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Hindi Love Stories : एक नया सवेरा

Hindi Love Stories : प्रधानाचार्या ने पठनपाठन को ले कर सभी शिक्षिकाओं से मीटिंग की थी. इसी कारण रेणु को स्कूल से निकलने में देर हो गई, घर पहुंचतेपहुंचते 5 बज गए. जैसे ही वह घर में घुसी तो देखा कि उस के महल्ले की औरतों के साथ उस की सास और ननदों की पंचायत चालू थी. उस ने मन ही मन सोचा कि सिवा इन के पास पंचायतबाजी और गपशप करने के, कोई काम भी तो नहीं है. सारा दिन दूसरों के घरों की बुराई, एकदूसरे की चुगली और महल्ले की खबरों का नमकमिर्च लगा कर बखान करना, बस यही काम था उन का. कपड़े बदल कर, हाथमुंह धो कर वह वापस कमरे में आई तो उस की नजर घड़ी पर पड़ी. शाम के 6 बज चुके थे. ‘मुकेश अब आते ही होंगे’ यह सोच कर वह रसोई में जा कर चाय बनाने लगी. साथसाथ चिप्स भी तलने लगी.

रेणु का विवाह उस परिवार के इकलौते लड़के मुकेश के साथ हुआ था. घर के खर्चों को सुचारु रूप से चलाने के लिए उसे नौकरी भी करनी पड़ी थी और घर का भी सारा काम करना पड़ता था, जबकि ससुराल में 1 अविवाहित ननद थी और 2 विवाहित, जिन में से एक न एक घूमफिर कर मायके आती ही रहती थी. इन सब ने मिल कर रेणु का जीना हराम कर रखा था. सारा दिन बैठ कर गपें मारना, टीवी देखना और रेणु के खिलाफ मां के कान भरना, बस यही उन का काम होता था.

अभी वह चाय कपों में डाल ही रही थी कि मुकेश आ गए. मेज पर चाय के कपों को देख कर बोले, ‘‘वाह, क्या बात है. ठीक समय पर आ गया मैं.’’

तभी चापलूसी के अंदाज में छोटी ननद बोली, ‘‘भैया, देखिए न आप के लिए मैं ने चिप्स भी तले हैं.’’

रेणु यह सुन मन ही मन कुढ़ कर रह गई. कुछ कह नहीं पाई क्योंकि सास जो सामने बैठी थी.

बहन की बात सुन कर मुकेश रेणु की ओर देख हंसते हुए बोले, ‘‘देखा, मेरी बहनें मेरे खानेपीने का कितना खयाल रखती हैं.’’

यह सुन कर रेणु के तनबदन में आग लग गई पर वह एक समझदार, शिक्षित युवती थी. घर के माहौल को तनावपूर्ण नहीं बनाना चाहती थी, अतएव चुप रही. मुकेश अपनी मां और बहनों से काफी प्रभावित रहते थे. य-पि रेणु के प्रति उन का रवैया खराब न था मगर उन की आदत कुछ ऐसी थी कि वे मां और बहन के विरुद्ध एक भी शब्द सुनना पसंद नहीं करते थे.

‘‘भैया, शाम के खाने में क्या बनाऊं?’’ छोटी ननद बोली.

‘‘ऐसा करो कि आलू के परांठे और मटरपनीर की सब्जी बना लो,’’ मुकेश ने उत्तर दिया.

रेणु मन ही मन भन्ना गई कि बातें तो ये ऐसी करती हैं कि मानो सारा काम यही करती हों जबकि हकीकत तो यह थी कि इन को करनाधरना कुछ नहीं होता, सिवा मुकेश के सामने चापलूसी करने के.

चाय पी कर रेणु कपप्लेटें उठा कर रसोई में आ कर उन्हें साफ करने लगी. मगर किसी भी ननद से यह नहीं हुआ कि आखिर भाभी औफिस से थकहार कर आती हैं, उन की जरा सी मदद ही कर दें.

ननदों द्वारा उस के काम में छींटाकशी और नुक्ताचीनी करना प्रतिदिन का काम बन गया था. रेणु को अपमान का घूंट पी कर चुप रह जाना पड़ता था. मन ही मन सोचती कि मांजी का बस चले तो दोनों विवाहिता बेटियों को बुला कर यहीं रखें. उन्हें इस बात का एहसास ही नहीं कि इस महंगाई के जमाने में, इस थोड़ी सी कमाई में अपना ही खर्च ठीक से नहीं चल पाता, ऊपर से ननदों का आनाजाना जो लगा रहता, सो अलग. पर इन सब बातों से उन्हें क्या मतलब?

अगर कभी रेणु कुछ कहे भी, तो वे कहतीं, ‘मैं कौन सी तुम्हारी कमाई पर डाका डाल रही हूं, मैं तो अपने बेटे की कमाई खर्च करती हूं. आखिर वह मेरा बेटा है. उस पर मेरा अधिकार है.’

मुकेश तो इन मामलों में बोलते ही न थे, न ही वे जानते थे. वे तो मां के सामने हमेशा आज्ञाकारी बेटा बने रहते और मांजी उन की कमाई इसी तरह लुटाती रहतीं.

रेणु ने रसोई में आ कर प्रैशरकुकर में आलू चढ़ा दिए. तभी छोटी ननद आ कर बोली, ‘‘भाभी, मैं भी सीरियल देखने जा रही हूं, बाकी काम आप निबटा लेना.’’

रेणु ने मन ही मन सोचा कि यह तो उन लोगों का रोज का काम है. बस, भैया या फिर उस के मायके से कोई आ जाए तो दिखावे के लिए उस के इर्दगिर्द घूमती रहेंगी. खैर, यह कोई एक दिन की समस्या नहीं है. और उस ने अपने विचारों को किनारे झटक कर एक चूल्हे पर सब्जी चढ़ा दी और दूसरे पर परांठे सेंकने लगी. इधर उस ने परांठे सेंक कर खत्म किए कि सब लोग खाने बैठ गए. सब को परोसनेखिलाने के बाद जो कुछ भी बचा, उसे खा कर वह उठ गई. रात काफी देर तक बरतन आदि साफ कर जब वह अपने कमरे में पहुंची तो मुकेश जाग ही रहे थे. वे कोई पत्रिका पढ़ने में तल्लीन थे. रेणु को देख कर बोले, ‘‘आज तो तुम ने काफी देर लगा दी?’’

‘‘जल्दी आ जाती तो घर के ये काम कौन करता?’’

‘‘क्या घर में मां और बहनें हाथ नहीं बंटातीं?’’

‘‘पहले कभी हाथ बंटाया है जो आज बंटाएं,’’ रेणु ने उत्तर दिया.

‘‘क्यों तुम हमेशा झूठ बात कहती हो, मेरे सामने तो वे सब तुम्हारी मदद करती रहती हैं?’’

‘‘बस, उतनी ही देर जितनी देर आप घर में रहते हैं.’’

‘‘मुझे तो ऐसा नहीं लगता,’’ मुकेश बोला.

बात को आगे न बढ़ने देने के उद्देश्य से रेणु चुप रही.

रेणु जब सुबह सो कर उठी तो देखा कि भोर की किरणें खिड़की के रास्ते कमरे में आहिस्ताआहिस्ता प्रवेश कर रही थीं. वह जल्दी से उठ कर स्नानघर की ओर चल दी, क्योंकि उसे मालूम था कि उस की सास और ननदों में से कोई भी जल्दी सो कर उठने वाला नहीं है. खाना बना कर उस दिन रेणु तैयार हो कर औफिस चल दी. तब तक उस की सास उठ गई थी, जबकि ननदें तब भी सो ही रही थीं. सुबह रेणु कपड़े धो कर छत पर सूखने के लिए डाल गई थी, सो, शाम को जब वह औफिस से लौटी तो उन्हें उठाने के लिए छत पर गई. कपड़ों को ले कर लौट ही रही थी कि न जाने कैसे उस का पैर फिसला और वह धड़ाम से 7-8 सीढि़यां लुढ़कती हुई आ कर आंगन में गिर गई. उस का सिर फट गया और वह बेहोश हो गई थी. सास और ननदों के शोर मचाने पर पूरा महल्ला इकट्ठा हो गया. महल्ले के किसी व्यक्ति ने मुकेश को खबर कर दी थी. सो, वे भी बुरी तरह घबराए हुए अस्पताल पहुंच गए. डाक्टरों ने तुरंत रेणु को आपातकालीन कक्ष में ले जा कर उस का इलाज शुरू कर दिया. उस के सिर में काफी चोट आ गई थी. 4-5 टांके लगाने पड़े. कुछ देर पश्चात सीनियर डाक्टर ने कहा, ‘‘दाहिने पैर की हड्डी टूट गई है. उस पर प्लास्टर चढ़ाना होगा.’’ काफी देर रात तक उस का उपचार चलता रहा. मुकेश ने पूरी रात जाग कर गुजार दी. जब रेणु को होश आया तो उस ने खुद को अस्पताल के बिस्तर पर पट्टियों से बंधा हुआ पाया. उस ने कराहते हुए पूछा, ‘‘मैं कहां हूं, और यह मुझे क्या हो गया है?’’

‘‘तुम्हें कुछ नहीं हुआ है. बस, सिर व पैर में थोड़ी सी चोट आ गई है,’’ मुकेश ने उस के सिर पर अपनत्व के साथ हाथ फेरते हुए जवाब दिया.

एक हफ्ते बाद रेणु को अस्पताल से छुट्टी देते हुए डाक्टर ने मुकेश और साथ में खड़ी उस की मां को हिदायत देते हुए कहा, ‘‘मांजी, अब  बहू को 3 महीने के पूर्ण आराम की आवश्यकता है. और हां, मरीज को हर रोज दूध, फल, जूस आदि दिया जाए.’’

घर पहुंच कर मुकेश ने उस का बिस्तर खिड़की के किनारे लगा दिया, जिस से खुली हवा भी आती रहे और बाहर के दृश्य से रेणु का मन भी बहला रहे. इधर रेणु को 3 महीने तक लगातार पूर्ण आराम करने की बात सुन कर उस की सास छोटी बेटी से कहने लगी, ‘‘बेटी, अब घर का काम कैसे होगा? हम लोगों ने तो काम करना ही छोड़ दिया था. सारा काम बहू ही करती थी. फिर, मैं कुछ करना भी चाहती थी तो तू मना कर देती थी.’’

दूसरे दिन मुकेश को औफिस जाना था. उन्हें न समय से चाय मिल सकी और न ही नाश्ता. खाने की मेज पर पहुंचते ही उन की तबीयत खिन्न हो गई क्योंकि मां ने खिचड़ी बना कर रखी थी. मुकेश को खिचड़ी बिलकुल पसंद न थी. जैसेतैसे थोड़ी सी खिचड़ी खा कर मुकेश ने दफ्तर का रास्ता लिया. पिछले 15 दिनों से मुकेश देख रहे थे कि घर की सारी व्यवस्था बिलकुल चरमरा गई थी. घर में कोई भी काम समय से पूरा न होता था. न ढंग से नाश्ता बनता, न समय से चाय मिलती और न ही समय पर खाना मिलता. इधरउधर गंदे बरतन पड़े रहते. जबकि रेणु के ठीक रहने पर घर का कोई भी काम अधूरा न रहता था.

आखिर एक दिन मुकेश ने गुस्से में आ कर मां के सामने ही कह दिया. छोटी बहन भी खड़ी सुन रही थी, ‘‘इन दिनों आखिर घर को क्या हो गया है? कोई भी काम समय पर, सलीके से क्यों नहीं होता? आखिर पहले इस घर का सारा काम कौन करता था? कैसे समय पर चायनाश्ता, समय पर खाना, कपड़ेलत्ते धुले हुए और सारे घर में झाड़ूपोंछा लगा होता था. हर सामान करीने से सजा और अपनी जगह मिलता था, जबकि अब पूरा घर कूड़ाघर में तबदील हो चुका है. हर सामान अपनी जगह से गायब, कपड़े गंदे, जहांतहां धूल की परतें और हर जगह मक्खियां भिनभिनाती हुईं. आखिर यह घर है या कबाड़खाना?’’

‘‘भैया, हम लोग पूरी कोशिश करते हैं, फिर भी थोड़ीबहुत कमी रह ही जाती है,’’ छोटी बहन बोली.

अब मां और छोटी बहन कहें तो क्या कहें? कैसे अपनी गलती स्वीकार करें? अपनी गलती स्वीकार करने का मतलब था कि इस से पहले वे रेणु के साथ दुर्व्यवहार करती थीं. मगर अब झूठ का परदाफाश होना ही था. आखिर कितने दिन सचाई को झुठलाया जाता.

एक दिन शाम को मां चौके में खाना बना रही थीं जबकि उन की उस दिन तबीयत ठीक नहीं थी. उन्होंने छोटी बेटी को आवाज दे कर कहा, ‘‘बेटी, जरा मेरी मदद कर दे. आज मेरी तबीयत ठीक नहीं है,’’ बेटी रानी आराम से लेट कर टीवी पर फिल्म देख रही थी, अतएव उस ने वहीं से लेटेलेटे उत्तर दिया, ‘‘क्या मां, थोड़े से काम के लिए भी पूरा घर सिर पर उठा रखा है. जरा सा काम क्या करना पड़ा कि मेरी नाक में दम कर दिया है.’’

अपनी ही जाई संतान का टके सा उत्तर सुन कर मां का चेहरा उतर गया. उन्हें अपनी बेटी से ऐसी आशा न थी. वे सोचने लगीं कि रेणु है तो बहू पर उस ने कभी भी उन की किसी बात का पलट कर जवाब नहीं दिया. हमेशा मांजीमांजी कहती उस की जबान नहीं थकती जबकि वे हमेशा उस के हर काम में नुक्ताचीनी करतीं. इन्हीं बेटियों के कहने पर वे रेणु के साथ दुर्व्यवहार करतीं, छींटाकशी करतीं. अब तो वह बिस्तर पर पड़ी है. उस के साथ ज्यादती करना गुनाह होगा. फिर बहू भी तो बेटी ही होती है.

मांजी खाना बनाते हुए सोचती जा रही थीं कि रेणु भी आखिर किसी की बेटी है. फिर उस ने इस घर को सजानेसंवारने में क्या कमी छोड़ी है. मुकेश तो सारा दिन घर पर रहता नहीं, और यह छुटकी सारा दिन इधरउधर कूदा करती है. कल को इस की शादी हुई नहीं कि फुर्र से चिडि़या की तरह उड़ जाएगी और रह जाऊंगी मैं अकेली. फिर मेरी सेवा कौन करेगा? बुढ़ापे में तो बहू को ही काम में आना है. कभी कोई हादसा हो गया तो सिवा बहू के, कोई देखभाल करने वाला न होगा. बेटियों का क्या, 2-4 दिनों के लिए आ कर खिसक लेंगी. काम तो आएगी बहू ही, तो फिर असली बेटी तो बहू ही हुई…एक के बाद एक विचार आजा रहे थे.

अब मांजी ने रेणु की देखभाल कायदे से करनी शुरू कर दी. उसे समय पर दवा देतीं, चाय देतीं, जूस देतीं और पास बैठ कर घंटों उस से बातचीत करती थीं.

तीसरा महीना खत्म होतेहोते रेणु का स्वास्थ्य काफी सुधर गया. अब उस के पैर का प्लास्टर भी काट दिया गया था. फिर भी डाक्टर ने उसे किसी भी प्रकार का काम करने के लिए मना किया था. रेणु ने सुबह उठ कर चाय बनाने की कोशिश की तो मांजी ने उस का हाथ पकड़ कर उसे कुरसी पर बिठा दिया. फिर उन्होंने छुटकी को बुला कर डांटते हुए चाय बनाने का आदेश दिया और बोलीं, ‘‘बहू कुछ दिन और आराम करेगी. चौके का काम अब तुझे संभालना है. बहुत हो चुकी पढ़ाईलिखाई और इधरउधर कूदना.’’

छुटकी ने तपाक से उत्तर दिया, ‘‘मां, जब मुझे कुछ बनाना ही नहीं आता तो कैसे करूंगी यह सब काम?’’

‘‘तुझे अब सबकुछ सीखना होगा, नहीं तो कल को तू भी बड़की की तरह कामकाज से बचने के लिए रोज ससुराल छोड़ कर आ जाया करेगी. यह बहानेबाजी अब और नहीं चलने वाली. तुम सब के चक्कर में ही बहू की यह दशा हुई है.’’

‘‘आखिर भाभी अगर सीढि़यों से गिर पड़ीं तो उस में मेरा क्या दोष?’’ छुटकी ने उत्तर दिया.

‘‘क्या सारे घर के कपड़े सुखानाउठाना उसी का काम है? तुम अगर इतनी ही लायक होतीं तो यह हादसा ही न होता,’’ मांजी बोलीं.

छुटकी हैरानपरेशान थी कि आखिर मां को यह क्या हो गया है जो वे एकदम से भाभी की तरफदारी में लग गईं. आखिर भाभी ने ऐसी कौन सी घुट्टी पिला दी मां को.

शाम को खाने की मेज पर बड़ा ही खुशनुमा पारिवारिक माहौल था. सब खाने की मेज पर बैठे हुए थे. छुटकी सब को खाना परोस रही थी कि तभी मुकेश बोले, ‘‘मां, आज तो छुटकी बड़ी मेहनत कर रही है.’’

‘‘तो कौन सा हम पर एहसान कर रही है. इसे पराए घर जाना है. यह सब इसे सीखना ही चाहिए.’’

मांजी का उत्तर सुन कर मुकेश और रेणु एकदूसरे की ओर देख कर अर्थपूर्ण ढंग से मुसकराए. रेणु समझ नहीं पा रही थी कि मां और ननद इतनी जल्दी कैसे बदल गईं.

उधर मां को रेणु की दुर्घटना से नसीहत के रूप में एक नई दृष्टि मिली थी. रेणु परिवार में परिवर्तन देख कर एक नए सवेरे का एहसास कर रही थी.  Hindi Love Stories

Family Story In Hindi : बेचारी – कामना का मुंह बंद किसने और क्यों किया था ?

Family Story In Hindi : ‘बेचारी कामना’, जैसे ही कामना वाशबेसिन की ओर गई, मधु बनावटी दुख भरे स्वर में बोली. दोपहर के भोजन के लिए समीर, विनय, अरुण, राधा आदि भी वहीं बैठे थे.

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’ समीर, विनय या अरुण में से किस ने प्रश्न किया, कामना यह अंदाजा नहीं लगा पाई. मधु सोच रही थी कि उस का स्वर कामना तक नहीं पहुंच रहा था या यह जानबूझ कर ही उसे सुनाना चाहती थी.

‘‘आज फिर वर पक्ष वाले उसे देखने आ रहे हैं,’’ मधु ने बताया.

‘‘तो इस में ‘बेचारी’ वाली क्या बात है?’’ प्रश्न फिर पूछा गया.

‘‘तुम नहीं समझोगे. 2 छोटे भाई और 2 छोटी बहनें और हैं. कामना के पिता पिछले 4 वर्षों से बिस्तर पर हैं…यही अकेली कमाने वाली है.’’

‘‘फिर यह वर पक्ष का झंझट क्यों?’’

‘‘मित्र और संबंधी कटाक्ष करते हैं तो इस की मां को बुरा लगता है. उन का मुंह बंद करने के लिए यह तामझाम किया जाता है.

‘‘इन की तमाम शर्तों के बावजूद यदि लड़के वाले ‘हां’ कर दें तो?’’

‘‘तो ये लोग मना कर देंगे कि लड़की को लड़का पसंद नहीं है,’’ मधु उपहास भरे स्वर में बोली.

‘‘उफ्फ बेचारी,’’ एक स्वर उभरा.

‘‘ऐसे मातापिता भी होते हैं?’’ दूसरा स्वर सुनाई दिया.

कामना और अधिक न सुन सकी. आंखों में भर आए आंसू पोंछने के लिए मुंह धोया. तरोताजा हुई और पुन: उसी कक्ष में जा बैठी. उसे देखते ही उस की चर्चा को पूर्णविराम लग गया.

कामना सोचने लगी कि इन सब को अपने संबंध में चर्चा करने का अवसर भी तो उस ने ही दिया था. यदि उस के मन की कटुता मधु के सामने बह न निकली होती तो उसे कैसे पता चलता. मधु को दोष देने से भी क्या लाभ? जब वह स्वयं बात अपने तक सीमित न रख सकी तो मधु से ही ऐसी आशा क्यों?

भोजन का समय समाप्त होते ही कामना अपने स्थान पर जा बैठी. पर कार्य निबटाते हुए भी मन का अनमना भाव वैसे  ही बना रहा.

कामना बस की प्रतीक्षा कर रही थी कि अचानक परिचित स्वर सुनाई दिया, ‘‘आज आप के बारे में जान कर दुख हुआ.’’

चौंक कर वह पलटी तो देखा, अरुण खड़ा था.

‘‘जी?’’ कामना ने क्रोध भरी नजरों से अरुण की ओर देखा.

‘‘मधु बता रही थी कि आप के पिताजी बहुत बीमार हैं, इसलिए घर का सारा भार आप के ही कंधों पर है,’’ अरुण बोला.

‘‘जी, हां,’’ कामना ने नजरें झुका लीं.

‘‘क्या बीमारी है आप के पिताजी को?’’

‘‘पक्षाघात.’’

‘‘अरे…’’ अरुण ने सहानुभूति दिखाई तो कामना का मन हुआ कि धरती फट जाए और वह उस में समा जाए.

‘‘क्या कहा डाक्टर ने?’’ कामना अपने ही विचारों में खोई थी कि अरुण ने फिर पूछा.

‘‘जी…यही कि अपना दुखड़ा कभी किसी के सामने नहीं रोना चाहिए, नहीं तो व्यक्ति उपहास का पात्र बन जाता है,’’ कामना गुस्से से बोली.

‘‘शायद आप को बुरा लगा… विश्वास कीजिए, आप को चोट पहुंचाने का मेरा कोई इरादा नहीं था. कभीकभी दुख बांट लेने से मन हलका हो जाता है,’’ कहता हुआ अरुण अपनी बस को आते देख कर उस ओर बढ़ गया.

कामना घर पहुंची तो पड़ोस की रम्मो चाची बैठी हुई थीं.

‘‘अब तुम से क्या छिपाना, रम्मो. कामना की बात कहीं बन जाए तो हम भी बेफिक्र हो जाएं. फिर रचना का भी तो सोचना है,’’ कामना की मां उसे और रम्मो चाची को चाय का प्याला पकड़ाते हुए बोलीं.

‘‘समय आने पर सब ठीक हो जाएगा. यों व्यर्थ ही परेशान नहीं होते, सुमन,’’ रम्मो चाची बोलीं.

‘‘घबराऊं नहीं तो क्या करूं? न जाने क्यों, कहीं बात ही नहीं बनती. लोग कहते हैं कि हम कमाऊ बेटी का विवाह नहीं करना चाहते.’’

‘‘क्या कह रही हो, सुमन. कौन कह रहा था? हम क्या जानते नहीं कि तुम कामना के लिए कितनी परेशान रहती हो…आखिर उस की मां हो,’’ रम्मो चाची बोलीं.

‘‘वही नुक्कड़ वाली सरोज सब से कहती घूमती है कि हम कामना का विवाह इसलिए नहीं करना चाहते कि उस के विवाह के बाद हमारे घर का खर्च कैसे चलेगा और लोग भी तरहतरह की बातें बनाते हैं. इस बार कामना का विवाह तय हो जाए तो बातें बनाने वालों को भी मुंहतोड़ जवाब मिल जाए.’’

कहने को तो सुमन कह गईं, किंतु बात की सचाई से उन का स्वर स्वयं ही कांप गया.

‘‘यों जी छोटा नहीं करते, सुमन. सब ठीक हो जाएगा.’’

तभी कामना का छोटा भाई आ गया और रम्मो चाची उठ कर चली गईं.

सुमन कुछ देर तक तो पुत्र द्वारा लाई गई मिठाई, नमकीन आदि संभालती रहीं कि तभी उन का ध्यान गुमसुम कामना की ओर गया, ‘‘क्या है, कामना? स्वप्न देख रही हो क्या? सामने रखी चाय भी ठंडी हो गई.’’

‘‘स्वप्न नहीं, यथार्थ देख रही हूं, मां. वह कड़वा यथार्थ जो न चाहने पर भी बारबार मेरे सम्मुख आ खड़ा होता है,’’ कामना दार्शनिक अंदाज में बोली.

‘‘पहेलियां तो बुझाओ मत. क्या बात है, यह बताओ. बैंक में किसी से झगड़ा कर के आई हो क्या?’’

‘‘लो और सुनो. मैं और झगड़ा? घर में अपने विरुद्ध हो रहे अत्याचार सहन करते हुए भी जब मेरे मुंह से आवाज नहीं निकलती तो भला मैं घर से बाहर झगड़ा करूंगी? कैसी हास्यास्पद बात है यह,’’ कामना का चेहरा तमतमा गया.

‘‘क्या कह रही हो? कौन अत्याचार करता है तुम पर? तुम स्वयं कमाने वाली, तुम ही खर्च करने वाली,’’ सुमन भी क्रोधित हो उठीं.

‘‘क्या कह रही हो मां. मैं तो पूरा वेतन ला कर तुम्हारे हाथ पर रख देती हूं. इस पर भी इतना बड़ा आरोप.’’

‘‘तो कौन सा एहसान करती हो, पालपोस कर बड़ा नहीं किया क्या? हम नहीं पढ़ातेलिखाते तो कहीं 100 रुपए की नौकरी नहीं मिलती. इसे तुम अत्याचार कह रही हो? यही तो अंतर होता है बेटे और बेटी में. बेटा परिवार की सहायता करता है तो अपना कर्तव्य समझ कर, भार समझ कर नहीं.’’

‘‘आप बेकार में बिगड़ रही हैं…मैं तो उस तमाशे की बात कर रही थी जिस की व्यवस्था हर तीसरे दिन आप कर लेती हैं,’’ कामना ने मां की ओर देखा.

‘‘कौन सा तमाशा?’’

‘‘यही तथाकथित वर पक्ष को बुला कर मेरी प्रदर्शनी लगाने का.’’

‘‘प्रदर्शनी लगाने का? शर्म नहीं आती…हम तो इतना प्रयत्न कर रहे हैं कि तुम्हारे हाथ पीले हो जाएं और तुम्हारे दूसरे भाईबहनों की बारी आए,’’ सुमन गुस्से से बोलीं.

‘‘मां, रहने दो…दिखावा करने की आवश्यकता नहीं है. मैं क्या नहीं जानती कि मेरे बिना मेरे छोटे भाईबहनों की देखभाल कौन करेगा?’’

‘‘हाय, हम पर इतना बड़ा आरोप? जब हमारी बेटी ही ऐसा कह रही है तो मित्र व संबंधी क्यों चुप रहेंगे,’’ सुमन रोंआसी हो उठीं.

‘‘मित्रों और संबंधियों के डर से इतना तामझाम? यह जीवन हमारा है या उन का…हम इसे अपनी सुविधानुसार जिएंगे. वे कौन होते हैं बीच में बोलने वाले? मैं तुम्हारा कष्ट समझती हूं, मां. जब तुम वर पक्ष के समक्ष ऐसी असंभव शर्तें रख देती हो, जिन्हें हमारा पुरुष समाज शायद ही कभी स्वीकार कर पाए तो क्या तुम्हारे चेहरे पर आई पीड़ा की रेखाएं मैं नहीं देख पाती,’’ मां के रिसते घावों पर अपने शब्दों का मरहम लगाती कामना ने पास आ कर उन के कंधे पर हाथ रख दिया.

‘‘तेरे पिताजी बीमार न होते तो ये दिन क्यों देखने पड़ते कामना. पर मेरा विश्वास कर बेटी, अपने स्वार्थ के लिए मैं तेरा भविष्य दांव पर नहीं लगने दूंगी.’’

‘‘नहीं मां. तुम सब को इस हाल में छोड़ कर मैं विवाह कर के क्या स्वयं को कभी माफ कर पाऊंगी? फिर पिताजी की बीमारी का दुख अकेले आप का नहीं, हम सब का है. इस संकट का सामना भी हम मिलजुल कर ही करेंगे.’’

‘‘सुनो कामना, कल जो लोग तुम्हें देखने आ रहे हैं, तुम्हारी रोमा बूआ के संबंधी हैं. हम ने मना किया तो नाराज हो जाएंगे. साथ ही तुम्हारी बूआ भी आ रही हैं, वे भी नाराज हो जाएंगी.’’

‘‘किंतु मना तो करना ही होगा, मां. रोमा बूआ नाराज हों या कोई और. मैं इस समय विवाह की बात सोच भी नहीं सकती,’’ कामना ने अपना निर्णय सुना दिया.

‘‘मैं अभी जीवित हूं. माना कि बिस्तर से लगा हूं, पर इस का तात्पर्य यह तो नहीं कि सब अपनी मनमानी करने लगें.’’

कामना के पिता बिस्तर पर ही चीखने लगे तो पूरा परिवार उन के पास एकत्र हो गया.

‘‘रोमा ने बहुत नाराजगी के साथ पत्र लिखा है कि सभी संबंधी यही ताने दे रहे हैं कि कामना की कमाई के लालच में हम इस का विवाह नहीं कर रहे और मैं सोचता हूं कि अपनी संतान के भविष्य के संबंध में निर्णय लेने का हक मुझे भी है,’’ कामना के पिता ने अपना पक्ष स्पष्ट किया.

‘‘मैं केवल एक स्पष्टीकरण चाहती हूं, पिताजी. मेरे विवाह के बाद घर कैसे चलेगा? क्या आप की चिकित्सा बंद हो जाएगी? संदीप, प्रदीप, मोना, रचना क्या पढ़ाई छोड़ कर घर बैठ जाएंगे?’’ कामना ने तीखे स्वर में प्रश्न किया.

‘‘मेरे स्वस्थ होने की आशा नहीं के बराबर है, अत: मेरी चिकित्सा के भारी खर्चे को बंद करना ही पड़ेगा. सच पूछो तो हमारी दुर्दशा बीमारी पर अनापशनाप खर्च करने से ही हुई है. संदीप 1 वर्ष में स्नातक हो जाएगा. फिर उसे कहीं न कहीं नौकरी मिल ही जाएगी. प्रदीप की पढ़ाई भी किसी प्रकार चलती रहेगी. मोना, रचना का देखा जाएगा,’’ कामना के पिता ने भविष्य का पूरा खाका खींच दिया.

‘‘यह संभव नहीं है, पिताजी. आप ने मुझे पढ़ायालिखाया, कदमकदम पर सहारा दिया, क्या इसीलिए कि आवश्यकता पड़ने पर मैं आप सब को बेसहारा छोड़ दूं?’’ कामना ने पुन: प्रश्न किया.

‘‘तुम बहुत बोलने लगी हो, कामना. तुम ही तो अब इस परिवार की कमाऊ सदस्य हो. मैं भला कौन होता हूं तुम्हें आज्ञा देने वाला.’’

कामना, पिता का दयनीय स्वर सुन कर स्तब्ध रह गई.

सुमन भी फूटफूट कर रोने लगी थीं.

‘‘बंद करो यह रोनाधोना और मुझे अकेला छोड़ दो,’’ कामना के पिता अपना संयम खो बैठे.

सभी उन्हें अकेला छोड़ कर चले गए पर कामना वहीं खड़ी रही.

‘‘अब क्या चाहती हो तुम?’’ पिता ने प्रश्न किया.

‘‘पिताजी, आप को क्या होता जा रहा है? किस ने कह दिया कि आप ठीक नहीं हो सकते. ऐसी बात कर के तो आप पूरे परिवार का मनोबल तोड़ देते हैं. डाक्टर कह रहे थे कि आप को ठीक होने के लिए दवा से अधिक आत्मबल की आवश्यकता है.’’

‘‘तुम्हारा तात्पर्य है कि मैं ठीक होना ही नहीं चाहता.’’

‘‘नहीं. पर आप के मन में दृढ़- विश्वास होना चाहिए कि आप एक दिन पूरी तरह स्वस्थ हो जाएंगे,’’ कामना बोली.

‘‘अभी हमारे सामने मुख्य समस्या कल आने वाले अतिथियों की है. मैं नहीं चाहता कि तुम उन के सामने कोई तमाशा करो,’’ पिता बोले.

‘‘इस के बारे में कल सोचेंगे. अभी आप आराम कीजिए,’’ कामना बात को वहीं समाप्त कर बाहर निकल गई.

दूसरे दिन सुबह ही रोमा बूआ आते ही सुमन से बोलीं, ‘‘क्या कह रही हो भाभी, कितना अच्छा घरवर है, फिर 3-3 बेटियां हैं तुम्हारी और भैया बीमार हैं… कब तक इन्हें घर बिठाए रखोगी,’’ वे तो सुमन से यह सुनते ही भड़क गईं कि कामना विवाह के लिए तैयार नहीं है.

‘‘बूआ, आप परिस्थिति की गंभीरता को समझने का यत्न क्यों नहीं करतीं. मैं विवाह कर के घर बसा लूं और यहां सब को भूल जाऊं, यह संभव नहीं है,’’ उत्तर सुमन ने नहीं, कामना ने दिया.

‘‘तुम लोग तो मुझे नीचा दिखाने में ही लगे हो…मैं तो अपना समझ कर सहायता करना चाहती थी. पर तुम लोग मुझे ही भलाबुरा कहने लगे.’’

‘‘नाराज मत हो दीदी, कामना को दुनियादारी की समझ कहां है. अब तो सब कुछ आप के ही हाथ में है,’’ सुमन बोलीं.

कुछ देर चुप्पी छाई रही.

‘‘एक बात कहूं, भाभी,’’ रोमा बोलीं.

‘‘क्या?’’

‘‘क्यों न कामना के स्थान पर रचना का विवाह कर दिया जाए. उन लोगों को तो रचना ही अधिक पसंद है. लड़के ने किसी विवाह में उसे देखा था.’’

‘‘क्या कह रही हो दीदी, छोटी का विवाह हो गया तो कामना तो जीवन भर अविवाहित रह जाएगी.’’

सुमन की बात पूरी भी नहीं हो पाई थी कि रचना बीच में बोल उठी, ‘‘मुझे क्या आप लोगों ने गुडि़या समझ लिया है कि जब चाहें जिस के साथ विवाह कर दें? दीदी 5 वर्ष से नौकरी कर रही हैं…मुझ से बड़ी हैं. उन्हें छोड़ कर मेरा विवाह करने की बात आप के मन में आई कैसे…’’

‘‘अधिक बढ़चढ़ कर बात करने की आवश्यकता नहीं है,’’ रोमा ने झिड़का, ‘‘बोलती तो ऐसे हो मानो लड़के वाले तैयार हैं और केवल तुम्हारी स्वीकृति की आवश्यकता है. इतना अच्छा घरवर है… बड़ी मुश्किल से तो उन्हें कामना को देखने के लिए मनाया था. मैं ने सोचा था कि कामना की अच्छी नौकरी देख कर शायद तैयार हो जाएं पर यहां तो दूसरा ही तमाशा हो रहा है. लेनदेन की बात तो छोड़ो, स्तर का विवाह करने में कुछ न कुछ खर्च तो होगा ही,’’ रोमा बूआ क्रोधित स्वर में बोलीं.

‘‘आप लोग क्यों इतने चिंतित हैं? माना कि पिताजी अस्वस्थ हैं पर अब हम लोग कोई छोटे बच्चे तो रहे नहीं. मेरा एम.ए. का अंतिम वर्ष है. मैं ने तो एक स्थान पर नौकरी की बात भी कर ली है. बैंक की परीक्षा का परिणाम भी आना है. शायद उस में सफलता मिल जाए,’’ रचना बोली.

‘‘मैं रचना से पूरी तरह सहमत हूं. इतने वर्षों से दीदी हमें सहारा दे रही हैं. मैं भी कहीं काम कर सकता हूं. पढ़ाई करते हुए भी घर के खर्च में कुछ योगदान दे सकता हूं,’’ संदीप बोला.

‘‘कहनेसुनने में ये आदर्शवादी बातें बहुत अच्छी लगती हैं पर वास्तविकता का सामना होने पर सारा उत्साह कपूर की तरह उड़ जाएगा,’’ सुमन बोलीं.

‘‘वह सब तो ठीक है भाभी पर कब तक कामना को घर बिठाए रखोगी? 2 वर्ष बाद पूरे 30 की हो जाएगी. फिर कहां ढूंढ़ोगी उस के लिए वर,’’ रोमा बोलीं.

‘‘यदि वर पक्ष वाले तैयार हों तो चाहे हमें कितनी भी परेशानियों का सामना क्यों न करना पड़े, कामना का विवाह कर देंगे,’’ कामना के पिता बोले.

किंतु पिता और रोमा के समस्त प्रयासों के बावजूद वर पक्ष वाले नहीं माने. पता नहीं कामना के पिता की बीमारी ने उन्हें हतोत्साहित किया या परिवार की जर्जर आर्थिक स्थिति और कामना की बढ़ती आयु ने, पर उन के जाने के बाद पूरा परिवार दुख के सागर में डूब गया.

‘‘इस में भला इतना परेशान होने की क्या बात है? अपनी कामना के लिए क्या लड़कों की कमी है? मैं जल्दी ही आप को सूचित करूंगी,’’ जातेजाते रोमा ने वातावरण को हलका बनाने का प्रयत्न किया था. किंतु उदासी की चादर का साया वह परिवार के ऊपर से हटाने में सफल न हो सकीं.

एक दिन कामना बस की प्रतीक्षा कर रही थी कि अरुण ने उसे चौंका दिया, ‘‘कहिए कामनाजी, क्या हालचाल हैं? बड़ी थकीथकी लग रही हैं. मुझे आप से बड़ी सहानुभूति है. छोटी सी आयु में परिवार का सारा बोझ किस साहस से आप अपने कंधों पर उठा रही हैं.’’

‘‘मैं पूरी तरह से संतुष्ट हूं, अपने जीवन से और मुझे आप की सहानुभूति या सहायता की आवश्यकता नहीं है. आशा है, आप ‘बेचारी’ कहने का लोभ संवरण कर पाएंगे,’’ कामना का इतने दिनों से दबा क्रोध एकाएक फूट पड़ा.

‘‘आप गलत समझीं कामनाजी, मैं तो आप का सब से बड़ा प्रशंसक हूं. कितने लोग हैं जो परिवार के हित को अपने हित से बड़ा समझते हैं. चलिए, एकएक शीतल पेय हो जाए,’’ अरुण ने मुसकराते हुए सामने के रेस्तरां की ओर इशारा किया.

‘‘आज नहीं, फिर कभी,’’ कामना ने टालने के लिए कहा और सामने से आती बस में चढ़ गई.

तीसरे ही दिन फिर अरुण बस स्टाप पर कामना के पास खड़ा था, ‘‘आशा है, आज तो मेरा निमंत्रण अवश्य स्वीकार करेंगी.’’

‘‘आप तो मोटरसाइकिल पर बैंक आते हैं, फिर यहां क्या कर रहे हैं?’’ कामना के अप्रत्याशित प्रश्न पर वह चौंक गया.

‘‘चलिए, आप को भी मोटर- साइकिल पर ले चलता हूं. खूब घूमेंगे- फिरेंगे,’’ अरुण ने तुरंत ही स्वयं को संभाल लिया.

‘‘देखिए, मैं ऐसीवैसी लड़की नहीं हूं. शायद आप को गलतफहमी हुई है. आप मेरा पीछा क्यों नहीं छोड़ देते,’’ कामना दयनीय स्वर में बोली.

‘‘मैं क्या आप को ऐसावैसा लगता हूं? जिन परिस्थितियों से आप गुजर रही हैं उन्हीं से कभी हमारा परिवार भी गुजरा था. आप की आंखों की बेबसी कभी मैं ने अपनी बड़ी बहन की आंखों में देखी थी.’’

‘‘मैं किसी बेबसी का शिकार नहीं हूं. मैं अपने जीवन से पूरी तरह संतुष्ट हूं. मेरी दशा पर तरस खाने की आप को कोई आवश्यकता नहीं है,’’ कामना तीखे स्वर में बोली.

‘‘ठीक है, पर इस में इतना क्रोधित होने की क्या बात है? चलो, शीतल पेय पीते हैं. तेज गरमी में दिमाग को कुछ तो ठंडक मिलेगी,’’ अरुण शांत स्वर में बोला तो अपने उग्र स्वभाव पर मन ही मन लज्जित होती कामना उस के साथ चल पड़ी.

इस घटना को एक सप्ताह भी नहीं बीता था कि एक शाम कामना के घर के द्वार की घंटी बजी.

‘‘कहिए?’’ कामना के छोटे भाई ने द्वार खोलते ही प्रश्न किया.

‘‘मैं अरुण हूं. कामनाजी का सहयोगी और यह मेरी बड़ी बहन, स्थानीय कालेज में व्याख्याता हैं,’’ आगंतुकों में से एक ने अपना परिचय दिया.

संदीप उन्हें अंदर ले आया. फिर कामना के पास जा कर बोला, ‘‘दीदी, आप के किसी सहयोगी का नाम अरुण है क्या?’’

‘‘क्यों, क्या बात है?’’ अरुण का नाम सुनते ही कामना घबरा गई.

‘‘पता नहीं, वे अपनी बहन के साथ आए हैं. पर आप इस तरह घबरा क्यों गईं.’’

‘‘घबराई नहीं. मैं डर गई थी. मां को इस तरह किसी का आनाजाना पसंद नहीं है न, इसीलिए. तुम चलो, मैं आती हूं.’’

‘‘मैं किन शब्दों में आप को धन्यवाद दूं, आप ने मुझे कितनी बड़ी चिंता से मुक्ति दिलवा दी है,’’ कामना बैठक में पहुंची तो उस के पिता अरुण व उस की बहन से कह रहे थे.

‘‘विवाह के बाद भी कामना अपने परिवार की सहायता कर सकती है. हमें इस में कोई आपत्ति नहीं होगी,’’ अरुण की बहन बोलीं.

‘‘क्यों शर्मिंदा करती हैं आप. अब कामना के छोटे भाईबहनों की पढ़ाई भी समाप्त होने वाली है, सब ठीक हो जाएगा,’’ सुमन बोलीं.

‘‘अरे, कामना, आओ बेटी…देखो, अरुण और उन की बहन तुम्हारा हाथ मांगने आए हैं. मैं ने तो स्वीकृति भी दे दी है,’’ कामना को देखते ही उस के पिता मुसकराते हुए बोले.

कामना की निगाहें क्षणांश के लिए अरुण से मिलीं तो पहली बार उसे लगा कि नयनों की भी अपनी कोई भाषा होती है, उस ने निगाहें झुका लीं. विवाह की तिथि पक्की करने के लिए फिर मिलने का आश्वासन दे कर अरुण और उस की बहन ने विदा ली.

उन के जाते ही कामना पिता से बोली, ‘‘यह आप ने क्या किया? विवाह के पहले तो सभी मीठी बातें करते हैं किंतु विवाह के बाद उन्होंने मेरे वेतन को ले कर आपत्ति की तो मैं बड़ी कठिनाई में फंस जाऊंगी.’’

‘‘तुम भी निरी मूर्ख हो. इतना अच्छा वर, वह भी बिना दहेज के हमें कहां मिलेगा? फिर क्या तुम नहीं चाहतीं कि मैं ठीक हो जाऊं? तुम्हारे विवाह की बात सुनते ही मेरी आधी बीमारी जाती रही. देखो, कितनी देर से कुरसी पर बैठा हूं, फिर भी कमजोरी नहीं लग रही,’’ पिता ने समझाया.

‘‘तुम चिंता मत करो कामना. घर के पिछले 2 कमरे किराए पर उठा देंगे. फिर रचना भी तो नौकरी करने लगेगी. बस, तुम सदा सुखी रहो, यही हम सब चाहते हैं,’’ सुमन बोलीं. उन की आंखों में प्रसन्नता के आंसू झिलमिला रहे थे.  Family Story In Hindi

Social Story : कौन जाने – जीवन के सच्चे मूल्य को समझाती कहानी

Social Story : घर में मरघट सी चुप्पी थी. सबकुछ समाप्त हो चुका था. अभी कुछ पल पहले जो थी, अब वो नहीं थी. कुछ भी तो नहीं हुआ था, उसे. बस, जरा सा दिल घबराया और कहानी खत्म.

‘‘क्या हो गया बीना को?’’

‘‘अरे, अभी तो भलीचंगी थी?’’

सब के होंठों पर यही वाक्य थे.

जाने वाली मेरी प्यारी सखी थी और एक बहुत अच्छी इनसान भी. न कोई तकलीफ, न कोई बीमारी. कल शाम ही तो हम बाजार से लंबीचौड़ी खरीदारी कर के लौटे थे.

बीना के बच्चे मुझे देख दहाड़े मार कर रोने लगे. बस, गले से लगे बच्चों को मैं मात्र थपक ही रही थी, शब्द कहां थे मेरे पास. जो उन्होंने खो दिया था उस की भरपाई मेरे शब्द भला कैसे कर सकते थे?

इनसान कितना खोखला, कितना गरीब है कि जरूरत पड़ने पर शब्द भी हाथ छुड़ा लेते हैं. ऐसा नहीं कि सांत्वना देने वाले के पास सदा ही शब्दों का अभाव होता है, मगर यह भी सच है कि जहां रिश्ता ज्यादा गहरा हो वहां शब्द मौन ही रहते हैं, क्योंकि पीड़ा और व्यथा नापीतोली जो नहीं होती.

‘‘हाय री बीना, तू क्यों चली गई? तेरी जगह मुझे मौत आ जाती. मुझ बुढि़या की जरूरत नहीं थी यहां…मेरे बेटे का घर उजाड़ कर कहां चली गई री बीना…अरे, बेचारा न आगे का रहा न पीछे का. इस उम्र में इसे अब कौन लड़की देगा?’’

दोनों बच्चे अभीअभी आईं अपनी दादी का यह विलाप सुन कर स्तब्ध रह गए. कभी मेरा मुंह देखते और कभी अपने पिता का. छोटा भाई और उस की पत्नी भी साथ थे. वो भी क्या कहते. बच्चे चाचाचाची से मिल कर बिलखने लगे. शव को नहलाने का समय आ गया. सभी कमरे से बाहर चले गए. कपड़ा हटाया तो मेरी संपूर्ण चेतना हिल गई. बीना उन्हीं कपड़ों में थीं जो कल बाजार जाते हुए पहने थी.

‘अरे, इस नई साड़ी की बारी ही नहीं आ रही…आज चाहे बारिश आए या आंधी, अब तुम यह मत कह देना कि इतनी सुंदर साड़ी मत पहनो कहीं रिकशे में न फंस जाए…गाड़ी हमारे पास है नहीं और इन के साथ जाने का कहीं कोई प्रोग्राम नहीं बनता.

‘मेरे तो प्राण इस साड़ी में ही अटके हैं. आज मुझे यही पहननी है.’

हंस दी थी मैं. सिल्क की गुलाबी साड़ी पहन कर इतनी लंबीचौड़ी खरीदारी में उस के खराब होने के पूरेपूरे आसार थे.

‘भई, मरजी है तुम्हारी.’

‘नहीं पहनूं क्या?’ अगले पल बीना खुद ही बोली थी, ‘वैसे तो मुझे इसे नहीं पहनना चाहिए…चौड़े बाजार में तो कीचड़ भी बहुत होता है, कहीं कोई दाग लग गया तो…’

‘कोई सिंथेटिक साड़ी पहन लो न बाबा, क्यों इतनी सुंदर साड़ी का सत्यानास करने पर तुली हो…अगले हफ्ते मेरे घर किटी पार्टी है और उस में तुम मेहमान बन कर आने वाली हो, तब इसे पहन लेना.’

‘तब तो तुम्हारी रसोई मुझे संभालनी होगी, घीतेल का दाग लग गया तो.’

किस्सा यह कि गुलाबी साड़ी न पहन कर बीना ने वही साड़ी पहन ली थी जो अभी उस के शव पर थी. सच में गुलाबी साड़ी वह नहीं पहन पाई. दाहसंस्कार हो गया और धीरेधीरे चौथा और फिर तेरहवीं भी. मैं हर रोज वहां जाती रही. बीना द्वारा संजोया घर उस के बिना सूना और उदास था. ऐसा लगता जैसे कोई चुपचाप उठ कर चला गया है और उम्मीद सी लगती कि अभी रसोई से निकल कर बीना चली आएगी, बच्चों को चायनाश्ता पूछेगी, पढ़ने को कहेगी, टीवी बंद करने को कहेगी.

क्याक्या चिंता रहती थी बीना को, पल भर को भी अपना घर छोड़ना उसे कठिन लगता था. कहती कि मेरे बिना सब अस्तव्यस्त हो जाता है, और अब देखो, कितना समय हो गया, वहीं है वह घर और चल रहा है उस के बिना भी.

एक शाम बीना के पति हमारे घर चले आए. परेशान थे. कुछ रुपयों की जरूरत आ पड़ी थी उन्हें. बीना के मरने पर और उस के बाद आयागया इतना रहा कि पूरी तनख्वाह और कुछ उन के पास जो होगा सब समाप्त हो चुका था. अभी नई तनख्वाह आने में समय था.

मेरे पति ने मेरी तरफ देखा, सहसा मुझे याद आया कि अभी कुछ दिन पहले ही बीना ने मुझे बताया था कि उस के पास 20 हजार रुपए जमा हो चुके हैं जिन्हें वह बैंक में फिक्स डिपाजिट करना चाहती है. रो पड़ी मैं बीना की कही हुई बातों को याद कर, ‘मुझे किसी के आगे हाथ फैलाना अच्छा नहीं लगता. कम है तो कम खा लो न, सब्जी के पैसे नहीं हैं तो नमक से सूखी रोटी खा कर ऊपर से पानी पी लो. कितने लोग हैं जो रात में बिना रोटी खाए ही सो जाते हैं. कम से कम हमारी हालत उन से तो अच्छी है न.’

जमीन से जुड़ी थी बीना. मेरे लिए उस के पति की आंखों की पीड़ा असहनीय हो रही थी. घर कैसे चलता है उन्होंने कभी मुड़ कर भी नहींदेखा था.

‘‘क्या सोच रही हो निशा?’’ मेरे पति ने कंधे पर हथेली रख मुझे झकझोरा. आंखें पोंछ ली मैं ने.

‘‘रुपए हैं आप के घर में भाई साहब, पूरे 20 हजार रुपए बीना ने जमा कर रखे थे. वह कभी किसी से कुछ मांगना नहीं चाहती थी न. शायद इसीलिए सब पहले से जमा कर रखा था उस ने. आप उस की अलमारी में देखिए, वहीं होंगे 20 हजार रुपए.’’

बीना के पति चीखचीख कर रोने लगे थे. पूरे 25 साल साथ रह कर भी वह अपनी पत्नी को उतना नहीं जान पाए थे जितना मैं पराई हो कर जानती थी. मेरे पति ने उन्हें किसी तरह संभाला, किसी तरह पानी पिला कर गले का आवेग शांत किया.

‘‘अभी कुछ दिन पहले ही सारा सामान मुझे और बेटे को दिखा रही थी. मैं ने पूछा था कि तुम कहीं जा रही हो क्या जो हम दोनों को सब समझा रही हो तो कहने लगी कि क्या पता मर ही जाऊं. कोई यह तो न कहे कि मरने वाली कंगली ही मर गई.

‘‘तब मुझे क्या पता था कि उस के कहे शब्द सच ही हो जाएंगे. उस के मरने के बाद भी मुझे कहीं नहीं जाना पड़ा. अपने दाहसंस्कार और कफन तक का सामान भी संजो रखा था उस ने.’’

बीना के पति तो चले गए और मैं किंकर्तव्यविमूढ़ सी सोचती रही. जीवन कितना छोटा और क्षणिक है. अभी मैं हूंपर क्षण भर बाद भी रहूंगी या नहीं, कौन जाने. आज मेरी जबान चल रही है, आज मैं अच्छाबुरा, कड़वामीठा अपनी जीभ से टपका रही हूं, कौन जाने क्षण भर बाद मैं रहूं न रहूं. कौन जाने मेरे कौन से शब्द आखिरी शब्द हो जाने वाले हैं. मेरे द्वारा किया गया कौन सा कर्म आखिरी कर्म बन जाने वाला है, कौन जाने.

मौत एक शाश्वत सचाई है और इसे गाली जैसा न मान अगर कड़वे सत्य सा मान लूं तो हो सकता है मैं कोई भी अन्याय, कोई भी पाप करने से बच जाऊं. यही सच हर प्राणी पर लागू होता है. मैं आज हूं, कल रहूं न रहूं कौन जाने.

मेरे जीवन में भी ऐसी कुछ घटनाएं घटी हैं जिन्हें मैं कभी भूल नहीं पाती हूं. मेरे साथ चाहेअनचाहे जुड़े कुछ रिश्ते जो सदा कांटे से चुभते रहे हैं. कुछ ऐसे नाते जिन्होंने सदा अपमान ही किया है.

उन के शब्द मन में आक्रोश से उबलते रहते हैं, जिन से मिल कर सदा तनाव से भरती रही हूं. एकाएक सोचने लगी हूं कि मेरा जीवन इतना भी सस्ता नहीं है, जिसे तनाव और घृणा की भेंट चढ़ा दूं. कुदरत ने अच्छा पति, अच्छी संतान दी है जिस के लिए मैं उस की आभारी हूं.

इतना सब है तो थोड़ी सी कड़वाहट को झटक देना क्यों न श्रेयस्कर मान लूं.क्यों न हाथ झाड़ दूं तनाव से. क्यों न स्वयं को आक्रोश और तनाव से मुक्त कर लूं. जो मिला है उसी का सुख क्यों न मनाऊं, क्यों व्यर्थ पीड़ा में अपने सुखचैन का नाश करूं.

प्रकृति ने इतनी नेमतें प्रदान की हैंतो क्यों न जरा सी कड़वाहट भी सिरआंखों पर ले लूं, क्यों न क्षमा कर दूं उन्हें, जिन्होंने मुझ से कभी प्यार ही नहीं किया. और मैं ने उन्हें तत्काल क्षमा कर दिया, बिना एक भी क्षण गंवाए, क्योंकि जीवन क्षणिक है न. मैं अभी हूं, क्षण भर बाद रहूं न रहूं, ‘कौन जाने.’ Social Story

Family Story : दीवारें – एक औरत की दर्द भरी कहानी

Family Story : सास के आगे जबान नहीं खुलती थी मेरी और जब खुद सास हूं तो बहू के आगे जबान नहीं चलती. मन की इच्छाएं पहले भी दबी थीं और आज भी जैसे दबी की दबी ही रह गई हैं. आज ये दीवारें मुझे इतनी अपनी क्यों लग रही हैं. 30 वर्षों की गृहस्थी में मैं ने इन दीवारों को कभी भी अपना नहीं समझा. लेकिन, अब महसूस हो रहा है कि इन दीवारों से ज्यादा अपना तो कोई है ही नहीं. 30 वर्षों पहले इस घर में ब्याह कर आई थी, तो इन दीवारों को अपनी सास के घर की दीवारें मान ली थीं. उस के बाद कितनी कोशिश की थी मैं ने इन दीवारों को अपना बनाने की, पर कभी भी इतना अपनापन मेरे मन में नहीं जागा था. आते ही सास ने फरमान सुना दिया था, ‘बहू, मेरे घर में ऐसा होता है,’ वैसा होता है. कोईर् भी बात होती तो वह यही कहती थीं, ‘यह मेरा घर है, इस में ऐसा ही होगा और अगर किसी को मेरी बात नहीं माननी तो वह मेरा घर छोड़ सकता है.’

लेकिन आज दोपहर को सोते वक्त ऐसा लग रहा था जैसे ये दीवारें मुझ से कह रही हैं, ‘देखा तनु, हमें ठुकरा दिया पर हम तेरा साथ कभी भी नहीं छोड़ेंगे, हम आज भी तेरी हैं, सब तुझे धोखा दे देंगे पर हम तुझे कभी भी धोखा नहीं देंगी.’ आजकल क्या दीवारों से आवाजें आनी शुरू हो गई हैं, क्यों मैं दीवारों से बातें सुनती हूं, ऐसी तो कुछ भी अनहोनी नहीं हुई है मेरे जीवन में. हर मां के जीवन में ऐसा वक्त आता ही है, फिर मैं इतना अकेलापन क्यों महसूस कर रही हूं. पहले भी तो इतनी अकेली ही थी, फिर आज यह अकेलापन इतना ज्यादा क्यों खलने लगा है. पड़ोस वाली आंटी कहने लगी हैं, ‘अच्छा किया बेटा, फ्री हो गई है. बच्चों का ब्याह कर दिया. अब आराम कर, घूमफिर, अपने शौक पूरे कर.’ पर कौन से शौक, कौन सा घूमनाफिरना, कौन सा आराम, सबकुछ तो मन से होता है और बहुत ज्यादा पैसों से. मन अगर स्वस्थ न हो तो कुछ भी नहीं होता है और अगर जेब में पैसा न हो तो कुछ हो ही नहीं सकता. यह ठीक है कि जीवन आराम से बीत रहा है, पर इतना तो कभी भी नहीं हुआ कि रोजरोज घूमने जाऊं. कोई कहता है कि अब भगवान का नाम लो, कीर्तनों में जाओ, कथाएं सुनो. पर जीवनभर मेरा घर ही मेरा मंदिर, काशी, काबा सब रहा है, तो अब 50 बरस की उम्र में यह नया शौक कहां से पालूं. काम करने की सोची, तो लोगों ने यह कह कर काम नहीं दिया कि आप की उम्र के लोगों को अब आराम करना चाहिए.

क्या 50 साल की उम्र में मैं बूढ़ी हो गई हूं. और अब सिर्फ भगवान, जो है भी कि नहीं, का ही सहारा लूं या फिर चुपचाप बैठ कर बेकार के भजनकीर्तन ही सुनूं? बेटी का फोन आया, ‘मां, आप कोई एनजीओ जौइन कर लो. आप का मन लग जाएगा और समाजेसवा करने से संतुष्टि भी मिलेगी.’ लेकिन एक मध्यवर्गीय गृहस्थन क्या जाने यह समाजसेवा क्या होती है, जिस ने सारी उम्र अपने घर से बाहर कदम न रखा हो, वह क्या समाजसेवा करेगी. बेटे का फोन आया, ‘4 घंटे का सफर है, मम्मी. जब आप को जरूरत होगी, आ जाऊंगा.’ पर जब बहुत ज्यादा बीमार पड़ी थी. तब भी बेटे का फोन ही आया, ‘मम्मी, आ तो जाऊं पर छुट्टी नहीं मिल रही है.’ ‘नहीं बेटा, मत आओ, मैं कर लूंगी और तुम्हारे पापा तो हैं ही न,’ भरे मन से कहना पड़ा था. उस वक्त भी तो सिर्फ ये दीवारें मुझ से कह रही थीं कि कोई बात नहीं, हम हैं न तेरा खयाल रखने के लिए, तू आराम कर, हम तेरा खयाल रखेंगी, हम हैं न तेरे साथ, जब तू थक कर सो जाएगी तो हम तेरा पहरा देंगी. सारा जीवन मैं इन दीवारों से इतने अपनेपन का एहसास नहीं कर सकी. सारा जीवन सोचती रही कि कब इन दीवारों से पीछा छूटेगा और कब अपनी नई दीवारें बनेंगी. यह तो बहुत ही छोटा सा घर है. चलो, पति ने नया घर नहीं बनवा कर दिया, उन की आमदनी इतनी नहीं थी कि एक नया घर ले लें. बहनभाइयों की जिम्मेदारी उठाते रहे. फिर अपने बच्चों की. इतना समय और पैसा ही नहीं बचा था कि अपना नया घर बनवा लेते. बेटे की बहुत अच्छी नौकरी लगी थी. मन में एक उम्मीद जगी थी कि अब तो नया घर बनवा ही लेंगे, कुछ जमापूंजी हम लगाएंगे और कुछ बेटे से लेंगे और मैं स्वयं की खड़ी हुई दीवारों में जाऊंगी. पर अपने शहर से दूर अच्छी नौकरी लगते ही बेटे के ऊपर मक्खियों की तरह लड़कियां भिनभिनाने लगी थीं. आखिर, एक लड़की के प्यार में मेरा बेटा फंस ही गया और आननफानन शादी का फैसला भी हो गया. ‘बहुत अच्छी लड़की है, फिर घराना भी अच्छा है,’

पति ने समझाया. ‘मम्मी, अभी तो भाई को लड़की पसंद है, फिर बाद में ढूंढ़नी पड़ेगी,’ बेटी ने समझाया. ‘हां ये ठीक ही तो कह रहे हैं. कुछ अनहोनी तो नहीं हो रही है. सब बेटों की शादी होती है. तो फिर, मैं इतनी परेशान क्यों हूं.’ बड़े लाड़ से बहू को घर में ब्याह कर लाईर् थी. लेकिन आते ही बहू ने न सिर्फ बेटे को हथिया लिया था बल्कि सारे गहने भी अपने कब्जे में कर लिए थे. मैं अपनी खामोशी की आदत के कारण कुछ बोल ही नहीं पाई थी. ‘मम्मीजी, यह तो बहुत ही सुंदर हार है. मैं इसे ले लूं अपनी सहेली की शादी में डालूंगी.’ एक बार भी तो न नहीं कर पाई थी. मन में खीझती रहती थी. पर ऊपर से कुछ नहीं कह पाती थी. धीरेधीरे बहू प्यार से काफी गहने ले गई थी. पति भी उसी का साथ देते थे, ‘उसी के लिए तो बनवाया है. फिर उसे देने में क्या हर्ज है.’ कैसे बताती कि सारी उम्र मैं ने कभी अपनी सास से यह तक नहीं पूछा था कि मम्मीजी, मेरे गहने कहां रखे हैं. और आज मैं अपनी बहू से यह नहीं कह पा रही हूं कि बेटे, ये गहने मेरे पास ही रहने दो. हमारी पीढ़ी की सासों की यही विडंबना है कि अपनी सासों से भी सारी उम्र डरती रही और अब पढ़ीलिखी सास होने के कारण बहुओं को कुछ कह नहीं पातीं. शायद मैं ने बेटे से कुछ ज्यादा ही उम्मीदें लगाई थीं. तभी हमेशा उस पर विश्वास कर के अपने घर का सपना देखती रही थी.

आखिरकार, वह मुबारक दिन आ ही गया था. लेकिन जमीन की रजिस्ट्री होने लगी, तो बेटे ने कहा, ‘मम्मी रजिस्ट्री तो सुनंदा के नाम से करवाते हैं, लोन लेने में आसानी होगी. वह नौकरी करती है न.’ ‘लेकिन, पैसा तो पापा का भी लग रहा है,’ सोच ही सकी पर मुंह से बोल नहीं पाई, क्योंकि उस से पहले ही पति बोल पड़े, ‘कोई बात नहीं. किसी के नाम भी करवाओ. घर तो बन ही रहा है न. वैसे भी, हमारा जो है वो इसी का तो है.’ ‘मेरा मन चीखने लगा, मेरी दीवारें कहां हैं?’ सालों तक इंतजार करने के बाद भी मेरे हाथ कुछ नहीं आया, दीवारें तक नहीं. घर बन कर तैयार हो गया था. मैं स्वार्थी नहीं थी और न ही अपने बेटे के बारे में कुछ बुरा सोच सकती थी. पर इस मन का क्या करती जो बरसों से एक ही आस मन में लगाए बैठा था कि मेरी भी अपनी दीवारें होंगी और उन दीवारों को मैं अपने हिसाब से सजा सकूंगी. लेकिन बेटे के लिए मन की सारी कुंठाएं मिटा कर उस का घर बनने का इंतजार करती रही. मुझे वह दिन याद आ रहा था जब मैं ने इस घर में बदलाव लाना चाहा था. तब मेरी सास ने साफ इनकार कर दिया. ‘इस घर में कुछ भी बदलाव नहीं होगा, यह मेरा घर है और इस में वही होगा जो मैं चाहूंगी.’ उन की वह रोबीली आवाज आज तक मेरे कानों में गूंज जाती है और उन के मरने के इतने सालों बाद भी मैं इस घर में कुछ भी नहीं बदल सकी. कुछ दिनों पहले सोफे बदलने चाहे थे तो पति ने मना कर दिया, ‘अरे, अब इस पुराने घर में पैसा लगाने का क्या फायदा. नया घर बनवाएंगे, तो फिर सोफे भी बनवा लेना.’ मन फिर से उलझ गया, ठीक ही तो है, पुराने घर में पुराने सोफे ही तो चलेंगे. नए घर में नए सोफे की बात करनी चाहिए.’ ठीक है, पर यह नया घर कब बनेगा और मुझे नई दीवारें कब मिलेंगी. अब तो जीवन की संध्या आ गई है.

बेटे का घर बन कर तैयार हो गया था. बेटे का इसलिए क्योंकि इस घर में कुछ पैसों के अलावा मेरी पसंद का कुछ भी नहीं था. सबकुछ बेटे और बहू ही पसंद कर के लाते थे. मैं मां थी, अपने ही बच्चे से ईर्ष्याभाव कैसे रख सकती थी. पर इस मन का क्या करूं जो सदा से कुछ अपनी दीवारें चाहता था. गृहप्रवेश का समय तय हो गया था. ‘मम्मा, आप जल्दी आना. आप को ही पहले घर में प्रवेश करना है,’ बेटे का मान करना अच्छा लगा था. पर गाड़ी लेट हो गईर् थी. घर में सुनंदा की मां प्रवेश कर चुकी थी. ‘आप देर से आईं, तो किसी बुजुर्ग को घर में प्रवेश करना था, सो, मोहित जिद कर के मुझे पहले ले आया था,’ उस की बात मुझे कांटे की तरह चुभी थी. पता नहीं वह व्यंग्य कर रही थी या शायद ऐसे ही कहा था पर मेरा मन ऐसा रोया कि पूरे समय मैं व्याकुल ही रही थी. ‘कैसा लगा घर, मम्मी,’ रात को मोहित पूछ रहा था. एक कमरा मेरा भी बनाया गया था, उसे ही देख कर खुश हो रही थी. ‘बहुत अच्छा बना है, बेटा,’ मैं खुश हो कर बोली थी. ‘यह घर आप का है, आप ही इस घर की मालकिन हैं, यह कमरा आप का है. जब आप आएंगी तो इस में रहेंगी.’ मैं खुश हो गई थी. अभी भी बेटे और बहू को मेरी परवा है, ऐसे ही गलत सोच रही हूं मैं, कभी नाखून भी मांस से जुदा होते हैं.’ ‘क्या सोच रही हो, मम्मी, आप का जब तक मन करेगा, यहीं रहें न,’ बेटे ने फिर से कहा. उदास हो गई थी मैं. क्या यह कहना जरूरी था. हां बेटा, ये दीवारें तू ने बड़ी मेहनत से खड़ी की हैं और अब इन दीवारों पर मेरा हक कहां, ‘नहीं बेटा, ज्यादा नहीं रह पाऊंगी, तुम्हारे पापा तो चले जाएंगे और फिर उन्हें अकेला भी तो छोड़ा नहीं जा सकता.’ कनखियों से देखा बहू और बेटे के चेहरे पर सुकून की रेखा नजर आई. सच ही तो है, जितना भी चुप रहो, पास बैठ कर कुछ तो मुंह से निकल ही आता है, ‘सुनंदा, हाथ धो कर रसोई में जाया करो.’ सुनंदा ऐसे मुंह बनाती जैसे मुझ पर एहसान कर रही हो. मन मायूस हो जाता. ‘सुनंदा रात को कपड़े बाहर से उठा लिया करो इतनी मेहनत से धुलते हैं और रात को ओस से गीले हो जाते हैं,’ फिर बोल पड़ी थी. ‘जी मम्मी’ पर लगता है यह बात भी उसे पसंद नहीं आई थी.

तभी तो सुबह तक कपड़े बाहर ही पड़े थे. फिर मन कह उठा, चुप रहा कर ज्यादा मत बोला कर. ऐसे ही कई छोटीछोटी बातें थीं. जिन्होंने मन को छलनी कर दिया था. हफ्ताभर भी न रह पाई थी बच्चों के पास. शायद, मैं ज्यादा ही दखलंदाजी करने लगी थी. पर मेरी सास भी तो करती थी और मेरी हिम्मत नहीं होती थी उन्हें कुछ कहने की और उन की बात तो जैसे मेरे लिए पत्थर की लकीर होती थी. अगर कभी कुछ मना करने की सोचो भी, तो पति से डांट अलग पड़ती थी. पर वो ही पति अपनी बहू के लिए कैसी अलग सोच रखने लगे हैं. शायद जमाना बदल गया है. पर मेरे लिए क्यों नहीं बदला. शायद, मैं ही नहीं बदल पाई हूं या फिर मैं ने सब से कुछ ज्यादा ही उम्मीदें लगा रखी हैं या फिर पता नहीं क्यों. लेकिन कुछ तो है जो मुझे तकलीफ देता है और मैं उस तकलीफ से बाहर आना भी नहीं चाहती. हफ्ते बाद ही मेरे जाने का समय आ गया था. ‘मम्मी, जा कर फोन कर देना,’ बेटे ने चिंता व्यक्त की. ‘हां जरूर, अपना खयाल रखना.’ अब मैं वापस अपनी दीवारों के पास जा रही थी. Family Story

Social Story In Hindi : रूढ़ियों के साए में

Social Story In Hindi : दीपों की टेढ़ीमेढ़ी कतारों के कुछ दीप अपनी यात्रा समाप्त कर अंधकार के सागर में विलीन हो चुके थे, तो कुछ उजाले और अंधेरे के बीच की दूरी में टिमटिमा रहे थे. गली का शोर अब कभीकभार के पटाखों के शोर में बदल चुका था.

दिव्या ने छत की मुंडेर से नीचे आंगन में झांका जहां मां को घेर पड़ोस की औरतें इकट्ठी थीं. वह जानबूझ कर वहां से हट आई थी. महिलाओं का उसे देखते ही फुसफुसाना, सहानुभूति से देखना, होंठों की मंद स्मिति, दिव्या अपने अंतर में कहां तक झेलती? ‘कहीं बात चली क्या…’, ‘क्या बिटिया को बूढ़ी करने का इरादा है…’ वाक्य तो अब बासी भात से लगने लगे हैं, जिन में न कोई स्वाद रहता है न नयापन. हां, जबान पर रखने की कड़वाहट अवश्य बरकरार है.

काफी देर हो गई तो दिव्या नीचे उतरने लगी. सीढि़यों पर ही रंभा मिल गई. बड़ेबड़े फूल की साड़ी, कटी बांहों का ब्लाउज और जूड़े से झूलती वेणी…बहुत ही प्यारी लग रही थी, रंभा.

‘‘कैसी लग रही हूं, दीदी…मैं?’’ रंभा ने उस के गले में बांहें डालते हुए पूछा तो दिव्या मुसकरा उठी.

‘‘यही कह सकती हूं कि चांद में तो दाग है पर मेरी रंभा में कोई दाग नहीं है,’’ दिव्या ने प्यार से कहा तो रंभा खिलखिला कर हंस दी.

‘‘चलो न दीदी, रोशनी देखने.’’

‘‘पगली, वहां दीप बुझने भी लगे, तू अब जा रही है.’’

‘‘क्या करती दीदी, महल्ले की डाकिया रमा चाची जो आ गई थीं. तुम तो जानती हो, अपने शब्दबाणों से वे मां को कितना छलनी करती हैं. वहां मेरा रहना जरूरी था न.’’

दिव्या की आंखें छलछला आईं. रंभा को जाने का संकेत करती वह अपने कमरे में चली आई. बत्ती बुझाने के पूर्व उस की दृष्टि सामने शीशे पर चली गई, जहां उस का प्रतिबिंब किसी शांत सागर की याद दिला रहा था. लंबे छरहरे शरीर पर सौम्यता की पहनी गई सादी सी साड़ी, लंबे बालों का ढीलाढाला जूड़ा, तारे सी नन्ही बिंदी… ‘क्या उस का रूप किसी पुरुष को रिझाने में समर्थ नहीं है? पर…’

बिस्तर पर लेटते ही दिव्या के मन के सारे तार झनझना उठे. 30 वर्षों तक उम्र की डगर पर घिसटघिसट कर बिताने वाली दिव्या का हृदय हाहाकार कर उठा. दीवाली का पर्व सतरंगे इंद्रधनुष में पिरोने वाली दिव्या के लिए अब न किसी पर्व का महत्त्व था, न उमंग थी. रूढि़वादी परिवार में जन्म लेने का प्रतिदान वह आज तक झेल रही है. रूप, यौवन और विद्या इन तीनों गुणों से संपन्न दिव्या अब तक कुंआरी थी. कारण था जन्मकुंडली का मिलान.

तकिए का कोना भीगा महसूस कर दिव्या का हाथ अनायास ही उस स्थान को टटोलने लगा जहां उस के बिंदु आपस में मिल कर अतीत और वर्तमान की झांकी प्रस्तुत कर रहे थे. अभी एक सप्ताह पूर्व की ही तो बात है, बैठक से गुजरते हुए हिले परदे से उस ने अंदर देख लिया था. पंडितजी की आवाज ने उसे अंदर झांकने पर मजबूर किया, आज किस का भाग्य विचारा जा रहा है? पंडितजी हाथ में पत्रा खोले उंगलियों

पर कुछ जोड़ रहे थे. कमरे तक आते हुए दिव्या ने हिसाब लगाया, 7 वर्ष से उस के भाग्य की गणना की जा रही है.

खिड़की से आती धूप की मोटी तह उस के बिस्तर पर साधिकार पसरी हुई थी. दिव्या ने क्षुब्ध हो कर खिड़की बंद कर दी.

‘‘दीदी…’’ बाहर से रंभा ने आते ही उस के गले में बांहें डाल दीं.

‘‘बाहर क्या हो रहा है…’’ संभलते हुए दिव्या ने पूछा था.

‘‘वही गुणों के मिलान पर तुम्हारा दूल्हा तोला जा रहा है.’’

रंभा ने व्यंग्य से उत्तर दिया, ‘‘दीदी, मेरी समझ में नहीं आता…तुम आखिर मौन क्यों हो? तुम कुछ बोलती क्यों नहीं?’’

‘‘क्या बोलूं, रंभा?’’

‘‘यही कि यह ढकोसले बंद करो. 7 वर्षों से तुम्हारी भावनाओं से खिलवाड़ किया जा रहा है और तुम शांत हो. आखिर ये गुण मिल कर क्या कर लेंगे? कितने अच्छेअच्छे रिश्ते अम्मांबाबूजी ने छोड़ दिए इस कुंडली के चक्कर में. और वह इंजीनियर जिस के घर वालों ने बिना दहेज के सिर्फ तुम्हें मांगा था…’’

‘‘चुप कर, रंभा. अम्मां सुनेंगी तो क्या कहेंगी.’’

‘‘सच बोलने से मैं नहीं डरती. समय आने दो. फिर पता चलेगा कि इन की रूढि़वादिता ने इन्हें क्या दिया.’’

रंभा के जलते वाक्य ने दिव्या को चौंका दिया. जिद्दी एवं दबंग लड़की जाने कब क्या कर बैठे. यों तो उस का नाम रंभा था पर रूप में दिव्या ही रंभा सी प्रतीत होती थी. मां से किसी ने एक बार कहा भी था, ‘बहन, आप ने नाम रखने में गलती कर दी. रंभा सी तो आप की बड़ी बेटी है. इसे तो कोई भाग्य वाला मांग कर ले जाएगा,’

तब मां चुपके से उस के कान के पीछे काला टीका लगा जातीं. कान के पीछे लगा काला दाग कब मस्तक तक फैल आया, स्वयं दिव्या भी नहीं जान पाई.

बी.एड. करते ही एक इंटर कालेज में दिव्या की नौकरी लग गई तो शुरू हुआ सिलसिला ब्याह का. तब पंडितजी ने कुंडली देख कर बताया कि वह मंगली है, उस का ब्याह किसी मंगली युवक से ही हो सकता है अन्यथा दोनों में से कोई एक शीघ्र कालकवलित हो जाएगा.

पहले तो उस ने इसे बड़े हलकेफुलके ढंग से लिया. जब भी कोई नया रिश्ता आता, उस के गाल सुर्ख हो जाते, दिल मीठी लय पर धड़कने लगता. पर जब कई रिश्ते कुंडली के चक्कर में लौटने लगे तो वह चौंक पड़ी. कई रिश्ते तो बिना दानदहेज के भी आए पर अम्मांबाबूजी ने बिना कुंडली का मिलान किए शादी करने से मना कर दिया.

धीरेधीरे समय सरकता गया और घर में शादी का प्रसंग शाम की चाय सा साधारण बैठक की तरह हो गया. एकदो जगह कुंडली मिली भी तो कहीं लड़का विधुर था, कहीं परिवार अच्छा नहीं था. आज घर में पंडितजी की उपस्थिति बता रही थी कि घर में फिर कोई तामझाम होने वाला है.

वही हुआ, रात्रि के भोजन पर अम्मांबाबूजी की वही पुरानी बात छिड़ गई.

‘‘मैं कहती हूं, 21 गुण कोई माने नहीं रखते, 26 से कम गुण पर मैं शादी नहीं होने दूंगी.’’

‘‘पर दिव्या की मां, इतनी देर हो चुकी है. दिव्या की उम्र बीती जा रही है. कल को रिश्ते मिलने भी बंद हो जाएंगे. फिर पंडितजी का कहना है कि यह विवाह हो सकता है.’’

‘‘कहने दो उन्हें, एक तो लड़का विधुर, दूसरे, 21 गुण मिलते हैं,’’ तभी वे रुक गईं.

रंभा ने पानी का गिलास जोर से पटका था, ‘‘सिर्फ विधुर है. उस से पूछो, बच्चे कितने हैं? ब्याह दीदी का उसी से करना…गुण मिलना जरूरी है लेकिन…’’

रंभा का एकएक शब्द उमंगों के तरकश से छोड़ा हुआ बाण था जो सीधे दिव्या ने अपने अंदर उतरता महसूस किया.

‘‘क्या बकती है, रंभा, मैं क्या तुम लोगों की दुश्मन हूं? हम तुम्हारे ही भले की सोचते हैं कि कल को कोई परेशानी न हो, इसी से इतनी मिलान कराते हैं,’’ मां की झल्लाहट स्वर में स्पष्ट झलक रही थी.

‘‘और यदि कुंडली मिलने के बाद भी जोड़ा सुखी न रहा या कोई मर गया तो क्या तुम्हारे पंडितजी फिर से उसे जिंदा कर देंगे?’’ रंभा ने चिढ़ कर कहा.

‘‘अरे, कीड़े पड़ें तेरी जबान में. शुभ बोल, शुभ. तेरे बाबूजी से मेरे सिर्फ 19 गुण मिले थे, आज तक हम दोनों विचारों में पूरबपश्चिम की तरह हैं.’’

अम्मांबाबूजी से बहस व्यर्थ जान रंभा उठ गई. दिव्या तो जाने कब की उठ कर अपने कमरे में चली गई थी. दोचार दिन तक घर में विवाह का प्रसंग सुनाई देता रहा. फिर बंद हो गया. फिर किसी नए रिश्ते की बाट जोहना शुरू हो गया. दिव्या का खामोश मन कभीकभी विद्रोह करने को उकसाता पर संकोची संस्कार उसे रोक देते. स्वयं को उस ने मांबाप एवं परिस्थितियों के अधीन कर दिया था.

रंभा के विचार सर्वथा भिन्न थे. उस ने बी.ए. किया था और बैंक की प्रतियोगी परीक्षा में बैठ रही थी. अम्मांबाबूजी के अंधविश्वासी विचारों पर उसे कुढ़न होती. दीदी का तिलतिल जलता यौवन उसे उस गुलाब की याद दिलाता जिस की एकएक पंखड़ी को धीरेधीरे समय की आंधी अपने हाथों तोड़ रही हो.

आज दीवाली की ढलती रात अपने अंतर में कुछ रहस्य छिपाए हुए थी. तभी तो बुझते दीपों के साथ लगी उस की आंख सुबह के हलके शोर से टूट गई. धूप काफी निकल आई थी. रंभा उत्तेजित स्वरों में उसे जगा रही थी, ‘‘दीदी…दीदी, उठो न…देखो तो भला नीचे क्या हो रहा है…’’

‘‘क्या हो रहा है नीचे? कोई आया है क्या?’’

‘‘हां, दीदी, अनिल और उस के घर वाले.’’

‘‘अनिल वही तो नहीं जो तुम्हारा मित्र है और जो मुंसिफ की परीक्षा में बैठा था,’’ दिव्या उठ बैठी.

‘‘हां, दीदी, वही. अनिल की नियुक्ति शाहजहांपुर में ही हो गई है. दीदी, हम दोनों एकदूसरे को पसंद करते हैं. सोचा था शादी की बात घर में चलाएंगे पर कल रात अचानक अनिल के घर वालों ने अनिल के लिए लड़की देखने की बात की तब अनिल ने उन्हें मेरे बारे में बताया.’’

‘‘फिर…’’ दिव्या घबरा उठी.

‘‘फिर क्या? उन लोगों ने तो मुझे देखा था, वह अनिल पर इस कारण नाराज हुए कि उस ने उन्हें इस विषय में पहले ही क्यों नहीं बता दिया, वे और कहीं बात ही न चलाते. वे तो रात में ही बात करने आ रहे थे पर ज्यादा देर हो जाने से नहीं आए. आज अभी आए हैं.’’

‘‘और मांबाबूजी, वे क्या कह रहे हैं?’’ दिव्या समझ रही थी कि रंभा का रिश्ता भी यों आसानी से तय होने वाला नहीं है.

‘‘पता नहीं, उन्हें बिठा कर मैं पहले तुम्हें ही उठाने आ गई. दीदी, तुम उठो न, पता नहीं अम्मां उन से क्या कह दें?’’

दिव्या नीचे पहुंची तो उस की नजर सुदर्शन से युवक अनिल पर पड़ी. रंभा की पसंद की प्रशंसा उस ने मन ही मन की. अनिल की बगल में उस की मां और बहन बैठी थीं. सामने एक वृद्ध थे, संभवत: अनिल के पिताजी. उस ने सुना, मां कह रही थीं, ‘‘यह कैसे हो सकता है बहनजी, आप वैश्य हम बंगाली ब्राह्मण. रिश्ता तो हो ही नहीं सकता. कुंडली तो बाद की चीज है.’’

‘‘पर बहनजी, लड़कालड़की एकदूसरे को पसंद करते हैं. हमें भी रंभा पसंद है. अच्छी लड़की है, फिर समस्या क्या है?’’ यह वृद्ध सज्जन का स्वर था.

‘‘समस्या यही है कि हम दूसरी जाति में लड़की नहीं दे सकते,’’ मां के सपाट स्वर पर मेहमानों का चेहरा सफेद हो गया. अपमान एवं विषाद की रेखाएं उन के अस्तित्व को कुरेदने लगीं. अनिल की नजर उठी तो दिव्या की शांत सागर सी आंखों में उलझ गई. घने खुले बाल, सादी सी धोती और शरीर पर स्वाभिमान की तनी हुई कमान. वह कुछ बोलता इस के पूर्व ही दिव्या की अपरिचित ध्वनि गूंजी, ‘‘यह शादी अवश्य होगी, मां. अनिल रंभा के लिए सर्वथा उपयुक्त वर है. ऐसे घर में जा कर रंभा सुखी रहेगी. चाहे कोई कुछ भी कर ले मैं जाति एवं कुंडली के चक्कर में रंभा का जीवन नष्ट नहीं होने दूंगी.’’

‘‘दिव्या, यह तू…तू बोल रही है?’’ पिता का स्वर आश्चर्य से भरा था.

‘‘बाबूजी, जो कुछ होता रहा, मैं शांत हो देखती रही क्योंकि आप मेरे मातापिता हैं, जो करते अच्छा करते. परंतु 7 वर्षों में मैं ने देख लिया कि अंधविश्वास का अंधेरा इस घर को पूरी तरह समेटे ले रहा है.

‘‘रंभा मेरी छोटी बहन है. उसे मुझ से भी कुछ अपेक्षाएं हैं जैसे मुझे आप से थीं. मैं उस की अपेक्षा को टूटने नहीं दूंगी. यह शादी होगी और जरूर होगी,’’ फिर वह अनिल की मां की तरफ मुड़ कर बोली, ‘‘आप विवाह की तिथि निकलवा लें. रंभा आप की हुई.’’

अब आगे किसी को कुछ बोलने का साहस नहीं हुआ पर रंभा सोच रही थी, ‘दीदी नारी का वास्तविक प्रतिबिंब है जो स्वयं पर हुए अन्याय को तो झेल लेती है पर जब चोट उस के वात्सल्य पर या अपनों पर होती है तो वह इसे सहन नहीं कर पाती. इसी कारण तो ढेरों विवाद और तूफान को अंतर में समेटे सागर सी शांत दिव्या आज ज्वारभाटा बन कर उमड़ आई है.’    Social Story In Hindi 

Bed Making : अब आप भी बना सकते हैं अपना शानदार बेड

Bed Making : अब इतनी आसान तकनीक आ गई है जिस से लकड़ी का बेड कोई भी आसानी से बना सकता है. मजेदार बात यह कि इस का असेम्बल प्रोसेस इतना आसान है कि इस में कारपेंटर की जरूरत भी नहीं.

जब भी हम बेडरूम में एक शानदार बेड की बात करते हैं तो हमेशा इस बात की चिंता रहती है कि लकड़ी कहां से आएगी ? कैसे लकड़ी की पहचान करें ? प्लाई से बने बेड टिकाऊ होंगे या नहीं ? इस को बनाने के लिए कारपेंटर कैसा होगा ? सही कारीगर नहीं हुऐ तो क्या होगा ? पैसे तो ज्यादा न ले ले ? हमारे बेडरूम से मैचिंग फर्नीचर कैसा होगा ? तमाम तरह के सवालों से परेशान हो कर लोग नए बेड या फर्नीचर का सपना ही त्याग देते हैं.

टैक्नलौजी ने इस परेशानी का हल निकाल दिया है. मजेदार बात यह है कि आप अपना बेड बिना किसी कारपेंटर की मदद के खुद ही फिट कर सकते हैं. इस के लिऐ न तो किसी कारपेंटर की मदद लेने की जरूरत है और न ही स्क्रू और कील जैसे जरूरती चीजों की. अपने बेड को बना कर उस पर लेटने का सुख कुछ अलग ही अनुभव देता है. यह आप की सोच, जरूरत और स्टाइल के तो होते ही हैं मजबूत किफायती और टिकाऊ भी होते हैं.

बिल्ट-इन या कस्टमाइज्ड फर्नीचर

अपने से फिट किये जाने वाले फर्नीचर को ‘बिल्ट-इन’ या ‘कस्टमाइज्ड फर्नीचर’ कहा जाता है. कमरे की जगह का अधिकतम प्रयोग करने के साथ ही साथ यह अपने बेहतरीन डिजाइन की वजह से पंसद किए जा रहे हैं. यह फर्नीचर कमरे की दीवारों और फर्श के साथ मैच करते हुए हो सकते हैं. अब फर्नीचर केवल वुडेन कलर तक सीमित नहीं रह गए है. यह पानी और दूसरी चीजों से जल्दी खराब नहीं होते हैं. जरूरत के हिसाब से इन को मजबूत बनाने के लिए स्टील की रौड या छड़ का उपयोग भी किया जाता है.

बेड, सोफा, अलमारी, किताबों की अलमारी, किचन कैबिनेट, बाथरूम वैनिटी और छोटीछोटी सजावट और जरूरत के सेल्फ, टेबिल और भी बहुत सारे प्रोडक्ट्स इस में शामिल हैं. इस की खास बात यह होती है कि यह कमरे की प्रत्येक इंच जगह का उपयोग करता है. बिल्ट-इन फर्नीचर घर को सुव्यवस्थित और आकर्षक लुक प्रदान करता है. यह आमतौर पर दीवारों या फर्श से जुड़ा होता है, जिस से यह मजबूत और स्थिर होता है. इस के जरिए कमरे के कोनों का बेहतरीन उपयोग हो सकता है.

इस को फिट कैसे करें

‘बिल्ट-इन फर्नीचर’ को दो तरह से फिट किया जा सकता है. अगर कस्टमर खुद इस को फिट करना चाहते हैं तो उन को सब से पहले एक टूल किट लेनी होती है. इस की कीमत फर्नीचर में जुड़ी नहीं होती है. एक बार खरीदने के बाद इस को संभाल कर रखें तो बारबार इस को खरीदना नहीं पड़ता है. जिस में स्क्रू ड्राइवर के साथ कई तरह स्क्रू ओपनर होते हैं. जिन को स्क्रू ड्राइवर में फिट कर के जरूरत के हिसाब ने नट बोल्ट को लगाने का काम किया जा सकता है. टूल किट में एक हथौड़ी, प्लास भी होते हैं. इस एक टूल किट के जरीए ही पूरा फर्नीचर फिट कर दिया जाता है.

अगर आप खुद इस फर्नीचर को फिट नहीं कर सकते तो आप के पास कारपेंटर भी भेजा जा सकता है. वह अपनी फीस अलग से लेता है. जैसे एक बेड 13 हजार का है तो 4 हजार अलग से देने होंगे कारपेंटर को. अपने से फर्नीचर को फिट करना बेहद सरल होता है. फर्नीचर के साथ ही साथ एक बुकलेट दी जाती है. जिस में ग्राफिक बना कर स्टेप बाई स्टेप यह समझाया जाता है कि कब क्या करना है. किस टूल का प्रयोग किस स्क्रू या नटबोल्ट को लगाने में करना है यह चित्रों के जरीये समझाया जाता है. फर्नीचर के साथ एक भी नट बोल्ट एक्सट्रा नहीं होता है. अगर एक भी स्टेप गलत हो जाता है तो आगे सही से फिटिंग नहीं होती है. गाइड लाइन के साथ फर्नीचर को फिट करना बेहद सरल होता है. स्क्रू और नटबोल्ट इतने अच्छी किस्म के बने होते हैं और इन को लौक करने का सिस्टम बहुत अच्छा होता है जिस से फर्नीचर हिलता डुलता नीं है. इस को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने का एक ही तरीका होता है कि इन को खोल कर ही ले जाया जाए.

कौन सी कंपनी बना रही फर्नीचर

फर्नीचर की कीमत उस के साइज, लकड़ी, डिजाइन से तय होती है. आइकिया दुनिया की सब से मशहूर कंपनी है जो लकड़ी और उस जैसे प्रोडक्ट्स से फर्नीचर की बेहतरीन डिजाइन के फर्नीचर तैयार करने का काम करती है. आइकिया स्वीडन की कंपनी है. 1943 में इस की स्थापना इंगवार काम्पराड ने की थी. उन का सपना था कि कम कीमत में अच्छा फर्नीचर घर घर पहुंच सके. आइकिया 2008 से दुनिया की सब से बड़ी फर्नीचर के रूप में स्थापित हो गई है. कंपनी का मुख्यालय नीदरलैंड के डेल्फ्ट में है. इस की फैक्ट्री चीन के अलगअलग शहरों में है. आइकिया ने 2018 में भारत के हैदराबाद में अपना पहला स्टोर खोला था. इस के बाद कंपनी ने नवी मुंबई और बेंगलुरु में भी स्टोर खोले हैं. भारत में आइकिया का लक्ष्य 40 शहरों में स्टोर खोलना है.

भारत के मुकाबले स्वीडन एक बहुत छोटा देश है. इस के बावजूद वहां की फर्नीचर कपंनी आइकिया भारत के फर्नीचर बाजार में अपना एकाधिकार जमाने में सफल रही है. भारत में कंपनियां अब उस के तर्ज पर बिजनेस को आगे ला रही है. स्वीडन उत्तरी यूरोप के नोर्डिक क्षेत्र का हिस्सा है. स्वीडन आकार में बड़ा और जनसंख्या में छोटा है. यहां की जनसंख्या 1 करोड़ 5 लाख के करीब है. जो विश्व की जनसंख्या का 0.13 प्रतिशत हिस्सा है. यहां 20 से 64 आयुवर्ग में 84 फीसदी पुरुष 82 फीसदी महिलाऍन रोजगार करती हैं.

स्वीडन इतना लंबा है कि जब दक्षिणी छोर पर बर्फ खिल रही होती है, तब भी इस का उत्तरी भाग बर्फ से ढका रहता है. इस का दो तिहाई से ज्यादा भूभाग जंगल से ढका है और लगभग 1,00,000 झीलें हैं. यह यूरोप का पांचवा सब से बड़ा देश और आकार में लगभग कैलिफोर्निया के बराबर है. स्टोकहोम, गोटेबोर्ग और माल्मो यहां के प्रमुख शहर हैं. स्वीडन से निर्यात होने वाली वस्तुओं में लकड़ी के उत्पाद के साथ ही साथ वाहन और मशीनें, फार्मास्यूटिकल्स रसायन, इलेक्ट्रौनिक्स, खनिज, ऊर्जा, खाद्य पदार्थ, जूते और कपड़े प्रमुख हैं.

आइकिया मजबूत फ्रेम और स्लैट्स ठोस लकड़ी के फर्नीचर तैयार करती है. यह ओक, अखरोट, शीशम और सागौन जैसी लकड़ी का प्रयोग भी करते हैं. इस के साथ ही इंजीनियरिंग वुड का प्रयोग प्लाई बनाने में होता है. आइकिया जैसी कंई और कंपनिया भी है जो अलगअलग तरह से इस तरह के फर्नीचर बना रही है. इन में एमडी ट्रेड लाइन सब से प्रमुख कंपनी है. यह स्टोन और फर्नीचर के क्षेत्र में काम कर रही एक भरोसेमंद कंपनी है. भारत सहित पूरी दुनिया में यह अपने फर्नीचर पंहुचा रही है. कंपनी प्रेसीडैंट मुरलीधर आनंदीलाल का कहना है ‘कुशल शिल्पकला और गुणवत्ता ही हमारी ताकत है. हमारे प्रोडक्ट्स वैसे ही हो जैसे आप चाहते हैं.’

इंजीनियर्ड वुड कितना मजबूत

आज का सस्ता और टिकाऊ फर्नीचर इंजीनियर्ड वुड से तैयार होता है. इस को कम्पोजिट वुड भी कहा जाता है. यह लकड़ी के रेशों, कणों को एक साथ चिपका कर बनाई जाती है. इस के ऊपर पौलीलेयर लगाई जाती है. इस को चिकना और चमकदार बनाने के लिए रेजिन का प्रयोग किया जाता है. जिस से यह लकड़ी जल्दी खराब नहीं होती है.

इंजीनियर्ड वुड कई प्रकार का होता है. प्लाईवुड में लकड़ी की पतली परतों को एक साथ चिपका कर बनाया जाता है. ओरिएंटेड स्ट्रैंड बोर्ड (ओएसबी) लकड़ी के बड़े स्ट्रैंड्स को एक साथ चिपका कर बनाया जाता है. पार्टिकल बोड लकड़ी के छोटे कणों को एक साथ चिपका कर बनाया जाता है. मीडियम डेंसिटी फाइबरबोर्ड (एमडीएफ) लकड़ी के रेशों को एक साथ चिपका कर बनाया जाता है. लेमिनेटेड वेनियर लंबर (एलवीएल) लकड़ी के पतली छाल को एक साथ चिपका कर बनाया जाता है. क्रोस लैमिनेटेड टिम्बर (सीएलटी) लकड़ी के स्लैब को एकदूसरे के लंबाई में रख कर चिपका कर बनाया जाता है.

इंजीनियर्ड वुड लकड़ी से अधिक अधिक मजबूत और टिकाऊ होती है. इस में एक तरह के कैमिकल का प्रयोग करते हैं जिस से इस को दीमक से नुकसान नहीं होता. पानी से सड़ने का खतरा नहीं होता है. नमी के कारण सिकुड़ती या फूलती नहीं है. यह प्राकृतिक लकड़ी की तुलना में कम खर्चीली होती है. इस लिए इस से बने फर्नीचर सस्ते होते हैं. इस में अलगअलग तरह के डिजाइन बनाना आसान होता है. आग लगने पर यह जलती नहीं है. बहुत खराब हालत में भी केवल सुलगती है. जिस से आग लगने से होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है.

इंजीनियर्ड वुड पर इंपोर्ट ड्यूटी 15 से 25 फीसदी होती है. यह कीमत और किस तरह का प्रोडक्ट्स प्रयोग किया गया है इस पर निर्भर करता है. इस के अलावा फर्नीचर की कीमत के हिसाब से ही जीएसटी लगाया जाता है. भारत में लड़की के फर्नीचर पर आमतौर पर 18 फीसदी जीएसटी लगता है. लग्जरी फर्नीचर, लोहे और लकड़ी के फर्नीचर पर 28 फीसदी जीएसटी लगता है. लकड़ी और प्लास्टिक के फर्नीचर पर 18 फीसदी जीएसटी है. कीमत के हिसाब में यह 10 हजार तक 12 फीसदी, 10 से 25 हजार तक 18 फीसदी और 25 हजार से अधिक पर 28 फीसदी जीएसटी लगता है.

भारत में ‘बिल्ट-इन’ या ‘कस्टमाइज्ड फर्नीचर’ की मांग तेजी से बढ़ती जा रही है. सरकार अगर इस कारोबार को सहायता दे तो आइकिया जैसी विदेशी कंपनियों के मुकाबले देशी कंपनिया भी आगे बढ़ सकती है. जिस से यहां भी रोजगार मिल सकेगा और फर्नीचर बाजार सस्ता भी हो सकेगा. बेरोजगार लोगों को काम मिल सकेगा. अभी भारत में लकड़ी का काम कराना बेहद मुश्किल, खर्चीला और समय लेने वाला है. एक कारपेंटर दिन का 800 रूपये से 1500 रुपए की मजदूरी लेता है. उस के पास काम करने वाले पुराने किस्म के औजार ही हैं. बिजली से चलने वाले नए किस्म के औजार और नटबोल्ट न होने से उस के द्वारा तैयार किए गए सामान बहुत खूबसूरत नहीं होते हैं.

सावधानी से करें फर्नीचर की देखभाल

इंजीनियर्ड वुड प्राकृतिक लकड़ी से अलग होती है. यह अपने रखरखाव में केयर मांगती है. इस का पालन करेंगे तो यह फर्नीचर काफी समय तक चलेगा.
• जब यह फर्नीचर आता है तभी उस में लिखा होता है कि कितना वजन सहन करने की क्षमता इस में होती है. वजन से अधिक क्षमता न डालें.
• फर्नीचर गंदा हो तो इस को साफ करने का कैमिकल आता है उस से साफ करें.
• फर्नीचर को कमरे को फिर से व्यवस्थित करते समय सावधानी बरतें ताकि खरोंच या गड्ढों से बचा जा सके.
• समयसमय पर इस के स्क्रू और बोल्ट, की जांच करते रहें ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि वे कसे हुए और सुरक्षित हैं.
• फर्नीचर को एक जगह से दूसरी जगह ले जाते समय या मरम्मत के दौरान खरोंच, डेंट से बचाने के लिए कवर या कंबल का उपयोग करे.
फर्नीचर को लंबे समय तक बनाए रखने के लिए नियमित सफाई, पोलिशिंग और नमी से बचाव की आवश्यकता होती है.  Bed Making

Gig Work : डिलीवरी बौय से डेटा एंट्री तक, एक पीढ़ी की बर्बादी

Gig Work : भारत में आज आम घरों के युवा गिग वर्क पर निर्भर हो गए हैं. जहां न फाइनेंसियल स्टेबिलिटी है न सामाजिक सुरक्षा. सरकारों ने भी इन युवाओं से अपना पल्ला झाड़ा हुआ है.

भारत में किराने की दुकानें परंपरागत रूप से हर गलीमहल्ले की पहचान रही हैं. पहले तकरीबन हर महल्ले में छोटीबड़ी किराना दुकानें आसानी से मिल जाती थीं और लोग अपने रोजमर्रा की जरूरतों के लिए इन्हीं पर निर्भर रहते थे. लेकिन बदलते समय के साथ अब इन में से कई दुकानें बंद हो चुकी हैं या बंद होने की कगार पर हैं.

देश की अर्थव्यवस्था में किराने की दुकानों का अहम योगदान रहा है, क्योंकि ये न केवल रोजमर्रा की चीजें उपलब्ध कराती थीं बल्कि स्थानीय स्तर पर रोजगार का भी बड़ा स्रोत थीं. किराना दुकानों का नेटवर्क इतना मजबूत था कि देश के हर कोने में बनने वाले उत्पाद लोगों तक आसानी से पहुंच जाते थे. गलीमहल्ले में मौजूद ये दुकानें ग्राहकों को भरोसे, सुविधा और व्यक्तिगत संबंधों का अनुभव कराती थीं, जो औनलाइन डिलीवरी सेवाएं पूरी तरह नहीं दे पातीं.

किराने की दुकान का दूसरा फायदा यह भी था कि लोग अपने पास के दुकान से उधारी भी समान घर ले आते थे, जिस से लोग भूखे नहीं सोते थे. दुकानदार को भी यह विश्वास रहता था कि जो व्यक्ति उन की दुकान से उधारी ले कर गया है, वह अपनी तनख्वाह मिलते ही पहले मेरी उधारी चुकता कर देगा और ऐसा ही हुआ करता था.

आज जब ई-काउमर्स तेजी से बढ़ रही है, तो पारंपरिक किराना दुकानों का अस्तित्व संकट में है. अगर इन दुकानों को आधुनिक तकनीक और नई कारोबारी रणनीतियों से जोड़ा जाए तो ये फिर से अर्थव्यवस्था में मजबूत भूमिका निभा सकती हैं और उपभोक्ताओं को सस्ता, भरोसेमंद और सुविधाजनक विकल्प दे सकती हैं. लेकिन आज जमाना जैसे ही डिजिटल हुआ लोग 20 से 25 रुपए के कैश बैक औफर के लिए समान औनलाइन मंगवाने लगें. मगर इस कैशबैक ने देश की लाखों छोटे किराने की दुकानों पर ताला लगवा दिया. यह वे दुकानें थीं जहां पहले दुकान दादा ने शुरू की और फिर उस दुकान को बाप और चाचा ने आगे बढ़ाया. लेकिन अब इस औनलाइन कैशबैक और होम डिलीवरी ने दुकान बंद करवा दी और बेटों को उन्हीं समानों की डिलीवरी में लगवा दिया जो कभी बाप और दादा बेचा करते थे.
अब देश में लाखों युवा जोमेटो, स्विगी, उबर, ओला और जेप्टो से जैसे प्लेटफार्म के लिए काम कर रहे हैं. इसे ‘गिग वर्क’ कहा जाता है. गिग वर्क का मतलब ऐसे जाऊब से है जो अस्थाई, फ्लेक्सिबल जौब होते हैं. इस के साथ ही इन नौकरियों में सुरक्षा बिल्कुल भी नहीं होती है. ये नौकरियां बाहर से लचीलापन और सुरक्षा का वादा करती हैं, लेकिन हकीकत कुछ और है. यह नौकरियां युवाओं को ऐसी स्थिति में डाल देती है जहां स्थायित्व, भविष्य की योजना, प्रमोशन और स्वास्थ्य की कोई सुविधा नहीं होती है. ऐसे में यह सवाल जरुर उठता है कि क्या यह रोजगार डिजिटल तकनीकी गुलामी का नया रूप है?

गिग इकोनमी का विस्तार और उस की परिभाषा

गिग इकोनमी एक ऐसी अर्थव्यवस्था को कहा जाता है जहां लघु अवधि और अस्थायी काम होते हैं. यह तकनीकी यानी मौजूदा समय में ज्यादातर डिजिटल प्लेटफौर्म्स के माध्यम से संचालित किए जाते हैं. भारत में फिलहाल ओला, उबर, स्विगी, ब्लिंकिट, जेप्टो जैसे सैकड़ों प्लेटफौर्म हैं. ये लाखों युवाओं को रोजगार देते हैं. इस के साथ ही इन कम्पनियों के साथ जुड़ना भी आसान होता है. इन कामों को करने के लिए कोई इंटरव्यू नहीं होते हैं, बस ऐप डाउनलोड कर के अपना काम शुरू करना होता है. लेकिन इस आसनी से मिलने वाले काम के लिए भारी कीमत भी चुकानी पड़ती है.

ऐसे जौब्स को मार्केट में बढ़ावा देने के लिए कम्पनियां इन वर्कर्स को ‘पार्टनर’ कहती है. मगर इन पार्टनर्स के पास न कोई मैडिकल सुविधा होती है, न ही कोई प्रोविडैंट फंड और न ही पेंशन. इन लोगों की न अपनी कोई यूनियन होती है और न ही कोई न्याय का कोई मंच. इस के साथ ही कम्पनियां किसी भी वक्त ऐप से इन का अकाउंट ब्लौक कर देती है और अगले दिन से इन की आमदनी बंद हो जाती है. कंपनियां इन के साथ सिर्फ एकतरफा रिश्ता रखती है और इस रिश्ते में पूरा नियंत्रण कंपनियों के पास ही होता है.

शुरूशुरू में जब कोई युवा डिलीवरी या कैब ड्राइविंग का काम करता है, तो उसे यह लगता है कि यह नौकरी बहुत अच्छी नौकरी है और यह कमाई और लचीलेपन से भरपूर है. लेकिन इस दुनिया में कदम रखने के कुछ ही दिनों के बाद उसे यह अहसास होता है कि इस आजादी के पीछे एक अदृश्य गुलामी छुपी हुई है. हर डिलीवरी बौय को समान समय पर डिलीवरी करने का दवाब होता है, इस के साथ ही कैब ड्राइवर्स पर भी राइड समय पर पूरा करने का दवाब होता है. दवाब से जूझ रहे ड्राइवर्स और डिलीवरी बौय अपने कस्टमर्स से गुजारिश करते हैं कि कृपया वे उन्हें अच्छी रेटिंग्स दें ताकि उन की नौकरी जारी रह सकें.

कई बार सामान देर से मिलने पर कस्टमर्स नाराज हो जाते हैं और डिलीवरी बौय काफी कुछ कह देते हैं. सोशल मीडिया पर वायरल कई वीडियो में यह देखा गया कि कस्टमर्स डिलीवरी बौय से मारपीट और गाली गलोज तक करते हैं. वहीं ड्राइवर्स को ऐसी ही स्थिति का सामना करना पड़ता है. कम पैसे में ऐसी राइड मिलती है कि जहां से जा कर वापस आना घाटे का सौदा उन के लिए साबित होता है. वहीं लोकेशन पर समय पर न पहुंचने पर पेसेंजेर्स के द्वारा कई बार बुरा भला कहा जाता है. ये लोग दवाब, ग्राहक की बदतमीजी, ट्रैफिक, मौसम की मार झेलते हुए अपना काम करते हैं.

अगर कभी दुर्घटना हो जाए तो कम्पनियां बीमा के नाम पर अपना पल्ला झाड़ लेती हैं. इन गिग वर्कर्स को इंसान तक नहीं समझा जाता है तो सोशल सिक्योरिटी तो बहुत दूर की बात है. इस के साथ ही परिवार और समाज का नजरिया भी इन के प्रति दोयम दर्जे का होता है. बेरोजगारी के युग में युवाओं को लगता है कम से कम कुछ तो कर रहे हैं लेकिन समाज उन्हें सम्मान नहीं देता है.

डाटा एंट्री जौब भी बर्बाद कर रहा युवाओं को

देश में बेरोजगारी चरम पर होने की वजह से डेटा एंट्री की नौकरियां अकसर पढ़ेलिखे युवाओं के लिए एक राहत के विकल्प के रूप में नजर आती है. ये भी डिलीवरी बौय की नौकरी और कैब ड्राइवर्स की नौकरियों की तरह दिखने में आसान होती हैं. कंप्यूटर, इंटरनेट और थोड़ी टाइपिंग स्किल के साथ शुरू की जा सकती हैं. मगर इस का कड़वा सच यह है कि यह क्षेत्र सब से तेजी से औटोमेट हो रहा है, जिस में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है. इस वजह से बड़े शहरों में अब ऐसी जौब्स खत्म होने के कगार पर है. क्योंकि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और मशीन लर्निंग तकनीकें डाटा को खुद प्रोसेस करती है, जिस से इंसानों की जरुरत घटती जा रही है. इस के साथ ही इन नौकरियों में फिक्स सैलरी नहीं होती है और काम के आधार पर पैसा मिलता है. इस वजह से अधिकतर युवा कुछ महीनों में ही मानसिक और शारीरिक थकावट का शिकार हो जाते हैं. ऐसा अनुमान है कि 1 से 2 वर्षों में यह नौकरियां गायब हो जाएंगी या इस की मांग बहुत ही घट जाएगी.

अधिकतर लोग जो गिग इकोनमी में काम करते हैं उन की उम्र 18 से 25 साल के बीच होती हैं. इन की स्पीड, उर्जा और काम करने की ललक शुरूआती दौर में कंपनियों को आकर्षित करती है. मगर जैसे ही ये 30 के आसपास आते हैं उन की स्पीड घटती है लेकिन जिम्मेदारियां बढ़ जाती हैं. इस के साथ ही कंपनी नए और सस्ते तेज वर्कर्स की तलाश करने लगती है, क्योंकि भारत एक युवा देश है इसलिए कंपनियों को काम के लिए युवाओं की कमी नहीं है. लेकिन आगे चल कर ये युवा भी बेकार हो जाते हैं.

ऐसे कंपनियों में प्रमोशन ज्यादा नहीं मिलता है, गिग इकोनमी में काम करने वाले अधिकतर लोग अपनी जिंदगी से हताश निराश होते हैं. और जिल्लत की जिंदगी जीते हैं. गिग इकोनमी में काम करने वाले अधिकतर युवाओं को लगता है कि वे सुपरवाइजर बनेंगे या किसी स्थिर स्थिति में पहुंचेंगे, लेकिन सच्चाई यह है कि 90 फीसदी से अधिक लोगों को कोई प्रमोशन नहीं मिलता है. इस के साथ ही इन लोगों के पास कोई अपग्रेडेड स्किल्स पाने का समय भी नहीं होता और न ही पैसा होता है. ये लोग उम्र के मोड़ में नौकरी के लायक नहीं रह जाते, और इन के पास कोई विकल्प नहीं बचता.

बाजार में स्किल्स की मांग करता है, लेकिन गिग वर्क में स्किल्स का कोई महत्त्व नहीं है. कंपनियों में तेज काम करने वाले, नियम को मानने वाले और ज्यादा सवाल न करने वाले लोगों को नौकरी पर रखा जाता है. भारत में स्किल इंडिया जैसे कई सरकारी कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं, मगर ये गिग वर्कर की पहुंच से बाहर हैं यानी प्रभावशीलता असंगठित क्षेत्र तक नहीं पहुंच पा रही है. सुदूर देहात से आने वाले युवा जिन तकनीकों को सीखते हैं, वे अकसर बाजार की जरूरतों के अनुसार नहीं होती है. वे जोमेटो, स्विगी और उबर जैसे ऐप्स की दया पर निर्भर हो कर अपना काम करते हैं. क्योंकि ऐसे युवाओं पर परिवार की जिम्मेदारियां होती हैं और ये कम पढ़े लिखे होते हैं. इन्हें किसी भी हाल में अपने घर की आर्थिक स्थिति को मजबूत करना होता है.

गिग वर्कर्स की बढ़ती संख्या

नीति आयोग की रिपोर्ट बताती है कि भारत में गिग वर्कफोर्स 2029-30 तक बढ़ कर 2.35 करोड़ तक पहुंच सकती है, जबकि 2020-21 में यह संख्या मात्र 77 लाख थी. इस का मतलब है कि आने वाले समय में देश की एक बड़ी आबादी गिग वर्क पर निर्भर होगी. रिपोर्ट के अनुसार, तब तक गिग वर्कर्स गैर-कृषि कार्यबल का 6.7 प्रतिशत और कुल आजीविका साधनों का 4.1 प्रतिशत हिस्सा होंगे. यानी, लाखों लोग ऐसे कामों में लगे होंगे, जिन में न तो स्थिरता है और न ही सामाजिक सुरक्षा.

कानूनी सुधार की सख्त जरूरत

आज तक सरकार ने गिग वर्कर्स के लिए कोई ठोस कानूनी ढांचा नहीं बनाया. श्रम संहिताएं सालों से कागजों पर अटकी हुई हैं. अगर इन्हें ईमानदारी से लागू किया जाए तो गिग वर्कर्स को स्पष्ट अधिकार, कल्याण बोर्ड और सामाजिक सुरक्षा मिल सकती है.

नीदरलैंड, यूके और कैलिफोर्निया जैसे देशों ने गिग वर्कर्स को कर्मचारियों का दर्जा दिया है, लेकिन भारत अब भी प्लेटफौर्म कंपनियों के दबाव में चुप बैठा है. सवाल यह है कि जब लाखों लोग इस सेक्टर में काम कर रहे हैं तो सरकार आखिर किस के लिए श्रम कानून बना रही है?

भारत में गिग वर्कर्स एक ही समय में कई प्लेटफौर्म्स पर काम करते हैं. ऐसे में पोर्टेबल बेनेफिट्स सिस्टम बेहद जरूरी है, जिस में स्वास्थ्य बीमा, पेंशन और बेरोजगारी भत्ता एक जगह से मिल सके.

सरकार ने ई-श्रम पोर्टल शुरू तो किया, लेकिन उस का असर जमीनी स्तर पर न के बराबर है. लाखों गिग वर्कर्स को अब भी डिजिटल पहचान, कल्याण योजनाओं और रोजगार अवसरों से नहीं जोड़ा गया है. औपचारिकीकरण सिर्फ घोषणा पत्रों में है, जबकि असल में गिग वर्कर्स आज भी ‘न दिखने वाला वर्कफोर्स’ बने हुए हैं.

गिग वर्कर का अनुभव

अपनी पहचान न उजागर करने की शर्त पर एक गिग वर्कर ने बताया कि गिग वर्क में आने से पहले उन्होंने छोटेमोटे काम किए थे, जिन से बहुत स्थिर आय नहीं हो पाती थी. रोजगार की तलाश में उन्हें लगा कि गिग वर्क यानी डिलीवरी, कैब सर्विस या डेटा एंट्री जैसे काम अपेक्षाकृत आसान और तुरंत मिलने वाले विकल्प हैं. यही कारण था कि उन्होंने इस क्षेत्र में कदम रखा. यह उन का पहला रोजगार नहीं था, लेकिन पहले जो काम कर रहे थे वह टिकाऊ नहीं था, इसलिए उन्हें लगा कि यह नया विकल्प थोड़ा स्थायी और सम्मानजनक हो सकता है.

उन्होंने शुरुआत एक लोकप्रिय प्लेटफौर्म के साथ की, क्योंकि उस समय वही आसानी से काम दिला रहा था और ज्यादा लोगों को रोजगार दे रहा था. कंपनी ने काम शुरू करने से पहले कुछ जरूरी डौक्यूमेंट्स मांगे और औपचारिकताएं पूरी करवाईं. किसी तरह की औपचारिक ट्रेनिंग नहीं दी गई, बल्कि सीधे काम पर लगा दिया गया. शुरुआती दिनों में उन की कमाई बहुत अधिक नहीं थी, लेकिन काम के घंटे लंबे होते थे. अकसर 10 से 12 घंटे तक काम करना पड़ता था.

कंपनी उन्हें “पार्टनर” कहती थी, लेकिन वास्तविकता में उन्हें कभी यह नहीं लगा कि वे सचमुच पार्टनर हैं. शुरुआती दिनों का अनुभव मिलाजुला रहा, कभी काम का बोझ ज़्यादा होता, तो कभी ग्राहकों का व्यवहार अच्छाबुरा दोनों तरह का मिलता. कई बार समय पर डिलीवरी या राइड पूरी करने का दबाव इतना बढ़ जाता कि मानसिक तनाव महसूस होता.

खराब रेटिंग मिलने पर कंपनी का रवैया सामान्य रहता था, लेकिन इस से मनोबल पर असर पड़ता था. ट्रैफिक, मौसम या दुर्घटना जैसी मुश्किलों में कंपनी ने कभीकभी मदद की, लेकिन नियमित या पर्याप्त नहीं. मैडिकल, बीमा या छुट्टी जैसी सुविधाएं उन्हें नहीं मिलीं. लंबे काम के घंटे और असुरक्षित हालातों के चलते उन्हें शारीरिक और मानसिक तनाव का सामना करना पड़ा. कमाई इतनी नहीं होती थी कि घर का खर्च आराम से चल सके, कई बार उन्हें उधार लेना पड़ता. बचत करना लगभग असंभव था.

उन्हें कभी प्रमोशन या स्किल अपग्रेड का मौका नहीं दिया गया और न ही यह अहसास हुआ कि इस काम से कोई लंबा कैरियर बन सकता है. अकाउंट ब्लॉक होने की समस्या उन के साथ नहीं हुई, लेकिन कंपनी ने काम कम होने पर कोई वैकल्पिक अवसर भी नहीं दिया. पेमेंट रोकने की स्थिति भी उन के साथ नहीं बनी.

ज्यादा शारीरिक थकान और मानसिक रूप से दबाव महसूस करने के कारण आखिरकार उन्होंने यह काम खुद ही छोड़ दिया. थोड़े दिनों के बाद जब कहीं दुबारा नया काम नहीं मिला तो उन्हें दूसरे गिग प्लेटफौर्म पर काम मिला.

उन्होंने आगे ये भी कहा कि “इस काम ने मुझे बहुत कुछ सिखाया है, अलगअलग जगहों को पहचानना, लोगों से कैसे व्यवहार करना चाहिए और रोजमर्रा के कामकाज का असली स्वरूप. लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि गिग वर्क से स्थायी सुरक्षा, बचत या लंबा कैरियर नहीं बन सकता. हमें रोज कड़ी मेहनत करनी पड़ती है, लेकिन बदले में न तो कोई गारंटी मिलती है और न ही भविष्य की सुरक्षा. मेरी राय में सरकार और कंपनियों को गिग वर्कर्स के लिए कम से कम कुछ बुनियादी सुविधाएं ज़रूर देनी चाहिए, जैसे मैडिकल सुविधा, बीमा और न्यूनतम आय की गारंटी. इस से हमारी ज़िंदगी थोड़ी सुरक्षित और स्थिर हो सकेगी.”

वहीं फिलहाल वे नहीं कह सकते कि यह काम वे कब तक करेंगे. इस के साथ ही उन का ये कहना था कि आज के युवाओं को गिग वर्क में नहीं आना चाहिए, क्योंकि वे यहां लंबी पारी नहीं खेल सकते और साथ ही इस से घर भी ठीक से नहीं चलाया सकता है. अगर कोई युवा कम पढ़ालिखा है तो उसे नए स्किल्स सिखने पर जोर देना चाहिए. ऐसे स्किल्स को सीखना चाहिए, जिस से उन का भविष्य सुरक्षित रहे और पैसा भी अच्छा कम सकें.

यह साफ है कि गिग वर्कर्स की मेहनत पर कंपनियां मुनाफा कमा रही हैं और सरकार उन की पीठ थपथपाने के बजाय आंखे मूंद कर बैठी है. अगर यही हाल रहा तो आने वाले वर्षों में गिग वर्कर्स देश की अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा बिना किसी सुरक्षा कवच के बनेंगे और इस से सीधे सीधे कोरपोरेट्स को फायदा पहुंचेगा.

औटोमेशन और एआई : भविष्य का सब से बड़ा खतरा

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानी एआई अब केवल कल्पना नहीं हकीकत है. एआई अब धीरेधीरे आसान और दोहराव वाले कामों को अपने कब्जे में ले रहा है. जोमेटो और स्विगी जैसे प्लेटफौर्म अब ड्रोन से डिलीवरी की योजना पर काम कर रहे हैं. इस के साथ ही इन्होने कई जगहों पर इस का सफल परीक्षण भी कर लिया है. वहीं गूगल और टेस्ला जैसी कंपनियां सेल्फ ड्राइविंग टैक्सियों पर काम कर रही हैं. धीरेधीरे ये कंपनियां भारत में एआई के जरिए अपना पैर पसार रही हैं और कई गिग वर्कर की नौकरियों को खाने जा रही हैं. एआई जितना अडवांस होगा वह गिग इकोनमी में उतना ही मुनाफा कमाकर देगा. इ-कौमर्स कंपनियों के एआई एक वरदान साबित होगी, लेकिन उन के यहां काम करने वालों के लिए यह किसी श्राप से कम नहीं है. कस्टमर सपोर्ट, डेटा इंट्री वौइस प्रोसेसिंग जैसी नौकरियां में अब मशीनें इंसान की जगह ले रही है. इस में सब से पहले उन गिग वर्कर्स को नुकसान होगा जिन के पास कोई स्किल या बैकअप नहीं है और न ही कोई सामाजिक सुरक्षा है.

सामाजिक प्रभाव : सम्मान और अस्थिरता

अकसर गिग इकोनमी में काम करने वाले युवा समाजिक स्तर पर संघर्ष करते नजर आते हैं. एक डिलीवरी बौय, कैब ड्राइवर की नौकरी का मतलब होता है कि आप की नौकरी अस्थायी, कम वेतन वाली है. इस वजह से लोग इन्हें सम्मानहिन नजर से देखते है. विवाह के प्रस्तावों में इन्हें नाकारा जाता है. वहीं परिवार उन की नौकरी को कामचलाऊ मानते हैं. इस के साथ ही समाज इन्हें स्थायी पेशों की तुलना में नीचा समझता है. समाजिक दबाव और उपेक्षा इन युवाओं के आत्मविश्वास को बुरी तरह प्रभावित करती है. वे खुद को कमतर आंकने लगते हैं और कई बार रिश्तों और पारिवारिक जीवन में खटास भी आ जाती है.

जब कोई युवा में गिग वर्क में आता है और काम करना शुरू करता है तब उसे लगता है कि वह स्वतंत्र है और अपने पैरों पर खड़ा हो गया है. मगर कुछ ही वर्षों में वे मानसिक और शारीरिक रूप से थक जाता है. इस के साथ ही इस में फिक्स इनकम और पेशेवर विकास नहीं होने पर भविष्य अंधकारमय दिखाई देने लगता है. मोबाइल, सोशल मिडिया और लगातार तुलना की भावना मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव डालती है, इस से कई गिग वर्कर को बारबार पैनिक अटैक का भी सामना करना पड़ता है. इस के साथ कई ऐसे भी मामले देखे गए हैं जिस में युवाओं की मुलाकात लड़कियों से होती है, जो या तो संबंध में बदलती है या शोषण व धोखे में. यह अस्थिरता युवाओं को और अधिक असुरक्षित बना देती है.

कौर्पोरेट स्ट्रक्चर : नए बनाम पुराने

हर साल कई स्टार्टअप्स शुरू होते हैं, जो गिग वर्कर्स को नौकरियां देते हैं. इस के साथ ही कई पुराने प्लेटफौर्म्स खत्म भी हो जाते हैं. हाल ही में दिल्ली में ब्लुस्मार्ट कैब सर्विस बंद हो गई. इस कंपनी के बंद होने हजारों ड्राइवर्स की नौकरी चली गई. वहीं जेप्टो, ब्लिंकिट और स्विगी इन्सटामार्ट के बीच जल्दी और्डर पूरा करने और बेस्ट सर्विस देने की जंग छिड़ी हुई है और इस में गिग वर्कर खूब पिस रहे हैं. वर्कर्स को न स्थायित्व मिलता है और न कोई अधिकार. वे बस इस सिस्टम का एक पुर्जा बन जाते हैं जिसे कभी भी बदल दिया जाता है.

जब हर सेक्टर में एआई और औटोमेशन के साथ बदलाव आएगा, तो इस की चपेट में सब से पहले गिग वर्कर्स आएंगे. गिग वर्कर्स जो पैसे कमाते हैं वह दैनिक जीवन में खर्च हो जाते हैं, सेविंग्स की कोई गुंजाइश नहीं बचती है. इस के साथ ही जब इन की क्षमता घटेगी तो उन के पास कोई सामाजिक सहारा नहीं होगा. एक पूरी पीढ़ी गरीबी, अपमान और अकेलेपन में डूब जाएगी.

विकल्प और रास्ता

इस समस्या से निकलने के लिए गहराई से सोचने और योजनाबद्ध कार्य की आवश्यकता है.
• पहला, स्किल अपग्रेडेशन की दिशा में काम किया जाए. एआई, इलैक्ट्रिक वाहन तकनीक, कोडिंग, रिपेयरिंग जैसे आधुनिक कौशल सिखाए जाएं.
• दूसरा, सरकार को स्थायी रोजगार निर्माण पर ध्यान देना होगा. मैन्युफैक्चरिंग, शिक्षा, हैल्थ और स्थानीय उद्योगों में रोज़गार के अवसर बढ़ाने होंगे.
• तीसरा, गिग वर्कर्स के लिए यूनियन बनाई जाए जो उन के अधिकारों की रक्षा करे, उन की आवाज सरकार तक पहुंचाए.
• चौथा, नीति और सुरक्षा के स्तर पर बदलाव हो. बीमा, पीएफ, मेडिकल सुविधा, और छुट्टियां इन्हें भी मिलनी चाहिए.

गिग इकोनमी आज की हकीकत है, लेकिन इसे मानवतावादी और न्यायपूर्ण बनाना समय की मांग है. यदि हम ने इस चुपचाप पल रहे संकट को नहीं रोका, तो एक पूरी पीढ़ी तकनीकी चमक के पीछे अंधकार में गुम हो जाएगी.  Gig Work

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शेफाली ने एक ठंडी सांस ली, परिस्थितियां इंसान में किस हद तक बदलाव ला देती हैं. अगर ऐसा न होता तो आज तक वह यों घुटती न रहती. बेकार ही उस ने अपने जीवन के 2 वर्ष मृगमरीचिका में भटकते हुए गंवा दिए, निरर्थक बातों के पीछे अपने को छलती रही. काश, उसे पहले एहसास हो जाता तो…

‘‘लीजिए मैडम, आप का जूस,’’ सुदेश की आवाज ने उसे सोच के दायरे से बाहर ला पटका.

‘‘क्यों बेकार आप इतनी मेहनत करते हैं, जूस की क्या जरूरत थी?’’ शेफाली ने संकोच से कहा.

‘‘देखिए जनाब, आप की सेहत के लिए यह बहुत जरूरी है. आप तो बस आराम से आदेश देती रहिए, यह बंदा आप को तरहतरह के पकवान बना कर खिलाता रहेगा. फिर कौन सी बहुत मेहनत करनी पड़ती है, यहां तो सबकुछ डब्बाबंद तैयार मिलता है, विदेश का कम से कम यह लाभ तो है ही,’’ सुदेश ने गिलास थमाते हुए कहा.

‘‘लेकिन आप काम करें, यह मुझे अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘शेफाली, थोड़े दिनों की बात है. जहां पेट के टांके कटे, वहीं तुम थोड़ाबहुत चलने लगोगी. अभी तो डाक्टर ने तुम्हें पूरी तरह आराम करने को कहा है. अच्छा, देखो, मैं बाजार से सामान ले कर आता हूं, तब तक तुम थोड़ा सो लो. फिर सोचने मत लग जाना. मैं देख रहा हूं, जब से तुम्हारा औपरेशन हुआ है, तुम हमेशा सोच में डूबी रहने लगी हो. सब ठीक से तो हो गया है, फिर काहे की चिंता. खैर, अब आराम करो.’’

सुदेश ने ठीक ही कहा था. जब से उस के पेट के ट्यूमर का औपरेशन हुआ था तब से वह सोचने लगी थी. असल में तो वह इन 2 वर्षों में सुदेश के प्रति किए गए व्यवहार की ग्लानि थी जो उसे निरंतर मथती रहती थी.

सुदेश के साधारण रूपरंग और प्रभावहीन व्यक्तित्व के कारण शेफाली हमेशा उसे अपमानित करने की कोशिश करती. अपने अथाह रूप और आकर्षण के सामने वह सुदेश को हीन समझती. अपने मातापिता को भी माफ नहीं कर पाई थी. अकसर वह मां को चिट्ठी में लिखती कि उस ने उन्हें वर चुनने का अधिकार दे कर बहुत भारी भूल की थी. ऐसे कुरूप पति को पाने से तो अच्छा था वह स्वयं किसी को ढूंढ़ कर विवाह कर लेती. ऐसा लिखते वक्त उस ने यह कभी नहीं सोचा था कि भारत में बैठे उस के मातापिता पर क्या बीत रही होगी.

शेफाली अपनी मां से तब कितना लड़ी थी, जब उसे पता चला था कि सुदेश ने कनाडा में ही बसने का निश्चय कर लिया है. सुदेश ने वहीं अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई की थी और अच्छी नौकरी मिलने के कारण वह अब भारत नहीं आना चाहता था. शेफाली ने स्वयं एमबीबीएस पास कर लिया था और ‘इंटर्नशिप’ कर रही थी. वह चाहती थी कि भारत में ही रह कर अपना क्लीनिक खोले. नए देश में, नए परिवेश में जाने के नाम से ही वह परेशान हो गई थी. बेटी को नाखुश देख मातापिता को लगा कि इस से तो अच्छा है कि सगाई को तोड़ दिया जाए, पर उस ने उन्हें यह कह कर रोक दिया था कि इस से सामाजिक मानमर्यादा का हनन होगा और उस के भाईबहनों के विवाह में अड़चन आ सकती है. सुदेश से पत्रव्यवहार व फोन द्वारा उस की बातचीत होती रहती थी, इसलिए वह नहीं चाहती थी कि ऐसी हालत में रिश्ता तोड़ कर उस का दिल दुखाया जाए. इसी कशमकश में वह विवाह कर के कनाडा आ गई थी.

अचानक टिं्रन…ट्रिंन…की आवाज से शेफाली का ध्यान भंग हुआ, फोन भारत से आया था. मां की आवाज सुन कर वह पुलकित हो उठी

‘‘कैसी हो बेटी, आराम कर रही हो न? देखो, ज्यादा चलनाफिरना नहीं.’’

उन की हिदायतें सुन वह मुसकरा उठी, ‘‘मैं ठीक हूं मां, सारा दिन आराम करती हूं. घर का सारा काम सुदेश ने संभाला हुआ है.’’

‘‘सुदेश ठीक है न बेटी, उस की इज्जत करना, वह अच्छा लड़का है, बूढ़ी आंखें धोखा नहीं खातीं, रूपरंग से क्या होता है,’’ मां ने थोड़ा झिझकते हुए कहा.

‘‘मां, तुम फिक्र मत करो. देर से ही सही, लेकिन मुझे अपनी गलती का एहसास हो गया है,’’ तभी फोन कट गया.

दूर बैठी मां भी शायद जान गई थीं कि वह सुदेश को अपमानित करने का कोई मौका नहीं छोड़ती. फिर से एक बार शेफाली के मानसपटल पर बीते दिन घूमने लगे.

मौंट्रीयल के इस खूबसूरत फ्लैट में जब उस ने कदम रखा था तो ढेर सारे फूलों और तालियों की गड़गड़ाहट के साथ उस का स्वागत किया गया था. उन के आने की खुशी में सुदेश के मित्रों ने पूरे फ्लैट को सजा रखा था. ऐसी आवभगत की उसे आशा नहीं थी, इसलिए खुशी हुई थी, लेकिन वह उसे दबा गई थी. आखिर किस काम की थी वह खुशी.

सुदेश एकएक कर अपने साथियों से उसे मिलवाता रहा. उस की खूबसूरती की प्रशंसा में लोगों ने पुल बांध दिए.

‘यार, तुम तो इतनी सुंदर परी को भारत से उड़ा लाए,’ सुदेश के मित्र की बात सुन उसे वह मुहावरा याद आ गया था, ‘हूर के साथ लंगूर’. सुदेश जब भी उस का हाथ पकड़ता, वह झटके से उसे खींच लेती. ऐसा नहीं था कि सुदेश उस के व्यवहार से अनभिज्ञ था, लेकिन उस ने सोचा था कि अपने प्यार से वह शेफाली का मन जीत लेगा.

विवाह के कुछ दिन बाद उस ने कहा था, ‘अभी छुट्टियां बाकी हैं. चलो, तुम्हें पूरे कनाडा की सैर करा दें.’

तब शेफाली ने यह कह कर इनकार कर दिया था कि उस की तबीयत ठीक नहीं है. उस की हरसंभव यही कोशिश रहती कि वह सुदेश से दूरदूर रहे. अपने सौंदर्य के अभिमान में वह यह भूल गई थी कि वह उस का पति है. उस का प्यार, उस का अपनापन और छोटीछोटी बातों का खयाल रखना शेफाली को तब दिखता ही कहां था.

सुदेश के सहयोगियों ने क्लब में पार्टी रखी थी, पर उस ने साथ जाने से इनकार कर दिया था.

‘देखो शेफाली, यह पार्टी उन्होंने हमारे लिए रखी है.’

पति की इस बात पर वह आगबबूला हो उठी थी, ‘मुझ से पूछ कर रखी है क्या? मैं पूछती हूं, तुम्हें मेरे साथ चलते झिझक नहीं होती. कहां तुम कहां मैं?’

तब सुदेश अवाक् रह गया था.

दरवाजा खुलने से एक बार फिर उस की तंद्रा भंग हो गई, ‘‘अरे, इतना सामान लाने की क्या जरूरत थी?’’ शेफाली ने सुदेश को पैकटों से लदे देख पूछा.

‘‘अरे जनाब, ज्यादा कहां है, बस, कुछ फल हैं और डब्बाबंद खाना. जब तक तुम ठीक नहीं हो जातीं, इन्हीं से काम चलाना है,’’ सुदेश ने हंसते हुए कहा, ‘‘अच्छा, खाना यहीं लगाऊं या बालकनी में बैठना चाहोगी?’’

‘‘नहींनहीं, यहीं ठीक है और देखो, ज्यादा पचड़े में मत पड़ना, वैसे भी ज्यादा भूख नहीं है.’’

‘‘क्यों, भूख क्यों नहीं है? तुम्हें ताकत  चाहिए और इस के लिए खाना बहुत जरूरी है,’’ सुदेश ने अपने हाथों से उसे खाना खिलाते हुए कहा.

शेफाली की आंखें नम हो आईं. ऐसे व्यक्ति से, जिस के अंदर प्यार का सागर लबालब भरा हुआ है, वह आज तक घृणा करती आई, सिर्फ इसलिए कि वह कुरूप है. लेकिन बाहरी सौंदर्य के झूठे सच में वह उस के गुणों को नजरअंदाज करती रही. अंदर से उस का मन कितना निर्मल, कितना स्वच्छ है. वह कितनी मूर्ख थी, तभी तो वैवाहिक जीवन के 2 सुनहरे वर्ष यों ही गंवा दिए. उस का हर पल यही प्रयत्न रहता कि किसी तरह सुदेश को अपमानित करे इसलिए उस की हर बात काटती.

लेकिन अपनी बीमारी के बाद उस ने जाना कि सच्चा प्रेम क्या होता है. शेफाली की इतनी बेरुखी के बाद भी सुदेश कितनी लगन से उस की सेवा कर रहा था.

‘‘अरे भई, खाना ठंडा हो जाएगा. जब देखो तब सोचती ही रहती हो. आखिर बात क्या है, मुझ से कोई गलती हो गई क्या?’’

‘‘यह क्या कह रहे हो?’’ शेफाली ने सफाई से आंखें पोंछते हुए कहा, ‘‘मुझे शर्मिंदा मत करो. अरे हां, मां का फोन आया था,’’ उस ने बात पलटते हुए कहा.

रसोई व्यवस्थित कर सुदेश बोला, ‘‘मैं थोड़ी देर दफ्तर हो कर आता हूं, तब तक तुम सो भी लेना. चाय के समय तक आ जाऊंगा. अरे हां, दफ्तर के साथी तुम्हारा हालचाल पूछने आना चाहते हैं, अगर तुम कहो तो?’’ सुदेश ने झिझकते हुए पूछा तो शेफाली ने मुसकरा कर हामी भर दी.

शेफाली जानती थी सुदेश ने क्यों पूछा था. वह उस के साथ न तो कहीं जाती थी, न ही उस के मित्रों का आना उसे पसंद था, क्योंकि तब उसे सुदेश के साथ बैठना पड़ता था, हंसना पड़ता था और वह यह चाहती नहीं थी. कितनी बार वह सुदेश को जता चुकी थी कि उस की पसंदनापसंद की उसे परवा नहीं है, खासकर उन दोस्तों की, जो हमेशा उस के सामने सुदेश की तारीफों के पुल बांधते रहते हैं, ‘भाभीजी, यह तो बहुत ही हंसमुख और जिंदादिल इंसान है. अपने काम और व्यवहार के कारण सब काप्यारा है, अपना यार.’

शेफाली उस की बदसूरती के सामने जब इन बातों को तोलती तो हमेशा उसे सुदेश का पलड़ा हलका लगता. सुदेश जब भी उसे छूता, उसे लगता, कोई कीड़ा उस के शरीर पर रेंग रहा है और वह दूसरे कमरे में जा कर सो जाती.दरवाजे की घंटी बजी तो वह चौंक उठी. सच ही था, वह ज्यादा ही सोचने लगी थी. सोचा, शायद पोस्टमैन होगा. वह आहिस्ता से उठी और पत्र निकाल लाई. मां ने खत में वही सब बातें लिखी थीं और सुदेश का सम्मान करने की हिदायत दी थी. उस का मन हुआ कि वह अभी मां को जवाब दे दे, पर पेन और कागज दूसरे कमरे में रखे थे और वह थोड़ा चल कर थक गई थी. लेटने ही लगी थी कि सुदेश आ गया.

‘‘सुनो, जरा पेन और पैड दोगे, मां को चिट्ठी लिखनी है,’’ शेफाली ने कहा.

‘‘बाद में, अभी लेटो, तुम्हें उठने की जरूरत ही क्या थी,’’ सुदेश ने बनावटी गुस्से से कहा, ‘‘दवा भी नहीं ली. ठहरो, मैं पानी ले कर आता हूं.’’

‘‘सुनो,’’ शेफाली ने उस की बांह पकड़ ली. सुदेश ने कुछ हैरानी से देखा. शेफाली को समझ नहीं आ रहा था कि वह कैसे अपने किए की माफी मांगे.

व्यक्ति की पहचान उस के गुणों से होती है, उस के व्यवहार से होती है, वही उस के व्यक्तित्व की छाप बनती है. सुदेश की सच्ची परख तो उसे अब हुई थी. आज तक तो वह अपनी खूबसूरती के दंभ में एक ऐसे राजकुमार की तलाश में कल्पनालोक में विचर रही थी जो किस्सेकहानियों में ही होते हैं, पर यथार्थ तो इस से बहुत परे होता है. जहां मनुष्य के गुणों को समाज की नजरें आंकती हैं, उस की आंतरिक सुंदरता ज्यादा माने रखती है. अगर खूबसूरती ही मापदंड होता तो समाज के मूल्यों पर प्रश्नचिह्न लग जाता.

‘‘शेफाली, तुम कुछ कहना चाहती थीं?’’ सुदेश ने मुसकराते हुए पूछा.

‘‘हां…बस, कुछ खास नहीं,’’ वह चौंकते हुए बोली.

‘‘मैं जानता हूं, मैं तुम्हारे लायक नहीं हूं. अगर तुम चाहो तो मुझे छोड़ कर जा सकती हो,’’ सुदेश के स्वर में दर्द था.

‘‘बसबस, और कुछ न कहो, मैं पहले ही बहुत शर्मिंदा हूं. हो सके तो मुझे माफ कर दो. मैं ने तुम्हारा बहुत अपमान किया है. फिर भी तुम ने कभी मुझ से कटुता से बात नहीं की. मेरी हर कड़वाहट को सहते रहे और अब भी मेरी इतनी सेवा कर रहे हो, शर्म आती है मुझे अपनेआप पर,’’ शेफाली उस से लिपट कर रो पड़ी.

‘‘कैसी बातें कर रही हो, कौन नहीं जानता कि तुम्हारी खूबसूरती के सामने मैं कितना कुरूप लगता हूं.’’

‘‘खबरदार, जो तुम ने अपनेआप को कुरूप कहा. तुम्हारे जैसा सुंदर मैं ने जिंदगी में नहीं देखा. मेरी आंखों को तुम्हारी सच्ची परख हो गई है.’’

दोनों अपनी दुनिया में खोए थे कि तभी दरवाजे पर थपथपाहट हुई और घंटी भी बजी.

‘‘सुदेश, दरवाजा खोलो,’’ बाहर से शोर सुनाई दिया.

‘‘लगता है, मित्रमंडली आ गई है,’’ सुदेश बोला.

दरवाजा खुलते ही फूलों की महक से सारा कमरा भर गया. सुदेश के मित्र शेफाली को फूलों का एकएक गुच्छा थमाने लगे.

‘‘भाभीजी, आप के ठीक होने के बाद हम एक शानदार पार्टी लेंगे. क्यों, देंगी न?’’ एक मित्र ने पूछा.

‘‘जरूर,’’ शेफाली ने हंसते हुए कहा. उसे लग रहा था कि इन फूलों की तरह उस का जीवन भी महक से भर गया है. हर तरफ खुशबू बिखर गई है. गुच्छों के बीच से उस ने देखा, सुदेश के चेहरे पर एक अनोखी मुसकराहट छाई हुई है. शेफाली ने जब सारी शर्महया छोड़ आगे बढ़ कर उस का चेहरा चूमा तो ‘हे…हे’ का शोर मच गया और सुदेश ने उसे आलिंगनबद्ध कर लिया.  Romantic Story In Hindi

Social Story In Hindi : चाहत – एक गृहिणी की ख्वाहिशों की दिल छूती कहानी

Social Story In Hindi : ‘थक गई हूं मैं घर के काम से. बस, वही एकजैसी दिनचर्या, सुबह से शाम और फिर शाम से सुबह. घर की सारी टैंशन लेतेलेते मैं परेशान हो चुकी हूं. अब मुझे भी चेंज चाहिए कुछ,’ शोभा अकसर ही यह सब किसी न किसी से कहती रहतीं. एक बार अपनी बोरियतभरी दिनचर्या से अलग, शोभा ने अपनी दोनों बेटियों के साथ रविवार को फिल्म देखने और घूमने का प्लान बनाया. शोभा ने तय किया इस आउटिंग में वे बिना कोई चिंता किए सिर्फ और सिर्फ आनंद उठाएंगी.

मध्यवर्गीय गृहिणियों को ऐसे रविवार कम ही मिलते हैं जिस में वे घर वालों पर नहीं, बल्कि अपने ऊपर समय और पैसे दोनों खर्च करें. इसलिए इस रविवार को ले कर शोभा का उत्साहित होना लाजिमी था. यह उत्साह का ही कमाल था कि इस रविवार की सुबह, हर रविवार की तुलना में ज्यादा जल्दी उठ गई थीं. उन को जल्दी करतेकरते भी सिर्फ नाश्ता कर के तैयार होने में ही 12 बज गए. शो 1 बजे का था, वहां पहुंचने और टिकट लेने के लिए भी समय चाहिए था. ठीक समय पर वहां पहुंचने के लिए बस की जगह औटो ही विकल्प दिख रहा था और यहीं से शोभा के मन में ‘चाहत और जरूरत’ के बीच में संघर्ष शुरू हो गया. अभी तो आउटिंग की शुरुआत ही थी, तो चाहत की विजय हुई. औटो का मीटर बिलकुल पढ़ीलिखी गृहिणियों की डिगरी की तरह, जिस से कोई काम नहीं लेना चाहता पर हां, जिन का होना भी जरूरी होता है, एक कोने में लटका था. इसलिए किराए का भावताव तय कर के सब औटो में बैठ गए.

शोभा वहां पहुंच कर जल्दी से टिकट काउंटर पर जा कर लाइन में लग गईं. जैसे ही उन का नंबर आया तो उन्होंने अंदर बैठे व्यक्ति को झट से 3 उंगलियां दिखाते हुए कहा, ‘3 टिकट.’ अंदर बैठे व्यक्ति ने भी बिना गरदन ऊपर किए, नीचे पड़े कांच में उन उंगलियों की छाया देख कर उतनी ही तीव्रता से जवाब दिया, ‘1200 रुपए.’ शायद शोभा को अपने कानों पर विश्वास नहीं होता यदि वे साथ में उस व्यक्ति के होंठों को 1,200 रुपए बोलने वाली मुद्रा में हिलते हुए न देखतीं. फिर भी मन की तसल्ली के लिए एक बार और पूछ लिया, ‘कितने?’ इस बार अंदर बैठे व्यक्ति ने सच में उन की आवाज नहीं सुनी पर चेहरे के भाव पढ़ गया. उस ने जोर से कहा, ‘1200…’ शोभा की अन्य भावनाओं की तरह उन की आउटिंग की इच्छा भी मोरनी की तरह निकली जो दिखने में तो सुंदर थी पर ज्यादा ऊपर उड़ नहीं सकी और धम्म… से जमीन पर आ गई. पर फिर एक बार दिल कड़ा कर के उन्होंने अपने परों में हवा भरी और उड़ीं, मतलब 1,200 रुपए उस व्यक्ति के हाथ में थमा दिए और टिकट ले कर थिएटर की ओर बढ़ गईं.

10 मिनट पहले दरवाजा खुला. हौल में अंदर जाने वालों में शोभा बेटियों के साथ सब से आगे थीं. अपनीअपनी सीट ढूंढ़ कर सब यथास्थान बैठ गए. विभिन्न विज्ञापनों को झलने के बाद, मुकेश और सुनीता के कैंसर के किस्से सुन कर, साथ ही उन के वीभत्स चेहरे देख कर तो शोभा का पारा इतना ऊपर चढ़ गया कि यदि गलती से भी उन्हें अभी कोई खैनी, गुटखा या सिगरेट पीते दिख जाता तो 2-4 थप्पड़ उसे वहीं जड़ देतीं और कहतीं कि मजे तुम करो और हम अपने पैसे लगा कर यहां तुम्हारा कटाफटा लटका थोबड़ा देखें. पर शुक्र है वहां धूम्रपान की अनुमति नहीं थी. लगभग आधे मिनट की शांति के बाद सभी खड़े हो गए. राष्ट्रगान चल रहा था.

साल में 2-3 बार ही एक गृहिणी के हिस्से में अपने देश के प्रति प्रेम दिखाने का अवसर प्राप्त होता है और जिस प्रेम को जताने के अवसर कम प्राप्त होते हैं उसे जब अवसर मिले तो वह हमेशा आंखों से ही फूटता है. वैसे, देशप्रेम तो सभी में समान ही होता है चाहे सरहद पर खड़ा सिपाही हो या एक गृहिणी, बस, किसी को दिखाने का अवसर मिलता है किसी को नहीं. इस समय शोभा वीररस में इतनी डूबी हुई थीं कि उन को एहसास ही नहीं हुआ कि सब लोग बैठ चुके हैं और वे ही अकेली खड़ी हैं, तो बेटी ने उन को हाथ पकड़ कर बैठने को कहा. अब फिल्म शुरू हो गई. शोभा कलाकारों की अदायगी के साथ भिन्नभिन्न भावनाओं के रोलर कोस्टर से होते हुए इंटरवल तक पहुंचीं.

चूंकि, सभी घर से सिर्फ नाश्ता कर के निकले थे तो इंटरवल तक सब को भूख लग चुकी थी. क्याक्या खाना है, उस की लंबी लिस्ट बेटियों ने तैयार कर के शोभा को थमा दी. शोभा एक बार फिर लाइन में खड़ी थीं. उन के पास बेटियों द्वारा दी गई खाने की लंबी लिस्ट थी तो सामने खड़े लोगों की लाइन भी लंबी थी. जब शोभा के आगे लगभग 3-4 लोग बचे होंगे तब उन की नजर ऊपर लिखे मैन्यू पर पड़ी, जिस में खाने की चीजों के साथसाथ उन के दाम भी थे. उन के दिमाग में जोरदार बिजली कौंध गई और अगले ही पल बिना कुछ समय गंवाए वे लाइन से बाहर थीं. 400 रुपए के सिर्फ पौपकौर्न, समोसा 80 रुपए का एक सैंडविच 120 रुपए की एक और कोल्डड्रिंक 150 रुपए की एक. एक गृहिणी, जिस ने अपनी शादीशुदा जिंदगी ज्यादातर रसोई में ही गुजारी हो, को एक टब पौपकौर्न की कीमत दुकानदार 400 रुपए बता रहे थे. शोभा के लिए यह वही बात थी कि कोई सूई की कीमत 100 रुपए बताए और उसे खरीदने को कहे. उन्हें कीमत देख कर चक्कर आने लगे.

मन ही मन उन्होंने मोटामोटा हिसाब लगाया तो लिस्ट के खाने का खर्च, आउटिंग के खर्च की तय सीमा से पैर पसार कर पर्स के दूसरे पौकेट में रखे बचत के पैसों, जो कि मुसीबत के लिए रखे थे, तक पहुंच गया था. उन्हें एक तरफ बेटियों का चेहरा दिख रहा था तो दूसरी तरफ पैसे. इस बार शोभा अपने मन के मोर को ज्यादा उड़ा न पाईं और आनंद के आकाश को नीचा करते हुए लिस्ट में से सामान आधा कर दिया. जाहिर था, कम हुआ हिस्सा मां अपने हिस्से ही लेती है. अब शोभा को एक बार फिर लाइन में लगना पड़ा. सामान ले कर जब वे अंदर पहुंचीं तो फिल्म शुरू हो चुकी थी. कहते हैं कि यदि फिल्म अच्छी होती है तो वह आप को अपने साथ समेट लेती है. ऐसा लगता है मानो आप भी उसी का हिस्सा हों. और शोभा के साथ हुआ भी वही. बाकी की दुनिया और खाना सब भूल कर शोभा फिल्म में बहती गईं और तभी वापस आईं जब फिल्म समाप्त हो गई. वे जब अपनी दुनिया में वापस आईं तो उन्हें भूख सताने लगी. थिएटर से बाहर निकलीं तो थोड़ी ही दूरी पर उन्हें एक छोटी सी चाटभंडार की दुकान दिखाई दी और सामने ही अपना गोलगोल मुंह फुलाए गोलगप्पे नजर आए. गोलगप्पे की खासीयत होती है कि उन से कम पैसों में ज्यादा स्वाद मिल जाता है और उस के पानी से पेट भर जाता है.

सिर्फ 60 रुपए में तीनों ने पेटभर गोलगप्पे खा लिए. घर वापस पहुंचने की कोई जल्दी नहीं थी, तो शोभा ने अपनी बेटियों के साथ पूरे शहर का चक्कर लगाते हुए घूम कर जाने वाली बस पकड़ी. बस में बैठीबैठी शोभा के दिमाग में बहुत सारी बातें चल रही थीं. कभी वे औटो के ज्यादा लगे पैसों के बारे में सोचतीं तो कभी फिल्म के किसी सीन के बारे में सोच कर हंस पड़तीं, कभी महंगे पौपकौर्न के बारे में सोचतीं तो कभी महीनों या सालों बाद उमड़ी देशभक्ति के बारे में सोच कर रोमांचित हो उठतीं. उन का मन बहुत भ्रमित था कि क्या यही वह ‘चेंज’ है जो वे चाहतीं थीं? वे सोच रही थीं कि क्या सच में वे ऐसा ही दिन बिताना चाहती थीं जिस में दिन खत्म होने पर उन के दिल में खुशी के साथ कसक भी रह जाए? तभी छोटी बेटी ने हाथ हिलाते हुए अपनी मां से पूछा, ‘‘मम्मी, अगले संडे हम कहां चलेंगे?’’ अब शोभा को ‘चाहत और जरूरत’ में से किसी एक को चुनना था. उन्होंने सब की जरूरतों का खयाल रखते हुए,

साथ ही अपनी चाहत का भी तिरस्कार न करते हुए, कहा, ‘‘आज के जैसे बस से पूरा शहर देखते हुए बीच चलेंगे और सनसैट देखेंगे.’’ शोभा सोचने लगीं कि अच्छा हुआ जो प्रकृति अपना सौंदर्य दिखाने के पैसे नहीं लेती और प्रकृति से बेहतर चेंज कहीं और से मिल सकता है भला? शोभा को प्रकृति के साथसाथ अपना घर भी बेहद सुंदर नजर आने लगा था. उस का अपना घर, जहां उस के सपने हैं, अपने हैं और सब का साथ भी तो. Social Story In Hindi

Social Story : जन्मकुंडली का चक्कर – ग्रहों के फेर में फंसी लड़की की दास्तां

Social Story : उस दिन सुबह ही मेरे घनिष्ठ मित्र प्रशांत का फोन आया और दोपहर को डाकिया उस के द्वारा भेजा गया वैवाहिक निमंत्रणपत्र दे गया. प्रशांत की बड़ी बेटी पल्लवी की शादी तय हो गई थी. इस समाचार से मुझे बेहद प्रसन्नता हुई और मैं ने प्रशांत को आश्वस्त कर दिया कि 15 दिन बाद होने वाली पल्लवी की शादी में हम पतिपत्नी अवश्य शरीक होेंगे.

बचपन से ही प्रशांत मेरा जिगरी दोस्त रहा है. हम ने साथसाथ पढ़ाई पूरी की और लगभग एक ही समय हम दोनों अलगअलग बैंकों में नौकरी में लग गए. हम अलगअलग जगहों पर कार्य करते रहे लेकिन विशेष त्योहारों के मौके पर हमारी मुलाकातें होती रहतीं.

हमारे 2-3 दूसरे मित्र भी थे जिन के साथ छुट्टियों में रोज हमारी बैठकें जमतीं. हम विभिन्न विषयों पर बातें करते और फिर अंत में पारिवारिक समस्याओं पर विचारविमर्श करने लगते. बढ़ती उम्र के साथ शिक्षा, स्वास्थ्य और बच्चों की शादी जैसे विषयों पर हमारी बातचीत ज्यादा होती रहती.

प्रशांत की दोनों बेटियां एम.ए. तक की शिक्षा पूरी कर नौकरी करने लगी थीं जबकि मेरे दोनों बेटे अभी पढ़ रहे थे. हमारे कई सहकर्मी अपनी बेटियों की शादी कर के निश्ंिचत हो गए थे. प्रशांत की बेटियों की उम्र बढ़ती जा रही थी और उस के रिटायर होेने का समय नजदीक आ रहा था. उस की बड़ी बेटी पल्लवी की जन्मकुंडली कुछ ऐसी थी कि जिस के कारण उस के लायक सुयोग्य वर नहीं मिल पा रहा था.

हमारे खानदान में जन्मकुंडली को कभी महत्त्व नहीं दिया गया, इसलिए मुझे इस के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. एक बार कुछ खास दोस्तों की बैठक में प्रशांत ने बताया था कि पल्लवी मांगलिक है और उस का गण राक्षस है. मेरी जिज्ञासा पर वह बोला, ‘‘कुंडली के 1, 4, 7, 8 और 12वें स्थान पर मंगल ग्रह रहने पर व्यक्ति मंगली या मांगलिक कहलाता है और कुंडली के आधार पर लोग देव, मनुष्य या राक्षस गण वाले हो जाते हैं. कुछ अन्य बातों के साथ वरवधू के न्यूनतम 18 गुण या अंक मिलने चाहिए. जो व्यक्ति मांगलिक नहीं है, उस की शादी यदि मांगलिक से हो जाए तो उसे कष्ट होगा.’’

किसी को मांगलिक बनाने का आधार मुझे विचित्र लगा और लोगों को 3 श्रेणियों में बांटना तो वैसे ही हुआ जैसे हिंदू समाज को 4 प्रमुख जातियों में विभाजित करना. फिर जो मांगलिक नहीं है, उसे अमांगलिक क्यों नहीं कहा जाता? यहां मंगल ही अमंगलकारी हो जाता है और कुंडली के अनुसार दुश्चरित्र व्यक्ति देवता और सुसंस्कारित, मृदुभाषी कन्या राक्षस हो सकती है. मुझे यह सब बड़ा अटपटा सा लग रहा था.

प्रशांत की बेटी पल्लवी ने एम.एससी. करने के बाद बी.एड. किया और एक बड़े स्कूल में शिक्षिका बन गई. उस का रंगरूप अच्छा है. सीधी, सरल स्वभाव की है और गृहकार्य में भी उस की रुचि रहती है. ऐसी सुयोग्य कन्या का पिता समाज के अंधविश्वासों की वजह से पिछले 2-3 वर्ष से परेशान रह रहा था. जन्मकुंडली उस के गले का फंदा बन गई थी. मुझे लगा, जिस तरह जातिप्रथा को बहुत से लोग नकारने लगे हैं, उसी प्रकार इस अकल्याणकारी जन्मकुंडली को भी निरर्थक और अनावश्यक बना देना चाहिए.

प्रशांत फिर कहने लगा, ‘‘हमारे समाज मेें पढ़ेलिखे लोग भी इतने रूढि़वादी हैं कि बायोडाटा और फोटो बाद में देखते हैं, पहले कुंडली का मिलान करते हैं. कभी मंगली लड़का मिलता है तो दोनों के 18 से कम गुण मिलते हैं. जहां 25-30 गुण मिलते हैं वहां गण नहीं मिलते या लड़का मंगली नहीं होता. मैं अब तक 100 से ज्यादा जगह संपर्क कर चुका हूं किंतु कहीं कोई बात नहीं बनी.’’

मैं, अमित और विवेक, तीनों उस के हितैषी थे और हमेशा उस के भले की सोचते थे. उस दिन अमित ने उसे सुझाव दिया कि किसी साइबर कैफे में पल्लवी की जन्मतिथि थोड़ा आगेपीछे कर के एक अच्छी सी कुंडली बनवा लेने से शायद उस का रिश्ता जल्दी तय हो जाए.

प्रशांत तुरंत बोल उठा, ‘‘मैं ने अभी तक कोई गलत काम नहीं किया है. किसी के साथ ऐसी धोखाधड़ी मैं नहीं कर सकता.’’

‘‘मैं किसी को धोखा देने की बात नहीं कर रहा,’’ अमित ने उसे समझाना चाहा, ‘‘किसी का अंधविश्वास दूर करने के लिए अगर एक झूठ का सहारा लेना पड़े तो इस में बुराई क्या है. क्या कोई पंडित या ज्योतिषी इस बात की गारंटी दे सकता है कि वर और कन्या की कुंडलियां अच्छी मिलने पर उन का दांपत्य जीवन सफल और सदा सुखमय रहेगा?

‘‘हमारे पंडितजी, जो दूसरों की कुंडली बनाते और भविष्य बतलाते हैं, स्वयं 45 वर्ष की आयु में विधुर हो गए. एक दूसरे नामी पंडित का भतीजा शादी के महज  5 साल बाद ही एक दुर्घटना का शिकार हो गया. उस के बाद उन्होंने जन्मकुंडली और भविष्यवाणियों से तौबा ही कर ली,’’ वह फिर बोला, ‘‘मेरे मातापिता 80-85 वर्ष की उम्र में भी बिलकुल स्वस्थ हैं जबकि कुंडलियों के अनुसार उन के सिर्फ 8 ही गुण मिलते हैं.’’

प्रशांत सब सुनता रहा किंतु वह पल्लवी की कुंडली में कुछ हेरफेर करने के अमित के सुझाव से सहमत नहीं था.

कुछ महीने बाद हम फिर मिले. इस बार प्रशांत कुछ ज्यादा ही उदास नजर आ रहा था. कुछ लोग अपनी परेशानियों के बारे में अपने निकट संबंधियों या दोस्तों को भी कुछ बताना नहीं चाहते. आज के जमाने में लोग इतने आत्मकेंद्रित हो गए हैं कि बस, थोड़ी सी हमदर्दी दिखा कर चल देंगे. उन से निबटना तो खुद ही होगा. हमारे छेड़ने पर वह कहने लगा कि पंडितों के चक्कर में उसे काफी शारीरिक कष्ट तथा आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा और कोई लाभ नहीं हुआ.

2 वर्ष पहले किसी ने कालसर्प दोष बता कर उसे महाराष्ट्र के एक प्रसिद्ध स्थान पर सोने के सर्प की पूजा और पिंडदान करने का सुझाव दिया था. उतनी दूर सपरिवार जानेआने, होटल में 3 दिन ठहरने और सोने के सर्प सहित दानदक्षिणा में उस के लगभग 20 हजार रुपए खर्च हो गए. उस के कुछ महीने बाद एक दूसरे पंडित ने महामृत्युंजय जाप और पूजाहवन की सलाह दी थी. इस में फिर 10 हजार से ज्यादा खर्च हुए. उन पंडितों के अनुसार पल्लवी का रिश्ता पिछले साल ही तय होना निश्चित था. अब एकडेढ़ साल बाद भी कोई संभावना नजर नहीं आ रही थी.

मैं ने उसे समझाने के इरादे से कहा, ‘‘तुम जन्मकुंडली और ऐसे पंडितों को कुछ समय के लिए भूल जाओ. यजमान का भला हो, न हो, इन की कमाई अच्छी होनी चाहिए. जो कहते हैं कि अलगअलग राशि वाले लोगों पर ग्रहों के असर पड़ते हैं, इस का कोई वैज्ञानिक आधार है क्या?

‘‘भिन्न राशि वाले एकसाथ धूप में बैठें तो क्या सब को सूर्य की किरणों से विटामिन ‘डी’ नहीं मिलेगा. मेरे दोस्त, तुम अपनी जाति के दायरे से बाहर निकल कर ऐसी जगह बात चलाओ जहां जन्मकुंडली को महत्त्व नहीं दिया जाता.’’

मेरी बातों का समर्थन करते हुए अमित बोला, ‘‘कुंडली मिला कर जितनी शादियां होती हैं उन में बहुएं जलाने या मारने, असमय विधुर या विधवा होने, आत्महत्या करने, तलाकशुदा या विकलांग अथवा असाध्य रोगों से ग्रसित होने के कितने प्रतिशत मामले होते हैं. ऐसा कोई सर्वे किया जाए तो एक चौंकाने वाला तथ्य सामने आ जाएगा. इस पर कितने लोग ध्यान देते हैं? मुझे तो लगता है, इस कुंडली ने लोगों की मानसिकता को संकीर्ण एवं सशंकित कर दिया है. सब बकवास है.’’

उस दिन मुझे लगा कि प्रशांत की सोच में कुछ बदलाव आ गया था. उस ने निश्चय कर लिया था कि अब वह ऐसे पंडितों और ज्योतिषियों के चक्कर में नहीं पड़ेगा.

खैर, अंत भला तो सब भला. हम तो उस की बेटियों की जल्दी शादी तय होने की कामना ही करते रहे और अब एक खुशखबरी तो आ ही गई.

हम पतिपत्नी ठीक शादी के दिन ही रांची पहुंच सके. प्रशांत इतना व्यस्त था कि 2 दिन तक उस से कुछ खास बातें नहीं हो पाईं. उस ने दबाव डाल कर हमें 2 दिन और रोक लिया था. तीसरे दिन जब ज्यादातर मेहमान विदा हो चुके थे, हम इत्मीनान से बैठ कर गपशप करने लगे. उस वक्त प्रशांत का साला भी वहां मौजूद था. वही हमें बताने लगा कि किस तरह अचानक रिश्ता तय हुआ. उस ने कहा, ‘‘आज के जमाने में कामकाजी लड़कियां स्वयं जल्दी विवाह करना नहीं चाहतीं. उन में आत्मसम्मान, स्वाभिमान की भावना होती है और वे आर्थिक रूप से अपना एक ठोस आधार बनाना चाहती हैं, जिस से उन्हें अपनी हर छोटीमोटी जरूरत के लिए अपने पति के आगे हाथ न फैलाना पड़े. पल्लवी को अभी 2 ही साल तो हुए थे नौकरी करते हुए लेकिन मेरे जीजाजी को ऐसी जल्दी पड़ी थी कि उन्होंने दूसरी जाति के एक विधुर से उस का संबंध तय कर दिया.

वैसे मेरे लिए यह बिलकुल नई खबर थी. किंतु मुझे इस में कुछ भी अटपटा नहीं लगा. पल्लवी का पति 30-32 वर्ष का नवयुवक था और देखनेसुनने में ठीक लग रहा था. हम लोगोें का मित्र विवेक, प्रशांत की बिरादरी से ही था. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर प्रशांत ने ऐसा निर्णय क्यों लिया. उस ने उस से पूछा, ‘‘पल्लवी जैसी कन्या के लिए अपने समाज में ही अच्छे कुंआरे लड़के मिल सकते थे. तुम थोड़ा और इंतजार कर सकते थे. आखिर क्या मजबूरी थी कि उस की शादी तुम ने एक ऐसे विधुर से कर दी जिस की पत्नी की संदेहास्पद परिस्थितियों में मौत हो गई थी.’’

‘‘यह सिर्फ मेरा निर्णय नहीं था. पल्लवी की इस में पूरी सहमति थी. जब हम अलगअलग जातियों के लोग आपस में इतने अच्छे दोस्त बन सकते हैं, साथ खापी और रह सकते हैं, तो फिर अंतर्जातीय विवाह क्यों नहीं कर सकते?’’

प्रशांत कहने लगा, ‘‘एक विधुर जो नौजवान है, रेलवे में इंजीनियर है और जिसे कार्यस्थल भोपाल में अच्छा सा फ्लैट मिला हुआ है, उस में क्या बुराई है? फिर यहां जन्मकुंडली मिलाने का कोई चक्कर नहीं था.’’

‘‘और उस की पहली पत्नी की मौत?’’ विवेक शायद प्रशांत के उत्तर से संतुष्ट नहीं था.

प्रशांत ने कहा, ‘‘अखबारों में प्राय: रोज ही दहेज के लोभी ससुराल वालों द्वारा बहुओं को प्रताडि़त करने अथवा मार डालने की खबरें छपती रहती हैं. हमें भी डर होता था किंतु एक विधुर से बेटी का ब्याह कर के मैं चिंतामुक्त हो गया हूं. मुझे पूरा यकीन है, पल्लवी वहां सुखी रहेगी. आखिर, ससुराल वाले कितनी बहुओं की जान लेंगे? वैसे उन की बहू की मौत महज एक हादसा थी.’’

‘‘तुम्हारा निर्णय गलत नहीं रहा,’’ विवेक मुसकरा कर बोला.  Social Story

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