Download App

Family Story In Hindi : बहुरूपिए ससुराल वाले

Family Story In Hindi : हाथी के दांत खाने के और होते हैं और दिखाने के और, यह बात पलक को तब समझ आई जब उस के संस्कार की बात करने वाले बहुरूपिए ससुराल वालों की असलियत सामने आई.

मटन का पैकेट किचन प्लेटफौर्म पर रखते हुए घर का नौकर संजू बोला, ‘‘बीबीजी, दादा साहब ने यह 2 किलोग्राम मटन भिजवाया है, उन्होंने कहा है कि आज दोपहर के खाने में मटन बिरयानी और मटन कबाब बनाना है.’’

इतना कह कर संजू वहां से चला गया. राजेश्वरी, जो किचन का ही कुछ काम कर रही थीं, अपने हाथों को रोके बगैर ही किचन में खड़ी अपनी बहू पलक, जो हरी पत्तेदार सब्जियां सुधार रही थी, से बोलीं, ‘‘पलक बेटा, पहले मटन को धो कर गलाने के लिए चढ़ा दो क्योंकि मटन को गलने में टाइम लगेगा. तब तक मैं बाकी तैयारियां कर लेती हूं.’’

राजेश्वरी के ऐसा कहते ही पलक ने कुछ कहने की मंशा से अपनी सासुमां की ओर देखा, लेकिन राजेश्वरी अपनी ही धुन में काम में लगी हुई थीं. असल में पलक अपनी सासुमां से यह कहना चाहती थी कि मम्मीजी, कल ही तो फिश बनाई थी तो आज मटनबिरयानी और कबाब बनाना क्या जरूरी है? लेकिन वह कुछ बोल नहीं पाई और चुपचाप मटन धोने लगी.

जब से पलक इस घर में ब्याह कर आई है तब से वह देख रही है मंगलवार और शनिवार को छोड़ कर हर दिन दोनों टाइम दोपहर और रात के खाने में हरी सब्जियों के अलावा नौनवेज भी बनता ही है. मंगलवार और शनिवार को घर पर नौनवेज नहीं बनने के पीछे भी एक कारण है. इस घर के मुखिया यानी राजेश्वरी के ससुरजी, पलक के दादाससुर इन दोनों दिनों में केवल सात्विक भोजन ही करते हैं और राजेश्वरी को घर पर नौनवेज नहीं बनाने की सख्त हिदायत है.

घर पर नौनवेज अवश्य इन दोनों दिनों में नहीं बनता लेकिन राजेश्वरी के पति और बेटे मतलब पलक के ससुर और पति दोनों ही घर के बाहर नौनवेज खा ही लेते हैं. बाहर खाने में कोई रोकटोक नहीं है, केवल मंगलवार और शनिवार को घर के किचन में सात्विक भोजन ही बनता है.

पलक का ब्याह 4 महीने पहले शहर के जानेमाने राजनीतिक व रसूखदार परिवार में हुआ है. उस के दादा ससुर ठाकुर भानु प्रताप सिंह पूर्व विधायक रह चुके हैं. ससुर ठाकुर अभय प्रताप सिंह वर्तमान में सांसद हैं और पलक के पति ठाकुर अनुराग सिंह राजनीति में अपने पैर जमा रहे हैं या यों कह सकते हैं कि उन्हें विरासत में जमाजमाया राजपाट मिल ही गया है. कुल मिला कर पूरा का पूरा परिवार जनसेवा, राष्ट्रीय सेवा में तल्लीन है. पलक भी कोई छोटेमोटे परिवार से ताल्लुक नहीं रखती है, वह भी शहर के प्रतिष्ठित परिवार से है. उस के पिता शहर के सम्मानित, प्रतिष्ठित व शहर के बहुत बड़े जानेमाने उद्योगपति हैं. शहर में दोनों ही परिवारों का डंका बजता है.

हाथी के दांत खाने के और होते हैं और दिखाने के और, यह कहावत ऐसे ही प्रसिद्ध नहीं है. अकसर यह देखा गया है कि हमारे आसपास और इस दुनिया में ऐसे अनगिनत लोग हैं जिन्हें समझ पाना आसान नहीं है. इस तरह के लोग जैसा दिखते हैं वैसे होते नहीं है. ये लोग कहते कुछ हैं और करते कुछ. उन का वास्तविक रूप कुछ और होता है. वे दुनिया के समक्ष खुद को कुछ और ही रूप में प्रस्तुत करते हैं. हम उन्हें बहुरूपिए की संज्ञा भी दे सकते हैं जो अकसर समय के साथ अपना रूप व स्वभाव बदलते ही रहते हैं या फिर गिरगिट भी कह सकते हैं.

साधु बन कर संस्कार, संस्कृति और संयम का पाठ पढ़ाने वाले ये बहुरूपिए असल जिंदगी में चांडाल होते हैं. यही हाल पलक के ससुराल वालों का भी है. उन का राजनीतिक चेहरा कुछ और ही है और वास्तविकता कुछ और.

ठाकुर परिवार की पूरी राजनीति धर्म, धर्म की रक्षा, नारी सुरक्षा और उस की आजादी पर ही टिकी हुई है. पलक जब इस घर में ब्याह कर आई तो वह इस बात से बेखबर थी कि उस का ससुराल जिन मुद्दों को ले कर आवाज उठाता है, प्रैस कौन्फ्रैंस करता है, असल में उन्हें उन मुद्दों से कोई लेनादेना है ही नहीं. वह तो बस एक राजनीतिक एजेंडा है जिस के जरिए ये सब बस अपना स्वार्थ साधते हैं. अपनी रोटियां सेंकने के लिए ही यह सारा प्रपंच करते हैं और भोलीभाली जनता उन्हें अपना और अपने धर्म का रक्षक समझ कर सिरआंखों पर बिठाए रखती है.

पलक जब ब्याह कर आई तो उस की पलकों में अनगिनत सपने थे जिन्हें वह साकार रूप देना चाहती थी. शादी से पहले पलक एक समाजसेवी संस्था से जुड़ी हुई थी जिस के जरिए वह गरीब, लाचार व घरपरिवार से प्रताडि़त महिलाओं की मदद किया करती थी. उन्हें जीने की नई राह दिखाती थी. पलक को इस बात का अंदेशा ही नहीं था कि शादी के बाद उस के जीवन में इतना बड़ा बदलाव आ जाएगा. दूसरों के इंसाफ व अधिकार के लिए लड़ने वाली को खुद अपने अधिकार व स्वतंत्रता के लिए भी एक दिन लड़ना पड़ेगा.

पलक इस खुशफहमी में थी कि वह ऐसे परिवार में ब्याह कर जा रही है जहां नारी सुरक्षा और नारी स्वतंत्रता जैसे मुद्दों को गंभीरता से लिया जाता है, उस पर आवाज उठाई जाती है और आंदोलन भी किए जाते हैं. लेकिन पलक की यह खुशफहमी कुछ ही दिनों में काफूर हो गई जब उस के पति अनुराग ने उस से कहा, ‘‘पलक, अब तुम्हें किसी संस्था के लिए काम करने की जरूरत नहीं है. हमारे घर की बहुएं काम नहीं करतीं.’’

अनुराग का सख्त लहजे में इस तरह कहना पलक को बिलकुल भी अच्छा नहीं लगा, उस ने पलट कर जवाब देते हुए अनुराग से कहा, ‘‘मैं उस संस्था के लिए काम नहीं करती. अपनी सेवाएं मुफ्त में देती हूं. बदले में संस्था से कोई पैसा नहीं लेती. मैं स्वेच्छा से यह सब करती हूं. मैं उन महिलाओं की सहायता करती हूं जो लाचार, असहाय और अपने परिवार से सताई व ठुकराई गई हैं. यह सब तो आप के पार्टी एजेंडा में भी है. फिर, मैं करती हूं तो इस में परेशानी क्या है?’’
‘‘तुम अपनी छोटी सी संस्था की तुलना हमारी पार्टी से न ही करो तो अच्छा है. एक और बात अच्छी तरह समझ लो, हमारे घर की बहूबेटियां घर से बाहर नहीं निकलती हैं.’’

अनुराग का यह खुद के पुरुष होने का हुंकार था, जो वह पलक के समक्ष दहाड़ रहा था. लेकिन पलक कहां डरने वाली थी, वह अनुराग के संग भिड़ गई और दोनों के मध्य संस्था में जाने और नहीं जाने को ले कर बहस बढ़ गई. जब पलक के तर्कों पर अनुराग खुद को अक्षम पाने लगा तो उस ने पलक पर हाथ उठा दिया और वहां से चला गया.

अनुराग की इस बदसुलूकी की जानकारी पलक ने अपने सास, ससुर और दादा ससुर को दी लेकिन उन सभी ने कुछ इस तरह से व्यवहार किया जैसे कुछ हुआ ही न हो. यह देख पलक को बहुत आश्चर्य हुआ और वह गुस्से से तिलमिला उठी. जो लोग हर बार अपने भाषण में आम जनता को संबोधित करते हुए बस एक ही बात दोहराते हैं कि हम नारी का सम्मान, उस का अधिकार और उस की सुरक्षा चाहते हैं वही लोग अपने ही घर की महिलाओं को अपने जूते की नोंक पर रखना अपने पुरुषत्व की शान समझते हैं.

पलक पढ़ीलिखी और साहसी होने के साथसाथ एक जानेमाने धनाढ्य व दबंग परिवार की बेटी थी. उस ने फौरन अपने मायके अपनी मां को फोन लगाया और बताया कि अनुराग ने उस पर हाथ उठाया और वह नहीं चाहता कि वह संस्था के लिए काम करे.

पलक की सारी बातें सुनने के पश्चात पलक की मां ने उस से जो कहा उसे सुन कर पलक की आंखें नम हो गईं और उस का मनोबल लड़खड़ा गया. पलक की मां ने उस से कहा, ‘‘देखो पलक, अब तुम्हारा ससुराल ही तुम्हारा अपना घर है जहां तुम्हें ताउम्र गुजारनी है. तुम जितनी जल्दी यह समझ जाओ उतना अच्छा होगा तुम्हारे लिए भी और हमारे लिए भी. अपनी ससुराल में तालमेल बिठाना सीखो और वहां के तौरतरीके अपना लो. इस तरह छोटीछोटी सी बात पर यहां फोन मत किया करो. यदि तुम्हारा पति नहीं चाहता कि तुम घर से बाहर जाओ, काम करो, तो मत करो न, क्या जरूरत है समाज सेवा करने की. इज्जतदार और खानदानी लड़कियां अपने ससुराल की इज्जत इस तरह नहीं उछालतीं, यह बात गांठ बांध कर रख लो.’’

इतना कह कर पलक की मां ने फोन रख दिया. उस दिन पलक बहुत रोई. उस के बाद फिर कभी पलक ने अपनी मां से अपनी किसी भी परेशानी का जिक्र नहीं किया क्योंकि वह समझ चुकी थी कि एक लड़की आज भी अपने ही मातापिता के लिए अपने ही घर में पराई है.

यही सब सोचते हुए गैस चूल्हे पर पलक ने बेमन से मटन धो कर गलाने के लिए चढ़ा दिया और किचन का बाकी काम करते हुए राजेश्वरी से बोली, ‘‘मम्मीजी, मैं सोच रही हूं क्यों न हम एक कुक रख लें. किचन में इतना ज्यादा काम हो जाता है कि हम खाना बनाने के अलावा कुछ और दूसरा काम कर ही नहीं पाते हैं.’’

पलक के इतना कहते ही काम कर रही राजेश्वरी के हाथ खुद ही रुक गए और वह पलक के करीब आ उस की हथेलियों को अपनी हथेलियों में ले, थपथपाते हुए बोली, ‘‘बेटा, यह बात दोबारा मत कहना. तुम तो अपने पति, ससुरजी और दादा ससुरजी को बहुत अच्छी तरह से जानती हो, वे कभी नहीं चाहेंगे कि घर पर खाना नौकर बनाएं या कोई दूसरी जाति या धर्म का व्यक्ति किचन के भीतर प्रवेश करे तो इस तरह की बात फिर कभी मत कहना.’’

अपनी सासुमां के ऐसा कहने पर पलक ने कुछ और नहीं कहना ही उचित समझ और चुपचाप किचन के कामों में लगी रही. दोपहर के समय जब तीनों पिता, पुत्र और पोता खाना खाने बैठे, मटन कबाब खाते हुए ठाकुर अभय प्रताप सिंह बोले, ‘‘बाबूजी, 2 दिनों बाद चैत्य नवरात्र शुरू होने वाला है. हमें कुछ ऐसा करना चाहिए जिस से हमारी और हमारी पार्टी की छवि में और अधिक कट्टर सनातनी की छाप बने जिसे देख कर जनता आगामी चुनाव में हमें ही वोट करे.’’

इस बात पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए ठाकुर अनुराग सिंह बोला, ‘‘पापा, क्यों न हम एक प्रैस कौन्फ्रैंस कर मीडिया वालों को बुलाएं और शहर में भव्य पूजा व भंडारा का आयोजन कराएं.’’

‘‘नहीं, इस का जनता पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ेगा. कुछ ऐसा करना होगा जिस से शहर में थोड़ी तनाव की स्थिति उत्पन्न हो, लोग उत्तेजित हों. आस्था और धर्म खतरे में है, ऐसा कुछ माहौल बने,’’ राजनीति के अनुभवी और पुराने खिलाड़ी ठाकुर भानु प्रताप सिंह बोले.
‘‘तो फिर ऐसा क्या करना चाहिए, बाबूजी आप ही बताइए?’’ ठाकुर अभय प्रताप सिंह मटन बिरयानी चटखारे ले कर खाते हुए बोले.

‘‘एक आइडिया है मेरे पास, इस चैत्र नवरात्र में क्यों न हम यह मांग रखें कि पूरे 9 दिनों तक हमारे शहर में मटन और चिकन की सारी दुकानें बंद कर दी जाएं क्योंकि इस समय सभी सनातनी धर्म के श्रद्धालु माता की उपासना व आराधना करते हैं. ऐसे में मटन व चिकन की खुलेआम बिक्री सनातन धर्म की आस्था को ठेस पहुंचाने का काम करती है,’’ चेहरे पर कुटिल भाव लाते हुए ठाकुर भानु प्रताप सिंह बोले.

इस बात पर ठाकुर अभय प्रताप सिंह बोले, ‘‘अरे वाह बाबूजी, आप ने क्या बेहतरीन तरकीब निकाली है. इस खबर को तो हर मीडिया, हर अखबार, हर चैनल हाथोंहाथ लेगा, बड़ी ही प्रमुखता के साथ दिखाएगा. हमारी पार्टी वैसे भी सनातनी धर्म की पक्षधर कहलाती है. इस विरोध के पश्चात तो और अधिक लोकप्रियता बढ़ जाएगी. कल से ही इस नवरात्र पर मटनचिकन की बिक्री पर विरोध का मोरचा खोल देते हैं.’’

अपने पिता के ऐसा कहते ही अनुराग बोला, ‘‘इस का मतलब पूरे 9 दिनों तक हमें मटनचिकन खाने को ही नहीं मिलेगा.’’

अनुराग की इस बात पर ठाकुर भानु प्रताप सिंह और ठाकुर अभय प्रताप सिंह जोर से ठहाका लगा कर हंसने लगे, फिर अनुराग के पिता अभय प्रताप सिंह बोले, ‘‘अरे बुड़बक, कहीं का हमें खाना नहीं छोड़ना है. हमें केवल दुकान बंद कराना है.’’

तीनों पिता, पुत्र और पोते की सारी बातें खाना परोस रही पलक और उस की सासुमां राजेश्वरी सुन रही थीं. राजेश्वरी पर इन तीनों की बातों का कोई असर नहीं हुआ लेकिन पलक का मन विचलित हो गया. वह सोचने लगी कि कुछ वोट पाने और सत्ता में बने रहने के लिए कुछ नेता किस तरह षड्यंत्र रचते हैं और उस में जनता फंस जाती है. 9 दिनों तक यदि कोई दुकानदार अपनी दुकान बंद रखेगा तो उस की रोजीरोटी और घर कैसे चलेगा? पलक इस का विरोध करना चाहती थी लेकिन वह यह भी जानती थी कि इस तरह का विरोध और बहस अंतहीन है. वह शांत रही.

9 दिनों तक नवरात्र पर मटन मार्केट बंद रखा जाए, इस पर खूब मोरचे निकाले गए, विज्ञप्ति सौंपी गई. इस क्रिया की प्रतिक्रिया हुई. नवरात्र के प्रारंभ दिन पर दोपहर के भोजन में पलक ने अपनी सासुमां को जानकारी दिए बगैर ही बिना प्याजलहसुन के सात्विक भोजन बना कर परोस दिया, जिसे देखते ही तीनों पिता, पुत्र और पोता पलक पर भड़क उठे. अनुराग गुस्से में तमतमाते हुए बोला, ‘‘इस तरह का बेस्वाद खाना बनाने को तुम्हें किस ने कहा.’’
पलक शांत भाव से बोली, ‘‘किसी ने नहीं कहा. मैं ने सोचा, जब आप सभी पूरे शहर में मटन मार्केट बंद करने के लिए आह्वान कर रहे हैं तो आप लोग भी सादा सात्विक भोजन करना ही पसंद करेंगे.’’

पलक के इतना कहते ही ठाकुर भानु प्रताप सिंह चिल्लाते हुए बोले, ‘‘अरे पागल औरत, तुझे पता नहीं, हम राजनेताओं की कथनी और करनी में अंतर होता है.’’

पलक मुसकराई और मन ही मन बुदबुदाते हुए बोली, ‘मुझे मालूम है, हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और होते हैं, और वह वहां से चली गई.

अनुराग तीनों के लिए औनलाइन सींककबाब और्डर करने लगा. यह पलक का पहला कदम था जो उस ने अपनी ससुराल वालों के विरोध में उठाया था. यह जंग अभी काफी लंबी चलनी थी लेकिन इस बार पलक ने भी कमर कस ली थी. Family Story In Hindi

लेखिका : डा. प्रेमलता यदु 

Hindi Stories Love : नींव – अंजु ने ऐसा क्या किया कि संजीव खुश हो गया?

Hindi Stories Love : उस दिन करीब 8 साल के बाद मानसी को एक हेयर सैलून से बाहर आते देखा तो आंखों पर विश्वास नहीं हुआ. कालेज के दिनों में वह कभी मेरी बहुत अच्छी दोस्त हुआ करती थी. फिर वह एमबीए करने मुंबई चली गई और हमारे बीच संपर्क कम होतेहोते समाप्त हो गया था.

मैं मुसकराता उस के सामने पहुंचा तो उस ने भी मुझे फौरन पहचान लिया. हम ने बड़े अपनेपन के साथ हाथ मिलाया और हंसतेमुसकराते एकदूसरे के बारे में जानकारी का आदानप्रदान करने लगे.

‘‘तुम यहां दिल्ली में कैसे नजर आ रही हो?’’

‘‘मेरे पति को यहां नई जौब मिली है.’’

‘‘क्या पति को घर छोड़ कर केश कटवाने आई हो?’’

‘‘नहीं भई. वे मुझे यहां छोड़ कर किसी दोस्त से मिलने गए हैं. बस, अब लेने आते ही होंगे. तुम बताओ जिंदगी कैसी गुजर रही है?’’

‘‘ठीकठीक सी गुजर रही है.’’

‘‘तुम्हारी पत्नी क्या करती है?’’

‘‘अंजु नौकरी करती है.’’

‘‘तुम तो कहा करते थे कि पत्नी को सिर्फ घरगृहस्थी की जिम्मेदारियां संभालनी चाहिए. फिर अंजु को नौकरी कैसे करा रहे हो?’’ उस ने हंसते हुए पूछा.

‘‘मैं तो अभी भी यही चाहता हूं कि अंजु घर में रहे पर आज की महंगाई में डबल इनकम का होना जरूरी है.’’

‘‘बच्चे कितने बडे़ हो रहे हैं?’’

‘‘हमारा 1 बेटा है समीर, जो पिछले महीने 6 साल का हुआ है.’’

‘‘उस के लिए भाई या बहन अभी तक क्यों नहीं लाए हो?’’

‘‘अरे, दूसरे बच्चे की बात ही मत छेड़ो. आजकल 1 बच्चे को ही ढंग से पालना आसान नहीं है. तुम अपने बारे में बताओ.’’

‘‘मैं तो कोई जौब नहीं करती हूं. पति सौफ्टवेयर इंजीनियर हैं. 3 साल अहमदाबाद में रहे. अब यहां दिल्ली की एक कंपनी में जौब शुरू करने के कारण 2 महीने पहले यहां आए हैं. अभी तक मन नहीं लग रहा था पर अब तुम मिल गए हो तो अकेलेपन का एहसास कम हो ही जाएगा. कब मिलवा रहे हो अंजु और समीर से, संजीव?’’

‘‘बहुत जल्दी मिलने का कार्यक्रम बना लेते हैं. तुम ने अपने बच्चों के बारे में तो कुछ बताया नहीं,’’ मैं ने जानबूझ कर विषय बदल दिया.

‘‘मेरी 2 बेटियां हैं – श्वेता और शिखा. श्वेता स्कूल जाती है और शिखा अभी 2 साल की है.’’

‘‘बहुत अच्छा मैंटेन किया हुआ है तुम ने खुद को. कोई देख कर कह नहीं सकता कि तुम 2 बेटियों की मम्मी हो.’’

‘‘थैंकयू, मैं नियम से डांस करती हूं. कोई टैंशन नहीं है, इसलिए स्वास्थ्य ठीक चल रहा है,’’ मेरे मुंह से अपनी प्रशंसा सुन वह खुश हो कर बोली, ‘‘वैसे तुम भी बहुत जंच रहे हो. तुम्हें देख कर कोई भी कह सकता है कि तुम ने जिंदगी में अच्छी तरक्की की है.’’

‘‘थैंकयू, ये शायद तुम्हारे पति ही हमारी तरफ आ रहे हैं,’’ अपनी तरफ एक ऊंचे कद व आकर्षक व्यक्तित्व वाले पुरुष को आते देख कर मैं ने कहा.

आत्मविश्वास से भरा वह व्यक्ति मानसी का पति रोहित ही निकला. उस ने रोहित से मेरा परिचय कालेज के बहुत अच्छे दोस्त के रूप में कराया.

रोहित ने बड़ी गर्मजोशी के साथ मुझ से हाथ मिलाया. फिर हम दोनों एकदूसरे के काम के विषय में बातें करने लगे.

मानसी अब चुप रह कर हमारी बातें सुन रही थी.

करीब 15 मिनट बातें करने के बाद रोहित ने विदा लेने को अपना हाथ आगे बढ़ा दिया और बोला, ‘‘संजीव, तुम्हें अपनी वाइफ और बेटे के साथ हमारे घर बहुत जल्दी आना ही है. मानसी को अपने शहर में बोर मत होने देना.’’

‘‘हम बहुत जल्दी मिलते हैं,’’ मैं ने मुसकराते हुए जवाब दिया.

‘‘अपना मोबाइल नंबर तो दो, नहीं तो एकदूसरे के संपर्क में कैसे रहेेंगे?’’ मानसी को याद आया तो हम ने एकदूसरे के मोबाइल नंबर ले लिया.

वे दोनों अपनी कार में बैठे और हाथ हिलाते हुए मेरी आंखों से ओझल हो गए.

मैं ने डिपार्टमैंटल स्टोर से घर का सामान खरीदा और अपनी 2 साल पुरानी कार से घर आ गया.

‘‘आप कहां अटक गए थे? मुझे मशीन लगानी थी पर बिना वाशिंग पाउडर के कैसे लगाती?’’ अंजु मुझे देखते ही नाराज हो उठी.

‘‘मशीन अब लगा लो. खाना देर से खा लेंगे,’’ मैं ने उसे शांत करने के लिए धीमी आवाज में जवाब दिया.

‘‘कितनी आसानी से कह दिया कि मशीन अब लगा लो. मैं नहा चुकी हूं और समीर को तो सही वक्त पर खाना चाहिए ही न. अब खाना बनाऊं या मशीन लगाऊं?’’ उस का गुस्सा कम नहीं हुआ था.

‘‘इतनी गुस्सा क्यों हो रही हो? तुम मशीन लगा लो, आज लंच करने बाहर चलते हैं.’’

‘‘अपना पेट खराब करने के लिए मुझे बाहर का खाना नहीं खाना है. आप यह बताओ कि अटक कहां गए थे?’’

‘‘अटका कहीं नहीं. ऐसे ही विंडो शौपिंग करते हुए समय का अंदाजा नहीं रहा,’’ न जाने क्यों उसे मानसी और रोहित से हुई मुलाकात के बारे में उस समय कुछ बताने को मेरा मन नहीं किया.

अंजु ड्राइंगरूम में समीर द्वारा फैलाई चीजें उठाने के काम में लग गई. अब उस का ध्यान मेरी तरफ न होने के कारण मैं उसे ध्यान से देख सकता था.

कितना फर्क था मानसी और अंजु के व्यक्तित्व में. शादी होने के समय वह आकर्षक फिगर की मालकिन होती थी, पर अब उस का शरीर काफी भारी हो चुका था. चेहरे पर तनाव की रेखाएं साफ पढ़ी जा सकती थीं. उस का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता. समीर के होने के समय से उसे पेट और कमर दर्द ने एक बार घेरा तो अब तक छुटकारा नहीं मिला है.

अंजु की मानसी से तुलना करते हुए मेरा मन अजीब सी खिन्नता महसूस कर रहा था. रोहित और हमारे आर्थिक स्तर में खास अंतर नहीं था. पर हमारी पत्नियों के व्यक्तित्व कितने विपरीत थे.

मेरा चेहरा सारा दिन मुरझाया सा रहा. रात में भी ढंग से नींद नहीं आई. मानसी का रंगरूप आंखों के सामने आते ही बगल में लेटी अंजु से अजीब सी चिढ़ हो रही थी.

किसी से अपनी हालत की तुलना कर के दिमाग खराब करने का कोई फायदा नहीं होता है. खुद को बारबार ऐसा समझाने के बाद ही मैं ढंग से सो पाया था. मेरे पास मानसी का 2 दिन बाद ही औफिस में लंच के समय फोन आ गया.

‘‘अपने घर का पता बताओ. हम आज रात को अंजु और समीर से मिलने आ रहे हैं,’’ उस की यह बात सुन कर मैं बहुत बेचैन हो उठा.

‘‘आज मत आओ. अंजु को अपने भाई के यहां जाना है,’’ मैं ने झूठ बोल कर उन के आने को टाल दिया.

‘‘चलो, उन से मिलने फिर किसी और दिन आ जाएंगे पर तुम अपना पता तो लिखवा ही दो.’’

मैं उसे घर बुलाना नहीं चाहता था पर मजबूरन उसे अपना पता लिखवाना पड़ा. मैं ने उस से ज्यादा बातें नहीं कीं. कहीं मन ही मन मैं ने यह फैसला कर लिया कि मैं उन के साथ ज्यादा घुलनेमिलने से बचूंगा.

फिर मैं शनिवार की शाम को औफिस से घर पहुंचा तो वे दोनों मुझे ड्राइंगरूम में बैठे मिले. अंजु उन से बातें कर रही थी. मानसी के सामने वह बहुत साधारण सी नजर आ रही है, ऐसी तुलना करते ही मेरा मन उखड़ सा गया.

तभी मैं एकदम चुपचुप सा हो गया. मेरे मुकाबले अंजु उन दोनों से वार्त्तालाप करने की जिम्मेदारी कहीं ज्यादा बेहतर ढंग से निभा रही थी.

मानसी ने अचानक मुझ से पूछ ही लिया, ‘‘इतने उदास क्यों दिख रहे हो, संजीव?’’

‘‘सिर में दर्द हो रहा है. आज औफिस में काम कुछ ज्यादा ही था,’’ मुझे यों झूठ बोलना पड़ा तो मेरा मन और बुझाबुझा सा हो गया.

रोहित ने मेरे बेटे समीर से बहुत अच्छी दोस्ती कर ली थी. मानसी अंजु के साथ खूब खुल कर हंसबोल रही थी. बस मैं ही खुद को उन के बीच अलगथलग सा महसूस कर रहा था.

उन दोनों को रोहित के किसी मित्र के घर भी जाना था, इसलिए वे ज्यादा देर नहीं बैठे और हमें जल्दी अपने घर आगामी रविवार को आने का निमंत्रण देने के बाद चले गए.

उन के जाने के बाद मैं बहुत चिड़चिड़ा हो गया. मैं ने उन से ज्यादा तअल्लुकात न रखने का फैसला करने में ज्यादा वक्त नहीं लिया.

‘‘ये अच्छे लोग हैं. दोनों का स्वभाव बहुत अच्छा है,’’ अंजु के मुंह से उन दोनों की तारीफ में निकले इन शब्दों को सुन कर मैं अपनी चिढ़ व नाराजगी को नियंत्रण में नहीं रख सका.

‘‘यार, इन लोगों की बात मुझ से मत करो. ये बनावटी लोग हैं. इन की सतही चमकदमक से प्रभावित न होओ. ऐसे लोगों के साथ मित्रता बढ़ा कर सिर्फ दुख और परेशानियां ही हासिल होती हैं,’’ मैं ने उसे समझाने की कोशिश की.

‘‘क्या कालेज के दिनों में आप मानसी के बहुत अच्छे दोस्त नहीं थे?’’ मुझे यों अचानक उत्तेजित होता देख कर वह हैरान नजर आ रही थी.

‘‘मानसी मेरे एक अच्छे दोस्त नवीन की प्रेमिका थी. इस कारण मुझे उसे सहन करना पड़ता था. जब मानसी का उस के साथ चक्कर खत्म हो गया, तब मैं ने उस के साथ बोलना बिलकुल खत्म कर दिया था. वह न तब मुझे पसंद थी और न आज.’’

‘‘मुझे तो दोनों अच्छे इंसान लगे हैं. क्या अगले संडे हम उन के घर नहीं जाएंगे?’’

‘‘नहीं जाएंगे और अब कोई और बात करो. हमें नहीं रखना है इन के साथ ज्यादा संबंध,’’ रूखे से अंदाज में उसे टोक कर मैं ने मानसी और रोहित के बारे में चर्चा खत्म कर दी.

अंजु ने फिर उन दोनों के बारे में कोई बात नहीं की. सच तो यह है कि वह मुझे ज्यादा खुश नजर आ रही थी. उस ने बड़े प्यार से मुझे खाना खिलाया और सोने से पहले सिर की मालिश भी की.

अगले दिन अंजु ने मुझे सुबह उठा कर मुसकराते हुए कहा, ‘‘उठिए, सरकार. आज से हम दोनों रोज नियमित रूप से घूमने जाया करेंगे.’’

‘‘यार, तुम्हें जाना हो तो जाओ पर मुझे सोने दो,’’ मैं ने फिर से रजाई में घुसने की कोशिश की.

‘‘नहीं जनाब, ऐसे नहीं चलेगा. अगर आप मेरा साथ नहीं देगे तो मैं और मोटी हो जाऊंगी. क्या आप मुझे मानसी की तरह सुंदर और स्मार्ट बनता नहीं देखना चाहते हो?’’

अंजु की बात सुन कर मैं उठ बैठा और फिर बोला, ‘‘तुम उस के जैसा नकली पीतल नहीं, बल्कि खरा सोना हो. बेकार में उस के साथ अपनी तुलना कर के टैंशन में मत आओ.’’

अंजु ने अपनी बांहों का हार मेरे गले में डाल कर कहा, ‘‘टैंशन में मैं नहीं, बल्कि आप नजर आ रहे हो.’’

‘‘मैं टैंशन में नहीं हूं,’’ मैं ने उस से नजरें चुराते हुए जवाब दिया.

‘‘मैं आप के हर मूड को पहचानती हूं, जनाब. मुझ से कुछ भी छिपाने की कोशिश बेकार जाएगी.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘मतलब यह कि मेरी मानसिक सुखशांति की खातिर आप की झूठ बोलने की आदत बहुत पुरानी है.’’

‘‘तुम्हारी बात मेरी समझ में नहीं आ रही है. मैं ने कब तुम से झूठ बोला है?’’

अंजु ने हलकेफुलके अंदाज में जवाब दिया, ‘‘मैं बताती हूं. जब हमारे पास कार नहीं थी तो आप कार की कितनी बुराई करते थे. कार के पुरजे महंगे आते हैं, सर्विसिंग महंगी होती है, पैट्रोल का खर्चा बहुत बढ़ जाता है, मुझे ड्राइव करना अच्छा नहीं लगता और भी न जाने आप क्याक्या कहते थे.’’

‘‘तुम कहना क्या चाह रही हो?’’

‘‘पहले एक और बात सुनो और फिर मैं आप के सवाल का जवाब दूंगी.

जब समीर के ऐडमिशन का समय आया तो आप महंगे पब्लिक स्कूलों के कितने नुक्स गिनाते थे. वहां पढ़ने वाले अमीर मांबाप के बच्चे छोटी उम्र में बिगड़ जाते हैं, बच्चे को अच्छे संस्कार घर में मिलते हैं स्कूल में नहीं, जैसी दलीलें दे कर आप ने मेरे मन को शांत और खुश रखने की सदा कोशिश की थी.’’

‘‘मैं जो कहता था वह गलत नहीं था.’’

‘‘मैं यह नहीं कह रही हूं कि आप गलत कहते थे.’’

‘‘मैं वही कह रही हूं, जो मैं ने शुरू में कहा था. मेरे मन की सुखशांति के लिए आप दलीलें गढ़ सकते हो, लेकिन ऐसे मौकों पर आप की जबान जो कहती है वह आप की आंखों के भावों से जाहिर नहीं होता है.’’

‘‘तुम्हारी बातें मेरी समझ में नहीं आ रही हैं.’’

‘‘देखिए, जब आप कार की बुराई करते थे तब हम कार नहीं खरीद सकते थे. लेकिन जब कार घर में आई तो आप कितने खुश हुए थे.

फिर जब समीर को अच्छे स्कूल में ऐडमिशन मिल गया तो भी आप की खुशी का ठिकाना नहीं रहा था.’’

‘‘अब यह भी समझा दो कि तुम ये पुरानी बातें आज क्यों उठा रही हो?’’

‘‘क्योंकि आज भी आप की जबान पर कुछ और है और दिल में कुछ और. आज भी मेरे मन के सुकून की खातिर आप मानसी जैसी सुंदर, स्मार्ट महिला की बुराई कर रहे हो. लेकिन कल रात मैं ने देखा था कि जब भी आप सहज हो कर उस से बातें करते थे तो आप की आंखें खुशी से चमक उठती थीं.’’

‘‘सचाई यह भी है कि मानसी के मुकाबले मैं मोटी और अनाकर्षक लगती हूं. तभी अपनी पुरानी आदत के अनुरूप आप ने अपना सुर बदल लिया है. लेकिन…’’

‘‘लेकिन क्या?’’

‘‘लेकिन आप मुझे हीनभावना का शिकार बनने से बचाने के लिए न मानसी की बुराई करो और न ही उन के साथ परिचय गहरा करने से कतराओ. कार और समीर के ऐडमिशन का संबंध हमारी माली हालत से था पर यह मामला भिन्न है. मैं भली प्रकार समझती हूं कि अपने व्यक्तित्व को आकर्षक बनाने का प्रयास मुझे ही करना होगा. तभी मैं ने अपने में बदलाव लाने की कमर कस ली है.

‘‘आप बनावटी व्यवहार से मुझे झूठी तसल्ली दे कर मेरे मन की सुखशांति बनाए रखने की चिंता छोड़ दो. आप के सहज अंदाज में खुश रहने से ही हमारे बीच प्यार की नींव मजबूत होगी.

‘‘आप के सहयोग से मैं अपने लक्ष्य को बहुत जल्दी पा लूंगी. इसीलिए मेरी प्रार्थना है कि कुछ देर और सोने का लालच त्याग कर मेरे साथ घूमने चलिए.’’

‘‘यार, तुम तो बहुत समझदार हो,’’ मैं ने दिल से उस की प्रशंसा की.

‘‘और प्यारी भी तो कहो,’’ अंजु इतरा उठी.

‘‘बहुतबहुत प्यारी भी हो… मेरे दिल की रानी हो.’’

‘‘थैंकयू. अगले संडे हम मानसी के घर चलेंगे न?’’

‘‘श्योर.’’

‘‘और अभी मेरे साथ पार्क में घूमने चल रहे हो न?’’

‘‘जरूर चल रहा हूं पर वैसे इस वक्त मैं तुम्हारे साथ कहीं और होना चाहता हूं,’’ मेरी आवाज नशीली हो उठी.

‘‘कहां?’’

‘‘इस रजाई की गरमाहट में.’’

‘‘अभी सारा दिन पड़ा है. पहले पार्क चलो,’’ मेरी आंखों में प्यार से झांकते हुए अंजु का चेहरा लाजशर्म से लाल हो उठा तो वह मेरी नजरों में संसार की सब से खूबसूरत औरत बन गई थी.  Hindi Stories Love

Love Story In Hindi : मौन स्वीकृति – रितु-रवि भी प्यार के एहसास में डूब गए

Love Story In Hindi : उस समय मैं एमए फाइनल ईयर में थी. परीक्षा की तारीख नजदीक थी. तैयारी के लिए अपने कालेज की लाइब्रेरी में कुछ महत्त्वपूर्ण नोट्स तैयार करने में लगी हुई थी. मेरी ही टेबल पर सामने एक लड़का भी अपने कुछ नोट्स तैयार करने में लगा था. मैं लंच ब्रेक में लाइब्रेरी जाती और वह लड़का भी उसी समय मेरे ठीक सामने आ कर बैठ जाता. एक दिन जब मैं लाइब्रेरी की अलमारी से कुछ किताबें हाथों में ले कर आ रही थी तभी उस के पास पहुंचते ही उन में से कुछ किताबें फिसल कर उस के पैरों पर जा गिरीं.

‘‘सौरी,’’ बोलते हुए मैं पुस्तकों को उठाने लगी. उस ने किताबों को उठाने में मेरी मदद की और मेरे हाथों में उन्हें थमाते हुए बोला, ‘‘नो प्रौब्लम, कभीकभी ऐसा हो जाता है.’’

उस के बाद हम दोनों में अकसर बातें होने लगीं. बातचीत से पता चला कि वह गांव का रहने वाला एक गरीब विद्यार्थी था जो एमए की तैयारी कर रहा था और उस का मकसद बहुत ऊंचा था. वह एमए करने के बाद सिविल सर्विसेज की तैयारी करना चाहता था. वह अपने कुछ साथियों के साथ एक कमरा किराए पर ले कर रहता था और वे लोग अपना खाना खुद बनाते थे और बहुत ही कम पैसे में अपनी पढ़ाई पूरी करना चाहते थे. वे सभी किसानों के लड़के थे. उस का नाम रवि था.

रवि गरीब जरूर था लेकिन शरीर से सुडौल और मन से शांत चित्त वाला एक बहुत ही अच्छे स्वभाव का मधुरभाषी व दूसरों की मदद करने की भावना लिए एक हंसमुख लड़का था. कभीकभी बहुत आग्रह करने पर रवि मेरे साथ कालेज के कैफेटेरिया में जाता और एक कप चाय से ज्यादा कुछ नहीं लेता. जबरन चाय का पैसा मैं ही देती.

लगातार कई दिनों तक एक ही टेबल पर एकसाथ नोट्स बनाते हुए एकदूसरे के प्रति काफी लगाव महसूस होने लगा और जब कभी रवि कालेज की लाइब्रेरी में नहीं आता तो मेरा मन उस के लिए बेचैन हो उठता. उस का भी एमए फाइनल था किंतु उस का सब्जैक्ट अलग था, इसलिए मेरी कक्षा में नहीं बैठता था.

मेरे पिताजी एक उच्च सरकारी पदाधिकारी थे और मां के गुजर जाने के बाद मैं ही उन के लिए बेटीबेटा सबकुछ थी. मैं जो कुछ चाहती, पिताजी मुझे उपलब्ध कराते. मैं इकलौती बेटी थी. घर में कोई कमी नहीं थी. पिताजी ने हैदराबाद में एक फ्लैट खरीदा था. रिटायरमैंट के बाद वे वहीं रहने लगे थे.

एमए करने के बाद हम दोनों अलगअलग हो गए. रवि एमए करने के बाद सिविल सर्विसेज के लिए  कंपीटिशन की तैयारी करने लगा.

कई कंपीटिशन की तैयारी करते हुए अंत में मुझे इनकम टैक्स औफिसर की नौकरी मिल गई. रवि किसी जिले में फौरैस्ट औफिसर बन गया. अलगअलग क्षेत्र में होने के कारण हमारा संबंध भी टूट गया.

इनकम टैक्स औफिसर के रूप में मेरे साथ ही प्रवीण का भी चयन हुआ था. प्रवीण लंबा, गोरा और स्मार्ट था. हमारी ट्रेनिंग दिल्ली में थी. जिस इंस्टिट्यूट में टे्रनिंग हो रही थी उसी बिल्डिंग में हमारा होस्टल भी था, किंतु हमारा एकदूसरे से महज औपचारिक संबंध था.

एक दिन शाम को ट्रेनिंग के बाद मैं शौपिंग करने बाजार गई थी. वहां प्रवीण भी मिल गया.

‘‘अकेले ही शौपिंग करने आई हो?’’ प्रवीण ने मुसकराते हुए पूछा. ‘‘हां,’’ उसे देख कर जाने कैसे मेरे चेहरे पर भी मुसकराहट बिखर गई.

‘‘शौपिंग हो गई कि अभी बाकी है?’’

‘‘हो गई,’’ मैं ने संक्षिप्त जवाब दिया.

‘‘फिर चलो, कौफी पी कर होस्टल लौटते हैं.’’

प्रवीण के आग्रह को मैं ठुकरा न पाई और हम दोनों एक कौफी हाउस में आ कर एक टेबल पर बैठ गए. ‘‘तुम कहां के रहने वाले हो?’’ मैं ने पूछा तो प्रवीण बोला, ‘‘मेरठ. वहां मेरे पिताजी की  होलसेल की 4 दुकानें हैं.’’

‘‘अच्छा, तो तुम बिजनैसमैन हो.’’

‘‘हां, लेकिन अब तो नौकरी में हूं.’’

‘‘अच्छा है, कम से कम अब बेवजह इनकम टैक्स वाले तुम्हारे परिवार को तंग नहीं करेंगे.’’

‘‘हां, कुछ तो फायदा होगा ही.’’

कौफी पी कर हम लोग एक ही औटो में होस्टल आए. इस के बाद हम लोग ट्रेनिंग के दौरान रिसेस में एकसाथ चाय पीते, लंच भी साथ लेते और कभीकभी डिनर में भी साथ हो जाते. टे्रनिंग के बाद अकसर हम लोग मार्केट निकल जाते. सारे खर्च प्रवीण ही करता. जब कभी मैं पेमैंट करने की कोशिश करती, वह रोक देता.

यह संयोग ही था कि ट्रेनिंग के बाद मेरी पोस्ंिटग मेरठ में हो गई और उस की हैदराबाद में. प्रवीण को एक दिन मैं अपने पिताजी से मिलाने ले गई. प्रवीण ने उन्हें प्रणाम किया और सोफे पर पसर गया.

‘‘यह प्रवीण है, इसी शहर में इनकम टैक्स औफिसर है.’’

‘‘तुम लोग कहां के रहने वाले हो, बेटा?’’ पिताजी ने पूछा तो उस ने सोफे पर पसरे ही पसरे कहा, ‘‘मेरठ.’’

‘‘तुम्हारे पिताजी क्या करते हैं?’’

‘‘इस के परिवार का बहुत बड़ा बिजनैस है पापा,’’ मैं बोली तो पापा कुछ बोले तो नहीं किंतु उन के हावभाव से लग रहा था प्रवीण के व्यवहार से वे संतुष्ट नहीं हैं.

उस के बाद प्रवीण उन से कभी न मिला. किंतु मैं अकसर प्रवीण के मांबाबूजी से मिलती. उन का व्यवहार मेरे प्रति बहुत अच्छा था. वे लोग मुझे बेटी सा मानते. कुछ न कुछ इनकम टैक्स से संबंधित उन का काम रहता, जिसे मैं अपने पद के प्रभाव से जल्दी निबटा देती.

हम दोनों के बीच संबंध गहराता जा रहा था. जब प्रवीण मेरठ आता तो मेरे क्वार्टर में मुझ से मिलने अवश्य आता. हम शाम में एकसाथ डिनर लेते. प्रवीण को रात में खाने से पहले डिं्रक की आदत थी. मैं उसे ड्रिंक लेने से रोकती तो वह हंस कर टाल जाता. मैं सोचती कि किस अधिकार से प्रवीण को डिं्रक लेने से रोकूंगी, इसलिए वह नहीं मानता, तो चुप हो जाती.

एक दिन प्रवीण मेरे क्वार्टर में आया हुआ था. उस दिन मैं ने नौनवेज बनाया था और प्रवीण अपने साथ व्हिस्की की एक बोतल लेते आया था. उस दिन उस ने कुछ ज्यादा ही पी ली थी और उस का सुरूर उस पर चढ़ने लगा था.

मैं ने कहा, ‘‘ड्रिंक की आदत अच्छी नहीं है. धीरेधीरे तुम इस के आदी बनते जा रहे हो. आज तो तुम ने कुछ ज्यादा ही ले ली है. अब घर कैसे जाओगे?’’

‘‘यार, आज यहीं सो जाता हूं. घर पर इस अवस्था में जाऊंगा तो मांबाबूजी को बुरा लगेगा. मैं पीता जरूर हूं लेकिन उन से छिपा कर. बाबूजी जानेंगे तो उन्हें बहुत दुख होगा.’’

‘‘लेकिन तुम्हारे बाबूजी खोजेंगे. तुम घर चले जाओ. ड्राइवर को बोल देती हूं, तुम्हें पहुंचा देगा.’’

‘‘नहीं, आज यहीं सोने दो. ड्राइवर से बाबूजी पूछेंगे और कहीं वह सचसच बता देगा तो यह और बुरा होगा.’’

‘‘लेकिन मेरे यहां तो एक ही बैड है. यहां अब तक कोई आया ही नहीं, इसलिए इस की आवश्यकता नहीं महसूस हुई.’’ मैं अब चिंतित होने लगी थी.

‘‘तुम चिंता मत करो, मैं नीचे सो जाऊंगा.’’

‘‘बाबूजी को फोन कर दो. तब तक मैं अपने सोने का इंतजाम करती हूं.’’

मैं ने सोचा आज डाइनिंग टेबल पर ही बैड लगा देती हूं.

प्रवीण ने अपनी मां को फोन कर के बताया कि वह आज अपने दोस्त के साथ रह गया है. कल आएगा. उस ने जानबूझ कर मेरे साथ रहने के बारे में न बताया. अब यह बताता भी कैसे कि वह मेरे साथ रात में अकेले रुका हुआ है. लोग जानेंगे तो क्या कहेंगे.

उस का मेरे घर में अकेले रुकना मुझे भी अच्छा नहीं लग रहा था. आखिर वह पुरुष है. देररात में उस ने कुछ गलत करने का प्रयास किया तो मैं अकेले उस का कैसे विरोध कर पाऊंगी.

लेकिन अब और कुछ हो भी नहीं सकता था. मैं ने अपना बैड डाइनिंग टेबल पर लगाया तो वह बोला, ‘‘मैं तुम्हारे बैड पर सोऊं और तुम डाइनिंग टेबल पर, यह अच्छा नहीं लगता. तुम अपने कमरे में सो जाओ. मैं ही डाइनिंग टेबल पर सो जाता हूं.’’

‘‘लेकिन यह अच्छा नहीं होगा, आखिर तुम मेरे गेस्ट भी तो हो.’’

इन्हीं तर्कवितर्क में कब वह नशे में आ कर बैड पर सो गया, पता ही नहीं चला. फिर जब मैं डाइनिंग टेबल पर सोने गई तो पतला बैड होने के कारण उस पर मुझे नींद नहीं आ रही थी, साथ ही उस पर से रात में ढुलक कर गिरने का भी भय लग रहा था. सो, मैं ने सोचा कि प्रवीण अब होश में तो है नहीं, क्यों न मैं पलंग पर किनारे सो जाऊं.

फिर नींद में प्रवीण जाने कब मेरे पास सरक आया. जीवन में पहली बार किसी पुरुष की देह को इतनी नजदीक पा कर मैं अपने होश खो बैठी और हम सारी मर्यादाएं भूल कर एक हो गए.

जब सुबह नींद टूटी तो हम अस्तव्यस्त कपड़ों में एकदूसरे से लिपटे सो रहे थे. मैं झटके से अलग हटी. मुझे लगा मुझ से एक बड़ी गलती हो गई है. हां, गलती तो मेरी ही थी. मैं ही तो उस के साथ पलंग पर सो गई थी. अगर ऐसा नहीं करती तो यह शर्मनाक घटना न घटती.

प्रवीण भी आंखें नीची किए हुए उठा और गुसलखाने चला गया. जब वह लौटा तब मैं मायूस सा चेहरा बनाए बैठी थी. वह किचन में चाय बनाने चला गया. मैं जानती थी कि उसे किचन में चाय का सामान नहीं मिलेगा. इसलिए बिना कुछ बोले दूध, चाय पत्ती और चीनी उस के सामने रख कर चली आई. वह एक ट्रे में 2 कप चाय ले कर आया और मेरी तरफ एक कप चाय बढ़ाते हुए कहा, ‘‘चाय पियो, जो होना था हो गया.’’

‘‘लेकिन यह अच्छा नहीं हुआ,’’ मैं दुखी हो कर बोली.

‘‘अब जानबूझ कर तो हम ने कुछ किया नहीं, रितु. कभीकभी वह हो जाता है जो हम नहीं चाहते. लेकिन चिंता न करो हम जल्दी ही शादी कर लेंगे.’’

‘‘लेकिन तुम्हारे मांबाबूजी इस के लिए तैयार होंगे तब तो?’’

‘‘उन्हें मैं मना लूंगा. वे हमेशा ही तुम्हारी प्रशंसा करते हैं.’’

‘‘लेकिन मेरे पापा न मानेंगे.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘वे अपने एक दोस्त के बेटे से मेरा रिश्ता करना चाहते हैं.’’

‘‘अब यह जिम्मेदारी तुम्हारी है कि उन्हें कैसे मनाओगी.’’

उस रात के बाद हम लोग अकसर रात एकसाथ बिताते.

प्रवीण ने अपने मांबाबूजी से कहा तो कुछ नानुकुर के बाद वे लोग हमारी शादी के लिए तैयार हो गए. हालांकि बिजनैसमैन कम्युनिटी के उस के कई रिश्तेदार अपनी लड़की से उस की शादी के लिए जोर दे रहे थे किंतु मेरे साथ शादी की उस की जिद पर सभी चुप हो गए.

मैं अपने बाबूजी की इकलौती बेटी थी. मां के निधन के बाद उन्होंने मुझे बेटे जैसा पालापोसा था. मेरी जिद के आगे उन्हें भी झुकना पड़ा और आखिरकार हम लोग विवाह के बंधन में बंध गए.

शादी का हवाला दे कर हम लोगों ने अपनी पोस्टिंग अगलबगल के ही जिलों में करा ली. शादी के पहले प्रेमीप्रेमिका के बीच जो संबंध होते हैं वे बड़े ही मधुर और उल्लासवर्धक होते हैं क्योंकि एकदूसरे को पाने के लिए उन के दिलों में जज्बा होता है. किंतु जब प्रेमीप्रेमिका आपस में शारीरिक संबंध बना लेते हैं तब इस का आकर्षण धीरेधीरे कम होने लगता है.

हम लोगों के बीच भी यही हो रहा था. शादी के बाद कुछ महीनों तक तो हम लोग एकदूसरे के साथ बड़े ही उल्लास से मिलते रहे, किंतु बाद में धीरेधीरे प्रवीण के व्यवहार में परिवर्तन होने लगा. शुक्रवार को कभी मैं उस के यहां चली जाती और कभी वह मेरे यहां आ जाता क्योंकि हमारे औफिस में शनिवार को छुट्टी रहती थी.

लेकिन इधर मैं देख रही थी कि वह न तो मेरे यहां आना चाह रहा है, न मेरा उस के यहां जाना उसे पसंद आ रहा है. वह कुछ कहता तो नहीं था लेकिन मैं उस के हावभाव से महसूस कर रही थी कि उस का ध्यान मुझ से हट कर कहीं और भटक रहा है.

जब मैं कभी उस से अपने यहां आने के लिए कहती तो वह काम के बोझ का बहाना बना कर टाल देता और जब कभी मैं उस के यहां पहुंच जाती तो औफिस का वर्कलोड बता कर रात में देर से लौटता.

एक दिन शाम को मैं सप्ताहांत में प्रवीण के यहां पहुंची. प्रवीण अभी औफिस से नहीं लौटा था. हम लोगों के पास एकदूसरे के क्वार्टर की चाबी रहती थी. मैं ने देखा कि उस के वार्डरोब में कपड़े बेतरतीब ढंग से रखे हुए थे. सोचा, प्रवीण अकेले रहता है, इसलिए कपड़ों को जैसेतैसे रख देता है. फिर मैं इन कपड़ों को एकएक कर निकालने लगी ताकि उन्हें तह कर के ढंग से रख सकूं. तभी छोटा सा जेवरों का डब्बा नीचे गिर गया. मैं ने उसे खोल कर देखा तो उस में एक बहुत ही कीमती प्लेटिनम धातु में जड़ी हीरे की अंगूठी थी. मैं सोचने लगी कि इस अंगूठी के बारे में तो प्रवीण ने मुझे कभी नहीं बताया. यह कहां से आई और यहां अलमारी में कपड़ों में छिपा कर क्यों रखी हुई है. फिर मैं ने सोचा या तो प्रवीण को इसे किसी ने रिश्वत में दी होगी या किसी प्रेमिका को देने के लिए उस ने खरीदी होगी और मैं देख न लूं, इसलिए इसे यहां छिपाया है.

फिर मुझे संदेह हुआ कि कहीं यह रिश्वत में मिली अंगूठी तो नहीं है क्योंकि अगर उसे अंगूठी अपनी किसी प्रेमिका को देनी होती तो उस से पसंद करा कर उसे तुरंत दे दी होती. यहां छिपा कर नहीं रखता. इसलिए मैं दूसरे रखे और कपड़ों को भी वहां से हटाने लगी तो देखा, 2 हजार रुपयों की कई गड्डियां कपड़ों में रखी हुई हैं.

यह देखते ही मेरे तो होश ही उड़ गए. अभी हम दोनों की सर्विस नईर् थी और उस ने लोगों से रिश्वत लेना शुरू कर दिया था. मैं प्रवीण की प्रतीक्षा करने लगी और यह सोचा कि आने के बाद उसे समझाने की कोशिश करूंगी कि यह काम ठीक नहीं है, जल्दी से जल्दी इसे छोड़ दे वरना वह किसी मुसीबत में फंस सकता है और नौकरी भी जा सकती है.

प्रवीण अपनी आदत के अनुसार रात 8 बजे लौटा.

मैं ने पूछा, ‘‘इतनी देर कहां लगा दी?’’

‘‘अब तुम से क्या बताऊं? औफिस में बहुत काम रहता है. देर हो ही जाती है.’’

‘‘अच्छा यह बताओ, इतना कैश घर में कहां से आया और यह हीरे की अंगूठी?’’

मेरी बात सुन कर पहले तो वह झेंपा, फिर बोला, ‘‘अरे, यह मेरे एक मित्र की है.’’

‘‘तो इन को तुम ने अपने घर में क्यों रखा है?’’

अचानक ही यह सब घटित हो गया था. सच तो यह था कि वह ऐसे हालात के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं था. उस से कोई जवाब देते नहीं बना तो बोला, ‘‘एक पार्टी ने काम से खुश हो कर दे दिया था.’’

‘‘आखिर हमारे पास क्या नहीं है प्रवीण, जो हमें रिश्वत लेने की जरूरत पड़े? घर का अच्छा बिजनैस है, अच्छी आमदनी है. फिर यह अनैतिक काम क्यों. सोचो, हम क्या करेंगे इतने पैसे का. फिर कोई भी रिश्वत गलत काम के लिए ही देता है और सरकार को टैक्स चोरी के कारण इस से काफी नुकसान होता है. कभी न कभी गलत काम करने वाले फंस जाते हैं.’’

‘‘अब कौन ऐसा है जो रिश्वत नहीं लेता, फिर ईमानदारी का ठीकरा हमारे ही सिर पर क्यों?’’ प्रवीण बौखला कर बोला, ‘‘मौका मिलने पर औफिस का चपरासी भी अपने स्तर से कुछ न कुछ वसूलता है.’’

‘‘अब ये बातें रिश्वत को सही तो नहीं ठहराएंगी न.’’ प्रवीण को समझाने का मैं ने बहुत प्रयत्न किया किंतु मेरी बातों का उस पर कोई असर नहीं पड़ा. दूसरे दिन मैं लौट आई.

प्रवीण को शराब पीने की आदत तो पहले से ही थी. अब वह और भी महंगी शराब पीने लगा. वह कई पार्टियों में जाने लगा. बाद में मुझे कई स्रोतों से खबर मिली कि वह रात में किसी होटल में कौलगर्ल के साथ अपनी रातें रंगीन करता है.

एक दिन कुछ आवश्यक कार्य से मुझे अचानक हैदराबाद जाना पड़ा. मैं ने प्रवीण को फोन लगाया. लेकिन उस का फोन स्विचऔफ बता रहा था, इसलिए सीधे उस के क्वार्टर में पहुंची. उस समय रात के 9 बज रहे थे. मैं ने होटल से अपने लिए खाना पैक करवा लिया था.

घंटी की आवाज सुन कर भी जब प्रवीण ने दरवाजा नहीं खोला तो मेरा मन आशंका से भर उठा. मैं ने फिर उसे फोन लगाने का प्रयत्न किया, किंतु अभी भी उस का फोन स्विचऔफ बता रहा था.

फिर मैं ने दरवाजा नौक किया. उस ने दरवाजा खोला तो मैं ने पूछा, ‘‘दरवाजा खोलने में इतनी देर क्यों हुई?’’ सुनते ही प्रवीण बौखला गया और गुस्से में बोला, ‘‘तुम्हें फोन कर के आना था.’’

‘‘लगातार 2 घंटे से प्रयत्न कर रही हूं, तुम्हारा फोन स्विचऔफ बता रहा है. अचानक हैदराबाद आना पड़ गया, जल्दी में मैं तुम्हें खबर नहीं कर पाई.’’

वह कुछ नहीं बोला. जब मैं अंदर गई तो जो दृश्य देखा उस ने मुझे पूरी तरह हिला कर रख दिया. अंदर टेबल पर शराब की बोतलें और गिलास पड़े हुए थे. एक लड़की बगल में बैठी हुई थी.

‘‘यह कौन है?’’

उस ने झूठ छिपाने का प्रयत्न करते हुए कहा, ‘‘मेरे रिश्तेदार की एक लड़की है. परीक्षा देने आई थी. रात होने के कारण यहां आ गई.’’

लड़की के हावभाव और बोलचाल से मैं तुरंत ही समझ गई कि यह कोई बाजारू लड़की है और किसी पार्टी द्वारा भेजी हुई है.

अब मैं समझ गई इस शख्स के साथ मेरी जिंदगी नरक बन गई है और अब आगे इस के साथ जीवन निर्वाह संभव नहीं है. जिस दांपत्य जीवन में पति द्वारा पत्नी के विश्वास का लगातार हनन किया जा रहा हो, जिस की भावनाओं को कुचला जा रहा हो और जहां अनैतिकता का बोलबाला हो उस को ढोना स्वयं पर जुल्म करने जैसा ही है.

लड़की सहमी, डरी हुई और सिकुड़ कर बैठी थी.

मैं बोली, ‘‘अब तुम्हारे साथ मैं एक मिनट भी न रहूंगी.’’

‘‘तुम्हें मैं ने क्या तकलीफ दी है जो तुम मुझ से इतनी नाराज हो, तुम्हें कभी डांटा, कभी मारापीटा या कभी तुम्हारे व्यक्तिगत जीवन में दखल दिया?’’

‘‘नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं किया प्रवीण, किंतु जो किया इस से ज्यादा घातक है. मेरी गलती पर तुम मुझे डांटते, मारपीट भी देते या हमारे दांपत्य जीवन में जहर घोलने वाले मेरे व्यक्तिगत जीवन में दखल भी देते तो मैं बिलकुल बुरा नहीं मानती क्योंकि इतना तो पति के नाते तुम्हारा अधिकार बनता ही है. लेकिन जो तुम कर रहे हो वह मुझ से सहन नहीं होता. तुम मेरी जिंदगी में अचानक आए थे, परिथितियां ऐसी बनीं कि हम दोनों वैवाहिक जीवन में बंध गए. तुम रिश्वत लेने लगे, उस का मैं ने विरोध किया लेकिन इस से मैं उतनी आहत न हुई. मुझे लगता था कि तुम समझ जाओगे लेकिन तुम न समझे और एक नया घटिया तरीका अपना लिया.’’

प्रवीण कुछ न बोला. मेरी बातों में सचाई थी जिस के प्रतिकार का उस के पास नैतिक बल नहीं था.

मैं निकलने लगी तो उस ने रोका. लेकिन मैं अब रुकना नहीं चाहती थी, क्योंकि मैं अब उस जैसे अनैतिक इंसान के साथ नहीं रहना चाहती थी.

मैं उस रात होटल में रही. जानबूझ कर पापा के पास नहीं गई. सोचा, पापा इतनी रात को आने का कारण पूछेंगे तो क्या जवाब दूंगी, कहीं गुस्से में सचाई मुंह से निकल गई तो उन्हें काफी तकलीफ होगी.

रातभर एक झंझावात से मेरा दिमाग घूमता रहा. क्या मैं ने यह उचित किया? क्या मुझे प्रवीण को संभलने का एक और मौका देना चाहिए था? क्या वैवाहिक जीवन को खत्म करने का यह फैसला जल्दी में लिया गया है?

लेकिन मेरे दिल के किसी कोने से आवाज आई. वह वैवाहिक जीवन ही कैसा जो इस की मर्यादाओं का पालन न करे. सच तो यह था कि वैवाहिक जीवन में बंधने का मेरा यह फैसला ही जल्दी में लिया गया था. यह मेरी एक गलती का परिणाम था. मुझ से प्रवीण को ही समझने में गलती हुई थी. पापा उसे एक ही मुलाकात में समझ गए थे जब उस ने उन्हें प्रणाम किया था और उन के सामने ही वह सोफे पर पसर गया था. पापा ने उस के अंदर तक झांक लिया था.

जब मैं ने पापा से प्रवीण से शादी की इजाजत मांगी थी, उन्होंने इस का पुरजोर विरोध किया था, लेकिन उस समय मैं प्रवीण के प्यार में पागल थी. उन के इशारों को मैं न समझ पाई थी. यह बात मुझे समझ में नहीं आईर् कि हमारे बुजुर्गों के पास एक लंबे समय का अनुभव होता है और वह अनुभव हमें कई परेशानियों से बचा सकता है. किंतु अब क्या हो सकता था. मैं दूसरे दिन मेरठ लौट आई और इस विषय पर सलाह लेने के लिए शहर के एक सीनियर वकील से मिली.

प्रवीण से तलाक लेने के लिए एक ठोस साक्ष्य की जरूरत थी जो मेरे पास नहीं था. म्यूचुअल डिवोर्स के लिए प्रवीण तैयार होगा, इस पर मुझे संदेह था. फिर भी मैं ने सोचा, क्यों न प्रवीण से इस बिंदु पर चर्चा की जाए. शायद तैयार ही हो जाए. अभी हमारी शादी को एक वर्ष से कुछ ही दिन ज्यादा हुए थे और हमारे अब तक कोई बच्चा नहीं था. यह अच्छा ही था क्योंकि पतिपत्नी के तलाक के बीच सब से ज्यादा बच्चे ही परेशान होते हैं. उन्हें न मां का पूरा प्यार मिल पाता है न पिता का और जीवन की शुरुआत से वे एक तल्ख जीवन जीने के लिए मजबूर हो जाते हैं और उन का बचपन मातापिता के झगड़े में तनाव व चिंता में बीतने लगता है.

उस दिन के बाद से मैं ने न प्रवीण को फोन किया और न ही उस ने मुझ से बात करने की कोशिश की. हमारे बीच पैदा हुई खाई दिनोंदिन और गहरी होती जा रही थी. एक दिन इनकम टैक्स के सभी अफसरों की मीटिंग के लिए हैडक्वार्टर से बुलावा आया था. जब मीटिंग हौल में मेरी प्रवीण से मुलाकात हुई तो वह मुझ से अपनी नजरें बचाता हुआ दूसरे मित्रों से बात करने लगा.

‘‘अरे भाभी, आप से प्रवीण की कुछ अनबन चल रही है क्या. आप लोगों को आपस में बातें करते नहीं देखा,’’ रिषि ने पूछा तो मैं ने उस से इधरउधर की बातें कर के प्रसंग को टाल दिया. लेकिन बातों को टालने से सचाई तो खत्म नहीं हो जाती. हमारे बीच की तनातनी ने हमारे कई साथियों के मन में संदेह पैदा कर ही दिया.

जब शाम को मीटिंग खत्म हुई तो मैं प्रवीण के पास जा कर बोली, ‘‘प्रवीण, हम लोगों के बीच जो मसले हैं वे आसानी से हल होने वाले नहीं लगते. इस तरह घुटघुट कर जीवन जीने से तो अच्छा है कि हम दोनों अलग हो जाएं. अगर तुम कोऔपरेट करोे तो हम दोनों म्यूचुअल डिवोर्स ले लें.’’

‘‘तुम तो ऐसी बात करती हो जैसे डिवोर्स बच्चों का खेल हो. जब चाहे शादी कर ली, जब चाहे डिवोर्स ले लिया.’’

‘‘तो तुम ही बताओ क्या करें हम. जो तुम कर रहे हो, क्या सही है?’’

‘‘तुम गलतफहमी की शिकार हो. वैसा कुछ नहीं है जैसा तुम समझ रही हो.’’

‘‘प्रवीण, अगर तुम्हारे व्यवहार में परिवर्तन हो जाता है और तुम आगे कोई ऐसा काम नहीं करोगे जिस से मुझे तुम से कोई भी शिकायत हो तो मैं डिवोर्स की बात वापस ले लूंगी.’’

‘‘प्रौमिस, अब आगे तुम्हें मुझ से कोई शिकायत न होगी.’’

मैं ने प्रवीण की बातों पर विश्वास कर लिया और एक बार फिर हमारा आपस में मिलनाजुलना शुरू हो गया. किंतु प्रवीण में कोईर् सुधार नहीं हुआ. वह मुझ से झूठे वादे करता रहा और रिश्वत का खेल खेलता रहा. हां, अब वह किसी कौलगर्ल को घर में बुलाने की जगह उन्हें होटल ले जाने लगा और आखिरकार, वही हुआ जिस का मुझे भय था. विजिलैंस वालों ने उसे रंगेहाथों पैसा लेते हुए पकड़ लिया और जेल भेज दिया.

विजिलैंस वालों ने छापा मार कर उस के क्वार्टर से एक करोड़ से भी ज्यादा नकदी रुपए जब्त किए. उस हीरे की अंगूठी के साथ अन्य कई जेवरात भी बरामद हुए थे. साथ ही, कई अन्य आपत्तिजनक दस्तावेज भी बरामद किए गए थे.

पत्नी होने के कारण विजिलैंस वालों ने मेरे क्वार्टर में भी छापा मारा किंतु मेरे यहां उन्हें कोई भी आपत्तिजनक वस्तु न मिली. कहते हैं न कि विपत्ति आती है तो अकेले नहीं आती. उधर मेरठ में सीबीआई ने प्रवीण के परिवार वालों के कई बिजनैस ठिकानों पर एकसाथ छापा मारा और आयकर चोरी के कई मामले पकड़े. प्रवीण और उस का परिवार चारों तरफ से बुरी तरह से फंस गया था.

इस दौरान मैं निरपेक्ष रही. आखिर मैं कर भी क्या सकती थी. मैं ने कोशिश कर के प्रवीण की कोर्ट से बेल करवाई. उस के बाबूजी भी सीबीआई की गिरफ्त में आ गए थे और उन्हें भी जेल भेज दिया गया था. दौड़धूप कर उन की भी बेल करवाई, किंतु अंत बड़ा ही भयानक ढंग से हुआ. प्रवीण को कई वर्षों के ट्रायल के बाद रिश्वत और आय से अधिक इनकम के कारण नौकरी से बरखास्त कर दिया गया. उस के परिवार के कई ठिकानों को सीबीआई ने बंद करवा दिया.

अब प्रवीण बेरोजगार था और अपने परिवार के बचेखुचे बिजनैस को संभालने में लग गया था. अब उस के साथ मेरा किसी भी हालत में साथ रहना संभव नहीं था, इसलिए मैं ने कोर्ट में तलाक की अर्जी दी और प्रवीण के खिलाफ कई अनैतिक आचरण व मेरे प्रति उस के गलत व्यवहार को ध्यान में रखते हुए कोर्ट ने मेरी तलाक की अर्जी मंजूर कर ली.

अब एक कहानी का पटापेक्ष हो गया था. मैं इसे एक सपना समझ कर भूल जाना चाहती थी. किंतु पापा बहुत चिंतित थे. वे जानते थे कि एक तलाकशुदा स्त्री की क्या स्थिति होती है. समाज उसे हेय दृष्टि से देखता है. उस के साथ शादी करने के लिए कोई लड़का आसानी से तैयार नहीं होता.

उस समय गरमी की छुट्टियां थीं. मैं पापा के पास हैदराबाद आई हुईर् थी. पापा बोले, ‘‘बेटी, गोवा के लिए फ्लाइट बुक करा लो. तुम्हारा मन बहल जाएगा.’’

दूसरे दिन मैं ने फ्लाइट बुक कराई और हम लोग गोवा आ गए. हमें 2-3 दिनों तक गोवा रुकना था. पापा के कहने पर मैं उन के साथ बीच पर आई हुई थी. बीच पर सैलानियों की भीड़ थी. पानी में अच्छा लग रहा था.

जब मैं बीच के किनारे पहुंची तो लहरों की तेजी के कारण दिक्कत हो रही थी. तभी किसी ने मेरा हाथ पकड़ा और पानी में ले गया. मेरी नजर पड़ी तो मैं देख कर विस्मित होते बोली, ‘‘अरे, तुम, रवि.’’

रवि ने भी मेरी ओर देखा, ‘‘हां, रितु?’’

‘‘हां,’’ अचानक रवि को पा कर स्वयं को रोक न पा रही थी. वह भी बीच पर घूमने के लिए आया था.

‘‘पापा भी आए हैं,’’ मैं बोली.

‘‘अच्छा, चलो, मैं 5-10 मिनट में आता हूं. मैं मां के साथ आया हूं,’’ रवि बोला. मैं पापा के पास आ कर उस के लौटने का इंतजार करने लगी.

15-20 मिनट के बाद रवि हमें खोजते हुए अपनी मां के साथ आया, ‘‘ये मेरी मां हैं.’’

मैं ने उस की मां के पैर छुए तो मांजी ने स्नेह से सिर पर हाथ फेर दिया.

फिर मैं ने रवि से पापा का परिचय कराया. अत्यंत नम्रता से उस ने उन के पैर छुए तो पापा ने उस को आशीर्वाद देते हुए पूछा, ‘‘बेटा, अपना परिचय नहीं दिया?’’

‘‘पापा, यह रवि है, कालेज में हम लोग साथ पढ़ते थे,’’ मैं प्रफुल्लित होते हुए बोली.

‘‘बेटा, बहू को साथ नहीं लाए?’’

उस की मां ने पापा का अभिवादन करते हुए कहा, ‘‘बहुत कहा लेकिन अब तक शादी नहीं की.’’

‘‘क्यों बेटा, अब तो तुम्हें शादी कर लेनी चाहिए. घर में कौनकौन है?’’

‘‘बाबूजी पिछले ही साल गुजर गए. अब मां मेरे साथ ही देहरादून में रहती हैं.’’

‘‘वहां क्या करते हो?’’

‘‘फौरेस्ट औफिसर हूं.’’

‘‘लेकिन प्रवीण कहीं दिखाई नहीं दे रहे, क्या वे नहीं आए हैं?’’ रवि ने पूछा तो पापा उदास हो गए.

‘‘रवि, तुम तो जानते ही होगे कि उस के साथ क्या हुआ था?’’ पापा को चुप देख कर मैं बोली.

‘‘सुना था रितु. सुन कर बहुत दुख हुआ था. लेकिन…’’

‘‘अब सबकुछ खत्म हो गया रवि. मैं ने उस से तलाक ले लिया.’’

‘‘लेकिन क्यों?’’

‘‘अब पुराने घाव को कुरेदने से क्या मिलेगा?’’ मैं उदास हो कर बोली.

‘‘हां बेटा, इतनी कम उम्र में तलाक. मुझे समझ में नहीं आता यह इतना लंबा जीवन अकेले कैसे काटेगी?’’ बाबूजी ने कहा.

‘‘बेटी, क्या तुम वही रितु हो जो रवि के साथ उस के कालेज में पढ़ती थीं?’’ रवि की मां ने पूछा.

‘‘हां, मांजी, लेकिन आप…?’’

‘‘कैसे जानती हूं, यही जानना चाह रही हो न? तो सुनो, रवि हमेशा तुम्हारे बारे में चर्चा करता है. बेटी, इस को तुम्हारी इतनी चिंता है कि प्रवीण जब अरैस्ट हुआ था तब यह रातभर न सोया था, कहता था, जाने क्या बीत रही होगी रितु पर. तुम ने शादी पर इस को निमंत्रण नहीं दिया था. कई दिनों तक परेशान रहा था. बेटी, यह सोच कर तुम्हें फोन नहीं करता था कि कहीं तुम्हारे दांपत्य जीवन में गलतफहमी न पैदा हो जाए. लेकिन बेटी, अब तो तुम तलाकशुदा हो. तुम चाहोगी तो हमारा घर बस जाएगा,’’ मांजी भावुक हो कर एक ही सांस में बोल गई थीं.

मैं तो सोच ही न पा रही थी कि रवि के दिल में मेरे लिए अभी भी इतना प्रेम है. मैं अभिभूत थी.

मैं ने लज्जा से सिर झुकाते हुए कहा, ‘‘आप का आदेश, सिरआंखों पर, मांजी.’’

‘‘बेटा, इस से बढि़या क्या होगा. अगर तुम मेरी बेटी का हाथ थाम लेते हो तो मैं भी इस उम्र में सुकून की सांस ले पाऊंगा,’’ पापा बोले.

रवि ने मेरी आंखों में झांका तो मैं कुछ देर तक उस को देखती रह गई. हमारी मौन स्वीकृति ने मेरे पापा और रवि की मां की आंखों में खुशी के आंसू भर दिए थे. Love Story In Hindi

Kahani In Hindi : आया – कैसी थी अधेड़ उम्र की नौकरानी लक्ष्मी?

Kahani In Hindi : तुषार का तबादला मुंबई हुआ तो रश्मि यह सोच कर खुश हो उठी कि चलो इसी बहाने फिल्मी कलाकारों से मुलाकात हो जाएगी, वैसे कहां मुंबई घूमने जा सकते थे. तुषार ने मुंबई आ कर पहले कंपनी का कार्यभार संभाला फिर बरेली जा कर पत्नी व बेटे को ले आया.

इधरउधर घूमते हुए पूरा महीना निकल गया, धीरेधीरे दंपती को महंगाई व एकाकीपन खलने लगा. उन के आसपास हिंदीभाषी लोग न हो कर महाराष्ट्र के लोग अधिक थे, जिन की बोली अलग तरह की थी.

काफी मशक्कत के बाद उन्हें तीसरे माले पर एक कमरे का फ्लैट मिला था, जिस के आगे के बरामदे में उन्होंने रसोई व बैठने का स्थान बना लिया था.

रश्मि ने सोचा था कि मुंबई में ऐसा घर होगा जहां से उसे समुद्र दिखाई देगा, पर यहां से तो सिर्फ झुग्गीझोंपडि़यां ही दिखाई देती हैं.

तुषार रश्मि को चिढ़ाता, ‘‘मैडम, असली मुंबई तो यही है, मछुआरे व मजदूर झुग्गीझोंपडि़यों में नहीं रहेंगे तो क्या महलों में रहेंगे.’’

जब कभी मछलियों की महक आती तो रश्मि नाक सिकोड़ती. घर की सफाई एवं बरतन धोने के लिए काम वाली बाई रखी तो रश्मि को उस से भी मछली की बदबू आती हुई महसूस हुई. उस ने उसी दिन बाई को काम से हटा दिया. रश्मि के लिए गर्भावस्था की हालत में घर के काम की समस्या पैदा हो गई. नीचे जा कर सागभाजी खरीदना, दूध लाना, 3 वर्ष के गोलू को तैयार कर के स्कूल भेजना, फिर घर के सारे काम कर के तुषार की पसंद का भोजन बनाना अब रश्मि के वश का नहीं था. तुषार भी रात को अकसर देर से लौटता था.

तुषार ने मां को आने के लिए पत्र लिखा, तो मां ने अपनी असमर्थता जताई कि तुम्हारे पिताजी अकसर बीमार रहते हैं, उन की देखभाल कौन करेगा. फिर तुम्हारे एक कमरे के घर में न सोने की जगह है न बैठने की.

तुषार ने अपनी पहचान वालों से एक अच्छी नौकरानी तलाश करने को कहा पर रश्मि को कोई पसंद नहीं आई. तुषार ने अखबार में विज्ञापन दे दिया, फिर कई काम वाली बाइयां आईं और चली गईं.

एक सुबह एक अधेड़ औरत ने आ कर उन का दरवाजा खटखटाया और पूछा कि आप को काम वाली बाई चाहिए?

‘‘हां, हां, कहां है.’’

‘‘मैं ही हूं.’’

तुषार व रश्मि दोनों ही उसे देखते रह गए. हिंदी बोलने वाली वह औरत साधारण  मगर साफसुथरे कपडे़ पहने हुए थी.

‘‘मैं घर के सभी काम कर लेती हूं. सभी प्रकार का खाना बना लेती हूं पर मैं रात में नहीं रुक पाऊंगी.’’

‘‘ठीक है, तुम रात में मत रुकना. तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘लक्ष्मी.’’

‘‘देखो लक्ष्मी, हमारी छोटी सी गृहस्थी है इसलिए अधिक काम नहीं है पर हम साफसफाई का अधिक ध्यान रखते हैं,’’ रश्मि बोली.

‘‘बीबीजी, आप को शिकायत का मौका नहीं मिलेगा.’’ लक्ष्मी ने प्रतिमाह 3 हजार रुपए वेतन मांगा, पर थोड़ी नानुकुर के बाद वह ढाई हजार रुपए पर तैयार हो गई और उसी दिन से वह काम में जुट गई, पूरे घर की पहले सफाईधुलाई की, फिर कढ़ीचावल बनाए और गोलू की मालिश कर के उसे नहलाया.

तुषार व रश्मि दोनों ही लक्ष्मी के काम से बेहद प्रभावित हो गए. यद्यपि उन्होंने लक्ष्मी से उस का पता तक भी नहीं पूछा था. लक्ष्मी शाम को जब चली गई तो दंपती उस के बारे में देर तक बातें करते रहे.

तुषार व रश्मि आश्वस्त होते चले गए जैसे लक्ष्मी उन की मां हो. वे दोनों उस का सम्मान करने लगे. लक्ष्मी परिवार के सदस्य की भांति रहने लगी.

सुबह आने के साथ ही सब को चाय बना कर देना, गोलू को रिकशे तक छोड़ कर आना, तुषार को 9 बजे तक नाश्ता व लंच बाक्स तैयार कर के देना, रश्मि को फलों का रस निकाल कर देना, यह सब कार्य लक्ष्मी हवा की भांति फुर्ती से करती रहती थी.

लक्ष्मी वाकई कमाल का भोजन बनाना जानती थी. रश्मि ने उस से ढोकला, डोसा बनाना सीखा. भांतिभांति के अचार चटनियां बनानी सीखीं.

‘‘ऐसा लगता है अम्मां, आप ने कुकिंग स्कूल चलाया है?’’ एक दिन मजाक में रश्मि ने पूछा था.

‘‘हां, मैं सिलाईकढ़ाई का भी स्कूल चला चुकी हूं’’

रश्मि मुसकराती मन में सोचती रहती कि उसे तो बढ़चढ़ कर बोलने की आदत है. डिलीवरी के लिए रश्मि को अस्पताल में दाखिल कराया गया तो लक्ष्मी रात को अस्पताल में रहने लगी.

तुषार और अधिक आश्वस्त हो गया. उस ने मां को फोन कर दिया कि तुम पिताजी की देखभाल करो, यहां लक्ष्मी ने सब संभाल लिया है.

रश्मि को बेटी पैदा हुई. तीसरे दिन रश्मि नन्ही सी गुडि़या को ले कर घर लौटी. लक्ष्मी ने उसे नहलाधुला कर बिस्तर पर लिटा दिया और हरीरा बना कर रश्मि को पिलाया.

‘‘लक्ष्मी अम्मां, आप ने मेरी सास की कमी पूरी कर दी,’’ कृतज्ञ हो रश्मि बोली थी.

‘‘तुम मेरी बेटी जैसी हो. मैं तुम्हारा नमक खा रही हूं तो फर्ज निभाना मेरा कर्तव्य है.’’

तुषार ने भी लक्ष्मी की खूब प्रशंसा की. एक शाम तुषार, रश्मि व बच्ची को ले कर डाक्टर को दिखाने गया तो रास्ते में लोकल ट्रेन का एक्सीडेंट हो जाने के कारण दंपती को घर लौटने में रात के 12 बज गए.

घर में ताला लगा देख दोनों अवाक् रह गए. अपने पास रखी दूसरी चाबी से उन्होंने ताला खोला व आसपास नजरें दौड़ा कर लक्ष्मी को तलाश करने लगे.

चिंता की बात यह थी कि लक्ष्मी, गोलू को भी अपने साथ ले गई थी. तुषार व रश्मि के मन में लक्ष्मी के प्रति आक्रोश उमड़ पड़ा था. रश्मि बोली, ‘‘यह लक्ष्मी भी अजीब नौकरानी है, एक रात यहीं रह जाती तो क्या हो जाता, गोलू को क्यों ले गई.’’

बच्चे की चिंता पतिपत्नी को काटने लगी. पता नहीं लक्ष्मी का घर किस प्रकार का होगा, गोलू चैन से सो पाएगा या नहीं.

पूरी रात चिंता में गुजारने के पश्चात जब सुबह होने पर भी लक्ष्मी अपने निर्धारित समय पर नहीं लौटी तो रश्मि रोने लगी, ‘‘नौकरानी मेरे बेटे को चोरी कर के ले गई, पता नहीं मेरा गोलू किस हाल में होगा.’’

तुषार को भी यही लग रहा था कि लक्ष्मी ने जानबूझ कर गोलू का अपहरण कर लिया है. नौकरों का क्या विश्वास, बच्चे को कहीं बेच दें या फिर मोटी रकम की मांग करें.

लक्ष्मी के प्रति शक बढ़ने का कारण यह भी था कि वह प्रतिदिन उस वक्त तक आ जाती थी. रश्मि के रोने की आवाज सुन कर आसपास के लोग जमा हो कर कारण पूछने लगे. फिर सब लोग तुषार को पुलिस को सूचित करने की सलाह देने लगे.

तुषार को भी यही उचित लगा. वह गोलू की तसवीर ले कर पुलिस थाने जा पहुंचा. लक्ष्मी के खिलाफ बेटे के अपहरण की रिपोर्ट पुलिस थाने में दर्ज करा कर वह लौटा तो पुलिस वाले भी साथ आ गए और रश्मि से पूछताछ करने लगे.

रश्मि रोरो कर लक्ष्मी के प्रति आक्रोश उगले जा रही थी. पुलिस वाले तुषार व रश्मि का ही दोष निकालने लगे कि उन्होंने लक्ष्मी का फोटो क्यों नहीं लिया, बायोडाटा क्यों नहीं बनवाया, न उस के रहने का ठिकाना देखा, जबकि नौकर रखते वक्त यह सावधानियां आवश्यक हुआ करती हैं.

अब इतनी बड़ी मुंबई में एक औरत की खोज, रेत के ढेर में सुई खोजने के समान है. अभी यह सब हो ही रहा था कि अकस्मात लक्ष्मी आ गई, सब भौचक्के से रह गए.

‘‘हमारा गोलू कहां है?’’ तुषार व रश्मि एकसाथ बोले.

लक्ष्मी की रंगत उड़ी हुई थी, जैसे रात भर सो न पाई हो, फिर लोगों की भीड़ व पुलिस वालों को देख कर वह हक्की- बक्की सी रह गई थी.

‘‘बताती क्यों नहीं, कहां है इन का बेटा, तू कहां छोड़ कर आई है उसे?’’ पुलिस वाले लक्ष्मी को डांटने लगे.

‘‘अस्पताल में,’’ लक्ष्मी रोने लगी.

‘‘अस्पताल में…’’ तुषार के मुंह से निकला.

‘‘हां साब, आप का बेटा अस्पताल में है. कल जब आप लोग चले गए थे तो गोलू सीढि़यों पर से गिर पड़ा. मैं उसे तुरंत अस्पताल ले गई, अब वह बिलकुल ठीक है. मैं उसे दूध, बिस्कुट खिला कर आई हूं. पर साब, यहां पुलिस आई है, आप ने पुलिस बुला ली…मेरे ऊपर शक किया… मुझे चोर समझा,’’ लक्ष्मी रोतेरोते आवेश में भर उठी.

‘‘मैं मेहनत कर के खाती हूं, किसी पर बोझ नहीं बनती, आप लोगों से अपनापन पा कर लगा, आप के साथ ही जीवन गुजर जाएगा… मैं गोलू को कितना प्यार करती हूं, क्या आप नहीं जानते, फिर भी आप ने…’’

‘‘लक्ष्मी अम्मां, हमें माफ कर दो, हम ने तुम्हें गलत समझ लिया था,’’ तुषार व रश्मि लक्ष्मी के सामने अपने को छोटा समझ रहे थे.

‘‘साब, अब मैं यहां नहीं रहूंगी, कोई दूसरी नौकरी ढूंढ़ लूंगी पर जाने से पहले मैं आप को आप के बेटे से मिलाना ठीक समझती हूं, आप सब मेरे साथ अस्पताल चलिए.’’

तुषार, लक्ष्मी, कुछ पड़ोसी व पुलिस वाले लक्ष्मी के साथ अस्पताल पहुंच गए. वहां गोलू को देख दंपती को राहत मिली. गोलू के माथे पर पट्टी बंधी हुई थी और पैर पर प्लास्टर चढ़ा हुआ था.

डाक्टर ने बताया कि लक्ष्मी ने अपने कानों की सोने की बालियां बेच कर गोलू के लिए दवाएं खरीदी थीं.

‘‘साब, आप का बेटा आप को मिल गया, अब मैं जा रही हूं.’’

तुषार और रश्मि दोनों लक्ष्मी के सामने हाथ जोड़ कर खड़े हो गए, ‘‘माफ कर दो अम्मां, हमें छोड़ कर मत जाओ.’’

दोनों पतिपत्नी इतनी अच्छी आया को खोना नहीं चाहते थे इसलिए बारबार आग्रह कर के उन्होंने उसे रोक लिया.

लक्ष्मी भी खुश हो उठी कि जब आप लोग मुझे इतना मानसम्मान दे रहे हैं, रुकने का इतना आग्रह कर रहे हैं तो मैं यहीं रुक जाती हूं. ‘‘साब, मेरा मुंबई का घर नहीं देखोगे,’’ एक दिन लक्ष्मी ने आग्रह किया.

तुषार व रश्मि उस के साथ गए. वह एक साधारण वृद्धाश्रम था, जिस के बरामदे में लक्ष्मी का बिस्तर लगा हुआ था. आश्रम वालों ने उन्हें बताया कि लक्ष्मी अपने वेतन का कुछ हिस्सा आश्रम को दान कर देती है और रातों को जागजाग कर वहां रहने वाले लाचार बूढ़ों की सेवा करती है.

अब तुषार व रश्मि के मन में लक्ष्मी के प्रति मानसम्मान और भी बढ़ गया था. लक्ष्मी के जीवन की परतें एकएक कर के खुलती गईं. उस विधवा औरत ने अपने बेटे को पालने के लिए भारी संघर्ष किए मगर बहू ने अपने व्यवहार से उसे आहत कर दिया था, अत: वह अपने बेटे- बहू से अलग इस वृद्धाश्रम में रह रही थी.

‘‘संघर्ष ही तो जीवन है,’’ लक्ष्मी, मुसकरा रही थी. Kahani In Hindi

Social Story : न्याय – आखिर किसने की थी रुकमा की हत्या

Social Story : तमाम बंदिशों के बावजूद रुकमा ने विवाहित वीरू से मिलना नहीं छोड़ा और दोनों घर से भाग गए. एक दिन रुकमा की लाश मिली लेकिन वीरू अभी भी गायब था. एक शाम वीरू के अचानक सामने आने पर जो रहस्य खुला वह चौंका देने वाला था.

सांझ का धुंधलका गहराते ही मुझे भय लगने लगता है. घर के  सामने ऊंचीऊंची पहाडि़यां, जो दिन की रोशनी में मुझे बेहद भली लगती हैं, अंधेरा होते ही दानव के समान दिखती हैं. देवदार के ऊंचे वृक्षों की लंबी होती छाया मुझे डराती हुई सी लगती है. समझ में नहीं आता दिन की खूबसूरती रात में इतनी डरावनी क्यों लगती है. शायद यह डर मेरी नौकरानी रुकमा की अचानक मृत्यु होने से जुड़ा हुआ है.

रुकमा को मरे हुए अब पूरा 1 माह हो चुका है. उस को भूल पाना मेरे लिए असंभव है. वह थी ही ऐसी. अभी तक उस के स्थान पर मुझे कोई दूसरी नौकरानी नहीं मिली है. वह मात्र 15 साल की थी पर मेरी देखभाल ऐसे करती थी जैसे मां हो या कोई घर की बड़ी.

मेरी पसंदनापसंद का रुकमा को हमेशा ध्यान रहता था. मैं उस के ऊपर पूरी तरह आश्रित थी. ऐसा लगता था कि उस के बिना मैं पल भर भी नहीं जी पाऊंगी. पर समय सबकुछ सिखा देता है. अब रहती हूं उस के बिना पर उस की याद में दर्द की टीस उठती रहती है.

वह मनहूस दिन मुझे अभी भी याद है. रसोईघर का नल बहुत दिनों से टपक रहा था. उस की मरम्मत के लिए मैं ने वीरू को बुलाया और उसे रसोईघर में ले जा कर काम समझा दिया तथा रुकमा को देखरेख के लिए वहीं छोड़ कर मैं अपनी आरामकुरसी पर समाचारपत्र ले कर पसर गई.

सुबह की भीनीभीनी धूप ने मुझे गरमाहट पहुंचाई और पहाडि़यों की ओर से बहने वाली बयार ने मुझे थपकी दे कर सुला दिया था.

अचानक झटके से मेरी नींद खुल गई. ध्यान आया कि नल मरम्मत करने आया वीरू अभी तक काम पूरा कर के पैसे मांगने नहीं आया था. हाथ में बंधी घड़ी देखी तो उसे आए पूरा 1 घंटा हो चुका था. इतने लंबे समय तक चलने वाला काम तो था नहीं. फिर मैं ने रुकमा को कई बार आवाज दी पर उत्तर न पा कर कुछ विचित्र सा लगा क्योंकि वह मेरी एक आवाज सुनते ही सामने आ कर खड़ी हो जाती थी. मजबूर हो कर मैं खुद अंदर पता लगाने गई.

रसोईघर का दृश्य देख कर मैं चौंक गई. गैस बर्नर के ऊपर दूध उफन कर बह गया था जिस के कारण लौ बुझ गई थी और गैस की दुर्गंध वहां भरी हुई थी. वीरू और रुकमा अपने में खोएखोए रसोईघर में बने रैक के सहारे खडे़ हो कर एकदूसरे को देख रहे थे. सहसा मुझे प्रवेश करते देख दोनों अचकचा गए.

मैं ने क्रोधित हो कर दोनों को बाहर निकलने का आदेश दिया. नाक पर कपड़ा रख कर पहले बर्नर का बटन बंद किया. फिर मरम्मत किए हुए नल की टोंटी की जांच की और बाहर आ गई. वीरू को पैसे दे कर चलता किया और रुकमा को चायनाश्ता लाने का आदेश दे कर मैं फिर आरामकुरसी पर आ बैठी.

वातावरण में वही शांति थी. लेकिन रसोईघर में देखा दृश्य मेरे दिलोदिमाग पर अंकित हो गया था. रुकमा चाय की ट्रे सामने तिपाई पर रखने के लिए जैसे ही मेरे सामने झुकी तो मैं ने नजरें उठा कर पहली बार उसे भरपूर नजर से देखा.

मेरे सामने एक बेहद सुंदर युवती खड़ी थी. वह छोटी सी बच्ची जिसे मैं कुछ साल पहले ले कर आई थी, जिसे मैं जानती थी, वह कहीं खो गई थी. मेरा ध्यान ही नहीं गया था कि उस में इतना बदलाव आ गया था. मेरी दी हुई गुलाबी साड़ी में उस की त्वचा एक अनोखी आभा से दमक रही थी. उस की खूबसूरती देख कर मुझे ईर्ष्या होने लगी.

मैं ने चाय का घूंट जैसे ही भरा, मुंह कड़वा हो गया. वह चीनी डालना भूल गई थी. वह चाय रखने के बाद हमेशा की तरह मेरे पास न बैठ कर अंदर जा ही रही थी कि मैं ने रोक लिया और कहा,  ‘‘रुकमा, यह क्या? चाय बिलकुल फीकी है और मेरा नाश्ता?’’

बिना कुछ कहे वह अंदर गई और चीनी का बरतन ला कर मेरे हाथ में थमा दिया.

मैं ने फिर टोका, ‘‘रुकमा, नाश्ता भी लाओ. कितनी देर हो गई है. भूल गई कि मैं खाली पेट चाय नहीं पीती.’’

वह फिर से अंदर गई और बिस्कुट का डब्बा उठा लाई और मुझे पकड़ा दिया. मैं ने चिढ़ कर कहा, ‘‘रुकमा, मुझे बिस्कुट नहीं चाहिए. सवेरे नाश्ते में तुम ने कुछ तो बनाया होगा? जा कर लाओ.’’

वह अंदर चली गई. बहुत देर तक जब वह वापस नहीं लौटी तो मैं चाय वहीं छोड़ कर उसे देखने अंदर गई कि आखिर वह बना क्या रही है.

वह रसोईघर में जमीन पर बैठी धीरेधीरे सब्जी काट रही थी. उस का ध्यान कहीं और था. मेरे आने की आहट भी उसे सुनाई नहीं दी. कुछ ही घंटों में उस में इतना अंतर आ गया था. पल भर के लिए चुप न रहने वाली रुकमा ने अचानक चुप्पी साध ली थी.

रोज मैं उसे अधिक बोलने के लिए लताड़ लगाती थी पर आज मुझे उस का चुप रहना बुरी तरह अखर रहा था.

सिर से पानी गुजरा जा रहा था. मैं ने उस से दोटूक बात की, ‘‘रुकमा, जब से वह सड़कछाप छोकरा वीरू नल ठीक करने आया, तुम एकदम लापरवाह हो गई हो. क्या कारण है?’’

मेरे बारबार पूछने पर भी उस का मुंह नहीं खुला. मानो सांप सूंघ गया हो. उस के इस तरह खामोश होने से दुखी हो कर मैं ने उस वीरू के बारे में जानकारी हासिल की तो पता चला कि वह विवाहिता है तथा 2 छोटे बच्चे भी हैं. यह भी पता चला कि वह और रुकमा अकसर सब्जी की दुकान में मिला करते हैं.

मुझे रुकमा का विवाहित वीरू से इस तरह मिलने की बात सुन कर बहुत बुरा लगा. यह मेरी प्रतिष्ठा का प्रश्न था. उस की बदनामी के छींटे मेरे ऊपर भी गिर सकते थे. मैं रुकमा को बुला कर डांटने का विचार कर ही रही थी कि गेट के बाहर जोरजोर से बोलने की आवाज सुनाई दी. देखा, एक बूढ़ा व्यक्ति मैलेकुचैले कपड़ों में अंदर आने की कोशिश कर रहा है और चौकीदार उसे रोक रहा है. मैं ने ऊंचे स्वर में चौकीदार को आदेश दिया कि वह उसे अंदर आने दे.

आते ही वह बुजुर्ग मेरे पैरों पर गिर कर रोने लगा. बोला, ‘‘मां, मेरी बेटी का घर बचाओ. मेरा दामाद आप की नौकरानी रुकमा से शादी करने के लिए मेरी बेटी को छोड़ रहा है.’’

मैं ने पूछा, ‘‘तुम्हारा दामाद कौन, वीरू?’’

प्रत्युत्तर में वह जमीन पर सिर पटक कर रोने लगा. मैं भौचक्की सी सोचने लगी ‘तो मामला यहां तक बिगड़ चुका है.’

मैं ने उसे सांत्वना देते हुए वचन दिया कि मैं किसी भी हालत में उस की बेटी का घर नहीं उजड़ने दूंगी.

आश्वस्त हो कर जब वह चला गया तो रुकमा को बुला कर मैं ने बुरी तरह डांटा और धमकाया, ‘‘बेशर्म कहीं की, तुझे शादी की इतनी जल्दी पड़ी है तो अपने बापभाई से क्यों नहीं कहती? विवाहित पुरुष के पीछे पड़ कर उस की पत्नी का घर बरबाद क्यों कर रही है? मैं आज ही तेरे भाई को बुलवाती हूं.’’

वह अपने बाप से ज्यादा हट्टेकट्टे भाई से डरती थी जो जरा सी बात पर झगड़ा करने और किसी को भी जान से मार देने की धमकी के लिए मशहूर था. रुकमा बुरी तरह से डर गई. बहुत दिनों बाद उस की चुप्पी टूटी. बोली, ‘‘अब मैं उस की ओर देखूं भी तो आप सच में मेरे भाई को खबर कर देना.’’

कान पकड़ कर वह मेरे पैरों में झुक गई. इस घटना के बाद सबकुछ सामान्य सा हो गया प्रतीत होता था. मैं अपने काम में व्यस्त हो गई.

मुश्किल से 15 दिन ही बीते थे कि एक दिन दोपहर में जब मैं बाहर से घर लौटी तो दरवाजे पर ताला लगा देख कर चौंक गई. रुकमा कहां गई? यह सवाल मेरे दिमाग में रहरह कर उठ रहा था. खैर, पर्स से घर की डुप्लीकेट चाबी निकाल कर दरवाजा खोला और अंदर गई तो घर सांयसांय कर रहा था. दिल फिर से आशंका से भर गया और रुकमा की अनुपस्थिति के लिए वीरू को दोषी मान रहा था.

शाम हो गई थी पर रुकमा अभी तक लौटी नहीं थी. चौकीदार सब्जी वाले के  यहां पता लगाने गया तो पता चला कि आज दोनों को किसी ने भी नहीं देखा. वीरू के घर से पता चला कि वह भी सवेरे से निकला हुआ था. आशंका से मेरा मन कांपने लगा.

2 दिन गुजर गए थे. वीरू व रुकमा का कहीं पता नहीं था. मैं ने पुलिस में शिकायत दर्ज करवा दी थी. किसी ने रुकमा के बाप व भाई को भी सूचित कर दिया था. सब हैरान थे कि वे दोनों अचानक कहां गुम हो गए. पुलिस जंगल व पहाडि़यों का चप्पाचप्पा छान रही थी. उधर रुकमा का भाई अपने हाथ में फसल काटने वाला चमचमाता हंसिया लिए घूमता दिखाई दे रहा था.

एक सप्ताह बाद मुझे पुलिस ने एक स्त्री की क्षतविक्षत लाश की शिनाख्त करने के लिए बुलवाया जोकि पहाडि़यों के  पास जंगली झाडि़यों के झुरमुट में पड़ी मिली थी. लाश के ऊपर की नीली साड़ी मैं तुरंत पहचान गई जोकि रुकमा ने मेरे घर से जाते समय चुरा ली थी. मुझे लाश पहचानने में तनिक भी समय नहीं लगा कि वह रुकमा ही थी.

रुकमा का मृत शरीर मिल गया था. पर वीरू का कहीं पता नहीं था और उस का भाई अब भी हंसिया लिए घूम रहा था. चौकीदार ने बताया कि पहाड़ी लोग अपने घरपरिवार को कलंकित करने वाली लड़की या स्त्री को निश्चित रूप से मृत्युदंड देते हैं. साथ ही वह उस के प्रेमी को भी मार डालते हैं जिस के  कारण उन के घर की स्त्री रास्ता भटक जाती है.

मुझे दुख था रुकमा की मृत्यु का. उस से भी अधिक दुख था मुझे कि मैं वीरू की पत्नी का घर बचाने में असमर्थ रही थी. मैं बारबार यही सोचती कि आखिर वीरू गया कहां? मैं इसी उधेड़बुन में एक शाम रसोईघर में काम कर रही थी कि पिछवाड़े किसी के चलने की पदचाप सुनाई दी. सांस रोक कर कान लगाया तो फिर से किसी के दबे पैरों की पदचाप सुनाई दी. हिम्मत बटोर कर जोर से चिल्लाई ‘‘कौन है? क्या काम है? सामने आओ, नहीं तो पुलिस को फोन करती हूं.’’

रसोईघर के पिछवाड़े की ओर खुलने वाली खिड़की के सामने जो चेहरा नजर आया उसे देख कर मेरे मुंह से मारे खुशी के आवाज निकल गई, ‘‘तुम जीवित हो?’’

वह वीरू था. फटेहाल, बदहवास चेहरा, मेरे घर के पिछवाडे़ में घने पेड़ों के बीच छिपा हुआ था. किसी ने भी मेरे घर के पीछे उसे नहीं खोजा था. वह डर के मारे बुरी तरह कांप रहा था.

मुझे आश्चर्य हुआ कि मेरे चौकीदार की चौकन्नी आंखों से वह कैसे बचा रहा. मुझे भी उस पर बहुत गुस्सा आ रहा था. उस ने नल ठीक करने के साथ रुकमा को बिगाड़ दिया था. मन करने लगा कि लगाऊं उसे 2-4 थप्पड़. पर उस की हालत देख कर मैं ने क्रोध पर काबू पाना ही उचित समझा.

पिछवाड़े का दरवाजा खोल कर उसे रात के घुप अंधेरे में चुपचाप अंदर बुला लिया क्योंकि मुझे उस की पत्नी व बच्चों को उन का सहारा लौटाना था. मैं ने उसे खाने को दिया और वह उस पर टूट पड़ा. उस का खाना देख कर लगा कि भूख भी क्या चीज है.

वीरू के खाना खा लेने के बाद मैं ने उस से कहा, ‘‘तुम ने यह बहुत घिनौना काम किया है कि विवाहित हो कर भी एक कुंआरी लड़की को अपने जाल में फंसाया. तुम्हारे कारण ही उस की हत्या हुई है. तुम दोषी हो अपनी पत्नी व बच्चों के, जिन्हें तुम ने धोखा दिया. तुम ने तो रुकमा से कहीं अधिक बड़ा अपराध किया है. तुम्हारे साथ मुझे जरा भी सहानुभूति नहीं है पर मैं मजबूर हूं तुम्हारी रक्षा करने के लिए क्योंकि मैं ने तुम्हारी मासूम पत्नी के पिता को वचन दिया है कि उस की बेटी का घर मैं कदापि उजड़ने नहीं दूंगी.’’

ऐसा कहते हुए मैं ने उसे रसोईघर के भंडारगृह में बंद कर ताला लगा दिया. वीरू, रुकमा तथा उस का भाई तीनों अपराधी थे. लेकिन इन के अपराध की सजा वीरू की पत्नी व बच्चों को नहीं मिलनी चाहिए. करे कोई, भरे कोई. इन्हें न्याय दिलवाना ही होगा तो इस के लिए मुझे वीरू की रक्षा करनी होगी.

मुझे वीरू से पता चला कि रुकमा की हत्या के अपराध में उस के जिस भाई को पुलिस ढूंढ़ रही थी वह उस के घर में घात लगाए उस की बीवी व बच्चों को बंधक बना कर छिपा बैठा था. इस रहस्य को केवल वही जानता था क्योंकि रात के अंधेरे में जब वह अपने बीवीबच्चों से मिलने गया था तो तब उस ने उस को वहां छिपा हुआ देखा था.

वीरू को सुरक्षित ताले में बंद कर मैं आश्वस्त हो गई और फिर तुरंत ही रुकमा के भाई को सजा दिलवाने के लिए मैं ने पुलिस को फोन द्वारा सूचित कर दिया. यही एक रास्ता था मेरे पास अपना वचन निभाने का और वीरू की पत्नी व बच्चों का सहारा लौटा कर घर बचाने का, उन्हें न्याय दिलाने का.

मेरी शिकायत पर पुलिस रुकमा के भाई को पकड़ कर ले गई. मैं ने ताला खोल कर वीरू को बाहर निकाल कर कहा, ‘‘जाओ, अपने घर निश्ंिचत हो कर जाओ. अब तुम्हें रुकमा के भाई से कोई खतरा नहीं है. वह जेल में बंद है.’’

वीरू ने अपने घर जाने से साफ मना कर दिया. वह अब भी भयभीत दिखाई दे रहा था. मेरा माथा ठनका. रहस्य और अधिक गहराता जा रहा था. मैं ने उस से बारबार पूछा तो वह चुप्पी साधे बैठा रहा.

मैं क्रोध से चीखी, ‘‘आखिर अपने ही घर में तुम्हें किस से भय है? मैं तुम्हें सदा के लिए यहां छिपा कर नहीं रख सकती. अगर तुम ने सच बात नहीं बताई तो मैं तुम्हें भी पुलिस के हवाले कर दूंगी. क्योंकि सारी बुराई की जड़ तो तुम्ही हो.’’

वह हकलाता हुआ बोला, ‘‘मांजी, किसी से मत कहिएगा, मेरे बच्चे बिन मां के हो जाएंगे. मेरी पत्नी ने मेरे ही सामने रुकमा की हत्या की थी और अब वह मेरे खून की भी प्यासी है. मुझे यहीं छिपा लो.’’

कहते हुए वह फफकफफक कर रोने लगा.

लेखिका : नलिनी शर्मा

Story In Hindi : हम चार – वृद्धावस्था की बेबसी बयां करती कहानी

Story In Hindi : सविता ने किसी को अपना न समझा और भाईबहनों का साथ उसे कभी रास न आया लेकिन उस एक वाकए के बाद उस ने जो किया वह जिंदगीभर किए का उलटा ही था.

62 वर्षीया श्यामा नैटफ्लिक्स पर एक पुरानी मूवी देख रही थी. उस के बड़े भाई संजय जो उस से 2 साल ही बड़े थे, दूसरे रूम में बैठे कोई कहानी लिख रहे थे. वे रिटायर हो चुके थे. लिखने का बहुत शौक था उन्हें. नौकरी के दौरान यह शौक पूरा करने का समय मिल नहीं पाया. आजकल वे खूब लिखते हैं और उन की रचनाएं समाचारपत्रों व पत्रिकाओं में छपती रहती हैं. लिखतेलिखते उन्हें कुछ ध्यान आया, उठ कर श्यामा के पास गए और कहने लगे, ‘‘वैक्सीन हमें लग गई है, यह अलग बात है, कोरोना के चलते अभी भी काफी ध्यान तो रखना ही होगा. यह बताओ, तुम्हारा जन्मदिन आ रहा है, क्या प्लान बनाएं.’’
श्यामा ने मूवी रोकी, कहा, ‘‘अरे भैया, कुछ नहीं करना है, कहां जाएंगे, छोड़ो.’’
‘‘अरे, मेरी छोटी का बर्थडे है, बोल, क्या स्पैशल बनाऊं तेरे लिए या बाहर चलेगी?’’
‘‘सोच कर बताती हूं,’’ श्यामा ने कहा ही था कि संजय के फोन की घंटी बजी. वे वह फोन सुनने चले गए, जल्दी ही थोड़ा परेशान से वापस आ कर श्यामा से कहने लगे, ‘‘भाभी का फोन आया था, उन्हें साइटिका का पेन हो रहा है और उन का ड्राइवर अनिल लौकडाउन के समय जो गांव गया, लौटा ही नहीं. इस समय औटो में जाना सेफ नहीं है. मैं ने बोला है कि मैं कार ले कर आता हूं और उन्हें डाक्टर को दिखा दूंगा.’’
श्यामा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी तो संजय को हंसी आ गई, कहा, ‘‘कुछ तो बोलो.’’
‘‘नहीं भैया, आप जानो, आप की ये भाभी जानें.’’
‘‘छोटी, तू बहुत शैतान है. अरे, भाभी हैं हमारी, हमारा फर्ज बनता है कि उन का ध्यान रखें. भैया तो रहे नहीं. बच्चे विदेश में हैं. कौन उन की केयर करेगा.’’
‘‘ठीक है, जाओ, दिखाओ डाक्टर को. अब याद आई हमारी, न कभी मतलब रखती हैं, न कभी कोई बात करती हैं.’’
‘‘ठीक है, छोटी, उन का जीने का अलग तरीका है. बस, हमारे विचार कभी नहीं मिले तो इस से हमारा रिश्ता थोड़े ही खत्म हो जाएगा.’’
‘‘भैया, मुझे नहीं सुननी आप की ये बातें, मुझे मूवी देखने दो.’’
संजय श्यामा को घूरते हुए जाने के लिए तैयार होने लगे. संजय के जाने के बाद श्यामा का मूवी में दिल न लगा, टीवी बंद कर बालकनी में रखी चेयर पर बैठ कर सविता भाभी की चिंता करने लगी. उसे अपनी यह भाभी हमेशा बहुत अच्छी लगी थीं. नरम दिल की श्यामा सविता की तकलीफ सुन कर झूठी नाराजगी दिखा रही थी, यह संजय भी जानते थे. दोनों भाई एकदूसरे की एकएक आदत, स्वभाव जानते थे. दोनों एकदूसरे की जान थे. भाईबहन के प्यार का जीताजागता उदाहरण थे. श्यामा बैठीबैठी बहुतकुछ याद कर रही थी. अकसर ही सबकुछ किसी फिल्म की तरह आंखों के आगे घूम जाता. श्यामा ने विवाह नहीं किया था. आज भी आंखों के आगे अपने पहले प्रेम का दुखांत आ जाता है. प्रेमी विजय पति बनने से 2 दिन पहले ही एक सड़क दुर्घटना में साथ छोड़ गया था. उसे इस सदमे से निकालने में संजय ने अपने दिनरात एक कर दिए थे.

संजय ने सोचा था कि श्यामा के विवाह के बाद अपने बारे में सोचेंगे लेकिन श्यामा ने विजय को अपने अंदर इतना समा लिया था कि वह फिर विजय से अलग हो ही न पाई. उस ने कह दिया था कि वह अब विवाह कभी नहीं करेगी. आज भी विजय को याद कर के उस के आंसू बह निकले. ये 4 भाईबहन थे. सब से बड़े अजय जिन की पत्नी को दिखाने अभी संजय गए हुए थे, फिर उन से छोटी थी लता जिन की कैंसर से मृत्यु हो चुकी थी. उन के पति अनिल से श्यामा और संजय के आज भी अच्छे संबंध थे. इन भाईबहनों के मातापिता बहुत पहले दुनिया से जा चुके थे. सब सुशिक्षित थे, अपने पैरों पर खड़े थे. सब अच्छी पोस्ट पर थे. अब सब रिटायर हो चुके थे.

इधर, संजय ने भी शादी नहीं की. उन का कहना था कि पता नहीं आने वाली लड़की बहन के साथ निभा पाए या न. वे अपनी बहन को अकेला नहीं छोड़ सकते. सब ने बहुत सम?ाया पर संजय ने बहन की चिंता और देखभाल के लिए अपना घर नहीं बसाया. इस घर में ही दोनों साथ रहते. अब तो दोनों को ही एकदूसरे की इतनी आदत हो गई थी कि एक भी कहीं जाता तो दूसरा इंतजार करता. हर जगह साथ जाते, घूमतेफिरते. दोनों का फ्रैंड सर्किल भी बहुत अच्छा था. आसपास के लोग उन्हें पसंद करते. किसी घर में भाईबहन का झगड़ा होता तो इन दोनों के प्यार की मिसाल दी जाती.

सविता अपने मातापिता की इकलौती संतान थी. इन भाईबहन का साथ उसे रास न आया. उसे शंका रहती कि इन दोनों की कभी कोई जिम्मेदारी उस पर न आ जाए. हालांकि सब अपना कमाखा रहे थे पर फिर भी सविता ने किसी को अपना न समझ था. सो, आपसी रिश्ते में एक दूरी सी आती गई.

भाई की मृत्यु के बाद संजय अपना फर्ज समझ कर सविता के हालचाल पूछ लिया करते. जब सविता के बच्चे विदेश में बस गए तब जा कर सविता को कुछ सालों से जो अकेलापन महसूस हो रहा था उसी के चलते सविता अब संजय और श्यामा से फोन पर ज्यादा संपर्क में रहने लगी थी. सब रहते तो मुंबई में ही थे, पर दूरदूर, तन से भी दूर, मन से भी दूर. समय के साथ स्वभावों में काफी बदलाव आते जा रहे थे.

संजय के फोन से श्यामा की तंद्रा टूटी, बता रहे थे, ‘‘काफी दर्द है भाभी को, पिछले दिनों लौकडाउन के कारण उन की मेड भी नहीं आ रही थी. खूब काम किया है उन्होंने. पहले से ही कमजोर सी हैं, अब तो और कमजोर हो रही हैं वे. डाक्टर ने उन्हें आराम करने को कहा है, दवा दे दी है. श्यामा, मैं उन्हें ले कर अभी उन के घर जा रहा हूं. उन का थोड़ा सामान पैक करूंगा, फिर जब तक वे ठीक नहीं हो जातीं, हमारे साथ ही रह लेंगी.’’

श्यामा को भाभी की हैल्थ के बारे में सुन कर दुख हुआ, बोली, ‘‘हां भैया, ले आओ, मैं उन के लिए कुछ अच्छा सा खाना बना कर रखती हूं पर एक बात बताओ भैया, भाभी हमारे साथ रहने के लिए तैयार हो गईं? वे तो कभी एक रात हमारे साथ नहीं रहीं.’’
संजय ने गंभीर स्वर में कहा, ‘‘छोटी, वक्तवक्त की बात है.’’
सविता धीरेधीरे दर्द में चलती हुई संजय और श्यामा के घर आईं. उन्हें देख कर श्यामा का दिल भर आया, आंखों में आंसू आ गए, कहां भाभी इतनी ठसक से रहतीं, कहां अब दर्द में मजबूर सी उन के घर चली आई हैं. श्यामा को रोना आ गया, ‘‘भाभी,’’ कह कर वह उन के गले लग गई और फिर देखते ही देखते उन की सेवा में लग गई. संजय को अपनी इस छोटी के दिल की नरमी पर नाज था.

अपने रूम की एक अलमारी में सविता का सामान ठीक से रख कर श्यामा ने कहा, ‘‘भाभी, इसे अपना घर ही समझना है, यह कहने की जरूरत तो नहीं है मगर आप आराम करें, बस.’’
सविता ने उसे पास बुला कर गले से लगा लिया, सालों के गिलेशिकवे पलभर में दूर हो गए. अब सिर्फ प्यारस्नेह बचा था. संजय और श्यामा ने दिल से सविता की सेवा की. आराम करने से दर्द कम हो गया था. एक मेड आती थी, रमा. उस के साथ मिल कर श्यामा सब संभाल लेती. जब लौकडाउन में रमा नहीं आ रही थी तब भी संजय और श्यामा ने मिल कर घर के काम बांट रखे थे. दोनों को जरा भी परेशानी नहीं हुई थी. जब सविता यह सब सुनती, उसे अच्छा लगता. वह तो अकेले बहुत ही परेशान हो गई थी.

सविता को आराम होना शुरू हुआ तो वह भी बैठेबैठे कभी कोई काम कर देती, कभी कोई. श्यामा के साथ टीवी देखती. संजय का लिखा पहली बार पढ़ा तो देवर पर गर्व हो आया. अपनों के बीच समय कितनी दूरी ले आया पर जब सब साथ बैठ कर खुलेदिल से एकदूसरे को अपना लें तो फिर सालों के मलाल पलभर में खत्म हो जाते हैं. अब लगता कि जैसे तीनों हमेशा से एकसाथ रह रहे थे. एक दिन जब सब बैठे बातें कर रहे थे तो सविता ने यों ही पूछ लिया, ‘‘अनिल के क्या हालचाल हैं?’’
‘‘अभी वीडियोकौल करते हैं, भाभी,’’ कह कर संजय ने अनिल को फोन मिलाया. अनिल ने लता की इतनी सेवा की थी कि आज तक सब को वे दिन याद कर अनिल के प्रति सम्मान की भावना महसूस होती. फोन एक अजनबी ने उठाया, बताया, ‘‘अनिल आईसीयू में हैं, उन का ब्लडप्रैशर बहुत ज्यादा बढ़ गया था. मैं उन का पड़ोसी हूं.’’
संजय और श्यामा हौस्पिटल का पता ले कर उसी समय निकल गए.

अनिल के पड़ोसी रवि ने बताया, ‘‘बहुत दिनों से अकेलापन महसूस कर रहा था अनिल, अजीब से तनाव में दिखाई दे रहा था. अकेला रहता है, मन न लगता होगा. जब से भाभी गई हैं, बहुत दुखी रहता है. कोई बच्चा भी होता तो कोई सहारा होता.’’
संजय और श्यामा बहुत शर्मिंदा व दुखी हो गए. अनिल को अकेले कैसे छोड़ दिया उन्होंने. बहन लता के कोई संतान नहीं हुई थी, बहन के जाने के बाद बस फोन पर ही जयादातर संपर्क रहता. मिले हुए तो जमाना हो गया था. संजय ने श्यामा से कहा, ‘‘छोटी, बड़ी भूल हुई. एक ही शहर में रह कर जीजाजी की सुध नहीं ली.’’
‘‘हां, भैया, भूल तो हुई.’’

रवि को धन्यवाद दे कर संजय ने उसे घर भेज दिया और आगे की जिम्मेदारी उठाने के लिए तैयार हो गए. अनिल को होश आया तो उसे रूम में शिफ्ट कर दिया गया. संजय और श्यामा को देख कर उन के चेहरे पर मुसकान आ गई. ये दोनों उन्हें बहुत प्रिय थे. उन के कुछ और टैस्ट्स होने थे. संजय ने श्यामा को भी घर भेज दिया क्योंकि उन्हें सविता की भी चिंता थी.

श्यामा घर आ कर सविता को अनिल के बारे में बताती रही. सविता ने कहा, ‘‘बीमार होने पर अकेले रहने वालों के लिए बड़ी चिंता और परेशानी की बात हो जाती है, क्या किया जाए, कुछ हल नहीं सूझता.’’ यह कहतेकहते सविता का स्वर भर्रा गया.

श्यामा ने उसे चिढ़ाते हुए कहा, ‘‘देखो भाभी, आप मुझे इस बेचारी वाले रूप में तो कतई अच्छी नहीं लगती हैं, मुझे वैसे ही अपनी ठसक वाली भाभी अच्छी लगती है जैसे मेरे साथ शुरू में रहती थी और मुझे परेशान करती थी.’’ यह कहतेकहते श्यामा ने सविता को गुदगुदी कर के परेशान करना शुरू कर दिया. सविता को अपनी जोर की हंसी संभालना मुश्किल हो गया. सविता ने कहा, ‘‘कुछ अपनी उम्र का लिहाज करो, 10 दिन में 63 की होने वाली हो.’’
श्यामा ने छेड़ा, ‘‘अच्छा, याद है आप को मेरा जन्मदिन. कभीकभी ही करती हो फोन मेरे जन्मदिन पर.’’
सविता झेंपी, ‘‘हमेशा याद नहीं रहता. इस बार याद है.’’
श्यामा ने एक ठंडी सांस ली, ‘‘हां, भई, इस बार याद तो रहेगा ही, सेवा जो कर रही हूं.’’
सविता को श्यामा के कहने के ढंग पर हंसी आ गई, बोली, ‘‘अच्छा बताओ, इस बार क्या गिफ्ट चाहिए?’’
‘‘कुछ नहीं.’’
‘‘कुछ तो बताओ.’’
‘‘आप का प्यार और साथ मिलता रहे, काफी है.’’
सविता ने ननद को गले लगा कर उस के माथे पर किस कर दिया.

अनिल की सब रिपोर्ट्स ठीक आईं, डाक्टर ने कुछ दिन आराम करने और किसी भी तरह का तनाव लेने से मना किया. संजय और श्यामा काफी देर तक फोन पर बातें करते रहे. डिस्चार्ज होने के समय अनिल संजय को थैंक्स बोलते रहे और संजय मुसकराते रहे. अनिल ने कहा, ‘‘संजय, तुम ने बिलकुल आराम नहीं किया है. मैं टैक्सी से घर चला जाऊंगा. तुम भी अब घर जाओ. मुझे कोई प्रौब्लम होगी तो फोन कर दूंगा.’’
‘‘आप ने तो हमें अभी भी फोन नहीं किया था,’’ फिर हंस कर कहा, ‘‘आप पर भरोसा नहीं किया जा सकता. चलो, अभी तो आप के घर ही चल रहा हूं, वहां से अपना जरूरी सामान ले लो और फिर हमारे साथ चल कर रहिए.’’
‘‘नहींनहीं, अरे, मैं अब ठीक हूं.’’
‘‘आप की बात नहीं मानी जाएगी, आप हमारे साथ चल कर कुछ दिन आराम करेंगे.’’
अनिल मना करते रहे, संजय ने उन की एक न सुनी. अनिल ने अपना कुछ सामान लिया और संजय के साथ उन के घर आ गए. श्यामा ने चहकते हुए उन का स्वागत किया. सविता को देख कर अनिल चौंके, ‘‘अरे, आप भी यहां हैं, भाभी?’’
‘‘हां, ये दोनों किसी की सुनते हैं क्या?’’
सविता ने उन्हें बताया कि किस तरह उन की भी तबीयत खराब होने पर संजय उन्हें यहां ले आए.

श्यामा ने रमा से कह दिया था, ‘‘रमा, अभी काम ज्यादा होगा, चिंता न करना. तुम्हारे पैसे बढ़ा दिए जाएंगे. बस, हमारे अपनों को कोई तकलीफ न हो, ध्यान रखना.’’
रमा तो अब उन की फैमिली मैंबर जैसी ही हो गई थी, बोली, ‘‘दीदी, चिंता मत करो, ज्यादा काम होने से मुझे कोई परेशानी नहीं है.’’
टू बैडरूम फ्लैट था, एक बैडरूम में श्यामा, सविता सोतीं, संजय के बैडरूम में अनिल का सामान लगा दिया गया. लिविंगरूम में एक रौनक सी आ गई. कभी सब बैठ कर जाने कितने सालों के दुखदर्द बांटते, कितनी बातें बताते, सुनते, कभी हंसते, कभी अपनी आंखें पोंछते. सविता के बच्चे इस प्रबंध से खुश थे. उन की चिंता भी कम हो गई थी.
अब तक सब अकेले अपनी दुनिया में जी रहे थे. अब साथ रहे तो संजय की कई रचनाएं पढ़ कर सविता और अनिल हैरान रह गए. अनिल को पढ़ने का शौक था पर अभी तक संजय का लिखा कुछ पढ़ा नहीं था. सविता अपने पुराने बुरे स्वभाव पर मन ही मन शर्मिंदा थी पर अब सब का प्यार और साथ उसे बहुत भला लग रहा था. अपने अकेले जीवन में तो अनिल और सविता जैसेतैसे ही जी रहे थे, कुछ भी खा लेते. अब सब जब चारों बैठ कर खाना खाते तो उस खाने में एक ऐसा आनंद अनुभव होता जो तनमन को तृप्त कर जाता. अनिल को अब अच्छा लग रहा था.
सब रिटायर्ड थे, फ्री थे. अब तक करने को कोई काम समझनहीं आता था. यहां दिन देखते ही देखते बीत जाता. कभी चारों एक लंबी ड्राइव पर निकल जाते. संजय को कार चलाने का बहुत शौक था. चारों को साथ रहते 10 दिन हो गए थे. अनिल और सविता अपने घर जाने की बात करते तो श्यामा कहती, ‘‘अभी नहीं. मेरे जन्मदिन के बाद .’’
चारों की तबीयत पहले से अब अच्छी रहती. कभी भी कोई आराम करता, कभी टीवी देखता, कभी कार्ड्स खेलते, कभी अंत्याक्षरी. कभी किसी की पसंद का खाना बनता, कभी किसी की. रमा को चारों के साथ बड़ा मजा आता. इस उम्र में जा कर ही सही पर अब एंजौय करने का सबका दिल चाहता.

तीनों श्यामा से कहने लगे, ‘‘चलो, बताओ, कल तुम्हारा जन्मदिन है, चलो, अपनी पसंद की शौपिंग करो, बताओ, क्या चाहिए?’’
श्यामा ने तरल स्वर में कहा, ‘‘आप सब से छोटी हूं, आप में से किसी से कभी कुछ नहीं मांगा. आज मुझे जो चाहिए, वह आप सब मुझे दोगे?’’
तीनों कुछ चौंके, फिर बोले, ‘‘अरे, छोटी, कहो तो.’’
‘‘मैं चाहती हूं, हम चारों ऐसे ही हमेशा साथ रहें, अब. सब हैं तो फिर अकेले क्यों जिएं, ऐसी नौबत क्यों आए कि अकेले घर में बंद किसी को कुछ हो जाए तो किसी को खबर न हो. एकदूसरे के साथ बाकी बचा जीवन बिता कर हम क्यों न जीवन का हर पल एंजौय करें.
एक बीमार हो, दूसरा देख लेगा. अकेलेपन की पीड़ा हमें क्यों सालती रहे? मैं और संजय भैया तो साथ रहते हैं, आप भी हमारे साथ ही रहो अब. जब मन करे घर की साजसंवार का, चले जाना बीचबीच में. यह नहीं होना चाहिए कि हमारे होते हुए अनिल भैया या सविता भाभी अकेले किसी दर्द में पड़े रहें. और, अब तो वह उम्र भी किसी की नहीं रही जहां आपस में झगडे़ करेंगे, मनमुटाव होगा. आने वाले कल में हम में से कोई अकेला न जिए. बस, यही चाहती हूं मैं. यही गिफ्ट दे दो आप लोग मुझे,’’ कहतेकहते श्यामा की आंखों से दो आंसू ढलक गए तो सब भावुक हो गए और सब ने उसे बांहों में ले लिया. संजय ने कहा, ‘‘छोटी, बस उम्र में ही हम से छोटी है, सोचने में सब से आगे है.’’

श्यामा अनिल और सविता की तरफ उन के उत्तर की आशा में दोनों को अपलक देख रही थी. थोड़ी देर बाद दोनों ने हां में सिर हिला दिया तो श्यामा ने हाथ जोड़ दिए, ‘‘भाभी, जीजू, यह अब तक का मेरे जन्मदिन का सब से खूबसूरत तोहफा है.’’
संजय ने छेड़ा, ‘‘अच्छा? और वे सब गिफ्ट्स जो मैं अब तक देता रहा, उन की कोई वैल्यू नहीं?’’
‘‘उन की भी वैल्यू है पर यह गिफ्ट बैस्ट है, भैया. अब एक से नहीं, तीन से गिफ्ट मिला करेंगे.’’
समवेत हंसी से घर एक कोमल, शीतल, मीठे एहसासों से भर उठा था.

Behavior Changes : क्या मैं ज्यादा ‘नाइस’ बनने की कोशिश कर रहा हूं?

Behavior Changes : मेरी उम्र 33 साल है और मैं इन दिनों काफी अजीब महसूस कर रहा हूं. सोचने पर लगता है कि अच्छा बनना तो अच्छी बात है पर दिक्कत यह है कि अच्छे बनने में मुझे ही दिक्कत होने लगी है. मैं किसी को किसी काम के लिए मना नहीं कर पा रहा हूं. मैं हर किसी को खुश करने की कोशिश करता हूं लेकिन बदले में अकसर मैं ही थक जाता हूं.

जवाब : अगर आप हर वक्त दूसरों को खुश करने की कोशिश में खुद को नजरअंदाज कर रहे हैं तो हां, शायद आप ‘पीपल प्लेजर’ बनने लगे हैं. यह एक आदत है जो धीरेधीरे आप की मानसिक शांति छीन लेती है.

दूसरों की मदद करना अच्छी बात है, लेकिन अपनी सीमाओं को पहचानना भी उतना ही जरूरी है. कभीकभी हम ऐसी चीजों के लिए भी हां कह देते हैं जो हमारी क्षमताओं में नहीं होतीं और जब हम उन कामों को ले लेते हैं तो पूरा करने की जिम्मेदारी हमें एक बोझ लगने लगती है जो मानसिक तनाव पैदा करती है.

‘न’ कहना एक कला है. यह आप को खुद को सम्मान देने में मदद करता है. हर किसी को खुश करना न तो मुमकिन है और न ही यह आप की जिम्मेदारी है. हर कोई हर काम नहीं कर सकता है.

धीरेधीरे खुद को ट्रेन कीजिए, हर बार तुरंत ‘हां’ मत कहिए. थोड़ा रुक कर सोचिए, अपना आकलन कीजिए, समझिए कि आप के पास उस काम को करने के लिए पर्याप्त समय या क्षमता है या क्या आप सच में वह काम करना चाहते हैं? अगर नहीं, तो विनम्रता से मना करना सीखिए. मना करना गलत धारणा पैदा नहीं करता है. आप गिल्ट में भी मत जाइए. आप मना करने का अपना कारण स्पष्ट कीजिए फिर देखिए कि आप खुद को कितना फ्री महसूस करते हैं.

खुद की भावनाओं को प्राथमिकता दीजिए. आप तभी दूसरों के लिए कुछ अच्छा कर पाएंगे, जब पहले अपने लिए खड़े होंगे.

अपनी समस्‍याओं को इस नंबर पर 8588843415 लिख कर भेजें, हम उसे सुलझाने की कोशिश करेंगे.

Midlife crisis : जिंदगी अब रूखीरूखी सी लगने लगी है, क्या करूं?

Midlife crisis : मेरी उम्र 45 साल है. हर दिन एक जैसे काम करतेकरते मेरी जिंदगी बोरिंग लगने लगी है. सुबह उठो, काम पर जाओ, शाम को लौटो और फिर वही खाना, सोना. फिर अगले दिन वही. सो, धीरेधीरे उत्साह खत्म होने लगा है जो कभी अंदर जिंदा था. क्या यह मिडलाइफ क्राइसिस है?

जवाब : इस सवाल का सामना आज की भागदौड़ वाली दुनिया में बहुत से लोग कर रहे हैं. सिर्फ 40 या 50 वर्ष की उम्र वाले नहीं, बल्कि 25-30 वर्ष के युवा भी इस ऊब और खालीपन को महसूस करते हैं. इस अनुभव को सीधे ‘मिडलाइफ क्राइसिस’ कह देना शायद जरूरी न हो लेकिन यह एक बहुत अहम संकेत है कि आप की जिंदगी में कोई नया रंग जुड़ने की जरूरत है.

अकसर जिम्मेदारियां निभातेनिभाते हम खुद से, अपनी पसंदनापसंद से, अपने सपनों से दूर हो जाते हैं. हम ‘जीना’ नहीं, बस ‘काम करना’ सीख लेते हैं. ऐसे में सवाल उठता है- आखिरी बार आप ने कब सिर्फ अपने लिए कुछ किया था, कब कोई किताब सिर्फ शौक के लिए पढ़ी थी, कब बेवजह कहीं घूमने निकल पड़े थे आदि?

आप को रूटीन से बाहर आ कर अपनी अपनी खुशियां फिर से खोजनी चाहिए. इस का मतलब यह नहीं कि आप सबकुछ छोड़ कर पहाड़ों पर भाग जाएं बल्कि इस का मतलब यह है कि आप हर दिन के ढर्रे में कुछ नया, कुछ अपना जोड़ें.

छोटेछोटे बदलाव बड़े असर डालते हैं. रोज 15-30 मिनट सिर्फ अपने लिए निकालिए चाहे संगीत सुनने, पेंटिंग करने, बागबानी करने या बस सुकून से टहलने के लिए. अगर हो सके तो दोतीन महीने में एक बार कहीं घूम आइए, किसी नए शहर या किसी पुराने दोस्त से मिलने. अकेले भी जाएं तो बेहतर, क्योंकि तब आप खुद से मिल पाएंगे.

अपनी समस्‍याओं को इस नंबर पर 8588843415 लिख कर भेजें, हम उसे सुलझाने की कोशिश करेंगे.

Friendship Problem : मैं अपने दोस्तों से तरक्की में पिछड़ गया हूं, क्या करूं?

Friendship Problem : मैं 28 साल का हूं और मेरे दोस्त अब ज्यादा कमाने लगे हैं, महंगे फोन और कपड़े इस्तेमाल करते हैं. मैं खुद को उन के बीच छोटा महसूस करता हूं. हालांकि ऐसा नहीं है कि वे लोग मुझे निम्न समझते हैं लेकिन फिर भी मुझे ऐसा फील होता है. यह जलन है क्या?

जवाब : जलन नहीं, बल्कि यह इंसानी भावना है तुलना की. जब हमारे आसपास के लोग तेजी से आगे बढ़ते हैं और हम अभी उसी जगह टिके होते हैं, तो अंदर ही अंदर एक बेचैनी व असहजता होने लगती है. महंगे फोन या कपड़े इंसान की वैल्यू तय नहीं करते. असली बात यह है कि आप खुद को कैसे देखते हैं. अगर आप का आत्मविश्वास केवल बाहरी चीजों पर टिका है, तो आप हमेशा तुलना के जाल में फंसे रहेंगे.

जैसा कि आप ने कहा कि आप के दोस्त आप को नीचा नहीं दिखाते, तो यह बहुत ही अच्छी बात है. इस से आप उन की खूबियों को सीख सकते हैं. आज के जमाने में ऐसे दोस्त मिलना मुश्किल है जो आप की कमियों का मजाक न बनाएं. इसलिए अपना फोकस दूसरों की चीजों पर नहीं, अपनी ग्रोथ पर लगाइए. क्या आप हर दिन थोड़ाथोड़ा बेहतर बन रहे हैं? क्या आप मेहनत कर रहे हैं, सीख रहे हैं? यह सब मायने रखता है.

अपनी समस्‍याओं को इस नंबर पर 8588843415 लिख कर भेजें, हम उसे सुलझाने की कोशिश करेंगे.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें