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Kahani In Hindi : डियर पापा- क्यों पिता से नफरत करती थी श्रेया?

Kahani In Hindi : शामके 7 बज चुके थे. सुजौय किसी भी वक्त औफिस से घर आते ही होंगे. मैं ने जल्दी से चूल्हे पर चाय चढ़ाई और दरवाजे की घंटी बजने का इंतजार करने लगी.

ज्यों ही घंटी की आवाज घर में गूंजी मेरे दोनों नन्हे शैतान श्यामली और श्रेयस उछलतेकूदते अपने कमरे से बाहर आ गए और दरवाजे की कुंडी खोलते ही पापापापा चिल्लाते हुए सुजौय की टांगों से लिपट गए.

सुजौय ने मुसकरा कर अपना ब्रीफकेस मुझे थमा दिया और दोनों बच्चों को बांहों में भर कर भीतर आ गए. तीनों के कहकहे सुन कर दिल को सुकून सा मिल रहा था. सुजौय को चाय दे कर मैं भी वहीं उन तीनों के पास बैठ गई. दोनों बच्चे बड़े प्यार से अपने पापा को दिन भर की शरारतें और किस्से सुना रहे थे. सुजौय भी बड़े गर्व से चाय पीते हुए उन दोनों की बातें सुन रहे थे. अपने पापा का पूरा ध्यान खुद पर पा कर बच्चों की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था.

‘‘पापा, मैं और श्रेयस एक बहुत सुंदर ड्राइंग बना रहे हैं. उसे पूरा कर के आप को दिखाते हैं,’’ कह कर श्यामली ने अपने भाई का हाथ पकड़ा और दोनों भाग कर अपने कमरे में चले गए.

‘‘क्या सोच रही हो मैडम?’’

‘‘कुछ नहीं. आप हाथमुंह धो कर फ्रैश हो जाएं. तब तक मैं खाना गरम कर लेती हूं,’’ सुजौय के टोकने पर मैं ने मुसकरा कर जवाब दिया और फिर उठ कर रसोई की तरफ चल दी.

खाने की मेज पर भी दोनों बच्चे चहकते हुए अपने पापा को न जाने कौनकौन से किस्से सुना रहे थे. खाने के बाद कुछ देर तक सुजौय और मेरे साथ खेल कर बच्चे थक कर सो गए. सारा काम निबटा कपड़े बदलने के बाद जब मैं कमरे में पहुंची तो सुजौय पहले से ही पलंग पर लेटे हुए एकटक छत को निहार रहे थे. बत्ती बुझा कर मैं भी पलंग पर जा कर लेट गई और आंखें बंद कर के सोने की कोशिश करने लगी.

थोड़ी देर बाद सुजौय ने धीमे स्वर में पूछा, ‘‘श्रेया, नींद नहीं आ रही है क्या?’’

‘‘नहीं,’’ मैं ने गहरी सांस भर कर छोड़ते हुए जवाब दिया.

‘‘कोई टैंशन है?’’

‘‘नहीं?’’

‘‘श्यामली बता रही थी आज उस की नानी का फोन आया था.’’

‘‘क्या कहा मां ने? कैसी हैं वे?’’

‘‘ठीक हैं. हम सब का कुशलक्षेम पूछ रही थीं.’’

‘‘और साकेत कैसा है? उस की परीक्षा कैसी हुई?’’

‘‘वह भी ठीक है. अच्छी हुई.’’

‘‘सिर्फ इतनी ही बात हुई?’’

‘‘हां.’’

‘‘तो फिर इतनी खोई हुई, उदास सी क्यों हो?’’

मेरे कोई जवाब न देने पर सुजौय ने मुझे आगोश में भर लिया और फिर मेरा सिर सहलाने लगे. अचानक हुई प्रेम और अपनेपन की अनुभूति से मेरी आंखों से आंसू बह निकले. मैं कस कर सुजौय से लिपट कर फूटफूट कर रोने लगी. सुजौय ने मुझे जी भर कर रोने दिया.

कुछ देर बाद जब आंसू थमे तो मैं ने हिम्मत कर के कहा, ‘‘कल पापा की बरसी है. मां ने हमें घर बुलाया है.’’

‘‘और तुम हमेशा की तरह वहां जाना नहीं चाहतीं,’’ सुजौय ने कहा.

‘‘आप को सब पता तो है. मैं वहां क्यों नहीं जाना चाहती हूं. मां भी सब जानती हैं. फिर भी हर साल मुझ से घर आने की जिद करती हैं,’’ मैं ने भर्राई आवाज में कहा.

‘‘श्रेया, तुम जानती हो न मां बस पूरे परिवार को एकसाथ खुश देखना चाहती हैं, इसलिए हर बार तुम्हारा जवाब जानते हुए भी तुम्हें पापा की बरसी पर घर आने के लिए कहती हैं.’’

‘‘मैं जानती हूं. मैं मां को दुख नहीं पहुंचाना चाहती हूं. उन्हें दुखी देख कर मुझे भी बहुत दुख होता है. अब आप ही बताएं कि मैं क्या करूं?’’ मैं ने निराश स्वर में पूछा.

‘‘अपने पापा को माफ कर दो.’’

इस से पहले कि मैं विरोध कर पाती सुजौय फिर बोल पड़े, ‘‘देखो श्रेया मैं तुम्हारी हर तकलीफ समझता हूं और तुम्हारे हर फैसले का सम्मान भी करता हूं पर इस तरह दिल में गुस्सा और दर्द दबा कर रखने में किसी का भला नहीं है. तुम अनजाने में ही अपने साथ अपनी मां को भी तकलीफ दे रही हो. अपने अंदर से सारा गुस्सा, सारा गुबार निकाल दो और अपने पापा को माफ कर दो.’’

मुझे समझा कर कुछ देर बाद सुजौय तो सो गए पर मेरी आंखों में नींद का नामोनिशान तक न था. बीते कल की यादें खुली किताब के पन्नों की तरह मेरी आंखों के सामने खुलती चली जा रही थीं…

छोटा सा परिवार था हमारा- पापा, मम्मी, मैं और साकेत. पापा का अच्छाखासा कारोबार था. घर में किसी सुखसुविधा की कोई कमी नहीं थी. बाहर से देखने पर सब कुछ ठीक ही लगता था. पर मेरी मां की आंखों में हमेशा एक उदासी, एक डर नजर आता था. शुरू में मैं मां के आंसुओं की वजह नहीं समझ पाती थी, पर जैसेजैसे बड़ी होती गई वजह भी समझ आती गई.

वजह थे मेरे पापा जो अकसर छोटीछोटी बातों पर या फिर बिना किसी बात के मां पर हाथ उठाते थे. मुझे कभी पापा का बरताव समझ नहीं आया. जब प्यार जताते थे तो इतना कि जिस की कोई सीमा नहीं होती थी और जब गुस्सा करते थे तो वह भी इतना कि जिस की कोई हद नहीं होती थी.

पहले पापा के गुस्से का शिकार सिर्फ मां होती थीं, पर वक्त बीतने के साथ उन के गुस्से की चपेट में आने वाले लोगों का दायरा भी बढ़ता गया. पापा ने मुझ पर भी हाथ उठाना शुरू कर दिया था.

जब पापा ने पहली बार मुझ पर हाथ उठाया था तब मैं ने 2 दिनों तक बुखार के कारण आंखें नहीं खोली थीं. जब पापा मुझे मारते थे तो मां मुझे बचाने के लिए बीच में आ जाती थीं. न जाने कितनी बार मां ने हम दोनों के हिस्से की मार अकेले खाई होगी. छोटी उम्र में इतनी मार खा कर मेरे शरीर पर से कई दिनों तक मार के निशान नहीं जाते थे.

स्कूल जाने पर ऐसा महसूस होता था मानो जैसे मेरे सहपाठी मेरी ओर इशारे कर के मेरा मजाक उड़ा रहे हैं. टीचर निशानों के बारे में पूछती थीं तो झूठ बोलना पड़ता था. न जाने कितनी बार साइकिल से गिरने का बहाना बनाया होगा. अब तो गिनती भी याद नहीं है.

शुरूशुरू में मैं मार खाते वक्त बहुत रोती थी, पर वक्त के साथ मेरा रोना भी कम होता गया और कुछ वक्त बाद तो एहसास होना ही बिलकुल बंद सा हो गया था. मां अब बहुत बीमार रहने लगी थीं. मेरी परी, सुंदर मां निढाल सी रहती थीं.

डाक्टरों को भले ही मां की बीमारी की वजह पता न चल पाई हो पर मैं जानती थी. मेरी मां को एक ही बीमारी थी- मेरे पापा. मैं 8 वर्ष की थी जब साकेत का जन्म हुआ था. कितनी प्यारी मुसकान थी मेरे छोटे भाई की. दुनिया की भलाईबुराई, झूठ, फरेब, संघर्षों और तकलीफों से अनजान मासूम हंसी थी उस की. पापा ने साकेत के जन्म का जश्न मनाने में पूरे शहर को दावत दे डाली थी. मुझे लगा कि अब शायद पापा बदल जाएंगे, हम पर हाथ उठाना और गालीगलौच करना छोड़ देंगे. मगर मैं गलत थी. इनसान की फितरत बदलना नामुमकिन है.

पापा के वहशीपन से मेरा भाई भी नहीं बच पाया. मुझे उस के चेहरे पर भोलेपन की जगह खौफ नजर आता था. जब पापा हमें मार चुके होते थे तब मैं ध्यान से उन का चेहरा देखती थी. हमें गालियां देने, मारने कोसने के बाद पापा के चेहरे पर संतोष के भाव होते थे, ग्लानि नहीं. ऐसा लगता था कि हमें रोते, गिड़गिड़ाते, दर्द से कराहते देखने में पापा को खुशी मिलती थी. खुद पर गरूर होता था. कभी मुझे लगता था कि कहीं पापा किसी मानसिक रोग के शिकार तो नहीं वरना यह उन्हें हम से कैसा प्यार था जो हमारी जान का दुश्मन बना हुआ था.

मैं कई बार मां से पूछती थी कि क्या हम पापा से कहीं दूर नहीं जा सकते हैं. इस पर मां रोते हुए इसे हमारी मजबूरी बता देती थीं.

पापा के परिवार वालों ने उन्हें कभी हमें प्रताडि़त करने से नहीं रोका, बल्कि वे तो पापा को सही बता कर उन का साथ देते थे. पापा कभी अपने परिवार वालों की मानसिकता को समझ ही नहीं पाए. उन के लिए पापा बैंक का वह अकाउंट थे जिस से वे जब चाहें जितने चाहें रुपए निकाल सकते हैं पर अकाउंट कभी खाली नहीं होगा. पापा के भाई और उन के परिवार को मुफ्तखोरी की आदत लग गई थी. पापा को खुश करने के लिए वे लोग हम पर झूठे इलजाम लगाने से भी बाज नहीं आते थे.

मम्मी के परिवार वाले भी कम न थे. वे लोग शुरू से जानते थे कि पापा हमारे साथ क्या करते हैं पर उन्होंने कभी मां का साथ नहीं दिया. वजह मैं जानती थी. मेरे मामा के शौकीन मिजाज के कारण डूबते कारोबार में पापा ही रुपया लगाते थे. पापा की ही तरह उन का पैसा भी हमारा दुश्मन बन गया था.

अब मैं ने किसी से कुछ भी कहनासुनना छोड़ दिया था. पापा के लिए मेरे दिल में गुस्सा और नफरत लावा की तरह बढ़ते जा रहे थे जो अकसर फूट कर बाहर आ जाते थे. मैं अब कामना करती थी कि हमें इस नर्क से मुक्ति मिल जाए.

कुछ सालों तक सब ऐसा ही चलने के बाद अब पापा को शायद उन के कर्मों की सजा मिलनी शुरू हो गई थी. उन के भाई ने उन का सारा कारोबार डुबो दिया. सभी ने पापा का साथ छोड़ दिया था. ऐसे में मां ने अपने सारे गहने और जमापूंजी पापा को दे दिए और दिनरात कोल्हू के बैल की तरह जुत कर काम किया.

इस बीच मारपीट बिलकुल बंद सी ही थी. धीरेधीरे पापा का काम चल निकला. यह मन बड़ा पाजी चोर होता है. बारबार टूटने पर भी उम्मीद नहीं छोड़ना चाहता है. मेरे मन में पापा के बदल जाने की उम्मीद थी जो पापा ने हमेशा की तरह बड़ी बेदर्दी से रौंद डाली थी.

पापा ने फिर से वही रुख अपना लिया था. उन्होंने शायद सांप और बिच्छू की कहानी सुनी ही नहीं थी, इसलिए फिर से अपने धोखेबाज भाई पर भरोसा कर बैठे. बिच्छू ने आदत अनुसार पापा को दोबारा डस लिया और इस बार पापा धोखा बरदाश्त नहीं कर पाए. जब मम्मी एक दिन मुझे और साकेत को स्कूल से ले कर घर लौटीं तो हम ने देखा कि पापा ने आत्महत्या कर ली है.

मम्मी बेहोश हो कर गिर गईं. भाई का रोतेरोते बुरा हाल था पर मेरी आंखों में एक आंसू नहीं आया. पापा हमें रास्ते पर ला कर छोड़ गए थे. जैसा कि मुझे विश्वास था, पापा के घर वालों ने हम से हर नाता तोड़ लिया और मम्मी के घर वाले तो और भी समझदार निकले. उन्हें यह डर सता गया कि कहीं हम उन से वे रुपए न मांग ले जो पापा ने समयसमय पर उन्हें दिए थे.

हर किसी ने हमें देख कर रास्ता बदलना शुरू कर दिया था. मम्मी गहरे अवसाद की गिरफ्त में आती चली गईं. बीमारी के कारण भाई की जान जातेजाते बची.

पाप हम से सब कुछ छीन कर चले गए पर हमारा जीने का हौसला नहीं छीन पाए. बड़ी मुश्किलों से हम ने खुद को संभाला. मां ने दिनरात मेहनत व संघर्ष कर के हमें पाला. हमें कभी किसी चीज की कमी नहीं होने दी. उन की इसी तपस्या का फल बन कर सुजौय मेरे जीवन में आए.

पेशे से अधिकारी सुजौय को मेरे लिए मां ने ही पसंद किया था. मैं शुरूशुरू में उन पर विश्वास करने से डरती थी कि कहीं मेरा पति मेरे पापा जैसा न हो. पहले सुजौय को जीवनसाथी के रूप में पा कर और फिर श्यामली और श्रेयस के मेरी गोद में आने से मेरे सारे दुखों व संघर्षों पर विराम लग गया.

मां भी अब पहले से अच्छी अवस्था में थीं. साकेत भी पढ़ाई में अच्छा प्रदर्शन कर रहा था. ऐसे में दिल में सिर्फ एक कसक थी. मैं अभी तक पापा को माफ नहीं कर पाई थी. मां हर साल पापा की बरसी मनाती थीं. वे हमें भी घर आने को कहती थीं. हमेशा मुझ से कहती थीं कि मैं सब कुछ भुला दूं पर यह मेरे लिए संभव नहीं था. जब मैं सुजौय को अपने बच्चों के साथ देखती हूं तो बहुत खुश होती हूं. लेकिन साथ ही दिल में एक टीस भी उठती है कि क्या मेरे पापा ऐसे नहीं हो सकते थे. सुजौय बहुत अच्छे पति हैं और उस से भी अच्छे पिता हैं. मैं जानती हूं साकेत भी एक दिन अच्छा पति और पिता साबित होगा.

यादों की दुनिया से बाहर निकल कर मैं ने सुजौय की ओर देखा जो गहरी नींद में सो रहे थे. वे ठीक ही तो कहते हैं बीती बातों को दिल में दबाए रख कर खुद को पीड़ा देने से क्या फायदा. मां ने पापा का अत्याचार हम से कहीं ज्यादा सहा. पर फिर भी उन्होंने पापा को माफ कर दिया. अगर माफ नहीं करतीं तो उन के जाने के बाद कभी एक मजबूत चट्टान बन कर हमें सहारा न दे पातीं. सिर्फ एक मां का दिल ही इतना बड़ा हो सकता है.

अब मैं भी तो एक मां हूं फिर मुझ से इतनी बड़ी चूक कैसे हुई. मैं ने यह कैसे नजरअंदाज कर दिया कि मेरे भीतर की घुटन से मेरी मां का दम भी तो घुटता होगा. मैं पापा को सजा देने के नाम पर अनजाने में ही मां को सजा देती आई हूं. कहीं मैं भी पापा की तरह ही तो नहीं बनती जा रही हूं.

फिर मैं ने आंखें बंद कर के गहरी सांस ली और मन में कहा कि डियर पापा, मैं नहीं जानती कि आप ने हमारे साथ वह सब क्यों किया. मैं यह भी नहीं जानती कि आज भी आप को अपने किए का कोई पछतावा है भी या नहीं. मुझे आप से कोई गिलाशिकवा भी नहीं करना. आज मैं पहली और आखिरी बार आप से यह कहना चाहती हूं कि मैं आप से प्यार करती थी, इसलिए आप की मार और गालियां खाने के बाद भी उम्मीद करती थी कि शायद आप बदल जाओगे. खैर, अब इन सब बातों का कोई फायदा नहीं है. मैं बस इतना कहना चाहती हूं कि मैं आप को माफ करती हूं पर आप के लिए नहीं… अपने लिए और अपने परिवार के लिए. गुडबाय. बहुत सालों बाद मैं खुद को इतना हलका महसूस कर के चैन की नींद सोई.

अगली सुबह जब मैं नाश्ता बना रही थी तो सुजौय माथे पर बल डाले रसोई में आए, ‘‘यह क्या श्रेया… तुम ने मुझे जगाया क्यों नहीं… 8 बज चुके हैं. मुझे दफ्तर जाने में देर हो जाएगी… बच्चों को अभी तक स्कूल के लिए तैयार क्यों नहीं किया तुम ने?’’

‘‘आज बच्चे स्कूल नहीं जाएंगे. आप भी दफ्तर में फोन कर के बता दीजिए कि आज आप छुट्टी ले रहे हैं.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि आज हम सब मम्मी के घर जा रहे हैं. आज पापा की बरसी है न… आप जल्दी से नहा कर तैयार हो जाएं तब तक मैं नाश्ता तैयार कर देती हूं.’’

‘‘श्रेया,’’ सुजौय ने भावुक हो कर मेरे कंधे पर हाथ रखा तो मेरे हाथ रुक गए.

‘‘तुम अपनी इच्छा से यह कररही हो न… देखो कोई जबरदस्ती नहीं है.’’

मैं ने डबडबाई आंखों से सुजौय की ओर देखा, ‘‘नहीं सुजौय, मां ठीक कहती हैं, आप भी

सही हो. अपने भीतर का यह अंधेरा मुझे खुद ही दूर करना होगा. मैं बीते कल की इन कड़वी यादों को भुला कर आप के और अपने परिवार के साथ नई, खूबसूरत यादें बनाना चाहती हूं. मैं पापा की बरसी में जाऊंगी.’’

सुजौय सहमति में सिर हिला कर मुसकरा दिए. उन की आंखों में अपने लिए गर्व और प्रेम की चमक देख कर मुझे विश्वास हो गया कि मैं ने बिलकुल सही निर्णय लिया है.

कुछ ही देर बाद मैं सुजौय और बच्चों के साथ मां के घर पहुंच गई. बच्चे तो नानी और मामा से मिलने की बात सुन कर ही खुशी से उछल रहे थे. मेरे घंटी बजाने के कुछ क्षणों बाद मां ने दरवाजा खोला. मुझे दरवाजे पर खड़ी पा कर मां चौंक गईं. उन्हें तो सपने में भी आज मेरे घर आने की उम्मीद न थी. उन के मुंह से मेरा नाम आश्चर्य से निकला, ‘‘श्रेया… बेटा तू…’’

‘‘मां मुझे तो यहां आना ही था. आज पापा की बरसी है न.’’

मेरे मुंह से यह सुनते ही मां की आंखें भर आईं और उन्होंने आगे बढ़ कर मुझे अपने गले से लगा लिया. आज बरसों बाद हम मांबेटी लिपट कर फूटफूट कर रो रही थीं और हमारे आंसुओं से सारी पुरानी यादों की कालिख धुलती जा रही थी. Kahani In Hindi

Family Story : गवाही – आखिर कौन था उस दंगे का गवाह

Family Story : चकवाड़ा गांव में कल दोपहर को हुआ दंगा आज सुबह अखबारों की सुर्खियां बन गया. 6 घर जल गए. 3 बच्चों, 4 औरतों व 2 मर्दों की मौत के अलावा कुल 12 लोग घायल हो गए. कुछ लोगों को हलकीफुलकी चोटें आईं. इत्तिफाक से पुलिस का गश्ती दल वहां पहुंच गया और दंगे पर काबू पा लिया गया. पुलिस ने 30 लोगों को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया.

गिरफ्तार हुए लोगों में नारायण भी एक था. उस ने जिंदगी में पहली बार जेल में रात काटी थी. जेल की उस बैरक में नारायण अकेला एक कोने में सहमा सा लेटा रहा. वह उन भेडि़यों के बीच चुपचाप आंखें बंद किए सोने का बहाना करता रहा. बाकी सभी जेल में मटरगश्ती कर रहे थे. सुबह होते ही सब के साथ नारायण को भी कचहरी लाया गया. भीड़ से अलग, उदासी की चादर ओढ़े वह एक कोने में बैठ गया.

पुरानी, मटमैली सफेद धोती, आधी फटी बांहों वाली बदरंग सी बंडी, दोनों पैरों में अलगअलग रंग के जूते, बस यही उस की पोशाक थी. कचहरी के बरामदे में फैली चिलचिलाती धूप सब को परेशान कर रही थी, पर नारायण धूप से ज्यादा अपने मन में छाए डर से परेशान था.

नारायण को इस बात का भी डर था कि अगर आज का सारा दिन कचहरी में ही लग गया तो दिनभर के कामधाम का क्या होगा. शायद आज घर वालों को भूखा ही सोना पड़ेगा. नारायण को मालूम था कि कचहरी में एक मजिस्ट्रेट होता?है, वकील होते हैं और तरहतरह के गवाह होते हैं. जेल से छूटने के लिए जमानत भी देनी पड़ती है.

‘पर आज कौन देगा उस की जमानत? कैसे बताएगा वह अपनी पहचान? कैसे वह अपनेआप को इस कचहरी के चक्कर से बचा पाएगा?’ ये सारे सवाल उस का डर बढ़ाए जा रहे थे. ‘‘नारायण हाजिर हो,’’ कचहरी के गलियारे में एक आवाज गूंजी.

लोगों की भीड़ से नारायण उठा और मजिस्ट्रेट के कमरे की तरफ बढ़ा. कमरे के दरवाजे पर खड़े चपरासी ने उसे टोका, ‘‘हूं, तुम हो नारायण,’’ उस चपरासी की रूखी आवाज में हिकारत भी मिली

हुई थी. ‘‘हां हुजूर, मैं ही हूं नारायण.’’

‘‘यहीं खड़े रहो. अभी तुम्हारा नंबर आने वाला है.’’ थोड़ी देर खड़े रहने के बाद चपरासी की दूसरी आवाज पर वह मजिस्ट्रेट के कमरे में घुस गया. उस ने उन मवालियों की तरफ देखा तक नहीं, जो रातभर जेल में उस के साथ बंद थे.

कमरे में घुसते ही नारायण को एक जोरदार छींक आ गई. सभी उस की तरफ देखने लगे, जैसे उस का छींकना भी जुर्म हो गया हो. नारायण की नजर जब एक आदमी पर पड़ी तो वह चौंक पड़ा और सोचने लगा, ‘अरे, यह आदमी तो अपने गांव का गुंडा है. यही तो गांव में दंगेफसाद कराता है.’

‘‘हां, तो आप दे रहे हैं इस की जमानत?’’ मजिस्टे्रट ने उस आदमी से पूछा. सफेद कुरतापाजामा में वह पूरा नेता लग रहा था. मजिस्ट्रेट ने कागज देखा, फिर वकील से पूछा, ‘‘जगन नाम है न इस का? क्या करता है यह? ऐसा कोई कागज दिखाइए, जिस से इस की कोई पहचान हो सके. भई, अब तो सरकार ने सब को मतदाताकार्ड दे दिए हैं. कोई राशनकार्ड हो तो वह दिखा दो.’’

वकील ने कहा, ‘‘हुजूर, ये मगेंद्रजी इस की जमानत देने आए हैं. अपने मंत्रीजी की बहन के बेटे हें. मैं भी इस को पहचानता हूं. इस का दंगे में कोई हाथ नहीं. यह तो बड़े शरीफ इज्जतदार लोगों के बीच उठताबैठता है.’’ नारायण हैरानी से कभी वकील को तो कभी जगन को देख रहा था. वह सोचने लगा, ‘कितना मीठा बोल रहा है वकील. इस का बस चले तो मजिस्ट्रेट को धरती पर लेट कर प्रणाम कर ले.

‘…और यह जगन तो हमेशा नशे में धुत्त रहता है. बड़ीबड़ी गाडि़यां इसे गांव तक छोड़ने आती हैं. लोग इसे गांव के सरपंच और इस इलाके के मंत्री का खास आदमी बताते हैं तभी तो मंत्री का भांजा इस की जमानत देने आया है. ‘कल भी दंगा इसी ने कराया होगा. पर इस की तो ऊंची पहुंच है, यह पक्का मुजरिम तो जमानत पर छूट जाएगा, पर मेरा क्या होगा?’ सोचतेसोचते नारायण ने अपनेआप से सवाल किया.

नारायण के पास न कोई वकील है, न राशनकार्ड, न मतदाताकार्ड यानी उस के पास पहचान का कोई सुबूत नहीं है. राशनकार्ड बना तो था, जिस से कभीकभार उस की बीवी कैरोसिन लाती थी तो कभी मटमैली सी शक्कर भी मिल जाती थी. थोड़े दिन पहले उस की बीवी ने उसे बताया था कि दुकानदार ने राशनकार्ड रख लिया है.

‘दुकानदार ने, पर क्यों?’ नारायण ने झुंझला कर अपनी बीवी से पूछा था. वह बोली थी, ‘दुकानदार कह रहा था कि सरकार का हुक्म आया है कि राशन की चीजें उसे मिलेंगी, जो इनकाम टकस (इनकम टैक्स) नहीं देता है.

‘यह बात तेरे मर्द को कागज पर लिख कर देनी पड़ेगी. अपने मर्द से इस कागज पर दस्तखत करवा कर लाना. तब मिलेगा राशनकार्ड. यह परची दी है दुकानदार ने.’ नारायण चौथी जमात तक पढ़ा था, पर ये ‘इनकम टैक्स’ क्या होता है, उस की समझ में नहीं आया था. पड़ोसियों की देखादेखी उस ने भी कागज पर दस्तखत कर दिए थे.

नारायण की बीवी उस परची को ले कर राशन की दुकान पर 5-6 बार चक्कर लगा आई थी, पर राशनकार्ड नहीं मिला था. दुकान खुले तभी तो राशनकार्ड मिले.

किसी खास समय में ही खुलती थी राशन की दुकान. फिर अगर नारायण को राशनकार्ड मिल भी जाता तो क्या होता. कौन उसे जेब में रख कर घूमता है. नारायण को याद आया कि मतदाताकार्ड भी बना था. पूरे एक दिन का काम खोटा हो गया था. गांव के सरपंच, प्रधान व पंच जैसे लोग आए थे और सब को जीप में बैठा कर ले गए थे.

पंचायतघर के अहाते में फोटो खिंचवाने वालों की लाइन लग गई थी. मतदाताकार्ड पर फोटो तो नारायण का ही था, पर खुद नारायण भी उसे पहचान नहीं पाया. अजीब सी डरावनी शक्ल हो गई थी उस की. प्रधानी के चुनाव हो गए, तो फिर पंच आए और सब के मतदाताकार्ड छीन कर ले गए. पूछने पर वे बोले, ‘आप लोग क्या करेंगे कार्ड का. कहीं गुम हो जाएगा तो बेवजह पुलिस में एफआईआर दर्ज करानी पड़ेगी. हमें दे दो, संभाल कर रखेंगे. चुनाव आएंगे तो फिर से दे दिए जाएंगे.’

गांव के अनपढ़ लोगों को तो जैसे उल्लू बनाएं, बन जाते हैं बेचारे. कार्ड बटोरने के बाद पंचसरपंच भी कन्नी काटने लगे. नारायण अपने खयालों में खोया हुआ था कि तभी जगन की मोटी भद्दी सी आवाज आई, ‘‘अच्छा हुजूर, बड़ी मेहरबानी हुई.’’

फिर सब एकएक कर कमरे से बाहर निकल गए थे. कमरे में नारायण, मजिस्टे्रट व चपरासी वगैरह रह गए थे. ‘‘आगे चलो,’’ चपरासी ने नारायण को आगे की ओर धकेला. धक्का इतना जोरदार था कि अगर वह मजबूती से खड़ा न होता तो सीधा मजिस्ट्रेट के सामने जा कर गिरता.

मजिस्ट्रेट ने नारायण को ऊपर से नीचे तक देखा. इस के बाद उस ने नारायण की फाइल देखते हुए पूछा, ‘‘नाम क्या है तुम्हारा?’’ ‘‘जी हुजूर, ना… ना… नारायण.’’

वह ‘हुजूर’ तो आसानी से कह गया, पर ‘नारायण’ शब्द उस की जबान पर ठीक से नहीं आ सका. आवाज हलक में ही अटक गई. मजिस्ट्रेट ने अपनी नजरें ऊपर उठाईं और नारायण की आंखों में झांका. नारायण ने आंखें झुका लीं. इधर मजिस्ट्रेट ने अपने तजरबे के तराजू में नारायण को तौल लिया था.

मजिस्टे्रट बोला, ‘‘अब क्यों डर रहे हो? दंगा करते समय डर नहीं लगा था क्या? शराब पीना और दंगा करना, बस यही काम जानते हो तुम गंवार लोग. ‘‘अच्छा सचसच बताओ, फावड़े से किस को मारा था तुम ने?’’ मजिस्ट्रेट की आवाज में कड़कपन था.

नारायण से यह झूठ बरदाश्त नहीं हुआ, बल्कि उस की ताकत बन गया. इस बार उस की आवाज में बिलकुल भी घबराहट नहीं थी. नारायण बोला, ‘‘नहीं हुजूर, मैं कभी शराब नहीं पीता. मैं तो दिनभर दूसरों के खेत में मेहनतमजदूरी करता हूं. अगर नशा करूं तो मेरे बीवीबच्चे भूखे मर जाएं…’’

नारायण में आया यह बदलाव मजिस्ट्रेट को अच्छा नहीं लगा. वह नारायण की बात को बीच में ही काटते हुए बोला, ‘‘अपनी रामकहानी मत सुनाओ मुझे. मेरी बात का जवाब दो. ‘‘मैं ने तुम से पूछा था कि तुम ने फावड़े से किसे मारा था? पुलिस की रिपोर्ट में साफ लिखा है कि पुलिस ने जब तुम्हें पकड़ा तो तुम्हारे हाथ में फावड़ा था.’’

मजिस्ट्रेट की डांट से नारायण फिर घबरा गया. हाथ जोड़ कर वह मजिस्ट्रेट से बोला, ‘‘हुजूर, फावड़े से तो मैं खेत में निराईगुड़ाई कर के आया था. जब दंगा हो रहा था तब मैं खेत से सीधा घर लौट रहा था. मुझे पता नहीं था कि गांव में दंगा हो रहा है. जब फावड़ा मेरे हाथ में था, तभी पुलिस ने मुझे पकड़ लिया.’’ मजिस्ट्रेट का गुस्सा अभी कम

नहीं हुआ था. वह बोला, ‘‘बड़ी अच्छी कहानी बनाई है. अच्छा चलो, पहले अपना पहचानपत्र दो. तुम्हारा न तो कोई वकील है, न जमानत देने वाला और न तुम्हारी पहचान साबित करने वाला कोई गवाह है. ‘‘मुझे तो तुम्हारी बात पर बिलकुल भी यकीन नहीं है. मैं जानता हूं, तुम सब झूठ बोलने में माहिर हो. कोई सुबूत हो तो जल्दी पेश करो, नहीं तो जेल की हवा खानी पड़ेगी.’’

‘‘हुजूर, मेरे पास तो कोई पहचानपत्र नहीं है. गरीबी की क्या पहचान, हुजूर. मेरी पहचान का सुबूत तो यह मेरा शरीर और ये 2 हाथ हैं,’’ नारायण ने गिड़गिड़ाते हुए कहा और अपने दोनों हाथ की बंद मुट्ठियां मजिस्ट्रेट के सामने खोल दीं. उस की दोनों हथेलियां छालों से भरी हुई थीं. उस के हाथों के छाले उस की पहचान के पक्के सुबूत थे, जिन्हें किसी वकील की मदद के बिना सबकुछ कहना आता था.

ऐसी ठोस ‘गवाही’ उस मजिस्ट्रेट ने अपनी जिंदगी में पहली बार देखी थी. यह देख कर मजिस्ट्रेट की आंखें भर आईं. मजिस्ट्रेट ने अपनेआप को संभाला और फिर हुक्म दिया, ‘‘इसे बाइज्जत बरी किया जाता है.’’  Family Story 

Family Story In Hindi : वो पिताजी ही थे

Family Story In Hindi : रति के पति विशाल 2 दिनों से सिर में दर्द व थकावट की शिकायत कर रहे थे. उन्होंने कहा कि “शायद नींद पूरी नहीं हुई है.”

“आराम कीजिए आप, सारे दिन लैपटौप में आंखें गड़ाए काम भी तो करते हैं,” रति के कहने पर विशाल ने सिरदर्द की दवा ली और दूसरे कमरे में जा कर सो गए.

रति मन ही मन चिंतित थी कि इन्हें तो आराम करने को कह रही हूं पर कहीं इन्हें… उफ़, मैं भी न क्या फालतू की बात सोचने लगी हूं.

अगले दिन विशाल को बुखार भी चढ़ने लगा था. “विशाल, यह लो थर्मामीटर, अपने शरीर का तापमान देखो तो,” रति ने मास्क पहन कर उसे थर्मामीटर थमाया.

तापमान सौ डिग्री था. विशाल ने स्वयं ही पास के डाक्टर को फोन किया और अपनी स्थिति बताई.

“लग तो कोरोना के लक्षण ही रहे हैं. यों करिए, आप अस्पताल जा कर सीटी स्कैन करवा लीजिए, कुछ ब्लड टैस्ट भी व्हाट्सऐप पर बता देती हूं, आप जा कर करवा लीजिए और फिर रिपोर्ट मुझे दिखाएं.”

घर में मानो भूचाल सा आ गया था. विशाल के पृथकवास यानी आइसोलेशन के लिए उस की पत्नी ने अलग कमरा तैयार कर दिया था.

सभी टैस्ट हुए, रक्त की जांच भी करवा ली गई थी और आज रिपोर्ट भी आ गई. डाक्टर ने सारी रिपोर्ट्स देख कर कोरोना का संक्रमण होने की पुष्टि कर दी थी.

रति के हाथपैर फूल गए थे. विशाल की शारीरिक स्थिति से अधिक मानसिक स्थिति ख़राब थी. एक कमरे में बंद हर पल यही विचार मन में आता कि ‘यदि मुझे कुछ हो गया तो बच्चों का क्या होगा? उन की शिक्षा के लिए कैसे इंतजाम करेगी अकेली रति? कभी ऐसा सोचा ही नहीं था कि ऐसी महामारी यह सोचने पर विवश कर देगी. वैसे कुछ इंश्योरैंस पौलिसी तो ली हुई हैं मैं ने अपने बच्चों के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए. कुछ म्यूचुअल फंड्स और शेयर्स में भी इन्वैस्ट किया हुआ है. पर रति को तो फाइनैंस की कुछ जानकारी ही नहीं. कभी दोनों ने साथ बैठ कर यह सब चर्चा तो की ही नहीं.’

सोचतेसोचते उस का जी घबराने लगा था, कलेजा मानो हलक तक आ गया था. रहा न गया तो रति को फोन किया. फोन की घंटी लगातार बज रही थी, लेकिन रति ने फोन न उठाया तो वह कमरे के दरवाजे तक आ कर रति को आवाजें देने लगा था. बच्चों की औलाइन कक्षाएं चालू थीं, सो उस की आवाज़ किसी ने न सुनी.

हताश हो कर वह फिर अपने बिस्तर पर लेट गया. उस की आंखों से अश्रुधारा बहने लगी थी. शरीर टूट रहा था और उस का धीरज भी छूट रहा था.

तभी उस के फोन की घंटी बजी. उस ने झट से फोन उठाया, देखा रति की कौल थी, “कहिए क्या चाहिए, आप ने फोन किया था, दरअसल रात में फोन साइलैंट मोड में कर देती हूं न, सुबह नौर्मल करने का ध्यान ही नहीं आया, इसलिए आप के कौल की घंटी नहीं सुनाई दी थी पहले. अब नौर्मल किया तो देखा कि आप की मिस्डकौल थी.”

“कुछ नहीं चाहिए रति, बस मन थोड़ा घबरा रहा है. तुम फ्री हो तो कुछ बातें तुम से करना चाहता हूं,” उस के पति ने घबराए स्वर में कहा.

“देखो, यदि मुझे कुछ हो जाए…”

“उफ़, ये कैसी बातें कर रहे हैं आप,” रति ने विशाल की बात काटी.

“क्या करूं, मजबूर पिता हूं मैं. कल को मैं न रहूं तो तुम्हें व बच्चों को कोई परेशानी न हो, इसलिए कुछ बातें तुम से साझा करना चाहता हूं. अख़बारों और टीवी चैनलों पर दिखाई जा रही खबरों के अनुसार कोरोना के बढ़ते संक्रमण के चलते अस्पतालों में मरीजों के लिए जगह नहीं, दवाइयों की मुश्किल, रेमडेसिविर इंजैक्शन की सप्लाई कम पड़ रही है, अस्पतालों में बैड उपलब्ध नहीं. इसलिए फिक्रमंद हूं.”

“पहले आप नकारात्मकता को स्वयं से दूर कीजिए, सब अच्छा ही होगा. हम ने आज तक किसी का बुरा नहीं किया,” रति ने उसे ढाढस बंधाई.

“तुम ठीक ही कहती हो पर क्या करूं मन में बहुत बुरे भाव आ रहे हैं, अस्पतालों में लाशों के ढेर, भयावह मंजर आंखों के सामने बारबार घूमघूम कर आता है तो तुम्हारी और बच्चों की फ़िक्र होती है. खैर छोड़ो, मैं तुम्हें जो जानकारी दे रहा हूं उसे ध्यान से सुनो.” विशाल ने रति को अपने इन्वैस्टमैंट और इंश्योरैंस पौलिसी के बारे में जानकारी दी और कहा कि सभी फाइलें पढ़ कर अपने पास संभाल कर रख लो.

“ऐसा करो, तुम फाइलें ले कर बैठो, मैं वीडियोकौल करता हूं और तुम्हें फाइलों के अंदर की सामग्री की जानकारी देते जाता हूं.”

रति फाइलें ले कर बैठ गई थी और विशाल उसे वीडियोकौल की मारफत जानकारी दे रहा था.

सारी जानकारी दे कर उस ने अंत में रति से कहा, “सुनो, यदि मुझे कुछ हो जाए तो तुम विधवा के लिबास में न रहना…”

“विशाल, ऐसा मत कहो, मुझे नहीं अच्छा लग रहा यह सब सुनना,” रति ने खीझ कर कहा.

“क्या करूं रति, बचपन में पिता का साया सिर से उठ गया था, अपनी मां को विधवा के लिबास में देखा. न जाने कितने ही धार्मिक एवं सामाजिक आयोजनों के समय मां सब से अलग बैठी रहती. स्वयं नौकरी कर मुझे पालापोसा, बड़े दुख के दिन देखे मां ने, इसीलिए डरता हूं.”

“अच्छा ठीक है, मैं आप के लिए नाश्ता ले कर आती हूं, बुरे विचार मन में मत लाओ वरना मैं रो पडूंगी.”

अगले ही पल दोनों वीडियोकौल पर आमनेसामने बैठ कर नाश्ता खा रहे थे. रति की आंखें आंसुओं से भरी थीं और विशाल के माथे पर चिंता की रेखाएं.

एकएक दिन कर 7 दिन बीत चुके थे. विशाल की दवाइयां चालू थीं. लेकिन स्वास्थ्य में ख़ास सुधार नहीं आ रहा था. रति की मानसिक स्थिति भी ख़राब होती जा रही थी. कभी अपने बच्चों की तरफ देखती तो कभी कमरे में कोरोना पीड़ित पति को बंद दरवाजे के अंदर.

लेकिन उसे स्वयं को तो हिम्मत रखनी ही होगी न, घर में और कोई है भी तो नहीं संभालने वाला.

आज फिर उस ने डाक्टर को विशाल की सारी स्थिति से वाकिफ करवाया, “डाक्टर, मेरे पति विशाल को सांस लेने में भी परेशानी होने लगी है, आप ही बताइए मैं क्या करूं,” बोलतेबोलते उस का गला भर आया था.

“आप उन्हें तुरंत अस्पताल में एडमिट कीजिए और हिम्मत रखिए,” डाक्टर ने अपने हाथ खड़े कर उन्हें अस्पताल का रास्ता दिखा दिया था.

ऐसे में कौन भला उसे अस्पताल ले कर जाए, एम्बुलैंस की सरकारी और प्राइवेट दोनों ही सुविधाएं खूब कोशिश करने पर भी उसे मिली नहीं. उस के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी थीं. बिल्डिंग के बाहर एम्बुलैंस के साइरन तो खूब सुनाई देते हैं पर सब की सब तेज गति से अस्पतालों की तरफ रुख करती हुई दौड़ती चली जाती हैं.

वह घर से बाहर सड़क पर आ कर खड़ी हो गई. आतीजाती कारों, एम्बुलैंस, टैक्सी को हाथ दिखाती पर कोई न रुकता. कोई थमता भी तो कोरोना मरीज को ले जाने को तैयार न होता. अंत में एक औटोरिकशा वाले के सामने वह गिड़गिड़ाई, “कृपया कर मुझ पर तरस खाइए, मेरे छोटेछोटे बच्चे हैं, मैं आप को सैनिटाइज़र भी दे दूंगी, उस से आप रिकशा सैनिटाइज़ कर लेना, भाड़ा भी आप जो बोलें वह उचित, मुझ पर रहम करो.” रिकशावाला उस के पति को अस्पताल ले जाने को राजी हो गया. शायद उस के घर में भी भूख पसरी हुई थी, क्योंकि औटोरिकशा से आनेजाने वाले लोगों की संख्या भी तो कोरोना के चलते कम हो गई थी.

अस्पताल तक का सफ़र उसे मीलों लंबा लग रहा था. पति को अपनी गोद में पसारे औटो में बैठी उस की रुलाई फूट रही थी. कब अस्पताल का बोर्ड दिखे… वह मन ही मन सोच रही थी.

जैसे ही अस्पताल पहुंची, मुट्ठी में रखे भाड़े के रुपए, सैनिटाइज़र देते हुए उस ने उसे धन्यवाद भी दिया और अस्पताल के रिसैप्शन की तरफ बढ़ गई.

हाहाकार की आवाजों और कोरोना मरीजों के परिजनों के बीच से निकलते हुए वह काउंटर तक पहुंची. दिल की धडकनें मानो थम सी गई थीं, पूरे बदन में गरमी की लहर सी निरंतर दौड़ रही थी. हर तरफ रुदनक्रंदन के स्वर में सिर्फ यही सुनाई दे रहा था- ‘बैड चाहिए…’

उस ने भी जोर से पुकारा, “मेरे पति की हालत बहुत गंभीर है, एक बैड चाहिए.”

भला रिसैप्शन पर बैठे स्टाफ कहां से बैड उपलब्ध करवाते?

“सौरी सर, सौरी मैम,” कहतेकहते उन का गला भी भारी हो चुका था. रोंआसे चेहरों के बीच रति ऐसा एक चेहरा खोज रही थी जो इस भयावह समय में उस की मदद कर सके. लेकिन हर शख्स, हर चेहरा हालात के हाथों मजबूर नज़र आ रहा था.

आखिरकार, उस की रुलाई फूट पड़ी थी. वह अपने पति को बैंच पर बैठा कर स्वयं पास ही में बैठ गई और फूटफूट कर रोने लगी. कभीकभी रिसैप्शन की तरफ उम्मीदभरी नज़र से देखती कि उस के पति के लिए कहीं से बैड का इंतजाम हो जाए.

आसपास सभी तो कोरोना के मरीज एवं उन के परिजन थे, सामान्य मरीजों के लिए तो अस्पताल के दूसरे दरवाजे से दाखिल होने की व्यवस्था थी.

तभी अचानक से रिसैप्शन पर बैठे स्टाफ ने उस के पति का नाम पुकारा. वह दौड़ कर वहां गई. “आप के पति के लिए बैड की व्यवस्था हो गई है, आप कागजी कार्यवाही पूरी कीजिए और हम आप के पति को एडमिट कर देते हैं.”

मन में न जाने कितने सवाल एकसाथ उठ खड़े हुए थे- ‘यह कैसे संभव हो गया…किस ने की बैड की व्यवस्था? कितना खर्च आएगा आदि.’

लेकिन मस्तिष्क को कागजी कार्यवाही की तरफ खींच लाई रति और मन ही मन धन्यवाद करने लगी कि जिस ने भी यह व्यवस्था की वह सदा सुखी रहे.

पति को अस्पताल में एडमिट करते ही उसे अपने बच्चों का ख़याल आया. घर पर फोन किया और उन्हें सुखद संदेश दिया कि उन के पिता को बैड मिल गया है. फ़िक्र न करें, वह घर लौट रही है.

सारी रात मन में पति के स्वास्थ्य के बारे में सोचते हुए प्रकृति से विनती करती रही. बारबार मन में यह विचार भी आया कि बैड न मिलने की इतनी समस्या है, लोग जानपहचान निकाल कर अस्पताल में बैड की व्यवस्था कर रहे हैं. जिन के पास बहुत रुपएपैसे हैं वे भी किसी न किसी तरह परेशान हैं और व्यवस्था करने में लगे हुए हैं. लेकिन उस का तो कोई खैरख्वाह नहीं. न तो इतना रुपयापैसा और न ही कोई ऊंची पहुंच. मन ही मन अस्पताल के स्टाफ को धन्यवाद करते हुए कब उस की आंख लग गई, पता न चला.

तीन दिन कभी घर कभी अस्पताल के चक्कर लगाती वह बेहद थकान महसूस कर रही थी. स्वयं भी मन ही मन डर रही थी कि कहीं उसे भी संक्रमण न हो जाए. मास्क तो जैसे तीन दिन में उतारा ही नहीं, सिर्फ रात को सोते समय उतारती. हाथों में सैनिटाइज़र हर वक़्त रहता. आज घर लौट कर सांझ ढले ही निढाल हो पलंग पर लेट गई और आंख लग गई.

सुबह नियत समय पर नींद खुली, रसोई में आ कर चाय-दूध किया. अखबार उठाया तो मोटे अक्षरों में खबर की हैडलाइन देख कर उस की आंखें भर आईं.

‘युवक को बचाने के लिए बुजुर्ग का बैड लेने से इनकार, 3 दिनों बाद स्वयं की म्रुत्यु’ पूरी खबर पढ़ी.

धीरे से बुदबुदाई- ‘मैं ही तो हूं वह महिला, जिस ने अस्पताल में फूटफूट कर रोना शुरू किया था.’ उसे समझते देर न लगी कि यही वे महान पुरुष हैं जिन के त्याग से उस के पति को बैड मिला.

‘किन शब्दों में धन्यवाद करूं मैं आप का. भला एक पिता के सिवा इतना कौन किसी के लिए कर सकता है? मेरे पति को जीवन में सदैव पिता की कमी खली. पर आप भी तो पितासामान ही थे,’ वह मन ही मन बुदबुदाई.

अस्पताल में स्वास्थ्य में सुधार पाते उस के पति को उस ने पूरी घटना फोन पर बताई और कहा, “जरूरी नहीं कि रिश्ता खून का हो, कुछ रिश्ते अनजाने भी होते हैं. यों समझिए कि वो पिताजी ही थे.”  Family Story In Hindi

Street Dogs : कुत्तों की नसबंदी – क्या कष्ट हरेंगे इंसानों का

Street Dogs : सुप्रीम कोर्ट के कुत्तों के टीकाकरण और नसबंदी के आदेश के बाद केंद्र सरकार ने सभी राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों के लिए यह अनिवार्य कर दिया है कि वे कम से कम 70 प्रतिशत आवारा कुत्तों की नसबंदी व एंटी रेबीज टीकाकरण करें. यह एक बाध्यकारी प्रक्रिया होगी जिसे सभी को मानना ही होगा. इस के लिए राज्यों को अपनी प्रगति रिपोर्ट भी बनानी होगी और न करने कर जवाबदेही भी तय होगी.

इसे सही निर्णय कहा जाना चाहिए, क्योंकि बड़े शहरों से ले कर छोटे टाउन तक में कुत्तों का आतंक फैला हुआ है. कुत्तों के चलते लोग अपना रास्ता ही बदल लेते हैं. बात सिर्फ संख्या की नहीं है, इन से होने वाली बीमारी भी चिंता का विषय है. रेबीज जानलेवा है. 99.9 फीसदी मामले में मौत निश्चित है. यदि किसी को कुत्ते ने काट लिया तो इस की प्रति वैक्सीन डोज 350-500 रुपए तक की आती है. 5 डोज लगानी पड़ती हैं. कुत्ते के एक बाइट या पंजे के निशान तक से ही 2000 रुपए तक का खर्चा बैठ जाता है. जाहिर है इस का बड़ा भार सरकार को वहन करना पड़ता है और सरकार को सालाना 100 करोड़ रुपए इस बिन बुलाए दिक्कत पर खर्च करने पड़ते हैं.

अच्छी बात यह है कि केंद्र इस टारगेट को पूरा करने के लिए राज्यों को अनुदान देगी. जिस में नसबंदी और टीकाकरण के लिए प्रति कुत्ता 800 रुपए और प्रति बिल्ली 600 रुपए है. यही नहीं, फीडिंग जोन, रेबीज नियंत्रण इकाई बनाने और आश्रय स्थलों के उन्नयन के लिए अलग से फंड दिया जाएगा.

दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने आवारा कुत्तों की दिक्कतों पर खुद ही संज्ञान ले कर सरकार को यह राह दिखाई है. 11 अगस्त के अपने फैसले पर संशोधन कर 22 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि जिन कुत्तों को पकड़ा गया है उन्हें नसबंदी और एंटी रेबीज टीकाकरण के बाद फिर उन की जगह पर छोड़ दिया जाए. अब केंद्र सरकार ने पूरे देश में इसे लागू करने का फैसला किया है.

Romantic Story In Hindi : नए रिश्तों की शुरुआत – क्या केतन पा सका किसी का प्यार

Romantic Story In Hindi : जेनिफर फ्रांस की थी लेकिन भारतीय संस्कृति से प्रभावित हो यहीं की हो कर रह गई. रिश्तों की समझ थी उसे तभी तो केतन की दिल की भावनाएं अच्छी तरह से समझ गई थी.

‘‘आराम से मां, ला यह बैग मुझे दे दे. पता नहीं क्या है इस में, सीने से चिपकाए रहती है हमेशा. कहीं नहीं जाने वाला तेरा यह बैग,’’ कहते हुए केतन ने अपनी मां के हाथ से वह बैग ले लिया.

एक हाथ में सामान और दूसरे हाथ में मां की उंगली थाम रखी थी केतन ने. मां से तेज नहीं चला जाता, इसलिए वह भी धीरेधीरे उन के कदम से कदम मिलाते हुए चल रहा था.

उस को ऐसे चलता देख मां अचानक केतन के बचपन में खो गई. जब केतन चलना सीख रहा था तो वह भी तो उस के कदम से कदम मिलाती थी. कभी उस पर झुंझलाई नहीं, हमेशा सब्र रखा. आज शायद उसी का नतीजा है जो केतन भी बिना झुंझलाए उस के कदम से कदम मिला रहा है. मां की आंखें एकदम से भर आईं.

ट्रेन स्टेशन पर पहले से खड़ी थी. अपने कोच के सामने केतन अपना नाम और सीट देखने लगा. इतने में उन का सामान ले कर कुली ट्रेन के डब्बे में चढ़ चुका था. केतन ने मां को कुछ देर वहीं खड़े रहने को कहा और वह कुली के साथ अपनी सीट पर सामान व्यवस्थित करवा कर फटाफट मां के पास पहुंचा. उस ने दोनों हाथ से मां को ट्रेन में पकड़ कर चढ़ाया और दोनों सीट पर आ कर बैठ गए.

औफिस के काम से उस को पचमढ़ी जाना था. 10 दिनों का ट्रिप था. मां को अकेला छोड़ कर जाने का मन नहीं था, फिर जगह भी अच्छी थी तो केतन ने सोचा कि मां को भी अच्छा लगेगा. हालांकि इस उम्र में उन से ज्यादा तो घूमा नहीं जाएगा पर हवापानी बदलने से तबीयत अच्छी हो जाएगी, सोच कर वह मां को भी अपने साथ ले आया. दोनों अपनी सीट पर बैठे ही थे, तभी ट्रेन ने सायरन दे दिया और धीरेधीरे ट्रेन ने स्टेशन छोड़ दिया.

‘‘मां, आराम से. पैर ऊपर रख कर बैठ जा. सफर लंबा है, लटकाने से पैर सूज जाएंगे,’’ कहते हुए केतन ने मां के पैरों को ऊपर उठाने में मदद की. ट्रेन तब तक अपनी गति पकड़ चुकी थी. उन के डब्बे में अभी ज्यादा भीड़ नहीं थी, बस, उन की बगल वाली सीट पर एक पतिपत्नी का जोड़ा बैठा था, शायद अगले स्टेशन से और सवारी चढ़ जाएं.
‘‘मां ठंड तो नहीं लग रही, खिड़की बंद करूं?’’ केतन ने पूछा.
‘‘नहीं बेटा, हवा आने दे, अच्छी लग रही है.’’
और उस ठंडी हवा में मां को झपकी लग गई. केतन खिड़की के सहारे सिर टिका कर बैठ गया.

पंचमढ़ी बहुत ही सुंदर, मध्य प्रदेश का दिल हो जैसे, 5 पहाडि़यों के बीच बसा है, इसलिए नाम पचमड़ी पड़ा. केतन अचानक पंचमढ़ी की पुरानी यादों में खो गया. इस से पहले वह अपनी पत्नी के साथ शादी के बाद आया था. किरण का तो मन ही नहीं था यहां आने का. उसे तो आउट औफ इंडिया जाना था पर केतन की जिद के आगे उस की नहीं चली.

प्रकृति ने जैसे अपनी छटा बिखेर रखी है यहां. केतन कितना खुश था यहां आ कर. कितनी देखने की जगहें थीं- पांडव केव, धूपगढ़ जोकि सतपुड़ा की सब से ऊंची चोटी पर है, यहां से अस्त होते सूरज का जो दृश्य होता है वह बहुत ही विहंगम होता है. सतपुड़ा के जंगल भी बहुत ही मनोरम थे. खयालों में ही केतन की आंखों के आगे वे खूबसूरत दृश्य एक के बाद एक आते गए.

याद है उसे जब जंगल सफारी पर जाने से पहले केतन ने किरण का मूड अच्छा करने को बोला था, ‘जानेमन, इतनी अच्छी जगह पर अपना मूड खराब मत करो, यहां तो बस हम रोमांस करेंगे.’ यह कह कर केतन ने किरण को अपनी बांहों में ले लिया लेकिन किरण उस की बांहों से अपने को छुड़ाती हुई गुस्से में बोली थी, ‘यहां पर रोमांस तुम्हें सूझ सकता है, मुझे नहीं. अरे, अगर पैसों की बात थी तो मुझे से एक बार बोलते, मैं पापा को बोल देती, वे टिकट करा देते. अरे, कम से कम ऐसी जगह तो नहीं आना पड़ता.’

यह सुनते ही केतन का अच्छाखासा मूड बिगड़ गया. उस के बाद यहां की खूबसूरती भी उस का खराब मूड ठीक न कर सकी.

वह अपने खयालों में ही था कि मां की आंख खुल गई. उस ने अपने बैग में से खाना निकाल कर प्लेट में लगा कर केतन को दिया, ‘‘ले बेटा, खाना खा ले.’’
केतन और मां खाना खाने लगे. दोनों ने खाना खत्म किया तो मां बोली, ‘‘अब तू भी सो जा बेटा, थक गया होगा. मैं भी लेट जाती हूं.’’

केतन ने मां को अच्छे से चादर उढ़ा कर लिटा दिया और खुद ऊपर की बर्थ पर चला गया. वह अपनी चादर बिछा कर लेट गया. ट्रेन अपनी गति से बढ़ती जा रही थी. केतन की आंखों से नींद अभी कोसों दूर थी. वह फिर पुरानी यादों में चला गया.

किरण शुरू से उस से रिश्ता जोड़ नहीं पाई. बातबात में अपने घर, अपने पापा के पैसों के ताने देती. सासुमां से कभी तमीज से न बोलती. काम में, घर में तो उस का कभी मन लगा ही नहीं. रोज केतन से बाहर जाने की जिद करती. केतन और उस की मां ने उस के साथ समझता करने की बहुत कोशिश की पर वह तो समझता करने को तैयार ही न थी. आखिर, सालभर में दोनों अलग हो गए.

केतन की मां ने कितनी विनती की, गिड़गिड़ाई लेकिन किरण ने किसी की एक न सुनी. आज इस बात को 4 साल हो गए. इस बीच उस की मां बोलबोल कर थक गई दूसरी शादी के लिए पर केतन दोबारा चोट खाने को तैयार न था.

सोचतेसोचते उस की आंख लग गई. अचानक आवाजों से उस की आंख खुल गई. सुबह हो चुकी थी. लगता है कोई स्टेशन आया था, चाय वाले आवाज लगा रहे थे. केतन बर्थ से नीचे उतर कर आया. मां पहले ही उठ चुकी थी.

‘‘अरे मां, उठ गई, चाय पियोगी न,’’ कहते हुए केतन ने खिड़की में से एक चाय वाले को आवाज लगाई और 2 चाय ले ली.
‘‘कितनी देर और है बेटा?’’
‘‘बस मां, अब अगला स्टेशन अपना ही है, कुछ खाओगी?’’
‘‘नहीं बेटा, अब तो होटल में चल कर फ्रैश हो कर ही कुछ खाएंगे.’’
अगले स्टेशन पर केतन अपनी मां के साथ ट्रेन से उतर गया. कैब पहले ही बुक करा दी थी जो उन को लेने स्टेशन आ गई. कैब में सामान रख कर दोनों बैठ गए.
‘‘बेटा, जगह तो बहुत ही सुंदर है, कितनी अच्छी और शांत है यह.’’
‘‘हां मां, बहुत अच्छी जगह है यह.’’
आखिरकार दोनों रिजौर्ट आ गए. ‘‘मां, यहां पर तुम को किसी चीज की कमी महसूस नहीं होगी. अकेले भी मन लग जाएगा, इसलिए मैं ने यह रिजौर्ट रहने के लिए चुना.’’

कहता हुआ केतन रिसैप्शन की ओर बढ़ गया. सारी औपचारिकता पूरी करने के बाद उन को कमरे की चाबी मिल गई. केतन मां के साथ कमरे की ओर बढ़ गया. उन का सामान उन के रूम में लड़का ले कर आ रहा था.

बहुत बड़ा गार्डन, इंडोर गेम्स, स्विमिंग पूल, लाउंज हर तरह की सुविधा से युक्त था रिजौर्ट. रूम में आ व फ्रैश हो कर नाश्ता करने के बाद केतन बोला, ‘‘मां, मुझे जाना होगा, आप आराम कर लो. काम से फ्री हो कर घूमने चलेंगे. आप का मन हो तो बाहर रिजौर्ट में घूमने चली जाना, कोई डर की बात नहीं है.’’

केतन को काम में 3-4 घंटे लग गए. जब वापस आया तो देखा, मां लाउंज में बैठी थी. उस के पास एक लड़की बैठी थी. उस की उम्र 25-26 साल थी. वह विदेशी लग रही थी पर मां को तो इंग्लिश आती नहीं. वह उस के पास कैसे बैठी है, असमंजस में वह मां के पास आया. उस ने मां को प्रश्नसूचक नजरों से देखा.

मां उस के मन की बात समझ गई, ‘‘बेटा, इस का नाम जेनिफर है. यह फ्रांस की रहने वाली है. सालभर पहले भारत घूमने आई थी. भारतीय संस्कृति से इतनी प्रभावित हुई कि यहीं बसने का निश्चय कर लिया. अब एक एनजीओ में काम करती है.’’

केतन ने हैलो करना चाहा तो उस ने हाथ जोड़ कर नमस्ते किया. केतन को ऐसी आशा न थी. उस ने सकपका कर नमस्ते में हाथ जोड़ लिए. फिर उस ने उन दोनों से विदा ली. मां से बातों में पता चला कि केतन के जाने के बाद वह थोड़ा घूमने बाहर आ गई. सोफे पर अकेली बैठी थी. प्यास लगने पर पानी लेने के लिए उठी तो एकदम से उठा नहीं गया. उस लड़की ने आ कर मां की मदद की. पानी ला कर दिया. शुरू में तो मां झिझकी लेकिन ताज्जुब हुआ जब वह हिंदी में बोली. पता नहीं क्यों बेटा, उस से मिल कर लगा जैसे पिछले जन्म का कोई रिश्ता हो.’’

मां को देख कर केतन को ऐसा लगा जैसे उस से मिल कर मां बहुत खुश थी. उस के बाद केतन मां को आसपास की जगह घुमाने ले गया. रात को कमरे में आ कर दोनों सो गए. सुबह केतन फिर काम से चला गया. उस दिन भी जेनिफर और मां की खूब बात हुई.

मां ने बताया, ‘‘जेनिफर गरीबों और जरूरतमंदों की मदद के लिए हमेशा तैयार रहती है. उस ने अपनी जमापूंजी का एक हिस्सा उन के कल्याण के लिए लगा दिया. यहां रिजौर्ट में भी सब उस के हंसमुख, मिलनसार और विनम्र स्वभाव से बहुत प्रभावित हैं. सच बेटा, उस बच्ची ने तो मेरा दिल जीत लिया. तुम्हारा धन्यवाद जो मैं यहां आई और उस से मुलाकात हुई.’’
अब मां ने झिझकते हुए केतन से पूछा, ‘‘बेटा, तू तो दिनभर चला जाता है, मैं जेनिफर के साथ आसपास घूम आऊं?’’
‘‘अरे मां, ऐसे कैसे एक अजनबी पर विश्वास कर लें?’’
‘‘बेटा, वह बहुत अच्छी है. इतने कम समय में एक अपनापन सा लगने लगा है.’’
‘‘नहीं मां, मेरा मन नहीं मानता. वैसे भी, कल मुझे कुछ खास काम नहीं. हम दोनों घूमने चलेंगे.’’

अगले दिन दोनों तैयार हो कर घूमने चल पड़े. वे एक मंदिर पहुंचे. वहां पर उन्हें जेनिफर दिखी. मां ने दूर से ही उस को आवाज लगाई. वह भी मां को देख कर बहुत खुश हुई. तीनों दर्शन के लिए अंदर चल दिए. केतन ने देखा, जेनिफर ने चुन्नी से सिर ढक लिया और दोनों हाथ जोड़ कर आंखें बंद कर लीं. मां काफी देर तक पूजा करती रही.

केतन बाहर आ गया. जेनिफर भी बाहर आ गई. दोनों काफी देर तक बात करते रहे. बातों में पता चला कि वह पचमढ़ी घूमने आई है. सालभर पहले भारत आई तो भारतीय संस्कृति से बहुत प्रभावित हुई. इसलिए यहीं बस गई. अब एक एनजीओ में काम करती है. फ्रांस में भी वह सामाजिक कामों से जुड़ी थी. उस के मांबाप भी उस के इस निर्णय से खुश हैं. दोनों काफी देर तक बात करते रहे. मां सही कह रही थी, बहुत ही अच्छी हिंदी पर पकड़ है उस की.

पूरे दिन जेनिफर उन दोनों के साथ ही थी. अगले दिन केतन सुबह से ही काम पर निकल गया. 7-8 दिन यों ही निकल गए.

एक दिन केतन और मां खाना खा रहे थे, तभी मां बोली, ‘‘बेटा, एक बात बोलूं?’’
‘‘बोल न, मां.’’
‘‘तू जेनिफर से शादी कर ले.’’
केतन खाना खातेखाते रुक गया. उस को मां से ऐसी बात की आशा न थी. ‘‘यह क्या कह रही हो, मां. जानते ही कितना हैं मां हम उस को. न अपना देश, न अपना धर्म, खानपान, रहनसहन सबकुछ तो बिलकुल अलग है. और वो, वो क्यों तैयार होगी? आप ने ऐसा सोच भी कैसे लिया?’’

‘‘बेटा, तेरी मां हूं, ऐसे ही धूप में बाल सफेद नहीं किए. मैं ने उस से सब बात कर ली है. तू तो चला जाता था, मैं और वह पूरे दिन साथ रहते थे. उस को तेरे बारे में सब बता दिया. उस के मन की भी ले ली. वह तैयार है. सच बताऊं, उस की बातों से लगा जैसे वह तुझ से प्रभावित है और किस धर्म की, किस जानपहचान की बात कर रहा है, किरण से तेरा रिश्ता तो देखभाल कर किया था पर क्या हश्र हुआ?’’

यह कह कर मां चुप हो गई. केतन को कुछ समझ नहीं आया. वह रातभर सो न पाया. काफी सोचने के बाद सुबह उस ने मां से कहा, ‘‘मां, एक दफा मैं खुद जेनिफर से बात करना चाहता हूं. उस के बाद ही किसी निर्णय पर पहुंचूंगा. एक दफा चोट खा चुका, अब हिम्मत नहीं फिर से धोखा खाने की.’’

यह सब बोलते हुए केतन की आवाज भर्रा गई जिसे देख मां का कलेजा मुंह को आ गया. जब मां ने जेनिफर को केतन के मन की शंका बताई तो जेनिफर केतन के साथ जाने को तैयार हो गई. केतन जेनिफर के साथ पैदल ही निकल गया. वैसे भी, पचमड़ी जैसी सुंदर और शांत जगह और सुहाने मौसम में टहलने का अलग ही मजा है. टहलते हुए वे दोनों एक कैफे में आ गए. वहां केतन ने जेनिफर से पूछ कौफी और स्टार्टर्स का और्डर दे दिया. केतन ने पूछा कि अगर उसे कुछ नौनवेज मंगवाना हो तो बताए लेकिन जेनिफर ने बताया कि भारत में आ वह शुद्ध शाकाहारी बन गई.

केतन ने बातों में ज्यादा घुमायाफिराया नहीं, सीधे मुद्दे पर आता हुआ बोला, ‘‘जेनिफर, कल मां ने बताया कि उन्होंने तुम से हमारे बारे में बात की. प्लीज, मां की बात का बुरा मत मानना. बहुत भोली है मेरी मां. अपने बेटे यानी मुझ से बहुत प्यार करती है. बस, इसलिए…’’ केतन बोलते हुए थोड़ा रुक गया.

जेनिफर बोली, ‘‘अरे नहीं केतन, ऐसी कोई बात नहीं. सच कहूं जब मुझे मालूम चला तुम्हारी पहली शादी के टूटने का, तो सच में बहुत दुख हुआ. सच कहूं आश्चर्य भी हुआ क्योंकि जहां तक मैं ने सुना था, भारत में शादी सात जन्मों का साथ होता है पर जब मां ने किरण के व्यवहार के बारे में विस्तार से बताया तब लगा शायद तुम दोनों एकदूसरे के लिए बने ही नहीं थे.’’

केतन ध्यान से जेनिफर को सुन रहा था. जेनिफर एक गहरी सांस ले बोली, ‘‘समझती हूं केतन, सिर्फ रिश्ता नहीं टूटता, इंसान भी बहुत हद तक टूट जाता है और जो रिश्ता तोड़ना चाहता है, दर्द उसे नहीं होता; जो निभाना चाहता है, टूटता तो वह है.’’

केतन को आश्चर्य हुआ विदेशों में जहां रिश्ता टूटना कोई बड़ी बात नहीं, वहीं जेनिफर के ऐसे खयाल. तब तक कौफी का और्डर आ गया था, दोनों कौफी पीने लगे.

केतन बोला, ‘‘जेनिफर, बड़ी मुश्किल से वह सब भुला आगे बढ़ने की कोशिश कर रहा हूं. सच कहूं, अब हिम्मत नहीं फिर से दोबारा वह सब सहन करने की. फिर मैं तो संभल जाऊं पर मां, वह तो टूट ही जाएगी.’’

जेनिफर कौफी खत्म करती हुए बोली, ‘‘जानती हूं, केतन. मां से बात हुई, वह भी तुम्हारे लिए बहुत दुखी हैं. यकीन मानो, मुझ पर विश्वास करो, मेरी तरफ से तुम्हें कोई शिकायत नहीं मिलेगी. भारत की संस्कृति से इसलिए भी प्रभावित हूं कि यहां शादी का मतलब सात जन्मों का साथ होता है. मैं ने अपने आसपास हमेशा देखा जहां लोग शादी को गंभीरता से लेते ही नहीं. सच कहूं, इसलिए शादी से विश्वास उठ गया था पर इस देश में अभी ऐसे हालात नहीं हैं. यहां शादी का मतलब सिर्फ 2 लोगों का जुड़ना नहीं, 2 परिवार जुड़ते हैं.’’

केतन टिश्यू से मुंह पोंछते हुए बोला, ‘‘पर जेनिफर, हमारा धर्म, भाषा, देश सब अलग हैं. यह भावनाओं में लिया निर्णय नहीं, पूरी जिंदगी का सवाल है.’’

जेनिफर बोली, ‘‘केतन, इस देश में आ मैं ने हमेशा के लिए यहीं बसने का निर्णय ले लिया था. फिर तुम जैसा जीवनसाथी मिल जाए तो यह तो जैसे ऊपर वाले ने मुझे एक मौका दिया अपने निर्णय को एक कदम आगे ले जाने का. मेरी तरफ से हां है और यह कोई भावनाओं में लिया निर्णय नहीं, बहुत सोचसमझ कर लिया निर्णय है. मैं तो अपने मातापिता से भी बात कर चुकी हूं. अब आगे तुम्हारी मरजी.’’

केतन ने कुछ सोचा, फिर उस ने जेनिफर के हाथ पर अपना हाथ रख कहा, ‘‘जेनिफर, मुझे अपनी जिंदगी में शामिल करोगी, हमेशा के लिए.’’

जेनिफर की आंखों में आंसू थे. बिल का भुगतान कर दोनों रिजौर्ट की तरफ बढ़ गए. इधर मां बेचैनी से टहल रही थी. उन दोनों को देख मां का दिल धड़कने लगा, क्या निर्णय होगा. जेनिफर और केतन ने बिना कुछ कहे एकसाथ मां के पैर छुए.

मां असमंजस में खड़ी थी तो केतन बोला, ‘‘मां, अपने बेटे और होने वाली बहू को आशीर्वाद नहीं दोगी.’’ मां ने अपने कंपकंपाते हाथों से दोनों को आशीर्वाद दिया.

सच, जिन खूबसूरत वादियों से केतन कभी कड़वी यादें ले कर निकला था, अब यहां से एक नया रिश्ता शुरू हो रहा है.

उस ने देखा, मां और जेनिफर एकदूसरे से बातें करने में व्यस्त हैं, दोनों बहुत ही खुश भी लग रहे हैं. काफी समय बाद मां को इतना खुश देख केतन के चेहरे पर भी मुसकान आ गई. Romantic Story In Hindi 

Social Story : रोशनी की आड़ में – धर्म की आड़ में व्यभिचार

Social Story : भगवान में आस्था, व्रत, पूजापाठ, किसी में कोई कमी नहीं छोड़ी थी रागिनी की चाची ने. लेकिन इस सब के बदले में उन्हें मिला जिंदगीभर का रोना. आखिर उन के साथ ऐसा क्या घटा था?

पुरानी डायरी के पन्ने पलटते हुए अनुशा को जब रागिनी के गांव का पता मिला तो उसे लगा जैसे कोई खजाना हाथ लग गया है. अनुशा को अतीत में रागिनी के कहे शब्द याद आ गए, ‘मेरे पति को अपने गांव से बड़ा लगाव है. गांव से नाता बना रहे, इस के लिए वे साल में 1-2 बार गांव जरूर जाते हैं.’

यही सोच कर अनुशा खुश थी कि अब वह रागिनी को पत्र लिख सकती है और जब भी उस के पति गांव जाएंगे तो वहां भेजा उस का पत्र उन्हें जरूर मिल जाएगा. रागिनी को कितना आश्चर्य होगा जब वह इस चौंका देने वाली खबर के बारे में जानेगी.

अनुशा के दिमाग में रागिनी की चाची के साथ घटित हुआ वह हादसा तसवीर की भांति घूमने लगा जिसे रागिनी ने कालेज के दिनों में उसे बताया था.

मैं और रागिनी बीए कर रही थीं. दशहरे की छुट्टियां होने वाली थीं. इसलिए ज्यादातर अध्यापिकाएं घर चली गई थीं. उस दिन खाली पीरियड में हम दोनों कालेज कैंपस के लौन में बैठी थीं. मैं ने रागिनी से पूछा, ‘आज तो तुम भी व्रत पर होगी?’
रागिनी ने बड़े रूखेपन से कहा था, ‘नहीं, घर में बस, मुझे छोड़ कर सभी का व्रत है. मेरी तो धर्मकर्म से आस्था ही मर गई है.’
‘क्यों, ऐसा क्या हो गया है?’ मैं ने हंसते हुए पूछा तो रागिनी और भी गंभीर हो उठी और बोली, ‘अनुशा, मेरे यहां एक बड़ी दर्दनाक घटना घट चुकी है जिस की चर्चा भी अब घर में नहीं होती.’
मैं उत्सुकता से रागिनी को एकटक देखे जा रही थी. उस ने कहा, ‘मेरी चाची को तो तुम ने देखा है. वे अपनी मां और छोटी बहन के साथ विंध्याचल गई थीं. चाची की बहन सुशीला अविवाहित थी लेकिन पूजापाठ, धर्मकर्म में उस की बड़ी रुचि थी. वे तीनों कई दिनों तक विंध्याचल में एक पंडे के घर में रुकी रहीं. रोज गंगास्नान, पूजन, दर्शन और पंडे के यहां रात्रिनिवास. उन का यही क्रम चल रहा था.

‘एक दिन सुशीला खाना बना रही थी. उसे छोड़ कर चाची और उन की मां पूजा करने मंदिर चली गईं. कुछ देर बाद जब वे लौट कर आईं तो सुशीला को घर में न पा कर उन्होंने पंडे से पूछा तो उस ने बताया कि सुशीला भी खाना बनाने के बाद गंगास्नान को कह कर यहां से चली गई थी.
‘बहुत ढूंढ़ने के बाद भी जब सुशीला का कहीं पता न चला तो उन्होंने घर पर खबर भेजी. घर के पुरुष भी विंध्याचल आ गए. कई दिनों तक वे लोग सुशीला को इधरउधर ढूंढ़ते रहे. पुलिस में रिपोर्ट भी दर्ज कराई लेकिन सुशीला का कहीं पता नहीं चला.

‘चाची की मां का रोरो कर बुरा हाल हो गया था. वे पागलों की तरह हर किसी से सुशीला के बारे में पूछती रहतीं. यह पीड़ा वे अधिक दिनों तक नहीं झेल सकीं और कुछ ही महीने बाद उन की मौत हो गई.

‘बेटी के गायब होने से चाची के पिता तो पहले ही टूट चुके थे, पत्नी के मरने के बाद तो एकदम बेसहारा ही हो गए. बीमारी की हालत में मेरे चाचाजी उन्हें गांव से यहां ले आए. कुछ दिन इलाज चला लेकिन अंत में वे भी चल बसे. उस के बाद तो सुशीला मामले का अंत सा हो गया.

‘अब उस घटना की एकमात्र गवाह मेरी चाची ही बची हैं जो सीने में सबकुछ दफन किए बैठी हैं. उन की हंसी जैसे किसी ने छीन ली हो. इसीलिए मु?ा पर हमेशा पाबंदियां लगाए रहती हैं. इतने समय जाना है, इतने समय तक आना है, तरहतरह की चेतावनियां मुझे देती रहती हैं.

‘मुझे चाची पर बड़ा गुस्सा आता था. उन की टोकाटाकी से परेशान हो कर मैं ने एक दिन चाची को बुरी तरह झिड़क दिया था. तभी चाची ने मुझे यह घटना रोरो कर बताई थी. अनुशा, उसी दिन से मेरा मन धर्मकर्म, पूजापाठ, व्रतउपवास से बुरी तरह उचट गया.

‘उक्त घटना ने मेरे मन में कई सवाल खड़े कर दिए हैं. मेरी निसंतान चाची, जिस संतान की कामना से गई थीं उन की वह इच्छा आज तक पूरी नहीं हो सकी है. चाची की मां कुंआरी बेटी सुशीला को अच्छा घरवर पाने की जिस कामना के लिए विंध्याचल गई थीं वह पूरी होनी तो दूर, सुशीला बेचारी तो दुनिया से ही ओझल हो गई. अब तुम्हीं बताओ अनुशा, मैं क्या उत्तर दूं अपने मन को?’

रागिनी की बातें सुन कर वास्तव में मैं निरुत्तर और ठगी सी रह गई. रागिनी ने मुझे कसम दी थी कि इस घटना की चर्चा मैं कभी किसी दूसरे से न करूं क्योंकि उस के परिवार की इज्जत, मर्यादा का सवाल था.

बीए करने के बाद रागिनी की शादी हो गई. उस की ससुराल झांसी के एक गांव में है. शादी के बाद भी हमारा संपर्क बना रहा. उस ने अपने गांव का पता मेरी डायरी में यह कह कर लिख दिया था कि मेरे पति को गांव से बहुत लगाव है. वहां उन का आनाजाना लगा ही रहता है.

कुछ दिनों बाद मेरी भी शादी हो गई. मैं जब भी मायके जाती तो रागिनी का समाचार मिल जाता था. लेकिन बाद में रागिनी के पिता स्कूल से रिटायर होने के बाद अपने पुश्तैनी घर इटावा चले गए और उस के बाद हमारा संपर्क टूट गया.

मैं अपने छोटे बेटे का मुंडन कराने विंध्याचल गई थी. मुझे क्या पता था कि सुशीला की जीवनकथा में अभी एक और नया अध्याय जुड़ने वाला है जिस का सूत्रपात मेरे ही हाथों होगा. तभी से मेरे मन में अजीब सी खलबली मची हुई है. जी करता है किसी तरह रागिनी मिल जाए तो मन का बोझ हलका कर लूं. जाने उस की चाची अब इस दुनिया में हैं भी या नहीं.

अचानक पति की इस आवाज से मेरी तंद्रा भंग हुई, ‘‘मैं 5 मिनट से खड़ा तुम्हें देख रहा हूं और तुम इन पुरानी किताबों और डायरी में न जाने क्या तलाश रही हो. मेरा औफिस से आना तक तुम्हें पता नहीं चल सका. अनुशा, यही हाल रहा तो तुम एक दिन मुझे भी भूल जाओगी. अब उस घटना के पीछे क्यों पड़ी हो जिस का पटाक्षेप हो चुका है.’’

‘‘नहीं, सुधीर, रागिनी को सबकुछ बताए बगैर मुझे चैन नहीं मिलेगा, आज उस का पता मुझे मिल गया है. परिस्थितियों ने तुम्हें उस घटना का राजदार तो बना ही दिया है सुधीर, अच्छाखासा किरदार तुम ने भी तो निभाया है. रागिनी को सबकुछ जान कर कितना आश्चर्य होगा. कैसा लगेगा उसे जब दुखों की पीड़ा और खुशियों की हिलोरें उस के मन में एकसाथ तरंगित हो उठेंगी. हो सकता है, उस की चाची भी अभी जीवित हों और सबकुछ जानने के बाद और कुछ नहीं तो उन के मन को एक शांति तो मिलेगी ही.’’

सुधीर बोले, ‘‘मैडम, अब जरा आप इन झुंझवातों से बाहर निकलें और चल कर चायनाश्ते की व्यवस्था करें.’’
‘‘ठीक है, मैं नाश्ता बनाती हूं. आप दोनों बच्चों को बाहर से बुला लें.’’
‘‘मम्मी, मेरा होमवर्क अभी पूरा नहीं हुआ है. प्लीज, करा दो न,’’ बड़े भोलेपन से पिंकू ने अनुशा से कहा.
‘‘बेटे, आप लोग आज सारे काम खुदबखुद करो. तुम्हारी मम्मी अपनी पुरानी सहेली को पत्र लिखने जा रही हैं जो शायद सुबह तक ही पूरा हो पाएगा. क्यों अनुशा, सही कह रहा हूं न?’’ ‘‘बेशक, आप सच कह रहे हैं. रागिनी को पत्र लिखे बिना मेरा मन न तो किसी काम में लगेगा, न ही चित्त स्थिर हो सकेगा. संजीदगीभरे पत्र के लिए रात का शांतिपूर्ण माहौल ही अच्छा होता है.’’
अनुशा विचारों में खोई हुई पैन और पैड ले कर रागिनी को पत्र लिखने बैठ गई-
स्नेहमयी रागिनी, मधुर स्मृति, इतने लंबे अरसे बाद मेरा पत्र पा कर तुम अचंभित तो होगी ही, साथ ही रोमांचित भी. बात ही कुछ ऐसी है जो अकल्पनीय होते हुए भी सत्य है. अच्छा तो बगैर किसी भूमिका के मैं सीधे मुख्य बात पर आती हूं.

पिछले माह हम अपने छोटे बेटे पिंकू का मुंडन कराने अपने पूरे परिवार के साथ विंध्याचल गए थे. शायद मेरे ये वाक्य तुम्हारे दिमाग में एक पुरानी तसवीर खींच रहे होंगे. सच, मैं उसी से संबंधित घटना तुम्हें लिख रही हूं. उस दिन सोमवार था. हम वहां रुकना नहीं चाहते थे लेकिन परिस्थितियां कुछ ऐसी बनीं कि हमें शीतला पंडे के यहां ठहरना पड़ा.

दूसरे दिन पिंकू का मुंडन हो गया. हम ने सोचा, थोड़ा घूमफिर कर आज ही निकल जाएंगे. हम एक टैक्सी तय कर उस में बैठ ही रहे थे कि शीतला पंडे का लड़का, जिस का नाम भानु था, मेरे पास आ कर बोला कि मांजी, हमें भी साथ ले चलिए, आप का बड़ा उपकार होगा और बीचबीच में वह सहमी निगाहों से अपने घर की तरफ भी देख लेता था.

मुझे उस पर बड़ी दया आई. मैं ने सुधीर से उसे भी साथ ले चलने के लिए कहा तो वे बोले कि देख रही हो, इस के घर के सभी लोग मना कर रहे हैं. तुम जानती तो हो नहीं. घर वाले सोच रहे होंगे कि बेटा धंधा छोड़ कर कहीं घूमने न चला जाए. खैर, मेरे कहने पर सुधीर शीतला पंडे से भानु को साथ ले जाने की बात कह आए और वह मान भी गया.

मेरे दोनों बच्चे बहुत खुश थे. वे विंध्याचल के पहाड़ और पत्थर देख कर उछल रहे थे. हम लोग मंदिर पहुंच गए और वहीं बैठ कर नाश्ता करने लगे. बातों के सिलसिले में मैं ने सुधीर से कहा कि ऐसे स्थानों पर पिकनिक मनाना कितना अच्छा लगता है. भौतिक और आध्यात्मिक दोनों का आनंद एकसाथ मिल जाता है.

‘भानु, तुम भी खाओ,’ कह कर मैं ने पहला कौर मुंह में उतारा ही था कि वह जोरजोर से रो पड़ा. अचानक उस का रोना देख हम परेशान हो गए. लेकिन रागिनी, भानु की कहानी तो हर पल रुलाने वाली थी.

भानु रोते हुए कहे जा रहा था कि मांजी, बाबूजी, मुझे इस नरक से निकाल लीजिए. शीतला मेरा बाप नहीं, मेरा काल है जो मुझे खा जाएगा. मैं मरना नहीं चाहता. मुझे अपने साथ ले चलिए, मांजी.

भानु की आंखों में समंदर उमड़ रहा था. उस ने धीमे स्वर में अपनी जो कहानी सुनाई वह तुम्हारे द्वारा बताई कहानी ही थी. भानु तुम्हारी चाची की छोटी बहन सुशीला का बेटा है.

मैं ने भानु को चुप कराया और आगे की बात जल्दी पूरी करने को कहा क्योंकि उस को टैक्सी ड्राइवर का खौफ भयभीत किए जा रहा था. मैं ने सुधीर के कान में यह समस्या बताई तो सुधीर जा कर ड्राइवर से बातें करते हुए उसे कुछ आगे ले गए.

भानु अब थोड़ा आश्वस्त हो कर आंसू पोंछता हुआ कहने लगा कि मेरी मां ने मरने से पहले मुझे अपनी कहानी सुनाई थी जो इस प्रकार है : ‘उस दिन जब मेरी अम्मा और दीदी मंदिर चली गईं तो शीतला मेरे पास आ कर बैठ गया और कहने लगा कि सुशीला, क्या बनाया है आज, जरा मुझे भी खिलाओ.

‘मैं थाली में खाना लगाने लगी तो शीतला बोला कि तू तो बड़ी भोली है. सुशीला, मैं तो ऐसे ही कह रहा था. अच्छा, खाना तो बना ही चुकी है. चल तुझे आज घुमा लाऊं.

‘अभी अम्मा और दीदी आ जाएं तो साथ ही चलेंगे सब लोग. मैं अपनी बात कह ही रही थी तभी शीतला ने मुझे पकड़ कर कुछ सुंघा दिया था. बस, मुझे सुस्ती छाने लगी.
‘जब मुझे होश आया तो मैं ने खुद को एक बड़े से पुराने मकान में कैद पाया. वहां शीतला के साथ कुछ लोग और थे जिन की आवाजें ही मुझे सुनाई पड़ रही थीं. मेरा कमरा अलग था जिस में शीतला के सिवा और कोई नहीं आता था.’
भानु अपनी मां की कही कहानी को विस्तार से सुना रहा था :
‘एक दिन मैं वहां से भागने का रास्ता तलाश रही थी कि शीतला भांप गया. फिर तो उस का रौद्र रूप देख कर मैं कांप गई. मुझे कई तरह से प्रताडि़त करने के बाद वह बोला कि आगे से ऐसी हरकत की तो ऐसी दुर्गति बनाऊंगा कि तुझे खुद से भी नफरत हो जाएगी.

‘अब मेरे सामने कोई रास्ता नहीं था. मैं ने इसे ही अपनी तकदीर मान लिया और होंठ सी कर चुप रह गई. एक दिन मेरे कहने पर शीतला ने मेरी मांग में सिंदूर भर कर मुझे पत्नी का चोला जरूर पहना दिया. सालभर के अंदर ही तेरा जन्म हुआ. शीतला ने बड़ा जश्न मनाया. खुश तो मैं भी थी कि मेरा भी कोई अपना आ गया. साथ ही मैं कल्पना करने लगी कि मेरा बेटा ही मुझे यहां से मुक्ति दिलाएगा. लेकिन क्या पता था कि यह राक्षस तुझ पर भी जुल्म ढाएगा. गलती मेरी ही है, कभीकभी गुस्से में मेरे मुंह से निकल जाता था कि मेरा बेटा, बड़ा हो कर तुझे बताएगा. बस, तभी से शीतला के मन में भय सा व्याप्त हो गया था.’

भानु ने आगे बताया कि मेरी मां जिस दिन अपनी दुखभरी कहानी बता कर रो रही थी, शीतला छिप कर सबकुछ सुन रहा था. वह गुस्से में तमतमाया, गड़ासा ले कर आया और मेरे सामने ही मेरी मां का सिर धड़ से अलग कर दिया. मुझे तरहतरह से समझाया और डरायाधमकाया. मैं भी बेबस, लाचार था. मां के चले जाने से मैं एकदम अकेला पड़ गया था लेकिन मेरे मन में बदले की जो आग लगी थी वह आज तक जल रही है, मांजी.

भानु की कहानी दिल दहला देने वाली थी लेकिन हम कर ही क्या सकते थे. खैर, उस समय उसे दिलासा दे कर हम वापस लौट आए थे.

यद्यपि भानु पर बड़ा तरस आ रहा था. वह आंखों में आंसू लिए मायूसी से हमें देख रहा था. भानु यानी तुम्हारी चाची की बहन सुशीला का बेटा, रागिनी. तुम्हारी बताई वह घटना मेरी आंखों के सामने नग्न सत्य बन कर खड़ी थी, जो मेरी आस्था पर चोट कर रही थी. साथ ही यह पूरे समाज के सामने एक ऐसा सवाल खड़ा कर रही है जिस का जवाब हम सभी को मिल कर ढूंढ़ना है. खासकर हम औरतें अपनी मर्यादा पर यह प्रहार कब तक सहती रहेंगी, इस का भी जवाब हमें खुद तलाशना है. धर्म की आड़ में धर्म के ठेकेदार कब तक यह नंगा नाच करते रहेंगे?
ऐसे अनेक सवाल हैं रागिनी, जिन के जवाब हमें ही तलाशने हैं. खैर, अभी तो मैं अपनी मुख्य बात पर आती हूं. हां, तो दूसरे दिन हम अपने घर आ गए. सुधीर से मैं बारबार भानु को छुड़ा लाने की सिफारिश करती रही.

मेरे इस आग्रह पर उन्होंने यहां पुलिस स्टेशन में सूचना भी दर्ज कराई. यहां से विंध्याचल थाने पर संपर्क कर के जांचपड़ताल शुरू हो गई. यहां से पुलिस टीम विंध्याचल गई. दुर्भाग्य से वहां के दरोगा की सांठगांठ भी शीतला से थी जिस से शीतला को पुलिस काररवाई की भनक लग गई थी. लेकिन पुलिस उसे गिरफ्तार करने में सफल हो गई. भानु ने पुलिस के सामने कई रहस्य उजागर किए.

खैर, तुम्हें यह जान कर खुशी होगी कि शीतला को आजीवन कारावास की सजा हो गई है और उस की संपत्ति जब्त कर ली गई है. भानु 8वीं तक पढ़ा था, सो आजकल वह एक सरकारी दफ्तर में चपरासी है. उस ने अपना घरपरिवार बसा लिया है और अपना अतीत भूल कर वह एक नई जिंदगी जीने का प्रयास कर रहा है. उस का यह कहना कितना सच है कि धर्मस्थलों में एक शीतला नहीं, अनेक धूर्त शीतला अभी भी मौजूद हैं जो देवीदेवताओं की आड़ में भोली जनता और महिलाओं का शोषण कर रहे हैं.

मैं सोच सकती हूं कि मेरा पत्र पढ़ कर तुम्हें कैसा लग रहा होगा पर सबकुछ सत्य है. मिलने पर तुम्हें विस्तार से सारी बातें बताऊंगी. भानु अपनी मां द्वारा दिए नाम से ही अब जाना जाता है.
पत्र का उत्तर फौरन देना. मुझे बेसब्री से इंतजार रहेगा. प्रतीक्षा के साथ…
तुम्हारी अनुशा.

लेखिका : किरन पांडेय

Social Story In Hindi : मुक्ता का सवाल – क्या भोग्या बना दी गई मुक्ता

Social Story In Hindi : स्त्री को कमजोर समझ कामलोलुप पुरुष ऐसे रीतिरिवाज बनाता है कि स्त्री बेबस हो जाती है इन रिवाजों के आगे. लेकिन मुक्ता तैयार नहीं थी भोग्या बनने के लिए अपनी आई की तरह.

‘‘आई, आखिर क्या कमी है मुझ में, मैं देखने में उन लड़कियों से सुंदर हूं. मैं ने कपड़े भी अच्छे पहने हैं. बुद्धि भी तो मेरी अच्छी है. देख, मैं जोड़ कर सकती हूं,’’ कहते हुए वह उंगली पर 2 और 2 अंक जोड़ कर आई को दिखाने लगी, फिर बोली, ‘‘मैं शब्द भी लिख सकती हूं.’’ और उस ने पास ही पड़े ईंट के टुकड़े से जमीन पर आई लिखना शुरू कर दिया.
‘‘अब बता, फिर क्यों उन को इतना सम्मान और मेरा अपमान?’’ मुक्ता आज बाहर अपने हमउम्र साथियों से उपेक्षित हो कर आई थी, इसलिए कलपती हुई अपनी आई से सवाल कर बैठी. जवाब में इतना ही कह पाई सकू कि ‘‘बेटी, यह हमारा प्रारब्ध है.’’
‘‘आई, मैं प्रारब्ध-वारब्ध कुछ नहीं जानती, मुझे पढ़ना है, उन जैसा बनना है, बस,’’ मुक्ता ने अपना फरमान सुना दिया.

सकू भी चाहती थी कि उस की बेटी साक्षर बने, इसलिए उस ने बेटी की इच्छा का मान रखते हुए घर पर ही एक मास्टर उसे पढ़ाने के लिए रखा. भला इंसान था, सो घर आ कर मुक्ता को कुछ सिखा जाया करता था.
एक दिन मुक्ता ने अपनी आई से सवाल किया, ‘‘सब के घर पिता हैं, दादादादी हैं, भाईबहन हैं, हम अकेले क्यों हैं?’’
समझ न पाई सकू अपनी बेटी को, क्या समझाए, ‘‘पोर (बेटी), हम देवदासियां हैं, देवता ही हमारा परिवार है.’’
‘‘देवता हमारा परिवार कैसे हुआ, आई?’’
‘‘क्योंकि तेरी आई का ब्याह देवता से हुआ है और जब एक बार कोई लड़की देवता को ब्याह दी जाती है तो बाकी समाज से उस का नाता टूट जाता है. फिर हम सांसारिक लोगों से ब्याह नहीं कर सकते.’’
‘‘ऐसा क्यों, आई?’’
‘‘क्योंकि हमारी मांग में देवता के नाम का सिंदूर जो भर जाता है. सो, हम इस समाज से संबंध नहीं रख सकते,’’ सकू ने मुक्ता को बहलाने के उद्देश्य से कहा.
‘‘अच्छा, जब देवता से ब्याह हुआ है तो देवता का परिवार हमारा परिवार हुआ न. कहां है वह परिवार?’’ मुक्ता ने जिरह शुरू कर दी.
‘‘मंदिर में रखी पत्थर की मूर्तियां ही हमारा परिवार है, बेटी. और तुम्हें तो पता है, पत्थर की मूर्तियां बोला नहीं करतीं.’’
‘‘अगर ये पत्थर की मूर्तियां हमारा परिवार हैं तो फिर पुजारी का यहां क्या काम, यह क्यों रहता हैं यहां और तू क्यों इस की इतनी सेवा करती है?’’
‘‘क्योंकि देवता के बाद ये ही हमारे पालनहार हैं,’’ सकू का स्वर कुछ लड़खड़ा सा गया.
‘‘वाह, यह क्या बात हुई, सिंदूर देवता के नाम का, उसे भोगने वाला उस देव का उपासक?’’
सकू को समझ नहीं आ रहा था कि बेटी को कैसे समझाए कि हमारा जीवन भी, बिना स्वामी के हम एक खुली शराब की बोतल बन कर रह जाती हैं, जो चाहे उसे उठा कर गले उतार ले. कुछ गलत नहीं कह रही मुक्ता, आखिर यह कैसा पतिदेव है, कहने को सर्वशक्तिमान है, जिस से हम ने सच्चे मन से प्यार तो किया मगर वह अपनी दासी के अस्तित्व की रक्षा भी नहीं कर पाता? जिस की मरजी हो, देव के नाम पर वधू के रूप में उसे भोग कर आनंद की प्राप्ति कर लेता है.

सकू ने कभी नहीं चाहा कि उस की बेटी भी कभी देवदासी बने. वह तो चाहती थी नगर के सेठ, साहूकारों की तरह उस की बेटी पढ़े, कमाने की ऊंचनीच समझे, किसी अच्छे कुल की शोभा बने मगर इस समाज का क्या करें. यह यों तो खुद के लिए बहुत बदलाव दिखाता है लेकिन जब देवदासियों से जुड़े मुद्दे आते हैं तो पुराणपंथी बन जाता है. आखिर, क्या कमी है मुक्ता में?

रूपरंग तो मुक्ता ने सकू का ही पाया है. सौंदर्य में नगर की कोई बेटी उस के बराबर नहीं लेकिन समय उन बेटियों सा कहां पाया उस बेचारी ने. आखिर मुक्ता कहलाएगी तो देवदासी की ही कन्या न, भले ही उस में लहू बीजापुर के साहूकार का है. यह सब जानते भी हैं लेकिन मानता कोई नहीं. उस की छाया बेटी के लिए काल बनी हुई है.

देवदासी पुत्री होने के चलते समाज की पाबंदियां थीं मुक्ता पर कि किसी भी संभ्रांत परिवार की बेटी उस की सखी नहीं बनती. उसे हेय दृष्टि से देखा जाता, कई स्थलों पर उस के प्रवेश की पाबंदी होती. उसे पाठशाला जाने पर अपमानित कर भगा दिया जाता. तब मुक्ता के सवालों की बौछार आई पर हो जाती.

सकू फरियाद करे तो किस से? समाज के उच्च वर्गों से वह मुक्ता के लिए कोई सहयोग नहीं चाहती थी. कारण, उन की नियत जो जानती है वह. देख रही है इधर कुछ समय से सेठसाहूकारों का मुक्ता के प्रति कुछ अधिक उदार भाव है. सकू समझ रही थी, उम्र का लावण्य मुक्ता पर छा रहा है.

गांव के वे समृद्ध सेठसाहूकार जो अब तक सकू की देह के प्यासे थे, अब उन की नजर में सकू का यौवन ढलते सूरज सा लगने लगा है. उन्हें अब सकू में कोई आकर्षण दिखाई नहीं देता. कारण, मुक्ता का अछूता कौमार्य जो सामने नजर आता. उन की भूखी आंखें अब मुक्ता पर बिछने लगीं. ‘गरीब की भौजाई गांवभर की लुगाई’ कहावत इन्हीं लोगों के आचरण से निर्मित हुई होगी.
असमंजस की स्थिति में थी सकू, तभी मुक्ता बोली, ‘‘आई, क्या कोई नहीं है हमारा अपना इस दुनिया में?’’
‘‘यों तो कहने को रक्त संबंध हैं लेकिन न के समान. लेकिन हां, एक है जिसे हम अपना कह सकते हैं,’’ कहतेकहते अचानक आगे के शब्द मानो उस के मुंह में ही घुल कर रह गए, मुक्ता के कानों तक नहीं पहुंच पाए. वहीं, सकू अपने अतीत के गलियारे में जा खड़ी हुई.

जब से उस ने होश संभाला, उसे बस इतना याद है कि वह अपनी आई के साथ जागरणों में तो कभी रईसों के दरबारों में जा कर उन का मनोरंजन करती, उन के लिए नाचती. 6 बरस की सकू भी अपनी आई के साथ जाया करती थी. आई खूब श्रृंगार कर जब ठुमके लगाती तो साहूकारों की पोटलियां खुल जातीं, खूब सिक्के, रुपए आई की ओर उछलते. उस समय सकू नहीं जानती थी इन सिक्कों या रुपयों की गरिमा क्या है. उस वक्त उसे यह चमकदमक भाती थी.

जब वह अपने आई, बाबा और मंडली के साथ जा कर जगहजगह जागरणों में नाच करती तो उस पर से कितनी चिल्लर उछाली जाती, सिक्कों की खनखनाहट से उस के पैर और भी ऊर्जा से भर नाचने लगते. अच्छा पहनने को मिलता और जहां आयोजन में बुलाया जाता तो वहां जितने भी दिन आयोजन होता, अच्छा भोजन खाने को मिलता. फिर भले ही घर आ कर भाकरी-चटनी नसीब होती. मगर, उतने दिन जिंदगी, जिंदगी सी लगती थी. उन दिनों के बारे में सोचते हुए सकू के चेहरे पर अनायास मुसकान उभर आई.

‘‘क्या सोच रही है, आई, जो तुझे हंसी आ रही है?’’ मुक्ता ने उस के कंधे को झिंझोड़ते हुए कहा तो सकू की तंद्रा भंग हुई.
‘‘कुछ नहीं बेटी, बस यही सोच रही हूं कि काश, बीता वक्त हम लौटा पाते तो कई पीड़ाओं, कई झंझटों से बच जाते.’’
‘‘ऐसा क्या था तेरे अतीत में, आई, जो तू उस में लौटना चाहती है? मैं ने तो जब से होश संभाला है, तुझे इसी हाल में देखा है.’’
‘‘मेरा अतीत आज से कहीं अच्छा था, मेरी बच्ची. यों भी अतीत सदैव वर्तमान से ज्यादा सुखकर लगता है, मगर वर्तमान रहने तक नहीं. तब तो हम, बस, उस की उपेक्षा कर उसे कोसते रहते हैं.’’ सकू की बातों से मुक्ता की जिज्ञासा बढ़ रही थी.
‘‘बता न आई, क्या था तेरा अतीत?’’
‘‘हां बताऊंगी, मेरी बच्ची. सबकुछ बताऊंगी तुझे. अब तू समझदार हो गई है, इसलिए तुझे बतानी ही होगी सच्चाई.’’
‘‘क्या अतीत, कैसी सच्चाई, आई?’’
‘‘बेटी, सब की तरह मेरा भी एक परिवार था, आई और बाबा थे, भाईबहन थे. हम लोग भले ही गरीबी में दिन गुजार रहे थे मगर खुश थे. अधिक ख्वाहिशें नहीं थीं.’’
‘‘फिर अब क्यों नहीं है, आई, वह परिवार? क्या सब मर गए?’’
‘‘नहीं, मेरी बच्ची. हां, उम्र के साथ आई और बाबा तो दुनिया से चले गए लेकिन तेरी मौसी और मामा हैं अभी?’’
‘‘तो वह कभी मिलने क्यों नहीं आए हम से?’’
‘‘क्योंकि अब हम उन के परिवार के सदस्य नहीं रहे न.’’
‘‘परिवार के सदस्य नहीं रहे, मतलब?’’
‘‘मतलब, अब हम देवदासी परिवार से हैं, जिस से संबंध रखना सब के लिए अपमान का विषय है. लोगों को पता चलेगा तो वे क्या कहेंगे?’’
‘‘आई, क्या देवदासी होना इतना बुरा है, तो तू क्यों बनी देवदासी?’’
‘‘कौन स्त्री अपनी मरजी से देवदासी बनना चाहेगी, बेटी. हम जबरन बना दी जाती हैं.’’
‘‘जबरन, क्या किसी को यह अधिकार है कि किसी स्त्री को जबरन देवदासी बना दे. यदि है तो किस ने दिया उन्हें यह अधिकार?’’
‘‘किसी ने नहीं दिया अधिकार, इस पुरुष समाज ने स्वयं अपनी कामना तृप्ति के लिए ले लिया है यह अधिकार.’’
‘‘किस ने की तेरे साथ जबरदस्ती, आई. क्या तेरे आई और बाबा ने नहीं रोका उन्हें?’’

सकू खामोश निगाहों से बेटी की ओर देखने लगी. उसे लगा, बेटी के रूप में एक सखी मिली है उसे आज. कह डाल मन की सारी व्यथा आज. बहुत लाड़ आ रहा था सकू को अपनी बेटी पर. वह मंत्रमुग्ध सी उसे देखे जा रही थी.
‘‘चुप क्यों है, आई, बोल न तेरे आई और बाबा ने क्यों नहीं रोका?’’
‘‘कहते हैं न कुम्हार का बेटा कुम्हार, मास्टर का बेटा मास्टर. यही हुआ मेरे साथ. तेरी नानी जागरणों में नृत्य करती, सो मैं भी उस के पदचिह्नों पर चल पड़ी. जब कभी आई को कुछ पल विश्राम करना होता तो मंडली ने मुझे उन की भरपाई के रूप में मंच पर उतारना शुरू कर दिया. नयानया जोश था, बहुत भाता था तब ये सजनासंवरना, अच्छेअच्छे कपड़े पहन कर नाचना. उम्र की बेल तेजी से बढ़ रही थी, उस पर मेरा निखार ऐसा कि जो देखे वही आकर्षण में बंध जाए. बला की खूबसूरत दिखने लगी थी मैं, जवानी का रंग जो चढ़ा था.

‘‘14-15 बरस की उम्र में लोग मेरी खूबसूरती की दाद देते तो मुझे भी खुद पर अभिमान हो आता. इस प्रशंसा ने मेरी अदाओं को और भी चंचल बना दिया. अब नृत्य की मुद्राओं के साथ मेरी आंखें, भवें, होंठ, छाती, कमर सभी लटकेझटके की भाषा बोलते. लोग खुल कर मेरी अदाओं पर पैसा लुटाते. आई, भाई और बाबा बलिहारी जाते बेटी की इन भावभंगिमा पर. बस, फिर क्या था मेरे सौंदर्य और लटकोंझटकों की चर्चा दूरदूर तक फैलने लगी.

‘‘एक बार बीजापुर के साहूकार की ओर से आमंत्रण आया.
तब तक यों ही आसपास रात जागरण करते और अपना पेट भरते थे. उस दिन बतौर कलाकार के रूप में आमंत्रण आया, बीजापुर के साहूकार बड़े मालदार थे. आई और बाबा बड़ी खुशी महसूस कर रहे थे. आई ने कहा, ‘सुनोजी, ऐसा नहीं लगता कि सकू के रूप में हमारे यहां साक्षात देवी अलकनंदा आई है?’

‘‘हां, तुम ठीक कहती हो. आज सकू की बदौलत ही हम ने यह दिन देखा है.’ सब मेरी मुक्तकंठ से प्रशंसा कर रहे थे. मैं भी वहां के वैभव की कल्पना कर अपने समय को सराह रही थी. अब तक केवल सुनती ही थी कि काफी खातिरदारी होती है. इस का प्रमाण पहली बार देखा.

साहूकार ने सजीधजी छकड़ी (बैलगाड़ी), साथ में राजसी वस्त्र और आभूषण मेरे लिए भिजवाए जिन्हें पहन कर ही मुझे बीजापुर की धरती पर कदम रखना था. मुझे तो बहुत शौक था बननेसंवरने का और किस युवती को नहीं होगा आखिर श्रृंगार तो नारी का अधिकार है. उस दिन मेरी मां ने खुद मेरी विशेष सज्जा की, सारे आभूषण पहनाए.
‘‘सजेधजे बैलों वाली छकड़ी में बैलों की घंटियों की आवाज के साथ मानो मेरा डोला आगे बढ़ा रहा था. तब आई और बाबा ने बताया कि मेरे जन्म के समय पंडितों ने ठीक ही भविष्यवाणी की थी कि सकू सुख व वैभव में जीवनयापन करेगी. उस का आरंभ हो चुका था.
‘‘मंडली के सदस्य प्रसन्न मन से बाबा को बधाई दे रहे थे- ‘बधाई हो मनु भाई, अपनी सकू रानी लग रही है. देखो, किसी शाही सवारी से कम नहीं लग रही. कितना सम्मान पाया है सकू ने.’

‘सच कहते हो भाई, मेरे मन में भी ठीक यही बात चल रही है कि जिस तरह विवाह होने पर बेटी डोली में बैठ ससुराल जाती है ठीक वैसे ही हमारी सकू लग रही है आज.’ कहते हैं, कभी कोई पल ऐसा होता है कि आप की जबान पर सरस्वती का वास होता है. बाबा ने मेरे ससुराल जाने की बात कल्पना में कही थी मगर क्या पता था कि आज मेरा डोला वाकई इस घर से विदा हो रहा है. आई बारबार नजर उतार रही थी. आगेआगे सकू की छकड़ी तो पीछेपीछे मंडल के सारे कारिंदों की गाड़ी चल रही थी. ऐसा लग रहा था कोई महारानी विश्व विजय कर के आ रही है.’’
‘‘आई, तू तो नृत्य के लिए गई थी न वहां, फिर यह देवदासी, क्या हुआ बीजापुर में, उस बारे में बता न?’’ मुक्ता ने पूछा.
‘‘उस रोज काफिला साहूकार की हवेली पहुंचा तो केवड़े का इत्र छिड़क कर मंडली का भव्य स्वागत किया गया. थकान मिटाने के लिए गुलाब का शरबत पेश किया गया. मैं अपने मातापिता के चेहरे पर आई प्रसन्नता देख कर खुश थी. गरीबी से जूझते अपने परिवार को मैं अगर थोड़ी सा सुख दे पाई तो बड़ा अच्छा महसूस कर रही थी.
‘‘मैं ने पूछा था, ‘कस वाटतय आई, बाबा (कैसा लग रहा है आई, बाबा)’
‘रे देवादेवा, कुदृष्टि ने वाच्वा मा?या लेकरु ला (हे प्रकृति, बुरी नजर से बचाना मेरी बेटी को)’, आई ने मुझ पर से मुट्ठी उसारते हुए कहा था.
‘‘साहूकार के यहां भव्य आयोजन हुआ. दूरदराज से आए श्रीमंतों ने तनमन से आनंद उठाया. खूब पैसे उड़ाए. मैं ने भी अदाओं से सब का मन मोह लिया. उस पूरे आयोजन की नायिका ही मैं थी. सभी मेरे दीवाने हो गए.

‘‘समापन की बेला पर हर अतिथि सकू को अपने साथ ले जाना चाहता था. परिणामतया, उन के बीच विवाद की स्थिति बन गई. मारकाट की स्थिति आ गई. खूनखराबा हो, इस से बेहतर बीजापुर के साहूकार ने सब से ज्यादा दाम दे कर ऐलान कर दिया कि, ‘सकू बीजापुर में ही रहेगी.’ और विवाद खत्म. चूंकि बीजापुर के नगर पति थे साहूकार, इसलिए मुझ पर साहूकार का अधिकार हो गया. देवता तो केवल नाम के पति रहे, साहूकार ही मेरे पति हो गए.

‘‘साहूकार मुझे अपने साथ ले आए. अब उन्हें मेरे आई और बाबा व उन की मंडली की कोई आवश्यकता न थी, सो, मोटी रकम दे कर उन्होंने सब को विदा किया और मुझे अपनी हवेली में ठाट से रहने को घर दिया. माना, मैं साहूकारनी नहीं, न सही, मगर उस से कम रुतबा न था मेरा वहां. बहुत चाहते थे साहूकार मुझे, अपनी ब्याहता से अधिक. हां, उम्र में वे मुझ से काफी बड़े थे.’’
‘‘बड़े थे, तो तू इनकार कर देती न?’’ मुक्ता ने कहा.
‘‘कैसे कर देती, आई ने कहा था, ‘बेटी, घोड़ा और मर्द कभी बूढ़ा नहीं होता. फिर, क्या कमी है तुझे वहां, ऐसे सुख पर उम्र कुर्बान.’ बहुत गरीबी देखी थी, सो इनकार न कर सकी. आखिर, मेरे परिवार के भविष्य का सवाल था.’’
‘‘जब सबकुछ इतना अच्छा था तो फिर आज तू यहां इस हाल में, मां?’’ मुक्ता ने सवाल किया.
‘‘समय, बेटी समय अपनी कोठरी में क्या राज छिपाए रखता है, भला कौन जान सकता है. सच, किसी की कुदृष्टि ही लगी मुझे कि ढाई बरस ही हुए थे मुझे साहूकार के साथ रहते, इस बीच साहूकार का अंश यानी ‘तुम’ गर्भ में आ गईं. अपने समय पर खुद ही बलिहारी जाती मैं, नादान थी तब नहीं जानती थी कि मांग के सिंदूर का क्या महत्त्व होता है. मांग में बिन सिंदूर भरे मां बनना न केवल मां बल्कि बेटी के जीवन को भी नरक कर देता है. यह बात तब नहीं सम?ा पाई. पढ़ीलिखी नहीं थी न. बस, साहूकार के दिए प्यार और सुख व वैभव को ही अपनी गृहस्थी मान बैठी जबकि वह तो डाका था किसी की गृहस्थी में मेरा.’’
‘‘क्या साहूकार ने कभी मेरे प्रति कोई चिंता नहीं दिखाई?’’ मुक्ता का सवाल था.
‘‘दिखाते तो तब, जब वे तुझे देख पाते.’’
‘‘मतलब?’’
‘‘मतलब, समय कब क्या खेल खेल जाए, कौन जानता है. तेरा जन्म होने से पहले ही दिल का दौरा पड़ने से साहूकार चल बसे. साहूकार के जाते ही मानो मेरी दुनिया ही बदल गई. साहूकार के परिवार ने मुझे हवेली से ही नहीं, गांव से भी बेइज्जत कर बेदखल कर दिया. पेट का गर्भ लिए मैं गांव के बाहर मंदिर में पड़ी रही, जहां मैं ने तुझे जन्म दिया.’’
‘‘तो तू अपने आई और बाबा के पास क्यों नहीं चली गई?’’

‘‘खबर भेजी थी. मगर कोई नहीं आया सिवा केशव के. वह बोला, ‘चल सकू, हम फिर से अपनी मंडली सजाएंगे.’ मगर मेरा मन नहीं था तब नाचगाने का.’’ मैं मंदिर में रहती, यहीं अपना मन लगाती. इसी बीच गांव में अचानक रोग फैला, लोग मरने लगे. गांव वालों ने इस का दोष मेरे माथे मढ़ दिया. उन के अनुसार, बिन ब्याहता मां के मंदिर में रहने से यह दैवीय प्रकोप हुआ है.’’
‘‘फिर, क्या सच में ऐसा होता है मां?’’
‘‘नहीं जानती, क्या सच है.’’
‘‘तो क्या किया उन्होंने तेरे साथ?’’
‘‘वही जो आज मैं हूं.’’
‘‘मतलब?’’
‘‘वही बीजापुरवासी, जिन्होंने साहूकार के जाते ही मुझे बदचलन कह कर गांव से बाहर निकाला था, मेरी देह के प्यासे हो गए और गांव में फैली बीमारी को दैवीय प्रकोप बता कर यह ढोंग रचा कि प्रकृति की इच्छा है कि सकू देवदासी के रूप में रहे. मैं तब देवदासी क्या होती है, नहीं जानती थी. बीजापुर के मंदिर में मुझे देवदासी बनाने की रस्म पूरी हुई. ठाटबाट से मेरा ब्याह देव के साथ कराया गया. कहने को देवदासी बना दिया मुझे लेकिन मैं गांवभर की ‘नगरवधू’ बन कर रह गई. साहूकार के न रहने पर नगर का हर इंसान नगरपति बन गया और मैं उन की भोग्या.’’
‘‘आई, इस से तो अच्छा होता तू किसी से शादी कर के घर बसा लेती?’’
‘‘अपना चाहा कब होता है, बेटी. वही न होता है जो समय चाहता/करता है.’’
‘‘सचसच बताना, आई, क्या तुझे अपने जीवन में कभी किसी के प्रति अनुराग नहीं हुआ?’’
‘‘हुआ नहीं, होतेहोते रह गया.’’
‘‘यह क्या बात हुई?’’
‘‘यह भी एक अलग कहानी है.’’
‘‘कौन था वह, आई और तू ने क्यों उस के साथ घर नहीं बसाया? बसा लेती तो आज…’’

‘‘वह हमारी ही मंडली का एक अनाथ लड़का था, केशव, जो ढोलकी बजाता था. मैं भी उस की ढोलकी पर जम कर नाचती. हम दोनों की जात में अंतर था लेकिन संगीत की ताल पर हम दोनों एक हो जाते थे. केशव बचपन से मंडली के साथ ही पलाबढ़ा क्योंकि उस के पिता शर्नप्पा इसी मंडली में तबला बजाते थे. छोटा था केशव जब उस के पिता की मृत्यु हो गई. धीरेधीरे उम्र के पड़ाव के साथ केशव के मन में मेरे प्रति कुछ अतिरिक्त भाव जागृत होने लगे, इस का मु?ो एहसास हो रहा था क्योंकि यह अवस्था ही ऐसी होती है, धड़कनों की भाषा सुनाई दे ही जाती है लेकिन बात कुछ आकार ले पाती, उसी बीच यह बीजापुर का आमंत्रण आ गया और मेरी जिंदगी ने दूसरी करवट ले ली.’’
‘‘आई, तुझे केशव के साथ चले जाना चाहिए था वह आया था न तुझे लेने?’’
‘‘हां, शायद तू सही कहती है लेकिन उस का निश्च्छल प्रेम और मैं एक भोगी हुई स्त्री, कैसे खुद के पापबोध से उबर पाती. बस, इसी तरह गुजर हो रही थी. मैं मंदिर में नृत्य करती, मंदिर में सेवा करती, तथाकथित भगवान के तथाकथित भक्त मेरा भोग लगाते. इसी तरह जीवन व्यतीत हो रहा था. बस, एक तू थी जिसे देख कुछ खुशी मिलती. बहुत थोड़ा सुख का समय देखा था साहूकार के साथ. नगरभर की चहेती पल में नगरसेविका बन गई.’’
‘‘आई, क्या तू देवदासी होने में विश्वास रखती है? क्या सच में देवता किसी का पति हो सकता है?’’
‘‘पता नहीं, पोर समाज ने यह परंपरा बनाई है तो कुछ होगा ही.’’
‘‘नहीं, आई. इस के पीछे समाज की घिनौनी सोच के अलावा कुछ नहीं. यह पुरुष की कामवासना पूर्ति की चाल है. अगर ऐसा होता तो क्यों किसी सेठ, साहूकार या पुजारी ने अपने घर की बहूबेटियों को कभी देवदासी नहीं बनाया? सोच, पति जो होता है उस का फर्ज क्या होता है, अपनी पत्नी की देखभाल करना, उस के सुखदुख का ध्यान रखना, संकट में उस की रक्षा करना, यही न?’’

सकू अपनी बेटी पर बलिहारी जा रही थी, कितनी समझदार हो गई है उस की बेटी. आक्षरज्ञान दे कर मास्टरजी ने उस की बेटी में आत्मविश्वास जगा दिया है. वह मन ही मन नजर उतार रही थी मुक्ता की.
‘‘बोल न, मैं ने तुझ से प्रश्न किया है, क्या तेरे देवता पति ने तुझे समाज के इन भेडि़यों से बचाया?’’
‘‘शायद तू ठीक कहती है, मुक्ता. एक देवदासी की अपनी पीड़ा कौन समझे जिस का पति अमूर्त, न जिस से मन की बात कर पाती, न जज्बात ही निकाल पाती, कड़वे दिन थे मगर काटने तो थे.’’
‘‘तुझे सख्ती से मना कर देना चाहिए था कि नहीं बनना देवदासी, तुम कौन होते हो मुझे देवदासी बनाने वाले?’’

‘‘शायद कह भी देती बेटी मगर नहीं जानती थी देवदासी के नाम पर मैं नगरवधू बन कर रह जाऊंगी. शुरू में तो मुझे बताया गया था कि मेरा काम है देवताओं का श्रृंगार करना और उन को खुश करने के लिए मंदिर में नृत्य करना, क्योंकि वे स्वर्ग में रहने के आदी हैं जहां अप्सराएं उन का इसी तरह नृत्य कर मनोरंजन करती हैं. नृत्य चूंकि मेरा शौक था, इसलिए मुझे कोई आपत्ति नहीं हुई.’’
‘‘सोच आई, तो क्या अप्सराएं मनोरंजन की वस्तु हैं?’’
‘‘नहीं जानती बेटी मगर शुरू से यही देखती आ रही हूं.’’
‘‘क्या?’’

‘‘ये लोग 10-11 साल की मासूम लड़कियों को देवदासी के नाम पर यहां ला कर, उन्हें देवता को प्रसन्न करने के बहाने निर्वस्त्र कर देते हैं, फिर 80-90 किलो के पुजारियों को छोड़ दिया जाता है उन पर भूखेभेडि़यों की भांति.’’
‘‘तो आप ने स्वीकार क्यों किया भूखे भेडि़यों का शिकार बनना, आई?’’
‘‘कैसे न करती बेटी, यही प्रथा जो चली आ रही है सदियों से, किस के दम पर न कहती. इस में अकेले मेरे मना करने की गुंजाइश कहां. उलटे, हाथी जैसे पुजारी को अपने ऊपर पा कर जब दर्द और भय से चीखी तो पुजारी ने यह कह कर मेरे होंठ सी दिए कि, ‘आज मैं तेरा ईश्वर से मिलन करवा रहा हूं, इस तरह हंगामा करेगी तो ईश्वरमिलन में बाधा होगी.’ सो, चुपचाप होने दे, जो हो रहा है.’
‘‘लेकिन आई इतना सब हो कर भी इन पुजारियों की छवि समाज में इतनी पाकसाफ क्यों है, कोई इन का नकाब क्यों नहीं उतारता?’’
‘‘कौन उतारे, यह पुरुष समाज है, अपनी बारी आने पर सब एक स्वर में गुर्राने लगते हैं. लोग दिखावे के लिए ब्रह्मचर्य धारण किए हुए हैं लेकिन अपनी हवस मिटाने के लिए हमारे शरीर का भोग लगाते हैं. एक तरह से मुफ्त में यौन आनंद प्राप्त करना इन का स्वभाव बन गया है, फिर धीरेधीरे यही परंपरा बन गई.
‘‘कुछ लोग हमारी देह के बदले खुश हो हमें कुछ रकम दे देते, तो पुजारियों द्वारा वह भी हम से यह कह कर ले ली जाती कि यह रकम मंदिर की व्यवस्था और रखरखाव के लिए खर्च की जाएगी.’’
‘‘यह तो सरासर अन्याय है, आई?’’
‘‘समझती हैं हम, इतना ही नहीं, अपना शरीर सौंप कर हम ने कई मंदिरों को समृद्धशाली बनाया है. मगर हमारा नाम कोई नहीं लेता, बल्कि घृणा करते हैं हम से.’’
‘‘आई, क्या कभी ग्लानि या लज्जा का अनुभव नहीं होता तुझे?’’
‘‘होता है बेटी, विशेषकर तेरे सामने. काश, साहूकार जीवित होते तो तुझे अपना खून समझ कुछ तो कृपा करते. मगर क्या रास्ता है मेरे सामने, समाज में कौन हमें अपनाएगा. हमारे पेट की भूख को तो हम नहीं मार सकते न. फिर देवदासियों को इस काम के लिए सामाजिक स्वीकृति मिली होती है, इसलिए कोई अपराधबोध नहीं पाला मैं ने.’’

‘‘मुझे किसी की कृपा नहीं चाहिए. एक बात बता, अब तो यह देवदासी परंपरा बंद हो गई न, आई. फिर क्यों अब ये सब लोग मुझे ले तुम्हें बाध्य कर रहे हैं?’’
‘‘बेटी, बंद हुई है लेकिन ठीक वैसे ही जैसे कहने को दहेजप्रथा बंद हुई है मगर समाज में यह आज और भी विकराल रूप में जीवित है. दहेज को ले कर आज बेटियां प्रताडि़त की जा रही हैं. इसलिए हम ने भी कहीं और ठोकरें खाने से वेश्यावृत्ति को ही अपना लिया.’’
‘‘आई, तू कुछ और काम भी तो कर सकती थी?’’
‘‘जैसे?’’
‘‘जैसे, तू रसोई अच्छी बनाती है, खानावल ही खोल लेती?’’
‘‘खानावल, क्या तू नहीं जानती कि हमारे हाथ का खाना वर्जित है समाज के इन तथाकथित सभ्य लोगों को, कौन आता हमारे खानावल में, चोरउचक्के, दारूकुट्टे न?’’
‘‘फिर भी आई, वह जीवन इस से बेहतर होता. अपना कहने को अपना रोजगार तो होता जहां इज्जत से रहते?’’
‘‘तुझे लगता है बेटी, तू जानती नहीं, हर धंधे में चिकल्लस होती है. हां, कभीकभी सोचती हूं कि क्या मिला साहूकार से मुझे. महज ढाई बरस का सहवास और कोख में एक संतान जिस का भविष्य भी तय नहीं. फिर पल में सब छिन गया. ऐसा लगा जिंदगी के सारे रंग ही चले गए. जिंदगी का कैनवास फिर से श्वेतश्याम हो गया. अक्षरों का ज्ञान न सही मुझे लेकिन वक्त की ठोकरों ने इतना तो समझा ही दिया कि देवदासी के नाम पर मेरे जीवन से केवल खिलवाड़ ही हुआ है. गांव वालों के मन में बसी कलुषता मैं भलीभांति जान गई हूं कि सब ने मुझे जीभर भोगा. अब पेट भर गया तो उन की नजर तुझ पर है.’’

समझ रही थी सकू कि समाज के ये तथाकथित ठेकेदार चाहते हैं कि देवदासी की परंपरा बरकरार रहे ताकि उन के दैहिक ताप का समाधान बना रहे लेकिन अपनी बेटी की खातिर उस ने विरोध किया तो गांव के पंच प्रधान से ले कर पंडितपुजारी तक एक ही थाली के चट्टेबट्टे निकले, जिन के आगे एक मां की ममता कमजोर पड़ रही थी. वह क्या करे क्या न करे, कुछ समझ नहीं आ रहा था. फिर समय ने अपना खेल दिखाया, गांव में फिर प्रकृति का प्रकोप हुआ.

गांव के पशु अचानक मरने लगे, पाला पड़ा और खेतों में फसल बैठ गई. सब ने मिल कर इस का दोषी सकू को ठहराया कि इस गांव में प्रथा है देवदासी की, यह सदियों से चली आ रही है, यह देवता का इशारा है कि मुक्ता को देवदासी बनाया जाए. सकू ने विरोध किया इसलिए देव नाराज हो गए और उन्होंने यह दंड गांव वालों को दिया है.

सकू डर गई. वह किसी भी तरह अपनी बच्ची का भविष्य दांव पर नहीं लगाना चाह रही थी. क्या करे क्या न करे, देवदासी की पीड़ा क्या होती है, उस से बेहतर कौन जान सकता था. एक देवदासी के बिस्तर को सजाने को कई मिल जाते हैं लेकिन उस के मन को सजानेसंवारने को कोई नहीं मिलता. कोई ऐसा कंधा नहीं जिस पर सिर रख कर वह अपने मन का बो?ा हलका कर सके. वह तो एक वस्तु बन कर रह जाती है जिसे केवल भोगा जा सकता है. सकू नहीं चाहती थी कि मुक्ता को भी इसी दौर से गुजरना पड़े. सारी रात वह असमंजस में रही क्योंकि गांव के साहूकार की ओर से आदेश जारी हो गया था कि इस पूर्णिमा को मुक्ता का ब्याह देव से होगा.

ओह, तो क्या पूर्णिमा पर मुक्ता देवदासी बन जाएगी, उस का मन रो रहा था. वह प्रेम से मुक्ता के बालों पर तेल लगा रही थी, मालिश कर रही थी. बेटी को मन भर निहार रही थी. वह जानती थी कि आज उस की बेटी के चेहरे पर जो मुसकराहट दिखाई दे रही है वह चंद दिनों की मेहमान है. उसे मेरी ही तरह इस नरक से गुजरना होगा.

मुक्ता चाहे उम्र में 14 बरस की ही क्यों न हो लेकिन उस ने अक्षर का ज्ञान पाया था. अपनी आई की संवेदना को वह भलीभांति समझ रही थी. बालों में घूमती आई की उंगलियों से वह अंदाजा लगा रही थी कि उन के मन में क्या चल रहा है, बोली, ‘‘आई, वास्तव में यह देवदासी क्या होता है?’’
‘‘बेटी, देवदासी यानी देवताओं की दासी, जिस में एक लड़की का ब्याह देवता से हो जाता है और वह देवता की सेवा में लग जाती है.’’
‘‘ठीक से बताना, आई. देवता से भला ब्याह कैसे हो सकता है, वह तो निर्विकार है. अगर हुआ तो फिर तो देवता ही एकमात्र उस का मालिक यानी पति हुआ न?’’
‘‘हां.’’
‘‘अगर तेरा ब्याह देवता से हुआ तो वह तेरा पति हुआ, ठीक न?’’
‘‘हओ बेटी, अगर मेरा ब्याह देवता से हुआ तो इस नाते देवता मेरा पति ही होगा न.’’
‘‘फिर, मैं तेरी कौन हूं?’’
‘‘कैसी बात कर रही है, मुक्ता. तू पोर (बेटी) है मेरी.’’
‘‘अगर मैं तेरी पोर हूं तो फिर मैं रिश्ते में देवता की क्या हुई?’’
‘‘मैं देवता की पत्नी हूं, वह मेरा पति है, इस नाते तू उन की भी बेटी हुई न?’’
‘‘अच्छा, अगर मैं देवता की बेटी हुई तो वह मेरा पिता हुआ न?’’
‘‘हां, री, तू क्यों इतना पूछ रही है?’’
‘‘फिर अभी तू कह रही थी कि मेरा ब्याह देवता के साथ होगा और अभी तू कह रही है देवता मेरा बाप है, आई. अगर मैं उस की बेटी हूं तो एक बेटी का ब्याह पिता से कैसे हो सकता है?’’ सकू की आंखों से झरझर आंसू बहने लगे.
‘‘बोल न आई, चुप क्यों हो गई, ऐसी प्रथा तो कभी देखी न सुनी?’’
‘‘बेटी, सदियों से यही प्रथा चली आ रही है. अगर इस का पालन नहीं किया तो वे लोग कहते हैं देवता क्रोधित हो जाएंगे. पहले भी ऐसा ही प्रकोप हुआ था और अब भी,’’ सकू असमंजस में बोली.
‘‘आई, अभी तू ने कहा कि देवता तेरा पति और मेरा पिता है तो वह अपनी पत्नी और बेटी पर क्रोधित कैसे हो सकता है?’’
सकू खामोश नजरों से एकटक अपनी बेटी को देखे जा रही थी .

आज अतीत का चलचित्र बहुत तेजी से घूम रहा था सकू के आगे, उस में एक चेहरा उस की आंखों के आगे आ कर ठहर गया. साहूकार द्वारा मु?ो देवदासी बनाने पर अगर कुछ टूटा था तो केशव का दिल, आई और बाबा को तो साहूकार ने मनचाहा पैसा दे दिया था लेकिन केशव अपनी पूंजी हार गया था. आज सकू को उसी बालसखा केशव की याद आई.

अभी 2 दिन थे पूर्णिमा को. उस ने फौरन अपने एक विश्वासपात्र के हाथों एक पत्र दे कर केशव के पास भेजा. निश्च्छल प्रेम में कभी दूरियां नहीं आतीं चाहे उस के बीच समय का कितना ही अंतराल क्यों न आ जाए. परिणामतया, केशव आज सकू बाई के सामने खड़ा था.

सकू बाई ने बेटी को बहुत मन से तैयार किया जैसा उस की आई ने उसे बीजापुर के साहूकार के आमंत्रण हेतु तैयार किया था. वस्त्र-आभूषण पहनाए. मंदिर में मंडप सजवाया. पुजारी वेदी के साथ तैयार था.

सारे गांव वाले आने शुरू हो गए. सकू का आमंत्रण था सब को. सभी उत्सुक थे कि क्यों बुलाया है सकू ने. तब एक मां ने सब के सामने ऐलान कर दिया कि वह मुक्ता का ब्याह आज इसी मंडप में केशव के बेटे वेंकटेश से करने जा रही है.

लेखिका : डा. लता अग्रवाल ‘तुलजा’

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Hindi Love Stories : एक अनिश्चित भविष्य की कल्पना कर के रश्मि अमित से दूर चली गई थी लेकिन विडंबना देखो, वही अमित उसे उज्ज्वल भविष्य देने के लिए सामने खड़ा था और उस के पास उसे देने के लिए कुछ न था.

रात के पौने बारह बज रहे थे. ट्रेन खुलने वाली थी. मैं नीचे वाली बर्थ पर खिड़की के पास बैठा खाना खा रहा था. सोचा था, खापी कर तुरंत सो जाऊंगा. ट्रेन रेंगने लगी थी. तभी एक युवती दौड़तेदौड़ते मेरी खिड़की के पास आई.
‘‘यह कोच नंबर 7 है क्या?’’ वह ट्रेन की बढ़ती गति के साथ लगभग दौड़ रही थी.
‘‘हां.’’
उस ने मुझे एक लिफाफा पकड़ाया और बोली, ‘‘17 नंबर बर्थ पर मेरी बहन रश्मि है. जरूर से दे दीजिएगा.’’ ट्रेन की गति बढ़ती गई और वह पीछे छूटती गई. उस ने दोनों हाथ जोड़ कर मुझे मानो धन्यवाद दिया और फिर वह आंखों से ओझल हो गई. बाएं हाथ से मैं ने वह लिफाफा पकड़ा था क्योंकि दाहिने हाथ से खाना खा रहा था. वह लिफाफा मैं ने अपने बैग के ऊपर वाले पौकेट में रख दिया यह सोच कर कि हाथ धो कर लौटता हूं और फिर 17 नंबर पर जा कर रश्मि को दे आऊंगा. खाना खाने के बाद मैं हाथ धोने के लिए वाशबेसिन की ओर बढ़ गया. टौयलेट भी हो आया कि बस निश्चिंत हो कर सो जाऊंगा और यही हुआ. मैं लौट कर आते ही बर्थ पर पसर गया. एक चादर तानी और सो गया.

करीब साढ़े 5 बजे सुबह नींद खुली और मैं अपना सामान सहेजने लगा क्योंकि कुछ ही देर बाद लखनऊ स्टेशन आने वाला था जहां मुझे उतरना था. जब मैं ने चादर रखने के लिए बैग उठाया तो वह लिफाफा दिखा. ओह, मैं तो भूल ही गया. बड़ी शीघ्रता से मैं 17 नंबर बर्थ के पास पहुंचा तो उसे खाली पाया.

मैं ने सामने वाले यात्री से पूछा तो उस ने बताया कि वह तो पहले ही रायबरेली पर उतर गई थी. मुझे उस युवती ने कितने विश्वास से वह लिफाफा पकड़ाया था. मुझे अपने ऊपर ही क्रोध आने लगा. ध्यान से देखा तो यह एक खुला पत्र था. मैं ने निकाला तो पता चला कि यह नियुक्तिपत्र था और उसे आज ही जौइन करना था. रायबरेली के एक कालेज का नाम और अन्य विवरण भी अंकित थे. लिफाफे के ऊपर रश्मि शर्मा, पूरा पता और मोबाइल नंबर लिखा था.

ट्रेन लखनऊ आ पहुंची. स्टेशन से बाहर आया. अपने ऊपर ही झुंझलाहट हो रही थी. एकाएक लिफाफे पर लिखे फोन नंबर का ध्यान आया. तुरंत ही फोन किया, ‘‘हैलो. मैं अमित बोल रहा हूं. आप रश्मिजी हैं?’’ मैं उत्तर सुनने के लिए उतावला था.
‘‘हां, लेकिन आप कौन और आप को यह फोन नंबर कहां से मिला?’’ उस के स्वर में कुछ कड़वाहट थी.
‘‘देखिए, वह सब मैं आप को बता दूंगा. आप का नियुक्तिपत्र मेरे पास है.
मुझे बनारस रेलवे स्टेशन पर किसी ने दिया था. मैं 2 घंटे में रायबरेली पहुंच जाऊंगा. वैसे भी, कार्यालय तो 10 बजे ही खुलेगा. बाकी मिलने पर,’’ मैं ने बिना कुछ सुने फोन बंद किया और औटोरिकशा पकड़ अपने कमरे की ओर निकल पड़ा.

कमरे पर पहुंच कर दैनिक कार्यों से निवृत्त हुआ और रायबरेली के लिए निकल पड़ा. बस, मैं बैठा सोच रहा था कि मैं एक बड़ी उलझन और गहरे अपराधबोध से बच गया.
9 बजतेबजते मैं उस विद्यालय के कार्यालय के पास पहुंच गया. रश्मि को फोन किया.
‘‘मैं आ गया हूं, आप कहां हैं?’’
‘‘कार्यालय के सामने एक रैस्टोरैंट में चाय पी रही हूं. आप कहां हैं?’’
‘‘मैं तो कार्यालय के मुख्य द्वार के पास खड़ा हूं. ऐसा करता हूं कि मैं अपना दाहिना हाथ उठा लेता हूं, नीले रंग का कोट पहने हुआ हूं. आप पहचान लेंगी.’’
2 मिनट बाद ही पीछे से आवाज आई, ‘‘हाथ नीचे कर लीजिए, मैं रश्मि हूं.’’ इस बार उस के स्वर में कड़वाहट नहीं थी.
‘‘लीजिए रश्मिजी अपना पत्र. अब मैं निश्चिंत हूं. बड़ी उलझन में था.’’ और फिर मैं ने पूरी घटना रश्मि को बताई.

‘‘वे मेरी भाभी हैं. ट्रेन में बैठने के बाद मैं ने अपना फोन बंद कर दिया था कि सोना ही तो है. आप के फोन के आने के कुछ ही देर पहले औन किया. थोड़ी देर बाद ही भाभी का भी फोन आया. आप को कितनी कठिनाई हुई, मैं हृदय से आप की आभारी हूं.’’ इतना कह कर उस ने नमस्कार किया और कार्यालय की ओर मुड़ने लगी.

मुझे न जाने क्या सूझा कि बोल पड़ा, ‘‘आप जौइन कर आइए. मैं प्रतीक्षा कर लूंगा.’’
‘‘न जाने कितना समय लगे, आप वैसे भी यात्रा की भागदौड़ से थके हुए हैं,’’ उस ने टालना चाहा.
‘‘यदि इच्छुक नहीं हैं आप तो मैं भी विवश नहीं करूंगा. चलिए. यह भेंट इतनी ही सही. लेकिन क्या कभी फोन कर सकता हूं? विश्वास मानिए, कोई अभद्रता नहीं होगी.’’
मैं उस के उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा. उस ने कहा तो कुछ नहीं. बस, हाथ जोड़े और आगे बढ़ गई. मैं समझ रहा था कि कोई भी युवती एक अपरिचित शहर में किसी अपरिचित व्यक्ति से मेलजोल भला क्यों बढ़ाना चाहेगी? पत्र वाली घटना तो संयोगवश घट गई. कोई भी संवेदनशील व्यक्ति ऐसी परिस्थिति में संभवतया वही करता जो मैं ने किया. मैं इस बात को भूलने का प्रयास करते हुए वापस लखनऊ लौट पड़ा. लेकिन न जाने किस भावनावश उस का फोन नंबर मैं ने सुरक्षित कर लिया.

मैं लखनऊ में एक वृद्धाश्रम के संचालक के रूप में कार्यरत था. परिवार और समाज से पीडि़त वृद्धजनों के सहज और स्वस्थ जीवनयापन में सहायता करना हमारा उद्देश्य था. मेरे परिवार में एक बड़े भाई थे, इंजीनियर थे जो सपरिवार पुणे में बस गए थे. हमारा घर बनारस में ही था. भैया तो कभीकभी आते थे पर मैं महीने दो महीने में बनारस हो आता था. एक किराएदार रख छोड़ा था. लखनऊ में अकेला ही किराए पर रहता था.
कभीकभी रश्मि वाली घटना याद आ ही जाती थी. शायद अब मन को किसी साथी की तलाश थी. एक दिन न जाने किस भावनावश मैं ने रश्मि को फोन कर ही दिया.
‘‘हैलो, मैं अमित बोल रहा हूं. पहचाना आप ने? मैं ने उस की प्रतिक्रिया भांपने की कोशिश की.
‘‘जी हां. आप ने ही वह पत्र पहुंचाया था. मैं भी आप को फोन करने वाली थी. उस दिन मेरा व्यवहार बड़ा रूखा रहा. सोचती थी कि यदि कभी भेंट होती तो उस अशिष्टता के लिए आप से क्षमा मांग लेती,’’ उस के स्वर में संकोच था.
‘‘तो इस में क्या बड़ी बात है. कल रविवार है. आप का विद्यालय बंद ही रहेगा. आ जाता हूं रायबरेली. आप मुझ से क्षमा मांग लीजिएगा और मैं क्षमा कर भी दूंगा,’’ यह कहते हुए मैं हंस पड़ा.
कोई उत्तर न पा कर मैं ने पूछा, ‘‘तो मैं सुबह 10 बजे उसी रैस्टोरैंट में मिलता हूं. मना मत कीजिएगा.’’
‘‘जी ठीक है.’’ लग रहा था कि बड़े पसोपेश में उस ने स्वीकार किया. अगले दिन मैं उसी रैस्टोरैंट के सामने प्रतीक्षा करने लगा. थोड़ी देर में वह रिकशे से आई. मैं ने रिकशेवाले को पैसे दिए जो उसे अच्छा नहीं लगा.
‘‘रश्मिजी, यह शिष्टता है और कुछ नहीं.’’
वह कुछ न बोली. हम सब से पीछे वाली सीट पर जा बैठे.
‘‘अमितजी, मैं ने सारी बातें भाभी को भी बताईं तो उन्होंने भी मुझ से कहा कि तुम्हें ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए था. अपने इस रूखे और अशोभनीय व्यवहार पर वास्तव में बहुत लज्जित हूं.’’ उस के शब्दों और चेहरे पर आ रहे भावों ने स्पष्ट कर दिया कि वह सच बोल रही है.
बातों ही बातों में पता चला कि उस के मातापिता नहीं रहे. बनारस में भाभी अपनी बेटी नमिता के साथ रहती हैं. वह वहीं पढ़ती है.
‘‘आप के बड़े भाई कहीं बाहर नौकरी करते हैं क्या?’ इस प्रश्न के पूछते ही रश्मि की आंखें भर आईं और रुंधे कंठ से उस ने कहा, ‘‘भाभी विधवा हैं. मुझ से मात्र 4 वर्ष बड़ी हैं. वैधव्य और एक बेटी के जीवन की जिम्मेदारी के साथ जी रही हैं. कुल हम ही 3 लोग हैं एकदूसरे के सुखदुख के साथी,’’ कहतेकहते रश्मि ने दुपट्टे से अपने आंसुओं को पोंछ लिया.
‘‘ओह, मुझे नहीं पूछना चाहिए था.’’
‘‘आप का क्या दोष? जीवन के घाव सब को नहीं दिखाए जाते पर यह प्रश्न ही ऐसा है कि इस का उत्तर मेरी आंखें देने लगती हैं और फिर आंसू कहां छिपते हैं?’’ वह असहज हो उठी थी.

मैं ने उसे धीरज बंधाने का प्रयास किया. उस ने खाया कुछ नहीं, बस चाय पी और फिर हम लोग रैस्टोरैंट से बाहर आ गए. मैं ने एक रिकशे वाले को बुलाया. वह बैठ गई तो मैं ने थोड़ा मुसकराते हुए कहा, ‘‘इस बार पैसे मैं नहीं दूंगा.’’ मैं ने स्थिति सहज करने के लिए ऐसा कहा. वह धीमे से मुसकराई, दोनों हाथ जोड़े और बोली, ‘‘आप का नंबर अब मेरे मोबाइल में सुरक्षित है, अमितजी.’’

वह चली गई और मैं उस के इस वाक्य के मधुर अर्थ निकालते हुए वापस लखनऊ आ गया. यह एक सुखद स्मृति थी.

समय बीतता रहा. हम मिलते रहे और अब हम एकदूसरे के लिए आप न हो कर तुम हो गए. मैं मान बैठा था कि हम एकदूसरे के हृदय में बस चुके हैं. एक दिन बातचीत के क्रम में मेरे मुंह से अकस्मात ही निकल गया, ‘‘भाभी कब से अकेली हैं?’’

रश्मि कुछ पलों तक तो चुप रही, फिर बोली, ‘‘भैया एकलौते बेटे थे. मातापिता का दुलार और प्यार पा कर वे न जाने कब ऐसे लोगों की संगत में आ गए जिन के जीवन में कोई बंधन और अंकुश नहीं था. भैया को सिगरेट पीने की बुरी आदत लग गई. बहुत समझाया गया लेकिन सब व्यर्थ. सोचा गया कि शादी हो जाए तो शायद पत्नी के कहने पर सुधर जाएं पर ऐसा न हुआ. इतना ही करते कि मम्मीपापा के सामने न पीते. अपने कमरे को बंद कर लेते और सिगरेट पीते. उस धुएं और घुटनभरे कमरे में ही भाभी रहने को विवश थीं.’’
‘‘यह तो आप के भैया की निष्ठुरता थी जो वे अपनी पत्नी की इच्छाओं व भावनाओं का भी सम्मान नहीं करते थे.’’
‘‘बस, अचानक ही एक दिन पता चला कि सिगरेट की इस आदत के कारण भैया ‘क्रौनिक औब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज’ के गंभीर रोगी बन चुके थे.’’
‘‘यह कौन सी बीमारी है?’’ मैं जानना चाहता था.
‘‘हमें तो यही बताया गया कि लंबे समय तक तंबाकू के धुएं से या फेफड़ों में जलन पैदा करने वाले पदार्थों के संपर्क में रहने से व्यक्ति के फेफड़े और वायुमार्ग क्षतिग्रस्त हो जाते हैं. इस बीमारी का प्रमुख कारण धूम्रपान ही है,’’ वह बोली.
‘‘तो भैया को परेशानी क्या होने लगी?’’
‘‘समझ अमित कि एक नहीं, कई परेशानियों को ले कर वे जी रहे थे. खूब खांसी आती थी, बलगम भी अधिक बनने लगा था, सांस लेने में कठिनाई, थकान और लगता था कि वजन भी धीरेधीरे कम होने लगा था. कहते थे भैया कि उन्हें घरघराहट जैसे लक्षणों के साथ छाती में जकड़न का भी अनुभव होता है.’’
‘‘तो डाक्टर ने उपचार क्या बताया?’’ मैं ने पूछा.
‘‘कुछ विशेष नहीं. इन्हेलर का प्रयोग करने को कहा. कुछ दवाएं भी दीं और समयसमय पर दिखाते रहने को कहा.’’
रश्मि की इन बातों को सुन कर बड़ा दुख हुआ. एक बुरी आदत ने पूरे परिवार से सुखशांति छीन ली थी. मैं ने पूछा, ‘‘क्या किसी और डाक्टर से परामर्श नहीं लिया?’’
‘‘किया था यह भी. बिना किसी को बताए एक दिन भैया की सारी रिपोर्ट और चल रहे उपचार का विवरण ले कर मैं ने एक और वरिष्ठ डाक्टर से भेंट की और उन्होंने जो कहा, वह सुन कर मैं सन्न रह गई.’’
‘‘क्या कहां उन्होंने?’’ मैं भी जानना चाहता था.
‘‘बोले कि लंबे समय तक सिगरेट पीने से फेफड़ों की स्थिति बिगड़ चुकी है. कई बार ऐसे लोग कुछ और रोगों से भी प्रभावित हो जाते हैं, जैसे हृदय रोग, फेफड़े का कैंसर, औस्टियोपोरोसिस यानी हड्डियों का कमजोर होना आदि. दवा तो ठीक ही चल रही है. कुछ विशेष करने को नहीं बचा है अब.’’ डाक्टर एक बुरा संकेत दे कर चुप हो गए.
‘‘3 वर्ष बीततेबीतते वे चल बसे. जिन घूटों को वे पीते रहे, एक दिन वही धुआं उन्हें पी गया और हमारे जीवन को धुएं से भर कर भैया छोड़ गए हम सब को.’’
इस दुखद, बोझिल और हताशाभरे माहौल में मैं भला क्या बोलता. सांत्वना के 2 शब्द कह कर उसे पीड़ामय अतीत की परिधि से वापस लाने का प्रयास करने लगा. कुछ देर और बैठे रहे हम लोग और फिर वह कमरे की ओर निकलने के लिए उठ खड़ी हुई.
‘‘चलती हूं, अमित. अपना दुख तुम से कह चुकने के बाद ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो डांवांडोल हृदय को कोई आसरा मिल गया हो. तुम्हें भी लौटना ही है.’’
वह रिकशे पर बैठ गई और मैं बस स्टैंड की ओर बढ़ चला.

मैं ने अब निश्चित कर लिया कि अपने मन की बात उस से कह ही डालूंगा. फोन कर के उसे आगामी रविवार का दिन और समय भी बता दिया. शायद उसे भी आभास हो गया है कि मैं उस से क्या कहने वाला था.

रविवार को मैं समय से पहले ही पहुंच गया और प्रतीक्षा करने लगा. यह अवसर आनंद का अतिरेक था या हृदय की बात कह देने की अकुलाहट या फिर अपने जीवन के एक मधुर निर्णय को उस से बता डालने की व्यग्रता, मैं समझ नहीं पा रहा था.

एक अद्भुत मनोदशा में था कि रश्मि अभी तक आई क्यों नहीं. प्रतीक्षा के उन बोझिल क्षणों को व्यतीत करने के लिए मैं ने एक सिगरेट सुलगाई, कश लेते हुए चहलकदमी करने लगा. अब 11 बज रहे थे लेकिन रश्मि नहीं आई. फोन किया तो कट गया. दोतीन प्रयास किए पर उस ने फोन उठाया नहीं. मैं समझता था कि वह काट दे रही है. इसी बेचैनी में घंटेभर और टहलता रहा पर न वह आई और न ही उस ने फोन उठाया.

मुझे यह भी नहीं मालूम था कि वह रहती कहां है. थकहार कर वापस लखनऊ आ गया. बिना कुछ खाएपिए लेट गया. ऐसी परिस्थिति में मनुष्य अनहोनी ही सोचता है. सोचा, कल बात करूंगा. अशांत हृदय और आशंकाओं के झंझावात के झेलते हुए न जाने कब नींद आ गई.
अगले दिन सुबह ही फोन की घंटी बजी. रश्मि का फोन था.
‘हैलो रश्मि. क्या हुआ? कल आईं क्यों नहीं? फोन भी काट दे रही थी. तुम ठीक तो हो न? मेरा मन बहुत घबरा रहा है. कुछ बोलतीं क्यों नहीं? मैं तुम से मिलना चाहता हूं.’’ मैं अपनी ही धुन में बोलता ही जा रहा था कि उस की आवाज सुनाई दी.
‘‘लेकिन अब मैं तुम से कभी भी नहीं मिलना चाहूंगी. कुछ देर से पहुंची थी कि रिकशे पर से ही मैं ने तुम्हें सिगरेट के धुएं से छल्ले बनाबना कर उड़ाते देखा. तुम ने कभी अपनी इस बुरी आदत के बारे में मुझे नहीं बताया. जिस धुएं के कारण मेरा पूरा परिवार उजड़ गया, भाभी विधवा हो गईं, बेटी बिना बाप की हो गई. तुम भी उसी राह पर चल रहे थे. फोन केवल इसलिए किया कि तुम्हें यह सच्चाई बता कर इस संबंध को यहीं समाप्त करना था. मिलने या फोन करने का प्रयास न करना, कहीं अपमानित न होना पड़ जाए.’’
‘‘रश्मि मेरी बात सुनो. वह तो बस समय काटने के लिए मैं कभीकभी सिगरेट पीता हूं, हमेशा नहीं.’’ मैं अपनी बात कह भी न पाया था कि उस ने फोन बंद कर दिया.

मैं सिर पकड़ कर बैठ गया. क्या से क्या हो गया? सारे सपने, सारी आशाएं पलक झपकते ही समाप्त हो गईं. जीवन के सामने एकाकीपन का वही विराट दैत्य फिर आ खड़ा हुआ. कार्यालय गया पर काम में मन न लगा. अकारण ही घूमघूम कर समय काटता रहा. होटल से ही खाना खा कर कमरे में लौटा. आंखों में नींद न थी, हृदय में हाहाकार मचा था. बस, रश्मि की वह बात याद आई, ‘हम सभी के जीवन में धुआं भर कर भैया हम सब को छोड़ कर चले गए.’ शायद इसी कल्पना से भयभीत हो कर रश्मि मुझे छोड़ कर चली गई.

जो होना था, सो हो गया. समय के साथ घटनाएं और उन की यादें अतीत के अंधकूप में समाती गईं. इस शहर से मन बुरी तरह उचट गया. तय कर लिया, यहां नहीं रहूंगा. कई बातें कई बार सोचीं, फिर मन में एक क्षण विचार और निश्चय ले कर यह शहर छोड़ कर मैं बनारस आ गया.

अपने शहर में तो आ गया लेकिन अब यहां मेरा कोई अपना न था. मैं ने यहां एक देखभाल के नाम से संस्था खोली. मुझे अनुभव तो था ही, यहां कुछ दक्ष लोगों और एजेंसियों के साथ मिल कर स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करने का कार्य प्रारंभ कर दिया. एक दिन फोन की घंटी बजी.
‘‘हैलो, क्या आप देखभाल संस्था से बोल रहे हैं?’’
‘‘जी, मैं अमित बोल रहा हूं,’’ मैं ने उत्तर दिया.
‘‘मुझे एक महिला सहायिका की आवश्यकता है जो मेरी देखरेख कर सके और सप्ताह में 2 दिन मुझे डायलिसिस के लिए अस्पताल ले कर जा सके. मुझे अपनी फीस और औपचारिकताएं पहले बता दीजिए.’’ यह एक दुर्बल आवाज थी लेकिन मुझे न जाने क्यों कुछ जानीपहचानी सी लगी.
‘‘मैं सब से पहले आप के घर आऊंगा. आप की आवश्यकताएं जानूंगा, कितने घंटे के लिए आप को सहायिका चाहिए और इस बात की भी पुष्टि करूंगा कि जो महिला सहायिका आप के यहां जाएंगी, वे वहां कितनी सुरक्षित होंगी. इसी प्रकार हम आप को उक्त महिला से जुड़ी सारी सूचनाएं देंगे और उन के बारे में पुलिस द्वारा सत्यापित तथ्यों का एक प्रमाणपत्र भी देंगे. फीस तब तय होगी जब हम आप की पूरी आवश्यकताएं जान जाएंगे और इन सब बातों के लिए अधिकृत व्यक्ति और आप की ओर से कोई जिम्मेदार व्यक्ति हस्ताक्षर करेंगे,’’ मैं ने संक्षिप्त सा विवरण उन को बता दिया.

‘‘ठीक है. आप कल सुबह 10 बजे तक आ जाइए. मैं अपना पता और फोन नंबर नोट करा देती हूं. आइएगा जरूर क्योंकि कल मुझे अस्पताल भी जाना है.’’ उस महिला की वाणी में इतनी करुणा और पीड़ा थी कि सहज ही मेरा मन द्रवित हो उठा.

अपनी संस्था की परिचारिका निर्मला को ले कर अगले दिन मैं उक्त पते पर पहुंचा. एक दुर्बल सी और क्षीणकाय महिला ने द्वार खोला. मैं उसे देखते ही चौंक गया और मेरे मुंह से निकला, ‘अरे रश्मि, तुम, इस हालत में?’’
‘‘अरे अमित, तुम?’’ ऐसी ही आश्चर्य से भरी प्रतिक्रिया उस की भी थी. हम लोग अंदर आ गए. 30 वर्ष की उस समय की युवा रश्मि आज मेरे सामने एक अधेड़ और बीमार महिला के रूप में बैठी थी. मैं ने अपनी संस्था की परिचारिका से कहा, ‘‘तुम दूसरे कमरे में बैठ जाओ. मैं बुला लूंगा.’’
‘‘अरे, इस में क्या बात है. ये तब तक चाय बना लें, फिर आगे की सोचते हैं,’’ यह कहते हुए रश्मि निर्मला को ले कर किचन में चली गई.
हम दोनों एकदूसरे के सामने मौन बैठे थे. चुप्पी रश्मि ने तोड़ी.
‘‘मैं अपनी दशा और दुर्दशा तुम्हें बताऊं, उस के पहले मैं उस दिन की घटना का उल्लेख करना चाहूंगी जिस दिन तुम ने मुझ से कुछ कहने के लिए बुलाया था. मुझे पूरी आशा और विश्वास था कि तुम उस दिन हम दोनों के आगामी जीवन से जुड़ा कोई महत्त्वपूर्ण निर्णय ले कर आए थे.’’
‘‘छोड़ो उन बातों को,’’ मैं ने उस का ध्यान भटकाना चाहा.
‘‘नहीं अमित. मैं जब तक कह न लूंगी तब तक अपने को अपराधबोध से मुक्तनहीं कर पाऊंगी. उस दिन रिकशे पर बैठेबैठे जब मैं ने तुम्हें सिगरेट पीते देखा तो मेरे हृदय को गहरा आघात लगा और मैं बिना मिले ही चली आई. और तो और, दूसरे दिन मैं ने तुम से फोन पर बहुत ही असभ्य और अपमानजनक ढंग से बात की,’’ कहतेकहते रश्मि का गला रुंध गया.
‘‘भूल जाओ उन बातों को रश्मि,’’ मैं उसे अतीत से आज में लाना चाहता था.
‘‘मैं तो तुम्हें भी बड़े व्यथित मन से भूल जाना चाहती थी पर ऐसा हुआ नहीं. मुझे लगा कि मुझे तुम्हारी बात सुननी चाहिए थी. यह मेरी अक्षम्य भूल थी,’’ रश्मि ने कहा.
‘‘रश्मि, जीवनभर हम अपने कर्मों की व्याख्या ही तो करते हैं. उचितअनुचित, पापपुण्य, उपकारअपकार और न जाने क्याक्या. इस प्रकार से हम अपने कर्मों का लेखाजोखा करने लगे तो सारा जीवन प्रायश्चित्त, पश्चात्ताप और प्रतिशोध में ही चला जाएगा. मैं तुम्हारा अतीत नहीं, आज जानना चाहता हूं.’’
‘‘तुम ठीक ही कह रहे हो लेकिन हम सभी का आज किसी न किसी रूप में हमारे अतीत से जुड़ा होता है,’’ रश्मि ने कहा.
‘‘लेकिन तुम इस दशा में कैसे पहुंचीं और तुम ने रायबरेली क्यों छोड़ दिया?’’

‘‘अमित, हमारे विद्यालय में सभी विद्यार्थियों व शिक्षकशिक्षिकाओं और अन्य स्टाफ का वर्ष में एक बार स्वास्थ्य परीक्षण कराया जाता था. मेरी जांच हुई तो मेरा रक्तचाप काफी बढ़ा हुआ आया. डाक्टर ने चिंता जताई और यह कहा कि वे रक्त की कुछ रूटीन जांचें और एक्सरे भी करा लें.’’
‘‘क्या परिणाम रहा जांच का?’’ मैं ने पूछा.
‘‘जब डाक्टर ने रिपोर्ट्स देखीं तो पूछने लगे, ‘क्या आप को सिरदर्द रहता है? क्या आप की सांस फूलती है? पैरों में कभी आप ने सूजन का अनुभव किया? मूत्र त्याग करते समय कोई कठिनाई होती है क्या? और उन्होंने बहुत सारे प्रश्न पूछे और कहा कि आप एक अल्ट्रासाउंड जांच करा लीजिए.’’
‘‘अल्ट्रासाउंड में क्या आया?’’ मैं व्यग्र था जानने के लिए.
‘‘मेरी एक किडनी निष्क्रिय थी, न जाने कब से और दूसरी सिकुड़ती जा रही थी. इतना ही नहीं, अमित, डाक्टर ने यह भी कह दिया कि आने वाले चारपांच वर्षों में आप को डायलिसिस की आवश्यकता होगी और आप अभी से गुरदा प्रत्यारोपण के बारे में सोचना शुरू कर दीजिए. कुछ दवाएं लिख देता हूं जो बचाव कर सकती हैं कुछ वर्षों तक. डाक्टर के इस अप्रत्याशित कथन को सुन कर मैं कांप गई.
‘‘और कोई उपाय है डाक्टर साहब?’’ मैं ने सशंकित मन से पूछा था.
‘‘दुर्भाग्य से अभी तक इन 2 विकल्पों के सिवा कुछ नहीं. आप को डायटीशियन के पास भेज रहा हूं जो आप को आहार संबंधी परामर्श और परहेजों के बारे में बताएंगी.’’ डाक्टर साहब ने अपनी जिम्मेदारी पूरी की.
‘‘डायटीशियन ने क्या कहा?’’ मैं ने पूछा.
‘‘डाक्टर की बातों को सुन कर तो मैं टूट ही चुकी थी और डायटीशियन से मिलने के बाद तो जीवन की बचीखुची आशाओं पर भी वज्रपात हो गया.’’
‘‘उन्होंने ऐसा क्या बता दिया?’’
रश्मि ने अपने पास पड़ी एक फाइल में से एक आहारतालिका निकाल कर दी, ‘‘पढ़ लो, खुद ही समझ जाओगे.’’

मैं ने पढ़ना शुरू किया तो मैं कांप सा गया. दिनभर में 3 ग्राम नमक, सारे फल करीबकरीब मना थे, सूखे मेवे नहीं खाना था. गिनीचुनी सब्जियां, बहुत सारे खाद्य पदार्थों को या तो मना कर दिया गया था या मात्रा सीमित कर दी गई थी. हर 3 महीने पर रक्त की जांच खासकर के क्रिएटिन, पोटैशियम, सोडियम और अन्य चीजों की स्थिति देखने के लिए करानी ही करानी थी. इतने कठोर परहेज और प्रतिबंधों के साथ जीवन जीना किसी यातना से कम न था.
मैं ने तालिका रश्मि को लौटाते हुए पूछा, ‘‘फिर आगे क्या हुआ?’’
‘‘वही जो डाक्टर ने कहा था. 4 वर्ष बीततेबीतते डायलिसिस पर आ गई. नौकरी छोड़नी पड़ी. कुछ फंड के रुपए मिले. ले कर वापस यहां बनारस आ गई. जब मैं नौकरी में थी तो भाभी को भी कुछ पैसे भेजती थी. उन की बेटी नमिता की पढ़ाई की जिम्मेदारी भी निभाई. इन विपत्तियों के बीच एक संतोषजनक बात यह हुई कि नमिता की नौकरी लग गई.

‘‘जब नमिता नौकरी के लिए हैदराबाद जाने लगी तो भाभी को भी साथ जाना पड़ा और मैं यहां टुकड़ोंटुकड़ों में मरने के लिए जी रही हूं. महीनों बाद तुम्हारी आवाज सुन रही हूं, अमित. वरना इस घर में मैं अपनी आवाज के सिवा दूसरे की आवाज सुनने को तरसती थी.’’ यह सब कहतेकहते रश्मि फूटफूट कर रो पड़ी.

एकाएक उसे खयाल आया कि 2 बजने वाले हैं और डायलिसिस के लिए अस्पताल पहुंचना था. उस के लाख मना करने के बावजूद मैं रश्मि के साथ निकल गया और निर्मला से कहा कि वह रात 8 बजे तक आ जाएगी. रश्मि के घर पर ही रुक जाएगी. रास्ते में मैं ने रश्मि के गले में घाव के सूखे निशान देखे. पूछा, तो कहने लगी, ‘‘पहले यहीं गले से 6 महीने तक डायलिसिस होती रही. इसे ‘जुगलर’ कहते हैं. जब इस में संक्रमण हो गया तो बाईं बांह में सूई डालने के लिए स्थान बनाया गया जिसे फिस्टुला कहते हैं.’’

करीब 5 घंटे बाद शाम को 7 बजे उस की डायलिसिस पूरी कराने के बाद उसे ले कर घर लौटा. रास्ते में कोई बातचीत नहीं हुई. मेरे पास पूछने को बहुतकुछ था पर उस के पास बताने को शायद कुछ शेष नहीं बचा था. घर पहुंच कर निर्मला की प्रतीक्षा की. उस के आने के बाद रश्मि को उस के भरोसे छोड़ कर मैं अपने कमरे में लौट आया. खापी कर जब मैं बिस्तर पर लेटा तो आंखों के सामने रश्मि से पहली भेंट, उस से जुड़ाव, दुखद अलगाव और इन पीड़ामयी परिस्थितियों में पुनर्मिलन. सबकुछ एक चलचित्र की भांति गुजर गया.
अगले दिन सुबह ही रश्मि का फोन आया.
‘‘निर्मला आ गई हैं, मैं ने अपनी आवश्यकताएं समझ दी हैं. बहुत भली महिला हैं. तुम आते समय अपना रजिस्ट्रेशन फौर्म अवश्य लेते आना. तुम्हें भुगतान भी तो करना है.’’
‘‘आऊंगा तो इन सब बातों पर चर्चा करूंगा,’’ मैं ने यह बात यहीं खत्म की.
शाम को रश्मि के घर पहुंचा तो रश्मि लेटी हुई थी. मेरे पहुंचने पर निर्मला चाय ले कर आई. मैं ने रश्मि से पूछा, ‘‘तुम चाय क्यों नहीं पी रही हो?’’
‘‘क्या बताऊं, अमित. इस रोग ने मेरे जीवन को 2 भागों में बांट दिया है. एक डायलिसिस के पहले वाला जिस के बारे में तुम्हें सबकुछ बता ही दिया है और दूसरा डायलिसिस के साथ वाला जीवन. इस में कुछ अलग प्रकार की हिदायते हैं लेकिन सब से अधिक तकलीफदेह बात यह है कि 2 डायलिसिस के बीच में मुझे तरल पदार्थ बहुत कम मात्रा में लेना है. करीब डेढ़दो लिटर. चाहे इतनी मात्रा में पानी पीना हो, दवा के साथ पानी लेना हो. चाय पीनी हो या किसी भी रूप में. मैं तो यही हिसाब लगाती रहती हूं कि कितना तरल पदार्थ शरीर में गया. इतनी कठिन जीवनशैली से कभीकभी मन इतना घबरा उठता है कि…’’
‘‘सचमुच बड़ा कठिन जीवन हो गया तुम्हारा,’’ मैं भी दुखी हुआ.
‘‘इतना ही नहीं, अमित. डायलिसिस के दौरान की विपत्तियां तो हिम्मत ही तोड़ देती हैं. कभी सिरदर्द, कभी असहनीय पेटदर्द, कभी बढ़ा हुआ रक्तचाप तो कभी पैरों में भयानक ऐंठन.’’
मैं ने विषय बदलते हुए पूछा, ‘‘तुम ने भाभी को बता दिया होगा कि यहां देखरेख के लिए व्यवस्था हो गई है?’’
‘‘हां. मैं ने तुम्हारे बारे में सारी बातें बताईं तो कहने लगीं, ‘रश्मि, तुम्हारी ओर से मैं निश्चिंत हो गई.’’
‘‘इतना गहरा विश्वास मुझ पर?’’
‘‘हां अमित. मैं ही तुम पर विश्वास न कर पाई. कभीकभी सोचती हूं, यदि हमारा विवाह हो गया होता और उस के बाद मेरी यह बीमारी सामने आती तो क्या होता? तुम सोचते कि मैं ने यह बात जानबूझ कर छिपाई.
‘‘अतीत को छोड़ो, रश्मि. कुछ घटनाएं कब कैसे घटित हो जातीं या किन परिस्थितियों में हम कोई निर्णय ले बैठते हैं, इस का अनुमान लगाना संभव नहीं.’’
‘‘ठीक है, अमित. अच्छा बताओ कि निर्मलाजी को कितना देना है और अभी 4 घंटे सुबह, 4 घंटे शाम के लिए ही बुलाना चाहूंगी क्योंकि भुगतान के बारे में भी तो मुझे सोचना है.’’
‘‘तुम भुगतान के बारे में न सोचो. भावनाओं का सम्मान किया जाता है. भावनाओं के इस व्यवसाय में भुगतान के नियम कुछ अलग ही हैं,’’ यह कहते हुए मैं लौटने के लिए उठ खड़ा हुआ.
अगली तिथि पर डायलिसिस कराने के बाद जब मैं रश्मि को उस के घर छोड़ने गया तो रास्ते में मैं ने पूछा, ‘‘तुम ने गुरदा प्रत्यारोपण के बारे में क्या सोचा, रश्मि?’’
‘‘इस में सोचने को बचा ही क्या है? प्रथम प्राथमिकता मांपिता, भाईबहन या रिश्ते वाले हैं जो गुर्दादाता हो सकते हैं. मेरे मांपिता या भाईबहन हैं ही नहीं. पतिपत्नी भी एकदूसरे को दान कर सकते हैं लेकिन मैं तो इस बिंदु पर भी शून्य हूं.’’ इतना कहते हुए रश्मि का गला भर आया.

उसे छोड़ कर अपने घर पर आ कर रश्मि के बारे में सोचने लगा. जब तक जीना है डायलिसिस और पीड़ा के साथ जीना है क्योंकि और कोई विकल्प नहीं है. मेरे मन में एक विचार आया कि यदि मैं उस से विवाह कर लूं तो उस की प्राणरक्षा… दूसरे दिन जैसे ही मैं ने यह बात रश्मि को बताई, वह अवाक रह गई.

‘‘यह कैसे हो सकता है, मैं क्या कहूं ऐसी स्थिति में? किस मुंह से यह बात स्वीकार कर लें. मैं ने तो तुम्हें अस्वीकार कर दिया था जब तुम पूरी पवित्रता और समर्पण की भावना से मुझे अपनाना चाहते थे और तुम मुझे आज तक अपनाना चाहते हो जब इस समस्या का मेरे पास कोई समाधान नहीं, कोई सहारा नहीं. यदि मैं स्वीकार भी कर लूं तो यह सिवा स्वार्थ के और क्या हो सकता है? यह संभव नहीं है, अमित,’’ कहतेकहते वह रो पड़ी.

यह कहना कठिन था कि ये आंसू विवशता के थे, पश्चात्ताप के थे या प्रायश्चित्त के थे. मैं ने समझना चाहा, ‘‘तुम भावुकता में बह रही हो, रश्मि. तुम ने मुझे इसलिए अस्वीकार कर दिया था क्योंकि तुम ने मुझे सिगरेट पीते हुए देख लिया था और तुम्हारे भाई की मृत्यु का कारण भी सिगरेट ही थी. तुम्हें भी अपने भविष्य में धुआं दिखने लगा और तुम मुझ से बिना मिले, बिना मेरी सुने एक निर्मम निर्णय ले कर उस समय लौट गईं. तुम ने मुझे अपनी बात कहने का अवसर नहीं दिया और आज फिर तुम आवेश में मुझे और मेरे निर्मल प्रस्ताव को अस्वीकार कर रही हो,’’ मैं ने अपने मन की सारी बात कह ही डाली.

‘‘मैं तुम्हें स्वीकार भी लूं तो मैं तुम्हें क्या दे पाऊंगी भला? मेरे पास इस दुर्बल देह के सिवा क्या शेष है? एक पत्नी से अपेक्षाएं, जो किसी को भी होती हैं, भला मैं कैसे पूरी कर पाऊंगी. नहीं, अमित. नहीं. मैं अपने डूबते जीवन के साथसाथ तुम्हारे जीवन को नहीं डूबने दूंगी.’’

‘‘अब क्या तुम्हारा जीवन और क्या मेरा जीवन? क्या तुम अकेले यों टुकड़ोंटुकड़ों में जी पाओगी? तुम्हें इस दारुण दुख में देख कर क्या मैं जी पाऊंगा? आज से 13 वर्ष पूर्व मुझे तुम्हारे देह की लालसा हो सकती थी लेकिन आज मुझे तुम्हारे उसी देह की कुशलता चाहिए. सोच लो. भाभी से बात कर लो. भले ही तुम्हारा उत्तर ‘हां’ न हो पर मैं जब तक और जितना तुम्हारा साथ दे पाऊंगा, देता रहूंगा. जब भी मेरी जरूरत हो, अधिकारपूर्वक बुलाना. अब चल रहा हूं.’’ मैं वापस अपने घर पर आ गया.

अगली बार जब मैं उसे डायलिसिस के लिए ले गया तो प्रतीक्षा की घडि़यों को मैं ने व्यर्थ नहीं जाने दिया. मैं रश्मि के डाक्टर से मिलने चला गया.
‘‘डाक्टर साहब, रश्मि आप की पेशेंट है. उसी के साथ आया हूं.’’
‘‘जी, मुझे जानकारी है. रश्मि का सप्ताह में 2 बार ‘होमोडायलिसिस चल रहा है लेकिन यह स्थिति पीड़ादायक भी है और महंगी भी. मैं ने तो उन से कहा है कि शीघ्र से शीघ्र गुरदा प्रत्यारोपण के बारे में निर्णय लें.’’ डाक्टर ने कहा.
‘‘उसी सिलसिले में आप से बात करने आया हूं. मैं उस के लिए गुरदा दान करने को तैयार हूं,’’ मैं ने अपना मंतव्य बताया.

‘‘बहुत अच्छी बात है और इस से भी अच्छी बात है कि आप लोगों ने समय से निर्णय ले लिया है. आप कौन हैं रश्मि के?’’ डाक्टर के इस प्रश्न ने मुझे सोच में डाल दिया. मैं ने सोचा, सारी बातें सचसच बता ही देता हूं. मैं ने कहा, ‘‘मैं रश्मि का कुछ लगता नहीं हूं.’’ इतना ही कहा था मैं ने.
‘‘यानी, आप रश्मि के भाई या पति नहीं हैं?’’ डाक्टर कुछ हैरान हुए.
‘‘मैं उस का हृदय से दोस्त हूं. यदि गुरदा दान करने के लिए रक्त के रिश्ते की प्राथमिकता और आवश्यकता है तो मैं उस से विवाह कर लूंगा और एक पति के रूप में खुद को प्रस्तुत करूंगा.’’
डाक्टर मेरे इस प्रस्ताव को सुन कर सोच में पड़ गए.
‘‘आप का निर्णय मानवीय और भावनात्मक दृष्टिकोण से तो अत्यंत ही स्वागतयोग्य है लेकिन इस में कुछ व्यावहारिक, चिकित्सकीय और वैधानिक प्रक्रियाओं से गुजरना होगा. आप के इस प्रस्ताव को मैं ‘गुरदा प्रत्यारोपण समित’ के समक्ष प्रस्तुत करूंगा. वे ही आप के इस निवेदन को स्वीकृति देंगे तब हम आप की और रश्मि की चिकित्सकीय जांचों के लिए आगे बढ़ेंगे,’’ डाक्टर ने कहा.
‘ऐसी लंबी प्रक्रिया क्यों और इस में इतनी बाधाएं क्यों हैं? क्या एक पति अपनी पत्नी को गुरदा दान नहीं कर सकता जब उस की जान पर बन आई हो?’’ मैं कुछ आवेश में आ गया.

‘‘अमितजी, मैं समझ सकता हूं कि आप के निर्णय में कहीं कोई नहीं है. लेकिन आज की दुनिया में गुरदा प्रत्यारोपण को कई लोगों ने एक बिजनैस बना लिया है. इसीलिए सघन जांच के बाद ही निर्णय लिया जाता है जिस में ‘सोटो’ यानी स्टेट औरगन एंड टिश्यू ट्रासंप्लांट और्गेनाइजेशन के दिशानिर्देशों का कड़ाई से अनुपालन किया जाता है,’’ डाक्टर ने मुझे मेरी बातों का जवाब दे कर समझाया.
‘‘तो आप मेरे लिए क्या सलाह देना चाहेंगे?’’ मैं ने पूछा.
‘‘आप हताश मत होइए. पहले रश्मि और उन के जो भी उपलब्ध अभिभावक हों, उन से मिल कर अपने विचार और निर्णय को साझा कीजिए. यदि विवाह में कोई बाधा न हो तो पहले यह शुभकार्य कीजिए. अपने विवाह को रजिस्टर्ड भी कराइए. इस के बाद आप लोग मु?ा से मिलिए, जो भी संभव सहायता होगी, मैं करूंगा. डाक्टर के रूप में मैं भी यही चाहूंगा कि किसी की प्राणरक्षा की जा सके,’’ डाक्टर साहब ने संतुलित उत्तर दिया.
डायलिसिस पूरी हुई तो मैं रश्मि को ले कर उस के घर आया. वह मेरे चेहरे को देख कर भांप गई कि मैं किसी उलझन में हूं, पूछ बैठी, ‘‘क्या बात है, बहुत चिंतित दिखाई दे रहे हो?’’

मैं ने रश्मि को सारी बातें बता दीं. सुनने के बाद उस ने कहा, ‘‘मैं तो कह ही रही हूं जैसे मैं जी रही हूं वैसे ही मुझे जीने दो. भावुकता और मोह में आ कर तुम अपना भी जीवन नष्ट कर लोगे. मैं ने भी ढेरों जानकारियां जुटाई हैं,’’ वह बोली.
‘‘तुम्हारे पास कौन सी जानकारी है?’’ मैं ने पूछा.
‘‘कहते हैं कि डायलिसिस के साथ का जीवन बहुत सफलतापूर्वक बीता तो शायद अधिकतम 10 वर्ष तक और गुरदा प्रत्यारोपण बेहद सफल रहा तो अनेक परहेजों, नियंत्रित जीवन और लंबे समय तक चलने वाली दवाओं के साथ भी जीवन की अवधि पंद्रहबीस वर्षों तक भी चल गई तो समझ बहुत जी लिया पर यह एक सामान्य जीवन नहीं होगा,’’ रश्मि के इन शब्दों में पीड़ा और विवशता झलक रही थी.

रश्मि की बातें सच थीं या नहीं, मैं इस अंतर्द्वद्व में पड़ना ही नहीं चाहता था. मैं ने निश्चय कर लिया था कि उस से विवाह कर के खुशियों का एक छोटा सा अंग उसे जरूर दूंगा. मेरे इस हठपूर्ण निर्णय के आगे रश्मि की एक न चली. उस ने अपनी भाभी और भतीजी को कुल चार दिनों के लिए बुला लिया और हम बिना किसी दिखावे के एकदूसरे के हो गए.

रश्मि की भाभी ने उस से कहा, ‘‘अब तुम्हारे 2 घर हो गए. लेकिन आज तुम्हें अपनी ससुराल अवश्य जाना चाहिए. एक नवदंपती के नवजीवन का प्रारंभ तभी आनंददायक होगा. जब केवल वे तीनों ही साथ हों.’’

रश्मि मेरे घर आई. कुछ देर बेहद खामोशी से हम दोनों एकदूसरे को देखते हुए बैठे रहे. एकाएक रश्मि उठी और दौड़ कर मेरे सीने से लग कर रोने लगी. यह उस के अनुराग की पवित्रतम प्रस्तुति थी. मैं ने भी भावविभोर हो कर अपने हृदय में उसे भींच लिया. न मेरे पास कुछ खोने को था, न उस के पास कुछ खोने को था. हां, हम दोनों के पास यों मिल कर पाने को शायद बहुतकुछ था.

बस, कुछ ही दिनों बाद हम दोनों अब पतिपत्नी के रूप में डाक्टर से मिले. उन्होंने भी हमें सराहना और सांत्वना के शब्दों से प्रोत्साहित किया. मैं जो आवेदनपत्र अपने साथ लाया था, उसे मैं ने डाक्टर साहब को सौंप दिया. अस्पताल के कुछ प्रपत्र उन्होंने भी दिए जो मुझे भर कर देने थे.

उन्होंने एक बार फिर सारी बातें दोहराईं, प्रक्रियाओं और औपचारिकताओं की जानकारी दी. उन्होंने हमें गुरदा प्रत्यारोपण के बारे पक्षों को समझाते हुए यह भी कहा, ‘‘मैं आप लोगों की भावनाओं के साथ हूं. चिकित्सा विज्ञान रोज ही नएनए चमत्कार कर रहा है. अनेक देशों में इस समस्या के समाधान के लिए शोध किए जा रहे हैं और आशा है कि आने वाले वर्षों में चिकित्सा विज्ञान ऐसे रोगियों के लिए ‘आर्टिफिशियल वियरेबल किडनी’ यानी कृत्रिम किडनी भी तैयार कर लेगा. तब तक डायलिसिस कराते रहिए और आशावान रहिए,’’ डाक्टर साहब के इन शब्दों ने मानो हमारे अंदर आशा की एक नई ऊर्जा भर दी.

मैं ने रश्मि का हाथ पकड़ा. एक सुखद भावना और एकदूसरे के प्रति प्रेम के आवेग व समर्पण की निश्छल संवेदना लिए हम उस पथ पर बढ़ चले जिस पर प्रकाश ही प्रकाश था. आहत अतीत और अनदेखे आगामी भय का धुआं छंटने लगा था. Hindi Love Stories

Romantic Story In Hindi : स्वीकार – प्रेमियों के अनकहे शब्द

Romantic Story In Hindi : अभिमन्यु और अनूमेहा एकदूसरे के करीब खड़े थे. कहना बहुतकुछ चाहते थे लेकिन जबान से शब्द ठहरठहर कर निकल रहे थे. यही तो था प्यार.

शाम का धुंधलका धीरेधीरे सैमिनार हौल के बाहर फैल रहा था. 3 दिनों का यह साहित्य और संस्कृति सैमिनार अपनी समापन बेला पर था. हौल में तालियों की गूंज थम चुकी थी. लोग अब अपनेअपने बैग समेट कर विदाई की तैयारी में थे. अभिमन्यु अपनी नोटबुक को बैग में रखते हुए अजीब सी बेचैनी महसूस कर रहा था. उस का मन बारबार अनूमेहा की ओर खिंच रहा था, जो हौल के दूसरे कोने में कुछ सहभागियों से हंसते हुए बातें कर रही थी.

3 दिनों पहले जब वह पहली बार अनूमेहा से मिला था तो उसे नहीं पता था कि यह मुलाकात उस के दिल में इतनी गहरी छाप छोड़ेगी. अनूमेहा की मुसकान, उस की बुद्धिमत्ता और सब से बढ़ कर उस की वो नजरें जो हर बार अभिमन्यु से कुछ कहना चाहती थीं- ये सब अब उस के मन में एक मधुर संगीत की तरह गूंज रहा था. लेकिन आज, विदाई की इस बेला में, एक सवाल उस के मन को मथ रहा था : क्या यह सब यहीं खत्म हो जाएगा?

‘अभिमन्यु,’ अनूमेहा की आवाज ने उसे विचारों के भंवर से बाहर खींचा.
वह मुसकराते हुए उस की ओर बढ़ी अपने दुपट्टे को कंधे पर ठीक करते हुए बोली, ‘‘किस सोच में डूबे हो? सैमिनार खत्म हो गया, अब तो खुश होना चाहिए.’’
अभिमन्यु हलके से मुसकराया, लेकिन उस की आंखों में एक गंभीरता थी, बोला, ‘‘खुशी तो है, लेकिन थोड़ा सा खालीपन भी है.’’
अनूमेहा ने उस की बात को ध्यान से सुना, फिर धीरे से बोली, ‘‘खालीपन? क्यों? कुछ छूट रहा है क्या?’’
उस के इस सवाल ने अभिमन्यु के दिल की धड़कन तेज कर दी. वह चाहता था कि कह दे हां, तुम छूट रही हो. लेकिन शब्द उस के गले में अटक गए. उस ने बस इतना कहा, ‘‘शायद, कुछ खास पल.’’
अनूमेहा ने एक पल के लिए उस की आंखों में देखा, जैसे वह उस के मन की बात पढ़ लेना चाहती हो. फिर, हलका सा हंसती हुई बोली, ‘‘तो उन पलों को और खास क्यों न बनाया जाए? चलो, बाहर बगीचे में थोड़ी देर टहलते हैं.’’
सैमिनार हौल के पीछे एक छोटा सा बगीचा था, जहां गुलमोहर के पेड़ों की छांव में हलकी ठंडी हवा बह रही थी. दोनों चुपचाप चल रहे थे, लेकिन उन की चुप्पी में एक अजीब सा संवाद था.
आखिरकार, अनूमेहा ने चुप्पी तोड़ी. ‘‘अभिमन्यु, तुम्हें याद है, पहले दिन जब हमारी बहस हुई थी काव्य और गद्य पर?’’ वह हंसती हुई बोली, ‘‘मुझे लगा था, तुम कितने जिद्दी हो.’’
अभिमन्यु हंस पड़ा, ‘‘और मुझे लगा था, तुम कितनी समझदार हो और थोड़ी सी नटखट भी.’’
अनूमेहा ने उस की ओर देखा, उस की आंखों में एक शरारत थी. ‘‘नटखट? अच्छा, तो अब तुम मुझे जज करने लगे?’’
‘‘नहीं, जज नहीं,’’ अभिमन्यु ने गहरी सांस लेते हुए कहा, ‘‘बस, तुम्हें समझने की कोशिश कर रहा हूं.’’
अनूमेहा रुक गई. उस ने अभिमन्यु की ओर देखा, इस बार उस की मुसकान में एक गहराई थी, ‘‘और, कितना समझ पाए?’’

अभिमन्यु का दिल जोर से धड़का. यह वही पल था जिस का वह इंतजार कर रहा था. वह रुक गया, हिम्मत जुटा कर बोला, ‘‘यह समझ पाया कि तुम वो किताब हो जिसे मैं बारबार पढ़ना चाहता हूं, लेकिन डरता हूं कि कहीं उस का आखिरी पन्ना न आ जाए.’’

अनूमेहा की आंखें चमक उठीं. उस ने हलके से सिर झुकाया जैसे वह अभिमन्यु की बात को अपने दिल में उतार रही हो. फिर, धीरे से बोली, ‘‘और अगर मैं कहूं कि यह किताब अभी पूरी नहीं लिखी गई है?’’

अभिमन्यु ने एक कदम उस की ओर बढ़ाया. उस की आवाज में गर्मजोशी थी. ‘‘तो मैं कहूंगा, क्या मैं इसे लिखने में तुम्हारा साथ दे सकता हूं?’’

बगीचे में एक पल के लिए सन्नाटा छा गया. हवा में गुलमोहर के फूल हलके से लहराए. अनूमेहा ने अभिमन्यु की आंखों में देखा और उस की मुसकान ने सारी बात कह दी. ‘‘शायद, हम कोशिश कर सकते हैं.’’

रात के सितारे अब आसमान में चमक रहे थे. विदाई की बेला तो थी लेकिन अभिमन्यु और अनूमेहा के बीच एक नई शुरुआत हो चुकी थी. हौल के बाहर जब अनूमेहा अपनी गाड़ी की ओर बढ़ी, उस ने पलट कर अभिमन्यु को देखा और कहा, ‘‘कल कौफी? तुम्हारा पसंदीदा कैफे, 4 बजे.’’ अभिमन्यु ने मुसकराते हुए सिर हिलाया, ‘पक्का.’

जैसे ही अनूमेहा की गाड़ी दूर हुई, अभिमन्यु ने आसमान की ओर देखा. उस का दिल एक सवाल के जवाब से भरा था तो एक नई कहानी की शुरुआत से धड़क भी रहा था.

लेखक : संजय सिंह चौहान

Social Story In Hindi : आंसू छलक आए – क्या अरुण समझ पाए प्रेमशंकर की बातें?

Social Story In Hindi : ‘‘देखो विनोद, अगर तुम कल्पना से शादी करना चाहते हो, तो पहले तुम्हें अपने पिता से रजामंदी लेनी पड़ेगी…’’ प्रेमशंकर ने समझाते हुए कहा, ‘‘शादी में उन की रजामंदी होना बहुत जरूरी है.’’

‘‘मगर अंकल, वे इस की इजाजत नहीं देंगे,’’ विनोद ने इनकार करते हुए कहा.

‘‘क्यों नहीं देंगे इजाजत?’’ प्रेमशंकर ने सवाल पूछा, ‘‘क्या तुम उन्हें समझाओगे नहीं?’’

‘‘मैं अपने पिता की आदतों को अच्छी तरह से जानता हूं. वे कभी नहीं समझेंगे और हमारी इस शादी के लिए इजाजत भी नहीं देंगे…’’ एक बार फिर इनकार करते हुए विनोद बोला, ‘‘आप उन्हें समझा दें, तो अच्छा रहेगा.’’

‘‘मेरे समझाने से क्या वे मान जाएंगे?’’ प्रेमशंकर ने पूछा.

‘‘हां अंकल, वे मान जाएंगे,’’ यह कह कर विनोद ने गेंद उन के पाले में फेंक दी.

विनोद प्रेमशंकर के मकान में किराएदार था. उसे अभी बैंक में लगे 2 साल हुए थे. इन 2 सालों में विनोद ने किराए के मामले में उन्हें कभी दिक्कत नहीं पहुंचाई थी. एक तरह से उन के घरेलू संबंध हो गए थे.

विनोद के बैंक में ही कल्पना काम करती थी. उसे भी बैंक में लगे तकरीबन 2 साल हुए थे. उम्र में वे दोनों बराबर के थे. दोनों कुंआरे थे. दोनोें में कब प्यार पनपा, पता ही नहीं चला.

वे एकदूसरे के कमरे में घंटों बैठे रहते थे. दोनों ही तकरीबन 2 हजार किलोमीटर दूर से इस शहर में नौकरी करने आए थे.

कभीकभी कल्पना की मां जरूर उस के पास रहने आ जाती थीं. तब कल्पना मां से कोई बहाना कर के विनोद के कमरे में आती थी. प्रेमशंकर यह सब जानते थे.

जब कल्पना घंटों विनोद के कमरे में बैठी रहती, तब प्रेमशंकर को लगा कि उन दोनों में प्यार की खिचड़ी पक रही है.

एक दिन मौका देख कर उन्होंने विनोद से खुल कर बात की. नतीजा यही निकला कि विनोद के पिता इस शादी के लिए कभी राजी नहीं होंगे, क्योंकि वह ऊंची जाति का था, जबकि कल्पना निचली जाति की थी.

प्रेमशंकर बोले, ‘‘ठीक है विनोद, अगर तुम कल्पना से शादी करना चाहते हो, तो तुम्हें अपने मातापिता को भरोसे में लेना होगा.’’

मगर विनोद इनकार करते हुए बोला, ‘‘अंकल, वे इस शादी के लिए कभी इजाजत नहीं देंगे.’’

तब प्रेमशंकर ने कहा था, ‘‘आखिर वे भी तो इनसान हैं, कोई जानवर नहीं. तुम उन्हें बुलाओ. अगर वे नहीं आएंगे, तो मैं चलूंगा तुम्हारे साथ उन को समझाने…’’

इस तरह प्रेमशंकर बिचौलिया बनने को राजी हो गए.

विनोद के बुलाने पर पिता अरुण आ गए. साथ में उन की पत्नी मनोरमा भी थीं. प्रेमशंकर ने उन्हें अपने घर में इज्जत से बिठाया.

अरुण बोले, ‘‘बताइए प्रेमशंकर साहब, हमें किसलिए बुलाया है?’’

‘‘अरुण साहब, आप को खास वजह से ही यहां बुलाया है.’’

‘‘खास वजह… मैं समझा नहीं…’’ अरुण बोले, ‘‘जो कुछ कहना है, साफसाफ कहें.’’

‘‘ठीक है, पर इस के लिए आप को दिल थोड़ा मजबूत करना होगा.’’

‘‘मजबूत से मतलब?’’ अरुण ने हैरान हो कर पूछा.

‘‘मतलब यह कि आप ने विनोद की शादी के बारे में क्या सोचा है?’’

‘‘उस के लिए मैं ने एक लड़की देख ली है प्रेमशंकरजी. अब विनोद की हां चाहिए और उस की हां के लिए मैं यहां आया हूं,’’ यह कह कर अरुण ने प्रेमशंकर को अजीब सी निगाह से देखा.

‘‘अगर मैं कहूं कि विनोद ने अपने लिए लड़की देख ली है, तो…’’

‘‘क्या कहा, विनोद ने अपने लिए लड़की देख ली है?’’

‘‘जी हां अरुण साहब, अब आप का क्या विचार है?’’

‘‘कौन है वह लड़की?’’ अरुण ने पूछा.

‘‘उस के साथ बैंक में ही काम करती है. उस का नाम कल्पना है. आप इस पर क्या कहना चाहते हैं?’’

‘‘मतलब, विनोद कल्पना से शादी करना चाहता है?’’

‘‘हां,’’ इतना कह कर प्रेमशंकर ने अरुण के दिल में हलचल पैदा कर दी.

‘‘वह किस जाति की है? क्या समाज है उस का?’’ अरुण जरा गुस्से से बोले.

‘‘वह निचली जाति की है,’’ प्रेमशंकर ने बिना किसी लागलपेट के कहा.

‘‘क्या कहा, वह एक दलित घर से है? मैं यह शादी कभी नहीं होने दूंगा…’’ अरुण ने गुस्से में साफ मना कर दिया, फिर आगे बोले, ‘‘अरे प्रेमशंकरजी, शादीब्याह अपनी ही बिरादरी में होते हैं.’’

‘‘हांहां, होते हैं अरुणजी, मगर आप जिस जमाने की बात कर रहे हैं, वह जमाना गुजर गया. यह 21वीं सदी है.’’

‘‘हां, मैं भी जानता हूं. मुझे समझाने की कोशिश न करें.’’

‘‘जब आप इतना जानते हैं, तब इस शादी के लिए मना क्यों कर रहे हैं?’’

‘‘मैं अपने बेटे की गैरबिरादरी में शादी करा कर बिरादरी पर दाग नहीं लगाना चाहता. मैं यह शादी हरगिज नहीं होने दूंगा.’’

प्रेमशंकर मुसकराते हुए बोले, ‘‘तो आप विनोद की शादी अपनी ही बिरादरी में करना चाहते हैं?’’

‘‘हां, क्या आप को शक है?’’

‘‘आप विनोद से तो पूछ लीजिए.’’

‘‘पूछना क्या है? वह मेरा बेटा है. मेरा कहना वह टाल नहीं सकता.’’

‘‘अपने बेटे पर इतना भरोसा है, तो पूछ लीजिए उस से कि वह आप की पसंद की लड़की से शादी करेगा या अपनी पसंद की लड़की से,’’ कह कर प्रेमशंकर ने भीतर की तरफ इशारा कर के कहा, ‘‘विनोद, यहां आ जाओ.’’

भीतर बैठे विनोद और कल्पना इसी इंतजार में थे. वे दोनों बाहर आ गए. अरुण कल्पना को देखते रह गए.

प्रेमशंकर बोले, ‘‘पूछ लो अपने बेटे से… यह वह कल्पना है, जिस से यह शादी करना चाहता है.’’

‘‘क्यों विनोद, यह मैं क्या सुन रहा हूं?’’ विनोद के पापा अरुण बोले.

‘‘जो कुछ सुन रहे हैं, सच सुन रहे हैं पापा,’’ विनोद ने कहा.

‘‘तुम इस कल्पना से शादी नहीं कर सकते,’’ अरुण ने कहा.

‘‘पापा, मैं शादी करूंगा, तो इस से ही,’’ विनोद बोला.

‘‘मैं तुम्हारी शादी इस लड़की से हरगिज नहीं होने दूंगा.’’

‘‘मैं शादी करूंगा, तो सिर्फ कल्पना से ही.’’

‘‘ऐसा क्या है, जो तुम इस की रट लगाए हुए हो?’’

‘‘कल्पना मेरा प्यार है.’’

‘‘प्यार… 2-4 मुलाकातों को तुम प्यार समझ बैठे हो?’’ चिल्ला कर अरुण बोले, ‘‘कान खोल कर सुन लो विनोद, तुम्हारी शादी वहीं होगी, जहां हम चाहेंगे.’’

‘‘पापा सच कर रहे हैं विनोद…’’ मां मनोरमा बीच में ही बात काटते हुए बोलीं, ‘‘यह लड़की हमारी जातबिरादरी की भी नहीं है. इस से शादी कर के हम समाज में अपनी नाक नहीं कटा सकते हैं, इसलिए इस के साथ शादी करने का इरादा छोड़ दे.’’

‘‘मां, मेरे इरादों को कोई बदल नहीं सकता है. शादी करूंगा तो कल्पना से ही, किसी दूसरी लड़की से नहीं.’’

अपना फैसला सुना कर विनोद कल्पना को ले कर घर से बाहर चला गया.

पलभर के सन्नाटे के बाद प्रेमशंकर बोले, ‘‘अब क्या सोचा है अरुण साहब? अब भी आप इस शादी से इनकार करते हैं?’’

‘‘यह सब आप लोगों की रची हुई साजिश है. आप ने ही मेरे बेटे को बरगलाया है, इसलिए आप उस का ही पक्ष ले रहे हैं,’’ कह कर अरुण ने अपनी बात पूरी की.

‘‘अरुण साहब सोचो, विनोद कोई दूध पीता बच्चा नहीं है…’’ प्रेमशंकर समझाते हुए बोले, ‘‘आप उसे डराधमका कर अपने वश में कर लेंगे, यह भी मुमकिन नहीं है. वह नौकरी करता है, अपने पैरों पर खड़ा है. वह अपना भलाबुरा समझता है.

‘‘वह मेरे यहां किराएदार बन कर जरूर रह रहा है, मगर मैं उस को पूरी तरह समझ चुका हूं कि वह समझदार है. वैसे, वह आप की भावनाओं को भी समझता है. मगर वह शादी करेगा, तो कल्पना से ही. इस के पहले मैं भी यह सब बातें उसे समझा चुका हूं, इसलिए आप उसे समझदार समझें.’’

‘‘क्या खाक समझदार है भाई साहब…’’ मनोरमा झल्ला कर बोलीं, ‘‘वह उस लड़की को अपने साथ ले गया है. कहीं वह गलत कदम न उठा ले. सुनो जी, उस की शादी वहीं करो, जहां हम चाहते हैं.’’

‘‘भाभीजी, विनोद ऐसावैसा लड़का नहीं है, जो गलत कदम उठा ले…’’ प्रेमशंकर समझाते हुए बोले, ‘‘अरुण साहब, अगर आप उस पर दबाव डाल कर शादी कर भी देंगे, तब वह बहू के साथ वैसा बरताव नहीं करेगा, जो आप चाहेंगे. दिनरात उन में कलह मचेगी और आपस में मनमुटाव होगा.

‘‘अगर आप उन की मरजी से शादी नहीं करोगे, तब वे कोर्ट में ही शादी कर सकते हैं, क्योंकि कोर्ट उन्हीं का पक्ष लेगा. इसलिए आप सोचिए मत. मेरा कहना मानिए, इन की शादी आप आगे रह कर करें और पिता की जिम्मेदारी से छुटकारा पा जाएं.’’

‘‘मगर इस शादी से समाज में हमारी कितनी किरकिरी होगी, यह आप ने सोचा है?’’ एक बार फिर अरुण अपनी बात रखते हुए बोले.

‘‘समाज तो दोनों हाथों में लड्डू रखता है. थोड़े दिनों तक समाज ताना दे कर चुप हो जाएगा. इस बात पर जितना विचार कर के गहराई में उतरेंगे, उतनी ही तकलीफ उठाएंगे.

‘‘आप अपनी हठ छोड़ दें. इस के बावजूद भी आप अपनी जिद पर अड़े हो, तो विनोद की शादी अपनी देखी लड़की से कर दो. मैं इस मामले में आप से कुछ नहीं बोलूंगा,’’ प्रेमशंकर के ये शब्द सुन कर अरुण के सारे गरम तेवर ठंडे पड़ गए.

वे थोड़ी देर बाद बोले, ‘‘ठीक है प्रेमशंकरजी, मैं अपनी हठ छोड़ता हूं. विनोद कल्पना से शादी करना चाहता है, तो इस के लिए मैं तैयार हूं.’’

‘‘ओह, शुक्रिया अरुण साहब,’’ कह कर प्रेमशंकर की आंखों में खुशी के आंसू छलछला आए. Social Story In Hindi

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