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Entertainment : बिना भाषणबाजी के सीख देती फिल्म सितारे जमीं पर

Entertainment : यह अच्छी बात है कि आजकल बौलीवुड फिल्मकारों का ध्यान बच्चों की फिल्में बनाने पर गया है. लगता है, मारधाड़ वाली व मसाला फिल्मों से फिल्मकार उकता गए हैं. कई फिल्में तो घाटे में भी रही हैं जबकि दूसरी ओर बच्चों की फिल्में बनती भी कम पैसों में हैं और ये फिल्में सीधी, सच्ची, सरल होती हैं जो न सिर्फ बच्चों को भाती हैं, उन के परिवार वालों को भी आकर्षित करती हैं. अभी हाल ही में आई बच्चों की फिल्म ‘चिडि़या’ ने दर्शकों का दिल जीत लिया है. इस के अलावा ‘स्टेनले का डब्बा’, ‘उड़ान’, ‘मैं कलाम हूं’, ‘बुधिया सिंह,’ ‘चिल्लर पार्टी’ ‘चक दे इंडिया’ फिल्मों ने भी बच्चों का खासा मनोरंजन किया था.

आमिर खान की 2007 में आई ‘तारे जमीं पर’ तो काफी हिट रही. इस फिल्म ने 98.48 करोड़ रुपए कमाए. यह एक इमोशनल फिल्म थी जिस का नायक डिस्लेक्सिया नाम की बीमारी से जूझ रहा था. इस फिल्म को 2008 में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का फिल्मफेयर पुरस्कार मिला था.

अब आमिर खान ने कई साल बाद ‘तारे जमीं पर’ से मिलीजुलती फिल्म ‘सितारे जमीं पर’ बनाई है. इस में आमिर खान बहुत से डिसेबल्ड बच्चों के कोच बने हैं. इस फिल्म को फिल्म ‘चैपियंस’ का रीमेक बताया जा रहा है. यह फिल्म डाउन सिंड्रोम पर है. इस में दिखाया गया है कि स्पैशली एबल्ड बच्चे नौर्मल बच्चों से काफी अलग होते हैं. वे भी सामान्य बच्चों की तरह रहना चाहते हैं, वे नहीं चाहते कि कोई उन्हें दया की नजर से देखे.

आमिर खान ने इस फिल्म में डाउन सिंड्रोम की ओर दर्शकों का ध्यान खींचा है. फिल्म काफी इमोशनल है. यह कभी हंसाती है तो कभी रुलाती है. फिल्म में कोई भाषणबाजी नहीं है. फिल्म में हास्य है तो पीड़ा भी है और फिल्म में सब से बढ़ कर सच्चाई है.

फिल्म हमें यह एहसास कराती है कि जिन्हें हम ‘मंगोल’ या पागल कहते हैं, वे ही हमें इंसानियत का मतलब समझते हैं. फिल्म सोचने पर मजबूर करती है कि कभी हमारे नजरिए में है कि हम ऐसे बच्चे को एबनौर्मल मानने लगते हैं. आमिर खान ने समाज की इस सच्चाई को दिखाया है.

फिल्म के निर्देशक आर एस प्रसन्ना एक ऐसी फिल्म ले कर आए हैं जो दिल को छू लेती है. फिल्म में कोई खलनायक नहीं है. एक अहंकार से भरा असिस्टैंट कोच आमिर खान (गुलशन अरोड़ा) सस्पैंड हो जाता है, क्योंकि वह अपने बौस को मार देता है. वह नशे में एक पुलिस वैन से टकरा जाता है. सजा के तौर पर उसे कम्युनिटी की सेवा करना होता है. उसे 3 महीने तक स्पैशली डिसेबल की एक टीम को बास्केटबौल सिखाना होता है.

गुलशन इस जौब को स्वीकार करता है लेकिन उसे नहीं पता कि उसे उस से बड़ी कोचिंग मिलने वाली है. शुरुआत में उसे यह सजा लगती है लेकिन यह धीरेधीरे उस की सोच, भाव और जीवन बदल देती है. गुलशन की अनिच्छा और फिर स्वीकृति भावनात्मक सच्चाई को सामने लाती है जो हमें भी खुद का आईना लगता है.

2018 की मूल स्पैनिश फिल्म चैंपियंस, जिस पर यह फिल्म आधारित है, वेलेंसिया प्रांत में एडेरेस बास्केटबौल टीम से प्रेरित थी जिसे बौद्धिक विकलांगों के लिए बनाया गया था. यहां अमेरिकी बास्केटबौल कोच कौन जोंस की सच्ची कहानी थी. 1980 में जोंस को शराब पी कर गाड़ी चलाने के लिए दोषी ठहराया गया और बौद्धिक रूप से अक्षम लोगों के लिए बास्केटबौल टीम के मुख्य कोच के रूप में सामुदायिक सेवा करने की सजा सुनाई गई थी.

फिल्म में आमिर खान के साथ जेनेलिया देशमुख नायिका की भूमिका में है. वैसे, यह एक स्पोर्ट्स कौमेडी ड्रामा फिल्म है. मगर पिछली फिल्म ‘तारे जमीं पर’ की अगली कड़ी नहीं है. आमिर खान ने गुलशन के किरदार को संतुलित तरीके से निभाया है. उस की पत्नी जेनेलिया देशमुख का अपनापन गुलशन के जीवन को इमोशनल बनाता है.

असली सितारे फिल्म में हैं 10 न्यूरो डाइवर्जैंट अभिनेता, जिन की ऐक्टिंग दिल छू लेने वाली है. निर्देशन बहुत बढि़या है. फिल्म के इन न्यूरो डाइवर्जैंट कलाकारों को देख कर आप का भी नजरिया बदल जाएगा.

Exclusive Interview : ‘‘शास्त्रीय संगीत जगत में भी नैपोटिज्म रहा है’’ – रोनू मजूमदार

Exclusive Interview : रोनू मजूमदार बांसुरी वादक हैं जिन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया जा चुका है. वे प्रतिभा संपन्न हैं, कई फिल्मों में अपने संगीत व शास्त्रीय संगीत को बढ़ावा देते रहे हैं. संगीत की अपनी जर्नी को ले कर क्या कहते हैं वे, आप भी जानिए.

रणेंद्र मजूमदार को रोनू मजूमदार के नाम से भी जाना जाता है. भारतीय शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में वे एक विचारशील संगीतकार हैं. इस वर्ष ‘पद्मश्री’ पुरस्कार से सम्मानित और गिनीज बुक रिकौर्ड धारक पंडित रोनू मजूमदार का बांसुरी वादन में बहुत बड़ा नाम है. वे मशहूर संगीतकार भी हैं. उन्होंने ‘शंख बांसुरी’ का आविष्कार किया. हालांकि वे नैपोटिज्म के शिकार रहे हैं.

रोनू मजूमदार ने 13 वर्ष तक संगीतकार आर डी बर्मन के निर्देशन में फिल्मों में बांसुरी बजाई थी. आर डी बर्मन के कैरियर की आखिरी फिल्म ‘कुछ न कहो’ को रोनू मजूमदार की बांसुरी के लिए याद किया जाता है. रोनू मजूमदार ने रवींद्र जैन, खय्याम, नौशाद, गुलजार, विशाल भारद्वाज के साथ भी काम किया है तो वहीं विदेश में भी उन्होंने काफी नाम कमाया. वे पिछले 22 वर्षों से साधना स्कूल के तहत देश व विदेश के युवाओं को बांसुरी की शिक्षा दे रहे हैं.

पंडित रोनू मजूमदार ने अपने पिता डा. भानू मजूमदार, पंडित लक्ष्मण प्रसाद जयपुरवाले और पंडित विजय राघव राव के मार्गदर्शन में बांसुरी वादन सीखा और बजाना शुरू किया था. उन्हें अपने महान गुरु पंडित रविशंकर से प्रशिक्षण प्राप्त करने का मौका भी मिला. उन्होंने ‘नदी की बेटी’ फिल्म में संगीत निर्देशन करने के साथ ही गीत भी गाया था. इतना ही नहीं, वे ग्रैमी अवार्ड के लिए भी नौमिनेट हो चुके हैं. कई विदेशी गायकों, संगीतकारों के साथ म्यूजिक कंसर्ट का हिस्सा रह चुके हैं वे.

रोनू को ढेर सारे पुरस्कार मिले हैं. जब उन से पूछा गया कि कौन सा पुरस्कार उन के लिए ज्यादा महत्त्वपूर्ण है तो उन्होंने कहा, ‘‘पुरस्कार तो आप को काम करने की प्रेरणा देते हैं. मेरे लिए सभी पुरस्कार बड़े हैं. संगीत नाटक अकादमी का मु झे जो पुरस्कार मिला, उस की ज्यूरी बहुत खतरनाक थी. इस वर्ष मुझे पद्मश्री का अवार्ड मिला, यह बड़ा पुरस्कार है क्योंकि पद्मश्री को मैं ने पहलगाम की विधवाओं के आंसुओं को डेडीकेट कर दिया ताकि उन को न्याय मिले और आतंकवाद खत्म हो.’’

जब उन से पूछा गया कि उन्हें नहीं लगता कि 50 साल की शास्त्रीय संगीत की साधना के बाद यह सम्मान काफी देर से मिला तो इस पर उन्होंने कहा, ‘‘आप ऐसा कह सकते हैं. पूरी संगीत बिरादरी यह बात कहती रही है कि पंडित रोनू मजूमदार को अब तक ‘पद्मश्री’ क्यों नहीं मिला लेकिन मु झे सरकार से कोई शिकायत नहीं. जब सरकार ने मु झे यह सम्मान दिया तो मैं ने दोनों हाथ फैला कर स्वीकार किया. मैं मानता हूं कि ‘देर आए दुरुस्त आए.’ शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में बेहतरीन काम करने की मेरी मेहनत जारी है, मैं ने अपनी इस मेहनत में कभी कोई कमी नहीं आने दी.

‘‘आखिरकार, ज्यूरी को एहसास हुआ कि इस बार यह सम्मान मु झे मिलना चाहिए तो उन्होंने मु झे दिया. इस तरह के सम्मान से हम जैसे कलाकारों का हौसला बढ़ता है और हम अधिक मेहनत, लगन के साथ अपने क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ काम करने का प्रयास करते हैं. यह न आदि है और न अंत है, बल्कि यह तो शुरुआत है. आगे अभी बहुतकुछ बड़ा काम मु झे करना है और बड़े सम्मान भी पाने हैं.’’

कलाकार बनने के लिए बांसुरी वादन ही क्यों चुना, इसे ले कर उन्होंने कहा,’’ सच कहूं तो बांसुरी वादन को मैं ने नहीं चुना, बल्कि बांसुरी ने मु झे चुना. आप जानते हैं कि मेरे पिता मशहूर पेंटर व होम्योपैथ डाक्टर थे. वे शौकिया बांसुरी बजाया करते थे जबकि वे पन्नालाल घोष के शिष्य भी थे. जब मेरी उम्र 5-6 साल रही होगी, तब सारनाथ में खेलखेल में मैं ने खिलौने की भांति 6-7 बांसुरियां तोड़ दी थीं.

‘‘मैं झूठ बोलता नहीं था. पिताजी ने मु झ से पूछा तो मैं ने सच बता दिया. उन्होंने मेरी पिटाई नहीं की और डांटा नहीं. सजा के तौर पर उन्होंने मु झे आदेश दिया कि जितनी बांसुरी तोड़ी हैं उतने घंटे रोज बांसुरियां बजाने का रियाज करो तो मैं ने हर दिन 6 से 7 घंटे रियाज करना शुरू किया. रियाज करतेकरते मैं बांसुरी के प्रेम में पड़ गया. वह रियाज आज भी काम आ रहा है. शुरूआत में पढ़ाई के साथ वारणसी से ही मेरे पिताजी ने मु झे बांसुरी बजाना सिखाना शुरू कर दिया था.

‘‘मुंबई पहुंचने के बाद मेरे पिताजी ने मु झे गुरु पंडित विजय राघव राव के सुपुर्द कर दिया. वे बांसुरी के बहुत बड़े विद्वान थे. पंडित विजय राघवजी ने संगीत की बारीकियां, रागरागिनी सबकुछ मेरे अंदर डालीं. रवि शंकरजी ने मेरा प्रोफाइल बनाया. रिश्ते में रवि शंकरजी मेरे दादा गुरु थे. पंडित विजय राघव राव के गुरु पंडित रवि शंकरजी थे. यह रिश्ता बड़ा अजीब था. मैं पंडित रवि शंकरजी के हर और्केस्ट्रा में बांसुरी बजाने लगा. 1982 में एशियाड के स्वागत गीत ‘अथ स्वागतम शुभ स्वागतम’, यह गाना मैं ने ही रवि शंकरजी के साथ बजाया था. रवि शंकरजी ने मु झे संपूर्णता का एहसास दिलाया.’’

रास्ता आसान न था

अपनी कला के विस्तार को ले कर उन्होंने बताया, मुंबई नगरी में उन्होंने बहुत ठोकरें खाईं. बहुत नकारे गए. बहुत जगहों से निकाले भी गए क्योंकि वे संगीत के बहुत बड़े खानदान से ताल्लुक नहीं रखते थे. वे रविशंकरजी या अमजद अली खां साहब या बड़े गुलाम अली खां साहब के बेटे नहीं थे.

रोनू मजूमदार ने कहा, ‘‘मैं किसी का नाम नहीं लेना चाहता, लेकिन कटु सत्य यही है कि कई कलाकारों ने मु झे सपोर्ट करने के बजाय मु झे दबाने का भरसक प्रयास किया. अब वे कलाकार नहीं रहे पर मैं ने हकीकत में दुख का पहाड़ झेला है. नैपोकिड न होने की मैं ने सजा भोगी है. मैं ने हर रुकावट का सामना करते हुए अपनी यात्रा को जारी रखा.

‘‘विवाह के बाद मेरी पत्नी आनंदी का बहुत बड़ा योगदान है. मेरी पत्नी ने मु झे कभी टूटने नहीं दिया. मैं दिनभर स्ट्रगल कर के आता था और रात में रियाज करता था, तब भी उस ने कभी शिकायत नहीं की.’’

वे आगे कहते हैं, ‘‘ये लोग कला व संस्कृति को नुकसान पहुंचाने की बनिस्बत कुछ प्रतिभाशाली लोगों का जीना दूभर कर देते हैं. देखिए, मैं यह नहीं कहता कि सभी नैपोकिड प्रतिभाशाली नहीं हैं. मगर स्पर्धा साफसुथरी, स्वस्थ व सकारात्मक होनी चाहिए पर नैपोटिज्म के हिमायती सारे नियमों को ताक पर रख कर केवल नैपोकिड को आगे बढ़ाते हैं.’’

जब उन से पूछा गया कि ऐसी परिस्थिति में कलाकार क्या करे तो उन्होंने कहा, ‘‘ऐसा कलाकार कुछ नया करेगा तो सवाल वही है कि बेचेगा कहां? जब कोई बड़ा इंसान ही आप को गिराने पर आमादा हो जाए तो आप अपनी नई चीज लोगों के पास किस तरह ले कर जाएंगे?

‘‘आज मैं ने एक स्टाइल को जन्म दिया पर वह लोगों के पास पहुंचे कैसे? मैं साफसाफ बात करता हूं. 1980 में केवल मैं एकमात्र बांसुरी वादक था, जिस ने पंडित हरिप्रसाद चौरसिया से अलग तरह से बांसुरी बजा कर दिखाया जबकि उन दिनों सभी उन की ‘नकल’ करते थे. बांसुरी जगत में पंडित पन्नालाल घोष सब से बड़े थे. उस के बाद हरिप्रसाद चौरसियाजी. मेरे गुरुजी पंडित विजय राघव राव भी, जोकि हरिप्रसाद चौरसिया से भी बड़े थे. मगर पंडित हरिप्रसाद चौरसिया का नाम सब से ऊपर.

‘‘सच कहूं तो मैं ने केवल नियति पर भरोसा रखा. अपने काम को ईमानदारी से करता रहा. इस का असर यह हुआ कि जो कलाकार बांसुरी से जुड़े हुए नहीं थे, उन्होंने मेरे काम की चर्चा करनी शुरू की. लोगों ने मेरी शंख बांसुरी, सेवन होल्ड तकनीक के बारे में और मेरे आलाप की चर्चा करनी शुरू कर दी.’’

27 साल पुरानी शंख बांसुरी

अपने शंख बांसुरी के ईजाद को ले कर उन्होंने कहा, ‘‘शंख बांसुरी का ईजाद करने के पीछे भी पंडित रवि शंकरजी ही हैं. 1988 में मैं पंडित रविशंकरजी के साथ मास्को गया था. रवि शंकरजी आलाप लेते हुए नीचे की तरफ मंत्र सप्तक में पहुंच गए. उस वक्त बांसुरी पंचम से ज्यादा नीचे जाती नहीं है. यदि कानी यानी कि छोटी उंगली लगा दें तो भी ज्यादा से ज्यादा मध्यम तक जाएगा तो मु झे बड़ी घुटन होने लगी कि यह कैसे किया जाए. पंडित विश्व मोहन भट्ट और पंडित रविशंकर के दूसरे शागिर्द बड़ी आसानी से बजा लेते थे.

‘‘मुंबई आने के बाद मैं प्रयेग करने में जुट गया. इस प्रयोग को करने में मु झे एम एम पई से बड़ी मदद मिली. एम एम पई बहुत बड़े वैज्ञानिक और बांसुरी वादक रहे. ऐसा संयोग मिलना मुश्किल होता है. वे मेरे गुरुजी के शिष्य थे. उन की वजह से ही मैं शंख बांसुरी को ईजाद करने में सफल हो पाया. इस में शंख एक भी नहीं है पर इस की आवाज, इस का नाद जो है वह शंख की तरह है. इसलिए इसे ‘शंख बांसुरी’ नाम दिया.’’

राग मालकोस विधा को ले कर रोनू मजूमदार कहते हैं, ‘‘बांसुरी वादन में मालकोस राग बहुत कठिन है. मैं डर की वजह से बजाता नहीं था. इस बात से मेरे पिताजी बहुत दुखी थे. 2009 में उन का देहांत हुआ पर कुछ दिनों पहले उन्होंने मु झ से कहा था कि मैं उन को मालकोस सुना दूं. मैं ने मांजना शुरू किया. उन को सुना तो नहीं पाया पर पूरे एक वर्ष तक कठिन मेहनत करने के बाद मैं इस में निपुण हो गया. अब तो मालकोस मेरा फेवरेट हो गया. बांसुरी में मालकोस की पोजीशन बहुत अलग होती है. इस में बेसुरा होने की बहुत गुंजाइश होती है.’’

वे आगे कहते हैं, ‘‘मैं पूरे एक साल तक मालकोस बजाता रहा और मैं सोचता रहा कि लोग डरते क्यों हैं मालकोस राग पर बांसुरी बजाने से. मालकोस राग में गाना आसान है. मगर बांसुरी में ओरिजिनल बजाना बहुत मुश्किल है. लोग बजाते हैं पर सुर इधरउधर रह जाता है. परफैक्ट नहीं बजता. अब तक सही बजाने वाला मैं ने नहीं देखा.’’

फिल्मों में मालकोस राग का प्रयोग

रोनू मजूमदार का मानना है कि फिल्म में मालकोस बजाना बहुत आसान है. आप स्केल बदल कर बजा सकते हैं. मगर जब शास्त्रीय संगीत में मालकोस बजाने की बात आएगी, तब तो मुश्किल है. तलवार की धार पर चलने की बात है. दिल्ली वाले पंडित राजेंद्र प्रसन्ना का मालकोस में गायन काफी हद तक सही है. वे मालकोस के साथ काफी न्याय करते हैं. उन्होंने साधना बहुत की होगी. उन्होंने कहा, ‘‘मैं ने किसी भी फिल्म के लिए मालकोस में बांसुरी नहीं बजाई पर बैकग्राउंड संगीत में मैं ने मालकोस में आलाप बहुत किया. सनी देओल की फिल्म ‘बेताब’ में मैं ने मालकोस में बजाया था.’’

रोनू मजूमदार ने आलाप की शुद्धता को ले कर कहा, ‘‘आजकल लोग फ्यूजन संगीत बहुत बजाते हैं. इसलिए वे शास्त्रीय संगीत में भी फ्यूजन कर देते हैं. तमाम गायक रेस्टलैस हो कर गाते हैं तो सुनने वाला स्वर्गिक आनंद कैसे लेगा? इसलिए जो शुद्ध शास्त्रीय संगीत कार्यक्रम के आयोजक हैं, उन्हें चिंता होने लगी है. अमेरिका के लौस एंजलिस में विनोद वेंकट रमण हैं, वे भी शुद्ध आलाप की मांग करते हैं. इसी तरह दिल्ली में एक आयोजक हैं, वे भी शुद्ध आलाप की मांग करते हैं.’’

उन का मानना है, जब वे कोई बंदिश बजाते हैं तो उस के साहित्य को सम झ कर ही बजाते हैं. पिछले दिनों उन्होंने वेणुनाद का विश्व रिकौर्ड बनाया. 5,378 बांसुरी वादकों के एक विशाल समूह ने ‘वेणुनाद’ नामक एक कार्यक्रम में एकसाथ बांसुरी बजाई जिसे उन्होंने ही कंडक्ट किया तो वहां जो बंदिश थी, उस के भाव को सम झ कर बजवाया.’’

वेणुनाद का विश्व रिकौर्ड स्थापित करने की वजह के बारे में वे कहते हैं, ‘‘यह आर्ट औफ लीविंग के श्रीश्री रविशंकर की इच्छा थी कि ऐसा एक रिकौर्ड बने और इसे मैं करूं क्योंकि हरिप्रसाद चौरसियाजी अपनी उम्र की वजह से नहीं कर पाएंगे. गुरुदेव का मु झ पर विश्वास था. उन की इच्छा के अनुसार इसे नासिक में किया गया. मैं 2 माह तक नासिक जाता रहा. इस में हरिप्रसाद चौरसियाजी का भी पूरा योगदान रहा. मैं खुद उन से मिलने गया था. मैं ने पंडित हरिप्रसाद चौरसियाजी से मदद मांगी तो उन्होंने कहा कि उन के सभी शागिर्द मेरे साथ हैं. फिर उन के शागिर्द के शागिर्द भी मेरे साथ हो गए. इस तरह कारवां बनता गया. अंत में 16 दिसंबर के दिन 5,378 बांसुरी वादकों ने एक तय बंदिश पर बांसुरी बजाई. इस से पहले जापान का 3,777 का रिकौर्ड था.’’

विदेश में भी ख्याति

रोनू मजूमदार ने विदेश जा कर भी काम किया है. उन्होंने कहा, ‘‘रवि शंकरजी ने हम सभी को शिक्षा दी थी कि जब आप पश्चिमी संगीत से जुड़े इंसान के साथ बजा रहे हैं तो थोड़ा रास्ता तय कर उन के नजदीक पहुंचें, थोड़ा उन का भी संगीत सीखो. सिर्फ अपने ही राग या अपने ही संगीत को सर्वश्रेष्ठ मत कहो. मिलन या समन्वय के लिए आप को उन के संगीत को भी बजाना होगा. मैं ने पश्चिमी संगीत भी सीखा. जब हम सामने वाले के संगीत को सीखते हैं तो उस के साथ हमारा जुड़ाव बढ़ जाता है. प्यार बढ़ता है. प्यार बढ़ने पर वह संगीत में नजर आता है. मैं ने अनुशासन के साथ यह सीखा कि कला में ईगो की कोई जगह नहीं है.’’

वे आगे कहते हैं, ‘‘पिछले साल मैं अमेरिका के लौस एंजलिस में ग्रेग चैपल यानी कि चर्च में मैं अपने बेटे ऋषिकेश मजूमदार के संग जुगलबंदी बजा रहा था. एक गोरा इंसान मेरे पास आया और उस ने कहा, ‘मेरी जिंदगी का सारा तनाव दूर हो गया. आज के बाद मैं सिर्फ भारतीय संगीत ही सुनूंगा और वह भी बौलीवुड नहीं, केवल शास्त्रीय संगीत.’ उस की बातें सुन कर मुझे लगा कि मु झे सारे बड़े अवार्ड मिल गए.’’

रोनू मजूमदार संगीत को मैडिसिन के रूप में मानते हैं. वे बताते हैं, ‘‘उन दिनों म्यूजिक थेरैपी काफी लोकप्रिय थी. पी डी हिंदुजा कालेज के यूरोलौजिस्ट डाक्टर शरद उन के शिष्य थे और बांसुरी बजाते थे. वे अपने हर मरीज को औपरेशन के बाद कुछ समय बैठ कर बांसुरी सुनाया करते थे. वे अस्पताल में अपनी केबिन में बांसुरी रखते थे. वे उन से उम्र में बड़े थे, लेकिन मेरे पैर छू कर गुरु के रूप में सम्मान देते थे. उन का मानना था कि म्यूजिक थेरैपी हर अस्पताल में होनी चाहिए.’’

वे अपने फिल्मी जुड़ाव को ले कर कहते हैं, ‘‘जब 1991 में मु झे औल इंडिया रेडियो प्रतियोगिता में तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह से पुरस्कार मिला, तब रेडियो में मेरा कार्यक्रम रखा गया था. जिसे सुनने के लिए पंडित रविंद्र जैन साहब आए थे. मैं ने एक गाना गाया. आर डी बर्मन तक बात पहुंची और फिर टैगोर दादा, जिन्होंने फिल्म ‘गाइड’ में बजाया था वे मु झे आर डी बर्मन के पास ले कर गए. आर डी बर्मन को बांसुरीवादक की जरूरत थी. उन दिनों हरिप्रसाद चैरसियाजी तो लक्ष्मीकांत प्यारे लाल व यश चोपड़ा के साथ व्यस्त थे. मैं ने आर डी बर्मन के साथ लगातार 13 साल बांसुरी बजाई. उन के कैरियर की आखिरी फिल्म ‘1942 : ए लव स्टोरी’ का गाना ‘कुछ न कहो’ तो मेरी बांसुरी के लिए ही जाना जाता है.

‘‘मैं ने तो नौशाद, खय्याम सहित कई संगीतकारों के साथ काम किया है. नौशादजी तो पुरानी स्टाइल के थे और वे गायक को या बांसुरी वादक को फ्रीहैंड नहीं देते थे. ए आर रहमान फ्रीहैंड देते हैं. पंचम दा तो पूरी छूट देते थे. विशाल भारद्वाज ने फिल्म ‘माचिस’ में मेरी बांसुरी का बहुत खूबसूरत उपयोग किया. पहले फिल्मों में बजाने वाले शास्त्रीय संगीत से जुड़े लोगों के नाम नहीं दिए जाते थे लेकिन विशाल भारद्वाज ने फिल्म ‘माचिस’ में क्रैडिट मुझे भी दिया. मैं ने गुलजार के साथ भी काम किया.’’

Unwanted Pregnancy : जब कराना पड़े पत्नी का अबौर्शन

Unwanted Pregnancy : अनचाही प्रैग्नैंसी के चलते दंपती के लिए अबौर्शन की स्थिति बन ही जाती है. ऐसे में घबराए बिना अबौर्शन की सावधानियां समझते हुए फैसला लिया जाना गलत नहीं.

विवाहित जीवन में अबौर्शन की जरूरत करीबकरीब हर दंपती को पड़ती है. इस की वजह यह होती है कि कई बार न चाहते हुए पतिपत्नी के बीच बिना सुरक्षा के सैक्स संबंध बन जाते हैं. कई बार पति कंडोम का प्रयोग करने से बचते हैं या कंडोम का सही प्रयोग नहीं कर पाते हैं, कंडोम फट जाता है या कंडोम लगे रहने के बाद भी वीर्य का प्रवेश पत्नी की योनि में हो जाता है. ऐसे में गर्भ ठहर जाता है. पतिपत्नी दोनों ही अगला बच्चा चाहते नहीं हैं तब उन को अबौर्शन कराने के लिए डाक्टर से संपर्क करना पड़ता है.

हमारे समाज में आज भी गर्भ, अबौर्शन और सैक्स की बातें टैबू की तरह हैं. इन पर चर्चा करने से लोग बचते हैं. बहुत कम मामलों में पति पत्नी को ले कर डाक्टर के पास जाते हैं. पत्नी अपनी रिश्तेदार या सहेली के साथ डाक्टर से मिलती है. पति केवल दिखावे के लिए ही साथ रहता है. अधिक से अधिक वह डाक्टर की फीस और दवा का खर्च दे देता है. इस से अधिक उस का सहयोग मुश्किल होता है. कई बार पति की जगह पर ससुराल के लोग इस की जिम्मेदारी उठाते हैं.

क्या होता है अबौर्शन

अबौर्शन यानी गर्भ का मिसकैरेज होना. गर्भावस्था के पहले 20 हफ्तों में या गर्भावस्था के दौरान भ्रूण का खो जाना अबौर्शन कहलाता है. इस में भ्रूण या गर्भस्थ शिशु का विकास बंद हो जाता है. वह गर्भाशय से बाहर निकल जाता है.

कई बार जब लोग बच्चा नहीं चाहते तब वे औपरेशन के जरिए अबौर्शन कराते हैं. इस को डीएनसी यानी डायलेटेशन एंड क्यूरेटज कहते हैं. अगर सही तरह से अबौर्शन न कराया जाए तो इस में सैप्टिक हो सकता है. अबौर्शन के बाद कुछ समय तक योनि से रक्तस्राव होना सामान्य बात है.

अबौर्शन के बाद डाक्टर अल्ट्रासाउंड के जरिए गर्भाशय की जांच करते हैं. जिस से किसी तरह के संक्रमण का खतरा न रहे. अबौर्शन के बाद डाक्टर दवाएं भी देते हैं. जिस से अबौर्शन से होने वाले नुकसान की भरपाई जल्दी हो सके. डाक्टर विशाखा रावत कहती हैं, ‘‘जब पत्नी को बच्चा हो जाता है तो उस के बाद सैक्स संबंध बनाते समय सुरक्षा का ध्यान रखना चाहिए. लोग यह समझते हैं कि प्रसव के कुछ समय तक जब तक बच्चा ब्रैस्ट फीडिंग करता है दूसरा बच्चा नहीं हो सकता है. ऐसे में वे बिना सुरक्षा के संबंध बनाते हैं और गर्भ ठहर जाता है.’

अबौर्शन में होने वाला खर्च

अबौर्शन में होने वाले खर्चों में सब से प्रमुख डाक्टर की फीस, दवाएं, अस्पताल में रुकने का खर्च जैसी चीजें शामिल होती हैं. सरकारी और प्राइवेट अस्पताल में यह अलगअलग होता है. प्राइवेट में इस की लागत 25 से 50 हजार रुपए तक हो सकती है. अबौर्शन गर्भावस्था के पहले 12 हफ्तों के भीतर किया जाता है. अबौर्शन के बाद की देखभाल और दवाएं भी खर्च में शामिल हो सकती हैं. अस्पताल या क्लिनिक के प्रकार के आधार पर लागत में अंतर हो सकता है. अबौर्शन के लिए सरकारी अस्पतालों में खर्च कम हो सकता है, जबकि निजी अस्पतालों में अधिक. कुछ मामलों में अबौर्शन का खर्च बीमा द्वारा कवर किया जाता है.

Society : हमारा समाज – सवाल हैं पर जवाब कहां?

Society : दुनिया को ले कर किसी बच्चे के पास ढेरों सवाल होते हैं लेकिन उन सवालों का वैज्ञानिक जवाब उसे परिवार और परिवेश नहीं दे पाते. विचारों के रूप में बच्चे को वही मिलता है जो परंपराओं पर आधारित होता है. हमारा सामाजिक माहौल पूरी तरह परंपरावादी है जहां से हमें सड़ेगले विचारों के अलावा नया कुछ नहीं मिलता.

हर बच्चा स्वभाव से जिज्ञासु होता है. बचपन से ही हमारी जो कंडीशनिंग की गई होती है उसी के आधार पर हमारी विचारधारा तैयार होती है. हम मुसलिम के घर में जन्मे तो मुसलमान, क्रिश्चियन के यहां जन्मे तो ईसाई, ब्राह्मण के यहां जन्मे तो ब्राह्मण. ऐसे में व्यक्ति की सहजता, वैज्ञानिकता और उस की वास्तविक समझ के कोई माने नहीं रह जाते. आज जिन युवाओं की भीड़ हम अपने आसपास देखते हैं, यह वही भीड़ है जिस के पास शरीर तो नया है लेकिन विचार सदियों पुराने हैं.

उधार की विचारधारा के शिकार हैं हम

समाज से हासिल रेडिमेड विचारधारा को ले कर आम आदमी खून बहाता है. किसी से नफरत करता है या अपने जीवन का बेशकीमती समय उधार की विचारधारा पर लुटा देता है. परंपराओं पर आधारित परिवार और परिवेश मिल कर हमारी सहज जिज्ञासाओं की हत्या कर देते हैं. ईश्वरवाद की अलगअलग परिकल्पनाएं हमारी जिज्ञासाओं के ताबूत में आखिरी कील ठोंक देती हैं और हमारे एजुकेशन सिस्टम में भी इतनी ताकत नहीं कि वह दफन हो चुकी हमारी सहज जिज्ञासाओं को फिर से जिंदा कर सके.

हमारा सामाजिक माहौल धार्मिक विचारों की मजबूत घेराबंदियों में कैद होता है जहां परंपराएं हावी होती हैं. परंपराओं पर आधारित यही सामाजिक वातावरण हमारी नर्सरी होती है जहां से हमारे दिमागों की कंडीशनिंग की जाती है और हम वह बनते हैं जो हमारा सामाजिक परिवेश तय करता है.

हमारी सोच, विचारधारा सब हमारी इसी कंडीशनिंग पर आधारित होती है. जब हम बड़े होते हैं, दुनिया को हम अपने उसी नजरिए में फिट करने की कोशिश करते हैं जो हमें विरासत में मिला होता है. नतीजा यह होता है कि हम परंपराओं द्वारा तय की गई वैचारिक सीमाओं को कभी लांघ ही नहीं पाते और कछुए की तरह अपनी नकली विचारधाराओं की खोल में छिपे हुए ही मर जाते हैं.

इंसान धरती पर पैदा होते समय एक जिंदा शरीर भर होता है. वह धीरेधीरे बड़ा होता है. बड़े होने की इस प्रक्रिया के दौरान वह हर पल कुछ नया सीखता जाता है. इस सीख में पुरानी पीढ़ी के अनुभव के साथ ही वे विचार भी शामिल हो जाते हैं जिन की मियाद खत्म हो चुकी होती है. इस तरह नई खोपड़ी पुराने विचारों का कूड़ेदान बन कर रह जाती है. इस तरह की करप्ट खोपडि़यों से जो समाज बनता है वह समाज हमेशा दीनहीन ही बना रहता है.

गरीबी, कुपोषण, दंगाफसाद, शोषण, अन्याय, अंधविश्वास और जहालत ही ऐसे समाज की तकदीर बन जाती है और यह विभीषिका कभी खत्म ही नहीं होती क्योंकि ऐसा समाज अपना वैचारिक कूड़ा अगली पीढ़ी के दिमागों में उड़ेल देता है और बदहाली का यह सिलसिला हमेशा चलता रहता है.

समाज किसे कहते हैं

कोई भी समाज इंसानों से ही बनता है. इंसानों के आपसी सहयोग, कल्चरल वैल्यूज और साझा विरासतों पर खड़ी व्यवस्था को ही हम समाज कहते हैं. समाज को समझने के लिए हमें इस समाज के इंसानों को समझना होगा, समाज को पढ़ने के लिए इंसानों को पढ़ना होगा.

सदियों पहले का समाज पुरानी पीढ़ी के अनुभवों से ही सीखता था. शिकार, खेती, पशुपालन या समाज में जीने के तौरतरीके आदि सब बातें पुरानी पीढ़ी के अनुभवों पर ही आधारित होती थीं. हर नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से जो भी सीखती थी उन संस्कारों में थोड़ाबहुत सुधार कर वह अगली पीढ़ी को थमा देती थी जिस से हर पीढ़ी अपनी पिछली पीढि़यों के मुकाबले थोड़ा एडवांस्ड होती जाती थी. इस तरह परंपराएं समाज को आगे की ओर ले जाती थीं.

परंपराएं मानव विकास का अहम हिस्सा रही हैं लेकिन जब परंपराएं सुधार बिना ही आगे बढ़नी शुरू हो जाती हैं तब ये समाज को आगे ले जाने के बजाय पीछे की ओर धकेलना शुरू कर देती हैं. आज यही हो रहा है. इसी वजह से हम पूरी दुनिया में फिसड्डी साबित हो रहे हैं.

धर्म का वैचारिक प्रदूषण बच्चे के दिमाग पर गहरा असर करता है. बौद्धिक विकास के लिए स्कूल जरूरी होते हैं लेकिन परंपराओं के आगे स्कूली ज्ञान का एंटीडोट बेअसर हो जाता है. जब यही बच्चा बड़ा हो कर समाज या सिस्टम का हिस्सा बनता है तब भी वह मानसिक तौर पर गुलाम ही रहता है. गुलामों की ऐसी ही भीड़ को हम समाज कहते हैं.

पढ़ेलिखे लोगों की असलियत

खूब पढ़ालिखा होना अलग बात है और समझ का होना बिलकुल दूसरी बात. कई बार जिन्हें हम खूब पढ़ालिखा समझते हैं वे अपनी असली जिंदगी में अव्वल दर्जे के अंधविश्वासी और अतार्किक होते हैं क्योंकि ये लोग डिग्रियां तो हासिल कर लेते हैं लेकिन तर्क पैदा करने वाली किताबों से बहुत दूर होते हैं. जो लोग सही किताबों से गुजरे होते हैं वे लोग अपने लौजिक से सृष्टि को समझते हैं और ऐसे तार्किक लोग किसी के अंधभक्त नहीं होते.

किताबें हमें तार्किक बनाती हैं, हमें जागरूक करती हैं और हमारी समझ को बढ़ाती हैं लेकिन मौजूद शिक्षा प्रणाली सिर्फ डिग्रीधारियों की भीड़ तैयार करती है. डिग्रीधारियों की ऐसी भीड़ पढ़ीलिखी नजर तो आती है लेकिन यह असल में अनपढ़ ही होती है.

एक एमबीबीएस डाक्टर एक तांत्रिक के चक्कर में 2 करोड़ रुपए ठगा बैठी. आप उसे क्या कहेंगे? क्या इन्हें पढ़ालिखा माना जाए?

केरल में आपदा आई. गरीब, अशिक्षित मछुआरे भगवान बन कर सामने आए. उन्होंने सेना के जवानों के साथ मिल कर सैकड़ों की जान बचाई और इस के उलट इस दौरान पढ़ेलिखे डिग्रीधारी लोगों ने क्या किया? इस आपदा के दौरान जो जितना ज्यादा पढ़ालिखा था वह उतना ज्यादा अपने नासमझ होने का सबूत दे रहा था.

आरबीआई के एक वरिष्ठ अधिकारी, जो कुछ ज्यादा ही पढ़लिख गए थे, ने दावा किया कि यह सबरीमाला में औरतों के प्रवेश का प्रकोप है. कुछ ज्यादा पढ़ेलिखे लोग तो केरल में राहत सामग्री के साथ कंडोम भेजने की बात करते हुए पीडि़तों का मजाक उड़ा रहे थे. यह है हमारे देश के पढ़ेलिखे लोगों की असलियत.

आप शिक्षित हैं, इस का अर्थ यह नहीं कि आप समझदार भी होंगे. आप अगर देश की समस्याओं के मूल कारणों को लौजिक से नहीं समझ पाते, राजनीतिक षड्यंत्रों को नहीं समझ पाते, धार्मिक षड्यंत्रों के प्रति जागरूक नहीं हैं तो चाहे आप कितनी ही डिग्रियां ले कर बैठे हों, आप की समझ जीरो ही है.

मान लीजिए आप एक ऐसी जगह हैं जहां आप के चारों ओर अंधकार है. ऐसे में आप की पढ़ाईलिखाई या आप की डिग्री उस अंधेरे में एक टौर्च की तरह है. आप उस टौर्च के सहारे रास्ते को देखते हुए आगे बढ़ जाएंगे लेकिन आसपास के माहौल और मंजिल की तार्किक समझ न होने के कारण टौर्च होते हुए भी आप भटक जाएंगे और गलत रास्ते पर आगे बढ़ते चले जाएंगे. वहीं जिस के पास टौर्च यानी डिग्री नहीं है लेकिन रास्ते और मंजिल की समझ है वह घोर अंधकार में भी बिना रोशनी के रास्ता ढूंढ़ लेगा और मंजिल तक पहुंच जाएगा. नौलेज का अर्थ ही परिवर्तन है जो सही किताबों से आता है.

नौलेज और तार्किक समझ के बिना आम जनता हमेशा भ्रम में रहती है कि उस का उद्धार उस का धर्म करेगा और इस तरह सत्ता अपनी जिम्मेदारियों से पूरी तरह मुक्त हो कर उन्मुक्त हो जाती है और फिर उसे एक ही काम होता है लोगों को हमेशा भ्रमित रखना. हमारे देश की सब से बड़ी समस्या हमारी बदहाली, गरीबी नहीं है बल्कि सब से बड़ी समस्या यह है कि यहां पढ़ेलिखे लोग समझदार नहीं हैं.

आज देश में एक बेहद बड़ी आबादी पढ़ेलिखे लोगों की है और विडंबना देखिए कि जो पढ़ेलिखे हैं उन में देश की समस्याओं को हल करने की समझ नहीं है और जिन्हें समझ है उन के पास संसाधन नहीं हैं. मतलब, जिसे रास्ते की समझ है उस के पास टौर्च नहीं है और जिस के पास टौर्च है उसे रास्ते की समझ नहीं है.

कैसे विकसित हो पाएगा देश

किसी भी विकसित देश का इतिहास उठा कर देख लीजिए, वहां भी हमारे देश की तरह ही बदहाली थी लेकिन वहां के पढ़ेलिखे लोग समझदार थे, उन्होंने अपने ज्ञान से, अपनी समझदारी से अपने देश की हर समस्या को समझ और उन्हें दूर किया.

आज उन देशों के धार्मिक स्थलों में मकड़ी के जाले लग चुके हैं क्योंकि वहां लोग समझदार हैं, उन्हें पता है कि धर्म का इतिहास कितना कुरूप रहा है. धर्म ने दुनिया को सिवा बरबादी के कुछ नहीं दिया. इस के उलट, हम पढ़लिख कर भी धर्म में अपना भविष्य तलाश कर रहे हैं, यह हमारी सब से बड़ी मूर्खता है.

भारत जैसे देश में 77 प्रतिशत आबादी को दो जून की रोटी के लिए संघर्ष करना पड़ता है. देश में 20 करोड़ लोग नालों और फुटपाथों पर जिंदगी गुजारने को मजबूर हैं और इतने ही लोग सड़ांधभरी झुग्गियों में जीने को मजबूर हैं. दूसरी ओर, धार्मिक संस्थानों के पास इतना धन इकट्ठा है कि जिस से देश को दोबारा सोने की चिडि़या बनाया जा सकता है. करोड़ों मंदिर, मसजिद, धाम, गुरुद्वारा, मजार, चर्च और मदरसे देश पर बोझ नहीं तो और क्या हैं?

धर्म और ईश्वर के नाम पर खड़े किए गए इस आडंबर से देश का क्या भला हुआ है? वे देश जहां धर्म की यह बीमारी नहीं है वहां लोग हम से ज्यादा खुशहाल हैं, आखिर क्यों? इस सवाल को समझने की क्षमता देश के पढ़ेलिखे लोगों में नहीं है.

कुकुरमुत्ते की तरह उगे बाबा और उन के दिनरात चलते सतसंग, जो आध्यात्म के नाम पर लोगों को मूढ़ते हैं, समाज के तार्किक दृष्टिकोण को पनपने से रोकते हैं. इन सब के अलावा मुल्लाओं की फौज, साधु मंडली के लोग देश और समाज पर बोझ नहीं तो और क्या हैं?

अगर देश का सच में उद्धार चाहिए तो पढ़ेलिखे लोगों को समझदार बनना पड़ेगा. देश की समस्याओं को तार्किक दृष्टिकोण से समझना होगा और सब को साथ ले कर आगे बढ़ना होगा तभी देश का उद्धार संभव है वरना आने वाले वक्त में यह देश सिर्फ बेवकूफों का देश बन कर रह जाएगा.

यह भी सत्य है कि जिस समाज में धर्म के पाखंड से दिमाग को दूषित करने की प्रक्रिया जन्म लेते ही शुरू हो जाती हो, परिवार, समाज, स्कूल और अखबार सहित बुद्धि विकास के सभी दरवाजों पर धार्मिक गिरोहों का जबरदस्त पहरा हो, वहां खूब पढ़लिख कर भी कोई उस मायाजाल से कभी निकल ही नहीं पाएगा. ऐसी व्यवस्था में पढ़ेलिखे समझदार लोग सिर्फ अपवाद ही होंगे.

Hindi Kahani : प्रिया – क्या हेमंत को फंसा पाई थी वह लड़की ?

Hindi Kahani : हर रोज की तरह आज भी शाम को मर्सिडीज कार लखनऊ के सब से महंगे रैस्तरां के पास रुकी और हेमंत कार से उतर कर सीधे रैस्तरां में गया. वहां पहुंच कर उस ने चारों तरफ नजर डाली तो देखा कि कोने की टेबिल पर वही स्मार्ट युवती बैठी है, जो रोज शाम को उस जगह अकेले बैठती थी और फ्रूट जूस पीती थी. हेमंत से रहा नहीं गया. उस ने टेबिल के पास जा कर खाली कुरसी पर बैठने की इजाजत मांगी.

‘‘हां, बैठिए,’’ वह बोली तो हेमंत कुरसी पर बैठ गया. इस से पहले कि दोनों के बीच कोई बातचीत होती हेमंत ने उसे ड्रिंक औफर कर दिया.

‘‘नो, इस्ट्रिक्टली नो. आई डोंट टेक वाइन,’’ युवती ने विदेशी लहजे में जवाब दिया. हेमंत को समझते देर नहीं लगी कि युवती विदेश में सैटल्ड है. वह युवती का नाम जान पाता, इस से पहले युवती ने बात आगे बढ़ाई और बोली, ‘‘मैं कनाडा में सैटल्ड हूं. वहां वाइन हर मौके पर औफर करना और पीना आम बात है, लेकिन मैं अलकोहल से सख्त नफरत करती हूं.’’

‘‘आप का नाम?’’ हेमंत ने पूछा.

‘‘क्या करेंगे जान कर? मैं कुछ महीनों के लिए इंडिया आई हूं और थोड़े दिनों बाद वापस चली जाऊंगी. शाम को यहां आती हूं रिलैक्स होने के लिए. क्या इतना जानना आप के लिए काफी नहीं है?’’ युवती ने जवाब दिया और अपनी घड़ी देख उठने लगी.

‘‘प्लीज, कुछ देर बैठिए. मैं आप के साथ कुछ देर और बैठना चाहता हूं. मुझे गलत मत समझिए. आप के विचारों ने मुझे बहुत इंप्रैस किया है, प्लीज,’’ हेमंत ने कहा.

मौडर्न तरीके से साड़ी में लिपटी हुई उस युवती ने कुछ सोचा फिर बैठ गई और बोली, ‘‘मेरा नाम प्रिया है और मैं एनआरआई हूं. एक टीम के साथ गैस्ट बन कर इंडिया घूमने आई हूं. यहां लखनऊ में मेरे चाचा रहते हैं, इसलिए उन से मिलने आई हूं. मेरे पेरैंट्स वर्षों पहले कनाडा शिफ्ट कर गए थे. वहां वे सरकारी स्कूल में टीचर हैं.’’

इतना कह कर उस ने फिर चलने की बात कही तो हेमंत ने कहा, ‘‘चलिए मैं आप को चाचा के घर छोड़ देता हूं. मुझ पर विश्वास कीजिए और यकीन न हो तो अपने चाचा से इजाजत ले लीजिए. उन से कहिए कि सुपर इंडस्ट्रीज के मालिक की गाड़ी से घर आ रही हूं. सुपर इंडस्ट्रीज लखनऊ और पूरे प्रदेश में प्रसिद्ध है.’’ प्रिया ने उस से विजिटिंग कार्ड मांगा. उसे देखा फिर पर्स में रखा और उस के साथ चलने को राजी हो गई. गाड़ी में बैठते वक्त हेमंत अत्यधिक विचलित सा था. पता नहीं क्यों एक अनजान युवती को वह अपना समझने लगा था. शायद युवती के आकर्षक व्यक्तित्व व अंदाज से प्रभावित हो गया था. गाड़ी में हेमंत ने पारिवारिक बातें छेड़ीं और अपने परिवार और बिजनैस के बारे में बताता रहा. गाड़ी तो चल पड़ी, लेकिन जाना कहां है हेमंत को मालूम नहीं था.

उस ने प्रिया से पूछा, ‘‘कहां जाना है?’’

‘‘अमीनाबाद,’’ प्रिया का संक्षिप्त जवाब था.

‘‘तुम्हारे चाचा क्या करते हैं?’’ हेमंत ने फिर सवाल किया.

प्रिया ने बताया कि उस के चाचा इरिगेशन डिपार्टमैंट में जौब करते हैं और अमीनाबाद में उन का फ्लैट है.

‘‘गाड़ी रोकिए , मेरा घर पास ही है,’’ प्रिया ने कहा.

हेमंत ने बड़ी विनम्रता से कहा, ‘‘चलिए घर तक छोड़ देता हूं.’’

‘‘नहींनहीं ठीक है. अब मैं खुद चली जाऊंगी,’’ प्रिया का जवाब था.

फिर मिलने की बात नहीं हो पाई. प्रिया कार से उतर कर रोड क्रौस कर के गायब हो गई. हेमंत उदास सा अपने घर की ओर चल पड़ा. गेट पर दरबान ने विस्मय से हेमंत की ओर देखा और बोला, ‘‘साहब, बड़ी जल्दी घर आ गए.’’

हेमंत बिना कुछ बोले गाड़ी पोर्टिको में रख कर बंगले में पहुंचा. मम्मी अपने कमरे में थीं. उस की इकलौती लाडली छोटी बहन ड्राइंगरूम में बैठ कर एक बुकलेट में हीरों का सैट देख कर पैंसिल से उन्हें टिक कर रही थी.

हेमंत ने पूछा, ‘‘क्या देख रही हो बिन्नी?’’

बिन्नी ने हेमंत के प्रश्न का उत्तर दिए बिना कहा, ‘‘भैया, आज जल्दी आ गए हो तो चलो हीरे का सैट खरीद दो. मेरा बर्थडे भी आ रहा है, वह मेरा गिफ्ट हो जाएगा.’’

हेमंत सोफे पर बैठा ही था कि हाउसमेड ऐप्पल जूस का केन और कुछ ड्राई फ्रूट्स ले कर आ गई. जूस पीते हूए हेमंत समाचारपत्र देखने लगा और बिन्नी से बोला, ‘‘जल्दी रेडी हो जाओ. चलो तुम्हारा सैट खरीद देता हूं.’’

वे डायमंड सैट खरीद कर लौट रहे थे तो बिन्नी ने हिम्मत जुटा कर अपने भैया से पूछा, ‘‘भैया, एक सैट तो मैं ने अपनी पसंद से खरीदा, लेकिन दूसरा सैट तुम ने अपनी पसंद से क्यों खरीदा?’’ हेमंत के पास तुरंत कोई जवाब नहीं था, वह बस मुसकरा कर रह गया. बिन्नी को लगा कि पैरेंट्स 2 वर्षों से जिस दिन का इंतजार कर रहे थे, संभवतया वह दिन आने वाला है. वरना दर्जनों विवाह के रिश्ते को ठुकराने के बाद भैया ने आज 18 लाख का डायमंड सैट क्यों खरीदा? जरूर आने वाली भाभी के लिए.

घर जा कर जब बिन्नी ने यह रहस्य खोला तो पूरे घर में उत्सव का माहौल हो गया. हाउसमेड ने मुसकराते हुए रात का खाना परोसा, तो कुक ने एक स्पैशल डिश भी बना डाली. खाना खा कर सभी हंसतेखिलखिलाते अपनेअपने कमरों में चले गए. सुबह हुई तो हेमंत के डैडी ने कोई गाना गुनगुनाते हुए चाय की चुसकी ली, तो बिन्नी और उस की मम्मी ने दिन भर शादी की तैयारी पर बातचीत की. गैस्ट की लिस्ट भी जुबानी तैयार की. फिर वही शाम, लखनऊ का वही रैस्तरां. लेकिन घंटों इंतजार के बाद भी प्रिया नहीं आई, तो हेमंत उदास सा देर रात में अपने घर लौटा.

अगली शाम कुछ देर के इंतजार के बाद प्रिया ने रैस्तरां में प्रवेश किया, तो हेमंत लगभग दौड़ता हुआ उस के पास गया और पूछा, ‘‘कल क्यों नहीं आईं?’’

‘‘क्या मेरे नहीं आने से आप को कोई प्रौब्लम हुई?’’ प्रिया ने उलटा सवाल किया.

हेमंत ने अपने दिल की बात कह डाली, ‘‘मुझे तुम्हारे जैसी लड़की की तलाश थी, जो मेरे लाइफस्टाइल से मैच करे और मेरी मां और बहन को पूरा प्यार दे सके. यह सिर्फ भारतीय मानसिकता वाली लड़की ही कर सकती है. सच कहूं, यदि तुम्हारी शादी नहीं हुई है तो समझो मैं तुम्हें अपनी बीवी मान बैठा हूं.’’

प्रिया ने प्रश्न किया, ‘‘बिना पूरी तहकीकात किए इतना बड़ा फैसला कैसे ले सकते हैं? आप मेरे नाम के सिवा और कुछ भी जानते हैं? आप के बारे में भी मुझे पूरी जानकारी हासिल नहीं है. मुझे अपने पेरैंट्स की भी सलाह लेनी है. जैसे आप अपने परिवार के बारे में सोचते हैं, वैसे ही मेरे भी कुछ सपने हैं, परिवार के प्रति जवाबदेही है. और इस की क्या गारंटी है कि शादी के बाद सब ठीकठाक होगा?’’

हेमंत ने प्रस्ताव रखा, ‘‘चलो मेरे घर, वहीं पर फैसला होगा.’’

प्रिया घर जाने को राजी नहीं हुई. उस का कहना था कि वह अपने चाचा के साथ उस के घर जा सकती है. कार में बैठ कर अगले दिन अपने चाचा को रैस्तरां में लाने का वादा कर प्रिया नियत मोड़ पर कार से उतर गई. अगली शाम फिर वही रैस्तरां. प्रिया आज अत्यधिक स्मार्ट लग रही थी. साथ में एक 20-22 वर्ष का लड़का था, जिसे प्रिया ने अपना कजिन बताया. चाचा के बारे में सफाई दी कि चाचा अचानक एक औफिस के काम से चेन्नई चले गए हैं, सप्ताह भर बाद लौटेंगे.

हेमंत चुप रहा, लेकिन प्रिया उस के दिलोदिमाग में इस कदर छा गई थी कि वह एक कदम भी पीछे नहीं हटने को तैयार नहीं था. घर में पूरी तैयारी भी हो चुकी थी, ऐसे में उस ने मौके को हाथ से जाने देने को मुनासिब नहीं समझा. प्रिया और उस के कजिन को ले कर हेमंत अपने घर पहुंच गया. बिन्नी और उस की मां ने घर के दरवाजे पर आ कर दोनों का स्वागत किया. बिन्नी प्रिया का हाथ पकड़ कर अंदर ले गई. सीधीसाधी किंतु स्मार्ट युवती को देख कर सभी खुश थे पर हेमंत के डैडी इतनी जल्दी फैसला लेने को तैयार नहीं थे. लेकिन हेमंत, बिन्नी और पत्नी के आगे उन की एक न चली. हेमंत की मां बहू पाने की लालसा में अत्यंत उत्साहित थीं. हेमंत द्वारा खरीदा हुआ 18 लाख का हीरे का सैट प्रिया को मुंह दिखाई में दे दिया गया. मंगनी की चर्चा होने पर प्रिया ने कहा कि मंगनी 1 महीने बाद की जाए, क्योंकि मेरे पेरैंट्स अभी इंडिया नहीं आ सकते. वैसे मां से मेरी बात हुई है. मां ने मुझ से कह दिया है कि मेरी पसंद उन सब की पसंद होगी.

हेमंत को एक बिजनैस ट्रिप में विदेश जाना था. उस ने इच्छा जताई कि मंगनी की रस्म जल्दी संपन्न कर दी जाए. परिवार वालों ने हामी भर दी, तो मंगनी की तारीख 2 दिन बाद की तय हो गई. फाइव स्टार होटल के अकबर बैंक्वैट हौल में हेमंत का परिवार और तकरीबन 100 गैस्ट आए. प्रिया पर सभी मेहमानों ने भेंट स्वरूप गहने और कैश की वर्षा कर दी. हेमंत ने हीरे की अंगूठी पहनाई, तो प्रिया ने भी एक वजनदार सोने की अंगूठी हेमंत को पहनाई. हेमंत की मां ने फिर 25 लाख का हीरों का सैट दिया. डिनर के बाद सभी गैस्ट बधाई देते हुए एकएक कर के विदा हो गए, तो दस्तूर के अनुसार बिन्नी और उस की मां ने गहनों और कैश का आकलन किया. लगभग 5 लाख कैश और 85 लाख मूल्य के गहने भेंट स्वरूप प्राप्त हुए थे. बिन्नी मुबारकबाद देते हुए प्रिया से गले मिली और एक पैकेट में पैक कर के गिफ्ट उस के हाथों में थमा दिया. हमेशा की तरह हेमंत ने अपने ड्राइवर को प्रिया मैडम को घर तक छोड़ने की हिदायत दी और गार्ड को भी साथ जाने का हुक्म दिया. फिर अगले दिन लंच साथ करने का औफर देते हुए प्रिया को विदा किया.

अगली सुबह ब्रेकफास्ट के बाद हेमंत ने औफिस पहुंच कर जल्दी काम निबटाया. औफिस स्टाफ ने बधाइयां दीं और मिठाई की मांग की. तो हेमंत पार्टी का वादा कर प्रिया के घर की ओर चल पड़ा. 20-25 मिनट बाद अमीनाबाद पहुंच कर ड्राइवर ने वहां गाड़ी रोक दी जहां हर बार प्रिया उतरती थी और हेमंत से सवाल किया, ‘‘अब किधर जाना है, साहब?’’

‘‘प्रिया मैडम के घर चलो,’’ हेमंत ने ड्राइवर की ओर देख कर कहा.

‘‘साहब, मैडम रोज यहीं उतर जाती थीं. कहती थीं कि लेन के अंदर कार घुमाने में प्रौब्लम होगी,’’ ड्राइवर ने जवाब दिया.

‘‘अरे, बुद्धू, तुम रोज मैडम को यहीं सड़क पर उतार देते थे. मंगनी की रात गार्ड को भी भेजा था. वह जरूर साथ गया होगा, उसे फोन लगाओ,’’ हेमंत गरजा.

गार्ड बंगले की ड्यूटी पर था. उस ने जवाब दिया, ‘‘मैं ने बहुत जिद की पर मैडम बोलती रहीं कि वे खुद चली जाएंगी. उन के हुक्म और जिद के आगे हमारी कुछ नहीं चली.’’

हेमंत जोर से चिल्लाया, ‘‘बेवकूफ, मैं ने तुम्हें मैडम की सिक्यूरिटी के लिए भेजा था और तुम ने उन्हें आधे रास्ते पर छोड़ कर अकेले जाने दिया? मैं तुम दोनों की छुट्टी कर दूंगा.’’

हेमंत ने अब प्रिया को फोन किया लेकिन उस का स्विच औफ मिला. उस ने अपने औफिस पहुंच कर फिर फोन लगाया. इस बार प्रिया का रेस्पौंस आया. वह धीमी आवाज में बोली, ‘‘मेरे कजिन की तबीयत अचानक बहुत खराब हो गई है. उसे डाक्टर अभी देख रहे हैं. मैं रात में बात करती हूं,’’ इतना कह कर प्रिया ने मोबाइल का स्विच औफ कर दिया. हेमंत की रात बैचेनी से कटी. अगली सुबह मौर्निंग जौगिंग छोड़ कर हेमंत अमीनाबाद की ओर चल पड़ा. मंगनी के 36 घंटे बीत चुके थे. प्रिया से पूरी तरह संपर्क टूट चुका था.

ड्राइवर ने जिस गली को प्रिया मैडम के घर जाने का रास्ता बताया था, दिन के उजाले में हेमंत अनुमान से उस जगह पर पहुंच गया और कार को रुकवा फुटपाथ पर चाय की दुकान पर चाय पीने लगा. हेमंत को हर हाल में आज प्रिया से मिलना था, अत: उस ने चाय वाले से हुलिया बताते हुए पूछताछ की. बाईचांस चाय वाले ने प्रिया को 2 बार कार से उतरते देखा था, लेकिन उस ने भी निराशाजनक जवाब दिया. उस ने हेमंत को बताया, ‘‘आप ने जो हुलिया बताया वैसे हुलिए की अनेक महिलाएं हैं और रात में देखे गए चेहरे की पहचान करना थोड़ा मुश्किल है. लेकिन एक बात पक्की है कि जिस गाड़ी से 2 बार मैं ने उन्हें उतरते देखा, यह वही गाड़ी है जिस से आप आए हैं.’’ हेमंत पैदल चलते हुए गली में प्रवेश कर गया. सुबह का समय था इसलिए प्राय: हर कोई घर में ही था. कुछ लोगों ने प्रिया नाम सुन कर कहा कि इस नाम की किसी लड़की को नहीं जानते, लेकिन एक पढ़ेलिखे नेता टाइप के मौलवी साहब ने जो बातें हेमंत को बताईं, उसे सुन कर हेमंत के पैरों तले मानो जमीन खिसक गई.

मौलवी साहब ने कहा, ‘‘बेटे, इस गली में या तो मजदूर या छोटीमोटी नौकरी करने वाले लोग रहते हैं. यहां कभी भी किसी एनआरआई या आप के बताए हुए हुलिए की युवती को कभी नहीं देखा गया है. यह गली जहां खत्म होती है उस से आगे रिहाइशी इलाका भी नहीं है, आप गलत जगह आ गए हैं.’’

हेमंत को महसूस होने लगा कि उस के साथ बहुत बड़ा धोखा हुआ है. उस के पास प्रिया के घर के पते के नाम पर सिर्फ अनजान गली की जानकारी भर थी. हेमंत वहां से निकल कर रैस्तरां की ओर चल पड़ा. रैस्तरां में अभी साफसफाई चल रही थी, किंतु हेमंत साहब को सुबहसुबह देख कर सारा स्टाफ बाहर आ गया. हेमंत को वहां जो जानकारी मिली उस ने उस की शंका को हकीकत में बदल दिया. सिक्यूरिटी गार्ड ने बताया कि वे मैडम जब पहली दफा रैस्तरां आई थीं, तब उन्होंने मुझ से पूछा कि सुपर इंडस्ट्रीज वाले हेमंत रस्तोगी कौन हैं? मैं ने आप की ओर इशारा किया था. इस के बाद आप दोनों को साथसाथ निकलते देखा तो हम सब यह समझे कि आप लोग एकदूसरे को जानते हैं. हेमंत सुन कर लड़खड़ा सा गया, तो स्टाफ ने मिल कर उसे संभाला. हेमंत को प्रिया का तरीका समझ में आ गया था. पूरी योजना बना कर और एक अच्छे होमवर्क के साथ हेमंत को टारगेट बना कर उस के साथ फ्रौड किया गया था.

हेमंत संभल कर कार में बैठा और घर जा कर सभी को यह कहानी सुनाई. अपने घबराए हुए बेटे को आराम की सलाह दे कर हेमंत के पापा सिटी एसपी के औफिस पहुंच गए. एसपी ने ध्यान से सारी बातें सुनीं, इंगैजमैंट की तसवीर रख ली और दूसरे दिन आने के लिए कहा. एसपी के कहने पर प्रिया के खिलाफ एफआईआर भी दर्ज कराई गई. अगले दिन हेमंत और उस के डैडी सिटी एसपी के औफिस पहुंचे, तो उन्होंने बताया कि दिल्ली क्राइम ब्रांच से खबर मिली है कि इस सूरत की एक लड़की हिस्ट्री शीटर है. फोटो की पहचान पर दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से पता चला है कि बताई गई मंगनी की तारीख के दूसरे दिन वह युवती कनाडा के लिए रवाना हो गई है. यह भी पता चला कि यह युवती बीचबीच में इंडिया आती है और अपना नाम बदल कर विभिन्न शहरों में ऐसा फ्रौड कर के सफाई से विदेश भाग जाती है. एक बार तो जयपुर में शादी रचा डाली और सारा सामान ले कर चंपत हो गई. लेकिन अब वह बच नहीं पाएगी, क्योंकि मैं ने रैडअलर्ट की सिफारिश कर दी है. अगली बार इंडिया आते ही पकड़ी जाएगी.

हेमंत को अब यह बात समझ में आ गई कि उस युवती ने कजिन की बीमारी के नाम पर संपर्क तोड़ा और आसानी से भाग निकली. हेमंत के डैडी ने एसपी साहब से पूछा कि आगे क्या होगा? तो उन्होंने कहा कि अगर लड़की पकड़ी गई तो पहचान के लिए पुलिस थाने आना होगा और केस चलने पर कोर्ट में भी आना होगा. कई तारीखों पर गवाह के रूप में आना आवश्यक होगा. इन सब से पहले तफतीश के समय पुलिस के सामने बयान देना होगा और अपने गवाहों के बयान भी दर्ज कराने पड़ेंगे. हेमंत के डैडी ने टिप्पणी की, ‘‘यानी अपने बिजनैस से टाइम निकाल कर कोर्टकचहरी और पुलिस के चक्कर लगाने होंगे.’’

एसपी साहब ने मुसकरा कर कहा, ‘‘ये तो कानून से जुड़ी बातें हैं. इन का पालन तो करना ही होगा.’’

अब हेमंत ने मुंह खोला और बोला, ‘‘लाखों का फ्रौड और कोर्टकचहरी की दौड़ भी. नुकसान तो बस हमारा ही है.’’

एसपी ने दोबारा पुलिस के संपर्क में बने रहने की बात कही और हेमंत के डैडी से हाथ मिला कुरसी से खड़े हो गए. हेमंत के हिस्से में अब पछतावे और अफसोस के सिवा कुछ भी नहीं बचा था. Hindi Kahani

Social Story : देवदासी – एक प्रथा जिसने छीन लिया सिंदूर

Social Story : मेरा नाम कुरंगी है और मेरी मां ही नहीं, मेरी दादी -परदादी भी देवदासी थीं. शायद लकड़दादी भी. खैर, मां ने वैसे विधिवत ब्याह कर लिया था. लेकिन जब उन के पहली संतान हुई तो उसे तीव्र ज्वर हुआ और उस ज्वर में उस बच्चे की आंखें जाती रहीं. उस के बाद एक और संतान हुई. उसे भी तीव्र ज्वर हुआ और उस तीव्र ज्वर में उस की टांगें बेकार हो गईं और वह अपाहिज हो गया.

बस, फिर क्या था. लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि यह देवताओं का प्रकोप है. अगर हम देवदासियों ने देवता की चरणवंदना छोड़ दी तो हमारा अमंगल होगा. इसलिए जब मैं होने वाली थी तब मां ने मन्नत मानी थी कि अगर मुझे कुछ नहीं हुआ तो वह फिर से देवदासी बन जाएंगी.

पैदा होने के बाद मुझे दोनों भाइयों की तरह तीव्र ज्वर नहीं हुआ. मां इसे दैव अनुकंपा समझ कर महाकाल के मंदिर में फिर से देवदासी बन गईं. मां बताती हैं, पिताजी ने उन्हें बहुत समझाया, लेकिन उन्होंने एक न सुनी और मुझे ले कर महाकाल के मंदिर में आ गईं.

मंदिर के विशाल क्षेत्र में हमें एक छोटा सा मकान मिल गया. हमारे मकान के सामने कच्चे आंगन में जूही का एक मंडप था और तुलसी का चौरा भी. रोज शाम को मां तुलसी के चौरे पर अगरबत्ती, धूप, दीप जला कर आरती करती थीं और मुंदे नयनों से ‘शुभं करोति कल्याणं’ का सस्वर पाठ करती थीं. झिलमिल जलते दीप के मंदमंद प्रकाश में मां का चेहरा देदीप्यमान हो उठता था और मुझे बड़ा भला लगता था.

जब मैं छोटी थी तब मैं मां के साथ मंदिर में जाती थी. जब मां नृत्य करने के लिए नृत्य मुद्रा में खड़ी होतीं तो मैं गर्भगृह में लटकते दीवटों को एकटक निहारती रहती थी और सोचती रहती थी कि गर्भगृह में सदा इतना अंधेरा क्यों रहता है. कहीं यह ईश्वर रूपी महती शक्ति को अंधेरे में रख कर लोगों को किन्हीं दूसरे माध्यमों से भरमाने का पाखंड मात्र तो नहीं?

ऐसा लगता जैसे देवदासियों का यह नृत्य ईश्वर की आराधना के नाम पर अपनी दमित वासनाओं को तृप्त करने का आयोजन हो. वरना देवालय जैसे पवित्र स्थान पर ऐसे नृत्यों का क्या प्रयोजन है, जिन में कामुकतापूर्ण हावभाव ही प्रदर्शित किए जाते हों.

देवस्थान के अहाते में बैठे दर्शनार्थियों की आंखें सिर्फ देवदासियों के हर अंगसंचालन और भावभंगिमाओं पर मंडराती रहतीं. पहले तो मुझे ऐसा लगता था जैसे ईश्वर आराधना के बहाने वहां आने वाले युवकों द्वारा मां का बड़ा मानसम्मान हो रहा है. हर कोई उस के नृत्य की सराहना कर रहा है.

लेकिन यह भ्रम बड़ा होने पर टूट गया और यह पता लगते देर नहीं लगी कि नृत्य  की सराहना एक बहाना मात्र है. वे तो रूप के सौदागर हैं और नृत्य की प्रशंसा के बहाने वे लोग इन नर्तकियों से शारीरिक संबंध स्थापित करना चाहते हैं. तब मुझे लगा कि इन देवदासियों के जीविकोपार्जन का अन्य कोई साधन भी तो नहीं.

मुझे लगा, कहीं मुझे भी इस वासनापूर्ण जीवन से समझौता न करना पड़े. फिर लगा, स्वयं को दूसरों को समर्पित किए बगैर उस मंदिर में रहना असंभव है. मेरी सहेलियां भी धन के लोभ में खुल्लमखुल्ला यही अनैतिक जीवन तो बिता रही हैं और मुझ पर भी ऐसा करने के लिए दबाव डाल रही हैं.

वैसे मैं बचपन से ही मंदिर में झाड़नेबुहारने, गोबर से लीपापोती करने, दीयाबाती जलाने, कालीन बिछाने, पालकी के पीछेपीछे चलने, त्योहारों, मेलों में वंदनवार सजाने और प्रसाद बनाने का काम करती थी.

दूरदूर से जो साधुसंत या दर्शनार्थी आते हैं, उन  के बरतन मांजने, कपड़े धोने, उन को मंदिर में घुमा लाने, उन के लिए बाजार से सौदा लाने का काम भी मैं ही किया करती थी. कभीकभी किसी का कामुकतापूर्ण दृष्टि से ताकना या कुछ लेनदेन के बहाने मुझे छू लेना बेहद अखरने लगता था. कभीकभी वे छोटे से काम के लिए देर तक उलझाए रखते.

मुझे अपना भविष्य अंधकारमय लगता. कोई राह सुझाई न देती. मां की राह पर चलना बड़ा ही घृणास्पद लगता था और न भी चलूं तो इस बात की आशंका घेरे रहती थी कि कहीं मुझे भी देवताओं का कोपभाजन न बनना पड़े.

दिन तो जैसेतैसे बीत जाता था पर सांझ होते ही जी घबराने लगता था और मन में तरहतरह की आशंकाएं उठने लगती थीं. मां तो मंदिर में नृत्य करने चली जाती थीं या अपने किसी कृपापात्र को प्रसन्न करने और मैं अकेली जूही के गजरे बनाया करती थी.

उस दिन भी मैं गजरा बना रही थी. मैं अपने काम में इतनी मग्न थी कि मुझे इस बात का पता ही नहीं चला कि कोई मेरे सामने आ कर मेरी इस कला को एकटक निहार रहा है.

चौड़े पुष्ट कंधों वाला, काफी लंबा, गौरवर्ण, बड़ीबड़ी आंखें, काली घनी मूंछें, गुलाबी मोटे होंठ, ठुड्डी में गड्ढे, घने काले बाल. ऐसा बांका सजीला युवक मैं ने पहली बार देखा था. मेरी तो आंखें ही चौंधिया गईं, जी चाहा बस, देखती ही रहूं उस की मनमोहक सूरत.

‘‘आप गजरा अच्छा बना लेती हैं.’’

मैं उस की ओजस्वी आवाज पर मुग्ध हो उठी. हवा को चीरती सी ऐसी मरदानी आवाज मैं ने पहले कभी नहीं सुनी थी.

‘‘आप लगाते हैं?’’

‘‘मैं,’’ वह खिलखिला कर हंस पड़ा. उस की उज्ज्वल दंतपंक्ति चमक उठी. फिर एक क्षण रुक कर वह बोला, ‘‘गजरा तो स्त्रियां लगाती हैं.’’

तभी एक युवक अपने दाएं हाथ में गजरा लपेटे घूमता हुआ आता दिखाई दिया. मैं ने कहा, ‘‘देखिए, पुरुष भी लगाते हैं.’’

‘‘लगाते होंगे लेकिन मुझे तो स्त्रियों को लगाना अच्छा लगता है.’’

‘‘आप लगाएंगे?’’ इतना कहते हुए मुझे लज्जा आ गई और मैं अपने मकान की तरफ भागने लगी.

‘‘अरे, आप गजरा नहीं लगवाएंगी?’’ वह युवक पूछता रह गया और मैं भाग आई.

मेरा हृदय तीव्र गति से धड़कने लगा. यह क्या कर दिया मैं ने? कहीं मैं अपनी औकात तो नहीं भूल गई?

अगले दिन और उस के अगले दिन भी मैं उस युवक से बचती रही. वह मुचुकुंद की छाया में खड़ा रहा. फिर अपने घोड़े पर सवार हो कर चला गया. तीसरे दिन वह नहीं आया और मैं ड्योढ़ी में खड़ी उस की प्रतीक्षा करती रही. चौथे दिन भी वह नहीं आया और मैं उदास हो उठी.

सोचने लगी, क्या मैं उस के मोहजाल में फंसी जा रही हूं? मैं क्यों उस युवक की प्रतीक्षा कर रही हूं? वह मेरा कौन लगता है? लगा, हवा के विरज झोंकों से जिस तरह वृक्ष झूमने लगते हैं और आकाश में चंद्रमा को देख कर कुमुदिनी खिलने लगती है, उसी तरह उस के मुखचंद्र को देख कर मैं प्रफुल्ल हो उठी थी और उस की निकटता पा कर झूमने लगी थी.

एक दिन मैं उसी के विचारों में खोई हुई थी कि उस ने पीछे से आ कर मेरे सिर के बालों में गजरा लगा दिया. इस विचार मात्र से कि उस युवक ने मेरे बालों में गजरा लगाया है मेरे मन में कलोल सी फूटने लगी. फिर न जाने क्यों आशंकित हो उठी. गजरा लगाने का अर्थ है विवाह. क्या मैं उस से विवाह कर सकूंगी? फिर देवताओं का कोप?

‘‘नहीं…नहीं, मैं तुम्हारी नहीं हो सकती,’’ और मैं पीपल के पत्ते की तरह कांपने लगी.

उस युवक ने मुझे झिंझोड़ कर पूछा, ‘‘क्यों? आखिर क्यों?’’

‘‘मैं देवदासी की कन्या हूं.’’

‘‘मैं जानता हूं.’’

‘‘मैं भी देवदासी ही बनूंगी.’’

‘‘सो भला क्यों?’’

‘‘यही परंपरा है.’’

‘‘मैं इन सड़ीगली परंपराओं को नहीं मानता.’’

‘‘न…न, ऐसा मत कहिए. मां ने भी ऐसा ही दुस्साहस किया था,’’ और मैं ने उसे मां और अपने अपाहिज भाइयों के बारे में सबकुछ बता दिया.

‘‘यह तुम्हारा भ्रम है. ऐसा कुछ नहीं होगा. मैं तुम से विवाह करूंगा.’’

‘‘मां नहीं मानेंगी.’’

‘‘अपनी मां के पास ले चलो मुझे.’’

‘‘मैं आप का नाम भी नहीं जानती.’’

‘‘मेरा नाम इंद्राग्निमित्र है. मैं महासेनानी पुष्यमित्र का अमात्य हूं.’’

‘‘आप तो उच्च कुलोत्पन्न ब्राह्मण हैं और मैं एक क्षुद्र दासी. नहीं…नहीं, आप ब्राह्मण तो देवता के समान हैं और मैं तो देवदासी हूं. देवताओं की दासी बन कर ही रहना है मुझे.’’

‘‘क्या फर्क पड़ता है अगर तुम उस प्रस्तर प्रतिमा की दासी न बन कर मेरी ही दासी बन जाओ.’’

उस का अकाट्य तर्क सुन कर मैं चुप हो गई. लेकिन मेरी मां कैसे चुप्पी साध लेतीं?

जब इंद्राग्निमित्र ने मां के सामने मेरे साथ विवाह का प्रस्ताव रखा तो वह बोलीं, ‘‘न…न, गाज गिरेगी हम पर अगर हम यह अधर्म करेंगे. पहले ही हम ने कम कष्ट नहीं झेले हैं. 2-2 बच्चों को अपनी आंखों के सामने अपाहिज होते देखा है मैं ने.’’

‘‘ऐसा कुछ नहीं होगा. लीक पीटना मनुष्य का नहीं पशुओं का काम है, क्योंकि उन में तार्किक बुद्धि नहीं होती,’’ इंद्राग्निमित्र ने कहा.

बहुत कहने पर भी मां न…न करती रहीं. आखिर इंद्राग्निमित्र चला गया और मैं ठगी सी खड़ी देखती रही.

अगले 2 दिनों तक इंद्राग्निमित्र का कोई संदेश नहीं आया.

तीसरे दिन एक अश्वारोही महासेनानी पुष्यमित्र का आदेश ले आया. मां को मेरे साथ महासेनानी पुष्यमित्र के सामने उपस्थित होने को कहा गया था.

इतना सुनते ही मां के हाथपांव कांपने लगे. इंद्राग्निमित्र की अवज्ञा करने पर महासेनानी उसे दंड तो नहीं देंगे? वह शुंग राज्य का अमात्य है. चाहता तो जबरन उठा ले जा सकता था. लेकिन नहीं, उस ने मां से सामाजिक प्रथा के अनुसार मेरा हाथ मांगा था और मां ने इनकार कर दिया था.

महासेनानी पुष्यमित्र का तेजस्वी चेहरा देख कर और ओजस्वी वाणी सुन कर मां गद्गद हो उठीं.

कुशलक्षेम के बाद महासेनानी ने सिर्फ इतना ही कहा, ‘‘जानती हो, मेरी बहू इरावती और अग्निमित्र की पहली पत्नी देवदासी थी?’’

तर्क अकाट्य था और मां मान गईं. इंद्राग्निमित्र के साथ मेरा विवाह हो गया. मां भी मेरे साथ मेरे महल में आ कर रहने लगीं…जब मुझे 2 माह चढ़ गए तो मां की आशंकाएं बढ़ने लगीं और वह इस विचारमात्र से कांपने लगीं कि कहीं मेरी संतान भी दैव प्रकोप से अपाहिज न हो जाए.

लेकिन मां की शंका निर्मूल सिद्ध हुई. मेरे एक स्वस्थ कन्या पैदा हुई.

हमारे प्रासाद में जाने कितने नौकरचाकर थे. उन सब के नाम मां को याद नहीं रहते थे और मां एक के बदले दूसरे को पुकार बैठती थीं. फिर कहतीं, ‘‘जब मेरी ही यह हालत है तो उस ईश्वर की क्या हालत होगी? अरबोंखरबों जीवों का वह कैसे हिसाबकिताब रखता होगा?’’

कहीं यह कोरी गप तो नहीं कि परंपरा से हट कर चलने से वह श्राप दे देता है? आखिर ये परंपराएं किस ने चलाई हैं? हम लोगों ने ही तो. ये मंदिर हम ने बनवाए. यह देवदासी प्रथा भी हम ने ही प्रचलित की.

इन्हीं दिनों बौद्ध भिक्षु आचार्य सोणगुप्त बोधगया से पधारे. इंद्राग्निमित्र उन्हें अपना अतिथि बना कर अपने प्रासाद में ले आए.

मैं अचंभे में पड़ गई. बाद में पता चला कि सोणगुप्त इंद्राग्निमित्र के सहपाठी ही नहीं अंतरंग मित्र भी रहे हैं. लेकिन इंद्राग्निमित्र को राजनीति में दिलचस्पी थी और सोणगुप्त को बौद्ध धर्म में. इसलिए इंद्राग्निमित्र अमात्य बन गए और सोणगुप्त बौद्ध भिक्षु.

वर्षों बाद मिले मित्र पहले तो अपने विगत जीवन की बातें करते रहे, फिर धर्म और राजनीति पर चर्चा करने लगे.

इंद्राग्निमित्र बोले, ‘‘राज्य व्यवस्था धर्म के बल पर नहीं चलनी चाहिए. राजनीति सार्वजनिक है और धर्म वैयक्तिक. एक भावना से संबंध रखता है तो दूसरा कार्यकारण से. इसलिए मैं राज्य व्यवस्था में धर्म का हस्तक्षेप गलत मानता हूं.’’

‘‘तो फिर राज्य व्यवस्था को भी धर्म में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए.’’

‘‘नहीं, देवदासी प्रथा हिंदू धर्म पर कोढ़ है और मैं समझता हूं राज्य की तरफ से इस पर प्रतिबंध लगना चाहिए.’’

‘‘हिंदू धर्म के लिए तुम जो करना चाहते हो सो तो करोगे ही. अब लगेहाथ बौद्ध धर्म के लिए भी कुछ कर दो.’’

‘‘आज्ञा करो, मित्र.’’

‘‘मित्र, बोधगया में हम एक और विहार की जरूरत महसूस कर रहे हैं. प्रस्तुत विहार में इतने बौद्ध भिक्षु- भिक्षुणियां एकत्र हैं कि चौंतरे और वृक्ष तले सुलाना पड़ रहा है. अभी तो खैर वे खुले में सो लेंगे लेकिन वर्षा ऋतु में क्या होगा, इसी बात की चिंता सता रही है. अगर तुम एक और विहार बनवा दो तो बहुत सारे बौद्ध भिक्षुभिक्षुणियों के आवास की समस्या हल हो जाएगी.’’

‘‘बस, इतना ही? तुम निश्चिंत रहो. मैं थोड़े दिनों के बाद बोधगया आ कर इस का समुचित प्रबंध कर दूंगा.’’

सोणगुप्त आश्वस्त हो कर लौट गए.

इंद्राग्निमित्र देवदासी प्रथा को समाप्त करने के लिए व्यग्र हो उठे. इस प्रथा का अंत कैसे हो? क्यों न इस प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया जाए और राज्य भर में घोषणा कर दी जाए. यह निश्चय कर के वह महासेनानी पुष्यमित्र के पास गए.

‘‘महासेनानी, देवदासियों की वजह से मंदिर व्यभिचार और अनाचार के गढ़ बन गए हैं. और मैं चाहता हूं कि इस प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया जाए.’’

‘‘विचार तो बुरा नहीं, लेकिन इस पर प्रतिबंध लगाने पर काफी विरोध होने की आशंका है. अगर तुम डट कर इस विरोध का प्रतिरोध कर सको तो मुझे कोई आपत्ति नहीं.’’

इंद्राग्निमित्र ने राज्य की तरफ से देवदासी प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया. प्रतिबंध लगते ही इंद्राग्निमित्र की आलोचना होने लगी.

‘‘थू,’’ मंदिर की एक देवदासी ने पान की पीक इंद्राग्निमित्र के मुंह पर थूक दी.

इंद्राग्निमित्र अपमान की ग्लानि से भर उठे. फिर भी वह अपने विचार पर अडिग रहे. अगले दिन रथयात्रा थी और रथ के आगेआगे देवदासियां नृत्य करती हुई चलने वाली थीं. इंद्राग्निमित्र अपने दलबल के साथ वहां पहुंच गए.

लोग तरहतरह की बातें करने लगे. ‘‘बड़ा आया समाज सुधार करने वाला. देवदासी का उन्मूलन करने वाला…अरे, एक देवदासी को घर बसा लिया तो क्या हुआ? किसकिस का घर बसाएगा? धार्मिक मामलों में दखल देने वाला यह कौन होता है?’’

रथ को तरहतरह के फूलों से सजा कर सब दीयों को जला दिया गया. रथ के आगे ढोल बजाने वाले आ कर खड़े हो गए. उन्हें घेरे असंख्य नरनारी आबालवृद्ध एकत्र हो गए. पालकी के पास चोबदार खड़े थे और कौशेय में लिपटे पुजारी. पालकी के दोनों ओर सोलह शृंगार किए देवदासियां नृत्य मुद्रा में खड़ी हो गईं.

इस से पहले कि वे नृत्य आरंभ करतीं अपने घोड़े पर सवार इंद्राग्निमित्र वहां आ गए और बोले, ‘‘रोको. ये नृत्य नहीं कर सकतीं. देवदासियों पर प्रतिबंध लग चुका है.’’

हिंदू धर्म में प्रगाढ़ आस्था रखने वाले उबल पड़े. कुछेक प्रगतिशील विचारों वाले युवकों ने उन का विरोध किया. दर्शनार्थी 2 दलों में बंट गए और दोनों में मुठभेड़ हो गई. पहले तो मुंह से एकदूसरे पर वार करते रहे. जिस के हाथ में जो आया उठा कर फेंकने लगा, पत्थर, ईंट, गोबर.

जुलूस में भगदड़ मच गई. इंद्राग्निमित्र  भ्रमित. यह क्या हो गया. वह दोनों गुटों को समझाने लगे लेकिन कोई नहीं माना. तभी उन्होंने अपने वीरों को छड़ी का उपयोग कर के भीड़ को नियंत्रित करने का आदेश दिया. क्रोधोन्मत्त भीड़ भागने लगी. तभी किसी ने इंद्राग्निमित्र की तरफ भाले का वार किया और वह अपनी छाती थाम कर कराहते हुए वहीं ढेर हो गए.

मेरी मांग सूनी हो गई और मैं विधवा हो गई. अब मेरे आगे एक लंबा जीवन था और था एकाकीपन. महल के जिस कोने में जाती इंद्राग्निमित्र से जुड़ी यादें सताने लगतीं. जीवन अर्थहीन सा लगता.

संवेदना प्रकट करने वालों का तांता लगा रहता. इसी बीच सोणगुप्त आया और संवेदना प्रकट करने लगा. तभी याद आया इंद्राग्निमित्र ने सोणगुप्त से विहार बनवाने की प्रतिज्ञा की थी. मैं उस के साथ बोधगया चली गई.

देवदासी प्रथा का क्या हुआ, यह तो मैं नहीं जानती लेकिन इतना जानती हूं कि प्रथाओं और परंपराओं का इतनी जल्दी अंत नहीं होगा. मैं तो इस बात को ले कर आश्वस्त हूं कि मैं ने और मेरे पति ने अपनी तरफ से इसे मिटाने का भरसक प्रयत्न किया.

मगर हर कोई अपनीअपनी तरफ से प्रयत्न करे तो ये गलत प्रथाएं और परंपराएं अवश्य ही किसी दिन मिट कर रहेंगी. Social Story

लेखक : रा. श्यामसुंदर

Kahani In Hindi : उसे कुछ करना है – रोली के साथ अचानक दुखों का पहाड़ क्यों टूट गया

Kahani In Hindi : सर्दियों के दिन थे. शाम का समय था. श्वेता का कमरा गरम था. अपने एअरटाइट कमरे में उस ने रूम हीटर चला रखा था. 2 साल का भानू टीवी के आगे बैठा चित्रों का आनाजाना देख रहा था.  श्वेता अपने पसंदीदा धारावाहिक के खत्म होने का इंतजार कर रही थी.

‘‘पापा,’’ राजीव के आते ही भानू गोद में चढ़ गया.  श्वेता उठ कर रसोईघर में चाय के साथ कुछ नाश्ता लेने चली गई. क्योंकि शाम के समय राजीव को खाली चाय पीने की आदत नहीं थी.

‘‘आज तो कुछ गरमागरम पकौड़े हो जाते तो आनंद आ जाता,’’ श्वेता के चाय लाते ही राजीव ने कहा, ‘‘क्या गजब की ठंड पड़ रही है और इस चाय का आनंद तो पकौड़े से ही आएगा.’’

‘‘मेरे तो सिर में दर्द है,’’ श्वेता माथे पर उंगलियां फेर कर बोली.

‘‘तुम से कौन कह रहा है…चाय भी क्या तुम्हीं ने बनाई है, वह भी इतने दर्द में, रोली दी कहां हैं. वह मिनट में बना देंगी.’’

‘‘रोली दी,’’ श्वेता ने जोर से आवाज दी, ‘‘कहां हैं आप. थोड़े पकौड़े बना दीजिए, आप के भइया को चाहिए. इसी बहाने हम सब भी खा लेंगे.’’

रोली ने वहीं से आवाज लगाई, ‘‘श्वेता, तुम बना लो. मैं आशू को होमवर्क करा रही हूं. इस का बहुत सा काम पूरा नहीं है. मैं ने खाने की सारी तैयारी कर दी है.’’

राजीव ने रुखाई से कहा, ‘‘अभी तो 6 बजे हैं, रात तक तुम्हें करना क्या है?’’

‘‘करना क्यों नहीं है भइया, मां बीमार हैं तो रसोई भी देखनी है. साथ में उन लोगों को भी…फिर रात में एक तो आशू को जल्दी नींद आने लगती है, दूसरे, टीवी के चक्कर में पढ़ नहीं पाता है.’’

‘‘तो क्या उस के लिए सब लोग टीवी देखना बंद कर दें,’’ राजीव ने चिढ़ कर कहा क्योंकि उसे रोली से ऐसे उत्तर की आशा नहीं थी. उस की सरल ममतामयी दीदी तो सुबह से आधी रात तक भाई की सेवा में लगी रहती.

इंटर के बाद रोली ने प्राइवेट बी.ए. की परीक्षा दी थी. परीक्षा के समय घर मेहमानों से भरा था. क्योंकि उस की बड़ी बहन दिव्या का विवाह था और वह दिनरात मेहमानों की आवभगत में लगी रहती. कोई भी रोली से यह न कहता कि तुम अकेले कहीं बैठ कर पढ़ाई कर लो. जबकि उस से बड़ी 2 बहनें, 2 भाई भी थे. घर में आए मेहमानों की जरूरतों को पूरा करने के बाद रोली ज्यों ही हाथ में कागजकलम या पुस्तक उठाती तो आवाज आती, ‘अरे कहां हो रोली…जरा ब्याह निपटा दो तब अपनी पढ़ाई करना.’

दोनों बहनें अपने छोटे बच्चों के चोंचलों और ससुराल के लोगों की आवभगत में अधिक लगी रहतीं. सब के मुंह पर दौड़भाग करती रोली का नाम रहता.

मां को तो घर आए मेहमानों से बातचीत से ही समय न मिलता, कितनी मुश्किल से अच्छा घरवर मिला है वह इस की व्याख्या करती रहतीं. बूआ ने रोली की परेशानी भांप कर कहा भी कि इस की परीक्षा के बाद ब्याह की तिथि रखतीं तो निश्चिंत रहतीं…

‘‘अब रोली की परीक्षा के लिए ब्याह थोड़े ही रुका रहेगा…फिर दीदी, यह पढ़लिख के कौन सा कलक्टर बन जाएगी. बस, ग्रेजुएट का नाम हो जाए फिर इस को भी पार कर के गंगा नहा लें हम.’’

रिश्ते की बूआ कह उठीं, ‘‘भाभी, आजकल तो लड़की को भी बराबरी का पढ़ाना पड़ रहा है. हम तो यह कह रहे थे कि परीक्षा के बाद ब्याह होता तो रोली पर पढ़ाई का बोझ न रहता. अभी तो उसे न पढ़ने के लिए समय है और न मन ही होगा.’’

‘‘दीदी, आप भूल रही हैं, हमारे यहां लड़के वालों की इच्छा से ही तिथि रखनी पड़ती है. लड़की वालों की मरजी कहां चलती है. हम ज्यादा कहेंगे तो उत्तर मिलेगा, आप दूसरा घर देख लीजिए.’’

रोली की जैसेतैसे परीक्षा हो गई थी. 50 प्रतिशत नंबर आए थे. आगे पढ़ने का न उत्साह रहा न सुविधा ही मिली और न कहीं प्रवेश ही मिला.

रोली के 3 वर्ष घर के काम करते, भाइयों के मन लायक भोजननाश्ता बनाते बीत गए. फिर उस का भी विवाह हो गया. घर भले ही साधारण था पर पति सुंदर, रोबीले व्यक्तित्व का था. अपने काम में कुशल, परिश्रमी और मिलनसार था. एक प्राइवेट फर्म में काम कर रहा था जहां उस के काम को देख कर मालिक ने विश्वास दिलाया था कि शीघ्र ही उस की पदोन्नति कर दी जाएगी. परिवार के लोग भी समीर को प्यार करते और मान देते थे. रोली को वर्ष भर में बेटा भी हो गया.

रोली के ससुराल जाने पर उस की सब से अधिक कमी भाई को अखरती. मां बीमार रहने लगी थीं और बहनें चली गईं. मां न राजीव के मन का खाना बना पातीं न पहले जैसे काम ही कर पातीं. रोली तो भाई के कपड़े धो कर उन्हें प्रेस भी कर देती थी. उस की कापीकिताबें यथास्थान रखती और सब से बढ़ कर तो राजीव के पसंद का व्यंजन बनाती.

विवाह को अभी 3 साल भी न बीते थे कि रोली पर वज्र सा टूट पड़ा था. एक दुर्घटना में रोली के पति समीर की मृत्यु हो गई. समीर जिस फर्म में काम करता था उस के मालिक ने उस पर आरोप लगा कर कुछ भी आर्थिक सहायता देने से इनकार कर दिया. बेटी को मुसीबत में देख कर मातापिता उसे अपने घर ले आए.

रोली पहले तो दुख में डूबी रही. बड़ी मुश्किल से मां और बहनें उस के मुंह में 2-4 कौर डाल देतीं. उस का तो पूरा समय आंसू बहाने और साल भर के आशू को खिलानेपिलाने में ही बीत जाता था. कभी कुछ काम करने रोली उठती तो सभी उसे प्रेमवश, दयावश मना कर देते.

एक दिन ऐसे ही पगलाई हुई शून्य में ताकती मसली हुई बदरंग सी साड़ी पहने रोली बैठी थी कि मां की एक पुरानी सहेली मधु आ गई जो अब दूसरे शहर में रहती थी. मधु को देखते ही रोली दूसरे कमरे में चली गई क्योंकि किसी भी परिचित को देखते ही उस के आंसू बहने लगते थे.

मां ने कई बार आवाज दी, ‘‘बेटी रोली, देखो तो मधु मौसी आई हैं.’’

मां के बुलाने पर भी जब रोली नहीं आई तब मौसी स्वयं ही उसे पकड़ कर सब के बीच ले आईं और बहुत देर तक अपने से चिपटाए आंसू बहाती रहीं.

कुछ देर में उन्हें लगा, रोली से कुछ काम करने के लिए नहीं कहा जाता और न वह खुद काम में हाथ लगाती है. तब उन्होंने मां को और भाभी को समझाया कि इसे भी घर का कुछ काम करने दिया करो ताकि इस का मन लगा रहे. ऐसे तो यह अछूत की तरह अलग बैठीबैठी अपने अतीत को ही सोचती रहेगी और दुखी होगी.

‘‘हम तो इसे दुखी मान कर कुछ काम नहीं करने देते.’’

‘‘दीदी, आप उस पर भार भी न डालें पर व्यस्त जरूर रखें. आशू को भी उस के पास ही रहने दें क्योंकि दुख से उबरने के लिए अंधेरे में बैठे रहना कोई उपचार नहीं…और…’’

‘‘और क्या?’’ मां ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘यही कि आगे क्या सोचा है. आजकल तो लड़कियां बाहर का काम कर रही हैं. रोली भी कहीं कोई काम करेगी तो अपने पैरों पर खड़ी होगी… अभी उस की उम्र ही क्या है, कुछ आगे पढ़े, कोई ट्रेनिंग दिलवाइए…देखिए, कोई हाथ थामने वाला मिल जाए…’’

‘‘क्या कह रही हो, मधु…रोली तो इस तरह की बातें सुनना भी नहीं चाहती है. पहले भी किसी ने कहा था तो रोने बैठ गई कि क्या मैं आप को भारी हो रही हूं…ऐसा है तो मुझे मेरी ससुराल ही भेज दें, जैसेतैसे मेरा ठिकाना लग ही जाएगा…

‘‘मधु, इस के लिए 2-1 रिश्ते भी आए थे. एक 3 पुत्रियों का पिता था जो विधुर था. कहा, मेरे बेटा भी हो जाएगा और घर भी संवर जाएगा. जमीनजायदाद भी थी. लेकिन यह सोच कर हम ने अपने पांव पीछे खींच लिए कि सौतेली मां अपना कलेजा भी निकाल कर रख दे फिर भी कहने वाले बाज नहीं आते. वैसे यह तो सच है कि विधवा का हाथ थामने वाला हमारे समाज में जल्दी मिल नहीं सकता, फिर दूसरे के बच्चों को पिता का प्यार देना आसान नहीं.’’

‘‘गे्रजुएट तो है. किसी तरह की ट्रेनिंग कर ले. आजकल तरहतरह के काम हैं.’’

लेकिन लड़की के लिए सुरक्षित स्थान और इज्जतदार नौकरी हो तब न. फिर उस का मन भी नहीं है…भाई भी पक्ष में नहीं है.

एक के बाद एक कर 8 वर्ष बीत गए. रोली घर के काम में लगी रहती. गरम खाना, चायनाश्ता देना, घर की सफाई करना और सब के कपड़े धो कर उन्हें प्रेस करना उस का काम रहता. बीतते समय के साथ अब उस की सहेलियां भी अपनीअपनी ससुराल चली गईं जो कभी आ कर रोली के साथ कुछ समय बिता लिया करती थीं.

उस दिन उस की एक पुरानी सहेली मनजीत आई थी. वह उसे अपने घर ले गई जहां महराजिन को बातें करते रोली ने सुना, ‘‘बीबीजी, मैं तो पहले कभी दूसरे की रसोई में भी नहीं जाती थी. काम करना तो दूर की बात थी. पर जब मनुआ के बाबू 2 दिन के बुखार में चल बसे तब घर का खर्च पीतलतांबे के बरतन, चांदीसोने के गहने बेच कर मैं ने काम चलाया. उस समय मेरे भाइयों ने गांव में चल कर रहने को कहा. मैं ने अपनी चचिया सास के कहने पर जाने का मन भी बना लिया था लेकिन इसी बीच मेरी जानपहचान की एक बुजुर्ग महिला ने कहा कि बेटी, तुम यहीं रहो. मैं काम करती हूं तुम भी मेरे साथ खाना बनाने का काम करना. बेटी, काम कोई बुरा नहीं होता. काम को छोटाबड़ा तो हम लोग बनाते और समझते हैं. मैं जानती हूं कि गांव में तुम कोई काम नहीं कर पाओगी. कुछ दिन तो भाभी मान से रखेंगी पर बाद में छोटीछोटी बातें अखरने लगती हैं. उस के बाद से ही मैं ने कान पकड़ा और यहीं रहने लगी. अपनी कोठरी थी और अम्मां का साया था.’’

रोली दूर बैठी उन की बातें सुन रही थी और उसे अपने पर लागू कर सोच रही थी कि मातापिता जहां तक होता है उस के लिए करते हैं किंतु भाभी… अखरने वाली बातें सुना जाती हैं. अब कल ही तो भाभी अपने बच्चों के लिए 500 के कपड़े लाईं और उस के आशू के लिए 100 रुपए खर्चना भी उन्हें एहसान लगता है.

‘गे्रजुएट है, कोई काम करे, कुछ ट्रेनिंग ले ले,’ मधु मौसी ने पहले भी कहा था पर मां ने कह दिया कि लड़की के लिए सुरक्षित स्थान हो, इज्जतदार नौकरी हो तब ही न सोचें. सोचते हुए 8 वर्ष बीत गए थे.

उस की सहेली मनजीत कौर के पिता की कपड़ों की दुकान थी. पहले मनजीत भी अकसर वहां बैठती और हिसाबकिताब देखती थी. कई सालों से मनजीत उसे दुकान पर आने के लिए कह रही थी और एक बार उस ने दुकान पर ही मिलने को बुलाया था. रोली वहां पहुंची तो मनजीत बेहद खुश हुई थी और उसे अपने साथ अपनी दूसरी दुकान पर चलने को कहा.

रोली को बुनाई का अच्छा अनुभव था. किसी भी डिजाइन को देख कर, पढ़ कर वह बना लेने में कुशल थी. रोली ने वहां कुछ बताया भी और आर्डर भी लिए. मनजीत कौर ने उस से कहा, ‘‘रोली, एक बात कहूं, बुरा तो नहीं मानोगी.’’

‘‘नहीं, कहो न.’’

‘‘मैं चाहती हूं कि तुम दिन में किसी समय आ कर थोड़ी देर यहां का काम संभाल लिया करो. तुम्हारा मन भी बहल जाएगा और मेरी मदद भी हो जाएगी.’’

‘‘तुम मां से कहना,’’ रोली ने कहा, ‘‘मुझे तो मनजीत कोई आपत्ति नहीं है.’’

उसी दिन शाम को मनजीत ने रोली की मां से कहा, ‘‘आंटी, मैं चाहती हूं कि रोली मेरे साथ काम में हाथ बंटा दे.’’

रोली की मां को पहले तो अच्छा नहीं लगा. सोचा शायद इसे पैसे की कमी खटक रही है. अभी रोली की मां सोच रही थीं कि मनजीत बोल पड़ी, ‘‘आंटी, इस का मन भी घर से बाहर निकल कर थोड़ा बहल जाएगा और मुझे अपने भरोसे की एक साथी मिल जाएगी. यह केंद्र समाज सेवा के लिए है.’’

मां ने यह सोच कर इजाजत दे दी कि रोली घर के बाहर जाएगी तो ढंग से रहेगी.

महीने के अंत में मनजीत ने रोली को लिफाफा पकड़ा दिया.

‘‘यह क्या है?’’

‘‘कुछ खास नहीं. यह तो कम है. तुम्हारे काम से मुझे जो लाभ हुआ है उस का एक अंश है. हमें दूरदूर से आर्डर मिल रहे हैं तो मेरी सास और पति का कहना है कि हमारे पास खाने को बहुत है…तुम मेरी सहायता करती रहो और मेरे केंद्र को चलाने में हाथ बंटाओ. मेरी बहन की तरह हो तुम…’’

रोली की मां को खुशी थी कि अब उन की बेटी अपने मन से खर्च कर पाएगी. भाईबहन का स्नेह मिलता रहे पर उन की दया पर ही निर्भर न रहे. बाहर की दुनिया से जुड़ कर उस का आत्मविश्वास भी बढ़ेगा साथ ही जीने का उत्साह भी. Kahani In Hindi

Love Story In Hindi : सुख की गारंटी – एक अकल्पनीय राज की कहानी

Love Story In Hindi : एक दिन काफी लंबे समय बाद अनु ने महक को फोन किया और बोली,”महक, जब तुम दिल्ली आना तो मुझ से मिलने जरूर आना.”

“हां, मिलते हैं, कितना लंबा समय गुजर गया है. मुलाकात ही नहीं हुई है हमारी.”

कुछ ही दिनों बाद मैं अकेली ही दिल्ली जा रही थी. अनु से बात करने के बाद पुरानी यादें, पुराने दिन याद आने लगे. मैं ने तय किया कि कुछ समय पुराने मित्रों से मिल कर उन पलों को फिर से जिया जाए. दोस्तों के साथ बिताए पल, यादें जीवन की नीरसता को कुछ कम करते हैं.

शादी के बाद जीवन बहुत बदल गया व बचपन के दिन, यादें व बहुत कुछ पीछे छूट गया था. मन पर जमी हुई समय की धूल साफ होने लगी…

कितने सुहाने दिन थे. न किसी बात की चिंता न फिक्र. दोस्तों के साथ हंसीठिठोली और भविष्य के सतरंगी सपने लिए, बचपन की मासूम पलों को पीछे छोड़ कर हम भी समय की घुड़दौड़ में शामिल हो गए थे. अनु और मैं ने अपने जीवन के सुखदुख एकसाथ साझा किए थे.  उस से मिलने के लिए दिल बेकरार  था.

मैं दिल्ली पहुंचने का इंतजार कर रही थी. दिल्ली पहुंचते ही  मैं ने सब से पहले अनु को फोन किया. वह स्कूल में पढ़ाती है. नौकरी में समय निकालना भी मुश्किल भरा काम है.

“अनु मै आ गई हूं… बताओ कब मिलोगी तुम? तुम घर ही आ जाओ, आराम से बैठैंगे. सब से मिलना भी हो जाएगा…”

“नहीं यार, घर पर नही मिलेंगे, न तुम्हारे घर न ही मेरे घर. शाम को 3 बजे मिलते हैं. मैं स्कूल समाप्त होने के बाद सीधे वहीं आती हूं, कौफी हाउस, अपने वही पुराने रैस्टोरेंट में…”

“ठीक है शाम को मिलते हैं.“

आज दिल में न जाने क्यों अजीब सी बैचेनी हो रही थी. इतने वर्षों में हम मशीनी जीवन जीते संवादहीन हो गए थे. अपने लिए जीना भूल गए थे.   जीवन एक परिधि में सिमट गया था. एक भूलभूलैया जहां खुद को भूलने की कवायत शुरू हो गई थी. जीवन सिर्फ ससुराल, पति व बच्चों में सिमट कर रह गया था. सब को खुश रखने की कवायत में मैं खुद को भूल बैठी थी. लेकिन यह परम सत्य है कि सब को खुश रखना नामुमकिन सा होता है.

दुनिया गोल है, कहते हैं न एक न एक दिन चक्र पूरा हो ही जाता है. इसी चक्र में आज बिछडे साथी मिल रहे थे. घर से बाहर औपचारिकताओं से परे. अपने लिए हम अपनी आजादी को तलाशने का प्रयत्न करते हैं. अपने लिए पलों को एक सुख की अनुभूति होती है.

मैं समझ गई कि आज हमारे बीच कहनेसुनने के लिए बहुत कुछ होगा. सालों से मौन की यह दीवार अब ढहने वाली है.

नियत समय पर मैं वहां पहुंच गई. शीघ्र ही अनु भी आ गई. वही प्यारी सी मुसकान, चेहरे पर गंभीरता के भाव, पर हां शरीर थोडा सा भर गया था, लेकिन आवाज में वही खनक थी. आंखे पहले की तरह प्रश्नों को तलाशती हुई नजर आईं, जैसे पहले सपनों को तलाशती थीं.

समय ने अपने अनुभव की लकीरें चेहरे पर खींच दी थीं. वह देखते ही गले मिली तो मौन की जमी हुई बर्फ स्वत: ही पिघलने लगी…

“कैसी हो अनु, कितने वर्षों बाद तुम्हें  देखा है. यार तुम तो बिलकुल भी नहीं बदलीं…”

“कहां यार, मोटी हो गई हूं… तुम बताओ कैसी हो? तुम्हारी जिंदगी तो मजे में गुजर रही है, तुम जीवन में कितनी सफल हो गई हो… चलो अाराम से बैठते हैं…”

आज वर्षो बाद भी हमें संवादहीनता का एहसास नहीं हुआ… बात जैसे वहीं से शुरू हो गई, जहां खत्म हुई थी. अब हम रैस्टोरेंट में अपने लिए कोना तलाश रहे थे, जहां हमारे संवादों में किसी की दखलंदाजी न हो. इंसानी फितरत होती है कि वह भीड़ में भी अपना कोना तलाश लेता है. कोना जहां आप सब से दुबक कर बैठे हों, जैसेकि आसपास बैठी 4 निगाहें भी उस अदृश्य दीवार को भेद न सकें. वैसे यह सब मन का भ्रमजाल ही है.

आखिरकार हमें कोना मिल ही गया. रैस्टोरेंट के उपरी भाग में कोने की खाली मेज जैसे हमारा ही इंतजार कर रही थी. यह कोना दिल को सुकून दे रहा था. चायनाश्ते का और्डर देने के बाद अनु सीधे मुद्दे पर आ गई. बोली,”और सुनाओ कैसी हो, जीवन में बहुत कुछ हासिल कर लिया है. आज इतना बड़ा मुकाम, पति, बच्चे सब मनमाफिक मिल गए तुम्हें. मुझे बहुत खुशी है…”

यह सुनते ही महक की आंखो में दर्द की लहर चुपके से आ कर गुजर गई व पलकों के कोर कुछ नम से हो गए. पर मुसकान का बनावटीपन कायम रखने की चेष्टा में चेहरे के मिश्रित हावभाव कुछ अनकही कहानी बयां कर रही थी.

“बस अनु सब ठीक है. अपने अकेलेपन से लड़ते हुए सफर को तय कर रही हूं, जीवन  में बहुत उतारचढाव देखें हैं. तुम तो खुश हो न? नौकरी करती हो, अच्छा कमा रही हो, अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जी रही हो… सबकुछ अपनी पंसद का मिला है अौर क्या सुख चाहिए?  मैं तो बस यों ही समय काटने के लिए लिखनेपढ़ने लगी,” मैं ने बात को घुमा कर उस का हाल जानने की कोशिश करनी चाही.

“मै भी बढ़िया हूं. जीवन कट रहा है. मैं पहले भी अकेली थी, आज भी अकेली हूं.  हम साथ जरूर हैं पर कितनी अलग राहें हैं जैसे नदी के 2 किनारे…

“यथार्थ की पथरीली जमीन बहुत कठोर है. पर जीना पडता है… इसलिए मैं ने खुद को काम में डूबो दिया है…”

“क्या हुआ, एेसे क्यों बोल रही हो? तुम दोनों के बीच कुछ हुआ है क्या?”

“नहीं यार, पूरा जीवन बीत जाए तो भी हम एकदूसरे को समझ नहीं  सकेंगे. कितने वैचारिक मतभेद हैं, शादी का चार्म, प्रेम पता नही कहां 1 साल ही खत्म हो गया. अब पछतावा होता है. सच है, इंसान प्यार में अंधा हो जाता है.”

“हां, सही कहा. सब एक ही नाव पर सवार होते हैं पर परिवार के लिए जीना पड़ता है.”

“हां, तुम्हारी बात सही है, पर यह समझौते अंतहीन होते हैं, जिन्हें निभाने में जिंदगी का ही अंत हो जाता है.  तुम्हें तो शायद कुदरत से यह सब मिला है पर मैं ने तो अपने पैरों पर खुद कुल्हाडी मारी है. प्रेमविवाह जो किया है.

“सब ने मना किया था कि यह शादी मत करो, पर आज समझ में आया कि मेरा फैसला गलत था. यार,  विनय का व्यवहार समझ से परे है. रिश्ता टूटने की कगार पर है. उस के पास मेरे लिए समय ही नहीं है या फिर वह देना नहीं चाहता… याद नहीं कब दोपल सुकून से बैठै हों. हर बात में अलगाव वाली स्थिति होती है.”

“अनु सब को मनचाहा जीवनसाथी नहीं मिलता.  जिंदगी उतनी आसान नहीं होती, जितना हम सोचते हैं. सुख अपरिभाषित है. रिश्ते निभाना इतना भी अासान नहीं है. हर रिश्ता आप से समय व त्याग मांगता है. पति के लिए जैसे पत्नी उन की संपत्ति होती है जिस पर जितनी चाहे मरजी चला लो. हम पहले मातापिता की मरजी से जीते थे, अब पति की मरजी से जीते हैं. शादी समझौते का दूसरा नाम ही है, हां कभीकभी मुझे भी गुस्सा आता है तो मां से शिकायत कर देती हूं पर अब मैं ने स्थिति को स्वीकार करना सीख लिया है. अब दुख नहीं होता. तुम भी हौंसला रखो, सब ठीक हो जाएगा.”

“नहीं महक, अब उम्मीद बाकी नहीं है. शादी करो तो मुश्किल, न करो तो भी मुश्किल. सब को शादी ही अंतिम पडाव क्यों लगता है? मैं ने भी समझौता कर लिया है कि रोनेधोने से समस्या हल नहीं होगी.

“अनु, तुम्हारे पास तो कला का हुनर है उसे और निखारो. अपने शौक पूरे करो. एक ही बिंदू पर खड़ी रहोगी तो घुटन होने लगेगी.

“एक बात बताओ कि एक आदमी किसी के सुख का पैमाना कैसे हो सकता है? अरैंज्ड मैरिज में पगपग पर असहमति होती है, यहां हर रिश्ता आग की दहलीज पर खड़ा होता है, हरकोई आप से संतुष्ट नहीं होता.”

“महक बात तो तुम्हारी सही है, पर विवाह में कोई एक व्यक्ति, किसी दूसरे के जीने का मापदंड कैसे तय कर सकता है? समय बदल गया है, कानून में भी दंड का प्रावधान है. हमें अपने अधिकारों के लिए सजग रहना चाहिए. कब तक अपनी इच्छाओं का गला घोटें… यहां तो भावनाअओं का भी रेप हो जाता है, जहां बिना अपनी मरजी के आप वेदना से गुजरते रहो और कोई इस की परवाह भी न करे.”

“अनु, जब विवाह किया है तो निभाना भी पङेगा. क्या हमें मातापिता, बच्चे, पङोसी हमेशा मनचाहे ही मिलते हैं?  क्या सब जगह आप तालमेल नहीं  बैठाते? तो फिर पतिपत्नी के रिश्ते में वैचारिक मदभेद होना लाजिमी है. हाथ की सारी उंगलिया भी एकसमान नहीं होतीं, तो 2 लिंग कैसे समान हो सकते हैं?
“इन मैरिज रेप इज इनविजिवल, सो रिलैक्स ऐंड ऐंजौय. मुंह सूजा कर रहने में कोई मजा नहीं है. दोनों पक्षों को थोड़ाथोङा झुकना पडता है. किसी ने कहा है न कि यह आग का दरिया है और डूब कर जाना है, तो विवाह में धूप व छांव के मोड़ मिलते रहते हैं.“

“हां, महक तुम शायद सही हो. कितना सहज सोचती हो. अब मुझे भी लगता है कि हमें फिर से एकदूसरे को मौका देना चाहिए.  धूपछांव तो आतीजाती रहती हैं…”

“अनु देख यार, जब हम किसी को उस की कमी के साथ स्वीकार करते हैं तो पीडा का एहसास नहीं होता. सकारात्मक सोच कर अब अागे बढ़, परिवार को पूर्ण करो, यही जीवन है…”

विषय किसी उत्कर्षनिष्कर्ष तक पहुंचती कि तभी वेटर आ गया और दोनों चुप हो गईं.

“मैडम, आप को कुछ और चाहिए?” कहने के साथ ही मेज पर रखे खाली कपप्लेटें समेटने लगा. उन के हावभाव से लग रहा था कि खाली बैठे ग्राहक जल्दी से अपनी जगह छोङे.

“हम ने बातोंबातों में पहले ही चाय के कप पी कर खाली कर दिए.”

“हां, 2 कप कौफी के साथ बिल ले कर आना,”अनु के कहा.

“अनु, समय का भान नहीं हुआ कि 2 घंटे कैसे बीत गए. सच में गरमगरम कौफी की जरूरत महसूस हो रही है.”

मन में यही भाव था कि काश वक्त हमारे लिए ठहर जाए. पर एेसा होता नहीं है. वर्षो बाद मिलीं सहेलियों के लिए बातों का बाजार खत्म करना भी मुश्किल भरा काम है. गरमगरम कौफी हलक में उतरने के बाद मस्तिष्क को राहत महसूस हो रही थी. मन की भड़ास विषय की गरमी,  कौफी की गरम चुसकियों के साथ विलिन होने लगी. बातों का रूख बदल गया.

आज दोनों शांत मन से अदृश्य उदासी व पीङा के बंधन को मुक्त कर के चुपचाप यहीं छोड रही थीं.

मन में कडवाहट का बीज  जैसे मरने लगा. महक घर जाते हुए सोच रही थी कि प्रेमविवाह में भी मतभेद हो सकते हैं तो अरैंज्ड मैरिज में पगपग पर इम्तिहान है. एकदूसरे को समझने में जीवन गुजर जाता है. हर दिन नया होता है. जब आशा नही रखेंगे तो  वेदना नामक शराब से स्वत: मुक्ति मिल जाएगी.

अनु से बात करके मैं यह सोचने पर मजबूर हो गई थी कि हर शादीशुदा कपल परेशानी से गुजरता है. शादी के कुछ दिनों बाद जब प्यार का खुमार उतर जाता है तो धरातल की उबङखाबड जमीन उन्हें चैन की नींद सोने नहीं देती है. फिर वहीं से शुरू हो जाता है आरोपप्रत्यारोपों का दौर.  क्यों हम अपने हर सुखदुख की गारंटी अपने साथी को समझते हैं? हर पल मजाक उङाना व उन में खोट निकालना प्यार की परिभाषा को बदल देता है. जरा सा नजरिया बदलने की देर है .

सामाजिक बंधन को क्यों न हंस कर जिया जाए.  पलों को गुनगुनाया जाए? एक पुरुष या एक स्त्री किसी के सुख की गांरटी का कारण कैसे बन सकते हैं? हां, सुख तलाश सकते हैं और बंधन निभाने में ही समझदारी है.

आज मैं ने भी अपने मन में जीवनसाथी के प्रति पल रही कसक को वहीं छोङ दिया, तो मन का मौसम सुहाना लगने लगा. घर वापसी सुखद थी. शादी का बंधन मजबूरी नहीं प्यार का बंधन बन सकता है, बस सोच बदलने की देर है.

कुछ दिनों बाद अनु का फोन आया,”शुक्रिया महक, तुम्हारे कारण मेरा जीवन अब महकने लगा है. हम दोनों ने नई शुरुआत कर दी है. आपसी तालमेल निभाना सीख लिया है. अब मेरे आंगन में बेला के फूल महक रहे हैं. सुख की गांरटी एकदूसरे के पास है.”

दोनों खिलखिला कर हंसने लगीं. Love Story In Hindi

Hindi Stories Love : आवारा बादल – क्या हो पाया इला और व्योम का मिलन

Hindi Stories Love  : फाल्गुन अपने रंग धरती पर बिखेरता हुआ, चपलता से गुलाल से गालों को आरक्त करता हुआ, चंचलता से पानी की फुहारों से लोगों के दिलों और उमंगों को भिगोता हुआ चला गया. सेमल के लालनारंगी फूलों से लदे पेड़ और अलगअलग रंगों में यहांवहां से झांकते बोगेनवेलिया के झाड़, हर ओर मानो रंग ही रंग बिखरे हुए थे.

फाल्गुन जातेजाते गरमियों के आने का संकेत भी कर गया. हालांकि उस समय भी धूप के तीखेपन में कोई कमी नहीं थी, पर सुबहशाम तो प्लेजेंट ही रहते थे, लेकिन जातेजाते वह अपने साथ रंगों की मस्ती तो ले ही गया, साथ ही मौसम की गुनगुनाहट भी.

‘‘उफ, यह गरमी, आई सिंपली हेट इट,’’ माथे पर आए पसीने को दुपट्टे से पोंछते हुए इला ने अपने गौगल्स आंखों पर सटा दिए, ‘‘लगता है हर समय या तो छतरी ले कर निकलना होगा या फिर एसी कार में जाना पड़ेगा,’’ कहतेकहते वह खुद ही हंस पड़ी.

‘‘तो मैडम, यह काम क्या इस बंदे को करना होगा कि रोज सुबह आप के घर से निकलने से पहले फोन कर के आप को छतरी रखने के लिए याद दिलाए या फिर खुद ही छतरी ले कर आप की सेवा में हाजिर होना पड़ेगा,’’ व्योम चलतेचलते ठहर गया था.

उस की बात सुन इला को भी हंसी आ गई.

‘‘ज्यादा स्टाइल मारने के बजाय कुछ ठंडा पिला दो तो बेहतर होगा.’’

‘‘क्या लोगी? कोल्ड कौफी या कोल्ड ड्रिंक?’’

‘‘कोल्ड कौफी मिल जाए तो मजा आ जाए,’’ इला चहकी.

‘‘आजकल पहले जैसा तो रहा नहीं कि कोल्ड कौफी कुछ सलैक्टेड आउटलेट्स पर ही मिले. अब तो किसी भी फूड कोर्ट में मिल जाती है. यहीं किसी फूड कोर्ट में बैठते हैं,’’ व्योम बोला.

अब तक दोनों राजीव चौक मैट्रो स्टेशन पर पहुंच चुके थे. भीड़भाड़ और धक्कामुक्की यहां रोज की बात हो गई है. चाहे सुबह हो, दोपहर, शाम या रात, लोगों की आवाजाही में कोई कमी नजर नहीं आती है.

‘‘जहां जाओ हर तरफ शोर और भीड़ ही नजर आती है. पहले ही क्या कम पौल्यूशन था जो अब नौयज पौल्यूशन भी झेलना पड़ता है,’’ इला ने कुरसी पर बैठते हुए कहा.

‘‘अच्छा है यहां एसी है,’’ व्योम मासूम सा चेहरा बना कर बोला, जिसे देख इला जोर से हंस पड़ी, ‘‘उड़ा लो मजाक मेरा, जैसे कि मुझे ही गरमी लगती है.’’

‘‘मैडम गरमी का मौसम है तो गरमी ही लगेगी. अब बिन मौसम बरसात तो आने से रही,’’ व्योम ने कोल्ड कौफी का सिप लेते हुए कहा. उसे इला को छेड़ने में बहुत मजा आ रहा था.

‘‘छेड़ लो बच्चू, कभी तो मेरी बारी भी आएगी,’’ इला ने बनावटी गुस्सा दिखाया.

‘‘बंदे को छेड़ने का पूरा अधिकार है. आखिर प्यार जो करता है और वह भी जीजान से.’’

व्योम की बात से सहमत इला ने सहमति में सिर हिलाया. 2 साल पहले हुई उन की मुलाकात उन के जीवन में प्यार के इतने सतरंगी रंग भर देगी, तब कहां सोचा था उन्होंने. बस, अब तो दोनों को इंतजार है तो एक अच्छी सी नौकरी का. फिर तो तुरंत शादी के बंधन में बंध जाएंगे. व्योेम एमबीए कर चुका था और इला मार्केटिंग के फील्ड में जाना चाहती थी.

‘‘चलो, अब जल्दी करो, पहले ही बहुत देर हो गई है. मां डांटेंगीं कि रोजरोज आखिर व्योम से मिलने क्यों जाना है,’’ इला उठते हुए बोली.

दोनों ग्रीन पार्क स्टेशन से निकल कर बाहर आए ही थे कि वहां बारिश हो रही थी.

‘‘अरे, यह क्या, पीछे तो कहीं भी बारिश नहीं थी. फिर यहां कैसे हो गई? लगता है मौसम भी आज हम पर मेहरबान है, जो बिन मौसम की बारिश से एकदम सुहावना हो गया है,’’ इला हैरान थी.

‘‘मुझे तो लगता है कि दो आवारा बादल के टुकड़े होंगे जो प्यार के नशे की खुमारी में आसमान में टकराए होंगे और बारिश की कुछ बूंदें आ गई होंगी, वरना केवल तुम्हारे ही इलाके में बारिश न हुई होती. जैसे ही उन के नशे की खुमारी उतरेगी, दोनों कहीं दूर छिटक जाएंगे और बस, बारिश भी गायब हो जाएगी,’’ आसमान को देखता हुआ व्योम कुछ शायराना अंदाज में बोला.

‘‘तुम भी किसी आवारा बादल की तरह मुझे छोड़ कर तो नहीं चले जाओगे. कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारे प्यार की खुमारी भी एक दिन उतर जाए और तुम भी मुझ से छिटक कर कहीं दूर चले जाओ,’’ इला की गंभीर आवाज में एक दर्द छिपा था. शायद उस अनजाने भय की निशानी था जो हर प्यार करने वाले के दिल में कहीं न कहीं छिपा होता है.

‘‘कैसी बातें कर रही हो? आखिर तुम सोच भी कैसे लेती हो ऐसा? मैं क्यों जाऊंगा तुम्हें छोड़ कर,’’ व्योम भी भावुक हो गया था, ‘‘मेरा प्यार इतना खोखला नहीं है. मैं खुद इसे साबित नहीं करना चाहता, पर कभी मन में शक आए तो आजमा लेना.’’

‘‘मैं तो मजाक कर रही थी,’’ इला ने व्योम का हाथ कस कर थामते हुए कहा. जब से वह उस की जिंदगी में आया था, उसे लगने लगा था कि हर चीज बहुत खूबसूरत हो गई है. कितना परफैक्ट इंसान है वह. प्यार, सम्मान देने के साथसाथ उसे बखूबी समझता भी है. बिना कुछ कहे भी जब कोई आप की बात समझ जाए तो वही प्यार कहलाता है.

इला को एक कंपनी में मार्केटिंग ऐग्जीक्यूटिव का जौब मिल गया और व्योम का विदेश से औफर आया, लेकिन वह इला से दूर नहीं जाना चाहता था. इला के बहुत समझाने पर वह मान गया और सिंगापुर चला गया. दोनों ने तय किया था कि 6 महीने बाद जब दोनों अपनीअपनी नौकरी में सैट हो जाएंगे, तभी शादी करेंगे. फोन, मैसेज और वैबकैम पर रोज उन की बात होती और अपने दिल का सारा हाल एकदूसरे से कहने के बाद ही उन्हें चैन आता.

इला कंपनी के एक नए प्रोडक्ट की पब्लिसिटी के लिए जयपुर गई थी, क्योंकि उसी मार्केट में उन्हें उस प्रोडक्ट को प्रमोट करना था. वहां से वापस आते हुए वह बहुत उत्साहित थी, क्योंकि उसे बहुत अच्छा रिस्पौंस मिला था और उस ने फोन पर यह बात व्योम को बता भी दी थी. अब एक प्रमोशन उस का ड्यू हो गया था. लेकिन उसे नहीं पता था कि नियति उस की खुशियों के चटकीले रंगों में काले, स्याह रंग उड़ेलने वाली है.

रात का समय था, न जाने कैसे ड्राइवर का बैलेंस बिगड़ा और उन की कार एक ट्रक से टकरा गई. ड्राइवर की तो तभी मौत हो गई. लेकिन हफ्ते बाद जब उसे होश आया तो पता चला कि उसे सिर पर गहरी चोट आई थी और उस की आवाज ही चली गई थी.

धुंधला सा कुछ याद आ रहा था कि वह व्योम से बात कर रही थी कि तभी सामने आते ट्रक को देख उसे लगा था कि शायद वह व्योम से आखिरी बार बात कर रही है और वह चिल्ला कर ड्राइवर को सचेत करना ही चाहती थी कि आवाज ही नहीं निकली थी. सबकुछ खत्म हो चुका था उस के लिए.

परिवार के लोग इसी बात से खुश थे कि इला सकुशल थी. उस की जान बच गई थी, पर वह जो हर पल व्योम से बात करने को लालायित रहती थी, नियति से खफा थी, जिस ने उस की आवाज छीन कर व्योम को भी उस से छीन लिया था.

‘‘तुम्हें ऐसा क्यों लगता है कि व्योम अब तुम्हें नहीं अपनाएगा? वह तुम से प्यार करता है, बहुत प्यार करता है, बेटी. उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ेगा,’’ मां ने लाख समझाया पर इला का दर्द उस की आंखों से लगातार बहता रहता. वह केवल लिख कर ही सब से बात करती. उस ने सब से कह दिया था कि व्योम को इस बारे में कुछ न बताया जाए और न ही वह अब उस से कौंटैक्ट रखना चाहती थी.

‘‘अपने प्यार पर इतना ही भरोसा है तुझे?’’ उस की फ्रैंड रमा ने जब सवाल किया तो इला ने लिखा, ‘अपने प्यार पर तो मुझे बहुत भरोसा है, पर मैं आधीअधूरी इला जो अपनी बात तक किसी को कह न सके, उसे सौंपना नहीं चाहती. वह एक परफैक्ट इंसान है, उसे परफैक्ट ही मिलना चाहिए सबकुछ.’

व्योम ने बहुत बार उस से मिलने की कोशिश की, फोन किया, मैसेज भेजे, चैट पर इन्वाइट किया, पर इला की तो जैसे आवाज के साथसाथ भावनाएं भी मौन हो गई थीं. अपने सपनों को उस ने चुप्पी के तालों के पीछे कैद कर दिया था. उस की आवाज पर कितना फिदा था व्योम. कैसी अजीब विडंबना है न जीवन की, जो चीज सब से प्यारी थी उस से वही छिन गई थी.

3-4 महीने बाद व्योम के साथ उस का संपर्क बिलकुल ही टूट गया. व्योम ने फोन करने बंद कर दिए थे. ऐसा ही तो चाहती थी वह, फिर क्यों उसे बुरा लगता था. कई बार सोचती कि आखिर व्योम भी किसी आवारा बादल की तरह ही निकला जिस के प्यार के नशे की खुमारी उस के एक ऐक्सिडैंट के साथ उतर गई.

वक्त गुजरने के साथ इला ने अपने को संभाल लिया. उस ने साइन लैंग्वेज सीख ली और मूकबधिरों के एक संस्थान में नौकरी कर ली. वक्त तो गुजर जाता था उस का, पर व्योम का प्यार जबतब टीस बन कर उभर आता था. उसे समझ ही नहीं आता था कि उस ने व्योम को बिना कुछ कहनेसुनने का मौका दिए उस के प्यार का अपमान किया था या व्योम ने उसे छला था. जब भी बारिश आती तो आवारा बादल का खयाल उसे आ जाता.

वह मौल में शौपिंग कर रही थी, लगा कोई उस का पीछा कर रहा है. कोई जानीपहचानी आहट, एक परिचित सी खुशबू और दिल के तारों को छूता कोई संगीत सा उसे अपने कानों में बजता महसूस हुआ.

ऐस्केलेटर पर ही पीछे मुड़ कर देखा. चटकीले रंगों में मानो फूल ही फूल हर ओर बिखरते महसूस हुए. जल्दीजल्दी वहां से कदम बढ़ाने लगी, मानो उस परिचय के बंधन से छूट कर भाग जाना चाहती हो. अचानक उस का हाथ कस कर पकड़ लिया उस ने.

ओह, इस छुअन के लिए पूरे एक बरस से तरस रही है वह. मन में असंख्य प्रश्न और तरंगें बहने लगीं. पर कहे तो कैसे कहे वह? लब हिले भी तो वह सच जान जाएगा तब…हाथ छुड़ाना चाहा, पर नाकामयाब रही.

भरपूर नजरों से व्योम ने इला को देखा. प्यार था उस की आंखों में…वही प्यार जो पहले इला को उस की आंखों में दिखता था.

‘‘कैसी हो,’’ व्योम ने हाथों के इशारे से पूछा, ‘‘मुझे बस इतना ही समझा. एक बार भी मेरे प्यार पर भरोसा करने का मन नहीं हुआ तुम्हारा?’’ अनगिनत प्रश्न व्योम पूछ रहा था, पर यह क्या, वह तो साइन लैंग्वेज का इस्तेमाल कर रहा था.

अवाक थी इला, ‘‘तुम बोल क्यों नहीं रहे हो,’’ उस ने इशारे से पूछा.

‘‘क्योंकि तुम नहीं बोल सकती. तुम ने कैसे सोच लिया कि तुम्हारी आवाज चली गई तो मैं तुम्हें प्यार करना छोड़ दूंगा. मैं कोई आवारा बादल नहीं. जब तुम्हारे मुझ से कौंटैक्ट न रखने की वजह पता चली तो मैं ने ठान लिया कि मैं भी अपना प्यार साबित कर के ही रहूंगा. बस, तब से साइन लैंग्वेज सीख रहा था. अब जब मुझे आ गई तो तुम्हारे सामने आ गया.’’

उस के बाद इशारों में ही दोनों घंटों शिकवेशिकायतें करते रहे. इला के आंसू बहे जा रहे थे. उस के आंसू पोंछते हुए व्योम बोला, ‘‘लगता है दो आवारा बादल इस बार तुम्हारी आंखों से बरस रहे हैं.’’

व्योम के सीने से लगते हुए इला को लगा कि व्योम वह बादल है जो जब आसमान में उड़ता है तो बारिश को तरसती धरती उस की बूंदों से भीग जी उठती है. Hindi Stories Love

Story In Hindi : भोर की किरण – मां बेटी का अटूट रिश्ता

Story In Hindi : मां के मन में मानो बरसों का बंधा हुआ बांध टूट कर बह रहा था. उन का पछतावा, उन का दर्द और खालीपन सबकुछ उस दिन आंसुओं संग बह रहा था और उन का चेहरा सहारे के लिए मुझे पुकार रहा था.

सभी कामों से निबट कुछ देर सुस्ता लेने का मन हुआ. कितनी तेज धूप है. सूर्य का उद्दंड प्रखर प्रकाश खिड़कियों के रास्ते कमरे के अंदर तक प्रविष्ट हो गया है. खिड़कियों पर टंगे मोटेमोटे गहरे नीले परदों को खींच, उन का मार्ग अवरुद्ध कर दिया. अहा, अंधेरे कमरे में आंखें मूंद कर रिलैक्स होने का मजा कुछ और ही है. झपकी लगी ही थी कि आंखों में मां का चेहरा उभर आया, दर्द और पीड़ा से भरा, शायद कुछ कहना चाहती थीं.
मन व्याकुल हो गया. फोन उठाया, ‘‘हैलो मां, कैसी हो?’’
दूसरी ओर से कमजोर अशक्त स्वर आया, ‘‘ठीक हूं बेटा. बस, तू आ जा एक बार, मिल ले आ कर. बोल कब आ रही है?’’
‘‘मां, समझ न, एकदम से घर छोड़ कर निकलना बहुत मुश्किल होता है.’’
‘‘तुम लोग सब मुझे ही समझते हो, समझासमझा कर मैं थक गई हूं. तू तो मुझे समझने की कोशिश कर, मेरी लाडो.’’
मां के स्वर में खीझ और विवशता थी. फोन कट गया था.
झट सुदीप को फोन किया, ‘‘सुदीप, मुझे मां के पास जाना है.’’
‘‘एकाएक, क्यों, क्या हुआ? औल इज फाइन, सब ठीक तो है?’’ सुदीप के स्वर में चिंता थी.
‘‘कुछ नहीं, बस, मां की तबीयत ठीक नहीं है, बुला रही हैं.’’
‘‘ओके, आज शाम की ही बुकिंग करा देता हूं. तुम पैकिंग कर लो.’’

शाम 5 बजे की फ्लाइट है, एक घंटे पहले तो एयरपोर्ट पहुंचना ही होगा. अभी तो 2 बज रहे हैं. जल्दीजल्दी बैग में कपड़े ठूंसे और कैलाशी को आवश्यक निर्देश दे दिए. तब तक कैब भी आ गई थी. फ्लाइट समय पर थी.

फ्लाइट के टेकऔफ के साथ ही विचारों का प्रवाह आरंभ हो गया. दिल में अलग ही बेचैनी. मां, एकाकी, असहाय, अशक्त. उफ्फ यह बुढ़ापा. सारा जीवन बच्चों में लगा दिया. यह सब सोचतेसोचते गालों पर गीलापन महसूस हुआ. धीरे से रूमाल निकाल आंसुओं को ढक लिया. वही जानीपहचानी दिल्ली और दिल्ली की संकरी गलियां. भले ही कोई इन्हें देख कर नाकभौं सिकोड़़े लेकिन मेरी तो बांछें खिल जाती हैं. सारा बचपन इन्हीं गलियों में दौड़तेभागते, उछलतेकूदते गुजारा है. रात गहरा रही थी. ऊंघती गलियों ने भी बांहें फैला कर उस का स्वागत किया. गली

नंबर 12, मकान नंबर 10, प्रतीक्षातुर दिख रहा है. अधखुले दरवाजे से झांकता प्रकाश अधीरता से बुला रहा है.
औटो से उतर कर छूटे तीर की माफिक सीधे मां के कमरे में पहुंच गई.
‘‘मां, मां लो मैं आ गई.’’
‘‘गुड्डो,’’ लेटेलेटे ही मां का क्षीण किंतु उल्लसित था स्वर.
‘‘मां,’’ हुलस कर मां से चिपक गई, ‘‘क्या हो गया है आप को?’’
मां हड्डियों का ढांचा मात्र रह गई थी.
‘‘बेटा, बुढ़ापा ही सब से बड़ा रोग है और यह मुआ अकेलापन.’’
‘‘पर ये दोनों छोटू और गुड्डू?’’
‘‘बेटा, अब उन का अपना संसार है. प्रेम और ममता भी तो सोते की तरह नीचे की ओर ही बहता है.’’

घर में कुछ बदला सा लगा. घर की छत पर दो मंजिलें और चढ़ गईं थीं. उन में अपने में मशगूल दो दुनिया और समा गईं थीं. सब से ऊपर गुड्डू अपनी पत्नी और दोनों बेटों के साथ, बीच वाली में छुटका अपनी पत्नी और बिटिया के साथ और निचले हिस्से में, राने घर में असहाय पीड़ा झेलती, अशक्त-एकाकी मां आंखें मूंदे.

कभी बच्चों की आवाज आंगन से कमरे तक पहुंच जातीं तो मां उसी में सुख पा जातीं. बहुएं छज्जे से रस्सी के सहारे, टोकरी में खाना रख कर पहुंचा देतीं और घंटी बजा देतीं, कभी बड़ी तो कभी छोटी और कभी यों ही उपवास हो जाता. मां के बगल में ही लेट गई. मां की वही चिरपरिचित खुशबू. मैं फिर से वही छोटी सी गुड्डो बन गई थी. जर्जर हाथों का कोमल स्पर्श पा मां की ममता से भीगती रही. मन भयभीत था. सामने जीवन का कटु भयावह सत्य.

रास्ते की थकान और मां को ले कर उस की चिंता. मन भी थक गया था. पापा के जाने के बाद मां से ही तो उस का मायका था. उन के लिए ही तो वह भागी चली आती थी. घर की हर दीवार और आंगन के कोनेकोने में अपना बचपन दोहरा लेती. शायद यह एहसास शब्दातीत है और हमेशा रहेगा.

‘‘बेटा,’’ सुन कर तंद्रा टूटी, मां का चेहरा ध्यान से देखा. समय की मार और बुढ़ापे की छाप पूरी प्रबलता से उभर आई थी. मां का खिलाखिला सुंदर चेहरा झुर्रियों के मकड़जाल से ढक गया था. बड़ीबड़ी आंखें काले स्याह हो आए गड्ढों में धंस गई थीं. एक विवशता, एक निराशा से ढका चेहरा.
‘‘हां मां, कुछ चाहिए क्या?’’
‘‘बेटा, बहुत भूख लगी है,’’ मै ने थोड़ा डरेसहमे स्वर में कहा.
‘‘अरे, तो क्या हुआ, अभी कुछ बना लेती हूं. आप क्या खाओगी?’’
‘‘बेटा, आलूटमाटर की तरी वाली सब्जी के साथ 2 फुलके उतार दे, बस. बहुत दिन हो गए सब्जीरोटी खाए. रोजरोज की अचाररोटी से जीभ और गला दोनों छिल गए.’’

मां की आवाज का दर्द अंतर तक उतर गया. क्या बुढ़ापा ऐसा ही होता है? ‘मां, मैं लौकी नहीं खाता. और मां, मेरी सब्जी में हरा धनिया मत डालना. मां मेरी आलू की तरी वाली सब्जी.’ हां बेटा, मां तीनों के नखरे उठातीं. तड़के उठ कर उन की अलगअलग सब्जियां ?ाटपट बना कर टिफिन लगा देतीं. वही बेटे आज?

मैं रसोई की ओर गई. रसोईघर भी मां की तरह उदास और निराश, कुछ उपेक्षित. मेरा हाथ लगते ही कुछ ही देर में रसोईघर काम करने लायक हो गया. गली के पंसारी से जरूरी सामान ला कर गैस चूल्हे पर एक ओर मसाला भून कर सब्जी चढ़ा दी और दूसरी ओर तवा रख दिया. इतना सबकुछ करने में एकडेढ़ घंटे से अधिक का समय लग गया. इस बीच मां दसियों बार पूछ चुकी थीं, ‘बेटा, खाना बन गया?’
एकाएक लगा कि मैं मां की मां बन गई हूं और वे नन्ही बच्ची. उसी कांसे की थाली को साफ कर, चमका कर मां के लिए खाना लगा दिया.
‘‘खाना खा लो, मां’’
मां की आंखें खुशी से चमक रही थीं. बांहों का सहारा दे कर, 2 बड़े तकियों के सहारे उन्हें बैठा दिया. अपने हाथ से उन्हें पहला कौर दिया तो मां उस बच्चे की तरह खुश हो गईं जिसे उस की पसंदीदा मिठाई एक लंबे अरसे बाद मिली हो. दोनों की आंखों से दुख-वेदना का झरना फूट पड़ा. गहरी चुप्पी में बोलती सिसकियां. मां की कमजोर उंगलियां मेरी घनी केशराशि में गुम हो गईं.
मां की आंखें कहीं दूर, अतीत के किसी कोने में खोई हुई थीं. उन के चेहरे की झुर्रियों में छिपी हुई कहानियां जैसे आज खुलने को बेताब थीं. मैं उन्हें देखती रही, लेकिन मन में उठ रहे सवालों का गुबार मुझे भीतर तक घुटन दे रहा था.
मां के साथ बिताए अपने बचपन के वे दिन चलचित्र की तरह आंखों के सामने घूम गए. जब कभी भाइयों से मेरा झगड़ा होता, मां उन का पक्ष ले मुझे ही गलत ठहरातीं और भाई मु?ो चिढ़ाते हुए बाहर खेलने निकल जाते. छोटीछोटी बातों पर मुझे टोकती थीं मां, भाइयों को नहीं. भाइयों के अच्छे स्कूल थे. इस के अलावा मोटी फीस दे कर उन्हें कोचिंग सैंटर भी भेजा जाता कि वे अच्छा पढ़लिख कर अच्छी नौकरी पा जाएं और मेरे हिस्से में महल्ले का सरकारी स्कूल.

मुझे अकसर सवाल चुभते- क्या मेरा सपना देखने का हक नहीं? क्या मेरी इच्छाएं, मेरी जरूरतें माने नहीं रखतीं? इन सवालों के जवाब मुझे कभी नहीं मिले और न ही कभी मां से पूछने की हिम्मत हुई. सालों तक ये मेरे भीतर एक टीस बन कर रहे और इसी कारण मां के प्रति कभीकभी आक्रोश भी पैदा हो जाता.

लेकिन जैसेजैसे बड़ी हुई, मुझे समझ आया कि मां खुद भी उस व्यवस्था की शिकार थीं जिस ने उन्हें यह सिखाया था कि बेटों को अधिक प्राथमिकता दी जाए. पापा की कठोरता और समाज की अपेक्षाओं ने शायद उन्हें मजबूर कर दिया होगा. फिर भी, बचपन का गहरे में दफन दर्द कभीकभी सिर उठा लेता. लेकिन आज वे खुद अपनी रूढि़वादी सोच और परंपराओं की कैद की सजा उन्हीं बेटों के हाथ भुगतने को मजबूर थीं.
न जाने कब तक मैं भावनाओं के ज्वारभाटे में डूबतीउतराती रही. मेरा गला रुंध गया. धीरे से बोली, ‘‘मां, आप ने हमेशा कहा था कि लड़की पराया धन है और बेटे कुल के दीपक.’’
मेरी बात पूरी भी न हुई कि मां ने मेरे मुंह पर अपना खुरदरा कमजोर हाथ रख, फफक कर रो पड़ीं.
मन के अंदर से मानो कोई बरसों का बंधा हुआ बांध टूट कर बह रहा था. उन का पछतावा, उन का दर्द और उन के भीतर का खालीपन सबकुछ आंसुओं संग बह निकला.
मैं ने धीरे से उन के हाथों को पकड़ा और कहा, ‘‘मां, अब मैं हूं न. अब यह अकेलापन, यह दर्द सब मिल कर बांट लेंगे.’’
मां ने मुझे खींच कर अपने गले से लगा लिया. उन की कमजोर बांहों में वह शक्ति महसूस हुई जो वर्षों पहले मुझे सुकून देती थी. हम दोनों देर तक यों ही बैठे रहे, जैसे एकदूसरे के आंसुओं को चुपचाप समेट रहे हों.

उस रात जब मां सो गईं तो मैं उन के पास बैठी उन के झुर्रियोंभरे चेहरे को निहारती रही. यह वही चेहरा था जिस ने मुझे जीवन दिया, जिस ने मुझे सिखाया कि संघर्ष कैसे किया जाता है. अब वही चेहरा सहारे के लिए मुझे पुकार रहा था. एक नए इरादे के साथ भोर की किरण के इंतजार में कब आंख लग गई, पता ही न चला. Story In Hindi

लेखिका : डा. यशोधरा भटनागर

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