.

‘‘पुष्पा…’’ तभी पीछे से सुरेशजी का स्वर सुनाई दिया। थकाहारा उदास सा।

‘‘क्या हुआ?”

सुरेशजी तब पास ही बैंच पर आ कर बैठ गए. इतने चुप तो कभी नहीं थे.

‘‘क्या हुआ…’’ पुष्पा ने फिर पूछा था.

‘‘कुछ नहीं, अभी जीजी का फोन आया था, मेरे मोबाइल पर। रामदादा की बेटी शिखा नहीं रही…’’

‘‘शिखा… रामदादा की बेटी…’’ एकदम से चौंक गई थी पुष्पा।

“हां, रात को नींद की गोलियां खा लीं उस ने. शायद आत्महत्या का मामला, जीजी कह रही थी कि हमें फौरन जबलपुर जाना होगा.

‘‘पर…’’

पुष्पा को याद आया कि शिखा अपने किसी सहपाठी से विवाह की इच्छुक थी पर रामदादा का और पूरे परिवार का जबरदस्त विरोध था. शायद…शायद सुरेशजी भी अब यही सोच रहे थे। बहुत देर बाद उन का धीमा स्वर सुनाई दिया पुष्पा को,”अब हम अपनी नंदी को भी अपने पास बुला लेंगे। आगे पढ़ाएंगे ताकि उस का भविष्य बन सके… मैं ने अपने आश्रम की सदस्यता का फौर्म वापस ले लिया है… पूजापाठ में भी भरोसा नहीं रहा। यह सब एक छलावा है…”

अब चकित हो कर पुष्पा सुरेशजी की तरफ देख रही थी. दूर घनी बदली के पीछे शायद आशा की कोई किरण चमक उठी थी.

ऐसा नहीं था कि पुष्पा पहली बार ही आश्रम में जा रही थी. वहां तो वे लोग पिछले कई सालों से जा रहे थे, पर इस बार सुरेशजी ने तय किया कि अब वहीं रहना है. आश्रम की आजन्म सदस्यता लेंगे वे और इस बात को कई बार कह भी चुके थे.

‘‘देखो, हम लोगों का गृहस्थाश्रम का समय अब पूरा हो गया. भगवान की कृपा से सारी जिम्मेदारियां भी पूरी हो गईं। बेटे अपने सैट हो गए, शादीब्याह कर दी, बेटी भी ब्याह दी, अब हमें…’’सुरेशजी वाक्य पूरा करते पर बेटी शब्द के बाद उन्होंने क्या कहा, पुष्पा के कान मानों सुन्न हो कर रह जाते, एक ही शब्द दिलोदिमाग तक ठकठक करता रहता…

बेटी…बेटी… हां, बेटी ही तो है नंदिता। नंदी… जिसे अब सब लोग नंदी के ही नाम से पुकारते हैं और बेटी का करुण, दयनीय चेहरा फिर आंखों के सामने घूमने लगता। देर तक वह उसे ओझल नहीं कर पाती। नंदी उन की बेटी, नाजो पली. दोनों बेटों के काफी समय बाद हुई थी तो वह अब तक नन्ही गुड़िया सी ही लगती थी. हां, अभी कम उम्र की ही तो थी, पर यहां भी सुरेशजी की ही जिद थी कि नौकरी से रिटायर्ड होने से पहले बेटी को ब्याह देना है. मुश्किल से तब हाईस्कूल ही तो पास कर पाई थी। पढ़ने में इतनी कुशाग्र, कितना मन था उस का आगे पढ़ने का. पिता के सामने तो उस की बोलती बंद हो जाती थी। बस, मां से ही जिद करती,”मां, बाबूजी से कहो न, मेरे ब्याह की इतनी जल्दी न करें। इतनी जल्दी तो तुम ने भैया लोगों के भी ब्याह नहीं किए. मुझे पढ़ने दो न…’’

कितना कहा था पुष्पा ने तब सुरेशजी से, पर वे उलटे उसी पर बिगड़ पङे थे,”तुम ने ही तो बेटी को सिर पर चढ़ा रखा है। अरे, इतनी बार कह चुका हूं कि नहीं है हैसियत मेरी लड़की को आगे पढ़ाने की और फिर 4 जमातें आगे पढ़ भी गई तो कौन सा तीर मार लेगी. आखिरकार, उसे ब्याह कर ससुराल ही तो जाना है फिर… अभी तो लड़के वालों के यहां से रिश्ते भी आ रहे हैं, फिर कहां मैं सब के दरवाजे हाथ जोड़ता जाऊंगा. आखिर मेरा भी तो कुछ खयाल करो कि गृहस्थी के जंजाल से मुक्त हो कर 2 घड़ी भगवान का नाम ले सकूं।”

गृहस्थी… जंजाल…बंधन… सुरेशजी के ये शब्द नए नहीं थे पुष्पा के लिए. अब तो खैर नौकरी से मुक्त हो चुके हैं, पर वह तो प्रारंभ से ही ऐसे शब्द उन के मुंह से सुनती आ रही थी और इस आश्रम की सदस्यता लेने का भी उन का निर्णय काफी समय पहले हो चुका था। खैर आननफानन में बिटिया ब्याह दी। वह तो बाद में पता चला था दामाद मयंक की बीमारी का.

‘‘अरे पीलिया ही तो है, कुछ भी कह लो, हेपेटाइसबी सही, पर ऐसी बीमारी कोई गंभीर रोग नहीं है…’’

पता नहीं कोई और गंभीर रोग था या नहीं, पर शादी के 6 महीने बाद ही बेटी विधवा हो गई. नंदी… पुष्पा का कलेजा फिर से मुंह को आने लगता. खबर सुनी थी तो उसी समय उसे गश आ गया था. बदहवास सी फिर बेटी की ससुराल भी गई. सफेद, विधवा और खुले केश में पथराई आंखों से उसे देखती नंदी उस के तो मानों आंसू भी सूख चुके थे. क्या यही उस की गुड़िया थी, नाजों में पली?

‘‘मां…’’

उस के गले से लग कर नंदी का वह चीत्कार भरा स्वर अभी भी दिल दहला जाता है. पता नहीं कैसे रहेगी बिटिया यहां, पर उस की सास ने तो दोटूक निर्णय उसी समय सुना दिया था,”अब यह इस घर की बहू है, जैसे भी हो, रहना तो यहीं है इसे…’’

2 महीने फिर रातदिन गिनगिन कर काटे थे पुष्पा ने. एक बार दबे स्वर में फोन किया था समधिन को,”न हो तो नंदिता को कुछ दिनों के लिए यहां भेद दें, थोड़ा चेंज हो जाएगा…’’ तो फिर समधिनजी फोन पर ही बिगड़ी थीं.

‘‘आप तो एक पारंपरिक परिवार से हैं। सारे रीतिरिवाज जानने वाली. सालभर से पहले तो नंदिता घर से बाहर जा ही नहीं सकती है। आप को पता होना चाहिए, फिर अब यह हमारी जिम्मेदारी है, आप परेशान न हों.’’

नंदी से तो फोन पर ढंग से बात भी नहीं हो पाती थी। मन ही नहीं माना तो पुष्पा ही एक दिन वहां पहुंच गई थी. 2-3 महीने में ही बेटी एकदम भटक गई थी. सफेद साड़ी में लिपटी, दिनभर घर के काम में उलझी। सास, जेठानी सब हुक्म चलाती रहतीं उस पर. बड़ी मुश्किल से दोपहर को थोड़ा सा समय निकाल कर मां से एकांत में मिल पाई थी.

‘‘मां, मुझे घर ले चलो…’’ सिसकियों के बीच इतना ही बोल पाई थी कि तभी टोह लेती हुई छोटी ननद वहां पहुंच गई. लौटते समय पूरे रास्ते आंसू बहते रहे थे पुष्पा के। सुरेशजी से कहा तो और बिगड़े ही थे उसी पर.

‘‘तुम्हें क्या आवश्यकता थी वहां जाने की… हम ने अब कन्यादान कर दिया है, बेटी ब्याह दी है, अब उस का सुखदुख उसी घर से बंधा है, समझी.’’

पुष्पा की आंखें और पथरा गई थीं,’कैसे बाप हैं? वहां बेटी तिलतिल कर मर रही है और इन्हें कोई दुख नहीं. बेटी ब्याह दी तो क्या सारे संबंध ही टूट गए उस से? ठीक है, वे लोग समर्थ हैं, अच्छा कमाखा रहे हैं, दूर भी हैं तो क्या उन की चिंता नहीं है हमें, बेटी भी सुख से रहती तो और बात थी पर यहां तो पहाड़ जैसा दुख टूट पड़ा है उस पर। अब हम उसे सहारा नहीं देंगे तो कौन देगा, फिर इन सब जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ कर हम आश्रम में कौन से भगवान को खोजने जाएंगे?’

“हां, सुबह 6 बजे की ही ट्रेन है। सोचा तो यही है कि अब लंबे समय तक वही रहा जाए, तैयारियां हो ही चुकी हैं,” सुरेशजी शायद फोन पर किसी से बात कर रहे थे. पुष्पा को याद आया कि तैयारी तो उसे भी करनी है. बेमन से कुछ कपड़े बैग में इकट्ठे किए. सुरेशजी तो अपनी आध्यात्मिक पुस्तकें साथ रखते थे, बस गाड़ी चली तो सामान निकाल लिया. पुष्पा चुपचाप खिड़की से बाहर देख रही थी. पहाड़, पेड़, नदी सब के बीच उसे नंदी का करुण चेहरा ही दिखाई दे रहा था. जैसे बेटी चीखचीख कर कह रही हो,’मां, मुझे अपने पास बुला लो। मां कहां दूर भाग रही हो मुझ से, तुम ने तो जन्म दिया है मुझेे… फिर क्यों मेरा दुख तुम्हें छूता नहीं…’ घबरा कर आंखें मूंद ली उस ने.

‘‘इस प्रकार पीठ फेर लेने से जिम्मेदारियां थोड़े ही कम हो जाती हैं बहिनजी…’’ यही तो कहा था नंदी के स्कूल की हैड मिस्ट्रैस ने.

नंदी उन की प्रिय छात्रा रही थी। फिर उसे जल्दी ही ब्याह देने के निर्णय पर भी वे काफी नाराज हुई थीं. और इस दुखभरी घटना की खबर जब उन्हें मिली तो एक बार स्वयं जा कर भी नंदी से मिल आई थीं और तभी पुष्पा के पास आई थीं.

‘‘देखिए पुष्पाजी, आप अपने दायित्व से मुंह नहीं मोड़ सकती हैं। नंदिता एक मेधावी छात्रा रही है। उसे यहां बुलाएं, मैं उस के आगे की पढ़ाई का प्रबंध करूंगी. उसे अपने पैरों पर खड़ा होने दीजिए। आप स्वयं सोचिए कि किस दुर्दशा में जी रही है वह…’’

उस दिन खुल कर पुष्पा ने सुरेशजी से कहा भी था,”आप के दोस्त हैं निर्मलजी, उन की बेटी की ससुराल में नहीं बनी तो यहां बुला लिया है। अब पढ़ालिखा रहे हैं पर हमारी नंदी तो… नीलिमाजी कह रही थी…’’

‘‘नीलिमाजी… नीलिमाजी, आखिर तुम्हें हो क्या गया है? हमारे यहां के रीतिरिवाज सब भूल गईं तुम…दूसरों की बात और है, पर हमारे यहां जब बेटी ससुराल जाती है तो फिर ताउम्र वहीं की होकर रहती है, समझीं तुम… अगर तुम भूल गई हो तो मैं याद दिलाऊं…’’ क्रोध में सुरेशजी की आवाज कांप रही थी. पुष्पा अपने आंसू पी कर रह गई.

इस आश्रम में तो पिछले वर्ष भी आई थी वह… तब सबकुछ कितना सुहावना लगा था. मंदिर में देवी की मूर्ति के सामने बैठी वह घंटों पूजा करती, पर आज तो देवी की मूर्ति देख कर उसे चिढ़ हो रही थी। वह सोचने लगी थी कि अगर देवी या भगवान होते तो क्या इतना पूजापाठ करने के बाद यही हश्र होता? यह सब एक अंधविश्वास ही तो है। उसे नंदी का करुण चेहरा दिख रहा था.

‘‘मां…’’

नंदी का आंसू भरा कांपता स्वर…
कुछ घबरा कर वह बाहर आ गई थी. आज मन पता नहीं क्याक्या हो रहा था. सुरेशजी तो शायद अपना आजन्म आश्रम की सदस्यता का फौर्म जमा करने गए होंगे. धीरेधीरे चल कर वह उस पिछवाड़े में बने छोटे से बगीचे की पत्थर की बैंच पर बैठ गई थी… आंखें सुदूर में पता नहीं क्या ताक रही थी.

‘‘पुष्पा…’’ तभी पीछे से सुरेशजी का स्वर सुनाई दिया। थकाहारा उदास सा।

‘‘क्या हुआ?”

सुरेशजी तब पास ही बैंच पर आ कर बैठ गए. इतने चुप तो कभी नहीं थे.

‘‘क्या हुआ…’’ पुष्पा ने फिर पूछा था.

‘‘कुछ नहीं, अभी जीजी का फोन आया था, मेरे मोबाइल पर। रामदादा की बेटी शिखा नहीं रही…’’

‘‘शिखा… रामदादा की बेटी…’’ एकदम से चौंक गई थी पुष्पा।

“हां, रात को नींद की गोलियां खा लीं उस ने. शायद आत्महत्या का मामला, जीजी कह रही थी कि हमें फौरन जबलपुर जाना होगा.

‘‘पर…’’

पुष्पा को याद आया कि शिखा अपने किसी सहपाठी से विवाह की इच्छुक थी पर रामदादा का और पूरे परिवार का जबरदस्त विरोध था. शायद…शायद सुरेशजी भी अब यही सोच रहे थे। बहुत देर बाद उन का धीमा स्वर सुनाई दिया पुष्पा को,”मैं ने अपने आश्रम की सदस्यता का फौर्म वापस ले लिया है… पूजापाठ में भी भरोसा नहीं रहा। यह सब एक छलावा है…”

अब चकित हो कर पुष्पा सुरेशजी की तरफ देख रही थी. दूर घनी बदली के पीछे शायद आशा की कोई किरण चमक उठी थी.

Inspirational Story : गुंडागिरी

Inspirational Story :  तकरीबन 3 लाख लोगों की आबादी वाले उस शहर में गरीब परिवारों की एक बस्ती है. यहां पर ज्यादातर मिल या कारखानों में काम करने वाले मजदूरों के घर हैं. शहर में होने के बावजूद यह बस्ती शहर से बहुत दूर है. सुविधा के नाम पर किराने की 4 छोटीछोटी दुकानें हैं, जो घरों से ही चलती हैं और मजदूरों की उधारी पर टिकी हैं. बच्चों के लिए एक सरकारी स्कूल है, जो सुबह प्राइमरी तो दोपहर में मिडिल स्कूल हो जाता है. बस्ती के सभी बच्चे, चाहे वह लड़का हो या लड़की, इसी स्कूल में पढ़ते हैं. राजू भी इसी स्कूल में 5वीं जमात में पढ़ता है. राजू का घर एक कमरे और एक रसोई वाला है. घर में मम्मीपापा के अलावा कोई नहीं है. वह छोटा था, तभी उस के दादादादी की मौत हो गई थी.

हां, दूसरे शहर में नानानानी जरूर रहते थे. उन की माली हालत भी बदहाल ही थी और शायद इसी बात के चलते उस का मामा बचपन में ही घर छोड़ कर भाग गया था. रोजाना की तरह उस दिन भी राजू स्कूल गया था. पिताजी किसी कारखाने में काम करते थे और आज उन की छुट्टी थी. राजू के स्कूल जाने के बाद उस के मम्मीपापा खरीदारी करने के लिए अपनी मोपेड पर शहर चले गए.

राजू बाजार जाने के बाद अकसर कुछकुछ गैरजरूरी सामान खरीदने की जिद किया करता था, इसी के चलते उस के स्कूल जाने के बाद बाजार जाने का प्रोग्राम बनाया गया. वैसे, राजू है भी शरारती लड़का. क्लास के सभी बच्चे खासकर लड़कियां उस से बहुत ज्यादा ही परेशान रहती हैं. कुलमिला कर राजू की इमेज एक बिगड़े बच्चे की ही है. कुछ ही दिनों के बाद त्योहार आने वाले थे. इसी वजह से खरीदे गए सामान कुछ ज्यादा ही हो गए. राजू के मम्मीपापा मोपेड पर ठीक से बैठ भी नहीं पा रहे थे, तभी सामने से तेज रफ्तार से आती हुई कार के सामने राजू के पापा अपनी गाड़ी को कंट्रोल नहीं कर सके और कार से भिड़ गए.

भयानक हादसा हुआ और राजू के मम्मीपापा दोनों ही इस दुनिया को छोड़ कर चले गए. रिश्तेदारी में ऐसा कोई था नहीं, जो राजू को ले जाता. उसे सहारा देता. सो, नानानानी ही उसे अपने साथ ले गए. पिछले 10 सालों में यह शहर काफी बदल चुका है. संकरी सी पतली गली में पक्की सड़क बन गई है. गली के दूसरे छोर पर पार्क बन गया है. कुछ बड़ी दुकानें भी खुल गई हैं. राजू भी अब 21 साल का हो चुका है. 4 महीने पहले उस के नाना की भी मौत हो गई है. नानी तो 5 साल पहले ही गुजर गई थीं. राजू ज्यादा पढ़ नहीं पाया था. किसी तरह 10वीं जमात तक तो पहुंचा, मगर पास नहीं हो पाया. नाना के मरने के बाद राजू वापस अपने शहर लौट आया. अपने पास जमा पैसों से घर के अहाते में ही उस ने पान की दुकान खोल ली. बढ़ी हुई दाढ़ी और डीलडौल के चलते राजू पहली नजर में गुंडों सा दिखता था.

रहीसही कसर उस के बोलने का अक्खड़ अंदाज पूरा कर देता था. उस के कारनामे थे ही ऐसे. अपने साथ प्राइमरी स्कूल में पढ़ने वाली सभी लड़कियों के नाम उसे अभी तक याद थे. उन में से अगर कोई लड़की उसे राह में अकेली मिल जाती, तो वह हाथ जोड़ कर बीच सड़क पर खड़ा हो जाता और पूरे दांत दिखा कर उस को नमस्कार कहता. कई बार लड़कियों ने इस की शिकायत अपने घर वालों से की, लेकिन महल्ले में बैठ कर कौन झगड़ा मोल ले? किसी ने भी कुछ कहने की हिम्मत न दिखाई. महल्ले वालों की सहनशीलता या बुजदिली को देख कर राजू की हिम्मत दिनोंदिन बढ़ने लगी. अब उस ने अपनी दुकान में एक बड़ा सा म्यूजिक सिस्टम भी लगवा लिया था. म्यूजिक सिस्टम पर लड़कियों को परेशान करने वाले गाने ही बजाए जाते थे. अब पिछले शुक्रवार की ही बात लीजिए, यह शर्माजी की लड़की, जो कभी राजू के ही साथ पढ़ती थी, लाल रंग का सलवारसूट पहन कर जा रही थी.

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तब राजू ने अपने म्यूजिक सिस्टम पर तेज आवाज में गाना लगा दिया, ‘लाल छड़ी मैदान खड़ी…’ ऐसे ही जब गुप्ताजी की लड़की किसी फंक्शन में जाने के लिए चमकदमक वाली ड्रैस पहनी हुई थी, तो साहब उस को देख कर गाना बजा रहे थे, ‘बदन पे सितारे लपेटे हुए ओ जाने तमन्ना किधर जा रही हो…’ कोई सीधेसादे कपड़ों में लड़की आती हुई दिखाई देती तो गाना बजता, ‘धूप में निकला न करो रूप की रानी…’ या ‘दिल के टुकड़ेटुकड़े कर के मुसकरा कर चल दिए…’ महल्ले की सभी लड़कियां परेशान हो चुकी थीं.

कई बार वे आपस में मिल भी चुकी थीं और राजू को चप्पलोंसैंडिलों से सबक सिखाने की भी सोच चुकी थीं. लेकिन वह दिन बातों के अलावा कभी नहीं आया. शर्माजी की लड़की दीप्ति एमएससी कर रही थी. क्लास होने के चलते कालेज से घर आने में लेट हो गई. कालेज घर से 5 किलोमीटर की दूरी पर था और दीप्ति अपनी साइकिल से कालेज रोज आतीजाती थी. दीप्ति अपनी एक और सहेली के साथ साइकिल से बाहर निकली ही थी कि उन दोनों को 2 मोटरसाइकिल पर बैठे 5 लड़कों ने घेर लिया. सभी लड़के दीप्ति और उस की सहेली पर लगातार छींटाकशी करते हुए उन्हें परेशान कर रहे थे.

दीप्ति और उस की सहेली को पसीना आ रहा था. हलका सा अंधेरा और सड़क का सूनापन लड़कों की हिम्मत बढ़ा रहा था. दोनों सहेलियों के तालू जैसे सूख गए थे. चीखनेचिल्लाने की हिम्मत ही नहीं थी उन में. 2 किलोमीटर के बाद वे दोनों मुख्य शहर में प्रवेश कर गईं. अब दोनों की जान में जान आई. दीप्ति की सहेली यहीं रहती थी, सो वह अब अलग रास्ते चली गई. ‘‘तुम्हारी ढिलाई के चलते एक लड़की तो हाथ से निकल गई. अब कम से कम इस लड़की को तो अपने साथ ले चलो,’’ पांचों में से शायद यह लड़का सब का सरदार था, जो गुस्सा होते हुए बोल रहा था. ‘‘अरे छोड़ो बौस, हमारे पास उसे बैठाने की जगह कहां थी. बस, अब इस चिडि़या को ले जा कर फुर्र हो जाते हैं,’’ दूसरा बदमाश बोला. दीप्ति को उन के इरादे अब समझ में आ गए थे. उस की धड़कनें एक बार फिर तेज चलने लगीं. आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा. उस ने हिम्मत कर के अपनी साइकिल की रफ्तार बढ़ा दी. किसी तरह दीप्ति अपनी गली के नुक्कड़ तक पहुंच ही गई. तेजी से साइकिल चलाने के कारण वह बुरी तरह से हांफने लगी थी.

 

घबराहट के चलते उसे चक्कर आ गया और वह वहीं गिर पड़ी. लड़के शायद इसी के इंतजार में थे. वे गिरी हुई दीप्ति को उठा कर अपनी मोटरसाइकिल से ले जाना चाहते थे. दीप्ति की हालत खिलाफत करने जैसी बिलकुल नहीं थी. राजू अपनी दुकान पर बैठा यह सब नजारा देख रहा था. वह समझ गया था कि दीप्ति मुसीबत में है और लड़कों के इरादे नेक नहीं हैं.

बिना एक पल की देरी किए उस ने अपनी दुकान में से मोटा सा लट्ठ निकाला, दौड़ कर दीप्ति के पास पहुंच गया और सरदार जैसे उस लड़के पर हमला कर दिया. उस ने अपने लट्ठ से उस लड़के के पैरों पर इतनी जोर का वार किया कि वह चीखते हुए गिर पड़ा. इस तरह हुए अचानक वार से बाकी लड़के घबरा गए. वे कुछ समझ पाते, इस के पहले ही राजू ने उसी जगह पर पूरी ताकत से दूसरा वार कर दिया. अब वह लड़का खड़ा होने की हालत में नहीं था.

अब राजू बाकी लड़कों को ललकारने लगा. अपने साथी की ऐसी हालत देख कर बचे हुए लड़कों ने वहां से भागने में ही अपनी खैरियत समझी. यह घटना देख कर आसपास कई लोगों की भीड़ इकट्ठा हो गई थी. सभी राजू की तारीफ ही कर रहे थे. अब तक वहां पर दीप्ति के साथ रहने वाली पासपड़ोस की लड़कियां भी पहुंच गईं. उन सभी लड़कियों को राजू की इस तरह तारीफ अखर रही थी, क्योंकि वे राजू की असलियत जानती थीं.

उन में से एक लड़की हिम्मत दिखाती हुई बोली, ‘‘राजू खुद कौन सा दूध का धुला है. वह खुद भी आतीजाती लड़कियों को देख कर भद्दे गाने लगा कर हमें शर्मसार करता रहता है. कौन जाने आज की घटना इसी गुंडे की चाल हो.’’

इस लड़की की बात सुन कर भीड़ में एकदम सन्नाटा छा गया. सभी राजू की तरफ सवालिया निगाहों से देखने लगे. राजू शायद इस सवाल के लिए तैयार ही था. वह 2 कदम आगे बढ़ा और उस लड़की के सामने जा कर खड़ा हो गया और बोला, ‘‘मुझे यह कहने में जरा भी झिझक नहीं है कि इस महल्ले में रहने वाली हर लड़की मेरी बहन है.

हां, मैं अपने म्यूजिक सिस्टम पर उस तरह के गाने जानबूझ कर ही बजाता था. वजह जानना चाहोगे आप लोग? ‘‘मैं चाहता था कि मेरे महल्ले में रहने वाली मेरी हर बहन इतनी हिम्मती बने कि वह हर बुरे हालात का सामना आसानी से कर पाए.

‘‘मैं इस तरह के गाने बजा कर और आप लोगों को सुना कर आप लोगों में आत्मविश्वास और आत्मसम्मान जगाना चाहता था. मैं चाहता था, चाहे एक लड़की ही सही, पर कोई तो आ कर विरोध करे, लेकिन दुख की बात है कि कोई लड़की आगे नहीं आई. ‘‘याद रखिए, किसी भी इनसान का सम्मान उस के अपने घर से ही शुरू होता है. जब आप खुद अपना सम्मान नहीं करेंगी, तो बाहर वाले को क्या पड़ी है कि वह आप का सम्मान करेगा. ‘‘अगर आप लोगों ने मेरे कामों का विरोध पहले ही कर दिया होता, तो शायद आज इस तरह की घटना न घटती. ‘‘

और एक बात, अगर आप आज ही विरोध करोगे तो भविष्य में ‘मी टू’ कहने जैसे किसी आंदोलन की जरूरत ही नहीं पड़ेगी. ‘‘मुझे खुशी है, इतनी भीड़ में, एक का ही सही आत्मविश्वास, आत्मसम्मान जागा तो. मुझे यकीन है, धीरेधीरे इस महल्ले की सभी लड़कियों में यह भावना आ जाएगी. आज मेरी गुंडागीरी कामयाब हुई.’’ ‘‘वाह, राजू जैसी सोच वाले गुंडे शहर के हर गलीचौराहे पर हों, तो हमारी औरतें, लड़कियां सुरक्षित कैसे न रहेंगी,’’ दीप्ति के पिता राजू की पीठ थपथपाते हुए कह रहे थे.

Short Story : रंगबिरंगी तितली

Short Story : सियाली के मम्मीपापा का तलाक क्या हुआ, वह एक आजाद चिडि़या हो गई, जो कहीं भी उड़ान भरने के लिए अपनी मरजी की मालकिन थी. अब वह खुल कर जीना चाहती थी, मगर यह इतना आसान नहीं था. रविवार के दिन की शुरुआत भी मम्मी व पापा के आपसी झगड़ों की कड़वी आवाजों से हुई. सियाली अभी अपने कमरे में सो ही रही थी, चिकचिक सुन कर उस ने चादर सिर पर ओढ़ ली. आवाज पहले से कम तो हुई पर अब भी कानों से टकरा रही थी. सियाली मन ही मन कुढ़ कर रह गई थी. पास पड़े मोबाइल को टटोल कर उस में ईअरफोन लगा कर बड्स को कानों में कस कर ठूंस लिया और वौल्यूम को फुल कर दिया.

18 वर्षीया सियाली के लिए यह नई बात नहीं थी. उस के मम्मीपापा आएदिन झगड़ते रहते थे, जिस का सीधा कारण था उन दोनों के संबंधों में खटास का होना, ऐसी खटास जो एक बार जीवन में आ जाए तो उस की परिणति आपसी रिश्तों के खात्मे से होती है. सियाली के मम्मीपापा प्रकाश और निहारिका के संबंधों में यह खटास एक दिन में नहीं आई, बल्कि, यह तो एक मध्यवर्गीय परिवार के कामकाजी दंपती के आपसी सामंजस्य बिगड़ने के कारण धीरेधीरे आई एक आम समस्या थी. सियाली का पिता अपनी पत्नी के चरित्र पर शक करता था. उस का शक करना जायज था क्योंकि निहारिका का अपने औफिसकर्मी के साथ संबंध चल रहा था. पतिपत्नी की हिंसा और शक समानुपाती थे. जितना शक गहरा हुआ उतना ही प्रकाश की हिंसा बढ़ती गई और परिणामस्वरूप परपुरुष के साथ निहारिका का प्रेम बढ़ता गया. ‘जब दोनों साथ नहीं रह सकते तो तलाक क्यों नहीं दे देते एकदूसरे को?’ सियाली झुं झला कर मन ही मन बोली.

सियाली जब अपने कमरे से बाहर आई तो दोनों काफी हद तक शांत हो चुके थे. शायद, वे किसी निर्णय तक पहुंच गए थे. ‘‘ठीक है, मैं कल ही वकील से बात कर लेता हूं, पर सियाली को अपने साथ कौन रखेगा?’’ प्रकाश ने निहारिका की ओर घूरते हुए कहा. ‘‘मैं सम झती हूं कि सियाली को तुम मु झ से बेहतर संभाल सकते हो,’’ निहारिका ने कहा. उस की इस बात पर प्रकाश भड़क गया, ‘‘हां, तुम तो सियाली को मेरे पल्ले बांधना चाहती हो ताकि तुम अपने उस औफिस वाले यार के साथ गुलछर्रे उड़ा सको और मैं जवान बेटी के चारों तरफ गार्ड सा बन कर घूमता रहूं.’’ प्रकाश की इस बात पर निहारिका ने भी तेवर दिखाते हुए कहा, ‘‘मर्दों के समाज में क्या सारी जिम्मेदारी एक मां की ही होती है?’’ निहारिका ने गहरी सांस ली और कुछ देर रुक कर बोली, ‘‘हां, वैसे सियाली कभीकभी मेरे पास भी आ सकती है. 1-2 दिन मेरे साथ रहेगी तो मु झे एतराज नहीं होगा,’’ निहारिका ने मानो फैसला सुना दिया था. सियाली कभी मां की तरफ देख रही थी तो कभी अपने पिता की तरफ.

उस से कुछ कहते न बना पर इतना सम झ गई थी कि मांबाप ने अपनाअपना रास्ता अलग कर लिया है और उस का अस्तित्व एक पैंडुलम से अधिक नहीं है, जो दोनों के बीच एक सिरे से दूसरे सिरे तक डोल रही है. मांबाप के बीच रोजरोज के झगड़े ने एक अजीब विषाद से भर दिया था सियाली को. इस विषाद का अंत शायद तलाक जैसे कदम से ही संभव था, इसलिए सियाली के मन में कहीं न कहीं चैन की सांस ने प्रवेश किया कि चलो, आपस की कहासुनी अब खत्म हुई. और अब सब के रास्ते अलगअलग हैं. शाम को सियाली कालेज से लौटी तो घर में एक अलग सी शांति थी. उस के पापा सोफे पर बैठे चाय पी रहे थे, चाय, जो उन्होंने खुद ही बनाई थी. उन के चेहरे पर महीनों से बने रहने वाले तनाव की शिकन गायब थी. सियाली को देख कर उन्होंने मुसकराने की कोशिश भी की, ‘‘देख लो, तुम्हारे लिए चाय बची होगी.’’ सियाली पास आ कर बैठी तो उस के पापा ने अपनी सफाई में कहना शुरू किया, ‘‘मैं बुरा आदमी नहीं हूं, पर तेरी मम्मी ने गलत किया था.

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उस के कर्म ही ऐसे थे कि मु झे उसे देख कर गुस्सा आ ही जाता था और फिर तेरी मां ने भी तो रिश्तों को बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी.’’ पापा की बातें सुन कर सियाली से न रहा गया, ‘‘मैं नहीं जानती कि आप दोनों में से कौन सही है और कौन गलत, पर इतना जरूर जानती हूं कि शरीर में अगर नासूर हो जाए तो औपरेशन ही सही रास्ता और ठीक इलाज होता है,’’ दोनों बापबेटी ने कई दिनों के बाद आज खुल कर बात की थी. पापा की बातों में मां के प्रति नफरत और द्वेष छलक रहा था जिसे चुपचाप सुनती रही सियाली. अगले दिन ही सियाली के मोबाइल पर मां का फोन आया और उन्होंने सियाली को अपना पता देते हुए शाम को उसे अपने फ्लैट पर आने को कहा, जिसे सियाली ने खुशीखुशी मान भी लिया था और शाम को मां के पास जाने की सूचना भी उस ने अपने पापा को दे दी, जिस पर पापा को कोई एतराज न हुआ. शाम को शालीमार अपार्टमैंट में पहुंच गई थी सियाली. पता नहीं क्या सोच कर उस ने लाल गुलाब का एक बुके खरीद लिया था.

फ्लैट नंबर 111 में सियाली पहुंच गई थी. घंटी बजाई, तो दरवाजा मां ने खोला. अब चौंकने की बारी सियाली की थी. मां गहरे लाल रंग की साड़ी में बहुत खूबसूरत लग रही थी. मांग में भरा हुआ सिंदूर और माथे पर तिलक की शक्ल में लगाई हुई बिंदी. सियाली को याद नहीं कि उस ने मां को कब इतनी अच्छी तरह से शृंगार किए हुए देखा था. हमेशा सादे वेश में ही रहती थी उस की मां और टोकने पर दलील देती, ‘अरे, हम कोई अगड़ी जाति के तो हैं नहीं जो हमेशा सिंगार ओढ़े रहें. हम पिछड़ी जाति वालों के लिए सिंपल रहना ही अच्छा है.’ ‘‘आज मां को यह क्या हो गया? उन की सादगी आज शृंगार में कैसे परिवर्तित हो गई थी और क्यों वे जातपांत की गंदी व बेकार की दलीलें दे कर सही बात को छिपाना चाह रही थीं?’’ सियाली ने बुके मां को दे दिया. मां ने बहुत उत्साह से बुके लिया. ‘‘अरे, अंदर आने को नहीं कहोगी सियाली से?’’ मां के पीछे से आवाज आई. आवाज की दिशा में नजर उठाई तो देखा कि सफेद कुरता और पाजामा पहने हुए एक आदमी खड़ा हुआ मुसकरा रहा था. सियाली उसे पहचान गई. वह मां का सहकर्मी देशवीर था. उस की मां उसे पहले भी घर भी ला चुकी थी. मां ने बहुत खुशीखुशी देशवीर से सियाली का परिचय कराया, जिस पर सियाली ने कहा, ‘‘जानती हूं मां, पहले भी तुम इन से मिलवा चुकी हो मु झे.’’ ‘‘पर पहले जब मिलवाया था तब यह सिर्फ मेरे अच्छे दोस्त थे पर आज मेरे सबकुछ हैं. हम लोग फिलहाल तो लिवइन में रह रहे हैं और तलाक होते ही शादी कर लेंगे.’’ मुसकरा कर रह गई थी सियाली. सब ने एकसाथ खाना खाया. डाइनिंग टेबल पर भी माहौल सुखद ही था.

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मां के चेहरे की चमक देखते ही बनती थी और यह चमक कृत्रिम या किसी फेशियल की नहीं थी, उस के मन की खुशी उस के चेहरे पर झलक रही थी. सियाली रात में मां के साथ ही सो गई और सुबह वहीं से कालेज के लिए निकल गई. चलते समय मां ने उसे 2,000 रुपए देते हुए कहा, ‘‘रख लो, घर जा कर पिज्जा वगैरह मंगवा लेना.’’ कल से ले कर आज तक मां ने सियाली के सामने एक आदर्श मां होने के कई उदाहरण प्रस्तुत किए थे पर सियाली को यह सब नहीं भा रहा था और न ही उसे सम झ में आ रहा था कि यह मां का कैसा प्यार है जो उस के पिता से अलग होने के बाद और भी अधिक छलक रहा है. फिलहाल तो वह अपनी जिंदगी खुल कर जीना चाहती थी, इसलिए मां के दिए गए पैसों से सियाली उसी दिन अपने दोस्तों के साथ पार्टी करने चली गई. ‘‘सियाली, आज तुम किस खुशी में पार्टी दे रही हो?’’ महक ने पूछा. ‘‘बस, यों सम झो आजादी की,’’ मुसकरा दी थी सियाली. सच तो यह था कि मांबाप के अलगाव के बाद सियाली बहुत रिलैक्स महसूस कर रही थी. रोजरोज की टोकाटाकी से अब उसे मुक्ति मिल चुकी थी और सियाली अब अपनी जिंदगी अपनी शर्तों पर जीना चाहती थी.

इसीलिए उस ने अपने दोस्तों से अपनी एक इच्छा बताई, ‘‘यार, मैं एक डांस ट्रिप जौइन करना चाहती हूं ताकि मैं अपने जज्बातों को डांस द्वारा दुनिया के सामने पेश कर सकूं.’’ उस के दोस्तों ने उसे और भी कई रास्ते बताए जिन से वह अपनेआप को व्यक्त कर सकती थी, जैसे ड्राइंग, सिंगिंग, मिट्टी के बरतन बनाना. पर सियाली तो मजे और मौजमस्ती के लिए डांस ट्रिप जौइन करना चाहती थी, इसलिए उसे औप्शन अच्छे नहीं लगे. अपने शहर के डांस ट्रिप गूगल पर खंगाले तो डिवाइन डांसर नामक एक डांस ट्रिप ठीक लगा, जिस में 4 सदस्य लड़के थे और एक लड़की. सियाली ने तुरंत ही वह ट्रिप जौइन कर लिया और अगले ही दिन से डांस प्रैक्टिस के लिए जाने लगी. सियाली अपना सारा तनाव अब डांस द्वारा भूलने लगी और इस नई चीज का मजा भी लेने लगी. डिवाइन डांसर नाम के इस ट्रिप को परफौर्म करने का मौका भी मिलता तो सियाली भी साथ में जाती और स्टेज पर सभी परफौर्मेंस देते जिस के बदले सियाली को भी ठीकठाक पैसे मिलने लगे.

इस समय सियाली से ज्यादा खुश कोई नहीं था. वह निरंकुश हो चुकी थी. न मांबाप का डर और न ही कोई टोकाटोकी करने वाला. जब चाहती, घर जाती और अगर नहीं भी जाती तो भी कोई पूछने वाला न था. उस के मांबाप का तलाक क्या हुआ, सियाली तो एक आजाद चिडि़या हो गई, जो कहीं भी उड़ान भरने के लिए आजाद थी. सियाली का फोन बज रहा था. फोन पापा का था, ‘‘सियाली, कई दिनों से घर नहीं आईं तुम क्या बात है? हो कहां तुम?’’ ‘‘पापा, मैं ठीक हूं और डांस सीख रही हूं.’’ ‘‘पर तुम ने बताया नहीं कि तुम डांस सीख रही हो?’’ ‘‘जरूरी नहीं कि मैं आप लोगों को सब बातें बताऊं. आप लोग अपनी जिंदगी अपने ढंग से जी रहे हैं, इसलिए मैं भी अब अपने हिसाब से ही जीना चाहती हूं.’’ फोन काट दिया था सियाली ने, पर उस का मन एक अजीब सी खटास से भर गया था. डांस ट्रिप के सभी सदस्यों से सियाली की अच्छी दोस्ती हो गई थी पर पराग नाम के लड़के से उस की कुछ ज्यादा ही पटने लगी. पराग स्मार्ट भी था और पैसे वाला भी.

वह सियाली को गाड़ी में घुमाता और खिलातापिलाता. उस की संगत में सियाली को सुरक्षा का एहसास होता था. अगले दिन डांस क्लास में जब दोनों मिले तो पराग ने एक सुर्ख गुलाब सियाली की ओर बढ़ा दिया. ‘‘सियाली, मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं और शादी करना चाहता हूं,’’ घुटनों को मोड़ कर जमीन पर बैठते हुए पराग ने कहा. सभी लड़केलड़कियां इस बात पर तालियां बजाने लगे. सियाली ने भी मुसकरा कर गुलाब पराग के हाथों से ले लिया और कुछ सोचने के बाद बोली, ‘‘लेकिन, मैं शादी जैसी किसी बेहूदा चीज के बंधन में नहीं बंधना चाहती. शादी एक सामाजिक तरीका है 2 लोगों को एकदूसरे के प्रति ईमानदारी दिखाते हुए जीवन बिताने का. पर क्या हम ईमानदार रह पाते हैं?’’ सियाली के मुंह से ऐसी बड़ीबड़ी बातें सुन कर डांस ट्रिप के लड़केलड़कियां शांत थे. सियाली ने रुक कर कहना शुरू किया, ‘‘मैं ने अपने मांबाप को शादीशुदा जीवन में हमेशा लड़ते देखा है, जिस की परिणति तलाक के रूप में हुई और अब मेरी मां अपने प्रेमी के साथ लिवइन में रह रही हैं और पहले से कहीं अधिक खुश हैं.’’ पराग यह सुन कर तपाक से बोला कि वह भी सियाली के साथ लिवइन में रहने को तैयार है अगर उसे मंजूर हो तो. पराग की बात सुन कर उस के साथ लिवइन के रिश्ते को झट से स्वीकार कर लिया था सियाली ने. और कुछ दिनों बाद ही पराग और सियाली लिवइन में रहने लगे,

जहां पर दोनों जीभर कर अपने जीवन का आनंद ले रहे थे. पराग के पास आय के स्रोत के रूप में एक बड़ा जिम था, जिस से पैसे की कोई समस्या नहीं आई. पराग और सियाली ने अब भी डांस ट्रिप को जौइन कर रखा था और लगभग हर दूसरे दिन ही दोनों क्लासेज के लिए जाते और जीभर नाचते. इसी डांस ट्रिप में गायत्री नाम की लड़की थी. उस ने सियाली से एक दिन पूछ ही लिया, ‘‘सियाली, तुम्हारी तो अभी उम्र बहुत कम है और इतनी जल्दी किसी के साथ… मतलब लिवइन में रहना कुछ अजीब सा नहीं लगता तुम्हें?’’ सियाली के चेहरे पर एक मीठी सी मुसकराहट आई और चेहरे पर कई रंग आतेजाते गए, फिर सियाली ने अपनेआप को संयत करते हुए कहा,

‘जब मेरे मांबाप ने सिर्फ अपनी जिंदगी के बारे में सोचा और मेरी परवा नहीं की तो मैं अपने बारे में क्यों न सोचूं? और गायत्री, जिंदगी मस्ती करने के लिए बनी है. इसे न किसी रिश्ते में बांधने की जरूरत है और न ही रोरो कर गुजारने की. ‘‘मैं आज पराग के साथ लिवइन में हूं और कल मन भरने के बाद किसी और के साथ रहूंगी और परसों किसी और के साथ. ‘‘उम्र का तो सोचो ही मत, एंजौय योर लाइफ, यार,’’ सियाली यह कहते हुए वहां से चली गई थी जबकि गायत्री अवाक खड़ी थी. तितलियां कभी किसी एक फूल पर नहीं बैठीं. वे कभी एक फूल के पराग पर बैठती हैं तो कभी दूसरे फूल के. और तभी तो इतनी चंचल होती हैं व इतनी खुश रहती हैं तितलियां, रंगबिरंगी तितलियां, जीवन से भरपूर तितलियां..

Moral Story : पछतावे की चुभन

महेश की नौकरी भारतीय वायु सेना में बतौर मैडिकल अटैंडैंट लगी थी. वायु सेना सिलैक्शन सैंटर के कमांडर ने कहा, ‘‘बधाई हो महेश, तुम्हें एक नोबेल ट्रेड मिला है. तुम नौकरी के साथसाथ इनसानियत के लिए भी काम कर सकोगे. किसी लाचार के काम आ सकोगे.’’ जो भी हो, महेश की समझ में तो यही आया कि उसे एक अच्छी नौकरी मिल गई है बस. अस्पताल में तकरीबन 3 महीने की ट्रेनिंग चल रही थी. सबकुछ करना था. मरीजों का टैंपरेचर, ब्लडप्रैशर, नाड़ी वगैरह के रिकौर्ड रखने से ले कर उन्हें बिस्तर पर सुलाने तक की जिम्मेदारी थी. हर बिस्तर तक जा कर मरीजों को दवा खिलानी पड़ती थी. लाचार मरीजों को स्पंज बाथ देना पड़ता था.

महेश तो एक पिछड़े इलाके से था, जहां के अस्पताल के नर्स से ले कर कंपाउंडर, डाक्टर तक मरीजों को डांटते रहते थे. एकएक इंजैक्शन लगाने के लिए नर्स फीस लेती थी. डाक्टरों से बात करने में डर लगता था कि कहीं डांटने न लगें. स्पंज बाथ का तो नाम भी नहीं सुना था. कभी कोई सगा अस्पताल में भरती हुआ, तो उसे एकएक रिलीफ के लिए दाम देते देखा था. पर यहां तो नर्सों का ‘इंटरनैशनल एथिक्स’ हम पर लागू था. हमें पहले ही ताकीद कर दी गई थी कि किसी मरीज से कभी भी चाय मत पीना, वरना कोर्ट मार्शल हो सकता है.

पलपल यही खयाल रहता था कि कैसे नौकरी महफूज रखी जाए. एक दिन जब महेश अपनी शिफ्ट ड्यूटी पर गया, तो उस से पहले काम कर रहे साथी ने बताया, ‘‘एक मरीज भरती हुआ है. उस का आपरेशन होना है और उसे तैयार करना है.’’

यह कह कर वह साथी चला गया. महेश ने देखा, तो वह बवासीर का मरीज था. महेश ने उसे नुसखे के मुताबिक समझा दिया और दवा दे दी. पर एक बात के लिए महेश दुविधा में पड़ गया कि उस मरीज के गुप्त भाग की शेविंग करनी थी. उस की शेविंग कैसे की जाए? अब महेश को अफसोस होने लगा कि यह कैसी नौकरी में वह फंस गया. ड्यूटी उस की थी. उस से पूछा जाएगा.

महेश ने एक उपाय निकाला. मरीज को बुलाया. रेजर में ब्लेड लगा कर उस से कहा, ‘‘अंदर से दरवाजा बंद कर लो और पूरा समय ले कर शेविंग कर डालो.’’ उस मरीज ने हामी में सिर हिलाया और रेजर ले कर चला गया. महेश ने संतोष की सांस ली. दूसरे दिन जब उस मरीज को औपरेशन के लिए जाना था, तब महेश ही ड्यूटी पर था. वह सोच रहा था कि सब ठीक हो.

उस के सीनियर ने उस से पूछा, ‘‘क्या मरीज का ‘प्रीऔपरेटिव’ केयर फालो हुआ?’’ महेश ने ‘हां’ में सिर हिला दिया.

उस सीनियर ने स्क्रीन पर लगा कर मरीज की जांच की. महेश के पास आ कर वह चिल्लाया, ‘‘यह क्या है? तुम ने तो मरीज का कोई केयर ही नहीं किया है?’’

यह सुन कर महेश के पैरों तले जमीन खिसक गई. वह बोला, ‘‘सर, मैं ने उसे समझा दिया था.’’ वह सीनियर महेश पर बिगड़ा, ‘‘तुम्हारी समझाने की ड्यूटी नहीं है. तुम्हें खुद करना है और यह तय करना है कि मरीज को तुम्हारी लापरवाही के चलते कोई इंफैक्शन न हो.’’ महेश की बोलती बंद हो गई. अगले ही महीने उसे छुट्टी पर घर जाना था. उसे बड़ी कुंठा होने लगी कि यही सब जा कर घर पर बताऊंगा. अब वह अपनेआप को बड़ा बेबस महसूस कर रहा था. वह पूरी तरह हार मान कर सीनियर के पास चला गया, ‘‘सर, मुझे तो अपनेआप को नंगा देखने में शर्म आती है और आप मुझ से उस के गुप्त भाग की शेविंग करने को कह रहे हैं.’’

वह सीनियर तुरंत मुड़ा और मरीज को आवाज दी. उस ने शेविंग का सामान उठाया और कमरे में चला गया. थोड़ी देर बाद वे दोनों बाहर आए.

सीनियर ने महेश से कहा, ‘‘मैं ने इस मरीज की शेविंग कर दी है. किसी लाचार की सेवा करना छोटा या घटिया काम नहीं होता. मैडिकल के प्रोफैशन में औरतमर्द या अंगगुप्तांग नहीं होता, बस एक मरीज होता है और उस का शरीर होता है. तो फिर इस शरीर की साफसफाई करने में किस बात की दिक्कत?’’

इतना कह कर सीनियर चला गया. कितनी आसानी से बिना किसी हीनभावना के उस ने सब कर दिया था. यह देख कर महेश को दुख होने लगा कि उस ने पहले ही ये सब क्यों नहीं किया? उस के अंदर कितनी कुंठा है. उस की नौकरी का असली माने तो यही था. यही तो उस का असली काम था, जिसे करने से वह चूक गया था. उसके पछतावे की चुभन काफी  चोट पहुंचा रही थी.

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