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Pahalgam Terrorist Attack : इन के वैधव्य के 2 जिम्मेदार – पहले आतंकी, दूसरे सरकार

Pahalgam Terrorist Attack : पहलगाम हमले के बाद सरकार ने इस की गंभीरता तभी खत्म कर दी जब इस पूरे मामले को धार्मिक रंग दे कर भटकाने की कोशिश की गई. यहां तक कि पीड़ितों की बात तक अनसुनी कर दी गई. परिणामतया, आम लोगों में एक अविश्वास और निराशा पैदा हो गई है.

उन में से किसी ने भी पति की अर्थी पर चूड़ियां नहीं फोड़ीं, मांग में भरा सिंदूर नहीं पोंछा और बिलखते हुए अपने कर्मों, भाग्य या भगवान को नहीं कोसा. उन्होंने सीधेसीधे अपने वैधव्य के लिए पहले आतंकी और फिर सरकार को जिम्मेदार करार दिया. उन का दुख कोई साझा नहीं कर सकता और न ही आने वाली जिंदगी की दुश्वारियों से निजात दिला सकता है. एक पहाड़ सी जिंदगी उन के सामने मुंहबाए खड़ी है. पहलगाम हादसे ने उन से जो छीना है उस की भरपाई तो अब भगवान भी कहीं हो तो वह भी नहीं कर सकता.

अपनी आंखों के सामने अपना ही सुहाग उजड़ने का दर्द कोई कलम बयां नहीं कर सकता. भारतीय समाज में विधवा होने का दुख एक विधवा ही महसूस कर सकती है. बिलाशक यह कोई मामूली हादसा नहीं था, इसलिए इस पर वाकई देश व्यथित और आक्रोशित हुआ. पर कम ही लोगों ने इस बात पर गौर करने की जरूरत महसूस की कि उन के विधवा होने के पीछे कोई आकस्मिक या गैरआकस्मिक वजह भी नहीं थी. उन की तात्कालिक प्रतिक्रिया पर गौर करें तो स्पष्ट हो जाता है कि अपनी सूनी हो गई मांग का जिम्मेदार और कुसूरवार भी वे आतंकियों के बाद सरकार को मानती हैं.

कैसे, आइए उन की जबानी सुनें, उन शब्दों के अर्थ समझने की कोशिश करें जो उन्होंने पति को अंतिम विदाई देने के पहले कहे और अहम बात यह कि बिना किसी डर या लिहाज के कहे. भीषण दुख की घड़ियों में उन की साफगोई एक जोरदार सैल्यूट की हकदार तो है.

पहलगाम हमले में आतंकियों की गोलियों का शिकार हुए सूरत के शैलेश कलाथिया जो परिवार सहित अपना जन्मदिन मनाने गए थे, लेकिन वहां से लौटे लाश की शक्ल में. उन की पत्नी शीतल कलाथिया के सामने जैसे ही केंद्रीय जल शक्ति मंत्री सी आर पाटिल पड़े तो शीतल बिफर पड़ीं. उन्होंने जो कहा उस का एकएक शब्द राजनीति और राजनेताओं की शोबाजी की न केवल पोल खोलता हुआ है बल्कि उस के चिथड़े उड़ाता हुआ सरकार को कठघरे में खड़ा करता हुआ भी है.
शीतल ने कहा-
“आप के पीछे कितने वीआईपी हैं, कितनी गाड़ियां हैं, नेता जिस हैलिकौप्टर से चलते हैं वह टैक्स देने वालों के दम पर ही चलता है. आप की जिंदगी जिंदगी है, टैक्स देने वालों की जिंदगी जिंदगी नहीं? आप इतना टैक्स ले रहे हैं तो सुविधाएं क्यों नहीं देते?”

सी आर पाटिल, “हम न्याय दिलाएंगे.”
शीतल, “बिलकुल नहीं, हम सरकार और सेना पर भरोसा कर पहलगाम गए थे. अब भरोसा नहीं है. कश्मीर में दिक्कत नहीं, दिक्कत तो सरकार की सुरक्षा व्यवस्था में है.”

तभी मंत्रीजी के आजूबाजू खड़े कुछ चंगूमंगू टाइप के नेताओं ने शीतल को रोकने की कोशिश की तो वे और बिफर कर बोलीं, “नहीं सर, आप को सुनना पड़ेगा. जब सब हो जाता है तब सरकार आती है, फोटो खिंचवा कर चली जाती है. मुझे बस न्याय चाहिए, सिर्फ अपने पति के लिए नहीं बल्कि उन सभी लोगों के लिए न्याय चाहिए जिन्होंने वहां अपनी जानें खोईं.”

इस दौरान शैलेष और शीतल के नन्हें बच्चे बेटी नीति और बेटा नक्ष पथराई आंखों से पिता की चिता और हैरानी से मां का यह रौद्र रूप देखते रहे. लेकिन बात कुछ और भी थी.

शीतल कुछ भी गलत नहीं कह रही थीं क्योंकि उन के पति की अर्थी को मंत्रियों के आगमन के लिए 15 मिनट तक रोक कर रखा गया था. हुआ यों था कि शैलेष के परिजन जब उन की अर्थी ले जाने लगे थे तभी खबर आई कि केंद्रीय मंत्री सी आर पाटिल आ रहे हैं. उन के साथ गुजरात के गृह राज्यमंत्री हर्ष संघवी भी हैं. इन मंत्रियों के प्रोटोकालिक इंतजार में अर्थी कोई 15 मिनट तक सड़क पर रखी रही. उस के आसपास लोग, जो शैलेष को अंतिम विदाई देने उन की अंत्येष्टि में शामिल होने आए थे, खड़े हो कर मंत्री का इंतजार करते रहे.

शीतल की मंशा बेहद साफ थी कि हम से तरहतरह से तगड़ा टैक्स वसूलने वाली सरकार सुरक्षा नहीं दे सकती तो वह सरकार किस काम की, जिस के मंत्रियों, सांसदों, विधायकों की सुरक्षा और लावलश्कर में ही जनता का तगड़ा पैसा खर्च होता है. तिस पर मजाक यह कि ये यहां भी नेतागीरी छांटने आ गए.

पति की मौत पर राजनीति उन्हें रास नहीं आई और न ही वह वीआईपी कल्चर भाया जिस के कि हमारे नेता आदी हो गए हैं. पाटिल और संघवी को उम्मीद यह रही होगी कि उन के पहुंचते ही शैलेष के परिजन उन के सामने इंसाफ के लिए गिड़गिड़ाएंगे, गले से लग कर रोएंगे, मानो आसमान से कोई देवता उतर आए हों और मृतक की पत्नी वह तो बेचारी खुद के समय को कोसते दहाड़ें मारमार कर रो रही होगी.

उस के आंसू अगर सूख गए होंगे तो सुबक रही होगी, घर के किसी कोने में अचेत पड़ी होगी. लेकिन हुआ एकदम उलटा तो दोनों सकपका गए और शीतल की दिलेरी को प्रणाम कर चुपचाप खिसक लिए.

एक शीतल का ही भरोसा सरकार पर से नहीं उठा है बल्कि उन सभी पत्नियों का उठा है जिन के पति पहलगाम हमले में बेवक्त, बेमौत मारे गए. सरकार पर से भरोसा मृतकों के परिजनों का भी उठा है और उन करोड़ों लोगों का भी उठा है जिन्होंने यह भ्रम पाल रखा था कि नरेंद्र मोदी सिर्फ प्रधानमंत्री ही नहीं बल्कि एक खास उद्देश्य से ईश्वर द्वारा भेजे गए दूत या अवतार हैं, जिन का जन्म ही राम और कृष्ण की तरह दुख हरने के लिए हुआ है. वे विधर्मियों, नास्तिकों और हिंदू धर्म के गद्दारों को सबक सिखाएंगे और एक दिन भारत हिंदू राष्ट्र हो कर विश्वगुरु बनेगा.

खुद नरेंद्र मोदी भी अपना और भक्तों का यह भ्रम सलामत रखने के लिए ऊटपटांग और बेसरपैर की बातें अकसर करते रहते हैं. मसलन, लोकसभा चुनाव के दौरान काशी में नाव में दिए गए एक इंटरव्यू में उन्होंने खुद को नौनबायोलौजिकल बताया था. यह निश्चित ही मानव कल्पना से परे बात है लेकिन धर्मग्रंथों में इफरात से पाई जाती है.

ऐसी और भी कई बातें और वक्तव्य हैं लेकिन पहलगाम हादसे से ताल्लुक रखती एक यह भी है कि मृतकों की पत्नियों और परिजनों ने उन की सरकार को फेलियर करार दिया. जयपुर के 33 वर्षीय नीरज उधवानी की अर्थी उठने से पहले ही उन का घर पुलिस छावनी में तबदील हो गया था. क्योंकि वहां भी शोक प्रकट करने के लिए एक केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत की ड्यूटी लगी थी. उन का साथ देने का जिम्मा मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा को सौंपा गया था.

यहां भी कमोबेश सूरत का ही रीप्ले हुआ. नीरज की दुखी पत्नी आयुषी खामोशी से पति की चिता पर हाथ जोड़े खड़ी रहीं. तय है वे नीरज को आखिरी बार जी भर कर निहार लेना चाहती थीं. अंत्येष्टि में शामिल होने आए लोग नेताओं के मय फौजफाटे के आने पर सब्र किए रहे लेकिन नीरज के एक परिजन खुद की भड़ास रोक नहीं पाए.

लिहाजा, उन्होंने सीधे इन नेताओं को आड़े हाथों लेते हुए कहा, “यह आप की सरकार का फेलियर है, यहां सिक्योरटी लगाने से क्या होगा?” यह बहुत कम शब्दों में कही गई लाख नहीं बल्कि करोड़ों टके की बात थी. एक तरह से शीतल की बात का एक्सटैंशन था. यहां भी वही हुआ, दोनों मंत्री अपना और अपनी सरकार की नाकामी का मखौल उड़ते देख मौका पा कर खिसक लिए. उन्हें निश्चित ही समझ आ गया होगा कि यहां नेतागीरी नहीं चलने वाली. इन्हें बनावटी नहीं बल्कि वास्तविक सहानुभति चाहिए जिस का इन के पास टोटा रहता है.

देखा जाए तो मोदी सरकार के ये मंत्री और मुख्यमंत्री पहलगाम हमले में हुई मौतों का फीडबेक लेने गए थे जो सौ फीसदी नैगेटिव था. इसलिए दूसरे दिन ही सरकार ने सार्वजानिक तौर पर मान लिया कि चूक हुई. लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का आदतन बड़बोलापन एकता कपूर के धारावाहिक सरीखा जारी रहा.

पर इस बार भक्तों की भी हिम्मत नहीं पड़ी कि वे इसे रामानंद सागर के सीरियल ‘रामायण’ के संवादों की तरह प्रचारित और वायरल करें. क्योंकि झूठ की भी अपनी हद तो होती है, यह और बात है कि मोदीजी के बोलने की नहीं होती जो उन्होंने बिहार के मधुबनी के झंझारपुरी की एक जनसभा में दहाड़ने की असफल कोशिश करते हुए कहा ‘आतंकियों को मिट्टी में मिलाने का समय आ गया है. हम उन आतंकियों को धरती के अंतिम छोर तक खदेड़ेंगे.’

यह कोई हैरत की बात नहीं थी बल्कि हमेशा की तरह लकीर पीटने वाली बात थी. इस सभा के पहले और बाद में भी वे कादरखाननुमा डायलौग अलगअलग तरह से दोहरा कर जाने क्या साबित करने की कोशिश करते रहे लेकिन झंझारपुर की सभा में वे इतने असहज और असामान्य हो गए थे कि एकाएक ही धड़ल्ले से इंग्लिश भी बोलने लगे जो आमतौर पर हिंदीभाषी एक खास मौके पर बोलते हैं. मकसद अपना आत्मविश्वास बढ़ाना रहता है.

रही बात दुनियाभर में आतंक के खिलाफ भारत के तथाकथित कड़े रुख का संदेश पहुंचाने की, तो अनुवाद मिनटों में हो जाता है.

आतंक के खिलाफ प्रधानमंत्री की हवाहवाई बातें सुन लोग अब उबासियां लेने लगे हैं. अब से कोई 6 साल पहले उन्होंने हिंदी फिल्मों सरीखा एक नया डायलौग ईजाद किया था कि घर में घुसघुस कर मारेंगे. भक्तों में यह डायलौग लोकप्रिय हुआ तो उन्होंने इसे तकियाकलाम ही बना लिया.

6 साल के अरसे में उन्होंने इसे 50 बार से भी ज्यादा देशभर की सभाओं में दोहराया पर 22 अप्रैल को इस की कलई भी खुल गई जब आतंकी पहलगाम के स्विट्जरलेंड कहे जाने वाले खुबसूरत मैदान में घुस कर 27 लोगों को मार गए.

इस हमले से सरकार ने कोई सबक सीखा हो, लगता नहीं. वह बारबार लोगों को उलझाए रखने, उन का ध्यान बंटाने को झूठ पर झूठ बोलती रही. इन में से पहला तो यही था कि आतंकी पाकिस्तानी थे. यह सच है कि उन के पाकिस्तानी होने की संभावनाएं ज्यादा हैं लेकिन यह साबित नहीं हो पाया था. सरकार कश्मीर में आतंकियों के मकान ढहाती रही.

दूसरा सफेद झूठ सिंधु नदी का जल रोक देने का था लेकिन यह भी ज्यादा टिका नहीं कि पाकिस्तान की तरफ बहने वाला पानी सरकार कैसे रोकेगी. यह सवाल सब से पहले मोदी और योगी की बखिया उधेड़ते रहने के चलते भक्तों द्वारा देशद्रोही के खिताब से नवाज दिए गए शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद ने उठाया था.

इस पर देशभर में शकोसुबह की बातें होने लगीं पर जल्द ही बीबीसी ने एक वीडियो जारी करते सच सामने ला दिया. इस से सरकार की किरकिरी की तादाद में और वृद्धि हो गई.

बीबीसी ने साउथ एशिया नैटवर्क औन डैम, रिवर्स और पीपल्स के रीजनल वाटर रिसोर्स एक्सपर्ट हिमांशु ठक्कर के हवाले से यह हकीकत उजागर की कि भारत में जो बुनियादी ढांचा है वो ज्यादातर नदी पर चलने वाले हाइड्रोपावर प्लांट्स का है जिन्हें बड़ी स्टोरेज की जरूरत नहीं है. ठक्कर और दूसरे विशेषज्ञों के मुताबिक भारत को सिंधु नदी का जल रोकने के लिए कई नहरें और बांध बनाने होंगे जिस में सालोंसाल लग जाएंगे और भारीभरकम पैसा खर्च होगा.

तो फिर झूठ क्यों? मोदी ऐसे कई नामुमकिन कामों को महज बातों के जरिए मुमकिन बनाते रहे हैं और भक्त उन पर झूमते भजन सा गाते रहते हैं कि मोदी है तो मुमकिन है. पहलगाम हमले के बाद भी हिंदूमुसलिम किया जाना बताता है कि इस की गंभीरता पर पानी फिर गया है.

असल मुद्दा और समस्या सरकार की सुरक्षा संबंधी लापरवाही है जिस के चलते कोई 2 दर्जन महिलाएं विधवा हो गईं. इन का गुनाह इतना भर था कि सरकार के दावों और नरेंद्र मोदी की बातों पर भरोसा कर वे परिवार पति और बच्चों सहित कश्मीर गई थीं. इन के नुकसान की भरपाई अगर मुमकिन हो तो सरकार को जरूर यह बताना चाहिए कि वह कैसे होगी. क्या समाज और धर्म अपना नजरिया बदल लेंगे? विधवाओं को मनहूस कहते ताने मारने का रिवाज खत्म हो जाएगा? क्या विधवाओं को सम्मान देने और दिलाने की पहल सरकार करेगी?

ऐसा कुछ नहीं होने वाला क्योंकि विधवाओं की दुर्गति का जिम्मेदार धर्म और उस के स्त्रीविरोधी सिद्धांत व सूत्र हैं जिन पर किसी का जोर नहीं चलता. ऐसे हमलों में कोई महिला दोबारा फिर कभी विधवा न हो, इस के लिए पहलगाम हमले में अपने पति को खो चुकी नेहा मिरानिया सीधे सरकार पर न बरसते, उस की लापरवाही उजागर करते कहती हैं कि सुरक्षा होती तो ऐसा न होता, दिनेश हमारे साथ होते. सरकार को पर्यटकों की हिफाजत के पुख्ता इंतजाम करने चाहिए.

नेहा का दुख भी इस हमले में विधवा हुई दूसरी महिलाओं सरीखा ही है जो अपने स्टील कारोबारी पति दिनेश मिरानिया के साथ शादी की सालगिरह मनाने कश्मीर गई थीं. अब उन की जिंदगी अभिशप्त हो गई है. आतंकियों के बाद अब उन्हें समाज का सामना करना है. कर पाएंगी या नहीं, यह उन्हें खुद साबित करना पड़ेगा. पर सरकार को इस से कोई सरोकार नहीं. उस की चिंता नरेंद्र मोदी की ध्वस्त होती चमत्कारिक छवि को रीस्टोर करने की है जो पहलगाम हमले के बाद तो मुमकिन नहीं दिख रही.

Hindi Kahani : वह बुरी लड़की – बहू को देख कमलकांत के मन में था कैसा तूफान

Hindi Kahani : ‘‘क्या सोच रहे हैं? बहू की मुंह दिखाई कीजिए न. कब से बेचारी आंखें बंद किए बैठी है.’’

कमलकांत हाथ में कंगन का जोड़ा थामे संज्ञाशून्य खड़े रह गए. ज्यादा देर खड़े होना भी मानो मुश्किल लग रहा था, ‘‘मुझे चक्कर आ रहा है…’’ कहते हुए उन्होंने दीवार का सहारा ले लिया और तेजी से हौल से बाहर निकल आए.

अपने कमरे में आ कर वे धम्म से कुरसी पर बैठ गए. ऐसा लग रहा था जैसे वह मीलों दौड़ कर आए हों, पीछेपीछे नंदा भी दौड़ी आई, ‘‘क्या हो गया है आप को?’’

‘‘कुछ नहीं, चक्कर आ गया था.’’

‘‘आप आराम करें. लगता है शादी का गरिष्ठ भोजन और नींद की कमी, आप को तकलीफ दे गई.’’

‘‘मुझे अकेला ही रहने दो. किसी को यहां मत आने देना.’’

‘‘हां, हां, मैं बाहर बोल कर आती हूं,’’ वह जातेजाते बोली.

‘‘नहीं नंदा, तुम भी नहीं…’’ कमलकांत एकांत में अपने मन की व्यथा का मंथन करना चाहते थे जो स्थिति एकदम से सामने आ गई थी उसे जीवनपर्यंत कैसे निभा पाएंगे, इसी पर विचार करना चाहते थे. पत्नी को आश्चर्य हुआ कि उसे भी रुकने से मना कर रहे हैं, फिर कुछ सोच, पंखा तेज कर वह बाहर निकल गई.

धीरेधीरे घर में सन्नाटा फैल गया. नंदा 2-3 बार आ कर झांक गई थी. कमलकांत आंख बंद किए लेटे रहे. एक बार बेटा देबू भी आ कर झांक गया, लेकिन उन्हें चैन से सोता देख कर चुपचाप बाहर निकल गया. कमलकांत सो कहां रहे थे, वे तो जानबूझ कर बेटे को देख कर सोने का नाटक कर रहे थे.

सन्नाटे में उन्हें महसूस हुआ, वह गुजरती रात अपने अंदर कितना बड़ा तूफान समेटे हुए है. बेटे व बहू की यह सुहागरात एक पल में तूफान के जोर से धराशायी हो सकती है. अपने अंदर का तूफान वे दबाए रहें या बहने दें. कमलकांत की आंख के कोरों में आंसू आ कर ठहर गए.

नंदा आई, उन्हें निहार कर और सोफे पर सोता देख स्वयं भी सोफे से कुशन उठा कर सिर के नीचे लगा कालीन पर ही लुढ़क गई. देबू ने कई बार डाक्टर बुलाने के लिए कहा था, पर कमलकांत होंठ सिए बैठे रहे थे. पति के शब्दों का अक्षरश: पालन करने वाली नंदा ने भी जोर नहीं दिया. विवाह के 28 वर्षों में कभी छोटीमोटी तकरार के अलावा, कोई ऐसी चोट नहीं दी थी, जिस का घाव रिसता रहता.

कमलकांत को जब पक्का यकीन हो गया कि नंदा सो गई है तो उन्होंने आंखें खोल दीं. तब तक आंखों की कोरों पर ठहरे आंसू सूख चुके थे. वे चुपचाप उठ कर बैठ गए. कमरे में धीमा नीला प्रकाश फैला था. बाहर अंधेरा था. दूर छत की छाजन पर बिजली की झालरें अब भी सजी थीं.

रात के इस पहर यदि कोई जाग रहा होगा तो देबू, उस की पत्नी या वह स्वयं. उन्होंने बेबसी से अपने होंठों को भींच लिया. काश, उन्होंने स्वाति को पहले देख लिया होता. काश, वह जरमनी गए ही न होते. उन के बेटे के गले लगने वाली स्वाति जाने कितनों के गले लग चुकी होगी. कैसे बताएं वह देबू और नंदा से कि जिसे वह गृहस्वामिनी बना कर लाए हैं वह किंकिर बनने के योग्य भी नहीं है. वह एक गिरी हुई चरित्रहीन लड़की है. अंधकार में दूर बिजली की झिलमिल में उन्हें एक वर्ष पूर्व की घटना याद आई तो वे पीछे अतीत में लुढ़क गए.

कमलकांत का ऊन का व्यापार था. इस में काफी नाम व पैसा कमाया था उन्होंने. घर में किसी चीज की कमी नहीं थी. सभी व्यसनों से दूर कमलकांत ने जो पैसा कमाया, वह घरपरिवार पर खर्च किया. पत्नी नंदा व पुत्र देबू के बीच, उन का बहुत खुशहाल परिवार था.

एक साल पहले उन्हें व्यापार के सिलसिले में मुंबई जाना पड़ा था. वे एक अच्छे होटल में ठहरे थे. वहां चेन्नई की एक पार्टी से उन की मुलाकात होनी थी. नियत समय पर वे शाम 7 बजे होटल के कमरे में पहुंचे थे. लिफ्ट से जा कर उन्होंने होटल के कमरा नंबर 305 के दरवाजे पर ज्यों ही हाथ रखा था, फिर जोर लगाने की जरूरत नहीं पड़ी. एक झटके से दरवाजा खुला और एक लड़की तेजी से बाहर निकली. उस लड़की का पूरा चेहरा उन के सामने था.

उस लड़की की तरफ वे आकर्षित हुए. कंधे पर थैला टांगे, आकर्षक वस्त्रों में घबराई हुई सी वह युवती तेजी से बिना उन की तरफ देखे बाहर निकल गई. पहले तो उन्होंने सोचा, वापस लौट जाएं पता नहीं अंदर क्या चल रहा हो. तभी सामने मिस्टर रंगनाथन, जो चेन्नई से आए थे, दिख गए तो वापस लौटना मुश्किल हो गया.

‘आइए, कमलकांतजी, मैं आप का ही इंतजार कर रहा था. कैसे रही आप की यात्रा?’

‘जी, बहुत अच्छी, पर मिस्टर नाथन, मैं…वह लड़की…’

‘ओह, वे उस समय पैंट और शर्ट पहन रहे थे. मुसकरा कर बोले, ‘ये तो मौजमस्ती की चीजें हैं. भई कमलकांत, हम ऊपरी कमाई वाला पैसा 2 ही चीजों पर तो खर्च करते हैं, बीवी के जेवरों और ऐसी लड़कियों पर,’ रंगनाथन जोर से हंस पड़े.

कमलकांत का जी खराब हो गया. लानत है ऐसे पैसे और ऐश पर. लाखों के नुकसान की बात न होती तो शायद वे वापस लौट आते. लेकिन बातचीत के बीच वह लड़की उन के जेहन से एक सैकंड को भी न उतरी. क्या मजबूरी थी उस की? क्यों इस धंधे में लगी है? इतने अनाड़ी तो वे न थे, जानते थे, पैसे दे कर ऐसी लड़कियों का प्रबंध आराम से हो जाता है.

होटल में ठहरे उन के व्यवसायी मित्र ने जरूर उसे पैसे दे कर बुलवाया होगा. उस वक्त वे उस लड़की की आंखों का पनीलापन भी भूल गए थे. याद था, सिर्फ इतना कि वह एक बुरी लड़की है.

जालंधर लौट कर वे अपने काम में व्यस्त हो गए. कुछ माह बीत गए. तभी उन्हें 3 माह के लिए जरमनी जाना पड़ गया. जब वे जरमनी में थे, देबू का रिश्ता तभी पत्नी ने तय कर दिया था. उन के लौटने के

2 दिनों बाद की शादी की तारीख पड़ी थी. जरमनी से बहू के लिए वे कीमती उपहार भी लाए थे. आने पर नंदा ने कहा भी था, ‘यशोदा को तो तुम जानते हो?’

‘हां भई, तुम्हीं ने तो बताया था जो मुंबई में रहती है. उसी की बेटी स्वाति है न?’

‘हां,’ नंदा बोली, ‘सच पूछो तो पहले मैं बहुत डर रही थी कि पता नहीं तुम इनकार न कर दो कि एक साधारण परिवार की लड़की को…’

‘पगली,’ उस की बात काट कर कमलकांत ने कहा, ‘इतना पैसा हमारे पास है, हमें तो सिर्फ एक सुशील बहू चाहिए.’

‘यशोदा मेरी बचपन की सहेली थी. शादी के बाद पति के साथ मुंबई चली गई थी. 10 वर्ष हुए दिवाकर को गुजरे, तब से बेटी स्वाति ने ही नौकरी कर के परिवार को चलाया है. सुनो, उस का एक छोटा भाई भी है, जो इस वर्ष इंजीनियरिंग में चुन लिया गया है. मैं ने यशोदा से कह दिया है कि बेटे की पढ़ाई के खर्च की चिंता वह न करे. हम यह जिम्मेदारी प्यार से उठाना चाहते हैं. आप को बुरा तो नहीं लगा?’

‘नंदा, यह घर तुम्हारा है और फैसला भी तुम्हारा,’ वे हंस कर बोले थे.

‘पर बहू की फोटो तो देख लो.’

‘अब कितने दिन बचे हैं. इकट्ठे दुलहन के लिबास में ही बहू को देखूंगा. हां, अपना देबू तो खुश है न?’

‘एक ही तो बेटा है. उस की मरजी के खिलाफ कैसे शादी हो सकती है?’

शादी के दौरान भी वे स्वाति को ठीक से न देख पाए थे. जब भी कोई उन्हें दूल्हादुलहन के स्टेज पर उन के साथ फोटो लेने के लिए बुलाने आता, आधे रास्ते से फिर कोई खींच ले जाता. बहू की माथा ढकाई पर वह घूंघट में थी. काश, उसी समय उन्होंने फोटो देख ली होती.

चीं…चीं…के शोर पर कमलकांत वर्तमान में लौट आए. सुबह का धुंधलका फैल रहा था. लेकिन उन के घर की कालिमा धीरेधीरे और गहरा रही थी.

नाश्ते के समय भी जब वे बाहर नहीं निकले तो देबू डाक्टर बुला लाया. उस ने चैकअप के बाद कहा, ‘‘कुछ तनाव है. लगता है सोए भी नहीं हैं. यह दवा दे दीजिएगा. इन्हें नींद आनी जरूरी है.’’

घरभर परेशान था. आखिर अचानक ऐसा क्या हो गया, जो वे एकदम से बीमार पड़ गए. बहू ने आ कर उन के पांव छुए और थोड़ी देर वहां खड़ी भी रही, लेकिन वे आंखें बंद किए पड़े रहे.

‘‘बाबूजी, आप की तबीयत अब कैसी है?’’

‘‘ठीक है,’’ उन्होंने उत्तर दिया.

बहू लौट गई थी. कमलकांत का जी चाहा, इस लड़की को फौरन घर से निकाल दें. यदि यह सारी जिंदगी इसी घर में रहेगी तो भला वे कैसे जी पाएंगे? क्या उन का दम नहीं घुट जाएगा. इस घर की हर सांस, हर कोना उन्हें यह एहसास कराता रहेगा कि उन की बहू एक गिरी हुई लड़की है. इस सत्य से अनभिज्ञ नंदा और देबू, कितने खुश हैं, वे समझ रहे हैं कि स्वाति के रूप में घर में खुशियां आ गई हैं. अजीब कशमकश है जो उन्हें न तो जीने दे रही है, न मरने.

दूसरे दिन जब उन्होंने पत्नी से किसी पहाड़ी जगह चलने की बात कही तो वह हंस दी, ‘‘सठिया गए हो क्या? विवाह हुआ है बेटे का, हनीमून मनाने हम चलें. लोग क्या कहेंगे.’’

‘‘तो बेटेबहू को भेज दो.’’

‘‘उन का तो आरक्षण था, पर बहू ही तैयार नहीं हुई कि पिताजी अस्वस्थ हैं, हम अभी नहीं जाएंगे.’’

वे चिढ़ गए, शराफत व शालीनता का अच्छा नाटक कर रही है यह लड़की. जी हलका करने के लिए वे फैक्टरी चले गए. वहां सभी उन का हाल लेने के लिए आतुर थे. लेकिन इतने लोगों के बीच भी वे सहज नहीं हो पाए. चुपचाप कुरसी पर बैठे रहे. न कोई फाइल खोल कर देखी, न किसी से बात की. जिस ने जो पूछा, ‘हां हूं’ में उत्तर दे दिया.

धीरेधीरे कमलकांत शिथिल होते गए. कारोबार बेटे ने संभाल लिया था. नंदा समझ रही थी, जरमनी में पति के साथ कुछ ऐसा घटा है जिस ने इन्हें तनाव से भर दिया है.

10 माह गुजर गए. स्वाति के पांव उन दिनों भारी थे. अचानक काम के सिलसिले में मुंबई जाने की बात आई तो देबू ने जाने की तैयारी कर ली. पर कमलकांत ने उसे मना कर दिया. मुंबई के नाम से एक दबी चिनगारी फिर भड़क उठी. इतने दिनों बाद भी वह उन के मन से न निकल पाईर् थी. मन में मंथन अभी भी चालू था.

मुंबई जा कर वे एक बार स्वाति के विषय में पता करना चाहते थे. यह प्रमाणित करना होगा कि स्वाति की गुजरी जिंदगी गंदी थी. बलात्कार की शिकार या मजबूरी में इस कार्य में लगी युवती को चाहे वे एक बार अपना लेते, पर स्वेच्छा से इस कार्य में लगी युवती को वे माफ करने को तैयार न थे.

एक बार यदि प्रमाण मिल जाए तो वे बेटे का उस से तलाक दिलवा देंगे. क्यों नहीं मुंबई जा कर यह बात पता करने का विचार उन्हें पहले आया? चुपचाप शादी के अलबम से स्वाति की एक फोटो निकाल उन्होंने मुंबई जाने का विचार बना लिया.

घर में पता चला कि कमलकांत मुंबई जा रहे हैं तो स्वाति ने डरतेसहमते एक पत्र उन्हें पकड़ा दिया, ‘‘बाबूजी, मौका लगे तो घर हो आइएगा. मां आप से मिल कर बहुत खुश होंगी.’’

‘‘हूं,’’ कह कर उन्होंने पत्र ले लिया.

स्वाति के घर जाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था, लेकिन फिर भी कुछ टोह लेने की खातिर उस के घर पहुंच गए.

‘‘बहू यहां कहां काम करती थी?’’ वे शीघ्र ही मतलब की बात पर आ गए.

‘‘होराइजन होटल में, चाचाजी,’’ स्वाति के भाई ने उत्तर दिया.

‘‘भाईसाहब, हमारी इच्छा तो नहीं थी कि स्वाति होटल की नौकरी करे, पर नौकरी अच्छी थी. इज्जतदार होटल है, तनख्वाह भी ठीकठाक थी. फिर आसानी से नौकरी मिलती कहां है?’’

कमलकांत को लगा, समधिन गोलमोल जवाब दे रही हैं कि होटल में उन की बेटी का काम करना मजबूरी थी.

होटल होराइजन के स्वागतकक्ष में पहुंच कर उन्होंने स्वाति की फोटो दिखा कर पूछा, ‘‘मुझे इन मैडम से काम था. क्या आप इन से मुझे मिला सकती हैं?’’

‘‘मैं यहां नई हूं, पता करती हूं,’’ कह कर स्वागतकर्मी महिला ने एक बूढ़े वेटर को बुला कर कुछ पूछा, फिर कमलकांत की तरफ इशारा किया. वह वेटर उन के पास आया फिर साश्चर्य बोला, ‘‘आप स्वातिजी के रिश्तेदार हैं, पहले कभी तो देखा नहीं?’’

‘‘नहीं, मैं उन का रिश्तेदार नहीं, मित्र हूं. एक वर्ष पूर्व उन्होंने मुझ से कुछ सामान मंगवाया था.’’

‘‘आश्चर्य है, स्वाति बिटिया का तो कोई मित्र ही नहीं था. फिर आप से सामान मंगवाना तो बिलकुल गले नहीं उतरता.’’

कमलकांत को समझ में नहीं आया कि क्या उत्तर दें, वेटर कहता रहा, ‘‘वे यहां रूम इंचार्ज थीं. सारा स्टाफ उन की इज्जत करता था.’’

तभी कमलकांत की आंखों के सामने होटल का वह दृश्य घूम गया…जब इसी होटल में उन के चेन्नई के मित्र ठहरे थे. उन्होंने एक छोटा सा निर्णय लिया और उसी होटल में ठहर गए. जब यहां तक पहुंच ही गए हैं तो मंजिल का भी पूरा पता कर ही लें. शाम को चेन्नई फोन मिलाया. व्यापार की कुछ बातें कीं. पता चला 2 दिनों बाद ही चेन्नई की वह पार्टी मुंबई आने वाली है, तो वे भी रुक गए.

सबकुछ मानो चलचित्र सा घटित हो रहा था. कभी कमलकांत सोचते पीछे हट जाएं, बहुत बड़ा जुआ खेल रहे हैं वे. इस में करारी मात भी मिल सकती है. फिर क्या वे उसे पचा पाएंगे? पर इतने आगे बढ़ने के बाद बाजी कैसे फेंक देते.

रात में चेन्नई से आए मित्र के साथ उस के कमरे में बैठ कर इधरउधर की बातों के बीच वे मुख्य मुद्दे पर आ गए, ‘‘रंगनाथन, एक बात बता, यह लड़कियां कैसे मिलती हैं?’’

रंगनाथन ने चौंक कर उन्हें देखा, फिर हंसे, ‘‘वाह, शौक भी जताया तो इस उम्र में. भई, हम ने तो यह सब छोड़ दिया है. हां, यदि तुम चाहो तो इंतजाम हो जाएगा, पर यहां नहीं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘यह होटल इन सब चीजों के लिए नहीं है. यहां इस पर सख्त पाबंदी है.’’

‘‘क्यों झूठ बोलते हो, मैं ने अपनी आंखों से तुम्हारे कमरे से एक लड़की को निकलते देखा था.’’

रंगनाथन कुछ पल सोचता रहा… फिर अचानक चौंक कर बोला, ‘‘तुम 2 वर्ष पहले की बात तो नहीं कर रहे हो?’’

‘‘हां, हां…’’ वही, उस की बात, लपक कर कमलकांत बोले. उन की सांस तेजी से ऊपरनीचे हो रही थी. ऐसा मालूम हो रहा था, जीवन के किसी बहुत बड़े इम्तिहान का नतीजा निकलने वाला हो.

‘‘मुझे याद है, वह लड़की यहां काम करती थी. मैं ने उसे जब स्वागतकक्ष में देखा, तभी मेरी नीयत खराब हो गई थी. अकसर होटलों में मैं लड़की बुलवा लिया करता था. उस दिन…हां, बाथरूम का नल टपक रहा था. उस ने मिस्त्री भेजा. दोबारा फिर जब मैं ने शिकायत तनिक ऊंचे लहजे में की तो वह खुद चली आई.

उस समय वह घर जा रही थी, इसलिए होटल के वस्त्रों में नहीं थी. इस कारण और आकर्षक लग रही थी. मैं ने उस का हाथ पकड़ कर नोटों की एक गड्डी उस के हाथ पर रखी. लेकिन वह मेरा हाथ झटक कर तेजी से बाहर निकल गई. यह वाकेआ मुझे इस कारण भी याद है कि कमरे से निकलते वक्त उस की आंखें आंसुओं में डूब गई थीं.

ऐसा हादसा हमारे साथ कम हुआ था. यहां से जाने के बाद मुझे दिल का दौरा पड़ा. अब ज्यादा उत्तेजना मैं सहन नहीं कर पाता. 6 माह पहले ही पत्नी भी चल बसी. अब सादा, सरल जीवन काफी रास आता है.’’

रंगनाथन बोलते जा रहे थे, उधर कमलकांत को लग रहा था कि वे हलके हो कर हवा में उड़ते जा रहे हैं. अब वे स्वाति की ओर से पूर्ण संतुष्ट थे.

Hindi Story : प्यार का धागा – डौली को क्या मिल पाया अपना प्यार

Hindi Story : सांझ ढलते ही थिरकने लगते थे उस के कदम. मचने लगता था शोर, ‘डौली… डौली… डौली…’ उस के एकएक ठुमके पर बरसने लगते थे नोट. फिर गड़ जाती थीं सब की ललचाई नजरें उस के मचलते अंगों पर. लोग उसे चारों ओर घेर कर अपने अंदर का उबाल जाहिर करते थे.

…और 7 साल बाद वह फिर दिख गई. मेरी उम्मीद के बिलकुल उलट. सोचा था कि जब अगली बार मुलाकात होगी, तो वह जरूर मराठी धोती पहने होगी और बालों का जूड़ा बांध कर उन में लगा दिए होंगे चमेली के फूल या पहले की तरह जींसटीशर्ट में, मेरी राह ताकती, उतनी ही हसीन… उतनी ही कमसिन… लेकिन आज नजारा बदला हुआ था. यह क्या… मेरे बचपन की डौल यहां आ कर डौली बन गई थी.

लकड़ी की मेज, जिस पर जरमन फूलदान में रंगबिरंगे डैने सजे हुए थे, से सटे हुए गद्देदार सोफे पर हम बैठे हुए थे. अचानक मेरी नजरें उस पर ठहर गई थीं.

वह मेरी उम्र की थी. बचपन में मेरा हाथ पकड़ कर वह मुझे अपने साथ स्कूल ले कर जाती थी. उन दिनों मेरा परिवार एशिया की सब से बड़ी झोंपड़पट्टी में शुमार धारावी इलाके में रहता था. हम ने वहां की तंग गलियों में बचपन बिताया था. वह मराठी परिवार से थी और मैं राजस्थानी ब्राह्मण परिवार का. उस के पिता आटोरिकशा चलाते थे और उस की मां रेलवे स्टेशन पर अंकुरित अनाज बेचती थी.

हर शुक्रवार को उस के घर में मछली बनती थी, इसलिए मेरी माताजी मुझे उस दिन उस के घर नहीं जाने देती थीं.

बड़ीबड़ी गगनचुंबी इमारतों के बीच धारावी की झोंपड़पट्टी में गुजरे लमहे आज भी मुझे याद आते हैं. उगते हुए सूरज की रोशनी पहले बड़ीबड़ी इमारतों में पहुंचती थी, फिर धारावी के बाशिंदों के पास. धारावी की झोंपड़पट्टी को ‘खोली’ के नाम से जाना जाता है. उन खोलियों की छतें टिन की चादरों से ढकी रहती हैं.

जब कभी वह मेरे घर आती, तो वापस अपने घर जाने का नाम ही नहीं लेती थी. वह अकसर मेरी माताजी के साथ रसोईघर में काम करने बैठ जाती थी. काम भी क्या… छीलतेछीलते आधा किलो मटर तो वह खुद खा जाती थी. माताजी को वह मेरे लिए बहुत पसंद थी, इसलिए वे उस से बहुत स्नेह रखती थीं.

हम कल्याण के बिड़ला कालेज में थर्ड ईयर तक साथ पढे़ थे. हम ने लोकल ट्रेनों में खूब धक्के खाए थे. कभीकभार हम कालेज से बंक मार कर खंडाला तक घूम आते थे. हर शुक्रवार को सिनेमाघर जाना हमारी जिंदगी का अहम हिस्सा बन गया था. इसी बीच उस की मां की मौत हो गई. कुछ दिनों बाद उस के पिता उस के लिए एक नई मां ले आए थे.

ग्रेजुएशन पूरी करने के बाद मैं और पढ़ाई करने के लिए दिल्ली चला गया था. कई दिनों तक उस के बगैर मेरा मन नहीं लगा था. जैसेतैसे 7 साल निकल गए. एक दिन माताजी की चिट्ठी आई. उन्होंने बताया कि उस के घर वाले धारावी से मुंबई में कहीं और चले गए हैं.

7 साल बाद जब मैं लौट कर आया, तो अब उसे इतने बड़े महानगर में कहां ढूंढ़ता? मेरे पास उस का कोई पताठिकाना भी तो नहीं था. मेरे जाने के बाद उस ने माताजी के पास आना भी बंद कर दिया था. जब वह थी… ऐसा लगता था कि शायद वह मेरे लिए ही बनी हो. और जिंदगी इस कदर खुशगवार थी कि उसे बयां करना मुमकिन नहीं.

मेरा उस से रोज झगड़ा होता था. गुस्से के मारे मैं कई दिनों तक उस से बात ही नहीं करता था, तो वह रोरो कर अपना बुरा हाल कर लेती थी. खानापीना छोड़ देती थी. फिर बीमार पड़ जाती थी और जब डाक्टरों के इलाज से ठीक हो कर लौटती थी, तब मुझ से कहती थी, ‘तुम कितने मतलबी हो. एक बार भी आ कर पूछा नहीं कि तुम कैसी हो?’ जब वह ऐसा कहती, तब मैं एक बार हंस भी देता था और आंखों से आंसू भी टपक पड़ते थे.

मैं उसे कई बार समझाता कि ऐसी बात मत किया कर, जिस से हमारे बीच लड़ाई हो और फिर तुम बीमार पड़ जाओ. लेकिन उस की आदत तो जंगल जलेबी की तरह थी, जो मुझे भी गोलमाल कर देती थी. कुछ भी हो, पर मैं बहुत खुश था, सिवा पिताजी के जो हमेशा अपने ब्राह्मण होने का घमंड दिखाया करते थे.

एक दिन मेरे दोस्त नवीन ने मुझ से कहा, ‘‘यार पृथ्वी… अंधेरी वैस्ट में ‘रैडक्रौस’ नाम का बहुत शानदार बीयर बार है. वहां पर ‘डौली’ नाम की डांसर गजब का डांस करती है. तुम देखने चलोगे क्या? एकाध घूंट बीयर के भी मार लेना. मजा आ जाएगा.’’

बीयर बार के अंदर के हालात से मैं वाकिफ था. मेरा मन भी कच्चा हो रहा था कि अगर पुलिस ने रेड कर दी, तो पता नहीं क्या होगा… फिर भी मैं उस के साथ हो लिया. रात गहराने के साथ बीयर बार में रोशनी की चमक बढ़ने लगी थी. नकली धुआं उड़ने लगा था. धमाधम तेज म्यूजिक बजने लगा था.

अब इंतजार था डौली के डांस का. अगला नजारा मुझे चौंकाने वाला था. मैं गया तो डौली का डांस देखने था, पर साथ ले आया चिंता की रेखाएं. उसे देखते ही बार के माहौल में रूखापन दौड़ गया. इतने सालों बाद दिखी तो इस रूप में. उसे वहां देख कर मेरे अंदर आग फूट रही थी. मेरे अंदर का उबाल तो इतना ज्यादा था कि आंखें लाल हो आई थीं. आज वह मुझे अनजान सी आंखों से देख रही थी. इस से बड़ा दर्द मेरे लिए और क्या हो सकता था? उसे देखते ही, उस के साथ बिताई यादों के झरोखे खुल गए थे.

मुझे याद हो आया कि जब तक उस की मां जिंदा थीं, तब तक सब ठीक था. उन के मर जाने के बाद सब धुंधला सा गया था. उस की अल्हड़ हंसी पर आज ताले जड़े हुए थे. उस के होंठों पर दिखावे की मुसकान थी.

वह अपनेआप को इस कदर पेश कर रही थी, जैसे मुझे कुछ मालूम ही नहीं. वह रात को यहां डांसर का काम किया करती थी और रात की आखिरी लोकल ट्रेन से अपने घर चली जाती थी. उस का गाना खत्म होने तक बीयर की पूरी 2 बोतलें मेरे अंदर समा गई थीं.

मेरा सिर घूमने लगा था. मन तो हुआ उस पर हाथ उठाने का… पर एकाएक उस का बचपन का मासूम चेहरा मेरी आंखों के सामने तैर आया. मेरा बीयर बार में मन नहीं लग रहा था. आंखों में यादों के आंसू बह रहे थे. मैं उठ कर बाहर चला गया. नवीन तो नशे में चूर हो कर वहीं लुढ़क गया था.

मैं ने रात के 2 बजे तक रेलवे स्टेशन पर उस के आने का इंतजार किया. वह आई, तो उस का हाथ पकड़ कर मैं ने पूछा, ‘‘यह सब क्या है?’’ ‘‘तुम इतने दूर चले गए. पढ़ाई छूट गई. पापी पेट के लिए दो वक्त की रोटी का इंतजाम तो करना ही था. मैं क्या करती?

‘‘सौतेली मां के ताने सुनने से तो बेहतर था… मैं यहां आ गई. फिर क्या अच्छा, क्या बुरा…’’ उस ने कहा. ‘‘एक बार माताजी से आ कर मिल तो सकती थीं तुम?’’

‘‘हां… तुम्हारे साथ जीने की चाहत मन में लिए मैं गई थी तुम्हारी देहरी पर… लेकिन तुम्हारे दर पर मुझे ठोकर खानी पड़ी. ‘‘इस के बाद मन में ही दफना दिए अनगिनत सपने. खुशियों का सैलाब, जो मन में उमड़ रहा था, तुम्हारे पिता ने शांत कर दिया और मैं बैरंग लौट आई.’’

‘‘तुम्हें एक बार भी मेरा खयाल नहीं आया. कुछ और काम भी तो कर सकती थीं?’’ मैं ने कहा. ‘‘कहां जाती? जहां भी गई, सभी ने जिस्म की नुमाइश की मांग रखी. अब तुम ही बताओ, मैं क्या करती?’’

‘‘मैं जानता हूं कि तुम्हारा मन मैला नहीं है. कल से तुम यहां नहीं आओगी. किसी को कुछ कहनेसमझाने की जरूरत नहीं है. हम दोनों कल ही दिल्ली चले जाएंगे.’’ ‘‘अरे बाबू, क्यों मेरे लिए अपनी जिंदगी खराब कर रहे हो?’’

‘‘खबरदार जो आगे कुछ बोली. बस, कल मेरे घर आ जाना.’’ इतना कह कर मैं घर चला आया और वह अपने घर चली गई. रात सुबह होने के इंतजार में कटी. सुबह उठा, तो अखबार ने मेरे होश उड़ा दिए. एक खबर छपी थी, ‘रैडक्रौस बार की मशहूर डांसर डौली की नींद की ज्यादा गोलियां खाने से मौत.’

मेरा रोमरोम कांप उठा. मेरी खुशी का खजाना आज लुट गया और टूट गया प्यार का धागा. ‘‘शादी करने के लिए कहा था, मरने के लिए नहीं. मुझे इतना पराया समझ लिया, जो मुझे अकेला छोड़ कर चली गई? क्या मैं तुम्हारा बोझ उठाने लायक नहीं था? तुम्हें लाल साड़ी में देखने

की मेरी इच्छा को तुम ने क्यों दफना दिया?’’ मैं चिल्लाया और अपने कानों पर हथेलियां रखते हुए मैं ने आंखें भींच लीं.

बाहर से उड़ कर कुछ टूटे हुए डैने मेरे पास आ कर गिर गए थे. हवा से अखबार के पन्ने भी इधरउधर उड़ने लगे थे. माहौल में फिर सन्नाटा था. रूखापन था. गम से भरी उगती हुई सुबह थी वह.

Best Hindi Story : लड़की पसंद है – क्यों टूटा रिश्ता ?

Best Hindi Story : हम जब छोटे थे तो हमारे ढेर सारे विवाहयोग्य चाचाजी थे. तब हमारा पसंदीदा दिन होता था जब हम अपने किसी चाचाजी के लिए भावी चाची देखने जाते थे. तब शरबत, बिस्कुट, समोसे और बर्फी ही आमतौर पर परोसे जाते थे. हमें यह सब खानापीना तो भाता ही था, उस से भी अच्छा लगता था भावी चाचीजी के पास बैठना. हम तो लड़की वालों के घर जाते ही, भावी चाचीजी के पास पहुंच जाते थे. अब सच कहें तो हमें तो सब ही अच्छी लगती थीं पर फिर भी एकाध बार लड़की चाचाजी को पसंद नहीं आती थी और एकाध बार लड़की वाले ही रिश्ते से मना कर देते थे.

ऐसे ही एक मौके पर हम ने पाया कि जलपान बाकी सब जगह से ज्यादा ही अच्छा था. कचौड़ी, समोसे, सैंडविच, गुलाबजामुन, बर्फी, रसगुल्ले, कई तरह के बिस्कुट और नमकीन. यहां तक कि शरबत के साथसाथ कैंपा कोला भी था. सबकुछ बहुत स्वादिष्ठ भी था. सो, न सिर्फ हम ने बल्कि चाचाजी ने भी खूब खायापिया, हमारे मातापिताजी ने सदा की तरह बस थोड़ा सा कुछ लिया.

हमें तो भावी चाची अच्छी ही लगनी थीं. पर जब हम वापस आ रहे थे तो चाचाजी ने पिताजी से कहा कि उन्हें लड़की पसंद नहीं है. इस पर पिताजी ने जिन आग्नेय नेत्रों से उन्हें घूरा, वह हम आज तक नहीं भूल पाए. चाचाजी की एक नहीं चली. लड़की वालों से कह दिया गया कि लड़की पसंद है. पिताजी के अनुसार, यदि चाचाजी को लड़की पसंद नहीं थी तो उन्हें लड़की वालों के यहां प्लेट भरभर कर खाना नहीं चाहिए था.

20 वर्षों बाद जब हम अपने लिए लड़की देखने गए तो यकीन मानिएगा, जब तक लड़की ने हमें और हम ने लड़की को पसंद नहीं कर लिया तब तक हम ने गलती से भी परोसे गए नाश्ते की तरफ हाथ नहीं बढ़ाया. सिर पर डर जो मंडरा रहा था कि एक बिस्कुट भी खा लिया तो फिर तो यही कहना पड़ेगा कि – ‘जी पिताजी, लड़की पसंद है.’

Love Story : एक प्यार ऐसा भी – क्या जेबा उससे प्रेम करती थाी?

Love Story :  उस दिन सूरज रोज की तरह ही निकला था. गरमी के दिनों में धूप की तल्खी इंसान को भी तल्ख कर देती है. फिरोज को नसीम को देख कर ऐसा ही लग रहा था.

नसीम अपनी ही धुन में बोले जा रही थी, ‘‘बहुत घमंडी है वह, खुद को जाने क्या समझती है?’’ नसीम बहुत गुस्से में थी.

‘‘लेकिन गलती तो तुम्हारी है न, फिर बात इतनी क्यों बढ़ाई?’’ फिरोज के इतना कहते ही नसीम भड़क गई, ‘‘तुम मेरे दोस्त हो या उस के?’’

‘‘तुम्हारा दोस्त हूं, इसी कारण समझाने की कोशिश कर रहा हूं,’’ फिरोज आगे भी कुछ कहना चाहता था लेकिन नसीम का गुस्सा देख कर चुप रह गया.

‘जब नसीम का गुस्सा कम होगा, तब इसे समझाऊंगा, अभी यह कुछ नहीं समझेगी,’ मन में ऐसा सोच कर न जाने क्यों फिरोज ने डिबेट ग्रुप से उस घमंडी लड़की का नंबर अपने मोबाइल में सेव कर लिया.

?‘‘आप कौन?’’ मैसेज में चमकते उन शब्दों को देख कर फिरोज को ध्यान आया कि अनजाने में ही वह उसे एक मैसेज फौरवर्ड कर गया है.

‘‘मैं फिरोज हूं,’’ की बोर्ड पर टाइप करते हुए उस ने अपना परिचय दिया.

‘‘क्या आप मुझे जानते हैं?’’ इस प्रश्न पर फिरोज ने बताया कि मैं नसीम का दोस्त हूं.

‘‘ओह, कहिए, क्या कहना है आप को?’’

‘‘कुछ नहीं, मैं ने गलती से यह मैसेज आप को भेज दिया. माफी चाहता हूं,’’ फिरोज ने शालीनता से कहा.

उस घमंडी लड़की से फिरोज की यह पहली बात थी.

फिरोज उसे पहले से जानता था. उस का नाम जेबा है. यह भी उसे पता था लेकिन वह फिरोज को नहीं जानती थी.

एक दिन बैठेबैठे न जाने क्यों फिरोज की इच्छा हुई जेबा से बात करने की लेकिन क्या कह कर वह उस से बात करेगा. क्यों नहीं कर सकता? दोनों एक ही विषय से जुड़े हैं, भले ही उन के कालेज अलगअलग हों और फिर नसीम वाली बात भी स्पष्ट कर लेगा. आखिर नसीम उस की सब से अच्छी दोस्त है.

फिरोज ने उस का नंबर डायल कर दिया.

‘‘हैलो, कौन बोल रहा है?’’ स्क्रीन पर अनजान नंबर देख कर ही शायद उस ने यह सवाल किया था.

‘‘मैं फिरोज, उस दिन गलती से आप को मैसेज किया था. नसीम का दोस्त,’’ फिरोज ने परिचय दिया.

‘‘कहिए, कैसे फोन किया?’’ जेबा ने मधुर मगर लहजे को सपाट रखते हुए सवाल किया.

‘‘जी, बस यों ही. दरअसल, हम दोनों के विषय एक ही हैं,’’ अचानक फिरोज को लगा कि वह बेवजह का कारण बता रहा है. ‘‘दरअसल उस दिन गलती नसीम की थी मगर वह दिल की बुरी नहीं, आप उस के लिए कोई मुगालता मत रखिएगा.’’

जेबा खूबसूरत होने के साथ काफी समझदार भी थी

‘‘मैं जानती हूं कि वह अच्छी है. वह तो बस उस का लहजा मुझे पसंद नहीं आया.’’ जेबा से थोड़ी देर बात कर फिरोज ने फोन रख दिया. जेबा की शालीनता से वह काफी प्रभावित हुआ. धीरेधीरे दोनों की बातें बढ़ने लगीं. फिरोज ने महसूस किया कि जेबा से बात कर के उसे अच्छा लगता है. ऐसा नहीं था कि जेबा से पहले उस ने लड़कियों से बात नहीं की थी मगर जेबा में कुछ अलग था. सब से बड़ी बात उस में और जेबा में स्वभाव में काफी समानता थी.

जेबा खूबसूरत होने के साथ काफी समझदार भी थी. उस से बात करते हुए फिरोज को समय का एहसास भी न होता था. एक रात दोनों चैटिंग कर रहे थे. जेबा ने फिरोज को वीडियोकौल कर दी. यह पहला मौका था दोनों का एकदूसरे से रूबरू होने का. फिरोज एकटक जेबा को देखता ही रह गया.

जेबा ने खिलखिला कर पूछा, ‘‘क्या हुआ आप को? ऐसे क्या देख रहे हैं?’’

फिरोज कहना तो बहुतकुछ चाहता था लेकिन अभी कुछ कहना शायद जल्दबाजी होती, इसलिए सिर हिला कर मुसकरा दिया. थोड़ी देर बात करने के बाद जेबा ने गुडनाइट कहते हुए फोन काट दिया.

फिरोज कौल कटने के बाद भी काफी देर तक मोबाइल स्क्रीन को देखता रहा और फिर बेखयाली में मुसकराते हुए उस ने स्क्रीन पर एक चुंबन जड़ दिया.

‘न जाने क्या है उस में जो मुझे अपनी तरफ खींचता है,’ आईने में बाल संवारते हुए फिरोज खुद से ही सवाल कर रहा था.

कालेज जाने के लिए बाइक स्टार्ट करने के पहले फिरोज ने मोबाइल में मैसेज चैक किए. मैसेज तो कई थे, बस जेबा का ही कोई मैसेज न था. फिरोज थोड़ा मायूम हुआ.

‘कहीं यह इकतरफा मोहब्बत तो नहीं. न…न… काश, वह भी मेरे बारे में ऐसा ही सोचती हो,’ मन ही मन सोच कर फिरोज ने बाइक स्टार्ट की ही थी कि मोबाइल पर किसी की कौल आई. जेब से मोबाइल निकाला. अरे यह तो जेबा है. आसमान की तरफ देख कर, धड़कते दिल को काबू में कर फिरोज ने फोन उठाया.

‘‘हैलो, क्या कर रहे हो?’’ उधर से जेबा का स्वर न जाने क्यों फिरोज को उदास सा लगा.

‘‘हैलो, मैं कुछ नहीं कर रहा. तुम बताओ,’’ फिरोज फिक्रमंद हुआ.

‘‘कालेज जा रहे होगे न? मैं ने तो बस यों ही कौल कर लिया था.’’

‘‘जेबा, तुम उदास क्यों हो? क्या हुआ है?’’ फिरोज अब परेशान हो गया.

‘‘मैं ने एक कंपीटिशन से अपना नाम वापस ले लिया,’’ कहती हुई जेबा हिचकियां ले कर रोने लगी.

फिरोज ने बाइक किनारे खड़ी की और एक पेड़ के सहारे खड़ा हो गया.

‘‘तुम मुझे पूरी बात बताओ जेबा. क्या और कैसे हुआ?’’ फिरोज काफी संजीदा हो गया था.

जेबा ने रोतेरोते सब बता दिया कि किस तरह चीटिंग कर के उस की जगह किसी और को फाइनल में भेजा जाएगा.

‘‘जेबा, अब तुम उस बारे में बिलकुल मत सोचो. मैं हूं न तुम्हारे साथ. ऐसे बहुत कंपीटिशन मिलेंगे तुम्हें,’’

फिरोज का मन कर रहा था कि वह किसी तरह जेबा के पास पहुंच कर उसे संभाल ले. उस की एकएक हिचकी पर फिरोज का दिल बैठा जा रहा था. आखिरकार उस ने पूछ ही लिया कि तुम कहां हो इस वक्त.

‘‘घर पर,’’ जेबा ने छोटा सा जवाब दिया.

‘‘चांदनी चौक आ सकती हो? कहीं बैठें?’’

‘‘नहीं.’’

‘उफ्फ, फिर कैसे संभालूं इसे मैं,’  मगर फिर भी फिरोज उस से बातें करता रहा जब तक जेबा नौर्मल नहीं हो गई.

‘‘अब क्या करूं? कालेज का टाइम तो मोहतरमा ने निकलवा दिया और मिल भी नहीं रही,’’ नकली गुस्से में फिरोज ने जेबा से कहा तो जेबा ने भी शोखी से जवाब दिया, ‘‘तो चले जाते, हम ने कोई जबरदस्ती तो नहीं पकड़ा था आप को.’’

‘‘मैं कुछ कहना चाहता हूं जेबा, मगर डरता हूं कहीं यह जल्दबाजी तो नहीं होगी,’’ आज फिरोज दिल की बात जुबां पर लाना चाहता था.

‘‘मैं समझी नहीं. क्या कहना है आप को?’’ जेबा की आवाज से लग रहा था जैसे वह समझ कर भी अनजान बन रही है.

‘‘कह दूं.’’

‘‘जी, कहें.’’

‘‘आई लव यू जेबा. मैं बहुत स्ट्रौंग फीलिंग महसूस कर रहा हूं तुम्हारे लिए.’’

जवाब में दूसरी तरफ खामोशी छा गई.

‘‘जेबा, क्या हुआ? नाराज हो गईं क्या? कुछ तो कहो. देखो, मैं जो कह रहा हूं सच है और मैं इस के लिए सौरी नहीं बोलूंगा. आई रियली लव यू.’’

‘‘देखिए, मेरे मन में ऐसा कुछ भी फील नहीं हो रहा लेकिन जब भी ऐसा महसूस हुआ तो जरूर कहूंगी.’’

‘‘इंतजार रहेगा कि जल्दी ही वह दिन आए,’’ कहते हुए फिरोज ने अपने दिल पर हाथ रख लिया.

जेबा और फिरोज की बातें अकसर होती रहीं. एक दिन फिरोज ने जेबा से कहा कि उसे कालेज के टूर पर 2 दिनों के लिए जाना है. इस बीच हो सकता है उन की बात न हो सके.

जेबा ने फिरोज को हैप्पी जर्नी कहा लेकिन न जाने क्यों जेबा उदास हो गई. सहेलियों से बात करते हुए भी उसे बारबार एक खालीपन का एहसास हो रहा था. उस के अनमनेपन के लिए सहेलियों ने टोका भी लेकिन जेबा उन से क्या कहती.

शाम को फिरोज की कौल आते ही उस ने पहली ही घंटी में फोन उठा लिया.

‘‘कैसे हो? क्या कर रहे हो?’’ एक सांस में जेबा ने कई सवाल कर लिए.

‘‘क्या हुआ मैडम? मिस कर रही हो क्या मुझे,’’ फिरोज ने शरारत से पूछा.

‘‘नहीं, मैं क्यों मिस करने लगी,’’ जेबा ने अपनी बेताबी को छिपाते हुए कहा.

जवाब में फिरोज हलके से हंस दिया.

‘‘सुनो, आई लव यू.’’

‘‘क्या… क्या कहा तुम ने. फिर से कहो.’’

‘‘अब नहीं कह रही. एक बार कह तो दिया,’’ जेबा शरमा गई.

‘‘तुम रेडियो हो क्या जो दोबारा नहीं बोल सकती,’’ फिरोज जेबा से फिर से सुनना चाहता था, ‘‘मैं सुन नहीं पाया.’’

‘‘आई लव यू. अब तो सुन लिया न, बदमाश,’’ जेबा के गालों पर सुर्खी दौड़ गई.

‘‘आई लव यू टू,’’ कहते हुए फिरोज ने मोबाइल से ही एक फ्लाइंग किस जेबा की तरफ उछाल दी.

फिरोज बहुत खुश था और जेबा भी.

दोनों की बातें अब दिनोंदिन लंबी होती जा रही थीं. अभी तक दोनों एकदूसरे से मिले नहीं थे. एक दिन फिरोज ने जेबा से मिलने के लिए कहा. कालिंदी कुंज में दोनों तय समय पर मिलने आए. अपनी मोहब्बत को सामने देख कर दोनों की खुशी का ठिकाना नहीं था. काफी समय साथ बिता कर रात में बात करने के वादे के साथ अपनेअपने घर चले गए.

जेबा अपने सब कामों से फ्री हो कर रात को 10 बजे फिरोज से बात करने के लिए औनलाइन आ गई. लेकिन फिरोज का कहीं पता नहीं था. थोड़ी देर बाद वह औनलाइन आया लेकिन उस ने जेबा को थोड़ा इंतजार करने के लिए कहा.

घड़ी की सूइयां खिसकती जा रही थीं और उस के साथ ही साथ जेबा का गुस्सा भी बढ़ता जा रहा था क्योंकि वह फिरोज को औनलाइन आते देख रही थी मगर वह उस के मैसेज अनदेखे कर रहा था. आखिरकार, रात के 12 बजे जेबा के सब्र का पैमाना छलक गया और उस ने फिरोज को एक गुडनाइट के मैसेज के साथ थैंक्स लिख कर अपना मोबाइल स्विचऔफ कर लिया.

अगले दिन सुबह जेबा ने फिरोज को कई बार कौल किया लेकिन उस का फोन लगातार व्यस्त आ रहा था. दोपहर को फिरोज ने जेबा को फोन कर नाराजगी दिखाई और कहा कि उस का कजिन साथ था, वह उस के सोने का इंतजाम कर रहा था. इस कारण उस वक्त बात नहीं कर पाया. जेबा को इंतजार करना चाहिए था और सुबह वह रातभर जग कर थक कर सो गया था और उस का फोन कजिन इस्तेमाल कर रहा था.

जेबा यह सुन कर और भी नाराज हो गई, ‘‘जब तुम्हें पता था कि मैं तुम से गुस्सा हूं और सुबह तुम को फोन कर के लड़ं ूगी तो तुम ने अपना फोन अपने कजिन को क्यों दिया?’’

‘‘अरे उस का फोन खराब हो गया था और उसे अपनी गर्लफ्रैंड से बात करनी थी,’’ फिरोज को जेबा की बात सुन कर उस पर प्यार भी आ रहा था.

‘‘मुझे नहीं पता, तुम सौरी कहो.’’

‘‘मैं नहीं बोलूंगा.’’

‘‘क्या… नहीं बोलोगे?’’ जेबा भी जिद पर आ गई थी.

‘‘सौरी, सौरी नहीं कहूंगा.’’

‘‘चलो, दो बार कह दिया तुम ने सौरी. अब आगे से ऐसा मत करना,’’ जेबा ने इतरा कर कहा तो फिरोज उस की इस चतुराई पर हैरान रह गया और हंस पड़ा.

‘‘आई लव यू.’’

‘‘आई लव यू टू,’’ कहते हुए दोनों हंस पड़े, एकदूसरे के साथ जिंदगीभर यों ही हाथ पकड़ कर हंसते रहने के वादे के साथ.

Family Story : सहारा – उमाकांत के मन से बेटी के लिए कैसे मिटा संशय?

Family Story : अपनी सहेली के विवाह समारोह में भाग लेने के बाद दीप्ति आलोकजी के साथ रात को 11 बजे वापस लौटी. जिस घर में वह पेइंग गेस्ट की तरह रहती थी उस के गेट के सामने अपने मातापिता को खड़े देख वह जोर से चौंक पड़ी क्योंकि वे दोनों बिना किसी पूर्व सूचना के कानपुर से दिल्ली आए थे.

‘‘मम्मी, पापा, आप दोनों ने आने की खबर क्यों नहीं दी?’’ कार से उतर कर बहुत खुश नजर आ रही दीप्ति अपनी मां गायत्री के गले लग गई.

‘‘हम ने सोचा इस बार अचानक पहुंच कर देखा जाए कि यहां तुम अकेली किस हाल में रह रही हो,’’ अपने पिता उमाकांत की आवाज में नाराजगी और रूखेपन के भावों को पढ़ दीप्ति मन ही मन बेचैन हो उठी.

‘‘मैं बहुत मजे में हूं, पापा,’’ उन की नाराजगी को नजरअंदाज करते हुए दीप्ति उमाकांत के भी गले लग गई.

आलोकजी इन दोनों से पहली बार मिल रहे थे. उन्होंने कार से बाहर आ कर अपना परिचय खुद ही दिया.

‘‘रात के 11 बजे कहां से आ रहे हैं आप दोनों?’’ उन से इस सवाल को पूछते हुए उमाकांत ने अपने होंठों पर नकली मुसकराहट सजा ली.

‘‘दीप्ति की पक्की सहेली अंजु की आज शादी थी. वह इस के औफिस में काम करती है. यह परेशान थी कि शादी से घर अकेली कैसे लौटेगी. मैं ने इस की परेशानी देख कर साथ चलने की जिम्मेदारी ले ली. अकेले लौटने का डर मन से दूर होते ही शादी में शामिल होने की इस की खुशी बढ़ गई. मुझे अच्छा लगा,’’ आलोकजी ने सहज भाव से मुसकराते हुए जवाब दिया.

‘‘अकेली लड़की के लिए रात को इतनी ज्यादा देर तक घर से बाहर रहना ठीक नहीं होता है, बेटी,’’ दीप्ति को सलाह देते हुए उमाकांत की आवाज में कुछ सख्ती के भाव उभरे.

दीप्ति के कुछ बोलने से पहले आलोकजी ने कहा, ‘‘उमाकांतजी, देर रात के समय दीप्ति को मैं कहीं अकेले आनेजाने नहीं देता हूं. इस मामले में आप दोनों को फिक्र करने की कोई जरूरत नहीं है.’’

‘‘मांबाप को जवान बेटी की चिंता होती ही है. आजकल किसी पर भी भरोसा करना ठीक नहीं है जनाब. अब मुझे इजाजत दीजिए. गुड नाइट,’’ कुछ रूखे से अंदाज में अपने मन की चिंता व्यक्त करने के बाद उमाकांत मुड़े और गेट की तरफ चलने को तैयार हो गए.

‘‘उमाकांतजी, कल इतवार को आप डिनर हमारे घर कर रहे हैं. मैं ‘न’ बिलकुल नहीं सुनूंगा,’’ आलोकजी ने दोस्ताना अंदाज में उन के कंधे पर हाथ रख कर उन्हें अपने घर आने का निमंत्रण दिया.

‘‘ओके,’’ बिना मुसकराए उन्होंने आलोकजी का निमंत्रण स्वीकार किया.

दीप्ति ने असहज भाव से मुसकराते हुए उन से विदा ली, ‘‘गुड नाइट, सर. मैं सुबह ठीक 9 बजे पहुंच जाऊंगी.’’

‘‘थैंक यू ऐंड गुड नाइट,’’ आलोकजी ने उस से हाथ मिलाने के बाद गायत्री को हाथ जोड़ कर नमस्ते किया और कार में बैठ गए.

उन्हें अपने घर पहुंचने में 5 मिनट लगे. अपनी पत्नी उषा की नजरों से वे अपने मन की बेचैनी छिपा नहीं पाए थे.

उषा की सवालिया नजरों के जवाब में उन्होंने कहा, ‘‘दीप्ति के मातापिता कानपुर से आए हैं. उन्हें दीप्ति का मेरे साथ इतनी देर से वापस लौटना अच्छा नहीं लगा. मुझे लग रहा है कि वे दोनों इस कारण तरहतरह के सवाल पूछ कर उसे जरूर परेशान करेंगे.’’

‘‘उन्हें अपनी बेटी पर विश्वास करना चाहिए,’’ उषा ने अपनी राय जाहिर की.

‘‘उस के पिता मुझे तेज गुस्से वाले इंसान लगे हैं. मुझे उन का विश्वास जीतने के लिए कुछ और देर उन के साथ रुकना चाहिए था.’’

‘‘हम कल उन्हें घर बुला लेते हैं.’’

‘‘मैं ने दोनों को कल रात डिनर के लिए बुला लिया है.’’

‘‘गुड.’’

‘‘तुम सुबह अनिता और राकेश को भी कल डिनर यहीं करने के लिए फोन कर देना.’’

‘‘ओके.’’

कुछ देर बाद अमेरिका में रह रहे अपने बेटे अमित और बहू वंदना से बात कर के उन का मूड कुछ सही हुआ. वे दोनों अगले महीने घर आ रहे हैं, यह खबर सुन वे खुशी से झूम उठे थे.

कमरदर्द से परेशान उषा नींद की गोली लेने के बाद जल्दी सो गई थी. आलोकजी दीप्ति की फिक्र करते हुए कुछ देर तक करवटें बदलते रहे थे.

सुबह 9 बजे से कुछ मिनट पहले दीप्ति अपनी मां गायत्री के साथ उन के घर पहुंच गई. आलोकजी को इस कारण उस के साथ अकेले में बातें करने का मौका नहीं मिला.

वैसे उन्हें मांबेटी सहज नजर नहीं आ रही थीं. इस बात से उन्होंने अंदाजा लगाया कि बीती रात दीप्ति के साथ उस के मातापिता ने उसे डांटनेसमझाने का काम जरूर किया होगा.

उन तीनों को फिजियोथेरैपिस्ट के यहां से वापस लौटने में डेढ़ घंटा लगा. तब तक आलोकजी ने सब के लिए नाश्ता तैयार कर दिया था. लेकिन गायत्री ने सिर्फ चाय पी और अपने पति के पास जल्दी वापस लौटने के लिए दीप्ति से बारबार आग्रह करने लगी. वह अपनी मां के साथ जाने को उठ कर खड़ी तो जरूर हो गई पर उस के हावभाव साफ बता रहे थे कि उसे गायत्री का यों शोर मचाना अच्छा नहीं लगा था.

पिछली रात वह 2 बजे सो सकी थी. उस के मातापिता ने कल उसे डांटते हुए कहा था :

‘अपनी दौलत और मीठे व्यवहार के बल पर यह आलोक तुम्हें गुमराह कर रहा है. बड़ी उम्र के ऐसे चालाक पुरुषों के जवान लड़कियों को अपने प्रेमजाल में फंसाने के किस्से किस ने नहीं सुने हैं.

‘तुम्हें इस इंसान से फौरन सारे संबंध तोड़ने होंगे, नहीं तो हम बोरियाबिस्तर बंधवा कर तुम्हें वापस कानपुर ले जाएंगे,’ उमाकांत ने उसे साफसाफ धमकी दे दी थी.

दीप्ति ने उन्हें समझाने की बहुत कोशिश की पर वे दोनों कुछ सुनने को तैयार ही नहीं थे. तब धीरेधीरे उस का गुस्सा भी बढ़ता गया था.

‘बिना सुबूत और बिना मुझ से कुछ पूछे आप दोनों मुझे कैसे चरित्रहीन समझ सकते हैं?’ दीप्ति जब अचानक गुस्से से फट पड़ी तब कहीं जा कर उस के मातापिता ने अपना सुर बदला था.

‘चल, मान लिया कि तू भी ठीक है और यह आलोकजी भी अच्छे इंसान हैं, पर दुनिया वालों की जबान तो कोई नहीं पकड़ सकता है, बेटी. हमारा समाज ऐसे बेमेल रिश्तों को न समझता है, न स्वीकार करता है. तुझे अपनी बेकार की बदनामी से बचना चाहिए,’ उसे यों समझाते हुए जब गायत्री एकाएक रो पड़ीं तो दीप्ति ने उन दोनों को किसी तरह की सफाई देना बंद कर दिया था.

‘कल आप दोनों आलोक सर और उन की पत्नी से मिल कर उन्हें समझने की कोशिश तो करो. अगर बाद में भी आप दोनों के दिलों में उन के प्रति भरोसा नहीं बना तो आप जैसा कहेंगे मैं वैसा ही करूंगी,’ यह आखिरी बात कह कर दीप्ति ने उन्हें गेस्ट रूम में सोने भेज दिया था.

सुबह जागने के बाद दीप्ति की अपने मातापिता से ज्यादा बातें नहीं हुईं. बस, दोनों पार्टियों के बीच तनाव भरी खामोशी लंबी खिंची थी.

वे तीनों रात को 8 बजे के करीब आलोकजी के घर पहुंचे. उन्होंने अपनी पत्नी के साथसाथ उन का परिचय रितु और शिखा नाम की 2 लड़कियों से भी कराया.

‘‘ये दोनों पहली मंजिल पर रहने वाली हमारी किराएदार हैं. आज इन के हाथ का बना स्वादिष्ठ खाना ही आप दोनों को खाने को मिलेगा,’’ उषा ने रितु और शिखा के हाथ प्यार से थाम कर उन की तारीफ की.

‘‘रितु को नई जौब मिल गई है. वह अगले महीने मुंबई जा रही है. तब दीप्ति ने यहीं मेरे साथ शिफ्ट होने का प्लान बनाया है,’’ यह सूचना दे कर शिखा ने दीप्ति को गले से लगा लिया था.

इस खबर को सुनने के बाद उमाकांत की आंखों में पैदा हुई चिढ़ और नाराजगी के भावों को आलोकजी ने साफ पढ़ा. उमाकांत के मन की टैंशन कम करने के लिए उन्होंने सहज भाव से कहा, ‘‘यह शिखा सोते हुए खर्राटे लेती है. शायद दीप्ति इस के साथ रूम शेयर न करना चाहे.’’

‘‘आलोक सर, मेरा सीक्रेट आप सब को क्यों बता रहे हैं?’’ शिखा ने नाराज होने का अभिनय करते हुए जब किसी छोटे बच्चे की तरह जमीन पर पांव पटके तो उमाकांत को छोड़ सभी जोर से हंस पड़े थे.

उमाकांत ने शुष्क स्वर में शिखा को बताया, ‘‘तुम्हें नई रूममेट ढूंढ़नी पड़ेगी क्योंकि दीप्ति तो बहुत जल्दी वापस कानपुर जा रही है.’’

‘‘अरे, कानपुर जाने का फैसला तुम ने कब किया, दीप्ति?’’ शिखा ने हैरान हो कर दीप्ति से सवाल किया.

‘‘पापा के इस फैसले की मुझे भी कोई जानकारी नहीं है,’’ दीप्ति ने थके से स्वर में उसे बताया और उषाजी का हाथ पकड़ कर रसोई की तरफ चल पड़ी.

‘‘अंकल, आप दीप्ति को कानपुर क्यों ले जा रहे हैं? क्या वहां उसे यहां जैसी अच्छी जौब मिलेगी?’’ उमाकांत के बगल में सोफे पर बैठती हुई शिखा ने सवाल पूछा.

‘‘वह?घर से दूर रहती है, इसलिए उस का कहीं रिश्ता पक्का करने में हमें दिक्कत आ रही है. वह जौब करेगी या नहीं, यह फैसला अब उस की भावी ससुराल वाले करेंगे,’’ उमाकांत अभी भी नाराज नजर आ रहे थे.

‘‘यह क्या बात हुई, अंकल? दीप्ति को तो बड़ी जल्दी प्रोमोशन मिलने वाला है. शादी करने के लिए उस की इतनी अच्छी जौब छुड़ाना गलत होगा,’’ शिखा को उन की बात पसंद नहीं आई थी.

‘‘अंकल, दीप्ति ने बहुत मेहनत कर के खुद को काबिल बनाया है. वह शादी होने के बाद जौब करे या न करे, यह फैसला उसी का होना चाहिए. आप को उस का रिश्ता उस घर में पक्का करना ही नहीं चाहिए जो जबरदस्ती उसे घर बिठाने की बात करें,’’ उमाकांत के सामने बैठती हुई रितु ने जोशीले अंदाज में अपनी राय व्यक्त की.

बहुत जल्दी ही उमाकांत ने खुद को इन दोनों लड़कियों के साथ बहस में उलझा हुआ पाया. दुनिया की ऊंचनीच समझाते हुए वे लड़कियों के लिए कैरियर से ज्यादा शादी को महत्त्वपूर्ण बता रहे थे.

उन्हें रितु और शिखा से यों बहस करने में मजा आ रहा है, यह इस बात से जाहिर था कि घंटे भर का वक्त गुजर जाने का उन्हें बिलकुल पता नहीं चला.

उन दोनों के साथ बातों में उलझे रहने का एक कारण यह भी था कि उन का मन एक तरफ चुपचाप बैठे आलोकजी से बात करने का बिलकुल नहीं कर रहा था.

गायत्री बहुत देर पहले रसोई में चली गई थी. वहां अपनी बेटी दीप्ति को उषा का कुशलता से काम में हाथ बटाते देख उन्हें यह समझ आ गया कि वह अकसर ऐसा करती रहती थी. दीप्ति को अच्छी तरह मालूम था कि वहां कौन सी चीज कहां रखी हुई थी.

उन्हें अपनी बेटी का उषा के साथ हंसनाबोलना अच्छा नहीं लग रहा था. दीप्ति, रितु और शिखा को इन लोगों ने अपने मीठे व्यवहार और दौलत की चमकदमक से फंसा लिया है, यह विचार बारबार उन के मन में उठ कर उन की चिंता बढ़ाए जा रहा था. किसी अनहोनी की आशंका से उन का मन बारबार कांप उठता था.

जब उषाजी ने उन के साथ हंसनेबोलने की कोशिश शुरू की तो और ज्यादा चिढ़ कर गायत्री ड्राइंगरूम में वापस लौट आईं. वे अपने पति की बगल में बैठी ही थीं कि किसी के द्वारा बाहर से बजाई गई घंटी की आवाज घर में गूंज उठी.

कुछ देर बाद आलोकजी एक युवती के साथ वापस लौटे और उमाकांत व गायत्री से उस का परिचय कराया, ‘‘यह मेरी बेटी अनिता है. आप दोनों से मिलाने के लिए मैं ने इसे खास तौर पर बुलाया है.’’

‘‘क्या अकेली आई हो?’’ अनिता के माथे पर लगे सिंदूर को देख कर गायत्री ने उस के नमस्ते का जवाब देने के बाद सवाल पूछा.

‘‘नहीं, राकेश साथ आए हैं. वे कार पार्क कर रहे हैं. दीप्ति तो बिलकुल आप की शक्लसूरत पर गई है, आंटी. इस उम्र में भी आप बड़ी अच्छी लग रही हैं,’’ अनिता के मुंह से अपनी तारीफ सुन गायत्री तो खुश हुईं पर उमाकांत को उस का अपनी पत्नी के साथ यों खुल जाना पसंद नहीं आया था.

‘‘उमाकांतजी, आप मेरे साथ पास की मार्किट तक चलिए. खाने के बाद मुंह मीठा करने के लिए रसमलाई ले आएं. दीप्ति ने बताया था कि आप को रसमलाई बहुत पसंद है,’’ बड़े अपनेपन से आलोकजी ने उमाकांत का हाथ पकड़ा और दरवाजे की तरफ चल पड़े.

उमाकांत को मजबूरन उन के साथ चलना पड़ा. वैसे सचाई तो यह थी कि उन का मन इस घर में बिलकुल नहीं लग रहा था.

घर से बाहर आते ही आलोकजी ने उन का परिचय अंदर प्रवेश कर रहे अपने दामाद से कराया, ‘‘ये मेरे दामाद राकेशजी हैं. शहर के नामी चार्टर्ड अकाउंटैंटों में इन की गिनती होती है. राकेशजी, ये दीप्ति के पिता उमाकांतजी हैं.’’

राकेश का परिचय जान कर उमाकांत को तेज झटका लगा था. उस ने अपने ससुर और उमाकांत दोनों के पैर छुए थे. उम्र में अपने से 8-10 साल छोटे राकेश से अपने पांव छुआना उन को बहुत अजीब लगा. उन्होंने बुदबुदा कर राकेश को आशीर्वाद सा दिया और बहुत बेचैनी महसूस करते हुए आगे बढ़ गए.

घर से कुछ दूर आ कर आलोकजी ने पहले एक गहरी सांस छोड़ी और फिर अशांत लहजे में उमाकांत को बताना शुरू किया, ‘‘अपने दिल पर लगे सब से गहरे जख्म को मैं आप को दिखाने जा रहा हूं. चार्टर्ड अकाउंटैंट बनने का सपना देखने वाली मेरी बेटी अनिता राकेश की फर्म में जौब करने गई थी. उन के बीच दिन पर दिन बढ़ते जा रहे दोस्ताना संबंध तब हमारे लिए भी गहरी चिंता का कारण बने थे, उमाकांतजी.

‘‘जब मेरी बेटी ने अपने से उम्र में 17 साल बड़े विधुर राकेश से शादी करने का फैसला हमें सुनाया तो हमारे पैरों तले से जमीन खिसक गई थी. जिस आक्रोश, डर और चिंता को आप दोनों पतिपत्नी दीप्ति और मेरे बीच बने अच्छे संबंध को देख कर आज महसूस कर रहे हैं, उन्हें उषा और मैं भली प्रकार समझ सकते हैं क्योंकि हम इस राह पर से गुजर चुके हैं.

‘‘जिस पीड़ा को अनिता का बाप होने के कारण मैं झेल चुका हूं, वैसी पीड़ा आप को कभी नहीं भोगनी पड़ेगी, ऐसा वचन मैं आप को इस वक्त दे रहा हूं, उमाकांतजी. आप की बेटी का कैसा भी अहित मेरे हाथों कभी नहीं होगा.

‘‘इस महानगर में अनगिनत युवा पढ़ने और जौब करने आए हुए हैं. उन सब को अपने घर व घर वालों की बहुत याद आना स्वाभाविक ही है. घर से दूर अकेली रह रही लड़कियों के लिए बड़ी उम्र वाले किसी प्रभावशाली पुरुष के बहुत निकट हो जाने को समझना भी आसान है क्योंकि वह लड़की अपने पिता के साथ को परदेस में बहुत ‘मिस’ करती हैं.

‘‘जिन दिनों राकेश ने मेरी बेटी को अपने प्रेमजाल में फंसाया, उन दिनों उषा और मैं भी अपने बेटेबहू के पास रहने अमेरिका गए हुए थे. राकेश आज मेरा दामाद जरूर है लेकिन मेरे मन के एक हिस्से ने उसे भावनात्मक दृष्टि से अपरिपक्व अनिता को गुमराह करने के लिए आज भी पूरी तरह से माफ नहीं किया है.

‘‘मेरी पत्नी कमरदर्द के कारण अपाहिज सी हो गई है. बेटाबहू विदेश में हैं. हम दोनों को दीप्ति, रितु व शिखा का बहुत सहारा है. सुखदुख में ये बहुत काम आती हैं हमारे.

‘‘बदले में हम इन्हें घर के जैसा सुरक्षित व प्यार भरा परिवेश देने का प्रयास दिल से करते हैं. हम सब ने एकदूसरे को परिवार के सदस्यों की तरह से अपना लिया है. सगे रिश्तेदारों और पड़ोसियों से ज्यादा बड़ा सहारा बन गए हैं हम एकदूसरे के.

‘‘दीप्ति मुझ से बहुत प्रभावित है… मुझे अपना मार्गदर्शक मानती है…वह मेरे बहुत करीब है पर इस निकटता का मैं गलत फायदा कभी नहीं उठाऊंगा. दीप्ति की जिंदगी में आप मुझे अपनी जगह समझिए, उमाकांतजी.’’

आलोकजी का बोलतेबोलते गला भर आया था. उमाकांत ने रुक कर उन के दोनों हाथ अपने हाथों में लिए और बहुत भावुक हो कर बोले, ‘‘आलोकजी, मैं ने आप को बहुत गलत समझा है. अपनी नजरों में गिर कर मैं इस वक्त खुद को बहुत शर्मिंदा महसूस कर रहा हूं…मुझे माफ कर दीजिए, प्लीज.’’

वे दोनों एकदूसरे के गले लग गए. उन की आंखों से बह रहे आंसुओं ने सारी गलतफहमी दूर करते हुए आपसी विश्वास की जड़ों को सींच मजबूत कर दिया था.

Romantic Story : एक प्यार ऐसा भी – श्वेता और कुशल के बीच क्यूं आई दूरियां?

Romantic Story : श्वेता और कुशल की कहानी एक आम प्रेम कहानी भी बन सकती थी. वे दोनों अगर सही समय पर एकदूसरे से इजहार कर देते तो शायद साथसाथ होते. जिंदगी ने उन के रास्ते अलग तो कर दिए लेकिन वह एक नया आयाम लाने वाली थी.  इंटर कालेज वादविवाद प्रतियोगिता में विजयी प्रतिभागी के रूप में मेरा नाम सुनते ही कालेज के सभी छात्र खुशी से तालियां पीटने लगे. जैसे ही मैं स्टेज से ट्रौफी ले कर नीचे उतरा, दोस्तों ने मुझे कंधों पर बिठा लिया. मुझे लगा जैसे मैं सातवें आसमान पर पहुंच गया हूं. हर किसी की निगाहें मुझ पर टिकी हुई थीं. चमचमाती ट्रौफी को चूमते हुए मैं ने चीयर करते छात्रछात्राओं की तरफ देखा. सहसा ही मेरी नजरें सामने की पंक्ति में बैठी एक लड़की की नजरों से टकराईं. कुछ पलों के लिए हमारी नजरें उलझ कर रह गईं. तब तक नीचे उतरते हुए मेरे दोस्त मुझे गले लगाने लगे और मेरी तारीफें करने लगे.

‘यार, तू ने तो कमाल ही कर दिया. पिछले 2 साल से हमारा कालेज तेरी वजह से ही जीत रहा है.’’ ‘‘अरे नहीं, ऐसी कोई बात नहीं. मैं तो शुक्रगुजार हूं तुम सब का जो मुझे इतना प्यार देते हो और विनोद सर का भी जिन्होंने हमेशा मेरा मार्गदर्शन किया है.’’ ‘‘पर आप हो कमाल के. वाकई कितनी फर्राटेदार इंग्लिश बोलते हो. मैं, श्वेता मिश्रा, न्यू ऐडमिशन.’’ सामने वही लड़की मुसकराती हुई हाथ बढ़ाए खड़ी थी जिस से कुछ वक्त पहले मेरी नजरें टकराई थीं. उस की मुसकराती हुई आंखों में अजीब सी कशिश थी. चेहरे पर नूर और आवाज में संगीत की स्वरलहरी थी. हलके गुलाबी रंग के फ्रौक सूट और नेट के दुपट्टे में वह आसमान से उतरी परी जैसी खूबसूरत लग रही थी. मैं उस से हाथ मिलाने का लोभ छोड़ न सका और तुरंत उस के हाथ को थाम लिया. उस पल लगा जैसे मेरी धड़कनें रुक जाएंगी. मगर मैं ने मन के भाव चेहरे पर नहीं आने दिए और दूर होता हुआ बोला, ‘‘श्वेता मिश्रा यानी एक ऊंची जाति की कन्या. आई गेस, ब्राह्मण हो न तुम?’’ ‘‘हां, वह तो मैं हूं. वैसे तुम भी कम नहीं लगते.’’ ‘‘अरे कहां मैडम, मैं तो किसान का छोरा, पूरा जाट हूं. वैसे कोई नहीं. आप से मिल कर दिल खुश हो गया. अब चलता हूं,’’

कह कर मैं आगे बढ़ गया. पीछेपीछे मेरे दोस्त भी आ गए और मुझे छेड़ने लगे. तभी मेरा जिगरी दोस्त वासु बोला, ‘‘यह क्या यार, तेरे पिता नगर पार्षद हैं न, फिर तुम ने उस से झूठ क्यों कहा?’’ ‘‘वह इसलिए मेरे भाई क्योंकि हमारे घर के लड़कों को लड़कियों से दोस्ती करने की इजाजत नहीं है. जानता है मां ने कालेज के पहले दिन मुझ से क्या कहा था?’’ ‘‘क्या कहा था?’’ ‘‘यही कि कभी भी किसी लड़की के प्यार में मत पड़ना. हमारे खानदान में प्यार के चक्कर में कई जानें जा चुकी हैं. सख्त हिदायत दी थी उन्होंने मुझे.’’ ‘‘अच्छा, तो यही वजह है कि तू लड़कियों से दूर भागता है.’’ ‘‘हां यार, पर यह लड़की तो बिल्कुल ही अलग है. एक नजर में ही मन को भा गई. इसलिए इस से और भी ज्यादा दूर भागना पड़ेगा.’’ श्वेता के साथ यह थी मेरी पहली मुलाकात. उस दिन के बाद से श्वेता अकसर मुझ से टकरा जाती. कभीकभी लगता कि वह मेरा पीछा करती है. पर मन का भ्रम मान कर मैं इग्नोर कर देता. यह बात अलग थी कि आजकल मन के गलियारे में उसी के खयाल चक्कर लगाते रहते थे. वह कैसे हंसती है,

कैसे चोर नजरों से मेरी तरफ देखती है, कैसे चलती है, वगैरहवगैरह. धीरेधीरे मैं ने उस के बारे में जानकारियां जुटानी शुरू कीं तो पता चला कि वह अपने कालेज की टौपर है और गाना बहुत अच्छा गाती है. उस के पिता ज्यादा अमीर तो नहीं मगर शहर में एक कोठी जरूर बना रखी है. 2 बड़े भाई हैं और वह अकेली बहन है. न चाहते हुए भी मेरी नजरें उस से टकरा ही जातीं. मैं हौले से मुसकरा कर दूसरी तरफ देखने लगता. कई बार वह मुझे लाइब्रेरी में भी मिली. किसी न किसी बहाने बातें करने का प्रयास करती. कभी कोई सवाल पूछती तो कभी टीचर्स के बारे में बातें करने के नाम पर मेरे पास आ कर बैठ जाती. वह जैसे ही पास आती, मेरी धड़कनें बेकाबू होने लगतीं और मैं उसे इग्नोर कर के उठ जाता. एक दिन उस ने मुझ से पूछ ही लिया, ‘‘तुम्हें किसी और से प्यार है क्या?’’ उस का सवाल सुन कर मैं चौंक उठा. मुसकराते हुए उस की तरफ देखा और फिर नजरें नीचे कर बाहर की तरफ देखने लगा. श्वेता ने शायद इस का मतलब हां समझा था. उसे विश्वास हो गया था कि मैं उस में इंटरैस्टेड नहीं हूं और मेरे जीवन में कोई और है. अब वह मुझ से कटीकटी रहने लगी. 2 माह बाद ही सुनने में आया कि उस की शादी कहीं और हो गई है. उस ने पिता की मरजी से शादी कर ली थी. अब उस का कालेज आना भी बंद हो गया.

इस तरह मेरे जीवन का एक खूबसूरत अध्याय अचानक ही बंद हो गया. मैं अंदर से खालीपन महसूस करने लगा. इस बीच पिताजी ने मेरी शादी निभा नाम की लड़की से करा दी. वह हमारी जाति की थी और काफी पढ़ीलिखी भी थी. उस के पिता काफी अमीर बिजनैसमैन थे. हमारी शुरू में तो ठीक ही निभी मगर धीरेधीरे विवाद होने लगे. छोटीछोटी बातों पर हम झगड़ पड़ते. हम दोनों का ही ईगो आड़े आ जाता. वैसे भी निभा के लिए मैं कभी वैसा आकर्षण महसूस नहीं कर पाया जैसा श्वेता के लिए महसूस करता था. निभा अब अकसर मायके में ही रहने लगी. इधर मैं राजनीति में सक्रिय हो गया. पहले कार्यकर्ता, फिर एमएलए और फिर राज्य का मुख्यमंत्री भी बन गया. यह सब इतनी तेजी से हुआ कि कभीकभी मैं भी यकीन नहीं कर पाता था. राजनीतिक गलियारे में मेरा अच्छाखासा नाम था. लोग मुझे होशियार, शरीफ और फर्राटेदार इंग्लिश बोलने वाले युवा नेता के रूप में पहचानते थे. विदेश तक में मेरी धाक थी. मैं कई पत्रिकाओं के कवर पेज पर आने लगा था. जनता मुझे प्यार करती. मेरे काम की तारीफ होती. मैं हर काम में अपनी नई सोच और युवा कार्यशैली को अपनाता था. पीएम भी मेरी कद्र करते.

अकसर देश की छोटीबड़ी समस्याओं पर मुझ से विचारविमर्श करते. इसी दरम्यान निभा और मैं ने आपसी सहमति से तलाक भी ले लिया. वह अब मेरे साथ रहना नहीं चाहती थी. मैं ने भी तुरंत सहमति दे दी क्योंकि मैं भी यही चाहता था. मैं अभी तक श्वेता को भूल नहीं पाया था. जब भी कोई दूसरी शादी की बात करता तो श्वेता का चेहरा मेरी आंखों के आगे आ जाता. जब कोई रोमांटिक मूवी देखता तो भी श्वेता का खयाल आ जाता. जब बादलों के पीछे चांद छिपता देखता तो भी श्वेता का ही खयाल आता. एक दिन मेरे जिगरी यार वासु ने मुझे खबर दी कि मेरा पहला प्यार यानी श्वेता इसी शहर में है. मैं ने उत्साहित हो कर पूछा, ‘‘श्वेता, कहां है? कैसी है वह? किस के साथ है?’’ ‘‘अरे यार, अपने पति के साथ है. पति का काम सही नहीं चल रहा है, इसलिए इधर ट्रांसफर करवा लिया है.’’ ‘‘ओके, तू पता दे. मैं मिल कर आता हूं.’’ ‘‘यह क्या कह रहा है? अब तू साधारण आदमी नहीं, सीएम है.’’ ‘‘तो क्या हुआ? उस के लिए तो वही हूं न, जो 15 साल पहले था.’’ मैं ने वासु से पता लिया और अगले ही दिन उस के घर पहुंच गया. श्वेता मुझे पहचान नहीं पाई मगर उस के पति ने मुझे पहचान लिया और पैर छूता हुआ बोला, ‘

‘सीएम साहब, आप इस गरीब की कुटिया में? मैं तो धन्य हो गया.’’ ‘‘मैं श्वेता से यानी अपनी पुरानी सहपाठी से मिलने आया हूं.’’ श्वेता ने आश्चर्य से मेरी तरफ देखा. अब तक वह भी मुझे पहचान गई थी. नजरें झुका कर बोली, ‘‘आप कालेज के सुपरहीरो मतलब कुशल राज हैं न?’’ ‘‘हां, मैं वही कुशल हूं. तुम बताओ, कैसी हो?’’ ‘‘मैं ठीक हूं मगर आप मेरे घर?’’ वह चकित भी थी और खुश भी. तभी उस के पति ने मुझे बैठाते हुए श्वेता से चायनाश्ता लगाने को कहा और हाथ जोड़ कर पास में ही बैठ गया. मैं ने उस के बारे में पूछा तो वह कहने लगा कि हाल ही में उस की नौकरी छूट गई है. अब वह यहां नौकरी की तलाश में आया है. मैं ने तुरंत अपने एक दोस्त को फोन किया और श्वेता के पति को उस के यहां अकाउंटैंट का काम दिलवा दिया. श्वेता का पति मेरे आगे नतमस्तक हो गया. बारबार धन्यवाद कहने लगा. तब तक श्वेता चायनाश्ता ले आई. श्वेता अब भी थोड़ी ज्यादा कौंशस हो रही थी. वह खुल कर बात नहीं कर पा रही थी. ऐसा लग रहा था जैसे हम दोनों के बीच एक अजीब सी दूरी आ गई है.

दोचार दिनों बाद मैं फिर से श्वेता के यहां पहुंचा. आज श्वेता घर में अकेली थी. मुझे खुल कर बात करने का मौका मिल गया. मैं ने उस के करीब बैठते हुए कहा, ‘‘श्वेता, क्या तुम जानती हो, तुम ही मेरा पहला प्यार हो. तुम ही एकमात्र ऐसी लड़की हो जिसे मेरे दिल ने चाहा है. आज से 15 बर्षों पहले जब पहली दफा तुम्हें देखा था, उसी दिन तुम्हें अपना दिल दे दिया था. तभी तो जब मैं ने किसी और से शादी की तो उसे प्यार कर ही नहीं पाया. मेरा दिल तो मेरे पास था ही नहीं न. ये धड़कनें तो बस तुम्हें देख कर ही बढ़ती हैं.’’ श्वेता एकटक मेरी तरफ देख रही थी. जैसे मेरी नजरों से मेरे दिल तक में झांक लेना चाहती हो. थोड़े शिकायतभरे स्वर में उस ने कहा, ‘‘यदि ऐसा था तो फिर मुझ से दूर क्यों भागते थे? कभी भी मेरे प्यार को स्वीकार क्यों नहीं किया तुम ने?’’ ‘‘क्योंकि हमारी जाति अलग थी. मेरे अंदर इतनी हिम्मत नहीं थी कि मैं समाज से लड़ पाता. प्यार में जान गंवाना आसान है, मगर प्यार दिल में रख कर दूर रहना कठिन है. मैं तुम से दूर भले ही रहा पर दिल तुम्हारे पास ही था. आज मुझ में हिम्मत है कि मैं तुम से खुल कर कह सकूं कि बस, तुम ही हो जिस से मैं ने प्यार किया है. मेरी पत्नी निभा के साथ रह कर भी मैं उस से दूर था. अब तो हम ने आपसी सहमति से तलाक भी ले लिया है.’’

श्वेता ने आगे बढ़ कर मुझे गले से लगा लिया. हम दोनों की आंखों में आंसू और धड़कनें तेज थीं. हम एकदूसरे के दिल में अपने हिस्से की मोहब्बत महसूस कर रहे थे. अब हम दोनों ही 40 साल के करीब थे. लोग कहते हैं कि प्यार तो युवावस्था में होता है. हमें भी तो प्यार युवावस्था में ही हुआ था. मगर इस प्यार को जीने का वक्त हमें अब मिला था. श्वेता को कहीं न कहीं समाज और पति का डर अब भी था. मगर हमारा प्यार पवित्र था. यह रिश्ता ऐसा था जिसे हम बंद आंखों से भी महसूस कर सकते थे. धीरेधीरे हमारा रिश्ता गहरा होता गया. अब हम साथ होते तो कालेज जैसी मस्ती करते. कहीं घूमने निकल जाते. आजाद पंछियों की तरह गीत गुनगुनाते. हंसीमजाक करते. कभी आइसक्रीम खाते तो कभी गोलगप्पे. कभी श्वेता कुछ खास बना कर मुझे बुलाती तो कभी मैं श्वेता को अपना एस्टेट दिखाने ले जाता. ऐसा नहीं था कि हम यह सब लोगों से या श्वेता के पति से छिपा कर करते. हमारे मन में मैल नहीं था. एक परिवार के सदस्य की तरह मैं उस के घर में दाखिल होता. उस के लिए तोहफे खरीदता. एक दिन मैं शाम के समय श्वेता के घर पहुंचा. इस वक्त उस का पति औफिस में होता है. हम खुल कर बातें कर रहे थे.

तभी श्वेता का पति दाखिल हुआ. वह आज जल्दी आ गया था. श्वेता उठ कर चाय बनाने चली गई. श्वेता के पति ने मुझ से कहा, ‘‘जानते हैं, आज मेरा एक दोस्त क्या पूछ रहा था?’’ ‘‘क्या पूछ रहा था?’’ ‘‘यही कि तुम्हारी बीवी और सीएम साहब के बीच क्या चल रहा है?’’ अब तक श्वेता भी चाय ले कर आ गई थी. वह अवाक पति का मुंह देखने लगी. ‘‘फिर क्या कहा आप ने?’’ मैं ने पूछा. कहीं न कहीं मेरे दिल में एक अपराधबोध पैदा हो गया था. श्वेता के पति के लिए तो आखिर मैं एक दूसरा पुरुष ही हूं न. मगर श्वेता के पति ने मेरी सोच से अलग जवाब दिया. हंसता हुआ बोला, ‘‘मैं ने उस से कह दिया कि सीएम साहब श्वेता के दोस्त हैं. उन के प्यार में कोई मैल नहीं. उन के प्यार में कोई धोखा नहीं. मेरा और श्वेता का रिश्ता अलग है. जबकि कुशलजी वह एहसास बन कर श्वेता की जिंदगी में आए हैं जिस की वजह से श्वेता के मन में जो एक खालीपन था वह भर गया है. मैं उन दोनों के रिश्ते का सम्मान करता हूं.

’’ श्वेता अपने पति के कंधे पर सिर रखती हुई बोली, ‘‘दुनिया में प्यार तो बहुतों ने किया है मगर इस प्यार पर जो विश्वास आप ने किया वह शायद ही किसी ने किया हो. मैं वादा करती हूं, आप का यह विश्वास कभी नहीं टूटने दूंगी.’’ उस पल मुझे लगा जैसे आज हमारे प्यार को एक नया आयाम मिल गया था. मेरी नजर में श्वेता के पति की इज्जत बहुत ज्यादा बढ़ गई थी. प्यार की ऐसी परिभाषा दी थी उन्होंने जो इतनी ही पाकसाफ थी जितना कि कमल जो कीचड़ में खिलता है, लेकिन उस की सुंदरता आंखों में ऐसे बसती है कि मन मोह लेती है. खुश था मैं आज, बहुत खुश.

Robotic Dog Champak : बच्चों की पत्रिका ‘चंपक’ नाम के इस्तेमाल को लेकर घिरा बीसीसीआई

Robotic Dog Champak : दिल्ली प्रेस पत्र प्रकाशन की ओर से प्रकाशित हाेने वाली बच्चों की पत्रिका ‘चंपक’ ने भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) के खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट का रुख किया है. प्रकाशन समूह की ओर से उस ‘रोबोटिक डॉग’ को लेकर आपत्ति जताई गई है जिसका इस्तेमाल बीसीसीआई एक आकर्षण के रूप में इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) के दौरान कर रही है. दरअसल, इस ‘रोबोटिक डॉग’ का नाम ‘चंपक’ है. प्रकाशक की ओर से न्यायमूर्ति सौरभ बनर्जी ने मुकदमे को लेकर नोटिस जारी किया है. प्रकाशक का आरोप है कि बीसीसीआई ने अपने ‘रोबोटिक डॉग’ को ‘चंपक’ नाम देकर पत्रिका के पंजीकृत ट्रेडमार्क का उल्लंघन किया है. हाईकोर्ट में इस मामले पर अगली सुनवाई 9 जुलाई को होगी.

यह इस्तेमाल अनाधिकृत

इस मामले पर दिल्ली प्रेस की ओर से एडवोकेट अमित गुप्ता ने अदालत में अपना पक्ष रखते हुए कहा कि ‘चंपक’ पत्रिका बच्चों के बीच बेहद पॉपुलर है. ऐसे में, बीसीसीआई की ओर से आईपीएल में इसके नाम का इस्तेमाल करना प्रकाशक के पंजीकृत ट्रेडमार्क का स्पष्ट उल्लंघन है. प्रकाशक समूह का पक्ष रखते हुए अमित गुप्ता ने यह भी कहा कि कथित तौर पर फैन वोटिंग के आधार पर 23 अप्रैल को इस एआई टूल ‘रोबोटिक डॉग’ का नाम चंपक रखा गया. मीडिया में इस ‘रोबोटिक डॉग’ को लेकर लगातार खबरें आ रही है. हालांकि इस पर अदालत की ओर से यह पूछा गया कि नाम के इस तरह के इस्तेमाल किए जाने से प्रकाशकों को क्या हानि हो रही है, तो इसके जवाब में अमित गुप्ता का कहना था कि यह इस्तेमाल अनाधिकृत है.

विराट कोहली का नाम आया सामने

सुनवाई के दौरान अदालत का सवाल था कि क्या ‘चीकू’ चंपक पत्रिका का एक पात्र है? और क्या यही नाम क्रिकेटर विराट कोहली का उपनाम भी है? इस पर अमित गुप्ता ने स्वीकार किया कि ‘चीकू’ वास्तव में पत्रिका का पात्र है, तो इस पर अदालत का कहना था कि फिर इस उपयोग को लेकर कोई मुकदमा नहीं किया गया.
इस पर अमित गुप्ता ने प्रकाशक का पक्ष रखते हुए कहा कि आमतौर पर लोग कॉमिक बुक्स और फिल्मों के पात्रों के आधार पर उपनाम रखते हैं. इसके बाद कोर्ट की ओर से एडवोकेट से पूछा कि इस मामले में व्यावसायिक दोहन और अनुचित लाभ का दावा कैसे किया जा सकता है.
इस पर अभियोजन पक्ष के वकील अमित गुप्ता ने जवाब दिया कि प्रकाशक इस नाम का पंजीकृत स्वामी है और बीसीसीआई बिना अनुमति के उपयोग कर रही है.
एडवाेकेट अमित गुप्ता का पक्ष, “मेरी पत्रिका पशु-पात्रों (एनिमल कैरेक्टर्स) के लिए जानी जाती है. मान लेते हैं कि उत्पाद अलग है, लेकिन नाम का उपयोग ही नुकसान पहुंचा रहा है. यह नाम की प्रतिष्ठा को कमजोर कर रहा है.
हालांकि, अदालत ने टिप्पणी की कि याचिका में अनुचित लाभ का कोई स्पष्ट आरोप नहीं लगाया गया है.
अदालत की ओर से कहा गया कि रिकॉर्ड में ऐसा कुछ नहीं है जिससे यह सिद्ध हो कि इससे कोई क्षति या नाम की प्रतिष्ठा में कमी आई हो.

कोहली कोई उत्पाद नहीं लॉन्च कर रहे

इस पर एडवाेकेट अमित गुप्ता ने तर्क दिया कि उत्पाद का विज्ञापन और विपणन ही व्यावसायिक दोहन को दर्शाने के लिए पर्याप्त है. उन्होंने कहा कि आईपीएल एक व्यावसायिक उपक्रम है.
इस पर अदालत ने व्यंग्यात्मक रूप से कहा कि प्रकाशक विराट कोहली के खिलाफ ‘चीकू’ नाम के उपयोग पर रॉयल्टी कमा सकता था लेकिन गुप्ता ने कहा कि विराट कोहली कोई उत्पाद नहीं लॉन्च कर रहे हैं. अगर कोहली ‘चीकू’ नाम से कोई उत्पाद लॉन्च करते, तो वह व्यावसायिक दोहन माना जाता. दूसरी ओर, गुप्ता ने कहा कि चंपक एक पंजीकृत ट्रेडमार्क है और इसका व्यावसायिक उपयोग उल्लंघन माना जाएगा.
बीसीसीआई की ओर से कोर्ट में पेश हुए सीनियर एडवोकेट जे. साई दीपक ने तर्क दिया कि चंपक एक फूल का नाम भी है. उनकी ओर से यह भी कहा गया कि रोबोटिक डॉग एक सीरीज के पात्र से जुड़ा है, न कि पत्रिका से. इसका हवाला टीवी शो ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ से दिया.
अदालत ने इस मामले में नोटिस जारी किया है और अगली सुनवाई के लिए तारीख तय की है लेकिन यह भी कहा कि फिलहाल एकतरफा अंतरिम राहत देने का कोई ठोस आधार नहीं है.

Entertainment : मल्टीप्लैक्स कल्चर बरबाद कर रहा भारतीय सिनेमा को

Entertainment : मल्टीप्लैक्स की लत लग जाने के चलते दर्शक अब सिंगल थिएटर में जाना अपनी तौहीन सम झते हैं, तो वहीं मल्टीप्लैक्स के महंगे टिकट खरीद कर फिल्म देखने के लिए उन की जेब गवाही नहीं देती. इस से नुकसान फिल्म इंडस्ट्री का हो रहा है.

अपने जन्म के साथ ही सिनेमा हर आम इंसान के लिए मनोरंजन का अहम साधन रहा है. हकीकत तो यह है कि भारत में हर आम इंसान के लिए सिनेमा देखना पारिवारिक उत्सव की तरह रहा है. गांवों में आम जनता पूरे परिवार के साथ किसी न किसी मेले में जा कर मनोरंजन कर पाती थी. कुछ मेलों में ट्यूरिंग टाकीज के रूप में या शामियाना लगा कर फिल्मों का भी प्रदर्शन हुआ करता था. लेकिन धीरेधीरे ‘मेला’ संस्कृति खत्म होती गई, असम को छोड़ कर ‘ट्यूरिंग टाकीज’ या ‘शामियाना’ लगा कर फिल्मों के प्रर्दशन की संस्कृति भी खत्म हो गई. सबकुछ सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों तक सीमित हो गया. परिणामतया फिल्म संस्कृति पनपती गई.

कुछ लोग हर सप्ताह अपने पूरे परिवार के साथ घर से बाहर आउटिंग के लिए जाने लगे और सिनेमाघरों में फिल्म देखने के साथ ही किसी छोटे रैस्टोरैंट में खानपान कर घर वापस लौटने लगे और पूरा परिवार इस कदर संतुष्ट होता जैसे कि वह मेले का आनंद ले कर आ गया.

उस वक्त फिल्म देखने के लिए टिकट की दरें भी बहुत ज्यादा नहीं थीं. मु झे अच्छी तरह से याद है कि 1976 में मुंबई के विलेपार्ले इलाके में एक सिंगल थिएटर ‘लक्ष्मी’ टाकीज हुआ करती थी. जहां पर डेढ़ रुपए और 2 रुपए के टिकट थे. उस की चारदीवारी लोहे के पतरे की हुआ करती थी, जोकि गरमी में गरम होती थी पर लोग बड़े चाव से फिल्में देखते थे. उस थिएटर के इर्दगिर्द हिंदी, मराठी व इंग्लिश भाषा के निजी और सरकारी मिला कर करीबन 10 स्कूल और 2 बड़े कालेज थे. लोग 15-15 दिनों पहले से टिकट खरीद कर रखते थे. अन्यथा टिकट नहीं मिलता था. यों तो इस थिएटर में ज्यादातर स्कूल व कालेज में पढ़ने वाले बच्चे ही दर्शक हुआ करते थे पर अब यहां पर ‘शान’ नामक मल्टीप्लैक्स है, जहां कई वर्षों से ‘हाउसफुल’ का बोर्ड नहीं लगा पर मल्टीप्लैक्स के प्रादुर्भाव से सिंगल थिएटर खत्म होने लगे.

जयपुर में 1,245 सीटों का एक आलीशान सिंगल थिएटर ‘जेम’ है. 4 जुलाई, 1964 को लक्ष्मीकुमार कासलीवाल ने राजस्थान का पहला सब से बड़ा और अत्याधुनिक सिनेमाघर ‘जेम’ की शुरुआत एवीएम की फिल्म ‘पूजा के फूल’ के प्रदर्शन के साथ की थी तब वहां पर टिकट महज 2 रुपए 64 पैसे का हुआ करता था. उस वक्त जयपुर का वह 6ठा सिंगल थिएटर था. वहां सिनेप्रेमी दर्शकों की इतनी भीड़ जुटती थी कि थिएटर मालिक को भीड़ को नियंत्रित करने के लिए घुड़सवार पुलिसबल को बुलाना पड़ता था.

लोगों को एकएक सप्ताह तक टिकट नहीं मिलता था. वर्ष 2005 में टिकट 10 रुपए का था. फिर मल्टीप्लैक्स कल्चर के कारण इसे बंद करना पड़ा था. लेकिन 2021 से यह सिनेमाघर फिर से शुरू हुआ पर अफसोस अब न तो यहां हाउसफुल का बोर्ड लग रहा है और न ही मल्टीप्लैक्स में. इस की मूल वजह यह है कि सिर्फ जयपुर शहर में ही 45 से अधिक मल्टीप्लैक्स हो गए हैं.

मल्टीप्लैक्स की लत

मल्टीप्लैक्स में टिकट के दाम इतने अधिक हैं कि मल्टीप्लैक्स की अफीम की तरह लत लग चुकी होने के चलते दर्शक सिंगल थिएटर में जाना अपनी तौहीन सम झते हैं तो वहीं मल्टीप्लैक्स का टिकट खरीद कर फिल्म देखने के लिए उन की जेब गवाही नहीं देती.

मल्टीप्लैक्स कल्चर के चलते तकरीबन 20 से अधिक सिंगल थिएटर सिर्फ जयपुर शहर में बंद हो चुके हैं. खुद जेम सिनेमा के मालिक सुधीर कासलीवाल कहते हैं, ‘‘अब 30 से 50 सीट वाले छोटे सिनेमाघर यानी मल्टीप्लैक्स आ गए हैं. अब लोगों का ध्यान लग्जरी पर ज्यादा हो रहा है. इस वजह से सिनेमा मारा जा रहा है. 16 वर्षों बाद सिंगल थिएटर ‘जेम’ को शुरू करने के पीछे हमारी सोच यही रही कि हम एक बार फिर नई पीढ़ी के उन दर्शकों को सिंगल स्क्रीन में बैठ कर फिल्म देखने का अनुभव प्रदान करें जिस ने सिंगल स्क्रीन देखी ही नहीं है.

‘‘लोग तो 100 या 150 सीट वाले सिनेमघर में फिल्म देख रहे थे. जब हम ने ‘जेम’ को दोबारा शुरू किया तो लोगों को अचंभा हुआ. दोबारा जेम सिंगल सिनेमा शुरू होने पर जयपुरवासियों के लिए फिल्म देखने का अद्भुत तजरबा रहा. अब तो वैसे भी जयपुर शहर में मुश्किल से ‘जेम’ व ‘राजमंदिर’ सहित 2-3 सिंगल थिएटर ही बचे हैं, बाकी बंद हो गए या गिरा कर मौल वगैरह बना दिए गए.

‘‘जेम की ही तरह राजमंदिर थिएटर भी बहुत ही अलग किस्म का है. जेम सिनेमा का आर्किटैक्चर ही अलग है. यह आज भी खूबसूरत लगता है. पहले तो सिनेमा देखना त्योहार जैसा होता था. पूरा परिवार या दोस्तों का दल एकसाथ निकलता था. फिल्म देखने पर मल्टीप्लैकस कल्चर की वजह से अब यह सब सपना हो गया है.’’

जैसा कि सुधीर कालसीवाल ने जयपुर के ही सिंगल थिएटर ‘राजमंदिर’ का जिक्र किया है तो 1976 से स्थापित ‘राजमंदिर’ पूरे विश्व में तीसरे नंबर का दर्शनीय सिनेमाघर और देश की शान बनाए हुए है. राजमंदिर सिनेमा को अपनी शानदार वास्तुकला के लिए ‘प्राइड औफ एशिया’ भी कहा जाता है. पहली बार जयपुर जाने वालों की तमन्ना ‘राजमंदिर’ को देखने की जरूर होती है.

राज मंदिर के मालिक 90 वर्षीय कुशलचंद सुराणा कहते हैं, ‘‘सिनेमा देखने का जो मजा सिंगल थिएटर में आता है, वह मल्टीप्लैक्स में नहीं मिल सकता. सिनेमा देखना एक त्योहार तक रहा है, मेला जाने जैसा रहा है. यही मानव स्वभाव है. मल्टीप्लैक्स में 80 से 150 दर्शक होते हैं और लोग उस तरह से सिनेमा देखते समय अपनी भावनाएं नहीं व्यक्त कर पाते, इस के अलावा मल्टीप्लैक्स में टिकटों के दाम 300 रुपए से ले कर 2,500 रुपए तक हैं. जहां लग्जरी सुविधाएं देने का वादा किया जाता है. मगर इस के बदले दर्शक पर कई पाबंदियां लाद दी जाती हैं.

‘‘शुरुआत में मल्टीप्लैक्स आए तो इन की शानोशौकत को देख कर मल्टीप्लैक्स में सिनेमा देख कर सीना चौड़ा कर चलने की अफीम की ऐसी लत पड़ी कि बेचारे दर्शक अब खुद को ठगा हुआ महसूस करते हैं.’’

गरीबों की सिंगल स्क्रीन

जब मल्टीप्लैक्स नहीं थे, तब लोग बैलगाड़ी या ट्रैक्टर में भरभर कर आते थे सिनेमा देखने, जिसे देख कर एहसास होता था कि लोग सिनेमा का त्योहार मना रहे हैं या यों कहें कि मेले का आनंद ले रहे हैं. लोग फिल्म देखने के बाद सिनेमाघर के बाहर लगे हुए ठेले या खोमचे वालों से खानेपीने की चीजें खरीद व खा कर घर रवाना हो जाते थे. जी हां, तभी तो हर सिंगल थिएटर व सिनेमाघर के बाहर सिनेमा देखने के लिए टिकट खरीदने के लिए लंबीलंबी कतारें नजर आया करती थीं.

लोग ब्लैक में यानी कि 10 रुपए के टिकट को 100 रुपए में खरीद कर फिल्में देखते रहे हैं. यह हालत तब रही है जब सिंगल थिएटर में हर शो में एकसाथ 500 से 1,500 तक की संख्या में लोग फिल्म देख सकते थे. जब भी नई फिल्म रिलीज होती थी, चंद घंटों में ही हाउसफुल का बोर्ड लग जाता था. लेकिन मल्टीप्लैक्स कल्चर ने लोगों की सिनेमा जाने की आदत पर ही विराम लगवा दिया. अब तो 80-सीटर मल्टीप्लैक्स स्क्रीन भी खाली पड़ी रहती है.

माना कि उस वक्त सिंगल थिएटर के मालिक थिएटर के अंदर साफसफाई का पूरा खयाल नहीं रखते थे. इस पर लोग कहते थे कि अरे, ये गांव वाले हैं. इन्हें इस से फर्क नहीं पड़ता. यह तो जिस सीट पर बैठेंगे, उस के बगल में ही थूक देंगे वगैरहवगैरह. मु झे याद है, एक बार राजश्री प्रोडक्शन के मालिक व फिल्म वितरक ताराचंद बड़जात्या ने हम से कहा था, ‘‘हम हमेशा इस बात का खयाल रखते हैं कि दर्शक हमारी फिल्में देखने आएं तो उन्हें साफसुथरा टौयलेट वगैरह मिले. इसलिए जिस थिएटर में हमारी फिल्म रिलीज होने वाली होती थी, उस थिएटर को फिल्म का प्रिंट देने से पहले मैं स्वयं या अपनी कंपनी के एक जिम्मेदार इंसान को थिएटर में भेजता था और जब सिनेमाघर के अंदर साफसफाई अच्छी होती थी, तभी हम उसे अपनी फिल्म लगाने के लिए देते थे.’’

जी हां, यह भी सच है कि मल्टीप्लैक्स कल्चर से पहले लगभग पूरे देश के सिंगल थिएटर मालिक कुछ मामलों में लापरवाह रहे हैं. लेकिन उस वक्त कुछ सिनेमाघरों में सवा रुपए का टिकट भी रहा है. मुंबई में अंधेरी रेलवेस्टेशन से काफी नजदीक नवरंग सिनेमा नामक सिंगल थिएटर है. कभी यहां की सीटें टूटी रहती थीं. मच्छर व खटमलों का भी आतंक रहता था. इस के बावजूद यहां हाउसफुल का ही बोर्ड नजर आता था पर समय के साथ यहां भी बदलाव आया. अब यहां भी सीटें अच्छी हो गई हैं. साफसफाई भी रहती है पर यहां मल्टीप्लैक्स की तरह 200 से 2,500 रुपए तक के टिकट नहीं हैं और न ही यहां पर पौपकौर्न 250 रुपए से 500 रुपए तक का मिलता है.

हम सिर्फ मुंबई ही नहीं, बल्कि देश के लगभग हर छोटेबड़े शहर के सिंगल थिएटरों के नाम के साथ बता सकते हैं कि अब सिंगल थिएटरों में हालात काफी अच्छे हो गए हैं. उदाहरण के तौर पर, उत्तर प्रदेश में कानपुर से महज 8 किलोमीटर की दूरी पर शुक्लागंज में सिंगल थिएटर सरस्वती टाकीज को लें, या उन्नाव शहर में ‘लक्ष्मी’ या ‘सुंदर’ थिएटर को लें, यहां भी अच्छी सुविधाएं हैं पर अब लोग सिंगल थिएटर में फिल्म देखने को निजी तौहीन सम झ कर जितने रुपए में वे लक्ष्मी या सुंदर या सरस्वती टाकीज में फिल्म देख सकते हैं उतनी राशि तो वे किराए के रूप में कानपुर या लखनऊ के मल्टीप्लैक्स में फिल्म देखने के लिए खर्च कर डालते हैं. ऊपर से मल्टीप्लैक्स के टिकटों के अनापशनाप दाम. अब इस तरह शाही खर्च कर कितने दिन मनोरंजन लिया जा सकता है?

इतना ही नहीं, लखनऊ से लगभग 30 किलोमीटर दूर बाराबंकी शहर में कभी 6 सिंगल थिएटर हुआ करते थे पर मल्टीप्लैक्स कल्चर के चलते लोग बाराबंकी के सिंगल थिएटर में फिल्म देखने के बजाय लखनऊ भागने लगे. आज की तारीख में बाराबंकी में एक भी सिंगल थिएटर नहीं है.

वहां पर तो मल्टीप्लैकस भी नहीं है. अब बाराबंकी के लोगों के पास फिल्म देखने के लिए 30 किलोमीटर दूर लखनऊ जाने के अलावा विकल्प नहीं बचा. बाराबंकी से लखनऊ जाने के लिए काफी धन खर्च करना पड़ता है. परिणामतया लोगों ने फिल्में देखना बंद कर दिया या सिर्फ मोबाइल का ही सहारा बचा. इसी वजह से सिंगल थिएटर के साथसाथ मल्टीप्लैक्स से भी दर्शक दूर हो गया.

मल्टीप्लैक्स कल्चर से कैसे बरबाद हुआ सिनेमा

शुरुआत में मल्टीप्लैक्स का नयानया अनुभव, एसी में फिल्म देखने, साफसुथरे, चमकदार और खुशबूदार टौयलेट आदि की चकाचौंध से हर इंसान की आंखें इस तरह चौंधियाने लगीं कि उस की सम झ में ही नहीं आया कि मल्टीप्लैक्स ओनर तो उन की जेब पर डाका डालने पर आमादा है.

इस बात को सम झने के बजाय दर्शक सिंगल थिएटर में जाना बंद कर, सिंगल थिएटर की बुराइयां गिनाने लगे. उधर मल्टीप्लैक्स ने पीने के पानी के भी अनापशनाप पैसे वसूलना शुरू कर दिया.

मल्टीप्लैक्स ने पौपकौर्न ही नहीं समोसा, चाय, कोल्डड्रिंक के लिए भी अनापशनाप रकम ऐंठना शुरू कर दिया. आज की तारीख में साधारण तौर पर एक फिल्म देखने के लिए एक परिवार को 10 से 15 हजार रुपए खर्च करना पड़ते हैं.

मल्टीप्लैक्स यहीं पर नहीं रुके. उन्होंने फिल्म देखने के लिए लग्जरी सुविधाओं के नाम पर दर्शकों की सीट के पास ‘लैंप’, खानेपीने का सामान रखने के लिए मूवेबल टेबल, तकिया, चादर, आप चाहे तो अपनी कुरसी को लंबा कर लेट कर फिल्म देखें, कुरसी पर ही खानेपीने का सामान पहुंचाने जैसी सुविधाएं देते हुए अलग से धन वसूलना शुरू कर दिया.

जैसेजैसे मल्टीप्लैक्स ने नईनई सुविधाएं शुरू कीं, वैसेवैसे लोगों को उस का आनंद आने लगा और पहली बार धन दे कर खुद को दर्शकों ने गौरवान्वित भी महसूस किया पर यह कब तक चलता? आखिर, अब हर इंसान को सम झ में आ गया कि फिल्म देखने यानी कि मनोरंजन के नाम पर वह किस तरह फुजूल अपनी जेब ढीली कर रहा है.

देखिए, आप साधारण कुरसी पर बैठ कर फिल्म देखें या लेट कर, फिल्म तो वही रहेगी. सच यह भी है कि लेट कर फिल्म देखने का आनंद कभी नहीं आता. अकसर देखा गया कि दर्शक एसी में लेट कर फिल्म देखते हुए सो गया. कुल मिला कर फिल्म देखने के लिए यह सारी लग्जरी सुविधाएं बेमानी हैं और इन के नाम पर धन खर्च करना मूर्खता के अलावा कुछ नहीं.

मल्टीप्लैक्स दर्शकों को सिनेमा से विमुख करने में कोई कसर बाकी नहीं रख रहे हैं. हर मल्टीप्लैक्स कार या स्कूटर पार्किंग के नाम पर भी अनापशनाप धन वसूलता है. किसी भी मल्टीप्लैक्स में क्लौकरूम नहीं है, जहां दर्शक अपने उस सामान को रख सके, जिसे सिनेमाघर के अंदर नहीं ले जाने दिया जाता.

टिकट दरों पर पाबंदी

हर सिनेमाघर में टिकट के दाम इतने होने चाहिए कि हर इंसान फिल्म देख सके. इसलिए टिकट की दरें 100 रुपए से 200 रुपए के बीच ही होनी चाहिए. दक्षिण भारत में तेलंगाना व आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में सिनेमाघर मालिक, सिंगल थिएटर या मल्टीप्लैक्स टिकट के दाम 150 रुपए से अधिक नहीं रख सकते. इसी के चलते फिल्म ‘पुष्पा 2’ के निर्माताओं को सरकार से टिकट के दाम बढ़ाने की इजाजत मांगनी पड़ी, उस वक्त वहां की सरकार ने सिर्फ 4 दिन ही टिकट के दाम बढ़ाने की इजाजत दी जबकि मुंबई, दिल्ली सहित हिंदीभाषी राज्यों में टिकट के दाम 500 रुपए से 4,000 रुपए तक बढ़ाए गए थे.

अब कर्नाटक सरकार के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने 7 मार्च को अपने बजट प्रैजेंटेशन में घोषणा की कि राज्य के सिनेमाघरों में मूवी टिकट, सिंगल स्क्रीन और मल्टीप्लैक्स दोनों की कीमत 200 रुपए तक सीमित होगी.

मल्टीप्लैक्स चैन के मालिक और बौलीवुड में शोमैन के रूप मे मशहूर निर्माता सुभाष घई ने कहा है कि सिनेमाघर में फिल्म के टिकट की कीमत 150 रुपए से अधिक नहीं होनी चाहिए. सुभाष घई ने आगे कहा, ‘‘असल में टिकट की कीमत 100 रुपए से 150 रुपए के ऊपर होनी ही नहीं चाहिए. सभी सिनेमाघर मालिकों को ऐसा कर के देखना चाहिए. इस से छोटी और बड़ी फिल्में दोनों चलेंगी. बाकी यह मार्केटिंग, पब्लिसिटी कुछ नहीं है. लोग फिल्म का ट्रेलर देख सम झ जाते हैं कि उन्हें फिल्म देखनी है कि नहीं.’’

हकीकत यह है कि मल्टीप्लैक्स बेवजह के खर्च वसूलता है. फिल्म के शौकीन इंसान को इस तरह के खर्च वहन करने की जरूरत ही नहीं है. धीरेधीरे दर्शकों की आंखों पर पड़ा हुआ चकाचौंध का परदा हटा और उस ने मल्टीप्लैक्स जाना यानी कि सिनेमाघर जाना बंद कर दिया और इस का खमियाजा सिनेमा को ही भुगतना पड़ रहा. सो, सिनेमा इंडस्ट्री डूबने के कगार पर पहुंच चुकी है.

इस तरह देखा जाए तो फिल्म इंडस्ट्री को बरबाद करने में पीवीआर, आयनोक्स, सिनेपोलिस जैसे मल्टीप्लैक्स की अहम भूमिकाएं हैं. ये अगर अभी भी सुधर जाएं और टिकटों के दाम वाजिब रखें, खानेपीने की चीजों के दाम वाजिब रखें तो फिल्म इंडस्ट्री के साथ ही इन का भी भला होगा.

Government of India : विदेशी जेलों में बंद भारतीयों के लिए क्या कर रही है सरकार

Government of India : विदेशी जेलों में विचाराधीन भारतीय कैदियों की संख्या 10,152 है. कई कैदी जेलों में दम तोड़ चुके हैं और कुछ को मौत की सजा दे दी गई है मगर सरकार इक्कादुक्का मामलों को छोड़ इन कैदियों को ले कर कोई कदम उठा रही हो, ऐसा लगता नहीं है.

उत्तर प्रदेश के बांदा जिले की रहने वाली शहजादी खान, जो यूएई में मौत की सजा का सामना कर रही थी, को आखिरकार 15 फरवरी, 2025 को यूएई के नियमकानून के मुताबिक मौत की सजा दे दी गई. उस पर एक 4 वर्षीय बच्चे की हत्या करने का आरोप था. शहजादी का केस किस ने लड़ा, उस को अपने बचाव का कोई मौका मिला या नहीं, भारत सरकार ने उस की क्या मदद की, उस के लिए जो कानूनी लड़ाई लड़ी वह किस वकील ने लड़ी, उस पर कितना पैसा खर्च हुआ, हुआ भी या नहीं, उस के लिए कोई लड़ा भी या नहीं, इन सब सवालों के जवाब सरकार ने नहीं दिए.

शहजादी के परिवार वाले यानी उस के बूढ़े मांबाप और भाई उस के जनाजे में शामिल नहीं हो सके क्योंकि शहजादी के पिता शब्बीर खान और उन की बीवी इतने कम वक्त में अबूधाबी के सफर का इंतजाम नहीं कर पाए थे. न सरकार ने उन्हें बेटी के अंतिम संस्कार में पहुंचने के लिए कोई मदद मुहैया कराई. बस, दूतावासों से फोनफोन का खेल चलता रहा.

5 मार्च को अबूधाबी के कब्रिस्तान में शहजादी का शव दफना दिया गया. अबूधाबी के अधिकारियों ने पहले ही कह दिया था कि शहजादी की लाश 5 मार्च तक मुर्दाघर में रहेगी. इस के बाद अगर परिवार का कोई शख्स नहीं आता है तो उसे दफना दिया जाएगा.

शहजादी को अबूधाबी के अल बाथवा जेल में 15 फरवरी की सुबह ठीक साढ़े 5 बजे फायरिंग स्क्वायड ने दिल पर गोली मार कर सजा ए मौत दी थी. फायरिंग स्क्वायड में कुल 5 लोग थे. शहजादी को एक खास किस्म का कपड़ा पहना कर एक पोल से बांध दिया गया था. उस के दोनों हाथ पीछे की तरफ बंधे थे. दिल के ठीक ऊपर एक कपड़े का टुकड़ा लगाया गया था ताकि गोली चलाने वाले के लिए दिल का निशाना ले कर गोली चलाना आसान हो.

भारत के एडिशनल सोलिसिटर जनरल चेतन शर्मा का कहना है कि यूएई में भारतीय दूतावास को 28 फरवरी को शहजादी खान की फांसी के बारे में आधिकारिक सूचना मिली थी. अथौरिटी सभी संभव सहायता प्रदान कर रही थी मगर उन का अंतिम संस्कार 5 मार्च, 2025 को तय हो चुका था.

सरकार का असंवेदनशील रवैया

भारत में यह मामला तब सामने आया जब शहजादी खान के पिता शब्बीर खान ने अदालत का रुख किया और अपनी बेटी की वर्तमान कानूनी स्थिति व उस की भलाई के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए याचिका दायर की. कोर्ट ने विदेश मंत्रालय से जवाब तलब किया तो शहजादी की मृत्युदंड की जानकारी परिवार को मिली. मंत्रालय ने अपना पक्ष अदालत के सामने रखा और अदालत ने इस याचिका को ‘दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण’ घटना बताते हुए निबटा दिया.

15 फरवरी को अबूधाबी में शहजादी को सजा ए मौत दिए जाने के ठीक 13 दिनों बाद 28 फरवरी को 2 और भारतीयों को यूएई के ही अलाइन जेल में दिल पर गोली मार कर मौत की सजा दी गई. दोनों केरल के रहने रहने वाले थे. इन में से एक का नाम मोहम्मद रिनाश और दूसरे का मुरलीधरन था. रिनाश पर एक यूएई नागरिक के कत्ल और मुरलीधरन पर एक भारतीय नागरिक के कत्ल करने का इलजाम था.

शहजादी, रिनाश और मुरलीधरन तीनों के ही परिवारवालों का कहना है कि इन की सजा ए मौत रोकने के लिए भारत सरकार समेत किसी ने भी उन की मदद नहीं की. यहां तक कि उन्हें सहीसही जानकारी भी नहीं दी गई. शहजादी की मौत की जानकारी तो उस के घरवालों को दिल्ली हाईकोर्ट से मिली जब वे अपनी याचिका की सुनवाई के संबंध में कोर्ट पहुंचे थे.

शहजादी, रिनाश और मुरलीधरन तीनों ने एक ही दिन, एक ही तारीख और एक ही वक्त पर यानी 14 फरवरी को अपनेअपने घर आखिरी बार फोन किया था. इस के बाद 15 फरवरी की सुबह शहजादी को और 28 फरवरी की सुबह रिनाश और मुरलीधरन को मौत की सजा दे दी गई. स्पष्ट है कि उन्हें अपने बचाव का कोई मौका नहीं मिला. भारत सरकार ने उन की कोई मदद नहीं की और उन के घरवालों से बिलकुल आखिरी वक्त में उन की चंद मिनटों की बातचीत कराई गई और उस के बाद गोली मार कर उन्हें खत्म कर दिया गया.

हालांकि सरकार कहती है कि 2 सितंबर, 2024 को भारतीय दूतावास ने यूएई के विदेश मंत्रालय में शहजादी को माफी देने के लिए मर्सी पिटीशन दाखिल की थी. भारतीय एंबैसी ने यूएई में शहजादी की मदद के लिए लीगल फर्म को भी हायर किया था. भारत सरकार ने दिल्ली हाईकोर्ट को यह भी बताया कि भारतीय एंबैसी के जरिए यूएई की सरकार को 6 नवंबर, 2024 को मनाए जाने वाले उन के नैशनल डे पर भी माफी पाने वालों की लिस्ट में शहजादी का नाम शामिल करने की मांग की गई थी. मगर उस को दया नहीं मिली.

यूएई सरकार ने भारत सरकार की रिक्वैस्ट को कूड़े की टोकरी में डाल दिया. जबकि, यूएई के राष्ट्रपति शेख मोहम्मद बिन जायद अल नाहयान से प्रधानमंत्री मोदी अपनी काफी निकटता बताते हैं. प्रधानमंत्री राष्ट्रपति शेख मोहम्मद बिन जायद अल नाहयान को उन के व्यक्तिगत सहयोग और अबूधाबी में बीएपीएस मंदिर के निर्माण के लिए भूमि देने में उन की दयालुता की प्रशंसा करते नहीं थकते.

खैर, शहजादी की मौत की सजा कुछ अखबारों ने छापी तो देशवासियों को इस का पता चला मगर रिनाश और मुरलीधरन की तो कहीं कोई चर्चा ही नहीं हुई. इन मामलों पर जब विपक्ष ने सदन में आवाज उठाई और विदेश मंत्रालय से पूछा गया कि कितने भारतीय विदेशी जेलों में बंद हैं? कब से बंद हैं? और सरकार उन के लिए क्या कर रही है? तब विदेश राज्यमंत्री कीर्ति वर्धन ने सदन में यह बात उजागर की कि शहजादी ही नहीं, बल्कि संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) में मौत की सजा पाए भारतीय नागरिकों की संख्या 25 है. हालांकि, अभी इस फैसले पर अमल नहीं हुआ है. सरकार उन के लिए क्या कर रही है, क्या लीगल मदद मुहैया करा रही है, मृत्युदंड से बचाने के लिए सरकार ने वहां की सरकार से क्या बातचीत की है, इन सब सवालों के जवाब सिरे से गायब हैं. सरकार का मुंह सिला हुआ है.

विदेशी जेलों में भारतीय

विदेश राज्यमंत्री कीर्ति वर्धन सिंह ने सदन में सिर्फ इतना बताया कि मंत्रालय के पास उपलब्ध जानकारी के अनुसार, वर्तमान में यूएई में मौत की सजा पाए 25 भारतीयों के अलावा विदेशी जेलों में विचाराधीन भारतीय कैदियों की संख्या 10,152 है. (यह एक बड़ी संख्या है) मंत्री ने कहा कि सरकार विदेशी जेलों में बंद भारतीय नागरिकों की सुरक्षा, संरक्षा और कल्याण को उच्च प्राथमिकता देती है. मगर सरकार के इस दावे की पोल शहजादी, रिनाश और मुरलीधरन के परिजनों के दर्दभरे बयानों से खुल चुकी है.

विदेश मंत्रालय की मानें तो मलेशिया, कुवैत, कतर और सऊदी अरब में कई भारतीयों को मौत की सजा दी जा चुकी है. 2024 में कुवैत और सऊदी अरब में तीनतीन भारतीयों को मृत्युदंड दिया गया. वहीं एक भारतीय को जिम्बाब्वे में मौत की सजा दी गई. 2023 में कुवैत में

5 और सऊदी अरब में भी 5 भारतीयों को मृत्युदंड दिया गया. जबकि, इस साल मलेशिया में एक व्यक्ति को मृत्युदंड दिया गया.

संयुक्त अरब अमीरात का कोई आंकड़ा सरकार के पास उपलब्ध नहीं है क्योंकि वहां के अधिकारियों ने यह सा झा ही नहीं किया. यानी विदेश में पैसा कमा कर भारत में अपने परिवारों का भरणपोषण करने वाले लोग कब किसी जुर्म में जेल में डाल दिए जाएं, कब मौत के घाट उतार दिए जाएं इस का कोई ब्योरा हमारे विदेश मंत्रालय के पास नहीं होता है. शर्मनाक!

अतीत में और भी मामले

याद होंगे सरबजीत और कुलभूषण जाधव, दोनों पाकिस्तान की जेलों में बंद थे. इन की चर्चाओं से देश के अखबारों के पूरेपूरे पृष्ठ रंगे रहते थे, क्योंकि मामला पाकिस्तान से जुड़ा था. ध्रुवीकरण में उस्ताद भाजपा सरकार ने इन दोनों के मामलों को खूब उछाला और इस पर खूब जम कर वोटों की राजनीति हुई.

कुलभूषण जाधव को जासूस और आतंकवादी बताते हुए पाकिस्तान में मौत की सजा सुनाई गई थी. उन से पहले पंजाब के किसान सरबजीत को भी पाकिस्तान में आतंकवाद के आरोपों में फंसा दिया गया था. वे अनजाने में 30 अगस्त, 1990 को सीमा पार पाकिस्तानी इलाके में चले गए थे.

सरबजीत की बहन ने अपने भाई को बचाने के लिए अपनी पूरी जिंदगी होम कर दी. जिस वक्त यह उम्मीद जगी कि अब सरबजीत रिहा हो कर वतन वापस आ जाएगा, तभी 26 अप्रैल, 2013 को लाहौर की कोट लखपत जेल में कैदियों ने सरबजीत पर बर्बरता से हमला कर उन को जख्मी कर दिया और 2 मई, 2013 को उन की मृत्यु हो गई. भारत सरकार ने इस विषय में क्या कदम उठाए, इस की कोई जानकारी मीडिया को नहीं है. मगर सरबजीत जब तक जीवित रहे, उन के नाम पर पाकिस्तान को घेरने, गरियाने की कवायद जारी रही. वैसी आवाज यूएई, अमेरिका, जिम्बाब्वे आदि देशों के खिलाफ क्यों नहीं निकलती?

याद होगा, कुलभूषण के मामले में सुप्रीम कोर्ट के जानेमाने वकील हरीश साल्वे के नाम की भी काफी चर्चा हुई थी. साल्वे की गिनती देश के सब से महंगे वकीलों में होती है. उन्होंने इंटरनैशनल कोर्ट औफ जस्टिस में कुलभूषण जाधव का बचाव किया और इस के एवज में मात्र एक रुपया फीस ली. साल्वे की जिरह के बाद अंतर्राष्ट्रीय कोर्ट ने जाधव के मृत्युदंड के मामले में रोक लगा दी थी. चूंकि यह मामला भी पाकिस्तान से जुड़ा था इसलिए इस की खूब चर्चा फैलाई गई. मगर अन्य देशों में जब भारतीय नागरिकों को सजा सुनाई जाती है, मौत की सजा दी जाती है तो देश को भनक तक नहीं लगती.

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