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Love Story : इश्क के चक्कर में – दाऊद ने बनाई थी ये कैसी योजना

Love Story : मेरे मुवक्किल रियाज पर नादिर के कत्ल का इलजाम था. इस मामले को अदालत में पहुंचे करीब 3 महीने हो चुके थे, पर बाकायदा सुनवाई आज हो रही थी. अभियोजन पक्ष की ओर से 8 गवाह थे, जिन में पहला गवाह सालिक खान था. सच बोलने की कसम खाने के बाद उस ने अपना बयान रिकौर्ड कराया.

सालिक खान भी वहीं रहता था, जहां मेरा मुवक्किल रियाज और मृतक नादिर रहता था. रियाज और नादिर एक ही बिल्डिंग में रहते थे. वह तिमंजिला बिल्डिंग थी. सालिक खान उसी गली में रहता था. गली के नुक्कड़ पर उस की पानसिगरेट की दुकान थी.

भारी बदन के सालिक की उम्र 46-47 साल थी. अभियोजन पक्ष के वकील ने उस से मेरे मुवक्किल की ओर इशारा कर के पूछा, ‘‘सालिक खान, क्या आप इस आदमी को जानते हैं?’’

‘‘जी साहब, अच्छी तरह से जानता हूं.’’

‘‘यह कैसा आदमी है?’’

‘‘हुजूर, यह आवारा किस्म का बहुत झगड़ालू आदमी है. इस के बूढ़े पिता एक होटल में बैरा की नौकरी करते हैं. यह सारा दिन मोहल्ले में घूमता रहता है. हट्टाकट्टा है, पर कोई काम नहीं करता.’’

‘‘क्या यह गुस्सैल प्रवृत्ति का है?’’ वकील ने पूछा.

‘‘जी, बहुत ही गुस्सैल स्वभाव का है. मेरी दुकान के सामने ही पिछले हफ्ते इस की नादिर से जम कर मारपीट हुई थी. दोनों खूनखराबे पर उतारू थे. इस से यह तो नहीं होता कि कोई कामधाम कर के बूढ़े बाप की मदद करे, इधरउधर लड़ाईझगड़ा करता फिरता है.’’

‘‘क्या यह सच है कि उस लड़ाई में ज्यादा नुकसान इसी का हुआ था. इस के चेहरे पर चोट लगी थी. उस के बाद इस ने क्या कहा था?’’ वकील ने मेरे मुवक्किल की ओर इशारा कर के पूछा.

‘‘इस ने नादिर को धमकाते हुए कहा था कि यह उसे किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ेगा. इस का अंजाम उसे भुगतना ही पड़ेगा. इस का बदला वह जरूर लेगा.’’

इस के बाद अभियोजन के वकील ने कहा, ‘‘दैट्स आल हुजूर. इस धमकी के कुछ दिनों बाद ही नादिर की हत्या कर दी गई, इस से यही लगता है कि यह हत्या इसी आदमी ने की है.’’

उस के बाद मैं गवाह से पूछताछ करने के लिए आगे आया. मैं ने पूछा, ‘‘सालिक साहब, क्या आप शादीशुदा हैं?’’

‘‘जी हां, मैं शादीशुदा ही नहीं, मेरी 2 बेटियां और एक बेटा भी है.’’

‘‘क्या आप की रियाज से कोई व्यक्तितगत दुश्मनी है?’’

‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है.’’

‘‘तब आप ने उसे कामचोर और आवारा क्यों कहा?’’

‘‘वह इसलिए कि यह कोई कामधाम करने के बजाय दिन भर आवारा घूमता रहता है.’’

‘‘लेकिन आप की बातों से तो यही लगता है कि आप रियाज से नफरत करते हैं. इस की वजह यह है कि रियाज आप की बेटी फौजिया को पसंद करता है. उस ने आप के घर फौजिया के लिए रिश्ता भी भेजा था. क्या मैं गलत कह रहा हूं्?’’

‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है. हां, उस ने फौजिया के लिए रिश्ता जरूर भेजा था, पर मैं ने मना कर दिया था.’’ सालिक खान ने हकलाते हुए कहा.

‘‘आप झूठ बोल रहे हैं सालिक खान, आप ने इनकार नहीं किया था, बल्कि कहा था कि आप पहले बड़ी बेटी शाजिया की शादी करना चाहते हैं. अगर रियाज शाजिया से शादी के लिए राजी है तो यह रिश्ता मंजूर है. चूंकि रियाज फौजिया को पसंद करता था, इसलिए उस ने शादी से मना कर दिया था. यही नहीं, उस ने ऐसी बात कह दी थी कि आप को गुस्सा आ गया था. आप बताएंगे, उस ने क्या कहा था?’’

‘‘उस ने कहा था कि शाजिया सुंदर नहीं है, इसलिए वह उस से किसी भी कीमत पर शादी नहीं करेगा.’’

‘‘…और उसी दिन से आप रियाज से नफरत करने लगे थे. उसे धोखेबाज, आवारा और बेशर्म कहने लगे. इसी वजह से आज उस के खिलाफ गवाही दे रहे हैं.’’

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है. मैं ने जो देखा था, वही यहां बताया है.’’

‘‘क्या आप को यकीन है कि रियाज ने जो धमकी दी थी, उस पर अमल कर के नादिर का कत्ल कर दिया है?’’

‘‘मैं यह यकीन से नहीं कह सकता, क्योंकि मैं ने उसे कत्ल करते नहीं देखा.’’

‘‘मतलब यह कि सब कुछ सिर्फ अंदाजे से कह रहे हो?’’

मैं ने सालिक खान से जिरह खत्म कर दी. रियाज और मृतक नादिर गोरंगी की एक तिमंजिला बिल्डिंग में रहते थे, जिस की हर मंजिल पर 2 छोटेछोटे फ्लैट्स बने थे. नादिर अपने परिवार के साथ दूसरी मंजिल पर रहता था, जबकि रियाज तीसरी मंजिल पर रहता था.

रियाज मांबाप की एकलौती संतान था. उस की मां घरेलू औरत थी. पिता एक होटल में बैरा थे. उस ने इंटरमीडिएट तक पढ़ाई की थी. वह आगे पढ़ना चाहता था, पर हालात ऐसे नहीं थे कि वह कालेज की पढ़ाई करता. जाहिर है, उस के बाप अब्दुल की इतनी आमदनी नहीं थी. वह नौकरी ढूंढ रहा था, पर कोई ढंग की नौकरी नहीं मिल रही थी, इसलिए इधरउधर भटकता रहता था.

बैरा की नौकरी वह करना नहीं चाहता था. अब उस पर नादिर के कत्ल का आरोप था. मृतक नादिर बिलकुल पढ़ालिखा नहीं था. वह अपने बड़े भाई माजिद के साथ रहता था. मांबाप की मौत हो चुकी थी. माजिद कपड़े की एक बड़ी दुकान पर सेल्समैन था. वह शादीशुदा था. उस की बीवी आलिया हाउसवाइफ थी. उस की 5 साल की एक बेटी थी. माजिद ने अपने एक जानने वाले की दुकान पर नादिर को नौकरी दिलवा दी थी. नादिर काम अच्छा करता था. उस का मालिक उस पर भरोसा करता था. नादिर और रियाज के बीच कोई पुरानी दुश्मनी नहीं थी.

अगली पेशी के पहले मैं ने रियाज और नादिर के घर जा कर पूरी जानकारी हासिल  कर ली थी. रियाज का बाप नौकरी पर था. मां नगीना से बात की. वह बेटे के लिए बहुत दुखी थी. मैं ने उसे दिलासा देते हुए पूछा, ‘‘क्या आप को पूरा यकीन है कि आप के बेटे ने नादिर का कत्ल नहीं किया?’’

‘‘हां, मेरा बेटा कत्ल नहीं कर सकता. वह बेगुनाह है.’’

‘‘फिर आप खुदा पर भरोसा रखें. उस ने कत्ल नहीं किया है तो वह छूट जाएगा. अभी तो उस पर सिर्फ आरोप है.’’

नगीना से मुझे कुछ काम की बातें पता चलीं, जो आगे जिरह में पता चलेंगी. मैं रियाज के घर से निकल रहा था तो सामने के फ्लैट से कोई मुझे ताक रहा था. हर फ्लैट में 2 कमरे और एक हौल था. इमारत का एक ही मुख्य दरवाजा था. हर मंजिल पर आमनेसामने 2 फ्लैट्स थे. एक तरफ जीना था.

पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार, 17 अप्रैल की रात 2 बजे के करीब नादिर की हत्या हुई थी. उसे इसी बिल्डिंग की छत पर मारा गया था. उस की लाश पानी की टंकी के करीब एक ब्लौक पर पड़ी थी. उस की हत्या बोल्ट खोलने वाले भारी रेंच से की गई थी.

अगली पेशी पर अभियोजन पक्ष की ओर से कादिर खान को पेश किया गया. कादिर खान भी उसी बिल्डिंग में रहता था. बिल्डिंग के 5 फ्लैट्स में किराएदार रहते थे और एक फ्लैट में खुद मकान मालिक रहता था. अभियोजन के वकील ने कादिर खान से सवालजवाब शुरू किए.

लाश सब से पहले उसी ने देखी थी. उस की गवाही में कोई खास बात नहीं थी, सिवाय इस के कि उस ने भी रियाज को झगड़ालू और गुस्सैल बताया था. मैं ने पूछा, ‘‘आप ने मुलाजिम रियाज को गुस्सैल और लड़ाकू कहा है, इस की वजह क्या है?’’

‘‘वह है ही झगड़ालू, इसलिए कहा है.’’

‘‘आप किस फ्लैट में कब से रह रहे हैं?’’

‘‘मैं 4 नंबर फ्लैट में 4 सालों से रह रहा हूं.’’

‘‘इस का मतलब दूसरी मंजिल पर आप अकेले ही रहते हैं?’’

‘‘नहीं, मेरे साथ बीवीबच्चे भी रहते हैं.’’

‘‘जब आप बिल्डिंग में रहने आए थे तो रियाज आप से पहले से वहां रह रहा था?’’

‘‘जी हां, वह वहां पहले से रह रहा था.’’

‘‘कादिर खान, जिस आदमी से आप का 4 सालों में एक बार भी झगड़ा नहीं हुआ, इस के बावजूद आप उसे झगड़ालू कह रहे हैं, ऐसा क्यों?’’

‘‘मुझ से झगड़ा नहीं हुआ तो क्या हुआ, वह झगड़ालू है. मैं ने खुद उसे नादिर से लड़ते देखा है. दोनों में जोरजोर से झगड़ा हो रहा था. बाद में पता चला कि उस ने नादिर का कत्ल कर दिया.’’

‘‘क्या आप बताएंगे कि दोनों किस बात पर लड़ रहे थे?’’

‘‘नादिर का कहना था कि रियाज उस के घर के सामने से गुजरते हुए गंदेगंदे गाने गाता था. जबकि रियाज इस बात को मना कर रहा था. इसी बात को ले कर दोनों में झगड़ा हुआ था. लोगों ने बीचबचाव कराया था.’’

‘‘और अगले दिन बिल्डिंग की छत पर नादिर की लाश मिली थी. उस की लाश आप ने सब से पहले देखी थी.’’

एक पल सोच कर उस ने कहा, ‘‘हां, करीब 9 बजे सुबह मैं ने ही देखी थी.’’

‘‘क्या आप रोज सवेरे छत पर जाते हैं?’’

‘‘नहीं, मैं रोज नहीं जाता. उस दिन टीवी साफ नहीं आ रहा था. मुझे लगा कि केबल कट गया है, यही देखने गया था.’’

‘‘आप ने छत पर क्या देखा?’’

‘‘जैसे ही मैं ने दरवाजा खोला, मेरी नजर सीधे लाश पर पड़ी. मैं घबरा कर नीचे आ गया.’’

‘‘कादिर खान, दरवाजा और लाश के बीच कितना अंतर रहा था?’’

‘‘यही कोई 20-25 फुट का. ब्लौक पर नादिर की लाश पड़ी थी. उस की खोपड़ी फटी हुई थी.’’

‘‘नादिर की लाश के बारे में सब से पहले आप ने किसे बताया?’’

‘‘दाऊद साहब को बताया था. वह उस बिल्डिंग के मालिक हैं.’’

‘‘बिल्डिंग के मालिक, जो 5 नंबर फ्लैट में रहते हैं?’’

‘‘जी, मैं ने उन से छत की चाबी ली थी, छत की चाबी उन के पास ही रहती है.’’

‘‘उस दिन छत का दरवाजा तुम्हीं ने खोला था?’’

‘‘जी साहब, ताला मैं ने ही खोला था?’’

‘‘ताला खोला तो ब्लौक पर लाश पड़ी दिखाई दी. जरा छत के बारे में विस्तार से बताइए?’’

‘‘पानी की टंकी छत के बीच में है. टंकी के करीब छत पर 15-20 ब्लौक लगे हैं, जिन पर बैठ कर कुछ लोग गपशप कर सकते हैं.’’

‘‘अगर ताला तुम ने खोला तो मृतक आधी रात को छत पर कैसे पहुंचा?’’

‘‘जी, यह मैं नहीं बता सकता. दाऊद साहब को जब मैं ने लाश के बारे में बताया तो वह भी हैरान रह गए.’’

‘‘बात नादिर के छत पर पहुंचने भर की नहीं है, बल्कि वहां उस का बेदर्दी से कत्ल भी कर दिया गया. नादिर के अलावा भी कोई वहां पहुंचा होगा. जबकि चाबी दाऊद साहब के पास थी.’’

‘‘दाऊद साहब भी सुन कर हैरान हो गए थे. वह भी मेरे साथ छत पर गए. इस के बाद उन्होंने ही पुलिस को फोन किया.’’

इसी के बाद जिरह और अदालत का वक्त खत्म हो गया.

मुझे तारीख मिल गई. अगली पेशी पर माजिद की गवाही शुरू हुई. वह सीधासादा 40-42 साल का आदमी था. कपड़े की दुकान पर सेल्समैन था. फ्लैट नंबर 2 में रहता था. उस ने कहा कि नादिर और रियाज के बीच काफी तनाव था. दोनों में झगड़ा भी हुआ था. यह कत्ल उसी का नतीजा है.

अभियोजन के वकील ने सवाल कर लिए तो मैं ने पूछा, ‘‘आप का भाई कब से कब तक अपनी नौकरी पर रहता था?’’

‘‘सुबह 11 बजे से रात 8 बजे तक. वह 9 बजे तक घर आ जाता था.’’

‘‘कत्ल वाले दिन वह कितने बजे घर आया था?’’

‘‘उस दिन मैं घर आया तो वह घर पर ही मौजूद था.’’

‘‘माजिद साहब, पिछली पेशी पर एक गवाह ने कहा था कि उस दिन शाम को उस ने नादिर और रियाज को झगड़ा करते देखा था. क्या उस दिन वह नौकरी पर नहीं गया था?’’

‘‘नहीं, उस दिन वह नौकरी पर गया था, लेकिन तबीयत ठीक न होने की वजह से जल्दी घर आ गया था.’’

‘‘घर आते ही उस ने लड़ाईझगड़ा शुरू कर दिया था?’’

‘‘नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं है. घर आ कर वह आराम कर रहा था, तभी रियाज खिड़की के पास खड़े हो कर बेहूदा गाने गाने लगा था. मना करने पर भी वह चुप नहीं हुआ. पहले भी इस बात को ले कर नादिर और उस में मारपीट हो चुकी थी. नादिर नाराज हो कर बाहर निकला और दोनों में झगड़ा और गालीगलौज होने लगी.’’

‘‘झगड़ा सिर्फ इतनी बात पर हुआ था या कोई और वजह थी?’’ मैं ने पूछा.

‘‘यह आप रियाज से ही पूछ लीजिए. मेरा भाई सीधासादा था, बेमौत मारा गया.’’ जवाब में माजिद ने कहा.

‘‘आप को लगता है कि रियाज ने धमकी के अनुसार बदला लेने के लिए तुम्हारे भाई का कत्ल कर दिया है.’’

‘‘जी हां, मुझे लगता नहीं, पूरा यकीन है.’’

‘‘जिस दिन कत्ल हुआ था, सुबह आप सो कर उठे तो आप का भाई घर पर नहीं था?’’

‘‘जब मैं सो कर उठा तो मेरी बीवी ने बताया कि नादिर घर पर नहीं है.’’

‘‘यह जान कर आप ने क्या किया?’’

‘‘हाथमुंह धो कर मैं उस की तलाश में निकला तो पता चला कि छत पर नादिर की लाश पड़ी है.’’

‘‘पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार, नादिर का कत्ल रात 1 से 2 बजे के बीच हुआ था. क्या आप बता सकते हैं कि नादिर एक बजे रात को छत पर क्या करने गया था? आप ने जो बताया है, उस के अनुसार नादिर बीमार था. छत पर ताला भी लगा था. इस हालत में छत पर कैसे और क्यों गया?’’

‘‘मैं क्या बताऊं? मुझे खुद नहीं पता. अगर वह जिंदा होता तो उसी से पूछता.’’

‘‘वह जिंदा नहीं है, इसलिए आप को बताना पड़ेगा, वह ऊपर कैसे गया? क्या उस के पास डुप्लीकेट चाबी थी? उस ने मकान मालिक से चाबी नहीं ली तो क्या पीछे से छत पर पहुंचा?’’

‘‘नादिर के पास डुप्लीकेट चाबी नहीं थी. वह छत पर क्यों और कैसे गया, मुझे नहीं पता.’’

‘‘आप कह रहे हैं कि आप का भाई सीधासादा काम से काम रखने वाला था. इस के बावजूद उस ने गुस्से में 2-3 बार रियाज से मारपीट की. ताज्जुब की बात तो यह है कि रियाज की लड़ाई सिर्फ नादिर से ही होती थी. इस की एक खास वजह है, जो आप बता नहीं रहे हैं.’’

‘‘कौन सी वजह? मैं कुछ नहीं छिपा रहा हूं.’’

‘‘अपने भाई की रंगीनमिजाजी. नादिर सालिक खान की छोटी बेटी फौजिया को चाहता था. वह फौजिया को रियाज के खिलाफ भड़काता रहता था. उस ने उस के लिए शादी का रिश्ता भी भेजा था, जबकि फौजिया नादिर को इस बात के लिए डांट चुकी थी. जब उस पर उस की डांट का असर नहीं हुआ तो फौजिया ने सारी बात रियाज को बता दी थी. उसी के बाद रियाज और नादिर में लड़ाईझगड़ा होने लगा था.’’

‘‘मुझे ऐसी किसी बात की जानकारी नहीं है. मैं ने रिश्ता नहीं भिजवाया था.’’

‘‘खैर, यह बताइए कि 2 साल पहले आप के फ्लैट के समने एक बेवा औरत सकीरा बेगम रहती थीं, आप को याद हैं?’’

माजिद हड़बड़ा कर बोला, ‘‘जी, याद है.’’

‘‘उस की एक जवान बेटी थी रजिया, याद आया?’’

‘‘जी, उस की जवान बेटी रजिया थी.’’

‘‘अब यह बताइए कि सकीरा बेगम बिल्डिंग छोड़ कर क्यों चली गई?’’

‘‘उस की मरजी, यहां मन नहीं लगा होगा इसलिए छोड़ कर चली गई.’’

‘‘माजिद साहब, आप असली बात छिपा रहे हैं. क्योंकि वह आप के लिए शर्मिंदगी की बात है. आप बुरा न मानें तो मैं बता दूं? आप का भाई उस बेवा औरत की बेटी रजिया पर डोरे डाल रहा था. उस की इज्जत लूटने के चक्कर में था, तभी रंगेहाथों पकड़ा गया. यह रजिया की खुशकिस्मती थी कि झूठे प्यार के नाम पर वह अपना सब कुछ लुटाने से बच गई. इस बारे में बताने वालों की कमी नहीं है, इसलिए झूठ बोलने से कोई फायदा नहीं है. सकीरा बेगम नादिर की वजह से बिल्डिंग छोड़ कर चली गई थीं.’’

‘‘जी, इस में नादिर की गलती थी, इसलिए मैं ने उसे खूब डांटा था. इस के बाद वह सुधर गया था.’’

‘‘अगर वह सुधर गया था तो आधी रात को छत पर क्या कर रहा था? क्या आप इस बात से इनकार करेंगे कि नादिर सकीरा बेगम की बेटी रजिया से छत पर छिपछिप कर मिलता था? इस के लिए उस ने छत के ताले की डुप्लीकेट चाबी बनवा ली थी. जब इस बात की खबर दाऊद साहब को हुई तो उन्होंने ताला बदलवा दिया था.’’

उस ने लड़खड़ाते हुए कहा, ‘‘यह भी सही है.’’

अगली पेशी पर मैं ने इनक्वायरी अफसर से पूछताछ की. उस का नाम साजिद था. मैं ने कहा, ‘‘नादिर की हत्या के बारे में आप को सब से पहले किस ने बताया?’’

‘‘रिकौर्ड के अनुसार, घटना की जानकारी 18 अप्रैल की सुबह 10 बजे दाऊद साहब ने फोन द्वारा दी थी. मैं साढ़े 10 बजे वहां पहुंच गया था.’’

‘‘जब आप छत पर पहुंचे, वहां कौनकौन था?’’

‘‘फोन करने के बाद दाऊद साहब ने सीढि़यों पर ताला लगा दिया था. मैं वहां पहुंचा तो मृतक की लाश टंकी के पीछे ब्लौक पर पड़ी थी. अंजाने में पीछे से उस की खोपड़ी पर  लोहे के वजनी रेंच से जोरदार वार किया गया था. उसी से उस की मौत हो गई थी.’’

‘‘हथियार आप को तुरंत मिल गया था?’’

‘‘जी नहीं, थोड़ी तलाश के बाद छत के कोने में पड़े कबाड़ में मिला था.’’

‘‘क्या आप ने उस पर से फिंगरप्रिंट्स उठवाए थे?’’

‘‘उस पर फिंगरप्रिंट्स नहीं मिले थे. शायद साफ कर दिए गए थे.’’

‘‘घटना वाली रात मृतक छत पर था, वहीं उस का कत्ल किया गया था. सवाल यह है कि जब छत पर जाने वाली सीढि़यों के दरवाजे पर ताला लगा था तो मृतक छत पर कैसे पहुंचा? इस बारे में आप कुछ बता सकते हैं?’’

जज साहब काफी दिलचस्पी से हमारी जिरह सुन रहे थे. उन्होंने पूछा, ‘‘मिर्जा साहब, इस मामले में आप बारबार किसी लड़की का जिक्र क्यों कर रहे हैं? इस से तो यही लगता है कि आप उस लड़की के बारे में जानते हैं?’’

‘‘जी सर, कुछ हद तक जानता हूं.’’

‘‘तो आप मृतक की प्रेमिका का नाम बताएंगे?’’ जज साहब ने पूछा.

‘‘जरूर बताऊंगा सर, पर समय आने दीजिए.’’

पिछली पेशी पर मैं ने प्यार और प्रेमिका का जिक्र कर के मुकदमे में सनसनी पैदा कर दी थी. यह कोई मनगढ़ंत किस्सा नहीं था. इस मामले में मैं ने काफी खोज की थी, जिस से मृतक नादिर के ताजे प्यार के बारे में पता कर लिया था. अब उसी के आधार पर रियाज को बेगुनाह साबित करना चाहता था.

काररवाई शुरू हुई. अभियोजन की तरफ से बिल्डिंग के मालिक दाऊद साहब को बुलाया गया. वकील ने 10 मिनट तक ढीलीढाली जिरह की. उस के बाद मेरा नंबर आया. मैं ने पूछा, ‘‘छत की चाबी आप के पास रहती है. घटना वाले दिन किसी ने आप से चाबी मांगी थी?’’

‘‘जी नहीं, चाबी किसी ने नहीं मांगी थी.’’

‘‘इस का मतलब यह हुआ कि 17 अप्रैल की रात को कातिल रियाज और मृतक नादिर में किसी एक के पास छत के दरवाजे की चाबी थी या दोनों के पास थी. उसी से दोनों छत पर पहुंचे थे. दाऊद साहब, आप के खयाल से नादिर की हत्या किस ने की होगी?’’

दाऊद ने रियाज की ओर इशारा कर के कहा, ‘‘इसी ने मारा है और कौन मारेगा? इन्हीं दोनों में झगड़ा चल रहा था.’’

‘‘आप ने सरकारी वकील को बताया है कि रियाज आवारा, बदमाश और काफी झगड़ालू है. आप भी उसी बिल्डिंग में रहते हैं. आप का रियाज से कितनी बार लड़ाईझगड़ा हुआ है?’’

‘‘मुझ से तो उस का कभी कोई झगड़ा नहीं हुआ. मैं ने उसे झगड़ालू नादिर से बारबार झगड़ा करने की वजह से कहा था.’’

‘‘इस का मतलब आप के लिए वह अच्छा था. आप से कभी कोई लड़ाईझगड़ा नहीं हुआ था.’’

‘‘जी, आप ऐसा ही समझिए.’’ दाऊद ने गोलमोल जवाब दिया.

‘‘सभी को पता है कि 2 साल पहले रजिया से मिलने के लिए नादिर ने छत के दरवाजे में लगे ताले की डुप्लीकेट चाबी बनवाई थी. जब सब को इस बात की जानकारी हुई तो बड़ी बदनामी हुई. उस के बाद आप ने छत के दरवाजे का ताला तक बदल दिया था. हो सकता है, इस बार भी उस ने डुप्लीकेट चाबी बनवा ली हो और छत पर किसी से मिलने जाता रहा हो? इस बार लड़की कौन थी, बता सकते हैं आप?’’

‘‘इस बारे में मुझे कुछ नहीं पता. हां, हो सकता है उस ने डुप्लीकेट चाबी बनवा ली हो. लड़की के बारे में मैं कैसे बता सकता हूं. हो सकता है, रियाज को पता हो.’’

‘‘आप रियाज का नाम क्यों ले रहे हैं?’’

‘‘इसलिए कि वह भी फौजिया से प्यार करता था या उसे इस प्यार की जानकारी थी.’’

मैं ने भेद उगलवाने की गरज से कहा, ‘‘दाऊद साहब, यह तो सब को पता है कि रियाज फौजिया से शादी करना चाहता था और इस के लिए उस ने रिश्ता भी भेजा था. जबकि नादिर उसे रियाज के खिलाफ भड़काता था. कहीं नादिर फौजिया के साथ ही छत पर तो नहीं था? इस का उल्टा भी हो सकता है?’’

दाऊद जिस तरह फौजिया को नादिर से जोड़ रहा था, यह उस की गंदी सोच का नतीजा था या फिर उस के दिमाग में कोई और बात थी. उस ने पूछा, ‘‘उल्टा कैसे हो सकता है?’’

‘‘यह भी मुमकिन है कि घटना वाली रात नादिर फौजिया से मिलने बिल्डिंग की छत पर गया हो और…’’

मेरी अधूरी बात पर उस ने चौंक कर मेरी ओर देखा. इस के बाद खा जाने वाली नजरों से मेरी ओर घूरते हुए बोला, ‘‘और क्या वकील साहब?’’

‘‘…और यह कि फौजिया के अलावा कोई दूसरी लड़की भी तो हो सकती है? किसी ने फौजिया को आतेजाते देखा तो नहीं, इसलिए वहां दूसरी लड़की भी तो हो सकती थी. इस पर आप को कुछ ऐतराज है क्या?’’

दाऊद ने हड़बड़ा कर कहा, ‘‘भला मुझे क्यों ऐतराज होगा?’’

‘‘अगर मैं कहूं कि वह लड़की उसी बिल्डंग की रहने वाली थी तो..?’’

‘‘…तो क्या?’’ वह हड़बड़ा कर बोला.

‘‘बिल्डिंग का मालिक होने के नाते आप को उस लड़की के बारे में पता होना चाहिए. अच्छा, मैं आप को थोड़ा संकेत देता हूं. उस का नाम ‘म’ से शुरू होता है और आप का उस से गहरा ताल्लुक है, जिस के इंतजार में नादिर छत पर बैठा था.’’

मैं असलियत की तह तक पहुंच चुका था. बस एक कदम आगे बढ़ना था. मैं ने कहा, ‘‘दाऊद साहब, नाम मैं बताऊं या आप खुद बताएंगे? आप को एक बार फिर बता दूं कि उस का नाम ‘म’ से शुरू होता है, जिस का इश्क नादिर से चल रहा था और यह बात आप को मालूम हो चुकी थी. अब बताइए नाम?’’

दाऊद गुस्से से उबलते हुए बोला, ‘‘अगर तुम ने मेरी बेटी मनीजा का नाम लिया तो ठीक नहीं होगा.’’

मैं ने जज साहब की ओर देखते हुए कहा, ‘‘सर, मुझे अब इन से कुछ नहीं पूछना. मेरे हिसाब से नादिर का कत्ल इसी ने किया है. रियाज बेगुनाह है. इस की नादिर से 2-3 बार लड़ाई हुई थी, इस ने धमकी भी दी थी, लेकिन इस ने कत्ल नहीं किया. धमकी की वजह से उस पर कत्ल का इल्जाम लगा दिया गया. अब हकीकत सामने है सर.’’

अगली पेशी पर अदालत ने मेरे मुवक्किल को बाइज्जत बरी कर दिया, क्योंकि वह बेगुनाह था. दाऊद के व्यवहार से उसे नादिर का कातिल मान लिया गया था. जब अदालत के हुक्म पर पुलिस ने उस से पूछताछ की तो थोड़ी सख्ती के बाद उस ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया था.

नादिर एक दिलफेंक आशिकमिजाज लड़का था. जब फौजिया ने उसे घास नहीं डाली तो उस ने इश्क का चक्कर दाऊद की बेटी मनीजा से चलाया. वह उस के जाल में फंस गई. दाऊद को अपनी बेटी से नादिर के प्रेमसंबंधों का पता चल गया था. नादिर के इश्कबाजी के पुराने रिकौर्ड से वह अच्छी तरह वाकिफ था.

दाऊद ने बेटी के प्रेमसंबंधों को उछालने या उसे समझाने के बजाय नादिर की जिंदगी का पत्ता साफ करने का फैसला कर लिया. वह मौके की ताक में रहने लगा. रियाज और नादिर के बीच लड़ाईझगड़े और दुश्मनी का माहौल बना तो दाऊद ने नादिर के कत्ल की योजना बना डाली.

दाऊद को पता था कि नादिर ने मनीजा की मदद से छत की डुप्लीकेट चाबी बनवा ली है. घटना वाली रात को वह दबे पांव मनीजा के पहले छत पर पहुंच गया. नादिर छत पर मनीजा का इंतजार कर रहा था, तभी पीछे से अचानक पहुंच कर दाऊद ने उस की खोपड़ी पर वजनी रेंच से वार कर दिया.

एक ही वार में नादिर की खोपड़ी फट गई और वह मर गया. उस की जेब से चाबी निकाल कर दाऊद दरवाजे में ताला लगा कर नीचे आ गया.

मैं ने दाऊद से कहा कि वह बिल्डिंग का मालिक था. नादिर को वहां से निकाल सकता था. मारने की क्या जरूरत थी? जवाब में उस ने कहा, ‘‘मैं उस बदमाश को छोड़ना नहीं चाहता था. घर बदलने से उस की बुरी नीयत नहीं बदलती. वह मेरी मासूम बच्ची को फिर बहका लेता या फिर किसी सीधीसादी लड़की की जिंदगी बरबाद करता.’’

इस तरह नादिर को मासूम लड़कियों को अपने जाल में फंसाने की कड़ी सजा मिल गई थी.

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इस चाल के आसपास गंदगी थी. गली में जगहजगह कूड़ेकचरे के ढेर नजर आते थे. कहींकहीं खोलियों की नालियों का गंदा पानी बहता दिखलाई पड़ता था.

इन खोलियों में रहने वाले लोगों का स्वभाव भी उन की खोलियों की तरह अक्खड़ और गंदा था. वे बातबात पर गालीगलौज करते थे और देखते ही देखते मरनेमारने पर उतारू हो जाते थे.

इन्हीं खोलियों में से एक खोली सुभद्राबाई की भी थी, जो जबान की कड़वी, पर दिल की नेक थी. वह लोगों के घरों में चौकाबरतन का काम करती थी और इसी से अपना गुजारा करती थी.

मुंबई में तो वैसे ही घर में काम करने वाली बाई मुश्किल से मिलती है, ऊपर से सुभद्राबाई जैसी नेक और ईमानदार बाई का मिलना तो किसी चमत्कार जैसा ही था. यही वजह थी कि सुभद्राबाई जिन घरों में काम करती थी, उन के मालिक उस के साथ बहुत अच्छा बरताव करते थे और उस की छोटीमोटी मांग तुरंत मान लेते थे.

सुभद्राबाई जिन घरों में काम करती थी, उन में एक घर प्रताप का भी था. उन का महानगर में रेडीमेड गारमैंट्स का कारोबार था, जो खूब चलता था.

प्रताप की उम्र तकरीबन 55 साल थी और उन की पत्नी नंदिनी भी तकरीबन उन्हीं की उम्र की थीं. घर में पतिपत्नी ही रहते थे, क्योंकि उन के दोनों बेटे दूसरे शहरों में नौकरी करते थे और अपने परिवार के साथ वहीं सैटल हो गए थे.

नंदिनी अकसर अपने बेटों के पास जाया करती थीं, जबकि प्रताप को अपने कारोबार के चलते इस का मौका कम ही मिलता था.

जब भी नंदिनी अपने बेटों के पास जातीं, सुभद्राबाई की जिम्मेदारियां बढ़ जातीं. ऐसे में उसे घर का काम करने के अलावा प्रताप के लिए खाना भी बनाना पड़ता. पर सुभद्राबाई खुशीखुशी यह जिम्मेदारी संभालती. प्रताप और नंदिनी भी इस के बदले उसे छोटेमोटे तोहफे और नकद पैसे देते रहते थे.

उस दिन शाम के तकरीबन 7 बजे थे. महानगर की बत्तियां जल उठी थीं, तभी एक टैक्सी इस गली के मुहाने पर आ कर रुकी. टैक्सी का पिछला दरवाजा खुला और उस में से तकरीबन 25 साला एक खूबसूरत लड़की उतरी. शर्ट और जींस में सजी वह दरमियाने कद की एक सुगठित बदन वाली लड़की थी.

टैक्सी की दूसरी ओर का दरवाजा खोल कर तकरीबन 30 साला एक हैंडसम नौजवान निकला.

उस नौजवान ने टैक्सी का किराया चुकाया और जब टैक्सी आगे बढ़ गई, तो वे दोनों गली में दाखिल हो गए.

सुभद्राबाई थोड़ी देर पहले अपने काम से लौटी थी और अब खोली में पड़ी चारपाई पर लेट कर अपनी कमर सीधी कर रही थी. बढ़ती उम्र के साथ ज्यादा देर तक काम करने पर उस की कमर अकड़ जाती थी और ऐसे में

उस के लिए खड़ा होना भी मुश्किल हो जाता था.

अचानक किसी ने उस की खोली का दरवाजा खटखटाया. पहले तो वह चौंकी, फिर उठ कर दरवाजा खोल दिया. पर दरवाजा खोलते ही उस की आंखों में हैरानी के भाव उभरे. दरवाजे पर 2 अनजान लोग खड़े थे.

‘‘किस से मिलना है आप को?’’ सुभद्राबाई उन्हें गहरी नजरों से देखती हुई बोली.

‘‘क्या आप सुभद्राबाई हैं?’’ लड़की ने पूछा.

‘‘हां,’’ सुभद्राबाई बोली.

‘‘फिर तो हमें आप से ही मिलना है.’’

‘‘पर, मैं ने तो आप लोगों को पहचाना नहीं. कौन हैं आप लोग?’’

‘‘मेरा नाम हिमानी है और ये शमशेर. जहां तक आप का हमें पहचानने का सवाल है, तो उस के पहले हम मिले ही नहीं.’’

‘‘फिर आज?’’

‘‘क्या हमें सारी बातें यहीं दरवाजे पर ही बतलानी पड़ेंगी?’’

‘‘आइए, अंदर आ जाइए,’’ सुभद्राबाई झेंपते हुए बोली.

अंदर सुभद्राबाई ने उन्हें चारपाई पर बिठाया, फिर खोली का दरवाजा बंद कर उन के पास खोली के फर्श पर ही बैठ गई.

‘‘आप भी चारपाई पर बैठिए,’’ उसे फर्श पर बैठता देख लड़की बोली.

‘‘नहीं, मैं यहीं ठीक हूं,’’ सुभद्राबाई बोली, ‘‘आप बोलिए, आप को मुझ से क्या काम है?’’

‘‘काम तो है, वह भी बहुत जरूरी,’’ पहली बार लड़के ने मुंह खोला, ‘‘पर, इस के पहले हम आप को यह बता दें कि हमें आप के बारे में सबकुछ मालूम है. आप किनकिन लोगों के पास काम करती हैं और उन से आप को क्या पगार मिलती है?’’

‘‘यह मेरे सवाल का जवाब नहीं है.’’

‘‘हम आप के सवाल का जवाब देंगे, पर इस के पहले आप हमारे एक सवाल का जवाब दीजिए.’’

‘‘कौन से सवाल का?’’

‘‘सुभद्राबाई, आप का शरीर जब तक ठीक है, आप लोगों के घरों में काम कर के अपना गुजारा कर लेती हैं, पर जिस दिन आप का शरीर थक जाएगा, उस दिन आप क्या करेंगी?’’

‘‘मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझी.’’

‘‘मेरा मतलब यह है कि क्या आप अपने काम से इतना पैसा कमा लेती हैं कि अपना बुढ़ापा सही ढंग से बिता सकें?’’

सुभद्राबाई के चेहरे पर परेशानी के भाव उभरे. पिछले कई दिनों से वह भी यही बात सोच रही थी.

‘‘आप चुप क्यों हैं?’’ सुभद्राबाई को खामोश देख लड़का बोला.

‘‘मुझे अपने काम से जो पैसा मिलता है, वह खानेपहनने और खोली का किराया देने में ही खर्च हो जाता है. मैं लाख कोशिश करती हूं कि हर महीने कुछ पैसे बचा लूं, ताकि बुढ़ापे में काम आएं, पर बचा नहीं पाती.’’

‘‘और कभी बचा भी नहीं पाएंगी, क्योंकि मुंबई में हर चीज इतनी महंगी है कि मेहनतमजदूरी करने वाला इनसान कुछ बचा ही नहीं सकता.’’

‘‘तुम बिलकुल ठीक कहते हो बेटा,’’ सुभद्राबाई एक ठंडी आह भर कर बोली, ‘‘पर, किया भी क्या जा सकता है?’’

‘‘हम औरों के लिए तो नहीं, पर आप के लिए इतना जरूर कह सकते हैं कि बहुतकुछ किया जा सकता है.’’

‘‘कौन करेगा मेरे लिए और क्यों?’’

‘‘यहां कोई दूसरे के लिए कुछ नहीं करता, अपना भविष्य संवारने के लिए इनसान को खुद ही कुछ करना पड़ता है. अगर आप अपना बुढ़ापा संवारना चाहती हैं, तो आप को ही इस की कोशिश करनी होगी.’’

‘‘पर क्या…’’

‘‘पहले आप यह बतलाइए कि क्या आप अपने भविष्य के लिए कुछ पैसे जोड़ना चाहती हैं?’’

‘‘भला कौन नहीं चाहेगा?’’

‘‘मैं आप की बात कर रहा हूं.’’

‘‘हां.’’

‘‘हम आप को पूरे 50 हजार रुपए देंगे.’’

‘‘50 हजार…?’’ सुभद्राबाई हैरान हो कर बोली.

‘‘हां, पूरे 50 हजार.’’

‘‘इस के लिए मुझे करना क्या होगा?’’

‘‘कुछ खास नहीं,’’ लड़के के बदले लड़की बोली, ‘‘आप को सिर्फ एक महीने के लिए मुझे प्रताप के घर बतौर नौकरानी रखवाना होगा. वह भी तब, जब वह घर में अकेला हो.’’

‘‘पर, क्यों?’’

‘‘तुम 50 हजार रुपए कमाना चाहती हो?’’

‘‘हां.’’

‘‘तो फिर वह करो, जो हम चाहते हैं.’’

‘‘लेकिन, तुम बतौर नौकरानी वहां एक महीने रह कर करना क्या चाहती हो?’’

‘‘कुछ न कुछ तो करूंगी ही, पर यह बात हम तुम्हें नहीं बताएंगे.’’

सुभद्राबाई खामोश हो गई. उस के चेहरे पर चिंता की रेखाएं खिंच आई थीं. 50 हजार रुपए की बात सुन कर उस के मन में लालच की भावना जाग उठी थी, पर दूसरी ओर वह उन लोगों की तरफ से दुखी भी थी. न जाने वे प्रताप के साथ क्या करना चाहते थे.

‘‘अब तुम क्या सोचने लगीं?’’ सुभद्राबाई को खामोश देख लड़की बोली.

‘‘पर, तुम कहीं से भी काम वाली बाई नहीं लगती हो,’’ सुभद्राबाई लड़की को सिर से पैर तक देखते हुए बोली.

‘‘यह हमारी सिरदर्दी है. तुम यह बताओ कि तुम यह काम कर सकती हो या नहीं?’’

‘‘तुम्हारा इरादा प्रतापजी को कोई नुकसान पहुंचाना तो नहीं?’’

‘‘बिलकुल नहीं.’’

‘‘फिर ठीक है,’’ सुभद्राबाई बोली, ‘‘पर, पैसे?’’

‘‘उस दिन तुम्हें पैसे मिल जाएंगे, जिस दिन तुम मुझे बतौर नौकरानी प्रताप के घर रखवा दोेगी.’’

‘‘अरे सुभद्रा, तुम…’’ सुभद्राबाई ने हिमानी के साथ जैसे ही ड्राइंगरूम में कदम रखा, प्रताप बोला, ‘‘पूरे 4 दिन कहां रहीं? तुम सोच भी नहीं सकतीं कि इन 4 दिनों में मुझे कितनी परेशानी उठानी पड़ी. तुम्हें तो मालूम ही है कि तुम्हारी मालकिन आजकल बेटे के पास गई हैं.’’

‘‘मालूम है मालिक,’’ सुभद्राबाई अपने चेहरे पर दर्द का भाव लाती हुई बोली, ‘‘पीठ दर्द से मेरा उठनाबैठना मुश्किल है. डाक्टर को दिखाया, तो दवाओं के साथसाथ पूरे एक महीने तक बैडरैस्ट करने की सलाह दी है.’’

‘‘एक महीना?’’

‘‘पर, आप फिक्र न करें, आप को इस दरमियान कोई तकलीफ न होगी,’’ सुभद्राबाई हिमानी को आगे करते हुए बोली, ‘‘यह मेरी भतीजी हिमानी है. जब तक मैं नहीं आती, यही आप के घर का सारा काम करेगी.’’

प्रताप ने हिमानी पर एक गहरी नजर डाली. खूबसूरत और जवान हिमानी को देख उस की आंखों में एक अनोखी चमक जागी.

‘‘इसे सबकुछ समझा दिया है न?’’ प्रताप ने पूछा.

‘‘जी मालिक?’’

हिमानी प्रताप के घर काम करने आने लगी थी. उसे यहां पर काम करते हुए10 दिन बीत गए थे. इस बीच उस ने बड़ी मेहनत और लगन से प्रताप के घर का काम किया था और उस की सुखसुविधा का बेहतर खयाल रखा था. उस के इस बरताव से प्रताप बड़े खुश हुए थे. वे हिमानी के साथ बड़ा ही कोमल और अपनापन भरा बरताव करते थे.

सच तो यह था कि हिमानी की खूबसूरती और जवानी ने उन के अधेड़ बदन में एक नई उमंग जगा दी थी और उन्हें हिमानी का साथ मिलने से एक अजीब खुशी मिलती थी.

उस दिन शाम के तकरीबन 7 बजे थे. प्रताप अपने बैडरूम में पलंग पर बैठे थे. हिमानी घुटने के बल झुकी उस के कमरे की सफाई कर रही थी. ऐसे में उस के भारी और गोरे उभारों का ज्यादातर भाग उस के ब्लाउज से बाहर झांक रहा था. प्रताप की निगाहें रहरह कर उस के इन कयामती उभारों की ओर उठ जाया करती थीं और जब भी ऐसा होता, उन के तनबदन में एक हलचल सी मच जाती थी.

हिमानी कहने को तो काम कर रही थी, पर उस का पूरा ध्यान प्रताप की हरकतों पर था. उस की नजरों का भाव समझ कर वह मन ही मन खुश हो रही थी. उसे लग रहा था कि वह जल्द ही प्रताप को अपने शीशे में उतार लेगी और ऐसा होते ही अपना उल्लू सीधा कर यहां से रफूचक्कर हो जाएगी.

हिमानी सफाई का काम कर खड़ी हुई और ऐसा होते ही प्रताप की नजरों से वह नजारा गायब हो गया. इस के बावजूद उन के बदन में जो कामनाओं की आग भड़की थी, उस ने उन्हें हिला दिया था.

प्रताप पलंग से उतरे, फिर आगे बढ़ कर हिमानी को अपनी बांहों में भर लिया. उन की इस हरकत से हिमानी चौंकी, फिर बांहों में कसमसाते हुए बोली, ‘‘यह क्या कर रहे हैं साहब?’’

‘‘हिमानी, तुम बहुत ही खूबसूरत हो,’’ प्रताप जोश से कांपती आवाज में बोले, ‘‘तुम्हारी इस खूबसूरती ने मेरे तनबदन में आग लगा दी है. तुम से लिपट कर मैं अपने तन की इसी आग को बुझाने की कोशिश कर रहा हूं.’’

‘‘पर, यह गलत है.’’

‘‘कुछ गलत नहीं,’’ प्रताप उसे बुरी तरह चूमते, सहलाते हुए बोले.

मन ही मन मुसकराती हिमानी कुछ देर तक उन की बांहों से छूटने का नाटक करती रही, फिर अपना शरीर ढीला छोड़ दिया. ऐसा होते ही प्रताप ने उसे उठा कर पलंग पर डाला, फिर उस पर सवार हो गए.

भावनाओं का तूफान जब गुजर गया, तो हिमानी रोते हुए बोली, ‘‘यह आप ने क्या किया? मुझे तो बरबाद कर दिया?’’

पलभर तक तो प्रताप के मुंह से बोल न फूटे, फिर वे शर्मिंदा हो कर बोले, ‘‘हिमानी, मुझ से गलती हो गई. मैं अपने आपे में नहीं था. जो कुछ हुआ, उस का मुझे अफसोस है. प्लीज, यह बात सुभद्राबाई को न बतलाना.’’

‘‘आप ने मेरा सबकुछ लूट लिया और अब कह रहे हैं कि बूआ से यह बात न कहूं.’’

‘‘मैं तुम्हें इस की कीमत देने को तैयार हूं.’’

‘‘कीमत…?’’ हिमानी ने गुस्से वाली निगाहों से प्रताप को देखा.

बदले में प्रताप ने तकिए के नीचे से चाबियों का गुच्छा निकाला, फिर कमरे में रखी अलमारी की ओर बढ़ गए. ऐसा होते ही हिमानी के होंठों पर शातिराना मुसकान रेंग उठी. पर जैसे ही उन्होंने सेफ खोली, उस की निगाहें उस पर जम गईं. अलमारी बड़े नोटों और गहनों से भरी थी.

प्रताप हिमानी के करीब आए और तकरीबन जबरदस्ती नोट की गड्डी उस के हाथ पर रखते हुए बोले, ‘‘प्लीज, सुभद्राबाई को कुछ न बतलाना.’’

हिमानी उन्हें पलभर घूरती रही, फिर अपने कपड़े ठीक करने के बाद नोटों की गड्डी ब्लाउज में रखते हुए कमरे से निकल गई.

उस रात प्रताप पूरी रात ढंग से सो न सके. उन्हें यह बात परेशान करती रही कि कहीं हिमानी उन की करतूत सुभद्राबाई को न बतला दे. अगर ऐसा हो गया, तो वे किसी को मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहने वाले थे.

पर दूसरे दिन उन्हें तब हैरानी और खुशी का झटका लगा, जब हिमानी हमेशा की तरह काम पर लौट आई. वह बिलकुल सामान्य थी और उसे देख कर ऐसा हरगिज नहीं लगता था कि उस के साथ कुछ ऐसावैसा घटा है.

जब 5 दिन तक सबकुछ ठीक रहा, तो छठे दिन रात को प्रताप ने हिमानी को हिम्मत कर के एक बार फिर अपनी बांहों में समेट लिया.

‘‘यह क्या कर रहे हैं आप?’’ हिमानी चौंकने का नाटक करती हुई बोली, ‘‘आप ने वादा किया था कि आप दोबारा ऐसी गलती नहीं करेंगे.’’

‘‘मैं क्या करूं हिमानी…’’ प्रताप कांपती आवाज में बोले, ‘‘तुम्हारे हुस्न और जवानी ने मुझे ऐसा पागल किया है कि मैं अपनेआप पर काबू नहीं रख पा रहा हूं. प्लीज, मुझे रोको मत… मुझे मेरी प्यास बुझा लेने दो.’’

हिमानी ने अपना शरीर ढीला छोड़ दिया. अगले ही पल दोनों के बदन एकदूसरे से चिपक कर पलंग पर अठखेलियां कर रहे थे. इस बार हिमानी भी पूरे जोश के साथ प्रताप का साथ दे रही थी.

हिमानी ने चालाकी से प्रताप को अपने हुस्नजाल में फांस लिया था. जब उसे यकीन हो गया कि शिकार पूरी तरह उस के जाल में फंस गया है, तो एक रात उस ने उस के खाने में बेहोशी की दवा मिलाई और उस की पूरी अलमारी खाली कर रफूचक्कर हो गई. प्रताप को जब सवेरे होश आया और उस ने अपनी अलमारी देखी, तो सिर पीट लिया. लोकलाज के डर से वे पुलिस में भी इस की शिकायत न कर सके.

Best Hindi Story : मन की मुंडेर पर – औरत के संघर्ष को औरत ही समझ सकती है

Best Hindi Story : औरत के संघर्ष को औरत ही बेहतर ढंग से समझ सकती है और आज अम्मा जी ने भी इस बात को अच्छी तरह समझ लिया था. “मम्मी, मैं कालेज जा रही हूं. आज थोड़ा लेट जाऊंगी, सैमिनार है.”

“ठीक है, अनु. जरा संभल कर जाना.”

“क्या मम्मी, आप भी न  आज भी मुझे छोटी सी बच्ची ही समझती हो, यहां मत जाया कर, वहां मत जाया कर.”

“हांहां, जानती हूं कि तू बहुत बड़ी हो गई है पर मेरी लिए तो तू आज भी वही गोलमटोल सी मेरी प्यारी सी अनु है.”

अनु के चेहरे पर मासूम सी मुसकराहट तैरने लगी

“अच्छाअच्छा, अब जल्दी भी कर, ज्यादा बातें न बना, कालेज पहुंचने में देर हो जाएगी.”

मांबेटी में मधुर नोंकझोंक चल ही रही थी कि तब तक अम्मा जी हाथ में तुलसी की माला लिए प्रकट हुईं.

“कहां चली सवारी इतनी सुबहसुबह?”

“दादी, मेरी एक्स्ट्रा क्लासेस हैं, बस, कालेज के लिए निकल रही.”

“ठीक है, ठीक है, पढ़ाईलिखाई तो होती रहेगी पर कभीकभी अपनी दादी के पास भी बैठ जाया कर, तेरी दादी का भी क्या भरोसा, कब प्रकृति के यहां से बुलावा आ जाए.”

अम्मा जी ने दार्शनिकों की तरह कहा. यह रोज का ही किस्सा था. जब तक दादी दोचार ऐसी बातें न बोल दें तब तक उन को चैन नहीं मिलता था. अनु ने दादी के गले में हाथ डाल कर कर कहा,

“मेरी प्यारी दादी, अभी आप इतनी जल्दी मुझे छोड़ कर नहीं जा रही. अभी तो आप को मेरी शादी में तड़काभड़कता डांस भी करना है.”

“चल हट, तू भी न, जब देखो तब…”

अनु की बात सुन कर अम्मा लजा गईं. तभी अनु ने जया की तरफ रुख किया,

“मम्मी, मैं सोच रही हूं कि मैं भी कंप्यूटर की क्लासेस जौइन कर लूं. इधर पढ़ाई का लोड भी थोड़ा कम है.”

“अरे, यह सब छोड़ अब चौके में मां का हाथ बंटाया कर. तुझे दूसरे घर भी जाना है. कंप्यूटरसंप्यूटर कुछ काम नहीं आने वाला. मां के साथ घर का काम करना सीख, नहीं तो ससुराल वाले उलाहना देने लगेंगे.”

“क्या दादी, आप भी न, किस जमाने की बात कर रही हैं?”

दादी ने अनु के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा,

“बेटा, तू कुछ भी कर ले, कुछ भी सीख ले पर चौके का काम नहीं सीखा तो सब बेकार है. यह समाज औरतों के लिए कभी नहीं बदलता.”

और भी न जाने क्या सोच कर अम्मा की आंखें भर आईं. जया भी अम्मा को इस तरह से भावुक देख कर आश्चर्य में पड़ गई. आज सुबहसुबह ही बाबूजी से अम्मा की किसी बात पर नोकझोंक हो गई थी. बाबूजी ने अम्मा जी से कह दिया था कि तुम दिनभर करती क्या हो? यह बात शायद उन के दिल को चुभ गई थी. जया अम्मा जी से कुछ कहना चाह रही थी पर शब्द उस के गले में ही अटक गए. अम्मा ने अपनेआप को संभाला और जया की तरफ रुख कर कहा-

“अब इस को अपने साथ चौके में भी काम सिखाया करो. पढ़ाईलिखाई तो होती रहेगी और अनु, यह जो कंप्यूटरसंप्यूटर का भूत है न, इसे अपने घर जा कर पूरा करना.”

जया सोच में पड़ गई. अपना घर अम्मा जी की नजर में अपना घर आखिर कौन सा था. जहां अनु रहती थी क्या वह घर उस का अपना घर नहीं था. शादी के पहले जब उस ने अपनी मां से कत्थक सीखने के लिए ज़िद की थी तो बाबूजी कितना नाराज हुए थे. अच्छे घर की लड़कियां यह सब नहीं सीखतीं. जब तुम अपने घर जाना तब यह सब नाटक करना. मेरे घर यह सब चोंचलेबाजी नहीं चलेगी. जया सोचने लगी, वक्त बदल गया, पीढ़ियां बदल गईं पर आज भी यह निर्णय नहीं हो पाया कि बेटियों का असली घर कौन सा होता है. अनु कालेज चली गई और जया घर के कामों में लग गई.

दिनभर काम करतेकरते उस की कमर अकड़ गई थी. न जाने क्यों उस का मन बारबार विचलित हो रहा था. कल रात में ही अम्मा ने एक तसवीर दिखाई थी. अनु अब शादी लायक हो गई है. अब जल्दी से जल्दी इस के हाथ पीले करने हैं. तुम्हारे बाबूजी की यही अंतिम इच्छा है कि मरने से पहले वे पोती को विदा कर दें. जया अम्मा का मुंह आश्चर्य से देखती रह गई. अभी उस की उम्र ही क्या है, अभी तो उस का कालेज भी पूरा नहीं हुआ है और अभी से शादी, उस ने न जाने कितने सपने देखे हैं, उस के उन मासूम सपनों का क्या…

“अम्मा जी, अभी तो अनु बहुत छोटी है, अभी से शादी की बातें?”

“अरे, मैं ने ऐसा क्या कह दिया. लड़की जब कंधे के बराबर आने लगे तो उस के हाथ पीले कर देने चाहिए राम जाने कोई ऊंचनीच हो जाए तो. क्या तुम किसी ऊंचनीच का इंतजार कर रही हो?”

जया अम्मा का मुंह देखती रह गई, क्या उन्हें अपनी परवरिश पर जरा भी भरोसा नहीं है. बाबूजी की अंतिम इच्छा के लिए अनु की बलि देना कहां तक सही है. आनंद हमेशा की तरह अपनी मां के सामने मुंह नहीं खोल पाए. आज भी वही हुआ, जया आखिर कहां तक अनु की पैरवी करती. आनंद ने तसवीर पर निगाह डाली, लड़का सुंदर, सजीला और संभ्रांत लग रहा था.

“अम्मा, लड़का तो देखने में काफी अच्छा लग रहा है.”

“मैं भी तो यही कह रही हूं खातापीता परिवार है, अपनी अनु खुश रहेगी. अपनी मैडम को समझा लो, इन्हीं को न जाने क्या दिक्कत है?”

अम्मा की तीर सी चुभती बातों ने जया को बेचैन कर दिया. आनंद चुपचाप अम्मा की बातों को सुनते रहे. जया को इस से ज्यादा आनंद से कोई उम्मीद भी न थी.

‘अनु को यह तसवीर दिखा देना, कल यह न हो कि तुम्हारी लाड़ली कहे कि बिना पूछे शादी कर दी.’

जया कसमसा कर रह गई. तभी किसी आवाज से उस की आंखें खुल गईं, सामने अम्मा जी खड़ी थीं. वह हड़बड़ा कर पलंग पर बैठ गई.

“क्या हुआ अम्मा जी, किसी चीज की जरूरत थी क्या? मुझे आवाज दे दिया होता, मैं आ गई होती.”

“ठीक है, ठीक है. सारे घर की चिंता तो मुझे ही करनी है, फिर मुझे मिलने आना ही पड़ता. अपनी बिटिया को फोटो दिखाई कि नहीं कि वैसे ही दराज में पड़ी हुई है?”

जया के पास उन की बात का जवाब न था.

“समझ गई, अभी तक तुम ने कोई बात नहीं की होगी अपनी लाडो से. एक काम ठीक से नहीं करती. लाओ वह तसवीर मुझे दे दो, मैं ही बात कर लूंगी.”

“नहींनहीं अम्मा जी, ऐसी कोई बात नहीं है. काम की व्यस्तता में मैं भूल गई थी.”

“भूल गई थी?”

अम्मा ने तिरछी निगाह से जया को देखा जैसे उस की चोरी पकड़ी गई हो. सच में जब जया ही इस रिश्ते के लिए तैयार नहीं थी, वह अनु से क्या कहती. ऐसा नहीं था कि उसे लड़का पसंद नहीं था पर वह इतनी जल्दी अनु की शादी नहीं करना चाहती थी. उस के भी कुछ सपने थे. कुछ अरमान थे. वह नहीं चाहती थी कि घर वालों की इच्छाओं के आगे उस के सपने दम तोड़ दें.

“मैं आज जरूर पूछ लूंगी.”

“तुम तो रहने ही दो, तुम से कोई काम ठीक से नहीं होता. मुझे फोटो दे दो, मैं ही पूछ लूंगी.”

“नहींनहीं अम्मा जी, ऐसी कोई बात नहीं है, आज शाम तक का समय दीजिए, मैं उस से जरूर पूछ लूंगी.”

“ठीक है, ठीक है. आज जरूर पूछ लेना और अगर तुम से न हो पाए तो मुझे बता देना, मैं यह काम भी कर लूंगी.”

जया चुपचाप अम्मा की बातों को सुनती रही. अम्मा कमरे से बाहर चली गई, तभी दरवाजे पर दस्तक हुई. शाम हो गई थी, लगता है अनु कालेज से वापस आ गई. जया ने साड़ी के पल्लू को ठीक किया और दरवाजे की ओर बढ़ी. अनु के चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ रही थी.

“मम्मीमम्मी, मैं आज बहुत खुश हूं. पूरा हौल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा था. हर व्यक्ति की आंखों में मेरे लिए प्रशंसा का स्वर था. जानती हो मम्मी, आर के सर ने कहा, ‘तुम बहुत अच्छा बोलती हो, इसी तरह पढ़ाई पर ध्यान दो, एक न एक दिन तुम कुछ न कुछ जरूर करोगी.’ मम्मी. तुम जानतीं नहीं, मैं आज कितना खुश हूं.”

जया उस के मासूम चेहरे पर खुशी देख कर मन ही मन भावुक हो रही थी, कैसे समझाए घर वालों को और कैसे बताए अनु को कि उस की खुशियों को, उस के सपनों को तोड़ने की तैयारी शुरू हो चुकी थी. अनु न जाने कितनी देर तक बोलती रही. जया समझ नहीं पा रही थी कि वह अपनी बात कहां से शुरू करे, कैसे इस मासूम सी बच्ची के अरमानों का गला घोंट दे.

“क्या हुआ मां, कुछ कहना चाहती हो?”

“नहीं बेटा, ऐसी तो कोई बात नहीं.”

अनु ने बड़े ही लाड़ से उस के हाथों को अपने हाथों में ले कर आंखों में आंखें डाल कर पूछा,

“मां, मैं इतनी बड़ी तो हो ही गई हूं कि तुम्हारे दिल की बातों को समझ सकूं.”

जया का दिल भर आया,

“अनु, तुम्हारी दादी तुम्हारे लिए एक रिश्ता ले कर आई हैं, बहुत ही अच्छा रिश्ता है, एक बार फोटो देख लो.”

जया ने धीरे से तसवीर अनु की तरफ सरका दी. अनु का हाथ कांप गया. उस के हाथ के कंपन को जया ने भी महसूस किया.

“मां, इतनी जल्दी भी क्या है. अभी तो मुझे जिंदगी में बहुतकुछ करना है और आप सब अभी से शुरू हो गए.”

“एक बार तसवीर तो देख लो, हो सकता है लड़का तुम्हें पसंद आ जाए.”

अनु गुस्से से बिफर उठी,

“बात पसंद या नापसंद की नहीं है, बात मेरे जीवन की है. सच बताओ मां, क्या तुम भी यही चाहती हो?”

जया के पास अनु की किसी भी बात का कोई जवाब नहीं था. अनु ने बड़े ही संजीदा स्वर में कहा,

“मां, क्या तुम भी यही चाहती हो जो सारी दुनिया चाहती है, तो मैं तुम्हारी बात नहीं टालूंगी?”

जया अनु को देखती रह गई. उस छोटे से वाक्य ने न जाने कितनाकुछ कह दिया. जया चुपचाप तसवीर को उठा कर अपने कमरे में चली आई. पर बात वहीं खत्म नहीं हुई थी. बात तो अब शुरू हुई थी. दादी ने दूसरे दिन जया को रोक कर पूछ लिया,

“जया, अनु से कोई बात हुई, उसे तसवीर दिखाई?”

“जी…वो…”

“अगर तुम से नहीं हो सकता तो मुझे बताओ, मैं अभी अनु से पूछती हूं. अनु अनु.”

अनु कालेज जाने के लिए तैयार हो रही थी. अम्मा की आवाज सुन कर राहुल, बाबूजी और अनु कमरे से बाहर आ गए,

“क्या हुआ दादी, आप इतनी जोरजोर से क्या चिल्ला रही हैं?”

“अनु, मुझे लागलपेट कर बात करनी नहीं आती. तुम्हारी शादी के लिए बहुत अच्छा रिश्ता आया है. तुम्हारी मां ने शायद उस की तसवीर दिखाई होगी.  हम सब को रिश्ता बहुत पसंद है. तुम भी तसवीर देख लो, लड़के वालों को जवाब देना है.”

“दादी, ऐसी क्या जल्दी है, अभी मेरी उम्र ही क्या है,  अभी तो मेरी पढ़ाई भी पूरी नहीं हुई और आप सब मुझे विदा करने के लिए तैयार बैठे हुए हैं.”

“हर चीज का एक वक्त होता है. शादी की उम्र निकल जाएगी तो हाथ मलते रह जाओगी.”

“पर दादी…”

“पर-वर कुछ नहीं, मैं ने जो कह दिया, सो कह दिया. तुम्हारे दादाजी की भी यही इच्छा है.”

ड्राइंगरूम में अजीब सा सन्नाटा पसर गया. तभी एक गंभीर सी आवाज ने इस सन्नाटे को तोड़ा,

“अम्मा जी, अगर अनु नहीं चाहती है कि उस की शादी अभी हो, तो हमें उस की शादी अभी नहीं करनी चाहिए.”

अम्मा जी ने जलती हुई  निगाह से जया की तरफ देखा,

“देख रहे हैं आनंद के पापा, इन के भी पर निकल आए हैं. कैसी मां हो तुम, अपनी बेटी को समझाना चाहिए, उलटे तुम उस के गलत फैसले में उस को बढ़ावा दे रही हो?”

“नहीं अम्मा जी, यह उस की जिंदगी है, उस की जिंदगी के फैसले भी उसी के होंगे. हम सब उस की जिंदगी के फैसले नहीं लेंगे.”

“वाहवाह, क्या बात कही,” अम्मा जी ने चिढ़ कर कहा, “इस का मतलब यह है कि हमारे मांबाप और उन के मांबाप ने अब तक अपनी बेटियों के लिए जो फैसले लिए वे गलत थे. जय हो, यही सुनना बाकी था.”

जया ने बड़े ही संजीदा स्वर में कहा, “काश, मेरे पापा ने भी मुझ से शादी करने से पहले एक बार… हां, सिर्फ एक बार पूछा होता.”

आनंद जया को आश्चर्य से देख रहे थे.

“क्या कमी है तुम्हारी जिंदगी में, सबकुछ तो है, आनंद जैसा पति, इतना अच्छा घर, संतान का सुख और क्या चाहिए औरत को?” अम्माजी ने अपनी बात की पैरवी की.

“अम्मा जी, क्या औरत को सिर्फ पति का प्यार, पैसा और एक अच्छा घर ही चाहिए होता है? क्या औरत सिर्फ यही चाहती है, सोच कर देखिए. जिस उम्र में हमारी शादी हुई तब उस नाजुक उम्र में गृहस्थी का बोझ सहने लायक हमारी उम्र नहीं थी. पर बहू के तौर पर मुझे वह सबकुछ करना पड़ा जो मैं करना नहीं चाहती थी. बात सिर्फ कमी की नहीं है, अम्माजी. बात आत्मसम्मान की है.

“शादी की वजह से मेरी पढ़ाई बीच में ही छूट गई, यह आप सब जानते हैं. मेरे भी बहुत सारे सपने थे, मैं भी चाहती थी औरों की तरह कि पढ़लिख सकूं और अपने पैरों पर खड़ी हो सकूं. पर यह सपना, सपना ही रह गया. हम बेटी को पढ़ाने की बात तो कहते हैं पर उसे सपने देखने और फैसले लेने का अधिकार नहीं देते. सो, फिर ऐसी पढ़ाई का क्या फायदा.

“मुझे अपने पति से कोई शिकायत नहीं है पर जब किसी मुद्दे पर मेरी उन से बहस होती है तो अकसर वे मुझ से कह देते हैं, ‘तुम चुप रहो, तुम्हें समझ में नहीं आएगा.’ आप की गृहस्थी को देखने वाली, आप के बच्चों को पालने वाली, आप के मातापिता की सेवा करने वाली आप की पत्नी आप से सिर्फ इसलिए कम है क्योंकि वह आप की तरह पढ़ीलिखी नहीं है. यह अफसोस मुझे जीवनभर रहा और आगे भी रहेगा कि काश, मैं ने अपने पिता के फैसले का विरोध किया होता, काश, मेरे पिता ने मुझ से मेरी राय मांगी होती तो शायद मेरा जीवन और भी खुशहाल होता और मैं आप सभी को आत्मसम्मान के साथ स्वीकार कर पाती.”

बाबूजी एकटक जया को देख रहे थे, उन्होंने जया के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा,

“दूसरे के सुखदुख को समझने वाली मेरी बहू के दर्द को इस घर ने कभी नहीं समझा. पर बेटा,  मुझे तुम पर गर्व है कि तुम ने हमें एक बहुत बड़े पाप को करने से बचा लिया. मैं बहुत शर्मिंदा हूं. मुझे फख्र है कि मुझे तुम्हारी जैसी बहू मिली.”

अम्मा की आंखों से भी झरझर आंसू बह रहे थे, शायद एक औरत के संघर्ष को एक औरत ही बेहतर ढंग से समझ सकती है और आज अम्मा जी ने भी इस बात को अच्छी तरह समझ लिया था. सभी की आंखों में आंसू भरे हुए थे और चेहरे पर एक सहज मुसकान. आज सूरज दिलों के अंधेरों को दूर कर एक नए प्रकाश के साथ आसमान में दैदीप्यमान था, आज मन की मुंडेर पर उम्मीद का दीया टिमटिमा रहा था.

Hindi Story : जिंदगीभर की कसक – साधारण नारी की साधारण जिंदगी

Hindi Story : अब आज के जमाने में कोई यह कहे कि उस ने कभी कार नहीं देखी तो यही लगेगा कि क्या बेकार की बात कह रहा है. यदि यह कहे, कार देखी जरूर है पर कभी बैठ कर नहीं देखी तब साफ समझ में आ सकता है कि हां, सच है. गरीब आदमी कार में बैठ कैसे सकता है, जब तक कोई हारीबीमारी न हो.

निर्मला कभी रिकशे में भी नहीं बैठती क्योंकि सदा लगा कि फुजूलखर्ची करने का उसे क्या अधिकार. धूप हो या बरसात, वह सदा पैदल ही चलती रही. एकदो बार पहले कार में सवारी करने का मौका हुआ तो यों ही किसी नातेरिश्तेदार के साथ उन की गाड़ी में बैठी. सो मन सकुचाता रहा कि पता नहीं कार का दरवाजा कैसे बंद होता है और खिड़की का शीशा कैसे ऊपरनीचे सरकता है.

अपने बूते कार में बैठने का सपना यों देखा था कि ब्याह हो कर जब ससुराल जाना होगा तो फूलों से सजी मोटर में बैठने को मिलेगा ढोलक की थाप पर बन्नी गाती सुहागिनों के कोकिल कंठ से गान फूटते.

‘दो हंसों की मोटर दरवज्जे खड़ी रे,

आज मेरी बन्नो ससुराल चली रे.’

फिल्मी गीतों की पैरोडी बनाने में भाभी और चाची होशियार थीं. इन्हीं दिनों फिल्म ‘गंगाजमुना’ के गीत घरघर गूंजते थे, ‘दो हंसों का जोड़ा बिछड़ गयो रे, गजब भयो रामा जुलम भयो रे…’ उसी लोकप्रिय गीत की धुन पर यह ‘आज मेरी बन्नों…’ वाला गीत ढोलक पर बड़े ठसकेदार धौलधप्पे के साथ गाया जाता था.

आंखों ने सपना देखना शुरू कर दिया था कि राजकुमार सा वर मोटर में बैठा कर ससुराल ले जाएगा जहां गाड़ी पोर्च में रुकेगी. सामने बगीचा होगा. बगीचे में फौआरा लगा होगा. पोर्च की सीढि़यां चढ़ दुलहन ऊपर चढ़ेगी और सामने महारानी की तरह सास झक सफेद कीमती रेशमी साड़ी में ममता लुटाती खड़ी होगी, आरती का थाल लिए.

सपने पूरे हों तो सपनों का सपना ही कोई क्यों देखे. सच ही न कहलाए. सच यह था कि मायके और ससुराल में कुछ भेद न था. गरीबी का जो आलम वहां था सो यहां भी. वह तो रिकशे में बैठ कर जब विदा हुई तो कलेजा मुंह को आया. सब समझे कि यह पीहर की देहरी छूट जाने की रुलाई है. दरअसल, यह रुलाई थी इस बात की कि विदा के वक्त मोटर नहीं हासिल हुई, रिकशा ही नसीब हुआ.

तब उम्र भी क्या थी. महीनाभर पहले ही 14 बरस की पूरी हुई थी निर्मला. मातापिता सोचते कि लड़की सयानी होते ही अपने घरबार की हो जाए, वही ठीक. ब्याह कर के मातापिता कुछ अन्याय कर रहे हैं, ऐसा कोई नहीं सोचता था. न लड़की, न पड़ोसी, न नातेरिश्तेदार. शादी होनी ही है, लड़की को ससुराल जाना ही है, यही सब सोचते थे.

सच पूछिए तो निर्मला के दिल में खुशी थी कि अब पढ़ने से जान छूटेगी. गणित, विज्ञान और इंग्लिश ऐसे विषय थे जिन से उस का जी घबराता था. न खोपड़ी में कुछ दाखिल होता न इस के लिए कोई विशेष कोशिश ही की थी उस ने. प्रमेय, निर्मेय, बीजगणित के गुणखंड सब ऐसे राक्षस मालूम पड़ते थे कि जैसे प्राण ही चीर डालेंगे. स्कूल में मास्टरनी मारती और घर में पिताजी. रिजल्ट कार्ड पर लगे लाललाल गोलों ने ही उस का जी पढ़ाई से हटाया था. पिताजी को भी घरवर ढूंढ़ने की प्रेरणा इन्हीं गोलों से मिली.

वे समझ गए कि लड़की बड़ी हो रही है और उस का मन पढ़ने में नहीं लग रहा है. ब्याह हो जाने पर स्कूल जाने से जान छूटेगी, ऐसा मान लिया था. शेष समय तकिए और चादर काढ़ने में खर्च किया जाने लगा था. उस जमाने में गली में उस उम्र की सभी लड़कियां यही करती थीं.

अजब प्रतियोगिता थी. किस की लड़की कितनी सुघड़ है, इस का आकलन बड़ेबूढ़े हाथ की दस्तकारी देख कर करते थे. तकियों पर ज्यादा ‘स्वीट ड्रीम’ काढ़े जाते. गली में डिजाइन छापने वाली जो दुकान थी वह लड़की की उम्र और कपड़े को देख कर डिजाइन छापती. सारा कढ़ाईबुनाई का कार्यक्रम उसी के बूते पर चलता था. तकिए, मेजपोश व चादर के बाद दहेज की साडि़यों का नंबर आ जाता. फिर सीखने को और भी कई चीजें थीं. गुडि़या वाली टिकोजी, मोतियों का पर्स, सितारों का हाथ से झलने वाला पंखा, दीवारों पर लगाने को तसवीरें…कशीदा कर के या पेंटिग कर के.

उस घड़ी तो मन ऐसे पुलक आया कि इतने नएनए कपड़े, गहने, लिपस्टिक, नेलपौलिश… सब. ये सब चीजें तो मां खरीदने ही न देती थीं, कहतीं, ‘यह सब सिंगारपटार अपने घर जा कर करना.’ अब चूंकि निर्मला की जिंदगी में वह समय आ गया था जब लड़की अपने घर यानी ससुराल जाती है. मां ने बिन मांगे खुद अपनेआप से रिश्ते की एक भाभी को रुपए निकाल कर दिए कि नए फैशन की क्रीम, पाउडर ला देना. सुना है, 22 रुपए की ऐसी कोई क्रीम आती है जिसे लगा कर लड़की गोरी हो जाती है. निर्मला का रंग सांवला तो नहीं है पर थोड़ा दबता हुआ तो है.

मां को जो सांवला न लगता था वही ससुराल वालों को काला लगा. विदा हो कर ससुराल पहुंची तो कोई मुंहफट बोली, ‘‘बहू तो काली ले आई हो. एकदम…’’ फिर तो यों समझें कि ससुराल में किसी को उस का निर्मला नाम ही याद न रहा. वह सीधे कल्लो हो गई. सास भी मुंह टेढ़ा करती, ‘इस कल्लो के मिजाज बहुत ही टेढ़े हैं.’

14-15 की उम्र, कल्लोकल्लो सुन जी जल जाता पर करती क्या. दिनभर चौकाबरतन, घर का कामकाज और ताने यानी कहानी वही जो एक गरीब की जिंदगी में होती है. गहने जहां से आए वहीं गए. रेशमी कपड़े सहेज कर धरे गए. आनेजाने, नातेरिश्तेदारों, ब्याहबरात के समय काम आएंगे. तन पर वही और वैसे ही जैसों की वहां आदत थी. नए हों तो सस्ते, पुराने हों तो घिसे, बाहर के लायक न रहे तो घर में पहने जा रहे हैं.

काम करना निर्मला की आदत में आया तो मन मार कर जीना भी आदत बना. छोटी किशोरी से वह बच्चे की मां भी बनी. जोड़तोड़ कर खर्चे को आमदनी में शामिल करना और आड़े समय के लिए बचा कर रखना भी धीरेधीरे सीखा. जैसे सब होती हैं, निर्मला भी धीरेधीरे पूरी घरजोड़ू औरत हो गई. सुघड़, सयानी, समझदार गृहस्थिन.

जीवन के छोटेछोटे सुख और दुख. सास झगड़ ली तो दुखी हो गई. पति ने प्यार से दो मीठे बोल बोले तो खुश हो गई. होतेहोते जीवन में एक सहज गति रही धीमी, लेकिन निरंतर, जैसे कोई नदी की धारा हो. घरपरिवार के तटों के बीच बहती, निश्चिंत लेकिन बंधी हुई. तट तोड़े तो विभीषिका बने. विभीषिका तो नहीं बनी लेकिन जीवन में कुछ ऐसा भी न हुआ जो बहुत गौरव की बात हो.

यह एक साधारण नारी की साधारण जिंदगी थी. कभी मन करता कि ससुराल को छोड़ कर पीहर लौट जाऊं, फिर खयाल आता कि इस में मांबाप की बेइज्जती होगी. दोचार दिन मन उदास होता, फिर आंसुओं से धुलपुंछ कर सब निखर जाता. अपना घरपरिवार अच्छा लगता, पति पर गर्व होता.

कभी मन उदास होता तो जी कुढ़ता कि क्या जिंदगी है. 2 कमरों के मकान में किसी तरह घिचपिच कर सब लोग रहते हैं. न कभी मन का खाया न पिया, न कभी घूमने गए और न कभी कुछ नया खरीदा. इस आमदनी में खर्च बड़ी मुश्किल से समाते हैं और कुछ न कुछ तंगी हमेशा लगी रहती है.

जैसी सब की जिंदगी होती है वैसी ही जिंदगी निर्मला की भी थी. घरगृहस्थी के साथ जिम्मेदारियां भी बढ़ीं. और एक प्राइमरी स्कूल में अध्यापिका की नौकरी भी लगी. अब एक प्राइमरी स्कूल की अध्यापिका की गृहस्थी जिस में कि मातापिता, 3 बच्चे और खुद 2 जने यानी कुल मिला कर 7 लोगों की गृहस्थी थी उस की. ऐसे में जैसे चलनी चाहिए वैसी ही चलती रही.

वैसे तो हरेक जिंदगी की अपनी एक कहानी होती है पर कहानी तो वही होती है जो कहनेसुनने लायक हो, अन्यथा तो बीऊ हुए, बीवी हुई, बच्चे हुए और मर गए. इस के अलावा जिंदगी की कहानी क्या है? निर्मला की सीधीसादी जिंदगी में एक टर्निंग पौइंट आया.

हुआ यह कि निर्मला का एक देवर जो किसी कारखाने में मामूली तकनीशियन था और दूर शहर में रहता था, उस की शादी एक बहुत धनी परिवार में बहुत सुंदर लड़की से तय हो गई. शादी तय होते ही घर में तूफान आ गया. लड़की सुंदर थी, निर्मला से ज्यादा पढ़ीलिखी थी और उस के आने से पहले घर में उस के लिए जो तैयारियां शुरू हुईं उसे देख कर निर्मला के दिल में एक कसक उठी कि मेरे लिए तो ऐसा कुछ नहीं हुआ था.

छोटी बहू के लिए एक कमरा होना चाहिए. रहेगी तो यहां नहीं, लेकिन जितने दिन भी ससुराल में रहे, यह न लगे कि किन कंगालों के घर आ गई. आशा तो यह थी कि बड़े बाप की बेटी अपने साथ बहुतकुछ ले कर आएगी. यही सोच कर छत पर 2 कमरे बनवाए गए. रंगरोगन हुआ. इस में कुछ फंड से भी खर्च करना पड़ा और कुछ कर्ज भी लिया गया. यह सोच कर कि कुछ देवर मदद करेगा और शायद कुछ शादी में भी मिलेगा पर यह सब न हुआ. राजकुमारी सी बहू, बड़ी ही गोरी, सासससुर ने उसे पलकों पर बैठाया.

छोटी बहू के मातापिता ने बहुत दिया पर कर्ज पटाने के लिए न तो फर्नीचर काम आया न बरतन ही. बहू के भाई विदेश में रहते थे और अपनी बहन को उस के पति सहित विदेश ही बुला लिया. ब्याह हो कर बहू क्या आई, बेटा परदेस का हुआ. लड़की के मातापिता ने गरीब घर का हीरा लड़का शायद छांटा ही इसलिए था कि वह बिना चूंचपड़ किए बेटी के साथ विदेश में ही बसे. ‘अब तो खूब डौलर में खेलोगी’, आपस में पड़ोसिनें कहतीं तो सास खुशी से फूली न समाती. इस में निर्मला को तो कुछ करना न था. छोटी के पीहर से एक साड़ी, एक अंगूठी मिली पर बहू के महीनाभर रहने में जो खर्च हुआ उस का हिसाब निर्मला किस को बताती.

सास छोटी बहू के गुण गाते न थकती. बहू कितनी सुंदर है, कितनी गोरी है, बड़े बाप की बेटी है, कितनी पढ़ीलिखी है और दूसरी तरफ निर्मला है, कुछ न आता था. उसे सास ने ही पढ़ायालिखाया और नौकरी पर लगवाया. अब यह कोई नहीं कहता कि घर का कामकाज करते हुए, पति के लिए समय निकाल कर, बच्चों को पालते हुए, कैसे पढ़ीलिखी और नौकरी कर रही है.

यह सही है कि पढ़ाईलिखाई का खर्च तो उसे पीहर से ले कर न आना पड़ा था, अपने पति की कमाई से ही पढ़ाई की. यदि सास ठसक से कहती कि उन्होंने पढ़ायालिखाया तो आखिर कमाई तो उन के बेटे की ही थी. निर्मला दिनभर छोटी बहू की तारीफें सुनती. वह भी ऐसी बहू की जो सास के साथ रही ही नहीं.

छोटी बहू जितने दिन ससुराल में रही, मेहमान की तरह रही. चूंकि उसे पता था कि जाना है इसलिए सिवा मीठे बोल के उसे करना क्या था. इस महीनेभर के प्रवास में वह कभी फेरा डालने पीहर चली गई तो कभी हनीमून के लिए कुल्लूमनाली. बाकी दिन नातेरिश्तेदारों के यहां लंचडिनर और ऐसे ही निमंत्रण. इस में उसे फुरसत न थी और शायद जरूरत भी न थी.

निर्मला के जीवन में वह एक तूफान की तरह थी जिस ने उस के सारे गुण तिनकेतिनके कर उड़ा दिए थे. निर्मला मुश्किल से दालरोटी बना पाती और छोटी बहू चाइनीज खाना, केक बना लेती है, कई तरह का सलाद बनाना जानती है. कौन्टिनैंटल व्यंजन के नाम भी निर्मला ने छोटी बहू के मुंह से ही सुने. जेब में पैसा हो तो आदमी क्याकुछ नहीं कर सकता.

आज छोटी बहू केक बना कर खिलाएगी. उस ने बनाया पर सामान तो बड़ी बहू को ही मंगाना पड़ा. नईनवेली बहू थोड़े ही पैसे निकाल कर देगी. खर्च बड़ी बहू का तारीफ छोटी बहू की. एक दिन छोटी बहू से खाना बनाने की बात चली तो उस ने फौरन सब को ले कर सिनेमा जाने की बात कह दी तो सुनने को मिला, ‘बड़ी तो कभी सिनेमा दिखाने नहीं ले गई पर छोटी ने जिद कर के सिनेमा दिखाया.’ सच तो यह है कि सारा परिवार एकसाथ सिनेमा देखने गया तो खर्च सारा बड़ी बहू का हुआ.

छोटी बहू की तारीफ के बीच जब निर्मला ने हिसाब बताया तो सास को अच्छा नहीं लगा, ‘महीनाभर अगर मेरी बेटी और बहू घर में रहे तो उस का हिसाब सुनाती हो.’ सास नाराज हो गईं. निर्मला के मन में एक कसक सी उठती कि मूर्ख तो मैं ही हूं कि अपनी हैसियत से बढ़ कर खर्च करती हूं. फिर भी जाते समय उन को कुछ न कुछ साड़ीगहने दिए जो उन्होंने अपनी बेटी को दिए हैं.

गुजरते समय के साथ छोटी बहू कभी विदेश से आई तो उस की आवभगत में निर्मला ने कोई कमी नहीं आने दी. लेकिन छोटी ने मकान में जब हिस्से की बात कही तो निर्मला अवाक रह गई. ‘‘अब वह भी अगर हिसाब लगाए कि मिनरल वाटर की बोतलें कितने की आईं, ‘जो बच्चे पैदा ही विदेश में हुए उन्हें इंडिया तो दिखाना ही था. बच्चों को कभी आगरा, कभी जयपुर, कभी दिल्ली, कभी मुंबई घूमने जाने में क्या पैसे खर्च नहीं होते. कभी मुंह खोल कर छोटी ने मन रखने के लिए भी यों न कहा कि चलो सोनू, मोनू, गुडि़या तुम्हें भी अमेरिका दिखा लाएं. अगर अमेरिका में पैदा हुए बच्चों ने इंडिया नहीं देखा तो इंडिया में पैदा हुओं को ही कौन सा देखने को मिला है? जितनी है उतनी तनख्वाह में तो जरूरी खर्च भी खींचतान कर समाते हैं. देवरजी होंगे अमीर, कमाते होंगे डौलर पर घर तो कभी पैसा भेजा नहीं. अरे, हमें न सही अपने बूढ़े मातापिता को ही भेज देते.

छोटी बहू के गुण गाने का इस के अलावा भी बड़ा कारण यह बना कि छोटे ने मातापिता को विलायत की सैर करा दी. बूढ़े मातापिता पहली बार हवाई जहाज में बैठे और लगभग 3 महीने विलायत में रह आए. सारा खर्च उन के होनहार सपूत ने किया. वीजा, पासपोर्ट के सिलसिले में दिल्ली के कितने ही चक्कर बड़े बेटे ने लगाए. वह सब तो बट्टेखाते में गया. साथ में जो ले जाना है उस की तैयारी भी महीनों चली. चीजें तो छोटीछोटी हैं पर इस इंडिया में भी तो कुछ मुफ्त नहीं आता.

अब मांबाप जा रहे हैं तो बेटाबहू के लिए, पोतीपोतों के लिए कुछ न कुछ तो ले ही जाएंगे. अब कोई हवाई जहाज में गठरी ले कर तो नहीं जा सकता. बढि़या किस्म की अटैची, बहू के लिए साड़ीगहने नहीं तो 10 किलो शुद्ध देसी घी तो चाहिए. सो जो सामान भेजा जा सकता था उस की सूची बनी. अचार, पापड़, मुरब्बे, बडि़यां और ऐसी ही कई चीजें तैयार करने में निर्मला के हाथों ने काम किया. फिर भी चलते समय सास ने पूछा, ‘बड़ी, तुम कुछ नहीं भेजोगी.’ तब बढ़ कर निर्मला ने जवाब दिया था, ‘हम पर कहां पैसे धरे हैं.’ बहुत दिन इस का गाना गाया जाता रहा कि बड़ी बहू इतनी कंजूस है कि बालकों के लिए दो पैसे की चीज भी नहीं भेजी.

इस के बाद निर्मला ने कभी न कुछ भेजा और न इस बारे में कुछ कहासुना.

जिंदगी तो अपनी गति से चलती है, ऐसी ही चली. वे जो बहुत रईस थे, जो हजारों मील दूर थे पर उन की कमाई का एक हिस्सा इस घर में तो न लगा और न उन्होंने किसी की मदद की. निर्मला का सारा जीवन उन की ही यश गाथा सुनते बीता.

निर्मला सोचती कि उस के हिस्से क्या पड़ा, काम ही काम, खर्चा और निरंतर छोटी बहू से अपनी तुलना, जिस में हमेशा छोटी का ही पलड़ा भारी पड़ता. सास छोटी बहू की तो तारीफों के पुल बांधती और निर्मला को चार बातें ही सुननी पड़तीं, काली कल्लो को तो कुछ आताजाता नहीं, मांबाप के घर से कुछ लाई नहीं. उस पर छोटी को देख कर जलती रहती है. दूसरी तरफ छोटी है कितनी सुंदर, कितनी गोरी, कितनी धनी और कितने मीठे बोल बोलने वाली. विलायत में रहती है पर जरा भी अहंकार नहीं.’

छोटी बहू की प्रशंसा सुन कर तो निर्मला को इतना बुरा न लगता जितना उस से अपनी तुलना सुन कर लगता. सुबह से शाम तक खटती रहती है निर्मला. छोटी बहू की तरह चहकती तो नहीं रहती. अरे, काम करे, घर को संभाले, स्कूल जाए, तब पता चले कि छोटी कितनी लायक है. मेहमान की तरह आती है, रहती है और चली जाती है.

गोरी चाची के आसपास बच्चे मंडराते तो फटकार भी पड़ती, ‘15 दिनों बाद परीक्षा है, चलो, पढ़ो.’

निर्मला सब सुनती. मन में कसक सी होती. चाहे कितना ही शांत करने की कोशिश करो, मन में कसक हो तो चेहरे पर खुशी आ ही नहीं सकती. कैसे भी बीते समय तो बीतता ही है. अब निर्मला भी अधेड़ हो गई. बच्चे पढ़नेलिखने में अच्छे निकले. मन में तो था कि अगर देवरजी मदद कर दें तो उस का भी एक लड़का विदेश में कहीं कमाने लगे और घर का दलिद्दर धुल जाए. पिछली बार कहा भी था, ‘बाबू, सोनू को भी वहीं कहीं नौकरी पर लगवा दो.’

‘किस कक्षा में पढ़ रहे हो?’

‘एम ए में.’

‘एम ए किस विषय से कर रहे हो?’

‘संस्कृत से.’

संस्कृत सुनते ही करंट सा लगा हो जैसे, उछल कर देवरजी बोले, ‘कुछ कंप्यूटर वगैरह नहीं सीखा, संस्कृत का क्या स्कोप है. आजकल संस्कृत पढ़ता कौन है.’ इस के बाद भाषण झाड़ेगा कि पढ़ेलिखे मातापिता हैं और यही पता नहीं कि पढ़ना क्या चाहिए. मतलब यह कि साफ हाथ झाड़ लिए. बेचारे बच्चे का मुंह जरा सा रह गया.

छोटे को विदेश में रहते अब 25 बरस हो गए हैं. इस अरसे में वे गिन कर 6-7 बार भारत आए होंगे. आए तो ज्यादातर अपनी ससुराल में रहे. सही भी है, जब इतनी दूर विदेश में रहते हैं तो कोई भी लड़की पीहर में रहेगी कि ससुराल में? जब भी छोटी बहू विदेश से आई तो ससुराल 2-4 दिन के लिए ही आई. मेहमान की तरह आई, मेहमान की तरह रही. खूब खातिरदारी हुई. निर्मला के लिए साड़ी, बच्चों के लिए कपड़े, छोटामोटा कोई बिजली का सामान लाए. कुल मिला कर गिफ्ट लाए तो गिफ्ट ले भी गए. अदले का बदला तो करना ही पड़ता है.

यहां संस्कृत की पढ़ाई में अपना जीवन बरबाद करने वाला उन का बेटा अब डिग्री कालेज में पढ़ाता है. बहू भी डिग्री कालेज में पढ़ाती है. छोटा बेटा बैंक में अधिकारी है. बेटी अपने घरबार की हुई. इस बार पहली बार निर्मला अपनी खुद की कार में बैठ कर पोते का मुंडन कराने हरिद्वार स्थित गंगा किनारे जा रही है. संग में पूरा परिवार है.

पहली बार निर्मला कार में बैठी है क्योंकि उस की अपनी कार है और हवा के झोंकों के साथ उसे बचपन में पड़ी एक कविता याद आ रही है, ‘छोटी सी मोटर मंगवा दो, हवा चमन की खाने को…’ निर्मला के झुरियोंभरे सांवले चेहरे पर सुखशांति की अपूर्व छाप है. अपना देश भी बहुत अच्छा है.

Senior Citizen : मुसीबतों से घिरे अकेले बुजुर्ग

Senior Citizen : अकेले बुजुर्ग घरेलू हिंसा से ले कर आपराधिक घटनाओं तक के शिकार हो रहे हैं. ऐसे में घरपरिवार, कानून और समाज सभी के लिए इन की परेशानियों का समाधान करना जरूरी हो जाता है.

उत्तरीपश्चिमी दिल्ली के नेताजी सुभाष प्लेस थाना इलाके के कोहाट एनक्लेव की 317 नंबर बिल्डिंग में रहने वाले 70 साल के मोहिंदर सिंह और उन की 68 साल की पत्नी दलजीत कौर की हत्या कर दी गई. पुलिस के मुताबिक, महिला के साथ पहले मारपीट की गई, फिर उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया. वहीं बुजुर्ग का आरोपियों ने औक्सीजन पाइप से गला दबाया, जिस से उन की मौत हो गई. घर का कुछ सामान बिखरा हुआ पाया गया था. देखने से लग रहा था कि हत्या के साथसाथ लूट की वारदात को भी अंजाम दिया गया.

शुरुआती जांच में पुलिस का शक परिवार द्वारा बुजुर्ग दंपती की देखरेख के लिए रखे गए नौकर पंकज और उस के साथी रवि पर गया. कोठी के अंदर मोहिंदर सिंह और उन की पत्नी की लाश बरामद हुई. लाश 2 दिन पुरानी लग रही थी. कोठी में बुजुर्ग दंपती के अलावा नौकर रहता था. दंपती का बेटा पड़ोस में ही रहता है.

फ्लैट के ठीक बराबर वाली इमारत में इन के 2 शादीशुदा बेटे चनप्रीत तलवार और मनप्रीत तलवार अपनेअपने परिवारों के साथ रहते हैं. मोहिंदर सिंह का कपड़े का बड़ा कारोबार था. एक शोरूम ज्वाला हेड़ी और दूसरा कमला नगर में है. दोनों बेटे वहां बैठते हैं. करीब 5 साल पहले तबीयत खराब रहने की वजह से मोहिंदर ने शोरूम जाना बंद कर दिया था. इन के पास दिन और रात के 2 अलगअलग नौकर रहते थे.

पुलिस को पूछताछ और छानबीन से पता चला कि कुछ दिनों पहले विक्की नाम के नाइट केयरटेकर को बुजुर्ग दंपती ने निकाल दिया था. इस के बाद नाइट केयरटेकर की जरूरत पड़ने पर बुजुर्ग दंपती ने पहले वाले ही नौकर से संपर्क किया. उसी ने ही 4 दिन पहले अपनी जगह एक नया नौकर रखवा दिया था. बेटे और बहुएं अकसर मातापिता के पास मिलने आते थे.

18 मार्च को घटना वाले दिन सुबह करीब 9.30 बजे इन का ड्राइवर भैरव कुमार मोहिंदर सिंह के फ्लैट पर पहुंचा. वह काफी देर तक डोरबैल बजाता रहा. दरवाजा नहीं खुला तो उस ने पड़ोस में रहने वाले बेटे मनप्रीत और उस की पत्नी को बताया. दोनों मातापिता के फ्लैट पर पहुंचे. दरवाजा बाहर से लौक नहीं था. अंदर पहुंचने पर मातापिता अलगअलग कमरे में फर्श पर पड़े थे. उन की नाक और मुंह से खून बह रहा था. शव भी सड़ने लगे थे.

घर का सामान भी फैला हुआ था. मामले की सूचना पुलिस को दी गई. पुलिस अधिकारी मौके पर पहुंचे. छानबीन के बाद पुलिस को नौकर पर ही हत्या करने का शक है. घर से लाखों रुपए की ज्वैलरी, दलजीत की पहनी हुई ज्वैलरी, कैश और अन्य कीमती सामान लूटा गया था. मोहिंदर के चेहरे पर तकिया भी रखा हुआ मिला. वहीं दलजीत का गला घोंटने के अलावा उन के सिर पर लोहे की रौड से वार भी किया गया था. वारदात के बाद सोमवार सुबह करीब 5 बजे आरोपी नौकर को बड़ा बैग ले कर सोसाइटी से बाहर जाते हुए देखा गया था.

इस तरह की घटनाएं पूरे देश के बड़े शहरों में हो रही हैं. अकेले रह रहे बुजुर्ग दंपती नौकरों का शिकार बन जाते हैं. मोहिंदर सिंह और दलजीत कौर का मसला अलग सा दिखता है. यहां इन के बेटे और बहुएं पास के दूसरे मकानों में रहते थे. इस के बाद भी उन का रोज का संपर्क नहीं था. मोहिंदर और दलजीत की मौत का पता 18 मार्च को चला तब तक शव सड़ने लगे थे. पुलिस ने बताया कि हत्या 2 दिन पहले की गई थी.

मांबाप की हत्या हो जाए, उस के 2 दिनों के बाद बेटेबहुओं को पता चले, यह बड़ा सवाल है जबकि आज मोबाइल कैमरे हैं, सीसीटीवी की निगरानी होती है, एडवांस कैमरे हैं जिन में सैंसर लगा होता है. मोहिंदर बिजनैसमैन थे. पैसों की कमी नहीं थी. जब वे नौकरों के हवाले थे तब सुरक्षा के लिए उन के आसपास ऐसा सीसीटीवी क्यों नहीं था जो किसी भी अनहोनी घटना के समय अलर्ट भेज सकता. दूसरा बड़ा सवाल, क्या बेटे मांबाप से एकदो दिन किसी तरह का संपर्क नहीं रखते थे, जिस से 2 दिनों बाद हत्या का पता चल सका?

जब यह बात उठती है कि बुजुर्गों का खयाल रखना पुलिस और समाज की भी जिम्मेदारी है तो पहला सवाल परिवार के ऊपर भी जाता है. जिन घटनाओं में परिवार साथ नहीं रहता, वहां अलग परेशानियां होती हैं.

आज के जमाने में जहां किसी की भी निगरानी करना सरल है वहां बच्चे अपने बुजुर्ग मांबाप के लिए इस तरह का सिस्टम क्यों नहीं बनाते कि जिस में वे 5-7 घंटे में मांबाप से बात करते रहें. बात न कर सकें तो सीसीटीवी के ऊपर नजर रख सकें जिस से किसी अनहोनी की जानकारी मिल सके. मांबाप को भी चाहिए कि वे बुढ़ापे में बच्चों के संपर्क में रहें. उन के साथ अपने संबंधों को मधुर बना कर चलें.

संकट में हैं बुजुर्ग

उत्तर प्रदेश के जालौन के कोतवाली क्षेत्र में हरदोई गूजर गांव में 65 वर्षीया विधवा महिला मुनिया की उन के घर में हत्या कर दी गई. मुनिया अपने घर में अकेली रहती थीं. उन के बड़े बेटे नेता कुशवाहा की 7 महीने पहले मृत्यु हो चुकी है. छोटा बेटा सरजू आंध्र प्रदेश में पानीपूरी का व्यवसाय करता है. घटना का पता तब चला जब दोपहर में महिला घर से बाहर नहीं निकलीं. पड़ोसियों ने आवाज लगाई, लेकिन कोई जवाब नहीं मिला. पास के निर्माणाधीन मकान में काम कर रहे मजदूरों ने महिला को खून से लथपथ देखा. इस की सूचना भतीजे को दी.

लखनऊ के बीकेटी थाना क्षेत्र के मामपुर गांव में 65 साल की बुजुर्ग महिला रजाना की हत्या कर दी गई. पति फकीरे की मृत्यु के बाद से रजाना अकेली रहती थी. उस ने एक करोड़ 20 लाख रुपए की जमीन बेची थी. बेची गई जमीन के रुपए से उस ने रिश्ते के एक भतीजे के नाम पर बाराबंकी में जमीन खरीदी. रजाना के सगे रिश्तेदार नहीं थे. बुजुर्ग महिला की हत्या कर उस के शव को बाग में फेंक दिया गया था.

शहर हो या गांव, अकेले रहने वाले बुजुर्ग दंपती अपराधियों के निशाने पर होते हैं. कई बार ये अपनों का शिकार हो जाते हैं तो कई बार अपराधी इन की जान के दुश्मन बन जाते हैं. बुजुर्गों के प्रति अपराध की सब से बड़ी वजह उन की धनसंपत्ति होती है. लोग पैसा बुढ़ापे के लिए बचा कर रखते हैं जिस से बुढ़ापे में किसी से मदद न लेनी पड़े. यही पैसा अपने करीबी लोगों और अपराधियों की आंखों में खटकने लगता है. इसी लालच में इन की हत्या कर दी जाती है.

असहाय हो जाती है अकेली महिला

पतिपत्नी में से किसी एक की मौत तो पहले होनी ही होती है. ज्यादातर मामलों में अकेली महिला अंत में बचती है. उस के साथ घरपरिवार, बच्चे नहीं रहते. वह या तो अकेली रहती है या ओल्डएज होम में रहती है. हमारे देश में ओल्डएज होम का कोई अच्छा आधारभूत ढांचा नहीं है. सरकारी ओल्डएज होम्स में अव्यवस्था है. प्राइवेट ओल्डएज होम्स अधिक हैं. यहां पैसा तो लिया जाता है लेकिन बहुत बेहतर हालत नहीं है.

हमारे देश का समाज घर और परिवार भले ही बुजुर्गों को अपने साथ न रखे लेकिन वह सामाजिक आलोचना के भय से उन को ओल्डएज होम में भी नहीं रखना चाहता है. ऐसे में बुजुर्गों को अकेला ही जीवन काटना पड़ता है. अकेले रह रहे बुजुर्ग सब से असुरक्षित होते हैं. कई बार इन की अनदेखी घर में भी होने लगती है. कमजोर होना तो एक परेशानी है ही, याद्दाश्त का कमजोर होना सब से बड़ी परेशानी होती है.

स्वास्थ्य संबंधी खतरों से निबटने के लिए समयसमय पर दवा और जांच जरूरी होती है. बीमारी बुजुर्गों में कामकाज में बाधा डालती है. कमजोर होने से इन के प्रति दुर्घटनाओं का खतरा बढ़ जाता है. इस के लिए नियमित स्वास्थ्य जांच, उचित देखभाल और दवाओं का सेवन आवश्यक है. बुजुर्गों में गिरने की संभावना अधिक होती है, इसलिए घर को सुरक्षित बनाना और गिरने से बचने के लिए उपाय करना चाहिए.

समाज भी उठाए जिम्मेदारी

परिवार के सदस्यों को चाहिए कि वे बुजुर्गों की नियमित गतिविधियों को पूरा करने में उन की मदद करे और उन्हें गिरने से बचाने के लिए आवश्यक कदम उठाएं. बुजुर्गों के साथ दुर्व्यवहार बड़ी परेशानी होती है. परिवार के लोगों के संपर्क और साथ में रहते समय इस का ध्यान रखना चाहिए. कानून बुजुर्गों की मदद के लिए कहता रहता है. कई कानून भी बने हैं. बुजुर्ग कानून और पुलिस की मदद जरूरत पड़ने पर ले सकते हैं.

बुजुर्गों को चाहिए कि वे सामाजिक गतिविधियों में शामिल होने की कोशिश करें. दूसरों से संबंध बनाने के लिए खुद पहल करें. वे वृद्धाश्रम, सामुदायिक केंद्र और अन्य सामाजिक कार्यक्रमों में हिस्सा लें. सरकार बुजुर्गों को एक हजार रुपए प्रतिमाह पैंशन देती है. यह ऊंट के मुंह में जीरा के समान होती है. बुजुर्गों को सरकार द्वारा चलाई जा रही दूसरी सहायता स्कीमों का भी फायदा लेना चाहिए. जब तक उन का अपना शरीर ताकत दे तब तक छोटेमोटे काम अपनी खुशी के लिए उन्हें करने चाहिए. बुजुर्गों के सुरक्षित और स्वस्थ जीवन के लिए समाज को उन की देखभाल और सुरक्षा के लिए मिल कर काम करना चाहिए.

Health Update : मैडिकल साइंस बचाएगा, धार्मिक पाखंड नहीं

Health Update : मौडर्न मैडिकल साइंस के विकसित होने से पहले लोग मामूली बीमारी होने से भी मर जाते थे. प्लेग, हैजा, तपेदिक या बुखार से लाखों लोग मरे. मिर्गी, मलेरिया और डेंगू जैसी बीमारियों का इलाज नहीं था तब. इन के इलाज के नाम पर समाज में तरहतरह के टोटके प्रचलित थे. ये टोटके धर्म और अंधविश्वास की देन थे. लोग किसी भी अनहोनी को भगवान की करनी कहते थे. आज भी ऐसा कहने वाले लोग खूब हैं लेकिन वे भी इसे मानते नहीं. बावजूद इस के, भारत स्वास्थ्य के मामले में फिसड्डी है, आखिर क्यों?

तकरीबन डेढ़ सौ करोड़ की आबादी वाले हमारे देश की बुनियादी स्वास्थ्य सेवाएं बदतर हैं. सरकारी हौस्पिटलों में बेड नहीं हैं, एंबुलैंस नहीं हैं, पर्याप्त डाक्टर नहीं हैं. औक्सीजन की कमी से बीमार दुनिया से कूच कर जाते हैं. सरकारी हौस्पिटलों के ओपीडी में लंबीलंबी कतारें लगती हैं. औपरेशन के लिए लोगों को महीनों इंतजार करना पड़ता है.

देश की 90 प्रतिशत गरीब आबादी सरकारी अस्पतालों में इलाज के लिए जूझती है. लंबी लाइनों में धक्के खाती है और वक्त पर सही ट्रीटमैंट न मिलने की वजह से अपनों को खो देती है लेकिन सरकारों से सवाल नहीं करती. जनता की इसी उदासीनता की वजह से स्वास्थ्य जैसी बुनियादी बातें कभी चुनावी मुद्दा नहीं बन पातीं.

देश का अमीर वर्ग, धार्मिक गुरु और राजनेता देश की बुनियादी समस्याओं पर कभी भी बात नहीं करते क्योंकि उन्हें यह सब झेलना नहीं पड़ता. इन बड़े लोगों ने सरकारी अस्पताल का ओपीडी तक कभी नहीं देखा होता. ये खाएपिए व अघाए लोग मैडिकल इमरजैंसी होने पर बड़े सरकारी अस्पतालों में वीआईपी ट्रीटमैंट की सुविधा का भरपूर फायदा उठाते हैं और जनता से टैक्स के नाम पर वसूले गए पैसों से प्रदान की जा रही सरकारी सेवाओं का फायदा उठाने के बाद बड़ी बेशर्मी से मैडिकल साइंस के खिलाफ बोलते नजर आते हैं.

राजनेता और धर्मगुरु अगर सरकारी अस्पतालों में ठीक न हुए तो महंगे प्राइवेट हौस्पिटल तो हैं ही. वहां भी संतुष्टि न मिली तो इन वीआईपी लोगों के लिए विदेश तक के रास्ते खुले होते हैं. ऐसे में ये सक्षम लोग गरीबों के लिए अच्छी स्वास्थ्य सुविधाओं की फिक्र भी भला क्यों करें. धार्मिक गुरुओं की तो बात ही निराली है. ये लोग दिनरात धर्म का चूरन बेचते हैं. धर्म के नाम पर नफरत फैलाते हैं. मैडिकल साइंस को गरियाते हैं और जब खुद बीमार पड़ते हैं तो बेशर्मी की हदें पार कर मैडिकल साइंस का सहारा लेते हैं.

धर्मगुरुओं को मैडिकल साइंस का सहारा क्यों

आध्यात्म के सहारे भारत को विश्वगुरु बनाने वाले सद्गुरु उर्फ जग्गी वासुदेव पिछले वर्ष बीमार पड़े. इलाज के लिए उन्हें दिल्ली के इंद्रप्रस्थ अपोलो हौस्पिटल में भरती कराया गया. सिटी स्कैन, एमआरआई और तमाम तरह के दूसरे मैडिकल एक्जामिनेशनों से पता चला कि सद्गुरु के दिमाग में अंदरूनी ब्लीडिंग होने लगी थी. डाक्टरों की एक टीम ने उन का इलाज किया और वे खतरे से बाहर निकल आए.

सवाल यह है कि धर्म की पुरानी बातों को सूडो साइंस के नए फ्लेवर में परोस कर पढ़ेलिखे वर्ग को बेवकूफ बनाने वाले जग्गी महाराज को हौस्पिटल में भरती होने की जरूरत क्यों पड़ गई. सीटी स्कैन, एमआरआई जैसी चीजें तो पश्चिमी वैज्ञानिकों की देन हैं. जग्गी महाराज जिस आध्यात्म को भारत की हर समस्या का हल बताते फिरते हैं क्या उस में इतनी ताकत नहीं थी कि जिस से वे खुद की बीमारी को पहले ही पहचान सकते और उस का इलाज ढूंढ़ सकते.

पतंजलि कंपनी के मालिकों में से एक बालकृष्ण की तबीयत खराब हुई. 23 अगस्त, 2019 को आननफानन उन्हें पतंजलि योगपीठ के नजदीक के एक अस्पताल ले जाया गया. स्थिति इतनी खराब थी कि वे सही से बोल भी नहीं पा रहे थे. ट्रीटमैंट चला. कई मैडिकल टैस्ट हुए और आखिरकार उन्हें एम्स रैफर किया गया. उस दौरान बालकृष्ण और रामदेव की आयुर्वेदिक दवाएं फेल हो गईं. मैडिकल साइंस और एलोपैथी की मेहरबानी से बालकृष्ण ठीक हुए और ठीक होने के बाद दोनों पार्टनर मिल कर जनता को समझते रहे कि मैडिकल साइंस और एलोपैथी अंगरेजों की वाहियात देन हैं. सारा इलाज तो आयुर्वेद और पतंजलि की दवाओं में है.

राजीव दीक्षित अपनी पूरी जिंदगी मैडिकल साइंस को नीचा दिखाते रहे. एक दिन अचानक दिल का दौरा पड़ने से बाथरूम में गिरे तो उन्हें बीएसआर अपोलो अस्पताल में एडमिट कराया गया. डा. दिलीप रत्नानी की टीम ने उन का इलाज किया लेकिन वे बच न सके और 30 नवंबर, 2010 को हौस्पिटल में इलाज के दौरान उन की मौत हो गई.

बड़ेबड़े मुल्ला, उलेमा और मुफ्ती जो अपने भक्तों को समझते हैं कि अल्लाह की मरजी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता लेकिन जब खुद बीमार पड़ते हैं तब सीधे हौस्पिटल की ओर भागते हैं और मैडिकल साइंस की बदौलत ठीक हो कर तथाकथित ऊपर वाले का शुक्रिया अदा करते हैं.

राजनेताओं का भी यही हाल

2018 के मार्च से जून के बीच गोवा के पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर का अमेरिका के न्यूयौर्क में पैनक्रियाटिक कैंसर का इलाज हुआ. इलाज के बाद वे भारत लौटे. सितंबर में उन की तबीयत फिर खराब हुई. उन्हें दिल्ली के एम्स में भरती कराया गया. लंबे इलाज के बाद 17 मार्च, 2019 को पणजी में उन की मृत्यु हो गई. मनोहर पर्रिकर उत्तर प्रदेश से राज्यसभा के सांसद रहे. 3 बार गोवा के मुख्यमंत्री रहे. भारत के रक्षामंत्री भी रहे. राजनीति में इतने लंबे वक्त की सक्रियता और सांसद से रक्षामंत्री व मुख्यमंत्री के पद तक पहुंचने के दौरान मनोहर पर्रिकर ने कितनी बार आम जनता के स्वास्थ्य की बात की होगी, यह तो पता नहीं लेकिन जब खुद बीमार पड़े तो दिल्ली के एम्स जैसे सरकारी संस्थान में एडमिट हुए और टैक्स के नाम पर जनता से वसूले गए पैसों से उन का इलाज हुआ.

6 अगस्त, 2019 को सुषमा स्वराज को दिल का दौरा पड़ा. उन्हें दिल्ली के एम्स ले जाया गया, जहां कार्डियक अरैस्ट से उन की मृत्यु हो गई. अरुण जेटली का इलाज भी एम्स जैसे बड़े सरकारी संस्थानों में आम जनता के टैक्स के पैसों से हुआ. यहां सवाल यह है कि अरुण जेटली और सुषमा ने अपने पूरे राजनीतिक कैरियर के दौरान कितनी बार हौस्पिटल जैसे मुद्दों पर बात की?

1988 में जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, अटल बिहारी वाजपेयी को किडनी से संबंधित गहरी स्वास्थ्य समस्या हो गई थी. राजीव गांधी ने संयुक्त राष्ट्र संघ के एक आधिकारिक प्रतिनिधिमंडल में शामिल कर उन्हें न्यूयौर्क भिजवा दिया जहां टैक्सपेयर के पैसों से उन का इलाज हुआ, राममंदिर की चलती मुहिम उन के कोई काम में न आई. ऐसे राजनेताओं को वोट देने वाली जनता मामूली बीमारियों से जूझती रह जाती है लेकिन इन नेताओं से सवाल नहीं करती.

ईश्वर के सिस्टम को मैडिकल साइंस की चुनौती

100 साल पहले तक मामूली बीमारियां होने से भी लोग मर जाते थे. प्लेग और अकाल में लाखों लोग मरते थे. तपेदिक, मिर्गी, मलेरिया और डेंगू जैसी बीमारियों का इलाज न था. इलाज के नाम पर समाज में तरहतरह के टोटके प्रचलित थे. पिछले 100 साल में मैडिकल साइंस ने तमाम बीमारियों का इलाज ढूंढ़ निकाला है जिस की बदौलत ही आज बड़ीबड़ी बीमारियों का इलाज भी मुमकिन हो पा रहा है. चमत्कारों की कहानियों पर टिके धर्म व मजहब आज मैडिकल साइंस के आगे लाचार दिखाई देते हैं. आज भी भारत की स्वास्थ्य सेवाएं आम लोगों को बहला कर पूजापाठ, पाखंड की ओर ले जाती हैं.

आम जनता को दिनरात धर्म के चमत्कारों के किस्सों में बहकाए रखने वाले बड़ेबड़े उलेमा, महात्मा और संत बीमार होने पर मजहब के चमत्कारों पर भरोसा नहीं करते बल्कि ऐसे तमाम ढपोरशंखी मुश्किल वक्त में मैडिकल साइंस का ही सहारा लेते हैं. हर साल कुदरती आफतों में सैकड़ों लोग मरते हैं, हजारों लोग घायल होते हैं जिन का इलाज मैडिकल साइंस की बदौलत होता है.

कितने ही जन्मों के पापों से मुक्ति दिलाने वाले कुंभ के महा मेले में किसी को भी वास्तव में गंगा के पानी पर भरोसा नहीं था. तभी सरकार ने पहले से 100 बैड्स का एक केंद्रीय अस्पताल और 25 व 20 बैड्स के कितने ही अस्पताल बनाए थे जहां वैज्ञानिक शिक्षाप्राप्त डाक्टर थे, जटाधारी स्वामी और हवन करने वाले पंडे नहीं थे. हवन सामग्रियों की जगह इन अस्पतालों में एक्सरे, अल्ट्रासाउंड, ईसीजी, पैथोलौजी लैब्स, हार्ट स्पैशलिस्ट, गायनकोलौजिस्ट, और्थोपिडीशियन रखे गए थे. प्रबंधकों को मालूम था कि गंगा मैया की जय कहने से कोई ठीक नहीं होने वाला.

पैदाइशी रूप से कई बच्चे दिल और गुरदे की बीमारियों से ग्रसित होते हैं. उन के इलाज के लिए उन के परिवार के लोग दरदर भटकते हैं. धर्मगुरु कहते फिरते हैं कि ईश्वर के सिस्टम में कोई कमी नहीं. अगर ऐसा है तो जो लोग पैदाइशी तौर पर अंधे, गूंगे, बहरे या पोलियोग्रस्त होते हैं उस में किस की गलती है. क्या यह ईश्वर के सिस्टम की नाकामी नहीं है?

पैदाइशी तौर पर सिर से जुड़े बच्चों का गुनाहगार कौन है? यह कैसा ईश्वरीय सिस्टम है जिस में बच्चों को जन्म के साथ ही दर्दनाक जिंदगी हासिल होती है? बच्चों के साथ ही बच्चों के मांबाप को भी जो वेदनाएं झेलनी पड़ती हैं, क्या ईश्वर (यदि है तो) इस दर्द का अंदाजा भी लगा सकता है?

आइए अब कुछ ऐसे मामलों पर नजर डालते हैं जिन से ईश्वर के तथाकथित सिस्टम की सारी पोलपट्टी खुल जाती है, साथ ही, इन घटनाओं से हमें यह भी पता चलता है कि इंसानों का बनाया हुआ सिस्टम तथाकथित ईश्वरीय सिस्टम से कहीं ज्यादा बेहतर है. हाल के वर्षों में मैडिकल साइंस ने ऐसे कई कीर्तिमान स्थापित किए हैं जिन में ईश्वर की बिगाड़ी गई तकदीर को मैडिकल साइंस ने ठीक कर दिया.

सिर से जुड़ी 2 बहनों का सफल औपरेशन

पहली घटना उन 2 मासूम बच्चियों की है जिन की उम्र 1 साल थी. ये बच्चियां जन्म से ही आपस मे जुड़ी हुई थीं. इसराइल के सोरोका मैडिकल कालेज में सिर से जुड़ीं इन दोनों बहनों को उन के जन्म के 1 साल बाद सफल औपरेशन के जरिए अलग किया गया. डाक्टरों के मुताबिक, इन बच्चियों को अलग करने की सर्जरी काफी मुश्किल थी. दुनिया में ऐसी महज 20 सर्जरियां ही हुई हैं और इसराइल में इस तरह की यह पहली सर्जरी थी.

सोरोका अस्पताल के चीफ पीडियाट्रिक न्यूरोसर्जन डा. मिकी गिडोन कहते हैं कि यह सर्जरी इतनी जटिल और कठिन थी कि इस की तैयारी में ही कई महीने लग गए. सब से पहले इन बच्चियों का एक थ्रीडी वर्चुअल रिऐलिटी मौडल बनाया गया, ताकि डाक्टरों को औपरेशन की पेचीदगियां सम?ाने में आसानी हो. इस के बाद इन बच्चियों के सिर में फुलाए जा सकने वाले सिलिकौन बैग डाले गए और उन्हें कई महीनों तक धीरेधीरे फुलाया गया ताकि उन की स्किन फैल जाए.

औपरेशन के दौरान दोनों बच्चियों की खोपड़ी को भी नए सिरे से बनाया गया. दोनों बच्चों में गले को दिमाग से जोड़ने वाली खून की एक ही मुख्य नली होने की वजह से यह सर्जरी काफी जोखिम भरी थी. 2 अलगअलग दिमाग एक ही मुख्य नली से जुड़े हुए थे, जरा सी गलती से बच्चियों की जान जा सकती थी. आखिरकार औपरेशन सफल रहा और इस वक्त दोनों बच्चियां सामान्य जिंदगी की ओर लौट रही हैं.

मिली घुटनभरी जिंदगी से राहत

2017 में ऐसा ही एक जटिल औपरेशन भारत में भी हुआ और यह औपरेशन भी सफल रहा. यह औपरेशन दिल्ली के एम्स में हुआ. ओडिशा के जग्गा और कालिया, जो सिर से जुड़े हुए थे, दोनों बच्चों को अलग करने के लिए एम्स के डाक्टरों ने जो औपरेशन किया वह इतना मुश्किल था कि यह कारनामा रिकौर्ड बुक औफ लिम्का में दर्ज हो गया. इस कमाल के औपरेशन में देशविदेश के 125 डाक्टर शामिल हुए थे. 125 डाक्टरों की टीम के प्रमुख न्यूरोसर्जन प्रोफैसर अशोक कुमार महापात्रा और डा. दीपक कुमार गुप्ता ने इस औपरेशन को 2 हिस्सों में पूरा किया. पहला औपरेशन 28 अगस्त, 2017 को और दूसरा औपरेशन 25 अक्तूबर, 2019 को हुआ था जब पहला औपरेशन हुआ था, उस समय बच्चों की उम्र 28 महीने थी.

प्रो. महापात्रा ने बताया, ‘‘यह हमारे लिए बड़ी चुनौती थी, सिर से जुड़े बच्चों का भारत में यह पहला औपरेशन था, जिस में हमें सफलता मिली है. इस सर्जरी की बड़ी विशेषता यह भी थी कि इस में एम्स की वेन बैंक से नस ले कर कालिया के सिर में लगाई गई थी, क्योंकि दोनों बच्चों के सिर में एक ही प्रमुख नस थी.’’

यह वेन ग्राफ्टिंग का दुनिया का पहला औपरेशन था. इस औपरेशन की सफलता के लिए न्यूयौर्क के अल्बर्ट आइंस्टीन कालेज औफ मैडिसिन में पीडियाट्रिक न्यूरोसर्जन प्रो. जेम्स टी गुडरिच की सलाह ली गई थी, जो पहले ही ऐसे 2 औपरेशन कर चुके थे. प्रोफैसर जेम्स की देखरेख में इस औपरेशन को अंजाम देने से पहले 3 बार डमी औपरेशन किए गए थे. कालिया और जग्गा इलाज के लिए लगभग 2 सालों तक दिल्ली के एम्स में ही रहे और मैडिकल साइंस की बदौलत ही इस वक्त दोनों बिलकुल स्वस्थ जीवन जी रहे हैं.

ब्राजील में भी ऐसा कुछ

ब्राजील में ऐसा ही एक औपरेशन अभी हाल ही में हुआ है. सिर से जुड़े भाइयों बर्नाडो और आर्थर लीमा को सर्जरी के जरिए अलग किया गया. जन्म के 3 साल बाद कई देशों के नामचीन डाक्टरों ने मिल कर इस जटिल सर्जरी को अंजाम दिया और बच्चों को एकदूसरे से अलग करने में कामयाबी हासिल की. 3 साल के बर्नाडो और आर्थर लीमा की 7 सर्जरियां की गईं. ये सभी सर्जरीयां रियो डी जेनेरियो में अंजाम दी गईं. इस के बाद की देखरेख का सारा जिम्मा ग्रेट औरमंड स्ट्रीट अस्पताल के बाल रोग सर्जन डाक्टर नूरुल जिलानी ने किया. जिलानी ने ही इस सर्जरी के लिए फंडिंग भी की. एकसाथ कई देशों के सर्जन्स ने मिल कर इस जटिल प्रक्रिया को अंजाम दिया. डाक्टर जिलानी के मुताबिक, दुनिया में पहली बार अलगअलग देशों के सर्जन्स ने मिल कर एकसाथ एक ही वर्चुअल रिऐलिटी रूम में इस औपरेशन को अंजाम दिया.

औपरेशन सफल रहा और इस वक्त दोनों बच्चे सामान्य जिंदगी की ओर तेजी से लौट रहे हैं. इस औपरेशन की कामयाबी के बाद डाक्टरों के साथ ही बच्चों के मांबाप के चेहरों पर जो खुशी नजर आई उस की कोई मिसाल नहीं. साइंस ने बच्चों के होंठों की वह मुस्कान लौटा दी थी जिसे ईश्वर ने छीन लिया था.

दोनों हाथों का ट्रांसप्लांट

अमेरिका के वाल्टमर में रहने वाले 11 साल के जियान को 2 वर्ष की उम्र में सेप्सिस की बीमारी हो गई थी जिस कारण जियान के दोनों हाथ काटने पड़े थे. जियान दुनिया का पहला इंसान है जिस के दोनों हाथों का सफलतापूर्वक ट्रांसप्लांट किया गया है. जुलाई 2015 में 8 साल के जियान का ट्रांसप्लांट किया गया था. इस बात को अब 10 साल हो चुके हैं और जियान के दोनों हाथ बिलकुल स्वस्थ हैं.

धड़कते 2 दिलों का औपरेशन

केरल के एक शख्स के सीने में धड़क रहे थे 2 दिल और इन 2 दिलों में से एक महिला का था. केरल का यह शख्स देश में अकेला ऐसा इंसान है जिस के सीने में 2 धड़कते दिल हैं. खास बात यह है कि इन 2 दिलों में 1 महिला का है. हार्ट फेल होने के बाद इन का दुर्लभ हार्ट ट्रांसप्लांट किया गया, जिस के तहत पुराने दिल को नए से रिप्लेस नहीं किया गया बल्कि दोनों दिलों को जोड़ दिया गया, ताकि दोनों लोड को शेयर कर सकें.

बेंगलुरु में ब्रेन का अनोखा औपरेशन

बेंगलुरु में एक हौस्पिटल के औपरेशन थिएटर में एक पेशेंट की ब्रेन सर्जरी बड़े अनोखे अंदाज में हुई. यों तो औपरेशन थिएटर जैसी जगह में किसी भी तरह के शोरशराबे की मनाही होती है लेकिन यहां इस पेशेंट का इलाज ही तब हुआ जब उस ने गिटार बजाया.

इस अनोखे पेशेंट का नाम अभिषेक प्रसाद है और गिटार बजाना अभिषेक की रोजीरोटी का एकमात्र जरिया था. अचानक उसे गिटार बजाने में दिक्कत शुरू होने लगी. अभिषेक का इलाज बेंगलुरु के भगवान महावीर जैन हौस्पिटल में शुरू हुआ. भारत में अपनी तरह के इस अनोखे औपरेशन में अभिषेक को बेहोश नहीं किया गया था और वह पूरे समय गिटार बजाता रहा, क्योंकि यह प्रौब्लम उसी वक्त होती थी जब वह गिटार बजाता था.

औपरेशन के वक्त डाक्टरों के लिए अभिषेक की प्रतिक्रिया जरूरी थी. बिहार के रहने वाले अभिषेक का औपरेशन सफल रहा और अब वह पहले की तरह गिटार बजा सकता है. विडंबना यह है कि अस्पताल का नाम महावीर जैन पर है जिन की पूजा करने से यह रोग कभी ठीक नहीं होता.

इथोपिया पेशेंट का औपरेशन

इथोपिया की एक महिला सेफिनेश वोल्डे, जो सिरदर्द से बहुत परेशान थी, को एक आंख से दिखना बंद हो गया था. वह अपने सिरदर्द के इलाज के लिए दिल्ली पहुंची. डाक्टरों ने जांच में पाया कि उसे ब्रेन ट्यूमर है. डा. सुधीर कुमार और उन की टीम ने एक जटिल औपरेशन द्वारा उस औरत का ट्यूमर तो निकाला ही, साथ ही, उस की एक आंख की रोशनी भी लौटा दी.

होंठ कटे बच्चों के चेहरों पर मुसकान लाने की कोशिश हो या पैदाइशी तौर पर आपस में जुड़े बच्चों को अलग कर उन्हें नई जिंदगी देने की बात हो, ये सभी मामले ईश्वर के सिस्टम पर सवाल तो पैदा करते ही हैं, साथ ही, ये धर्म के तमाम चमत्कारों को झुठा साबित करने के लिए भी काफी हैं.

यदि ईश्वर है तो वह मासूम बच्चों के साथ ऐसा गंदा खिलवाड़ क्यों करता है? अगर पेट में पल रहे बच्चों पर उस का कंट्रोल नहीं है तो वह ताकतवर कैसे हुआ? यदि वह है तो ऐसे बच्चों को कितनी तकलीफें झेलनी पड़ती हैं और ऐसे बच्चों के पेरैंट्स पर क्या बीतती है, इस बात का क्या वह अंदाजा नहीं लगा सकता? इस से यह बात तो साबित हो ही जाती है कि ईश्वर का सिस्टम परफैक्ट नहीं है और ऐसा कोई ईश्वर, जिसे लोगों को तकलीफों में देख कर मजा आता है, दयालु भी नहीं हो सकता.

उपचार के नाम पर पंडों की लूट

बीती एक सदी में मैडिकल साइंस में खासी तरक्की हुई है. अब बड़ेबड़े धर्मगुरु, पादरी, पंडे और मुल्ला भी अपने धर्म से ज्यादा मैडिकल साइंस पर भरोसा करते हैं.

पिछले समय में ही नहीं, जब उपचार पर भी धर्म का कब्जा था, हकीम दवा से पहले दुआ पर यकीन करते थे और वैद्य औषधि से पहले प्रार्थनाओं पर भरोसा करते थे. तमाम धार्मिक ग्रंथों में अलगअलग बीमारियों के इलाज से संबंधित टोटके लिखे हुए हैं. मैडिकल साइंस के आने से पहले लोग उन टोटकों पर ही भरोसा करते थे. बच गए तो भगवान ने बचा लिया और मर गए तो भाग्य में लिखा हुआ था. इसी अंधविश्वास की बदौलत धूर्तों ने सदियों तक लोगों को बेवकूफ बनाया लेकिन स्वास्थ्य से संबंधित कोई आविष्कार नहीं किया. अफसोस यह है कि आज भी दोहरी मानसिकता वाले भारतीय स्वास्थ्य सेवाओं को पाखंडों के घेरे में रखते हैं और लगातार गैरवैज्ञानिक उपचारों की वकालत, हकीकत जानते हुए भी करते रहते हैं.

अन्य सभी धर्मों की तरह हिंदू धर्म में भी बीमारियों और उन के उपचार को ले कर अंधविश्वासों की आज भी भरमार है. हिंदू धर्म के अनुसार, बीमारियां पिछले जन्मों के पापों और इस जन्म के ईष्ट देवताओं की नाराजगी का परिणाम होती हैं. पुरोहितों ने भय दिखा कर लोगों की बीमारी से भी अपनी दक्षिणा का प्रबंध किया है. हर बीमारी के लिए किसी देवता को खुश करने की विधियां बनाई गई हैं. फलां बीमारी है तो 5 पंडों को दान दो. फलां बीमारी है तो पंडों को दक्षिणा में गाय दो. सिर की बीमारी है तो यह ब्रह्मव्याधि है जिस के उपचार हेतु पंडे को उस के सिर की पगड़ी के बराबर धातु दान में देनी चाहिए. छाती से जुड़ी बीमारी राजव्याधि है, इस के उपचार हेतु पंडे को छाती/बाजू में पहनने वाले आभूषण दान करने चाहिए.

कमर या पेट से जुड़ी बीमारी वैश्यव्याधि होती है, इस के उपचार हेतु पंडे को कमरबंद या धोती दक्षिणा में देनी चाहिए और अगर कमर से नीचे की कोई बीमारी है जैसे गुप्त रोग, बवासीर, गठिया या सूजन तो यह शूद्रदोष है इस के लिए पंडे के वजन के बराबर अनाज उसे दक्षिणा में देना चाहिए.

हमारी स्वास्थ्य सेवाओं में डाक्टरों की अथक मेहनत को नकारते हुए राजनीतिज्ञ रोज ढोल पीट कर लोगों को पंडों और मंदिरों व मसजिदों की तरफ धकेलते हैं.

पादरियों, पंडों व मौलवियों की इस तरह की सीधी लूट से बच भी गए तो लूटने की कई दूसरी पूजा विधियां भी तैयार हैं जिन से दक्षिणा सीधे पंडे के हाथों में न आ कर पंडे के तथाकथित इष्टदेव के चरणों में पहुंचती है, जिसे आखिरकार पंडे ही हड़पते हैं.

दुर्गा की पूजा करने से रोगों से मुक्ति मिलती है. विष्णु की पूजा करने से रोगों से मुक्ति मिलती है और स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होता है. हनुमान की पूजा करने से रोगों से मुक्ति मिलती है. शिवलिंग पूजने से रोगों से मुक्ति मिलती है. नवरात्र पूजा करने से रोगों से मुक्ति मिलती है. हवन करने से रोगों से मुक्ति मिलती है. जप करने से रोगों से मुक्ति मिलती है. अश्वमेध यज्ञ करने से रोगों से मुक्ति मिलती है. राजसूय यज्ञ करने से रोगों से मुक्ति मिलती है. तुलसी का पत्ता कई रोगों को ठीक कर देता है. गंगाजल का सेवन करने से रोगों से मुक्ति मिलती है. आयुर्वेदिक औषधियां, जैसे कि त्रिफला, अश्वगंधा, अमलकी और अर्जुन की छाल से सारी बीमारियां दूर हो जाती हैं.

 

         महामृत्युंजय मंत्र का जाप करने से बीमारियों से मुक्ति मिलती है और आयु बढ़ती है-

  • ‘‘ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगंधिम् पुष्टिवर्धनम्, उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्.’’धन्वंतरि मंत्र का जाप करने से स्वास्थ्य और आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त होता है-
  • ‘‘ॐ धन्वंतरये नम:’’शिव मंत्र का जाप करने से रोगों से मुक्ति मिलती है और शांति प्राप्त होती है-
  •  ‘‘ॐ नम: शिवाय’’

यहां ध्यान देने वाली बात यह भी है कि इन पूजा विधियों और अनुष्ठानों के लिए पंडे या पुजारी का होना जरूरी है.

ईसा मसीह के चमत्कार

रोम के जेमेली अस्पताल में 5 सप्ताह इलाज कराने वाले पोप के भक्त ईसाइयों में आज भी चमत्कारों पर विश्वास किया जाता है. बीमारी के लिए पादरियों के टोटकों पर अमल करना आम बात है. ईसाई समाज में जीसस के जीवन से जुड़े चमत्कार, खासकर उन के द्वारा रोगियों को ठीक किए जाने की मान्यताएं, इतनी गहराई तक बैठी हुए हैं कि ईसाई लोग कई बीमारियों के लिए अस्पताल से पहले पादरियों के पास जाते हैं, हालांकि पादरी, चाहे वह पोप क्यों न हो, जब खुद बीमार पड़ता है तो सीधे हौस्पिटल पहुंचता है.

सोशल मीडिया पर आप ने ईसाइयों के कई ऐसे वीडियोज देखे होंगे जिन में पादरी अपने चमत्कार से बीमार लोगों को ठीक कर देता है. लंगड़े को चला देता है. अंधा व्यक्ति देखना शुरू कर देता है. गूंगा बोलने लगता है. वैज्ञानिक परीक्षणों पर इस तरह के चमत्कारों की तमाम घटनाएं फर्जी पाई जाती हैं. फिर भी लोग इन पादरियों के चक्कर में फंसते हैं तो इस में पादरियों का ही दोष नहीं.

कैथोलिक ईसाइयों के सब से बड़े धर्मगुरु पोप फ्रांसिस को 14 फरवरी, 2025 को सांस की समस्या के कारण रोम के जेमेली अस्पताल में भरती कराया गया. वे डबल निमोनिया (दोनों फेफड़ों में संक्रमण) से पीडि़त हैं, जिस से उन्हें सांस लेने में दिक्कत हो रही है. पोप फ्रांसिस पिछले 2 वर्षों में कई बार बीमार पड़ चुके हैं और हर बार इलाज के लिए उन्हें मैडिकल साइंस का सहारा लेना पड़ा. इस से यह पता चलता है कि ईसाइयों के सब से बड़े धर्मगुरु को ईश्वर के चमत्कारों पर भरोसा नहीं है. वे बीमार पड़े तो उन्होंने मैडिकल साइंस का ही सहारा लिया.

इतने बड़े पोप थे, वे ईश्वर से सीधे कौन्टैक्ट करते और प्रार्थनाओं से ठीक हो जाते लेकिन उन्हें पता था कि चमत्कार की बातें दरअसल, बेकार की बातें हैं. प्रार्थनाएं आम आदमी को भरमाने के लिए होती हैं. इमरजैंसी में ये काम नहीं आतीं, साइंस का ही सहारा लेना पड़ता है. इस से आम ईसाइयों को सबक ले कर चमत्कारों को नमस्कार करने की प्रवृत्ति से ऊपर उठना चाहिए.

बीमारी के चलते जेमेली हौस्पिटल के वीवीआईपी वार्ड में एडमिट पोप फ्रांसिस सामान्य प्रार्थनासभा में शामिल न हो पाने के कारण एक लिखित संदेश जारी कर कहा, ‘‘मैं आप की प्रार्थनाओं और समर्थन के लिए ईश्वर का धन्यवाद करता हूं.’’ यह भी ईसाइयों को बेवकूफ बनाने का तरीका है. ईश्वर का ही धन्यवाद करना था तो हौस्पिटल में एडमिट होने की जरूरत क्या थी?

बाइबिल में ऐसी कई घटनाओं का उल्लेख है जिन में ईसा मसीह ने अपनी दिव्यशक्ति से लोगों को बीमारियों से मुक्त किया था. ईसा ने एक कोढ़ी को ठीक किया था. जीभ की लार से कई अंधों की आंख की रोशनी लौटा दी थी. एक पोलियोग्रस्त आदमी से यीशु ने कहा, ‘‘उठो, और घर जाओ.’’ वह व्यक्ति तुरंत उठ गया और चलने लगा. तेज बुखार से पीडि़त व्यक्ति को यीशु ने छू कर ठीक कर दिया. एक औरत 12 साल से बीमार थी. भीड़ में यीशु से उस औरत के कपड़े का छोर छू गया तो वह ठीक हो गई.

जब ईसाई धर्म के मूल सिद्धांतों में ही चमत्कार को नमस्कार करने की अवधारणाएं मौजूद हैं तो आम ईसाई इस से कैसे बच सकता है. इन्हीं चमत्कारों के नाम पर पादरी पिछले 2000 वर्षों से ईसाई समाज को जोंक की तरह चूसते आए हैं.

मध्यकाल के यूरोप का इतिहास पादरियों के कुकर्मों से भरा पड़ा है. पादरियों द्वारा अमीरों को स्वर्ग बेचा गया. आम लोगों का शोषण हुआ. औरतों से बलात्कार हुए. तार्किक लोगों को जिंदा जलाया गया और वैज्ञानिकों को यातनाएं दी गईं. शताब्दियों तक चर्च इन सभी कुकर्मों के केंद्र बने रहे. यह सब हुआ सिर्फ धर्म के नाम पर.

इसलाम में रोगियों का उपचार

इसलाम की किताबों में बीमारियों के इलाज के लिए कई प्रकार के टोटकों का जिक्र मिलता है. हदीसों में गाय के दूध, ऊंटनी के मूत्र और शहद से तमाम तरह की बीमारियों के इलाज होने की डींगें मारी गई हैं.

कुरान में लिखा है, ‘‘इलाज के लिए हर प्रकार के फूलों का रस चूस और उस मक्खी के रस को भी जिस के अंदर से एक रंगबिरंगा शरबत निकलता है जिस से लोग शिफा पाते हैं.’’ (सूरा 16, आयत 69)

‘‘तुम अपने लिए शिफा की 2 चीजों को मजबूती से पकड़ लो, शहद और कुरान.’’ -इब्ने-माजा, पेज 3452

इसलाम में बीमारियों को अल्लाह (यदि है तो) की ओर से भेजी गई सजा के तौर पर देखा जाता है. अल्लाह अपने भक्तों को कुछ इस तरह से भी आजमाता है- ‘‘वह लोगों को तंगी और मुसीबत में डालता है, ताकि वे अल्लाह के आगे गिड़गिड़ाएं.’’ (सुरह 7, अल-आराफ, आयत 94)

इसलाम में रोगों को बुरी नजर का परिणाम भी माना जाता है. एक वक्त पर खुद पैगंबर हजरत मुहम्मद किसी की बुरी नजर का शिकार हो गए थे. इसलाम के अनुसार, इंसानों में होने वाली बीमारियां अल्लाह की मरजी, बुरी नजर और गुनाहों का परिणाम हैं. इन रोगों के इलाज के लिए इसलाम में कई दुआओं को ईजाद किया गया है. जैसे कि यह दुआ जिसे पढ़ कर हजरत मुहम्मद लोगों को चुटकियों में ठीक किया करते थे-

‘‘ऐ तकलीफ को दूर करने वाले अल्लाह, शिफा अता फरमा. तेरे सिवा कोई शिफा देने वाला नहीं. बस, तू ही शिफा देने वाला है. ऐसी शिफा अता फरमा कि बीमारी बिलकुल बाकी न रहे.’’ -बुखारी: 5742 और 5682

कुरान और हदीस में इस तरह की कई दुआएं बताई गई हैं जिन के जरिए बड़ीबड़ी बीमारियों को भी मात दी जा सकती है. हदीसों के अनुसार, हजरत मुहम्मद ने कई लोगों को अपनी इन्हीं दुआओं से ठीक किया. हजरत मुहम्मद ने एक बार एक बीमार व्यक्ति के लिए दुआ की. वह तुरंत ठीक हो गया.

सहीह बुखारी की हदीस नंबर 7-71-590 के अनुसार, ‘‘मदीने के कुछ लोग बीमार पड़े तो पैगंबर मुहम्मद ने उन्हें ऊंटनी का मूत्र पीने का आदेश दिया. इस से वे स्वस्थ हो गए.’’

गाय का मूत्र हो या ऊंटनी का मूत्र, यह पानी, यूरिया, अमोनिया, क्रिएटिनिन और आंतों के अपशिष्ट तरल पदार्थ ही होता है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्ल्यूएचओ ने गाय या ऊंटनी के मूत्र में रोगों के ठीक होने के किसी भी दावे को स्वीकार नहीं किया है. ये पूरी तरह अवैज्ञानिक बातें हैं. जानवर के मूत्र में बैक्टीरिया और विषैले तत्त्व होते हैं जो इंसान के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं. यदि कोई व्यक्ति इसे पीता है तो उसे संक्रमण, यूरिनरी ट्रैक्ट संक्रमण (यूटीआई) और कई तरह की बैक्टीरियल बीमारियां हो सकती हैं.

हजरत मुहम्मद ने कई रोगियों को ऊंटनी का मूत्र, शहद और कलौंजी से ठीक किया. कई बीमार लोगों को दुआओं से ठीक किया. लेकिन जब खुद बीमार पड़े तो इन में से कुछ काम न आया और बीमारी की हालत में ही मर गए.

कुछ इतिहासकारों का मानना है कि हजरत मुहम्मद की मृत्यु जहर के कारण हुई थी जो खैबर की जंग के बाद उन्हें एक यहूदी महिला द्वारा दिया गया था. सहीह बुखारी किताब, 47, हदीस 786 और सहीह मुसलिम, किताब 26, हदीस 5430 के अनुसार, हजरत मुहम्मद ने कहा, ‘मुझ पर जहर का असर हो गया है, जो मुझे खैबर में दिया गया था.’

पिछले 1400 वर्षों से आम मुसलमानों के पास चिकित्सा पद्धति के नाम पर दुआएं और इसलामिक टोटके ही चलते रहे. अमीर मुसलमान इन टोटकों के बजाय यूनानी मैडिसिन का इस्तेमाल करते थे लेकिन गरीब मुसलमानों को दुआओं से काम चलाना पड़ता था. इसलाम के अनुसार, जिंदगी और मौत ऊपर वाले के हाथ में है, सब की मौत की तारीख तय है. इस मानसिकता के कारण ही चिकित्सा के क्षेत्र में मुसलमानों का कोई विशेष योगदान नहीं रहा.

बीमारियों को अल्लाह की आजमाइश सम?ाने की यह मानसिकता आज भी मुसलमानों में कायम है. इस मानसिकता की वजह से ही मुसलमान खानपान और रहनसहन की अपनी कुछ बुरी आदतों को बदल नहीं पाते. जब वे बीमार पड़ते हैं तो सरकारी अस्पतालों में धक्के खाते हैं. यही वजह है कि देश की जनसंख्या में मुसलमानों का हिस्सा 14 प्रतिशत है लेकिन सरकारी अस्पतालों में मुसलिम मरीजों की भागीदारी 40 प्रतिशत से ज्यादा है.

पुराने जमाने में हौस्पिटल नहीं होते थे. तब 2 तरह के इलाज चलन में थे. बड़े लोगों के लिए पर्सनल वैद्य होते थे तो आम आदमी का इलाज घरेलू टोटकों से होता था. बड़ी से बड़ी बीमारी में भी लोग इन्हीं 2 तरीकों से इलाज करवाते थे और ज्यादातर मरीज मर जाते थे.

आज भी देश में ऐसे बहुत से मंदिर और मजार हैं जहां शुगर, ब्लडप्रैशर, टीबी और पीलिया जैसे रोगों के उपचार के नाम पर पुराने टोटकों पर आधारित दवाएं दी जाती हैं और इन टोटकों की खातिर लंबी कतारें लगती हैं. इसे देख कर अंदाजा हो जाता है कि पुराने समय में आम आदमी का इलाज पूरी तरह भगवान भरोसे ही था.

हर गांव में आज भी बड़ी से बड़ी बीमारी के नुसखे बताने वाले मिल जाएंगे. शुगर है तो पपीते के पत्तों को उबाल कर खा लो. डेंगू हो गया है तो बकरी का कच्चा दूध पी लो. इन्फैक्शन है तो नीम के पत्तों को पीस कर चबा लो. हैरानी की बात है कि आज भी इस तरह के तमाम टोटकों को आजमाया जाता है.

एक आम धारणा यह भी है कि पुराने समय में लोग ज्यादा लंबी उम्र जीते थे. यह धारणा धर्मों की कहानियों से आई है जोकि बिलकुल गलत है. सच तो यह है कि मैडिकल साइंस की उन्नति और आम लोगों तक इस की पहुंच के साथ ही लोगों की औसत आयु में बढ़ोतरी हुई है.

प्रथम मुगल बादशाह बाबर बीमार पड़ा तो देशविदेश के वैद्यों व हकीमों ने उस का इलाज किया. लेकिन बाबर के स्वास्थ्य में कोई सुधार नहीं हुआ. आखिरकार, वह 1530 में 48 वर्ष की उम्र में मर गया. जरा सोचिए कि एक बादशाह की ऐसी स्थिति थी जिस के इलाज के लिए देशविदेश के वैद्य और हकीम लगे थे, फिर भी वह ठीक न हुआ और बीमारी की हालत में मात्र 48 वर्ष की आयु में ही मर गया तो उस वक्त की आम जनता का क्या हाल रहा होगा.

पुराने जमाने के इलीट वर्ग को तमाम सुखसुविधाएं हासिल हुआ करती थीं, इस के बावजूद उन की आयु आज के आम आदमी की औसत आयु से भी कम होती थी. वर्ष 1947 तक भारत में आम आदमी की औसतन आयु 32 वर्ष से ज्यादा नहीं थी. भारतीय लोग औसतन सिर्फ 32 साल तक ही जी पाते थे. गरीबी, अनाज की कमी और स्वास्थ्य व्यवस्थाओं के बदतर हालात इस के मुख्य कारण थे.

वर्ल्ड बैंक के अनुसार, आज 2025 में भारत की औसत आयु 70 साल हो चुकी है. 10 साल पहले तक भारतीयों की औसतन उम्र 67 साल 5 महीने थी. देश में 10 साल में औसत आयु 2 साल तक बढ़ी है तो इस का प्रमुख कारण है मैडिकल साइंस, बाकी बातें बाद में हैं. देश में गरीबी तो आज भी है लेकिन अब गरीब आदमी पहले की तरह देसी टोटकों पर निर्भर नहीं है. गरीब हो या अमीर, हर बीमारी का वैज्ञानिक पद्धति से इलाज हो रहा है.

स्वास्थ्य के पैमाने पर भारत की स्थिति

भारत में स्वास्थ्य पर जीडीपी का खर्च वर्ष 2023 में 2.1 फीसदी और वित्त वर्ष 2022 में 2.2 फीसदी था. इस तरह भारत स्वास्थ्य सेवा पर सब से कम खर्च करने वाले देशों में से एक है. प्रति व्यक्ति कुल स्वास्थ्य व्यय के हिसाब से भारत 77वें स्थान पर है.

इस खर्च में आजकल आयुर्वेदिक, योग, ध्यान आदि सेवाओं को दिया जाने वाला पैसा भी शामिल है. गोवा में एक विशाल आयुर्वेदिक संस्थान बनाया गया है. देखते हैं कि कौन सा बड़ा नेता दिल्ली के अस्पतालों में न जा कर गोवा एयरपोर्ट के निकट इस संस्थान में जाता है जिस का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया था.

लोकसभा में एक सवाल के जवाब में स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से नैशनल मैडिकल कमीशन की रिपोर्ट पेश की गई. उस में बताया गया है कि भारत में जून 2022 तक स्टेट मैडिकल काउंसिल और नैशनल मैडिकल कमीशन में 13,08,009 एलोपैथिक डाक्टर रजिस्टर्ड हैं. इस का मतलब यह हुआ कि भारत के 1 अरब, 30 करोड़ लोगों के लिए देश में 13 लाख पंजीकृत डाक्टर हैं. इस हिसाब से भारत में प्रत्येक 10,000 नागरिकों पर मात्र 1 डाक्टर मौजूद है. यही कारण है कि भारत में ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता में बड़ा अंतर दिखाई देता है.

स्वास्थ्य के क्षेत्र में बढ़ते निजीकरण से भी आम आदमी को परेशानियां ?ोलनी पड़ रही हैं. सरकार के अनुसार, 80 करोड़ लोग ऐसी स्थिति में हैं जिन्हें 5 किलो मुफ्त अनाज पर गुजारा करना पड़ता है. ऐसे में इस 80 करोड़ आबादी के लिए निजी अस्पतालों में महंगा इलाज करवाने की बात तो सोचना भी मुश्किल है. आम आदमी छोटीमोटी बीमारियों से तो जैसेतैसे जूझ लेता है लेकिन कैंसर जैसी बड़ी बीमारियों में वह पूरी तरह बरबाद हो जाता है.

नैशनल कैंसर रजिस्ट्री प्रोग्राम की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में हर साल 13 लाख से ज्यादा लोग कैंसर जैसी गंभीर बीमारी का शिकार होते हैं. कैंसर के कई कारण होते हैं. प्रदूषणयुक्त वातावरण, जीवनशैली में साफसफाई की कमी, तंबाकू और शराब का सेवन इत्यादि. भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) का अनुमान है कि अगले 5 सालों में भारत में कैंसर के मामलों में 12 प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है. स्तन कैंसर, गर्भाशय ग्रीवा कैंसर और मुंह का कैंसर आदि भारत में कैंसर के सब से आम रूप हैं.

भारत में पुरुषों में होने वाले सभी कैंसरों का लगभग 40 फीसदी और महिलाओं में लगभग 17 फीसदी कैंसरों का कारण तंबाकू होता है. ऐसे में यदि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार न किया गया तो स्थिति भयावह हो सकती है और इस भयावह स्थिति का खमियाजा आम आदमी को ही भुगतना पड़ेगा.

आगे का अंश बौक्स के बाद 

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स्वास्थ्य के मामले में सब से आगे ये देश

स्वास्थ्य के मामले में दुनिया हम से बहुत आगे है. हमारे यहां की सरकारें आम आदमी को मंदिरमसजिद की राजनीति में उलझ कर बुनियादी मुद्दों से भटकाने का प्रयास करती हैं. यही कारण है कि स्वास्थ्य के मामले में भारत टौप 20 में भी शामिल नहीं है. दुनिया में अपने नागरिकों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं देने वाले टौप 10 देश कौन से हैं, जानते हैं यहां.

स्पेन : स्पेन दुनिया का सब से स्वस्थ देश है. स्पेन की सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा प्रणाली और स्वस्थ जीवनशैली स्पेन को स्वास्थ्य की सूची में नंबर वन पर देश बनाती है. यहां प्रति 1,000 व्यक्ति पर 4 डाक्टर हैं. यहां लोग औसतन 82 वर्ष तक जीते हैं.

इटली : यहां प्रति 1,000 व्यक्तिपर 8 डाक्टर हैं. बेहतर स्वास्थ्य व्यवस्था की बदौलत ही इटली के लोगों की औसत आयु 82 साल है.

आइसलैंड : आइसलैंड का स्वास्थ्य सेवा व्यय दुनिया में सब से अधिक है. आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी) के अनुसार, आइसलैंड अपने सकल घरेलू उत्पाद का 8.6 फीसदी स्वास्थ्य सेवा पर खर्च करता है जो ओईसीडी के औसत से अधिक है. यहां नागरिकों की औसत आयु 83 साल है.

जापान : जापान सरकार अपने नागरिकों के स्वास्थ्य पर जीडीपी का 10.74 फीसदी खर्च करती है. नतीजतन, जापान के लोगों की औसत आयु दुनिया में सब से ज्यादा, 84 वर्ष, है.

स्वीडन : स्वीडन दुनिया का 5वां सब से स्वस्थ देश है. यहां नागरिकों के लिए स्वास्थ्य सेवा की गारंटी है. ओईसीडी के आंकड़ों के अनुसार, स्वीडन अपनी जीडीपी का 9.9 फीसदी स्वास्थ्य सेवा पर खर्च करता है. स्वीडिश नागरिकों की औसतन आयु 82 वर्ष है.

आस्ट्रेलिया : आस्ट्रेलिया अपनी जीडीपी का 7.1 प्रतिशत अपने नागरिकों को मुफ्त चिकित्सा देने पर खर्च करता है. आस्ट्रेलिया में प्रति 1,000 लोगों पर 3 डाक्टर हैं. आस्ट्रेलिया के लोगों की औसतन आयु 83 वर्ष है.

स्विट्जरलैंड : स्विट्जरलैंड में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा प्रणाली है जिस के द्वारा हर स्विस नागरिक को, चाहे उस की आर्थिक स्थिति कुछ भी हो, बुनियादी स्वास्थ्य सेवाएं हासिल हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, स्विट्जरलैंड में प्रति 1,000 व्यक्तियों पर 4.3 डाक्टर हैं. वहां औसतन आयु 83 वर्ष है.

नौर्वे : नौर्वे में प्रति 1,000 लोगों पर 4.9 डाक्टर और 18.3 नर्स होते हैं. नौरवेनियन लोगों की औसतन आयु 83 वर्ष है.

सिंगापुर : सिंगापुर में तपेदिक और एचआईवी/एड्स जैसी बीमारियां दुनिया में सब से कम हैं. सिंगापुर में प्रति 1,000 लोगों पर 6 डाक्टर हैं और औसत आयु 83 वर्ष है.

कनाडा : कनाडा के वासियों की औसत जीवन प्रत्याशा 82 वर्ष है. टीकाकरण और कैंसर जांच के मामले में कनाडा दुनिया में सब से आगे है. कनाडा में शिशु मृत्युदर दुनिया में सब से कम है.

सोर्स- ‘इंस्टिट्यूट औफ हैल्थ मैट्रिक्स एंड इवैल्युएशन’ व ‘ब्लूमबर्ग स्वास्थ्य सूचकांक सर्वे’

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आयुष्मान भारत योजना का सच

आयुष्मान भारत योजना को सितंबर 2018 में लौंच किया गया था. यह देश की सार्वजनिक स्वास्थ्य बीमा योजना है जिस का उद्देश्य देश की गरीब जनता को प्रति वर्ष 5 लाख रुपए तक के स्वास्थ्य लाभ की गारंटी प्रदान करना है. इस में कोई दोराय नहीं है कि इस योजना के लागू होने से कम आय वर्ग वाले लोगों को फायदा हुआ है लेकिन 140 करोड़ आबादी वाले इस देश के लिए यह योजना पर्याप्त नहीं है.

2018 में डब्ल्यूएचओ की एक रिपोर्ट में बताया गया कि इलाज पर होने वाले खर्च के कारण हर साल 6 करोड़ से अधिक भारतीय गरीबी में चले जाते हैं. आयुष्मान के लागू होने के बाद निसंदेह इन आंकड़ों में बदलाव आया है लेकिन देश की स्वास्थ्य व्यवस्था में सुधार किए बिना इस तरह की योजनाओं से जनता की समस्याओं को दूर करना नामुमकिन है. आज भी सरकारी अस्पतालों में लंबी लाइनें लगती हैं. मरीज को समय पर बैड नहीं मिलता. मामूली इलाज के लिए भी लोग धक्के खाते हैं.

ओमप्रकाश दिल्ली में काम करता था. एक दिन अचानक तबीयत खराब हुई तो वह नजदीक के एक सरकारी अस्पताल पहुंचा. जांच में डेंगू के लक्षण पाए गए. सरकारी अस्पताल में इमरजैंसी वार्ड में एडमिट तो कर लिया गया लेकिन 6 घंटे के ट्रीटमैंट के बाद ही बैड उपलब्ध न होने की बात कह कर ओमप्रकाश को डिस्चार्ज कर दिया गया. सफदरजंग हौस्पिटल पहुंचा तो वहां भी यही हाल था.

ओमप्रकाश के पास आयुष्मान कार्ड था और तबीयत भी बिगड़ती जा रही थी, इसलिए दोस्तों ने उसे प्राइवेट हौस्पिटल में एडमिट करवा दिया. हौस्पिटल में एडमिट कराए जाने के बाद पता चला कि ओमप्रकाश का आयुष्मान कार्ड आधार से लिंक नहीं था. एक सप्ताह इलाज के बाद हौस्पिटल ने ओमप्रकाश को सवा लाख रुपए का बिल थमा दिया. बिहार से परिजनों ने आ कर जैसेतैसे हौस्पिटल का बिल चुकता किया. इस घटना से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि आम आदमी के लिए सरकारी अस्पताल कितने जरूरी हैं.

आयुष्मान भारत योजना के तहत उन बीमारियों को निजी अस्पतालों की लिस्ट से हटा दिया गया है जिन का इलाज सरकारी अस्पतालों में उपलब्ध है. इस का सीधा असर ग्रामीण क्षेत्र के मरीजों पर पड़ रहा है. उन इलाकों के सरकारी अस्पतालों में डाक्टर व संसाधनों की भारी कमी है. ऐसे में इस तरह की बीमारियों का उपचार वहां के जिला, सामुदायिक व प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में होना मुश्किल है. मरीजों के पास अब बड़े शहरों के सरकारी अस्पतालों के अलावा सिर्फ निजी अस्पताल में अधिक फीस दे कर उपचार करने का ही विकल्प बचा है.

कई राज्यों में अपैंडिक्सक, मलेरिया, हर्निया, पाइल्स, हाइड्रोसिल, पुरुष नसबंदी, डिसैंट्री, एचआईवी विद कौंप्लिकेशन, बच्चेदानी औपरेशन, हाथपांव काटने की सर्जरी, मोतियाबिंद, पट्टा चढ़ाना, गांठ संबंधित बीमारी, एथलीट फुट, रेनल कोलिक, यूटीआई, आंतों का बुखार और गैंगरीन जैसी बीमारियों के इलाज के लिए आयुष्मान कार्ड का कोई फायदा नहीं है क्योंकि इन बीमारियों को निजी अस्पतालों की लिस्ट से हटा दिया गया है. इन बीमारियों के इलाज के लिए आम जनता को सरकारी अस्पतालों की लाइनों में ही लगना होगा.

सरकारी अस्पतालों में गंभीर बीमारियों के उपचार की बेहतर व्यवस्था न होने की वजह से ज्यादातर लोग आयुष्मान कार्ड ले कर प्राइवेट हौस्पिटल का रुख करते हैं. वहीं, पैकेज से कुछ गंभीर बीमारियों को हटा देने की वजह से मरीजों को दिक्कत का सामना करना पड़ता है.

सर्दी के दिनों में पुष्पा की 6 साल की बेटी पिंकी गली में बच्चों के साथ खेल रही थी. गली में ही पड़ोस के किसी व्यक्ति ने आग तापने के लिए लकडि़यां जला रखी थीं. खेलने के दौरान पुष्पा की 6 साल की बेटी का चेहरा आग से झुलस गया. आननफानन उसे सरकारी हौस्पिटल के इमरजैंसी विभाग में एडमिट करवाया गया जहां 3 दिनों के इलाज के बाद उसे अस्पताल से छुट्टी मिल गई लेकिन चेहरे पर जलने के निशान बाकी रह गए. बुलंदशहर की रहने वाली पुष्पा अपनी बेटी की प्लास्टिक सर्जरी करवाने के लिए उसे बुलंदशहर के प्राइवेट अस्पताल ले गई तो मालूम चला कि आयुष्मान कार्ड में प्लास्टिक सर्जरी कवर नहीं होती. मजबूरन पुष्पा को अपनी बेटी के चेहरे को ठीक करवाने के लिए अपने गहने बेचने पड़े.

सरकार की दूसरी योजनाओं की तरह आयुष्मान भारत योजना भी भ्रष्टाचार से अछूती नहीं है. हाल के दिनों में निजी अस्पतालों द्वारा फर्जी मैडिकल बिल जमा कर के आयुष्मान भारत योजना के दुरुपयोग किए जाने के कई मामले उजागर हुए हैं. ऐसे लोगों की सर्जरी कर दी गई जिन्हें बहुत पहले छुट्टी दे दी गई थी और ऐसे अस्पतालों में डायलिसिस किया गया दिखाया गया जिन में किडनी प्रत्यारोपण की सुविधा ही नहीं है.

अकेले उत्तराखंड में ही ऐसे 697 फर्जी मामले सामने आए हैं जहां आयुष्मान योजना के तहत धोखाधड़ी के लिए अस्पतालों पर 1 करोड़ रुपए (2023 में 1.1 करोड़ रुपए) का जुर्माना लगाया गया है. भ्रष्टाचार को रोकने के सभी प्रयासों के बावजूद पीएम-जेएवाई में धोखाधड़ी और फर्जीवाड़ा देश के प्रत्येक राज्य में हो रहा है.

हौस्पिटलों में लूट

मनोज के पिता विजयकांत को हार्ट अटैक हुआ. मनोज अपने पिता को ले कर तुरंत नजदीक के हौस्पिटल पहुंच गए. जहां डाक्टर ने पेशेंट को आईसीयू में भरती कर हार्ट का औपरेशन कर दिया. औपरेशन और एक सप्ताह एडमिट रहने का बिल 2 लाख रुपए आया तो मनोज ने जैसेतैसे पैसों का इंतजाम किया और अपने पिता को ले कर घर आया.

घर पर विजयकांत को देखने जो भी रिश्तेदार आता, मनोज कहना शुरू कर देता कि प्राइवेट हौस्पिटल सिर्फ लूटते हैं. महंगी दवाएं लिखते हैं जिस से मरीज के घर वाले बरबाद हो जाते हैं और ये डाक्टर मरीजों को लूटलूट कर अमीर हो जाते हैं. मनोज की छोटी बहन रजनी मैडिकल की पढ़ाई कर रही थी और उसे मैडिकल फील्ड की नौलेज थी. एक दिन जब मनोज ने अपने चाचा के सामने यही बात दोहराई तो रजनी बोल पड़ी, ‘भैया, यह न भूलो कि अगर यह प्राइवेट हौस्पिटल न होता तो आज पापा जिंदा न होते.’

रजनी की बात सुन कर मनोज ने आंखें तरेरीं और बोला, ‘रजनी, तुम्हारी बात ठीक है कि पापा का औपरेशन हुआ और वे बच गए लेकिन इस में मेरे तो ढाईतीन लाख रुपए लग गए. क्या यह लूट नहीं है? डाक्टर ने इतनी महंगी दवाएं लिखी हैं कि मेरी सारी सैलरी इन दवाओं को खरीदने में खर्च हो रही है.’

रजनी ने कहा, ‘नहीं भैया, प्राइवेट हौस्पिटल में इलाज महंगा होने को लूट की संज्ञा देना उचित नहीं है. आप के ढाई लाख रुपए किसी ने हड़पे नहीं हैं, आप ने पापा के इलाज में ढाई लाख दे कर सिटी स्कैन, एमआरआई समेत जांच की दूसरी मशीनें, औपरेशन थिएटर की महंगी मशीनें, डाक्टर का हुनर, नर्सों की देखभाल और हौस्पिटल की अन्य फैसिलिटीज का उचित मूल्य चुकाया है. अगर आप को यह लूट लगती है तो आप सरकार से कहिए कि वह आम जनता से जो मोटा टैक्स वसूलती है उस के बदले में सरकारी अस्पतालों की व्यवस्था में सुधार करे ताकि आम आदमी को प्राइवेट हौस्पिटल न जाना पड़े.

‘सरकार हम से मोटा टैक्स वसूलती है और सरकारी अस्पताल भगवान भरोसे चलते हैं. प्राइवेट हौस्पिटल अपनी बेहतरीन सेवाओं के बदले आप से फीस लेते हैं तो यह आप को लूट लगती है लेकिन सरकार जो लूटती है उस पर आप एक शब्द नहीं बोलते. महंगी दवाओं में डाक्टरों का कमीशन होता है लेकिन आप बताइए कि इस देश में कमीशन कौन नहीं खाता. दवा कंपनियां रिसर्च पर भारी खर्च करती हैं जिस से नईनई कामयाब दवाएं बनती हैं और मार्केट की कई व्यावसायिक बाधाओं को पार कर ये दवाएं हम तक पहुंचती हैं, इसलिए महंगी हो जाती हैं.’

‘एलोपैथी एक बिजनैस है’. ‘डाक्टर लूटते हैं’. ‘एलोपैथी की दवाएं जहर होती हैं’. ‘दवा कंपनियां महंगी दवाएं बेच कर मोटा मुनाफा कमाती हैं’. आम आदमी के दिमाग में प्राइवेट हौस्पिटल के बारे में कुछ ऐसी ही धारणाएं बनी होती हैं. इन धारणाओं के पीछे बाबा रामदेव और राजीव दीक्षित जैसे लोग होते हैं जो एलोपैथी के बारे में अनापशनाप बातें लोगों के अवचेतन मन तक पहुंचाते हैं और आयुर्वेद को एलोपैथी के विकल्प के तौर पर स्थापित करने की कोशिश करते हैं. हालांकि, ऐसे लोग जब खुद मैडिकल इमरजैंसी में होते हैं तब एलोपैथी का ही सहारा लेते हैं. नीति आयोग के ताजा आंकड़ों के अनुसार, देश के 100 करोड़ लोग मात्र 8 हजार रुपए महीना पर गुजारा करते हैं.

ऐसे में घर का कोई सदस्य बीमार पड़ जाए और इमरजैंसी में प्राइवेट हौस्पिटल में इलाज करवाना पड़ जाए तो यह आम आदमी की जेब पर भारी पड़ जाता है. बजट बिगड़ जाता है. कर्ज हो जाता है. सो, आदमी को लगता है कि हौस्पिटल ने लूट लिया. निजी अस्पतालों की अपनी मजबूरियां होती हैं. खर्चे होते हैं. महंगी मशीनें, डाक्टर, नर्स समेत स्टाफ के खर्च के अलावा और भी बहुत से खर्चे होते हैं जिन की वजह से हमें सुविधाएं मिल पाती हैं. हालांकि, कुछ मामलों में निजी अस्पताल लोगों की मजबूरियों का फायदा उठा कर उन्हें लूटते भी हैं. इस में कोई दोराय नहीं है लेकिन सभी प्राइवेट हौस्पिटल ऐसे नहीं होते. कुछ करप्ट लोगों की वजह से पूरा मैडिकल सिस्टम बदनाम होता है.

हौस्पिटल ज्यादा जरूरी

आज की पूरी राजनीति मंदिरमसजिद के इर्दगिर्द घूम रही है. मंदिरमसजिद की घिनौनी राजनीति ने जनता के दिमागों को इतना बीमार कर दिया है कि लोग मंदिरमसजिद के आगे स्कूल, अस्पताल और रोजगार जैसी बुनियादी जरूरतों को भुला चुके हैं.

आम जनता को ये बुनियादी बातें तब याद आती हैं जब उन्हें खुद को जूझना पड़ता है. ग्रामीण स्तर पर सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का बेड़ा गर्क हो चुका है. कोई पूछने वाला नहीं. छोटे से गांव में बड़ेबड़े मंदिर और आलीशान मसजिद मिल जाएंगे लेकिन ढंग का हौस्पिटल ढूंढ़ना हो तो शहर की ओर रुख करना होगा. शहरों में अस्पताल के नाम पर महंगे प्राइवेट हौस्पिटल हैं जो आम आदमी के बजट में फिट नहीं बैठते. बेहतर स्वास्थ्य के लिए नए सुविधाजनक अस्पतालों को बनाने के बजाय आयुष्मान योजना के नाम पर जनता को भरमाने की कोशिश की गई है.

देश में ज्यादातर सरकारी अस्पताल कांग्रेस की सरकार के दौरान बने हैं जिन पर देश की बढ़ती आबादी को स्वास्थ्य सुविधाएं देने का बोझ पहले से कई गुना बढ़ गया है. भाजपाशासित राज्य सरकारों व केंद्र की भाजपा सरकारों के लिए स्वास्थ्य जैसी बुनियादी चीजें अहमियत नहीं रखतीं. जब गायगोबर, मंदिरमसजिद और हिंदूमुसलमान के नाम पर वोट मिल ही जाता है तब भाजपा स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार जैसे मुद्दों के फेर में क्यों पड़े. यह बात तो भारत की जनता को सोचनी होगी कि उसे अपने बच्चों को धर्म के झंडे की खातिर दंगाई, बीमार भीड़ का हिस्सा बनते देखना है या स्वस्थ भारतीय समाज का एक स्वस्थ नागरिक.

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हौस्पिटल में मंदिरमसजिद का क्या काम

दिल्ली के अपोलो हौस्पिटल के प्रांगण में मंदिर बना है तो भीतर के एक कोने में नमाज के लिए जगह बनाई गई है. दिल्ली के ही बत्रा हौस्पिटल के रिसैप्शन के सामने ही दुर्गा का मंदिर बना है. मजीदिया हौस्पिटल के बेसमैंट में पांचों वक्त की नमाज पढ़ी जाती है. कुछ ऐसा ही हाल लगभग सभी प्राइवेट अस्पतालों का है. सरकारी अस्पतालों के किसी कोने में भी आप को कोई न कोई मंदिर नजर आ जाएगा.

मंदिर भगवान का घर होता है. मंदिर में जो मूर्तियां होती हैं वे सभी जीवित भगवानों की होती हैं क्योंकि पुरोहित मूर्ति में प्राण डाल कर उन की प्रतिष्ठा करने का दावा करता है. सवाल यह है कि इन जीवित भगवानों के होते हौस्पिटल की जरूरत ही क्यों पड़ती है? नमाज पढ़ने के लिए हौस्पिटल में मसजिद की भी क्या जरूरत है? क्या मसजिद का मौलवी और मंदिर का पुरोहित किसी साधारण बीमारी का भी इलाज नहीं कर सकता? यदि मंदिरमसजिद से इलाज हो जाता तो हौस्पिटल की क्या जरूरत और अगर हौस्पिटल से ही इलाज होना है तो हौस्पिटल में मंदिरमसजिद किसलिए?

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Pahalgam Terrorist Attack : इन के वैधव्य के 2 जिम्मेदार – पहले आतंकी, दूसरे सरकार

Pahalgam Terrorist Attack : पहलगाम हमले के बाद सरकार ने इस की गंभीरता तभी खत्म कर दी जब इस पूरे मामले को धार्मिक रंग दे कर भटकाने की कोशिश की गई. यहां तक कि पीड़ितों की बात तक अनसुनी कर दी गई. परिणामतया, आम लोगों में एक अविश्वास और निराशा पैदा हो गई है.

उन में से किसी ने भी पति की अर्थी पर चूड़ियां नहीं फोड़ीं, मांग में भरा सिंदूर नहीं पोंछा और बिलखते हुए अपने कर्मों, भाग्य या भगवान को नहीं कोसा. उन्होंने सीधेसीधे अपने वैधव्य के लिए पहले आतंकी और फिर सरकार को जिम्मेदार करार दिया. उन का दुख कोई साझा नहीं कर सकता और न ही आने वाली जिंदगी की दुश्वारियों से निजात दिला सकता है. एक पहाड़ सी जिंदगी उन के सामने मुंहबाए खड़ी है. पहलगाम हादसे ने उन से जो छीना है उस की भरपाई तो अब भगवान भी कहीं हो तो वह भी नहीं कर सकता.

अपनी आंखों के सामने अपना ही सुहाग उजड़ने का दर्द कोई कलम बयां नहीं कर सकता. भारतीय समाज में विधवा होने का दुख एक विधवा ही महसूस कर सकती है. बिलाशक यह कोई मामूली हादसा नहीं था, इसलिए इस पर वाकई देश व्यथित और आक्रोशित हुआ. पर कम ही लोगों ने इस बात पर गौर करने की जरूरत महसूस की कि उन के विधवा होने के पीछे कोई आकस्मिक या गैरआकस्मिक वजह भी नहीं थी. उन की तात्कालिक प्रतिक्रिया पर गौर करें तो स्पष्ट हो जाता है कि अपनी सूनी हो गई मांग का जिम्मेदार और कुसूरवार भी वे आतंकियों के बाद सरकार को मानती हैं.

कैसे, आइए उन की जबानी सुनें, उन शब्दों के अर्थ समझने की कोशिश करें जो उन्होंने पति को अंतिम विदाई देने के पहले कहे और अहम बात यह कि बिना किसी डर या लिहाज के कहे. भीषण दुख की घड़ियों में उन की साफगोई एक जोरदार सैल्यूट की हकदार तो है.

पहलगाम हमले में आतंकियों की गोलियों का शिकार हुए सूरत के शैलेश कलाथिया जो परिवार सहित अपना जन्मदिन मनाने गए थे, लेकिन वहां से लौटे लाश की शक्ल में. उन की पत्नी शीतल कलाथिया के सामने जैसे ही केंद्रीय जल शक्ति मंत्री सी आर पाटिल पड़े तो शीतल बिफर पड़ीं. उन्होंने जो कहा उस का एकएक शब्द राजनीति और राजनेताओं की शोबाजी की न केवल पोल खोलता हुआ है बल्कि उस के चिथड़े उड़ाता हुआ सरकार को कठघरे में खड़ा करता हुआ भी है.
शीतल ने कहा-
“आप के पीछे कितने वीआईपी हैं, कितनी गाड़ियां हैं, नेता जिस हैलिकौप्टर से चलते हैं वह टैक्स देने वालों के दम पर ही चलता है. आप की जिंदगी जिंदगी है, टैक्स देने वालों की जिंदगी जिंदगी नहीं? आप इतना टैक्स ले रहे हैं तो सुविधाएं क्यों नहीं देते?”

सी आर पाटिल, “हम न्याय दिलाएंगे.”
शीतल, “बिलकुल नहीं, हम सरकार और सेना पर भरोसा कर पहलगाम गए थे. अब भरोसा नहीं है. कश्मीर में दिक्कत नहीं, दिक्कत तो सरकार की सुरक्षा व्यवस्था में है.”

तभी मंत्रीजी के आजूबाजू खड़े कुछ चंगूमंगू टाइप के नेताओं ने शीतल को रोकने की कोशिश की तो वे और बिफर कर बोलीं, “नहीं सर, आप को सुनना पड़ेगा. जब सब हो जाता है तब सरकार आती है, फोटो खिंचवा कर चली जाती है. मुझे बस न्याय चाहिए, सिर्फ अपने पति के लिए नहीं बल्कि उन सभी लोगों के लिए न्याय चाहिए जिन्होंने वहां अपनी जानें खोईं.”

इस दौरान शैलेष और शीतल के नन्हें बच्चे बेटी नीति और बेटा नक्ष पथराई आंखों से पिता की चिता और हैरानी से मां का यह रौद्र रूप देखते रहे. लेकिन बात कुछ और भी थी.

शीतल कुछ भी गलत नहीं कह रही थीं क्योंकि उन के पति की अर्थी को मंत्रियों के आगमन के लिए 15 मिनट तक रोक कर रखा गया था. हुआ यों था कि शैलेष के परिजन जब उन की अर्थी ले जाने लगे थे तभी खबर आई कि केंद्रीय मंत्री सी आर पाटिल आ रहे हैं. उन के साथ गुजरात के गृह राज्यमंत्री हर्ष संघवी भी हैं. इन मंत्रियों के प्रोटोकालिक इंतजार में अर्थी कोई 15 मिनट तक सड़क पर रखी रही. उस के आसपास लोग, जो शैलेष को अंतिम विदाई देने उन की अंत्येष्टि में शामिल होने आए थे, खड़े हो कर मंत्री का इंतजार करते रहे.

शीतल की मंशा बेहद साफ थी कि हम से तरहतरह से तगड़ा टैक्स वसूलने वाली सरकार सुरक्षा नहीं दे सकती तो वह सरकार किस काम की, जिस के मंत्रियों, सांसदों, विधायकों की सुरक्षा और लावलश्कर में ही जनता का तगड़ा पैसा खर्च होता है. तिस पर मजाक यह कि ये यहां भी नेतागीरी छांटने आ गए.

पति की मौत पर राजनीति उन्हें रास नहीं आई और न ही वह वीआईपी कल्चर भाया जिस के कि हमारे नेता आदी हो गए हैं. पाटिल और संघवी को उम्मीद यह रही होगी कि उन के पहुंचते ही शैलेष के परिजन उन के सामने इंसाफ के लिए गिड़गिड़ाएंगे, गले से लग कर रोएंगे, मानो आसमान से कोई देवता उतर आए हों और मृतक की पत्नी वह तो बेचारी खुद के समय को कोसते दहाड़ें मारमार कर रो रही होगी.

उस के आंसू अगर सूख गए होंगे तो सुबक रही होगी, घर के किसी कोने में अचेत पड़ी होगी. लेकिन हुआ एकदम उलटा तो दोनों सकपका गए और शीतल की दिलेरी को प्रणाम कर चुपचाप खिसक लिए.

एक शीतल का ही भरोसा सरकार पर से नहीं उठा है बल्कि उन सभी पत्नियों का उठा है जिन के पति पहलगाम हमले में बेवक्त, बेमौत मारे गए. सरकार पर से भरोसा मृतकों के परिजनों का भी उठा है और उन करोड़ों लोगों का भी उठा है जिन्होंने यह भ्रम पाल रखा था कि नरेंद्र मोदी सिर्फ प्रधानमंत्री ही नहीं बल्कि एक खास उद्देश्य से ईश्वर द्वारा भेजे गए दूत या अवतार हैं, जिन का जन्म ही राम और कृष्ण की तरह दुख हरने के लिए हुआ है. वे विधर्मियों, नास्तिकों और हिंदू धर्म के गद्दारों को सबक सिखाएंगे और एक दिन भारत हिंदू राष्ट्र हो कर विश्वगुरु बनेगा.

खुद नरेंद्र मोदी भी अपना और भक्तों का यह भ्रम सलामत रखने के लिए ऊटपटांग और बेसरपैर की बातें अकसर करते रहते हैं. मसलन, लोकसभा चुनाव के दौरान काशी में नाव में दिए गए एक इंटरव्यू में उन्होंने खुद को नौनबायोलौजिकल बताया था. यह निश्चित ही मानव कल्पना से परे बात है लेकिन धर्मग्रंथों में इफरात से पाई जाती है.

ऐसी और भी कई बातें और वक्तव्य हैं लेकिन पहलगाम हादसे से ताल्लुक रखती एक यह भी है कि मृतकों की पत्नियों और परिजनों ने उन की सरकार को फेलियर करार दिया. जयपुर के 33 वर्षीय नीरज उधवानी की अर्थी उठने से पहले ही उन का घर पुलिस छावनी में तबदील हो गया था. क्योंकि वहां भी शोक प्रकट करने के लिए एक केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत की ड्यूटी लगी थी. उन का साथ देने का जिम्मा मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा को सौंपा गया था.

यहां भी कमोबेश सूरत का ही रीप्ले हुआ. नीरज की दुखी पत्नी आयुषी खामोशी से पति की चिता पर हाथ जोड़े खड़ी रहीं. तय है वे नीरज को आखिरी बार जी भर कर निहार लेना चाहती थीं. अंत्येष्टि में शामिल होने आए लोग नेताओं के मय फौजफाटे के आने पर सब्र किए रहे लेकिन नीरज के एक परिजन खुद की भड़ास रोक नहीं पाए.

लिहाजा, उन्होंने सीधे इन नेताओं को आड़े हाथों लेते हुए कहा, “यह आप की सरकार का फेलियर है, यहां सिक्योरटी लगाने से क्या होगा?” यह बहुत कम शब्दों में कही गई लाख नहीं बल्कि करोड़ों टके की बात थी. एक तरह से शीतल की बात का एक्सटैंशन था. यहां भी वही हुआ, दोनों मंत्री अपना और अपनी सरकार की नाकामी का मखौल उड़ते देख मौका पा कर खिसक लिए. उन्हें निश्चित ही समझ आ गया होगा कि यहां नेतागीरी नहीं चलने वाली. इन्हें बनावटी नहीं बल्कि वास्तविक सहानुभति चाहिए जिस का इन के पास टोटा रहता है.

देखा जाए तो मोदी सरकार के ये मंत्री और मुख्यमंत्री पहलगाम हमले में हुई मौतों का फीडबेक लेने गए थे जो सौ फीसदी नैगेटिव था. इसलिए दूसरे दिन ही सरकार ने सार्वजानिक तौर पर मान लिया कि चूक हुई. लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का आदतन बड़बोलापन एकता कपूर के धारावाहिक सरीखा जारी रहा.

पर इस बार भक्तों की भी हिम्मत नहीं पड़ी कि वे इसे रामानंद सागर के सीरियल ‘रामायण’ के संवादों की तरह प्रचारित और वायरल करें. क्योंकि झूठ की भी अपनी हद तो होती है, यह और बात है कि मोदीजी के बोलने की नहीं होती जो उन्होंने बिहार के मधुबनी के झंझारपुरी की एक जनसभा में दहाड़ने की असफल कोशिश करते हुए कहा ‘आतंकियों को मिट्टी में मिलाने का समय आ गया है. हम उन आतंकियों को धरती के अंतिम छोर तक खदेड़ेंगे.’

यह कोई हैरत की बात नहीं थी बल्कि हमेशा की तरह लकीर पीटने वाली बात थी. इस सभा के पहले और बाद में भी वे कादरखाननुमा डायलौग अलगअलग तरह से दोहरा कर जाने क्या साबित करने की कोशिश करते रहे लेकिन झंझारपुर की सभा में वे इतने असहज और असामान्य हो गए थे कि एकाएक ही धड़ल्ले से इंग्लिश भी बोलने लगे जो आमतौर पर हिंदीभाषी एक खास मौके पर बोलते हैं. मकसद अपना आत्मविश्वास बढ़ाना रहता है.

रही बात दुनियाभर में आतंक के खिलाफ भारत के तथाकथित कड़े रुख का संदेश पहुंचाने की, तो अनुवाद मिनटों में हो जाता है.

आतंक के खिलाफ प्रधानमंत्री की हवाहवाई बातें सुन लोग अब उबासियां लेने लगे हैं. अब से कोई 6 साल पहले उन्होंने हिंदी फिल्मों सरीखा एक नया डायलौग ईजाद किया था कि घर में घुसघुस कर मारेंगे. भक्तों में यह डायलौग लोकप्रिय हुआ तो उन्होंने इसे तकियाकलाम ही बना लिया.

6 साल के अरसे में उन्होंने इसे 50 बार से भी ज्यादा देशभर की सभाओं में दोहराया पर 22 अप्रैल को इस की कलई भी खुल गई जब आतंकी पहलगाम के स्विट्जरलेंड कहे जाने वाले खुबसूरत मैदान में घुस कर 27 लोगों को मार गए.

इस हमले से सरकार ने कोई सबक सीखा हो, लगता नहीं. वह बारबार लोगों को उलझाए रखने, उन का ध्यान बंटाने को झूठ पर झूठ बोलती रही. इन में से पहला तो यही था कि आतंकी पाकिस्तानी थे. यह सच है कि उन के पाकिस्तानी होने की संभावनाएं ज्यादा हैं लेकिन यह साबित नहीं हो पाया था. सरकार कश्मीर में आतंकियों के मकान ढहाती रही.

दूसरा सफेद झूठ सिंधु नदी का जल रोक देने का था लेकिन यह भी ज्यादा टिका नहीं कि पाकिस्तान की तरफ बहने वाला पानी सरकार कैसे रोकेगी. यह सवाल सब से पहले मोदी और योगी की बखिया उधेड़ते रहने के चलते भक्तों द्वारा देशद्रोही के खिताब से नवाज दिए गए शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद ने उठाया था.

इस पर देशभर में शकोसुबह की बातें होने लगीं पर जल्द ही बीबीसी ने एक वीडियो जारी करते सच सामने ला दिया. इस से सरकार की किरकिरी की तादाद में और वृद्धि हो गई.

बीबीसी ने साउथ एशिया नैटवर्क औन डैम, रिवर्स और पीपल्स के रीजनल वाटर रिसोर्स एक्सपर्ट हिमांशु ठक्कर के हवाले से यह हकीकत उजागर की कि भारत में जो बुनियादी ढांचा है वो ज्यादातर नदी पर चलने वाले हाइड्रोपावर प्लांट्स का है जिन्हें बड़ी स्टोरेज की जरूरत नहीं है. ठक्कर और दूसरे विशेषज्ञों के मुताबिक भारत को सिंधु नदी का जल रोकने के लिए कई नहरें और बांध बनाने होंगे जिस में सालोंसाल लग जाएंगे और भारीभरकम पैसा खर्च होगा.

तो फिर झूठ क्यों? मोदी ऐसे कई नामुमकिन कामों को महज बातों के जरिए मुमकिन बनाते रहे हैं और भक्त उन पर झूमते भजन सा गाते रहते हैं कि मोदी है तो मुमकिन है. पहलगाम हमले के बाद भी हिंदूमुसलिम किया जाना बताता है कि इस की गंभीरता पर पानी फिर गया है.

असल मुद्दा और समस्या सरकार की सुरक्षा संबंधी लापरवाही है जिस के चलते कोई 2 दर्जन महिलाएं विधवा हो गईं. इन का गुनाह इतना भर था कि सरकार के दावों और नरेंद्र मोदी की बातों पर भरोसा कर वे परिवार पति और बच्चों सहित कश्मीर गई थीं. इन के नुकसान की भरपाई अगर मुमकिन हो तो सरकार को जरूर यह बताना चाहिए कि वह कैसे होगी. क्या समाज और धर्म अपना नजरिया बदल लेंगे? विधवाओं को मनहूस कहते ताने मारने का रिवाज खत्म हो जाएगा? क्या विधवाओं को सम्मान देने और दिलाने की पहल सरकार करेगी?

ऐसा कुछ नहीं होने वाला क्योंकि विधवाओं की दुर्गति का जिम्मेदार धर्म और उस के स्त्रीविरोधी सिद्धांत व सूत्र हैं जिन पर किसी का जोर नहीं चलता. ऐसे हमलों में कोई महिला दोबारा फिर कभी विधवा न हो, इस के लिए पहलगाम हमले में अपने पति को खो चुकी नेहा मिरानिया सीधे सरकार पर न बरसते, उस की लापरवाही उजागर करते कहती हैं कि सुरक्षा होती तो ऐसा न होता, दिनेश हमारे साथ होते. सरकार को पर्यटकों की हिफाजत के पुख्ता इंतजाम करने चाहिए.

नेहा का दुख भी इस हमले में विधवा हुई दूसरी महिलाओं सरीखा ही है जो अपने स्टील कारोबारी पति दिनेश मिरानिया के साथ शादी की सालगिरह मनाने कश्मीर गई थीं. अब उन की जिंदगी अभिशप्त हो गई है. आतंकियों के बाद अब उन्हें समाज का सामना करना है. कर पाएंगी या नहीं, यह उन्हें खुद साबित करना पड़ेगा. पर सरकार को इस से कोई सरोकार नहीं. उस की चिंता नरेंद्र मोदी की ध्वस्त होती चमत्कारिक छवि को रीस्टोर करने की है जो पहलगाम हमले के बाद तो मुमकिन नहीं दिख रही.

Hindi Kahani : वह बुरी लड़की – बहू को देख कमलकांत के मन में था कैसा तूफान

Hindi Kahani : ‘‘क्या सोच रहे हैं? बहू की मुंह दिखाई कीजिए न. कब से बेचारी आंखें बंद किए बैठी है.’’

कमलकांत हाथ में कंगन का जोड़ा थामे संज्ञाशून्य खड़े रह गए. ज्यादा देर खड़े होना भी मानो मुश्किल लग रहा था, ‘‘मुझे चक्कर आ रहा है…’’ कहते हुए उन्होंने दीवार का सहारा ले लिया और तेजी से हौल से बाहर निकल आए.

अपने कमरे में आ कर वे धम्म से कुरसी पर बैठ गए. ऐसा लग रहा था जैसे वह मीलों दौड़ कर आए हों, पीछेपीछे नंदा भी दौड़ी आई, ‘‘क्या हो गया है आप को?’’

‘‘कुछ नहीं, चक्कर आ गया था.’’

‘‘आप आराम करें. लगता है शादी का गरिष्ठ भोजन और नींद की कमी, आप को तकलीफ दे गई.’’

‘‘मुझे अकेला ही रहने दो. किसी को यहां मत आने देना.’’

‘‘हां, हां, मैं बाहर बोल कर आती हूं,’’ वह जातेजाते बोली.

‘‘नहीं नंदा, तुम भी नहीं…’’ कमलकांत एकांत में अपने मन की व्यथा का मंथन करना चाहते थे जो स्थिति एकदम से सामने आ गई थी उसे जीवनपर्यंत कैसे निभा पाएंगे, इसी पर विचार करना चाहते थे. पत्नी को आश्चर्य हुआ कि उसे भी रुकने से मना कर रहे हैं, फिर कुछ सोच, पंखा तेज कर वह बाहर निकल गई.

धीरेधीरे घर में सन्नाटा फैल गया. नंदा 2-3 बार आ कर झांक गई थी. कमलकांत आंख बंद किए लेटे रहे. एक बार बेटा देबू भी आ कर झांक गया, लेकिन उन्हें चैन से सोता देख कर चुपचाप बाहर निकल गया. कमलकांत सो कहां रहे थे, वे तो जानबूझ कर बेटे को देख कर सोने का नाटक कर रहे थे.

सन्नाटे में उन्हें महसूस हुआ, वह गुजरती रात अपने अंदर कितना बड़ा तूफान समेटे हुए है. बेटे व बहू की यह सुहागरात एक पल में तूफान के जोर से धराशायी हो सकती है. अपने अंदर का तूफान वे दबाए रहें या बहने दें. कमलकांत की आंख के कोरों में आंसू आ कर ठहर गए.

नंदा आई, उन्हें निहार कर और सोफे पर सोता देख स्वयं भी सोफे से कुशन उठा कर सिर के नीचे लगा कालीन पर ही लुढ़क गई. देबू ने कई बार डाक्टर बुलाने के लिए कहा था, पर कमलकांत होंठ सिए बैठे रहे थे. पति के शब्दों का अक्षरश: पालन करने वाली नंदा ने भी जोर नहीं दिया. विवाह के 28 वर्षों में कभी छोटीमोटी तकरार के अलावा, कोई ऐसी चोट नहीं दी थी, जिस का घाव रिसता रहता.

कमलकांत को जब पक्का यकीन हो गया कि नंदा सो गई है तो उन्होंने आंखें खोल दीं. तब तक आंखों की कोरों पर ठहरे आंसू सूख चुके थे. वे चुपचाप उठ कर बैठ गए. कमरे में धीमा नीला प्रकाश फैला था. बाहर अंधेरा था. दूर छत की छाजन पर बिजली की झालरें अब भी सजी थीं.

रात के इस पहर यदि कोई जाग रहा होगा तो देबू, उस की पत्नी या वह स्वयं. उन्होंने बेबसी से अपने होंठों को भींच लिया. काश, उन्होंने स्वाति को पहले देख लिया होता. काश, वह जरमनी गए ही न होते. उन के बेटे के गले लगने वाली स्वाति जाने कितनों के गले लग चुकी होगी. कैसे बताएं वह देबू और नंदा से कि जिसे वह गृहस्वामिनी बना कर लाए हैं वह किंकिर बनने के योग्य भी नहीं है. वह एक गिरी हुई चरित्रहीन लड़की है. अंधकार में दूर बिजली की झिलमिल में उन्हें एक वर्ष पूर्व की घटना याद आई तो वे पीछे अतीत में लुढ़क गए.

कमलकांत का ऊन का व्यापार था. इस में काफी नाम व पैसा कमाया था उन्होंने. घर में किसी चीज की कमी नहीं थी. सभी व्यसनों से दूर कमलकांत ने जो पैसा कमाया, वह घरपरिवार पर खर्च किया. पत्नी नंदा व पुत्र देबू के बीच, उन का बहुत खुशहाल परिवार था.

एक साल पहले उन्हें व्यापार के सिलसिले में मुंबई जाना पड़ा था. वे एक अच्छे होटल में ठहरे थे. वहां चेन्नई की एक पार्टी से उन की मुलाकात होनी थी. नियत समय पर वे शाम 7 बजे होटल के कमरे में पहुंचे थे. लिफ्ट से जा कर उन्होंने होटल के कमरा नंबर 305 के दरवाजे पर ज्यों ही हाथ रखा था, फिर जोर लगाने की जरूरत नहीं पड़ी. एक झटके से दरवाजा खुला और एक लड़की तेजी से बाहर निकली. उस लड़की का पूरा चेहरा उन के सामने था.

उस लड़की की तरफ वे आकर्षित हुए. कंधे पर थैला टांगे, आकर्षक वस्त्रों में घबराई हुई सी वह युवती तेजी से बिना उन की तरफ देखे बाहर निकल गई. पहले तो उन्होंने सोचा, वापस लौट जाएं पता नहीं अंदर क्या चल रहा हो. तभी सामने मिस्टर रंगनाथन, जो चेन्नई से आए थे, दिख गए तो वापस लौटना मुश्किल हो गया.

‘आइए, कमलकांतजी, मैं आप का ही इंतजार कर रहा था. कैसे रही आप की यात्रा?’

‘जी, बहुत अच्छी, पर मिस्टर नाथन, मैं…वह लड़की…’

‘ओह, वे उस समय पैंट और शर्ट पहन रहे थे. मुसकरा कर बोले, ‘ये तो मौजमस्ती की चीजें हैं. भई कमलकांत, हम ऊपरी कमाई वाला पैसा 2 ही चीजों पर तो खर्च करते हैं, बीवी के जेवरों और ऐसी लड़कियों पर,’ रंगनाथन जोर से हंस पड़े.

कमलकांत का जी खराब हो गया. लानत है ऐसे पैसे और ऐश पर. लाखों के नुकसान की बात न होती तो शायद वे वापस लौट आते. लेकिन बातचीत के बीच वह लड़की उन के जेहन से एक सैकंड को भी न उतरी. क्या मजबूरी थी उस की? क्यों इस धंधे में लगी है? इतने अनाड़ी तो वे न थे, जानते थे, पैसे दे कर ऐसी लड़कियों का प्रबंध आराम से हो जाता है.

होटल में ठहरे उन के व्यवसायी मित्र ने जरूर उसे पैसे दे कर बुलवाया होगा. उस वक्त वे उस लड़की की आंखों का पनीलापन भी भूल गए थे. याद था, सिर्फ इतना कि वह एक बुरी लड़की है.

जालंधर लौट कर वे अपने काम में व्यस्त हो गए. कुछ माह बीत गए. तभी उन्हें 3 माह के लिए जरमनी जाना पड़ गया. जब वे जरमनी में थे, देबू का रिश्ता तभी पत्नी ने तय कर दिया था. उन के लौटने के

2 दिनों बाद की शादी की तारीख पड़ी थी. जरमनी से बहू के लिए वे कीमती उपहार भी लाए थे. आने पर नंदा ने कहा भी था, ‘यशोदा को तो तुम जानते हो?’

‘हां भई, तुम्हीं ने तो बताया था जो मुंबई में रहती है. उसी की बेटी स्वाति है न?’

‘हां,’ नंदा बोली, ‘सच पूछो तो पहले मैं बहुत डर रही थी कि पता नहीं तुम इनकार न कर दो कि एक साधारण परिवार की लड़की को…’

‘पगली,’ उस की बात काट कर कमलकांत ने कहा, ‘इतना पैसा हमारे पास है, हमें तो सिर्फ एक सुशील बहू चाहिए.’

‘यशोदा मेरी बचपन की सहेली थी. शादी के बाद पति के साथ मुंबई चली गई थी. 10 वर्ष हुए दिवाकर को गुजरे, तब से बेटी स्वाति ने ही नौकरी कर के परिवार को चलाया है. सुनो, उस का एक छोटा भाई भी है, जो इस वर्ष इंजीनियरिंग में चुन लिया गया है. मैं ने यशोदा से कह दिया है कि बेटे की पढ़ाई के खर्च की चिंता वह न करे. हम यह जिम्मेदारी प्यार से उठाना चाहते हैं. आप को बुरा तो नहीं लगा?’

‘नंदा, यह घर तुम्हारा है और फैसला भी तुम्हारा,’ वे हंस कर बोले थे.

‘पर बहू की फोटो तो देख लो.’

‘अब कितने दिन बचे हैं. इकट्ठे दुलहन के लिबास में ही बहू को देखूंगा. हां, अपना देबू तो खुश है न?’

‘एक ही तो बेटा है. उस की मरजी के खिलाफ कैसे शादी हो सकती है?’

शादी के दौरान भी वे स्वाति को ठीक से न देख पाए थे. जब भी कोई उन्हें दूल्हादुलहन के स्टेज पर उन के साथ फोटो लेने के लिए बुलाने आता, आधे रास्ते से फिर कोई खींच ले जाता. बहू की माथा ढकाई पर वह घूंघट में थी. काश, उसी समय उन्होंने फोटो देख ली होती.

चीं…चीं…के शोर पर कमलकांत वर्तमान में लौट आए. सुबह का धुंधलका फैल रहा था. लेकिन उन के घर की कालिमा धीरेधीरे और गहरा रही थी.

नाश्ते के समय भी जब वे बाहर नहीं निकले तो देबू डाक्टर बुला लाया. उस ने चैकअप के बाद कहा, ‘‘कुछ तनाव है. लगता है सोए भी नहीं हैं. यह दवा दे दीजिएगा. इन्हें नींद आनी जरूरी है.’’

घरभर परेशान था. आखिर अचानक ऐसा क्या हो गया, जो वे एकदम से बीमार पड़ गए. बहू ने आ कर उन के पांव छुए और थोड़ी देर वहां खड़ी भी रही, लेकिन वे आंखें बंद किए पड़े रहे.

‘‘बाबूजी, आप की तबीयत अब कैसी है?’’

‘‘ठीक है,’’ उन्होंने उत्तर दिया.

बहू लौट गई थी. कमलकांत का जी चाहा, इस लड़की को फौरन घर से निकाल दें. यदि यह सारी जिंदगी इसी घर में रहेगी तो भला वे कैसे जी पाएंगे? क्या उन का दम नहीं घुट जाएगा. इस घर की हर सांस, हर कोना उन्हें यह एहसास कराता रहेगा कि उन की बहू एक गिरी हुई लड़की है. इस सत्य से अनभिज्ञ नंदा और देबू, कितने खुश हैं, वे समझ रहे हैं कि स्वाति के रूप में घर में खुशियां आ गई हैं. अजीब कशमकश है जो उन्हें न तो जीने दे रही है, न मरने.

दूसरे दिन जब उन्होंने पत्नी से किसी पहाड़ी जगह चलने की बात कही तो वह हंस दी, ‘‘सठिया गए हो क्या? विवाह हुआ है बेटे का, हनीमून मनाने हम चलें. लोग क्या कहेंगे.’’

‘‘तो बेटेबहू को भेज दो.’’

‘‘उन का तो आरक्षण था, पर बहू ही तैयार नहीं हुई कि पिताजी अस्वस्थ हैं, हम अभी नहीं जाएंगे.’’

वे चिढ़ गए, शराफत व शालीनता का अच्छा नाटक कर रही है यह लड़की. जी हलका करने के लिए वे फैक्टरी चले गए. वहां सभी उन का हाल लेने के लिए आतुर थे. लेकिन इतने लोगों के बीच भी वे सहज नहीं हो पाए. चुपचाप कुरसी पर बैठे रहे. न कोई फाइल खोल कर देखी, न किसी से बात की. जिस ने जो पूछा, ‘हां हूं’ में उत्तर दे दिया.

धीरेधीरे कमलकांत शिथिल होते गए. कारोबार बेटे ने संभाल लिया था. नंदा समझ रही थी, जरमनी में पति के साथ कुछ ऐसा घटा है जिस ने इन्हें तनाव से भर दिया है.

10 माह गुजर गए. स्वाति के पांव उन दिनों भारी थे. अचानक काम के सिलसिले में मुंबई जाने की बात आई तो देबू ने जाने की तैयारी कर ली. पर कमलकांत ने उसे मना कर दिया. मुंबई के नाम से एक दबी चिनगारी फिर भड़क उठी. इतने दिनों बाद भी वह उन के मन से न निकल पाईर् थी. मन में मंथन अभी भी चालू था.

मुंबई जा कर वे एक बार स्वाति के विषय में पता करना चाहते थे. यह प्रमाणित करना होगा कि स्वाति की गुजरी जिंदगी गंदी थी. बलात्कार की शिकार या मजबूरी में इस कार्य में लगी युवती को चाहे वे एक बार अपना लेते, पर स्वेच्छा से इस कार्य में लगी युवती को वे माफ करने को तैयार न थे.

एक बार यदि प्रमाण मिल जाए तो वे बेटे का उस से तलाक दिलवा देंगे. क्यों नहीं मुंबई जा कर यह बात पता करने का विचार उन्हें पहले आया? चुपचाप शादी के अलबम से स्वाति की एक फोटो निकाल उन्होंने मुंबई जाने का विचार बना लिया.

घर में पता चला कि कमलकांत मुंबई जा रहे हैं तो स्वाति ने डरतेसहमते एक पत्र उन्हें पकड़ा दिया, ‘‘बाबूजी, मौका लगे तो घर हो आइएगा. मां आप से मिल कर बहुत खुश होंगी.’’

‘‘हूं,’’ कह कर उन्होंने पत्र ले लिया.

स्वाति के घर जाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था, लेकिन फिर भी कुछ टोह लेने की खातिर उस के घर पहुंच गए.

‘‘बहू यहां कहां काम करती थी?’’ वे शीघ्र ही मतलब की बात पर आ गए.

‘‘होराइजन होटल में, चाचाजी,’’ स्वाति के भाई ने उत्तर दिया.

‘‘भाईसाहब, हमारी इच्छा तो नहीं थी कि स्वाति होटल की नौकरी करे, पर नौकरी अच्छी थी. इज्जतदार होटल है, तनख्वाह भी ठीकठाक थी. फिर आसानी से नौकरी मिलती कहां है?’’

कमलकांत को लगा, समधिन गोलमोल जवाब दे रही हैं कि होटल में उन की बेटी का काम करना मजबूरी थी.

होटल होराइजन के स्वागतकक्ष में पहुंच कर उन्होंने स्वाति की फोटो दिखा कर पूछा, ‘‘मुझे इन मैडम से काम था. क्या आप इन से मुझे मिला सकती हैं?’’

‘‘मैं यहां नई हूं, पता करती हूं,’’ कह कर स्वागतकर्मी महिला ने एक बूढ़े वेटर को बुला कर कुछ पूछा, फिर कमलकांत की तरफ इशारा किया. वह वेटर उन के पास आया फिर साश्चर्य बोला, ‘‘आप स्वातिजी के रिश्तेदार हैं, पहले कभी तो देखा नहीं?’’

‘‘नहीं, मैं उन का रिश्तेदार नहीं, मित्र हूं. एक वर्ष पूर्व उन्होंने मुझ से कुछ सामान मंगवाया था.’’

‘‘आश्चर्य है, स्वाति बिटिया का तो कोई मित्र ही नहीं था. फिर आप से सामान मंगवाना तो बिलकुल गले नहीं उतरता.’’

कमलकांत को समझ में नहीं आया कि क्या उत्तर दें, वेटर कहता रहा, ‘‘वे यहां रूम इंचार्ज थीं. सारा स्टाफ उन की इज्जत करता था.’’

तभी कमलकांत की आंखों के सामने होटल का वह दृश्य घूम गया…जब इसी होटल में उन के चेन्नई के मित्र ठहरे थे. उन्होंने एक छोटा सा निर्णय लिया और उसी होटल में ठहर गए. जब यहां तक पहुंच ही गए हैं तो मंजिल का भी पूरा पता कर ही लें. शाम को चेन्नई फोन मिलाया. व्यापार की कुछ बातें कीं. पता चला 2 दिनों बाद ही चेन्नई की वह पार्टी मुंबई आने वाली है, तो वे भी रुक गए.

सबकुछ मानो चलचित्र सा घटित हो रहा था. कभी कमलकांत सोचते पीछे हट जाएं, बहुत बड़ा जुआ खेल रहे हैं वे. इस में करारी मात भी मिल सकती है. फिर क्या वे उसे पचा पाएंगे? पर इतने आगे बढ़ने के बाद बाजी कैसे फेंक देते.

रात में चेन्नई से आए मित्र के साथ उस के कमरे में बैठ कर इधरउधर की बातों के बीच वे मुख्य मुद्दे पर आ गए, ‘‘रंगनाथन, एक बात बता, यह लड़कियां कैसे मिलती हैं?’’

रंगनाथन ने चौंक कर उन्हें देखा, फिर हंसे, ‘‘वाह, शौक भी जताया तो इस उम्र में. भई, हम ने तो यह सब छोड़ दिया है. हां, यदि तुम चाहो तो इंतजाम हो जाएगा, पर यहां नहीं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘यह होटल इन सब चीजों के लिए नहीं है. यहां इस पर सख्त पाबंदी है.’’

‘‘क्यों झूठ बोलते हो, मैं ने अपनी आंखों से तुम्हारे कमरे से एक लड़की को निकलते देखा था.’’

रंगनाथन कुछ पल सोचता रहा… फिर अचानक चौंक कर बोला, ‘‘तुम 2 वर्ष पहले की बात तो नहीं कर रहे हो?’’

‘‘हां, हां…’’ वही, उस की बात, लपक कर कमलकांत बोले. उन की सांस तेजी से ऊपरनीचे हो रही थी. ऐसा मालूम हो रहा था, जीवन के किसी बहुत बड़े इम्तिहान का नतीजा निकलने वाला हो.

‘‘मुझे याद है, वह लड़की यहां काम करती थी. मैं ने उसे जब स्वागतकक्ष में देखा, तभी मेरी नीयत खराब हो गई थी. अकसर होटलों में मैं लड़की बुलवा लिया करता था. उस दिन…हां, बाथरूम का नल टपक रहा था. उस ने मिस्त्री भेजा. दोबारा फिर जब मैं ने शिकायत तनिक ऊंचे लहजे में की तो वह खुद चली आई.

उस समय वह घर जा रही थी, इसलिए होटल के वस्त्रों में नहीं थी. इस कारण और आकर्षक लग रही थी. मैं ने उस का हाथ पकड़ कर नोटों की एक गड्डी उस के हाथ पर रखी. लेकिन वह मेरा हाथ झटक कर तेजी से बाहर निकल गई. यह वाकेआ मुझे इस कारण भी याद है कि कमरे से निकलते वक्त उस की आंखें आंसुओं में डूब गई थीं.

ऐसा हादसा हमारे साथ कम हुआ था. यहां से जाने के बाद मुझे दिल का दौरा पड़ा. अब ज्यादा उत्तेजना मैं सहन नहीं कर पाता. 6 माह पहले ही पत्नी भी चल बसी. अब सादा, सरल जीवन काफी रास आता है.’’

रंगनाथन बोलते जा रहे थे, उधर कमलकांत को लग रहा था कि वे हलके हो कर हवा में उड़ते जा रहे हैं. अब वे स्वाति की ओर से पूर्ण संतुष्ट थे.

Hindi Story : प्यार का धागा – डौली को क्या मिल पाया अपना प्यार

Hindi Story : सांझ ढलते ही थिरकने लगते थे उस के कदम. मचने लगता था शोर, ‘डौली… डौली… डौली…’ उस के एकएक ठुमके पर बरसने लगते थे नोट. फिर गड़ जाती थीं सब की ललचाई नजरें उस के मचलते अंगों पर. लोग उसे चारों ओर घेर कर अपने अंदर का उबाल जाहिर करते थे.

…और 7 साल बाद वह फिर दिख गई. मेरी उम्मीद के बिलकुल उलट. सोचा था कि जब अगली बार मुलाकात होगी, तो वह जरूर मराठी धोती पहने होगी और बालों का जूड़ा बांध कर उन में लगा दिए होंगे चमेली के फूल या पहले की तरह जींसटीशर्ट में, मेरी राह ताकती, उतनी ही हसीन… उतनी ही कमसिन… लेकिन आज नजारा बदला हुआ था. यह क्या… मेरे बचपन की डौल यहां आ कर डौली बन गई थी.

लकड़ी की मेज, जिस पर जरमन फूलदान में रंगबिरंगे डैने सजे हुए थे, से सटे हुए गद्देदार सोफे पर हम बैठे हुए थे. अचानक मेरी नजरें उस पर ठहर गई थीं.

वह मेरी उम्र की थी. बचपन में मेरा हाथ पकड़ कर वह मुझे अपने साथ स्कूल ले कर जाती थी. उन दिनों मेरा परिवार एशिया की सब से बड़ी झोंपड़पट्टी में शुमार धारावी इलाके में रहता था. हम ने वहां की तंग गलियों में बचपन बिताया था. वह मराठी परिवार से थी और मैं राजस्थानी ब्राह्मण परिवार का. उस के पिता आटोरिकशा चलाते थे और उस की मां रेलवे स्टेशन पर अंकुरित अनाज बेचती थी.

हर शुक्रवार को उस के घर में मछली बनती थी, इसलिए मेरी माताजी मुझे उस दिन उस के घर नहीं जाने देती थीं.

बड़ीबड़ी गगनचुंबी इमारतों के बीच धारावी की झोंपड़पट्टी में गुजरे लमहे आज भी मुझे याद आते हैं. उगते हुए सूरज की रोशनी पहले बड़ीबड़ी इमारतों में पहुंचती थी, फिर धारावी के बाशिंदों के पास. धारावी की झोंपड़पट्टी को ‘खोली’ के नाम से जाना जाता है. उन खोलियों की छतें टिन की चादरों से ढकी रहती हैं.

जब कभी वह मेरे घर आती, तो वापस अपने घर जाने का नाम ही नहीं लेती थी. वह अकसर मेरी माताजी के साथ रसोईघर में काम करने बैठ जाती थी. काम भी क्या… छीलतेछीलते आधा किलो मटर तो वह खुद खा जाती थी. माताजी को वह मेरे लिए बहुत पसंद थी, इसलिए वे उस से बहुत स्नेह रखती थीं.

हम कल्याण के बिड़ला कालेज में थर्ड ईयर तक साथ पढे़ थे. हम ने लोकल ट्रेनों में खूब धक्के खाए थे. कभीकभार हम कालेज से बंक मार कर खंडाला तक घूम आते थे. हर शुक्रवार को सिनेमाघर जाना हमारी जिंदगी का अहम हिस्सा बन गया था. इसी बीच उस की मां की मौत हो गई. कुछ दिनों बाद उस के पिता उस के लिए एक नई मां ले आए थे.

ग्रेजुएशन पूरी करने के बाद मैं और पढ़ाई करने के लिए दिल्ली चला गया था. कई दिनों तक उस के बगैर मेरा मन नहीं लगा था. जैसेतैसे 7 साल निकल गए. एक दिन माताजी की चिट्ठी आई. उन्होंने बताया कि उस के घर वाले धारावी से मुंबई में कहीं और चले गए हैं.

7 साल बाद जब मैं लौट कर आया, तो अब उसे इतने बड़े महानगर में कहां ढूंढ़ता? मेरे पास उस का कोई पताठिकाना भी तो नहीं था. मेरे जाने के बाद उस ने माताजी के पास आना भी बंद कर दिया था. जब वह थी… ऐसा लगता था कि शायद वह मेरे लिए ही बनी हो. और जिंदगी इस कदर खुशगवार थी कि उसे बयां करना मुमकिन नहीं.

मेरा उस से रोज झगड़ा होता था. गुस्से के मारे मैं कई दिनों तक उस से बात ही नहीं करता था, तो वह रोरो कर अपना बुरा हाल कर लेती थी. खानापीना छोड़ देती थी. फिर बीमार पड़ जाती थी और जब डाक्टरों के इलाज से ठीक हो कर लौटती थी, तब मुझ से कहती थी, ‘तुम कितने मतलबी हो. एक बार भी आ कर पूछा नहीं कि तुम कैसी हो?’ जब वह ऐसा कहती, तब मैं एक बार हंस भी देता था और आंखों से आंसू भी टपक पड़ते थे.

मैं उसे कई बार समझाता कि ऐसी बात मत किया कर, जिस से हमारे बीच लड़ाई हो और फिर तुम बीमार पड़ जाओ. लेकिन उस की आदत तो जंगल जलेबी की तरह थी, जो मुझे भी गोलमाल कर देती थी. कुछ भी हो, पर मैं बहुत खुश था, सिवा पिताजी के जो हमेशा अपने ब्राह्मण होने का घमंड दिखाया करते थे.

एक दिन मेरे दोस्त नवीन ने मुझ से कहा, ‘‘यार पृथ्वी… अंधेरी वैस्ट में ‘रैडक्रौस’ नाम का बहुत शानदार बीयर बार है. वहां पर ‘डौली’ नाम की डांसर गजब का डांस करती है. तुम देखने चलोगे क्या? एकाध घूंट बीयर के भी मार लेना. मजा आ जाएगा.’’

बीयर बार के अंदर के हालात से मैं वाकिफ था. मेरा मन भी कच्चा हो रहा था कि अगर पुलिस ने रेड कर दी, तो पता नहीं क्या होगा… फिर भी मैं उस के साथ हो लिया. रात गहराने के साथ बीयर बार में रोशनी की चमक बढ़ने लगी थी. नकली धुआं उड़ने लगा था. धमाधम तेज म्यूजिक बजने लगा था.

अब इंतजार था डौली के डांस का. अगला नजारा मुझे चौंकाने वाला था. मैं गया तो डौली का डांस देखने था, पर साथ ले आया चिंता की रेखाएं. उसे देखते ही बार के माहौल में रूखापन दौड़ गया. इतने सालों बाद दिखी तो इस रूप में. उसे वहां देख कर मेरे अंदर आग फूट रही थी. मेरे अंदर का उबाल तो इतना ज्यादा था कि आंखें लाल हो आई थीं. आज वह मुझे अनजान सी आंखों से देख रही थी. इस से बड़ा दर्द मेरे लिए और क्या हो सकता था? उसे देखते ही, उस के साथ बिताई यादों के झरोखे खुल गए थे.

मुझे याद हो आया कि जब तक उस की मां जिंदा थीं, तब तक सब ठीक था. उन के मर जाने के बाद सब धुंधला सा गया था. उस की अल्हड़ हंसी पर आज ताले जड़े हुए थे. उस के होंठों पर दिखावे की मुसकान थी.

वह अपनेआप को इस कदर पेश कर रही थी, जैसे मुझे कुछ मालूम ही नहीं. वह रात को यहां डांसर का काम किया करती थी और रात की आखिरी लोकल ट्रेन से अपने घर चली जाती थी. उस का गाना खत्म होने तक बीयर की पूरी 2 बोतलें मेरे अंदर समा गई थीं.

मेरा सिर घूमने लगा था. मन तो हुआ उस पर हाथ उठाने का… पर एकाएक उस का बचपन का मासूम चेहरा मेरी आंखों के सामने तैर आया. मेरा बीयर बार में मन नहीं लग रहा था. आंखों में यादों के आंसू बह रहे थे. मैं उठ कर बाहर चला गया. नवीन तो नशे में चूर हो कर वहीं लुढ़क गया था.

मैं ने रात के 2 बजे तक रेलवे स्टेशन पर उस के आने का इंतजार किया. वह आई, तो उस का हाथ पकड़ कर मैं ने पूछा, ‘‘यह सब क्या है?’’ ‘‘तुम इतने दूर चले गए. पढ़ाई छूट गई. पापी पेट के लिए दो वक्त की रोटी का इंतजाम तो करना ही था. मैं क्या करती?

‘‘सौतेली मां के ताने सुनने से तो बेहतर था… मैं यहां आ गई. फिर क्या अच्छा, क्या बुरा…’’ उस ने कहा. ‘‘एक बार माताजी से आ कर मिल तो सकती थीं तुम?’’

‘‘हां… तुम्हारे साथ जीने की चाहत मन में लिए मैं गई थी तुम्हारी देहरी पर… लेकिन तुम्हारे दर पर मुझे ठोकर खानी पड़ी. ‘‘इस के बाद मन में ही दफना दिए अनगिनत सपने. खुशियों का सैलाब, जो मन में उमड़ रहा था, तुम्हारे पिता ने शांत कर दिया और मैं बैरंग लौट आई.’’

‘‘तुम्हें एक बार भी मेरा खयाल नहीं आया. कुछ और काम भी तो कर सकती थीं?’’ मैं ने कहा. ‘‘कहां जाती? जहां भी गई, सभी ने जिस्म की नुमाइश की मांग रखी. अब तुम ही बताओ, मैं क्या करती?’’

‘‘मैं जानता हूं कि तुम्हारा मन मैला नहीं है. कल से तुम यहां नहीं आओगी. किसी को कुछ कहनेसमझाने की जरूरत नहीं है. हम दोनों कल ही दिल्ली चले जाएंगे.’’ ‘‘अरे बाबू, क्यों मेरे लिए अपनी जिंदगी खराब कर रहे हो?’’

‘‘खबरदार जो आगे कुछ बोली. बस, कल मेरे घर आ जाना.’’ इतना कह कर मैं घर चला आया और वह अपने घर चली गई. रात सुबह होने के इंतजार में कटी. सुबह उठा, तो अखबार ने मेरे होश उड़ा दिए. एक खबर छपी थी, ‘रैडक्रौस बार की मशहूर डांसर डौली की नींद की ज्यादा गोलियां खाने से मौत.’

मेरा रोमरोम कांप उठा. मेरी खुशी का खजाना आज लुट गया और टूट गया प्यार का धागा. ‘‘शादी करने के लिए कहा था, मरने के लिए नहीं. मुझे इतना पराया समझ लिया, जो मुझे अकेला छोड़ कर चली गई? क्या मैं तुम्हारा बोझ उठाने लायक नहीं था? तुम्हें लाल साड़ी में देखने

की मेरी इच्छा को तुम ने क्यों दफना दिया?’’ मैं चिल्लाया और अपने कानों पर हथेलियां रखते हुए मैं ने आंखें भींच लीं.

बाहर से उड़ कर कुछ टूटे हुए डैने मेरे पास आ कर गिर गए थे. हवा से अखबार के पन्ने भी इधरउधर उड़ने लगे थे. माहौल में फिर सन्नाटा था. रूखापन था. गम से भरी उगती हुई सुबह थी वह.

Best Hindi Story : लड़की पसंद है – क्यों टूटा रिश्ता ?

Best Hindi Story : हम जब छोटे थे तो हमारे ढेर सारे विवाहयोग्य चाचाजी थे. तब हमारा पसंदीदा दिन होता था जब हम अपने किसी चाचाजी के लिए भावी चाची देखने जाते थे. तब शरबत, बिस्कुट, समोसे और बर्फी ही आमतौर पर परोसे जाते थे. हमें यह सब खानापीना तो भाता ही था, उस से भी अच्छा लगता था भावी चाचीजी के पास बैठना. हम तो लड़की वालों के घर जाते ही, भावी चाचीजी के पास पहुंच जाते थे. अब सच कहें तो हमें तो सब ही अच्छी लगती थीं पर फिर भी एकाध बार लड़की चाचाजी को पसंद नहीं आती थी और एकाध बार लड़की वाले ही रिश्ते से मना कर देते थे.

ऐसे ही एक मौके पर हम ने पाया कि जलपान बाकी सब जगह से ज्यादा ही अच्छा था. कचौड़ी, समोसे, सैंडविच, गुलाबजामुन, बर्फी, रसगुल्ले, कई तरह के बिस्कुट और नमकीन. यहां तक कि शरबत के साथसाथ कैंपा कोला भी था. सबकुछ बहुत स्वादिष्ठ भी था. सो, न सिर्फ हम ने बल्कि चाचाजी ने भी खूब खायापिया, हमारे मातापिताजी ने सदा की तरह बस थोड़ा सा कुछ लिया.

हमें तो भावी चाची अच्छी ही लगनी थीं. पर जब हम वापस आ रहे थे तो चाचाजी ने पिताजी से कहा कि उन्हें लड़की पसंद नहीं है. इस पर पिताजी ने जिन आग्नेय नेत्रों से उन्हें घूरा, वह हम आज तक नहीं भूल पाए. चाचाजी की एक नहीं चली. लड़की वालों से कह दिया गया कि लड़की पसंद है. पिताजी के अनुसार, यदि चाचाजी को लड़की पसंद नहीं थी तो उन्हें लड़की वालों के यहां प्लेट भरभर कर खाना नहीं चाहिए था.

20 वर्षों बाद जब हम अपने लिए लड़की देखने गए तो यकीन मानिएगा, जब तक लड़की ने हमें और हम ने लड़की को पसंद नहीं कर लिया तब तक हम ने गलती से भी परोसे गए नाश्ते की तरफ हाथ नहीं बढ़ाया. सिर पर डर जो मंडरा रहा था कि एक बिस्कुट भी खा लिया तो फिर तो यही कहना पड़ेगा कि – ‘जी पिताजी, लड़की पसंद है.’

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